19-01-14
प्रातः मुरली ओम्
शान्ति “अव्यक्त
बापदादा” मधुबन
05-06-77
“अलौकिक
जीवन का कर्तव्य ही है – विकारी को निर्विकारी बनाना”
सदा
स्वयं को बापदादा के सहयोगी विश्व परिवर्तन के कार्य में, उसी
लगन से लगे हुए समझकर चलते हो? जो बापदादा का कार्य, वही हमारा
– यह स्मृति रहती है? जैसे बाप सर्व शक्तियों और गुणों के सागर
हैं, वैसे स्वयं को भी सम्पन्न अनुभव करते हो? स्वयं के कमज़ोर
संकल्प और संस्कार को परिवर्तन करने की शक्ति में समर्थी आई
है? क्योंकि जब तक स्वयं परिवर्तन करने की शक्ति में समर्थ
नहीं होंगे, तो विश्व को भी परिवर्तन नहीं कर सकेंगे | तो
स्वयं को देखो कि अब कहाँ तक परिवर्तन हुआ है? संकल्प में,
वाणी में, कर्म में कितने परसेन्ट में ‘लौकिक से अलौकिक’ हुए
हैं? परिवर्तन ही है – ‘लौकिक से अलौकिक’ होने | तो यह शक्ति
अनुभव होती है? किसी भी लौकिक वस्तु वा व्यक्ति को देखते हुए
अलौकिक स्वरूप में परिवर्तन करना आता है? दृष्टि को, वृत्ति
को, वायब्रेशन को, वायुमण्डल को लौकिक से अलौकिक बनाने का
अभ्यास है? जब ब्राह्मणों का जन्म ही अलौकिक है तो जैसा अलौकिक
जन्म, अलौकिक बाप, अलौकिक परिवार, वैसे ही कर्म भी अलौकिक है?
ब्राह्मण जीवन का विशेष कर्म ही है – लौकिक को अलौकिक बनाना |
अपने जन्म के कर्म का अटेन्शन रहता है? सिर्फ़ यह लौकिक को
अलौकिक बनाने का पुरुषार्थ ही सर्व समस्याओं से सर्व कमज़ोरियों
से मुक्त कर सकता है |
अमृतवेले से रात तक जो भी देखते हो, सुनते हो, सोचते हो वा
कर्म करते हो, उसको लौकिक से अलौकिक में परिवर्तन करो | यह
प्रैक्टिस है बहुत सहज, लेकिन अटेन्शन रखने की आवश्यकता है |
जैसे शरीर की क्रियाएँ – खाना-पीना-चलना स्वतः ही सहज रीति
करते रहते हो, तो शरीर की क्रियाओं के साथ-साथ आत्मा का मार्ग,
आत्मा का भोजन, आत्मा का पुरुषार्थ अर्थात् चलना, आत्मा का
सैर, आत्मा रूप का देखना वा आत्मा रूप का सोचना क्या है – यह
साथ-साथ करते चलो तो ‘लौकिक से अलौकिक’ जीवन सहज अनुभव करेंगे
| किसी भी लौकिक व्यवहार को निमित्त-मात्र करते हुए, अपने
अलौकिक कार्य का आकर्षण वा बोझ अपने तरफ़ खींचेगा नहीं | ऐसे
अनुभव करेंगे जैसे लौकिक कार्य होते हुए अलौकिक कार्य के कारण
डबल कमाई का अनुभव होगा | अलौकिक स्वरूप है ही ट्रस्टी,
ट्रस्टी बनकर कार्य करने से क्या होगा? कैसे होगा? यह बोझ
समाप्त हो जाता है | अलौकिक स्वरूप अर्थात् कमल पुष्प समान |
कैसा भी तमोगुणी वातावरण होगा, वायब्रेशन्स होंगे, लेकिन सदा
कमल समान | लौकिक कीचड़ में रहते भी न्यारे अर्थात् आकर्षण से
परे और सदा बाप के प्यारे अनुभव करेंगे | किसी भी प्रकार के
मायावी अर्थात् विकारों के वशीभूत व्यक्ति के सम्पर्क से स्वयं
वशीभूत नहीं होंगे क्योंकि अपना अलौकिक कार्य सदा स्मृति में
रहेगा कि वशीभूत आत्माओं को बन्धनयुक्त से बन्धनमुक्त बनाना,
विकारी से निर्विकारी बनाना अर्थात् लौकिक से अलौकिक बनाना –
यही अलौकिक जीवन का हमारा कार्य अर्थात् कर्तव्य है | वशीभूत
आत्मा को छुड़ाने वाला स्वयं वशीभूत हो नहीं सकता |
हम
सब एक बाप की सन्तान रूहानी भाई हैं – यह अलौकिक दृष्टि की
स्मृति रहने से देहधारी दृष्टि अर्थात् लौकिक दृष्टि जिसके
आधार से विकारों की उत्पत्ति होती है, वह बीज ही समाप्त हो
जाता है | जब बीज समाप्त हो गया, तो फिर अनेक प्रकार के
विस्तार रूपी विकारों का वृक्ष स्वतः ही समाप्त हो जाता है |
