23-01-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अब शक्ति सेना नाम को सार्थक बनाओ

निर्बल आत्मा को शक्ति देने वाले शक्तिदाता, चढ़ती कला की ओर ले जाने वाले रूहानी पण्डे और सब आधारों से निराधार बनाने वाले निराकार शिव बाबा शक्तियों के संगठन को सम्बोधित करते हुए बोले:-

क्या आप अपने को शक्ति सेना की वारियर (योद्धा) समझती हो? जैसे आपके संगठन का नाम है-शक्ति-सेना, क्या वैसी आप अपने को शक्ति समझती हो? यह नाम तो आपका परिचय देता है, क्योंकि यह कर्त्तव्य के आधार पर है। शक्ति सेना का अर्थ है -- सर्व-शक्तियों से सम्पन्न आत्माओं का संगठन। तो प्रश्न है कि जैसे नाम परिचय सिद्ध करता है तो क्या वैसे प्रैक्टिकल में कर्त्तव्य भी हैं?’’

सर्व-शक्ति सम्पन्न बनने की युक्ति बताते हुए बाबा बोले-’’सदा यह स्मृति में रखो कि बाप1 का नाम2 क्या है और बाप की महिमा क्या है? फिर उसके बाद यह विचार करो, कि जो बाप का काम3 है, क्या वही मेरा भी काम है? अगर बाप के नाम को सिद्ध करने वाला काम न किया, तो बाप का नाम बाला4 कैसे करोगी?

1. परमपति परमात्मा; 2. गुणवाचक नाम 3. सर्व का कल्याण करने का दिव्य कर्म; 4. उच्च; प्रसिद्ध) यह सोचो, कि बाप की यह जो महिमा है, कि वह सर्वशक्तिवान है तो वैसा ही मेरा भी स्वरूप हो, क्योंकि बाप की महिमा के अनुसार ही तो अपना स्वरूप बनाना है। बाप सर्वशक्तिमान हो और बच्चे शक्तिहीन; बाप नॉलेजफुल (ज्ञानसागर) हो और बच्चे अनपढ़-यह शोभेगा क्या?’’

यह देखना है कि हर सेकेण्ड चढ़ती कला की तरफ हैं? एक सेकेण्ड भी चढ़ती कला के बजाय ठहरती कला न हो, गिरती कला की तो बात ही नहीं। आप हो पण्डे। अगर पण्डे ठहरती कला में आ गये वा रूक गये तो आपके पीछे जो विश्व की आत्माएं चलने वाली हैं वे सब रूक जावेंगी। अगर इंजन ठहर जाय तो साथ ही डब्बे तो स्वत: ही ठहर जावेंगे। आप सबके पीछे विश्व की आत्मायें हैं। आप लोगों का एक सेकेण्ड भी रूकना साधारण बात नहीं है, क्या इतनी ज़िम्मेवारी समझ कर चलती हो? विशेष स्थान पर और विशेष स्थान के रूप में सबकी नजरों में हो न? तो जब ड्रामानुसार विशेष स्थान पर विशेष पार्ट बजाने का चान्स मिला है तो अपने विशेष  पार्ट को महत्व दे चलना चाहिए न? अगर अपना महत्व न रखेंगे, तो अन्य भी आपका महत्व नहीं रखेंगे। इसलिये अब अपने पार्ट के महत्व को जानो। हमारे ऊपर कोई ज़िम्मेवारी नहीं, अब यह संकल्प भी नहीं करना है। आप लोगों को देखकर कोई सौदा करता है, तो सौदा कराने वाले आप हो न?

यह तो अन्डरस्टुड (समझ) है कि अगर स्थापना की तैयारी कम है, तो विनाश की तैयारी कैसे होगी? इन दोनों का आपस में कनेक्शन (सम्बन्ध) है न? समय पर तैयार हो ही जावेंगे, यह समझना भी राँग (गलत) है। अगर बहुत समय से महाविनाश का सामना करने की तैयारी का अभ्यास न होगा तो उस समय भी सफल न हो सकेंगे। इसका बहुत समय से अभ्यास चाहिए; नहीं तो इतने वर्ष अभ्यास के क्यों दिये गये हैं? बहुत समय का कनेक्शन है, इसलिए ही ड्रामानुसार बहुत समय पुरूषार्थ के लिए भी मिला है। बहुत समय की प्राप्ति के लिये बहुत समय से पुरूषार्थ भी करना है, क्या ऐसे बहुत समय का पुरूषार्थ है? साइंस वालों को महाविनाश के लिये ऑर्डर करें? एक सेकेण्ड की ही तो बात है, इशारा मिला और किया। क्या ऐसे ही शक्ति-सेना तैयार है? एक सेकेण्ड का इशारा है--सदा देही-अभिमानी। अल्पकाल के लिये नहीं, सदा काल के लिए हो जाओ। ऐसा इशारा मिले तो आप क्या देही अभिमानी हो जावेंगे या फिर उस समय साधन ढूढेंगे, प्वाइन्टस् सोचेंगे या अपने को ठहराने की कोशिश करेंगे? इसलिए अभी से ऐसा पुरूषार्थ करो। मिलिट्री को तो अचानक ही ऑर्डर मिलते हैं न?

अपने आप प्रोग्राम बनाओ और स्वयं ही स्वयं की उन्नति करो। प्रोग्राम बनेगा तो कर लेंगे, यह भी आधार मत रखो। भट्ठी बनेगी तो तीन दिन अच्छे बीतेंगे, इसमें तो संगठन का सहयोग मिलता है। लेकिन यह आधार भी नहीं। कभी सहयोग मिल सकता है और कभी नहीं भी मिल सकता है। अभ्यास निराधार का होना चाहिए। अगर चान्स मिल जाता है, तो अच्छा ही है। न मिलने पर भी, अभ्यास से हटना नहीं चाहिए। प्रोग्राम के आधार पर, अपनी उन्नति का आधार बनाना, यह भी कमज़ोरी है। यह तो अनादि प्रोग्राम मिला हुआ है न? वह क्यों नहीं याद रखते हो? हर वक्त भट्ठी में रहना है, यह तो अनादि प्रोग्राम मिला हुआ है न? अच्छा!

जैसा अपना नाम वैसा काम करने वाले, बाप का नाम बाला करने वाले, एक सेकेण्ड में आर्डर मिलने पर तैयार हो जाने वाले और निराधार होकर पुरूषार्थ करने वाले रूहानी सैनानियों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।


 


25-01-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निराकार स्वरूप की स्मृति में रहने तथा आनन्द रस लेने
की सहज विधि

स्वरूप की स्मृति दिलाने वाले, आनन्द रस का रसास्वादन कराने वाले, अव्यक्त शिव बाबा बोलेः-

जैसे अपना साकार स्वरूप सदा और सहज स्मृति में रहता है, क्या वैसे ही अपना निराकारी स्वरूप सदा और सहज स्मृति में रहता है? जैसे साकार स्वरूप अपना होने के कारण स्वत: ही स्मृति में रहता है, क्या वैसे निराकारी स्वरूप भी अपना है तो अपनापन सहज याद रहता है? अपनापन भूलना मुश्किल होता है। स्थूल वस्तु में भी जब अपनापन आ जाता है, तो वह स्वत: ही याद रहती है, उसे याद किया नहीं जाता है। यह भी अपना निजी और अविनाशी स्वरूप है, तो इसको याद करना मुश्किल क्यों? जानने के बाद तो, सहज स्मृति में ही रहना चाहिए। जान तो लिया है न? अब इसी स्मृति-स्वरूप के अभ्यास की गुह्यता में जाना चाहिए।

जैसे साइंस वाले हर वस्तु की गुह्यता में जाते हैं और नई-नई इन्वेन्शन (खोज) करते रहते हैं ऐसे ही अपने निजी स्वरूप और उसके अनादि गुण व संस्कार इन एक-एक गुण की डीपनेस (गहराई) में जाना चाहिए। जैसे आनन्द स्वरूप कहते हैं, तो वह आनन्द स्वरूप की स्टेज क्या है? उसकी अनुभूति क्या है, आनन्द स्वरूप होने से उसकी विशेष प्राप्ति क्या है और आनन्द कहा किसको जाता है? उस समय की स्थिति का प्रत्यक्ष प्रभाव स्वयं पर और अन्य आत्माओं पर क्या होता है?-ऐसे हर गुण की गुह्यता में जाओ। जैसे वे लोग सागर के तले में जाते हैं और जितना अन्दर जाते हैं, उतने ही उन्हें नये-नये पदार्थ प्राप्त होते हैं। ऐसे ही आप जितना अन्तर्मुख होकर के स्वयं में खोये हुए रहोगे तो आपको बहुत नये-नये अनुभव होंगे। ऐसे महसूस करोगे जैसे कि आप इसमें खोये हुए हैं।

जैसे मच्छली पानी के अन्दर रहती हुई अपना जी-दान महसूस करती है, उसका लगाव पानी से होता है। शरीर निर्वाह-अर्थ यदि बाहर निकलेगी भी, तो एक सेकेण्ड बाहर आयी और फिर अन्दर चली जायेगी, क्योंकि बिना पानी के वह रह नहीं सकती। ऐसे आप सबकी लगन अपने निजी स्वरूप के भिन्न-भिन्न अनुभव के सागर से होनी चाहिए। कार्य-अर्थ बाह्यमुखता में आये, इन्द्रियों का आधार लिया अर्थात् साकार स्वरूपधारी स्थिति में अये लेकिन लगाव और आकर्षण उस अनुभव के सागर ही की तरफ होना चाहिए।

जैसे स्थूल वस्तु अपनी भिन्न-भिन्न रसनाओं का अनुभव कराती है न? जैसे मिश्री अपनी मिठास का अनुभव कराती है और हर गुण वाली वस्तु अपने गुण का अनुभव कराती हुई अपनी तरफ आकर्षित कराती है ऐसे ही आप अपने निजी स्वरूप के हर गुण की रसना का अनुभव अन्य आत्माओं को कराओ। तब ही आत्मायें आकर्षित होंगी। तो अब यह अनुभव करना और कराना, यही अपना विशेष कर्त्तव्य समझो। वर्णन के साथ-साथ हर गुण की अनुभूति कराओ। वह तब करा सकोगे जब स्वयं इस सागर में समाये होंगे तो क्या ऐसा समाये हुए रहते हो? इससे सहज स्मृति स्वरूप हो जाओगे।

याद कैसे करें?-इसकी बजाय यह क्वेश्चन (प्रश्न) उठे कि याद भूल कैसे सकती है? इतना परिवर्तन आ जाये। अभी तो सिर्फ थोड़ा-सा अनुभव किया है। सिर्फ चख कर देखा है। जब उसमें खो जाओगे तब कहेंगे खाया भी और स्वरूप में भी लाया। अभी बहुत अनुभव करने की आवश्यकता है। जब इस अनुभव में चले जाओगे तो फिर यह छोटी-छोटी बातें स्वत: ही किनारा कर लेंगी, अर्थात् विदाई ले लेंगी! अच्छा!’’

इस मुरली का सार

जिस प्रकार अपना साकार स्वरूप सदा और सहज स्मृति में रहता है, वैसे ही अपना निजी अनादि और निराकारी स्वरूप भी स्मृति में रहना चाहिये।

जैसे साइंस वाले हर वस्तु की गुह्यता में जाते हैं, ऐसे ही अपने निजी स्वरूप और उसके अनादि गुण व संस्कार की गहराई में जाना चाहिए।

जैसे मछली बिना पानी के नहीं रह सकती ऐसे ही आप सबकी लगन और आकर्षण अपने निजी स्वरूप के भिन्न-भिन्न अनुभव के सागर से होनी चाहिए।

जैसे स्थूल वस्तु अपनी भिन्न-भिन्न रसनाओं का अनुभव कराती है, ऐसे ही आप अपने निजी स्वरूप के हर गुण की रसना का अनुभव अन्य आत्माओं को कराओ।



28-01-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महिमा को स्वीकार करने से रूहानी ताकत में कमी

एक बच्चे को मनोहर शिक्षायें देते हुए रूहानी पिता परमात्मा शिव बोले:-

बच्चे तुम युद्ध-स्थल पर उपस्थित रूहानी योद्धा हो, फिर कहीं योद्धापन भूल अपनी सहज-सुखाली जीवन बिताते हुए अपने जीवन के प्रति साधन और सम्पत्ति लगाते हुए समय व्यतीत तो नहीं कर रहे हो? जैसे वारियर को धुन लगी ही रहती है विजय प्राप्त करने की, क्या ऐसी मायाजीत बनने की लगन, अग्नि की तरह प्रज्वलित है? बच्चे! अब आपके सामने सेवा का फल साधनों के रूप में और महिमा के रूप में प्राप्त होने का समय है। इसी समय अगर यह फल स्वीकार कर लिया तो फिर कर्मातीत स्टेज का फल, सम्पूर्ण तपस्वीपन का फल और अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति का फल प्राप्त न हो सकेगा।

कोई भी आधार पर जीवन का आधार नहीं होना चाहिए, अथवा पुरूषार्थ भी कोई भी आधार पर नहीं होना चाहिए। इससे योगबल की शक्ति के प्रयोग में कमी हो जाती है और जितना ही योगबल की शक्ति का प्रयोग नहीं करते, उतनी ही वह शक्ति बढ़ती नहीं। योगबल अभ्यास से बढ़ता ज़रूर है। जैसे कोई भी बात सामने आती है, तो स्थूल साधन फौरन ध्यान में आ जाते हैं। लेकिन स्थूल साधन होते हुए भी ट्रायल (प्रयत्न) योगबल की ही करनी है।

उपरामवृत्ति व ज्वाला रूप के दृढ़ संकल्प से विनाश का कार्य सम्पन्न करो


03-02-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


उपराम वा ज्वाला रूप के दृढ़ संकल्प से विनाश का कार्य सम्पन्न करो

मुक्ति और जीवनमुक्ति के गेट्स खोलने वाले, तड़फती हुई आत्माओं को शीतल, शान्त, आनन्दमूर्ति बनाने वाले, और सदा सर्व कर्म-बन्धनों से मुक्त, सर्व का कल्याण करने वाले निराकार पिता शिव बोले:-

जैसे बाप-दादा को साकार, आकार और निराकार अनुभव करते हो, क्या वैसे ही अपने को भी बाप-समान साकार होते हुए आकारी और निराकारी सदा अनुभव करते हो? यह अनुभव निरन्तर होने से इस साकारी तन और इस पुरानी दुनिया से स्वत: ही उपराम हो जावेंगे। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि ऊपर-ऊपर से साक्षी हो इस पुरानी दुनिया को खेल सदृश्य देख रहे हैं। ऐसी पॉवरफुल (शक्तिशाली) स्टेज अभी सदाकाल की होनी चाहिए। ऐसी स्टेज पर स्थित हुई आत्मा में देखने से ही क्या दिखाई देंगी? लाइट हाउस और पॉवर हाउस, ऐसी आत्मायें बाप-समान विश्व-कल्याणकारी कहलाई जाती हैं। जो भी सामने आये हरेक लाइट और माइट को प्राप्त करती जाय, क्या ऐसे भण्डार बने हो? ऐसे महादानी, वरदानी, सर्वगुण दानी, सर्वशक्तियों के दानी, संग से रूहानी रंग लगाने वाले, नजर से निहाल करने वाले, अन्धों को तीसरा नेत्र देने वाले, भटकी हुई आत्माओं को मंजिल बतलाने वाले, तड़पती हुई आत्माओं को शीतल, शान्त और आनन्दमूर्ति बनाने वाली आत्मा बने हो? क्या इस निशाने के नशे में रहते हो? इसको ही बाप-समान कहा जाता है।

जैसे समय की समीपता दिखाई देती है, क्या वैसे ही अपनी स्थिति की समीपता व समानता दिखाई देती है? जैसे दुनिया के लोग आपके सुनाये हुए समय प्रमाण दो वर्ष का इन्तज़ार कर रहे हैं, क्या ऐसे भी आप स्थापना के और विनाश का कार्य कराने वाले दो वर्ष के अन्दर अपने कार्य को और अपनी स्टेज व स्थिति को सम्पन्न बनाने के इन्तज़ाम में लगे हुए हो? या इन्तज़ाम करने वाले अलबेले और इन्तज़ार करने वाले तेज़ हैं, आप क्या समझते हो? क्या इन्तज़ाम जोर-शोर से कर रहे हो या जैसे दुनियावी लोग कहते हैं, कि जो होगा सो देखा जायेगा, ऐसे ही आप इन्तज़ाम करने के निमित्त बनी हुई आत्माएं भी, यह तो नहीं सोचती हो, कि जो होगा सो देखा जायेगा? इसको ही अलबेलापन कहा जाता है। अब तो इतना बड़ा कार्य करने के लिए खूब तैयारी चाहिए, पता है कि क्या तैयारी चाहिए? क्या शंकर को कार्य कराना है? उसको ही तो नहीं देखते हो कि कब शंकर विनाश करावेंगे? विनाश ज्वाला प्रज्वलित कब और कैसे हुई? कौन निमित्त बना? क्या शंकर निमित्त बना या यज्ञ रचने वाले बाप और ब्राह्मण बच्चे निमित्त बने? जब से स्थापना का कार्य-अर्थ यज्ञ रचा तब से स्थापना के साथ-साथ यज्ञ-कुण्ड से विनाश की ज्वाला भी प्रगट हुई। तो विनाश को प्रज्जवलित करने वाले कौन हुए? बाप और आप साथ-साथ है न? तो जो प्रज्वलित करने वाले हैं तो उन्हों को सम्पन्न भी करना है, न कि शंकर को? शंकर समान ज्वाला-रूप बन कर प्रज्वलित की हुई विनाश की ज्वाला को सम्पन्न करना है। जब कोई एक अर्थी को भी जलाते हैं तो जलाने के बाद बीच-बी च में अग्नि को तेज़ किया जाता है, तो यह विनाश ज्वाला कितनी बड़ी अग्नि है। इनको भी सम्पन्न करने के लिए निमित्त बनी हुई आत्माओं को तेज करने के लिए हिलाना पड़े-कैसे हिलावें? हाथ से व लाठी से? संकल्प से इस विनाश ज्वाला को तेज़ करना पड़े, क्या ऐसा ज्वाला रूप बन, विनाश ज्वाला को तेज़ करने का संकल्प इमर्ज होता है या यह अपना कार्य नहीं समझते हो?

ड्रामा के अनुसार निश्चित होते हुए भी निमित्त बनी हुई आत्माओं को पुरूषार्थ करना ही पड़ता है। इसी प्रकार अब इस मुक्ति और जीवनमुक्ति के गेट्स खोलने की जिम्मेदारी बाप के साथ-साथ आप सबकी है। वह विनाश सर्व-आत्माओं की सर्व- कामनाएं पूर्ण करने का निमित्त साधन है। यह साधन आपकी साधना द्वारा पूरा होगा। ऐसा संकल्प इमर्ज होना चाहिए कि अब सर्व-आत्माओं का कल्याण हो। सर्व तड़पती हुई, दु:खी और अशान्त आत्मायें वरदाता बाप और बच्चों द्वारा वरदान प्राप्त कर सदा शान्त और सुखी बन जाएं और अब घर चलें। यह स्मृति समय की समीपता प्रमाण तेज़ होनी चाहिए। क्योंकि इस संकल्प से ही और इस स्मृति से ही विनाश ज्वाला भड़क उठेगी और सर्व का कल्याण होगा।

अब जितना ही, बेहद के विशाल स्वरूप की सर्विस तीव्र रूप से करते जा रहे हो इतना ही बेहद की उपराम वृत्ति तीव्र चाहिए। आपकी बेहद की उपरामवृत्ति अथवा वैराग्य वृत्ति विश्व की आत्माओं में अल्पकाल के लिए होगी। तो अपने सुख से वैराग्य उत्पन्न करेगी। तब ही वैराग्य के बाद समाप्ति होगी। अपने आप से पूछो कि क्या हमारे अन्दर बेहद की वैराग्य वृत्ति रहती है? जो गायन है कि करते हुए अकर्ता। सम्पर्क-सम्बन्ध में रहते हुए कर्मातीत, क्या ऐसी स्टेज रहती है? कोई भी लगाव न हो और सर्विस भी लगाव से न हो लेकिन निमित्तभाव से हो; इससे ही कर्मातीत बन जायेंगे। अब अपने कार्य को समेटना शुरू करो। जब अभी से समेटना शुरू करेंगे तब ही जल्दी सम्पन्न कर सकेंगे। समेटने में भी टाइम लगता है। जब कोई कार्य अथवा दुकान आदि समेटनी शुरू करते हैं, तो क्या किया जाता है? सेल करते हैं। जब सेल लिख देते हैं तो वह सामान जल्दी-जल्दी समाप्त हो जाता है। तो यह फेयर भी क्या है? यह भी सेल लगाया है ना, ताकि जल्दी-जल्दी सबको सन्देश मिल जाए। जो खरीदना है, वह खरीद लो, नहीं तो उल्हना न रह जाए। अभी क्या करना है? कार्य समेटना अर्थात् स्वयं के लगाव को समेटना है। अगर स्वयं को सर्व तरफ से समेट कर एवर-रेडी बनाया तो आपके एवर-रेडी बनने से विनाश भी रेडी हो जायेगा। जब आग प्रज्वलित करने वाले ही शीतल हो बैठ जावेंगे तो आग क्या होगी? तो आग मध्यम पड़ जायेगी ना? इसलिए अब ज्वाला रूप हो अपने एवर-रेडी बनने के पॉवरफुल संकल्प से विनाश ज्वाला को तेज़ करो। जैसे दु:खी आत्माओं के मन से यह आवाज़ शुरू हुआ है कि अब विनाश हो, वैसे ही आप विश्व-कल्याणकारी आत्माओं के मन से यह संकल्प उत्पन्न हो कि अब जल्दी ही सर्व का कल्याण हो तब ही समाप्ति होगी, समझा?

पालना तो की, अब कल्याणकारी बनो और सबको मुक्त कराओ। विनाशकारियों की कल्याणकारी आत्माओं का सहयोग चाहिए। उनके संकल्प का इशारा चाहिये। जब तक आप ज्वालारूप न बने, तब तक इशारा नहीं कर सकते। इसलिये अब स्वयं की तैयारी के साथ-साथ विश्व के परिवर्तन की भी तैयारी करो। यह है आपका लास्ट कर्तव्य क्योंकि यही शक्ति स्वरूप का कर्त्तव्य है। स्वयं तो नहीं घबराते हो न? विनाश होगा कि नहीं होगा, क्या होगा और कैसे होगा? यह समझने के बजाए अब ऐसा समझो कि यह हमारे द्वारा होना है। यह जानकर अब स्वयं को शक्ति स्वरूप बनाओ, स्वयं को लाइट हाउस और पॉवर हाउस बनाओ। अच्छा, क्या हर बात में आप निश्चय बुद्धि हो?

ऐसे सदा अचल, अडोल, निर्भय, शुद्ध संकल्प में स्थित रहने वाले, संकल्प की सिद्धि प्राप्त करने वाले, सदा सर्व कर्म बन्धनों से मुक्त, कर्मातीत स्थिति में स्थित रहने वाले और बाप-दादा के श्रेष्ठ कार्य में सदा सहयोगी आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

मुरली का सार

(1) बाप समान सदा अपने को आकारी व निराकारी अनुभव करते रहने से इस पतित तन और इस पुरानी दुनिया से उपराम हो जायेंगे।

(2) आपकी बेहद की उपराम वृत्ति अर्थात् वैराग्य वृत्ति ही विश्व की आत्माओं में अल्प काल के सुख से वैराग्य उत्पन्न करेगी और इस वैराग्य के बाद ही समाप्ति होगी।

(3) अब शंकर समान ज्वाला रूप बन कर प्रज्वलित की हुई विनाश की ज्वाला को सम्पन्न करना है।

(4) मुक्ति और जीवनमुक्ति के गेट खोलने की ज़िम्मेवारी रूहानी बाप के साथसाथ आप बच्चों की भी है।

(5) अब घर चलने की स्मृति समय की समीपता प्रमाण तेज़ होनी चाहिये, क्योंकि इस संकल्प से ही और इस स्मृति से ही विनाश ज्वाला भड़क उठेगी और सर्व का कल्याण होगा।

(6) विनाशकारियों को कल्याणकारी आत्माओं के संकल्प के इशारे का सहयोग चाहिये।



06-02-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


परखने की शक्ति से महारथी की परख

माया व प्रकृति के सब विघ्नों से पार कराने वाले विघ्न विनाशक, अष्ट- शक्तियों का वरदान देने वाले शक्तिदाता, अपना सब-कुछ बच्चों को समार्पित करने वाले सर्वस्व त्यागी और निष्काम सेवाधारी
शिव बाबा बोले:-

जैसे बाप का आह्वान कर सकते हो अर्थात् सर्वशक्तिवान का आह्वान कर सकते हो, वैसे ही अपने में जिस समय, जिस शक्ति की आवश्यकता होती है क्या उस शक्ति का आहृन कर सकते हो? अर्थात् समाई हुई शक्ति को स्वरूप में ला सकते हो? जैसे बाप को अव्यक्त से व्यक्त में लाते हो, क्या इसी प्रकार हर शक्ति को कार्य में व्यक्त कर सकते हो? क्योंकि अब समय है सर्व-शक्तियों को व्यक्त करने का तथा प्रसिद्ध करने का। जब प्रसिद्धि होगी तब ही शक्ति सेना के विजय का नारा बुलन्द होगा। इसमें सफलता का मुख्य आधार है-परखने की शक्ति। जब परखने की शक्ति होगी तो ही अन्य शक्तियों से भी कार्य ले सकती हो। परखने की शक्ति कम होने और शक्तियों के युक्ति-युक्त काम में न लाने से सदा सफलतामुर्त्त नहीं बन सकते। अष्ट-शक्तियां अब प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देनी चाहियें। महावीर की निशानी यही है कि अष्ट-शक्तियां हर समय प्रत्यक्ष रूप में नज़र आयें। ऐसे आत्मायें ही अष्ट रत्नों में आ सकते हैं।

पुरूषार्थ में अन्तर क्या है, जिससे कि परख सको कि महारथी की स्टेज पर हो या घुड़सवार की स्टेज पर? विशेष अन्तर यह होगा कि जो महारथी होगा, वह कोई भी समस्या या आने वाली परीक्षा को आने से पहले ही कैच करेगा। विघ्नों को पहले ही से कैच करने के कारण वह तूफान व समस्या को सामने आने न देगा। जैसे आजकल साइंस का रिफाइन रूप कौन-सा है? दूर से पहले ही मालूम पड़ जाता है। पहले से ही मालूम पड़ जाने के कारण सेफ्टी (सुरक्षा) के साधन अपना लेते हैं। दुश्मन आवे और फिर उससे लड़कर विजय प्राप्त करें इसमें भी टाइम लग जाता है ना? आजकल जैसे साइंस की इन्वेन्शन रिफाइन हो रही है इसी प्रकार महारथियों का पुरूषार्थ भी रिफाइन होना है कि विघ्न आया और एक सेकेण्ड में चला गया। और यह भी महारथियों की स्टेज नहीं है। महारथी तो विघ्न को आने ही नहीं देंगे अर्थात् एक सेकेण्ड भी उसमें वेस्ट न करेंगे। जब निरन्तर योगी कहते हैं तो निरन्तर का अर्थ क्या है?-एक सेकेण्ड का भी अन्तर न पड़े। अगर माया आई और उसको हटाने में ही व्यस्त हुआ तो जो लगातार लगन में मग्न रहने की स्टेज है तो उसमें अन्तर पड़ेगा ना? महारथी अर्थात् ऐसा महान पुरूषार्थ करने वाले, दूर से भगाने का पुरूषार्थ ही महारथीपन की निशानी है। दिन-प्रतिदिन आप लोग भी अनुभव करेंगे कोई भी विघ्न आने वाला है, तो बुद्धि में संकल्प आयेगा कि कुछ होने वाला है। फिर जितना-जितना योग-युक्त और युक्ति-युक्त होगा उसे उतना ही आने वाला विघ्न स्पष्ट रूप में नज़र आयेगा। ऐसा दर्पण तैयार हो जायेगा। समर्पण और सर्वस्व त्यागी किसको कहा जाता है? जो विकारों के सर्व-वंश का भी त्याग करने वाले हैं। मोटे रूप में तो विकारों का त्याग हो जाता है, लेकिन विकारों का वंश अति सूक्ष्म है, उसका वंश-सहित त्याग करने वाले ही महारथी अर्थात् सर्वस्व त्यागी होगा। जब यहाँ वंश-सहित सब विकारों का त्याग करते हैं तो वहाँ 21 वंश-सहित निर्विघ्न और निर्विकार पीढ़ी चलती हैं। आधा कल्प दैवी-वंश चलता है और आधा कल्प विकारों का शूद्र वंश भी बढ़ता जाता है। तो इस वंश को समाप्त करने वाले ही इक्कीस वंश-सहित अपना दैवी राज्य भाग्य प्राप्त करते हैं। अगर वंश के त्याग करते समय थोड़ी भी कमी रह जाती है तो वहाँ भी इक्कीस वंश में थोड़ी कमी रह जायेगी। महारथी की यह निशानी है कि जब सर्वस्व-अर्पण कर दिया तो उसमें तन-मन-धन, सम्पत्ति, समय, सम्बन्ध और सम्पर्क भी सब अर्पण किया ना? अगर समय भी अपने प्रति लगाया और बाप की याद या बाप के कर्त्तव्य में नहीं लगाया, तो जितना समय अपने प्रति लगाया, तो उतना समय कट हो गया।

जैसे भक्ति-मार्ग में भी दान की हुई वस्तु अपने प्रति नहीं लगाते हैं, ठीक इसी प्रकार, यहाँ भी हिसाब-किताब है। स्वयं की कमजोरी प्रति व स्वयं के पुरूषार्थ के प्रति वस्तु लगाना, यह जैसे कि अमानत में ख्यानतहो जाती है। ऐसा महीन पुरूषार्थ महारथी की निशानी है। महारथियों को तो अब अपना सब-कुछ विश्व के कल्याण में लगाना है तब तो महादानी और वरदानी कहा जायेगा। महारथी की स्टेज का प्रभाव ऐसा रहेगा, जैसे कि लाइट हाउस का प्रभाव दूर से ही नज़र आता है और वह चारों तरफ फैलती है। लेकिन कार्य व्यवहार में जो भी अनुभवी होते हैं, तो उसका भी प्रभाव उनकी सूरत और सीरत से पता पड़ता है। अब महारथियों और महावीरों का ऐसा प्रभाव पड़ना चाहिये। सूरत से ही अक्ल का अनुभव होगा अब इन निशानियों से ही समझो कि हमारा नम्बर कहाँ पर होगा? अच्छा।

सदा सहयोगी एवं सहज योगी बनो




20-02-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अव्यक्त बापदादा के कमरे में मधुबन निवासियों से मधुर मुलाकात करते हुए पाण्डवपति शिव बाबा ने ये मधुर महावाक्य उच्चारे :-

जैसे बाप की महिमा है, वैसे जो बाप के कर्त्तव्य में सदा सहयोगी हैं और बाप के साथ सदा स्नेही हैं ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं की भी महिमा है। सदा सहयोगी अर्थात् हर संकल्प और हर श्वास बाप के कर्त्तव्य प्रति व्यतीत हो, तो क्या सदा ऐसे सहयोगी और सहजयोगी हो? विशेष वरदान भूमि के निवासी होने के कारण पुरूषार्थ के साथ-साथ अनेक प्रकार का सहयोग प्राप्त है। वृत्ति और स्मृति यह दोनों ही पुरूषार्थ में आगे बढ़ने में सहयोगी होते हैं। स्मृति बनती है संग से और वृत्ति बनती है वातावरण व वायुमण्डल से। जैसे स्थूल धन कमाने वाले सारा दिन उसी संग में रहते हैं तो संग का प्रभाव स्मृति में इतना पड़ता है कि उसको स्वप्न में भी वही स्मृति रहती है। तो आप लोगों को अमृतवेले से लेकर रात तक सारा दिन यही श्रेष्ठ संग है, शुद्ध वातावरण है और शान्त वायुमण्डल है। जब संग और वातावरण दोनों ही श्रेष्ठ प्राप्त है तो स्मृति और वृति सहज ही श्रेष्ठ हो सकती है। ड्रामा में जब यह गोल्डन चान्स प्राप्त है तो क्या उसका उतना ही लाभ उठाते हो?

बाहर में रहने वाले कीचड़ में कमल हैं। आप लोगों को तो कमल से भी श्रेष्ठ रूहानी रूहें और गुलाब बनने का चान्स है। गुलाब का फूल पूजा के काम आता है अर्थात् वह देवताओं को अर्पित किया जाता है। कमल-पुष्प की विशेषता गाई जाती है लेकिन वह अर्पित नहीं किया जाता। तो आप सब बाप के आगे अर्पित गुलाब हो, जैसे गुलाब वायुमण्डल में खुशबू फैलाता है, ऐसे ही आप सब भी चारों ओर अपनी रूहानियत की खुशबूएं फैलाने वाले हो? क्या जैसा नाम वैसा ही काम है, जैसा स्थान वैसी स्थिति है, जैसा वातावरण वैसी वृत्ति है और जैसा संग वैसी स्मृति है? इसमें अलबेलापन क्यों होता है? कारण कि जैसे बाप की पहचान नहीं, तो प्राप्ति भी नहीं। इसी प्रकार अपने मिले हुए श्रेष्ठ भाग्य की भी पहचान नहीं तो अलबेलापन का कारण हुआ कि ज्ञान की कमी और पहचान की कमी। इसलिये अब समय की समीपता प्रमाण सम्पूर्ण ज्ञान स्वरूप बनो तब ही ज्ञान का फल अनुभव करेंगे, समझा?

पाण्डवों का किला तो प्रसिद्ध है। किला मज़बूत बनाना यह पाण्डवों का ही कर्त्तव्य है। अगर स्वयं मज़बूत होंगे तो किला भी मज़बूत होगा। किले की दीवार क्या है? स्वयं ही तो दीवार हैं। दीवार के बीच से यदि एक ईंट या पत्थर भी हिल जाये और दीवार में ज़रा भी क्रैक (दरार) आ जाए तो सम्पूर्ण दीवार ही कमज़ोर हो जाती है। क्या माया के तूफान और माया के अर्थ-क्वेक (धरतीकम्प), फाउण्डेशन (नींव) को हिलाते तो नहीं हैं या क्रैक तो नहीं पड़ता है? किला मज़बूत है ना? किला अर्थात् संगठन। जब विश्व पर प्रभाव डाल सकते हो तो क्या समीप वालों को प्रभावित नहीं कर सकते? इतना सहजयोगी बनो जो आपको देखते ही औरों का योग लग जावे। एक घड़ी का रोब सारे दिन की रूहानियत को तो गँवा देता है, इससे तो फौरन किनारा करना चाहिये। पुरूषों का यह रोब क्या जन्म-सिद्ध अधिकार है? हैं तो सब आत्मा ही ना? स्नेह की भी उत्पत्ति तब होगी जब समझेंगे कि मैं आत्मा हूँ। फिर तो भाई-भाई की दृष्टि में भी रोब नहीं रहेगा। यह तो कलियुगी जन्म-सिद्ध अधिकार है, न कि ईश्वरीय। न बहन देखो, न भाई। क्योंकि इसमें भी एक्सीडेण्ट (दुर्घटना) होते हैं। इसलिये सदा ही आत्मा देखो तभी इस दृष्टि की प्रैक्टिस (अभ्यास) कराई जाती है। मैं पुरूष हूँ इस स्मृति से पाण्डव गल गये। शरीर से गलने का अर्थ क्या है?-शरीर की स्मृति से गलना। पाण्डवों का गायन है कि सब गल गये। जैसे सोने को गलाओगे तो सोना फिर भी सोना ही रहेगा, लेकिन उसका रूप बदल जायेगा। तो यह भी गल गये अर्थात् परिवार्तित हुए। इसलिए यह रोब भी समाप्त। अच्छा।’’

इस मुरली का सार

1. बाप के कर्त्तव्य में सदा सहयोगी आत्माओं की बाप के समान ही महिमा होती है।

2. यज्ञ में समार्पित भाई बहनों का जीवन रूहे गुलाब के समान होता है जबकि गृहस्थ व्यवहार में रहने वालों का जीवन कमल-पुष्प के समान है।

3. गुलाब का फूल कमल-पुष्प से श्रेष्ठ है क्योंकि गुलाब का फूल देवताओं की पूजा में अर्पित किया जाता है जब कि कमल-पुष्प की केवल विशेषता ही गाई जाती है परन्तु पूजा के काम में नहीं आता।

4. रूहानियत से रोब की समाप्ति करनी है, इसे ही शास्त्रों में पाण्डवों का पहाड़ों पर गलना कहा गया है।



15-04-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विघ्न-विनाशक बन कर अंगद समान माया पर विजय प्राप्त करो

विघ्न-विनाशक, विश्व-पालक और माया पर विजय प्राप्त करा कर उमंग और उल्लास को बढ़ाने वाले शिवबाबा बोले :-

क्या सभी उन्नति की ओर बढ़ते जा रहे हो? चढ़ती कला की निशानी क्या है, क्या वह जानते हो? सदा लगन में मग्न और विघ्न-विनाशक यह दोनों निशानियाँ क्या अनुभव में आ रही हैं? या विघ्नों को देख विघ्न-विनाशक बनने के बजाय, विघ्नों को देख अपनी स्टेज से नीचे तो नहीं आ जाते हो? क्या अनेक प्रकार के आये हुए तूफान आपकी बुद्धि में तूफान तो पैदा नहीं करते हैं? जैसे कोई के द्वारा तोहफा मिलता है तो बुद्धि में हलचल नहीं होती है बल्कि उल्लास होता है। इसी प्रकार आये हुए तूफान उल्लास बढ़ाते हैं या हलचल बढ़ाते हैं? अगर तूफान को तूफान समझा तो हलचल होगी और तोहफा समझा व अनुभव किया तो उससे उल्लास और हिम्मत अधिक बढ़ेगी। यह है चढ़ती कला की निशानी। घबराने के बजाय गहराई में जाकर अनुभव के नये-नये रत्न इन परीक्षाओं के सागर से प्राप्त करेंगे तो क्या ऐसे अनुभव करते हो? यह क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है और ऐसे कैसे चलेगा? यह जो संकल्प चलते हैं इसको हलचल कहा जाता है। हलचल के अन्दर रत्न समाये हुए हैं। ऊपर-ऊपर से अर्थात् बहिर्मुखता की दृष्टि और बुद्धि द्वारा देखने से हलचल दिखाई देगी अथवा अनुभव होगी? लेकिन उसी आई हुई बातों को अन्तर्मुखी दृष्टि व बुद्धि से देखने से अनेक प्रकार के ज्ञान-रत्न अर्थात् प्वाइन्ट्स प्राप्त होंगे।

अगर कोई भी बात को देखते या सुनते हुए आश्चर्य अनुभव होता है तो यह भी फाइनल स्टेज नहीं है। ऐसा तो होना नहीं चाहिए, अच्छा जो हुआ वह होना ही चाहिए, अगर ऐसा संकल्प ड्रामा के होने पर भी उत्पन्न होता है तो इसको भी अंशमात्र्  की हलचल का रूप कहेंगे। अब तक यह क्यों-क्या का क्वेश्चन का अर्थ है - हलचल। विघ्न आना आवश्यक है और जितना विघ्न आना आवश्यक है अगर उतना यह बुद्धि में रहेगा तो उतना ही ऐसा महारथी हर्षित रहेगा। नथिंग न्यू यह है फाइनल स्टेज । यदि कोई भी हलचल का कर्त्तव्य करते हो व पार्ट बजाते हो तो सागर समान ऊपर से हलचल भले ही दिखाई दे रही हो अर्थात् चाहे कर्मेन्द्रियों की हलचल में आ रहे हों लेकिन स्थिति नथिंग न्यू की हो। एकाग्र, एकरस, एकान्त अर्थात् एक रचयिता और रचना के अन्त को जानने वाले त्रिकालदर्शी की स्टेज पर, क्या आराम से शान्ति की स्टेज पर स्थित हैं या कर्मेन्द्रियों की हलचल आन्तरिक स्टेज को भी हिलाती है? जब स्थूल सागर दोनों ही रूप दिखाता है तो क्या मास्टर ज्ञान सागर ऐसा रूप नहीं दिखा सकते? यह प्रकृति ने पुरूष से कॉपी की है। आप तो पुरूषोत्तम हो। जो प्रकृति अपनी क्वॉलिफिकेशन दिखा सकती है, क्या वह पुरूषोत्तम नहीं दिखा सकते?

