09-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


इंतज़ार की बजाय इंतज़ाम करो

अपने सर्वश्रेष्ठ एवं कल्याणकारी संकल्प से सतयुगी, पावन सृष्टि का सृजन करने वाले सृजनहार शिव बाबा बोलेः-

निराकारी, आकारी और साकारी - इन तीनों स्टेजिस को समान बनाया है? जितना साकारी रूप में स्थित होना सहज अनुभव करते हो, उतना ही आकारी स्वरूप अर्थात् अपनी सम्पूर्ण स्टेज व अपने अनादि स्वरूप - निराकारी स्टेज - में स्थित होना सहज अनुभव होता है? साकारी स्वरूप आदि स्वरूप है, निराकारी अनादि स्वरूप है। तो आदि स्वरूप सहज लगता है या अनादि रूप में स्थित होना सहज लगता है? वह अविनाशी स्वरूप है और साकारी स्वरूप परिवर्तन होने वाला स्वरूप है। तो सहज कौन-सा होना चाहिए? साकारी स्वरूप की स्मृति स्वत: रहती है या निराकारी स्वरूप की स्मृति स्वत: रहती है, या स्मृति लानी पड़ती है? मैं जो हूँ, जैसा हूँ उसको स्मृति में लाने की क्या आवश्यकता है? अब तक भी स्मृति-स्वरूप नहीं बने हो? क्या यह अन्तिम स्टेज है या बहुत समय के अभ्यासी ही अन्त में इस स्टेज को प्राप्त कर पास विद ऑनर  बन सकेंगे? वर्तमान समय पुरूषार्थियों के मन में यह संकल्प उठना कि अन्त में विजयी बनेंगे व अन्त में निर्विघ्न और विघ्न-विनाशक बनेंगे - यह संकल्प ही रॉयल रूप का अलबेलापन है अर्थात् रॉयल माया है; यह सम्पूर्ण बनने में विघ्न डालता है। यही अलबेलापन सफलतामूर्त और समान-मूर्त बनने नहीं देता है।

दूसरा संकल्प - विनाश की घड़ियों की गिनती करते रहते हो ना। सोचते रहते हो कि क्या होगा, कैसे होगा या होगा कि नहीं होगा? यह सीधा स्वरूप नहीं है, यह है -- सीधा संशय का रूप। इसलिए सीधा शब्द न बोल रॉयल शब्द बोलते हैं कि क्या होगा, कैसे होगा? - इस स्वरूप से सोचते हो। जितना समय समीप आ रहा है, उतना स्वयं को सतयुग के देवी-देवताओं की विशेषताओं के समीप बना रहे हो? विनाश किसके लिये होगा; किनके लिये होगा - यह जानते हो? तीव्र पुरूषार्थियों व सम्पूर्ण बनने वाली आत्माओं के लिये सम्पूर्ण सृष्टि व सतोप्रधान प्रकृति की प्रालब्ध भोगने के लिए विनाश होना है। तो विनाश की घड़ियाँ गिनती करते रहना चाहिए या स्वयं को सम्पूर्ण सतोप्रधान बनाने के लिये बाप-समान क्वॉलिफिकेशन को बार-बार गिनती करना चाहिए?

विनाश की घड़ियों का इंतज़ार करने की बजाय तो स्वयं को अभी से सम्पन्न बनाने और बाप-समान बनाने के इंतज़ाममें रहना चाहिए। परन्तु इंतज़ार में ज्यादा रहते हो। प्रारब्ध भोगने वाले ही इस इंतज़ार में रहते हैं तो अन्य आत्मायें, जो साधारण प्रारब्ध पाने वाली हैं, उन तक भी सूक्ष्म संकल्प पहुँचाते हो? रिजल्ट में मैजॉरिटी आत्मायें यही शब्द बोलती हैं कि जब विनाश होगा तब देख लेंगे। जब प्रैक्टिकल प्रभाव देखेंगे, तब हम भी पुरूषार्थ कर लेंगे। क्या होगा, कैसे होगा - यह किसको पता? यह वायब्रेशन्स निमित्त बनी हुई आत्माओं का औरों के प्रति भी कमज़ोर बनाने का व भाग्यहीन बनाने का कारण बन जाता है।

इस समय आप सबकी जगत्-माता और जगत्-पिता की व मास्टर रचयिता की स्टेज है। तो रचयिता के हर संकल्प अथवा वृत्ति के वायब्रेशन्स रचना में स्वत: ही आ जाते हैं। इसलिये वर्तमान समय जो कर्म हम करेंगे हमको देख सब करेंगे - सिर्फ यह अटेन्शन नहीं रखना है, लेकिन साथ-साथ ‘‘जो मैं संकल्प करूंगी, जैसी मेरी वृत्ति होगी वैसे वायुमण्डल में व अन्य आत्माओं में वायब्रेशन्स फैलेंगे’’ - यह स्लोगन भी स्मृति में रखना आवश्यक है वर्ना आप रचयिता की रचना कमज़ोर अर्थात् कम पद पाने वाली बन जायेगी। रचयिता की कमी रचना में भी स्पष्ट दिखाई देगी। इसलिये अपने कमज़ोर संकल्पों को भी अब समर्थ बनाओ। यह जो कहावत है कि संकल्प से सृष्टि रची’, यह इस समय की बात है। जैसा संकल्प वैसी अपनी रचना रचने के निमित्त बनेंगे। इसलिये हर-एक स्टार में अलग-अलग दुनिया का गायन करते हैं।

स्वयं का आधार अनेक आत्माओं के प्रति स्मृति में रखते हुए चलते हो या यह बापदादा का काम है? आपका काम है या बाप का काम है? प्रारब्ध पाने वालों को पुरूषार्थ करना है या बाप को? जैसे लेने में कुछ भी कमी नहीं करना चाहते हो या लेने के समय स्वयं को किसी से भी कम नहीं समझते हो बल्कि यही सोचते हो कि मेरा भी अधिकार है, वैसे ही हर बात को करने में अपने को अधिकारी समझते हो? या करने के समय तो यह समझते हो कि हम छोटे हैं, यह बड़ों का काम है और लेने के समय यह सोचते हो कि हम छोटे भी कम नहीं हैं, छोटों को भी सब अधिकार होने चाहिए; छोटों को भी बड़ा समझना चाहिए व बनना चाहिए? जो करेंगे वह पायेंगे या जो सोचेंगे वह पायेंगे? नियम क्या है? सोचना, बोलना और करना - ये तीनों एक-समान बनाओ! सोचना और बोलना बहुत ऊंचा, करना कुछ भी नहीं - तो वे सोचते और बोलते ही समय बिता देंगे और करने से जो पाना है, वह वे पा नहीं सकेंगे। स्वयं को तो श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित करेंगे ही, अपनी रचना को भी वंचित करेंगे। इसलिये कहना कम और करना ज्यादा है। मेहनत करके पायेंगे - यह लक्ष्य सदा याद रखो। मुझे भी महारथी व सर्विसएबल समझा जाए, मुझे भी अधिकार दिया जाए, स्नेह व सहयोग दिया जाए - यह मांगने की चीज नहीं। श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ वृत्ति और श्रेष्ठ संकल्प की सिद्धि रूप में यह सब बातें स्वत: ही प्राप्त होती हैं। इसलिये इन साधारण संकल्पों में या व्यर्थ संकल्पों में भी समय व्यर्थ न गंवाओ। समझा?

ऐसे बाप-समान गुण और कर्म करने वाले, हर संकल्प में जिम्मेवारी समझने वाले, संकल्प में भी अलबेलेपन को मिटाने वाले, सदा बाप-समान बाप के साथी बन साथ निभाने वाले, हर पार्ट को साक्षी हो बजाने वाले, सर्व-श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त वाणी का सार

1. जितना साकारी रूप में स्थित होना सहज अनुभव होता है, उतना ही आकारी स्वरूप अर्थात् अपनी सम्पूर्ण स्टेज में और उतना ही अपनी निराकारी, अनादि स्टेज में स्थित होना सहज अनुभव होना चाहिए।

2. यह याद रखना है कि जैसा संकल्प मैं करूँगी और जैसी मेरी वृत्ति होगी, वायुमण्डल में वैसे ही वाइब्रेशन्स फैलेगे।

3. विनाश की घड़ियाँ गिनती करने की बजाय स्वयं को सम्पूर्ण बनाने की और बाप-समान क्वॉलिफीकेशन्स की बार-बार गिनती करो।

4. कहना कम है, करना ज्यादा है।

5. सोचना, बोलना और करना - तीनों एक-समान बनाओ।



16-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ज्वाला रूप अवस्था

विश्व-परिवर्तन के आधारमूर्त, सर्व सम्बन्धों तथा प्रकृति के सर्व आकर्षणों से उपराम, आकर्षण मूर्त बापदादा ज्ञान-रत्न वत्सों से बोले: -

अपने को नयनों में समाये हुए, नैनों के नूर व नूरे-रत्न समझते हो? स्वयं को बापदादा के नयनों के सितारे समझते हो? नयनों के सम्मुख हो या नयनों में समाये हुए हो? दो प्रकार के सितारे इस समय चमक रहे हैं। हर-एक स्वयं से पूछे कि मैं कौन-सा सितारा हूँ? समाये हुए की क्वॉलिफिकेशन्स और सम्मुख वाले के बीच, दो के बीच में तीसरे के आने की मार्जिन रहती है, अर्थात् कोई-न-कोई विघ्न निरन्तर में अन्तर कर सकता है। लेकिन जो नयनों में समाये हुए हों वे बाप के समान होते हैं; कोई परिस्थिति व प्रकृति, अर्थात् पाँच तत्व, भी बाप से उन्हें अलग नहीं कर सकते। गोया वे सदाविज यी, निरन्तर एक-रस और एक की लगन में मग्न होंगे। एक बाप और बापसमान सदा ईश्वरीय सेवा। बस, इसके सिवा उन्हें और कुछ दिखाई नहीं देगा। उनकी दृष्टि, वृत्ति और स्मृति ये तीनों ही सदा समर्थ रहती हैं अर्थात् व्यर्थ समाप्त हो जाता है। ऐसे बने हो या बनना है?

विश्व-परिवर्तन के आधारमूर्त स्वयं को परिवर्तन किया हुआ अनुभव करते हो? अगर आधारमूर्त्त सम्पूर्ण परिवर्तन की अभी स्वयं में कमी महसूस करते हैं तो फिर विश्व-परिवर्तन कैसे होगा? आधारमूर्त स्वयं अपने लिये ही कुछ समय की आवश्यकता समझते हैं या विश्व-परिवर्तन के लिये अभी समय चाहिए। यह संकल्प उत्पन्न होता है? आधारमूर्त्त के दृढ़ संकल्प में कभी हलचल के संकल्प रहते हैं तो विनाश-अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं में कभी जोश, कभी होश आ जाता है। आधारमूर्त्त आत्माओं का संकल्प ही विनाश-अर्थ निमित्त बनी हुई आत्माओं की प्रेरणा का आधार है। तो अपने-आप से पूछो कि प्रेरक शक्ति-सेना का संकल्प दृढ़ निश्चय-बुद्धि है और स्वयं एवर रेडी हैं? जैसे यज्ञ रचने के निमित ब्रह्मा बाप के साथ ब्राह्मण बने, तो यज्ञ से प्रज्जवलित हुई यह जो विनाशज्वाला है, इसके लिए भी जब तक ज्वाला रूप नहीं बनते, तब तक यह विनाश की ज्वाला भी सम्पूर्ण ज्वाला रूप नहीं लेती है। यह भड़कती है, फिर शीतल हो जाती है। कारण? क्योंकि ज्वाला मूर्त और प्रेरक आधारमूर्त्त आत्माएँ अभी स्वयं ही सदा ज्वाला रूप नहीं बनी हैं। ज्वाला-रूप बनने का दृढ़ संकल्प स्मृति में नहीं रहता है।

ज्वाला-रूप बनने का मुख्य और सहज पुरूषार्थ कौन-सा है? (मेरा तो एक शिव बाबा)। यह स्मृति सदा रहे, इसके लिए भी कौन-सा पुरूषार्थ है? अब लास्ट विशेष पुरूषार्थ कौन-सा  रह गया है? (उपराम अवस्था)। यह तो है रिजल्ट। लेकिन उसका भी पुरूषार्थ क्या है? (न्यारापन) न्यारापन भी किससे आयेगा - कौन-सी धुन में रहने से? धुन यही रहे कि अब वापिस घर जाना है - जाना है अर्थात् उपराम। जाना है-जहाँ जाना है वैसा पुरूषार्थ स्वत: ही चलता है। जब अपने निराकारी घर जाना है तो वैसा अपना वेश बनाना होता है। तो इस नये वर्ष का विशेष पुरूषार्थ यही होना चाहिए कि वापिस जाना है और सबको ले जाना है। इस स्मृति से स्वत: ही सर्व-सम्बन्ध, सर्व प्रकृति के आकर्षण से उपराम, अर्थात् साक्षी बन जायेंगे। साक्षी बनने से सहज ही बाप के साथी बन जायेंगे व बाप-समान बन जायेंगे। सर्व को सदा ज्वाला-रूप दिखाई देंगे, तब ही यह विनाश ज्वाला भी आपके ज्वाला-रूप के साथ-साथ स्पष्ट दिखाई देगी। जितना स्थापना के निमित्त बने ज्वाला-रूप होंगे उतना ही विनाश-ज्वाला रूप में प्रत्यक्ष होगा। इस दृढ़ संकल्प की तीली लगाओ तब विनाश-ज्वाला भड़केगी। अभी शीतल रूप में हैं, क्योंकि आधारमूर्त्त भी पुरूषार्थ में शीतल हैं। संगठन रूप का ज्वाला-रूप विश्व के विनाश का कार्य सम्पन्न करेगा।

अल्प आत्माओं का दृढ़ संकल्प अल्पकाल के लिये कहीं-कहीं विनाशज्वाला भड़काने के निमित्त बना है। लेकिन महाविनाश, और विश्व-परिवर्तन - संगठन के एक श्रेष्ठ संकल्प के सिवाय सम्पन्न नहीं हो सकता। इसलिये इस वर्ष में अपनी लास्ट स्टेज, सर्व कर्म-बन्धनों से मुक्त, कर्मातीत अवस्था, न्यारे और प्यारेपन का बैलेन्स सदा ठीक रहे। ऐसी निराकारी स्टेज संगठन रूप में बनाओ। तब विनाश के नजारे और साथ-साथ नई दुनिया के नजारे स्पष्ट दिखाई देंगे। सबको इस वर्ष यह पुरूषार्थ करना है। इस लास्ट पुरूषार्थ से ही स्वयं की और विनाश की गति फास्ट होगी।

संकल्प चलता है या समाप्त हो गया है? घबराते तो नहीं हो कि क्या होगा, कैसे होगा? अगर और मगर तो नहीं आता? अगर न हुआ तो? - कोई कहता है मगर होना ही है; कोई अगर कहता है। लेकिन होगा क्या? कई समझते हैं कि बाप तो अव्यक्त हो गया, व्यक्त में सामना करने वाले तो हम ही हैं। लेकिन आप भी अव्यक्त हो जाओ अर्थात् कोई भी सामने आये तो व्यक्त भाव की बात उन्हें दिखाई न दे या करने की हिम्मत न हो। औरों के भी व्यक्त भाव को मिटाने वाले अव्यक्त फरिश्ते बन जाओ। ऐसी अव्यक्त-स्थिति व वायुमण्डल अर्थात् पाण्डवों का किला बनाओ तो यह हलचल समाप्त हो जायेगी। बापदादा अन्त तक आपके साथ है और सदा बच्चों के ऊपर स्नेह और सहयोग की छत्र-छाया के समान हैं। इसलिये घबराओ मत। बैक-बोन बाप-दादा, सामना करने के लिए किसी भी व्यक्ति द्वारा, समय पर प्रत्यक्ष हो ही जायेंगे और अब भी हो रहे हैं। अच्छा।

ऐसे सदा हिम्मत और उल्लास में रहने वाले, हर परिस्थिति में श्रेष्ठ स्थिति मे रहने वाले, प्रकृति के सर्व आकर्षणों से परे रहने वाले, रूहानी बाप के रूहानी आकर्षण में रहने वाले, रूहानी आकर्षणमूर्त्त, सदा निश्चिन्त और निश्चय-बुद्धि, बाप के सदा साथी, सर्व के सदा स्नेही और सहयोगी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!

अव्यक्त वाणी की कुछ मुख्य बातें

1. इस नये वर्ष का विशेष पुरूषार्थ यही होना चाहिये कि वापिस घर जाना है और सब को साथ ले जाना है। इस स्मृति से प्रकृति के सभी आकर्षणों से तथा सभी सम्बन्धों से उपराम हो जायेगे और साक्षी एवं निराकारी बन जायेगे।

2. साक्षी होने से सहज ही बाप के साथी बन जायेगे और समान बन जायेगे।

3. जो वत्स बापदादा के नयनों में समाये हुए होते हैं, वे बाप समान होते हैं। कोई भी परिस्थिति और प्रकृति का कोई भी रूप उन्हें बाप से अलग नहीं कर सकता। वे सदा एक की लगन में मग्न होते हैं।

4. किसी भी परिस्थिति में घबराओ मत क्योंकि बापदादा का स्नेह छत्रछा या के समान है और वे कभी भी किसी व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्ष हो जायेंगे।



18-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


साक्षात्कार मूर्त और फरिश्ता मूर्त बनने का निमन्त्रण

पवित्र भव और योगी भव का अमर वरदान देने वाले, सर्व आत्माओं के स्नेही, परमपिता शिव बोलेः-

सर्व-स्नेही आत्माओं को स्नेह का रेसपांस (जवाब) स्नेह से दे रहे हैं। नैनों के असुवन मोती, गले की माला जो बच्चों ने बापदादा  को पहनाई है, उसके रिटर्न में ज्ञान-रत्नों की माला बापदादा दे रहे हैं। आज अमृत वेले हर-एक स्नेही बच्चे का संकल्प बापदादा के पास पहुँच गया। हर- एक की रूह-रूहान, हर-एक का शुभ संकल्प, हर-एक का किया हुआ वायदा पहुँचा। उस सर्व रूह-रूहान के रेसपांस में बापदादा स्वयं अव्यक्त में मिलने की तमन्ना (अभिलाषा) कर रहे हैं। बाप को बच्चे व्यक्त में बुलाते हैं और बाप बच्चों को अव्यक्त वतन में बुला रहे हैं। अव्यक्त वतन-वासी बाप-समान बनना - यही बच्चों के प्रति बाप की शुभ इच्छा है। अब बताओ, कितने समय में अव्यक्त वतन पधारेंगे? अव्यक्त वतन का मिलन कितना सुन्दर है - उसको जानते हो?

बापदादा भी बच्चों के सिवाय वापिस घर नहीं जा सकते हैं। घर जाने से पहले अव्यक्त फरिश्तों की महफिल अव्यक्त वतन में होती है। उस महफिल में बापदादा सब स्नेही बच्चों का आह्वान कर रहे हैं। बच्चे बाप का पुरानी दुनिया में आह्वान करते व बुलाते हैं लेकिन बाप आप बच्चों को फरिश्तों की दुनिया में बुला रहे हैं, जहाँ से साथ-साथ रूहों की दुनिया में चलेंगे। यह अलौकिक अव्यक्त निमन्त्रण भाता है? अगर भाता है तो क्या व्यक्त जन्म, व्यक्त भाव भूलना नहीं आता है? बाप समान निरन्तर फरिश्ता बनना नहीं आता? एक सेकेण्ड का संकल्प निरन्तर दृढ़ करना नहीं आता? बनना ही है, आना ही है - ऐसे सेकेण्ड के संकल्प की टिकटें लेनी नहीं आती? क्या शक्ति रूपी खज़ाना होते हुए भी यह टिकट रिजर्व नहीं करा सकते? विश्व की सर्व आत्माओं को नजर से निहाल कर उन्हें भी अपने साथ मुक्ति-जीवनमुक्ति रूपी वर्सा बाप से नहीं दिला सकते हो? बाप के या अपने भक्तों को भटकने से जल्दी-से-जल्दी छुड़ाने का शुभ संकल्प तीव्र रूप से उत्पन्न होता है? रहमदिल बाप के बच्चे हो; दु:ख-अशान्ति में तड़पती हुई आत्माओं को देखते हुए सहन कर सकते हो? क्या रहम नहीं आता? अनेक प्रकार के विनाशी सुख-शान्ति में विचलित हुई आत्माएँ, जो बाप को और अपने आप को भूल चुकी हैं, ऐसी भूली हुई आत्माओं पर कल्याण की भावना द्वारा उन्हें भी यथार्थ मंज़िल बता कर अविनाशी प्राप्ति की अंजलि देने का संकल्प उत्पन्न नहीं होता?

अब तो समय-प्रमाण सप्ताह कोर्स के बजाय अपने वरदानों द्वारा, अपनी सर्वशक्तियों के द्वारा सेकेण्ड का कोर्स बताओ; तब ही सर्व आत्माओं को रूहों की दुनिया में बाप के साथ ले जा सकेंगे। अशरीरी भव, निराकारी भव, निरहंकारी और निर्विकारी भव का वरदान, वरदाता द्वारा प्राप्त हो चुका है न? अब ऐसे वरदान को साकार रूप में लाओ! अर्थात् स्वयं को ज्ञान-मूर्त, याद-मूर्त और साक्षात्कार-मूर्त बनाओ। जो भी सामने आये, उसे मस्तक द्वारा मस्तक-मणि दिखाई दे, नैनों द्वारा ज्वाला दिखाई दे और मुख द्वारा वरदान के बोल निकलते हुए दिखाई दें। जैसे अब तक बापदादा के महावाक्यों को साकार स्वरूप देने के लिए निमित्त बनते आये हो, अब इस स्वरूप को साकार बनाओ।

बापदादा बच्चों के स्नेह, सहयोग और सेवा पर बार-बार सन्तुष्टता के पुष्प चढ़ा रहे हैं। मेहनत पर धन्यवाद दे रहे हैं। साथ-साथ भविष्य के लिये निमन्त्रण भी देते हैं कि अब जल्दी,जल्दी तीव्र गति से हो रही ईश्वरीय सेवा को सम्पन्न करो, अर्थात स्वयं को बाप-समान बनाओ। बाप के आह्वान की पसारी हुई बांहों में समा जाओ और समान बन जाओ! स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - समान बन जाना!

आज ही बापदादा के साथ चलोगे? ऐसे एवर रेडी  हो या रही हुई सेवा का शुभ सम्बन्ध खींचेगा? सर्व कार्य सम्पन्न कर दिया है या अभी रहा हुआ है? वह फिर वतन से करेंगे? एक सेकेण्ड में सर्व सम्बन्ध के लिए सेवा भुलाने का पुरूषार्थ करते हो। ऐसे ही अपना निजी-स्वरूप व वरदानी स्वरूप सदा स्मृति में रहना चाहिए। अपवित्रता का और विस्मृति का नाम-निशान भी न रहे। इसको कहा जाता है - वरदान का कोर्स करना। ऐसा कोर्स किया है या करना है?

जैसे आप लोग साप्ताहिक कोर्स समाप्त करने के सिवाय किसी भी आत्मा को क्लास में जाने नहीं देते हो, ऐसे ही ब्राह्मण बच्चे, जो यह प्रैक्टिकल कोर्स समाप्त नहीं करते, तो जानते हो कि बापदादा उन्हें कौन-से क्लास में जाने नहीं देतें? वे फर्स्ट-क्लास में दाखिल नहीं हो सकते। फर्स्ट क्लास कौन-सा  है? जब आप लोग उन्हों को क्लास में जाने नहीं देते तो ड्रामा भी फर्स्ट-क्लास में जाने का अधिकारी नहीं बना सकता। फर्स्ट क्लास में जाने के लिए यह दो मुख्य वरदान प्रैक्टिकल रूप में चाहिए। विस्मृति व अपवित्रता क्या होती है? - इसकी अविद्या हो जाए। तुम संगम पर उपस्थित हो ना? तो ऐसे अनुभव हो कि यह संस्कार व स्वरूप मेरा नहीं है बल्कि मेरे पूर्व जन्म का था। अब नहीं है। मैं ब्राह्मण हूँ और ये तो शूद्रों के संस्कार व स्वरूप है ऐसे अपने से भिन्न अर्थात् दूसरे के संस्कार हैं - ऐसा अनुभव होना, इसको कहा जाता है - न्यारा और प्यारा। जैसे देह और देही दोनों अलग-अलग दो वस्तुएं  हैं, लेकिन अज्ञान-वश दोनों को मिला दिया गया है; मेरे को मैं समझ लिया गया है और इसी गलती के कारण इतनी परेशानी, दु:ख तथा अशान्ति प्राप्त की है। ऐसे ही यह अपवित्रता और विस्मृति के संस्कार, जो मेरे, अर्थात् ब्राह्मणपन के नहीं हैं; शूद्रपन के हैं, इन को भी मेरे समझने से माया के वश हो जाते हैं और फिर परेशान अर्थात् ब्राह्मणपन की शान से परे (दूर) हो जाते हो। यह छोटी-सी भूल चेक (जाँच) करो कि यह मेरा संस्कार तो नहीं, यह मेरा स्वरूप तो नहीं। समझा? तो इस वरदान - पवित्र भव और योगी भव - को प्रैक्टिकल स्वरूप में लाओ; तब ही बाप-समान और बाप के समीप जाने के अधिकारी बन सकते हो।

आज कल्प पहले वाले, बहुत काल से बिछुड़े हुए बाप की याद में तड़पने वाले व अव्यक्त मिलन मनाने के शुभ संकल्प में रमण करने वाले, अपनी स्नेह की डोर से बापदादा को भी बान्धने वाले, अव्यक्त को भी आप-समान व्यक्त में लाने वाले, नये-नये बच्चे व साकारी देश में दूर-देशी बच्चे जो हैं, उन्हों के प्रति विशेष मिलने के लिये बापदादा को भी आना पड़ा है तो शक्तिशाली कौन हुए? बांधने वाले या बन्धने वाले। बाप कहते हैं - वाह बच्चे वाह! शाबाश बच्चे! नयों के प्रति विशेष बापदादा  का स्नेह है क्योंकि निश्चय की सदा विजय है। विशेष स्नेह का कारण यह है कि नये बच्चे सदा अव्यक्त मिलन मनाने की मेहनत में रहते हैं। अव्यक्त रूप द्वारा व्यक्त रूप से किये हुए चरित्रों का अनुभव करने के सदा शुभ आशा के दीपक जगाये हुए रहते हैं। ऐसी मेहनत करने वालों को फल देने के लिए बापदादा को भी विशेष याद स्वत: ही रहती हैं। इसलिये बापदादा आप की याद, आज की गुडमार्निंग व नमस्ते पहले विशेष चारों ओर के नये-नये बच्चों को दे रहे हैं, साथ में सब बच्चे तो हैं ही। अव्यक्त रूप में अव्यक्त मुलाकात तो सदाकाल की है। ऐसे वरदाता बच्चों को याद-प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त वाणी का सार

1. स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरूप है - बाप के समान बन जाना।

2. बाप की वत्सों के प्रति यही शुभ इच्छा है कि वे बाप के समान बनें।

3. घर जाने से पहले अव्यक्त फरिश्तों की महफिल अव्यक्त वतन में होती है। इस महफिल में सर्व-स्नेही बापदादा बच्चों का आह्वान कर रहे हैं।

4. अब तो समय-प्रमाण साप्ताहिक कोर्स की बजाय अपने वरदानों द्वारा और अपनी सर्वशक्तियों द्वारा सेकेण्ड का कोर्स कराओ। तब ही आप सर्वआत्माओं को बाप के साथ रूहों की दुनिया में ले जा सकोगे।

5. पवित्र-भव और योगी-भव - ये वरदान प्रैक्टिकल स्वरूप में लाओ। तब ही बाप समान बन सकते हैं और बाप के समीप जाने के अधिकारी बन सकते हो।

6. विस्मृति और अपवित्रता क्या होती है, उसकी भी अविद्या हो जाय - इसको कहा जाता है वरदान का कोर्स करना।

 


 


18-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मधुबन रूपी परिवर्तन भूमि पर पवित्रता का वरदान देने वाले शिव बाबा सेवा-केन्द्रों से आये हुए वत्सों से बोले –

मधुबन की क्या महिमा करते हो? कहते हो कि यह परिवर्तन भूमि है। आप सभी परिवर्तन भूमि या वरदान भूमि में आये हुए हो। स्वयं में व अन्य में वरदान का अनुभव करते हो? यहाँ आना अर्थात् वरदान पाना, परिवर्तन करना। अब क्या परिवर्तन करना है? जो विशेष कमजोरी व विशेष संस्कार समय-प्रतिसम य विघ्न रूप बनता है, ऐसा संस्कार व ऐसी कमजोरी यहाँ परिवर्तन करके जाना है। तभी कहेंगे कि स्वयं में परिवर्तन लाया। विशेष उमंग, उत्साह और लगन से यहाँ तक पहुँचते हो तो यहाँ मधुबन में अपनी लगन को ऐसी अग्नि का रूप बनाओ कि जिस अग्नि में सर्व व्यर्थ संकल्प, सर्व कमजोरियाँ व सब रहे हुए पुराने संस्कार भस्म हो जाएँ।

मधुबन को कहा जाता है - अश्वमेघ रूद्र-ज्ञान महायज्ञ। यज्ञ में क्या किया जाता है? स्वाहा किया जाता है। आप बच्चे भी अमृत वेले उठ रोज यज्ञ रचते हो लगन की अग्नि का। जिस लगन रूपी अग्नि में अपनी कमज़ोरी स्वाहा करते हो। लेकिन यह महायज्ञ है। मधुबन में आना माना महायज्ञ में आना। मधुबन को क्यों महायज्ञ कहा है? क्योंकि यहाँ अनेक आत्माओं की लगन की अग्नि का समूह है। तो इसका लाभ उठाना चाहिए न। जैसे कई बार स्वत: प्रतिज्ञा करते हो, संकल्प लेते हो, वैसे ही मधुबन में आप भी ऐसी प्रतिज्ञा करते हो, संकल्प लेते हो? क्या समझते हो? क्या ऐसी आहुति डालते हो जो आगे के लिए समाप्त हो जाये? महायज्ञ में महा आहुति डालनी चाहिए। साधारण आहुति नहीं। अनेक आत्माओं के लगन की अग्नि की सामूहिक आहुति डाली है? यहाँ से जाते हो, डाल कर जाते हो या अब वापिस ली है या सोचते हो कि किस प्रकार के तिल व जौ डालें? यह चेक (जाँच) करते हो कि जितनी बार महायज्ञ में आते हो तो महायज्ञ में आहुति डालते हो।

सम्पूर्ण समर्पण हुए हो या वापिस ले जाते हो? आहुति सम्पूर्ण समर्पण हो जाती है या रह जाती है? क्या ऐसा तो नहीं सोचते कि यह पुरानी दुनिया में काम आयेगी? ऐसा होता है, कमज़ोर आदमी हाथ खींच लेते हैं। अगर आहुति डालने वाले कमज़ोर हों तो सेक (ताओ) होने के कारण, आधी आहुति बाहर, आधी अन्दर रह जाती है। यहाँ भी सोचते हैं कि करें या न करें? होगा या नहीं होगा; कर सकेंगे या नहीं कर सकेंगे? तो बुद्धि रूपी हाथ आगे-पीछे करते रहते हो। इसलिए सम्पूर्ण स्वाहा नहीं होते हो; किनारा रह जाता है, बिखर जाता है। जब सम्पूर्ण स्वाहा नहीं तो सम्पूर्ण सफल नहीं होता। सोचते ज्यादा हो, करते कम हो। तो फल भी कम मिलेगा। पहले हिम्मत कम है, संकल्प पॉवरफुल नहीं है, तो कर्म में बल भी नहीं होगा और इसीलिए फल भी कम ही होगा। फिर क्या करते हो? आधा यहाँ आधा वहाँ बिखेर देते हो। तो सफलता नहीं हुई न! अभी आप सब को रिजल्ट क्या हुई? सफलता हुई? यज्ञ में सम्पूर्ण आहुति रही या बिखर गई। आप सबकी अब की रिजल्ट बिखरना - माना रह गया है। अभी तो जो सोचना है वह प्रैक्टिकल में भर करके जाना है कि आज से यह कमज़ोरी फिर नहीं आयेगी। सम्पूर्ण समर्पण करने का साहस है या कम है? विनाश न हुआ तो? स्वर्ग न आया फिर? पहुँचेंगे या नहीं? फिर लोग क्या कहेंगे? ऐसे होशियार नहीं बनना। सब की यही हालत है! सहज हाथ आगे बढ़ाते हैं। सेक आता है तो हाथ खींच लेते हो। हिम्मत आती है, थोड़ा-सा विघ्न आता है तो कदम पीछे चल पड़ते हैं। ऐसों की गति क्या होगी? गति-सद्गति को भी तो जानते हो न?

नॉलेजफुल होते हुए अगर कोई न करे तो क्या कहेंगे? इनको वापिस लिया तो क्या गति होगी? जान-बूझ करके भी अगर न करे तो क्या कहेंगे? लाईट रूप और माईट रूप होते हुए भी क्यों नहीं कर पाते हो? कारण क्या है? नॉलेज तुम्हारी बुद्धि तक है; समझ तक है। ठीक है - जानते हो, लेकिन नॉलेज को प्रैक्टिकल में लाना और समाना नहीं आता है। भोजन है, खाते भी हैं। परन्तु खाना अलग बात है, खा कर हजम करना अलग बात है। समाते नहीं हो, हजम नहीं होता, रस नहीं बनता और शक्ति नहीं मिलती। जीभ तक खा लिया तो रस नहीं बनेगा, शक्ति नहीं मिलती। समाने के बाद ही शक्ति का स्वरूप बनता है। समाया नहीं तो जीभ-रस है। समाया तो शक्ति है। सुनने का रस आया, समझ में आया, समझा किन्तु समाया नहीं, प्रैक्टिकल में नहीं लाया। जितना धारणा में आता है, संस्कार बन जाता है तब ही प्रैक्टिकल सफलता का स्वरूप दिखाई पड़ता है। नॉलेजफुल का अर्थ क्या है? नॉलेजफुल का अर्थ है हरेक कर्मेन्द्रियों में नॉलेज समा जाए। क्या करना है और क्या नहीं? तो धोखा खाने की बात रहेगी? ऑखे और वृत्ति धोखा नहीं खायेंगी जब आत्मा में नॉलेज आ जाती है तो सर्व इन्द्रियों में नॉलेज समा जाती है। जैसे भोजन से शक्ति भर जाती है तो शक्ति के आधार से काम होता है। अभी नॉलेज को समाना है। हरेक कर्मेन्द्रियों को नॉलेजफुल बनाओ।

हर वर्ष आते हो, कहते हो कि अभी करूंगा। वायदा करके जाते हो। अभी कब पूरा होगा? क्या कारण है? जो तुम सोचते हो और जो कर्म करते हो, उसमें अन्तर क्यों? कारण क्या? सोचते हो फुल करने की बात, और होती है आधी - इतना अन्तर पड़ने का कारण क्या है? प्लान भी खूब रचते हो, उमंग भी खूब लाते हो और समझ कर वायदा करते हो। सब बातें आयेंगी ही, लेकिन प्रैक्टिकल और समझ में अन्तर आ जाता है - इसका कारण क्या है? संस्कारों की आहुति करके जाते हो, फिर सब कहाँ से आया? स्वाहा करके जाते हो फिर क्यों आता है? देह-अभिमान, अलबेलापन वापिस क्यों लौट आता है, कारण क्या है? कारण है कि संकल्प करके जाते हो स्वाहा करने का, लेकिन संकल्प के साथ-साथ (जैसे बीज बोते हो, बाद में सम्भाल करते हो) परन्तु इसमें जो सम्भाल चाहिए वह सम्भाल नहीं रखते हो। समय-प्रमाण उनकी आवश्यकता रखनी चाहिए, आप बीज डाल कर अलबेले हो जाते हो। सोचते हो कि बाबा को दिया, अब बाबा जाने, यह बाबा का काम है। आप उसकी पालना नहीं करते हो। तो वाचा और मन्सा पर अटेन्शन चाहिए। जैसे बीज बो कर पानी डालते हो कि बीज पक्का हो जाये। बीज को रोज-रोज पानी देना होता है, वैसे ही संकल्प रूपी बीज को रिवाइज करना है। उसमें कमी रह जाती है और आप निश्चिन्त हो जाते हो - आराम पसंद हो जाते हो। आराम पसन्द के संस्कार नहीं, मगर चिन्तन का संकल्प होना चाहिए, एक-एक संस्कार की चिन्ता लगनी चाहिए। पुरूषार्थ की एक भी कमी का दाग बहुत बड़ा देखने में आता है। फिर हमेशा ख्याल आता है कि छोटा-सा दाग मेरी वैल्यू कम कर देगा। चिन्तन चिन्ता के रूप में होना चाहिए। वह नहीं तो अलबेलापन है। कहते हो, करते नहीं हो। जो पीछे की युक्ति है उसे प्रैक्टिकल में लाओ, आराम-पसन्दी देवता स्टेज का संस्कार है, वह ज्यादा खींचता है। संगमयुग के ब्राह्मण के संस्कार जो त्याग मूर्त के हैं, वह कम इमर्ज होते हैं। त्याग-बिना भाग्य नहीं बनता अच्छा, कर लेंगे, देखा जायेगा - यह आराम पसन्दी के संस्कार हैं। ‘‘ज़रूर करूंगा’’, ये ब्राह्मणपन के संस्कार हैं। लौकिक पढ़ाई में जिसको चिन्ता रहती है, वह पास होता है। उसकी नींद फिट जाती है। जो आराम-पसन्द हैं वे पास क्या होंगे? अभी सोचते हो कि प्रैक्टिकल करना है। चिन्ता लगनी चाहिए, शुभ चिन्तन, सम्पूर्ण बनने की चिन्ता, कमजोरी को दूर करने की चिन्ता और प्रत्यक्ष फल देने की चिन्ता।

इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु

1. मधुबन है अविनाशी रूद्र ज्ञान महायज्ञ। इस महायज्ञ में अपनी लगन को ऐसी अग्नि बनाओ जिस अग्नि में सब व्यर्थ संकल्प, सर्व कमजोरियाँ व सब रहे हुये पुराने संस्कार बिल्कुल भस्म हो जायें।

2. बुद्धि में नॉलेज तो है लेकिन नॉलेजफुल नहीं बने हो। नॉलेजफुल का अर्थ है कि हर एक कर्मइन्द्रियों में नॉलेज समा जाये। तो जैसे भोजन खाने से, साथ ही समाने अर्थात् हजम करने से शरीर में शक्ति आती है वैसे ही तुम्हारी आत्मा शक्तिशाली बनती है।

3. जितना ज्ञान धारणा में आता है वह संस्कार बन जाता है तब ही प्रैक्टिकल सफलता का स्वरूप दिखाई पड़ता है।

 


 


23-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्वमान की सीट पर सैट होकर कर्म करने वाला ही महान्

सर्व आत्माओं के परमपिता परमात्मा शिव बोले –

जैसे बापदादा के महत्व को अच्छी तरह से जानते हो वैसे ही इस संगमयुगी ब्राह्मण जन्म को व श्रेष्ठ आत्मा के अपने श्रेष्ठ पार्ट को इतना ही अच्छी रीति से जानते हो? जैसे बाप महान् है, वैसे ही बाप के साथ जिन आत्माओं का हर कदम व हर चरित्र के साथ सम्बन्ध व पार्ट है, वह भी महान् हैं। इस महानता को अच्छी रीति से जानते हुए हर कदम उठाने से हर कदम में पद्मों की प्राप्ति स्वत: ही हो जाती है क्योंकि सारा आधार स्मृति पर है। स्मृति सदा पॉवरफुल और महान् रहती है या कभी महान् और कभी साधारण रहती है? जो जैसा होता है, वैसा ही वह सदा स्वयं को स्वत: ही समझ कर चलता है। वह कभी स्मृति तथा कभी विस्मृति में नहीं आता। ऐसे ही जब आप उच्च ब्राह्मण हो, विश्व में सर्व श्रेष्ठ आत्माएँ हो और विशेष पार्टधारी हो, फिर अपने इस अन्तिम जन्म के इस रूप की, अपनी पोजीशन की व अपने ऑक्युपेशन की स्मृति कभी विशेष और कभी साधारण क्यों रहती है? बार-बार उतरना और चढ़ना क्यों होता है? क्या इसके कारण को समझते हो? जबकि निजी स्वरूप है और जन्म ही महान् है, तो अपने जीवन की और जन्म की महानता को भूलते क्यों हो? भूलना तब होता है जब कि पार्ट बजाने के लिये टेम्पोरेरी रूप बनाया जाता है। निजी रूप न होने के कारण बार-बार स्मृति-विस्मृति होती रहती है। यहाँ क्यों भूलना होता है? देह-अभिमान के कारण। देह अभिमान क्यों आता है? इन सब कारणों को तो बहुत समय से जानते हो न? जानते हुए भी निवारण नहीं कर पाते हो। इसका कारण शक्ति की कमी है या दृढ़ता नहीं है। यह भी बहुत समय से जानते हो, फिर भी निवारण क्यों नहीं कर पाते? वही बात बार-बार अनुभव में आने के कारण परिवर्तन करना तो सहज और सदाकाल के लिए होना चाहिए न।

जैसे लौकिक रीति में मालूम पड़ जाता है कि इस बात के कारण नुकसान होता है, रिजल्ट अच्छा नहीं निकलता है तो एक बार धोखा खाने के बाद स्वत: ही सम्भल जाते हैं न कि बार-बार धोखा खाते हैं? देह-अभिमान के कारण अथवा किसी भी कमजोरी के वशीभूत होने से परिणाम क्या होता है? - इस बात के अनेक बार अनुभवी हो चुके हो। अनुभवी होने के बाद फिर भी धोखा खाते हो, तो ऐसे को क्या कहा जायेगा? इससे सिद्ध होता है कि अपनी महानता को स्वयं ही सदा जानकर नहीं चलते हो। अपनी महानता को भूलते क्यों हो? कारण? - क्योंकि विघ्न-विनाशक, सर्व-परिस्थितियों को मिटाने वाले, स्व-स्थिति व पोजीशन के श्रेष्ठ स्थान और स्वमान की सीट जो बापदादा ने संगमयुग पर दी हुई है उस सीट पर सैट नहीं होते हो। अपनी सीट को छोड़कर बारबार नीचे आ जाते हो। सीट पर रहने से स्वमान भी स्वत: स्मृति में रहता है। लौकिक रीति भी कोई साधारण आत्मा को सीट मिल जाती है तो स्वमान ही बढ़ जाता है, उस नशे में स्वत: ही स्थित हो जाते हैं। ऐसे ही सदा अपनी सीट पर रहो तो स्वमान निरन्तर स्मृति में रहे, समझा?

सीट के नीचे आना अर्थात् स्मृति से नीचे विस्मृति में आना। ऊंची सीट पर सैट रहने की चेकिंग करो। सीट पर सेट होने से स्वत: ही वह संस्कार और कर्म परिवर्तन में आ ही जाते हैं। समझा? कमजोरी के बोल ब्राह्मणों की भाषा ही नहीं। शूद्रपन की भाषा को क्यों यूज़ (प्रयोग) करते हो? अपने देश और अपनी भाषा का नशा रहता है ना। अपनी भाषा को भूल दूसरे की भाषा क्यों बोलते हो? तो अब यह परिवर्तन करो। पहले चेक करो, फिर बोलो। सीट पर सैट होकर के फिर संकल्प व कर्म करो। इस सीट पर रहने से स्वत: ही महानता का वरदान प्राप्त हो जाता है। तो वरदानी सीट को छोड़कर के मेहनत क्यों करते हो? मेहनत करते-करते फिर थक भी जाते हो और दिलशिकस्त हो जाते हो। इसलिये अब सहज साधन अपनाओ। अच्छा।

इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु

1. अपने जन्म और जीवन की महानता को भूलने के कारण ही अवस्था में बारबार उतरना-चढ़ना होता रहता है।

2. जैसे बाप महान् है, वैसे बाप के साथ जिन आत्माओं का हर कदम व हर चरित्र के साथ सम्बन्ध है व पार्ट है वह भी महान् है। ऐसा समझ कर कदम उठाने से हर कदम में पद्मों की कमाई स्वत: हो जाती है।

3.अपने जीवन की, जन्म की महानता को भूलने का कारण यह है कि स्वमान की सीट, जो बापदादा ने संगम पर दी है, उस पर सदा सैट नहीं रहते हो।



29-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


परखने की शक्ति के प्रयोग से सफलता

सर्व शक्तियों और वरदानों के दाता, शिव बाबा सच्चे राजऋषि स्वरूप वत्सों के सम्मुख बोले –

आज की यह सभी राजऋषियों की सभा है। जैसे मधुबन शब्द दो बातों को सिद्ध करता है - एक मधुरता को और बेहद की वैराग्य वृत्ति को, ऐसे ही राज-ऋषि शब्द है जिसका अर्थ है - राज्य करने वाले। तो राजऋषि हैं - बैगर टू प्रिन्स । जितना ही अधिकार उतना ही सर्वत्याग। सर्व त्यागी, अर्थात् समय के ऊपर, संकल्प के ऊपर, स्वभाव और संस्कार के ऊपर अधिकार प्राप्त करने वाले। जैसे चाहे वैसे अपने समय, स्वभाव और संस्कार को परिवर्तन कर सकें अर्थात् जैसा समय, वैसा अपना स्वरूप व स्थिति धारण कर सकें। ऐसे राज-ऋषि अर्थात् सर्वअधिकारी और सर्व त्यागी बने हो? जन्म लेते ही कर्म-प्रमाण, श्रेष्ठ स्वमान-प्रमाण राजऋषि का मर्तबा (पद) बापदादा  द्वारा प्राप्त हुआ है ना? सर्व-अधिकारी बन गये हो या अभी बनना है? क्या समझते हो? आप सबका विशेष नारा कौन-सा  है? जब जन्म-सिद्ध अधिकार है तो जन्म लेने से ही प्राप्त है - तब अधिकारी तो बन ही गये ना?

