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 29 / 06 / 20  की  मुरली  से  चार्ट  

       TOTAL MARKS:- 100 

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∫∫ 1 ∫∫ होमवर्क (Marks: 5*4=20)

 

➢➢ *"हम शिव बाबा के बच्चे हैं" - सदा यह स्मृति रही ?*

 

➢➢ *देहि अभिमानी बनने का पुरषार्थ किया ?*

 

➢➢ *बन्धनों के पिंजड़े को तोड़ जीवनमुक्त स्थिति का अनुभव किया ?*

 

➢➢ *संकल्पों को बचा समय, बोल सब कुछ बचाया ?*

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  ✰ *अव्यक्त पालना का रिटर्न*

         ❂ *तपस्वी जीवन*

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✧  *इस कलियुगी तमोप्रधान जड़जड़ीभूत वृक्ष की दुर्दशा देखते हुए ब्रह्मा बाप को संकल्प आता है कि अभी-अभी बच्चों के तपस्वी रूप द्वारा, योग अग्नि द्वारा इस पुराने वृक्ष को भस्म कर दें,* परन्तु इसके लिए संगठन रूप में फुलफोर्स से योग ज्वाला प्रज्जवलित चाहिए। *तो ब्रह्मा बाप के इस संकल्प को अब साकार में लाओ।*

 

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∫∫ 2 ∫∫ तपस्वी जीवन (Marks:- 10)

 

➢➢ *इन शिक्षाओं को अमल में लाकर बापदादा की अव्यक्त पालना का रिटर्न दिया ?*

 

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*अव्यक्त बापदादा द्वारा दिए गए*

             ❂ *श्रेष्ठ स्वमान*

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   *"मैं बाप की समीपता द्वारा स्वप्न में भी मायाजीत आत्मा हूँ"*

 

✧  बाप के सदा समीप कौन रह सकता है? समीप रहने वाले की विशेषता क्या होगी? समान होंगे। *जो समान होता है वह समीप होता है। तो जैसे यह थोड़े समय की समीपता प्रिय लगती है, तो सदा समीप रहने वाले कितने प्रिय होंगे! तो सदा समीप रहते हो या सिर्फ थोड़े समय के लिए समीप हो?* समीप रहने के लिए भक्ति-मार्ग में भी सत्संग का बहुत महत्व है। संग रहो अर्थात् समीप रहो। वह तो सिर्फ सुनने वाले होते हैं और आप संग में रहने वाले हो।

 

✧  ऐसे हो? कभी मुख मोड़ तो नहीं लेते हो? माया आकर ऐसे मुख कर लेवे तो? सीता के माफिक माया को पहचान नहीं सको-ऐसे धोखा तो नहीं खाते हो? धोखा खाने वाले चन्द्रवंशी बन जाते हैं। तो अच्छी तरह से माया को पहचानने वाले हो ना। बाप को भी पहचाना और माया को भी अच्छी तरह से पहचाना। अभी वह नया रूप धारण करके आये तो भी पहचान लेंगे ना। या नया रूप देखकर के कहेंगे कि हमको क्या पता! शक्तियां पहचानती हो? या कभी-कभी घबरा जाती हो? *घबराते तब हैं जब बाप को किनारे कर देते हैं। अगर बाप के संग में हैं तो माया की हिम्मत नहीं जो समीप आ सके। तो पहचान ही लकीर है, इस पहचान की लकीर के अन्दर माया नहीं आ सकती।* तो लकीर के अन्दर रहते हो या कभी-कभी संकल्प से थोड़ा बाहर निकल आते हो?

 

✧  अगर संकल्प में भी साथ की लकीर से बाहर आ जाते हो तो माया के साथी बन जाते हो। संकल्प वा स्वप्न में भी बाप से किनारा नहीं। ऐसे नहीं कि स्वप्न तो मेरे वश में नहीं हैं। स्वप्न का भी आधार अपनी साकार जीवन है। अगर साकार जीवन में मायाजीत हो तो स्वप्न में भी माया अंश-मात्र में भी नहीं आ सकती। तो माया-प्रूफ हो जो स्वप्न में भी माया नहीं आ सकती? स्वप्न को भी हल्का नहीं समझो। क्योंकि जो स्वप्न में कमजोर होता है, तो उठने के बाद भी वह संकल्प जरूर चलेंगे और योग साधारण हो जायेगा। इसीलिए इतने विजयी बनो जो संकल्प से तो क्या लेकिन स्वप्न-मात्र भी माया वार नहीं कर सके। *सदा मायाजीत अर्थात् सदा बाप के समीप संग में रहने वाले। कोई की ताकत नहीं जो बाप के संग से अलग कर सके-ऐसे चैलेन्ज करने वाले हो ना। इतना दिल से आवाज निकले कि हम नहीं विजयी बनेंगे तो और कौन बनेंगे! कल्प पहले बने थे। सदा यह स्मृति में अनुभव हो-हम ही थे, हम ही हैं और हम ही रहेंगे।*

