03-05-15
प्रात:मुरली ओम् शान्ति “अव्यक्त-बापदादा”
रिवाइज:28-11-79
मधुबन
प्रवृत्ति में रहते भी निवृत्ति में कैसे रहें?
आज
बापदादा अपने कल्प पहले वाले सिकीलधे कोटों में से कोई,
बाप
को जानने और वर्सा पाने वाले किसी विशेष ग्रुप को देख रहे थे।
कौन-सा ग्रुप होगा?
आज
विशेष प्रवृत्ति में रहने वाले बच्चों को देख रहे थे। चारों ओर
बच्चों के प्रवृत्ति के स्थान भी देखे। व्यवहार के स्थान भी
देखे। परिवार भी देखे और आज की तमोगुणी प्रकृति और
परिस्थितियों का प्रभाव क्या-क्या पड़ता है,,
राज्य का प्रभाव क्या-क्या पड़ता है यह हाल-चाल देख रहे थे।
देखते-देखते कई बच्चों की कमाल भी देखी कि कैसे प्रवृत्ति में
रहते हुए भी निव्रृत रहते हैं। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का
बैलेन्स रखने वाले बहुत अच्छा श्रेष्ठ पार्ट बजा रहे हैं।। सदा
बाप के साथी और साक्षी हो बहुत अच्छा पार्ट बजाते,
विश्व के आगे प्रत्यक्ष प्रमाण बने हुए हैं। सदा बाप की याद की
छत्रछाया के अन्दर किसी भी प्रकार की माया के वार से व माया के
अनेक आकर्षण से सदा सेफ रहने वाले हैं।
ऐसे
विश्व से न्यारे और निराले बच्चों को देखकर बाप भी बच्चों के
गुण गाते हैं। कई ऐसे बच्चे देखे जो रहते प्रवृत्ति के स्थान
पर हैं। लेकिन सच्चे बच्चे होने के कारण साहेब उन पर सदा राजी
रहते हैं। न्यारे और प्यारे के राज को जानने के कारण सदा स्वयं
से भी राजी रहते हैं। प्रवृत्ति को भी राजी रखते हैं। साथ-साथ
बाप-दादा भी सदैव उन पर राजी रहते हैं। ऐसे स्वयं को और सर्व
को राजी रखने वाले राज युक्त बच्चों को कभी भी अपने प्रति व
अन्य किसी के प्रति किसी को काजी बनाने की जरूरत नहीं रहती
क्योकि केस ही नहीं जो काजी बनाना पड़े। कई बार सुना है ना
“मिया
बीबी राजी तो क्या करेगा काजी।”
अपने
ही संस्कारों के केस अपने पास बहुत होते हैं,
जिस
पर अपने अन्दर ही बहस चलती रहती है। राइट है या रांग है,
होना
चाहिए या नहीं होना चाहिए,
कहाँ
तक होना चाहिए,
यह
बहस चलती रहती है। और जब अपने आप फैंसला नहीं कर पाते तो
दूसरों को काजी बनाना पड़ता है। फिर किसी की छोटी बात होती है,
किसी
की लम्बी होती है। अगर बाप और आप दोनों मिलकर फैंसला कर दो तो
सेकेण्ड में समाप्त हो जाए और किसी को काजी या वकील या जज
बनाने की जरूरत ही नहीं।
प्रवृत्ति का कायदा होता है कि अगर कोई भी बात प्रवृत्ति में
होती है तो माँ-बाप बच्चों तक भी पहुँचने नहीं देते हैं! वहाँ
ही स्पष्ट कर समा देते हैं अर्थात् समाप्त कर देते हैं। अगर
