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❍ 13 / 07 / 18 की मुरली से चार्ट ❍
⇛ TOTAL MARKS:- 100 ⇚
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∫∫ 1 ∫∫ होमवर्क (Marks: 5*4=20)
➢➢ *देह हहाँ को भूलने के लिए जीते जी मरने का अभ्यास किया ?*
➢➢ *बार बार देह से न्यारा होने की प्रैक्टिस की ?*
➢➢ *बाप के कदम पर कदम रखते हुए परमात्म दुआएं प्राप्त की ?*
➢➢ *दिव्यता और अलोकिकता को अपने जीवन का श्रृंगार बनाया ?*
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✰ *अव्यक्त पालना का रिटर्न* ✰
❂ *तपस्वी जीवन* ❂
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〰✧ *वर्तमान समय विश्व की आत्मायें बिल्कुल ही शक्तिहीन, दु:खी अशान्त हैं, वह चिल्ला रही हैं, पुकार रही हैं, कुछ घड़ियों के लिए सुख दे दो, शान्ति दे दो, हिम्मत दे दो,* बाप बच्चा के दु:ख परेशानी देख नहीं सकते, *आप पूज्य आत्माएं भी अपने रहमदिल दाता स्वरूप में स्थित हो, ऐसी आत्माओं को विशेष सकाश दो।*
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∫∫ 2 ∫∫ तपस्वी जीवन (Marks:- 10)
➢➢ *इन शिक्षाओं को अमल में लाकर बापदादा की अव्यक्त पालना का रिटर्न दिया ?*
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✰ *अव्यक्त बापदादा द्वारा दिए गए* ✰
❂ *श्रेष्ठ स्वमान* ❂
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✺ *"मैं विजयी रत्न हूँ"*
〰✧ अपने को विजयी रत्न अनुभव करते हो? विजय प्राप्त करना सहज लगता है या मुश्किल लगता है? मुश्किल है या मुश्किल बना देते हो, क्या कहेंगे? है सहज लेकिन मुश्किल बना देते हो। *जब माया कमजोर बना देती है तो मुश्किल लगता है और बाप का साथ होता है तो सहज होता है। क्योंकि जो मुश्किल चीज होती है वह सदा ही मुश्किल लगनी चाहिए ना। कभी सहज, कभी मुश्किल-क्यों? सदा विजय का नशा स्मृति में रहे। क्योंकि विजय आप सब ब्राह्मण आत्माओंका जन्मसिद्ध अधिकार है।* तो जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त करना मुश्किल होता है या सहज होता है? कितनी बार विजयी बने हो! तो कल्पकल्प की विजयी आत्माओंके लिए फिर से विजयी बनना मुश्किल होता है क्या?
〰✧ अमृतवेले सदा अपने मस्तक में विजय का तिलक अर्थात् स्मृति का तिलक लगाओ। भक्ति-मार्ग में तिलक लगाते हैं ना। भक्ति की निशानी भी तिलक है और सुहाग की निशानी भी तिलक है। राज्य प्राप्त करने की निशानी भी राजतिलक होता है। कभी भी कोई शुभ कार्य में सफलता प्राप्त करने जाते हैं तो जाने के पहले तिलक देते हैं। *तो आपको राज्य प्राप्ति का राज्य-तिलक भी है और सदा श्रेष्ठ कार्य और सफलता है, इसलिए भी सदा तिलक है। सदा बाप के साथ का सुहाग है, इसलिए भी तिलक है। तो अविनाशी तिलक है।* कभी मिट तो नहीं जाता है?
〰✧ *जब अविनाशी बाप मिला तो अविनाशी बाप द्वारा तिलक भी अविनाशी मिल गया। सुनाया था ना-अभी स्वराज्य का तिलक है और भविष्य में विश्व के राज्य का तिलक है।* स्वराज्य मिला है कि मिलना है? कभी गंवा भी देते हो? सदैव फलक से कहो कि हम कल्प-कल्प के अधिकारी हैं ही!
