02-11-14   प्रातः मुरली ओम् शान्ति    “ अव्यक्त बापदादा”  रिवाइज 31-01-98  मधुबन


पास विद आनर बनने के लिए हर खजाने का एकाउण्ट चेक करके जमा करो

आज बापदादा हर एक छोटे-बड़े चारों ओर के देश-विदेश के बच्चों का भाग्य देख हर्षित हो रहे हैं । ऐसा भाग्य सारे कल्प में सिवाए ब्राह्मण आत्माओं के किसी का भी नहीं हो सकता । देवतायें भी ब्राह्मण जीवन को श्रेष्ठ मानते हैं । हर एक अपने जीवन के आदि से देखो कि हमारा भाग्य जन्मते ही कितना श्रेष्ठ है । जीवन में जन्मते ही माँ बाप की पालना का भाग्य मिलता है । उसके बाद पढ़ाई का भाग्य मिलता है । उसके आगे गुरु द्वारा मत वा वरदान मिलता है । आप बच्चों को पालना, पढ़ाई और श्रीमत, वरदान देने वाला कौन? परम आत्मा द्वारा यह तीनों ही प्राप्त हैं । पालना देखो - परमात्म पालना कितने थोड़े कोटों में से कोई को मिलती । परमात्म शिक्षक की पढ़ाई आपके सिवाए किसको भी नहीं मिलती है । सतगुरू द्वारा श्रीमत, वरदान आपको ही प्राप्त हैं । तो अपने भाग्य को अच्छी तरह से जानते हो? भाग्य को स्मृति में रखते हुए झूलते रहते हो, गीत गाते रहते हो - वाह मेरा भाग्य!

अमृतवेले से लेकर जब उठते हो तो परमात्म प्यार में लवलीन होके उठते हो । परमात्म प्यार उठाता है । दिनचर्या की आदि परमात्म प्यार होता है । प्यार नहीं होता तो उठ नहीं सकते । प्यार ही आपके समय की घण्टी है । प्यार की घण्टी आपको उठाती है । सारे दिन में परमात्म साथ हर कार्य कराता है । कितना बड़ा भाग्य है जो स्वयं बाप अपना परमधाम छोड़कर आपको शिक्षा देने के लिए आते हैं । ऐसे कभी सुना कि भगवान रोज अपने धाम को छोड़ पढ़ाने के लिए आते हैं! आत्मायें चाहे कितना भी दूर-दूर से आयें, परमधाम से दूर और कोई देश नहीं है है कोई देश? मेरिका, अफ्रीका दूर है? परमधाम ऊंचे ते ऊंचा धाम है । ऊंचे ते ऊंचे धाम से ऊंचे ते ऊंचे भगवन, ऊंचे ते ऊंचे बच्चों को पढ़ाने आते हैं । ऐसा भाग्य अपना अनुभव करते हो? सतगुरू के रूप में हर कार्य के लिए श्रीमत भी देते और साथ भी देते हैं । सिर्फ मत नहीं देते हैं, साथ भी देते हैं । आप क्या गीत गाते हो? मेरे साथ-साथ हो कि दूर हो? साथ हैं ना? अगर सुनते हो तो परमात्म टीचर से, अगर खाते भी हो तो बापदादा के साथ खाते हो । अकेले खाते हो तो आपकी गलती है । बाप तो कहते हैं मेरे साथ खाओ । आप बच्चों का भी वायदा है - साथ रहेंगे, साथ खायेंगे, साथ पियेंगे, साथ सोयेंगे और साथ चलेंगे. सोना भी अकेले नहीं है । अकेले सोते हैं तो बुरे स्वप्न वा बुरे ख्यालात स्वप्न में भी आते हैं । लेकिन बाप का इतना प्यार है जो सदा कहते हैं मेरे साथ सीओ, अकेले नहीं सोओ । तो उठते हो तो भी साथ, सोते हो तो भी साथ, खाते हो तो भी साथ, चलते हो तो भी साथ । अगर दफ्तर में जाते हो, बिजनेस करते हो तो भी बिजनेस के आप ट्रस्टी हो लेकिन मालिक बाप है । दफ्तर में जाते हो तो आप जानते हो कि हमारा डायरेक्टर, बॉस बापदादा है, यह निमित्त मात्र हैं, उनके डायरेक्शन से काम करते हैं । कभी उदास हो जाते हो तो बाप फ्रैन्ड बनकर बहलाते हैं । फ्रैन्ड भी बन जाता है । कभी प्रेम में रोते हो, आसू आते हैं तो बाप पोछने के लिए भी आते हैं और आपके आंसू दिल के डिब्बी में मोती समान समा देते हैं । अगर कभी-कभी नटखट होके रूठ भी जाते हो, रूसते भी हो बहुत मीठा-मीठा । लेकिन बाप रूठे हुए को भी मनाने आते हैं । बच्चे कोई बात नहीं, आगे बढ़ो । जो कुछ हुआ बीत गया, भूल जाओ, बीती सो बीती करो, ऐसे मनाते भी हैं । तो हर दिनचर्या किसके साथ है? बापदादा के साथ । बापदादा को कभी-कभी बच्चों की बातों पर हंसी भी आती है । जब कहते हैं बाबा आप भूल जाते हो, एक तरफ तो कहते हैं कम्बाइन्ड हैं, कम्बाइन्ड कभी भूलता है क्या? जब साथ-साथ हैं तो साथ वाला भूल सकता है क्या? तो बाबा कहते हैं शाबास - बच्चों में इतनी ताकत है जो कम्बाइन्ड को भी अलग कर देते हैं! हैं कम्बाइन्ड और थोड़ा सा माया कम्बाइन्ड को भी अलग कर देती है

