07-09-14
प्रातः मुरली ओम्
शान्ति “अव्यक्त-बापदादा”
रिवाइज:12-12-78
मधुबन
“परोपकारी
कैसे बनें?”
आज
रूहानी फुलवाड़ी अर्थात् सदा रूहे गुलाब बच्चों के संगठन को देख
बापदादा हरेक बच्चे की विशेषता को देख रहे हैं । तीन प्रकार की
विशेषतायें हैं । एक सदा अपनी रूहानियत की स्थिति में रहने
वाले अर्थात् सदा खिले हुए । दूसरे - रूहानियत की स्थिति
अनुसार सदाकाल खिले हुए नहीं हैं लेकिन निश्चय स्वरूप होने
कारण रूप की सुन्दरता अच्छी है । तीसरे - बाप से स्नेह और
सम्बन्ध के आधार से आधे खिले हुए होते भी स्नेह और सम्बन्ध की
खुशबू समाई हुई है । ऐसे तीनों प्रकार के रूहे गुलाबों की
फुलवाड़ी को देखते बापदादा सदा खुशबू लेते रहते हैं । अब अपने
आप को देखो मैं कौन हूँ?
नम्बरवन बनने में जो कुछ कमी रह गई है उसको सम्पन्न कर
सम्पूर्ण बनों क्योंकि सम्पूर्ण बाप के बच्चे भी बाप समान
सम्पूर्ण चाहिए । हरेक बच्चे का लक्ष्य भी सम्पूर्ण बनने का है,
तो
लक्ष्य प्रमाण सर्व लक्षण स्वयं में भरकर सम्पन्न बनो । इसके
लिए विशेष धारणा पहले भी सुनाई है - सदा ब्रह्माचारी अर्थात्
ब्रह्मचारी और सदा पर-उपकारी ।
पर-उपकारी की परिभाषा सहज भी है और अति गुह्य भी है । 1.
पर-उपकारी अर्थात्( हर समय बाप समान हर आत्मा के गुणमूर्त को
देखते । 2. पर-उपकारी किसी की भी कमजोरी वा अवगुण को देखते
अपनी शुभ भावना से,
सहयोग की कामना से अवगुण को देखते उस आत्मा को भी गुणवान बनाने
की शक्ति का दान देंगे । 3. परोपकारी अर्थात् सदा बाप समान
स्वयं के खजानों को सर्व आत्माओं के प्रति देने वाले दाता रूप
होंगे । 4. परोपकारी सदा स्वयं को सर्व खजानों से सम्पन्न
बेगमपुर के बादशाह अनुभव करेंगे । बेगमपुर अर्थात् जहाँ कोई गम
नहीं । संकल्प में भी गम के संस्कार अनुभव न हो । 5. परोपकारी
अर्थात् सदैव विशेष रूप से अपनी मन्सा अर्थात् संकल्प शक्ति
द्वारा,
वाणी
की शक्ति द्वारा,
अपने
संग के रंग के द्वारा,
सम्बन्ध के स्नेह द्वारा,
खुशी
के अखुट खजाने द्वारा अखण्ड दान करता रहेगा । कोई भी आत्मा
सम्पर्क में आवे तो खुशी के खजाने से सम्पन्न होकर जाए । ऐसे
अखण्ड दानी होंगे । विशेष समय वा सम्पर्क वाले अर्थात् कोई-
कोई आत्माओं के प्रति दानी नहीं लेकिन सर्व के प्रति सदा
महादानी होंगे । परोपकारी स्वयं मालामाल होने के कारण किसी भी
आत्मा से कुछ लेकर के देने के इच्छुक नहीं होंगे । संकल्प में
भी यह नहीं आयेगा कि यह करे तो मैं करुँ,
यह
बदले तो मैं बदलूँ,
कुछ
वह बदले,
कुछ
मैं बदलूँ । एक बात का परिवर्तन आत्मा का और
10
बातों का परिवर्तन मेरा होगा,
ऐसी
भावना रखने वाले को परोपकारी नहीं कहेंगे । वह महादानी बनने के
बजाए सौदा करने वाले सौदागर बन जाते हैं ।
' 'इतना
दे तो मैं इतना दूँगा,
क्या
सदा मैं ही झुकता रहूँगा,
मैं
ही देता रहूँगा,
कब
तक कहाँ तक करूँगा!
