Murli Revision - Bk Dr. Sachin - 23-1-2022


ओम शांति

एक सत्य घटना से इस सत्र की शुरुआत करते हैं। जब भी कोई महान योगी बनता है, महान तपस्वी बनता है, किसी क्षेत्र में महानता को प्राप्त करता है, चाहे वह अध्यात्म हो या भौतिक। बाद में आने वाली पीढ़ियां संपूर्णता और संपन्नता, perfection उन पर थोप देती हैं, कि वो पहले से ही वैसे थे। पर उनके जीवन में भी पुरुषार्थ होता है। उनके जीवन में भी उनकी कमियां, उनकी कमजोरियां होती हैं, जिन पर उन्होंने बहुत मेहनत की होती है।

इस विश्व रंगमंच पर महान तपस्वी, महान योगी होकर गए हैं। ऐसे ही एक महान तपस्वी कभी थे, जो कि 160 वर्ष तक जिए थे। अंग्रेजी में एक किताब, अभी-अभी कुछ समय पहले, 2014 में प्रकाशित हुई थी। जिसका नाम था - An Incredible life of an himalayan yogi times teachings and life of living shiva - baba loknath brahmchari. इस किताब में, यह जो महान योगी है, उसके विषय में लिखा गया है। चैप्टर 4.... A lesson in maya. दो शिष्य हैं - एक लोकनाथ और उसका साथी बेनी माधव। गुरु दोनों के द्वारा...तपस्या करा रहा है। दोनों को संसार से दूर जंगल में रखता है । और वो दोनों साधक कड़ी तपस्या कर रहे हैं। दिन भर ध्यान, मौन, एकांत, ब्रम्हचर्य, उपवास और बहुत सी बातें। वह गुरु खुद गांव में जाता है, भिक्षा अर्जन करता है, ले आता है पर अपने शिष्यों को नही जाने देता, वो शिष्य कई बार कहते हैं कि हम जवान हैं, हम जाएंगे, वो कहते हैं नहीं….! सांसारिक व्यक्तियों के संपर्क से तुम्हारे मन की एकाग्रता भंग हो सकती है।  साधना काल में साधक को.. सभी बाह्य सांसारिक बातों से दूर रहना चाहिए। मन…. मौन और एकांत में ही सूक्ष्म होते जाता है। वो सारी चीजों को पकड़ पाता है, जो एक वाचाल व्यक्ति, बोलने वाला व्यक्ति, हजार चीजों में उलझा हुआ व्यक्ति नहीं कर पाता। उस किताब में लिखा है, चैप्टर 3 गुरु उन्हें उपवास कराते है गुरु। शुरुआत में 1 दिन का उपवास, रात में भोजन। जब उसमें मास्टरी हो जाती है 2 दिन का उपवास दूसरे दिन रात में भोजन। जब उसमें मास्टरी हो जाती है, 3 दिन का तीसरे दिन रात्रि भोजन। जब उसमें उनकी मास्टरी हो जाती है फिर 5 दिन । फिर नवरात्रि, द्वादश 12 दिन। फिर 15 दिन। वो दोनों ही शिष्य इतने एकाग्र है कि धीरे-धीरे सारी परीक्षा पास करते हैं। अगली परीक्षा एक मास का उपवास। उसके बाद कई बार , जो बेनी माधव होता है वह यह नहीं कर पाता, पर ये जो लोकनाथ होता है वह ये कर पाता है। तो ऐसी कड़ी साधना मौन, बैठा हुआ ध्यान, दिन में 10 से 12 घंटे संसार से कोई संपर्क नहीं केवल तपस्या। ऐसी कड़ी तपस्या के बाद, सन्यास में नियम है कि संयास लेने के 12 साल बाद अपने लौकिक गाँव, घर जाए। उसके दो कारण एक जिस भूमि से मैं निकला उसका धन्यवाद और दूसरा…. कितना विद्राग हो चुका है वह, उसकी परीक्षा क्योंकि राग की जड़े बड़ी सूक्ष्म और गहरी होती हैं। ऐसे यह दोनों ब्रह्मचारी, यह दोनों योगी अपने गुरु के साथ लोकनाथ के गांव में आते हैं । वहां रहने लगते हैं और मुख्य कहानी यहां से चालू होती हैं ।
उनके उसी झोपड़ी और उसी आश्रम के बाजू में ही लोकनाथ  जब लौकिक में था तो उसकी एक फ्रेंड, एक दोस्त थी। वह बहन अब विधवा हो चुकी है। जवान है, यंग विडो वहां रहती हैं और वह जैसे ही लोकनाथ को देखती है, पुरानी यादें आ जाती हैं। लोकनाथ तो ब्रह्मचारी है, तपस्वी है, सन्यास ले चुका है और इतनी कठोर साधना करके लौटा है घर । वह भी घर नहीं आश्रम । वह जो कुटिया बनाई वहां। उसे भी बहुत खुशी होती है उसे देख कर। पुरानी यादें…। रोज मिलते हैं…। वह बहन बहुत साध्वी जैसी है। स्वीकृति मांगती है लोकनाथ से और उसके गुरु से भी इन दो शिष्यों की वह सेवा करें और बहुत मन लगाकर सेवा भी करती है। पर धीरे-धीरे, वो जो लोकनाथ हैं और वह जो बहन है जिनकी पहले ही बचपन में दोस्ती थी, लगाव बढ़ने लगता है, आकर्षण बढ़ने लगता है। पहले घंटो घंटो बैठ जाता था वह ध्यान में। अब जब बैठता है तब उसके साथ हुआ वार्तालाप, उसके साथ हुई बातचीत उसे याद आती हैं। उसे डिस्टर्ब करती हैं। कई बार तो उठ कर जाकर उससे बात भी करके आता है। कई बार उनकी बातें होती हैं। उनके गुरु साक्षी भाव से सब देख रहे हैं। इंटरफेयर नहीं करते। एक समय था जब गुरु कहते थे कि शहर में जाना भी नहीं है, परंतु अब वो चुपचाप देख रहे हैं, क्योंकि उसे पता है। लोकनाथ के द्वारा बहुत सेवा होने वाली है। वह स्पिरिचुअल लाइट बनने वाला है और उसके जीवन में भी एक गांठ है। किसी जन्म की, किसी आत्मा के साथ उसका हिसाब  है जो उसे खींच रहा है और उसे उसके थ्रू जाना ही पड़ेगा ।