नॉलेजफुल अर्थात् मास्टर ज्ञान-सागर। जब मास्टर ज्ञान-सागर बन गये तो नॉलेज अर्थात् समझ से अधिकार प्राप्त होता है। समझ कम तो अधिकार भी कम। नॉलेजफुल तो हो ना? अब लास्ट स्टेज क्या है? उसको जानते हो? कर्मातीत बनने की स्टेज की निशानी क्या है? सदा सफलता-मूर्त। समय भी सफल, संकल्प भी सफल, सम्पर्क और सम्बन्ध भी सदा सफल - इसको कहते हैंस फलता मूर्त। ऐसे सफलतामूर्त बनने के लिए वर्तमान समय-प्रमाण विशेष कौनसी शक्ति की आवश्यकता है जिससे कि सब बातों में सदा सफलता मूर्त बन जायें? वह कौन-सी शक्ति है? सर्व शक्तियाँ प्राप्त हो रही हैं, फिर भी वर्तमान समय-प्रमाण विशेष आवश्यकता परखने की शक्ति की है।

अगर परखने की शक्ति तीव्र है तो भिन्न-भिन्न प्रकार के आये हुए विघ्न, जो लगन में विघ्न बनते हैं, उन विघ्नों को पहले से ही जानकर, उन द्वारा वार होने से पहले ही उन्हें समाप्त कर देते हैं। इस कारण व्यर्थ समय जाने के बदले समर्थ में जमा हो जाता है। ऐसे ही सेवा में हर-एक आत्मा की मुख्य इच्छा और उसका मुख्य संस्कार जानने के कारण, उसी प्रमाण, उस आत्मा को वही प्राप्ति कराने के कारण सेवा में भी सदा सफल रहते हैं।

तीसरी बात यह है कि दूसरों के सम्बन्ध में आने का जो मुख्य सब्जेक्ट है, उसमें भी हर-एक आत्मा के संस्कार तथा स्वभाव को जानते हुए, उसी-प्रमाण उसे सदा सन्तुष्ट रखेंगे।

चौथी बात है समय की गति। किस समय कैसा वातावरण व वायुमण्डल है और क्या होना चाहिए - इसको परखने के कारण समय-प्रमाण ही स्वयं को भी और अन्य आत्माओं को भी तीव्र-गति में ला सकेंगे और जैसा समय, वैसा स्वरूप धारण करने का उमंग और उत्साह भी भर सकेंगे तथा समय-प्रमाण नॉलेजफुल और लॉफुल या लवफुल भी बन तथा बना सकेंगे और इस प्रकार सदा सफल बन सकेंगे, क्योंकि कभी लॉफुल बनना है और कभी लवफुल बनना है, इसलिये यह परख होने के कारण सदा सहज ही सफल रहेगे।

ऐसे सफलतामूर्त के सामने प्रकृति व परिस्थिति भी दासी बन जाती है। अर्थात् वे प्रकृति और परिस्थिति के ऊपर सदा विजयी बनते हैं। वे प्रकृति व परिस्थिति के वशीभूत नहीं होते। ऐसे विजयी को ही सदा सफलता-मूर्त कहा जाता है। इसके लिए तीन स्वरूप से बाप की बात याद रखो। तीनों स्वरूप अर्थात् निराकार, आकार और साकार। जैसे तीन सम्बन्धों में सत्-बाप, सत्शिक्षक और सद्-गुरू की शिक्षायें स्मृति में रखते हो, वैसे ही तीन स्वरूपों से तीन मुख्य बातें स्मृति में रखो।

इन तीन स्वरूपों से विशेष तीन वरदान कौन-से हैं? निराकारी स्वरूप की मुख्य शिक्षा का वरदान कौन-सा  है? कर्मातीत भव। आकारी स्वरूप अथवा फरिश्तेपन का वरदान कौन-सा है? डबल-लाइट भव! डबल लाइट अर्थात् सर्व कर्म-बन्धनों से हल्के और लाइट अर्थात् सदा प्रकाश-स्वरूप में स्थित रहने वाले। तो आकारी स्वरूप का विशेष वरदान है-डबल लाइट भव! इससे ही डबल ताजधारी भी बनेंगे। साकार स्वरूप का विशेष वरदान कौन-सा  है? साकार स्वरूप का विशेष वरदान है - साकार समान निरहंकारी और निर्विकारी भव! ये तीन वरदान सदा स्मृति में रखने से सदा के लिये सहज ही सफलता-मूर्त्त बन जायेगे। समझा?

बापदादा से भी बच्चे शक्तिवान् हैं क्योंकि वे सर्व शक्तिमान् को प्रत्यक्ष करने के निमित बने हैं। क्या वे ज्यादा शक्तिमान् नहीं हैं? सर्वशक्तिमान् को सर्व-सम्बन्धों से अपना बना देना वा अपने स्नेह की रस्सी में बाँध लेना तो क्या ज्यादा शक्तिवान् नहीं हुए? बल्कि ऑथारिटी को वर्ल्ड सर्वेंट बना देना-इसके निमित कौन? समीप व सहयोगी बच्चे।

ऐसे सर्व श्रेष्ठ सदा बापदादा को हर कर्म और हर कदम द्वारा प्रख्यात करने वाले, हर आत्मा को बाप के साथ मिलन मनाने के निमित्त बनाने वाले, सदा बाप और सेवा में लवलीन रहने वाले, लक्ष्य और लक्षण को समान बनाने वाले, साक्षात् बाप-समान बन सर्व को बाप का साक्षात्कार कराने वाले, ऐसे लवफुल और लॉफुल आत्माओं के प्रति बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली का सार

1. संगमयुग पर शिव बाबा द्वारा राजऋषि का पद प्राप्त होता है। राजऋषि अर्थात् जितना ही अधिकार उतना ही सर्व त्याग।

2. कर्मातीत बनने की स्टेज की निशानी है सदा सफलतामूर्त। समय भी सफल, संकल्प भी सफल, सम्पर्क और सम्बन्ध भी सफल। इसको कहते है सफलता मूर्त।

3. सफलता मूर्त बनने के लिये वर्तमान समय-प्रमाण विशेष रूप से परखने की शक्ति की आवश्यकता है। यह शक्ति होने से आने वाले विघ्नों को पहले से ही जान कर उसको समाप्त कर अपनी शक्ति को व्यर्थ होने से बचा सकेंगे, हर मनुष्य की आवश्यकता को परख उसको संतुष्ट रख सकेंगे, समय व वायुमण्डल को परख पुरूषार्थ की गति तीव्र रख सकेंगे, नॉलेजफुल, लॉफुल और लव फुल का संतुलन रख कर ही सफलता को प्राप्त कर सकेंगे।

4. शिव बाबा के तीन स्वरूप से तीन विशेष वरदान प्राप्त होते हैं निराकार रूप कर्मातीत भव, आकारी स्वरूप से डबल लाइट भव जिससे डबल ताजधारी बनेंगे, साकारी स्वरूप से बाप समान निरहंकारी और निर्विकारी भव!



30-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सेकेण्ड में व्यक्त से अव्यक्त होने की स्पीड

सर्व शक्तिवान् शिव बाबा बोले –

सभी इस समय जिस एक ही लगन, एक ही संकल्प में बैठे हुए हो, वह एक ही संकल्प व लगन कौनसी है? बाप का आह्वान करना व बाप-बच्चे के मिलन का मेला मनाना? जब सर्व शक्तिवान् बाप का आह्वान स्नेह और दृढ़ संकल्प से कर सकते हो तो क्या स्वयं में जिस भी शक्ति की कमी या कमजोरी महसूस करते हो, उस शक्ति का अपने में आह्वान नहीं कर सकते हो? जब बाप को अव्यक्त से व्यक्त बना सकते हो, केवल याद से, स्नेह के बल से, अधिकार प्राप्त होने के बल से और समीप सम्बन्ध के बल से तो ऐसे ही हर शक्ति को वा स्वयं को भी व्यक्त से अव्यक्त नहीं बना सकते हो? जब बाप को अव्यक्त से व्यक्त में लाना सहज है तो स्वयं को अव्यक्त बनाना मुश्किल क्यों?

पुराने जमाने की कहानियाँ प्रसिद्ध हैं कि ताली बजाने से वस्तु व व्यक्ति हाजिर हो जाते थे व परियाँ प्रत्यक्ष हो जाती थीं। यह परियों की कहानी प्रसिद्ध है। ये कहानियाँ किन के बारे में हैं? ज्ञान-परियाँ व तीनों लोकों में उड़ने वाली परियाँ कौन-सी हैं? अपने को समझती हो न? ज्ञान और याद के दोनों पंख लगे हुए हैं ना? आप ज्ञान और याद के बल से एक सेकेण्ड में, अर्थात् - इन पंखों के आधार से साकार लोक से निराकार लोक तक पहुँच जाते हो न? ऐसे फरिश्ते-समान परियों को एक सेकेण्ड में जिस शक्ति की आवश्यकता हो, संकल्प किया व आह्वान किया और वह शक्ति स्वरूप में आ जाये - ऐसी ताली बजानी आती है? ऐसी परियाँ बनी हो जिन्हों का हर कल्प गायन होता आया है।

वर्तमान समय का पुरूषार्थ एक सेकेण्ड की गति का होना चाहिए। तब कहेंगे कि समय और स्वयं, दोनों की रफ्तार समान है। इसको ही फास्ट या फर्स्ट स्टेज कहा जाता है। संगम युग पर सर्व शक्तियाँ ऐसे अपने अधिकार में चाहिये। स्वयं में शस्त्र-समान शक्तियाँ हों, जो जब चाहो कर्त्तव्य में ला सको। समझा? अच्छा।

इस मुरली का सार

1. संगमयुग पर सर्व शक्तियाँ ऐसे अपने अधिकार में चाहिये जैसे कि पुराने जमाने की कहानियों में प्रसिद्ध है कि ताली बजाने से वस्तु व व्यक्ति हाजिर हो जाते थे व परियाँ प्रत्यक्ष हो जाती थीं। जब सर्व शक्तिमान् का आह्वान स्नेह और दृढ़ संकल्प से कर सकते हैं तो इच्छित शक्ति का आह्वान करना भी मुश्किल नहीं है।

2. अब समय और स्वयं दोनों की रफ्तार को एक-समान करो। इसका भावार्थ यह है कि सर्व शक्तियों को अपने अधिकार में ऐसे करो कि जब चाहो उनका प्रयोग कर सको।



01-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ईश्वर के साथ का और लगन की अग्नि का अनुभव

प्रकृति को दासी बनाकर सदा उदासी को दूर करने की युक्तियाँ बताने वाले शिव बाबा बोलेः-

जो समीप होते हैं, वही समान बनते हैं। जैसे साकार रूप में समीप हो, वैसे ही लगन लगाने में भी बापदादा के तख्त-निवासी हो? जैसे तन से समीप हो, वैसे ही मन से भी समीप हो? जैसे विदेश में रहने वाले तन से दूर होते भी, मन से सदैव समीप हैं, बापदादा के सदैव साथी ही हैं अर्थात् हर समय साथी बनकर साथ का अनुभव करते हैं, वैसे सदैव साक्षी बनने का व साथ निभाने का अनुभव करते हो? जैसे बन्धन में रहने वाली गोपिकाएँ हर श्वास, हर संकल्प बाबा-बाबा की धुन में ही खोई रहती हो? जैसे बाहर वालों को मिलन की तड़प रहती है ऐसे ही हर समय याद की तड़फ में रहते हो या साधारण स्मृति में रहते हो? हम तो हैं ही बाबा के, हम तो हैं ही समीप, हम तो हैं ही समर्पण और हमारा तो एक बाबा है ही - सिर्फ इन संकल्पों ही से तो संतुष्ट नहीं हो गये हो?

अपनी लगन में अग्नि की महसूसता आती है? जिस लगन की अग्नि में स्वयं के पास्ट के संस्कार और स्वभाव और अन्य आत्माओं के दु:खदायी संस्कार व स्वभाव को भस्म कर सको? ज्ञान द्वारा अथवा स्नेह व सम्पर्क द्वारा संस्कार परिवर्तित करते तो हो, लेकिन उसमें समय लगता है। मिटा हुआ-सा संस्कार फिर भी कब प्रत्यक्ष हो जाता है, लेकिन अब समय लगन की अग्नि में भस्म करने का है, जो फिर उस संस्कार का नामोनिशान भी न रहे।

इस मुक्ति की युक्ति कौनसी है? अर्थात् इस लगन की अग्नि को पैदा करने की युक्ति व तीली कौनसी है? तीली से आग जलाते हो न? तो इस अग्नि को प्रज्वलित करने की कौन-सी तीली है? एक शब्द कौन-सा है? दृढ़ संकल्प। अर्थात् मर जायेंगे और मिट जायेंगे लेकिन करना ही है। करना तो चाहिए, होना तो चाहिए, कर ही रहे हैं, हो ही जायेगा, अटेन्शन तो रहता है, और महसूस भी करते हैं - ऐसा सोचना एक प्रकार से यह बुझी हुई तीली है। बार-बार मेहनत भी करते हो, समय भी लगाते हो लेकिन अग्नि प्रज्वलित नहीं होती। कारण यह है कि संकल्प रूपी बीज और दृढ़ता रूपी सार सम्पन्न नहीं है, अर्थात् खाली है। इस कारण जो फल की आशा रखते हो व भविष्य सोचते हो, वह पूर्ण नहीं हो पाता है और चलते-चलते मेहनत ज्यादा, प्राप्ति कम देखते हो तो दिलशिकस्त व अलबेले हो जाते हो। तब कहते हो कि करते तो हैं लेकिन मिलता नहीं, तो क्यों करें, हमारा पार्ट ही ऐसा है। यह दिल-शिकस्त व अलबेलेपन के और फल न देने वाले संकल्प हैं।

आप अन्य आत्माओं को संगमयुग की विशेषता कौनसी बताते हो? सभी को कहते हो कि संगमयुग है - असम्भव से सम्भव होने का। जो बात सारी दुनिया असम्भव समझती है, वह सम्भव करने का युग यही है। तो स्वयं को भी जो मुश्किल व असम्भव महसूस होता है, उसको एक सेकेण्ड में सम्भव करना - यह है दृढ़ संकल्प। सहज को अथवा सम्भव को प्रैक्टिकल में लाना कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन असम्भव को सम्भव करना और दृढ़ संकल्प से करना - यह है पास विद ऑनर की निशानी। अब यह नवीनता करके दिखाओ। तब इस नवीनता पर मार्क्स देंगे। जैसे स्टूडेण्ट हर वर्ष की टोटल रिजल्ट देखते हैं कि हर सब्जेक्ट में कितना परसेन्टेज रहा? वैसे ही अपना रिजल्ट देखना है कि किस बात में चढ़ती कला हुई, किस पुरूषार्थ के आधार से चढ़ती कला हुई व किस सब्जेक्ट में कमी रही, वह पूरा हिसाब निकालो। मुबारिक भी बापदादा सदैव देते हैं क्योंकि सृष्टि का बड़ा दिन तो यही है ना। प्रकृति दासी होती है, परन्तु दासी के कभी दास न बनना और दास बनने की निशानी होगी उदासी। किसी-न-किसी संस्कार व स्वभाव के दास बनते हो, तब उदास होते हो। अच्छा। ओम् शान्ति।

इस मुरली का सार

1. जैसे आप सभी को कहते हो कि संगमयुग है - असम्भव से सम्भव होने का। जो बात सारी दुनिया असम्भव समझती है, वह सम्भव करने का युग यही है। तो स्वयं को भी जो मुश्किल व असम्भव महसूस होता है, उसको एक सेकेण्ड में सम्भव करना है। असम्भव को संभव करना और दृढ़ संकल्प से करना - यही है पास विद ऑनर की निशानी।

2. अब समय है पुराने संस्कारों को लगन की अग्नि में भस्म करने का जो फिर इस संस्कार का नामोनिशान भी न रहे।

3. जैसे स्टूडेन्ट हर वर्ष की टोटल रिजल्ट देखते हैं कि हर सब्जेक्ट में कितना परसेन्टेज रही, वैसे ही अपना रिजल्ट देखना है कि किस बात में चढ़ती कला हुई, किस पुरूषार्थ के आधार से चढ़ती कला हुई व किस सब्जेक्ट में कमी रही, वह पूरा हिसाब निकालो।



02-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्व-चिन्तक, शुभ-चिन्तक और विश्व-परिवर्तक

विश्व-कल्याणकारी शिव बाबा बोलेः-

आज बापदादा सारी सेना के वर्तमान समय के रिजल्ट को देख रहे हैं। यह रिजल्ट विशेष तौर पर तीन बातों में देखो। जैसे मुख्य चार सब्जेक्ट्स हैं, वैसे ही इन चार सब्जेक्ट्स की रिजल्ट तीन स्टेजिस में देखी। वे तीन स्टेजिस कौन-सी हैं?

पहली स्टेज - स्वयं के प्रति स्व-चिन्तक कितने बने हैं?

दूसरी स्टेज है - समीप सम्बन्ध व सम्पर्क में शुभ-चिन्तक कितने बने हैं?

तीसरी स्टेज है - विश्व सेवा के प्रति। उसमें विश्व-परिवर्तक कहाँ तक बने हैं? परिवर्तन की स्टेज व परसेन्टेज कहाँ तक प्रत्यक्ष रूप में हुई है? इन तीनों स्टेजिस की रिजल्ट से चारों ही सब्जेक्ट्स का रिजल्ट स्पष्ट हो जाता है।

मुख्य तौर पर तो पहली स्टेज - स्व-चिन्तक कहाँ तक बने हैं? - इस पर ही तीनों सब्जेक्ट्स का रिजल्ट आधारित है। सारे दिन में चेक करो कि स्व-चिन्तक कितना समय रहते हैं? जैसे विश्व-परिवर्तक बनने के कारण विश्व-परिवर्तन के प्लैन्स बनाते रहते हो, समय भी निश्चित करते ही रहते हो, विधि द्वारा वृद्धि के भिन्न-भिन्न प्लैन्स व संकल्प भी चलते ही रहते हैं, ऐसे ही स्व-चिन्तक बन, सम्पूर्ण बनने की विधि हर रोज नये रूप से, नई युक्तियों से सोचते हो? रिजल्ट-प्रमाण तीसरी स्टेज के प्लेन्स ज्यादा बनाते हो। पहली स्टेज के प्लेन्स के लिये कभी-कभी उमंग व उत्साह में जाते हो व कभी-कभी समय अटेन्शन खिंचवाता है व कोई समस्या व किसी सब्जेक्ट का रिजल्ट अटेन्शन खिंचवाती है, लेकिन वह अटेन्शन तीव्र-गति के स्वरूप में अल्प-काल रहता है।

सेकेण्ड स्टेज-शुभ-चिन्तक की रिजल्ट स्व-चिन्तक से कुछ परसेन्ट वर्तमान समय ज्यादा है। लेकिन सफलता व कार्य की सम्पन्नता व स्वयं की स्थिति की सम्पूर्णता, जब तक फर्स्ट स्टेज फास्ट रूप के रिजल्ट तक नहीं पहऊँची है, तब तक नहीं हो सकती। उसके लिये स्वयं के प्रति स्वयं का ही प्लैन बनाओ। प्रोग्राम से प्रोग्रेस होती है, यह अल्पकाल की उन्नति अवश्य होती है लेकिन सदाकाल की उन्नति का साधन है - स्व-चिन्तक बनना।

वर्तमान समय-प्रमाण पुरूषार्थ की गति चिन्तन के बजाय चिन्ता के स्वरूप में होनी चाहिए। सेवा के विशेष प्रोग्राम तो बनाते हो, दिन-रात चिन्ता भी रहती है कि कैसे सफल करें और उसके लिए भी दिन-रात समान कर देते हो। लेकिन यह चिन्ता सुख स्वरूप चिन्ता है। अनेक प्रकार की चिन्ताओं को मिटाने वाली यह चिन्ता है। जैसे सर्व- बन्धनों से छूटने के लिए एक शुभ-बन्धन में स्वयं को बाँधते हो, इस बन्धन का नाम भले ही बन्धन है लेकिन बनाता यह निर्बन्धन ही है। ऐसे ही इसका नाम चिन्ता है लेकिन प्राप्ति बाप द्वारा वर्से की है। ऐसे ही इस चिन्ता से सदा-सन्तुष्ट, सदा-हर्षित और सदा कमल-पुष्प समान रहने की स्थिति अथवा स्टेज सहज बन जाती है।

वर्तमान समय संकल्प तो उठता है और चिन्तन तो चलता है कि कैसा होना चाहिए लेकिन जैसा होना चाहिए, वैसा है नहीं। यह होना चाहिए, यह करना चाहिए, ऐसे करें, यह करें - यह तो चिन्तन का रूप है। लेकिन चिन्ता का स्वरूप चलना और करना होता है, बनना और बनाना होता है, ‘होना चाहिए’ - यह चिन्ता का स्वरूप नहीं है। जब तक स्वयं के प्रति विशेष विधि को नहीं अपनाया है, तब तक वह चिन्ता का स्वरूप नहीं होगा। यह विशेष विधि कौन-सी है? यह जानते हो? कौनसी नई बातें करेंगे? जो विधि की सिद्धि दिखाई देवे? पुरानी विधि तो करते-करते विधि का रूप ही न रहा है। बाकी क्या रह गया है?

करने के कुछ समय के बाद अलबेलापन क्यों होता है? मुख्य बात यही है कि अब तक समय की समाप्ति का बुद्धि में निश्चय नहीं है। निश्चित न होने के कारण निश्चिन्त रहते हो! जैसे सर्विस के प्लैन्स का समय निश्चित करते हो, तब से निश्चिन्त रहना समाप्त हो जाता है, ऐसे ही स्वयं की उन्नति के प्रति भी अगर समय निश्चित करते हो तो उसका भी विशेष रिजल्ट अनुभव करते हो न? जैसे विशेष मास याद की यात्रा के प्रोग्राम का निश्चय किया तो चारों ओर विशेष वायुमण्डल और रिजल्ट, विधि का सिद्धि स्वरूप प्रत्यक्ष फल के रूप में देखा। ऐसे ही अपनी उन्नति के प्रति जब तक समय निश्चित नहीं किया है कि इस समय के अन्दर हर विशेषता का सफलता स्वरूप बनना ही है व समय के वातावरण से स्व-चिन्तन के साथ-साथ शुभ-चिन्तक भी बनना ही है, तब तक सफलता-स्वरूप कैसे बनेंगे? नहीं तो अवहेलना की समाप्ति, अर्थात् सम्पूर्णता हो न सकेगी। स्वयं का स्वयं ही शिक्षक बनकर जब तक स्वयं को इस बन्धन में नहीं बाँधा है, तब तक अन्य आत्माओं को भी सर्व-बन्धनों से सदा के लिये मुक्त नहीं कर पाओगे। समझा?

अभी क्या करोगे? जैसे सेवा में भिन्न-भिन्न टॉपिक्स का सप्ताह व मास मनाते हो, वैसे ही सेवा के साथ-साथ स्वयं के प्रति भी भिन्न-भिन्न युक्तियों के आधार पर समय निश्चित करो। यह वर्ष ऐसे खास पुरूषार्थ का है। समय अब भी कम तो होता ही जाता है परन्तु ऐसे ही आगे चलकर स्वयं के प्रति विशेष समय और ही कम मिलेगा। फिर क्या करेंगे? जैसे आज के मनुष्य यही कहते हैं कि पहले फिर भी समय मिलता था लेकिन अब तो वह भी समय नहीं मिलता, ऐसे ही स्वयं का स्वयं के प्रति यह उलाहना न रह जाये कि स्वयं के प्रति जो करना था वह किया ही नहीं क्योंकि समय जितना समीप आता जा रहा है, उस प्रमाण इतने विश्व की आत्माओं को महादान और वरदान का प्रसाद बाँटने में ही टाईम चला जायेगा। इसलिये स्व-चिन्तक बनने का समय ज्यादा नहीं रहा है। अच्छा!

ऐसे सदा महादानी, सर्व वरदानी, स्व-चिन्तक, और शुभ-चिन्तक, विश्व की हर आत्मा के प्रति सदा रहमदिल, मास्टर सर्व-शक्तियों के सागर, संकल्प और हर बोल द्वारा विश्व-कल्याणार्थ निमित बनी हुई आत्माओं - विजयी रत्न आत्माओं-के प्रति बापदादा  का याद-प्यार और नमस्ते!

एक वत्स की ओर देखते हुए बाबा बोले -  दिन-प्रतिदिन थोड़े समय में सफलता ज्यादा दिखाई दे रही है, यही आगे बढ़ने की निशानी है। सहज भी हो और साथ-साथ मेहनत कम और फल ज्यादा - इस स्टेज के समीप जा रहे हो न? जितना निशाना समीप दिखाई देता है, उतना नशा ऑटोमेटिकली होता है। नशा अर्थात् खुशी! यह है प्रत्यक्ष फल। तो अब प्रत्यक्ष फल का समय है। भविष्य फल नहीं, प्रत्यक्ष फल!

(उपरोक्त वत्स ने एक बहन की तबियत का समाचार बताया) हर्षित रूप से यहाँ ही कर्म-भोग को कर्म योग से चुक्तु करना है। ऐसा न समझे कि मैं सर्विस नहीं करती हूँ - जैसे वाणी द्वारा सर्विस करते हैं, जितना एक भाषण का रिजल्ट होता है, उससे हजार गुणा ज्यादा इस प्रैक्टिकल अनुभव की सर्विस का रिजल्ट निकलता है - ऐसे समझ कर साक्षीपन से हिसाब-किताब चुक्तू करे तो सर्विस बहुत है। जो है ही सर्विसेबल उनका शारीरिक रोग निमित कारण बन हिसाब चुक्तू होता है लेकिन उसमें भी सेवा भरी हुई है। यह कोई रेस्ट नहीं है बल्कि यह भी भिन्न प्रकार की सेवा का चान्स है। ऐसे समझकर सेवा में बिजी रहे तो डबल फल मिल जायेगा। मुक्ति भी और सेवा भी। अच्छा!



04-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ज्ञान को स्वयं में समाने से ही अनमोल मोती और अमोघ शक्ति की प्राप्ति

ज्ञान का खज़ाना देकर सदा-खुश बनाने वाले तथा सर्व शक्तियाँ देने वाले शिव बाबा बोले -

अभी संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें इस समय चातक के समान है जैसे सीप के लिये कहते हैं कि हर बूँद को स्वयं में समाने से मोती बना देती हैं, ऐसे ही आप सभी भी जो ज्ञान के बोल व महावाक्य सुनते हो और धारण करते हो, वह एक-एक बोल क्या बन जाता है? आप भी उसे मोती बना देते हैं और यहाँ एक-एक बोल पदम्-पति बनाने वाला बन जाता है। एक-एक बोल अमूल्य तब बनता है जब उसे धारण करते हो। जैसे चातक बूँद को धारण कर लेते हैं, वैसे ही आप भी इस ज्ञान को सुनकर समा लेते हो। समाने का प्रत्यक्ष स्वरूप क्या दिखाई देता है? ऐसे हर संकल्प, हर बोल और हर कर्म पदमों के जमा करने का आधार बन जाता है। अर्थात् हर सेकेण्ड के बोल में वह आत्मा पदम-पति स्वरूप में दिखाई देती है। स्थूल धन का नशा और खुशी चेहरे पर चमकती हुई दिखाई देती है लेकिन होती वह अल्पकाल की ही है परन्तु ज्ञान-चातक के चेहरे पर खुशी की झलक सदा स्पष्ट दिखाई देती है।

अपने दर्पण में, तीसरे नेत्र द्वारा, अपनी ऐसी झलक को हर समय देखते हो? हर सेकेण्ड के जमा का हिसाब चेक करते हो? प्लस कितना होता है और माइनस कितना होता है - ऐसा अपना स्पष्ट हिसाब रखने के अभ्यासी बने हो? विशेष समय निकाल कर हिसाब-किताब देखते हो? अभी-अभी कमाई, अभी-अभी गँवाई - यह उतार-चढ़ाव अगर ज्यादा होगा तो सोचने, देखने और करने का विशेष समय निकालना होगा। अगर एक-रस कमाई है, जमा ही होता जाता है, बार-बार नुकसान की कोई बात नहीं है, अर्थात् खाता क्लीयर (Clear; स्पष्ट) है तो जिस समय भी चाहे, एक सेकेण्ड में हिसाब निकाल सकते हैं? क्या रिजल्ट देखते हो? अभी तो अनेक आत्माओं के अनेक जन्मों के बने हुए खाते, जिसको पाप-कर्मों का खाता कहा जाता है, उसको भस्म कराने वाले हैं, वे स्वयं अपना ऐसा खाता बना नहीं सकते। यह तो पुराने खाते हैं। आप तो पुराने खाते समाप्त कर नया जन्म, नये खाते बनाने वाले हो। पुराने खाते सब खत्म हो रहे हैं - ऐसा अनुभव होता है? यदि पुराने खाते को पूर्ण रीति से चुकता करने की युक्ति नहीं आती है तो यह थोड़ा-सा रहा हुआ खाता बार-बार दिल को खाता रहेगा। यहाँ भी यदि माया का कोई कर्ज होता है तो कर्जदार बार-बार तंग करते हैं। ऐसे कर्ज को मर्ज कहा जाता है।

यहाँ भी माया का कोई कर्ज पुराने खाते में रहा हुआ है, तब ही माया बार-बार परेशान करती है व किसी-न-किसी मानसिक कर्ज के रूप में है। वह कर्ज चुक्ता करना पड़ता है। तो अपने खाते को चेक करो कि कोई रहा हुआ कर्ज, संकल्प व संस्कार के रूप में या स्वभाव के रूप में रहा हुआ तो नहीं है? जैसे शारीरिक रोग व कर्ज बुद्धि को एकाग्रचित नहीं करने देता, न चाहते हुए भी अपनी तरफ बार-बार खींच लेता है, ऐसे ही यह मानसिक कर्ज का मर्ज बुद्धि-योग को एकाग्र नहीं करने देता। बल्कि विघ्न रूप बन जाता है।

अभी तो समय की समाप्ति की समीपता है, तो अपने भी सब हिसाब चेक करो और समाप्त करो। हिसाब-किताब आता है ना? मास्टर नॉलेजफुल हो ना? पुराने खाते का कर्ज या तो व्यर्थ संकल्प-विकल्प के रूप में होगा या कोई संस्कार व स्वभाव के रूप में होगा। इन बातों से चेक करो कि संकल्प एक है? याद भी एक को करते हैं, अथवा करना एक को चाहते हैं, होता दूसरा है? अपनी तरफ क्या खींचता है, क्यों खिंचता है? बोझ है कोई, जो अपनी तरफ खींचता है? हल्की चीज कभी भी नीचे नहीं आयेगी, वह चढ़ती कला में ही होगी, किसी भी प्रकार का बोझ, कितना भी ऊपर करना चाहे तो ऊपर नहीं जायेगा, बल्कि नीचे ही आयेगा। ऐसे ही सारे दिन की मन्सा, वाचा, कर्मणा में, सम्पर्क और सेवा में इन बातों को चेक करो।

सेवा में भी प्लान और प्रैक्टिकल में, संकल्प और कर्म में अन्तर क्यों? उस अन्तर का कारण सोचोगे तो स्पष्ट दिखाई देगा कि कोई-न-कोई कमी होने के कारण प्लैन और प्रैक्टिकल में अन्तर होता है। सर्वशक्तियों में से किसी विशेष शक्ति की कमी है। जैसे योद्धा मैदान में सर्वशस्त्रधारी नहीं बन जाते हैं तो समय पर किसी साधारण शस्त्र की भी आवश्यकता पड़ जाती है तो उन्हें साधारण शस्त्र की कमी भी बहुत नुकसान कर देती है। यहाँ भी सर्वशक्तियों का समूह चाहिए अर्थात् सर्व-शस्त्रधारी चाहिये। अपनी बुद्धि से भले ही जज करते हो कि यह तो साधारण बात है, यह कभी भी समय पर बड़ा धोखा देती है। इसलिये टाइटल ही है - मास्टर सर्व-शक्तिवान्। बाप सर्वशक्तिमान और बच्चे मास्टर सर्वशक्तिवान् नहीं? विजयी का अर्थ ही है - सर्वशस्त्रधारी। चैकिंग के साथ चेन्ज क्यों नहीं कर पाते हो? चेन्ज तब होंगे जब सर्वशक्तियाँ स्वयं में समायी होंगी, अर्थात् नॉलेजफुल के साथ-साथ पॉवरफुल दोनों का बैलेन्स चाहिए। अगर नॉलेजफुल 75%  और पॉवरफुल में तीन-चार मार्क्स भी कम हैं, तो भी बैलेन्स बराबर-बराबर चाहिए। नॉलेजफुल का रिजल्ट है - प्लैनिंग, पॉवरफुल की रिजल्ट है - प्रैक्टिकल। नॉलेजफुल का रिजल्ट है - संकल्प और पॉवरफुल का रिजल्ट है - स्वरूप में आना। दोनों की समीपता और समानता ही दोनों का समान रूप बनना अर्थात् सम्पूर्ण बनना। योग में और सेवा में जितना समय स्वयं को बिजी रखोगे तो ऑटोमेटिकली कर्जदार को आने की हिम्मत व फुर्सत नहीं मिलेगी। अच्छा!

अव्यक्त वाणी का सार

1. सीप के लिये कहते हैं कि हर बूँद को स्वयं में समाने से मोती बना देते हैं। ऐसे ही आप भी जो ज्ञान के बोल या महावाक्य सुनते हो, उस एक-एक बोल को मोती बना देते हो।

2. जैसे चातक बूँद को धारण कर लेते हैं, वैसे ही आप भी इस ज्ञान को सुनकर समा लेते हो। समाने का प्रत्यक्ष स्वरूप यह है कि हर कर्म पद्मों के जमा करने का आधार बन जाता है।

3. यहाँ भी यदि कोई कर्ज लेता है तो कर्जदार बार-बार तंग करता है। ऐसे कर्ज को मर्ज कहा जाता है। यहाँ भी माया का कोई कर्ज पुराने खाते में रहा हुआ है, तब माया बार-बार परेशान करती है।

4. नॉलेजफुल के साथ-साथ पॉवरफुल भी हो, तब चेंज होगा।


 

05-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पवित्रता - प्रत्यक्षता की पूर्वगामिनी है और पर्सनेलिटी की जननी

रूहानी रॉयल्टी के संस्कार भरने वाले, सर्वोतम पर्सनेलिटी बनाने वाले, विश्व के परमपिता शिव बोले -

आज बाप सर्व देवों के भी देव, सर्व राजाओं के भी राजा बनाने वाले रचयिता की रचना, अर्थात् श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ भाग्य को देख हर्षित हो रहे हैं। आप ऊंचे-से-ऊंचे, बाप से भी ऊंची बनने वाली आत्मायें हैं। आज ऐसी ऊंची आत्माओं की विशेष दो बातें देख रहे हैं। वह कौन-सी हैं? एक रूहानी रॉयल्टी, दूसरी पर्सनेलिटी। जब हैं ही ऊंचे-से-ऊंचे बाप की ऊंची सन्तान - जिन्हों के आगे देवतायें भी श्रेष्ठ नहीं गाये जाते, राजायें भी चरणों में झुकते हैं, और सर्व नामी-ग्रामी आत्मायें भी भिखारी बन ईश्वरीय प्रसाद लेने के लिए जिज्ञासा रख आने वाली हैं तो ऐसी सर्व- आत्माओं के निमित्त बने हुए आप सभी मास्टर-ज्ञानदाता और वरदाता हो। तो ऐसी रॉयल्टी है? वास्तव में तो प्योरिटी ही रॉयल्टी है और प्योरिटी ही पर्सनेलिटी है। अब अपने को देखो कितने परसेन्ट प्योरिटी धारण की हुई है? प्योरिटी की परख व पहचान हरेक की रॉयल्टी और पर्सनेलिटी से हो रही है।

रॉयल्टी कौनसी है? रॉयल आत्मा को हद की विनाशी वस्तु व व्यक्ति में कभी आकर्षण नहीं होगा। जैसे लौकिक रीति से रॉयल पर्सनेलिटी वाली आत्मा को किन्हीं छोटी-छोटी चीजों में ऑख नहीं डूबती है, किसी के द्वारा गिरी हुई कोई भी चीज स्वीकार करने की इच्छा नहीं होती है, उनके नयन सदा सम्पन्न होने के नशे में रहते हैं, अर्थात् नयन नीचे नहीं होते हैं, उनके बोल मधुर और अनमोल अर्थात् गिनती के होते हैं और उनके सम्पर्क में खुमारी अनुभव होती है, ऐसे ही रूहानी रॉयल्टी उससे भी पदम गुणा श्रेष्ठ है।

ऐसी रॉयल्टी में रहने वाली आत्माओं की कभी भी एक-दूसरे के अवगुणों या कमजोरी की तरफ आँख भी नहीं जा सकती। जिसको दूसरा छोड़ रहा है अर्थात् मिटाने के पुरूषार्थ में लगा हुआ है, ऐसी छोड़ने वाली चीज अर्थात् गिरावट में लाने वाली चीज और गिरी हुई चीज, रूहानी रॉयल्टी वाले के संकल्प में भी धारण नहीं हो सकती व दूसरे की वस्तु की तरफ कभी संकल्प रूपी ऑख भी नहीं जा सकती। तो यह पुराने तमोगुणी स्वभाव, संस्कार, कमज़ोरियाँ शूद्रों की हैं न कि ब्राह्मणों की। शूद्रों की वस्तु की तरफ संकल्प कैसे जा सकता है? अगर धारण करते हैं तो जैसे कहावत है ना कि ‘‘कख का चोर सो लख का चोर’’ - तो यह भी सेकेण्ड-मात्र व संकल्पमात्र धारण करने वाली आत्माएं रॉयल नहीं गायी जायेंगी।

रूहानी रॉयल्टी वाली आत्माओं के बोल महावाक्य होते हैं। ये वाक्य गोल्डन वर्शन्स होते हैं, जिन्हें सुनने वाले भी गोल्डन एज  के अधिकारी बन जाते हैं। एक-एक बोल रत्न के समान वेल्युएबल होता है वे दु:ख देने वाले, गिराने वाले या पत्थर के समान बोल नहीं होते, साधारण और व्यर्थ भी नहीं होते, समर्थ और स्नेह के बोल होते हैं। सारे दिन के उच्चारण किये हुए बोल ऐसे श्रेष्ठ होते हैं कि हिसाब निकालने पर स्मृति में आ सकते हैं कि आज ऐसे और इतने बोल बोले। रॉयल्टी वाले की निशानी व विशेषता यह है कि पचास बोल बोलने वाले विस्तार के बजाय दस बोल के सार में बोले, क्वॉन्टिटी को कम कर क्वॉलिटी में लाये। रूहानी रॉयल्टी वाले के सम्पर्क में जो भी आत्मा आये, उसे थोड़े समय में भी, उस आत्मा के दातापन की व वरदातापन की अनुभूति होनी चाहिए, शीतलता व शान्ति की अनुभूति होनी चाहिए जो हर-एक के मन में यह गुणगान हो कि यह कौन-सा फरिश्ता था, जो सम्पर्क में आया। थोड़े समय में भी उस तड़पती हुई और भटकती हुई आत्मा को बहुत काल की प्यास बुझाने का साधन व ठिकाना दिखाई देने लगे। इसको कहा जाता है - पारस के संग लोहा भी पारस हो जाए, अर्थात् रूहानी रॉयल्टी वाले की रूहानी नजर से निहाल हो जाए। ऐसी रॉयल्टी अनुभव करते हो?

अब सेवा की गति तीव्र चाहिए। वह तब होगी, जब ऐसी रूहानी रॉयल्टी चेहरे से दिखाई देगी। तब ही सर्व-आत्माओं का उलाहना पूर्ण कर सकेंगे। ऐसी प्योरिटी की पर्सनेलिटी हो कि जो मस्तक द्वारा शुद्ध आत्मा और सतोप्रधान आत्मा दिखाई दे अर्थात् अनुभव कर सके, नयनों द्वारा भाई-भाई की वृत्ति अर्थात् शुद्ध, श्रेष्ठ वृत्ति द्वारा वायुमण्डल व वायब्रेशन परिवर्तित कर सको। जब लौकिक पर्सनेलिटी अपना प्रभाव डाल सकती है तो प्योरिटी की पर्सनेलिटी कितनी प्रभावशाली होगी? शुद्ध स्मृति द्वारा निर्बल आत्माओं को समर्थी स्वरूप बना सकते हो? ऐसी रॉयल्टी और पर्सनेलिटी स्वयं में प्रत्यक्ष रूप में लाओ। तब स्वयं को व बाप को प्रत्यक्ष कर सकेंगे! अब विशेष रहमदिल बनो। स्वयं पर भी और सर्व पर भी रहमदिल! सहज ही सर्व के स्नेही और सहयोगी बन जायेंगे। समझा? ऐसे भाग्य का सितारा चमक रहा है न? ऐसे धरती के सितारों को सब चमकता हुआ देखना चाहते हैं।

अच्छा, गोल्डन वर्शन्स द्वारा गोल्डन एज लाने वाले, सर्व के प्रति सदा रहमदिल, सर्वगुणों से सम्पन्न, सर्व प्राप्ति करने वाले, एक आत्मा को भी वंचित नहीं रखने वाले ऐसे सदा दाता, रूहानी रॉयल्टी और पर्सनेलिटी में रहने वाले, सदा चमकते हुए सितारों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!



07-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सन्तुष्टता ही सम्पूर्णता की निशानी है

सर्व आत्माओं के प्रति स्नेह जगाने वाले, सर्व-हितकारी शिव बाबा बोले -

अभी इस समय अपने फीचर्स और फ्यूचर को जान सकते हो? जितना-जितना समय के समीप जा रहे हो, समय के प्रमाण अपनी सम्पूर्णता की निशानियाँ अनुभव में आती हैं? सम्पूर्णता की मुख्य निशानियाँ कौन-सी हैं? आत्मा सम्पूर्णता को पा रही है - यह मुख्य किस बात में सबको अनुभव होता है? मुख्य बात यह है कि ऐसी आत्मा सदा स्वयं से सर्व सब्जेक्टस में सन्तुष्ट रहने का अनुभव करेगी और साथ-साथ अन्य आत्मायें भी उनसे सदा सन्तुष्ट रहेगी। तो सन्तुष्टता ही सम्पूर्णता की निशानी है। जितना जितना सर्व आत्माओं की सन्तुष्टता का आशीर्वाद व सूक्ष्म स्नेह तथा सहयोग का हर समय रेसपॉन्स) मिले - इससे समझो कि इतना सम्पूर्णता के समीप आये हैं। कमाल इसमें है।

कैसे भी संस्कारों वाली, असन्तुष्ट रहने वाली आत्मा सम्पर्क में आये, वह भी सम्पर्क में यह अनुभव करे कि मैं अपने संस्कारों के कारण ही असन्तुष्ट रहती हूँ लेकिन इन विशेष आत्माओं में मेरे प्रति स्नेह व सहयोग की व रहमदिल की शुभ भावना सदा नजर आती है। अर्थात् वह अपनी ही कमजोरी महसूस करे। वह कम्पलेन्ट यह न निकाले कि यह निमित्त बनी हुई आत्मायें मुझ आत्मा को सन्तुष्ट नहीं कर सकती। सर्व आत्माओं द्वारा ऐसी सन्तुष्टमणि का सर्टिफिकेट प्राप्त हो, तब कहेंगे कि यह सम्पूर्णता के समीप हैं। जितनी सम्पूर्णता भरती जायेगी, उतनी ही सर्व आत्माओं की सन्तुष्टता भी बढ़ती जायेगी।

सर्व को सन्तुष्ट करने का मुख्य साधन कौन-सा है? (हरेक ने बताया? यह सब बातें भी आवश्यक तो हैं। यह सब बातें परिस्थिति में प्रैक्टिकल करने की हैं। मुख्य बात यह है कि जैसा समय, जैसी परिस्थिति, जिस प्रकार की आत्मा सामने हो, वैसा अपने को मोल्ड कर सकें। अपने स्वभाव और संस्कार के वशीभूत न हों। स्वभाव अथवा संस्कार ऐसे अनुभव में हों जैसे स्थूल रूप में जैसा समय, वैसा रूप, जैसा देश वैसा वेश बनाया - ऐसा सहज अनुभव होता है? ऐसे अपने स्वभाव, संस्कार को भी समय के अनुसार परिवर्तन कर सकते हो?