अभी
तक भी बहुत बच्चों की कम्प्लेन्ट है कि दृष्टि चंचल होती है वा
दृष्टि खराब होती है | क्यों होती है? जबकि बाप का फ़रमान है –
लौकिक देह अर्थात् शरीर में अलौकिक आत्मा को देखो, फिर देह को
देखते क्यों हो? अगर आदत कहते हो, आदत से मजबूर हो वा अल्पकाल
के किसी न किसी रस के वशीभूत हो जाते हैं | तो इससे सिद्ध है
कि आत्मा-परमात्मा, प्राप्ति के रस में अभी तक अनुभवी नहीं हो
| परमात्म-प्राप्ति का रस और देहधारी कर्मेन्द्रियों द्वारा
अल्पकाल का प्राप्त हुआ रस – इसके महान् अन्तर को अनुभव नहीं
किया है | जब अल्पकाल का कान का रस, मुख का रस, नयनों का रस वा
किसी भी कर्मेन्द्रिय का रस आकर्षित करता है, उस समय इस महान्
अन्तर के यन्त्र को यूज़ करो | पहले भी सुनाया था, जबकि अब जान
गए हो कि यह देह की आकर्षण, देह की दृष्टि, देह द्वारा प्राप्त
हुए यह रस, सांप समान सदाकाल के लिए ख़त्म करने वाला है | यह
सांप का विष है न कि आकर्षण करने वाला रस है | फिर भी अमृत-रस
को छोड़ विष की तरफ़ आकर्षित होना, इसको क्या कहा जायेगा? ऐसे को
नॉलेजफुल वा मास्टर सर्वशक्तिमान् कहेंगे? वशीभूत आत्मा सदा
कमज़ोर और स्वयं से असन्तुष्ट होगी | इसी कारण लौकिक को अलौकिक
में परिवर्तन करो |
पहला
पाठ आत्मिक स्मृति का पक्का करो | आत्मा इस शरीर द्वारा किसको
देखेगी? आत्मा-आत्मा को देखेगी न कि शरीर को, आत्मा
कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कर रही है | तो अन्य आत्माओं का का
भी कर्म देखते हुए यह स्मृति रहेगी कि यह भी आत्मा कर्म कर रही
है | ऐसे अलौकिक दृष्टि – जिसको देखो आत्मा रूप में देखो | इस
अभ्यास की कमी होने कारण दृष्टि चंचल होती है | स्वयं पहला पाठ
पक्का ही नहीं किया और दूसरों को पाठ पढ़ाने लग गए | इस कारण
स्वयं प्रति अटेन्शन कम रहता, दूसरों के प्रति अटेन्शन ज़्यादा
रहता है | स्वयं को देखने का अभ्यास कम है और दूसरों को देखते
तो अलौकिक के बजाए लौकिक रूप ही दिखाई देता है | अपनी
कमज़ोरियों को कम देखते हो, दूसरों की कमज़ोरियों को ज़्यादा
देखते हो | अलौकिक वृत्ति अर्थात् हर एक के प्रति शुभ भावना,
कल्याण की भावना से सम्पर्क में आना, इसको कहा जाता है अलौकिक
जीवन की अलौकिक वृत्ति | लेकिन अलौकिक वृत्ति के बजाए लौकिक
वृत्ति, अवगुण धारण करने की वृत्ति, ईर्ष्या और घृणा की धारण
करने की वृत्ति के कारण अलौकिक जीवन में अलौकिक परिवार द्वारा
अलौकिक सहयोग की ख़ुशी अलौकिक स्नेह की प्राप्ति की शक्ति
प्राप्त नहीं कर पाते | इस कारण लौकिक वृत्ति को भी अलौकिक
वृत्ति में परिवर्तन करो | तो पुरुषार्थ में कमज़ोर रहने का
कारण? लौकिक को अलौकिक में परिवर्तन करना नहीं आता | लौकिक
सम्बन्ध में भी अलौकिक सम्बन्ध – रूहानी भाई-बहन का स्मृति में
रखो | किसी भी सम्बन्ध की तरफ़ लौकिक सम्बन्ध की आकर्षण आकर्षित
करती है, अर्थात् मोह की दृष्टि जाती है, तो लौकिक सम्बन्ध के
अन्तर में बाप से सर्व अविनाशी सम्बन्ध के स्मृति की वा बाप के
सर्व सम्बन्धों की अनुभव की नॉलेज कम होने के कारण, लौकिक
सम्बन्ध तरफ़ बुद्धि भटकती है | तो सर्व सम्बन्धों के अनुभवी
मूर्त बनो, तो लौकिक सम्बन्ध की तरफ़ आकर्षण नहीं होगी |
उठते-बैठते लौकिक और अलौकिक के अन्तर को स्मृति में रखो तो
लौकिक से अलौकिक हो जायेंगे | फिर यह कम्प्लेन्ट समाप्त हो
जाएगी | बार-बार एक ही कम्प्लेन्ट करना क्या सिद्ध करता है?