' '
यह
संकल्प देने वाले के नहीं हो सकते । जब अन्य आत्मा किसी भी
कमजोरी के वश है,
परवश
है,
संस्कार के वश है,
स्वभाव के वश है,
प्रकृति के साधनों के वश है - तो ऐसी परवश आत्मा अर्थात् उस
समय की भिखारी आत्मा,
भिखारी अर्थात्( शक्तिहीन,
शक्तियों के खजाने से खाली है ।
महादानी भिखारी से एक नया पैसा लेने की इच्छा नहीं रख सकते ।
यह बदले वा यह करे वा यह कुछ सहयोग दे,
कदम
आगे बढावे,
ऐसे
संकल्प वा ऐसे सहयोग की भावना,
परवश
शक्तिहीन,
भिखारी आत्मा से क्या रख सकते । कुछ लेकर के कुछ देना उसको
परोपकारी नहीं कहा जाता । 7. परोपकारी अर्थात् भिखारी को
मालामाल बनाने वाले - अपकारी के ऊपर उपकार करने वाले । गाली
देने वाले को गले लगाने वाले,
अपने
पर-उपकार की शुभ भावना से,
स्नेह से,
शक्ति से,
मीठे
बोल से,
उत्साह उमंग के सहयोग से दिलशिकस्त को शक्तिवान बना दे अर्थात्
भिखारी को बादशाह बना दे । 8. परोपकारी त्रिकालदर्शी होने के
कारण ही आत्मा के सम्पूर्ण सहयोग को सामने रखते हुए,
हर
आत्मा की कमजोरी को परखते हुए उस कमजोरी को स्वयं में धारण
नहीं करेंगे,
वर्णन नहीं करेंगे लेकिन अन्य आत्माओं की कमजोरी का काँटा
कल्याणकारी स्वरूप से समाप्त कर देंगे । कांटे के बजाए - कांटे
को भी फूल बना देंगे । ऐसे परोपकारी सदा सन्तुष्टमणी के समान
स्वयं भी सन्तुष्ट होंगे और सर्व को भी सन्तुष्ट करने वाले
होंगे । कमाल यह है जो होपलेस में होप पैदा करे । 9. जिसके
प्रति सब निराशा दिखाये ऐसे व्यक्ति वा ऐसी स्थिति में सदा के
लिए उनकी आशा के दीपक जगा दें । जब आपके जड़ चित्र अभी तक अनेक
आत्माओं की अल्पकाल की मनोकामनायें पूर्ण कर रहे हैं - तो
चैतन्य रूप में अगर कोई आपके सहयोगी भाई वा बहन परिवार की
आत्मायें,
बेसमझी वा बालहठ से अल्पकाल की वस्तु को सदाकाल की प्राप्ति
समझ,
अल्पकाल का मान-शान-नाम वा अल्पकाल की प्राप्ति की इच्छा रखती
हैं तो दूसरे को मान देकर के स्वयं निर्माण बनना यही परोपकार
है । यह देना ही सदा के लिए लेना है । जैसे अनजान बच्चा नुकसान
वाली चीज को भी खिलौना समझता है तो उनको कुछ देकर छुड़ाना होता
है । हठ से सदाकाल का नुकसान हो जाता है । ऐसे बेसमझ आत्मायें
भी उसी समय अल्पकाल की प्राप्ति को अर्थात् सदा के नुकसानकारी
बातों को अपने कल्याण का साधन समझती हैं । ऐसी आत्माओं को
जबरदस्ती इन बातों से हटाने से कसमकसा में आकर उनके पुरुषार्थ
की जिन्दगी खत्म हो जाती है इसलिए कुछ देकर के सदा के लिये
छुड़ाना ऐसे युक्तियुक्त चलन से स्वत : ही अल्पकाल की भिखारी
आत्मा बेसमझ से समझदार बन जायेगी । स्वयं महसूस करेंगे कि यह
अल्पकाल के साधन हैं । ऐसे बेसमझ आत्माओं के ऊपर भी परोपकारी ।
ऐसे परोपकारी स्वत : ही स्वयं उपकारी हो जाते हैं,
देना
ही स्वयं प्रति मिलना हो जाता । महादानी ही सर्व अधिकारी स्वतः
हो जाते हैं । समझा परोपकारी की परिभाषा क्या है! ऐसे परोपकारी
ही सर्व आत्माओं द्वारा दिल की आशीर्वाद के अधिकारी बनते हैं ।
ऐसे परोपकारी आत्माओं के ऊपर सदा सर्व आत्माओं द्वारा प्रशन्सा
के पुष्पों की वर्षा होती है । समझा । अच्छा ।
ऐसे
बाप समान सदा उपकारी,
स्वयं और सर्व प्रति शुभ भावना,
श्रेष्ठ कामना रखने वाले,
अखुट
खजानों के मालिक अखण्ड दानी,
दिलशिकस्त को शक्तिशाली बनाने वाले,
भिखारी को सदाकाल का बादशाह बनाने वाले,
ऐसे
श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते ।
दादियों से : -
बापदादा को,
अन्त
सो आदि करने वाले ऐसे आलराउन्ड पार्टधारी,
परोपकारी ग्रुप चाहिए । जैसे हर विशेष कार्य के अर्थ ग्रुप
बनाते हैं ना । तो इस समय ऐसा परोपकारी ग्रुप चाहिए जो देने
वाले दाता हो । जैसे राजा दाता होता है,
आजकल
के राजे लोग नहीं । सम्पन्न राजायें सदा प्रजा को देने वाले
होते हैं - अगर प्रजा से लेने वाले हुए तो प्रजा ही राजा हो गई
इसलिए सम्पन्न राजायें कब लेते नहीं - देने वाले होते हैं ।
सम्पन्न राजाओं का हाथ कभी भी लेने वाला हाथ नहीं होगा । देने
वाला होगा । स्वर्ग के विश्व महाराजा,
प्रजा से लेंगे क्या?
