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❍ 18 / 02 / 18 ❍
⇛ MURLI SUMMARY ⇚
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❍ ज्ञान के मुख्य बिंदु ❍
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➢➢ *( बच्चे दिलशिकस्त बनते है तो )* क्या करें, कैसे करें, इसमें परेशान हो जाते हैं। गलती एक सेकेण्ड की है। *अपने मास्टर रचता की पोजीशन से नीचे आ जाते हैं। जहाँ पोजीशन समाप्त हुआ वा विस्मृत हुआ उसी सेकण्ड माया की सेना आपोजीशन करने पहुँच जाती है।* आह्वान कौन करता माया को? *स्वयं नीचे आ जाते, पोजीशन की सीट को छोड़ देते तो खाली स्थान को माया अपना बना लेती है* इसलिए माया कहती दोषी मैं नहीं, लेकिन आह्वान करते हैं तो मैं पहुँच जाती।
➢➢ (बापदादा कुमारियों से बोल) कुमारियों ने अपना फैसला कर लिया है? क्योंकि *कुमारी जीवन ही फैसले का समय होता है। फैसले के समय पर बाप के पास पहुँच गई, कितनी भाग्यवान हो!* अगर थोड़ा भी आगे जीवन चल जाती तो पिंजरे की मैना बन जाती। तो क्या बनना है - पिंजरे की मैना या स्वतन्त्र पंछी? *कुमारी तो स्वतन्त्र पंछी है।*
➢➢ *रूहानी गुलाब भी बाप के आगे अर्पित होते हैं। यह यज्ञ सेवाधारी बनना भी अर्पण होना है। अर्पण होना यह नहीं कि एक स्थान पर रहना। कहाँ भी रहें लेकिन श्रीमत पर रहें। अपनापन जरा भी मिक्स न हो। ऐसे अपने को भाग्यवान खुशबूदार रूहानी गुलाब समझते हो ना!*
➢➢ (बापदादा अधरकुमारों से बोले ) भक्ति का फल खाने वाले हैं, ऐसा समझते हो? *वैसे भक्ति का फल ज्ञान कहते हैं, लेकिन आप लोगों ( अधरकुमारों) को भक्ति का फल स्वयं ज्ञान दाता मिल गया। तो भक्ति का फल भी मिला और गृहस्थी के जो दु:ख, अशान्ति के झंझट थे वह भी खत्म हो गये, दोनों से मुक्त हो गये। जीवनबन्ध से जीवनमुक्त आत्मायें हो गई।*
➢➢ *संगमयुग का विशेष वरदान सन्तुष्टता है, इस सन्तुष्टता का बीज सर्व प्रप्तियाँ हैं। असन्तुष्टता का बीज स्थूल वा सूक्ष्म अप्राप्ति है। आप ब्रह्मणों का गायन है - 'अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्रह्मणों के खजाने में अथवा ब्रह्मणों के जीवन में', तो फिर असन्तुष्टता क्यों?*
➢➢ *जो सन्तुष्टमणियां हैं - वह मन से, दिल से, सर्व से, बाप से, ड्रामा से सदा सन्तुष्ट होंगी; उनके मन और तन में सदा प्रसन्नता की लहर दिखाई देगी।* चाहे कोई भी परिस्थिति आ जाए, चाहे कोई आत्मा हिसाब-किताब चुक्तू करने वाली सामना करने भी आती रहे, चाहे शरीर का कर्म-भोग सामना करने आता रहे लेकिन हद की कामना से मुक्त आत्मा सन्तुष्टता के कारण सदा प्रसन्नता की झलक में चमकता हुआ सितारा दिखाई देगी।