बापदादा बच्चों का खेल देखते यही कहते हैं बच्चे, अपने भाग्य को सदा स्मृति में रखो । होता क्या है? सोचते हो हाँ मेरा भाग्य बहुत ऊचा हैं लेकिन सोचना-स्वरूप बनते हो, स्मृति-स्वरूप नहीं बनते हो । सोचते बहुत अच्छा हो मैं तो यह हूँ, मैं तो यह हूँ, मैं तो यह हूँ.. सुनाते भी बहुत अच्छा हो । लेकिन जो सोचते हो, जो कहते हो उसका स्वरूप बन जाओ । स्वरूप बनने में कमी पड जाती हैं । हर बात का स्वरूप बन जाओ । जो सोचो वह स्वरूप भी अनुभव करो । सबसे बड़े ते बड़ा है अनुभवी मूर्त बनना । अनादि काल में जब परमधाम में हैं तो सोचना स्वरूप नहीं हैं, स्मृति स्वरूप हैं । मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ - यह भी सोचने का नहीं है, स्वरूप ही है । आदिकाल में भी इस समय के पुरुषार्थ का प्रालब्ध स्वरूप है । सोचना नहीं पड़ता - मैं देवता हूँ, मैं देवता हूँ... स्वरूप हैं । तो जब अनादिकाल, आदिकाल में स्वरूप है तो अब भी अन्त में स्वरूप बनो । स्वरूप बनने से अपने गुण, शक्तियां स्वत: ही इमर्ज होते हैं । जैसे कोई भी आक्यूपेशन वाले जब अपने सीट पर सेट होते हैं तो वह आक्यूपेशन के गुण, कर्तव्य ऑटोमेटिक इमर्ज होते हैं । ऐसे आप सदा स्वरूप के सीट पर सेट रहो तो हर गुण, हर शक्ति, हर प्रकार का नशा स्वत: ही इमर्ज होगा । मेहनत नहीं करनी पड़ेगी । इसको कहा जाता है ब्राह्मणपन की नेचुरल नेचर, जिसमें और सब अनेक जन्मों की नेचर्स समाप्त हो जाती है । ब्राह्मण जीवन की नेचुरल नेचर है ही गुण स्वरूप, सर्व शक्ति स्वरूप और जो भी पुरानी नेचर्स हैं वह ब्राह्मण जीवन की नेचर्स नहीं हैं कहते ऐसे हो कि मेरी नेचर ऐसी है लेकिन कौन बोलता है मेरी नेचर? ब्राह्मण वा क्षत्रिय? वा पास्ट जन्म के स्मृति स्वरूप आत्मा बोलती है? ब्राह्मणों की नेचर - जो ब्रह्मा बाप की नेचर वह ब्राह्मणों की नेचर । तो सोचा जिस समय कहते हो मेरी नेचर, मेरा स्वभाव ऐसा है, क्या ब्राह्मण जीवन में ऐसा शब्द - मेरी नेचर, मेरा स्वभाव.... हो सकता है? अगर अब तक मिटा रहे हो और पास्ट की नेचर इमर्ज हो जाती है तो समझना चाहिए इस समय मैं ब्राह्मण नहीं हूँ, क्षत्रिय हूँ, युद्ध कर रहा हूँ मिटाने की । तो क्या कभी ब्राह्मण, कभी क्षत्रिय बन जाते हो? कहलाते क्या हो? क्षत्रिय कुमार या ब्रह्माकुमार? कौन हो? क्षत्रिय कुमार हो क्या? ब्रह्माकुमार, ब्रह्माकुमारियां । दूसरा नाम तो है ही नहीं । कोई को ऐसे बुलाते हो क्या कि हे क्षत्रिय कुमार आओ? ऐसा बोलते हो या अपने को कहते हो कि मैं ब्रह्माकुमार नहीं हूँ, मैं क्षत्रिय कुमार हूँ? तो ब्राह्मण अर्थात् जो ब्रह्मा बाप की नेचर वह ब्राह्मणों की नेचर । यह शब्द अभी कभी नहीं बोलना, गलती से भी नहीं बोलना, न सोचना, क्या करू मेरी नेचर है! यह बहानेबाजी है । यह कहना भी अपने को छुड़ाने का बहाना है । नया जन्म हुआ, ये जन्म में पुरानी नेचर, पुराना स्वभाव कहाँ से इमर्ज होता है? तो पूरे मरे नहीं हैं, थोड़ा जिंदा हैं, थोड़ा मरे हैं क्या? ब्राह्मण जीवन अर्थात् जो ब्रह्मा बाप का हर कदम है वह ब्राह्मणों का कदम हो ।

