मुरली कविता दिनांक 13.03.2018


देही अभिमानी बनकर बाप से दिल को जोड़ो

नये जग से जोड़कर पुराने जग से नाता तोड़ो

पुराने संस्कारों से मरकर जो सेवा को अपनाये

जो गृहस्थ वालों का बुद्धियोग बाप से जुड़ाये

बाप से मिला ज्ञान प्रकाश जो सब पर बरसाये

पावन स्वर्ग का मालिक बनने की युक्ति बताये

अपना बुद्धि योग जो रखता है बाप से जुटाये

बाप की दृष्टि में वही सच्चा सेवाधारी कहलाये

विचारों के सागर का मंथन करना तुम हर रोज

उतर ही जायेगा इक दिन सारे पापों का बोझ

बच्चों सेवा के प्रति अपनी बुद्धि चलाये रखना

सेवा करके तुम पापों से खुद को बचाये रखना

तुम्हारे ही 63 जन्मों के संस्कार तुम्हें सतायेंगे

आत्मभान की अवस्था से तुम्हें नीचे गिरायेंगे

खुद को अगर कोई देही अभिमानी बनायेगा

ईश्वरीय सेवा में अवश्य सफल होकर आयेगा

औरों के भाव स्वभाव से ना कभी तुम जलना

अपने देहभान को आत्म अभिमान में बदलना

करो बाप की सेवा करके विचार सागर मंथन

बुद्धि में चलाना सदा ईश्वरीय ज्ञान का चिंतन

हिम्मत उत्साह जगाकर धूल को धन बनाओ

औरों को भी ईश्वरीय सेवा में सहयोगी बनाओ

खुद में और दूसरों में हिम्मत उत्साह जगाओ

सेवा में सफल होकर महान आत्मा कहलाओ

बापदादा के स्नेह की छत्रछाया जो पा जाते

सारे संसार में केवल वही भाग्यवान कहलाते

ॐ शांति