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∫∫ 3 ∫∫ स्वमान का अभ्यास (Marks:- 10)
➢➢ *इस स्वमान का विशेष रूप से अभ्यास किया ?*
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❂ *रूहानी ड्रिल प्रति* ❂
✰ *अव्यक्त बापदादा की प्रेरणाएं* ✰
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〰✧ जैसे विनाश का बटन दबाने की देरी है, सेकण्ड की बाजी पर बात बनी हुई है, ऐसे *स्थापना के निमित बने हुए बच्चे एक सेकण्ड में तैयार हो जाए ऐसा स्मृति का समर्थ बटन तैयार है?*
〰✧ *जो संकल्प किया और अशरीरी हुए।* संकल्प किया और सर्व के विश्व-कल्याणकारी ऊँची स्टेज पर स्थित हो गए और उसी स्टेज पर स्थित हो साक्षी दृष्टा हो विनाश लीला देख सकें।
〰✧ देह के सर्व आकर्षण अर्थात सम्बन्ध, पदार्थ, संस्कार इन सबकी आकर्षण से परे, प्रकृति की हलचल की आकर्षण से परे, *फरिश्ता बन ऊपर की स्टेज पर स्थित हो शान्ति और शक्ति की किरणें सर्व आत्माओं के प्रति दे सकें* - ऐसे स्मृति का समर्थ बटन तैयार है? जब दोनों बटन तैयार हो तब समाप्ति हो।
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∫∫ 4 ∫∫ रूहानी ड्रिल (Marks:- 10)
➢➢ *इन महावाक्यों को आधार बनाकर रूहानी ड्रिल का अभ्यास किया ?*
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❂ *अशरीरी स्थिति प्रति* ❂
✰ *अव्यक्त बापदादा के इशारे* ✰
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〰✧ *बिन्दु बन विस्तार में जाओ तो सार मिलेगा। बिन्दु को भूल विस्तार मे जाते हो तो जंगल में चले जाते हो। जहाँ कोई सार नहीं।* बिन्दु रूप में स्थित रहने वाले सारयुक्त, योगयुक्त, युक्तियुक्त स्वरूप का अनुभव करेंगे। उन्हों की स्मृति, बोल और कर्म सदा समर्थ होंगे। *बिना बिन्दु बनने के विस्तार में जाने वाले सदा क्यों क्या के व्यर्थ बोल और कर्म में समय और शक्तियाँ भी व्यर्थ गँवायेंगे क्योंकि जंगल से निकलना पड़ता है। तो सदा क्या याद रखेंगे? एक ही बात -'बिंदु'।*
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∫∫ 5 ∫∫ अशरीरी स्थिति (Marks:- 10)
➢➢ *इन महावाक्यों को आधार बनाकर अशरीरी अवस्था का अनुभव किया ?*
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∫∫ 6 ∫∫ बाबा से रूहरिहान (Marks:-10)
( आज की मुरली के सार पर आधारित... )
✺ *"ड्रिल :- सिर्फ दो अक्षर याद करना - हम है सतगुरू पौत्रे"*
➳ _ ➳ *माया की हमजोली बन द्वापर से मुझ मस्तकमणि ने सीढी दर सीढी गिरना शुरू किया तो 16 कला से कब मैं आत्मा कलाहीन हो गई, पता ही न चला*... गिरावट का भी वो क्या दौर था, जो निरन्तर चला... फिर कालचक्र घूमा, और मेरे खेवटियाँ सतगुरू मुझे तलाशते हुए मुझ तक आयें... माया के चरणों में देख मुझ मस्तक मणि पर स्नेह और ज्ञान मोती बरसाये... *स्व स्वरूप का बोध कराकर मुझे अब चढती कला सिखा रहे हैं... परमधाम की मंजिल दिखाई है और दादे का वर्सा याद दिला रहे है*...
❉ *त्रिकालदर्शी बाप मुझ आत्मा से बोलें:-* "मेरी स्वदर्शनचक्र धारी बच्ची... सच्चा -सच्चा सतगुरू आप आत्मा बच्ची का दादा बन अपनी सम्पूर्ण मिल्कियत की सौगात वर्से में लाया है... *माया की झुलसाती तपन में क्या आपको इस घने वट वृक्ष की शीतलता का एहसास है? क्या आप बच्ची जानती हो, सतगुरू के इस वर्से में माया के वर्से से क्या खास है...?*
➳ _ ➳ *पदमापदम भाग्य शाली मैं आत्मा रत्नाकर बाप से बोली:-* " *मीठे बाबा... रोम रोम आभारी है आपका और धडकनें गुण गाते नही थकती*... जो पाया है आपसे, उसे जुबाँ से कह नही सकती... जब से आपने हाथ थामा है, नया दिन नया जीवन पाया है... *जन्नतें अब केवल ख्वाब नही रह गयीं है... और देह की मिट्टी में जो लथपथ थी उसने रूप फरिश्तों का पाया है*"...
