18-01-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


व्यक्त स्थिति द्वारा सेवा

आज आवाज़ से परे जाने का दिन रखा हुआ है। तो बापदादा भी आवाज़ में कैसे आयें? आवाज़ से परे रहने का अभ्यास बहुत आवश्यक है। आवाज़ में आकर जो आत्माओं की सेवा करते हो, उससे अधिक आवाज़ से परे स्थिति में स्थित होकर सेवा करने से सेवा का प्रत्यक्ष प्रमाण देख सकेंगे। अपनी अव्यक्ति स्थिति होने से अन्य आत्माओं को भी अव्यक्त स्थिति का एक सेकेण्ड में अनुभव कराया तो वह प्रत्यक्षफल-स्वरूप आपके सम्मुख दिखाई देगा। आवाज़ से परे स्थिति में स्थित हो फिर आवाज़ में आने से वह आवाज़, आवाज़ नहीं लगेगा। लेकिन उस आवाज़ में भी अव्यक्ति वायब्रेशन का प्रवाह किसी को भी बाप की तरफ आकर्षित करेगा। वह आवाज़ सुनते हुये उन्हों को आपकी अव्यक्त स्थिति का अनुभव होने लगेगा। जैसे इस साकार सृष्टि में छोटे बच्चों को लोरी देते हैं, वह भी आवाज़ होता है लेकिन वह आवाज़, आवाज़ से परे ले जाने का साधन होता है। ऐसे ही अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर आवाज़ में आओ तो आवाज़ से परे स्थिति का अनुभव करा सकते हो। एक सेकेण्ड की अव्यक्त स्थिति का अनुभव आत्मा को अविनाशी सम्बन्ध में जोड़ सकता है। ऐसा अटूट सम्बन्ध जुड़ जाता है जो माया भी उस अनुभवी आत्मा को हिला नहीं सकती। सिर्फ आवाज़ द्वारा प्रभावित हुई आत्माएं अनेक आवाज़ सुनने से आवागमन में आ जाती हैं। लेकिन अव्यक्त स्थिति में स्थित हुए आवाज़ द्वारा अनुभवी आत्मायें आवागमन से छूट जाती हैं। ऐसी आत्मा के ऊपर किसी भी रूप का प्रभाव नहीं पड़ सकता। सदैव अपने को कम्बाइन्ड समझ, कम्बाइन्ड रूप की सर्विस करो अर्थात् अव्यक्त स्थिति और फिर आवाज़

दोनों की कम्बाइन्ड रूप की सर्विस वारिस बनायेगी। सिर्फ आवाज़ द्वारा सर्विस करने से प्रजा बनती जा रही है। तो अब सर्विस में नवीनता लाओ। (इस प्रकार की सर्विस करने का साधन कौनसा है?) जिस समय सर्विस करते हो उस समय मंथन चलता है, लेकिन ‘याद में मगन’ -- यह स्टेज मंथन की स्टेज से कम होती है। दूसरे के तरफ ध्यान अधिक रहता है, अपनी अव्यक्त स्थिति की तरफ ध्यान कम रहता है। इस कारण ज्ञान के विस्तार का प्रभाव पड़ता है लेकिन लगन में मगन रहने का प्रभाव कम दिखाई देता है। रिजल्ट में यह कहते हैं कि ज्ञान बहुत ऊंचा है। लेकिन मगन रहना है -- यह हिम्मत नहीं रखते। क्योंकि अव्यक्त स्थिति द्वारा लगन का अर्थात् सम्बन्ध जोड़ने का अनुभव नहीं किया है। बाकी थोड़ा कणा-दाना लेने से प्रजा बन जाती है। अब के सम्बन्ध जुटने से ही भविष्य सम्बन्ध में आयेंगे, नहीं तो प्रजा में। तो नवीनता यही लानी है, जो एक सेकेण्ड में अव्यक्ति अनुभव द्वारा सम्बन्ध जोड़ना है। सम्बन्ध और सम्पर्क -- दोनों में फर्क है। सम्पर्क में आते हैं, सम्बन्ध में नहीं आते। समझा?

आज के दिन अव्यक्त स्थिति का अनुभव किया है। यही अनुभव सदाकाल कायम रखते रहो तो औरों को भी अनुभव करा सकेंगे। आजकल वाणी व अन्य साधन अनेक प्रकार से अनेकों द्वारा आत्माओं को प्रभावित कर रहे हैं। लेकिन अनुभव सिवाय आप लोगों के अन्य कोई नहीं कर सकते हैं, न करा सकते हैं। इसलिये आज के समय में यह अनुभव कराने की आवश्यकता है। सभी के अन्दर अभिलाषा भी है, थोड़े समय में अनुभव करने के इच्छुक हैं। सुनने के इच्छुक नहीं हैं। अनुभव में स्थित रह अनुभव कराओ। सभी का स्नेह वतन में मिला। सुनाया था - तीन प्रकार की याद और स्नेह वतन में पहुँची। वियोगी, योगी और स्नेही। तीनों ही रूप का याद-प्यार बापदादा को मिला। रिवाइज कोर्स के वर्ष भी समाप्त होते जा रहे हैं। वर्ष समाप्त होने से स्टूडेंट को अपनी रिजल्ट निकालनी होती है। तो इस वर्ष की रिजल्ट में हरेक को अपनी कौनसी रिजल्ट निकालनी है? इसकी मुख्य चार बातें ध्यान में रखनी हैं। एक -- अपने में सर्व प्रकार की श्रेष्ठता कितनी है? दूसरा -- सम्पूर्णता में वा सर्व के सम्बन्ध में समीपता कितनी आई है? तीसरा-- अपने में वा दूसरों के सम्बन्ध में सन्तुष्टता कहाँ तक आई है? और चौथा - अपने में शूरवीरता कहाँ तक आई है? यह चार बातें अपने में चेक करनी हैं। आज के दिन अपनी रिजल्ट को चेक करने का कर्त्तव्य पहले करना है। आज का दिवस सिर्फ स्मृति-दिवस नहीं मनाना लेकिन आज का दिवस समर्थी बढ़ाने का दिवस मनाना। आज का दिवस स्थिति वा स्टेज ट्रान्सफर करने का दिवस समझो। जैसे आजकल ट्रान्सपेरेंट चीजें अच्छी लगती हैं ना। वैसे अपने को भी ऐसी ट्रान्सपेरेंट स्थिति में ट्रान्सफर करना है। आज के दिन का महत्व समझा? ऐसे ट्रान्सपेरेंट हो जाओ जो आपके शरीर के अन्दर जो आत्मा विराजमान है वह स्पष्ट सभी को दिखाई दे। आपका आत्मिक स्वरूप उन्हों को अपने आत्मिक स्वरूप का साक्षात्कार कराये। इसको ही कहते हैं अव्यक्ति वा आत्मिक स्थिति का अनुभव कराना।

आज याद के यात्रा की रिजल्ट क्या थी? स्नेह स्वरूप थी या शक्ति स्वरूप थी? यह स्नेह भी शक्ति का वरदान प्राप्त कराता है। तो आज स्नेह का वरदान प्राप्त करने का दिवस है। एक होती है पुरूषार्थ से प्राप्ति दूसरी होती है वरदान से प्राप्ति। तो आज का दिन पुरूषार्थ से शक्ति प्राप्त करने का नहीं लेकिन स्नेह द्वारा शक्ति का वरदान प्राप्त करने का दिवस है। आज के दिन को विशेष वरदान का दिन समझना। स्नेह द्वारा कोई भी वरदाता से वर प्राप्त हो सकता है। समझा पुरूषार्थ द्वारा नहीं लेकिन स्नेह द्वारा। किसने कितना वरदान लिया है वह हरेक के ऊपर है। लेकिन स्नेह द्वारा सभी समीप आकर वरदान प्राप्त कर सकते हैं। वरदान के दिवस को जितना जो समझ सके उतना ही पा सकता है। कैच करने वाले की कमाल होती है। आज के वरदान दिवस पर जो जितना कैच कर सके उन्होंने उतना ही वरदान प्राप्त किया। जैसे पुरूषार्थ करते हो एक बाप के सिवाय और कोई याद आकर्षित न करे ऐसे आज का दिन सहज याद का अनुभव किया। अच्छा।



21-01-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


अब नहीं तो कब नहीं

आज बापदादा हरेक बच्चे के मस्तक में क्या देखते हैं? बाप जब बच्चों को देखते हैं तो यह शुभ भावना होती है कि हरेक बच्चा ऊंच ते ऊंच भाग्य  बनाये। वर्तमान समय वरदाता के रूप में वरदान देने के लिये आये हुये होते भी हरेक आत्मा यथा योग यथा शक्ति वरदाता से वरदान प्राप्त करती रहती है। इस समय को विशेष वरदान है -- सर्व आत्माओं को वरदान प्राप्त कराने का। अब नहीं तो कब नहीं। आज इन आत्माओं (राज्यपाल तथा उनकी युगल) को भी वरदान प्राप्त करने का शुभ दिवस कहेंगे। सारे कल्प के अंदर यह अलौकिक मिलन बहुत थोड़े से पद्मापदम भाग्यशाली आत्माओं का ही होता है। सम्पर्क के बाद सम्बन्ध में आना है। क्योंकि सम्बन्ध से ही श्रेष्ठ प्राप्ति होती है। दो शब्द सदैव याद रखना-एक स्वयं को; दूसरा समय को याद रखना। अगर ‘स्वयं’ को और दूसरा ‘समय’ को सदैव याद रखते रहेंगे तो इस जीवन में अनेक जन्मों के लिये श्रेष्ठ प्रालब्ध पा सकते हैं।

राज्यपाल तथा उनकी युगल से मुलाकात

अपने असली घर में आये हो -- ऐसे महसूस करते हो? अपने घर में कितना जल्दी आना होता है, मालूम है? जैसे ड्यूटी से ऑफ होने के बाद अपना घर याद आता है। इसी रीति से अपने इस शरीर निर्वाह की ड्यूटी से ऑफ होने के बाद अपना घर याद आना चाहिये। सम्बन्ध को बढ़ाना है। एक सम्बन्ध को बढ़ाने से अर्थात् इस सम्बन्ध की आवश्यकता समझने से अनेक प्रकार की आवश्यकताएं पूर्ण हो जाती हैं। सभी आवश्य- कताएं पूर्ण करने के लिये एक आवश्यकता समझने की है। जैसे शरीर निर्वाह के लिये अनेक साधन आवश्यक समझते हैं, वैसे आत्मिक उन्नति के लिये एक साधन आवश्यक है। इसलिये सदैव अपने को अकालमूर्त समझते चलेंगे तो अकाले मृत्यु से भी, अकाल से, सर्व समस्याओं से बच सकेंगे। मानसिक चिन्ताएं, मानसिक परिस्थितियों को हटाने का एक ही साधन याद रखना है -- सिर्फ अपने इस पुराने शरीर के भान को मिटाना है। इस देह-अभिमान को मिटाने से सर्व परिस्थितियाँ मिट जायेंगी। अब कुछ पूछने का रहा ही नहीं। सिर्फ सम्बन्ध में आते रहना। सभी से मिलने के लिये फिर आयेंगे। अब सभी से छुट्टी।



21-01-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


व्यक्त वतन का अलौकिक निमंत्रण

आज मिलने के लिए बुलाया है। यह अव्यक्त मिलन अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर ही मना सकते हो। समझ सकते हो? आज देख रहे हैं - कौन-कौन कितने शक्ति-स्वरूप बने हैं? आप लोगों के चित्रों में नम्बरवार शक्तियों का यादगार दिखाया हुआ है। शक्तियों की परख किन चित्रों द्वारा कर सकते हैं, मालूम है? आपको अपने शक्तियों को परखने का चित्र मालूम नहीं है! भिन्न-भिन्न नम्बरवार शक्तियों का यादगार बना हुआ है। अपना चित्र भूल गये हो! शक्तियों के चित्रों में भिन्न-भिन्न रूप से और फिर भुजाओं के रूप में नम्बरवार शक्तियों का यादगार है। उन चित्रों में कहाँ कितनी भुजायें, कहाँ कितनी दिखाते हैं। कोई अष्ट शक्तियों को धारण करने वाली बनती हैं, कोई उससे अधिक, कोई उससे कम। कहाँ 4 भुजाएं, कहाँ 8 भुजाएं, कहाँ 16 भी दिखाते हैं, नम्बरवार। तो आज देख रहे हैं - हरेक ने कितनी शक्तियों की धारणा की है। मास्टर सर्वशक्तिवान कहलाते हैं ना। मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् सर्व शक्तियों को धारण करने वाले। अपने शक्ति-स्वरूप का साक्षात्कार  होता  है?  अव्यक्त  वतन में हरेक का शक्ति रूप देखते हैं तो क्या दिखाई देता होगा? वतन में भी बापदादा की अलौकिक प्रदर्शनी है। उनके चित्र कितने  होंगे? आप के चित्र गिनती में आ सकते हैं लेकिन बापदादा के प्रदर्शनी के चित्र गिन सकते हो? बापदादा निमन्त्रण देते हैं। निमन्त्रण देने वाला तो निमन्त्रण देता है, आने वालों का काम है पहुँचना। बापदादा आप सभी से करोड़ गुणा ज्यादा खुशी से निमन्त्रण  देते  हैं। हरेक को अनुभव हो सकता है। अव्यक्त स्थिति का अनुभव कुछ समय लगातार करो तो ऐसे अनुभव होंगे जैसे साइन्स द्वारा दूर की चीजें सामने दिखाई देती हैं, ऐसे ही अव्यक्त वतन की एक्टिविटी यहाँ स्पष्ट दिखाई देगी। बुद्धिबल द्वारा अपने सर्वशक्तिवान के स्वरूप का साक्षात्कार कर सकते हैं। वर्तमान समय स्मृति कम होने के कारण समर्थी भी नहीं है। व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ शब्द, व्यर्थ कर्म हो जाने कारण समर्थ नहीं बन सकते हो। व्यर्थ को मिटाओ तो समर्थ हो जायेंगे। पुरूषार्थ के भिन्न-भिन्न स्वरूप वतन में हरेक के देखते रहते हैं। बहुत अच्छा ल्गता है। हरेक अपने आप को इतना नहीं देखते होंगे जितना वतन में हरेक के अनेक रूप देखते हैं। आप लोग भी एक दिन खास अटेन्शन देकर देखना कि सारे दिन में मेरे कितने और कैसे रूप हुए। फिर बहुत हँसी आयेगी - भिन्न-भिन्न पो देखकर। आजकल एक के ही बहुत पो निकालते हैं। तो अपने भी देखना। अपने बहु रूपों का साक्षात्कार करना। वतन में आने की दिल तो सभी की होती है लेकिन अपने आप से पूछो - जो ब्राह्मणपन के कर्त्तव्य करने हैं वह सभी किये हैं? सर्व कर्त्तव्य सम्पन्न करने के बाद ही सम्पूर्ण बनेंगे। अब का समय ऐसा चल रहा है जो एक-एक कदम अटेन्शन रखकर चलने का है। अटेन्शन न होने के कारण पुरूषार्थ के भी टेन्शन में रहते हैं। एक तरफ वातावरण का टेन्शन रहता है, दूसरे तरफ पुरूषार्थ का भी टेन्शन रहता है। इसलिए सिर्फ एक शब्द ऐड करो - अटेन्शन। फिर यह बहुरूप एक ही सम्पूर्ण रूप बन जायेगा। इसलिए अब कदम-कदम पर अटेन्शन। सुनाया था कि आजकल सर्व आत्मायें सुख और शान्ति का अनुभव करने चाहती हैं। ज्यादा सुनने नहीं चाहती हैं। अनुभव कराने के लिए स्वयं अनुभव-स्वरूप बनेंगे तब सर्व आत्माओं की इच्छा पूर्ण कर सकेंगे। दिन-प्रतिदिन देखेंगे - जैसे धन के भिखारी भिक्षा लेने के लिए आते हैं वैसे शान्ति के अनुभव के भिखारी आत्मायें भिक्षा लेने के लिए तड़पेंगी। अब सिर्फ एक दु:ख की लहर आयेगी तो जैसे लहरों में लहराती हुई आत्मायें वा लहरों में डूबती हुई आत्मा एक तिनके का भी सहारा ढूँढ़ती है, ऐसे आप लोगों के सामने अनेक भिखारी आत्मायें यह भीख मांगने के लिए आयेंगी। तो ऐसी तड़पती हुई या भिखारी प्यासी आत्माओं की प्यास मिटाने के लिए अपने को अतीन्द्रिय सुख वा सर्व शक्तियों से भरपूर किया हुआ अनुभव करते हो? सर्व शक्तियों का खज़ाना, अतीन्द्रिय सुख का खज़ाना इतना इकठ्ठा किया है जो अपनी स्थिति तो कायम रहे लेकिन अन्य आत्माओं को भी सम्पन्न बना सको। सर्व की झोली भरने वाले दाता के बच्चे हो ना। अब यह दृश्य बहुत जल्दी सामने आयेगा।

डाक्टर लोग भी कोई को इस बीमारी की दवाई नहीं दे सकेंगे। तब आप लोगों के पास यह औषधि लेने के लिए आयेंगे। धीर-धीरे यह आवाज़ फैलेगा कि सुख-शान्ति का अनुभव ब्रह्माकुमारियों के पास मिलेगा। भटकते-भटकते असली द्वार पर अनेकानेक आत्मायें आकर पहुँचेंगी। तो ऐसे अनेक आत्माओं को सन्तुष्ट करने के लिए स्वयं अपने हर कर्म से सन्तुष्ट हो? सन्तुष्ट आत्मायें ही अन्य को सन्तुष्ट कर सकती हैं। अब ऐसी सर्विस करने के लिए अपने को तैयार करो। ऐसी तड़फती हुई आत्मायें सात दिन के कोर्स के लिए भी ठहर नहीं सकेंगी। तो उस समय उन आत्माओं को कुछ-न-कुछ अनुभव की प्राप्ति करानी होगी। इसलिए कहा कि अब अपने ब्राह्मणपन के कर्त्तव्य को सम्पन्न करने के लिए अपने को सम्पूर्ण बनाते रहो। अब समझा-कौनसी सर्विस करनी है? जब तक आप व्यक्त में बिज़ी हो, बापदादा अव्यक्त में भी मददगार तो हैं ना। हिम्मते बच्चे मददे बाप। तो बताओ ज्यादा बिज़ी कौन होगा? जैसे शुरू में वतन का अनुभव कराते थे ना। ऐसा अनुभव करते थे जो ध्यान में जाने वालों से भी अच्छा होता था (बाबा आप अभी भी अनुभव कराओ) अनुभव करो। बुद्धि का विमान तो है ही। कोई-कोई बच्चे कोई बात की जिद्द करते हैं तो बाप को कहना मानना पड़ता है। अब अनुभव करने की जिद्द करो। अच्छा।

पार्टियों से मुलाकात

प्रजा तो त्रेता के अन्त वाली चाहिए। द्वापर युग के लिए भक्त चाहिए। भक्त भी बनाओ और प्रजा भी बनाओ। अब तो ऐसा समय आयेगा -- देते जाओ, झोली भरते जाओ। इतनी तड़पती हुई आत्मायें आयेंगी, उन्हें बूँद भी देंगे तो खुश हो जायेंगी। ऐसा समय अब आने वाला है। जैसे वह सुनाते हैं मिनट मोटर (सिक्के पर छाप की मशीन), ऐसी मशीनरी चलेगी। दृष्टि, वृत्ति, स्मृति, वाणी सभी से सर्विस चलेगी। आपका घर भी आश्रम है। उनमें से जो भी निकलेंगे वह स्वयं सेन्टर पर जाने के लिए रूक नहीं सकेंगे। इन्होंने तो सर्विस की स्थापना में धक्के खाये हैं। आप लोग तो बने-बनाये पर आये हो। इन्होंने मेहनत कर मक्खन निकाला, आप खाने पर आ गये लेकिन मक्खन खाने वाले कितने शक्तिशाली होने चाहिए? सदैव यह ख्याल रखो कि जो भी आत्मायें सम्पर्क में आती हैं उनको जो आवश्यकता है वह मिले। रोटी की आवश्यकता वाले को पानी दे दो तो... किसको मान देना पडता है, उसको कहो जाकर दरी पर बैठो तो कैसे बैठेगा! कोई को दरी पर बिठाकर कोर्स कराया जाता है कोई को सोफे पर। अभी गवर्नर आया तो क्या किया? रिगार्ड दिया ना। अगर रिवाजी रीति से चलाओ तो चल न सके। कहाँ रिगार्ड देकर लेना पड़ता है। सभी को एक जैसा डो देने से बीमार भी पड़ जाते हैं। आजकल डाक्टर्स के पास पेशेन्टस जाते हैं तो लम्बा कोर्स नहीं चाहते हैं। आया इन्जेक्शन लगाया और खलास। यहाँ भी ऐसे है, आया और उनको उड़ाया। ऐसी सर्विस करते हो? स्वभाव से भी सर्विस कर सकते हो। ड्रामा अनुसार किसको स्वभाव भी अच्छा मिलता है तो उस स्वभाव की भी मदद है। सहेली बनाकर किसको अनुभव से भी प्रभावित कर सकते हैं। छोड़ न दो कि यह ज्ञान सुनते नहीं हैं। पहले सम्पर्क में लाकर फिर सम्बन्ध में लाओ। स्वभाव से भी किसको समीप ला सकते हो। इसका प्रयोग करो।

तुम सभी विश्व के कल्याण के आधारमूर्त हो। अपने को आधारमूर्त समझेंगे तो बहुतों का उद्धार कर सकेंगे। जो ऐसी सर्विस करते हैं वह उस खाते में, जैसे बैंक में भिन्न-भिन्न खाते होते हैं, जो जो जिसकी सर्विस करने के निमित्त बनते हैं वह उस समय ऐसे ही खाते में जमा होते हैं। फाउन्डेशन जितना गहरा डालेंगे उतना मबूत होगा। फाउन्डेशन तो डालते हैं लेकिन गहराई में डालने से, जैसे सुनाया कि सम्पर्क में तो लाया है परन्तु सम्बन्ध में लाना है। जो अनेकों को सम्बन्ध में लाता है वह नदीक सम्बन्ध में आयेगा। जो अनेकों को सम्पर्क में लाते हैं वह वहाँ भी नदीक सम्पर्क में आयेगा।

2. सारे दिन के पोतामेल को ठीक रीति से निकाल सकते हो? यह मालूम पड़ता है कि मेल गाड़ी की रफ्तार है? बापदादा के संस्कारों से मेल करना है। आप लोगों को, जिन्होंने साकार रूप से साथ रहकर सेकेण्ड के संकल्प, संस्कार का अनुभव किया है, उनसे मेल करना है। औरों को बुद्धियोग से खींचना पड़ता है। आप लोगों को सिर्फ सामने लाना पड़ता है। इसलिए संकल्प, संस्कार को मिलाते जाना है। समय नष्ट नहीं करना है, फौरन निर्णय करना है कि क्या करना है, क्या नहीं करना है? इसमें समय की भी बचत है और बुद्धि की शक्ति भी जो नष्ट होती है उसकी भी बचत है। अपने पुरूषार्थ से सन्तुष्ट हो? सम्पूर्ण होने का क्या प्लैन बनाया है? अपने को जब बदलेंगे तब औरों की सर्विस करेंगे। सन्तुष्टता में सर्टिफिकेट मिला है? मनपसन्दी के साथ-साथ लोक पसन्द बनना है। सर्टिफिकेट एक तो जो रेसपान्सिबुल हैं उन्होंने दिया तो लोकपसन्द हुए, रचना को भी सन्तुष्ट रखना है। उन्हों की चलन से ही कैच करना है कि सन्तुष्ट हैं? जब कोई मधुबन में आते हैं तो निमित्त बनी हुई बहनों द्वारा अपना सर्टिफिकेट ले जावें।

यह सभी सर्टिफिकेट धर्मराज पुरी में काम आयेंगे। जैसे रास्ते में कार चलाने वाले को सर्टिफिकेट होता है तो दिखा देने से रास्ता पार कर लेते हैं। ऐसे धर्मराजपुरी में भी यह सर्टिफिकेट काम में आयेगा। इसलिए जितना हो सके सर्टिफिकेट लेते जाओ। क्योंकि ट्रिब्युनल में भी यही महारथी बैठते हैं। इन्हों की सर्टिफिकेट काम में आयेगी। यहाँ से सर्टिफिकेट ले जाने से दूसरी आत्माओं को सैटिस्फाय करने की विशेषता आयेगी। अनुभवी बहनें अनेकों को सैटिस्फाय करने की शिक्षा देती हैं। अनेकों को सैटिस्फाय करने की युक्ति है सर्टिफिकेट

स्नेही बनना आता है या शक्ति बनना आता है? शक्ति भरने वाले जो रचयिता हैं उनकी रचना भी शक्तिशाली होने के कारण पुरूषार्थ में कब कैसे, कब कैसे डगमग नहीं होंगे। अगर स्टूडेन्ट डगमग होते हैं तो उससे परख सकते हैं कि शक्ति भरने की युक्ति नहीं है। समीप लाना यही विशेषता है। शक्तिशाली बनाना जो माया से मुकाबला कर लें। यह ऐड कर देना। विघ्न आवे भी लेकिन ज्यादा समय न चले। आया और गया - यह है शक्ति रूप की निशानी। जो अपने से सन्तुष्ट होता है वह दूसरों से भी सन्तुष्ट रहता है। और कोई असन्तुष्ट करे भी परन्तु स्वयं सन्तुष्ट हैं, तो सभी उनसे सन्तुष्ट हो जायेंगे। दूसरे की कमी को अपनी कमी समझकर चलेंगे तो खुद भी सम्पूर्ण बन जायेंगे। यह कभी नहीं सोचो कि इस कारण से मेरा पुरूषार्थ ठीक नहीं चलता। मेरी कमजोरी है, ऐसा समझने से उन्नति जल्दी हो सकती है। नहीं तो दूसरे की कमी के फैसले में ही समय बहुत जाता है।

साकार स्नेही हो या निराकार स्नेही हो? निराकार स्नेही जो होते हैं उनकी यह विशेषता ज्यादा होती है कि वह निराकारी स्थिति में ज्यादा स्थित होंगे, साकार स्नेहीचरित्रवान होंगे। उनका एक-एक चरित्र सर्विसएबुल होगा। दूसरा वह औरों को भी स्नेह में ज्यादा ला सकेंगे। निराकारी, निरहंकारी दोनों समान चाहिए।

बालक बनना अच्छा है या मालिक बनना अच्छा है? जितना हो सके सर्विस के सम्बन्ध में बालकपन, अपने पुरूषार्थ की स्थिति में मालिकपन। सम्पर्क और सर्विस में बालकपन, याद की यात्रा और मंथन करने में मालिकपन। साथियों और संगठन में बालकपन और व्यक्तिगत में मालिकपन - यह है युक्तियुक्त चलना।

सदा उमंग हुल्लास में एकरस रहने के लिए कौन सी पॉइन्ट याद रहे? उसके लिए जो सदैव सम्बन्ध में आते - चाहे स्टूडेन्ट, चाहे साथी सभी को सन्तुष्ट करने की उत्कंठा हो। उत्साह में रहने से जो ईश्वरीय उमंग उत्साह है वह सदा एकरस रहेगा। जिसको देखो उससे हर समय गुण उठाते रहो। सर्व के गुणों का बल मिलने से सदाकाल के लिए उत्साह रहेगा। उत्साह कम होने का कारण औरों के भिन्न-भिन्न स्वरूप, भिन्न-भिन्न बातें देखना, सुनना, गुण देखने की उत्कण्ठा हो तो एकरस उत्साह रहे। गुण चोर होने से और चोर भाग जायेंगे। सर्व पर विजयी बनने की युक्ति क्या है? विजयी बनने के लिए हरेक के दिल के रा को जानना है। जब हरेक के मुख के आवाज़ को देखते हो, तो आवाज़ देखने से उनके दिल के रा को नहीं जान सकते। दिल के रा को जानने से सर्व के दिलों के विजयी बन सकते हो। दिल के रा को जानने के लिए अन्तर्मुखता चाहिए। जितना रा को जानेंगे उतना सर्व को राज़ी कर सकेंगे। जितना राज़ी करेंगे उतना रा को जानेंगे। तब विजयी बन सकेंगे।

सरलचित्त की निशानी क्या है? जो स्वयं सरलचित्त रहता है वह दूसरों को भी सरलचित्त बना सकता है। सरलचित्त माना जो बात सुनी, देखी, की, वह सार-युक्त हो और सार को ही उठाये और जो बात वा कर्म स्वयं करे उसमें भी सार भरा हुआ हो। तो पुरूषार्थ भी सरल होगा और जो सरल पुरुषार्थी होता है वह औरों को भी सरल पुरुषार्थी बना देता है। सरल पुरुषार्थी सब बातों में आलराउन्ड होगा। कोई भी बात की कमी दिखाई नहीं देगी। कोई भी बात में हिम्मत कम नहीं होगी। मुख से ऐसा बोल नहीं निकलेगा कि यह अभी नहीं कर सकते हैं। यह एक मुख्य अभ्यास प्रैक्टिकल में लाने से सब बातों में सैम्पुल बन सकते हैं। सर्व बातों में सैम्पल बनने से पास विद् आनर बन सकते हैं। ऐसा कभी कोई बात में कहते हो, अभ्यास नहीं है। आलराउन्ड बनना दूसरी बात है, यह हुई कमाई। आलरा- उन्ड एग्ज़ाम्पल बनना दूसरी बात है। हर बात अन्य के आगे सैम्पुल बनकर दिखाना। हर बात में कदम आगे बढ़ाना अपने द्वारा सभी को कमाई में हुल्लास दिलाना - यह है आलराउन्ड एग्जाम्पुल बनना।

सेन्स में ज्यादा रहते हो या इसेन्स में? सेन्सिबल जो होते हैं वह इतने सफलतामूर्त नहीं बन सकते हैं, इसेन्स में रहने वालों की खुशबू अधिक समय चलती है। उनका प्रभाव सदाकाल चलता है। जो सिर्फ सेन्स में रहते हैं उनका प्रभाव तो रहता है परन्तु हर समय नहीं। सभी के गले में विजय माला पड़ी है लेकिन नम्बरवार। कोई के गले में बड़ी तो कोई के गले में छोटी। इसका कारण क्या है? जितना-जितना शुरू से लेकर मन्सा में, वाचा में, कर्मणा में आई हुई समस्याओं या विघ्नों के ऊपर विजयी बने हैं, उस अनुसार विजय माला हरेक की बनती है। शुरू से लेकर देखो तो मालूम पड़ सकता है कि मेरी विजय माला कितनी बड़ी है! आजकल छोटी माला भी बनाते तो बड़ी भी बनाते हैं। जो जितना-जितना विजयी बनते हैं उतना ही बड़ी विजयमाला पहनते हैं। यह जो चतुर्भुज में विजय माला की निशानी है सिर्फ एक की नहीं, यह विजयी रत्नों की निशानी है। तो हरेक अपनी-अपनी विजय माला का साक्षात्कार कर सकते हो। जितना विजय माला पहनने के अधिकारी बनेंगे उतना ही ताज तख्त उस प्रमाण प्राप्त होगा। तो इस समय विजय माला के प्रमाण अपना भविष्य तख्त भी समझ सकते हो। यहाँ ही अब सभी को साक्षात्कार होना है। साक्षात्कार सिर्फ दिव्य दृष्टि से नहीं, प्रत्यक्ष साक्षात्कार भी होना है। प्रत्यक्ष का प्रमाण यह भी साक्षात्कार है। इसलिए पूछा कि कितनी बड़ी है - विजय माला। एक है सर्विस का बल, दूसरा है स्नेह का बल, इसलिए एक्स्ट्रा बल मिलने कारण विशेष सर्विस हो रही है। जो स्वयं में शारीरिक के हिसाब से शक्ति नहीं समझते हैं लेकिन यह बल होने के कारण जैसे और कोई चला रहा है। ऐसा अनुभव करते हैं। निमित्त बनने से बहुत एक्स्ट्रा बल मिलता है। जैसे साकार रूप में निमित्त बनने से एक्स्ट्रा बल था। ऐसे इसमें भी है। अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होने से क्या होता है? अतीन्द्रिय सुख मिलने से जो इन्द्रियों के सुख का आकर्षण है वह समाप्त हो जाता है। जो दु:ख देने वाली चीज है, वह कौनसी है? इन्द्रियों का आकर्षण, सम्बन्ध का आकर्षण वा कोई भी कर्मेन्द्रियों के वश होने से जो भिन्न-भिन्न आकर्षण होते हैं वह अतीन्द्रिय सुख वा हर्ष दिलाने में बन्धन डालते हैं। एक ठिकाने बुद्धि टिक जाने से एकरस अवस्था रहती है। इसलिए सदैव बुद्धि को एक ठिकाने में टिकाने की जो युक्ति मिली है वह स्मृति में रखो। हिलने न दो। हिलना अर्थात् हलचल पैदा करना। फिर समय भी बहुत व्यर्थ जाता है। युद्ध में समय बहुत जाता है। शक्तियों के चित्र में शक्तियों की निशानी क्या दिखाते हैं? एक तो वह अलंकारी हैं, दूसरा संहारी भी हैं। अलंकार किसलिए हैं? संहार करने के लिए। ऐसे ही अलंकारी संहारकारी मूर्त अपने को समझकर चलते चलो। जब यह स्मृति में रहेगा कि मैं संहार मूर्त हूँ तो वे माया के वश कभी नहीं होंगे। सदैव यह चेक करना है कि अलंकार सभी ठीक रीति से धारण किये हुए हैं! कोई भी अलंकार अगर धारण नहीं किये हुए हैं तो विजयी नहीं बन सकते हैं। जैसे सुहागिन होती है, वह सदैव अपने सुहाग की निशानी को कायम रखती है। जैसे देखो कभी भी अपना स्थूल श्रृंगार कम हो जाता है, नीचे ऊपर होता है तो उसको बार-बार ठीक करते हैं। इसलिए कोई भी अलंकार रूपी श्रृंगार बिगड़ा हुआ है तो उसको ठीक करना है। जो अति पुराने होते हैं उनको पूरा अधिकार लेकर जाना है। अधिकार लेने के लिए ही अपने ऊपर छाप लगाने लिए मधुबन में आते हैं। यह मधुबन है फाइनल ठप्पा वा छाप लगाने का स्थान। जैसे पोस्ट आफिस होती है, उसमें जब फाइनल ठप्पा लगाते हैं तब चिट्ठी जाती है। यह भी स्वर्ग के अधिकारी बनने का छाप मधुबन है। मधुबन में आना अर्थात् करोड़ गुणा कमाई करना। जो विघ्न-विनाशक होते हैं वह विघ्नहार नहीं बन सकते। कम्बाइन्ड अपने को समझो। बापदादा तो सेकेण्ड, सेकेण्ड का साथी है। जब से जन्म लिया है तब से लेकर साथ है। यहाँ जन्म भी इस समय होता है, साथी भी इस समय मिलता है। लौकिक में जन्म पहले होता है और साथी बाद में। यहाँ अभी-अभी जन्म, अभी-अभी साथी।

बम्बई नगरी में रहते हुए प्रू हो? जो स्वयं प्रू नहीं हैं वह औरों के आगे प्रू (सबूत) भी नही बन सकते। धारणा वाली जीवन औरों के आगे प्रूफ बन जाती है। प्रू कौन बन जाता है? जो प्रू है। बम्बई में जास्ती पूजा किसकी होती है? गणेश की। उसको विघ्न-विनाशक कहते हैं, गणेश का अर्थ है मास्टर नॉलेज- फुल, विद्यापति। मास्टर नॉलेजफुल कभी हार नहीं खा सकते। क्योंकि नॉलेज को ही लाइट-माइट कहते हैं। फिर मंज़िल पर पहुँचना सहज हो जाता है। मंज़िल पर पहुँचने के लिए लाइट माइट दोनों चाहिए। अपनी सूरत को ऐसा करना है - जो आपकी सूरत से बापदादा दोनों दिखाई दें। जो भी कर्म करते हो वह हर कर्म में बापदादा के गुण प्रत्यक्ष हों। बापदादा के मुख्य गुण कौन से वर्णन करते हो?ज्ञान, प्रेम, आनन्द, सुख-शान्ति का सागर। जो भी कर्म करो वह सब ज्ञान सहित हों। हर कर्म द्वारा सर्व आत्माओं को सुख-शान्ति, आनंद का अनुभव हो। इसको कहते हैं बाप के गुणों की समानता। आपको समझाने की आवश्यकता नहीं। आपके कर्म देख उन्हों के दिल में संकल्प उठे कि यह किसके बच्चे, किस द्वारा ऐसे बने। स्टूडेन्ट भी अगर पढ़ने में अच्छा स्कॉलरशिप लेने वाला होता है तो उनको देख टीचर की याद आती है। इसलिए कहावत है स्टूडेन्ट शो टीचर यह भी सर्विस करने का तरीका है। अलौकिक जन्म का हर कर्म सर्विस प्रति हो। जितना सर्विस करेंगे उतना भविष्य ऊंचा। जितना अपने को सर्विस में बिजी रखेंगे उतना माया के वार से बच जायेंगे। बुद्धि को एंगेज कर दिया तो कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा। यह भी संगमयुग का वरदान है - एकरस अवस्था, एक का ही ध्यान, एक की ही सर्विस में जितना जो कोई वरदान ले। जैसे कोई नशे में रहता है उसको और कुछ सूझता नहीं, ऐसे इस ईश्वरीय नशे में रहने से और दुनिया की आकर्षण से परे हो जायेंगे।

(कोई बांधेली ने पूछा - बाबा हम बांधेली हैं, हमको संकल्प चलता है कि हम सर्विस नहीं करती हैं?)

बांधेली स्वतन्त्र रहने वालों से अच्छी हैं। स्वतन्त्र अलबेले रहते हैं। बांधेली की लगन अच्छी रहती है। याद को पावरफुल बनाओ। याद कम होगी तो शक्ति नहीं मिलेगी। याद में रहते यह व्यर्थ न सोचो कि सर्विस नहीं करती। उस समय भी याद में रहो तो कमाई जमा होगी। यह सोचने से याद की पावर कम होगी। बन्धन से मुक्त करने के लिए अपनी चलन को चेन्ज करो। जो घर वाले देखें कि यह चेन्ज हो गई है। जो कड़ा संस्कार है वह चेन्ज करो। वह अपना काम करें आप अपना काम करो। उनके काम को देख घबराओ नहीं। जितना वो अपना काम फोर्स से कर रहे हैं, आप अपना फोर्स से करो। उनके गुण उठाओ कि वह कैसे अपना कर्त्तव्य कर रहे हैं, आप भी करो। सारी सृष्टि की आत्माओं की भेंट में कितनी आत्माओं को यह भाग्य प्राप्त हुआ है। तो कितनी खुशी होनी चाहिए। खुशी तो नयनों में, मस्तक में, होठों में झलकती रहनी चाहिए। जो है ही खुशी के खज़ाने का मालिक, उसके बालक हो। तो खज़ाने के अधिकारी तो हो ना। 5,000 वर्ष पहले भी आये थे, यह अनुभव है? स्मृति आती है? स्पष्ट स्मृति की निशानी क्या है? स्पष्ट स्मृति की निशानी यह है - कि किससे मिलेंगे तो अपनापन महसूस होगा और अपने स्थान पर पहुँच गया हूँ, यह वही स्थान है, जिसको ढूंढ़ रहा था। जैसे कोई ची ढूंढ़ने के बाद मिलती है, इस रीति से यह भासना आये कि असली परिवार से मिले हैं और अपनापन का अनुभव हो। इसको कहते हैं स्पष्ट अनुभव। दूसरी बात कि जो बात सुनेगा वह उनको सहज स्पष्ट समझ में आयेगी। जैसे पवित्रता की बात लोगों को मुश्किल लगती है परन्तु जो कल्प पहले वाले होंगे, अधिकारी वह तो समझते हैं कि हमारा स्वधर्म ही है। उनको सहज लगेगा। जैसे कोई जानी-पहचानी मूर्तियाँ होती हैं उनको देखने से ऐसा अनुभव होता है कि यह तो अपने हैं। जितना समीप सम्बन्ध में आने वाले होंगे वह स्पष्ट अनुभव करेंगे। ऐसी अनुभवी आत्माओं को कर्मबन्धन तोड़ने में देरी नहीं लगेगी। नकली ची को छोड़ना मुश्किल नहीं होता है। अच्छा -



22-01-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


दिलतख्त-नशीन आत्मा की निशानी

आज इस संगठन को कौनसा संगठन कहेंगे? इस संगठन का क्या नाम देंगे? यह संगठन है ब्रह्मा बाप की भुजाएं। इसलिए इस संगठन को बापदादा के मददगार, वफादार, बापदादा के दिलतख्त-नशीन, मास्टर सर्वशक्तिवान कहेंगे। अब समझा, इतने अनेक टाइटिल्स इस ग्रुप के नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार हैं। जो दिल के तख्त नशीन होंगे उन्हों की निशानी क्या होती है? टीचर्स हैं इसलिए प्रश्न-उत्तर कर रहे हैं। तख्तनशीन की निशानी क्या है? जो तख्तनशीन हुए हैं उनकी निशानी है - एक तो जब भी कोई तख्त पर बैठते हैं तो तिलक और ताज दोनों तख्तनशीन की निशानी होती है। इस रीति दिलतख्त पर विराजमान आत्माओं की निशानी यही होती है। उनके मस्तक पर सदैव अविनाशी आत्मा स्थिति तिलक दूर से ही चमकता हुआ नज़र आयेगा। दूसरी बात -- और सर्व आत्माओं के कल्याण की शुभ भावना उनके नयनों में वा मुख से, मुख अर्थात् मुखड़ा, फेस से दिखाई दे। मुखड़े से यह सब स्पष्ट दिखाई दे यह निशानी है। तीसरी बात -- उनका संकल्प, वचन और कर्म बाप के समान हो। चौथी बात - जिन आत्माओं की सर्विस करे उन आत्माओं में स्नेह, सहयोग और शक्ति तीनों ही गुण धारण कराने की उसमें शक्ति हो। यह चार बातें उनकी निशानी है। अभी आप अपनी रिजल्ट को चेक करो कि यह चार ही निशानियाँ कहाँ तक दिखाई देती हैं। जैसे जो स्वयं होता है वैसे ही समान बनाता है। आज टीचर्स संगठन में हैं इसलिए यह सुना रहे हैं, जिन्हों की आप सेवा करती हो वा कर रही हो उन्हों में यह सब बातें भरनी चाहिए। अब तक रिजल्ट क्या है? हरेक अपनी रिजल्ट को तो देखते ही हैं। मैजारिटी क्या दिखाई देती है? कोई में स्नेहीपन की विशेषता है, कोई में सहयोगीपन की, लेकिन शक्ति रूप की धारणा कम है। इसकी निशानी फिर क्या दिखाई देती है, मालूम है? शक्तिपन के कमी की निशानी क्या है? परखने की शक्ति कम की निशानी क्या है? एक बात तो सुनाई - सर्विस की सफलता नहीं। उनकी स्पष्ट निशानी दो शब्दों में यह दिखाई देगी - उनका हर बात ‘क्यों’, ‘क्या’, ‘कैसे’ ....? क्वेश्चन मार्क बहुत होगा। ड्रामा का फुल-स्टॉप देना उनके लिए बड़ा मुश्किल होगा। इसलिए स्वयं ही ‘क्यों, क्या कैसे’ की उलझन में होगा। दूसरी बात -- वह कभी भी समीप आत्मा नहीं बना सकेगा। सम्बन्ध में लायेंगे लेकिन समीप सम्बन्ध में नहीं लायेंगे। समझा? ब्राह्मण कुल की जो मर्यादाएं हैं उन सर्व मर्यादाओं स्वरूप नहीं बना सकेंगे। क्योंकि स्वयं में शक्ति कम होने के कारण औरों में भी इतनी शक्ति नहीं ला सकते जो सर्व मर्यादाओं को पालन कर सकें। कोई न कोई मर्यादा की लकीर उल्लंघन कर देते हैं। समझते सभी होंगे, समझने में कमी नहीं होगी। मर्यादाओं की समझ पूरी होगी। परन्तु मर्यादाओं में चलना यह शक्ति कम होगी। इस कारण जिन्हों की वह सेवा करते हैं उन्हों में भी शक्ति कम होने कारण हाई जम्प नहीं दे सकते। संस्कारों को मिटाने में समय बहुत वेस्ट करते हैं। अब इन बातों से अपने स्वरूप को चेक करो। जैसे बहुत बढ़िया और मीठा फल तब निकल सकता है जब उस वृक्ष में सब बातों का ध्यान दिया जाता है। धरती उखाड़ने का भी ख्याल, बीज डालने का, जल का, सभी का ध्यान देना पड़ता है। ऐसे श्रेष्ठ फल तैयार करने के लिए संस्कार मिटाने की शक्ति, यह हुई धरती उखाड़ने की शक्ति। उसके साथ जैसे सभी चीजें बीच डालने वाले देखते हैं, वैसे स्नेही भी बनावें, सहयोगी भी बनावें और शक्ति-स्वरूप भी बनावें। अगर कोई एक की भी कमी रह जाती है तो क्या होता? जो शुरू में सुनाया कि दिल के तख्त नशीन नहीं बन सकते। इसलिए टीचर्स को यह ध्यान एक-एक के ऊपर देना चाहिए।

आप लोग जब एम-आब्जेक्ट सुनाते हो तो क्या सुनाते हो? देवता बनना यह तो लक्ष्य देते हो। देवताओं की महिमा सर्व गुण सम्पन्न। तो वह लक्ष्य रखना चाहिए। सर्व गुण एक-एक आत्मा में भरने का प्रयत्न करना चाहिए। आप टीचर्स को हरेक से मेहनत इतनी करनी चाहिए जो कोई आत्मा भी यह उलहना न दे कि हमारी निमित्त बनी हुई टीचर ने हमको इस बात के ऊपर ध्यान नहीं खिंचवाया। वह करे न करे, वह हुई उनकी तकदीर। परन्तु आप लोगों को सभी के ऊपर मेहनत करनी है। नहीं तो अब तक की रिजल्ट में कोई उलहनें अभी तक मिल रहे हैं। यह सर्विस की कमी है। इसलिए कहा कि सर्व बातें उन्हों में भरने से वह फल भी ऐसा लायक बनेगा। आप सोचो, जितना कोई बड़ा आदमी होता है, उनके सामने कौनसा फल रखेंगे? बड़ा भी हो और बढ़िया भी हो। साकार में भी कोई ची लाते थे तो क्या देखते थे? तो अब बापदादा के आगे भी ऐसे जो फल तैयार करते हैं वही सामने ला सकते हैं। इसलिए यह ध्यान रखना है। जितना जो स्वयं जितने गुणों से सम्पन्न होता है उतना औरों में भी भर सकता है। हरेक रचयिता की सूरत रचना से दिखाई देती है। सर्विस आप लोगों के लिए एक दर्पण है, जिस दर्पण द्वारा अपने अन्दर की स्थिति को देख सकते हो। जैसे दर्पण में अपनी सूरत सहज और स्पष्ट दिखाई देती है। ऐसे सर्विस के दर्पण द्वारा अपनी फीचर्स-सूरत नहीं, सीरत का सहज स्पष्ट साक्षात्कार होता है। वह है सूरत का आइना, यह है सीरत का आइना। हरेक को अपना साक्षात्कार स्पष्ट होता है? होना चाहिए। अगर अब तक स्पष्ट साक्षात्कार नहीं होगा तो अपने को सम्पूर्ण कैसे बना सकेंगे। जब अपनी कमज़ोरियों का मालूम होगा तब तो शक्ति भर सकेंगे। इसलिए अगर स्वयं के साक्षात्कार में कोई स्पष्टीकरण न हो तो निमित्त बनी हुई बहनों द्वारा मदद ले अपना स्पष्ट साक्षात्कार करने का प्रयत्न ज़रूर करना। यह बापदादा का काम नहीं है, बापदादा का कर्त्तव्य है इशारा देना।

टीचर्स के फीचर्स कैसे होने चाहिए? टीचर्स को अपने फरिश्तेपन के फीचर्स द्वारा सर्विस करनी चाहिए। टीचर्स द्वारा यह शब्द अब तक नहीं निकलने चाहिए कि यह मेरी नेचर है। यह कहना शक्तिहीनता की निशानी है। ‘पुरूषार्थ’ शब्द, पुरूषार्थ शब्द से यू नहीं करते हैं। परन्तु ‘पुरूषार्थ’ शब्द पुरूषार्थ से छुड़ाने का साधन बना दिया है। इसलिए आप लोगों के शब्द रचना द्वारा भी आपके सामने आते हैं। इसलिए सदैव ऐसे समझो जैसे कोई गुम्ब में जो आवाज़ किया जाता है वह लौटकर अपने पास आ जाता है। इतना अटेन्शन अपने संकल्पों पर भी रखना है। कहाँ-कहाँ से यह समाचार आते हैं, कौनसे? कि आजकल स्टूडेन्ट्स सुनते नहीं हैं। मेहनत करते हैं लेकिन आगे नहीं बढ़ते हैं, वहाँ के वहाँ खड़े हैं। यह रिजल्ट क्यों? यह भी अपनी स्थिति का रिटर्न है। क्योंकि स्टूडेन्ट भी चलते- चलते निमित्त बनी हुई टीचर्स की कमज़ारियों को परख कर उसका एडवान्टेज उठाते हैं। अच्छा।



26-01-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


ज़िम्मेवारी उठाने से फायदे

तुम बच्चे हो विश्व को परिवर्तन करने वाले विश्व के आधार मूर्त। उद्धार करने वाले भी हो और साथ-साथ विश्व के आगे उदाहरण बनने वाले भी हो। जो आधारमूर्त होते हैं उनके ऊपर ही सारी ज़िम्मेवारी रहती है। अभी आपके एक-एक कदम के पीछे अनेकों के कदम उठाने की ज़िम्मेवारी है। पहले साकार रूप फालो फादर के रूप में सामने था। अभी आप लोग निमित्त मूर्तियां हो। तो ऐसे समझो कि जैसे जिस रूप से जहाँ हम कदम उठायेंगे वैसे सर्व आत्मायें हमारे पीछे फालो करेंगी। यह ज़िम्मेवारी है। सर्व के उद्धारमूर्त बनने कारण सर्व आत्माओं की जो आशीर्वाद मिलती है तो फिर हल्कापन भी आ जाता है, मदद भी मिलती है। जिस कारण ज़िम्मेवारी हल्की हो जाती है। बड़ा कार्य होते हुए भी ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कोई करा रहा है। यह ज़िम्मेवारी और ही थकावट मिटाने वाली है। फ्री रहना मन को भाता ही नहीं है। ज़िम्मेवारी अवस्था को बनाने में बहुत मदद करती है। बापदादा जब महारथी बच्चों को देखते हैं तो सभी के वर्तमान स्वरूप और इसी जन्म के अन्तिम स्वरूप और दूसरे जन्म के भविष्य स्वरूप तीनों ही सामने आते हैं। आप लोगों को यह फीलिंग स्पष्ट रूप में आती है कि यह हम बनने वाले हैं, हम ताज व तख्तधारी होंगे? आगे चल यह भी अनुभव करेंगे। जैसे साकार रूप में प्रत्यक्ष अनुभव किया ना। कर्मातीत अवस्था भी स्पष्ट थी और भविष्य स्वरूप की स्मृति भी स्पष्ट थी। भविष्य संस्कार इस स्वरूप में प्रत्यक्ष दिखाई देते थे। तो आप सभी ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि बस यह शरीर छोड़ा और वह तैयार है। बुद्धिबल द्वारा इतना स्पष्ट अनुभव होगा। अभी दिन प्रतिदिन अपनी सर्विस से अपने सहयोगीपन से और अपने संस्कारों को मिटाने की शक्ति से अपने अन्तिम स्वरूप और भविष्य को जान जायेंगे। पहले कहते थे ऐसा समय आयेगा जो नदीक वाले और दूर वाले स्पष्ट दिखाई देंगे। लेकिन अब वह समय चल रहा है। जो दैवी परिवार की आत्मायें हैं वह समझ सकती हैं - कौन-कौन समीप रत्न हैं। जिनको जितना समीप आना है वह सरकमस्टांस अनुसार भी इतना समीप आयेंगे। जिनको कुछ दूर होना है तो सरकमस्टांश भी बीच में निमित्त बन जायेंगे, जो चाहते हुए भी आ नहीं सकेंगे। यह सभी भविष्य का साक्षात्कार अभी प्रैक्टिकल सर्विस चल रही है। अपने भविष्य को जानना अब मुश्किल नहीं है।

हरेक को व्यक्तिगत अपने लिए भी कोई विशेष प्रोग्राम रखना चाहिए। जैसे सर्विस आदि के और प्रोग्राम बनाते हो, वैसे सवेरे से लेकर रात तक बीच-बीच में कितना और कैसे अपनी याद की यात्रा पर अटेन्शन रखने के लिए प्रोग्राम रख सकते हो -- यह डायरी बनानी चाहिए। अमृतवेले ही याद का प्लैन बनाना चाहिए। समझो, आप लोग कोई स्थूल कार्य आदि में बिज़ी रहते हो; लेकिन उसमें भी थोड़े समय के लिए जैसे नियम बांधा हुआ हो याद में रहने का। उस समय दूसरे को भी दो-तीन मिनट के लिए स्मृति दिलाओ कि -- अभी हमारा यह कार्य है, आप भी याद में रहो। जैसे मुकर् टाइम पर ट्रैफिक भी रोक लेते हैं। कितना भी भले रूरी काम हो, कोई पेशेन्ट को हॉस्पिटल में जाना होगा तो भी रोक लेंगे। इस रीति जहाँ तक कर सको उतना टाइम-टेबल अपना बनाओ। तो और भी देखेंगे इन्हों का यह टाइम याद का मुकर् है तो और भी आपको फालो करेंगे। कोई कार्य हो उनको आगे पीछे करके भी दो चार मिनट का टाइम याद में रहने लिए ज़रूर निकालो तो उससे वायुमण्डल में भी सारा प्रभाव रहेगा। सभी एक- दो को फालो करेंगे। बुद्धि को रेस्ट भी मिलेगी और शक्ति भी भरेगी और वायुमण्डल को सहयोग मिलेगा। फिर एक अनोखापन दिखाई पड़ेगा। जैसे कुछ समय आप एक दो को याद दिलाते थे - शिव बाबा याद है? वैसे ही जब देखते हो कोई व्यक्त भाव में ज्यादा है तो उनको बिना कहे अपना अव्यक्ति शान्त रूप ऐसा धारण करो जो वह भी इशारे से समझ जाये। तो फिर वातावरण कुछ अव्यक्त रहेगा। तुम्हारी अन्तिम स्टेज है - साक्षात्कार मूर्त। जैसा-जैसा साक्षात् मूर्त बनेंगे वैसे ही साक्षात्कारमूर्त बनेंगे। जब सभी साक्षात् मूर्त बन जायेंगे तो संस्कार भी सभी के साक्षात् मूर्त समान बन जायेंगे। अपने को निमित्त समझकर कदम उठाना है। जैसे आप लोगों से ईश्वरीय स्नेह, श्रेष्ठ ज्ञान और श्रेष्ठ चरित्रों का साक्षात्कार होता है, वैसे अव्यक्ति स्थिति का भी उतना ही स्पष्ट साक्षात्कार हो। ऐसा प्लैन बनाना चाहिए जो कोई भी महसूस करे - यह तो चलता फिरता फरिश्ता है। जैसे साकार रूप में फरिश्तेपन का अनुभव किया ना। इतनी बड़ी ज़िम्मेवारी होते भी आकारी और निरा- कारी स्थिति का अनुभव कराते रहे। आप लोगों का भी अन्तिम स्टेज का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देना चाहिए। कोई कितना भी अशान्त वा बेचैन घबराया हुआ आवे लेकिन आपकी एक दृष्टि, स्मृति और वृत्ति की शक्ति उनको बिल्कुल शान्त कर दे। भले कितना भी कोई व्यक्त भाव में हो लेकिन आप लोगों के सामने आते ही अव्यक्त स्थिति का अनुभव करे। आप लोगों की दृष्टि किरणों जैसा कार्य करे। अभी तक के रिजल्ट में मास्टर सूर्य के समान नॉलेज की लाइट देने के कर्त्तव्य में सफल हुए हो लेकिन किरणों की माइट से हरेक आत्मा के संस्कार रूपी कीटाणु को नाश करने का कर्त्तव्य करना है। लाइट देने में पास हो। माइट देने का कर्त्तव्य अब रहा हुआ है। बापदादा के पास चार लिस्ट हैं।

(1) सर्विसएबल (2) सेन्सिबल (3) सक्सेसफुल और (4) वैल्युबल। सक्सेसफुल भी सब नहीं होते, वैल्युबल भी सब नहीं होते हैं। कोई अपने गुणों से, चरित्रों से वैल्युबल बन जाते हैं लेकिन सर्विस के प्लैनिंग में सक्सेस नहीं होते हैं। हरेक अपने चार्ट को जान सकते हैं। देखना है हमारा किस लिस्ट में नाम होगा। कोई कोई का चारों में भी नाम है। कोई का दो में, कोई का तीन में कोई का एक में है। वैल्युबल का मुख्य गुण यह होता है जो उसको स्वयं भी अपने समय की, संकल्प की और सर्विस की वैल्यु होती है। इसलिए उनके संकल्प, शब्द वा उस द्वारा जो सर्विस होती है उसकी और भी वैल्यु रखते हैं वा ड्रामा अनुसार उनकी वैल्यु हो जाती है। सभी उनको वैल्युबल की दृष्टि से देखते हैं। सर्विसएबल फर्स्ट हैं या सेन्सिबुल फर्स्ट है? दोनों की अपनी-अपनी विशेषता है। सेन्सिबल की प्लैनिंग बुद्धि ज्यादा होगी लेकिन प्रैक्टिकल में लाने की विशेषता कम होती है। और सर्विसएबल जो होता है वह प्लैनिंग कम करता लेकिन प्रैक्टिकल में आने का उसमें विशेष गुण होता है। कोई में सेन्स भी होता है और सर्विसएबल का गुण भी होता है। इस स्थापना के कर्त्तव्य में दोनों ही आवश्यक हैं। उनका संकल्प, प्लैन जो चलता है उससे भविष्य बनता है। उनका कर्म से बनता है। अधिक प्रभाव इसका रहता है। और सफलतामूर्त का फिर अव्यक्ति स्थिति के आधार पर परिणाम निकलता है। कोई-कोई का प्लैन भी चलता है, प्रैक्टिकल भी करते हैं लेकिन सफलता कम होती है। सर्विसएबल हो सकते हैं लेकिन सफलतामूर्त सभी नहीं हो सकते। कोई को ड्रामा अनुसार जैसे सफ़लता का वरदान प्राप्त हुआ होता है। उन्हों को मेहनत कम करनी पड़ती है। सहज ही सफ़लता मिल जाती है। यह ड्रामा में हरेक का अपना पार्ट है। अच्छा!

टीचर्स तो है ही टीचर्स। टीचर्स को सदैव यह स्मृति में रहना चाहिए कि टीचर बनने से पहले स्टूडेन्ट हूँ। स्टूडेन्ट स्मृति से स्टडी याद रहेगी। जब स्वयं स्टडी करेंगे तो औरों को स्टडी करायेंगे। स्टूडेन्ट लाइ न होने के कारण औरों को स्टूडेन्ट नहीं बना सकेंगे। वातावरण को बदलने के लिए अपने को सदैव यह समझना चाहिए कि मैं मास्टर सूर्य हूँ। सूर्य का कर्त्तव्य क्या होता है? एक तो रोशनी देना, दूसरा किचड़े को खत्म करना। तो सदैव यह समझना चाहिए कि मेरी चलन रूपी किरणों से यह दोनों कर्त्तव्य होते हैं। सर्व आत्माओं को रोशनी भी मिले, किचड़ा भी खत्म हो। मानो, रोशनी मिलते किचड़ा खत्म न हो तो समझो कि मेरी किरणों में पावर नहीं। जैसे धूप ते नहीं तो कीटाणु खत्म नहीं होंगे। मेरे में पावर कम तो ज्ञान रोशनी देगा परन्तु पुराने संस्कारों रूपी कीटाणु खत्म नहीं होंगे। जितनी पावरफुल चीज उतनी जल्दी खत्म। पावर कम तो समय बहुत लगेगा। तो पावरफुल बनना है। ऐसे नहीं समझो कि पढ़ी-लिखी नहीं हूँ। सृष्टि की नॉलेज पढ़ ली तो उसमें सब आ जाता है। अच्छा।



01-02-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


ताज, तिलक और तख्त नशीन बनने की विधि

बा पदादा सभी बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं, क्योंकि हरेक को नम्बरवार ताज व तख्त-नशीन देख रहे हैं। आप अपने को ताज व तख्त नशीन देख रहे हो? कितने प्रकार के ताज हैं और कितने प्रकार के तख्त हैं? आपको कितने ताज हैं? (21 जन्मों के 21 ताज) अभी कोई ताज है कि सिर्फ 21 ताज ही दिखाई देते हैं? अभी का ताज ही अनेक ताज धारण कराता है। तो अब अपने को ताजधारी देखते हो। कितने ताज धारण किये हैं? ( अनगिनत) पाण्डव सेना को कितने ताज हैं? (दो) शक्तियों को अनेक और पाण्डवों को दो? अगर अभी ताज धारण नहीं करेंगे तो भविष्य के ताज भी कैसे मिलेंगे! इस समय सभी बच्चों को ताज व तख्त नशीन बनाते हैं। तख्तनशीन अगर हैं तो ताजधारी भी होंगे। तख्त कितने प्रकार के हैं? अभी दिल के तख्त नशीन और अकाल तख्तनशीन तो हो ही। जैसे अकालतख्त नशीन हो तो प्योरिटी की लाइट का ताज भी अभी ही धारण करते हो और दिल के तख्त नशीन होने से, सेवाधारी बनने से ज़िम्मेवारी का ता धारण करते हो। तो अब हरेक अपने को देखे कि दोनों ही तख्त नशीन और दोनों ही ताजधारी कितना समय रहते हैं? ताज और तख्त मिला तो सबको है लेकिन कोई कितना समय ताज व तख्त नशीन बनते हैं -- यह हरेक का अपना पुरूषार्थ है। कइयों को स्थूल ताज भी धारण करने का अनुभव कम होता है तो बार-बार उतार देते हैं। लेकिन यह ताज और तख्त तो ऐसा सरल-सहज है जो हर समय ताज व तख्तधारी बन सकते हो। जब कोई तख्तनशीन होता है तो तख्त पर उपस्थित होने से राजकारोबारी उसके आर्डर से चलते हैं। अगर तख्त छोड़ते हैं तो वही कारोबारी उसके आर्डर में नहीं चलेंगे। तो ऐसे आप जब ताज व तख्त छोड़ देते हो तो यह कर्मेन्द्रियां आपका ही आर्डर नहीं सुनती हैं। जब तख्तनशीन होते हो तो यही कर्मेन्द्रियां जी-हजूर करती हैं। इसलिए सदैव यही ध्यान रखो कि यह ताज व तख्त कभी छूटे नहीं। अपना ताज व तख्त नशीन का सम्पूर्ण चित्र सदैव याद रखो। उनको याद रखने से अनेक चित्र जो बन जाते हैं वह नहीं बनेंगे। एक दिन के अन्दर ही हरेक के भिन्न-भिन्न रूप बदलने के चित्र दिखाई देते हैं। तो अपना एक सम्पूर्ण चित्र सामने रखो। ताज व तख्त-नशीन बनने से निशाना और नशा स्वत: ही रहेगा। क्योंकि ताज व तख्त है ही नशा और निशाने की याद दिलाने वाला। तो अपना ताज व तख्त कभी भी नहीं छोड़ना। जितना-जितना अब ताज व तख्त धारण करने के अनुभवी वा अभ्यासी बनेंगे उतना ही वहाँ भी इतना समय ताज व तख्त धारण करेंगे। अगर अभी अल्प समय ताज व तख्त नशीन बनते हो तो वहाँ भी बहुत थोड़ा समय ताज व तख्त प्राप्त कर सकेंगे। अभी का अभ्यास हरेक को अपना भविष्य साक्षात्कार करा रहा है। अभी भी सिर्फ दूसरों को ताज व तख्तनशीन देखते हुए खुश होते रहेंगे तो वहाँ भी देखते रहना पड़ेगा। इसलिए सदाकाल के लिए ताज व तख्त नशीन बनो। ऐसा ताज व तख्त फिर कब मिलेगा? अभी ही मिलेगा। कल्प के बाद भी अभी ही मिलेगा। अभी नहीं तो कभी नहीं।

घर बैठे कोई ताज व तख्त देने आये तो क्या करेंगे? बाप भी अभी आत्माओं के घर में मेहमान बन आये हैं ना। घर बैठे ताज व तख्त की सौगात देने आये हैं। ताज व तख्त को छोड़ कहाँ चले जाते हो, मालूम है? माया का कोई निवास-स्थान है? आप भी सर्वव्यापी कहते हो वा आप लोगों के सिवाय और सभी जगह है? आपने 63 जन्मों में कितनी बार माया को ठिकाना दिया होगा! उसका परिणाम भी कितनी बार देखा होगा। जो बहुत बार के अनुभवी फिर भी वह बात करें तो क्या कहेंगे? जैसे दिखाते हैं ना ताज वा तख्त छोड़ जंगल में चले जाते हैं तो यहाँ भी कांटों के जंगल में चले जाते हो। कहाँ तख्त, कहाँ काटों का जंगल। क्या पसन्द है? जैसे कोई भक्त वा श्रृंगार करने वाले नियम प्रमाण नहा- धोकर अपने मस्तक पर तिलक ज़रूर लगाते हैं। श्रृंगार के कारण, भक्ति के कारण और सुहाग के कारण भी तिलक लगाते हैं। तो ऐसे ही अमृतवेले तुम अपने को ज्ञान-स्नान कराते हो, अपने को ज्ञान से सजाते हो। तो अमृतवेले वैसे यह स्मृति का तिलक देना चाहिए। लेकिन अमृतवेले यह स्मृति का तिलक देना भूल जाते हो। अगर कोई तिलक देते भी हैं तो फिर मिटा भी लेते हैं। जैसे कइयों की आदत होती है -- बार-बार मस्तक को हाथ लगाकर तिलक मिटा देते हैं। अभी-अभी तिलक देंगे, अभी-अभी मिटा देंगे। ऐसे ही यह भी बात है। कोई को तिलक देना भूल जाता है, कोई देते हैं फिर मिटा देते हैं। तो लगाना और मिटाना -- दोनों ही काम चलते हैं। तो अमृतवेले का यह स्मृति का दिया हुआ तिलक सदैव कायम रखते रहो तो सुहाग, श्रृंगार और योगीपन की निशानी सदैव आपके मस्तक से दिखाई देगी। जैसे भक्तों का तिलक देखकर के समझते हैं - यह भक्त है। इस प्रकार आपकी स्मृति का तिलक इतना स्पष्ट सभी को दिखाई देगा जो झट महसूस करेंगे कि यह ‘योगी तू आत्मा’ है। तो तिलक, ताज और तख्त सभी कायम रखो। तिलक को मिटाओ नहीं। अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान कहलाते हो, तो मास्टर सर्वशक्तिवान को ताज व तख्त धारण करना भी नहीं आता है क्या! सदैव सिर्फ दो बातें कर्म करते हुए याद रखो। फिर ऐसी प्रैक्टिस हो जायेगी जो किसके मन में आये हुए संकल्प को ऐसे कैच करेंगे जैसे मुख से की हुई बात सरल रीति से कैच कर सकते हो। वैसे मन के संकल्प को सहज ही कैच करेंगे। लेकिन यह तब होगा जब समानता के नदीक आयेंगे। एक-दो के स्वभाव में भी अगर कोई की समानता होती है तो उनके भाव को सहज समझ सकते हैं। तो यह भी बाप की समानता के समीप जाने से मन के संकल्प ऐसे कैच कर सकेंगे जैसे मुख द्वारा वाणी। इसके लिए सिर्फ अपने संकल्पों की मिक्सचर्टा नहीं होनी चाहिए। संकल्पों के ऊपर कन्ट्रोलिंग पावर होनी रूरी है। जैसे बाहर की कारोबार कंट्रोल करने की कन्ट्रोलिंग पावर किसमें कितनी होती है, किसमें कितनी होती है। ऐसे ही यह मन के संकल्पों की कारोबार को कन्ट्रोल करने की कन्ट्रोलिंग पावर नम्बरवार है। तो वह दो बातें कौनसी हैं?

एक तो सदैव यह स्मृति में रखो कि मैं हर समय, हर सेकेण्ड, हर कर्म करते हुए स्टेज पर हूँ। हर कर्म पर अटेन्शन रहने से सम्पूर्ण स्टेज के नदीक आते जायेंगे। दूसरी बात -- सदैव अपने वर्तमान और भविष्य के स्टेट्स को स्मृति में रखो। तो एक स्टेज, दूसरा स्टेट्स - यह दोनों बातें सदैव स्मृति में रखने से कोई भी ऐसा कार्य नहीं होगा जो स्टेट्स के विरूद्ध हो। और, साथ-साथ स्टेज पर अपने को समझने से सदैव ऊंच कर्त्तव्यों को करने की प्रेरणा मिलेगी। यह दो बातें सदैव स्मृति में रखते चलो। अच्छा। आप लोग दूर से आये हो वा बापदादा दूर से आये हैं? रफ्तार भले तेज है लेकिन दूरी किसकी है? आप लोग सफर कर आये हो, बापदादा भी सफर कर आये हैं। इसलिए दोनों ही सफर वाले हैं। सिर्फ आपके सफर में थकावट है और इस सफर में अथक हैं। मधुबन निवासी बनना - यह भी ड्रामा के अन्दर बहुत-बहुत सौभाग्य की निशानी है। क्योंकि मधुबन है वरदान भूमि। तो वरदान भूमि पर आये हो। वह है मेहनत की भूमि, यह है वरदान भूमि। तो वरदान भूमि पर आकर वरदाता से वा वरदाता द्वारा निमित्त बनी हुई आत्माओं से ितना जो वरदान लेने चाहें वह ले सकते हैं। निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं से वरदान कैसे लेंगे? यह हिसाब जानते हो? मधुबन में वरदान मिलता है। वायुमण्डल में, पवित्र चरित्र-भूमि में वरदान तो भरा हुआ है लेकिन निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं से वरदान कैसे लेंगे? वरदान में मेहनत कम होती है। जैसे मन्दिर में पण्डे यात्रियों को वरदान दिलाने देवियों के सामने ले जाते हैं। तो आप भी पण्डे हो। यात्रियों को वरदान कैसे दिलायेंगे? वरदान लेने का साधन कौनसा है? श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा वरदान इसलिए मिलता है - जो निमित्त बने हुए होने के कारण उन्हों के हर कर्म को देखकर सहज प्रेरणा मिलती है। कोई भी ची जब साकार में देखी जाती है तो जल्दी ग्रहण कर सकते हैं। बुद्धि में सोचने की बात देरी से ग्रहण होती है। यहाँ भी साकार रूप में जिन्होंने साकार को देखा, उन्हों को याद करना सहज है और बिन्दी रूप को याद करना ज़रा...। इसी रीति जो निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्मायें हैं उन्हों की सर्विस, त्याग, स्नेह, सर्व के सहयोगीपन का प्रैक्टिकल कर्म देखते हुए जो प्रेरणा मिलती है वह वरदान रूप में सहज प्राप्त होती है। तो मधुबन वरदाता की भूमि में आकर हर एक श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा सहज कर्मयोगी बनने का वरदान प्राप्त करके ही जाना। क्योंकि आप लोग भी सिर्फ मुश्किल बात यही बताते हो कि कर्म करते हुए स्मृति में रहना मुश्किल है। तो निमित्त बनी हुई आत्माओं को कर्म करते हुए इन गुणों की धारणा में देखते सहज कर्मयोगी बनने की प्रेरणा मिलती है। तो उन एक भी वरदान को छोड़कर नहीं जाना। सर्व वरदान प्राप्त करते-करते स्वयं भी मास्टर वरदाता बन जायेंगे। अच्छा।



11-02-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


अंत:वाहक शरीर द्वारा सेवा

एक सेकेण्ड में कितना दूर से दूर जा सकते हो, हिसाब निकाल सकते हो? जैसे मरने के बाद आत्मा एक सेकेण्ड में कहाँ पहुँच जाती है! ऐसे आप भी अन्त:वाहक शरीर द्वारा; अन्त:वाहक शरीर जो कहते हैं उसका भावार्थ क्या है? आप लोगों का जो गायन है कि अन्त:वाहक शरीर द्वारा बहुत सैर करते थे, उसका अर्थ क्या है? यह गायन सिर्फ दिव्य-दृष्टि वालों का नहीं है लेकिन तुम सभी का है। यह लोग तो अन्त:वाहक शरीर का अपना अर्थ बताते हैं। लेकिन यथार्थ अर्थ यही है कि अन्त के समय की जो आप लोगों की कर्मातीत अवस्था की स्थिति है वह जैसे वाहन होता है ना। कोई न कोई वाहन द्वारा सैर किया जाता है। कहाँ का कहाँ पहुँच जाते हैं! वैसे जब कर्मातीत अवस्था बन जाती है तो यह स्थिति होने से एक सेकेण्ड में कहाँ का कहाँ पहुँच सकते हैं। इसलिए अन्त:वाहक शरीर कहते हैं। वास्तव में यह अन्तिम स्थिति का गायन है। उस समय आप इस स्थूल स्वरूप के भान से परे रहते हो, इसलिए इनको सूक्ष्म शरीर भी कह दिया है। जैसे कहावत है -- उड़ने वाला घोड़ा। तो इस समय के आप सभी के अनुभव की यह बातें हैं जो कहानियों के रूप में बनाई हुई हैं। एक सेकेण्ड में आर्डर किया यहाँ पहुँचो; तो वहाँ पहुँच जायेगा। ऐसा अपना अनुभव करते जाते हो? जैसे आजकल साइंस भी स्पीड को क्विक करने में लगी हुई है। जहाँ तक हो सकता है ‘समय कम और सफलता ज्यादा’ का पुरूषार्थ कर रहे हैं। ऐसे ही आप लोगों का पुरूषार्थ भी हर बात में स्पीड को बढ़ाने का चल रहा है। जितनी-जितनी जिसकी स्पीड बढ़ेगी उतना ही अपने फाइनल स्टेज के नदीक आयेंगे। स्पीड से स्टेज तक पहुँचेंगे। अपनी स्पीड से स्टेज को परख सकते हो।

अभी सभी महान् पर्व शिवरात्रि मनाने का प्लैन बना रहे हो, फिर नवीनता क्या सोची है? (झण्डा लहरायेंगे) अपने-अपने सेवाकेन्द्रों पर झण्डा भले लहराओ लेकिन हरेक आत्मा के दिल पर बाप की प्रत्यक्षता का झण्डा लहराओ। वह तब होगा जब शक्ति-स्वरूप की प्रत्यक्षता होगी। शक्ति-स्वरूप से ही सर्वशक्तिवान को प्रत्यक्ष कर सकते हो। शक्ति-स्वरूप अर्थात् संहारी और अलंकारी। जिस समय स्टेज पर आते हो उस समय पहले अपनी स्थिति की स्टेज अच्छी तरह से ठीक बनाकर फिर उस स्टेज पर आओ, जिससे लोगों को आपकी आन्तरिक स्टेज का साक्षात्कार हो। जैसे और तैयारियाँ करते हो, वैसे यह भी अपनी तैयारी देखो कि अलंकारी बनकर स्टेज पर आ रही हूँ। लाइट-हाउस, माइट-हाउस -- दोनों ही स्वरूप इमर्ज रूप में हों। जब दोनों स्वरूप होंगे तब ठीक रीति से गाइड बन सकेंगे। आपके ‘बाप’ शब्द में इतना स्नेह और शक्ति भरी हुई हो जो यह शब्द ज्ञान-अंजन का काम करे, अनाथ को सनाथ बना दे। इस एक शब्द में इतनी शक्ति भरो। जिस समय स्टेज पर आते हो उस समय की स्थिति एक तो तरस की हो, दूसरी तरफ कल्याण की भावना, तीसरी तरफ अति स्नेह के शब्द, चौथी तरफ स्वरूप में शक्तिपन की झलक हो। अपनी स्मृति और स्थिति को ऐसा पावरफुल बनाकर ऐसे समझो कि अपने कई समय के पुकारते हुए भक्तों को अपने द्वारा बाप का साक्षात्कार कराने के लिए आई हूँ। इस रीति से अपने रूहानी रूप, रूहानी दृष्टि, कल्याणकारी वृत्ति द्वारा बाप को प्रत्यक्ष कर सकती हो। समझा, क्या करना है? सिर्फ भाषण की तैयारी नहीं करनी है। लेकिन भाषण की तैयारी ऐसी करो जो भाषण द्वारा भाषा से भी परे स्थिति में ले जाने का अनुभव कराओ। भाषण की तैयारी ज्यादा करते हैं लेकिन रूहानी आकर्षण-स्वरूप की स्मृति में रहने की तैयारी पर अटेन्शन कम देते हैं। इसलिए इस बारी ज्यादा तैयारी इस बात की करनी है। हरेक के दिल पर बाप के सम्बन्ध के स्नेह की छाप लगानी है। अच्छा ।

मधुबन वाले क्या सर्विस करेंगे? मधुबन वालों को उस दिन खास बापदादा अव्यक्त वतन में आने का निमन्त्रण दे रहे हैं। वहाँ वतन में आकर सभी तरफ की सर्विस को देख सकेंगे। शाम 7 से 9 बजे तक यह दो घण्टे खास सैर करायेंगे। जैसे सन्देशियों को ले जाते हैं - सभी स्थानों की सैर कराने, इसी रीति से मधुबन वालों को यहाँ बैठे हुए सर्व स्थानों की सर्विस की सैर करायेंगे। अगर बिना मेहनत के सारा सैर कर लो तो और क्या चाहिए। इसलिए मधुबन वाले उस दिन अपने को इस स्थूल देह से परे अव्यक्त वतन वासी समझकर बैठेंगे तो सारे दिन में कई अनुभव करेंगे। फिर सुनाना, क्या अनुभव किया। उस दिन अगर अपना थोड़ा भी पुरूषार्थ करेंगे तो सहज ही अनोखे भिन्न-भिन्न अनुभव करने के वरदान को पा सकेंगे। समझा? 7 से 9 शाम को खास याद का प्रोग्राम रखना। यूं तो सारे दिन का ही निमन्त्रण दे रहे हैं। लेकिन विशेष यह सैर का समय है। ऐसे समय पर हरेक यथा शक्ति अनुभव कर सकेंगे। मधुबन वाले विशेष स्नेही हैं, इसलिए विशेष निमन्त्रण है। सिर्फ बुद्धि द्वारा अपने इस देह के भान से अलग होकर बैठना, फिर ड्रामा में जो अनुभव होने हैं वह होते रहेंगे। सन्देशियों के लिए तो साक्षात्कार कॉमन बात है लेकिन बुद्धि द्वारा भी ऐसे अनुभव कर सकते हो। इतना स्पष्ट होगा जैसे इन आंखों से देखा हुआ अनुभव है। अच्छा।

टीचर्स के साथ मुलाकात

इस ग्रुप को कौनसा ग्रुप कहें? (स्पीकर्स ग्रुप) स्पीकर्स अर्थात् स्पीच करने वाले। स्पीच के साथ स्पीड भी है? क्योंकि स्पीच के साथ-साथ अगर पुरूषार्थ की स्पीड भी है तो ऐसे स्पीच करने वाले के प्रभाव से विश्व का कल्याण हो सकता है। अगर स्पीड के बिना स्पीच है, तो विश्व का कल्याण होना मुश्किल हो जाता है। तो ऐसे कहें कि यह स्पीच और स्पीड में चलने वाले ग्रुप हैं। जिन्हों की स्पीच भी पावरफुल, स्पीड भी पावरफुल है उनको कहते हैं विश्वकल्याणकारी, ‘मास्टर दु:ख-हर्त्ता सुख-कर्त्ता’। तो ऐसे कार्य में लगे हुए हो? जो ‘दु:ख-हर्त्ता सुख- कर्त्ता’ होता है वह स्वयं इस दुनिया की लहर से भी परे होगा और उन्हों की स्पीच भी दु:ख की लहर से परे ले जाने वाली होगी। ऐसी स्टेज पर ठहर कर स्पीच करते हो? स्पीच तो स्टेज पर ठहर कर की जाती है तो आप किस स्टेज पर ठहर स्पीच करते हो? जो बाहर की बनी हुई स्टेज होती है उस पर? स्पीकर को जिस समय कोई स्थूल स्टेज पर जाना होता है, तो पहले अपनी स्थिति की स्टेज तैयार है वा नहीं - यह चेक करता है। ऐसे स्टेज पर ठहर कर स्पीच करने वाले को कहते हैं श्रेष्ठ स्पीकर। जैसे स्थूल स्टेज को तैयार करने के लिए भी कितना समय और परिश्रम करते हैं। ऐसे ही अपनी स्थिति की स्टेज सदैव तैयार रहे - उसके लिए भी इतना ही पुरूषार्थ करते हो? ऐसी पावरफुल स्टेज पर ठहर स्पीच करने वाले का यहाँ आबू में यादगार है। कौनसा? (दिलवाला), दिलवाला तो याद की यात्रा का यादगार है। गऊमुख नहीं देखा है? गऊमुख किसका यादगार है? यह मुख का यादगार है। जैसे बाप का यादगार है गऊमुख। क्योंकि मुख द्वारा ही सारा स्पष्ट करते हैं, इसलिए मुख का यादगार है। स्पीकर का भी काम मुख से है, लेकिन ऐसे जो श्रेष्ठ स्टेज पर ठहर कर स्पीच करते हैं। सदैव एवररेडी स्टेज हो। ऐसे नहीं कि समय पर तैयार करनी पड़े। एवररेडी स्टेज होने से जो प्रभाव होता है, वह बहुत अच्छा पड़ता है। इसलिए पूछा कि प्रभावशाली हो? इस ग्रुप को प्रभावशाली ग्रुप कहें? सभी सर्टिफिकेट देंगे? (अच्छा ग्रुप है) अगर आप सर्टिफिकेट देती हो तो फिर यह सर्व को सैटिस्फाय करने वाले भी होंगे। सन्तुष्टमणियां तो हो ना। इसमें ‘हां’ करते हो? अगर खुद सन्तुष्टमणियां हैं तो औरों को भी सन्तुष्ट करेंगे। टीचर्स का भी पेपर होता है, कैसे? (टीचर का पेपर सूक्ष्मवतन से आता है) टीचर का पेपर कदम-कदम पर होता है। जो भी कदम उठाते हो वह ऐसा ही समझकर उठाना चाहिए कि पेपर हाल में बैठकर कदम उठाती हूँ। क्योंकि स्पीकर अर्थात् स्टेज पर बैठे हैं। तो जो सामने स्टेज पर होता है उसके ऊपर सभी की नज़र होती है। आप लोग भी ऊंची स्टेज पर बैठे हो। अनेक आत्माओं की निगाह आप लोगों के कदम पर है। तो आपको कदम-कदम पर ऐसा अटेन्शन से कदम उठाना है। अगर एक कदम भी ढीला वा कुछ भी नीचे-ऊपर उठता है तो अनेक आप लोगों को फ़ालो करेंगे। इसलिए टीचर्स को जो भी कदम उठाना है वह ऐसा सोचकर उठाना है। क्योंकि ताजधारी बने हो ना। ताज कौनसा मिला है? ज़िम्मेवारी का ताज। जितनी बड़ी जिम्मेवारी उतना बड़ा ताज। तो जो बड़ी जिम्मेवारी मिली हुई है, तो अपने को ऐसे निमित्त बने हुए समझकर के फिर कदम उठाओ। अभी अलबेलापन नहीं। ताज व तख्त-धारी बनने के बाद अलबेलापन समाप्त हो जाता है। अलबेलापन अर्थात् पुरूषार्थ में अलबे- लापन। इस ग्रुप को सदैव यह समझना चाहिए कि जो भी कदम वा कर्म होता है वह हर कर्म विश्व के लिए एक एग्जाम्पल बनकर के रहे। क्योंकि आप लोगों के इन कर्मों का कहानियों के रूप में यादगार बनेगा। आप लोगों के यह चरित्र गायन योग्य बनेंगे। इतनी ज़िम्मेवारी समझकर के चलते हो? यह इस ज़िम्मेवार ग्रुप की विशेषतायें हैं। जो जितना ज़िम्मेवार उतना ही हल्का भी रहेगा। अच्छा।