➢➢ *सन्तुष्ट आत्मायें सदा नि:स्वार्थी और सदा सभी को निर्दोष अनुभव करेंगी; किसी और के ऊपर दोष नहीं रखेंगी - न भाग्यविधाता पर, न ड्रामा पर, न व्यक्ति पर, न शरीर के हिसाब-किताब पर कि मेरा शरीर ही ऐसा है। वे सदा नि:स्वार्थ, निर्दोष वृत्ति- दृष्टि वाली होंगी।* संगमयुग की विशेषता सन्तुष्टता है, यही ब्रह्मण जीवन की विशेष प्राप्ति है। *सन्तुष्टता और प्रसन्नता नहीं तो ब्रह्मण बनने का लाभ नहीं इसलिए सन्तुष्ट रहो और सब्को सन्तुष्ट करो, इसी में सच्चा सुख है, यही सच्ची सेवा है।*
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❍ योग के मुख्य बिंदु ❍
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➢➢ *सदा इसी स्मृति में रहो कि हम अल्लाह के बगीचे के रूहानी गुलाब हैं - यही नशा सदा रहे। नशे में रहो और बाप के गुणों के गीत गाते रहो। इस ईश्वरीय नशे में जो भी बोलेंगे उससे भाग्य बनेगा।*
➢➢ *सदा अपने को विजयी पाण्डव समझ कर चलो। पाण्डवों की विजय कल्प-कल्प की प्रसिद्ध है। 5 होते भी विजयी थे। विजय का कारण, बाप साथी था।* जैसे बाप सदा विजयी है वैसे बाप का बनने वाले भी सदा विजयी। यही स्मृति में रहे कि हम सदा विजयी रत्न हैं तो यह बात भी बड़ा नशा और खुशी दिलाती है।
➢➢ जब पाण्डवों की कहानी सुनते हो तो क्या लगता है? यह हमारी कहानी है। निमित्त एक अर्जुन कहने में आता है, दुनिया के हिसाब से 5 हैं, लेकिन हैं सदा विजयी। यही स्मृति सदा ताजी रहे। ऐसी स्पष्ट स्मृति हो जैसे कल की बात है। *सभी ने घर बैठे भाग्य ले लिया है ना! घर बैठे ऐसा श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ भाग्य मिला है जो अन्त तक गाया जायेगा। बाप के घर में आये, अपने घर में आये, मनाया, खाया, खेला... वैसे भी जब थक जाते हैं तो रेस्ट में चले जाते हैं।*
➢➢ *यहाँ भी (मधुबन में) बिजनेस करके, नौकरी करके, थक कर आते हो और यहाँ आते ही कमल बन जाते हो। बाप के सिवाए और कोई दिखाई नहीं देता, रेस्ट मिल जाती है।*
➢➢ *(मधुबन में) सिवाए एक बाप से मिलने, उनकी बातें सुनने, याद करने... बस यही काम है। तो थकावट उतरी, रिफ्रेश हो गए ना। चाहे दो घण्टे के लिए भी कोई आवे तो भी रिफ्रेश हो जाते हैं क्योंकि यह स्थान ही रिफ्रेश होने का है। यहाँ आना ही रिफ्रेश होना है।*
➢➢ *एक-एक बच्चा एक दो से अधिक प्रिय है। सभी में अपनी-अपनी विशेषतायें हैं। चाहे लास्ट नम्बर भी है लेकिन बाप का तो बच्चा ही है। कैसे भी बच्चे हैं लेकिन फिर भी त्याग और भाग्य तो पा लिया है ना इसलिए सभी अपने को बाप के प्रिय समझो।* चाहे नम्बरवार हैं लेकिन याद-प्यार तो सबको मिलता है। बापदादा सबको सिक व प्रेम से याद-प्यार देते हैं। *सिक व प्रेम सभी के लिए एक जैसा है। सभी सिकीलधे स्नेही, बाप की भुजायें हो। इसलिए अपनी भुजायें तो जरूर प्रिय लगेंगी ना।*
➢➢ *जो दिल से सेवा करते वा याद करते, उन्हों को मेहनत कम और सन्तुष्टता ज्यादा होती* और जो दिल के स्नेह से नहीं याद करते, सिर्फ नालेज के आधार पर दिमाग से याद करते वा सेवा करते, उन्हों को मेहनत ज्यादा करनी पड़ती, सन्तुष्टता कम होती। चाहे सफलता भी हो जाए, तो भी दिल की सन्तुष्टता कम होगी। *दिल वाले सदा सन्तुष्टता के गीत गाते रहेंगे। सन्तुष्टता तृप्ति की निशानी है।*