❉ *इस खूबसूरत सफ़र के हमराह बापदादा मुझ आत्मा से बोले:-* "मेरी मास्टर सर्व शक्तिमान बच्ची... मायावी और लक्ष्यहीन से जीवन में अब आपने जीवन का परम लक्ष्य पाया है... परमधाम की इस ऊँची मंजिल में माया के तूफानों पर जीत पाओं... *हम है सतगुरू के पोत्रें... बस ये स्मृति में दोहराते जाओ... अपनी इसी पहचान का ये नशा आपको हर विघ्न से बचायेगा*"...
➳ _ ➳ *मास्टर ज्ञान सूर्य मैं आत्मा, ज्ञान सागर बाप दादा से बोली:-* "रहम के सागर मेरे मीठे बाबा... गीतों में बडे सहजता से आपने ज्ञान का सार दिया है... आपकी इन युक्तियों पर दिल ने बार- बार आभार किया है... *हमें उन राहों पर चलना है जिन पर गिरकर संभलना है... गिरना ही सीखा था हमने, अब संभलना भी आया, और संभालना भी आया है... महान है आपका वर्सा मेरे सतगुरू... जो ये आपसे अनोखा खजाना पाया"...*
❉ *दिव्य और अलौकिक खजानों के मालिक सच्चे सतगुरू मुझ आत्मा से बोले:-* "*मीठी बच्ची... जितना बाँटो उतना ही ये वर्सा बढता जाता है... क्या आप बच्ची को बापसमान ये खजाना बाँटना भी आता है*... सतगुरू पोत्रे का अब सच्चा फर्ज़ निभाओं... *हम है सतगुरू के पौत्रे... अब ये नशा सबको चढाओं... माया के वर्से में बन्दी अब देवकुल की आत्माओं को मुक्त कराओं...*"
➳ _ ➳ *बाप के कदम पर कदम रखने वाली मैं आज्ञाकारी आत्मा बापदादा से बोली:-* "मीठे बाबा... अधिकारी पन का ये नशा अब मेरे रोम रोम से छलक रहा है... मधुशाला सी बन गई है ये दुनिया और हर रूह से बस आपका ही नूर झलक रहा है... *न माया का डर है, ना विघ्नों की फिकर है*... *हर आत्मा अब बस सतगुरू की बताई डगर पर है और इतना सुनकर सतगुरू दादा का वरदानी हाथ मेरे सर पर... और मैं आत्मा... शक्तियों से भरपूर होती हुई*...
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∫∫ 7 ∫∫ योग अभ्यास (Marks:-10)
( आज की मुरली की मुख्य धारणा पर आधारित... )
✺ *"ड्रिल :- आप मुये मर गई दुनिया, यह स्मृति में रख, बार - बार इस देह से न्यारा होने की प्रैक्टिस करनी है*
➳ _ ➳ अपनी मृत्यु के बारे में चिंतन करते ही मेरी मृत्यु का सीन एक दम मेरी आँखों के सामने स्पष्ट दिखाई दे रहा है। *जमीन पर पड़े हुए अपने मृत शरीर को मैं देख रही हूँ। मेरे आस - पास सब कुछ पहले की तरह हो रहा है। किन्तु सब कुछ होते हुए भी अब जैसे मेरे लिए कुछ भी नही है*। मेरे लिए तो जैसे सारी दुनिया ही मर गई है क्योंकि मेरे इस मृत शरीर पर संसार में होने वाली किसी भी एक्टिविटी का कोई प्रभाव नही पड़ रहा।
➳ _ ➳ अपनी मृत देह को देख मैं विचार करती हूँ कि जब तक मैं आत्मा इस देह में थी, इस देह और देह के सम्बन्धो में मैं कैसे फंसी हुई थी! *किन्तु आज इस देह के छूटते ही जैसे मैं आत्मा हर बन्धन से मुक्त हो गई हूँ। अब ना तो यह नश्वर देह मुझे अपनी और खींच रही है और ना इस देह से जुड़े सम्बन्ध मुझे आकर्षित कर रहें हैं। इस संसार से अब जैसे मेरा कोई सम्बन्ध है ही नही और यह निर्लिप्त अवस्था कितनी न्यारी और प्यारी, कितनी सुख देने वाली है*। हर बोझ से मुक्त कितना हल्कापन मैं आज अनुभव कर रही हूँ। ऐसा लग रहा है जैसे रुई की तरह मैं एकदम हल्की हूँ और यह हल्कापन मुझे उड़ा कर ऊपर ले जा रहा है।