 

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∫∫ 3 ∫∫ स्वमान का अभ्यास (Marks:- 10)

 

➢➢ *इस स्वमान का विशेष रूप से अभ्यास किया ?*

 

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         ❂ *रूहानी ड्रिल प्रति*

*अव्यक्त बापदादा की प्रेरणाएं*

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✧  जैसे *कोई भी सुगन्धित वस्तु सेकण्ड में अपना खुश्बू फैला देती है।* जैसे गुलाब का इसेन्स डालने से सेकण्ड में सारे वायुमण्डल में गुलाब की खुश्बू फैल जाती है। सभी अनुभव करते हैं कि गुलाब की खुश्बू बहुत अच्छी आ रही है। सभी का न चाहते भी अटेन्शन जाता है कि यह खुश्बू कहाँ से आ रही है।

 

✧  ऐसे ही *भिन्न-भिन्न शक्तियों का इसेन्स, शान्ति का, आनन्द का, प्रेम का, आप संगठित रूप में सेकण्ड में फैलाओ।* जिस इसेन्स का अकार्षण चारों ओर की आत्माओं को आये और अनुभव करें कि कहाँ से यह शान्ति का इसेन्स वा शान्ति के वायब्रेशन्स आ रहे हैं। जैसे अशान्त को अगर शान्ति मिल जाए वा प्यासे को पानी मिल जाए तो उनकी आँख खुल जाती है, बेहोशी से होश में आ जाते हैं।

 

✧  *ऐसे इस शान्ति वा आनन्द की इसेन्स के वायब्रेशन्स से अन्धे की औलाद अन्धे की तीसरी आँख खुल जाए।* अज्ञान की बेहोशी से इस होश में आ जाए कि यह कौन हैं, किसके बच्चे हैं, यह कौन-सी परम-पूज्य आत्मायें हैं। ऐसी रूहानी ड्रिल कर सकते हो?

 

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∫∫ 4 ∫∫ रूहानी ड्रिल (Marks:- 10)

 

➢➢ *इन महावाक्यों को आधार बनाकर रूहानी ड्रिल का अभ्यास किया ?*

 

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         ❂ *अशरीरी स्थिति प्रति*

*अव्यक्त बापदादा के इशारे*

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〰✧ आज बाप-दादा मिलने के लिए आये हैं। मुरली तो बहुत सुनी है। *सर्व मुरलियों का सार एक ही शब्द है - 'बिन्दु' जिसमें सारा विस्तार समया हुआ है।* बिन्दु तो बन गये हो ना? बिन्दु बनना, बिन्दु को याद करना और जो कुछ बीता उसको बिन्दु लगाना। यह सहज अनुभव होता है ना? *यह अतिसूक्ष्म और अति शक्तिशाली है। जिससे आप सब भी सूक्ष्म फरिश्ता बन, मास्टर सर्व शक्तिवान बन पार्ट बजाते हो।*

 

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∫∫ 5 ∫∫ अशरीरी स्थिति (Marks:- 10)

 

➢➢ *इन महावाक्यों को आधार बनाकर अशरीरी अवस्था का अनुभव किया ?*

 

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∫∫ 6 ∫∫ बाबा से रूहरिहान (Marks:-10)

( आज की मुरली के सार पर आधारित... )

 

✺   *"ड्रिल :- पढाई से बेगर टू प्रिंस बनना"*

 

_ ➳  *मैं आत्मा अपने मन-बुद्धि को बाह्य सभी बातों से हटाकर भृकुटी के मध्य केन्द्रित करती हूँ... इस देह रूपी ड्रेस से मैं आत्मा बाहर निकल फ़रिश्ता ड्रेस धारण करती हूँ... और इस धरा से ऊपर उड़ते हुए, सागर, नदियों, जंगलों, पहाड़ों को पार करती हुई आसमान में बादलों के ऊपर बैठ जाती हूँ...* आसमान में चाँद, सितारों से मिलकर और ऊपर उड़कर सूक्ष्म वतन में बापदादा के सम्मुख जाकर बैठ जाती हूँ राजयोग की पढाई पढने...