तो बापदादा भाग्य को भी देख रहे हैं और इतना श्रेष्ठ भाग्य, उस भाग्य के आगे यह बोल अच्छा नहीं होता । इस बारी मुक्ति वर्ष मना रहे हो ना - क्या क्लास कराते हो? मुक्ति वर्ष है । तो मुक्ति वर्ष है या 99 में आना है? 98 का वर्ष मुक्ति वर्ष है? जो समझते हैं यही वर्ष मुक्ति वर्ष है, वह हाथ हिलाओ । देखो हाथ हिलाना बहुत सहज है । होता क्या है? वायुमण्डल में बैठे हो ना, खुशी में झूम रहे हो, तो हाथ हिला देते हो, लेकिन दिल से हाथ हिलाओ, प्रतिज्ञा करो - कुछ भी चला जाए लेकिन प्रतिज्ञा मुक्ति वर्ष की न जाए । ऐसी पक्की प्रतिज्ञा है? देखो सम्भालके हाथ उठाओ । इस टी.वी. में आवे या न आवे, बापदादा के पास तो आपका चित्र निकल रहा है । तो ऐसे-ऐसे कमजोर बोल से भी मुक्ति । बोल ऐसे मधुर हो, बाप समान हो, सदा हर आत्मा के प्रति शुभ भावना के बोल हों, इसको कहा जाता है युक्तियुक्त बोल । साधारण बोल भी चलते-फिरते होना नहीं चाहिए । कोई भी अचानक आ जाए तो ऐसा ही अनुभव करे कि यह बोल हैं या मोती हैं । शुभ भाबना के बोल हीरे मोती समान हैं क्योंकि बापदादा ने कई बार यह इशारा दे दिया है कि समय प्रमाण अभी थोड़ा सा समय है सर्व खजाने जमा करने का । अगर इस समय में - समय का खजाना, संकल्प का खजाना, बोल का खजाना, ज्ञान धन का खजाना, योग की शक्तियों का खजाना, दिव्य जीवन के सर्व गुणों का खजाना जमा नहीं किया तो फिर ऐसा जमा करने का समय मिलना सहज नहीं होगा । सारे दिन में अपने इन एक-एक खजाने का एकाउण्ट चेक करो । जैसे स्थूल धन का एकाउण्ट चेक करते हो ना, इतना जमा हैं.... ऐसे हर खजाने का एकाउण्ट जमा करो । चेक करो । सर्व खजाने चाहिए । अगर पास विद आनर बनने चाहते हो तो हर खजाने का जमा खाता इतना ही भरपूर चाहिए जो 21 जन्म जमा हुए खाते से प्रालब्ध भोग सको । अभी समय के टू लेट की घण्टी नहीं बजी है, लेकिन बजने वाली है । दिन और डेट नहीं बतायेंगे । अचानक ही आउट होगा - टू लेट । फिर क्या करेंगे? उस समय जमा करेंगे? कितना भी चाहो समय नहीं मिलेगा । इसलिए बापदादा कई बार इशारा दे रहा है - जमा करो-जमा करो-जमा करो । क्योंकि आपका अभी भी टाइटिल है - सर्वशक्तिमान, शक्तिवान नहीं है, सर्वशक्तिमान । भविष्य में भी हैं सर्वगुण सम्पन्न, सिर्फ गुण सम्पन्न नहीं हैं । यह सब खजाने जमा करना अर्थात् गुण और शक्तियां जमा हो रही हैं । एक एक खजाने का गुण और शक्ति से सम्बन्ध है । जैसे साधारण बोल नहीं तो मधुर भाषी, यह गुण हैं । ऐसे हर एक खजाने का कनेक्शन है

