23-03-14
प्रातः मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा”
रिवाइज:
16-06-77
मधुबन
“एक ही
पढ़ाई द्वारा नम्बरवार पूज्य पद पाने का गुह्य रहस्य”
आज
बापदादा हर आत्मा के पुरुषार्थ करने के कर्म की गति और
पुरुषार्थ अनुसार राज्य पद वा पूज्य पद की गति जो कि अति रमणीक
और गुह्य है, वह देख रहे हैं | जैसे पुरुषार्थ में नम्बरवार
हैं, वैसे ही पद और पूज्य पद में नम्बरवार हैं | जो नम्बरवन
श्रेष्ठ पुरुषार्थी हैं, उन्हों का राज्य पद और पूज्य पद अति
श्रेष्ठ और गुह्य रहस्य भरा है | पूज्य तो सब बनते हैं |
सृष्टि के लिए सब पुरुषार्थी आत्माएं परम पूज्य हैं, अष्ट रत्न
हैं वा 108 की माला है वा 16 हज़ार की माला है वा 9 लाख प्रजा
पद वाले हैं, लेकिन सभी कोई न कोई रूप में पूज्य अवश्य बनते
हैं | अब तक भी अनेक अनगिनत सालिग्राम बनाकर पूजा करते हैं |
लेकिन अनेक सालिग्राम रूप की पूजा और विशेष इष्ट देव के मन्दिर
रूप की पूजा, उसमें अन्तर कितना होता है, उसको जानते हो ना |
सालिग्राम रूप में अनेकों की पूजा होती है और अष्ट देव के रूप
में नामीग्रामी कोई-कोई आत्मा की पूजा होती है | 16 हज़ार की
माला भी कभी-कभी सुमिरण करते, 108 की माला अनेक बार सुमिरण
करते हैं, और अष्ट रत्नों को वा अष्ट देवों को व देवियों को
बाप के समान सदा अपने दिल में याद रखते हैं | इतना अन्तर क्यों
हुआ? बापदादा तो सर्व बच्चों को एक ही पढ़ाई, एक ही
लक्ष्य-मनुष्य से देवता वा विजयी रत्न बनाने की देते हैं, फिर
भी पूजन में इतना अन्तर क्यों? कोई की डबल पूजा अर्थात्
सालिग्राम रूप में भी और देवी या देवताओं के रूप में भी, कोई
की सिर्फ़ सालिग्राम रूप में, माला के मणके के रूप में पूजा
होती है | इसका भी क्या रहस्य है? मुख्य कारण है आत्म-अभिमानी
बनने का लक्ष्य व आत्मिक स्वरूप में स्थित रहने का पुरुषार्थ,
जो हर ब्राह्मण आत्मा जन्म से ही करती है | ऐसा कोई भी
ब्राह्मण नहीं होगा जो आत्म-अभिमानी बनने का पुरुषार्थी न हो |
लेकिन निरन्तर आत्म-अभिमानी, जिससे कर्मेन्द्रियों के ऊपर विजय
हो जाए, हरेक कर्मेन्द्रिय सतोप्रधान स्वच्छ हो जाए – इस
सब्जेक्ट में अर्थात् देह के पुराने संस्कार और सम्बन्ध से
सम्पूर्ण मरजीवा हो जाए, इस पुरुषार्थ में नम्बर बनते हैं |
कोई पुरुषार्थी की कर्मेन्द्रियों पर विजय हो जाती है अर्थात्
इन्द्रियाँ जीत बन जाते हैं और कोई-कोई आँख के धोखे में, मुख
द्वारा अनेक रस लेने के धोखे में, इसी प्रकार कोई न कोई
कर्मेन्द्रिय के धोखे में आ जाते हैं अर्थात् सम्पूर्ण
निर्विकारी, सर्व इन्द्रिय-जीत नहीं बन पाते हैं | इसी कारण
ऐसे कर्मेन्द्रियों से हार खाने वाले कमज़ोर पुरुषार्थियों की,
ऊँच ते ऊँच बाप के बच्चे बनने के कारण, ऊँच बाप के संग के
कारण, पढ़ाई और पालना के कारण विश्व के अन्दर श्रेष्ठ आत्माएं
होने के कारण, आत्मा अर्थात् सालिग्राम रूप में पूजे जाते हैं,
लेकिन सर्व कर्मेन्द्रिय जीत न होने के कारण साकार रूप में
देवी और देवता के रूप में पूजा नहीं होती है | सम्पूर्ण पवित्र