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❍ धारणा के मुख्य बिंदु ❍
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➢➢ ज्ञानी और योगी तो सभी अपने को कहलाते हैं लेकिन ज्ञानी तू बाप समान आत्मा, योगी तू बाप समान आत्मा इसमें नम्बरवार हैं। *बाप समान अर्थात् मास्टर रचता की पोजीशन में सदा स्थित रहते।* इस मास्टर रचता के सहज आसन पर स्थित हुई शक्तिशाली आत्मा के आगे सारी रचना दासी के रूप में, सेवा में सहयोगी बन जाती है।
➢➢ *इसी नशे में रहो - हम हैं बाप के तख्तनशीन। सतयुग का राज्य तख्त भी इस तख्त के आगे कुछ नहीं है। सदा ताज और तिलकधारी हैं, इस स्मृति में रहो।*
➢➢ *अगर कोई को बैटने के लिए बढ़िया आसन मिल जाए तो छोड़ेगा कैसे! बनना है तो श्रेष्ठ ही बनना है, हाँ तो हाँ। मरना है तो धक से। यही मरना मिटना है। अगर लक्ष्य पक्का है तो कोई भी हिला नहीं सकता। लक्ष्य कच्चा है तो कई बहाने, कई बातें आयेंगी जो रूकावट डालेंगी इसलिए सदा दृढ़ संकल्प करना।*
➢➢ *अधरकुमारों के ग्रुप से*:- सभी प्रकार की मेहनत से बाप ने छुड़ा दिया है ना? भक्ति की मेहनत से छूट गये और गृहस्थी जीवन की मेहनत से भी छूट गये। *गृहस्थी जीवन में ट्रस्टी बन गये तो मेहनत खत्म हो गई ना।* और भक्ति का फल मिल गया तो भक्ति का भटकना अर्थात् मेहनत खत्म हो गई।
➢➢ *जब कोई बन्धन से मुक्त हो जाता है तो खुशी में नाचता है। आप भी बन्धनमुक्त आत्मायें सदा खुशी में नाचते रहो। बस गीत गाओ और खुशी में नाचो। यह तो सहज काम है ना! सदा याद रखो जीवनमुक्त आत्मायें हैं। सब बन्धन समाप्त हो गये, मेहनत से छूट गये, मुहब्बत में आ गये। तो सदा हल्के होकर उड़ो।*
➢➢ पुजारी से पूज्य, दु:खी से सुखी, काँटों से फूल बन गये, कितना अन्तर हो गया! *अभी पुरानी कलियुगी दुनिया के कोई भी संस्कार न रहें।* अगर पुरानी दुनिया का कोई भी पुराना संस्कार रह गया तो वह अपनी तरफ खींच लेगा इसलिए *सदा नई जीवन, नये संस्कार। श्रेष्ठ जीवन है तो श्रेष्ठ संस्कार चाहिए। श्रेष्ठ संस्कार हैं ही स्व कल्याण और विश्व कल्याण करना।* ऐसे संस्कार भर गये हैं? स्व कल्याण और विश्व कल्याण के सिवाए और कोई संस्कार होंगे तो इस जीवन में विघ्न डालेंगे इसलिए पुराने संस्कार सब समाप्त|
➢➢ *सदा यह स्मृति में रहे कि मैं रूहानी गुलाब हूँ। रूहानी गुलाब अर्थात् सदा रूहानी खुशबू फैलाने वाले। जैसे रूहे गुलाब अपनी खुशबू देता है, उसका रंग रूप भी अच्छा, खुशबू भी अच्छी सबको अपने तरफ आकर्षित भी करता है, ऐसे आप भी बाप के बगीचे के रूहानी गुलाब हो।* गुलाब सदा पूजा में अर्पण किया जाता है।
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❍ सेवा के मुख्य बिंदु ❍
