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❍ 05 / 09 / 17 की मुरली से चार्ट ❍
⇛ TOTAL MARKS:- 100 ⇚
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∫∫ 1 ∫∫ होमवर्क (Marks: 3*5=15)
➢➢ *आफतें आने के पहले नयी दुनिया के लिए तैयार होने का पुरुषार्थ किया ?*
➢➢ *वाणी से परे वानप्रस्थ अवस्था में जाने का अभ्यास किया ?*
➢➢ *इस दुःखधाम को भूल शांतिधाम और सुखधाम को याद किया ?*
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∫∫ 2 ∫∫ विशेष अभ्यास (Marks:2*10=20)
➢➢ *नॉलेजफुल बन हर कर्म के परिणाम को जान कर्म किया ?*
➢➢ *एक दो को कॉपी करने की बजाये बाप को कॉपी किया ?*
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❂ *रूहानी ड्रिल प्रति* ❂
✰ *अव्यक्त बापदादा के महावाक्य* ✰
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〰✧ हे शान्ति देवा श्रेष्ठ आत्मायें। इस शान्ति की शक्ति को अनुभव में लाओ। जैसे वाणी की प्रैक्टिस करते-करते वाणी के शक्तिशाली हो गये हो, ऐसे *शान्ति की शक्ति के भी अभ्यासी बनते जाओ।* आगे चल वाणी वा स्थूल साधनों के द्वारा सेवा का समय नहीं मिलेगा।
〰✧ ऐसे समय पर शान्ति की शक्ति के साधन आवश्यक होंगे। क्योंकि जितना जो *महान शक्तिशाली शस्त्र होता है वह कम समय में कार्य ज्यादा करता है।* और जितना जो महान शक्तिशाली होता है वह अति सूक्ष्म होता है। तो *वाणी से शुद्धसंकल्प सूक्ष्म हैं,* इसलिए सूक्ष्म का प्रभाव शक्तिशाली होगा।
〰✧ अभी भी अनुभवी हो, जहाँ वाणी द्वारा कोई कार्य सिद्ध नहीं होता है तो कहते हो - यह वाणी से नहीं समझेंगे, *शुभ भावना से परिवर्तन होंगे।* जहाँ वाणी कार्य को सफल नहीं कर सकती, वहाँ *साइलेन्स की शक्ति का साधन शुभ-संकल्प, शुभ-भावना, नयनों की भाषा द्वारा रहम और स्नेह की अनुभूति कार्य सिद्ध कर सकती है।*
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∫∫ 3 ∫∫ विशेष पुरुषार्थ (Marks:-15)
➢➢ *अव्यक्त बापदादा के ऊपर दिए गए महावाक्यों पर एकांत में अच्छे से मनन कर इन महावाक्यों पर आधारित योग अभ्यास किया ?*
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∫∫ 4 ∫∫ बाबा से रूहरिहान (Marks:-10)
( आज की मुरली के सार पर आधारित... )
✺ *"ड्रिल :- इस दुखधाम को भूल, शान्तिधाम और सुखधाम को याद करना"*
➳ _ ➳ मीठे मधुबन के प्रांगण में शांतिस्तम्भ में घूमते हुए मै आत्मा... मीठे बाबा को याद कर रही हूँ कि *प्यारे बाबा ने मुझ आत्मा की उन्नति और सुखो के लिए क्या नही किया है..*. मुझे अपने भूले घर का पता बताकर, मुझे अपनी प्यारी सी गोद में बिठाकर, सदा का सनाथ कर दिया है... सच्चे सुखो की दुनिया मेरी हथेली पर लाकर रख दी है... और *मुझे देवताई भाग्य देकर, मुझे इस विश्व धरा पर कितना अनोखा, कितना प्यारा, निराला सजा दिया है.*... और याद करते करते मन के इन भावो को... मीठे बाबा को अर्पित करती हूँ...
