03-08-16 मुरली कविता


परचिन्तन छोड़ करो अपना कल्याण
सोने जैसा बन बताओ सबको रास्ता
अशरीरी बनने वाले नही करते हठ
उनकी कर्मेन्द्रिया स्वतः हो जाती शीतल
नाम रूप का नही होता उनको नशा
देह-अभिमान छोड़ ,आत्मा भाई-भाई
की रहती स्मृति
पुरानी दुनिया से उठाना अपना लंगर
डबल ताज तख्तनशीन की कर्मेन्द्रिया करती जी हुज़ूर
अकालतखत्नशीन सो होते दिलतखत्नशीन
कमज़ोर संकल्प ही प्रसन्नचित के बजाए

ॐ शांति!!!
मेरे बाबा!!!