तीसरे तक बात गई तो फैलेगी जरूर। और जितना कोई बात फैलती है
उतना बढ़ती है। जैसे स्थूल आग जितनी फैलेगी उतना नुकसान करेगी।
यह भी छोटी-छोटी बातें भिन्न-भिन्न प्रकार के विकारों की आग
है। आग को वहाँ ही बुझाया जाता है,
फैलाया नहीं जाता। प्रवृत्ति में बाप और आप के सिवाए तीसरी
समीप आत्मा अर्थात् परिवार की आत्माओं में भी बात फैलनी नहीं
चाहिए। मियाँ बीबी राजी हो जाओ। नाराज अर्थात् राज को न जानने
के बराबर। कोई-न-कोई ज्ञान का राज मिस करते हो तब नाराज होते
हो। चाहे स्वयं से या दूसरों से। तो वकील करने से वही छोटी बात
बड़ा केस बन जाती है इसलिए तीसरे को सुनाना अर्थात् घर की बात
को बाहर निकालना। जैसे आजकल की दुनिया में जो बड़े केस होते हैं
वह अखबार तक फैल जाते हैं तो यहाँ भी ब्राह्मण परिवार के अखबार
में पड़ जाते हैं। तो क्यों नहीं आपस में फैंसला कर लो। बाप
जाने और आप जानें तीसरा कोई नहीं। कोई-कोई बच्चों का संकल्प
पहुँचता है कि मियाँ बीबी तो ठीक लेकिन मियाँ निराकार और बीबी
साकार तो मेल कम होता है इसलिए कभी मिलन होता है,
कभी
नहीं होता है - कभी रूह-रूहान पहुँचती है कभी नहीं पहुँचती
अर्थात् रेसपान्स नहीं मिलता है इसलिए काजी करना पड़ता है।
लेकिन मियाँ ऐसा मिला है जो बहुरूपी है। जो रूप आप चाहो तो एक
सेकेण्ड में जी हजूर कह हाजर हो सकते हैं लेकिन आप भी बाप समान
बहुरूपी बनो।
बाप
तो एक सेकेण्ड में आप को उड़ाकर वतन में ले जायेंगे,
बाप
वतन से आकार में आते हैं,
आप
साकार से आकार में आओ। मिलने के स्थान पर तो पहुँचो। स्थान भी
तो ऐसा बढ़िया चाहिए ना! सूक्ष्म वतन आकारी वतन मिलने का स्थान
है। समय भी फिक्स है,
अपायन्टमेन्ट भी है,
स्थान भी फिक्स है,
फिर
क्यों नहीं मिलन होता?
सिर्फ गलती क्या करते हो कि मिट्टी के साथ वहाँ आना चाहते हो।
यह देह मिट्टी है। जब मिट्टी का काम करना है तब करो। लेकिन
मिलने के समय इस देह के भान को छोड़ना पड़े। जो बाप की ड्रेस वह
आपकी ड्रेस होनी चाहिए। समान होना चाहिए ना! जैसे बाप निराकार
से आकारी वस्त्र धारण करते हैं। आकारी और निराकारी बाप-दादा बन
जाते हैं - आप भी आकारी फरिश्ता ड्रेस पहन कर आओ। चमकीली ड्रेस
पहन कर आओ तब मिलन होगा। ड्रेस पहनना नहीं आता है क्या?
ड्रेस पहनो और पहुँच जाओ,
यह
ऐसी ड्रेस है जो माया के वाटर या फायर प्रूफ है। इस पुरानी
दुनिया के वृत्ति और वायब्रेशन प्रूफ है। इतनी बढ़िया ड्रेस
आपको दी है फिर वह अपायन्टमेन्ट के टाइम पर भी नहीं पहनते।
पुरानी ड्रेस से ज्यादा प्रीत है क्या?