अब समय किस ओर बढ़ रहा है यह जानते हो? अति की तरफ बढ़ रहा है। सभी तरफ अति दिखाई पड़ रही है। अन्त की निशानी अति है। तो जैसे प्रकृति समाप्ति की तरफ अति में जा रही है वैसे ही सम्पन्न बनने वाली आत्माओं के सामने अब परीक्षायें व विघ्न भी अति के रूप में आयेंगे। इसलिये आश्चर्य नहीं खाना है कि पहले यह नहीं था अब क्यों है? यह आश्चर्य भी नहीं। फाइनल पेपर में आश्चर्यजनक बातें क्वेश्चन के रूप में आयेंगी तब तो पास और फेल हो सकेंगे। न चाहते हुए भी बुद्धि में क्वेश्चन उत्पन्न न हों, यही तो पेपर है। और है भी एक सेकेण्ड का ही पेपर। क्यों का संकल्प चन्द्रवंशी की क्यू में लगा देगा। पहले तो सूर्यवंशी का राज्य होगा ना? चन्द्रवंशियों का नम्बर पीछे होगा। तो उनका, राज्य के तख्तनशीन बनने की क्यू में नम्बर आयेगा। इसलिए एकरस स्थिति में स्थित होने का अभ्यास निरन्तर हो। समस्या के सीट को सम्भालने नहीं लग जाओ। लेकिन सीट पर बैठ समस्या का सामना करना है। अब तो समस्या सीट की याद दिलाती है। विघ्न आता है, तो विशेष योग लगाते हो और भट्ठी रखते हो ना? इससे सिद्ध होता है कि दुश्मन ही शस्त्र की स्मृति दिलाते हैं लेकिन स्वत: और सदा-स्मृति नहीं रहती। निरन्तर योगी हो या अन्तर वाले योगी हो? टाइटल तो निरन्तर योगी का है ना? दुश्मन आवे ही नहीं, समस्या सामना न कर सके। सूली से कांटा बनना यह भी फाइनल स्टेज नहीं। सूली से कांटा बने और कांटे को फिर योगाग्नि से दूर से ही भस्म कर दें। कांटा लगे और फिर निकालो, यह फाइनल स्टेज नहीं है। कांटे को अपनी सम्पूर्ण स्टेज से समाप्त कर देना है-यह है फाइनल स्टेज। ऐसा लक्ष्य रखते हुए अपनी स्टेज को आगे चढ़ती कला की तरफ बढ़ाते चलो। बड़ी बात को छोटा अनुभव करना, इस स्टेज तक महारथी नम्बरवार यथा-शक्ति पहुंचे हैं। अब पहुंचना वहाँ तक है जो कि अंश और वंश भी समाप्त हो जाए।

आप सभी हिम्मत, उल्लास और सर्व के सहयोगी सदा रहते हुए चल रहे हो ना? कलियुगी दुनिया को समाप्त करने के लिये व परिवर्तन करने के लिए, माया को विदाई देने के लिये संगठन अर्थात् घेराव डाला हुआ है ना? मज़बूत घेराव डाला हुआ है या बीच-बीच में कोई ढीले हो जाते हैं अथवा थक तो नहीं जाते या चलते- चलते रूक तो नहीं जाते हो ना? न आगे बढ़ना, न पीछे हटना, जैसे-थे-वैसे रहना वह पाठ तो पक्का नहीं करते हो? समय धक्का लगावेगा तो चल पड़ेंगे, ऐसा सोच जहाँ के तहाँ रूक तो नहीं गये हो? किसी के किसी प्रकार के सहारे का तो इन्तज़ार करते हुए, खड़े तो नहीं हो गये हो? तो ऐसी स्टेज वालों को क्या कहेंगे? क्या इसको ही तो अंगदकी स्टेज नहीं समझते हो? अगर ऐसे रूक गये, तो फिर लास्ट वाले फास्ट चले जावेंगे। जब भी पहाड़ों पर बर्फ गिरती है और जम जाती है तो रास्ते रूक जाते हैं। तो फिर बर्फ को गलाने के लिए व उसे हटाने के लिये पुरूषार्थ करते है ना? यहाँ भी अगर बर्फ के माफिक जम जाते हो तो इससे सिद्ध होता है कि योग-अग्नि की कमी है। योग-अग्नि को तेज़ करो तो रास्ता क्लियर हो जायेगा। मिली हुई हिम्मत और उल्लास के प्वाइन्ट्स बुद्धि में दौड़ाओ तो रास्ता क्लियर हो जायेगा। अब की रिज़ल्ट में ऐसे आधा ही चल रहे हैं। इसलिए इसको आगे बढ़ाओ। यह रिज़ल्ट क्या पुरूषोत्तम आत्माओं को अच्छी लगती है? इसलिये न पुरूषार्थ की गति में अंगद बनो, न माया से हार खाने के लिये अंगद बनो, बल्कि विजयी बनने के लिए अंगद बनना है। अच्छा,

ऊंच-ते-ऊंच बाप द्वारा पालना लेने वाले, विश्व की पालना करने वाले, विष्णु-कुल की श्रेष्ठ आत्मायें, प्रकृति को परिवर्तन करने वाली पुरूषोत्तम आत्मायें, विश्व के आगे साक्षात्मूर्त्त प्रसिद्ध होने वाली आत्मायें और योगी तू आत्माओं के प्रति बाप-दादा का याद-प्यार और गुड मार्निग। अच्छा!


 


24-04-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अब त्रिमूर्ति लाइट के साक्षात्कार-मूर्त बनने की डेट फिक्स करो

एक सेकेण्ड में जन्म-सिद्ध ईश्वरीय अधिकार देने वाले, ना-उम्मीदवार को उम्मीदवार बनाने वाले, और सर्व आत्माओं को ब्लिस देने वाले त्रिमूर्ति शिव बाबा बोले:-

आज इस संगठन की कौन-सी विशेषता बाप-दादा देख रहे हैं? क्या हरेक अपनी विशेषता को जानते हैं? त्रिमूर्ति बाप से त्रिमूर्ति वंशावली हरेक में आज तीन लाइट देख रही हैं कि तीनों ही लाइट अपनी तरफ आकर्षित करने वाली हैं वा नम्बरवार हैं? जब तीनों ही लाइट जगमगाती हुई दिखाई दें तब ही सबको साक्षात्कार करा सकेंगे। प्योरिटी की लाइट, सतोप्रधान दिव्य- दृष्टि की लाइट और मस्तक मणि की लाइट यह तीनों ही सम्पूर्ण बनाने की मुख्य बातें हैं। तो अपने आप से पूछो कि सदा सतोप्रधान आत्मिक दृष्टि, सदा हर संकल्प, हर बोल व कर्म में प्योरिटी की झलक कहाँ तक आयी है? क्या सदा स्मृति स्वरूप बने हो? अगर आप में एक बात की भी कमी है तो त्रिमूर्ति लाइट का साक्षात्कार नहीं करा सकोगे। यही प्योरिटी सबसे श्रेष्ठ और सहज पब्लिसिटी है और यही अन्तिम पब्लिसिटी का रूप है। जो अन्य कोई भी आत्माएं कर नहीं सकतीं। विश्व परिवर्तन के कार्य में सबसे पॉवरफुल पब्लिसिटी का साधन आप विशेष आत्माओं का यही है। तो क्या ऐसी पब्लिसिटी कर रहे हो या कोई ऐसा प्लान बनाया है या ऐसी कोई विचित्र फिल्म बनाई है? जैसे स्थूल फिल्म देखने से आज के लोग प्रभावित होते हैं, वैसे ही आप सबके मस्तक और नयन ऐसे विचित्र अनुभव कराने की फिल्म दिखावें, तो लोग क्या परिवर्तन में नहीं आवेंगे? जैसे पर्दे के सामने बैठने से भिन्न-भिन्न  दृश्य पर्दे पर दिखाई देते हैं वैसे ही आपके सामने आने से अनेक प्रकार की दिव्य-दृष्टि दिखाई देगी। क्या ऐसी रील तैयार कर रहे हो? इसी पुरूषार्थ में लगे हुए हो या अब तक स्वयं को ही सीट पर सेट करने में लगे हुए हो?

दुनिया की आत्माओं को आजकल कोई नई बात चाहिये जो कि कभी किसी के संकल्प में भी न हो। ऐसा कर्त्तव्य दिखाने के कौन निमित्त बनेंगे?-महारथी। हरेक अपने को महारथी तो समझते हो ना? जबकि भविष्य में सदा श्रीलक्ष्मी श्रीनारायण बनने की हिम्मत रखते हैं और चन्द्रवंशी में कोई भी हाथ नहीं उठाते, तो सूर्यवंशी बनने वाले महारथी हुए ना? जब सब महारथी ऐसा महान् कार्य करने लग जायें, तो विश्व-परिवर्तन कितने समय में होगा? महारथियों का संगठन समय-प्रति-समय होता ही रहता है। अब के संगठन में भी क्या बीते हुए संगठन प्रमाण ही प्लैन बनावेंगे या प्रैक्टिकल प्रभाव की डेट फिक्स भी करेंगे? जैसे अन्य सब बातों का प्लैन और डेट फिक्स करते हो वैसे ही सम्पूर्ण सफलता त्रिमूर्ति लाइट के साक्षात्कार-मूर्त बनने का प्लैन और डेट इस बार फिक्स  करेंगे या इसके लिए कोई और मीटिंग होगी? साइंस वाले टाइम-बम बनाते हैं तो क्या आप टाइम-बम्स नहीं बनाते? आप सिर्फ बाम्स ही बनाते हो क्या? या सोचते हो कि अभी धरनी नहीं बनी है जो कि प्रत्यक्ष फल निकल आये?

आजकल के जमाने में धरनी को परिवर्तन करना कोई मुश्किल बात नहीं है। कैसी भी धरनी में आजकल साइंस फल पैदा कर देती है ना? न-उम्मीदवार को भी उम्मीदवार बना देती है ना? तो आप मास्टर सर्वशक्तिमान्, ताज, तख्त और तिलकधारी क्या न-उम्मीदवार को उम्मीदवार नहीं बना सकते? असम्भव को सम्भव करना यह चैलेन्ज आप ब्राह्मणों का स्वधर्म है अर्थात् धारणा है तो स्वधर्म में स्थित होना सहज है या कठिन है? बोर्ड जो लगाते हो उसमे क्या लिखते हो? एक सेकेण्ड में जन्म-सिद्ध अधिकार प्राप्त करो। तो ज़रूर एक सेकेण्ड में प्राप्त करने का प्लैन प्रैक्टिकल में है, तब तो लिखते हो ना? तो यही असम्भव को सम्भव होने का चैलेन्ज करते हो ना? तो ऐसा फास्ट कर्त्तव्य कब से शुरू करेंगे? लेकिन बोर्ड के नीचे और भी शब्द लिखते हो-अभी नहीं तो कभी नहीं। फिर तो अब से ही होना चाहिये ना? तो इस वर्ष में कोई ऐसा अनोखा प्लैन बनाओ। पहले क्या साक्षात्कार-मूर्त तैयार हो? क्योंकि भक्ति में भी नियम है कि जरा भी खण्डित मूर्ति पूज्य या मन्दिर के योग्य नहीं बन सकती, और न दर्शनीय-मूर्त्त ही बन सकती है। ड्रामा का पर्दा खुल जाए और मूर्ति सम्पन्न नहीं हो, तो क्या यह शोभेगा? जैसे श्रृंगार में सोलह श्रृंगार प्रसिद्ध हैं, तो क्या ऐसे ही सम्पूर्ण सोलह कला सम्पन्न बने हो? या समय पर जिस कला की आवश्यकता हो, क्या उस समय वह कला स्वरूप में नहीं ला सकते? यदि स्मृति में आता है लेकिन स्वरूप में नहीं आ पाता हो तो आपको सफलता कैसे होगी? यदि युद्ध स्थल में समय पर शस्त्र उपयोग में न ला सको, तो क्या विजय होगी? पहले स्वयं को सम्पन्न बनाने के प्रैक्टिकल प्लैन बनाओ, तो सहज सफलता आपके सम्मुख आ जायेगी।

अब तक रिज़ल्ट क्या देखी है? स्वयं की और अन्य आत्माओं की दोनों की सेवा साथ-साथ और सदा रही। दोनों का बैलेन्स समान रहे यह दिखाई देता है? दोनों का बैलेन्स विश्व की सर्व-आत्माओं को ब्लिस दिलाने के निमित्त बनेगी। यूँ तो सर्व कार्य बाप का है लेकिन जैसे अन्य कार्य में निमित बने हुए हो, तो इसमें क्यों भूल जाते हो? जैसे भक्त लोगों को जब कोई कार्य मुश्किल लगता है, तो भगवान् के ऊपर रख देते हैं ना? सहज में स्वयं और मुश्किल में भगवान् अब तो बाप ने सर्व-शक्तियों का और सर्व-कर्त्तव्यों का आपको निमित्त बना दिया है ना? क्योंकि बाप ने स्वयं को वानप्रस्थी बनाकर आप सबको तख्तनशीन और ताजधारी बना दिया है। जो बाप की ज़िम्मेवारियाँ रही हुई हैं वह अब तुम बच्चों की हैं। हाँ, मददगार बाप अवश्य है। लेकिन साकार स्वरूप में, और नाम बाला करने में सन शोज़ फादर (Son Shows Father) है। इसलिये आप सभी जिम्मेवार आत्मायें हो, परन्तु साधारण आत्मायें नहीं हो। आप ज्ञानी तू आत्मायें और विजय रत्न हो, समझा!-यह है महारथियों का कार्य।

प्रत्यक्ष फल के प्रैक्टिकल प्लैन बनाने वाले, सदा विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है, ऐसे अधिकार प्राप्त करने वाले, चैलेन्ज को प्रैक्टिकल में लाने वाले, सदा सम्पन्न, साक्षात्कार-मूर्त त्रिमूर्ति लाइट धारण करने वाले त्रिमूर्तिवंशी, एक सेकेण्ड में तीनों शक्तियों द्वारा साथ-साथ काम करने वाले और बाप-दादा के सदा साथी, ऐसे महावीरों को बाप-दादा का याद-प्यार और गुडनाइट। अच्छा।

मुरली का सार

स्वयं में यह देखते रहो कि सदा स्मृति स्वरूप, सदा सतोप्रधान आत्मिक दृष्टि, सदा हर संकल्प, बोल और कर्म में प्योरिटी की झलक कहाँ तक आयी है तभी त्रिमूर्ति लाईट का साक्षात्कार करा सकेंगे।


 


28-04-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्थूल के साथ-साथ सूक्ष्म साधनों से ईश्वरीय-सेवा में सफलता

लास्ट सो फास्ट सर्विस के साधन बतलाते हुए मुरली मनोहर शिव बाबा सर्विसएबुल पाण्डवों से बोले:-

आज के इस संगठन को कौन-सा संगठन कहेंगे? इस संगठन की ज़िम्मेवारी की विशेषता क्या है? क्या आपने इन सब बातों को अपने संगठन में स्पष्ट किया है? क्या ज़िम्मेवारी मिली है या ली है? क्या अपनी स्थिति को उच्च और परिपक्व बनाने की ज़िम्मेवारी मिली है या ली नहीं है? क्या ऐसा मानते हो कि मेमोरेण्डम बनाने की ज़िम्मेवारी ली है और अपनी स्थिति बनाने की ज़िम्मेवारी मिली है।

आजकल के समय के अनुसार मुख्य ज़िम्मेवारी कौन-सी है? ईश्वरीय सेवा के तो भिन्न-भिन्न साधन और स्वरूप होते जा रहे हैं और आगे चलकर और भी होंगे। लेकिन लास्ट इज़ फास्टका साधन और स्वरूप कौन-सा है? विचार तो बहुत अच्छे निकाले हैं-बोर्ड भी लगावेंगे, फिल्म भी बनावेंगे, मेमोरेण्डम भी बनावेंगे, श्मशान और गाँवों में भी जावेंगे-यह सब तो करेंगे ही, लेकिन अपने मस्तक पर कौन-सा बोर्ड लगावेंगे? अपने इस मुख द्वारा व स्वरूप द्वारा विश्व की हर आत्मा को कौन-सा और कैसे मेमोरेण्डम देंगे? अपने दिव्य अलौकिक चरित्र और शुभ चिन्तन द्वारा और हर्षित मुख के चित्र द्वारा कौन-सी अलौकिक फिल्म दिखावेंगे? क्या आप एक ही फिल्म तैयार करेंगे या ये इतने सब (संगठन में आये हुए ब्रह्माकुमार) मधुबन वरदान भूमि से चेतन एवं अलौकिक फिल्म बन निकलेंगे? अगर इतनी सब फिल्म हर स्थान पर लोगों को दिखा सको तो क्या यही लास्ट सो फास्ट सर्विस नहीं? गाँव-गाँव में अथवा हर स्थान में सदाकाल की शान्ति व आनन्द का अनुभव एक सेकेण्ड में अपनी अनुभवी-मू्र्त्त द्वारा दिखाओ व कराओ तो क्या यह कम खर्च बाला नशीन’ (ऊंची परन्तु कम खर्च वाली) सर्विस नहीं? (ईश्वरीय सेवा में लगे हुए कुछेक भाइयों की एक विचार गोष्ठी मधुबन में हुई थी। यह मुरली उस अवसर से सम्बन्धित है। उस अवसर पर कुछ भाइयों ने इस विषय पर ज्ञापन अथवा मेमोरेण्डम तैयार करने की ज़िम्मेवारी ली थी कि शास्त्रों में देवी-देवताओं की जो ग्लानि लिखी है, वह निराधार और हानिकारक है।) सपूत  बच्चों का, सहयोगी बच्चों का और सर्विसएबल बच्चों का हर संकल्प, हर बोल और हर कर्म में यही फर्ज और यही एक सबसे बड़ी ज़िम्मेवारी है। आप पाण्डवों का संगठन अथवा निमित्त बनी हुई आत्माओं का संगठन सिर्फ स्थूल सर्विस के साधन इकट्ठे करने या उन्हें प्रैक्टिकल में लाने तक ही नहीं है। स्थूल साधनों के साथ-साथ सूक्ष्म साधन और प्लैन के साथ-साथ प्लेन  स्थिति और स्मृति रहे-इन बातों को अपनी ज़िम्मेवारी समझ कर चलना अर्थात् कर्म करना है। जो भी यहाँ बैठे हैं-वह सब इन बातों की ज़िम्मेवारी अपने को निमित्त समझ उठावेंगे तो क्या विहंग मार्ग की सर्विस का रूप नहीं दिखाई देगा?

जैसे ईश्वरीय सेवा-केन्द्रों पर टीचर्स (शिक्षिकाएं) और मुख्य आत्मायें हर कार्य की ज़िम्मेवारी के लिये निमित्त हैं, वैसे ही क्या आप अपने को इतना ज़िम्मेवार या निमित्त समझते हो? जैसे हर ईश्वरीय मर्यादा को पालन करना और कराना टीचर्स की एक ज़िम्मेवारी है क्या आप अपने को हर ईश्वरीय मर्यादा के अन्दर चलने के निमित्त समझते हो या ऐसा मानते हो कि यह टीचर्स और दीदी-दादी ही का काम है? टीचर्स से भी पहले यह ज़िम्मेवारी आप निमित्त बने हुए पाण्डवों की है क्योंकि विश्व के आगे चैलेन्ज की हुई है कि घर-गृहस्थ में रहते कमल-पुष्प के समान न्यारे और प्यारे रहने की। कीचड़ में रहते कमल अथवा कलियुगी सम्पर्क में रहते ब्राह्मण इस चैलेन्ज को प्रैक्टिकल रूप में लाने के निमित्त हैं; न कि टीचर्स। यह पार्ट पाण्डवों का है अथवा प्रवृति में रहने वालों का है। टीचर्स के पास पहुंचने से पहले सैम्पल के रूप में आप हो। सैम्पल को देखकर ही व्यापार करने की हिम्मत व उल्लास आता है। ऐसे ही हर बात में निमित्त बन चलने का क्या अपना पार्ट समझ कर चलते हो? कई टीचर्स के पास आते हैं, सुनने के बाद पूछते हैं कि ऐसा कोई प्रत्यक्ष रूप दिखाओ, यह सम्भव है अथवा नहीं, इसकी मिसाल माँगते हैं। तो टीचर्स से ज्यादा रेस्पोन्सिबल कौन हुए? टीचर्स की मर्यादायें अपनी हैं, लेकिन आप लोगों की मर्यादायें टीचर्स से कोई कम नहीं हैं। अमृत वेले से लेकर जो सर्व- मर्यादायें स्मृति, वृत्ति, दृष्टि और कृति सबके प्रति बनी हुई हैं तो क्या वे सबकी बुद्धि में सदा स्पष्ट रहती हैं? क्या हर संकल्प को मर्यादा प्रमाण प्रैक्टिकल में लाते हो? यह है प्रैक्टिकल स्वरूप में लास्ट और फास्ट सर्विस का साधन।

पहला-पहला चैलेन्ज जो आज तक न कोई कर सकते हैं और न करेंगे, वह फर्स्ट चैलेन्ज कौन-सा है? फर्स्ट चैलेन्ज है प्यूरिटी का। सम्पर्क और सम्बन्ध में रहते संकल्प में भी इसी फर्स्ट चैलेन्ज की कमजोरी न हो। फर्स्ट वायदा कौन-सा है? वह यही है ना कि ‘‘और संग तोड़ एक संग जोड़ेंगे अथवा तुम्हीं से खाऊं, तुम्हीं से... अथवा मेरा तो एक, दूसरा न कोई।’’ बात तो एक ही है। जो फर्स्ट वायदा और फर्स्ट चैलेन्ज है वे दोनों एक-दूसरे से सम्बन्ध रखते हैं। इन दोनों के ऊपर कितना अटेन्शन रहता है? इस पहली बात का ही टेन्शन रहता है। इसी युद्ध में तो महारथी नहीं हो ना? महारथी का अर्थ टेन्शन में रहना नहीं है, बल्कि सदा अटेन्शन रहे। सबसे पहला प्रभाव इस विशेष बात पर है, क्योंकि यही असम्भव को सम्भव करने वाली एक बात है। क्या पहला प्रभाव करने की प्वॉइन्टस मजबूत है? या अब तक भी संस्कारों से मजबूर हैं? जो स्वयं के भी संस्कारों से मजबूर हैं वे अन्य को उनकी मजबूरियों से स्वतन्त्र कर सकें, यह सदाकाल के लिए नहीं हो सकता। टेम्प्रेरी प्रभाव तो पड़ सकता है। लेकिन चलते-चलते फिर उन आत्माओं में भी मजबूरियों की लहर उत्पन्न होगी। इसलिए इस संगठन की ज़िम्मेवारी सबसे पहली यह है सर्व मजबूरियों को हटाना है-पहले स्वयं की और फिर संसार की, फर्स्ट चैलेन्ज में इन्चार्ज बनो। यह है ज़िम्मेवारी। बाप-दादा भी और संसार की सर्व आत्मायें भी यह नवीनता व विशेषता देखना चाहती हैं।

आगे चल कर जितने सर्विस के साधनों द्वारा सर्विस को बढ़ावेंगे व मैदान में प्रसिद्ध होते जावेंगे, वैसे हर प्रकार के लोग आपकी हर बात को मन्त्रों द्वारा व अपनी सिद्धियों द्वारा चैक करने की चैलेन्ज करेंगे। संकल्पों को व कर्मों को भी करने के लिए आपके पीछे सी.आई.डी. (गुप्तचर) होंगे। ऐसे ही सहज थोड़े ही मानेंगे? बिना प्रूफ और प्रमाण के बुद्धिमान लोग मानने के लिये तैयार नहीं होते। चैलेन्ज करने के साथ-साथ व सर्विस के स्थूल साधनों के साथ-साथ क्या ऐसी तैयारी कर रहे हो? माइण्ड-कन्ट्रोल (मस्तिष्क नियन्त्रण) का एग्जैमिनेशन (परीक्षा) लेंगे। ऐसे नहीं योग में बैठते समय चैक करेंगे, विशेष परिस्थिति के समय माइण्ड-कन्ट्रोल व स्थिति की चैकिंग करेंगे। माया के सी.आई.डी. ऑफिसर कम नहीं होते। तो ऐसी तैयारी करने की ज़िम्मेवारी व स्वरूप बन सैम्पल रूप में आगे आने की ज़िम्मेवारी इस ग्रुप की है। तब तो पाण्डवों की यादगार ऊंची दिखाई है। ऊंची स्थिति का प्रमाण-यादगार है। दूसरी बार जब आओ तो इस बात में पास विद् ऑनर (Pass With Honour) बनकर आओ, तब कहेंगे-पाण्डव सेना। अभी तो एक ही टॉपिक और एक ही सबजेक्ट दे रहे हैं। इसको ही एक-रस स्टेज तक लाओ तो ऑफरीन देंगे। सहज है ना?

कितने समय से मेहनत कर रहे हो?-जन्म से? जो जन्म से ही प्रयत्न में लाने वाली बात है क्या वह मुश्किल लगती है? औरों को कहते हो अपना जन्म-सिद्ध अधिकार प्राप्त करना क्या मुश्किल है? ऐसे ही ब्राह्मणों का पहला धर्म और कर्म जो है वह करना क्या ब्राह्मणों के लिये मुश्किल है? मरजीवा बन गए हो न, या कि मर कर जिन्दा हो जाते हो? मरना शूद्रपन से है, जीना ब्राह्मणपन में है। यह ब्राह्मणों का अलौकिक जीवन है। ब्राह्मणों को कुछ मुश्किल होता है क्या? ब्राह्मण जीवन के जी-दान का आधार कौन-सा है?-मुरली। पढ़ाई का भी आधार है मुरली। तो जी-दान का आधार अच्छी तरह से स्नेह से प्रयत्न में लाते हो। नियम प्रमाण नहीं, लेकिन जी-दान का आधार समझ स्नेह रूप में स्वीकार करते हो। जितना स्नेह जी-दान से होगा उतना ही स्नेह, जीवनदाता से होगा। ऐसा स्नेही, अन्य आत्माओं को भी सदा स्नेही व निर्विघ्न बना सकेंगे। अब ऐसे आधार रूप समझ सबके आगे उदाहरण रूप बनो। यह भी ज़िम्मेवारी है। पाण्डवों के मुख से चलते-फिरते मुरली की रूह-रूहान व चर्चा कम सुनाई पड़ती है। गोपियों के मुख से मुरली की चर्चा अधिक सुनने में आती है। क्यों? आपस में ज्ञान की चर्चा करना, यह तो ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है। जिस बात में जिसकी जो लगन होती है, उसके लिए समय की कमी कभी नहीं हो सकती।

तो इन दो बातों पर ध्यान रखो एक तो है-प्योरिटी, दूसरा जी-दान का महत्व। सूक्ष्म साधन के लिए अलग समय की आवश्यकता नहीं है। जैसे दुनिया के लोगों ने गृहस्थ और आश्रम को अलग कर दिया है और आप लोग दोनों को मिला कर एक करते हो, वैसे स्थूल और सूक्ष्म साधनों को अलग करते हो, इसलिये प्रत्यक्ष फल नहीं मिलता। दोनों ही साथ-साथ होने से प्रत्यक्ष फल देखेंगे। वाणी के साथ-साथ मनसा चाहिए और कर्म के साथ-साथ भी मनसा चाहिए क्योंकि अभी लास्ट टाइम है ना? लास्ट टाइम में जो भी श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्र होते हैं, वे सब यूज़ किये जाते हैं। अगर यह सब पीछे करेंगे तो टाइम बीत जायेगा। जब अष्ट शक्तियों को साथ-साथ सर्विस में लाओगे तब ही अष्ट-देवता प्रसिद्ध हो जावेंगे अर्थात् स्थापना का स्वरूप स्पष्ट दिखाई देगा। ऐसे नहीं कि पहले स्थूल करके फिर पीछे सूक्ष्म करेंगे। नहीं, साथ-साथ के सिवाय सफलता नहीं। अच्छा।’’

इस मुरली का सार

स्थूल साधनों के साथ-साथ सूक्ष्म साधन अपनाने से और प्लैन के साथ-साथ प्लेनस्थिति और स्मृति रहने से लास्ट इज़ फास्ट जा सकेंगे। ईश्वरीय मर्यादाओं का पालन करने और कराने की ज़िम्मेवारी टीचर्स के साथ-साथ ब्राह्मणों अर्थात् पाण्डवों की भी है।

 


 


02-05-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अब बाप-समान सर्व गुण सम्पन्न बनो

सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न बनाने वाले, अटल, अखण्ड और निर्विघ्न, विश्व के राज्य का अधिकारी बनाने वाले सर्व-शक्तिवान् शिव बाबा बोले:--

अपने आपको मास्टर ज्ञानसागर समझते हो? जैसे ज्ञान-सागर सर्व-शक्तियों से सम्पन्न हैं, ऐसे अपने को भी सर्व-प्राप्तियों से क्या सम्पन्न अनुभव करते हो? यह जो कहावत है, कि देवताओं के खजाने में अप्राप्त कोई भी वस्तु नहीं होती है-यह कहावत ब्राह्मणों की गाई हुई है या देवताओं की? सर्व संस्कार ब्राह्मण जीवन में ही तुम अनुभव करते हो, क्योंकि अभी तुम सर्व संस्कार अपने में भर रहे हो। तो यह गायन के संस्कार अभी से तुम अनुभव करते हो? क्योंकि इस समय ऊंच ते ऊंच बाप-दादा के तुम बच्चे हो। लेकिन तुम देवताई जीवन में मास्टर सर्वशक्तिमान् नहीं कहलावेंगे। जब कि अभी सागर की सन्तान हो, तो सागर-समान सम्पन्न अभी होंगे या भविष्य में होंगे? ज्ञानसागर बाप बच्चों को सब में सम्पन्न अभी बनाते हैं। तब ही लास्ट स्टेज का गायन किया जाता है-सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी और सम्पूर्ण आहिंसक। महिमा में भी सबके साथ सम्पन्न व सम्पूर्ण शब्द है। यह सम्पन्न-पन का वर्सा बाप द्वारा इस ब्राह्मण जीवन में ही मिलता है। अब अपने वर्से के अधिकारी हो या बनना है?

जब से बाप के बने, तब से वर्से के अधिकारी बने। वर्सा क्या है? क्या वर्से में सर्व प्राप्ति व सर्व का अखुट खज़ाना अनुभव करते हो? जब वर्से के अधिकारी हैं तो अधिकारी की निशानी क्या है? अधिकारी बाप-समान सदा कल्याणकारी, रहमदिल, महाज्ञानी, गुणदानी, बाप का हर संकल्प, हर बोल, हर कर्म द्वारा साक्षात्कार कराने वाला, साक्षात बाप-समान होगा। ऐसे अधिकारी का गायन है कि उसके जीवन में अप्राप्त कोई वस्तु नहीं। जो सर्व में सम्पन्न होता है, उसकी आंख व बुद्धि कोई किसी तरफ नहीं डूबती। वह सदा रूहानी नज़र में रहते हैं, अनेक व्यर्थ संकल्पों व अनेक तरफ बुद्धि व दृष्टि जाने से परे, सर्व फिक्रों से फारिग और अपने बाप द्वारा मिले हुए खजाने में सदा रमण करता रहता है। उनको दूसरा कोई अन्य संकल्प करने की भी फुर्सत नहीं रहती, क्योंकि बाप द्वारा मिले हुए खजाने को, स्वयं के प्रति व सर्व-आत्माओं के प्रति बाँटने व धारण करने में वह बहुत बिज़ी रहता है। सबसे बड़े-ते-बड़ा धन्धा, सबसे बड़े-ते-बड़ा दान या सबसे बड़े-ते-बड़ा पुण्य जो भी कहो, वह यही है। इतने श्रेष्ठ कार्य व श्रेष्ठ दान-पुण्य को छोड़कर और क्या करेंगे? क्या फुर्सत मिलती है, जो कि अन्य छोटे-छोटे व्यर्थ कार्य करने का संकल्प भी आवे या कार्य समाप्त कर लिया है क्या इसलिए फुर्सत है? समाप्त नहीं किया है, तो फिर फुर्सत कहाँ से आती है? इतने बड़े कार्य में बिज़ी रहने वाले, फिर गुड़ियों के खेल में क्या कोई एम-ऑब्जेक्ट (Aim Object) होती है? क्या कोई रिज़ल्ट निकलता है? इतने बड़े आदमी होकर हर कदम में पद्मों की कमाई करने वाले और ऐसी गुड़ियों का खेल खेलें, तो क्या इनको महान् समझदार कहेंगे? व्यर्थ संकल्प, गुड़ियों का ही तो खेल है। अभी तक भी ऐसे बचपने के संस्कार हैं क्या?

जिसका अपनी आवश्यक और समीप की चेतन शक्तियों, संकल्पों और बुद्धि अथवा मन और बुद्धि पर कन्ट्रोल नहीं, अधिकार नहीं या विजय नहीं तो क्या, विश्व के स्वराज्य का अधिकारी व विजयी रत्न बन सकता है? जिस राज्य के मुख्य अधिकारी अपने अधिकार में न हों, क्या वह राज्य अटल, अखण्ड, और निर्विघ्न चल सकता है? यह मन और बुद्धि आप आत्मा की समीप शक्तियाँ व मुख्य राज्य अधिकारी हैं, व कार्य अधिकारी हैं, यदि वह भी वश में नहीं, तो ऐसे को क्या कहा जायेगा? महान् विजयी या महान् कमज़ोर? तो अपने आपको देखो कि क्या मेरे मुख्य राज्य-अधिकारी, मेरे अधिकार में हैं? अगर नहीं, तो विश्व राज्य अधिकारी अथवा राजन् कैसे बनेंगे? अपने ही छोटे छोटे कार्यकर्त्ता अपने को धोखा दें, तो क्या ऐसे को महावीर कहा जायेगा? चैलेन्ज तो करते हो, कि हम लॉ और ऑर्डर सम्पन्न राज्य स्थापित कर रहे हैं। तो चैलेन्ज करने वाले के यह छोटे-छोटे कार्यकर्ता अर्थात् कर्मेन्द्रियाँ अपने ही लॉ और आर्डर में नहीं, और वे स्वयं ही कार्यकर्त्ता के वशीभूत हों तो क्या ऐसे वे विश्व में लॉ और ऑर्डर स्थापित कर सकते हैं? हर कर्मेन्द्रियाँ कहाँ तक अपने अधिकार में हैं? यह चैक करो और अभी से विजयीपन के संस्कार धारण करो। बाप-दादा का नाम बाला करने वाले ही बापसमान सम्पन्न होते हैं। अच्छा!

ऐसे इशारे से समझने वाले, हर कार्यकर्त्ता को अपने इशारे पर चलाने वाले, हर आत्मा को बाप की तरफ इशारा देने वाले, सदा अपने अधिकार को अनुभव में लाने वाले, सदा सम्पन्न, और सदा विजयी ऐसे समझदार बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार, गुडनाईट और नमस्ते।

इस मुरली का सार

बाप के वर्से के अधिकारी की निशानी बाप-समान सदा कल्याणकारी, रहमदिल, महाज्ञानी, गुणदानी, बाप का हर संकल्प, बोल और कर्म द्वारा साक्षात्कार कराने वाला साक्षात् बाप-समान होगा।



16-05-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महारथीपन के लक्षण

रूहानी बच्चों के सहयोगी बन कर, उनकी हिम्मत और उल्लास को बढ़ाने वाले, सर्व प्रकार के बन्धन व वैभव के आकर्षण से परे रहने वाले और सदा एक-रस स्थिति में रहने वाले, निष्काम सेवी शिव बाबा बोले:-

इस समय सबके अन्दर सुनने की इच्छा है व समान बनने की इच्छा है? सुनने के बाद, हर बात समाने से समान बन जाते हैं और समाने से सामना करने की शक्ति स्वयं ही सहज आ जाती है। सामना करने की शक्ति से सर्व-कामनाओं से स्वत: ही मुक्ति प्राप्त हो जाती है। क्या ऐसे अपने को मुक्त आत्मा अनुभव करते हो? किसी भी प्रकार का बन्धन अपनी तरफ आकर्षित तो नहीं करता? बन्धन-मुक्त ही योग-युक्त हो सकता है। यदि कोई भी स्वभाव, संस्कार, व्यक्ति अथवा वैभव का बन्धन अपनी तरफ आकर्षित करता है, तो बाप की याद की आकर्षण सदैव नहीं रह सकती। किसी के भी वश होते समय, उस आत्मा के प्रति यही शब्द कहा जाता है कि, यह वशीभूतहै। वशीभूत होना, यह भी पाँच भूतों के साथ-साथ रॉयल रूप का भूत है। जैसे भूतों की प्रवेशता से अपना स्वरूप, अपना स्वभाव, अपना कर्त्तव्य, और अपनी शक्ति भूल जाती है, वैसे ही किसी बात के वशीभूत होने से, यही रूपरेखा बनती है। वशीकरण मन्त्र देने वाले कभी भी वशीभूत नहीं हो सकते। तो अब यह चैक करो कि कहीं वशीभूत तो नहीं हो?