कोई भी सख्त चीज मोल्ड नहीं हो सकती है। कड़े संस्कार भी समय-प्रमाण मोल्ड नहीं कर सकते। इसलिए ऐसे ईजी संस्कार हों कि जैसा समय, वैसे बना सकें। यह प्रैक्टिस होनी चाहिए। संकल्प भी न आये कि मेरे भी कोई संस्कार हैं, कोई स्वभाव है। जो अनादि-आदि संस्कार हैं, वही स्वरूप में हों।

संस्कारों का परिवर्तन अनादि काल से है अर्थात् चक्र में आने से ही परिवर्तन में आते रहते हैं। तो आत्मा में संस्कार-परिवर्तन का ऑटोमेटिकली अभ्यास है। कभी सतोप्रधान, कभी सतो, रजो व तमो संस्कार समय-प्रमाण बदलते ही रहते हैं। अब जबकि नॉलेजफुल हो, ऊंचे-से-ऊंची स्टेज पर पार्टधारी बन पार्ट बजा रहे हो, पॉवरफुल भी हो, ब्लिसफुल भी हो, सर्वशक्तिवान् के वर्से के अधिकारी भी हो तो स्वभाव-संस्कार को समय-प्रमाण व सेवा-प्रमाण किसी के कल्याण के प्रति व स्वयं की उन्नति के प्रति परिवर्तन करना अति सहज अनुभव हो - यह है विशेष आत्माओं का अन्तिम विशेष पुरूषार्थ। ऐसे पुरूषार्थ के अनुभवी हो? ऐसे सम्पूर्ण गोल्ड बन गये हो? इससे अपने नम्बर को चेक कर सकते हो व अपने संगमयुगी भविष्य रिजल्ट को जान सकते हो? निमित्त बनी हुई विशेष आत्माएँ हो ना? तो इसकी परसेन्टेज निकालो, स्वभाव, संस्कार को अपने शस्त्र के स्वरूप में यूज़ कर सकते हो या यह मुश्किल है? इस बात में सफलता की कितनी परसेन्टेज है? दूरबाज खुशबाज वाला नहीं। किनारा करने वाला नहीं। सम्पर्क में आते हुए, सम्बन्ध में रहते हुए स्वयं ही अपना सम्पर्क, सम्बन्ध बढ़ाते सफलतामूर्त बने तब नम्बर आगे ले सकते हैं। बेहद के मालिक का बेहद से सम्बन्ध चाहिए ना। वह कैसे होगा? चान्स मिलता नहीं - लेकिन हर कार्य के योग्य स्वयं की योग्यताएं स्वत: ही निमित बना देती हैं।

इस वर्ष में ऐसी विशेषता दिखलाओ जैसे साकार बाप की विशेषता देखी। हर-एक के दिल से यह आवाज निकलता रहा-हमारा बाबा! चाहे पच्छड़माल हो, फिर भी ‘‘हमारा बाबा!’’ - यह अनुभव हर आत्मा का रहा। ऐसे सर्व विशेष आत्माओं के प्रति जब तक सर्व आत्माओं द्वारा यह स्नेह का व अधिकार का, अपनेपन की आवाज न निकले, तब तक समझो कि विश्व के मालिकपन के तख्तनशीन नहीं बन सकते। ऐसे सफलता की निशानी दिखाई दे। हर एक अनुभव करे कि ये विशेष आत्माएँ विश्व-कल्याण के प्रति हैं। यह है सम्पूर्णता की निशानी। अच्छा!

अव्यक्त वाणी का सार

1. जब आप सभी सब्जेक्ट्स में सन्तुष्ट रहने का अनुभव करेंगे तभी अन्य आत्माएँ भी सन्तुष्ट रहेगी।

2. अब सन्तुष्टमणि का सर्टिफिकेट प्राप्त करो।

3. कोई भी सख्त चीज मोल्ड नहीं हो सकती है। इसलिए संस्कार ऐसे ईजी हों कि जैसा समय वैसा स्वयं को बना सकें।



08-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निश्चय रूपी आसन पर अचल स्थिति

हर परिस्थिति में अचल एवं अडोल बनाने वाले शिव बाबा बोले -

सभी अपने को निश्चय रूपी आसन पर स्थित अनुभव करते हो? निश्चय का आसन कभी हिलता तो नहीं है? किसी भी प्रकार की परिस्थिति या प्रकृति या कोई व्यक्ति निश्चय के आसन को कितना भी हिलाने का प्रयत्न करे, लेकिन वह हिला न सके - ऐसे अचल-अडोल आसन है? निश्चय के आसन में सदा अचल रहने वाला निश्चय-बुद्धि विजयन्ति गाया हुआ है। तो अचल रहने की निशानी है - हर संकल्प, बोल और कर्म में सदा विजयी। ऐसे विजयी रत्न स्वयं को अनुभव करते हो? किसी भी बात में हिलने वाले तो नहीं हो? जो समझते हैं कभी कोई बात में हलचल मच सकती है या कोई प्रकार का संकल्प भी उत्पन्न हो सकता है ऐसे पुरुषार्थी हाथ उठाओ? ऐसे कोई हैं जो समझते हों कि हाँ, हो सकता है? अगर हाथ न उठायेंगे तो पेपर बड़ा कड़ा आने वाला है, फिर क्या करेंगे? कोई भी मुश्किल पेपर आये उसमें सभी पास होने वाले हो तो पेपर की डेट अनाउन्स करें। सब ऐसे तैयार हो? फिर उस समय तो नहीं कहेंगे कि यह बात तो समझी नहीं थी और सोची नहीं थी, यह तो नई बात आ गई है? निश्चय की परीक्षा है कि जिन बातों को सम्भव समझते हो, वह असम्भव के रूप में पेपर बन के आयेंगी, फिर भी अचल रहोगे?

निश्चय-बुद्धि बनने की मुख्य चार बातें हैं। चारों में परसेन्टेज फुल चाहिए। वह चार बातें जानते भी हो और उन पर चलते भी हो। पहली बात (1) बाप का निश्चय जो है, जैसा है, जिस स्वरूप से पार्ट बजा रहे हैं, उसको वैसा ही जानना और मानना। (2) बाप द्वारा प्राप्त हुई नॉलेज को अनुभव द्वारा स्पष्ट जानना और मानना। (3) स्वयं भी जो है, जैसा है अर्थात् अपने अलौकिक जन्म के श्रेष्ठ जीवन को व ऊंचे ब्राह्मण के जीवन को, अपने श्रेष्ठ पार्ट को, अपनी श्रेष्ठ स्थिति और स्थान का जैसा महत्व है, वैसा स्वयं का महत्व जानना, मानना और उसी प्रमाण चलना। (4) वर्तमान श्रेष्ठ, पुरूषोत्तम, कल्याणकारी, चढ़ती कला के समय को जानना और जान करके हर कदम उठाना। इन चारों ही बातों का पूर्ण निश्चय प्रैक्टिकल लाइफ में होना - इसको कहा जाता है - निश्चयबुद्धि विजयन्ति।

चारों ही बातों में परसेन्टेज भी चाहिए। निश्चय है, सिर्फ इस बात में भी खुश नहीं होना है। लेकिन क्या परसेन्टेज भी ऊंची है? अगर परसेन्टेज एक बात में भी कम है तो निश्चय का आसन कोई भी समय अथवा कोई छोटी परिस्थिति भी डगमग कर सकती है। इसलिए परसेन्टेज को चेक करो क्योंकि अब सम्पन्न होने का समय समीप आ रहा है। तो छोटी-सी कमी समय पर बड़ा नुकसान कर सकती है क्योंकि जितना-जितना अति स्वच्छ, सतोप्रधान बन रहे हो, अति स्वच्छ स्टेज पर आज जो छोटी-सी कमी लगती है व साधारण दाग अनुभव होता है, वह बहुत बड़ा दिखाई देगा। इसलिए अभी से ऐसी सूक्ष्म चेकिंग करो और कमी को सम्पन्न करने का तीव्र पुरूषार्थ करो। दिन-प्रतिदिन जितना श्रेष्ठ बनते जा रहे हो उतना विश्व की हर आत्मा की निगाहों में प्रसिद्ध होते जा रहे हो। सबकी नजर आपकी तरफ बढ़ती जा रही हैं। अब सबके अन्दर यह इंतज़ार है कि कब स्थापना के निमित्त बने हुए ये लोग सुख-शान्तिमयी नई दुनिया की स्थापना का कार्य सम्पन्न करते हैं, जो यह दु:खदाई दुनिया के स्थापना के आधार पर परिवर्तित हो जायेगी। इन्हों की नजर स्थापना करने वालों में है और स्थापना करने वालों की नजर कहाँ है? अपने कार्यो में मग्न हो वा विनाशकारियों की तरफ नजर रखते हो? विनाश के साधनों के समाचारों को सुनने के आधार पर तो नहीं चल रहे हो? वह ढीले होते तो आप भी ढीले हो जाते हो? क्या स्थापना के आधार पर विनाश होता है या विनाश के आधार पर स्थापना होनी है? स्थापना करने वाले विनाश की ज्वाला प्रज्वलित करने के निमित्त बने हुए हैं न कि विनाश वाले स्थापना करने वालों के पुरूषार्थ की ज्वाला प्रज्वलित करने कि निमित्त हैं।

स्थापना वाले आधारमूर्त हैं। ऐसे आधारमूर्त्त इसी विनाश की बात पर हिलते तो नहीं? हलचल में तो नहीं हो? होगा या नहीं होगा? लोग क्या कहेंगे या लोग क्या करेंगे? यह व्यर्थ संकल्प निश्चय के आसन को डगमग तो नहीं करता? सबने निश्चय-बुद्धि में हाथ उठाया ना? निश्चय अर्थात् किसी भी बात में क्यों, क्या और कैसे का संकल्प भी उत्पन्न न हो, क्योंकि संशय का रॉयल रूप संकल्प का रूप होता है। संशय नहीं है लेकिन संकल्प उठता है, तो वह संकल्प किसके वंश का अंश है? यह संशय का आया है या वंश का? जबकि चारों ही बातों में सम्पूर्ण निश्चय-बुद्धि हो तो फिर यह संकल्प उत्पन्न हो सकता है? जबकि है ही कल्याणकारी युग।

कल्याणकारी बाप की श्रीमत पर चलने वाली आत्मायें सिवाय कल्याण के, चढ़ती कला के और कोई भी संकल्प कर नहीं सकती हैं। उनका हर संकल्प, हर कार्य के प्रति समय, वर्तमान का भविष्य के प्रति समर्थ संकल्प होगा, व्यर्थ नहीं होगा। घबराते तो नहीं हो? सामना करना पड़ेगा। पेपर का सामना अर्थात् आगे बढ़ना, अर्थात् सम्पूर्णता के अति समीप होना। अब यह पेपर आने वाला है। स्वयं स्पष्ट बुद्धि वाले होंगे तो औरों को भी स्पष्ट कर सकेंगे। इसका मतलब यह तो नहीं समझते हो कि होना नहीं है। ड्रामा में जो होता रहा है, समय-प्रति-समय, उसमें माखन से बाल ही निकलता है न? कोई मुश्किल हुआ है? बापदादा नयनों पर बिठाये, दिल तख्त पर बिठाये पार करते ले आ रहे हैं ना? कोई क्या अन्त तक साथ निभाने का या किसी भी परिस्थितियों से पार ले जाने का वायदा व कार्य निभायेंगे। नहीं साथ ले ही जाना है न। सर्वशक्तिमान साथी होते हुए भी यह संकल्प उत्पन्न होना - उसको क्या कहेंगे? ऐसे व्यर्थ संकल्प समाप्त कर जिस स्थापना के कार्य के निमित्त हो, बापदादा के मददगार हो, उस कार्य में मग्न रहो। अपनी लगन की अग्नि को तीव्र करो। जिस लगन की अग्नि से ही विनाश की अग्नि तीव्र गति का स्वरूप धारण करेगी। अपने रचे हुए अविनाशी ज्ञान यज्ञ, जिसके निमित्त ब्राह्मण बने हुए हो, इस यज्ञ में पहले स्वयं की सर्व कमजोरियों व कमियों की आहुति डालो। तभी सारी पुरानी दुनिया को आहुति पड़ने के बाद समाप्ति होगी। अब दृढ़ संकल्प की तीली लगाओ। तब यह सम्पन्न होगा। अच्छा!

ऐसी लगन में मग्न रहने वाले, सदा निश्चय के आसन पर स्थित रह कार्य करने वाले, हर परिस्थिति में अचल और अडोल रहने वाले, बापदादा के सदैव समीप और सहयोगी, ऐसे स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।



09-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


आध्यात्मिक शक्तियों द्वारा विश्व-परिवर्तन कैसे?

निर्बल आत्माओं को शक्तिवान् बनाने वाले, सर्वशक्तिवान् शिव बाबा बोले -

स्वयं को अशरीरी आत्मा अनुभव करते हो? इस शरीर द्वारा जो चाहे वही कर्म कराने वाली तुम शक्तिशाली आत्मा हो-ऐसा अनुभव करते हो? इस शरीर के मालिक कर्मेन्द्रियों द्वारा कर्म कराने वाले, इन कर्मेन्द्रियों से जब चाहो तब न्यारे स्वरूप की स्थिति में स्थित हो सकते हो? अर्थात् राजयोग की सिद्धि - कर्मेन्द्रियों के राजा बनने की शक्ति प्राप्त की है? राजा व मालिक कभी भी कोई कर्मेन्द्रिय के वशीभूत नहीं हो सकता। वशीभूत होने वाले को मालिक नहीं कहा जाता। विश्व के मालिक की सन्तान होने के नाते, जब बाप विश्व का मालिक हो और बच्चे अपनी कर्मेन्द्रियों के मालिक न हों, तो क्या कहेंगे? मालिक के बालक कहेंगे? नाम हो मास्टर सर्वशक्तिवान् और स्वयं को मालिक समझ कर चल नहीं सके तो क्या मास्टर सर्वशक्तिवान् हुए? हम मास्टर सर्व- शक्तिवान् हैं - यह तो पक्का निश्चय है ना, कि यह निश्चय भी अभी हो रहा है? निश्चय में कभी परसेन्टेज होती है क्या? बाप के बच्चे तो हैं ही ना? ऐसे थोड़े ही 90%  हैं और 10%  नहीं है। ऐसा बच्चा कभी देखा है? निश्चय अर्थात् 100%  निश्चय।

ऐसे 100% निश्चय-बुद्धि बच्चों की पहली निशानी क्या होगी? निश्चय-बुद्धि की पहली निशानी है - विजयी। कहावत भी है - निश्चय बुद्धि विजयन्ति। विजय मिलेगी कैसे? निश्चय से। तो निरन्तर इस निश्चय की स्मृति कि - मैं मास्टर सर्वशक्तिवान हूँ यह स्मृति रहती है? स्मृति के बिना समर्थी थोड़े ही आयेगी? विजयी होने का आधार है - स्मृति। अगर स्मृति कमज़ोर होगी, निरन्तर नहीं होगी और स्मृति पॉवरफुल नहीं होगी तो विजयी कैसे होंगे? तो पहले इस निश्चय को सदा स्मृति-स्वरूप बनाना पड़ता है।

जैसे चलते-फिरते लौकिक आक्युपेशन (धन्धा) और लौकिक सम्बन्ध सदा स्मृति में रहता ही है ना? उसी स्मृति से समर्थी आती है कि मैं ऐसे परिवार का, ऐसे ऑक्युपेशन वाला हूँ, वैसे ही जो मरजीवा ब्राह्मण जन्म का सम्बन्ध व ऑक्युपेशन है वा स्वयं का स्वरूप है, वह सदा स्मृति में रहना चाहिए। स्मृति कमज़ोर होने के कारण विजय दिखाई नहीं देती है। विजय हो उसको सिर्फ देखते हुए समय नहीं गँवाओ, बल्कि विजय होने का जो फाउण्डेशन है उसको मजबूत रखो। कोई सोचे कि मार्ग तय करने से पहले मंज़िल पर पहुँच जायें - यह हो सकता है? मार्ग तो ज़रूर तय करना ही पड़ेगा। तो विजय है मंज़िल और मार्ग है निरन्तर स्मृति। अत: इस मार्ग को तय कर रहे हो या इंतज़ार में हो कि मंज़िल दिखाई दे?

सदैव यह सोचना चाहिए कि मिली हुई गॉडली लॉटरी अगर पूरी काम में नहीं लगायेंगे तो खुशी व शक्ति का अनुभव कैसे करेंगे? कितना भी किसी के पास धन हो लेकिन सुख की प्राप्ति तब होगी जब उसको यूज़ (प्रयोग) करेंगे। यूज़ न करें तो देखते हुए सिर्फ खुशी ही होगी, लेकिन उससे जो सुख की प्राप्ति होनी चाहिए वह अनुभव नहीं कर सकेंगे। लॉटरी तो मिली लेकिन उसको यूज़ करना अर्थात् जीवन में लाना - उसके बिना सुख का, आनन्द का व विजयी बनने की खुशी का अनुभव नहीं कर सकेंगे।

अनुभवी बनना चाहिए ना? अनुभव जीवन का मुख्य खज़ाना है। लौकिक पहलू में भी अनुभवी आत्मा मुख्य गायी जाती है। इस ईश्वरीय मार्ग में भी अनुभवी आत्मा बनना चाहिए। जो बोला, वह अनुभव किया? यह समझते तो हो कि मैं मास्टर सर्व शक्तिवान् हूँ, परन्तु क्या इसका अनुभव भी किया है? ऐसे नहीं कि अनुभव तो हो ही जायेगा, चल तो रहे हैं। जब तक कोई भी कार्य करने की डेट फिक्स नहीं हो जाती तब तक पुरूषार्थ तीव्र नहीं हो सकता।

किसी भी लौकिक अथवा अलौकिक कार्य की डेट फिक्स होने के बाद फिर ऑटोमेटिकली कर्म में भी बल आ जाता है। मालूम है फलानी डेट तक यह कार्य सम्पन्न करना है। डेट को स्मृति में रखने से कर्म की स्पीड भी ऐसे चलती है। कल पूरा करना है तो स्पीड ऐसे रहेगी? इस ज्ञान का मुख्य स्लोगन ही है कि अभी नहीं तो कभी नहीं। इसकी डेट कल या परसों नहीं होती - इसकी डेट होती है अभी। घण्टे के बाद भी नहीं। इसलिये जितना निश्चय रखेंगे कि ये करना ही है - करेंगे नहीं - करना ही है यह है दृढ़ संकल्प। दृढ़ संकल्प के बिना दृढ़ता नहीं आती। और पुरूषार्थ का समय बाकी कितना कम है? जास्ती समय दिखाई देता है क्या? समय का ख्याल तो रखना चाहिए ना। यह भी सोचो कि प्रालब्ध कितने समय की है? दो युग की प्रालब्ध है ना। इस पुरूषार्थ की प्रालब्ध का समय कितना कम रहा? यह सदा स्मृति में होना चाहिए।

बहुत काल की प्रालब्ध पानी है, तो पुरूषार्थ भी बहुत काल का चाहिए ना। अगर लास्ट टाइम पुरूषार्थ करेंगे तो प्रालब्ध भी लास्ट की ही मिलेगी। पुरूषार्थ फर्स्ट नहीं और प्रालब्ध फर्स्ट वाली चाहिए? लास्ट में बचा-खुचा मिलने से क्या होगा? जैसे प्राप्ति का लक्ष्य फर्स्ट का है, वैसे पुरूषार्थ भी ऐसा करो! कोई भी बात सामने आये उसको एक साईट और सीन समझो जैसे रास्ते चलते अनेक प्रकार की साईट्स और सीन्स  आती है, लेकिन जो मंज़िल को पाने वाला होता है, वह उसको देखता नहीं है, उसकी बुद्धि में मंज़िल की प्राप्ति ही रहती है। तो यहाँ भी बुद्धि में मंज़िल रखनी है, न कि वह बातें। अगर छोटी-सी बात को देखने में ही समय गंवा देंगे तो मंज़िल पर समय पर पहुँच नहीं सकेंगे। तो अब दृढ़ता लाने का समय है। नहीं तो कुछ समय के बाद इस समय को भी याद करना पड़ेगा कि समय पर जो करना था, वह नहीं किया।

पीछे सोचने से पहले क्यों नहीं समय को परिवर्तित कर दो? विश्व के परिवर्तन के निमित्त हो तो जो बाप का कार्य है, बाप के साथ अपने को भी निमित्त समझो! विश्व में स्वयं भी हो ना! विश्व को परिवर्तित करने वाले को पहले स्वयं को परिवर्तित करना पड़े। सदैव यह सोचो कि जब मैं हूँ ही विश्व को परिवर्तन करने के निमित्त, तो स्वयं को परिवर्तन करना, क्या बड़ी बात है? तो फौरन ही परिवर्तन करने की शक्ति आयेगी। कैसे होगा, क्या होगा, होगा व नहीं होगा? यह क्वेश्चन नहीं उठेगा।

दूसरी बात यह स्मृति में रखो कि यह विश्व-परिवर्तन का कार्य कितनी बार किया है? अनगिनत बार किया है, यह तो पक्का है ना? बाप के साथ मैं भी अनेक बार निमित्त बना हूँ। जब अनेक बार की हुई बात होती है तो वह मुश्किल लगती है क्या? अति पुरानी बात को सिर्फ निमित्त बन रिपीट कर रहे हो। रिपीट करना सहज होता है या मुश्किल? तो यह भी स्मृति में रहना चाहिए। कोई जरा भी मुश्किल का संकल्प आये तो यह हिम्मत की बात याद रखो। फिर से अनेक बार की हुई बात की स्मृति आने से समर्थी आ जायेगी।

तो यह वरदान सदा स्मृति में रखना कि मैं बाप-समान शक्तियों का स्वरूप दिखाने वाला हूँ - अर्थात् शक्ति स्वरूप हूँ। सम्बन्ध रहने से यहाँ तक पहुँच सकते हो। लेकिन अब बाप का स्नेह, बाप के कार्य से स्नेह और बाप द्वारा मिली हुई नॉलेज से स्नेह - इन तीनों का बैलेन्स रखो। अभी बैलेन्स में बाप का स्नेह ज्यादा है, बाकी दो तरफ हल्का है। नॉलेज से शक्ति आयेगी। एक-एक वर्शन पदमपति बनाने वाला है। इतना महत्व रखते हुए उन वर्शन्स को धारण करो, तो महत्व से स्नेह होता है। जब तक महत्व को नहीं जानते तब तक स्नेह नहीं होता। महत्व को जानेंगे तो ही स्नेह ऑटोमेटिकली रहेगा।

निश्चय-बुद्धि विजयन्ति हो। अलौकिक जन्म हुआ, निश्चयबुद्धि हुए कि मैं बाप का बच्चा हूँ, तो बाप का वर्सा ही विजय है। मास्टर सर्व-शक्तिवान् का वर्सा क्या होगा? शक्तियाँ। तो बच्चा बनना अर्थात् विजयी बनना। विजय का तिलक स्वत: ही लग जाता है, लगाना नहीं पड़ता और वह अविनाशी है। अधिकारी हो गये हो ना? स्नेही और सहयोगी बनने की तकदीर अच्छी है। परिवार का परिवार एक मत हो जाये तो यह भी तकदीर की निशानी है। परिवार के सब साथी पुरूषार्थ की रेस में एक-दूसरे से आगे निकलने की लगन में लगे हुए हैं। हिम्मत से मदद स्वत: ही प्राप्त होती है। (वीरचन्द को) यह मोह-जीत परिवार है। ऐसे मोह-जीत परिवार कितने बनाये हैं? लक्ष्य श्रेष्ठ रखा हुआ है। अब ऐसे परिवारों का गुलदस्ता बनाओ। अगर दस-ग्यारह ऐसे परिवार हो जाएं  तो अहमदाबाद का नम्बर आगे हो जायेगा। गुजरात को, परिवारों को चलाने का वरदान ड्रामानुसार मिला हुआ भी है। लेकिन मोह-जीत परिवार और सब एक लगन में श्रेष्ठ पुरूषार्थ की लाइन में हो। ऐसा गुलदस्ता बनाओ। अच्छा।



10-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व शक्तियों-सहित सेवा में समर्पण

सत्कार न करने वालों का भी सत्कार करने वाले, ठुकराने वालों को भी ठिकाना देने वाले, त्याग द्वारा सर्वोत्तम भाग्य बनाने वाले शिव बाबा बोले -

आज यह संगठन ज्ञानी तू आत्माओं का है। ऐसी ज्ञानी तू आत्मायें, अथवा योगी आत्मायें बापदादा को भी अति प्रिय है और विश्व में भी अति प्रिय हैं। ऐसी ज्ञानी तू आत्मा और योगी तू आत्मा का भक्ति मार्ग में गायन और पूजन चलता रहता है। वर्तमान समय में भी वह आत्मायें पूजनीय और गायन-योग्य है। पूजनीय अर्थात् ऊंची आत्मायें और गायन-योग्य आत्माएँ - ऐसी आत्माओं के गुणों का गायन व वर्णन अब भी सब करते हैं। भविष्य के गायन और पूजन का आधार वर्तमान पर है। भविष्य में अर्थात् भक्ति में कौन कितने गायन और पूजने योग्य बनेंगे, उसका बुद्धि-बल द्वारा साक्षात्कार हर कोई अभी कर सकता है। हर- एक अपने आपको देखे कि इस समय भी मुझ आत्मा को सर्व-आत्मायें अर्थात् जो सम्पर्क में आने वाली हैं, अपने ब्राह्मण कुल की आत्मायें हैं और साथ-साथ अज्ञानी आत्मायें भी जो सम्पर्क में आती हैं, तो वे श्रेष्ठ अर्थात् पूज्यता की नजर से देखती है? पूज्य बड़े को भी कहा जाता है। तो सर्व आत्मायें उस नज़र से देखती व समझती हैं?

अगर अल्प आत्मायें पूज्य अनुभव करती हैं तो वर्तमान का आधार सारे भविष्य पर है। ऐसे ही जो भी आत्मायें साथी बनती हैं व सम्बन्ध में आती हैं, उनको मुझ आत्मा विशेष के गुण अनुभव में आते हैं? अगर किसी आत्मा के गुण अनुभव में आयेंगे तो अब भी वह आत्मायें मन-ही-मन में व वाणी में भी ऐसी आत्माओं के गुणों का गायन अवश्य करेंगी। गुण कोई भी हों वे अपना प्रभाव अवश्य डालते हैं। गुण छुप नहीं सकते। तो ऐसी पूज्य और गुणगान कराने वाली ज्ञानी आत्मायें और योगी आत्माएँ बने हो? अल्प आत्माओं के प्रति अथवा सर्व के प्रति सर्व गुणों का गायन करते हैं अथवा थोड़े-बहुत गुणों का गायन करते हैं? गुणों के गायन का पलड़ा भारी है अथवा साधारण चलन का पलड़ा भारी है?

समय-प्रमाण अभी अपने सब सब्जेक्ट्स के खाते को चेक करो कि कहाँ तक जमा किया है व मन, वाणी, कर्म द्वारा कहाँ तक हर सब्जेक्ट को सम्पन्न किया है। सर्व-गुण सम्पन्न बने हैं या गुण-सम्पन्न ही बने हैं? कल्याणकारी बने हैं अथवा विश्व-कल्याणवारी बने हैं? अब अगर चेक करेंगे तो चेक करने के बाद सम्पन्न करने का कुछ समय है। लेकिन कुछ समय के बाद सम्पन्न करने का समय भी समाप्त हो जायेगा। फिर क्या करेंगे? सम्पन्न बनी हुई आत्माओं को देखने वाले बन जायेंगे। सीट लेने वाले नहीं बन सकेंगे। तो साक्षात्कार मूर्त बनना है या साक्षात्कार करने वाला बनना है?

ऐसे साक्षात्कार मूर्त बनने के लिये सार रूप में तीन बातें अपने में देखो –

1. सर्व-अधिकारी बने हैं? 2. परोपकारी बने हैं? 3. सर्व प्रति सत्कारी बने हैं? अर्थात् सर्व को सत्कार देने और लेने योग्य बने हैं? याद रखो कि सत्कार देना ही लेना है।

इन तीन बातों के आधार से ही विश्व के आगे विश्व-कल्याणकारी प्रसिद्ध होंगे। उनके स्पष्टीकरण को अच्छी तरह से जानते हो?

सर्व-अधिकारी का अर्थ है-सर्व-कर्मेन्द्रियों पर अधिकार। साथ-साथ जैसे इस शरीर की भिन्न-भिन्न शक्तियाँ हाथ, पांव आदि हैं, वैसे ही आत्मा की भी शक्तियाँ हैं - मन, बुद्धि और संस्कार। इन सूक्ष्म शक्तियों पर भी अधिकारी बने हो? अपनी रचना - प्रकृति के ऊपर अधिकारी बने हो? कोई भी प्रकृति के तत्व अपनी तरफ आकर्षित तो नहीं करते हैं? जब साइन्स द्वारा प्रकृति व पृथ्वी के आकर्षण से परे स्टेज पर पहुँच जाते हैं तो मास्टर सर्व-शक्तिवान् प्रकृति के आकर्षण से परे, अर्थात् व्यक्त भाव से परे, अव्यक्त व ऑलमाइटी अथॉरिटी की स्टेज को प्राप्त करना मुश्किल अनुभव करे - यह तो शोभता नहीं। ऐसे ही बाप द्वारा प्राप्त हुई सर्व शक्तियाँ जिनमें से थोड़ा सैम्पल  रूप में चित्र भी बना है। तो वर्से में प्राप्त हुई शक्तियाँ अर्थात् स्वयं की जायदाद व प्रॉपर्टी पर अपना अधिकार है। जब चाहो तब किसी भी शक्ति द्वारा स्वयं को सफल बना सको। जैसे स्थूल जायदाद पर अधिकार होने के कारण जिस समय चाहो उस समय उसी वस्तु को काम में लगा सकते हो क्योंकि अपनी जायदाद है। ऐसे ही ईश्वरीय जायदाद को जिस समय चाहो और जिस शक्ति को चाहो उसको काम में लगा सकते हो? इस जायदाद के भी अधिकारी हो? इसको कहा जाता है सर्व-अधिकारी।

हर आत्मा के प्रति सदा उपकार अर्थात् शुभ भावना और श्रेष्ठ कामनायें। हर आत्मा को देखते हुए ऐसे अनुभव हो कि यह सर्व-आत्माएँ जैसे कि बाप के हर समय स्नेही और सहयोगी बनने के लिए स्वयं को कुर्बान कर देते हैं। ऐसे कुर्बान करने के निमित्त क्यों बनते? - क्योंकि बाप सब के आगे स्वयं कुर्बान होते हैं। सर्व के सामने स्वयं को सब शक्तियों समेत सेवा में समर्पित किया है। अपने समय को, सुखों को, प्राप्ति की इच्छा को सर्व के प्रति महादानी बन दाता बने। ऐसे फॉलो फादर स्वयं के प्रति नाम, शान, मान सर्व प्राप्ति की इच्छा को कुर्बान करने वाले ही परोपकारी बन सकते हैं। लेने की इच्छा छोड़ देने वाले महादानी ही परोपकारी बन सकते हैं। ऐसे ही सत्कारी सर्व के प्रति सत्कार की भावना हो - सत्कारी बनने के लिए स्वयं को सर्व के सेवाधारी समझना पड़े। सेवाधारी की परिभाषा भी गुह्य है। सिर्फ स्थूल सेवा व वाणी द्वारा सेवा, सम्पर्क द्वारा सेवा, सेलवेशन द्वारा व भिन्न-भिन्न प्रकार के साधनों द्वारा सेवा करना, सिर्फ इतना ही नहीं, अपने हर गुण द्वारा दान करना व दूसरों को भी गुणवान बनाना, स्वयं के संग का रंग चढ़ाना, यह है श्रेष्ठ सेवा। अवगुण को देखते हुए भी नहीं देखना। स्वयं के गुणों की शक्ति द्वारा अन्य के अवगुणों को मिटा देना अर्थात् निर्बल को बलवान बनाना। निर्बल को देख किनारा नहीं करना है व थक नहीं जाना है। लेकिन होपलेस केस को भी स्वयं की सेवा द्वारा अपने श्रेष्ठ स्वमान में स्थित हो सम्मान देने के द्वारा सर्व के सत्कारी बन सकते हैं। स्वयं के त्याग द्वारा अन्य को सत्कार देते हुए अपना भाग्य बनाना है। छोटा, बड़ा, महारथी व प्यादा सर्व को सत्कार की नजर से देखो। सत्कार न देने वाले को भी सत्कार देने वाला, ठुकराने वाले को भी ठिकाना देने वाला, ग्लानि करने वाले के भी गुणगान करने वाला, ऐसे को कहा जाता है सर्व-सत्कारी। तो इस वर्ष में दो प्रकार की विशेष सेवा होनी चाहिए। एक स्वयं को सम्पन्न बनाने की। इसके लिए इस वर्ष में चारों तरफ विशेष स्थानों पर उन्नति के साधन, योग-भट्ठी के साधन और धारणा की भट्ठी चाहिए। ऐसे हर जगह चारों ओर ग्रुप वाइज भट्ठी का प्रोग्राम रखो, हर एक को स्वतन्त्र कर भट्ठी का अनुभव कराओ। जैसे पिछले वर्ष में योग भट्ठी का प्रोग्राम रखा था ऐसे धारणा और याद दोनों सब्जेक्ट्स पर स्वयं को सम्पन्न बनाने की भट्ठी हो। ऐसा प्रोग्राम सब मिलकर के बनाओ।

दूसरी बात है विश्व सेवा के प्रति। उसके लिये हर एक सेवाकेन्द्र को स्वयं के आस पास के स्थानों को सन्देश देने का प्रोग्राम तीव्रगति से करना पड़े। कोई भी आसपास का स्थान सन्देश देने से वंचित रहा तो फिर सन्देश देने की मार्जिन न रहेगी। वंचित रही हुई आत्माओं का बोझ निमित बनी हुई आत्माओं पर है। इसलिए चक्रवर्ती बनो। महादानी अर्थात् महादान देते आगे बढ़ते चलना है। एक एक निमित बनी हुई श्रेष्ठ आत्मा को सिर्फ दो चार स्थान नहीं लेकिन आसपास के सर्व स्थानों पर चक्र लगाने के निमित्त बनना है। हर स्थान पर आप समान निमित्त बनाते जाओ और आगे बढ़ते जाओ। उसी स्थान पर बैठ न जाओ। तो इस वर्ष चक्र लगाते विशेष सेवा यह करनी है। सन्देश देते आप समान निमित्त बनाते सारे विश्व को तथा स्वयं के आसपास वालों को सन्देश देना है। अब हैण्डस बनाने का कर्त्तव्य करो। समय प्रमाण जैसे समय की गति तीव्र होती जा रही है, ऐसी सेवा की रिजल्ट का प्रत्यक्ष फल बनी बनाई निमित बनने वाली आत्माएँ सहज ही निकल सकती हैं। सिर्फ लक्ष्य, हिम्मत और परख चाहिए।

जैसे कल्प पहले का गायन है - पाण्डवों ने तीर मारा और जल निकला अर्थात् पुरूषार्थ किया और फल निकला। अब प्रत्यक्ष फल का समय है। सीजन है, समय का वरदान है। इसका लाभ उठाओ। अपने साधनों व अपने प्रति समय व सम्पत्ति का त्याग करो, तब यह प्रत्यक्ष फल का भाग्य प्राप्त कर सकेंगे। स्वयं को आराम, स्वयं के प्रति सेवा-अर्थ अर्पण की हुई सम्पत्ति लगाने से कभी सफलता नहीं मिलेगी। जैसे सेवा के प्रारम्भ में अपने पेट की रोटी भी कम करके हर वस्तु को सेवा में लगाने से उसका प्रत्यक्ष फल आप आत्मायें हो। ऐसे मध्य में बाप ने ड्रामा ने सहज साधनों को स्वयं के प्रति लगाने का अनुभव भी कराया है। लेकिन अब अन्त में प्रकृति दासी होते हुए भी सर्व साधन प्राप्त होते हुए भी स्वयं के प्रति नहीं लेकिन सेवा के प्रति लगाओ। क्योंकि अब आगे चलकर अनेक आत्मायें साधन और सम्पत्ति आपके आगे ज्यादा से ज्यादा अर्पण करेंगी। लेकिन स्वयं के प्रति स्वीकार कभी नहीं करना। स्वयं के प्रति स्वीकार करना अर्थात् स्वयं को श्रेष्ठ पद से वंचित करना। इसलिए ऐसे त्यागमूर्त बन सेवा का प्रत्यक्ष फल निकालो। समझा? अब निमित बनने वाले वारिसों का और सेवा में सहयोगी बनने वालों का गुलदस्ता बाप के आगे भेंट करो। तब कहेंगे विश्व-कल्याणकारी, सो विश्व-राज्य अधिकारी। इस पर प्राईज मिलेगी। पिछली बार की रिजल्ट नहीं आयी है जो प्राईज दें। इसलिए इस बारी पुरूषार्थ करके फिर से डबल प्राईज लो।

अच्छा ऐसे विल करने वाले, वन नम्बर में आने वाले, प्रत्यक्ष फल देने वाले, बाप को प्रख्यात करने वाले, शक्ति सेना और पाण्डव सेना का झण्डा लहराने वाले और विश्व के आगे बापदादा का जय-जयकार कराने के निमित्त बनने वाली विजयी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!

अव्यक्त वाणी का सार

1. हर एक अपने आपको देखे कि इस समय भी मुझ आत्मा को सर्व आत्माएँ, जो भी सम्पर्क में आने वाली हैं, वे श्रेष्ठ अर्थात् पूज्यता की नजर से देखती हैं?

2. अपने सब सब्जेक्ट्स के खाते को चेक करो कि कहाँ तक जमा किया है व मन, वाणी और कर्म द्वारा कहाँ तक हर सब्जेक्ट को सम्पन्न किया है? चेक करेंगे तब ही सम्पन्न बनने का पुरूषार्थ कर सकेंगे।

3. जैसे स्थूल जायदाद पर अधिकार होने के कारण जिस समय चाहो, उस समय उसी वस्तु को काम में लगा सकते हो। ऐसे ही ईश्वरीय जायदाद को जिस समय चाहो और जिस शक्ति को चाहो, उसे काम में लगा सकते हो।



11-02-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


माया से युद्ध करने वाले पाण्डवों के लिए धारणाएं

पाण्डव पति शिव बाबा बोले -

पाण्डवों के लिये जो कल्प पहले का गायन है, क्या वह सब विशेषतायें वर्तमान समय जीवन में अनुभव होती हैं? यह जो गायन है कि उन्होंने पहाड़ों पर स्वयं को गलाया-इसका रहस्य क्या है? किस बात में गलाया? सूक्ष्म बात का ही यादगार स्थूल रूप में होता है। जैसे चैतन्य का यादगार स्थूल में होता है, वैसे ही सूक्ष्म को स्पष्ट करने के लिये दृष्टान्त दिया जाता है। स्वयं को सफलता मूर्त बनाने के निमित्त पुरूषार्थियों के पुरूषार्थ में जो विघ्न सामने आते हैं, उन विघ्नों के कारण क्या स्वयं को सफलतामूर्त नहीं बना सकते हैं? या बार-बार उसी स्वभाव व संस्कार के कारण असफलता होती है जिसको निजी संस्कार व नेचर कहा जाता है। तो ऐसे निजी संस्कारों को गलाना अर्थात् स्वयं को गलाना कि देखने या सम्पर्क में आने वाले यह महसूस करें कि इस आत्मा ने स्वयं को गलाया है। इसमें सफलता है!

ड्रामा प्रमाण जितना सहजयोगी, श्रेष्ठ योगी और सफलतामूर्त बनने की सेल्वेशन प्राप्त है, उतना ही रिटर्न दिया है? वातावरण की भी सेल्वेशन है तो इसका रिटर्न वातावरण को पॉवरफुल बनाकर रखने में, सहयोगी बनने में रिटर्न दो। साथ-साथ श्रेष्ठ संग है, यह भी सेलवेशन है तो जो भी आत्मायें अपना भाग्य प्राप्त करने के लिए आती हैं उन्हों को भी अपने संग की श्रेष्ठता का अनुभव हो। यह है रिटर्न। सब अनुभव करें कि यह सब आत्मायें संग के रंग में रंगी हुई हैं। श्रेष्ठ बनेंगे रूहानी संग से और अपने चरित्रों द्वारा। अपने कर्मयोगी की स्टेज द्वारा और अपने गुणमूर्त स्वरूप द्वारा आने वाली आत्माओं का इग्जॉम्पल बन, साधन बन उनकी सहज प्राप्ति का साधन बन जाओ। आपका प्रैक्टिकल साकार स्वरूप का सैम्पल देख उनमें विशेष उमंग उत्साह रहे। सदैव हर बात में यही संकल्प रखना चाहिए कि हर कार्य में, हर प्रैक्टिकल सबूत के पहले हम सैम्पल है। हर ब्त में हम सैम्पल हैं। जब ऐसा लक्ष्य आगे रखेंगे तब ही पुरूषार्थ की गति को तीव्र कर सकेंगे। भले ही आराम के साधन प्राप्त हैं, परन्तु आराम पसन्द नहीं बन जाना है। पुरूषार्थ में भी आराम पसन्द न होना अर्थात् अलबेला न होना है। आराम के साधनों का एडवान्टेज (लाभ) सदाकाल की प्राप्ति का विघ्न रूप नहीं बनाना। यह अटेन्शन रखना है। अगर किसी भी प्रकार की सिद्धि अथवा प्राप्ति को स्वीकार किया तो वहाँ कम हो जायेगा। साधन मिलते हुए भी उसका त्याग। प्राप्ति होते हुए भी त्याग करना उसको ही त्याग कहा जाता है। जब कि है ही अप्राप्ति, उसको त्याग दो तो यह मजबूरी हुई न कि त्याग। इतना अटेन्शन, अपने ऊपर रखते हो अथवा सहजयोग का यह अर्थ समझते हो कि सहज साधनों द्वारा योगी बनना है। हर बात में अटेन्शन रहे। रिटर्न देना अर्थात् आगे के लिए कट करना। खत्म करना। माइनस हो रहा है अथवा प्लस, हो रहा है यह चेक (जाँच) करना है। अच्छा।



02-08-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विदेश में ईश्वरीय सेवा का महत्व

डबल विदेशी बच्चों के लिये विदेशी बनने वाले ज्योर्तिमय ब्रह्म महातत्व के वासी शिव बाबा बोलेः-

बाप-दादा के सम्मुख कौनसे बच्चे सदा रहते हैं? सदा सम्मुख रहने वाले बच्चों की विशेषता क्या है? ऐसे विशेष आत्माओं के प्रति बापदादा को विशेष रूप से मिलन मनाना होता है। ऐसे बच्चों को नयनों के सितारे व जहान के नूर कहा जाता है। जैसे स्थूल शरीर के अन्दर सबसे विशेष और सदा आवश्यक अंग नयन हैं। नयन नहीं तो जहान नहीं। इसी प्रकार ऐसे बच्चे इतने विशेष गाये हुए हैं। ऐसे बच्चे सर्विसएबल होने के कारण विश्व के लिये व जहान के लिए नूर अर्थात् प्रकाश व ज्योति के समान हैं। जैसे जान (शरीर) के लिए नयन आवश्यक हैं वैसे ही जहान के लिए नूर आवश्यक हैं। अगर ऐसी आत्मायें निमित्त नहीं बनें तो जहान जंगल बन जाता है अर्थात् जहान, जहान नहीं रहता। ऐसे सदा स्वयं को भी सितारा ही समझकर कर्म करते हैं? सितारा भी चमकता हुआ सितारा। ऐसे बच्चे ही बापदादा के नयनों में समाये हुए अर्थात् बाप की लगन में सदा मग्न रहने वाले हैं। साथ-साथ उनके नयनों में भी सदा बापदादा समाया हुआ रहता है। ऐसे नयनों के नूर सिवाय बाप के और कोई भी व्यक्ति व वस्तु को देखते हुए भी नहीं देखते। ऐसी स्थिति बनी है अथवा अब तक भी और कुछ दिखाई देता है? किसी में भी अंश-मात्र कोई रस दिखाई देता है? असार संसार अनुभव होता है? यह सब मरे ही पड़े है - ऐसा बुद्धि द्वारा अनुभव होता है? मुर्दों से कोई प्राप्ति की इच्छा हो सकती है, क्या कोई सम्बन्ध की अनुभूति होती है? ऐसे इच्छा मात्रम् अविद्या, सदा एक के रस में रहने वाले, एक रस स्थिति वाले बन चुके हो अथवा अब तक भी मुर्दों से किसी प्रकार की प्राप्ति की कामना है या कोई विनाशी रस अपनी तरफ आकर्षित करते हैं? जब तक कोई प्राप्ति की इच्छा व कामना है या कोई रस का आकर्षण है तो बापदादा  के नयनों के सितारे नहीं बन सकते व सदा नयनों में बापदादा समा नहीं सकते। एक हैं ऐसी विशेष आत्मायें जिन्हों को नूरे-रत्न व नयनों के सितारे व जहान के नूर कहते हैं। तो फर्स्ट नम्बर में तो नयनों के नूर हैं।

सेकेण्ड नम्बर क्या है? जैसे नूरे रत्न प्रसिद्ध हैं। नूरे जहान व जहान के नूर, इसी प्रकार सेकेण्ड नम्बर वाले किस रूप में प्रसिद्ध हैं? भुजाओं के रूप में! ब्रह्मा की भुजायें अनेक दिखाते है। सेकेण्ड नम्बर वाली भुजायें ज़रूर हैं अर्थात् सहयोगी आत्मायें हैं।

तो स्वयं को फर्स्ट नम्बर में समझते हो या सेकेण्ड नम्बर के? लण्डन का ग्रुप कौन से नम्बर में है? जबकि डबल विदेशी ग्रुप ने बापदादा का विशेष आह्वान किया है। विदेशी तो सब हैं लेकिन यह डबल विदेशी हैं। तो डबल विदेशियों को विशेष रूप से बापदादा का शो करना पड़े। वह तब कर सकेंगे जब नयनों के नूर बनेंगे। भुजायें नहीं। विदेशियों को सर्विस का नया प्लैन बनाना चाहिए। जैसे भारत में निवास करने वाली सर्विसएबल आत्मायें नई-नई इन्वेन्शन निकालती है। ऐसे डबल विदेशियों ने क्या इन्वेन्शन निकाली है? जैसे भारत में निकली हुई विदेश में भी करते हो वैसे विदेश की इन्वेन्शन फिर भारत में हो। जैसे प्रदर्शनी, फेयर, प्रोजेक्टर-शो व गीता पाठशालायें, यह भारत में निवास करने वालों की इन्वेन्शन हैं। ऐसे विदेशियों ने क्या इन्वेन्शन की है? (मौरीशस में प्राइममिनिस्टर को बुलाया था) किसी को बुलाना - यह भी यहाँ से शुरू हुआ है लेकिन उसको प्रैक्टिकल में वहाँ लाया है। भारत ने प्रैक्टिकल नहीं किया। यह तो ठीक है, जो कुछ किया है उसके लिए बापदादा धन्यवाद कहते हैं। लेकिन वहाँ से कोई नयी इन्वेन्शन निकली है? विदेशियों को ऐसी कोई विहंग-मार्ग की सर्विस इन्वेन्शन विदेश के वातावरण-प्रमाण निकालनी है, जो थोड़े समय के अन्दर विदेश में सन्देश पहुँच जाए। टी.वी. व रेडियो में आप लोगों का आता है वह तो वहाँ के लिए कॉमन बात है। जैसे आपका आता है वैसे औरों का भी आता है। इण्डिया में यह बड़ी बात है। लेकिन यही बात कई स्थानों में कॉमन है। तो जितना पुरूषार्थ किया है, थोड़े समय में हिम्मत, उमंग, उत्साह दिखलाते हुए सर्विस को आगे बढ़ाया है उसके लिये बापदादा लास्ट इज फास्ट का टाइटल तो देते ही हैं। लेकिन अब आपस में सब विदेशी मिल कर ऐसी नई इन्वेन्शन निकालो जो विदेश में इतना फोर्स का आवाज हो जो वह भारतवासियों तक पहुँचे। विदेश की सर्विस का मूल फाउण्डेशन ही यह है कि विदेश की आवाज द्वारा भारत के कुम्भकरण जागेंगे। विदेश-सर्विस की एम ऑब्जेक्ट यह है। विदेश का विदेश में दिखाया यह कोई बड़ी बात नहीं है। उस लक्ष्य से विदेश की सेवा ड्रामा में नूंधी हुई है और अब तक भी कोई भी इन्वेन्शन का आवाज विदेश से ही होता आया है। इन्वेन्शन भारत की ही होती है, लेकिन भारत-वासी भारत की इन्वेन्शन को विदेशियों द्वारा ही मानते आये हैं। ऐसे ही यह ईश्वरीय प्रत्यक्षता की आवाज विदेश सर्विस ही भारत में नाम-बाला करेगी। तो विदेशी इस कार्यार्थ निमित्त बने हुए हैं। इसलिये अब ऐसी इन्वेन्शन निकालो। कोई ऐसी आत्मा को निमित्त बनाओ जिनके अनुभव का आवाज हो, मुख का आवाज नहीं। अनुभव का आवाज विदेश से भारत तक पहुँचे। अन्तिम समय में विदेश सेवा को इतना महत्व क्यों दिया है, जबकि जाने वालों का भी संकल्प होता है कि ऐसे नाज़ुक व नजदीक समय पर विदेश में क्यों भेजा जाता है? जबकि अन्त में विदेश से भारत में ही आना है। फिर भी विदेश सेवा आगे बढ़ रही है। अच्छे- अच्छे हैण्डस विदेश-सेवार्थ भेजे जा रहे हैं, जबकि भारत में आवश्यकता है। निमन्त्रण हैं - फिर भी क्यों भेजा जा रहा है? और यह भी जानते हैं कि अन्य मत मतान्तरों का स्वर्ग में आने का पार्ट नहीं है, लेकिन जो ट्रॉन्सफर हो गये हैं, व कन्वर्ट हो गये हैं उन आत्माओं को अपने आदि धर्म में लाने के लिये भेजा जाता है जो बहुत थोड़े होंगे। इसका मूल आधार व विदेश सर्विस की एम-आब्जेक्ट यह है कि विदेश द्वारा भारत तक आवाज पहुँचने का राज ड्रामा में नूंधा हुआ है। इसलिए विदेश की सर्विस को फर्स्ट चान्स दिया हुआ है। बाकी गीता पाठशालायें खोलीं व टी.वी. में बोला वह कोई एम-आब्जेक्ट नहीं। वह सब साधन हैं एम-आब्जेक्ट तक पहुँचने का। समझा? तो अब आपस में ऐसी राय करो कि जल्दी से जल्दी भारत तक आवाज़ कैसे फैलावें? विदेश द्वारा भारत में आवाज कैसे हो?