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➢➢ *मास्टर रचता सेकेण्ड में अपने शुद्ध संकल्प रूपी आर्डर से जो वायुमण्डल बनाने चाहें वह बना सकते हैं। जैसा वायब्रेशन फैलाने चाहें वैसे फैला सकते हैं। जिस शक्ति को आह्वान करें वह शक्ति सहयोगी बन जाती। जिस आत्मा को जो अप्राप्त है वह जानकर सर्व प्राप्तियों का मास्टर दाता बन उन आत्माओंको दे सकते हैं।*
➢➢ *सन्तुष्टमणि बन सदा सन्तुष्ट रहो और सबको सन्तुष्ट करो बापदादा चाहते हैं कि हर एक बच्चा यह पूरा ही वर्ष किसी से जब भी मिले, उसे सन्तुष्टता का सहयोग दे।* स्वयं भी सन्तुष्ट रहे और दूसरों को भी सन्तुष्ट करे। इस सीजन का स्वमान है - सन्तुष्टमणि इसलिए सदा सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना - इस स्वमान की सीट पर सदा एकाग्र रहना।
➢➢ *आज के समय में टेन्शन और परेशानियाँ बहुत हैं, इस कारण असन्तुष्टता बढ़ती जा रही है। ऐसे समय पर आप सभी सन्तुष्टमणियाँ अपने सन्तुष्टता की रोशनी से औरों को भी सन्तुष्ट बनाओ।* पहले स्व से स्वयं सन्तुष्ट रहो, फिर सेवा में सन्तुष्ट रहो फिर सम्बन्ध में सन्तुष्ट रहो तब ही सन्तुष्टमणि कहलायेंगे।
➢➢ *बापदादा बच्चों को निरन्तर सच्चे सेवाधारी बनने के लिए कहते हैं, लेकिन अगर नाम सेवा हो और स्वयं भी डिस्टर्ब हो, दूसरे को भी डिस्टर्ब करे, ऐसी सेवा न करना अच्छा है क्योंकि सेवा का विशेष गुण सन्तुष्टता है।* जहाँ सन्तुष्टता नहीं, चाहे स्वयं से, चाहे सम्पर्क वालों से, वह सेवा न स्वयं को फल की प्राप्ति करायेगी न दूसरों को।
➢➢ स्वयं अपने को पहले सन्तुष्टमणी बनाए फिर सेवा में आओ तो अच्छा है। नहीं तो सूक्ष्म बोझ चढ़ता है और वह बोझ उड़ती कला में विघ्न रुप बन जाता है। *सदा निर्विग्ना, सदा विघ्न-विनाशक और सदा सन्तुष्ट रहना तथा सर्व को सन्तुष्ट करना - सेवाधारियों को यही सर्टीफिकेट सदा लेते रहना है।* यह सर्टीफिकेट लेना अर्थात् तख्तनशीन होना।
➢➢ *सदा सन्तुष्ट रहकर सर्व को सन्तुष्ट करने का लक्ष्य रखो।* जिस आत्मा को सर्व प्राप्तियोंकी अनुभूति होगी, वह सदा सन्तुष्ट होगी। उसके चेहरे पर सदा प्रसन्नता की निशानी दिखाई देगी। *सेवाधारी जब स्व से और सर्व से सन्तुष्ट होते हैं तो सेवा का, सहयोग का उमंग-उत्साह स्वत: होता है। कहना कराना नहीं पड़ता, सन्तुष्टता सहज ही उमंग-उल्हास में लाती है। सेवाधारी का विशेष यही लक्ष्य हो कि सन्तुष्ट रहना है और करना है।*
➢➢ *कराने वाला करा रहा है, मैं सिर्फ निमित्त बन कार्य कर रही हूँ - इस स्मृति में रहना यही सेवाधारी की विशेषता है।* इससे सेवा में वा स्व पुरुषार्थ में सदा सन्तुष्ट रहेंगे और जिन्हों के निमित्त बनेंगे उन्हों में भी सन्तुष्टता होगी। सदा सन्तुष्ट रहना और दूसरों को रखना - यही विशेषता है।
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