न बनने के कारण सम्पूर्ण निर्विकारी महिमा योग देवी वा देवता
रूप की पूजा नहीं होती है | सदा बापदादा के दिलतख़्त-नशीन न
बनने के कारण वा सदा दिल में एक दिल लेने वाले बाप की याद वा
सदा दिल पर दिलवाला की याद नहीं रहती, इसलिए भक्त आत्माएं भी
अष्ट देव के रूप में दिल में नहीं समाती हैं | निरन्तर याद
नहीं तो सदाकाल का मन्दिर रूप में यादगार भी नहीं | तो फ़र्क पड़
गया ना? सिंगल पूजा और डबल पूजा में कितना अन्तर रहा! वह प्रजा
का पूजन रूप और वह राज्य पद प्राप्त करने वालों की पूजा का रूप
| इसमें भी अन्तर है |
विशेष देवताओं का हर कर्म का पूजन होता है और कोई-कोई देवताओं
का रोज़ पूजन होता है, परन्तु हर कर्म में नहीं | कोई-कोई का
कभी विशेष निश्चित दिनों पर होता है, इसका भी रहस्य है | अपने
आप से पूछो कि हम कौन से पूज्य बनते हैं? अगर कोई भी सब्जेक्ट
में विजयी नहीं बने, तो जैसे खण्डित मूर्ति का पूजन नहीं होता,
पूज्य से साधारण पत्थर बन जाते, कोई मूल्य नहीं रहता, ऐसे अगर
कोई भी सब्जेक्ट में सम्पूर्ण विजयी नहीं बनते तो परम पूज्य
नहीं बन सकते | पूज्य और गायन योग्य बनेंगे | गायन योग्य क्यों
बनते? क्योंकि बाप के बच्चे बनने के कारण, बाप के साथ-साथ
पार्ट बजाने के कारण, बाप की महिमा के गुणगान करने के कारण,
यथा शक्ति त्याग करने के कारण वा यथा शक्ति याद में रहने के
कारण गायन होता है |
और
पूजन का भी रहस्य है – एक पवित्रता के कारण पूजा है, दूसरा –
श्रेष्ठ आत्मा बन जो सर्वशक्तिमान् बाप द्वारा शक्तियों की
धारणा की है, उन शक्तियों की भी भिन्न रूप से यादगार रूप में
पूजा होती है | जैसे जिन आत्माओं ने विद्या अर्थात् ज्ञान धारण
करने की शक्ति सम्पूर्ण रूप में धारण की है तो ज्ञान अर्थात्
नॉलेज की शक्ति का यादगार सरस्वती के रूप में हैं | संहार करने
की शक्ति का यादगार दुर्गा के रूप में है | ज्ञान धन को देने
वाले महादानी, सर्व ख़ज़ानों के धन को देने वाली लक्ष्मी के रूप
में पूजे जाते हैं | हर विघ्न पर विजय प्राप्त करने का यादगार
– विघ्न विनाशक रूप में पूजा जाता है | मायाजीत अर्थात् माया
के विकराल रूप को भी सहज और सरल बनाने की शक्ति का पूजन,
महावीर के रूप में है | तो श्रेष्ठ आत्माओं के हर शक्ति और
श्रेष्ठ कर्म का भी पूजन होता है | शक्तियों का पूजन हर
देवी-देवता की पूजा के रूप में दिखाया हुआ है तो ऐसे पूज्य,
जिन्हों के हर श्रेष्ठ कर्म और शक्तियों का पूजन है उसको कहा
जाता है परम पूज्य | तो अब अपने को सम्पूर्ण मूर्ति बनाओ | चेक
करो कि खण्डित मूर्ति हूँ वा पूजनीय मूर्ति हूँ? गायन है
सम्पूर्ण निर्विकारी वा 16 कला सम्पन्न | सिर्फ़ निर्विकारी बने
हो या सम्पूर्ण निर्विकारी बने हो? अखण्ड योग है वा खण्डित
होता है? अचल है वा हलचल है? बाप क्या चाहते हैं? हर आत्मा बाप
समान सम्पूर्ण बनें | और बच्चे भी चाहते सब हैं, लेकिन करते
कोई-कोई हैं, इसलिए नम्बर बन जाते हैं | अच्छा, सुनते तो बहुत
हो | सुनना और करना – इनको समान बनाओ | समझा क्या करना है?