आज खास विदेशियों के लिये बापदादा को भी विदेशी बनना पड़ा है। बापदादा विदेशी न बनते तो मिल भी न सके। विदेशी विशेष आत्मायें, जोकि विशेष कार्य के निमित्त बनी हुई हैं, ऐसे होवनहार ग्रुप को देखने के लिए व साकार रूप में मिलने के लिये निराकार और आकार को भी साकार रूप का आधार लेना पड़ा। ऐसी विशेष आत्मायें सदा अपने को विशेष आत्मा समझते हुए मनसा, वाचा, कर्मणा विशेष संकल्प, वाणी और कर्म करते रहो। दोनों ही तरफ के ग्रुप्स अच्छे हैं। आप लोगों के निमित्त अन्य आत्माओं को भी चान्स मिल गया और सब आत्मायें, उसमें भी विशेष मधुबन निवासी अपने को सदा लकीएस्ट समझो। क्योंकि सिवाय मधुबन के बापदादा कहाँ भी मिलन नहीं मना सकते। (लुसाका में क्यों नहीं आते) आकारी रूप में यहाँ-वहाँ जा सकते हैं। जब जिसका समय आता है तो सरकमस्टेन्सेज (परिस्थितियाँ) व समय सहज और स्वत: ही वहाँ ले जाता है। अच्छा।

स्वयं को और समय को जानने वाले, सदा सर्व रसों से न्यारे एक रस में रहने वाले, बापदादा को सदा नयनों में समाने वाले, बापदादा के नयनों के सितारे, सदा स्वयं को ज्योति स्वरूप सितारा समझकर चलने वाले, न्यारी और प्यारी आत्माओं और सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के साथ-साथ विशेष डबल विदेशी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली के विशेष तथ्य

1. पहले नम्बर के बच्चों को नयनों के नूर कहा जाता है। ऐसे नयनों के नूर सिवाय बाप के और कोई भी वस्तु व व्यक्ति को देखते हुए भी नहीं देखते। यह सब मरे ही पड़े हैं ऐसा बुद्धि द्वारा अनुभव करते हैं? कोई भी विनाशी रस अपनी तरफ आकर्षित नहीं करता। सदा एक के रस में रहने वाले, एक-रस स्थिति वाले होते हैं। ऐसे बच्चे सर्विसेबल होने के कारण विश्व के लिए व जहान के लिए नूर अर्थात् प्रकाश व अमर ज्योति के समान हैं।

2. विदेश की सर्विस का मूल फाउण्डेशन यह है कि विदेश की आवाज द्वारा भारत के कुम्भकरण जागेंगे। विदेश द्वारा भारत तक आवाज पहुँचने का राज़ ड्रामा में नूंधा हुआ है।

3.सदा अपने को विशेष आत्मा समझते हुए मनसा, वाचा, कर्मणा विशेष संकल्प, वाणी और कर्म करते



03-08-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शिव-शक्ति व पाण्डव सेना को तैयार होने के लिये सावधानी

माया से युद्ध में विजय प्राप्त कराने वाले, सर्व आत्माओं का कल्याण करने वाले, सर्व प्रकार के बन्धनों व आकर्षणों से परे रहने वाले, सर्वोच्च सेनापति शिव बाबा ने रूहानी योद्धाओं के प्रति मनोहर शिक्षायें व सावधानियाँ देते हुए ये मधुर और अनमोल महावाक्य उच्चारे -

सभी योग-युक्त और युक्तियुक्त स्थिति में स्थित होते हुए अपना कार्य कर रहे हैं? क्योंकि वर्तमान समय-प्रमाण संकल्प, वाणी और कर्म ये तीनों ही युक्तियुक्त चाहिए। तब ही सम्पन्न व सम्पूर्ण बन सकेंगे। चारों तरफ का वातावरण योग-युक्त और युक्तियुक्त हो। जैसे युद्ध के मैदान में जब योद्धे युद्ध के लिये दुश्मन के सामने खड़े हुए होते हैं तो उनका अपने ऊपर और अपने शस्त्र के ऊपर अर्थात् अपनी शक्तियों के ऊपर कितना अटेन्शन रहता है। अभी तो समय समीप आता जा रहा है, यह मानो युद्ध के मैदान में सामने आने का समय है। ऐसे समय में चारों ओर सर्व-शक्तियों का स्वयं में अटेन्शन चाहिए। अगर जरा भी अटेन्शन कम होगा तो जैसे-जैसे समय-प्रमाण चारों ओर टेन्शन बढ़ता जाता है ऐसे ही चारों ओर टेन्शन के वातावरण का प्रभाव, युद्ध में उपस्थित हुए रूहानी पाण्डव सेना में भी पड़ सकता है। दिनप्रतिदिन जैसे सम्पूर्णता का समय नजदीक आता जायेगा तो दुनिया में टेन्शन और भी बढ़ेगा, कम नहीं होगा। खींचातान के जीवन का चारों ओर अनुभव होगा जैसे कि चारों ओर से खींचा हुआ होता है। एक तरफ से प्रकृति की छोटी-छोटी आपदाओं का नुकसान का टेन्शन, दूसरी तरफ इस दुनिया की गवर्नमेन्ट के कड़े लॉज का टेन्शन, तीसरी तरफ व्यवहार में कमी का टेन्शन, और चौथी तरफ जो लौकिक सम्बन्धी आदि से स्नेह और फ्रीडम होने के कारण खुशी की भासना अल्प काल के लिये रहती है वह भी समाप्त हो कर भय की अनुभूति के टेन्शन में, चारों ओर का टेन्शन लोगों में बढ़ना है। चारों ओर के टेन्शन में आत्मायें तड़फेंगी। जहाँ जायेंगी वहाँ टेन्शन। जैसे शरीर में भी कोई नस खिंच जाती है तो कितनी परेशानी होती है। दिमाग खिंचा हुआ रहता है। ऐसे ही यह वातावरण बढ़ता जायेगा। जैसे कि कोई ठिकाना नजर नहीं आयेगा कि क्या करें? अगर हाँ करे तो भी खिंचावट - ना करें तो भी खिंचावट - कमायें तो भी मुश्किल, न कमायें तो भी मुश्किल। इकठ्ठा करें तो भी मुश्किल, न करे तो भी मुश्किल। ऐसा वातावरण बनता जायेगा। ऐसे टाइम पर चारों ओर के टेन्शन का प्रभाव रूहानी पाण्डव सेना पर न हो। स्वयं को टेन्शन में आने की समस्यायें न भी हों, लेकिन वातावरण का प्रभाव कमज़ोर आत्मा पर सहज ही हो जाता है। भय का सोच कि क्या होगा? कैसे होगा? इन बातों का प्रभाव न हो - उसके लिये कोई-न-कोई बीच-बीच में ईश्वरीय याद की यात्रा का विशेष प्रोग्राम मधुबन द्वारा ऑफिशियल जाते रहना चाहिए। जिससे कि आत्माओं का किला मजबूत रहेगा। आजकल सर्विस भी बहुत बढ़ेगी। लेकिन बढ़ने के साथ-साथ युक्ति-युक्त भी बहुत चाहिए।

आजकल कोई सभी ज्ञानी तू आत्मा बनने नहीं आते हैं। एक क्वालिटी  है बाप समान बनने वाली, जो बाप स्वरूप मास्टर बन जाते हैं। तो फर्स्ट क्वॉलिटी है बाप समान बनना, दूसरी क्वालिटी है सिर्फ बाप के सम्बन्ध में रहने वाले और तीसरी क्वालिटी है सिर्फ बाप व सेवा के सम्पर्क में रहने वाले। आजकल सम्बन्ध और सम्पर्क में रहने वाले ज्यादा आयेंगे। स्वरूप बनने वाले कम आयेंगे। सब एक जैसे नहीं निकलेंगे। दिन-प्रतिदिन क्वालिटी भी कमज़ोर आत्माओं अर्थात् प्रजा की संख्या ज्यादा आयेगी उन्हें एक ही बात अच्छी लगेगी, दो नहीं लगेगी। सब बातों में निश्चय नहीं होगा। तो सम्पर्क वालों को भी, उन्हों को जो चाहिए-उसी प्रमाण उन्हों को सम्पर्क में रखते रहना है। समय जैसे नाज़ुक आता जायेगा वैसे समस्या प्रमाण भी उनके लिये रेग्युलर स्टुडेण्ट बनना मुश्किल होगा। लेकिन सम्पर्क में ढेर के ढेर आयेंगे। क्योंकि लास्ट समय है न। तो लास्ट पोज कैसा होता है? जैसे पहले उछल, उमंग, उत्साह होता है - वह विरला कोई का होगा। मैजॉरिटी सम्बन्ध और सम्पर्क वाले आयेंगे। तो यह अटेन्शन चाहिए। ऐसे नहीं कि सम्पर्क वाली आत्माओं को न परखते हुए सम्पर्क से भी उन्हें वंचित कर देवें। खाली हाथ कोई भी न जाये, नियमों पर भल नहीं चल पाते हैं, लेकिन वह स्नेह में रहना चाहते हों, तो ऐसी आत्माओं का भी अटेन्शन ज़रूर रखना है। समझ लेना चाहिए कि यह ग्रुप इसी प्रमाण तीसरी स्टेज वाला है, तो उन्हों को भी उसी प्रमाण हैंडलिंग मिलनी चाहिए। तो समय के प्रमाण वातावरण को पावरफुल बनाने की आवश्यकता है।

ब्राह्मण बच्चों की साधारण रीति से दिनचर्या बीते वह आजकल के समय प्रमाण न होना चाहिये, नहीं तो वह प्रभाव बढ़ जायेगा। इसलिये विशेष रीति से वातावरण को याद की यात्रा से पावरफुल बनाने में सब बच्चों का अटेन्शन खिंचवाना चाहिए। अपने को उस दुनिया के वातावरण से कैसे बचा सकें? वह स्टेज क्या है? कर्म योगी होते हुए भी योगीपन की स्टेज किसको कहा जाता है? इसी प्रकार की प्वाइण्ट्स के ऊपर अब विशेष अटेन्शन देना है। क्योंकि अब ड्रामानुसार चारों ओर बड़ी-बड़ी सर्विस करने का टाइम कुछ समय के लिये मर्ज है ना। बड़े-बड़े प्रोग्रामस बाहर के नहीं कर पाते हो-तो टीचर्स फ्री हुई-बाहर की सर्विस नहीं तो बाकी रही सेन्टर्स पर आने वालों की सेवा। बाहर की सर्विस से बुद्धि फ्री है। नहीं तो कहते हैं बहुत बिजी रहते हैं - प्लैन्स बनाना, मंथन करना। लेकिन अब तो वह भी नहीं है। तो अब याद की यात्रा की सब्जेक्ट के ऊपर ज्यादा अटेन्शन देना है। कोई-न-कोई प्रोग्राम हर सेन्टर पर चलना चाहिए-जो आने वालों में बल भर जाये। ऐसे समय पर वह भी न्यारे रहे, साक्षी होकर समस्या का सामना करें। उसके लिये याद का बल चाहिए। तो जब तक बाहर की सर्विस का, नये-नये प्लैन्स का फोर्स कम है तो कोई प्वाइन्ट का जोर होना चाहिए। नहीं तो फ्री होकर फिर व्यर्थ का साइड ज्यादा हो जायेगा। सर्विस में बिजी रहने से व्यर्थ की बातों से बचे रहते हैं। अभी वह सर्विस का स्कोप कम है, तो ज़रूर समय बचेगा-वह फिर व्यर्थ वातावरण में समय जायेगा। इसलिये ब्राह्मणों को खबरदार, होशियार करने के लिये व स्वयं की सेफ्टी के लिये कुछ ऐसी प्वाइन्ट्स व क्लासेज के प्रोग्राम्स बनाओ, जिससे वह यह समझें कि हमें मधुबन लाइट हाऊस से विशेष लाइट आ रही है। अच्छा।

कारोबार तो ड्रामानुसार ठीक ही चल रही है। अभी की कारोंबार से राज्य चलाने के संस्कार बढ़ते जा रहे हैं ना। राज-सिंहासन और यह है राज-आसन। राज्य करने वाले बनकर फिर उस सिंहासन पर बैठेंगे। राज्य करने वाले अर्थात् अधिकारी बन गये। कोई भी आकर्षण के, कर्म भोग या कर्म इन्द्रियों के अधीन न हो अधिकारी बनना है। अभी है राज-आसन। योग के लिये आसन होता है ना, आसन पर स्थित होते हैं। आसन होता ही है बैठने के लिये, स्थिति होने के लिये। तो स्थिति में स्थित होना अर्थात् आसन पर बैठना। तो जितना-जितना आसन पर बैठने का अभ्यास होगा, उतना ही राज-सिंहासन पर बैठने का अभ्यास प्राप्त होगा। अभ्यास हो रहा है ना। नैचुरल रूप लेता जा रहा है। करना नहीं पड़ता, लेकिन हो ही जाता है। स्वभाव ही ऐसा हो गया है। जैसे और कोई स्वभाव के वश कोई भी कार्य करना स्वत: हो ही जाता है, वैसे ही यह भी स्वभाव हो जाये। अधिकारी बने रहने का स्वभाव। योग लगाने का संकल्प किया और हुआ। बाबा कहा और योग लगा। यही समीपता की स्थिति है। बैठे ही आसन पर हैं। जैसे सिंहास पर बैठा हुआ कब भूल नहीं सकता कि मैं राजा हूँ - ऐसे ही आसन पर अर्थात् इस स्थिति पर स्थित हुआ यह भूल नहीं सकता कि हम अधिकारी हैं।

सभी यथार्थ और युक्ति-युक्त हैं? थोड़ा-बहुत तो होता ही है और होना भी चाहिए। नहीं तो लास्ट पेपर्स कैसे होंगे? यह भी प्रैक्टिकल पेपर्स  ही हैं। यह पेपर्स ही मार्क्स जमा कराते हैं। मार्क्स जमा होते-होते पास विद ऑनर की लिस्ट में आयेंगे। यह जो कुछ होता है वह पेपर्स के मार्क्स जमा होने के लिए हैं। सब बातों में जमा होना चाहिए न सिर्फ याद की यात्रा में नहीं, लेकिन चारों सब्जेक्टस में मार्क्स जमा होनी चाहिए। तब ही पास विद ऑनर होंगे।

सफलता तो हर कार्य में पहले से ही नूंधी हुई है। फिर चाहे पर्दे के अन्दर हो, चाहे पर्दे के बाहर हो। कोई हालत में पर्दे के अन्दर सफलता होती है और कोई हालत में प्रत्यक्ष सफलता होती है। है तो दोनों हालत में सफलता व प्रत्यक्षता। कुछ समय गुप्त को भी देखना पड़ता है। छिपे हुए को प्रत्यक्ष होने में कुछ समय लगता है। प्रत्यक्ष तो उसी समय दिखाई पड़ती है। यह भल छुपी हुई है, परन्तु है तो सफलता ही। वह तो मिट नहीं सकती। अच्छा।



29-08-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अब विधि की स्टेज पार कर सिद्धि-स्वरूप बनना है

सर्व रिद्धि-सिद्धियों के दाता, सर्व मनोकामनाओं को परिपूर्ण करने वाले, महादानी-मूर्त, वरदानी मूर्त और अव्यक्त-मूर्त बापदादा बोले -

आज कौन-सी सभा लगी हुई है? स्वयं को किस स्वरूप में वर्तमान समय देख रहे हो? यूँ तो जैसे बापदादा बहुरूपी है वैसे ही आप सब भी बहुरूपी हो। लेकिन इस समय किस स्वरूप को धारण कर इस सभा में बैठी हो? यह जानते हो कि आज की सभा किन्हों की है? बताओ तो वर्तमान समय दुनिया के लोग आप श्रेष्ठ आत्माओं के कौनसे स्वरूप का आह्वान कर रहे हैं? आप सब श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान करते हैं व एक आत्मा का। किसका आह्वान करते हैं? आपका किस स्वरूप में वर्तमान समय आह्वान करते हैं? अभी दुनिया में कौन-सा समय चल रहा है? आह्वान किसका चल रहा है? वर्तमान समय दो रूपों से आह्वान कर रहे हैं। देखो तो वे आप लोगों का ही आह्वान कर रहे हैं और आप लोगों को मालूम ही नहीं पड़ता।

इस समय सबसे ज्यादा वरदानी व विश्व-कल्याणकारी दाता के रूप में आप सब श्रेष्ठ आत्माओं का चारों ओर आह्वान हो रहा है, क्योंकि भक्ति मार्ग द्वारा व भक्ति के आधार से, यथाशक्ति, श्रेष्ठ कर्मो के द्वारा जो भी अल्पकाल के साधन व सामग्री अर्थात् वैभव आज की दुनिया में प्राप्त हैं - उन सब का अल्पकाल की प्राप्ति का सिंहासन डगमगाना शुरू हो गया है। जब कोई का आधार रूप सिंहासन हिलना शुरू होता है, तो उस समय क्या याद आता है? ऐसे समय सदा काल की प्राप्ति कराने वाले व सुख चैन देने वाले बाप और साथ-साथ शिव शक्तियाँ व महादानी वरदानी देवियाँ ही याद आती हैं, क्योंकि देवियों अथवा माताओं का ह्दय स्नेही और रहमदिल होने के कारण वर्तमान समय माता के रूप का पूजन या आह्वान ज्यादा करते हैं। सिद्धि-स्वरूप अर्थात् सर्व कार्य सिद्ध करने वाली आत्माओं का आह्वान वर्तमान समय ज्यादा है।

आजकल सर्व परेशानियों से परेशान निर्बल आत्मायें, मंज़िल को ढूँढ़ने वाली आत्मायें और सुख-शान्ति की प्राप्ति के लिये तड़फती हुई आत्मायें पुरूषार्थ की विधि नहीं चाहतीं, बल्कि विधि के बजाय सहज सिद्धि चाहती हैं। सिद्धि के बाद विधि के महत्व को जान सकेंगी। ऐसी आत्माओं को आप विश्वकल् याणकारी आत्मा का कौन-सा  स्वरूप चाहिए? वर्तमान समय चाहिए प्रेम स्वरूप। लॉफुल नहीं, लेकिन लवफुल पहले लव दो फिर लॉ दो। वे लव के बाद लॉ को भी स्नेह का साधन अनुभव करेंगे क्योंकि बाहर के रूप की चमक वाली दुनिया में व विज्ञान के युग में विज्ञान के साधन बहुत ही हैं, लेकिन जितना भिन्न-भिन्न प्रकार के अल्पकाल की प्राप्ति के साधन निकलते जाते हैं उतना ही सच्चा स्नेह व रूहानी प्यार, स्वार्थ-रहित प्यार समाप्त होता जा रहा है। आत्माओं से स्नेह समाप्त हो, साधनों से प्यार बढ़ता जा रहा है। इसलिए कई प्रकार की प्राप्ति के होते हुए भी स्नेह की अप्राप्ति के कारण सन्तुष्ट नहीं। और भी दिन-प्रतिदिन यह असन्तुष्टता बढ़ेगी। महसूस करेंगे कि यह साधन मंज़िल से दूर करने वाले, भटकाने वाले हैं! ये आत्मा को तड़फाने वाले हैं। अर्थात् जैसे कल्प पहले का गायन है कि अन्धे की औलाद अन्धे, मृग तृष्णा के समान सर्व प्राप्ति से वंचित ही रहे। ऐसा अनुभव समय-अनुसार चारों ओर करेंगे।

ऐसे समय पर ऐसी आत्माओं की सर्व मनोकामनायें पूर्ण करने वाली व मन- इच्छित प्रत्यक्ष फल देने वाली कौनसी आत्मायें निमित्त बनेंगी? जो स्वयं सिद्धि स्वरूप हों, दिन-रात विघ्नों के मिटाने की विधि में न हों। स्वयं बापदादा द्वारा मिले हुए प्रत्यक्ष फल (भविष्य फल नहीं) - अतीन्द्रिय सुख व सर्व-शक्तियों के वरदान प्राप्त हुई वरदानी-मूर्त आत्मायें होंगी। स्वयं पुकारने वाले नहीं होंगे कि बाबा यह कर दो, यह दे दो! रॉयल रूप से मांगने का अंश भी नहीं होगा। बाबा यह काम आपका है-आप तो करेंगे ही! ऐसे स्वयं करने वाले को स्मृति दिलाकर अपने समान मानव नहीं बनायेंगे क्योंकि कहने से करने वाला मनुष्य गिना जाता है। बिना कहे, करने वाला देवता गिना जाता है। देवताओं के भी रचयिता को क्या बना देते हो? ऐसे मास्टर सर्वशक्तिवान् सर्व-अधिकारी आत्माएँ औरों को भी सहज सिद्धि प्राप्त करा सकती हैं।

अपने को चेक करो, साधारण चेकिंग नहीं। चेकिंग भी समय प्रमाण सूक्ष्म रूप से होनी चाहिए। वर्तमान समय के प्रमाण यह चेक करो कि हर सब्जेक्ट में विधिस्वरूप कितने हैं और सिद्धि-स्वरूप कितने हैं? अर्थात् हर सब्जेक्ट में विधि में कितना समय जाता और सिद्धि का कितना समय अनुभव होता है? चारों ही सब्जेक्ट्स में मन्सा, वाचा, कर्मणा तीनों रूप में किस स्टेज तक पहुँचे हैं? यह चेकिंग करनी है।

अभी महारथियों के लिये विधि का समय नहीं है बल्कि सिद्धि-स्वरूप के अनुभव करने का समय है। नहीं तो वर्तमान समय की अनेक परेशानियाँ, अब तक विधि में लगे रहने वाली आत्मा को अपनी शान से परे परेशान के प्रभाव में सहज लायेंगी। इसलिये जैसे गायन है कि पाण्डव अन्त समय में ऊंची पहाड़ी पर गल गए अर्थात् स्वयं देह-अभिमान व दु:ख की दुनिया के प्रभाव से परे ऊंची स्थिति में स्थित हो गये। ऊंची स्थिति में स्थित हो नीचे रहने वालों का साक्षी हो खेल देखो। ऐसी स्थिति में रहने वाला ही समस्या-स्वरूप नहीं लेकिन समाधानस्व रूप हो जायेगा, तो वर्तमान समय ऐसी स्थिति चाहिए। ऐसी है? जरा भी हलचल में तो नहीं आ जाते? क्या होगा, कैसे होगा, हमारा क्या होगा? अचल स्वरूप हो ना? अचल में कोई हलचल नहीं। ऐसी स्थिति वाले ही विजयी रत्न बनेंगे।

बापदादा आज बच्चों की आज्ञा पर आज्ञाकारी का पार्ट बजा रहे हैं। प्रोग्राम प्रमाण नहीं आये हैं - तो फॉलो फादर। कल आत्माओं का आह्वान है, बाप का नहीं! आप लोग भी अपने विश्व-महाराजन् स्वरूप में व विश्व के मालिक पन के बाल स्वरूप में अच्छी तरह स्थित रहना। जिससे आपके अपने-अपने भक्त अल्पकाल के लिए भी दर्शन से प्रसन्न तो हो जायें। और फिर सभी अनुभव सुनाना कि सारे दिन में कितने भक्तों को बाप द्वारा भक्ति का फल दिलाया। अपने भक्तों को राजी तो करेंगे न? एक की यादगार नहीं है, एक के साथ आप सब भी हो। तो कल आप सबकी जन्माष्टमी मनायेंगे। सभी कृष्ण समान देवताई स्वरूप में तो होंगे न? आप सबके देवताई स्वरूप के स्मृति का दिन है। दुनिया वाले मनायेंगे और आप क्या करेंगे? वह मनायेंगे आप मनाने वालों के प्रति महादानी और वरदानी बनेंगे। अच्छा।

ऐसे सागर को भी स्नेह के गागर में समाने वाले, सदा बाप समान सर्व सिद्धि-स्वरूप, हर सेकेण्ड सर्व प्रति विश्व-कल्याणकारी वरदानी, स्वयं द्वारा बाप का साक्षात्कार कराने वाले, साक्षात् बाप स्वरूप साक्षात्कारी मूर्त, सदा निराकारी और सदा सदाचारी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

जैसे फौरेन में लौकिक लाइफ फास्ट रहती है वैसे आत्मा के पुरूषार्थ की स्पीड भी फास्ट है? सेवाधारी हो ना? सेवा के सिवाय और कुछ नहीं, उठते भी सेवा, सोते भी सेवा, स्वप्न भी देखेंगे तो सेवाधारी के रूप में - ऐसे सेवाधारी हो? हर सेकेण्ड, हर श्वांस सेवा प्रति, स्वयं प्रति नहीं। स्वयं के आराम प्रति नहीं, स्वयं के पुरूषार्थ तक नहीं, स्वयं के साथ दूसरों का पुरूषार्थ इसको कहा जाता है सेवाधारी। ऐसे सर्विसएबल का लेबल लगाया है मस्तक में? सर्विसएबल के मस्तक पर कौन-सी निशानी होगी? आत्मा रूपी मणि। मस्तक मणि है - वह चमकती हुई नज़र आये यह है सर्विसएबल का लेबल। अच्छा!

इस मुरली की विशेष बातें

1. इस समय भक्त-गण अधिकतर वरदानी, मनोवांछित फल देने वाली विश्व-कल्याणकारी दाता के रूप में आप सब श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान कर रहे हैं। अतएव अब विधि नहीं सिद्धि-स्वरूप बनो।

2. विज्ञान के युग में बाहरी चमक-दमक वाले साधन तो बहुत हैं, परन्तु सच्चा रूहानी स्नेह व स्वार्थ-रहित प्यार समाप्त होता जा रहा है। अतएव अब समय लॉफुल का नहीं, बल्कि लवफुल (प्रेम स्वरूप) बनने का है।

3. स्वयं देह-अभिमान व दु:ख की दुनिया के प्रभाव से परे ऊंची स्थिति में स्थित हो नीचे रहने वालों का साक्षी हो खेल देखो। तब आप समस्या-स्वरूप नहीं बल्कि समाधान-स्वरूप बन जायेंगे।



01-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


समीप और समान, महीन और महान

सदा ही कर्म-बन्धनों से अतीत शिव बाबा ने बच्चों से कर्मातीत अवस्था को प्राप्त करने का आह्वान करते हुए कहा –

सभी स्वयं को कर्मातीत अवस्था के नज़दीक अनुभव करते जा रहे हो? कर्मातीत अवस्था के समीप पहुँचने की निशानी जानते हो? समीपता की निशानी समानता है। किस बात में? आवाज में आना व आवाज से परे हो जाना, साकार स्वरूप में कर्मयोगी बनना और साकार स्मृति से परे न्यारे निराकारी स्थिति में स्थित होना, सुनना और स्वरूप होना, मनन करना और मग्न रहना, रूह- रूहान में आना और रूहानियत में स्थित हो जाना, सोचना और करना, कर्मेन्द्रियों में आना अर्थात् कर्मेन्द्रियों का आधार लेना और कर्मेन्द्रियों से परे होना, प्रकृति द्वारा प्राप्त हुए साधनों को स्वयं प्रति कार्य में लगाना और प्रकृति के साधनों से समय प्रमाण निराधार होना, देखना, सम्पर्क में आना और देखते हुए न देखना, सम्पर्क में आते कमल-पुष्प के समान रहना, इन सभी बातों में समानता। उसको कहा जाता है-कर्मातीत अवस्था की समीपता।

ऐसी महीनता और महानता की स्टेज अपनाई है? हलचल थी या अचल थे? फाईनल पेपर में चारों ओर की हलचल होगी। एक तरफ वायुमण्डल व वातावरण की हलचल। दूसरी तरफ व्यक्तियों की हलचल। तीसरी तरफ सर्व सम्बन्धों में हलचल और चौथी तरफ आवश्यक साधनों की अप्राप्ति की हलचल। ऐसे चारों तरफ की हलचल के बीच अचल रहना, यही फाइनल पेपर होना है। किसी भी आधार द्वारा अधिकारीपन की स्टेज पर स्थित रहना - ऐसा पुरूषार्थ फाइनल पेपर के समय सफलता-मूर्त बनने नहीं देगा। वातावरण हो तब याद की यात्रा हो, परिस्थिति न हो तब स्थिति हो,अर्थात् परिस्थिति के आधार पर स्थिति व किसी भी प्रकार का साधन हो तब सफलता हो, ऐसा पुरूषार्थ फाइनल पेपर में फेल कर देगा। इसलिए स्वयं को बाप समान बनाने की तीव्रगति करो।

अपने आपको समझते हो कि फाइनल पेपर जल्दी हो जाए तो सूर्यवंशी प्रालब्ध प्राप्त कर लेंगे। इम्तिहान के लिये एवररेड़ी हो? या होना ही पड़ेगा व हो ही जायेंगे? अथवा समय करा लेगा ऐसे अलबेलेपन के संकल्प समर्थ बना नहीं सकेंगे। समर्थ संकल्प के आगे यह भिन्न-भिन्न प्रकार के व्यर्थ व अलबेलेपन के संकल्प खत्म हो जाते हैं। अलबेलापन तो नहीं है न? खबरदार, होशियार हो? एवररेडी अर्थात् अभी-अभी किसी भी परिस्थिति व वातावरण में आर्डर मिले व श्रीमत मिले कि एक सेकेण्ड में सर्व-कर्मेन्द्रियों की अधीनता से न्यारे हो कर्मेन्द्रिय-जीत बन एक समर्थ संकल्प में स्थित हो जाओ, तो श्रीमत मिलते हुए मिलना और स्थित होना साथ-साथ हो जाये। बाप ने बोला और बच्चों की स्थिति ऐसी ही उस घड़ी बन जाये उसको कहते हैं एवररेडी। जो पहले बातें सुनाई समानता की जिससे ही समीपता की स्टेज बनती है - ऐसे सब बातों में कहाँ तक समान बने हैं? यह चैकिंग करो। ऐसे तो नहीं डायरेक्शन को प्रैक्टिकल में लाने में एक सेकेण्ड के बजाय एक मिनट लग जाये। एक सेकेण्ड के बजाय एक मिनट भी हुआ तो फर्स्ट डिवीजन में पास नहीं होंगे, चढ़ते, उतरते व स्वयं को सैट करते फर्स्ट डिवीजन की सीट को गंवा देंगे। इसलिये सदा एवररेडी, सिर्फ एवररेडी भी नहीं, सदा एवररेडी।

वर्तमान समय तक रिजल्ट क्या देखने में आती है, उसको जानते हो? पाण्डव तीव्र पुरूषार्थ की लाईन में हैं या शक्तियाँ? मैजॉरिटी तीव्र पुरूषार्थ की लाइन में कौन हैं? सभी पाण्डव मैजॉरिटी शक्तियों को वोट देते हैं। लेकिन पुरूषार्थ के हिसाब से पाण्डव भी शक्तिरूप हैं। सर्व शक्तिवान की सब शक्ति हैं। बापदादा तो पाण्डवों की तरफ लेते हैं। अगर पाण्डवों को आगे नहीं करेंगे तो शक्तियों के आगे शिकार कैसे लायेंगे? इसलिये पाण्डवों को विशेष ब्रह्मा बाप की हमजिन्स के नाते पुरूषार्थ में फालो फादर करना चाहिए। पाण्डव लौकिक जिम्मेवारी उठाने में भी आगे रहते हैं। सिर्फ लौकिक जिम्मेवारी के बजाय बेहद विश्व-कल्याण की जिम्मेवारी उठानी है। कमाई करने की लगन जैसे हद की जानते हो वैसे बेहद की कमाई की लगन में मगन हो जाओ। कमाई के पीछे स्वयं के सुख के साधनों का त्याग करने के भी अनुभवी हो तो बेहद की कमाई के पीछे देह की सुध-बुध त्याग करना व देह की स्मृति का त्याग करना क्या बड़ी बात है? इसलिये पाण्डवों को तीव्र पुरूषार्थ की लाइन में नम्बर वन लेना चाहिए, समझा? पीछे नहीं रहना! अगर शक्तियों से पीछे रह गये तो ब्रह्मा बाप के हम-जिन्स और बाप की लाज नहीं रखी - तो क्या यह शोभता है? इसलिये इसी वर्ष में - दूसरे वर्ष का इन्तज़ार नहीं करना - इसी वर्ष में नम्बर वन लेना है।

शक्तियाँ सोचती होंगी कि हम नम्बर दो हो जायेंगी क्या? शक्तियों के बिना तो शिव बाप की भी कोई चाल नहीं चल सकती। चल सकती है? शक्तियों को इसमें भी त्याग करना चाहिए, शक्तियों का त्याग पूजा जाता है। जो त्याग करता है उसका भाग्य स्वत: बनता है। इसलिये दोनों ही भाई-भाई के रूप में तीव्र पुरूषार्थ करो। समाचार के आधार पर पुरूषार्थ नहीं करना। आपके पुरूषार्थ से ही विनाश के समाचार चारों ओर फैलेंगे। पहले पुरूषार्थ, पीछे समाचार, न कि पहले समाचार और पीछे पुरूषार्थ। अच्छा।



02-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


दिल रूपी तख्त-नशीन ही सतयुगी विश्व के राज्य का अधिकारी

भक्तों को भक्ति का फल देने वाले, प्रकृति को अपने अधीन करने वाले, सत्य नारायण की सत्यकथा सुनकर सतयुग की स्थापना करने वाले, सत्य शिव बाबा ने त्रिमूर्ति तख्तनशीन बच्चों को सम्बोधित करते हुए कहा -

क्या आप बच्चे अपने को त्रिमूर्ति तख्तनशीन समझते हो? आज की सभा त्रिमूर्ति तख्तनशीन की है। अपने त्रिमूर्ति तख्त को जानते हो न? एक है अकालमूर्त आत्मा का यह भृकुटि रूपी तख्त। दूसरा है - विश्व के राज्य का तख्त। तीसरा है - सर्व-श्रेष्ठ बापदादा का दिल रूपी तख्त। ऐसे हरेक अपने को तीनों ही तख्तों पर नशीन अनुभव करते हो या सिर्फ जानते हो? क्या आप ज्ञान स्वरूप हो या अनुभव स्वरूप भी हो? मैं श्रेष्ठ आत्मा अनेक बार इसकी तख्तनशीन बनी हूँ - ऐसे अनेक बार की स्मृति स्पष्ट रूप में और सहज रूप में अभी-अभी की बात महसूस होती है? कब की बात नहीं - लेकिन अब की बात है, ऐसा अनुभव करने वाले बापदादा के अति स्नेही और अति समीप हैं।

इन सब तख्तों का आधार बापदादा के दिल-तख्तनशीन बनना है। उसके लिये मुख्य साधन कौन-सा है उसको जानते हो? सहज साधन है ना। कौन-सा साधन है? - दिल तख्त, जो स्वयं तख्तनशीन हैं वह अच्छी तरह जानते हैं कि बापदादा को सबसे प्रिय कौन-सा बच्चा लगता है। बाप को दुनिया वाले क्या समझते हैं, कि बाप भगवान क्या है? गॉड इज टत्र्थ। सत्य को ही भगवान कहते हैं। बापदादा सुनाते भी सत्यनारायण की कथा है और स्थापना भी सतयुग की करते हैं। तो बाप को जो सत बाप, सत टीचर, सत गुरू का प्रैक्टिकल पार्ट बजाते हैं, तो सत बाप को क्या प्रिय लगता है? - सच्चाई- जहाँ सच्चाई है अर्थात् सत्यता है, वहाँ स्वच्छता व सफाई अवश्य ही होती है। गायन भी है सच्चे दिल पर साहब राजी। दिल तख्तनशीन सर्विसएबल अवश्य है - लेकिन सर्विसएबल की निशानी सम्बन्ध और सम्पर्क में सच्चाई और सफाई, हर संकल्प और हर बोल में दिखाई देगी। अर्थात् ऐसी दिल तख्तनशीन श्रेष्ठ आत्मा का हर संकल्प सत होगा, हर वचन सत होगा। सत अर्थात् सत्य भी और सत अर्थात् सफल भी। अर्थात् कोई भी संकल्प व बोल व्यर्थ व साधारण नहीं होगा। ऐसे सर्विसएबल जिनके हर कदम में, हर समय की निगाह में अर्थात् दृष्टि में सर्व आत्माओं के प्रति नि:स्वार्थ सेवा ही सेवा दिखाई देगी। सोते भी सेवा, जागते भी सेवा और चलते हुए भी सेवा। सिवाय सेवा के स्वप्न में भी कोई बात नहीं होगी। ऐसे सेवाधारी जो अचल और अथक होगा - ऐसा ही बापदादा के दिलतख्तनशीन होता है। समझा, निशानी क्या होती है? ऐसे दिल तख्तनशीन के लिए विश्व के राज्य का तख्त प्राप्त करना निश्चित ही है। जैसे इन-एडवाँस सीट बुक होती है, ऐसे कल्प-कल्प के लिए राज तख्त निश्चित है।

प्रकृति को अधीन कर विजयी बनने वाले वत्स विश्व के राज्य के अधिकारी बनेंगे अथवा नहीं, यह संकल्प भी नहीं उठ सकता। प्रकृति ऐसे अपने विजयी मालिक के आगे-पीछे दासी के समान झुकती रहती है व प्रणाम करती रहती है। हर समय सदा सेवाधारी श्रेष्ठ आत्मा के आगे सेवाधारी बन के रहती है। ऐसा अपना श्रेष्ठ स्वरूप दिखाई दे रहा है न? अब तो प्रकृति आपका इंतज़ार कर रही है। अपने ऐसे मालिक की सेवा के लिए। सागर भी, धरनी भी ऐसे विश्व के मालिक की सेवा-अर्थ स्वयं को अब सम्पन्न बना रहे हैं। देख रहे हो उनकी तैयारियाँ जैसे भक्त लोग देवियों की, देवताओं की, शक्तियों की, सालिग्राम रूप की पूजा करते हुए जोर शोर से आह्वान कर रहे हैं - अपनी प्यारी निद्रा को भी त्याग चिल्ला-चिल्ला कर आप सबका आह्वान कर रहे हैं कि कहीं हमारी वरदानी, महादानी आत्मायें व हमारे इष्ट देव हमारी भी सुन लें। अप्राप्ति से प्राप्ति ज़रा दे। ऐसे ही अब समय समीप होने के कारण भक्तों के साथ-साथ प्रकृति भी आपका आह्वान कर रही है, कि कब हमारे सतोप्रधान मालिक हमारे ऊपर राजी हो राज्य करेंगे और प्रकृति भी सतोप्रधान चोला धारण करेगी। क्या प्रकृति का आह्वान, भक्तों का आह्वान दिखाई व सुनाई दे रहा है?