जब
दोनों समान चमकीली ड्रेस वाले होंगे और चमकीले वतन में होंगे
तब अच्छा लगेगा। एक पुरानी ड्रेस वाला और एक चमकीली ड्रेस वाला,
जोड़ी
मिल नहीं सकती,
इसलिए अनुभव नहीं होता। पुराने वायब्रेशन्स इन्टरफियर कर देते
हैं इसलिए आपसी रूह-रूहान का रेसपान्स नहीं मिलता है। क्लीयर
समझ में नहीं आता इसलिए औरों का अल्पकाल का सहारा लेना पड़ता
है।
वैसे
यह मियाँ बीबी का नाता इतना स्नेही और समीप का है जो इशारे से
भी समझ लें। इशारे से भी सूक्ष्म संकल्प में ही समझ लें। यह
ऐसा प्रीत का नाता है। फिर बीच में तीसरे को क्यों डालते हो?
तीसरे को डालना अर्थात् अपनी एनर्जी और टाइम को वेस्ट करना।
हाँ,
यह
रूह-रूहान करो कि मेरा मिलन कैसे हुआ,
मेरी
रूह-रूहान क्या हुई,
हम-शरीक सहयोगी बन आपस में रूह-रूहान करो। काजी बना के
रूह-रूहान नहीं करो। केस लेकर रूह-रूहान नहीं करो - तो काजी को
छोड़ दो और राजी हो जाओ। जब पसन्द कर लिया फिर बीच में किसी को
क्यों डालते हो?
बीच
में डालते हो तो बीच भँवर में आ जाते हो। बचाने की मेहनत फिर
भी मियाँ को ही करनी पड़ती है इसलिए विश्व-कल्याण का कार्य रह
जाता है। फिर पूछते हैं विनाश कब होगा?
अब
बीबियाँ तैयार ही नहीं तो विनाश कैसे करें। समझा,
विनाश क्यों नहीं हो रहा है?
ड्रेस का परिवर्तन करने नहीं आता तो विश्व को कैसे परिवर्तन
करेंगे। अच्छा,
अब
प्रवृत्ति वालों का हाल-चाल फिर सुनायेंगे। आज तो आप की
प्रवृत्ति का हाल सुनाया।
ऐसे
सदा राज युक्त,
युक्तियुक्त,
सदा
समीप सम्बन्ध में रहने वाले,
सदा
राजी रहने वाले और सर्व को राजी रखने वाले,
सदा
मिलन मनाने वाले,
ऐसे
सदा बाप के साथी और साक्षी बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और
नमस्ते।
टीचर्स के प्रति अव्यक्त महावाक्य:-
टीचर्स अर्थात् बाप समान सर्वश्रेष्ठ आत्मायें। टीचर्स को हर
वर्ष कोई नया प्लैन बनाना चाहिए। सेवा के प्लैन तो स्टूडेन्ट्स
भी बनाते हैं। लेकिन टीचर्स को विशेष क्या करना है?
अब
ऐसा अपना संगठन बनाओ जो सबके मुख से यह निकले कि यह अनेक होते
भी एक हैं। जैसे यहाँ दीदी-दादी दो हैं लेकिन कहते हैं दोनों
एक हैं तो यह प्रभाव पड़ता है ना। जब ये दो होते हुए भी एक-समान
एक दूसरे को रिगार्ड देते,
दो
होते हुए एक दिखा रही हैं तो आप अनेक होते हुए एक का प्रमाण दे
सकते हो। जैसे कहते हैं कि सब की वाणी एक ही होती है,
जो
एक बोलती वही सब बोलते हैं,
ड्रैस भी एक जैसी,
वाणी
सबकी एक ही ज्ञान के पॉइन्ट्स की होती,
भले
सुनाने का ढंग अलग हो,
सार
एक ही होता है। वैसे ऐसा ग्रुप बनाओ जो सब कहें यह अनेक नहीं
हैं,
एक
हैं। यही विशेषता है ना। तो एक्जैम्पल कोई निमित्त बनें जिसको
फिर सब फालो करेंगे। इसमें जो ओटे सो अर्जुन। तो कौन अर्जुन
बनेगा?
जो
अर्जुन बनेंगे उसे फर्स्ट प्राइज मिलेगी। सिर्फ एक बात का
ध्यान देना पड़ेगा। कौन-सी बात?