ऐसे
परम पूज्य, सदा एक बाप को साथ रखने वाले, हर कदम श्रेष्ठ मत के
आधार पर चलने वाले, ऐसे सृष्टि के आधार मूर्त, विश्व परिवर्तक
आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते |
पार्टियों से:
सदा
स्वयं को चलते-फिरते फ़रिश्ते अनुभव करते हो? फ़रिश्ता अर्थात्
जिसका देह वा देह की दुनिया से वा देह के पदार्थों की आकर्षण
से कोई रिश्ता नहीं | सदा बाप की याद और सेवा – इसी में रहने
वाले | सदा बाप और सेवा – यही लगन रहती है? सिवाए बाप और सेवा
के और क्या है जहाँ बुद्धि जाए? ट्रस्टी सदा न्यारा रहता है |
ट्रस्टी के लिए सिर्फ़ एक काम है – याद और सेवा | अगर कर्मणा भी
करते तो भी सेवा के निमित्त | गृहस्थी स्वार्थ के निमित्त करता
और ट्रस्टी सेवा अर्थ |
सर्व
सब्जेक्ट में सम्पन्न बनने का स्वतः पुरुषार्थ चलता है?
जैसे-जैसे समय के और सम्पूर्णता के समीप आते जाते हैं तो
पुरुषार्थ करने का स्वरूप भी बदलता जाता है | शुरू के
पुरुषार्थ, मध्यकाल के पुरुषार्थ और अन्तकाल के पुरुषार्थ में
फ़र्क है ना? अब सम्पूर्ण स्टेज के समीप का पुरुषार्थ क्या है?
जैसे कोई भी ऑटोमेटिक चलने वाली वस्तु को एक बारी स्टार्ट कर
दिया तो चलती रहती है, बार-बार चलाना नहीं पड़ता | इसी प्रकार
से एक बार लक्ष्य मिला और फिर ऑटोमेटिक हर कदम, हर संकल्प, समय
के चढ़ती कला प्रमाण चलता रहे – ऐसे अनुभव होता है? पुरुषार्थ
के समर्थ स्वरूप की निशानी क्या होगी? (समय के पहले पहुँचेंगे)
समय के पहले पहुँचने वालों की निशानी क्या होगी? वे सर्व
सब्जेक्ट के अनुभवी होंगे या किसी विशेष सब्जेक्ट के होंगे?
