26-04-15    प्रात:मुरली    ओम् शान्ति  अव्यक्त-बापदादा”   रिवाइज:26-11-79   मधुबन
 


प्रीत की रीति

बापदादा सर्व बच्चों की याद और प्यार का रिटर्न देने के लिए बच्चों के समान साकार रूप में आते हैं क्योंकि समान बनना ही स्नेह का रिटर्न है। बाप बच्चों के सदा स्नेही और सदा के आज्ञाकारी हैं। बच्चे बुलाते हैं और बाप आ जाते हैं, समान बन जाते हैं। बाप परकाया प्रवेश होकर भी प्रीत की रीति निभाने आ जाते हैं। अब बच्चों को क्या करना है? वैसे तो सब बच्चे स्नेही हैं, मधुबन निवासी बनना ही स्नेह का रिटर्न है। दूर-दूर से भाग आना, यह भी स्नेह है। सम्पूर्ण स्नेह का रिटर्न क्या है? स्नेही तो हो। साथ-साथ बाप का भी स्नेह है। सदा एक संकल्प है कि सर्व बच्चे बाप समान बन जाएं। जैसे बाप आप सबके समान, स्नेह के कारण, साकार वतन निवासी, साकार रूपधारी बन जाते हैं वैसे आप सब बाप-समान आकारी अव्यक्त वतन निवासी बनो या निराकारी बाप के गुणों समान सर्व गुणों में भी मास्टर बन जाओ- इसको कहा जाता है सम्पूर्ण स्नेह का रिटर्न। ऐसे सम्पूर्ण स्नेह का रिटर्न देने वाले बने हो या बनना है? बने जरूर हो लेकिन नम्बरवार। आज बापदादा सर्व स्नेही बच्चों का खेल देख रहे थे। क्या खेल होगा? खेल देखना तो आपको भी अच्छा लगता है। क्या देखा? अमृतवेले का समय था। हरेक आत्मा, जो पक्षी समान उड़ने वाली है अथवा रॉकेट की गति से भी तेज़ उड़ने वाली है, आवाज़ की गति से भी तेज़ जाने वाली है, सब अपने-अपने साकार स्थानों पर, जैसे प्लेन एरोड्रोम पर आ जाते हैं वैसे सब अपने रूहानी एरोड्रोम पर पहुँच गये। लक्ष्य और डायरेक्शन सबका एक ही था। लक्ष्य था उड़कर बाप समान बनने का और डायरेक्शन था एक सेकेण्ड में उड़ने का। क्या हुआ? जैसे साइन्स के साधन एरोप्लेन जब उड़ते हैं तो पहले चेकिंग होती है फिर माल भरना होता है। जो भी उसमें चाहिए - जैसे पेट्रोल चाहिए, हवा चाहिए, खाना चाहिए, जो भी चाहिए, उसके बाद धरती को छोड़ना होता है फिर उड़ना होता है। ब्राह्मण आत्मा रूपी विमान भी अपने स्थान पर तो आ ही गये। लेकिन जो डायरेक्शन था अथवा है एक सेकेण्ड में उड़ने का, उसमें कोई चेकिंग करने में रह गये। मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ - इसी चेकिंग में रह गये और कोई ज्ञान के मनन द्वारा स्वयं को शक्तियों से सम्पन्न बनाने में रह गये। मैं मास्टर ज्ञानस्वरूप हूँ, मैं मास्टर सर्वशक्तिमान हूँ - इस शुद्ध संकल्प तक रहे, लेकिन स्वरूप नहीं बन पाये। तो दूसरी स्टेज भरने तक रह गये और कोई फिर भरने में बिज़ी होने के कारण उड़ने से रह गये क्योंकि शुद्ध संकल्प में तो रमण कर रहे थे लेकिन यह देह रूपी धरती को छोड़ नहीं सकते थे। अशरीरी स्टेज पर स्थित नहीं हो पाते थे। बहुत चुने हुए थोड़े से बाप के डायरेक्शन प्रमाण सेकेण्ड में उड़कर सूक्ष्मवतन या मूलवतन में पहुँचे। जैसे बाप प्रवेश होते हैं और चले जाते हैं, तो जैसे परमात्मा प्रवेश होने योग्य है वैसे मरजीवा जन्मधारी ब्राह्मण आत्मायें अर्थात् महान आत्मायें भी प्रवेश होने योग्य हैं। जब चाहो कर्मयोगी बनो, जब चाहो परमधाम निवासी योगी बनो, जब चाहो सूक्ष्मवतन वासी योगी बनो। स्वतंत्र हो। तीनों लोकों के मालिक हो। इस समय त्रिलोकीनाथ हो। तो नाथ अपने स्थान पर जब चाहें तब जा सकते हैं।

