18-01-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


"समानता और समीपता"

सदा निर्मान और निर्माण करने के कार्य में सदा तत्पर रहने वाले और बच्चों को आप-समान स्वमान-धारी बनाने वाले शिव बाबा बोले:-

क्या बापदादा समान स्वमान-धारी, स्वदर्शन-चक्रधारी और निर्मान बने हो? जितना-जितना इन विशेष धारणाओं में समान बनते जाते हो उतना ही समय को समीप लाते हो। समय को जानने के लिये अभी कितना समय पड़ा है? इसकी परख - आपकी धारणाओं में समान स्थिति है। अब बताओ कि समय कितना समीप है? समानता में समीप हो तो समय भी समीप है। इस प्रोग्राम के बीच अपने-आपको परखने व अपने द्वारा समय को जानने का समय मिला है। इस विशेष मास के अन्दर दो मुख्य बातें मुख्य रूप से लक्ष्य के रूप में सामने रखनी हैं। वो कौन-सी? एक तो लव (Love) और दूसरा लवलीन।

कर्म में, वाणी में, सम्पर्क में व सम्बन्ध में लव और स्मृति में व स्थिति में लवलीन रहना है। जो जितना लवली (Lovely) होगा, वह उतना ही लवलीन रह सकता है। इस लवलीन स्थिति को मनुष्यात्माओं ने लीन की अवस्था कह दिया है। बाप में लव खत्म करके सिर्फ लीन शब्द को पकड़ लिया है। तो इस मास के अन्दर इन दोनों ही मुख्य विशेषताओं को धारण कर बापदादा समान बनना है। बापदादा की मुख्य विशेषता, जिसने कि आप सबको विशेष बनाया, सब-कुछ भुलाया और देही-अभिमानी बनाया, वह यही थी - लव और लवलीन।

लव ने आप सबको भी एक सेकेण्ड में 5000 वर्ष की विस्मृत हुई बातों को स्मृति में लाया है, सर्व सम्बन्ध में लाया है, सर्वस्व त्यागी बनाया है। जबकि बाप ने एक ही विशेषता से एक ही सेकेण्ड में अपना बना लिया तो आप सब भी इस विशेषता को धारण कर बाप-समान बने हो? जबकि साकार बाप में इस विशेषता में परसेन्टेज (Percentage) नहीं देखी, परफेक्ट (Perfect) ही देखा तो आप विशेष आत्माओं को और बाप समान बनी हुई आत्माओं को भी परफेक्ट होना है। इस मुख्य विशेषता में परसेन्टेज नहीं होनी चाहिए। परफेक्ट होना है, क्योंकि इस द्वारा ही सर्व आत्माओं के भाग्य व लक्क को जगा सकते हो। लक्क (Luck) के लॉक (Lock) की चाबी (Key) कौन-सी है?-’लव। लव ही लॉक की की (Key) है। यह मास्टर-की’ (Master Key) है। कैसे भी दुर्भाग्यशाली को भाग्यशाली बनाती है। क्या इसके स्वयं अनुभवी हो?

जितना-जितना बापदादा से लव जुटता है, उतना ही बुद्धि का ताला खुलता जाता है। लव कम तो लक्क भी कम। तो सर्व आत्माओं के लक्क के लॉक को खोलने वाली चाबी आपके पास है? कहीं इस लक्क की चाबी को खो तो नहीं देते हो? या माया भिन्न-भिन्न रूपों व रंगों में इस चाबी को चुरा तो नहीं लेती है? माया की भी नजर इसी चाबी पर है। इसलिये इस चाबी को सदा कायम रखना है। लव अनेक वस्तुओं में होता है। यदि कोई भी वस्तु में लव है तो बाप से लव परसेन्टेज में हो जाता है। अपनी देह में, अपनी कोई भी वस्तु में यदि अपनापन है तो समझो कि लव में परसेन्टेज है। अपनेपन को मिटाना ही बाप की समानता को लाना है। जहाँ अपनापन है, वहाँ बापदादा सदा साथ नहीं हैं।

परसेन्टेज वाला कभी भी परफेक्ट नहीं बन सकता। परसेन्टेज अर्थात् डिफेक्ट (DEFECT) वाला कभी परफेक्ट नहीं बन सकता, इसलिये इस वर्ष में परसेन्टेज को मिटा कर परफेक्ट बनो। तब यह वर्ष विनाश की वर्षा लायेगा। एक वर्ष का समय दे रहे हैं जो कि फिर यह उलहना न दें कि ‘‘हमको क्या पता’’? एक वर्ष अनेक वर्षों की श्रेष्ठ प्रारब्ध बनाने के निमित्त है। अपने आप ही चेकर (Checker) बन अपने आप को चेक  करना। अगर मुख्य इस बात में अपने को परफेक्ट बनाया तो अनेक प्रकार के डिफेक्ट स्वत: ही समाप्त हो जायेंगे। यह तो सहज पुरूषार्थ है ना? अगर स्वयं बाप के साथ लव में लवलीन रहेंगे तो औरों को भी सहज ही आप-समान व बाप-समान बना सकेंगे। तो यह वर्ष बाप-समान बनने का लक्ष्य रख कर चलेंगे, तो बापदादा भी ऐसे बच्चों को ‘‘तत् त्वम्’’ का वरदान देने के लिये ड्रामानुसार निमित्त बना हुआ है। इस वर्ष की विशेषता बाप-समान बन समय को समीप लाने का है। समय की विशेषता को स्वयं में लाना है।

ऐसे सदा लवली-लवलीन रहने वाले, बाप-समान निर्मान और निर्माण करने के कर्त्तव्य में सदा तत्पर रहने वाले,समय की विशेषता को स्वयं में लाने वाले, श्रेष्ठ स्वमान में सदा स्थित रहने वाले, श्रेष्ठ और समान आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओम शान्ति।

इस वाणी का सार

1. यदि कोई भी वस्तु में और अपनी देह में अपना-पन है तो जरूर बाप से लव में परसेन्टेज है, अपने-पन को मिटाना ही स्वयं में बाप की समानता को लाना है।

2. दो मुख्य बातें लक्ष्य रूप में सामने रखनी हैं। एक तो लव’, दूसरा- लवलीन। जो जितना लवली होगा, वह उतना ही लवलीन रह सकता है। 



23-01-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


"सम्पूर्ण-मूर्त्त बनने के चार स्तम्भ"

बच्चों के सदा स्नेही, सहयोगी, सर्वशक्तियों में समान बनाने वाले, सर्व-सिद्धियों की प्राप्ति कराने वाले और प्रत्यक्ष फल देने वाले बाबा बोले:-

सभी अपने को सम्पूर्ण बनाने के पुरूषार्थ में चल रहे हो? सम्पूर्ण मूर्त्त बनने के लिए मुख्य चार विशेषताए धारण करनी हैं-जिससे सहज ही सम्पूर्ण मूर्त्त बन सकते हो। जैसे औरों को योग की स्थिति में सदा एक-रस स्थिति में स्थित होने के लिए, चार मुख्य नियम - स्तम्भ के रूप में दिखाते हो व बताते हो, ऐसे ही सदा सम्पूर्ण मूर्त्त बनने के लिये यह चार विशेषतायें स्तम्भ के रूप में हैं। वह कौन-सी हैं? - 1. ज्ञान-मूर्त्त, 2. गुण-मूर्त्त, 3. महादानी-मूर्त्त, और 4. याद-मूर्त्त अर्थात् तपस्वी-मूर्त्त। यह चारों ही विशेषतायें अपने में लाने से सम्पूर्ण स्थिति बना सकते हो। अब यह देखो कि अपनी मूर्त्त में यह चारों ही विशेषतायें प्रत्यक्ष रूप में अनुभव होती हैं व अन्य आत्माओं को भी दिखाई देती हैं?

ज्ञान-मूर्त्त अर्थात् सदैव बुद्धि में ज्ञान का सुमिरण चलता रहे। सदैव वाणी में ज्ञान के ही बोल वर्णन करते रहे। हर कर्म द्वारा ज्ञान स्वरूप अर्थात् मास्टर नॉलेजफुल और मास्टर सर्वशक्तिमान्-इन मुख्य स्वरूपों का साक्षात्कार हो। उसको कहा जाता है ज्ञान-मूर्त्त। इस प्रकार से मन, वाणी और कर्म द्वारा गुण-मूर्त्त’, महादानी-मूर्त्त और याद अर्थात् तपस्या मूर्त्त प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दें। जैसे लौकिक पढ़ाई में तीन मास, छ: मास, नौ मास का इम्तहान लेते हैं, जिससे हरेक को अपनी पढ़ाई का मालूम पड़ जाता है, ऐसे ही ईश्वरीय पढ़ाई का अब काफी समय बीत चुका है। इसलिये यह विशेष मास याद की यात्रा में रह अपनी चैकिंग (checking) करने के लिए अर्थात् स्वयं अपना शिक्षक बन, साक्षी बन अपना पेपर ले देखने के लिए दिया हुआ है। अब सिर्फ फाइनल पेपर ही रहा हुआ है। इसलिए अपनी रिजल्ट (RESULT) को देख चेक  करो कि इन चारों विशेषताओं में से किस विशेषता में और कितनी परसेन्टेज की कमी है। क्या फाइनल पेपर में सम्पूर्ण पास होने के योग्य सर्व योग्यतायें हैं? यह मास परिणाम देखने का है। परसेन्टेज अगर कम है तो सम्पूर्ण स्टेज कैसे पा सकेंगे? इसलिए अपनी कमी को जानकर उसे भरने का तीव्र पुरूषार्थ करो। अब यह थोड़ा सा समय फिर भी ड्रामानुसार पुरूषार्थ के लिए मिला हुआ है। लेकिन फाइनल पेपर होने से पहले अपने को सम्पूर्ण बनाना है। अपना रिजल्ट देखा है? जैसे इस मास में चारों ओर याद की यात्रा का उमंग और उत्साह रहा है, इसका रिजल्ट क्या समझती हो? कितने मार्क्स (Marks) देंगे? भले हरेक का अपना-अपना तो है फिर भी चारों ओर के वातावरण व वायुमण्डल व पुरूषार्थ की उमंग और उत्साह के रिजल्ट में कितने मार्क्स कहेंगे? टोटल पूछते हैं। सभी के पुरूषार्थ का प्रभाव मधुबन तक पहुंचता है ना? क्या त्रिकालदर्शी नहीं हो? अपने समीप परिवार की आत्माओं के पुरूषार्थ के त्रिकालदर्शी नहीं हो क्या? क्या भविष्य के ही त्रिकालदर्शी हो? वर्तमान के नहीं हो? वाइब्रेशनस् से और वायुमण्डल से परख नहीं सकते हो?

जब साइन्स (Science) वाले पृथ्वी से स्पेस (Space) में जाने वालों की हर गति और हर विधि को जान सकते हैं तो क्या याद के बल से आप अपने श्रेष्ठ पुरूषार्थ की गति और विधि को नहीं जान सकते हो? लास्ट में जानेंगे जब आवश्यकता नहीं होगी? अभी से यह जानने का अभ्यास भी होना चाहिए-कैचिंग पॉवर (Catching Power) चाहिए। जैसे साइन्स दूर की आवाज़ को कैच कर चारों ओर सुना सकती है तो आप लोग भी शुद्ध-वाइब्रेशन; शुद्ध-वृत्तियों व शुद्ध-वायुमण्डल को कैच नहीं कर सकती हो? यह कैचिंग पॉवर प्रत्यक्ष रूप में अनुभव होगी। जैसे आजकल दूर से सीन टेलीविजन द्वारा स्पष्ट दिखाई देते हैं, वैसे दिव्य-बुद्धि बनने से, सिर्फ एक याद के शुद्ध-संकल्प में स्थित रहने से आप सभी को भी एक दूसरे की स्थिति व पुरूषार्थ की गति-विधि ऐसे स्पष्ट दिखाई देगी। यह साइन्स भी कहाँ से निकली? साइलेन्स (Silence) की शक्ति से ही साइन्स निकली है। साइन्स आप लोगों की वास्तविक स्थिति और सम्पूर्ण स्टेज को समझाने के लिए एक साधन निकला है। क्योंकि सूक्ष्म शक्ति को जानने के लिये तमोगुणी बुद्धि वालों के लिए कोई स्थूल साधन चाहिये। जिस श्रेष्ठ आत्मा में ये चारों ही विशेषतायें, सम्पूर्ण परसेन्टेज में अर्थात् जिसको सेन्ट परसेन्ट कहते हैं, इमर्ज रूप में होंगी, ऐसी आत्मा में सर्व-सिद्धियों की प्राप्ति दिखाई देगी? यह सिद्धि अपने वर्तमान समय के पुरूषार्थ में दिखाई देती हैं? कुछ परसेन्टेज में भी दिखाई देती हैं या यह स्टेज अभी दूर है? कुछ समीप दिखाई देती है। यूँ तो इस मास की रिजल्ट चारों ओर की बहुत अच्छी रही। अब आगे क्या करेंगे? याद की यात्रा में रहने से कोई नये प्लान्स प्रैक्टिकल में लाने के लिए इमर्ज हुए? जैसे चारों ओर संगठन के रूप में याद का बल अपने में भरने का पुरूषार्थ किया वैसे अब फिर आने वाले यह दो मास विशेष बुलन्द आवाज़ से चारों ओर बाप को प्रत्यक्ष करने के नगारे बजाने हैं। जिन नगारों की आवाज़ को सुनकर सोई हुई आत्मायें जाग जायें। चारों ओर यह आवाज़ कौन-सा है और इस समय कैसा श्रेष्ठ कर्त्तव्य चल रहा है?

हरेक आत्मा अपना श्रेष्ठ भाग्य अब ही बना सकती है। ऐसे ही चारों ओर भिन्न-भिन्न युक्तियों से भिन्न-भिन्न प्रोग्राम से बाप की पहचान का नगाड़ा बजाओ। इन दो मास में सभी को इस विशेष कार्य में अपनी विशेषता दिखानी है। जैसे याद की यात्रा में हरेक ने अपने पुरूषार्थ प्रमाण रेस में आगे बढ़ते रहने का पुरूषार्थ किया, वैसे अब इस दो मास के अन्दर बाप को प्रत्यक्ष करने के नये-नये प्लान्स प्रैक्टिकल में लाने की रेस करो। फिर रिजल्ट सुनायेंगे कि इस रेस में फर्स्ट, सेकेण्ड और थर्ड प्राइज लेने वाले कौन-कौन निमित्त बने? चान्स भी बहुत अच्छा है। शिव जयन्ती का महोत्सव भी इन दो मास में हैं ना? इसलिए अब रिजल्ट देखेंगे। एक मास के अन्दर योगबल की प्राप्ति का क्या अनुभव किया? अब योगबल द्वारा आत्माओं को जगाने का कर्त्तव्य करो और सबूत दिखाओ। जैसे बापदादा से भी पुरूषार्थ का प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है वैसे रिटर्न में प्रत्यक्ष फल दिखाओ और सर्व शक्तिवान बाप की पालना का प्रत्यक्ष स्वरूप दिखाओ। साकार रूप द्वारा भी बहुत पालना ली और अव्यक्त रूप द्वारा भी पालना ली। अब अन्य आत्माओं की ज्ञान की पालना करके उनको भी बाप के सम्मुख लाओ और बाप के समीप लाओ।

ड्रामा में अब यह जो समय चल रहा है अथवा अभी का जो यह वर्ष चल रहा है इसमें बहुत अनोखी बातें देखेंगे। इसके लिए आरम्भ में विशेष याद का बल भरने का चॉन्स मिला है। अब बहुत जल्दी नये-नये नजारे और नई- नई बातें सुनेंगे और देखेंगे। इसके लिये अव्यक्त स्थिति और अव्यक्त मिलन का विशेष अनुभव करना है। जो किसी भी समय मिलन द्वारा बुद्धि-बल से अपने पुरूषार्थ व विश्व-सेवा के सर्व कार्य में सफलता-मूर्त्त बन सको। अब अव्यक्त मिलन का अनुभव किया? जिस समय चाहो, या जिस परिस्थिति में चाहो, उस समय उस रूप से मिलन मिलाने का अनुभव कर सकते हो? क्या यह प्रैक्टिस हो गयी? जब थोडी-सी प्रैक्टिस की है तो उसको बढ़ा सकते हो ना? तरीका तो सभी को आ गया है? यह तो बहुत सहज तरीका है। जिससे जिस देश में, जिस रूप में मिलना चाहते हो वैसा अपना वेश बना लो। अगर अपना वेश बना लिया, तो उस वेश में और उस देश में पहुँच ही जायेंगे और उस देश के वासी बाप से अनेक रूप से मिलन मना सकेंगे। सिर्फ उस देश के समान वेश धारण करो। अर्थात् स्थूल वेश और स्थूल शरीर की स्मृति से परे सूक्ष्म शरीर अर्थात् सूक्ष्म देश के वेशधारी बनो। क्या बहुरूपी नहीं हो? क्या वेश धारण करना नहीं आता? जैसे आजकल की दुनिया में जैसा कर्त्तव्य वैसा वेश धारण कर लेते हैं, वैसे आप भी बहुरूपी हो? तो जिस समय, जैसा कर्म करना चाहते हो क्या वैसा वेश धारण नहीं कर सकते? अभी-अभी साकारी और अभी-अभी आकारी, जैसे स्थूल वस्त्र सहज बदल सकते हो तो क्या अपनी बुद्धि द्वारा अपने सूक्ष्म शरीर को धारण नहीं कर सकते हो? सिर्फ बहुरूपी बन जाओ। तो सर्व स्वरूपों के सुखों का अनुभव कर सकेंगे। बहुत सहज है। अपना ही तो स्वरूप है। कोई नकली रूप किसी दूसरे का थोड़े ही धारण करते हो? दूसरे के वस्त्र ऊपर नीचे हो सकते हैं, फिट हो या न हों। लेकिन अपने वस्त्र तो सहज ही धारण हो सकते हैं। तो यह अपना ही तो रूप है। सहज है ना? ड्रामानुसार यह विशेष अभ्यास भी कोई रहस्य से नूंधा हुआ है। कौन-सा रहस्य भरा हुआ है? टच होता है? जो भी सभी बोल रहे हैं सभी यथार्थ है क्योंकि अब यथार्थ स्थिति में स्थित हो ना? व्यर्थ स्थिति तो नहीं है? समर्थ शक्ति स्वरूप की स्थिति है ना?

अब ड्रामा की रील जल्दी-जल्दी परिवर्तित होनी है, जो अब वर्तमान समय चल रहा है, यह सभी बातें परिवर्तन होनी हैं। व्यक्त द्वारा अव्यक्त मिलन-यह सभी तीव्र परिवर्तन होने हैं। इस कारण अव्यक्त मिलन का विशेष अनुभव विशेष रूप से कराया है और आगे भी अव्यक्त स्थिति द्वारा अव्यक्त मिलन के विचित्र अनुभव बहुत करेंगे। इस वर्ष को अव्यक्त मिलन द्वारा विशेष शक्तियों की प्राप्ति का वरदान मिला हुआ है। इसलिए ऐसे नहीं समझना कि यह मास समाप्त हुआ लेकिन इसी अभ्यास को और इसी अनुभव को जो लगातार आगे आगे बढ़ाते रहेंगे उनको बहुत नये-नये अनुभव होते रहेंगे। समझा?

ऐसे सर्व गुणों में अपने को सम्पन्न बनाने वाले, अपने संकल्प, वाणी और कर्म द्वारा सर्व विशेषतायें प्रत्यक्ष करने वाले, बापदादा के दिव्य पालना का प्रत्यक्ष फल दिखाने वाले, बाप के सदा स्नेही, सदा सहयोगी, सर्व-शक्तियों में समान बनने वाले और सर्व-सिद्धियों को प्राप्त करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं एवं तीव्र पुरुषार्थी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली का ज्ञान-बिन्दु

1. ईश्वरीय पढ़ाई का अब काफी समय बीत चुका है। इसलिए याद की यात्रा में रह अपनी चैकिंग करने के लिए अर्थात् स्वयं अपना ही शिक्षक बन, साक्षी बन अपना पेपर लेना है।



11-04-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


परिवर्तन

प्रैक्टिकल मूर्त्त बनाने वाले, सर्वगुण सम्पन्न बाबा बोले:-

वर्तमान समय को परिवर्तन का समय कहते हैं। इस समय के अनुसार जो निमित्त बने हुए हैं उन में भी अवश्य हर समय परिवर्तन होता जा रहा है तभी तो उन के आधार से समय परिवर्तन होता है। समय एक परिवर्तन का आधार है। परिवर्तन करने वालों के ऊपर अर्थात् जो परिवर्तन करने के लिए निमित्त बने हुए हैं, वह अपने में ऐसे अनुभव करते हैं कि हर समय मनसा, वाचा और कर्मणा सभी रूप से परिवर्तन होता जा रहा है। इसको कहेंगे-चढ़ती कला का परिवर्तन। परिवर्तन तो द्वापर में भी होता है, परन्तु वह है गिरती कला का परिवर्तन। अभी संगम पर है चढ़ती कला का परिवर्तन। तो जब समय अनुसार भी चढ़ती कला का परिवर्तन है, तो जो निमित्त आधार मूर्तियाँ हैं उन में भी अवश्य ऐसे ही परिवर्तन हैं। ऐसे अनुभव करते हो कि परिवर्तन होता जा रहा है? परिवर्तन की स्पीड (Speed) कभी चेक  की है? परिवर्तन तो एक सप्ताह में होता है, एक दिन में और एक घण्टे में भी होता है। हाँ, टोटल कहेंगे परिवर्तन हो रहा है। लेकिन अभी के समय-प्रमाण परिवर्तन की स्टेज क्या होनी चाहिए, वह अनुभव करती हो? जो मुख्य निमित्त बने हुए महावीर हैं यदि उन को किसी भी बात में परिवर्तन लाने में समय लगता है, तो फाईनल परिवर्तन में भी अवश्य समय लगेगा।

निमित्त बने हुए महावीर जो हैं वह हैं मानों समय की घड़ी। जैसे घड़ी समय स्पष्ट दिखाती है, इसी प्रकार महावीर जो बनते हैं, निमित्त बने हुए हैं, वह भी घड़ी हैं, तो घड़ी में समय नज़दीक दिखाई पड़ता है या दूर? स्वयं घड़ी हो और स्वयं ही साक्षी हो समय को चेक करने वाली हो, तो परिवर्तन की प्रगति फास्ट है? फाइनल परिवर्तन जिससे सृष्टि का भी फाइनल परिवर्तन हो। अभी तो थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन होता है, तो सृष्टि की हालतों में भी थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन है। लेकिन फाइनल सम्पूर्ण परिवर्तन की निशानी क्या है जिससे समझें कि यह परिवर्तन की सम्पूर्ण स्टेज है?

अभी की परिवर्तन की स्टेज, सम्पूर्ण परिवर्तन की निशानी, वर्ष गिनती करते-करते अब बाकी समय क्या रहा है? परिवर्तन ऐसा हो जो सभी के मुख से निकले कि इनमें तो पूरा ही परिवर्तन आ गया है। अपने परिवर्तन की बात पूछते हैं, सदा काल के लिए नेचरल रूप में दिखाई दे, वह कैसे होगा? अभी नेचरल रूप में नहीं है। अब पुरूषार्थ से थोड़े समय के लिए वह झलक दिखाई देती है लेकिन नेचरल रूप सदा काल रहता है। तो सम्पूर्ण परिवर्तन की निशानी यह है। हरेक में जो कमजोरी का मूल संस्कार है यह तो हरेक अपना-अपना जानते हैं। कभी भी कोई स्टेज में सम्पूर्ण पास नहीं होते, परसेन्टेज में पास हो जाते हैं, इसका कारण यह है। तो हर बात में हरेक में विशेष रूप से जो मूल संस्कार है, जिसको आप नेचर कहती हो तो वह दिखाई देवे कि उनका पहले यह संस्कार था, अभी यह नहीं है। आपस में एक दूसरे के मूल संस्कार वर्णन भी करते हैं। यह पुरूषार्थ में बहुत अच्छे हैं लेकिन यह संस्कार इनको समय-प्रति-समय आगे बढ़ने में रूकावट डालता है। उन मूल संस्कारों में जब तक पूरा परिवर्तन नहीं हुआ है तब तक सम्पूर्ण विश्व का परिवर्तन हो नहीं सकता। सभी में सम्पूर्ण परिवर्तन हो वह तो दूसरी बात है। वह तो नम्बरवार रिजल्ट में भी होता है। लेकिन जो परिवर्तन के मूल आधार मूर्तियाँ हैं जिनको महावीर और महारथी कहते हैं उन के लिए यह परिवर्तन आवश्यक है। जो कोई भी ऐसे वर्णन न करे कि इनके यह संस्कार तो शुरू से ही हैं। इस लिए अब परसेन्टेज में भी दिखाई देते हैं। यह वर्णन करने में नहीं आये, दिखाई न दे, इसको कहा जाता है -- सम्पूर्ण परिवर्तन। अगर जरा अंश मात्र भी है तो उसको सम्पूर्ण परिवर्तन नहीं कहेंगे। साधारण परिवर्तन महारथियों से थोड़े ही पूछेंगे? जो विश्व-परिवर्तन के निमित्त बने हुए हैं उन की परिवर्तन की स्टेज भी औरों से ऊंची होगी तो यह चैकिंग (checking) होनी चाहिए। रात दिन का अन्तर दिखाई दे, इस पर ही लक्की स्टार्स का गायन है। ज्ञान सूर्य, ज्ञान चन्द्रमा तो अपने स्टेज पर हैं, लेकिन सम्पूर्ण परिवर्तन में लक्की स्टार्स का नाम बाला है। वर्तमान समय साकार रूप में फॉलो तो सभी आप लोगों को करते हैं ना? बुद्धि योग से शक्ति लेना, बुद्धियोग से श्रेष्ठ कर्म को फॉलो करना -- वह तो मात-पिता निमित्त हैं। लेकिन साकार रूप में अब किसको फॉलो करेंगे? जो निमित्त हैं। तो परिवर्तन का ऐसा उदाहरण बनो। वर्ष में एक दो बारी भी ऐसा संगठन हो जाये। हर समय के संगठन में अपनी चढ़ती कला का परिवर्तन है। जैसे जो वर्ष बीत चुका है, उसमें स्नेह, सम्पर्क, सहयोग, इसमें चढ़ती कला और परिवर्तन है। अभी सम्पूर्ण स्टेज प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे। इस वर्ष में यह परिवर्तन विशेष रूप में होना आवश्यक है।

अब धीरे-धीरे प्रत्यक्षता के लिये जानबूझ कर बम लगाने शुरू किए हैं ना? जब धर्म-युद्ध की स्टेज पर आना है। आप लोग एक बात में ही हार खिला सकते हो कि धर्म और धारणा, उन लोगों का प्रैक्टिकल नहीं है और परमात्म- ज्ञान का प्रूफ (Proof) आपका प्रैक्टिकल लाइफ (Practical Life) है। एक तरफ धर्म-युद्ध की स्टेज दूसरी तरफ प्रैक्टिकल धारणामूर्त्त की स्टेज। अगर इन दोनों का साथ न होगा तो आप लोग की चेलेंज (Challenge) है प्रैक्टिकल लाइफ की-वह प्रत्यक्ष रूप में दिखाई नहीं देंगी। जैसे-जैसे आगे आते जाते हो, वैसे इस बात पर भी अटेन्शन (Attention) देना है। प्रैक्टिकल में ज्ञान अर्थात् धारणामूर्त्त, ज्ञान मूर्त्त वा गुण-मूर्त्त। मूर्त्त से भी वह ज्ञान और गुण दिखाई देवें। आजकल डिसकस (Discuss) करने से अपनी मूर्त्त को सिद्ध नहीं कर सकते लेकिन मूर्त्त से उन को एक सेकेण्ड में शान्त करा सकती हो। एक तरफ भाषण हो, लेकिन दूसरी तरफ फिर प्रैक्टिकल मूर्त्त भी हो। तब धर्म-युद्ध में सक्सेसफुल (Successful) होंगे; इसलिए जैसे सर्विस का प्रोग्राम बनाते हो, साथ-साथ अपने प्रोग्राम (Programme) में भी प्रोग्रेस (Progress) करो। यह भी होना आवश्यक है। अपने पुरूषार्थ के प्रोग्रेस का, अपने-अपने पुरूषार्थ के भिन्न-भिन्न अनुभव का लेन-देन करने का भी प्रोग्राम साथ-साथ होना चाहिए। दोनों का बैलेन्स (Balance) साथ-साथ हो। अच्छा।

इस मुरली का सार

1. बाबा कहते तुम बच्चे समय की घड़ी हो। चेक करो तुम्हारी परिवर्तन की स्पीड फास्ट है? सम्पूर्ण परिवर्तन की निशानी यह है कि जो संस्कार पहले थे, वह अब बिल्कुल दिखाई न दें। परिवर्तन ऐसा हो जो सभी के मुख से निकले कि यह तो बिल्कुल ही बदल गया है।

2. अभी धर्म-युद्ध की स्टेज पर आना है। आप लोग उन्हें एक बात में ही हार खिला सकती हो कि धर्म और धारणा जिसमें प्रैक्टिकल में नहीं हैं। आपकी मूर्त्त में भी वह ज्ञान और गुण दिखाई देना चाहिए। डिस्कस करने से नहीं बल्कि अपनी मूर्त्त से ही तुम उन्हें शान्त करा सकती हो।



13-04-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


भक्त और भावना का फल

विश्व कल्याणकारी सर्व शक्तिवान्, वरदाता, सर्व-आत्माओं के पिता और भावना का फल देने वाले भगवान् बोले :-

जैसे भक्तों को भावना का फल देते हैं, वैसे ही कोई आत्मा भावना रखकर, तड़पती हुई, आपके पास आये कि जीय दान दोवा हमारे मन को शान्ति दोतो आप लोग उनकी भावना का फल दे सकती हो? उन्हें अपने पुरूषार्थ से जो कुछ भी प्राप्ति होती है वह तो हुआ उनका अपना पुरूषार्थ और उनका फल। लेकिन आपको कोई अगर कहे कि मैं निर्बल हूँ, मेरे में शक्ति नहीं है तो ऐसे को आप भावना का फल दे सकती हो? (बाप द्वारा)। बाप को तो पीछे जानेंगे-जब कि पहले उन्हें दिलासा मिले। लेकिन यदि भावना का फल प्राप्त हो सकता है तब उनकी बुद्धि का योग डायरेक्शन प्रमाण लग सकेगा। ऐसी भावना वाले भक्त अन्त में बहुत आयेंगे। एक हैं-पुरूषार्थ करके पद पाने वाले, वह तो आते रहते हैं, लेकिन अन्त में पुरूषार्थ करने का न तो समय रहेगा और न आत्माओं में शक्ति ही रहेगी, ऐसी आत्माओं को फिर अपने सहयोग से और अपने महादान देने के कर्त्तव्य के आधार से उन की भावना का फल दिलाने के निमित्त बनना पड़े। वे तो यही समझेंगे कि शक्तियों द्वारा मुझे यह वरदान मिला। जो गायन है नजर से निहाल करना।

जैसे बहुत तेज बिजली होती है तो स्विच ऑन  करने से जहाँ भी बिजली लगाते हो उस स्थान के कीटाणु एक सेकेण्ड में भस्म हो जाते हैं। इसी प्रकार जब आप आत्माएं अपनी सम्पूर्ण पॉवरफुल  स्टेज पर हों और जैसे कोई आया और एक सेकेण्ड में स्विच ऑन किया अर्थात् शुभ संकल्प किया अथवा शुभ भावना रक्खी कि इस आत्मा का भी कल्याण हो-यह है संकल्प-रूपी स्विच। इनको ऑन करने अर्थात् संकल्प को रचने से फौरन ही उनकी भावना पूरी हो जायेगी, वे गद्गद हो जायेंगे, क्योंकि पीछे आने वाली आत्मायें थोड़े में ही ज्यादा राज़ी होंगी। समझेंगी कि सर्व प्राप्तियाँ हुई। क्योंकि उनका है ही कना-दाना लेने का पार्ट। उनके हिसाब से वही सब-कुछ हो जायेगा। तो सर्व-आत्माओं को उनकी भावना का फल प्राप्त हो और कोई भी वंचित न रहे; इसके लिए इतनी पॉवरफुल स्टेज अर्थात् सर्वशक्तियों को अभी से अपने में जमा करेंगे तब ही इन जमा की हुई शक्तियों से किसी को समाने की शक्ति और किसी को सहन करने की शक्ति दे सकेंगे अर्थात् जिसको जो आवश्यकता होगी वही उसको दे सकेंगे।

जैसे डॉक्टर के पास जैसा रोगी आता है, उसी प्रमाण उनको डोज़ (Dose) देता है और तन्दुरूस्त बनाता है। इसी प्रकार आपको सर्वशक्तियाँ अपने पास जमा करने का अभी से पुरूषार्थ करना पड़े। क्योंकि जिनको विश्व महाराजन् बनना है उनका पुरूषार्थ सिर्फ अपने प्रति नहीं होगा। अपने जीवन में आने वाले विघ्न व परीक्षाओं को पास करना-वह तो बहुत कॉमन (Common) है लेकिन जो विश्व-महाराजन् बनने वाले हैं उनके पास अभी से ही स्टॉक (Stock) भरपूर होगा जो कि विश्व के प्रति प्रयोग हो सके। तो इसी प्रकार यहाँ भी जो विशेष आत्मायें निमित्त बनेंगी उनमें भी सभी शक्तियों का स्टॉक अन्दर अनुभव हो, तब ही समझें कि अब सम्पूर्ण स्टेज की व प्रत्यक्षता का समय नजदीक है। उस समय कोई याद नहीं होगा। दूसरों के प्रति ही हर सेकेण्ड, हर संकल्प होगा।

अभी तो अपने पुरूषार्थ व अपने तन के लिए समय देना पड़ता है, शक्ति भी देनी पड़ती है। अपने पुरूषार्थ के लिए मन भी लगाना पड़ता है, फिर यह स्टेज समाप्त हो जायेगी। फिर यह पुरूषार्थ बदली होकर ऐसा अनुभव होगा कि एक सेकेण्ड भी और एक संकल्प भी अपने प्रति न जाय बल्कि विश्व के कल्याण के प्रति ही हो। ऐसी स्टेज को कहा जायेगा - सम्पूर्णअर्थात् सम्पन्न। अगर सम्पन्न नहीं तो सम्पूर्ण भी नहीं। क्योंकि सम्पन्न स्टेज ही सम्पूर्ण स्टेज है। तो ऐसे अपने पुरूषार्थ को और ही महीन करते जाना है। विशेष आत्माओं का पुरूषार्थ भी ज़रूर न्यारा होगा। तो क्या पुरूषार्थ में ऐसा परिवर्तन अनुभव होता जा रहा है? अभी तो दाता के बच्चे दातापन की स्टेज पर आने हैं। देना ही उनका लेना होना है। तो अब समय की समीपता के साथ सम्पन्न स्टेज भी चाहिए। आप आत्माओं की सम्पन्न स्टेज ही सम्पूर्णता को समीप लायेगी। तो आप लोग अभी स्वयं को चेक करें कि जैसे पहले अपने पुरूषार्थ में समय जाता था अभी दिन-प्रतिदिन दूसरों के प्रति ज्यादा जाता है? अपनी बाडी कॉनशस (Conscious) देह-अभिमान नेचरली ड्रामा अनुसार समाप्त होता जाएगा। सरकमस्टॉन्सेस प्रमाण भी ऐसे होता जाएगा। इससे ऑटोमेटिकली सोलकॉन्शस होंगे। कार्य में लगना अर्थात् सोलकॉ न्शस होना। बगैर सोलकॉन्शस के कार्य सफल नहीं होगा। तो निरन्तर आत्म-अभिमानी बनने की स्टेज स्वत: ही हो जायेगी। विश्व-कल्याणकारी बने हो या आत्म-कल्याणकारी बने हो? अपने हिसाब-किताब करने में बिजी हो या विश्व की सर्व-आत्माओं के कर्मबन्धन व हिसाब-किताब चुक्तु कराने में बिजी हो? किसमें बिजी हो? लक्ष्य रखा है, सदा विश्व-कल्याण के प्रति तन, मन, धन सभी लगाओ। अच्छा! ओम शान्ति।



14-04-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगठन की शक्ति - एक संकल्प

सर्व-श्रेष्ठ मत देने वाले, सदा अभूल बनाने वाले शिव-बाबा बोले –

सभी किस संकल्प में बैठे हो? सभी का एक संकल्प है ना? जैसे अभी सभी का एक संकल्प चल रहा था, वैसे ही सभी एक ही लगन अर्थात् एक ही बाप से मिलन की, एक ही अशरीरी-भवबनने के शुद्ध-संकल्प में स्थित हो जाओ। तो सभी के संगठन रूप का यह एक शुद्ध संकल्प क्या कर सकता है? किसी के भी और दूसरे संकल्प न हों। सभी एक-रस स्थिति में स्थित हों तो बताओ वह एक सेकेण्ड के शुद्ध संकल्प की शक्ति क्या कमाल कर देती है? तो ऐसे संगठित रूप में एक ही शुद्ध संकल्प अर्थात् एक-रस स्थिति बनाने का अभ्यास करना है। तब ही विश्व के अन्दर शक्ति सेना का नाम बाला होगा।

जैसे स्थूल सैनिक जब युद्ध के मैदान में जाते हैं तो एक ही ऑर्डर से एक ही समय वे चारों ओर अपनी गोली चलाना शुरू कर देते हैं। अगर एक ही समय, एक ही ऑर्डर से वे चारों ओर घेराव न डालें तो विजयी नहीं बन सकते। ऐसे ही रूहानी सेना, संगठित रूप में, एक ही इशारे से और एक ही सेकेण्ड में, सभी एक-रस स्थिति में स्थित हो जायेंगे, तब ही विजय का नगाड़ा बजेगा। अब देखो कि संगठित रूप में क्या सभी को एक ही संकल्प और एक ही पॉवरफुल स्टेज (Powerful Stage) के अनुभव होते हैं या कोई अपने को ही स्थित करने में मस्त होते हैं, कोई स्थिति में स्थित होते हैं और कोई विघ्न विनाश् करने में ही व्यस्त होते हैं? ऐसे संगठन की रिजल्ट में क्या विजय का नगाड़ा बजेगा?

विजय का नगाड़ा तब बजेगा जब सभी के सर्व-संकल्प, एक संकल्प में समा जायेंगे, क्या ऐसी स्थिति है? क्या सिर्फ थोड़ी सी विशेष आत्माओं की ही एक-रस स्थिति की अंगुली से कलियुगी पर्वत उठना है या सभी के अंगुली से उठेगा? यह जो चित्र में सभी की एक ही अंगुली दिखाते हैं उसका अर्थ भी संगठन रूप में एक संकल्प, एक मत और एक-रस स्थिति की निशानी है। तो आज बापदादा बच्चों से पूछते हैं कि यह कलियुगी पहाड़ कब उठायेंगे और कैसे उठायेंगे? वह तो सुना दिया, लेकिन कब उठाना है? (जब आप ऑर्डर करेंगे) क्या एक-रस स्थिति में एवर-रेडी  हो? ऑर्डर क्या करेंगे? ऑर्डर यही करेंगे कि एक सेकेण्ड में सभी एक-रस स्थिति में स्थित हो जाओ। तो ऐसे ऑर्डर को प्रैक्टिकल में लाने के लिए एवर-रेडी हो? वह एक सेकेण्ड सदा काल का सेकेण्ड होता है। ऐसे नहीं कि एक सेकेण्ड स्थिर हो फिर नीचे आ जाओ।

जैसे अन्य अज्ञानी आत्माओं को ज्ञान की रोशनी देने के लिये सदैव शुभ भावना व कल्याण की भावना रखते हुए प्रयत्न करते रहते हो। ऐसे ही क्या अपने इस दैवी संगठन को भी एक-रस स्थिति में स्थित करने के संगठन की शक्ति को बढ़ाने के लिए एक-दूसरे के प्रति भिन्न-भिन्न रूप से प्रयत्न करते हो? क्या ऐसे भी प्लान्स बनाते हो जिससे कि किसी को भी इस दैवी संगठन की मूर्त्त में एक-रस स्थिति का प्रत्यक्ष रूप में साक्षात्कार हो - ऐसे प्लान्स बनाते हो? जब तक इस दैवी संगठन की एक-रस स्थिति प्रख्यात नहीं होगी तब तक बापदादा की प्रत्यक्षता समीप नहीं आयेगी-ऐसे एवर-रेडी हो? जबकि लक्ष्य रखा है विश्व महाराजन् बनने का, इनडिपैन्डैन्ट राजा नहीं। ऐसे अभी से ही लक्षण धारण करने से लक्ष्य को प्राप्त करेंगे ना? हरेक ब्राह्मण की रेसपॉन्सीबिलिटी न सिर्फ अपने को एक-रस बनाना है लेकिन सारे संगठन को एक-रस स्थिति में स्थित कराने के लिये सहयोगी बनना है। ऐसे नहीं खुश हो जाना कि मैं अपने रूप से ठीक ही हूँ। लेकिन नहीं।

अगर संगठन में व माला में एक भी मणका भिन्न प्रकार का होता है तो माला की शोभा नहीं होती। तो ऐसे संगठन की शक्ति ही उस परमात्म-ज्ञान की विशेषता है। उत्तम ज्ञान और परमात्म-ज्ञान में अन्तर यह है। वहाँ संगठन की शक्ति नहीं होती लेकिन यहाँ संगठन की शक्ति है। तो जो इस परमात्म- ज्ञान की विशेषता है इससे ही विश्व में सारे कल्प के अन्दर वह समय गाया हुआ है। एक धर्म’, ‘एक राज्य’, ‘एक मत’ - यह स्थापना कहाँ से होगी? इस ब्राह्मण संगठन की विशेषता-देवता रूप में प्रैक्टिकल चलते हैं। इसलिये पूछ रहे हैं कि यह विशेषता, जिससे कमाल होनी है, नाम बाला होना है, प्रत्यक्षता होनी है, असाधारण रूप, अलौकिक रूप प्रत्यक्ष होना है, अब प्रत्यक्ष में हैं? इस विशेषता में एवर-रेडी हो? संगठन के रूप में एवर-रेडी? कल्प पहले का रिजल्ट (Result) तो निश्चित है ही लेकिन अब घूंघट को हटाओ सभी सजनियाँ घूंघट में हैं। अब अपने निश्चय को साकार रूप में लाओ। कहींकहीं साकार रूप, आकार में हो जाता है। इसको साकार रूप में लाना अर्थात् सम्पूर्ण स्टेज को प्रत्यक्ष करना है। उस दिन सुनाया था न कि परिवर्तन सभी में आया है लेकिन अब सम्पूर्ण परिवर्तन को प्रत्यक्ष करो। जब अपना भी वर्णन करते हो तो यही कहते हो - परिवर्तन तो बहुत हो गया है, ‘फिर भी’... यह फिर भी शब्द क्यों आता है? यह शब्द भी समाप्त हो जाये। हरेक में जो मूल संस्कार हैं, जिसको आप लोग नेचर कहती हो, वह मूल संस्कार अंश-मात्र में भी न रहे। अभी तो अपने को छुड़ाते हो। कोई भी बात होती है तो कहते हैं, मेरा यह भाव नहीं था। मेरी नेचर ऐसी है, मेरा संस्कार ऐसा है और ऐसी बात नहीं थी। तो क्या यह सम्पूर्ण नेचर है?

