11-01-15    प्रातः मुरली   ओम् शान्ति “अव्यक्त  बापदादा”  रिवाइज 23-01-79 मधुबन
 


सदा सुहागिन ही सदा सम्पन्न है

आज बापदादा बच्चों के श्रेष्ठ भाग्य और सदा सुहाग को देख हर्षित हो रहे हैं । हरेक बच्चा भाग्यशाली और सदा सुहागिन है । भाग्य विधाता द्वारा जो भाग्य प्राप्त हुआ है उसको अच्छी तरह से जानते हो? विश्व में जीवन की श्रेष्ठता इन दो बातों की होती है एक सुहाग दूसरा भाग्य । अगर सदा सुहाग नहीं तो सारी जीवन बेकार अनुभव करते हैं, नीरस समझते हैं । लेकिन आप सबका अविनाशी सुहाग है, जो कभी मिटने वाला नहीं क्योंकि अविनाशी अमरनाथ ही आपका सुहाग है । जैसे वह अमर है वैसे आपका सुहाग भी अमर है । सुहागवती स्वयं को सदा दुनिया में श्रेष्ठ समझती है, सुहागवती सदा साथ के कारण स्वयं को सन्तुष्ट समझती है । आजकल की दुनिया में जिसको श्रेष्ठ कार्य समझते हैं, उस श्रेष्ठ कार्य के निमित्त सुहागिन को ही रखते हैं । सुहागिन सदा श्रृंगार की अधिकारी होती है । सुहागिन नहीं तो श्रृंगार भी नहीं । सुहाग की निशानी तिलक और कंगन होती है । सुहागिन सदा सुहाग के कारण सुहाग के खजाने को सर्व खजाने अनुभव करती है अर्थात् अपने को सम्पन्न समझती है । ऐसे ही यह सब रीति रसम अविनाशी सुहाग का यादगार चला आ रहा है ।

आप सब सच्ची सुहागिन विश्व के अन्दर सर्व श्रेष्ठ आत्मायें गाई और पूजी जाती हो । आज का विश्व आप सदा सुहागिन के जड़ चित्रों को देख खुश होता कि यह आत्मायें अमरनाथ अर्थात् पति परमेश्वर की सच्ची पार्वतियाँ हैं । आप सच्ची सुहागिन आत्मायें सदा स्मृति के तिलकधारी और मर्यादाओं के कंगनधारी आत्मायें, सदा दिव्य गुणों के श्रृंगार से सजी सजाई आत्मायें, आप सदा सुहागिन आत्मायें सदा सर्व खजानों से सम्पन्न और विश्व के परिवर्तन के श्रेष्ठ कार्य वा शुभ कार्य के निमित्त हो - संगम-युग के इस श्रेष्ठ वा अविनाशी बेहद के सुहाग की रीति रसम हद के सुहाग में भी चलती आ रही है । अपने आप से पूछो ऐसे सदा सुहागिन अर्थात् सदा सम्पन्न और सदा हर्षित अनुभव करते हो, सदा अपने को आत्मा और परमात्मा के कम्बाइण्ड रूप का अनुभव करते हो? सिंगल हो वा युगल हो? अकेले समझेंगे तो वियोगी जीवन अनुभव करेंगे । सदा सुहागिन अर्थात् कम्बाइण्ड समझेंगे तो सदा मिलन महफिल में अपने को अनुभव करेंगे ।

बहुकाल से अलग हो गये तो अपने अविनाशी साथी को भी भूल गये । सुहाग खोया, तिलक को भी मिटा दिया, श्रृंगार को भी गवां दिया, खजाना से भी वंचित हो गये । सदा सुहागिन से क्या बन गये? भिखारी बन गये । वियोगी बन गये । फिर भी अमरनाथ ने आकर बहुकाल से बिछुड़ी हुई पार्वतियों को अपना स्मृति का तिलक दे सुहागिन बना दिया । अब बहुकाल के बाद जो सुन्दर मेला हो गया इस मेले से अब सेकेण्ड भी वंचित नहीं रहने वाले हो । ऐसी कम्पेनियनशिप निभाने वाले हो ना! आज बापदादा अपनी पार्वतियों का श्रृंगार देख रहे थे कि हरेक पार्वती कहाँ तक सजी सजाई रहती है । श्रृंगार तो सब करते हो लेकिन फिर भी नम्बरवार, माला सभी पहनते हैं लेकिन कहाँ नौ लखा हार और कहाँ साधारण मोतियों का हार । ऐसे ही बाप के गुणों की माला वा अमरनाथ की महिमा की माला सबके गले में पड़ी हुई है । फिर भी अन्तर है । अन्तर तो समझते हो ना । गाने वाले हैं वा बनने वाले हैं? इनमें अन्तर पड़ जाता है । ऐसे ही मर्यादाओं के कंगन तो सबने पहने हैं । सब मर्यादाओं के कंगन से सज रहे हैं लेकिन सदा मर्यादा पुरूषोत्तम बनने में कोई हीरे तुल्य बने हैं कोई सोने तुल्य बने हैं और कोई फिर चाँदी तुल्य बने हैं । कहाँ हीरा और कहाँ चाँदी! तो नम्बरवार हो गये ना इसलिए कहा कि नम्बरवार श्रृंगार देख रहे हैं ।