इनके आह्वान के साथ दूसरी ओर बापदादा भी आह्वान कर रहे हैं कि समान और सम्पूर्ण बन कर सूक्ष्म वतन निवासी फरिश्ता बनकर बाप के साथ घर चलें। चलना है या संगम ज्यादा भाता है? क्या एवर-रेडी बन गये हो? जहाँ बिठायें, जिस रूप में बिठायें और जब तक बिठायें ऐसे वायदे में सदा स्थित रहते हो? लास्ट ऑर्डर रूहानी मिलिट्री को कितने समय में मिलेगा? एक सेकेण्ड का ऑर्डर होगा। एक घण्टा पहले इतला नहीं होगी। तब तो आठ रत्न निकलते हैं। डेट निश्चित बता करके पेपर नहीं लेंगे। अर्थात् लास्ट डेट जो ड्रामा में निश्चित है, वह निश्चित डेट और समय नहीं बतलाया जायेगा। यह तो एवरेज बताया जाता है। लेकिन लास्ट पेपर एक ही क्वेश्चन का और एक ही सेकेण्ड का होगा। इसलिए बच्चों को एवर-रेडी बनना है।

हर समय स्वयं को चेक करो कि समेटने की शक्ति और सामना करने की शक्ति दोनों शक्तियों से सम्पन्न बन गये हो? समेटने की शक्ति का बहुत समय से कर्त्तव्य में लाने का अभ्यास चाहिए। लास्ट समय समेटना शुरू नहीं करना। समेटते ही समय बीत जायेगा। समेटने का कार्य तो अब सम्पन्न होना चाहिए। तब एक बल, एक भरोसा व निरन्तर तुम्हीं से खाँऊ, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से बोलूँ और तुम्हीं से सुनूँ का किया हुआ वायदा निभा सकेंगे। ऐसे नहीं कि आठ घण्टा तुम्हीं से बोलूँ, सुनूँ, बाकी समय आत्माओं से बोलूँ व सुनूँ - यह निरन्तर का वायदा है - इसमें चतुर नहीं बनना। बाप की दी हुई प्वाइन्ट्स बाप के आगे वकील के रूप में नहीं रखना। अमृत वेले कई वकील बनकर आते हैं। वकालत सतयुग में नहीं होगी। इसलिए बापदादा के आगे ऐसा नटखटपन नहीं करना। वकील की बजाय जज बनो। लेकिन किसका? स्वयं का जज बनना दूसरों का नहीं। बापदादा को सारे दिन में अमृतवेले के समय बच्चों के विचित्र खेल देखते हर्षित होने को मिलता है। उस समय हर एक का फोटो निकालने योग्य पोज व पोजीशन होती है। साक्षी होकर आप एक दिन भी देखो तो बहुत हँसोगे। कोई योद्धा बन कर भी आते हैं। बाप के दिये हुए शस्त्र बाप के आगे यूज़ करते हैं। ‘‘आपने ऐसे कहा है, ज्ञान ऐसा कहता है’’ - बाप मुस्कराते हैं - खेल देखते रहते हैं। योद्धा की बजाय विजयी बनो, तब ही त्रिमूर्ति तख्त-नशीन बन सकोगे। समझा? अच्छा।

ऐसे सदा विजयी, सर्व वायदे निभाने वाले, बापदादा के अति स्नेही और समीप, प्रकृति को दासी बनाने वाले और सर्व आत्माओं की सर्व मनोकामनायें पूर्ण करने वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।



05-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


फरिश्ता स्वरूप में स्थिति

फर्शवासी मनुष्य से अर्शवासी फरिश्ता बनाने वाले, सदा लाइट रूप, प्रमुख हीरो पार्टधारी, जीरो शिव बाबा ने फरिश्ता बनने के पुरुषार्थी बच्चों के सम्मुख यह मधुर महावाक्य उच्चारे -

फरिश्ते स्वरूप की स्थिति में सदा स्थित रहते हो? फरिश्ते स्वरूप की लाइट में अन्य आत्माओं को भी लाइट ही दिखाई देगी। हद के एक्टर्स जब हद के अन्दर अपने एक्ट करते दिखाई देते हैं, तो लाइट के कारण अति सुन्दर स्वरूप दिखाई देते हैं। वही एक्टर, साधारण जीवन में, साधारण लाइट के अन्दर पार्ट बजाते हुए कैसे दिखाई देते हैं? रात-दिन का अन्तर दिखाई देता है ना? लाइट का फोकस उनके फीचर्स को ही परिवर्तित कर देता है। ऐसे ही बेहद ड्रामा के आप हीरो हीरोइन एक्टर्स, अव्यक्त स्थिति की लाइट के अन्दर हर एक्ट करने से क्या दिखाई देंगे? अलौकिक-फरिश्ते! साकारी की बजाय सूक्ष्म वतनवासी नजर आयेंगे। साकारी होते हुए भी आकारी अनुभव होंगे। हर एक्ट हरेक को स्वत:ही आकर्षित करने वाला होगा।

जैसे आज हद का सिनेमा व ड्रामा कलियुगी मनुष्यों के आकर्षण का मुख्य केन्द्र है-छोड़ना चाहते हुए और न देखना चाहते हुए भी हद के एक्टर्स की एक्ट अपनी ओर खींच लेती है, लेकिन उसका आधार लाईट है, ऐसे ही इस अन्तिम समय में माया के आकर्षण की अति के बाद अन्त होने पर, बेहद के हीरो एक्टर्स, जो सदा जीरो स्वरूप में स्थित होते हुए जीरो बाप के साथ हर पार्ट बजाने वाले हैं और दिव्य ज्योति स्वरूप वाले जिनकी स्थिति भी लाइट की है और स्टेज पर हर पार्ट भी लाइट में हैं - अर्थात् जो डबल लाइट वाले फरिश्ते हैं - वे हर आत्मा को स्वत:ही अपनी तरफ आकर्षित करेंगे। आजकल की दुनिया में ड्रामा के अतिरिक्त और कौनसी वस्तु है जो ऐसे फरिश्तों के नयनों जैसी आकर्षण करने वाली हैं? टी.वी.। जैसे टी.वी. द्वारा इस संसार की कैसीकैसी सीन-सीनरियाँ देखते हुए कई आकर्षित होते, अर्थात् गिरती कला में जाते हैं - ऐसे ही फरिश्तों के नयन दिव्य दूर-दर्शन का काम करेंगे। हर एक के नयनों द्वारा सिर्फ इस संसार के ही नहीं लेकिन तीनों लोकों के दर्शन करेंगे। ऐसे फरिश्तों के मस्तक में चमकती हुई मणि आत्माओं को सर्च-लाइट व लाइट हाऊस के समान स्वयं का स्वरूप, स्व-मार्ग और श्रेष्ठ मंज़िल का स्पष्ट साक्षात्कार करायेंगी।

ऐसे फरिश्तों के युक्ति-युक्त बोल अर्थात् अमूल्य बोल, हर भिखारी आत्मा की रत्नों से झोली भरपूर करेंगे। जो गायन है देवताएं भी भक्तों पर प्रसन्न हो फूलों की वर्षा करते हैं - ऐसे आप श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा विश्व की आत्माओं के प्रति सर्व-शक्तियों, सर्वगुणों तथा सर्व वरदानों की पुष्प-वर्षा सर्व के प्रति होगी। तब ही आप सब को देवता अर्थात् देने वाला समझ कर भक्त-गण द्वापर युग से देवताओं का गायन और पूजन करते आ रहे हैं, क्योंकि अन्त समय सर्व आत्माएँ, विशेषकर वे भारतवासी आत्माएँ देवता धर्म की अन्त तक वृद्धि पाने वाली आत्मायें जो सतयुग में आपके देवताई रूप की पालना तो नहीं लेंगी बल्कि बाद में इस धर्म की वृद्धि होने के समय से लेकर अन्त तक के समय में आपका देवता रूप, दाता रूप अथवा वरदाता रूप अनुभव करेंगी। आपके अन्तिम देवता रूप की अनेक प्राप्तियों के संस्कार व स्मृतियाँ सर्व आत्माओं में मर्ज रहती हैं अर्थात् समाई हुई रहती हैं। इस कारण प्रैक्टिकल रूप में सतयुगी सृष्टि में न आते हुए भी द्वापर में सृष्टि-मंच पर आते ही देवता स्वरूप की प्राप्ति की स्मृति इमर्ज हो जाती है और गायन-पूजन करते रहते हैं। समझा, अपने अन्तिम फरिश्ते स्वरूप को?

ऐसे बेहद के एक्टर्स स्वत: अपनी तरफ आकर्षित नहीं करेंगे? यह ही डबल लाइट स्थिति और स्टेज आप सबको और बाप को प्रत्यक्ष करेगी। जीरो और हीरो दोनों प्रत्यक्ष होंगे। समझा (लाइट चली गई) फिर बाबा बोले - अभी भी देखो, लाइट से कितना काम होता है। अभी भी आप सबके आकर्षण करने की वस्तु लाइट के आधार पर है। अच्छा।

ऐसे सदा जीरो के साथ हीरो पार्ट बजाने वाले, सदा देने वाले देवता स्वरूप, विश्व में स्वयं को और बाप को प्रख्यात करने वाले, विश्व की सर्व आत्माओं की सर्व-मनोकामनायें सम्पन्न करने वाले, ऐसे फरिश्तों को फरिश्तों की दुनिया में रहने वाले और फरिश्तों की दुनिया से पार रहने वाले बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!



06-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


तीन कम्बाइन्ड स्वरूप

बाप और दादा में कम्बाइन्ड रूप में अपना वायदा सदा निभाने वाले, सच्चे रूहानी साथी त्रिमूर्ति शिव बाबा बोले –

हर एक अपने तीन रूपों से कम्बाइन्ड रूप जानते हो? एक है अनादि कम्बाइन्ड (संयुक्त) रूप, दूसरा है संगमयुगी कम्बाइन्ड रूप और तीसरा है भविष्य कम्बाइन्ड रूप - इन तीनों को जानते हो?

आप मनुष्यात्माओं का अनादि कम्बाइन्ड रूप कौन-सा है? पुरूष और प्रकृति कहो या आत्मा और शरीर कहो। यह अनादि कम्बाइन्ड रूप इस अनादि ड्रामा में नूँधा हुआ है। भविष्य कम्बाइन्ड रूप कौन-सा है? विष्णु चतुर्भुज। संगमयुगी कम्बाइन्ड रूप आपका कौन-सा है? शिव और शक्ति। शक्ति शिव के सिवाय कुछ कर नहीं सकती और शिव बाप भी शक्तियों के बिना कुछ कर नहीं सकते। तो संगमयुगी कम्बाइन्ड रूप सबका है - शिव-शक्ति। सिर्फ माताओं का ही नहीं है, पाण्डव भी शक्ति स्वरूप हैं। यादगार के रूप में आजकल के जगद्गुरू भी आपके कम्बाइन्ड रूप शिव-शक्ति का पूजन करते आ रहे हैं।

तो सदा यह स्मृति रहनी चाहिए कि हम हैं ही कम्बाइन्ड शिव-शक्ति। जब है ही कम्बाइन्ड तो भूल सकते हैं क्या? फिर भूलते क्यों हो? अपने को अकेला समझते हो इसलिए भूल भी जाते हो। कल्प पहले की यादगार में भी अर्जुन को जब बाप का साथ भूल जाता था, अर्थात् जब वह सारथी को भूल जाता था, तो क्या बन जाता था? निर्बल कहो व कायर कहो और जब स्मृति आती थी, कि मेरा साथी और सारथी बाप है तो विजयी बन जाता था। निरन्तर सहज याद की सहज युक्ति एक ही है कि सदा अपने कम्बाइन्ड रूप को सदा साथ रखो व स्मृति में रखो तो कभी भी कमजोरी के संकल्प भी क्या स्वप्न भी नहीं आयेंगे। जागते-सोते कम्बाइन्ड रूप हो।

जबकि बाप स्वयं बच्चों से सदा साथ रहने का वायदा कर रहे हैं और निभा भी रहे हैं तो वायदे का लाभ उठाना चाहिए। ऐसे कम्पनी व कम्पेनियन, फिर कब मिलेंगे? बहुत जन्मों से आत्माओं की कम्पनी लेते हुए दु:ख का अनुभव करते हुए भी अब भी आत्माओं की कम्पनी अच्छी लगती है क्या, जो बाप की कम्पनी को भूल औरों की कम्पनी में चले जाते हो? कोई वैभव को व कोई व्यक्ति को कम्पेनियन बना देते हो, अर्थात् उस कम्पनी को निभाने में इतने मस्त हो जाते हो जो बाप से किये हुए वायदे में भी अलमस्त हो जाते हो! ऐसे समय मालूम है कौन-सा  खेल करते हो? खेल करने के टाइम तो बड़े मस्त हो जाते हो। अभी भूल गए हो। कलाबाजी से भी बहुत रमणीक खेल करते हो? ऐसे नहीं कि जो सुनायेंगे वह खेल करते होंगे, देखने वाले भी सुना सकते हैं। आपके ही इस साकारी दुनिया में खेल दिखाते हैं - बन्दर और बन्दरी का। बन्दरिया को बन्दर से सगाई के लिए पकड़ कर ले जाते हैं और बन्दरिया नटखट हो घूँघट निकाल किनारा कर लेती, पीठ कर लेती है। वह आगे करता है वह पीछे हटती है। तो जैसे वह रमणीक खेल मनोरंजन के लिए दिखाते हैं, ऐसे ही बच्चे भी उस समय ऐसे नटखट होते हैं। बाप सम्मुख आते और बच्चे अलमस्त होने के कारण देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुए भी नहीं सुनते। ऐसा खेल अभी नहीं करना है। अपने तीनों कम्बाइन्ड रूपों को स्मृति में रखो तो ही सदा के लिए सदा साथी से साथ निभा सकेंगे।

अपने को अकेला समझने से चलते-चलते जीवन में उदासी आ जाती है। अति-इन्द्रिय सुखमय जीवन, सर्व सम्बन्धों से सम्पन्न जीवन और सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न जीवन उस समय नीरस व बिल्कुल असार अनुभव करते हो। त्रिनेत्री होते हुए भी कोई राह नजर नहीं आती। क्या करूँ, कहाँ जाऊं कुछ समझ में नहीं आयेगा। खुद जीवन-मुक्ति के गेट्स खोलने वाले को कोई ठिकाना नजर नहीं आता, त्रिकालदर्शी होते हुए अपने वर्तमान को नहीं समझ सकते। सृष्टि के सर्व आत्माओं के भविष्य परिणाम को जानने वाले अपने उस समय के कर्म के परिणाम को जान नहीं सकते! यह कमाल करते हो न? ऐसी कमाल रोज कोइन- कोई बच्चे दिखाते रहते हैं।

ऐसे समय पर बापदादा क्या करते हैं? बहुत मनाते और रिझाते हैं, लेकिन फिर भी बच्चे नटखट करते हैं और फिर जब वह समय बीत जाता है, तब फिर बाप को रिझाते हैं। बच्चे भी बड़े चतुर होते हैं। ज्ञान स्वरूप को याद दिलाते हैं। वह तो जानते हो न क्या करते हैं? आप क्षमा के सागर हो, कृपालु हो, दयालु हो, रहमदिल हो - ऐसी कई बातों से रिझाते हैं। फिर बाप क्या करते हैं? बाप फिर लव और लॉ का बैलेन्स रखते हैं। यह कहानी है बच्चों और बाप की। कहानी सुनने में सभी खुश हो रहे हैं। लेकिन यह कहानी परिवर्तन में लानी है। जैसे बाप ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट बन सेवा पर उपस्थित है, ऐसे ही हरेक बाप के साथी व सहयोगी बच्चों को भी बाप के समान ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट बनना है। ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट अलमस्त नहीं होते। दिन-रात सेवा में तत्पर रहते हैं। जैसे बाप बच्चों के आगे वफादार स्वरूप से साथ निभा रहे हैं, ऐसे ही बच्चों को भी फरमान-वरदार अर्थात् हर फरमान पर चलने वाले बन साथ निभाना है। ऐसे सदा के साथी बनना है। अच्छा!

ऐसे सदा सच्चे साथी, हर फरमान पर स्वयं को कुर्बान करने वाले, वफादार, बाप के फरमान-वरदार, बाप समान श्रेष्ठ बनाने वाले, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!

इस मुरली की विशेष बातें

1. निरन्तर सहज याद की सहज-युक्ति एक ही है, कि तीनों रूपों से अपने कम्बाइन्ड स्वरूप को स्मृति में रखो वे हैं-पहला आत्मा और शरीर अथवा प्रकृति का अनादि कम्बाइन्ड रूप, दूसरा भविष्य विष्णु चतुर्भुज का कम्बाइन्ड रूप और तीसरा संगमयुग का शिव-शक्ति कम्बाइन्ड रूप। इस स्मृति से कभी भी कमजोरी अथवा निर्बलता का संकल्प स्वप्न में भी नहीं आयेगा।

2. जो ब्रह्मा वत्स की कम्पनी व कम्पेनियन को भूल औरों की कम्पनी में चले जाते हैं। कोई वैभव को व कोई व्यक्ति को कम्पेनियन बना लेते हैं, तो चलते-चलते उनके जीवन में उदासी आ जाती है और अन्त में दु:ख को प्राप्त होते हैं।

3. जैसे बाप ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट बन सेवा पर उपस्थित है, ऐसे ही हरेक बाप के साथी व सहयोगी बच्चों को भी बाप समान ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट बनना है।



09-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ग्लानि को गायन समझकर रहमदिल बनो

अपकारियों पर भी उपकार करने का गुण सिखाने वाले, सब के कल्याणकारी शिव बाबा सौभाग्यशाली बनने वाले बच्चों से बोले –

अपने चमकते हुए तकदीर के सितारे को देखते हो? तकदीर का सितारा सदा चमकता रहता है अथवा कभी चमकता है और कभी चमक कम हो जाती है अर्थात् घटनाओं रूपी घटा के बीच छिप जाता है? या कभी इन स्थूल सितारों के समान, जैसे स्थूल सितारे स्थान बदली करते हैं वैसे स्थिति बदली तो नहीं होती है? या तकदीर की लकीर अभी चढ़ती कला और अभी-अभी ठहरती कला व गिरती कला ऐसे बदलती तो नहीं है? क्योंकि संगम युग पर तकदीर की रेखा परिवर्तन करने वाला बाप सम्मुख पार्ट बजा रहे हैं। ऐसे तकदीर बनाने वाले बाप के डायरेक्ट बच्चे-उन्हों की तकदीर श्रेष्ठ और अविनाशी चाहिए। ऐसी तकदीर अन्य कोई भी आत्मा नहीं बना सकती है। ऐसे तकदीरवान अपने को अनुभव करते हो?

श्रेष्ठ तकदीर बनाने वालों की निशानी क्या होगी? जानते हो? ऐसा तकदीरवान हर संकल्प में, हर बोल में, कर्म में फालोफादर करता होगा। संकल्प भी बाप समान विश्व कल्याण की सेवा अर्थ होगा। हर बोल में नम्रता, निर्माणता और उतनी ही महानता होगी। स्मृति स्वरूप में एक तरफ बेहद का मालिकपन, दूसरी तरफ विश्व की सेवाधारी आत्मा होगी। एक तरफ अधिकारीपन का नशा, दूसरी तरफ सर्व के प्रति सत्कारी, हर आत्मा के प्रति बाप समान दाता और वरदाता, चाहे दुश्मन हो, किसी भी जन्म के हिसाबकिताब चुक्तु करने के निमित्त बनी हुई आत्मा हो - ऐसी श्रेष्ठ स्थिति से गिराने के निमित्त बनी हुई आत्मा को भी, संस्कारों के टक्कर खाने वाली आत्मा को भी, घृणा वृत्ति रखने वाली आत्मा को भी, सर्व आत्माओं के प्रति दाता व वरदाता। ठुकराने वाली आत्मा भी कल्याणकारी आत्मा अनुभव हो, ग्लानि के बोल व निन्दा के बोल भी महिमा व गायन योग्य अनुभव हों तथा ग्लानि गायन अनुभव हो। जैसे द्वापर में आप सबने बाप की ग्लानि का, लेकिन बाप ने ग्लानि भी गायन समझ कर स्वीकार की और ग्लानि के रिटर्न में भक्ति का फल-ज्ञान दिया, न कि घृणा और ही रहम-दिल बने। ऐसे फालो फादर। ऐसे फालो फादर करने वाले ही श्रेष्ठ तकदीरवान बनते है। जैसे बाप से विमुख बनी हुई आत्माओं को अपना बना कर अपने से ऊंच प्रालब्ध प्राप्त करते हैं - ऐसे श्रेष्ठ तकदीर-वान बच्चे बाप समान हर आत्मा को अपने से भी आगे बढ़ाने की शुभ भावना रखते हुए विश्व-कल्याणकारी बनेंगे। इसको कहा जाता है निरन्तर योगीपन के लक्षण।

ऐसी ऊंची मंज़िल को प्राप्त करने वाले जो बोल और भाव को परिवर्तन कर दें अर्थात् निन्दा को भी स्तुति में परिवर्तन कर दें, ग्लानि को गायन में परिवर्तित कर दे, ठुकराने को सत्कार में परिवर्तित कर दें, अपमान को स्व-अभिमान में परिवर्तित कर दें व अपकार को उपकार में परिवर्तित कर दें व माया के विघ्नों को बाप की लगन में मग्न होने का साधन समझ परिवर्तित कर दें - ऐसे बाप समान सदा विजयी अष्ट रत्नबनते हैं। और भक्तों के इष्ट बनते हैं। ऐसी स्थिति को पहुँचे हो? या सिर्फ स्नेही आत्माओं के प्रति सहयोगी आत्मायें बने हो? होपलेस केस में व ना-उम्मीदवार को उम्मीदों का सितारा बनाना-कमाल इसी बात में है। ऐसी कमाल दिखाने वाले बने हो? या सिर्फ बाप की कमाल देख हर्षित होने वाले बने हो? जब कि फॉलो फादर है तो कमाल करने वाला बनना है न कि देखकर हर्षित होने वाला बनना है। समझा? इसको कहा जाता है फॉलो फादर।

जैसा समय वैसे अपने कदम को बढ़ाना चाहिए। जब अन्तिम समय समझते हो तो अपनी स्थिति भी अन्तिम सम्पूर्ण स्टेज वाली समझते हो? समय अन्तिम और पुरूषार्थ की रफ्तार व स्थिति मध्यम होगी तो रिजल्ट क्या होगी? स्वर्ग के सुखों की प्रालब्ध मध्यम पुरूषार्थ वाले सतयुग के मध्य में प्राप्त करेंगे - ऐसा लक्ष्य तो नहीं है ना? लक्ष्य फर्स्ट जन्म में आने का है तो लक्षण भी फर्स्ट क्लास चाहिए। समय प्रमाण और लक्ष्य प्रमाण पुरूषार्थ को चेक करो। अच्छा!

ऐसे बाप के समान सर्व के सत्कारी, बाप के वर्से के अधिकारी, हर ना-उम्मीदवार को उम्मीदों का सितारा बनाने की कमाल करो। 86 संकल्प और कदम में फॉलो फादर करने वाले, श्रेष्ठ तकदीर बनाने वाले तकदीर के सितारे, निरन्तर बाप की याद और सेवा में तत्पर रहने वाले सदा विजयी बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।’’

इस मुरली के विशेष तथ्य

1. श्रेष्ठ तकदीर बनाने वाले बच्चे की निशानी यह होगी कि वह हर संकल्प में, हर बोल में और हर कर्म में फॉलोफादर होगा।

2. जैसे बाप बे-मुख बनी आत्माओं को अपना बना कर उनका अपने से ऊंच प्रालब्ध बनाते है ऐसे ही श्रेष्ठ तकदीरवान बच्चे भी हर आत्मा को अपने से भी आगे बढ़ाने की शुभ भावना रखते हुए विश्व-कल्याणकारी बनते हैं।

3. माया के विघ्नों को बाप की लगन में मग्न होने का साधन समझ परिवर्तित कर दें - ऐसे विजयी वत्स ही अष्ट रत्न बनते हैं।



10-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नॉलेजफुल और पावरफुल आत्मा ही सक्सेसफुल

ज्ञान के सागर, शक्ति के सागर, सदा जागती-ज्योति अथक सेवाधारी वत्सों को निद्रा-जीत बनाने वाले शिव बाबा बोले-

सदा हर स्थिति में मास्टर नॉलेजफुल (ज्ञानमूर्त) पावरफुल (शक्ति या योगमूर्त) और सक्सेसफुल (सफलता-मूर्त) स्वयं को अनुभव करते हो? क्योंकि नॉलेजफुल और पावरफुल आत्मा की रिजल्ट (परिणाम) है सक्सेसफुल। वर्तमान समय इन दोनों सब्जेक्ट्स याद अर्थात् पावरफुल और ज्ञान अर्थात् नॉलेजफुल। इन दोनों सब्जेक्ट्स (विषय) का ऑब्जेक्ट (उदेश्य) है सक्सेसफुल। इसी को ही प्रत्यक्ष फल कहा जाता है। इस समय का प्रत्यक्ष फल आपके भविष्य फल को प्रख्यात करेगा। ऐसे नहीं कि भविष्य फल के आधार पर अब के प्रत्यक्ष फल को अनुभव करने से वंचित रह जाओ। ऐसे कभी भी संकल्प नहीं करना कि वर्तमान में कुछ दिखाई नहीं देता है व अनुभव नहीं होता है व प्राप्ति नहीं होती है, यह पढ़ाई तो है ही भविष्य की। भविष्य मेरा बहुत उज्जवल है। अभी मैं गुप्त हूँ अन्त में प्रख्यात हो जाऊंगा-लेकिन भविष्य की झलक, भविष्य की प्रालब्ध व अन्तिम समय पर प्रसिद्ध होने वाली आत्मा की चमक अब से सर्व को अनुभव होनी चाहिए। इसलिए पहले प्रत्यक्ष फल और साथ में भविष्य फल। प्रत्यक्ष फल नहीं तो भविष्य फल भी नहीं। स्वयं को स्वयं प्रत्यक्ष भले ही नहीं करे, लेकिन उनका सम्पर्क, स्नेह और सहयोग ऐसी आत्मा को स्वत: ही प्रसिद्ध कर देते हैं।

यह ईश्वरीय लॉ (नियम) है कि स्वयं को किसी भी प्रकार से सिद्ध करने वाला कभी भी प्रसिद्ध नहीं हो सकता। इसलिये यह संकल्प कि मैं स्वयं को जानता हूँ कि मैं ठीक हूँ दूसरे नहीं जानते व दूसरे नहीं पहचानते, आखिर पहचान ही लेंगे व आगे चलकर देखना क्या होता है? यह भी ज्ञान स्वरूप, याद स्वरूप आत्मा के स्वयं को धोखे देने वाली अलबेलेपन की मीठी निद्रा है। ऐसे अल्पकाल के आराम देने वाले व अल्पकाल के लिये अपने दिल को दिलासा देने वाली माया की निद्रा के अनेक प्रकार हैं। जिस भी बातों में अपनी प्रालब्ध को व प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति को खोते हो तो अवश्य अनेक प्रकार की निद्रा में सोते हो। इसलिये कहावत है - जिन सोया तिन खोया।तो खोना ही सोना है। ऐसे कभी भी समय पर सफलता पा नहीं सकते अर्थात् सक्सेसफुल नहीं बन सकते।

सारे कल्प के अन्दर सिर्फ इस संगम युग को ड्रामा प्लेन अनुसार वरदान है - कौन-सा ? संगमयुग को कौन-सा वरदान है? ‘प्रत्यक्ष फल का वरदानसिर्फ संगमयुग को है। अभी-अभी देना, अभी-अभी मिलना। पहले देखते हो - फिर करते हो-पक्के सौदागर हो। संगमयुग की विशेषता है कि इस युग में ही बाप भी प्रत्यक्ष होते हैं, ऊंच ते ऊंच ब्राह्मण भी प्रत्यक्ष होते हैं। आप सबके 84 जन्मों की कहानी भी प्रत्यक्ष होती है। श्रेष्ठ नॉलेज भी प्रत्यक्ष होती है। इस कारण ही प्रत्यक्ष फल मिलता है। प्रत्यक्ष फल का अनुभव कर रहे हो? प्रत्यक्ष फल प्राप्त होते समय भविष्य फल को सोचता रहे ऐसी आत्मा को कौन-सी आत्मा कहेंगे? ऐसी आत्मा को मास्टर नॉलेजफुल कहेंगे या यह भी एक अज्ञान है? किसी भी प्रकार का अज्ञान उसको, अज्ञान की नींद कहते हैं। अपने आप को चेक करो कि किसी भी प्रकार के अज्ञान नींद में सोये हुए तो नहीं हो?

सदा जागती-ज्योति बने हो? जागने की निशानी है जागना अर्थात् पाना। तो सर्व प्राप्ति करने वाले सदा जागती-ज्योति हो? सदा जागती-ज्योति बनने के लिये मुख्य कौनसी धारणा है, जानते हो? जो साकार बाप में विशेष थी - वह बताओ? साकार बाप की विशेष धारणा क्या थी? जागती-ज्योति बनने के लिये मुख्य धारणा चाहिए अथकबनने की। जब थकावट होती है तो नींद आती है - साकार बाप में अथक-पन की विशेषता सदा अनुभव की। ऐसे फॉलो फादर करने वाले सदा जागती-ज्योति बनते हैं। यह भी चेक करो कि चलते-चलते कोई भी प्रकार की थकावट अज्ञान की नींद में सुला तो नहीं देती? इसीलिये कल्प पहले की यादगार में भी निद्राजीत बनने का विशेष गुण गाया हुआ है। अनेक प्रकार की निद्रा से निद्राजीत बनो। यह भी लिस्ट निकालना कि किस-किस प्रकार की निद्रा निद्राजीत बनने नहीं देती जैसे निद्रा में जाने से पहले निद्रा की निशानियाँ दिखाई देती है उस नींद की निशानी है उबासी और अज्ञान नींद की निशानी है उदासी। इसी प्रकार निशानियाँ भी निकालना - इसकी दो मुख्य बातें हैं। एक आलस्य, दूसरा अलबेलापन। पहले यह निशानियाँ आती हैं - फिर नींद का नशा चढ़ जाता है। इसलिये इस पर अच्छी तरह से चैकिंग (जाँच) करना। चैकिंग के साथ चेन्ज (परिवर्तन) करना। सिर्फ चैकिंग नहीं करना - चैकिंग और चेन्ज दोनों ही करना, समझा? अच्छा!

ऐसे स्वयं के परिवर्तन द्वारा विश्व को परिवर्तन करने वाले, बाप समान सदा अथक, हर संकल्प, बोल और कर्म का प्रत्यक्ष फल अनुभव करने वाले, सर्व प्राप्ति स्वरूप विशेष आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओम् शान्ति।



13-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विश्व-परिवर्तन ही ब्राह्मण जीवन का विशेष कर्त्तव्य है

विश्व-परिवर्तक, विश्व-कल्याणकारी, सदा साक्षी स्वरूप शिव बाबा विश्व-परिवर्तन में सहयोगी बच्चों को देख बोले -

विश्व का रचयिता बाप आज अपने सहयोगी विश्व-परिवर्तक श्रेष्ठ आत्माओं को देख रहे हैं। जैसे बाप विश्व को परिवर्तन करने के लिए निमित्त हैं, वैसे ही आप सब भी सदा अपने को इसी कार्य के निमित्त समझ चलते हो? सदा यह स्मृति कायम रहती है कि मुझे परिवर्तन करना है? विश्व को परिवर्तन करने वाले पहले स्वयं को परिवर्तन करते हैं। जो स्वयं का परिवर्तन किसी भी बात में नहीं कर पाते, वे विश्व के परिवर्तन का कार्य करने अर्थ निमित्त कैसे बन सकते हैं? अभी-अभी बापदादा डायरेक्शन दें कि एक सेकेण्ड में अपनी स्मृति को परिवर्तन कर लो, अर्थात् स्वयं को देह नहीं आत्मा के स्वरूप में स्थित होकर देखो, तो स्वयं की स्मृति को एक सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो? ऐसे ही अपनी वृत्ति को सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो? अपने स्वभाव और संस्कार को सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो? अपनी आत्मा के किसी भी सम्पर्क को सेकेण्ड में परिवर्तन कर सकते हो? अपने सेकेण्ड के संकल्प को सेकेण्ड में, व्यर्थ से समर्थ में परिवर्तन कर सकते हो? अपने पुरूषार्थ की रफ्तार को सेकेण्ड में साधारण से तीव्र कर सकते हो? अपने को सेकेण्ड में साकार वतन से पार निराकारी परमधाम के निवासी बना सकते हो? इसको कहा जाता है - परिवर्तन शक्ति। संगमयुग पर विशेष खेल ही परिवर्तन का है। जैसे और शक्तियाँ स्वयं में चेक करते हो वैसे ही परिवर्तन करने की शक्ति इन सब बातों में कहाँ तक आयी है, यह चेक करते हो? पुरूषार्थ में विघ्न रूप, परिवर्तन की शक्ति की कमी है।

सर्व प्राप्ति का आधार परिवर्तन शक्ति है। स्वयं का परिवर्तन न कर सकने के कारण जितना ऊंचा लक्ष्य रखते हो उस लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते हो। परिवर्तन करने की शक्ति न होने के कारण चाहते हुए भी, साधन अपनाते हुए भी, संग करते हुए भी, यथा-शक्ति नियमों पर चलते हुए भी और स्वयं को ब्राह्मण कहलाते हुए भी अपने-आप से संतुष्ट नहीं। एक परिवर्तन करने की शक्ति सर्व शाक्तिमान् बाप और सर्व श्रेष्ठ आत्माओं के समीप जाने का साधन बन जाती है। परिवर्तन शक्ति नहीं तो सदैव हर प्राप्ति से वंचित अपने को किनारे पर खड़ा हुआ अनुभव करेंगे। सब बातों में दूर-दूर देखने और सुनने वाला अपने को अनुभव करेंगे। सदा स्नेह, सहयोग और शक्ति के अनुभव करने के प्यासे रहेगे। अनेक प्रकार की स्वयं के प्रति इच्छाओं का व आशाओं का और कामनाओं का विस्तार तूफान के समान आता ही रहेगा। इस तूफान के कारण प्राप्ति की मंज़िल सदा दूर नजर आयेगी।

आज ऐसे विश्व-परिवर्तक बच्चों का दृश्य देखा। साकार दुनिया में पानी का तूफान आया हुआ है उसका नजारा सुनते रहते हो। सुनते हुए मजा आता है या रहम आता है या भय भी आता है? क्या होता है - कभी भय लगता, कभी रहम आता है? पाण्डवों को भय लगता है? रहम आता है या मजा आता है। भय तो होना न चाहिए। मैं फीमेल (कमज़ोर, बिना मेल के) हूँ, उस समय यह स्मृति भी राँग (गलत) है - अपने को अकेला कभी नहीं समझना चाहिए। अपने कम्बाइन्ड रूप शिव-शक्ति के रूप की स्मृति में रहना चाहिए। सिर्फ शक्ति भी नहीं-शिव शक्ति। कम्बाइन्ड रूप की स्थिति से जैसे स्थूल में दो को देखते हुए वार करने के लिए संकोच होता है - वैसे ही कम्बाइन्ड स्थिति का प्रभाव उस समय के प्रकृति और व्यक्ति के ऊपर पड़ेगा अर्थात् किसी भी प्रकार के वार करने में संकोच होगा। न सिर्फ व्यक्ति लेकिन प्रकृति का तत्व भी संकोच करेगा अर्थात् वह भी वार नहीं कर सकेगा। एक कदम की दूरी पर भी सेफ (सुरक्षित) हो जायेंगे। शस्त्र होते हुए भी, शस्त्र शक्तिवान् होते हुए भी निर्बल हो जायेंगे। लेकिन उस सेकेण्ड परिवर्तन करने की शक्ति यूज़ (प्रयोग) करो कि मैं अकेली नहीं, मैं फीमेल नहीं, शिव-शक्ति हूँ और कम्बाइन्ड हूँ। इसमें भी परिवर्तन शक्ति चाहिए ना? जो स्वयं की पॉवरफुल स्मृति और वृत्ति से व्यक्ति को व प्रकृति को परिवर्तन कर लें। अब तो यह दूसरी-तीसरी चौपड़ी या दूसरी-तीसरी क्लास के पेपर्स है। फाइनल (अन्तिम) पेपर की रूप-रेखा तो इससे कई गुना भयानक रूप की होगी। फिर क्या करेंगे। कइयों का संकल्प चलता है - कौन-सा ? कई स्नेह और हुज्जत में कहते हैं कि इस दृश्य के पहले ही हमको बुलाना, हम भी वतन से देखेंगे। लेकिन शक्ति स्वरूप का प्रैक्टिकल पार्ट व शक्ति अवतार की प्रत्यक्षता का पार्ट, स्वयं द्वारा सर्वशक्तिवान् बाप को प्रत्यक्ष करने का पार्ट ऐसी ही परिस्थिति में होना है। इसलिये ऐसे नजायें को, अकाले मृत्यु के नगाड़ों को देखने और सुनने के लिये परिवर्तन की शक्ति को बढ़ाओ। एक सेकेण्ड में परिवर्तन करो, क्योंकि खेल ही एक सेकेण्ड के आधार पर है।

ऐसे समय पर एक तरफ नाथिंग न्यू का पाठ भी याद रहना चाहिए - जिससे मिरूआं मौत मलूकाँ शिकार की स्थिति होगी तो साक्षीपन की स्थिति अर्थात् देखने में मजा भी आयेगा और साथ-साथ विश्व-कल्याणकारी की स्थिति जिसमें तरस भी होगा। दोनों का बैलेन्स (सन्तुलन) चाहिए। साक्षीपन की स्टेज भी और विश्व-कल्याणकारी स्टेज भी। समझा? यह तो हुआ-साकारी दुनिया का समाचार। आकारी वतन का समाचार क्या हुआ - जो पहले सुनाया कि परिवर्तन शक्ति की कमी होने के कारण जो अनेक प्रकार की कामनाओं के तूफान दिखाई देते हैं - उसके अन्दर मैजॉरिटी (अधिकांश) बच्चे नम्बरवार दिखाई देते हैं। उनकी पुकार क्या सुनाई देती है? - हम चाहते हैं, फिर क्यों नहीं होता? यह होना चाहिए-लेकिन होता नहीं-बहुत पुरूषार्थ कर लिया। ऐसी अनेक प्रकार की मन की आवाज सुनाई देती है। इसलिये-इस तूफान से निकलने का साधन परिवर्तन शक्ति को बढ़ाओ तो प्रत्यक्ष फल की प्राप्ति कर सकेंगे। सदैव यह स्मृति में रखो कि मैं बाप का सहयोगी, विश्व का परिवर्तन करने वाला - मैं हूँ ही विश्व-परिवर्तक। परिवर्तन करना ही मेरा कार्य है। अर्थात् इसी कार्य-अर्थ ही ब्राह्मण जीवन प्राप्त हुआ है। तो अपने निजी कार्य को स्मृति में रखते हुए चलो।

ऐसे हर संकल्प और हर सेकेण्ड बाप के साथ सहयोगी आत्मायें, प्रकृति और परिस्थिति व व्यक्ति को परिवर्तन करने वाले, सदा बाप-समान मास्टर सर्वशक्तिवान के स्वमान में स्थित रहने वाले, स्वयं के प्रति और सर्व के प्रति सदा कल्याण की भावना रखने वाले, ऐसे विश्व-कल्याणकारी विश्व-परिवर्तक आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

इस मुरली का सार-तत्व

1. विश्व-परिवर्तन का कार्य सम्पन्न करने के लिए सबसे पहले स्वयं में सेकेण्ड में परिवर्तन करने की शक्ति की आवश्यकता है। स्वयं की पॉवरफुल स्मृति और वृत्ति से व्यक्ति व प्रकृति को परिवर्तन कर लो।

2. सर्व प्राप्तियों का आधार परिवर्तन शक्ति है। परिवर्तन करने की शक्ति सर्वशक्तिवान् बाप और सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के समीप जाने का साधन बन जाती है।



14-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अकाल तख्त-नशीन और महाकाल-मूर्त्त बन समेटने की शक्ति का प्रयोग करो

अकाल मूर्त्त, महाकालेश्वर, सर्वशक्तिवान्, अशरीरी शिव बाबा बोले -

अपने को हर परिस्थिति से पार करने वाले, शक्तिशाली स्थिति में अनुभव करते हो? शक्तिशाली परिस्थितियों को मास्टर सर्व-शक्तिवान् स्थिति वाले ही सहज पार कर सकते है। दिन-प्रतिदिन प्रकृति द्वारा विकराल रूप से परिस्थितियाँ दिखाई देती जायेंगी। अब तक यह साधारण परिस्थितियाँ हैं। विकराल रूप तो प्रकृति अब धारण करेगी जिसमे विशेष आपदाओं का वार अचानक ही होगा। अभी तो थोड़ा समय पहले मालूम पड़ जाता है। लेकिन प्रकृति का विकराल रूप क्या होगा? एक ही समय प्रकृति के सभी तत्व साथसाथ और अचानक वार करेंगे। किसी भी प्रकार के प्रकृति के साधन बचाव के काम के नहीं रहेगे और ही साधन समस्या का रूप बनेंगे। ऐसे समय पर प्रकृति के विकराल रूप का सामना करने के लिये किस बात की आवश्यकता होगी? अपने अकाल-तख्त नशीन अकालमूर्त बनने से महाकाल बाप के साथ-साथ मास्टर महाकालस्वरूप में स्थित होंगे तब ही सामना कर सकेंगे। महाविनाश देखने के लिये मास्टर महाकाल बनना पड़ेगा। मास्टर महाकाल बनने की सहज विधि कौन-सी है? अकालमूर्त्त बनने की विधि है -- हर समय अकाल-तख्त नशीन रहना। जरा-सा भी देहभान होगा, तो अकाले मृत्यु के समान अचानक के वार में हार खिला देगा!

जैसे प्रकृति के पाँच तत्व विकराल रूप को धारण करेंगे, वैसे ही पाँच विकार भी अपना शक्तिशाली रूप धारण कर अन्तिम वार अति सूक्ष्म रूप में ट्रायल करेंगे अर्थात् माया और प्रकृति दोनों ही अपना फुल फोर्स का अन्तिम दाव लगायेंगे। जैसे किसी भी स्थूल युद्ध में भी अन्तिम दृश्य हृस (हास) पैदा करने वाला होता है और हिम्मत बढ़ाने वाला भी होता है, ऐसे ही कमज़ोर आत्माओं के लिये भी हृस पैदा करने वाला दृश्य होगा - मास्टर सर्वशक्तिवान् आत्माओं के लिये वह हिम्मत और हुल्लास देने वाला दृश्य होगा।

ऐसे समय में जैसी स्थिति सुनाई उसके लिये विशेष कौनसी शक्ति की आवश्यकता होगी? सेकेण्ड के हार-जीत के खेल में कौन-सी शक्ति चाहिए? ऐसे समय में समेटने की शक्ति आवश्यक है। जो अपने देह-अभिमान के संकल्प को, देह की दुनिया की परिस्थितियों के संकल्प को, क्या होगा? - इस हलचल के संकल्प को भी समेटना है। शरीर और शरीर के सर्व सम्पर्क की वस्तुओं को भी वा अपनी आवश्यकताओं के साधनों की प्राप्ति के संकल्प को भी समेटना है। घर जाने के संकल्प के सिवाय अन्य किसी संकल्प का विस्तार न हो - बस यही संकल्प हो कि अब अपने घर गया कि गया। शरीर का कोई भी सम्बन्ध व सम्पर्क नीचे न ला सके। जैसे इस समय साक्षात्कार में जाने वाले साक्षात्कार के आधार पर अनुभव करते हैं कि मैं आत्मा इस आकाश तत्व से भी पार उड़ती हुई जा रही हूँ, ऐसे ही ज्ञानी एवं योगी आत्मायें ऐसा अनुभव करेंगी। उस समय ट्रान्स की मदद नहीं मिलेगी। ज्ञान और योग का आधार चाहिए। इसके लिये अब से अकाल-तख्त-नशीन होने का अभ्यास चाहिए। जब चाहे अशरीरीपन का अनुभव कर सकें, बुद्धियोग द्वारा जब चाहे तब शरीर के आधार में आयें। ‘‘अशरीरी भव!’’ का वरदान अपने कार्य में अब से लगाओ।

ऐसे समय में श्रीमत कैसे लेंगे? टेलीफोन व टेलीग्राम से वायरलेस (बिना तार के विद्युत-चुम्बकीय तरंगों द्वारा समाचार भेजने का यंत्र) सेट है- चाहिये तो वायरलेस लेकिन सेट है? वायरलेस की सेटिंग कैसे होगी? बिल्कुल वाइसलेस (पाप-रहित) वाइसलेस बनना ही वायरलेस सेट की सेटिंग है। जरा अंश के भी अंश-मात्र विकार, वायरलेस के सेट को बेकार कर देगा। इसलिये महीन रूप से स्वयं के स्वयं ही चेकर बनो। तब ही प्रकृति और पाँच विकारों की अन्तिम विदाई के वार को विजयी बन सामना कर सकेंगे। यही प्रकृति वार करने के बजाय बधाई के नजारे सामने लायेगी। चारों ओर जयज यकार की शहनाइयाँ बजायगी। और बापदादा के विजय माला के मणके विश्व के बीच प्रसिद्ध होंगे। सारा विश्व ‘‘अमर भव!’’ का नारा लगायेगा। ऐसे समय के लिये तैयार हो? अथवा समय आपको तैयार करेगा कि आप समय का आह्वान करेंगे? समय पर जागने वाले को क्या टाइटल देते हैं? समय पर कौन जागा? अगर समय पर जागेंगे या यह सोचेंगे कि समय तैयार कर ही देगा या समय पर हो ही जायेगा तो ब्राह्मण वंश की बजाय क्षत्रिय वंश के हो जायेंगे। इसलिये यह आधार भी नहीं लेना। समझा?

प्रश्न  करते हैं कि अब आगे क्या होने वाला है - विनाश होगा या नहीं होगा? विनाश ज्वाला प्रकट करने वाले इस हलचल में होंगे तो विनाश के निमित्त बनी हुई विनाशकारी आत्माओं के बने हुए प्लैन में भी हलचल हो जाती है। जैसे निमित्त बनी हुई आत्मायें सोचती हैं कि होगा या नहीं होगा - अब होगा या कब होगा? वैसे ही विनाशकारी आत्मायें इसी हलचल में है अब करे या कब करें, करें या न करें? जैसे यादगार चित्र कलियुगी पर्वत को अंगुली देने का है, वैसे ही विनाश कराने के निमित्त बनी हुई सर्व आत्माओं के अन्दर यह संकल्प दृढ हो कि होना ही है। यह संकल्प रूपी अंगुली जब तक सभी की नहीं हुई है, तब तक विनाश का कार्य भी रूका हुआ है। इसी अंगुली से ही कलियुगी पर्वत खत्म होने वाला है। अच्छा।

ऐसे विकराल रूप को, मास्टर महाकाल स्थिति से सामना करने वाले, सदा अकाल तख्त-नशीन, प्रकृति को अधीन करने वाले, बाप की सर्व प्राप्ति के अधिकारी बच्चों को बापदादा की याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु

1. अपने अकाल तख्त नशीन, अकालमूर्त बनने से महाकाल बाप के साथसाथ मास्टर महाकाल स्वरूप में स्थित होंगे तब ही प्रकृति के विकराल रूप का सामना कर सकेंगे।

2. जैसे प्रकृति के पाँच तत्व विकराल रूप धारण करेंगे वैसे पाँच विकार भी अपना शक्तिशाली रूप धारण कर अन्तिम दाव लगायेंगे। ऐसे समय में विशेष रूप से समेटने की शक्तिको धारण करने की आवश्यकता है। एक घर जाने के संकल्प के सिवाय अन्य कोई संकल्प का विस्तार न हो।

3. अशरीरी बनना वायरलेस सेट है। वाइसलेस बनना ही वायरलेस सेट की सेटिंग है। जरा भी अंश के भी अंशमात्र विकार, वायरलेस के सेट को बेकार कर देगा।



18-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


माया के चक्करों से परे, स्वदर्शन चक्रधारी ही भविष्य में छत्रधारी

निर्बल को महा बलवान बनाने वाले, माया के चक्करों से मुक्त करने वाले, रहम दिल व स्नेहमूर्त शिव बाबा स्वदर्शन चक्रधारी सो छत्रधारी बच्चों को देख बोले -

आज बापदादा सब ब्राह्मण बच्चों के वर्तमान और भविष्य दोनों को देख हर्षित हो रहे हैं। हर एक स्वदर्शन चक्रधारी सो छत्रधारी है। वर्तमान चक्रधारी और भविष्य में छत्रधारी। चक्रधारी नहीं तो छत्रधारी भी नहीं। जिन बच्चों का इस संगम युग का यह थोड़ा-सा अमूल्य समय, निरन्तर सदाकाल चक्र चलता रहता है अर्थात् अविनाशी चक्रधारी हैं, वही आत्मायें सदाकाल छत्रधारी बन सकती हैं। चक्रधारी बनने वाली आत्मा सदा माया अधिकारी होगी-माया अधिकारी आत्मायें ही बाप के बेहद वर्से की अधिकारी बनती हैं - अर्थात् स्वदर्शन चक्रधारी सो छत्रधारी बनती हैं। सदैव चक्र और छत्र दिखाई देता है?