आजकल बाप-दादा विशेष कार्यक्रम में बिज़ी रहते हैं। वह कौन-सा कार्य होगा? कोई भी कार्य में बाप के साथ बच्चों का सम्बन्ध होगा ना? तो अपने से सम्बन्धित कार्यक्रम को नहीं जानते हो? अमृत वेले जब बाप से गुडमार्निग व रूह-रूहान करने आते हो, तो उस समय अनुभव नहीं करते हो या उस समय लेने में ही ज्यादा बिजी रहते हो? क्या टच  होता है? वर्तमान समय समाप्ति का समय, समीप आ रहा है। समाप्ति में लास्ट और फास्ट दोनों का प्रत्यक्ष रूप में साक्षात्कार होता है, बाप-दादा हर राज़ हरेक की सैटिंग और फिटिंग ये दोनों ही बातें देखते हैं। कोई-कोई अपने आपको सैट करने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन फिटिंग ठीक न होने के कारण, सैटिंग भी नहीं होती। फिटिंग क्या और सैटिंग क्या-यह तो आप जानते हो ना? ईश्वरीय मर्यादाओं में अपने आपको चलाना, यह ईश्वरीय मर्यादायें हैं फिटिंग। इन मर्यादाओं के आधार से स्थिति की सैटिंग होती है। बाप-दादा जब नम्बरवार महावीरों को देखते हैं व महारथियों के महारथी सैट की सैटिंग करते हैं, तो क्या देखते हैं? कोई न कोई बात की व मर्यादा की फिटिंग न होने के कारण, सीट पर सैट नहीं हो सकते। अभी-अभी सीट पर हैं और अभी-अभी सीट के बजाय कोई-न-कोई साईट पर दिखाई पड़ते हैं। तो बापदादा इसी कार्य में बिजी रहते हैं। उम्मीदवार दिखाई बहुत देते हैं और लाईन भी बहुत बड़ी दिखाई देती है लेकिन प्रमाण स्वरूप कोई कोई होता है।

उम्मीदवार बनने के लिए मुख्य कौन-सा पुरूषार्थ है? है बहुत सहज पुरूषार्थ, लेकिन अपनी कमज़ोरियों के कारण सहज को मुश्किल बना देते हैं। उम्मीदवार बनने का सहज पुरूषार्थ यही है कि हर बात में बाप की जो बच्चों के प्रति उम्मीद है, वह बाप की उम्मीद पूरी करना ही, उम्मीदवार बनना है। बाप की उम्मीदें पूरी करना, बच्चों के लिए मुश्किल होता है क्या? बच्चे का जन्म होता ही है, बाप की उम्मीदें पूरी करने के लिए। बच्चे का अपने जीवन का लक्ष्य ही यह होता है, बाप की उम्मीदें पूरी करना। इसको ही दूसरे शब्दों में सन शोज़ फादरकहते हैं। तो ऐसा उम्मीदवार बनना आपके ब्राह्मण जीवन का मुख्य लक्ष्य है। जबकि बाप-दादा एक कदम के पीछे, लाखों कदम स्वयं भी सहयोगी बनकर हिम्मत और उल्लास बढ़ाते हैं, फिर मुश्किल क्यों? जबकि दुनिया कि सर्व मुश्किलातों को आप स्वयं ही मिटाने वाले हो, मुश्किल बात सहज अनुभव कराने वाले हो, ऐसे अनुभवी मूर्त के लिए कोई भी बात मुश्किल है, ऐसा सोच भी नहीं सकते। प्यादों का अनुभव, मुश्किल जानना ठीक है। लेकिन अभी अपने को किसी-न-किसी बात में, एक दो से कम नहीं समझते हो अर्थात् कोई प्रकार से अपने को महारथी समझते हो, लास्ट वाले भी लास्ट इज फास्टका लक्ष्य रखते हैं, तो महारथी हुए ना? किसी भी बात में, अपने को किसी के आगे झुकाना व अपनी कमजोरी महसूस करना, अच्छा नहीं समझते। अपने को प्रसिद्ध करने के लिए, हर बात को सिद्ध करते हो, तो इसको क्या कहा जायेगा? अपने को प्यादा समझते हो या किसी-न-किसी रूप में महारथी समझते हो? सिद्ध करने वाला कभी भी प्रसिद्ध नहीं हो सकता। वास्तव में प्रसिद्ध होने वाला कोई भी बात को सिद्ध नहीं करेगा। अर्थात् जिद्द करने वाला, ऐसा कभी भी प्रसिद्ध नहीं हो सकता। जिद् करने वाला, कभी सिद्धि को पा नहीं सकता। सिद्धि को पाने वाले, स्वयं को नम्रचित्त, निर्मान, हर बात में अपने आपको गुणग्राहक बनावेगा। लक्ष्य रखते हो प्रसिद्ध होने का और पुरूषार्थ करते हो दूर होने का, तो ऐसी चैकिंग अपनी करो। चैकिंग भी महीन चाहिए।

महारथी को कोई बात मुश्किल अनुभव हो, वह महारथी ही नहीं। महारथी अपने सहयोग से और बाप के सहयोग से औरों की मुश्किल भी सहज करेंगे। महारथियों के संकल्प में भी कभी यह कैसे, ऐसे क्यों?’ यह प्रश्न नहीं उठ सकता। कैसेके बजाए ऐसेशब्द आयेगा। क्योंकि मास्टर नॉलेजफुल, त्रिकालदर्शी हो ना? इन बातों को चैक करो। कैसे करूँ? कैसे होगा? यह न स्वयं प्रति न दूसरों के प्रति चले। दोनों ही रूप में प्रश्न समाप्त हों। ऐसा ही सदा प्रसन्नचित्त व हर्षित रहता है। अब समझा। महारथी के लक्षण क्या हैं? करने में कम नहीं। जब एक दो के सम्पर्क में आते हैं, तो एक-दो से स्वयं को कम नहीं समझते, समझने में हरेक अपने को अथॉरिटी समझते हैं और अपना हक रखते हैं। समझने और करने इन दोनों में हकदार बनो, तब ही विश्व के, इस ईश्वरीय परिवार की प्रशंसा के हकदार बनेंगे। कोई भी बात के मांगने वाले मंगता नहीं बनो, दाता बनो। मान, शान, प्रशंसा, बड़ापन आदि मांगने की इच्छा मत करो। मांगेंगे तो जैसे आजकल के मांगने वाले को कोई भी प्राप्ति नहीं कराते, और ही दूर से उसे भगावेंगे। इसी प्रकार यह रॉयल मांगने वाले स्वयं को सर्व आत्माओं से स्वत: ही दूर करते हैं। ऐसा महारथी सीट पर सैट नहीं होता। इसलिए अब आप सभी महारथी हो? घोड़े सवार व प्यादों का समय गया, अब हर महारथी को अपने महारथीपन के लक्षण सामने रखते हुए स्वयं में समाने हैं। अच्छा!

ऐसे सर्व इच्छाओं को समाने वाले, बाप-समान सर्वशक्तियों के अथॉरिटी, सदा एक लगन, एक रस स्थिति में स्थित होने वाले, एक बल एक भरोसा, सदा एकाग्र, एकान्त निवासी, अन्तर्मुखी और बाप-दादा के उम्मीदों के सितारों को बाप-दादा का याद प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।


 

20-05-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बाप-दादा के दिल रूपी तख्त पर विराजमान बच्चे ही खुशनसीब

पद्मापदम सौभाग्यशाली बच्चों को देख, एक से ही सर्व-सम्बन्धों, सर्व- प्राप्तियों व खुशियों की अनुभूति कराने वाले, स्नेह के सागर, विश्व के प्यारे परमपिता शिव बाबा बोले :-

आज बाप-दादा क्या देख रहे हैं? आज खुशनसीब, पद्मापद्म भाग्यशाली बच्चों की माला देख रहे हैं। माला के हर मणके की विशेषता को देखते हुए हर्षित हो रहे हैं। जैसे बाप बच्चों के श्रेष्ठ भाग्य को देख, हर्षित होते हैं क्या वैसे ही आप अपने सौभाग्य को देख सदा हर्षित रहते हो? क्या भाग्य का सितारा सदा सामने चमकता हुआ दिखाई देता है या कभी कभी भाग्य सितारा आपके सामने से छिप जाता है? जैसे स्थूल सितारे कभी-कभी जगह बदली करते हैं, तो ऐसे भाग्य का सितारा बदलता तो नहीं है? एक ही सितारा है, जो अपनी जगह बदली नहीं करता, क्या ऐसे सितारे हो? वह है दृढ़ संकल्प वाला सितारा, जिसको अपनी इस दुनिया में ध्रुवसितारा कहा जाता है। तो ऐसे दृढ़ निश्चय बुद्धि, और एक-रस स्थिति में सदा स्थित पद्मापद्म भाग्यशाली बने हो, या बन रहे हो? क्या अपनी खुशनसीबी का विस्तार अपनी स्मृति में लाते हो? खुशनसीबी की निशानियाँ व सर्व-प्राप्तियाँ क्या हैं, उनको जानते हो? जिसे सर्व प्राप्ति हो, उसको ही खुशनसीब कहा जाता है। सर्व-प्राप्ति में क्या कोई कमी है? जीवन में मुख्य प्राप्ति श्रेष्ठ सम्बन्ध, श्रेष्ठ सम्पर्क, सच्चा स्नेह और सर्व प्रकार की सम्पत्ति और सफलता इन पांचों ही मुख्य बातों को अपने में देखो। अब सम्बन्ध किससे जोड़ा है? सारे कल्प में इससे श्रेष्ठ सम्बन्ध कभी प्राप्त हो सकता है क्या? सम्बन्ध में मुख्य बात अविनाशी सम्बन्ध की ही होती है। अविनाशी बाप के सर्व-सम्बन्ध ही अविनाशी है। एक द्वारा सर्व- सम्बन्धों की प्राप्ति हो, क्या ऐसा सम्बन्धी कभी मिला हुआ देखा है? तो क्या सर्व- सम्बन्ध सम्पन्न हो।

दूसरी बात सम्पर्क अर्थात् साथ अथवा साथी। साथी क्यों बनाया जाता है? सम्पर्क क्यों और किससे रखा जाता है? आवश्यकता के समय, मुश्किल के समय  सहारा अथवा सहयोग के लिए; उदास स्थिति में मन को खुशी में लाने के लिए व दु:ख के समय दु:ख को बांट लेने के लिए साथी बनाया जाता है। ऐसा सच्चा साथी अथवा ऐसा श्रेष्ठ सम्पर्क जो लक्ष्य रखकर बनाते हो क्या ऐसा साथी मिला? ऐसा साथी जो निष्काम हो, निष्पक्ष हो, अविनाशी हो व समर्थ हो। ऐसा सम्पर्क कभी मिला अथवा मिल सकता है क्या? अविनाशी और सच्चा श्रेष्ठ साथ व संग कौन-सा गाया हुआ है? पारसनाथ जो लोहे को सच्चा सोना बनावे ऐसा सत्संग अथवा सम्पर्क मिला है या कुछ अप्राप्ति है? ऐसा मिला है अथवा मिलना है? मिला है अथवा अभी परख रहे हो? जब साथ मिल गया तो साथ लेने के बाद कभी-कभी साथी से किनारा क्यों कर लेते हो? साथ निभाने में नटखट क्यों होते हो? कभी-कभी रूसने का भी खेल करते हैं। क्या मज़ा आता है, कि साथी स्वयं मनावे इसलिए यह खेल करते हो अथवा बच्चों में खेल के संस्कार होते ही हैं। ऐसा समझ इस संस्कार-वश क्या ऐसे- ऐसे खेल करते हो? यह खेल अच्छा लगता है? बोलो, अच्छा लगता है, तब तो करते हैं? लेकिन, इस खेल में गंवाते क्या हो, क्या यह भी जानते हो? जब तक यह खेल है तो सच्चे साथी का मेल नहीं हो सकता। तो खेल-खेल में मिलन को गंवा देते हो। इतने समय की पुकार व शुभ इच्छा-बच्चे और बाप से मिलने की करते आये हो और यह भी जानते हो, कि यह मेल कितने दिन का है-कितने थोड़े समय का है-फिर भी इतने थोड़े समय के मेल को खेल में गंवाते हो। तो क्या फिर समय मिलेगा? तो अब यह खेल समाप्त करो। आप अब तो वानप्रस्थी हो। वानप्रस्थी को इस प्रकार का खेल करना शोभता है क्या? साक्षी हो देखो, क्या सच्चा साथी, श्रेष्ठ सम्पर्क व संग सदा प्राप्त है?

तीसरी बात है -- स्नेह। क्या सर्व सम्बन्धों का स्नेह प्राप्त नहीं किया है व अनुभवी नहीं बने हो? क्या सर्व-सम्बन्ध में, स्नेह में कोई अप्राप्ति है? इसके निभाने के लिये एक ही बात की आवश्यकता है, अगर वह नहीं है, तो स्नेह मिलते हुए भी, अनुभव नहीं कर पाते। सच्चा स्नेह व एक द्वारा सर्व-सम्बन्धों का स्नेह प्राप्त करने के लिए, मुख्य कौन-सा साधन व अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए, कौन-सी मुख्य बात आवश्यक है? एक बाप दूसरा न कोई, क्या यह बात जीवन में, संकल्प में और साकार में है? सिर्फ संकल्प में नहीं, लेकिन साकार में भी एक बाप, दूसरा न कोई है, तब ही सच्चा स्नेह और सर्व-स्नेह का अनुभव कर सकते हो। ऐसे ही सम्पत्ति व जो भी सुनाया उन सब बातों में सहज ही सर्व-प्राप्ति होती है? ऐसे खुशनसीब जिसमें अप्राप्त कोई वस्तु नहीं। ऐसे जानते हुए भी, मानते हुए भी और चलते हुए भी कभी-कभी अपने भाग्य के सितारे को भूल क्यों जाते हो?

बाप-दादा आपके भाग्य के सितारे को देख हर्षित होते हैं, और गुणगान करते हैं। ऐसे खुशनसीब बच्चों की रोज़ माला सिमरते हैं। ऐसे बाप के सिमरने के मणके बने हो? विजयमाला के मणके बनना बड़ी बात नहीं है, लेकिन बाप के सिमरने के मणके बनना, यही खुशनसीबी है। ऐसे खुशनसीबी के व बाप-दादा के दिल तख्त नशीन, फिर तख्त छोड़ देते हो! बाप ने अपने श्रेष्ठ कार्य की ज़िम्मेवारी व ताज बच्चों को पहनाया है। ऐसा ताजधारी बनने के बाद ताज उतार और ताज के बजाय अपने सिर के ऊपर क्या रख लेते हो? अगर वह अपना चित्र भी देखो और ताजतख्तधारी का चित्र भी रखो तो वÌया होगा? कौन-सा चित्र पसन्द आयेगा? पसन्द वह ताज-तख्तधारी वाला आता है और करते वह हो? ताज उतार कर व्यर्थ संकल्पों का, व्यर्थ बोलचाल का भरा हुआ बोझ का टोकरा व बोरी सिर पर रख लेते हो। बेताज बन जाते हो! जबकि ऐसा चित्र देखना भी पसन्द नहीं करते हो, उनको देखते हुए रहमदिल बनते हो लेकिन अपने ऊपर फिर क्यों रख लेते हो? तो ऐसे अपने को खुशनसीब बन व समझ कर चलो। समझा! अच्छा!

ऐसे सदा एक के साथ सम्बन्ध, सम्पर्क और स्नेह में रहने वाले, सदा अविनाशी सम्पत्ति से सम्पन्न रहने वाले, सच्चा साथ निभाने वाले और एक बाप दूसरा न कोई, ऐसी स्मृति में रहने वाले बच्चों को बाप-दादा का यादप्यार, गुड मार्निंग और नमस्ते।

इस मुरली का सार

(1) हम कितने खुशनसीब व पद्मापद्म भाग्यशाली हैं, जो कि हमें सच्चा और अविनाशी सम्बन्धी मिला है।

(2) हम कितने सौभाग्यशाली हैं, जो कि हमें शिव बाबा जैसा निष्काम, निष्पक्ष, अविनाशी और समर्थ साथी मिला है।


 


23-05-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


हद के आकर्षणों या विभूतियों से परे रहने वाला ही सच्चा वैष्णव

पाँच विकारों के साथ-साथ पाँच तत्वों के आकर्षण से परे ले जाने वाले, सच्चा वैष्णव बनाने वाले, वाणी से परे ले जाकर वानप्रस्थ स्थिति में स्थित करने वाले और गिरती कला से चढ़ती कला की ओर ले जाने वाले सत शिव बाबा रूहानी बच्चों से बोले:-

क्या अपने को एक सेकेण्ड में वाणी से परे वानप्रस्थ अवस्था में स्थित कर सकते हो? जैसे वाणी में सहज ही आ जाते हो, क्या वैसे ही वाणी से परे, इतना ही सहज हो सकते हो? कैसी भी परिस्थिति हो, वातावरण हो, वायुमण्डल हो या प्रकृति का तूफान हो लेकिन इन सबके होते हुए, देखते हुए, सुनते हुए, महसूस करते हुए, जितना ही बाहर का तूफान हो, उतना स्वयं अचल, अटल, शान्त स्थिति में स्थित हो सकते हो? शान्ति में शान्त रहना बड़ी बात नहीं है, लेकिन अशान्ति के वातावरण में भी शान्त रहना इसको ही ज्ञानस्वरूप, शक्तिस्वरूप, यादस्वरूप, और सर्वगुण-स्वरूप कहा जाता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के कारण होते हुए स्वयं निवारण-रूप बने, इसको कहा जाता है पुरूषार्थ का प्रत्यक्ष प्रमाण-रूप। ऐसे महावीर बने हो या अब तक वीर बने हो? किस स्टेज तक पहुंचे हो? महावीर की स्टेज सामने दिखाई देती है या समीप दिखाई देती है अथवा बाप-समान स्वयं को दिखाई देते हो?

बाप समान तीन स्टेज नम्बरवार हैं। एक है समान, दूसरी से समीप तीसरी है सामने। तो कहाँ तक पहुँचे हैं? समान वाले की निशानी-एक सेकेण्ड में जहाँ और जैसे चाहें, जो चाहें वह कर सकते हैं व करते हैं। सेकेण्ड स्टेज-एक सेकेण्ड के बजाय कुछ घड़ियों में, स्वयं को सैट कर सकते हैं। तीसरी स्टेज-कुछ घण्टों व दिनों तक स्वयं को सैट कर सकते हैं। समान वाले, सदा बाप समान, स्वयं के महत्व को, स्वयं की सर्वशक्तियों के महत्व को और हर पुरुषार्थी की नम्बरवार स्टेज को, गुणदान, ज्ञानधन दान और स्वयं के समय का दान, इन सबके महत्व को जानने वाले और चलने वाले होते हैं। वे कर्मों को, संस्कार और स्वभाव को जानने वाले ज्ञान स्वरूप होते हैं। क्या ऐसे ज्ञान-स्वरूप बने हो?

जितनी वाणी सुनने और सुनाने की जिज्ञासा रहती है, तड़प रहती है, चॉन्स बनाते भी हो क्या ऐसे ही फिर वाणी से परे स्थिति में स्थित होने का चॉन्स बनाने और लेने के जिज्ञासु हो? यह लगन स्वत: स्वयं में उत्पन्न होती है या समय प्रमाण, समस्या प्रमाण व प्रोग्राम प्रमाण यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है? फर्स्ट स्टेज तक पहुँची हुई आत्माओं की पहली निशानी, यह होगी। ऐसी आत्मा को, इस अनुभूति की स्थिति में मग्न रहने के कारण, कोई भी विभूति व कोई भी हद की प्राप्ति का आकर्षण उन्हें उनके संकल्प तक भी छू नहीं सकता। अगर कोई भी हद की प्राप्ति की आकर्षण, संकल्प में भी छूने की हिम्मत रखती है, तो इसको क्या कहेंगे? क्या ऐसे को वैष्णव कहेंगे? जैसे आजकल के नामधारी वैष्णव, अनेक प्रकार की परहेज़ करते हैं-कई व्यक्तियों और कई प्रकार की वस्तुओं से, अपने को छूने नहीं देते हैं। अगर अकारणें कोई छू लेते हैं, तो वह पाप समझते हैं। आप, जैसा नाम वैसा काम करने वाले, जैसा संकल्प वैसा स्वरूप बनने वाले सच्चे वैष्णव हो, ऐसे सच्चे वैष्णवों को क्या कोई छू सकने का साहस कर सकता है? अगर छू लेते हैं, तो छोटेमोटे पाप बनते जाते हैं। ऐसे सूक्ष्म पाप, आत्मा को ऊँच स्टेज पर जाने से रोकने के निमित्त बन जाते हैं। क्योंकि पाप अर्थात् बोझा; वह फरिश्ता बनने नहीं देते; बीज रूप स्थिति व वानप्रस्थ स्थिति में स्थित नहीं होने देते। आजकल मैजारिटी महारथी कहलाने वाले भी, अमृतवेले की रूह-रिहान में, वह कम्पलेन्ट करते व प्रश्न पूछते हैं कि पॉवरफुल स्टेज जो होनी चाहिये, वह क्यों नहीं होती? थोड़ा समय वह स्टेज क्यों रहती है? इसका कारण यह सूक्ष्म पाप हैं, जो बाप-समान बनने नहीं देते हैं।

जैसे पाँच विकारों के वश किये हुए कर्म, विकर्म या पाप कहे जाते हैं-यह हैं पापों का मोटा रूप। ऐसे ही महीन पुरूषार्थ अर्थात् महारथी के सामने, पाँच तत्व अपनी तरफ, भिन्न-भिन्न रूप से आकर्षित कर, महीन पाप बनाने के निमित्त बनते हैं। पाँच् विकारों को समझना, और उन्हों को जीतना, सहज है, लेकिन पाँच तत्वों के आकर्षण से परे रहना, यह महारथियों के लिए विशेष पुरूषार्थ है। जब इन दस को जानकर इन्हों पर विजय प्राप्त करेंगे, तब ही सच्चा दशहरा होगा। विजयदशमी इस स्थिति का ही यादगार है। महारथियों की चैकिंग, महीन होनी चाहिये। अष्ट रत्न, ऐसे विजयी ही प्रसिद्ध होंगे। प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देने वाली, छोटी-छोटी गलतियाँ ऐसे महीन पुरुषार्थी के समक्ष क्या दिखाई देती हैं?

आजकल रॉयल पुरुषार्थी का, रॉयल सलोगन कौन-सा है? रॉयल पुरुषार्थी, किसको कहा जाता है? रॉयल शब्द उसको थमाने के लिये कहा जाता है कि जिसको हर बात में रॉयल्टी व सहज साधन चाहिए। साधनों के आधार से और प्राप्ति के आधार से पुरूषार्थ करने वाला रॉयल पुरुषार्थी कहा जाता है। रॉयल्टी का दूसरा अर्थ भी होता है। जो अब रॉयल पुरुषार्थी हैं, उनको धर्मराजपुरी में रॉयल्टी भी देनी पड़ती है। रॉयल पुरुषार्थी की निशानी क्या होती है, कि जिससे जान सको कि मैं रॉयल पुरुषार्थी तो नहीं हूँ? दूसरे को नहीं जानना है, लेकिन अपने को जानना है। जैसे स्थूल रॉयल्टी वाले, अपने अनेक रूप बनाते हैं, वैसे रॉयल पुरुषार्थी बहुरूपी और चतुर होते हैं, वे जैसा समय वैसा रूप धारण करेंगे। लेकिन रॉयल्टी में रीयल्टी नहीं होती, मिक्स होगा, लेकिन एक-रस स्थिति में अपने को फिक्स  नहीं कर सकेंगे। ऐसे रॉयल पुरुषार्थी, खेल कौन-सा करते हैं-अप एण्ड डाउन अभी-अभी बहुत ऊंची स्टेज, अभी-अभी सबसे नीची स्टेज। चढ़ती कला में भी हीरो पार्टधारी और गिरती कला में ज़ीरो में हीरो। ऐसे पुरुषार्थी का कर्त्तव्य क्या होता है? स्वयं प्रकृति के व विकारों के वश, अल्पकाल के मायावी निर्भय रूप में रहना और अपने द्वारा दूसरों को भयभीत करने की बातें करना। उन्हों का स्लोगन क्या है-यह कर लूँगा या वह कर लूँगी’-आपघात महापाप की भयभीत चलन व वैसा बोल उन लोगों का कर्त्तव्य है। ऐसे रॉयल पुरुषार्थी कभी नहीं बनना। कभी भी ऐसे रॉयल पुरुषार्थी के संग में नहीं आना। क्योंकि माया के वश होने वाली आत्माओं को और पुरुषार्थी बनने वाली आत्माओं को स्वयं के संग में लाकर प्रभावित करने की विशेषता माया द्वारा वरदान में प्राप्त होती है। ऐसे संग को बड़ी-ते- बड़ी दलदल समझना। जो कि बाहर से तो बहुत सुन्दर लेकिन अन्दर नाश करने वाली होती है। इसलिए बापदादा सभी बच्चों को वर्तमान समय की, माया के रॉयल स्वरूप की सावधानी, पहले से ही दे रहे हैं। ऐसे संग से, सदा सावधान रहना और होशियार रहना। माया भी वर्तमान समय ऐसे रॉयल पुरूषार्थियों की माला बनाने में लगी हुई है। अपने मणके बहुत अच्छी तरह से और तीव्र पुरूषार्थ से ढूँढ रही है। इसलिये माया के मणके की माला नहीं बनना। अगर ऐसे माया के मणके के प्रभाव में आ गये, तो विजयमाला के मणकों से किनारे हो जायेंगे। क्योंकि आजकल दोनों ही मालाएँ-एक माया की और दूसरी विजयमाला बाप की, इन दोनों की सिलेक्शन बहुत तेज़ी से हो रही है। ऐसे समय में हर सेकेण्ड, चारों ओर अटेन्शन चाहिये। समझा?

ऐसे सदा सच्चे पुरुषार्थी, सच्चे बाप के साथ सदा सच्चे रहने वाले, पाँच विकारों और पाँच तत्वों की आकर्षण से सदा दूर रहने वाले, सहज वानप्रस्थ स्थिति में स्थित होने वाले, विजयमाला के विजयी मणकों को, बाप-दादा के सदा-साथ रहने वाले, सदा सत्य के संग में रहने वाले और व्यर्थ के संग से न्यारे रहने वाले, ऐसे प्यारे बाप के बच्चों को बाप-दादा का यादप्यार, गुडमार्निग और नमस्ते।

मुरली का सार

1. शान्ति में शान्त रहना बड़ी बात नहीं, लेकिन अशान्ति के वातावरण में शान्त रहने वाला ही महान् कहलाता है।

2. बाप-समान स्टेज तक पहुंची हुई आत्माओं को, जिन्हें कोई भी विभूति या हद का आकर्षण छू नहीं सकता, वे ही सच्चे वैष्णव कहलाते हैं।

3. पाँच तत्वों के आकर्षण से परे रहना, महारथियों के लिए महीन पुरूषार्थ है।

4. सूक्ष्म-पाप आत्मा को, ऊंच स्टेज पर जाने से रोकने के निमित्त बन जाते हैं।



27-05-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विश्व-कल्याण के निमित्त बनी आत्माओं के वचन भी सदा कल्याणकारी

अपने मधुर महावाक्यों द्वारा आत्माओं को महान् बना कर विश्व परिवर्तन करने वाले, आत्माओं की कर्म-कहानी को जानने वाले तथा रहमदिल विश्व पिता शिव बोले:-

आवाज़ में आने और आवाज़ से परे होने में कितना अन्तर है क्या इसके सभी अनुभवी बन चुके हो? (माइक में कुछ आवाज़ क्लियर नहीं था) देखो आवाज़ अगर यथार्थ नहीं है तो अच्छा नहीं लगता है ना? यन्त्र में जरा भी खिटखिट है तो ऐसी आवाज़ पसन्द नहीं करते हो ना? ऐसे ही आपका यह यन्त्र, मुख भी माइक है। इस मुख द्वारा भी जब कभी यथार्थ व युक्ति-युक्त बोल नहीं निकलते हैं, तो उसी समय सबको क्या अनुभव होगा या उस समय आपको मालूम नहीं पड़ता है क्या? जब स्थूल यन्त्र का आवाज़ भी पसन्द नहीं करते हो, तो नेचुरल मुख द्वारा निकला हुआ बोल व आवाज़ स्वयं को भी और सर्व को भी ऐसे ही अनुभव होना चाहिए। अगर यह महसूस करो, तो इस घड़ी से क्या परिवर्तन हो जाएगा, क्या जानते हो? इस घड़ी से सदा काल के लिए व्यर्थ बोल, विस्तार करने के बोल, समय व्यर्थ करने के बोल और अपनी कमज़ोरियों द्वारा अन्य आत्माओं को संगदोष में लाने वाले बोल सब समाप्त हो जावेंगे। महान् आत्माओं के हर बोल को महावाक्य कहा जाता है। महावाक्य अर्थात् महान् बनाने के महावाक्य। महावाक्य विस्तार के नहीं होते। जैसे वृक्ष के अन्दर बीज महान है और उसका विस्तार नहीं होता है लेकिन उसमें सारा सारहोता है, ऐसे ही महावाक्य में विस्तार नहीं होता, किन्तु उसमें सार होता है, क्या ऐसे सार-युक्त, युक्ति-युक्त, योग-युक्त, शक्ति-युक्त, स्नेह-युक्त, स्वमान-युक्त और स्मृति-युक्त बोल बोलते हो?

जैसे आजकल की दुनिया में जो विनाशी पद धारण करने वाली विशेष आत्मायें हैं, वह भी अपने हर बोल को चैक कर फिर ही बोलती हैं कि कहीं मेरे द्वारा ऐसा कोई एक बोल भी न निकले, कि जो देश में व साथियों में संघर्ष का आधार बने। ऐसे ही विश्व का कल्याण करने के श्रेष्ठ कार्य में निमित्त बनी आप श्रेष्ठ आत्माएं हो; आपकी विश्व में विशेष स्थिति है। आपको यह भी चैक करना है कि मेरे द्वारा जो भी बोल निकलते हैं, क्या वह सर्व के व स्वयं के प्रति कल्याणकारी हैं? व्यर्थ की तो बात ही छोड़ दो। लेकिन अभी की स्टेज के अनुसार ऐसा कोई भी शब्द मुख से नहीं निकलना चाहिए जिसमें कल्याण का कार्य समाया हुआ न हो। पहले भी सुनाया था कि आप विशेष आत्माओं के हर बोल के महत्व का यादगार, अब तक भी भक्ति मार्ग में चलता आ रहा है -- वह कौन-सा है? आपके हर बोल के महत्व का यादगार भक्ति मार्ग में कौन-सा है? गीता तो ज्ञान का यादगार है-प्रैक्टिकल लाइफ में वह महत्व वर्णन करते हैं। देखो, आजकल की भी जो महान् आत्मायें हैं, तो भक्त लोग उनके हर बोल के पीछे सत्य वचन महाराजकहते हैं। चाहे व्यर्थ हो और चाहे गपोड़ा भी लगता हो फिर भी समझते हैं कि ये महान आत्माओं के बोल हैं, तो यह महत्व रखते हैं। सत्य वचन महाराजका यह यादगार कब से आरम्भ हुआ? पहले यथार्थ प्रैक्टिकल में चलता है, फिर भक्तिमार्ग में सिर्फ यादगार रह जाता है, यथार्थ नहीं होता है, तो जब भक्तिमार्ग में भी हर बोल का महत्व इतना अभी तक भी है, जो अन्तिम घड़ी तक भी देख व सुन रहे हो तो ऐसे महत्व वाले बोल जिसमें सत्यता तथा विश्व का कल्याण हो, क्या ऐसे हर बोल निकलते हैं? दिन प्रतिदिन नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार जो महारथी व महावीर बन रहे हैं, उन्हीं के मुख से निकलने वाले, हर बोल सत्य हो जावेंगे। अभी नहीं होते हैं, क्योंकि अभी तक व्यर्थ और साधारण बोल ज्यादा निकलते हैं।

जैसे कोई लेख या आर्टिकल लिखते हैं अथवा किसी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाते हैं, तो लिखने वाले बाद में फिर से चैक करते हैं कि जो लिखा गया है, वह ठीक व प्रभावशाली है; जो लक्ष्य व टॉपिक है, क्या उसी के अनुसार है? ऐसे आप भी अमृतवेले से लेकर रात्रि तक प्रैक्टिकल मन, वाणी, कर्म इन तीनों का एक लेख या लेखा  लिखते हो अर्थात् ड्रामा में कर्म द्वारा नूँधते हो। रात को अपनी हर रोज की प्रैक्टिकल नूँध व लेखनी को चैक करो कि कितनी समर्थ अर्थात् प्रभावशाली रही और कितनी व्यर्थ रही, क्या ऐसी चैकिंग करते हो?

बापदादा के पास हर एक बच्चे की हर घड़ी की तीनों रूपों में अर्थात् मन्सा, वाचा, कर्मणा से की हुई प्रैक्टिकल नूँध इमर्ज होती है जिससे रिज़ल्ट क्या दिखाई देती है? अब तक 75% बच्चों की आधी रिज़ल्ट व्यर्थ बोल व साधारण बोल में दिखाई देती है। इस हिसाब से अगर, अभी से ही सत्य वचन महाराज हो जावे, तो कई आत्माओं के पुरूषार्थ को हल्का करने के व पुरूषार्थ को साधारण बनाने के निमित्त बन जाओ। इसलिए अब यह वरदान ड्रामा अनुसार सबको प्राप्त नहीं है। बहुत थोड़ी आत्मायें हैं, उनको भी बहुत थोड़ा-सा अर्थात् 25% ऐसा श्रेष्ठ वरदान प्राप्त होना प्रारम्भ हुआ है। इसलिए अपनी ज़िम्मेवारी समझ व महत्व समझ हर बोल पर इतना अटेन्शन रखो। आप लोग साधारण रीति से बोलेंगे लेकिन आप महान आत्माओं के बोल सत्य होने के कारण कई आत्माओं का अकल्याण हो जाता है। इसलिए भक्ति में भी वरदान के साथ-साथ आप का भी गायन है। आप देते नहीं हैं, लेकिन ऐसी व्यर्थ चलन व व्यर्थ बोल अकल्याण के निमित्त ऑटोमेटीकली बन जाते हैं। अर्थात् सुनने वाली व देखने वाली साधारण आत्मा आपके बोल और कर्म द्वारा गिरती कला में अर्थात् पुरूषार्थ हीन की स्थिति में चली जाती हैं। इस प्रकार वह आप द्वारा श्रापित हो जाती हैं।

विश्व के कल्याण के निमित्त अगर आत्मायें न चाहते हुए व न सोचते हुए साधारण रीति से भी किसी आत्मा को श्रापित करने के कार्य में निमित्त बन जाती हैं, तो उसको क्या कहेंगे? वरदानी कहेंगे क्या? तो इतना अटेन्शन और महीन चैकिंग वर्तमान समय बहुत आवश्यक है। क्योंकि अभी आप लोगों का श्रेष्ठ जीवन विश्व की सेवा के प्रति है। अभी तक स्वयं की सेवा के प्रति व स्वयं के परिवर्तन के प्रति व स्वयं के संस्कार और स्वभाव वश अपने आप को ही बनाने और बिगाड़ने के प्रति हो, तो अभी वह समय बीत गया। अब हर श्वांस, हर संकल्प, हर सेकेण्ड, हर कर्म, सर्व-शक्तियाँ, सर्व ईश्वरीय संस्कार, श्रेष्ठ स्वभाव व सर्व प्राप्त हुए खजाने विश्व की ही सेवा के प्रति हैं। अगर अभी तक भी स्वयं के ही प्रति लगाते हो तो फिर प्रालब्ध क्या मिलेगी? मास्टर रचयिता बनेंगे या रचना? रचना स्वयं के प्रति ही होती है, परन्तु रचयिता, रचना के प्रति होता है। जो अभी ही मास्टर रचयिता नहीं बनते तो वह भविष्य में भी विश्व के मालिक नहीं बनते।

अब सम्पूर्ण स्थिति की स्टेज व सम्पूर्ण परिणाम (फाइनल रिज़ल्ट) का समय नजदीक आ रहा है। रिज़ल्ट आऊट बाप-दादा मुख द्वारा नहीं करेंगे या कोई कागज़ व बोर्ड पर नम्बर नहीं लिखेंगे। लेकिन रिज़ल्ट आऊट कैसे होगी? आप स्वयं ही स्वयं को अपनी योग्यताओं प्रमाण अपने-अपने निश्चित नम्बर के योग्य समझेंगे और सिद्ध करेंगे। ऑटोमेटिकली उनके मुख से स्वयं के प्रति फाइनल रिज़ल्ट के नम्बर न सोचते हुए भी, उनके मुख से सुनाई देंगे और चलन से दिखाई देंगे। अब तक तो रॉयल पुरूषार्थियों की रॉयल भाषा चलती है, लेकिन थोड़े समय में रॉयल भाषा रीयल हो जायेगी। जैसेकि कल्प पहले का गायन है रॉयल पुरूषार्थियों का-कितना भी स्वयं को बनाने का पुरूषार्थ करें, लेकिन सत्यता रूपी दर्पण के आगे रॉयल भी रीयल दिखाई देगा। तो आगे चलकर ऐसे सत्य बोल, सत्य वृत्ति, सत्य दृष्टि, सत्य वायुमण्डल, सत्य वातावरण और सत्य का संगठन प्रसिद्ध दिखाई देगा। अर्थात् ब्राह्मण परिवार एक शीश महल बन जायेगा। ऐसी फाइनल रिज़ल्ट ऑटोमेटिकली आऊट होगी।

अभी तो बड़े-बड़े दाग भी छुपाने से छुप जाते हैं, क्योंकि अभी शीश-महल नहीं बना है, जो कि चारों ओर के दाग स्पष्ट दिखाई दे जावें। जब किनारा कर लेते, तो दाग छिप जाता अर्थात् पाप दर्पण के आगे स्वयं को लाने से किनारा कर छिप जाते हैं। छिपता नहीं है, लेकिन किनारा कर और छिपा हुआ समझ स्वयं को खुश कर लेते हैं। बाप भी बच्चों का कल्याणकारी बन अनजान बन जाते हैं जैसे कि जानते ही नहीं। अगर बाप कह दे कि मैं जानता हूँ कि यह दाग इतने समय से व इस रूप से है तो सुनाने वाले का क्या स्वरूप होगा? सुनाना चाहते भी मुख बन्द हो जायेगा, क्योंकि सुनाने की विधि रखी हुई है। बाप जब कि जानते भी हैं, तो भी सुनते क्यों हैं? क्योंकि स्वयं द्वारा किये गये कर्म व संकल्प स्वयं वर्णन करेंगे, तो ही महसूसता की सीढ़ी पर पाँव रख सकेंगे। महसूस करना या अफसोस करना या माफी लेना बात एक हो जाती है। इसलिए सुनाने की अर्थात् स्वयं को हल्का बनाने की या परिवर्तन करने की विधि बनाई गई है। इस विधि से पापों की वृद्धि कम हो जाती है। इसलिये अगर शीश महल बनने के बाद, स्वयं को स्पष्ट देख कर के स्पष्ट किया तो रिज़ल्ट क्या होगी, यह जानते हो? बाप-दादा भी ड्रामा प्रमाण उन आत्माओं को स्पष्ट चैलेन्ज देंगे, तो फिर क्या कर सकेंगे? इसलिए जब महसूसता के आधार पर स्पष्ट हो अर्थात् बोझ से स्वयं को हल्का करो, तब ही डबल लाइट स्वरूप अर्थात् फरिश्ता व आत्मिक स्थिति स्वरूप बन सकेंगे। अच्छा!