दूसरी बात सुहाग के साथ भाग्य देखा । लौकिक रीति से भी भाग्य का आधार - तन की तन्दरूस्ती, मन की खुशी, धन की समृद्धि, सम्बन्ध की सदा सन्तुष्टी और सम्पर्क में सदा सफल मूर्त होता है, इन सब बातों से भाग्य को देखते हैं - तो अब संगमयुग का श्रेष्ठ भाग्य अनुभव कर रहे हो ना । संगमयुग के अलौकिक जीवन की विशेषताओं को जानते हो ना । सदा स्वस्थ अर्थात् सदा स्व में स्थित रहने से तन का कर्मभोग भी कर्मयोग से सूली से काँटा हो जाता है । कर्मभोग को भी बेहद के ड्रामा के अन्दर खेल समझ कर खेलते हैं । तो तन का रोग योग में परिवर्तन हो गया, इसलिए सदा स्वस्थ हो । बीमारी को बीमारी नहीं समझते लेकिन अनेक जन्मों का बोझ हल्का हो रहा है, हिसाब चुक्तू हो रहा है - ऐसे समझने से सदा स्वस्थ समझते हो । साथ-साथ मन की खुशी तो सदा प्राप्त हैं ही । मनमनाभव होना अर्थात् खुशियों के खजाने से सम्पन्न होना । ज्ञान धन सब धनों से श्रेष्ठ है । ज्ञान धन वालों की प्रकृति स्वत : ही दासी बन जाती है । जहाँ ज्ञान धन है वहाँ स्थूल धन की कोई कमी नहीं । तो धन का भाग्य भी सदा प्राप्त है । तीसरा है सम्बन्ध - सर्व सम्बन्ध निभाने वाले परम आत्मा को अपना बना लिया, जब चाहो, जैसा सम्बन्ध चाहो वैसा ही सम्बन्ध का रस एक द्वारा सदा निभा सकते हो, और सम्बन्ध भी ऐसे जो देने वाले होंगे लेने वाले नहीं । कभी धोखा भी नहीं देने वाले, सदा प्रीति की रीति निभाने वाले, ऐसे अमर सम्बन्ध अनुभव करते हो ना? और बात सम्पर्क - संगमयुगी जीवन में सम्पर्क भी सदा होली हंसो से हैं । बाप के सम्पर्क के आधार पर ब्राह्मण परिवार का सम्पर्क है, हस और बगुलों का सम्पर्क नहीं लेकिन ब्राह्मण आत्माओं का सम्पर्क है बगुलों का सम्पर्क सिर्फ सेवा अर्थ है । सेवा का सम्पर्क होने का कारण - सदा विश्व कल्याण की भावना, विश्व परिवर्तन की कामना रहती है । इस कारण सेवा के सम्पर्क में भी कोई दुख की लहर नहीं । निन्दा करे तो भी मित्र, गुणगान करे तो भी मित्र । सदा भाई- भाई की दृष्टि, रहम की वृत्ति रहती है तो सम्पर्क भी श्रेष्ठ है । ऐसा श्रेष्ठ भाग्य भाग्यविधाता से प्राप्त है । तो सदा श्रेष्ठ भाग्यवान हुए ना । आज बच्चों के इस सुहाग और भाग्य को देख रहे थे । सदा सम्पन्न आत्मायें, अप्राप्त नहीं कोई वस्तु इस ब्राह्मण जीवन में । ऐसे अनुभव करते हो ना । सदा सुहाग का तिलक वा भाग्य का सितारा चमक रहा है ना? चमक की परसेन्टेज कितनी है? चमक तो सभी में हैं लेकिन परसेन्टेज के अनुसार नम्बरवार हैं । विदेशियों का नम्बर कौन सा है? विजय माला में नम्बर है ना । चाहे देश के हो चाहे विदेश के हो, माला तो एक ही है, जो सदा सुहाग और भाग्य के अधिकारी हैं वही विजय माला के भी अधिकारी हैं ।