 

  *मुझे डबल सिरताज बनाकर विश्व की राजाई मेरे नाम करने के लिए अमूल्य ज्ञान देते हुए प्यारे बाबा कहते हैं:-* मेरे मीठे फूल बच्चे... यह ईश्वरीय पढ़ाई वह जागीर, वह दौलत है जो विश्व का राज्य भाग्य दिलायेगी... *इसलिये इस महान पढ़ाई में रग रग से जुट जाओ... ईश्वर पिता की गोद में बैठ पढ़ते हो और यादो से विश्व अधिकारी सहज ही बन जाते हो... कितना प्यारा और मीठा सा यह भाग्य है... इसके नशे में डूब जाओ...”*

 

_ ➳  *बाबा के मोहब्बत की रोशनी में सच्ची कमाई कर हीरे समान चमकते हुए मैं आत्मा कहती हूँ:-* हाँ मेरे मीठे प्यारे बाबा... मै आत्मा आपके प्यार भरी छाँव में, *सुखो भरी गोद में बैठ राजाई भाग्य पा रही हूँ... देवताई संस्कारो से सजकर मीठा सा मुस्करा रही हूँ, और सुनहरे सुखो की ओर कदम बढ़ाती जा रही हूँ...”*

 

  *अपने पलकों में बिठाकर यादों के समुन्दर की गहराईयों में डुबोते हुए मीठे बाबा कहते हैं:-* मीठे प्यारे लाडले बच्चे... *सच्ची पढ़ाई को दिल जान से पढ़कर अधिकारी बन जाओ... अमूल्य खजानो को और अथाह सुखो की दौलत से मालामाल बन जाओ...* ईश्वर पिता से सब कुछ लेकर देवताओ सा खुबसूरत जीवन बाँहों में भरकर खिलखिलाओ... डबल सिरताज बन सदा की मुस्कान से सज जाओ...

 

_ ➳  *रूहानी नशे में खोकर बाबा को अपने नैनों में बसाकर मैं आत्मा कहती हूँ:-* मेरे प्राणप्रिय बाबा... *मै आत्मा आपकी मीठी यादो और अमूल्य ज्ञान रत्नों से अथाह सुखो की मालकिन और देवताओ सा रूप रंग पा रही हूँ...* कभी दुखो में गरीब सी... मै आत्मा आज शिव बाबा आपकी बाँहों में पूरे विश्व धरा का अधिकार पा रही हूँ...

 

  *अमूल्य ज्ञान रत्नों की निधियों से मुझे मालामाल करते हुए मेरे रत्नाकर बाबा कहते हैं:-* प्यारे सिकीलधे मीठे बच्चे... *ईश्वरीय पढ़ाई ही सारे सच्चे सुखो का आधार है... सारा मदार इस पढ़ाई पर ही है... जितना ज्ञान रत्नों को मन और बुद्धि में समाओगे उतना ही प्यारा सतयुगी सुखो में इठलाओगे... इसलिए इस पढ़ाई में जीजान से जुट जाओ...* और डबल ताज धारी बन विश्वधरा पर राजाई का लुत्फ़ उठाओ...

 

_ ➳  *इस एक जन्म की पढाई से 21 जन्मों की ऊँची तकदीर बनाते हुए मैं आत्मा कहती हूँ:-* हाँ मेरे मीठे बाबा... *मै आत्मा ईश्वरीय पढ़ाई से अथाह अमीरी का खजाना पा रही हूँ... राजयोगी बनकर किस कदर धनवान् होती जा रही हूँ...* दुखो की मोहताज से मुक्त होकर ईश्वरीय बाँहों में अमीर और अमीर होती जा रही हूँ...