➳ _ ➳ महसूस कर रही हूँ अब मैं आत्मा स्वयं को उड़ते हुए। देख रही हूँ मेरी नश्वर देह और देह से जुड़ा हर सम्बन्ध, देह की दुनिया सब धीरे - धीरे पीछे छूटते जा रहें हैं। साक्षी होकर हर चीज को मैं देखती जा रही हूँ और एक आजाद पंछी की भांति उड़ने का आनन्द ले रही हूँ। *ऐसा लग रहा है जैसे आज दिन तक देह की कारा में बन्द रहने के कारण मैं उड़ना ही भूल गई थी और आज उस कारा से निकलते ही अपने पँखो को फड़फड़ाकर अब दूर बहुत दूर उड़ती जा रही हूँ*। पाँच तत्वों की बनी साकारी दुनिया बहुत पीछे छूट गई है और मैं उड़ते - उड़ते पहुँच गई हूँ खुले आसमान में। नीले - नीले बादलों के ऊपर मैं उड़ रही हूँ और पूरे नीलगगन में विचरण करते हुए, आनन्द लेते हुए अब मैं इस आकाश तत्व से भी ऊपर दूसरे लोक की और जा रही हूँ।
➳ _ ➳ श्वेत प्रकाश से जगमगाते फरिश्तो के इस आकारी सूक्ष्म वतन में मैं पहुँच गई हूँ और देख रही हूँ इस अव्यक्त वतन के अति सुन्दर नजारों को। *इस मूवी वर्ल्ड में जहां स्थूल देह का कोई बंधन नही, कोई दिन नही, कोई रात नही। बस इशारों की, संकल्पो की भाषा। देख रही हूँ मैं अपने सामने अपने प्राणप्यारे अव्यक्त बापदादा को*। अपनी अनन्त शक्तियों के प्रकाश से सारे वतन को प्रकाशित करते बापदादा के पास अपने अव्यक्त फ़रिश्ता स्वरूप को धारण कर मैं पहुँचती हूँ और जा कर उनके समीप बैठ जाती हूँ। अपने प्यारे पिता के साथ अव्यक्त मिलन मनाती, नयनो ही नयनो में उनसे मीठी - मीठी रूह रिहान करती, मैं स्वयं को उनकी शक्तियों से भरपूर कर रही हूँ। *अपनी नजरो से वो मुझे निहाल कर रहें हैं और अपनी दृष्टि से अपनी शक्तियों का बल मेरे अंदर भरकर मुझे शक्तिशाली बना रहे हैं*।
➳ _ ➳ इस अलौकिक मिलन का भरपूर आनन्द लेकर अब मैं अपने निराकारी स्वरूप में फिर से स्थित होकर अपने निराकारी वतन की ओर चल पड़ती हूँ। एक ही उड़ान में मैं अपने इस ऊँचे ते ऊँचे ब्रह्मलोक घर मे पहुँच जाती हूँ। *इस साइलेन्स वर्ल्ड में मैं देख रही हूँ, अपनी सर्वशक्तियों की अनन्त किरणों रूपी बाहों को फैलाये, महाज्योति मेरे शिव पिता मेरे सामने खड़े हैं। बिना कोई विलम्ब किये उनकी किरणों रूपी बाहों के आगोश में मैं आत्मा जा कर समा जाती हूँ*। अपने प्यार की किरणों रूपी बाहों में मुझे भरकर, अपने स्नेह की शीतल किरणे मुझ पर फैलाते हुए मेरे बाबा अपना असीम स्नेह मुझ पर लुटाकर मुझे तृप्त कर देते हैं। अपने गुणों, अपनी शक्तियों से भरपूर कर, मुझे सर्वगुणों, सर्वशक्तियों से सम्पन्न बना देते हैं। *बाबा के स्नेह की शीतल छाया में बैठ उनसे अथाह सुख लेकर, सर्वगुण, सर्वशक्तिसम्पन्न स्वरूप बनकर मैं वापिस लौट आती हूँ*।
➳ _ ➳ साकार टॉकी वर्ल्ड में अपनी स्थूल देह में मैं आत्मा भृकुटि के अकालतख्त पर आकर विराजमान हो जाती हूँ। आप मुये मर गई दुनिया इस बात को सदा स्मृति में रख, अपनी मृत्यु के सीन को सदा इमर्ज रखते हुए, बार - बार इस देह से न्यारा होने की प्रैक्टिस मैं हर समय करती रहती हूँ। *कर्म करने के लिए देह का आधार लेना और फिर देह से न्यारी ज्योति बिंदु आत्मा बन, देह से डिटैच हो कर अपने पिता के पास उनके धाम जाकर उनकी छत्रछाया में बैठ जाना, यह अभ्यास बार - बार करते हुए देह और देह की दुनिया मे रहते भी इससे उपराम होने का पुरुषार्थ मैं निरन्तर कर रही हूँ*।
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∫∫ 8 ∫∫ श्रेष्ठ संकल्पों का अभ्यास (Marks:- 5)
( आज की मुरली के वरदान पर आधारित... )
✺ *मैं बाप के कदम पर कदम रखते हुए परमात्म दुआयें प्राप्त करने वाली आज्ञाकारी आत्मा हूँ ।*
➢➢ इस संकल्प को आधार बनाकर स्वयं को श्रेष्ठ संकल्पों में स्थित करने का अभ्यास किया ?