चक्रधारी आत्मा की निशानी क्या दिखाई देगी? अपनी निशानी आप सबने देखी है? चक्रधारी अब भी लाइट के छत्रधारी दिखाई देंगे। चक्र की निशानी लाईट का चक्र दिखाई देगा। ऐसा चक्रधारी सदैव माया के अनेक प्रकार के चक्रों से मुक्त होगा। जैसे अपनी देह की स्मृति के अनेक व्यर्थ संकल्पों के चक्र से, लौकिक और अलौकिक सम्बन्धों के चक्र से, अपने अनेक जन्मों के स्वभाव और संस्कारों के चक्र से और प्रकृति के अनेक प्रकार के आकर्षण के चक्र से वह सदैव मुक्त होगा। सिवाय स्वदर्शन चक्र के वह और कोई चक्र में आ नहीं सकेगा। अन्य आत्माओं को भी बाप से प्राप्त हुई शक्तियों द्वारा अनेक चक्करों से सहज ही छुड़ा देगा।

माया के अनेक प्रकार के चक्करों की निशानी क्या होगी? जैसे चक्रधारी आत्मा लाइट के ताजधारी होंगी और बाप के वर्से की अधिकारी होंगी वैसे माया के अनेक प्रकार के चक्कर में आने वाले की निशानी क्या होगी? जैसे उनके सिर पर लाईट का ताज है, वैसे उनके सिर पर अनेक प्रकार के विघ्नों का बोझ होगा। ताज नहीं। सदैव किसी-न-किसी प्रकार का बोझ उनके सिर पर अर्थात् बुद्धि में महसूस होगा। ऐसी आत्मा सदैव कर्जदार और मर्जदार होगी - उनके मस्तक पर, मुख पर, सदैव क्वेश्चन मार्क होंगे। हर बात में क्यों, क्या और कैसे, यह क्वेश्चन्स होंगे। एक सेकेण्ड भी बुद्धि एकाग्र अर्थात् फुलस्टॉप में नहीं होगी। फुलस्टॉप की निशानी बिन्दी (.) होती है। अर्थात् मन्सा में भी बिन्दु स्वरूप की स्थिति नहीं होगी। वाचा और कर्मणा में भी बीती सो बीती, नाथिंग न्यू, जो होता है वह कल्याणकारी है, ऐसा फुलस्टॉप अर्थात् बिन्दी लगानी नहीं आयेगी। क्वेश्चन मार्क की निशानी देखने में भी टेढ़ी आती है फुलस्टॉप लिखना सहज है - फुलस्टॉप लिखने से क्वेश्चन मार्क लिखना जरा मुश्किल होता है। तो अनेक प्रकार के क्वेश्चन करना, चाहे स्वयं से अथवा दूसरों से या बाप से - यही निशानी है कि यह आत्मा स्वदर्शन चक्रधारी सो छत्रधारी नहीं।

ऐसी आत्मा हर संकल्प में सदा स्वयं से भी क्वेश्चन करती रहेगी कि क्या मैं सफलता मूर्त्त बन सकती हूँ? मैं सर्व के सम्पर्क में सफलता प्राप्त कर समीप आत्मा बनूँगी? मैं सर्व के स्वभाव-संस्कारों में चल सकूँगी? सर्व को सन्तुष्ट कर सकूँगी? ऐसे अनेक प्रकार के क्वेश्चन स्वयं के प्रति भी होंगे और अन्य के प्रति भी होंगे। यह मेरे से ऐसे क्यों चलते, मुझे विशेष सहयोग क्यों नहीं मिलता - मेरा नाम, मेरा मान क्यों नहीं होता? इसी प्रकार के अन्य के प्रति क्वेश्चन होंगे। ऐसे ही बाप के प्रति भी क्वेश्चन होंगे। जब बाप सर्व शक्तिवान् है तो मेरी बुद्धि को क्यों नहीं पलटाते? नजर से निहाल करने वाले मेरी तरफ नजर क्यों नहीं रखते? जबकि बाप है तो जैसी भी हूँ, कैसी भी हूँ, उनकी ही हूँ, उनकी ज़िम्मेवारी है, मुझे पार कराना - जब दाता है तो मैं जो चाहती हूँ वह क्यों नहीं देता? त्रिकालदर्शी है, मेरे तीनों कालों को जानता है, तो मुझे स्वयं ही अपनी शक्ति से श्रेष्ठ पद क्यों नहीं दिलाता? ऐसी मीठी-मीठी शिकायतें बाप के आगे रखते हैं। एक तरफ जन्म-जन्म का बोझ, दूसरी तरफ बाप के बच्चे होने के नाते, बाप द्वारा प्राप्त हुए सर्व अधिकार का रिटर्न करने का फर्ज पालन न करने के कारण अथार्त् अपना फर्ज न पालन करने के कारण फर्ज के बजाय कर्ज बन जाता है। कर्ज का बोझ आत्मा की सर्व कमजोरियों के मर्ज के रूप ले लेता है। ऐसे डबल बोझ वाले स्वदर्शन चक्रधारी कैसे बन सकेंगे?

एक तो है चक्रधारी, दूसरे हैं बोझदारी। ऐसे बोझ वाली आत्मायें डबल लाइटधारी कैसे बनेंगी? इसलिये उनकी बार-बार एक ही आवाज निकलती है, कि अनुभव नहीं होता। सुनते भी रहते, चलते भी रहते लेकिन प्राप्ति की मंज़िल नजर नहीं आती है। बड़ा मुश्किल है - ऐसी आवाज बाप सुने और ऐसे बच्चों को देखे तो बाप क्या करेंगे? मुस्करायेंगे और क्या करेंगे? फिर भी रहमदिल बाप के सम्बन्ध के कारण बार-बार हिम्मत और उल्लास दिलाते रहते हैं कि तुम ही बच्चों ने अनेक बार विजय प्राप्त की है - हिम्मत आपकी, मदद बाप की। फिर भी चलते चलो। रूको नहीं। कल्प पहले मुआफिक फिर से विजयी बन जाओ। सिर्फ एक सेकेण्ड भी सच्चे दिलसे, सर्व सम्बन्धों से याद करो तो उस एक सेकेण्ड में मिलने की अनुभूति व प्राप्ति सारे दिन में बार-बार सब तरफ से दूर कर बाप तरफ आकर्षित करती रहेगी। भले कितने भी निर्बल हो - लेकिन एक सेकेण्ड की याद इतना तो कर सकते हैं? ऐसी निर्बल आत्माओं को एक सेकेण्ड की याद रखने की हिम्मत के रिटर्न (बदले, उत्तर) में बाप हजार गुना मददगार बनेंगे। इससे सहज और क्या करेंगे? या आपकी तरफ से योग भी बाप ही लगायें? नाज़ुक बच्चे हैं न? नाज़ुक बच्चे बाप से भी नाज करते हैं, इसलिए नाज-युक्त नहीं बनो-लेकिन राज-युक्त और युक्ति-युक्त बनो। समझा? अच्छा।

ऐसे चक्रधारी सो छत्रधारी स्वयं को और सब को निर्बल से महा-बलवान बनाने वाले, सर्व कमज़ोरियों की सेकेण्ड में संकल्प में बलि देने वाले, ऐसे महाबलि चढ़ाने वाले महाबलवान अर्थात् मास्टर सर्वशक्तियों को शस्त्र समान कर्त्तव्य में लाने वाले ऐसे कर्मयोगी, सहज योगी आत्माओं के प्रति बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु

1. जो मनुष्यात्मा वर्तमान संगमयुग के समय स्वदर्शन चक्रधारी है, वही आत्मा भविष्य में छत्रधारी अर्थात् राज्य का अधिकारी बन सकती है।

2. चक्रधारी आत्मा की निशानी यह है कि लाइट का चक्र दिखाई देगा। ऐसी आत्मा माया के अनेक प्रकार के चक्करों से मुक्त, प्रकृति के भिन्न-भिन्न प्रकार के आकर्षणों से परे, बिन्दु रूप में स्थित



19-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शक्तियों एवं पाण्डवों की विशेषताएँ

सभी आत्माओं की जन्मपत्री जानने वाले, ज्ञान-सागर त्रिकालदर्शी परमात्मा शिव ने बताया -

आज अमृतवेले सर्व सेवा-स्थानों का सैर किया। वह सैर का समाचार सुनाते हैं। ‘‘क्या देखा-हर एक रूहानी बच्चे रूह को राहत देने के लिए, मिलन मनाने के लिए, रूह-रूहान करने के लिए व अपने दिल की बातें दिलाराम बाप के आगे (दिलाराम अर्थात् दिल को आराम देने वाला) रखते हुए अपने को डबल लाइट का वरदान दे भी रहे थे और ले भी रहे थे। कोई-कोई बच्चे विश्व-कल्याणी स्वरूप में स्थित हो बाप द्वारा मिले हुए सर्व शक्तियों का वरदान व महादान अनेक आत्माओं के प्रति दे रहे थे। तीन प्रकार की रिजल्ट देखी। एक थे लेने वाले, दूसरे थे मिलन मनाने वाले और तीसरे थे लेकर देने वाले अर्थात् कमाई करने वाले। ऐसे तीन प्रकार के बच्चों को चारों ओर देखा।’’

यह सब देखते हुए इसके बाद गॉडली स्टुडेण्ट के रूप में देखा - हर एक स्टुडेन्ट के रूप में गॉडली नॉलेज पढ़ने के लिए उमंग और उत्साह से अपने-अपने रूहानी विश्व-विद्यालय की ओर आ रहे हैं। नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार सब अपनी पढ़ाई में लगे हुए थे। - हर एक सेवा केन्द्र की रूहानी रौनक अपनी-अपनी थी। उसमें भी तीन प्रकार के देखे। एक थे सिर्फ सुनने वाले अर्थात् सुन-सुन कर हर्षित होने वाले, दूसरे थे सुनकर समाने वाले और तीसरे थे बाप समान नॉलेजफुल बनकर औरों को बनाने वाले।

यह सब देखते हुए फिर तीसरी स्टेज देखी - वह थी कर्मयोगी की स्टेज। तीसरी स्टेज में क्या देखा? एक थे कमल पुष्प, दूसरे थे रूहानी गुलाब और तीसरे थे वैरायटी प्रकार के फूल। उन वैरायटी फूलों में भी मैजॉरिटी सूर्यमुखी थे। जिस समय ज्ञानसूर्य के सम्मुख थे तो खिले हुए थे और कभी फिर ज्ञानसूर्य बाप से किनारा कर लेने के कारण फूलों के बजाय कलियाँ बन जाते थे अर्थात् रूप और रंग बदल जाता था। कमल-पुष्प क्या करते थे? सर्व कार्य करते हुए, सर्व सम्बन्धों के सम्पर्क में आते हुए न्यारे और साथ-साथ बाप के प्यारे थे। वायुमण्डल व आसुरी संग अनेक प्रकार की वृत्ति वाली आत्माओं के वाइब्रेशन्स के बीच कर्म करते हुए भी कर्म और योग दोनों में समान स्थिति में स्थित थे। अनेक प्रकार की हलचल में भी अचल थे। लेकिन ऐसी आत्मायें कितनी थी? 25% । उसमें भी मैजॉरिटी शक्तियाँ थी। पाण्डव सोच रहे हैं कि क्यों? पाण्डवों की विशेषता भी सुनाते हैं, थोड़ा समय सिर्फ धैर्य रखो। पाण्डव-पति के हमजिन्स पाण्डव की भी महिमा है। कमल-पुष्प के आगे रूहानी गुलाब वह कौन थे? रूहानी गुलाब जो सदा अपने रूहानियत की स्थिति में स्थित रहते हुए सर्व को भी रूहानि्ायत की दृष्टि से देखने वाले, सदा मस्तक मणि को देखने वाले हैं। साथ-साथ अपनी रूहानियत की स्थिति से सदा अर्थात् हर समय सर्व आत्माओं को अपनी स्मृति, दृष्टि और वृत्ति से रूहानी बनाने के शुभ संकल्पों में रहने वाले अर्थात् हर समय योगी तू आत्मा सेवाधारी आत्मा हो कर चलने वाले - ऐसे रूहानी गुलाब चारों ओर की फुलवारी के बीच बहुत थोड़े कहीं-कहीं देखे? यह परसेन्टेज कम थी। 10%  वैरायटी फूलों के अन्दर एक तो सूर्यमुखी सुनाया दूसरी क्वॉलिटी हर मौसम के बड़े सुन्दर रंगबिरंगे फूल होते हैं, उन पर मौसम की रंग-रूप की रौनक बड़ी अच्छी होती है। बगीचे की शो बढ़ा देते हैं। ऐसे मौसम के रंग बिरंगे फूलों के दृश्य बहुत देखे। रंग और रूप- यहाँ भी रूप ब्रह्माकुमारी और ब्रह्माकुमार का है, रंग ज्ञान का लगा हुआ है। तो रंग भी और रूप भी है, लेकिन रूहानियत कम। रूहानी दृष्टि और वृत्ति की सुगन्ध न के बराबर है। अभी-अभी मौसम के अनुसार अर्थात् थोड़े समय के लिये खिले हुए होंगे और थोड़े समय बाद मुरझाए हुए नज़र आयेंगे। सदा एकरस नहीं। ऐसे रंग-बिरंगे फूल जो मौसम में ही खिलते हैं, मैजॉरिटी में थे।

वर्तमान समय रूहानी दृष्टि और वृत्ति के अभ्यास की बहुत आवश्यकता है। 75%  इस रूहानियत के अभ्यास में कमज़ोर हैं। मैजॉरिटी किसी-न-किसी प्रकार के प्रकृति के आकर्षण के वशीभूत हो ही जाते हैं। व्यक्ति व वैभव कभी-न-कभी अपने वश कर लेता है। उसमें भी मन्सा संकल्प के चक्कर में खूब परेशान होने वाले हैं। इस परेशानी के कारण स्वयं से दिलशिकस्त भी हो जाते हैं। वास्तव में ब्राह्मण आत्मा अगर संकल्प में विकारी दृष्टि और वृत्ति रखती है अर्थात् इस चमड़ी को देखती है - चमड़ी अर्थात् जिस्म द्वारा विकारी भावना रखते हैं - तो ऐसी भावना रखने वाले भी महापापीकी लिस्ट में आ जाते हैं। ब्राह्मण जीवन में बड़े से बड़ा पाप व दाग इस विकारी भावना का गिना जाता है। ब्राह्मण अर्थात् दिव्य-बुद्धि के वरदान वाले। दिव्य नेत्र के वरदान वाले, ऐसे दिव्य बुद्धि और दिव्य नेत्र वाले बुद्धि में संकल्प द्वारा दिव्य नेत्र में एक सेकेण्ड के लिए भी नजर द्वारा इस चमड़ी को व जिस्म को टच भी नहीं कर सकते। दिव्य बुद्धि का, दिव्य नेत्र का शुद्ध आहार और व्यवहार शुद्ध संकल्प हैं। अगर अपने शुद्ध संकल्प रूपी आधार अर्थात् भोजन को छोड़ अशुद्ध आहार स्वीकार करते हो अर्थात् संकल्प के वशीभूत हो जाते हैं तो ऐसे मलेच्छ भोजन वाले मलेच्छ आत्मा कहलायेंगे अर्थात् महापापी, आत्मघाती कहलायेंगे। इसलिए इस महापाप के संकल्प से भी स्वयं को सदा बचाने का प्रयत्न करो। नहीं तो इस महापाप का दण्ड बहुत कड़े रूप में भोगना पड़ेगा। इसलिए दिव्य बुद्धि और सदा शुद्ध आहारी बनो। समझा?

पाण्डवों की विशेषता क्या देखी? सेवा प्रति हार्ड वर्कर (परिश्रमी) प्लैनिंग (नियोजन) बुद्धि अथक बन सेवा की स्टेज पर हर समय एवर रेडी हैं। सेवा के सब्जेक्ट में मैदान पर आने वाले मैजारिटी पाण्डव हैं, इस विशेषता में पाण्डव आगे हैं और इसी सेवा के रिटर्न में हिम्मत और हुल्लास अनुभव करते चल रहे हैं। पाण्डव वातावरण के विकारी वायब्रेशन के बीच ज्यादा रहते हैं, इसलिए ऐसे वातावरण में रहते हुए न्यारे और प्यारेरहते हैं, तो उनको इस सफलता में शक्तियों से एकस्ट्रा मार्क्स मिलती हैं। लेकिन इस लॉटरी को और ज्यादा कार्य में लाओ व ऐसा गोल्डन चान्स और ज्यादा लेना। सुना आज के सैर का समाचार। अच्छा।

ऐसे इशारे से समझने वाले समझदार, स्थूल-सूक्ष्म शुद्ध आहारी, सदा श्रेष्ठ व्यवहारी, हर संकल्प में विश्व-कल्याण की भावना रखने वाले विश्व-कल्याणी आत्माओं के प्रति बापदादा की याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली के विशेष ज्ञान-तत्व

पाण्डव सदा एवररेडी और सेवा प्रति हार्ड वर्कर (परिश्रमी) प्लानिंग (नियोजन) बुद्धि, अथक सेवा की स्टेज पर हर समय तैयार रहने वाले हैं। पाण्डव वातावरण के विकारी वायुमण्डल के बीच ज्यादा रहते हुए भी न्यारे और प्यारे रहते हैं तो शक्तियों से अधिक मार्क्स पा सकते हैं।



20-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शक्ति होते हुए भी जीवन में सफलता और सन्तुष्टता क्यों नहीं?

सर्वशक्तियों, सिद्धियों और निधियों के दाता, शिव बाबा बोले -

जैसे बाप सर्व गुणों के सागर हैं, क्या आप भी वैसे ही अपने को मास्टर सागर समझते हो? सागर अखण्ड, अचल और अटल होता है। सागर की विशेष दो शक्तियाँ सदैव देखने में आयेंगी - एक समाने की शक्ति, जितनी समाने की शक्ति है उतनी सामना करने की भी शक्ति है। लहरों द्वारा सामना भी करते हैं और हर वस्तु व व्यक्ति को स्वयं में समा भी लेते हैं। तो मास्टर सागर होने के कारण अपने में भी देखो कि यह दोनों शक्तियाँ मुझ में कहाँ तक आई हैं? अर्थात् कितने परसेन्टेज में हैं? क्या दोनों शक्तियों को समय-प्रमाण यूज़ कर सकते हो? क्या शक्तियों द्वारा सफलता का अनुभव होता है?

कई बच्चे सर्व शक्तियों का स्वयं में अनुभव भी करते हैं और समझते हैं कि मुझ में यह शक्तियाँ हैं। लेकिन शक्तियाँ होते हुए भी कही-कही वे सफलता का अनुभव नहीं करते। ज्ञानस्वरूप, आनन्द, प्रेम, सुख और शान्ति स्वरूप स्वयं को समझते हुए भी स्वयं से सदा सन्तुष्ट नहीं अथवा पुरुषार्थी होते हुए भी प्रारब्ध अर्थात् प्राप्ति का प्रत्यक्ष फल के रूप में जो अनुभव होना चाहिए, वह कभी-कभी ही कर सकते हैं। सर्व नियमों का पालन भी करते हैं, फिर भी स्वयं को सदा हर्षित अनुभव नहीं करते। मेहनत बहुत करते हैं लेकिन फल का अनुभव कम करते हैं। माया को दासी भी बनाते हैं, लेकिन फिर भी कभी-कभी उदासी महसूस करते हैं। इसका कारण क्या है? शक्तियाँ भी है, साथ-साथ ज्ञान भी हैं, नियमों का पालन भी करते हैं, तब कमी किस बात में है कि स्वयं, स्वयं से ही कन्फ्यूज रहते हैं?

इसमें कमी यह है कि प्राप्त की हुई शक्ति को व ज्ञान की प्वॉइन्ट्स को जिस समय, जिस रीति से कार्य में लगाना चाहिए उस समय, उस रीति से यूज़ करना नहीं आता है। बाप से प्रीति है, ज्ञान से भी प्रीति है, दिव्य गुण-सम्पन्न जीवन से भी प्रीति है - लेकिन प्रीति के साथ-साथ रीति नहीं आती है व रीति के साथ प्रीतिनहीं आती। इसलिए अमूल्य वस्तु भी साधारण प्राप्ति का आधार बन जाती हैं। जैसे स्थूल में भी कितना ही बड़ा यन्त्र व मूल्यवान वस्तु पास होते हुए भी यूज़ करने की रीति नहीं आती है तो उस द्वारा जो प्राप्ति होनी चाहिये वह नहीं कर पाते हैं, ऐसे ही ज्ञानवान बच्चे भी ज्ञान और शक्तियों द्वारा जो प्राप्ति होनी चाहिये, नहीं कर पाते हैं। ऐसी आत्माओं के ऊपर बापदादा को भी रहम आता है।

अब वह रीति, जो न आने के कारण प्राप्ति का अनुभव नहीं कर पाते, वह रीति कैसे आये? इसमें चाहिये - निर्णय शक्ति। निर्णय शक्ति न होने के कारण जहाँ समाने की शक्ति यूज़ करनी चाहिये वहाँ सामना करने की शक्ति यूज़ कर लेते हैं। जहाँ समेटने की शक्ति यूज़ करनी चाहिये, वहाँ विस्तार करने की शक्ति यूज़ कर लेते हैं। इसलिये संकल्प सफलता का होता है, लेकिन स्वरूप में व प्राप्ति में संकल्प-प्रमाण सफलता नहीं होती है। विशेष शक्ति की प्राप्ति का मुख्य आधार क्या है? निर्णय शक्ति को तेज करने के लिए किस बात की आवश्यकता है? कोई भी यन्त्र स्पष्ट निर्णय नहीं कर पाता तो उसका कारण क्या होता है? निर्णय शक्ति को बढ़ाने के लिए अपनी श्रेष्ठ स्थिति - निराकारी, निरहंकारी, निर्विकारी और निर्विकल्पता की चाहिए। अगर इन चारों में से किसी भी बात की कमी रह जाती है, तो यह श्रेष्ठ धारणा न होने के कारण स्पष्टता नहीं होती है। श्रेष्ठ ही स्पष्ट होते हैं। यही उलझन बुद्धि को स्वच्छ नहीं बनने देती। स्वच्छता ही श्रेष्ठताहै। इसलिए अपनी निर्णय शक्ति को बढ़ाओ। तब ही बाप के समान सर्व-गुणों में मास्टर सागर अनुभव कर सकेंगे।

जैसे सागर अनेक वस्तुओं से सम्पन्न होता है वैसे स्वयं को भी सर्वशक्तियों से सम्पन्न स्वरूप का अनुभव करो, क्योंकि सम्पन्नता का वरदान संगमयुग पर ही मिलता है। सम्पन्न-स्वरूप का अनुभव सिवाय संगमयुग के और कहीं भी नहीं कर सकेंगे। आपके ही दैवी जीवन के सर्वगुण सम्पन्न होने का गायन है। 16 कलाओं का भी गायन है। लेकिन सम्पन्न का स्वरूप क्या होता है? गुण और कला की नॉलेज इस ईश्वरीय जीवन में ही है। इसलिये सम्पन्न बनने का आनन्द इस ईश्वरीय जीवन में ही प्राप्त कर सकते हो।

रीति सीखने के लिये, बाप द्वारा जो भी प्राप्त होता जा रहा है, चाहे ज्ञान, चाहे शक्तियाँ, इन्हों को समय प्रमाण कार्य में लगाते जाओ। बहुत अच्छी बातें हैं और बहुत अच्छी चीज है, सिर्फ यह समझ कर अन्दर समा न लो। अर्थात् बुद्धि की तिजोरी में रख न लो। सिर्फ बैंक बैलेन्स न बनाते जाओ या कई बुजुर्गो के मुआफिक गठरियाँ बाँध कर अन्दर रख न दो। सिर्फ सुनने और रखने का आनन्द नहीं लो, लेकिन बार-बार स्वयं के प्रति और सर्व आत्माओं के प्रति काम में लगाते जाओ क्योंकि इस समय की जो प्राप्ति हो रही है, इन प्राप्तियों को यूज़ करने से ईश्वरीय नियम-प्रमाण जितना यूज़ करेंगे उतनी वृद्धि होगी, जैसे दान के लिये कहावत है - धन दिये धन न खुटे’, अर्थात् देना ही बढ़ना है, ऐसे ही इन ईश्वरीय प्राप्तियों को अनुभव में लाने से प्राप्ति कम नहीं होगी, बल्कि और ही प्राप्ति स्वरूप का अनुभव करोगे। बार-बार युज़ करने से, जैसा समय वैसा स्वरूप अपना बना सकेंगे व जिस समय जो शक्ति यूज़ करनी चाहिये वह शक्ति उस रीति यूज़ कर सकेंगे। समय पर धोखा खाने से बच जायेंगे। धोखा खाने से बचना अर्थात् दु:ख से बचना। तो क्या बन जायेंगे? - सदा हर्षित अर्थात् सदा सुखी, खुशनसीब बन जायेंगे। तो अब अपने ऊपर रहम करके, प्राप्तियों को यूज़ करके और प्रीति के साथ रीति को जान करके, सदा मास्टर ज्ञान सागर बनो, शक्ति का सागर बनो और सर्व प्राप्तियों का सागर बनो। अच्छा।

ऐसे सर्व अनुभवों से सम्पन्न मायाजीत, जगतजीत, अपने अनुभवों द्वारा सर्व को अनुभवी बनाने वाले बापदादा के भी बालक सो मालिक, ऐसे बाप के मालिक और विश्व के मालिक आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते!

इस मुरली की विशेष बातें अथवा तथ्य

1. ज्ञानसागर बाप द्वारा प्राप्ति की हुई शक्तियों व ज्ञान के तथ्यों को जिस समय जिस रीति से कार्य में लगाना चाहिये उस समय उस रीति से उपयोग न कर सवने के कारण स्वयं में उलझे हुए रहते हैं और सफलता व सिद्धि की अनुभूति अपने जीवन में नहीं कर पाते हैं।

2. उपयोग की उचित रीति को जानने के लिये अपनी निर्णय शक्ति को बढ़ाना आवश्यक है।



21-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


फरिश्ता अर्थात् जिसका एक बाप के सिवा अन्य आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं

एक के द्वारा सर्व-सम्बन्धों के सुख की अनुभूति कराने वाले, मुश्किल को सहज करने वाले, देह रूपी धरनी से सदा न्यारे, करन-करावनहार शिव बाबा बोले –

‘‘वाह रे - मैं!’’ का नशा याद है? वह दिन, वह झलक और फलक स्मृति में आती है? वह नशे के दिन अलौकिक थे। ऐसे नशे के दिन स्मृति में आते ही नशा चढ़ जाता है - इतना नशा इतनी खुशी जो स्थूल पाँव भी चलते-फिरते नैचुरल डान्स करते हैं - प्रोग्राम से डान्स नहीं। मन में भी नाच और तन भी नैचुरल नाचता रहे। यह नैचुरल डान्स तो निरन्तर हो सकता है? ऑखों का देखना, हाथों का हिलना और पाँव का चलना सब खुशी में नैचुरल डान्स करते हैं। उनको फरिश्तों का डान्स कहते हैं - ऐसे नैचुरल डान्स चलता रहता है? जैसे कहते हैं कि फरिश्तों के पाँव धरती पर नहीं टिकते। ऐसे फरिश्ते बनने वाली आत्मायें भी इस देह अर्थात् धरती - जैसे वह धरती मिट्टी है वैसे यह देह भी मिट्टी है ना? तो फरिश्तों के पाँव धरती पर नहीं रहते अर्थात् फरिश्ते बनने वाली आत्माओं के पाँव अर्थात् बुद्धि इस देह रूपी धरती पर नहीं रह सकती। यही निशानी है फरिश्तेपन की। जितना फरिश्तेपन की स्थिति के समीप जाते रहते, उतना देह रूपी धरती से पाँव स्वत: ही ऊपर होंगे। अगर ऊपर नहीं हैं, धरती पर रहते हैं तो समझो बोझ है। बोझ वाली वस्तु ऊपर नहीं रह सकती। हल्कापन न है, बोझ है तो इस देह-रूपी धरती पर बार-बार पाँव आ जायेंगे। फरिश्ता अर्थात् हल्का नहीं बनेंगे। फरिश्तों के पाँव धरती से ऊंचे स्वत: ही रहते हैं, करते नहीं हैं। जो हल्का होता है उनके लिये कहते हैं कि यह तो जैसे हवा में उड़ता रहता है - चलता नहीं है, उड़ता है। ऐसे ही फरिश्ते भी ऊंची स्थिति में उड़ते हैं। ऐसे नैचुरल फरिश्तों का डान्स देखने और करने में भी मजा आता है। महारथी टीचर्स यह नेचुरल फरिश्तों की डान्स करती रहती हैं ना?

करन-करावनहार शिव बाबा ने अपने सम्मुख बैठी टीचर्स से पूछा - (कोई ने कहा, बाबा माया के हाथ काट दो) अगर बाप माया के हाथ काट दे तो जो काटेगा, वह पायेगा। बाप तो सब कुछ कर सकते हैं। सेकेण्ड का आर्डर है - लेकिन भविष्य बनाने वालों का भविष्य कैसे बने? बाप सबके लिये कर दे या सिर्फ आपके लिए कर दे। फिर तो जैसे आज की दुनिया में रिश्वतखोर हैं तो यह भी वही लिस्ट हो जायेगी। इसलिए जैसे नेपाल में भी छोटे बच्चों को खुखडी (छुरी) हाथ में पकड़ाते हैं। करते खुद हैं लेकिन हाथ बच्चों का रखाते हैं। इतना हो सकता है लेकिन हिम्मत का हाथ खुद ज़रूर रखना है। इतना तो करना है ना? यह टीचर्स की टॉपिक (चर्चा का विषय) है - सारे दिन में कितना समय फरिश्ते रहते और कितना समय फरिश्तों के बजाय मृत्युलोक के मानव होते हो? दैवी परिवार के रिश्तों में भी फरिश्ते नहीं आते। वह तो सदैव न्यारे रहते हैं। रिश्ते सब किससे हैं? अगर कोई को सखी बनाया तो बाप से वह सखीपन का रिश्ता कम हो जायेगा। कोई भी सम्बन्ध चाहे बहन का या भाई का या अन्य कोई भी रिश्ता जोड़ा तो एक से ज़रूर वह रिश्ता हल्का होगा। क्योंकि बँट जाता है ना? दिल का टुकड़ा-टुकड़ा हो गया तो टूटा हुआ दिल हो गया। टूटे हुए दिल को बाप भी स्वीकार नहीं करते। यह भी गुह्य रिश्तों की फिलॉसॉफी है।सिवाय एक के और कोई से रिश्ता नहीं - न सखा न सखी। न बहन न भाई- नहीं तो उस सम्बन्ध में भी आत्मा ही याद आयेगी।

फरिश्ता अर्थात् जिसका आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं। प्रीति जुटाना सहज है, लेकिन निभाना मुश्किल है। निभाने में ही नम्बर होते हैं। जुटाने में नहीं होते। निभाना किसी-किसी को आता है, सब को नहीं आता। निभाने की लाइन बदली हो जाती है। लक्ष्य एक होता है लक्षण दूसरे हो जाते हैं। इसलिये निभाते कोई- कोई हैं, जुटाते सब हैं। भक्त भी जुटाते हैं लेकिन निभाते नहीं हैं। बच्चे निभाते हैं, लेकिन उसमें भी नम्बरवार। कोटो में कोई और कोई-कोई में भी कोई। कोई एक सम्बन्ध में भी अगर निभाने में कमी हो गई या सम्बन्ध में जरा-सी भी कमी हुई, मानों 75%  सम्बन्ध बाप से है और 25%  सम्बन्ध कोई एक आत्मा से है, तो भी निभाने वाले की लिस्ट में नहीं रखेंगे। बाप का साथ 75%  रखते हैं और कभी-कभी 25%  कोई का साथ लिया तो भी निभाने वाले की लिस्ट में नहीं आयेंगे। निभाना-तो निभाना। यह भी गुह्य गति हैं। संकल्प में भी कोई आत्मा न आये। इसको कहते हैं सम्पूर्ण निभाना। कैसी भी परिस्थिति हो, चाहे मन की, तन की, या सम्पर्क की-कोई भी आत्मा संकल्प में न आये। संकल्प में भी कोई आत्मा की स्मृति आई तो उसी सेकेण्ड का भी हिसाब बनता है। तभी तो आठ पास होते हैं। विशेष आठ का ही गायन है। ज़रूर इतनी गुह्य गति होगी? बड़ा कड़ा पेपर है। तो फरिश्ता उनको कहा जाता है, जिसके संकल्प में भी कोई न रहे। कोई परिस्थिति में, मजबूरी में भी नहीं। सेकेण्ड के लिये संकल्प में भी न हो। मजबूरी में भी मजबूत रहे-तब है फरिश्ता। ऊंची मंज़िल है, लेकिन इसमें कोई नुकसान नहीं है। सहज इसलिये है क्योंकि प्राप्ति पदम गुना होती है।

जो बाप के रिश्ते से प्राप्ति होती है, वह उसी सेकेण्ड में स्मृति में नहीं आती है, भूल जाते हैं इसलिये कोई का आधार ले लेते हैं। प्राप्ति कोई कम है क्या? मुश्किल से सहज करने वाले बाप का ही गायन है, न कि कोई आत्मा का। तो मुश्किल के समय बाप का सहारा लेना चाहिए, न कि किसी आत्मा का सहारा लेना चाहिए। लेकिन उस समय वह प्राप्ति भूल जाती है। कमज़ोर होते हैं। जैसे डूबते हुए को तिनका मिल जाता है तो उसका सहारा ले लेते हैं। उस समय परेशानी के कारण जो तिनका सामने आता है, उनका सहारा ले लेते हैं, लेकिन उससे बे-सहारे हो जायेंगे, यह स्मृति में नहीं रहता? अच्छा।

इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु

1. फरिश्ता बनने वाली आत्माओं के बुद्धि रूपी पाँव इस देह रूपी धरनी पर नहीं टिकते।

2. फरिश्ता अर्थात् जिसका अन्य आत्माओं से कोई रिश्ता नहीं। सर्व रिश्ते एक रूहानी बाप से हों। कैसी भी परिस्थिति हो - चाहे मन की, तन की या सम्पर्क की कोई भी आत्मा संकल्प में न आये। जो मजबूरी में भी मजबूत रहेतब वह है फरिश्ता।



22-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्वमान में स्थित होना ही सर्व खजानें और खुशी की चाबी है

सर्व आत्माओं के शुभ-चिन्तक, अविनाशी ज्ञान, शक्ति और खुशी के खज़ाने देने वाले विदेही शिव बाबा बोले -

आज की सभा स्वमान में स्थित रहने वाली, सर्व को स्व-भावना से देखने व हर आत्मा के प्रति शुभ कामना रखने वाली है। यह तीनों ही बातें स्वयं के प्रति स्वमान, औरों के प्रति स्व की भावना और सदा शुभ कामना ऐसी स्थिति सदा सहज रहती है? सहज उसमें स्थित रहना और मेहनत से उस स्थिति में स्थित होना इसका फर्क तो जानते ही हो। वर्तमान समय यह स्थिति सदा सहज और स्वत: होनी चाहिए। अपने को चेक करे कि सदा और स्वत: ही वह स्थिति क्यों नहीं हो पाती? इसका मूल कारण है कि स्वमान में स्थित नहीं रहते। स्वमान एक शब्द प्रैक्टिकल जीवन में धारण हो जाय तो सहज ही सम्पूर्णता को पा सकते हैं।

स्वमान में स्थित होने से स्वत: ही सर्व प्रति स्व की भावना व शुभ कामना हो जायेगी। यह स्वमान में स्थित होना पहला पाठ है।’’ स्वमान में स्थित होना ही जीवन की पहेली को हल करने का साधन है। आदि से लेकर अभी तक इस पहेली को हल करने में ही लगे हुए हो कि ‘‘मैं कौन हूँ?’’ शुरू में जब स्थापना का कार्य आरम्भ हुआ था तो सबको क्या सुनाते थे-व्हाट एम आई अर्थात् मैं कौन हूँ? यह बात इतनी पक्की स्मृति में थी कि सब लोग जानते थे कि इन सबका एक ही पाठ है कि व्हाट एम आई? वही एक पाठ अब तक चल रहा है। इसलिए इसको पहेली कहा जाता है। इस इतनी-सी छोटी पहेली ने ऊंचे-से-ऊंचे ब्राह्मणों को भी पराजित कर दिया है। पजल अर्थात् व्याकुल, भ्रमित कर दिया है। अर्थात् सम्पूर्ण रीति से हल नहीं कर पाये हैं। स्वमान के बजाय देह-अभिमान व अन्य आत्माओं के प्रति अभिमान की दृष्टि हो जाती है तो क्या कहे? क्या यह पहेली हल कर ली है अथवा अभी तक भी हल कर ही रहे हैं।

‘‘मैं कौन हूँ’’ इस एक शब्द के उत्तर में सारा ज्ञान समाया हुआ है। यह एक शब्द ही खुशी के खज़ाने सर्व, शक्तियों के खज़ाने, ज्ञान धन के खज़ाने, श्वांस और समय के खज़ाने की चाबी है। चाबी तो मिल गई है न? जिस दिन आपका जन्म हुआ तो सर्व ब्राह्मणों को बर्थ डे पर गिफ्ट मिलती है ना? तो यह बर्थ डे की गिफ्ट जो बाप ने दी है, उसको सदा यूज़ (काम में लाना) करते रहो। तो सर्व खज़ानों से सम्पन्न सदा के लिये बन सकते हो। ऐसे सर्व खज़ानों से सम्पन्न आत्मा के दिल के खुशी की उमंगों में हर समय कौन-सा  आवाज निकलता है? मुख का आवाज नहीं, लेकिन दिल का आवाज क्या निकलता है? जो शुरू में ब्रह्मा बाप के दिल का आवाज था - कौन-सा ? ‘वाह रे मैं!जैसे औरों की वाह-वाह की जाती है ना - वैसे वाह रे मैं! यह स्वमान के शब्द हैं, न कि देह-अभिमान के।

तो मैं कौन हूँ की चाबी को या तो लगाना नहीं आता या फिर रखना नहीं आता (रटना तो आता है) रखना नहीं आता। इसलिये समय पर याद नहीं आता। इस चाबी को चुराने के लिए माया भी चारों ओर घूमती है कि कहीं यह एक सेकेण्ड भी अलबेलेपन के झुटके में आयें तो यह चाबी चोरी कर लें। जैसे आजकल के डाकू बेहोश कर देते हैं वैसे ही माया भी स्वमान का होश अर्थात् स्मृति को गायब कर बेहोश बना देती है। इसलिए सदा स्वमान के होश में रहो। अमृतवेले स्वयं को ही स्वयं यह पाठ पक्का कराओ अर्थात् रिवाइज कराओ कि - मैं कौन हूँ? अमृत वेले से ही इस चाबी को अपने कार्य में लगाओ। और अनेक प्रकार के खज़ाने जो सुनाये हैं उनको बार-बार देखो कि क्या-क्या खज़ाना मिला है और समय प्रमाण इन सब खज़ानों को अपने जीवन में यूज़ करो। जैसे कल सुनाया कि सिर्फ बैंक बैलेन्स नहीं बनाओ लेकिन उसे काम में लगा। तो सहज ही जैसी स्मृति वैसी स्थिति हो जायेगी।

जैसे कल्प पहले के यादगार शास्त्र में लिखा हुआ है - बाप के लिये कहते हैं कि मैं कौन हूँ तो सर्व में श्रेष्ठ का वर्णन किया है। ऐसे ही जैसे बाप का ऊंचेसे- ऊंचे भगवान का गायन है, तो भगवान बाप क्या गायन करते हैं - ऊंचे-से- ऊंचे बच्चे। ऐसे अपने ऊंच अर्थात् श्रेष्ठ स्वमान को सदा याद रखो कि ऊंचे बाप के भी बालक सो मालिकहैं। स्वयं बाप हम श्रेष्ठ आत्माओं की माला सुमिरण करते हैं। बाप की महिमा आत्मायें करती हैं, लेकिन आप श्रेष्ठ आत्माओं की महिमा स्वयं बाप करते हैं। सर्व श्रेष्ठ आत्माओं के सहयोग के बिना तो बाप भी कुछ नहीं कर सकता। तो आप ऐसे श्रेष्ठ स्वमान वाले हो। बाप को सर्व-सम्बन्धों से प्रख्यात करने वाले व बाप का परिचय देने वाली आप श्रेष्ठ आत्माएँ हो। हर कल्प में ऊंचे से ऊंचे बाप के साथ उंचे से ऊंचे पार्ट बजाने वाली हो। सबसे बड़े स्वमान की बात तो यह है कि जो संगम युग पर बाप को भी अपने स्नेह और सम्बन्ध की डोर में बांधने वाले हो। बाप को भी साकार में आप समान बनाने वाले हो। बाप निराकार रूप में आप समान बनाते हैं और आप निराकार को साकार में आने में उसे आप समान बनाते हो और आप स्वयं बाप की सर्व महिमा के समान बनते हो। इसलिये बाप भी कहते हैं - मास्टर हो। तो अब समझा कि मैं कौन हूँ? - जो हूँ, जैसा हूँ, वैसा ही अपने को जानने से सदा स्वमान में रहेगे और देह-अभिमान से स्वत: ही परे रहेगे। स्वमान के आगे देह-अभिमान आ ही नहीं सकता। तो अपने बर्थ डे की गिफ्ट को सदा अपने पास सम्भाल कर रखो। अलबेलेपन में भूल न जाओ। इससे ही स्वत: सहज और सदा सर्व प्रति स्व की भावना और शुभ-कामना रहेगी। समझा? पहेली तो सहज है ना? समझदार के लिये सहज है और अलबेली आत्माओं के लिये गुह्य है। आप सब तो बेहद के समझदार बच्चे हो ना? सिर्फ समझदार नहीं लेकिन बेहद के समझदार बच्चे हो। अच्छा।

ऐसे विशाल बुद्धि सर्व में बेहद बुद्धि को धारण करने वाले, सर्व आत्माओं को अनेक प्रकार के हदों से निकालने वाले ऐसे बेहद के बुद्धिमान, बेहद समझदार, बेहद की वैराग्य वृत्ति वाले, सदा बेहद की स्थिति और स्थान में रहने वाले ऐसी सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को बेहद के बाप का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली के विशेष तत्व

1. पहला पाठ ‘‘मैं कौन हूँ’’ जानना ही जीवन की पहेली को हल करना है। इस एक प्रश्न के उत्तर में सारा ज्ञान समाया हुआ है। यह एक शब्द ही खुशी के खज़ाने, सर्व शक्तियों के खज़ाने, ज्ञान-धन के खज़ाने, श्वांस और समय के खज़ाने की चाबी है। यह सर्व ब्राह्मणों के जन्म दिन की पहली सौगात है।



27-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बेहद का वैरागी, त्यागी और सेवाधारी ही विश्व-महाराजन्

मनुष्यात्माओं को लाइट और माइट देने वाले, विश्व-महाराजन् की श्रेष्ठ प्रालब्ध प्राप्त कराने वाले, नजर से निहाल करने वाले, धर्मराजपुरी की सजाओं से बचने का पुरूषार्थ कराने वाले, विश्व-कल्याणी परमात्मा शिव बोले -

रुह का रूहानी मिलन वाणी द्वारा होता है या वाणी से परे रूहानी मिलन होता है? अन्तिम स्टेज वाणी से परे एक सेकेण्ड में रूहानी नजर की झलक से होती है। यह जो गाया हुआ है कि झलक दिखा दो, वह नयनों द्वारा मस्तक मणि का गायन है। अन्तिम समय नजर से निहाल करने का ही गायन है।

आप हरेक लाइट हाउस और माइट हाउस की स्थिति में होंगे तो एक स्थान पर स्थित होते हुए भी विश्व के चारों ओर अपनी लाइट और माइट देने का कर्त्तव्य करेंगे। इसमें भी विश्व-महाराजन् बनने वाले लाइट और माइट हाउस होंगे। राजपद पाने वालों के सम्पर्क में आने वाले साहूकार व प्रजा लाइट हाउस नहीं होगी, बल्कि लाइट स्वरूप होगी। लाइट और माइट हाउस दोनों में अन्तर है। विश्व महाराजन् बनने के लिए जब तक विश्व सेवक नहीं बने हैं तब तक विश्व महाराजन् नहीं बन सकते। विश्व महाराजन् बनने के लिए तीन स्टेजिस से पार करना पड़ता है। पहली स्टेज एक सेकेण्ड में बेहद का त्यागी - सोच करते समय गंवाने वाले नहीं, लेकिन झट से और एक धक से बाप पर बलिहार जाने वाले। दूसरी बात - बेहद के निरन्तर अथक सेवाधारी और तीसरी बात-सदैव बेहद के वैराग्यवृत्ति वाले। बेहद के त्यागी, बेहद के सेवाधारी और बेहद के वैरागी। इन तीनों स्टेजिस से पार करने वाले ही विश्व-महाराजन् बन सकते हैं। साथ ही अन्त में लाइट हाउस और माइट हाउस बन सकते हैं। अपने आपको चेक करो कि तीनों स्टेजिस में से कौन-सी स्टेज तक पहुँचे हैं? स्वयं ही स्वयं का जज बनो। धर्मराजपुरी में जाने से पहले जो स्वयं, स्वयं का जज बनता है वही धर्मराजपुरी की सजा से बच जाता है।

बाप भी बच्चों को धर्मराजपुरी में नहीं देखना चाहते हैं। धर्मराजपुरी की सजा से बचने के लिए सहज उपाय जानते हो कौन-सा  है? अज्ञानकाल में भी कहावत है कि सोच-समझ कर काम करो। पहले सोचो फिर कर्म करो व बोलो। अगर सोच-समझ कर कर्म करेंगे तो व्यर्थ कर्म के बजाए हर कर्म समर्थ होगा। कर्म के पहले सोच अर्थात् संकल्प उत्पन्न होता है। यह संकल्प ही बीज है। अगर बीज अर्थात् संकल्प पॉवरफुल है तो वाणी और कम्र् स्वत: ही पॉवरफुल होते हैं। इसलिए वर्तमान समय के पुरूषार्थ में हर संकल्प को पॉवरफुल बनाना है। संकल्प ही जीवन का श्रेष्ठ खज़ाना है। जैसे खज़ाने द्वारा जो चाहे, जितना चाहे, उतना प्राप्त कर सकते हैं, वैसे ही श्रेष्ठ संकल्प द्वारा ही सदाकाल की श्रेष्ठ प्रालब्ध पा सकते हैं। सदैव यह छोटा-सा स्लोगन स्मृति में रखो कि सोच-समझ कर करना और बोलना है तब सदाकाल के लिए श्रेष्ठ जीवन बना सकेंगे और धर्मराजपुरी की सजाओं से बच सकेंगे। जैसे जज का कार्य क्या होता है सोच-समझ कर जजमेन्ट (निर्णय) देना। हर संकल्प में अपना जस्टिस बनो। इससे तो स्वर्ग में भी विश्व-महाराजन् का श्रेष्ठ पद प्राप्त कर सकेंगे। अच्छा।