01-03-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


सिद्धि-स्वरूप बनने की सहज विधि

सभी मास्टर त्रिकालदर्शी बने हो? त्रिकालदर्शी बनने से कोई भी कार्य असफल नहीं होता। कोई भी कार्य करने के पहले अपने मास्टर त्रिकालदर्शी की स्थिति में स्थित होकर कार्य के आदि-मध्य-अन्त को जानकर कर्त्तव्य करने से सदैव सफलता मिलेगी अर्थात् सफलतामूर्त्त बन जायेंगे वा सम्पूर्णमूर्त बन जायेंगे। अभी जो गायन है कि योगियों को रिद्धि-सिद्धि प्राप्त होती है, वह कौनसी सिद्धि? संकल्प की सिद्धि और कर्त्तव्य की विधि। यह दोनों ही होने से जन्मसिद्ध अधिकार सहज ही पा लेते हो। संकल्प की सिद्धि कैसे आयेगी, मालूम है? संकल्पों की सिद्धि न होने का कारण क्या है? क्योंकि अभी संकल्प व्यर्थ बहुत चलते हैं। व्यर्थ संकल्प मिक्स होने से समर्थ नहीं बन सकते हो। जो संकल्प रचते हो उसकी सिद्धि नहीं होती है। व्यर्थ संकल्पों की सिद्धि तो हो नहीं सकती है ना। तो संकल्पों की सिद्धि प्राप्त करने के लिए मुख्य पुरूषार्थ यह है - व्यर्थ संकल्प न रच समर्थ संकल्पों की रचना करो। समझा? रचना ज्यादा रचते हो, इसलिए पूरी पालना कर उन्हों को काम में लगाना यह कर नहीं सकते हो। जैसे लौकिक रचना भी अगर अधिक रची जाती है तो उनको लायक नहीं बना सकते हैं। इसी रीति से संकल्पों की जो स्थापना करते हो वह बहुत अधिक करते हो। संकल्पों की रचना जितनी कम उतनी पावरफुल होगी। जितनी रचना ज्यादा उतनी ही शक्तिहीन रचना होती है। तो संकल्पों की सिद्धि प्राप्त करने के लिए पुरूषार्थ करना पड़े। व्यर्थ रचना बन्द करो। नहीं तो आजकल व्यर्थ रचना कर उसकी पालना में समय बहुत वेस्ट करते हैं। तो संकल्पों की सिद्धि और कर्मों की सफलता कम होती है। कर्मों में सफलता की युक्ति है - मास्टर त्रिकालदर्शी बनना। कर्म करने से पहले आदि,मध्य और अन्त को जानकर कर्म करो, ना कि कर्म करने के बाद अन्त में परिणाम को देखकर फिर सोचो। इसलिए सम्पूर्ण बनने के लिए इन दो बातों का ध्यान देना पड़े।

यह प्रवृत्ति वाला ग्रुप है। तो प्रवृत्ति में रहते इन दोनों बातों का ध्यान देने से सर्विसएबल बन सकेंगे। सर्विस सिर्फ मुख से नहीं होती लेकिन श्रेष्ठ कर्मों द्वारा भी सर्विस कर सकते हो। यह जो ग्रुप आया है अपने को सर्विसएबल ग्रुप समझते हो? इस ग्रुप में जो अपने को सर्विसएबल समझते हैं वह हाथ उठायें। अब जिन्होंने सर्विसएबल में हाथ उठाया है, वह सर्विस में समय निकाल मददगार बन सकते हैं? माताओं की मदद से बहुत नाम बाला हो सकता है। जितने आये हैं उतने सभी हैंड्स सर्विस में मददगार बन जायें तो बहुत जल्दी नाम बाला कर सकते हो। क्योंकि युगलमूर्त बन चलने वाले हो। इसलिए ऐसे युगल सर्विस में बहुत अपना शो कर सकते हो। ऐसे कर्त्तव्य करके दिखाओ जो आपके कर्त्तव्य हर आत्मा को आपकी तरफ आकर्षण करें। माताओं का ग्रुप, सो भी ऐसी मातायें जो कि युगल रूप में चल रही हैं उनको समय निकालना सहज हो सकता है। अभी भी समय निकाल कर आई हो ना। अभी भी आप के पीछे प्रवृत्ति चल रही होगी ना। जैसे यह बात रूरी समझकर बन्धनों को हल्का कर पहुँच गई हो, ऐसे समय-प्रति-समय अपनी प्रवृत्ति के बन्धनों को हल्का कर सर्विस में जितनी मददगार बनती जायेंगी उतना ही यह हिसाब-किताब जल्दी चुक्तू होगा। तो माताओं को ऐसे मददगार बनने में ही अपनी उन्नति का साधन समझना चाहिए। सुनना और सुनाना -- दोनों ही अनुभव करना चाहिए। जैसे बाप मददगार बनते हैं वैसे बच्चों को भी मददगार बनना है। यही मदद लेना है। तो ऐसी इस ग्रुप् में शक्ति भरकर जाना जो अपने बन्धनों को हल्का कर सर्विस में मददगार बन सको। नहीं तो इस सब्जेक्ट में अगर कमी रह गई तो फुल मार्क्स कैसे ले सकेंगे। लक्ष्य तो फुल पास होने का रखा है ना। इसलिए इस ग्रुप को खास ऐसी-ऐसी युक्तियां रचने की ट्रेनिंग लेकर जाना है। भट्ठी से क्या बनकर जाना है, समझा? सर्विसएबल और मददगार। घर में रहते शक्ति-स्वरूप की स्मृति सदैव रहने से कर्म-बन्धन विघ्न नहीं डालेंगे। घर में रहती हो लेकिन शक्तिरूप की बजाय पवित्र प्रवृत्ति का भान ज्यादा रहता है। प्रवृत्ति में रहते हुए शक्तिपन की वृत्ति कम रहती है। इसलिए अब तक जो आवाज़ निकलता है कि कर्म-बन्धन है, क्या करें, कैसे करें, कैसे कर्म-बन्धन काटें। यह आवाज़ इसलिए निकलता है क्योंकि शक्तिपन का अलंकार सदैव कायम नहीं रह पाता। तो अब इस भट्ठी में अपनी स्मृति और स्वरूप को बदल कर जाना। इसलिए दो बातें सदैव याद रखना। एक तो चेन्ज होना है, दूसरा चैलेन्ज करना है। शक्ति रूप में अपनी वृत्ति और स्वरूप को भी चेन्ज करना और जितना-जितना अपने को चेन्ज करते जायेंगे उतना औरों को चेलेन्ज कर सकेंगे। इसलिए यह दो बातें याद रखना। जब सुकर्म करते हो तो बाप का स्नेही स्वरूप सामने आता है और अगर कोई विकर्म करते हो तो विकराल रूप सामने लाना चाहिए। आप लोग स्नेही तो हो ना। स्नेही सदैव सुकर्मा होते हैं। कोई भी ऐसा कर्म न हो - यह सदैव स्मृति में रखना। क्योंकि आप सभी सृष्टि के स्टेज पर हीरो एक्टर्स हो। तो हीरो एक्टर्स पर सभी की निगाह होती है। इसलिए अपने को प्रवृत्ति में रहने वाली न समझ, स्टेज पर हीरो एक्टर समझकर हर कर्म करती चलेंगी तो कोई भी ऐसा कर्म नहीं हो सकेगा।

जैसे साइन्स की परमाणु शक्ति आज क्या से क्या दिखा रही है। वैसे ही साइलेन्स के शक्तिदल में आप प्रवृत्ति में रहने वाली प्रमाण हो। वह परमाणु शक्ति है और आप लोग सृष्टि के आगे एक प्रमाण हो। तो आप भी प्रमाण बनकर बहुत ही सर्विस कर सकती हो। माताओं की तो बहुत मांगनी है। माताओं के कारण कोने-कोने में संदेश फैलाना अभी रहा हुआ है। कई आत्माओं को सन्देश न मिलने की ज़िम्मेवारी आप लोगों के ऊपर है। इसलिए इस ग्रुप को ऐसा ही तैयार हो जाना है। यह ग्रुप समय-प्रति-समय सर्विस में मददगार बन सकता है। उम्मीदवार है। जैसे अधरकुमारों का ग्रुप भी बहुत उम्मीदवार ग्रुप था। ऐसे ही यह ग्रुप भी होवनहार मददगार है। लेकिन कैसे मददगार बने, उसकी युक्ति भी है। लेकिन शक्ति नहीं है। इसलिए अपने स्वरूप परिवर्तन का, अपनी टीचर से सर्टिफिकेट ले जाना। जैसे एक-एक कुमारी 100 ब्राह्मणों से उत्तम गाई हुई है वैसे एक-एक माता जगत् माता है। कहाँ 100 ब्राह्मण, कहाँ सारा जगत। तो किसकी ऊंची महिमा हुई? एक-एक माता जगत्माता बनकर जगत की आत्माओं के ऊपर तरस, स्नेह और कल्याण की भावना रखो। इसलिए इस ग्रुप को एक वायदा करना है। वायदा करने की हिम्मत है? कौनसा भी वायदा हो कि सुनने के बाद हिम्मत रखेंगे? सुनने के पहले हिम्मत है वा सुनने के बाद हिम्मत रखेंगे? क्या समझती हो? जो भी वायदा होगा उसकी हिम्मत है? अगर कोई कड़ा वायदा हो तो फिर सोचेंगी ना। हरेक को यह वायदा करना है कि समय-प्रति-समय मैं सर्विस में मददगार और साथ-साथ शक्ति-स्वरूप बन विघ्न-विनाशक बनकर ही प्रवृत्ति में रहेंगी। सहज वायदा है ना। विघ्नों के आने से चिल्लायेंगे नहीं, घबरायेंगे नहीं, लेकिन शक्ति बनकर सामना करेंगे। यह वायदा अपने आप से सदैव के लिए करके जाना है।

कोई भी प्रकार की आसक्ति है तो वहां ही माया भी आ सकती है। आसक्ति होने के कारण माया आ सकती है। अगर अनासक्त हो जाओ तो माया आ नहीं सकती। जब आसक्ति खत्म हो जाती है तब शक्तिस्वरूप बन सकते हैं। अपनी देह में वा सम्बन्धों में, कोई भी पदार्थ में, कहाँ भी अगर आसक्ति है तो माया भी आ सकती है और शक्ति नहीं बन सकते। इसलिए शक्तिरूप बनने के लिए आसक्ति को अनासक्ति में बदली करो। जैसे आप लोग औरों को कहते हो कि एक दीपक अनेकों को जगा सकता है। ऐसे ही आप एक-एक सारे विश्व के कल्याण के निमित्त बन सकते हो। तो अपने कर्त्तव्य को और अपने स्वरूप को दोनों को याद रखते हुए चलते चलो। ब्रह्मा की भुजायें हो ना। तो हेण्ड्स बनेंगे ना। अपने को ब्रह्मा की भुजायें समझती हो? ब्रह्मा की भुजाओं का भी कर्त्तव्य क्या होता है? ब्रह्मा का कर्त्तव्य है स्थापना; तो ब्रह्मा की भुजाओं का भी कर्त्तव्य हुआ स्थापना के कार्य में सदैव तत्पर रहना। हद के सम्बन्धों में आने का सिर्फ इन्हों को तरीका सिखाना है। निर्बन्धन अपने को बना सकती हो, लेकिन तरीका नहीं आता है। एक तो तरीका नहीं, दूसरी ताकत नहीं। तो ताकत भी भरना और तरीका भी सीखना। बापदादा फिर भी उम्मीदवार ग्रुप समझते हैं। अब देखेंगे कि हरेक अपने को कितना बार ऑफर करते हैं। अपने आप को खुद ही ऑफर करना है। आफरीन उनको मिलती है जो स्वयं को खुद आफर करता है। अगर कहने से करते हैं तो आफरीन नहीं मिलती है। अब देखेंगे कि कौन-कौन अपने को ऑफर करते हैं। स्नेही तो हो लेकिन स्नेही के साथ सहयोगी भी बनो। इस ग्रुप का नाम क्या रखें? नाम-संस्कार होता है ना। क्योंकि परिवर्तन-भट्ठी में आये हो। आप लोग भी नाम-संस्कार के उत्सव में आये हो ना। इस ग्रप का क्या नाम? यह है सदा सहयोगी और शक्तिस्वरूप ग्रुप। अब अपनी शक्ति कभी भी कम नहीं करना। जब अपनी शक्ति को गंवा देते तो रावण भी देखता है कि यह अपनी शक्ति को गंवा बैठे हैं, तो वह खूब रूलाता है। शक्ति गंवाना अर्थात् रावण को बुलाना। इसलिए कभी भी अपनी शक्ति को कम न होने देना। जमा करना सीखो। भविष्य 21 जन्मों के लिए शक्ति को जमा करना है। अभी से जमा करेंगे तो जमा होगा। इसलिए सदैव यही सोचो कि जमा कितना किया है? अच्छा।



05-03-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


भट्ठी की अलौकिक छाप

आज बापदादा हरेक के मस्तक से दो बातें देख रहे हैं। कौनसी? एक भाग्य और दूसरा सुहाग। दोनों ही बातें देख रहे हैं। भट्ठी में आकर अपने भाग्य और सुहाग को अच्छी तरह से देख और जान सकते हो। अपने मस्तक पर चमकते हुए भाग्य के सितारे को देख सकते हो। भट्ठी में यह दर्पण मिला है जिस दर्पण से अपने भाग्य और सुहाग को देख सको? भट्ठी में आना अर्थात् दो बातें प्राप्त करना। वह दो बातें कौनसी? आज भट्ठी वालों से मिलने आये हैं ना। तो उन्हों का पेपर लेते हैं। बताओ, मुख्य दो बातें कौनसी मिलती हैं? (हरेक ने भिन्न-भिन्न बातें सुनाई) हरेक ने जो सुनाया बहुत अच्छा सुनाया। क्योंकि मातायें इतना भी सुनाने योग्य बन जायें तो बहुत सर्विस कर सकती हैं। तो भट्ठी से दो बातें मुख्य यह मिली हैं और उन्हें साथ लेकर ही जाना है। एक तो अपने आपको देखने का दर्पण और दूसरी बात योग अर्थात् याद का गोला। लाइट के गोले को सदैव साथ रखने वाले के हाथ में फिर कौनसा गोला आयेगा? जो आप लोगों का यादगार चित्र है। कृष्ण के चित्र में सृष्टि का गोला है ना। तो लाइट का गोला अर्थात् लाइट के चित्र के अन्दर सदैव रहना है। लाइट का गोला बनने से ही विश्व के राज्य का गोला ले सकते हो। तो अभी है लाइट का गोला भविष्य में होगा यह राज्य का गोला। तो भट्ठी से एक तो दर्पण मिला और दूसरा याद की यात्रा को निरन्तर श्रेष्ठ बनाने के लिए लाइट के गोले की सौगात मिली है। लेकिन दोनों ले जाने हैं। यहाँ ही छोड़ कर नहीं जाना है। दोनों सौगात साथ ले जायेंगे और सदैव साथ रखेंगे तो फिर क्या बन जायेंगे? जैसे बाप की महिमा का एक गीत बनाया है ना - सत्यम् शिवम् सुन्दरम्.......। ऐसे आप सभी भी मास्टर सत्यम् शिवम् सुन्दरम् हो जायेंगे, जिस दर्पण से सत्य और असली सुन्दरता का साक्षात्कार होगा। तो ऐसी अपनी सूरत बनाई है? भट्ठी में इसलिए ही आये हो ना। लौकिकपन अभी भट्ठी में स्वाहा किया? कोई भी लौकिक वृत्ति, दृष्टि, सम्बन्ध की स्मृति, लौकिक मर्यादा, लौकिक रीति-रस्म के वश होकर अलौकिक रीति और प्रीति को भूलेंगे तो नहीं? अलौकिक प्रीति और अलौकिक रीति-रस्म का पूरा ठप्पा वा पक्की छाप लगाई है? पूरी छाप लगाई है, जो भले कोई कितना भी मिटाने की कोशिश करे लेकिन मिट न सके। ऐसी छाप अपने आपको जिन्होंने लगाई है वह हाथ उठायें। देखना, लौकिक रीति- रस्म का पेपर बहुत कड़ा आयेगा (कोई-कोई ने हाथ नहीं उठाया), यह समझते हैं कि हम अपनी सेफ्टी रखें। लेकिन सेफ्टी इसमें है - जो जितनी हिम्मत रखेंगे उतनी मदद मिलेगी। पहले ही अपने में संशय-बुद्धि होने से हार हो जाती है। यह भी अपने में संशय क्यों रखते हैं कि ना मालूम हम फेल हो जायें। यह क्यों नहीं सोचते कि हम विजय प्राप्त करके ही दिखायेंगे। विजयी रत्न हो ना। तो कब भी पुरूषार्थ में अपने आप में संशय बुद्धि नहीं बनना चाहिए। संशय-बुद्धि होने से ही हार होती है। अपना ही संशय का संकल्प मायाजीत नहीं बनने देता है। अच्छा।

मैजारिटी विजयी रत्न हैं। विजय का तिलक भी लगाकर ही जा रहे हो ना। सदैव यह स्मृति में रखकर कदम उठाना कि विजय तो हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। अधिकारी बनकर कर्म करने से विजय अर्थात् सफलता का अधिकार अवश्य ही प्राप्त होता है। इसमें संकल्प उठाने की आवश्यकता ही नहीं है। स्वप्न में भी कभी यह संकल्प नहीं आना चाहिए कि ‘ना मालूम विजय होगी या नहीं?’ मास्टर नॉलेजफुल के मुख से ‘ना मालूम शब्द’ नहीं निकलना चाहिए। जब सृष्टि के आदि-मध्य-अन्त को, तीनों कालों को जान गये हो, मास्टर नॉलेजफुल बन गये हो; तो ऐसे मास्टर नॉलेजफुल के मुख से यह शब्द नहीं निकल सकता कि ‘ना मालूम’। उनको तो सभी मालूम है। यह अज्ञानियों की भाषा है, ज्ञानी की भाषा नहीं। अगर कोई गलती भी करते हो तो भी मालूम होता है नॉलेज के आधार पर कि यह रांग कार्य कर रही हूँ। मालूम पड़ता है ना! ना मालूम यह होगा या नहीं होगा - यह कहना ब्राह्मणों की भाषा नहीं है। तो भट्ठी से यह छाप पक्की लगाकर जाना, जो 21 जन्म यह छाप पक्की रहे, अविनाशी रहे। तो भट्ठी की दोनों ही सौगातें सभी ने अपने पास रखी हैं? अब भट्ठी से जाकर के क्या करेंगे? भट्ठी में आई हो अपने को परिवर्तन करने के लिए। तो जितना जो स्वयं को परिवर्तन में ला सकता है, वह उतना ही औरों को भी परिवर्तन में ला सकता है। अगर सर्विस में देखती हो कि परिवर्तन में कम आते हैं, तो दर्पण जो ले जा रही हो उसमें देखना कि मुझे अपने आपको परिवर्तन में लाने की इतनी शक्ति आई है? अगर अपने को परिवर्तन करने की शक्ति कम है तो दूसरों को भी इतना ही परिवर्तन में ला सकेंगे। तो दो बातें याद रखना। एक तो हरेक बात में परिवर्तन करना है, लौकिक से अलौकिक में आना है। और, दूसरा परिपक्वता में आना है। अगर परिपक्वता नहीं है तो भी सफ़लता नहीं होती। तो परिवर्तन में भी लाना है और अपने में परिपक्वता अर्थात् मबूती भी लानी है। यह मुख्य दोनों ही बातें प्रवृत्ति में रहकर कार्य करते समय याद रखना। अगर दोनों ही बातें याद रखेंगे तो निश्चय ही विजय है। सहज बात सुनाई ना। माताओं को सहज बातें चाहिए ना। वैसे भी मातायें श्रृंगार के कारण दर्पण में देखती रहती हैं। तो बापदादा भी वही काम देते हैं। अच्छा।

यह भट्ठी जो मधुबन की बेहद की भट्ठी है, तो अपनी प्रवृत्ति में भी इस बेहद की भट्ठी का माडल रूप समझकर चलना। कोई चीज का माडल छोटा ही बनाया जाता है। जैसे यहाँ भट्ठी करके जा रही हो, ऐसा ही माडल रूप अपनी प्रवृत्ति को भी बनाना। फिर क्या होगा? वही भट्ठी की बातें, भट्ठी की धारणा, भट्ठी की दिनचर्या अपनी चला सकेंगी। इसलिए प्रवृत्ति में आकर अपनी वृत्ति भट्ठी जैसी ही रखना। वृत्ति को नहीं बदलना। जैसे यहाँ भट्ठी में ऊंची वृत्ति रहती है, वैसे ही ऊंची वृत्ति प्रवृत्ति में भी रखना। वृत्ति चेन्ज की तो फिर प्रवृत्ति की परिस्थितियां स्थिति को डगमग कर देंगी। लेकिन अगर वृत्ति ऐसी ही ऊंची रखेंगे तो प्रवृत्ति में आने वाली अनेक परिस्थितियां आपकी स्थिति को डगमग नहीं कर सकेंगी। समझा? वृत्ति को साथ ले जाना। फिर देखना विजयी बने हो ना। माताओं के साथ सभी से ज्यादा स्नेह है। क्योंकि माताओं ने दु:ख बहुत सहन किये हैं। इसलिए पुकारा भी ज्यादा माताओं ने है। तो बहुत दु:ख सहन करने के कारण, मारें सहन करने के कारण, थकी हुई होने के कारण बाप स्नेह से पांव दबाते हैं। गायन है ना - माताओं के पांव दबाये। पांव कोई स्थूल नहीं, लेकिन माताओं के विशेष स्नेह के पांव दबाते हैं। इन्हों को स्नेह और साहस देना है। सिर्फ स्नेह नहीं याद रखना, लेकिन साहस भी जो दिया है वह भी याद रखना। अच्छा।

भट्ठी की जो सारी पढ़ाई वा शिक्षा ली उसका सार तीन शब्दों में याद रखना है। कौनसे तीन शब्द? तोड़ना, मोड़ना और जोड़ना। कर्म-बन्धन तोड़ना सीखी हो ना। और फिर मोड़ना भी सीखी हो। अपने संस्कारों को, स्वभावों को मोड़ना भी सीखी और जोड़ना भी सीखी। तो यह तीन शब्द याद रखना और सदैव अपने को देखते रहना कि ‘‘तोड़ भी रही हूँ, मोड़ भी रही हूँ और जोड़ भी रही हूँ? तीनों में कोई भी कमी तो नहीं है?’’ फिर जल्दी सम्पूर्ण बन जायेंगे। इस ग्रुप को खास यह स्मृति का तिलक दे रहे हैं। तिलक स्मृति की निशानी है ना। तो सदैव यह स्मृति में रखना कि यह सभी जो भी इन नयनों से विनाशी चीजे देखते हैं वह देखते हुए भी अपने नये सम्बन्ध, नई सृष्टि को ही देखते रहें। इन आंखों से जो विनाशी चीजें दिखाई देती हैं उनमें विनाश की स्मृति रहे। यह स्मृति का तिलक इस ग्रुप को दे रहे हैं। फिर कोई भी बातों में हार नहीं खायेंगे, क्योंकि देखेंगे ही विनाशी ची को। इसलिए अपने को विजयी बनाने के लिए अमृतवेले रो यह स्मृति का तिलक अपने को लगाना। भोली मातायें हैं। यही मातायें अगर मैदान पर आ जायें तो यह अपने को आज जो शेर समझते हैं वह बकरी बन आपके चरणों में आ जायें। क्योंकि जिस बात में वह कमज़ोर वा कायर हैं उस बात की आप प्रत्यक्ष प्रमाण हो। आपके प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर शर्मशार होंगे। तो गोया बकरी बन जायेंगे ना। मातायें इतनी श्रेष्ठ सर्विस कर सकती हैं, जो एक सेकेण्ड में शेर को बकरी बना सकती हैं। ऐसी जादूगरनी हो। जादू से शेर को बकरी, बकरी को शेर बनाते हैं ना। तुम मातायें भी ऐसी जादूगरी दिखा सकती हो। सिर्फ शेरनी बन जाओ, फिर वह शेर बकरी बनेंगे। तो यह अन्त का जो धर्मयुद्ध दिखाया हुआ है, आवाज़ बुलन्द होना है। तुम्हारी इस सर्विस से जब शेर बकरी बन जायेंगे फिर उनके फालोअर्स तो पीछे-पीछे हैं ही। सिर्फ एक शेर को भी बकरी बनाया तो अनेक शेर जाल में आ जायेंगे। इसलिए माताओं को इतनी ऊंची सर्विस के लिए तैयार रहना चाहिए। अगर इतना झुण्ड शक्तिदल सामना करे तो बताओ वह ठहर सकेंगे? चैलेन्ज करने की हिम्मत चाहिए। अभी प्रैक्टिकल में परीक्षाओं से पार होना है। एक होता है थ्योरी का पेपर, दूसरा होता है प्रैक्टिकल पेपर। थ्योरी में तो पास हो, अब प्रैक्टिकल पेपर में पास होना है। हिम्मते शक्तियां मदद दे सर्वशक्तिमान। यह तो सदैव याद है ना। अब सिर्फ रिटर्न करना है। इतनी जो मेहनत ली है उसका रिटर्न। यह सभी शेरनियां हैं! शेरनियां कभी किससे डरती नहीं हैं, निर्भय होती हैं। यह भी भय नहीं कि ना मालूम क्या है। इससे भी निर्भय होना है। ऐसी शेरनियां बनी हो? (बन जायेंगे) कब? यह तो पहले ही दिन जब भट्ठी में आती हो तो भट्ठी में आना अर्थात् बदलना। समझा? परिवर्तन समारोह मना रही हो ना। बापदादा भी परिवर्तन- समारोह में आये हैं। आज फाइनल छाप लगाना है। फिर इस परिवर्तन को भुलाना नहीं। हरेक को अपने में कोई न कोई विशेषता भरनी है। कोई भी एक सब्जेक्ट में नम्बरवन ज़रूर बनना चाहिए। बनना तो सभी में चाहिए। अगर नहीं बन सकती हो तो कोई न कोई सब्जेक्ट में विशेष नम्बरवन अपने को ज़रूर बनाना है। यहाँ से निकल कर और सर्विस में मददगार बनने के लिए जो कहा था वह प्लैन बनाया है? जो प्लैन बनाया है उस प्रमाण फिर तैयार भी जरूर रहना है। विघ्न तो आयेंगे लेकिन जब आवश्यक बात समझी जाती है तो उसका प्रबन्ध भी किया जाता है। जैसे आपकी प्रवृत्ति में कई आवश्यक बातें सामने आती हैं तो प्रबन्ध करते हो ना। इस रीति अपने को स्वतन्त्र बनाने के लिए भी कोई न कोई प्रबन्ध रखो। कोई साथी बनाओ। आपस में भी एक-दो दैवी परिवार वाले सहयोगी बन सकते हैं। लेकिन तब बनेंगे जब इतना एक- दो को स्नेह देकर सहयोगी बनायेंगे। प्लैन रचना चाहिए कैसे अपने बन्धन को हल्का कर सकती हैं। कई चतुर होते हैं तो अपने बन्धनों को मुक्त करने के लिए युक्ति रचते हैं। ऐसे नहीं कि प्रबन्ध मिले तो निकल सकती हूँ। प्रबन्ध अपने आप करना है। अपने आप को स्वतन्त्र करना है। दूसरा नहीं करेगा।

योगयुक्त होकर ऐसा प्लैन सोचने से इच्छा पूर्ति के लिए प्रबन्ध भी मिल जायेंगे। सिर्फ निश्चय-बुद्धि होकर अपने उमंग को तीव्र बनाओ। उमंग ढीला होता है तो प्रबन्ध भी नहीं मिलता, मददगार कोई नहीं मिलता। इसलिए हिम्मतवान बनो तो मददगार भी कोई न कोई बन जायेंगे। अब देखेंगे कि अपने को स्वतन्त्र बनाने की कितनी शक्ति हरेक ने अपने में भरी है। मायाजीत तो हो। लेकिन अपने को स्वतन्त्र बनाने की शक्ति भी बहुत रूरी है। यह पेपर होगा कि शक्ति कहाँ तक भरी है। जो प्रवृत्ति में रहते स्वतन्त्र बन मददगार बनेंगी उनको इनाम भी भेजेंगे। अच्छा।

छोटे बाप समान होते हैं। हैं तो सभी एक, किन्तु पहचान के लिए गुजराती, पंजाबी आदि कहते हैं। गुज़रात नम्बरवन बनकर दिखायेंगे ना। देखेंगे इनाम लायक कौन बनता है। एक-एक रत्न की अपनी विशेषता है। किसमें स्नेह की, किसमें सहयोग की, किसमें शक्ति की, किसमें दिव्यगुणों की मूर्त बनने की, किसमें ज्ञान की विशेषता है। अभी सर्व शक्तियां अपने में भरनी हैं। सर्व गुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण बनना है। सर्व गुण सम्पन्न नहीं बनेंगे तो 16 कला से 14 कला हो जायेंगे। चन्द्रमा में जरा भी कला कम होती है तो अच्छा नहीं लगता है। सम्पूर्णता से सुन्दरता होती है। तीव्र पुरुषार्थी का तीर सदा निशाने पर लगता है। कभी भी माया से हार नहीं खाना। लाइट का गोला बनकर जाना। लाइट नॉलेज को भी कहते हैं और ‘लाइट माइट’ भी है।

‘कोशिश’ शब्द कमज़ोरी का है। जहाँ कमज़ोरी होती है वहाँ पहले माया तैयार होती है। जैसे कमज़ोर शरीर पर बीमारी जल्दी आ जाती है, वैसे ‘कोशिश’ शब्द कहना भी आत्मा की कमज़ोरी है। माया समझती है कि यह हमारा ग्राहक है तो आ जाती है। निश्चय की विजय है। जैसे सारे दिन की जो स्मृति रहती है वैसे ही स्वप्न आते हैं। यदि सारे दिन में शक्तिरूप की स्मृति रहेगी तो कमज़ोरी स्वप्न में भी नहीं आयेगी। अच्छा।



11-03-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


परिस्थितियों को पार करने का साधन - ‘स्वस्थिति’

व्यक्त में रहते अव्यक्त स्थिति में रहने का अभ्यास अभी सहज हो गया है। जब जहाँ अपनी बुद्धि को लगाना चाहें तो लगा सकें - इसी अभ्यास को बढ़ाने के लिए अपने घर में अथवा भट्ठी में आते हो। तो यहाँ के थोड़े समय का अनुभव सदाकाल बनाने का प्रयत्न करना है। जैसे यहाँ भट्ठी वा मधुबन में चलते-फिरते अपने को अव्यक्त फरिश्ता समझते हो, वैसे कर्मक्षेत्र वा सर्विस-भूमि पर भी यह अभ्यास अपने साथ ही रखना है। एक बार का किया हुआ अनुभव कहाँ भी याद कर सकते हैं। तो यहाँ का अनुभव वहाँ भी याद रखने से वा यहाँ की स्थिति में वहाँ भी स्थित रहने से बुद्धि को आदत पड़ जायेगी। जैसे लौकिक जीवन में न चाहते हुए भी आदत अपनी तरफ खींच लेती है, वैसे ही अव्यक्त स्थिति में स्थित होने की आदत बन जाने के बाद यह आदत स्वत: ही अपनी तरफ खींचेगी। इतना पुरूषार्थ करते हुए कई ऐसी आत्मायें हैं जो अब भी यही कहती हैं कि मेरी आदत है। कमजोरी क्यों है,

क्रोध क्यों किया, कोमल क्यों बने? कहेंगे - मेरी आदत है। ऐसे जवाब अभी भी देते हैं। तो ऐसे ही यह स्थिति वा इस अभ्यास की भी आदत बन जाये; तो फिर न चाहते हुए भी यह अव्यक्त स्थिति की आदत अपनी तरफ आकर्षित करेगी। यह आदत आपको अदालत में जाने से बचायेगी। समझा? जब बुरी-बुरी आदतें अपना सकते हो तो क्या यह आदत नहीं डाल सकते हो? दो-चार बारी भी कोई बात प्रैक्टिकल में लाई जाती है तो प्रैक्टिकल में लाने से प्रैक्टिस हो जाती है। यहाँ इस भट्ठी में अथवा मधुबन में इस अभ्यास को प्रैक्टिकल में लाते हो ना। जब यहाँ प्रैक्टिकल में लाते हो और प्रैक्टिस हो जाती है तो वह प्रैक्टिस की हुई चीज क्या बन जानी चाहिए? नेचूरल और नेचर बन जानी चाहिए। समझा? जैसे कहते हैं ना - यह मेरी नेचर है। तो यह अभ्यास प्रैक्टिस से नेचूरल और नेचर बन जाना चाहिए। यह स्थिति जब नेचर बन जायेगी फिर क्या होगा? नेचूरल केलेमिटी हो जायेगी। आपकी नेचर न बनने के कारण यह नेचूरल केलेमिटी रूकी हुई हैं। क्योंकि अगर सामना करने वाले अपने स्व-स्थिति से उन परिस्थितियों को पार नहीं कर सकेंगे तो फिर वह परिस्थितियां आयेंगी कैसे। सामना करने वाले अभी तैयार नहीं हैं, इसलिए यह पर्दा खुलने में देरी पड़ रही है। अभी तक इन पुरानी आदतों से, पुराने संस्कारों से, पुरानी बातों से, पुरानी दुनियॉं से, पुरानी देह के सम्बन्धियों से वैराग्य नहीं हुआ है। कहाँ भी जाना होता है तो जिन चीजों को छोड़ना होता है उनसे पीठ करनी होती है। तो अभी पीठ करना नहीं आता है। एक तो पीठ नहीं करते हो, दूसरा जो साधन मिलता है उसकी पीठ नहीं करते हो। सीता और रावण का खिलौना देखा है ना। रावण के तरफ सीता क्या करती है? पीठ करती है ना। अगर पीठ कर दिया तो सहज ही उनके आकर्षण से बच जायेंगे। लेकिन पीठ नहीं करते हो। जैसे श्मशान में जब नदीक पहुंचते हैं तो पैर इस तरफ और मुँह उस तरफ करते हैं ना। तो यह भी पीठ करना नहीं आता है। फिर मुँह उस तरफ कर लेते हैं, इसलिए आकर्षण में कहाँ फँस जाते हैं। तो दोनों ही प्रकार की पीठ करने नहीं आती है। माया बहुत आकर्षण करने के रूप रचती है। इसलिए न चाहते हुए भी पीठ करने के बजाय आकर्षण में आ जाते हैं। उसी आकर्षण में पुरूषार्थ को भूल, आगे बढ़ने को भूल रूक भी जाते हैं; तो क्या होगा? मंजिल पर पहुँचने में देरी हो जायेगी। कुमारों की भट्ठी है ना। तो कुमारों को यह खिलौना सामने रखना चाहिए। माया की तरफ मुँह कर लेते हैं। माया की तरफ मुँह करने से जो परीक्षायें माया की तरफ से आती हैं, उनका सामना नहीं कर सकते हैं। अगर उस तरफ मुँह न करो तो माया की परिस्थितियों को मुँह दे सको अर्थात् सामना कर सको। समझा?

कुमारों का सदा प्योर और सतोगुणी रहने का यादगार कौनसा है, मालूम है? सनंतकुमार। उन्हों की विशेषता क्या दिखाते हैं? उन्हों को सदैव छोटा कुमार रूप ही दिखाते हैं। कहते हैं - उन्हों की सदैव 5 वर्ष की आयु रहती है। यह प्योरिटी का गायन है। जैसे 5 वर्ष का छोटा बच्चा बिल्कुल प्योर रहता है ना। सम्बन्धों के आकर्षण से दूर रहता है। भल कितना भी लौकिक परिवार हो लेकिन स्थिति ऐसी हो जैसे छोटा बच्चा प्योर होता है। वैसे ही प्योरिटी का यह यादगार है। कुमार अर्थात् पवित्र अवस्था। उसमें भी सिर्फ एक नहीं, संगठन दिखलाया है। दृष्टान्त में तो थोड़े ही दिखाये जाते हैं। तो यह आप लोगों का संगठन प्योरीटी का यादगार है। ऐसी प्योरिटी होती है जिसमें अपवित्रता का संकल्प वा अनुभव ही नहीं हो। ऐसी स्थिति यादगार समान बनाकर जानी है। भट्ठी में इसीलिए आये हो ना। बिल्कुल इस दुनिया की बातों से, सम्बन्ध से न्यारे बनेंगे तब दैवी परिवार के, बापदादा के और सारी दुनिया के प्यारे बनेंगे। वैसे भी कोई सम्बन्धियों से जब न्यारे हो जाते हैं, लौकिक रीति भी अलग हो जाते हैं तो न्यारे होने के बाद ज्यादा प्यारे होते हैं। और अगर उन्हों के साथ रहते हैं वा उन्हों के सम्बन्ध के लगाव में होते हैं तो इतने प्यारे नहीं होते हैं। वह हुआ लौकिक। लेकिन यहाँ न्यारा बनना है ज्ञान सहित। सिर्फ बाहर से न्यारा नहीं बनना है। मन का लगाव न हो। जितना-जितना न्यारा बनेंगे उतना- उतना प्यारा अवश्य बनेंगे। जब अपनी देह से भी न्यारे हो जाते हो तो वह न्यारेपन की अवस्था अपने आप को भी प्यारी लगती है - ऐसा अनुभव कब किया है? जब अपनी न्यारेपन की अवस्था अपने को भी प्यारी लगती है, तो लगाव से न्यारी अवस्था प्यारी नहीं लगेगी? जिस दिन देह में लगाव होता है, न्यारापन नहीं होता है तो अपने आप को भी प्यारे नहीं लगते हो, परेशान होते हो। ऐसे ही बाहर के लगाव से अगर न्यारे नहीं होते हैं तो प्यारे बनने के बजाय परेशान होते हैं। यह अनुभव तो सभी को होगा। सिर्फ ऐसे-ऐसे अनुभव सदाकाल नहीं बना सकते हो। ऐसा कोई है जिसने इस न्यारे और प्यारेपन का अनुभव नहीं किया हो? अपने को योगी कहलाते हो। जब अपने को सहज राजयोगी कहलाते हो तो यह अनुभव नहीं किया हो, यह हो नहीं सकता। नहीं तो यह टाइटिल अपने को दे नहीं सकते हो। योगी अर्थात् यह योग्यता है तब योगी हैं। नहीं तो फिर अपने परिचय में यह शब्द नहीं कह सकते हो कि हम सहज राजयोग की पढ़ाई के स्टूडेन्ट हैं। स्टूडेण्ट तो हो ना। स्टूडेण्ट को पढ़ाई का अनुभव न हो, यह हो नहीं सकता। हाँ, यह जरूर है कि इस अनुभव को कहाँ तक सदाकाल बना सकते हो वा अल्पकाल का अनुभव करते हो। यह फर्क हो सकता है। लेकन जो पुराने स्टूडेन्टस् हैं उन्हों का अनुभव अल्पकाल नहीं होना चाहिए। अगर अब तक अल्पकाल का ही अनुभव है तो फिर क्या होगा? संगमयुग का वर्सा और भविष्य का वर्सा - दोनों ही अल्प समय प्राप्त होगा। समझा? जो पूरा समय वर्सा प्राप्त करने का है वह नहीं कर सकेंगे, अल्प समय करेंगे। तो इसी में ही सन्तुष्ट हो क्या?

आज कुमारों की भट्ठी का आरम्भ है ना। भट्ठी का आरम्भ अर्थात् पकने का आरम्भ। कोई स्वाहा होगा, कोई भट्ठी में पकेगा, कोई प्योरिटी का संकल्प दृढ़ करेगा। यहाँ तो करने लिए ही आये हो ना। अब देखना है कि जो कहा वह किया? यह जो ग्रुप है वह पूरा माया से इनोसेन्ट और ज्ञान से सेन्ट बनकर जाना। जैसे सतयुगी आत्मायें जब यहाँ आती हैं तो विकारों की बातों की नॉलेज से इनोसेन्ट होती हैं। देखा है ना। अपना याद आता है कि जब हम आत्मायें सतयुग में थीं तो क्या थीं? माया की नॉलेज से इनोसेन्ट थीं - याद आता है? अपने वह संस्कार स्मृति में आते हैं वा सुना हुआ है इसलिए समझते हो? जैसे अपने इस जन्म में बचपन की बातें स्पष्ट स्मृति में आती हैं, वैसे ही जो कल के आपके संस्कार थे वह कल के संस्कार आज के जीवन में संस्कारों के समान स्पष्ट स्मृति में आते हैं वा स्मृति में लाना पड़ता है? जो समझते हैं कि हमारे सतयुगी संस्कार ऐसे ही मुझे स्पष्ट स्मृति में आते हैं जैसे इस जीवन के बचपन के संस्कार स्पष्ट स्मृति में आते हैं, वह हाथ उठाओ।

यह स्पष्ट स्मृति में आना चाहिए। साकार रूप में (ब्रह्मा बाप में) स्पष्ट स्मृति में थे ना। यह स्मृति तब होगी जब अपने आत्मिक-स्वरूप की स्मृति स्पष्ट और सदाकाल रहेगी। तो फिर यह स्मृति भी स्पष्ट और सदाकाल रहेगी। अभी आत्मिक-स्थिति की स्मृति कब-कब देह के पर्दे के अन्दर छिप जाती है। इसलिए यह स्मृति भी पर्दे के अन्दर दिखाई देती है, स्पष्ट नहीं दिखाई देती है। आत्मिक-स्मृति स्पष्ट और बहुत समय रहने से अपना भविष्य वर्सा अथवा अपने भविष्य के संस्कार स्वरूप में सामने आयेंगे। आपने चित्र में क्या दिखाया है? एक तरफ विकार भागते, दूसरी तरफ बुद्धि की स्मृति बाप और भविष्य प्राप्ति की तरफ। यह लक्ष्मी-नारायण का चित्र दिखाया है ना। यह चित्र किसके लिए बनाया है? दूसरों के लिए या अपनी स्थिति के लिए? तो भविष्य संस्कारों को स्पष्ट स्मृति में लाने के लिए आत्मिक-स्वरूप की स्मृति सदाकाल और स्पष्ट रहे। जैसे यह देह स्पष्ट दिखाई देती है, वैसे अपनी आत्मा का स्वरूप स्पष्ट दिखाई दे अर्थात् अनुभव में आये। तो अब कुमारों को क्या करना है? सेन्ट भी बनना है, इनोसेन्ट भी बनना है। सहज पढ़ाई है ना। दो शब्द में आपका पूरा कोर्स हो जायेगा। यह छाप लगाकर जाना। कमज़ोरी, परेशानी आदि -- इन बातों से बिल्कुल इनोसेन्ट। कमजोरी शब्द भी समाप्त होना है। इस ग्रुप का नाम कौनसा है? सिम्पलिसिटी और प्योरिटी में रहने वाला ग्रुप। जो सिम्पल होता है वही ब्युटीफुल होता है। सिम्पलिसिटी सिर्फ ड्रेस की नहीं लेकिन सभी बातों की। निरहंकारी बनना अर्थात् सिम्पल बनना। निरक्रोधी अर्थात् सिम्पूल। निर्लोभी अर्थात् सिम्पुल। यह सिम्पलिसिटी प्योरिटी का साधन है। अच्छा। सलोगन क्या याद रखेंगे? कुमार जो चाहे सो कर सकते हैं। जो भी बातें कहो वह ‘‘पहले करेंगे, दिखायेंगे, फिर कहेंगे’’। पहले कहेंगे नहीं। पहले करेंगे, दिखायेंगे, फिर कहेंगे। यह सलोगन याद रखना। अच्छा।



13-03-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


बन्धनमुक्त आत्मा की निशानियाँ

जो भी यहाँ बैठे हैं वह सभी अपने को बन्धनमुक्त आत्मा समझते हैं अर्थात् सभी बन्धनमुक्त बने हैं वा अभी तक कोई-न-कोई बन्धन है? शक्ति सेना बन्धन मुक्त बनी है? जो समझते हैं कि सर्व बन्धनमुक्त बने हैं वह हाथ उठायें। सर्विस के कारण निमित्त मात्र रहे हुए हैं, वह दूसरी बात है। लेकिन अपना बन्धन खत्म किया है? ऐसे समझते हैं कि अपने रूप से बन्धनमुक्त होकर के सिर्फ निमित्त मात्र सर्विस के कारण इस शरीर में कर्त्तव्य अर्थ बैठे हुए हैं? (मैजारिटी ने हाथ उठाया) जिन्होंने भी हाथ उठाया वह कभी संकल्पमात्र भी संकल्प वा शरीर के, परिस्थितियों के अधीन वा संकल्प में थोड़े समय के लिए भी परेशानी वा उसका थोड़ा भी लेशमात्र अनुभव करते हैं वा उससे भी परे हो गये हैं? जब बन्धनमुक्त हैं तो मन के वश अर्थात् व्यर्थ संकल्पों के वश नहीं होंगे। व्यर्थ संकल्पों पर पूरा कन्ट्रोल होगा। परिस्थितियों के वश भी नहीं होंगे। परिस्थितियों का सामना करने की सम्पूर्ण शक्ति होगी। जिन्होंने हाथ उठाया वह ऐसे हैं? तो इन बन्धनों में भी अभी बंधे हुए हैं ना। जो बन्धनमुक्त होगा उनकी निशानी क्या होगी? जो बन्धनमुक्त होगा वह सदैव योगयुक्त होगा। बन्धनमुक्त की निशानी है योगयुक्त। और, जो योगी होगा, ऐसे योगी का मुख्य गुण कौनसा दिखाई देगा? जान-बूझकर के बुद्धि का खेल कराते हैं। तो ऐसे योगी का मुख्य गुण वा लक्षण क्या होगा? जितना योगी उतना सर्व का सहयोगी और सर्व के सहयोग का अधिकारी स्वत: ही बन जाता है। योगी अर्थात् सहयोगी। जो जितना योगी होगा उतना उसको सहयोग अवश्य ही प्राप्त होता है। अगर सर्व से सहयोग प्राप्त करना चाहते हो तो योगी बनो। योगी को सहयोग क्यों प्राप्त होता है? क्योंकि बीज से योग लगाते हो। बीज से कनेक्शन अथवा स्नेह होने के कारण स्नेह का रिटर्न सहयोग प्राप्त हो जाता है। तो बीज से योग लगाने वाला, बीज को स्नेह का पानी देने वाला सर्व आत्माओं द्वारा सहयोग रूपी फल प्राप्त कर लेता है। जैसे साधारण वृक्ष से फल की प्राप्ति के लिए क्या किया जाता है? वैसे ही जो योगी है उसको एक- एक से योग लगाने की आवश्यकता नहीं होती, एक-एक से सहयोग प्राप्त करने की आशा नहीं रहती। लेकिन एक बीज से योग अर्थात् कनेक्शन होने के कारण सर्व आत्मायें अर्थात् पूरे वृक्ष के साथ कनेक्शन हो ही जाता है। तो कनेक्शन का अटेन्शन रखो। तो सहयोगी बनने के लिए पहले अपने आप से पूछो कि कितना और कैसा योगी बना हूँ? अगर सम्पूर्ण योगी नहीं तो सम्पूर्ण सहयोगी नहीं बन सकते, न सहयोग मिल सकता है। कितनी भी कोई कोशिश करे परन्तु बीज से योग लगाने के सिवाय कोई पत्ते अर्थात् किसी आत्मा से सहयोग प्राप्त हो जाये-यह हो नहीं सकता। इसलिए सर्व के सहयोगी बनने वा सर्व का सहयोग लेने के लिए सहज पुरूषार्थ कौनसा है? बीज रूप से कनेक्शन अर्थात् योग। फिर एक-एक से मेहनत कर प्राप्त करने की आशा समाप्त हो जायेगी, मेहनत से छूट जायेंगे। शार्टकट रास्ता यह है। अगर सर्व का सहयोगी, सदा योगयुक्त होंगे तो बन्धनमुक्त भी ज़रूर होंगे। क्योंकि जब सर्व शक्तियों का सहयोग, सर्व आत्माओं का सहयोग प्राप्त हो जाता है तो ऐसी शक्तिरूप आत्मा के लिए कोई बन्धन काटना मुश्किल होगा? बन्धन- मुक्त होने के लिए योगयुक्त होना है। और योगयुक्त बनने से स्नेह और सहयोग युक्त बन जाते हैं। तो ऐसे बन्धनमुक्त बनो। सहज-सहज करते भी कितना समय लग गया है।

ऐसी स्थिति अब ज़रूर होनी चाहिए। जो बन्धनमुक्त की स्थिति सुनाई कि शरीर में रहते हुए सिर्फ निमित्त ईश्वरीय कर्त्तव्य के लिए आधार लिया हुआ है। अधीनता नहीं। निमित्त आधार लिया है। जो निमित्त आधार शरीर को समझेंगे वह कभी भी अधीन नहीं बनेंगे। निमित्त आधारमूर्त ही सर्व आत्माओं के आधारमूर्त बन सकते हैं। जो स्वयं ही अधीन हैं वह उद्धार क्या करेंगे। इसलिए सर्विस की सफलता भी इतनी है जितनी अधीनता से परे हरेक है। तो सर्व की सफलता के लिए सर्व अधीनता से परे होना बहुत रूरी है। इस स्थिति को बनाने के लिए ऐसे दो शब्द याद रखो जिससे सहज ही ऐसी स्थिति को पा सको। वह कौनसे दो शब्द हैं? जब बन्धनमुक्त हो जायेंगे तो जैसे टेलीफोन में एक-दो का आवाज़ कैच कर सकते हैं, वैसे कोई के संकल्प में क्या है, वह भी कैच करेंगे। अभी अजुन बन रहे हो, इसलिए सोचना पड़ता है। दो शब्द हैं - (1) साक्षी और (2) साथी। एक तो साथी को सदैव साथ रखो। दूसरा - साक्षी बनकर हर कर्म करो। तो साथी और साक्षी - ये दो शब्द प्रैक्टिस में लाओ तो यह बन्धनमुक्त की अवस्था बहुत जल्दी बन सकती है। सर्वशक्तिमान का साथ होने से शक्तियाँ भी सर्व प्राप्त हो जाती हैं। और साथ-साथ साक्षी बनकर चलने से कोई भी बन्धन में फंसेंगे नहीं। तो बन्धनमुक्त हुए हो ना। इसके लिए ये दो शब्द सदैव याद रखना। वह योग, वह सहयोग। दोनों बातें आ गईं। अब ऐसा पुरूषार्थ कितने समय में करेंगे? बिल्कुल बन्धनमुक्त होकर के साक्षीपन में निमित्तमात्र इस शरीर में रहकर कर्त्तव्य करना है। अभी इस बारी यह अपने आपसे संकल्प करके जाना। क्योंकि आप (टीचर्स) लोगों को सहज भी है। टीचर्स को विशेष सहज क्यों है? क्योंकि उन्हों का पूरा जीवन ही निमित्त है। समझा? टीचर्स हैं ही निमित्त बने हुए। तो उन्हों को यह संकल्प रखना है कि इस शरीर में भी हम निमित्तमात्र हैं। यह तो सहज होगा ना। इन (गोपों) लोगों को तो फिर डबल ज़िम्मेवारी है, इसलिए इन्हों को युद्ध करनी पड़ेगी हटाने की। बाकी जो हैं ही निमित्त बने हुए, तो उन्हों के लिए सहज है। आप (माताओं) के लिए फिर सहज क्या है? जैसे उन्हों को इस विशेष बात के कारण सहज है वैसे आप लोगों को भी एक बात के कारण सहज है। जो प्रवृत्ति में रहते हैं उन्हों के लिए सहज बात इसलिए है कि उन्हों के सामने सदैव कान्ट्रास्ट है। कान्ट्रास्ट होने के कारण निर्णय करना सहज हो जाता है। निर्णय करने की शक्ति कम है, इसलिए सहज नहीं भासता है। एक बार जब अनुभव कर लिया कि इससे प्राप्ति क्या है, फिर निर्णय हो ही जाता है। ठोकर का अनुभव एक बार किया तो फिर बार-बार थोडेही ठोकर खायेंगे। निर्णय शक्ति कम है तो फिर मुश्किल भी हो जाता है। तो यह प्रवृत्ति में अथवा परिवार में रहते हैं, उनके अनुभवी होने के कारण, सामने कान्ट्रास्ट होने के कारण धोखे से बच जाते हैं। जो वरदान के अधिकारी बन जाते हैं वह किसके अधीन नहीं होते। समझा? तो अब अधीनता समाप्त, अधिकार शुरू। कब कोई अधीनता का संकल्प भी न आये। ऐसा पक्का निश्यच है। निश्चय में कभी परसेन्टेज नहीं होती है। शक्तिसेना ने अपने में क्या धारणा की? जब स्नेह और शक्ति समान होंगे फिर तो सम्पूर्ण हो ही गये। अपने शूरवीर रूप का साक्षात्कार किया है? शूरवीर कभी किससे घबराते नहीं। लेकिन शूरवीर के सामने आने वाले घबराते हैं। तो अभी जो शूरवीरता का साक्षात्कार किया, सदैव वही सामने रखना। और आज जो दो शब्द सुनाये वह सदैव याद रखना। अच्छा।



18-03-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


विजयी बनने के लिए संग्रह और संग्राम की शक्ति आवश्यक

आज विशेष भट्ठी वालों के लिए बुलाया है। भट्ठी वालों ने क्या-क्या धारणायें की हैं - वह देख रहे हैं। आज खास दो बातों की धारणायें हरेक के इस साकार चित्र द्वारा देख रहे हैं। दो शक्तियों की धारणाएं देख रहे हैं कि कहां तक हरेक ने अपनी यथा शक्ति धारणा की हैं। वह दो शक्तियां कौनसी देख रहे हैं? एक तो संग्रह करने की शक्ति और दूसरी संग्राम करने की शक्ति। संग्रह करने की शक्ति भी अति आवश्यक है। तो जो भट्ठी में ज्ञान-रत्नों की धारणा मिली है, उसको बुद्धि में संग्रह रखना और इस संग्रह करने से ही लोक-संग्रह कर सकेंगे। इसलिये संग्रह करने की और फिर संग्राम करने की शक्ति-दोनों ही जरूरी हैं। दोनों शक्तियां धारण की हैं? दोनों में कोई की भी कमी होगी तो कमी वाला कभी भी सदा विजयी नहीं बन सकता। जिसमें जितनी संग्रह करने की शक्ति है उतनी ही संग्राम करने की भी शक्ति रहती है। दोनों शक्तियाँ धारण करने के लिये भट्ठी में आये हो। तो शक्तिस्वरूप बने हो? भट्ठी से कौनसे वरदान प्राप्त किये हैं? भक्ति-मार्ग में वरदान देते हैं ना - पुत्रवान भव, धनवान भव। लेकिन इस भट्ठी से क्या मुख्य वरदान मिला? शिक्षक बने वा मास्टर वरदाता भी बने? एक वरदान मिला शक्तिवान भव, दूसरा वरदान मिला सदैव अव्यक्त एकरस अवस्था का। इन दोनों वरदानों में दोनों ही बातें समाई हुई हैं। यह दोनों ही वरदान प्राप्त करके सम्पत्तिवान बनकर अपना प्रैक्टिकल सबूत दिखाने लिये जाना है। ऐसे नहीं समझना कि घर जा रहे हैं वा अपने स्थान पर जा रहे हैं। लेकिन जो शक्तियां वा वरदान लिये हैं उन्हों को प्रैक्टिकल करने के लिए विश्व स्टेज पर जा रहे हैं, ऐसे समझना है। स्टेज पर एक्टर को कौनसी मुख्य बातें ध्यान में रहती हैं? अटेन्शन और एक्यूरेसी - यह दोनों ही बातें याद रहती हैं। ऐसे ही आप लोग भी अब स्टेज पर एक्ट करके बापदादा को प्रत्यक्ष करने के लिए जा रहे हो। तो यह दोनों ही बातें याद रखना। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में अटेन्शन और एक्यूरेट। नहीं तो बापदादा को प्रत्यक्ष करने का श्रेष्ठ पार्ट बजा नहीं सकेंगे। तो अब समझा, क्या करने जा रहे हो? बापदादा को प्रत्यक्ष करने का पार्ट प्ले करने जा रहे हो। यह लक्ष्य रखकर के जाना। जो भी कर्म करो पहले यह देखो कि इस कर्म द्वारा बापदादा की प्रत्यक्षता होगी? ऐसे भी नहीं कि सिर्फ वाणी द्वारा प्रत्यक्ष करना है। लेकिन हर समय के, हर कर्म द्वारा प्रत्यक्ष करना है। ऐसे प्रत्यक्ष करो जो सभी आत्माओं के मुख से यह बोल निकले कि यह तो एक- एक जैसे साक्षात् बाप के समान हैं। आपका हर कर्म दर्पण बन जाए, जिस दर्पण से बापदादा के गुणों और कर्त्तव्य का दिव्य रूप और रूहानियत का साक्षात्कार हो। लेकिन दर्पण कौन बन सकेगा? जो न सिर्फ संकल्पों को लेकिन इस देहाभिमान को भी अर्पण करेगा। जो देहाभिमान को अर्पण करता है उसका हर कर्म दर्पण बन जाता है, जैसे कोई चीज अर्पण की जाती है तो फिर वह अर्पण की हुई ची अपनी नहीं समझी जाती है। तो इस देह के भान को भी अर्पण करने से जब अपनापन मिट जाता है तो लगाव भी मिट जाता है। ऐसे समर्पण हुए हो? ऐसे समर्पण होने वालों की निशानी क्या रहेगी? एक तो सदा योगयुक्त और दूसरा सदा बन्धनमुक्त। जो योगयुक्त होगा वह बन्धन- मुक्त ज़रूर होगा। योगयुक्त का अर्थ ही है देह के आकर्षण के बन्धन से भी मुक्त। जब देह के बन्धन से मुक्त हो गये तो सर्व बन्धन मुक्त बन ही जाते हैं। तो समर्पण अर्थात् सदा योगयुक्त और सर्व बन्धन मुक्त। यह निशानी अपनी सदा कायम रखना। अगर कोई भी बन्धनयुक्त होंगे तो योगयुक्त नहीं कहलायेंगे। जो योगयुक्त होगा तो उनकी परख यह भी होगी - जो उनका हर संकल्प, हर कर्म योगयुक्त होगा। क्योंकि जो भी युक्तियाँ सर्व प्रकार की मिली हैं उन युक्तियों की धारणाओं के कारण युक्तियुक्त और योगयुक्त रहेंगे। समझा, परख की निशानी? इससे अपने आपको समझ सकते हो कि कहाँ तक पहुँचे हैं, इसलिए कहा कि संग्रह और संग्राम की शक्ति, दोनों भरकर जाना। रिजल्ट क्या देखी? सर्टिफिकेट मिला? एक, अपने आप से सेटिस्फाइड होने का सर्टिफिकेट लेना है, दूसरा, सर्व को सेटिस्फाइड करने का सर्टिफिकेट लेना है। तीसरा, सम्पूर्ण समर्पण बनने का।

समर्पण यह नहीं कि आबू में आकर बैठ जाएं। तो समर्पण होने का भी सर्टिफिकेट लेना है। चौथा, जो भी ज्ञान की युक्तियाँ मिलीं उनको संग्रह करने की शक्ति का सर्टिफिकेट भी लेना हैं। यह चार सर्टिफिकेट अपनी टीचर से लेकर जाना। कोई बात में 100 मार्क्स भी इस ग्रुप को हैं। वह कौनसी बात? पुरूषार्थ के भोलेपन में 100 प्रतिशत हैं। पुरूषार्थ में भोलापन ही अलबेलापन है। और एक विशेष गुण भी है। वह यह है कि सभी को अपने में परिवर्तन करने की तीव्र इच्छा ज़रूर है। इसलिए बापदादा इस ग्रुप को उम्मीदवार ग्रुप समझते हैं। लेकिन उम्मीदें तब पूरी कर सकेंगे जब सदैव नम्रचित्त होकर चलेंगे। उम्मीदवार क्वालिटी हो लेकिन जो क्वालिटी मिली हैं उनको धारण करते चलेंगे तो प्रत्यक्ष सबूत दे सकेंगे। समझा?

ज्ञान का साज सुनने में और राज सुनने में अच्छा है, लेकिन अब क्या करना है? राजयुक्त बनना है। योग अच्छा है लेकिन योगयुक्त बनना है। बन्धनमुक्त बनने की इच्छा है लेकिन पहले देह-अभिमान का बन्धन तोड़ना है। फिर सर्व बन्धनमुक्त आपेही बन जायेंगे। समझा? अभी यही कोशिश करना। सबूतमूर्त्त और सपूत बनना है। शक्तिवान और सम्पत्तिवान बने हो? हरेक ने अपने आप से प्रतिज्ञा भी की है। जो प्रतिज्ञा की जाती है उसको पूर्ण करने के लिए पावर भी अवश्य इकट्ठी करेंगे। कितना भी सहन करना पड़े, सामना करना पड़े लेकिन प्रतिज्ञा को पूरा करना ही है। ऐसी प्रतिज्ञा की है? भले सारे विश्व की आत्माएं मिलकर भी प्रतिज्ञा से हटाने की कोशिश करें, तो भी प्रतिज्ञा से नहीं हटेंगे लेकिन सामना करके सम्पूर्ण बनकर के ही दिखायेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा करने वालों का यादगार बना हुआ है - अचलघर। तो सदैव यह याद रखना कि जैसा हमारा यादगार है वैसा अब बनना ही है। यह तो सहज है ना। स्थूल निशानी को याद रखने से नशा और निशाना याद रहेगा। यह ज़रूर अपने को समझना है कि सारे विश्व से चुने हुए हम विशेष आत्मायें हैं। जितनी विशेष आत्मायें उतनी उनके हर कर्म में विशेषता होती है। विशेष आत्मा हो ना। कम नहीं हो।

सभी मधुबन-निवासियों को अपने को प्रैक्टिकल विशेष आत्माएं दिखाकर अपने इस ग्रुप का नाम बाला करना है। ऐसा ही लक्ष्य रखना कि कहेंगे कम, लेकिन करके दिखायेंगे। आपके इस ग्रुप की यह विशेषता देखेंगे। स्टेज पर जाकर ऐसा पार्ट बजाना जो सभी वन्स मोर (once more; एक बार और) भी करें। समझा? आपकी निमित्त टीचर आपके ग्रुप को बार-बार निमंत्रण दें। और ग्रुप्स को एक एग्जाम्पल बनकर दिखाना है। कोई अच्छा कर्म करके जाता है तो वह बार-बार याद आता है। तो यह ग्रुप भी ऐसा कमाल करके दिखाये। अच्छा।



25-03-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


न्यारे और विश्व के प्यारे बनने की विधि

भी अपने अलौकिक और पारलौकिक नशे और निशाने में सदैव रहते हो? अलौकिक नशा और निशाना और पारलौकिक नशा और निशाना, दोनों को जानते हो? दोनों में फर्क है वा एक है? अलौकिक नशा और निशाना हुआ इस ईश्वरीय जन्म का और पारलौकिक नशा और निशाना हुआ भविष्य जन्म का। तो ईश्वरीय जन्म का नशा और निशाना याद रहता है? साथ-साथ पारलौकिक अर्थात् भविष्य का नशा और निशाना याद रहता है? अगर दोनों ही हर समय रहें तो क्या बन जायेंगे? अलौकिक नशे और निशाने से बनेंगे न्यारे और पारलौकिक नशे और निशाने से बनेंगे विश्व के प्यारे। तो दोनों ही नशे और निशाने से न्यारे और प्यारे बन जायेंगे। समझा?

अभी सभी से न्यारा बनना है। अपनी देह से ही जब न्यारे बनना है, तो सभी बातों में भी न्यारे हो जायेंगे। अब पुरूषार्थ कर रहे हो न्यारे बनने का। न्यारे बनने से फिर स्वत: ही सभी के प्यारे बन जाते हो। प्यारे बनने का पुरूषार्थ नहीं होता है, पुरूषार्थ न्यारे बनने का होता है। अगर सबका प्यारा बनना है तो पुरूषार्थ क्या करना है? सर्व से न्यारे बनने का। अपनी देह से न्यारे तो बनते ही हो लेकिन आत्मा में जो पुराने संस्कार हैं उन्हों से भी न्यारे बनो। प्यारे बनने के पुरूषार्थ से प्यारे बनेंगे तो रिजल्ट क्या होगी? और ही प्यारे बनने की बजाय बापदादा के दिल रूपी तख्त से दूर हो जायेंगे। इसलिए यह पुरूषार्थ नहीं करना है। कोई भी न्यारी ची प्यारी ज़रूर होती है। इस संगठन में अगर कोई न्यारी ची दिखाई दे तो सभी का लगाव और सभी का प्यार उस तरफ चला जायेगा। तो आप भी न्यारे बनो। सहज पुरूषार्थ है ना। न्यारे नहीं बन पाते हैं, इसका कारण क्या है? आजकल का लगाव सारी दुनिया में किस कारण से होता है? (अट्रेक्शन पर) अट्रेक्शन भी स्वार्थ से है। इस समय का लगाव स्नेह से नहीं लेकिन स्वार्थ से है। तो स्वार्थ के कारण लगाव और लगाव के कारण न्यारे नहीं बन सकते। तो उसके लिये क्या करना पड़े? स्वार्थ का अर्थ क्या है? स्वार्थ अर्थात् स्व के रथ को स्वाहा करो। यह जो रथ अर्थात् देह-अभिमान, देह की स्मृति, देह का लगाव लगा हुआ है। इस स्वार्थ को कैसे खत्म करेंगे? उसका सहज पुरूषार्थ, ‘स्वार्थ’ शब्द के अर्थ को समझो। स्वार्थ गया तो न्यारे बन ही जायेंगे। सिर्फ एक अर्थ को जानना है, जानकर अर्थ-स्वरूप बनना है। तो एक ही शब्द का अर्थ जानने से सदा एक के और एकरस बन जायेंगे। अच्छा।

आज टीचर्स के उद्घाटन का दिन है। सम्पूर्ण आहुति डालने की सामर्थ्य है? यह ग्रुप इन्चार्ज टीचर्स का है ना। अभी हैं वा बनने वाली हैं? मुख्य धारणा यही है वि सदैव अपनी सम्पूर्ण स्थिति का वा अपने सम्पूर्ण स्वरूप का आह्वान करते रहो। जैसे कोई का आह्वान किया जाता है तो बुद्धि में वही स्मृति में रहता है ना। इस रीति से सदैव अपने सम्पूर्ण स्वरूप का आह्वान करते रहेंगे तो सदैव वही स्मृति में रहेगा। और इसी स्मृति में रहने के कारण रिजल्ट क्या होगी? यह जो आवागमन का चक्र चलता रहता है; आवागमन का चक्र कौनसा? कभी ऊंच स्थिति में ठहरते हो, कभी नीचे आ जाते हो। यह जो ऊपर-नीचे आने- जाने का आवागमन का चक्र है इस चक्र से मुक्त हो जायेंगे। वह लोग जन्म- मरण के चक्र से छूटने चाहते हैं और आप लोग यह जो स्मृति और विस्मृति का आवागमन का चक्र है, इससे मुक्त होने का पुरूषार्थ करते हो। तो सदैव अपने सम्पूर्ण स्वरूप का आह्वान करने से आवागमन से छूट जायेंगे अर्थात् इन व्यर्थ बातों से किनारा करने से सदैव चमकता हुआ लक्की सितारा बन जायेंगे। इन्चार्ज टीचर बनने के लिए पहले अपनी आत्मा की बैटरी चार्ज करो। जितनी जिसकी बैटरी चार्ज है उतना ही अच्छा इन्चार्ज टीचर बन सकती है। समझा? जब यह याद आये कि मैं इन्चार्ज हूँ, तो पहले यह अपने से पूछो कि मेरी बैटरी चार्ज हुई है? अगर बैटरी चार्ज कम होगी तो इन्चार्ज टीचर में भी उतनी कमी दिखाई देगी। तो अब क्या करना है? अच्छी तरह से बैटरी चार्ज करके फिर इन्चार्ज बनकर जाना। ऐसे ही सिर्फ इन्चार्ज नहीं बन करजाना। अगर बैटरी चार्ज के बिना इन्चार्ज बनेंगी तो क्या होगा? चार्ज अक्षर के दो-तीन मतलब होते हैं। एक होता है बैटरी चार्ज, दूसरा चार्ज अर्थात् ड्यूटी भी होता है और तीसरा चार्ज अर्थात् दोष को कहते हैं। कोई पर चार्ज लगाते हैं ना। तो इन्चार्ज होने से अगर बैटरी चार्ज है तो फिर इन्चार्ज यथार्थ रीति बनते हैं। अगर बैटरी चार्ज नहीं, यथार्थ रूप नहीं तो फिर भिन्न-भिन्न चार्जे लग जाते हैं। तो अब समझा, कैसे इन्चार्ज बनेंगे? धर्मराजपुरी में पहले चार्ज लगाकर फिर सज़ा देंगे। तो अगर बैटरी चार्ज नहीं होगी तो चार्जेज लगेंगी। अभी ऐसे बनकर जाना जो सभी की निगाहों में यह ग्रुप आ जाये। सभी अनुभव करें कि बड़े तो बड़े लेकिन छोटे सुभान अल्लाह। ऐसा लक्ष्य रख, भट्ठी से ऐसे ही लक्षण धारण करके जाना। ऐसा कोमल होना है जो अपने को जहां मोड़ने चाहो वहाँ मोड़ सकते हो। कोमल ची को जहाँ मोड़ने चाहते हैं वहाँ मोड़ सकते हैं। लेकिन सख्त को कोई मोड़ नहीं सकेंगे। कोमल बनना है लेकिन किस में? संस्कार मोड़ने में कोमल बनो। लेकिन कोमल दिल से बचकर रहना। यह लक्ष्य और लक्षण धारण करके जाना है। इस स्नेही और सहयोगी बनने वाले ग्रुप के लिये सलोगन है - ‘अधिकारी बनेंगे और अधीनता को मिटायेंगे’। कभी अधीन नहीं बनना - चाहे संकल्पों के, चाहे माया के। और भी कोई रूपों के अधीन नहीं बनना। इस शरीर के भी अधिकारी बनकर चलना और माया से भी अधिकारी बन उसको अपने अधीन करना है। सम्बन्ध की अधीनता में भी नहीं आना है। चाहे लौकिक, चाहे ईश्वरीय सम्बन्ध की भी अधीनता में न आना। सदा अधिकारी बनना है। यह सलोगन सदैव याद रखना। ऐसा बनकर के ही निकलना। जैसे कहावत है ना कि मान सरोवर में नहाने से परियां बन जाते थे। इस ग्रुप को भी भट्ठी रूपी ज्ञानमानसरोवर में नहाकर फरिश्ता बनकर निकलना है।

जब फरिश्ता बन गया तो फरिश्ते अर्थात् प्रकाशमय काया। इस देह की स्मृति से भी परे। उनके पांव अर्थात् बुद्धि इस पांच तत्व के आकर्षण से ऊंची अर्थात् परे होती है। ऐसे फरिश्तों को माया व कोई भी मायावी टच नहीं कर सकेंगे। तो ऐसे बनकर जाना जो न कोई मायावी मनुष्य, न माया टच कर सके। कुमारियों की महिमा बहुत गाई हुई है। लेकिन कौनसी कुमारी? ब्रह्माकुमारियों की महिमा गाई हुई है। ब्रह्माकुमारी अर्थात् ब्रह्मा बाप को प्रत्यक्ष करने वाली कुमारी। जो टीचर्स बनती हैं उन्हों को सिर्फ प्वाइन्ट बुद्धि में नहीं रखनी है वा वर्णन करनी है लेकिन प्वाइन्ट रूप बनकर प्वाइन्ट वर्णन करनी है। अगर स्वयं प्वाइन्ट स्थिति में स्थित नहीं होंगे तो प्वाइन्ट का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसलिए प्वाइन्ट् इकट्ठी करने के साथ अपना प्वाइन्ट रूप भी याद करते जाना। जब कापियां भरती हो तो कापी को देख यह सब चेक करना कि साकार ब्रह्मा बाप के चरित्रों की कापी बनी हूँ? कापी जो की जाती है वह तो हूबहू होगी ना। ऐसे बाप समान दिखाई पड़ो। सुनाया था ना कि जितनी समानता होगी उतनी सामना करने की शक्ति होगी। समानता लाने से सामना करने की शक्ति स्वत: आ जायेगी। अच्छा।

यह ग्रुप कम नहीं है। इतना बड़ा शक्तिदल जब कोने-कोने में सर्विस पर फैल जायेगा तो क्या होगा? आवाज़ बुलन्द हो जायेगा - ब्रह्माकुमारियों की जय। अभी तो गालियां देते हैं ना। यहां ही आप लोगों के सामने महिमा के पुष्प चढ़ायेंगे। इसलिए कहा कि ऐसे बनकर के जाना जो देखते ही सभी के मुख से यह आवाज़ बुलन्द हो निकले। इस ग्रुप को यह प्रैक्टिकल पेपर देना है। चारों ओर बापदादा और मददगार बच्चों की जय-जयकार हो जाये। ऐसी शक्ति है? एक के संग में रहने से संगदोष से छूट जायेंगे। सदैव चेविंग करो कि बुद्धि का संग किसके साथ है? एक के साथ है? अगर एक का संग है तो अनेक संगदोष से छूट जायेंगे। संगदोष कई प्रकार के दोष पैदा कर देते हैं। इसलिए इसका बहुत ध्यान रखना। एक बाप दूसरे हम, तीसरा न कोई। जब ऐसी स्थिति होगी तो फिर सदैव आप लोगों के मस्तक से तीसरे नेत्र का साक्षात्कार होगा। यहाँ का जो यादगार है उसमें योग की निशानी क्या दिखाई है? तीसरा नेत्र। अगर बुद्धि में तीसरा कोई आ गया तो फिर तीसरा नेत्र बन्दी जायेगा। इसलिए सदैव तीसरा नेत्र खुला रहे, इसके लिए यह याद रखना कि तीसरा न कोई। अच्छा।



09-04-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


व्यक्त स्थिति में सर्व गुणों का अनुभव

आवाज़ से परे की स्थिति प्रिय लगती है वा आवाज़ में रहने की स्थिति प्रिय लगती है? कौनसी स्थिति ज्यादा प्रिय लगती है? क्या दोनों ही स्थिति इकट्ठी रह सकती हैं? इसका अनुभव है? यह अनुभव करते समय कौनसा गुण प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देता है? (न्यारा और प्यारा) यह अवस्था ऐसी है जैसे बीज में सारा वृक्ष समाया हुआ होता है, वैसे ही इस अव्यक्त स्थिति में जो भी संगमयुग के विशेष गुणों की महिमा करते हो वह सर्व विशेष गुण उस समय अनुभव में आते हैं। क्योंकि मास्टर बीजरूप भी हैं, नॉलेजफुल भी हैं। तो सिर्फ शान्ति नहीं लेकिन शान्ति के साथ-साथ ज्ञान, अतीन्द्रिय सुख, प्रेम, आनन्द, शक्ति आदि-आदि सर्व मुख्य गुणों का अनुभव होता है। न सिर्फ अपने को लेकिन अन्य आत्मायें भी ऐसी स्थिति में स्थित हुई आत्मा के चेहरे से इन सर्व गुणों का अनुभव करती हैं। जैसे साकार स्वरूप में क्या अनुभव किया? एक ही समय सर्व गुण अनुभव में आते हैं। क्योंकि एक गुण में सर्व गुण समाये हुए होते हैं। जैसे अज्ञानता में एक विकार के साथ सर्व विकारों का गहरा सम्बन्ध होता है, वैसे एक गुण के साथ मुख्य गुणों का भी गहरा सम्बन्ध है। अगर कोई कहे कि मेरी स्थिति ज्ञान-स्वरूप है; तो ज्ञान-स्वरूप के साथ-साथ अन्य गुण भी उसमें सामये हुए जरूर हैं। जिसको एक शब्द में कौनसी स्टेज कहेंगे? मास्टर सर्वशक्तिवान। ऐसी स्थिति में सर्व शक्तियों की धारणा होती है। तो ऐसी स्थिति बनाना - यह है समानता, सम्पूर्णता की स्थिति। ऐसी स्थिति में स्थित होकर सर्विस करती हो? सर्विस करने के समय जब स्टेज पर आती हो तो पहले इस स्टेज पर उपस्थित हो फिर स्थूल स्टेज पर आओ। इससे क्या अनुभव होगा? संगठन के बीच होते हुए भी अलौकिक आत्मायें दिखाई पड़ेंगी। अभी साधारण स्वरूप के साथ-साथ स्थिति भी साधारण दिखाई पड़ती है। लेकिन साधारण रूप में होते असाधारण स्थिति वा अलौकिक स्थिति होने से संगठन के बीच जैसे अल्लाह लोग दिखाई पड़ेंगे। शुरू-शुरू में भी ऐसी स्थिति का नशा रहता था ना। जैसे सितारों के संगठन में विशेष सितारे होते हैं, उनकी चमक, झलक दूर से ही न्यारी और प्यारी लगती है। तो आप सितारे भी साधारण आत्माओं के बीच में एक विशेष आत्माएं दिखाई दो। जब कोई असाधारण वस्तु सामने आ जाती है तो न चाहते हुए भी सभी का अटेन्शन उस तरफ खिंच जाता है। तो ऐसी स्थिति में स्थित हो स्टेज पर आओ जो लोगों की निगाह आप लोगों की तरफ स्वत: ही जाये। स्टेज सेक्रेटरी परिचय न दे लेकिन आपकी स्टेज स्वयं ही परिचय दे। क्या हीरा धूल में छिपा हुआ भी अपना परिचय खुद नहीं देता है? तो संगमयुग पर हीरे तुल्य जीवन अपना परिचय स्वयं ही दे सकता है। अभी तक की रिजल्ट क्या है? मालूम है? अभी किस तुल्य बने हो? भाषण आदि जो करते हो उसकी रिजल्ट क्या दिखाई देती है? वर्तमान समय में जो नम्बरवन प्रजा कहें वह भी कम निकलते हैं। साधारण प्रजा ज्यादा निकल रही है। क्योंकि साधारण रूप के साथ स्थिति भी बहुत समय साधारण बन जाती है। अभी साधारण रूप में असाधारण स्थिति का अनुभव स्वयं भी करो और औरों को भी कराओ। बाहरमुखता में आने के समय अन्तर्मुखता की स्थिति को भी साथ-साथ रखो - यह नहीं होता। या तो अन्तर्मुखी बनते हो या तो बाहरमुखी बन जाते हो। लेकिन अन्तर्मुखी बनकर फिर बाहरमुखी में आना - इस अभ्यास के लिए अपने ऊपर व्यक्तिगत अटेन्शन रखने की आवश्यकता है। बाहरमुखता की आकर्षण अन्तर्मुखता की स्थिति से ज्यादा होती है। इसका कारण यह है कि सदैव अपने श्रेष्ठ स्वरूप वा श्रेष्ठ नशे में स्थित नहीं रहते। इसलिए स्थिति पावरफुल नहीं होती है।

नॉलेजफुल के साथ पावरफुल भी बनकर नॉलेज दो तो अनेक आत्माओं को अनुभवी बना सकेंगे। अभी सुनाने वाले बहुत हैं लेकिन अनुभव कराने वाले कम हैं। सुनाने वाले तो अनेक हैं ही, लेकिन अनुभव कराने वाले सिर्फ आप ही हो। तो जिस समय सर्विस करती हो उस समय यही लक्ष्य रखो कि ज्ञान- दान के साथ अपने वा बाप के गुणों का दान भी करना है। गुणों का दान सिवाय आप लोगों के अन्य कोई कर नहीं सकता। इसलिये स्वयं सर्व गुणों के अनुभव-स्वरूप होंगे तो अन्य को भी अनुभवी बना सकेंगे। कमल पुष्प के समान बने हो? अपने जीवन का ही चित्र दिखाया है ना। कि और कोई महारथियों के जीवन का चित्र है? हमारा चित्र है - ऐसे ही वहते हैं ना। चित्र क्यों बनाया जाता है? चरित्र का ही चित्र बनता है। तो ऐसे चरित्रवान हो तब तो चित्र बनाया है ना। यह एक ही चित्र स्मृति में रखकर हर कर्म में आओ तो सदैव और सर्व बातों में अलिप्त (न्यारा) रहेंगे। यह अल्पकाल के लिए रहते हो। कितना भी, कैसा भी वातावरण हो, कैसा भी वायुमण्डल हो लेकिन सिर्फ यह चित्र भी याद रखो तो वायुमण्डल से न्यारे रहेंगे। अभी वायुमण्डल का प्रभाव कहाँ-कहाँ पड़ जाता है। लक्ष्य बहुत ऊंचा है कि हम पाँच तत्वों को भी पावन करने वाले हैं, परिवर्तन में लाने वाले हैं। वह वायुमण्डल के वश कभी हो सकते हैं? परिवर्तन करने वाले हो, न कि प्रकृति के आकर्षण में आकर परिवर्तन में आने वाले हो। फिर कमल पुष्प के समान सदाकाल रह सकेंगे।

आज इस ग्रुप का कौनसा दिन है? अब थ्योरी पूरी हुई। प्रैक्टिकल पेपर देने जा रही हो। अब यह ग्रुप अन्य सभी ग्रुप से विशेष क्या कार्य करके दिखायेगा? कितने समय में और कितने वारिस बनाकर लायेंगी? थोड़े समय में अनेकों को बनायेंगी। इन्होंने वायदे तो बहुत किये हैं। फंक्शन ही वायदों का करते हैं। जितने वायदे करती हो उन सभी वायदों को निभाने के लिए सिर्फ एक ही कायदा याद रखना। कौनसा? (जीते-जी मरना) बार-बार जीते-जी मरना होता है क्या? बापदादा सदैव हरेक में सभी प्रकार की उम्मीदें रखते हैं। लेकिन उम्मीदों को पूर्ण करने वाले नम्बरवार अपना शो दिखाते हैं। इसलिए इस ग्रुप को मुख्य एक वायदा याद रखना है। सारे कोर्स का सार क्या था? चित्रों में भी मुख्य चित्र कौनसा प्रैक्टिकल में दिखायेंगे जिससे बापदादा को प्रत्यक्ष कर सकेंगे? सभी शिक्षाओं का सार बताओ। कोई भी कर्म से देखने, उठने, बैठने, चलने और सोने से भी फरिश्तापन दिखाई दे। सभी कर्म में अलौकिकता हो। कोई भी लौकिकता कर्म में वा संस्कारों में न हो। ऐसा परिवर्तन किया है? सर्वोत्तम पुरुषार्थी के लक्षण भी विशेष होते हैं। उनका सोचना, करना, बोलना - तीनों ही समान होते हैं। वह यह नहीं कहेंगे कि सोचते तो थे कि यह न करें लेकिन कर लिया। नहीं। सोचना, बोलना, करना- तीनों ही एक समान और बाप समान हों। ऐसे श्रेष्ठ पुरुषार्थी बने हो? अच्छा।

यह ग्रुप जितना ही बड़ा है उतना ही शक्तिशाली स्वरूप बनकर चारों ओर फैल जायेंगे तो फिर शक्तियाँ जय-जयकार की आवाज़ बुलन्द कर सकती हैं। संस्कारों के अधीन भी नहीं होना है। कोई के स्नेह के अधीन भी नहीं होना है। वायुमण्डल के अधीन भी नहीं। समझा? अब ऐसे शब्द मुख से तो क्या मन में संकल्प रूप में भी न आएं कि - क्या करें, मजबूर हूँ। चाहे कोई व्यक्ति ने वा वायुमण्डल ने मजबूर किया, लेकिन नहीं। मजबूर नहीं होना है परन्तु मजबूत होना है। समझा? फिर यह कम्पलेन न आये। अपने पुरूषार्थ की कम्पलेन भट्ठी के पहले कोई निकाली थी? वह क्या थी? निर्बलता के कारण संगदोष में आना। इस कम्पलेन को कम्पलीट करके जा रही हो? कोई भी ऐसे संग में नहीं आ सकेंगी। कोई ईश्वरीय रूप से माया अपना साथी बनाने की कोशिश करे तो? देखना, अपने वायदों को याद रखना। नारे जो गाये हैं -’’एक हैं, एक के रहेंगे, एक की ही मत पर चलेंगे’’- यह सदैव पक्का रखना। ईश्वरीय रूप से माया ऐसा सामने आयेगी जो उनको परखने की बहुत आवश्यकता पड़ेगी। परखने की शक्ति धारण कर जा रही हो? सदैव यह अविनाशी रखना। अब रिजल्ट देखेंगे। अल्पकाल की रिजल्ट नहीं दिखानी है। सदाकाल और सम्पूर्ण रिजल्ट दिखानी है। जो वायदे किये हैं इस ग्रुप ने, हिम्मत भी रखी है परन्तु उन वायदों से हटाने में माया मजबूर करे तो फिर क्या करेंगे? वायदे तो बहुत अच्छे किये हैं। लेकिन समझो कोई मजबूर कर देते हैं तो फिर क्या करेंगे? जो खुद ही मजबूर हो जायेगा वह फिर लड़ाई क्या करेगा।

सच किसको कहा जाता है -- यह मालूम है? जो बात अगर संकल्प में भी आती हो, संकल्प को भी छिपाना नहीं है - इसको कहा जाता है सच। अगर पुरूषार्थ कर सफलता भी लेती हो तो भी अपनी सफलता वा हार खाने का दोनों का समाचार स्पष्ट सुनाना। यह है सच। सच वाले अपने वायदे पूरा कर सकेंगे। अच्छा!