हरेक का जो अपना मूल संस्कार है वही आदि संस्कार है। उनको भी जब परिवर्तन में लायेंगे, तब ही सम्पूर्ण बनेंगे। अब छोटी-छोटी भूलें तो परिवर्तन करना सहज ही है। लेकिन अब लास्ट पुरूषार्थ अपने मूल संस्कारों को परिवर्तन करना है। तब ही संगठन रूप में एक-रस स्थिति बन जायेगी। अब समझा? यह तो सहज है ना-करना? कॉपी करना तो सहज होता है। अपना- अपना जो मूल संस्कार है, उसको मिटाकर बापदादा के संस्कारों को कॉपी करना सहज है या मुश्किल है? इसमें कॉपी भी रीयल हो जायेगी। सभी बापदादा के संस्कारों में समान हो। एक-एक बापदादा के समान हो गया फिर तो एक-एक में बापदादा के संस्कार दिखाई देंगे। तो प्रत्यक्षता किसकी होगी? बापदादा की। जैसे भक्ति-मार्ग में कहावत है जिधर देखते हैं उधर तू ही तू है। लेकिन यहाँ प्रैक्टिकल में दिखाई देखें, जिसको देखें वहाँ बापदादा के संस्कार ही प्रैक्टिकल में जहाँ देवें। यह मुश्किल है क्या? मुश्किल इसलिए लगता है जब फॉलो करने के बजाय अपनी बुद्धि चलाते हो। इसमें अपने ही संकल्प के जाल में फँस जाते हो। फिर कहते हो कैसे निकलें? और निकलने का पुरूषार्थ भी तब करते हो जब पूरा फँस जाते हो। इसलिये समय भी लगता है और शक्ति भी लगती है। अगर फॉलो करते जाओ तो समय और शक्ति दोनों ही बच जावेंगी और जमा हो जावेंगी। मुश्किल को सहज बनाने के लिये लास्ट पुरूषार्थ में सफलता प्राप्त करने के लिये कौन-सा पाठ पक्का करेंगे। जो अभी सुनाया कि फॉलो-फादर। यह तो पहला पाठ है। लेकिन पहला पाठ ही लास्ट स्टेज को लाने वाला है। इसलिए इस पाठ को पक्का करो। इसको भूलो मत। तो सदा काल के लिये अभूल, एक-रस बन जायेंगे। अच्छा।

ऐसे तीव्र पुरुषार्थी, सदा एक-रस, एक-मत, और एक ही के लगन में रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।

महावाक्यों का सार

1. जैसे सैनिक, एक ही ऑर्डर से, एक ही समय चारों ओर गोली चलाना शुरू कर देते हैं तभी विजयी बनते हैं अन्यथा विजयी बन नहीं सकते। ऐसे ही जब रूहानी सेना संगठित रूप से, एक सेकेण्ड में एक-रस स्थिति में स्थित होगी तब ही विजय का नगाड़ा बजेगा।

2. संगठन की शक्ति ही परमात्म-ज्ञान की विशेषता है। इसी कारण विश्व में सारे कल्प के अन्दर वह समय गाया हुआ है-एक धर्म, एक राज्य, एक मत और एक भाषा।

3. जैसे भक्ति मार्ग में कहावत है - जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है।लेकिन यहाँ प्रैक्टिकल में जहाँ देखें, जिसको देखें वहाँ बापदादा के संस्कार ही प्रैक्टिकल में दिखाई देवें। यह तब होगा जब बापदादा को फॉलो करेंगे।



19-04-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


प्रत्यक्षता का पुरूषार्थ

निकृष्ट से श्रेष्ठ तथा भाग्यहीन से भाग्यवान् बनाने वाले शिवबाबा बोले –

क्या आप अपने को बापदादा के समीप रहने वाले पद्मापद्म भाग्यशाली, श्रेष्ठ आत्माएं समझते हो? जो जिसके समीप रहने वाले होते हैं, उन में समीप रहने वाले के गुण स्वत: और सहज ही आ जाते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि संग का रंगअवश्य लगता है। तो आप आत्माएं, जो सदा बापदादा के समीप अर्थात् श्रेष्ठ संग में रहती हो, उन के गुण व संस्कार तो अवश्य बापदादा के समान ही होंगे? निरन्तर श्रेष्ठ संग में रहने वाले आप वत्स अपने में सदैव वह रूहानी रंग लगा हुआ अनुभव करते हो? क्या आप वत्स स्वयं को हर समय रूहानी रंग में रंगी हुई आत्माएं समझते हो? जैसे स्थूल रंग स्पष्ट दिखाई देता है, वैसे ही कुसंग में रहने वाली आत्माओं का मायावी रंग भी छिप नहीं सकता। बोलो, दिखाई देता है ना?

वत्सों ने सिर हिला कर कहा - हाँ।

तब वैसे ही श्रेष्ठ संग में रहने वालों का रूहानी रंग भी सभी को दिखाई देना चाहिए। कोई भी देखे तो उनको यह मालूम हो कि यह रूहानी रंग में रंगी हुई आत्माएं हैं। ऐसे सभी को मालूम होता है या अभी गुप्त हो? यह रूहानी रंग गुप्त ही रहना है क्या? प्रत्यक्ष कब होना है? क्या अन्त में प्रत्यक्ष होंगे? वह डेट कौन-सी होगी? अन्त की डेट सभी की प्रत्यक्षता के आधार पर है। ड्रामा प्लान अनुसार आप श्रेष्ठ आत्माओं के साथ पश्चाताप का सम्बन्ध है। जब तक पश्चाताप न किया है तब तक मुक्तिधाम जाने का वरसा भी नहीं पा सकते। इसीलिए जो निमित्त बनी हुई हैं उन से ही तो पूछेंगे ना? निमित्त कौन है? आप सभी हो ना? अभी अपने ही आगे अपने सम्पूर्ण स्टेज प्रत्यक्ष नहीं है तो औरों के आगे कैसे प्रत्यक्ष होंगे? क्या अपनी सम्पूर्ण स्टेज आप को श्रेष्ठ दिखाई देती है वह हाथ उठाओ। वास्तव में सम्पूर्ण स्टेज तो नॉलेज से सभी जानते हैं। लेकिन अपने-आप को क्या समझते हो? समीप के हिसाब से उस समान बनेंगे ना? तो अपनी सम्पूर्ण स्टेज दिखाई देती है?

मैं कौन हूँ?’ यह पहेली हल नहीं हुई है क्या? कल्प पहले मैं क्या थी, वह अपनी सम्पूर्ण स्टेज भूल गये हैं क्या? औरों को तो 5000 वर्ष की बात पहले याद दिलाती हो। पहले-पहले जब आते हैं तो पूछती हो ना कि पहले कभी मिले थे? जब औरों को कल्प पहले वाली बातें याद दिलाती हो तो याद दिलाने वालों को अपने-आप की तो याद होगी ना? दर्पण स्पष्ट नहीं है? जब दर्पण स्पष्ट होता है और पॉवरफुल  होता है तो जो जैसा है वह वैसे ही दिखाई देता है। आप विशेष आत्माएं और सर्व श्रेष्ठ आत्माएं क्या अपनी श्रेष्ठ स्टेज को देख नहीं पातीं? इतनी ही देरी है, विनाश के आने में, जब तक आप निमित्त बनी हुई आत्माओं को अपने सम्पूर्ण स्टेज का स्पष्ट साक्षात्कार हो जाए। अब बताओ विनाश में कितना समय है? जल्दी होना है कि देरी है?

आज सद्गुरूवार है ना? तो आज वतन में रूह-रिहान चल रही थी। कौनसी रूह-रिहान? वर्तमान स्टेज कहाँ तक नम्बरवार पुरूषार्थियों की चल रही है? इसमें रिजल्ट क्या निकली होगी? पहले प्रश्न की रिजल्ट में मैजारिटी 50% से ज्यादा नहीं निकले। वह पहला प्रश्न कौन-सा? इस वर्ष का जो महत्व सुनाया था और डायरेक्शन दिया था कि यह वर्ष विशेष रूप में याद की यात्रा में रहना है वा अव्यक्त स्थिति में स्थित रहते हुए वरदान प्राप्त करने हैं? तो डायरेक्शन प्रमाण जो वर्ष के आदि में अटेन्शन और स्थिति रही वह अभी है? जो अव्यक्त वातावरण व रूहानी अनुभव पहले किये क्या वही रूहानी स्थिति अभी है? स्टेज में व अनुभव में फर्क है? जैसे सभी सेवा-केन्द्रों का आकर्षणम य, वातावरण, जो आप सभी को भी आकर्षण करता रहा, वही क्या सर्विस करते हुए नहीं बन सकता है? इस प्रश्न के रिजल्ट में सुनाया कि 50% भी रिजल्ट नहीं था।

दूसरे प्रश्न में रिजल्ट 60% ठीक थी। वह कौन-सा प्रश्न? सर्विस की रिजल्ट वा उमंग उत्साह में रिजल्ट बहुत अच्छी है। लेकिन बैलेन्स कहाँ है? अगर बैलेन्स ठीक रखो तो बहुत शीघ्र ही मास्टर सक्सेसफुल हो कर अपनी प्रजा और भक्तों को ब्लिस (Bliss) देकर इस दु:ख की दुनिया से पार कर सकेंगे। अभी भक्तों की पुकार स्पष्ट और समीप नहीं सुनाई देती है क्योंकि आपको स्वयं ही अपनी स्टेज स्पष्ट नहीं हैं। यह है दूसरे प्रश्न की रिजल्ट।

तीसरा प्रश्न है, सम्पर्क वा सम्बन्ध में स्वयं अपने आप से सन्तुष्ट वा अन्य आत्माएं कहाँ तक सन्तुष्ट रहीं, सर्विस में वा प्रवृत्ति में। सेवा-केन्द्र भी प्रवृत्ति है ना? तो प्रवृत्ति में व सर्विस में सन्तुष्टता कहाँ तक रही? इसमें माइनॉरिटी पास हैं। मैजॉरिटी 50-50 है। अभी है, अभी नहीं है। आज है, कल नहीं है। इसको 50-50 कहते हैं। इन तीनों प्रश्नों से चलते हुए वर्ष की रिजल्ट स्पष्ट है ना? सुनाया था कि इस वर्ष में विशेष वरदान ले सकते हो? लेकिन एक मास ही वरदानी-मास समझ अटेन्शन रखा। अब फिर धीरे-धीरे समयानुसार वरदानी-वर्ष भूलता जा रहा है।

इसलिए जितना ही इस वरदानी वर्ष में वरदान लेने की स्मृति में रहेंगे तो सहज वरदान भी प्राप्त होंगे, और यदि विस्मृति हुई तो विघ्नों का सामना भी बहुत करेंगे। इसलिए चारों ओर सर्व ब्राह्मण परिवार की आत्माओं के आगे सर्वप्रकार के विघ्नों को मिटाने के लिए जैसे पहले मास में याद की वा लगन की अग्नि को प्रज्वलित किया वैसे ही अभी ऐसा ही अव्यक्त वातावरण बनाना। एक तरफ वरदान दूसरी तरफ विघ्न। दोनों का एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध है। सिर्फ अपने प्रति विघ्न-विनाशक नहीं बनना है। लेकिन अपने ब्राह्मण-कुल की सर्व-आत्माओं के प्रति विघ्न-विनाश करने के लिए सहयोगी बनना है ऐसी स्पीड तेज करो। बीच-बीच में चलते-चलते स्पीड ढीली कर देते हो। इसलिए प्रत्यक्षता होने में भी ड्रामा में इतनी देर दिखाई दे रही है। तभी तो स्वयं को भी प्रत्यक्ष कर सकेंगे। अपने में सर्वशक्तिवान का प्रत्यक्ष रूप अनुभव करो। एक दो शक्ति का नहीं, सर्वशक्तिवान् का। मास्टर सर्वशक्तिवान् हो, न कि दो चार शक्तिवान् की सन्तान हो? सर्वशक्तिवान् को प्रत्यक्ष करो। अच्छा।

मास्टर ब्लिसफुल, मास्टर नॉलेजफुल, मास्टर सक्सेसफुल, सर्व श्रेष्ठ, सदा रूहानी संग के रंग में रहने वाले विशेष आत्माओं को याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली की विशेष बातें

जैसे कुसंग में रहने वाली आत्माओं का मायावी रंग छिप नहीं सकता वैसे ही श्रेष्ठ संग में रहने वाली आत्माओं का रूहानी रंग भी दिखाई देना चाहिए। कोई भी देखे तो उनको यह मालूम हो कि ये रूहानी रंग में रंगी आत्माएं हैं।



21-04-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


जैसा नाम वैसा काम

पूज्यनीय बनाने वाले परम पूज्य पिता, राज़-युक्त बनाने वाले राज़दार, वरदानी, महादानी, मधुबन निवासी बहनों को देख शिवबाबा बोले:-

इस ग्रुप को कौन-सा नाम कहें? मधुबन निवासियों को क्या कहा जाता है? जो भी यहाँ बैठे हैं सभी अपने को ऐसा पद्मापद्म भाग्यशाली समझकर के चलते हो? मधुबन निवासियों के कारण ही मधुबन की महिमा है। मधुबन का वातावरण बनाने वाला कौन? तो जो मधुबन की महिमा गाई हुई है, क्या वही महिमा हरेक अपने जीवन में अनुभव करती हो?

मधुबन को महान् भूमि कहा जाता है। तो महान् भूमि पर निवास करने वाली अवश्य महान् आत्माएं ही होंगी। तो वे महान् आत्माएं हम हैं-क्या इस रूहानी नशे में रहती हो? महान् आत्मा जिसका हर कर्म और हर संकल्प महान् होता है। तो ऐसे महान् हो, जिसका एक संकल्प भी साधारण, कभी व्यर्थ न हो और एक कर्म भी साधारण वा बगैर अर्थ न हो क्योंकि उनका हर कदम, हर नजर अर्थ-सहित होता है। क्या ऐसी अर्थ-स्वरूप महान् आत्माएं हो? उनको कहा जाता है -- महान् अर्थात् मधुबन निवासी।

नाम तो मधुबन निवासी है तो ज़रूर अर्थ-सहित नाम होगा? तो ऐसे रोज का अपना पोतामेल चेक करते हो? कि जो-कुछ भी इन कर्मेन्द्रियों के द्वारा कर्म हुआ, वह अर्थ-सहित हुआ? समय भी जो बीता, वह सफल हुआ अर्थात् महान् कार्य में लगाया? ऐसा पोतामेल अपना देखती हो कि सिर्फ मोटी-मोटी बातें ही देखती हो? जो समझते हैं कि इसी प्रकार से हम अपनी चैकिंग करते हैं तो वे हाथ उठावें। महान् आत्माओं के हर कर्म का चरित्र के रूप में गायन होता है। महान् आत्माओं के हर्षितमूर्त्त, आकर्षण-मूर्त्त और अव्यक्त-मूर्त्त का मूर्ति के रूप में यादगार है। ऐसे अपने को देखो कि सारे दिन में जो हमारी-मूर्त्त व सीरत रहती है वह ऐसी है जो मूर्त्ति बन पूजन में आये और हमारे कर्म ऐसे हैं जो हमारे चरित्र रूप में गायन हों? यह लक्ष्य है ना?

जब यहाँ सीखने व पढ़ने आती हो तो अन्तिम लक्ष्य क्या है? वा संगमयुग का लक्ष्य क्या है? यही है ना? संगम युग का कर्म ही चरित्र के रूप में गायन होता है। संगम युग के प्रैक्टिकल जीवन, देवता के रूप में पूजे जाते हैं। तो वह कब होगा? अभी का गायन है तो अभी ही होगा ना? क्या सतयुग में ऐसी बनेंगी? वहाँ तो सभी हर्षित होंगे तो यह हर्षित मुख हैं, यह भी कहेगा कौन? यह तो अभी ही कहेंगे ना? जो सदा हर्षित नहीं रहते हैं वही वर्णन करेंगे कि यह हर्षितमुख हैं। ऐसी मूर्त्त वा ऐसे कर्म प्रैक्टिकल में हैं?

जैसे अभी सुनने के समय मुस्कराती हो अर्थात् महस्स करती हो, वह मुस्कराना कितना है? महसूस करती हो, तब तो मुस्कराती हो? तो ऐसे ही हर रोज अपने कर्म की महसूसता व चैकिंग करने से कोई भी पूछेगा तो फौरन जवाब देंगी। अभी सोचती हो कि हाथ उठावें कि नहीं उठावें? फलक से हाथ क्यों नहीं उठाती हो? संकोच भी क्यों होता है?-कारण? तो ऐसे ही अपनी सम्पूर्ण स्टेज को स्वरूप में लाओ। सिर्फ वाणी में नहीं। लेकिन स्वरूप में। जो कोई भी आप लोगों के सामने आये तो जैसे कि आप के जड़ चित्र के आगे जाते ही उन को महान् समझते अपने को पापी और नीच सहज ही समझ लेते हैं अर्थात्-एक सेकेण्ड में अपना साक्षात्कार कर लेते हैं। मूर्ति कहती तो नहीं है कि तुम नीच हो। लेकिन स्वयं ही साक्षात्कार करते हैं। ऐसे ही आप लोगों के सामने कोई भी आये तो ऐसे ही अनुभव करे कि यह क्या हैं और मैं क्या हूँ। यह स्टेज आनी तो है ना? वो कब आयेगी? जब कि ज्ञान का कोर्स समाप्त हो, रिवाइज़ कोर्स चल रहा है तो सिर्फ थ्योरी में रिवाइज़ हो रहा है या प्रैक्टिकल में? प्रैक्टिकल में भी कोर्स पूरा होना चाहिए ना? वा रिवाइज़ जब समाप्त होगा तब प्रैक्टिकल दिखायेंगे? क्या सोचा है? क्या इसके लिए समय का इन्तजार कर रही हो? समय आयेगा तो सभी ठीक हो जायेगा? क्या ऐसा समझती हो? यह क्लास कभी किया है? अपने पुरूषार्थ को तीव्र करने के लिए अपनी शक्ति अनुसार कभी प्लान्स बनाती हो या बना बनाया प्लान मिलेगा तो चलेंगी?

बापदादा तो यही देखते हैं कि जो मधुबन निवासी हैं वह सभी के सामने सैम्पल हैं। सैम्पल पहले तैयार किया जाता है ना? मधुबन निवासी सैम्पल हैं या फिर सैम्पल अब तैयार हुआ है? सैम्पल तैयार होता है तो उसकी तरफ इशारा कर बताया जाता है कि ऐसा माल तैयार हो रहा है। तभी फिर उसको देख दूसरे लोग सौदा करते हैं। पहले सैम्पल तैयार होने से बापदादा ऐसा इशारा दे दिखावें कि ऐसा बनना है। सैम्पल बनने के लिए कोई मुश्किल पुरूषार्थ नहीं है। बहुत सिम्पल पुरूषार्थ है। सिम्पल पुरूषार्थ एक शब्द में यही हुआ कि साथ में बाप का सिम्बल (Symbol) सामने रखो। एक शब्द का पुरूषार्थ तो बहुत हुआ ना? अगर सदा सिम्बल सामने हो तो पुरूषार्थ में सिम्पल हो जाए। पुरूषार्थ सिम्पल होने से सैम्पल बन जायेंगे।

मधुबन निवासियों को कितने इंजन लगे हुए हैं? (किसी ने कहा चार)। फिर तो सेकेण्ड में पहुँचना चाहिए। सभी से सहज पुरूषार्थ का लाभ वा गोल्डन चॉन्स मधुबन निवासियों को मिला हुआ है। यह भी मानती हो, मानने में, जानने में भी होशियार हो और बोलने में तो हो ही होशियार। बाकी मानने योग्य बनने में देरी क्यों? जितना माननीय योग्य बनेंगे उतना ही वहाँ पूजनीय योग्य बनेंगे। यहाँ आपके कर्म को देखने वाले अगर श्रेष्ठ नहीं मानते हों, तो पूजने वाले भी श्रेष्ठ मानकर पुजारी कैसे बनेंगे? जितना माननीय उतना पूजनीय का हिसाब है। जो पूजनीय बनेंगे उनको देख हर्षित होते हैं। अब बनना है वा सिर्फ देखकर हर्षित होना है? जितना साज-युक्त हो उतना ही राज़युक्त बनो। साज़ बजाने में होशियार हो ना? साज सुनने के इच्छुक भी कितने होंगे! इसमें तो पास हो ना? जितना साज़-युक्त उतना राज़युक्त बनो। राज़युक्त जो होता है उनके हर कदम में राज़ भरा हुआ होता है। ऐसे राज़-युक्त वा साज़-युक्त दोनों का बैलेन्स ठीक रखना है।

मधुबन निवासी मोस्ट लक्की स्टार्स हैं। जितना लक्की हो उतना सर्व के लवली भी बनो। सिर्फ लक्क में खुश न होना। लक्की की परख लवली से होती है। जो लक्की होगा वह सर्व का लवली ज़रूर होगा। अभी देखते और चलते, सर्व को स्नेह देने व करने का कार्य करना है। ज्ञान देना और लेना यह स्टेज तो पास की। अभी स्नेह की लेन-देन करो। जो भी सामने आये, सम्बन्ध में आये तो स्नेह देना और लेना है। इसको कहा जाता है सर्व के स्नेही व लवली। ज्ञान का दान ब्राह्मण को तो नहीं करना है, वह तो अज्ञानियों को करेंगे। ब्राह्मण परिवार में फिर इस दान के महादानी बनो। जैसे गायन है ना दे दान तो छूटे ग्रहण। जो भी कमजोरियाँ रही हुई हैं वह सभी प्रकार के ग्रहण इस महादान से छूट जायेंगे। समझा? अभी देखेंगे इस दान में कौन-कौन महादानी बनते हैं। स्नेह सिर्फ वाणी का नहीं होता है लेकिन संकल्प में भी किसके प्रति स्नेह के सिवाय और कोई उत्पत्ति न हो। जब सभी के प्रति स्नेह हो जाता है तो स्नेह का रिसपॉन्स सहयोग होता है। और सहयोग की रिजल्ट सफलता होती है। जहाँ सर्व का सहयोग होगा तो वहाँ सफलता सहज होगी। तो सभी सफलता मूर्त्त बन जायेंगे। अब यह रिजल्ट देखेंगे। अच्छा।

इस मुरली के विशेष तथ्य

1. महान् आत्मा वह जिसका हर संकल्प, हर कर्म महान् हो। एक संकल्प भी साधारण व व्यर्थ न हो, कोई भी कर्म साधारण व बगैर अर्थ न हो तो चेक करो कि इन कर्मेन्द्रियों द्वारा जो भी कर्म हुआ, वह अर्थ सहित हुआ, समय को सफल कार्य में लगाया? महान् आत्माओं का हर कर्म चरित्र के रूप में गायन होता है।

2. जैसे आप के जड़ चित्रों के आगे जाकर खुद ही झुक जाते हैं। अपने को नीच और मूर्त्ति को महान् समझते हैं। मूर्त्ति कहती तो नहीं कि तुम नीच हो। लेकिन स्वयं ही अपना साक्षात्कार करते हैं। ऐसे ही आप लोगों के सामने कोई भी आये तो ऐसा अनुभव करे कि यह क्या हैं और हम क्या हैं?

3. सैम्पल तैयार होने पर ही इशारा कर बताया जाता है कि ऐसा माल तैयार हो रहा है। फिर उसको देख दूसरे लोग सौदा करते हैं। सैम्पल बनने के लिये सदा बाप का सिम्बल सामने रखो।


 


24-04-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अलौकिक जन्म-पत्री

ज्ञान के सागर, सर्व महान्, श्रेष्ठ मत के दाता, कर्मों की रेखाओं के ज्ञाता, सर्व आत्माओं के पिता शिव बोले:-

इस समय सभी मास्टर सर्वशक्तिवान् स्वरूप में स्थित हो? एक सेकेण्ड में अपने इस सम्पूर्ण स्टेज पर स्थित हो सकते हो? इस रूहानी ड्रिल के अभ्यासी बने हो? एक सेकेण्ड में जिस स्थिति में अपने को स्थित करना चाहो, उसमें स्थित कर सकते हो? जितना समय और जिस समय चाहें तभी स्थित हो जाओ, इसमें अभ्यासी हो, कि अभी तक भी प्रकृति द्वारा बनी हुई परिस्थितियाँ अवस्था को अपनी तरफ कुछ-न-कुछ आकर्षित कर लेती हैं? सभी से ज्यादा अपनी देह के हिसाब-किताब, रहे हुए कर्म-भोग के रूप में आने वाली परिस्थितियाँ अपनी तरफ आकर्षित करती हैं? यह भी आकर्षण समाप्त हो जाये, इसको कहा जाता है - सम्पूर्ण नष्टोमोह:। जिस वस्तु से मोह अर्थात् लगन होती है, वह अपनी तरफ बार-बार आकर्षित करती है। कोई भी देह की वा देह की दुनिया की परिस्थिति स्थिति को हिला नहीं सके इसी स्थिति का ही गायन गाया हुआ है। अंगद के रूप में जो कल्प पहले का गायन है-यही सम्पूर्ण स्टेज है। जो बुद्धि रूपी पाँव को प्रकृति की परिस्थितियाँ हिला नहीं सकें, ऐसे बने हो? लक्ष्य तो यही है ना? अभी तक लक्ष्य और लक्षण में अन्तर है। कल्प पहले के गायन और वर्तमान प्रैक्टिकल जीवन में अन्तर है। इस अन्तर को मिटाने के लिये तीव्र पुरूषार्थ की युक्ति कौन-सी है? जब युक्तियों को जानते भी हो फिर अन्तर क्यों? क्या नेत्र नहीं हैं? या नेत्र भी हैं लेकिन नेत्र को योग्य समय पर यूज़ (Use) करने की योग्यता नहीं है?

जितनी योग्यता, उतनी महानता दिखाई देती है? महानता की कमी के कारण जानते हो? जो मुख्य मान्यता सदैव सुनाते भी रहते हो। उस मान्यता की महीनता नहीं है। महीनता आने से महावीरता आ जाती है। महावीरता अर्थात् महानता। तो फिर कमी किस बात की रही - महीनता की। महीन वस्तु तो किसी में भी समा सकती है। बिना महीनता के कोई भी वस्तु जहाँ जैसा समाना चाहे वैसे समा नहीं सकती। जितनी जो वस्तु महीन होती है उतनी माननीय होती है। पॉवरफुल होती है।

तो अपने-आप से पूछो कि पहली मान्यता व सर्व मान्यताओं में श्रेष्ठ मान्यता कौन-सी है? श्रीमत ही आपकी मान्यता है तो पहली मान्यता क्या है? (देह सहित सभी कुछ भूलना) छोड़ो या भूलो, भूलना भी छोड़ना है। पास रहते भी अगर भूले हुए हैं तो छोड़ा हुआ है। भूलना भी गोया छोड़ना है। जैसे देखो सन्यासियों के लिए आप लोग चैलेंज करते हो कि उन्होंने छोड़ा नहीं है। कहते हैं घर-बार छोड़ा है लेकिन छोड़ा नहीं है क्योंकि भूले हुए नहीं हैं। ऐसे ही अगर सरकमस्टान्सिज (Circumstances) प्रमाण बाहर के रूप से अगर छोड़ा भी अर्थात् किनारा भी किया लेकिन मन से यदि भूले नहीं तो क्या उसको छोड़ना कहेंगे? यहाँ छोड़ने का अर्थ क्या हुआ? मन से भूलना। मन से तो आप भूले हो ना? तो छोड़ा है ना या कि अभी भी छोड़ना है? अगर अभी तक भी कहेंगे कि छोड़ना है तो फिर बहुत समय से छोड़ने वालों की लिस्ट से निकल, अभी से छोड़ने वालों की लिस्ट में आ जायेंगे।

जिन्होंने जब से मन से त्याग किया अर्थात् कोई भी देह के बन्धन व देह के सम्बन्ध को एक सेकेण्ड में त्याग कर दिया उन की वह तिथि-तारीख और वेला सभी ड्रामा में व बापदादा के पास नूँधी हुई है। जैसे आजकल ज्योतिषी, ज्योतिष विद्या को जानने वाले जन्म की तिथि और वेला के प्रमाण अपनी यथा-योग्य नॉलेज के आधार से भविष्य जन्मपत्री बनाते हैं। उन्हों का भी आधार तिथि और वेला पर होता है। वैसे यहाँ भी मरजीवा जन्म की तिथि वेला और स्थिति है। वे लोग परिस्थिति को देखते हैं किस परिस्थिति में पैदा हुआ। यहाँ उस वेला के समय स्थिति को देखा जाता है। जन्मते ही किस स्थिति में रहे, उसी आधार पर यहाँ भी हरेक के भविष्य प्रारब्ध का आधार है। तो आप लोग भी इन तीनों बातों की तिथि, वेला और स्थिति को जानते हुए अपने संगमयुग की प्रारब्ध व संगमयुग की भविष्य स्थिति और भविष्य जन्म की प्रारब्ध अपने-आप भी जान सकते हो। एक-एक बात की प्राप्ति प्रैक्टिकल जीवन के साथ सम्बन्धित है। यह है ही अपने तकदीर को जानने का नेत्र। इससे आप हरेक अपनी फाइनल स्टेज (Final Stage) के नम्बर को जान सकते हो।

जैसे ज्योतिषी हस्तों की लकीरों द्वारा किसी की भी जन्म-पत्री को जान सकते हैं, वैसे आप लोग मास्टर त्रिकालदर्शी, त्रिनेत्री व ज्ञानस्वरूप अर्थात् मास्टर नॉलेजफुल होने के नाते अपने मरजीवा जीवन की प्रैक्टिकल कर्म रेखाओं से, संकल्पों की सूक्ष्म लकीरों से अगर संकल्प को चित्र में लायेंगे तो किस रूप में दिखावेंगे? अपने संकल्पों की लकीरों के आधार पर व कर्मों की रेखाओं के आधार पर अपनी जन्मपत्री को जान सकते हो कि संकल्प रूपी लकीरें सीधी अर्थात् स्पष्ट हैं? कर्म की रेखायें श्रेष्ठ अर्थात् स्पष्ट हैं! एक तो यह चेक करो कि बहुत काल से स्थिति में व सम्पर्क में श्रीमत के प्रमाण बिताया है? यह है काल अर्थात् समय को देखना। समय अर्थात् वेला का प्रभाव भी जन्मपत्री पर बहुत होता है। तो यहाँ भी समय अर्थात् बहुत समय के हिसाब से सम्बन्ध रखता है। बहुत समय का मतलब यह नहीं कि स्थूल तारीखों व वर्षों के हिसाब से नहीं, लेकिन जब से जन्म लिया तब से बहुत समय की लगन हो। सभी सब्जेक्टस् में यथार्थ रूप से कहाँ तक बहुत समय से रहते आये हैं, इसका हिसाब जमा होगा। मानो कोई को 35 वर्ष हुए हैं लेकिन अपने पुरूषार्थ की सफलता में बहुत समय नहीं बिताया है तो उनकी गिनती बहुत समय में नहीं आयेगी। अगर कोई 35 वर्ष के बदले 15 वर्ष से आ रहे हैं लेकिन 15 वर्ष में बहुत समय पुरूषार्थ की सफलता में रहा है तो उनकी गिनती जास्ती में आयेगी। बहुत समय स्Ìफलता के आधार पर गिना जाता है। तो वेला का आधार ही हुआ ना?

बहुत समय के लगन में मग्न रहने वाले को प्रारब्ध भी बहुत समय तक प्राप्त होती है। अल्प काल की सफलता वालों की अल्पकाल अर्थात् 21 जन्मों में थोड़े जन्म की ही प्रारब्ध होती है। बाकी साधारण प्रारब्ध। इसलिये ज्योतिषी लोग भी वेला को महत्व देते हैं। बहुत काल से निर्विघ्न अर्थात् कर्मों की रेखा क्लियर हो, उसका आधार जन्मपत्री पर होता है। जैसे हस्तों की लाइन में अगर बीच-बीच में लकीर कट होती हैं तो श्रेष्ठ भाग्य नहीं गिना जाता है व बड़ी आयु नहीं मानी जाती है। वैसे ही यहाँ भी अगर बीच-बीच में विघ्नों के कारण बाप से जुटी हुई बुद्धि की लाइन कट होती रहती है, व क्लियर नहीं रहती है तो बड़ी प्रारब्ध नहीं हो सकती।

अभी अपने-आपको जान सकेंगे कि हमारी जन्मपत्री क्या है? किस पद की प्राप्ति नूँधी हुई है? जन्मपत्री में दशायें भी देखते हैं। जैसे बृहस्पति की दशा रहती है। क्या बहुत समय बृहस्पति की दशा रहती है या बार-बार दशा बदलती रहती है? कभी बृहस्पति की, कभी राहू की? अगर बार-बार बदलती है अर्थात् निर्विघ्न नहीं है तो प्रारब्ध भी बहुत समय के लिए निर्विघ्न राज्य में नहीं पा सकते। तो यह दशायें चेक करो कि शुरू से लेकर अभी तक कौनसी दशा रही है?

जन्मपत्री में राशि देखते हैं। यहाँ कौन-सी राशि है? यहाँ तीन राशि हैं। एक है महारथी की राशि, दूसरी है घोड़े सवार की और तीसरी है प्यादे की। इन तीनों में से अपनी राशि को भी देखो कि शुरू से अर्थात् जन्म से ही पुरूषार्थ की राशि महारथी की रही, या घुड़सवार या प्यादे की रही है? इस राशि के हिसाब से भी जन्मपत्री का मालूम पड़ जाता है। मास्टर त्रिकालदर्शी का ज्ञान-स्वरूप बन अपनी जन्मपत्री स्वयं ही चेक करो और अपने भविष्य को देखो। राशि को व दशा को व लकीरों को बदल भी सकते हैं। परखने के बाद, चेक  करने के बाद, फिर चेंज (Change) करने का साधन अपनाना। स्थूल नॉलेज में भी कई साधन बताते हैं। यहाँ तो साधन को जानते हो ना? तो साधनों द्वारा सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त करो। समझा?

ऐसे ज्ञान-स्वरूप, बुद्धि द्वारा सिद्धि को प्राप्त करने वाले, सम्पूर्णता को अपने जीवन से प्रत्यक्ष दिखलाने वाले, सदा अपनी स्व-स्थिति से परिस्थिति को पार करने वाले महावीरों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। अच्छा! ओम् शान्ति।

इस मुरली की विशेष बातें

कोई भी देह की वा देह की दुनिया की परिस्थिति, स्थिति को हिला न सके इसी स्थिति का ही तो गायन है अंगदके रूप में, जो बुद्धि रूपी पाँव को प्रकृति की परिस्थितियाँ हिला न सकीं।



04-05-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अधिकारी और अधीन  

सर्वशक्तिवान् नम्बरवन आर्टिस्ट बनाने वाले, भाग्य विधाता, सर्व-आत्माओं की तकदीर जगाने वाले बाबा बोले:-

जितनी आवाज़ में आने की प्रैक्टिस (Practice) निरन्तर और नेचरल (Natural) रूप में है, ऐसे ही आवाज़ से परे अपनी आत्मा के स्वधर्म, शान्त स्वरूप की स्थिति का अनुभव भी नेचरल रूप में और निरन्तर करते हो? दोनों अभ्यास समान रूप में अनुभव करते हो या 84 जन्मों के शरीरधारी बनने के संस्कार बहुत कड़े हो गये हैं? 84 जन्म वाणी में आते रहते हो और 84 जन्मों के संस्कारों को एक सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो अर्थात् वाणी से परे स्थिति में स्थित हो सकते हो या वे संस्कार बार-बार अपनी तरफ आकर्षित करते हैं? क्या समझते हो? 84 जन्मों के संस्कार प्रबल हैं या इस सुहावने संगमयुग के एक सेकेण्ड में अशरीरी, वाणी से परे अपनी अनादि स्टेज (Stage) का अनुभव भी प्रबल है? उसकी तुलना में वह स्टेज पॉवरफुल  है जो अपनी तरफ आकर्षित कर सके या 84 जन्मों के संस्कार पॉवरफुल हैं? वह 84 जन्म हैं और यह एक सेकेण्ड का अनुभव है। फिर भी पॉवरफुल अनुभव कौन-सा है? क्या समझते हो? ज्यादा आकर्षण कौन करता है? वह अनुभव या यह अनुभव? वाणी में आने का संस्कार या वाणी से परे होने का अनुभव?

वास्तव में यह एक सेकेण्ड का अनुभव बहुत समय के अनुभव का आधार है, एक सेकेण्ड में अनेक प्राप्तियों को अनुभव कराने वाला है। इसलिये यह एक सेकेण्ड अनेक वर्षों के समान है। ऐसा अनुभव करते हो ना? जब चाहें और जैसे अपने मुख को चलाना चाहें वैसे चलायें। सेकेण्ड इसको कहा जाता है। इस शरीर को चलाने वाले मास्टर मालिकपन की स्टेज। तो मालिक बने हो? शरीर के मालिक बने हो? मालिक कौन बन सकता है, यह जानते हो? मालिक वह बन सकता है जो पहले बालक बन जाये। अगर बालक नहीं बनते तो आप अपने शरीर का मालिक भी नहीं बन सकते। सर्वशक्तिवान् के बालक अपनी प्रकृति के मालिक नहीं होंगे? जब यह स्मृति स्वरूप हो जाते हैं कि हम बालक सो मालिक हैं, अभी इस प्रकृति के मालिक हैं और फिर विश्व का मालिक बनना है अर्थात् जितना बालकपन याद रहेगा उतना मालिक-पन का नशा रहेगा, खुशी रहेगी, और इस मस्ती में मग्न रहेंगे। अगर किसी भी समय प्रकृति के आधीन हो जाते हैं तो उसका कारण क्या है? अपनी मास्टर सर्वशक्तिवान् की स्टेज को भूल जाते हैं। अपने अधिकार को सदैव सामने नहीं रखते हैं। अधिकारी कभी किसी के आधीन नहीं होते।

अपने को एवर-रेडी  और ऑलराउण्डर (Allrounder) समझते हो? एवर-रेडी का अर्थ क्या है? कैसी भी परिस्थिति हो, कैसी भी परीक्षायें हों लेकिन श्रीमत प्रमाण जिस स्थिति में स्थित होना चाहते हो, क्या उसमें स्थित हो सकते हो? ऑर्डर पर एवर-रेडी हो? ऑर्डर अर्थात् श्रीमत। तो ऐसे एवर-रेडी हो जो संकल्प भी श्रीमत प्रमाण चले? ऐसे एवररेड़ी हो? श्रीमत है-एक सेकेण्ड में साक्षी अवस्था में स्थित हो जाओ, तो उस साक्षी अवस्था में स्थित होने में एक सेकेण्ड के बजाय अगर दो सेकेण्ड भी लगाये तो क्या उसको एवररेडी कहेंगे? जैसे मिलिट्री को ऑर्डर होता है-स्टॉप तो फौरन स्टॉप हो जाते हैं। स्टॉप कहने के बाद एक पाँव भी आगे नहीं बढ़ा सकते हैं। इसी प्रमाण श्रीमत मिले व डायरेक्शन मिले और एक सेकेण्ड में उस स्थिति में स्थित हो जायें दूसरा सेकेण्ड भी न लगे-इसको कहा जाता है एवर-रेडी। ऐसी स्टेज में एक सेकेण्ड में उस स्थिति में स्थित हो जायें।

एक सेकेण्ड में अपने को स्थित करने के इस पुरूषार्थ को ही तीव्र पुरूषार्थ कहा जाता है। सभी तीव्र पुरुषार्थी हो ना? पुरुषार्थी की स्टेज से अभी पार हो गये हो ना? क्या सभी अभी तीव्र पुरुषार्थी की स्टेज पर पहुंच गये हैं? ऐसे अपने को अनुभव करते हो? जरा भी संकल्पों की हलचल न हो, ऐसी स्टेज अनुभव करते जा रहे हो? इसी हिसाब से सभी एवर-रेडी हो? शक्ति सेना तो एवर-रेडी बन गई ना? शस्त्रधारी शक्ति सेना इस स्थिति तक पहुंच गयी है, या पहुँचे कि पहुँचे? क्या अभी पहुंचे नहीं हैं? क्या समझते हो? इसमें पाण्डव नम्बर वन हैं या शक्तियाँ? कमाल यह है कि पाण्डव वातावरण व वायुमण्डल के सम्पर्क में आते हुए भी अपनी स्थिति को ऐसा बना लें जैसे अपनी कार हो या कोई भी सवारी हो तो उसको जहाँ चाहो, वहाँ रो सकते हो कि नहीं? ऐसे अपनी हर कर्म-इन्द्रियों को जब चाहो जैसे चाहो वहाँ लगाओ और जब न लगाना हो तो कर्म-इन्द्रियों को कन्ट्रोल कर सको। अपनी बुद्धि को जहाँ चाहो, जितना समय चाहो, उतना समय उस स्थिति में स्थित कर सकते हो ना? क्या पाण्डव फर्स्ट (First) नहीं हैं? या जिस बात में अपना बचाव हो उसमें शक्तियों को आगे करते हैं और क्या शक्तियों को ढाल बनाते हो? शक्तियाँ भी कम नहीं। शक्तियाँ पाण्डवों को एकस्ट्रा हैल्प दे देंगी। शक्तियाँ महादानी हैं तो ऐसे एवर-रेडी बनाना है।

अच्छा, ऑलराउण्डर का अर्थ समझते हो? ऑलराउण्डर का अर्थ क्या है? ऑलराउण्डर तो हो ना? सम्पूर्ण स्टेज में ऑलराउण्डर की स्टेज कौनसी है? इसमें तीन विशेष बातें ध्यान में रखने की हैं। जो ऑलराउण्डर होगा वह एक तो सर्विस में रहेगा, दूसरा स्वभाव व संस्कार में भी सभी से मिक्स हो जाने का उसमें विशेष गुण होगा। तीसरा कोई भी स्थूल कार्य जिसको कर्मणा कहा जाता है उसी कर्मणा की सब्जेक्ट में भी जहाँ उसको जिस समय फिट करना चाहे वहाँ ऐसे फिट हो जाये जैसे कि बहुत समय से इसी कार्य में लगा हुआ है, कोई नया अनुभव न हो। हर कार्य में अति पुराना और जानने वाला दिखाई दे। जो तीनों ही बातों में जो हर समय फिट हो जाते व लग जाते हैं उसको कहा जाता है-ऑलराउण्डर। क्योंकि इस एक-एक बात के आधार पर कर्मों की रेखायें बनती हैं व आत्मा में संस्कारों का रिकार्ड (Record) भरता है। इसलिये इन सभी बातों का प्रारब्ध से बहुत कनेक्शन है।

अगर किसी भी बात में 90% है, 10% की कमी है तो प्रारब्ध में भी इतनी थोड़ी-सी कमी का भी प्रभाव पड़ता है। इस सूक्ष्म कमी के कारण ही नम्बर घट जाते हैं। वैसे देखेंगे कि जो हम-शरीक पुरुषार्थी दिखाई देते हैं उनमें मुख्य बातें एक-दूसरे में समान दिखाई देंगी लेकिन यदि महीन रूप से देखेंगे तो कोई- न-कोई परसेन्टेज में कमी होने के कारण हम-शरीक (बराबरी के) दिखाई देते हुए भी नम्बर में फर्क पड़ जाता है। तो इससे अपने नम्बर को जान सकते हो कि हमारा नम्बर कौन-सा होगा? तीनों ही बातों में परसेन्टेज कितनी है? तीनों ही बातें मुझ में हैं, सिर्फ इसमें ही खुश नहीं होना है। इससे नम्बर नहीं बनेंगे। कितनी परसेन्टेज में हैं उस प्रमाण नम्बर बनेंगे। तो ऐसे एवररेड़ी और ऑलराउण्डर बने हैं?