❉ मीठे बाबा ने मुझ आत्मा को इस पुरानी दुनिया से उपराम बनाते हुए कहा :- "मीठे प्यारे फूल बच्चे... *ईश्वर पिता जब जीवन में आ गया है... तो मन बुद्धि के तारो को इस पुरानी दुनिया से निकाल, ईश्वरीय यादो में जोड़ो.*.. सदा अपने मीठे घर परमधाम और सुखो की नगरी को ही यादो में बसाओ... अब इस दुःख भरी दुनिया में बुद्धि न फंसाओ..."
➳ _ ➳ मै आत्मा मीठे बाबा की अमूल्य शिक्षाओ को अपने दिल में समाकर कहती हूँ :- "मीठे मीठे बाबा मेरे... मै आत्मा आपके प्यार के साये में कितनी सुखी हो गयी हूँ... *दुखो के अंधियारे से निकल, ज्ञान और याद के सवेरे में सदा के लिए प्रकाशित हो गयी हूँ.*.. सदा शान्तिधाम और सुखधाम की मीठी यादो में ही खोयी हुई हूँ..."
❉ प्यारे बाबा ने मुझ आत्मा को अपने मीठे घर और सुखो की याद दिलाते हुए कहा :-"मीठे प्यारे लाडले बच्चे... *मीठे बाबा की श्रीमत और यादो रुपी हाथो को पकड़कर, इस दुख के घाट से निकल... मीठी सुख नगरी में चलो..*. सदा यादो में अपने प्यारे से घर और अथाह सुखो से भरे स्वर्ग को ही ताजा करो... अब दुखो को सदा के लिए भूल सुखद भविष्य की स्मर्तियो में खो जाओ..."
➳ _ ➳ मै आत्मा मीठे बाबा से पायी सुखो की जागीर में डूबकर कहती हूँ :- "मीठे दुलारे बाबा मेरे... आपने मुझे दुखो की तपन से छुड़ाकर...मुझे सुखो की शीतलता से भर दिया है... देह के भान ने मुझ आत्मा के वजूद को कितना निस्तेज बना दिया था... आपने आकर मेरा नूर लौटाया है... *आपने सच्चे सुखो से मेरा दामन सजा दिया है... मै आत्मा असीम सुखो के आनन्द में झूल रही हूँ.*.."
❉ मीठे बाबा ने मुझ आत्मा को दुखो को भुला सुख की बहारो में ले जाते हुए कहा :- "मीठे प्यारे सिकीलधे बच्चे... *इस दुःख की देह की दुनिया को अब भूल, देवताई सुख भरी दुनिया को याद करो..*. गुणो और शक्तियो से सजे अपने आत्मिक स्वरूप के नशे में खो जाओ... देहभान में पाये जनमो के दुखो को भूलकर, देवताई सुख भरे मीठे अहसासो में खो जाओ..."
➳ _ ➳ मै आत्मा मीठे बाबा के असीम प्यार में डूबकर कहती हूँ :-"मीठे मीठे बाबा मेरे... मै आत्मा आपके बिना दुखो के जंगल में कितना भटक रही थी... *आपने जीवन में आकर, जीवन को सच्ची खुशियो से सजाया है.*.. मै आत्मा जो घर तक भूल चली थी... आज अपने मीठे घर को जान गयी हूँ, और सच्चे सुखो की हकदार हो रही हूँ..."मीठे बाबा का रोम रोम से शुक्रिया कर मै आत्मा... अपने वतन में लौट आयी...