 

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∫∫ 7 ∫∫ योग अभ्यास (Marks:-10)

( आज की मुरली की मुख्य धारणा पर आधारित... )

 

✺   *"ड्रिल :- अपनी अवस्था को एकरस बनाने के लिए देही अभिमानी बनने का पुरुषार्थ करना है*"

 

_ ➳  देह के भान से मुक्त, देही अभिमानी स्थिति में स्थित होते ही मुझे मेरे सत्य स्वरूप का अनुभव हो रहा है। मेरा सत्य स्वरूप अति सुंदर, अति प्यारा है। अपने इस सत्य स्वरूप को अब मैं मन बुद्धि रूपी नेत्रों से स्पष्ट देख रही हूँ। *एक ज्योति जो इस देह रूपी मन्दिर में भृकुटि पर विराजमान हो कर जगमग कर रही है। इस ज्योति से निकल रहे प्रकाश को मैं अपने चारों ओर महसूस कर रही हूँ*। प्रकाश का एक सुंदर औरा मेरे चारों और निर्मित हो रहा है। इस प्रकाश से निर्मित औरे में मुझ आत्मा के सातों गुण समाये हैं जिससे मुझे शांति, प्रेम, सुख, पवित्रता, शक्ति, ज्ञान और आनन्द की गहन अनुभूति हो रही है।

 

_ ➳  देही अभिमानी स्थिति में स्थित हो कर, अपने वास्तविक गुणों की गहन अनुभूति मुझे गुणों के सागर मेरे शिव पिता परमात्मा के साथ जोड़ रही है। *मेरी बुद्धि का कनेक्शन परमधाम में रहने वाले मेरे शिव पिता परमात्मा से जुड़ रहा है*। मैं अनुभव कर रही हूँ गुणों के सागर शिव पिता से आ रही सातों गुणों की सतरंगी किरणों को स्वयं पर पड़ते हुए।

 

_ ➳  शिव पिता परमात्मा से आ रही सर्व गुणों की शक्तिशाली किरणों के मुझ आत्मा पर पड़ने से मेरे चारों और निर्मित प्रकाश का औरा भी धीरे - धीरे बढ़ने लगा है। *प्रकाश के इस औरे के बढ़ने के साथ साथ इसमें समाये सातों गुण भी वायब्रेशन के रूप में चारों और फैलने लगे है*। दूर - दूर तक ये वायब्रेशन फैल रहें हैं और शक्तिशाली वायुमण्डल निर्मित कर रहें हैं।

 

_ ➳  सर्व गुणों के शक्तिशाली वायब्रेशन चारो और फैलाते हुए अब मैं जागती ज्योति इस शरीर रूपी मन्दिर से बाहर निकल कर गुणों के सागर अपने शिव पिता परमात्मा के पास जा रही हूँ। *एक प्वाइंट ऑफ लाइट, मैं आत्मा धीरे - धीरे ऊपर की और बढ़ते हुए अब आकाश को पार करके उससे भी ऊपर की ओर जा रही हूँ*। अब मैं देख रही हूँ स्वयं को लाल प्रकाश की एक अति सुंदर दुनिया में जहां चारों और चमकती हुई मणियां दिखाई दे रही हैं। मेरे बिल्कुल सामने है महाज्योति शिव बाबा जिनसे अनन्त प्रकाश की किरणें निकल कर पूरे परमधाम को प्रकाशित कर रही हैं।

 

_ ➳  जैसे शमा की लौ परवाने को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं ऐसे ही मेरे शिव पिता से आ रही शक्तिशाली रंग बिरंगी किरणे मुझे अपनी और आकर्षित कर रही है और मैं आत्मा परवाना बन शिव शमा के पास जा रही हूँ। *धीरे - धीरे मैं बाबा के अति पास पहुंच कर बाबा को टच कर रही हूँ। बाबा को टच करते ही बाबा के समस्त गुणों और शक्तियों को मैं स्वयं में समाता हुआ अनुभव कर रही हूँ*। ऐसा लग रहा है जैसे बाबा के समस्त गुण और शक्तियाँ मुझ आत्मा में समा गए हैं और मैं बाबा के समान सर्वशक्तियों से सम्पन्न बन गई हूँ।

 

_ ➳  सर्वशक्तियों से सम्पन्न शक्तिस्वरूप बन अब मैं वापिस साकारी दुनिया मे लौट रही हूँ। अपने साकारी तन में अब मैं भृकुटि सिहांसन पर विराजमान हूँ। *इस सृष्टि रूपी रंगमंच पर आ कर मैं फिर से अपना पार्ट बजा रही हूँ किन्तु अब मैं हर कर्म करते देही अभिमानी स्थिति में स्थित हूँ। इस देह से जुड़े अपने हर सम्बन्धी को भी अब मैं देह नही देही रूप में देख रही हूँ*। सभी को शिव पिता की अजर, अमर,अविनाशी सन्तान के रूप में देखते हुए निस्वार्थ भाव से सभी को सच्चा रूहानी स्नेह दे कर उन्हें सन्तुष्ट कर रही हूँ। देह अभिमान के अवगुण को निकाल देही अभिमानी बन सबको आत्मा भाई - भाई की दृष्टि से देखते हुए उन्हें भी देही अभिमानी स्थिति का अनुभव करवा रही हूँ।