लोकनाथ.. खो जाता है उस बहन के साथ यादों में उसकी….और देखते-देखते.. 3 वर्ष बीत जाते हैं। और 1 दिन उसे अचानक रियलआइज होता है… यह मैं क्या कर रहा हूं। यहां में किस लिए आया था। किस लिए वैरागी बना था। किस लिए सन्यास लिया था। और यह सब क्या है, व्यर्थ। वो अपने गुरु से कहता है, यहां से अब किसी दूसरे गांव चलते हैं। गुरु तो सुनता ही नहीं। ऐसे दिखाता है, कि सुना भी अनसुना कर दिया। वह कई बार कहता है, कि हमें यहां से चलना चाहिए। गुरु देख, सुनते ही नहीं। पर फिर धीरे-धीरे वो थोड़ा जोर से कहता है कि नहीं हमें यहां से चलना ही चाहिए। गुरु कहता है ठीक है एक-दो दिन के बाद जाएंगे। फिर कहता है कुछ दिनों के बाद कि चले? गुरु कहता है नहीं अभी कुछ दिनों के बाद। फिर कहता है चले? गुरु कहता है और थोड़े दिनों के बाद। और फिर अब उसे गुस्सा आने लगता है। वो कहता है हमको यहां से जाना ही चाहिए गुरु कहता है मैं बीमार हूं, कुछ दिनों के बाद चलेंगे। फिर पूछता है तो कहता है मेरे पेट में दर्द हो रहा है। हर बार बीमारी का कारण बनाता है गुरु। फिर कहता है यहां से हमे जाना ही चाहिए वह कहता है देखते हैं अभी आज थोड़ा ठीक नहीं  आज तबीयत थोड़ी ठीक नहीं लग रहा दो-तीन दिन बाद चलते हैं दो-तीन दिन बाद फिर पूछता है फिर कहते हैं मैं बीमार हूं। वो लोकनाथ इतना क्रोध में आता है, कहता है अगर आप पूरे गांव में घूमते हो भिक्षा मांगते हो तब आप बीमार नहीं हो और जब मैं यहां से इस शहर से बाहर जाने की बात करता हूँ तब आप बीमार हो जाते हो। वो डंडा लेता है और गुरू को मारने निकलता है। कहता है आज मैं आपको भी मार दूंगा खुद को भी मार दूंगा । यहां से अगर आप नहीं जाएंगे तो गुरु भाग जाता है । वह गुरु के पीछे । गुरु वापस आ जाते हैं। दूसरे दिन गांव छोड़कर निकल पड़ते हैं। वह कहता है मैं इतने दिनों से कह रहा हूं आप इस गांव को छोड़ो, आपने क्यों नहीं छोड़ा? वह कहता है, कल जिस ढंग से तुमने कहा…. वह जागरण का क्षण था । बस वही क्षण तुम्हारी सारी अटैचमेंट खत्म हो गई थी और उस आत्मा के साथ तुम्हारा गहरा ही साथ था । वो मैं देख रहा था । 3 साल से देख रहा था और मैंने उसमें इंटरफेयर नहीं किया, हस्तक्षेप नहीं किया । और वो और बढ़ता तो यह उसके लिए भी ठीक नहीं था। तुम्हारे लिए भी ठीक नहीं था। समाज  भी इसे स्वीकृति नहीं देता। वह आज भी विधवा है उसका जीवन अर्थात ब्रह्मचारी जीवन वो किसी सन्यासी के साथ संपर्क बढ़ाएं उसके लिए भी वह बाधा था, बाधा थी वो बात, इसलिए……..,  परंतु इसमें तुम्हें 3 साल लग गए । लिखा है… उस किताब में.. जो भी अध्यात्म में आगे बढ़ता है, उसे कहीं ना कहीं, कोई ना कोई, एक अटैचमेंट होती है, जो उसके जीवन को आगे बढ़ने नहीं देती है । और जब तक अटैचमेंट से मुक्ति नहीं, suppresion नहीं, दमन नहीं उसका….., उसको देख लेना, उसकी एक एक रग, रेशा रेशा पहचान लेना, उसका स्त्रोत कहां से उत्पन्न हो रही है । और बाद में दिखाया है वो विधवा… ये लोग तो चले जाते है, वो भी एक महान योगिनी बन जाती है। उसमें भी इस तपस्वी द्वारा परमात्मा प्रेम का बीज़ तो अंकुरित हो ही गया था। 

तो सबसे बड़ी बाधा कौन सी है – राग,  attachment, लगाव । और आत्मा न्यारी थी आत्मा न्यारी है आत्मा न्यारी रहेगी । आत्मा की ओरिजिनल नेचर क्या है ?  न्यारा पन, डिटैचमेंट, नॉन अटैचमेंट, अलगाव। आत्मा शरीर नहीं, शरीर आत्मा नहीं। जब तक उस आत्मा का अनुभव नहीं होता, तब तक ये detachment हो नहीं सकती। शरीर से detech हो जाओ। संसार से डिटैचमेंट अपने आप आ जाएगी। सबसे बड़ा योग ही अशरीरी हो जाना है। संसार में विधियां हैं अशरीरी होने की ढेर सारी, पर भगवान ने तो परम महा विधि सिखा दी कैसे? तो हर एक जो महानता की ओर जाएगा… उसे इस अटैचमेंट की बाधा को क्रॉस करना ही पड़ेगा। पहले तो स्वीकार करना पड़ेगा कि यह है। कहां है? क्यों है? किससे है? …..बंधन

छह प्रकार के बंधन गिनाए सुबह-
1.शरीर
2.व्यक्ति
3.कर्म
4.वैभव और
5.स्वभाव
6.संस्कार
7.संबंध