लक्ष्य तो सभी का फर्स्ट का है ना? लास्ट में भी अगर आये तो क्या हर्जा, ऐसा लक्ष्य तो नहीं है ना? अगर यह लक्ष्य भी रखते हैं कि जितना मिला उतना ही अच्छा तो उसको क्या कहा जायेगा? ऐसी निर्बल आत्मा का टाइटल कौन-सा होगा? ऐसी आत्माओं का शात्रं में भी गायन है। एक तो टाइटल बताओ कौन-सा है, दूसरा बताओ उनका गायन कौन-सा है? ऐसी आत्माओं का गायन है कि जब भगवान् ने भाग्य बाँटा तो वे सोये हुए थे। अलबेलापन भी आधी नींद है। जो अलबेलेपन में रहते हैं, वह भी नींद में सोने की स्टेज है। अगर अलबेले हो गये तो भी कहेंगे कि सोये हुए थे? ऐसे का टाइटल क्या होगा? ऐसे को कहा जाता है - आये हुए भाग्य को ठोकर लगाने वाले। भाग्यविधाता के बच्चे भी बने अर्थात् अधिकारी भी बने, भाग्य सामने आया अर्थात् बाप भाग्यविधाता सामने आया। सामने आये हुए भाग्य को बनाने की बजाय ठोकर मार दी तो ऐसे को क्या कहेंगे?-’भाग्यहीन। वे कहीं भी सुख नहीं पा सकते। ऐसे तो कोई बनने वाले नहीं हैं ना? अपनी तकदीर बनाने वाले हो? जैसी तकदीर बनायेंगे वैसा भविष्य प्रारब्ध रूपी तस्वीर बनेगी!

अपनी भविष्य तस्वीर को जानते हो? अपनी तस्वीर बनाने वाले आार्टिस्ट हो ना? तो कहाँ तक अपनी तस्वीर बना चुके हो, स्वयं तो जानते हो ना? अभी तस्वीर बना रहे हो या सिर्फ फाइनल टचिंग (Final Touching) की देरी है? तस्वीर बना चुके हो तो वह ज़रूर सामने आयेगी। अगर सामने नहीं आती तो बनाने में लगे हुये हो। बन गई तो वह फिर बार-बार सामने आयेगी। तो सभी नम्बर वन आार्टिस्ट हो, सेकेण्ड या थर्ड तो नहीं हो? कोई-कोई आार्टिस्ट अच्छे होते हैं। लेकिन फराकदिल नहीं होते तो कुछ कमी कर देते हैं। तो जैसे आार्टिस्ट अच्छे हों, सामान भी बहुत अच्छा मिला हुआ हो तो वैसे फराकदिल भी बनो। अर्थात् अपने संकल्प, कर्म, वाणी, समय, श्वास सभी खजानों को फराकदिल से यूज़ (Use) करो तो तस्वीर अच्छी बन जायेगी। कइयों के पास होते हुए भी वे यूज़ नहीं करते हैं। एकॉनामी करते हैं। इसमें जितना फराकदिल बनेंगे उतना फर्स्ट क्लास (First Class) बनेंगे। समय की भी एकॉनामी नहीं करनी है। इसी कार्य में लगाने में एकॉनामी नहीं करनी है। व्यर्थ कार्य में लगाने में एकॉनामी करो। श्रेष्ठ कार्य में एकॉनामी नहीं करनी है। सुनाया था ना! यथार्थ एकॉनामी कौन-सी है? एकनामी बनना। एक का नाम सदा स्मृति में रहे। ऐसा एकनामी एकॉनामीकर सकता है। जो एकनामी नहीं वह यथार्थ एकॉनामी नहीं कर सकता। कितना भी भले प्रयत्न करे।

तो ऐसे सदा स्वधर्म अर्थात् वाणी से परे स्थिति में स्थित रहते हुए वाणी में आने वाले व सदैव सर्वशक्तियों को कार्य में लगाने वाले मास्टर सर्वशक्तिवान्, एवर-रेडी, ऑलराउण्डर बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।

शिव बाबा के महावाक्यों का सार

1. संगमयुग के एक सेकेण्ड का अनुभव बहुत समय के अनुभव का आधार है। यह एक सेकेण्ड अनेक प्राप्तियों का अनुभव कराने वाला है इस लिए यह एक सेकेण्ड अनेक वर्षों के समान है।

2. जैसे अपनी कार या कोई भी सवारी को जहाँ चाहें, वहाँ रोक सकते हैं, ऐसे ही अपनी हर कर्मेन्द्रिय को जहाँ और जैसे लगाना चाहें वहाँ लगा सकें, और अपनी स्थिति जैसी बनाना चाहें, बना सकें-इसी को ही कहा जाता है एवर-रेडी या तीव्र पुरुषार्थी।



08-05-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्वोच्च स्वमान

सर्व खजानों से भरपूर करने वाले, महादानी, वरदानी, महात्यागी व पद्मापद्म भाग्यशाली बनाने वाले, वरदानीमूर्त्त शिवबाबा बोले:-

वर्तमान समय अपने-आप को किस स्वमान में समझते हो? अपने स्वमान को जानते हो? सभी से बड़े-से-बड़ा स्वमान अभी ही है यह तो जानते ही हो। लेकिन वह कौन-सा स्वमान है? बड़े-से बड़ा स्वमान अभी कौन-सा है। जिसको वर्णन करने में ही दिखाई पड़े कि इससे बड़ा स्वमान कोई हो नहीं सकता? वह कौन-सा है? इस समय का बड़े-से-बड़ा स्वमान यही हुआ कि बाप के भी अभी तुम मालिक बनते हो।विश्व के मालिक बनने से पहले विश्व के रचयिता के भी मालिक बनते हो। शिव बाबा के भी मालिक हो। इसलिए वालेकम सलामकहते हैं। सुपात्र बच्चा बाप का भी मालिक है। इस समय बाप को भी अपना बना लिया है। सारे कल्प में बाप को ऐसे अपना नहीं बना सकते हो। अभी तो जब चाहो, जिस रूप में चाहो, उस रूप से बाप को अपना बना सकते हो। बाप भी इस समय किस बन्धन में है? (बच्चों के बन्धन में)। तो रचयिता को भी बन्धन में बाँधने वाले, ऐसा स्वमान फिर कब अनुभव करेंगे? रचयिता को सेवाधारी बनाने वाले-बाप को गुलाम बना दिया ना, अपनी सेवा के लिये। यह है शुद्ध स्वमान। इसमें अभिमान नहीं होता है। जहाँ स्वमान होता है, वहाँ अभिमान नहीं होता है। बाप को सेवाधारी बनाया लेकिन अभिमान नहीं आयेगा। तो अपने ऐसे शुद्ध स्वमान में-जहाँ अभिमान का नाम निशान नहीं है इस स्थिति में स्थित रहते हो?

जैसे बाप सदैव हाँ बच्चे, मीठे बच्चे, विश्व के मालिक बच्चे समझ कर अपना सिरताज बनाते हैं, ऐसे सिरताज स्थिति में स्थित रहते हो? ब्राह्मणों की चोटी का स्थान कहाँ होता है? सिर के ऊपर है न। तो ब्राह्मण चोटी अर्थात् बाप के सिरताज। तो जैसे बाप सदैव बच्चों को स्वमान देते हुए आप समान बनाते हैं, ऐसे आप सभी भी हर -- एक आत्मा को सदा स्वमान देते बाप समान बनाते रहते हो? यह सदा स्मृति में रहता है कि इस समय सिवाय एक बाप से लेने के और सभी को देना है? तुम आत्माओं को आत्माओं से लेना नहीं है परन्तु उन्हें देना है। सिर्फ एक बाप से ही लेना है। जो लिया है, वह देना है। दाता है ना? यह सदा स्मृति में रहता है? अथवा जहाँ देना है, वहाँ भी लेने की इच्छा रखते हो? अगर आत्मा, आत्मा द्वारा कुछ-भी लेने की इच्छा रखती है तो वह प्राप्ति क्या होगी? अल्प काल की होगी न? अल्पज्ञ आत्माओं से अल्पकाल की ही प्राप्ति होगी। सर्वज्ञ बाप से सदाकाल की प्राप्ति होगी। तो जहाँ से लेना है वहाँ ले रहे हैं और जहाँ देना है वहाँ दे रहे हो? अथवा कभी बदली कर देते हो? अगर आत्मा, आत्मा को कुछ देती भी है तो बाप से लिया हुआ ही तो देगी ना? जरा भी किसी प्रकार की लेने की इच्छा, अपने स्वमान से गिरा देती है।

जब आप लोग भी किसी आत्मा को बाप द्वारा मिला हुआ ख़ज़ाना देने के निमित्त भी बनती हो तो भी स्मृति क्या रहती है? आत्मा के पास अपना कुछ है क्या? बाप के दिये हुए को ही अपना बनाया है। जब औरों को भी देने के निमित्त बनते हो, उस समय अगर यह स्मृति में नहीं रहता कि बाप का ख़ज़ाना दे रहे हैं तो उन आत्माओं को श्रेष्ठ सम्बन्ध में जोड़ नहीं सकते हो। क्या ऐसी स्मृति में रहते हुए हर कर्म करते हो? नशा भी रहे अपने श्रेष्ठ स्वमान का। उनके साथ-साथ और क्या रहता है? (खुशी)। जितना बुद्धि में नशा होगा, उतनी ही कर्म में नम्रता-इस नशे की निशानी यह है। नशा भी ऊँचा होगा लेकिन कर्म में नम्रता रहेगी। नयनों में सदैव नम्रता होगी। इसलिए इस नशे में कभी नुकसान नहीं होता है। समझा?

सिर्फ नशा नहीं रखना। एक तरफ अति नशा, दूसरी तरफ अति नम्रता। जैसे सुनाया कि ऊँच-ते ऊँच बाप भी बच्चों के आगे गुलाम बन कर आते हैं तो नम्रता हुई ना? जितना ऊँच उतनी ही नम्रता-ऐसा बैलेन्स रहता है? अथवा जिस समय नशे में रहते हो, तो कुछ सुझता ही नहीं? क्योंकि जब अपने इस स्वमान के नशे में रहते हैं कि हम विश्व के रचयिता के भी मालिक हैं तो ऐसे नशे में रहने वाले का कर्त्तव्य क्या होगा? विश्व का कल्याण नम्रता के बिना हो नहीं सकता। बाप को भी अपना तब बनाया जब बाप भी नम्रता से बच्चों का सेवाधारी बना। ऐसे ही फॉलो फादर।

हर समय यह चेक करो कि बाप से कितने खजाने मिले हैं? मालूम है कितने खजानों के मालिक हो?-(अनगिनत) फिर भी मुख्य तो वर्णन करने में आते हैं ना? इस संगमयुग में मुख्य कितने खजाने हैं? आप लोगों को कितने मिले हैं? सभी से बड़े-से-बड़ा ख़ज़ाना तो बाप मिला। पहले नम्बर का ख़ज़ाना तो ये है ना? जैसे किसी को चाबी मिल जाय तो गोया सब मिल गया। बाप मिल गया अर्थात् सभी कुछ मिल गया। और क्या मिला? वह भी साथ-साथ वर्णन करो। ज्ञान भी है और अष्ट-शक्तियाँ भी हैं। एक-एक शक्ति को अलग- अलग वर्णन करो तो अलग-अलग शक्ति भी खजाने के रूप में है। इस प्रकार जो बाप के गुण वर्णन करते हो, वह गुण भी खजाने के रूप में वर्णन कर सकते हो। इस रीति से इस अमूल्य संगमयुग के समय का एक सेकेण्ड भी ख़ज़ाना है। जैसे खजाने से प्राप्ति होती है वैसे इस संगमयुग के एक-एक सेकेण्ड से श्रेष्ठ प्राप्ति कर सकते हो। तो यह संगम का समय अर्थात् एक-एक सेकेण्ड अनेक पद्मों से ज्यादा बड़ा ख़ज़ाना है। अगर अनेक पद्म इकठ्ठा करो और संगमयुग का एक सेकेण्ड दूसरी तरफ रखो तो भी श्रेष्ठ संगम का ही एक सेकेण्ड गिना जायेगा। क्योंकि इस एक सेकेण्ड में ही सदा काल के प्रारब्ध की प्राप्ति होती है। सभी को सुनाते हो न - एक सेकेण्ड में मुक्ति और जीवनमुक्ति का वर्सा ले सकते हो। तो एक सेकेण्ड की भी वैल्यु हो गई ना? तो संगम का समय भी बहुत बड़ा खज़ाना है।

अब इतने सभी खजाने चेक करो कि हम इन खजानों को अपने अन्दर कितना धारण कर सके हैं? अथवा ऐसा तो नहीं कि कोई खज़ाना धारण हुआ है और कोई नहीं हुआ है? किसी भी खज़ाने से अधूरे तो नहीं रह गये हो? वंचित तो होंगे नहीं लेकिन यदि अधूरी प्राप्ति की, तो भी चन्द्रवंशी हो गये, सूर्यवंशी नहीं हुए। सूर्यवंशी अर्थात् सम्पन्न। किसी भी बात में यदि सम्पन्न नहीं तो सूर्यवंशी नहीं कहेंगे। तो सभी खज़ानों को सामने रखते हुए अपने-आप को चेक करो कि यह कहाँ तक है, कितनी अन्दाज़ में हैं? ऐसा तो नहीं कि थोड़े में ही खुश हो गये हैं।

तो इन सभी खज़ानों को चेक करना और साथ-साथ यह भी चेक करो कि जो भी खज़ाने मिले हैं उनके महादानी बने हो या अपने प्रति ही रख लिया है? महादानी जो होते हैं वह अपना भी दूसरों को दे देते हैं, लेकिन फिर भी वे भिखारी नहीं बनते। क्योंकि जो देते हैं वो उनके पास ऑटोमेटिकली बढ़ता है। तो यह भी देखो कि पवित्रता का खज़ाना कहाँ तक अनेक आत्माओं को दान दिया है? अतीन्द्रिय सुख का खज़ाना भी देखना है कि ज्यादा अपने प्रति लगाते हो या विश्व की सेवा अर्थ लगाते हो? अपनी प्राप्ति तो कर ली ना? लेकिन अभी की स्टेज विश्व की सेवा के प्रति लगाने की है। तो यह चेक करो कि हर खज़ाना अपने प्रति कहाँ तक लगाया है? और दूसरों के प्रति कहाँ तक लगाते हैं? सम्पूर्ण स्टेज इसको कहा जाता है। क्या सर्व खज़ाने औरों के प्रति लगाये? अगर अपने पुरूषार्थ के प्रति ही ज्ञान का ख़ज़ाना व शक्तियों का खज़ाना लगाते रहते हो तो वह भी सम्पूर्ण स्टेज नहीं हुई। अब दूसरों के प्रति लगाने का समय है। अगर अभी तक भी सर्वशक्तियों को अपने प्रति ही प्रयोग करते रहेंगे तो दूसरों के लिए महादानी व वरदानी कब बनेंगे? अब ऐसा अभ्यास करो जो अपने प्रति लगाना न पड़े। अगर सभी खज़ाने दूसरों के प्रति लगाते रहेंगे तो आप खाली हो जायेंगे क्या?

जैसे बाप अपने रेस्ट का समय जो कि शरीर के लिए आवश्यक है वह भी अपने प्रति न लगाकर विश्व-कल्याण अर्थ लगाते रहते थे ऐसे सर्वशक्तियाँ भी विश्व-कल्याण-प्रति लगें न कि अपने प्रति। जब सभी को बाप-समान बनना है तो बाप-समान स्टेज भी तो धारण करेंगे न? दूसरों को देने लग जायेंगे तो ही अपने-आपको सर्व बातों में सम्पन्न होने का अनुभव करेंगे। दूसरों को पढ़ाने में अपने को पढ़ाना ऑटोमेटिकली हो जायेगा। अभी डबल अर्थात् दूसरों में अलग, अपने में अलग टाइम लगाते हो। अभी एक ही समय में डबल काम करो। क्योंकि समय कम है। समय कम होता है तो डबल कोर्स की स्टडी करते हैं, यह भी ऐसे है। समय समीप आ रहा है। तो दूसरों को देने के साथ-साथ अपना जमा करो। अपने प्रति न लगाओ। अगर अभी तक भी अपने प्रति लगाते और समय गंवाते रहेंगे तो विश्व के महाराजन् नहीं बन सकेंगे। लक्ष्य तो विश्व महाराजन् बनने का है ना?

शुरू में जब ज्ञान गंगायें निकलीं तो उस समय की सेवा की विशेषता क्या थी? उस समय के निकले हुए वारिस और इस समय की निकली हुई आत्माओं में अन्तर क्यों? सर्विस तो अब ज्यादा हो रही है लेकिन वारिस दिखाई नहीं देते-क्यों? कारण, विस्तार में तो बहुत है, लेकिन मूल कारण क्या है? उस समय अपना-पन नहीं था, विश्व के कल्याण-अर्थ अपना सभी कुछ देना है, वह भावना थी। एकनामी और एकॉनॉमी (Economy) वाले थे। सभी खज़ानों की एकॉनॉमी थी। व्यर्थ नहीं गंवाते थे। समय, शक्ति जो ली है, वह औरों को देनी है। अर्थात् महादानी-पन की स्टेज थी। क्योंकि विशेष निमित्त बनी हुई थीं। तो उस समय की स्टेज और अभी की स्टेज देखो कितना फर्क है। अभी पहले अपने साधन सोचेंगे, पीछे सर्विस के साधन अर्थात् पहले सालवेशन (Salvation) पीछे सर्विस (Service)। परन्तु शुरू में था पहले सर्विस, फिर सालवेशन मिले, न मिले। सालवेशन से सर्विस करनी है यह संकल्प-मात्र में भी नहीं था। साधन हो तो सर्विस हो, साथी हो तो सर्विस हो, धरनी हो तो सर्विस हो-यह संकल्प नहीं थे। जहाँ जाओ, जैसी परिस्थिति हो और जैसा प्रबन्ध हो, सहनशक्ति से सेवा को बढ़ाना है। यह महादानी की स्टेज है।

स्वयं के त्याग से औरों का भाग्य बनता है। जहाँ स्वयं का त्याग नहीं वहाँ औरों का भाग्य नहीं बनता। बाप ने स्वयं का त्याग किया, तभी तो आप अनेक आत्माओं का भाग्य बना। तो शुरू की स्थिति में स्वयं के सभी सुखों का त्याग था इससे यह भाग्य बने। अब जितना त्याग, उतना भाग्य बना रहे हो औरों का। इसलिए वारिस छिप गये हैं। तो अब फिर से वही महादानी बनने का संस्कार व सदा सर्व प्राप्ति होते हुए भी और सर्व साधन होते हुए भी साधन में न आओ, साधना में रहो। अभी साधना कम है, साधन ज्यादा हैं। पहले साधन कम थे, साधना ज्यादा थी। इसलिए अभी निरन्तर उस साधना में रहो अर्थात् साधन होते हुए भी त्याग वृत्ति में रहो। जिससे थोड़े समय में ऊंची आत्माओं का भाग्य बना सको। बापदादा ने सभी के हाथ में अब आत्माओं के भाग्य की रेखा लगाने की अथॉरिटी दी है। तो ऐसा न हो कि अपने त्याग की कमी के कारण अनेक आत्माओं के भाग्य की रेखा सम्पन्न न कर सको। बहुत जिम्मेवारी है। जैसे-जैसे समय समीप आता जा रहा है, वैसे-वैसे संकल्प भी व्यर्थ न गंवाने की जिम्मेवारी हरेक आत्मा के ऊपर बढ़ती जा रही है। अभी अपना बचपन नहीं समझना। बचपन में जो किया वह अच्छा लगता था। बच्चे का अलबेलापन अच्छा लगता है, बड़प्पन नहीं और बड़ों का फिर अलबेलेपन अच्छा नहीं लगता है इसलिये समय के प्रमाण अपने स्वमान को कायम रखते हुए जिम्मेवारी को सम्भालते जाओ। समझा?

अच्छा ऐसे बाप को सर्व-सम्बन्धों से अपना बनाने वाले, सदा सर्व-खजाने सर्व-आत्माओं के प्रति दान देने वाले महादानी, वरदानी, महात्यागी और पद्मापद्म भाग्यवान बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।



16-05-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अन्तिम पुरूषार्थ

मूर्च्छित को सुरजीत करने वाले, सर्व को सहयोग देने वाले, मनुष्यात्माओं को देव-आत्मा बनाने वाले, सर्वशक्तिमान् बाबा बोले:-

सर्वशक्तियों से सम्पन्न-मूर्त्त क्या स्वयं को अनुभव करते हो? बापदादा द्वारा इस श्रेष्ठ जन्म का वर्सा क्या प्राप्त हो गया है? वर्से के अधिकारी अर्थात् सर्वशक्तियों के अधिकारी बनना, सर्वशक्तियों के अधिकारी अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान् बने हो? मास्टर सर्वशक्तिवान् बनने से जो प्राप्ति स्वरूप अनुभव करते हो क्या उसी अनुभव में निरन्तर स्थित रहते हो वा इसमें अन्तर रहता है? वर्से के अधिकारी बनने में सिर्फ जो दो बातें बुद्धि में रखने से अन्तर समाप्त हो निरन्तर वह स्थिति बना सकते हो वे दो शब्द कौन-से हैं? वह जानते भी हो, और कर भी रहे हो, लेकिन निरन्तर नहीं करते हो? एक है स्मृति को यथार्थ बनाने का, दूसरा है कर्म को श्रेष्ठ बनाने का। वे दो शब्द कौन-से हैं? एक है स्मृति को पॉवरफुल  बनाने के लिये सदा कनेक्शन (Connection) और कर्म को श्रेष्ठ बनाने के लिए सदा अपनी करेक्शन (Correction) चाहिए। करेक्शन हर कर्म में न होने के कारण मास्टर सर्वशक्तिवान् वा ऑलमाईटी अथॉरिटी की स्टेज (Stage) पर निरन्तर स्थित नहीं हो पाते हो। यह दोनों शब्द कितने सरल हैं। यहाँ आए भी इसलिए हो ना? जिस कर्त्तव्य के लिए आए हो उसको करना मुश्किल होता है क्या?

मुश्किल किसको अनुभव होता है? जो कमजोर होते हैं। वे मुश्किल अनुभव क्यों करते हैं? कनेक्शन जुटे हुए भी कभी-कभी मुश्किल अनुभव करते हैं। वह इसलिए मुश्किल अनुभव होता है, क्योंकि मेहनत नहीं करते। जानते भी हैं, समझते भी हैं, चलते भी हैं लेकिन चलते-चलते फिर विश्रामपसन्द हो जाते हो। बापदादा के पसन्द नहीं, लेकिन आराम पसन्द। इसलिए जानते हुए भी ऐसी स्थिति बन जाती है। तो बाप-समान श्रेष्ठ कर्म करने में आराम-पसन्दी श्रेष्ठ स्थिति को नहीं पा सकते। इसलिए हर संकल्प और हर कर्म की करेक्शन करो। और बापदादा के कर्मों से कनेक्शन जोड़ो फिर देखो कि बाप-समान हैं? अभी आप श्रेष्ठ आत्माओं का लास्ट  पुरूषार्थ कौन-सा रह गया है? लास्ट स्टेज के लास्ट पेपर के क्वेश्चन को जानते हो? जानने वाला तो ज़रूर पास होगा ना? आप सभी फाईनल (Final) परीक्षा के लास्ट क्वेश्चन को जानते हो? आप का लास्ट क्वेश्चन आपके भक्तों को भी पता है। वह भी वर्णन करते हैं। आपको भक्त जानते हैं और आप नहीं जानते हो? भक्त आप लोगों से होशियार हो गए हैं क्या?

आज श्रेष्ठ आत्माओं के कल्प पहले की रिजल्ट का भक्तों को मालूम है और आप लोगों को अपने वर्तमान पुरूषार्थ के फाईनल स्टेज भूल गई है। वह लास्ट स्टेज बार-बार सुनते हो। गायन भी करते हैं। गीता के भगवान् के द्वारा गीता-ज्ञान सुनने के बाद फाईनल स्टेज कौन-सी वर्णन करते हो? (नष्टोमोहा.....स्मृतिर्लब्धा) भक्त आपकी स्टेज का वर्णन तो करते हैं ना? तो लास्ट पेपर का क्वेश्चन कौन-सा है? स्मृति स्वरूप किस स्टेज तक बने हो और नष्टोमोह: कहाँ तक बने हो?-यही है लास्ट क्वेश्चन। इस लास्ट क्वेश्चन को पूर्ण रीति से प्रैक्टिकल में करने के लिए यही दो शब्द प्रैक्टिकल में लाने हैं। अभी तो सभी पास विद् ऑनर बन जायेंगे ना? जबकि फाईनल रिजल्ट से पहले ही क्वेश्चन एनाउन्स (Announce) हो रहा है। फिर भी 108 ही निकलेंगे। इतना मुश्किल है क्या? पहले दिन से यह क्वेश्चन मिलता है। जिस दिन जन्म लिया उस दिन ही लास्ट क्वेश्चन सुनाया जाता है।

अभी आप लोग जो श्रेष्ठ आत्माएं बैठे हो वह तो पास होने वाले हो ना? सुनाया था कि पास होने के लिये इस पासशब्द को दूसरे अर्थ से प्रैक्टिकल में लाओ। जो कुछ हुआ वह पास हो गया। जो बीत चुका उसको अगर पास समझ कर चलते चलो तो क्या पास नहीं होंगे? इसी पास शब्द को हिन्दी भाषा में प्रयोग करो तो पास अर्थात् साथ। बापदादा के पास हैं। तो इस एक शब्द को तीनों ही रूप से स्मृति में रखो। पास हो गया, पास रहना है और पास होना है। तो रिजल्ट क्या निकलेगी? संगठन की यादगार जो विजय माला के रूप में गाई हुई है उसी विजय माला के मणके अवश्य बन जायेंगे। अगर बापदादा बच्चों को सदैव अपने पास रहने का निमन्त्रण देते हैं, अपने साथ हर चरित्र अनुभव कराने का निमन्त्रण देते हैं तो ऐसा श्रेष्ठ निमन्त्रण स्वीकार नहीं करते हो क्या? सारे कल्प के अन्दर आत्माओं को श्रेष्ठ आत्मा द्वारा वा साधारण आत्मा द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार के निमन्त्रण मिलते रहे लेकिन यह निमन्त्रण अभी नहीं तो कभी नहीं। निमन्त्रण को स्वीकार करना अर्थात् अपने आपको बाप के पास रखना। यह क्या मुश्किल है? निमन्त्रण पर सिर्फ स्वयं को पहुँचना होता है। बाकी सभी निमन्त्रण देने वाले की जिम्मेवारी है। तो अपने आप को बाप के पास ले जाना अर्थात् बुद्धि से बाप के पास रहना इसमें क्या मेहनत है? अगर आज की दुनिया में किसी साधारण व्यक्ति को प्रेजीडेन्ट निमन्त्रण दे कि आज से तुम मेरे साथ रहना तो क्या करेंगे? (साहस नहीं रखेंगे) अगर वह साहस दिलाये तो क्या करेंगे? क्या देरी वरेंगे? तो बाप के निमन्त्रण को सदा स्वीकार क्यों नहीं करते हो? कोई रस्सियाँ हैं जो कि खींचती हैं? बच्चे पॉवरफुल हैं या बाप? पॉवरफुल से पॉवरफुल कौन? कौन कितना भी पॉवरफुल हो, लेकिन उससे प्राप्ति क्या? प्राप्ति के अनुभवी स्वरूप के आधार पर उस आकर्षण में आकर्षित होना क्या ब्राह्मण आत्माओं के लिए शोभता है? ब्राह्मण आत्माओं के लिए वा श्रेष्ठ आत्माओं के लिए प्रभावशाली माया भी किस रूप में दिखाई देती है? कागज़ का शेर अनुभव होता है? जो समझते हैं वह प्रभावशाली माया हमारे लिए कागज़ अर्थात् खिलौना है वह अपना हाथ उठावें।

क्या माया को कागज़ का शेर नहीं बनाया है? क्या वह बेजान नहीं है? जो स्वयं डेकोरेशन को लगाते हैं वे तो डरेंगे नहीं, लेकिन दूसरे डर सकते हैं। अभी उसमें जान है क्या? कभी-कभी जानवाली बन जाती है क्या? अभी उनको मूर्छित नहीं किया है? मूर्छित हो गई है कि अभी वह जिन्दा है। मूर्छित किया है? आप के लिये मर चुकी है? किस स्टेज तक है? मर चुकी है, जल गई है या मूर्छित है? तीन स्टेजिस हैं। कोई के लिए मूर्छित रूप में है, कोई के लिए मर चुकी है और कोई के लिए जल भी गई है अर्थात् नाम निशान नहीं रहा है। तो हर एक अपने को देखे कि किस स्टेज तक पहुँचे हैं? मूर्छित करने के बजाय स्वयं तो मूर्छित नहीं हो जाते हैं? सदा संजीवनी बूटी साथ है तो कभी भी मूर्छित नहीं हो सकते। मूर्छित करने वाले कभी मूर्छित नहीं होते। ब्राह्मण जन्म का कर्त्तव्य ही यह है। जन्म लेने से पहले प्रतिज्ञा क्या की थी? यही प्रतिज्ञा की थी ना कि माया जीत जगतजीत बनेंगे। यह तो जन्म का ही कर्त्तव्य है। जो जन्म से कर्त्तव्य करते आये हो वह क्या मुश्किल होता है? अच्छा।

सदा सुरजीत रहने वाले, सदा सर्वशक्तियों से सम्पन्न रहने वाले, सदा बापदादा के साथ रहने वाले, सदा बाप के कर्त्तव्य में हाथ बढ़ाने वाले, सदा सहयोगी, सदा विजयी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते!

पार्टी के साथ

बापदादा के लिये गुलदस्ता पार्टी है। उसमें देखना है कि मैं कौन-सा फूल हूँ, गुलाब हूँ या चमेली हूँ? हर एक की विशेषता को तो आप जानते हो ना? कमल और गुलाब में क्या अन्तर है? कमल का पुष्प कमाल करने में प्रवीण। अनुभव करने में गुलाब का फूल है। यहाँ बापदादा स्वयं ही फूलों में सर्व विशेषताए  भर रहे हैं। साइंस (साइंस) वाले भी एक में कई चीजें पैदा करते हैं ना? यह कहाँ से सीखा? यहाँ एक-एक में अनेक प्रकार के फूलों का रस भरना। जो गायन है तुम्हारी गत-मत तुम्हीं जानोक्या से क्या बना देना यही गत है ना? एक-एक में सब रस भर देना, सर्व-पुष्पों की जो भी विशेषताये हैं उनमें सर्व पुष्पों की विशेषता भरना है तभी तो कहा जाता है- सर्वगुण सम्पन्न, सर्व रसना सम्पन्न, न कि चौदह कला। सर्व-पुष्पों की रसना समान सम्पन्न बनना यही बाप को प्यारा लगता है। बागवान भी बगीचे को देख हर्षित होते हैं। जहाँ देखो, जो सुनो, और जो बोलो उसमें विशेषता। अपने में हर बात की विशेषता भरो। जब हर बात में विशेषता भरेंगे तो क्या बन जायेंगे? विशेष आत्मा कभी कीचड़ में नहीं फँसती। सदैव हर्षित रहती है। निश्चय बुद्धि के एक-एक बात में निश्चय होना चाहिए। चतुर बाप की सन्तान हैं। जो बहु रूपी बनना जानता है वह हर बात में सफलता-मूर्त्त होगा। अच्छा।



17-05-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


जैसा लक्ष्य वैसा लक्षण

ज्ञान का सागर, सर्व शक्तिवान्, आनन्द का सागर, दया का सागर, कल्याणकारी बाबा बोले:-

जो विशेषतायें बाप की हैं क्या वह अपने में अनुभव करते हो? जैसे सभी को अपनी इस पढ़ाई के मुख्य चार सब्जेक्ट्स सुनाते हो ना वैसे मुख्य विशेषतायें भी चार हैं क्या उनको जानते हो? चार सब्जेक्ट्स के प्रमाण चार विशेषतायें हैं-नॉलेजफुल, (Knowledgeful) पॉवरफुल सर्विसएबल’  और ब्लिसफुल (Blissful)। यह मुख्य चार विशेषतायें क्या अपने में अनुभव करते हो? इन चारों की परसेन्टेज में बहुत अन्तर है या थोड़ा?

फॉलो-फादर करने वाले हो ना? चारों ही जो सब्जेक्ट्स हैं वह जीवन में नेचरल (Natural) रूप में हैं कि अभी उतराई चढ़ाई का नेचरल रूप है? कितना परसेन्टेज नेचरल रूप में है? चौदह कला तक नेचरल रूप हुआ है? सम्पूर्ण स्टेज को पाने के लिए अब पुरूषार्थ की स्पीड (Speed) तेज नहीं होगी, तो क्या समय के अनुसार अपने को सम्पन्न बना सकेंगे? टेम्पररी (Temporary) कार्य के लिए बापदादा की व अपनी मत के अनुसार जो स्टेज बनती है, वह दूसरी बात है लेकिन लास्ट स्टेज के प्रमाण क्या ऐसी स्पीड में आगे जा रहे हो? क्या अपनी स्पीड से सन्तुष्ट हो? इसके लिए भी प्लान  बनता है या कि सिर्फ सर्विस के ही प्लान बनाते हो?

जैसे सर्विस के भिन्न-भिन्न प्लान्स बनाते हो तो क्या वैसे ही अपनी स्पीड से संतुष्ट रहने के लिए भी कोई प्लान बनाते हो? जो प्रैक्टिकल में प्राप्ति या सफलता होती है उसी अनुसार ही स्पीड तेज होगी। जब अपनी स्पीड से संतुष्ट हो तो फिर पॉवरफुल प्लान बनाना चाहिए ना? अगर देखते हो सर्विस में सफलता कम है तो क्या इसके लिये कुछ नई बातें सोचते हो? भिन्न-भिन्न रीति से चला कर क्या इस धरती को ठीक करने का भी प्र्यत्न करते हो? स्वयं न कर पाते हो तो संगठन के सहयोग से भी इसको ठीक करते हो ना? वैसे इस बात के लिये इतना ही स्पष्ट है? इतनी लगन है अपने प्रति? कितनी फिक्र है? क्या प्लान बनाते हो? क्या अपनी स्पीड को बढ़ाने के लिए कोई नया प्लान बनाया है? क्या एकान्त में रह, याद की यात्रा बढ़ाने का प्लान बनाते हो?

जैसे जो विशेष सर्विस की स्टेज पर आने वाले हैं उन को अपने हर कार्य को सैट करने का अनुभव करने का प्लान बनाना पड़ता है ना? वैसे ही अमृत वेले अपने पुरूषार्थ की उन्नति का प्लान सैट करना है। आज किस विषय पर वा किस कमजोरी पर विशेष अटेन्शन (Attention) देकर इसकी परसेन्टेज बढ़ावे। हर-एक अपनी हिम्मत के अनुसार वह प्लान-बुद्धि में रखे कि आज के दिन में क्या प्रैक्टिकल में लायेंगे और कितनी परसेन्टेज तक इस बात को पुरूषार्थ में लायेंगे? अपनी दिनचर्या के साथ यह सैट करो और फिर रात को यह चेक करो कि अपनी सैट की हुई प्वॉइन्ट को कहाँ तक प्रैक्टिकल में और कितनी परसेन्टेज तक धारण कर सके? यदि नहीं कर सके तो उसका कारण? और किया तो किस-किस विशेष युक्ति से अपने में उन्नति का अनुभव किया? यह दोनों रिजल्ट सामने लानी चाहिये और अगर देखते हो कि जो आज का लक्ष्य रखा था उस में उतनी सफलता नहीं हुई वा जितना प्लान बनाया उतना प्रैक्टिकल नहीं हो पाया तो उसको छोड़ नहीं देना चाहिये।

जैसे स्थूल कार्य में लक्ष्य रखने से अगर किसी कारण वश वह अधूरा हो जाता है तो उसको सम्पन्न करने का प्रयत्न करते हो न? वैसे ही रोज के इस कार्य को लक्ष्य रखते हुए सम्पन्न करना चाहिए। एक बात में विशेष अटेन्शन होने से विशेष बल मिलेगा। कोई भी कार्य करते हुए स्मृति आयेगी और स्मृति-स्वरूप भी हो ही जायेंगे। जैसे एक्स्टर्नल नॉलेज (External Knowledge) में भी अगर कोई पाठ पक्का किया जाता है तो जैसे उसको दोबारा, तीसरी बार, चौथी बार पक्का किया जाता है और उसे छोड़ नहीं दिया जाता, तो ऐसे ही इसमें भी अपना लक्ष्य रख कर एक-एक बात को पूरा करते जाओ। इसमें अलबेलापन नहीं चाहिए। सोच लिया, प्लान बना लिया, लेकिन प्रैक्टिकल करने में यदि कोई परिस्थिति सामने आये तो संकल्प की दृढ़ता होगी कि करना ही है तो उतनी ही दृढ़ता सम्पूर्णता के समीप लावेगी। वर्तमान समय प्लान भी है लेकिन इसमें कमी क्या है? दृढ़ता की। दृढ़ संकल्प नहीं करते हो। विशेष रूप में अटेन्शन देकर दिखावे की वह कमजोरी है। महारथियों को अर्थात् सर्विसएबल श्रेष्ठ आत्माओं को सर्विस के साथ सैल्फ-सर्विस (Self-Service) का भी अटेन्शन चाहिए।

एक है सैल्फ-सर्विस (Self-Service) दूसरी विश्व-कल्याण के प्रति सर्विस। क्या दोनों का बैलेन्स (Balance) ठीक रहता है? अभी इस प्रमाण अपने श्रेष्ठ संकल्प को प्रैक्टिकल में लाओ। सिर्फ सोचो नहीं। जैसे लोगों को भी कहते हो ना कि सोचते-सोचते समय न बीत जाए। इसी प्रकार अपनी उन्नति के प्लान सोचने के साथ-साथ प्रैक्टिकल में दृढ़-संकल्प से करो। अगर रोज एक विशेषता को सामने रखते हुए अपने प्लान को प्रैक्टिकल में लाओ तो थोड़े ही दिनों में अपने में महान् अन्तर महसूस होगा। इस विशेष वरदान भूमि में अपनी उन्नति के प्रति भी कुछ प्लान बनाते हो वा सिर्फ सर्विस करके, मीटिंग कर के चले जाते हो। अपनी उन्नति के लिए रात का समय तो सभी को है। जब विशेष सर्विस प्लान प्रैक्टिकल में लाते हो तो क्या उन दिनों में निद्राजीत नहीं बनते हो? अपनी उन्नति के प्रति अगर निद्रा का भी त्याग किया तो क्या समय नहीं मिल सकता है? यहाँ तो और कार्य ही क्या है? जैसे और प्लान्स बनाते हो वैसे अपनी उन्नति के प्रति भी कोई विशेष प्लान प्रैक्टिकल में लाना चाहिए। यहाँ जो भी उन्नति का साधन प्रैक्टिकल में लायेंगे उसमें सभी तरफ से सहयोग की लिफ्ट मिलेगी। जो लक्ष्य रखते हो इस प्रमाण प्रैक्टिकल में लक्षण नहीं हो पाते, जब कि कारण को भी और निवारण को भी समझते हो?