15-04-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


त्रिमूर्ति बाप के बच्चों का त्रिमूर्ति कर्त्तव्य

त्रिमूर्ति बाप के बच्चे आप सभी भी त्रिमूर्ति हो? त्रिमूर्ति बन तीनों कार्य करते हो? इस समय दो कर्त्तव्य करते हो वा तीन? कौनसा कर्त्तव्य करते हो? वा तीनों ही कर्त्तव्य साथ-साथ करते हो? त्रिमूर्ति तो बने हो ना। जैसे त्रिमूर्ति बने हो वैसे ही त्रिकालदर्शी भी बने हो? हर कर्म व हर संकल्प की जो उत्पत्ति होती है वह त्रिकालदर्शी बनकर फिर संकल्प को कर्म में लाते हो? सदैव तीनों ही कार्य साथ-साथ ज़रूर चलते हैं। क्योंकि अगर पुराने संस्कार वा स्वभाव वा व्यर्थ संकल्पों का विनाश ही नहीं करेंगे तो नई रचना कैसे होगी। और अगर नई रचना करते हो, उनकी पालना न करेंगे तो प्रैक्टिकल कैसे दिखाई देंगे। तो त्रिमूर्ति बाप के त्रिमूर्ति बच्चे तीनों ही कर्त्तव्य साथ-साथ कर रहे हो। विनाश करते हो विकर्मों अथवा व्यर्थ संकल्पों का। यह तो और भी अब तेजी से करना पड़े। सिर्फ अपने व्यर्थ संकल्प वा विकर्म भस्म नहीं करने हैं लेकिन तुम तो विश्व-कल्याणकारी हो। इसलिए सारे विश्व के विकर्मों का बोझ हल्का करना वा अनेक आत्माओं के व्यर्थ संकल्पों को मिटाना-यह शक्तियों का कर्त्तव्य है। तो वर्तमान समय यही विनाश का कर्त्तव्य और साथ- साथ नये शुद्ध संकल्पों की स्थापना का कर्त्तव्य-दोनों ही फुल फोर्स में चलना है। जैसे कोई बहुत ते मशीनरी होती है तो एक सेकेण्ड में उस वस्तु का रूप, रंग, गुण, कर्त्तव्य आदि सब बदल जाता है। मशीनरी में पड़ा और बदली हुआ! ऐसे अभी यह विनाश और स्थापना की मशीनरी भी बहुत तेज होनी है। जैसे मशीनरी में पड़ते ही चीज का रूप-रंग बदल जाता है, ऐसे इस रूहानी मशीनरी में आप लोगों के सामने जो भी आत्मायें आयेंगी, आते ही उनके संकल्प, स्वरूप, गुण और कर्त्तव्य बदल जायेंगे। न सिर्फ आत्माओं के लेकिन 5 तत्वों के भी गुण और कर्त्तव्य बदलने वाले हैं। ऐसी मशीनरी अब प्रैक्टिकल में चलने वाली है। इसलिए बताया कि विनाश और स्थापना-दोनों कर्त्तव्य साथ-साथ चल रहा है। अभी और ही तेजी से चलने वाला है। जैसे महादानियों के पास सदैव भिखारियों की भीड़ लगी हुई होती है, वैसे आप सभी के पास भी भिखारियों की भीड़ लगने वाली है। आपके पास प्रदर्शनी में जब भीड़ होती है तो फिर क्या करते हो? क्यू-सिस्टम में शार्ट में सिर्फ संदेश देते हो। रचना की नॉलेज नहीं दे सकते हो, सिर्फ रचयिता बाप का परिचय और सन्देश दे सकते हो। वैसे ही जब भिखारियों की भीड़ होगी तो सिर्फ यही सन्देश देंगे। लेकिन वह एक सेकेण्ड का सन्देश पावरफुल होता है, जो वह सन्देश उन आत्माओं में संस्कार के रूप में समा जाता है। सर्व धर्म की आत्मायें भी यह भीख मांगने के लिए आयेंगी। कहते हैं ना कि क्राइस्ट भी बेगर रूप में है। तो धर्म-पितायें भी आप लोगों के सामने बेगर रूप में आयेंगे। उनको क्या भिक्षा देंगे? यही सन्देश। ऐसा पावरफुल सन्देश होगा जो इसी सन्देश के पावरफुल संस्कारों से धर्म स्थापन करने के निमित्त बनेंगे। वह संस्कार अविनाशी बन जायेंगे। क्योंकि आप लोगों के भी अन्तिम सम्पूर्ण स्टेज के समय अविनाशी संस्कार होते हैं। अभी संस्कार अविनाशी बना रहे हो। इसलिए अब जिन्हों को सन्देश देते हो और मेहनत करते हो, तो अभी वह सदाकाल के लिए नहीं रहता है। कुछ समय रहता है फिर ढीले हो जाते हैं। लेकिन अन्त के समय आप लोगों के संस्कार ही अविनाशी हो जाते हैं। तो अविनाशी संस्कारों की शक्ति होने के कारण उन्हों को भी ऐसी शिक्षा वा सन्देश देते हो जो उनके संस्कार अविनाशी बन जाते हैं। तो अभी पुरूषार्थ क्या करना पड़े? संस्कारों को पलटना तो है लेकिन अविनाशी की छाप लगाओ। जैसे गवर्नमेंट की मुहर लगती है ना, सील करते हैं जो कोई खोल नहीं सकता। ऐसी सील लगाओ जो माया आधा कल्प के लिए फिर खोल ही न सके। तो अविनाशी संस्कार बनाने का तीव्र पुरूषार्थ करना है। यह तब होगा जब मास्टर त्रिकालदर्शी बन संकल्प को कर्म में लायेंगे। जो भी संकल्प उत्पन्न होता है, संकल्प को ही चेक करो। मास्टर त्रिकालदर्शी की स्टेज पर हूँ? अगर उस स्टेज पर स्थित होकर कर्म करेंगे तो कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं होगा। विकर्म की तो बात ही नहीं है। अभी विकर्म के खाते से ऊपर आ गये हो। विकल्प भी खत्म तो विकर्म भी खत्म। अभी है व्यर्थ कर्म और व्यर्थ संकल्प की बात। इन व्यर्थ को बदलकर समर्थ संकल्प और समर्थ कार्य करना है। इसको कहते हैं सम्पूर्ण स्टेज। तो अब महादानी बने हो?

कितने प्रकार के दान करती हो? डबल दानी हो वा ट्रिपल या ट्रिपल से भी ज्यादा हो? (हरेक ने अपना विचार बताया) मुख्य तीन दान बताये। ज्ञान का दान भी करते हो, योग द्वारा शक्तियों का दान भी कर रहे हो और तीसरा दान है कर्म द्वारा गुणों का दान। तो एक है मन्सा का दान, दूसरा है वाचा का और तीसरा है कर्म द्वारा दान। मन्सा द्वारा सर्व शक्तियों का दान। वाणी द्वारा ज्ञान का दान, कर्म द्वारा सर्व गुणों का दान। तो सदैव जो दिन आरम्भ होता है उसमें पहले यह प्लैन बनाओ कि आज के दिन यह तीनों दान किस-किस रूप से करना है और फिर दिन समाप्त होने के बाद चेक करो कि - ‘‘हम महादानी बने? तीनों ही प्रकार का दान किया?’’ क्योंकि तीनों प्रकार के दान की अपनी-अपनी प्रारब्ध वा प्राप्ति है। जैसे भक्ति मार्ग में जो-जो जिस प्रकार का दान करता है उसको उस प्रकार की प्राप्ति होती है। ऐसे ही जो इस महान जीवन में जितना और जैसा दान करता है उतना और वैसा ही भविष्य बनता है। न सिर्फ भविष्य लेकिन प्रत्यक्ष फल भी मिलता है। अगर कोई वाणी का वा कर्म का दान नहीं करते हैं सिर्फ मन्सा का दान करते हैं, तो उनको प्रत्यक्षफल और मिलता है। अभी आप लोग कर्म फिलासाफी को अच्छी रीति जान गये हो ना। तीनों दान की प्राप्ति अपनी-अपनी है। जो तीनों ही दान करते हैं उनको तीनों ही फल प्रत्यक्ष रूप में मिलते हैं। आप कर्मों की गति को जानते हो ना। बताओ, मन्सा-दान का प्रत्यक्षफल क्या है? मन्सा महादानी बनने वाले को प्रत्यक्षफल यहीं प्राप्त होता है - एक तो वह अपनी मन्सा अर्थात् संकल्पों के ऊपर एक सेकेण्ड में विजयी बनता है अर्थात् संकल्पों के ऊपर विजयी बनने की शक्ति प्राप्त होती है। और, कितना भी कोई चंचल संकल्प वाला हो यानी एक सेकेण्ड भी उनका मन एक संकल्प में न टिक सके - ऐसे चंचल संकल्प वाले को भी अपनी विजय की शक्ति में टेम्प्रेरी टाइम के लिए शांत व चंचल से अचल बना देंगे। जैसे कोई भी दुःख में तड़पते हुए को इन्जेक्शन द्वारा बेहोश कर देते हैं, उनके दु:ख की चंचलता खत्म हो जाती है। ऐसे ही मन्सा द्वारा महादानी बनने वाला अपनी दृष्टि, वृत्ति और स्मृति की शक्ति से ऐसे ही उनको शान्ति का अनुभवी बना सकते हैं लेकिन टेम्प्रेरी टाइम के लिए। क्योंकि उनका अपना पुरूषार्थ नहीं होता है। लेकिन महादानी की शक्ति के प्रभाव से थोड़े समय के लिए वह अनुभव कर सकता है। तो जो मन्सा के महादानी होंगे उनके संकल्प में इतनी शक्ति होती है जो संकल्प किया उसकी सिद्धि मिली। तो मन्सा-महादानी संकल्पों की सिद्धि को प्राप्त करने वाला बन जाता है। जहाँ संकल्प को चाहे वहाँ संकल्पों को टिका सकते हैं। संकल्प के वश नहीं होंगे लेकिन संकल्प उनके वश होता है। जो संकल्पों की रचना रचे, वह रच सकता है। जब संकल्प को विनाश करना चाहे तो विनाश कर सकते हैं। तो ऐसे महादानी में संकल्पों के रचने, संकल्पों को विनाश करने और संकल्पों की पालना करने की तीनों ही शक्ति होती है। तो यह है मन्सा का महादान। ऐसे ही समझो मास्टर सर्वशक्तिवान का प्रत्यक्ष स्वरूप दिखाई देता है। समझा?

वह हो गया मास्टर सर्वशक्तिमान और जो वाचा के महादानी हैं उनको क्या मिलता है? वह हैं मास्टर नालेफुल। उनके एक-एक शब्द की बहुत वैल्यु होती है। एक रत्न की वैल्यु अनेक रत्नों से अधिक होती है। वाचा द्वारा तुम रत्नों का दान करते हो ना। तो जो ज्ञान-रत्नों का दान करते हैं उनका एक-एक रत्न इतना वैल्युएबल हो जाता है जो उनके एक-एक वचन सुनने के लिए अनेक आत्माएं प्यासी होती हैं। अनेक प्यासी आत्माओं की प्यास बुझाने वाला एक वचन बन जाता है। मास्टर नॉलेजफुल, वैल्युएबल और तीसरा फिर सेन्सीबल बन जाता है। उनके एक-एक शब्द में सेन्स भरा हुआ होता है। सेन्स अर्थात् सार के बिना कोई शब्द नहीं होता। जब कोई ऐसे सेन्स से शब्द बोलता है तो कहते हैं ना - यह तो बहुत सेन्सीबल है। वाणी द्वारा सेन्स का मालूम पड़ता है। तो दोनों सेन्सीबल भी बन जाते हैं। यह तो हुआ लक्षण। प्राप्ति क्या होती है? वाचा के दानी बनने वाले को विशेष प्राप्ति एक तो खुशी रहती है, क्योंकि धन को देख हर्षित होता है ना। और दूसरा वह कभी भी असंतुष्ट नहीं होंगे। क्योंकि खजाना भरपूर होने के कारण, कोई अप्राप्त वस्तु न होने के कारण सदैव सन्तुष्ट और हर्षित रहेंगे। उनका एक-एक बोल तीर समान लगेगा। जिसको जो बोलेंगे उनको वह लग जायेगा। उनके बोल प्रभावशाली होते हैं। वाणी का दान करने से वाणी में बहुत गुण आ जाते हैं। अवस्था में सहज ही खुशी की प्राप्ति होगी। प्राप्ति करने का पुरूषार्थ नहीं करेंगे लेकिन स्वत: ही प्राप्त होगी। जैसे कोई खान से चीज निकलती है तो अखुट होती है ना। ऐसे ही अन्दर से खुशी स्वत: ही निकलती रहेगी। यह वरदान के रूप में प्राप्त होता है। खुशी के लिए पुरूषार्थ नहीं किया। पुरूषार्थ तो वाणी द्वारा दान करने का किया। प्राप्ति खुशी की हुई।

कर्मणा द्वारा गुणों का दान करने के कारण कौनसी मूर्त बन जायेंगे? फरिश्ता। कर्म अर्थात् गुणों का दान करने से उनकी चलन और चेहरा - दोनों ही फरिश्ते की तरह दिखाई देंगे। दोनों प्रकार की लाइट होगी अर्थात् प्रकाशमय भी और हल्कापन भी। जो भी कदम उठेगा वह हल्का। बोझ महसूस नहीं करेंगे। जैसे कोई शक्ति चला रही है। हर कर्म में मदद की महसूसता करेंगे। हर कर्म में सर्व द्वारा प्राप्त हुआ वरदान अनुभव करेंगे। दूसरे, हर कर्म द्वारा महादानी बनने वाला सर्व की आशीर्वाद के पात्र बनने के कारण सर्व वरदान की प्राप्ति अपने जीवन में अनुभव करेंगे। मेहनत से नहीं, लेकिन वरदान के रूप में। तो कर्म में दान करने वाला एक तो फरिश्ता रूप नज़र आयेगा, दूसरा सर्व वरदानमूर्त अपने को अनुभव करेगा। तो अपने को चेक करो - कोई भी दान करने में कमी तो नहीं करते हैं? तीनों दान करते हैं? तीनों का हिसाब किस-न-किस रूप से पूरा करना चाहिए। इसके लिए तरीके, चान्स ढूंढ़ो। ऐसे नहीं - चान्स मिले तो करेंगे। चान्स लेना है, न कि चान्स मिलेगा। ऐसे महादानी बनने से फिर लाइट और माइट का गोला नज़र आयेगा। आपके मस्तष्क से लाइट का गोला नज़र आयेगा और चलन से, वाणी से नॉलेज रूपी माइट का गोला नज़र आयेगा अर्थात् बीज नजर आयेगा। मास्टर बीजरूप हो ना। ऐसे लाइट और माइट का गोला नज़र आने वाले साक्षात् और साक्षात्कारमूर्त बन जायेंगे। समझा?

यहाँ इस हाल में ऐसा कोई चित्र है जिसमें लाइट और माइट के दोनों गोले हों? (कोई ने कहा श्री लक्ष्मी-नारायण का, कोई ने कहा ब्रह्मा का) देखो, चित्र को देखने से चेहरा ही जैसे बदल जाता है। तो आप लोग भी ऐसे चैतन्य चित्र बनो जो देखते ही सभी के चरित्र और नैन-चैन बदल जायें। ऐसा बनना है और बन भी रहे हो। वरदान भूमि में आना अर्थात् वरदान के अधिकारी बनना। जैसे यात्रा पर जाते हैं, क्यों जाते हैं? (पाप मिटाने) उस भूमि में यह विशेषता है तब तो जाते हैं। इस भूमि में फिर क्या विशेषता है? जो है ही वरदान भूमि, वहाँ वरदान तो प्राप्त है ही। अपने आप ही वरदान तो मिलेगा ना। मांगने की दरकार नहीं है। इसलिए आज से मांगना बंद। अपने को अधिकारी समझो। अच्छा!



18-04-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


मन के भावों को जानने की विधि तथा फायदे

भी जो भी यहाँ बैठे हैं, सभी मन्मनाभव की स्थिति में स्थित हो? जो स्वयं मन्मनाभव की स्थिति में स्थित हैं वह औरों के मन के भाव को जान सकते हैं। कोई भी व्यक्ति आपके सामने आये तो मन्मनाभव की स्थिति में स्थित होकर उसके मन के भाव को स्पष्ट समझ सकते हो। क्योंकि जब मन्मनाभव की स्थिति सूक्ष्म स्थिति बन जाती है तो सूक्ष्म स्थिति और सूक्ष्म भाव को समझ सकते हैं। तो यह प्रैक्टिस अनुभव में आती जाती है? बोल भले क्या भी हो लेकिन भाव किसका क्या है - उसको जानने का अभ्यास करते जाओ। जब किसके मन के भाव को समझते जायेंगे तो इससे रिजल्ट क्या होगी? हरेक के मन के भाव को समझने से उनकी जो चाहना है, अथवा प्राप्ति की इच्छा है उसको वही मिलने से क्या होगा? आप जो उनको बनाने चाहते हो वह बन जायेंगे अर्थात् सर्विस की सफ़लता बहुत जल्दी निकलेगी। क्योंकि उनकी चाहना प्रमाण उनको प्राप्ति होगी। अगर कोई शान्ति का प्यासा है, उसको शान्ति मिल जाये तो क्या होगा? प्राप्ति से अविनाशी पुरुषार्थी बन जायेंगे। तो मन के भाव को परखने से, समझने से परिणाम क्या निकलेगा? सर्विस की सफ़लता थोड़े समय में बहुत दिखाई देगी क्योंकि सफ़लता स्वरूप बन जायेंगे। अभी पुरूषार्थ स्वरूप हो। इस लक्षण के आने से सफलता स्वरूप हो जायेंगे। समझा?

अभी सफलता को लाने के लिए आप लोगों को समय और संकल्प, सम्पत्ति, शक्ति बहुत लगानी पड़ती है। फिर क्या होगा? सफ़लता स्वयं आपके सामने आयेगी। सम्पत्ति लगानी नहीं पड़ेगी, सम्पत्ति आपके सामने स्वयं स्वाहा होने आयेगी। समझा? इतना अन्तर है सिर्फ एक बात की धारणा से। वह कौनसी बात? मन्मनाभव होकर हरेक के मन के भाव को जानना।

जो गायन है प्रकृति दासी बनती है, वह क्या सतयुग में होनी है? सतयुग में तो यह मालूम ही नहीं पड़ेगा कि प्रकृति के ऊपर विजय प्राप्त करने से प्राप्ति हुई है। लेकिन अभी जो इतना पुरूषार्थ करते हो प्रकृति के ऊपर विजयी होने का, उस पर विजय का फल वा प्राप्ति इस श्रेष्ठ जन्म में ही देखेंगे। प्रकृति आपके सामने आपको अधीन नहीं बनायेगी, लेकिन अधिकारी बनकर प्रकृति के कर्त्तव्य को देखेंगे। समझा? ऐसी सम्पूर्ण स्टेज जिसमें कोई भी प्रकार की अधीनता नहीं रहेगी, सर्व पर अधिकार अनुभव करेंगे। ऐसे बनने के लिए क्या करना पड़े? एक तो रूहानियत, दूसरा चेहरे से सदैव ईश्वरीय रूहाब दिखाई दे और तीसरा सर्विस में सदैव रहमदिल का संस्कार वा गुण प्रत्यक्ष हर आत्मा को अनुभव हो। तीनों ही बातें रूहानियत, रूहाब और रहमदिल का गुण भी हो। यह तीनों ही बातें प्रत्यक्ष रूप में, स्थिति में, चेहरे में और सर्विस अर्थात् कर्म में दिखाई दें, तब समझो कि अब सफ़लता हमारे समीप आ रही है। तीनों ही साथ में चाहिए। अभी क्या होता है? अगर रहमदिल बनते हो तो जो रहमदिल के साथ रूहाब भी दिखाई दे, यह दोनों साथ नहीं दिखाई देते हैं। या तो रहमदिल या तो रूहाब का गुण दिखाई देता है। रूहाब के साथ रूहानियत भी दिखाई दे। तीनों का साथ प्रत्यक्ष रूप में हो। वह अभी अजुन कम है। अभ्यासी हो। अभी सिर्फ अपने को सर्व आत्माओं से महान् आत्मा समझते हो। महान आत्मा बनकर हर संकल्प और हर कर्म करते हो? समझना है लक्ष्य और करना वह है प्रैक्टिकल। सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ से श्रेष्ठ महान आत्मा हूँ - इस स्मृति से किसके भी सामने जाओ तो क्या अनुभव करेंगे? आपकी महानता के आगे सभी के सिर झुक जायेंगे। जैसे आप के जड़ चित्रों के सामने कितना भी कोई आज कलियुग के महान् मर्तबे वाला जाये तो क्या होगा? सिर झुकायेंगे। जब चित्रों के आगे सिर झुक जाता है तो क्या चैतन्य चरित्रवान, सर्व गुणों में बाप समान चैतन्य मूर्त्त के सामने सिर नहीं झुकायेंगे? या समझते हो कि यह रिजल्ट भविष्य की है। अभी होना है? कब? अन्त में भी कितना समय पड़ा है?

अगर झुक कर झुकाया तो क्या बड़ी बात है। यह जो लक्ष्य रखते हो कि कहाँ सर्विस के कारण झुकना पड़ेगा - यह लक्ष्य राँग है। इस लक्ष्य में ही कमजोरी भरी हुई है। जब बीज ही कमजोर है तो फल क्या निकलेगा? कोई भी नई स्थापना करने वाला यह नहीं सोचता कि कुछ झुक कर के करना है। जब आत्माएं भी झुकाने का लक्ष्य रखकर कइयों को अपने आगे झुका कर दिखाती हैं, इसकी भेंट में देखो - यह स्थापना का कार्य कितना ऊंच है और किसकी मत पर है! उसके आगे सर्व आत्माओं को झुकना है - यह लक्ष्य रखकर, यह ईश्वरीय रूहाब धारण कर किसके भी सामने जाओ तो देखो रिजल्ट क्या निकलती है!

महानता लाने के लिए ज्ञान की महीनता में जाना पड़े। जितना-जितना ज्ञान की महीनता में जायेंगे उतना अपने को महान् बना सकेंगे। महानता कम अर्थात् ज्ञान की महीनता का अनुभवी कम। तो अपने को चेक करो। महान् आत्मा का कर्त्तव्य क्या होता है -- वह स्मृति में रखो। वैसे भी महान् आत्मा उसको कहते हैं जो महान कर्त्तव्य करके दिखाये। अगर कोई साधारण कर्त्तव्य करे उनको महान् आत्मा नहीं कहेंगे। तो महान् आत्माओं का कर्त्तव्य भी महान होना चाहिए। सारे दिन की दिनचर्या में यह चेक करो कि महान् आत्मा होने के नाते से सारे दिन के अन्दर आज कौनसा महान् कर्त्तव्य किया? महादानी बने? वैसे भी महान् आत्माओं का कर्त्तव्य दान-पुण्य होता है। तो यह सभी से महान् आत्मायें कहलाने वाले हैं। तो आज सारे दिन में कितनों को दान दिया और कौनसा दान दिया? जैसे महान् आत्माओं का भोजन, खान-पान आदि महान होता है, वैसे देखना है आज हमारी बुद्धि का भोजन महान रहा? शुद्ध भोजन स्वीकार किया? जैसे देखो, महान आत्मा कहलाने वाले अशुद्ध भोजन स्वीकार करते हैं तो उनको देखकर के सभी क्या कहते हैं? कहेंगे यह महान् आत्मा है? तो अपने को आप ही चेक करो कि आज हमने बुद्धि द्वारा कोई भी अशुद्ध संकल्प का भोजन तो नहीं पान किया? महान आत्माओं का आहार-विहार यही तो देखा जाता है। तो आज सारे दिन में बुद्धि का आहार कौनसा रहा? अगर कोई अशुद्ध संकल्प वा विकल्प वा व्यर्थ संकल्प भी बुद्धि ने ग्रहण किया तो समझना चाहिए कि आज मेरे आहार में अशुद्धि रही। जो महान आत्मा होते हैं उनके हर व्यवहार अर्थात् चलन से सर्व आत्माओं को सुख का दान देने का लक्ष्य होता है। वह सुख देता और सुख लेता है। तो ऐसे अपने आप को चेक करो कि महान आत्मा के हिसाब से आज के दिन कोई को भी दु:ख दिया वा लिया तो नहीं? पुण्य का कार्य क्या होता है? पुण्य अर्थात् किसको ऐसी चीज देना जिससे उस आत्मा से आशीर्वाद निकले। इसको कहते हैं पुण्य का कर्त्तव्य। जिसको सुख देंगे उसके अन्दर से आपके प्रति आशीर्वाद निकलेगी। तो यह है पुण्य का काम। और मुख्य लक्षण है आहिंसा। आप सारे दिन में यह भी चेक करना कि कोई हिंसा तो नहीं की? कौनसी हिंसा होती है, जिसको चेक करना है? आप अपने को डबल अहिंसक कहलाती हो ना। मन्सा में अपने संस्कारों से युद्ध भी बहुत चलती है। तो माया को मारने की हिंसा करते हो ना। युद्ध होते हुए भी इसको आहिंसा क्यों कहते हैं? क्योंकि इस युद्ध का परिणाम सुख और शान्ति का निकलता है। हिंसा अर्थात् जिससे दु:ख-अशान्ति की प्राप्ति हो। लेकिन इससे शान्ति और सुख की वा कल्याण की प्राप्ति होती है, इसलिए इसको हिंसा नहीं कहते हैं। तो डबल अहिंसक ठहरे। तो महान् आत्माओं का यह जो लक्षण गाया हुआ है वह भी देखना है। आज के सारे दिन में किसी भी प्रकार की हिंसा तो नहीं की? अगर कोई शब्द द्वारा किसकी स्थिति को डगमग कर देते हैं तो यह भी हिंसा हुई। जैसे तीर द्वारा किसको घायल करना हिंसा हुई ना। इस प्रकार अगर कोई शब्द द्वारा कोई की ईश्वरीय स्थिति को डगमग अर्थात् घायल कर दिया तो यह हिंसा हुई ना। असली सतोप्रधान संस्कार वा जो अपने ओरीजनल ईश्वरीय संस्कार आत्मा के हैं उनको दबाकर दूसरे संस्कारों को प्रैक्टिकल में लाते हैं तो मानो जैसे कि किसका गला दबाया जाता है तो वह हिंसा मानी जाती है। तो अपने ओरीजनल अथवा सतोप्रधान स्थिति के संस्कारों को दबाना-- यह भी हिंसा है। समझा?

तो यह सभी लक्षण कहाँ तक प्रैक्टिकल में हैं वह चेक करना है। अब समझा, महान आत्मा के लक्षण क्या हैं? सारे दिन दान भी करते रहो, पुण्य का कर्म भी करो और अहिंसक भी बनो। तो बताओ, स्थिति क्या बन जायेगी? फिर ऐसी महीनता में जाने वाले, सम्पूर्ण स्थिति में स्थित रहने वाले महान् आत्माओं के आगे सभी जरूर सिर झुकायेंगे। स्थूल सिर झुकायेंगे क्या? सिर होता है सभी से ऊंचा। तो सिर झुकाया गोया सारा झुकाया। तो आजकल जो अपने को ऊंच महान समझते हैं वा अपने कर्त्तव्य को ऊंच महान समझते हैं वह सिर झुकायेंगे अर्थात् महसूस करेंगे कि इस श्रेष्ठ कर्त्तव्य के आगे हम सभी के कर्त्तव्य तो कुछ भी नहीं हैं। अपनी श्रेष्ठता को श्रेष्ठ न समझ साधारण समझेंगे, तो इसको कहते हैं सर्व आत्मायें आपके आगे सिर झुकायेंगी। अब समझा, क्या चेक करना है? सारे दिन में महान् आत्मा के जो महान् कर्त्तव्य वा लक्षण हैं वह कहाँ तक प्रैक्टिकल में लाये? फिर यह रिजल्ट पूछेंगे।

पहले सुनाया था ना कि आप त्रिमूर्ति बाप के बच्चे हो, तो आप से त्रिमूर्ति लाइट दिखाई दे अर्थात् आप एक-एक द्वारा तीन लाइट का साक्षात्कार हो। कोई भी आपके सामने आये तो एक तो मस्तक से मणि दिखाई दे, दूसरा दोनों नयनों से ऐसा अनुभव हो जैसे कि दो लाइट के बल्ब जग रहे हैं और तीसरा मस्तक के ऊपर लाइट का क्राउन दिखाई दे। इन तीनों लाइट्स का साक्षात्कार हो। कइयों को होता भी है। जब याद की यात्रा में बिठाते हो तो यह दोनों नयन प्रकाश के गोले दिखाई देते हैं और कइयों के मस्तक से लाइट के क्राउन का साक्षात्कार भी होता है। तो आप द्वारा यह तीनों लाइट्स का साक्षात्कार हो तो क्या होगा? खुद भी लाइट हो जायेंगे। अनुभवी तो हो ना। साकार रूप में देखा - मस्तक से और नयनों से प्योरिटी के क्राउन का साक्षात्कार अनेकों को हुआ। तो फालो फादर करना है। अगर ऐसे ही स्वरूप का साक्षात्कार आत्माओं को कराओ तो सर्विस में सफलता आपके चरणों में झुकेगी। ऐसी महान् आत्मा बनो जो किसके भी सामने जाओ तो उसको साक्षात्कार हो। फिर बताओ वह अपना सिर आप साक्षात्कारमूर्त्त के आगे दिखा सकेंगे? झुक जायेंगे। जब अभी यह सिर झुकायेंगे तब आपके जड़ चित्रों के आगे स्थूल सिर झुकायेंगे। जो जितनों का अभी सिर झुकायेंगे उतने उनके जड़ चित्रों के आगे सिर झुकायेंगे। प्रजा के साथ भक्त भी बनाने हैं। सारे कल्प की प्रारब्ध की नूँध अभी ही होनी है। वारिस भी बनाने हैं और प्रजा भी अभी बनानी है। द्वापर युग के भक्त भी अभी बनेंगे। समझा? आपके भक्तों में भी आप लोगों द्वारा भक्ति के अर्थात् भावना के संस्कार अभी भरने हैं। यह बहुत ऊंचे हैं -- सिर्फ इस भावना के संस्कार भरने से भक्त बन जायेंगे। तो भक्त भी अभी बनाने हैं। अभी तक तो प्रजा बनाने में ही मेहनत कर रहे हो। जैसे-जैसे आप लोगों की स्थिति प्रत्यक्ष होती जायेगी, वैसे-वैसे आपके वारिस अर्थात् रायल फैमिली, प्रजा और भक्त तीनों ही प्रत्यक्ष होते जायेंगे। अभी तो मिक्स हैं। क्योंकि अभी आपकी स्थिति ही फिक्स नहीं हुई है। इसलिए वह भी मिक्स हो जाते हैं। फिर प्रत्यक्ष दिखाई पड़ेंगे। आप महसूस करेंगे कि भक्त हैं।

यह भी महसूस करेंगे क्योंकि त्रिकालदर्शी का गुण प्रत्यक्ष हो जायेगा। तो अपनी भी तीनों कालों की प्रारब्ध को स्पष्ट देख सकेंगे। दिव्य-दृष्टि से नहीं, प्रत्यक्ष साक्षात्कार करेंगे। अच्छा।

महानता लाने के लिए ज्ञान की महीनता में जाना है। जितना-जितना ज्ञान की महीनता में जायेंगे उतना अपने को महान् बना सकेंगे। महानता कम अर्थात् ज्ञान की महीनता का अनुभवी कम।



19-04-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


त्याग, तपस्या और सेवा की परिभाषा

भट्ठी का आरम्भ करने के लिए बुलाया है। इस भट्ठी में सर्व गुणों की धारणामूर्त बनने के लिए वा सम्पूर्ण ज्ञानमूर्तबनने के लिए आये हो। इसके लिए मुख्य तीन बातें ध्यान में रखनी है। वह कौनसी? जिन तीन बातों से सम्पूर्ण ज्ञानमर्त और सर्व गुण मूर्त बनकर ही जाओ। सारी नॉलेज का सार उन तीन शब्दों में समाया हुआ है। वह कौनसे शब्द हैं? एक त्याग, दूसरा तपस्या और तीसरा है सेवा। इन तीनों शब्दों की धारणामूर्त बनना अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञानमूर्त और सर्व गुणों की मूर्त बनना। त्याग किसको कहा जाता है? निरन्तर त्याग वृत्ति और तपस्यामूर्त बनकर हर सेकेण्ड, हर संकल्प द्वारा हर आत्मा की सेवा करनी है। यह सीखने के लिए भट्ठी में आये हो। वैसे तो त्याग और तपस्या दोनों को जानते हो, फिर अभी क्या करने आये हो?(कर्मों में लाने के लिए) भले जानते हो लेकिन अभी जो जानना है उस प्रमाण चलना, दोनों को समान बनाने के लिए आये हो। अभी जानने और चलने में अन्तर है। उस अन्तर को समाप्त करने के लिए भट्ठी में आये हो। ऐसे तपस्वीमूर्तवा त्यागमूर्त बनना है जो आपके त्याग और तपस्या की शक्ति के आकर्षण दूर से प्रत्यक्ष दिखाई दें। जैसे स्थूल अग्नि वा प्रकाश अथवा गर्मा दूर से ही दिखाई देती है वा अनुभव होती है। वैसे आपकी तपस्या और त्याग की झलक दूर से ही आकर्षण करे। हर कर्म में त्याग और तपस्या प्रत्यक्ष दिखाई दे। तब ही सेवा में सफलता पा सकेंगे। सिर्फ सेवाधारी बनकर सेवा करने से जो सफ़लता चाहते हो, वह नहीं हो पाती है। लेकिन सेवाधारी बनने के साथ-साथ त्याग और तपस्यामूर्त भी हो तब सेवा का प्रत्यक्षफल दिखाई देगा। तो सेवाधारी तो बहुत अच्छे हो लेकिन सेवा करते समय त्याग और तपस्या को भूल नहीं जाना है। तीनों का साथ होने से मेहनत कम और प्राप्ति अधिक होती है। समय कम सफलता अधिक। तो इन तीनों को साथ जोड़ना है। यह अच्छी तरह से अभ्यास करके जाना है। जितना नॉलेजफुल उतना ही पावरफुल और सक्सेसफुल होना चाहिए। नॉलेजफुल की निशानी यह दिखाई देगी कि उनका एक-एक शब्द पावरफुल होगा और हर कर्म सक्सेसफुल होगा। अगर यह दोनों रिजल्ट कम दिखाई देती हैं तो समझना चाहिए कि नॉलेजफुल बनना है। जबकि आजकल आत्माओं द्वारा जो अधूरी नॉलेज प्राप्त करते हैं उन्हों को भी अल्पकाल के लिए सफलता की प्राप्ति का अनुभव होता है। तो सम्पूर्ण श्रेष्ठ नॉलेज की प्राप्ति प्रत्यक्ष प्राप्त होने का अनुभव भी अभी करना है। ऐसे नहीं समझना कि इस नॉलेज की प्राप्ति भविष्य में होनी है। नहीं। वर्तमान समय में नॉलेज की प्राप्ति - अपने पुरूषार्थ की सफलता और सेवा में सफलत् का अनुभव होता है। सफलता के आधार पर अपनी नॉलेज को जान सकते हो। तो भट्ठी में आये हो चेक करने और कराने के लिए कि कहाँ तक नॉलेजफुल बने हैं? कोई भी पुराने संकल्प वा संस्कार दिखाई न दें। इतना त्याग सीखना है। मस्तक अर्थात् बुद्धि की स्मृति वा दृष्टि से सिवाय आत्मिक स्वरूप के और कुछ भी दिखाई न दे वा स्मृति में न आये। ऐसे निरन्तर तपस्वी बनना है, जिस भी संस्कार वा स्वभाव वाले चाहे रजोगुणी, चाहे तमोगुणी आत्मा हो। संस्कार वा स्वभाव के वश हो, आपके पुरूषार्थ में परीक्षा के निमित्त बनी हुई हो लेकिन हर आत्मा के प्रति सेवा अर्थात् कल्याण का संकल्प वा भावना उत्पन्न हो। ऐसे सर्व आत्माओं का सेवाधारी अर्थात् कल्याणकारी बनना है। तो अब समझा, त्याग क्या सीखना है, तपस्या क्या सीखनी है और सेवा भी कहाँ तक करनी है? इनकी महीनता का अनुभव करना है। हर पुरूषार्थ में फलीभूत वह हो सकता है जिसमें ज्ञान और धारणा के फल लगे हुए हों। जैसे अभी सभी के सामने ब्रह्माकुमार प्रसिद्ध दिखाई देते हैं। दूर से ही जान जाते हैं कि यह ब्रह्माकुमार है। अब ब्रह्माकुमार के साथ-साथ तपस्वी कुमार दूर से ही दिखाई पड़ो, ऐसा बनकर जाना है। वह तब होगा जब मनन और मगन - दोनों का अनुभव करेंगे।

जैसे स्थूल नशे में रहने वाले के नैन-चैन, चलन दिखाई देते हैं कि यह नशे में है। ऐसे ही आपके चलन और चेहरे से ईश्वरीय नशा और नारायणी नशा दिखाई पड़े। चेहरा ही आपका परिचय दे। जैसे कोई के पास मिलने जाते हैं तो परिचय के लिए अपना कार्ड देते हैं ना। इसी रीति से आपका चेहरा परिचय कार्ड का कर्त्तव्य करे। समझा?

अभी गुप्त धारणा का रूप नहीं रखना है। कई ऐसे समझते हैं कि ज्ञान गुप्त है, बाप गुप्त है तो धारणा भी गुप्त ही है। ज्ञान गुप्त है, बाप गुप्त है लेकिन उन द्वारा जो धारणाओं की प्राप्ति होती है वह गुप्त नहीं हो सकती है। तो धारणाओं को वा प्राप्ति को प्रत्यक्ष रूप में दिखाओ, तब प्रत्यक्षता होगी। विशेष करके कुमारों में एक संस्कार होता है जो पुरूषार्थ में विघ्न रूप होता है। वह कौनसा? कुमारों में यह संस्कार होता है जो कामनाओं को पूर्ण करने के लिए संस्कारों को रख देते हैं। जैसे जेब-खर्च रखा जाता है ना। जैसे राजाओं की राजाई तो छूट गयी लेकिन पिरवी पर्श को नहीं छोड़ते। इसी रीति संस्कारों को कितना भी खत्म करते हैं लेकिन जेब-खर्च माफिक कुछ-न-कुछ किनारे रखते ज़रूर हैं। यह है मुख्य संस्कार। यहाँ भट्ठी में जानते भी हैं और चलने की हिम्मत भी धारण करते हैं लेकिन फिर भी माया पिरवी पर्श की रीति से कहाँ-न-कहाँ किनारे में रह जाती है। समझा? तो इस भट्ठी में सभी त्याग करके जाना। यह नहीं सोचना कि सम्पूर्ण तो अभी अन्त में बनना है, तो थोड़ा-बहुत रहेगा ही। लेकिन नहीं। त्याग अर्थात् त्याग। जेबखर्च माफिक अपने अन्दर थोड़ा-बहुत भी संस्कार रहने नहीं देना है। समझा? ज़रा भी संस्कार अगर रहा होगा तो वह थोड़ा संस्कार भी धोखा दिला देता है। इसलिए बिल्कुल जो पुरानी जायदाद है, वह भस्म करके जाना। छिपाकर नहीं रखना। समझा? अच्छा।

यह कुमार ग्रुप है। अभी बनना है तपस्वी कुमार ग्रुप। इस ग्रुप की यह विशेषता सभी को दिखाई दे कि यह तपस्वी कुमार तपस्वी-भूमि से आये हैं। समझा? हरेक लाइट के ताजधारी दिखाई दें। ताजधारी तो भविष्य में बनेंगे लेकिन इस भट्ठी से लाइट के ताजधारी बनकर जाना है। सर्विस की ज़िम्मेवारी का ताज वह इस ताज के साथ स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इसलिए मुख्य ध्यान इस लाइट के ताज को धारण करने का रखना है। समझा? जैसे तपस्वी सदैव आसन पर बैठते हैं, वैसे अपनी एकरस आत्मा की स्थिति के आसन पर विराजमान रहो। इस आसन को नहीं छोड़ो, तब सिंहासन मिलेगा। ऐसा प्रयत्न करो जो देखते ही सब के मुख से एक ही आवाज़ निकले कि यह कुमार तो तपस्वी कुमार बनकर आये हैं। हर कर्मेन्द्रिय से देह-अभिमान का त्याग और आत्माभिमानी की तपस्या प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे। क्योंकि ब्रह्मा की स्थापना का कार्य तो चल ही रहा है। ईश्वरीय पालना का कर्त्तव्य भी चल ही रहा है। अब लाइट में तपस्या द्वारा अपने विकर्मों और हर आत्मा के तमोगुण और प्रकृति के तमोगुणी संस्कारों को भस्म करने का कर्त्तव्य चलना है। अब समझा कि कौनसे कर्त्तव्य का अभी समय है? तपस्या द्वारा तमोगुण को भस्म करने का। जैसे अपने चित्रों में शंकर का रूप विनाशकारी अर्थात् तपस्वी रूप दिखाते हैं, ऐसे एकरस स्थिति के आसन पर स्थित हो तपस्वी रूप अपना प्रत्यक्ष दिखाओ। समझा क्या सीखना और क्या और कैसे बनना है? इसके लिए यह कुमार ग्रुप मुख्य सलोगन क्या सामने रखेंगे जिससे सफलता हो जाये? सच्चाई और सफाई से सृष्टि से विकारों का सफाया करेंगे। जब सृष्टि से करेंगे तो स्वयं से तो पहले से ही हो जायेगा, तब तो सृष्टि से करेंगे ना। तो यह सलोगन याद रखने से तपस्वीमूर्त बनने से सफलतामूर्त बनेंगे। समझा? अच्छा।



29-04-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


बेहद के पेपर में पास होने का साधन

भट्ठी की समाप्ति है वा भट्ठी के प्रैक्टिकल पेपर का आरम्भ है? अभी आप कहाँ जा रहे हो? पेपर हाल में जा रहे हो या अपने-अपने स्थानों पर? जब पेपर हाल समझेंगे तब प्रैक्टिकल में पास होकर दिखायेंगे। ऐसे नहीं समझना कि अपने घर जा रहे हैं। नहीं। बड़े से बड़ा कोर्स पास करके बड़े से बड़ा इम्तहान देने के लिए पेपर हाल में जा रहे हैं। सेन्टर्स पर जब तक पढ़ाई करते हो तो वह हो गई स्कूल की पढ़ाई। लेकिन जब मधुबन वरदान भूमि में डायरेक्ट बापदादा वा निमित्त बने हुए सभी बड़े महारथियों द्वारा ट्रेनिंग लेते हो वा पढ़ाई करते हो तो मानो कालेज वा युनिवार्सिटी का स्टूडेण्ट हूँ। स्कूल के पेपर और यूनिवार्सिटी के पेपर में फर्क होता है। पढ़ाई में भी फर्क होता है, तो इस भट्ठी में ट्रेनिंग लेना अर्थात् यूनिवार्सिटी का स्टूडेण्ट बनना है। तो अभी यूनिवार्सिटी की पढ़ाई का पेपर देने के लिए जा रहे हैं। युनिवार्सिटी के पेपर के बाद ही स्टेट्स की प्राप्ति होती है। ऐसे ही भट्ठी में आने के बाद जो प्रैक्टिकल पेपर में पास हो निकलते हैं उन्हों को वर्तमान और भविष्य स्टेट्स और स्टेज प्राप्त होती है। तो यह कॉमन बात नहीं समझना। भले पहले सेन्टर्स पर पढ़ाई करते रहे हो और पेपर भी देते रहे हो लेकिन यह यूनिवार्सिटी का पेपर है। बापदादा द्वारा तिलक वा छाप लगाने के बाद अगर कोई प्रैक्टिकल पेपर में फेल हो जाते हैं तो क्या होगा? जन्म-जन्मान्तर के लिए फेल का दाग रह जायेगा। इसलिए अगर कोई भी फेल होने का संस्कार वा अपनी चलन महसूस होती हो तो आज के दिन में वह रहा हुआ दाग वा कमज़ोरी की चलन वा संस्कार मिटा कर जाना। जिससे कि पेपर हाल में जाये पेपर में फेल न होने पायें। समझा? वह पेपर तो दे दिया। वह तो सहज है लेकिन फाइनल नम्बर वा मार्क्स प्रैक्टिकल पेपर के बाद ही मिलते हैं। तो यह स्मृति और दृष्टि -- दोनों को परिवर्तन में लाकर जाना है। स्मृति में क्या रहे कि हर सेकेण्ड मेरा पेपर हो रहा है। दृष्टि में क्या रहे कि पढ़ाने वाला बाप और पढ़ने वाला मैं स्टूडेण्ट आत्मा हूँ। यह स्मृति, वृत्ति और दृष्टि बदलकर जाने से फेल नहीं होंगे लेकिन फुल पास होंगे। तो भट्ठी कोई साधारण बात नहीं समझना। यह भट्ठी की छाप और तिलक सदा कायम रखना है। जैसे यूनिवार्सिटी का सर्टिफिकेट सर्विस दिलाता है, पद की प्राप्ति कराता है। ऐसे ही यह भट्ठी का तिलक वा छाप सदा अपने पास प्रैक्टिकल में कायम रखना - यह बड़े से बड़ा सर्टिफिकेट है। जिसको सर्टिफिकेट नहीं होता है वह कभी भी कोई स्टेट्स नहीं पा सकते। इस रीति से यह भी एक सर्टिफिकेट है। भविष्य वा वर्तमान पद की प्राप्ति वा सफलता का सर्टिफिकेट है। सर्टिफिकेट को सदैव सम्भाला जाता है। अलबेलेपन से खो जाता है। कभी भी माया के अधीन यानी वश होकर पुरूषार्थ में अलबेलापन नहीं लाना। नहीं तो आप समझेंगे हमको सर्टिफिकेट है लेकिन माया वा रावण सर्टिफिकेट चुरा लेती है। जैसे आजकल के डाकू वा पाकेट काटने वाले ऐसा युक्ति से काम करते हैं जो बाहर से कुछ भी पता नहीं पड़ता है, अन्दर खाली हो जाता है। इसी प्रकार अगर पुरूषार्थ में अलबेलापन लाया तो रावण अन्दर ही अन्दर सर्टिफिकेट चुरा लेगा और आप स्टेट्स पा नहीं सकेंगे। इसलिए अटेन्शन! समझा?

यह ग्रुप सर्विसएबल तो है, अभी क्या बनना है? जैसे सर्विसएबल हो वैसे ही अभी सर्विस में एक तो त्रिकालदर्शीपन का सेन्स भरना है और दूसरा रूहानियत का इसेन्स भरना है। तब तीनों बातें मिल जायेंगी - सर्विस, सेन्स और इसेन्स। इसेन्स सूक्ष्म होता है ना। तो यह रूहानियत का इसेन्स और त्रिकालदर्शीपन का सेन्स भरने से सर्विसएबल के साथ सक्सेसफुल हो जायेंगे। तो सेन्स और इसेन्स कहाँ तक हरेक ने अपने अन्दर भरा है - वह चेक करना है। अभी समय है। जैसे पेपर हाल में जाने से पहले दो घंटे आगे भी तैयारी करके जाते हैं। आपको भी पेपर हाल में जाने के पहले अपने को तैयार करने के लिए अभी समय है। जैसे सुनाया था कि ब्रह्माकुमार के साथ में तपस्वी कुमार भी दिखाई दे। वह अपने नयनों में, चेहरे में रूहानियत धारण की है, जो जाते ही अलौकिक न्यारे और सब के प्यारे नज़र आओ? न सिर्फ भट्ठी वालों को लेकिन जो भी मधुबन में आते हैं, उन सभी को यह धारणायें विशेष रूप से करनी हैं। भट्ठी सक्सेस रही? इन्हों की पढ़ाई की रफ्तार से आप सन्तुष्ट हो? आप भट्ठी की पढ़ाई से अपने पुरूषार्थ में सन्तुष्ट हुए? कुछ रहा तो नहीं है ना? (अभी न रहा है) फिर कब रहेगा क्या?

यह अपनी सेफ्टी का साधन ढूँढ़ते हैं। समझते हैं कि कुछ भी हो जायेगा तो यह कह सकेंगे ना। लेकिन इससे भी फिर कमज़ोरी आ जाती है। इसलिए फिर यह भी कभी नहीं सोचना। कभी भी फेल नहीं होंगे -- ऐसा सोचो। अभी भी हैं और जन्म-जन्मान्तर की गारन्टी -- कभी भी फेल नहीं होंगे। इसको कहा जाता है फुल पास। कुमारों की विशेषता है कि जो चाहे वह कर सकते हैं। यह विल-पावर जरूर है। लेकिन हर संकल्प और हर सेकेण्ड विल करने की विल-पावर चाहिए। बच्चे को सभी विल किया जाता है ना। जो-कुछ होता है वह विल करते हैं। तो आप लोग भी वारिस बनाते हो और बनते भी हो। तो जैसे और विल-पावर है वैसे सभी कुछ विल करने की विल पावर चाहिए। यह यहाँ से भरकर जाना। जब सभी कुछ विल कर दिया तो क्या बन जायेंगे? नष्टोमोहा। जब मोह नष्ट हो जाता है तो बन्धनमुक्त बन जाते हैं और बन्धनमुक्त ही योगयुक्त व जीवन्मुक्त बन सकता है। समझा? संगमयुग का आपके पास अभी खज़ाना कौनसा है? ज्ञान खज़ाना तो बाप ने दिया लेकिन अपना-अपना खज़ाना कौन-सा है? यह समय और संकल्प। जैसे बाप ने पूरा ही अपने को विल किया, वैसे आप लोगों की जो स्मृति है उसको भी पूरा विल करना है। जैसे स्थूल खज़ाने से जो चाहें वह प्राप्त कर सकते हैं। वैसे ही इस समय का यह खज़ाना ‘समय और संकल्प’ -- इससे भी आप जो प्राप्त करना चाहो वह इन्हीं द्वारा प्राप्त कर सकते हो। सारी प्राप्ति का आधार संगमयुग का समय और श्रेष्ठ स्मृति अर्थात् याद है। यही खज़ाना है। इसको ही विल करना है। पूरा ही विल करके जा रहे हो या कुछ जेब-खर्च रखा है? आईवेल के लिए थोड़ा बहुत कोने में छिपाकर तो नहीं रखा है, जेब बिल्कुल खाली है?

(कुमारों ने एक गीत बाबा को सुनाया) आजकल तो मधुबन का हर कोना खाली नहीं है लेकिन हर स्थान पर सितारों की रिमझिम नज़र आती है। तो खाली क्यों कहते हो? जब सूर्य व्यक्त से अव्यक्त होता है तब सितारे स्पष्ट दिखाई देते हैं। तो बाप व्यक्त से अव्यक्त हुए हैं विश्व को सितारों की रिमझिम दिखाने के लिए। तो खाली क्यों कहेंगे? स्थूल सूर्य को कहते हैं अस्त हो गया लेकिन यह ज्ञान-सूर्य व्यक्त से अव्यक्त रूप है लेकिन सितारों के साथ है। साकार रूप से सदा साथी नहीं बन सकते। साकार में होते हुए भी सदा साथ में रहने के लिए अव्यक्त स्थिति और अव्यक्त साथी समझते थे। तो अब भी सदा साथ अव्यक्त रूप में ही हो सकता है। क्योंकि अव्यक्त रूप व्यक्त शरीर के बन्धन से मुक्त है। तो आप सभी को भी सदा साथ देने के लिए इस शरीर की स्मृति से दूर करने के लिए, यह अव्यक्त पार्ट चल रहा है। बापदादा तो हर समय सर्व बच्चों के साथ है ही। पहले-पहले एक गीत बनाया था कि ‘‘क्यों हो अधीर माता...’’। (यह गीत बहनों ने सुनाया) अभी भी हर एक का सदा साथी हूँ। लेकिन जो चाहे अनुभव करे। अभी अनुभव करने के लिए जैसे बाप अव्यक्त है वैसे अव्यक्त बनकर के ही अनुभव कर सकते हो। यह अलौकिक अनुभव करने के लिए सदा व्यक्त भाव से परे, व्यक्त देश की स्मृति से उपराम अर्थात् साक्षी बनने से ही हर समय साथ का अनुभव कर पायेंगे। समझा? अच्छा।



06-05-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


बापदादा का विशेष श्रृंगार -- ‘नूरे-रत्न’

ज रत्नागर बाप अपने रत्नों को देख हर्षित हो रहे हैं। देख रहे हैं कि हरेक रत्न यथा-शक्ति पुरूषार्थ कर आगे बढ़ रहे हैं। हरेक अपने आपको जानते हो कि हम कौनसा रत्न हैं? कितने प्रकार के रत्न होते हैं? (8 रत्न हैं) आप कितने नम्बर के रत्न हो? हीरे के संग रह हीरे समान नहीं बने हो? रत्न तो सभी हो लेकिन एक रत्न है, जिनको कहते हैं नूर-ए-रत्न। तो क्या सभी नूर-ए-रत्न नहीं हो? एक तो नूर-ए-रत्न, दूसरे हैं गले की माला के रत्न। तीसरी स्टेज क्या है, जानते हो? तीसरे हैं हाथों के कंगन के रत्न। सभी से फर्स्ट नम्बर हैं नूर-ए-रत्न। वह कौन बनते हैं? जिनके नयनों में सिवाय बाप के और कुछ भी देखते हुए भी देखने में नहीं आता है। वह हैं नूर-ए-रत्न। और जो अपने मुख से ज्ञान का वर्णन करते हैं लेकिन जैसा पहला नम्बर सुनाया कि सदैव नयनों में बाप की याद, बाप की सूरत ही सभी को दिखाई दे-उसमें कुछ कम हैं, वह गले द्वारा सर्विस करते हैं, इसलिए गले की माला का रत्न बनते हैं। और तीसरा नम्बर जो हाथ के कंगन का रत्न बनते हैं उनकी विशेषता क्या है? किस-न-किस रूप से मददगार बनते हैं। तो मददगार बनने की निशानी यह बांहों के कंगन के रत्न बनते हैं। अब हरेक अपने से पूछे कि मैं कौनसा रत्न हूँ? पहला नम्बर, दूसरा नम्बर वा तीसरा नम्बर? रत्न तो सभी हैं और बापदादा के श्रृंगार भी तीनों ही हैं। अब बताओ, कौनसा रत्न हो? नूर- ए-रत्नों की जो परख सुनाई उसमें ‘पास विद् ऑनर’ हो? उम्मीदवार में भी नम्बर होते हैं। तो सदैव यह स्मृति में रखो कि हम बापदादा के नूर-ए-रत्न हैं, तो हमारे नयनों में वा नजरों में और कोई भी चीज समा नहीं सकती। चलते- फिरते, खाते-पीते आपके नयनों में क्या दिखाई देना चाहिए? बाप की मूरत वा सूरत। ऐसी स्थिति में रहने से कभी भी कोई कम्पलेन नहीं करेंगे। जो भी भिन्न-भिन्न प्रकार की परेशानियां परेशान करती हैं और परेशान होने के कारण अपनी शान से परे हो जाते हो। तो परेशान का अर्थ क्या हुआ? अपनी जो शान है उससे परे होने के कारण परेशान होना पड़ता है। अगर अपनी शान में स्थित हो जाओ तो परेशान हो नहीं सकते। तो सर्व परेशानियों को मिटाने के लिए सिर्फ शब्द के अर्थ-स्वरूप में टिक जाओ। अर्थात् अपने शान में स्थित हो जाओ तो शान से मान सदैव प्राप्त होता है। इसलिए शान-मान कहा जाता है। तो अपनी शान को जानो। जितना जो अपनी शान में स्थित होते हैं उतना ही उनको मान मिलता है। अपनी शान को जानते हो? कितनी ऊंची शान है! लौकिक रीति भी शान वाला कभी भी ऐसा कर्त्तव्य नहीं करेगा जो शान के विरूद्ध हो। अपनी शान सदैव याद रखो तो कर्म भी शानदार होंगे और परेशान भी नहीं होंगे। तो यह सहज युक्ति नहीं है परेशानी को मिटाने की? कोई भी बुराई को समाप्त करने के लिए बाप की बड़ाई करो। सिर्फ एक मात्रा के फर्क से कितना अन्तर हो गया है! बुराई और बड़ाई, सिर्फ एक मात्रा को पलटाना है। यह तो 5 वर्ष का छोटा बच्चा भी कर सकता है। सदैव बड़े से बड़े बाप की बड़ाई करते रहो, इसमें सारी पढ़ाई भी आ जाती है। तो यह बाप की बड़ाई करने से क्या होगा? लड़ाई बन्द। माया से लड़-लड़ कर थक गये हो ना। जब बाप की बड़ाई करेंगे तो लड़ाई से थकेंगे नहीं, लेकिन बाप के गुण गाते खुशी में रहने से लड़ाई भी एक खेल मिसल दिखाई पड़ेगी। खेल में हर्ष होता है ना। तो जो लड़ाई को खेल समझते, ऐसी स्थिति में रहने वालों की निशानी क्या होगी? हर्ष। सदा हर्षित रहने वाले को माया कभी भी किसी भी रूप से आकर्षित नहीं कर सकती। तो माया की आकर्षण से बचने के लिए एक तो सदैव अपनी शान में रहो, दूसरा माया को खेल समझ सदैव खेल में हर्षित रहो। सिर्फ दो बातें याद रहें तो हर कर्म यादगार बन जाये। जैसे साकार में अनुभव किया - कैसे हर कर्म यादगार बनाया। ऐसे ही आप सभी का हर कर्म यादगार बने, उसके लिए दो बातें याद रखो। आधारमूर्त और उद्धारमूर्त। यह दोनों बातें याद रहें तो हर कर्म यादगार बनेगा। अगर सदैव अपने को विश्व-परिवर्तन के आधारमूर्त समझो तो हर कर्म ऊंचा होगा। फिर साथ-साथ उदारचित अर्थात् सर्व आत्माओं के प्रति सदैव कल्याण की भावना वृत्ति-दृष्टि में रहने से हर कर्म श्रेष्ठ होगा। तो अपना हर कर्म ऐसे करो जो यादगार बनने योग्य हो। यह फालो करना मुश्किल है क्या? (म्यूजियम सर्विस पर पार्टी जा रही है) त्याग का सदैव भाग्य बनता है। जो त्याग करता है उसको भाग्य स्वत: ही प्राप्त हो जाता है। इसलिए यह जो बड़े से बड़ा त्याग करते हैं उन्हों का बड़े से बड़ा भाग्य जमा हो जाता है। इसलिए खुशी से जाना चाहिए सर्विस पर। अच्छा।



20-05-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


विधाता, वरदाता-पन की स्टेज

विधाता और वरदाता - यह दोनों ही गुण अपने में अनुभव करते हो? जैसे बाप विधाता भी है और वरदाता भी है, वैसे ही अपने को भी दोनों ही प्राप्ति-स्वरूप समझते हो? जितना-जितना वरदाता बनते जायेंगे उतना ही वरदाता बन वरदान देने की शक्ति बढ़ती जायेगी। तो दोनों ही अनुभव होते हैं वा अभी सिर्फ विधाता का पार्ट है, अन्त में वरदाता का पार्ट होगा? क्या समझती हो? (कोई ने कहा दोनों पार्ट अभी चल रहे हैं, कोई ने कहा अभी एक पार्ट चल रहा है) वरदान किन आत्माओं को देते हो और वरदाता किसके लिए बनते हो? एक होता है नॉलेज को देना, दूसरा है वरदान रूप में देना। तो विधाता हो या वरदाता हो? किन्हों को वरदान देती हो? विधाता अर्थात् ज्ञान देने वाले तो बनते ही हो, लेकिन कहाँ विधाता के साथ- साथ वरदाता भी बनना पड़ता है। वह कब? जब कोई ऐसी आत्मा हिम्मतहीन, निर्बल लेकिन इच्छुक होती है, चाहना होती है कि हम कुछ प्राप्ति करें। ऐसी आत्माओं के लिए ज्ञान-दाता बनने के साथ-साथ आप विशेष रूप से उस आत्मा को बल देने के लिए शुभ-भावना रखते हो वा शुभचिन्तक बनते हो। तो विधाता के साथ-साथ वरदाता भी बनते हो। एक्स्ट्रा बल अपनी तरफ से उनको वरदान के रूप में देते हो। तो वरदान भी देना होता और दाता भी बनना होता है। इसलिए दोनों ही हो। यह अनुभव कब किया है? भक्ति मार्ग में साक्षात्कार द्वारा वरदान प्राप्त होता है क्योंकि वह आत्माएं इतनी निर्बल होती हैं जो ज्ञान धारण नहीं कर सकतीं स्वयं पुरुषार्थी नहीं बन सकतीं। इसलिए वरदान की इच्छा रखती हैं, और वरदान रूप में उनको कुछ-न-कुछ प्राप्ति होती है। इस रीति जो कमज़ोर आत्माएं आपके सामने आती हैं, जिन आत्माओं की इच्छा को देखकर तरस की, रहम की भावना आती है। रहमदिल बन अपनी सभी शक्ति की मदद दे उनको ऊंचा उठाना - यह है वरदान का रूप। अभी बताओ कि दोनों ही हो या एक? कोई आत्माओं के प्रति आप लोगों को विशेष प्रोग्राम भी रखने पड़ते हैं, क्योंकि अपनी शक्ति से वह धारण नहीं कर पाते हैं। तो शक्ति का वरदान देने वाली शिव-शक्तियां हो। इसलिए सुनाया कि अभी ज्यादा सर्विस चलनी है नॉलेज के विधातापन की। अन्त में नॉलेज देने की सर्विस कम हो जायेगी, वरदान देने की सर्विस ज्यादा होगी। इसलिए अन्त के समय वरदान लेने वाली आत्माओं में वही संस्कार मर्ज हो जायेंगे और वही मर्ज हुए संस्कार द्वापर में भक्त के रूप में इमर्ज होंगे। तो अभी नॉलेज अर्थात् ज्ञान के दाता की सर्विस है, फिर वरदाता की होगी। समझा? फिर इतना समय ही नहीं होगा, न आत्मा में शक्ति होगी। इसलिए वरदाता बन वरदान देने की सर्विस होगी। अभी यह सर्विस कम करते हो, फिर ज्यादा करनी होगी। अभी वारिस बनाने की सर्विस है, फिर होगी सिर्फ प्रजा बनाने की सर्विस। परन्तु थोड़े समय में इतनी प्रजा बनाने के लिए वरदाता मूर्त्त बनने के लिए मुख्य क्या अटेन्शन रखना पड़े? वरदातामूर्त बन थोड़े समय में अनेक आत्माओं को वरदान दे सकें, उसके लिए क्या करना पड़े? वरदाता बनने के लिए मुख्य पुरूषार्थ यही करना पड़े, बार-बार जो भक्ति मार्ग में गायन किया है कि वारी जाऊं। यह गायन अगर प्रैक्टिकल में कर लो तो जिसके ऊपर वारी जाते हो वह आपको भी सर्व वरदान देकर वरदातामूर्त बना देते हैं। तो हर समय, हर कर्म में, हर संकल्प में यह सोचो कि ‘वारी जाऊं’ का जो वचन दिया था वह पालन कर रही हूँ। तो बाप वरदातामूर्त है ना। आप सभी भी बाप समान वरदातामूर्त बन जाते हो। तो इतनी चेकिंग करते हो? एक संकल्प भी किसके प्रति न हो, जो भी संकल्प उठता है उसमें बाप के प्रति कुर्बान का, वारी जाने का रहस्य भरा हुआ हो। ऐसी चेकिंग करते रहो तो फिर माया सामना करने का साहस रख सकेगी? सामना करने का साहस नहीं रखेगी, लेकिन बार-बार नमस्कार कर विदाई लेगी। समझा?

तो ऐसा बनने के लिए इतनी चेकिंग चाहिए। और दूसरी बात - वरदानीमूर्त बनने के लिए सर्व शक्तियों को अपने में देखना चाहिए कि इतना स्टॉक जमा किया है जो दूसरे को दे सकूं? अगर जमा ही नहीं किया होगा तो दूसरे को क्या देंगे! तो वरदानीमूर्त बनने के लिए सर्व शक्तियों को अपने में इतना जमा करना पड़े जो दूसरे को दे सकें। इतना जमा का खाता है? वा कमाया और खाया, यह रिजल्ट है? एक होता है कमाया और खाया - दूसरा होता है जमा करना और तीसरा होता है जो इतना भी नहीं कमा सकते जो स्वयं को भी चला सकें, दूसरे की मदद ले अपने को चलाना पड़ता। तो तीसरी स्टेज वा दूसरी स्टेज से पार हुए हो? वह है कमाया और खाया। और पहली स्टेज है जमा करना। तो रोज अपना बैंक बैलेन्स देखते हो? बहुत भिखारी भीख मांगने के लिए आयेंगे। तो इतना ही जमा करना पड़े जो सभी को दे सको। जमा करना सीखे हो? कितना जमा किया है, खाते से तो पता लग जाता है ना। अपना खाता देखा है? कई ऐसे भी होते हैं जो निकाल कर खाते जाते हैं, मालूम नहीं पड़ता है। फिर जब अचानक खाता देखते हैं तो समझते हैं कि यह क्या हो गया! ऐसे तो यहाँ होंगे ही नहीं। अच्छा।

जमा किये हुए खाते वाले का विशेष गुण वा कर्त्तव्य क्या दिखाई देगा? जिसके पास खजाना जमा होगा उसकी सूरत से एक तो वर्तमान और भविष्य अर्थात् ईश्वरीय नशा और नारायणी नशा दिखाई देगा और उनके नयनों वा मस्तक से सर्व आत्माओं को स्पष्ट अपना नशा दिखाई देगा। यह जमा होने वाले की निशानी दिखाई देगी। उनकी सूरत ही सर्विसएबल होगी, सूरत ही सर्विस करती रहेगी। जिसके पास जास्ती अथवा कम जमा होता है तो वह भी उनकी सूरत से दिखाई देता है। तो जमा किए हुए की सूरत वा मूरत से ही मालूम पड़ जाता है। जैसे जड़ चित्र बनाते हैं तो उनमें भी कई ऐसे चिह्न दिखाते हैं जो उन जड़ चित्रों से भी अनुभव होता है। वह बोलते तो नहीं है, लेकिन सूरत वा मूर्त से अनुभव होता है। वैसे ही आपकी यह सूरत हर संकल्प, हर कर्म को स्पष्ट करेगी। तो अपने आप को ऐसा चेक करो कि मेरी सूरत से कोई भी आत्मा को नशा व निशाना दिखाई देता है? जैसे कोई ऊंच कुल का बच्चा होता है तो वह भले गरीब बन जाये लेकिन उसकी झलक और फलक दिखाती है कि यह कोई ऐसे ऊंच कुल का है। वैसे ही जो सदैव खज़ाने से सम्पन्न होगा उसकी सूरत से कभी छिप नहीं सकता। आपके पास दर्पण है? सदैव साथ रखते हो? हर समय दर्पण देखते रहते हो? कई ऐसे भी होते हैं जिनको बार-बार दर्पण देखने की आवश्यकता भी नहीं होती है। तो आप सेकेण्ड-सेकेण्ड देखते हो वा देखने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती? जब तक अपनी चेकिंग का नेचरल अभ्यास हो जाये तब तक बार-बार चेकिंग करनी पड़ती है। धीरे-धीरे फिर ऐसे बन जायेंगे जो बार-बार देखने की भी दरकार नहीं पड़ेगी। सदैव सजे-सजाये ही रहेंगे। जब तक यह सदैव सजे-सजाये रहने की आदत पड़ जाये तब तक बार-बार अपने को देखना और बनाना पड़ता है। जब दो-चार बार देख लिया कि जब माया किसी भी प्रकार से, किस भी रीति से मेरे श्रृंगार को बिगाड़ नहीं सकती, फिर बार-बार देखने की ज़रूरत ही नहीं। फिर तो अपना साक्षात्कार दूसरों के द्वारा भी आपको होता रहेगा। दूसरे स्वयं वर्णन करेंगे, गुण गान करेंगे। अच्छा।

सभी विजयी रत्न हो ना। विजयी रत्न तो हो, लेकिन विजय की माला कितनी अपने गले में डाली है, वह भी देखना पड़े। यह विजय की माला दिन- प्रतिदिन बढ़ती जाती है। तो बढ़ रही है और कहाँ तक बढ़ी है - यह भी देखना पड़े। जब माला लम्बी होती है तो फिर क्या करते हैं? डबल करके डालते हैं, जिससे सारा श्रृंगार सुन्दर बन जाता है। तो इतनी बड़ी माला अपने गले में डाली है? यह भी चेक करो कि आज के दिन मेरे विजय की माला में कितने विजयी रत्न बढ़े। अच्छा।

दृष्टि से सृष्टि बदलती है -यह भी अभी की कहावत है। कैसी भी तमोगुणी वा रजोगुणी आत्मायें आयें, लेकिन आपकी सतोगुणी दृष्टि से उनकी सृष्टि, उनकी स्थिति बदल जाये, उनकी वृत्ति बदल जाये। आगे चलकर यह अनुभव बहुत आत्मायें करेंगी। जैसे यादगार दिखाया हुआ है कि तीनों लोकों का साक्ष्त्कार कराया। यह भी अभी का गायन है। आप लोगों के सामने आने से दृष्टि द्वारा उन्हों को तीन लोक तो क्या अपनी पूरी जीवन कहानी का मालूम पड़ जाये। जैसे शुरू में स्थापना के समय ज्ञान की सर्विस इतनी नहीं थी, नज़र से निहाल करते थे। तो अन्त में भी ज्ञान की सर्विस करने का मौका नहीं मिलेगा। जो आदि हुआ है वही अन्त में आप लोगों द्वारा चलना है। जैसे वृक्ष का पहले बीज प्रत्यक्ष रूप में होता है, बीच में वह बीज मर्ज हो जाता है, फिर अन्त में वही बीज प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देता है। तो आप आदि आत्माओं में भी जो पहला फाउन्डेशन पड़ा हुआ है वही सर्विस अन्त में भी होनी है। अच्छा।



24-05-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


पोज़ीशन में ठहरने से अपोज़ीशन समाप्त

र्व आत्माओं के सुख और शान्ति कर्ता बने हो? क्योंकि दु:खहर्ता सुखकर्ता के सिकीलधे बच्चे हो, तो जो बाप का कर्त्तव्य वही बच्चों का कर्त्तव्य। जो विश्व के कल्याणकर्ता वा सुखकर्ता हैं उनके पास कभी भी दु:ख की लहर स्वप्न में भी अथवा संकल्प में भी आ नहीं सकती। तो ऐसी स्थिति बना रहे हो वा इस स्थिति में स्थित रहते हो? जब से नया जन्म लिया, बापदादा के सिकीलधे बच्चे बने, तो सर्वशक्तिवान की सन्तान के पास कोई भी प्रकार का सन्ताप आ नहीं सकता। सन्ताप अर्थात् दु:ख की लहर तब तक है जब तक सर्वशक्तिवान बाप की स्मृति नहीं रहती अथवा उनकी सन्तान प्रैक्टिकल में नहीं बनते हैं। सुख के सागर बाप की सन्तान तो दु:ख की लहर क्या वस्तु होती है, इससे भी अन्जान रहते हैं। सुख की लहर में ही लहराते रहते हैं। माया की अपोज़ीशन क्यों होती है? अपोजीशन का निवारण बहुत सहज है। अपोज़ीशन से सिर्फ ‘अ’ शब्द निकाल दो। तो क्या हो जायेगा? पोजीशन में ठहरने से अपोज़ीशन होगा? अगर अपने पोज़ीशन पर स्थित है तो माया की अपोज़ीशन नहीं होगी। सिर्फ एक शब्द कट कर देना है। अपने पोज़ीशन में ठहरना - यही याद की यात्रा है। जो हूँ, जिसका हूँ उसमें स्थित होना - यही याद की यात्रा है। मुश्किल है क्या? जो जैसा है ऐसा अपने को मानने में मुश्किल होता है क्या? आप लोगों ने असलियत को भुला दिया है, उसमें स्थित कराने की ही शिक्षा मिली है। तो असली रूप में ठहरना मुश्किल होता है वा नकली रूप में ठहरना मुश्किल होता है? होली के अथवा दशहरे के दिनों में छोटे बच्चे आर्टाफिशियल नकाब पहनते हैं, उन्हों को कहो कि यह नकली नकाब उतार असली रूप में हो जाओ तो क्या मुश्किल होगा? कितना समय लगेगा? आप लोगों ने भी यह खेल किया है ना। क्या-क्या नकाब धारण किये? कब बन्दर का, कब असुर का, कब रावण का। कितने नकली नकाब धारण किये हैं? अब बाप क्या कहते हैं? वह नकली नकाब उतार दो। इसमें क्या मुश्किल है? तो सदैव यह नशा रखो कि असली स्वरूप, असली धर्म, असली कर्म हमारा कौनसा है? असली नॉलेज के हम मास्टर नॉलेजफुल हैं यह नशा कम है? यह नशा सदैव रहे तो क्या बन जायेंगे? जो बन जायेंगे उसका यादगार देखा है? दिलवाला मन्दिर है तपस्वी कुमार और तपस्वी कुमारियों का यादगार। और सदैव नशे में स्थित रहने का यादगार कौन-सा है? अचलघर। सदैव उस नशे में रहने से अचल, अडोल बन जायेंगे। फिर माया संकल्प रूप में भी हिला नहीं सकती। ऐसे अचल बन जायेंगे। यादगार है ना कि रावण सम्प्रदाय ने पांव हिलाने की कोशिश की लेकिन ज़रा भी हिला न सके। ऐसा नशा रहता है कि यह हमारा यादगार है? या समझते हो कि यह बड़े-बड़े महारथियों का यादगार है? यह मेरा यादगार है - ऐसा निश्चयबुद्धि बनने से विजय अवश्य प्राप्त हो जाती है। यह कभी भी नहीं सोचो कि यह कोई और महारथियों का है, हम तो पुरुषार्थी हैं। अगर निश्चय में, स्वरूप की स्मृति में ही कमज़ोरी होगी तो कर्म में भी कमजोरी आ जायेगी। तो सदैव हर संकल्प निश्चयबुद्धि का होना चाहिए। कर्म करने के पहले यह निश्चय करो कि विजय तो हमारी हुई पड़ी है। अनेक कल्प विजयी बने हो। जब अनेक कल्प, अनेक बार विजयी बन विजय माला में पिरोने वाले, पूजन होने वाले बने हो, तो अब वह रिपीट नहीं करेंगे? वही बना हुआ कर्म दुबारा रिपीट करना है। इसलिए कहा जाता है कि बना-बनाया....। बना हुआ है लेकिन अब फिर से रिपीट कर ‘बना-बनाया’ जो कहावत है उसको पूरा करना है। जब निश्चय हो जाता है कि मैं यह हूँ वा यह मुझे करना ही है, मैं कर सकता हूँ तब वह नशा चढ़ता है। निश्चय नहीं तो नशा भी नहीं चढ़ता और निश्चय है तो नशे की स्थिति के सागर में लहराते रहेंगे। ऐसी स्थिति का अनुभवीमूर्त जब बन जायेंगे तो आपकी मूर्त से सिखलाने वाले की सूरत दिखाई देगी। तो ऐसे अनुभवीमूर्त हो जो बाप और शिक्षक की सूरत आपकी मूर्त से प्रत्यक्ष हो? ऐसे बने हो वा बन रहे हो? सफलता के सितारे हो वा उम्मीदवार सितारे हो? सफ़लता तो जन्मसिद्ध अधिकार है। क्योंकि जब सर्वशक्तिवान कहते हो; तो असफलता का कारण है शक्तिहीनता। शक्ति की कमी के कारण माया से हार खाते हैं। जब सर्वशक्तिवान बाप की स्मृति में रहते हैं तो सर्वशक्तिवान के बच्चे होने के कारण सफलता तो जन्म्सिद्ध अधिकार हो गया। हर सेकेण्ड में सफलता समाई हुई होनी चाहिए। असफलता के दिन समाप्त। अब सफलता हमारा नारा है - यह स्मृति में रखो।