कहां बुद्धि है? मन और बुद्धि का क्या स्वभाव है? चक्कर लगाना । चाहे ज्ञान का लगाओ या फिर व्यर्थ का। उसका स्वभाव ही है चक्कर लगाते रहना। अगर ज्ञान में उसे नहीं खींचोगे, स्थित नहीं रखोगे तो ।स्वतः वो नीचे ही जाएगा। यदि लक्ष्य नहीं रखेंगे। इस मुरली को समझना है परमात्म महावाक्यों का अध्ययन केवल नहीं, चिंतन मनन केवल नहीं, गहरी उतर जाए ।
तीन प्रकार के संस्कार होते हैं -

(1) पहला संस्कार पानी पर लकीर जैसा हमेशा यह प्रश्न पूछा जाता है कि जो विचार मन में आते हैं क्या वह संस्कार बनाते हैं विचार आया चला गया क्या संस्कार बना हां बना परंतु कैसा पानी पर लकीर।

(2)दूसरा विचार जो लंबा समय तक रह गया या बार-बार आया वो भी संस्कार बनता है परंतु कैसा रेत पर लकीर। और

(3)तीसरा
एक विचार चाहे पवित्रता का या विकार का। एक विचार चाहे साक्षी का या लगाव या द्वेष का। एक विचार नफरत का या प्रेम का ।

कोई भी विचार जब लंबे समय तक उस पर चिंतन मनन किया जाता है तब भी संस्कार बनते हैं परंतु वह संस्कार कैसे होंगे ? पत्थर पर जैसे लकीर…. तो इसमें घबराने की बात नहीं है कि विचार मेरे मन में क्यों आया, यह तो अच्छा नहीं था, आया, चला गया। उसका स्वभाव ही आना और जाना है। साक्षी चीजें आ रही है और जा रही है। यहां पर भी आने और जाने का प्रयोग करना है आया चला गया। तटस्थ भाव से विचारों को भी देखना है। तटस्थ भाव से संबंधों को भी देखना है। तटस्थ भाव से, साक्षी के भाव से, समता के भाव से, इस संसार को देखना सम दृष्टि अच्छा बुरा, आ रहा है जा रहा है, आ रहा है जा रहा है, आ रहा है जा रहा है, उत्पन्न हो रहा है नष्ट हो रहा है, उत्पन्न हो रहा है नष्ट हो रहा है, क्षण भंगुर है, मरण धर्मा है, आ रहा है जा रहा है। विचार आया, चला गया। उसका मूल्यांकन करते नहीं बैठना है। यह खराब था, यह खराब था, यह खराब था, यह खराब था। यह क्यों आया, फिर आएगा, फिर दुखी फिर उदास ।

महान महान योगियों को भी बड़ा संघर्ष करना पड़ा सूक्ष्म में। और यदि कोई यह कहे कि इस महान आत्मा ने कोई संघर्ष नहीं किया है। यह तो बचपन से ही महान थे योगी थे, तपस्वी थे। और यह और इसी तरह की बातें हम सुनते हैं तो और आत्मग्लानि भर जाती है, कि देखो इनका जीवन कितना पवित्र, हमारा जीवन देखो कैसा। अभी भी हमारे मन में ऐसे ऐसे विचार आते हैं…. और आत्मग्लानि, और पीड़ा, और दर्द, और suppresion, और दुख। इसलिए हर एक जो इस धरातल पर है, ये बाबा लोकनाथ कब थे पता है? 1750's में। तब भी माया  थी। तब भी वही सारे आकर्षण थे। इतने साधन नहीं थे परन्तु वो काम, वो विकार, वो लगाव, वो सब वैसा ही था।  तो एक संस्कार, जो पानी पर लकीर, परंतु अगर उसका चिंतन किया गया….. पता है यह गलत है, तो छोड़ दो उसको। बस, फिर उसको चिंतन नहीं करो। मन को….. क्या कहा बाबा ने? मन बुद्धि को बिजी कर दो। बड़े लोग होते हैं उनका टाइम टेबल फिक्स होता है। सारे कल्प मैं ढूंढ कर आओ तुम से बड़ा कोई भी नहीं है। अति श्रेष्ठ हो तुम। बिजी….. मन बुद्धि बिजी हो जाए। ज्ञान में या व्यर्थ में…. ये हमारा निर्णय है, तो बिजी रहेगी तो कौन से संस्कार होंगे फिर जैसे रेत पर लकीर और तीसरा जब गहन चिंतन किया जाए योग की अवस्थाओं में विजुलाइज किया जाए देखा जाए या फिर उस अशरीरी स्थिति में जब ज्ञान का मनन  होता है वहां शब्द बहुत थोड़े होते हैं चिंतन बहुत कम परंतु अत्यंत प्रभावशाली जो आत्मा को बदल सकता है पत्थर की लकीर वाले संस्कार बनाने हैं ।  