नॉलेजफुल तो हो गए हो बाकी कमी क्या है जो कि प्रैक्टिकल में नहीं हो पाता? पॉवरफुल न होने के कारण नॉलेज को प्रैक्टिकल में नहीं कर पाते हो। पॉवरफुल बनने के लिए क्या करना पड़े?-प्रैक्टिकल प्लान बनाओ। अगर अभी तक आप लोग ही तैयार नहीं होंगे तो आप लोगों की वंशावली कब तैयार होगी? प्रजा कब तैयार होगी? इस बारी प्रैक्टिकल में कुछ करके दिखाना। पुरूषार्थ में हरएक के बहुत अच्छे अनुभव होते हैं। जिस अनुभव के लेन-देन से एक-दूसरे की उन्नति के साधन सुनते अपने में भी बल भर जाता है। ऐसा क्लास कभी करते हो? अच्छा। ओम् शान्ति।



25-05-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


भविष्य प्लान

विश्व-परिवर्तक, विश्व-कल्याणकारी, वरदानी व महादानी, नज़र से निहाल करने वाले बाबा बोले:-

अपने को विश्व-परिवर्तक व विश्व-कल्याणकारी समझते हो? विश्व की हर आत्मा को सन्देश देने वाले समझते हुए विश्व में कहाँ तक सन्देश दे पाये हैं, इसका हिसाब-किताब निकालते रहते हो? जहाँ-जहाँ सन्देश देने का कर्त्तव्य अब होने वाला है, इसके लिये नये-नये प्लान्स् (Plans) बना रहे हो? जो जिस्का कर्त्तव्य वा जिम्मेवारी होती है, उस कर्त्तव्य के प्रति उसके सदैव प्लान्स चलते रहते हैं।

कहीं भी सन्देश देने के लिए वा बाप के परिचय का आवाज़ फैलाने के लिए अभी-तक जो भी भिन्न-भिन्न प्लान्स प्रैक्टिकल में लाते हो उन में मुख्य प्रयत्न यही करते हो कि जिस धरती पर वा जिस स्थान पर सन्देश देना है वहाँ पहले तो स्टेज (Stage) तैयार करते हो, स्पीच (Speech) तैयार करते हो और पब्लिसिटी (Publicity) के भिन्न-भिन्न साधन अपनाते हो जिस द्वारा उसी स्थान की आत्माओं को सन्देश देने का कर्त्तव्य करते रहते हो। लेकिन इन साधनों द्वारा अभी तक विश्व की अंश-मात्र आत्माओं को ही सन्देश दे पाये हो। अभी थोड़े समय के अन्दर, जब सारी विश्व की आत्माओं को सन्देश देने, ज्ञान और योग का परिचय दे बाप की पहचान कराने का कर्त्तव्य करना ही है, साथ-साथ इस प्रकृति को भी पावन बनाना है, तब ही विश्व-परिवर्तन होगा। इसके लिये थोड़े समय में बहुत बड़ा कार्य करने के लिए भविष्य कौन-सा प्लान बनाया है? वह रूप-रेखा बुद्धि में आती है? अभी जो कर रहे हो, वही रूप रेखा है या वह कुछ भिन्न है? वह क्या है, वह इन एडवॉन्स (In Advance) देखते हो या वह चलते-चलते देखेंगे? अगर स्पष्ट है तो दो शब्दों में सुनाओ।

जब समय भी शॉर्ट (Short) है तो प्लान भी शार्ट चाहिए। शार्ट हो लेकिन पॉवरफुल  हो। वह दो शब्द कौन-से हैं? भविष्य प्लान प्रैक्टिकल रूप में दो शब्दों के आधार पर ही होना है। वह दो शब्द पहले भी सुनाये थे। एक तो साक्षात् बाप-मूर्त्तऔर दूसरा साक्षी और साक्षात्कार-मूर्त्त। जब तक यह दोनों मूर्त्त न बनी हैं, तब तक सारे विश्व का परिवर्तन थोड़े समय में कर नहीं पायेंगे। इस प्लान को प्रैक्टिकल में लाने के लिये जैसे अब भी स्टेज और स्पीच तैयार करते हो, वैसे ही आप को अपनी स्थिति की स्टेज तैयार करनी पड़े।

अपने फीचर्स द्वारा फ्यूचर का साक्षात्कार करने के लिए, जैसे भिन्न-भिन्न पॉइन्ट्स सोचते हुए स्टेज तैयार करते हो वैसे ही इस सूरत के बीच जो भी मुख्य कर्मेन्द्रियाँ हैं, उन कर्मेन्द्रियों द्वारा बाप के चरित्र, बाप के कर्त्तव्य का साक्षात्कार हो, बाप के गुणों का साक्षात्कार हो। यह भिन्न-भिन्न पॉइन्ट्स तैयार करनी पड़े। नयनों द्वारा नजर से निहाल कर सको। अर्थात् नयनों की दृष्टि द्वारा उन आत्माओं की दृष्टि, वृत्ति, स्मृति और कृति चेन्ज कर दो। मस्तिष्क द्वारा अपने व सभी के स्वरूपों का स्पष्ट साक्षात्कार कराओ। होंठों द्वारा रूहानी मुस्कराहट से अविनाशी खुशी का अनुभव कराओ। सारे चेहरे द्वारा वर्तमान श्रेष्ठ पोजीशन और भविष्य पोजीशन (Position) का साक्षात्कार कराओ। अपने श्रेष्ठ संकल्प द्वारा अन्य आत्माओं के व्यर्थ संकल्पों व विकल्पों की बहती हुई बाढ से और अपनी शक्ति से अल्प समय में किनारा कर दिखाओ। व्यर्थ संकल्पों को शुद्ध संकल्पों में परिवर्तित कर डालो। अपने एक बोल द्वारा अनेक समय की तड़पती हुई आत्माओं को अपने निशाने का, अपनी मंजिल के ठिकाने का अनुभव कराओ। वह एक बोल कौन-सा? ‘शिव बाबा।शिव बाबा कहने से ही ठिकाना व निशाना मिल जाय। अपने हर कर्म अर्थात् चरित्र द्वारा, चरित्र सिर्फ बाप के नहीं हैं, आप हर श्रेष्ठ आत्मा के श्रेष्ठ कर्म भी चरित्र हैं। साधारण कर्म को चरित्र नहीं कहेंगे। तो हर श्रेष्ठ कर्म रूपी चरित्र द्वारा बाप का चित्र दिखाओ। जब ऐसी रूहानी प्रैक्टिकल स्पीच करेंगे तब थोड़े समय में विश्व का परिवर्तन करेंगे। इसके लिए स्टेज भी चाहिए।

स्टेज की तैयारी में क्या-क्या मुख्य साधन अपनाते हो। वह तो जानते हो न? वह आप लोगों की विशेष निशानी है। स्टेज को सफेद करते हो, यही आप लोगों की मुख्य निशानी अथवा सिम्बल (Symbol) है। जैसे ड्रेस प्रसिद्ध है ना। तो जैसी आत्मा की स्टेज, वैसी बाहर की स्टेज को भी रूप देते हो। तो यह बातें जो स्थूल स्टेज पर रखने का प्रयत्न करते हो। उनमें से अगर एक चीज भी स्मृति में न रहती है वा सही रूप में नहीं होती है तो स्टेज की झलक अच्छी नहीं दिखाई देती। इसी प्रमाण जब अपनी स्थिति की स्टेज द्वारा प्रैक्टिकल स्पीच करनी है तो इसके लिये भी इन सभी बातों की तैयारी चाहिए, लाइट चाहिए अर्थात् डबल लाइट स्वरूप की स्टेज चाहिए। यह तो जानते हो न? दोनों ही लाइट। अगर स्टेज पर कोई हल्का न हो, उठने बैठने में भारी हो तो स्पीच सुनने के बजाय लोग उसको ही देखने लग जायेंगे। तो यहाँ पर डबल लाइट की स्थिति चाहिए। और माइक ऐसा पॉवरफुल हो, जो दूर तक आवाज़ स्पष्ट रूप में पहुंच जाये। तो माइक में भी माइट हो। एक संकल्प करो, एक नजर डालने से ही वह नजर और वह संकल्प लाइट हाउस का कार्य करे। एक स्थान पर होते हुए भी अनेक आत्माओं पर आप के श्रेष्ठ संकल्प और दिव्य नजर का प्रभाव पड़े। ऐसा पॉवरफुल माइक बनाना पड़े। तो माइक कौनसा हुआ -संकल्प और नजर’, ‘दिव्य और रूहानी दृष्टि।ऐसे ही व्हाइटनेस (Whiteness) अर्थात् स्वच्छ बुद्धि चाहिए उनमें जरा भी कोई दाग न हो। अगर स्टेज पर कोई दाग होगा, व्हाइटनेस नहीं होगी तो सभी का अटेन्शन न चाहते भी उस तरफ जायेगा। और बात में सलोगन्स (Slogans) का श्रृंगार चाहिये। इस स्थिति की स्टेज पर कौन-से सलोगन का श्रृंगार चाहिये?-स्थिति की स्टेज और प्रैक्टिकल मन, वाणी, कर्म की स्पीच। ऐसी स्टेज के लिये सलोगन कौन-से चाहिये?

एक मैं आत्मा विश्व-कल्याण के श्रेष्ठ कर्त्तव्य के प्रति सर्वशक्तिवान् बाप द्वारा निमित्त बनी हुई हूँ’ - यह सलोगन स्मृति में रहे। इस स्थिति में अगर यह सलोगन याद न रहेगा तो स्टेज सुन्दर नहीं लगेगी। विशेष धारणाओं के ही सलोगन्स हैं। दूसरा सलोगन, मैं आत्मा महादानी और वरदानी हूँ। जिन भी आत्माओं को दान लेने का वा देने का साहस नहीं हैं उन को भी वरदाता बाप द्वारा मिले हुए वरदानों द्वारा अपनी स्थिति के सहयोग द्वारा वरदान देना है। तो सलोगन क्या हुआ? ‘मैं महादानी और वरदानी हूँ’ - यह है स्पष्टीकरण। तीसरी बात मुझ आत्मा को अपने चरित्र, बोल व संकल्प द्वारा अपने मूर्त्त में सभी आत्माओं को बापदादा की सूरत और सीरत का साक्षात्कार कराना है। इस प्रकार जो स्टेज को सुन्दर बनाने का सलोगन है वह भी स्मृति में रखना है। ऐसी अपनी स्टेज और स्पीच को तैयार करो। स्टेज पर कुर्सी पर बैठो अर्थात् अपनी स्टेट्स की कुर्सी पर बैठो। तो स्टेज, स्पीच, और स्टेट्स ये तीनों ही आवश्यक हैं, फिर थोड़े समय में विश्व को परिवर्तित कर लेंगे। यह करना तो आता है न? लेकिन यह भी ध्यान रखना कि स्टेज ऐसी मज़बूत हो, एक-रस, अचल और अडोल हो जो कोई भी तूफान और कोई भी वातावरण उसको हिला न सके। ऐसी अपनी तैयारी करो, क्या ऐसी प्रैक्टिस है? क्या ऐसे एवररेडी हो और एवर हैप्पी (Ever-Happy) हो? जो एक सेकेण्ड में जैसी स्थिति, जैसा स्थान और जैसी आत्माओं की धरती उसी प्रमाण थोड़े समय में अपनी स्टेज तैयार कर प्रैक्टिकल स्पीच कर सको। समझा? यह है भविष्य प्लान। अच्छा

ऐसे सदा अपनी स्टेज द्वारा, स्टेट्स द्वारा सर्व आत्माओं को अपने सम्पूर्ण स्टेज और अपने वास्तविक स्टेट्स का साक्षात्कार कराने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, विश्व-कल्याणकारी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

महावाक्यों का सार

1. जैसे सेवा करने के लिये स्टेज, स्पीच तैयार करते हो तो विश्व सेवा के लिये अपनी स्थिति की स्टेज तैयार करनी है। सूरत के बीच जो कर्मेन्द्रियाँ हैं, उन द्वारा बाप के चरित्र और बाप के कर्त्तव्य का साक्षात्कार कराना है। नयनों द्वारा नज़र से निहाल कर सको, मस्तिष्क द्वारा सभी के स्वरूप का स्पष्ट साक्षात्कार कराओ, होठों पर रूहानी मुस्कराहट से अविनाशी खुशी का अनुभव कराओ।

2. हर श्रेष्ठ आत्मा के श्रेष्ठ कर्म चरित्र हैं। साधारण कर्म को चरित्र नहीं कहेंगे। तो हर श्रेष्ठ कर्म रूपी चरित्र द्वारा बाप का चित्र दिखाओ। ऐसी रूहानी प्रैक्टिकल स्पीच करने से ही विश्व परिवर्तन कर सकेंगे। 



30-05-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगम युग-पुरूषोत्तम युग

निर्बल को बल देने वाले, विश्व का मालिक बनाने वाले, विश्व-कल्याणकारी, विश्व का परिवर्तन करने वाले बाबा बोले :-

सभी अपने को पाण्डव सेना के महावीर या महावीरनियाँ समझते हो? महावीर अर्थात् अपने को शक्तिशाली समझते हो? कोई निर्बल आत्मा सामने आये तो क्या निर्बल को बल देने वाले बने हो, या अभी तक स्वयं में ही बल भरते जा रहे हो? दाता हो या लेने वाले बने हो? सर्व-शक्तियों का वर्सा प्राप्त कर चुके हो या अभी प्राप्त करना है? अभी तक प्राप्ति करने का समय है या कराने का समय है? महान् बनने के लिये मेहनत लेने का समय है या बाप से ली हुई सेवा का रिटर्न करने का समय है? अगर अन्त तक किसी भी द्वारा किसी भी प्रकार की सेवा लेते रहेंगे तो सेवा का रिटर्न क्या भविष्य में करेंगे? भविष्य में प्रारब्ध भोगने का समय है या रिटर्न का फल देने का समय है? ये सभी बातें बुद्धि में रखते हुए अपने आप को चेक करो की हमारा अन्तिम पार्ट व भविष्य क्या होगा? जब अभी से सर्व-आत्माओं को बाबा का खज़ाना देने वाले दाता बनेंगे, अपनी शक्तियों द्वारा प्यासी व तड़पती हुई आत्माओं को जी-दान देंगे, वरदाता बन प्राप्त हुए वरदानों द्वारा उन्हें भी बाप के समीप लायेंगे और बाबा के सम्बन्ध में लायेंगे, तब यहाँ के दातापन के संस्कार भविष्य में इक्कीस जन्मों तक राज्यपद अर्थात् दातापन के संस्कार भर सकेंगे। इस संगमयुग को पुरूषोत्तम संगमयुग व सर्वश्रेष्ठ युग क्यों कहते हो? क्योंकि आत्मा के हर प्रकार के धर्म की, राज्य की, श्रेष्ठ संस्कारों की, श्रेष्ठ सम्बन्धों की और श्रेष्ठ गुणों की सर्व- श्रेष्ठता अभी रिकार्ड  के समान भरता जाता है। चौरासी जन्मों की चढ़ती कला और उतरती कला उन दोनों के संस्कार इस समय आत्मा में भरते हो। रिकार्ड भरने का समय अभी चल रहा है।

जब हद के रिकार्ड भरते हैं तो भी कितना अटेन्शन रखते हैं। हद का रिकार्ड भरने वाले भी तीन बातों का ध्यान रखते हैं। वह कौन-सी है? वह लोग वायुमण्डल, अपनी वृत्ति और वाणी इन तीनों के ऊपर अटेन्शन देते हैं। अगर वृत्ति चंचल होती है और वह एकाग्र नहीं होती है तो भी वाणी में आकर्षण करने का रस नहीं रहता। जिस प्रकार का गीत गाते हैं, उसी रूप में स्थित होकर गाते हैं। अगर कोई दु:ख का गीत होता है तो दु:ख का रूप धारण कर गीत न गाये तो सुनने वालों को उस गीत से कोई रस नहीं आयेगा। जब हद का गीत गाने वाले व रिकार्ड भरने वाले भी इन सभी बात्ं का ध्यान देते हैं तो आप बेहद का रिकार्ड भरने वाले, सारे कल्प का रिकार्ड भरने वाले क्या हर समय इन सभी बातों के ऊपर अटेन्शन देते हो? यह अटेन्शन रहता है कि हर सेकेण्ड रिकार्ड भर रहा हूँ? क्या इतना अटेन्शन रहता है? रिकार्ड भरते-भरते अगर उल्लास के बजाय आलस्य आ जाय तो रिकार्ड कैसे भरेगा? रिकार्ड भरने के समय क्या कोई आलस्य करता है? तो आप लोग भी जब रिकार्ड भर रहे हो तो भरते-भरते आलस्य आता है या सदैव उल्लास में रहते हो? कभी अपने भरे हुए सारे दिन के रिकार्ड को साक्षी होकर देखते हो कि आज का रिकार्ड कैसा भरा है?

जैसे टेप में भी पहले भर कर फिर देखते हैं और सुनते हैं कि देखें कैसा भरा है, ठीक है या नहीं? वैसे ही क्या आप भी साक्षी हो कर देखते हो? देखने से क्या लगता है? अपने आप को जंचता है कि ठीक भरा है? या अपने आपको देखते हुए सोचते हो की इससे अच्छा भरना चाहिए। रिजल्ट तो देखते हो ना? जो समझते हैं कि सदैव अपने आप को साक्षी होकर रोज चेक करते हैं कि कभी भी चेक करना मिस नहीं होता है- वह हाथ उठाओ? (थोड़ां ने हाथ उठाया)। अभी चेकर ही नहीं बने हो? जो चेकर न बना है वह मैकर क्या बनेंगे? भूल जाते हो क्या? टाईम ऊपर-नीचे हो जाये यह हो सकता है लेकिन भूल जाय यह हो नहीं सकता। तो आत्मा की दिनचर्या जो अमृतवेले बनाते हो, फिक्स करते हो वह चेक करना क्यों भूल जाते हो? या फिक्स करना ही नहीं आता है? आत्मा को दिनचर्या फिक्स करनी आती है? यह तो बहुत कॉमन) बात है। इस कॉमन नियम पर भी अगर  विस्मृत है तो इससे क्या सिद्ध होता है कि आत्मा अभी तक भी निर्बल है। जो अपने आपको ईश्वरीय नियम, ईश्वरीय मर्यादाओं में नहीं चला सकते वह क्या विश्व की मर्यादापूर्वक लाफुल (Lawful) राज्य को चला सकेंगे? जो संगमयुगीय राज्य-पद के अधिकारी न बने हैं वह भविष्य राज्य-पद कैसे पा सकते हैं? इस संगठन की टीचर्स कौन हैं? इतनी कम रिजल्ट की जिम्मेवार कौन? क्या आये हुए टीचर स्वयं चेकर हैं? कोई हिम्मत से नहीं उठाती हैं। अगर अभी-अभी विश्व-युद्ध छिड़ जाय तो? (किसी ने कहा कि उसी समय खड़े हो जायेंगे) अगर समय पर खड़े हो जायेंगे तो इसको क्या कहा जायेगा? प्रकृति के आधार पर जो पुरूष चले तो उस पुरूष को क्या कहा जाता है? समय भी प्रकृति है ना? तो यदि पुरूष प्रकृति के आधार पर चलने वाला हो तो उसको क्या पास विद् ऑनर कहा जायेगा? समय का धक्का लगने से जो चल पड़े उसको क्या कहा जायेगा? क्या यही सोचा है, कि धक्के से चलने वाले बनेंगे? वर्तमान संगठन तो बहुत कमजोर है। मैजॉरिटी कमजोर है। अच्छा फिर भी बीती सो बीती, लेकिन अभी से आप अपने आप को परिवर्तन कर लो। अभी फिर भी समय है, लेकिन बहुत थोड़ा है। अभी तो बापदादा और सहयोगी श्रेष्ठ आत्मायें आप पुरुषार्थी आत्माओं को एक का हज़ार गुना सहयोग देकर, सहारा देकर, स्नेह देकर और सम्बन्ध के रूप में बल देकर आगे बढ़ा सकते हैं। लेकिन थोड़े समय के बाद यह बातें अर्थात् लिफ्ट का मिलना भी बन्द हो जायेगा। इसलिए अभी जो-कुछ भी लेना चाहो वह ले सकते हैं। फिर बाद में बाप के रूप का स्नेह बदल कर सुप्रीम जस्टिस का रूप हो जायेगा।

जस्टिस के आगे चाहे कितना भी स्नेही सम्बन्धी हो लेकिन लॉ इज़ लॉ (Law is Law)। अभी लव का समय है फिर लॉ का समय होगा। फिर उस समय लिफ्ट नहीं मिल सकेगी। अभी है प्राप्ति का समय और फिर थोड़े समय के बाद प्राप्ति का समय बदलकर पश्चाताप का समय आयेगा। तो क्या उस समय जागेंगे? बापदादा फिर भी सभी बच्चों को कहेंगे कि थोड़े समय में बहुत समय की प्रालब्ध बना लो। समय के इन्तज़ार में अलबेले न बनो। सदैव यह स्मृति में रखो कि हमारा हर कर्म चौरासी जन्मों के रिकार्ड भरने का आधार है। अपनी वृत्ति, अपने वायुमण्डल और अपनी वाणी को यथार्थ रूप में सैट करो। जैसे वह लोग भी वातावरण को बनाते हैं ऐसे आप लोग भी अपने वातावरण को, अपनी अन्तर्मुखता की शक्ति से श्रेष्ठ बनाओ। वृत्ति को श्रेष्ठ और वाणी को भी राज़युक्त और युक्ति-युक्त बनाओ तब ही यह रिजल्ट बदल सकेगी। बदलता तो है ना? क्या ऐसे ही मन्जूर है? चैलेन्ज तो बहुत बड़ी करते हो कि हम पाँच तत्वों को भी बदलेंगे। तो बिना चेकर के मेकर कैसे बनेंगे? अभी से कम्पलेन्ट कम्पलीट हो जानी चाहिये। जो समझते हैं कि अभी से यह कमजोरी छूट फिर अन्त तक कभी भी यह न रहेगी वह हाथ उठावें। इसकी जिम्मेवारी किस पर (कोई ने कहा दीदी पर, कोई ने कहा बापदादा पर) बापदादा करेंगे तो बापदादा पावेंगे। करने के समय बापदादा पर और पाने के समय? भविष्य पद पाने का त्याग करो तो फिर करने का भी त्याग करो। लेकिन वह कर नहीं सकते क्योंकि मुक्तिधाम के हो ही नहीं। हरेक को अपनी जिम्मेवारी आप उठानी है। अगर यह सोचेंगे कि दीदी, दादी व टीचर जिम्मेवार हैं तो इससे सिद्ध होता है कि आप को भविष्य में उन ही की प्रजा बनना है, राजा नहीं बनना है। यह भी अधीन रहने के संस्कार हुए न? जो अधीन रहने वाला है वह अधिकारी नहीं बन सकता। विश्व का राज्यभाग्य नहीं ले पाता। इसलिये स्वयं के जिम्मेवार, फिर सारे विश्व की जिम्मेवारी लेने वाले विश्व महाराजन बन सकते हैं। विश्वकल्याणकारी बाप की सन्तान होकर और अपना कल्याण नहीं कर सकते हो? क्या यह शोभता है? यह तो कलियुग के कर्मभोग की निशानी बताते हो कि कोई लखपति है लेकिन एक रूपये का भी सुख स्वयं नहीं ले सकता। तो सर्वशक्तियों के खजाने का मालिक हो लेकिन स्वयं के प्रति एक छोटी-सी शक्ति भी यूज़ नहीं कर पाते हो इसको क्या कहा जाये? संगमयुग पर ब्राह्मणों की क्या यह निशानी है? अभी संगमयुगी हो या एक पाँव कलियुग में रख दिया है कि कहीं संगमयुग पर न टिक सकेंगे, तो कहाँ चले जायेंगे? संगमयुग की यह निशानी नहीं है। इसलिए अभी से तीव्र पुरुषार्थी बन दृढ़- संकल्प लो कि करना ही है और बनना ही है। करेंगे और प्लान बनायेंगे इसको भी तीव्र पुरुषार्थी नहीं कहा जाता। क्या प्लान बनावेंगे? क्या बना हुआ नहीं है? त्रिकालदर्शी को तो प्लान बनाने में समय नहीं लगेगा क्योंकि उसको तो तीनों ही काल स्पष्ट हैं। सभी कार्य सेकेण्ड में हों ऐसी तीव्र- गति अपनी बनाओ, तीव्र-गति वाले ही सद्गति को पायेंगे।

अच्छा ऐसे उम्मीदवार, बापदादा के श्रेष्ठ संकल्प को साकार करने वाले, हर संकल्प, कर्म और बोल को चेक करने वाले, हर सेकेण्ड में, हर संकल्प में स्वयं का कल्याण और विश्व का कल्याण करने वाले, विश्व-कल्याणकारी, विश्व-परिवर्तक आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस वाणी का सार

1. अभी जो समय चल रहा है वो है रिकार्ड भरने का। रिकार्ड भरते समय विशेष तीन बातों पर अटेन्शन दिया जाता है-वातावरण, वृत्ति और वाणी। जब हद का रिकार्ड भरने वाले ही इतना अटेन्शन रखते हैं तो हमको भी बहुत ध्यान रखना चाहिए। वातावरण को अपनी अन्तर्मुखता की शक्ति से श्रेष्ठ बनाओ; वृत्ति को श्रेष्ठ और वाणी को भी राजयुक्त एवं युक्तियुक्त बनाओ। ऐसा करने से ही रिजल्ट बदल सकता है।

2. स्वयं का स्वयं चेकर बन कर हर रोज ये चेक करो कि जो मेरा रिकार्ड भर गया है क्या वह ठीक है या नहीं? अपने आपको जंचता है या नहीं? क्योंकि चेकर ही मेकर बन सकता है। यदि इस कॉमन  नियम पर अभी तक भी विस्मृत हैं तो सिद्ध है आत्मा अभी तक निर्बल है।



01-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व शक्तियों का स्टॉक

विघ्न विनाशक, सर्व-शक्तिवान् महादानी शिव बाबा बोले:-

क्या अपने को विघ्न-प्रूफ समझते हो? जब स्वयं विघ्न-प्रूफ बनेंगे तब ही दूसरों को भिन्न-भिन्न प्रकार के विघ्नों से बचा सकेंगे। स्वयं में भी कोई मनसा का विघ्न है तो दूसरों को विघ्न-प्रूफ कभी भी बना न सकेंगे। अभी तो समय ऐसा आ रहा है जो सारे भंभोर को जब आग लगेगी, उस आग से बचाने के लिए कुछ मुख्य बातें आवश्यक हैं। जैसे कहीं भी आग लगती है, तो आग से बचने के लिए पहले किस वस्तु कि आवश्यकता होती है?

जब इस विनाश की आग चारो ओर लगेगी, उस समय आप श्रेष्ठ आत्माओं का पहला-पहला कर्त्तव्य कौन-सा है? शान्ति का दान अर्थात् शीतलता का जल देना। पानी डालने के बाद फिर क्या-क्या करते हैं? जिसको जो-कुछ आवश्यकता होती है वह उन की आवश्यकताएं पूर्ण करते हैं। किसी को आराम चाहिए, किसी को ठिकाना चाहिए, मतलब जिसकी जैसी आव श्यकता होती है वही पूरी करते हैं। आप लोगों को कौन-सी आवश्यकताएं पूर्ण करनी पड़ेंगी, वह जानते हो? उस समय हरेक को अलग-अलग शक्ति की आवश्यकता होगी। किसी को सहनशक्ति की आवश्यकता, किसी को समेटने की शक्ति की आवश्यकता, किसी को निर्णय करने की शक्ति की आवश्यकता और किसी को अपने-आप को परखने की शक्ति की आवश्यकता होगी। किसी को मुक्ति के ठिकाने की आवश्यकता होगी। भिन्न-भिन्न शक्तियों की उन आत्माओं को उस समय आवश्यकता होगी। बाप के परिचय द्वारा एक सेकेण्ड में अशान्त आत्माओं को शान्त कराने की शक्ति भी उस समय आवश्यक है। वह अभी से ही इकट्ठी करनी होगी। नहीं तो उस समय लगी हुई आग से कैसे बचा सकेंगे? जी-दान कैसे दे सकेंगे? यह अपने-आप को पहले से ही तैयारी करने के लिए देखना पड़ेगा।

जैसे छ: मास का स्टॉक रखते हो न, कि छ: मास में इस-इस वस्तु की आवश्यकता होगी। चेक करके फिर भर देते हो। इस प्रकार क्या यह स्टॉक भी चेक करते हो? सारे विश्व की सभी आत्माओं को शक्ति का दान देना पड़ेगा। इतना स्टॉक जमा किया है जो स्वयं भी अपने को शक्ति के आधार से चला सकें और दूसरों को भी शक्ति दे सकें ताकि कोई भी वंचित न रहे। अगर अपने पास शक्तियाँ जमा नहीं हैं और एक भी आत्मा वंचित रह गई तो इसका बोझा किस पर होगा? जो निमित्त बनी हुई हैं। सदैव अपनी हर शक्ति का स्टॉक चेक करो। जिसके पास सर्व-शक्तियों का स्टॉक जमा है वही म्ख्य गाये जाते हैं।

जैसे स्टार्स दिखाते हैं उनमें भी नम्बरवार होते हैं। जिन के पास स्टॉक जमा है वही लक्की स्टार्स के रूप में चमकते हुए विश्व कि आत्माओं के बीच नजर आयेंगे। तो यह चैकिंग करनी है कि क्या सर्वशक्तियों का स्टॉक है? महारथियों का हर संकल्प पर पहले से ही अटेन्शन रहता है। महारथियों के चेक करने की रूप-रेखा ही न्यारी है। योग की शक्ति होने के कारण ऑटोमेटिकली युक्ति-युक्त संकल्प, बोल और कर्म होंगे। अभी यह नेचरल रूप हो गया है। महारथियों के चैकिंग का रूप भी यह है। सर्वशक्तियों में किस शक्ति का कितना स्टॉक जमा है। उस जमा किऐ हुए स्टॉक से कितनी आत्माओं का कल्याण कर सकते हैं। जैसे स्थूल स्टॉक की देख-रेख करना और जमा करना यह ड्यूटी है; वैसे ही सर्वशक्तियों के स्टॉक जमा करने की भी ज़िम्मेवारी है। यह होता है ऑलराउण्डर का हर चीज के स्टॉक की आवश्यकता प्रमाण जमा करना। अमृतबेले उठकर अपने को अटेन्शन के पट्टे पर चलाना तो पट्टे पर गाड़ी ठीक चलेगी। फिर नीचे-ऊपर होना सम्भव ही नहीं। तो अभी यह स्टॉक जमा करने की चैकिंग रखनी है। सारे विश्व को जिम्मेवारी तुम बच्चों पर है। सिर्फ भारत की नहीं। महारथियों का हर कर्म महान् होना चाहिए। किससे?-घोड़े सवार और प्यादों से महान्। अच्छा।

इस मुरली से विशेष तथ्य

1. जैसे स्थूल वस्तुओं का स्टॉक रखते हो ना कि छ: मास में इस-इस वस्तु की आवश्यकता होगी। चेक कर के फिर भर देते हो। इसी प्रकार शक्तियों का स्टॉक भी चेक करते रहो। इतना स्टॉक जमा हो जो स्वयं भी अपने को शक्ति के आधार से चला सकें और दूसरों को भी शक्ति दे सकें।

2. जैसे स्टार्स में भी नम्बरवार होते हैं, इसी प्रकार ज्ञान सितारों में भी नम्बरवार होते हैं। जिन के पास शक्तियों का स्टॉक जमा हो वही लक्की स्टार्स के रूप में चमकते हुए विश्व की आत्माओं के बीच नजर आयेंगे।

3. महारथी वह जो यह चेक करता रहे कि सर्वशक्तियों में किस शक्ति का कितना स्टॉक जमा है, उस जमा किये हुए स्टॉक से कितनी आत्माओं का कल्याण कर सकते हैं।



06-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


समानता और समीपता

जीवन की नैया को पार लगाने वाले, सिद्ध स्वरूप, लाईटमाइट रूप दिलाराम बाप बोले-

आज बापदादा किस को देख रहे हैं? जैसे बाप के भिन्न-भिन्न कर्त्तव्यों के कारण अनेक नाम गाये हुए हैं वैसे ही बच्चों के अनेक नाम गाये हुए हैं। आज किस रूप में देख रहे हैं यह जान सकते हो? संकल्प की परख कर सकते हो? आज बापदादा अपनी मणियों को देख रहे हैं। कोई मस्तक मणि हैं, कोई गले की मणि हैं और कोई हृदय मणि हैं। तीनों प्रकार की मणियों को देख हर्षित हो रहे हैं। आप सभी भी अपने को मणि समझते हो ना? यह मणियों का संगठन है। मणियों में श्रेष्ठ मणि कौन है? यह भी हरेक अपने को जान सकते हैं कि मैं फस्ट नम्बर की मणि हूँ या सैकेण्ड  व थर्ड नम्बर की मणि हूँ। फर्स्ट नम्बर की विशेषता क्या है उसको जानते हो? फर्स्ट नम्बर है मस्तक मणि? उस मस्तक मणि की दो विशेषतायें हैं। स्वयं के स्वरूपों की विशेषतायें तो सहज जान सकते हो। अब सिर्फ जानना ही नहीं है बल्कि यह देखो कि उन विशेषताओं के स्वरूप कहाँ तक बने हो? जिनका जो स्वरूप होता है उनको वर्णन करना सहज होता है। ‘‘मैं कौन हूँ? कैसी हूँ? वह भी तो वर्णन करना है। सिर्फ दो विशेषतायें पूछ रहे हैं। हैं तो बहुत लेकिन सिर्फ दो ही पूछ रहे हैं। (भिन्न-भिन्न विचार निकले) मस्तक मणि की दो विशेषतायें ये हैं - एक समानता और दूसरी समीपता। बापदादा के समान। इसमें आप सभी की बताई हुई बातें आ जाती हैं। बापदादा लाइट और माइट रूप हैं ना? तो बापसमान अर्थात् लाइट और माइट स्वरूप हो ही गये। बाप सर्व शक्तिवान् है तो बाप समान सर्वशक्तियाँ सम्पन्न हो ही गये। बाप सदा सिद्धि स्वरूप हैं अर्थात् सिद्धि को प्राप्त हैं ही। ऐसे बाप-समान मस्तक मणि भी सर्वसिद्धि रूप हैं। जो बाप की महिमा है वह सर्व महिमा के योग्य अर्थात् सर्वयोग्यताओं का सम्पन्न स्वरूप हैं। दूसरी बात समीपता। बापदादा के भी समीप, लेकिन बापदादा के साथ ही सर्व विश्व की आत्माओं के संस्कार व स्वभाव के भी समीप हो। किसी भी प्रकार के संस्कार वाला हो लेकिन बापदादा के समीप होने के कारण, परखने की पॉवर होने के कारण, चुम्बक के समान कितनी भी दूर वाली आत्मा को बापदादा के समीप लाने वाले हैं। बाप के गुणों, बाप के कर्त्तव्यों के समीप लाने वाले हैं। समीप अर्थात् चुम्बक स्वरूप होगा। चुम्बक समान और चुम्बक के समीप होने के कारण सर्व-शक्तियों के आधार से विश्व के उद्धार करने के निमित्त बनते हैं। तो समीप आत्मायें विश्व का आधार और विश्व का उद्धार करने वाली हैं - वह मस्तकमणि हैं। ऐसे मस्तक मणि हर संकल्प में, हर कर्म में, अपने को विश्व का आधार और उद्धारमूर्त्त समझ कर हर कदम उठाते हैं अर्थात् अभी से ही वह ताज तख्तनशीन होते हैं। भविष्य का ताज और तख्त इस ताज और तख्त के आगे कुछ भी नहीं है। ऐसी महान् आत्मायें ही ऐसे महान् ताज और तख्त के अधिकारी होती हैं। सदा ताज और तख्तधारी बन कर चलने वाली होती हैं। कभी ताज उतार दें, कभी तख्त छोड़ दें ऐसे नहीं, हर समय ताज और तख्तधारी। तो ताज और तख्त को जानते हो न? विश्व के महाराजन बनने से भी अभी का ताज और तख्त सर्वश्रेष्ठ है। अगर संगमयुग के राजा नहीं बने तो भविष्य के भी नहीं बन सकते। तो ऐसा समझें कि यह सभी महाराजाओं की सभा लगी हुई है? भविष्य तख्त पर तो नम्बरवार एक बैठ सकेगा, वहाँ एक के बजाय दो नहीं बैठ सकते। युगल मूर्त्त तो एक ही युगल हो गया। लेकिन संगम का तख्त इतना बड़ा है जो जितने भी चाहें बैठ सकते हैं। स्थान है लेकिन स्थिति चाहिए। बिना स्थिति के तख्त पर स्थान नहीं मिल सकता। तो सभी ने अपना-अपना स्थान ले लिया है कि अभी बुकिंग कर रहे हो? अगर ताजधारी न होंगे तो तख्तनशीन भी नहीं बन सकते। इस तख्त की कन्डीशन बहुत कड़ी है। है बहुत बड़ा लेकिन तख्त जितना बड़ा है उसको उतनी कन्डीशन भी बड़ी है।

मैं विश्व-कल्याणकारी हूँ। यह जिम्मेवारी का ताज धारण कर लिया है? हर कार्य में विश्व-कल्याणकारी बन कार्य करते हो या अपने ही कल्याण में लगे हुए हो? जैसे प्रवृति मार्ग वाले कहते हैं - हम तो अपनी प्रवृति में ही लगे हुए हैं वैसे आप लोग भी अपने ही पुरूषार्थ की प्रवृत्ति में तो नहीं मस्त हो। इतना ही जमा करते हो जो स्वयं को खिला सको व स्वयं के लिए भी बाप से आशीर्वाद या इच्छा रखते हो। मदद करो, हिम्मत दो इसी में ही लगे हुए हो। जो अभी तक स्वयं के प्रति लेने में व करने में लगा हुआ है वह विश्व को देने वाला दाता कब बनेगा? क्या अन्त में? क्या उस समय हाई जम्प दे सकेंगे? लेकिन नहीं। बहुत समय के संस्कार वालों को ही बहुत समय का राज्यभाग्य प्राप्त होगा। यह सलोगन सदा याद रखना कि - ‘‘अभी नहीं तो कभी नहीं।’’ ऐसे नहीं अन्त समय जब होगा तब कर लेंगे। न जब न तब लेकिन अब।तो ऐसे ताज व तख्तधारी बनना है। कौन-सी तख्तनशीन? तख्तनशीन तो अपने तख्त को जानते हो ना? बाप के दिल-तख्तनशीन। इस दिल-तख्त की यादगार निशानी देखी है? दिल ही तख्त है। इसकी यादगार निशानी कौन-सी है? जहाँ बैठे हो वही यादगार है। दिलवाला है ना। यह दिलवाला ही दिल लेने और देने वालों का यादगार है।

दिल-तख्तनशीन कौन हो सकता है? जो दिलाराम को दिल देने वाला और बाप का दिल लेने वाला है। सिर्फ देना नहीं, जिस को लेना और देना दोनों आता है वह है दिल-तख्तनशीन। बाप का दिल कैसे लेंगे? कोई की भी दिल कैसे ली जाती है? जो उनके दिल का श्रेष्ठ संकल्प हो, उस संकल्प को पूरा करना अर्थात् दिल लेना। तो बाप का दिल लेना अर्थात् विश्व-कल्याणकारी बनना और विश्व के प्रति सर्वशक्तियों का दाता बनना। फिर लेना भी आता है या सिर्फ देकर ही खुश हो गये? देना सहज है वा लेना सहज है? कौनसा सस्ता सौदा है? वास्तव में अगर देना आता है तो लेना ऑटोमेटिकली आ जाता है। दिल दिया बापदादा को, तो जिसको दे दिया उसकी दिल हो गई न? जो चीज दे देते हैं तो वह चीज किसकी रहती हैं-आपकी या जिसको दी उनकी? दे तो दी ना? फिर वापिस भी लेते रहते हो। कुछ दिल का टुकड़ा रखते रहते हो। अभी तक भी ऐसा है क्या? दिल देने वाले किसी और को दिल बेच दें, अमानत को कोई बेच दे, तो वह अच्छा नहीं होता है न। तो जब दिल दे दी तो दिल हो गई दिला-राम की। जो उनके दिल का संकल्प वही आपके दिल का संकल्प होगा या फर्क होगा? दिल लेना क्या है? जो बाप का संकल्प वह अपना संकल्प। जब दिल ही उनका हो गया तो संकल्प भी एक ही होगा, फर्क नहीं होगा। तो देने वाले को लेना भी आयेगा या मुश्किल लगेगा? अगर मुश्किल लगता है तो इसका अर्थ है कि दिल ही नहीं है दिल देने की। अपने पास कोई टुकड़ा रखा है। जरा भी टुकड़ा छिपा कर न रखना। जिसको देना व लेना दोनों ही आये वह होशियार हुआ ना। इस पर एक कहानी भी है। बहुत प्रसिद्ध कहानी है। अपनी कहानी भूल गयी है? जो अपने दिल का टुकड़ा छिपा कर रखते हैं उसकी कहानी है। सत्यनारायण की कथा है जिसको अमूल्य चीज़ समझ कर छिपाया वह कखपन हो गई। यहाँ भी सत्य बाप जो सत्यनारायण बनाने वाला है उनसे अगर जरा भी दिल का टुकड़ा छिपा कर रखा तो इस जीवन की नैया का क्या हाल होगा। कखपन हो जायेगा अर्थात् कुछ भी प्राप्ति नहीं होगी। हाथ खाली रह जायेगा। एक पैसे की चोरी करने वाले को भी चोर ही कहेंगे ना? अगर कोई हजार की चोरी करे और कोई एक पैसे की चोरी करे, कहेंगे तो दोनों को चोर ना? हल्का चोर बार-बार चोरी करता है, बड़ा चोर एक ही बार करता है। तो इसलिये दिल को दिया तो दिया। ऐसे दिल देने वाले सदा मस्तक मणि के समान लाइट हाउस, माइट हाउस  होते हैं। यहाँ सिर्फ लाइट हाउस नहीं बनना है, लेकिन साथ-साथ माइट हाउस भी बनना है। ऐसे को ही मस्तक मणि कहा जाता है।

अभी बताओ मस्तक मणि हो? जैसे मस्तक स्मृति का स्थान है वैसे मस्तक मणि की निशानी सदा स्मृति स्वरूप हो। मस्तक मणि बहुत अच्छा श्रृंगार होता है। अगर मस्तक पर मणि चमव्ो तो कितना अच्छा श्रृंगार होगा? मस्तक मणि सर्वश्रेष्ठ श्रृंगार है। श्रृंगार की तरफ स्वत: ही सभी की दृष्टि जाती है। ऐसे मस्तकमणियों के ऊपर विश्व के सर्व आत्माओं की नजर अर्थात् आकर्षण स्वत: ही होती है। ऐसे मस्तकमणि हो? अगर अंधियारे के बीच मणि को रख दो तो क्या दिखाई देगा? लाइट देने का भी कार्य करेगी। तो इस विश्व की अंधियारी रात में चारों ओर के अंधकार के बीच ऐसे मस्तकमणि क्या कर्त्तव्य करेंगी? मार्ग दिखाने का, मंजिल पर पहुँचाने का। हर एक को लक्ष्य तक पहुँचाने का। तो ऐसे मस्तकमणि हो, या कभी-कभी खुद ही भटक जाते हो? जो स्वयं भटका है क्या वह दूसरों को मंजिल तक पहुँचा सकेगा? ऐसे मस्तक मणि कभी भी व्यर्थ संकल्पों के भिन्न-भिन्न प्रकार के अनेक छोटी-छोटी गलियों में भटकेंगे नहीं। यह भी अनेक प्रकार की गलियाँ है जिसमें जाने से मंजिल से भटक जाते हो। तो गलियों में अभी घूमते तो नहीं रहते हो?