कई बच्चों का एक संकल्प पहुँचता है कि बाप तो निर्बन्धन हैं और हमें तो देह का बन्धन है, कर्म का बन्धन है। लेकिन बाप-दादा यह क्वेश्चन पूछते हैं अब तक क्या देह सहित त्याग नहीं किया है? पहला-पहला वायदा है सब बच्चों का कि तन-मन-धन तेरा न कि मेरा। जब तेरा है, मेरा है ही नहीं तो फिर बन्धन काहे का? यह तो लोन पर बाप-दादा ने दिया है। आप ट्रस्टी हो, न कि मालिक। जब मरजीवा बन गये तो 83 जन्मों का हिसाब समाप्त हो गया। अब यह नया 84 वाँ जन्म है। इस जन्म की तुलना और जन्मों से कर ही नहीं सकते हो। इस दिव्य जन्म का बन्धन नहीं, सम्बन्ध है। कर्मबन्धनी जन्म नहीं, यह कर्मयोगी जन्म है। इस अलौकिक दिव्य जन्म में ब्राह्मण आत्मा स्वतंत्र है न कि परतत्र। तेरे को मेरे में लाते हो तब परतत्र होते हो। मेरा पहला हिसाब, मेरा पहला संस्कार आया कहाँ से? अगर ऐसे स्वतंत्र होकर रहो कि यह लोन मिली हुई देह है तो सेकेण्ड में उड़ सकते हो। जो वायदे करते हो कि जहाँ बिठायेंगे वहाँ बैठेंगे, जो कहेंगे वह करेंगे। तो बाप की बन्धनी आत्मा हो या कर्म-बन्धनी आत्मा हो? यह भी बाप ने डायरेक्शन दिया है कि कर्म करो। आप स्वतंत्र हो, चलाने वाला चला रहा है, आप चल रहे हो। आपकी सरस्वती माँ की यह विशेष धारणा थी हुक्मी हुक्म चला रहा है तब नम्बर आगे ले लिया। फॉलो फादर और मदर।