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∫∫ 5 ∫∫ योग अभ्यास (Marks:-10)
( आज की मुरली की मुख्य धारणा पर आधारित... )
✺ *"ड्रिल :- अपने को सुधारने के लिए निश्चयबुद्धि बनना और वाणी से परे वानप्रस्थ में जाना*"
➳ _ ➳ वाणी से परे वानप्रस्थ में जाने का अभ्यास ही वो सर्वोच्च प्राप्ति करने का आधार है जहाँ पहुंच कर आत्मा उस गहन परम आनन्द की अनुभूति करती है जिस परमानन्द का बड़े बड़े साधू सन्यासियों, महा मण्डलेश्वरों ने वर्णन तो किया किन्तु उसका अनुभव नही कर पाए। क्योकि *उस सर्वोच्च स्थिति को वही पा सकता है जो सम्पूर्ण निश्चय बुद्धि बन सम्पूर्ण समर्पण भाव से उस सत्य परमपिता परमात्मा पर कुर्बान हो जाता है*। यही विचार करते - करते मुझे अपने सर्वश्रेष्ठ सौभाग्य पर नाज होता है और मैं सोचती हूँ कि कितनी सौभाग्यशाली हूँ मैं आत्मा जो जब चाहे तभी वाणी से परे वानप्रस्थ स्थिति में जा कर सेकेंड में उस परमानन्द का अनुभव कर लेती हूँ।
➳ _ ➳ अपने परम पिता परमात्मा शिव बाबा के सानिध्य में बैठ उस परमानन्द की अनुभूति का संकल्प ही मुझे मेरी शांत अशरीरी स्थिति में स्थित कर देता है। *मन बुद्धि रूपी नेत्रों से अब मैं अपने चैतन्य निराकारी ज्योति बिंदु स्वरूप को स्पष्ट देख रही हूं और स्वयं को एक ऐसी चैतन्य शक्ति के रूप में अनुभव कर रही हूँ जो इस देह को चला रही है*। अपने इस सत्य स्वरुप में स्थित होते ही मुझ आत्मा के अंदर निहित गुण और शक्तियां स्वत: ही इमर्ज हो रहें हैं। इस अवस्था में मेरी सर्व कर्मेन्द्रियां शांत और शीतल होती जा रही हैं । मेरे विचार स्थिर हो रहे हैं।
➳ _ ➳ इसी गहन शांति की अवस्था में मैं आत्मा अशरीरी बन इस देह से निकलकर अब अपने घर निर्वाण धाम की ओर चल पड़ती हूं। *मन बुद्धि रूपी नेत्रों से इस साकार दुनिया के वन्डरफुल नजारों को देखती हुई अपने पिता परमात्मा के प्रेम में मगन उनसे मिलन मनाने की तीव्र लग्न में मैं आत्मा वाणी से परे की इस आंतरिक यात्रा पर निरंतर बढ़ती जा रही हूँ*। साकार लोक को पार कर, सूक्षम लोक को भी पार कर, मैं आत्मा पहुंच गई निर्वाणधाम अपने शिव पिता परमात्मा के पास।
➳ _ ➳ वाणी से परे इस निर्वाणधाम में देह और देह की दुनिया के संकल्प मात्र से भी मैं मुक्त हूँ। लाल प्रकाश से प्रकाशित इस घर मे मुझे चारों और चमकती हुई मणियां ही दिखाई दे रही है। *चारों ओर शांति के शक्तिशाली वायब्रेशन फैले हुए हैं। शांति की गहन अनुभूति करते हुए इस पूरे ब्रह्माण्ड में मैं विचरण रही हूँ*। विचरण करते - करते शांति के सागर अपने शिव पिता परमात्मा के पास मैं पहुंच जाती हूँ। बाबा से आ रहे शांति के शक्तिशाली वायब्रेशन मुझे गहन शान्ति का अनुभव करवा रहें हैं। इनके आकर्षण में आकर्षित हो कर मैं आत्मा अपने शिव पिता के और भी समीप पहुंच जाती हूँ और जा कर उनके साथ कम्बाइंड हो जाती हूं।