रहमदिल बाप के रहमदिल बच्चे, श्रेष्ठ और सदा स्पष्ट, दर्पण रूप, दिव्य-मूर्त, ज्ञान-मूर्त, सदा हर्षित-मूर्त, सर्व आकर्षण से दूर, रूहानी आकर्षण-मूर्त, दिव्य गुण-मूर्त सर्व आत्माओं के कल्याणकारी, कल्याण के आधार-मूर्त, ऐसी महान् आत्माएं और सर्विसएबुल आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और गुडनाइट व नमस्ते।’’

मुरली का सार

1. महान आत्माओं के हर बोल को महावाक्य कहा जाता है। महावाक्य अर्थात् महान बनाने के महावाक्य। ऐसे महावाक्यों में विस्तार न होकर सार होता है।

2. संगमयुग में आप ब्राह्मणों के बोल के महत्व का यादगार भक्ति मार्ग में सत्य वचन महाराजके रूप में अभी तक चला आ रहा है।

3. आप लोग अमृतवेले से लेकर रात्रि तक प्रैक्टिकल मन, वाणी व कर्म तीनों का एक लेख या लेखा लिखते हो। रात्रि को रोज अपनी प्रैक्टिकल नूँध व लेखनी को चैक करो कि वह कितनी समर्थ रही और कितनी व्यर्थ रही?


 


30-05-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सेवा में बाप के सदा सहयोगी और एवर-रेडी बनो!

सर्व आत्माओं को नॉलेज की लाइट-माइट देने वाले लाइट हाउस और माइट हाउस, सर्व के शुभ-चिन्तक तथा रूहानी सेनापति शिव बाबा बोले:-

युद्ध-स्थल पर उपस्थित योद्धे सर्व शस्त्रं से श्रृंगारे हुए, एवर-रेडी, एक सेकेण्ड में, किसी भी प्रकार के ऑर्डर को प्रैक्टिकल में लाने वाले, क्या सदा विजयी अपने को समझते हो? अभी-अभी ऑर्डर हो, कि दृष्टि को एक सेकेण्ड में रूहानी या दिव्य बनाओ, कि जिसमें देह के अभिमान का, ज़रा भी अंश-मात्र न हो और संकल्प-मात्र में भी न हो, तो क्या स्वयं को ऐसा बना सकते हो? या बनाने में समय लगावेंगे? अगर एक सेकेण्ड से दो सेकेण्ड भी लगाये, तो क्या उसे एवर-रेडी कहेंगे? ऑर्डर हो, कि अपनी श्रेष्ठ स्मृति के आधार पर इस अन्य आत्मा की स्मृति को प्रिवर्तन करके दिखलाओ, तो क्या ऐसे एवररेडी हो? ऑर्डर हो, कि वर्तमान वायुमण्डल को अपनी ईश्वरीय वृत्ति से, अभी-अभी परिवर्तन करो तो क्या कर सकते हो? ऑर्डर हो, कि अपनी वर्तमान सर्वशक्तिमान् स्थिति से किसी अन्य आत्मा की परिस्थिति-वश स्थिति को परिवर्तन करो तो क्या आप कर सकते हो? ऑर्डर हो, कि मास्टर रचयिता बन अपनी रचना को शुभ भावना से व शुभ-चिन्तक बन, भिखारियों को उनकी माँग प्रमाण सन्तुष्ट करो तथा महादानी और वरदानी बनो तो क्या सर्व को संतुष्ट कर सकते हो? या तो कोई संतुष्ट होंगे और या कोई वंचित रह जावेंगे? सर्व-शक्तियों के भण्डारे से क्या स्वयं को भरपूर अनुभव करते हो? क्या सर्व-शस्त्र आपके सदा साथ रहते हैं? सर्व-शस्त्र अर्थात् सर्व-शक्तियाँ। अगर एक भी शस्त्र या शक्ति कम है व कमजोर है, तो क्या वह एवर-रेडी कहला सकेंगे? जैसे बाप एवर-रेडी अर्थात् सर्व-शक्तियों से सम्पन्न हैं, तो क्या वैसे फालो-फादर हो?

वर्तमान समय बाप के सहयोगियों का ऐसा एवर-रेडी ग्रुप चाहिए। हरेक ग्रुप की कोई-न-कोई निशानी व विशेषता होती है ना? तो ऐसे एवर-रेडी ग्रुप की निशानी क्या है, क्या जानते हो? लौकिक मिलिट्री की तो निशानी देखी होगी। हर एक ग्रुप का मेडल अपना-अपना होता है, तो इस रूहानी मिलिट्री का या एवर-रेडी ग्रुप का मेडल कौन-सा है? क्या यह स्थूल बैज है? यह तो सर्विस का सहज साधन है और सदा साथ का साधन है लेकिन फर्स्ट ग्रुप का मेडल व निशानी है-विजय माला। एक तो विजय माला में पिरोने वालों का है-एवर-रेडी ग्रुप। इसी निश्चय और नशे में सदा विजय की माला पड़ी हुई होती है। सदा विजय’-यही माला पहली निशानी है। ऐसे एवर-रेडी बच्चे इसी स्मृति से सदा श्रृंगारे हुए होंगे। दूसरी निशानी, सदा साक्षी और सदा साथीपन के कवचधारी होंगे। सर्वशक्तियाँ, ऐसे एवर-रेडी के हर समय ऑर्डर मानने वाली सिपाही व साथी रहेंगी। ऑर्डर किया और हर शक्ति जी-हजूर करेगी। उनका मस्तिष्क सदा मस्तक मणि अर्थात् आत्मा की झलक से चमकता हुआ दिखाई देगा। उनके नैन रूहानी लाइट और माइट के आधार से सर्व-आत्माओं को मुक्ति और जीवन-मुक्ति का मार्ग दिखाने के निमित्त बने हुए होंगे। उनका हर्षितमुख अनेक जन्मों के अनेक दु:खों को विस्मृत करा, एक सेकेण्ड में अन्य को भी हर्षित बना देगा? क्या ऐसा एवर रेडी ग्रुप है व विजय की माला गले में है? अथवा और युक्तियाँ औरों से लेते रहते हो या शस्त्रं को किनारे कर, समय पर शस्त्रं की भीख मांगते रहते हो?-यह शक्ति दो, यह सहयोग दो व यह आधार प्राप्त हो। यह संकल्प करना भी भीख मांगना है। ऐसे भिखारी-महादानी, वरदानी कैसे बन सकेंगे? भिखारी, भिखारी को क्या दे सकता है? अपने को देखो, क्या एवर-रेडी ग्रुप के योग्य बने हैं? ऐसे नहीं कि ऑर्डर करें एक, और प्रैक्टिकल हो दूसरा। ऐसे कमजोर तो नहीं हो ना? अभी फिर भी कुछ गैलप (Gallop) करने का चॉन्स है, अभी किसी भी ग्रुप में अपने को परिवार्तित कर सकते हो। लेकिन कुछ समय बाद, गैलप करने का समय भी समाप्त हो जायेगा और जिन्होंने जैसे और जितना पुरूषार्थ किया है, वे वहां ही रह जावेंगे। फिर चाहे कितनी भी एप्लिकेशनडालो लेकिन मंजूर नहीं होगी, मजबूर हो जायेंगे। इसलिए बाप-दादा फिर भी कुछ समय पहले वारनिंग दे रहे हैं, जिससे कि पीछे आने वालों का भी बाप के प्रति कोई उल्हना नहीं रहेगा। इसलिये सेकेण्ड-सेकेण्ड व हर संकल्प के महत्व को जान, अपने को महान् बनाओ। परखने की शक्ति का, स्वयं के प्रति और सेवा के प्रति प्रयोग करो तब ही स्वयं की कमजोरियों को मिटा सकेंगे, और सर्व के प्रति उन्हों को इच्छापूर्वक सम्पन्न कर, महादानी और महावरदानी बन सकेंगे। अच्छा।

ऐसे सदा शुभ-चिन्तक, सदा शुभ-चिन्तन में रहने वाले, सर्व की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले, सदा मस्तकमणि द्वारा सर्व-आत्माओं को नॉलेज की लाइट देने वाले व सदा लाइट और माइट हाउस, बाप-दादा के सदा सहयोगी बच्चों को बाप-दादा का याद प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।


 

18-06-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


लाइट हाउस और माइट हाउस बन, नई दुनिया के मेकर बनो!

सर्व-आत्माओं को सर्व-शक्तियों से सन्तुष्ट करने वाले, नई दुनिया के मेकर व विश्व-कल्याणी पिता शिव बोले :-

अपने को क्या लाइट हाउस और माइट हाउस समझ कर चलते हो? सिर्फ लाइट और माइट समझ कर नहीं लेकिन लाइट हाउस और माइट हाउस। अर्थात् लाइट और माइट देने वाले दाता, हाउस तब बन सकेंगे जब उनके अपने पास इतना स्टॉक जमा हो। अगर स्वयं सदा लाइट स्वरूप नहीं बन सकते व लाइट स्वरूप में सदा स्थित नहीं हो सकते, तो वह अन्य आत्माओं को लाइट हाउस बन, लाइट नहीं दे सकते। जो स्वयं ही मास्टर सर्वशक्तिमान् होते हुए, अपने प्रति भी सर्वशक्तियों को यूज  नहीं कर सकते तो वे माइट हाउस बन, अन्य आत्माओं को सर्वशक्तियों का दान कैसे कर सकते हैं? अब स्वयं से पूछो कि मैं क्या लाइट और माइट हाउस बना हूँ? कोई भी आत्मा अगर कोई भी शक्ति प्राप्त करने की इच्छा रखते हुए आपके सामने आये तो क्या उस आत्मा को वह शक्ति दे सकते हो? अगर सहन करने की इच्छा अथवा निर्णय करने की शक्ति की इच्छा रख कर कोई आये और उसे समाने की शक्ति या परखने की शक्ति का दान दे दो, लेकिन उस समय उस आत्मा को जो सहन शक्ति के दान की ज़रूरत है यदि वह उसे नहीं दे सकते, तो क्या ऐसी आत्मा को महादानी, वरदानी या विश्व-कल्याणी कह सकते हैं? अगर स्वयं में ही किसी एक शक्ति की कमी होगी, तो दूसरों को सर्वशक्तिवन् बाप के वर्से का अधिकारी वा मास्टर सर्वशक्तिमान् कैसे बना सकेंगे?

सूर्यवंशी हैं-सर्वशक्तिमान् और चन्द्रवंशी हैं-शक्तिवान्। अगर एक शक्ति की भी कमी है, तो सर्वशक्तिमान् के बजाय, शक्तिवान् कहलाये जावेंगे अर्थात् वे सूर्यवंश के राज्यभाग के अधिकारी नहीं बन सकते। सर्वशक्तिमान् ही सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण बनने के अधिकारी बनते हैं। कम शक्तिवान् कल्याणी बन सकते हैं, लेकिन विश्व-कल्याणी नहीं बन सकते। अगर किसी आत्मा को समाने की शक्ति चाहिये और आप उसे विस्तार करने की शक्ति दे दो वा और अन्य सब शक्तियाँ दे दो, लेकिन जो उसको चाहिये वह न दे सको, तो क्या वह आत्मा तृप्त होगी? क्या आपको विश्व-कल्याणी मानेंगी? जैसे किसको पानी की प्यास हो और आप उसे छत्तीस प्रकार के भोजन दे दो, लेकिन पानी का प्यासा क्या छत्तीस प्रकार के भोजन से सन्तुष्ट होगा वा आपके प्रति शुक्रिया मानेगा? पानी के बदले चाहे आप उसे हीरा दे दो, परन्तु उस समय उस आत्मा के लिए पानी की एक बूंद की कीमत अनेक हीरों से ज्यादा है, ऐसे ही अगर अपने पास सर्वशक्तियों का स्टॉक जमा नहीं होगा तो, सर्व-आत्माओं को सन्तुष्ट करने वाली सन्तुष्टमणियाँ नहीं बन सकेंगे, वा सर्व-आत्मायें आपको जी-दाता, सर्व-शक्ति दाता नहीं मानेंगी। अगर विश्व की सर्व- आत्माओं द्वारा विश्व-कल्याणी माननीय नहीं बनेंगे, तो माननीय के बिना पूज्यनीय भी नहीं बन सकेंगे। सन्तुष्ट मणि बनने के बिना बाप-दादा के मस्तक की मणियाँ नहीं बन सकते हो। क्या ऐसे महीनता की चैकिंग करते हो वा अब तक मुख्य-मुख्य बातों में भी चैकिंग करना मुश्किल अनुभव होता है?

अगर चैकिंग करना नहीं आता वा सोचते हुए भी निजी संस्कार नहीं बनता, तो उसका एक टाइटल कम हो जाता है-वह कौन-सा? एक-एक सब्जेक्ट  का एक-एक टाइटल है। चार सब्जेक्ट्स के चार टाइटल कौन-से हैं? पहला-ज्ञान के सब्जेक्ट् में प्रवीण आत्मा का टाइटल है मास्टर ज्ञान सागर वा नॉलेजफुल, वा स्वदर्शन चक्रधारी कहो तो भी एक ही बात है। दूसरा-याद की यात्रा में जो यथार्थ युक्ति-युक्त, योग-युक्त है उनका टाइटल है-पॉवरफुल। क्योंकि याद से सर्वशक्तियों का वरदान प्राप्त होता है। तो याद की यात्रा में जो यथार्थ रीति से चलने वाला है उनका टाइटल है-पॉवरफुल। तीसरा सब्जेक्ट है-दिव्य गुण। ऐसे दिव्य-गुण मूर्त को कौन-सा टाइटल देंगे? उनका टाइटल है-दिव्य-गुणों की खुशबुएं फैलाने वाला - इसेन्सफुल (सार-युक्त)। जैसे इसेन्स (सार) यदि कहीं भी दूर रखा होगा, तो भी वह अपना प्रभाव डालेगा अर्थात् खुशबू फैलावेगा, तो क्या ऐसे ही दिव्य-गुणों की खुशबू की इसेन्स वाली रूहानी सेन्स के इसेन्सफुल हैं? अब अपने में चैक  करो कि क्या चारों ही सब्जेक्ट्स के चार टाइटल धारण करने के योग्य बने हो? अगर चैकिंग करनी नहीं आती, तो फिर कौन-सा टाइटल कट होगा?

कई तो कहते हैं कि चैकिंग करना चाहते हैं, लेकिन धक्के से गाड़ी चलती है। निजी संस्कार सदा काल नहीं चलते। इसमें कौन-सी कमी कहेंगे? नॉलेज तो है कि यह करना चाहिये। त्रिकालदर्शी-पने की नॉलेज तो मिल गयी है ना? क्या नॉलेजफुल  हो? अभी अगर किसी भी कमजोरी वश हो जाते हो, उस कमजोरी को जानते भी हो, उसे वर्णन भी करते हो और उसके मिटाने को प्वाइन्ट्स भी वर्णन करते हो, लेकिन वर्णन करते हुए भी, जो चाहते हो, वह कर नहीं पाते हो। नॉलेज तो बुद्धि में फुल है, लेकिन जितना नॉलेजफुल, क्या उतना ही साथ-साथ पॉवरफुल  भी हो? यह बैलेन्स ठीक न होने के कारण, जानते हुए भी कर नहीं पाते हो। तो जो चैकिंग नहीं कर पाते, उन आत्माओं का, बैलेन्स में रहने वाले ब्लिसफुल का टाइटल कट हो जाता है, वह न् स्वयं को ब्लिस दे सकते हैं, न बाप से ब्लिस ले सकते हैं और न अन्य आत्माओं को ही दे सकते है। क्योंकि चैक करने के निजी संस्कार नहीं बनते, तो चैकिंग नहीं होती और चेन्ज भी नहीं होते। जो चैकर नहीं बन सकते, वह मेकर भी नहीं बन सकते, वह न स्वयं के, न अन्य आत्माओं के और न विश्व के ही। नई दुनिया बनाने वाले और नया जीवन बनाने वाले इस महिमा के अधिकारी नहीं बन सकते। इसलिए अब चैकर बनो। जैसे अमृतवेले की रूहरूहान की मुख्य बात को सभी ने मिलकर, दृढ़ संकल्प के आधार पर, स्वयं को और अन्य साथियों को सफलतामूर्त बनाया है। इसी प्रकार, इस बात को भी मुख्य जान और एक दो के सहयोगी बन सफलतामूर्त बनो। तब ही सर्व कार्य सम्पन्न होंगे।

वर्तमान समय मैजारिटी में जो विशेष दो कमजोरियाँ दिखाई दे रही हैं, उसकी समाप्ति वा उन दो कमजोरियों में सफलतामूर्त तब बनेंगे, जब इस बात को सफल बनावेंगे। वह दो कमजोरियाँ हैं - आलस्य और अलबेलापन। इसको मिटाने का साधन चैकर बनना है। 99 पुरूषार्थियों में किसी न किसी रूप में आलस्य और अलबेलापन कहीं अंश रूप में है और कहीं वंश रूप में है। महारथियों में अंश रूप कौन-सा है? घोड़ेसवार में वंश रूप कौन-सा है? क्या उसको जानते हो? अंश रूप है कि मेरी नेचर व मेरे संस्कार। मेरी भावना नहीं है, लेकिन बोल व नैन चैन हैं, रेखायें हैं, लेकिन रूप बने हुए नहीं हैं-यह है अंश-मात्र। सम्पूर्ण विजयी बनने में अलबेलापन अथवा रॉयल  रूप का आलस्य बाधक है। घोड़ेसवार वा सेकेण्ड डिवीज़न में पास होने वाली आत्माओं में वंश रूप में किस रूप में हैं? उनका रूप हैं, हर बात में, यह बोल उन्हों का ट्रेडमार्क है, हर बात में कॉमनशब्द हैं। अलबेले और आलस्यपन के शब्द कौन-से हैं? वह सदैव अपने को सेफ रखने की प्वाइन्ट्स देने में वा बातें बनाने में बड़े प्रवीण होते हैं। स्वयं को निर्दोष और दूसरों पर दोष रखने में फूर्त होते हैं। लायर्सहोते हैं। लेकिन लॉफुल नहीं होते। जैसे लायर्स झूठे केस को सच्चा सिद्ध कर निर्दोषी को दोषी बना देते हैं। वैसे ही सेकेण्ड डिवीज़न वाले कभी भी अपने दोष को जानते हुए भी, स्वयं को दोषी प्रसिद्ध नहीं करेंगे। इसलिये लायर्स हैं, लेकिन लॉफुल नहीं हैं। ऐसे की ट्रेडमार्क बोल सदैव यही निकलेंगे कि मैंने यह किया क्या? मैंने यह बोला क्या? मेरे मन में तो कुछ था ही नहीं? निकल गया, तो फिर क्या हुआ? हो गया, तो फिर क्या हुआ? ‘ठीक कर दूंगा।’ ‘फिर क्याकी ट्रेडमार्क के बोल होंगे। जैसे सृष्टि-चक्र के समझाने में फिर-क्या, फिर-क्या कहते सारी स्टोरी बतला देते हो ना? सतयुग के बाद फिर क्या हुआ, त्रेता आया, फिर-क्या हुआ, द्वापर आया... फिर क्या शब्द में सारे चक्र की कहानी सुनाते हो। वैसे वह लायर्स आत्मायें फिर-क्या शब्द के आधार पर दूसरों के ऊपर सारा चक्र चलाये देती हैं, स्वयं को साक्षी बना देते हैं वा न्यारा बना देते हैं वा छुड़ा देते हैं। फिर-क्याशब्द से अर्थात् इस एक संकल्प से अलबेलेपन वा रॉयल-आलस्य का वंश अन्दर ही अन्दर बढ़ता जाता है और ऐसी आत्मा को पॉवरफुल बनाने के बजाय निर्बल बनाते जाते हैं। यह है सेकेण्ड डिवीजन अर्थात् घोड़ेसवार आत्माओं के अन्दर अलबेलापन और आलस्य वंश-रूप में, इस अंश वा वंश को समाप्त करने के लिये, चैकर बनना अति आवश्यक है। 8 दिन में, एक दिन चैकर बनते हो, 7 दिन अलबेले रहते हो, तो संस्कार 7 दिन के बनेंगे वा एक दिन के? इसलिए अलर्ट बनने के बजाय इजीऔर लेज़ी बनते हो। ऐसे की रिज़ल्ट क्या होगी? क्या ऐसे विश्व कल्याणकारी, सर्व- शक्तियों के महादानी-वरदानी बन सकते हैं? इसलिए अब इन दो बातों को अंश- रूप में वा वंश-रूप में, जिस रूप में भी है, उसको अभी से मिटावेंगे, तब ही बहुत समय विजयी बनने के संस्कारों के अनुसार विजय माला के मणके बन सकेंगे। अच्छा!

ऐसे सुनने और स्वरूप बनने वाले, संकल्प को एक सेकेण्ड में साकार रूप में लाने वाले, सर्व आत्माओं को लाइट हाउस व माइट हाउस बन सर्वशक्तियों से संतुष्ट करने वाले, सन्तुष्ट मणियाँ, मस्तक मणियाँ, सदा स्वयं पर और हर संकल्प पर चैकर बनने वाले नई दुनिया के मेकर और विश्व कल्याणी आत्माओं को परमात्मा और सर्वश्रेष्ठ आत्मा बाप-दादा की याद प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।

इस मुरली का सार

1. अगर स्वयं में ही किसी एक शक्ति की भी कमी होगी, तो दूसरों को सर्वशक्तिमान् बाप के वर्से का अधिकारी मास्टर सर्वशक्तिमान् नहीं बना सकेंगे।

2. जो चैकर नहीं बन सकते, वह न तो स्वयं के, न अन्य आत्माओं के और न विश्व के ही मेकर बन सकते हैं।



21-06-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महान् पद की बुकिंग के लिये महीन रूप से चैकिंग आवश्यक

लॉ एण्ड ऑर्डर वाले, विश्व-राज्य की स्थापना करने वाले, सर्व-शक्तियों व सर्व-गुणों रूपी खजाने से मालामाल करने वाले, त्रिमूर्ति के रचयिता शिव बाबा बोले:-

आज सभी तकदीरवान विशेष आत्माओं की विशेषता को देख रहे हैं। कोई-कोई अपनी विशेषता को भी यथार्थ रीति से नहीं जानते हैं, कोई-कोई जानते हैं लेकिन वे अपनी विशेषता को कार्य में नहीं लगा सकते और कोई-कोई जानते हुए भी उस विशेषता में सदा स्थित नहीं रह सकते। वे कभी विशेष आत्मा बन जाते हैं या कभी साधारण आत्मा बन जाते हैं। कोटों में कोऊ अर्थात् पूरे ब्राह्मण परिवार में से बहुत थोड़ी आत्मायें अपनी विशेषता को जानती भी हैं, विशेषता में रहती भी हैं और कर्म में आती भी हैं। अर्थात् अपनी विशेषता से ईश्वरीय कार्य में सदा सहयोगी बनती हैं। ऐसी सहयोगी आत्मायें बापदादा की अति स्नेही हैं। ऐसी आत्मायें सदा सरलयोगी व सहजयोगी व स्वत:योगी होती हैं। उनकी मूर्त में सदा ऑलमाइटी अथॉरिटी की समीप सन्तान की खुमारी और खुशी स्पष्ट दिखाई देती है अर्थात् सदा सर्व-प्राप्ति सम्पन्न लक्षण - उनके मस्तक से, नैनों से और हर कर्म में अनुभव होता है। उनकी बुद्धि सदा बाप समान बनने की, एक ही स्मृति में रहती है। ऐसी आत्माओं का हर कदम बाप-दादा के कदम पिछाड़ी कदम ऑटोमेटिकली स्वत: चलता ही रहता है।

ऐसी आत्माओं में मुख्य तीन बातें दिखाई देंगी। कौन-सी? तीनों सम्बन्ध निभाने वाले त्रिमूर्ति स्नेही आत्मायें तीन बातों से सम्पन्न होंगी। बाप के सम्बन्ध से उनमें क्या विशेषता होगी?-फरमानबरदार। शिक्षक के रूप से क्या होगी? शिक्षा में वफादार और ईमानदार चाहिये। सतगुरू के सम्बन्ध में आज्ञाकारी। तो यह तीनों विशेषतायें ऐसी त्रिमूर्ति स्नेही आत्माओं में स्पष्ट दिखाई देंगी। अब इन तीनों में अपने को देखो कि कितने परसेन्ट है। क्या सारे दिन की दिनचर्या में तीनों ही सम्बन्धों की विशेषतायें दिखाई देती हैं? इनसे ही अपनी रिज़ल्ट को जान सकते हो। कोई-कोई तो बाप के स्नेही या विशेष शिक्षक के स्नेही या सतगुरू के स्नेही बनकर चल भी रहे हैं, लेकिन बनना त्रिमूर्ति-स्नेही है। तीनों की परसेन्ट पास की होनी चाहिये। एक बात में पास विद ऑनर हो जाओ और दो बातों में मार्क्स कम हो जाए, तो रिज़ल्ट में बाप के समीप आने वाली आत्माओं में न आ सकेंगे। इसलिए तीनों में ही अपनी परसेन्टेज को ठीक करो।

जब मास्टर ऑलमाइटी अथॉरिटी हो, तो व्यर्थ संकल्पों को मिटाने में भी अथॉरिटी बनो। जब वर्ल्ड आलमाइटी की सन्तान कहलाते हो, तो क्या आप अपने संस्कार, स्वभाव वा संकल्पों पर विजयी बनने की अथॉरिटी नहीं बन सकते? अथॉरिटी जिसके अन्दर सब पर लॉ एण्ड ऑर्डर हो तब ही विश्व पर ला एण्ड ऑर्डर वाला राज्य चला सकेंगे। विश्व के पहले स्वयं को लॉ एण्ड ऑर्डर में चला सकते हो? अगर अभी से लॉ एण्ड ऑर्डर में चलने के संस्कार दिखाई नहीं देते, तो भविष्य में विश्व पर भी राज्य नहीं चला सकते। चलने वाले ही चलाने वाले बनते हैं। चलने में कमजोर हो और चलाने की उम्मीद रखें, यह तो स्वयं को खुश करना है। पहले अपने आप से पूछो:’’मेरे संकल्प, मेरे लॉ एण्ड ऑर्डर में हैं?’’ मेरा स्वभाव लॉ एण्ड ऑर्डर में है? अगर लॉ-लेस है तो क्या मास्टर ऑलमाइटी अथॉरिटी कहलाने के अधिकारी हो सकते हैं? ऑलमाइटी अथॉरिटी कभी किसी के वशीभूत नहीं हो सकते। क्या ऐसे बने हो?

अभी पुरूषार्थियों के स्वयं की चैकिंग का समय चल रहा है। चैकिंग के समय चैक  नहीं करेंगे, तो अपनी तकदीर को चेंज नहीं कर सकेंगे। जो जितने महीन रूप से स्वयं की चैकिंग करते हैं, उतना ही भविष्य महान् पद की प्राप्ति की बुकिंग होती है। तो चैकिंग करना-अर्थात् बुकिंग करना, ऐसे करते हो? या कि जब बुकिंग समाप्त हो जायेगी फिर करेंगे? सबसे श्रेष्ठ बुकिंग कौन-सी है? अष्ट रत्नों की सीट कौन-सी है? क्या एयर-कण्डीशन्ड सीट ली है? एयर-कन्डीशन के लिए कन्डीशन्स  हैं। जैसे एयर-कण्डीशन में, जब जैसे चाहे, वैसे एयर की कन्डीशन कर सकते हैं। ऐसे ही अपने को, जहाँ चाहो, जैसे चाहो वैसे सैट कर सको, तो एयर कण्डीशन की सीट ले सकते हो। इसके लिए सर्व खजाने जमा हैं? कौन-से सर्व खजाने? खजाने सुनाने में तो सब होशियार हो, जैसे सुनाने में होशियार हो, ऐसे ही जमा करने में भी होशियार हो जाओ। सर्व खजाने जमा चाहिये। अगर एक कम है, तो एयरकण्डीशन सीट नहीं मिलेगी फिर तो फर्स्ट डिवीजन में आ सकते हो। अभी अपनी बुकिंग देखो। अभी तो आपको फिर भी चान्स है। लेकिन जब चान्स समाप्त हो जायेगा, तो फिर क्या करेंगे? इसलिए अब मुख्य पुरूषार्थ चाहिये। हर समय, हर बात में, हर सब्जेक्ट में और हर सम्बन्ध की विशेषता में, स्वयं को चैक करना है। समझा!

ऐसे त्रिमूर्ति स्नेही, स्वयं के और विश्व के नॉलेज में त्रिकालदर्शी, तीसरे नेत्र द्वारा स्वयं की सूक्ष्म चैकिंग करने वाले, बाप-दादा के सदा समीप, स्नेही और सदा सहयोगी रहने वाले, लॉ एण्ड ऑर्डर में सदा चलने वाले विशेष आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार गुडनाइट और नमस्ते। ओम शान्ति।

इस मुरली का सार

1. तकदीरवान विशेष आत्माएं अपनी विशेषताओं को जानते हुए, ईश्वरीय कार्य में सदा सहयोगी बनती हैं। उनकी बुद्धि सदा बाप-समान बनने की एक ही स्मृति में रहती हैं।

2. त्रिमूर्ति स्नेही आत्मा बाप के सम्बन्ध में फरमानबरदार, शिक्षक के रूप में वफादार व ईमानदार और सतगुरू के सम्बन्ध में आज्ञाकारी होगी।

3. वर्तमान समय स्वयं को लॉ एण्ड ऑर्डर में चला सकने वाला मास्टर ऑलमाइटी अथॉरिटी ही भविष्य में विश्व पर लॉ एण्ड ऑर्डर वाला राज्य चला सकता है।

4. महीन रूप से अपनी चैकिंग करने वाला ही, भविष्य में महान् पद की बुकिंग करा सकता है।

5. अष्ट रत्नों की एयर-कण्डीशन्ड सीट की बुकिंग के लिए, सर्वशक्तियों व सर्व-विशेषताओं रूपी खजाने जमा होने ज़रूरी हैं।



24-06-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


राजयोगी ही विश्व-राज्य के अधिकारी

सर्व श्रेष्ठ, सहजयोगी, राजयोगी, कर्मयोगी, ज्ञानयोगी बना, गायन योग्य व पूजन योग्य बनाने वाले, सदा पूज्य योगेश्वर शिव बाबा बोले :-

क्या आप सभी अपने को योगी समझते हो? क्या योगी का टाइटल आप सभी को मिल गया है? योगी होते हुए भी आप सभी एक जैसे योगी तो नहीं बल्कि नम्बरवार हो। जैसे कोई भी पढ़ाई पढ़ने के बाद परीक्षा पास करने का सार्टिफिकेट मिलता है, और डिग्री का सार्टिफिकेट मिलता तो कहलाने में भी वही नाम आता है, जैसे कि वकील है वा डाक्टर है। ऐसे ही यहाँ भी, जब नॉलेजफुल बाप के द्वारा योगी और भोगी जीवन की नॉलेज मिली है, तो भोगी के बाद मरजीवा बने तो यहाँ भी ब्रह्माकुमार व ब्रह्माकुमारी का टाइटल मरजीवा बनने के बाद स्वत: ही मिल जाता है और वैसे ही योगी का भी टाइटल परन्तु नम्बरवार मिलता है। बाकी इसमें भी क्या फर्क है? जैसे योग की महिमा करते हैं कि वह सहजयोग, निरन्तर योग, कर्म योग, व ज्ञान योग और बुद्धियोग है। फिर उसकी भी उपमा करते हैं न? जैसे कि डाक्टर्स में और मिलिट्री में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के ग्रेड्स होते हैं। उसी रीति यहाँ भी योगियों में कर्मयोगी और बुद्धियोगी हैं। यहाँ भी कोई तो सभी लक्षणधारी हैं और कोई एक या दो, लेकिन सब नहीं। जैसे कि किसी का बुद्धि का योग है लेकिन उसका कर्मयोग नहीं है या फिर किसी का कर्मयोग है तो वह सहजयोगी नहीं। या जो ज्ञान में सदा नहीं रहता तो उसको ज्ञानयोगी नहीं कहेंगे। यहाँ भी एक ही टाइटल मिलेगा तो आप जो योग की महिमा औरों को सुनाते हो, तो वह स्वयं में धारण करो। जैसे राजयोग अर्थात् जो कर्मेन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर उन पर राज्य करता है, तो वह भविष्य में भी श्रेष्ठ पद को पाता है। राजयोगी का अगर पॉवरफुल योग है, तो ही उसको राजयोगी कहेंगे अन्यथा उसको योगी ही कहेंगे, लेकिन राजयोगी नहीं कहेंगे। अब तो यह चैक करो कि क्या मैं सभी टाइटल धारण करने वाला योगी बना हूँ? कोई के आठ-दस, तो कोई के एक-दो।

जैसे डाक्टर, वकील और इन्जीनियर, मिलिट्री में यह सब होंगे, वहाँ कर्नल भी होगा लेकिन उसकी लिस्ट तो अलग-अलग होगी। जैसे बनारस में भी यूनीवार्सिटी द्वारा टाइटल मिलता है कोई को एक-दो या छ: और कोई को आठ-दस, वैसे ही यहाँ भी टाइटल लेते हैं। सिर्फ इसमें ही खुश नहीं होना है कि मैं योगी हूँ। जो महिमा, योग की गाई जाती है, अगर इन सबको अपने जीवन में धारण किया है, तो वह जितना ही यहाँ गायन होगा तो वह उतना ही वहाँ पूज्यनीय होगा। जैसे लौकिक रीति में भी बच्चा बाप की पूजा नहीं करता, लेकिन बाप को पूजनीय तो कहता है ना! इसी प्रकार जो सतयुग में प्रजा होगी, वह पूजा तो नहीं करेगी, लेकिन पूजनीय तो कहेगी अर्थात् रिगार्ड तो देगी। अब लिस्ट निकालो कि आपने अपने में कितने टाइटल धारण किये हैं और फिर चैक करो कि आपमें किसमें कमी है। टाइटल भी तब मिलता है, जब कि उसमें पास होते हैं। तो जब आपको भी अपनी सहजयोगी की स्थिति दिखाई दे और सभी यह महसूस करें कि आपका सहजयोग है, तब ही पास कहेंगे। ऐसे ही ज्ञानयोग में भी जो ज्ञान की महिमा है या उसकी उपमायें हैं, क्या वह सभी मैंने अपने में धारण की हैं? तो फिर आप स्वयं ही अपने नम्बर को जान सकते हो। जैसे कोई कहे कि पढ़ाई पॉवरफुल है, तो यह ज्ञान की महिमा हुई ना, न कि आपकी। तो अब देखो कि ज्ञान के जितने भी नाम हैं, क्या वह सब मैंने धारण किये हैं?

अगर सब टाइटल ज्ञान और योग के धारण नहीं किये हैं, तो विश्व महाराजन् व विश्व-महारानी बन नहीं सकेंगे। चलो, पास विद ऑनर नहीं, परन्तु पास तो होना है, फिर पास होने के लिए भी तो 75% मार्क्स चाहिए। अर्थात् यह सब धारणायें व योग्यतायें सबको अपने में दिखाई दें। सारे दिन के चार्ट में जैसे चौबीस घण्टे होते हैं, तो उसमें भी आठ घण्टे आराम के, फिर उसमें बचे सोलह घण्टे, तो सोलह का पौना बारह घण्टे, लेकिन जिनका बहुत बुद्धि का काम होता है, तो तीन घण्टे उनको छुट्टी देते हैं। और बाप होने के नाते एक घण्टा वैसे ही छोड़ते हैं। तो इस प्रकार आठ घण्टे बचे। तो सहजयोगी, राजयोगी आदि जो भी ज्ञान और योग के टाइटल हैं, वह आप में आठ घण्टे तो पूर्ण रूप में होने ही चाहिए जिससे कि अन्य आत्मायें भी यह महसूस करें व सार्टिफिकेट प्रदान करें कि हाँ यह सब लक्षण इसमें हैं, तब ही इसमें 75% मार्क्स मिल सकेंगे।

जो महारथी हैं अर्थात् पास विद ऑनरहोने वाले हैं, तो उनकी नींद का टाइम भी योग-युक्त स्थिति में गिना जाता है। उनकी स्टेज ऐसी होगी, जैसे कि पार्ट समाप्त कर वह स्वयं परमधाम में हैं और उनको योग की ही महसूसता होगी। जैसे गायन् है ना कि ब्रह्मा से ब्राह्मण बने। यहाँ तो ब्राह्मण से देवता बनते हैं। लेकिन यह ब्रह्मा से ब्राह्मण अर्थात् रात को सोते समय बस यही संकल्प होगा, कि अब मैं अपना पार्ट पूरा कर कर्मइन्द्रियों से अलग होकर जाता हूँ अपने पारब्रह्म में और जब अमृत वेले उठेंगे, तो महसूस करेंगे कि मैंने यह आधार लिया है, पार्ट बजाने के लिए, तो गोया ब्रह्म से ब्राह्मण बनकर आये हैं। यहाँ से तो जाकर वे सीधे देवता बनेंगे। लेकिन यह इस समय के ही अष्ट रत्नों का गायन है। जैसे साकार में बाप और माँ सरस्वती को देखा-उन्हें फर्स्ट, सेकेण्ड नम्बर किस आधार पर मिला? उनकी ज्यादा समय की कमाई तो नींद की ही जमा हुई ना? भले वे सोते भी थे, लेकिन ऐसा अनुभव करते थे कि नींद में नहीं हैं बल्कि हम तो जाग रहे हैं और फिर उनकी थकावट भी दूर हो जाती थी क्योंकि जब आत्मा कमाई में जागृत होती है, तो उसे थकावट भी नहीं होती। तो जैसे मां-बाप ने नींद को योग में बदला तो आप भी फर्स्ट ग्रेड के महारथियों को ऐसा ही फॉलो करना है। अब ऐसा अनुभव तो करते हो कि नींद कम होती जाती है, लेकिन ऐसी अवस्था बनानी है। नींद को योग में बदलो और फॉलो फादर करो। सारा दिन तो वे आपके समान ही साधारण थे ना? यह है फर्स्ट ग्रेड की निशानी-अष्ट रत्नों में आने वालों की। दूसरे हैं सौ वाले और फिर तीसरे हैं 16108 में आने वाले। लेकिन यहाँ महारथी तो सभी हैं, घोड़े सवार कोई नहीं है। लेकिन फर्स्ट, सेकेण्ड और थर्ड नम्बर होते हैं।

इसी प्रकार, जैसे किसी ने कर्मेन्द्रियों को ऑर्डर दिया और उसने वैसा ही किया, तो मानो कि वह कर्मयोगी है लेकिन जो सेकेण्ड ग्रेड वाले होंगे, तो उन्हें इसमें कभी-कभी  सफलता वा कर्मयोगी की महसूसता आयेगी और कभी-कभी नहीं और बाकी थर्ड ग्रेड वाले को तो तुम जान ही सकते हो। तो जब आपने फर्स्ट ग्रेड का बनना है, तो पहले लिस्ट निकालो कि ज्ञानयोग के कितने टाइटल्स हैं और आपने उनमें से कितने धारण किये हैं? यह क्लास कराना। ब्रह्माकुमार व ब्रह्माकुमारी का टाइटल तो सबको मिल गया पर इसमें ही खुश न होना है, बल्कि सब टाइटल्स को पूरापूरा धारण करना है। अच्छा!