कर्मभोग है’, ‘कर्मबन्धन है’,‘संस्कारों का बन्धन है’, ‘संगठन का बन्धन है’ - इस व्यर्थ संकल्प रूपी जाल को अपने आप ही इमर्ज करते हो और अपने ही जाल में स्वयं फँस जाते हो, फिर कहते हो कि अभी छुड़ाओ। बाप कहते हैं कि तुम हो ही छूटे हुए। छोड़ो तो छूटो। अब निर्बन्धनी हो या बन्धनी हो? पहले ही शरीर छोड़ चुके हो, मरजीवा बन चुके हो। यह तो सिर्फ विश्व की सेवा के लिए शरीर रहा हुआ है, पुराने शरीरों में बाप शक्ति भर कर चला रहे हैं। जिम्मेवारी बाप की है, फिर आप क्यों ले लेते हो? ज़िम्मेवारी सम्भाल भी नहीं सकते हो लेकिन छोड़ते भी नहीं हो। ज़िम्मेवारी छोड़ दो अर्थात् मेरा-पन छोड़ दो। मेरा पुरूषार्थ, मेरी इन्वेन्शन, मेरी सर्विस, मेरी टचिंग, मेरे गुण बहुत अच्छे हैं, मेरी हैन्डलिंग-पॉवर बहुत अच्छी है। मेरी निर्णय शक्ति बहुत अच्छी है। मेरी समझ ही यथार्थ है। बाकी सब मिसअन्डरस्टैन्डिंग में हैं। यह मेरा-मेरा आया कहाँ से? यही रॉयल माया है, इससे मायाजीत बन जाओ तो सेकेण्ड में प्रकृति जीत बन जायेंगे। प्रकृति का आधार लेंगे लेकिन अधीन नहीं बनेंगे। प्रकृतिजीत ही विश्व जीत व जगतजीत हैं। फिर एक सेकेण्ड का डायरेक्शन अशरीरी भव का सहज और स्वतः हो जायेगा। खेल क्या देखा? तेरे को मेरे बनाने में बड़े होशियार हैं। जैसे जादू मत्र से जो कोई कार्य करते हैं तो पता नहीं पड़ता कि हम क्या कर रहे हैं। यह रॉयल माया भी जादू-मत्र कर देती है जो पता ही नहीं पड़ता कि हम क्या कह रहे हैं। अब क्या करेंगे? अब कर्मबन्धनी से कर्म योगी समझो। अनेक बन्धनों से मुक्त एक बाप के सम्बन्ध में समझो तो सदा एवर-रेडी रहेंगे। संकल्प किया और अशरीरी बना, यह प्रैक्टिस करो। कितना भी सेवा में बिज़ी हो, कार्य की चारों ओर की खींचातान हो, बुद्धि सेवा के कार्य में अति बिज़ी हो - ऐसे टाइम पर अशरीरी बनने का अभ्यास करके देखो। यथार्थ सेवा का कभी बन्धन होता ही नही क्योंकि योग युक्त, युक्ति युक्त सेवाधारी सदा सेवा करते भी उपराम रहते हैं। ऐसे नहीं कि सेवा ज्यादा है इसलिए अशरीरी नहीं बन सकते। याद रखो मेरी सेवा नहीं बाप ने दी है तो निर्बन्धन रहेंगे। ट्रस्टी हूँ, बन्धन मुक्त हूँ ऐसी प्रैक्टिस करो। अति के समय अन्त की स्टेज, कर्मातीत अवस्था का अभ्यास करो तब कहेंगे तेरे को मेरे में नहीं लाया है। अमानत में ख्यानात नहीं की है समझा, अभी का अभ्यास क्या करना है? जैसे बीच-बीच में संकल्पों की ट्रैफिक का कन्ट्रोल करते हो वैसे अति के समय अन्त की स्टेज का अनुभव करो तब अन्त के समय पास विद आनर बन सकेंगे।

ऐसे सदा बन्धन मुक्त, बाप-समान जब चाहें प्रकृतिजीत, संकल्प और संस्कार में भी ट्रस्टी सदा देह की स्मृति से भी उपराम, ऐसे विश्व-उपकारी विश्व-कल्याणकारी बच्चों को बाप-दादा का याद, प्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ अव्यक्त बाप-दादा की मुलाकातः- (बाम्बे और पूना ज़ोन)