आज विशेष नये-नये बच्चों से मिलने के लिए बापदादा को भी पुरानी प्रकृति को अधीन करना पड़ा। बलिहारी नये बच्चों की जो बाप को भी आप समान बना देते हैं। बापदादा भी ऐसे सिकीलधे बच्चों को देखकर हर्षित होते हैं। हर एक की लगन का, स्नेह का और मिलन मनाने का आवाज बापदादा के पास सदैव पहुँच रहा है। इसलिए रिटर्न करने के लिए बापदादा को भी आना पड़ा। अच्छा।

ऐसे अति स्नेही, सिकीलधे, सदैव एक की लगन में मग्न रहने वाले, लास्ट सो फास्ट, फास्ट सो फस्ट डिवीजन में आने वाले तीव्र पुरुषार्थी बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली का सार

1. विश्व-महाराजन् बनने के लिए तीन स्टेजिस को पार करना पड़ता है - एक सेकेण्ड में बेहद के त्यागी, बेहद के निरन्तर अथक सेवाधारी और बेहद के वैराग्य वृत्ति।

2. विश्व-महाराजन् बनने वाले लाइट हाउस और माइट हाउस की स्थिति में स्थित होकर विश्व के चारों ओर लाइट और माइट देने का कर्त्तव्य करेंगे।

3. सदैव यह छोटा-सा स्लोगन स्मृति में रखो कि सोच-समझ कर करना और बोलना है, तब सदाकाल के लिये श्रेष्ठ जीवन बना सकेंगे और धर्मराजपुरी की सजाओं से बच सकेंगे। 4. अन्तिम समय नज़र से निहाल करने का ही गायन है।



30-09-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सारे कल्प में विशेष पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं की विशेषताएँ

सर्व श्रेष्ठ पार्ट बजाने वाले, अपने ज्ञान के प्रकाश से चन्द्रमा (ब्रह्मा) को सोलह कला प्रकाशित करने वाले ज्ञान सूर्य शिव बाबा बोले -

स्वयं को सारे कल्प के अन्दर सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ पार्ट बजाने वाली विशेष आत्मायें समझते हो? आप विशेष आत्माओं की आदि से अन्त तक क्या-क्या विशेषतायें हैं व आपने कौन-सा  विशेष पार्ट बजाया है, उसको जानते हो? एक होता है विशेष काम करने के कारण विशेष आत्मा कहलाना, दूसरा विशेष गुणों के प्रभाव के कारण विशेष आत्मा कहलाना, तीसरा पोजीशन व स्टेटस के कारण और चौथा सम्बन्ध और सम्पर्क द्वारा अनेकों को विशेष प्राप्ति कराने के कारण। इन सब विशेषताओं को सामने रखते हुए देखो कि यह चार प्रकार की विशेषतायें किस स्टेज तक और कितने परसेन्टेज में हैं।

सतयुग के आदि में आप विशेष आत्माओं की फर्स्ट स्टेज कौन-सी होती है, उनकी विशेषता आज के भक्त भी गाते रहते हैं - जिसमें सम्पन्न और सम्पूर्णता का गायन है वह तो सबकी स्मृति में है ना? अब आगे चलो। सतयुग के बाद कहाँ आते हो? - (त्रेता) वहाँ की विशेषता क्या है? वहाँ की विशेषता भी इतनी ही प्रसिद्ध है, कि जो आज के कलियुगी नेता उसी राज्य का स्वप्न देखते रहते कि ऐसा होना चाहिए। कोई भी प्लान सोचते हैं, तो भी आपकी सेकेण्ड स्टेज को अति विशेष समझते हुए उसे सामने रखते हैं। और आगे चलो त्रेता के बाद कहाँ आते हैं? (द्वापर) लेकिन द्वापर में भी कहाँ पहुँचे। द्वापर में भी राज्य सत्ता तो होती है ना? वहाँ धर्मसत्ता और राज्य सत्ता दो टुकड़ों में बट जाती है। इसलिए द्वापर हो जाता है। दो पुर हो गये ना? एक राज्य-सत्ता दूसरी धर्म सत्ता। फिर भी आप विशेष आत्माओं के विशेष संस्कार गायब नहीं होते। चाहे अन्य धर्म पिता, धर्म सत्ता के आधार से धर्म की स्थापना भी करते हैं लेकिन आपकी विशेषताओं का पूजन, गायन और वन्दन आरम्भ हो जाता है। यादगार फिर भी आप विशेष आत्माओं की ही बनायेंगे। गुणगान आप विशेष आत्माओं के ही होते हैं। राज्य सत्ता में भी राजाई ठाठ और राजाई पावर्स रहती है। आपकी विशेषताओं की यादगार में शास्त्र बन जाते हैं। अपनी विशेषतायें याद आती हैं? अच्छा, इससे आगे चलो। कहाँ पहुँचे? (कलियुग) वहाँ की विशेषता क्या है? आप विशेष आत्माओं के नाम से सब काम शुरू होते हैं। हर कार्य की विधि में आपकी विशेषताओं की सिद्धि सुमिरण होती रहती है। आपके नाम से अनेक आत्माओं का शरीर निर्वाह होता है। नाम की महिमा - यह कलियुग की विशेषता है। आपका नाम सब स्थूल-सूक्ष्म प्राप्तियों का आधार बन जाता है। क्या इस विशेषता को जानते हो? अच्छा फिर आगे चलो? कहाँ पहुँचे? (संगम) जहाँ हैं वहाँ पहुँच गये।

संगम युग की विशेषताओं को तो स्वयं अब अनुभव कर ही रहे हो। सारे कल्प की विशेषताओं को सदा स्मृति में रखते हुए सदा अलौकिक विचित्र रास करते रहते हो। गोप-गोपियों की रास तो प्रसिद्ध ही है। तो निरन्तर रास करते हो अथवा प्रोग्राम से? यह है हुल्लास का रास। लेकिन इस रास में सम्पूर्ण पूर्णमासी की रास प्रसिद्ध है। इसका रहस्य क्या है? पूर्णमासी अर्थात् उसमें सम्पूर्णत: की निशानी गाई हुई है। इस रास की विशेषतायें अब तक वर्णन करते रहते हैं। वह कौन-सी विशेषतायें? उस समय गोप-गोपियों की विशेषता क्या थी? आपकी ही बातें हैं ना? मुख्य विशेषता क्या थी, तीन बातें सुनाओ? एक विशेषता रात को दिन बनाया हुआ था। दिन अर्थात् हर एक गोप-गोपी के जीवन में सतोप्रधानता का सूर्य उदय था। लोगों के लिये कुम्भकरण के नींद की रात थी अर्थात् तमोप्रधानता थी। दूसरी विशेषता सारा समय जागती ज्योति थे। माया एक संकल्प-रूप में भी आ नहीं पाती थी। मायावी लोग अर्थात् माया मूर्छित थी और बेहोश थी। क्योंकि सर्व जागती ज्योति निरन्तर बाप के साथ लगन में मग्न थे। तीसरी विशेषता सर्व का हाथ में हाथ मिला हुआ था और ताल से ताल मिला हुआ था अर्थात् संस्कार मिले हुए थे। स्नेह और सहयोग का संगठन था। रास में सार्किल अर्थात् चक्र लगाते हैं ना? सार्किल अर्थात् चक्र - यह शक्ति स्वरूप प्रकृति और माया को घेराव डालने की व किले की निशानी है। यह है विशेषतायें इसलिये इस रास का विशेष महत्व गाया हुआ है। यह हुआ संगमयुग की विशेषताओं का गायन। तो ऐसी रास निरन्तर होनी चाहिए। कितनी बार यह रास की है? अनेक बार की हुई है, फिर कभी भूल क्यों जाते हो? जब संस्कार मिलाना अर्थात् ताल से ताल मिलाना, ऐसी कोई परिस्थिति आती है तो क्या कहते हो? उस समय भक्त अर्थात् कमज़ोर बन जाते हो। संस्कार मिलाना पड़ेगा, मरना पड़ेगा, झुकना पड़ेगा, सुनना पड़ेगा और सहन करना पड़ेगा - यह कैसे होगा? - ऐसे-ऐसे कहने से भक्त बनते हो। इसलिए अब उस भक्तपन के वंश के अंश को भी खत्म करो, तब ही इस रास मण्डल के अन्दर पहुँच सकेंगे। नहीं तो देखने वाले बन जायेंगे। जो करने में मजा है, वह देखने में नहीं। तो अपनी सर्व-विशेषतायें सुनी ना? ऐसी सर्वश्रेष्ठ आत्मायें हो? ऐसी सर्वश्रेष्ठ आत्माओं के लिये बापदादा को भी आना पड़ता है। अच्छा।

ऐसी विशेष आत्मायें जो बापदादा को भी मेहमान बनाने वाली है, ऐसी महान् आत्मायें जिन्हों का हर संकल्प अनेकों को महान् बनाने वाला है, ऐसी तकदीरवान जिनके मस्तक पर सदैव तकदीर का सितारा चमकता है और ऐसी पदमा-पदम भाग्यशाली आत्माओं के प्रति बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

राशि मिलने वाले ही मणके के दाने

ऐसे रास करने वाले तैयार हुए हैं? संस्कारों का मिलना अर्थात् रास से रास मिलना। रास में अगर कोई का हाथ ऊपर, कोई का हाथ नीचे होगा, तो रास में मजा नहीं आयेगा। रास अर्थात् राशि मिलना। जैसे कोई भी कनेक्शन जोड़ते हैं व मिलन करते हैं, तो राशि मिलाते हैं ना? अगर राशि नहीं मिलती तो जोड़ी नहीं मिलाते हैं। एक-दो में राशि मिलना अर्थात् स्वभाव, संस्कार, गुण और सेवा साथ-साथ मिलने में दिखाई दे। समान तो नहीं हो सकता। नम्बर तो होंगे लेकिन जरा-सा अन्तर जो न के बराबर दिखाई दे-ऐसी राशि मिलने वाले कितने तैयार हुए हैं? क्या आधी माला? जितने भी तैयार हुए हैं, होना तो है, हुई पड़ी है सिर्फ घूँघट के अन्दर है। अच्छा।


01-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


एकान्त, एकाग्रता और दृढ़-संकल्प से सिद्धि की प्राप्ति

सिद्धि स्वरूप बनाने वाले, भविष्य फल के साथ-साथ वर्तमान प्रत्यक्ष फल देने वाले, प्राणेश्वर शिव बाबा बोले -

आज बापदादा कोई-कोई विशेष आत्माओं को किसी कार्य-अर्थ इस संगठन से चुन रहा है। किस कार्य-अर्थ चुन रहा है वह समझते हो? आज बापदादा  सृष्टि की सैर पर निकले, एक तो खास विदेशी बच्चों द्वारा विदेश सेवा और भिन्न-भिन्न प्रकार के कनवर्ट (दूसरे धर्म में बदले हुए) हुए बच्चों को देखने के लिए। सेवा-केन्द्र और सेवाधारी बच्चे, जिन्हों के मन में दिनरात प्रत्यक्षता का बोल बाला करने का एक ही संकल्प है। ऐसे सेवाधारी अथक लगन से दिन-रात मेहनत में लगे हुये हैं। बच्चों को देख बापदादा हर्षित होते थे। नए-नए बच्चों की फास्ट लगन की उमंग की, मिलने अर्थ तड़पने की, पतंगे समान बाप पर हाई-जम्प लगाने की सूरत और सीरत देखी। गुलदस्ता अच्छा था - वैरायटी फूलों की शोभा सुन्दर लग रही थी - कलियाँ और पत्ते वैरायटी देखे कई आत्मायें मीठे उलहाने वाली भी देखी। कई आत्मायें मिलन की खुशी में अंसुवन मोती की मालायें बापदादा के प्रति पहनाते हुए भी देखी। ऐसी पहचानती हुई मूर्त जो बार-बार मिलन के गीत गाने वाली भी थी और फिर विदेश का सैर किया।

दूसरा था चारों ओर की अज्ञानी व भक्त आत्माओं का सैर। उसमें क्या देखा? एक तरफ अनेक आत्माएँ अपने शरीर निर्वाह-अर्थ जीवन के साधनों अर्थ किसी-न-किसी यन्त्रों द्वारा स्वयं में व्यस्त थी। साथ-साथ कुछ आत्मायें विनाश- अर्थ यन्त्र रिफाइन करने में व्यस्त थी। दूसरी तरफ कई गृहस्थी और भक्त आत्मायें अपने जन्त्र-मन्त्र से अपनी भावना का फल पाने के लिए व अल्पकाल की प्रत्यक्ष प्राप्ति करने के लिए अपने-अपने कार्य में व्यस्त थी। इन सबमें विशेष भारत और कुछ विदेश में भी सिद्धि प्राप्त करने की कामना से देवियों का विशेष आह्वान कर रही थी। मैजॉरिटी  सिद्धि के पीछे ज्यादा व्यस्त थी। सिद्धि प्राप्त करने के लिए स्वयं को समर्पण करने को भी तैयार हो जाते। सिद्धि की विधि में मुख्य दो बातें करते हैं। कोई भी सिद्धि के लिए एक तो एकान्त दूसरी एकाग्रता, दोनों की विधि द्वारा सिद्धि को पाते हैं।

तो आज बापदादा सिद्धि स्वरूप बच्चों को चुन रहे थे। जिन्हों के यादगार चित्रों द्वारा भी अब तक अनेकों को अनेक सिद्धियाँ प्राप्त हो रही हैं। उस समय सिद्धि की प्राप्ति का दृश्य देखने वाला होता है। जैसे आप लोगों को याद द्वारा अतिइन्द्रिय सुख का अनुभव होता है वैसे ही भक्तों को भी सिद्धि प्राप्त करने के समय के अल्पकाल का सुख उस समय के लिए कम अनुभव नहीं होता। ऐसा सैर करने के बाद साकार स्वरूप-धारी बच्चों को देखा। भक्त जिन देवियों द्वारा सिद्धि प्राप्त कर रहे हैं, वही देवियाँ कब स्वयं भी सिद्धि प्राप्त करने का संकल्प रख रही हैं। यह क्यों? चलते-चलते यह संकल्प ज़रूर उत्पन्न होता है, कि मेहनत करते हुए भी सिद्धि क्यों नहीं? समय प्रमाण सम्पूर्ण स्टेज की प्रत्यक्षता कम क्यों? तो बाप भी प्रश्न  करते हैं - क्यों? सिद्धि स्वरूप की मुख्य बात कौन-सी अपनानी पड़े? जैसे कल्प पहले पाण्डवों का गायन है कि सेकेण्ड में जहाँ तीर लगाया वहाँ गंगा प्रगट हुई अर्थात् सेकेण्ड में असम्भव भी सम्भव प्रत्यक्ष फल के रूप में दिखाई दिया। इसको ही सिद्धि कहा जाता है। यह नहीं होता, क्योंकि प्रत्यक्ष-फल की प्राप्ति के लिए हर सेकेण्ड अपनी सम्पूर्ण सर्व शक्ति सम्पन्न स्वरूप की स्मृति प्रत्यक्ष संकल्प रूप में नहीं रहती। मैं पुरुषार्थी हूँ, सम्पन्न हो ही जाऊंगा, होना तो ज़रूर है-नम्बरवार होना ही है। हमारा काम है मेहनत करना, वह तो यथाशक्ति कर ही रहे हैं - यह हर सेकेण्ड का संकल्प रूपी बीज सर्व शक्ति सम्पन्न नहीं होता है। उस समय के संकल्प में हो ही जायेगा अर्थात् भविष्य का संकल्प भरा हुआ होता है। दृढ़ निश्चय व प्रत्यक्ष फल के रस का बल भरा हुआ न होने के कारण सिद्धि भी प्रत्यक्ष नहीं। लेकिन दो घड़ी बाद, घण्टे बाद या कुछ दिनों बाद भविष्य प्राप्ति हो जाती है - तो इसका कारण समझा? आपके संकल्प रूपी बीज के कारण ही प्रत्यक्ष सिद्धि नहीं होती। अनेक प्रकार के साधारण संकल्प होते हैं। जैसे कि समय प्रमाण होना ही है, अभी सारे तैयार कहाँ हुये है? अभी तो आगे के नम्बर ही तैयार नहीं हुए हैं। फाइनल तो आठ ही होने हैं। ऐसे-ऐसे भविष्य नॉलेज के साधारण संकल्प आपके बीज को कमज़ोर कर देते हैं और यही भविष्य संकल्प जो उस समय यूज़ नहीं करना चाहिए, लेकिन उस समय न सोचते हुए भी यूज़ कर लेते हो - जिस कारण प्रत्यक्ष फल भी भविष्य फल के स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है।

तो प्रत्यक्ष-फल पाने के लिए ही संकल्प रूपी बीज को दृढ़ निश्चय रूपी जल से कि यह तो हुआ ही पड़ा है - होना ही है - इस जल से पॉवर फुल बनाओ। तब ही प्रत्यक्ष सिद्धि-स्वरूप हो जायेंगे। जैसे आपके यादगार चित्रों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने वालों की विशेष दो बातों की विधि सुनाई। एकान्तवासी और एकाग्रता। यही विधि कल्प पहले मुआफिक साकार में अपनाओ। एकाग्रता कम होने के कारण ही दृढ़ निश्चय की कमी होती है। एकान्तवासी कम होने के कारण ही साधारण संकल्प बीज को कमज़ोर बना देता है। इसलिए इस विधि द्वारा सिद्धि-स्वरूप बनो, जो सैर पर देखे वही आप हो ना? तो यादगार रूप को अब याद रूप बनाओ। पाण्डवों की यादगार से भी भक्त लोग सिद्धि माँगते हैं। अच्छा।

ऐसे अनेक आत्माओं को सिद्धि प्राप्त कराने वाले सर्व सिद्धि स्वरूप मास्टर विधाता और वरदाता, अपने हर संकल्प द्वारा अनेकों की अनेक कामनायें पूर्ण करने वाले सर्व प्राप्ति स्वरूप ऐसे सर्व-महान् आत्माओं को, विदेशी आत्माओं सहित सर्व को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली के विशेष तथ्य

1. किसी भी सिद्धि के लिये एक तो एकान्त और दूसरे एकाग्रता दोनों की विधि द्वारा सिद्धि की प्राप्ति होती है। 2. दृढ़ निश्चय की कमी व हर सेकेण्ड अपनी सम्पूर्ण सर्वशक्ति सम्पन्न स्वरूप की स्मृति प्रत्यक्ष संकल्प रूप में नहीं रहती है, इसी कारण सिद्धि भी प्रत्यक्ष नहीं होती।

3. प्रत्यक्ष फल पाने के लिये संकल्प रूपी बीज को दृढ़ निश्चय रूपी जल से पॉवरफुल बनाओ तो प्रत्यक्ष सिद्धि स्वरूप हो ही जायेंगे।


01-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पर्सनल मुलाकात

मायाजीत और प्रकृतिजीत शक्तियों की निशानी

बेहोश आत्माओं को सुरजीत बनाने वाले, माया और प्रकृति पर जीत प्राप्त कराने वाले, आसुरी वृत्तियों का संहार करने वाले शिव बाबा बोले –

शक्तियाँ अपने शक्ति स्वरूप, सदा शस्त्रधारी, सदा निर्भय, सर्व आसुरी संस्कारों का संहार करने वाली तथा प्रकृति और मायाजीत बनने वाली - ऐसे अपने स्वभाव में सदा स्थित रहती हैं? शक्तियों के यादगार चित्र में मायाजीत की निशानी है - शस्त्र और लाइट का क्राउन और प्रकृति जीत की निशानी है-शेर की सवारी। यह पशु-पक्षी आदि प्रकृति की निशानी हैं। प्रकृति के तत्व भी शक्ति-स्वरूप को भयभीत नहीं कर सकते। प्रकृति पर भी सवारी अर्थात् अधिकार। प्रकृति भी उनकी दासी बन गई अर्थात् उनका सत्कार कर रही है। ऐसे सदा विजयी हो? सदा सुजाग की निशानी तिलक गाया हुआ है-जो सदा बाप के साथ हैं - वह सदा विजय का तिलक अपने माथे पर लगाता रहेगा। स्मृति में रहना अर्थात् तिलक लगाना। सदा यह स्मृति रहे कि मैं कल्प-कल्प की विजयी हूँ, अभी की नहीं। पहले बेहोश थे - बेहोश अर्थात् जिसको अपना होश नहीं। मैं हूँ कौन यह भी पता नहीं तो बेहोश हुआ ना? अब तो सुरजीत हो। सुरजीत कभी बाप को भूल नहीं सकते। यही सदा याद रखो कि मैं हूँ ही सदा विजयी।अच्छा।

कम्पलेन्ट समाप्त कर कम्पलीट बनने की प्रेरणा

अतीन्द्रिय सुख के झूले में झुलाने वाले, सर्व-सम्बन्धों का अलौकिक अनुभव देने वाले, सर्व आत्माओं के हितकारी शिव बाबा वत्सों के प्रति बोले - ‘‘बाप-समान निराकारी, देह की स्मृति से न्यारे, आत्मिक स्वरूप में स्थित होते हुए, साक्षी होकर अपना और सर्व आत्माओं का पार्ट देखने का अभ्यास मजबूत होता जाता है? सदा साक्षीपन की स्टेज स्मृति में रहती है? जब तक साक्षी स्वरूप की स्मृति सदा नहीं रहती तो बापदादा को अपना साथी भी नहीं बना सकते। साक्षी अवस्था का अनुभव, बाप के साथीपन का अनुभव कराता है। अपने को खुदा-दोस्त समझते हो ना? अर्थात् अपने मन का मित बापदादा को बनाया है? दिल का दिलवाला बाप को ही बनाया है? एक दिलवाला बाप के सिवाय और किसी से भी दिल की लेन-देन करने का संकल्प मात्र भी नहीं है, ऐसा अनुभव करते हो? अगर एक बाप के साथ सर्व-सम्बन्धों के सुख, सर्व-सम्बन्धों के प्रीति की प्राप्ति अनुभव करते हो तो और कहीं भी किसी सम्बन्ध में बुद्धि जा नहीं सकती। हर श्वास, हर संकल्प में सदा बाप के सर्व-सम्बन्धों में बुद्धि मग्न रहनी चाहिए। कई बच्चों की कम्पलेन्ट है कि व्यर्थ संकल्प बहुत आते हैं, बुद्धि बाप की तरफ लगती नहीं है। न चाहते हुए भी कहीं-न-कहीं बुद्धि का लगाव चला जाता है वा स्थूल प्रवृत्ति की जिम्मेवारी बुद्धियोग को एकाग्र बनने नहीं देती। पुरानी दुनिया का सम्पर्क व वातावरण वृत्ति को चंचल बना देता है। जितना तीव्र पुरूषार्थ करना चाहते हैं उतना कर नहीं पाते हैं, हाई-जम्प दे नहीं पाते। सारे दिन में इसी प्रकार की कम्पलेन्ट्स बापदादा के पास बहुत आती हैं।

मास्टर सर्वशक्तिवान् कहलाते हुए भी अपने ही स्वभाव-संस्कार से मजबूर हो जाते हैं, तो बापदादा को भी ऐसी बातें सुनते हुए मीठी हँसी भी आती है और रहम भी आता है। जब अपने स्वभाव संस्कार को मिटा नहीं सकते तो सारे विश्व से तमोप्रधान आसुरी संस्कार मिटाने वाले कैसे बनेंगे? जो अपने ही संस्कारों के वश हो जाय, वह सर्व वशीभूत हुई आत्माओं को मुक्त कैसे कर सकेंगे? अपने संस्कारों, जिससे स्वयं ही परेशान हैं वह औरों की परेशानी कैसे मिटायेंगे? ऐसे संस्कारों से मुक्ति पाने की सरल युक्ति कौन-सी है? कर्म में आने से पहले संस्कार संकल्प में आते हैं - ‘‘यह कर दूँगा, ऐसा होना चाहिए, यह क्या समझते हैं, मैं भी सब करना जानता हूँ।’’ इस रूप के संकल्पों में संस्कार उत्पन्न होते हैं। जब जानते हो कि इस समय संस्कार संकल्प-रूप में अपना रूप दिखा रहे हैं, तो सदैव यह आदत डालो व अभ्यास करो कि हर संकल्प को पहले चेक करना है कि क्या यह संकल्प बाप-समान है?

जैसे कई बड़े आदमी होते हैं, वे जो कुछ भी स्वीकार करते हैं तो पहले उस चीज की चैकिंग होती है। जैसे प्रेज़ीडेन्ट है या कोई भी विशेष व्यक्ति या बड़े-बड़े राजा होते हैं, तो उनका हर भोजन पहले चेक होता है, फिर वे स्वीकार करते हैं। उन्हें कोई भी वस्तु देंगे तो पहले उनकी चैकिंग होती है कि कहीं उसमें कुछ अशुद्धि या मिक्स तो नहीं है? वह बड़े आदमी आपके आगे क्या हैं? आपके राज्य में ये बड़े आदमी पाँव भी नहीं रख सकते। अब भी आपके पाँव पर पड़ने वाले हैं। जब राजाओं के भी राजा बनते हो और सृष्टि के बीच श्रेष्ठ आत्मा कहलाते हो, तो आप विशेष आत्माओं का यह संकल्प रूपी बुद्धि का जो भोजन है, उसके लिये भी चैकिंग होनी चाहिए। जब बिना चैकिंग के स्वीकार करते हो, इसलिए धोखा खाते हो। तो हर संकल्प को पहले चेक करो। जैसे सोने को यन्त्र द्वारा चेक करते हैं कि सच्चा है या मिक्स है, रीयल है अथवा रोल्ड गोल्ड है? ऐसे ही यह चेक करो कि संकल्प बापदादा समान है या नहीं है? इस आधार से चेक करो, फिर वाणी और कर्म में लाओ। आधार को भूल जाते हो, तब संस्कार शूद्र-पने के और विष के मिक्स हो जाते हैं। जैसे भोजन में विष मिक्स हो जाय तो वह मूर्छित कर देता है, ऐसे ही संकल्प रूपी आहार व भोजन में पुराने शुद्रपन का विष मिक्स हो जाता है, तो बाप की स्मृति और समर्थी स्वरूप से मूर्छित हो जाते हो। तो अपने को विशेष आत्मायें समझते हुए अपने आप का स्वयं ही चेकर बनो। समझा? विशेष आत्मा की अपनी शान में रहो तो परेशान नहीं होंगे। अच्छा यह हुई संस्कारों को मिटाने की युक्ति। अगर इस कार्य में सदा बिज़ी रहेगे व सदा होली-हंस स्वरूप में स्थित होंगे तो शुद्ध व अशुद्ध, शूद्रपन और ब्राह्मणपन को सहज ही चेक कर सकेंगे और बुद्धि इसी कार्य में बिजी होने के कारण व्यर्थ संकल्पों की कम्पलेन्ट से फ्री  हो जायेगी।

दूसरी बात सारा दिन, बाप के सर्व-सम्बन्धों का हर समय प्रमाण सुख नहीं ले पाते हो जो गोपियों और पाण्डवों के चरित्र गाये हुए हैं। बाप से सर्व-सम्बन्धों का सुख लेना और मग्न रहना अथवा सर्व-सम्बन्धों के लव में लवलीन रहना, वह अनुभव अभी किया नहीं है। बाप और शिक्षक इन विशेष सम्बनधों का सुख अनुभव करते हो लेकिन सर्व- सम्बन्धों के सुखों की प्राप्ति का अनुभव कम करते हो। इसलिए जिन सम्बन्धों के सुखों का अनुभव नहीं किया है, उन सम्बन्धों में बुद्धि का लगाव जाता है और वह आत्मा का लगाव व बुद्धि की लगन विघ्न-रूप में बन जाती है। तो सारे दिन में भिन्न-भिन्न सम्बन्धों का अनुभव करो। अगर इस समय बाप से सर्व-सम्बन्धों का सुख नहीं लिया है, तो सर्व- सुखों की प्राप्ति में सर्व-सम्बन्धों की रसना लेने में कमी रह जायेगी। अभी अगर यह सुख नहीं लिया तो कब लेंगे? आत्माओं से सर्व-सम्बन्ध तो सारा कल्प अनुभव करेंगे लेकिन बाप से सर्व-सम्बन्धों का अनुभव अभी नहीं किया तो कभी भी नहीं करेंगे। तो इन सर्व-सम्बन्धों के सुखों में सारा दिन-रात अपने को बिजी रखो। इन सुखों में निरन्तर रहने से और सर्व-सम्बन्ध असार और नीरस अनुभव होंगे। इसलिए बुद्धि एक ठिकाने पर स्थित हो भटकना बन्द हो जायेगा। और आप इन सुखों के झूले में सदा झूलते रहेगे। ऐसी स्थिति बनाने से तीव्र पुरुषार्थी स्वत: और सहज बन जायेंगे, सर्व कम्पलेन्ट समाप्त हो कम्पलीट बन जायेंगे। समझा? अपने कम्पलेन्ट्स का रिस्पॉन्स। अच्छा

ऐसे सदा अति-इन्द्रिय सुखों के झूले में झूलने वाले, सदा बाप के साथ सर्व-सम्बन्ध निभाने वाले, सदा स्वयं को साक्षी और बाप को साथी समझने वाले ऐसे खुदा-दोस्त, सदा खुदाई-खिदमत में रहने वाले, ऐसे बाप-समान बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

सुनने में खुश होते हो लेकिन निभाने में कहीं मजबूर हो जाते हो। जब सुनने में इतनी खुशी होती है तो स्वरूप बनने में कितनी खुशी होगी? इस समय सभी हर्षित मुख हो - ऐसे ही सदा हर्षित मुख रहो तो स्वयं का भी समये बचायेंगे और निमित्त बनी हुई आत्माओं का भी समय बचा लेंगे। अभी तक गिरने और चढ़ने में, स्वयं को सम्भालने में व बुद्धि को ठिकाने लगाने में 25%  समय जो इसमें जाता है तो यह समय बच जायेगा और वह कमाई में जमा हो जायेगा। अब बचत करना सीखो। समझा? ओम् शान्ति।

इस मुरली का सार

1. अगर एक बाप के साथ सर्व-सम्बन्धों के सुख व प्रीति की प्राप्ति का अनुभव करते हो तो और कहीं भी किसी सम्बन्ध में बुद्धि नहीं जा सकती।

2. अपने को विशेष आत्मा समझते हुए अपने आप का ही स्वयं चेकर बनो। सदैव यह आदत डालो व अभ्यास करो कि हर संकल्प को पहले चेक करना है कि यह संकल्प बाप समान है, एक दिलवाला बाप के सिवाय और किसी से भी दिल की लेनदेन करने का संकल्प तो नहीं है?

3. साक्षी अवस्था का अनुभव बाप के साथीपन का अनुभव कराता है।

4. विशेष आत्मा की अपनी शान में रहो तो परेशान नहीं होंगे।



03-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विशाल बुद्धि

बेगमपुर के बादशाह बनाने वाले, सर्व खुशियों के खज़ानों की चाबी प्रदान करने वाले शिव बाबा बच्चों के प्रति बोले:-

सभी अपने को विधाता बाप द्वारा विधि और विधान को जानने वाले समझते हो? विधि और विधान को जानने वाले हर संकल्प और हर कर्म में सिद्धि स्वरूप होते हैं। ऐसे अपने को अनुभव करते हो? सिद्धि स्वरूप अर्थात् बेगमपुर का बादशाह। भविष्य राज्य-भाग्य प्राप्त करने के पहले वर्तमान समय भी बेगमपुर के बादशाह हो। अर्थात् संकल्प में भी गम अर्थात् दु:ख की लहर न हो, क्योंकि दु:खधाम से निकल अब संगमयुग पर खड़े हो। ऐसे संगमयुगी बेगमपुर के बादशाह अपने को समझते हो ना? बेगमपुर का बादशाह अर्थात् सर्व खुशियों के खज़ाने का मालिक। खुशियों का खज़ाना ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार है। इस अधिकार के कारण ही आज श्रेष्ठ आत्माओं के नाम और रूप का सत्कार होता रहता है। ऐसे बेगमपुर के बादशाह, जिन्हों का नाम लेने से ही अनेक आत्माओं के अल्पकाल के लिए दु:ख दूर हो जाते हैं, जिनके चित्रों को देखते चरित्रों का गायन करते हैं और दु:खी आत्मा खुशी का अनुभव करने लगती हैं, ऐसे चैतन्य आप स्वयं बेगमपुर के बादशाह हो?

अपने खज़ानों को जानते हो? सर्व खज़ानों को स्मृति में रखते हुए सदा हर्षित अर्थात् सदा प्रकृति और पाँच विकारों के आक्रमण से परे। इसी खुशी के खज़ानों से सम्पन्न-स्वरूप ‘‘एक बाप दूसरा न कोई ‘‘ - ऐसा अनुभव करते हो? खज़ानों की चाबी तो मजबूत रखते हो ना? चाबी को खो तो नहीं देते हो? समय और समय के प्रमाण आत्माओं की सूक्ष्म पुकार सुनने में आती है वा अपने में ही सदा बिजी रहते हो? कल्प पहले वाले आप के भक्त आत्मायें अपने-अपने इष्ट का आह्वान कर रही हैं। ‘‘आ जा, आ जा’’ की धुन लगा रही हैं। दिन-प्रतिदिन अपनी पुकार साजों से सजाते हुए अर्थात् खूब गाजे बाजे बजाते हुए जोर शोर से प्कारना शुरू करते हैं। आप सभी को राजी करने के अनेक साधन अपनाते रहते हैं। तो चैतन्य में गुप्त रूप में सुनते हुए, देखते हुए रहम नहीं आता वा अब तक अपने ऊपर रहम करने में बिज़ी हो? विश्व कल्याणकारी, महादानी, वरदानी स्वरूप में स्थित होने से ही रहम आयेगा। स्वयं को जगत्-माता व जगत पिता के स्वरूप में अनुभव करने से ही रहम उत्पन्न होगा। किसी भी आत्मा का दु:ख व भटकना सहन नहीं होगा। लेकिन इस स्वरूप में बहुत कम समय ठहरते हो। समय प्रमाण सेवा का स्वरूप बेहद और विशाल होना चाहिए। बेहद का स्वरूप कौन-सा  है? अभी जो कर रहे हो, इसको बेहद कहेंगे? मेला बेहद का हुआ। पहले की भेंट में अब बेहद समझते हो लेकिन अंतिम बेहद का स्वरूप क्या है?

समय की रफ्तार प्रमाण सिर्फ सन्देश देने के कार्य में भी अब तक कितने परसेन्ट को सन्देश दिया है? सतयुग के आदि की नौ लाख प्रजा आपके सामने दिखाई देती है। आदि की प्रजा की भी कुछ विशेषताएँ होंगी ना? ऐसी विशेषता-सम्पन्न आत्मायें सभी सेवा-केन्द्रों में भी दिखाई देती हैं कि वह भी अभी घूंघट में ही हैं? सोलह हजार की माला दिखाई देती है? टीचर्स ने सोलह हजार की माला तैयार की है? घूंघट खोलने की डेट कौन-सी है? समय प्रमाण अब होना तो है ही लेकिन ऐसे समझकर भी अलबेले मत बनना। अब बेहद के प्लैन्स बनाओ। बेहद के प्लैन्स अर्थात् जिन भी आत्माओं की सेवा करते हो वह हर-एक आत्मा अनेकों के निमित्त बनने वाली हो। एक-एक आत्मा बेहद की आत्माओं की सेवा के प्रति निमित्त बने। अब तक तो आप स्वयं एक-एक आत्मा के प्रति समय दे रहे हो। आप ऐसी ही आत्माओं की सेवा करो जो वह आत्मा ही अनेकों की सेवा-अर्थ निमित्त बनें। उन के नाम से सेवा हो, जैसे कई आत्मायें अपने सम्बन्ध, सम्पर्क और सेवा के आधार पर अनेकों में प्रसिद्ध होती हैं अर्थात् उनके गुणों और कर्त्तव्य की छाप अनेकों प्रति पहले से ही होती है इसमें सिर्फ धनवान की बात नहीं वा सिर्फ पोजीशन की बात नहीं। लेकिन कई साधारण भी अपने गुण और सेवा के आधार पर अपनी-अपनी फील्ड में प्रसिद्ध होते हैं। चाहे राजनीतिक हों, चाहे धार्मिक हों लेकिन प्रभावशाली हों। ऐसी आत्माओं को चुनों। जो आप लोगों की तरफ से वे आत्माएँ सेवा-अर्थ निमित्त बनती जायें। ऐसी क्वॉलिटी की सर्विस अभी रही हुई है।

नाम के प्रसिद्ध दो प्रकार के होते हैं - एक पोजीशन की सीट के कारण, दूसरे होते हैं गुण और कर्त्तव्य के आधार पर। सीट के आधार पर नाम वालों का प्रभाव अल्पकाल के लिए पड़ेगा। गुण और कर्त्तव्य के आधार पर आत्माओं का प्रभाव सदाकाल के लिए पड़ेगा। इसलिए रूहानी सेवा के निमित्त ऐसी प्रसिद्ध आत्माओं को निकालो तब थोड़े समय में बेहद की सर्विस कर सकेंगे। इसको कहते है विहंग मार्ग। जो एक द्वारा अनेकों को तीर लग जाए। ऐसी आत्माओं के आने से अनेक आत्माओं का आना ऑटोमेटिकली होता है। तो अब ऐसी सर्विस की रूप-रेखा बनाओ। ऐसी सेवा के निमित्त बनने वाली आत्मायें आप गॉडली स्टूडेन्ट्स की तरह रेग्युलर स्टुडेण्ट्स नहीं बनेंगी, सिर्फ उनका सम्बन्ध और सम्पर्क समीप और स्नेह युक्त होगा। ऐसी आत्माओं को विशाल बुद्धि बन उनकी इच्छा प्रमाण, उन की प्राप्ति का आधार समझते हुए, उनके अनुभव द्वारा अनेकों की सेवा के निमित्त बनाना पड़े। इस बेहद की सेवा-अर्थ परखने की शक्ति की आवश्यकता है। इसलिए अब ऐसी विशाल बुद्धि बन सेवा का विशाल रूप बनाओ - अब देखेंगे ऐसी विशाल सर्विस का सबूत कौन से सपूत बच्चे देते हैं। ऐसी सर्विस के निमित्त बनने वाले राज्य-पद के अधिकारी बनते हैं। कौन-सा  ज़ोन नम्बर वन जाता है, यह रिजल्ट से पता पड़ जायेगा। अच्छा!

ऐसे सर्विस-एबल, बेहद के विशाल बुद्धि वाले, संकल्प द्वारा भी अनेक आत्माओं प्रति सेवा करने वाले, ऐसे बाप समान सदा अथक सेवाधारी, सबूत दिखाने वाले सपूत बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली के विशेष तथ्य

1. विधि और विधान को जानने वाले हर संकल्प और हर कर्म में सिद्धि स्वरूप होते हैं।

2. अपने को बेगमपुर के बादशाह समझते हो! अर्थात् संकल्प में भी गम अर्थात् दु:ख की लहर न हो। संगम युगी बेगमपुर के बादशाह अर्थात् सर्व खुशी के खज़ाने का मालिक।

3. समय प्रमाण अब बेहद के प्लैन्स बनाओ अर्थात् जिन भी आत्माओं की सेवा करते हो वह हर-एक आत्मा बेहद की आत्माओं की सेवा के प्रति निमित्त



04-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अब दृढ़ संकल्प की तीली से रावण को जलाओ

अकालमूर्त, आत्माओं को मुक्ति और जीवन्मुक्ति का वरदान देने वाले बापदादा बोले :-

अपने को फरिश्तों की सभा में बैठने वाला फरिश्ता समझते हो? फरिश्ता अर्थात् जिसके सर्व सम्बन्ध वा सर्व रिश्ते एक के साथ हों। एक से सर्व रिश्ते और सदा एक रस स्थिति में स्थित हों। एक-एक सेकेण्ड, एक-एक बोल, एक की ही लगन में और एक की ही सेवा प्रति हों। चलते-फिरते, देखते-बोलते और कर्म करते हुए व्यक्त भाव से न्यारे अव्यक्त अर्थात् इस व्यक्त देह रूपी धरनी की स्मृति से बुद्धि रूपी पाँव सदा ऊपर रहे अर्थात् उपराम रहे। जैसे बाप ईश्वरीय सेवा-अर्थ वा बच्चों को साथ ले जाने की सेवा-अर्थ वा सच्चे भक्तों को बहुत समय के भक्ति का फल देने अर्थ, न्यारे और निराकार होते हुए भी अल्पकाल के लिए आधार लेते हैं वा अवतरित होते हैं। ऐसे ही फरिश्ता अर्थात् न्यारा और प्यारा, बाप समान स्वयं को अवतरित आत्मा समझते हो? अर्थात् सिर्फ ईश्वरीय सेवा-अर्थ यह साकार ब्राह्मण जीवन मिला है। धर्म स्थापक, धर्म स्थापना का पार्ट बजाने के लिए आए हैं - इसलिए नाम ही है शक्ति अवतार - इस समय अवतार हूँ, धर्म स्थापक हूँ। सिवाए धर्म स्थापन करने के कार्य के और कोई भी कार्य आप ब्राह्मण अर्थात् अवतरित हुई आत्माओं का है ही नहीं। सदा ऐसी स्मृति में इसी कार्य में उपस्थित रहने वालों को ही फरिश्ता कहा जाता है। फरिश्ता डबल लाइट रूप है। एक लाईट अर्थात् सदा ज्योति-स्वरूप। दूसरा लाईट अर्थात् कोई भी पिछले हिसाब-किताब के बोझ से न्यारा अर्थात् हल्का। ऐसे डबल लाईट स्वरूप अपने को अनुभव करते हो?