अंतर्मन सुबह रोज गीत सुनते हैं हम अंतर्मन में ज्योति जगा ले….. सबकॉन्शियस माइंड में ज्योति जगा लो । वहां अंधेरा है, अंतर्मन में अंतर चित्त में, chitt की गहराइयों में विकार छिपे हुए हैं। सारा पुरुषार्थ ऊपर ऊपर चल रहा है । वो वहां तक नहीं पहुंचेगा। अकेली आत्मा का मार्ग है, अकेले जाने का मार्ग है ये । अत्यंत एकांत इसमें आवश्यकता है। क्रियाकलाप संसार के, टीवी, मोबाइल, संसार का सारा इंटरटेनमेंट  अध्यात्म में बाधा है । अपनी बाधाओं को पहचानना और एक-एक करके उन्हें छोड़ते जाना  है। एक बाप में ही सारा एंटरटेनमेंट है । इस संसार के फिल्म में, इस संसार के सीरियल, इस संसार के न्यूज़, सब कुछ ….सब कुछ.. आत्मा को अपने मार्ग से भटकाने वाले हैं, तो आज कौन, किस से मिल रहे है….. मुरलीधर। भक्ति मार्ग में शिव को मुरलीधर बताया है क्या?  भक्ति मार्ग में कृष्ण को मुरलीधर बताया है । यहां मुरलीधर शिव है। जो शंकर है उसको मुरलीधर नहीं बताया । उसके हाथ में त्रिशूल है, पशुपतास्त्र है, परसा है और डमरू है। ये उसके अस्त्र हैं। पर भगवान कौन है?... मुरलीधर ।  हम कौन हैं? मास्टर मुरलीधर । कौन से पक्षी हैं हम? बाबा चात्रक कह्ते हैं- चातक  शास्त्रों में लिखा है यह एसा पक्षी है, जिसे एकदम शुद्ध जल, झील… जिसमें एकदम शुद्ध पानी है, उसे वहां लेकर आओ । वह प्यासा है, फिर भी वह पिएगा नहीं । केवल बारिश की, जो पहली बूंद होगी, वही वह पिएगा । वैसे तुम भी चात्रक- चातक हो । किसलिए? प्यासे तो संसार की आत्माएं भी हैं, प्यासे हम भी हैं किस लिए….. मुरली। किस लिए …..परमात्मा मिलन के हम प्यासे हैं । दादियों को रोका जाता था सिंध हैदराबाद में दिखाते हैं…..क्या-क्या अत्याचार, जुल्म, सितम उन्होंने  सहन किया । जब तक ब्रह्मचर्य की बात नहीं थी, तब तक ठीक था । पर जब ब्रह्मचारी की बात आई तब सब ने रोक लगा दी। परंतु वो सारी छोटी-छोटी दादिया, वह कन्याएं क्या कहती थी…… कि हम सिनेमा नहीं देखते, हम फैशन नहीं करते,  हम किसी को तकलीफ नहीं देते , हमको जाने दो पर हम इस ज्ञान अमृत के बिना नहीं रह सकते । संसार की कोई आकर्षण हमें आकर्षित नहीं करते। हम ज्ञान गोपियां हैं, ज्ञान मीराएं हैं।

तो ज्ञान मुरली अमृत है। तो किसकी प्यासी हैं हम आत्माएं……. मुरली और दूसरा परमात्म मिलन। हमने भगवान को पहचाना है क्योंकि हमारे पास कौन सी दो चीजें हैं दिव्य बुद्धि से और दिव्य दृष्टि से । दिव्य नेत्र से उसको पहचान लिया है संसार की आत्माएं प्यासी हैं एक बूंद की प्यासी और तुम अधिकारी हो। कहां वह प्यासी और कहां तुम अधिकारी। बरसे के अधिकारी। विश्व के छोटे से कोने में मधुबन को क्या कहा? दुनिया का एक कोना, यहां बैठे मिलन बना रहे हो। संसार की आत्मा ढूंढ रही हैं। विश्व का कोना। तो इससे क्या सीखेंगे? क्या बनना है? ज्ञान चात्रक, ज्ञान पिपासा। परमात्मा मिलन…..। कई बार मुरलीयों में आया है यह केवल अब का मिलन नहीं है।, सतत मिलन होता रहे। उठो तो मिलन, चलो तो मिलन, उठते, बैठते, हर समय, प्रतिपल, प्रतिक्षण, हर निश्चय मिलन होता रहे ।

सारी मुरली दो शब्दों पर है कौन से दो शब्द हैं आना और जाना। मुरली क्लास में जाना और आना, भोजन में जाना और आना, अमृतवेला जाना और आना, बैठे नहीं रहना, आना भी जरूरी है। सेवा में जाना और सेवा से आना, सेवा ही करते नहीं रहना। नहाने जाना और आना, आना और जाना।

तीन चीजों के बारे में बाबा ने कहा है
एक मधुबन
दूसरा योग
तीसरा पढ़ाई

मुरली में तो बहुत सी बातें है, परंतु किसी और क्लास में कभी हमने चर्चा की थी सात प्रकार के आना और जाना ।

एक
शरीर से आना और जाना शरीर से बाहर हो जाना
दूसरा इस संसार में आना और संसार से बाहर सेवा में जाना और वापस निकल के आ जाना कर्म या सेवा।
अगला संबंध ऐसा नहीं संबंध में फंस जाओ और वहीं रह जाओ उस लोकनाथ को एकदम से रिलाइज हुआ कि मैं क्या कर रहा हूं कहां फंसे जा रहा हूं शायद किसी जन्म की पार में पुण्य होगा जो ये रिलाइजेशन हुआ।
रोल कॉन्शसनेस रोल में एंट्री करना और रोल से बाहर आना कोई डॉक्टर है कोई इंजीनियर है कोई वकील है कोई जर्नलिस्ट है कोई ऑफिस में काम करता है कोई मां है कोई बात है रोल में एंट्री करना और मां और बाप बन कर ही नहीं रह जाना उससे बाहर निकल कर आ जाना रोल कॉन्शसनेस

सेवा कॉन्शसनेस।

अगला
साधन जाना और आ जाना जैसे जाते हो वैसे ही वापस भी आना है नहीं तो उस में ही फंसे रहेंगे ब्रह्मचारी बनकर गए थे गूगल में और भ्रष्ट हो कर बाहर निकले। जाना और आना।