बापदादा का बच्चों से प्यार है इसलिए फिर भी बार-बार इशारा दे रहे हैं क्योंकि आज की सभा में सब वैरायटी हैं । छोटे बच्चे भी हैं, टीचर्स भी हैं क्योंकि टीचर्स ही तो समर्पण हुई हैं । कुमारियां भी हैं, प्रवृत्ति वाले भी हैं । सब वैरायटी हैं

अच्छा - बापदादा की टीचर्स के प्रति एक शुभ भावना हैं, सुनायें? सिर्फ सुनेंगी या करेंगी भी? सिर्फ सोचेंगी या स्वरूप बनेंगी? सुनेंगी, रेंगी.... अच्छा - बहुत छोटी सी शुभ भावना है । बड़ी बात भी नहीं है, बहुत छोटी है । दादी ने सन्देश भेजा कि अभी सभी सेंटर्स निर्विघ्न हो जायें उसकी रेसपान्सिबुल टीचर्स हैं । अभी तक टीचर्स की कम्पलेन्स आती हैं । दादियों के पास वह फाइल है ना । आफिस वाली ईशू कहती है सेंटर्स से इतने फालतू लेटर्स आते हैं जो कीचड़े का डिब्बा भर जाता है । ऐसे हैं ना? यह पढ़ने में भी टाइम लगता, फिर फाड़ने में भी टाइम लगता, फिर बाक्स में डालने में भी टाइम लगता, तो यह मेहनत फालतू हो गई ना । इसलिए बापदादा की शुभ भावना है कि सभी टीचर्स बाप के राइट हैंण्डस हैं, लेफ्ट हैंण्ड नहीं हैं, राइट हैंण्ड हैं । राइट हैंण्डस के स्थान से, सेंटर्स से ऐसे समाचार आवे जो वेस्ट बाक्स ही भर जावे - तो ऐसा अच्छा है? बोलो हाँ या ना? जो समझते हैं इस वर्ष हम हर एक तीन सर्टीफिकेट लेंगे - स्व विघ्न-विनाशक, सेंटर्स विघ्न-विनाशक और साथी विघ्न-विनाशक । यह तीन सर्टीफिकेट लेने के लिए जो तैयार हैं वह टीचर्स हाथ उठाओ । जो सेंटर्स पर पाण्डव रहते हैं, वह भी हाथ उठाओ । (सभी ने हाथ उठाया) थैक्यूं ।