बाप-दादा को विशेष काम है ही बच्चों का, तो सदा बच्चों की माला जपते हैं । बाप की माला तो आत्मायें जपती हैं लेकिन बच्चों की माला परमात्मा जपते हैं । तो भाग्यशाली कौन हुए! अच्छा ।

ऐसे सदा सुहागिन, सदा श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी, सदा कम्पैनियनशिप निभाने वाले, सदा स्मृति के तिलकधारी, मर्यादा सम्पन्न श्रेष्ठ आत्माओं को, विश्व कल्याणकारी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते ।

दादियों से मुलाकात:-

सदा सुहागिन का गायन शास्त्रों में किस रूप में है? सदा सुहागिन का गायन पटरानियों के रूप में हैं । फिर पटरानियों में भी नम्बर हैं, कोई सदा साथ रहती हैं और कोई कभी-कभी । उन्होंने देहधारी की कहानी बना दी है, लेकिन है आत्माओं और परमात्मा की कहानी । जो एक ही समय पर सभी से मिलन मना सकते हैं जो भी आव्हान करे । तो पटरानियाँ तो सब बनती हैं लेकिन उनमें भी नम्बर हैं । प्राप्ति में भी अन्तर है और पूजन में भी अन्तर है | राधे और गोपियों में भी अन्तर है । राधे की प्राप्ति अपनी, गोपियों की अपनी । कोई विशेषता राधे के पार्ट में है और कोई विशेषता पटरानियों वा गोपियों के पार्ट में है । इसका भी गुह्य रहस्य है । मिलन मेला मनाने वाले कौन? सर्व सुखों का अनुभव परमात्म पार्ट से है - यह भी सबसे विशेष भाग्य है, इसका भी आत्माओं के विशेष पार्ट से सम्बन्ध है ।

संगमयुग पर विशेष यही चेक करना है कि सर्व प्राप्ति की है? सर्व खजाने सामने रखो, सर्व सम्बन्ध सामने रखो, सर्वगुण सामने रखो, कर्तव्य सामने रखो - सर्व बातों में अनुभवी हुए हैं? कर्तव्य में भी मन, वाणी, कर्म अर्थात् सम्बन्ध सम्पर्क सभी रूपों द्वारा अनुभवी हैं? अगर कोई भी अनुभव रह गया हो तो उसी अनुभव को सम्पन्न बनाना चाहिए क्योंकि संगमयुग के अनुभव फिर कभी भी नहीं हो सकते । इसलिए अब रहे हुए थोड़े समय में सर्व बातों में स्वयं को सम्पन्न बनाना चाहिए । ऐसी चेकिंग जरूर होनी चाहिए । अगर एक भी सम्बन्ध वा गुण की कमी है तो सम्पूर्ण स्टेज वा सम्पूर्ण मूर्त नहीं कहला सकते । बाप का गुण वा अपना आदि स्वरूप का गुण अनुभव न हो तो सम्पन्न मूर्ति कैसे कहेंगे? इसलिए सबमें सम्पूर्ण बनना है ।

जैसे ब्रह्मा बाप सम्पूर्ण बने तो बच्चे भी फालो फादर । ऐसा ही लक्ष्य सदा रहता है ना । ततत्वम् का वरदान मिला है ना । निमित्त बनना अर्थात् ततत्वम् के वरदानी - अभी भी और जन्म-जन्मान्तर के भिन्न-भिन्न पार्ट में भी । अभी का ततत्वम् का वरदान सारा कल्प चलता है । संगम पर भी, पूज्य के समय भी और पुजारी के समय भी तो विशेष आत्माओं को विशेष वरदान है ततत्वम् का । यह बहुत थोड़ों को मिलता है । अच्छा ।

पार्टियों से मुलाकात:-

1. अनेक मतों को समाप्त करना अर्थात् प्रत्यक्षता का झण्डा लहराना:-

अनेक मत वाले सिर्फ एक बात को मान जाएं कि हम सबका बाप एक है और वही अब कार्य कर रहे हैं, कम से कम यह आवाज सब तरफ पहुँचे कि हम सब एक की सन्तान एक है और एक ही यथार्थ है । चाहे धारण करे न करे लेकिन मान लें, चलना तो पीछे की बात है । जैसे कई आत्मायें सम्पर्क में आती तो समझती हैं यह अच्छा काम कर रहे हैं, इतना सब मान लें तो विजय का झण्डा लहरा जायेगा । इसी संकल्प से मुक्तिधाम में चली जायें तो भी ठीक हैं । इसी संकल्प से मुक्तिधाम जायेंगे तो जब अपना- अपना पार्ट बजाने आयेंगे तो पहले यही संस्कार होंगे कि गाड इज वन । यह गोल्डन एज की स्मृति है । अनेकों में फंसना यह आइरन एज है । अथॉरिटी से और सत्यता से बोलो, संकोच से नहीं । सत्यता प्रत्यक्षता का आधार है । प्रत्यक्षता करने के लिए पहले स्वयं को प्रत्यक्ष करो, निर्भय बनो ।