जब एक बाप की मत और एक ही लगन में मग्न होंगे तो क्या एक की मत पर चलने वाले एक-रस नहीं होंगे? अगर एक-रस नहीं हैं तो अवश्य एक मत में दूसरी मत मिक्स करते हो। अगर एक मत हो तो एकरस जरूर हो। यह पुराने संस्कार भी यदि मिक्स करते हो तो वह एक की मत नहीं। यह आत्मा की मत, आत्मा के अपने कर्मों के बने हुए संस्कार हैं, परमात्म ज्ञान द्वारा बने हुए संस्कार नहीं। तो अगर अपने पुराने संस्कार मिक्स हो जाते हैं तो अनेक गलियों में भटक जायेंगे, एकरस नहीं होंगे। एक मंजिल पर सदा स्थित नहीं होंगे। तो भटकना बन्द होना चाहिए, न कि अभी तक भटकते रहेंगे। माया के भिन्न-भिन्न आकर्षण में भटकना भी पूरा हुआ। अब फिर यह गलियाँ कहाँ से निकाली है व्यर्थ संकल्पों की? अपने ही स्वभाव की इन गलियों में भटकना बन्द होना चाहिए। जैसे आप लोग सेमीनार करते हो तो अन्त में प्रस्ताव पास करते हो न? वैसे यह भी प्रस्ताव पास करो कि भटकना बन्द हो। यह भी ब्राह्मणों का सेमीनार है न। मेला अर्थात् सेमीनार। जैसे सेमीनार से बहुत प्वाइण्टस निकालते हो और पास कराने का प्रयत्न करते हो। वह गवर्नमेन्ट तो पास करती नहीं लेकिन यह पाण्डव गवर्नमेन्ट पास कर लेंगी। तो आपस में मिलकर यह पास कर दिखाओ। सिर्फ ऐसे ही हाथ उठा लेना तो सहज है। इस अंगुली से कुछ नहीं होता। यह है दृढ़ संकल्प की अंगुली। जब तक यह अंगुली नहीं उठायी तब तक पास नहीं हो सकता। समझा?

ऐसे एक सेकेण्ड में दृढ़ संकल्प रूपी अंगुली देने वाले महावीर और महावीरनियाँ, संकल्प और कर्म में समान रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं हो न? ऐसे सदा दिल तख्त नशीन और विश्व कल्याणकारी के स्मृति रूप, ताजत- ख्तधारी बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली का सार

मस्तक मणि की मुख्य दो विशेषतायें है-समानता और समीपता।समानता अर्थात् बाप समान बनना अर्थात् बाप की जो भी योग्यतायें हैं वह हमारी भी हों। समीपता अर्थात् बापदादा के समीप होना व विश्व की आत्माओं के संस्कार व स्वभाव के समीप होना। समीप होना माना चुम्बक स्वरूप होना। स्वयं को ताज और तख्तधारी बनाकर चलना है। ऐसे नहीं कि कब ताज उतार दें, तख्त छोड़ दें। विश्व के महाराजन् बनने से पहले अभी का ताज व तख्त लेना सर्वश्रेष्ठ है। यदि संगमयुग के राजा नहीं तो भविष्य के राजा भी नहीं बन सकते। भविष्य तख्त पर तो केवल एक बैठ सकेगा लेकिन संगमयुग पर जितने भी चाहे उतने बैठ सकते हैं।



08-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्वश्रेष्ठ शक्ति-परखने की शक्ति  

सर्वशक्तियाँ भरने वाले, सर्वशक्तिवान् शिव बाबा बोले:-

सर्व-शक्तियों में से विशेष शक्ति को जानते हो? अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान् तो समझते हो ना? सर्वशक्तियों में से सर्व श्रेष्ठ शक्ति कौन-सी है। जैसे पढ़ाई में अनेक सब्जेक्टस् होते हैं लेकिन उनमें से एक विशेष होता है। वैसे ही सर्व-शक्तियाँ आवश्यक तो हैं लेकिन इन शक्तियों में से सभी से श्रेष्ठ शक्ति कौन-सी है? जो आवश्यक हैं, जिसके बगैर महारथी व महावीर बनना मुश्किल है। हैं तो सभी आवश्यक। एक का दूसरे से सम्बन्ध है लेकिन फिर भी नम्बर वन जो सर्वशक्तियों को नजदीक लाने वाली है वह कौन-सी है? (परखने की शक्ति)।

सैल्फ रिअलाइजेशन करना भी परखने की शक्ति है। सैल्फ रिइलाइजेशन का अर्थ ही है-अपने आप को परखना व जानना। पहले बाप को परखेंगे तब जानेंगे या पहचान सकेंगे। और जब पहचानेंगे तब बाप के समीप व समान बन सकेंगे। परखने की शक्ति है नम्बरवन। परखना जिसको कामन शब्दों में पहचान कहते हैं। पहले-पहले ज्ञान का आधार ही है बाप को पहचानना अर्थात् परखना कि यह बाप का कर्त्तव्य चल रहा है। पहले परखने की शक्ति आवश्यक है। परखने की शक्ति को नॉलेजफुल  की स्टेज कहते है।

परखने की शक्ति का विस्तार क्या है और उससे प्राप्ति क्या-क्या होती हैं? इस विषय पर आपस में रूह-रूहान कर सकते हो। आपस में हम सरीखे खेलने वाले होते हैं तो खेल में भी मजा अता हैं। खेल-खेल में मेल भी हो जाता है। इस खेल में भी आपस में खेलते-खेलते दोस्त बन जाते हैं। वह हुआ स्थूल खेल। यहाँ भी खेल-खेल में आत्माओं की समीपता का मेल होता है। आत्माओं के संस्कार स्वभाव का मेल होता है। खेल के साथी बहुत पक्के होते स 69 हैं, जीवन के अन्त तक अपना साथ निभाते हैं। रूहानी खेल के साथ अन्त तक आपस में मेल निभाते हो, तब तो इस मेल की निशानी मालाबनी हुई है। सभी बातों में जब अन्त में एक दूसरे के समीप हो जाते, मेल हो जाता तब दाना दाने से मिल माला बनती है। यह मेल की निशानी (माला) है। अच्छा! ओम् शान्ति।

इस मुरली का सार

1. परखने की शक्ति के बगैर महारथी बनना मुश्किल है।

2. सैल्फ रियलाइजेशन करना भी परखने की शक्ति है। सैल्फ रियला इजेशन का अर्थ ही है -- अपने आप को परखना व जानना। पहले बाप को परखेंगे, तब जानेंगे या पहचान सकेंगे। और जब पहचानेंगे तब बाप के समीप व समान बन सकेंगे।

3. परखने की शक्ति का विस्तार क्या है और उससे प्राप्ति क्या होती है? इस विषय पर आपस में रूह-रूहान कर सकते हो। इससे खेल-खेल में आत्माओं की समीपता का मेल होता है। जब अन्त में सभी बातों में -- एक दूसरे के समीप हो जाते हैं, मेल हो जाता है तब दाना दाने से मिल मालाबनती है।



13-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


रूहानी योद्धा

सर्व बंधन मुक्त, त्रिकालदर्शी, सर्वशक्तिवान्, विश्वकल्याणकारी, श्रेष्ठ कर्म सिखाने वाले और श्रेष्ठ जीवन वाले बाबा बाले :-

अपने को रूहानी सेना के महारथी समझते हो? सेना के महारथी किसको कहा जाता है? उनके लक्षण क्या होते हैं? महारथी अर्थात् इस रथ पर सवार, अपने को रथी समझे। मुख्य बात कि अपने को रथी समझ कर इस रथ को चलाने वाले अपने को अनुभव करते हो? अगर युद्ध के मैदान में कोई महारथी अपने रथ अर्थात् सवारी के वश हो जाए तो क्या वह महारथी, विजयी बन सकता है या और ही अपनी सेना के विजयी-रूप बनने की बजाय विघ्न- रूप बन जाएगा। हलचल मचाने के निमित्त बन जाएगा। तो जो भी यहाँ इस रूहानी सेना के योद्धा हो, क्या वही इस रथ के रथी बने हो?

जैसे योद्धे सर्व व्यक्तियों, सर्व-वैभवों का किनारा कर युद्ध और विजय’-इन दो बातों को सिर्फ बुद्धि में रखते हुए अपने लक्ष्य को पूर्ण करने में लगे हुए होते हैं। वैसे ही अपने-आप से पूछो कि इन दो बातों का लक्ष्य है? या और भी कई बातें स्मृति में रहती हैं? ऐसे योद्धे बने हो? कहीं भी रहो लेकिन सदैव यह स्मृति रहे कि हम युद्ध के मैदान पर उपस्थित हुए योद्धे हैं। योद्धे कभी भी आराम पसन्द नहीं होते हैं। योद्धे कभी भी आलस्य और अलबेलेपन की स्थिति में नहीं रहते, योद्धे कभी भी शत्रं के बिना नहीं रहते, सदैव शस्त्रधारी होते हैं, योद्धे कभी भी भय के वशीभूत नहीं होते, निर्भय होते हैं, योद्धे कभी भी सिवाय युद्ध के और कोई बातें बुद्धि में नहीं रखते। सदैव योद्धेपन की वृत्ति और विजयी बनने की स्मृति में रहते हैं। क्या हम सभी भी एक-दूसरे के साथ विजयी रहते हैं? इस दृष्टि से एक-दूसरे को देखते हैं। ऐसे ही रूहानी योद्धों की सदैव दृष्टि में यह रहता है कि हम सभी एक-दूसरे के साथ महावीर हैं, विजयी हैं। हम हर सेकेण्ड हर कदम में युद्ध के मैदान पर उपस्थित हैं। सिर्फ एक ही लगन विजयी बनने की रहती है। सर्व सम्बन्ध वा सर्व प्रकृति के साधनों से अपनी बुद्धि को डिटैच कर दिया है? किनारा कर लिया है? या युद्ध के मैदान में हो लेकिन बुद्धि की तारें, सम्बन्ध वा कोई भी प्रकृति के साधनों में लगी हुई है? अपने को सम्पूर्ण स्वतन्त्र समझते हो? या कोई बात में परतन्त्र भी हो?

सम्पूर्ण स्वतन्त्र अर्थात् जब चाहो इस देह का आधार लो, जब चाहो इस देह के भान से ऐसे न्यारे हो जाओ जो जरा भी यह देह अपनी तरफ खींच न सके। ऐसे अपनी देह के भान अर्थात् देह के लगाव से स्वतन्त्र, अपने कोई भी पुराने स्वभाव से भी स्वतन्त्र, स्वभाव से भी बन्धायमान न हो। अपने संस्कारों से भी स्वतन्त्र। अपने सर्व लौकिक सम्पर्क वा अलौकिक परिवार के सम्पर्क के बन्धनों से भी स्वतन्त्र। ऐसे स्वतन्त्र बने हो? ऐसे को कहा जाता है-सम्पूर्ण स्वतन्त्र। ऐसी स्टेज पर पहुंचे हो वा अभी तक एक छोटी-सी कर्मेन्द्रिय भी अपने बंधन में बाँध लेती है?

अगर छोटी-सी चींटी शेर को अथवा महारथी को हैरान कर दे तो ऐसे महारथी व शेर को क्या कहेंगे? शेर कहेंगे? एक व्यर्थ संकल्प मास्टर सर्वशक्तिमान को हैरान कर दे या एक पुराने 84 जन्मों का जड़जड़ी भूत संस्कार, मास्टर सर्वशक्तिवान, महावीर, विघ्न-विनाशक, त्रिकालदर्शी, स्वद- र्शन चक्रधारी को परेशान कर ले, पुरूषार्थ में कमजोर बना दे, ऐसे मास्टर सर्व- शक्तिवान को क्या कहेंगे? जिस समय इस स्थिति में होते हो उस समय अपने ऊपर आश्चर्य नहीं लगता? यह शब्द निकलना कि मुझे व्यर्थ संकल्प आते हैं वा पुराने संस्कार वा स्वभाव अपने वशीभूत बना लेते हैं वा बाप की याद का अनुभव नहीं है, बाप द्वारा कोई प्राप्ति नहीं है वा छोटे-से विघ्न से घबरा जाते हैं, निरन्तर अति इन्द्रिय सुख वा हर्ष नहीं रहता, खुशी का अनुभव नहीं होता, क्या वह बोल ब्राह्मण कुल भूषण के हैं ऐसे ब्राह्मणों को कौन से ब्राह्मण कहेंगे - नामधारी ब्राह्मण। अगर सच्चे ब्राह्मण कहलाते और यह बोलते तो द्वापर युगी ब्राह्मणों और ऐसे कहलाने वाले ब्राह्मणों में क्या अन्तर है?

वर्तमान समय ब्राह्मण बनने वाली आत्माएं अपने-आप को देखें कि क्या ब्राह्मणपन का पहला लक्षण अपने जीवन में लाया है? ब्राह्मणपन का पहला लक्षण कौन-सा है - और संग तोड़े एक संग जोड़। अगर अपनी कर्मेन्द्रियों की तरफ भी जोड़ है तो क्या यह ब्राह्मणों का पहला लक्षण है? जब पहलेपहले प्रतिज्ञा वा पहला-पहला मरजीवा जन्म का बोल ब्राह्मणों का यही है कि-एक बाप दूसरा न कोई। यही पहली प्रतिज्ञा है। अथवा पहला लक्षण है। तो पहले इस लक्षण वा प्रतिज्ञा को वा पहले बोल को निभाया है या एक कहते हुए भी अनेकों तरफ जुटा हुआ है? तो क्या ऐसा नामधारी ब्राह्मण विजयी कहलायेगा? ब्राह्मणों के लिये इतने बड़े विश्व के अन्दर अपना ही छोटा-सा संसार है, ऐसे छोटे-से संसार में हर कार्य करते ऐसे ब्राह्मण विश्व के जिन भी आत्माओं को देखते हैं उन को सिर्फ एक कल्याण की ही भावना से देखते हैं। सम्बन्ध और लगाव की भावना से नहीं। लेकिन सिर्फ ईश्वरीय सेवा के भाव से। पाँच तत्वों को देखते हुए, प्रकृति को देखते हुए, प्रकृति के वश नहीं होंगे। लेकिन प्रकृति को भी सतोप्रधान बनाने के कर्त्तव्य में स्थित होंगे। जो स्वयं प्रकृति को परिवर्तन करने वाले हैं क्या वह स्वयं प्रकृति के वश होंगे? जो अभी प्रकृति को वश नहीं कर सकते वह भविष्य में सतोप्रधान प्रकृति के सुख को नहीं पा सकते। तो प्रकृति के वश तो नहीं होते हो? यह तो ऐसा होगा जैसे कोई डॉक्टर रोगी को बचाने जाये लेकिन स्वयं रोगी बन जाए। कर्त्तव्य है प्रकृति को परिवर्तन करने का और उसके बजाय प्रकृति के वश हो जाए तो क्या उनको ब्राह्मण कहेंगे? ब्राह्मण तो सभी बने हो न? कोई कहेगा क्या कि मैं ब्राह्मण नहीं हूँ। ब्राह्मण बनना अर्थात् ऐसे लक्षण धारण करना। तो ऐसे लक्षणधारी हो या नामधारी हो? यह अपने आप से पूछेंगे।

ब्राह्मण जन्म की विशेषता क्या है जो और कोई जन्म में नहीं होती? ब्राह्मण जन्म कि विशेषता यह है कि अन्य सर्व जन्म, आत्माओं द्वारा आत्माओं के होते हैं लेकिन एक ही यह ब्राह्मण जन्म है जो परम पिता परमात्मा द्वारा डायरेक्ट जन्म होता है। देवता जन्म भी श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा ही होता है। परमात्मा द्वारा नहीं। तो ब्राह्मण-जन्म की विशेषता जो सारे कल्प के अन्य कोई जन्म में नहीं है। ऐसी विशेषता सम्पन्न जन्म है तो उन आत्माओं की भी विशेषता क्या होनी चाहिए? जो बाप के गुण हैं, वही ब्राह्मण आत्माओं के गुण होने चाहिए। वह गुण भी इस ब्राह्मण जन्म के सिवाय और कोई जन्म में नहीं आ सकते। जैसे इस ब्राह्मण जीवन में त्रिकालदर्शी, त्रिनेत्री, ज्ञान स्वरूप बनते हो वैसे और जन्म में बनेंगे क्या? तो जो सिर्फ ब्राह्मण जीवन के गुण हैं यह विशेषताए हैं उसको इस ब्राह्मण जीवन में अनुभव न किया तो फिर कब करेंगे? ब्राह्मण बन और ब्राह्मण जीवन की विशेषता का अनुभव ना किया तो ब्राह्मण बन कर किया क्या?

जैसे अन्य आत्माओं को कहते हो कि परमात्मा की सन्तान हो कर और बाप को नहीं जानते हो तो कौड़ी तुल्य हो। आप ऐसे कहते हो न सभी को? लेकिन कोई हीरे तुल्य जन्म लेकर भी हीरे समान जीवन नहीं बनाते हैं। हीरा हाथ में मिले और उसको पत्थर समझ उसका मूल्य न जाने, ऐसे को क्या कहा जाता है? - ‘महान् समझदार। दूसरा शब्द तो नहीं बोलना चाहिए, उल्टे रूप के महान् समझदार कभी ऐसे तो नहीं बन जाते हो? तो ब्राह्मण जन्म के मूल्य को जानो। साधारण बात नहीं है। बस हम भी ब्राह्मण बन गए। सदैव अपने को चेक करो कि ब्राह्मण जीवन को निभा रहा हूँ? अच्छा।

ऐसे श्रेष्ठ जन्म, श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ जीवन, श्रेष्ठ सेवा में सदा चलने वाले श्रेष्ठ आत्माओं, विश्व-कल्याणकारी आत्माओं और सर्व-बन्धनों से सम्पूर्ण स्वतन्त्र आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार, नमस्ते।

इस वाणी का सार

1. जैसे योद्धे सर्व-व्यक्तियों, सर्व वैभवों से किनारा कर केवल दो बातों को बुद्धि में रखते हैं-युद्ध और विजय। वैसे ही अपने-आप से पूछो कि इन दो बातों का लक्ष्य रखा हैं या और भी कई बातें स्मृति में रहती हैं! सदैव याद रखो कि हम हर सेकेण्ड, हर कदम युद्ध के मैदान पर उपस्थित हैं।

2. अगर छोटी-सी चींटी शेर को अथवा महारथी को हैरान कर दे तो ऐसे महारथी व शेर को महारथी कहेंगे? क्या इसी प्रकार अगर एक व्यर्थ संकल्प मास्टर सर्वशक्तिवान को हैरान कर दे या पुरूषार्थ में कमजोर बना दे तो ऐसे को मास्टर सर्वशक्तिवान कहेंगे?



18-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विशेष आत्माओं की विशेषता

हर मुश्किल को सहज करने वाले पहाड़ को राई बनाने वाले, असम्भव को सम्भव बनाने वाले, सृष्टि के रचयिता, विश्व-कल्याणकारी बाबा बोले:-

सभी इस समय अपने श्रेष्ठ स्वमान के सिंहासन पर स्थित हो? श्रेष्ठ स्वमान का रूप जानते हो? इस समय विश्व रचयिता की डायरेक्ट  रचना, पहली रचना, सर्वश्रेष्ठ रचना और रचयिता के बालक सो मालिक’, जो बापदादा के नूरे रत्न हो, दिल तख्त नशीन हो, मस्तक की मणियाँ हो और बापदादा के कर्त्तव्य में मददगार हो और जो विश्व-कल्याणकारी, विश्व के आधारमूर्त्त, विश्व के आगे श्रेष्ठ उदाहरण रूप में हो, क्या ऐसे सच्चे स्वमान स्मृति में रहते हैं? सदा स्वमान के सिंहासन पर स्थित रहते हो? या सिंहासन पर टिक नहीं पाते हो? नाम ही है सिंहासन। इसका अर्थ क्या हुआ? इस पर कौन स्थित हो सकता है? सर्व शक्ति सम्पन्न ही इस आसन पर अर्थात् स्थिति में स्थित हो सकता है। सिंह अर्थात् शेर या शेरनी। अगर सिंह नहीं बने हो तो आसन पर स्थित नहीं हो सकते हो। सिंहासन किस के लिए है? जो सर्वशक्तिमान् की पहली रचना है। पहली रचना में रचयिता के समान सर्व-शक्तियाँ स्वरूप में दिखाई देती हैं? पहली रचना कि विशेषता जो इस समय है क्या उसको जानते हो? जिस विशेषता के कारण विश्व रचयिता के भी मालिक बनते हो, बाप से भी विशेष पूज्य योग्य बनते हो, बाप भी ऐसी रचना का गुणगान करते हैं, और वन्दना करते हैं, वह कौन-सी विशेषता है? बाप का गायन आत्मायें ही करती हैं लेकिन ऐसी सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का गायन स्वयं सर्वशक्तिवान् करते हैं अर्थात् परमात्मा द्वारा आत्माओं का गायन होता है। स्वयं बाप ऐसी आत्माओं का हर रोज बार-बार स्मरण करते हैं। ऐसी विशेष आत्माओं की मुख्य विशेषता क्या है जो ऐसे श्रेष्ठ बने हो? अपनी उस विशेषता को जानते हो? अवश्य ही बाप से भी कोई विशेषता आपकी ज्यादा है। उसको जानते हो? किस बात में बाप से भी आगे हो? वह विशेषता सुनाओ। बापदादा से किस बात में आगे हो? अष्ट रत्नों में सिर्फ शक्तियाँ हैं वा पाण्डव भी आ सकते हैं। जब भाई-भाई हैं तो आत्मिक रूप की स्थिति में स्थित हुई आत्मा अष्ट रत्न बन सकते हैं? इसमें शक्ति अथवा पाण्डवों की बात नहीं है, अपितु आत्मिक स्थिति की बात है। दोनों आ सकते हैं। पाण्डवों की सीट भी आठ में है। अच्छा फर्स्ट विशेषता क्या हुई जो आत्माओं को बाप का भी मालिक बनाती है? वो बाप से भी श्रेष्ठ बनते हैं। यह विशेषता है बाप को प्रत्यक्ष करना, बाप के सम्बन्ध में समीप लाना, बाप के वारिस बनाना। यह आप पहली रचना का कर्त्तव्य है। बाप बच्चों द्वारा ही प्रत्यक्ष होते हैं। निराकार बाप और साकार ब्रह्मा बाप दोनों को, अपने निश्चय, अपने ब्राह्मण जीवन के आधार से, अपने अनुभव के आधार से, विश्व के आगे प्रख्यात किया तब विशेष मानते हैं। तो बाप को प्रख्यात करने की विशेषता बच्चों की है, इसलिए बाप रिटर्न में विश्व के आगे, स्वयं गुप्त रूप में रह, शक्ति सेना व पाण्डव सेना को प्रख्यात करते हैं। तो यह विशेषता बच्चों की है इसलिए बाप से भी ज्यादा पूज्य बने हो। ऐसी अपनी विशेषता स्मृति में रहती है या भूल जाते हो? संगमयुगी ब्राह्मणों की विशेषता सदा स्मृति स्वरूप की है। तो ब्राह्मणपन की विशेषता अनुभव करते हो? शूद्रपन अर्थात् विस्मृत स्वरूप। ब्राह्मण बन कर भी फिर विस्मृति में आये तो शूद्र और ब्राह्मण में अन्तर ही क्या हुआ? मरजीवा जन्म की अलौकिकता क्या हुई? विस्मृति लौकिकता है अर्थात् वह इस लोक की रीति-रस्म है। ब्राह्मण की रस्म सदा स्मृति स्वरूप है।कब भी अपने लौकिक कुल की रीति-रस्म व मर्यादायें किसको भूलती हैं क्या? ब्राह्मण कुल की रीति-रस्म वा मर्यादायें ब्राह्मण ही भूल जायें यह सम्भव (आसान) है क्या? ब्राह्मणों के रीति-रस्म अलौकिक हैं। इस रीति-रस्म में चलना साधारण और सहज बात है क्योंकि जब हैं ही ब्राह्मण। दूसरे कुल की रीति-रस्म अपनाना मुश्किल हो सकती है। लेकिन यह तो आपके आदि की रीति-रस्म है। नेचरल जीवन की बात है। ब्राह्मण जन्म के संस्कारों की बात है, इसमें मुश्किल क्या है? ब्राह्मण जीवन का संस्कार और स्वभाव कौनसा है? सर्व दिव्य गुण ही ब्राह्मणों का स्वभाव है, जिसको दिव्य स्वभाव कहते हैं तो दिव्य गुण ब्राह्मणों की स्वाभाविक चीज़ है अर्थात् ब्राह्मण-जीवन का स्वभाव सर्व दिव्यगुण हैं। गम्भीरता, रमणीकता, हर्षितमुखता, सहनशीलता, सन्तोष, यह ब्राह्मणों के जीवन का स्वभाव है और संस्कार है-विश्व के सेवाधारी।जब ब्राह्मण जीवन का स्वभाव और संस्कार यही है तो कोई भी गुण को धारण करना व सेवाधारी बनने के लिये स्वयं का अर्थात् मैं पनका त्याग व निरन्तर तपस्वी स्वरूप व स्मृति स्वरूप बनना सहज और साधारण बात हुई ना? अगर कोई का, कोई भी जन्म का संस्कार होता है वा जन्म से स्वभाव होता है उसको परिवर्तन करना मुश्किल होता है, या चलना सहज होता है? जैसे आप लोग भी कमजोरी-वश बहाना देते हो कि यह मेरा स्वभाव व संस्कार है, इसी प्रकार ब्राह्मण जीवन का जो आदि स्वभाव और संस्कार है उसमें ब्राह्मणों का चलना सहज होगा या मुश्किल होगा? यदि कोई कहे कि इन दिव्य गुणों के संस्कारों के विपरीत कोई कार्य करो, तब यह ब्राह्मणों के लिये मुश्किल होना चाहिए। अभी प्रैक्टिकल में क्या है? शूद्रपन के संस्कार और स्वभाव नेचरल रूप से हैं या ब्राह्मणपन के स्वभाव और संस्कार नेचरल रूप में हैं? इसमें तो पुरूषार्थ करने की आवश्यकता नहीं जबकि जीवन के निजी संस्कार है। लेकिन जैसे पहले सुनाया कि अपने स्वमान के सिंहासन पर स्थित नहीं हो पाते, अपना तख्त छोड़ देते हो, और अपना बना हुआ भाग्य भूल जाते हो। इसीलिये निजी स्वभाव और संस्कार मुश्किल अनुभव करते हो। समझा?

बाप का इस बात पर एक गायन है जो बच्चों का भी है। ‘‘मुश्किल को सहज करने वाले।’’ तो जब बाप का गायन है मुश्किल को सहज करने वाले, पहाड़ को राई बनाने वाले व रूई बनाने वाले। रूई (कपास) कितनी हल्की होती है और स्वच्छ होती है और पहाड़ कितना मुश्किल और भारी होता है। कहां पहाड़, कहाँ रूई वा राई। तो जो बाप का गायन है वह आपका नहीं है? जो मुश्किल को सहज बनाने वाले ब्राह्मण, उनको कोई भी बात मुश्किल अनुभव हो, यह हो सकता है? तो अपने स्वमान में स्थित रह अपनी विशेषता को हर समय स्मृति में रखो। विशेष आत्मायें हर संकल्प और हर कार्य विशेष करेंगी अर्थात् श्रेष्ठ करेंगी।

अच्छा, ऐसे सदा मुश्किल को सहज करने वाले, सदा स्मृति स्वरूप, बाप के समान हर संकल्प, हर सेकेण्ड विश्व-कल्याण के विशेष कर्त्तव्य में लगाने वाले, विश्व-कल्याणकारी और बापदादा के दिल-तख्तनशीन श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।



20-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


लगन का साधन -- विघ्न

वरदाता, सर्व कल्याणकारी विघ्न विनाशक बाबा बोले :-

वरदान भूमि से वरदाता द्वारा सर्व वरदानों को प्राप्त करके क्या तीव्र पुरुषार्थी बनते जा रहे हो? पुरूषार्थ की चाल में जो परिवर्तन किया है, वह अविनाशी किया है या अल्पकाल के लिए? कैसी भी कोई परिस्थिति आये, कैसे भी विघ्न हिलाने के लिए आ जाए लेकिन जिसके साथ स्वयं बाप सर्वशक्तिवान् है उनके सामने वह विघ्न क्या हैं? उनके आगे विघ्न, परिवर्तन हो क्या बन जायेंगे? ‘विघ्न लगन का साधन बन जायेंगे।हर्षित होंगे ना? यदि कोई भी परिस्थिति व व्यक्ति विघ्न लाने के निमित्त बनता है तो उसके प्रति घृणा-दृष्टि, व्यर्थ संकल्पों की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए लेकिन उसके प्रति वाह-वाह निकले। अगर यह दृष्टि रखो तो आप सभी की श्रेष्ठ दृष्टि हो जायेगी। कोई कैसा भी हो, लेकिन अपनी दृष्टि और वृत्ति सदैव शुभचिन्तक की हो और कल्याण की भावना हो। हर बात में कल्याण दिखाई दे। कल्याणकारी बाप की सन्तान कल्याणकारी हो ना? कल्याणकारी बनने के बाद कोई भी अकल्याण की बात हो नहीं सकती। यह निश्चय और स्मृति-स्वरूप हो जाओ तो आप कभी डगमगा नहीं सकेंगे।

जैसे कोई हरा या लाल चश्मा पहनता है तो उसको सभी हरा अथवा लाल ही दिखाई पड़ता है। वैसे आप लोगों के तीसरे नेत्र पर कल्याणकारी का चश्मा पड़ा है। तीसरा नेत्र है ही कल्याणकारी। उसमें अकल्याण दिखाई पड़े, यह हो ही नहीं सकता। जिसको अज्ञानी लोग अकल्याण समझते हैं लेकिन आपका उस अकल्याण में ही कल्याण समाया हुआ है। जैसे लोग विनाश को अकल्याण समझते हैं लेकिन आप समझते हो कि इससे ही गति-सद्गति के गेट्स खुलेंगे। तो कोई भी बात सामने आती है, ‘सभी में कल्याण भरा हुआ है’-ऐसे निश्चय-बुद्धि होकर चलो तो क्या प्राप्ति होगी?-एक-रस अवस्था हो जायेगी। किसी भी बात में रूकना नहीं चाहिए। जो रूकते हैं वे कमजोर होते है। महावीर कभी नहीं रूकते। ऐसे नहीं विघ्न आयें और रूक जायें। अच्छा।

इस मुरली का सार

1. बाबा कहते कि यदि कोई भी परिस्थिति या व्यक्ति विघ्न लाने के निमित्त बनता है, तो उसके प्रति घृणा दृष्टि न हो, व्यर्थ संकल्पों की उत्पत्ति न होनी चाहिए लेकिन उसके प्रति वाह-वाह निकले क्योंकि उसी विघ्न से तुम्हारी लग्न बढ़ेगी। 2. जैसे कोई हरा या लाल चश्मा पहनता है तो उसको सब कुछ वैसा ही दिखाई पड़ता है, वैसे ही आप लोगों के तीसरे नेत्र पर भी कल्याणकारी का चश्मा पड़ा है। तीसरा नेत्र है ही कल्याणकारी। उसमें अकल्याण हो नहीं सकता। हर बात में तुम्हारा कल्याण ही है-अगर यह बात हरेक की बुद्धि में रहे तो सभी की एक-रस अवस्था हो जायेगी।


 

 

23-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अलौकिक खज़ाने के मालिक

सर्व कमजोर आत्माओं को बल देने वाले, सर्व आत्माओं के तमोगुणी स्वभाव और संस्कारों को परिवर्तन करने वाले और पद्मापद्म भाग्यशाली बनाने वाले बाबा बोले :-

अपने को लाइट हाउस और माइट हाउस दोनों समझते हो? वर्तमान समय की स्थिति प्रमाण आप सभी का कौन-सा स्वरूप विश्व-कल्याण का कर्त्तव्य कर सकता है? उस स्वरूप को जानते हो? इस समय आवश्यकता है माइट हाउस के स्वरूप की। क्या ऐसा अनुभव करते हो कि ऑलमाइटी बाप की सन्तान हम भी माइट हाउस बने हैं? सर्व शक्तियाँ अपने में समाई हुई समझते हो? शक्तिवान् नहीं लेकिन सर्वशक्तिवान्। जिनका सर्वशक्तियाँ सम्पन्नके लिए गायन है कि अप्राप्त कोई शक्ति नहीं ब्राह्मणों के खजाने में।

जैसे देवताओं के लिये गायन है, अप्राप्त कोई वस्तु नहीं देवताओं के खजाने में, वैसे आप ब्राह्मणों का गायन है कि अप्राप्त नहीं कोई शक्ति ब्राह्मणों के खजाने में क्योंकि मास्टर सर्वशक्तिवान् हैं। जब बाप का नाम ही सर्वशक्तिवान् ऑलमाइटी अथॉरेटी है, अर्थात् सर्वशक्तियों के खजाने के मालिक के बालक हो, तो ऐसे बालक जो बाप की सर्वशक्तियों के मालिक हैं तो क्या उनके पास कोई अप्राप्ति हो सकती है? जो बालक सो मालिक हैं। ऐसा कोई है जो अपने को बालक सो मालिक नहीं समझते हैं? सभी मालिक बैठे हैं ना? सर्वशक्तियों के खजाने के मालिक हो ना? खजाने के मालिक कभी यह संकल्प भी कर सकते हैं क्या, कि हमारे पास सहनशक्ति नहीं है व माया को परखने की शक्ति नहीं है व ज्ञान के खजाने को सम्भालने की शक्ति नहीं है व संकल्पों को समाने की शक्ति नहीं है व खजाने को सुमिरण करने की शक्ति नहीं है? कितना भी कोई कार्य में बुद्धि विस्तार में गई हुई हो लेकिन विस्तार को एक सेकेण्ड में समाने की शक्ति नहीं है? ऐसे मालिक के क्या यह बोल व यह संकल्प भी हो सकता है? अगर होता है तो उसको क्या कहें? उस समय की स्टेज को व स्थिति को क्या मालिकपन की स्थिति कह सकते हैं?

मालिक सदा मालिक ही होता है। अभी-अभी मालिक, अभी-अभी भिखारी ऐसे मास्टर सर्वशक्तिवान् होते हैं क्या? मालिक से बार-बार रॉयल (रॉयल) भिखारी क्यों बनते हो? बाप के सामने भी जब बच्चा आकर यह कहे कि बाबा हमको मदद करना, शक्ति देना और सहारा देना, इसको क्या कहा जाता है? क्या इसको रॉयल भिखारीपन नहीं कहेंगे? यह हैं भक्ति के संस्कार। जैसे देवताओं के आगे जाकर कहते थे कि आप तो सर्वगुण सम्पन्न हो और मैं.... वैसे ही बाप के आगे मास्टर सर्वशक्तिवान् आकर कहता है कि बाबा आप तो सर्वशक्तियों के सागर हो लेकिन मुझ में वह शक्ति नहीं है, निर्बल हूँ, माया से हार खा लेता हूँ, व्यर्थ संकल्पों को कन्ट्रोल नहीं कर पाता हूँ और माया के विघ्नों से घबरा जाता हूँ तो क्या ये वही भक्ति के संस्कार नहीं हुए?

सुनाया था ना कि बाप जो है, जैसा है उसको वैसा न मान कर भावना के वश सर्वव्यापी भी कहते हैं, इसको भी आप बाप की इनसल्ट करते हो ना? कड़े से कड़ा शब्द गाली देते हो। वैसे ही अपने श्रेष्ठ स्वमान, मास्टर सर्वशक्तिवान्, मास्टर ज्ञान, प्रेम और आनन्द सभी के सागर, अपने लिये फिर कहे कि जरा-सी शक्ति की कमी है तो क्या उनको मास्टर सागर कहेंगे? एक तो स्वयं को मास्टर ज्ञान का सागर, आनन्द का सागर कहे फिर यह कहे तो अपनी इनसल्ट करना नहीं हुआ क्या? स्वयं ही स्वयं की इनसल्ट करना क्या यह ब्राह्मणों का स्वमान है? यह बोल बोलना व यह संकल्प करना इससे अपनी भी इनसल्ट करते हो और बाप की भी इनसल्ट करते हो-कैसे?

