मुरली कविता दिनांक 10.12.2017


रावण कहाँ गया पांच विकारों की आग लगाकर

किस बिल में छुप गया जग में अशांति फैलाकर

जगह जगह ढूंढो उसको वो कहीं पर तो मिलेगा

उसको मारकर ही खुशियों का गुलशन खिलेगा

ढूंढा सारे जग में लेकिन रावण कहीं नहीं मिला

सारे जग में रावण के संस्कारों का ही वंश मिला

हमसे ही लिखवा रहा है हमारे विकर्मों का लेखा

देखा सारा संसार किंतु अपने मन को नहीं देखा

मन में बैठकर रावण हमारी सर्व शक्तियाँ चुराता

छीनकर गुण सारे हमको गुणों से कंगाल बनाता

हमारे पवित्र मन को विकर्मों के लिए उकसाता

देहाभिमान जगाकर हमें पूरा ही पतित बनाता

रावण की इन कुटील करतूतों को हम जान गए

उसकी सारी धोखेबाजियों को हम पहचान गए

रावण के किसी वार से अब कभी ना हम हारेंगे

आत्मिक जगाकर हम अपने देहभान को मारेंगे

रावण रूपी दुश्मन को हम अवश्य धुल चटा देंगे

आधे कल्प के लिए रावण को जड़ से मिटा देंगे

अपने अंतिम जीवन की यह सुन्दर रीत बनाएंगे

परमपिता के प्रति सच्चे दिल से प्रीत निभाएंगे

ॐ शांति