बहुत सहज सरल रास्ता है, जो सेकेण्ड में अपने को नकली से असली बना सकते हो? इतना सरल मार्ग कब मिलेगा? कभी भी नहीं। माया के अधीन क्यों बनते हो? क्योंकि आलमाइटी अथॉरिटी के बच्चे हैं, यह भूल जाते हो। आजकल छोटी-मोटी अथॉरिटी रखने वाले कितनी खुमारी में रहते हैं! तो आलमाइटी अथॉरिटी वाले कितनी खुमारी में रहने चाहिए? शास्त्रवादी जो अपने को शास्त्रं की अथॉरिटी मानते हैं वह भी कितनी खुमारी में, कितना उलटी नॉलेज के निश्चय में रहते हैं। किसने सुनाया, किसने देखा, कुछ भी पता नहीं। फिर भी शास्त्रं की अथॉरिटी मानने के कारण अपनी हार कभी नहीं मानेंगे। तो आप लोगों की सर्व से श्रेष्ठ अथॉरिटी है। ऐसे अथॉरिटी से किसके भी सामने जाओ तो सभी सिर झुकायेंगे। आप लोग नहीं झुक सकते। तो अपनी अथॉरिटी को कायम रखो। आप विश्व को झुकाने वाले हो। जो विश्व को झुकाने वाले हैं वह किसके आगे झुक नहीं सकते। उस अथॉरिटी की खुमारी से किसी भी आत्मा का कल्याण कर सकते हो। ऐसी खुमारी को कभी भी भूलना नहीं। बहुत समय से अभूल बनने से भविष्य में बहुत समय के लिए राज्य-भाग्य प्राप्त करेंगे। अगर अल्पकाल इस खुमारी में रहते हैं तो राज्य-भाग्य भी अल्पकाल के लिए प्राप्त होता है। यहाँ तो अभी आये हो सदाकाल का वर्सा लेने, न कि अल्पकाल का। सिर्फ दो बातें साथ-साथ याद रखो। बात एक ही है, शब्द भिन्न-भिन्न हैं। बिल्कुल सहज से सहज दो बातें सरल शब्दों में कौनसी सिखाई जाती हैं? ऐसे दो-दो शब्द साथ याद रहें तो स्थिति कभी नीचे-ऊपर नहीं हो सकती। अल्फ और बादशाही याद रहे तो कभी स्थिति नीचे-ऊपर नहीं होगी। दो शब्दों की ही बात है। कोई अन्जान बच्चे को भी अल्फ और बे याद करने के लिए कहो तो भूलेगा? आप मास्टर सर्वशक्ति- वान भूल सकते हो? जिस समय विस्मृति की स्थिति होती है तो अपने से यह बातें करो - मैं मास्टर सर्वशक्तिवान अल्फ और बे को भूल गया! ऐसी-ऐसी बातें करने से शक्ति जो खो देते हो उसकी फिर से स्मृति आ जायेगी। है सिर्फ मनन और वर्णन करना। पहले मनन करो और बाद में फिर वर्णन करो। जो बातें मनन की जाती हैं उनको वर्णन करना सहज हो जाता है। तो मनन करते और वर्णन करते चलो। यह भी दो बातें हुईं। मनन करते-करते मग्न अवस्था आटोमेटीकली हो जायेगी। जो मनन करना नहीं जानते वह मग्न अवस्था का भी अनुभव नहीं कर सकते। ताज और तख्तनशीन अभी बने हो वा भविष्य में बनेंगे? अभी तो ताज और तख्त नहीं है ना। बेगर हो? संगमयुग का तख्त नहीं जानते हो? सारे कल्प के अन्दर सभी से श्रेष्ठ तख्त का मालूम नहीं है? बापदादा के दिल रूपी तख्त नशीन नहीं बने हो? जब याद रहेगा तब तो बैठेंगे। तख्त है तो ताज भी होगा। ताज बिना तख्त तो होगा ही नहीं। कौनसा ताज धारण करने से तख्तनशीन बनेंगे? बापदादा संगम पर ही ताज व तख्तनशीन बना देते हैं। इस ताज और तख्त के आधार से भविष्य ताज,तख्त मिलता है। अभी धारण नहीं करेंगे तो भविष्य में कैसे धारण करेंगे। आधार तो संगमयुग है ना। ताज भी धारण करना पड़े, तिलक भी धारण करना पड़े और तख्तनशीन भी बनना पड़े। तिलक सदैव कायम रहता है वा कभी-कभी मिट जाता है? ताज, तिलक और तख्त - यह तीनों ही संगमयुग की बड़ी से बड़ी प्राप्ति है। इस प्राप्ति के आगे भविष्य राज्य कुछ भी नहीं। जिसने संगमयुग का ताज,तख्त नहीं लिया उसने कुछ भी नहीं लिया। विश्व के कल्याण के ज़िम्मेवारी का ताज है। जब तक यह ताज धारण नहीं करते तब तक बाप के दिल रूपी तख्त पर विराजमान नहीं हो सकते। अपना हक जमा करके जाना, नहीं तो बड़ा मुश्किल होगा। मधुबन में ताज व तख्तनशीन बनकर जाना। जब हिम्मतवान, निश्चयबुद्धि बनते हो तब ही तो मधुबन में आते हो अपनी ताजपोशी करने। बिगर ताज के नहीं जाना। बापदादा का तख्त इतना बड़ा है जो जितना भी चाहें उतना विराजमान हो सकते हैं। उस स्थूल तख्त पर तो सभी नहीं बैठ सकते। लेकिन यह तख्त इतना बड़ा है। बड़े से बड़े बाप के बच्चे, बड़े से बड़े तख्त नशीन होते हैं। अच्छा।



30-05-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


बाप की आज्ञा और प्रतिज्ञा

बापदादा आज्ञा भी करते हैं और प्रतिज्ञा भी करते हैं। ऐसे कौनसे महावाक्य हैं जिसमें आज्ञा भी आ जाए और प्रतिज्ञा भी आ जाए? ऐसे महावाक्य याद आते हैं जिनमें आज्ञा और प्रतिज्ञा - दोनों आ जाएं? ऐसे बहुत महावाक्य हैं। लम्बी लिस्ट है इनकी। लेकिन टैम्पटेशन के महावाक्य हैं कि ‘एक कदम आप उठाओ तो हजार कदम बापदादा आगे आयेंगे’, न कि 10 कदम। इन महावाक्यों में आज्ञा भी है कि एक कदम आगे बढ़ाओ और फिर प्रतिज्ञा भी है कि हजार कदम बापदादा भी आगे बढ़ेंगे। ऐसे उमंग- उत्साह दिलाने वाले महावाक्य सदैव स्मृति में रहने चाहिए। आज्ञा को पालन करने से बाप की जो प्रतिज्ञा है उससे सहज रीति अपने को आगे बढ़ा सकेंगे। क्योंकि फिर प्रतिज्ञा मदद का रूप बन जाती है। एक अपनी हिम्मत, दूसरी मदद - जब दोनों मिल जाते हैं तो सहज हो जाता है। इसलिए ऐसे-ऐसे महावाक्य सदैव स्मृति में रहने चाहिए। स्मृति ही समर्थी लाती है। जैसे राजपूत होते हैं, वह जब युद्ध के मैदान में जाते हैं तो भले कैसा भी कमज़ोर हो उनको अपने कुल की स्मृति दिलाते हैं। राजपूत ऐसे-ऐसे होते हैं, ऐसे होकर गये हैं, ऐसे ऐसे करके गये हैं, ऐसे कुल के तुम हो - यह स्मृति दिलाने से उन्हों में समर्थी आती है। सिर्फ कुल की महिमा सुनते-सुनते स्वयं भी ऐसे महान् बन जाते हैं। इस रीति आप सूर्यवंशी हो, वो सूर्यवंशी राज्य करने वाले क्या थे? कैसे राज्य किया और किस शक्ति के आधार पर से ऐसा राज्य किया? वह स्मृति और साथ-साथ अब संगमयुग के ईश्वरीय कुल की स्मृति। अगर यह दोनों ही स्मृति बुद्धि में आ जाती हैं तो फिर समर्थी आ जाती है। जिस समर्थी से फिर माया का सामना करना सरल हो जाता है। सिर्फ स्मृति के आधार से। तो हर कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए क्या साधन हुआ? स्मृति से अपने में पहले समर्थी को लाओ। फिर कार्य करो। तो भले कैसा भी कमज़ोर होगा लेकिन स्मृति के आधार से उस समय के लिए समर्थी आ जायेगी। भले पहले वह अपने को उस कार्य के योग्य न समझते होंगे लेकिन स्मृति से वह अपने को योग्य देखकर आगे के लिए उमंग-उत्साह में आयेंगे। तो सर्व कार्य करने के पहले यह स्मृति रखो। ईश्वरीय कुल और भविष्य की, दोनों ही स्मृति आने से कभी भी निर्बलता नहीं आ सकेगी। निर्बलता नहीं तो असफलता भी नहीं। असफलता का कारण ही है निर्बलता। जब स्मृति से समर्थी को लायेंगे तो निर्बलता अर्थात् कमज़ोरी समाप्त। असफलता हो नहीं सकती। तो सदा सफलतामूर्त बनने के लिए अपनी स्मृति को शक्तिशाली बनाओ, फिर स्वयं ही वह स्वरूप बन जायेंगे। जैसी-जैसी स्मृति रहेगी वैसा स्वरूप अपने को महसूस करेंगे। स्मृति होगी कि मैं शक्ति हूँ तो शक्तिस्वरूप बनकर के सामना कर सकेंगे। अगर स्मृति में ही यह रखते हो - मैं तो पुरुषार्थी हूँ, कोशिश कर देखती हूँ, तो स्वरूप भी कमज़ोर बन जाता है। तो स्मृति को शक्तिशाली बनाने से स्वरूप भी शक्ति का बन जायेगा। तो यह सफलता का तरीका है। फिर यह बोल नहीं सकेंगे कि चाहते हुए भी क्यों नहीं होता।

चाहना के साथ समर्थी भी चाहिए और समर्थी आयेगी स्मृति से। अगर स्मृति कमजोर है तो फिर जो संकल्प करते हो वह सिद्ध नहीं हो पाता है। जो कर्म करते हो वह भी सफल नहीं हो पाते हैं। तो स्मृति रखना मुश्किल है वा सहज है? जो सहज बात होती है वह निरन्तर भी रह सकती है। स्मृति भले निरन्तर रहती भी है लेकिन एक होती है साधारण स्मृति, दूसरी होती है पावरफुल स्मृति। साधारण रूप में तो स्मृति रहती है लेकिन पावरफुल स्मृति रहनी चाहिए। जैसे कोई जज होता है तो उनको सारा दिन अपने जजपने की स्मृति तो रहती है लेकिन जिस समय खास कुर्सा पर बैठता है तो उस समय वह सारे दिन की स्मृति से पावरफुल स्मृति होती है। तो ड्यूटी अर्थात् कर्त्तव्य पर रहने से पावरफुल स्मृति रहती है। और वैसे साधारण स्मृति रहती है। तो आप भी साधारण स्मृति में तो रहते हो लेकिन पावरफुल स्मृति, जिससे बिल्कुल वह स्वरूप बन जाए और स्वरूप की सिद्धि ‘सफलता’ मिले, वह कितना समय रहती है। इसकी प्रैक्टिस कर रहे हो ना? निरन्तर समझो कि हम ईश्वरीय सर्विस पर हैं। भले कर्मणा सर्विस भी कर रहे हो, फिर भी समझो- मैं ईश्वरीय सर्विस पर हूँ। भले भोजन बनाते हो, वह है तो स्थूल कार्य लेकिन भोजन में ईश्वरीय संस्कार भरना, भोजन को पावरफुल बनाना, वह तो ईश्वरीय सर्विस हुई ना। ‘जैसा अन्न वैसा’ मन कहा जाता है। तो भोजन बनाते समय ईश्वरीय स्वरूप होगा तब उस अन्न का असर मन पर होगा। तो भोजन बनाने का स्थूल कार्य करते भी ईश्वरीय सर्विस पर हो ना! आप लिखते भी हो - आन गॉडली सर्विस ओनली। तो उसका भावार्थ क्या हुआ? हम ईश्वरीय सन्तान सिर्फ और सदैव इसी सर्विस के लिए ही हैं। भल उसका स्वरूप स्थूल सर्विस का है लेकिन उसमें भी सदैव ईश्वरीय सर्विस में हूँ। जब तक यह ईश्वरीय जन्म है तब तक हर सेकेण्ड, हर संकल्प, हर कार्य ईश्वरीय सर्विस है। वह लोग थोड़े टाइम के लिए कुर्सा पर बैठ अपनी सर्विस करते हैं, आप लोगों के लिए यह नहीं है। सदैव अपने सर्विस के स्थान पर कहाँ भी हो तो स्मृति वह रहनी चाहिए। फिर कमज़ोरी आ नहीं सकती। जब अपनी सर्विस की सीट को छोड़ देते हो तो सीट को छोड़ने से स्थिति भी सेट नहीं हो पाती। सीट नहीं छोड़नी चाहिए। कुर्सा पर बैठने से नशा होता है ना। अगर सदैव अपने मर्तबे की कुर्सा पर बैठो तो नशा नहीं रहेगा? कुर्सा वा मर्तबे को छोड़ते क्यों हो? थक जाते हो? जैसे आप लोगों ने राजा का चित्र दिखाया है - पहले दो ताज वाले थे, फिर रावण पीछे से उसका ताज उतार रहा है। ऐसे अब भी होता है क्या? माया पीछे से ही मर्तबे से उतार देती है क्या! अब तो माया विदाई लेने के लिए, सत्कार करने के लिए आयेगी। उस रूप से अभी नहीं आनी चाहिए। अब तो विदा लेगी। जैसे आप लोग ड्रामा दिखाते हो - कलियुग विदाई लेकर जा रहा है। तो वह प्रैक्टिकल में आप सभी के पास माया विदाई लेने आती, न कि वार करने के लिए। अभी माया के वार से तो सभी निकल चुके हैं ना। अगर अभी भी माया का वार होता रहेगा तो फिर अपना अतीन्द्रिय सुख का अनुभव कब करेंगे? वह तो अभी करना है ना। राज्य-भाग्य का तो भविष्य में अनुभव करेंगे, लेकिन अतीन्द्रिय सुख का अनुभव तो अभी करना है ना। माया के वार होने से यह अनुभव नहीं कर पाते। बाप के बच्चे बनकर वर्तमान अतीन्द्रिय सुख का पूरा अनुभव प्राप्त न किया तो क्या किया।

बच्चा अर्थात् वर्से का अधिकारी। तो सदैव यह सोचो कि संगमयुग का श्रेष्ठ वर्सा ‘अतीन्द्रिय’ सुख सदाकाल प्राप्त रहा? अगर अल्पकाल के लिए प्राप्त किया तो बाकी फर्क क्या रहा? सदाकाल की प्राप्ति के लिए ही तो बाप के बच्चे बने। फिर भी अल्पकाल का अनुभव क्यों? अटूट, अटल अनुभव होना चाहिए। तब ही अटल, अखण्ड स्वराज्य प्राप्त करेंगे। तो अटूट रहता है वा बीच-बीच में टूटता है? टूटी हुई चीज फिर जुड़ी हुई हो और कोई बिल्कुल अटूट ची है - तो दोनों से क्या अच्छा लगेगा? अटूट चीज अच्छी लगेगी ना। तो यह अतीन्द्रिय सुख भी अटूट होना चाहिए। तब समझो कि बाप के वर्से के अधिकारी बनेंगे। अगर अटूट, अटल नहीं तो क्या समझना चाहिए? वर्से के अधिकारी नहीं बने हैं लेकिन थोड़ा बहुत दान-पुण्य की रीति से प्राप्त कर लिया है, जो कभी-कभी प्राप्त हो जाता है। वर्सा सदैव अपनी प्राप्ति होती है। दान-पुण्य तो कभी-कभी की प्राप्ति होती है। वारिस हो तो वारिस की निशानी है - अतीन्द्रिय सुख के वर्से के अधिकारी। वारिस को बाप सभी-कुछ विल करता है। जो वारिस नहीं होंगे उनको थोड़ा-बहुत देकर खुश करेंगे। बाप तो पूरा विल कर रहे हैं। जिनका बाप के विल पर पूरा अधिकार होगा, उन्हों की निशानी क्या दिखाई देगी? वह विल-पावर वाले होंगे। उनका एक-एक संकल्प विल-पावर वाला होगा। अगर विल-पावर है तो असफलता कभी नहीं होगी। पूरे विल के अधिकारी नहीं बने हैं तब विल-पावर नहीं आती है। बाप की प्रॉपर्टी वा प्रास्पर्टा को अपनी प्रॉपर्टी बनाना - इसमें बहुत विशाल बुद्धि चाहिए। बाप की प्रॉपर्टी को अपनी प्रॉपर्टी कैसे बनायेंगे? जितना अपना बनाते जायेंगे उतना ही नशा और खुशी होगी। तो बाप की प्रॉपर्टी को अपनी प्रॉपर्टी बनाने का साधन कौनसा है? वा बाप की प्रॉपर्टी बाप की ही रहने दे? (कोई- कोई ने अपना विचार बताया) जिनकी दिल सच्ची थी उन पर साहेब राज़ी हुआ, तब तो प्रॉपर्टी दी। प्रॉपर्टी तो दे दी, अब उनको सिर्फ अपना बनाने की बात है। सर्विस वा दान भी तब कर सकेंगे जब प्रॉपर्टी को अपना बनाया होगा। जितना प्रॉपर्टी होगी उतना नशे से दान कर सकेंगे वा दूसरे की सर्विस कर सकेंगे। लेकिन बात है पहले अपना कैसे बनायें? अपना बन गया फिर दूसरे को देने से बढ़ता जाता है। यह हुई पीछे की बात। लेकिन पहले अपना कैसे बनायेंगे? जितना-जितना जो खज़ाना मिलता है उसके ऊपर मनन करने से अन्दर समाता है। जो मनन करने वाले होंगे उन्हों के बोलने में भी विल-पावर होगी। किसके बोलने में शक्ति का अनुभव होता है, क्यों? सुनते तो सभी इक्ट्ठे हैं। प्रॉपर्टी तो सभी को एक जैसी एक ही समय इकट्ठी मिलती है। जो मनन करके उस दी हुई प्रॉपर्टी को अपना बनाते हैं, उसको क्या होता है? कहावत है ना - ‘अपनी घोट तो नशा चढ़े’। अभी सिर्फ रिपीट करने का अभ्यास है। मनन करने का अभ्यास कम है। जितना-जितना मनन करेंगे अर्थात् प्रॉपर्टी को अपना बनायेंगे तो नशा होगा। उस नशे से किसको भी सुनायेंगे, तो उनको भी नशा रहेगा। नहीं तो नशा नहीं चढ़ता है। सिर्फ भक्त बन महिमा कर लेते हैं, नशा नहीं चढ़ता है। तो मनन करने का अभ्यास अपने में डालते जाओ। फिर सदैव ऐसे नज़र आयेंगे जैसे अपनी मस्ती में मस्त रहने वाले हैं। फिर इस दुनिया की कोई भी चीज, उलझन आपको आकर्षण नहीं करेगी, क्योंकि आप अपने मनन की मस्ती में मस्त हो। जिस दिन मनन में मस्त होंगे उस दिन माया भी सामना नहीं करेगी, क्योंकि आप बिज़ी हो ना। अगर कोई बिज़ी होता है तो दूसरा अगर आयेगा भी तो लौट जायेगा। जैसे वह लोग अन्डरग्राउण्ड चले जाते हैं ना। आप भी मनन करने से अन्दर अर्थात् अन्डरग्राउण्ड चले जाते हो। अन्डरग्राउण्ड रहने से बाहर के बाम्बस् आदि का असर नहीं होता है। इसी रीति से मनन में रहने से, अन्तर्मुखी रहने से बाहरमुखता की बातें डिस्टर्ब नहीं करेगी। देह-अभिमान से गैर हाज़िर रहेंगे। जैसे कोई अपनी सीट से गैर हाज़िर होगा तो लोग लौट जायेंगे ना। आप भी मनन में अथवा अर्न्तमुखी रहने से देह-अभिमान की सीट को छोड़ देते हो, फिर माया लौट जायेगी, क्योंकि आप अर्न्तमुखी अर्थात् अन्डरग्राउण्ड हो। आजकल अन्डरग्राउण्ड बहुत बनाते जाते हैं - सेफ्टी के लिए। तो आपके लिए भी सेफ्टी का साधन यही अन्तर्मुखता है अर्थात् देह-अभिमान से अन्डरग्राउण्ड। अन्डरग्राउण्ड में रहना अच्छा लगता है! जिसका अभ्यास नहीं होता है वह थोड़ा टाइम रह फिर बाहरमुखता में आ जाते हैं, क्योंकि बहुत जन्मों के संस्कार बाहरमुखता के हैं। तो अन्तर्मुखता में कम रह पाते हैं। लेकिन रहना निरन्तर अन्तर्मुखी है। अच्छा।



03-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


निरन्तर योगयुक्त बनने के लिए कमल पुष्प का आसन

ज का दिन कौनसा है? भट्ठी का दिन है। भट्ठी के दिन को कौनसा दिवस कहते हैं? भट्ठी के आरम्भ का दिन अर्थात् जीवन के फैसले का दिन है। भट्ठी में किस लिए आती हो? जीवन का सदाकाल के लिए फैसला करने। सभी इस लक्ष्य से आई हो? क्योंकि भट्ठी में आने से बापदादा द्वारा वा अनन्य बच्चों द्वारा एक गिफ्ट मिलती है। वह कौनसी? जो ची मिलती है, सुनाना भी सहज होता है। (दो-चार ने अपना-अपना विचार सुनाया) जो भी बातें सुनाई हैं उन सभी बातों की प्राप्ति का आधार कौनसी गिफ्ट है? वह है बुद्धि का परिवर्तन। रजोगुणी वा व्यक्त भाव की बुद्धि से बदल सतोगुणी, अव्यक्त भाव की दिव्य बुद्धि। जिस दिव्य बुद्धि की प्राप्ति से ही अव्यक्त स्थिति वा योगयुक्त स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। तो गिफ्ट कौनसी हुई? ‘‘दिव्य सतोगुणी बुद्धि’’। बुद्धि के परिवर्तन से ही जीवन का परिवर्तन होता है। तो दिव्य बुद्धि की गिफ्ट विशेष भट्ठी में प्राप्त होती है। अब उस गिफ्ट को यूज करना वा सदाकाल के लिए कायम रखना - यह अपने हाथ में है। लेकिन गिफ्ट सभी को प्राप्त होती है। जो भी भट्ठी में आये हैं दिव्य सतोगुणी बुद्धि की गिफ्ट द्वारा अपने को बहुत सहज और बहुत जल्दी परिवर्तन में ला सकते हैं। तो आज का दिन जीवन-परिवर्तन का दिन है। तो आज के दिन जो गिफ्ट प्राप्त होती है उसको धारण करते रहना। ज्ञान तो सुनती ही रही हो, लेकिन भट्ठी में क्या करने आती हो? ज्ञान-स्वरूप बनने के लिए आती हो। योग की नॉलेज वा योग का अभ्यास भी करती आई हो, लेकिन भट्ठी में आती हो -सदा योगयुक्त होकर रहने का पाठ पक्का करने के लिए। निरन्तर योगयुक्त बनने के लिए कौनसी सहज युक्ति भट्ठी द्वारा प्राप्त करनी है? हठयोगी जो हठ या तपस्या करते हैं, तो तपस्या के समय आसन पर बैठते हैं। भिन्न-भिन्न आसन होते हैं। तो आप लोगों के लिए सदा योगयुक्त बनने के लिए कौनसा आसन है? निरन्तर योगयुक्त अवस्था सहज रहे, इसके लिए बापदादा सहज आसन बता रहे हैं। वह है कमल पुष्प का आसन। कमल- आसन कहती हो ना। देवताओं के जो चित्र बनाते हैं, तो उसमें किस पर खड़ा हुआ वा बैठा हुआ दिखाते हैं? कमल के ऊपर। तो निरन्तर कर्म करते हुए भी सहज योगयुक्त बनने के लिए सदैव कमल-आसन अर्थात् अपनी स्थिति कमल पुष्प के समान रखेंगे तो निरन्तर योगयुक्त बन जायेंगे। लेकिन कमल का पुष्प बन इस आसन पर इस स्थिति में रहने के लिए क्या करना पड़े? अपने को लाइट बनाना पड़े। हल्का भी और प्रकाश-स्वरूप भी। कमल का पुष्प कितना ज्ञानयुक्त है। कमल पुष्प को देख ज्ञान की स्मृति आती है ना। तो कमल-आसन पर विराजमान रहने से सदा योगयुक्त बन सकती हो। आसन कभी भी नहीं छोड़ो। यह कमल पुष्प समान स्थिति का आसन सदा कायम रखना अर्थात् इस पर सदा स्थित रहना है। तब भविष्य में भी राज्य-सिंहासन इतना ही समय कायम रहेगा। अगर इस आसन पर नहीं बैठ सकती हो अर्थात् इस स्थिति में स्थित नहीं हो सकती तो सिंहासन को भी प्राप्त नहीं कर सकेंगी। तो राज-सिंहासन प्राप्त करने के लिए पहले कमल-आसन पर स्थित रहने का अभ्यास करना पड़े। भट्ठी में आये हो अपने को सभी प्रकार के बन्धन से मुक्त कर हल्का बनाने के लिए वा सदा कमल पुष्प की स्थिति में स्थित होने के आसन पर विराजमान रहने का अभ्यास सीखने के लिए। तो जो भी बोझ हो वह सभी प्रकार का बोझ भट्ठी में खत्म करके जाना। चाहे मन के संकल्पों का बोझ हो, चाहे संस्कारों का बोझ हो, चाहे दुनिया की कोई भी विनाशी चीजों प्रति आकर्षित होने का बोझ हो, चाहे लौकिक सम्बन्धी की ममता का बोझ है, सभी प्रकार के बोझ कहो वा बन्धन कहो, उन्हों को खत्म करने के लिए भट्ठी में आये हो। अभी अपने जीवन की उन्नति का गोल्डन चान्स यह भट्ठी है। इस चान्स में जो जितना चान्स लेते हैं उतना ही सदाकाल के लिए अपने जीवन को आगे बढ़ा सकेंगे। भट्ठी में कौनसा लक्ष्य रखकर आई हो? संस्कारों को परिवर्तन में लाकर फिर क्या बनने का लक्ष्य रखा है? यह ग्रुप विशेष किस बात में सभी ग्रुप से अच्छा है, यह मालूम है? इस ग्रुप की एक बहुत अच्छी विशेषता है। गोल्ड में जब खाद डाली जाती है, तो उसके बाद गोल्ड को मोल्ड नहीं कर सकते हैं। ओरीजनल गोल्ड होता है तो उसको मोल्ड कर सकते हैं। तो ऐसे समझें कि यह सच्चा सोना है, इनमें कोई खाद नहीं है। आप लोग अपनी विशेषता को जानती हो? इस ग्रुप को देखकर ऐसे लगता है जैसे जब वृक्ष नया लगाया जाता है तो पहले बहुत कोमल, सुन्दर छोटे-छोटे पत्ते निकलते हैं, जो बहुत प्रिय लगते हैं। तो यह ग्रुप भी नये पत्ते हैं लेकिन कोमल हैं। कोमल और सख्त चीज़ें होती हैं ना। कोमल अर्थात् संस्कारों की हड्डियॉं इतनी सख्त नहीं हैं जो चेंज नहीं हो सकें। छोटे बच्चे की हड्डियां पहले कोमल होती हैं, फिर जैसे-जैसे बड़े होते हैं तो सख्त होती जाती हैं। यह ग्रुप भी कोमल संस्कारों वाला है। इन संस्कारों को परिवर्तन करना सहज हो जायेगा। कड़े संस्कारों वाले तो नहीं हो ना।

(दादी जी दो दिन के लिए मद्रास सर्विस पर जाने लिए बापदादा से छुट्टी ले रही हैं)

जो विश्व के राजे बनने वाले हैं उन्हों की विशेषता यह है - सर्व आत्माओं को राज़ी रखना। महारथियों के कदम-कदम में पद्मों की कमाई रहती है। (सीता माता भी छुट्टी ले रही है) अपने को समर्थ आत्मा समझ इस शरीर को देख रही हो? साक्षी अवस्था की स्थिति में स्थित होने से शक्ति मिलती है। जैसे कोई कमजोर होता है तो उनको शक्ति भरने के लिए ग्लूको चढ़ाते हैं। तो जब अपने को शरीर से परे अशरीरी आत्मा समझते हैं तो यह साक्षीपन की अवस्था शक्ति भरने का काम करती है। और जितना समय साक्षी अवस्था की स्थिति रहती है उतना ही बाप साथी भी याद रहता है अर्थात् साथ रहता है। तो साथ भी है और साक्षी भी है। एक साक्षीपन की शक्ति, दूसरा बाप के साथी बनने की खुशी की खुराक। तो बताओ फिर क्या बन जायेंगी? निरोगी। शक्ति रूप न्यारी और प्यारी। इस समय ऐसी न्यारी और प्यारी स्थिति में स्थित हो? यह स्थिति इतनी पावरफुल है - जैसे डॉक्टर लोग बिजली की रेजेज देते हैं कीटाणु मारने के लिए। तो यह स्थिति भी ऐसी पावरफुल है जो एक सेकेण्ड में अनेक विकर्मों रूपी कीटाणु भस्म हो जाते हैं। विकर्म भस्म हो गये तो फिर अपने को हल्का और शक्तिशाली अनुभव करेंगे। सदैव प्रवृत्ति को भी सर्विस भूमि समझना चाहिए। अपने को बापदादा के अति प्रिय समझती हो। क्यों? ऐसी क्या विशेषता है जो अति प्रिय हो। एक बाप दूसरा न कोई। ऐसे एक के ही लगन में रहने वाले बाप को अति प्रिय हैं। समझा? अच्छा।



08-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


जीवन के लिए तीन चीजों की आवश्यकता - खुराक, खुशी और खज़ाना

जीवन में मुख्य तीन चीजों की आवश्यकता होती है। वह कौनसी है? चाहे लौकिक जीवन, चाहे अलौकिक जीवन दोनों में तीन चीजों की आव-श्यकता है। वह कौनसी? एक चाहिए खुराक, दूसरा खुशी और तीसरा खज़ाना। यह तीनों बातें आवश्यक हैं। खज़ाने के बिना कुछ नहीं होता, खुशी के बिना भी जीवन नहीं और खुराक भी आवश्यक है। तो यह तीनों चीजें यहाँ भी आवश्यक हैं। खुराक किसको कहेंगे? खुशी तो हुई प्राप्ति की, बाकी खुराक कौनसी है? खज़ाना कौनसा है? खज़ाना है ज्ञान का, खुराक है याद से जो शक्ति भरती है। जीवन की इनर्जा खुराक है। तीनों ही प्राप्तियां हो चुकी हैं वा हो रही हैं? खज़ाना भी पूरा मिल चुका है ना। खुराक भी मिल चुकी है। खुशी तो है ही। अखुट खजाना मिला है ना। अच्छा, उस अखुट खज़ाने को बहुत सहज अगर किसको गिनती करके सुनाओ कि क्या-क्या मिला है, तो किस रीति सुना सकती हो? किसको वर्णन करके सुनाओ तो ऐसे सुनाओ जिससे सहज रीति सारा खजाना आ जाये। सागर को गागर में समाकर दिखाओ। खज़ाने का वर्णन ज़रूर ‘एक, दो, तीन.......’ ऐसे गिनती कर सुनायेंगे ना कि इतना खजाना हमारे पास है। यहाँ भी ‘एक, दो, तीन, चार, पाँच......... के अन्दर ही सारा खज़ाना गिनती कर सुना सकती हो। ‘एक’ में इकट्ठी बातें आ जाती हैं। एक बाप है, एक ही ज्ञान है। ऐसे ‘एक’ का ही वर्णन करो तो कितनी प्वाइन्ट्स आ जायेंगी। ‘दो’ का वर्णन करो तो दो में भी कितनी प्वाइन्ट्स हैं। तीन को वर्णन करो तो भी कितनी प्वाइन्ट्स हैं। तो एक, दो, तीन, चार, पाँच - इसमें ही सारा ज्ञान वर्णन कर सकती हो। जैसे खज़ाने को अंगुलियों पर गिनती करते हैं ना। ऐसे आप भी ज्ञान खज़ाने को इन 5 गिनती में वर्णन कर सुना सकती हो। यह क्लास कराना। फिर देखना, 5 के अन्दर सारी प्वाइन्ट्स आ जाती हैं। ऐसे-ऐसे मंथन करना चाहिए, जिससे सहज भी हो जाये और वही ज्ञान रमणीक भी बन जाये। 5 में सारा ज्ञान वर्णन कर सुनाओ। खज़ाने को भी वर्णन करके सुनाने के लिए सहज तरीका यह है। छोटे बच्चे को भी एक, दो, तीन.... ऐसे सिखाते हैं ना। तो इन पाँच में ही सारे खज़ाने का वर्णन हो। और जितना बार खज़ाने को वर्णन करते हैं वा मनन में लाते हैं इतनी खुशी ज़रूर होती है। और खजाने को मनन करने से मग्न अवस्था आटोमेटीकली होती है। खुशी भी मिल जाती है, खुराक भी मिलती है और खज़ाने की स्मृति भी आ जाती है। तीनों ही बातें स्मृति में हैं। इस जीवन को श्रेष्ठ जीवन कहा जाता है। याद की यात्रा में रहने से कोई करामात आती है? (शक्तियों की प्राप्ति होती है) शक्तियों की प्राप्ति को करामात कहें? जैसे वह लोग कई अभ्यास करते हैं तो उनमें रिद्धि-सिद्धि की करामात आती है। इस प्राप्ति को करामात कहें? जिस शक्ति के आधार से आप कर्त्तव्य करती हो उसको करामात कहें? (करामात नहीं कहेंगे) करामात समझकर प्रयोग नहीं करते हो लेकिन कर्त्तव्य समझ कर शक्ति का प्रयोग करते हो। कर्त्तव्य करने का तो फर्ज है। इस कारण स्वीकार नहीं होता है। यहाँ करामात की बात नहीं। इसको श्रीमत का प्रैक्टिकल कर्त्तव्य समझकर चलते हो। उन मनुष्यों के पास करामात होती है। आप लोगों की बुद्धि में आयेगी श्रीमत। तो श्रीमत और करामात में फर्क है। आप लोगों को शक्तियां प्राप्त होंगी तो स्मृति में आयेगा - श्रीमत द्वारा अथवा इस मत की यह गति प्राप्त हुई। करामात नहीं लेकिन श्रीमत समझेंगे। करामात समझ शक्तियों का प्रयोग नहीं करेंगे, कर्त्तव्य समझ शक्तियों का प्रयोग करेंगे। शक्तियां आनी ज़रूर हैं। मुख से बोलने की भी ज़रूरत नहीं, संकल्प से कर्त्तव्य सिद्ध कर देंगे। जैसे मुख द्वारा कर्त्तव्य सिद्ध करने के अभ्यास में भी पहले आप लोगों को ज्यादा बोलना पड़ता था तब सिद्धि मिलती थी। अभी कम बोलने से भी कर्त्तव्य होता है। तो जैसे यह अन्तर्यामी वैसे फिर यह प्रैक्टिस हो जायेगी। आपका संकल्प कर्त्तव्य को पूरा करेगा। संकल्प से किसको बुला सकेंगे, किसको संकल्प से कार्य की प्रेरणा देंगे। यह भी शक्तियां है लेकिन उनको कर्त्तव्य समझ प्रयोग करना है।

यह प्राप्ति श्रीमत से हुई। यह जैसे बटन दबाने से सारा नज़ारा टेलीविजन में आता है, वैसे ही आप संकल्प यहाँ करेंगे, वहाँ उसकी बुद्धि में क्लियर चित्र खिंच जायेगा। ऐसे कनेक्शन चलेगा। यह सभी शक्तियों की प्राप्ति होगी। इस प्राप्ति के लिए जब तक बुद्धि में और सभी बातें समाप्त हों और सिर्फ श्रीमत की आज्ञा जो मिली हुई है वही चलती रहे। और कुछ भी मिक्स न हो। व्यर्थ संकल्प श्रीमत नहीं है, यह अपनी मनमत है। तो जब ऐसी बुद्धि हो जाये जिसमें सिवाय श्रीमत के कुछ भी मिक्स न हो, तब शक्तियां आयेंगी। नदीक आ रही हो। गायन शक्तियों का ज्यादा है। कर्त्तव्य के सम्बन्ध में शक्तियों का गायन ज्यादा है। क्योंकि साकार में अन्तिम कर्त्तव्य की समाप्ति शक्तियों द्वारा है। इसलिए कर्त्तव्य की स्मृति वा यादगार भी शक्तियों का ज्यादा है। दिन- प्रतिदिन भविष्य में देवताओं के स्वरूप का पूजन वा यादगार कम होता जायेगा, शक्तियों का पूजन गायन बढ़ता जायेगा। गायन होते-होते ही प्रत्यक्ष हो जायेंगे। अच्छा।

(निर्मलशान्ता दादी बापदादा के सम्मुख बैठी हैं) कलकत्ता में सर्विस का साधन तो स्थापन कर लिया है, लेकिन जैसे सर्विस के साधन की स्थापना की है वैसे पालना का रूप अभी विस्तार को पाना चाहिए। कलकत्ते के म्यूजियम द्वारा सभी आत्माओं को कैसे शान्ति का वरदान प्राप्त हो सके। क्योंकि कलकत्ता में अशान्ति ज्यादा है ना। तो इतना आवाज़ फैलना चाहिए जो गवर्नमेन्ट तक यह आवाज़ जाये कि इस स्थान द्वारा शान्ति सहज प्राप्त हो सकती है। गवर्नमेन्ट द्वारा शान्ति-दल के रूप में ऑफर हो सकती है। जैसे जेल आदि में भाषण के लिए ऑफर करते हैं। क्योंकि पापात्माओं को पुण्यात्मा बनाने का साधन है, तब निमन्त्रण देते हैं। ऐसे ही कहाँ अशान्ति होगी तो यह शक्ति-दल शान्ति-दल, समझा जायेगा। ऐसी भी गवर्नमेन्ट द्वारा ऑफर होगी, तब तो आफरीन गाई जायेगी। ऐसा कुछ प्लैन बनाओ जो आवाज़ फैले चारों ओर। अशान्ति के बीच यह शान्ति-दल सेफ्टी का साधन है - ऐसे तुम प्रसिद्ध हो जायेंगे। जैसे भट्ठी के प्रोग्राम का गायन है। आग जलते हुए भी वह स्थान सेफ्टी का साधन रहा। चारों ओर आग होगी लेकिन यह एक ही स्थान शान्ति का है - ऐसा अनुभव करेंगे। इसी स्थान से ही हमको सेफ्टी वा शान्ति मिल सकती है। यह पालना का कर्त्तव्य बढ़ाओ। वह तब होगा जब कोई एक स्थान बनाओ जो विशेष (योग) अभ्यास का हो, जिसमें जाने से ही ऐसा अनुभव करें कि ना मालूम हम कहाँ आ गये हैं। स्थान भी अवस्था को बढ़ाता है। मधुबन का स्थान ही स्थिति को बढ़ाता है ना। तो ऐसा कोई स्थान बनाओ जो कोई कभी भी परेशान-दु:खी आत्मा हो, चिन्ता में डूबी हुई हो तो वह आने से ही महसूस करे कि हम कहाँ आये हैं। ऐसा प्लैन बनाओ। अपने को सफलतामूर्त समझते हो? सफलतामूर्त बनने के लिए मुख्य कौनसा गुण धारण करने से सफलतामूर्त बन जायेंगे? सफलतामूर्त बनने के लिए मुख्य गुण चाहिए सहनशीलता। सहनशीलता और सरलता कोई भी कार्य को सफल बना देंगी। जैसे कोई धैर्यता वाला मनुष्य सोच समझकर कार्य करते है तो सफलता प्राप्त होती है। वैसे ही सहनशील जो होते हैं वह अपनी ही सहनशीलता की शक्ति से, कैसा भी कठोर संस्कार वाला हो वा कैसे भी कठिन कार्य हो, उनको शीतल बना देते हैं वा सहज कर देते हैं। सहनशीलता का गुण जिसमें होगा वह गम्भीर भी ज़रूर होगा। जो गम्भीर होता है वह गहराई में जाने वाला होता है और जो गहराई में जाने वाला होता है वह कोई भी कार्य में कभी घबरायेगा नहीं। गहराई में जाकर सफलता प्राप्त करेगा। सहनशीलता वाले बाहरमुखता के वायब्रेशन को ही नहीं, लेकिन मन के संकल्प भी जो उत्पन्न होते हैं उन संकल्पों की उत्पत्ति को देखकर भी घबरायेंगे नहीं। अपनी सहनशीलता से सामना करेंगे। और सहनशीलता के गुण वाले की सूरत से क्या दिखाई देगा? जिसमें सहनशीलता का गुण होता है वह सूरत से सदैव सन्तुष्ट दिखाई देगा। उनके नैन-चैन कभी भी असन्तुष्टता के नहीं दिखाई देंगे। तो जो स्वयं सन्तुष्टमूर्त रहते हैं वह औरों को भी सन्तुष्ट बना देंगे। और चलते-फिरते वह फरिश्ता अनुभव होगा। सहनशीलता बहुत मुख्य धारणा है। जितनी सहनशीलता अपने में देखेंगे उतना समझो स्वयं से भी सन्तुष्ट हैं, दूसरे भी सन्तुष्ट हैं। सन्तुष्ट होना माना सफलता पाना। जो कोई भी बात को सहन कर लेता है तो सहन करना अर्थात् उसकी गहराई में जाना। जैसे सागर के तले में जाते हैं तो रत्न लेकर आते हैं। ऐसे ही जो सहनशील होते हैं वह गहराई में जाते हैं, जिस गहराई से बहुत शक्तियों की प्राप्ति होती है। सहनशील ही मनन-शक्ति को प्राप्त कर सकते हैं। सहनशील जो होता है वह अन्दर ही अन्दर अपने मनन में तत्पर रहता है और जो मनन में तत्पर रहता है वही मग्न रहता है। तो सहनशीलता बहुत आवश्यक है। उनका चेहरा ही गुणमूर्त बन जायेगा। सहनशीलता की धारणा पर इतना अटेन्शन रखना है। सहनशील ही ड्रामा की ढाल पर ठहर सकता है। सहनशीलता नहीं तो ड्रामा की ढाल को पकड़ना भी मुश्किल है। सहनशीलता वाला ही साक्षी बन सकता है और ड्रामा की ढाल को पकड़ सकता है। इतना अटेन्शन इस पर है? सदैव कोई-न-कोई गुण सामने देख उनकी गहराई में जाना है। जितना-जितना गहराई में जायेंगे उतना ही गुण की वैल्यू का पता पड़ेगा और जितना जिस ची की वैल्यू का मालूम होता है उतना ही हर गुण को ग्रहण करना वा वर्णन करना सहज है। लेकिन एक-एक गुण की गहराई कितनी है - यह जो जानते हैं वही इतने वैल्यूएबल बनते हैं, उनका ही गायन सर्व गुण सम्पन्न का होता है अर्थात् गुणों के आधार पर ही इतनी वैल्यू है। तो जिन गुणों के आधार से इतने वैल्यूएबल बने, उस एक-एक गुण की कितनी वैल्यू होगी! ऐसी गहराई में जाना है और जितना स्वयं को वैल्यू का पता मालूम होगा उतना ही औरों को भी उस वैल्यू से सुनायेंगे। अच्छा। अपने को वैल्युएबल की लिस्ट में समझते हो? वैल्युएबल का मुख्य लक्षण क्या होता है?

जैसे बापदादा को त्रिमूर्ति कहते हैं वैसे आप एक-एक के एक मूर्त से तीन मूर्त का साक्षात्कार होता है। बाप तो तीन देवताओं का रचयिता होने के कारण त्रिमूर्ति कहलाते हैं। लेकिन आप एक-एक के मूर्त्त से तीन मूर्त्त का साक्षात्कार होता है? वह तीन मूर्त कौनसी हैं? शक्तियों द्वारा कौनसी तीन मूर्तियों का साक्षात्कार होता है? आप लोगों द्वारा अभी तीन कर्त्तव्य होते हैं। कई आत्माओं के अन्दर दैवी संस्कारों की रचना वा स्थापना कराते हो। तो यह स्थापना का कार्य भी करते हो। और कई आत्माओं के संस्कार ऐसे हैं जो कुछ निर्बल हैं’। अपने संस्कारों का परिवर्तन नहीं कर सकते वा अपने संस्कारों को सेवा में नहीं लगा सकते, उन्हों को मदद दे आगे बढ़ाना - यह है पालना। पालना में छोटे से बड़ा करना होता है। और फिर कई आत्मायें जो अपनी शक्ति से पुराने संस्कारों को मिटा नहीं सकती, उन्हों के भी मददगार बन उनके विकर्मों को नाश करने में मददगार बनते हो। तीनों कर्त्तव्य चल रहे हैं। इन तीन कर्त्तव्यों के लिए तीन मूर्त कौनसी हैं? जिस समय कोई आत्मा में नये दैवी संस्कारों की रचना कराती हो, उस समय बनती हो ज्ञानमूर्त्त। और जिस समय पालना कराती हो तो उस समय रहम और स्नेह दोनों मूर्ति की आवश्यकता है। अगर रहम नहीं आता है तो स्नेह भी नहीं। तो पालना के समय एक रहमदिल और स्नेह मूर्त। और जिस समय कोई के पुराने संस्कारों का नाश कराती हो उस समय शक्ति-स्वरूप और दूसरा रोब के बजाय रूहाब में। जब तक रूहाब में नहीं ठहरते तब तक उनके विकर्मों का विनाश नहीं करा सकते। जैसे अज्ञान-काल में कोई की बुराई छुड़ाने के लिए रोब रखा जाता है। यहाँ रोब तो नहीं लेकिन रूहाब में ठहरना पड़ता है। अगर रूहाब में न ठहरो तो उनके पुराने संस्कारों का नाश नहीं करा सकेंगी। शक्ति रूप में विशेष इस रूहाब की धारणा करती हो। इन गुणों द्वारा यह तीन कर्त्तव्य करती हो। कोई में अगर रूहाब की कमी है तो पालना कर सकती हो लेकिन उनके संस्कारों को नाश नहीं कर सकती। सिर्फ तरस और स्नेह है तो विनाश कराने का कर्त्तव्य नहीं। स्नेह, रहम नहीं तो पालना का कर्त्तव्य नहीं। रूहाब ज्यादा है लेकिन रहम कम है तो पालना में इतना मददगार नहीं, लेकिन कोई के विकर्मों का नाश कराने में मददगार हैं। और फिर नॉलेजफुल नहीं हैं तो नये संस्कारों की रचना नहीं करा सकती। कोई में कौनसा विशेष गुण है, कोई में कौनसा विशेष गुण है। लेकिन चाहिए तीनों ही। अगर तीनों में ही प्रैक्टिकल में समानता है तो फिर सफ़लता बहुत जल्दी मिलती है। नहीं तो कोई बात की कमी होने कारण जो सम्पूर्ण सफ़लता होनी चाहिए और जल्दी होनी चाहिए उसमें टाइम लग जाता है। तो अभी लक्ष्य यह रखना है कि तीनों कर्त्तव्य करने के लिए यह मुख्य गुण मूर्त बनना है। उसमें कमी न हो। फिर समय को नदीक लायेंगे। यह समानता लानी है, जो बाप में सर्व गुणों की समानता है। अभी कोई में कौनसा गुण, कोई में कौनसी विशेषता है। फर्क है ना।

बापदादा कौनसी गिफ्ट देने आये हैं? निराकार बाप की गिफ्ट कौनसी है और साकार की गिफ्ट कौनसी है? दोनों गिफ्ट मिली हैं? दोनों की गिफ्ट एक ही है वा अलग-अलग है? गिफ्ट तो सबको मिली है। बाप और दादा द्वारा गिफ्ट मिलती है। जो सर्व आत्माओं प्रति गिफ्ट है स्वर्ग का राज-भाग, वह तो सबको मिलता ही है लेकिन जो अनन्य बच्चे स्नेही वा सर्व कार्य में सहयोगी बनते हैं उन्हों को फिर अपनी-अपनी गिफ्ट मिलती है दोनों द्वारा। साकार बापदादा द्वारा एक ही विशेष गिफ्ट कौनसी मिली है, जो स्नेही और सहयोगी रत्नों को ही मिलती है। वह स्वर्ग की गिफ्ट तो वरदान में मिलती है। साकार और निराकार द्वारा हर एक को स्पेशल वरदान भी मिला है और गिफ्ट भी मिली है। कई ऐसे वरदान हरेक को अपने-अपने मिले हुए हैं जो बिना मेहनत के वरदान द्वारा सफलता को पाते रहते हैं। वरदान तो अपने-अपने जानते हो। कोई को कोई विशेष शक्ति का वरदान मिला हुआ है, कोई को किस विशेष शक्ति का वरदान मिला हुआ है। उन वरदानों का अनुभव भी हरेक करते हैं। कोई को सर्व के सदा सहयोगी बनने का भी वरदान मिलता है, किसको सर्व के स्नेही बनने का वरदान मिलता है। किसको सर्व के सम्बन्ध में आने का वरदान मिलता है, कोई को कोई भी समस्या आये उसको सामना करने की शक्ति का भी वरदान मिलता है। तो हरेक को अपना-अपना वरदान भी मिला हुआ है। लेकिन साथ-साथ गिफ्ट भी मिली हुई है। एक-एक के अन्दर देखेंगे तो सर्व शक्तियों में से एक श्रेष्ठ शक्ति वरदान रूप में प्राप्त है, जिसके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती है, नेचरल प्राप्ति है। एक-दो से सम्पर्क में आने से अनुभव होता है। जैसे एक-दो के गुणों का वर्णन करते हो वैसे हरेक के वरदान का भी मालूम पड़ जाता है। लेकिन जो भी पर्सनल गिफ्ट होती है उससे विशेष स्नेह रहता है। वह कौनसी गिफ्ट है? यह सोचना और दूसरा यह सोचना कि पर्सनल गिफ्ट को सदैव कायम रखने के लिए विशेष किस बात का अटेन्शन रखने की आवश्यकता है? अमृतवेले इस पर विचार सागर मंथन करना।

याद की यात्रा से आत्मा में विल-पावर आती है। जितनी-जितनी विल- पावर धारण करेंगे उतनी बुद्धि को जहाँ चाहें, जितना समय चाहें उतना लगा सकते हैं। विल-पावर कैसे आ सकती है। (विल करने से) विल करने की निशानी अपनी विल-पावर से समझ सकते हो? सर्व शक्तियों को विल किया तो बाप सर्व शक्तियाँ विल कर देते हैं। सर्वशक्तिवान साथी बन गये और सर्व शक्तियाँ साथी बन गयीं, तो फिर विजय ही विजय है। भक्ति-मार्ग में भी कोई कार्य करते हैं तो समझते है ना मालूम पूरा हो या न हो। इसलिए भगवान् के ऊपर छोड़ देते हैं कि - ‘‘हे भगवान्! आपका कार्य आप ही जानो।’’ तो यह जो भक्ति-मार्ग में संस्कार भरे वह अब प्रैक्टिकल किया है। भक्ति-मार्ग में कहने मात्र था। यहाँ ज्ञान मार्ग में किया है। ज्ञान-मार्ग में करने की शक्ति, भक्ति-मार्ग में कहने की शक्ति। रात दिन का फर्क है। अच्छा।



10-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


सेवा की धरनी तैयार करने का साधन – सर्चलाइ

रेक के मस्तक पर तीन रेखायें कौनसी देख रहे हैं? आपको अपनी रेखायें दिखाई देती हैं? जैसे बाप के यादगार चित्र में सदैव तीन रेखायें जरूर दिखाते हैं। ऐसे ही हरेक शालिग्राम के मस्तक पर तीन रेखायें कौनसी दिखाई देती हैं? मस्तक को कब दर्पण में देखा है? कौनसे दर्पण में देखा है? हरेक के मस्तक पर एक रेखा वा निशानी विजय की निशानी है। विजय की निशानी होती है त्रिशूल। त्रिशूल मन, वाणी, कर्म तीनों में सफलता की निशानी, विजय की निशानी है। शक्तियों के चित्रों में भी त्रिशूल दिखाते हैं। तो हरेक के मस्तक में यह विजय की निशानी त्रिशूल है। त्रिशूल के ऊपर दूसरी रेखा व निशानी है बिन्दी। तीसरी रेखा फिर है त्रिशूल के नीचे जो लम्बी लाइन होती है, वह निशानी है लाइन क्लीयर और केयरफुल की। केयरफुल भी और क्लीयर भी। मार्ग के बीच में कोई भी रूकावट न आये। तो तीसरी निशानी है सीधा मार्ग पर एकरस हो चलने वाले। तीनों ही रेखायें वा निशानियाँ हरेक के मस्तक पर देख रहे हैं। रेखायें सभी की होती हैं लेकिन कोई की स्पष्ट होती हैं, कोई की स्पष्ट नहीं होती हैं। तो आपने अपनी लकीरें देखीं? त्रिशूल है, लाइन क्लीयर भी है और आत्मिक स्थिति की बिन्दी भी है। भक्त लोग भी मस्तक में तिलक की निशानी रखते हैं। आप लोगों को मस्तक में लगाने की आवश्यकता नहीं है। सदैव अपने मस्तक की इन रेखाओं से अपनी स्थिति को परख सखते हो। तीनों ही रेखायें तेज होनी चाहिए, तब ही साक्षात्कारमूर्त बन सकते हो वा अपने कर्त्तव्य को सफल कर सकते हो। अब आप सर्विस पर जा रहे हो। अभी से ही उन आत्माओं के ऊपर अपनी सर्च-लाइट डालने शुरू करना है। शुरू की है या वहाँ जाकर शुरू करेंगे? सर्चलाइट की रोशनी दूर से जाती है। तो यहाँ से ही सर्चलाइट डालनी है। आत्माओं को चुन सकते हो। यहाँ से ही कार्य शुरू करने से वहाँ जाते ही प्रत्यक्ष सबूत दिखाई देगा। सर्चलाइट बनकर के ही चलते-फिरते हो वा जब बैठते हो तब ही सर्चलाइट देते हो? निरन्तर सर्चलाइट समझकर चारों ओर वायुमण्डल को बनाने का कर्त्तव्य अभी से ही करना है। जो वहाँ जाते ही वायुमण्डल के आकर्षण से समीप आने वाली आत्मायें अपना सहज ही भाग्य पा सकें। क्योंकि अभी समय कम और सफलता हजार गुणा दिखानी है। पहले का समय और था। समय ज्यादा और सफलता कम होती थी। लेकिन अभी कम समय में सफलता हजार गुणा हो, वह प्लैन बनाना है। प्लैन के पहले प्लेन बनना है। अगर प्लेन बन गये तो प्लैन प्रैक्टिकल में ठीक आ जायेगा। प्लेन बनने से ही प्लैन ठीक चल सकेगा। प्लेन बनने के बाद फिर प्लैन क्या रखना है, जिससे सदा सफलता प्राप्त हो? सो थोड़े में सुनाते हैं जो कभी भूले नहीं। एक तो याद रखना कि हम सब एकमत हैं अर्थात् एक के ही मत पर एक मति। दूसरी बात -- वाणी में भी सदैव एक का ही नाम बार-बार अपने को वा दूसरों को स्मृति में दिलाना है। तीसरी बात -- चलन अथवा कर्म में इकॉनामी हो। न सिर्फ तन में इकॉनामी करनी है, लेकिन वाणी में भी इकॉनामी हो, संकल्प में भी इकॉनामी, समय में भी इकॉनामी। तो चलन में सभी प्रकार की इकॉनामी हो। यह तीनों ही बातें -- एक मति, एक का नाम अर्थात् एकनामी और फिर इकॉनामी। यह तीनों ही बातें सदैव स्मृति में रख फिर कदम उठाना वा संकल्प को वाणी में लाना है।

कोई भी लेन-देन करते हो तो उसी समय एक सलोगन याद रखना है - बालक सो मालिक। जिस समय विचारों को देते हो तो मालिक बनकर देना चाहिए लेकिन जिस समय फाइनल होता है उस समय फिर बालक बन जाना है। सिर्फ मालिकपना भी नहीं, सिर्फ बालकपना भी नहीं। जिस समय जो कर्म करना है उस समय वही स्थिति होनी चाहिए। और जब भी अन्य आत्माओं की सर्विस करते हो तो सदैव यह भी ध्यान में रखो कि दूसरों की सर्विस के साथ अपनी सर्विस भी करनी है। आत्मिक-स्थिति में अपने को स्थित रखना, यह है अपनी सर्विस। पहले यह चेक करो कि अपनी सर्विस भी चल रही है? अपनी सर्विस नहीं होती तो दूसरों की सर्विस में सफलता नहीं होगी। इसलिए जैसे दूसरों को सुनाते हो ना कि बाप की याद अर्थात् अपनी याद वा अपनी याद अर्थात् बाप की याद। इस रीति से दूसरों की सर्विस अर्थात् अपनी सर्विस। यह भी स्मृति में रखना है। जब कोई भी सर्विस पर जाते हैं तो सदैव ऐसे समझो कि सर्विस के साथ-साथ अपने भी पुराने संस्कारों का अन्तिम- संस्कार करते हैं। जितना संस्कारों का संस्कार करेंगे उतना ही सत्कार मिलेगा। सभी आत्मायें आपके आगे मन से नमस्कार करेंगी। एक होता है हाथों से नमस्कार करना, दूसरा होता है मन से। मन ही मन में गुण गाते रहें। जैसे भक्ति भी एक तो बाहर की होती है, दूसरी होती है मानसिक। तो बाहर से नमस्कार करना- यह कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन मन से नमस्कार करेंगे, गुण गायेंगे बाप के कि इन्हों को बनाने वाला कौन? दूसरा, जो उन्हों के अपने दृढ़ विचार हैं उनको भी आपके सुनाये हुए श्रेष्ठ विचारों के आगे झुका देंगे। तो नमस्कार हुआ ना। मन से नमस्कार करें, यह पुरूषार्थ करना है। बाहर के भक्त नहीं बनाना है। लेकिन मानसिक नमस्कार करने वाले बनाने हैं। वही भक्त बदल कर ज्ञानी बन जायें। जितना-जितना बुद्धि को सदैव स्वच्छ अर्थात् एक की याद में अर्पण करेंगे उतना ही स्वयं दर्पण बन जायेंगे। दर्पण के सामने आने से न चाहते हुए भी अपना स्वरूप दिखाई देता है। इस रीति से जब सदैव एक की याद में बुद्धि को अर्पण रखेंगे तो आप चैतन्य दर्पण बन जायेंगे। जो भी सामने आयेंगे वह अपना साक्षात्कार वा अपने स्वरूप को सहज अनुभव करते जायेंगे। तो दर्पण बनना, जिससे स्वत: ही साक्षात्कार हो जाये। यह अच्छा है ना। दूर से ही मालूम पड़ता है ना कि कोई सर्चलाइट है। भले कहाँ भी, कितने भी बड़े संगठन में हों, लेकिन संगठन के बीच में दूर से ही मालूम पड़े कि यह सर्चलाइट है अर्थात् मार्ग दिखाते रहें।

आप लोग नॉलेज और याद की सर्चलाइट द्वारा मार्ग दिखलाने वाले सर्चलाइट हो। और जब दृढ़ संकल्प करके जाते हैं तो संकल्प से स्वरूप बन ही जायेंगे। संकल्प है कि हम विजयी रत्न हैं, तो स्वरूप भी विजय का ही बन जाता है। वाणी और कर्म ऐसे ही चलते हैं। संकल्प के आधार से विजय कर्म में भरी हुई है। विजय का तिलक सर्विसएबुल आत्माओं को लगा हुआ है। सर्विस अर्थात् विजय का तिलक लगा है। यह सर्विसएबल ग्रुप जा रहा है ना। जिसका एक सेकेण्ड वा एक संकल्प भी सर्विस के सिवाय ना हो वह है सर्विसएबल। ऐसा यह ग्रुप है ना। जब खास सर्विस पर जाते हैं तो अपने ऊपर भी खास ध्यान देना होता है। यह साधारण सर्विस नहीं है लेकिन विशेष सर्विस है। साधारण सर्विस करते हो तो साधारण स्मृति रहती है। जब कोई भी विशेष कार्य करना होता है तो विशेष याद रहती है। तो साधारण स्मृति में नहीं, लेकिन पावरफुल स्मृति में रहना है। सदैव पावरफुल स्मृति में रहने से वायुमण्डल पावरफुल रहेगा। पावरफुल वायुमण्डल होने के कारण कोई भी आत्मा इस वायुमण्डल से निकल नहीं पायेंगे, तब ही सर्विस की सफलता होगी। सदैव एक-दो के विचारों को सत्कार देकर स्वीकार करना है, तो फिर मानसिक नमस्कार सहज करेंगे। सदैव ‘हाँ जी, हाँ जी’ का पाठ पक्का करना। जितना ‘हाँ जी, हाँ जी’ करेंगे उतना ही सभी जय-जयकार करेंगे। आप अपने शक्ति-स्वरूप की वा पाण्डव-स्वरूप की प्रत्यक्षता करने के लिए जा रहे हो ना। अश्व चक्र लगाकर आत्माओं को यज्ञ में स्वाहा कराने लिए जा रहे हैं। स्वयं तो स्वाहा हो ही चुके हैं। एकदम प्लेन बनना है। साथ में बोझ नहीं लेना। पाण्डव पाँच हैं लेकिन मत एक है। कहते हैं ना कि हम सभी एक हैं। एक इग्ज़ाम्पल कायम रखने के लिए यह फर्स्ट ग्रुप है। स्मृति-स्वरूप की एक-दो को हर समय स्मृति दिलाने से एक मत हो जायेंगे। पाँच पाण्डवों की एकमत की विशेषता भी है और हरेक की अपनी-अपनी विशेषता भी है। हरेक की अपनी विशेषता कौनसी है? जैसे फोर मस्केटियर्स (Four Musketeers; चार बंदूकधारी फौजी) का सुनाते हैं ना। तो एक-दो में मिल जुलकर हर कार्य को सफल बनाना है। हरेक अपने ऊपर विशेष एक ड्यूटी ले। हर एक अपने विशेष कार्य की ज़िम्मेवारी सुनाओ। संगठन में होते हुए भी अपनी विशेषता का सहयोग देने से सहज हो जाता है।

एक-एक पाण्डव क्या विशेषता दिखायेंगे? आत्मा के नाते तो सभी पाण्डव हो और शक्तियाँ भी हो। अपनी विशेषता का मालूम है? अपना उमंग-उत्साह और एकरस अवस्था सदैव रहे। कितना भी कोई किन बातों द्वारा आप लोगों को हराने की कोशिश करे, लेकिन जब प्रैक्टिकल अनुभवीमूर्त होकर के उनको आत्मिक दृष्टि और पावरफुल स्थिति में स्थित होकर दो शब्द भी पावरफुल बोलेंगे तो वह अपने को काग का शेर समझेंगे। जैसे देवियों का दिखाते हैं ना कि सामने असुर विकराल रूप से सामना करने आते हैं, लेकिन उन्हों के आगे जैसे बिल्कुल पशु अर्थात् बेसमझ बन जाते हैं। कितना भी बड़ा समझदार हो लेकिन आपके अनुभवीमूर्त और आत्मिक दृष्टि के सामने बिल्कुल ही अपने को बेसमझ समझेंगे। भले आपके सामने कितना भी रूप धारण करने की कोशिश करें। शक्तियों के पाँव के नीचे सदैव भैंस दिखाते हैं, क्यों? कितना भी कोई अपने को सेन्सिबुल, नॉलेजफुल समझें लेकिन भैंस बिल्कुल बेसमझ होती है। बनकर एक रूप आयें और बन जायेंगे दूसरा रूप। शक्तियों का यादगार दिखाते हैं ना। असुर सामना करने विकराल रूप धारण कर आते हैं लेकिन जब शक्तियों का तीर लगता है तो फिर दूसरा रूप हो जाता है। इसलिए सदैव यह याद रखना कि हम आलमाइटी अथॉरिटी के द्वारा निमित्त बने हुए हैं। आलमाइटी गवर्नमेन्ट के मैसेन्जर हो। कोई से भी डिस्कस में अपना माइन्ड डिस्टर्ब नहीं करना है। नहीं तो वे लोग साइन्स की शक्ति से संकल्पों को भी रीड़ करते हैं। इसलिए कभी भी कोई बात का आवाज़ भी आये तो अपने को डिस्टर्ब नहीं करना। अपने चेहरे पर वा मन की स्थिति में अन्तर न लाना। मन्त्र याद रखना। जैसे कोई वाणी से वा और तरीके से वश नहीं होते हैं तो मंतर-जंतर करते हैं। तो जब देखो ऐसी कोई बात सामने आये तो अपने आत्मिक दृष्टि का नेत्र और मन्मनाभव का मन्त्र प्रयोग करना, तो शेर से भैंस बन जायेंगे। जादू-मंतर तो आता है ना। यहाँ से ही सभी सिस्टम निकली है। मंतर चलाना, रिद्धि-सिद्धि भी यहीं से ही निकली है। अपनी आत्मिक दृष्टि से अपने संकल्पों को भी सिद्ध कर सकते हो। वह है रिद्धि-सिद्धि और यहाँ विधि से सिद्धि। शब्दों का अन्तर है। रिद्धि-सिद्धि है अल्पकाल, लेकिन याद की विधि से संकल्पों और कर्मों की सिद्धि है अविनाशी। वह रिद्धि-सिद्धि यूज करते हैं और आप याद की विधि से संकल्पों और कर्मों की सिद्धि प्राप्त करते हो। अच्छा।



11-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


तीनों लोकों में बापदादा के समीप रहने वाले रत्नों की निशानियाँ

ह कौनसा ग्रुप है? इस ग्रुप को सज़ाकर क्या बनाया है? बदलकर और बनकर जा रही हैं ना! तो इन्हों को बदलकर क्या बनाया है? अपना जब साक्षात्कार करेंगी कि हम क्या बने हैं तब तो औरों को बनायेंगी। यह ग्रुप समझता है कि हम रूहानी सेवाधारी बनकर जा रहे हैं। सभी अपने को सेवाधारी समझकर सेवा-स्थान पर जा रही हो वा अपने-अपने घर में लौट रही हो? क्या समझ के जाती हो? अगर अपने लौकिक परिवार में जाओ तो उसको क्या समझेंगी? वह भी सेवा-स्थान है वा सिर्फ सेन्टर ही सेवा-स्थान है? अगर घर को भी सेवा-स्थान समझेंगी तो स्वत: सेवा होती रहेगी। जो सेवाधारी होते हैं उन्हों के लिए हर स्थान पर सेवा है। कहाँ भी रहें, कहाँ भी जावें लेकिन सेवाधारी को हर समय और हर स्थान पर सेवा ही दिखाई देगी और सेवा में ही लगे रहेंगे। घर को भी सेवा-स्थान समझकर रहेंगे। बुद्धि में सेवा याद रहने से, इस स्मृति की शक्ति से कर्मबन्धन भी सहज और शीघ्र खत्म हो जायेगा। इसलिए जबकि सेवाधारी बनके जा रही हो तो हर संकल्प में सेवा करनी है। एक सेकेण्ड वा एक संकल्प भी सेवा के सिवाय नहीं जा सकता। इसको कहते हैं सच्चा रूहानी सेवाधारी। रूहानी सेवाधारी तो रूह अथवा आत्मा से भी सेवा कर सकते हैं। जैसे लाइट-हाउस एक स्थान पर होते हुए भी चारों ओर अपनी लाइट द्वारा सेवा करते हैं। इसी प्रकार जो सेवाधारी हैं वह भी कोई एक स्थान पर होते हुए भी बेहद सृष्टि के बेहद सर्विस में तत्पर रहते हैं। तो लाइट-हाउस और माइट-हाउस बनी हो? दोनों ही बनी हो या लाइट-हाउस बनी हो और माइट-हाउस अभी बनना है? ज्ञान स्वरूप हैं लाईट- हाउस और योगयुक्त अवस्था है माइट-हाउस। तो सभी ‘ज्ञानी तू आत्मा’,’योगी तू आत्मा’ बनकर जा रही हो ना। कि अभी कुछ रह गया? पूरा श्रृंगार किया? वैसे भी कुमारी अवस्था में स्वच्छता और अपने को ठीक रीति सजाने का रहता ही है। तो यहाँ भट्ठी में भी पूरी तरह ज्ञान, गुणों के श्रृंगार से सज़ाया है। सजकर जा रही हैं वा वहाँ जाकर अभी और कुछ करना है? पूरे अस्त्र-शस्त्र से तैयार होकर युद्ध के मैदान में जा रही हैं। जो अस्त्र-शस्त्रधारी होंगे वह सदैव विजयी होंगे। शस्त्र शत्रु को सामने आने नहीं देंगे। तो शस्त्रधारी बनी हो जो शत्रु दूर से ही देखकर भाग जाये। सभी ऐसे बने हैं? मधुबन वरदान-भूमि के प्रभाव में बोल रही हो वा अविनाशी शस्त्रधारी वा श्रृंगारी अपने को बनाया है? कल नीचे उतरेंगी तो स्टेज वही ऊंची रहेगी? यह भी पक्का कर दो कि कहाँ भी जायेंगे लेकिन जो अपने आप से अथवा मधुबन के संगठन बीच, ईश्वरीय दरबार के बीच जो प्रतिज्ञा की है वह सदा कायम रहेगी। ऐसी अविनाशी छाप हरेक ने अपने आपको लगाई है? निश्चय की विजय अवश्य है और हिम्मत रखने वालों की बापदादा और सर्व ईश्वरीय परिवार की आत्मायें मददगार रहती हैं। कितना भी कोई आपकी हिम्मत को हिलाने की कोशिश करे लेकिन प्रतिज्ञा जो की है उस प्रतिज्ञा की शक्ति से जरा भी पांव हिलाना नहीं। पाँव कौनसे? जिस द्वारा याद की यात्रा करते हो। चाहे सृष्टि क्यों न हिलावे लेकिन आप सारे सृष्टि की आत्माओं से शक्तिशाली हैं। एक तरफ सारी सृष्टि हो, दूसरे तरफ आप एक भी हो - तो भी आपकी शक्ति श्रेष्ठ है। क्योंकि सर्वशक्तिमान बाप आपके साथी हैं। इसलिए गायन है शिव-शक्तियाँ। जब शिव और शक्तियाँ दोनों ही साथी हैं तो सृष्टि की आत्मायें उसके आगे क्या हैं? अनेक होते भी एक समान नहीं हैं। इतना निश्चयबुद्धि वा प्रतिज्ञा को पालन करने की हिम्मत रखने वाली बनकर जा रही हो ना। प्रैक्टिकल पेपर होगा। थ्योरी का पेपर तो सहज होता है। किसको सप्ताह कोर्स कराना वा म्यूजियम या प्रदर्शनी समझाना है थ्योरी का पेपर। लेकिन प्रैक्टिकल पेपर में जो पास होते हैं वही ‘पास विद् ऑनर’ होते हैं। जो ऐसे पास होते हैं वही बापदादा के पास रहने वाले रत्न बनते हैं। तो पास में रहना पसन्द करती हो वा दूर से देखना पसन्द आता है? ‘पास विद् ऑनर’ बनेंगे। यह भी हिम्मत रखनी है ना। इस हिम्मत को अविनाशी बनाने के लिए एक बात सदैव ध्यान में रखनी है।

कोई भी संगदोष में अपने को लाने के बजाय, बचाते रहना। कई प्रकार के आकर्षण पेपर के रूप में आयेंगे, लेकिन आकर्षित नहीं होना। हर्षितमुख हो पेपर समझ पास होना है। संगदोष कई प्रकार का होता है। माया संकल्पों के रूप में भी अपने संग का रंग लगाने की कोशिश करती है। तो इस व्यर्थ संकल्पों के वा माया की आकर्षण के संकल्पों में कभी फेल नहीं होना। और फिर स्थूल संबंधी का संग, उसमें न सिर्फ परिवार का सम्बन्ध होता है लेकिन परिवार के साथ-साथ और भी कोई सम्बन्ध का संग। सहेली का संग भी सम्बन्ध का संग है। तो कोई भी सम्बन्धी के संग में नहीं आना। कोई के वाणी के संगदोष में भी नहीं आना। वाणी द्वारा भी उलटा संग का रंग लग जाता है। इससे भी अपने को बचाना। और फिर अन्न का संगदोष भी है। अगर कभी भी किसके भी समस्या अनुसार वा कोई सम्बन्धी के स्नेह के वश भी अन्नदोष में आ गई तो यह अन्न भी अपने मन को संग के रंग में लगा देता है। इसलिए इससे भी अपने को बचाते रहना। कर्म का संग भी होता है। इसलिए इससे भी अपने को बचाते रहना। तब ‘पास विद् ऑनर’ बनेंगी। संगदोष के पेपर में पास हो गई तो समझो समीप आ सकती हो। अगर संगदोष में आ गई तो दूर हो जायेंगी। फिर न निराकारी वतन में, न अभी संगमयुग में, न भविष्य में पास रह सकेंगी।

एक संगदोष तीनों लोकों में दूर हटा देता है। एक संगदोष से बचने से तीनों लोकों में, तीनों कालों में बाप के समीप रहने का भाग्य प्राप्त कर सकती हो। इस ग्रुप को बापदादा हंसों का संगठन कहते हैं। हंसों का कर्त्तव्य वा स्वरूप क्या होता है? हंसों का स्वरूप है प्योरिटी और कर्त्तव्य है सदैव गुणों रूपी मोती ही धारण करेंगे। अवगुण रूपी कंकड कभी भी बुद्धि में स्वीकार नहीं करेंगे। यह है हंसों का कर्त्तव्य। लेकिन इस कर्त्तव्य को पालन करने के लिए बापदादा से सदैव आज्ञा मिलती रहती है। वह कौनसी आज्ञा? जिस आज्ञा का आपका चित्र भी बना हुआ है। बुरा न देखना, बुरा न सुनना, न बोलना, न सोचना। अगर इस आज्ञा को सदैव स्मृति में रखेंगे तो फिर सच्चा हंस बनकर, बाप जो सर्व गुणों का सागर है, सागर के किनारे पर सदैव बैठे रहेंगे। तो अपनी बुद्धि को सिवाय ज्ञान-सागर बाप के और कहाँ भी ठिकाना न देना। क्योंकि हंसों का ठिकाना है ही सागर। तो अपने को हंस समझकर अपनी प्रतिज्ञाओं को पालन करती रहना। समझा? मोती और कंकड़ - दोनों को छांटना सीखा है? कंकड़ क्या होता है, रत्न क्या होते हैं? नॉलेजफुल तो बनी हो ना! अब देखेंगे यह हंस क्या कमाल कर दिखाते हैं। हंसों का संगठन न चाहते हुए भी अपने तरफ आकर्षित करता है। तो संगदोष से बचना है और ईश्वरीय संग में रहना है। अनेक संग छोड़ना, एक संग जोड़ना है। ईश्वरीय संग सिर्फ शरीर से नहीं होता लेकिन बुद्धि द्वारा भी ईश्वरीय संग में रहना है। बुद्धि सदैव ईश्वरीय संग में रहे और स्थूल सम्बन्ध में भी ईश्वरीय संग रहे। इस संग के आधार पर अनेक संगदोष से बच जायेंगे। सिर्फ ट्रांसफर करना है। कोमलता को कमाल में परिवर्तन करना। कोमलता दिखाना नहीं। सिर्फ संस्कारों को परिवर्तन करने में कोमल बनना है। कर्म में कोमल नहीं बनना। इसमें तो शक्ति रूप बनना है। अगर शक्ति-स्वरूप का कवच सदैव धारण नहीं करेंगी तो कोमल को तीर बहुत जल्दी लग जायेगा। तीर भी कोमल स्थान पर ही लगाते हैं। इसलिए अगर शक्ति-स्वरूप का कवच धारण करेंगी तो शक्ति रूप बन जायेंगी। फिर माया का कोई तीर लग नहीं सकेगा। कर्म में कोमल नहीं बनना। सिर्फ मोल्ड होने के लिए रीयल गोल्ड बनना है। चेहरे से, नैन-चैन से कोमलता नहीं लाना। यह सभी बातें स्मृति में रख ‘पास विद् ऑनर’ बनना है। इस ग्रुप में प्रैक्टिकल सबूत दे सबूत बनने वाले उम्मीदवार रत्न दिखाई देते हैं। हरेक को एक दो से आगे जाना है। दूसरे को आगे जाता देख हर्षित नहीं होना है, सिर्फ दूसरे को देखते रहेंगे तो भक्त हो जायेंगे। भक्त लोग सिर्फ देख-देख उनके गुण गाते खुश होते हैं। तुमको भक्त नहीं बनना है। ज्ञान- स्वरूप और योगयुक्त, ‘ज्ञानी तू आत्मा’ और ‘योगी तू आत्मा’ बनना है। अब पेपर की रिजल्ट देखेंगे। जो प्रैक्टिकल सबूत देंगे वह फर्स्ट नम्बर आयेंगे। जो सोचते रहेंगे तो बाप भी राज्य-भाग्य देने के लिए सोचेंगे। जो स्वयं को स्वयं ही आफर करते हैं उनको बापदादा भी विश्व की राजधानी का राज्य- भाग्य पहले आफर करते हैं। अगर अपने को आफर नहीं करेंगे तो बापदादा भी विश्व का तख्त क्यों आफर करेंगे। अपने को आपेही आफर करो तो आफरीन कही जायेगी। गैस के गुब्बारे नहीं बनना। वह बहुत तेज उड़ते हैं लेकिन अल्पकाल के लिए। यहाँ अपने में अविनाशी एनर्जा भरना। टैम्प्रेरी आक्सीजन का आधार नहीं लेना। अच्छा।



18-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


बुद्धि की अलौकिक ड्रिल

वा से परे रहना अच्छा लगता है वा आवाज़ में रहना अच्छा लगता है? असली देश वा असली स्वरूप में आवाज़ है? जब अपनी असली स्थिति में स्थित हो जाते हो तो आवाज़ से परे स्थिति अच्छी लगती है ना। ऐसी प्रैक्टिस हरेक कर रहे हो? जब चाहें, जैसे चाहें वैसे ही स्वरूप में स्थित हो जायें। जैसे योद्धे जो युद्ध के मैदान में रहते हैं उन्हों को जब भी और जैसा आर्डर मिलता है, वैसे करते ही जाते हैं। ऐसे ही रूहानी वारियर्स को भी जब और जैसा डायरेक्शन मिले वैसे ही अपनी स्थिति को स्थित कर सकते हैं। क्योंकि मास्टर नॉलेजफुल भी हो और मास्टर सर्वशक्तिमान भी हो। तो दोनों ही होने कारण एक सेकेण्ड से भी कम समय में जैसी स्थिति में स्थित होना चाहें उस स्थिति में टिक जायें, ऐसे रूहानी वारियर्स हो? अभी-अभी कहा जाये परधाम निवासी बन जाओ, तो ऐसी प्रैक्टिस है जो कहते ही इस देह और देह के देश को भूल अशरीरी परमधाम निवासी बन जाओ? अभी- अभी परमधाम निवासी से अव्यक्त स्थिति में स्थित हो जाओ, अभी-अभी सेवा के प्रति आवाज़ में आये, सेवा करते हुए भी अपने स्वरूप की स्मृति रहे - ऐसे अभ्यासी बने हो? ऐसा अभ्यास हुआ है? वा जब परमधाम निवासी बनने चाहें तो परमधाम निवासी के बजाय बार-बार आवाज़ में आ जायें - ऐसा अभ्यास तो नहीं करते हो? अपनी बुद्धि को जहाँ चाहो वहाँ एक सेकेण्ड से भी कम समय में लगा सकते हो? ऐसा अभ्यास हुआ है? मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी अपने को समझते हो? जब आलमाइटी अथॉरिटी भी हो, तो क्या अपनी बुद्धि की लगन को अथॉरिटी से जहाँ चाहे वहाँ नहीं लगा सकते? अथॉरिटी के आगे यह अभ्यास मुश्किल है वा सहज है? जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियों को जब चाहो, जहाँ चाहो वहाँ लगा सकते हो ना। अभी हाथ को ऊपर वा नीचे करना चाहो तो कर सकते हो ना। तो जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियों का मालिक बन जब चाहो कार्य में लगा सकते हो, वैसे ही संकल्प को वा बुद्धि को जहाँ लगाने चाहो वहाँ लगा सकते हो इसको ही ईश्वरीय अथॉरिटी कहा जाता है, जो बुद्धि की लगन भी ऐसे ही सहज जहाँ चाहो वहाँ लगा सकते हो। जैसे स्थूल हाथ-पांव को बिल्कुल सहज रीति जहाँ चाहो वहाँ चलाते हैं वा कर्म में लगाते हैं। ऐसे अभ्यासी को ही मास्टर सर्वशक्तिमान वा मास्टर नॉलेजफुल कहा जाता है। अगर यह अभ्यासी नहीं हैं तो मास्टर सर्वशक्तिमान वा नॉलेजफुल नहीं कह सकते। नॉलेजफुल का अर्थ ही है - जिसको फुल नॉलेज हो कि इस समय क्या करना है, क्या नहीं करना है, इससे क्या लाभ है और न करने से क्या हानि है। यह नॉलेज रखने वाले ही नॉलेजफुल हैं और साथ-साथ मास्टर सर्वशक्तिमान होने कारण सर्व शक्तियों के आधार से यह अभ्यास सहज और निरन्तर बन ही जाता है। लास्ट पढ़ाई का कौनसा पाठ है और फर्स्ट पाठ कौनसा है? फर्स्ट पाठ और लास्ट पाठ यही अभ्यास है। जैसे बच्चे का लौकिक जन्म होता है तो पहले-पहले उनको एक शब्द याद दिलाया जाता है वा सिखलाया जाता है ना। यहाँ भी अलौकिक जन्म लेते पहला शब्द क्या सीखा? बाप को याद करो। तो जन्म का पहला शब्द लौकिक का भी, अलौकिक का भी वही याद रखना है। यह मुश्किल हो सकता है क्या? अपने आपको ड्रिल करने का अभ्यास नहीं डालते हो। यह है बुद्धि की ड्रिल। ड्रिल के अभ्यासी जो होते हैं तो पहले-पहले दर्द भी बहुत महसूस होता है और मुश्किल लगता है लेकिन जो अभ्यासी बन जाते हैं वह फिर ड्रिल करने के सिवाय रह नहीं सकते। तो यह भी बुद्धि की ड्रिल कराने का अभ्यास कम होने के कारण पहले मुश्किल लगता है। फिर माथा भारी रहने का वा कोई न कोई विघ्न सामने बन आने का अनुभव होता रहता है। तो ऐसे अभ्यासी बनना ही है। इसके सिवाय राज्य-भाग्य की प्राप्ति होना मुश्किल है। जिन्हों को यह अभ्यास मुश्किल लगता है, तो प्राप्ति भी मुश्किल है। इसलिए इस मुख्य अभ्यास को सहज और निरन्तर बनाओ। ऐसे अभ्यासी अनेक आत्माओं को साक्षात्कार कराने वाले साक्षात् बापदादा दिखाई दे। जैसे वाणी में आना कितना सहज है। वैसे यह वाणी से परे जाना भी इतना सहज होना है। अच्छा।



22-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


तीव्र पुरुषार्थी की निशानियाँ

शुद्ध संकल्प स्वरूप स्थिति का अनुभव करते हो? जबकि अनेक संकल्पों की समाप्ति होकर एक शुद्ध संकल्प रह जाता है, इस स्थिति का अनुभव कर रही हो? इस स्थिति को ही शक्तिशाली, सर्व कर्म-बन्धनों से न्यारी और प्यारी स्थिति कहा जाता है। ऐसी न्यारी और प्यारी स्थिति में स्थित होकर फिर कर्म करने के लिए नीचे आते हैं। जैसे कोई का निवास-स्थान ऊंचा होता है, लेकिन कोई कार्य के लिए नीचे उतरते हैं तो नीचे उतरते हुए भी अपना निजी स्थान नहीं भूलते हैं। ऐसे ही अपनी ऊंची स्थिति अर्थात् असली स्थान को क्यों भूल जाते हो? ऐसे ही समझकर चलो कि अभी-अभी अल्पकाल के लिए नीचे उतरे हैं कार्य करने अर्थ, लेकिन सदाकाल की ओरिज़िनल स्थिति वही है। फिर कितना भी कार्य करेंगे लेकिन कर्मयोगी के समान कर्म करते हुए भी अपनी निज़ी स्थिति और स्थान को भूलेंगे नहीं। यह स्मृति ही समर्थी दिलाती है। स्मृति कम है तो समर्थी भी कम है। समर्थी अर्थात् शक्तियाँ। मास्टर सर्वशक्तिमान का जन्मसिद्ध अधिकार कौनसा है? सर्व शक्तियाँ ही मास्टर सर्वशक्तिमान का जन्मसिद्ध अधिकार है। तो यह स्मृति की स्टेज जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में सदैव रहनी चाहिए। ऐसे अनुभव करते हो कि सदैव अपना जन्मसिद्ध अधिकार साथ ही है? अपने को सपूत समझते हो? जो भी बैठे हैं सभी अपने को सपूत समझते हैं? (कोई ने कहा सपूत हैं, कोई ने कहा बन रहे हैं) सपूत बन रहे हो या सबूत बन रहे हो? (दोनों) अगर सपूत नहीं तो याद की यात्रा भी नहीं ठहरती होगी। अन्त तक अगर सपूत बनने का ही पुरूषार्थ करेंगे तो सबूत कब दिखायेंगे? दो-चार वर्ष में सपूत बनोगे, उसके बाद दो-चार वर्ष में सबूत दोगे? सपूत हो ही। अगर सपूत नहीं होते तो अपने को सरेन्डर समझते? सरेन्डर हुए हो वा सरेन्डर भी अभी होना है? तो सरेन्डर होना सपूतपना नहीं है? समझा?