अलौकिक जीवन का अनुभव नहीं | तो अभी स्वयं को परिवर्तन करते
हुए विश्व परिवर्तक बनो | समझा? छोटी सी बात समझ में नहीं आती?
ठेका तो बहुत बड़ा लिया है | दुनिया को चैलेन्ज तो बहुत बड़ी की
है | चैलेन्ज करते हो ना सेकेण्ड में मुक्ति-जीवनमुक्ति देंगे!
निमन्त्रण में क्या लिखते हो? एक सेकेण्ड में बाप से वर्सा आकर
प्राप्त करो, वा मुक्ति-जीवनमुक्ति के अधिकारी बनो | तो दुनिया
को चैलेन्ज करने वाले अपने वृत्ति, दृष्टि को चेन्ज नहीं कर
सकते? स्वयं को भी चैलेन्ज दो कि परिवर्तन करके ही छोड़ेंगे
अर्थात् विजयी बनकर ही दिखायेंगे | अच्छा |
हर
संकल्प, समय, सम्बन्ध और सम्पर्क, लौकिक से अलौकिक बनाने वाले,
अलौकिक ब्राह्मण जीवन के अनुभवी मूर्त, विश्व परिवर्तन के
साथ-साथ स्वयं परिवर्तन द्वारा विश्व को सही रास्ता दिखाने
वाले, सदा बाप के सर्व सम्बन्धों के अनुभवी मूर्त सर्व
प्राप्तियों के रस में मग्न रहने वाले, एक बाप दूसरा न कोई ऐसे
अनुभव में रहने वाले अनुभवी मूर्तों को बापदादा का याद, प्यार
और नमस्ते |
पार्टियों के साथ :-
ट्रस्टी का विशेष लक्षण क्या दिखाई देगा? जो ट्रस्टी होगा उसका
विशेष लक्षण सदैव स्वयं को हर बात में हल्का अनुभव करेगा | डबल
लाइट अनुभव करेगा | शरीर के भान का भी बोझ न हो – इसको कहा
जाता है ट्रस्टी | अगर देह का भान का बोझ है तो एक बोझ के साथ
अनेक प्रकार के बोझ आ जाते हैं | इन बोझों से परे रहने का यह
(ट्रस्टीपन) साधन है | तो चेक करो बॉडी कान्सेस (देहभान) में
कितना समय रहते? जब बाप के बने, तो तन-मन-धन सहित बाप के बने
ना? सब बाप को दिया ना? जब दे दिया तो अपना कहाँ से रहा? जब
अपना नहीं तो मान किस चीज़ का? अगर मान आता, तो सिद्ध है, देकर
के फिर लेते हो | अभी-अभी दिया, अभी-अभी लिया, यह खेल करते हो
| ट्रस्टी अर्थात् मेरापन नहीं | जब मेरापन समाप्त हो जाता, तो
लगाव भी समाप्त हो गया | ट्रस्टी बन्धन वाला नही होता,
स्वतंत्र आत्मा होता, किसी भी आकर्षण में परतंत्र होना भी
ट्रस्टीपन नहीं | ट्रस्टी माना ही स्वतंत्र |
नष्टोमोहा बनने की सहज युक्ति कौनसी है? सदैव अपने घर की
स्मृति में रहो | आत्मा के नाते, आपका घर परमधाम है और
ब्राह्मण जीवन के नाते, साकार सृष्टि में यह मधुबन आपका घर है
क्योंकि ब्रह्मा बाप का घर मधुबन है | यह दोनों ही घर स्मृति
में रहें, तो नष्टोमोहा हो जायेंगे क्योंकि जब अपना परिवार,
अपना घर कोई बना लेते तो उसमें मोह जाता, अगर उसको दफ़्तर समझो
तो मोह नहीं जायेगा |
सदैव
बुद्धि में रहे सेवा स्थान पर सेवा के निमित्त रूप आत्माएं हैं
– न कि मेरा कोई लौकिक परिवार है | सब अलौकिक सेवाधारी है; कोई
सेवा करने के निमित्त हैं, कोई की सेवा करनी है | लौकिक
सम्बन्ध भी सेवा के अर्थ मिला है – ‘यह मेरा लड़का या लड़की है’
नहीं | सेवा के निमित्त यह सम्बन्ध मिला है | मैं पति हूँ,
पिता हूँ, चाचा हूँ – यह सम्बन्ध समाप्त हो जाए, तो ट्रस्टी हो