क्या
करना पड़ेगा?
सिर्फ एक दूसरे को सहयोग दे,
विशेषता देखते हुए,
कमजोरियों को न देखना,
न
सुनना,
यह
अभ्यास पक्का करना पड़ेगा। देखते हुए भी कमजोरी को समाकर सहयोग
देते रहें। तिरस्कार नहीं करें लेकिन तरस की भावना रखें। जैसे
दु:खी आत्माओं के ऊपर रहमदिल बनते हो वैसे कमजोरियों के ऊपर भी
रहमदिल बनो। अगर ऐसे रहमदिल बन गये तो क्या हो जायेगा?
अनेक
होते हुए भी एक बन जायेंगे। वैसे भी लौकिक में देखो - जो
समझदार परिवार होते हैं,
स्नेही परिवार होते हैं वह क्या करते हैं,
एक
दूसरे की कमजोरी की बात समाकर,
एक-दूसरे के सहयोगी बनकर बाहर अपना नाम बाला करते हैं। अगर कोई
परिवार में गरीब होता है तो उसको मदद देकर के भरपूर कर देते
हैं। यह भी परिवार है। अगर कोई संस्कार के वश हैं,
तो
क्या करना चाहिए। सहयोग देकर,
हिम्मत बढ़ाकर के हुल्लास में लाते हुए उसको अपना साथी बनाना
चाहिए फिर देखो अनेक होते भी एक हो जायेंगे। यह करना मुश्किल
है क्या?
जब
वरदानी मूर्त हो तो वरदानी कभी किसी की कमजोरी नहीं देखते। तो
क्या करेंगे?
ऐसा
कोई आत्मिक बाम लगाके दिखाओ। टीचर्स का कर्तव्य ही यह है। जैसे
बाप कमजोरी दिल पर नहीं रखते लेकिन दिलाराम बनकर दिल को आराम
देते हैं तो टीचर्स अर्थात बाप समान। किसी की कमजोरी तो देखो
ही नहीं। दिल पर धारण नहीं करो लेकिन हरेक की दिल को दिलाराम
समान आराम दो। तो सब आपके गुणगान करेंगे। साथी हों चाहे प्रजा
हो,
हर
आत्मा के मुख से दुआयें निकलें। आपके लिए आशीर्वाद निकले कि यह
सदा स्नेही और सहयोगी आत्मा है,
यह
बाप-समान रहमदिल,
दिलाराम की बच्ची दिलाराम है,
तब
कहेंगे योग्य टीचर। अगर टीचर ही कमी देखें तो स्टूडेन्ट और
टीचर में अन्तर ही क्या हुआ?
टीचर
तो बाप के गद्दी नशीन हैं। साथ में बाप की गद्दी पर विराजमान
हो ना। सबसे समीप तो साथी ही बैठेंगे ना। टीचर अर्थात्
गद्दी-नशीन। तो ऐसी कमाल करके दिखाओ। समझा टीचर किसको कहते हैं?
इसमें कोई भी प्राईज ले सकता है। टीचर के मुख से कभी भी किसी
की कमजोरी वर्णन नही होनी चाहिए,
विशेषता ही वर्णन हो। टीचर का अर्थ ही है बाप-समान हिम्मतहीन
की लाठी बनने वाली। समझा,
टीचर
किसको कहते हैं?
विस्तार तो अच्छा बना रही हो। अब संगठन का सार बनाना है।
पार्टियों से:-
बापदादा बच्चों का कौन-सा स्वरूप सदा देखते हैं?
बाप
बच्चों का सदा सम्पन्न,
सम्पूर्ण स्वरूप ही देखते हैं क्योंकि बाप जानते हैं कि भले आज
जरा हलचल में हैं लेकिन अचल होना ही है। थे और वही पार्ट बजाकर
सम्पन्न बनना ही है,
बीच
की हलचल है,
न थी,
न
रहेगी। यह मध्यकाल की बात है इसलिए बाप सदा हर बच्चे को
श्रेष्ठ रूप में देखते हैं। तो बच्चों को क्या करना चाहिए?