1) सदा अपने मस्तक पर भाग्य का सितारा चमकता हुआ दिखाई देता है? या सितारे की चमक के आगे कभी-कभी माया के बादल भी आ जाते हैं? अगर बादल होते हैं तो सितारे छिप जाते हैं और बादल नहीं होते तो बहुत सुन्दर चमकते रहते हैं। ऐसे आपके भाग्य का सितारा सदा चमकता है या बादल आ जाते हैं? ब्राह्मण बने और सितारा चमका, लेकिन सितारे के आगे बादल न आएं। सितारे की चमक छिपने न दें, यह है अटेन्शन। जैसे फोटो निकालते हैं, अगर बादल आगे आ जाएं तो फोटो ठीक निकलेगा? फीचर्स ही नहीं दिखाई देंगे, ऐसे ही अगर चमकते हुए सितारे के आगे बादल आ जाएं तो साक्षात्कार कैसे करायेंगे। आप तो बाप को प्रत्यक्ष कराने वाले अर्थात् स्वयं द्वारा बाप का साक्षात्कार कराने वाले हो। बादलों के बीच से कैसे साक्षात्कार होगा? तो साक्षात्कार कब करायेंगे? क्या जब विनाश होगा तब? अभी ही ऐसा बनना पड़ेगा। अगर बहुत समय का बादलों को दूर करने का अभ्यास नहीं होगा तो बादल भी उसी समय लास्ट घड़ी आयेंगे। साक्षात्कार के लिए खड़े हों और बादल आ जाएं तो सारा प्रोग्राम ही अपसेट हो जायेगा। अब ऐसे अभ्यासी बनो जो दूर से ही बादल भाग जाएं। जैसे साइन्स के साधन तूफान को, पहाड़ों के रास्ते को चेन्ज कर सकते हैं ना। वह साइन्स तो अपूर्ण है। साइन्स कभी सम्पूर्ण हो नहीं सकती क्योंकि मनुष्य-मत है। कभी नीचे कभी ऊपर होती रहती है। तो अनलॉफुल हो गई ना। बाप की श्रीमत पर चलने वाले तो जो चाहें वह कर सकते हैं। तो विघ्नों को दूर करने का बहुत समय का अभ्यास चाहिए। पुरुषार्थ तो सब कर रहे हो लेकिन पुरूषार्थ की स्पीड कौन-सी है? काम हो एक सेकेण्ड का आप करो दो घंटे में, तो टाइम तो पूरा हो जायेगा ना। प्रश्नों का उत्तर ठीक दे लेकिन टाइम पर न दे, तो पास होंगे या फेल? चल रहे हैं, कर रहे हैं इससे अभी काम नहीं चलेगा। इसमें भी खुश हो जाना कि रोज़ क्लास तो करते हैं, रेगुलर पन्क्चुअल हैं, सेवा भी करते हैं लेकिन जो बाप का डायरेक्शन है - निरन्तर योगी, सहजयोगी - उसमें रेगुलर और पन्क्चुअल बनो। बाप के पास वह प्रेजेन्ट मार्क पड़ेगी ना। उसकी भी मार्क्स मिलती हैं लेकिन नम्बर आगे तो इसी प्रजेन्ट मार्क से बनेंगे। कौन-सी माला में आने वाले हो? अगर कभी-कभी इसी स्थिति में स्थित रहते हो तो कभी-कभी पूजने वाली माला में आयेंगे, पीछे का मणका बनेंगे। माताएं कौन-सी सेवा करेंगी? सब नम्बर वन जायेंगी? नम्बर वन ग्रुप बनेगा। जितना सर्विस करो उतना ही लाख गुणा, पदम गुणा होकर मिलेगा इसलिए यह संगमयुग है करने और पाने का। अभी-अभी करना, अभी-अभी पाना। प्रवृत्ति में रहते भी डबल सेवा करो, तो हैन्डस भी बन जायेंगे और सेन्टर भी खुल जायेंगे। सरेन्डर हैन्डस तो कम ही हैं, वह चक्कर लगाते रहें लेकिन सम्भालने वाले प्रवृत्ति वाले हों, ऐसे भी सेन्टर खुल सकते हैं। अगर बच्चों का, गृहस्थी का झंझट है तो कमरा अलग लेकर सम्भालो। अगर बच्चों आदि की खिट-खिट नहीं है, कोई विघ्न-रूप नहीं हैं तो घर में भी सेन्टर सम्भालो।