जायेंगे |
स्मृति विस्मृति का रूप तब लेती जब मेरापन है | अगर मेरापन
ख़त्म हो जाए, तो नष्टोमोहा हो जायेंगे | नष्टोमोहा अर्थात्
स्मृति स्वरूप | माताओं का सबसे बड़ा पेपर ही मोह का है | अगर
माताएं नष्टोमोहा हो गई तो नम्बर आगे हो जायेंगी | पाण्डवों को
नम्बरवन बनने के लिए कौनसा पुरुषार्थ करना है? पाण्डव अगर एकरस
स्थिति में एकाग्र बुद्धि हो गए तो नम्बरवन हो जायेंगे |
पाण्डवों की बुद्धि यहाँ-वहाँ भागने में तेज़ होती है, तो
पाण्डवों की बुद्धि एकाग्र हुई तो नम्बरवन | वैसे भी पाण्डवों
को घर में एक स्थान पर बैठेने की आदत नहीं होती, स्थिर होकर
नहीं बैठेंगे-चलेंगे, उठेंगे यह आदत होती है | बुद्धि को भी
भागने की आदत पड़ जाती | उसका असर बुद्धि पर भी आ जाता है | ऐसे
तो नहीं समझते चक्रवर्ती बनना है तो यही चक्र लगावें | यह
व्यर्थ चक्र नहीं लगाओ | स्वदर्शन चक्रधारी बनो, परदर्शन
चक्रधारी नहीं |
सभी
अपने नई जीवन अर्थात् ब्राह्मण जीवन के ऊँचे ते ऊँचे नशे में
रहते हो? सबसे ऊँच जीवन है ब्राह्मण जीवन | नया जन्म है ऊँचे
ते ऊँचा ब्राह्मण जन्म, जिसको अलौकिक जन्म कहा जाता है | तो यह
नशा रहता है? ऊँचे ते ऊँची आत्माओं का संकल्प, कर्म सब ऊँचा,
साधारण नहीं | जैसे लौकिक में भी अगर कोई साहूकार भिखारी का
कार्य करे, तो क्या होगा? सब हंसेंगे ना? तो ऊँचे कार्य की
बजाए साधारण करें तो सब क्या कहेंगे? तो ब्राह्मण कब व्यर्थ
कार्य व व्यर्थ संकल्प नहीं कर सकते |
सुनने के बाद सुने हुए को स्वरूप में लाना अर्थात् समाना |
सुनाना तो परम्परा से चला आता, लेकिन संगमयुग की विशेषता है –
स्वरूप में लाकर विश्व को दिखाना | सुनाने वाले भी बहुत, लेकिन
स्वरूप में लाने वाले कोटों में कोई | तो आप स्वरूप में लाने
वाले हो, न कि सुनाने वाले | देखना चाहिए जो सुना वह स्वरूप
में कहाँ तक लाए | स्वरूप में लाने वाले को कौनसी मूर्त
कहेंगे? साक्षात् और साक्षात्कार मूर्त | तो साक्षात्कार मूर्त
हो ना?
स्वयं को भी साक्षात्कार कराने वाले और स्वयं द्वारा बाप का भी
साक्षात्कार कराने वाले
|
स्वयं का साक्षात्कार अर्थात् आत्मिक स्वरूप का साक्षात्कार
कराने वाले औरों को भी | ऐसे साक्षात्कार मूर्त को ही स्वरूप
मूर्त कहा जाता | सभी ऐसे हो ना? अच्छा |
वरदान:-
ब्राह्मण जीवन में हर सेकण्ड सुखमय स्थिति का अनुभव करने वाले
सम्पूर्ण पवित्र आत्मा भव
! 
पवित्रता को ही सुख-शान्ति की जननी कहा जाता है | किसी भी
प्रकार की अपवित्रता दुःख अशांति का अनुभव कराती है | ब्राह्मण
जीवन अर्थात् हर सेकण्ड सुखमय स्थिति में रहने वाले | चाहे
दुःख का नज़ारा भी हो लेकिन जहाँ पवित्रता की शक्ति है वहाँ
दुःख का अनुभव नहीं हो सकता | पवित्र आत्मायें मास्टर सुख
कर्ता बन दुःख को रूहानी सुख के वायुमण्डल में परिवर्तन कर
देती हैं |
स्लोगन:-
साधनों
का प्रयोग करते साधना को बढ़ाना ही बेहद की वैराग्य वृत्ति है
|
ओम्
शान्ति
|