प्रजा भी सम्पन्न है तो विश्व महाराजा क्या होगा! तो जैसे
भविष्य दाता बनने का पार्ट बजाना है,
अभी
से ही वही दातापन के संस्कार भरने हैं । किसी से कोई सैलवेशन
लेकर के फिर सैलवेशन दे ऐसा संकल्प में भी न हो,
इसको
कहा जाता है बेगर टू प्रिंस । स्वयं लेने की इच्छा वाले नहीं,
इस
अल्पकाल की इच्छा से बेगर । अल्पकाल के साधनों को स्वीकार करने
में बेगर - ऐसे बेगर ही सम्पन्नमूर्त होंगे । एक तरफ बेगर
दूसरे तरफ सम्पन्न । अभी बेगर टू प्रिन्स का पार्ट प्रैक्टिकल
में बजाने वाली आत्माओं को कहा जाता है - सदा त्यागी और सदा
श्रेष्ठ भाग्यशाली । त्याग से सदाकाल का भाग्य स्वतः ही बन
जाता है । त्याग किया और तकदीर की लकीर हुई । तो अब ऐसा
परोपकारी ग्रुप चाहिए जो स्वयं के प्रति इच्छा मात्रम अविद्या
हो,
अखण्ड दानी हो । जैसे बाप को देखा स्वयं का समय भी सेवा में
दिया । स्वयं निर्मान बन बच्चों को मान दिया । पहले बच्चे,
नाम
बच्चे का काम अपना । काम के नाम की प्राप्ति का त्याग । नाम
में भी परोकारी बने । अपना त्याग कर दूसरे का नाम किया,
स्वयं को सदा सेवाधारी रखा,
यह
है परोपकार । बच्चों को मालिक रखा और स्वयं को सेवाधारी रखा ।
तो मालिक पन का मान भी दे दिया,
शान
भी दे दिया,
नाम
भी दे दिया । कभी अपना नाम नहीं किया मेरे बच्चे । तो जैसे बाप
ने नाम,
मान,
शान
सबका त्याग किया,
परोपकार किया,
स्वयं का सुख बच्चों के सुख में समझा,
बच्चों की विस्मृति कारण दु :ख का अनुभव सो अपना दु :ख समझा ।
बच्चों की गलती भी अपनी गलती समझ बच्चों को सदा राइटियस बनाया,
इसको
कहा जाता है परोपकारी ।
आजकल
ऐसे ग्रुप की आवश्यकता है जो दूसरे की कमजोरी समाप्त कर शक्ति
देते जाएं । ऐसे सब बन जायें तो क्या हो जायेगा?
आप
लोगों का समय बच जायेगा फिर केस और किस्से खत्म हो जायेंगे और
सदैव रूहानी स्नेह मिलन होगा । विश्व कल्याण के कार्य में
तीव्रगति आ जायेगी । अभी तो कितने प्लैन्स बनाने पड़ते हैं,
कई
प्लैन्स अर्थात् बारूद बिना कार्य किये भी खत्म हो जाते हैं ।
जैसे बारूद कब-कब जलता ही नहीं है,
वहाँ
ही खत्म हो जाता है । लेकिन विश्व कल्याण का तीव्रगति में
संकल्प किया कि इस समय यह बात होनी चाहिए और चारों तरफ निमित्त
मात्र किया और आवाज बुलन्द हुआ । जैसे साकार बाप को देखा,
नॉलेज की अथॉरिटी के साथ-साथ नॉलेज द्वारा अनुभूति मूर्त की भी
अथॉरिटी थे । जिस अथॉरिटी के कारण हर बोल में नॉलेज के साथ-साथ
अनुभव भी था । तो डबल अथॉरिटी थी । ऐसे ही हर बच्चा डबल
अथॉरिटी से बोल बोले तो अनुभव का तीर,
नॉलेज की अथॉरिटी का तीर सेकेण्ड में प्रभाव डाले । स्वरूप और
बोल दोनों अथॉरिटी के हो तब सफलता सहज हो जायेगी । नहीं तो यही
कहते नॉलेज तो बड़ी अच्छी है,
ऊँची
है लेकिन धारणा होना मुश्किल है । तो धारणा मूर्त,
धारणा स्वरूप प्रैक्टिकल में दिखाई दे । प्रत्यक्ष प्रमाण को
ग्रहण करना सहज हो जाता है । तो ऐसा ग्रुप चाहिये जो डबल
अथॉरिटी हो - जिसको कहते हैं मस्त फकीर । कोई भी इच्छा न हो ।
अच्छा । ओम् शान्ति ।
पार्टियों के साथ -
1. बाप
के प्यार का पात्र बनने का सहज साधन - न्यारा बनो -
जैसे
कमल का पुष्प सदा न्यारा और सबका प्यारा है वैसे सदा कमल समान
न्यारे रहते हो?