जो श्रीमत के आधार पर डायरेक्शन प्रमाण चल रहे हैं, अपने को ट्रस्टी समझ कर चल रहे हैं, उनको तो सपूत कहेंगे ना। कहाँ-कहाँ बहुत सोच भी रिजल्ट बदल देती है। जैसे पेपर के टाइम पेपर करने के बजाय क्वेश्चन के सोच में चले जाते हैं तो पेपर रह जाता है। तो ज्यादा सोच में नहीं जाना है। बाप समझते हैं - सपूत बच्चे हैं तब तो श्रीमत पर चल रहे हैं। बाकी रही सबूत दिखाने की बात, वह भी हरेक यथा शक्ति दिखा रहे हैं और दिखाते रहेंगे। जितना बाप बच्चों में निश्चयबुद्धि है, बच्चे अपने में निश्चयबुद्धि कम हैं। इसलिए हर कार्य में विजय हो, यह रिजल्ट कभी-कभी दिखाई देती है। जैसे बाप में निश्चय, पढ़ाई में निश्चय है वैसे ही अपने में भी हर समय और हर संकल्प निश्चयबुद्धि बनकर करना, उसकी कमी है। इस कमी को भी कब तक भरेंगे? दो-तीन वर्ष तक? दो-तीन वर्ष तो स्वप्न में भी कभी सोच में न लाना। क्या कहना चाहिए? अभी। जो तीव्र पुरुषार्थी हैं उनके मुख से ‘कभी’ शब्द नहीं निकलेगा। वह सदैव ‘अभी’, सिर्फ कहेंगे भी नहीं, लेकिन अभी- अभी करके दिखायेंगे। यह है तीव्र पुरूषार्थ। ऊपर जा रहे हो तो नदीक होना चाहिए ना। अगर दो-तीन वर्ष की मार्जिन रखी है तो तीव्र पुरुषार्थी की लाइन में गिनती होगी? तीव्र पुरुषार्थी का अर्थ ही है कि जो भाr बात कमज़ोरी वा कमी की दिखाई दे, उसको अभी-अभी खत्म कर दे। जब स्मृति रहती है तो स्मृति के साथ समर्थी रहने के कारण कोई भी कमी को पूर्ण करना ऐसे लगता है जैसे कोई साधारण कार्य, बिगर सोचे आटोमेटीकली हो जाता है। यह नेचरल हो जाता है। ऐसा पुरूषार्थ करने के लिए दिन-प्रतिदिन जो शिक्षा मिलती है उसको स्वरूप बनाते जाओ। शिक्षाओं को शिक्षा की रीति से बुद्धि में नहीं रखो लेकिन हर शिक्षा को स्वरूप बनाओ। तो क्या बन जायेंगे? जो असली स्टेज का गायन है - ज्ञान-स्वरूप, प्रेम-स्वरूप, आनन्द-स्वरूप स्थिति बन जायेगी। प्वाइन्ट की रीति से बुद्धि में नहीं रखो लेकिन प्वाइन्ट को प्रैक्टिकल स्वरूप बनाओ। फिर सदैव प्वाइन्ट स्वरूप में स्थित हो सकेंगे। अभी मैजारिटी प्वाइन्ट को प्वाइन्ट रीति धारण करते हैं, वर्णन करते हैं। लेकिन जो प्वाइन्ट को स्वरूप में लायेंगे तो वर्णन करने के बजाय साक्षात्कारमूर्त बन जायेंगे। तो यही पुरूषार्थ करते चलो। वर्णन करना तो बहुत सहज है। मनन करना भी सहज है। जो मनन करते हो, जो वर्णन करते हो वह स्वरूप बन अन्य आत्माओं को भी स्वरूपों का अनुभव कराओ। ऐसे को कहते हैं सपूत और सबूत दिखाने वाले। सपूत बच्चे को वफादार और रमानबरदार कहा जाता है। सभी अपने को रमा- नबरदान समझते हैं? जब विजय का वरदान है, तो विजय किससे होती है? जब फरमान पर चलते हैं। तो फरमानबरदार नहीं हो? स्थूल में फरमान पालन करने की शक्ति भी सूक्ष्म के आधार पर होती है। निरन्तर फरमान पालन होता है? तो मुख्य फरमान कौनसा है? निरन्तर याद में रहो और मन, वाणी, कर्म में प्योरिटी हो। औरों को भी सुनाते हो कि पवित्र बनो, योगी बनो। तो जो औरों को सुनाते हो वही मुख्य फरमान हुआ ना। संकल्प में भी अपवित्रता वा अशुद्धता न हो - इसको कहते हैं सम्पूर्ण पवित्र। ऐसे फरमानबरदान बने हो ना। सारी शक्ति-सेना पवित्र और योगी है कि अभी बनना है? निरन्तर योगी भी हैं। निरन्तर अर्थात् संकल्प में भी अशुद्धता नहीं है। संकल्प में भी अगर पुराने अशुद्ध संस्कारों का टच होता है तो भी सम्पूर्ण प्योरिटी तो नहीं कहेंगे ना। जैसे स्थूल भोजन भले कोई स्वीकार नहीं करते हैं, लेकिन हाथ भी लगाते हैं तो भी अपने को सच्चे वैष्णव नहीं समझते हैं। अगर बुद्धि द्वारा भी अशुद्ध संकल्प वा पुराने संस्कार संकल्प रूप में टच होते हैं तो भी सम्पूर्ण वैष्णव कहेंगे? कहा जाता है - अगर कोई देखता भी है अकर्त्तव्य कार्य, तो देखने का असर हो जाता है, उसका भी हिसाब बन जाता है। इस हिसाब से सोचो तो पुराने संस्कार व अशुद्ध संकल्प बुद्धि में भी टच होते हैं, तो भी सम्पूर्ण वैष्णव वा सम्पूर्ण प्योरिटी नहीं कहेंगे। पुरूषार्थ का लक्ष्य कहाँ तक रखा है? अब सोचो - जबकि इतनी स्टेज तक जाना है तो यह छोटी-छोटी बातें अब इस समय तक शोभती हैं? अभी तक बचपन के खेल खेलते रहते हो वा कभी दिल होती है बचपन के खेल खेलने की? वहाँ ही रचना की, वहाँ ही पालना की और वहाँ ही विनाश किया - यह कौनसा खेल कहा जाता है? वह तो भक्ति-मार्ग के अंधश्रद्धा का खेल हुआ। माया आयेगी जरूर लेकिन अब की स्टेज अनुसार, समय अनुसार विदाई लेने अर्थ आनी चाहिए, न कि ऐसे रूप में आये। नमस्कार करने आये। अभी चलने की तैयारी नहीं करनी है? कुछ समय नमस्कार देखेंगे वा चल पड़ेंगे?

शक्तियों को सभी अनुभव करना है। बापदादा इसका भी त्याग कर यह भाग्य पाण्डवों और शक्तियों को वरदान में देते हैं। इसलिए शक्तियों की पूजा बहुत होती है। अभी से ही शक्तियों को भक्तों ने पुकारना शुरू कर दिया है। आवाज़ सुनना आता है? जितना आगे चलते जायेंगे उतना ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कोई मूर्ति के आगे भक्त लोग धूप जलाते हैं वा गुणगान करते हैं, वह प्रैक्टिकल खुशबू अनुभव करेंगे और उनकी पुकार ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि सम्मुख पुकार। जैसे दूरबीन द्वारा दूर का दृश्य कितना समीप आ जाता है। वैसे ही दिव्य स्थिति दूरबीन का कार्य करेगी। यही शक्तियों की स्मृति की सिद्धि होगी और इस अन्तिम सिद्धि को प्राप्त होने के कारण शक्तियों के भक्त शक्तियों द्वारा रिद्धि-सिद्धि की इच्छा रखते हैं। जब सिद्धि देखेंगे तब तो संस्कार भरेंगे ना। तो ऐसा अपना स्मृति की सिद्धि का स्वरूप सामने आता है? जैसे सन शो फादर है, वैसे ही रिटर्न में फादर का शो करते हैं? बापदादा प्रत्यक्ष रूप में यह पार्ट नहीं देखते, लेकिन शक्तियों और पाण्डवों का यह पार्ट है। तो इतना वफादार और फरमानबरदार बनना है जो एक सेकेण्ड भी, एक संकल्प भी फरमान के सिवाय न चले। इसको कहते हैं फरमानब- रदार। और वफादार किसको कहते हैं? सम्पूर्ण वफ़ादार वे कहलायेंगे जिसको संकल्प में भी वा स्वप्न में भी सिवाय बाप के और बाप के कर्त्तव्य वा बाप की महिमा, बाप के ज्ञान के और कुछ भी दिखाई न दे। ऐसे को सम्पूर्ण वफादार कहते हैं। एक बाप दूसरा न कोई - दूसरी कोई बात स्वप्न में, स्मृति में दिखाई न दे। उसको कहते हैं सम्पूर्ण वफादार। ऐसे फरमानबरदार की प्रैक्टिकल चलन में परख क्या होगी? सच्चाई और सफाई। संकल्प तक सच्चाई और सफाई चाहिए, न सिर्फ वाणी तक। अपने आप को देखना है कि कहाँ तक वफादार और फरमानबरदार बने हैं? अगर एक संग सदा बुद्धि की लगन है तो अनेक संग का रंग लग नहीं सकता। बुद्धि की लगन कम होने का कारण अनेक प्रकार के संग के आकर्षण अपने तरफ खींच लेते हैं। तो और संग तोड़, एक संग जोड़ - यह पहला-पहला वायदा है। उस वायदे को निभाना, इनको ही सम्पूर्ण वफादार कहा जाता है। समझा? अच्छा।



24-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


अन्तर्मुखी बनने से फायदे

कोई भी नई इन्वेन्शन जब निकालते हैं, तो जितनी पावरफुल इन्वेन्शन होती है उतना ही अन्डरग्राउन्ड इन्वेन्शन करते हैं। आप लोगों की भी दिन प्रतिदिन यह इन्वेन्शन पावरफुल होगी। जैसे वह अन्डरग्राउन्ड इन्वेन्शन करते हैं वैसे ही आप भी जितना अन्डरग्राउन्ड अर्थात् अन्तर्मुखी रहेंगे उतना ही नई-नई इन्वेन्शन वा योजनायें निकाल सकेंगे। अन्डरग्राउन्ड रहने से एक तो वायुमण्डल से बचाव हो जायेगा; दूसरा - एकान्त प्राप्त होने के कारण मनन शक्ति भी बढ़ती है; तीसरा - कोई भी माया के विघ्नों से सेफ्टी का साधन बन जाता है। अपने को सदैव अन्डरग्राउन्ड अर्थात् अन्तर्मुखी बनाने की कोशिश करनी चाहिए। अन्डरग्राउन्ड भी सारी कारोबार चलती है। वैसे अन्तर्मुखी होकर भी कार्य कर सकते हैं। ऐसे नहीं कि कोई कार्य नहीं कर सकते हैं। कार्य भी सभी चल सकते हैं। लेकिन अन्तर्मुखी होकर के कार्य करने से एक तो विघ्नों से बचाव; दूसरा समय का बचाव; तीसरा - संकल्पों का बचाव वा बचत हो जायेगी। प्रैक्टिस तो है ना। कभी-कभी अनुभव भी करते हो। अन्तर्मुखी हो बोलते भी हो। लेकिन बाहरमुखता में आते भी अन्तर्मुख, हर्षितमुख, आकर्षणमूर्त भी रहेंगे - कर्म करते हुए यह प्रैक्टिस करनी है। जैसे स्थूल कारोबार का प्रोग्राम बनाते हो, वैसे अपनी बुद्धि की क्या-क्या कारोबार वा क्या कार्य बुद्धि द्वारा करना है। जो प्रोग्राम बनाने के अभ्यासी होते हैं उनका हर कार्य समय पर सफल होता है। इस रीति अपनी भी सूक्ष्म कारोबार है। बुद्धि एक सेकेण्ड में कहाँ से कहाँ जाकर आ भी सकती है। कार्य भी बहुत विस्तार के हैं। तो जब प्रोग्राम सेट करेंगे तब ही समय की बचत और सफलता अधिक हो सकेगी। यह प्रोग्राम बीच-बीच में बनाते रहो लेकिन सदाकाल के लिए। जैसे स्थूल कारोबार सेट करते-करते अभ्यासी हो गये हैं, वैसे ही यह भी अभ्यास करते-करते अभ्यासी हो जायेंगे। इसके लिए खास समय निकालने की भी आवश्यकता नहीं। कोई भी स्थूल कार्य जो भले अधिक बुद्धि वाला हो, उसको करते हुए भी यह अपना प्रोग्राम सेट कर सकते हो। प्रोग्राम सेट करने में कितना समय लगता है? एक-दो मिनट भी ज्यादा है। यह भी अभ्यास डालना है। अमृतवेले अपनी बुद्धि के कारोबार का प्रोग्राम भी पहले से ही सेट कर देना है। जैसे प्रोग्राम बनाया जाता है, फिर उसको चेक किया जाता है कि यह यह कार्य किया और कहां तक हुआ और कहां तक न हुआ। इसी रीति से यह भी प्रोग्राम बनाकर फिर बीच-बीच में चेक करो। जितने बड़े आदमी होते हैं वह बिना प्रोग्राम के नहीं जाते हैं। जैसे आया वैसे कर लिया, ऐसे नहीं चलते। उन्हों का एक-एक सेकेण्ड प्रोग्राम से बुक होता है। आप भी श्रेष्ठ आत्मायें हो, तो प्रोग्राम सेट होना चाहिए। कोई-कोई को प्रोग्राम बनाने का ढंग आता है, कोई को नहीं आता है। स्थूल कारोबार में भी ऐसे होता है। जितना-जिसको अपना प्रोग्राम सेट करना आता है उतना ही समझो अपनी स्थिति पर भी सेट होना आता है। नहीं तो बिना प्रोग्राम बनाने से जैसे बातें नीचे-ऊपर होती हैं वैसे स्थिति भी नीचे ऊपर होती है। सेट नहीं होती है। अच्छा।



25-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


सेवा और तपस्या की समानता

पने को वृक्षपति की सन्तान समझते हो? वृक्ष की निशानी भक्ति-मार्ग में भी चली आती है। जब तपस्वी तपस्या करते हैं तो वृक्ष के नीचे तपस्या करते हैं। इसका रहस्य क्या है? वृक्ष के नीचे तपस्या क्यों करते हैं? उसका कारण क्या है, यह शुरू क्यों हुआ, इसका बेहद का रहस्य क्या है इस सृष्टि रूपी वृक्ष में भी आप लोगों का निवास स्थान कहां है? वृक्ष के नीचे जड़ में बैठे हो ना। चित्र जो अभी ज्ञान सहित बनाये जाते हैं वही फिर यादगार भक्ति-मार्ग में चलता रहता है। वृक्ष के चित्र में दूर से क्या दिखाई देता है? तपस्वी तपस्या कर रहे हैं, जैसे वृक्ष के नीचे तपस्वी बैठे हैं। वृक्ष के नीचे बैठने से आटोमेटिकली वृक्ष की सारी नॉलेज बुद्धि में आ जाती है। वृक्ष के नीचे बैठेंगे तो न चाहते हुए भी फल, फूल, पत्तों आदि में अटेन्शन जाता ही है। तो यह भी जब कल्पवृक्ष के नीचे फाउन्डेशन में बैठते हो, तो सारे वृक्ष का नॉलेज बुद्धि में आटोमेटिकली रहता है। जैसे बीज में वृक्ष की सारी नॉलेज रहती है, इसी रीति अपने को इस कल्पवृक्ष का फाउन्डेशन अथवा वृक्ष के नीचे जड़ में अपने को समझते हो तो सारे वृक्ष की नॉलेज आटोमेटिकली बुद्धि में आ जाती है। यह जो आपकी स्टेज है, उसका यादगार भक्ति-मार्ग में चलता आया है। यह है प्रैक्टिकल, तपस्या कर रहे हो। भक्ति-मार्ग में फिर स्थूल वृक्ष के नीचे बैठकर तपस्या करते हैं। देखो, शुरू-शुरू में आपको नशा रहता था कि हम वृक्ष के ऊपर बैठे हैं। सारा वृक्ष नीचे है, हम ऊपर हैं। ऊपर भी ठहरे ना। अगर वृक्ष को उलटा कर देंगे तो ऊपर हो जायेंगे। तो जैसे पहले नशा बहुत रहता था कि हम इस वृक्ष के ऊपर बैठकर सारे वृक्ष को देख रहे हैं, ऐसे ही अभी भी यह भिन्न-भिन्न प्रकार से तपस्या का नशा रहता है? पहले की खुमारी इस खुमारी से ज्यादा थी वा अभी ज्यादा है? वह सिर्फ तपस्या का रूप था। अभी तपस्या और सेवा साथ-साथ हो गई है। वह नशा सिर्फ तपस्या का ही रहता था। नीचे उतरने का कोई कारण नहीं था। और अभी तपस्या और सेवा - दोनों ही साथ-साथ चलती हैं। दोनों कार्य चल रहे हैं। तो बीच-बीच में अपने आपको नशा चढ़ाने का खास अटेन्शन रखना चहिए। इसको ही बैटरी चार्ज कहते हैं। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे सच-सच वृक्ष सारा इमर्ज रूप में है और हम साक्षी होकर इस वृक्ष को देख रहे हैं। यह भी नशा बहुत खुशी दिलाता है, शक्ति दिलाता है। इसलिए वृक्षपति और वृक्ष का गायन बहुत है। तो ऐसे भिन्न-भिन्न प्रकार की सेवा करते हुए भी तपस्या का बल अपने में आपेही भरते रहना है। जिससे तपस्या और सेवा-दोनों कम्बाइन्ड और एक साथ रहेंगे। ऐसे नहीं कि सेवा में आ गये तो तपस्या भूल गये। नहीं, दोनों साथ-साथ रहें। कम्बाइन्ड रूप है ना। तो इसकी बीच-बीच में चेकिंग करनी पड़ेगी। जब तक चेकर नहीं बने हो तब तक मेकर नहीं बन सकते। वर्ल्ड-मेकर वा पीस-मेकर - यह जो गायन है वह तब तक नहीं बन सकते जब तक चेकर नहीं बने हो। अपने ऊपर चेकिंग बहुत चाहिए। दूसरा कितना भी चेक करे तो भी इतना नहीं कर सकते, लेकिन अपने आप को चेक करने से ही अपनी उन्नति कर सकते हो। अपने आपको चेक करना है। चेकिंग करने में समय नहीं चाहिए। जब नेचरल अभ्यास पड़ जाता है तो समय की भी आवश्यकता नहीं, आटोमेटिकली चलता रहता है। फिर चेकिंग करने में एक सेकेण्ड भी नहीं लगता। अगर अपने आप को चेक करो तो उसमें कितना समय लगेगा? एक सेकेण्ड तो कैसे भी बिज़ी होते भी निकल सकते हो। सिर्फ अभ्यास की आवश्यकता है। चेकिंग मास्टर बनना है। सभी में मास्टर बनना है। जैसे मास्टर सर्वशक्तिमान, मास्टर नॉलेजफुल हो वैसे चेकिंग मास्टर भी बनना है। अच्छा।

ड्रामा अनुसार सभी ठीक तो चल ही रहा है। लेकिन ठीक चलते हुए भी चेकिंग करनी पड़े। कल्याणकारी युग है - यह भी जानते हो, फिर भी हरेक को अपने और दूसरे के कल्याण का प्लैन सोचना भी पड़ता है। ऐसे कुछ नये- नये प्लैन निकालो, जिसमें अवस्थाएं कुछ जम्प दें। सभी चल तो रहे हैं और चलते रहेंगे। लेकिन बीच-बीच में एक्स्ट्रा फोर्स प्लैनिंग वा सहयोग का मिलने से जम्प आ सकता है। जैसे राकेट को भी अग्नि का फोर्स दिया जाता है तब ही उड़ जाता है। ऐसे ही लाइट और माइट का फोर्स मिले, जिससे जम्प लगा सकें। इसके लिए एक्स्ट्रा फोर्स के सहयोग से हमको शक्ति की प्राप्ति का अनुभव होता है। यह भी जरूरी है। एक तो मनन शक्ति की बहुत कमजोरी है। इसलिए मैजारिटी की यही रिपोर्ट है कि व्यर्थ संकल्पों को कन्ट्रोल कैसे करें? इस मुख्य कमजोरी को कैसे-चेक अप करके इसको खत्म करें, इसके लिए प्लैन सोचना है। कमजोरियों का तो मालूम पड़ ही जाता है। उस पर समझानी मिलने से अन्दर दब तो जाती हैं लेकिन संस्कारों को खत्म नहीं कर सकते। इसलिए थोड़े समय के बाद मैजारिटी की फिर यही रिपोर्ट होती है। भट्ठी आदि से भी एक्स्ट्रा फोर्स मिलता है, कुछ-न-कुछ परिवर्तन होता है। लेकिन यह जो फोर्स यहां से ले जाते हैं वह सदाकाल रहे, इसके लिए प्लैन सोचो। बहुतों की कम्पलेन्ट रहती है कि शक्ति नहीं है। नॉलेज है, लेकिन नॉलेज को जो लाइट और माइट कहा जाता है, तो नॉलेज द्वारा अपने में शक्ति कैसे भरें, वह तरीका नहीं आता है। जैसे अपने पास माचिस हो लेकिन माचिस से आग निकालने का तरीका न आने के कारण कार्य सिद्ध नहीं कर सकते हैं। तो नॉलेज सभी को है, लेकिन नॉलेज से कोई तो लाइट और माइट का अनुभव करते हैं और कोई सिर्फ नॉलेज को समझ वर्णन करते हैं। नॉलेज द्वारा अपने में माइट कैसे लायें - वह भिन्न-भिन्न युक्तियों द्वारा बल भरना है, जिससे जम्प खायें। अच्छा।



29-06-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


नॉलेज की लाइट से पुरूषार्थ का मार्ग स्पष्ट

भी जो पुरूषार्थ कर रहे हैं उस पुरूषार्थ द्वारा वर्तमान समय की प्राप्ति का लक्ष्य कौनसा है? देव-पद की प्राप्ति तो भविष्य की है, लेकिन वर्तमान समय पुरूषार्थ की प्राप्ति का लक्ष्य कौनसा है? (फरिश्ता बनना) फरिश्ते की मुख्य क्वालिफिकेशन क्या हैं? फरिश्ता बनने के लिए दो क्वालिफिकेशन कौनसी है? एक लाइट, दूसरी माइट चाहिए। दोनों ही जरूरी हैं। लाइट और माइट - दोनों ही फरिश्तेपन की लाइफ में स्पष्ट दिखाई देते हैं। लाइट प्राप्त करने के लिए विशेष कौनसी शक्ति चाहिए? शक्तियां तो बहुत हैं ना। लेकिन माइट रूप वा लाइट रूप बनने के लिए एक-एक अलग गुण बताओ। एक है मनन और दूसरी है सहन शक्ति। जितनी सहन शक्ति होती है उतनी सर्वशक्तिमान की सर्व शक्तियां स्वत: प्राप्त होती हैं। नॉलेज को भी लाइट कहते हैं ना। तो पुरूषार्थ के मार्ग को सहज और स्पष्ट करने के लिए भी नॉलेज की लाइट चाहिए। इस लाइट के लिए फिर मनन शक्ति चाहिए। तो एक मनन शक्ति और दूसरी सहन शक्ति चाहिए। अगर यह दोनों ही शक्तियां हैं तो फरिश्ते स्वरूप का चलते-फिरते किसको भी साक्षात्कार हो सकता है। सहन शक्ति से सर्व गुणों की प्राप्ति हो ही जाती है। जो सहन शक्ति वाला होगा उसमें निर्णय शक्ति, परखने की शक्ति, गम्भीरता की शक्ति आटोमेटिकली एक के साथ अनेक आ जाते हैं। सहन शक्ति भी आवश्यक है और मनन शक्ति भी आवश्यक है। मन्सा के लिए है मनन शक्ति और वाचा तथा कर्मणा के लिए है सहन शक्ति। सहन शक्ति है तो फिर जो भी शब्द बोलेंगे वह साधारण नहीं। दूसरा, कर्म भी जो करेंगे वह भी उसके प्रमाण ही करेंगे। तो दोनों ही शक्तियों की आवश्यकता है। सहन शक्ति वाले कार्य में भी सफल हो जाते हैं। सहन शक्ति की कमी के कारण कार्य की सफलता में भी कमी आ जाती है। सहन शक्ति वाले की ही अव्यक्त स्थिति वा शुद्ध संकल्पों के स्वरूप की स्थिति रहेगी। सहनशील की सूरत में चमक रहेगी। कैसे भी संस्कार वाले होंगे, तो भी उनको अपनी सहन शक्ति से टेम्प्रेरी टाइम के लिए दबा लेंगी। तो दोनों शक्तियां चाहिए। अपने पुरूषार्थ में मन के संकल्प चलाने में भी सहन शक्ति चाहिए, जिसको कन्ट्रोलिंग पावर भी कहते हैं। सहन शक्ति है तो व्यर्थ संकल्पों को भी कन्ट्रोल कर सकते हैं। तो इन दोनों शक्तियों के लिए अटेन्शन रखना है।

नम्बरवन बिनेसमैन बनने के लिए सहज तरीका क्या है? अपने को बिज़ी रखने से ही नम्बरवन बिनेसमैन बन जायेंगे। जिसको अपने को बिज़ी रखना नहीं आता है वह बिनेसमैन के भी लायक नहीं कहा जायेगा। यहाँ बिनेसमैन बनना अर्थात् अपनी भी कमाई और दूसरों की भी कमाई। इसके लिए अपने आप को एक सेकेण्ड भी फ्री नहीं रखना। कौनसा नम्बर का बिनेसमैन हो? जितना यहाँ गैलप करेंगे उतना समझो अपना भविष्य के तख्त को भी गैलप करेंगे। चान्स अच्छा है। जो भी करने चाहें वह कर सकते हैं। फ्रीडम (Freedom) है सभी को। जो जितना चान्स लेता है उतना समझो अपने तख्त का निशान पक्का करता है। बिनेसमैन का अर्थ ही है जो एक संकल्प भी व्यर्थ न जाये, हर संकल्प में कमाई हो। जैसे वह बिनेसमैन एक- एक पैसे को कितना बना देते हैं कमाई करके। यह भी एक-एक सेकेण्ड वा संकल्प कमाई करके दिखाये, उनको कहते हैं नम्बरवन बिनेसमैन। बुद्धि को और काम ही क्या है। बुद्धि इसी में ही बिज़ी रहनी चाहिए। और सभी तरफ तो खत्म हो गये ना, वा कुछ रहा हुआ है जहाँ बुद्धि जा सके? सभी तरफ तो खत्म हो गये ना। अपने पुराने संस्कारों का तरफ भी खत्म हो गया ना। बुद्धि को जाने के तरफ वा रास्ते, ठिकाने वही हैं। बुद्धि वा तो पुराने संस्कारों तरफ जायेगी, वा तो अपने शरीर के हिसाब-किताब तरफ जायेगी वा मन के व्यर्थ संकल्पों तरफ खिंचेगी। यह तो सभी खत्म हो गये ना। भले शरीर का रोग होता है, उसकी नॉलेज रहती है कि यह फलाना दर्द है, इसका यह निवारण है। क्योंकि यह लक्ष्य है - जितना शरीर ठीक रखेंगे उतना सर्विस करेंगे। बाकी अपनेपन का कोई स्वार्थ नहीं है। सर्विस के निमित्त करते हो, यह साक्षीपन हुआ ना। अभी सिर्फ एक ही मार्ग रह गया। बाकी जो अनेक मार्ग होने के कारण बुद्धि भटकती थी वह मार्ग सभी बन्द हो गये ना। आलमाइटी गवर्नमेन्ट की जैसे सील लग गई। सील लगी हुई कब खुलती नहीं है, जब तक मुद्दा पूरा न हो। तो ऐसे अपनी चेकिंग करनी चाहिए। जैसे कोई की तकदीर में होता है तो सरकमस्टान्सेस भी ऐसे बनते हैं जैसे कि लिफ्ट का रूप बन जाता है। यहाँ भी जिसकी कल्प पहले की तकदीर वा ड्रामा की नूँध है, भले अपना भी पुरूषार्थ रहता है लेकिन साथ-साथ यह लिफ्ट भी दैवी परिवार द्वारा मिलती है और बापदादा द्वारा भी गिफ्ट मिलती है तो यह भी चेक करना है कि अब बापदादा द्वारा वा दैवी परिवार द्वारा किस-किस प्रकार की गिफ्ट प्राप्त हुई है। बड़े-बड़े आदमियों को गिफ्ट मिलती है। तो शोकेस में उसे सम्भाल कर रख देते हैं। उससे अपने देश का नाम बाला करते हैं। और यहाँ जो समय-प्रति-समय गिफ्ट प्राप्त हुई है उस द्वारा बापदादा का और कुल का नाम बाला करना है। अच्छा।

जैसे आप लोग शुरू में जब सर्विस पर निकले तो नॉलेज की शक्ति तो कम थी लेकिन सफलता किस शक्ति के आधार से हुई? त्याग और स्नेह। बुद्धि की लगन दिन-रात बाबा और यज्ञ के तरफ थी। जिगर से निकलता था बाबा और यज्ञ। इसी स्नेह ने ही सभी को सहयोग में लाया। इसी स्नेह की शक्ति से ही केन्द्र बने। तो आदि स्थापना में जिस शक्ति ने सहयोग दिया अन्त में भी वही होना है। पहले साकार स्नेह से ही मन्मनाभव बने। साकार स्नेह ने ही सहयोगी बनाया वा त्याग कराया। संगठन अौर स्नेह की शक्ति से घेराव डालना है। अभी देखो, बाहर विलायत में भी सर्विस की सफलता का मूल कारण स्नेही और सहयोगी बनने का घेराव है। ज्ञान का प्रैक्टिकल सबूत यही स्नेह और संगठन की शक्ति है। सर्विस की सफलता का मूल आधार यह है। कहाँ भी रहते, यह सोचना चाहिए - किस रीति ऐसी प्लैनिंग करें जिससे संदेश देने का कार्य जल्दी समाप्त हो? अभी तो बहुत रहा हुआ है। स्नेह से त्याग का भी जम्प देने का उमंग आता है। आप सभी ने त्याग कैसे किया? रग-रग में स्नेह भर गया, तब जम्प दे सके।

फारेन वालों को भी लिखकर भेजना कि अब जैसे ईश्वरीय खुमारी और खुशी में रहते आगे बढ़ते जाते हो, वैसे ही सदा खुमारी और खुशी में रहते सर्विस में सफल होते रहेंगे। विजय का तिलक तो लगा हुआ है। अपना विजय का तिलक सदैव देखते रहना। बाकी अभी तक जो किया है उसके लिए बापदादा भी देखकर हर्षित होते हैं, लेकिन आगे तो बढ़ना ही है। कोई वारिस बनाओ तब ही शाबाश देंगे। अभी तक जो किया है उसमें हर्षित होना है। ‘वाह! वाह!’ करने का कार्य अभी करना है। हर्षित इसलिए होते क्योंकि खुमारी और खुशी अच्छी रीति कायम है। अभी तक रिजल्ट बहुत अच्छी है। उन्हों का कमान्डर बहुत हिम्मतवान है। कोई भी कार्य में एक भी अपनी हिम्मत से पान का बीड़ा उठाता है तो दूसरे साथी बन जाते हैं। वैराइटी ग्रुप होते हुए भी गुलदस्ता अच्छा है। इसलिए मुबारक देते हैं। अच्छा।



04-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


याद की सहज विधि

हाँ सभी बैठे हैं तो किस स्टेज की स्थिति में स्थित हैं? इस समय की आपकी याद की स्टेज कौनसी कहेंगे? क्या इस स्थिति में डबल याद है वा सिंगल है? इस समय की स्टेज को कर्मातीत व फरिश्तापन कीस्मृति की स्टेज कहेंगे? जो अव्यक्त स्थिति के सिवाय और कोई स्टेज समझते हैं वह हाथ उठावें। सारे दिन में ऐसी अव्यक्त स्थिति में रहकर के कर्म कर सकती हो? (नहीं) अभी जो लिख रही हो - यह भी तो कर्म है ना। तो अभी कर्म करते हुए ऐसी स्टेज नहीं रह सकती? (अभी बाबा के सम्मुख बैठे हैं) अगर सदैव समझो - बाबा हमारे साथ ही है, सम्मुख है; तो फिर सदैव रहनी चाहिए। वह लोग जब ऐसे वायुमण्डल में खास अटेन्शन रखकर जाते हैं, तो यह अटेन्शन ही इन्हों की सेफ्टी का साधन बन जाता है। ऐसे ही चाहे कोई भी साधारण कर्म भी कर रहे हो। तो भी बीच-बीच में अव्यक्त स्थिति बनाने का अटेन्शन रहे और कोई भी कार्य करो तो सदैव बापदादा को अपना साथी समझकर डबल फोर्स से कार्य करो तो बताओ क्या स्टेज रहेगी? एक तो स्मृति बहुत सहज रहेगी। जैसे अभी सम्मुख समझने से सहज याद है ना। इस रीति अगर सदैव हर कर्म में बाप को अपना साथी समझकर चलो तो यह सहज याद नहीं है? जब कोई सदैव ही साथ रहता है, उस साथ के कारण याद स्वत: ही रहती है ना। तो ऐसे साथी रहने से वा बुद्धि को निरन्तर सत् का संग बनाने से निरन्तर सत्संग होना चाहिए। आप हो ही सत्संगी। हर सेकेण्ड, हर कदम में सत् के संग तो हो ना। अगर निरन्तर अपने को सतसंगी बनाओ तो याद सहज रहेगी और पावरफुल संग होने के कारण हर कर्त्तव्य में आपका डबल फोर्स रहेगा। डबल फोर्स होने कारण जो कार्य स्थिति के हिसाब से मुश्किल समझते हो वह सहज हो जायेगा, क्योंकि डबल फोर्स हो गया। और उस ही समय में एक कर्त्तव्य के बजाय डबल कार्य समाप्त कर सकती हो। एक सहज याद, दूसरी सफलता, तीसरा सर्व कर्म में उमंग-उल्लास और सहयोग की प्राप्ति होती है। इसलिए निरन्तर सत्संगी बनो। आपके पास कोई आते हैं तो आप नियम बताते हो ना कि सदैव सत् का संग रखो। तो यह अभ्यास अपने को भी निरन्तर करना पड़े। फिर याद जो मुश्किल लगती है, सोचते हैं - याद कैसे ठहरे; कहाँ ठहरे यह सभी खत्म हो जायेगा। कर्म की सहज सिद्धि हो जायेगी। इसमें चाहे निराकार रूप से संग करो, चाहे साकार रूप में करो लेकिन सत् का संग हो। साकार का संबंध भी सारे कल्प में अविनाशी रहेगा ना। तो साकारी स्मृति हो वा निराकारी स्मृति हो, लेकिन स्मृति ज़रूर होनी चाहिए। बापदादा के संग के सिवाय और कोई भी संग बुद्धि में न हो। फरिश्ता बनने के लिए बाप के साथ जो रिश्ता है वह पक्का होना चाहिए। अगर अपना रिश्ता पक्का है तो फरिश्ता बन ही जायेंगे। अभी सिर्फ यह अपने रिश्ते को ठीक करो। अगर एक के साथ सर्व रिश्ते हैं तो सहज और सदा फरिश्ते हैं। और है भी क्या जहां बुद्धि जाये। अभी कुछ रहा है क्या? सर्व संबंध वा सर्व रिश्ते, सर्व रास्ते ब्लाक हैं? रास्ता खुला हुआ होगा तो बुद्धि भागेगी। जब सभी रिश्ते भी खत्म, रास्ते भी बंद फिर बुद्धि कहाँ जायेगी। एक ही रास्ता, एक ही रिश्ता तो फिर फरिश्ता बन जायेंगे। चेक करो - कौनसा रास्ता वा रिश्ता अभी तक पूरा ब्लाक नहीं हुआ है। जरा भी खुला हुआ होगा तो लोग कोशिश करेंगे वहाँ से जाने की। बिल्कुल बन्द होगा तो जायेंगे ही नहीं।

सुराख होगा तो भी उनको टच करके चले जाते हैं। यहाँ भी अगर जरा भी रास्ता खुला होता है तो बुद्धि जाती है। अभी ब्लाक कैसे करेंगे? सर्व रास्ते ब्लाक करने के लिए सहज युक्ति बार-बार सुनाते रहते हैं। रोज मुरली में भी सुनते हो। याद है? विस्मृति को स्मृति दिलाने वाली कौनसी युक्ति है? एक ही चित्र है जिसमें बापदादा और वर्सा आ जाता है। अगर यह चित्र सदैव सामने रखो तो और सभी रास्ते ब्लाक हो जायेंगे? जो भी चित्र वा लिटरेचर आदि छपाते हो तो आप यही ब्लॉक डालते हो ना। अगर यही एक ब्लॉक बुद्धि में लगा हुआ हो तो सभी रास्ते ब्लाक नहीं हो जायेंगे? यह सहज युक्ति है। और निशानी भी दी हुई है। यह तो रो मुरली में सुनते हो। कोई भी मुरली ऐसी नहीं होगी जिसमें यह युक्ति न हो। यह बहुत सहज है। छोटे बच्चों को भी कहो कि यह चित्र सदैव अपनी स्मृति में रखो तो वह भी कर सकते हैं। भले बैज लगाते हो लेकिन अभी बुद्धि में स्मृति-स्वरूप बनो। इस एक ही चित्र के स्मृति से सब स्मृतियां आ जाती हैं। सारे ज्ञान का सार भी इस एक चित्र में समाया हुआ है। रचयिता और रचना के ज्ञान से यह प्राप्ति हो गई ना। जितना इन सहज युक्तियों को अपनाते जायेंगे तो फिर मेहनत सरल हो जायेगी। मूँझो नहीं - याद किसको कहें, क्या याद करें, पता नहीं यह याद होती है वा नहीं। जानबूझकर अपने को मुँझाते हो। याद क्या है? बाप की याद वा बाप के कर्म द्वारा बाप की याद वा बाप के गुणों द्वारा बाप की याद है - तो वह याद हुई ना। रूप की याद हो वा नाम की वा गुण वा कर्त्तव्य की, याद तो एक ही हुई ना। आप लोग बड़ा मुश्किल बना देते हो। याद कोर्स को मुश्किल-मुश्किल करते फोर्स नहीं आता है। कोर्स में ही रह जाते हो। उनको सहज करो। बाबा के सिवाय कुछ है ही क्या। जब प्रैक्टिकल में सर्व स्नेही बाप को ही समझ लिया तो फिर उसको याद करने लिए कोई प्लैन सोचा जाता है क्या? सहज बात को कब कोई मुश्किल कर देता है और कहाँ अब तक भी रास्ता खुला हुआ है, इसलिए बार-बार बुद्धि को मेहनत कर लौटाना पड़ता है। इसमें थक जाते हो। माथा भारी हो जाता है। मुश्किल समझ मुश्किलात में पड़ जाते हो। तो सहज तरीका है - पहले इन सभी रास्तों को बन्द करो। जैसे गवर्नमेन्ट एलान करती है ना - यह बन्द करो। तो आप लोगों के लिए भी बापदादा का यही फरमान है पहले तो सभी रास्ते बन्द करो। फिर मुश्किल से छूट जायेंगे। सहज हो जायेगा। फिर नेचरल हो जायेगा। यह अटेन्शन रखना मुश्किल है वा सहज है? मुश्किल है नहीं, लेकिन मुश्किल बना देते हैं। अगर यह अटेन्शन समय-प्रति-समय रखते रहें तो मुश्किल नहीं होता। कुछ अलबेलेपन में रहते आये हो, इसलिए अब मुश्किल लगता है। जैसे छोटेपन में जो भी बातें सिखाई जाती हैं तो वह सहज स्मृति में रहती हैं। जितना बड़ा होता है, बड़ेपन में कोई बात स्मृति में लाना मुश्किल हो जाता है। इसमें भी जिन्होंने बचपन से ही यह अटेन्शन रखने का अभ्यास किया है उन्हों का आज भी नेचरल याद का चार्ट रहता है। और जो भी इस अटेन्शन रखने में शुरू से अलबेले रहे हैं तो उन्हों को अब मुश्किल लगता है। अब तो बीती सो बीती कर सदैव ऐसे समझो कि मैं बच्चा हूँ, बाप के साथ हूँ। यह समझने से वह बचपन की जीवन स्मृति में रहेगी। जितना यह स्मृति में रहेगा तो उससे मदद मिलेगी। फिर मुश्किल कार्य सहज हो जायेगा। अभी से ही अपने को एक सेकेण्ड भी बाप से अलग न समझो। सदैव समझो - बाप का साथ भी है और बाप के हाथ में मेरा हाथ भी है।

अगर कोई बड़े के हाथ में हाथ होता है तो छोटे की स्थिति बेफिक्र होती, निश्चिंत रहती है। तो समझना चाहिए - हर कर्म में बापदादा मेरे साथ भी है और हमारे इस अलौकिक जीवन का हाथ उनके हाथ में है अर्थात् जीवन उनके हवाले है। ज़िम्मेवारी उनकी हो जाती है। सभी बोझ बाप के ऊपर रख अपने को हल्का कर देना चाहिए। बोझ ही न होगा तो कुछ मुश्किल लगेगा? बोझ उतारने वा मुश्किल को सहज करने का साधन है - बाप का हाथ और साथ। यह तो सहज है ना। फिर चाहे बाप स्मृति में आये, चाहे दादा स्मृति में आये। बाप की स्मृति आयेगी तो साथ में दादा की भी रहेगी ही। दादा की स्मृति से बाप की स्मृति भी रहेगी। अलग नहीं हो सकते। अगर साकार स्नेही बन जाते हो, तो भी और सभी से बुद्धि टूट जायेगी ना। साकार स्नेही बनना भी कम बात नहीं। साकार स्नेह भी सर्व स्नेह से, संबंधों से बुद्धियोग तोड़ देता है। तो अनेक तरफ से तोड़ एक तरफ जोड़ने का साधन तो है ना। साकार से निराकार तरफ याद आयेगा। साकार से स्नेह भी तब पैदा हुआ जब बाप, दादा दोनों का साथ हुआ ना। अगर बाप, दादा का साथ न होता तो साकार इतना प्रिय थोड़ेही होता। जैसे बाप, दादा दोनों साथ-साथ हैं वैसे आप की याद भी साथ- साथ हो जायेगी। ऐसे कभी नहीं समझना कि मुश्किल है। सहज योगी बनो। मुश्किल योगी तो द्वापर से लेकर बनते आये। हठयोगियों को तो आप कट करते हो ना। आप भी सहज योगी न बने और फिर मुश्किल कहा, तो एक ही बात हो गई। सहज योगी बनना है। यथार्थ याद है, निरन्तर सहज योगी हो। सिर्फ अपनी स्टेज को बीच-बीच में पावरफुल बनाते जाओ। स्टेज पर हो, सिर्फ समय-प्रति-समय इस याद की स्टेज को पावरफुल बनाने के लिए अटेन्शन का फोर्स भरते हो। उतरती कला अब समाप्त हुई ना। वा अभी भी है? तब तो चढ़ती कला में आ गये हो ना।

एक दिन की दिनचर्या सोचो - या तो साकारी याद वा निराकारी याद होगी। कारोबार भी यज्ञ-कारोबार है ना। यज्ञ-पिता द्वारा ही यज्ञ की रचना हुई है। तो ‘यज्ञ-कारोबार’ अक्षर कहने से बाप की याद आ गई ना। कभी भी कारोबार करते हो तो समझो - ईश्वरीय सर्विस पर हूँ वा यज्ञ-कारोबार पर हूँ। एक होता है डायरेक्ट विकर्म विनाश की स्टेज में स्थित हो फुल फोर्स से विकर्मों को नाश करना। दूसरा तरीका है जितना-जितना शुद्ध संकल्प वा मनन की शक्ति से अपनी बुद्धि को बिज़ी रखते हो, वह जो शक्तियां जमा होती हैं, तो उनसे वह धीरे-धीरे खत्म हो जायेगा। बुद्धि में यह भरने से वह पहले वाला स्वयं ही निकल जायेगा। एक होता है पहले सारा निकाल कर फिर भरना, दूसरा होता है भरने से निकालना। अगर खाली करने की हिम्मत नहीं है तो दूसरा भरते जाने से पहला आपेही खत्म हो जायेगा। वह स्टेज आपेही बनती जायेगी। एक तरफ भरता जायेगा और दूसरी तरफ खाली होता जायेगा। फिर जो स्टेज चाहते हो वह नेचरल हो जायेगी। जब चाहो तब हो जायेगी। फुल फोर्स से खाली करने की स्टेज नहीं है तो दूसरा तरीका भी है ना। भरते जाओ तो वह स्वत: खाली होता जायेगा। अभी चढ़ती कला है - यह स्मृति रखो। सभी रास्ते ब्लाक होंगे तो बुद्धि कहाँ जायेगी नहीं। यज्ञ-कारोबार अथवा कर्मणा सर्विस की भी मार्क्स हैं ना। फिर भी ‘पास-विद्-आनर्स’ में वह 100 मार्क्स भी हेल्प देंगे ना। लेकिन जरूरी है - जिस समय कारोबार वा वाचा सर्विस करनी है तो लक्ष्य यह रखना चाहिए कि यह ईश्वरीय सर्विस है, यज्ञ- कारोबार है। तो आटोमेटिकली यज्ञ-रचयिता की स्मृति आयेगी। और कोई भी कार्य करते हो तो समझो - इस कार्य के निमित्त बनाने वाला बैकबोन कौन है! भले मैं निमित्त हूँ, लेकिन बैकबोन कौन है! बिना बैकबोन आप शरीर में ठहर सकते हो? बिना बैकबोन के आप कोई कर्म में सफलता भी नहीं पा सकते। कोई भी कार्य करते सिर्फ यह सोचो - मैं निमित्त हूँ, कराने वाला कौन है। जैसे भक्ति-मार्ग में शब्द उच्चारण करते थे ‘करन-करावनहार।’ लेकिन वह दूसरे अर्थ से कहते थे। लेकिन इस समय जो भी कर्म करते हो उसमें करन- करावनहार तो है ना। कराने वाला बाप है, करने वाला निमित्त है। अगर यह स्मृति में रख कर्म करते हैं तो सहज स्मृति नहीं हुई? निरन्तर योगी नहीं हुए? फिर कभी हंसी में नीचे आयेंगे भी तो ऐसे अनुभव करेंगे जैसे हू-ब-हू स्टेज पर कोई ऐक्टर होते हैं तो समझते हैं कि लोक-कल्याण अर्थ हंसी का पार्ट बजाया। फिर अपनी स्टेज पर तो बिल्कुल ऐसे अनुभव होगा जैसे अभी-अभी यह पार्ट बजाया, अब दूसरा पार्ट बजाता हूँ। खेल महसूस होगा। साक्षी हो जैसे पार्ट बजा रहे हैं। तो सहज योगी हुए ना। याद को भी सहज करो। जब यह याद का कोर्स सहज हो जायेगा तब कोई को कोर्स देने में याद का फोर्स भी भर सकेंगे। सिर्फ कोर्स देने से प्रजा बनती है लेकिन फोर्स के साथ कोर्स में समीप सम्बन्ध में आते हैं। बिल्कुल ऐसे अनुभव करेंगे जैसे न्यारे और प्यारे। तो सभी सहज योगी हैं। हठ न करो। 63 जन्म मुश्किलात देखते-देखते यह एक जन्म सहज पुरूषार्थ में भी अगर मुश्किलातों में ही रहेंगे तो सहज और स्वत: का अनुभव कब करेंगे? इनको कहते भी सहज योग हो ना। कठिन योग तो नहीं है। यह सहज योग वहाँ सहज राज्य करायेगा। वहाँ भी कोई मुश्किलात नहीं होगी। यहाँ के संस्कार ही वहाँ ले जायेंगे। अगर अन्त तक भी मुश्किल के संस्कार होंगे तो वहाँ सहज राज्य कैसे करेंगे। देवताओं के चित्र भी जो बनाते हैं तो उनकी सूरत में सरलता ज़रूर दिखाते हैं। यह विशेष गुण दिखाते हैं। फीचर्स में सरलता, जिसको आप भोलापन कहते हो। जितना जो सहज पुरुषार्थी होगा वह मन्सा में भी सरल, वाचा में भी सरल, कर्म में भी सरल होगा। इनको ही फरिश्ता कहते हैं। अच्छा।



11-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


विश्व-कल्याणकारी बनने के लिए मुख्य धारणाएं

ज के इस संगठन को कौनसा संगठन कहें? गुजरात का संगठन? अपने को गुजरात का तो नहीं समझते हो? जैसे बाप बेहद का मालिक है वैसे भले कहाँ भी निमित्त बने हुए हो लेकिन हो तो विश्व-कल्याणकारी। दृष्टि और वृत्ति अथवा स्मृति में भी विश्व-कल्याणकारी की भावना सदैव रहती है कि गुजरात के कल्याण की भावना रहती है? गुजरात में रहते लक्ष्य तो विश्व का रहता है ना। बेहद के सर्विस में हो ना? यह तो निमित्त ड्यूटी दी हुई है, वह निमित्त बनकर के बजा रहे हो। लेकिन नशा क्या रहता है? वर्णन तो यही करते हो ना हम - विश्व-कल्याणकारी हैं, विश्व का परिवर्तन करना है। जो भी सर्विस करते हो वा सर्विस के साधन बनाते हो उसमें भी शब्द तो विश्व का लिखते हो ना। विश्व का नव निर्माण करने वाले हो। विश्व का परिवर्तन होता जाता है। आवाज़ एक जगह किया जाता है, लेकिन फैलता तो चारों ओर है ना। भले निमित्त एक स्थान पर आवाज़ बुलुन्द करते हो लेकिन फैलता तो चारों ओर है ना। तो विश्व-कल्याणकारी बनने के लिए मुख्य दो धारणाएं आवश्यक हैं, जिससे हद में रहते भी बेहद का कल्याणकारी बन सकते हैं। अगर वह धारणा न रहे तो उनका आवाज़, उनकी दृष्टि बेहद विश्व के तरफ नहीं पहुँच सकती। विश्व-कल्याणकारी बनने लिए दो धारणाएं कौनसी हैं? आप किन दो धारणाओं के आधार पर विश्व के कल्याण का कर्त्तव्य कर रही हो? विश्व-कल्याण की जो शुभ भावना है उसका प्रत्यक्ष फल तो ज़रूर मिलता है। भावना का फल तो भक्ति मार्ग में भी मिलता है, लेकिन वह अल्पकाल, यहाँ है सदाकाल। उस प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति के लिए मुख्य दो धारणाएं कौनसी हैं? बिगर धारणा के तो अपनी वा सर्विस की उन्नति नहीं हो सकती। वह कर रहे हो और करनी ही है। करेंगे - यह शब्द भी नहीं। करना ही है। मुख्य दो धारणायें हैं। ईश्वरीय रूहाब और साथ में रहम। अगर रूहाब और रहम दोनों ही साथ-साथ में हैं और समान हैं तो दोनों गुणों की समानता से रूहानियत की स्टेज बन जाती। इसको ही रूहानियत वा रूहानी स्थिति कहा जाता है। रूहाब भी पूरा हो और रहम भी पूरा हो। अभी रूहाब को छोड़ सिर्फ रहम करते हो वा रहम को छोड़ सिर्फ रूहाब में आते हो, इसलिए दोनों की समानता से जो रूहानियत की स्थिति बनती है, उसकी कमी हो जाती है। इसलिए सदैव जो कोई भी कर्त्तव्य करते हो वा मुख से शब्द वर्णन करते हो तो पहले चेक करो कि रहम और रूहाब - दोनों समान रूप में हैं? दोनों को समान करने से एक तो अपना स्वमान स्वयं रख सकेंगे, दूसरा सर्व आत्माओं से भी स्वमान की प्राप्ति होगी। स्वमान को छोड़ मान की इच्छा रखने से सफलता नहीं हो पाती है। मान की इच्छा को छोड़ स्वमान में टिक जाओ तो मान परछाई के समान आपके पिछाड़ी में आयेगा। जैसे भक्त अपने देवताओं वा देवियों के पीछे अन्धश्रद्धा वश भी कितने भाग-दौड़ करते हैं। वैसे चैतन्य स्वरूप में स्वमान में स्थित हुई आत्माओं के पीछे सर्व आत्माएं मान देने के लिए आयेंगी, दौड़ेंगी। भक्तों की भाग दौड़ देखी है? आप लोगों के यादगार जड़ चित्र हैं। उनमें भी चित्रकार मुख्य यही धारणा भरते हैं - एक तरफ शक्तियों का रूहाब भी फुल फोर्स में दिखाते हैं और साथ-साथ रहम का भी दिखाते हैं। एक ही चित्र में दोनों ही भाव प्रकट करते हैं ना। यह क्यों बना है? क्योंकि प्रैक्टिकल में आप रूहाब और रहमदिल-मूर्त बने हो। तो जड़ चित्रों में भी यही मुख्य धारणाएं दिखाते हैं। तो आप लोग अभी जब सर्विस पर हो तो सर्विस के प्रत्यक्षफल का आधार इन दो मुख्य धारणाओं के ऊपर है। रहमदिल जरूर बनना है, लेकिन किस आधार पर और कब? यह भी देखना है। रूहाब रखना ज़रूर है, लेकिन कैसे और किस तरीके से प्रत्यक्ष करना है, यह भी देखना है। रूहाब कोई वर्णन करने वा दिखाने से दिखाई नहीं देता, रूहाब नैन-चैन से स्वयं ही अपना साक्षात्कार कराता है। अगर उसका वर्णन करते हैं तो रूहाब बदलकर रोब में दिखाई देता है। तो रोब नहीं दिखाना है, रूहाब में रहना है।

रोब को भी अहंकार वा क्रोध की वंशावली कहेंगे। इसलिए रोब नहीं दिखाना है, लेकिन रूहाब में जरूर रहना है। जितना-जितना रहमदिल के साथ रूहाब में रहेंगे तो फिर रोब खत्म हो ही जायेगा। कोई कैसी भी आत्मा हो, रोब दिलाने वाला भी हो, तो रूहाब और रहमदिल बनने से रोब में कभी नहीं आयेंगे। ऐसे नहीं कि सरकमस्टान्सेज ऐसे थे वा ऐसे शब्द बोले तो यह करना ही पड़ा। करना ही पड़ेगा, यह तो होगा ही, अभी तो सम्पूर्ण बने ही नहीं हैं- यह शब्द अथवा भाषा इस संगठन में नहीं होनी चाहिए। क्योंकि आप निमित्त सर्विस के हो इसलिए इस संगठन को मास्टर नॉलेजफुल और सर्विसएबल, सक्सेसफुल संगठन कहेंगे। जो सक्सेसफुल हैं वह कोई कारण नहीं बनाते। वह कारण को निवारण में परिवर्तन कर देते हैं। कारण को आगे नहीं रखेंगे। मास्टर नॉलेजफुल, सक्सेसफुल आत्मायें कोई कारण के ऊपर सक्सेसफुल नहीं बन सकती? जो मास्टर नॉलेजफुल, सक्सेसफुल होते हैं वह अपनी नॉलेज की शक्ति से कारण को निवारण में बदली कर देंगे, फिर कारण खत्म हो जायेगा। निमित्त बनने वालों को विशेष अपने हर संकल्प के ऊपर भी अटेन्शन रखना पड़े। क्योंकि निमित्त बनी हुई आत्माओं के ऊपर ही सभी की नज़र होती है। अगर निमित्त बने हुए ही ऐसे-ऐसे कारण कहते चलते तो दूसरे जो आपको देख आगे बढ़ते हैं, वह आप को क्या उत्तर देंगे? इस कारण से हम आ नहीं सकते, चल नहीं सकते। जब स्वयं ही कारण बताने वाले हैं तो दूसरे के कारण को निवारण कैसे करेंगे? क्योंकि लोग सभी जानने वाले हो गये हैं। जैसे यहाँ दिन-प्रतिदिन नॉलेजफुल बनते जाते हो, वैसे ही दुनियां के लोग भी विज्ञान की शक्ति से, विज्ञान की रीति से नॉलेजफुल होते जाते हैं। वह आप लोगों के संकल्पों को भी मस्तक से, नयनों से चेहरे से, चेक कर लेते हैं। जैसे यहाँ ज्ञान की शक्ति भरती जाती है, वहाँ भी विज्ञान की शक्ति कम नहीं है। दोनों का फोर्स है। अगर निमित्त बनने वालों में कोई कमी है तो वह छिप नहीं सकते। इसलिए तुम निमित्त बनी हुई आत्माओं को इतना ही विशेष अपने संकल्प, वाणी और कर्म के ऊपर अटेन्शन रखना पड़े। अगर अटेन्शन नहीं होता है तो आप लोगों के चेहरे में ही रेखाएं टेन्शन की दिखाई पड़ती हैं। जैसे रेखाओं से लोग जान लेते हैं कि यह क्या-क्या अपना भाग्य बना सकते हैं। तो अगर अटेन्शन कम रहता है तो चेहर पर टेन्शन की रेखाएं दिखाई पड़ती हैं। उस माया के नॉलेजफुल जान लेते हैं, वह भी कम नहीं। आप लोग अपने आपको भी कभी अलबेले होने कारण परख न सको लेकिन वह लोग इस बात में आप लोगों से तेज हैं। क्योंकि उन्हों का कर्त्तव्य ही यही है। इसलिए निमित्त बने हुए को इतनी ज़िम्मेदारी लेनी पड़े। कोई भी बात मुश्किल लगती है तो कोई कमी है ज़रूर। अपने आप में निश्चयबुद्धि बनने में कब कुछ कमी कर लेते हैं। जैसे बाप में 100ज्ञ् हैं, चाहे एक तरफ आप एक निश्चयबुद्धि हो, दूसरे तरफ सारे विश्व की आत्माएं क्यों न हो, लेकिन इसमें डगमग नहीं हो सकेंगे। ऐसे ही चाहे दैवी वा ईश्वरीय आत्माओं द्वारा वा संसारी आत्माओं द्वारा भले कोई भी डगमग कराने के कारण बनें। लेकिन अपने आप में भी निश्चयबुद्धि की कमी नहीं होनी चाहिए। इसलिए रूहाब के साथ रहम भी रखना है। अकेला रूहाब नहीं, रहम भी हो।

निश्चयबुद्धि हो कल्याण की भावना रखने से दृष्टि और वृत्ति दोनों ही बदल जाते हैं। कैसा भी कोई क्रोधी आदमी सामना करने वाला वा कोई इन्सल्ट करने वाला, गाली देने वाला हो, लेकिन जब कल्याण की भावना हर आत्मा प्रति रहती है तो रोब बदलकर रहम हो जायेगा। फिर रिजल्ट क्या होगी? उसको हिला सकेंगे? वह शुभ कल्याण की भावना उसके संस्कारों को परिवर्तन करने का फल दिखायेगी। यह ज़रूर होता है -- कोई बी से प्रत्यक्ष फल निकलता है, कोई फौरन प्रत्यक्ष फल नहीं देते, कुछ समय लगता है। इसमें अधीर नहीं होना है कि फल तो निकलता ही नहीं है। सभी फल फौरन नहीं मिलते। कोई-कोई बीज फल तब देता है जब नेचरल वर्षा होती है, पानी देने से नहीं निकलता। यह भी ड्रामा की नूँध है। अब अविनाशी बी जो डाल रहे हो - कोई तो प्रत्यक्षफल दिखाई देंगे। कोई फिर नेचरल केलेमिटीज होंगी, जब ड्रामा का सीन बदलने वाला होगा तो वह नेचरल वायुमण्डल वातावरण उस बी का फल निकालेगा। विनाश तो होगा यह तो गारण्टी है। जब बी ही अविनाशी है तो फल न निकले - यह तो हो नहीं सकता। लेकिन कोई नदीक आते हैं, कोई पीछे आने वाले हैं तो अभी आयेंगे कैसे? वह फल भी पीछे देंगे। इसलिए कभी भी सर्विस करते यह नहीं देखना वा यह नहीं सोचना कि जो किया वह कोई व्यर्थ गया। नम्बरवार समय प्रमाण फल दिखाई देते जायेंगे।

तो यह सक्सेसफुल ग्रुप है, नॉलेजफुल है, सर्विसएबल है। यह छाप है। अपने इस ट्रेड-मार्क को सदैव देखते रहना। त्रिमूर्ति छाप लगी ना। और यही स्मृति में रख कर हर सर्विस के कदम को पदमों की कमाई में परिवर्तन कर चलना है। यह चेक करो कि हर संकल्प से पदमों की कमाई जमा की? हर वचन से, हर कर्म से, हर कदम से पदमों की कमाई जमा की? नहीं तो यह कहावत किसलिए है - हर कदम में पदम हैं? पदम कमल पुष्प को भी कहते हैं ना। तो पदम समान बनकर चलने से हर संकल्प और हर कदम में पदमों की कमाई कर सकेंगे। एक संकल्प भी बिना कमाई के नहीं होगा। अब तो ऐसा अटेन्शन रखने का समय है - एक कदम भी बिना पदम की कमाई के न हो। निमित्त बना हुआ ग्रुप है ना। ताजधारी तो होना ही है। अपनी ज़िम्मेवारी का ताज जितना-जितना धारण करेंगे उतना दूसरे की ज़िम्मेवारी का ताज भी धारण कर सकेंगे। जो निमित्त टीचर्स हैं, ज्यादा नज़र तो आप लोगों में सभी की है। सामने एग्ज़ाम्पल तो आप हो। इसलिए ज्यादा ज़िम्मेवारी आप लोगों के ऊपर है। आप लोग एक दर्पण के रूप में उन्हों के आगे हो। आपके नॉलेज की स्थिति के दर्पण से अपने स्वरूप का साक्षात्कार कराने वाले दर्पण आप हो। तो जितना दर्पण पावरफुल उतना साक्षात्कार स्पष्ट। तो उसकी स्मृति पावरफुल रहेगी। तो ऐसा दर्पण हरेक हो जो सामने कोई आवे तो अपना साक्षात्कार ऐसा स्पष्ट करे जो वह स्मृति उसको कभी न भूले। जैसे अपनी देह का साक्षात्कार होने बाद भूलते हो? जब देह अविनाशी स्मृति में रहती है तो यह भी ऐसा साक्षात्कार कराओ, जो वह स्मृति कभी भूले नहीं। पावरफुल दर्पण बनने के लिए मुख्य धारणा कौनसी है? जितना-जितना स्वयं अर्पणमय होगा उतना ही दर्पण पावरफुल। ऐसे तो अर्पणमय हो। लेकिन जो संकल्प भी करते हो, कदम उठाते हो वह पहले बाप के आगे अर्पण करो। जैसे भोग लगाते हो तो बाप के आगे अर्पण करते हो ना। उसमें शक्ति भर जाती है। तो यह भी ऐसे हर संकल्प, हर कदम बाप को अर्पण करो - जो किया, जो सोचा। बाप की याद अर्थात् बाप के कर्त्तव्य की याद। जितना अर्पणमय के संस्कार उतना पावरफुल दर्पण। हर संकल्प निमित्त बनकर करेंगे। तो निमित्त बनना अर्थात् अर्पण। नम्रचित्त जो होते हैं वह झुकते हैं। जितना संस्कारों में संकल्पों में, झुकेंगे उतना विश्व आपके आगे झुकेगी। झुकना अर्थात् झुकाना। संस्कार में भी झुकना। यह संकल्प भी न हो - दूसरे हमारे आगे भी तो कुछ झुकें? हम झुकेंगे तो सभी झुकेंगे। सच्चे सेवाधारी होते हैं वह जब सभी के आगे झुकेंगे तब तो सेवा करेंगे। छोटे भी और प्यारे होते हैं। इसलिए अपने को सिकीलधे समझो। सर्व के स्नेही हो। बड़ों को तो फिर भी कहेंगे, छोटे तो छूट जाते हैं। लेकिन अपने में कोई कमी नहीं रखना। सभी के आगे जाने का लक्ष्य जरूर रखना है। आगे बढ़ते हुए भी आगे बढ़ाने वालों का रिगार्ड नहीं छोड़ना है। बढ़ाने वालों का रिगार्ड रखेंगे तब वह आपका रिगार्ड रखेंगे, आपको देख अन्य करेंगे।

हैंड्स अर्थात् विशालबुद्धि, वे सभी तरफ देखते हैं कि नुकसान किस में हैं, लाभ किस में है। सभी विशालबुद्धि, त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी हो। कोई भी कर्म देखकर पीछे करो। फिर यह कभी नहीं कहेंगे कि न मालूम कैसे यह हो गया। जब चेकिंग कम होती है तब हो जाता। त्रिकालदर्शी के यह शब्द नहीं हैं कि चाहते तो नहीं थे लेकिन हो गया। मास्टर सर्वशक्तिमान चाहे और वह न कर सके, हो सकता है? अब यह भाषा खत्म करो। शक्तियां हो ना। शक्तियों का कर्म और संकल्प समान होता है। संकल्प एक और कर्म दूसरे - तो यह शक्ति की कमी है। अच्छा।



18-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


विल पावर और कंट्रोलिंग पावर

पने अन्दर विल-पावर और कन्ट्रोलिंग पावर--दोनों ही पावर्स का अनुभव करते हो? क्योंकि अपने पुरूषार्थ के लिए वा अन्य आत्माओं की उन्नति के लिए यह दोनों ही पावर्स अति आवश्यक हैं। अगर अपने में ही कन्ट्रोलिंग पावर और विल-पावर नहीं है तो औरों को भी विल कराने की शक्ति नहीं आ सकती। औरों की जो व्यर्थ संकल्प वा व्यर्थ चलन अभी तक चलती रहती है, वो कन्ट्रोल नहीं करा सकते हैं। विल-पावर नहीं रहती। विल- पावर अर्थात् जो भी कुछ किया संकल्प, वाणी द्वारा वा कर्म द्वारा, वह सभी बाप के आगे विल अर्थात् अर्पण कर दें। जैसे भक्ति-मार्ग में जो भी कुछ करते हैं, खाते हैं, चलते हैं -- तो कहने मात्र कहते हैं ईश्वर अर्पण। लेकिन यहाँ अभी समझते हैं कि जो भी किया, वह कल्याणकारी बाप के कल्याण के कर्त्तव्य प्रति विल किया। तो जितना-जितना जो कुछ है वह अर्पण करते जायेंगे तो अर्पणमय दर्पण बन जाता है। जिसको अर्पण किया, जिसके प्रति अर्पण किया वह साक्षात्कार ऐसे अर्पण से स्वत: ही सभी को होता है। तो अर्पण करके दर्पण बनने का पुरूषार्थ यह हुआ कि विल-पावर चाहिए और दूसरा कन्ट्रोलिंग पावर चाहिए। जहाँ चाहें वहाँ अपने आपको अर्थात् अपनी स्थिति को स्थित कर सकें। ऐसे नहीं कि बैठे अपनी स्थिति को स्थित करने के लिए बाप की याद में और उसके बजाय व्यर्थ संकल्प वा डगमग स्थिति बन जाये, यह कन्ट्रोलिंग पावर नहीं है। एक सेकेण्ड से भी कम समय में अपने संकल्प को जहाँ चाहें वहाँ टिका सकें। अगर स्वयं की स्थिति को नहीं टिका सकेंगे तो औरों को आत्मिक-स्थिति में कैसे टिका सकेंगे। इसलिए अपनी स्टेज और स्टेट्स -- दोनों की स्मृति सदा रहे तब ही लक्ष्य की सिद्धि पा सकेंगे। तो विल- पावर और कन्ट्रोलिंग पावर -- दोनों के लिए मुख्य क्या याद रखें, जिससे दोनों पावर्स आयें? इन दोनों पावर्स के पुरूषार्थ का एक-एक शब्द में ही साधन है।

कन्ट्रोलिंग पावर के लिए सदैव महान् अन्तर सामने रहे तो आटोमेटि- कली जो श्रेष्ठ होगा उस तरफ बुद्धि जायेगी और जो व्यर्थ महसूस होगा उस तरफ बुद्धि आटोमेटिकली नहीं जायेगी। जो भी कर्म करते हो तो महान् अन्तर-शुद्ध और अशुद्ध, सत्य और असत्य, स्मृति और विस्मृति में क्या अन्तर है, व्यर्थ और समर्थ संकल्प में क्या अन्तर है, सब बात में अगर महान् अन्तर करते जाओ तो दूसरे तरफ बुद्धि आटोमेटिकली कन्ट्रोल हो जायेगी। और विल-पावर के लिए है महामन्त्र-अगर महान् अन्तर और महामन्त्र यह दोनों ही याद रहें तो कभी बुद्धि को कन्ट्रोल करने व्ो लिए मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। यह सहज है। पहले चेक करो अर्थात् अन्तर सोचो, फिर कर्म करो। अन्तर नहीं देखते, अलबेले चलते रहते, इसलिए कन्ट्रोलिंग पावर जो आनी चाहिए वह नहीं आती। और महामन्त्र से विल-पावर आटोमेटिकली आ जायेगी। क्योंकि महामन्त्र है ही बाप की याद अर्थात् बाप के साथ, बाप के कर्त्तव्य के साथ, बाप के गुणों के साथ सदैव अपनी बुद्धि को स्थित करना। तो महामन्त्र बुद्धि में रहने से अर्थात् बुद्धि का कनेक्शन पावर-हाउस से होने के कारण विल-पावर आ जाती है। तो महामन्त्र और महान् अन्तर-यह दोनों ही याद रहे तो दोनों पावरस सहज आ सकती हैं। महामन्त्र और महान अन्तर- दोनों स्मृति में रख फिर ज्ञान का नेत्र चलाने से देखो सफलता कितनी होती है। जैसे सुनाया था ना-हंस का कर्त्तव्य क्या होता है। वह सदैव कंकड़ और रत्नों का महान् अन्तर करता है। तो ऐसे ही बुद्धि में सदैव महान् अन्तर याद रहे तो महामन्त्र भी सहज याद आ जायेगा। जब कोई श्रेष्ठ ची को जान जाते हैं तो नीचे की ची से स्वत: ही किनारा हो जाता है। लेकिन अन्तर याद न होने से मन्त्र भी भूल जाता है और ज्ञान के यन्त्र जो मिले हैं वह पूर्ण रीति सफल नहीं हो पाते। तो अब क्या करेंगे? सिर्फ दो शब्द याद रखना है। हंस बनकर अन्तर करते जाओ। समझा? जैसे बापदादा के तीन रूप मुख्य हैं। हैं तो सर्व सम्बन्ध, फिर भी तीन सम्बन्ध मुख्य हैं ना। ऐसे ही सारे दिन के अन्दर आपके भी मुख्य तीन रूप आपको याद रहने चाहिए। जैसे बाल अवस्था, युवा अवस्था और वृद्ध अवस्था होती है, फिर मृत्यु होती है। यह चक्र चलता है ना। तो सारे दिन में तीन रूप कौनसे याद रहें जिससे स्मृति भी सहज रहे और सफलता भी ज्यादा हो? जैसे बाप के यह तीन रूप वर्णन करते हो, वैसे ही आपके तीन रूप कौनसे हैं? सवेरे-सवेरे अमृतवेले जब उठते हो और याद की यात्रा में रहते हो वा रूह-रूहान करते हो तो उस समय का रूप कौनसा होता है? बालक सो मालिक। जब रूह-रूहान करते हो तो बालक रूप याद रहता है ना। और जब याद की यात्रा का अनुभव-रूप बन जाते हो तो मालिकपन का रूप होता है। तो अमृतवेले होता है बालक सो मालिकपन का रूप। फिर कौनसा रूप होता है? गॉडली स्टूडेन्ट लाइफ। फिर तीसरा रूप है सेवाधारी का। यह तीनों रूप सारे दिन में धारण करते कर्त्तव्य करते चलते हो? रूप यह तीन होते हैं। और रात को फिर कौनसा रूप होता है? अन्त में रात को सोते समय स्थिति होती है अपने को चेक करने की और साथ-साथ अपने को वाणी से परे ले जाने वाली स्थिति भी होती है। उस स्थिति में स्थित हो एक दिन को समाप्त करते हो, फिर दूसरा दिन शुरू होता है। तो वह स्थिति ऐसी होनी चाहिए जैसे नींद में इस दुनिया की कोई भी बात, कोई भी आवाज़, कोई भी आकर्षण नहीं होता है, जब अच्छी नींद में होते हो, स्वप्न की दूसरी बात है। इस रीति से सोने से पहले ऐसी स्थिति बनाकर फिर सोना चाहिए। जैसे अन्त में आत्माएं जो संस्कार ले जाती हैं वही मर्ज होते हैं, फिर वही संस्कार इमर्ज होंगे। इस रीति से यह भी दिन को जब समाप्त करते हो तो संस्कार न्यारे और प्यारेपन के हो गए ना। इसी संस्कार से सो जाने से फिर दूसरे दिन भी इन संस्कारों की मदद मिलती है। इसलिए रात के समय जब दिन को समाप्त करते हो तो याद-अग्नि से वा स्मृति की शक्ति से पुराने खाते को समाप्त अथवा खत्म कर देना चाहिए। हिसाब चुक्तू कर देना चाहिए। जैसे बिनेसमैन भी अगर हिसाब-किताब चुक्तू न रखते तो खाता बढ़ जाता और कर्ज़दार हो जाते हैं। कर्ज़ को मर्ज़ कहते हैं। इसी रीति से अगर सारे दिन के किये हुए कर्मों का खाता और संकल्पों का खाता भी कुछ हुआ, उसको चुक्तू कर दो। दूसरे दिन के लिए कुछ कर्ज़ की रीति न रखो। नहीं तो वही मर्ज़ के रूप में बुद्धि को कमज़ोर कर देता है। रो अपना हिसाब चुक्तू कर नया दिन, नई स्मृति रहे। ऐसे जब अपने कर्मों और संकल्पों का खाता क्लीयर रखेंगे तब सम्पूर्ण वा सफलतामूर्त बन जायेंगे। अगर अपना ही हिसाब चुक्तू नहीं कर सकते तो दूसरों के कर्मबन्धन वा दूसरों के हिसाब-किताब को कैसे चुक्तू करा सकेंगे। इसलिए रा रात को अपना रजिस्टर साफ होना चाहिए। जो हुआ वह योग की अग्नि में भस्म करो। जैसे काँटों को भस्म कर नाम-निशान गुम कर देते हो ना। इस रीति अपने नॉलेज की शक्ति और याद की शक्ति, विल-पावर और कन्ट्रोलिंग पावर से अपने रजिस्टर को रो साफ रखना चाहिए। जमा न हो। एक दिन के किये हुए व्यर्थ संकल्प वा व्यर्थ कर्म की दूसरे दिन भी लकीर न रहे अर्थात् कर्ज़ा नहीं रहना चाहिए। बीती सो बीती, फुल स्टाप। ऐसे रजिस्टर साफ रखने वाले वा हिसाब को चुक्तू करने वाले सफलतामूर्त सहज बन सकते हैं। समझा? सारे दिन का चेकर बनना।

स्वदर्शन चक्र के अन्दर फिर यह एक दिन का चक्र। शुरू में ड्रिल करते थे तो चक्र के अन्दर चक्र में जाते थे, फिर निकलते थे ना। तो यह बेहद का 5000 वर्ष का चक्र है। उसमें फिर छोटे-छोटे चक्र हैं। तो अपना वह दिनचर्या का चक्र सदैव क्लीयर रहे, मूँझे नहीं। तब चक्रवर्ती राजा बनेंगे। रजिस्टर साफ करना आता है ना। आजकल साइन्स ने भी ऐसी इन्वेन्शन की है, जो लिखा हुआ सभी मिट जाये जो मालूम ही न पड़े। तो क्या साइलेन्स की शक्ति से अपने रजिस्टर को रा सा नहीं कर सकते हो? इसलिए कहा हुआ है कि बाप के प्रिय वा प्रभु प्रिय वा दैवी लोक दोनों के प्रिय कौन बन सकते? सच्चाई और सफाई वाले प्रभु-प्रिय भी हैं और लोक-प्रिय भी और अपने आपको भी प्रिय लगते हैं। सच्चाई-सफाई को सभी पसन्द करते हैं। रजिस्टर साफ रखना-यह भी सफाई हुई ना। और सच्ची दिल पर साहेब राजी हो जाता है अर्थात् हिम्मत और याद से मदद मिल जाती है। अच्छा।



19-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


सिम्पल बनो, सैम्पल बनो

ज यह जो संगठन हुआ है, इसको कौनसा संगठन कहेंगे? इस संगठन का नाम कर्म के प्रमाण कौनसा कहेंगे? कर्त्तव्य के आधार पर नाम बताओ? (हरेक ने नाम बताये) जो सभी नाम बोले वह प्रैक्टिकल में अपना कर्त्तव्य समझकर बोला? प्रैक्टिकल में चल रहे हैं तो फिर क्या हो गये? सपूत और सबूतमूर्त। अगर प्रैक्टिस में हैं तो सबूतमूर्त नहीं कहेंगे, प्रैक्टिकल में हैं तो सपूत और सबूतमूर्त दोनों ही हैं। यह ग्रुप सिम्पल और सैम्पल है। सिम्पल बनकर सैम्पल दिखाने वाले। सिम्पल कोई ड्रेस आदि में नहीं लेकिन सभी बातों में सिम्पल बन सैम्पल बनने वाले। जैसे कोई भी सिम्पल ची अगर स्वच्छ होती है तो अपने तरफ आकर्षित करती है। इस रीति से मन्सा में भी जो संकल्प है, सम्बन्ध में, व्यवहार में भी और रहन-सहन में भी सभी में सिम्पल और स्वच्छ रहने वाले सैम्पल बन अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। अगर संकल्प में वा सम्बन्ध में सिम्पल नहीं होंगे तो आल्टरनेट क्या होंगे? सिम्पल अर्थात् साधारणता। साधारणता में महानता हो। जैसे बाप साकार सृष्टि में सिम्पल रहते हुए आप सभी के आगे सैम्पल बने ना। अति साधारणता ही अति महानता को प्रसिद्ध करती है तो साधारणता अर्थात् सिम्पल नहीं तो प्राब्लम बन जाते हैं। संकल्पों के भी प्राब्लम में रहते हैं। रहन-सहन भी सिम्पल न होने के कारण औरों के लिए वा अपने लिए कोई न कोई प्राब्लम बन जाते हैं। तो प्राब्लम बनना है वा सिम्पल बनना है? प्राब्लम वाले सिम्पल नहीं बन सकते। तो मन्सा में भी सिम्पल हों। अगर कोई मन्सा में भी उलझन है अर्थात् प्राब्लम है तो उसको सिम्पल कहेंगे क्या? जैसे देखो, गाँधी को सिम्पल कहते थे, लेकिन सिम्पल बनकर के एक सैम्पल बन कर तो दिखाया ना। उसकी सिम्पल एक्टिविटी ही महानता की निशानी थी। वह हो गया हद का एक्ट। लेकिन यहाँ है बेहद के बाप के बच्चे बन बेहद की एक्ट करना। तुम तो विश्व के निमित्त हो ना। जैसे विश्व बेहद का है, बाप बेहद का है, वैसे ही जो भी एक्ट करते हो वह बेहद की स्थिति में स्थित होकर एक्ट करना है। वह एक्ट ही अपने तरफ अट्रेक्ट करता है। तो आकर्षण-मूर्त बनने के लिए क्या करना पड़े? सिम्पल बनना पड़े। यहाँ दैवी सम्बन्ध में भी अगर कोई सिम्पल नहीं बनता, प्राब्लम बन जाता है तो रिजल्ट क्या होती है? स्नेह और सहयोग से वंचित रह जाते हैं। जो साधारण, सिम्पल होते हैं उसके तरफ न चाहते हुए भी सभी को स्नेह और सहयोग देने की शुभ भावना होगी। तो सर्व स्नेही वा सर्व से सहयोग प्राप्त करने के लिए वा सर्व के सहयोगी बनने के लिए सिम्पल बनना बहुत आवश्यक है। कोई प्राब्लम तो नहीं है वा स्वयं प्राब्लम बने हुए तो नहीं हो? चाहे लौकिक परिवार में वा व्यवहार में, चाहे दैवी परिवार में - कब भी अपने में प्राब्लम न इमर्ज करो, न कोई के लिए प्राब्लम बनाओ। अगर प्राब्लम बनते हो तो सेवा लेने वाले बन जाते हो। आप हो ईश्वरीय सेवाधारी, तो सेवाधारी अर्थात् सेवा करने वाले, न कि सेवा लेने वाले। अगर सेवा लेने वाले बनते हो तो नाम प्रमाण कर्त्तव्य नहीं हुआ ना। खुदाई-खिदमतगार सेवा लेता नहीं, देता है। क्योंकि दाता के बच्चे हैं ना। जैसे बाप कुछ लेते हैं क्या? वह तो दाता है ना। अगर प्राब्लम बनने के कारण सेवा लेते हो तो दाता के बच्चे ठहरे? कोई भी प्रकार की अगर एक्स्ट्रा सेवा लेते हो तो यह कभी भी नशा नहीं रहेगा कि हम दाता वा वरदाता के बच्चे हैं।

तो यह प्रवृत्ति वाला ग्रुप है कि निवृत्ति वाले हैं? लौकिक प्रवृत्ति तो समाप्त हुई ना। लौकिक प्रवृत्ति को भी ईश्वरीय प्रवृत्ति में परिवर्तन किया है? जब तक परिवर्तन नहीं किया है तब तक अलौकिक स्थिति में एकरस नहीं रह सकते। इसलिए कहा था कि अपना नाम, रूप, गुण और कर्त्तव्य सदैव याद कर फिर प्रवृत्ति में रहो, जिससे लौकिक प्रवृत्ति परिवर्तन हो। सदैव अपने को सेवाधारी समझने से रोब नहीं रहेगा। सेवाधारी सदैव नम्रचित्त, निर्माण रहता है और अपने घर को भी घर नहीं लेकिन सेवा-स्थान समझेगा। और सेवाधारी का मुख्य गुण है त्याग। अगर त्याग नहीं तो सेवा भी नहीं हो सकती। त्याग से तपस्वीमूर्त बनते हो। सेवाधारी का कर्त्तव्य है सदैव सेवा में रहना। चाहे मन्सा सेवा में रहे, चाहे वाचा सेवा में रहे, चाहे कर्मणा सेवा में रहे लेकिन सेवाधारी अर्थात् निरन्तर सेवा में तत्पर रहने वाले। वह कभी भी सेवा को अपने से अलग नहीं समझेंगे। निरन्तर सेवा का ही ध्यान रहेगा। इसको कहते हैं सेवाधारी। तो अपने को सेवाधारी समझो और सेवा-स्थान समझकर रहो, त्याग वृत्ति वाले तपस्वीमूर्त होकर रहो। निरन्तर सेवा की ही बुद्धि में लगन रहे तो फिर लौकिक प्रवृत्ति बदल कर ईश्वरीय प्रवृत्ति नहीं हो जायेगी? तो यह ग्रुप नवीनता क्या दिखायेगा, जो कोई ग्रुप ने न दिखाई हो? कोई-न-कोई नवीनता ज़रूर लानी है। खास भट्ठी में आते हो तो अपने में परिवर्तन भी खास होना चाहिए। वैसे तो चलते-फिरते हो लेकिन अब खास विशेषता लाकर अपना नाम विशेष आत्माओं में जमा करा के जाना। बापदादा के पास कितने प्रकार की लिस्ट है, मालूम है? आपका किस लिस्ट में नाम है, यह मालूम है? अपना नाम विशेष आत्माओं में कर सको, इसका प्रयत्न करो। विशेष आत्मायें तब बनते हैं जब कोई विशेष कर्त्तव्य करते वा विशेषता दिखाते हैं। तो विशेष आत्मा बन करके ही जाना। मरजीवा बने हुए हो वा बनने के लिए आये हो? मरजीवा बनकर ही ब्रह्माकुमार बने वा अभी बनेंगे? जब मरकर के जन्म लिया तब तो ब्रह्माकुमार कहलाया। मरकर नया जन्म लेना इसको ही मरजीवा कहते हैं ना। नहीं तो जन्म लेने से पहले ब्रह्माकुमार कैसे बने। बच्चे तो हो, अधिकारी हो। बाकी है सपूत बन कर सबूत देना। बाकी ब्रह्माकुमार हैं तो मरजीवा तो बन ही गये। मरजीवा बने हुए हैं यह स्मृति में रहने से फिर यह शरीर भी आपका नहीं रहा। यह शरीर बाप ने ईश्वरीय सर्विस के लिए दिया है। आप तो मर चुके हो ना। लेकिन यह पुराना शरीर सिर्फ ईश्वरीय सर्विस के लिए मिला हुआ है, ऐसे समझकर चलने से इस शरीर को भी अमानत समझेंगे। जैसे कोई की अमानत होती है तो अमानत में अपनापन नहीं होता है, ममता भी नहीं होती है। तो यह शरीर भी एक अमानत समझो। तो फिर देह की ममता भी खत्म हो जायेगी। जैसे ट्रस्टी हो रहने से, अमानत समझने से ममता कम होती है ना। इस रीति यह शरीर भी सिर्फ ईश्वरीय सर्विस के लिए अमानत के रूप में मिला हुआ है। जिसकी अमानत है उनकी स्मृति, अमानत को देखकर तो आती है ना। अमानत रखी हुई चीज़ को देख, देने वाले की याद आती है ना। यह तो अमानत रूहानी बाप ने दी है, रूहानी बाप की याद रहेगी। अमानत समझने से रूहानियत रहेगी और रूहानियत से सदैव बुद्धि में राहत रहेगी,थकावट नहीं होगी। अमानत में ख्यानत करने से रूहानियत के बदली उलझन आ जाती है, राहत के बजाय घबराहट आ जाती है। इसलिए यह शरीर है ही सिर्फ ईश्वरीय सर्विस के लिए। अमानत समझने से आटोमेटिकली रूहानियत की स्थिति रहेगी। यह सहज उपाय है ना। अब निरन्तर सहज योगी बन सकेंगे ना। निरन्तर रूहानियत की अवस्था में स्थित रहो, यह नवीनता दिखाना जो आप लोगों को देख कर सभी अनुभव करें कि यह तो सैम्पल बन कर आये हैं। औरों को भी याद की यात्रा सहज बनाने के लिए सैम्पल बन कर जाना। यह ग्रुप सैम्पल बनकर जायेंगे ना।

अगर एक-एक स्थान पर एक सैम्पल जायेगा तो फिर सिम्पल बात हो जायेगी। अपना नाम क्या याद रखेंगे? सेवाधारी। सेवाधारी तो हो ही लेकिन सेवा ऐसे करो जो प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति करा सको। तो सलोगन क्या याद रखेंगे? अपनी रूहानियत की स्थिति प्रत्यक्ष कर हर आत्मा को प्रत्यक्ष फल दिलाने वाले। यह है इस ग्रुप का कर्त्तव्य। जितना अपनी रूहानियत की स्थिति को पक्का करेंगे उतना प्रत्यक्ष फल दे सकेंगे। अगर रूहानियत की स्थिति को प्रत्यक्ष नहीं दिखाते तो फल भी प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता। प्रत्यक्ष फल दिखाने के लिए अपनी रूहानी स्थिति को प्रत्यक्ष करो। समझा, सलोगन। अच्छा। अपने ऊपर छाप कौनसी लगाई? सेवाधारी समझा ना, मन्सा में भी सेवा। और यह ग्रुप मुख्य त्याग क्या करेगा जिस त्याग से तपस्वी बन सको? आप की प्रैक्टिकल दिनचर्या में बहुत करके विघ्न रूप क्या होता है? एक शब्द में इसको कहेंगे रोब। इसलिए रूहानी रूहाब नहीं आता है। प्रवृत्ति में जो रोब रखते हो ‘मैं रचयिता हूँ’ वा व्यवहार का भी जो रोब रहता है, सम्बन्ध में भी मुख्य विघ्न रोब आता है। इसका त्याग करना है। सेवाधारी रोब नहीं दिखाते। इसलिए रोब का त्याग करना है। यह है मुख्य त्याग। हिम्मत तो है ना त्याग की। जो भी वायदे करते हो, एक-एक वायदे पर अविनाशी की छाप लगाओ। अविनाशी छाप न लगाने के कारण वायदे अल्पकाल के लिए हो जाते हैं। कइयों की रिजल्ट में यह दिखाई देता है कि यहाँ वायदे करके जाते हैं, फिर वायदे बदलकर विलाप करने लग पड़ते - क्या करें, क्या हो गया, अब मदद दो। चाहते तो नहीं हैं लेकिन यह कारण बन गया। योगी के बदले वियोगी हो विलाप करते हैं। तो अब निरन्तर योगी बनना। विलापों वाले वियोगी नहीं बनना। यह ग्रुप यही प्रैक्टिकल करके दिखाये। जो कहा है वही करेंगे, चाहे कितनी भी बातें सहन करनी पड़ें, लेकिन सामना करके दिखायेंगे। विजयी बनकर के ही दिखायेंगे, एक दो के मददगार, शुभ चिन्तक बनते रहें तो सहयोगी बन क्या नहीं कर सकते हैं! जब वह एक दो के सहयोगी बन घेराव डाल सकते हैं, तो क्या आप माया को घेराव नहीं डाल सकते। पाण्डव सेना घेराव नहीं डाल सकती? एक दो के शुभचिन्तक, सहयोगी बनते रहें तो माया की हिम्मत नहीं जो आपके घेराव के अन्दर आ सके। यह है सहयोग की शक्ति। यह संगठन है सहयोग की शक्ति का। यह संगठन के सहयोग की शक्ति का प्रत्यक्ष रूप दिखाना। अच्छा।



27-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


बुद्धि रूपी नेत्र क्लीयर और पावरफुल बनाओ

भट्ठी की पढ़ाई का पेपर लिखत में दिया। फिर कल कौनसा पेपर शुरू होगा, यह जानते हो? प्रैक्टिकल पेपर में कौनसे क्वेश्चन आने वाले हैं, उन्हों को जानते हो? किस-किस प्रकार के क्वेश्चन्स आयेंगे? कल्प पहले क्या-क्या हम आत्माओं द्वारा हुआ है, वह स्मृति आती है? (हाँ) जब यह स्मृति आती है, तो क्वेश्चन कौन से आयेंगे - यह स्मृति नहीं आती है? माया सामना तो करेगी - लेकिन किस-किस रूपों में करेगी यह भी जानते हो कि नहीं? मास्टर नॉलेजफुल बनकर जा रहे हो ना। मास्टर नॉलेजफुल को तो इनएडवांस सभी मालूम पड़ ही जाता है। जैसे साइन्स वाले अपने यन्त्रों द्वारा जो भी कोई घटना जैसेकि तूफान वा बारिश का आना वा धरती का हिलना आदि पहले से ही जान लेते हैं तो क्या आप सभी भी मास्टर नॉलेजफुल बनने से इनएडवान्स अपनी बुद्धि-बल द्वारा नहीं जान सकते हो? दिन-प्रतिदिन जितना-जितना अपनी स्मृति की समर्थी में आते जायेंगे अर्थात् अपनी आत्मा रूपी नेत्र को पावरफुल बनाते जायेंगे, क्लीयर बनाते जायेंगे उतना-उतना कोई भी अगर विघ्न आने वाला होगा तो पहले से ही यह महसूसता आयेगी कि आज कोई पेपर होने वाला है। और जितना-जितना इनएडवान्स मालूम पड़ता जायेगा तो पहले से ही होशियार होने के कारण विघ्नों में सफलता पा लेंगे। जैसे आजकल की गवर्नमेन्ट को जब पहले से ही मालूम पड़ जाता है कि दुश्मन आने वाला है, तो पहले से ही तैयारी करने के कारण विजयी बन सकते हैं। और अचानक आक्रमण विजयी नहीं बना सकता। यहाँ एक तो त्रिकालदर्शी होने के नाते कल्प पहले की स्मृति ऐसे अनुभव करते हो जैसेकि कल की बात है और दूसरा फिर नॉलेजफुल होने के नाते से, तीसरा बुद्धि रूपी नेत्र पावरफुल और क्लीयर होने के कारण वह इनएडवान्स की बातों को कैच कर लेते हैं। तो तीनों ही प्रकार से अगर अटेन्शन है वा स्थिति है तो क्या आने वाले विघ्नों को पहले से ही परख नहीं सकते हो? और जैसे-जैसे इनएडवान्स में परख वा पहचान होती जायेगी तो कभी भी हार नहीं होगी, सदा विजयी होंगे। जैसे नेत्र ठीक न होने के कारण वा सी.आई.डी.की चेकिंग ठीक न होने के कारण कभी गवर्नमेन्ट भी धोखा खा लेती है। इस रीति से सदैव अपने बुद्धि रूपी नेत्र की सम्भाल होनी चाहिए कि यथार्थ रीति से कार्य कर रहा है?