(सभी के) तो सब सब्जेक्ट में समान मार्क्स हैं? एडवान्स जाना
तो अच्छा है, लेकिन सब सब्जेक्ट में एडवान्टेज़ लेना – यह भी
ज़रूरी है | लक्ष्य अच्छा है और लक्ष्य में परिवर्तन भी है |
सदा
स्वयं को बाप के कार्य में वा अपने सहयोगी बनने वाले सहयोगी,
समीप आत्मा समझते हो? बाप के कार्य में जो जितना सहयोगी होगा
तो वह सहयोगी ही योगी बन सकता है | सहयोगी नहीं तो योगी नहीं |
सहयोग देना अर्थात् बाप और बाप के कार्य की याद में रहना |
लौकिक में भी किसी को सहयोग देते हो तो उसकी याद रहती है | तो
योगी अर्थात् सहयोगी | सहयोगी बनने से स्वतः योगी बन जाते और
दूसरा सहयोगी बनने से पदमगुणा जमा कर लेते | सहयोग क्या देते?
पुराने तन को वा तमोगुणी मन को, उसकी याद से सतोप्रधान बनाकर
सेवा में लगाते या चावल चपटी धन लगाते | और क्या लगाते?
तन-मन-धन तीनों से सहयोगी बनना अर्थात् योगी बनना | गीत गाते
हो ना – जहाँ तन जायेगा, धन भी वहाँ ही लगायेंगे | तो यह
निरन्तर योगी बनने का सहज साधन है क्योंकि सहयोगी बनने से,
सहयोग का रिटर्न मिलने से योग सहज हो जाता है | तो हर संकल्प
वा कर्म से बाप के सहयोगी बनो | हर सेवा में, कार्य में सहयोगी
बनने से व्यर्थ ख़त्म हो जायेगा, क्योंकि बाप का कार्य समर्थ है
| ऐसा सहयोगी तीव्र पुरुषार्थी ऑटोमेटिक हो जाता है |
सदा
अपने को निश्चय बुद्धि निश्चिन्त आत्मा अनुभव करते हो? जो
निश्चय बुद्धि होगा वह निश्चिन्त होगा | किसी प्रकार का चिन्तन
वा चिन्ता नहीं होगी | क्या हुआ? क्यों हुआ? ऐसे नहीं होता –
यह व्यर्थ चिन्तन है | निश्चय बुद्धि निश्चिन्त होगा वह व्यर्थ
चिन्तन नहीं करेगा | सदा स्वचिन्तन में रहने वाले, स्वस्थिति
में रहने से परिस्थिति पर विजय प्राप्त करते हैं | दूसरे तरफ़
से आई हुई परिस्थिति को स्वीकार क्यों करते? परिस्थिति से
किनारा करो तो स्व–चिन्तन में रहेंगे | और जो स्व-चिन्तन में
स्थित रहता. है वह सदा सुख के सागर में समाया हुआ रहता | सुख
के सागर में समाए हुए हो? जब बाप सुख का सागर है तो बच्चे
मास्टर सुख के सागर हुए | संकल्प में भी दुःख की लहर आती है कि
सदा सुखी रहते हो? सुख के सागर के मास्टर उसमें दुःख हो ही
नहीं सकता | अगर दुःख आता है तो मास्टर दुःख के सागर हुए |
उनके पास रावण आँख से भी आता, कान से भी आता, मुख से भी आता |
सर्वशक्तिमान् के आगे रावण आ नहीं सकता | बाप की याद सबसे बड़े
से बड़ी सेफ्टी है |
जो
माया वा विघ्नों से कभी धोखा नहीं खाता, वह सदा ऐसे दिखाई देगा
जैसे इस दुनिया से न्यारा और प्यारा है | तो कमल पुष्प समान
रहते हो कि कीचड़ के छींटे पड़ जाते हैं? अगर श्रीमत पर हर कदम
उठाएं तो सदा कमल पुष्प रहेंगे | मनमत मिक्स होने से सदा कमल
नहीं रह सकते | संसार सागर की कोई लहर का प्रभाव पड़ना अर्थात्
पानी के छींटे पड़ना |
संगमयुग का श्रेष्ठ ख़ज़ाना अतीन्द्रिय सुख है, इस ख़ज़ाने की
प्राप्ति का अनुभव करते हो? अतीन्द्रिय सुख का ख़ज़ाना प्राप्त
हुआ है? ख़ज़ाना मिला हुआ खो क्यों जाता है? पहरा कौन सा है?