एक तो बाप जो दाता है, स्वयं ही देने वाला है और किसी के कहने से देने वाला नहीं है, तो दाता को मनुष्य बनाना क्या यह इनसल्ट नहीं है? कहने से कौन करता है?-मनुष्य। दूसरी बात बाप को भी स्मृति दिलाने वाले बनते हो। इससे क्या सिद्ध होता है? क्या बाप को अपना कर्त्तव्य करना भूल गया है? क्या इसलिये आप बाप को स्मृति दिलाते हो? बाबा, ‘आप तो मददगार हैं ही, इसलिये मदद करनाइस कहने को क्या कहा जाय? जब कि गायन ही यह है कि ब्राह्मण अर्थात् सर्वप्राप्ति स्वरूप। प्राप्ति स्वरूप के पास अप्राप्ति कहाँ से आयी? इसलिये कहा कि ब्राह्मणों की स्टेज पॉवर हाउस है। अब पॉवर हाउस से परे की भाषा समझे? पॉवर हाउस के यह बोल नहीं होते हैं। अब तो फाईनल रिजल्ट आउट  होने का समय भी समीप आ रहा है। फाईनल रिजल्ट के समय में भी अगर कोई पहला पाठ ही पढ़ता रहे, उसमें भी मजबूत न हुआ हो तो ऐसे का रिजल्ट क्या होगा? इसलिये फिर भी बापदादा कुछ समय पहले सुना रहे हैं कि जिसको भी हाईजम्प देना हो व आगे बढ़ना हो तो अभी से छ: मास के अन्दर अर्थात् इस वर्ष में अपने आप को जिस भी स्टेज पर व जिस भी स्थिति में स्थित करना चाहते हो, उसके लिए यह चॉन्स है। ऐसे थोड़े समय के अन्दर अपने को सम्पन्न बनाने के लिए साधारण पुरूषार्थ नहीं चलेगा। अभी तो तीव्र पुरूषार्थ अर्थात् संकल्प, बोल और कर्म इन तीनों में समानता का अभ्यास करना उसको कहा जाता है-तीव्र पुरुषार्थी।

जैसे बुद्धि में यह सोचते हो, समझते हो कि हम दाता के बच्चे हैं लेकिन बोल और कर्म में अन्तर है। संकल्प में सोचते हो कि हम सर्व आत्माओं से ऊँचे ब्राह्मण हैं लेकिन बोल और कर्म में अन्तर है। सोचते हैं कि विश्वकल्याणकारी हैं लेकिन बोल और कर्म में अन्तर है। तो तीनों ही समान हो जायें इसको कहा जाता है तीव्र-पुरूषार्थ अर्थात् बाप-समान। तो क्या ऐसे अपने को बाप-समान बनाने के लिए समय दे रहे हैं? छ: मास के बाद इस रूहानी सेना के महावीर, घोड़ेसवार और प्यादे अर्थात् प्रजा सभी प्रत्यक्ष होंगे। जब तक आपस में ही प्रत्यक्ष नहीं होंगे तो विश्व के आगे प्रख्यात कब होंगे? और विश्व के आगे प्रख्यात नहीं होंगे तो प्रत्यक्षता कैसे होंगी? तो स्वयं को और बाप को प्रख्यात करने के लिए व बाप की प्रत्यक्षता करने के लिए अब लास्ट पुरूषार्थ व लास्ट सो फास्ट पुरूषार्थ कौन-सा रह गया है? फास्ट पुरूषार्थ कौन-सा है जो फास्ट ही लास्ट है, इसको जानते हो? कौन-सा पुरूषार्थ सामने आता है? फास्ट पुरूषार्थ की विधि कौन-सी है कि जिससे बाप समान बन जायेंगे? यह सिद्धि होगी। बिना विधि के सिद्धि नहीं हो सकती। बहुत बार सुनाया है। सिर्फ एक शब्द है। लास्ट सो फास्ट पुरूषार्थ की विधि है -- प्रतिज्ञा। कोई भी बात की प्रतिज्ञा करना कि यह करना ही नहीं है। यह अभी करना है। प्रतिज्ञा की विधि यह है कि लास्ट इज फास्ट। प्रतिज्ञा अर्थात् संकल्प किया और स्वरूप हुआ। प्रतिज्ञा करने में सेकेण्ड लगता है। तो अब फास्ट पुरूषार्थ एक सेकेण्ड का ही होना चाहिए। क्योंकि सुनाया था कि लास्ट पेपर की जो रिजल्ट आउट होना है। लास्ट पेपर का समय क्या मिलेगा? एक सेकेण्ड। लास्ट पेपर का टाइम भी फिक्स है और पेपर भी फिक्स है। पेपर सुनाया था ना-नष्टोमोहा, स्मृति स्वरूप। एक सेकेण्ड में ऑर्डर हुआ -- नष्टोमोहा बन जाओ तो एक सेकेण्ड में अगर नष्टोमोहा, स्मृति स्वरूप न बने, अपने को स्वरूप बनाने अर्थात् युद्ध करने में ही समय गंवा दिया और बुद्धि को ठिकाने लगाने में समय लगा दिया तो क्या हो जायेंगे? -फेल। तो समय भी एक सेकेण्ड का मिलना है। यह भी पहले ही सुन रहे हैं। पेपर भी पहले सुन रहे हैं तो कितने पास होने चाहिये? फास्ट पुरूषार्थ की विधि है - प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञा से अपने को प्रख्यात करो। बाप को प्रख्यात करो अर्थात् प्रतिज्ञा से प्रत्यक्षता करो। यह मुश्किल है क्या? हिम्मत और उल्हास और नशा और निशाना अगर सदा साथ रखेंगे तो अनेक कल्प के समान फुल पास हुए ही पड़े हैं। कोई मुश्किल नहीं। सिर्फ इन छ: मास के अन्दर अपने मुख्य चार सब्जेक्ट्स को सामने रखकर चेक करना कि चारों में पास मार्क्स हैं? यह हैं कम-से-कम पास मार्क्स। लेकिन जो विशेष आत्माएं हैं उनको फुल मार्क्स लेने का लक्ष्य रखना है। ऐसे नहीं समझना कि दो या तीन सब्जेक्ट्स में अच्छे मार्क्स हैं और एक या दो में कम हैं तो पास हो जायेंगे। अगर एक सब्जेक्ट में यदि कोई फेल होता है तो क्या होता है? जिसको दोबारा पेपर देना पड़ता है। उसका वह वर्ष तो खत्म हुआ ना? अर्थात् वह सूर्यवंशी से तो मिस हुआ ना? सूर्यवंश के पहले राजभाग्य और प्रकृति के फर्स्ट सर्व प्राप्ति सम्पन्न प्रारब्ध से तो मिस हो जायेंगे न? हाँ, यदि चढ़ती कला होते-होते त्रेता में आकर फुल मार्क्स लेंगे तो त्रेतायुग में कुछ श्रेष्ठ प्रारब्ध पा लेंगे। इसलिये यह भी नहीं सोचना। चारों ही सब्जेक्ट्स में फर्स्ट पुरूषार्थ है - फुल पास होना अर्थात् फुल मार्क्स लेने हैं। सेकेण्ड पुरूषार्थ सभी सब्जेक्ट्स में पास मार्क्स लेने का है। और तीसरा पुरूषार्थ तो करना ही नहीं है क्योंकि तीसरे का तो सोचना ही नहीं है, बाबा फिर भी टाइम दे रहे हैं। अपने आपको सभी सब्जेक्ट्स में कम्पलीट कर लो। समझा? तीन ग्रुप आउट करने हैं। नम्बर 1 एवररेडी ग्रुप 2 रेडी ग्रुप 3 लेजी ग्रुप। इस छ: मास के अन्दर अपने को परिवर्तित कर फर्स्ट ग्रुप में लाना है अर्थात् एवररेडी ग्रुप। ऑर्डर हुआ और किया। ऑर्डर मानने में लेजी नहीं। इन तीन ग्रुप्स में स्वयं भी स्वयं को दर्पण में साक्षात्कार हो जायेगा। जैसे कल्प पहले ब्रह्माकुमार (नारद) ने दर्पण में अपना साक्षात्कार किया ना वैसे नॉलेज रूपी दर्पण में स्वयं ही स्वयं का साक्षात्कार करेंगे कि मैं किस ग्रुप में हूँ और किस ग्रेड में आने वाला हूँ। जैसा ग्रुप वैसे ग्रेड्स होंगे न? अच्छा।

सदा स्वयं के प्रति और विश्व के प्रति शुभ चिन्तक स्थिति में स्थित रहने वाले, हर सेकेण्ड और हर संकल्प श्रेष्ठ व्यतीत करने वाले, सदा अपने खजाने की स्मृति और सुमिरण में रहने वाले, सदा खुशी की खुराक में भरपूर रहने वाले, सर्व कमजोर आत्माओं को बल देने वाले, सर्व आत्माओं के तमोगुणी स्वभाव और संस्कारों को परिवर्तन करने वाले, साक्षी और सदा साथी अनुभव करने वाले, ऐसे कोटों में से कोई और कोई में से कोई, पद्मापद्म भाग्यशाली आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।



28-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


योगयुक्त होने से स्वत: युक्ति- युक्त संकल्प, बोल और कर्म होंगे  

सदा विजयी बनाने वाले, मरणासन्न आत्माओं को जी-दान देने वाले, सदा श्रेष्ठ कर्म करने और करवाने वाले योगेश्वर शिवबाबा बोले:-

जैसे जिसमानी मिलिट्री को मार्शल ऑर्डर करते हैं - एक सेकेण्ड में जहाँ हो, जैसे हो, वहाँ ही खड़े हो जाओ। अगर वह इस ऑर्डर को सोचने में व समझने में ही टाइम लगा दे तो उसका रिजल्ट क्या होगा? विजय का प्लान प्रैक्टिकल में नहीं आ सकता। इसी प्रकार सदा विजयी बनने वाले की विशेषता यही होगी एक सेकेण्ड में अपने संकल्प को स्टॉप कर लेना। कोई भी स्थूल कार्य व ज्ञान के मनन करने में बहुत बिज़ी हैं लेकिन ऐसे समय में भी अपने आप को एक सेकेण्ड में स्टॉप कर लेना।

जैसे वे लोग यदि बहुत तेजी से दौड़ रहे हैं वा कश्म-कश के युद्ध में उपस्थित हैं, वे ऐसे समय में भी स्टॉप कहने से स्टॉप हो जायेंगे। इसी प्रकार यदि किसी समय यह संकल्प नहीं चलता है अथवा इस घड़ी मनन करने के बजाय बीज रूप अवस्था में स्थित हो जाना है। तो सेकेण्ड में स्टॉप हो सकते हैं? जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियों को एक सेकेण्ड में जैसे और जहाँ करना चाहें वह कर सकते हैं, अधिकार है न उन पर? ऐसे बुद्धि के ऊपर और संकल्पों के ऊपर भी अधिकारी बने हो? फुलस्टॉप वर्ना चाहो तो कर सको क्या ऐसा अभ्यास है? विस्तार में जाने के बजाय एक सेकेण्ड में फुलस्टॉप हो जाय ऐसी स्थिति समझते हो? जैसे ड्राइविंग का लाइसेन्स लेने जाते हैं तो जानबूझ कर भी उनसे तेज स्पीड करा के फिर फुलस्टॉप कराते हैं व बैक कराते हैं। यह भी प्रैक्टिस है ना? तो अपनी बुद्धि को चलाने और ठहराने की भी प्रैक्टिस करनी है। कमाल तब कहेंगे जब ऐसे समय पर एक सेकेण्ड में स्टॉप हो जायें। निरन्तर विजयी वह जिसके युक्ति-युक्त संकल्प व युक्ति-युक्त बोल व युक्ति-युक्त कर्म हों या जिसका एक संकल्प भी व्यर्थ न हो। वह तब होगा जब यह प्रैक्टिस होगी मानो कोई ऐसी सर्विस है जिसमें फुल विजयी होना होता है तो ऐसे समय भी स्टॉप करने का अभ्यास करो।

अभी समय ऐसा आ रहा है जो सारे भंभोर को आग लगेगी। उस आग से बचाने के लिए मुख्य दो बातें आवश्यक हैं। जब विनाश की आग चारों ओर लगेगी उस समय आप श्रेष्ठ आत्माओं का पहला कर्त्तव्य है-शान्ति का दान अर्थात् सफलता का बल देना। उसके बाद क्या चाहिए? फिर जिसको जो आवश्यकता होती है वह पूर्ण की जाती है। आप लोगों को ऐसे समय उनकी कौन-सी आवश्यकता पूर्ण करनी पड़ेगी? उस समय हरेक को अलग- अलग शक्ति की आवश्यकता होगी। कोई को सहन करने की शक्ति की आवश्यकता होगी, किसी को समेटने की शक्ति की आवश्यकता होगी, किसी को निर्णय करने की शक्ति की आवश्यकता होगी और कोई को मुक्ति की आवश्यकता होगी। जिसकी जो आशा होगी वह पूर्ण करने के लिये बाप के परिचय द्वारा एक सेकेण्ड में अशान्त आत्मा को शान्त कराने की शक्ति भी उस समय आवश्यक होगी। तो यह सभी शक्तियाँ अभी से ही इकट्ठी करनी हैं, नहीं तो उस समय जी-दान कैसे दे सकेंगे? सारे विश्व की सर्व- आत्माओं को शक्तियों का दान देना पड़ेगा। इतना स्टॉक जमा करना है जो स्वयं भी अपने को शक्ति के आधार पर चला सकें और दूसरों को भी दे सकें। कोई भी वंचिज न रहे। एक आत्मा भी यदि वंचित रही तो बोझ किस पर होगा? जो निमित्त बने हुए हैं - जी-दान देने के लिये। तो अपनी हर शक्ति के स्टॉक को चेक करो। जिनके पास शक्तियों का स्टॉक जमा है वही लक्की स्टार्स के रूप में विश्व की आत्माओं के बीच चमकते हुये नजर आयेंगे। तो अब ऐसी चेकिंग करनी है।

अमृत वेले से उठकर अपने को अटेन्शन के पट्टे पर चलाना है। पटरी पर गाड़ी ठीक चलेगी ना? तुम्हारे ऊपर सारे विश्व की जिम्मेवारी है, सिर्फ भारत की नहीं। श्रेष्ठ आत्माओं का हर कर्म महान् है ना? तो यह चेकिंग करनी है। सारे दिन में कोई ऐसा बोल तो नहीं बोला? व मन्सा में कोई व्यर्थ संकल्प तो नहीं चला या कोई कर्म राँग तो नहीं हुआ? हर संकल्प पर पहले से ही अटेन्शन रहे। योग-युक्त होने से ऑटोमेटिकली युक्ति-युक्त संकल्प, बोल और कर्म होगा। अच्छा।

महावाक्यों का सार

1. सदा विजयी बनने वाले की विशेषता यही होगी कि वह एक सेकेण्ड में अपने संकल्प को स्टॉप कर लेगा।

2. निरन्तर विजयी के युक्ति-युक्त संकल्प, युक्ति-युक्त बोल व युक्ति- युक्त कर्म हों, एक संकल्प भी व्यर्थ न हो। यह तब होगा जब अपनी बुद्धि को चलाने और ठहराने की प्रैक्टिस की होगी।

3. महाविनाश के समय आप श्रेष्ठ आत्माओं का पहला कर्त्तव्य है शान्ति का दान देना और फिर हरेक आत्मा की आवश्यकतानुसार शक्तियों का दान देना।

4. श्रेष्ठ आत्माओं का हर कर्म महान् होता है।



30-06-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बाबा और बच्चे

राजाओं का राजा बनाने वाले, जीवन को श्रेष्ठ बनाने वाले, राजयोग सिखलाने वाले, निरन्तर योगी, सहज योगी और कर्मयोगी बनाने वाले सर्वप्रिय बाबा बोले:-

यह संगठन कौन-सा संगठन है? क्या इस रूहानी पहेली को जानते हो? जान गये हो वा जान रहे हो? जान गये हो तो जानने के साथ जो जाना है उसको मानकर चल रहे हो? पहली स्टेज है जानना, दूसरी है मानना और तीसरी स्टेज है चलना। तो किस स्टेज तक पहुँचे हो? क्या लास्ट स्टेज तक पहुँचे हो? जिन्होंने हाँ की उनसे प्रश्न है कि लास्ट स्टेज अर्थात् तीसरी स्टेज क्या एवर लास्टिंग है? तीसरी स्टेज तक पहुँचना तो सहज है और पहुँच भी गये हैं। लेकिन लास्ट स्टेज को अण्डर लाईन करके एवर-लास्टिंग बनाओ। मैं कौन हूँ’? यह अमूल्य जीवन अर्थात् श्रेष्ठ जीवन के अपने ही भिन्न नाम और रूप को जानते हो न? मुख्य स्वरूप और मुख्य नाम कौन-सा है? जैसे बाप के अनेक नाम, अनेक कर्त्तव्यों के आधार पर गायन करते हो फिर भी मुख्य नाम तो कहेंगे ना? वैसे आप श्रेष्ठ आत्माओं के भी अनेक नाम, अनेक कर्त्तव्यों के आधार पर व गुणों के आधार पर बाप द्वारा गाये हुये हैं, उनमें से मुख्य नाम कौन-सा है? जब ब्रह्मा-मुख द्वारा जन्म लिया तो बाप ने किस नाम से बुलाया? पहले जब तक ब्राह्मण नहीं बने तब तक कोई भी कर्त्तव्य के निमित्त नहीं बन सकते। पहले ब्रह्मा-मुख वंशावली, ब्रह्मा के नाते से जन्म लेकर ब्राह्मण बने अर्थात् ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियाँ बने। सरनेम ही अपना यह लिखते हो। अपना परिचय किस नाम से देते हो और लोग आपको किस नाम से जानते हैं? - ब्रह्माकुमार व ब्रह्माकुमारियाँ। इस मरजीवा जीवन की पहली-पहली छाप यह लगी-ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियाँ अर्थात् श्रेष्ठ ब्राह्मणपन की।

पहले जन्म लिया अर्थात् ब्राह्मण बने तो यह पहला नाम ब्राह्मणपन का व ब्रह्माकुमारियों का पड़ा जो कि तीसरी स्टेज तक एवर-लास्टिंग है। एवरलास्टिंग अर्थात् हर संकल्प, बोल, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क और सेवा सभी में ब्राह्मण स्टेज के प्रमाण प्रैक्टिकल लाइफ में चल रहे हो? संकल्प में भी व बोल में भी शूद्रपन का अंशमात्र भी दिखाई न दे। ब्राह्मणों का संकल्प, बोल, संस्कार, स्वभाव और कर्म क्या होता है यह तो पहले भी सुनाया है। क्या उसी प्रमाण एवर-लास्टिंग स्टेज है व ब्राह्मण रूप में हर कर्म व हर संकल्प ब्रह्मा बाप के समान है? जैसा बाप वैसे बच्चे। जो स्वभाव, संस्कार या संकल्प बाप का है क्या वही बच्चों का है? क्या बाप के व्यर्थ संकल्प चलते हैं व कमजोर संकल्प उत्पन्न हो सकते हैं? अगर बाप के ही नहीं हो सकते तो फिर ब्राह्मणों के क्यों? बाप अचल, अटल, अडोल स्थिति में सदा स्थित है तो ब्राहमणों का व बच्चों का फर्ज क्या है? लायक बच्चे का फर्ज कौन-सा होता है?-फॉलो फादर ।

फॉलो फादर का यह अर्थ नहीं कि सिर्फ ईश्वरीय सेवाधारी बन गये। लेकिन फॉलो फादर अर्थात् हर कदम पर, व हर संकल्प में फॉलो फादर। क्या ऐसे फॉलो फादर हो? जैसे बाप के ईश्वरीय संस्कार, दिव्य स्वभाव, दिव्य वृति व दिव्य दृष्टि सदा है, क्या वैसे ही वृत्ति, दृष्टि, स्वभाव व संस्कार बने हैं? ऐसे ईश्वरीय सीरत वाली सूरत बनी है? जिस सूरत द्वारा बाप के गुणों और कर्त्तव्यों की रूप-रेखा दिखाई दे इसको कहा जाता है - फालो फादर।जैसे बाप के गुणगान करते हो या चरित्र वर्णन करते हो क्या वैसे ही अपने में वह सर्वगुण धारण किये हैं? अपने हर कर्म को चरित्र समान बनाया है? हर कर्म याद में स्थित रह करते हो? जो कर्म याद में रह कर करते हैं, वह कर्म यादगार बन जाता है। क्या ऐसे यादगार-मूर्त्त अर्थात् कर्मयोगी बने हो? कर्मयोगी अर्थात् हर कर्म योग-युक्त, युक्ति-युक्त, शक्ति-युक्त हो। क्या ऐसे कर्मयोगी बने हो? या बैठने वाले योगी बने हो? जब विशेष रूप से योग में बैठते हो, उस समय योगी जीवन है अर्थात् योग-युक्त है या हर समय योग-युक्त है? जो वर्णन में है कर्मयोगी, निरन्तर योगी और सहजयोगी, क्या वही प्रैक्टिकल में है? अर्थात् एवर लास्टिंग है? क्या कर्मयोगी को कर्म आकर्षित करता है या योगी अपनी योगशक्ति से कर्मइन्द्रियों द्वारा कर्म कराता है? अगर 89 कर्म योगी को कर्म अपनी तरफ आकर्षित कर ले तो क्या ऐसे को योगी कहा जाय? जो कर्म के वश होकर चलने वाले हैं उन को क्या कहते हो? ‘कर्मभोगीकहेंगे ना? जो कर्म के भोग के वश हो जाते हैं अर्थात् कर्म के भोग भोगने में अच्छे वा बूरे में कर्म के वशीभूत हो जाते हैं। आप श्रेष्ठ आत्माएं कर्मातीत अर्थात् कर्म के अधीन नहीं, कर्मों के परतन्त्र नहीं। स्वतन्त्र हो कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराते हो? जब कोई भी आप लोगों से पूछते हैं कि क्या सीख रहे हो या क्या सीखने के लिये जाते हो तो क्या उत्तर देते हो? सहज ज्ञान और राजयोग सीखने जा रहे हैं। यह तो पक्का है न कि यही सीख रहे हो। जब सहज ज्ञान कहते हो तो सहज वस्तु को अपनाना और धारण करना सहज है तब तो सहज ज्ञान कहते हो न? तो सदा ज्ञान स्वरूप बन गये हो? जब सहज ज्ञान है तो सदा ज्ञान स्वरूप बनना क्या मुश्किल है? सदा ज्ञान स्वरूप बनना यही ब्राह्मणों का धन्धा है।

अपने धर्म में स्थित होना नेचरल चीज होती है न? इसी प्रकार राजयोग का अर्थ क्या सुनाते हो? सर्वश्रेष्ठ अर्थात् सभी योगों का राजा है और इससे राजाई प्राप्त होती है। राजाओं का राजा बनने का योग है। आप सभी राजयोगी हो या राजाई भविष्य में प्राप्त करनी है? अभी संगमयुग में भी राजा हो या सिर्फ भविष्य में बनने वाले हो? जो संगमयुग में राज्य पद नहीं पा सकते वह भविष्य में क्या पा सकते हैं? तो जैसे सर्वश्रेष्ठ योग कहते हो, ऐसा ही सर्वश्रेष्ठ योगी जीवन तो होना चाहिये न? क्या पहले अपनी कर्मेन्द्रियों के राजा बने हो? जो स्वयं के राजा नहीं वह विश्व के राजा कैसे बनेंगे? क्या स्थूल कर्मेन्द्रियों व आत्मा की श्रेष्ठ शक्तियाँ मन, बुद्धि, संस्कार अपने कन्ट्रोल में हैं? अर्थात् उन्हों के ऊपर राजा बनकर राज्य करते हो? राजयोगी अर्थात् अभी राज्य चलाने वाले बनते हो। राज्य करने के संस्कार व शक्ति अभी से धारण करते हो। भविष्य 21 जन्म में राज्य करने की धारणा प्रैक्टिकल रूप में अभी आती है। सहज ज्ञान और राजयोग तीसरी स्टेज तक आया है? संकल्प को ऑर्डर करो स्टॉप तो स्टॉप कर सकते हो? बुद्धि को डाइरेक्शन दो कि शुद्ध संकल्प व अव्यक्त स्थिति व बीज रूप स्थिति में स्थित हो जाओ तो क्या स्थित करसकते हो? ऐसे राजा बने हो? ऐसे राजयोगी जो हैं उनको कहा जाता है - फालो फादर।

जैसे राजा के पास अपने सहयोगी होते हैं जिस द्वारा जिस समय जो कत्तर्व्य कराना चाहे वह करा सकता है। वैसे ही यह संगमयुगी विशेष शक्तियाँ, यही आपके सहयोगी हैं। तो जैसे राजा कोई भी सहयोगी को ऑर्डर करता है कि यह कार्य इतने समय में सम्पन्न करना है वैसे ही अपनी सर्वशक्तियों द्वारा आप भी हर कार्य को सहज ही सम्पन्न करते हो या ऑर्डर ही करते हो? सामना करने की शक्ति आये तो क्या किनारा कर देते हैं? सहज योगी अर्थात् सर्वशक्तियाँ क्या आपके पूर्ण रूप से सहयोगी हैं? जब चाहों जिस द्वारा चाहो क्या कार्य करा सकते हो? ऐसे राजा हो? जैसे पुराने राजाओं के दरबार में आठ या नव रत्न प्रसिद्ध होते थे अर्थात् सदा सहयोगी होते थे, ऐसे ही आपकी आठ शक्तियाँ सदा सहयोगी हैं? इससे ही अपने भविष्य प्रारब्ध को जान सकते हो। यह है दर्पण जिसमें अपनी सूरत और सीरत देखने से मालूम पड़ सकता है।

छ: मास जो दिये हैं वह विनाश की तारीख नहीं दी है। लेकिन हरेक संगमयुगी राजा अपने राज्य कारोबार अर्थात् सदा सहयोगी शक्तियों को एवररेडी बनाकर तैयार कर सके उसके लिए यह समय दिया है। क्योंकि अब से अगर राज्य कारोबार सम्भालने के संस्कार नहीं भरेंगे तो भविष्य में भी बहुत समय के लिए राजा बन राज्य नहीं कर सकेंगे। छ: मास का अर्थ समझा? अपने हर सहयोगी को सामने देखो और अपने संकल्पो को स्टॉप करके देखो। अपनी बुद्धि को डायरेक्शन प्रमाण चलाकर देखो। इस रिहर्सल के लिए छ: मास दिये हैं। समझा?

अच्छा, सदा सहज ज्ञान स्वरूप, सदा राजयोगी, निरन्तर योगी, सहज- योगी, सर्व शक्तियों को अपना सहयोगी बनाने वाले, बाप समान संकल्प, संस्कार और कर्म करने वाले, ऐसे संगमयुगी सर्व राजाओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते!



08-07-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


समय की पुकार

अमर भव के वरदाता, अस्वच्छ से स्वच्छ बनाने वाले, सर्वशक्तिवान् बनाने वाले और अथक सेवाधारी बनाने वाले शिवबाबा बोले:-

आप सभी कहाँ बैठे हैं? क्या सभी मेले में बैठे हो? यह है प्रैक्टिकल मेला और सभी हैं यादगार के मेले। अभी के इस मधुर मिलन के मेले से, अनेक स्थानों पर और अनेक नामों से मेले मनाते आते हैं। मेले में विशेष मिलन होता है। मेला अर्थात् मिलना। यह मिलन अर्थात् मेला कौन-सा है? इस समय मुख्य मेला है ही आत्मा रूप से परमात्मा बाप के साथ मिलने का अथवा यूँ कहें कि आत्मा और परमात्मा का मेला है। न सिर्फ एक सम्बन्ध से, लेकिन सर्व-सम्बन्धों से, सर्व सम्बन्धी बाप से मिलन का मेला है अथवा सर्व- प्राप्तियों का यह मेला है। एक सेकेण्ड में सर्व-सम्बन्धों से सर्व-सम्बन्धी बाप से मिलन मनाने से प्राप्ति स्वत: ही हो जाती है और अन्य मेले तो खर्च करने के होते हैं, लेकिन यह मेला सर्व-प्राप्ति करने का है और दूसरे मेले में अगर कुछ प्राप्ति भी करेंगे तो कुछ देकर ही प्राप्त करेंगे परन्तु यहाँ देते क्या हो? जिसको सम्भाल नहीं सकते हो, तुम वही देते हो ना? कोई यहाँ अच्छी चाrज देते हो क्या? जिन चाrजों को आप सम्भाल नहीं सकते हो तुम वही तो बाप को देते हो इससे बाप को क्या बना दिया? सेवाधारी बनाया है ना?

जैसे कि अपनी चाrज को सम्भालने के लिए कोई सर्वेन्ट को रखा जाता है। बाप को देते भी वही हो जिसको आप कन्ट्रोल नहीं कर पाते हो बाकी बाप को और कुछ दिया है क्या? किचड़ पट्टी देकर अगर पद्मों की प्राप्ति हो जाय तो उसको देना कहेंगे या लेना? उसे लेना कहेंगे ना? तो और सभी मेले देने के होते हैं और वहाँ यदि देकर कुछ लिया हो तो वह क्या बड़ी बात है। लेकिन यह मेला सर्व प्राप्ति लेने का मेला है। जो चाहो और जितना चाहो आप उतनी प्राप्ति कर सकते हो। तो ऐसा सर्व-प्राप्तियों का मेला कभी कहीं देखा है? ऐसे मेले पर आप सभी आये हुये हो, तो मेले में एक होता है मिलन और दूसरा क्या होता है? और मेले में तो मैले बनते हैं और यहाँ क्या बनते हो?-स्वच्छ। स्वच्छ तो बन गये हो ना या आप अभी तक स्वच्छ बन रहे हो? स्वच्छ बनने के बाद क्या होता है? श्रृंगार होता है और तिलक लगाया जाता है। अभी सदा-स्मृति का तिलक स्वयं को लगा रहे हो और दिव्य गुणों के गहनों से अपने आप को सजा रहे हो? तो मेले में मिलना हुआ, और मनाना भी हुआ। और साथ-साथ मेले में खेल-पाल भी होता है। मेला और खेला साथ-साथ ही होते हैं। तो मेला और खेला’ - यह दो शब्द अगर सदा याद रखो तो आपकी कौन-सी स्टेज बन जायेगी?

यदि कभी भी स्थिति डगमग होती है तो उसका कारण है कि मेला अर्थात् मिलन उससे बुद्धि को किनारे कर देते हो; अर्थात् मेले से निकल जाते हो और उसे खेल नहीं समझते हो। तो मेला और खेल यह दो शब्द सदा याद रखो। मेले में सभी बातें आ जाती हैं। जैसे पहले सुनाया था ना कि मिलन किन-किन बातों का होता है? मेला शब्द याद आने से संस्कारों का मिलन, बाप और बच्चों का मिलन और सर्व-सम्बन्धों से सदा प्राप्ति का मिलन सभी इस मेले में आ जाते हैं। यह सृष्टि एक खेल है, यह तो मुख्य बात है। लेकिन यह माया की भिन्न-भिन्न परीक्षायें व परिस्थितियाँ जो आती हैं यह भी आप लोगों के लिए एक खेल है। अगर इसको खेल समझो तो खेल में कभी परेशान नहीं होंगे, हँसते रहेंगे। तो परीक्षायें भी एक खेल है। तीसरी बात खेल समझने से जो भी भिन्न-भिन्न वैरायटी संस्कारों का पार्ट देखते हो, उन पार्टधारियों का इस बेहद के खेल में यह पार्ट अर्थात् खेल नूँधा हुआ है। यह स्मृति में आने से कभी भी अवस्था डगमग नहीं होगी। सदैव एक-रस अवस्था रहेगी। जब स्मृति में रहेगा कि यह वैरायटी पार्ट ड्रामा अर्थात् खेल है तो वैरायटी खेल में पार्ट न हो कभी यह हो सकता है क्या? जब नाम ही है वैरायटी ड्रामा। जैसे हद के सिनेमा में भिन्न-भिन्न नाम से भिन्न-भिन्न खेल होते हैं। समझो नाम ही है-खूनी नाहक खेल-फिर उसमें अगर कोई भयानक व दर्दनाक सीन देखो तो विचलित होंगे क्या? क्योंकि समझते हो कि खेल ही खूनी नाहक का है। पहले से ही ऐसा समझकर फिर उसे देखेंगे। वैसे ही मानों कोई लड़ाई, झगड़े, क्रोधी की स्टोरीज़ हैं तो उसको देखकर हँसेंगे या रोयेंगे? जरूर हँसेंगे ना? क्योंकि जानते हो कि यह एक खेल है। ऐसे ही इस बेहद के खेल का नाम ही है - वैरायटी ड्रामा अर्थात् खेल। तो उसमें वैरायटी संस्कार व वैरायटी स्वभाव व वैरायटी परिस्थितियाँ देखकर कभी विचलित होंगे क्या? या उसे भी साक्षी हो एक-रस स्थिति में स्थित हो देखेंगे? तो अगर यह समझो व याद रखो कि यह एक वैरायटी खेल है तो जो पुरूषार्थ करने में मुश्किल समझते हो, क्या वह सहज नहीं हो जायेगा?

यह दो शब्द भी भूल जाते हो, मेले को भी और खेल को भी भूल जाते हो और भूलने से ही स्वयं को परेशान करते हो। क्योंकि स्मृति अर्थात् साक्षीपन की सीट छोड़ देते हो। सीट को छोड़कर अगर कोई ड्रामा देखे तो फिर क्या हाल होगा उसका? तो सीट पर सैट होकर वैरायटी ड्रामा की स्मृति रखते हुए, अगर एक-एक पार्टधारी का हर पार्ट देखो तो सदैव हर्षित रहेंगे। मुख से वाह- वाह निकलेगी। वाह! मीठा ड्रामा! यह क्या हुआ, क्यों हुआ यह नहीं निकलेगा बल्कि वाह-वाह शब्द मुख से निकलेंगे अर्थात् सदा खुशी में झूमते रहेंगे। सदा अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान् अनुभव करेंगे। क्या ऐसे स्वयं को प्रैक्टिकल में अनुभव करते हो?

मेले से बाहर निकल जाते हो तो परेशान हो जाते हो और जब हाथ छोड़ देते हैं तो भी परेशान हो। ऐसे ही तुम यहाँ भी बाप का हाथ छोड़ देते हो। हाथ छोड़ देनाक्या इसका अर्थ समझते हो? बाप का स्थूल हाथ तो है नहीं। श्रीमतहै हाथ और बुद्धि-योगहै साथ। तो मेले में जब हाथ और साथ दोनों ही छोड़ देते हो अर्थात् बाप से किनारा कर देते हो तब भी परेशान होते हो। हाथ और साथ अगर न छोड़ो तो सदा खुशी में रहेंगे इसलिए अब सदैव मेला और खेला समझकर ही अपने पार्ट और दूसरे के पार्ट को देखो। यह तो सहज बात है और कॉमन अर्थात् पुरानी बात है। पुरानी बात को निरन्तर बनाया है या कभी-कभी भूल जाते हो और या कभी समय पर याद करते हो? यह इसलिए बतलाया कि यदि वह दो शब्द भी निरन्तर याद रखो तो निरन्तर खुशी में और निरन्तर शक्ति स्वरूप में रह सकते हो। अभी समय छोटी-छोटी बातों में व साधारण संकल्पों के विघ्नों में गँवाने का नहीं है। अभी तो मास्टर रचयिता बन अपने भविष्य की प्रजा और भक्तों दोनों को अपनी प्राप्त की हुई शक्तियों द्वारा वरदान देने का समय आ पहुँचा है। अभी देने का समय है, न कि स्वयं लेने का समय है। अगर देने के समय भी कोई लेते रहे तो देंगे कब?-क्या सतयुग में? वहाँ आवश्यकता होगी क्या? तो अभी ही अपनी रचना को भरपूर करने का समय है। अभी अपने प्रति समय गँवाना व अपने प्रति सर्व-शक्तियों का प्रयोग करना उसी में सर्व शक्तियों को समाप्त कर देना अर्थात् जो कमाया वह खाया ऐसा करने का अभी समय नहीं है। पहले समय था कि कमाया और खाया। लेकिन अभी समय कौन-सा है? जो जमा किया है उसको सर्व-आत्माओं के प्रति देने का समय है। नहीं तो आपकी प्रजा व भक्त इन प्राप्तियों से वंचित रह जायेंगे और वे भिखारी के भिखारी ही रह जायेंगे। तो क्या दाता और वरदाता के बच्चे, वरदाता व दाता नहीं बनेंगे? जिस समय सर्व-आत्माएं आपके सामने भिखारी बन लेने आयेंगी तो क्या रहमदिल बाप के बच्चे सर्व आत्माओं के प्रति रहम नहीं करेंगे? क्या उस समय उन पर तरस नहीं आयेगा? क्या उसे तड़पता हुआ देख सकेंगे?

लौकिक रूप में भी हद का रचयिता अपनी रचना को दु:खी व तड़पता हुआ देख नहीं सकता। तो अभी तुम भी मास्टर रचयिता हो ना? अथवा यह बाप का ही काम है या आपका भी काम है? जब आप लोग भी सभी मास्टर रचयिता हो तो मास्टर रचयिता अपनी रचना के दु:ख के विलाप व तड़पन को कभी देख नहीं सकेंगे। उस समय उन्हें कुछ देना पड़ेगा। अगर अभी से स्टॉक इकठ्ठा नहीं करेंगे और जो कमाया, उसे खाते और खत्म करते रहेंगे तो उन्हें देंगे क्या? अब अपने पोतामेल को देखना है। अभी के समय प्रमाण मास्टर रचयिता को कौन-सा पोतामेल देखना है? क्या-क्या गलती की यह तो बचपन का पोतामेल है लेकिन मास्टर रचयिता को अपना कौन-सा चार्ट चेक करना है? आप हर शक्ति को सामने रखते हुये यह पोतामेल देखो कि आज के दिन सर्व-शक्तियों में से कौन-सी शक्ति और कतनी परसेन्टेज में शक्ति जमा की। अभी जमा के खाते का पोतामेल देखना है। खर्चे को फुल स्टॉप देना है। अभी तक भी अपने प्रति खर्च करते रहेंगे क्या? दूसरों को देना-वह खर्चा नहीं। यह तो एक देना फिर लाख पाना है। वह खर्चे के खाते में नहीं। वह जमा के खाते में हुआ। जब अपने विघ्नों के प्रति शक्ति का प्रयोग करते हो वह होता है खर्च। जब कोई भी विघ्न पड़ता है तो उनको समाप्त करने में जो समय खर्च करते हो या जो ज्ञान धन को खर्च करते हो तो इतना सभी खर्चा अभी से बचाना पड़े।

जैसे यह गवर्नमेन्ट भी आजकल बचत की स्कीम बनाती है। तो ऑलमाईटी गवर्नमेन्ट भी अब सब बच्चों को ऑर्डर करती है कि अब बचत की स्कीम बनाओ। खर्चे को फुल स्टॉप लगाओ। अभी तो देते रहो, अभी लेने का कुछ रहा है क्या? अगर रहा है तो इससे सिद्ध होता है कि बाप ने पूरा वर्सा दिया नहीं है। लेकिन बाप ने अपने पास कुछ रखा ही नहीं है। वह तो एक सेकेण्ड में पूरा ही वर्सा दे देते हैं। जो कुछ भी लेने का रहता ही नहीं। तो अभी बचत करनी आयेगी, न कि खर्च करने की आदत पड़ गई है? बहुत ऐसे होते हैं जिसको जमा करना आता ही नहीं। जमा कर ही नहीं सकते उन्हें और ही खर्च करते-करते उधार लेने की आदत पड़ जाती है। यहाँ भी जब अपनी शक्ति खर्च कर देते हो तब कहते हो फलानी दीदी, दादी व बापदादा कुछ दे देवें। उधार ले लेते हो। पहले सोचो कि हम किसके बच्चे हैं? अखुट खज़ाने के मालिक के बालक हैं। नशा हैं न? जब अखुट खजाने के बालिक सो मालिक हो और ऐसे फिर दूसरों से शक्ति का उधार लेवे उनको क्या कहा जाये-बहुत समझदार? ऐसे बहुत समझदार तो कभी नहीं बनते हो न? क्या बचत करने की युक्तियाँ अथवा बचत की स्कीम जानते हो? बचत करने का भी सभी से सहज और श्रेष्ठ तरीका कौन-सा है, जिससे कि सर्व शक्तियों की बचत कर सको? बजट भी कैसे बनावेंगे? पहले बनावेंगे तब तो चेक करेंगे न? कैसे बनावें कि जिससे ऑटोमेटिकली जमा हो? बजट बनाना अर्थात् अपनी बुद्धि का, वाणी का और फिर कर्म का, सभी का अपना हर समय का प्रोग्राम फिक्स करो।

जैसे बजट बनाते हैं तो उसमें फिक्स करते हैं ना कि इतना खर्चा इस पर करेंगे। उस फिक्सेशन के अनुसार ही फिर खर्चे को चलाते हैं। तब बजट प्रमाण कार्य सफल हो सकता है। तो बजट बनाना अर्थात् अमृतवेले उठकर रोज़ अपनी बुद्धि के प्लैन का, वाणी द्वारा क्या-क्या करना है और कर्म द्वारा क्या-क्या करना है, उन सभी को फिक्स करो। अर्थात् अपने तीनों प्रकार की रोज़ की डायरी बनाओ। तो रोज़ डायरी बनाने से जो बुद्धि के प्रति कर्त्तव्य फिक्स किया है वह फिर चेक करना पड़े कि जैसे मैंने बजट बनाया क्या उसी प्रमाण कार्य किया? या बजट एक और प्लान दूसरा तो नहीं? तो अपनी सर्व- शक्तियों को जमा करने की सहज युक्ति यही है कि रोज़ अपना प्लैन बनाओ मनसा, वाचा और कर्मणा का। बुद्धि को सारे दिन में किस कर्त्तव्य में बिजी रखना है, यदि वह भी अमृतवेले फिक्स करो तो फिर सभी व्यर्थ खत्म हो जायेगा। व्यर्थ खत्म किया तो समर्थ बन जायेंगे। व्यर्थ को समाप्त करने के लिए प्लैनिंग बुद्धि बनो। प्लैनिंग बुद्धि बनने से ही अपनी सर्व शक्तियों को जमा कर सकेंगे। क्योंकि जो भी शक्तियाँ खर्च करते हो वह सभी व्यर्थ खर्च करते हो। अगर व्यर्थ का खाता ही समाप्त हो जायेगा तो बचत ऑटोमेटिकली हो जायेगी। व्यर्थ को समाप्त करने के लिए डेली डायरी बनाओ। इस रीति अपने समय को भी फिक्स करो कि आज के दिन बुद्धि में विशेष कौन-सा संकल्प रखेंगे या आज वाणी द्वारा क्या कर्त्तव्य करेंगे? वह फिक्स होने से साधारण व व्यर्थ बोल, जो एनर्जी को वेस्ट करती हो वह सब बच जायेगी। जो वेस्ट नहीं करते वह बैस्ट बन जाते हैं। वेस्ट करने वाले कभी बैस्ट नहीं बन सकते। सभी बातों को देखो और अपनी बचत की स्कीम को बढ़ाओ। तब ही मास्टर रचयिता बन सकेंगे। अभी मास्टर रचयिता बन कर रचना की पालना करने की सामर्थ्य नहीं आई है। मास्टर रचयिता नहीं बनेंगे तो क्या बनना पड़ेगा? अगर किसी को सम्भालना नहीं आता है तो किसी के सम्भालने में चलना पड़े ना। तो मास्टर रचयिता के बदले रचना बनना पड़े। बनना तो मास्टर रचयिता है ना? सिर्फ दो शब्द जो सुना-मेला और खेला। सदैव इन को स्मृति में रखो तो भी बचत की स्कीम हो जायेगी। व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ समय और व्यर्थ शक्ति जो खर्च कर देते हो वह बच जायेगी। इसके लिए सिर्फ अपना नियम मजबूत रखो। सोचते हो कि यह करेंगे लेकिन नियमित रूप से नियम बनाते नहीं हो। एक मास जोश में रहते हो और बाद में फिर माया का आना शुरू हो जाता है अथवा माया बेहोश करने का काम शुरू कर देती है। इसलिए क्या करना पड़े?