➳ _ ➳ बाबा के साथ कम्बाइंड होते ही ऐसा आभास होता है जैसे सर्व शक्तियों के फवारे के नीचे मैं आत्मा स्नान कर रही हूं। *बाबा से निकल रही सर्वशक्तियों रूपी सतरंगी किरणों का झरना मुझ आत्मा पर बरस रहा हैं। मैं असीम आनन्द का अनुभव कर रही हूँ। एक अलौकिक दिव्यता से मैं आत्मा भरपूर होती जा रही हूँ*। प्यार के सागर बाबा अपना असीम प्यार मुझ पर लुटा रहे हैं। उनके प्यार की शीतल किरणे मुझे भी उनके समान मास्टर प्यार का सागर बना रही हैं। बाबा की सर्वशक्तियों को स्वयं में समाकर मैं शक्तियों का पुंज बनती जा रही हूँ। *लाइट माइट स्वरूप में स्थित हो कर मैं मास्टर बीजरूप स्थिति का अनुभव कर रही हूँ*।
➳ _ ➳ मास्टर बीजरूप स्थिति में स्थित हो, गहन अतीन्द्रीय सुख की अनुभूति करके मैं लौट आती हूँ साकारी लोक में और अपनी साकारी देह में आ कर फिर से भृकुटि सिहांसन पर विराजमान हो जाती हूँ किन्तु अब देह का कोई भी आकर्षण मुझे अपनी ओर आकर्षित नही कर रहा। *देह में रहते हुए वाणी से परे की वानप्रस्थ स्थिति का दिव्य अलौकिक अनुभव मुझे रुहानी नशे से भरपूर कर रहा है*।
➳ _ ➳ इस रूहानी नशे से स्वयं को सदा भरपूर रखने के लिए अब मैं ब्राह्मण आत्मा देह अभिमान में आ कर की हुई भूलों को, बाबा की श्रीमत पर चल, सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि बन सुधारती जा रही हूँ। *स्वयं पर, बाबा पर और ड्रामा पर सम्पूर्ण निश्चय मेरे मन मे उठने वाले व्यर्थ संकल्पो, विकल्पों से मुझे मुक्त कर रहा है। जिससे साइलेन्स का बल मेरे अंदर जमा होता जा रहा है और डीप साइलेन्स की अनुभूति करते हुए वाणी से परे वानप्रस्थ स्थिति में स्थित रहने का अनुभव बढ़ता जा रहा है जो मुझे हर समय अतीन्द्रिय सुख से भरपूर कर रहा है*।
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∫∫ 6 ∫∫ स्वमान का अभ्यास (Marks:-10)
( आज की मुरली के वरदान पर आधारित... )
✺ *"ड्रिल :- मैं आत्मा नालेजफुल बन हर कर्म के परिणाम को जान कर्म करती हूं।”*
➳ _ ➳ मैं बाबा की त्रिकालदर्शी बच्ची हूं… *मैं आत्मा हर कर्म के परिणाम को नॉलेज से जानती हूं… फिर में कर्म करती हूं*… मैं आत्मा कभी ऐसा नहीं कहती कि… होना तो नहीं चाहिए था लेकिन हो गया… बोलना नहीं चाहिए था लेकिन बोल दिया… ऐसा बोलना भोलेपन में अपने कर्म करना है… परिणाम से अनजान रहना है… मैं आत्मा *भोलेपन में कर्म नहीं करती हूं… भोले बनना अच्छा है… लेकिन मैं आत्मा दिल की भोली हूं… बातों में और कर्म में भोली नहीं हूं*… इनमें मैं त्रिकालदर्शी बन हर बात सुनती हूं… हर बात बोलती हूं… *मैं एक सेंट अर्थात महान आत्मा हूं*…
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∫∫ 7 ∫∫ श्रेष्ठ स्मृतियाँ / संकल्प (Marks-10)
( आज की मुरली के स्लोगन पर आधारित... )
✺ *"ड्रिल :- एक दो को कॉपी करने के बजाए बाप को कॉपी करते हुए श्रेष्ठ आत्मा बनते हुए अनुभव करना"*