 

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∫∫ 8 ∫∫ श्रेष्ठ संकल्पों का अभ्यास (Marks:- 5)

( आज की मुरली के वरदान पर आधारित... )

 

   *मैं बन्धनों के पिंजड़े को तोड़ने वाली आत्मा हूँ।*

   *मैं जीवन मुक्त्त स्थिति का अनुभव करने वाली आत्मा हूँ।*

   *मैं सच्ची ट्रस्टी आत्मा हूँ।*

 

➢➢ इस संकल्प को आधार बनाकर स्वयं को श्रेष्ठ संकल्पों में स्थित करने का अभ्यास किया ?

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∫∫ 9 ∫∫ श्रेष्ठ संकल्पों का अभ्यास (Marks:- 5)

( आज की मुरली के स्लोगन पर आधारित... )

 

   *मैं आत्मा संकल्पों को सदा बचाकर रखती हूँ  ।*

   *मैं आत्मा समय बोल सब स्वत: बचते हुए अनुभव करती हूँ  ।*

   *मैं आत्मा संकल्प, समय और बोल को सफल करती हूँ  ।*

 

➢➢ इस संकल्प को आधार बनाकर स्वयं को श्रेष्ठ संकल्पों में स्थित करने का अभ्यास किया ?

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∫∫ 10 ∫∫ अव्यक्त मिलन (Marks:-10)

( अव्यक्त मुरलियों पर आधारित... )

 

 अव्यक्त बापदादा :-

 

_ ➳  तीन प्रकार की प्रवृत्ति है - (1) लौकिक सम्बन्ध वा कार्य की प्रवृत्ति (2) अपने शरीर की प्रवृत्ति और (3) सेवा की प्रवृत्ति। तो *त्यागी जो हैं वह लौकिक प्रवृत्ति से पार हो गये लेकिन देह की प्रवृत्ति अर्थात् अपने आपको ही चलाने और बनाने में व्यस्त रहना वा देह भान की नेचर के वशीभूत रहना* और उसी नेचर के कारण ही बार-बार हिम्मतहीन बन जाते हैं। जो स्वयं भी वर्णन करते कि समझते भी हैं, चाहते भी हैं लेकिन मेरी नेचर है। यह भी देह भान की, देह की प्रवृत्ति है। जिसमें शक्ति स्वरूप हो इस प्रवृत्ति से भी निवृत्त हो जाएँ - वह नहीं कर पाते। यह त्यागी की बात सुनाई

 

_ ➳  लेकिन *महात्यागी लौकिक प्रृवृत्ति, देह की प्रवृत्ति दोनों से निवृत्त हो जाते* - लेकिन सेवा की प्रवृत्ति में कहाँ-कहाँ निवृत्त होने के बजाए फँस जाते हैं। ऐसी आत्माओं को अपनी देह का भान भी नहीं सताता क्योंकि दिन-रात सेवा में मगन हैं। *देह की प्रवृत्ति से तो पार हो गये। इस दोनों ही त्याग का भाग्य - ज्ञानी और योगी बन गये, शक्तियों की प्राप्ति, गुणों की प्राप्ति हो गई।* ब्राह्मण परिवार में प्रसिद्ध आत्मायें बन गये। सेवाधारियों में वी.आई.पी. बन गये। महिमा के पुष्पों की वर्षा शुरू हो गई। माननीय और गायन योग्य आत्मायें बन गये लेकिन यह जो सेवा की प्रवृत्ति का विस्तार हुआ, उस विस्तार में अटक जाते हैं।

 

 ✺   *"ड्रिल :- सेवा की प्रवृति के विस्तार में स्वयं को नहीं अटकाना"*

 