अभी वेस्ट पेपर बाक्स खाली रहेंगे । पढ़ना नहीं पड़ेगा । यह (ईशू) कहती है लेटर्स खोल-खोलकर हाथ थक जाता है । तो इसीलिए चाहे यहाँ बैठे हैं, चाहे विदेश में सुन रहे हैं, चाहे देश में सुन रहे हैं, चाहे मुरली सुनेंगे । लेकिन बापदादा की सारे विश्व की निमित्त टीचर्स के प्रति यह शुभ भावना है कि यह वर्ष कोई कम्पलेन्ट नहीं आनी चाहिए । कम्पलेन्ट के फाइल खत्म हो जाएं । बापदादा के पास भी बहुत फाइल हैं । तो इस वर्ष कम्पलेन्ट के फाइल खत्म । सब फाइन बन जाएं । फाइन से भी रिफाइन । पसन्द है ना? कोई कैसा भी हो उनके साथ चलने की विधि सीखो । कोई क्या भी करता हो, बार-बार विघ्न रूप बन सामने आता हो लेकिन यह विघ्नों में समय लगाना, आखिर यह भी कब तक? इसका भी समाप्ति समारोह तो होना है ना? तो दूसरे को नहीं देखना । यह ऐसे करता है, मुझे क्या करना है? अगर वह पहाड़ है तो मुझे किनारा करना है, पहाड़ नहीं हटना है । यह बदले तो हम बदले - यह है पहाड़ हटे तो मैं आगे बढूँ । न पहाड़ हटेगा न आप मंजिल पर पहुंच सकेंगे । इसलिए अगर उस आत्मा के प्रति शुभ भावना है, तो इशारा दिया और मन-बुद्धि से खाली । खुद अपने को उस विघ्न स्वरूप बनने वाले के सोच-विचार में नहीं डालो । जब नम्बरवार हैं तो नम्बरवार में स्टेज भी नम्बरवार होनी ही है लेकिन हमको नम्बरवन बनना है । ऐसे विघ्न वा व्यर्थ संकल्प चलाने वाली आत्माओं के प्रति स्वयं परिवर्तन होकर उनके प्रति शुभ भावना रखते चलो । टाइम थोड़ा लगता है, मेंहनत थोड़ी लगती है लेकिन आखिर जो स्व-परिवर्तन करता है, विजय की माला उसी के गले में पड़ती है । शुभ भावना से अगर उसको परिवर्तन कर सकते हो तो करो, नहीं तो इशारा दो, अपनी रेसपान्सिबिल्टी खत्म कर दो और स्व परिवर्तन कर आगे उड़ते चलो । यह विघ्न रूप भी सोने का लगाव का धागा है । यह भी उड़ने नहीं देगा । यह बहुत महीन और बहुत सत्यता के पर्दे का धागा है । यही सोचते हैं यह तो सच्ची बात है ना । यह तो होता है ना । यह तो होना नहीं चाहिए ना । लेकिन कब तक देखते, कब तक रुकते रहेंगे? अब तो स्वयं को महीन धागों से भी मुक्त करो । मुक्ति वर्ष मनाओ । इसलिए बच्चों की जो आशायें हैं, मं है, उत्साह है, इसके सभी फंक्न मनाकर बापदादा पूरे कर रहे हैं । लेकिन इस वर्ष का अन्तिम फंक्न मुक्ति वर्ष का फंक्न हो । फंक्न में दादियों को सौगात भी देते हो । तो बापदादा को इस मुक्त वर्ष के फंक् में स्वयं के सम्पूर्णता की गिफ्ट देना । अच्छा । चारों ओर के परमात्म पालना, पढ़ाई और श्रीमत के भाग्य के अधिकारी विशेष आत्माओं को, सदा सोचना और स्वरूप बनना दोनों समान करने वाले बाप समान आत्माओं को, सदा परमात्म विल पावर द्वारा स्वयं में और सेवा में सहज सफलता प्राप्त करने वाले निमित्त सेवाधारी बच्चों को, सदा बाप को कम्बाइन्ड रूप में अनुभव करने वाले, सदा साथ निभाने वाले साथी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते ।

वरदान:-

स्वयं में सर्व शक्तियों को इमर्ज रूप में अनुभव करने वाले सर्व सिद्धि स्वरूप भव  

लौकिक में किसी के पास किसी बात की शक्ति होती है, चाहे धन की, बुद्धि की, सम्बन्ध-सम्पर्क की... तो उसे निक्षय रहता है कि यह क्या बड़ी बात है । वह शक्ति के आधार से सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं । आपके पास तो सभी शक्तियां हैं, अविनाशी धन की शक्ति सदा साथ है, बुद्धि की भी शक्ति है तो पोजीशन की भी शक्ति है, सर्व शक्तियां आपमें हैं, इन्हें सिर्फ इमर्ज रूप में अनुभव करो तो समय पर विधि द्वारा सिद्धि प्राप्त कर सिद्धि स्वरूप बन जायेंगे ।

स्लोगन:- 
मन को प्रभू की अमानत समझकर उसे सदा श्रेष्ठ कार्य
में लगाओ | 

ओम् शान्ति |