➳ _ ➳ सदा बाप की मर्जी पर चलने वाली... *बाप के कदम के पीछे कदम रखने वाली... सदा फॉलो फादर करने वाली मैं एक श्रेष्ठ आत्मा हूँ...* अपने प्यारे शिवबाबा के साथ रहने वाली... खुदाई खिदमतगार हूँ... न्यारी अवस्था में रहते हुए... हर कर्म कर रही हूँ... कोई बोझ नहीं... कोई थकावट नहीं... कर्म बंधन मुक्त अवस्था का अनुभव कर रही हूँ... *सदा शुभचिंतन करने वाले मैं आत्मा... सर्व की शुभचिंतक हूँ...* स्व कल्याणी तथा विश्व कल्याणी हूँ... *मैं आत्मा हर सिस्टर ब्रदर को रिगार्ड दे रही हूँ लेकिन फालो फादर को ही कर रही हूँ...* फुटस्टेप बाप की फुटस्टेप पर रखती हुई... मंज़िल के समीप पहुंचती जा रही हूँ... हर कर्म को चेक करके... चेंज करके बाप समान बना रही हूँ... व्यर्थ चिंतन को पूर्णतः समाप्त कर... *सदा बाप की मर्जी पर चलते हुए... श्रेष्ठ आत्मा बनते हुए अनुभव कर रही हूँ...*
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∫∫ 8 ∫∫ अव्यक्त मिलन (Marks:-10)
( अव्यक्त मुरलियों पर आधारित... )
✺ अव्यक्त बापदादा :-
➳ _ ➳ *बापदादा ने देखा कि सेवा वा कर्म और स्व-पुरूषार्थ अर्थात् योगयुक्त तो दोनों का बैलेन्स रखने के लिए विशेष एक ही शब्द याद रखो - वह कौनसा? बाप 'करावनहार' है और मैं आत्मा, (मैं फलानी नहीं) आत्मा 'करनहार' हूँ।* तो करन-'करावनहार', यह एक शब्द आपका बैलेन्स बहुत सहज बनायेगा। स्व-पुरूषार्थ का बैलेन्स या गति कभी भी कम होती है, उसका कारण क्या? 'करनहार' के बजाए मैं ही करने वाली या वाला हूँ, 'करनहार' के बजाए अपने को 'करावनहार' समझ लेते हो। मैं कर रहा हूँ, जो भी जिस प्रकार की भी माया आती है, उसका गेट कौन सा है? *माया का सबसे अच्छा सहज गेट जानते तो हो ही - 'मैं'।* तो यह गेट अभी पूरा बन्द नहीं किया है। ऐसा बन्द करते हो जो माया सहज ही खोल लेती है और आ जाती है। अगर 'करनहार' हूँ तो कराने वाला अवश्य याद आयेगा। कर रही हूँ, कर रहा हूँ, लेकिन कराने वाला बाप है *बिना 'करावनहार' के 'करनहार' बन नहीं सकते हैं।* डबल रूप से 'करावनहार' की स्मृति चाहिए। *एक तो बाप 'करावनहार' है और दूसरा मैं आत्मा भी इन कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराने वाली हूँ।* इससे क्या होगा कि *कर्म करते भी कर्म के अच्छे या बुरे प्रभाव में नहीं आयेंगे। इसको कहते हैं - कर्मातीत अवस्था।*
➳ _ ➳ *सेवा के अति में नहीं जाओ। बस मेरे को ही करनी है, मैं ही कर सकती हूँ, नहीं। कराने वाला करा रहा है, मैं निमित्त 'करनहार' हूँ।* तो जिम्मेवारी होते भी थकावट कम होगी। कई बच्चे कहते हैं - *बहुत सेवा की है ना तो थक गये हैं, माथा भारी हो गया है। तो माथा भारी नहीं होगा। और ही 'करावनहार' बाप बहुत अच्छा मसाज करेगा।* और माथा और ही फ्रेश हो जायेगा। थकावट नहीं होगी, एनर्जी एकस्ट्रा आयेगी। जब साइन्स की दवाइयों से शरीर में एनर्जी आ सकथी है, तो क्या बाप की याद से आत्मा में एनर्जी नहीं आ सकती? और आत्मा में एनर्जी आई तो शरीर में प्रभाव आटोमेटिकली पड़ता है। अनुभवी भी हो, कभी-कभी तो अनुभव होता है। फिर चलते-चलते लाइन बदली हो जाती है और पता नहीं पड़ता है। जब कोई उदासी, थकावट या माथा भारी होता है ना फिर होश आता है, क्या हुआ? क्यों हुआ? लेकिन *सिर्फ एक शब्द 'करनहार' और 'करावनहार' याद करो।*
✺ *ड्रिल :- "'करावनहार' की स्मृति से सेवा या कर्म करते सहज योगयुक्त रहने का अनुभव"*