अव्यक्त बाप-दादा की प्वाइन्ट्स

क्या अपने को बेगमपुर के बादशाह समझते हो? बैगर के साथ बादशाह भी। बैगर बनने की बातों में बादशाह नहीं और ना ही बादशाह बनने की बातों में बैगर ही बनना है। यही बुद्धि का कमाल चाहिए। जैसा समय, वैसी बात और वैसा अपना स्वरूप बना लें। इसके लिए मुख्य शक्ति कौन-सी चाहिये? इसमें चाहिये-निर्णय की शक्ति। जब पहले यह जानो कि यथार्थ निर्णय करने का कौन-सा समय है, तो उस प्रमाण कौन-सा स्वरूप चाहिये, तब ही तो विजयी बन सकेंगे ना? निर्णय शक्ति अपने में लाने के लिए मुख्य पुरूषार्थ कौन-सा चाहिए? इसके लिए मुख्य बात, अपनी बुद्धि की वा लगन की सच्चाई और सफाई चाहिए। कोई भी चीज़ जितनी साफ होती है, तो उतना ही उसमें सब स्पष्ट दिखाई देता है। अर्थात् निर्णय सहज हो सकता है, लेकिन यहाँ सिर्फ सफाई ही नहीं, लेकिन सफाई भी कौन-सी?-सच्चाई की। जितनी-जितनी बुद्धि की लगन में स्वच्छता अर्थात् सच्चाई और सफाई धारण की हुई है तो उतनी ही निर्णय-शक्ति सहज आ जायेगी। क्या अपने में ऐसी चैकिंग करते हो? याद में रहना बहुत सहज है। याद के साकार स्वरूप का सुख लेने के लिए ही तो यहाँ आते हो ना? लेकिन फिर भी नम्बरवार किस आधार पर होते हैं? यही है सच्चाई और सफाई और इससे ही निर्णय-शक्ति श्रेष्ठ होगी। जितनी निर्णय- शक्ति, उतनी सफलता होगी। सच्चाई और सफाई है -- यह कोई बड़ी बात नहीं लेकिन कितनी परसेन्टेज में है, यह चैक करने से नम्बर स्वत: ही निकल आयेगा। अच्छा!



26-06-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व-सिद्धियों की प्राप्ति के रूहानी नशे में सदा स्थित रहो

सर्व आत्माओं की जन्मपत्री को जानने वाले, सर्व-सिद्धियों के दाता, वर्ल्ड आलमाइटी अथॉरिटी शिव बाबा बोले:-

आज ज्ञान-सूर्य बाप हर सितारे के मस्तक पर तकदीर की लकीर देख रहे हैं। लौकिक रीति में भी, भक्तों द्वारा हस्तों से जो जन्मपत्री देखी जाती है, उनमें मुख्यत: चार बातें देखते हैं। यहाँ हस्तों द्वारा तो नहीं, लेकिन मस्तक द्वारा मुख्य चार बातें देख रहे हैं-(1) एक बात यह कि बुद्धि की लाइन कितनी क्लियर है और विशाल है (2) दूसरी बात, हर समय ज्ञान-धन को धारण करने में, तन के कर्मभोग से निर्विघ्न और मन से एकरस लगन लगाने में मरजीवा जन्म से लेकर अभी तक कहाँ तक निर्विघ्न चलते आ रहे हैं? (3) तीसरी बात, इस श्रेष्ठ ब्राह्मण जन्म की स्मृति की आयु लम्बी है या छोटी है? बार-बार स्मृति अर्थात् जीना, विस्मृति अर्थात् मरने की हालत में पहुँच जाना, इसी हिसाब से आयु छोटी अथवा बड़ी गिनी जाती है। (4) मरजीवा जन्म लेते ही, स्नेह, सम्बन्ध सम्पर्क और सर्वशक्तियों में कहाँ तक तकदीरवान रहे हैं? क्या तकदीर की रेखा प्रतिशत के हिसाब से अटूट रही है और साथ-साथ पढ़ाई में व कमाई जमा करने में सदा सफलतामूर्त, रेग्युलर और पंक्चुअल कहाँ तक रहे हैं? कितनी आत्माओं के प्रति महादानी, वरदानी, कल्याणकारी बने हैं अर्थात् दान-पुण्य की रेखा लम्बी है या छोटी? इन सब बातों से हरेक सितारे के वर्तमान और भविष्य को देख रहे हैं।

आप सब अपने मस्तक की रेखाओं को जान और देख सकते हो, परन्तु कैसे? बाप-दादा के दिल-तख्तनशीन बन कर, स्मृति के तिलकधारी बनकर नॉलेजफुल और पॉवरफुल स्टेज पर स्थित हो देखेंगे तो स्पष्ट जान सकेंगे। अपनी पोज़ीशन को छोड़कर, माया की ऑपोज़ीशन  की स्थिति में व स्टेज पर स्थित होकर अपने को व अन्य आत्माओं को जब देखते हो, तब स्पष्ट दिखाई नहीं देता। पोज़ीशन कौन-सी है? आपकी अपनी पाज़ीशन कौन-सी है, जिसमें सब बातें आ जाती हैं? मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी। सदा इसी पाज़ीशन में स्थित रहते हुए, हर कर्म को करो तो यह पोज़ीशन माया के हर विघ्न से परे, निर्विघ्न बनाने वाली है। जैसे कोई लौकिक रीति में भी जब कोई अथॉरिटी वाला होता है, तो उनके आगे कोई भी सामना करने की हिम्मत नहीं रखते हैं और अगर कोई अपनी अथॉरिटी को यूज़ करने के बजाय हर समय लूज़  रहता है, तो साधारण आदमी भी सामना करने के लिए अथवा डिस्टर्ब करने के लिए, विघ्न डालने के लिए लूज़ रहते हैं। तो यहाँ भी अपनी अथॉरिटीज़ को, प्राप्त हुई सर्व-शक्तियों को, वरदानों को यूज करने के बजाय लूज़ रहते हो। इसलिए हर समय, माया को सामना करने की हिम्मत रहती है। मन्सा में, वाचा में, कर्मणा में, सम्बन्ध में और सम्पत्ति में सब में इन्टरफियर करने की हिम्मत रखती है। किसी भी बात में छोड़ती नहीं, क्योंकि अपनी पाज़ीशन से नीचे आकर साधारण बन जाते हो।

रिवाज़ी रीति से यदि कोई साधारण आत्मायें भी अल्पकाल की सिद्धि प्राप्त कर लेती हैं, तो कितनी अथॉरिटी में रहती हैं। यहाँ सर्व-सिद्धियाँ प्राप्त होते हुए (1) चाहे सदा निरोगी बनने की सिद्धि (2) चाहे कोई भी प्रकृति के तत्व को वश में करने की सिद्धि (3) चाहे कोई दु:खी, निर्धन व अशान्त आत्मा को अविनाशी धनवान बनाने व सदा सुखी बनाने की सिद्धि (4) निर्बल को महा बलवान बनाने की सिद्धि (5) संकल्पों को एक सेकेण्ड में जहाँ और जैसे ठहराना चाहो वा संकल्प को अपने वश में करने की सिद्धि (6) पाँच विकारों रूपी महाभूतों को वश में करने की सिद्धि (7) नैनहीन को त्रिनेत्री बनाने की सिद्धि (8) अनेक परिस्थितियों की परेशानी में मूर्छित हुई आत्मा को स्व-स्थिति द्वारा सुरजीत करने व जी-दान देने की सिद्धि (9) भटकी हुई आत्मा को सदाकाल के लिए ठिकाना देने की सिद्धि (10) जन्मजन्मान्तर के लिए आयु लम्बी करने की सिद्धि (11) अकाले मृत्यु से बचाने की सिद्धि (12) राज्यभाग व ताज-तख्त प्राप्त करने की सिद्धि। ऐसी सर्व-सिद्धियों को विधि द्वारा प्राप्त करने वाली आत्मायें कितने नशे में रहनी चाहिए?

अपने आप को क्यों भूल जाते हो? लेना है बाप का सहारा और कर देते हो सर्वशक्तिमान से किनारा। खिवैया से किनारा कर और किनारे को अर्थात् मंज़ल जब ढूंढ़ते हो, तो मिलेगी या समय व्यर्थ जायेगा? बाप-दादा को ऐसे भोले व भूले हुए बच्चों पर रहम आता है। लेकिन कब तक? जब तक बाप द्वारा रहम लेने की आवश्यकता व इच्छा है, तब तक अन्य आत्माओं के प्रति रहमदिल नहीं बन सकेंगे? जो स्वयं ही लेने वाला है, वह देने वाला दाता नहीं बन सकता जैसे भिखारी, भिखारी को सम्पन्न नहीं बना सकता। हाँ अल्पकाल के लिए वे कुछ शक्तियों के आधार से, उन्हों पर थोड़े समय के लिए प्रभाव डाल सकते हैं। लेकिन सदा काल के लिए और सर्व में सम्पन्न नहीं बना सकते। अच्छा-अच्छा कहने तक अनुभव करा सकते हैं, लेकिन इच्छा मात्रम् अविद्याकी स्टेज तक नहीं ला सकते। अच्छा-अच्छा कहने के साथ, सर्व-प्राप्ति की इच्छा समाप्त नहीं होती। क्योंकि स्वयं भी बाप द्वारा व सर्व सहयोगी आत्माओं द्वारा सहयोग, स्नेह, हिम्मत, उल्लास, उमंग की इच्छा रखने वाले और कोई भी प्रकार का आधार लेने वाले सर्व-आत्माओं के निमित्त आधार-मूर्त नहीं बन सकते। प्रकृति के व परिस्थिति के और व्यक्ति के व वैभव के अधीन रहने वाली आत्मा अन्य आत्माओं को भी सर्व अधिकारी नहीं बना सकती। इसलिए अपनी सर्व-सिद्धियों को जानकर उन्हें यूज़ करो। लेकिन निमित्त-मात्र बन कर यूज़ करो। मैं-पन भूल, श्रीमत के आधार से हर सिद्धि को यूज़ करो। अगर मैं-पन में आकर, कोई भी सिद्धि को यूज़ किया, तो क्या कहावत है? ‘‘करामत खैर खुदाई।’’ अर्थात् श्रेष्ठ-पद के बजाय, सज़ा के भागी बन जावेंगे। साक्षीपन नहीं, तो फिर सज़ा है। इसलिए सदा स्मृति-स्वरूप और सिद्धि-स्वरूप बनो। समझा?

मुरली का सार

(1) सदा मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी की पोज़ीशन में स्थित रहते हुए, यदि हर कर्म करो तो यह पोज़ीशन माया की ऑपाज़ीशन अर्थात् हर विघ्न से परे निर्विघ्न बनाने वाली बन जायेगी।

(2) प्रकृति व परिस्थिति के और व्यक्ति के वैभव के आधीन रहने वाली आत्मा कभी भी अन्य आत्माओं को स्व-अधिकारी नहीं बना सकती।

(3) अपनी सर्व-सिद्धियों को जानकर, मैं-पन को भूल निमित्त-मात्र बन कर, श्रीमत के आधार से युज़ करो।

(4) यदि साक्षीपन नहीं, तो फिर सज़ा है।



30-06-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अव्यक्त स्थिति में स्थित होने से पुरूषार्थ की गति में तीव्रता

प्रकृति के और विकारों के आकर्षण से सदा परे रहने वाले, विश्व की सर्व- आत्माओं की सेवा करने वाले और सदा विदेही परम पिता परमात्मा शिव बोले:-

आज सभी बच्चों को सूक्ष्म वतन का समाचार सुनाते हैं। आप सबकी रूचि होती है ना कि सूक्ष्म वतन की सैर करें अर्थात् एक बार वतन को जरूर देखें? पता है कि यह इच्छा व संकल्प क्यों होता है? क्योंकि बाप-दादा, सूक्ष्म वतन वासी बन, पार्ट बजाते हैं इसलिए संकल्प आता है कि हम भी एक बार बाप-दादा के साथ यह अनुभव करें। इसलिए बाप-दादा ही अपना अनुभव सुना देते हैं। यह तो मालूम है ना कि सबसे मुख्य अनुभव करने व सुनने का दृश्य किस समय होता है? विशेष बच्चों के प्रति अमृतवेले का समय ही निश्चित है। फिर तो, विश्व की अन्य आत्माओं के प्रति, यथा-शक्ति भावना का फल व कोई भी रजोप्रधान कर्म, अल्पकाल के लिए जिन आत्माओं द्वारा होते रहते हैं उनको भी उनके कर्मों के अनुसार अल्पकाल के लिये फल देने के प्रति, साथ-साथ सच्चे भक्तों की पुकार सुनने और भक्तों की भिन्न-भिन्न  प्रकार की भावना के अनुसार साक्षात्कार कराने और अब तक भी चारों ओर कल्प पहले वाले छुपे हुए ब्राह्मण आत्माओं को सन्देश पहुंचाने के लिए, बच्चों को निमित्त बनाने के कार्य में, पुरानी दुनिया को समाप्त कराने-अर्थ निमित्त बने हुए, वैज्ञानिकों की देख-रेख करने, ज्ञानी तू आत्मा, स्नेही व सहयोगी बच्चों को, सारे दिन के अन्दर ईश्वरीय सेवा का कार्य करने व मायाजीत बनने में हिम्मते बच्चे, मददे बापके नियम के अनुसार, उनको भी मदद देने के कर्त्तव्य में, ड्रामानुसार निमित्त बने हैं। अब समझा कि बाप सारे दिन क्या करते हैं? साकार बाप भी अब अव्यक्त होने के कारण क्विक-स्पीड में निराकार बाप के साथी व सहयोगी सदाकाल के लिए बनने का पार्ट बजा सकते हैं।

ब्रह्मा बाबा, अव्यक्त शरीरधारी, शरीर के बन्धन में न होने के कारण, जैसे अब क्विक-स्पीड में बाप-समान साथी बने हैं, वैसे व्यक्त में साथी नहीं बन सकते थे, क्यों नहीं बन सकते थे? कारण क्या है? जो व्यक्त और अव्यक्त रूप में, अन्तर पड़ जाता है कि व्यक्त शरीर में फिर भी व्यक्त शरीर के प्रति, समय देना पड़ता है और कभी-कभी कर्मभोग के प्रति भी, अपने निमित्त सर्व-शक्तियों को यूज़ करना पड़ता है। तो व्यक्त शरीर में स्वयं के प्रति, बच्चों के प्रति और विश्व के प्रति इन तीनों में ही, समय देना पड़ता है और व्यक्त शरीरधारी होने के कारण व्यक्त साधनों के आधार पर सर्विस करनी पड़ती है। लेकिन अव्यक्त रूप में स्वयं के प्रति भी साधनों का आधार नहीं लेना पड़ता। इस प्रकार एक तो सम्पूर्ण होने के नाते, सम्पूर्णता की तीव्रगति है, दूसरा स्वयं पर, समय व शक्तियाँ यूज न करने के कारण सेवा में भी तीव्र गति है। तीसरा विनाशी साधनों का आधार न होने के कारण संकल्प की गति भी तीव्र है। संकल्प द्वारा कहीं भी पहुंचने और विनाशी शरीर द्वारा कहाँ पहुंचने में, समय और शक्ति का कितना अन्तर पड़ जाता है! ऐसे ही व्यक्त और अव्यक्त की गति में भी अन्तर है।

साइंस वाले, समय को और अपनी एनर्जी अर्थात् मेहनत को, साधनों के विस्तार को, सूक्ष्म और शार्ट कर रहे हैं। कम-से-कम एक सेकेण्ड तक पहुंचने का तीव्र पुरूषार्थ कर रहे हैं और सफलता को पा रहे हैं जैसे विनाश के अर्थ, निमित्त बनी हुई आत्माओं की गति, सूक्ष्म और तीव्र होती जा रही है तो ऐसे ही स्थापना के अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं की स्थिति और गति भी सूक्ष्म और तीव्र होनी चाहिये ना? तभी तो दोनों कार्य सम्पन्न होंगे। तो अब व्यक्त शरीर में और अव्यक्त शरीर में अन्तर समझा? अव्यक्त होना ड्रामा अनुसार किस सेवा के निमित्त बना हुआ है, क्या इस रहस्य को समझा? ब्रह्मा का पार्ट स्थापना के कार्य में, अन्त तक नूंधा हुआ है। जब तक, स्थापना का कार्य सम्पन्न नहीं हुआ है, तब तक निमित्त बनी हुई आत्मा (ब्रह्मा) का पार्ट समाप्त नहीं होना है। वह तब तक दूसरा पार्ट नहीं बजा सकते। जगत पिता के नये जगत की रचना सम्पन्न करने का पार्ट ड्रामा में नूँधा हुआ है। मनुष्य-सृष्टि की सर्व-वंशावली रचने का सिर्फ ब्रह्मा के लिए ही गायन है ग्रेट-ग्रेट ग्रैण्ड फादर (Great Great Grand Father) इसीलिये गाया हुआ है। सिर्फ स्थिति, स्थान और गति (स्पीड) का परिवर्तन हुआ है, लेकिन पार्ट ब्रह्मा का अभी तक वही है।

कइयों के संकल्प पहुंचते हैं कि इतना समय बाबा क्या कर रहा है? बाप भी प्रश्न पूछते हैं कि क्या ब्रह्मा के साथ ब्राह्मणों का, सर्व-आत्माओं के कल्याण-अर्थ निमित्त बनने का पार्ट व नई सृष्टि की स्थापना का नूंधा हुआ पार्ट समाप्त हुआ है? जब पार्ट समाप्त नहीं हुआ और सृष्टि का परिवर्तन ही नहीं हुआ, तो ब्रह्मा का पार्ट समाप्त कैसे होगा? स्नेह वे कारण ही संकल्प आता है कि वतन में इतना समय क्या करेंगे? वतन का पार्ट इतना समय क्यों और कैसे, यह संकल्प कब आता है? यह भी एक गुप्त रहस्य है। कर्म-बन्धन से मुक्त, सम्पन्न हुई आत्मा, इस कल्प के जन्म-मरण के चक्र को समाप्त करने वाली आत्मा, निराकार बाप की फर्स्ट नम्बर साथी आत्मा, विश्व के कल्याण प्रति निमित्त बनी हुई फर्स्ट आत्मा, स्वयं के प्रति और विश्व के प्रति सर्व- सिद्धि प्राप्त हुई आत्मा, जहाँ चाहे और जितना समय चाहे, वह वहाँ स्वतन्त्र रूप में पार्ट बजा सकती है। जब अल्पकाल की सिद्धि प्राप्त करने वाली आत्माएं, अपनी सिद्धि के आधार पर अपने रूप परिवर्तन कर सकती हैं, तो सर्व-सिद्धि प्राप्त हुई आत्मा अव्यक्त रूपधारी बन कर, जितना समय चाहे क्या वह उतना समय ड्रामा- अनुसार नहीं रह सकती?

आत्मा को निराकारी व अव्यक्त स्टेज से व्यक्त में लाने का कारण क्या होता है? एक कर्मों का बन्धन, दूसरा सम्बन्ध का बन्धन, तीसरा व्यक्त सृष्टि के पार्ट का बन्धन और देह का बन्धन-चोला तैयार होता है और आत्मा को पुराने से नये में आकर्षित करता है-तो इन सब के बन्धनों को सोचो। स्थापना के पार्ट का जो बन्धन है, वह व्यक्त से अव्यक्त रूप में और ही तीव्र गति से हो रहा है। इस कल्प के अन्दर अब अन्य देह के आकर्षण का बन्धन नहीं, देहधारी बन कर्म-बन्धनों में आने का बन्धन समाप्त कर लिया। जब सर्व-बन्धनों से मुक्त आत्मा बन गई, तो यह व्यक्त देह व व्यक्त देश आत्मा को खींच नहीं सकते। जैसे साइन्स द्वारा भी स्पेस में चले जाते हैं और धरनी के आकर्षण से परे हो जाते हैं, तो धरनी उनको खींच नहीं सकती। ऐसे ही जब तक नये कल्प में, नये जन्म और नई दुनिया में पार्ट बजाने का समय नहीं आया है, तब तक यह आत्मा स्वतन्त्र है और वह व्यक्त-बन्धनों से मुक्त है। समझा?

इसलिए, अब भिन्न-भिन्न प्रकार के संकल्प नहीं करना। ब्राह्मण बच्चों के साथ जो बाप का वायदा है कि साथ चलेंगे, साथ मरेंगे और साथ जियेंगे अर्थात् पार्ट समाप्त करेंगे; ब्रह्मा बाप ने बच्चों के साथ जो कॉन्ट्रैक्ट विश्व-परिवर्तन का उठाया है, वह आधे में छोड़ सकते हैं क्या? स्थापना के कार्य में निमित्त बनी हुई नींव (फाउण्डेशन) बीच से निकल सकती है क्या? ‘जो कर्म मैं करूँगा, मुझे देख सब करेंगे’, यह स्लोगन कर्म-अर्थ निमित्त बनी हुई आत्मा समाप्त नहीं करेगी। अभी सेवा का कर्म बाप को देखते हुए कर रहे हो ना? कर्म करके दिखाने के निमित्त बनी हुई आत्मा, अन्त तक साथी और सहयोगी अवश्य बनती है। अच्छा, यह हुआ संकल्प का रेसपान्स। अमृतवेले का समाचार फिर दूसरी बार सुनावेंगे। क्योंकि वह विशेष तौर से बाप और बच्चों का ही समाचार है और उसका तो विस्तार होगा। अच्छा!

ऐसे गुह्य राजों को समझने वाले राज़-युक्त, योग-युक्त, ज्ञान-युक्त, युक्ति- युक्त, सर्वगुणों से युक्त, प्रकृति और विकारों के आकर्षण से सदा परे रहने वाले, बाप के साथ स्थापना के कार्य में तीव्रगति से सहयोगी बनने वाले और सदा स्नेही आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।

इस मुरली का सार

1. सूक्ष्म वतन में रहते हुए भी अव्यक्त बाप-दादा भक्तों की पुकार सुनने, वैज्ञानिकों की देख-रेख करने, छिपे हुये बच्चों को खोज निकालने और ब्राह्मण बच्चों की, पुरूषार्थ और सेवा में मदद करने का कार्य करते हैं।

2. अव्यक्त शरीरधारी होने से एक तो सम्पूर्ण होने के कारण सम्पूर्णता की तीव्र गति है, दूसरे स्वयं पर समय व शक्ति यूज़ न करने के कारण सेवा में तीव्र गति है और तीसरे विनाशी साधनों का आधार न होने के कारण संकल्प की गति भी तीव्र है।



30-06-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


रूहानी सेना का मुख्य लॉ

रूहानी सेना के सर्वोच्च सेनापति शिव बाबा अपने बच्चों के प्रति बोले :-

रूहानी सेना सदैव शस्त्रधारी, लॉ एण्ड ऑर्डर में चलने वाली होती है। सेना का मुख्य गुण यही देखा जाता है, कि लॉ एण्ड ऑर्डर कहाँ तक है? तो क्या आप सब लॉ एण्ड ऑर्डर में हो? रूहानी सेना के लिए मुख्य लॉ कौन-सा है कि जिसमें सब लॉ आ जाएं? रूहानी सेना के लिए मुख्य लॉ यही है कि कभी भी अपनी देह को व अन्य देहधारी की तरफ नहीं देखना है। बाप की तरफ ही हर कदम उठाना है। यह है रूहानी सेना के लिए मुख्य लॉ। अगर जरा भी देहधारी व अपनी देह को देखा, तो जो मंजिल है कि-बाप तक पहुँचना व बाप से मिलना, तो वहाँ तक पहुंच नहीं सकेंगे। अच्छा।

इस मुरली का सार

(1) रूहानी सेना का मुख्य लॉ यही है कि कभी भी न तो अपनी देह और न ही अन्य किसी दूसरे की देह को देखना है।

(2) अपना हर कदम बाप की ओर ही उठाना है।



04-07-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्व-स्थिति की श्रेष्ठता से व्यर्थ संकल्पों की हलचल समाप्त

मर्यादा पुरूषोत्तम बनाने वाले, अपने सम्पूर्ण निशाने के नजदीक पहुँचाने वाले, व्यर्थ संकल्पों की हलचल समाप्त कर सामर्थ्यवान बनाने वाले और कर्मों की गुह्य गति को जानने वाले भोलेनाथ शिव बाबा बोले:

क्या अपने सम्पूर्ण निशाने के नज़दीक पहुंचे हो? क्या निशाने पर पहुँचने की निशानियाँ दिखाई देती हैं? क्या सम्पूर्ण निशाने के नज़दीक पहुंचने की निशानी का डबल नशा उत्पन्न होता है? पहला नशा है-कर्मातीत अर्थात् सर्व कर्म बन्धनों से मुक्त, न्यारे बन, प्रकृति द्वारा निमित्त-मात्र कर्म कराना। ऐसे कर्मातीत अवस्था का अनुभव होगा। न्यारे बनने का पुरूषार्थ बार-बार नहीं करना पड़ेगा। सहज और स्वत: ही अनुभव होगा कि कराने वाला और कराने वाली यह कर्मेन्द्रियाँ स्वयं से, हैं ही अलग। दूसरा नशा है-विश्व का मालिक बनने का, कि ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि स्थूल चोला व वस्त्र तैयार हुआ सामने दिखाई दे रहा है और निश्चय होगा कि वस्त्र तैयार है और थोड़े ही समय में उसे धारण करना है। वह सर्वगुण सम्पन्न और सतोप्रधान नया शरीर स्पष्ट दिखाई देगा और चलते-फिरते यह नशा और खुशी होगी कि कल यह पुराना शरीर छोड़ नया शरीर धारण करेंगे। जरासा संकल्प भी उत्पन्न नहीं होगा, कि दैवी-पद प्राप्त होगा या नहीं, देवता बनेंगे अथवा नहीं और राजा बनेंगे या प्रजा? ऐसे संशय का संकल्प भी उत्पन्न नहीं होगा क्योंकि सामने स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि आज हम यह हैं और कल यह होंगे। ज्ञान के तीसरे नेत्र द्वारा योग-युक्त अर्थात् सदा योगी होने के कारण बुद्धि की लाइन क्लियर अर्थात् स्पष्ट होने के कारण निश्चय बुद्धि विजयन्ति के आधार से अनुभव होगा कि अनेक बार यह चोला धारण किया है और अब भी करना ही है। ऐसा अटल विश्वास होगा और स्पष्ट साक्षात्कार होगा। यह बनेंगे अथवा नहीं बनेंगे?-यह हलचल जब तक बुद्धि में है, तब तक ही स्थिति में भी हलचल है।

जितना-जितना स्व-स्थिति, श्रेष्ठ-स्थिति, ज्ञानस्वरूप व आत्मा के सर्व-गुणों से सम्पन्न स्थिति, अचल, अडोल, निरन्तर और एक-रस होती जायेगी तो उतने ही  संकल्पों की हलचल समाप्त होती जायेगी। जैसे साकार में मात-पिता को देखा कि दोनों के ही नशे में संकल्प की भी हलचल नहीं थी। सम्पूर्ण अचल और अटल निश्चय था कि यह तो बना हुआ ही है अथवा यह तो निश्चित ही है। तो नशे की निशानी अटल निश्चय और निश्चिन्त अनुभव होगी। निशाने की निशानी नशा और नशे की निशानी निश्चय और निश्चिन्त। साथ-साथ माया के किसी भी प्रकार का वार होने से और हार खाने से भी निश्चिन्त। ना मालूम माया हार नहीं खिलावे, विजयी बनेंगे या नहीं-इस कमजोर संकल्प से भी निश्चिन्त, क्योंकि सामने दिखाई दे रहा है, क्या ऐसा अनुभव होता है? कमजोर संकल्पों की चिन्ता में कि माया आ नहीं जावे, कमजोर हो न जाऊँ, और मुझे सफलता मिलेगी अथवा नहीं? क्या इस भय के भूत के वश अपना समय और शक्तियाँ व्यर्थ तो नहीं गँवाते हो? ऐसा कमजोर संकल्प करना अर्थात् स्वयं में संशय का संकल्प रखने से कभी भी सम्पूर्ण नहीं बन सकेंगे। यह संकल्प करना अर्थात् कमजोरियों के रूप में एक भूत के साथ और माया के भूतों का आह्वान करते हो अथवा बुद्धि में स्थान देते हो व एक के साथ अनेकों को निमन्त्रण देते हो। इसलिए इस भय के भूत को भी जब तक बुद्धि से नहीं निकाला, तब तक इस भूत के साथ बाप की याद बुद्धि में कैसे रह सकती है? बाप की याद और भूत यह दोनों इकट्ठे निवास नहीं कर सकते; इसलिए कहावत भी है कि निश्चय बुद्धि विजयन्ति।

यह निश्चय व स्मृति रखो और समर्थी रक्खो कि अनेक बार बाप के बने हैं व मायाजीत बने हैं, तो अब बनना क्या मुश्किल है? क्या स्मृति स्पष्ट नहीं है कि मुझ श्रेष्ठ आत्मा ने विजयी बनने का पार्ट अनेक बार बजाया है? अगर स्पष्ट स्मृति नहीं है तो इससे सिद्ध है कि बाप के आगे स्वयं को स्पष्ट नहीं किया है। किसी भी कारण से बाप के आगे कुछ छिपाया है तो यह भय का भूत इस कारण से ही छिपा हुआ है। जो हूँ और जैसा हूँ, वैसा ही बाप का हूँ, इस निश्चय में कमी के कारण यह भी निश्चय नहीं कि मैं अनेक बार बना हूँ। तो पहले यह चैक करो कि स्वयं को बाप के आगे स्पष्ट किया है? अथवा अपने को और बाप को खुश करते हो कि बाप तो जानी जाननहार है वह तो सब-कुछ जानते ही हैं। क्या बाप यह नहीं जानता कि मैं जानता हूँ? विश्व के शिक्षक के भी शिक्षक बनते हो? बाप को विस्मृति हुई है क्या जो बाप को स्मृति दिलाते हो? इसलिए यह एक ईश्वरीय नियम व मर्यादा है कि कोई भी एक मर्यादा का पालन नहीं करते, तो वे मर्यादा पुरूषोत्तम नहीं बन सकते, इसलिए कारण का निवारण करो। बाप के आगे छिपाने से एक के ऊपर लाख गुणा बोझ चढ़े हुए होने के कारण जब तक स्वयं को हल्का नहीं किया है तो सोचो कि एक गलती के पीछे अनेक गलतियाँ करने से और एक मर्यादा का उल्लंघन होने से अनेक मर्यादाओं का उल्लंघन हो जाने के कारण व इतना लाख गुणा बोझ चढ़ा हुआ होने से चढ़ती कला में कदम कैसे बढ़ा सकते हो और निशाने के समीप कैसे आ सकते हो? लौकिक दुनिया में भी कोई चीज छिपाने वाले को कौन-सा टाइटल दिया जाता है? छोटी-सी चीज को छिपाने वाले को चोर की लिस्ट में तो गिनेंगे ना? तो जब तक ऐसे संस्कार है, बाप-दादा के आगे झूठ बोलना व किसी प्रकार से बात को चला देना तो मालूम है कि इसका कितना पाप होता है? ऐसे अनेक प्रकार के चरित्र बाप के आगे दिखाते हैं; ऐसे चरित्र दिखाने वाले कभी श्रेष्ठ चरित्रवान नहीं बन सकते। बाप को भोलानाथ समझते हैं ना, इसलिए समझते हैं कि छिप जायेगा और चल जायेगा। लेकिन बाप के रूप में भोलानाथ है, साथ-साथ हिसाब-किताब चुक्तु कराने के समय फिर लॉफुल भी तो है, फिर उस समय क्या करेंगे? क्या स्वयं को छिपा सकेंगे व बचा सकेंगे?

अपने अनेक प्रकार के बोझ को चैक करो। अमृतवेले से लेकर जो ईश्वरीय मर्यादायें बनी हुई हैं और जानते भी हो कि सारे दिन में कितनी मर्यादायें उल्लंघन की हैं। एक-एक मर्यादा के ऊपर प्राप्ति के मार्क्स भी हैं और साथ-साथ सिर पर बोझ का भी हिसाब है और जिन मर्यादाओं को साधारण समझते हो उन्हों में भी उनकी प्राप्ति और उनके बोझ का हिसाब है। संकल्प, बोल, समय और शक्तियों का खज़ाना इन सबको व्यर्थ करने से व्यर्थ का बोझ चढ़ता है। जैसे यज्ञ की स्थूल वस्तु, भोजन व अन्न अगर व्यर्थ गँवाते हो तो बोझ चढ़ता है ना? ऐसे ही जब यह मरजीवा जीवन का समय बाप ने विश्व की सेवा-अर्थ दिया है, तो सर्वशक्तियाँ स्वयं के व विश्व के कल्याण अर्थ दी है, मन शुद्ध संकल्प करने के लिए दिया है और यह तन विश्व-कल्याण की सेवा के लिए दिया है। आप सबने तन, मन और धन जो दे दिया है तो वह आपका है क्या? जो अर्पण किया वह बाप का हो गया ना? बाप ने फिर वह विश्व सेवा के लिये दिया है। श्रेष्ठ संकल्प से वायुमण्डल और वातावरण को शुद्ध करने के लिये मन दिया है, ऐसे ईश्वरीय देन को अर्थात् ईश्वर द्वारा दी गई वस्तु को यदि व्यर्थ में लगाते हो तो बोझा नहीं चढ़ेगा?

आजकल भी जड़ मूर्तियों द्वारा व मन्दिरों में जो थोड़ा-सा प्रसाद भी मिलता है तो उसको कब व्यर्थ नहीं गँवाते हैं। अगर जरा-सा कणा भी पाँव में गिर जाता है, तो पाप समझ मस्तक से लगाकर स्वीकार करते हैं। अनेकों के मुख में डाल प्रसाद को सफल करने का पुरूषार्थ करेंगे और उसे व्यर्थ नहीं गँवायेंगे। यह स्वयं बाप द्वारा मिली हुई जो वस्तु मन व तन परमात्म-प्रसाद हो गया, क्या इसको व्यर्थ करने का बोझ नहीं चढ़ेगा? जैसे समय की गति गहन होती जा रही है तो वैसे ही अब पुरूषार्थ की प्राप्ति और बोझ की गति भी गहन होती जा रही है। इसको ही कहा जाता है कि कर्मों की गति अति गुह्य है। तो आज कर्मों की गुह्य गति सुना रहे हैं कि जिससे ही सद्गति पा सकेंगे। अब समझा, कि निशाने के समीप की निशानियाँ क्या हैं? वा निशाने के समीप जाने की विधि क्या है?

बाप-दादा को भी रहम पड़ता है कि सभी को अभी से सम्पूर्ण बना देवे। लेकिन रचयिता भी मर्यादाओं व ईश्वरीय नियमों में बँधा हुआ है। बाप भी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं कर सकते। जो करेगा, वह पावेगा’, यह मर्यादा बाप को पूर्ण करनी पड़ती है। हाँ इतनी मार्जिन है कि जो एक का सौ गुणा दे देते हैं। हिम्मत करने पर मदद कर सकते हैं, बाकी और कुछ नहीं कर सकते हैं। अच्छा!

ऐसे हिम्मत और उल्लास में रहने वाले, सदा निश्चय बुद्धि विजयी बनने वाले, निशाने के समीप पहुँची हुई आत्मा, सदा नशे में रहने वाली आत्मायें, व्यर्थ को समर्थ बनाने वाली आत्मायें, हर सेकेण्ड और हर संकल्प को सफल करने वाली सफलतामूर्त आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।



08-07-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मास्टर नॉलेजफुल व सर्व-शक्तिवान् विभिन्न प्रकार की क्यू से मुक्त

सर्व सम्बन्धों की रसना देने वाले, सर्व इच्छाएं पूर्ण करने वाले अव्यक्त मूर्त बाप-दादा बोले:-

आज कौन-सा मेला कहेंगे?-बाप और बच्चों का। वह तो लौकिक सम्बन्ध में भी होता है। लेकिन आज के मेले की विशेषता क्या है जो और कहीं भी नहीं होती? आत्माओं और परमात्मा का मेला तो है ही,और कोई अलौकिक बात सुनाओ। इसकी विशेषता यह है कि यह मेला एक ही समय, एक से सर्व सम्बन्धों से, सर्व-सम्बन्ध के स्नेह और प्राप्ति का मेला है। सिर्फ बाप और बच्चों का, सद्गुरू और फॉलो करने वाले व समान बनने वाले आज्ञाकारी बच्चों का ही नहीं, लेकिन एक ही समय, एक से सर्व-सम्बन्धों से मिलन मनाने का अलौकिक मेला है। यह अलौकिकता व विशेषता और कहीं नहीं मिलेगी। ऐसा मेला मनाने सब सागर के कण्ठे पर आये हुए हैं। जबकि सर्व-सम्बन्धों से सर्व-प्राप्ति कर सकते हो तो सिर्फ एक-दो सम्बन्ध से मिलन व प्राप्ति करने में राजी नहीं हो जाना है। थोड़े में राजी होने वाले, भक्त कहलाये जाते हैं। बच्चे सर्व-सम्बन्ध और सर्व-प्राप्ति के अधिकारी हैं। इसी अधिकार को प्राप्त करने वाली आत्मायें, ज्ञानी तू आत्मा और योगी तू आत्मा बाप को प्रिय है। अपने से पूछो ऐसे बाप के प्रिय बने हो? क्या बाप समान निराकारी, निरहंकारी, निर्विकारी, नष्टोमोहा और स्मृतिस्वरूप बने हो? स्मृति स्वरूप बनने वाले की निशानी क्या अनुभव होगी? वह सदा सर्व-समर्थी-स्वरूप होगा।

नष्टोमोहा बनने के लिए सहज युक्ति कौन-सी है? इसके तो अनुभवी हो ना?-सदैव अपने सामने सर्व-सम्बन्धों से बाप को देखना और सर्व-सम्बन्धों द्वारा सर्व-प्राप्तियों को देखना। अब सर्व-सम्बन्ध और सर्व प्राप्तियाँ एक द्वारा अनुभव हो रही हैं, तो फिर और कोई सम्बन्ध व प्राप्ति रह जाती है क्या? जहाँ मोह अर्थात् लगाव है तो क्या सहज व स्वत: ही अनेक तरफ से तोड़, एक तरफ से जोड़ने का अनुभव नहीं होता है? अब तक भी कहीं और किसी के साथ लगाव व मोह है, तो सिद्ध होता कि सर्व-सम्बन्ध और सर्व प्राप्तियों का अनुभव नहीं कर रहे हैं।

आज बाप और बच्चों की रूह-रूहान व मिलन-मेले का समाचार सुनाते हैं। समाचार सुनने में सबको इन्ट्रेस्ट आता है ना? अब इस समाचार में देखना कि मैं कहाँ हूँ?