सी.आई.डी. का और क्या अर्थ है? चेकिंग ही सी.आई.डी. है। चेकिंग रूपी सी.आई.डी. होशियार है तो कभी भी दुश्मन से हार नहीं खा सकते। इसलिए अब भी प्रयत्न करो कि पहले से ही मालूम रहे। जैसे बारिश होने वाली होती है तो प्रकृति पहले से ही सावधानी ज़रूर देती है। अगर नॉलेजफुल हो तो प्रकृति के विघ्न से वह बच सकता है। अगर नॉलेजफुल नहीं तो प्रकृति की जो भिन्न-भिन्न छोटी-छोटी चीज़ें दु:ख के वा बीमारी के निमित्त बनती हैं उनके अधीन बन जाते हैं। कारण क्या होगा? पहचान वा नॉलेज की कमी। तो जैसे-जैसे याद की शक्ति अर्थात् साइलेन्स की शक्ति अपने में भरती जायेगी तो पहले से ही मालूम पड़ेगा कि आज कुछ होने वाला है। और दिन-प्रतिदिन जो अनन्य महारथी अटेन्शन और चेकिंग में रहते हैं, वह यह अनुभव करते जा रहे हैं। बुखार भी आने वाला होता है तो पहले से ही उसकी निशानियाँ दिखाई पड़ती हैं। तो इसमें भी अगर नॉलेजफुल हैं तो जो पेपर आने वाला है उसकी कोई निशानियाँ ज़रूर होती हैं। लेकिन परखने की शक्ति पावरफुल हो तो कभी हार नहीं हो सकती। ज्योतिषी भी अपने ज्योतिष की नॉलेज से, ग्रहों की नॉलेज से आने वाली आपदाओं को जानते हैं। आपकी नॉलेज के आगे तो वह नॉलेज कुछ भी नहीं है। तुच्छ कहेंगे। तो जब तुच्छ नॉलेज वाले एडवान्स को जान सकते हैं अपनी नॉलेज की पावर से, तो क्या इतनी श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ नॉलेज से मास्टर नॉलेजफुल यह नहीं जान सकते? नहीं जान सकते तो इसका कारण यह है कि बुद्धि रूपी नेत्र क्लीयर नहीं है। और क्लीयर न होने का कारण क्या? केयरफुल नहीं। केयरफुल न होने के कारण नॉलेजफुल नहीं। नॉलेजफुल न होने कारण पावरफुल नहीं। पावरफुल न होने के कारण जो विजय की प्राप्ति होनी चाहिए वह नहीं होती। तो अपने नेत्र को क्लीयर रखना मुश्किल बात है क्या? इस बारी जो भट्ठी में आये हैं वह मधुबन से अर्थात् वरदान भूमि से क्या वरदान ले जायेंगे? एक तो अपनी बुद्धि रूपी नेत्र को क्लीयर और केयरफुल रखना और इनएडवान्स नॉलेजफुल होकर परखने का वरदान लेकर जाना है जिससे कभी भी माया से हार नहीं खायेंगे। जिसकी माया से हार नहीं होती उनके ऊपर सुनने वाले और देखने वाले बलिहार जाते हैं। तो प्रवृत्ति में रहते आपके ऊपर आपके समीप वाले, दूर वाले बलिहार जायें, उसकी युक्ति यह है कि बार-बार हार न हो। जब बार-बार हार खा लेते हो तो हार खाने वाले के ऊपर बलिहार कैसे जायेंगे। इसलिए सभी को अपने ऊपर अर्थात् बाप के ऊपर बलिहार बनाने के लिए कभी हार नहीं खाना। हार पहनने के योग्य बनना है, न कि हार खानी है। यह है प्रवृत्ति में रहने वाले पाण्डवों के लिए विशेष रूप की शिक्षा। जब अपनी प्रवृत्ति में जाते हो तो प्रवृत्ति को प्रवृत्ति ही समझेंगे वा और कुछ समझेंगे? प्रवृत्ति वाले हैं - यह नाम बदल गया ना। अभी अपनी प्रवृत्ति को अधरकुमार कहेंगे? अपनी प्रवृत्ति का ज़रा भी संकल्प नहीं आये? (ऐसे ख्याल आने का सवाल ही नहीं पैदा होता) सवाल तो पैदा होता है लेकिन ख्याल पैदा न हो, ऐसे कहो। हम प्रवृत्ति-मार्ग वाले हैं-यह रजिस्टर आज से अपना बन्द करके और नया रजिस्टर सेवाधारी का रखा है, ऐसे समझें? दीपावली पर पुराने चौपड़े खत्म कर नये रखते हैं ना। तो आप लोगों ने भी सच्ची दीपावली मनाई? दीपक भी अविनाशी जगाया? पुराने प्रवृत्ति के स्मृति का वा पुराने संस्कारों का चौपड़ा भी खत्म किया? जैसे स्मृति वैसे संस्कार बनते हैं। तो यह चौपड़े पूरा जला दिये वा कुछ किनारे रख दिये हैं? अगर किनारे रखे होंगे तो कभी भी बुद्धि उनमें जायेगी। जलाकर खत्म किया वा कभी-कभी देखने की दिल होती है? कोई ची ऐसी होती है जिससे डर लगता है, तो उसको किनारे रखने की बजाय भस्म किया जाता है। झूठी चौपड़ी बनाने वाले गवर्नमेन्ट से डरते हैं, इसलिए वह काग जला कर भस्म कर देते हैं जो किसको निशानी भी न मिले। इस रीति पुरानी स्मृति का चौपड़ा वा रजिस्टर बिल्कुल जलाकर खत्म करके जाना। एक होता है किनारे करना, दूसरा होता है बिल्कुल जला देना। रावण को सिर्फ मारते नहीं लेकिन साथ-साथ जलाते भी हैं। तो इनको भी सिर्फ अगर किनारे रखा तो वह भी निशानी रह जायेगी। पुराने रजिस्टर की छोटी-सी टुकड़ी से भी पकड़ जायेंगे। माया बड़ी ते है। उनकी कैचिंग पावर कोई कम नहीं है। जैसे गवर्नमेन्ट आफिसर्स को ज़रा भी कुछ प्राप्त होता है तो उसी पर वह पकड़ लेते हैं। ज़रा निशानी भी किनारे कर दी तो माया किस-न-किस रीति से पकड़ लेगी। इसलिए जलाकर ही जाना। सुनाया था ना कि कुमारों में जेब-खर्च का संस्कार होता है, वैसे प्रवृत्ति मार्ग वालों में भी विशेष संस्कार होता है कुछ- न-कुछ आईवेल के लिए किनारे रखना। चाहे कितना भी लखपति क्यों न हो, कितना भी स्नेही क्यों न हो, लेकिन फिर भी यह संस्कार होते हैं। अब यह संस्कार यहाँ भी पुरूषार्थ में विघ्न रूप होते हैं। कई समझते हैं कि अगर थोड़ा- बहुत रोब के संस्कार अपने में न रखें तो प्रवृत्ति कैसे चलेगी। वा थोड़ा-बहुत अगर लोभ के संस्कार भिन्न रूप में न होंगे तो कमाई कैसे कर सकेंगे वा अहंकार का रूप न होगा तो लोगों के सामने पर्सनैलिटी कैसे देखने में आयेगी। ऐसे-ऐसे कार्य के लिए अर्थात् आईवेल के लिए थोड़ा-बहुत पुराने संस्कारों का खज़ाना जो है उनको छिपाकर रखते हैं। यह संस्कार ही धोखा देते हैं। यह कोई पर्सनैलिटी नहीं वा इस पुराने संस्कारों का रूप प्रवृत्ति को पालन करने का साधन नहीं है। पुराने संस्कारों का लोभ रॉयल रूप में होता है, लेकिन है लोभ का अंश।

समझो प्रवृत्ति वाले व्यवहार में जाते हो, तो जहाँ देखेंगे थोड़ा-बहुत ज्यादा प्राप्ति होती है, तो उस प्राप्ति के पीछे इतना लग जायेंगे जो इस ईश्वरीय कमाई को कम कर देंगे। इस तरफ अटेन्शन कम कर उस तरफ की प्राप्ति तरफ ज्यादा अटेन्शन गया, तो क्या यह लोभ का अंश नहीं है? इस रीति जो आईवेल के लिए पुराने संस्कारों की प्रॉपर्टी को अर्थात् खज़ाने से थोड़ा-बहुत किनारे कर रखते हैं समय पर यू करने के लिए, लेकिन यह संस्कार भी खत्म करना है। ऐसी चेकिंग करनी चाहिए जो ज़रा भी कहाँ कोने में कोई ऐसे पुराने संस्कार रहे हुए तो नहीं हैं? मोह भी होता है। प्रवृत्ति तरफ ज्यादा अटेन्शन जाए-यह भी रायल रूप में मोह का अंश है। यह बेहद की प्रवृत्ति तो 21 जन्म साथ चलती है और वह प्रवृत्ति कर्मबन्धन को चुक्तू करने की प्रवृत्ति है। तो चुक्तू करने वाले प्रवृत्ति के तरफ ज्यादा अटेन्शन देते और इस तरफ कम अटेन्शन देते हैं तो यह मोह-ममता का रायल रूप नहीं हुआ? यह अंश वृद्धि को पाते-पाते विघ्न रूप बन विजयी बनने में हार खिला देते हैं। इसलिए प्रवृत्ति वाले भले मोटे रूप में महादानी, महाज्ञानी भी बने लेकिन यह किनारे किये हुए विकारों के वंश के अंश भी खत्म करना है, यह भी अटेन्शन रखना है। ऐसे नहीं कि कोर्स मिला और पास हुए। नहीं। अभी इसमें भी पास होना है। बिल्कुल ज़रा भी किसी भी कोने में पुराने खज़ाने की निशानी न हो। इसको कहा जाता है मरजीवा वा सर्वंश त्यागी वा सर्व समर्पण वा ट्रस्टी वा यज्ञ के स्नेही वा सहयोगी। यह है कोर्स। भले कोर्स तो टीचर्स ने कराया। लेकिन कोर्स के पाrछे चाहिए फोर्स। सिर्फ कोर्स कर जाते हो तो कोर्स यहाँ तक ठीक रहता है लेकिन फिर पेपर देने के टाइम कोर्स भूल जाता है। कोर्स के साथ में फोर्स भी भरकर जायेंगे तो कोर्स, फोर्स सक्सेस करेगा। कभी फेल नहीं होंगे। तो यह फोर्स भरकर जाना, तब सदा विजयी बन सकेंगे। ज़रा भी निशानी न रहे। निशानी होने के कारण ही बुद्धि का निशाना नहीं लग सकता है। ऐसा ऊंचा पेपर देना है। छोटे-छोटे पेपर से पास होना बड़ी बात नहीं। लेकिन सूक्ष्म महीन पेपर से पास होना - यह है ‘पास विद् ऑनर’ की निशानी। तो अब समझा कि क्या करना है? अपनी पुरानी चौपड़ी पूरी जलाकर जाना। इतना फोर्स भरे, यह भी बहुत है। जैसे कपड़े धुलाई के बाद प्रेस न हों तो कपड़े में चमक नहीं आती, तो यह भी कोर्स के बाद अगर फोर्स नहीं भरता है तो चमत्कारी बनकर चमत्कार नहीं दिखा सकते। तो अब चमत्कारी बनकर जाना, जो दूर से ही आपकी ईश्वरीय चमक आकर्षित करे। सभी से ज्यादा अपनी तरफ आकर्षित करने वाली ची कौनसी होती है जो दूर से ही न चाहते भी अपनी तरफ आकर्षित करती है? (चमक) चमक किससे आती है? आपकी प्रदर्शनियों में भी सभी से ज्यादा कौनसी चीज़ आकर्षित करती है? एक तो लाइट अपनी तरफ आकर्षित करती है, दूसरी माइट अपनी तरफ आकर्षित करती है। फिर उसमें कोई भी माइट हो। अपने में ईश्वरीय लाइट वा अपने में ट्रान्सफर होने की माइट हो तो भी आकर्षित करते हो। जो अपने को ट्रान्सफर नहीं कर सकते, तो ट्रान्सफर करने की लाइट और माइट अपने में धारण करने से हर आत्मा को अपनी तरफ आकर्षित कर सकेंगे। अच्छा।



28-07-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


आकार में निराकार को देखने का अभ्यास

कार को देखते निराकार को देखने का अभ्यास हो गया है? जैसे बाप आकार में निराकार आत्माओं को ही देखते हैं, वैसे ही बाप समान बने हो? सदैव जो श्रेष्ठ बी होता है उसी तरफ ही दृष्टि और वृत्ति जाती है। तो इस आकार के बीच श्रेष्ठ कौनसी वस्तु है? निराकार आत्मा। तो रूप को देखते हो वा रूह को देखते हो? क्योंकि अब तो अन्तर को भी जान गये हो और महामन्त्र को भी जान गये हो। जान लिया, देख भी लिया। बाकी क्या रहा? बाकी स्थित रहने के बात में अभ्यासी हो? (हरेक ने अपना-अपना अनुभव बताया) ऐसे समझें अन्त तक पहले पाठ के अभ्यासी रहेंगे? अन्त तक अभ्यासी हो रहेंगे वा स्वरूप भी बनेंगे? अन्त के कितना समय पहले ये अभ्यास समाप्त होगा और स्वरूप बन जायेंगे? जब तक शरीर छोड़ेंगे तब तक अभ्यासी रहेंगे? पहले पाठ की समाप्ति कब होती है? जो समझते हैं अन्त तक अभ्यासी रहेंगे वह हाथ उठाओ। ‘आकार में निराकार देखने की बात’ पहला पाठ पूछ रहे हैं। अभी आकार को देखते निराकार को देखते हो? बातचीत किस से करते हो? (निराकार से) आकार में निराकार देखने आये-इसमें अन्त तक भी अगर अभ्यासी रहेंगे तो देही-अभिमानी का अथवा अपने असली स्वरूप का जो आनन्द वा सुख है वह संगमयुग पर नहीं करेंगे। संगमयुग का वर्सा कब प्राप्त होता है? संगमयुग का वर्सा कौनसा है? (अतीन्द्रिय सुख) यह अन्त में मिलेगा क्या, जब जाने वाले होंगे? आत्मिक- स्वरूप हो चलना वा देही हो चलना-यह अभ्यास नहीं है? अभी साकार को वा आकार को देखते आकर्षण इस तरफ जाती है वा आत्मा तरफ जाती है? आत्मा को देखते हो ना। आकार में निराकार को देखना - यह प्रैक्टिकल और नेचरल स्वरूप हो ही जाना चाहिए। अब तक शरीर को देखेंगे क्या? सर्विस तो आत्मा की करते हो ना। जिस समय भोजन स्वीकार करते हो, तो क्या आत्मा को खिलाते हैं वा शारीरिक भान में करते हैं? सीढ़ी उतरते और चढ़ते हो? सीढ़ी का खेल अच्छा लगता है? उतरना और चढ़ना किसको अच्छा लगता है? छोटे-छोटे बच्चे कहां भी सीढ़ी देखेंगे तो उतरेंगे-चढ़ेंगे ज़रूर। तो क्या अन्त तक बचपन ही रहेगा क्या? वानप्रस्थी नहीं बनेंगे? जैसे शरीर की भी जब वानप्रस्थ अवस्था होती है तो धीर-धीरे बचपन के संस्कार मिटते जाते हैं ना। तो यह उतरना-चढ़ना बचपन का खेल कब तक होगा? साक्षात्कारमूर्त तब बनेंगे जब आकार में होते निराकार अवस्था में होंगे। अगर ऐसे समझेंगे कि अन्त तक अभ्यासी रहना है; तो इस पहले पाठ को परिपक्व करने में ढीलापन आ जायेगा। फिर निरन्तर सहज याद वा स्वरूप की स्थिति की सफलता को देखेंगे नहीं। शरीर छोड़ेंगे तब सफल होंगे? लेकिन नहीं, यह आत्मिक-स्वरूप का अनुभव अन्त के पहले ही करना है। जैसे अनेक जन्म अपनी देह के स्वरूप की स्मृति नेचरल रही है, वैसे ही अपने असली स्वरूप की स्मृति का अनुभव भी थोड़ा समय भी नहीं करेंगे क्या? यह होना चाहिए?

यह पहला पाठ कम्पलीट हो ही जायेगा। इस आत्म-अभिमानी की स्थिति में ही सर्व आत्माओं को साक्षात्कार कराने के निमित्त बनेंगे। तो यह अटेन्शन रखना पड़े। आत्मा समझना - यह तो अपने स्वरूप की स्थिति में स्थित होना है ना। जैसे ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी कहने से ब्रह्मा बाप वा ब्रह्माकुमारपन का स्वरूप भूलता है क्या? चलते-फिरते ‘मैं ब्रह्माकुमार हूँ’ - यह भूलता है क्या? ज्ब यह नहीं भूलता, शिववंशी होने के नाते अपना आत्मिक-स्वरूप क्यों भूलते हो? बापदादा कहते हो ना। जब ‘शिव बाबा’ शब्द कहते हो तो निराकारी स्वरूप सामने आता है ना। तो जैसे ब्रह्माकुमार-पन का स्वरूप चलते-फिरते पक्का हो गया है, ऐसे ही अपना शिववंशी का स्वरूप क्यों भूलना चाहिए। ब्रह्माकुमार बन गये हो और शिववंशी स्वरूप अन्त में बनेंगे? बापदादा इकठ्ठा बोलते हो वा अलग बोलते हो? जब ‘बापदादा’ शब्द इकठ्ठा बोलते हो तो अपना दोनों ही ‘‘आत्मिक-स्वरूप और ब्रह्माकुमार का स्वरूप’’ दोनों ही याद नहीं रहता? यह अभ्यास पहले से ही कम्पलीट करना पड़े। अन्त के लिए तो और बहुत बातें रह जायेंगी। सुनाया था ना - अन्त के समय नई-नई परीक्षायें आयेंगी, जिन परीक्षाओं को पास कर सम्पूर्णता की डिग्री लेंगे। अगर यह पहला पाठ ही स्मृति में नहीं होगा तो सम्पूर्णता की डिग्री भी नहीं ले सकेंगे। डिग्री न मिलेगी तो क्या होगा? धर्मराज की डिक्री निकलेगी। तो यह अभ्यास बहुत पक्का करो। जैसे पहला विकार एकदम संकल्प रूप से भी निकालने का निश्चय किया, तो उसमें विजयी मैजारिटी बने हैं ना। अपनी प्रतिज्ञा के ऊपर मदार है। जिस बात की फोर्स से प्रतिज्ञा करते हो, तो वह प्रतिज्ञा प्रैक्टिकल रूप ले लेती है। अगर समझते हो यह अन्त का कोर्स है, तो फिर रिजल्ट क्या होती है? प्रैक्टिकल नहीं होती है, प्रैक्टिस ही रह जाती है। यह बातें तो पहले क्रास करनी हैं। अगर अन्त तक क्रास करेंगे तो कम्पलीट अतीन्द्रिय सुख का वर्सा कब प्राप्त करेंगे? कई बातें ऐसी हैं जिसमें हरेक ने अपनी-अपनी यथा शक्ति क्रास करके प्रैक्टिस के बजाय प्रैक्टिकल में लाया है। कोई किस बात में, कोई किस बात में। जैसे लौकिक देह के सम्बन्ध की बात कोई प्रैक्टिस में है, कोई प्रैक्टिकल में एक ही अलौकिक-पारलौकिक सम्बन्ध के अनुभव में है। स्वप्न में भी कभी संकल्प रूप में देह के सम्बन्धी तरफ वृत्ति और दृष्टि न जाये। इसमें पाण्डवों को भी क्रास करना है। लौकिक को अलौकिक में परिवर्तन करने की स्मृति आती है तो वह हुआ कल्याण अर्थ। आप तो मधुबन भट्ठी में रहने वाले हो ना। तो पहली सीढ़ी पास होनी चाहिए ना। जो एक सेकेण्ड पहले नहीं था वह क्या अब के सेकेण्ड में नहीं हो सकते हो? मधुबन के पाण्डव हैं, यूनिवार्सिटी के स्टूडेन्ट हैं। कोई छोटी गीता पाठशाला के स्टूडेन्ट नहीं हैं। तो इन्हों को कितना नशा रहना चाहिए! इन्हों की पढ़ाई कितनी ऊंची है! ऐसी कमाल करके दिखाना जो एक सेकेण्ड पहले आप लोगों से नाउम्मीद रखें वह दूसरे सेकेण्ड सभी उम्मीदवार बन जायें। महावीर सेना ने क्या किया? सारी लंका को जब जला दिया। तो सीढ़ी नहीं पास कर सकते हैं? पहली सीढ़ी तो बताई। दूसरी सीढ़ी है - कर्मेन्द्रियों पर विजय। तीसरी है - व्यर्थ संकल्पों और विकल्पों के ऊपर विजय। यह है लास्ट। लेकिन दूसरे को भी क्रास कर लेना चाहिए। उमंग-उत्साह से कह सको कि - हां, हम फुल पास हैं। दूसरी सीढ़ी तो बहुत सहज है। जब मरजीवा बन गये तो यह पुरानी कर्मेन्द्रियों की आकर्षण क्यों? मरजीवा बने तो खत्म हो गये ना। जैसे जन्म-पत्री बतलाते हैं- फलाने का इस आयु तक शरीर है, फिर खलास। लेकिन अगर कोई दान-पुण्य करेंगे तो नई जन्म के रीति नई आयु शुरू हो जायेगी। तो ऐसे मरजीवा बने अर्थात् सब तरफ से मर चुके ना। पुरानी आयु समाप्त हुई। अभी तो नया जन्म हुआ उसमें हुए ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियां तो ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारियों की कर्मेन्द्रियों पर विजय न हो -- यह हो सकता है क्या? पिछला हिसाब है तो चुक्तू हुआ। जब मरजीवा बने, ब्रह्माकुमार बन गये तो फिर कर्मेन्द्रियों के वश कैसे हो सकते? ब्रह्माकुमार के नये जीवन में ‘‘कर्मेन्द्रियों के वश होना क्या ची होती है’’, इस नॉलेज से भी परे हो जाते। अभी शूद्रपन से मरजीवा नहीं बने हैं क्या वा अभी बन रहे हैं? शूद्रपन का ज़रा भी सांस अर्थात् संस्कार कहाँ अटका हुआ तो नहीं है? कोई-कोई का श्वास छिप जाता है जो फिर कुछ समय बाद प्रकट हो जाता है। यहाँ भी ऐसे है क्या? पुराने संस्कार अटके हुये होंगे; तो मरजीवा बने हो - ऐसे कहेंगे? मरजीवा न बने तो ब्रह्माकुमार कैसे कहेंगे। मरजीवा तो बने हो ना। बाकी मन्सा संकल्प - यह तो ब्रह्माकुमार बनने के बाद ही माया आती है। शूद्रकुमार के पास माया आती है क्या? आप मूंझते क्यों हो? बोलो कि - ‘‘मरजीवा बने हैं। मरजीवा बनने बाद माया को चैलेन्ज किया है, इसलिए माया आती है। उनसे लड़कर हम विजयी बनते हैं।’’ ऐसे क्यों नहीं कहते हो। महावीर हो तो अपना नशा तो कायम रखो ना। जब अपने को ब्रह्माकुमार समझेंगे तो फिर यह जो सेकेण्ड सीढ़ी है ‘कर्मेन्द्रियों का आकर्षण’, उससे भी पार हो जायेंगे। ब्रह्माकुमार वा शिवकुमार - यह दोनों की स्मृति रखने से कभी भी फेल नहीं हो सकेंगे। क्योंकि ब्रह्माकुमार समझने से फिर ब्रह्माकुमार के कर्त्तव्य, ब्रह्माकुमार के गुण क्या हैं - वह भी स्मृति में रहते हैं ना। तो अब दूसरी और तीसरी सीढ़ी क्रास करके पास विद् ऑनर बनने के स्मीप आने के लिए यह भट्ठी की है। तो भट्ठी के समाप्ति के साथ यह भी समाप्त कर देनी है। जैसे देखो, स्थान के आधार पर स्थिति बनती है। यह मधुबन का स्थान ऐसा है जो स्थिति को ही बदल लेता है ना। स्थान का स्थिति पर असर होता है। और हरेक को अपने स्थान का नशा कितना रहता है! अपने देश का, अपने हद के निवास-स्थान (घर) का नशा नहीं होता है? अगर बड़ी कोठी वा महल में निवास करने वाला होगा तो स्थान का स्थिति पर असर होता है। तो आप सभी से श्रेष्ठ स्थान पर हो; तो इसका भी असर स्थिति पर होना चाहिए। श्रेष्ठ वरदान-भूमि के निवासी हैं, तो अपनी स्थिति भी सदा सभी को देने वाली बनानी चाहिए।

वरदान वह दे सकता है जो साक्षात्कारमूर्त होगा। कोई भक्त को भी वरदान प्राप्त होता है तो साक्षात्कारमूर्त द्वारा होता है ना। तो साक्षात् और साक्षात्कारमूर्त बनने से ही वरदाता मूर्त बन सकेंगे। बाप दाता के बच्चे दाता बनना है। लेने वाले नहीं लेकिन देने वाले। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में देना है। जब दाता बन जायेंगे तो दाता का मुख्य गुण कौनसा होता है? उदारचित्त। जो औरों के उद्धार के निमित्त होंगे, तो वह अपना नहीं कर सकेंगे? सदैव ऐसे समझो कि हम दाता के बच्चे हैं, एक सेकेण्ड भी देने के सिवाय न रहे। उसी को कहा जाता है महादानी। सदैव देने के द्वार खुले हों। जैसे मन्दिर का दरवाजा सदैव खुला रहता है। यह तो आजकल बन्द करते हैं। तो ऐसे दाता के बच्चे का देने का द्वार कभी बन्द नहीं होता। हर सेकेण्ड, हर संकल्प चेक करो - ‘‘कुछ दिया? लिया तो नहीं?’’ देते जाओ। लेना है बाप से, वह तो ले ही लिया, अब देना है। लेने का कुछ रहा है क्या? सभी कुछ जो लेना था वह ले लिया। बाकी रह गया देना। जितना-जितना देने में बिज़ी होंगे, तो यह बातें जिसको क्रास करना मुश्किल लगता है, वह बहुत सहज हो जायेंगी। क्योंकि महादानी बनने से महान् शक्ति की प्राप्ति स्वत: होती है। तो यह कार्य तो अच्छा है ना। देने के लिए तो भण्डारा भरपूर है ना। इसमें फुल पास हैं? जिसमें फुल पास हो उसको राइट लगाते जाओ। जिसमें समझते हो फुल पास होना है, तो भट्ठी से फुल पास हो निकलना। जितना दाता बनते हैं उतना भरता भी जाता है। भण्डारा भरपूर है तो क्यों न दाता बनें। इसको ही कहा जाता है निरन्तर रूहानी सेवाधारी। तो इस भट्ठी से निरन्तर रूहानी सेवाधारी हो निकलना।

जब तक त्याग नहीं तब तक सेवाधारी हो नहीं सकेंगे। सेवाधारी बनने से त्याग सहज और स्वत: हो जायेगा। सदैव अपने को बिज़ी रखने का यही तरीका है। संकल्प से, बुद्धि से, चाहे स्थूल कर्मणा से जितना फ्री रहते हो उतना ही माया चान्स लेती है। अगर स्थूल और सूक्ष्म - दोनों ही रूप से अपने को सदैव बिज़ी रखो तो माया को चान्स नहीं मिलेगा। जिस दिन स्थूल कार्य भी रूचि से करते हो उस दिन की चेकिंग करो तो माया नहीं आयेगी, अगर देवता होकर किया तो। अगर मनुष्य होकर किया, फिर तो चान्स दिया। लेकिन सेवाधारी हो और देवता बन अपनी रूचि, उमंग से अपने को बिज़ी रखकर देखो तो कभी माया नहीं आवेगी। खुशी रहेगी। खुशी के कारण माया साहस नहीं रखती सामना करने का। तो बिज़ी रखने की प्रैक्टिस करो। कभी भी देखो आज बुद्धि फ्री है, तो स्वयं ही टीचर बन बुद्धि से काम लो। जैसे स्थूल कार्य की डायरी बनाते हो, प्रोग्राम बनाते हो कि आज सारा दिन यह-यह कार्य करेंगे, फिर चेक करते हो। इसी प्रमाण अपनी बुद्धि को बिज़ी रखने का भी डेली प्रोग्राम होना चाहिए। प्रोग्राम से प्रोग्रेस कर सकेंगे। अगर प्रोग्राम नहीं होता है तो कोई भी कार्य समय पर सफल नहीं होता। डेली (रो) डायरी होनी चाहिए। क्योंकि सभी बड़े ते बड़े हो ना। बड़े आदमी प्रोग्राम फिक्स करके फिर कहाँ जाते हैं। तो अपने को भी बड़े ते बड़े बाप के समझकर हर सेकेण्ड का भी प्रोग्राम फिक्स करो। जिस बात की प्रतिज्ञा की जाती है, तो उसमें विल- पावर होती है। ऐसे ही सिर्फ विचार करेंगे, उसमें विल-पावर नहीं होगी। इसलिए प्रतिज्ञा करो कि यह करना ही है। ऐसे नहीं कि देखेंगे, करेंगे। करना ही है। जैसे स्थूल कार्य कितना भी ज्यादा हो लेकिन प्रतिज्ञा करने से कर लेते हो ना। अगर ढीला विचार होगा, न करने का ख्याल होगा तो कभी पूरा नहीं करेंगे। फिर बहाने भी बहुत बन जाते हैं। प्रतिज्ञा करने से फिर समय भी निकल आता है और बहाने भी निकल जाते हैं। आज बुद्धि को इस प्रोग्राम पर चलाना ही है - ऐसी प्रतिज्ञा करनी है। भिन्न-भिन्न समस्याएं, पुरूषार्थहीन बनने के व्यर्थ संकल्प, आलस्य आदि आयेंगे लेकिन विल-पावर होने कारण सामना कर विजयी बन जायेंगे। यह भी डेली डायरी बनाओ, फिर देखो, कैसे रूहानी राहत देने वाले रूह सभी को देखने में आयेंगे। रूह ‘आत्मा’ को भी कहते हैं और रूह ‘इसेन्स’, को भी कहते हैं। तो दोनों हो जायेंगे। दिव्य गुणों के आकर्षण अर्थात् इसेन्स, वह रूह भी होगा और आत्मिक-स्वरूप भी दिखाई देंगे। ऐसा लक्ष्य रखना है। तो रूप की विस्मृति, रूह की स्मृति - इस भट्ठी से बनाकर निकलना। बिल्कुल ऐसा अनुभव हो जैसे यह शरीर एक बाक्स है। इनके अन्दर जो हीरा है उनसे ही सम्बन्ध-स्नेह है। ऐसा अनुभव करना। तो निवास-स्थान का भी आधार लेकर स्थिति को बनाओ।

मधुबन-निवासी अर्थात् मधुरता और बेहद के वैरागी। जो बेहद के वैरागी होंगे वह रूह को ही देखेंगे। तो चलन में मधुरता और मन्सा में बेहद की वैराग्य वृत्ति हो। दोनों स्मृति रहें तो ‘पास विद् ऑनर्स’ नहीं होंगे? यह दोनों क्वालीफिकेशन अपने में धारण करके निकलना।

यह संगमयुग का सुहावना समय जितना ज्यादा हो उतना अच्छा है। क्योंकि समझते हो सारे - कल्प में यह बाप और बच्चों का मिलन फिर नहीं होगा। इसलिए समझते हो यह संगम का समय लम्बा हो जाये, न कि आपकी वीकनेस के कारण। सदैव यही लक्ष्य रखो कि एवररेडी रहें। बाकी यह अतीन्द्रिय सुख का वर्सा निरन्तर अनुभव करने के लिए रहे हुए हैं, न कि अपनी कमजोरियों के लिये। आप लोगों के लिए यह पुरानी दुनिया जैसे विदेश है। कई लोग विदेश की ची को टच नहीं करते हैं, समझते हैं अपने देश की ची को प्रयोग करें। तो इस पुरानी दुनिया अर्थात् विदेशी चीज़ों को टच भी नहीं करना है। स्वदेशी हो वा विदेशी चीज़ों से आकर्षित होते हो? सदैव समझते हो हम स्वदेशी हैं, यह विदेश की ची टच भी नहीं करनी है? ऐसा अपने ऊंचे देश का, आत्मा के रूप से परमधाम देश है और इस ईश्वरीय परिवार के हिसाब से मधुबन ही अपना देश है, दोनों देश का नशा रखो। हम स्वदेशी हैं, विदेश की चीजों को टच भी नहीं कर सकते। अब पावरफुल रचयिता बनो। रचयिता ही कमज़ोर होंगे तो रचना क्या रचेंगे। अलंकारी बनकर निकलना है। निरन्तर एकरस स्थिति में स्थित हो दिखाने का इग्जैम्पल बनना, जो सभी को साक्षात्कार हो। द्वापर में तो भक्त लोग साक्षात्कार करेंगे, लेकिन यहाँ सारा दैवी परिवार आप साक्षात् मूर्त से साक्षात्कार करे। जमा करना है। कमाया और खाया - यह तो 63 जन्मों से करते आये। अब जमा करने का समय है। गँवाने का नहीं है। अच्छा।

जो कर्म, संकल्प करो - अपने में लाइट होने से वह कर्म यथार्थ होगा। ऐसे लाइट रूप अथवा ट्रान्सपेरेन्ट बनो। यह भट्ठी पाण्डव भवन को ट्रान्सपेरेन्ट चैतन्य प्रदर्शनी बनायेगी और सभी को साक्षात्कार करने की आकर्षण हो कि यह (चैतन्य प्रदर्शनी) जाकर देखें। सभी बातों में विन करना ही है। वन नम्बर में आना है। पुराने संकल्प, संस्कार समेटकर खत्म करना अर्थात् समा देना है, जो फिर इमर्ज न हों। जो चाहे सो कर सकते हो, लेकिन चाहना में विल-पावर हो। जितनी वृत्ति पावरफुल होगी उतना वायुमण्डल भी पावरफुल बनता है। जिस समय कोई में भी वीकनेस आती है, तो पावरफुल वृत्ति का सहयोग मिलने से वह आगे बढ़ सकते हैं। बाप एकरस है, तो बाप के समान बनना है। कुछ भी हो जाये, तो भी उसको खेल समझकर समाप्त करना। खेल समझने से खुशी होती है। अभी का तिलक जन्म-जन्मान्तर का तिलकधारी वा ताजधारी बनाता है। तो सदैव एकरस रहना है। फालो फादर करना है। जो स्वयं हर्षित है वह कैसे भी मन वाले को हर्षित करेगा। हर्षित रहना - यह तो ज्ञान का गुण है। इसमें सिर्फ रूहानियत एड करना है। हर्षितपन का संस्कार भी एक वरदान है, जो समय पर बहुत सहयोग देता है। अपने कमजोर संकल्प गिराने का कारण बन जाते हैं। इसलिए एक संकल्प भी व्यर्थ न जाये। क्योंकि संकल्पों के मूल्य का भी अभी मालूम पड़ा है। अगर संकल्प, वाचा, कर्मणा - तीनों अलौकिक होंगे तो फिर अपने को इस लोक के निवासी नहीं समझेंगे। समझेंगे कि इस पृथ्वी पर पांव नहीं हैं अर्थात् बुद्धि का लगाव इस दुनिया में नहीं है। बुद्धि रूपी पांव देह रूपी धरती से ऊंचा है। यह खुशी की निशानी है। जितना-जितना देह के भान की तरफ से बुद्धि ऊपर होगी उतना वह अपने को फरिश्ता महसूस करेगा। हर कर्त्तव्य करते बाप की याद में उड़ते रहेंगे तो उस अभ्यास का अनुभव होगा। स्थिति ऐसी हो जैसे कि उड़ रहे हैं। अच्छा।



01-08-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


स्वयं की स्टेज को सेट करने की विधि

ज समाप्ति का दिन है वा समर्पण होने का दिन है? समर्पण अर्थात् जो भी ईश्वरीय मर्यादाओं के विपरीत संस्कार वा स्वभाव वा कर्म हैं उसको समर्पण कर देना है। जैसे कोई मशीनरी को सेट किया जाता है, तो एक बार सेट करने से फिर ऑटोमेटिकली चलती रहती है। इस रीति से भट्ठी में भी अपनी सम्पूर्ण स्टेज वा बाप के समान स्टेज वा कर्मातीत स्थिति की स्टेज के सेट को ऐसा सेट किया है जो कि फिर संकल्प, शब्द वा कर्म उसी सेटिंग के प्रमाण ऑटोमेटिकली चलते ही रहे? ऐसी अथॉरिटी की स्मृति की स्थिति की सेटिंग की है? आलमाइटी अथॉरिटी बाप है ना। आप सभी भी मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी अपने को समझते हो? जो आलमाइटी अथॉरिटी की स्टेज को एक बार सेट कर देते हैं वह कभी भी ऐसे सोचेंगे नहीं वा कहेंगे नहीं वा करेंगे नहीं जो कि कमजोरी के लक्षण होते हैं। क्योंकि मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी हो। जब विश्व को इतने थोड़े समय में परिवर्तन करने की अथॉरिटी है, तो क्या मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी में अभी-अभी एक सेकेण्ड में अपने को परिवार्तित करने की शक्ति नहीं? हम मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी हैं - इस स्थिति को सेट कर दो। आटोमेटिकली चलने वाली जो ची होती है उनको बार-बार सेट नहीं किया जाता है। एक बार सेट कर दिया, फिर आटोमेटिकली चलती रहती है। आप लोग भी अभी सहज और सदा के कर्मयोगी अर्थात् निरन्तर निर्विकल्प समाधि में रहने वाले सहज योगी बने हो? कि योगी बने हो? जो सदा योगी रहते हैं वह सदाचारी रहते हैं। सदाचारी कौन बन सकता है? जो सदा योगी स्थिति में स्थित रहते हैं वही सदाचारी होते हैं। तो हम सदाचारी हैं, इसलिए कभी, कैसे भी डगमग नहीं हो सकते। सदैव अचल- अडोल हो। ऐसे ही अपनी भट्ठी में प्रतिज्ञा रूपी स्विच को सेट किया है? अगर प्रतिज्ञा रूपी स्विच को सेट कर दिया, तो प्रैक्टिकल में प्रतिज्ञा प्रमाण ही चलेगा ना। तो सदाचारी वा निरन्तर योगी व सहज योगी नहीं हो जायेंगे? गायन है ना कि पाण्डव पहाड़ों पर जाकर गल गये। पहाड़ का अर्थ क्या है? पहाड़ ऊंचा होता है ना धरती से? तो पाण्डव धरती अर्थात् नीचे की स्टेज को छोड़कर जब ऊंची स्टेज पर जाते हैं तो अपने पास्ट के वा ईश्वरीय मर्यादाओं के विपरीत जो संस्कार, स्वभाव, संकल्प, कर्म वा शब्द जो भी हैं उसमें अपने को मरजीवा बनाया अर्थात् गल गये। तो आप भी धरती से ऊंचे चले गये थे ना। पूरे गल कर आये हो वा कुछ रखकर आये हो? अपने में 100ज्ञ् निश्चय-बुद्धि हैं तो उनकी कभी हार नहीं हो सकती। एक चाहिए हिम्मत; दूसरा, फिर हिम्मत के साथ-साथ उल्लास भी चाहिए। अगर हिम्मत और उल्लास नहीं, तो भी प्रैक्टिकल में शो नहीं हो सकता। इसलिए दोनों साथ- साथ चाहिए। एक अन्तर्मुखता और दूसरी बाहर से शो करने वाली हर्षितमु- खता, वह अवस्था है? दोनों साथ-साथ चाहिए। इस रीति हिम्मत के साथ उल्लास भी चाहिए, जिससे दूर से ही मालूम हो कि इन्हों के पास कोई विशेष प्राप्ति है। जो प्राप्ति वाले होते हैं उनके हर चलन, नैन-चैन से वह उमंग-उत्साह दिखाई देता है। भक्ति-मार्ग में सिर्फ उत्साह दिलाने के लिए उत्सव मनाने का साधन बनाया है। खुशी में नाचते हैं ना। कोई की भी उदासी या उलझन आदि होती है, वह किनारे हो जाती है ना। तो हिम्मत के साथ उल्लास भी जरूर चाहिए। और अविनाशी स्टैम्प लगाई है? अगर अविनाशी की स्टैम्प न लगाई तो क्या होगा? दण्ड पड़ जायेगा। इसलिए यह स्टैम्प जरूर लगाना। तो यह सदाकाल के लिए समर्पण समारोह है ना? फिर बार-बार तो यह समारोह नहीं मनाना पड़ेगा ना? हाँ, याद की निशानी का मनाना और बात है। जैसे बर्थ- डे-याद निशानी के लिए मनाते हैं ना। तो यह समर्पण प्रतिज्ञा दिवस है।

विजय का दिन भी मनाते हैं। तो यह भी आप सभी की विजय अष्टमी का दिन हुआ ना। विजयी बनने का दिन सदैव स्मृति में रखना। लास्ट स्वाहा ऐसे करो जो सभी के मुख से आप लोगों को देख कर ‘वाह-वाह’ निकले और आपको कॉपी करें। कोई अच्छी बात होती है तो न चाहते भी सभी को कॉपी करने की इच्छा होती है। जैसे बाप को कॉपी करते हैं वैसे आप लोगों के हर कर्म को कॉपी करें। जितना श्रेष्ठ कर्म होगा उतना ही श्रेष्ठ आत्माओं में सिमरण किये जायेंगे। नाम सिमरण करते हैं ना। जितना कोई श्रेष्ठ आत्मा है, तो न चाहते भी उनके गुणों और कर्म को मिसाल बनाने लिए नाम सिमरण करते हैं। ऐसे ही आप सभी भी श्रेष्ठ आत्माओं में सिमरण करने योग्य बन जायेंगे। अब तो योगी बनने का ही ठेका उठाया है ना। योगयुक्त अर्थात् युक्तियुक्त। अगर कोई भी युक्तियुक्त संकल्प वा शब्द वा कर्म नहीं होता है, तो समझना चाहिए योगयुक्त नहीं हैं। क्योंकि योगयुक्त की निशानी है युक्तियुक्त। योगयुक्त का कभी अयुक्त कर्म वा संकल्प हो ही नहीं सकता है। यह कनेक्शन है। अच्छा



19-08-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


सबसे सूक्ष्म बन्धन - बुद्धि का अभिमान

योगयुक्त और बन्धनमुक्त बने हो? जितना-जितना योगयुक्त उतना ही सर्व बन्धन मुक्त बनते जाते हैं। तो योगयुक्त की निशानी है ही बन्धनमुक्त होना। अपने सर्व बन्धनों को जानते हो ना कि किस-किस प्रकार के बन्धन हैं जो योगयुक्त होने में रूकावट डालते हैं? जैसे सर्व दु:खों की लिस्ट निकालते थे, वैसे भिन्न-भिन्न बन्धनों की लिस्ट निकालो। उस लिस्ट को सामने रखते हुए चेक करो कि कितना बन्धनों से मुक्त हुए हैं और कितने बन्धन अभी तक रहे हुए हैं। इससे अपने सम्पूर्ण योगयुक्त अर्थात् सम्पूर्ण स्टेज को परख सकते हो कि कितना सम्पूर्ण स्टेज के नजदीक पहुंच पाये हैं। बन्धनों की लिस्ट सामने लाओ, कितने प्रकार के बन्धन होंगे? इनकी लिस्ट निकलेगी तो जाल माफिक दिखाई देगी। कितनी महीन तारों की जाल बनाते हैं। तो अब जज करो कि कितने बन्धन रह गये हैं और कौन-कौनसे रह गये हैं? कोई बड़े- बड़े बन्धन हैं वा छोटे-छोटे बन्धन हैं? ज्यादा मेहनत किन बन्धनों को चुक्तू करने में लगती है? सभी से कड़े से कड़ा बन्धन कौनसा है? (देह-अभिमान)यह तो सभी बन्धनों का फाउण्डेशन है। लेकिन प्रत्यक्ष रूप में सभी से कड़ा बन्धन कौनसा है? लोक-लाज तो बहुत छोटी बात है, यह तो फर्स्ट स्टेप है। सभी से बड़े ते बड़ा अन्तिम बन्धन है श्रीमत के साथ अपने ज्ञान-बुद्धि को मिक्स करना अर्थात् अपने को समझदार समझकर श्रीमत को अपनी बुद्धि की कमाल समझकर काम में लगाना। जिसको कहेंगे ज्ञान-अभिमान अर्थात् बुद्धि का अभिमान। यह सभी से सूक्ष्म और बड़ा बन्धन है। इस बन्धन से क्रास किया तो मानो सभी से बड़े ते बड़ा जम्प दिया। कोई भी बात में अगर कोई मधुर शब्दों में भी कमजोरी का इशारा दे और उसी समय कोई संस्कार, स्वभाव वा सर्विस के लिए बुराई आकर करते हैं; तो दोनों ही बातें सामने रखते हुए सोचो कि ज़रा भी वृत्ति में वा दृष्टि में वा सूरत में फर्क आता है? ज़रा भी फर्क नहीं आये, ज़रा भी हिम्मत-उल्लास में अन्तर नहीं आये - इसको कहा जाता है इस बन्धन को क्रास करना। अगर मुख से न बोला लेकिन सुनी हुई बात का व्यर्थ संकल्प भी चला तो इसको कहेंगे बड़े ते बड़ा बन्धन।

जो गायन है निन्दा-स्तुति, हार-जीत, महिमा वा ग्लानि में समान; अर्थात् बुद्धि में नॉलेज रहेगी कि यह हार है, यह जीत है, यह महिमा है, यह ग्लानि है, लेकिन एकरस अवस्था वा स्थिति से डगमग न हो-इसको कहा जाता है समानता। नॉलेज होते हुए भी डगमग नहीं होना - यह है विजय। तो इस कड़े बन्धन को क्रास कर लिया अर्थात् सम्पूर्ण फरिश्ता बन गय्। इसके लिए मुख्य प्रयत्न कौनसा है? यह अवस्था कैसे रखें जो इस बन्धन को भी क्रास कर लें?

ज्ञान-अभिमान को कैसे क्रास करें? इसका पुरूषार्थ क्या है? आप सभी ने जो भी बातें सुनाईं वह भी अटेन्शन में रखने की हैं। लेकिन साथ-साथ इस कड़े बन्धन को क्रास करने के लिए सदैव यह बातें याद रहें कि हम कल्याणकारी बाप की सन्तान हैं। जो भी देखते हैं, सुनते हैं उनमें अकल्याण का रूप होते हुए भी अपनी कल्याण की बात को निकालना है। भले रूप अकल्याण का, हार वा ग्लानि का हो, क्योंकि स्थिति को डगमग करने के कारण यह तीनों ही होते हैं। तो रूप भले यही दिखाई दे लेकिन उस अकल्याण के रूप को कल्याणकारी के रूप में ट्रॉन्सफर करने की शक्ति वा ग्लानि को भी उन्नति का रूप समझ धारण करने की शक्ति वा हार से भी आगे के लिए हजार गुणा विजयी बनने की हिम्मत, उल्लास और युक्ति निकालने की शक्ति अगर अपने पास है तो कभी भी सूरत और सीरत में उनका असर नहीं पड़ेगा। तो रहस्य क्या हुआ? कोई भी बात को वा समस्या को ट्रॉन्सफर कर ट्रान्सपेरेन्ट (पारदर्शी) बनना है अथवा अपकारी पर भी उपकारी बनना है। जैसे संस्कारों की समानता के कारण कोई सखी बन जाती है, ऐसे निन्दा करने वाले को भी उस स्नेह और सहयोग की दृष्टि से देखना है। संस्कारों के समानता वाली सखी और ग्लानि करने वाली - दोनों के लिए अन्दर स्नेह और सहयोग में अन्तर न हो। इसको कहा जाता है अपकारी पर उपकार की दृष्टि अथवा विश्व- कल्याणकारी बनना। ऐसी स्थिति अब बन जाती है तो समझो सम्पूर्णता के समीप हैं। ऐसे नहीं - जिनके संस्कार मिलेंगे उनको साथी बनायेंगे, दूसरों से किनारा कर लेंगे। भले कड़े संस्कार वाली हो, उनको भी अपने शुभचिन्तक स्थिति के आधार से ट्रॉन्सफर कर समीप लाओ। जब कोई होपलेस केस को ठीक करते हैं तब ही तो नाम बाला होता है ना। ठीक को ठीक करना वा ठीक से ठीक होकर चलना - यह कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है अपनी श्रेष्ठ स्मृति और वृत्ति से ऐसे-ऐसे को भी बदलकर दिखाना। देखो, होम्योपैथिक दवाई की इतनी छोटी-छोटी गोलियां कितने बड़े रोग को खत्म कर सकती हैं! तो क्या मास्टर सर्वशक्तिमान् अपने वृत्ति और दृष्टि से किसके भी कड़े संस्कार के रोग को खत्म नहीं कर सकते। अगर कोई के संस्कारों को पलटा नहीं सकते वा खत्म नहीं कर सकते हैं, तो समझो मुझ मास्टर रचयिता से तो रचना की शक्ति ज्यादा काम कर रही है। जैसे मिसाल बताया - छोटी-सी गोलियां रोग को खत्म कर सकती हैं, वह दवाई यह नहीं कहती कि रोग को कैसे मिटायें। तो क्या आपकी रचना में शक्ति है और आप मास्टर रचयिता में नहीं?

सदैव यह लक्ष्य रखो कि ट्रॉन्सफर होना है और ट्रॉन्सफर करना है। ऐसे नहीं कहना कि यह ट्रॉन्सफर हो तो मैं ट्रॉन्सफर हो जाऊं। नहीं। मुझे होना है और मुझे ही करना है। जो ऐसे हिम्मत रखने वाले बनते हैं, वही विश्व के महाराजन् बन सकते हैं। तो विश्व-महाराजन् बनना है तो जो दैवी परिवार की आत्माएं भविष्य के विश्व में आने वाली हैं अर्थात् यह छोटा-सा परिवार जो विश्व-राज्य के अधिकारी बनने वाले हैं, इन सभी आत्माओं के ऊपर अब से ही स्नेह का राज्य करना है। आर्डर नहीं चलाना है। अभी से विश्व-महाराजन् नहीं बन जाना है। अभी तो विश्व-सेवाधारी बनना है। स्नेह देना ही भविष्य के लिए जमा करना है। यह भी देखना है कि अपने भविष्य के खाते में यह स्नेह कितना जमा किया है। ज्ञान देना सरल है, लेकिन विश्व-महाराजन् बनने के लिए सिर्फ ज्ञान-दाता नहीं बनना है, इसके लिए स्नेह देना अर्थात् सहयोग देना है। जहाँ स्नेह होगा वहाँ सहयोग अवश्य होगा। अगर यह हाई जम्प दे दिया तो सभी बातों में श्रेष्ठ सहज ही बन जायेंगे।

अच्छा, अब भट्ठी वालों ने अपने को ट्रॉन्सफर किया? जितना ट्रॉन्सफर किया होगा उतना ही हरेक की सूरत ट्रान्सलाइट के चित्र के मिसल दिखाई देगी। ट्रान्सलाइट का चित्र दूर से ही स्पष्ट दिखाई देता है। तो ऐसे सभी बातों में स्पष्ट और श्रेष्ठ बने हो? (बनेंगे) कब तक बनेंगे? पांच वर्ष तक? कब तक का वायदा किया है? इतनी शक्ति अपने में भरी जो कैसी भी समस्याएं आयें, कैसी भी बातें न बनने वाली भी बन जाएं, तो भी अचल, अडोल एकरस रहेंगे? ऐसी अपने में शक्ति भरी है? ऐसे नहीं कहना कि यह तो हमको पता ही नहीं था - ऐसा भी होता है! नई बात हुई, इसलिए फेल हो गया - यह नहीं कहना। जब भट्ठी करके जाते हो तो जैसे अपने में नवीनता लाते हो। तो माया भी परीक्षा लेने के लिए नई-नई बातें सामने लायेगी। इसलिए अच्छी तरह से मास्टर नॉलेजफुल, मास्टर त्रिकालदर्शी बनकर जा रहे हो, तो दूर से ही माया के वार को पहचान कर खत्म कर दो, ऐसे मास्टर सर्वशक्तिमान् बने हो? ‘‘क्या, क्यों’’ की भाषा खत्म की? ‘‘क्या करें, कैसे करें’’ - यह खत्म। सिर्फ तीन मास का पेपर नहीं, अभी तो अन्त तक का वायदा करना है। यह तो गैरन्टेड माल हो गया ना। अपनी यथा शक्ति हरेक ने जो भी प्रयत्न किया वह बहुत अच्छा किया। अब अच्छे ते अच्छा बनकर दिखाना। ज्ौसे यह नशा है वैसे ही प्रवृत्ति में रहते हुए भी इस नशे को कायम रखना है। इस ग्रुप का छाप क्या रहा? कोई आपको बदल न सके लेकिन आप सभी को बदल कर दिखाना। कोई परिस्थिति वा कोई वायुमण्डल हमको नहीं बदले लेकिन हम परिस्थितियों को, वायुमण्डल को, वृत्तियों को, संस्कारों को बदल कर दिखायें - यह पक्का छाप लगाना है। ट्रेड-मार्क भट्ठी का अविनाशी लगा कर जाना है। अपना ट्रेड-मार्क नहीं भूलना। अगर भट्ठी के धारणाओं की स्मृति साथ-साथ रखेंगे तो सफलता सदैव साथ रहेगी। अच्छा।



20-08-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


सबसे श्रेष्ठ तख्त और ता

ज यह भट्ठी का ग्रुप डबल भट्ठी करने लिए आये हुए हैं। डबल भट्ठी कौनसी है? डबल भट्ठी के रहस्य को समझते हो? मधुबन तो है ही भट्ठी, लेकिन मधुबन भट्ठी के अन्दर भी विशेष कौनसी भट्ठी में अपने रहे हुए संस्कारों को भस्म करने लिए आये हैं? तो डबल भट्ठी का फोर्स भी बढ़ता है ना; क्योंकि कोर्स मिलता है। एक तो जनरल, दूसरा पर्सनल। डबल कोर्स होने कारण डबल फोर्स भी बढ़ता है। तो जैसे डबल फोर्स बढ़ता है, वैसे ही सदा अपने को डबल ताजधारी समझकर चलते रहें तो यह डबल कोर्स सदैव फोर्स में रहे। डबल ताज कौनसा है? अभी डबल ताजधारी हो कि भविष्य में बनेंगे। अभी डबल ताज कौनसा है? एक है लाइट अर्थात् प्योरिटी की निशानी का। और दूसरा है जो संगमयुग पर सर्व प्राप्तियां होती हैं, जिस शक्ति द्वारा ही ज़िम्मेवारी को धारण कर सकते हैं। तो लाइट का क्राउन भी और माइट का भी है। प्योरिटी का भी और पावर का भी, यह डबल ताज निरन्तर धारण करने वाले। तो बताओ डबल फोर्स सदा कायम नहीं रहेगा? दोनों की आवश्यकता है। और दोनों सदा कायम रहने से सदा शक्तिशाली- स्वरूप दिखाई देंगे। सर्विस में सफलता प्राप्त करने लिए भी यह दो ताज आवश्यक हैं। फिर जितना-जितना नम्बरवार हरेक ने धारण किये हैं उस प्रमाण स्वरूप में सफलता वा अपने पुरूषार्थ में सफलता पाते जा रहे हैं। तो डबल ताज भी चाहिए और डबल तख्त भी चाहिए। डबल तख्त कौनसा है? (हरेक ने अपना-अपना रेसपान्स किया) एक तो बापदादा के दिल रूपी तख्त नशीन होना है। सभी से श्रेष्ठ तख्त तो बापदादा के दिल तख्त नशीन बनना ही है। साथ-साथ इस तख्त पर बैठने के लिए भी अचल, अडोल एकरस स्थिति का तख्त चाहिए। अगर इस स्थिति के तख्त पर स्थित नहीं हो पाते तो बापदादा के दिल रूपी तख्त पर भी स्थित नहीं हो सकते हैं। इसलिए यह अचल, अडोल एकरस स्थिति का तख्त बहुत आवश्यक है। इस तख्त से बार-बार डगमग हो जाते हैं। इसलिए अपने अकालतख्त नशीन न बनने के कारण इस एकरस स्थिति के तख्त पर भी स्थित नहीं हो सकते। तो अपने इस भ्रकुटि के तख्त पर अकालमूर्त बन स्थित होंगे तो एकरस स्थिति के तख्त पर और बापदादा के दिल तख्त पर विराजमान हो सकेंगे। तो डबल ताजधारी भी हो, डबल तख्तनशीन भी हो और जो नॉलेज मिल रही है वह नॉलेज भी मुख्य दो बातों की है। वह कौनसी हैं?

नॉलेज भी मुख्य दो बातों की मिलती है ना। ‘अल्फ’ और ‘बे कहो वा ‘रचयिता’ और ‘रचना’ कहो। रचना में पूरी नॉलेज आ जाती है। तो रचयिता और रचना - इन दोनों मुख्य बातों में अगर नॉलेजफुल है तो पावरफुल भी बन सकते हैं। अगर कोई रचना की नॉलेज में पूरा नॉलेजफुल नहीं है, कमजोर हैं तो स्थिति डगमग होती है। रचना की भी पूरी नॉलेज को जानना है, जानना सिर्फ सुनने को नहीं कहते। जानना अर्थात् मानना और चलना इसको कहते हैं नॉलेजफुल - जो जानता, मानता और चलता भी है। अगर मानना और चलना नहीं है तो नॉलेजफुल वा ज्ञानस्वरूप नहीं कहा जाता। चलना-मानना अर्थात् स्वरूप बनना। कुछ-न-कुछ रचयिता और रचना के नॉलेज की कमी हो जाने कारण पुरूषार्थ में कमी पड़ती है। इसलिए सारी नॉलेज की इन दो बातों को ध्यान में रखते हुए चलो। अच्छा, यह तो हुई नॉलेज। ऐसे ही डबल कर्त्तव्य में भी रहना है। यह डबल कर्त्तव्य कौनसा है? आज दो की गिनती ही सुना रहे हैं। दो कर्त्तव्य बताओ। सारे दिन में डबल कर्त्तव्य आपका चलता रहता है। मुख्य कर्त्तव्य है ही विनाश और स्थापना का। कुछ विनाश करना है और कुछ रचना रचनी है। रचना सभी प्रकार की रचते हो। एक तो सर्विस द्वारा अपनी राजधानी की रचना कर रहे हो और दूसरी करनी है बुद्धि में शुद्ध संकल्पों की रचना। और व्यर्थ संकल्पों वा विकल्पों के विनाश की विधि भी आप लोग समझ गये हो। रचना मन्सा द्वारा भी और वाणी द्वारा भी; दोनों प्रकार की रचना रचते हो। इसी प्रकार डबल कर्त्तव्य करते हो। इसी कार्य में सारा दिन बिजी रहें तो बताओ एकरस स्थिति नहीं हो सकती? एकरस स्थिति नहीं रहती, उसका कारण रचना रचने नहीं आती वा विनाश करना नहीं आता। दोनों कर्त्तव्य में कमी होने कारण एकरस स्थिति ठहर नहीं सकती। इसलिए डबल कर्त्तव्य में रहना है। यह डबल कर्त्तव्य भी तब कर सकेंगे जब पोजिशन में रहेंगे। डबल पोजिशन कौनसा है? इस समय का पूछ रहे हैं। डीटी (देवत्व) से इस समय का गॉडली पोजिशन हाइएस्ट है। तो एक यह पोजिशन है कि गॉडली चिल्ड्रेन हैं, ब्रह्माकुमार-कुमारियां भी हैं। यह हुआ साकारी पोजिशन और दूसरा है निराकारी पोजिशन। हम सभी आत्माओं से हीरो पार्टधारी आत्मायें, श्रेष्ठ आत्माएं हैं। और दूसरा पोजीशन है ईश्वरीय सन्तान ब्रह्माकुमार-कुमारीपन का। यह दोनों पोजिशन स्मृति में रहें तो कर्म और संकल्प दोनों ही श्रेष्ठ हो जायेंगे। श्रेष्ठ आत्मा अथवा हीरो अपने को समझने से ऐसा कोई व्यवहार नहीं करेंगे जो ईश्वरीय मर्यादाओं के वा ब्राह्मण कुल की मर्यादा के विपरीत हो। इसलिए यह दोनों पोजिशन स्मृति में होंगी तो माया की अपोजिशन खत्म हो जायेगी। इसलिए डबल पोजिशन भी सदैव स्मृति में रखो।

अच्छा डबल निशाना कौनसा है? जो डबल नशा होगा वही डबल निशाना होगा। एक है निराकारी निशाना। सदैव अपने को निराकारी देश के निवासी समझना और निराकारी स्थिति में स्थित रहना। साकार में रहते हुए अपने को निराकारी समझकर चलना। एक - सोल-कान्सेस वा आत्म- अभिमानी बनने का निशाना और दूसरा - निर्विकारी स्टेज, जिसमें मन्सा की भी निर्विकारीपन की स्टेज बनानी पड़ती है। तो एक है निराकारी निशाना और दूसरा है साकारी। तो निराकारी और निर्विकारी - यह हैं दो निशानी। सारा दिन पुरूषार्थ योगी और पवित्र बनने का करते हो ना। जब तक पूरी रीति आत्म- अभिमानी न बने हैं। तो निर्विकारी भी नहीं बन सकते। तो निर्विकारीपन का निशाना और निराकारीपन का निशाना, जिसको फरिश्ता कहो, कर्मातीत स्टेज कहो। लेकिन फरिश्ता भी तब बनेंगे जब कोई भी इमप्योरिटी अर्थात् पांच तत्वों की आकर्षण आकर्षित नहीं करेगी। ज़रा भी मन्सा संकल्प भी इमप्योअर अर्थात् अपवित्रता का न हो, तब फरिश्तेपन की निशानी में टिक सकेंगे। तो यह डबल निशाना भी सदैव स्मृति में रखना। और डबल प्राप्ति कौनसी हैं? अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति, उसमें शान्ति और खुशी समाई हुई है। यह हुआ संगमयुग का वर्सा। अभी जो प्राप्ति है वह फिर कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती। तो डबल प्राप्ति है बाप और वर्सा। बाप की प्राप्ति भी सारे कल्प में नहीं कर सकते। और बाप द्वारा अभी जो वर्सा मिलता है वह भी सारे कल्प के अन्दर अभी ही मिलता है। फिर कभी भी नहीं मिलेगा। इस समय की प्राप्ति’’अतीन्द्रिय सुख और फुल नॉलेज’’ फिर कभी भी नहीं मिल सकती। तो दो शब्दों में डबल प्राप्ति - बाप और वर्सा। इसमें नॉलेज भी आ जाती है तो अतीन्द्रिय सुख भी आ जाता और रूहानी खुशी भी आ जाती। रूहानी शक्ति भी आ जाती है। तो यह है डबल प्राप्ति। समझा।

यह सभी दो-दो बातें धारण तब कर सकेंगे जब अपने को भी कम्बाइन्ड समझेंगे। एक बाप और दूसरा मैं, कम्बाइन्ड समझने से यह सभी दो-दो बातें सहज धारण हो सकती हैं। भट्ठी में आये हो ना। तो यह सभी जो दो-दो बातें सुनाईं वह अच्छी तरह से स्मृति-स्वरूप भट्ठी से बनकर जाना। सिर्फ सुनकर नहीं जाना। सुना तो बहुत है। सुनना अर्थात् मानना और चलना, अर्थात् स्वरूप बनना। तो ज्ञानी हो लेकिन ज्ञान-स्वरूप बनकर जाना। योगी हो लेकिन योगयुक्त, युक्तियुक्त बनकर जाना। तपस्वी कुमार हो लेकिन त्याग-मूर्त भी बन जाना। त्याग-मूर्त के बिना तपस्वी मूर्त बन नहीं सकते। तो तपस्वी हो लेकिन साथ-साथ त्याग-मूर्त भी बनना है। ब्रह्माकुमर हो लेकिन ब्रह्माकुमार वा ब्राह्मणों के कुल की मर्यादाओं को जानकर मर्यादा पुरूषोत्तम बनकर जाना। ऐसे मर्यादा पुरूषोत्तम बनो जो आपके एक-एक संकल्प वायुमण्डल पर प्रभाव डालें। ऐसे पावरफुल बनकर जाना। पावर है लेकिन पावरफुल बनकर जाना। जो फुल होता है वह कभी फेल नहीं होता। फुल की निशानी है - एक तो फील नहीं करेंगे, दूसरा फेल नहीं हांगे और फ्लॉ नहीं होगा। तो फुल बनकर जाना, इसीलिए भट्ठी में आये हो। क्या सीखना है? बहुत पाठ पढ़ा। इतना पाठ प्रैक्टिकल में पढ़कर जाना। पाठ ऐसा पक्का करना जो प्रैक्टिकल एक्टीविटी पाठ बन जाए। एक पाठ होता है मुख से पढ़ना, एक होता है सिखलाना। मुख से पढ़ाया जाता है, एक्ट से सिखाया जाता है। तो हर चलन एक-एक पाठ हो। जैसे पाठ पढ़ने से उन्नति को पाते हैं ना। इस रीति से आप सभी की एक-एक एक्ट ऐसा पाठ सभी को पढ़ाये वा सिखलाये जो उन्नति को पाते जायें। पढ़ना भी है और पढ़ाना भी है। सप्ताह का कोर्स तो सभी ने कर लिया है ना। साप्ताहिक कोर्स जो किया है वह फोर्सफुल किया है या सिर्फ कोर्स किया है? कोर्स का अर्थ ही है अपने में फोर्स भरना। अगर फोर्स नहीं भरा तो कोर्स भी क्या किया? निर्बल आत्मा से शक्तिशाली आत्मा बनने के लिए कोर्स कराया जाता है, तो अगर कोर्स का फोर्स नहीं है तो वह कोर्स हुआ? तो अभी फोर्सफुल कोर्स करने लिए आये हो ना।

डबल तिलकधारी भी बनना है। डबल तिलक कौनसा है? रोज अपना तिलक देखते हो? अमृतवेले जब ज्ञान-स्नान करते हो तो तिलक भी लगाते हो? आत्मिक स्मृति वा स्वरूप का तिलक तो हो गया। दूसरा है निश्चय का तिलक। एक तो आत्मिक स्थिति का तिलक है और दूसरा हम विजयी रत्न हैं। हर संकल्प, हर कदम में विजय, सफलता भरी हुई हो। यह विजय का तिलक विक्टरी है। तो आप लोगों का तिलक है विजय का और विजयी रूप का। यह डबल तिलक सदैव स्मृति में रहे। स्मृति अर्थात् तिलकधारी बनना है। तो डबल तिलक को भी कभी भूलना नहीं है। मैं विजयी हूँ - इस स्मृति में रहने से कभी भी भिन्न-भिन्न परिस्थितियां हिला नहीं सकती। विजय हुई पड़ी है। वर्तमान समय अपनी स्थिति डगमग होने कारण विजय अर्थात् सफलता में डगमग दिखाई देते हैं। लेकिन विजय हर कर्त्तव्य में हुई पड़ी है। जैसे कोई सीजन की खराबी होती है, तो सीजन की खराबी के कारण टेलिविजन में भी स्पष्ट दिखाई नहीं देता है। इस रीति से अपनी स्थिति की हलचल होने कारण विजय का अथवा सफलता का स्पष्ट अनुभव नहीं कर पाते हो। कारण क्या है? अपनी स्थिति की हलचल स्पष्ट को भी अस्पष्ट बना देती है। उलझनों के कारण उज्ज्वल नहीं बन सकते हो। इसलिए अपनी स्थिति की हलचल नहीं होगी तो स्मृति क्लीयर होगी। वह होती है सीजन क्लीयर, यह है स्मृति क्लीयर। अगर स्मृति क्लीयर है तो सफलता भी क्लीयर रूप में दिखाई देगी। अगर स्मृति क्लीयर नहीं वा अपने ऊपर पूरी केयर नहीं, केयरफुल कम होने कारण रिजल्ट भी फुल नहीं दिखाई देती। जितना अपने ऊपर केयर रखते हो उतना क्लीयर होते हो और इतना ही सफलता अपने पुरूषार्थ में वा सर्विस में स्पष्ट और समीप दिखाई देगी। नहीं तो न स्पष्ट दिखाई देती है, न समीप दिखाई देती है। टेलिवीन में दूर का दृश्य समीप और स्पष्ट भी होता है ना। इस रीति से एकरस स्थिति होने कारण, केयरफुल और क्लीयर होने कारण सफलता समीप और स्पष्ट दिखाई देगी। समझा? अगर दोनों से एक की भी कमी होगी तो सफलता अनुभव नहीं करेंगे, फिर उलझेंगे। फिर कमजोरी की भाषा होती है कि ‘‘क्य् करें, यह कैसे होगा’’ - यह भाषा हो जाती है। इसलिए दोनों ही बातें धारण करके जायेंगे तो सफलतामूर्त बन जायेंगे सफलता इतनी समीप आयेगी, जैसे गले में माला कितनी समीप आ जाती है। तो सफलता भी गले की माला बन जायेगी। अच्छा।



25-08-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


मुख्य 7 कमजोरियां और उनको मिटाने के लिए 7 दिन का कोर्स

क सेकेण्ड में वाणी से परे स्थिति में स्थित हो सकते हो? जैसे और कर्मेन्द्रियों को जब चाहो जैसे चाहो वैसे हिला सकते हो, ऐसे ही बुद्धि की लगन को जहाँ चाहो, जब चाहो वैसे और वहाँ स्थित कर सकते हो? ऐसे पावरफुल बने हो? यह विधि वृद्धि को पाती जा रही है? अगर विधि यथार्थ है तो विधि से सिद्धि अर्थात् सफलता और श्रेष्ठता अवश्य ही दिन- प्रति-दिन वृद्धि को पाते हुए अनुभव करेंगे। इस परिणाम से अपने पुरूषार्थ की यथार्थ स्थिति को परख सकते हो। यह सिद्धि विधि को परखने की मुख्य निशानी है। कोई भी बात को परखने के लिए निशानियां होती हैं। तो इस निशानी से अपने सम्पूर्ण बुद्धि की निशानी को परख सकते हो? आजकल जो पुरूषार्थ पुरूषार्थियों का चल रहा है, उसमें मुख्य कमजोरियां कौनसी दिखाई देती हैं? (1) एक तो स्मृति में समर्थी नहीं रही है। (2) दृष्टि में दिव्यता वा अलौकिकता यथा शक्ति नम्बरवार आई हुई है। (3) वृत्ति में विल पावर न होने का कारण वृत्ति एकरस न हो, चंचल होती है। (4) निराकारी अवस्था का अटेन्शन कम होने के कारण मुख्य विकार देह-अभिमान, काम और क्रोध - इन तीनों का वार समय प्रति समय होता रहता है। (5) संगठन में रहते वा संपर्क में आते वायुमण्डल, वायब्रेशन अपना इम्प्रेशन डालता है। (6) अव्यक्त फरिश्तेपन की स्थिति कम होने कारण अच्छी वा बुरी बातों की फीलिंग आने से फेल हो जाते हैं। (7) अपनी याद की यात्रा से सन्तुष्ट कम। यह है पुरूषार्थियों के पुरूषार्थ की नम्बरवार रिजल्ट।

अब इन सात बातों को मिटाने के लिए फिर से 7 दिन का कोर्स कराना पड़े। इन सातों बातों को सामने रख सात दिन का कोर्स जो औरों को कराते हो वह अपने आप को रिवाइ कराना। जैसे मुरलियों को रिवाइ कर रहे हो, तो रिवाइ करने से नवीनता और शक्ति बढ़ने का अनुभव करते हो ऐसे अब एकान्त में बैठ अमृतवेले, जो सात बातें सुनाइंर्, उन पर एक एक बात का निवारण हर दिन के पाठ में कैसे समाया हुआ है, वह मनन करके मक्खन अर्थात् सार निकालना और आपस में लेन-देन करना। कोर्स तो किया है लेकिन जैसे जिज्ञासुओं को कोर्स कराने के बाद हर पाठ की युक्ति बताते हो वा अटेन्शन दिलाते हो, वैसे आप हर एक रेगुलर गॉडली स्टूडेन्ट अब फिर से एक सप्ताह एक पाठ को प्रैक्टिस और प्रैक्टिकल में लाओ। जैसे साप्ताहिक पाठ करते हैं ना। आप लोग भी सर्विस में ‘पवित्रता सप्ताह’ वा ‘शान्ति सप्ताह’ का प्रोग्राम रखते हो ना। वैसे ही अपनी प्रोग्रेस के लिए हर पाठ का साप्ताहिक पाठ प्रैक्टिकल और प्रैक्टिस में लाओ। तो रिवाइज होने से क्या होगा? सफलता समीप, सहज और स्पष्ट दिखाई देगी। तो श्रेष्ठ तो बन ही जायेंगे। अपने आप को हर संकल्प वा कर्म में महान् बनाने के लिए सभी से सहज युक्ति की तीन बातें सुनाओ। मन, वचन, कर्म में महानता के लिए ही पूछ रहे हैं।

महान् बनने के लिए एक तो अपने को पुरानी दुनिया में मेहमान समझो। दूसरी बात - जो भी संकल्प वा कर्म करते हो, तो महान् अन्तर को बुद्धि में रख संकल्प और कर्म करो। तीसरी बात कि बाप के वा अपने दैवी परिवार की हर आत्मा के गुण और श्रेष्ठ कर्त्तव्य की महिमा करते रहो। 1. मेहमान, 2. महान् अन्तर और 3. महिमा। यह तीन बातें चलती रहें तो जो 7 कमियां हैं वह समाप्त हो जाएं। मेहमान न समझने के कारण कोई भी रूप वा रंगत में अट्रेक्शन और अटेन्शन जाता है। महान् अन्तर को सामने रखने से कभी भी देह-अहंकार वा क्रोध का अंश वा वंश नहीं रह सकता। तीसरी बात - बाप की वा हर आत्मा के गुणों की महिमा वा कर्त्तव्य की महिमा करते रहने से किसी द्वारा किसी बात की फीलिंग नहीं आ सकती। और सदैव गुणों और कर्त्तव्यों की महिमा करने से याद की यात्रा, असन्तुष्टता भी निरन्तर वा सहज याद में परिवर्तन हो जायेगी। इन तीनों शब्दों को सदा स्मृति में रखो तो समर्थीवान हो जायेंगे। दृष्टि, वृत्ति, वायुमण्डल सभी परिवर्तन हो जायेंगे।

द्वापर से लेकर आज तक अपनी और अपने दैवी परिवार की आत्माओं की महिमा करते आये हो, कीर्तन करते आये हो। अब फिर चैतन्य परिचित हुई आत्माओं के अवगुणों को वा कमियों को क्यों देखते हो वा बुद्धि में धारण क्यों करते हो? अभी भी सारे विश्व से चुनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं के गुण-गान करो। बुद्धि द्वारा ग्रहण करो और मुख द्वारा एक-दो के गुणगान करो। फिर दृष्टि वा वृत्ति चंचल होगी? किसकी भी कमी की फीलिंग होगी? अभी अनुभव किया है कि कोई भी मन्दिर की मूर्ति कितनी भी अट्रैक्टिव वा सुन्दर सजी हुई हो, तो कभी भी दृष्टि उनकी सुन्दरता वा सजावट के तरफ संकल्प मात्र भी चंचल नहीं होती है। और वहाँ ही अगर कोई सिनेमा वा कोई ऐसी किताबों में से कोई अट्रेक्शन वा सजावट देखते हैं वा कोई बोर्ड भी देखते हैं तो वृत्ति और दृष्टि चंचल हो जाती है, क्यों? अट्रेक्शन तो मूर्तियों में भी है। सजावट, फीचर्स और नेचर्स की ब्यूटी मूर्तियों में भी है, फिर भी वृत्ति और दृष्टि चंचल क्यों नहीं होती? दोनों ही चित्र सामने रखो वा एक ही कमरे में रखो तो एक सेकेण्ड में उस तरफ जाने से वृत्ति चंचल होती है और उस तरफ जाने से वृत्ति पवित्र बन जाती है। यह पवित्रता और अपवित्रता का कारण क्या होता है? स्मृति। स्मृति है कि यह देवी है; तो यह स्मृति दृष्टि और वृत्ति को पवित्र बनाती है। और स्मृति है कि यह फीमेल है; तो वह स्मृति वृत्ति और दृष्टि अपवित्रता की तरफ खैंचती है। वहाँ रूप को देखेंगे और वहाँ रूहानियत को देखेंगे। ऐसा पास्ट का अनुभव तो होगा ना। वर्तमान भी परसेन्टेज में है। लेकिन इसको मिटाने के लिए कभी भी कहाँ भी देखते हो, किससे भी बोलते हो तो स्मृति में क्या रखो? आत्मा समझना, वह तो हुई फर्स्ट स्टेज। लेकिन कर्म में आते, सम्पर्क में आते, सम्बन्ध में आते यही स्मृति रखो कि यह सभी जड़ चित्रों की चैतन्य देवी वा देवताओं के रूप हैं। तो देवी का रूप स्मृति में आने से जैसे जड़ चित्रों में कभी संकल्प मात्र भी अपवित्रता वा देह का अट्रेक्शन नहीं होता है, ऐसे ही चैतन्य रूप में भी यह स्मृति रखने से संकल्प में भी यह कम्पलेन नहीं रहेगी और कम्पलीट हो जायेंगे। समझा? यह हैं वर्तमान पुरूषार्थियों की कम्पलेन के ऊपर कम्पलीट बनने की युक्तियां।

अच्छा भट्ठी वाले अपनी उन्नति कर रहे हैं। स्पीड भी तीव्र है? ऐसे नहीं कि समाप्ति के बाद नीचे उतरते स्पीड कम हो जाये। ऐसा ही पुरूषार्थ कर रहे हो ना। अच्छा।



11-09-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


डबल रिफाइन स्टेज

ज बोलना है क्या? वा देखना है? क्या देखना ही बोलना नहीं है? ऐसा अनुभव है कि जो-कुछ बोलना हो वह मुंह से न बोल नयनों से बोलें? ऐसे हो सकता है? ऐसे होता भी है? आज यह मास्टर नॉलेजफुल, पावरफुल, सक्सेसफुल, सर्विसएबल की सभा है। तो क्या नयनों से नहीं जान सकेंगे? अपने मन की भावना वा बुद्धि के संकल्पों को नैनों से प्रकट नहीं कर सकते। यह भी तो पढ़ाई का पाठ है। तो बताओ, आज बापदादा क्या बोलने चाहते हैं? जानते हो ना। मास्टर नॉलेजफुल हो ना!