तो बाबा ने 3 आना और जाना गिनाया।

सबसे पहला मधुबन। दो प्रश्न है क्या समझते हो मधुबन। अपने आप को क्या समझते हो.. गेस्ट या बच्चे? मधुबन को क्या समझते हो आश्रम या घर? घर में क्या होता है? अधिकार, अपनापन। बाबा लोकनाथ ब्रह्मचारी ऐसा उनका नाम है बहुत प्रसिद्ध है। आना और जाना। तो मधुबन में आए हो। कहां आए हो? किसी आश्रम में नहीं, किसी संस्था के हेड क्वार्टर में नहीं, किसी institution के हेड क्वार्टर में नहीं, कहां आए हो? अपने घर आए हो। मेरा घर है। मैं आत्मा अपने घर पहुंची हूं। अपने परिवार में आई हूं। कौन आया है? क्या बन कर आओ? मेहरबान बनकर नहीं, बच्चे बनकर। हायर कॉन्शसनेस। मधुबन में सेवाओं में यही सोचो कि हम अपने घर में हैं। जो सेवा हम कर रहे हैं किसके लिए कर रहे हैं? अपने परिवार के कुटुंबयों के लिए कर रहे हैं। जो कुटुंब है, उसके जो मेंबर से हैं वह मेरे हैं, उनके लिए यह कर रहे हैं और आगे भी बाबा ने कहा है मधुबन के जब टिकट हो जाती है तो क्या होता है…… जाना है, जाना है, जाना है, जाना है,जाना है। ट्रेन में आते समय का सभी का अनुभव होता है, क्या अनुभव है? जब ट्रेन नजदीक पहुंचे लगती है आबूरोड तो क्या होने लगता है? घर आ रहा है, मधुबन आ रहा है, कितना सुंदर कितना प्यारा मधुबन ये हमारा है, सारे जहां से अच्छा सारे जहां से न्यारा है। तो उस अनुभव में स्थित होना। हम अपने घर की ओर जा रहे हैं और बाबा ने कहा है आने की बधाई तो जाने की भी बधाई। आना भी अच्छा तो जाना भी अच्छा। क्यों क्योंकि सेवा की बधाई है। विदाई नहीं बधाई। तो आओ तो भी अच्छा है जाओ तो भी अच्छा। बादल हो भरो और जाओ। औरों को ले आओ यही काम है तो यह स्थूल आना और स्थूल जाना है।
 फिर बाबा ने सूक्ष्म बात कह दी। कर्मयोग की उसमें भी आना जाना है। कौन सा आना जाना? अशरीरी पन ।कर्म करते पहला वश होकर नहीं, मजबूर होकर नहीं, वशीभूत, मजबूर, परवश, फिर धोखा, फिर दुख और फिर चक्कर। कर्म किया कर्म से न्यारी। ड्यूटी निभाई detached। अब उसकी कोई स्मृति नहीं। वह होगा भी तब जब उस कर्म में अटैचमेंट नहीं होगी, नहीं तो वह कर्म ही हमारे लिए बंधन बन जाएगा। कोई भी बंधन नहीं। और सारे बंधन मानसिक है, मन में है और मन का स्वभाव है जो अच्छी बात है जो सुखद है उससे तुरंत चिपक जाता है और दुखद है उससे द्वेष उत्पन्न करता है,लाइक, डिसलाइक अटैचमेंट रिवल्शन बस यही दो विकार है राग और द्वेष। बार-बार मन को किस में स्थित करना है…. साक्षी में। सबसे बड़ी साधना ही साक्षी है और साक्षी भाव ही संपूर्ण पवित्रता है क्योंकि जैसे ही राग उत्पन्न हुआ पवित्रता कहां रही? जैसे ही देश उत्पन्न हुआ नफरत, घृणा उत्पन्न हुई, पवित्रता कहां रही? मन को बस स्थिर कर देना है। भोजन कर रहे हैं। क्या खा रहे उससे ज्यादा महत्व है स्थिति का। स्वाद  अस्वाद्य की साधना। जो भी है, जैसा भी है, आकर्षण नहीं। अटैचमेंट नहीं। ना ही उससे द्वेष। भोजन करते समय, घूमते समय मौसम का बदलाव……. बहुत ठंड, बहुत गर्म। साक्षी ।हां अपनी सुरक्षा के लिए सब कुछ करो परंतु अंदर साक्षी, समता। भोक्ता भाव से कुछ भी नहीं करना है। भोक्ता भाव में दुख है। परिणाम सुखद भी होगा तो भी उसमें दुख है। तो कर्म करो कैसे? न्यारे। कर्म करो कैसे? detached। कर्म करो? कैसे? बंधन मुक्त कर्म करो। कैसे? अनासक्त, विरक्त, असंग, निर्लिप्त। ये शब्द हैं और यह होगा कैसे बार-बार इन शब्दों को दोहराते रहना, असंग की अवस्था, निसंग की अवस्था, अलिपत की अवस्था, निर्लिप्त की अवस्था। साक्षी,समता। यह काम बहुत अच्छा लगा इसको ज्यादा करो यह भी नहीं। यह चीज बहुत अच्छी लगी इसको ज्यादा खाऊँ यह भी नहीं। परवश नहीं, वशीभूत नहीं, मजबूर नहीं, कमजोर नहीं, धोखा नहीं, दुख की अनुभूति नहीं और कोई चक्कर नहीं।
 तुम कौन हो सुदर्शन चक्र चलाने वाले और सारे चक्र खत्म करने वाले। दुनिया को चैलेंज करने वाले इस चक्र से मुक्ति नहीं हो सकती। जन्म मरण के, परंतु इस जन्म मरण के चक्कर में रहते हुए इस जीवन में जीवन मुक्ति का अनुभव किया जा सकता है। उसी संसार में हम भी रहते हैं जिस संसार में लोग रहते हैं। वह तो सब सन्यासी थे संसार से बाहर रहते थे। अभी तो संसार के अंदर रहते हैं। वास्तव में संसार से बाहर कोई रह ही नहीं सकता क्योंकि मन में ही संसार है। मन ही संसार है। मन को अनासक्त बना देना। किसी भी चीज में आसक्ति, किसी भी चीज में द्वेष भी नहीं। दोनों नहीं…. स्थिर..।  बस यही ट्रेनिंग है और इसके लिए क्या चाहिए?