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∫∫ 9 ∫∫ श्रेष्ठ संकल्पों का अभ्यास (Marks:- 5)
( आज की मुरली के स्लोगन पर आधारित... )
✺ *मैं दिव्यता और अलौकिकता को अपने जीवन का श्रृंगार बनाकर साधारणता को समाप्त करने वाली विशेष आत्मा हूँ ।*
➢➢ इस संकल्प को आधार बनाकर स्वयं को श्रेष्ठ संकल्पों में स्थित करने का अभ्यास किया ?
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∫∫ 10 ∫∫ अव्यक्त मिलन (Marks:-10)
( अव्यक्त मुरलियों पर आधारित... )
✺ अव्यक्त बापदादा :-
➳ _ ➳ *ब्रह्माकुमार-कुमारी बन अगर कोई भी साधारण चलन वा पुरानी चाल चलते हैं तो सिर्फ अकेला अपने को नुकसान नहीं पहुँचाते* - क्योंकि अकेले ब्रह्माकुमार-कुमारी नहीं हो लेकिन ब्राह्मण कुल के भाती हो। स्वयं का नुकसान तो करते ही हैं लेकिन कुल को बदनाम करने का बोझ भी उस आत्मा के ऊपर चढ़ता है। *ब्राह्मण लोक की लाज रखना यह भी हर ब्राह्मण का फर्ज है*। जैसे लौकिक लोकलाज का कितना ध्यान रखते हैं। लौकिक लोकलाज पद्मापद्मपति बनने से भी कहाँ वंचित कर देती है। स्वयं ही अनुभव भी करते हो और कहते भी हो कि चाहते तो बहुत हैं लेकिन लोकलाज को निभाना पड़ता है। ऐसे कहते हो ना? *जो लोकलाज अनेक जन्मों की प्राप्ति से वंचित करने वाली है, वर्तमान हीरे जैसा जन्म कौड़ी समान व्यर्थ बनाने वाली है, यह अच्छी तरह से जानते भी हो फिर भी उस लोकलाज को निभाने में अच्छी तरह ध्यान देते हो*, समय देते हो, एनर्जी लगाते हो। तो क्या इस ब्राह्मण लोकलाज की कोई विशेषता नहीं है!
➳ _ ➳ उस लोक की लाज के पीछे अपना धर्म अर्थात् धारणायें और श्रेष्ठ कर्म याद का, दोनों ही धर्म और कर्म छोड़ देते हो। कभी वृत्ति के परहेज की धारणा अर्थात् धर्म को छोड़ देते हों, कभी शुद्ध दृष्टि के धर्म को छोड़ देते हो। कभी शुद्ध अन्न के धर्म को छोड़ देते हो। फिर *अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए बातें बहुत बनाते हो। क्या कहते - कि करना ही पड़ता है*! थोड़ी सी कमज़ोरी सदा के लिए धर्म और कर्म को छुड़ा देती है। जो धर्म और कर्म को छोड़ देता है उसको लौकिक कुल में भी क्या समझा जाता है? जानते हो ना? *यह किसी साधारण कुल का धर्म और कर्म नहीं है। ब्राह्मण कुल ऊँचे ते ऊँची चोटी वाला कुल है*। तो किस लोक वा किस कुल की लाज रखनी है?