पहले तो अमृत वेले का समाचार सुनाते हैं। अमृत वेले के भिन्न-भिन्न पोज़ और पाज़ीशन पहले भी सुनाई थी, आज और बात सुनाते हैं। जैसे अमृतवेला प्रारम्भ होता है तो चारों ओर सर्व-बच्चे पहले तो नम्बर मिलाने का पुरूषार्थ करते हैं या फिर कनेक्शन जोड़ने का पुरूषार्थ करते हैं। फिर क्या होता है लाइन क्लियर होने के कारण कोई का तो नम्बर जल्दी मिल जाता है और कोई नम्बर मिलाने में ही समय बिता देते हैं। कोई-कोई नम्बर न मिलने के कारण दिलशिकस्त बन जाते हैं और कोई-कोई नम्बर मिलाते तो बाप से हैं, परन्तु बीच-बीच में कनेक्शन माया से जुट जाता है। ऐसा माया इन्टरफियर करती है कि जो वह चाहते हुए भी कनेक्शन तोड़ नहीं सकते। जैसे यहाँ भी आपकी इस दुनिया में कोई राँग नम्बर मिल जाता है, तो वह कहने से भी कट नहीं करते हैं, आप उनको और वह आपको कहेंगे कि कट करो। ऐसे ही माया भी उसी समय कमजोर बच्चों का कनेक्शन ही तोड़ देती है और उन्हीं को तंग भी करती है। क्यों तंग करती है, उसका भी कारण है। क्योंकि वे सारा दिन अलबेले और आलस्य के वश होते हैं और उनका अटेन्शन कम होता है। ऐसी अलबेली आत्माओं को माया भी विशेष वरदान के समय बाप की आज्ञा पर न चलने का बदला लेती है और ऐसी आत्माओं का दृश्य बहुत आश्चर्यजनक दिखाई देता है। अमृतवेले के थोड़े से समय के बीच अनेक स्वरूप दिखाई देते हैं। एक तो कभी-कभी बाप को स्नेह से सहयोग लेने की अर्ज़ी डालते रहते हैं। कभी-कभी बाप को खुश करने के लिए बाप को ही बाप की महिमा और कर्त्तव्य की याद दिलाते रहते है कि आप तो रहमदिल हो, आप तो सर्वशक्तिमान् हो, वरदानी हो, बच्चों के लिए ही तो आये हो आदि आदि। कभी-कभी फिर जोश में आकर, माया से परेशान हो सर्वशक्तियाँ रूपी शस्त्र यूज़ करने का प्रयत्न करते हैं। वे फिर कभी तलवार चलाते हैं, और कभी ढाल को सामने रखते हैं। लेकिन जोश के साथ आज्ञाकारी, वफादार और निरन्तर स्मृति स्वरूप बनने का होश न होने के कारण उन्हों का जोश यथार्थ निशाने पर नहीं पहुँच सकता। यह दृश्य बड़ा हँसी का होता है।

कोई-कोई फिर ऐसे भोले बच्चे होते हैं जो कि ईश्वरीय प्राप्ति और माया के अन्तर को भी नहीं जानते। निद्रा को ही शान्त-स्वरूप और बीज रूप स्टेज समझ लेते हैं। अल्पकाल के निद्रा द्वारा रेस्ट के सुख को अतीन्द्रिय सुख समझ लेते हैं। ऐसे अनेक प्रकार के बच्चे अनेक प्रकार के दृश्य दिखाते रहते हैं। लेकिन जो महारथी बच्चे अब तक गिनती के हैं या जो आप लोगों की गिनती में हैं वे उनसे भी कम हैं। आप लोग तो अष्ट समझते हो। लेकिन बाप की गिनती में अष्ट कम हैं। अब तक अष्ट रत्नों के अष्ट शक्ति स्वरूप, संकल्प, बोल और कर्म बाप समान बनने की स्टेज प्राप्त करते जा रहे हैं। ऐसे अष्ट रत्नों से मिलने के लिए ड्रामानुसार बाप से मिलने में विशेष अधिकार प्राप्त नूँधा हुआ है। उन्हों को नम्बर मिलाने की आवश्यकता नहीं क्योंकि उन आत्माओं का कनेक्शन निरन्तर है। यह वायरलेस का कनेक्शन वाइसलेस (निर्विकारी) आत्माओं को ही प्राप्त होता है। संकल्प किया और मिलन हुआ। ऐसे वरदानी बच्चे बहुत कम हैं। यह है अमृत वेले का दृश्य।

बापदादा के पास सारे दिन में पाँच प्रकार की क्यू लगती है (1) एक क्यू  होती है भिन्न-भिन्न प्रकार की अर्ज़ी ले आने वालों की, कभी स्वयं के प्रति अर्ज़ी ले आते हैं कि हमे शक्ति दो, सहयोग दो, बुद्धि का ताला खोलो, हिम्मत दो या युक्ति दो। कभी फिर अन्य सम्पर्क में आने वाली आत्माओं की अर्ज़ी ले आते हैं कि मेरे पति व फलाने सम्बन्धी की बुद्धि का ताला खोल दो। कभी-कभी अपनी की हुई सर्विस की सफलता न देखकर यह भी अर्ज़ी करते हैं कि हमारी सफलता हो जाए, सर्विस हम करेंगे और सफलता आप देना। हमारी याद की यात्रा निरन्तर और पॉवरफुल हो जाए। हमारे यह संस्कार खत्म हो जायें। ऐसी भिन्न-भिन्न प्रकार की अर्ज़ी डालने वाले बाप के पास आते रहते हैं।

(2) दूसरी क्यु होती है कम्पलेन्ट करने वालों की। उन्हों की भाषा ही ऐसी होती है-यह क्यों, यह कैसे, कब और क्यों होगा? मैं चाहती हूँ, फिर भी क्यों नहीं होता, याद क्यों नहीं ठहरती? लौकिक और अलौकिक परिवार से सहयोग क्यों नहीं मिलता? ऐसी अनेक प्रकार की कम्पलेन्ट्स होती हैं। उनमें भी विशेष दो बातों में कि व्यर्थ संकल्प क्यों आते हैं, शरीर का रोग क्यों आता है, याद क्यों टूटती है आदि? इस प्रकार की कम्पलेन्ट्स की क्यू लम्बी होती है।

(3) कई बाप-दादा को ज्योतिषी समझ कर क्यू लगाते हैं। क्या हमारी बीमारी मिटेगी? क्या सर्विस में सफलता होगी? क्या मेरा फलाना सम्बन्धी ज्ञान में चलेगा? क्या हमारे गाँव व शहर में सर्विस वृद्धि को पावेगी? क्या व्यवहार में सफलता होगी? यह व्यवहार करूँ या यह व्यवहार छोडूं? बिजनेस करूँ या नौकरी करूँ? क्या मैं महारथी बन सकती हूँ? क्या आप समझते हो, कि मैं बनूँगी? ऐसे-ऐसे गृहस्थ-व्यवहार की छोटी-छोटी बातें, कि क्या मेरी सास का क्रोध कम होगा? मैं बांधेली या बाँधेला हूं, क्या मेरा बन्धन टूटेगा? क्या मैं स्वतन्त्र बनूंगी व बनूंगा अथवा कई यह भी विशेष बातें पूछते हैं कि क्या मैं टोटल सरेण्डर हूंगा? क्या मेरी यह इच्छा पूरी होगी? ऐसे यह भी क्यू होती है।

(4) चौथी क्यू होती है उल्हना देने वालों की। आप ऐसे टाइम पर क्यों आये जब हम बुड्ढी बन गई और अब मैं बीमार शरीर वाली बन गई? आपने पहले क्यों नहीं जगाया? देरी से क्यों जगाया? आप सिन्ध देश में ही क्यों आये? पहले वहाँ की बहनें क्यों निकलीं? संगमयुग पर हमें गोप क्यों बनाया? शक्ति फर्स्ट यह रीति रस्म क्यों बनी? क्या इस लास्ट जन्म में ही मुझे बान्धेली बनना था? ऐसा कर्म- बन्धन मेरा ही क्यों बना? मुझे गरीब क्यों बनाया, कि जो मैं धन से सहयोग नहीं कर सकती। साकार रूप में मिलने का पार्ट हमारा क्यों नही बना? ऐसे अनेक प्रकार से उल्हना देने वालों की क्यू भी होती है।

(5) पाँचवी क्यू भी होती है वह अब कम होती जा रही है वह है रॉयल रूप से मांगने की। अभी कृपा व आशीर्वाद शब्द नहीं कहते लेकिन उसमें चाहना तो भरी ही होती है।

सुना कितने प्रकार की क्यू लगती है? अब हरेक अपने को देखे कि सारे दिन में आज हमने कितनी क्यू में नम्बर लगाये। जैसे आजकल एक ही दिन में अनेक क्यू लगानी पड़ती हैं ना? वैसे ही बाप-दादा के पास भी कई बच्चे सारे दिन में इन क्यू में ठहरते रहते हैं। न सिर्फ अव्यक्त रूप में व सूक्ष्म रूप में यह बातें करते रहते हैं, लेकिन जब अव्यक्त से व्यक्त में मिलने आते हैं तो भी यह छोटी-छोटी बातें पूछते रहते हैं! मास्टर नॉलेजफुल और मास्टर सर्वशक्तिमान् की स्टेज पर स्थित हो जाओ तो सब प्रकार की क्यू समाप्त हो आप एक-एक के आगे आपकी प्रजा और भक्तों की क्यू लगे। जब तक स्वयं ही इस क्यू में बिजी हो, तब तक वह क्यू कैसे लगे? इसलिए अब अपनी स्टेज पर स्थित हो, इन सब क्यू से निकल, बाप के साथ संगमयुग में मेले की अनोखी विशेषता यह है कि यह मेला एक ही समय, एक से सर्व- सम्बन्धों से, सर्व-सम्बन्धों के स्नेह और प्राप्ति का मिलन मनाने का अलौकिक मेला है। सदा मिलन मनाने की लगन में अपने समय को लगाओ और लवलीन बन जाओ तो यह सब बातें समाप्त हो जावेंगी। इन सब आर्जियों व कम्पलेन्ट्स का रेसपान्स फिर दूसरी बार करेंगे जो फिर बार-बार यह बातें पूछने की व इसमें समय गँवाने की आवश्यकता न रहे। अच्छा!

ऐसे अनेक प्रकार की क्यू से मुक्त, बाप-दादा को सदा साथी-सदा सहयोगी, एक सेकेण्ड में मिलन मनाने वाले, सर्व-सम्बन्ध एक बाप से मनाने वाले, सर्व प्राप्ति स्वरूप, इच्छा-मात्रम् अविद्या की स्थिति में सदा रहने वाले और अष्ट शक्ति स्वरूप बच्चों को बाप-दादा का याद प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।



11-07-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मुरली में दी गई डायरेक्शन्स से ही सर्व-कमियों से छुटकारा

दृष्टि और वृत्ति को सतोप्रधान बनाने वाले, कर्म-बन्धनों से मुक्ति दिलाने वाले, सर्वशक्तियों की चाबी प्रदान करने वाले, अति मीठे शिव बाबा ने पूछा:-

अपने को महादानी, सर्वशक्तियों के अधिकारी, त्रिमूर्ति बाप द्वारा प्राप्त हुए तीनों तख्तनशीन समझते हो? तीन तख्त कौन-से हैं? एक है-बेगमपुर के बादशाह बनने का साक्षी स्थिति में स्थित होने वाला, ‘साक्षीपनका तख्त। दूसरा है पॉवरफुल मास्टर सर्वशक्तिमान् बाप समान सबूत बनाने वालों का, बाप का दिल रूपीतख्त। तीसरा है-भविष्य विश्व महाराजन्का तख्त। क्या इन तीनों तख्तों के अधिकारी बने हो? तीनों तख्तों के अधिकारी की वर्तमान स्टेज कौन-सी है? तीनों तख्तों की तीन विशेषताएं सुनाओ।

साक्षीपन के तख्त की मुख्य निशानी कौन-सी होगी? वह सदैव हर कदम, हर संकल्प में बापदादा को सदा साथी अनुभव करेंगे; जितना साथीपन का अनुभव होगा, उतना ही अचल, अडोल और अतीन्द्रिय सुख में रहेंगे। उनका हर बोल बाप के साथ दिखाई देगा। जैसे बाप-दादा प्रैक्टिकल में सदा के साथी ऐसे हैं जिसे आप अलग करना चाहो तो भी नहीं कर सकते। जैसे दोनों साथियों के साथ का कभी-कभी ऐसा भी अनुभव करते हो कि दो हैं वा एक हैं? ऐसे ही दो का साथ एक समान हो। एक ही नहीं, लेकिन एक समान। समान को लोगों ने समाना कह दिया है, तो ऐसे अपने को क्या बाप-दादा के साथी अनुभव करते हो? फॉलो-फादर करते हो? जब फॉलो-फादर है तो साक्षीपन और साथीपन का अनुभव, हर सेकेण्ड व हर कदम में होना चाहिए। ऐसे साक्षीपन के अनुभवी ही तख्तनशीन होते हैं, दूसरा बाप के दिल-तख्तनशीन वह होगा, जो सपूत होगा अर्थात् बाप-दादा को मनसा, वाचा, कर्मणा व तन-मन-धन सब बातों में फॉलो करने का सबूत देगा। तीसरा है विश्व-महाराजन् बन विश्व के राज्य के तख्तनशीन बनने का। वह न सिर्फ कर्मइन्द्रियजीत लेकिन वह साथ-साथ प्रकृतिजीत भी होगा। ऐसा विकर्माजीत, कर्मेन्द्रिय-जीत, प्रकृतिजीत, जगतजीत बनता है। क्या ऐसे तीनों तख्तनशीन बने हो? अगर तीनों तख्त के अधिकारी बन गये तो ऐसे अधिकारी, बाप के पास किसी भी प्रकार की क्यू में नहीं होंगे। जो कोई भी क्यू में हैं-तो उन्हें किसी भी प्रकार के अधिकार की प्राप्ति नहीं।

आज बाप-दादा हरेक क्यू वाले को रेसपान्स दे रहे हैं। भिन्न-भिन्न  प्रकार की अर्ज़ी डालते हो कि यह कर दो, वह कर दो। ऐसी अर्ज़ी डालते हो, तो यह याद नहीं आता कि बाप-दादा बच्चों को स्वयं से भी ज्यादा हर कार्य में आगे रखता है। जब सर्वशक्तियाँ अर्थात् पॉवर्स बच्चों को दे दीं हैं, तो ऐसे बालक सो मालिक अर्ज़ी क्या डालते हैं? जैसे बाप कोई की भी बुद्धि का ताला खोल सकता है व संस्कार को बदल सकता है, तो क्या आप लोग नहीं कर सकते हो? आप लोगों की बुद्धि का ताला खुला है? इसमें तो ना नहीं कहेंगे ना? बापदादा ने हरेक को बुद्धि का ताला खोलकर अनुभवी बनाया है ना? जैसे आप लोगों का बाप ने खोला, अनुभव कराया तो अनुभव की हुई बात क्या स्वयं नहीं कर सकते हो? जैसे आप लोगों का खुला, वैसे ही दूसरों का खोलो। दूसरों का ताला खोलना मुश्किल है क्या? ताले की चाबी कौन-सी है? वह चाबी बाप ने आपको नहीं दी है क्या? जब से बाप के बच्चे बने हो तो जो बाप का सो आपका नही है क्या? चाबी भी आपकी है ना? चाबी है, फिर भी बाप को कहते हो कि ताला खोलो! या समय पर चाबी मिलती नहीं है? बाप तो अपने पास सिर्फ दिव्य दृष्टि की चाबी रखते हैं। बाकी बुद्धि का ताला खोलने की चाबी अपने पास नहीं रखते। बुद्धि का ताला खोलने की चाबी कौन-सी है?-सर्वशक्तियाँ; यही चाबी है। यह तो सबके पास है ना? दिव्य दृष्टि के दाता तो नहीं हो लेकिन मास्टर सर्वशक्तिमान् तो हो ना? जब सर्वशक्तियों की चाबी बाप द्वारा प्राप्त हो चुकी है, फिर भी अर्ज़ी क्यों डालते हो? बाप को सर्वेन्ट बनाया है इसलिए ऑर्डर देते हो कि यह करो और वह करो। वानप्रस्थ तक पहुंचने वाले भी अभी तक छोटे हैं। अभी तो समय है अपनी रचना रचने का, प्रजा और भक्त माला बनाने का। रचयिता कहे कि मैं छोटा हूँ तो रचना कैसे रचेंगे? इसलिये यह भिन्न-भिन्न प्रकार की अर्ज़ी बाप को डालते हो। पहले चाबी को प्राप्त करो तो अर्ज़ी स्वत: ही पूरी करेंगे।

दूसरी बात बाप को उलहना देते हो। उलहनों की भी क्यू है ना? किसी प्रकार का उलहना कौन देता है? कोई भी बात का उलहना तब दिया जाता है, जब नॉलेजफुल नहीं हैं। यह क्यों हुआ? ऐसा नहीं होना चाहिए था, पीछे क्यों आये, साकार में क्यों नहीं मिले, यह सब उलहने हैं ना? अगर मास्टर नॉलेजफुल की स्टेज पर स्थित हो जाओ, त्रिकालदर्शी की स्थिति में स्थित हो जाओ तो कोई उलहना देंगे? क्या उलहनों से साकार तन के मिलने की प्राप्ति हो सकेगी? जब बीत चुका हुआ पार्ट फिर से रिपीट होगा क्या? वह तो फिर 5000 वर्ष बाद रिपीट होगा। तो नॉलेजफुल की स्टेज पर स्थित होने वाला कभी भी किसी प्रकार का उलहना नहीं देगा। उलहना अर्थात् नॉलेज की कमी और लाइट-माइट की कमी।

तीसरी बात कम्पलेन्ट्स करते हो वह भी लम्बी क्यू है ना? भिन्न-भिन्न प्रकार की कम्पलेन्ट्स करते रहते हो-योग नहीं लगता, व्यर्थ संकल्प बहुत आते हैं या फलानी शक्ति धारण नहीं कर सकते। इन कम्पलेन्ट्स का कारण क्या है -- व्यर्थ संकल्प। मुख्य कम्पलेन्ट मेजॉरिटी की यह दिखाई देती है। दूसरी मुख्य कम्पलेन्ट है-वृत्ति और दृष्टि चंचल होती है। यह दोनों कम्पलेन्ट्स तब तक हैं, जब तक रोज की मुरली द्वारा जो डायरेक्शन्स मिलती रहती है उन डायरेक्शन्स को अर्थात् मुरली को ध्यान से सुनकर और धारण नहीं करते हैं। व्यर्थ संकल्प चलने का मूल कारण यह है जो ज्ञान का खज़ाना हर रोज बाप द्वारा मिलता है उस खजाने की कमी है। अगर सारा समय ज्ञान-रत्नों से खेलने में व ज्ञान खजाने को देखने में, सुमिरण करने में बुद्धि को बिजी रखो, तो क्या व्यर्थ संकल्प आ सकते हैं? पहले अपने आप से पूछो कि क्या मेरी बुद्धि सारा दिन ज्ञान के सुमिरण में व विश्व-कल्याण के प्लैन्स बनाने में बिजी रहती है? जैसे लौकिक रीति में भी कोई कार्य में बुद्धि बिजी रहती है तो दूसरे संकल्प व दूसरी बातें नहीं आती हैं, क्योंकि बुद्धि बिजी है। आप लोगों को भी ज़िम्मेवारी व बाप द्वारा जो कार्य मिला है वह कितना बड़ा है और अब तक भी कार्य कितना रहा हुआ है? अभी विश्व की टोटल आत्माओं के हिसाब से पाँच पाण्डव निकले हो। इतना रहा हुआ कार्य और साथ-साथ अपने विकर्मो को भस्म करने का कार्य है। कितने जन्मों के बोझ को भस्म करना है? 63 जन्मों के पाप-कर्मो के खाते को भस्म करना है। साथ-साथ ज्ञान के खजाने को सुमिरण करते रहो तो क्या समय बच सकता है या कम पड़ेगा? तीन बातें सुनाई-एक तो ज्ञान खजाने के सुमिरण करने का कार्य, दूसरा विकर्म भस्म करने का कार्य, तीसरा विश्व के कल्याण का कार्य, ये तीनों ही विशेष और बेहद के कार्य हैं। इतना बुद्धि का काम होते हुए भी, बुद्धि फ्री कैसे रहती है? फुर्सत कैसे मिलती है आप लोगों को? विश्व के कल्याण का कार्य समाप्त कर लिया है क्या? विकर्म भस्म कर लिए हैं क्या? इतनी कारोबार चलाने वाले व इतने बड़े कार्य के निमित्त बनी हुई आत्मायें फ्री रहें तो उसको क्या कहा जाय? अपने कार्य की नॉलेज नहीं व स्वयं को चलाने की नॉलेज नहीं, या अपनी दिनचर्या को सेट करने की नॉलेज नहीं। आजकल कौरव गवर्नमेण्ट के छोटे-छोटे कलर्क भी टाइम टेबल सेट कर सकते हैं तो क्या आप मास्टर नॉलेजफुल, मास्टर सर्वशक्तिमान् अपना टाइम टेबल सेट नहीं कर सकते? क्योंकि आप स्वयं को अपनी सीट पर सेट नहीं करते हो इसीलिए अपसेट होते हो।

अत: रोज अमृत वेले बाबा से मिलन मनाने के बाद व रूह-रूहान करने के बाद रोज का टाइम टेबल सेट करो। जैसे स्थूल काम का प्रोग्राम सेट करते हो वैसे व्यवहार के साथ परमार्थ का प्रोग्राम भी सेट करो। व्यर्थ संकल्प चलना अर्थात् ताजधारी नहीं बने हो। ताज है ज़िम्मेवारी का। स्वयं की ज़िम्मेवारी और विश्व की ज़िम्मेवारी। अगर अब भी बार-बार ताज को उतार देते हो व ताजधारी नहीं बन सकते हो तो भविष्य में ताजधारी कभी बन नहीं सकते। अभी से प्रैक्टिस चाहिए भविष्य ताजधारी और तख्तधारी बनने की। साक्षीपन का तख्त और बापदादा के दिल का तख्त। तो अभी से ताज और तख्तधारी बनेंगे तब भविष्य में भी ताज़ और तख्त प्राप्त कर सकेंगे। अपना टाइम टेबल सेट करो व स्वयं-ही-स्वयं का शिक्षक बन स्वयं को होम वर्क दो। जैसे शिक्षक स्टुडेण्ट को होम वर्क देते हैं ना? इसमें बुद्धि बिजी रहे। इस प्रकार रोज अपने को होम वर्क दो और फिर साक्षी होकर चैक करो कि होम वर्क में बिज़ी हैं या माया के आकर्षण में होम वर्क भूल गये हैं? तो फिर कम्पलेन्ट समाप्त हो जायेगी।

दूसरी बात है वृत्ति और दृष्टि के चंचल होने की। प्रेजेण्ट समय भी मेजॉरिटी की रिज़ल्ट में देखें तो 50 प्रतिशत अभी भी हैं जिनकी यह कम्पलेन्ट है। संकल्प में, स्वप्न में और कर्म में वृत्ति और दृष्टि चंचल होती है। वृत्ति और दृष्टि चंचल क्यों होती है? कोई भी चीज चंचल क्यों होती है, कारण क्या है? कोई भी चीज हिलती क्यों है? हिलने की मार्जिन है तब तो हिलती है। अगर वह फुल अर्थात् सम्पन्न हो तो हिलेगी? तो दृष्टि और वृत्ति चंचल होने का कारण यह है। जो बाप ने स्मृति सुनाई उसके बजाय विस्मृति की मार्जिन है तब हिलती है व चंचल होती है। अगर सदा स्मृति स्वरूप हो, स्मृति सम्पन्न हो तो वृत्ति और दृष्टि को चंचल होने की मार्जिन मिल नहीं सकती। इसके लिए बहुत छोटा-सा स्लोगन भूल जाते हो। लौकिक में भी कहते हैं-बुरा न देखो, बुरा न सोचो, और बुरा न सुनो। अगर इस स्लोगन को भी सदा स्मृति में रखो व प्रैक्टिकल में लाओ कि देह को देखना अर्थात् बुरा देखना है। देहधारी प्रति सोचना व संकल्प करना, यह बुरा है। देहधारी को देहधारी समझ उससे बोलना यह बुरा है। इसीलिए अगर यह साधारण स्लोगन भी प्रैक्टिकल में लाओ तो दृष्टि और वृत्ति चंचल नहीं होगी।

जिस समय वृत्ति और दृष्टि चंचल होती है तो उस समय स्वयं को यह समझना चाहिए कि क्या मैंने सर्व-सम्बन्धों की सर्व-रसनायें बाप द्वारा प्राप्त नहीं की हैं? कोई रस रह गया है क्या कि जिस कारण दृष्टि और वृत्ति चंचल होती है? जिस सम्बन्ध से भी वृत्ति और दृष्टि चंचल होती है उसी सम्बन्ध की रसना यदि बाप से लेने का अनुभव करो तो क्या दूसरी तरफ दृष्टि जायेगी? समझो कोई मेल की, फीमेल की तरफ दृष्टि जाती है या फीमेल की, मेल की तरफ जाती है तो क्या बाप सर्व रूप धारण नहीं कर सकता? साजन व सजनी के रूप में भी बाप से सजनी बन व साजन बन कर अतीन्द्रिय सुख का जो रस सदा-सदा काल स्मृति में और समर्थी में लाने वाला है, वह अनुभव नहीं कर सकते हो? बाप से सर्व- सम्बन्धों के रस व स्नेह का अनुभव न होने के कारण देहधारी में वृत्ति और दृष्टि चंचल होती है। ऐसे समय में बाप को धर्मराज के रूप में सामने लाना चाहिए और स्वयं को एक रौरव नर्कवासी व विष्ठा का कीड़ा समझना चाहिए। और सामने देखो कि कहाँ मास्टर सर्वशक्तिमान् और कहाँ मैं, इस समय क्या बन गया हूँ? रौरव नर्कवासी विष्ठा का कीड़ा ऐसे स्वयं का रूप सामने लाओ और तुलना करो कि कल क्या था और अब क्या हूँ? तख्तनशीन से क्या बन गया हूँ? तख्त-ताज को छोड़ क्या ले रहा हूँ? गन्दगी। तो उस समय क्या बन गये? गन्दगी को देखने वाला व धारण करने वाला कौन हुआ? गन्दा काम करने वाले को क्या कहते हैं? बिल्कुल जिम्मेवार आत्मा से जमादार बन जाते हो। क्या ऐसे को बाप-दादा टच कर सकता है? स्नेह दृष्टि दे सकता है? अर्ज़ी मान सकता है? कम्पलेन्ट व उलहना सुन सकता है? इतने नॉलेजफुल होने के बाद भी वृत्ति और दृष्टि चंचल हो, तो उसे भक्त आत्मा से भी गिरी हुई आत्मा कहेंगे। भक्त भी किसी युक्ति से अपनी वृत्ति को स्थिर करते हैं। तो मास्टर नॉलेजफुल भक्त आत्मा से भी नीचे गिर जाते हैं। तो क्या ऐसी आत्मा की कोई प्रजा बनेगी? जमादार की कोई प्रजा बनेगी क्या या वह स्वयं प्रजा बनेंगे?

अपना एक फोटो निकाल रखो। जैसे कोई गन्दगी उठाने वाला हो और टोकरे पर टोकरा गन्द का उठाया हो। ऐसा चित्र निकाल बुद्धि में रखो। जिस समय वृत्ति और दृष्टि चंचल होती है, उस समय वह फोटो देखो। जैसे बाप-दादा ने भविष्य प्रारब्ध की फोटो निकलवाई क्योंकि चित्र को देख चरित्र स्मरण आयेगा। ऐसा चित्र जब सामने आयेगा तो क्या शर्म व लज्जा नहीं आयेगी? एक तरफ मास्टर सर्वशक्तिमान् का चित्र, दूसरी तरफ वह चित्र रखो तो अपने आप ही मालूम पड़ जायेगा कि हम क्या बन गये। मास्टर सर्वशक्तिमान् के आगे अभी तक भी वृत्ति और दृष्टि का चंचल होना शोभता नहीं है।

पहली गलती तो यह है कि शरीर को क्यों देखते हो? तुमको तो मस्तक में आत्मा को देखना है ना? मस्तक में मणि है ना? मस्तक में मणि के बजाय साँप को क्यों देखते हो जिससे विष की प्राप्त हो जाती है? पहली गलती तो यह करते हो कि जो मस्तक के बजाय शरीर को देखते हो। कई कम्पलेन्ट करते हैं कि वातावरण और संग ऐसा है, साथी ऐसे हैं, दफ्तर में, बिजनेस में काम करना पड़ता है, सम्पर्क में आना पड़ता है। सम्पर्क में आते, बातचीत करते मस्तक के सिवाय और कहीं देखते ही क्यों हो। दूसरी बात वातावरण के वशीभूत होने वाले अपने आप से पूछे कि हमने बाप के साथ-साथ किस बात का ठेका उठाया है? ठेकेदार हो ना आप सब लोग? नर्क को बदल कर स्वर्ग बनाना, प्रकृति के तमोगुण को सतोगुण में परिवर्तन करना, यह ठेका उठाया है ना? प्रकृति को बदलने वाले स्वयं ही बदल जाते हैं? ठेका उठाया है पाँच तत्वो को बदलने का, और वशीभूत फिर वातावरण के हो जाते हो! जिस समय वातावरण के वशीभूत हो जाते हो उस समय स्थूल उदाहरण सामने रखो। अगरबत्ती कब वातावरण के वशीभूत नहीं होती है। वातावरण को बदलने के लिये अगरबत्ती है। तो आपकी रचना में अगरबत्ती बनने वाला कौन?-मनुष्य आत्मा। तो आपकी रचना में यह विशेषता है और रचयिता में नहीं? तो रचयिता हुए या कमजोर हुए? इस कम्पलेन्ट को भी अपनी स्मृति और युक्ति द्वारा समाप्त करो।

मुख्य यह दो कम्पलेन्ट्स हैं। एक-दो पार्टी से मिलते हो तो यह कम्पलेन्ट ही विशेष होती है। इसलिये ड्रामानुसार बार-बार यही बातें करना और बार-बार बाप द्वारा यही शिक्षा मिलना इसका भी हिसाब-किताब बनता है। इसलिए ड्रामानुसार अब तक भी स्पेशल सर्विस लेना यह भी पार्ट समाप्त हो रहा है। इसमें भी रहस्य है। वही बात कई बार पूछते हैं-एक वर्ष वायदा करके जाते हैं कि अगले वर्ष यह कम्पलेन्ट नहीं होगी। दूसरे वर्ष फिर दोबारा कहते कि अगले वर्ष नहीं होगी। जो वर्ष बीता वह किस खाते में गया? समझते हैं कि बाप-दादा को वायदा भूल जाता है। समझते हैं बाप-दादा को क्या याद होगा? बाप-दादा को सबके वायदे याद रहते हैं लेकिन बापदादा बच्चों का डिस-रिगार्ड नहीं करते। सामने बैठ कहे कि वायदा नहीं निभाया, यह भी डिस-रिगार्ड है। जब सिर का ताज बना रहे हैं, स्वयं से भी आगे रख रहे हैं, तो ऐसी आत्मा का डिस-रिगार्ड कैसे करेंगे? इसलिए मुस्कराते हैं। ऐसे नहीं कि याद नहीं रहता है। आत्माओं को तो चला देते हैं। निमित्त बनी हुई टीचरों को बड़ी चतुराई से चला देते हैं। कहेंगे आपने हमारे भावार्थ को नहीं समझा। हमारा भाव यह नहीं था, शब्द मुख से निकल गया। लेकिन बाप-दादा भाव के भी भाव को जानता है। उससे छिपा नहीं सकेंगे। टीचर फिर भी समझेंगे मेरे से गल्ती हो गई; हो सकता है। लेकिन बाप से तो नहीं हो सकती है ना? इसलिये अब छोटीछोटी बातों के लिये समय नहीं। यह भी व्यर्थ में एड हो जाता है। बाप से जितनी मेहनत लेते हो, उतना रिटर्न करना होगा। व्यक्त रूप में मेहनत ली। अव्यक्त रूप में भी कितने वर्ष हो गये। छठा वर्ष चल रहा है। अव्यक्त रूप में भी छ: वर्ष इन्हीं बातों पर शिक्षा मिलती रही। अब तक भी वही शिक्षा चाहिए? अभी सर्विस लेने का टाइम है अथवा रिटर्न करने का टाइम है? अगर रिटर्न नहीं करेंगे तो प्रजा नहीं बना सकेंगे। इसलिये अब स्वयं को पॉवरफुल बनाओ। नॉलेजफुल बनाओ। अनेक प्रकार की क्यू से स्वयं को मुक्त करो। युक्ति जो मिलती है उसको काम में नहीं लगाते हो, इसलिये मुक्त नहीं हो पाते। अच्छा यह हुआ क्यू का रेसपॉन्स। अब बाप-दादा बच्चों से विदाई लेते हैं। अच्छा! ओम् शान्ति।

इस मुरली का सार

(1) साक्षीपन का तख्त, बाप-दादा का दिल तख्त और विश्व के राज्य भाग्य का तख्त-इन तीनों तख्तों का अधिकारी बाप के पास किसी भी प्रकार की क्यू में नहीं होगा।

(2) बुद्धि का ताला खोलने की चाबी है सर्वशक्तियाँ। इनको प्राप्त करने से भिन्न-भिन्न प्रकार की आर्जियाँ बाप-दादा के पास डालनी बन्द हो जायेंगी।

(3) नॉलेजफुल और त्रिकालदर्शी की स्टेज पर स्थित होने वाला कभी भी किसी भी प्रकार का उलहना नहीं देगा।

(4) रोज की मुरली द्वारा जो डायरेक्शन्स मिलती रहती हैं उन डायरेक्शन्स अर्थात् मुरली को ध्यान से सुनकर और उसे धारण करने से व्यर्थ संकल्प और वृत्ति और दृष्टि का चंचल होना-यह दोनों मुख्य कम्पलेन्ट्स समाप्त हो जायेंगी।



14-07-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बाप के समान सफलता-मूर्त्त बनने के लिए सर्व के प्रति शुभ भावना

सफलता के सितारे बनाने वाले तथा सम्पूर्ण लक्ष्य की प्राप्ति कराने वाले हर आत्मा के शुभ चिन्तक शिव बाबा ने ये मधुर महावाक्य अपनी धरती के रूहानी सितारों रूपी बच्चों के सम्मुख उच्चारे:-

आज इस सभा के बीच, बाप-दादा तीन प्रकार के सितारे देख रहे हैं। ज्ञान-सितारे तो आप सभी हो परन्तु ज्ञान सितारों में भी तीन प्रकार कौन-कौन से हैं? एक हैं सफलता के सितारे, दूसरे हैं लक्की सितारे और तीसरे हैं उम्मीदों के सितारे। हरेक सितारे की, अपनी-अपनी दुनिया है। क्या आप सभी ने अपनी-अपनी दुनिया देखी है या सिर्फ अपने आप को ही देखा है? दुनिया अर्थात् रचना। क्या आपको, अपनी रचना दिखाई देती है? क्या जानते हो कि रचना में कितनी और क्या-क्या बातें देखी जाती हैं? आप अपनी रचना को तो देखते होंगे ना? जो बाप की रचना, सो आपकी रचना। आप तो मास्टर रचयिता हो ना? आपने बाप की प्रजा पर ही तो राज्य नहीं करना है ना? आप मास्टर रचयिता नहीं बनते हो क्या? सदा रचना ही रहेंगे क्या? रचना अर्थात् अपनी राजधानी तो बना रहे हो ना? राजधानी में भी नम्बरवार तो होते हैं ना? वह भी किस आधार से होते हैं और उनमें भी, आपके ही भक्त हैं। शक्तियों के भक्त और बाप के भक्त अलग-अलग हैं।

आपके भक्त कौन बनेंगे, किस हिसाब से आपके भक्त बनेंगे? जिन आत्माओं को, जिन श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा व निमित्त बनी हुई आत्माओं द्वारा कुछ-न-कुछ प्राप्ति का अनुभव होता है, उन द्वारा कोई साक्षात्कार होता है और या कोई वरदान प्राप्ति का अनुभव होता है, तो उस आधार पर, वह उनकी प्रजा और भक्त बनते हैं। जो समीप आत्माएं होती हैं; जिन आत्माओं का, बाप से सम्बन्ध भी जुट जाता है और साथ-साथ बाप द्वारा वर्से के अधिकारी भी बनते हैं, वे रॉयल फेमिली में आते हैं। एक ही समय में, हरेक आत्मा, अपनी रॉयल फेमिली बना रही है अर्थात् वह भविष्य सम्बन्ध व राजघराना भी बना रही है; प्रजा भी बना रही है और भक्त भी बना रही है। भक्तों और प्रजा की निशानी क्या होगी? राज्य के सम्बन्ध में आने की बात तो सुनाई, परन्तु प्रजा और भक्त इन दोनों में अन्तर क्या होगा? प्रजा केवल ज्ञान और योग की प्राप्ति करने की पुरुषार्थी होगी, वह सम्बन्ध में समीप नहीं होगी, लेकिन दूर के सम्बन्ध में जरूर होगी। वह मर्यादा पूर्वक जीवन बनाने में, यथायोग्य तथा यथा-शक्ति पुरुषार्थी होगी, बाकी और भी जो दूसरे सब्जेक्ट्स हैं-धारणा और ईश्वरीय सेवा- उनमें भी यथा-शक्ति सहयोगी होगी, लेकिन सफलतामूर्त नहीं होगी। इसीलिये वह सोलह कला सम्पूर्ण नहीं बन पाती। कोई-न-कोई संस्कार व स्वभाव के वशीभूत होने के कारण, निर्बल आत्मा हाईजम्प नहीं दे सकती। इसलिये रॉयल परिवार में व राजकुल में आने के बजाय वह रॉयल प्रजा बन जाते हैं। रॉयल कुल नहीं, रॉयल प्रजा बाकि भक्त जो होंगे, वह कभी भी, स्वयं को अधिकारी अनुभव नहीं करेंगे। उनमें अन्त तक, भक्तपने के संस्कार रहेंगे और वे सदा मांगते ही रहेंगे-आशीर्वाद दो, शक्ति दो, कृपा करो, बल दो, या दृष्टि दो आदि। ऐसे माँगने के संस्कार व आधीन होने के संस्कार उनके लास्ट तक दिखाई देंगे। वे सदैव जिज्ञासु रूप में ही रहेंगे। उन्हें बच्चेपन का नशा मालिकपन का नशा, और मास्टर सर्वशक्तिमान् का नशा धारण कराते भी वे धारण नहीं कर सकेंगे। वे थोड़े में ही राज़ी रहने वाले होंगे-यह है भक्तों की निशानी। अभी इससे देखो कि प्रजा और भक्त कितने बने हैं? भक्त कभी भी डायरेक्ट बाप के कनेक्शन में आने की शक्ति नहीं रखते, वे सदा आत्माओं के सम्बन्ध में ही संतुष्ट रहते हैं। उनके बार-बार यही बोल रहेंगे, आप ही हमारे लिए सब-कुछ हो, आपके पास ऐसे भक्त भी आवेंगे। न चाहते हुए भी हरेक निमित्त बनी हुई आत्माओं की प्रजा और भक्त बनते ही रहते हैं। अब समझा! आपकी दुनिया व रचना क्या है? आगे चलकर हरेक को यह साक्षात्कार भी होगा कि मैं किस राजधानी में राज्यपद पाने वाली हूँ या पाने वाला हूँ।