तो यह पाठ जब पढ़ चुके हो, तो इसी पाठ का पेपर देने के लिये तैयार हो? महावीर तो हो ही। यह महावीरों का ग्रुप है ना। औरों की बैटरी को चार्ज करने वाले इन्चार्ज हैं। बापदादा तो देख रहे हैं कि यह सभी नम्बरवार पास हुए ग्रुप हैं। कई बातों को, कई अनुभवों को देखते, पास करते-करते पास नहीं हो गये हो? तीन प्रकार के ‘पास’ हैं। तो इन तीनों प्रकार के पास शब्द में पास होना है। एक होता है कोई बात वा रास्ते को पास करना, एक होता है पढ़ाई में पास होना और नदीक को भी पास कहते हैं। नजदीक अर्थात् समीप रत्न। तो तीनों प्रकार के पास शब्द में ‘पास’ हो? त्रिशूल का तिलक अर्थात् तीनों ही प्रकार के ‘पास’ शब्द में पास। यह तिलक नहीं दिखाई देता है? इस ग्रुप के मस्तक पर यह त्रिशूल का तिलक आप लोगों को दिखाई देता है? बापदादा को आज की सभा क्या दिखाई दे रही है, यह जानती हो? अपना साक्षात्कार तो होता ही है ना। अभी-अभी का अपना साक्षात्कार हो रहा है? (दादी को) देखो, यह है साक्षात्कारमूर्त और आप हो साक्षी। तो बताओ, इन्हों के ग्रुप का कौनसा एक साक्षात्कार हो रहा है? यह (दादी) माइक है, आप (दीदी) माइट हो। ऐसे? यह माइट देती है, वह माइक बोलता है। बापदादा को क्या साक्षात्कार हो रहा है? क्यों, अभी डबल ताज नहीं है क्या? अगर डबल क्राउन धारण नहीं करेंगे तो भविष्य में भी डबल क्राउन तो मिल ही नहीं सकता। तो आज डबल ताजधारी, तिलकधारी, तख्तनशीन, राजऋषि दरबार देख रहे हैं। भविष्य की दरबार तो इस दरबार के आगे फीकी लगती है। अगर अभी-अभी अपना संगमयुगी ताज, तिलक और तख्तनशीन पुरूषोत्तम, मर्यादा सम्पन्न स्वरूप देखो और साथ-साथ अपना भविष्य स्वरूप भी देखो; तो दोनों से कौनसा रूप स्पष्ट, आकर्षणमूर्त, अलौकिक, दिव्य वा रूहानी देखने में आयेगा? अभी का वा भविष्य का? तो अपने स्वरूपों का सदा साक्षात्कार करते और कराते रहते हो कि अभी पर्दे के अन्दर तैयार हो रहे हो? स्टेज पर नहीं आये हो? वर्तमान समय स्टेज पर किस रूप में रहते हो? अभी की अपनी स्टेज को कहां तक समझते हो?

एक है फाइनल स्टेज। तो फाइनल है? फाइन है? रिफाइन है? आजकल मालूम है कि रिफाइन भी डबल रिफाइन होता है? तो अभी रिफाइन है? डबल रिफाइन होना है वा रिफाइन होना है? एक बार का रिफाइन तो पूरा हो गया ना। अभी डबल रिफाइन होने आये हो। फाइनल की डेट कौनसी है? अगर पहले से नहीं होगी तो आप लोगों के भक्त और प्रजा आपके सम्पूर्ण स्वरूपों का साक्षात्कार कैसे करेंगे? फिर नहीं तो आप के चित्र भी टेढ़े-बांके बनायेंगे! अगर आपके सम्पूर्णता का, फाइनल स्टेज का साक्षात्कार नहीं करेंगे तो चित्र क्या बनायेंगे? चित्र भी रिफाइन नहीं बनायेंगे। तो पहले से ही अपना सम्पूर्ण साक्षात्कार कराना है। अभी आपके भक्तों में गुणगान करने के संस्कार भरेंगे तो द्वापरयुग में उतरते ही आपके चित्रों के आगे गुणगान करेंगे। सब आत्माओं में सर्व रीति-रस्म के संस्कार तो अभी से ही भरने हैं ना, भरने का समय है। फिर है प्रैक्टिकल करने का समय। जैसे-जैसे आप आत्मा में सारे कल्प के पूज्य और पुजारीपन के दोनों ही संस्कार अभी भर रहे हैं। जितना पूज्य बनेंगे उसी प्रमाण पुजारीपन की स्टेज भी आटोमेटिकली बनती जायेगी। तो जैसे आप आत्माओं में सारे कल्प के संस्कार भरते हैं। वैसे ही आपके भक्तों में भी अभी ही संस्कार भरेंगे। तो जैसे आपका स्वरूप होगा वैसे ही संस्कार भरेंगे। इसलिए अभी जल्दी-जल्दी अपने को फाइनल स्टेज पर ले जाओ। ऐसी फाइनल स्टेज बनाओ जो अब भी फाइन न पड़े। जो डबल रिफाइन हो जायेंगे उनको फाइन नहीं पड़ेगा। फाइनल वाले का कोई फाइल नहीं रह जाता। इसलिए जो भी कुछ फाइल रहा हुआ है उसको खत्म करो। अगर महावीरों को भी फाइन भरना पड़े तो महावीर ही क्या? इसलिए सुनाया कि आज बाेलना नहीं है। इशारे से ही समझने वाले हैं। यह तो ताज, तख्तनशीन ग्रुप है, तो वह सुनने से कैसे समझेंगे। अगर अभी भी कहने से करेंगे तो कहने से करने वाले तो मनुष्य होते हैं। आप लोग तो देवताओं से भी श्रेष्ठ हो। ब्राह्मण कहो वा फरिश्ते कहो। फरिश्ते ईशारे से समझते हैं। फर्श निवासी कहने से समझते हैं। अच्छा।

बापदादा इस ग्रुप को सारे विश्व के सामने क्या समझते हैं? जो हो वही बताना है। यह तो सारी सृष्टि को शरणागत करने वाली हैं, न कि होने वाली। बापदादा के सामने भी शरणागत होने वाली नहीं हैं। बाप को सर्वेन्ट बनाने वाली हैं। तो शरणागत हुई वा शरणागत करने वाली हुई? सारी सृष्टि में जो भी महिमा करने योग्य शब्द हैं वह सभी हो। आज बापदादा सम्पूर्ण रूप देख रहे हैं। सदा फरमानबरदार उसको कहते हैं जो एक संकल्प भी बिगर रमॉं के न करे। यह ग्रुप तो इसमें पास है ना। सदैव अपने को फरमानबरदार के स्वरूप में स्थित कर फिर कोई संकल्प करो। ऐसे जो सम्पूर्ण फरमानबरदार हैं वही सम्पूर्ण वफादार भी होते हैं। यह ग्रुप तो सम्पूर्णता के समीप है ना। सम्पूर्ण वफादारी किसको कहते हैं? वफादार का मुख्य गुण क्या होता है? उनका मुख्य गुण होता है जो अपनी भले जान चली जाये लेकिन हर वस्तु की सम्भाल करेंगे। तो कोई भी ची व्यर्थ नुकसान नहीं करेंगे। अगर संकल्प, समय, शब्द और कर्म - इन चारों में से कोई को भी व्यर्थ गंवाते हो वा नुकसान के खाते में जाता है तो उसको क्या सम्पूर्ण वफादार कहेंगे? क्योंकि जब से जन्म लिया अर्थात् फरमानबरदार, आज्ञाकारी बने, ईमानदार बने हैं? एक छोटे से पैसे में भी ईमानदार होता है। तो जब से जन्म लिया है तब से मन अर्थात् संकल्प, समय और कर्म जो भी करेंगे वह बाप के ईश्वरीय सेवा अर्थ करेंगे। यह प्रतिज्ञा की? सर्व समर्पण हुए हो? तो यह सभी बाप के ईश्वरीय सेवा अर्थ हो गई। अगर ईश्वरीय सेवा की बजाय कहाँ संकल्प वा समय वा तन द्वारा व्यर्थ कार्य होता है तो उनको क्या कहेंगे? उनको सम्पूर्ण वफादार कहेंगे? यह नहीं समझना कि एक वा एक सेकेण्ड क्या बड़ी बात है। अगर एक नये पैसे की भी वफादारी नहीं तो उसको सम्पूर्ण वफादार नहीं कहेंगे। यह ग्रुप तो सम्पूर्ण फरमानबरदार, सम्पूर्ण वफादार है ना। ऐसे सम्पूर्ण वफादार, फरमानबरदार, ईमानदार, आज्ञाकारी ग्रुप को क्या कहेंगे? नमस्ते। नमस्ते के बाद फिर क्या होता है? बाप तो सम्पूर्ण आज्ञाकारी है। एक-दो को देख हर्षित हो रहे हो ना। संगमयुग के दरबार का यह श्रृंगार है। अच्छा।



15-09-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


मास्टर ज्ञान-सूर्य आत्माओं का कर्त्तव्य

स संगठन को कौनसा संगठन कहेंगे? इस संगठन की विशेषता क्या है? जो विशेषता है उसी प्रमाण ही नाम कहेंगे। इस संगठन की क्या विशेषता है जो और संगठन में नहीं देखी? अपने संगठन की विशेषता को जानते हो? यह संगठन सारे ब्राह्मण परिवार से विशेष आत्माओं का संगठन है। लेकिन इस विशेष आत्माओं के संगठन की विशेषता यह है - इसमें सर्व प्रसिद्ध नदियों का मेला है। नदियों के ऊपर अनेक प्रकार के विशेष दिनों पर मेले होते हैं। लेकिन यह मेला प्रसिद्ध नदियों का है। ज्ञान-सागर से निकली हुई पतित-पावनी नदियों का मिलन है। अपने को पतित-पावनी समझती हो? अगर पतित-पावनी हो तो मुख्य बात जानती हो कि पतित- पावनी कौन बन सकती है? पतित-पावनी बनने के लिए मुख्य कौनसी बात स्मृति में रखो जिससे कैसा भी पतित, पावन बन जाये? कोई भी पतित आत्मा का संकल्प भी समा जाये। इसके लिए मुख्य बात यही सदा बुद्धि में रहनी चाहिए कि मैं सर्व आत्माओं के पतित संकल्पों वा वृत्तियों वा दृष्टि को भस्म करने वाली मास्टर ज्ञान-सूर्य हूँ। अगर मास्टर ज्ञान-सूर्य बनकर कोई भी पतित आत्मा को देखेंगे, तो जैसे सूर्य अपनी किरणों से किचड़ा, गन्दगी के कीटाणु भस्म कर देते हैं, वैसे कोई भी पतित आत्मा का पतित संकल्प भी पतित- पावनी आत्मा के ऊपर वार नहीं कर सकता। और ही पतित-आत्माएं आप पतित-पावनियों के ऊपर बलिहार जायेंगी। अगर कोई भी पतित आत्मा का पतित-पावनी के प्रति पतित संकल्प भी उत्पन्न होता है, तो क्या समझना चाहिए कि माइक बनी हो, माइट-हाउस नहीं बनी हो। इसलिए जैसे माइक का आवाज़ बहुत मीठा भी लगता है और माइक अर्थात् आवाज़ कनरस की प्राप्ति कराता है, लेकिन माइट-हाउस स्थिति मनरस का अनुभव कराती है। अगर एक बार भी इन्द्रियों का रस अनुभव करते हैं तो यह इन्द्रियों का रस अनेक अल्पकाल के रस तरफ आकर्षित कर देता है।

कोई भी पतित आत्मा का किसी भी इन्द्रियों के रस अर्थात् विनाशी रस के तरफ आकर्षण न हो, आते ही अलौकिक-अतीन्द्रिय सुख वा मनरस का अनुभव करें। इसके लिए पहले पतित-पावनियों की मन्मनाभव की स्थिति होनी चाहिए। अगर स्वयं कोई भी देह-अभिमान वा देह की दुनिया अर्थात् पुरानी दुनिया के कोई भी वस्तु के रस में ज़रा भी फंसे हुए होंगे, तो वह अन्य को मनरस का अनुभव कैसे करा सकेंगे? कलियुगी स्थूल वस्तुओं की रसना वा मन का लगाव मिट भी गया है, लेकिन इसके बाद फिर कौनसी स्टेज से पार होना है, वह जानती हो? लोहे की जंजीरें, मोटी-मोटी जंजीरें तो तोड़ चुकी हो, लेकिन बहुत महीन धागे कहां-कहां बन्धनमुक्त नहीं बना सकते। वह महीन धागे कौनसे हैं? यह परखना भी बड़ी बात नहीं इस ग्रुप के लिए। जानती भी हो,चाहती भी हो फिर बाकी क्या रह जाता है? सभी में महीन से महीन धागा कौनसा है, जो ज्ञानी बनने के बाद नया बन्धन शुरू होता है? (हरेक ने सुनाया) यह सभी नोट करना, यह नोट काम में आयेंगे। और भी कुछ है? इस ग्रुप में गंगा-यमुना इकट्ठी हो गई हैं। यह विशेषता है ना। सरस्वती तो गुप्त होती है। इसका भी बड़ा गुह्य रहस्य है कि गंगा कौन और यमुना कौन है! पहले यह तो बताओ कि सभी से महीन धागा कौनसा है? फिर इससे आपेही समझ जायेंगे गंगा कौन, यमुना कौन? सभी से महीन और बड़ा सुन्दरता का धागा एक शब्द में कहेंगे तो ‘मैं’ शब्द ही है। ‘मैं’ शब्द देह-अभिमान से पार ले जाने वाला है। और ‘मैं’ शब्द ही देही-अभिमानी से देह-अभिमान में ले आने वाला भी है। मैं शरीर नहीं हूँ, इससे पार जाने का अभ्यास तो करते रहते हो। लेकिन यही मैं शब्द कि - ‘‘मैं फलानी हूँ, मैं सभी कुछ जानती हूँ, मैं किस बात में कम हूँ, मैं सब कुछ कर सकती हूँ, मैं यह-यह करती हूँ और कर सकती हूँ, मैं जो हूँ जैसी हूँ वह मैं जानती हूँ, मैं कैसे सहन करती हूँ, कैसे समस्याओं का सामना करती हूँ, कैसे मर कर मैं चलती हूँ, कैसे त्याग कर चल रही हूँ, मैं यह जानती हूँ’’ - ऐसे मैं की लिस्ट सुल्टे के बजाय उलटे रूप में महीन, सुन्दरता का धागा बन जाता है। यह सभी से बड़ा महीन धागा है। न्यारा बनने के बजाय, बाप का प्यारा बनाने के बजाय कोई-न-कोई आत्मा का वा कोई वस्तु का प्यारा बना देता है। चाहे मान का प्यारा, चाहे नाम का प्यारा, चाहे शान का प्यारा, चाहे कोई विशेष आत्माओं का प्यारा बना लेता है। तो इस धागे को तोड़ने के लिये वा इस धागे से बन्धनमुक्त बनने के लिए क्या करना पड़े? ट्रॉन्सफर कैसे हो?

ज़िम्मेवारी, ताजधारी ग्रुप को ही मंगाया है ना। ज़िम्मेवारी के लक्ष्य को धारण करने वाला ग्रुप तो हो ही। बाकी क्या चाहिए? निरहंकारी हो? निराकारी हो? अगर निराकारी स्थिति में स्थित होकर निरहंकारी बनो तो निर्विकारी आटोमेटिकली हो ही जायेंगे। निरहंकारी बनते ज़रूर हो लेकिन निराकार होकर निरहंकारी नहीं बनते हो। युक्तियों से अपने को अल्प समय के लिए निरहंकारी बनाते हो, लेकिन निरन्तर निराकारी स्थिति में स्थित होकर साकार में आकर यह कार्य कर रहा हूँ - यह स्मृति वा अभ्यास नेचरल वा नेचर न बनने के कारण निरन्तर निरहंकारी स्थिति में स्थित नहीं हो पाते हैं। जैसे कोई कहाँ से आता है, कोई कहाँ से आता है, उसको सदा यह स्मृति रहती है कि मैं यहाँ से आया हूँ। ऐसे यह स्मृति सदैव रहे कि मैं निराकार से साकार में आकर यह कार्य कर रही हूँ। बीच-बीच में हर कर्म करते हुए इस स्थिति का अभ्यास करते रहो। तो निराकार हो साकार में आने से निरहंकारी और निर्विकारी ज़रूर बन जायेंगे। यह अभ्यास अल्पकाल के लिए करते भी हो, लेकिन अब इसी को सदाकाल में ट्रॉन्सफर करो। यूं वैरागी भी बने हो, वैराग्य वृत्ति है, लेकिन सदाकाल के लिए और बेहद के वैरागी बनो। नहीं तो कोई हद की वस्तु वैराग्य वृत्ति से हटाने के लिए निमित्त बन जाती है। योगयुक्त भी हो लेकिन योगयुक्त की निशानी प्रैक्टिकल कर्म में दिखाओ। आपका हर कर्म, हर बोल किसी भी आत्मा को भोगी से योगी बनाये। हर संकल्प, हर कर्म युक्तियुक्त, रायुक्त, रहस्ययुक्त हो - इसको कहा जाता है प्रैक्टिकल योगयुक्त। अपने संकल्प वा बोल में, कर्म में अगर यह तीन बातें नहीं तो व्यर्थ है। अगर रायुक्त नहीं होगा तो क्या होगा? व्यर्थ। समझना चाहिए कि अभी प्रैक्टिकल योगी नहीं हैं लेकिन प्रैक्टिस करने वाले योगी हैं। तो अभी इस बात के ऊपर अटेन्शन की आवश्यकता है। फिर कोई भी समस्या वा विघ्न, सरकमस्टॉन्स आप के ऊपर वार नहीं कर सकेंगे। प्रैक्टिकल में योगयुक्त, ज्ञानयुक्त, स्नेहयुक्त, दिव्य अलौकिक मूर्त से विश्व के आगे प्रूफ अर्थात् प्रमाण बन जायेंगे। जो विश्व के आगे ज्ञान और योग का प्रूफ बनते हैं वही माया-प्रूफ होते हैं। तो माया-प्रूफ होने के लिए अपने को यही समझो कि मैं ज्ञान और योग का प्रूफ हूँ। यह प्रमाण रूप बनना, आत्माओं के अरमानों को खत्म करने वाला है। सदा हर संकल्प और कदम बाप के फरमान पर चलने वाले अन्य आत्माओं के अरमानों को खत्म कर सकते हैं। अपने अन्दर भी पुरूषार्थ का, सफलता का अरमान रह जाता है, इसका भी कारण कि कहाँ न कहाँ, कोई न कोई फरमान नहीं पालन होता है। तो जिस घड़ी भी अपने पुरूषार्थ के ऊपर वा सर्विस की सफलता के ऊपर वा सर्व के स्नेह और सहयोग की प्राप्ति के ऊपर ज़रा भी कमी वा उलझन आये तो चेक करो कि कौनसे फरमान की कमी है जिसका प्रत्यक्ष फल एक सेकेण्ड के लिए भी अनुभव कर रहे हैं! फरमान सिर्फ मुख्य बातों का नहीं, फरमान हर समय के हर कर्म के लिए मिला हुआ है। सवेरे अमृतवेले से लेकर रात तक अपनी दिनचर्या में जो फरमान मिले हुए हैं उनको चेक करो। वृत्ति को, दृष्टि को, संकल्प को, स्मृति को, सर्विस को, सम्बन्ध को सभी को चेक करो। जैसे कोई मशीनरी चलते-चलते स्पीड ढीली हो जाती है तो सभी औजारों को चेक करते हैं, चारों ओर से चेकिंग करते हैं। ऐसे चारों तरफ की चेकिंग करने से स्पीड तेज कर सकेंगे। क्योंकि अब रूकने की बात खत्म हुई, अब है स्पीड को तेज करने की बात। जो भी स्टेज सुनी है उस पर ठहरते भी हो और पुरूषार्थ में विशेष आत्माएं भी हो।

स्टेज को चेक करने में ठीक हो, लेकिन अभी क्या करना है? परसेन्टेज को बढ़ाओ। परसेन्टेज कम है। पेपर जो दिया है उसकी रिजल्ट यह है - नॉलेज की शक्ति से स्टेज को बना लेते हो, लेकिन परसेन्टेज से स्वयं भी सन्तुष्ट नहीं हो। अभी यह सम्पूर्ण करना है। ज्ञान के फोर्स के साथ जो महीनता का सुनाया उसके कारण नकली, नुकसान देने वाला फोर्स भी मिक्स हो जाता है। नकली फोर्स, नुकसान देने वाला फोर्स न आये उसके लिए क्या बात स्मृति में रखेंगे? अगर हर आत्मा के प्रति तरस की भावना सदा के लिए रहे तो न किसका तिरस्कार करेंगे, न किसी द्वारा अपना तिरस्कार समझेंगे। जहाँ तरस होगा वहाँ फोर्स कभी भी नहीं हो सकता। जहाँ रहमदिल बनना चाहिए वहाँ रहमदिल बनने के बजाय रोबदार बन जाते हैं, लेकिन यहाँ विश्व महाराजन् नहीं हो। अपने को स्टेट के मालिक समझते हो ना। यह सभी स्टेट्स मिनिस्टर्स आये हुए हैं। तो स्टेट के मालिक समझने से निराकारी और निरहंकारी की स्टेज भूल जाते हो। स्टेट के सेवाधारी हो न कि कोई भी आत्मा से सेवा लेने वाले हो। अगर कोई को यह भी संकल्प आता है कि - मैंने इतना किया, मुझे इससे कुछ शान-मान वा महिमा मिलनी चाहिए - यह भी लेना हुआ, लेने की भावना हुई। दाता के बच्चे अगर यह भी लेने का संकल्प करते हो तो दाता नहीं हुए। यह भी लेना, देने वाले के आगे शोभता नहीं है। इसको कहा जाता है बेहद के वैरागी। सेवाधारी को यह भी संकल्प नहीं उठना चाहिए। तब स्टेट से अपने बेहद के विश्व महाराजन् का स्टेट्स पा सकेंगे। अच्छा। जो निष्कामी होगा, वही विश्व का कल्याणकारी बनेगा। रहमदिल होगा। कर्त्तव्य की प्राप्ति स्वत: होना दूसरी बात है लेकिन कामना से प्राप्त करना - यह अल्पकाल की प्राप्ति भल होती है, लेकिन अनेक जन्मों के लिए भी अनेक प्राप्तियों से वंचित कर देती है। प्राप्ति, अप्राप्ति का साधन बन जाती है। फल की प्राप्ति होना दूसरी बात है, प्रकृति दासी होना दूसरी बात है। ऐसे अल्पकाल के प्राप्ति के रूप को परखते चलना। कोई समझते हैं शक्ति नहीं है, क्यों? वेस्टेज ज्यादा है। वेस्टेज होने के कारण स्टेज बढ़ती नहीं है। अच्छा।



20-09-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


रूहानी स्नेही बनो

व्यक्त से अव्यक्त होने में कितना समय लगता है? आप किसको अज्ञानी से ज्ञानी कितने समय में बना सकते हो? अभी की स्टेज प्रमाण कितने समय में बना सकते हो? अपने लिए क्या समझते हो, कितने समय में बना सकते हो? बनने वाले की बात दूसरी रही, लेकिन जो बनने वाला अच्छा हो, उनको आप अपने पावर अनुसार कितने समय में बना सकते हो? अभी अपनी स्पीड का मालूम तो होता है ना। समय प्रमाण अभी अज्ञानी को ज्ञानी बनाने में कुछ समय लगता है। वह भी इसलिए, क्योंकि बनाने वाले अपने को अव्यक्त रूप बनाने में अभी तक बहुत समय ले रहे हैं। जैसे-जैसे बनाने वाले स्वयं एक सेकेण्ड में व्यक्त से अव्यक्त रूप में स्थित होने के अभ्यासी बनते जायेंगे, वैसे ही बनने वालों को भी इतना जल्दी बना सकेंगे। कोई देवता धर्म की आत्मा न भी हो, लेकिन एक सेकेण्ड में किसको मुक्ति, किसको जीवन्मुक्ति का वरदान देने के निमित्त बन जायेंगे। सर्व आत्माओं को मुक्ति का वरदान आप ब्राह्मणों द्वारा ही प्राप्त होना है। जैसे मशीनरी में कोई ची डाली जाती है तो जो जिस तरफ जाने की ची होती है वह उस रूप में और उसी तरफ आटोमेटिकली एक सेकेण्ड में बनती जाती है और निकलती जाती है, क्योंकि मशीनरी की स्पीड तेज होने के कारण एक सेकेण्ड में जो जहाँ की होती है, वहाँ की हो जाती है। जिसको जो रूप लेना होता है वह रूप लेते जाते हैं। यह रूहानी मशीनरी फिर कम है क्या? इस मशीनरी द्वारा आप एक सेकेण्ड में मुक्ति वालों को मुक्ति, जीवन्मुक्ति वालों को जीवन्मुक्ति का वरदान नहीं दे सकते हो? जबकि आप हो ही महादानी और महाज्ञानी, महायोगी भी हो, जबकि लिखते भी हो एक सेकेण्ड में अपना जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त कर सकते हो, क्या ऐसे ही लिखते हो वा बोलते हो? यथार्थ बात है तब तो लिखते वा बोलते हो ना। तो एक सेकेण्ड में आत्मा को मुक्ति, जीवन्मुक्ति का मार्ग दिखा सकती हो वा वरदान दे सकती हो ना। वरदान को प्राप्त करवाना, अपने को वरदान द्वारा भरपूर बनाना वह दूसरी बात है, लेकिन आप तो वरदान दे सकती हो ना। एक सेकेण्ड के वरदानीमूर्त हो? अपने को एक सेकेण्ड में व्यक्त से अव्यक्त बना सकते हो? कितने समय के लिए? अल्पकाल के लिये बना सकते हो, इसी कारण ही बनने वालों को भी अल्प समय का नशा, अल्प समय की खुशी होती है। वे अल्प समय के लिए परिवर्तन में आते हैं। जैसे बनाने वाले मास्टर रचयिता, वैसे ही रचना भी ऐसे ही अब तक बन रही है। जैसे आप लोग बाप से अल्प समय के लिए रूह-रूहान करते हो, मिलन का, मगन का, गुणों का, स्वरूप का अनुभव करते हो, ऐसे ही रचना भी अल्पकाल के लिए आप लोगों की महिमा करती है, अल्प समय के लिए मिलने-जुलने का सम्बन्ध रखते हैं। अल्प समय के लिए खुद अनुभव करते हैं, गुणगान करते हैं वा कभी-कभी इस प्राप्त हुए अनुभव को वर्णन करते हैं। तो इसका कारण कौन? मीटिंग में अनेक कारण को मिटाने का प्रोग्राम बनाया? अगर इस कारण का निवारण कर लो तो और सभी कारण ऐसे समाप्त हो जायेंगे जैसे कि थे ही नहीं। तो मूल कारण यही है। सदा बाप के स्नेह और सहयोग में रहने से सर्व आत्माएं आपके स्नेह में सहयोगी स्वत: ही बन जायेंगी। सुनाया था ना कि आज आत्माओं को सर्व अल्पकाल के सुख-शान्ति के साधन हैं लेकिन सच्चा स्नेह नहीं है। स्नेह की भूखी आत्माएं हैं। अन्न और धन शरीर के तृप्ति का साधन है, लेकिन आत्मा की तृप्ति रूहानी स्नेह से हो सकती है। वह भी अविनाशी हो। तो स्नेही ही स्नेह का दान दे सकते हैं। अगर स्वयं भी सदा स्नेही नहीं होंगे तो अन्य आत्माओं को भी सदाकाल का स्नेह नहीं दे सकेंगे। इसलिए सदा स्नेही बनने से, स्नेही स्नेह में आकर स्नेही के प्रति सभी-कुछ न्योछावर वा अर्पण कर ही देते हैं। स्नेही को कुछ भी समर्पण करने लिए सोचना वा मुश्किल होना नहीं होता है। तो इतनी जो बहुत बातें सुनते हो, बहुत मर्यादाएं वा नियम सुनते-सुनते यह भी सोचने लगते हो कि इतना सभी करना पड़ेगा, लेकिन यह सभी करने के लिए सभी से सहज युक्ति वा सर्व कमजोरियों से मुक्ति की युक्ति यही है कि ‘सदा स्नेही बनो’। जिसके स्नेही हैं, उस स्नेही के निरन्तर संग से रूहानियत का रंग सहज ही लग जाता है।

अगर एक-एक मर्यादा को जीवन में लाने का प्रयत्न करेंगे तो कहॉं मुश्किल कहॉं सहज लगेगा और इसी प्रैक्टिस में वा इसी कमज़ोरी को भरने में ही समय बीत जायेगा। इसलिए अब एक सेकेण्ड में मर्यादा पुरूषोत्तम बनो। कैसे बनेंगे? सिर्फ सदा स्नेही बनने से। बाप का सदैव स्नेही बनने से, बाप द्वारा सदा सहयोग प्राप्त होने से मुश्किल बात सहज हो जाती है। जो सदा स्नेही होंगे उनकी स्मृति में भी सदा स्नेह ही रहता है, उनकी सूरत से सदा स्नेही की मूर्त प्रत्यक्ष दिखाई देती है। जैसे लौकिक रीति से भी अगर कोई आत्मा किस आत्मा के स्नेह में रहती है तो फौरन ही देखने वाले अनुभव करते हैं कि यह आत्मा किसके स्नेह में खोई हुई है। तो क्या रूहानी स्नेह में खोई हुई आत्माओं की सूरत स्नेही मूर्त्त को प्रत्यक्ष नहीं करेगी? उनके दिल का लगाव सदैव उस स्नेही से लगा हुआ रहता है। तो एक ही तरफ लगाव होने से अनेक तरफ का लगाव सहज ही समाप्त हो जाता है। और तो क्या लेकिन अपने आप का लगाव अर्थात् देह-अभिमान, अपने आपकी स्मृति से भी सदैव स्नेही खोया हुआ होता है। तो सहज युक्ति वा विधि जब हो सकती है, तो क्यों नहीं सहज युक्ति, विधि से अपनी स्टेज की स्पीड में वृद्धि लाती हो! सदा स्नेही, एक सर्वशक्तिमान् के स्नेही होने कारण सर्व आत्माओं के स्नेही स्वत: बन जाते हैं। इस रा को जानने से राजयुक्त, योगयुक्त वा दिव्य गुणों से युक्तियुक्त बनने के कारण रायुक्त आत्मा सर्व आत्माओं को अपने आप से सहज ही राज़ी कर सकती है। जब रायुक्त नहीं होते हो, तब कोई को राज़ी नहीं कर सकते हैं। अगर उसकी सूरत वा सा द्वारा उसके मन के रा को जान जाते हैं, तो सहज ही उसको राज़ी कर सकते हैं। लेकिन कहाँ-कहाँ सूरत को देखते, सा को सुनते उनके मन के रा को न जानने के कारण अन्य को अभी भी नारा करते हो वा स्वयं नाराज होते हो। सदा स्नेही के रा को जान रायुक्त बनो। अच्छा। भविष्य में विश्व के मालिक बनना है, यह तो पता है ना। मगर अभी क्या हो? अभी विश्व के मालिक हो वा सेवाधारी हो? अच्छा।



27-09-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


स्नेह की शक्ति द्वारा सत्यता की प्रत्यक्षता

स समय सभी की स्मृति में वा नयनों में क्या है? एक बात है वा दो हैं वा एक में दो हैं? वह क्या है? (एक ही बाप है) आज सभी एक मत और एक ही बात पर हैं। अच्छा, इस समय तो एक बात है लेकिन वैसे वर्तमान समय स्मृति में व नयनों में सदैव क्या रहता है? सिर्फ घर जाना है- यह याद रहता है? सर्विस करने बिगर कैसे जायेंगे? वर्सा भी अपने लिए तो याद रहा, लेकिन दूसरों को भी वर्सा दिलाना है - यह भी तो याद रहना है। हर कदम में स्मृति में बाप की याद और साथ-साथ सर्विस वा सिर्फ याद रहती है और रहनी चाहिए? चलते-फिरते, कर्म करते अगर यह स्मृति में रहेगा कि हम हर समय ईश्वरीय सेवा के अर्थ निमित्त हैं, स्थूल कार्य करते भी ईश्वरीय सेवा के निमित्त हैं - यह स्मृति रहने से, सदैव निमित्त समझने से कोई भी ऐसा कर्म नहीं होगा जिससे डिस-सर्विस हो। यह स्मृति भूल जाती है तब साधारण कर्म वा साधारण रीति समय जाता रहता है। जैसे देखो, कोई विशेष सर्विस अर्थ निमित्त बनते हो; तो जितना समय विशेष सर्विस का रूप सामने होता है उतने समय की स्टेज वा स्थिति अच्छी होती है ना। क्योंकि समझते हैं हम इस समय सभी के सामने सर्विस के लिए निमित्त हूँ। ऐसे ही स्थूल कार्य करते हुए भी यह स्मृति में रहे कि इस समय मन्सा द्वारा विश्व को परिवर्तन करने की सेवा में उपस्थित हूँ, तो क्या स्थिति रहेगी? अटेन्शन रहता है, चेकिंग रहती है? इस प्रकार अगर सदा अपने को विश्व की स्टेज पर विश्व-कल्याण की सेवा अर्थ समझते हो; तो फिर साधारण स्थिति वा साधारण चलन वा अलबेलापन रहेगा? और कितना समय व्यर्थ जाने से सफल हो जायेगा, जमा का खाता कितना बढ़ जायेगा! ऐसे कोई के ऊपर बहुत बड़ी ज़िम्मेवारी होती है तो वह एक-एक सेकेण्ड अपना अमूल्य समझते हैं। अगर एक-दो मिनिट भी व्यर्थ चला जाए तो उनके लिए वह दो मिनिट भी बहुत बड़ा समय देखने में आता है। तो सभी से बड़ी ते बड़ी ज़िम्मेवारी आपके ऊपर है। और किसकी इतनी बड़ी ज़िम्मेवारी है, जितनी आपकी इस समय है? तो सारे विश्व का कल्याण, जड़, चैतन्य - दोनों को परिवर्तन करना है। कितनी बड़ी ज़िम्मेवारी है! तो हर समय यह स्मृति रहे कि बाप ने इस समय कौनसी ड्यूटी दी है! एक आंख में बाप का स्नेह, दूसरी आंख में बाप द्वारा मिला हुआ कर्त्तव्य अर्थात् सेवा। तो स्नेह और सेवा - दोनों साथ-साथ चाहिए। स्नेही भी प्रिय हैं, लेकिन सर्विसएबल ‘ज्ञानी तू आत्मा’ अति प्रिय हैं। तो दोनों ही साथ-साथ चाहिए। अपनी स्थिति जब दोनों की साथ-साथ स्मृति होगी तब ही सर्विस करने के समय स्नेहीमूर्त भी होंगे। लेकिन सिर्फ स्नेह भी नहीं चाहिए, स्नेह के साथ और क्या चाहिए? (शक्तिरूप) शक्तिरूप तो होंगे ही लेकिन शक्तिरूप का प्रत्यक्ष रूप क्या दिखाई देगा? सर्विस की रिजल्ट में नम्बर किस आधार पर होते हैं? क्योंकि वाणी में जौहर भरा हुआ है अर्थात् स्नेह के साथ शब्दों में ऐसा जौहर होना चाहिए जो उन्हों के ह्दय विदीर्ण हो जायें! अभी तक रिजल्ट क्या है? या तो बहुत जौहर दिखाती हो वा बहुत स्नेह दिखाती हो, या तो बिल्कुल ही हल्के रूप में बोलेंगे या बहुत जोश में बोलेंगे। लेकिन होना क्या चाहिए? एक-एक शब्द में स्नेह की रेखाएं होनी चाहिए। फिर भले कैसे भी कडुवे शब्द बोलेंगे तो ह्दय में लगेंगे जरूर, लेकिन वह शब्द कडुवे नहीं लगेंगे, यथार्थ लगेंगे। अभी अगर शब्द तेज बोलते हैं तो रूप में भी तेजी का भाव दिखाई देता, जिससे कई लोग यही कहते हैं कि आप लोगों में अभिमान है वा अपमान करते हो। लेकिन एक तरफ ठोकते जाओ दूसरे तरफ साथ-साथ स्नेह भी देते जाओ; तो आपके स्नेह की मूर्त से अपना तिरस्कार महसूस नहीं करेंगे लेकिन यह अनुभव करेंगे कि हम आत्माओं के ऊपर तरस है। तिरस्कार की भावना बदल तरस महसूस करेंगे। तो दोनों साथ-साथ चाहिए ना - कहते हैं ना मखमल की जुत्ती लगानी होती है। तो सर्विस के साथ अति तरस भी हो और फिर साथ-साथ जो अयथार्थ बातें हैं उनको यथार्थ करने की खुशी भी होनी चाहिए।

बातें सभी स्पष्ट देनी हैं लेकिन स्नेह के साथ। स्नेहमूर्त होने से उन्हों को जगत्-माता के रूप का अनुभव होगा। जैसे मां बच्चे को भले कैसे भी शब्दों में शिक्षा देती है, तो मां के स्नेह कारण वह शब्द तेज वा कडुवे महसूस नहीं होते। समझते हैं - मां हमारी स्नेही है, कल्याणकारी है। वैसे ही आप भले कितना भी स्पष्ट शब्दों में बोलेंगे लेकिन वह महसूस नहीं करेंगे। तो ऐसे दोनों स्वरूप के समानता की सर्विस करनी है, तब ही सर्विस की सफलता समीप देखेंगे। कहॉं भी जाओ तो निर्भय होकर। सत्यता की शक्ति स्वरूप होकर, आलमाइटी गवर्मेन्ट के सी.आई.डी. के आफीसर होकर उसी नशे से जाओ। इस नशे से बोलो, नशे से देखो। हम अनुचर हैं - इसी स्मृति से अयथार्थ को यथार्थ में लाना है। सत्य को प्रसिद्ध करना है, न कि छिपाना है। लेकिन दोनों रूपों की समानता चाहिए। किसको देखते हो वा कुछ सुनते हो तो तरस की भावना से देखते-सुनते हो, या सीखने और कॉपी करने के लक्ष्य से सुनते- देखते हो? आजकल की जो भी अल्पसुख भोगने वाली आत्मायें प्रकृति दासी के शो में दिखाई देती हैं, उन्हों के शो को देखकर स्थिति क्या रहती है? यह आत्मायें इस तरीके वा इस रीति-रस्म में प्रकृति दासी के रूप में स्टेज पर प्रख्यात हुई हैं, इसलिए हमें भी ऐसा करना चाहिए वा हमें भी इन्हों के प्रमाण अपने में परिवर्तन करना चाहिए - यह संकल्प भी अगर आया तो उनको क्या कहेंगे? क्या दाता के बच्चे भिखारियों की कॉपी करते? आप के आगे कितने भी पाम्प शो में आने वाली आत्माएं हों लेकिन होवनहार प्रत्यक्ष रूप के भिखारी हैं। इन सभी आत्माओं ने बापदादा के बच्चों से थोड़ी-बहुत शक्ति की बूंदों को धारण किया है। आप लोगों के शक्ति की अंचली लेने से आजकल इस अंचली के फल, प्रकृति दासी के फलरूप में देख रहे हैं। लेकिन अंचली लेने वाले को देख सागर के बच्चे क्या हो जाते हैं? प्रभावित। यह सभी थोड़े समय में ही आप लोगों के चरणों में झुकने लिए तड़पेंगे। इसलिए स्नेह के साथ सर्विस का जोश भी होना चाहिए। जैसे शुरू में स्नेह भी था और जोश भी था। निर्भय थे, वातावरण वा वायुमण्डल के आधार से परे। इसलिए एकरस सर्विस का उमंग और जोश था। अभी वायुमण्डल वा वातावरण देख कहां- कहां अपनी रूप-रेखा बदल देते हो। इसलिए सफलता कब कैसे, कब कैसे दिखाई देती है। जबकि कलियुग अन्त की आत्माएं अपनी सत्यता को प्रसिद्ध करने में निर्भय होकर स्टेज पर आती हैं, तो पुरूषोत्तम संगमयुगी सर्वश्रेष्ठ आत्माएं अपने को सत्य प्रसिद्ध करने में वायुमण्डल प्रमाण रूप रेखा क्यों बनाती हैं? आप मास्टर रचयिता हो ना। वह सभी रचना हैं ना। रचना को मास्टर रचयिता कैसे देखेंगे? जब मास्टर रचता के रूप में स्थित होकर देखेंगे तो फिर यह सभी कौनसा खेल दिखाई देगा? कौनसा दृश्य देखेंगे? जब बारिस पड़ती है तो बारिस के बाद कौनसा दृश्य देखते हैं? मेंढ़क थोड़े से पानी में महसूस ऐसे करते हैं जैसे सागर में हैं। ट्रां-ट्रां......... करते नाचते रहते हैं। लेकिन है वह अल्पकाल सुख का पानी। तो यह मेंढ़कों की ट्रां-ट्रां करने और नाचने-कूदने का दृश्य दिखाई देगा, ऐसे महसूस करेंगे कि यह अभी- अभी अल्पकाल के सुख में फूलते हुए गये कि गये। तो मास्टर रचयिता की स्टेज पर ठहरने से ऐसा दृश्य दिखाई देगा। कोई सार नहीं दिखाई देगा। बिगर अर्थ बोल दिखाई देंगे। तो सत्यता को प्रसिद्ध करने की हिम्मत और उल्लास आता है? सत्य को प्रसिद्ध करने का उमंग आता है कि अभी समय पड़ा है? क्या अभी सत्य को प्रसिद्ध करने में समय पड़ा है? फलक भी हो और झलक भी हो। ऐसी लक हो जो महसूस करें कि सत्य के सामने हम सभी के अल्पकाल के यह आडम्बर चल नहीं सकेंगे। जैसे स्टेज पर ड्रामा दिखाते हैं ना - कैसे विकार विदाई ले हाथ जोड़ते, सिर झुकाते हुए जाते हैं! यह ड्रामा प्रैक्टिकल विश्व की स्टेज पर दिखाना है। अब यह ड्रामा की स्टेज पर करने वाला ड्रामा बेहद के स्टेज पर लाओ। इसको कहा जाता है सर्विस। ऐसे सर्विसएबल विजयी माला के विशेष मणके बनते हैं। तो ऐसे सर्विसएबल बनना पड़े। अभी तो यह प्रैक्टिस कर रहे हैं। पहले प्रैक्टिस की जाती है तो छोटे-छोटे शिकार किए जाते हैं, फिर होता है शेर का शिकार। लास्ट प्रैक्टिकल पार्ट हू-ब-हू ऐसे देखेंगे जैसे यह छोटा ड्रामा। तब एक तरफ जयजयकार और एक तरफ हाहाकार होगी। दोनों एक ही स्टेज पर। अच्छा।



03-10-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


निर्माणता के गुण से विश्व-निर्माता

ज बापदादा किन्हों को देख रहे हैं? आप कौन हो? आज बापदादा आप को किस रूप में देख रहे हैं, यह जानते हो? मास्टर नॉलेजफुल नहीं हो? जब मास्टर नॉलेजफुल हो, तो यह नहीं जान सकते हो कि बाप किस रूप में देख रहे हैं? बच्चे तो हैं ही, लेकिन किस रूप में देख रहे हैं? बापदादा देख रहे हैं कि इतने सभी विश्व-निर्माता हैं। विश्व के निर्माता हो? बाप के साथ-साथ बाप के कर्त्तव्य में मददगार हो? नई विश्व का निर्माण करना - यही कर्त्तव्य है ना। उसी कर्त्तव्य में लगे हुए हो वा अभी लगना है? तो विश्व- निर्माता नहीं हुए? सदैव यह स्मृति में रहे कि हम सभी मास्टर विश्व-निर्माता हैं। यही स्मृति सदैव रहने से कौनसा विशेष गुण आटोमेटिकली आ जायेगा? निर्माणता का। समझा? और जहॉं निर्माणता अर्थात् सरलता नेचरल रूप में रहेगी वहाँ अन्य गुण भी आटोमेटिकली आ ही जाते हैं। तो सदैव इस स्मृति- स्वरूप में स्थित रह कर फिर हर संकल्प वा कर्म करो। फिर यह जो भी छोटी- छोटी बातें सामना करने के लिए आती हैं, यह बातें ऐसे ही अनुभव होंगी जैसे कोई बुजुर्ग के आगे छोटे-छोटे बच्चे अपने बचपन के अलबेलेपन के कारण कुछ भी बोल देवें वा कुछ भी ऐसा कर्त्तव्य भी करें तो बुजुर्ग लोग समझते हैं कि यह निर्दोष, अनजान छोटे बच्चे हैं। कोई असर नहीं होता है। ऐसे ही जब मास्टर विश्व-निर्माता अपने को समझेंगे तो यह माया के छोटे-छोटे विघ्न बच्चों के खेल समान लगेंगे। जैसे छोटा बच्चा अगर बचपन के अनजानपन में नाक-कान भी पकड़ ले तो जोश आयेगा? क्योंकि समझते हैं - बच्चे निर्दोष, अनजान हैं। उनका कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे ही माया भी अगर किसी आत्मा द्वारा समस्या वा विघ्न वा परीक्षा-पेपर बनकर आती है, तो उन आत्माओं को निर्दोष समझना चाहिए। माया ही आत्मा द्वारा अपना खेल दिखा रही है। तो निर्दोष के ऊपर क्या होता है? तरस, रहम आता है ना। इस रीति से कोई भी आत्मा निमित्त बन जाती है, लेकिन है निर्दोष आत्मा। अगर उस दृष्टि से हर आत्मा को देखो तो फिर पुरूषार्थ की स्पीड कब ढीली हो सकती है? हर सेकेण्ड में चढ़ती कला का अनुभव करेंगे। सिर्फ चढ़ती कला में जाने के लिए यह समझने की कला आनी चाहिए।

16 कला सम्पूर्ण बनना है ना। तो यह भी कला है। अगर इस कला को जान जाते हैं तो चढ़ती कला ही है। वह कब रूकेगा नहीं। उसकी स्पीड कब ढीली नहीं हो सकती। हर सेकेण्ड में तीव्रता होगी। और अभी रूकने का समय भी क्या है? रूक कर उन आत्माओं के कारण और निवारण को हल करने का अभी समय है? अभी तो बड़े बुजुर्ग हो गये हो। अभी तो वानप्रस्थ अवस्था में जाने का समय समीप आ रहा है। अपना घर सामने दिखाई नहीं देता है? आखरीन यात्रा समाप्त कर घर जाना है। कोई भी बात भिन्न-भिन्न रूपों, भिन्न- भिन्न बातों से सामने जब आती है, तो पहले यह समझना चाहिए कि इन समस्याओं वा भिन्न-भिन्न रूपों की बातों को कितना बार हल किया है और करते-करते अनुभवी बने हुए हो। कितने बार के अनुभवी हो, याद है? अनेक बार किया है - यह याद आता है? कल्प पहले पास किया है। क्रास किया होगा। क्रास किया था वा किया होगा? यह नहीं समझते कि अगर अनेक बार यह अनुभव नहीं किया होता तो आज इतने समीप कैसे आते? यह हिसाब लगाना नहीं आता? पांडव तो हिसाब में होशियार होने चाहिए। लेकिन शक्तियां नम्बरवन हो गइंर्। यह स्मृति स्पष्ट और सरल रूप में रहे। खैंचना न पड़े। अगर कल्प पहले की बात अभी तक बुद्धि में खैंचकर लाते रहते हो तो क्या कहेंगे? ज़रूर कोई माया की खिंचावट अभी है, इसलिए बुद्धि में कल्प पहले वाली स्मृति स्पष्ट और सरल रूप में नहीं आती है और इसलिए ही विघ्नों को पार करने में मुश्किल अनुभव होता है। मुश्किल है नहीं।

जितना पुरूषार्थ का समय चला है, जितना नॉलेज की लाइट और माइट मिली है उस प्रमाण वर्तमान समय सरल और स्पष्ट होना चाहिए। इतना स्पष्ट हो जैसे एक मिनिट पहले अगर कोई कार्य किया तो वह याद रहता कि वह भी भूल जाता है? तो ऐसे ही 5000 वर्ष के बाद ऐसे स्पष्ट अनुभव हो जैसे एक मिनिट पहले किया हुआ कार्य है। जैसे पावरफुल कैमरा होती है तो एक सेकेण्ड में कितना स्पष्ट चित्र खैंच लेती है। कितना भी दूर का दृश्य हो, वह भी स्पष्ट सम्मुख आता जाता है। तो क्या पावरफुल कैमरामैन नहीं बने हो? कैमरा है कि दूसरे का लोन पर लेकर यू करते हो? पावरफुल है? कल्प पहले के चित्र उसमें स्पष्ट आ जाते हैं?

यह जो मन है यह एक बड़ी कैमरा है। हर सेकेण्ड का चित्र इसमें खैंचा नहीं जाता? कैमरा तो सभी के पास है लेकिन कोई कैमरा नदीक के चित्र को खींच सकती है और कोई कैमरा चन्द्रमा तक भी फोटो खैंच लेती है। है तो वह भी कैमरा, वह भी कैमरा। और यहाँ की छोटी- मोटी भी कैमरा तो है ना। तो हरेक के पास कितना पावरफुल कैमरा है? जब वह लोग चन्द्रमा से यहाँ, यहाँ से वहाँ का खैंच सकते हैं; तो आप साकार लोक में रहते निराकारी दुनिया का, आकारी दुनिया का वा इस सारी सृष्टि के पास्ट वा भविष्य का चित्र नहीं खैंच सकते हो? कैमरा को पावरफुल बनाओ जो उसमें जो बात, जो दृश्य जैसा है वैसा दिखाई दे, भिन्न-भिन्न रूप में दिखाई नहीं दे। जो है जैसा है, वैसे स्पष्ट दिखाई दे। इसको कहते हैं पावरफुल। फिर बताओ कोई भी समस्या, समस्या का रूप होगा या खेल अनुभव होगा? तो अब की स्टेज के अनुसार ऐसी स्टेज बनाओ, तब कहेंगे तीव्र पुरुषार्थी। अगर ऐसे कैमरा द्वारा चित्र पहले खींचते जाते हैं, उसके बाद साफ कराने के बाद मालूम पड़ता है कि कैसे खींचे हैं। इसी रीति से सारे दिन में जो अपने-अपने आटोमेटिक कैमरा द्वारा अनेकानेक चित्र खैंचते रहते हो, रात को फिर बैठ कर क्लीयर देखना चाहिए कि किस प्रकार के चित्र आज इस कैमरे द्वारा खींचे? और जो जैसे हैं वैसे ही चित्र खींचे वा कुछ नीचे-ऊपर भी हो गया? कभी-कभी कैमरा ठीक न होने के कारण सफेद चीज भी काली हो जाती है, रूप बदल जाता है, फीचर्स भी कब बदल जाते हैं। तो यहाँ भी कभी-कभी कैमरा ठीक क्लीयर न होने के कारण बात समस्या बन जाती है। उनकी रूपरेखा बदल जाती है, उनका रंग-रूप भी बदल जाता है। यथार्थ का अयथार्थ रूप भी कब खैंचा जाता है। इसलिए सदैव अपने कैमरा को क्लीयर और पावरफुल बनाओ। अपने को सेवाधारी समझने  से त्याग, तपस्या सभी आ जाता है। सेवाधारी हूँ और सेवा के लिए ही यह जीवन है, यह समझने से सेकेण्ड भी सेवा बिगर नहीं जायेगा। तो सदा अपने को सेवाधारी समझते चलो। और अपने को बुजुर्ग समझना चाहिए, तो फिर छोटी-छोटी बातें खिलौने दिखाई देंगी, रहमदिल बन जायेंगे। तिरस्कार के बदले तरस आयेगा। अच्छा।



05-10-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


सम्पूर्णता की निशानी 16 कलायें

भी के पुरूषार्थ का लक्ष्य कौनसा है? (सम्पूर्ण बनना) सम्पूर्णता की स्टेज किसको कहा जाता है? कौनसा नक्शा सामने है जिसको सम्पूर्ण स्टेज समझते हो? बाप ने भी जो सम्पूर्ण स्टेज धारण की उसमें क्या बातें थीं? जब दूसरों को सुनाते हो तो सम्पूर्ण स्टेज का क्या-क्या वर्णन करते हो? उन्हों को समझाती हो ना कि इस नॉलेज द्वारा सर्व गुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी बनते हैं। यह सम्पूर्ण स्टेज वर्णन करती हो ना। भविष्य में तो प्राप्ति होगी, लेकिन सम्पूर्ण स्टेज तो यह कहेंगे ना। आत्मा में बल तो अभी से भरेगा ना। 16 कला सम्पूर्ण कहा जाता है, तो कलाएं अभी भरेंगी ना। सर्व र्गुण सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी, 16 कला सम्पूर्ण, यह शब्द कहते हो ना। यह सम्पूर्ण स्टेज है। सर्व गुण क्या हैं, वह तो समझते हो गुणों की लिस्ट है। परन्तु यह जो 16 कला कहा जाता है, उनका भाव-अर्थ क्या है? यह है सम्पूर्ण स्टेज की निशानी। जैसे देखा - किसमें कोई भी विशेषता होती है तो कहने में आता है ना इनमें यह कला है। किसी में रोते हुए को हंसाने की कला अर्थात् विशेषता होती है, कोई में हाथ के सफाई की कला, कोई में बुद्धि के चमत्कारी की कला होती है ना। तो यह 16 कला सम्पूर्ण अर्थात् उसका जो भी कर्म होगा वह हर कर्म कला के समान दिखाई देगा। उनकी हर चलन - देखना, बोलना, चलना जैसे कला के माफिक दिखाई देगा। जैसे कोई की कला को देखने लिए कितना रूची से जाते हैं। इस रीति से जो सम्पूर्ण स्टेज को प्राप्त हुई आत्माएं होती हैं उनकी हर चलन कला के रूप में होती है और चरित्र के रूप में भी हो जाती है। तो विशेषता हुई ना। जैसे साकार के बोलने में, चलने में, सभी में विशेषता देखी ना। तो यह कला हुई ना। उठने-बैठने की कला, देखने की कला, चलने की कला थी। सभी में न्यारापन और विशेषता थी। हर कर्म कला के रूप में प्रैक्टिकल में देखा। तो 16 कला अर्थात् हर चलन सम्पूर्ण कला के रूप में दिखाई दे, इसको कहते हैं 16 कला सम्पूर्ण। तो सम्पूर्ण स्टेज की निशानी यही होगी जो उनका हर कर्म कला के माफिक दिखाई देगा अर्थात् उसमें विशेषता होगी। इसको कहते हैं सम्पूर्ण स्टेज।

तो 16 कला सम्पूर्ण बनने का जो लक्ष्य रखा है उसका स्पष्टीकरण यही है। यह चेक करना चाहिए कि - ‘‘मेरे देखने में कला है? मेरे बोलने में कला भरी हुई है?’’ वैसे कहते हैं - कला-काया ही चट हो गई है। तो कला एक अच्छी चीज होती है। कला-काया खत्म हो गई है अर्थात् कर्म में जो आकर्षण करने की शक्ति है, विशेषता है वह खत्म हो गई। तो हर कर्म हमारा कला के समान है वा नहीं - यह चेक करना है। जैसे कोई बाजीगर होते हैं, तो वह जितना समय बाज़ी दिखाते हैं उतना समय हर कर्म कला के रूप में दिखाई देता है। चलते कैसे हैं, ची कैसे उठाते हैं - वह सभी कला के रूप में नोट करते हैं। तो यह संगमयुग विशेष कर्म रूपी कला दिखाने का है। सदैव ऐसा महसूस हो कि हम स्टेज पर हैं। ऐसे 16 कला सम्पूर्ण बनना है। जिसका हर कर्म कला के रूप में होता है उनके हर कर्म अर्थात् गुणों का गायन होता है, इसको दूसरे शब्दों में कहा जाता है हर कर्म चरित्र समान। जिस कला के रूप को देख औरों में भी प्रेरणा भरती है। उनके कर्म भी सर्विसएबल होते हैं। जैसे कोई कला दिखाते हैं, तो कला कमाई का साधन होता है। इस रीति से वो जो हर कर्म कला के रूप में करते हैं, उनके वह कर्म अखुट कमाई के साधन बन जाते हैं और दूसरों को आकर्षण करते हैं। हर कर्म कला के रूप में होगा तो वह एक चुम्बक बन जायेगा। आजकल के जमाने में कोई छोटे-मोटे कला दिखाने वाले भी रास्ता चलते कला दिखाते हैं तो सभी इकट्ठे हो जाते हैं। यह तो है श्रेष्ठ कला। तो क्या आत्माएं आकर्षित नहीं होंगी? अभी इतने तक चेकिंग करनी है। जो भी श्रेष्ठ आत्माएं बनती हैं उनके हर कर्म के ऊपर सभी का अटेन्शन रहता है, क्योंकि उनके हर कर्म में कला भरी हुई है। तब तो हर कर्म के कला का मंदिरों में पूजन होता है। जो बड़े-बड़े मंदिर होंगे उनके उठने के चरित्र का दर्शन अलग होगा, सोने का अलग होगा, खाने का अलग, नहाने का अलग होगा। बहुत थोड़े मन्दिर जहाँ सभी कर्मों के दर्शन होते हैं। उसका कारण क्या है? क्योंकि हर कार्य कला के रूप में किया, इसलिए यादगार चलता है। साकार में भी हर कर्म को देखने की रूचि क्यों होती है? इतने वर्ष साथ रहते हुए, जानते हुए, समझते हुए, देखते हुए भी फिर-फिर देखने की रूचि क्यों होती है? एक कर्म भी देखना मिस नहीं करना चाहते थे। जैसे जादूगर कला दिखाते हैं तो समझते हैं - एक बात भी मिस की तो बहुत कुछ मिस होगा। क्योंकि उनके हर कर्म की कला है। इस रीति यह भी देखने की इच्छा रहती थी कि देखें कैसे सोये हुए हैं। सोने में भी कला थी। हर कर्म में कला थी। इसको कहते हैं 16 कला सम्पूर्ण। अच्छा, ऐसी स्टेज बनी है। लक्ष्य तो इसी स्टेज का है ना? लक्ष्य से लक्षण धारण करने पड़ेंगे। हर कर्म कला के रूप में होता रहे। तो 16 कला सम्पूर्ण बनने से सर्व गुणों की धारणा भी आटोमेटिकली हो जायेगी। अच्छा।


 

08-10-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


दीपमाला - चेतन्य दीपकों की माला की यादगार

ज बापदादा क्या देख रहे हैं? आप दीपकों की माला देखने के लिए आए हैं। जो दीपमाला का यादगार दिवस लोग मनाते हैं लेकिन बापदादा चैतन्य दीपकों की माला को देख रहे हैं। आप सभी भी जब दीपमाला के दिन जगे हुए दीपकों को देखते हो तो देखते हुए यह खुशी होती है कि हमारी ही यादगार मना रहे हैं? जैसे जगा हुआ दीपक प्यारा लगता है, वैसे अपनी यादगार को देख स्मृति आने से आप सभी भी विश्व के बाप और सारे विश्व के आत्माओं को प्यारे लगते हो। तो आज यादगार रूप को प्रत्यक्ष रूप में देखने आए हैं। माला में एक दाना नहीं होता है, अनेकों की माला बनती है। अगर एक दीपक अलग जगा हुआ हो तो उसको दीपकों की माला नहीं कहेंगे। तो ऐसे ही अनेक दीपक जगे हुए, माला के रूप में दिखाई देते हैं। तो हरेक अपने को इस दीपमाला के बीच पिरोया हुआ, जगा हुआ दीपक समझते हो? वा आप लोग भी अनेक जगे हुए दीपकों की माला को देखते हुए हर्षित होते हो? आज दीपमाला के दिन आप सभी ने दीपावली मनाई? आज विशेष रूप से दीपावली मनाई? यूं तो सदैव जगे हुए दीपक हो, लेकिन जब विशेष यादगार का दिवस होता है तो विशेष आत्माओं को क्या करना चाहिए? विशेष आत्माएं जो विशेष रूप से निमित्त बनते हैं, उन्हों को विशेष सर्विस क्या करनी है? विशेष आत्माओं को तो अन्य से विशेष कार्य करना है ना। क्योंकि जो अन्य आत्माएं भी कर सकती हैं और कर रही हैं वह किया तो बाकी फर्क क्या हुआ? विशेष आत्माओं को विशेष कार्य करना है। बापदादा विशेष दिनों पर विशेष रूप से बच्चों की और भक्तों की तीनों ही रूप से सेवा करते हैं। विशेष आत्माओं को खास अपने यादगार के दिन साक्षात्कारमूर्त बन, साक्षात् बापदादा समान आत्माओं के प्रति अपनी कल्याण की भावना से, अपने रूहानी स्नेह के स्वरूप से, अपने सूक्ष्म शक्तियों द्वारा आत्माओं में बल भरना चाहिए। जैसे अव्यक्त रूप में बापदादा चारों ओर बच्चों की सेवा करते हैं। वह समझते हैं कि बापदादा ने मेरे से मुलाकात की, मेरी याद का रेस्पान्स दिया वा मेरी याद का प्रत्यक्ष फल मैंने अनुभव किया अथवा भक्त भी अनुभव करते हैं कि हमारे प्यार वा भावना का फल भगवान् ने पूरा किया, यह अनुभव प्रैक्टिकल रूप में होता रहता है।

ऐसे विशेष आत्माओं को अपने अव्यक्त स्थिति में, अपनी रूहानी लाइट और माइट की स्थिति द्वारा लाइट-हाउस और माइट-हाउस बन एक स्थान पर रहते हुए भी चारों ओर अलौकिक रूहानी सर्विस की भावना और वृत्ति द्वारा सर्विस करनी चाहिए। इसको कहते हैं बेहद की सर्विस। ऐसे अनुभव वा महसूस होना चाहिए कि मेरी प्रजा वा भक्त आज विशेष रूप से यादगार के दिन मुझ विशेष आत्मा को याद कर रहे हैं। अल्पकाल के ऋद्धि-सिद्धि वाले एक स्थान पर रहते हुए अपने भक्तों को अपने रूप का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करा सकते हैं, तो क्या विशेष आत्माएं अपने लाइट और माइट द्वारा भक्तों को वा प्रजा को अपनी सेवा द्वारा अनुभव नहीं करा सकते हैं? तो जब ऐसे विशेष यादगार के दिन आते हैं तो विशेष आत्माओं को ऐसी विशेष सर्विस पर अनुभव करना चाहिए। ऐसी सर्विस की? अच्छा, यह रही सर्विस। और दीपावली के दिन अपने प्रति विशेष अटेन्शन रहा? आज के दिन अपने आत्मा के संस्कारों में सदा के लिए परिवर्तन लाने का विशेष अटेन्शन दिया? जब यादगार रूप में आज का दिन पुराने खाते खत्म करने की रीति रूप में चलता आ रहा है, वह अवश्य प्रैक्टिकल रूप में आप आत्माओं ने किया है तब तो यादगार चलता आया है। तो आज के दिन अपने पुराने संस्कारों का ज़रा भी रहा हुआ खाता खत्म किया? खत्म करने के पहले अपने खाते को चेक किया जाता है, रिजल्ट निकाली जाती है। ऐसे आप सभी ने अपना पोतामेल चेक किया? क्या चेक करना है? आज के दिन तक जो भी पुरूषार्थ चला उसकी रिजल्ट अब तक किन बातों में और किस परसेन्टेज में सफलतामूर्त बने? पहले अपने मन्सा संकल्पों को, पोतामेल को चेक करो कि - ‘‘अब तक सम्पूर्ण श्रेष्ठ संकल्पों के पुरूषार्थ में कहाँ तक सफलता आई है? व्यर्थ संकल्पों वा विकल्पों के ऊपर कहाँ तक विजयी बने हैं और वाणी द्वारा कहाँ तक आत्माओं को बाप का परिचय दे सकते, कितनी आत्माओं को बाप के स्नेही वा सहयोगी बना सकते हैं? वाचा में कहाँ तक रूहानियत वा अलौकिकता वा आकर्षण आई है? ऐसे ही कर्मणा द्वारा सदा न्यारे और प्यारे, अलौकिक, असाधारण कर्म कहाँ तक कर सकते हैं? कर्मों में कहाँ तक कर्मयोगी का, योगयुक्त, युक्तियुक्त, स्नेहयुक्त रूप लाया है? अपने संस्कारों और स्वरूपों में अर्थात् सूरत में कहाँ तक बाप समान आकर्षण रूप, स्नेही रूप, सहयोगी रूप बने?’’ ऐसे अपना पोतामेल चेक करने से अब तक जो कमी वा कमज़ोरी रह गई है उसको समाप्त कर नया खाता शुरू कर सकेंगे। ऐसा अपना पोतामेल चेक करो।

इसको कहते हैं दीपावली मनाना अथवा अपने को सम्पूर्ण बनाने का दृढ़ संकल्प करना ही मनाना है। तो ऐसे दीपावली मनाई है कि सिर्फ मिलन मनाया? मिलन मनाने का यादगार माला के रूप में है लेकिन दृढ़ संकल्पों का यादगार दीपक के ज्योति रूप का है। तो दोनों रूप से मनाया? नये वस्त्र पहने? आत्मा को नया चोला किस आधार से मिलता है? संस्कारों के आधार से मिलता है ना। आत्मा के जैसे संस्कार होते हैं उस प्रमाण ही चोला तैयार होता है। तो नया चोला वा नये वस्त्र कौनसे पहनेंगे? आत्मा में नये युग के संस्कार वा नये युग के स्थापक बाप जैसे सम्पूर्ण संस्कारों को धारण करना-यही नये वस्त्र पहनना है। शरीर में नये वस्त्र भले कितने भी पहनो लेकिन आज की पुरानी दुनिया की नई वस्तु भी नई दुनिया के आगे पुरानी है क्योंकि जड़जड़ीभूत अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। इसलिए नये वस्त्र पहनो तो भी नये नहीं कहेंगे। सतोप्रधान दुनिया में ही सब-कुछ नया है। तमोप्रधान दुनिया की चीज़ें सभी पुरानी हैं। असार हैं। तो उनको नया कहेंगे क्या? तो नया वस्त्र अर्थात् अपनी आत्मा के नये संस्कार, श्रेष्ठ संस्कार धारण करना है। और क्या करेंगे? जब नये संस्कार धारण कर लिए हैं तो पोतामेल रखने से पोताई हो जायेगी ना। तो पोतामेल रखना - यही पोताई अर्थात् सफाई, स्वच्छता है। जैसे पोताई करते हैं तो जो भी गन्दगी व कीटाणु होते हैं वह स्वत: ही खत्म हो जाते हैं। तो जब ऐसा पोतामेल चेक करेंगे तो जो भी कमजोरी होगी वह स्वत: ही खत्म हो जायेगी। एक-दो में अपने मधुर बोल से लेन-देन क्या करेंगे? जैसे दीपावली पर एक-दो से खर्चा लेते हैं ना। आप लोग एक-दो में कौनसी खर्ची देंगे। आपके पास कौनसी ची है जो एक दो को खर्चा देंगे? (स्नेह की खर्चा) स्नेही तो एक-दो के सदा के लिए हो, कि आज के दिन खास स्नेही बनेंगे? स्नेही तो हो और इसी स्नेह की निशानी, एक-दो के समीपता की निशानी दीपमाला कहा जाता है। विशेष दिनों पर विशेष खर्चा कौनसी देनी है? जो अब तक अपने पुरूषार्थ द्वारा सहज सफलता प्राप्त हुई हो वा अनुभव हुआ हो, ऐसा अपने अनुभव का ज्ञान-रत्न, जिस द्वारा प्रैक्टिकल अनुभवी बन अनुभवी बना सकते हो, ऐसा रत्न एक-दो को खर्चा के रूप में विशेष रूप से देना चाहिए। समझा? बाप के खज़ाने को अपने अनुभव द्वारा जो अपना बनाया ऐसा अपना बनाया हुआ ज्ञान-रत्न एक दो को देना चाहिए, जिससे वह आत्मा भी इससे सह अनुभवी बन जाये। यह है खर्चा। तो एक- दो को ऐसी खर्चा देनी चाहिए जो सदा के लिए याद रूप बन जाए। जब ऐसा रत्न किसको देंगे तो सदा के लिए उस आत्मा को बाप के साथ आपके दिये हुए रत्न की याद ज़रूर रहेगी। तो किसको सदा के लिए सम्पन्न करने वाली खर्चा देनी चाहिए। ऐसी दीपावली मनाओ और ऐसे ही श्रेष्ठ आत्मा बन अन्य आत्माओं की श्रेष्ठ सेवा करो।

आज के दिन सर्व आत्माएं धन के प्यासी हैं। तो ऐसी प्यासी आत्माओं को ऐसा रूहानी धन दो जिससे कभी भी आत्मा को धन मांगने की आवश्यकता ही न रहे। धन कौन मांगते हैं? भिखारी। आज के दिन आत्मा भिखारी बनती है। रॉयल भिखारी कहो। कितने भी करोड़पति हों, लेकिन आज के दिन भिखारी बनते हैं। ऐसी भिखारी आत्मा को भिखारीपन से छुड़ाओ, यह है बेहद की सेवा। दाता के बच्चे हो ना। तो दाता के बच्चे, वरदाता के बच्चे, अपने वरदान की शक्ति से, ज्ञान-दान की शक्ति से भिखारियों को मालामाल बनाओ। आज के दिन इन भिखारी आत्माओं के ऊपर विधाता और वरदाता के बच्चों को तरस पड़ना चाहिए। जिन आत्माओं को ऐसा तरस पड़ता है, उन्हों को ही माया और विश्व की ऐसी आत्माएं नमस्कार करती हैं। इसलिए अब तक भी दीपक जगाते हैं। जब लाइट जलाते हैं तो नमस्कार ज़रूर करते हैं। तो ऐसी ज्योति जगी हुई आत्माओं की यादगार अभी तक भी कायम है। बुझे हुए दीपक को नमस्कार नहीं करते। तो सदा जागती ज्योति बनो। ऐसी आत्माओं को बापदादा भी नमस्ते करते हैं। अच्छा।



09-10-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


पावरफुल वृत्ति से सर्विस में वृद्धि

ज यह संगठन किस लक्ष्य से इकठ्ठा हुआ है? संगठन में प्राप्ति तो होती है, लेकिन आपस में मिलने का भी लक्ष्य क्या रखा है? कुछ नया प्लैन सोचा है? क्योंकि यह संगठन है सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का वा समीप आत्माओं का। सभी की नज़र समीप और श्रेष्ठ आत्माओं के ऊपर है। तो श्रेष्ठ आत्माओं को ‘‘सर्विस में वा अपने संगठन में श्रेष्ठता और नवीनता कैसे लायें’’-यह सोचना है। नवीनता किसको कहा जाता है? नवीनता अर्थात् ऐसा कोई सहज लेकिन पावरफुल प्लैन बनाओ जो वह पावरफुल प्लैन पावर द्वारा आत्माओं को आकर्षित करे। ऐसा प्लैन बनाओ जो दूर से ही आत्माओं को आकर्षण हो। जैसे परवाने होते हैं, तो शमा की आकर्षण परवानों को, चाहे कितना भी दूर हो, खैंच लेती है। वा कोई तेज अग्नि जगी हुई होती है तो दूर से ही उसका सेक अनुभव होता है। समझते हैं - यहाँ कोई अग्नि है। वा कोई बिल्कुल ठण्डी ची कहीं भी होती है तो दूर से ही उसकी शीतलता का अनुभव और आकर्षण होता है। इसी रीति से ऐसा अपना रूप और सर्विस की रूप-रेखा बनाओ जो दूर से ही आकर्षण होती आत्मायें समीप आती जाएं। जैसे वायुमण्डल में कोई ची फैल जाती है तो सारे वायुमण्डल में काफी दूर तक उनका प्रभाव छाया होता है। इसी रीति से इतने सब सहज योगी वा श्रेष्ठ आत्मायें अपने वायुमण्डल को ऐसा रूहानी बनायें जो आसपास का वायुमण्डल रूहानियत के कारण आत्माओं को अपनी तरफ खैंच ले।

वायुमण्डल को बनाने के लिए मुख्य कौनसी युक्ति है? वायुमण्डल कैसे बन सकता है? वृत्ति से वायुमण्डल बनाना है। जैसे देखो, कोई के अन्दर किसके प्रति वृत्ति में कोई बात आ जाती है तो आप लोग क्या कहते हो? वायुमण्डल में मेरे प्रति यह बात है। वायुमण्डल का फाउन्डेशन वृत्ति है। तो वृत्तियों को जब तक पावरफुल नहीं बनाया है तब तक वायुमण्डल में रूहानियत वा सर्विस में वृद्धि जो चाहते हैं वह नहीं हो सकती। अगर बीज पावरफुल होता तो वृक्ष भी पावरफुल होता है। तो बीज है वृत्ति, उससे ही अपनी वा सर्विस की वृद्धि कर सकते हो। वृद्धि का आधार वृत्ति है। और वृत्ति में क्या भरना है, जिससे वृत्ति पावरफुल हो जाए? तो वह एक ही बात है कि वृत्ति में हर आत्मा के प्रति रहम वा कल्याण की वृत्ति रहे। तो ऑटोमेटिकली आत्माओं के प्रति यह वृत्ति होने के कारण उन आत्माओं को आप लोगों के रहम वा कल्याण का वायब्रेशन पहुँचेगा। जैसे रेड़िओ का आवाज़ कैसे आता है? वायुमण्डल में जो वायब्रेशन होते हैं उनको कैच करते हैं। वायरलेस द्वारा वायब्रेशन कैच करते हैं। तो यह सब साइंस द्वारा एक-दो के आवाज़ को कैच कर सकते हैं वा सुन सकते हैं। तो वह है वायरलेस द्वारा और यह है रूहानी पावर द्वारा। यह भी अगर वृत्ति पावरफुल है, तो वृत्ति द्वारा वायब्रेशन जो होगा वह उस आत्मा को ऐसे ही स्पष्ट अनुभव होगा जैसे रेडियो का स्वीच खोलने से स्पष्ट आवाज़ सुनने में आता है। आजकल टेलिवीन द्वारा भी एक्ट, आवाज़ को स्पष्ट जान सकते हैं। ऐसे ही अब वृत्तियों द्वारा बहुत सर्विस कर सकते हो। जैसे टेलिवीन वा रेडियो की स्टेशन एक ही स्थान पर होते हुए भी कहाँ-कहाँ वह पहुंचता है! ऐसे ही वृत्ति में इतनी पावर होनी चाहिए जो कहाँ भी बैठें, लेकिन जितनी पावरफुल स्टेज उतना दूर तक पहुँच जाता है। इसी रीति से जिस आत्मा की वृत्ति जितनी पावरफुल है उतना एक स्थान पर चारों ओर वृत्ति द्वारा आत्माओं को आकर्षण करेंगे। अभी यह सर्विस चाहिए। वाणी और वृत्ति - दोनों साथ-साथ चाहिए। होता क्या है-जब वृत्ति द्वारा सर्विस करते हो तो वाणी नहीं चलती और जब वाणी द्वारा सर्विस करते हो तो वृत्ति की पावर कम होती। लेकिन होना क्या चाहिए? जैसे आजकल सिनेमा अथवा टी0वी0 में एक्ट भी, आवाज़ भी - दोनों साथ-साथ चलता है। दोनों कार्य साथ-साथ चलते हैं ना। इसमें भी प्रैक्टिस हो तो वृत्ति और वाणी - दोनों की इकट्ठी-इकट्ठी सर्विस हो। ज्यादा वाणी में आने के कारण जो वृत्ति द्वारा वायुमण्डल को पावरफुल बना सकते हैं वह नहीं कर पाते। सिर्फ वाणी होने के कारण उसकी पावर इतने समय तक चलती है जितना समय सम्मुख वा समीप हैं। वृत्ति वाणी से सूक्ष्म है ना। तो सूक्ष्म का प्रभाव जास्ती पड़ेगा। मोटे रूप का प्रभाव कम होगा। तो सूक्ष्म पावर भी हो और स्थूल भी हो। दोनों पावर्स से वृत्ति हो, ऐसा कुछ अनोखापन दिखाई दे।

अभी महान् अन्तर दिखाई नहीं देता है। एक ही स्टेज पर दोनों प्रकार की आत्मायें इकट्ठी विरामान हों तो जनता को महान् अन्तर दिखाई दे। साक्षी होकर देखो तो महान् अन्तर दिखाई देता है? जैसे कोई बहुत पावरफुल ची होती है तो दूसरी चीज़ों का इफेक्ट उसके ऊपर नहीं होता है। यहाँ भी अगर स्थूल स्टेज पर अपनी सूक्ष्म पावरफुल स्टेज है; तो दूसरे भले कितना भी पावरफुल बोलें लेकिन वायुमण्डल में उनका प्रभाव नहीं पड़ सकता। जैसे यादगार रूप में दिखाते हैं - स्थूल युद्ध का रूप, एक तरफ तीर आया और रास्ते में उसको कट दिया। तीर निकला और वहाँ ही खत्म कर दिया। यह वृत्ति से ही वायुमण्डल को पावरफुल बना सकते हो। अभी कहाँ-कहाँ अपनी स्टेज की कमी होने के कारण अपनी स्टेज पर अन्य आत्माओं का प्रभाव वायुमण्डल पर पड़ता है, क्यों? कारण क्या है? वृत्ति द्वारा आत्माओं को रूहानियत का घेराव नहीं डाल सकते हो। जैसे कोई भी आत्मा को पकड़ना होता है तो घेराव ऐसा डालते हैं जो निकल ही नहीं सकें। वृत्ति द्वारा रूहानियत का घेराव वायुमण्डल में डालने से कोई भी आत्मा रूहानी आकर्षण से बाहर नहीं निकल सकती। अभी ऐसी सर्विस चाहिए। क्योंकि वह करामात देखने को हिरे हुए हैं ना, तो सब सोचते हैं - कोई करामात दिखावे। लेकिन यहाँ करामात के बजाय कमालियत दिखानी है। उन्हों की है ऋद्धि सिद्धि द्वारा करामात और आप लोगों का है वृत्ति द्वारा कमालियत दिखाना। अभी कोई कमालियत दिखाते हैं, उन्हों को विशेषता का अनुभव ज़रूर होना चाहिए। होता क्या है कि आत्माओं का अल्पकाल का प्रभाव कहाँ-कहाँ पड़ जाता है-उन्हों को नोट करते हो यह कैसे करते हैं, यह कैसे बोलते हैं। इसी कारण अपनी अथॉरिटी का जो फोर्स होना चाहिए वह दूसरे तरफ दृष्टि जाने से कमज़ोर हो जाता है। क्योंकि यह भी बड़ा सूक्ष्म नियम है। जबकि वायदा है कि वृत्ति में, सुनने में, देखने में, सोचने में एक के सिवाय और कोई नहीं। आत्माओं के प्रभाव को बुद्धि में रखते हुए वा आत्माओं के प्रभाव को देखते हुए करना - यह भी सूक्ष्म में लिंक टूट जाती है। जैसे शुरू-शुरू में मस्त फकीर रमतायोगी थे। अपनी नॉलेज की पावर को प्रत्यक्ष करने में समर्थ थे। वह समर्थी होने के कारण फर्स्ट रचना भी समर्थ हुई। और अबकी रचना फर्स्ट रचना के माफिक समर्थ है? चाहे कितने भी उमंग आते हैं लेकिन पहली रचना जो समर्थ थी अब वह नहीं है। नॉलेज के अनुभवी तो आप दिन-प्रतिदिन बन रहे हो लेकिन पावरफुल स्टेज जो पहले थी वह है? वह निर्भयता है? वह अथॉरिटी के बोल पहले जैसे अभी हैं?