लंबा लंबा समय का बैठा हुआ अभ्यास अशरीरी पन का। अशरीरी पन  में ही सबकुछ समाया हुआ है। किसी भी कोने में बैठ के अशरीरी हो जाओ। अशरीरी होते ही ऐसा अनुभव होगा कि जो अब तक अभ्यास करते थे मैं यहां गया, वहां गया, इसको सकाश, उसको सकाश,  कुछ नहीं। सारा सेवा मनसा ही है। ये अनुभूति होगी। स्थूल कुछ है ही नहीं। स्थूल कुछ करना ही नहीं है। जो भी शक्तिशाली है। वह सभी सूक्ष्म ही है, तो मन को सूक्ष्म करते जाना है। लंबा लंबा समय बैठकर एक ही अभ्यास…. कौन सा? शरीर से अलग और वह केवल ये रटने से नहीं होगा… मैं आत्मा हूं… मैं शरीर नहीं… मैं आत्मा हूं… शरीर नहीं। शरीर की जो आस्तियां हैँ कहां-कहां वो फंसा है क्या हम उस में डाल रहे हैं उसको भी हल्का करते जाना है जितना भोजन हल्का होगा उतना मन सूक्ष्म होगा।  तो सबसे पहली बात ।

दूसरी बात कर्म योग। कर्म किया…… detached. बुद्ध के शिष्यों में एक शिष्य था जो पहले डांसर था नर्तक। बुद्ध और उसका संग जा रहा था और उसके पिता भी नर्तक थे, तो उस युवा ने जो कि सड़क पर डांस करता था देखा उन तपस्वीयों को, उन सन्यासियों का और देखकर एकदम से वैराग्य जगा। सब छोड़ दिया और वह भी भिक्षु बन गया और साथ चल पड़ा। कई वर्ष साधना की और इतनी तीव्र गति से प्रोग्रेस की….. बहुत..। शायद किसी जन्म का पुण्य ही होगा, जो संपूर्ण ब्रम्हचर्य, संपूर्ण एकाग्रता, संपूर्ण वैराग्य की अवस्था बहुत तुरंत प्राप्त हो गई उसे। एक बार जब वह जा रहा था भिक्षुओं साथ दूसरे भिक्षुओं के साथ तो देखा एक नर्तक नृत्य कर रहा है। दूसरे भिक्षु उससे पूछते हैं कि तुमको अभी भी याद आता है क्या पुराना डांसिंग? वह कहता है नहीं। वह कहते हो तुम झूठ बोल रहे हो तुम्हें अभी भी इच्छा होती है? कहता है बिल्कुल भी नहीं मैं भूल चुका हूं। वह सारे भिक्षु जाते हैं बुध के पास कहते हैं वह कहता है वह अरिहंत अवस्था को प्राप्त हो चुका है, वो झूठ बोल रहा है। बुद्ध कहता है… वह सत्य कह रहा है। he has gone beyond all the cravings. वह सारे आकर्षणों से परे जा चुका है। he has gone beyond all atachments. संसार का कोई अटैचमेंट अब उसे खींच नहीं सकता। वह उस अवस्था तक पहुंच चुका है। यह केवल इस जन्म का नहीं, कई जन्मों से वह साधना कर रहा था। विरक्ति की, वैराग्य की और आज पहुंच गया। तो कर्म करना परंतु फसना नहीं। कर्म किए और उसके बाद में detached। कर्म किया उसके बाद में न्यारा। आत्मा का यह ओरिजिनल नेचर ही है न्यारापन यह सेकंड।

 तीसरा पढ़ाई। पढ़ाई का सार क्या है? आना और जाना। जाते समय आत्मा खुशी से जाए। जैसे उस समय खुशी से आते हो खुशी से जाते हो, वैसे ही यह शरीर छोड़कर अब मुझे जाना है, मुझे जाना है। इस शरीर को देखते रहना है, कितना यह नश्वर है, कहां इसमें आसक्ति रखूं। इस शरीर का सूक्ष्मता से निरीक्षण करना है, ऊपर से नीचे तक। बालों से चालू करो…. इन बालों में आकर्षण…. इन आंखों में आकर्षण… आंखें कभी धोखा देती है, दृष्टि कभी धोखा देती है, मुख कभी धोखा देता है, सभी धोखेबाज बैठे हैं यहां। धोखे बाजो का गिरोह  मुख मंडल पर लिए हम घूम रहे हैं। एक-एक को देखकर…… बाबा ने किसी मुरली में कहा था एक एक कर्मेंद्रीय मकड़ी का जाल है। इतनी सी आंख है परंतु कितना आकर्षण है उसे। एकांत में बैठकर चिंतन करो इन आंखों ने क्या-क्या किया है। आज सारे दिन इन आंखों ने क्या क्या देखा है और कौन सी चीज ने इसे आकर्षित किया है। इन कानों ने क्या सुना ।कोई गीत है जो पकड़ लेते हैं उसे सारा दिन गाते रहते हैं। वह गीत ही बंधन बन गया है। किसी ने गीत लिखा उसे वह गीत इतना पसंद आया कि अपना ही गीत बार-बार पड़ रहा है, गीत ही बंधन बन गया है। किसी ने कविता लिखी, वह कविता ही बंधन बन गई। किसी ने रंगोली निकाली, वह रंगोली ही बंधन बन गई। किसी ने किताब लिखी थी, वह बंधन बन गई। किसी ने कोई भाषण दिया, कोई लेक्चर, कोई प्रवचन दिए…. वाह वाह  सुनने को मिले और वह भाषण, वो प्रवचन ही उसके लिए बंधन बन गया। किसी ने किसी गरीब की मदद की…. वहीं मदद करना ही उसके लिए बंधन बन गया और ब्राह्मणों के बंधन तो अत्यंत सूक्ष्म है। इससे भी सूक्ष्म। वह इतने सूक्ष्म है कि हर एक अपने बंधन खुद जान सकता है। सतो प्रधान बंधन। सात्विक बन्धन। विस्तार में जाते…  सार को ना  भूलें।

कोई भी बंधन नहीं….निरबंधन। आना और जाना। मैं इस शरीर से बाहर जा रही हूं, कहां आकर्षण? हाथों में आकर्षण…? हाथ ही नहीं रहेंगे तो क्या करोगे? पैरों में आकर्षण….? पैर ही नहीं रहेंगे तो क्या करोगे? आंख- इसके लिए दो अभ्यास एक अभ्यास। आत्मा अभिमानी का दूसरा अभ्यास इस शरीर से डिटैचमेंट का। किसी भी मार्ग से जाओ और दोनों मार्ग से जाओ तो और अच्छा। तो इस अभ्यास को क्या करना है इसमें अभी बहुत सारी बातें बाबा ने कही है -

