मुरली कविता दिनांक 27.03.2018


जीते जी मरकर तुम देही अभिमानी बन जाओ

बाप के गले का हार बन विजयी रत्न कहलाओ

ड्रामा का राज जानकर धारणा होती नम्बरवार

ब्राह्मण करे योग तो माया डालती विघ्न हजार

राजधानी स्थापन करने का नियम बड़ा निराला

सहज रूप से हर कोई पास यहां ना होने वाला

तन अपना जो छोड़ गया वो वापस यहीं आता

कोई भी बच्चा जाकर परमात्मा में नहीं समाता

नई दुनिया स्वर्ग का वर्सा बाप यहां देने आया

पुरानी दुनिया से जो मरा वर्सा उसने ही पाया

अशरीरी बनने की तुम मेहनत से ना घबराना

आत्मा समझने का अभ्यास रोज बढ़ाते जाना

बच्चों तुम्हें ज्ञान की डांस करनी और करानी

बाप समान तुम्हें सबकी बुद्धि रिफ्रेश बनानी

देहभान छोड़कर अशरीरीपन को अपनाओ

स्वर्ग के वर्से के लायक तुम खुद को बनाओ

उड़ते जाओ बच्चों संग तुम्हारे सर्वशक्तिमान

बंधनमुक्त होकर सबको बनाओ आप समान

सर्व शक्तियों से पहले खुद को भरपूर बनाओ

पंचतत्व प्रकृति से तुम मनचाहा काम कराओ

ॐ शांति