जैसे कभी-कभी कोई ची को ज्यादा रिफाइन करते हैं - तो रिफाइन भले हो जाती है, लेकिन पावरलेस हो जाती है। आजकल की चीज़ों में रिफाइन होते भी फोर्स है? तो यह भी नॉलेज का रूप रिफाइन हो गया है, टैक्ट रिफाइन हो गई है लेकिन फोर्स कम है। पहली बातें अगर स्मृति में लाओ तो वह खुमारी कितनी थी! नॉलेज की आकर्षण नहीं थी लेकिन मस्तक और नयनों में आकर्षण थी। नयनों से सब अनुभव करते थे कि यह कोई अल्लाह लोग आए हैं। अभी मिक्स होने के कारण मिक्सड दिखाई देते हैं। बहुत मिक्स वाली ची जो होती है वह अल्पकाल के लिए रसना बहुत देती है लेकिन उसमें ताकत नहीं होती। जैसे चटनी कितनी चटपटी होती है लेकिन उसमें पावर है? सिर्फ अल्पकाल के लिए जीभ का रस आकर्षण करता है। तो यह भी बहुत मिक्स करने से अल्पकाल के लिए सुनने में बहुत अच्छा लगता है, परन्तु पावर नहीं। जैसे ताकत की ची एनर्जा को बढ़ाती है और एनर्जा सदाकाल का साथी बन जाती है। इसी रीति से जो अथॉरिटी और ओरीजनल्टी के बोल हैं वह सदाकाल के लिए शक्ति रूप बना देता है और जो रमणीक रूप वा मिक्स रूप करते हैं तो वह सिर्फ अल्पकाल के लिए रूचि में लाते हैं। आत्माओं को रूचि में लाना है वा शक्ति भरनी है? क्या करना है? शक्ति उन्हों को सदाकाल के लिए आकर्षित करती रहेगी। और रूचि अभी है, फिर दूसरी कोई बात सुनी तो उस तरफ रूचि होने के कारण वहाँ ही खत्म हो जायेगी। तो ऐसा अभी रमतायोगी बनो। ऐसे अनुभव होने चाहिए - जैसे कोई बड़े-बड़े महात्माएं होते हैं बहुत समय गुफाओं में रहने के बाद सृष्टि पर आते हैं सेवा के लिए। ऐसे जब स्टेज पर आते हो तो यह अनुभव होना चाहिए कि यह आत्माएं बहुत समय के अन्तर्मुखता, रूहानियत की गुफा से निकल कर सेवा के लिए आई हैं। तपस्वी रूप दिखाई दे। बेहद के वैराग की रेखायें सूरत से दिखाई दें। कोई थाडा-सा वैरागी होता है तो उनकी झलक सिद्ध करती है ना कि यह वैरागी हैं। तो बेहद की वैराग वृत्ति दिखाई देनी चाहिए। स्टेज पर जब सर्विस पर आते हो तो आपकी सूरत ऐसे अनुभव होनी चाहिए जैसे प्रोजेक्टर की मशीन होती है - उसमें स्लाइड्स चेन्ज होती जाती हैं। कितना अटेन्शन से देखते हैं! वह सीन स्पष्ट दिखाई देती है। वैसे जब सर्विस की स्टेज पर आते हो - एक-एक की सूरत प्रोजेक्टर-शो की मशीन माफिक दिखाई दे। रहमदिल का गुण सूरत से दिखाई देना चाहिए। बेहद के वैरागी हो तो बेहद वैराग्य की रेखायें सूरत से दिखाई देनी चाहिए। आलमाइटी अथॉरिटी द्वारा निमित्त बने हुए हो तो अथॉरिटी का रूप दिखाई देना चाहिए। जैसे उसमें भी स्लाइड्स भर लेते हैं, फिर एक-एक स्पष्ट दिखाई देता है। इसी रीति से आत्मा में जो सर्व गुणों के वा सर्व शक्तियों के संस्कार भरे हुए हैं वह एक-एक संस्कार सूरत से स्पष्ट दिखाई दें। इसको कहा जाता है सर्विस। जैसे साकार रूप का इग्जैम्पल देखा, सूरत से हर गुण का प्रत्यक्ष साक्षात्कार किया। फालो फादर। कैसी भी अथॉरिटी वाला आये वा कैसे भी मूड वाला आये लेकिन गुणों की पर्सनैलिटी, रूहानियत की पर्सनैलिटी, सर्व शक्तियों की पर्सनैलिटी के सामने क्या करेंगे? झुक जायेंगे। अपना प्रभाव नहीं डाल सकेंगे।

यह वृत्ति द्वारा वायुमण्डल पावरफुल बनाने के कारण उन्हों की वृत्ति वा उन्हों के अन्दर के वायब्रेशन बदल जायेंगे। सबके मुख से वृत्ति की पावर का वर्णन होता था ना। तो वृत्ति और वाणी की अथॉरिटी का प्रत्यक्ष सबूत देखा, तो फालो करना चाहिए ना। अब स्नेह रूप में तो पास हो गये। अब किसमें पास होना है? क्योंकि अन्तिम स्वरूप है ही शक्ति का। कोई भी आत्मा आप लोगों के पास आती है तो पहले जगत्-माता का स्नेह रूप धारण करते हो, लेकिन जब वह चलना शुरू करता है और माया का सामना करना पड़ता है, तो सामना करने में सहयोगी बनने के लिए शक्ति रूप भी धारण करना पड़े।

जहाँ देखेंगे निमित्त बनी हुई आत्माएं सिर्फ स्नेह मूर्त हैं, तो उन्हों की रचना में भी समस्याओं को सामना करने की शक्ति कम होगी। यज्ञ वा दैवी परिवार के स्नेही, सहयोगी होंगे लेकिन सामना नहीं कर सकेंगे। कारण? रचता का प्रभाव रचना पर पड़ता है। अभी जो भी आत्माएं आगे बढ़ते-बढ़ते अब जहाँ तक पहुँच गई हैं, उससे आगे बढ़ाने के लिए विशेष आत्माओं को विशेष क्या करना है? जिन आत्माओं के निमित्त बने हो उन आत्माओं में भी शक्ति रूप से शक्ति भरने की आवश्यकता है। वर्तमान समय के मैजारिटी आत्माओं की रिजल्ट क्या दिखाई देती है? पीछे हटेंगे भी नहीं और आगे बढ़ेंगे भी नहीं। अटके हुए भी नहीं हैं, लटके हुए भी नहीं हैं लेकिन शक्ति नहीं है जो जम्प दे सकें। एक्स्ट्रा फोर्स चाहिए। जैसे राकेट में फोर्स भरकर इतना ऊपर भेजते हैं ना, तो अभी आत्माओं को परवरिश चाहिए। अपनी यथा शक्ति से जम्प नहीं दे सकते। विशेष आत्माओं को विशेष शक्ति भरकर के हाई जम्प दिलाना है। चाहते हैं, पुरूषार्थ भी करते हैं लेकिन अभी फोर्स चाहिए। वह फोर्स कैसे देंगे? जब पहले अपने में इतना फोर्स हो जो अपने को तो आगे बढ़ा सको लेकिन शक्ति का दान भी कर सको। जैसे ज्ञान का दान करते हो वैसे अभी चाहिए शक्ति का बल। अभी वरदातापन का कर्त्तव्य करना है। ज्ञानदाता बन बहुत किया, अब शक्तियों का वरदाता बनना है। इसलिए शक्तियों के आगे सदैव वर मांगते हैं। सिद्धि कैसे मिलेगी शक्तियों द्वारा? अभी कौनसी सर्विस करनी है? वरदानी बनकर सर्वशक्तियों का अपनी निमित्त बनी हुई रचना को वरदान देना है। विशेष आत्मायें जो निमित्त बनी हुई हों, वो ही ज्यादा यह सर्विस कर सकती हैं। यह ग्रुप विशेष आत्माओं का है ना। जैसे सुनाया - माइक बनना बहुत सहज है लेकिन आप लोगों की सर्विस, माइक तो बहुत बन जायेंगे लेकिन माइट भरने वाले आप हो। अभी यह आवश्यकता है। अभी अपने ही पुरूषार्थ में रहने का समय नहीं है, अब अपने पुरूषार्थ द्वारा प्रत्यक्ष होकर प्रभाव निकालने का समय है और वह प्रभाव ही आत्माओं को ऑटोमेटिकली आकर्षण करेगा।

पाण्डवों का गायन क्या है? गुप्त रहने के बाद प्रत्यक्ष हुए ना। अभी प्रत्यक्ष होना चाहिए। जैसे स्थूल स्टेज पर प्रत्यक्ष होते जा रहे हो, अब अपनी सूक्ष्म स्टेज को प्रत्यक्ष करो। गर्जना की रचना करो। अगर कमजोर रचना करेंगे तो कमजोर रचना को सम्भालने में भी समय लगेगा। पावरफुल रचना होने से सहयोगी बनेंगे। अभी ललकार करनी चाहिए। देवियों के पूजन में ललकार का ही पूजन होता है। यह पावर की निशानी यादगार रूप में है - जोर-जोर से चिल्लाते हैं। अपने अन्दर के फोर्स को इस रीति प्रसिद्ध करते हैं। देवियों का पूजन चुपचाप नहीं करेंगे, जोर-शोर से करते हैं। तो अब शक्तियों को ललकार और गर्जना करनी चाहिए-अपने सिद्धान्तों को सिद्ध करने में, तब सिद्धि को प्राप्त करेंगे। जब रिवाजी आत्मायें भी निर्भय होकर अपने सिद्धान्त को सिद्ध करने का कितना पुरूषार्थ करती हैं, तो आप लोगों को सिद्धान्तों को सिद्ध करने का कितना जोश होना चाहिए! आप वायुमण्डल के होश में आ जाते हो। आदि का पार्ट फिर से अन्त में गुह्य और गोपनीय रूप से रिपीट करना है। रिवाजी करामात दिखाने वालों की देखो - खुमारी कितनी होती है! अन्दर में समझते हैं कि यह अल्पकाल का है, फिर भी खुमारी कितनी रखते हैं! लेकिन जो सत्य खुमारी है वह कितनी कमालियत दिखा सकती है? उसके आगे उन्हों की खुमारी क्या है? अभी लास्ट कोर्स कौनसा रहा है? फोर्स रूप बनना है। अभी जगत्-माता बहुत बने, अब शक्तिरूप से स्टेज पर आना है। शक्तियां आसुरी संस्कारों को एक धक से खत्म करती हैं और स्नेही मां जो होती है वह धीरे-धीरे प्यार से पालना करती है। पहले वह आवश्यकता थी लेकिन अभी आवश्यकता है शक्ति रूप बन आसुरी संस्कारों को एक धक से खत्म करना। जैसे वह बलि चढ़ाते है तो पहले श्रृंगार करते हैं, उसमें समय लगता है। लेकिन जब बलि चढ़ती है तो एक सेकेण्ड में। श्रृंगार बहुत किया, अब एक धक से वायुमण्डल से भी आसुरी संस्कारों को खत्म करने का फोर्स होना चाहिए। रहमदिल के साथ-साथ शक्तिरूप का रूहाब भी होना चाहिए। सिर्फ रहमदिल भी नहीं। जितना ही अति रूहाब उतना ही अति रहम। शब्दों में भी रहमदिल का भाव हो, ऐसी सर्विस का अभी समय है। यह जो गायन है नज़र से निहाल करने का, वह किसका गायन है? शक्तियों के चित्रों में सदैव नयनों की शोभा आप देखेंगे। और कोई इतनी आकर्षण वाली ची नहीं होती है। नयनों द्वारा ही सब भाव प्रसिद्ध करते हैं। तो यह नज़र से निहाल करना - यह सर्विस भी शक्तियों की गाई हुई है। नयनों की आकर्षण हो, नयनों में रूहानियत हो, नयनों में रूहाब हो, नयनों में रहमदिली हो - ऐसा प्लैन बनाना है।

यहाँ मधुबन से जो विशेष आत्माएं निकलें तो आपकी रचना को अनुभव हो कि यह शक्ति-सेना अपने में शक्ति को प्रत्यक्ष करने का प्रभाव भरकर आई है। प्रभावशाली चलन, प्रभावशाली वृत्ति अनुभव करें। आपके ऊपर सारे दैवी परिवार की प्रोग्रेस का आधार है। सब समझते हैं - इस प्रोग्राम के बाद हम आत्माओं में वा सर्विस में प्रोग्रास होगी। अगर ऐसे ही साधारण प्रोग्राम समाप्त किया तो सभी सोचेंगे। सबकी नरों में है कि इन विशेष आत्माओं का संगठन क्या जलवा दिखाता है! तो इतना ही अटेन्शन देना पड़े।

एक तो सर्विस में नवीनता, दूसरा निमित्त बनी हुई आत्माओं में नवीनता दिखाई दे। क्योंकि सर्विस का सारा आधार विशेष आत्माओं पर है। अभी तो सब समझते हैं। जैसे साइंस वाले पावरफुल इन्वेन्शन निकाल रहे हैं, वैसे यह शक्ति ग्रुप भी पावरफुल साइलेन्स का श्रेष्ठ शस्त्र तैयार कर दिखायेंगे। आपस में सिर्फ मिलना नहीं है लेकिन मिलकर के कोई पावरफुल शस्त्र तैयार करना है। जो अति पावरफुल ची होती है वह अन्डरग्राउण्ड होती है। तो यह संगठन भी अन्डरग्राउण्ड है। अन्तर्मुखता में अन्दर जाकर सोचने का है। कोई कमालियत दिखानी है। कामन संगठन तो सब करते रहते हैं, आप लोगों ने भी कामन बातें ही कीं तो कमालियत कौन करेगा? ऐसे शस्त्र बनाना। इसलिए ही शक्तियों को शस्त्र ज़रूर दिखाते हैं। अब संहारी बनो। अपने संस्कारों के भी संहारी और आत्माओं के तमोगुणी संस्कारों के भी संहारी। शंकर का पार्ट प्रैक्टिकल तो बजना है लेकिन शक्तियाँ ही संहार का पार्ट बजाती हैं, शंकर को नहीं बजाना है। शक्तियों को संहारी रूप धारण करना है, जिससे संहार करना है। कर्त्तव्य किया है, अब यह रूप दिखाओ। इस रूप को धारण करने से रिजल्ट क्या होगी? आपकी जो रचना है वह अनुभव करेगी कि दिन- प्रतिदिन एक्स्ट्रा लिफ्ट मिलती जा रही है। यथा शक्ति अपना फोर्स तो लगाया, अपनी मेहनत से अभी नहीं चल सकते, अभी उन्हों को चाहिए वरदान की लिफ्ट। आज दिन तक जो बातें उन्हों को मुश्किल पड़ती हैं, तो आप लोगों की इस पावरफुल सर्विस से उन्हों के मुख से मुश्किल शब्द खत्म हो जाए, सब बात में सहज का अनुभव करें। यह जब अपनी रचना में देखेंगे तब समझना संहारी रूप बने हैं। स्पष्ट रिजल्ट दिखाई दे। फिर तूफान, तूफान नहीं तोफा लगेगा। ऐसा रूप चेन्ज हो जायेगा तब समझो कि अपनी ओरीजनल स्टेज का साक्षात्कार करा रहे हैं।

सभी धारणाओं की बातों में से मुख्य धारणा की कौनसी बात सभी को देते हो? अव्यक्त बनने के लिए भी प्वाइंट कौनसी देते हो? बाप को याद करने अथवा रूह-रूहान करने का भी उमंग कैसे उठेगा? उसके लिए मुख्य बात है सच्चाई और सफाई। आपस में एक-दो के भाव को सफाई से जानना आवश्यक है। विशेष आत्माओं के लिए सच्चाई-सफाई शब्द का अर्थ भी गुह्य है। एक-दो के प्रति दिल में बिल्कुल सफाई हो। जैसे कोई बिल्कुल साफ ची होती है तो उनमें सब-कुछ स्पष्ट दिखाई देता है ना। वैसे ही एक-दो की भावना, भाव-स्वभाव स्पष्ट दिखाई दें। जहाँ सच्चाई-सफाई है वहाँ समीपता होती है। जैसे बापदादा के समीप हैं। राज्य सिर्फ एक से तो नहीं चलता है ना, आपस में भी सम्बन्ध में आना है। वहाँ भी आपस में समीप सम्बन्ध में कैसे आयेंगे? जब यहाँ दिल समीप होगी। यहाँ के दिल की समीपता वहाँ समीपता लायेगी। एक-दो के स्वभाव, मन के भाव - दोनों में समीपता होनी चाहिए। स्वभाव की भिन्नता के कारण ही समीपता नहीं होती है। कोई रमणीक होगा तो समीपता होगी, कोई आफीशल होगा तो समीपता नहीं। लेकिन यहाँ तो सर्व गुण सम्पन्न, 16 कला सम्पूर्ण बनना है ना। यह कला भी कम क्यों? समझो - आपके ओरीजनल संस्कार आफीशल हैं; लेकिन समय, संगठन रमणीकता लाता है। तो यह भी कला होनी चाहिए जो स्वभाव को मिला सकें। ऐसे ही 16 कला सम्पन्न बन सकेंगे। तो मन के भाव को भी मिलाना है और स्वभाव को भी मिलाना है, तब समीप आयेंगे। अभी भिन्नता महसूस होती है। एक-एक के ओरिजनल स्वभाव अभी फर्क में दिखाई देते हैं, यह सम्पूर्णता की निशानी नहीं है। सब कलायें भरनी चाहिए। फलाने का स्वभाव सीरियस है, यह भी समझो कला कम है। फलाने से यह बात नहीं कर सकते - यह भी कला कम। तो 16 कला सम्पूर्ण अर्थात् जो सम्पूर्ण स्टेज है वह सर्व कलायें स्वभाव में होनी चाहिए। उसको कहते हैं 16 कला सम्पूर्ण। इस संगठन में स्वभाव को और भाव को समीप लाना है। कभी-कभी कहते हैं ना - यह मेरा स्वभाव है, मेरा कोई यह भाव नहीं है। तो यह मन की भावनायें भी एक-दो में मिलनी चाहिए। जब सम्पूर्णता एक ही है, तो भाव और स्वभाव भी मिलने चाहिए। जैसे गायन है - यह एक ही सांचे में से निकले हुए एक ही भाषा बोलते हैं, एक ही ढंग है-यह प्रसिद्ध है ना। वैसे अब यह प्रसिद्ध दिखाई देना चाहिए।

सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के मन की भावना और स्वभाव एक ही सांचे से निकले हुए हों, ऐसा दिखाई दे। सच्चाई-सफाई का कोई साधारण अर्थ नहीं उठाना। जितनी सफाई होगी उतना हल्कापन भी होगा। जितना हल्के होंगे उतना एक-दो के समीप आयेंगे और दूसरों को भी हल्का बना सकेंगे। हल्कापन होने के कारण चेहरे से लाइट दिखाई देगी। तो अभी यह चेन्ज लाओ। पहले-पहले आपकी सूरत से साक्षात्कार अधिक होते थे, लाइट दिखाई देती थी। शुरू के सर्विस की स्मृति लाओ, बहुत साक्षात्कार होते थे, देवी का रूप अनुभव करते थे। अभी स्पीकर लगते हो, नॉलेजफुल लगते हो लेकिन पावरफुल नहीं लगते हो। यह इस संगठन में भरना है। बिल्कुल ऐसे दिखाई दे जैसे अभी सब अनुभव करते हैं कि यह दो निमित्त हैं। (दादी-दीदी) परन्तु यह दो नहीं, एक दिखाई देती हैं। सब प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। एक- दो के समीप आते-आते समान होते जाते हैं। तो जैसे यह दो एक दिखाई देती हैं वैसे यह सब एक दिखाई दें, तब कहेंगे अब माला तैयार है। स्नेह का धागा तैयार हो गया तो मणके सहज पिरो जायेंगे। स्नेह के धागे से मोती अति समीप होते हैं, तब ही माला बनती है। समीपता ही माला बनाती है। तो स्नेह का धागा तैयार हुआ लेकिन अभी मणकों को एक-दो के समीप मन की भावना और स्वभाव मिलाना है, तब माला प्रत्यक्ष दिखाई देगी। यह ज़रूर करना है। ऐसी कमाल कर दिखाना।

इतना दूर-दूर, कहाँ-कहाँ से सर्विस छोड़कर आये हो ना। तो उसका सबूत ज़रूर दिखाना। दूर से चलकर आये हो, दूरी को मिटाने के लिए। समझा? सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के साथ बापदादा भी है ना। जिन समीप आत्माओं के साथ बापदादा है, ऐसे ग्रुप का सब इन्तजार कर रहे हैं कि कब इस संगठन का जलवा देखेंगे। विशेष आत्माओं का साधारण कर्त्तव्य भी विशेष माना जाता है। रिवाजी रीति आपस में बैठेंगे तो भी लोग उस विशेषता से देखेंगे। सभी चाहते हैं - अभी कोई ऐसा फोर्स मिले जो नवीनता का अनुभव हो।

सबको फोर्स देने के निमित्त आत्मायें हो। उन्हों को अव्यक्ति स्थिति में ऐसा चढ़ा दो जो इस धरती की छोटी-छोटी बातों की आकर्षण उन्हों को खींच न सकें। माया-प्रूफ बनाओ। माया-प्रूफ बनाने का प्रूफ दिखाना है। आप हो प्रूफ! विजयी रत्न क्या होते हैं, उनका प्रूफ हो। तो जो प्रूफ हैं उन सबको माया- प्रूफ बनना है। तो इस संगठन का छाप क्या रहेगा? 16 कला सम्पूर्ण बनना है। एक भी कला कम न हो। जो ओल्ड गोल्ड हैं, वह मोल्ड सहज हो सकते हैं। कला न होने के कारण ही मोल्ड नहीं हो सकते। सम्पूर्ण, फुल परसेन्टे का गोल्ड हो। इसलिए सर्व विशेषतायें भरकर जाना। अभी भी देखो, हरेक की अपनी-अपनी विशेषता होती है। जब कोई विशेष कार्य होता है तो उसके लिए विशेष आत्मा की याद आती है। लेकिन अब कोई भी कार्य हो तो सर्व विशेष आत्माओं की स्मृति आये। तो एक-दो में सहयोग देना और लेना। जब बीज-रूप ग्रुप ऐसे बनेंगे तो बीज से वृक्ष तो ऑटोमेटिकली निकलेंगे ही। यह संगठन बीज-रूप है ना। सृष्टि के बीज-रूप नहीं हो लेकिन अपनी रचना के तो बीज-रूप हो ना। तो अगर बीज-रूप संगठन 16 कला सम्पूर्ण बन जायेगा तो वृक्ष भी ऐसे निकलेंगे। अभी समय नहीं है जो छोटी-सी कमी के कारण कम रह जाएं। अगर कमी रह गई तो नम्बर में भी कम रह जायेंगे। छोटी-छोटी कमियों के कारण इस संगठन को नम्बर में कम नहीं आना है।

तो सच्ची दीपावली मनाना। पुराने संस्कार, पुराने संकल्प, पुरानी भाव- नायें, पुराने स्वभाव सब खत्म कर सम्पूर्णता का, सर्व विशेषताओं का खाता शुरू कर जाना। दीपावली जब पहले विशेष आत्मायें मनायेंगी तब फिर और मनायेंगे। यह सारी भट्ठी ही टीचर्स की है, हरेक के फीचर से यह फ्यूचर दिखाई दे तो क्या हो जायेगा? फ्यूचर प्रेजेन्ट हो जायेगा। अच्छा।



18-10-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


दीपमाला - चेतन्य दीपकों की माला की यादगार

ज बापदादा क्या देख रहे हैं? आप दीपकों की माला देखने के लिए आए हैं। जो दीपमाला का यादगार दिवस लोग मनाते हैं लेकिन बापदादा चैतन्य दीपकों की माला को देख रहे हैं। आप सभी भी जब दीपमाला के दिन जगे हुए दीपकों को देखते हो तो देखते हुए यह खुशी होती है कि हमारी ही यादगार मना रहे हैं? जैसे जगा हुआ दीपक प्यारा लगता है, वैसे अपनी यादगार को देख स्मृति आने से आप सभी भी विश्व के बाप और सारे विश्व के आत्माओं को प्यारे लगते हो। तो आज यादगार रूप को प्रत्यक्ष रूप में देखने आए हैं। माला में एक दाना नहीं होता है, अनेकों की माला बनती है। अगर एक दीपक अलग जगा हुआ हो तो उसको दीपकों की माला नहीं कहेंगे। तो ऐसे ही अनेक दीपक जगे हुए, माला के रूप में दिखाई देते हैं। तो हरेक अपने को इस दीपमाला के बीच पिरोया हुआ, जगा हुआ दीपक समझते हो? वा आप लोग भी अनेक जगे हुए दीपकों की माला को देखते हुए हर्षित होते हो? आज दीपमाला के दिन आप सभी ने दीपावली मनाई? आज विशेष रूप से दीपावली मनाई? यूं तो सदैव जगे हुए दीपक हो, लेकिन जब विशेष यादगार का दिवस होता है तो विशेष आत्माओं को क्या करना चाहिए? विशेष आत्माएं जो विशेष रूप से निमित्त बनते हैं, उन्हों को विशेष सर्विस क्या करनी है? विशेष आत्माओं को तो अन्य से विशेष कार्य करना है ना। क्योंकि जो अन्य आत्माएं भी कर सकती हैं और कर रही हैं वह किया तो बाकी फर्क क्या हुआ? विशेष आत्माओं को विशेष कार्य करना है। बापदादा विशेष दिनों पर विशेष रूप से बच्चों की और भक्तों की तीनों ही रूप से सेवा करते हैं। विशेष आत्माओं को खास अपने यादगार के दिन साक्षात्कारमूर्त बन, साक्षात् बापदादा समान आत्माओं के प्रति अपनी कल्याण की भावना से, अपने रूहानी स्नेह के स्वरूप से, अपने सूक्ष्म शक्तियों द्वारा आत्माओं में बल भरना चाहिए। जैसे अव्यक्त रूप में बापदादा चारों ओर बच्चों की सेवा करते हैं। वह समझते हैं कि बापदादा ने मेरे से मुलाकात की, मेरी याद का रेस्पान्स दिया वा मेरी याद का प्रत्यक्ष फल मैंने अनुभव किया अथवा भक्त भी अनुभव करते हैं कि हमारे प्यार वा भावना का फल भगवान् ने पूरा किया, यह अनुभव प्रैक्टिकल रूप में होता रहता है।

ऐसे विशेष आत्माओं को अपने अव्यक्त स्थिति में, अपनी रूहानी लाइट और माइट की स्थिति द्वारा लाइट-हाउस और माइट-हाउस बन एक स्थान पर रहते हुए भी चारों ओर अलौकिक रूहानी सर्विस की भावना और वृत्ति द्वारा सर्विस करनी चाहिए। इसको कहते हैं बेहद की सर्विस। ऐसे अनुभव वा महसूस होना चाहिए कि मेरी प्रजा वा भक्त आज विशेष रूप से यादगार के दिन मुझ विशेष आत्मा को याद कर रहे हैं। अल्पकाल के ऋद्धि-सिद्धि वाले एक स्थान पर रहते हुए अपने भक्तों को अपने रूप का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करा सकते हैं, तो क्या विशेष आत्माएं अपने लाइट और माइट द्वारा भक्तों को वा प्रजा को अपनी सेवा द्वारा अनुभव नहीं करा सकते हैं? तो जब ऐसे विशेष यादगार के दिन आते हैं तो विशेष आत्माओं को ऐसी विशेष सर्विस पर अनुभव करना चाहिए। ऐसी सर्विस की? अच्छा, यह रही सर्विस। और दीपावली के दिन अपने प्रति विशेष अटेन्शन रहा? आज के दिन अपने आत्मा के संस्कारों में सदा के लिए परिवर्तन लाने का विशेष अटेन्शन दिया? जब यादगार रूप में आज का दिन पुराने खाते खत्म करने की रीति रूप में चलता आ रहा है, वह अवश्य प्रैक्टिकल रूप में आप आत्माओं ने किया है तब तो यादगार चलता आया है। तो आज के दिन अपने पुराने संस्कारों का ज़रा भी रहा हुआ खाता खत्म किया? खत्म करने के पहले अपने खाते को चेक किया जाता है, रिजल्ट निकाली जाती है। ऐसे आप सभी ने अपना पोतामेल चेक किया? क्या चेक करना है? आज के दिन तक जो भी पुरूषार्थ चला उसकी रिजल्ट अब तक किन बातों में और किस परसेन्टेज में सफलतामूर्त बने? पहले अपने मन्सा संकल्पों को, पोतामेल को चेक करो कि - ‘‘अब तक सम्पूर्ण श्रेष्ठ संकल्पों के पुरूषार्थ में कहाँ तक सफलता आई है? व्यर्थ संकल्पों वा विकल्पों के ऊपर कहाँ तक विजयी बने हैं और वाणी द्वारा कहाँ तक आत्माओं को बाप का परिचय दे सकते, कितनी आत्माओं को बाप के स्नेही वा सहयोगी बना सकते हैं? वाचा में कहाँ तक रूहानियत वा अलौकिकता वा आकर्षण आई है? ऐसे ही कर्मणा द्वारा सदा न्यारे और प्यारे, अलौकिक, असाधारण कर्म कहाँ तक कर सकते हैं? कर्मों में कहाँ तक कर्मयोगी का, योगयुक्त, युक्तियुक्त, स्नेहयुक्त रूप लाया है? अपने संस्कारों और स्वरूपों में अर्थात् सूरत में कहाँ तक बाप समान आकर्षण रूप, स्नेही रूप, सहयोगी रूप बने?’’ ऐसे अपना पोतामेल चेक करने से अब तक जो कमी वा कमज़ोरी रह गई है उसको समाप्त कर नया खाता शुरू कर सकेंगे। ऐसा अपना पोतामेल चेक करो।

इसको कहते हैं दीपावली मनाना अथवा अपने को सम्पूर्ण बनाने का दृढ़ संकल्प करना ही मनाना है। तो ऐसे दीपावली मनाई है कि सिर्फ मिलन मनाया? मिलन मनाने का यादगार माला के रूप में है लेकिन दृढ़ संकल्पों का यादगार दीपक के ज्योति रूप का है। तो दोनों रूप से मनाया? नये वस्त्र पहने? आत्मा को नया चोला किस आधार से मिलता है? संस्कारों के आधार से मिलता है ना। आत्मा के जैसे संस्कार होते हैं उस प्रमाण ही चोला तैयार होता है। तो नया चोला वा नये वस्त्र कौनसे पहनेंगे? आत्मा में नये युग के संस्कार वा नये युग के स्थापक बाप जैसे सम्पूर्ण संस्कारों को धारण करना-यही नये वस्त्र पहनना है। शरीर में नये वस्त्र भले कितने भी पहनो लेकिन आज की पुरानी दुनिया की नई वस्तु भी नई दुनिया के आगे पुरानी है क्योंकि जड़जड़ीभूत अवस्था को प्राप्त हो चुके हैं। इसलिए नये वस्त्र पहनो तो भी नये नहीं कहेंगे। सतोप्रधान दुनिया में ही सब-कुछ नया है। तमोप्रधान दुनिया की चीज़ें सभी पुरानी हैं। असार हैं। तो उनको नया कहेंगे क्या? तो नया वस्त्र अर्थात् अपनी आत्मा के नये संस्कार, श्रेष्ठ संस्कार धारण करना है। और क्या करेंगे? जब नये संस्कार धारण कर लिए हैं तो पोतामेल रखने से पोताई हो जायेगी ना। तो पोतामेल रखना - यही पोताई अर्थात् सफाई, स्वच्छता है। जैसे पोताई करते हैं तो जो भी गन्दगी व कीटाणु होते हैं वह स्वत: ही खत्म हो जाते हैं। तो जब ऐसा पोतामेल चेक करेंगे तो जो भी कमजोरी होगी वह स्वत: ही खत्म हो जायेगी। एक-दो में अपने मधुर बोल से लेन-देन क्या करेंगे? जैसे दीपावली पर एक-दो से खर्चा लेते हैं ना। आप लोग एक-दो में कौनसी खर्ची देंगे। आपके पास कौनसी ची है जो एक दो को खर्चा देंगे? (स्नेह की खर्चा) स्नेही तो एक-दो के सदा के लिए हो, कि आज के दिन खास स्नेही बनेंगे? स्नेही तो हो और इसी स्नेह की निशानी, एक-दो के समीपता की निशानी दीपमाला कहा जाता है। विशेष दिनों पर विशेष खर्चा कौनसी देनी है? जो अब तक अपने पुरूषार्थ द्वारा सहज सफलता प्राप्त हुई हो वा अनुभव हुआ हो, ऐसा अपने अनुभव का ज्ञान-रत्न, जिस द्वारा प्रैक्टिकल अनुभवी बन अनुभवी बना सकते हो, ऐसा रत्न एक-दो को खर्चा के रूप में विशेष रूप से देना चाहिए। समझा? बाप के खज़ाने को अपने अनुभव द्वारा जो अपना बनाया ऐसा अपना बनाया हुआ ज्ञान-रत्न एक दो को देना चाहिए, जिससे वह आत्मा भी इससे सह अनुभवी बन जाये। यह है खर्चा। तो एक- दो को ऐसी खर्चा देनी चाहिए जो सदा के लिए याद रूप बन जाए। जब ऐसा रत्न किसको देंगे तो सदा के लिए उस आत्मा को बाप के साथ आपके दिये हुए रत्न की याद ज़रूर रहेगी। तो किसको सदा के लिए सम्पन्न करने वाली खर्चा देनी चाहिए। ऐसी दीपावली मनाओ और ऐसे ही श्रेष्ठ आत्मा बन अन्य आत्माओं की श्रेष्ठ सेवा करो।

आज के दिन सर्व आत्माएं धन के प्यासी हैं। तो ऐसी प्यासी आत्माओं को ऐसा रूहानी धन दो जिससे कभी भी आत्मा को धन मांगने की आवश्यकता ही न रहे। धन कौन मांगते हैं? भिखारी। आज के दिन आत्मा भिखारी बनती है। रॉयल भिखारी कहो। कितने भी करोड़पति हों, लेकिन आज के दिन भिखारी बनते हैं। ऐसी भिखारी आत्मा को भिखारीपन से छुड़ाओ, यह है बेहद की सेवा। दाता के बच्चे हो ना। तो दाता के बच्चे, वरदाता के बच्चे, अपने वरदान की शक्ति से, ज्ञान-दान की शक्ति से भिखारियों को मालामाल बनाओ। आज के दिन इन भिखारी आत्माओं के ऊपर विधाता और वरदाता के बच्चों को तरस पड़ना चाहिए। जिन आत्माओं को ऐसा तरस पड़ता है, उन्हों को ही माया और विश्व की ऐसी आत्माएं नमस्कार करती हैं। इसलिए अब तक भी दीपक जगाते हैं। जब लाइट जलाते हैं तो नमस्कार ज़रूर करते हैं। तो ऐसी ज्योति जगी हुई आत्माओं की यादगार अभी तक भी कायम है। बुझे हुए दीपक को नमस्कार नहीं करते। तो सदा जागती ज्योति बनो। ऐसी आत्माओं को बापदादा भी नमस्ते करते हैं। अच्छा।



24-10-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


नज़र से निहाल करने की विधि

पने स्वरूप, स्वदेश, स्वधर्म, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ स्थिति में रहते हुए चलते हो? क्योंकि वर्तमान समय इसी स्व-स्थिति की स्थिति से ही सर्व परिस्थितियों को पार कर सकेंगे अर्थात् ‘पास विद् ऑनर’ बन सकेंगे।

सिर्फ एक ‘स्व’ शब्द भी याद रहे तो स्व-स्वरूप, स्वधर्म, स्वदेश आटोमे- टिकली याद रहेगा। तो क्या एक स्व शब्द याद नहीं रह सकता? सभी आत्माओं को आवश्यकता है स्व-स्वरूप और स्वधर्म में स्थित कराते स्वदेशी बनाने की। तो जिस कर्त्तव्य के लिए निमित्त हो अथवा जिस कर्त्तव्य के लिए अवतरित हुए हो, तो क्या कोई कर्त्तव्य को वा अपने आपको जानते हुए, मानते हुए भूल सकते हैं क्या? आज कोई लौकिक कर्त्तव्य करते हुए अपने कर्त्तव्य को भूलते हैं? डॉ. अपने डॉक्टरी के कर्त्तव्य को चलते-फिरते, खाते- पीते, अनेक कार्य करते हुए यह भूल जाता है क्या कि मेरा कर्त्तव्य डॉक्टरी का है? तुम ब्राह्मण, जिन्हों का जन्म और कर्म यही है कि सर्व आत्माओं को स्व-स्वरूप, स्वधर्म की स्थिति में स्थित कराना, तो क्या ब्राह्मणों को वा ब्रह्माकुमार-कुमारियों को यह अपना कर्त्तव्य भूल सकता है? दूसरी बात - जब कोई वस्तु सदाकाल साथ, सम्मुख रहती है वह कभी भूल सकती है? अति समीप ते समीप और सदा साथ रहने वाली ची कौनसी है? आत्मा के सदा समीप और सदा साथ रहने वाली वस्तु कौनसी है? शरीर वा देह, यह सदैव साथ होने कारण निरन्तर याद रहती है ना। भुलाते हुए भी भूलती नहीं है। ऐसे ही अब आप श्रेष्ठ आत्माओं के सदा समीप और सदा साथ रहने वाला कौन है? बापदादा सदा साथ, सदा सम्मुख है। जबकि देह जो साथ रहती है वह कभी भूलती नहीं, तो बाप इतना समीप होते हुए भी क्यों भूलता है? वर्तमान समय कम्पलेन क्या करते हो? बाप की याद भूल जाती है। बहुत जन्मों से साथ रही हुई वस्तु देह वा देह के सम्बन्धी नहीं भूलते तो जिससे सर्व खज़ानों की प्र्प्ति होती है और सदा पास है वह क्यों भूलना चाहिए? चढ़ाने वाला याद आना चाहिए वा गिराने वाला? अगर ठोकर लगाने वाला भूल से भी याद आयेगा तो उनको हटा देंगे ना। तो चढ़ाने वाला क्यों भूलता है? जब ब्राह्मण अपने स्वस्थिति में, स्व-स्मृति में वा श्रेष्ठ स्मृति में स्थित रहें तो अन्य आत्माओं को स्थित करा सकेंगे।

आप सभी इस समय बाप के साथ-साथ इसी कर्त्तव्य के लिए निमित्त हो। हर आत्मा की बहुत समय से इच्छा वा आशा कौनसी रहती है? निर्वाण वा मुक्तिधाम में जाने की इच्छा अनेक आत्माओं को बहुत समय से रहती आई है। तो उन सभी आत्माओं की बहुत समय की रही हुई आश पूरी कराने के कर्त्तव्य के निमित्त आप ब्राह्मण हो। जब तक ऐसी स्थिति नहीं बनायेंगे तो यह कर्त्तव्य कैसे करेंगे? अगर अपनी ही आश मुक्ति वा जीवनमुक्ति को प्राप्त करने की अभी नहीं पूर्ण करेंगे तो दूसरों की कैसे करेंगे? मुक्ति वा जीवनमुक्ति का वास्तविक अनुभव क्या होता है, वह क्या मुक्ति वा जीवनमुक्ति धाम में अनुभव करेंगे? मुक्ति में तो अनुभव करने से परे होंगे और जीवनमुक्ति में जीवन-बन्ध क्या होता है वह अविद्या होने कारण जीवनमुक्ति में हैं - यह भी क्या अनुभव करेंगे। लेकिन जो बाप द्वारा मुक्ति-जीवनमुक्ति का वर्सा प्राप्त होता है, उसका अनुभव तो अभी ही कर सकते हैं ना। निर्वाण अवस्था वा मुक्ति की स्थिति अभी जान सकते हो। तो मुक्ति-जीवनमुक्ति का अनुभव अभी करना है। जब स्वयं मुक्ति-जीवनमुक्ति के अनुभवी होंगे तब ही अन्य आत्माओं को मुक्ति अर्थात् अपने घर और अपने राज्य अर्थात् स्वर्ग के गेट में जाने की पास दे सकेंगे। जब तक आप ब्राह्मण किसी भी आत्मा को गेट- पास नहीं देंगे तो वह पास ही नहीं कर सकेंगे। तो मुक्ति जीवनमुक्ति धाम के गेट-पास लेने वालों की बड़ी लम्बी क्यू आप लोगों के पास लगने वाली है। अगर गेट-पास देने में देरी लगाई तो समय टू लेट हो जायेगा। इसलिए अपने को सदा स्व-स्वरूप, स्वधर्म, स्वदेशी समझने से, सदा इस स्थिति में स्थित रहने से ही एक सेकेण्ड में किसी आत्मा को नज़र से निहाल कर सकेंगे। अपने कल्याण की वृत्ति से उन्हें स्मृति दिलाते हर आत्मा को गेट-पास दे सकेंगे। बेचारी तड़फती हुई आत्माएं आप श्रेष्ठ आत्माओं से सिर्फ एक सेकेण्ड में अपने जन्म-जन्म की आशा पूरी करने का दान मांगने आयेंगी।

इतनी सर्व शक्तियां जमा की हैं जो मास्टर सर्वशक्तिवान् बन एक सेकेण्ड की विधि से उन आत्माओं को सिद्धि प्राप्त कराओ? जब साइंस रचना की शक्ति दिन- प्रतिदिन काल अर्थात् समय के ऊपर विजय प्राप्त करती जा रही है, हर कार्य में बहुत थोड़े समय की विधि से कार्य की सिद्धि को प्राप्त करते जा रहे हैं। स्विच ऑन किया और कार्य सिद्ध हुआ। यह विधि है ना। तो क्या मास्टर रचयिता अपने साइलेन्स की शक्ति से वा सर्व शक्तियों से एक सेकेण्ड की विधि से कोई को सिद्धि नहीं दे सकते हैं? तो अब इस श्रेष्ठ सेवा की आवश्यकता है। ऐसे सेवाधारी वा खुदाई-खिदमदगार बनो।

नयनों की ईश्वरीय खुमारी खिदमत करे। क्योंकि आत्माएं अनेक जन्मों से अनेक प्रकार के साधन करते-करते थकी हुई हैं। अभी सिद्धि चाहते हैं, न कि साधना। तो सिद्धि अर्थात् सद्गति। तो ऐसे तड़पती हुई, थकी हुई आत्माओं वा प्यासी आत्माओं की प्यास आप श्रेष्ठ आत्माओं के सिवाय कौन बुझायेंगे वा सिद्धि को प्राप्त करायेंगे? आपके सिवाय और कोई आत्मा कर सकेगी? अनेक बार किया हुआ अपना श्रेष्ठ कर्त्तव्य याद आता है? जितना- जितना श्रेष्ठ स्थिति बनाते जायेंगे उतना आत्माओं की पुकार के आलाप, आप आत्माओं को शक्तियों को आह्वान करने के आलाप, तड़पती हुई आत्माओं के अनाथ मुखड़े, थकी हुई आत्माओं की सूरतें दिखाई देंगी। जैसे आदि स्थापना के कार्य में साकार बाप के अनुभव का इग्ज़ाम्पल देखा। आत्माओं की सेवा के सिवाय रूक सके? सिवाय सेवा के कुछ और दिखाई देता था? ऐसे ही आत्माओं को सिद्धि प्राप्त कराने की लगन में मगन बनो। फिर यह छोटी- छोटी बातें, जिसमें अपना समय और जमा की हुई शक्तियां गंवाते हो, वह बच जायेंगी वा जमा होती जायेंगी। जब एक सेकेण्ड में अपनी पावरफुल वृत्ति से बेहद के आत्माओं की सर्विस कर सकते हो, तो अपने हद की छोटी-छोटी बातों में समय क्यों गंवाते हो? बेहद में रहो तो हद की बातें स्वत: ही खत्म हो जायेंगी। आप लोग हद की बातों में समय व्यर्थ कर और फिर बेहद में टिकने चाहते हो। लेकिन अब वह समय गया। अभी तो बेहद की सर्विस में सदा तत्पर रहो तो हद की बातें आपेही छूट जायेंगी। जैसे अन्य आत्माओं को कहते हो कि अब भक्ति में समय बरबाद करना गोया गुड्डियों के खेल में समय बरबाद करना है, क्योंकि अब भक्तिकाल समाप्त हो रहा र्है। ऐसे कहते हो ना। तो फिर आप इन हद की बातों रूपी गुड्डीयों के खेल में समय क्यों बरबाद करते हो? यह भी तो गुड्डियों का ही खेल है ना, जिससे कोई प्राप्ति नहीं, वेस्ट ऑफ टाइम और वेस्ट ऑफ इनर्जा है। तो बाप भी कहते हैं - अभी इस गुड्डियों के खेल का समय समाप्त हो रहा है। जैसे आजकल के समय कोई नया फैशन निकले और फैशन के समय कोई पुराना फैशन ही करता चले तो उसको क्या कहेंगे? तो इन छोटी-छोटी बातों में समय गंवाना - यह पहले का पुराना फैशन है। अभी वह नहीं करना है। जैसे आप लोग भी कोई-कोई को कहते हो ना कि अभी के समय प्रमाण हैंडालिंग दो, पुरानी हैंडालिंग नहीं दो। फलाने की पुरानी हैंडालिंग है - उनकी नई हैंडालिंग है, ऐसे कहते हो ना। तो अपने आपको हैंडालिंग देना - यह भी पुरानी हैंडालिंग नहीं होनी चाहिए। जैसे दूसरों को पुरानी हैंडालिंग देना जंचता नहीं है तो अपने को फिर अब तक पुरानी हैंडालिंग से क्यों चलाते हो? अभी परिवर्तन-दिवस मनाओ। प्लैनिंग बुद्धि वाली पार्टी आई है ना। तो प्लैनिंग पार्टी को नया प्लैन दे रहे हैं। जैसे वह गवर्मेन्ट भी कभी कौनसा, कभी कौनसा विशेष दिन मनाती है ना। तो आप यहाँ आये हो तो अपने आप को पुरानी रीति रस्म के चलते हुए पुरूषार्थ का परिवर्तन-दिवस मनाओ। लेकिन हद का नहीं, बेहद का। मधुबन यज्ञ भूमि में आये हो ना। यज्ञ में अग्नि होती है। अग्नि में कोई भी ची पड़ने से बहुत जल्दी मोल्ड हो जाती है। जैसा स्वरूप बनाना चाहो वैसा बना सकते हो। तो यहाँ यज्ञ में आये हो तो अपने आप को जैसे बनाने चाहो बना सकते हो। सहज ही बना सकते हो। अच्छा।



26-10-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


कर्म का आधार वृत्ति

ज प्रवृत्ति में रहने वाले पाण्डव सेना की भट्ठी का आरम्भ है। अपने को पाण्डव समझते हो? निरन्तर अपना पाण्डव-स्वरूप स्मृति में रहता है? वा कभी अपने को पाण्डव समझते हो और कभी प्रवृत्ति वाले समझते हो? निरन्तर अपने को पाण्डव अर्थात् पण्डे समझने से सदा यात्रा और मांज़ि के सिवाय और कोई स्मृति रह सकती है? अगर कोई स्मृति रहती है तो उसका कारण कि अपना पाण्डव-स्वरूप भूल जाते हो। स्मृति अर्थात् वृत्ति बदलने से कर्म भी बदल जाता है। कर्म का आधार वृत्ति है। प्रवृत्ति वृत्ति से ही पवित्र, अपवित्र बनती है। इसलिए पाण्डव सेना वृत्ति को सदा एक बाप के साथ लगाते रहें तो वृत्ति से अपनी उन्नति में वृद्धि कर सकते हो। वृद्धि का कारण वृत्ति है। वृत्ति में क्या करना है? अगर वृत्ति ऊंची है तो प्रवृत्ति ऊंची रहेगी। तो वृत्ति में क्या रखें जिससे सहज वृद्धि हो जाए? वृत्ति में सदा यही याद रहे कि ‘एक बाप दूसरा न कोई।’ एक ही बाप से सर्व सम्बन्ध, सर्व प्राप्ति होती हैं। यह सदा वृत्ति में रहने से दृष्टि में आत्मिक-स्वरूप अर्थात् भाई-भाई की दृष्टि सदा रहेगी। जब एक बाप से सर्व सम्बन्ध की प्राप्ति की विस्मृति होती है तब ही वृत्ति चंचल होती है। जब एक बाप के सिवाय दूसरा कोई सम्बन्ध ही नहीं, तो वृत्ति चंचल क्यों होगी। ऊंची वृत्ति होने से चंचल वृत्ति हो नहीं सकती। वृत्ति को श्रेष्ठ बना दो तो प्रवृत्ति आटोमेटिकली श्रेष्ठ होगी। इसलिए अपनी वृत्ति को श्रेष्ठ बनाओ तो यही प्रवृत्ति प्रगति का कारण बन जायेगी और प्रगति से गति-सद्गति को सहज ही पा सकेंगे, फिर यह प्रवृत्ति गिरने का कारण नहीं होगी, तो प्रवृत्ति मार्ग में रहने वालों को प्रगति के लिए वृत्ति को ठीक करना है। फिर यह वृत्ति के चंचलता की कम्पलेन कम्पलीट हो जायेगी। स्मृति वा वृत्ति में सदा अपना निर्वाण धाम और निर्वाण स्थिति रहनी चाहिए और चरित्र में निर्मान।

तो निर्माण, निर्मान और निर्वाण -- यह तीनों ही स्मृति रहने से चरित्र, कर्त्तव्य और स्थिति - तीनों ही इस स्मृति से समर्थवान हो जाती हैं अर्थात् स्मृति में समर्थी आ जाती है। जहाँ समर्थी है वहाँ तीनों में विस्मृति नहीं आ सकती। तो विस्मृति को मिटाने के लिए यह समर्थ स्मृति रखो। यह तो बहुत सहज है ना। अगर चरित्र में निर्माणता है तो कर्त्तव्य भी विश्व-निर्माण का आटोमेटिकली चलेगा। निर्माणता अर्थात् निरहंकारी। तो निर्माणता में देह का अहंकार स्वत: ही खत्म हो जाता है। ऐसे निर्माण स्थिति में रहने वाला सदा निर्वाण स्थिति में स्थित होते हुए भी वाणी में आयेंगे तो वाणी भी यथार्थ और पावरफुल अर्थात् शक्तिशाली होगी। कोई भी ची जितनी अधिक शक्ति- शाली होती है उतनी क्वान्टिटी कम होती है लेकिन क्वालिटीज अधिक होती हैं। ऐसे ही जब निर्माण स्थिति में स्थित होकर वाणी में आयेंगे तो वाणी में भी शब्द कम लेकिन शक्तिशाली ज्यादा होंगे। अभी विस्तार ज्यादा करना पड़ता है, लेकिन जैसे-जैसे शक्तिशाली स्थिति बनाते जायेंगे तो आपके एक शब्द में हजारों शब्दों का रहस्य समया हुआ होगा, जिससे व्यर्थ वाणी आटोमेटि- कली समाप्त हो जायेगी। जैसे सारे ज्ञान का सार छोटे से बैज में समाया हुआ है, पूरा ही सागर इस छोटे से चित्र में सार रूप में समाया हुआ है, ऐसे आप लोगों का एक शब्द भी सर्व ज्ञान के राजों से भरा हुआ निकलेगा। तो ऐसी वाणी में भी शक्ति भरनी है। जब वृत्ति और वाणी पावरफुल हो जायेंगे तो कर्म भी सदा यथार्थ और शक्तिशाली होंगे।

यहाँ बैटरी को चार्ज करने आये हो, तो बैटरी को चार्ज करने के लिए सदा अपने को विश्व-निर्माण करने के इन्चार्ज समझो। अगर सदा अपने को इस सृष्टि के कर्त्तव्य के इन्चार्ज समझेंगे तो सदा बैटरी चार्ज रहेगी। इस चार्ज से अपने को विस्मृत करते हो तभी बैटरी डिस्चार्ज़ होती है। इसलिए सदा अपने इस कर्त्तव्य में अपने को इन्चार्ज समझो और फिर अपनी बैटरी चार्ज का बार-बार चार्ट चेक करो, तो कभी भी संकल्प वा कर्म में वा आत्मा की स्थिति में डिस्चार्ज नहीं होंगे। फिर यह कम्पलेन कम्पलीट हो जायेगी। यह भी कम्पलेन है ना। सभी में ज्यादा यह कम्पलेन है। इसका कारण यह है - अपने को सदा ऐसे श्रेष्ठ कर्म के इन्चार्ज नहीं समझते हो। ‘‘जो कर्म मैं करूंगा मुझे देख अन्य करेंगे’’, - यह तो है ही लेकिन यह सलोगन और गुह्य रूप से कैसे धारण करना है, वह समझते हो? इस पाण्डवों की भट्ठी के लिए यह गुह्य सलोगन आवश्यक है। वह कौनसा? जैसे यह सलोगन सुनाया कि ‘‘जो कर्म मैं करूंगा मुझे देख और करेंगे।’’ वैसे ही जो मुझ निमित्त बने हुए आत्मा की वृत्ति होगी वैसा वायुमण्डल बनेगा। जैसी मेरी वृत्ति वैसा वायुमण्डल। तो वायुमण्डल को परिवर्तन में लाने वाली वृत्ति है। कर्म से वृत्ति सूक्ष्म है। अभी सिर्फ कर्म के ऊपर ध्यान नहीं देना है लेकिन वृत्ति से वायुमण्डल को बनाने का इन्चार्ज भी मैं हूँ। वायुमण्डल को सतोप्रधान कौन बनायेगा? आप सभी निमित्त हो ना। अगर यह सलोगन सदा स्मृति में रहे तो बताओ फिर वृत्ति चंचल होगी? बच्चा भी चंचलता कब करता है? जब फ्री होगा। तो वृत्ति भी चंचल तब होती है जब वृत्ति में इतने बड़े कार्य की स्मृति कम है। अगर कोई अति चंचल बच्चा बिज़ी होते भी चंचलता नहीं छोड़ता है तो उसका और क्या साधन होता है? यही कम्पलेन अभी तक भी है कि वृत्ति को याद में वा ज्ञान में बिज़ी रखने की कोशिश भी करते हैं, फिर भी चंचल हो जाती है। तो ऐसे को क्या करना है? उसके लिए जैसे चंचल बच्चे को किसी न किसी प्रकार से कोई न कोई बन्धन में बाँधने का प्रयत्न किया जाता है - चाहे स्थूल बन्धन, चाहे वाणी द्वारा कोई न कोई प्राप्ति का आधार देकर उनको अपने स्नेह में बांधा जाता है। ऐसे बुद्धि को वा संकल्प को भी कोई न कोई बन्धनों में बाँधना पड़ेगा। वह बन्धन कौनसा? जहाँ भी बुद्धि जाती है उसको पहले चेक करो। चेक करने के बाद जहाँ संकल्प वा वृत्ति जाती है उसी लौकिक वा देहधारी वस्तु को परिवर्तन करते हुए, इन देहधारी वा लौकिक वस्तु की तुलना में अलौकिक, अविनाशी वस्तु स्मृति में लाओ। जैसे कोई देहधारी में वृत्ति चंचल होती है, जिस सम्बन्ध में चंचल होती है वही सम्बन्ध का प्रैक्टिकल अनुभव अविनाशी बाप द्वारा करो। मानो प्रवृत्ति के सम्बन्ध में वृत्ति चंचल होती है, इसी सम्बन्ध का अलौकिक अनुभव सर्व सम्बन्ध निभाने वाले बाप से प्राप्त करो, तो जब प्राप्ति की पूर्ति हो जायेगी तो फिर चंचलता की निवृत्ति हो जायेगी। समझा? अगर सर्व सम्बन्ध और सर्व प्राप्ति एक बाप द्वारा हो जाएं तो अन्य तरफ बुद्धि चंचल होगी? तो सर्व सम्बन्धों से एक ही बड़े ते बड़ा बन्धन यही है कि अपनी चंचल वृत्ति को सर्व सम्बन्धों के बन्धन में एक बाप के साथ बांधो, तो सर्व चंचलता सहज ही समाप्त हो जायेंगी। और कोई सम्बन्ध वा प्राप्ति के साधन दिखाई नहीं देंगे तो वृत्ति जायेगी कहाँ? अपने आप को ऐसे बांधो जैसे दृष्टान्त प्रसिद्ध है कि सीता को लकीर के अन्दर बैठने का फरमान था। ऐसे अपने को हर कदम उठाते हुए, हर संकल्प करते हुए बाप के फरमान की लकीर के अन्दर समझो। अगर संकल्प में भी रमॉं के लकीर से निकलते हो तब व्यर्थ बातें वार करती हैं। तो सदैव रमॉं की लकीर के अन्दर रहो तो सदा सेफ रहेंगे। कोई भी प्रकार के रावण के संस्कार वार नहीं करेंगे और न ही समय-प्रति-समय अपना समय इन्हीं बातों में मिटाने के लिए व्यर्थ गंवायेंगे। न वार होगा, न बार-बार व्यर्थ समय जायेगा। इसलिए अब रमॉं को सदा याद रखो। ऐसे फरमांबरदार बनने के लिए ही भट्ठी में आये हो ना। तो ऐसा ही अभ्यास करके जाना जो एक संकल्प भी रमॉं के बिना न हो। ऐसे फरमांबरदारी का तिलक सदा स्मृति में लगा रहे। यह तिलक लगाना, फिर देखेंगे -- फर्स्ट नम्बर कौन आता है, इस तिलक को धारण करने में फर्स्ट प्राइज लेने वाला कौन होता है? अच्छा।



31-11-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


अनुभव की विल-पावर द्वारा माया की पावर का सामना

रुहानी ड्रिल जानते हो? जैसे शारीरिक ड्रिल के अभ्यासी एक सेकण्ड में जहाँ और जैसे अपने शरीर को मोड़ने चाहें वहाँ मोड़ सकते हैं, ऐसे रूहानी ड्रिल करने के अभ्यासी एक सेकेण्ड में बुद्धि को जहाँ चाहो, जब चाहो उसी स्टेज पर, उसी परसेन्टेज से स्थित कर सकते हो? ऐसे एवररेडी रूहानी मिलिट्री बने हो? अभाr-अभी आर्डर हो - अपने सम्पूर्ण निराकारी, निरहंकारी, निर्विकारी स्टेज पर स्थित हो जाओ; तो क्या स्थित हो सकते हो? वा साकार शरीर, साकारी सृष्टि वा विकारी संकल्प न चाहते हुए भी अपने तरफ आकर्षित करेंगे? इस देह की आकर्षण से परे एक सेकेण्ड में हो सकते हो? हार और जीत का आधार एक सेकेण्ड होता है। तो एक सेकेण्ड की बाजी जीत सकते हो? ऐसे विजयी अपने आपको समझते हो? ऐसे सर्व शक्तियों के सम्पत्तिवान अपने को समझते हो वा अभी तक सम्पूर्ण सम्पत्तिवान बनना है? दाता के बच्चे सदा सर्व सम्पत्तिवान होते हैं, ऐसे अपने को समझते हो वा अभी तक 63 जन्मों के भक्तपन वा भिखारीपन के संस्कार कब इमर्ज होते हैं? बाप की मदद चाहिए, आशीर्वाद चाहिए, सहयोग चाहिए, शक्ति चाहिए - चाहिए-चाहिए तो नहीं है? चाहिए शब्द दाता, विधाता, वरदाता बच्चों के आगे शोभता है? अभी तो विधाता और वरदाता बनकर विश्व की हर आत्मा को कुछ-न-कुछ दान वा वरदान देना है, न कि यह चाहिए, यह चाहिए... का संकल्प अभी तक करना है। दाता के बच्चे सर्व शक्तियों से सम्पन्न होते हैं। यही सम्पन्न स्थिति सम्पूर्ण स्थिति को समीप लाती है। अपने को विश्व के अन्दर सर्व आत्माओं से न्यारे और बाप के प्यारे विशेष आत्माएं समझते हो? तो साधारण आत्माएं और विशेष आत्माओं में अन्तर क्या होता है, इस अन्तर को जानते हो? विशेष आत्माओं की विशेषता यही प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देनी चाहिए जो सदा अपने को सर्व शक्तियों से सम्पन्न अनुभव करें। जो गायन है ‘‘अप्राप्त नहीं कोई वस्तु’’... वह इस समय जब सर्व शक्तियों से अपने को सम्पन्न करेंगे तब ही भविष्य में भी सदा सर्व गुणों से भी सम्पन्न, सर्व पदार्थों से भी सम्पन्न और सम्पूर्ण स्टेज को पा सकेंगे। इसलिए अपने को ऐसे बनाने के लिए ही विशेष भट्ठी में आए हो। जो भी अपने में अप्राप्ति अनुभव करते थे, वह प्राप्ति के रूप में परिवर्तन हुए, कि अभी तक भी कोई अप्राप्ति अनुभव करते हो? यह प्राप्ति अविनाशी रहेगी ना। प्राप्ति अर्थात् प्राप्ति।

जब अनुभव-स्वरूप बन गये तो अनुभव की बातें अविनाशी होती हैं। सुनी हुई बातें, वायुमण्डल के प्रभाव के आधार पर प्राप्त हुई बातें वा कोई श्रेष्ठ आत्माओं के सुनने के आधार पर, उस प्रभाव के अन्दर प्राप्त हुई बातें अल्पकाल की हो सकती हैं, लेकिन अपने अनुभव की बातें सदाकाल की, अविनाशी होती हैं। तो सुनने वाले बने हो वा अनुभवीमूर्त बने हो? कि अभी फिर से सुनी हुई बातों को मनन करने के बाद अनुभवी बनेंगे? मिले हुए खजाने को अपने अनुभव में लाया है या वहाँ जाकर फिर लायेंगे? सभी से पावरफुल स्टेज है अपना अनुभव-क्योंकि अनुभवी आत्मा में विल-पावर होती है। अनुभव के विल-पावर से माया की कोई भी पावर का सामना कर सकेंगे। जिसमें विल- पावर होती है वह सहज ही सर्व बातों का, सर्व समस्याओं का सामना भी कर सकते हैं और सर्व आत्माओं को सदा सन्तुष्ट भी कर सकते हैं। तो सामना करने की शक्ति से सर्व को सन्तुष्ट करने की शक्ति अपने अनुभव के विल- पावर से सहज प्राप्त हो जाती है। तो दोनों शक्तियों को अपने अन्दर अनुभव कर रहे हो? अगर दोनों शक्तियां आ गइंर् तो फिर विजयी बनेंगे। ऐसे विजयी बने हो? विजयी अर्थात् स्वप्न में भी संकल्प रूप में हार न हो। जब स्वप्न में हार नहीं होगी तो प्रैक्टिकल जीवन में तो होगी नहीं ना। ऐसे हर संकल्प, हर बोल, हर कर्म विजयी हो अर्थात् हार का नाम-निशान नहीं। ऐसे सम्पूर्ण निशानी को एक सेकेण्ड में अपना निशाना बना सकते हो? जैसे जिस्मानी मिलिट्री वाले एक सेकेण्ड में अगर निशाना नहीं बना सकते तो हार खा लेते, निशाना ठीक होता है तो विजयी बन जाते हैं। ऐसे अपनी बुद्धि को इस निशाने पर एक सेकेण्ड में ठीक टिका सकते हो? ऐसे एवररेडी बने हो कि मेहनत करने बाद निशाने पर स्थित हो सकते हो? ऐसे प्रयत्न करते-करते विजय का सेकेण्ड तो बीत जायेगा, फिर विजय माला के मणके कैसे बन सकेंगे? इसलिए जैसे निरन्तर याद में रहना है वैसे निरन्तर विजयी बनो। ऐसी चेकिंग करो कि आज सारे दिन में संकल्प, वचन, कर्म, सम्बन्ध-सम्पर्क, स्नेह, सहयोग और सेवा में विजयी कहाँ तक बने? अगर बहुत समय से सदा के विजयी, हर कदम के विजयी, हर संकल्प के विजयी रहेंगे तब ही विजय माला में समीप के मणके बन सकेंगे। इतनी सर्विस के बाद भी 108 ही विजयी क्यों बने? कैसे बने? इस पुरूषार्थ से ऐसे श्रेष्ठ बने। तो बहुत समय से सदा के विजयी बनेंगे तभी बहुत समय से यादगार बना सकेंगे। इसलिए अब क्या करेंगे?

भट्ठी का परिवर्तन यही करना है जो बहुत समय से सदा के विजयी बन जायें। ऐसे अनुभव अनेक आत्मायें आप लोगों द्वारा करके जायें - यह मधुबन अव्यक्ति वतन से अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने वाले अव्यक्त फरिश्ते व्यक्त देश में विश्व-कल्याण के निमित्त आये हुए हैं। आपके प्रवृत्ति वाले आप आत्माओं में ऐसा परिवर्तन अनुभव करें, इसको कहा जाता है भट्ठी का परिवर्तन। नैन रूहानियत का अनुभव करायें, चलन ब्प के चरित्रों का साक्षात्कार कराये, मस्तक मस्तकमणि का साक्षात्कार कराये। यह अव्यक्ति सूरत दिव्य, अलौकिक स्थिति का प्रत्यक्ष रूप दिखाये, आपकी अलौकिक वृत्ति कोई भी तमोगुणी वृत्ति वाले को अपने सतोगुणी वृत्ति की स्मृति दिलाये। इसको कहा जाता है परिवर्तन वा इसको ही सर्विसएबल कहा जाता है। जो हर कदम में सर्विस में तत्पर रहते हैं, ऐसे सर्विसएबल बने हो? ऐसे नहीं कि 4 घंटे की सर्विस करनी है। सदा के विजयी बनना है। सदा सर्विस में तत्पर रहने वाले सदा के सर्विसएबल का एक सेकेण्ड भी सर्विस के बिगर न जाये। ऐसे सर्विसएबल बनना - यही विशेष आत्माओं की विशेषता है। तो सभी बातों में फुल बनना है। बाप की महिमा में सभी शब्दों में फुल आता है ना। जो सभी बातों में फुल हैं वो फेल नहीं होते हैं। फुल में फ्लो नहीं होता है, इसलिए फेल नहीं होते हैं। न फेल होते हैं, न कोई व्यर्थ बातें फील करते हैं। थाडी-थोडी बातें फील करते हो ना। जो फुल होगा वह व्यर्थ बातों को फील नहीं करेंगे, न फेल होंगे। तो ऐसे तिलकधारी बने हो? सर्व शक्तियों से सम्पन्न का तिलक अपने मस्तक पर लगाया है? अगर यह तिलक जो सुनाया, सदा मस्तक पर नहीं लगा हुआ है तो याद में भी याद के बजाय क्या करते हैं? याद के बजाय फरियाद करते हैं। लेकिन अभी नहीं करेंगे? फरियादों की फाइल बन गई है। हरेक के फरियादों की फाइल मालूम है कितनी हैं? तो निरन्तर याद में रहने से, निरन्तर विजयी बनने से, निरन्तर सर्विसएबल बनने से फरियाद करने की आवश्यकता ही नहीं होगी। सम्पूर्ण कमजोरियों की आहुति डालने के लिए भट्ठी में आये हो। तो सर्व कमजोरियों की आहुति यज्ञ में डाल दी वा अभी रह गई है? जबकि आहुति डाल देते हैं तो अन्त में क्या कहते हैं? स्वाहा। फिर आप सभी स्वाहा हुए? जो स्वाहा हो चुके वह बीती हुई बातों को स्वप्न में भी नहीं देख सकते। ऐसे स्वाहा हुए? हिम्मत और उल्लास - यह दोनों ही अभी के रिजल्ट में मैजारिटी में दिखाई देते हैं। इसी हिम्मत और उल्लास को सदा के लिए अपनी वृत्ति बनाना। धरती नर्म भी है और फलीभूत भी है लेकिन अपनी फलीभूत धरती में बीती हुई पास्ट जीवन के विकर्म और विकर्म के कांटे बोने नहीं देना। कांटों को बाप के सामने समर्पण किया? सर्व कांटे जो अब तक अन्दर होने के कारण नुकसान करते रहते, वह अब बाप के सामने स्वाहा हुए। स्वाहा राख को भी कहते हैं। राख हुई चीज अथवा भस्म हुई चीज फिर कभी भी अपनी धरती में बोना नहीं अर्थात् स्मृति में नहीं लाना। स्वाहा अर्थात् नाम-निशान समाप्त।

आज से ऐसे ही समझना कि मुझ सतोगुणी आत्मा के यह संस्कार नहीं हैं अर्थात् यह मेरे संस्कार नहीं हैं। तो जैसे दूसरे के संस्कारों को साक्षी होकर देखते हो, वैसे अपने तमोप्रधान स्टेज के संस्कारों को भी ऐसे साक्षी हो देखना। ऐसे समाप्त कर देना। स्वाहा हो गया -- ऐसे समझने से ही सदा सफलता को पाते रहेंगे। अच्छा।



01-11-71  ओम शान्ति  अव्यक्त बापदादा  मधुबन


सर्व-शक्तियों के सम्पत्तिवान बनो

विदेही, विदेशी बापदादा को बच्चों के समान देह का आधार लेकर, जैसा देश वैसा वेष धारण करना पड़ता है। विदेही को भी स्नेही श्रेष्ठ आत्मायें अपने स्नेह से अपने जैसा बनाने का निमन्त्रण देती हैं। और बाप फिर बच्चों को निमन्त्रण स्वीकार कर मिलने के लिए आते हैं। आज सभी बच्चों को निमन्त्रण देने आये हैं। कौन सा निमन्त्रण, जानते हो? अभी घर जाने के लिए पूरी तैयारी कर ली है वा अभी भी करनी है? अभी तैयारी करेंगे? तैयारी करने में कितना समय लगना है? इस नई फुलवाड़ी को विशेष नवीनता दिखानी चाहिए। ऐसे तो नहीं समझते हो कि हम नये क्या कर सकेंगे? लेकिन सदा यह स्मृति में रखना कि यह पुरूषोत्तम श्रेष्ठ संगमयुग का समय कम होता जाता है। इस थोड़े से संगम के समय को वरदाता द्वारा वरदान मिला हुआ है - कोई भी आत्मा अपने तीव्र पुरूषार्थ से जितना वरदाता से वरदान लेने चाहे उतना ले सकते हैं। इसलिए जो नई-नई फुलवाड़ी सम्मुख बैठी है, सम्मुख आयी हुई फुलवाड़ी को जो चाहें, जैसा चाहें, जितने समय में चाहें वरदाता बाप से वरदान के रूप में वर्सा प्राप्त हो सकता है। इसलिए विशेष बापदादा का इस नई फुलवाड़ी पर, स्नेही आत्माओं पर विशेष स्नेह और सहयोग है। इसी बाप के सहयोग को सहज योग के रूप में धारण करते चलो। यही वरदान थोड़े समय में हाई जम्प दिला सकता है। सिर्फ सदा यही स्मृति में रखो कि मुझ आत्मा का इस ड्रामा के अन्दर विशेष पार्ट है। कौनसा? सर्वशक्तिवान् बाप सहयोगी है। जिसका सहयोगी सर्वशक्तिवान् है, तो क्या वह हाई जम्प नहीं दे सकता? सहयोग को सहज योग बनाओ। योग्य बाप के सहयोगी बनना - यही योगयुक्त स्टेज है ना। जो निरन्तर योगी होगा उनका हर संकल्प, शब्द और कर्म बाप की वा अपने राज्य की स्थापना के कर्त्तव्य में सदा सहयोगी रहने का ही दिखाई देगा। इसको ही ‘ज्ञानी तू आत्मा’, ‘योगी तू आत्मा’ और सच्चा सेवाधारी कहा जाता है। तो सदा सहयोगी बनना ही सहज योग है। अगर बुद्धि द्वारा सदा सहयोगी बनने में कारणे-अरणे मुश्किल अनुभव होता है, तो वाचा वा कर्मणा द्वारा भी अपने को सहयोगी बनाया तो योगी हो। ऐसे निरन्तर योगी तो बन सकते हो ना कि यह भी मुश्किल है? मन से नहीं तो तन से, तन से नहीं तो धन से, धन से नहीं तो जो जिसमें सहयोगी बन सकता है उसमें उसको सहयोगी बनना भी एक योग है।

एक होती है अपने में हिम्मत, हिम्मत से सहयोगी बनाना। अगर हिम्मत नहीं है, तन में भी हिम्मत नहीं है, मन में भी नहीं है, धन में भी नहीं है; तो क्या करेंगे? ऐसा भी सदा योगी बन सकता है। कोई ऐसे होते हैं जो भले अपनी हिम्मत नहीं होती है लेकिन उल्लास होता है, हौंसला होता है। धन की शक्ति नहीं भी है, मन में कन्ट्रोलिंग पावर नहीं है, व्यर्थ संकल्प जास्ती चलते हैं; लेकिन जो कोई बात जीवन के अनुभव में उल्लास और हौंसला दिलाने वाली हो, उसी द्वारा औरों को हौंसला दिलाओ तो औरों को हिम्मत आने से आपको भी हिस्सा मिल जायेगा। इतना तो अवश्य है - जो भी आत्मायें आदि से वा अभी आई हुई हैं, उन हर आत्मा को अपने जीवन में कोई प्राप्ति का अनुभव अवश्य है; तब तो आये हैं। यही विशेष अनुभव अनेक आत्माओं को उल्लास और हौंसला बढ़ाने के काम में लगा सकते हो। इस धन से कोई वंचित नहीं। जो अपने पास है, जितना भी है उस द्वारा औरों को हिम्मतवान बनाना वा सहयोगी बनाना-यह भी आप के सहयोग की सब्जेक्ट में मार्क्स जमा हांगी। अब बताओ, योग सहज है वा मुश्किल? निरन्तर योगी बनना मुश्किल है। जो बाप के बन चुके हैं, इसमें तो परसेन्टेज नहीं हैं ना? इसमें तो फुल पास हो ना। जब हैं ही बाप के, तो एक बाप और दूसरा क्या रहा? बाप और आप, बस। तीसरा तो कोई नहीं। बाप में वर्सा तो है ही। तीसरा कुछ है क्या? सिवाय बाप और अपने आप अर्थात् आत्मा (शरीर नहीं)। तो आप और बाप ही रह गया, तो दो के मिलने में तीसरी रूकावट ही नहीं तो निरन्तर योगी हुए ना। तीसरा है ही नहीं तो आया फिर कहाँ से? फिर यह तो कभी नहीं कहेंगे कि आ जाता है, आता है तो क्या करें? अब यह भाषा खत्म। सदैव यही सोचो कि हम हैं ही सदा बाप के सहयोगी अर्थात् सहज योगी। वियोग क्या होता है - इसका जैसे मालूम ही नहीं। जैसे भविष्य में, ‘माया होती भी है’ - यह मालूम नहीं होगा, वैसे ही अब की स्टेज रहे। यह बचपन की बातें बीत चुकीं। अब तो गेट के सामने आ गये हो। जो जैसे बाप के बच्चे हैं, उसमें कोई परसेन्टेज नहीं होती है। ऐसे ही निरन्तर सहज योगी वा योगी बनने की स्टेज में भी अब परसेन्टेज खत्म होनी चाहिए। नैचरल और नेचर हो जानी चाहिए। जैसे कोई की विशेष नेचर होती है, उस नेचर के वश न चाहते भी चलते रहते हैं। कहते हैं ना - मेरी नेचर है, चाहती नहीं हूँ लेकिन नेचर है। वैसे निरन्तर सहज योगी अथवा सहयोगी की नेचर बन जाए, नैचरल हो जाए। क्या करूँ, कैसे योग लगाऊं - यह बातें खत्म। हैं ही सदा सहयोगी अर्थात् योगी। इसी एक बात को नेचर और नैचरल करने से भी सब्जेक्ट परफेक्ट हो जायेंगे। परफेक्ट अर्थात् इफेक्ट से परे, डिफेक्ट से भी परे हो जायेंगे। तो आज से सभी निरन्तर सहज योगी बने वा अभी बनेंगे? जब वरदाता बाप वर्से के साथ वरदान भी देते हैं; तो जिनको वर्से का अधिकार भी हो, वरदान भी प्राप्त हो उनके लिए मुश्किल है? अब देखना, कोई आकर कहे कि मुश्किल है तो याद दिलाना - वर्सा और वरदान। बाकी एक कदम रहा हुआ है घर जाने का। अभी तो हर कदम में पदमपति बने हुए हो। इतना वरदान वरदाता द्वारा प्राप्त है। जब हर कदम में पदमपति हो, तो कदम व्यर्थ होगा क्या? हर कदम में समर्थ हैं, व्यर्थ नहीं। स्मृति में समर्थी लाओ। साधारणता को समाप्त करो और स्मृति में समर्थी लाते, हर कदम में पदम लाते जाओ तब तो विश्व के मालिक बनेंगे।

अच्छा। आज विशेष फुलवाड़ी के लिए स्नेह से खिंचे-खिंचे आये हैं। छोटों से सदैव अति स्नेह होता है, तो अपने को अति सिकीलधे समझना। अति लाडले हो, तो बाप समान बनकर दिखाना। भाई-बहन समान नहीं बनना, बाप समान बनना। जिस स्नेह से बुलाया उसी स्नेह से बाप मुलाकात भी करते और नमस्ते भी करते हैं।

बिना साज के राज समझ सकते हो? ऐसे अभ्यासी बने हो जो रा आपके मन में हैं वह रा दूसरे को बिना साज के समझा सकते हो? पिछाड़ी की सेवा में तो सा समा जायेगा, रा को ही समझाना पड़ेगा। तो ऐसी प्रैक्टिस करनी चाहिए। जब साइंस बहुत कुछ करके दिखा रही है; तो क्या साइलेन्स में वह शक्ति नहीं है? जितना-जितना स्वयं राजयुक्त, योगयुक्त बनते जायेंगे, उतना-उतना औरों को भी बिना साज के राजयुक्त बना सकते हो। इतनी सारी प्रजा कैसे बनायेंगे? इसी स्पीड से इतनी प्रजा बन सकेगी! पिछली प्रजा के ऊपर भी इतनी मेहनत करेंगे? जैसे ठप्पे बने हुए होते हैं, तो एक सेकेण्ड में लगाते जाते हैं। वैसे ही एक सेकेण्ड की पावरफुल स्टेज ऐसे रहेगी जो बिगर बोले, बिगर मेहनत करते दैवी घराने की आत्मा का छाप लगा देंगे। यह ही सर्वशक्तिवान् का गायन है। वरदानी बन एक सेकेण्ड में भक्तों को वरदान देना। वरदान देने में मेहनत नहीं लगती, वर्सा पाने में मेहनत है। वर्सा पाने वाले मेहनत कर रहे हैं, मेहनत ले रहे हैं। लेकिन वरदानी मूर्ति जब बन जायेंगे फिर मेहनत लेने वाले न लेंगे, न देने वाले मेहनत करेंगे। तो तुम्हारी लास्ट स्टेज है वरदानीमूर्त। जैसे लक्ष्मी के हस्तों से स्थूल धन देते हुए दिखाते हैं। यह तुम्हारा लास्ट शक्ति रूप का है, न कि लक्ष्मी का। शक्ति रूप से सर्वशक्ति- वान् का वरदान देते हुए का यह चित्र है, जिसको स्थूल धन के रूप में दिखाते हैं। तो ऐसा अपना स्वरूप सदा वरदानी अपने आप को साक्षात्कार होता है? इससे ही समय का अन्दा लगा सकते हो। फिर वरदानीमूर्त शक्तियों के आगे सभी आयेंगे। इसके लिए एक तरफ वरदान का बी पड़ेगा। तो अपने में सर्व शक्ति जमा करनी हैं। ऐसे वरदानीमूर्त बनते और बनाते जाओ। आवाज़ से परे जाना है। अच्छा।