✺ *"ड्रिल :- लौकिक लोकलाज के लिए ब्राह्मण कुल की लोकलाज को नहीं छोड़ना।"*
➳ _ ➳ *देह रूपी थाली में पूजा के पावन दीपक की भाति, मैं आत्मा अपने प्रकाश से आसपास के अज्ञान अंधकार को दूर कर रही हूँ*... मेरी पावनता का प्रकाश आत्माओं की बुझती ज्योति में नवीन ऊर्जा का संचार कर रहा है... *अंधकार से लडना और जीतना मेरे कुल की मर्यादा है और इस पर मुझे पूरा नाज़ है...*
➳ _ ➳ फरिश्ता रूप धारण कर मैं आत्मा, बापदादा के साथ सूक्ष्म लोक में, बापदादा के ठीक सामने... बापदादा के हाथो में फूलों की दो मालाएँ... एक में सुन्दर गुलाब और एक में अक के फूल गुँथे हुए है... साफ अन्तर नजर आ रहा है दोनों में *एक का कुल साधारण है और एक का श्रेष्ठ*... एक खुशबू से रहित है दूसरा खुशबूदार है, कोमल है... मैं हाथ बढाकर गुलाब के फूलों की माला स्वीकार करता हूँ... बापदादा मेरी समझ पर मुस्कुरा रहे हैं...
➳ _ ➳ बापदादा के हाथों में हाथ लिए मैं आत्मा, द्वापर की यात्रा पर... सामने देख रही हूँ भव्य विशाल मन्दिर, मन्दिर के बाहर भक्तों की लम्बी कतार, मगर मन्दिर का दरवाजा बन्द है, क्योंकि दर्शनीय मूरत आत्माएं अभी श्रृंगार में ही लगी है... *कभी लौकिक लोकलाज का श्रृंगार तो कभी देवताई श्रृंगार...* मानो समय की महत्ता और संगम युगी जन्म का महत्व भूल गयी है... लम्बे इन्तजार के बाद भक्तों की निराश होकर लौटती भीड... एक बैचेनी सी पैदा कर रही है मेरे मन में... उनके चेहरों की निराशा देखकर मैं देख रहा हूँ बापदादा की ओर... *और बापदादा मेरी पीडा को देखकर आज मुस्कुरा रहे है... मानो आज मुझे मेरे धर्म व धारणाओं का आईना दिखा रहे है...*
➳ _ ➳ मुझे याद आ रहा है कब कब *मुझ आत्मा की ब्रह्माकुमार, ब्रह्माकुमारी बनकर साधारण चाल चलन रही* और कब कब मैने लौकिक कुल की लोक लाज निभाने के लिए ब्राह्मण कुल की मर्यादाओं से समझौता किया... और *इस हीरे तुल्य जन्म को कौडियों के समान समझा...*
➳ _ ➳ ब्राह्मण कुल की लोकलाज के प्रति अटूट श्रद्धा का भाव मन में लिए मैं आत्मा बापदादा के साथ एक नौका पर सवार हूँ... *मेरे हाथों में लौकिक मर्यादाओं की पोटली है... मैं आत्मा देखते ही देखते फेंक देती हूँ इसे नदी की तेज धाराओं में... और देख रही हूँ अपने से आहिस्ता आहिस्ता दूर जाती हुई... इतनी दूर कि वो पोटली आँखों से पूरी तरह ओझल हो गयी है...*
➳ _ ➳ मुक्ति का तीव्र एहसास... और बापदादा गले से लगा रहे है मुझे... मेरा बापदादा से हाथों में हाथ लेकर वादा- *"अब कोई भक्त मेरे मन्दिर से निराश नही लौटेगा बाबा"... मैं बस ब्राह्मण कुल की मर्यादाओं को ही जीवन में धारण करूँगी...* अब ये दर्शनीय मूरत श्रृंगार करने में ज्यादा समय नही लगायेगी... गहरे निश्चय और दृढता के साथ मैं फरिश्ता वापस अपने उसी देह रूपी थाली में... इस बार मुझ दीपक की लौ गहरे आत्मविश्वास के साथ जगमगा रही है... ओम शान्ति...
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⊙_⊙ आप सभी बाबा के प्यारे प्यारे बच्चों से अनुरोध है की रात्रि में सोने से पहले बाबा को आज की मुरली से मिले चार्ट के हर पॉइंट के मार्क्स ज़रूर दें ।
♔ ॐ शांति ♔
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