बच्चों को भी अपना सदा श्रेष्ठ रूप ही दिखाई दे। फिर कभी भी
नीचे आयेंगे ही नहीं। नीचे तो कितना जन्म रहे हो। 63 जन्म
उतरने का ही अनुभव किया। अब तो उतरते-उतरते थक गये हो ना कि
अभी भी टेस्ट करनी है। अब चढ़ना ही चढ़ना है। उतरना समाप्त हुआ
सिर्फ संगमयुग ही चढ़ने का युग है फिर तो उतरना शुरू हो जायेगा।
अगर इतने थोड़े से समय में भी उतरना चढ़ना होता रहेगा तो फिर कब
चढ़ेंगे। जैसे औरों को कहते हो अब नहीं तो कभी नहीं। ऐसे अपने
को भी यही स्मृति दिलानी है। अब नहीं चढ़े तो उतरना शुरू हो
जायेगा। तो सदा चढ़ती कला। इसमें बहुत मजा आयेगा। इस जीवन में
अप्राप्त कोई वस्तु नजर नहीं आयेगी। भविष्य जीवन में तो
अप्राप्ति और प्राप्ति के जीवन का पता ही नहीं होगा,
अभी
दोनों का पता है तो मजा अभी है ना। ब्राह्मण बनना अर्थात्
चाहिए-चाहिए समाप्त। जब बाप ने सर्व खजाने दे दिये,
चाबी
भी दे दी फिर मांगते क्यों हो?
क्या
कुछ छिपाकर रख लिया है जो कहते हो चाहिए! बाप ने बिना मांगे सब
दे दिया। आपका मांगने का रूप भी बाप को अच्छा नहीं लगता। विश्व
के मालिक के बालक मांगें तो अच्छा लगेगा?
जो
आप को जरूरत है वह सब दे ही दिया। तो अब क्या करेंगे। इसी नशे
में रहो कि हम विश्व के मालिक के बालक हैं तो मांगना समाप्त हो
जायेगा।
अब
मायाजीत का झण्डा चारों ओर बुलन्द करो,
जब
यह झण्डा बुलन्द हो जायेगा तो सब झण्डे नीचे झुक जायेंगे। अभी
रस्सी खींच रहे हो। जब झण्डा चढ़ जायेगा तो प्रत्यक्षता के
फूलों की वर्षा होगी।
एक
दो को सहयोगी बनाकर मायाजीत के वायब्रेशन्स फैलाओ,
अब
ऐसा किला मजबूत करो। इतना किला पक्का हो जो माया की हिम्मत ही
न रहे। अगर किसी में आये भी तो उसे दूर से भगा दो।
वरदान:-
संगमयुग की सर्व प्राप्तियों को स्मृति में रख चढ़ती कला का
अनुभव करने वाले श्रेष्ठ प्रारब्धी भव
! 
परमात्म मिलन वा परमात्म ज्ञान की विशेषता है-अविनाशी
प्राप्तियां होना। ऐसे नहीं कि संगमयुग पुरुषार्थी जीवन है और
सतयुगी प्रारब्धी जीवन है। संगमयुग की विशेषता है एक कदम उठाओ
और हजार कदम प्रारब्ध में पाओ। तो सिर्फ पुरुषार्थी नहीं लेकिन
श्रेष्ठ प्रारब्धी हैं-इस स्वरूप को सदा सामने रखो। प्रारब्ध
को देखकर सहज ही चढ़ती कला का अनुभव करेंगे।
“पाना
था सो पा लिया”-यह
गीत गाओ तो घुटके और झुटके खाने से बच जायेंगे।
स्लोगन:-
ब्राह्मणों का श्वांस हिम्मत है,
जिससे कठिन से कठिन कार्य भी आसान हो जाता है। 