जैसे देखो जब कोई होश में नहीं आता, उसके लिए इन्जेक्शन पिछाड़ी इन्जेक्शन लगाते रहते हैं या जब कोई ऑपरेशन करते हैं तो उसको देख कर फीलिंग न आये, इसलिये भी इन्जेक्शन लगाते रहते हैं। तो जिस समय अनुभव करते हो कि अब जोश बेहोश के रूप में जा रहा है अर्थात् माया का जोश शुरू है तो कौन-सा इन्जेक्शन लगावेंगे? अटेन्शन और चैकिंग तो है ही। लेकिन उसके साथ-साथ अमृत वेले पॉवर हाउस से फुल पॉवर लेने का जो नियम है उसको बार-बार चेक करो। यही बड़ी से बड़ी इन्जेक्शन है। अमृत वेले बाप से कनेक्शन जोड़ लिया तो सारा दिन माया की बेहोशी से बचे रहेंगे। इस इन्जेक्शन की ही कमी है। कनेक्शन ठीक होना चाहिए। ऐसे नहीं कि सिर्फ उठकर बैठ जाना है। उठ कर तो बैठ गये, यह तो नियम का पालन किया लेकिन क्या कनेक्शन ठीक है अर्थात् प्राप्तियों का अनुभव होता है? अगर इन्जेक्शन लगावें लेकिन शक्ति का अनुभव न हो तो समझेंगे इन्जेक्शन ने पूरा काम नहीं किया। इसी प्रकार अमृत वेले का कनेक्शन अर्थात् सर्व पॉवर्स का और सर्व प्राप्तियों का अनुभव होना, यह बड़े से बड़ा इन्जेक्शन है। पहले यह चेक करो कि - अमृत वेला आदिकाल से ठीक है? अगर आदिकाल ठीक न होगा तो मध्य और अन्त भी ठीक न होगा। आदिकाल में अनुभव करने का अभ्यास नहीं है तो सृष्टि के आदि अथवा आदि काल में सर्व सुखों का अनुभव नहीं कर सकेगा। जैसे सारे दिन का यह आदि काल है, उस आदि काल को अगर छोड़ कुछ समय के बाद व कुछ घण्टों के बाद जागते व बैठते हो व कनेक्शन जोड़ते हो तो जितना यहाँ लेट, उतना वहाँ लेट। क्योंकि बापदादा से बच्चों के मिलन का, अपॉइन्टमेन्ट का समय जो है उसमें पहला चान्स बच्चों का है। फिर है भक्तों का टाईम। अगर भक्तों के टाईम में भी कनेक्शन जोड़ा तो बच्चों जैसा वरदान नहीं पा सकेंगे। इसलिये इस काल का उस काल से कनेक्शन है। सभी से बड़ा बजट का पहला-पहला आइटम (Item) तो यह रहा। अमृत वेले अर्थात् आदि काल। उस समय अपने को चेक करो कि हम आदिकाल में आने वाले हैं या कुछ जन्म पीछे आने वाले हैं? यहाँ के घण्टे वहाँ के जन्म। जितने यहाँ घण्टे कम उतने वहाँ जन्म कम हो जायेंगे। कमजोरी इसी की है। बैठ तो जाते हैं सभी। उस समय की सीन देखो तो बड़ा मज़ा आयेगा। उस समय का दृश्य ऐसा होता है जैसे कि जयपुर में एक ही हठयोगियों का म्यूजियम है। भिन्न-भिन्न प्रकार के हठयोग दिखाये हुए हैं। तो अमृत वेले भी उस समय की सीन ऐसी होती है, कोई हठ से नींद को कन्ट्रोल करते तो कोई मज़बूरी से टाइम पास करते और कोई उल्टे लटके हुए होते हैं। अर्थात् जिस कार्य के लिये बैठते हैं वह उनसे नहीं होता। जैसे उन हठयोगियों को दिखाते हैं कि कोई एक टांग पर, कोई उल्टे और कोई कैसे होते हैं। यहाँ भी उस समय का दृश्य ऐसा होता है। कोई एक सेकेण्ड तो अच्छा व्यतीत करते हैं, फिर दूसरा सेकेण्ड देखो तो एक टांग पर ठहरते-ठहरते तो दूसरी टांग, फिर गिर जाती। सोचते हैं आज के दिन कुछ जमा करेंगे परन्तु होता नहीं है। वह सीन भी देखने की होती है। कोई फिर सोते-सोते भी योग करते हैं। जैसे वह हठ करते हैं, काँटों पर सोते हैं। यहाँ शेष सइया (शैया) पर होते। यहाँ के उस समय का पोज़ भी वण्डर-फुल होता है। इसलिये सुनाया कि अमृत वेले के महत्व को जानने और उन्हें जानकर जीवन में लाने से महान् बन सकते हो। अगर अमृतवेले अपना प्लान नहीं बनावेंगे तो प्रैक्टिकल में क्या लायेंगे?

कोई लौकिक कार्य भी तब सफल होता है जब पूरा प्लान बनाते हैं। अगर प्लान नहीं बनाते तो सफलता नहीं हो सकती। इस प्रकार अमृत वेले अपना प्लान फिक्स नहीं करते हो तो मन, वाणी अथवा कर्म द्वारा जो सफलता होनी चाहिए वह नहीं कर पाते हो। अभी इस महत्व को जानकर महान् बनो। अभी तो स्पष्ट सुनाया ना कि अब बाकी क्या पुरूषार्थ रह गया है। अमृत वेले का ठीक करेंगे तो सभी ठीक हो जायेगा। जैसे अमृत पीने से अमर बन जाते हैं। तो अमृत वेले को सफल करने से अमर भव का वरदान मिल जाता है। फिर सारा दिन कोई भी विघ्नों में मुरझायेंगे नहीं। सदा हर्षित रहने में और सदा शक्तिशाली बनने में अमर रहेंगे। अमृतवेले जो अमरभव का वरदान मिलता है वह अगर न लेंगे तो फिर मेहनत बहुत करनी पड़ेगी। मेहनत और खर्चा दोनों करते हो। नहीं तो अमर भव के वरदानों से मेहनत और खर्चा दोनों से छूट जायेंगे। अच्छा!

ऐसे सदा बाप के साथ रहने वाले व सदा हर संकल्प, हर संकल्प में मिलन मनाने वाले, एक संकल्प व एक सेकेण्ड भी मेले से अलग नहीं होने वाले, सदैव साक्षी और स्मृति की सीट पर सैट हो हर सीन देखने वाले खिलाड़ी व देखने वाले तीव्र पुरुषार्थी, एक सेकेण्ड में संकल्प और स्वरूप बनने वाले अर्थात् जो संकल्प किया और वह स्वरूप बने। ऐसे तीव्र पुरुषार्थी अमर भव के वरदानी बच्चों को बापदादा की याद-प्यार और नमस्ते। अच्छा, ओमशान्ति।

मुरली का सार

1. मेला और खेला सदा याद रखो तो स्थिति डगमग नहीं होगी।

2. सीट को छोड़ कर अगर कोई ड्रामा देखे तो क्या हाल होगा? तो सीट पर सैट होकर वैरायटी ड्रामा की स्मृति रखते हुए अगर एक-एक पार्टधारी का हर पार्ट देखो तो सदैव हर्षित रहेंगे, मुख से वाह-वाह ही निकलेगी।

3. मास्टर रचयिता को अपना कौन-सा पार्ट चेक करना है कि आज के दिन सर्वशक्तियों में से कौन-सी शक्ति और कितनी परसेन्टेज में शक्ति जमा की है? अभी जमा करने के खाते को देखना है।

4. वेस्ट करने वाले कभी बेस्ट नहीं बन सकते।



15-07-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


लगाव और स्वभाव के बदलने से विश्व-परिवर्तन

नजरों से निहाल करने वाले, दु:ख व अशान्ति से दूर ले जाने वाले, मुक्ति जीवनमुक्ति का वर्सा देने वाले, लाइट हाउस और माइट हाउस बनाने वाले, सर्व की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले, विश्व-कल्याणकारी बाबा बोले:-

क्या आवाज़ से परे शान्त-स्थिति इतनी ही प्रिय लगती है कि जितनी आवाज़ में आने की स्थिति प्रिय लगती है? आवाज़ में आना और आवाज़ से परे जाना ये दोनों ही एक समान सहज लगते हैं या आवाज़ से परे जाना मुश्किल लगता है? वास्तव में स्वधर्म शान्त-स्वरूप होने के कारण आवाज़ से परे जाना अति सहज होना चाहिए। अभी-अभी एक सेकेण्ड में जैसे स्थूल शरीर द्वारा कहीं भी जाने का इशारा मिले तो जैसे जाना और आना ये दोनों ही सहज अनुभव होते हैं, वैसे ही इस शरीर की स्मृति से बुद्धि द्वारा परे जाना और आना ये दोनों ही सहज अनुभव होंगे। अर्थात् क्या एक सेकेण्ड में ऐसा कर सकते हो? जब चाहें शरीर का आधार लें और जब चाहें शरीर का आधार छोड़ कर अपने अशरीरी स्वरूप में स्थित हों जायें, क्या ऐसे अनुभव चलते-फिरते करते रहते हो? जैसे शरीर धारण किया वैसे ही फिर शरीर से न्यारे हो जाना इन दोनों का क्या एक ही अनुभव करते हो? यही अनुभव अन्तिम पेपर में फर्स्ट नम्बर लाने का आधार है। जो लास्ट पेपर देने के लिए अभी से तैयार हो गये हो या हो रहे हो? जैसे विनाश करने वाले एक इशारा मिलते ही अपना कार्य सम्पन्न कर देंगे, अर्थात् विनाशकारी आत्मायें इतनी एवर-रेडी  हैं कि एक सेकेण्ड के इशारे से अपना कार्य अभी भी प्रारम्भ कर सकती हैं। तो क्या विश्व का नव-निर्माण करने वाली अर्थात् स्थापना के निमित्त बनी हुई आत्माएं ऐसे एवर-रेडी हैं? अपनी स्थापना का कार्य ऐसे कर लिया है कि जिससे विनाशकारियों को इशारा मिले?

जैसे यादव सेना ने फुल फोर्स से तैयारी की हुई है, क्या वैसे ही पाण्डव सेना भी अपनी सर्व तैयारियाँ कर समय का इन्तजार कर रही हैं?-ऐसे एवर-रेडी हो? जैसे लाइट हाउस और पॉवर हाउस) एक सेकेण्ड के स्विच ऑन करने से चारों ओर लाइट व माइट फैला देते हैं, क्या ऐसे ही पाण्डव सेना एक सेकेण्ड के डायरेक्शन प्रमाण लाइट हाउस और माइट हाउस बन सर्व-आत्माओं को लाइट और माइट का वरदान दे सकती हैं? जैसे स्थूल नज़र एक सेकेण्ड में एक स्थान पर बैठे चारों ओर देखती हैं, क्या ऐसे ही तीसरे नेत्र द्वारा एक सेकेण्ड में आप चारों ओर न सिर्फ भारत लेकिन सारे विश्व की आत्माओं को नज़र से निहाल कर सकते हो? जैसे सरल और सहज रीति से स्थूल नेत्र द्वारा नज़र फैला सकते हो, क्या वैसे ही आप नज़र से निहाल कर सकते हो? गायन भी है-एक सेकेण्ड में तीसरा नेत्र खुलने से विनाश हो गया। विनाश के साथ स्थापना तो है ही। बाप के साथसाथ बच्चों का भी गायन है। क्या तीसरा नेत्र ऐसा पॉवर फुल है जो दूर तक नज़र जा सके? जैसे स्थूल नेत्र की नज़र कमजोर होती है तो दूर तक नहीं देख सकती, क्या वैसे ही अपने तीसरे नेत्र की शक्ति देखते रहते हो?

तीसरे नेत्र को शक्तिशाली बनाने के लिए केवल मुख्य दो शब्दों पर अटेन्शन चाहिए। तीसरे नेत्र में कमज़ोरी आने की भी वही दो बातें हैं। वह कौन-सी? स्थूल नज़र के कमज़ोर होने का कारण क्या होता है?-ब्रेन-वर्क का ज्यादा होना। बातें तो वही हैं लेकिन इन सभी बातों को दो शब्दों के सार में लाने से अटेन्शन रखना सहज हो जाता है। तो कमजोरी लाने के दो शब्द हैं -- एक लगाव, दूसरा पुराना स्वभाव। किसी को अपना पुराना स्वभाव कमज़ोर करता है और कोई को किसी प्रकार का भी लगाव कमज़ोर करता है। यह दो मुख्य कमजोरियाँ हैं। इसका विस्तार बहुत है। हरेक का कोई- ना कोई लगाव है और हरेक में नम्बरवार परसेन्टेज में अभी तक पुराना स्वभाव है। यदि यह स्वभाव और लगाव बदल जाय तो विश्व भी बदल जाय। क्योंकि जब विश्व के परिवर्तक स्वयं ही नहीं बदले हैं तो वे विश्व को कैसे बदल सकते हैं?

अपने में चेक करो कि क्या किसी भी प्रकार का लगाव है? चाहे वह संकल्प के रूप में लगाव हो, चाहे सम्बन्ध के रूप में, चाहे सम्पर्क के रूप में और चाहे अपनी कोई विशेषता की ही तरफ हो। अगर अपनी कोई भी विशेषता में भी लगाव है तो वह भी लगाव बन्धन-युक्त कर देगा और वह बन्धन-मुक्त नहीं करेगा क्योंकि लगाव अशरीरी बनने नहीं देगा और वह विश्वकल्याणकारी भी बन नहीं सकेगा। जो अपने ही लगाव में फँसा हुआ है वह विश्व को मुक्ति व जीवनमुक्ति का वर्सा दिला ही कैसे सकता है? लगाव वाला कभी सर्व-शक्ति सम्पन्न हो नहीं सकता, लगाव वाला धर्मराज की सजाओं से सम्पूर्ण मुक्त सलाम देने वाला नहीं बन सकता। लगाव वाले को सलाम भरना ही पड़ेगा और लगाव वाले सम्पूर्ण फर्स्ट जन्म का राज्य भाग्य पा न सके। इसी प्रकार पुराने स्वभाव वाले नये जीवन, नये युग का सम्पूर्ण और सदा अनुभव नहीं कर पाते। हर आत्मा में भाई-भाई का भाव न रखने से स्वभाव एक विघ्न बन जाता है। विस्तार को तो स्वयं भी जानते हो। लेकिन अभी क्या करना है? विस्तार को जीवन में समा कर बाप-समान बन जाना है। न कोई पुराना स्वभाव हो और न कोई लगाव हो। जबकि तन, मन और धन सभी बाप को समर्पण कर दिया, तो देने के बाद फिर मेरा विचार, मेरी समझ और मेरा स्वभाव यह शब्द ही कहाँ से आया? क्या मेरा अभी तक है या मेरा सो तेरा हो गया? जब कहा-मेरा सो तेरा’ -तो मेरा मन समाप्त हो गया ना? मन और तन बाप की अमानत है। आपकी तो नहीं है न? ‘मेरा मन चंचल है’-यह कहना कहाँ से आया? क्या अभी तक मेरा-पन नहीं छूटा? मेरा-पन किसमें होता है? बन्दर में, वह खुद मर जायेगा लेकिन उसका मेरा-पन नहीं मरेगा। इसलिये चित्रकारों ने महावीर को भी पूँछ की निशानी दे दी है। हैं महावीर लेकिन पूँछ ज़रूर है। तो यह पूँछ कौन-सी है? लगाव और स्वभाव की। जब तक इस पूँछ को आग नहीं लगाई है, तब तक लंका को आग नहीं लग सकती। तो विनाश की वार्निंग की सहज निशानी कौन-सी हुई? इसी पूँछ की आग लगानी है। जब सभी महावीरों की लगन की आग लग जायेगी तो क्या यह पुराना विश्व रहेगा? इसलिये अब सभी प्रकार के लगाव और स्वभाव को समाप्त करो।

जैसे विनाशकारी आत्मायें विनाश के लिए तड़पती हैं, क्या ऐसे ही आप स्थापना वाले विश्व-कल्याण के लिये तड़पते हो? ऐसी सेल्फ सर्विस और विश्व की सर्विस इन दोनों के लिये नये-नये इन्वेन्शन निकालते हो? जैसे वह लोग अभी इन्वेन्शन कर रहे हैं कि ऐसे पॉवरफुल  यन्त्र बनायें जो विनाश सहज और शीघ्र हो जाये तो क्या ऐसे आप महावीर, सायलेन्स  की शक्ति के इन्वेन्टर ऐसा प्लान  बना रहे हो कि जो सारे विश्व को परिवर्तन होने में अथवा उसे मुक्ति और जीवनमुक्ति का वर्सा लेने में सिर्फ एक सेकेण्ड ही लगे और सहज भी हो जाये? आप मुआफिक पैतीस वर्ष न लगें। तो ऐसी रिफाईन इन्वेन्शन से एक सेकेण्ड में नज़र से निहाल, एक सेकेण्ड में दु:खी से सुखी, निर्बल से बलवान और अशान्ति से शान्ति का अनुभव करा सको। क्या ऐसे रिफाईन रूहानी शस्त्र और युक्तियाँ सोचते हो कि एक सेकेण्ड में उनका तड़पना बन्द हो जाय? जैसे बम द्वारा एक सेकेण्ड में मर जायें, वैसे एक सेकेण्ड में उनको वरदान, महादान दे सको, क्या ऐसे महादानी और ऐसे वरदानी बने हो? क्या सर्व की मनोकामनाएं पूरी करने वाली कामधेनु बने हो, अब क्या स्वयं में कोई कामना तो नहीं रही हुई है ना? अगर अपनी कोई कामना होगी तो कामधेनु कैसे बनेंगे? ‘मेरा नाम हो’, और मेरी शान हो’’-यह कामना भी नहीं हो। समझा?

ऐसे एक सेकेण्ड में तीसरे नेत्र द्वारा विश्व को नज़र से निहाल करने वाले, एक सेकेण्ड में अशान्ति और दु:ख से पार ले जाने वाले, लगाव और स्वभाव से अतीत कर्मातीत स्थिति में स्थित होने वाले, मुक्ति और जीवनमुक्ति के वर्से के प्राप्ति के जीवन में सदा रहने वाले, मुक्त और जीवनमुक्त आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।



21-07-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


रूहानी जज़ और जिस्मानी जज़

सदा सफलतामूर्त्त बनाने वाले, शक्तियों से सम्पन्न कर मास्टर सर्वशक्तिवान् बनाने वाले, सर्व धारणायें कराके धारणा मूर्त्त बनाने वाले, सुप्रिम जस्टिस प्यारे बाबा बोले:-

अपने को जस्टिस  समझते हो? क्या अपने आपको और सर्व- आत्माओं को जज़ कर सकते हो? वह जस्टिस तो सिर्फ बोल और कर्म को ही जज़ करते हैं लेकिन आप तो संकल्प को भी जज़ कर सकते हो। ऐसे जस्टिस जो अपने और दूसरी आत्माओं के भी संकल्प को जज़ कर सकें व परख सकें, ऐसे बन गये हो? ऐसा जस्टिस कौन बन सकता है? जिसकी बुद्धि का काँटा एकाग्र हो। जैसे तराजू की सही परख तब होती है जब काँटा एकाग्र हो जाता है, हलचल बन्द हो जाती है और दोनों तरफ समान हो जाती है। ऐसे ही जिसका बुद्धि-योग रूपी काँटा एकाग्र है, जिसकी बुद्धि में कोई हलचल नहीं और निर्विकल्प स्टेज व स्थिति है और जिसके बोल और कर्म में, लव और लॉ में, और स्नेह और शक्ति में अर्थात् इन दोनों का बैलेन्स है, तो ऐसा जस्टिस यथार्थ जज़मेन्ट  दे सकता है। ऐसी आत्मा सहज ही किसी को परख सकती है। क्या ऐसी परखने की शक्ति व जज़मेन्ट करने की शक्ति अपने में अनुभव करते हो?

लौकिक जज़ अगर जज़मेन्ट राँग करते हैं तो किसी आत्मा का एक जन्म व्यर्थ गँवा सकते हैं या उसका कुछ समय व्यर्थ गँवा सकते हैं अथवा उसको कई प्रकार के नुकसान पहुँचाने के निमित्त बन सकते हैं, लेकिन आप रूहानी जस्टिस अगर किसी को परख न सकें तो आत्मा के अनेक जन्मों की तकदीर को नुकसान पहुँचाने के निमित्त बन जायेंगे। क्या अपने ऊपर ऐसी जिम्मेवारी महसूस करते हो? जब आप लोग सर्व-आत्माओं के कल्याण के निमित्त बनते हो, अनेक आत्माओं का बाप से मिलन मनाने के निमित्त बनते हो, तो ऐसी आत्माओं को अपने ऊपर कितनी बड़ी जिम्मेवारी महसूस करनी चाहिए? यदि कोई तड़पती हुई प्यासी आत्मा आपके सामने आये, उनकी तड़प या प्यास को समाप्त कर उसकी प्यास मिटाने के निमित्त कौन हैं? बाप या आप? बाप तो बैकबोन  हैं, लेकिन निमित्त शक्ति सेना और पाण्डव सेना ही है। तो निमित्त बनने वालों के ऊपर इतनी बड़ी जिम्मेवारी है जो किसी भी आत्मा को किसी भी बात से या किसी प्रॉपर्टी से भी वंचित नहीं कर सकते - क्या ऐसे सर्व के महादानी और वरदानी बने हो? क्या एक सेकेण्ड में किसी को परख सकते हो? अगर किसी को आवश्यकता हो शान्ति की और आप उसको सुख का रास्ता बताओ (परखने की शक्ति कम होने के कारण) तो भी वह सन्तुष्ट नहीं होगा। इसलिये हरेक की प्राप्ति की इच्छा को परखने वाला ही सम्पूर्ण और यथार्थ जज़मेन्ट कर सकता है। ऐसी सर्व की इच्छाओं को जानने वाले की विशेष क्वॉलिफिकेशन्स कौन-सी होगी कि जिससे बुद्धि रूपी काँटा एकाग्र हो? लव और लॉ का बैलेन्स हो, उसके लिये मुख्य विशेष धारणा क्या होगी? (सभी ने बताया) बातें तो बहुत अच्छी-अच्छी सुनाई। इन सभी का सार हुआ कि स्वयं जो इच्छा मात्रम् अविद्याकी स्थिति में स्थित होगा, वही किसी की भी इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है।

अगर स्वयं में ही कोई इच्छा रही होगी तो वह दूसरे की इच्छाओं को पूर्ण नहीं कर सकते। इच्छा मात्रम् अविद्याकी स्टेज तब रह सकती है जब स्वयं युक्ति-युक्त, सम्पन्न, नॉलेज़फुल और सदा सक्सेसफुल अर्थात् सफलता-मूर्त्त होंगे। जो स्वयं सफलता-मूर्त्त नहीं होगा तो वह अनेक आत्माओं में संकल्प को भी सफल नहीं कर सकता। इसलिये जो सम्पन्न नहीं तो उसकी इच्छायें ज़रूर होंगी क्योंकि सम्पन्न होने के बाद ही इच्छा मात्रम् अविद्याकी स्टेज आती है। तब कोई अप्राप्त वस्तु नहीं रह जाती तो ऐसी स्टेज को ही कर्मातीतअथवा फरिश्तेपनकी स्टेज कहा जाता है। ऐसी स्थिति वाला ही हर आत्मा को यथार्थ परख सकता है और दूसरों को प्राप्ति करा सकता है। तो ऐसी स्टेज अपने समीप अनुभव करते हो या कि अभी तक यह स्टेज बहुत दूर है? सामने है या समीप है? इतने समीप है कि अभी-अभी चाहो तो वहाँ पहुंच जाओ अथवा उसको भी अभी समीप ला रहे हो? विनाश की ताली व सीटी बजे और आप अपनी स्टेज पर स्थित हो जाओ जैसे कि सिंहासन पर समीप आ गये और सिर्फ चढ़कर बैठना ही बाकी रह जाये अर्थात् सीटी बजे और सीट पर बैठ जाओ।

जैसे चेयर्स का खेल होता है ना? दौड़ते रहते हैं, सीटी बजी और कुर्सी पर बैठ गये। जिसने कुर्सी ली वह विजयी, नहीं तो हार। यह भी कुर्सी का खेल चल रहा है। तो इसमें आप क्या समझते हो? अभी तीन तालियाँ बजेंगी और तीसरी पर चेयर पर बैठ जाओ - क्या इतनी तैयारी है? लेकिन ये तीन तालियाँ जल्दी-जल्दी बजती हैं, उनके बीच में ज्यादा टाईम नहीं होता है। तो क्या इतनी तैयारी है कि जो तीसरी पर झट चेयर पर बैठ जाओ? ऐसी गॉरन्टी है ना? ‘कोशिशशब्द कहना तो मानो कि शक है कोई। कल्प पहले सीट पर नहीं बैठे थे क्या? कोई-न-कोई कुर्सी लेना-वह कोई बड़ी बात नहीं है। कोई-न-कोई कुर्सी तो प्रजा को भी मिलेगी। जब सोलह हज़ार को सीट मिलेगी तो 9 लाख वालों को भी सीट मिलेगी। लेकिन फर्स्ट सीट के लिये सदा अपने को एवर-रेडी बनाना पड़े। अगर निमित्त बनने वाले ही सेकेण्ड स्टेज तक पहुंचे तो जिनकी आप निमित्त बनेंगी वह कहाँ तक पहुंचेंगे? इसलिये जो अपने को विश्व-कल्याणकारी समझ कर चल रहे हैं, उनको तो सदैव ताली अथवा सीटी का इन्तजार करना चाहिए। इन्तज़ार वह करेगा जिसका पहले से ही अपना इन्तज़ाम हुआ पड़ा होगा। अगर इन्तज़ाम नहीं है तो वह इन्तज़ार नहीं कर सकता तो पहले से ही इन्तज़ाम करना-यह है महारथियों की व महावीरों की निशानी। तो अभी एवर-रेडी बनने के लिये अभी से ही अपनी चैकिंग करो।

जैसे सारी नॉलेज का रिवाइज़ कोर्स कर रहे हो, वैसे ही अपनी प्राप्ति व पुरूषार्थ का चार्ट भी शुरू से रिवाइज़ करके देखो। उसमें मुख्य चार सब्जेक्ट्स हैं। चारों को सामने रखो और हर सब्जेक्ट्स में पास हो उसको देखो। जैसे चार सब्जेक्ट्स हैं -- ज्ञान, योग, दैवी गुणों की धारणा और ईश्वरीय सेवा। वैसे ही यहाँ चार सम्बन्ध भी हैं, तीन सम्बन्ध तो स्पष्ट हैं -- सत् बाप, सत् शिक्षक और सद्गुरू परन्तु चौथा सम्बन्ध है साजन और सजनी का। यह भी एक विशेष सम्बन्ध है-आत्मा-परमात्मा का मिलन अर्थात् सगाई। यह सम्बन्ध भी पुरूषार्थ को सहज कर देता है। जैसे चार सब्जेक्ट्स हैं, वेसे ही चार सम्बन्ध सामने लाओ और इन चार सम्बन्धों के आधार से मुख्य चार धारणायें हैं। एक तो बाप के सम्बन्ध में-फरमान वरदार’, शिक्षक के सम्बन्ध में-इर्मानदारऔर गुरू के सम्बन्ध में-आज्ञाकारीऔर साजन के सम्बन्ध में-वफादार।जो यह चारों सम्बन्ध और चार विशेष धारणायें इन सभी को रिवाइज करके देखो।

इसके साथ-साथ चार सलोगन्स भी स्मृति में रखो-वह कौन-से? बाबा के सम्बन्ध में सलोगन है-सन शोज फादर’, अर्थात् सपूत बन सबूत देना है। शिक्षक के रूप में सलोगन है-जब तक जीना है तब तक पढ़ना है, अर्थात् लास्ट घड़ी तक पढ़ना है। यह लक्ष्य अगर मजबूत है तो फिर सर्व प्राप्तियाँ स्वत: ही होती हैं। और गुरू के रूप में सलोगन है-जहाँ बिठाये, जैसे बिठाये, जो सुनाये, जैसे सुनावें, जैसे चलावे और जैसे सुलावे अर्थात् जैसे कि सभी हुकमी हुकम चला रहा है-यह है सद्गुरू का सलोगन। अभी साजन के रूप में क्या सलोगन है-तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से खाऊं और तुम्हीं से श्वाँसोंश्वाँस साथ रहूँ। यह है साजन के रूप का सलोगन। यह सभी बातें अपने सामने लाकर अपने पुरूषार्थ को चेक करो। इन सभी को रिवाईज़ करना है।

यह भी चेक करना है कि बहुत समय से और एक-रस अर्थात् लगातार क्या चारों ही सम्बन्ध निभाते रहे हैं या बीच-बीच में कट हुआ है? अगर बीच में कुछ मार्जिन रह गयी है तो बार-बार कटी हुई चीज़ कमजोर होती है। इसलिये अपने जीवन को इन चारों ही बातों के आधार पर रिवाईज़ कर के देखो। इस चैकिंग को करके अपने-आप को परख सकेंगे कि मेरी प्राप्ति व प्रारब्ध क्या है? सूर्यवंशी है या चन्द्रवंशी है? सूर्यवंशी में राजाई फैमिली में हैं या स्वयं महाराजा महारानी बनने वाले हैं? अभी जबकि समय नजदीक है फाइनल पेपर का तो जैसे लौकिक पढ़ाई में भी सभी सब्जेक्ट्स को रिवाइज किया जाता है और एक-एक सबजेक्ट्स को रिवाइज कर अपनी कमी को सम्पन्न करते हैं, इसी प्रकार सभी को अपने पुरूषार्थ को इसी रीति रिवाइज करना है। कैसे स्वयं का जस्टिस बनो अभी वह तरीका सुना रहे हैं। जब स्वयं को जज करना आ जायेगा तो फिर दूसरों को भी सहज ही परख सकेंगे। जब स्वयं प्राप्ति-सम्पन्न होंगे तो दूसरों को भी प्राप्ति करा सकेंगे। यह चेक करना तो सहज है ना? एक सब्जेक्ट् अथवा एक सम्बन्ध व एक धारणा व एक सलोगन में भी कमी नहीं होनी चाहिए।

जबकि अभी रिजल्ट आउट होने का समय आ रहा है, तो रिजल्ट आउट होने से पहले कम्पलेन्ट्स को कम्पलीट करो। अपनी कम्प्लेन्ट भी आप स्वयं ही करते हो। अमृत वेले से अपनी कम्पलेन्ट करते हो। जब तक अपनी कम्पलेन्ट्स हैं, तब तक कम्पलीट नहीं हो सकेंगे। इसलिये स्वयं ही मास्टर सर्वशक्तिवान् बन अपनी कम्पलेन्ट को कम्पलीट करो। अभी फिर भी लास्ट चान्स का समय है। फिर नहीं तो टू लेट का बोर्ड लग जायेगा। अभी प्राप्ति का समय भी-बहुत गई, थोड़ी रही है’ -- नहीं तो पश्चाताप का समय आ जायेगा फिर पश्चाताप के समय प्राप्ति नहीं कर सकेंगे। इसलिये अभी जो थोड़ी रही हुई है, यह चान्स भी चाहे किसी और के निमित्त, आप लोगों को भी यह चान्स मिला है। फिर भी किसी प्रकार का चान्स तो है ना? तो चान्स को गँवाना वा लेना, अपने प्रयत्न से आप जो चाहो वह कर सकते हो। इसलिये अभी से रिवाइज करो। यह तो सुना दिया कि जब रिवाइज करो व जज़ करो तो किस रूप में करना है। विधि तो सुना ही दी है। क्योंकि विधि-पूर्वक करने से सिद्धि की प्राप्ति तो हो ही जायेगी।

जो सम्पूर्ण स्टेज के अति नजदीक होंगे उनके संकल्प में, बोल में और कर्म में एक नशा रहेगा। वह कौन-सा? ईश्वरीय नशा तो सबको है ही। ईश्वरीय नशे का वर्सा तो ईश्वरीय गोद ली और प्राप्त हुआ। वह तो है ही। लेकिन वह विशेष क्या नशा रहेगा? उनके संकल्प में, बोल में नशे की कौन-सी बात होगी? नशा यह होगा कि जो भी कुछ कर रहा हूँ उसमें सम्पूर्ण सफलता हुई ही पड़ी है। होनी हैहोगीऐसा नहीं, परन्तु हुई ही पड़ी है। संकल्प में भी यह नशा होगा कि मेरे हर संकल्प की सिद्धि हुई ही पड़ी है। कर्म में भी यह नशा होगा कि मेरे हर कर्म में पीछे सफलता मेरी परछाई की तरह है। मेरे बोल की सिद्धि हुई ही पड़ी है। सफलता मेरे पीछे-पीछे आने वाली है। सफलता मुझसे अलग हो ही नहीं सकती। ऐसा नशा हर संकल्प में, हर बोल और हर कर्म में जब होता है, तब समझो अति समीप है। होना तो चाहिए, लॉ तो ऐसे कहता है व कर्म की फिलॉसाफी व ज्ञान तो यह कहता है-यह है समीप। अभी इससे जज करो तो अति समीप हैं या समीप हैं या सामने हैं। ये तीन स्टेजिस हो गई न? अच्छा।

सभी के अन्दर एक संकल्प की हलचल है - वह कौन-सी? तो न मालूम यह मिलन भी कब तक? इस हलचल का रेसपॉन्स कौन-सा है? देखो पहले भी सुनाया कि प्राप्ति का समय अभी बहुत गया, थोड़ा रहा, थोड़े का भी थोड़ा है। जबकि प्राप्ति का समय थोड़ा है और कई आत्मायें आने वाली हैं जिनके निमित्त आप लोगों को भी चान्स है। ऐसी आत्माओं के प्रति अभी बाप भी बन्धन में बन्धे हुए हैं। इसलिये जब नये-नये रत्न आ रहे हैं अपना कल्प पहले का हक नम्बरवार ले रहे हैं तो बापदादा को भी हक देने आना ही पड़े ना? तो ऐसी हलचल नहीं मचाओ कि न मालूम क्या होना है? लेकिन अव्यक्त मिलन का अव्यक्त रूप से अनुभव कराने के लिये बीच-बीच में मार्जिन दी जाती है व समय दिया जाता है कि जिससे कभी अचानक व्यक्त द्वारा अव्यक्त मिलन का पार्ट समाप्त हो तो अव्यक्त स्थिति द्वारा अव्यक्त मिलन का अनुभव कर सको। जब तक बाप की सम्पूर्ण प्रत्यक्षता नहीं हो जाती तब तक बच्चों और बाप का मिलन तो होना ही है। लेकिन चाहे व्यक्त द्वारा अव्यक्त मिलन और चाहे अव्यक्त स्थिति द्वारा अव्यक्त मिलन, लेकिन मिलन तो अन्त तक है ना? इसलिये ऐसा समय आने वाला है कि जिसमें अव्यक्त स्थिति द्वारा अव्यक्त मिलन का अनुभव न होगा तो बाप के मिलन का, प्राप्ति का और सर्वशक्तियों के वरदान का जो सुन्दर मिलन का अनुभव है, उससे वंचित रह जायेंगे। इसलिये यह दोनों मिलन अभी तक तो साथसाथ चल रहे हैं लेकिन लास्ट स्टेज क्या है? लास्ट स्टेज की तैयारी कराने के लिये बाप को ही समय देना पड़ता है और सिखलाना पड़ता है। अभी समझा क्या होने वाला है? अभी इतने हलचल में नहीं आओ। जब होने वाला होगा तो अव्यक्त स्थिति में स्थित रहने वालों को स्वयं ही आवाज़ आयेगा, टचिंग होगी, सूक्ष्म संकल्प होगा, तार पहुंचेगी या ट्रंक-काल होगा। समझा? जब लाइन क्लियर होगी तभी तो पकड़ सकेंगे। जब अव्यक्त मिलन का अनुभव होगा तब तो पहचानेंगे व पहुंचेंगे। इसके बीच-बीच में यह चान्स दे अभ्यास कराते हैं। बाकी घबराने की कोई बात नहीं। समझा? अच्छा।

ऐसे सदा सफलता-मूर्त्त, ज्ञान स्वरूप, शक्ति-सम्पन्न, दिव्य धारणा सम्पन्न, योग-युक्त, युक्ति-युक्त संकल्प और कर्म करने वाले, परखने की शक्ति को हर आत्मा के प्रति कर्म में लाने वाले, रूहानी जस्टिस श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा वरदानी मूर्त्त आत्माओं को और बापदादा के नूरे रत्नों को याद-प्यार और नमस्ते।

महावाक्यों का सार

1. स्वयं जो इच्छा मात्रम् अविद्या की स्थिति में स्थित होगा वो ही किसी के इच्छाओं की पूर्ति कर सकता है।

2. इन्तज़ार वह करेगा जिनका पहले से ही अपना इन्तज़ाम हुआ पड़ा होगा।



02-08-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


यथार्थ विधि से सिद्धि की प्राप्ति

सिद्धि स्वरूप बनाने वाले, नोलेजफुल, पॉवरफुल और लवफुल बनाने वाले, सर्वशक्तिवान् बाबा बोले :-

क्या अपने में विधि द्वारा सिद्धि की प्राप्ति समझते हो? क्योंकि जो कोई भी पुरूषार्थ करते हैं उनके पुरूषार्थ का लक्ष्य ही है-सिद्धि को पाना। जैसे दुनिया वालों के पास आजकल रिद्धिसिद्धि बहुत हैं तो उस तरफ है रिद्धि-सिद्धि और यहाँ है विधि से सिद्धि। यथार्थ है - विधि और सिद्धि। इनको ही दूसरे रूप में लेने के कारण वे रिद्धि-सिद्धि में चले गये हैं। तो क्या अपने को सिद्धि-स्वरूप समझते हो? जो भी संकल्प करते हैं, अगर यथार्थ विधि-पूर्वक है तो सिद्धि ज़रूर होती है। अगर विधि नहीं है तो समझो कि सिद्धि भी नहीं है। इसलिए भक्ति मार्ग में भी जो कोई कार्य करते हैं या कराते हैं वैल्यु उसकी विधि पर ही होती है। विधि-पूर्वक होने के कारण ही उस सिद्धि का अनुभव करते हैं। सभी का प्रारम्भ तो यहाँ से ही हुआ है ना? इसलिए पूछते हैं कि सिद्धि-स्वरूप अपने को समझते हो वा अभी बनना है? समय के प्रमाण दोनों ही क्षेत्र में परिणाम स्वरूप अब तक 95% रिजल्ट ज़रूर होना चाहिए।

जैसे समय की रफ्तार को देख रहे हो और चैलेंज भी करते हो तो जो चुनौती दी है, वह सम्पन्न तब होगी, जब आप लोगों की स्थिति सम्पन्न होगी। यह जो चुनौती करते हो-वह परिवर्तन किसके आधार पर होगा? उनकी आधार शिला (नींव) कौन है? उनकी आप लोग ही तो आधार शिला हो ना? अगर आधार-शिला ही मज़बूत न हो तो आगे कार्य कैसे चलेगा? जब फाउण्डेशन या आधार-शिला तैयार हो जाये तब उसके बाद फिर नम्बरवार राजघानी भी तैयार हो। तो जिन को राज्य करने का अधिकारी बनना है वह अपने अधिकार नहीं लेंगे तो दूसरों को फिर नम्बरवार अधिकार कैसे प्राप्त होंगे? और दो वर्ष की जो चुनौती देते हो उस हिसाब से जो विश्व-परिवर्तन का कार्य होना है वह जब तक आप लोगों की स्थिति विधि द्वारा सिद्धि को प्राप्त नहीं होगी तो इस विश्व-कल्याण के कर्त्तव्य में भी कैसे सिद्धि की उपलब्धि होगी? पहले तो स्वयं की सिद्धि होगी। इतना बड़ा कर्त्तव्य इतने थोड़े समय में सम्पन्न करना है तो कितनी तेज़ रफ्तार होनी चाहिए? जबकि 37 वर्ष की स्थापना के कार्य में 50% तक ही पहुंचे हैं तो अब दो वर्ष में 100% तक लाना है तो उसके लिये क्या करना पड़ेगा? क्या उसके लिये कोई योजना बनाते हो कि रफ्तार को कैसे पूरा करें अर्थात् सिद्धि-स्वरूप कैसे बने कि संकल्प किया और सिद्धि प्राप्त हो? यह है 100% सिद्धि-स्वरूप की निशानी कि कर्म किया और सिद्धि प्राप्त हुई।

जब साधारण नॉलेज के आधार पर रिद्धि-सिद्धि को प्राप्त कर सकते हैं तो क्या श्रेष्ठ नॉलेज के आधार पर विधि से सिद्धि को नहीं प्राप्त कर सकते? यह चेकिंग चाहिए कि कौन-सी विधि में कमी रह जाती है कि जो फिर सिद्धि भी सम्पूर्ण नहीं होती। विधि को चेक करने से सिद्धि ऑटोमेटिकली प्राप्त हो जायेगी। इसमें भी सिद्धि न हो सकने का मुख्य कारण यही है कि जो एक ही समय तीनों रूप से सर्विस नहीं करते हो। तीनों रूपों और तीनों रीति से एक ही समय करना है। नॉलेज़फुल, पॉवरफुल  और लवफुल, इसमें लव और लॉ ये दोनों साथ-साथ आ जाते हैं। इन तीनों रूप से तो सर्विस करनी ही है लेकिन इन तीनों रीति से भी करनी है। अर्थात् मनसा, वाचा और कर्मणा इन तीनों ही रीति से और एक ही समय इन तीनों रूपों से करनी है। जब वाणी द्वारा सर्विस करते हो, तो मनसा भी पॉवरफुल हो। पॉवरफुल स्टेज से तो उसकी मनसा को भी चेन्ज कर देंगे और वाणी द्वारा उनको नॉलेजफुल बना देंगे और फिर कर्मणा द्वारा अर्थात् जो भी उनके सम्पर्क में आते हैं तो उससे सम्पर्क ऐसा लवफुल हो कि जो ऑटोमेटिकली (स्वयमेव) वह स्वयं महसूस करे कि यह कोई अपने ईश्वरीय परिवार (गॉडली फेमिली) में ही पहुंच गया है। और अपनी चलन ही ऐसी हो कि जिससे वह स्वयं महसूस करे कि वास्तव में यह ही मेरा असली परिवार है।

अगर इन तीनों रीति से उनकी मनसा को भी कन्ट्रोल कर लो और वाणी से नॉलेज दे लाइट, माइट का वरदान दो और कर्मणा अर्थात् सम्पर्क द्वारा अपने स्थूल एक्टिविटि द्वारा ईश्वरीय परिवार का अनुभव कराओ तो क्या इस विधि-पूर्वक सर्विस करने से सिद्धि नहीं होगी? कारण कि आप एक ही समय में तीनों रीतियों और तीनों रूपों से सर्विस नहीं करते हो। जब आप वाचा में आते हो तो मनसा जो पॉवरफुल होनी चाहिए, वह नहीं होती है वह कम हो जाती है और जब रमणीक एक्टिविटि से किसी को सम्पर्क में लाते हो, तो भी मनसा जो पॉवरफुल होनी चाहिए वह नहीं रहती है। तो एक ही समय यदि ये तीनों इकट्ठी हों तो सिद्धि ज़रूर मिलेगी। अब इस रीति से सर्विस करने का अभ्यास और अटेन्शन चाहिए। आप उनके सम्बन्ध में नहीं आते हैं अर्थात् डीप सम्पर्क में नहीं आते हैं सिर्फ ऊपर-ऊपर के सम्पर्क में ही आते हैं। परन्तु वह ऊपर-ऊपर का सम्पर्क अल्पकाल का ही होता है। भले लव में लाते भी हो लेकिन लवफुल के साथ पॉवरफुल भी होना चाहिए ताकि उन आत्माओं में भी पॉवर भरे जिससे कि वह समस्याओं का, वायुमण्डल का, वायब्रेशन्स का सामना कर सदा काल सम्बन्ध में रहें, लेकिन वह नहीं होता। या तो वे नॉलेज पर आकर्षित होते हैं या फिर लव पर होते हैं। ज्यादातर वे लव पर ही आकर्षित होते हैं, फिर सेकेण्ड नम्बर में नॉलेज पर। लेकिन पॉवरफुल स्टेज ऐसी हो जो कि कोई भी बात सामने हो तो वह हिले नहीं, अभी केवल यह कमी है।

जो सर्विसएबल निमित्त बनते हैं उन में भी नॉलेज ज्यादा है, और लव भी है लेकिन पॉवर कम है। पॉवरफुल स्टेज की निशानी क्या होगी? एक सेकेण्ड में कोई भी वायुमण्डल या वातावरण को माया की कोई भी समस्या को खत्म कर देंगे, वे कभी हार नहीं खायेंगे। जो भी आत्मायें समस्या का रूप बन कर आती हैं, वह उनके ऊपर बलिहार जायेंगी जिसको दूसरे शब्दों में प्रकृति दासी कहें। जब पाँच तत्व दासी बन सकते हैं तो क्या मनुष्य-आत्मायें बलिहार नहीं जावेंगी? तो पॉवरफुल स्टेज का प्रैक्टिकल स्वरूप यह है। इसलिए कहा कि एक ही समय तीनों रूप से सर्विस करने की जब रूप-रेखा बन जायेगी तब हरेक कर्त्तव्य में सिद्धि दिखलाई पड़ेगी। तो विधि के कारण सिद्धि हुई ना? विधि में कमी होने के कारण ही सिद्धि में कमी है। अब सिद्धि स्वरूप बनने के लिए इस विधि को पहले ठीक करो।

भक्ति-मार्ग में करते हैं साधना, यहाँ है साधन। साधन कौन-सा? बापदादा की हरेक विशेषता को अपने में धारण करते-करते विशेष आत्मा बन जायेंगे। जैसे इम्तहान के दिन जब नज़दीक होते हैं तो जो कुछ स्टडी की हुई होती है- थ्योरी या प्रैक्टिकल-दोनों को रिवाइज कर और चेक करते हैं कि कौन-सी सब्जेक्ट् में क्या-क्या कमी रही हुई है। इसी प्रकार अब जबकि समय नज़दीक आ रहा है, तो हर सब्जेक्ट् में अपने-आप को देखो कि कौन-सी और कितनी परसेन्टेज तक कमी रही हुई है? थ्योरी में भी और प्रैक्टिकल में भी - दोनों में ही चेक करना है। हरेक सब्जेक्ट् की कमी को देखते हुए अपने आपको कम्पलीट करते जाओ। लेकिन वह कम्पलीट तब होंगी जब पहले रिवाइज करने से अपनी कमी का पता पड़ेगा। सब्जेक्ट्स को तो जानते हो। सब्जेक्ट्स को बुद्धि में धारण किया वा नहीं, उसकी परख क्या है? जैसे सिद्धि की परसेन्टेज बढ़ती जायेगी तो टाइम भी वेस्ट नहीं जायेगा। थोड़े टाइम में सफलता जास्ती होगी। इसको कहा जाता है सिद्धि। अगर समय ज्यादा, मेहनत भी ज्यादा करते हो, फिर सफलता मिलती है तो इसको भी कम परसेन्ट कहेंगे। सभी रीति से कम लगना चाहिए। तन भी कम लगे, मन के संकल्प भी कम लगें। नहीं तो कितने संकल्प करते हो? प्लान बनाते-बनाते डेढ़ मास लग जाता है। तो समय व संकल्प व अपनी जो भी सर्व-शक्तियाँ हैं उन सर्व- शक्तियों के खजाने को ज्यादा काम में नहीं लगाना है अर्थात् कम खर्च बाला नशीनअर्थात् संकल्प वही उत्पन्न होगा, कि जिससे सिद्धि प्राप्त हो जायेगी। समय भी वही निश्चित होगा कि जिसमें सफलता हुई पड़ी है। इसको कहते हैं सिद्धि-स्वरूप।

तो सर्व-सब्जेक्ट्स में हम कहाँ तक पास हैं इसकी परख क्या है? जो जितने सब्जेक्ट्स में पास होगा तो उतना ही उन सब्जेक्ट्स के आधार पर ऑब्जेक्ट (लक्ष्य) और रिसपेक्ट मिलेगी। एक तो प्राप्ति का अनुभव भी होगा। जैसे कि ज्ञान की सब्जेक्ट् है तो उससे जो ऑब्जेक्ट प्राप्त होती है-लाइट और माइट वह प्राप्ति का अनुभव करेंगे। उस नॉलेज की सब्जेक्ट के आधार पर रिसपेक्ट भी इतनी मिलेगी ही। चाहे दैवी परिवार से, चाहे अन्य आत्माओं से। जैसे देखो आजकल के महात्मा हैं, उन को इतना रिसपेक्ट क्यों मिलती है? क्योंकि जो साधना की है और जो भी सब्जेक्ट अध्ययन करते हैं उनकी ही ऑब्जेक्ट और रिसपेक्ट उन को मिलती है और प्रकृति दासी होती है। तो यह एक ज्ञान की बात सुनाई। वैसे योग की भी सब्जेक्ट्स है उनसे क्या ऑब्जेक्ट होनी चाहिए?