प्रवृत्ति में रहते,
दुनिया के वातावरण में रहते वातावरण से न्यारे । बाप के प्यार
का पात्र वही बनते हैं जो न्यारे होते हैं जितना न्यारे उतना
प्यारे । नम्बर बनते हैं न्यारे पन के आधार से । अति न्यारे तो
अति प्यारे ।
2. अपने
पूज्यनीय स्वरूप की स्मृति से आटोमेटिकली सेवा -
सदा
अपने कल्प पहले के यादगार को देखते हुए,
सुनते हुए नशा रहता है कि यह हमारा ही गायन हो रहा है?
किसी
भी यादगार स्थान पर जाते यह नशा रहता है कि यह हमारा यादगार है?
यही
वन्डरफुल बात है जो चैतन्य में अपने जड़ यादगार देख रहे हैं ।
एक तरफ जड़ चित्र है,
दूसरे तरफ हम गुप्त चैतन्य में हैं । कितने भक्त हमें पुकार
रहे हैं,
पूज्य समझने से भक्तों पर रहम आयेगा । भक्त हैं भिखारी और आप
हो सम्पन्न । तो भक्तों को देख तरस आता है?
इच्छा उत्पन्न होती है कि भक्तों को भक्ति का फल दिलाने के
निमित्त बनें?
सेवा
का सदा उमंग-उत्साह रहता है?
सेवा
से अनेकों का कल्याण भी होता और भविष्य के लिए भी जमा होता ।
हर आत्मा को अंचली जरूर देनी है,
खाली
हाथ नहीं भेजना है । अपना पूज्य स्वरूप स्मृति में रखो तो न
चाहते भी सदा सेवा में तत्पर रहेंगे ।
3. रॉयल
बच्चे अर्थात् लाडले बच्चे की निशानी - देहभान रूपी मिट्टी से
दूर -
जो
पद्मापद्म भाग्यशाली आत्मायें हैं वह सदा खुशी के झूले में
झूलती हैं,
उनके
बुद्धि रूपी पाँव नीचे नहीं आते । जो लाडले सिकीलधे बच्चे होते
हैं वह सदा गोदी में रहते हैं,
नीचे
पाँव नहीं रखते - गलीचे पर रखते हैं । आप पद्मापद्म भाग्यशाली
सिकीलधे बच्चों का भी बुद्धि रूपी पाँव सदा देहभान या देह की
दुनिया की स्मृति से ऊपर रहना चाहिए । जब बापदादा ने मिट्टी से
ऊपर कर तख्तनशीन बना दिया तो तख्त छोड़कर मिट्टी में क्यों जाते?
देहभान में आना माना मिट्टी में खेलना । संगमयुग चढ़ती कला का
युग है,
अब
गिरने का समय पूरा हुआ,
अब
थोड़ा सा समय ऊपर चढ़ने का है इसलिए नीचे क्यों आते,
सदा
ऊपर रहो । अच्छा - ओम् शान्ति ।
वरदान:-
बाप
को साथ रखते हुए पवित्रता रूपी स्वधर्म को सहज पालन करने वाले
मा. सर्वशक्तिवान भव
!
आत्मा का स्वधर्म पवित्रता है,
अपवित्रता परधर्म है । जब स्वधर्म का निश्चय हो गया तो परधर्म
हिला नहीं सकता । बाप जो है जैसा है,
अगर
उसे यथार्थ पहचान कर साथ रखते हो तो पवित्रता रूपी स्वधर्म को
धारण करना बहुत सहज है,
क्योंकि साथी सर्वशक्तिमान है । सर्वशक्तिमान के बच्चे मास्टर
सर्वशक्तिमान के आगे अपवित्रता आ नहीं सकती । अगर संकल्प में
भी माया आती है तो जरूर कोई गेट खुला है अथवा निश्चय में कमी
है ।
स्लोगन:-
त्रिकालदर्शी किसी भी बात को एक काल की दृष्टि से नहीं देखते,
हर बात
में कल्याण समझते हैं ।
ओम्
शान्ति
|