पहला इस अभ्यास को पक्का करो आना और जाना।
दूसरा यह अभ्यास बहुत काल का हो ।
तीसरा यह बात यह अभ्यास के ऊपर नेचुरल अटेंशन है ।

जैसे वह टेंशन की आदत पड़ गई है वैसे अटेंशन की आदत।  निरंतर सजग रहने की आदत, इसलिए कहीं पर भी नए स्थान पर जाते हैं चाहे ऑफिस चाहे बाबा का कमरा या मधुबन से बाहर लौकिक घर, ट्रैफिक ट्रैवल…. बीच-बीच में अपने आपसे पूछो मैं कहां हूं? यह स्थान कौन सा है? मैं कौन हूं? यह समय कौन सा है? आस पास क्या है ? आस पास ये कौन सी आत्माएं है ब्राह्मण आत्मा है संसार की विकारी आत्माएं है? उनके संकल्प कैसे हैं? A lesson  इन माया उस किताब में लिखा है  कि माया…….अभी भी कल परसो ही मुरली में था जितना जो रूस्तम होगा, माया रुस्तम हो कर लड़ेगी। कोई ऐसा, छोटा-मोटा  पुरूषार्थी ये लिंबू टिंबु….. उसके सामने  माया तो कुछ है ही नहीं। जो बड़ा बड़ा, ज्यादा पुरुषार्थ करने जाता है उसके सामने माया नए नए रूप से आएगी। ऐसे ऐसे रूप से जो सोचा भी नहीं। कभी इतने सूक्ष्म इतनी सूक्ष्म इसलिए प्रति सजग प्रति पल तटस्थ। निरंतर सजगता, सतत attention। किस पर? दूसरों पर नहीं स्वयं पर। वैसे तो बाबा ने कहा दूसरों को भी धोखो से छुड़ाने वाले हो, दूसरों को भी चक्र से मुक्त करने वाले हो परंतु स्वयं मैं कहां हूं? अच्छा…. ट्रैफिक में हूं। आसपास कौन है? क्या यह लोग भगवान की याद में है? नहीं,,,इन्हें पता ही नहीं, ना ही interest है, पर अपने रूहानी वाइब्रेशन से अशरीरी पन के वाइब्रेशन से न्यारे प्यारे के शक्तिशाली वाइब्रेशन से वायुमंडल, नेचर को चेंज करो। चारों तरफ खुशबू फैलाव। एक तरफ नहीं, केवल रूमानियत की खुशबू। तो बीच-बीच में बस यही अभ्यास है… रुक जाओ, और अपने आप से बातें। तो इस अभ्यास को पक्का करो, इस अभ्यास को बहुत काल का करो।  इस अभ्यास को, नेचुरल अटेंशन हो इस अभ्यास पर, स्पेशल अटेंशन दो।


ब्रह्मा बाप से  compaire करते हुए, बाबा की अवस्था के बारे में बताया। बोलते हुए, कर्म करते हुए …सुबह सुन रहे थ हम। शीलू बहन बता रहे थे। वह बहन पूछ रही है बाबा से, अपना सेवा समाचार सुना रही है। बाबा ने क्या कहा? पत्र में तो लिखा था, और बाबा जानता है। detached, detached, detached…. Detachment. ये अटैचमेंट ही है, जो आदत बन गई है आत्मा की। अटैचमेंट। अटैच हो जाना। कोई भी अच्छा लगा तुरंत अटैच। किसी से तुरंत दोस्ती हो जाती है, उसके और मेरे विचार एकदम मिलने लगे उसको भी ज्ञान में इंटरेस्ट मुझे भी योग में इंटरेस्ट, उसको भी वही सेवा में इंटरेस्ट, वही खाने में इंटरेस्ट है जो मुझे है तुरंत ग्रुप बन गया। हम भी यही खाते तुम भी वही खाते हो अरे वाह…. दोस्ती पक्की। और जहां अटैचमेंट है वहाँ फिर एक्सपेक्टेशन हैं और वहाँ फिर दुख है। मन को स्थिर रखना यही पुरुषार्थ है बस। ना इधर ना इधर….. एक जगह। जो हमसे अच्छा व्यवहार नहीं करते उनसे डिटैचमेंट हो जाती है, उनसे घृणा, नफरत, सुक्ष्म घृणा उत्पन्न होती है। पर वह जो कर रहा है वह भी अच्छा ही कर रहा है। अटैचमेंट ज्यादा खतरनाक है या डिटैचमेंट…? तो इस अभ्यास को, और एक बात…… नेचुरल कर दो। एक तो नेचुरल अटेंशन बताया आगे बताया कि नेचुरल हो जाए क्योंकि यह उसका ओरिजिनल स्वभाव है।


आत्मा को इस संसार में कोई भी देहधारी कभी भी सुख नहीं दे सकता है। उसका सुख, आत्मा की प्यास प्योरिटी की प्यास है, आत्मा की प्यास पवित्रता की प्यास है, आत्मा की प्यास अतीन्द्रिय सुख की प्यास है। कोई भी भोग, कोई भी विषय वासना, कोई भी संसार का खाद्य पदार्थ, संसार का कोई व्यक्ति, कोई दृश्य, कोई सम्मान…. कुछ भी उसे सदा काल के लिए तृप्त नहीं कर सकता, थोड़े समय के लिए और क्रेविंग छोड़ जाता है और दुख छोड़ जाता है फिर। जो खींचते रहता है उसे और दुखी करता है, बेचैन करता है। मन का स्वभाव है की जैसे ही मन में विकार जगा, बेचैनी होती है, व्याकुलता। तो इसका उल्टा जब भी हम व्याकुल हो जाए समझना क्या हुआ है…. कोई ना कोई विकार जगा है। विकार की निशानी आउटसाइड क्या है, symptoms? व्याकुलता.. बेचैन हो जाता है मन…अब तक स्थिर था, बैठ सकते थे, 2 घंटा बाबा की याद में बैठ जाओ, बिना हिले डुले और जिस दिन मन बेचैन होगा अस्थिर होगा, कोई भी विकार होगा, कोई इच्छा होगी, कोई कुछ होगा, कोई हलचल होगी, तो नहीं बैठ पाएंगे। तो यह निशानी है उसकी। तो इसी अभ्यास पर काम करना है। बाबा ने experiment भी बताया। 15 मिनट और 1 घंटा। एक घंटा बिना आत्म अभिमानी स्थिति के सीधा ज्ञान समझाओ, ये आत्मा ये परमात्मा ये आत्मा ये परमात्मा। और एक है 15 मिनट केवल स्वयं शरीर से अलग हो जाओ। इतना अलग कि हाथ कहां रखा है और उंगलियां कहां है। शरीर ही भूल जाए इतना detached. और केवल दृष्टि और फिर खुद देखो do this experiment,करो कसौटी पर कसो और फिर देखो ठीक हो तो मानो मेरी बात, नहीं है तो अपने रास्ते मैं अपने रास्ते । तो ये मुख्य अभ्यास है।


