मुरली कविता दिनांक 02.11.2017


पांच विकारों का देकर दान बैठ नहीं तुम जाओ

बाप की याद में बैठकर पावन खुद को बनाओ

सुखदाता बनकर खुद को सेवा में आगे बढ़ाओ

बाप का दिलतख्त पाकर रुद्रमाला में आ आओ

समय किया बर्बाद अगर तो हो जाओगे पदभ्रष्ट

सजायें खाओगे अनगिनत भाग्य हो जायेगा नष्ट

पांच विकार छोड़कर जब हम ईश्वर के बन जाते

आसुरी सम्प्रदाय के लोग दुश्मन अपने बन जाते

हंस और बगुले नहीं रह सकते इक दूजे के संग

बगुला है रावण का संगी हंस रहता राम के संग

कठिन हो गया रहना अब अशांति भरे संसार में

पतित कंगाल बने सभी पड़कर पांच विकार में

कल्प पहले माफिक बाबा आये हैं योग सिखाने

हमारा पतितपना छुड़ाकर हमें पावन देव बनाने

संगम में श्रीमत पर चलकर जो पुरे पावन बनते

वे ही लक्ष्मी नारायण समान महिमा योग्य बनते

कहीं हार ना जाना बच्चों माया से इस लड़ाई में

ग्रहचारी बैठ ना जाए तुम पर ईश्वरीय कमाई में

पावन देवता से हम बच्चे ही खुद को शुद्र बनाते

शुद्र बने हम बच्चों को बाबा पावन पुनः बनाते

हिम्मत रखकर पुरुषार्थ करो पढो पढ़ाई जमकर

दिखलाओ मीठे बाबा को तुम कर्मातीत बनकर

तीव्र पुरुषार्थ द्वारा बनो दिलतख्त के अधिकारी

गाँव शहर या देश नहीं तुम जीतो ये दुनिया सारी

ज्ञान मार्ग में चलकर किसी का दिल ना दुखाना

भूलें करके कहीं धर्मराज का सटका ना खाना

बाबा को भूलकर कमबख्त कभी ना कहलाना

पाप अगर हुआ है तो बाप को अवश्य बतलाना

मुंह कभी ना काला करना बाप देते हैं समझानी

इस गलती की तुम्हें पड़ेगी सजा बहुत ही खानी

ईश्वरीय सेवा करना बच्चों गुप्त वेष अपनाकर

ईश्वरीय संतान बनाना तुम ज्ञान सबको सुनाकर

माया के विघ्नों की तुम परवाह कभी ना करना

शीतल सबको बनाने की दिन रात सेवा करना

अव्यक्त अशरीरीपन का अभ्यास रोज बढ़ाओ

यही अभ्यास करके तुम विजय माला में आओ

अलबेलापन समाप्त कर पुरुषार्थ को बढ़ाओ

सम्पूर्णता की मंजिल तुम सहज रीति से पाओ

ॐ शांति