 _ ➳  सेवा की भावना तो मनुष्यात्मा में रही है व उस *सेवा को करते ही उसके पीछे मान शान व स्वार्थ होता है... अभिमान होता है*... और उसके गीत गाते रहते हैं... मैंने ये किया... वो किया... उस की गई सेवा से मान शान पाकर ऊंची सीट तो ले ली... अल्पकाल का सुख भी प्राप्त कर लिया... झूठी शान शौकत जो कांटो से भरी सीट है उसे पाने के लिए बस बाहरी दिखावट और सुंदरता पर मरते गए... गुप्त दान महादान जिसका भक्ति में भी गायन है उसके सही अर्थ को नही समझ पाए... गाते भी रहे ये तन मन धन सब अर्पण... पर फिर भी मैं और मेरी में फंसे रहे... ये सब जो मुझे बाहर से दिख रहा है वैसा नही हैं... *मैं आत्मा कितनी भाग्यशाली हूं जो स्वयं भगवान ने मुझ आत्मा को सच्चा सच्चा गीता ज्ञान सुनाकर घोर अज्ञानता से दूर किया... दिव्य ज्ञान रुपी तीसरा नेत्र, दिव्य दृष्टि देकर ज्ञानवान बना दिया... वाह रे भाग्यवान मैं आत्मा!!*

 

 _ ➳   ये सब चिंतन करते चलते चलते मैं आत्मा पहुंच जाती हूं अपने सेंटर में... *देह व देह के सर्व सम्बंधों से डिटैच कर अपने को आत्मा निश्चय कर बैठ जाती हूँ*... सामने संधली पर दीदी बैठी हैं व दीदीजी इन्स्ट्रूमेंट बन बाबा के महावाक्य सुना रही हैं व मैं आत्मा इन कानों द्वारा सुन रही हूँ... बाबा मुझ आत्मा को समझानी दे रहे हैं - बच्चे महादानी महात्यागी बनना है... महादानी वरदानी बनने के लिए महात्यागी बनना है... महात्यागी बनने के लिए सबसे पहले *देहभान का त्याग करना है... देह व देह के सर्व सम्बंधों का त्याग करना है... कर्मेन्द्रियजीत बनना है...  देहभान के नेचर में वशीभूत नही होना है... देहभान की, देह की प्रवृति से निवृत होकर शक्तिस्वरुप बनना है...*

 

 _ ➳   जैसे मेहमान आता है व उसकी चाहे जितनी सेवा कर लो उसे यही स्मृति रहती है कि घर वापिस जाना है... ऐसे आपको *ये शरीर सेवार्थ मिला है... सेवा के लिए शरीर में आओ... शरीर निर्वाह अर्थ कर्म करो... फिर अव्यक्त स्थिति में स्थित है जाओ*... अपने घर में आ जाओ... सेवाओं के विस्तार में अपने को अटकाओ नही... कि ये सेवा तो कोई और कर ही नही सकता... नामधारी नही बनो... रुहानी सेवाधारी बनो... सेवाओं के विस्तार में आकर बस सेवाओं में तो मगन हो... पर सेवाओं के विस्तार  से माननीय बन देह अभिमान में नही आना... मैं आत्मा बाबा के महावाक्यों को अच्छी रीति धारण कर बाबा से प्रोमिस करती हूँ... और अपने को *आत्मिक स्वरुप में टिकाकर बस निमित्त समझ सेवार्थ साकार वतन में आती हूँ...*

 

 _ ➳   मैं आत्मा अपने को निमित्त और ट्रस्टी समझ मन बुद्धि से सब बाबा को अर्पण कर हल्का महसूस कर रही हूँ... *ये शरीर भी बाबा की अमानत है... इसे बाबा जहां चाहे जैसे चाहे यूज करावे... बाबा का ही इन्स्ट्रूमेंट है... करनकरावनहार बस बाबा है*... मैं आत्मा करनहार बन हर सेवा को करते हुए बस प्यारे बाबा को समर्पित करती जा रही हूँ... मैं आत्मा पदमापदम भाग्यशाली हूँ जो बाबा ने मुझ आत्मा में कोई विशेषता देखी... जो मुझ आत्मा को अपने कार्य मे मददगार बनाया... ईश्वरीय सेवा मिलना बहुत बड़ी लाटरी है... मैं आत्मा बिंदु बन

 बिंदु बाप के साथ सेवाओं के विस्तार करने में मदद कर रही हूँ... *कराने वाला करा रहा है... करनहार बस मैं तो निमित्त मात्र हूँ*... शुक्रिया बाबा शुक्रिया...

 

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_⊙  आप सभी बाबा के प्यारे प्यारे बच्चों से अनुरोध है की रात्रि में सोने से पहले बाबा को आज की मुरली से मिले चार्ट के हर पॉइंट के मार्क्स ज़रूर दें ।

 

ॐ शांति

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