2- सदा अचल-अडोल रहते हो? कल्प पहले भी रावण सेना ने हिलाने की कोशिश की लेकिन अंगद अचल रहे। परिस्थितियाँ आयेंगी और चली जायेंगी, स्वस्थिति सदा आगे बढ़ायेगी। परिस्थिति के पीछे भागने से स्वस्थिति चली जायेगी। कोई भी परिस्थिति आये तो आप हाई जम्प दो, इससे पार हो जायेंगे। परिस्थिति आना भी गुड-लक है। यह पेपर फाउन्डेशन को मज़बूत करने का साधन है। यह निश्चय को हिलाकर देखने के लिए आते हैं। एक बारी अंगद समान मज़बूत हो जायेंगे तो यह नमस्कार करेंगे। पहले विकराल रूप से आयेंगे और फिर दासी रूप से आयेंगे। चैलेन्ज करो हम महावीर हैं। पानी के ऊपर लकीर ठहरती है क्या? आप मास्टर ज्ञान सागर के उपर कोई परिस्थिति वार कर नहीं सकती। लकीर डाल नहीं सकती।

3- सदा एक बल एक भरोसा इसी लगन में रहते हो? जो सदा एक भरोसे में रहे हैं वही सदा एकरस रहते हैं। और कोई भी रस ऐसी आत्माओं को आकर्षित नहीं कर सकता। ऐसी आत्मायें सदा स्वयं भी लाइट हाउस बन निर्विघ्न होकर चलती हैं और अनेकों के निमित्त रास्ता दिखाने वाली बनती हैं। तो रोज़ कितनी आत्माओं को लाइट हाउस बनकर रासता दिखाते हो? यही ब्राह्मणों का कर्तव्य है, यही धन्धा अथवा व्यवहार है।

4- अनुभवी मूर्त के द्वारा बाप की सूरत की प्रत्यक्षता- सदा बाप के गुणों में अनुभवी मूर्त हो? जो बाप के गुण गाते हो उन सबके अनुभवी हो ना? आनन्द का सागर बाप है तो उसी आनन्द के सागर की लहरों में लहराने वाले अनुभवी मूर्त। जो सदा सर्व गुणों के अनुभवी हैं ऐसे अनुभवी मूर्त द्वारा बाप की सूरत प्रत्यक्ष होती है। आप सब बाप को प्रत्यक्ष करने वाले हो। इतने महान हो जो परम आत्मा को भी प्रत्यक्ष करने वाले हो। हरेक की सूरत से बाप के गुण दिखाई दें। जो भी सम्पर्क में आये उसे आनन्द, प्रेम, सुख सब गुणों की अनुभूति हो।

5- पीछे आने वालों का भाग्य भी कम नहीं, बहुत श्रेष्ठ है - कैसे? पीछे आने वाले बनी बनाई पर आये हैं। जैसे दादे परदादे बीज डालते हैं और पौत्रे धोत्रे खाते हैं। तो पीछे आने वाले फल खाने वाले हैं। अभी कितने अच्छे साधन, कितने अच्छे स्थान बने बनाये मिले हैं। मंथन करने वाले दूसरे हैं आप मक्खन खाने वाले हो इसलिए सदा खुश हो। सदा अपने भाग्य को और देने वाले दाता को याद रखो। बापदादा सदा कहते हैं छोटे सुभानअल्ला होते हैं अर्थात् समान अल्लाह।

वरदान:-

पुरानी देह और दुनिया को भूलने वाले बापदादा के दिलतख्तनशीन भव !   

संगमयुगी श्रेष्ठ आत्माओं का स्थान है ही बापदादा का दिलतख्त। ऐसा तख्त सारे कल्प में नहीं मिल सकता। विश्व के राज्य का वा स्टेट के राज्य का तख्त तो मिलता रहेगा लेकिन यह तख्त नहीं मिलेगा-यह इतना विशाल तख्त है जो चलो, फिरो, खाओ-सोओ लेकिन सदा तख्तनशीन रह सकते हो। जो बच्चे सदा बापदादा के दिलतख्तनशीन रहते हैं वे इस पुरानी देह वा देह की दुनिया से विस्मृत रहते हैं, इसे देखते हुए भी नहीं देखते।

स्लोगन:-

हद के नाम, मान, शान के पीछे दौड़ लगाना अर्थात् परछाई के पीछे पड़ना।