अटेन्शन | अटेन्शन कम करना अर्थात् अपने प्राप्त किए हुए ख़ज़ाने
को खो देना | सारे कल्प में फिर यह ख़ज़ाना प्राप्त होगा? तो ऐसी
अमूल्य चीज़ कितनी सम्भाल कर रखनी होती है! स्थूल में भी बढ़िया
चीज़ सम्भाल कर रखते हैं | जैसे वहाँ भी पहरेदार अलबेले होते तो
नुकसान कर देते, यहाँ भी अलबेलापन आता तो ख़ज़ाना खो जाता है |
बार-बार अटेन्शन चाहिए | ऐसे नहीं अमृतवेले याद में बैठे,
अटेन्शन दिया फिर चलते-फिरते खो दिया | अमृतवेले अटेन्शन देते
और समझते सब कुछ कर लिया, लेकिन चलते-फिरते भी अटेन्शन देना है
| अतीन्द्रिय सुख का अनुभव अभी नहीं किया तो कभी नहीं करेंगे |
पाँच हज़ार वर्ष के हिसाब से यह कितना श्रेष्ठ समय है! इतनी
श्रेष्ठ प्राप्ति के लिए थोड़ा समय भी अटेन्शन नहीं रखेंगे तो
क्या करेंगे? कर्म और योग दोनों साथ चाहिए | योग माना ही याद
का अटेन्शन, जैसे कर्म नहीं छोड़ते वैसे याद भी न छूटे, इसको
कहा जाता है कर्मयोगी |
पाण्डवों की जो विशेषता गाई हुई है वह जानते हो? पाण्डवों की
विजय का मुख्य आधार – एक बाप दूसरा न कोई | पाण्डवों का संसार
बाप था | यह किसका यादगार है? आपका यादगार हर कल्प गाया जाता
है | तो ऐसे अनुभव होता है? संसार भी बाप है | जहाँ देखो वहाँ
बाप ही नज़र आता है? संसार में सम्बन्ध और सम्पत्ति होती, तो
सम्बन्ध भी बाप में है और सम्पत्ति भी बाप में है और बाकी कुछ
रह गया है? पाण्डव अर्थात् जिसका संसार ही बाप है | ऐसे पाण्डव
हर कार्य में विजयी होंगे ही | होंगे या नहीं, यह सवाल नहीं उठ
सकता है | कर्म करने के पहले संकल्प उठता है – होगा या नहीं
होगा कि हुआ ही पड़ा है यह निश्चय है? पाण्डवों को पहले ही
निश्चय होता – हमारी जीत है, क्योंकि सर्वशक्तिमान् साथ है |
पाण्डव अर्थात् सदा विजयी रत्न | विजयी रत्न ही बाप को प्रिय
लगते हैं |
वरदान:-
दिल
में एक दिलाराम को समाकर एक से सर्व सम्बन्धों की अनुभूति करने
वाले सन्तुष्ट आत्मा भव
! 
नॉलेज को समाने का स्थान दिमाग़ है लेकिन माशूक को समाने का
स्थान दिल है | कोई-कोई आशिक दिमाग़ ज़्यादा चलाते हैं लेकिन
बापदादा सच्ची दिल वालों पर राज़ी है इसलिए दिल का अनुभव दिल
जाने, दिलाराम जाने | जो दिल से सेवा करते वा याद करते हैं
उन्हें मेहनत कम और सन्तुष्टता ज़्यादा मिलती है | दिल वाले सदा
सन्तुष्टता के गीत गाते हैं | उन्हें समय प्रमाण एक से सर्व
सम्बन्धों की अनुभूति होती है |
स्लोगन:-
अमृतवेले
प्लेन बुद्धि होकर बैठो तो सेवा की नई विधियाँ टच होंगी
|
ओम्
शान्ति
|