अच्छा, यह तो हुई सितारों की दुनिया अर्थात् उनकी रचना। सितारों में, पहले नम्बर सितारे हैं-सफलता के सितारे। सफलता के सितारों की निशानी क्या है कि जिससे कि स्वयं को चैक कर सको कि मैं सफलता का सितारा हूँ या होवनहार सितारा हूँ? लक्की सितारों की निशानी और उम्मीदवार सितारों की निशानी क्या है? अपने आप को जानते हुए भी, बाप-दादा नॉलेज के दर्पण द्वारा तीन स्टेजिस का साक्षात्कार कराते हैं। साक्षात्कार करना तो सब चाहते हो ना? दिव्य- दृष्टि से नहीं, तो नॉलेज के दर्पण द्वारा तो कर सकते हो ना? सफलता के सितारों की निशानी यह है कि उनके हर संकल्प में दृढ़ता होगी की सफलता अनेक बार हुई है और अभी भी हुई पड़ी है। होनी चाहिए, होगी या नहीं होगी यह स्वप्न में भी कभी उनकी स्मृति में नहीं आयेगा। बल्कि उन्हें शत-प्रतिशत निश्चय होगा कि सफलता हमारी हुई ही पड़ी है। उनके हर बोल की यह विशेषता होगी-कि वे हर बात में निश्चय-बुद्धि होंगे और उनके बोल में, ईश्वरीय सन्तान की खुमारी दिखाई देगी अर्थात् उनमें ईश्वरीय नशा दिखाई देगा। उनमें देह-अभिमान का नशा नहीं दिखाई पड़ेगा। उनके बोल द्वारा संशय बुद्धि वाला भी, निश्चय बुद्धि हो जायेगा; क्योंकि उन्हें एक तो ईश्वरीय खुमारी होती है और दूसरा उनका हर बोल शक्तिशाली होता है। उनके बोल साधारण व व्यर्थ नहीं होते और उनका हर कर्म तो श्रेष्ठ होता ही है, लेकिन उनमें विशेषता यह होगी कि उनके हर कर्म द्वारा, अनेक आत्माओं का पथ-प्रदर्शन होगा। जो गायन भी है कि जैसे कर्म हम करेंगे, हमको देख और सभी करेंगेऐसे उनके हर कर्म, अनेक आत्माओं को, एक पाठ पढ़ाने के निमित्त बन जावेंगे और उनका हर कर्म शिक्षा-स्वरूप होगा। इसको ही कहा जाता है-समर्थ-कर्म। ऐसे संकल्प, बोल और कर्म वाला ही हर बात में सदा स्वयं से सन्तुष्ट होगा। सन्तुष्ट होने के कारण ही वह हर्षित भी होगा लेकिन उसे हर्षित बनाना नहीं पड़ेगा बल्कि वह स्वत: ही सदा हर्षित होगा।

ऐसे सफलतामूर्त से अन्य आत्मायें भी सदा संतुष्ट रहेंगी अर्थात् उन सर्व की संतुष्टता की सफलता, प्रत्यक्ष फल के रूप में दिखाई देगी। भविष्य फल नहीं, बल्कि प्रत्यक्ष फल ऐसे सदा हर्षित आत्मा को देख कर, अन्य आत्मायें भी, उनके प्रभाव से, दु:ख व उलझन की लहर से बदल कर हर्षित हो जावेंगी। अर्थात् ऐसी आत्मा के सम्पर्क में और उसके समीप आने से अन्य आत्माओं पर भी हर्ष का प्रभाव पड़ जायेगा। जैसे सूर्य के समीप व सम्मुख जाने वाले के ऊपर, न चाहते भी किरणें पड़ती रहती हैं। ऐसे ही सफलतामूर्त के हर्ष की किरणें, अन्य आत्माओं पर भी पड़ती हैं अर्थात् जैसे कि बाप के संग का रंग, एक सेकेण्ड में अनुभव करते हो। अर्थात् जब योग-युक्त होते हो तो बाप का संग लगता है तो उसके रंग का अनुभव होता ना? ऐसे ही सफलता के सितारों के संग का रंग, अन्य आत्माओं को भी अनुभव होता है। यह है सफलतामूर्त व सफलता के सितारों की निशानी।

दूसरे हैं लक्की सितारे । उसकी निशानी क्या होगी? लक्की सितारे विशेष रूप से बाप के स्नेही, बाप के चरित्र, बाप के सर्व-सम्बन्धों के रस में ज्यादा मग्न रहते हैं। उनके संकल्प भी ज्यादा शक्तिशाली नहीं, लेकिन स्नेही होंगे। उनकी स्मृति रूप में भी बाप के मिलन और बाप के चरित्रों का ज्यादा वर्णन रहेगा। उनकी बीज रूप स्टेज कम रहेगी, लेकिन अव्यक्त मिलन, अव्यक्त स्थिति और स्नेह भरी रूह रूहान इसमें वे ज्यादा रहेंगे। ऐसी आत्माओं को स्नेह के कारण और संग तोड़, एक संग सर्व-सम्बन्ध निभाने के कारण ही सहयोग प्राप्त होता है। उन्हें बाप के सहयोग के कारण मेहनत कम करनी पड़ती है और प्राप्ति अधिक होती है। वह सदैव ऐसा अनुभव करते हैं कि मेरा लक्क अच्छा है; मुझे बाप की एकस्ट्रा मदद है और मैं तो पार हो ही जाऊंगी। मेरे जैसा स्नेह किसी का भी नहीं है। सहयोग होने के कारण, उनके बोल फलक के होते हैं। पहले नम्बर वाले में झलक होती है, दूसरे नम्बर वाले में झलक नहीं बल्कि फलक होती है। वह बाप समान होते हैं और यह बाप स्नेही होते हैं। लेकिन सहयोग क्यों और किस आधार पर मिला या वे लक्की भी क्यों बने? इसका मूल आधार, सर्व-सम्बन्ध तोड़ एक संग जोड़ना, इस सम्बन्ध में वे अटूट और अटल हैं। इस कारण उनको लक्की कहा जाता है। सफलतामूर्त के बोल होंगे, यह तो हुआ ही पड़ा है और लक्की सितारों के बोल होंगे, हाँ मैं समझता हूँ यह अवश्य होगा, बाप मददगार बनेगा-यह है दूसरी स्टेज।

तीसरे हैं उम्मीदवार सितारे। ऐसी आत्मायें, सदा सफलता प्राप्त न होने के कारण, उम्मीद रखती हैं, कि करूँगा जरूर, पहुँचूँगा जरूर वा बनूंगा जरूर; लेकिन बीच-बीच में कही रूकते भी है, अटकते भी हैं और कभी-कभी वे दिलशिकस्त भी होते हैं। अनेक प्रकार के, भिन्न-भिन्न विघ्न आने के कारण, कभी वे घबराते हैं और कभी वे महावीर बन जाते हैं। कभी बाप के मिलन का उन्हें नम्बर मिलता है और कभी उन्हें मेहनत के बाद मिलता है। इसलिए उनका तीसरा नम्बर कहलाया जाता है। वह सदा हर्षित नहीं रहेगा और वह सदा संतुष्ट भी नहीं रहेगा। लेकिन, उम्मीद कभी नहीं छोड़ेगा। वह इस निश्चय से भी कभी डगमग नहीं होंगे, कि मैं बाप का हूँ। लेकिन निर्बल होने के कारण, वे कभी-कभी दिलशिकस्त हो जाते हैं। यह हैं उम्मीदवार सितारे, समझा! अब अपने ज्ञान-दर्पण में देखना है कि मैं कौन हूँ यही पहेली हल करने आये थे ना? और अब अन्त में भी यही पहेली हल करनी है कि मैं कौन हूँ? लक्ष्य सफलता का सितारा बनने का रखना है; क्योंकि बाप-समान बनना है। सिर्फ बाप स्नेही बनने से खुश नहीं रहना है।

बाप-समान बनाने के लिये व सफलतामूर्त बनने के लिये, आज आपको दो बातें सिर्फ दो शब्दों में सुनाते हैं। दो शब्द धारण करना तो सहज है ना? सदैव सर्व-आत्माओं के प्रति, सम्पर्क में आते हुए, सम्बन्ध में आते हुए और सेवा में आते हुए अपनी शुद्ध भावना रखो। शुभ भावना और शुद्ध कामना। चाहे आपके सामने कोई भी परीक्षा का रूप आवे और चाहे डगमग करने के निमित्त बन कर आवे लेकिन हरेक आत्मा के प्रति आप शुभ कामना, और शुद्ध भावना यह दो बातें हर संकल्प, बोल और कर्म में लाओ, तो आप सफलता के सितारे बन जायेंगे। यह तो सहज है ना? ब्राह्मणों का यही धर्म और यही कर्म है। जो धर्म होगा वही कर्म होगा। बाप की हर बच्चे के प्रति यही शुभ कामना और शुद्ध भावना है कि वह बाप से भी ऊंच बने। इस कारण जब छोटी-छोटी बातें देखते व सुनते हैं, तो समझते है कि अब उसी घड़ी से सब सम्पन्न हो जावें। मास्टर सर्वशक्तिमान् यदि वे दृष्टि व वृत्ति की बात कहें तो क्या शोभता है? अर्थात् सर्वशक्तिमान् बाप के आगे, मास्टर सर्वशक्तिमान् कमजोरी की बातें करते हैं तो इसलिए अब बाप इशारा देते हैं कि अब मास्टर बनो, क्योंकि स्वयं को बनाकर फिर विश्व को भी बनाना है। समझा!

ऐसे समझदार बच्चे, सुनना और करना समान बनाने वाले, हर संकल्प व हर बोल में बाप-दादा को फॉलो करने वाले, सफलता के सितारे लक्की और उम्मीदवार सितारे, लक्ष्य को सम्पूर्ण पाने के अधिकारी बच्चों को बाप-दादा का याद प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।

इस मुरली का सार

1. जो समीप की आत्माएं होती हैं; जिन आत्माओं का बाप से सम्बन्ध भी जुट जाता है और साथ-साथ वर्से के अधिकारी भी बनते हैं वे रॉयल फेमिली अर्थात् राज परिवार में आते हैं।

2. प्रजा ज्ञान-योग की पुरुषार्थी होगी, लेकिन वह सम्बन्ध में समीप नहीं होगी। धारणा एवं ईश्वरीय सेवा में यथा-शक्ति सहयोगी होगी, किन्तु सफलतामूर्त नहीं होगी और वह किसी संस्कार व स्वभाव के वशीभूत होगी।



18-07-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सम्पूर्ण पवित्र वृत्ति और दृष्टि से श्रेष्ठ तकदीर की तस्वीर

श्रेष्ठ तकदीर की तस्वीर बनाने वाले, सर्व-आत्माओं के शुभ-चिन्तक व सदा कल्याणकारी परमपिता शिव परमात्मा बोले:-

आज विशेष रूप से, मधुबन निवासियों के तकदीर की लकीर देख रहे हैं। हरेक श्रीमत के अनुसार व बाप-दादा की पालना के अनुसार, अपनी-अपनी तकदीर की लकीर बना रहे हैं। क्या अपनी तस्वीर को सदैव दर्पण में देखते रहते हो? क्या इस तकदीर की लकीर की मुख्य विशेषताओं को जानते हो? स्थूल तस्वीर व चित्र बनाने वाले जानते हैं कि इस चित्र की वैल्यु (वैल्यू) किन-किन विशेषताओं के आधार पर होगी। स्थूल चित्र की मुख्य विशेषता, आकर्षण व वैल्यु उसके फेस  के आधार पर ही होती है। कोई भी चित्र को देखेंगे, तो सबकी नज़र पहले उसके चेहरे अर्थात् फेस पर ही जाती है। हर चित्र के नैन-चैन देखते हुए ही, उन चित्रों की वैल्यु की जाती है। वैसे भी, इस तकदीर के तस्वीर की वैल्यु, मुख्य किन बातों पर होती हैं? उसकी मुख्य क्या विशेषतायें हैं। अगर कोई की तकदीर की तस्वीर देखेंगे तो क्या विशेषतायें देखेंगे?

एक मुख्य विशेषता यह देखी जाती है कि तकदीर की तस्वीर में क्या स्मृति पॉवरफुल  है अर्थात् सदा स्मृति स्वरूप है? दूसरी बात कि क्या भाई- भाई की वृत्ति सदा कायम रहती है? तीसरी क्या रूहानी अर्थात् सम्पूर्ण पवित्र दृष्टि है? मूल में ये तीन ही बातें हैं-स्मृति, वृत्ति और दृष्टि। इन तीनों विषेषताओं के आधार से ही दिव्य गुणों का श्रृंगार व चमक, झलक और फलक तस्वीर में दिखाई देती हैं। अगर यह तीनों ही बातें, युक्ति-युक्त व श्रेष्ठ हैं और यह यथार्थ हैं, तो ऐसी तकदीर की तस्वीर ऑटोमेटिकली (स्वत:) सर्व-आत्माओं को अपनी तरफ आकर्षित करती हैं। जैसे स्थूल नेत्रों के नैन-चैन, रास्ता चलते हुए आत्मा को भी अपनी तरफ आकर्षित कर देते हैं, ऐसे ही यह तकदीर की तस्वीर भी सर्व- आत्माओं को अपनी रूहानी दृष्टि व सदा स्मृति और वृत्ति से अपनी तरफ आकर्षित जरूर करती हैं। जैसे स्थूल चित्र देहधारी बनाने में अर्थात् देहअभिमान में लाने के निमित्त बन जाते हैं, ना चाहते हुए भी आकर्षित करते हैं। कच्चे ब्राह्मणों को व देहीअभिमानी बनने के पुरूषार्थियों को भी आकर्षित कर देह-अभिमानी बना देते हैं। जो ही फिर कम्पलेन्ट करते हैं कि रास्ता चलते चैतन्य चित्र व जड़ चित्र देखते हुए, आत्म अभिमानी से देह-अभिमानी बन जाते हैं। ऐसे ही जब रूहानी चित्र व तस्वीर आकर्षणमय बनावेंगे तो अनेक आत्मायें चलते-फिरते भी देह अभिमानी से निकल देही-आभिमानी बन जावेंगी। जब स्थूल चित्रों में इतनी आकर्षण है, तो क्या आप रूहानी चैतन्य चित्रों में इतनी रूहानी आकर्षण नहीं है, अब यही चैक  करना है कि मेरी तस्वीर व चित्र कहाँ तक आकर्षणमूर्त बना है? इस रूहानी चित्र में अगर इन तीन विशेष बातों में से एक की भी कमी है तो वह वैल्युएबल नहीं गिना जायेगा। जैसे स्थूल चित्रों में भी आँख, नाक व कान आदि आदि कोई भी एक चीज यथार्थ नहीं होती है, तो चित्र की वैल्यू कम हो जाती है। चाहे सारा चित्र कितना ही सुन्दर हो, लेकिन मुख्य फेस में, अगर थोड़ी-सी भी कमी रहती है, तो चित्र बेकार हो जाता है या फिर उसकी वैल्यु आधी हो जाती है। ऐसे ही, यहाँ भी इन तीन विशेषताओं में से एक की भी कमी है तो प्रालब्ध व प्राप्ति के समय में से, आधा समय कम हो जाता है अर्थात् सोलह कला से चौदह कला हो जाने से आधी वैल्यू हो गयी ना? इसलिये इन तीनों ही बातों की, हर समय चैकिंग चाहिए। अच्छा, तो क्या ऐसी चैकिंग करते हो?

क्या चैकिंग का यन्त्र जानते हो? यन्त्र द्वारा ही तो चैकिंग करेंगे ना? वह कौनसा यन्त्र है कि जिससे अपने को चैक कर सको? यंत्र है-बुद्धि, लेकिन दिव्य-बुद्धि का नेत्र ब्राह्मण बनते ही दे देते हैं। जैसे, ऐसे कई लौकिक कुल होते हैं जहाँ जन्म लेने से ही युद्ध में व हिंसा में प्रवीण बनाने के लिये बचपन से ही तलवार के बजाय चाकू व लाठी चलाना सिखलाते हैं। जिससे कि उनको अपने शूरवीर कुल की स्मृति रहे। बाप-दादा भी हर ब्राह्मण को माया के वार से बचने के लिये व माया को परखने के लिये यह दिव्य-बुद्धि का नेत्र देते हैं। लेकिन दिव्य-बुद्धि के बजाय, जब साधारण लौकिक बुद्धि वाले बन जाते हैं, तब माया को परख नहीं सकते व माया के वार से बच नहीं सकते व अपनी चैकिंग नहीं कर सकते। पहले यह देखो कि क्या अपना दिव्य बुद्धि-रूपी नेत्र अपने पास कायम है? कहीं दिव्य बुद्धि-रूपी नेत्र पर, माया के संगदोष व वातावरण का प्रभावशाली जंग तो नहीं लग रहा है व कोई डिफेक्ट तो नहीं कर रहा है?

अपनी ऐसी श्रेष्ठ तस्वीर बनाने के लिये मुख्य तीन विशेषताओं को भरने के लिये तीन शब्द याद रखो-(1) निर्वाण स्थिति में होना है (2) निर्मान बनना है और (3) निर्माण करना है। निर्वाण, निर्माण और निर्मान अर्थात् मान से परे-यह तीन शब्द स्मृति में रखो तो तकदीर की तस्वीर आकर्षणमय बन जायेगी। चलते-चलते इन तीन बातों की कमी हो जाती है। निर्वाण स्थिति में कम रहते हैं, वाणी मे सहज और रूचि से आते हैं। जितनी वाणी से लगन है, उतनी वाणी से परे स्थिति में स्थित होने की लगन व रस कम अनुभव करते हो। निर्मान बनने के बजाए अनेक प्रकार के मान-देह का व पोज़ीशन का, गुणों का, सेवा का, सफलता का व अनेक प्रकार के मान सहज स्वीकार कर लेते हो और स्वीकार करने की इच्छा में रहते हो। आप मान के जिज्ञासु हो, इसलिये स्वमान का कोर्स अभी तक समाप्त नहीं कर सके हो? जब यह जिज्ञासु रूप समाप्त होता है, तब ही स्वमान की स्थिति स्वत: और सदा रहती है। मान, स्वमान को भुला देता है। ऐसे ही नव-निर्माण करने के बजाय या कन्स्ट्रक्शन के बजाय डिस्ट्रक्शन कर देते हो। अर्थात् नव-निर्माण के बजाय कभी-कभी कोई की स्थिति को नीचे गिराने के निमित्त बन जाते हो। सदैव हर कर्म में व हर संकल्प में चैक करो कि यह संकल्प, बोल व कर्म क्या नव-निर्माण के निमित्त हैं? ऐसी स्टेज रखने से सर्व-विशेषतायें स्वत: ही आ जावेंगी। यह है वर्तमान समय पुरूषार्थ को तीव्र करने की युक्ति।

मधुबन निवासियों की रिज़ल्ट अच्छी रही। मेजॉरिटी स्नेह और सहयोग में अथक सेवाधारी रहे हैं और आगे भी बनते रहेंगे। महिमा योग्य तो बने हो, जो कि स्वयं बाप-दादा महिमा कर रहे हैं। अब आगे क्या करना है? मधुबन निवासियों को और सब आत्माओं को विशेष व्रत लेना चाहिए। कौन-सा? व्रत यही लेना है कि हम सब एक मत, एक ही श्रेष्ठ वृत्ति, एक ही रूहानी दृष्टि और एकरस अवस्था में एक-दो के सहयोगी बन, शुभ चिन्तक बन, शुभ भावना और शुभ कामना रखते हुए और अनेक संस्कार होते हुए भी, एक बाप-समान सतोप्रधान संस्कार और स्व के भाव में रहने वाला, स्वभाव बनाने का किला मजबूत बनावेंगे-यह है व्रत। क्या स्वयं के प्रति व सर्व-आत्माओं के प्रति, यह व्रत लेने की हिम्मत है? स्वयं के प्रति तो प्रवृत्ति में रहने वाले और वातावरण में रहने वाले भी करते हैं। मधुबन निवासियों में, न सिर्फ स्वयं के प्रति, साथ ही संगठन के प्रति भी व्रत लेने की हिम्मत चाहिए। यही मधुबन वरदान भूमि की विशेषता है। समझा!

जैसे अभी हिम्मत का प्रत्यक्ष फल दिखाया, ऐसे ही एक-दो को सावधान करते हुए और एक-दो के सहयोगी बनते हुए, इस व्रत को साकार रूप में लाने में सफल हो जावेंगे। जैसे और ज़ोन वालों को, अपनी-अपनी विशेष सर्विस का सबूत देने के लिये सुनाया है वैसे ही मधुबन निवासियों को भी इस बात का सबूत देना है। इस आधार पर ही, जनवरी में प्राइज मिलेगी। इतने समय में, सबूत देना मुश्किल है क्या? साकार रूप द्वारा व अव्यक्त रूप द्वारा शिक्षा और स्नेह की पालना, कितने समय ली है? पालना लेने के बाद, अन्य आत्माओं की पालना करने के निमित्त बन जाते हैं। क्या ऐसी पालना करने के निमित्त बने हो या अभी तक लेने वाले ही हो? अभी तो पुरानों को, आने वाले नये बच्चों की पालना करनी चाहिए अर्थात् अपने शिक्षास्वरूप द्वारा और स्नेह द्वारा उनको आगे बढ़ाने में सहयोगी बनना है और इस कार्य में दिन-रात बिजी रहना चाहिए। यह अव्यक्त पार्ट भी विशेष नयों के लिये है और पुरानों को तो, अब बाप के समान बन, नई आत्माओं के हिम्मत और उल्लास को बढ़ाना है। जैसे बाप-दादा ने, बच्चों को अपने से भी आगे रखते हुए, अपने से भी ऊँच बनाया, ऐसे ही पुरानों का कार्य है नयों को अपने से भी आगे बढ़ाने का सबूत दिखाना व सर्व-शिक्षाओं को साकार स्वरूप में दिखाना है। पालना का प्रैक्टिकल रूप रिटर्न रूप में देना है। अच्छा,

ऐसे सपूत बच्चे, अपनी तकदीर की तस्वीर अपनी धारणाओं द्वारा दिखलाने वाले, सदा मूल-मन्त्र और यन्त्र को कर्त्तव्य में लाने वाले, बापदादा के समान हर सेकेण्ड और संकल्प सर्व-आत्माओं के कल्याण के प्रति लगाने वाले, सदा स्व के भाव में रहने वाले, बापदादा समान श्रेष्ठ संस्कार अर्थात् अनादि और आदि संस्कारों को प्रत्यक्ष रूप में लाने वाले, हर संकल्प और हर समय को सफल बनाने वाले सफलतामूर्त्त सितारों को बाप-दादा का याद प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।



13-09-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मुरब्बी बच्चे बन अपनी स्टेज को योग-युक्त व युक्ति-युक्त बनाओ

निर्बल को बलवान बनाने वाले, सर्व-आत्माओं के संस्कार व स्वभाव को श्रेष्ठ बनाने वाले, ज्ञान सागर बाबा बोले:-

आज विशेष रूप से बाप किन लोगों से मिलने के लिये आये हुए हैं? आज का यह संगठन कौन-सा संगठन है? बाप-दादा इस संगठन को देखते और हर्षित होते हुए यही सबको टाइटल देते कि यह बाप-दादा के मुरब्बी बच्चों का संगठन है। मुरब्बी बच्चे जो होते हैं, वह बाप के साथ कदम के साथ कदम उठाते हुए और हर कार्य में सदा सहयोगी स्वत: ही बन जाते हैं, उन्हें बनना नहीं पड़ता और उन्हें बनने के लिये सोचना भी नहीं पड़ता। मुरब्बी बच्चा, स्नेही होने के नाते, सदा सहयोगी होता ही है। मुरब्बी बच्चों को, ड्रामानुसार स्नेह का रिटर्न, वरदान रूप में सहयोगी बनने का, सहज ही प्राप्त होता रहता है। अगर यह वरदान स्वत: ही प्राप्त है, तो समझो कि मैं मुरब्बी बच्चा हूँ। मुरब्बी बच्चे की स्टेज, सदा योग-युक्त और युक्ति-युक्त होती है। मुरब्बी बच्चा अर्थात् बाप के समान सर्वगुणों का स्वरूप जो बाप के गुण हैं, उन गुणों को साकार करने वाला ही मुरब्बी बच्चा कहलाता है। यह ऐसा ही ग्रुप है और यह सर्विस के निमित्त बनी हुई ज़िम्मेवार आत्मायें हैं।

यह तो सब कहेंगे कि सर्विस-अर्थ निमित्त अर्थात् बाप के गुणों को साकार करने के निमित्त-इसको ही सर्विस कहा जाता है। बाकी ज्ञान को वर्णन करना, यह तो कॉमन बात है। यह विशेष सर्विस नहीं है। सर्विस की विशेषता अर्थात् बाप के सर्वगुणों का स्वरूप बन कर, बाप का साक्षात्कार अपने स्वरूप द्वारा कराना। सुनना-सुनाना, यह तो द्वापर युग से चला आ रहा है। लेकिन आप विशेष आत्माओं की विशेषता किस बात में हैं? बाप-समान बन, सर्व को बाप का साक्षात्कार कराना और साक्षात् बन साक्षात्कार कराना। यह सिर्फ विशेष आत्मायें ही कर सकती हैं, यह और कोई आत्मा नहीं कर सकती। न भक्तिमार्ग वाले और न ज्ञान मार्ग में आने वाली साधारण आत्मायें। मुरब्बी बच्चों का फर्ज भी विशेष यही है।

साधारण आत्माओं और विशेष आत्माओं में मुख्य कौन-सी बात का अन्तर होता है? कोई गुह्य अन्तर सुनाओ। मुख्य अन्तर यह है-विशेष आत्माओं के मुख से और उनके अनुभव से, हर आत्मा का एक सेकेण्ड में और अति सहज ही डायरेक्ट बाप से कनेक्शन जुट जायेगा। और जो साधारण आत्मा होगी, वह बीच में दलाल जो बनते हैं, तो पहले दलाल में रूक कर फिर बाद में बाप से डायरेक्ट जुटेगा। साधारण आत्माओं के सर्विस की रिज़ल्ट में, आने वाली आत्मा इतनी शक्तिशाली नहीं बनती, जो सहज और बहुत जल्दी बाप से कनेक्शन जोड़ने के निमित्त बनेगी, लेकिन जिनके निमित्त बनती हैं, उनको मुश्किल जरूर अनुभव होगा। मेहनत, मुश्किल और समय लगेगा। क्या करें, कैसे करें, यह हो सकता है अथवा नहीं-उनके सामने यह क्वेश्चन आवेंगे; लेकिन विशेष आत्मा अपनी विशेषता के आधार से, अपनी शक्ति के आधार से यह क्यों और कैसे के क्वेश्चन समाप्त कर देंगी। वे मुश्किल और मेहनत का अनुभव नहीं करने देंगी। आने से ही हरेक यह अनुभव करेंगे कि यह तो मेरा गंवाया हुआ परिवार या भूला हुआ बाप, मुझे फिर से मिल गया है। भूलने पर आश्चर्य लगेगा कि मैं भूला कैसे? ऐसे बाप को, मैं भूल गया! यह है मुख्य अन्तर, विशेष आत्माओं और साधारण आत्माओं का। साधारण आत्मा प्रयत्न करती है कि बाप से डायरेक्ट कनेक्शन जुट जावे। लेकिन आजकल की निर्बल आत्माओं को सिर्फ अपना बल नहीं चाहिए क्योंकि वे सिर्फ ज्ञान और योग के आधार से नहीं चल पाते हैं बल्कि उन्हों को निमित्त बनी हुई आत्माओं की शक्ति का सहयोग चाहिए, जिससे कि वह जम्प दे सकें।

दिन प्रतिदिन आपके पास जो आत्मायें आयेंगी वह अति निर्बल स्टेज वाली ही आवेंगी। जैसे पहले ग्रुप में आप लोग निकले तो पहले ग्रुप की शक्ति, हिम्मत और दूसरे ग्रुप की शक्ति, हिम्मत और तीसरे ग्रुप की शक्ति और हिम्मत में अन्तर दिखाई देता है ना। ऐसे ही फिर नई-नई आत्माएं जो अब निकल रही हैं उनकी शक्ति और हिम्मत में भी अन्तर दिखाई देता है। तन से भी और मन से भी हर ग्रुप में अन्तर दिखाई देता जाता है। यह तो सबका अनुभव है ना? हिसाब से सोचो कि अब जो लास्ट की आत्मायें आवेंगी, वह क्या होंगी? अति निर्बल होंगी ना? तो, ऐसी निर्बल आत्माओं को सिर्फ ज्ञान दे दिया, उन्हें कोर्स करा दिया व योग में बैठा दिया, वे इससे आगे नहीं बढ़ेगी। अब तो निमित्त बनी हुई आत्माओं को, अपनी प्राप्त की हुई शक्तियों के आधार से ही निर्बल आत्माओं को सहयोग देते हुए, आगे बढ़ाना पड़ेगा। इसके लिये अभी से ही अपने में सर्वशक्तियों का स्टॉक जमा करो। जैसे स्थूल भोजन का लंगर लगता है ना, ऐसे ही आपके पास शक्ति लेने का दृश्य बहुत जल्दी सामने आयेगा अर्थात् आप लोगों को भी शक्ति देने का लंगर लगाना पड़ेगा। उसके लिये आप को अपने में पहले से ही स्टॉक जमा करना पड़ेगा। जो गायन है-द्रोपदी के देगड़े का। द्रोपदियाँ तो आप सब हो न? द्रोपदी अर्थात् यज्ञमाता का देगड़ा दोनों बातों में प्रसिद्ध है। एक तो स्थूल साधनों की कोई कमी नहीं और दूसरे सर्वशक्तियों की कोई कमी नहीं। सर्व-शक्तियों से सम्पन्न देगड़ा कब खाली नहीं होता। भल कितने भी आ जाएं। कितना बड़ा लंगर लग जावे कोई भूखा नहीं जा सकता।

आगे चल कर, जब प्रकृति के प्रकोप होंगे और आपदायें आवेंगी, तब सबका पेट भरने के लिये कौन-सी चीज काम आयेगी? उस समय सबके अन्दर कौन-सी भूख होगी? अन्न की कमी या धन की? तब तो, शान्ति और सुख की भूख होगी। क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं के कारण, धन होते हुए भी, धन काम में नहीं आयेगा। साधन होते हुए भी साधनों द्वारा प्राप्ति नहीं हो सकेगी। जब सब स्थूल साधनों से व स्थूल धन से प्राप्ति की कोई आशा नहीं रहेगी, तब उस समय सबका संकल्प क्या होगा कि कोई शक्ति देवे, जो कि इन आपदाओं से पार हो सकें और कोई हमें शान्ति देवे। तो ऐसे-ऐसे लंगर बहुत लगने वाले हैं। उस समय पानी की एकादा बूंद भी कहीं दिखाई नहीं देगी। अनाज भी प्राकृतिक आपदाओं के कारण खाने योग्य नहीं होगा, तो फिर उस समय आप लोग क्या करेंगे? जब ऐसी परीक्षायें आपके सामने आयें तो, उस समय आप क्या करेंगे? क्या ऐसी परीक्षाओं को सहन करने की इतनी हिम्मत है? क्या उस समय योग लगेगा या कि प्यास लगेगी। अगर कूएँ भी सूख जावेंगे, फिर क्या करेंगे? जब यह विशेष आत्माओं का ग्रुप है, तो उनका पुरूषार्थ भी विशेष होना चाहिए ना? क्या इतनी सहनशक्ति है? यह क्यों नहीं समझते-जैसा कि गायन है कि चारों ओर आग लगी हुई थी, लेकिन भट्ठी में पडे हुए पूंगरे, ऐसे ही सेफ रहे, जो कि उनको सेक तक नहीं आया। आप इस निश्चय से क्यों नहीं कहते? अगर योग-युक्त हैं, तो भल नजदीक वाले स्थान पर नुकसान भी होगा, पानी आ जायेगा लेकिन बाप द्वारा जो निमित्त बने हुए स्थान हैं, वह सेफ रह जावेंगे, यदि अपनी गफलत नहीं है तो। अगर अभी तक कहीं भी नुकसान हुआ है, तो वह अपनी बुद्धि की जजमेन्ट की कमजोरी के कारण। लेकिन अगर महारथी, विशाल बुद्धि वाले और सर्वशक्तियों के वरदान प्राप्त करने वाले, किसी भी स्थान में रहते हैं, तो वहाँ सूली से काँटा बन जाता है अर्थात् वे सेफ रह जाते हैं। कैसा भी समय हो यदि शक्तियों का स्टॉक जमा होगा, तो शक्तियाँ आपकी प्रकृति को दासी जरूर बनावेंगी अर्थात् साधन स्वत: जरूर प्राप्त होंगे।

शुरू-शुरू में अखबार में निकाला गया था कि ओम् मण्डली इज दि रिचेस्ट इन दि वर्ल्ड (Om Mandali Is Richest In The World)तो यही बात फिर अन्त में, सबके मुख से निकलेगी। लेकिन यह अटेन्शन जरूर रखना कि अगर किसी भी शक्ति की कमी होगी, तो कहीं-न-कहीं धोखा खाने का भी अनुभव होगा। इसलिये पुरूषार्थ अभी इन महीन बातों पर ही करना चाहिए। किसी को दु:ख तो नहीं दिया, हैन्डालिंग करना आया अथवा नहीं। यह तो सब छोटी-छोटी बातें हैं। मुरब्बी बच्चों का पुरूषार्थ अभी तक इन बातों का नहीं होना चाहिए। अभी का पुरूषार्थ सर्व-शक्तियों के स्टॉक के भरने का होना चाहिए। मुरब्बी बच्चों के रोज के चार्ट की चैकिंग, यह नहीं होनी चाहिए कि किसी पर क्रोध तो नहीं किया या कोई असन्तुष्ट तो नहीं हुआ, ऐसी मोटी-मोटी बातें चैक करना-यह तो घुड़सवार व प्यादों का काम है। मुरब्बी बच्चों का पुरूषार्थ अभी तक इन बातों का नहीं होना चाहिए। अभी का पुरूषार्थ सर्व-शक्तियों के भरने का होना चाहिए। कोई भी एक शक्ति का न होना अर्थात् मुरब्बी बच्चों की लिस्ट से निकलना। ऐसे नहीं कि छ: शक्तियाँ तो मेरे में हैं ही और आठ शक्तियों में से दो नहीं हैं, तो फिर 50% से तो आगे हो गये हैं। इसमें भी खुश नहीं होना है। अष्ट शक्तियाँ तो मुख्य कहा जाता है। लेकिन होनी तो सर्व-शक्तियाँ चाहिए। सिर्फ अष्ट शक्तियाँ तो नहीं हैं ना, हैं तो बहुत। बाकी यह तो सिर्फ सुनाने के लिये सहज हो जाये इसलिये अष्ट शक्तियाँ सुना दी गई हैं। अब कोई एक शक्ति को भी कमी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अब जिस भी शक्ति की कमी होगी, वही परीक्षा के रूप में आयेगी। अर्थात् हरेक के सामने ड्रामानुसार पेपर में वही क्वेश्चन आयेगा। इसलिये सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पन्न और मास्टर सर्वशक्तिमान् बनो। अगर एक शक्ति की भी कमी है, तो फिर शक्तियाँ कहेंगे न कि सर्वशक्तियाँ। मुरब्बी बच्चे अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिमान्। मुरब्बी बच्चा अर्थात् मर्यादा पुरूषोत्तम। जो है ही मर्यादा पुरूषोत्तम, उसका संकल्प भी विपरीत नहीं चल सकता। जब आप लोगों की चलन को मर्यादा व ईश्वरीय नियम समझ कर चलते हैं, तो आप लोग भी मर्यादा पुरूषोत्तम हुए ना?

बाप-दादा ने इस संगठन की रूप-रेखा सुनी भी और देखी भी। बहुत अच्छा देखा और बहुत अच्छा सुना। हरेक ने अपना घाट तो बहुत अच्छा तैयार किया है। जब जेवर बनते हैं तो पहले सोने का घाट तैयार करते हैं, फिर ही उसमें हीरे जवाहिरात जुड़ते हैं। तो जेवर तो बहुत अच्छे-अच्छे ज्वेलर्स ने तैयार किये, डिजाइन भी बहुत अच्छे बनाए, लेकिन उनमें जो रत्न जड़ने हैं, वह अभी तक नहीं जड़े। वह जड़ित तब होंगे जब प्लैन को प्रैक्टिकल में लावेंगे। जेवर अच्छे तैयार किये हैं अर्थात् प्लैन अच्छे बनाये हैं। अब यह देखना है कि हरेक कितने अमूल्य हीरों से अपने को अर्थात् जेवरों को श्रेष्ठ बनाते हैं। अभी वह रिज़ल्ट देखेंगे। नॉलेजफुल तो बने हो, लेकिन समय के अनुरूप अब आवश्यकता है, पॉवरफुल बनने की। नॉलेजफुल के तो जेवर तैयार किये हैं और अब पॉवरफुल के नग तैयार करके लगाने बाकी हैं। घेराव अच्छा डाला है। एकदो के हाथ में हाथ मिलाया है, तब तो घेराव हुआ है ना? अभी आगे क्या करना है? यदि कभी भी हाथ मिलाने वाला, हाथ कमजोर हो जाये व थक जाए तो भी, उसको कमजोर बनने नहीं देना वा ऐसे थके हुए हाथ को भी अथक बनाता, तब ही सफलता होगी। इस संगठन की सफलता, सिर्फ स्वयं को बनाने में नहीं है अपितु संगठन को मजबूत करना, सर्व-साथियों को उमंग व उत्साह में लाना, यह है इस संगठन की सफलता। जब दूसरे की कमी को, अपनी कमी समझेंगे तब ही संगठन को सफल बना सकेंगे। एक की कमी को, थकावट व कमजोरी को देखते हुए, स्वयं को ऐसे के संग की लहर में नहीं लाना है। फलानी ऐसे करती है तो फिर मैं भी कर लूँ। फलानी ने किया, यदि मैंने भी किया तो क्या हुआ? यह संकल्प स्वप्न तक भी नहीं आने देना, तब समझो कि सफलता है।

मधुबन निवासी भी लक्की हैं। मधुबन निवासियों की रिज़ल्ट उमंग, उत्साह और अथकपन में अच्छी है, बाकी आगे के लिये और भी मायाप्रुफ बनो। जैसे वाटरप्रूफ होता है ना? ऐसे ही मधुबन निवासियों को मायाप्रूफ बनना है, समझा।

ऐसे स्वयं को और सर्व-आत्माओं को शक्तिशाली बनाने वाले, निर्बल को बलवान बनाने वाले, संगठन में दूसरे की कमी को स्वयं की कमी समझकर मिटाने वाले, सर्वशक्तियों के भण्डार मास्टर सर्वशक्तिमान्, सदा स्वयं से और सर्व से संतुष्ट रहने वाली संतुष्ट मणियाँ, बाप-दादा और सर्व के दिल पर विजय प्राप्त करने वाले अर्थीत सर्व-आत्माओं के संस्कार और स्वभाव को बाप-समान बनाने वाले, ऐसे विजयी रत्नों को बाप-दादा का याद प्यार, गुड नाइट और नमस्ते!