एक बल एक भरोसे पर अचल और अटल रहो तो आपका यह अनुभव अनेकों को निश्चयबुद्धि बना देगा । निश्चयबुद्धि की नांव कितना भी कोई हिलावे लेकिन कभी भी कोई बात का असर नहीं हो सकता ।

2. अलौकिक और अविनाशी झूला है - अतीन्द्रिय सुख:-

सभी सदा संगमयुग की श्रेष्ठ प्राप्ति अतीन्द्रिय सुख में झूलते रहते हो? यह सुख ही सबसे बड़ा अलौकिक अविनाशी झूला है, जैसे जो लाडले बच्चे होते हैं उनको झूले में झुलाते हैं, जैसै कृष्ण को लाडला होने के कारण झूले में झुलाते हैं ना । संगमयुगी ब्राह्मण का झूला अतीन्द्रिय सुख का झूला है । तो इसी झूले में सदा झूलते रहते हो? कभी भी देह- अभिमान में आना अर्थात् झूले से निकल धरनी पर पांव रखना । धरनी पर पाँव रखते तो मैले हो जाते हैं । तो ऊंचे ते ऊँचे बाप के बच्चे सदा स्वच्छ होते, मैले नहीं । तो सदा इसी अतीन्दिय सुख में झूलते रहो ।

3. सभी अपने को सदा बाप के समीप आत्मायें समझते हो?

जो बाप के समीप आत्मायें होंगी उन्हों की निशानी क्या होगी? जितनी समीप होंगी उतना बाप के समान होगी । तो समान व समीप आत्मा बनने के लिए विशेष कौन-सी धारणा की आवश्यकता है? सदा याद और सेवा में तत्पर रहो । अगर सदा याद और सेवा में फालो फादर होंगे तो नम्बर वन जरूर आयेंगे । जैसे ब्रह्मा बाप ने इसी धारणा से नम्बरवन पद को प्राप्त किया वैसे आप भी फालो कर नम्बरवन डिवीजन में आ जायेंगे । नम्बरवन तो ब्रह्मा की आत्मा गई लेकिन आप भी सब उसके साथ फर्स्ट डिवीजन में आयेंगे अर्थात् राजधानी में साथ-साथ होंगे जितना-जितना लाइट हाउस, माइट हाउस बनेंगे उतना माया दूर से ही भाग जायेगी । लाइट हाउस के आगे अन्धकार रूपी माया आ नहीं सकती । अच्छा - ओम् शान्ति । 

वरदान:-

श्रेष्ठता के आधार पर समीपता द्वारा कल्प की श्रेष्ठ प्रालब्ध बनाने वाले विशेष पार्टधारी भव !   

इस मरजीवा जीवन में श्रेष्ठता का आधार दो बाते हैं: 1- सदा परोपकारी रहना । 2- बाल ब्रह्मचारी रहना । जो बच्चे इन दोनों बातों में आदि से अन्त तक अखण्ड रहे हैं, किसी भी प्रकार की पवित्रता अर्थात् स्वच्छता बार-बार खण्डित नहीं हुई है तथा विश्व के प्रति और ब्राह्मण परिवार के प्रति जो सदा उपकारी हैं ऐसे विशेष पार्टधारी बापदादा के सदा समीप रहते हैं और उनकी प्रालब्ध सारे कल्प के लिए श्रेष्ठ बन जाती है । 

स्लोगन:- 

संकल्प व्यर्थ हैं तो दूसरे सब खजाने भी व्यर्थ हो जाते हैं ।   

 

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(11) लगाव की रस्सियों को चेक करो । बुद्धि कहीं कच्चे धागों में भी अटकी हुई तो नहीं है? कोई सूक्ष्म बंधन भी न हो, अपनी देह से आई लगाव न हो - ऐसे स्वतन्त्र अर्थात् स्पष्ट बनने के लिए बेहद के वैरागी बनो तब अव्यक्त रिथति में स्थित रह सकेंगे । 

ओम् शान्ति |