टीचर से मुलाकात की है, विस्तार को सार भूल ना जाए। वृद्धि कैसे होगी- रूहानी वाइब्रेशन, अशरीरी पन के वाइब्रेशन और न्यारे प्यारे पन के वाइब्रेशन फैलाव। बस यही सेवा है, यही योग है। यह दरवाजा है उसके आगे तो परमात्मा, परमधाम, सुक्ष्म वतन तक कहीं नहीं पहुंच सकते जब तक अशरीरी नहीं। हम जो योग कर रहे हैं वह वास्तव में केवल वार्तालाप है, कन्वर्सेशन है, रूह रिहान है बाबा से या प्रेम है। योग नहीं, वह योग का ही एक भाग है। सकाश देना वह एक दूसरा भाग है, जो लास्ट में किया जाए। लास्ट में परंतु मुख्य पुरुषार्थ है शरीर से डिटैच होना ।आत्मा और मैं असरीरी बन्ना। बातें करना, बाबा से पूछना, कुछ, यह क्या अलग बात है, सकाश देना यह भी अलग है मुख्य पुरुषार्थ ही कुछ और है, मेन फोकस अगर 1 घंटे का योग है तो 50 मिनट अशरीरी पन का अभ्यास और फिर वह बातें करना वह थोड़ा आगे करो वह कम करो कम करो क्योंकि मुख्य पुरुषार्थ ही यह है।


डॉक्टरों से मुलाकात की….. क्या कहा…? दवाइयों की क्या है? दवाइयों से भी दिल हटता जा रहा है। दुआ………। ठिकाने लगाओ आत्माओं को। तुम लगा सकते हो, क्योंकि वह ठिकाने पर नहीं है। मन को एकाग्र करना मुश्किल समझते, असंभव। बाबा कहा और मन एकाग्र। सहयोगी बनो सेवाओं में मन को बिजी कर दो, बुद्धि को बिजी कर दो, टाइम टेबल बनाओ और क्या करो रूहानी गुलाब हो सभी तरफ खुशबू फैलाओ। तो मुरली की एक एक लाइन, एक एक पॉइंट, इतना गहन चिंतन हो। केवल आज की ही नहीं, रोज कि। ऐसे ऐसे वाक्य आते हैं, उस दिन मुरली में कितना अच्छा वाक्य था….. बाप जब तुम्हारा श्रृंगार कराते हैं तो बाप की service को स्वीकार करना चाहिए। ऐसे बहुत सुंदर-सुंदर और शक्तिशाली वाक्य रोज की मुरलीयों में कहते हैं उनको पकड़ो वहां से, एकांत में जाओ, बैठो एक घंटा बस उसी पर चिंतन। ज्ञान के नए संस्कार बनाने हैं।
 ऐसे अधिकारी आत्माओं को, ऐसे चात्रक आत्माओं को, ऐसे आने और जाने की अभ्यासी आत्माओं को, ऐसे, ऐसे, क्या क्या ? बाप अपना ही है दूसरों का नहीं, दूसरों का होता तो याद करना मुश्किल है यह अपना ही है तो ऐसे अपने बाप को याद करने वाले, अपने घर में आने वाले, अपने परिवार में आने वाली आत्माओं को, ऐसे मेहमान नहीं बच्चे समझने वाली आत्माओं को, ऐसे रूहानी गुलाब आत्माओं को, ऐसे अव्यक्त पार्ट में आने वाली और कौन सा वरदान है, तीव्र पुरुषार्थ करने वाली आत्माओं को, तीव्र गति से पुरुषार्थ का वरदान use करने वाली आत्माओं को, ऐसे दूसरों के भी चक्कर खत्म करने वाली आत्माओं को, स्व दर्शन चक्र धारी सॉरी कर्म इंद्रियों को वश कर कर्मेंद्रियों के वशीभूत ना होने वाली, धोखा ना खाने वाली, दुख की अनुभूति ना करने वाली आत्माओं को, ऐसे चात्रक… हो गया ऐसे निरबंधन आत्माओं को, ऐसे बरसे के अधिकारी आत्माओं को, ऐसे सफा देने वाली आत्माओं को, ऐसे खाना-पीना मौज करो पर नियारा पर मत भूलो यह इंपॉर्टेंट पॉइंट है पहला मत ले लेना खाली हाफ पार्ट, ऐसे विस्तार को सार, विस्तार में सार ना भूलने वाली आत्माओं को, ऐसे आने-जाने का अभ्यास पक्का, नेचुरल, नेचुरल अटेंशन, बहुत कालका, स्पेशल अटेंशन, ब्रह्मा बाप समान अटेंशन रखने वाली आत्माओं को, ऐसे ऐसे ऐसे अपसेट ना होने वाली आत्माओं को, ऐसे मास्टर मुरलीधर आत्माओं को, बाप ।

दादा का याद प्यार और गुड नाईट नमस्ते हम रूहानी बच्चों की रूहानी बाप दादा को याद प्यार गुड नाइट और नमस्ते ओम शांति।