मुरली का सार

(1) मुरब्बी बच्चे स्नेही होने के नाते बाप के हर कार्य में सहयोगी और बाप के सर्व-गुणों व शक्तियों को साकार करने वाले होते हैं। ऐसे बच्चों की स्टेज सदा योग-युक्त और युक्ति-युक्त होती है।

(2) अब तो निमित्त बनी हुई विशेष आत्माओं को, अपनी प्राप्त की हुई शक्तियों के आधार से, निर्बल आत्माओं को सहयोग देते हुए ही आगे बढ़ना पड़ेगा। इसके लिये अभी से ही अपने में सर्व-शक्तियों का स्टॉक जमा करो।

(3) अगर महारथी, विशाल बुद्धि वाले और सर्व-शक्तियों का वरदान प्राप्त करने वाले, किसी भी स्थान में रहते हैं, तो उनके लिये सूली से काँटा बन जाता है अर्थात् विपत्ति व परीक्षाओं के समय वे सुरक्षित रहते हैं।

(4) जब दूसरे की कमी को अपनी कमी समझेंगे तब ही संगठन को मजबूत व सफल बना सकेंगे।



15-09-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पुरूषार्थ का अन्तिम लक्ष्य है - अव्यक्त फरिश्ता-पन

विघ्न-विनाशक, ज्ञानसूर्य, पतित पावन बाप-दादा ने संगमयुगी ब्राह्मण बच्चों के प्रति महावाक्य उच्चारे:-

अभी तुम बच्चों का अन्तिम-स्थिति बनाने का अन्तिम पुरूषार्थ चल रहा है। जो महारथी बच्चे निमित्त बने हुए हैं, उन को अपने पुरूषार्थ की रफ्तार में भी सबके आगे निमित्त बनना है। श्रेष्ठ पुरूषार्थ कौन-सा होता है? वह किसको देख फॉलो करेंगे? जैसे कि साकार में पुरूषार्थ कैसे करना है और पुरूषार्थ किसको कहा जाता है? पहले तो पुरूषार्थ के सिम्बल (सिंबल) अर्थात् साकार ब्रह्मा बाबा को देखते हुए सब आगे बढ़ते थे लेकिन इस समय साकार में, सिम्बल कौन हैं?-महारथी। क्या महारथियों का ऐसा पुरूषार्थ चल रहा है कि जिसको देख कर अन्य आत्माओं का भी पुरूषार्थ सैम्पल हो जाए। अन्तिम पुरूषार्थ कौन-सा है, क्या उसको जानते हो? जैसे शुरू-शुरू में देह-अभिमान को मिटाने का पुरूषार्थ रखा कि ‘‘मैं चतुर्भुज हूँ।इससे स्त्र-भान, कमजोरी, कायरता आदि सब निकल गई और आप निर्भय और शक्तिशाली बन गये। तो जैसे आदि में देह-अभिमान मिटाने के लिये, कि मैं चतुर्भुज हूँ’, यह प्रैक्टिकल पुरूषार्थ चला ना? चलते-फिरते व बात करते यह नशा रहता था कि मैं नारी नहीं हूँ, मैं चतुर्भुज हूँतो ये दोनों संस्कार और वह दोनों शक्तियाँ मिल गई जैसे कि ये दोनों कार्य हम कर सकते हैं, तो वैसे ही अन्तिम लक्ष्य कौन-सा स्मृति में रहे, जिससे कि ऑटोमेटिकली वह लक्षण आ जाएं?

वह अन्तिम लक्ष्य पुरूषार्थ के लिये कौन-सा है? वह है-अव्यक्त फरिश्ता हो रहना। अव्यक्त-रूप क्या है?-फरिश्ता-पन। उसमें भी लाइट-रूप सामने है-अपना लक्ष्य। वह सामने रखने से जैसे लाइट के कर्व (Aura) में यह मेरा आकार है। जैसे वतन में भी अव्यक्त-रूप देखते हो, तो अव्यक्त और व्यक्त में क्या अन्तर देखते हो? व्यक्त, पाँच तत्वों के कार्ब में हैं और अव्यक्त, लाइट के कार्ब में हैं। लाइट का रूप तो है, लेकिन आसपास चारों ओर लाइट ही लाइट है, जैसे कि लाइट के कार्ब में यह आकार दिखाई देता है। जैसे सूर्य देखते हो तो चारों ओर फैली सूर्य की किरणों की लाइट के बीच में, सूर्य का रूप दिखाई देता है। सूर्य की लाइट तो है, लेकिन उसके चारों ओर भी सूर्य की लाइट परछाई के रूप में, फैली हुई दिखाई देती है। और लाइट में विशेष लाइट दिखाई देती है। इसी प्रकार से, मैं आत्मा ज्योति रूप हूँ-यह तो लक्ष्य है ही। लेकिन मैं आकार में भी कार्ब में हूँ। चारों ओर अपना स्वरूप लाइट ही लाइट के बीच में स्मृति में रहे और दिखाई भी दे तो ऐसा अनुभव हो। जैसे कि आइने में देखते हो तो स्पष्ट रूप दिखाई देता है, वैसे ही नॉलेज रूपी दर्पण में, अपना यह रूप स्पष्ट दिखाई दे और अनुभव हो। चलते-फिरते और बात करते, ऐसे महसूस हो कि मैं लाइट-रूप हूँ, मैं फरिश्ता चल रहा हूँ और मैं फरिश्ता बात कर रहा हूँ।तो ही आप लोगों की स्मृति और स्थिति का प्रभाव औरों पर पड़ेगा।

कर्त्तव्य करते हुए भी कि मैं फरिश्ता निमित्त इस कार्य अर्थ पृथ्वी पर पाँव रख रहा हूँ, लेकिन मैं हूँ अव्यक्त देश का वासी, अब इस स्मृति को ज्यादा बढ़ाओ। ‘‘मैं इस कार्य-अर्थ अवतरित हुई हूँ अर्थात् जैसे कि मैं इस कार्य-अर्थ पृथ्वी पर वतन से आई हूँ, कारोबार पूरी हुई, फिर वापस अपने वतन में। जैसे कि बाप आते हैं, तो बाप को स्मृति है ना कि हम वतन से आये हैं, कर्त्तव्य के निमित्त और फिर हमको वापिस जाना है। ऐसे ही आप सबकी भी यह स्मृति बढ़नी चाहिए कि मैं अवतार हूँ अर्थात् मैं अवतरित हुई हूँ, अभी मैं ब्राह्मण हूं और फिर मैं देवता बनूंगी-यह भी वास्तव में मोटा रूप है। यह स्टेज भी साकारी है। अभी आप लोगों की स्टेज आकारी चाहिए, क्योंकि आकारी से फिर निराकारी सहज बनेंगे। जैसे बाप भी साकार से आकारी बना, आकारी से फिर निराकारी और फिर साकारी बनेंगे।’’

अब आप लोगों को भी अव्यक्त वतनवासी स्टेज तक पहुँचना है, तभी तो आप साथ चल सकेंगे। अभी यह साकार से अव्यक्त रूप का पार्ट क्यों हुआ?-सबको अव्यक्त स्थिति में स्थित कराने क्योंकि अब तक उस स्टेज तक नहीं पहुंचे हैं। अभी अन्तिम पुरूषार्थ यह रह गया है। इसी से ही साक्षात्कार होंगे। साकार स्वरूप के नशे की प्वाइन्ट्स तो बहुत हैं कि मैं श्रेष्ठ आत्मा हूं, मैं ब्राह्मण हूं और मैं शक्ति हूं। इस स्मृति से तो आपको नशे और खुशी का अनुभव होगा। लेकिन जब तक इस अव्यक्त स्वरूप में, लाइट के कार्ब में स्वयं को अनुभव न किया है, तब तक औरों को आपका साक्षात्कार नहीं हो सकेगा। क्योंकि जो दैवी स्वरूप का साक्षात्कार भक्तों को होगा, वह लाइट रूप की कार्ब में चलते-फिरते रहने से ही होगा। साक्षात्कार भी लाइट के बिना नहीं होता है। स्वयं जब लाइट-रूप में स्थित होंगे, आपके लाइट रूप के प्रभाव से ही उनको साक्षात्कार होगा। जिसे शास्त्रों में दिखाते हैं कि कंस ने कुमारी को मारा, तो वह उड़ गई, साक्षात्-रूपधारी हो गई और फिर आकाशवाणी की। वैसे ही आप लोगों का साक्षात्कार हो, तो ऐसा अनुभव होगा कि मानो यह देवी द्वारा आकाशवाणी हो रही है। वह सुनने को इच्छुक होंगे कि यह देवी या शक्ति मेरे प्रति क्या आकाशवाणी करती है। आप में अब यह नवीनता दिखाई दे। साधारण बोल नज़र न आयें, ऊपर से आकाशवाणी हो रही है, बस ऐसा अनुभव हो। इसलिये कहा कि अब ज्वालामुखी बनने का समय है। अब आपका गोपीपन का पार्ट समाप्त हुआ। महारथी जो आगे बढ़ते जा रहे हैं, उनका इस रीति सर्विस करने का पार्ट भी ऑटोमेटिकली बदली होता जाता है। पहले आप लोग भाषण आदि करती थीं और कोर्स कराती थीं। अभी चेयरमैन के रूप में थोड़ा बोलती हो, कोर्स आदि आपके जो साथी हैं, वह कराते हैं। अभी इस समय, कोई को आकर्षण करना, हिम्मत और उल्लास में लाना, यह सर्विस रह गई है, तो फर्क आ जाता है ना? इससे भी आगे बढ़ कर यह अनुभव होगा जैसे कि आकाशवाणी हो रही है। कहेंगे यह कोई अवतार हैं-और यह कोई साधारण शरीरधारी नहीं हैं। अवतार प्रगट हुए है। जैसे कि साक्षात्कार में अनुभव करते-करते देवी प्रगट हुई है। महावाक्य बोले और प्राय:लोप। अभी की स्टेज व पुरूषार्थ का लक्ष्य यह होना है।

अब स्थूल कारोबार से भी, जैसे कि उपराम होते जावेंगे। इशारे में सुना, डायरेक्शन दिया और फिर अव्यक्त वतन में। जैसे साकार में देखा, अनुभव किया, नीचे आये, डायरेक्शन दिया, सुना और फिर ऊपर। शुरू और अन्त की कारोबार में रात और दिन का अन्तर दिखाई दे। अभी जिम्मेवारियाँ तो और भी बढ़ेंगी। ऐसे नहीं, कि जिम्मेवारियाँ कम होगी, तब फरिश्ता बनेंगे, नहीं! जिम्मेवारियाँ और सर्विस का विस्तार तो चारों ओर और बढ़ेगा। जैसे अब विदेश की भी सर्विस बढ़ी ना और विस्तार भी हुआ ना? ऐसे ही भिन्न-भिन्न प्रकार की जो सर्विस हो रही है, वह बढ़ेगी जरूर। विश्व की हर प्रकार की आत्माओं का उद्धार होने का गायन भी शास्त्रों में है ना? प्रैक्टिकल में हुआ ना, तब तो इसका शास्त्रों में गायन है? यह सब होगा। अब तो एक-एक स्थान पर बैठे हो, फिर दस-दस स्थान, सम्भालने पड़ेंगे फिर तो एक जगह बैठ भी नहीं सकेंगे। अभी तो छ:आठ मास एक ही जगह बैठते हो, लेकिन फिर तो लाइट हाउस मिसल चारों ओर सर्विस करते रहेंगे।

जो निमित्त बने हुए मुख्य हैं, सर्विसएबल हैं और राज्यभाग्य की गद्दी लेने वाले हैं, ऐसे अनन्य रत्न लाइट हाउस मिसल घूमते और चारों ओर लाइट देते रहेंगे। लाइट हाउस का भी प्रैक्टिकल रूप चाहिए ना? एक अनेकों को लाइट देंगे। बेहद विश्व के मालिक, फिर वह कोई एक एरिया के हद का ही जिम्मेवार हो, ऐसा तो हो नहीं सकता। चाहे निमित्त-मात्र भले ही उनका एक ठिकाना हो, जैसे लाइट हाउस का निमित्त ठिकाना तो एक है ना? लेकिन सर्विस एक ठिकाने की नहीं करते बल्कि चारों ओर लाइट फैलाते हैं। इसी रीति स्थान भले एक ही होगा, लेकिन जो अपने में विशेषतायें होंगी या शक्तियाँ हैं, उसका लाभ चारों ओर हो। अभी तक सिर्फ एक स्थान पर ही आपकी विशेषता का लाभ है। सूर्य एक स्थान को ही रोशनी देता है क्या? तो आपकी भी विशेष शक्ति रूपी किरणें चारों ओर फैलनी चाहिए ना? नहीं तो मास्टर सर्वशक्तिमान् और ज्ञान सितारे आप कैसे सिद्ध होंगे? मास्टर ज्ञानसूर्य अर्थात् बाप-समान। सितारे होते हुए भी बाप-समान स्टेज। वह तो अष्ट रत्न ही प्राप्त करेंगे ना? अगर कोई सितारा एक ही स्थान पर, अपना प्रकाश फैलाता है और वह टिमटिमाता उसी अपनी एरिया में ही रोशनी देता है तो उसको मास्टर ज्ञानसूर्य व बाप-समान नहीं कहेंगे। जब तक वह बाप-समान की स्टेज पर नहीं आया है, तब तक बाप-समान तख्त नहीं ले सकता। इसलिये अपनी स्टेज ऐसी बनाओ जो सर्विस बढ़े।

चक्रधारी बनने से ही चक्रवर्ती महाराजा बनेंगे। यहाँ चक्रधारी, वहाँ चक्रवर्ती। जिसमें लाइट का भी चक्र हो और सेवा में प्रकाश फैलाने वाला चक्र भी हो, तब ही कहेंगे-चक्रधारी। ऐसा चक्रधारी ही चक्रवर्ती बन सकता है। चलते-फिरते लाइट का चक्र हरेक को दिखाई देगा, जैसे इन आंखों से दिखाई पड़ रहा है। आश्चर्य खावेंगे कि यह सचमुच है व मैं ही देख रहा हूँ? आपके लाइट का रूप और लाइट का क्राउन ऐसा कॉमन हो जायेगा कि चलते-फिरते सबको दिखाई देगा। यह लाइट के ताजधारी हैं। जैसे साकार में लाइट का अनुभव करना कॉमन बात थी और ख्वाहिश करनी नहीं पड़ती थी। सबको उसी रूप से नज़र आता था, जैसे कि इन आंखों से देख रहे हैं। ऐसे आप लोगों को अनुभव होगा। देखते-देखते वह खुद गुम होने लगेंगे-मैं कहाँ हूँ और क्या देख रहा हूँ? जैसे साकार द्वारा अनुभव करते थे कि स्वयं से ही कभी-कभी आश्चर्य खाते थे; कि क्या मेरे पाँव यहाँ हैं, अथवा मूल वतन या सूक्ष्म वतन में हैं? जैसे साकार द्वारा आपको अनुभव होते थे, वैसे ही फिर आपके द्वारा सबको अनुभव होगा। तब तो समान की स्टेज में आवेंगे। वह तब होंगे, जब बीच-बीच में अपने इस स्वरूप की स्मृति लाते रहेंगे। साकार ने भी गुप्त-पुरूषार्थ किया। इसी प्रकार आप लोगों को भी यह गुप्त पुरूषार्थ व गुप्त मेहनत करनी है। इतना अटेन्शन है? टेन्शन होते हुए भी अटेन्शन रहे।

अभी तो फिर भी रात और दिन में आराम करने का टाइम मिलता है, लेकिन फिर तो यह रेस्ट लेना, यह भी समाप्त हो जायेगा। लेकिन जितना अव्यक्त लाइट रूप में स्थित होंगे, उतना ही शरीर से परे का अभ्यास होने के कारण यदि दो-चार मिनट भी जैसे कि अशरीरी बन जावेंगे, तो मानों जैसे कि चार घण्टे का आराम कर लिया। ऐसा समय आयेगा जो कि नींद के बजाए चार-पाँच मिनट अशरीरी बन जावेंगे, जैसे कि नींद से शरीर को खुराक मिल जाती है, वैसे ही यह भी खुराक मिल जायेगी। शरीर तो पुराने ही रहेंगे। हिसाब-किताब पुराना तो होगा ही। सिर्फ उसमें यह एडीशन होगी। लाइट-स्वरूप के स्मृति को मजबूत करने से हिसाब-किताब चुक्त करने में भी लाइट रूप हो जावेंगे। जैसे इन्जेक्शन लगाने से पाँच मिनट में ही फर्क पड़ जाता है, वैसे ही नींद की गोली लेने से भी परेशानी समाप्त हो जाती है। आप भी ऐसे ही समझो कि यह हम नींद की खुराक लेते हैं। ऐसी स्टेज लाने के लिये ही यह अभ्यास है।

अमृत वेले भी जैसे यह अभ्यास करना है-हम जैसे कि अवतरित हुए हैं। कभी ऐसे समझो कि मैं अशरीरी और परमधाम का निवासी हूँ अथवा अव्यक्त रूप में अवतरित हुई हूँ और फिर स्वयं को कभी निराकार समझो। यह तीन स्टेजिस पर जाने की ऐसी प्रैक्टिस हो जाए जैसे कि एक कमरे से दूसरे कमरे में जाना होता है। तो अमृत वेले यह विशेष अशरीरी-भवका वरदान लेना चाहिए अभी विशेष यह अनुभव हो। अच्छा! चढ़ती कला सर्व का भला। चढ़ती कला का, प्रैक्टिकल स्वरूप क्या होता है? उसमें सर्व का भला होता है। इनसे ही चढ़ती कला का अपना पुरूषार्थ देख सकेंगे। सर्व का भला ही सिद्ध करता है कि चढ़ती कला है। वास्तव में यही थर्मामीटर है।

आप लोगों का शुरू में था-शीतला देवी का पार्ट। अभी है-ज्वाला देवी का पार्ट। पहले स्नेह से, समीप सम्बन्ध में आये और अब फिर, शक्ति स्वरूप बनना है। अभी सिर्फ गुण और स्नेह का प्रभाव है या नॉलेज का प्रभाव है, लेकिन साक्षात्मूर्त अनुभव करें कि यह कोई साधारण शक्ति नहीं है। जैसे सूर्य की किरणें फैलती हैं, वैसे ही मास्टर सर्वशक्तिमान् की स्टेज पर शक्तियों व विशेषताओं रूपी किरणें चारों ओर फैलती अनुभव करें। मैं विघ्न-विनाशक हूँ’, इस स्मृति की सीट पर स्थित होकर कारोबार चलायेंगे तो विघ्न सामने तक भी नहीं आवेंगे। अच्छा!’’

महावाक्यों का सार

(1) जिस प्रकार प्रारम्भ में देह अभिमान को मिटाने के लिये यह अभ्यास किया कि मैं चतुर्भुज हूँ’, वैसे ही पुरूषार्थ का अन्तिम लक्ष्य है-अव्यक्त फरिश्ता हो रहना।

(2) कर्त्तव्य करते हुए भी, इस स्मृति को ज्यादा बढ़ाओ कि मैं फरिश्ता निमित्त इस कार्य-अर्थ पृथ्वी पर पाँव रख रहा हूँ लेकिन मैं हूं अव्यक्त देश का। मैं इस कार्य-अर्थ अवतरित हुआ हूँ।

(3) जो दैवी स्वरूप का साक्षात्कार भक्तों को होगा वह लाइट रूप की कार्ब में चलते-फिरते रहने से होगा।

(4) आप लोगों को अव्यक्त वतनवासी स्टेज तक पहुँचना है, तब तो साथ चल सकेंगे।

(5) जो निमित्त बने हुए मुख्य हैं, सर्विसएबल हैं, राज्यभाग्य की गद्दी लेने वाले हैं, ऐसे अनन्य रत्न लाइट हाउस मिसल घूमते हुए चारों ओर लाइट देते रहेंगे।

(6) पवित्रता की लाइट का भी चक्र हो और सेवा का प्रकाश फैलाने वाला भी चक्र हो तब कहेंगे-चक्रधारी।ऐसा चक्रधारी ही चक्रवर्ती बन सकता है।



05-12-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


व्यर्थ संकल्पों को समर्थ बनाने से काल पर विजय

काल पर विजय दिलाने वाले, सर्व प्राप्तियों के अधिकारी बनाने वाले बाप-दादा बोले:-

अव्यक्त-मिलन किसको कहा जाता है? जिससे मिलना होता है, उसी के समान बनना होता है। तो अव्यक्त-मिलन अर्थात् बाप-समान अव्यक्त रूपधारी बनना। अव्यक्त अर्थात् जहाँ व्यक्त भाव नहीं। क्या ऐसे बने हो? व्यक्त देश का, व्यक्त देह का और व्यक्त वस्तुओं का जरा भी आकर्षण अपनी तरफ आकर्षित न करे, क्या ऐसी स्थिति बनाई है? जो पहला-पहला वायदा है कि तुम्हीं से सुनूं और तुम्हीं से बोलूं, यह वायदा निभाने के लिये सारा दिन-रात जब तक अव्यक्त व निराकारी स्थिति में स्थित नहीं होंगे, तो क्या बाप-दादा के साथ-साथ रहने का अनुभव कर सकेंगे अर्थात् वायदा निभा सकेंगे? सारे दिन में आप कितना समय, यह वायदा निभाते हो? जिससे मिलना होता है, उसके स्थान पर और वैसी स्थिति, स्वयं की बनानी होती है। वह स्थान और स्थिति ये दोनों ही बदलनी पड़ेगी, तब ही यह वायदा निभा सकते हो। व्यक्त भाव में आना व कोई भी व्यक्त व वस्तु में भावना रहना कि यह प्रिय है व अच्छी है, यह व्यक्त-वस्तु और व्यक्ति में भावना रहना अर्थात् कामना का रूप हो जाता है। जब तक कामना है, तब तक माया से सम्पूर्ण रीति सामना नहीं कर सकते। जब तक सामना नहीं कर सकते, तब तक समान नहीं बन सकते अर्थात् वायदा नहीं निभा सकते।

जैसे आप लोग चित्र में कृष्ण को सृष्टि के ग्लोब पर दिखाते हो-ऐसा ही चित्र अपनी प्रैक्टिकल स्थिति का बनाओ। इस व्यक्त देश व इस पुरानी दुनिया से उपराम। व्यक्त भाव और व्यक्त वस्तुओं आदि सबसे उपराम अर्थात् इनके ऊपर साक्षी होकर खड़े रहें। जैसे पाँव के नीचे ग्लोब दिखाते हैं व ग्लोब के ऊपर बैठा हुआ दिखाते हैं अर्थात् उनका मालिकपन व अधिकारीपन दिखाते हैं तो ऐसे अपना चित्र बनाओ। इस पुरानी दुनिया में, जैसे अपनी स्व-इच्छा से, अपने रचे हुए संकल्प के आधार से अव्यक्त से व्यक्त में आते, व्यक्ति व वस्तुओं के आकर्षण के अधीन होकर नहीं। जैसे लिफ्ट में चढ़ते हो, तो स्विच अपने हाथ में होता है चाहे फर्स्ट फ्लोअर पर जाओ, चाहे सेकेण्ड फ्लोअर पर जाओ। जब स्विच कन्ट्रोल से बाहर हो जाता है तब वाया रिज़ल्ट होती है? बीच में लटक जावेंगे ना? ऐसे ही यह स्मृति का स्विच अपने कन्ट्रोल में रखो। जहाँ चाहो, जब चाहो और जितना समय चाहो वैसे अपने स्थान को व स्थिति को सैट कर सको, क्या ऐसे अधिकारी बने हो? क्या काल पर विजय प्राप्त की है? काल अर्थात् समय। तो काल पर विजयी बने हो? अगर पाण्डव सेना की व शक्ति सेना की यह स्टेज अन्त में आयेगी तो साइलेन्स पॉवर तो साइन्स से कम हो गई। क्योंकि साइंस ने तो अभी भी इन तत्वों पर विजय प्राप्त कर ली है।

प्रदर्शनी में, आप लोग चित्र दिखाते हो ना, कि रावण ने चार तत्वों पर विजय प्राप्त की है, उसमें काल भी दिखाते हो न? जब रावण ने अर्थात् रावण की शक्ति साइंस ने अभी भी काफी हद तक तत्वों पर विजय प्राप्त कर ली है, तो साइंस आपसे पॉवरफुल  हुई ना? जब साइन्स की शक्ति अपना प्रत्यक्ष सबूत दे रही है तो साइलेन्स की शक्ति अपना प्रत्यक्ष सबूत क्या अन्त में देगी? समय पर विजय अर्थात् काल पर विजय। इसकी परसेन्टेज अभी कम है। अपने को निराकारी स्थिति व अव्यक्त स्थिति में स्थित तो करते हो, लेकिन जितना समय स्थित रहना चाहते हो, उतना समय उस स्थिति में स्थित नहीं हो पाते हो। स्टेज के अनुभव भी प्राप्त करते हो, मेहनत भी करते हो, लेकिन काल पर विजय नहीं कर पाते हो। इसका कारण क्या है? सोचते हो कि आधा घण्टा पॉवरफुल याद में बैठेंगे और आधा घण्टा बैठते भी हो और प्लैन भी बनाते हो लेकिन जितनाजितना जिस स्टेज के लिए सोचते हो, उतना ही समय उस समय उस स्टेज पर स्थित नहीं होते हो। सोचते हो स्विच ऑन थर्ड फ्लोर पर करें, लेकिन पहुँच जाते हो सेकेण्ड फ्लोर पर वा फर्स्ट या ग्राउण्ड फ्लोर तक पहुँच जाते हो। क्योंकि काल पर विजय नहीं। इसका कारण यह है कि बार-बार सारे दिन में समय गँवाने के अभ्यासी हो। व्यर्थ के ऊपर अटेन्शन देने से ही काल पर विजय प्राप्त करने में समर्थ बनेंगे। जब तक समय व्यर्थ जाता है, तब तक विजय पाने में समर्थ नहीं बन सकते। इसी कारण, जो मिलन का अनुभव करना चाहते हो व निरन्तर समय व्यर्थ करने के कारण ही समर्थ नहीं बन पाते। 108 वायदा निभाना चाहते हो वह निभा नहीं सकते। तो अब, अपनी तकदीर की तस्वीर सर्व-तत्वों पर और काल पर सदा विजयी की बनाओ। जब एक-एक सेकेण्ड, व्यर्थ से समर्थ में चेन्ज करो, तब ही विजयी बनेंगे, अच्छा।

ऐसे सदा विजयी, सदा अधिकारी, निरन्तर वायदा निभाने वाले, हरेक को व्यर्थ से समर्थ में परिवर्तन करने वाले, सदा व्यक्त भाव से परे, अव्यक्त स्थिति में रहने वाले लक्की सितारों व समीप सितारों को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।

महावाक्यों का सार

(1) जब तक कोई कामना है, तब तक माया से सम्पूर्ण रीति सामना नहीं कर सकते हैं।

(2) जहाँ चाहो, जब चाहो, जितना समय चाहो वैसे अपने स्थान को, स्थिति को सेट कर सको, ऐसे अधिकारी बने हो? काल अर्थात् समय पर विजय प्राप्त की है?

(3) व्यर्थ संकल्पों के ऊपर अटेन्शन देने से ही काल पर विजय प्राप्त करने में समर्थ बन सकेंगे। 



24-12-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


एक बार सहयोग देना अर्थात् अन्त तक सहयोग लेना

सहयोगी बच्चों के सदा व अन्त तक सहयोगी बनने वाले, रहमदिल शिव बाबा ने ये मधुर महावाक्य उच्चारे:-

बाप-दादा सदैव विदेशियों को नम्बर वन याद करता है। जैसे बांधेलियाँ पहले याद आती हैं, वैसे विदेश में रहने वाले बच्चे भी याद आते हैं। उनको भी बार-बार इस देश में न आ सकने का बन्धन है ना? बाप-दादा तो सबसे समीप देखते हैं। जो फॉरेन में सर्विस पर गये हैं, वह कोई दूर हैं क्या? वे आंखों के सामने भी नहीं हैं, लेकिन आंखों में जो समाया हुआ होता है, वह कभी दूर नहीं होता। वह तो सबसे समीप हुआ ना? आप आंखों के सामने रहती हो या आंखों में समाई हुई हो? जो समाये हुए हैं, वह हैं निरन्तर योगी। विदेश में रहने वाले बच्चे फिर भी नज़दीक आ जाते हैं, और जो नज़दीक हैं,देश के हिसाब से रहने वाले चार वर्ष में एक बार भी नहीं आते तो नजदीक कौन हुए? यह सारा सूक्ष्म कनेक्शन है। नज़दीक सम्बन्ध है, तब तो नजदीक आई हो। यह तो है ना? ड्रामानुसार देखो, इतने महारथियों के संकल्प साकार न हो सके। लेकिन एक बाप का ही संकल्प साकार हो गया, फिर तो समीप हुई ना? अपने को बाप-दादा से दूर मत समझो।

अपनी जन्मपत्री को देखना चाहिए कि आदि से लेकर अर्थात् जन्मते ही मेरी तकदीर की लकीर कैसी है? जिनको जन्म होने से ही तकदीर प्राप्त है; तकदीर बनाके आए हैं आदि समय की, उसी आधार पर पीछे भी उनको लिफ्ट मिलती है। शुरू से ही सहज प्राप्ति हुई है ना? मेहनत कम और प्राप्ति ज्यादा। यह लॉटरी मिली हुई है। एक रूपये की लाटरी में, लाखों मिल जायें तो मेहनत कम, प्राप्ति ज्यादा हुई ना? कोई भी बात में, अगर एक बार समय पर, बिना कोई संकल्प के, आज्ञा समझ कर जो सहयोगी बन जाते हैं, ऐसे समय के सहयोगियों को बाप-दादा भी अन्त तक सहयोग देने के लिए बाँधा हुआ है। एक बार का सहयोग देने का अन्त तक सहयोग लेने का अधिकारी बनाता है। एक का सौ गुना मिलने से मेहनत कम, प्राप्ति ज्यादा होती है। चाहे मन से, चाहे तन से अथवा धन से। लेकिन समय पर सहयोग दिया, तो बाप-दादा अन्त तक सहयोग देने के लिये बांधा हुआ है। जिसको दूसरे शब्दों में भक्त लोग अन्ध-श्रद्धा कहते हैं। ऐसा अगर कोई एक बार भी जीवन में बाप-दादा के कार्य में सहयोग दिया है, तो अन्त तक बाप-दादा सहयोगी रहेगा। यह भी एक हिसाब-किताब है। समझा। अच्छा।’’

महावाक्यों का सार

(1) अगर एक बार समय पर बिना कोई संकल्प के आज्ञा समझ कर जो सहयोगी बन जाते हैं ऐसे समय के सहयोगियों को बाप-दादा भी अन्त तक सहयोग देने के लिये बांधा हुआ है?

(2) जो बच्चे फॉरेन में सर्विस पर गए हुए हैं वे बाप-दादा की आंखों मे समाये हुए हैं।

(3) जो आंखों में समाये हुए हैं वह हैं -- निरन्तर योगी।

 


 


27-12-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


योगी भवऔर पवित्र भवद्वारा वरदानों की प्राप्ति

सर्व वरदानों को देने वाले वरदाता शिव बाबा बोले:-

आज की सभा वरदाता द्वारा, सर्व वरदान प्राप्त की हुई आत्माओं की है। वरदाता द्वारा, सर्व वरदानों में, मुख्य दो वरदान हैं, जिसमें कि सर्व वरदान समाये हुए हैं। वह दो वरदान कौन-से हैं? उसको अच्छी तरह जानते हो या स्वयं वरदान-स्वरूप व वरदानी-मूर्त बन गये हो? जो वरदानी-मूर्त हैं; वह स्वयं स्वरूप बन, औरों को देने वाला दाता बन सकता है। तो अपने से पूछो कि क्या मुख्य दो वरदान-स्वरूप बने हैं? अर्थात् योगी भव और पवित्र भव: - इस विशेष कोर्स के स्वरूप बने हो? इसी कोर्स को समाप्त किया है या अभी तक कर रहे हो? सप्ताह कोर्स का रहस्य, इन दो वरदानों में समाया हुआ है। जो भी यहाँ बैठे हैं, क्या उन सबने यह कोर्स, समाप्त कर लिया है या उनका अभी तक यह कोर्स चल रहा है? कोर्स अर्थात् फोर्स भर जाना। सदा योगी-भव और सदा पवित्र-भव का फोर्स अर्थात् शक्ति-स्वरूप का अनुभव नहीं होता, तो उसको शक्ति-स्वरूप नहीं कहेंगे। लेकिन उसे शक्ति-स्वरूप बनने का अभ्यासी ही कहेंगे। क्योंकि स्वयं का स्वरूप, सदा और स्वत: ही स्मृति में रहता है। जैसे अपना साकार स्वरूप, सदा और स्वत: याद रहता है और उसका अभ्यास नहीं करते हो बल्कि और ही, उसको भुलाने का अभ्यास करते हो। ऐसे ही अपना निजी-स्वरूप व वरदानी स्वरूप, सदा ही स्मृति में रहना चाहिए। अपवित्रता का और विस्मृति का नामोनिशान न रहे। इसको कहा जाता है-वरदानों का कोर्स करना। क्या ऐसा कोर्स किया है?

जैसे आप लोग, सप्ताह कोर्स समाप्त करने से पहले, किसी भी आत्मा को क्लास में नहीं आने देते हो, ऐसे ही ब्राह्मण बच्चे, जो यह प्रैक्टिकल कोर्स समाप्त नहीं करते तो बाप-दादा व ड्रामा भी उनको कौन-सी क्लास में आने नहीं देते। अर्थात् फर्स्ट क्लास में आने नहीं देते। फर्स्ट क्लास कौन-सी है?-वे सतयुग के आदि में नहीं आ सकते। जब आप लोग, उन को क्लास में आने नहीं देते, तो ड्रामा भी फर्स्ट क्लास में का अधिकारी नहीं बना सकता। फर्स्ट क्लास में, आने के लिए यह मुख्य दो वरदान प्रैक्टिकल रूप में चाहिए। विस्मृति या अपवित्रता क्या होती है इसकी अविद्या हो जाए। तुम संगम पर उपस्थित हो ना? तो ऐसा अनुभव हो कि यह संस्कार व स्वरूप मेरा नहीं है, लेकिन मेरे पास्ट जन्म का था और अब है नहीं। मैं तो ब्राह्मण हूँ और यह तो शूद्रों के संस्कार व उनका स्वरूप है। ऐसे अपने से भिन्न अर्थात् दूसरों के संस्कार हैं, ऐसा अनुभव होना-इसको कहा जाता है न्यारा और प्यारा।जैसे देह और देही अलग-अलग वस्तुयें हैं, लेकिन अज्ञानवश इन दोनों को मिला दिया है। वैसे ही मेरेको मैंसमझ लिया है। तो इस गलती के कारण कितनी परेशानी व दु:ख व अशान्ति प्राप्त की। ऐसे ही, यह अपवित्रता और विस्मृति के संस्कार, जो मेरे अर्थात् ब्राह्मणपन के नहीं, लेकिन जो शूद्रपन के हैं, उनको मेरा समझने से, माया के वश व परेशान हो जाते हो अर्थात् ब्राह्मणपन की शान से परे (दूर) हो जाते हो। यह छोटी-सी भूल, चैक करो कि कहीं यह मेरे संस्कार तो नहीं था, यह कहीं यह मेरा स्वरूप तो नहीं? समझा? तो पहला पाठ, पवित्र-भव व योगी-भव को प्रैक्टिकल स्वरूप में लाओ, तब ही बाप-समान और बाप के समीप आने के अधिकारी बन सकते हो।

आज कल्प पहले वाले, बहुत काल से बिछुड़े हुए, बाप की याद में तड़पने वाले व अव्यक्त मिलन मनाने के शुद्ध संकल्प में रमण करने वाले, अपने स्नेह की डोर से बाप-दादा को भी बांधने वाले और अव्यक्त को भी आप-समान व्यक्त में बनाने वाले, वह नये-नये बच्चे व साकारी देश में दूर-देशी बच्चे जो हैं, उनके प्रति विशेष मिलन के लिए बाप-दादा को आना पड़ा है। तो शक्तिशाली कौन हुए? बाँधने वाले या बँधने वाला? बाप कहते हैं-वाह बच्चे।’ ‘शाबास बच्चे।नयों के प्रति विशेष बाप-दादा का स्नेह है। ऐसा क्यों? निश्चय की सदा विजय है। विशेष स्नेह का मुख्य कारण, नये बच्चे सदा अव्यक्त मिलन मनाने की मेहनत में रहते हैं। अव्यक्तरूप द्वारा, व्यक्त रूप से किये हुए चरित्रों का अनुभव करने के सदा शुभ आशा के दीपक जगाए हुए होते हैं। ऐसी मेहनत करने वालों को, फल देने के लिए बाप-दादा को भी विशेष याद स्वत: ही आती है। इसलिए आज की याद, आज की गुडमार्निंग व नमस्ते विशेष चारों ओर के नये-नये बच्चों को पहले बाप-दादा दे रहे हैं। साथ में, सब बच्चे तो है हीं। अब व्यक्त द्वारा अव्यक्त मिलन, सदा काल तो हो नहीं सकता। इसलिए आने के बाद, जाना होता है। अव्यक्त रूप में अव्यक्त मुलाकात तो सदाकाल की है। ऐसे वरदानी बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।