➳ _ ➳ मस्तक मणि मैं आत्मा... इस शरीर में विराजमान हूँ... एक दिव्य ज्योति पुंज समान मैं आत्मा... बैठी हूँ एक परमपिता परमात्मा की याद में... *मन बुद्धि रूपी मन के द्वार को एक शिवबाबा की ओर ही खोलती मैं आत्मा...* आह्वान करती हूँ... मेरे पिता परमेश्वर का... प्यार भरा आह्वान सुनकर मेरे पिता परमेश्वर अपने ब्रह्मा रथ में विराजमान होकर पहुँच जाते हैं मेरे मन के पास... *मन के द्वार पर खड़ी मैं आत्मा... बापदादा का फूलों से स्वागत करती हूँ...* उनका हाथ पकड़कर मैं आत्मा उनको रत्नजड़ित सिंहासन पर बिठाती हूँ... *बापदादा को प्यार से भोग की थाली अर्पण कर मैं आत्मा भावपूर्ण हो जाती हूँ...*
➳ _ ➳ *अपने हाथों से बापदादा मुझे भी भोग ख़िला रहे हैं...* और मैं आत्मा गदगद हो जाती हूँ... बापदादा से आती हुई वर्षा रूपी किरणों को अपने में धारण करती जा रही हूँ... जन्मों के विकारों को पिता को समर्पित कर मैं आत्मा हलकी फूल बनती जा रही हूँ... *संगमयुगी ब्राह्मण के कड़े विकार "मैं" और "मेरेपन" को संपूर्ण रूप से बापदादा को दान में दे रही हूँ....* और मंद मंद बापदादा मुस्कुरा रहे हैं... "मैं" और "मेरेपन" के सूक्ष्म संकल्पों को भी पूर्णतः त्याग करती मैं आत्मा... बापदादा की दिलतख्तनशीन बन जाती हूँ... *"करावनहार" सिर्फ एक बाप है और मैं आत्मा "करनहार" हूँ... इस स्मृति में झूमती मैं आत्मा...*
➳ _ ➳ अपने कलियुगी संस्कारों को एक बाप पर बलि चढ़ाती जा रही हूँ... और मैं आत्मा "करनहार" की स्मृति में अपना अलौकिक पार्ट बजा रही हूँ... *हर घड़ी हर पल "करावनहार" सिर्फ एक बाप की ही स्मृति से छलकती मैं आत्मा... सेवा या कर्म करते सहज योगयुक्त रहने का अनुभव कर रही हूँ...* अब तो हर पल... बापदादा को साथ साथ महसूस कर रही हूँ... मेरे को तेरे में बदलती... मेरेपन को तेरेपन में समर्पित करती मैं आत्मा... *बापदादा से... सेवा में... योग में... सफलतामूर्त का वरदानी तिलक लगवा रही हूँ...* बापदादा के हाथों से डबल ताज धारण करती हूँ... फूलों की माला से बापदादा द्वारा साज श्रृंगार होता देख रही हूँ...
➳ _ ➳ *कर्मातीत अवस्था की अधिकारी मैं आत्मा... कर्म के अच्छे या बुरे प्रभाव में नहीं उलझती हूँ...* जो पिता ने बोला वह किया... पिता ने जो करवाया वह मैं आत्मा अपने कर्मेन्द्रियों द्वारा करवा रही हूँ... हर कार्य को बापदादा को समर्पित करती मैं आत्मा.. *"मेरेपन" के रावण रूपी विकार को अग्निदाह दे... अशोक वाटिका रूपी देहाभिमानी स्थिति से मुझ सीता रूपी आत्मा से... एक रामरूपी शिवबाबा को प्रत्यक्ष करती रहती हूँ...* माया रूपी गेट को "करावनहार" रूपी चाबी से संपूर्ण लॉक करती मैं आत्मा... योग और सेवा को मेरेपन के विकारों से सुरक्षित रखती हूँ...
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⊙_⊙ आप सभी बाबा के प्यारे प्यारे बच्चों से अनुरोध है की रात्रि में सोने से पहले बाबा को आज की मुरली से मिले चार्ट के हर पॉइंट के मार्क्स ज़रूर दें ।
♔ ॐ शांति ♔
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