योग अर्थात् याद की शक्ति द्वारा ऑब्जेक्ट प्राप्त होनी चाहिए। वह जो भी संकल्प करेंगे वह समर्थ होगा। और जो भी कोई समस्या आने वाली होगी, उनका पहले ही योग की शक्ति से अनुभव होगा कि यह होने वाला है। तो पहले से ही मालूम होने के कारण वे कभी भी हार नहीं खायेंगे। ऐसे ही योग की शक्ति के द्वारा अपने पिछले संस्कारों का बोझ खत्म होता है। कोई भी संस्कार अपने पुरूषार्थ में विघ्न रूप नहीं बनेगा। जिसको नेचर कहते हो वह भी विघ्न रूप नहीं बनेंगे पुरूषार्थ में। तो जिस सब्जेक्ट को जो ऑब्जेक्ट है वह अनुभव होनी चाहिए। ऑब्जेक्ट है तो इसका परिणाम रिसपेक्ट ज़रूर मिलेगी। आप मुख से जो भी शब्द रिपीट करेंगे वा जो भी प्लान बनायेंगे वह समर्थ होने के कारण उसे सभी रिसपेक्ट देंगे। अर्थात् जो भी एक दूसरे को राय देते हो तो उस राय को सभी रिसपेक्ट देंगे क्योंकि समर्थ है। इस प्रकार हर सब्जेक्ट को देखो।

दिव्य गुणों की वा सर्विस की जो सब्जेक्ट् है तो उसकी प्राप्ति यह है कि नज़दीक सम्पर्क और सम्बन्ध में आना चाहिए। नज़दीक सम्बन्ध और सम्पर्क में आने से ऑटोमेटिकली रिस्पेक्ट ज़रूर मिलेगी। ऐसे हर सब्जेक्ट की ऑब्जेक्ट को चेक करो और ऑब्जेक्ट की चेक करने का साधन है-रिसपेक्ट। अगर मैं नॉलेजफुल हूँ तो जिसको भी नॉलेज देती हूँ क्या वह इस नॉलेज को इतना रिस्पेक्ट देते हैं? नॉलेज को रिसपेक्ट देना अर्थात् नॉलेजफुल को रिसपेक्ट देना है? अगर योग की सब्जेक्ट में ऑब्जेक्ट है तो और भी किसके संकल्प को परिवर्तन में लाने के समर्थ बना सकते हैं। तो वे ज़रूर रिसपेक्ट देंगे। तो इस रीति हर सब्जेक्ट में चेकिंग करनी है। हर सब्जेक्ट में व संकल्प में ऑब्जेक्ट और रिस्पेक्ट  इन दोनों की प्राप्ति का अनुभव जो भी करते हैं तो वही परफेक्ट कहेंगे। परफेक्ट अर्थात् कोई भी इफेक्ट से दूर, इफेक्ट से परे हैं तो परफेक्ट हैं। चाहे शरीर का, चाहे संकल्पों का और चाहे कोई भी सम्पर्क में आने से किसके भी वायब्रेशन वा वायुमण्डल का, सभी प्रकार के इफेक्ट से परे हो जायेंगे तो समझो सब्जेक्ट में पास अर्थात् परफेक्ट हैं तो ऐसे बन रहे हो ना? लक्ष्य तो यही है ना?

अब अपनी चैकिंग ज्यादा होनी चाहिए। जैसे दूसरों को कहते हो कि समय के साथ स्वयं को भी परिवर्तन में लाओ, वैसे ही सदैव अपने को भी यह स्मृति में रहे कि समय के साथ-साथ स्वयं को भी परिवर्तन में लाना है। अपने को परिवर्तन में लाते-लाते सृष्टि का भी परिवर्तन हो जायेगा क्योंकि अपने परिवर्तन के आधार से ही सृष्टि को परिवर्तन में लाने का कार्य कर सकेंगे। यहाँ यही श्रेष्ठता है जो दूसरे लोगों में नहीं है। वह तो सिर्फ दूसरों को परिवर्तित करने के यत्न में हैं। यहाँ स्वयं के आधार पर सृष्टि में तुम परिवर्तन करते हो। तो जो आधार है उसके लिये अपने ऊपर इतना अटेन्शन देना है। अब सदैव यह स्मृति रहे कि हमारे हर संकल्प के पीछे विश्व-कल्याण का सम्बन्ध है।

जो आधार मूर्त्त है, यदि उनके संकल्प समर्थ (सामर्थ्य) नहीं तो उनके समय के परिवर्तन में भी कमजोरी पड़ जाती है। इस कारण आप जितनाजितना स्वयं समर्थ बनेंगे, उतना ही सृष्टि को परिवर्तन करने का समय समीप ला सकेंगे। ड्रामा-अनुसार समय भले ही निश्चित है, लेकिन वह ड्रामा भी किसके आधार से बना है? आखिर आधार तो होगा ना? उसके आधार-मूर्त्त तो आप हो। अभी तो आप सभी की नज़रों में हो। चैलेन्ज किया है ना दो वर्ष का? जब यह बातें सुनते हो तो थोड़ा-बहुत संकल्प चलता है कि अगर सचमुच विनाश नहीं हुआ तो? यह भी हो सकता है कि दो वर्ष में न हो’-यह संकल्प-रूप में क्या नहीं चलता है? चलो सामना कर लेंगे, यह दूसरी बात है। इसका मतलब हुआ कि संकल्प में कुछ है तब तो आता है ना? बिल्कुल आपको पक्का है कि दो वर्ष में होगा? अच्छा समझो आप लोगों से कोई पूछते हैं कि विनाश न हो तो क्या होगा? फिर आप क्या कहेंगे? जिस समय समझाते हो तो यह स्पष्ट समझाना चाहिए कि ऐसे नहीं कि दो वर्ष में कम्पलीट विनाश हो जायेगा, नहीं। दो वर्ष में ऐसे नज़ारे हो जायेंगे कि जिससे लोग यह समझेंगे कि बराबर यह विनाश हो रहा है और विनाश शुरू हो गया है। एक बात सहज लग गई तो दूसरी बात सहज लगेगी ही। विनाश में समय तो लगेगा ना? जब स्वयं सम्पूर्ण हो जायेंगे तो कार्य भी सम्पूर्ण होगा कि सिर्फ स्वयं ही सम्पूर्ण होंगे?

एडवान्स पार्टी का क्या कार्य चल रहा है? आप लोगों के लिये आज सारी फील्ड तैयार कर रहे हैं। उनके परिवार में जाओ, न जाओ लेकिन जो स्थापना का कार्य होना है उसके लिये वह निमित्त बनेंगे। कोई पॉवरफुल स्टेज लेकर निमित्त बनेंगे। ऐसे पॉवर्स लेंगे जिससे स्थापना के कार्य में मददगार बनेंगे। आजकल आप देखेंगे दिन-प्रतिदिन न्यु-ब्लड  का रिगार्ड ज्यादा है। जितना आगे बढ़ेंगे, उतना छोटों की बुद्धि काम करेगी जो की बड़ों की नहीं। बड़ी आयु की तुलना में फिर भी छोटेपन में सतोप्रधानता रहती है। कुछ-न-कुछ प्योरिटी की पॉवर होने के कारण उनकी बुद्धि जो काम करेगी वह बड़ों की नहीं करेगी। यह चेंज होगी। बड़े भी बच्चों की राय को रिगार्ड देंगे। अब भी जो बड़े हैं वह समझते हैं कि हम तो पुराने जमाने के हैं। यह आजकल के हैं उनको रिगार्ड न देंगे और उन्हें बड़ा समझ नहीं चलायेंगे तो काम नहीं चलेगा। पहले बच्चों को रोब से चलाते थे। अभी ऐसे नहीं। बच्चों को भी मालिक समज़ कर चलाते हैं। तो यह भी ड्रामा में पार्ट है। छोटे ही कमाल कर दिखायेंगे। एडवान्स पार्टी का तो अपना कार्य चल रहा है लेकिन वह भी आपकी स्थिति एडवान्स में जाने के लिए रूके हुए हैं। उनका कार्य भी आपके कनेक्शन से चलना है।

सारे कार्य का आधार आप विशेष आत्माओं के ऊपर है। चलते-चलते ठंडाई हो जाती है। आग लगती है फिर शीतल हो जाती है। लेकिन शीतल तो नहीं होना चाहिए ना? बाहर का जो रूप है, मनुष्य वह देखते हैं, समझते हैं यह तो चलता आता है, बड़ी बात क्या है? परम्परा से खेल चलता ही आ रहा है। लेकिन यह चलते-चलते शीतलता क्यों आती है? इसका कारण क्या है? परसेन्टेज बहुत कम है, लेक्चर्स तो करते हैं, लेकिन लेक्चर्स के साथ-साथ फीचर्स भी अट्रेक्ट करें तब लेक्चर्स का इफेक्ट हो। तो अपने को हर सब्जेक्ट में चेक करो। आजकल लेक्चर्स में आप जब कम्पीटीशन  करो तो इसमें कई और भी जीत लेंगे लेकिन जो प्रैक्टिकल में है उसमें सभी आपसे हार जायेंगे।

मुख्य विशेषता प्रैक्टिकल लाइफ की है। प्रैक्टिकल कोई भी बात आप बताओ तो वे एकदम चुप हो जायेंगे। तो जब लेक्चर्स से प्रैक्टिकल का भाव प्रगट हो, तब वह लेक्चर्स देने से न्यारा दिखाई दे। जो शब्द बोलते हो वह नयनों से दिखाई दे कि यह जो बोलते हैं वह प्रैक्टिकल है। यह अनुभवी मूर्त्त है तब उसका प्रभाव पड़ सकता है। बाकी सुन-सुन कर तो सभी थक गये हैं, बहुत सुना है! अनेक सुनाने वाले होने के कारण सुनने से सभी थके हुए हैं। कहते हैं सुना तो बहुत है, अब अनुभव करना चाहते हैं और अब कोई प्राप्ति कराओ। तो लेक्चर में ऐसी पॉवर होनी चाहिए जो वह एक-एक शब्द अनुभव कराने वाला हो। जैसे आप समझाते हो ना कि अपने को आत्मा समझो न कि शरीर। तो इन शब्दों को बोलने में भी इतनी पॉवर होनी चाहिए जो सुनने वालों को आपके शब्दों की पॉवर से अनुभव हो। एक सेकेण्ड के लिए भी यदि उनको अनुभव हो जाता है तो अनुभव को वह कभी छोड़ नहीं सकते, आकर्षित हुआ आपके पास पहुँचेंगा।

जैसे आप बीच-बीच में भाषण करते-करते उनको सायलेन्स में ले जाने का अनुभव कराते हो तो इस प्रैक्टिस को बढ़ाते जाओ। उनको अनुभव में लाते जाओ। इस पुरानी दुनिया से बेहद का वैराग्य दिलाना चाहते हो तो भाषण में जो प्वायन्ट्स देते हो, वह देते हुए वैराग्य वृत्ति के अनुभव में ले आओ। वह फील करे सचमुच यह सृष्टि जाने वाली है, इससे तो दिल लगाना व्यर्थ है। तो जरूर प्रैक्टिकल करेंगे। उन पण्डितों आदि के बोलने में पॉवर होती है। एक सेकेण्ड में खुशी दिला देते और एक सेकेण्ड में रूला देते। तब कहते हैं इनका भाषण इफेक्ट करने वाला है। सारी सभा को हँसाते भी हैं, सभी को शमशानी वैराग्य में लाते तो हैं ना? जब उनके भाषण में भी इतनी पॉवर होती है तो क्या आप लोगों के भाषण में वह पॉवर नहीं हो सकती? अशरीरी बनाना चाहो तो क्या वह अनुभव करा सकते हैं कि वह लहर छा जाये? सारी सभा के बीच बाप के स्नेह की लहर छा जाये। इसको कहा जाता है -- प्रैक्टिकल अनुभव कराना।

अब ऐसे भाषण होने चाहिए तब कुछ चेन्ज होगी। वे समझें कि इन के भाषण तो दुनिया से न्यारे हैं। वह भले भाषण में सभा को हँसा लेते या रूला देते, लेकिन अशरीरीपन का अनुभव नहीं करा सकते और न बाप से स्नेह पैदा करा सकते। कृष्ण से स्नेह करा सकते हैं लेकिन बाप से नहीं करा सकते। उन को पता ही नहीं है, तो निराली बात होनी चाहिए। अच्छा समझो गीता के भगवान् पर प्वाइन्ट्स देते हो। लेकिन जब तक उनको बाप क्या चीज है, हम आत्मा हैं और वह परमात्मा है, जब तक यह अनुभव नहीं कराओ तब तक यह बात सिद्ध भी कैसे होगी? ऐसा कोई भाषण करने वाला हो जो उनको अनुभव कराये कि आत्मा और परमात्मा में रात और दिन का अन्तर है। जब अन्तर महसूस करेंगे तो गीता का भगवान् भी सिद्ध हो ही जायेगा। सिर्फ प्वाइन्ट्स से उनकी बुद्धि में नहीं बैठेगा, उससे तो और ही लहरें उत्पन्न होने लगेंगी। लेकिन अनुभव कराते जाओ तो अनुभव के आगे कोई बात जीत नहीं सकती। भाषण में अब यह तरीका चेंज करो। अच्छा।

मुरली का सार

1. याद की शक्ति द्वारा ऑब्जेक्ट प्राप्त होती है। योगी जो भी संकल्प करेंगे वह समर्थ होंगे। जो भी कोई समस्या आने वाली होगी, उनका पहले ही योग की शक्ति से अनुभव होगा कि यह होने वाला है। तो पहले ही से पता होने के कारण कभी भी हार नहीं खायेगा।

2. जो आधार-मूर्त्त हैं यदि उनके संकल्प में सामर्थ्य नहीं तो उनके समय के परिवर्तन में भी कमज़ोरी पड़ जाती है। जितना-जितना स्वयं समर्थ बनेंगे, उतना ही सृष्टि को परिवर्तन करने का समय समीप ला सकेंगे।



23-09-73   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विश्व की आत्माओं को लाइट व माइट देने वाला ही विश्व-अधिकारी

नव विश्व-निर्माता, त्रिकालदर्शी बनाने वाले, हर परिस्थिति और हर समस्या का सामना करने की शक्ति देने वाले और दिव्य-दृष्टि विधाता शिव बाबा बोले:-

क्या आप अपने ऊचे-से-ऊचे बाप की ऊंची स्थिति पर सदा स्थित रहने वाली स्वयं को श्रेष्ठ आत्मायें समझ कर हर कर्म करते रहते हो? जैसे बाप के बारे में गायन है-’’ऊँचा तेरा नाम, ऊंचा तेरा काम, ऊंचा तेरा धाम,’’-इसी के अनुसार क्या आप अपने को भी बाप-समान ऊंचे नाम और ऊंचे काम करने वाली विशेष आत्मा समझते हो? यह ध्यान रखते हो कि एक भी व्यर्थ अथवा साधारण संकल्प उत्पन्न न हो? इसको कहा जाता है-’’ऊँची स्थिति।’’ क्या आप अपने को ऐसी ऊंची स्थिति वाला अनुभव करते हो? जब तक व्यर्थ (वेस्ट) संकल्प, बोल या कर्म हैं तब तक श्रेष्ठ (बेस्ट;) नहीं बन सकते। या तो बेस्ट (श्रेष्ठ) हैं या फिर वेस्ट (व्यर्थ) हैं। जैसे दिन है तो रात नहीं, रात है तो दिन नहीं, वैसे ही जहाँ वेस्ट होता हैं, वहा बैस्ट (उच्च) नहीं बन सकते। तो बैस्ट (उँच) बनने के लिये वेस्ट (व्यर्थ) को खत्म करना पड़ेगा। जब वेस्ट (व्यर्थ) खत्म हो जायेगा तब अनुभव करोगे कि आत्मा कैसा भी कार्य करती हुई, कैसे भी वातावरण अथवा परिस्थिति में रहती हुई और हंगामे होते हुए भी वो रेस्ट (आराम) में है।

जैसे आजकल साइंस वाले अपनी साइंस की नॉलेज (विद्या) के आधार पर कैसे भी दु:ख के समय एक इन्जेक्शन द्वारा अल्पकाल के रेस्ट (आराम) का अनुभव कराते हैं ना? वैसे ही कितनी भी आवाज़ और कितना भी तमोगुणी वातावरण हो, लेकिन साइलेन्स की शक्ति से वेस्ट (व्यर्थ) समाप्त होने के कारण बेस्ट (श्रेष्ठ) स्थिति में स्थित होने से सदा रेस्ट (आराम) अनुभव करोगे, अर्थात् सदा अपने को सुख और शान्ति की शैया पर आराम करता हुआ अनुभव करोगे। जैसे यादगार का चित्र भी है -- सागर में जहाँ लहरों की हलचल होती है तो सागर में होते हुए, साँपों की शैया होते हुए भी अर्थात् वातावरण व परिस्थिति दु:खमय होते हुए भी (साँप तो दु:खदाई अर्थात् काटने वाला होता है ना) आराम का अनुभव करोगे। तो इसका भाव यह है कि ऐसी परिस्थितियाँ, ऐसा वातावरण जो काटने वाला हो, हिलाने वाला हो और अपने विष द्वारा मूर्छित करने वाला हो लेकिन ऐसे वातावरण को भी सुख-शान्ति की शैया बना दे। अर्थात् आराम का स्थान बना दे, अर्थात् आत्मा सदा अपने रेस्ट में रहे। तो जैसा यादगार चित्र है, क्या वैसे ही प्रैक्टिकल जीवन में अनुभव करते हो? शीतलता में शीतल रहना कोई बड़ी बात नहीं है, आराम के साधनों में आराम से रहना-यह भी साधारण बात है लेकिन बे-आरामी में आराम से रहना इसको कहा जाता है-’’पद्मापद्म भाग्यशाली’’। तो ऐसे विषय सागर के बीच रहते हुए पाँच विकारों को अपने आराम व सुख और शान्ति की शैया बनाना है। अर्थात् क्या अभी से विकारों के ऊपर सदा विजयी बन सदा ज्ञान के मनन और बाप के मिलन में मग्न रहते हो?

जो ऐसी स्थिति में स्थित है, अर्थात् सदा मग्न है, वह ही सदा निर्विघ्न है। मग्न नहीं तो जरूर कोई विघ्न है। अब विघ्न आपके ऊपर वार करने से हार गये हैं या आप भी विघ्नों से हार खा जाते हो? अब तक भी हार खाते रहना क्या यह हो सकता है? यह तो असम्भव है ना? अभी हार खिलाने वाले हो या कि खाने वाले हो? अगर स्वयं निर्विघ्न बने हो तो बनने वालों का कर्त्तव्य क्या है? कोई तो अब बन रहे हैं, कोई बन गये हैं। जो बनने वाले हैं वह अपने में ही बिजी (व्यस्त)। क्योंकि जब तक स्वयं न बने तब तक औरों को बनाने में यथा-शक्ति ही कार्य कर सकते हैं। लेकिन जो बन गये हैं उनका क्या कर्त्तव्य है? उनका कर्त्तव्य है दूसरों को बनाना। तो बना रहे हो न? तो क्या पहले चैरिटी बिगिन्स ऐट होमहैं? अर्थात् अपने साथियों को। वे साथी कौन-से हैं? आपके जो ब्राह्मण परिवार के साथी हैं। तो उन अपने साथियों को आप समान बनाने के बाद फिर बाप-समान बनाना है। लेकिन पहली स्टेज में यदि उन्हें आप-समान बनाओ तो भी बहुत है।

तो जो बने हैं उनका कर्त्तव्य क्या है? उनका स्वरूप अभी कौन-सा होना चाहिए? किसी ने उत्तर दिया-विघ्न-विनाशक। अच्छा विघ्न-विनाशक कैसे बनेंगे? तो किस रूप से संहार करेंगे कि जिससे सहज ही विश्व की सेवा कर सको? वह रूप कौन-सा है? वो है डबल लाइट और माइट हाउस का। डबल क्यों कहा? क्योंकि आपको दो कार्य करने हैं? किसी को मुक्ति का रास्ता बताना है और किसी को जीवनमुक्ति का रास्ता बताना है। एक ही रास्ता नहीं बल्कि दो रास्ते दिखाने हैं और हर-एक आत्मा को अपने-अपने ठिकाने लगाना है। तो जो बने हैं उनका स्वरूप अब डबल लाइट और माइट होना चाहिए ताकि एक स्थान पर होते हुए भी चारों ओर अपने लाइट और माइट के आधार से भटकी हुई आत्माओं को ठिकाना दे देवें। तो क्या इस कार्य में बिजी हो? अब लाइट और माइट दोनों का बैलेन्स होना चाहिए। सिर्फ लाइट से भी काम न होगा और सिर्फ माइट से भी काम नहीं होगा। दोनों का बैलेन्स जब ठीक होगा तब सब अन्धों की औलाद अन्धों को (शास्त्र में भी कौरव सम्प्रदाय के लिए गाया हुआ है कि अन्धों की औलाद अन्धे हैं) अपनी लाइट और माइट के द्वारा कौन-सा वरदान देंगे और वे वरदान में क्या प्राप्त करेंगे? डिवाइन इनसाइट अर्थात् उन्हें तीसरे नेत्र का वरदान दो।

वैसे भी नेत्र-दानसबसे श्रेष्ठ दान कहा जाता है। नेत्र नहीं तो जहान नहीं। सबसे बड़े-से-बड़ा जीय दान कहो या वरदान कहो या महादान कहो वास्तव में वह यही है। तो अन्धों को डिवाइन इनसाइट या तीसरे नेत्र का दान दो जिससे कि वह मुक्ति और जीवनमुक्ति के ठिकाने को देख भी सकें। अगर वे देखेंगे नहीं तो फिर पहुंचेंगे कैसे? इसलिये डबल लाइट और माइट हाउस बन, दोनों का बैलेन्स ठीक रख हर आत्मा को तीसरे नेत्र का वरदान दो।-यह है श्रेष्ठ आत्माओं का कर्त्तव्य। सिर्फ अपने प्रति ही लाइट और माइट रखा तो लाइट हाउस नहीं कहलायेंगे। अगर अपने में लाइट और माइट है तो अपने साथियों को और विश्व की सर्व आत्माओं को महादान दो और वरदान दो। अगर कोई बल्ब चारों ओर रोशनी न फैलाये, सिर्फ जहाँ जग रहा है उस थोड़े स्थान पर ही लाइट दे तो कहेंगे न कि यह तो काम का नहीं है। तो अपने को देखो कि क्या मैं स्वयं तक लाइट व माइट देने वाला बना हूं या विश्व तक लाइट और माइट देने वाला बना हूँ? जितने तक लाइट देने वाले अब बनेंगे उतने ही छोटे या बड़े राज्य के अधिकारी भविष्य में बनेंगे। अगर सिर्फ थोड़ी सी आत्माओं के प्रति लाइट और माइट देने के निमित बनते हैं तो वहाँ भी थोड़ी-सी आत्माओं के ऊपर ही राज्य करने के अधिकारी बनेंगे। यहाँ विश्व के सेवाधारी तो वहाँ भी विश्व के राज्य-अधिकारी होंगे।

एक होते हैं राज्य-अधिकारी बनाने वाले जिनको टीचर कहते हैं। वह राज्य कारोबार सिखलाने वाले बनेंगे लेकिन राज्य करने वाले नहीं। अब आप सिखलाने वाले बनेंगे या करने वाले बनेंगे? वहाँ सतयुग में भी निमित मात्र पढ़ाते तो होंगे ना? राज्य कारोबार सिखलाने वाले शिक्षक जो होते हैं उसको राज्यधारी कहते हैं परन्तु राज्य अधिकारी नहीं। या तो राज्यधारी बनेंगे या फिर राज्य अधिकारी। लेकिन अधिकारी वह बनेंगे जो अभी से अपने स्वभाव, संस्कार और संकल्प के अधीन नहीं बनेंगे। जो अभी भी अपने संकल्प के अधीन होता है तो क्या वह अधिकारी हुआ? वह संकल्पों के भी अधीन हुआ ना? तो इसलिये अब संकल्पों के भी अधीन नहीं, स्वभाव और संस्कार के भी अधीन नहीं होना है। जो अब से इन सबके अधिकारी बनेंगे, वह ही वहाँ राज्य-अधिकारी बनेंगे। अब हिसाब निकालो कि कितना अधीन रहते हैं और कितना अधिकारी रहते हैं। फिर उसकी रिजल्ट से स्वयं भी अपने भविष्य का साक्षात्कार कर सकते हो। अर्थात् अपने-आप को परखने के आईने में अपने वर्तमान और भविष्य 21 जन्मों के लिए हमारे फ्यूचर के फीचर्स क्या होंगे वह भी देख सकते हो। आप अपने 21 जन्मों के फीचर्स भी देख सकते हो अगर आपका अपने-आपको परखने की शक्ति का आइना इतना पॉवरफुल हुआ तो। उस आइने में तो सिर्फ वर्तमान देख सकते हैं, भले कितने भी पॉवरफुल शीशे हों, जिस द्वारा बहुत दूर की चीज को भी देख सकते हैं, लेकिन वह भी हैं तो इस दुनिया का ही न? उससे भविष्य को तो नहीं देख पाते। लेकिन आप लोगों को परखने की शक्ति का आइना इतना पॉवरफुल मिला है जिनसे न सिर्फ भविष्य एक जन्म को अपितु 21 जन्मों को देख सकते हो। और फिर 21 जन्मों के आधार पर, भविष्य पद के आधार पर अपने पुजारी-पन के पार्ट को भी देख सकते हो। तो ऐसा पॉवरफुल आइना जो बापदादा द्वारा प्राप्त हुआ है, क्या उनमें देखते रहते हो? अपने को क्लियर देख सकते हो कि देखने के लिये किसी और की जरूरत है? त्रिकालदर्शी को और कोई की आवश्यकता होती है क्या? त्रिकालदर्शी तो दूसरों के भविष्य को भी जान सकते हैं। तो क्या आप अपने भविष्य को नहीं जान सकते?

त्रिकालदर्शी बने हो कि एक-दर्शी बने हो? एक-दर्शी अर्थात् सिर्फ वर्तमान के दर्शी। अब तो त्रिकालदर्शी बन सबको सन्देश दो। जब एक-दर्शी बन सन्देश देते हो तो एक परसेन्ट ही रिजल्ट निकलती है। त्रिकालदर्शी बन सन्देश दो तो तीन हिस्सा रिजल्ट तो निकल ही जायेगी। अर्थात् 75% रिजल्ट होगी। अब है 25% रिजल्ट। तो अब क्या करेंगे? अभी पाण्डव सेना की विजय का झण्डा लहरायेंगे?-फिर क्या करेंगे? दोनों ही लहरायेंगे ना? यह झण्डा लहराना तो सहज है चाहे एक के बजाय 100 लहरा दो। हर एक अपने एरिया में जितने चाहे लहरा दे। लेकिन इस झण्डे के लहराने का अर्थ क्या है? विजय का झण्डा लहराना। जो अब मिलकर तन-मन और धन सब लगा रहे हो वह किस लक्ष्य से? क्या सिर्फ शिव के चित्र के झण्डे लहराने के लक्ष्य से? अब लक्ष्य यह रखो कि सब मिलकर अपनी राजधानी पर विजय का झण्डा लहरायेंगे और सब पर विजय पायेंगे। अगर बच भी जायें तो वह भी दबे हुए हों। बोलने से चुप तो हो ही सकते हैं ना? अब तो चुप भी नहीं हैं, अब तो बोलने में भी होशियार हैं।

देखो, विश्व का मुख कौन-सा है? अखबार, पर्चे और मैगिज़न। अब विश्व के मुख द्वारा बोलते तो रहते हैं ना? लेकिन चुप हो जायें, मार न सको तो कमसे- कम मूर्छित तो करो। मूर्छित वाला भी बोलेगा तो नहीं ना? अब यह रिजल्ट आऊट होनी है। राख कौन बनते हैं और कितने बनते हैं और कोटों में से, लाखों में से एक कौन निकलते हैं, वह भी देखेंगे। लेकिन यह होगा कैसे? इसके लिये दो बातें छोड़नी है और एक बात धारण करनी है। दो बात कौनसी छोड़नी है? (दो मत को छोड़कर एक मत धारण करनी है) लेकिन दो मत होती क्यों है? एक मत से दो मत में आने का कारण क्या है? दो बातें छोड़नी क्या हैं और एक बात धारण क्या करनी है? छोड़नी है एक तो स्तुति और दूसरी परिस्थिति। क्योंकि एक तो कोई परिस्थिति के कारण डगमग होते हैं और दूसरे स्तुति में आने से स्थिति नहीं बनती है। तो इसलिए स्व-स्थिति को धारण करना है। और स्तुति और परिस्थिति-इन दोनों बातों को छोड़ना है। संकल्प से भी छोड़ना है। परिस्थिति के कारण स्व-स्थिति नहीं होती है और स्तुति के कारण स्थिति नहीं होती। तो इसलिये स्तुति में कभी नहीं आना। अगर यहाँ अपनी स्तुति का संकल्प भी रखा तो आधा कल्प से जो स्तुति होनी है उसमें सौ गुना कट हो जाता है क्योंकि अब की अल्प काल की स्तुति सदा काल की स्थिति को कट कर देती है। इसलिए अब परिस्थिति शब्द भी नहीं कहना और स्तुति का संकल्प भी नहीं करना।

जितना निर्मान रहेंगे, उतना निर्माण का कार्य सफल होगा। अगर निर्मानता नहीं तो निर्माण नहीं कर सकते। निर्माण करने के लिये पहले निर्मान बनना पड़ेगा। इसलिये एक सलोगन सदा याद रखना-कोई भी कार्य हो, कोई भी सरकमस्टान्सिज सामने हों लेकिन सदैव जैसे अज्ञान काल में कहावत है कि पहले आपअर्थात् दूसरों को आगे बढ़ाना स्वयं को आगे बढ़ाना है। स्वयं का झुकना ही विश्व को अपने आगे झुकाना है। इसलिये सदैव एक दो में यही वृत्ति, दृष्टि और वाणी रहे कि पहले आप। यह सलोगन कब भूलना नहीं। जैसे बापदादा ने कभी भी संकल्प व बोल में व कर्म में यह नहीं दिखलाया कि पहले मैं। सदैव बच्चों को पहले लाये-इस दृष्टि व वृत्ति को आगे रखा। इस प्रकार फॉलो-फादरकरने वाली हर आत्मा इस बात में फॉलो फादरकरेगी तो सफलता 100% गले की माला बनेगी। अगर पहले आप की बजाये पहले मैंयह संकल्प भी किया, अगर एक आत्मा ने भी यह संकल्प किया व वाणी और कर्म में भी लाया तो मानो सफलता की माला का एक मणका टूटा। माला से एक मणका भी यदि टूट जाता है तो सारी माला पर प्रभाव पड़ता है। इसलिये स्वयं को तो इस बात में पक्का करना ही है लेकिन स्वयं के साथ-साथ संगठन को भी इस पाठ में व इस सलोगन में सदा सफल बनाने के प्रयत्न में रहना है। जिससे विजय माला का एक मणका भी अलग न होने पाये। जब ऐसा पुरूषार्थ करेंगे व यह कार्य करेंगे तब विजय का झण्डा अपनी राजधानी के ऊपर खड़ा कर सकेंगे।

पार्ट बजाने के पहले – रिहर्सल, समझा? ड्रेस और मेक-अप आदि किया जाता है तब ही पार्ट सक्सेसफुल होता है। तो यह धारण करना है। ऐसे सजे सजाये एवररेडी बन जब स्टेज पर आयेंगे तो सबके मुख से हियर-हियरका आवाज़, वन्स मोर की आवाज़ निकलेगी। क्या तैयारी के साथ-साथ यह भी तैयारी कर रहे हो। सिर्फ स्थूल तैयारियाँ करने में तो बिज़ी नहीं हो गये हो? पहले अपनी ड्रेस तैयार करो और फिर मेक-अप का सामान तैयार करो। मेक-अप करना अर्थात् स्थिति में स्थित होना, क्या यह भी तैयारी कर रहे हो? क्या इनकी भी मीटिंग करते हो? ज्यादा मीटिंग में यह पॉइण्ट भूल न जाना। स्टाल को सजाते-सजाते समय हो जाये और स्वयं ऐसे ही खड़े हो जाओ-ऐसे होता है ना? कई सेन्टर्स पर फंक्शन की तैयारी करते-करते स्वयं ऐसे ही खड़े रह जाते हैं, स्वयं तैयार नहीं होते तो यहाँ अब ऐसे नहीं करना।

दान लेने वाले आ जावें और आप उस समय सोचो कि क्या ले आवें जो बाँटे, इसलिये स्टॉक पहले से ही इकठ्ठा किया जाता है। उस समय इकठ्ठा करने व् कोशिश करेंगे तो कई वंचित रह जायेंगे। जैसे और चीजों का स्टॉक इकठ्ठा करते हो, वैसे ही यह स्टॉक पहले इकठ्ठा करना है। जिसको जो चाहिए, सुख-शान्ति चाहिए या सिर्फ प्रजा पद चाहिए या कोई को साहूकार पद चाहिए और कोई सिर्फ सलाम भरना चाहें। विश्व-महाराजन् को कई ऐसे भी चाहते हैं कि जो सदैव चरणों के दास रहें। तो ऐसे भक्त जो नमन करना चाहते हों ऐसों का भी स्टॉक भर दो। जिसको जो चीज़ चाहिए और जिस चीज की इच्छा हो, उसकी इच्छा अविनाशी पूरी कर सको। इस मिट्टी की दुनिया की नहीं, सोने की दुनिया की। ऐसा स्टॉक जब इकठ्ठा होगा तब जल्दी अपने स्टॉक से उन आत्माओं को दे सकोगी। क्या यह भी तैयारी की है? यह पोतामेल निकाला है या सिर्फ यही निकाला है कि हर एक ज़ोन कितना तन-धन देंगे, कितने बैनर्स,और चादरें आदि देंगे क्या यह निकाल रहे हो? लेकिन अपने मस्तक पर भी बैनर्स लगाना पड़ेगा।

पहले तो अपनी मूर्त्त की चैतन्य प्रदर्शनी लगानी पड़ेगी। जिसमें नैन कमलसम दिखाई दें, होठों पर रूहानी मुस्कराहट दिखाई दे और मस्तक से आत्मा की सूरत दिखाई दे। तो क्या ऐसी अपनी मूर्त्त को सजाया है? यह प्रदर्शनी भी तैयार कर रहे हो या सिर्फ स्टाल की प्रदर्शनी तैयार कर रहे हो? इसका इनाम भी मिलेगा ना? आप आपस में एक-दो को स्टॉल की सजावट का इनाम देंगे और बापदादा इनाम देंगे चैतन्य प्रदर्शनी की सजावट का, इसलिये अब डबल इनाम मिलेगा। किस-किस ने अपनी चैतन्य प्रदर्शनी व अपने मस्तक के बैनर द्वारा सर्विस की उसका इनाम देंगे। अब रिजल्ट देंखेंगे। रिजल्ट तो आनी है ना? तीन नम्बर्स को इनाम मिलेगा-फर्स्ट, सेकेण्ड और थर्ड। बापदादा भी तीन इनाम देंगे। हर एक अभी से सोच रहे हैं हम फर्स्ट इनाम लेंगे और फर्स्ट में भी आ जायेंगे। अगर सब फर्स्ट में आ जावें तो भी सौगात देंगे। इसमें क्या बड़ी बात है? जब इतने विजयी बनेंगे तो विजयी रत्नों के आगे इनाम की क्या बड़ी बात है? सब फर्स्ट नम्बर बनो तो इनाम भी सबको मिलेगा, स्थूल में मिलेगा। सूक्ष्म कहेंगे तो बड़ी बात नहीं होगी। साकार सृष्टि निवासी होने के कारण साकार में भी देंगे। क्या देंगे वह अभी नहीं बतावेंगे। वह उस समय प्रसिद्ध होगा। जैसी योग्यता होगी, उस योग्यता के अनुसार इनाम होगा। गोल्ड भी क्या बड़ी बात है? थोड़े समय के बाद यह सारा ही सोना आपके चरणों में आना है। विश्व का मालिक बनने वालों के लिये यह सब क्या बड़ी बात है? जो बापदादा की सौगाते हैं ना। जितना नम्बर उतनी सौगात। जितना बढ़िया सर्विस की सफलता दिखायेंगे उनको ऐसी बढ़िया सौगात मिलेगी। बाकी स्टॉल की सजावट का इनाम यह (दीदी-दादी) देंगी और वह बापदादा देंगे। अच्छा, दिलासा नहीं है। प्रैक्टिकल में देंगे। अच्छा! ऐसे सदा विजयी, सदा सफलता-मूर्त्त, सदा स्व-स्थिति से, सदा हर परिस्थिति का सामना करने वाले, सदा निर्मान बन विश्व नव-निर्माण करने वाले और कदम-कदम पर एक बाप की याद में एक-मत हो, एक का नाम बाला करने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओमशान्ति।