यह ब्राह्मण जीवन सिवाए ईश्वरीय कार्य के और कोई कार्य-अर्थ, बिगर श्रीमत के आत्माओं की मत प्रमाण वा स्वयं की मनमत प्रमाण और कहीं यूज़ तो नहीं करते हो? यह ब्राह्मण जीवन भी बाप द्वारा ईश्वरीय सेवा प्रति मिली हुई अमानत है। अमानत में ख्यानत तो नहीं डालते हो? संकल्प द्वारा भी इस ब्राह्मण जीवन का एक श्वांस भी और कोई कार्य में नहीं लगा सकते। इसलिए भक्ति में श्वासों-श्वास सुमिरण का यादगार चला आता है। निरन्तर के फरिश्ते हो वा अल्पकाल के फरिश्ते हो? जैसे भक्ति में भी नियम है कि दान दी हुई वस्तु वा अर्पण की हुई वस्तु कोई अन्य कार्य में नहीं लगा सकते। तो आप सबने ब्राह्मण जीवन में बापदादा से पहला वायदा क्या किया? याद है वा भूल गये हो? बाप के आगे पहला वायदा यह किया कि तन-मन-धन सब आपके आगे समर्पण है। जब सर्व समर्पण किया तो सर्व अर्थात् संकल्प, श्वास, बोल, कर्म, सम्बन्ध, सर्व व्यक्ति, वैभव, संस्कार, स्वभाव, वृत्ति, दृष्टि और स्मृति - सबको अर्पण किया। इसको ही कहा जाता है समर्पण। समर्पण से भी ऊपर और पॉवरफुल शब्द, स्वयं को सर्वस्व त्यागी कहते हो।

सभी सर्वस्व-त्यागी हो वा त्यागी? सर्वस्व त्यागी अर्थात् जो भी त्याग किया, सम्बन्ध, सम्पर्क, भाव, स्वभाव और संस्कार, इन सबको पिछले 63 जन्मों के रहे हुए हिसाब-किताब के अंश को भी वंश-सहित त्याग किया हुआ है, इसलिए सर्वस्व त्याग कहा जाता है। ऐसे सर्वस्व त्यागी, जिनका पिछला हिसाब वंशसहित समाप्त हो गया - ऐसा सर्वस्व त्यागी कभी संकल्प भी नहीं कर सकता कि मेरा पिछला स्वभाव और संस्कार ऐसा है। पिछला हिसाब अब तक कभीकभी खींचता है वा कर्म-बन्धन का बोझ, कर्म सम्बन्ध का बोझ, कोई व्यक्ति वा वैभव के आधार का बोझ मुझ आत्मा को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं? यह संकल्प व बोल सर्वस्व त्यागी के नहीं हैं-सर्वस्व त्यागी, सर्व बन्धनों से मुक्त, सर्व बोझों से मुक्त, हर संकल्प में भाग्य बनाने वाला पदमा-पदम भाग्यशाली होगा। ऐसे के हर कदम में पदमों की कमाई स्वत: ही होती है। ऐसे सर्वस्व त्यागी हो ना? शब्द के अर्थ स्वरूप में स्थित हो ना? बोलने वाले नहीं लेकिन करने वाले और अनेकों को कराने वाले हो ना? मुश्किल तो नहीं लगता है? मुश्किल लगने का तो सवाल ही नहीं उठना चाहिये, क्योंकि ब्राह्मण जीवन का धर्म और कर्मही यह है। जो जीवन वा निजी कर्म होता है वह कभी किसी को मुश्किल नहीं लगता है। मुश्किल तब लगता है जब अपने को अवतरित हुई आत्मा अर्थात् शक्ति अवतार नहीं समझते हो। सदैव यह याद रखो कि मैं अवतार हूँ। धर्म स्थापन करने अर्थ धर्म-आत्माहूँ। धर्म अर्थात् हर संकल्प स्वत: ही धर्म-अर्थ होते हैं-समझा? ऐसे को कहा जाता है फरिश्ता।

अभी ऐसा बोल कभी नहीं बोलना - क्या करूँ, कैसे करूँ, होता नहीं, आता नहीं और न चाहते हुए भी हो ही जाता है। यह कौन बोलता है? फरिश्ता बोलता है या सर्वस्व त्यागी बोलता है? मास्टर सर्वशक्तिवान् और यह बोल! - दोनों की तुलना करो - मास्टर सर्वशक्तिवान् यह बोल बोल सकता है? क्या अनेकों को बन्धन-मुक्त करने वाली आत्मा ऐसा बोल, बोल सकती है? यह बन्धन-मुक्त आत्मा के बोल हैं? परन्तु आप तो सभी बन्धन-मुक्त आत्मा हो। आज से ऐसे संकल्प और बोल सदा के लिए समाप्त करो। दृढ़ संकल्प की तीली से आज इन कमजोरियों के रावण को जलाओ। अर्थात् दशहरामनाओ। पाँच विकारों के वंश को भी और पाँच तत्वों के अनेक प्रकार के आकर्षण को भी इन दस ही बातों के विजयी बनो। अर्थात् विजय का दिवस मनाओ। अच्छा।

ऐसे विजय दिवसमनाने वाले विजयी रत्न, जिनके मस्तक पर विजय का अविनाशी तिलक लगा हुआ है, ऐसे अविनाशी तिलक धारी, सदा अकाल तख्त-नशीन, अकाल-मूर्त्त, सर्वआत्माओं को बन्धन-मुक्त बनाने वाले, योग- युक्त, स्नेह-युक्त, युक्ति-युक्त, सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

आज से दीदी-दादी के पास कोई नहीं जाना - सिर्फ रूहानी मिलन मनाने जाना - यह बातें करने न जाना - कुछ लेने के लिए जाना, लेकिन कम्पलेन्ट लेकर नहीं जाना। अच्छा। ओम् शान्ति।

इस मुरली का सार

1. सिवाय धर्म स्थापन करने के कार्य के और कोई भी कार्य आप ब्राह्मण अर्थात् अवतरित हुई आत्माओं का है ही नहीं, सदा ऐसी स्मृति में रह कार्य करने वाले को ही फरिश्ताकहा जाता है।

2. फरिश्ता डबल लाइट रूप है। एक लाइट अर्थात् सदा ज्योति स्वरूप, दूसरा लाइट अर्थात् कोई भी पिछले हिसाब-किताब के बोझ से न्यारा अर्थात् हल्का।



07-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व अधिकार और बेहद के वैराग्य वाला ही राजऋषि

सदा विजयी बनाने वाले तथा सर्व अधिकारों की प्राप्ति कराने वाले रूहानी मिलिट्री के सर्वोच्च कमाण्डर निराकार शिव बाबा बोले: -

आज बापदादा कौन-सी सभा देख रहे हैं? यह है राज ऋषियों की सभा। अपने को सदा राज ऋषि समझते हुए चलते हो? एक तरफ राज्य, दूसरी तरफ ऋषि। दोनों के लक्षण अलग-अलग हैं। वह है भाग्य, वह है त्याग। वह है सर्वअधिकारी और वह फिर ऋषि अर्थात् बेहद के वैरागी। सर्व अधिकारी और बेहद के वैरागी। वह सर्व का प्यारा और वह सबसे न्यारा। दोनों ही लक्षण, बोल और कर्म में सदा साथ-साथ दिखाई देते हैं। वर्तमान स्वराज्य अर्थात् स्व का इन सर्व-कर्मइन्द्रियों पर राज्य - इसको कहते हैं स्वराज्य और वही है भविष्य का डबल राज्य अधिकारी। डबल राज्य का नशा सदा रहता है? जितना राज्य का नशा उतना ही बेहद का वैराग अर्थात् ऋषि रूप सदा स्मृति में रहता है? दोनों का बैलेन्स है। वा एक स्वरूप याद रहता है, दूसरा भूल जाता है? इस पुरानी देह और देह की दुनिया से बेहद के वैरागी बन गये हो? वा अभी भी यह पुरानी देह और दुनिया अपनी तरफ आकर्षित करती है? यह कब्रिस्तान अनुभव होता है? सभी मूर्च्छित हुई आत्मायें नजर आती हैं या सिर्फ कहने मात्र हैं? ये सब मरे पड़े हैं अर्थात् कब्रिस्तान है, जब तक वह अनुभव न होगा तो बेहद के वैरागी नहीं बन सकेंगे। आज की दुनिया में भी हद के वैरागी जंगल में या श्मशान में जाते हैं। इसलिए ही गायन है श्मशानी वैराग्य। तो जब तक यह दुनिया श्मशान है, ऐसा अनुभव नहीं होगा तो सदाकाल का बेहद का वैराग्य - यह अनुभव कैसे होगा?

अपने आप से पूछो कि ऋषि बना हूँ? ऐसे निश्चय बुद्धि वैराग्य के साथ-साथ अधिकार की खुशी में भी रहेगे तो राज-ऋषि बनने के लिए जितना ही राज्य का नशा उतना ही बेहद के वैराग्य के नजारे, दोनों ही साथ-साथ अनुभव होंगे। जितना कब्रिस्तान अनुभव होगा, उतना ही परिस्तान सामने दिखाई देगा। त्याग के साथ-साथ भाग्य भी स्पष्ट सामने दिखाई देगा। सम्पूर्ण राजऋषि की स्थिति अर्थात् नशा और निशाने दोनों ही स्पष्ट होंगे। निशाना अर्थात् सम्पूर्ण स्टेज। ऐसे नशे में रहने वाले के सामने निशाना इतना समीप होगा जैसे स्थूल नेत्रों के सामने स्थूल वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। जब सामने दिखाई देती है, तो फिर कोई संकल्प नहीं उठेगा कि यह वस्तु है कि नहीं है, क्या है, वा कैसी है? ऐसे ही सम्पूर्ण स्टेज का निशाना सामने दिखाई देने के कारण, मैं बनूँगा या नहीं बनूँगा वा सम्पूर्ण स्टेज किसको कहा जाता है यह क्वेश्चन समाप्त हो जायेगा। अपने सम्पूर्ण स्टैज की निशानियाँ स्वयं में स्पष्ट नजर आयेंगी। वह निशानियाँ क्या होंगी, वह जानते हो व अनुभव करते हो?

पहली निशानी-पुरानी दुनिया की किसी भी व्यक्ति वा वैभव से संकल्प-मात्र वा स्वप्न-मात्र भी लगाव नहीं होगा। सदा स्वयं को कलियुगी दुनिया से किनारा करने वाले संगमयुगी समझेंगे। सारी सृष्टि की आसुरी आत्माओं को कल्याण और रहम की दृष्टि से देखेंगे। सदा स्वयं को बाप समान विश्व-सेवाधारी अनुभव करेंगे। हर परिस्थिति वा परीक्षा में सदा स्वयं को विजयी अनुभव करेंगे। विजय मेरा जन्म-सिद्ध अधिकार है। ऐसा अधिकारी स्वरूप समझ कर हर कर्म करेंगे। सदा त्रिमूर्ति तख्त-नशीन अनुभव करेंगे। त्रिकालदर्शीपन के स्मृति स्वरूप होने के कारण हर कर्म के तीनों कालों को जानने वाले हर कर्म को श्रेष्ठ कर्म वा सुकर्मा बनायेंगे। विकर्म का खाता समाप्त हुआ अनुभव होगा। हर कार्य, हर संकल्प सिद्ध हुआ ही पड़ा है ऐसा सदा अनुभव करेंगे, पुराने संस्कार और स्वभाव से उपराम अनुभव करेंगे, सदा साक्षीपन की सीट पर स्वयं को सैट हुआ अनुभव करेंगे। यह है - निशानियाँ भी और निशाना भी। ऐसे को कहा जाता है राजऋषि। ऐसे राज-ऋषि बने हो? टाईटल तो राज-ऋषि का मिला है ना? जो टाईटल हैं वही प्रैक्टिकल भी है ना?

ब्राह्मण अर्थात् कहना और करना, सोचना और बोलना, सुनना और स्वरूप में लाना एक समानहो। सब ब्राह्मण हो ना? एक सेकेण्ड में जहाँ अपने को चाहो उस स्थिति में स्थित कर सकते हो? ऐसे एवर रेडी  बने हो? अशरीरी बनने का अभ्यास इतना ही सरल अनुभव होता है जैसे शरीर में आना अति सहज और स्वत: लगता है। रूहानी मिलिट्री हो ना? मिलिट्री अर्थात् हर समय सेकेण्ड में ऑर्डर को प्रैक्टिकल में लाने वाले। अभी-अभी ऑर्डर हो अशरीरी भव, तो एवररेडी हो या रेडी होना पड़ेगा? अगर मिलिट्री रेडी होने में समय लगाये तो विजय होगी? ऐसा सदा एवररेडी रहने का अभ्यास करो। अच्छा। ऐसे सदा सर्व अधिकारों के नशे में रहने वाले संगमयुगी श्रेष्ठ ब्राह्मणों, स्वराज्य और विश्व के राज्य के नशे में रहने वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओम् शान्ति।

मुरली के विशेष तथ्य

1. एक तरफ सर्व अधिकार, दूसरी तरफ बेहद का वैराग्य-दोनों का बैलेन्स रखने वाला ही राज-ऋषिकहला सकता है।

2. अपने को डबल राज्य अर्थात् स्वराज्य अर्थात् सर्व कर्मइन्द्रियों पर राज्य और भविष्य विश्व के राज्य का अधिकारी समझ कर चलते हो?

3. असार संसार अनुभव होता है या अब तक भी कोई सार दिखाई देता है? यह सब मरे पड़े हैं अर्थात् कब्र दाखिल है, जब तक यह अनुभव नहीं होगा तब तक बेहद के वैरागी नहीं बन सकेंगे।

4. ब्राह्मण अर्थात् कहना और करना, सोचना और बोलना, सुनना और स्वरूप में लाना, एक समान हो।

5. सम्पूर्ण स्टेज की गुह्य निशानी यह है कि पुरानी दुनिया का कोई भी व्यक्ति व वैभव से संकल्प-मात्र व स्वप्नमात्र भी लगाव का अनुभव नहीं होगा और हर परिस्थिति व परीक्षा में सदा स्वयं को विजयी अनुभव करेंगे।



07-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महारथी वत्सों का अलौकिक मिलन

कर्म-बन्धनों से मुक्ति दिलाने वाले, विश्व की सेवा में तत्पर, निराकार, जन्म-मरण रहित,
अमरनाथ शिव बाबा महारथी बच्चों के सम्मुख बोले -

महारथी और सब बच्चे अमृतवेले जब रूह-रूहान करते हैं तो महारथियों की रूह-रूहान और मिलन-मुलाकात और अनेक आत्माओं के मिलन और रूह- रूहान में क्या अन्तर होता है?

यह जो गायन है कि आत्मा, परमात्मा में लीन हो जाती है’, यह कहावत किस रूप में राँग है। क्योंकि एक शब्द बीच से निकाल दिया है। सिर्फ लीन शब्द नहीं हैलेकिन लवलीन। एक शब्द है लीन। एक लव में लीन। जो कोई अति स्नेह से मिलते हैं, तो उस समय स्नेह के मिलन के शब्द क्या निकलते हैं? यह तो जैसे कि एक-दूसरे में समा गए हैं या दोनों मिलकर एक हो गए हैं। ऐसे-ऐसे स्नेह के शब्दों को उन्होंने इस रूप से ले लिया है। यह जो गायन है कि वे एक-दूसरे में समाकर एक हो गये यह है जैसे कि महारथियों का मिलन। बाप में समा गये अर्थात् बाप का स्वरूप हो गये। ऐसा पॉवरफुल अनुभव महारथियों को ज्यादा होगा। बाकी और जो हैं वह खींचते हैं। स्नेह, शक्ति खींचने की कोशिश करते हैं - युद्ध करते-करते समय समाप्त कर देंगे-लेकिन महारथी बैठे और समाये। उनका लव इतना पॉवरफुल है जो बाप को स्वयं में समा देते हैं। बाप और बच्चा समान स्वरूप की स्टेज पर होंगे। जैसे बाप निराकार वैसे बच्चा। जैसे बाप के गुण, वैसे महारथी बच्चों के भी समान गुण होंगे। मास्टर हो गये ना? तो महारथी बच्चों का मिलन अर्थात् लवलीन होना। बाप में समा जाना। समा जाना अर्थात् समान स्वरूप का अनुभव करना। उस समय बाप और महारथी बच्चों के स्वरूप और गुणों में अन्तर नहीं अनुभव करेंगे। साकार होते हुए भी निराकार स्वरूप के लव में खोये हुए होते हैं, तो स्वरूप भी बाप समान हो गया। अर्थात् अपना निराकारी स्वरूप प्रैक्टिकल स्मृति में रहता है। जब स्वरूप-बाप-समान है तो गुण भी बाप समान। इसलिए महारथियों का मिलना अर्थात् बाप में समा जाना। जैसे नदी सागर में समा, सागर स्वरूप हो जाती है अर्थात् सर्व बाप के गुण स्वयं में अनुभव होते हैं, जो ब्रह्मा का अनुभव साकार में था, वह महारथियों का भी होगा। ऐसा अनुभव होता है? यह है सागर में समा जाना अर्थात् स्वयं के सम्पूर्ण स्टेज का अनुभव करना। यह अनुभव अब ज्यादा होना चाहिए।

हर संकल्प से वरदानी, नजर से वरदानी, नजर से निहाल करने वाले - बापदादा हर बच्चे की समीपता को देखते हैं। समीप अर्थात् समा जाना। अमृत वेले का टाईम है विशेष, ऐसा पॉवरफुल अनुभव करने का है। ऐसे अनुभव का प्रभाव सारा दिन चलेगा। जो अति प्यारी वस्तु होती है वह सदा समाई हुई रहती है। यह है महारथियों का मिलन अमृत वेले का। बाप दादा भी चेक करते हैं कौन-कौन कितना समीप है। जैसे मंदिर का पर्दा खुलता है दर्शन करने के लिए। वैसे अमृत वेले की सीन भी होती है। पहले मिलन मनाने की। हर बच्चा अमृत वेले का मिलन मनाने लिए, फर्स्ट नम्बर मिलन मनाने की दौड लगाने में तत्पर होता हैं। बाप चकमक है ना। तो ऑटोमेटिकली जो स्वयं स्वच्छ होते हैं, वह समीप आते हैं। बाहर की रीति से चाहे कोई कितना भी प्रयत्न करे लेकिन चकमक की तरफ समाने वाली स्वच्छ आत्मायें ही होती हैं। वह दृश्य बड़ा मजे का होता है। साक्षी होकर दृश्य देखने में बड़ा मजा आता है।

बच्चों को संकल्प उठता है कि बाप वतन में क्या करते रहते हैं-ब्रह्मा बाप साकार रूप से भी अव्यक्त रूप में अभी दिन-रात सेवा में ज्यादा सहयोगी बनने का पार्ट बजा रहे हैं। क्योंकि अब बाप-समान जन्म-मरण से न्यारा कर्म-बन्धन से मुक्त, कर्मातीत हैं। सिद्धि स्वरूप है। इस स्टेज में हर संकल्प से सिद्धि प्राप्त होती है। जो संकल्प किया वह सत्। इसलिए चारों ओर संकल्प की सिद्धि रूप से सहयोगी हैं। वाणी से संकल्प की गति तीव्र होती है। साकार से आकार की गति तीव्र है। तो संकल्प से सेवा का पार्ट है - वह भी सत-संकल्प। शुद्ध संकल्प। आपकी है ज्यादा वाणी द्वारा सेवा, मन्सा से भी है लेकिन ज्यादा वाणी से है, लेकिन ब्रह्मा बाप की अब सत्-संकल्प की सेवा है। तो तीव्र गति होगी ना? तो अभी सेवा का पार्ट ही चल रहा है। सेवा के बन्धन से मुक्त नहीं हैं, कर्म-बन्धन से मुक्त हैं। अच्छा।

इस मुरली का सार –

1. महारथी बच्चों का लव इतना पॉवरफुल होता है कि बाप को स्वयं में समा देते हैं। उस समय बाप और महारथी बच्चों के स्वरूप और गुणों में कोई अन्तर अनुभव नहीं होता



08-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मास्टर ज्ञान-स्वरूप बनने की प्रेरणा

विश्व रूपी बेहद ड्रामा में मुख्य अथवा विशेष पार्टधारी बनाने वाले तथा अज्ञानान्धकार मिटाने वाले ज्ञान-सूर्य शिव बाबा बोले -

स्वयं को बापदादा का श्रृंगार, ब्राह्मण कुल का श्रृंगार, विश्व का श्रृंगार, अपने घर का श्रृंगार समझते हो? बच्चों को बाप के सिर का ताज, गले का हार माना जाता है। इसलिये बापदादा के श्रृंगार हो? अपने घर परमधाम वा शान्तिधाम में भी सर्व चमकते हुए सितारों के समान आत्माओं के बीच विशेष चमकते हुए घर के श्रृंगार, साकार सृष्टि अर्थात् विश्व के अन्दर विश्व ड्रामा के अन्दर हीरो पार्टधारी, विशेष पार्ट बजाने वाली विशेष आत्मायें हो, अर्थात् विश्व के श्रृंगार हो। ऐसे अपने को श्रेष्ठ श्रृंगार समझते हुए चलते हो? आज बापदादा अपने श्रृंगार को देख रहे थे, क्या देखा? सभी को चमकती हुई मणियों के रूप में देखा। रूप सबका चमकती हुई मणियों का था, लेकिन नम्बरवार ज़रूर होते ही हैं। आज तीन रूप के श्रृंगार में मणियों को देखा।

पहला श्रृंगार सिर के ताज में मस्तक बीच चमकती हुई मणियों को देखा। रूप सबका चमकती हुई मणियों का था। अब इन तीनों प्रकार की मणियों में अपनी-अपनी विशेषता देखी। पहले नम्बर की मणियाँ अर्थात् ताज में चमकती हुई मणियों की विशेषता यह थी-यह सब मणियाँ बाप समान, मास्टर ज्ञान-सूर्य समान चमक रही थीं। जैसे सूर्य की किरणें विश्व को प्रकाशमय बनाती हैं, चारों कोने के अन्धकार को दूर करती हैं ऐसे मास्टर ज्ञान-सूर्य स्वरूप मणियाँ हर-एक अपने सर्व शक्तियों रूपी किरणें चारों ओर फैलाने वाली देखीं। हर-एक की हर शक्ति रूपी किरणें बेहद विश्व तक पहुँच रही थीं - हद तक नहीं, एक तक नहीं, अल्प आत्माओं तक नहीं, लेकिन विश्व तक। साथसाथ बाप समान सर्व गुणों के मास्टर-सागर। इसकी निशानी हर मणि के अन्दर सर्व रंग समाए हुए थे। एक में सर्व रंगों की झलक थी। ऐसे मास्टर गुणों के सागर, अपने सर्व रंगों की रंगत से चमकते हुए ताज की श्रेष्ठ शोभा थीं। ताज के अन्दर मस्तक बीच लटकती हुई वह मणियाँ बापदादा के विशेष श्रृंगार रूप में दिखाई दीं।

इन विशेष मणियों का मस्तक के बीच लटकते हुए का भी रहस्य है। यह विशेष मणियाँ सदा साकार रूप में मस्तक बीच चमकती हुई मणि अर्थात् आत्मा स्वरूप में सदा स्थित रहती हैं। साकार सृष्टि में रहते हुए बुद्धि सदा बाप की याद, घर की याद, राजधानी की याद और ईश्वरीय सेवा की याद में लटकी हुई रहती हैं। इसलिये इन्हों का स्थान भी उच्च स्थिति की निशानी मस्तक बीच लटकते हुए दिखाई दी और ऐसी आत्मायें सदा ऊँची स्मृति, ऊंची वृत्ति, ऊंची दृष्टि और ऊंची प्रवृत्ति में रहती हैं। इसलिए इन्हें ऊंचा स्थान अर्थात् सिर का ताज प्राप्त हुआ है। सबसे ऊंचा श्रृंगार ताज होता है। ताज ऊंचाई का भी सिम्बल है, साथ-साथ मालिकपन का भी सिम्बल है और सर्व प्राप्तियों का भी सिम्बल है, अधिकारीपन का भी सिम्बल है। ऐसे मस्तक मणियों व ताज-नशीन मणियों की विशेषता सुनी? ऐसी विशेष मणियाँ बहुत थोड़ी दिखाई दी। यह थी फर्स्ट नम्बर की मणियाँ व फर्स्ट नम्बर का श्रृंगार।

अब दूसरे नम्बर का श्रृंगार बापदादा के गले का हार उन्हों की विशेषता क्या थी और आधार क्या था? वह सब मणियाँ भी अपनी चमक चारों ओर फैला रही थीं। लेकिन फर्क क्या था? पहले नम्बर की मणियों की शक्ति की किरणें चारों ओर समान फैली हुई थीं। लेकिन गले के हार की मणियों की किरणें सर्व समान नहीं थीं। कोई छोटी, कोई बड़ी थीं। कोई किरणें बेहद तक, कोई हद तक थीं अर्थात् बाप के समीप थीं। लेकिन बाप समान नहीं थीं। सर्व गुणों के रंग समाये हुए थे - लेकिन सर्व रंग स्पष्ट नहीं थे। बापदादा के ऊपर स्नेह और सहयोग के आधार पर बलिहार थे, इसलिये गले के हार थे। ऐसी आत्माओं का आधार सदा कण्ठ द्वारा अर्थात् मुख द्वारा, गले की आवाज द्वारा बाप की महिमा, बाप का परिचय देकर बाप को समीप लाना - अर्थात् वाचा के सब्जेक्ट में फुल पास थे परन्तु मन्सा की सब्जेक्ट में फुल पास नहीं लेकिन वाचा की सब्जेक्ट में फुल पास। सदा स्मृति स्वरूप नहीं लेकिन सदा स्मृति दिलाने स्वरूप। इस आधार से बाप के समीप, बाप के गले का हार बनते हैं। यह संख्या ज्यादा थी। माला में तो ज्यादा होते हैं ना? तो गले की माला की मणियाँ, ताज की मणियों से बहुत ज्यादा थीं।

तीसरा श्रृंगार था बाँहों का कंगन। उन्हों की विशेषता और आधार क्या था? बाँहै सदा सहयोग की व मददगार बनने की निशानी गायी जाती हैं। बाँहों का हार अथवा कंगन बात एक ही है। कंगन को बाँहों का हार कहेंगे न? इन्हों की विशेषता क्या देखी? किरणों व् चमक बेहद में नहीं, लेकिन हद में थीं। सर्व गुणों के रंग नहीं, लेकिन कोई- कोई गुण रूपी रंग चमकता हुआ दिखाई दे रहा था। इन्हों की विशेषता हर सेवा के कार्य में सदा सहयोगी, कर्मणा की सब्जेक्ट में फुल पास। सेवा-अर्थ तन-मन-धन से सदा एवररेडी । बाप के स्नेह रूपी बाँहों में सदा समाये हुए और बापदादा  का हाथ सदा अपने ऊपर अनुभव करने वाले थे। सदा साथ रहने वाले नहीं लेकिन अपने ऊपर हाथ अनुभव करने वाले - यह संख्या भी ज्यादा थी। यह थी सहयोगी आत्मायें, वह समान आत्मायें और वह समीप आत्मायें। समझा तीन प्रकार का श्रृंगार। तो आज तीन रूप के श्रृंगार रूप में सर्व बच्चों को देखा। अब अपने आपको देखो कि मैं कौन हूँ? यह था आज का समाचार। सूक्ष्म वतन का समाचार सुनने की रूचि होती है न? अच्छा।

ऐसे नम्बरवार सर्व श्रृंगार की मणियों को, बापदादा के सदा स्मृति में रहने वाली समर्थ आत्माओं को और सदा सर्व के शुभ-चिन्तक बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली का सारांश

1. पहला श्रृंगार सिर के ताज में मस्तक बीच चमकती हुई मणियाँ, वे विशेष आत्मायें हैं जो बाप समान मास्टर ज्ञान-सूर्य समान चमकती हैं। उनकी सर्व शक्तियाँ रूपी किरणें अपने अन्दर सर्व गुण रूपी रंगों को समाये हुए चारों ओर बेहद विश्व तक पहुँचती हैं। ऐसी आत्मायें सदा आत्मिक स्वरूप में स्थित होते हुए ऊंची स्मृति, ऊंची वृत्ति, ऊंची दृष्टि और ऊंची प्रवृत्ति में रहती हैं।

2. दूसरे नम्बर का श्रृंगार बापदादा के गले के हार की मणियाँ, वे समीप आत्मायें हैं जिनकी चमक चारों ओर फैलती तो हैं, परन्तु उनकी शक्ति रूपी किरणें समान नहीं हैं, सर्व गुणों का रंग स्पष्ट नहीं है। वाचा के सब्जेक्ट में फुल पास, परन्तु मन्सा की सब्जेक्ट में फुल पास नहीं हैं।



08-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्वयं सन्तुष्ट होने तथा दूसरों को सन्तुष्ट करने की विधि

सर्व को सन्तुष्ट करने वाले, पॉवरफुल स्टेज पर खड़ा करने वाले, आसुरी संस्कारों को मिटाने वाले शिव बाबा संगमयुगी वत्सों के प्रति बोले: -

आपको अपना संगमयुगी और भविष्य स्वरूप स्पष्ट दिखाई देता है? फ्युचर स्पष्ट दिखाई देने से पुरूषार्थ भी ठीक होता है। अन्तिम स्वरूप है ही महाकाली का अर्थात् आसुरी संस्कारों को समाप्त करने वाला। इस लिये आपको सदा स्मृति में रखना है कि मैं महाकाली स्वरूप हूँ - इस लिये आप में अब कोई भी आसुरी संस्कार नहीं रहना चाहिए। आप निमित्त बनी आत्माओं को सदा यह अटेन्शन रहना चाहिये कि मैं तीव्र पुरूषार्थ करूँ। तीव्र पुरूषार्थ का सलोगन  क्या है? (जो कर्म मैं करूँगा, मुझे देख दूसरे भी वैसा ही करेंगे) यह तो मध्यम पुरूषार्थ का सलोगन है। तीव्र पुरूषार्थ का सलोगन है - जैसा संकल्प मैं करूँगा मेरे संकल्प का वैसा ही वातावरण बनेगा।संकल्प का भी आधार वातावरण पर और वातावरण का आधार पुरूषार्थ पर है। जो संकल्प करेंगे उसे सभी फॉलो  करेंगे। कर्म तो मोटी बात है, लेकिन संकल्प पर भी अटेन्शन संकल्प को हल्की बात नहीं समझना, क्योंकि संकल्प है बीज। संकल्प रूपी बीज कमज़ोर होगा तो कभी भी पॉवरफुल फल अनुभव नहीं होगा। एक संकल्प का भी व्यर्थ जाना, यह भी एक भूल है। जैसे वाणी में हुई भूल महसूस होती है, वैसे व्यर्थ संकल्प की भी भूल महसूस होनी चाहिए। जब ऐसी चैकिंग करेंगे तब ही आप आगे बढ़ सकेंगे। नहीं तो निमित्त बनने का जो चांस मिला है, उसका लाभ उठा नहीं सकेंगे। अब तो गुह्य महीन पुरूषार्थ होना चाहिए। अब मोटे पुरूषार्थ का समय समाप्त हो गया। कर्म और बोल में गलतियों का होना - यह है बचपन। अब वानप्रस्थी का पुरूषार्थ होना चाहिए। अब भी अगर बचपन का पुरूषार्थ करते रहे तो लक्क अर्थात् भाग्य की लॉटरी को गँवा देंगे। कभी हर्षित, कभी उदास, कभी तीव्र पुरूषार्थ और कभी मध्यम पुरूषार्थ का होना यह कोई विशेष आत्मा की निशानी नहीं। यह तो साधारण आत्मा हुई। अब तो आप सभी में विशेष न्यारापन होना चाहिए। जो अपनी पॉवरफुल स्मृति से कमज़ोर आत्माओं की स्थिति को भी पॉवरफुल बना दो। संतुष्ट न होने के कारण सर्विस रूकी हुई है। तो अब यह भी सलोगन याद रखो - संतुष्ट रहना भी है और सबको संतुष्ट करना भी है। समझा? अच्छा।

महावाक्यों का सार

1. हमारा अन्तिम स्वरूप है महाकाली अर्थात् आसुरी संस्कारों को समाप्त करने वाला।

2. तीव्र पुरूषार्थ का सलोगन है कि - जैसा संकल्प मैं करूँगा - मेरे संकल्प का वातावरण वैसा ही बनेगा और सभी उसे फॉलो भी वैसा ही करेंगे।

3. एक संकल्प भी व्यर्थ जाना यह भी भूल है, ऐसी महीन चैकिंग अब करनी है।

4. अपनी स्मृति इतनी पॉवरफुल होनी चाहिए कि कमज़ोर आत्माओं की स्थिति भी पॉवरफुल बन जाये।



11-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विजयी बनने के लिये मुख्य धारणाएं

कुछेक ग्रुप्स से मिलने पर बापदादा ने उनसे जो प्रश्न  किए और फिर उन्होंने जो उत्तर दिये उनका सार यहाँ लिखा है:-

प्रश्न :- विजयी बनने के लिये कौनसी मुख्य धारणा की आवश्यकता है?

उत्तर: - विजयी बनने के लिये अलर्ट रहने की अवश्यकता है। एक होते हैं अलर्ट रहने वाले, दूसरे होते हैं अलबेले रहने वाले। जो सदा अलर्ट होते हैं, वे कभी माया से धोखा नहीं खायेंगे, बल्कि वे सदा विजयी ही होंगे।

प्रश्न :- 108 की माला में और 16000 की माला में आने के चिन्ह व निशानी क्या है?

उत्तर: - जो यहाँ सदा विजयी रहते हैं, वही विजय माला में आयेंगे। इसलिए वैजयन्ती माला नाम पड़ा है। जो कभी-कभी के विजयी हैं वे 16000 की माला में आयेंगे।

प्रश्न :- कौन-सा लक्ष्य रखने से सदा विजयी बन सकते हैं?

उत्तर:- हम अभी के विजयी नहीं, कल्प-कल्प अनेक बार के विजयी हैं। जो बात अनेक बार की जाती है, तो वह स्वभाव-संस्कार में स्वत: ही आ जाती है। जैसे आज की दुनिया में जो बात नहीं करनी चाहिये परन्तु वह कर लेते हैं, तो कह देते हैं कि यह तो मेरा संस्कार बन गया है। तो यहाँ भी अनेक बार के विजयी होने की स्मृति विजय का संस्कार बनादेगी।

प्रश्न :- व्यर्थ को समर्थ बनाने की तेज मशीनरी कौन-सी होनी चाहिए?

उत्तर:- जैसे कोई भी चीज की मशीनरी पॉवरफुल होती है, तो काम तेजी से होता है, तो यहाँ भी व्यर्थ संकल्प को समर्थ करने के लिए बुद्धि रूपी मशीनरी पॉवरफुल हो। बुद्धि भी पॉवरफुल तब होगी जब बुद्धि का पॉवर हाउस से कनेक्शन होगा। यहाँ कनेक्शन टूटता तो नहीं लेकिन लूज़ ज़रूर हो जाता है, अत: अब वह भी लूज़ नहीं होना चाहिए। तभी व्यर्थ को समर्थ बना सकेंगे।

दूसरे ग्रुप से मुलाकात

प्रश्न :- ब्राह्मण जीवन का मुख्य कर्त्तव्य क्या है?

उत्तर:- बाप के याद में सदा स्मृति स्वरूप होकर रहना। जैसे मिश्री मिठास का रूप होती है वैसे ही याद स्वरूप ऐसे हो जाओ कि याद अलग ही न हो सके। अगर बाप की याद छोड़ी तो बाकी रहा ही क्या? जैसे शरीर से आत्मा निकल जाय तो उसे मुर्दा ही कहेंगे? वैसे ही यदि ब्राह्मण जीवन से याद निकल जाय तो ब्राह्मण जीवन क्या हुआ? तो ऐसा याद-स्वरूप बनना है, तो ब्राह्मण जीवन का कर्त्तव्य है - याद-स्वरूप बनना।

तीसरे ग्रुप से मुलाकात

प्रश्न :- देहली, यमुना के किनारे पर है, यमुना किनारे का गायन क्यों?

उत्तर:- जैसे अब साकार रूप में जैसे यमुना किनारे निवास करते हो, वैसे बुद्धियोग द्वारा स्वयं को इस देह और देह की पुरानी दुनिया की स्मृति से किनारा किया हुआ अनुभव करो। संगमयुगी अर्थात् कलियुगी दुनिया से किनारा कर देना। किनारा अर्थात् न्यारा हो जाना। पुरानी दुनिया से न्यारे हो गये हो कि अब भी उसके प्यारे हो?

प्रश्न :- दशहरे पर सभी रावण का दाह-संस्कार करते हैं, लेकिन अब आपको क्या करना है?

उत्तर: - आपके अपने में जो रावण-पन के संस्कार हैं, उन रावणपन के संस्कारों का संस्कार करो अर्थात् रावणपन के संस्कारों को सदा के लिए छुट्टी देकर लाभ उठाओ। हड्डियाँ व राख बाँध कर साथ नहीं ले जाना। राख अर्थात् संकल्प रूप में भी रावणपन के संस्कार नहीं ले जाना।

कुछेक मुख्य बहनों से सम्बोधन

हर समय अपने को निमित्त बनी हुई समझती हो? जो अपने को निमित्त बनी हुई समझती हैं, उन्हों में मुख्य यह विशेषता होगी - जितनी महानता उतनी नम्रता। दोनों का बैलेन्स होगा। तब ही निमित्त बने हुए कार्य में सफलतामूर्त बनेंगे। जहाँ नम्रता के बजाय महानता ज्यादा है या महानता की बजाय नम्रता ज्यादा है तो भी सफलतामूर्त नहीं बनेंगे। सफलतामूर्त बनने के लिए दोनों बातों का बैलेन्स चाहिए। टीचर्स वह होती हैं, जो सदा अपने को बाप समान वर्ल्ड सर्वेन्ट समझ कर चलती हैं। वर्ल्ड सर्वेन्ट ही विश्व-कल्याण का कार्य कर सकते हैं। टीचर्स को सदैव यह स्मृति रहनी चाहिए, कि टीचर को स्वयं को स्वयं ही टीचर नहीं समझना चाहिए। यदि टीचरपन का नशा रखा तो रूहानी नशा नहीं रहेगा। यह नशा भी बॉडीकॉन्सेस है। इसलिए सदा रूहानी नशा रहे कि - मैं विश्व-कल्याणकारी बाप की सहयोगी विश्व कल्याणकारी आत्मा हूँ।

कल्याण तब कर सकेंगे जब स्वयं सम्पन्न होंगे। जब स्वयं सम्पन्न नहीं होंगे तो विश्व-कल्याण नहीं कर सकेंगे। सदैव बेहद की दृष्टि रखनी चाहिए। बेहद की सेवा-अर्थ जब बेहद का नशा होगा, तब बेहद का राज्य प्राप्त कर सकेंगी। सफल टीचर अर्थात् सदा हर्षित रहना और सर्व को हर्षितमुख बनाना। समझा सफलतामूर्त की निशानी? टीचर को सफलतामूर्त बनना ही है। बाप और सेवा के सिवाय और कोई बात उसकी स्मृति में न हो। ऐसी स्मृति में रहने वाली टीचर सदा समर्थ रहेगी। कमज़ोर नहीं रहेगी। ऐसी टीचर हो? ऐसा समर्थ अपने को समझती हो? समर्थ टीचर ही सफलतामूर्त होती है। ऐसी ही हो ना? टीचर को कमजोरी के बोल बोलना भी शोभता नहीं है। संस्कारों के वशीभूत तो नहीं हो ना? क्या संस्कारों को अपने वश में करने वाली हो? कम्पलेन्ट करने वाली टीचर तो नहीं हो ना? टीचर्स तो अनेकों की कम्पलेंट को खत्म करने वाली होती हैं, फिर तो अपनी कम्पलेन्ट तो नहीं होनी चाहिए। टीचर्स को चांस तो बहुत मिलते हैं। कम्पलेन्ट समाप्त हो गई, फिर तो कम्पलीट हो गये1 बाकी और क्या चाहिए? अच्छा।

मुरली का मुख्य सार

1. विजयी बनने के लिए सदा अलर्ट रहने की आवश्यकता है। जो सदा अलर्ट होते हैं, वे कभी माया से धोखा नहीं खाते।

2. व्यर्थ संकल्पों वो समर्थ करने के लिए बुद्धि रूपी मशीनरी को पॉवर हाउस के कनेक्शन से पॉवरफुल बनाओ।

3. ब्राहमण जीवन का कर्त्तव्य है - याद स्वरूप बनना।

4. आप अपने से रावणपन के संस्कारों का सदा के लिए संस्कार करो, संकल्प रूप में भी रावणपन के संस्कार साथ न जायें।

(5) सदा यही रूहानी नशा रखो कि मैं विश्व-कल्याणकारी बाप की सहयोगी विश्व-कल्याणकारी आत्मा हूँ।



11-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अन्त:वाहक रूप द्वारा परिभ्रमण

महारथी बच्चों को देख बापदादा बोले :-

आजकल इस पुरानी सृष्टि में विशेष क्या चल रहा है? आजकल विशेष आप लोगों का आह्वान चल रहा है। फिर आह्वान का रिसपॉन्स करते हो? भक्त क्या चाहते हैं? भक्तों की इच्छा यही है कि देवियाँ चैतन्य-रूप में प्रगट हो जाएं । जड़ चित्रों में भी चैतन्य शक्तियों का आह्वान करते हैं कि चैतन्य रूप में वरदानी बन वरदान दे दें। तो यह इच्छा भक्तों की कब पूरी होगी? भक्ति का भी अभी फुल फोर्स चारों ओर दिखाई दे रहा है। उसमें भी जैसे प्रैक्टिकल में बाप गुप्त है और शक्तियाँ प्रत्यक्ष रूप में हैं। ऐसे ही भक्ति में भी पहले बाप की पुकार ज्यादा करते थे - हे भगवान् कह पुकारते थे - लेकिन अभी मेजॉरिटी  भगवती की पूजा होती है। भक्तों की भावना पूरी करने के लिए शक्तियाँ ही निमित्त बनती हैं। इसलिए आह्वान भी शक्तियों का ज्यादा हो रहा है। तो अब शक्तियों में रहम के संस्कार इमर्ज होने चाहिएं । अभी सबके अन्दर रहम के संस्कार इमर्ज नहीं हैं, मर्ज हैं।

जैसे बाप चारों ओर चक्कर लगाते हैं, वैसे आप भी भक्तों के चारों ओर चक्कर लगाती हो? कभी सैर करने जाती हो? आवाज सुनने में आती है, तो कशिश नहीं होती है? बाप के साथ-साथ शक्तियों को भी पार्ट बजाना है, जैसे शक्तियों का गायन है कि अन्त:वाहक शरीर द्वारा चक्कर लगाती थीं, वैसे बाप भी अव्यक्त रूप में चक्कर लगाते हैं। अन्त:वाहक अर्थात् अव्यक्त फरिश्ते रूप में सैर करना। यह भी प्रैक्टिस चाहिए और यह अनुभव होंगे। जैसे साइन्स के यन्त्र दूरबीन द्वारा दूर की सीन को नजदीक में देखते हैं, ऐसे ही याद के नेत्र द्वारा अपने फरिश्तेपन की स्टेज द्वारा दूर का दृश्य भी ऐसे ही अनुभव करेंगे, जैसे साकार नेत्रों द्वारा कोई दृश्य देख आये। बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देंगे अर्थात् अनुभव होगा।

साइन्स का मूल आधार है लाइट। लाइट के आधार से साइन्स का जलवा है, लाइट की ही शक्ति है। ऐसे ही साइलेन्स की शक्ति का आधार है डिवाइन इनसाइट। इन द्वारा साइलेन्स की शक्ति के बहुत वन्डरफुल अनुभव कर सकते हो। यह भी अनुभव होंगे। जैसे स्थूल साधन द्वारा सैर कर सकते हैं, वैसे ही जब चाहों, जहाँ चाहो वहाँ का अनुभव कर सकते हो। न सिर्फ इतना, जो सिर्फ आपको अनुभव हो लेकिन जहाँ आप पहऊँचो उन्हों को भी अनुभव होगा कि आज जैसे प्रैक्टिकल मिलन हुआ। यह है सफलतामूर्त की सिद्धि। वह तो रिवाजी आत्माओं को भी सिद्धि प्राप्त होती है एक ही समय अनेक स्थानों पर अपना रूप प्रकट कर सकते और अनुभव करा सकते हैं। वह तो अल्प काल की सिद्धि है, लेकिन यह है ज्ञान-युक्त सिद्धि। ऐसे अनुभव भी बहुत होंगे। आगे चलकर कई नई बातें भी तो होगी ना। जैसे शुरू में घर बैठे ब्रह्मा रूप का साक्षात्कार होता था जैसे कि प्रैक्टिकल कोई बोल रहा है, इशारा कर रहा है, ऐसे ही अन्त में भी निमित्त बनी हुई शक्ति सेना का अनुभव होगा। सभी महारथियों का संकल्प है कि अब कुछ नया होना चाहिए तो ऐसी-ऐसी नई रंगत अब होती जायेंगी। लेकिन इसमें एक तो बहुत हल्कापन चाहिये, किसी भी प्रकार का बुद्धि पर बोझ न हो और दूसरी सारी दिनचर्या बाप समान हो, तब ब्रह्मा बाप समान आदि से अन्त के दृश्य का अनुभव कर सकते हो। समझा? अब महारथियों को क्या करना है? सिर्फ योग नहीं, सेवा का रूप परिवर्तन करना है। महारथियों का योग वा याद अब स्वयं प्रति नहीं लेकिन सेवा प्रति हो, तब तो महादानी और महाज्ञानी कहे जायेंगे। अच्छा!

समय की समाप्ति की निशानी क्या होगी? जब सारे संगठन की एक आवाज, एक ही ललकार हो कि हम विजयी है, विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है वा विजय हमारे गले का हार है। ऐसा प्रैक्टिकल में अनुभव होगा। सिर्फ कहने मात्र नहीं, लेकिन यह नशा रहे, सदा सामने दिखाई दे। ऐसे विजय का निशाना दिखाई देता है? अच्छा। ओम् शान्ति।

इस मुरली का सार

1. साइलेन्स की शक्ति का आधार है - डिवाइन इनसाइट। इस द्वारा साइलेन्स की शक्ति के बहुत आश्चर्यजनक अनुभव कर सकते हैं।

2. महारथियों का योग व याद स्वयं के प्रति नहीं बल्कि विश्व-सेवा के प्रति होनी चाहिए तभी वे महादानी व महाज्ञानी के जायेंगे।

3. याद के नेत्र द्वारा और अपने फरिश्तेपन की स्टेज द्वारा दूर का दृश्य भी ऐसे अनुभव कर सकते हैं। जैसे साकार नेत्रों द्वारा कोई दृश्य देखा जाता हैं।



12-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


कम्पलेन्ट समाप्त कर कम्पलीट बनने की प्रेरणा

अतीन्द्रीय सुख के झूले में झुलाने वाले, सर्व-सम्बन्धों का अलौकिक अनुभव देने वाले, सर्व आत्माओं के हितकारी शिव बाबा वत्सों के प्रति बोले –

आप-समान निराकारी, देह की स्मृति से न्यारे, आत्मिक स्वरूप में स्थित होते हुए, साक्षी होकर, अपना और सर्व आत्माओं का पार्ट देखने का अभ्यास मज़बूत होता जाता है? सदा साक्षीपन की स्टेज स्मृति में रहती है? जब तक साक्षी स्वरूप की स्मृति सदा नहीं रहती तो बापदादा को अपना साथी भी नहीं बना सकते। साक्षी अवस्था का अनुभव, बाप के साथीपन का अनुभव कराता है। अपने को खुदा-दोस्त समझते हो ना? अर्थात् अपने मन का मीत बापदादा को बनाया है? दिल का दिलवाला बाप को ही बनाया है? एक दिलवाला बाप के सिवाय और किसी से भी दिल की लेन-देन करने का संकल्प मात्र भी नहीं है, ऐसा अनुभव करते हो? अगर एक बाप के साथ सर्व-सम्बन्धों के सुख, सर्व- सम्बन्धों के प्रीति की प्राप्ति अनुभव करते हो तो और कहीं भी, किसी सम्बन्ध में बुद्धि जा नहीं सकती। हर श्वास, हर संकल्प में सदा बाप के सर्व-सम्बन्धों में बुद्धि मगन रहनी चाहिए। कई बच्चों की कम्पलेन्ट है कि व्यर्थ संकल्प बहुत आते हैं, बुद्धि बाप की तरफ लगती नहीं है। न चाहते हुए भी कहीं-न-कहीं बुद्धि का लगाव चला जाता है वा स्थूल प्रवृत्ति की ज़िम्मेवारी बुद्धि को एकाग्र बनने नहीं देती। पुरानी दुनिया का सम्पर्क व वातावरण, वृत्ति को चंचल बना देता है। जितना तीव्र पुरूषार्थ करना चाहते हैं, उतना कर नहीं पाते हैं, हाई-जम्प दे नहीं पाते। सारे दिन में इसी प्रकार की कम्पलेन्टस् बापदादा के पास बहुत आती हैं।

मास्टर सर्वशक्तिमान् कहलाते हुए भी अपने ही स्वभाव, संस्कार से मज़बूर हो जाते हैं, तो बापदादा को भी ऐसी बातें सुनते हुए मीठी हँसी भी आती है बा 145 और रहम भी आता है। जब अपने स्वभाव-संस्कार को मिटा नहीं सकते, तो सारे विश्व से तमोप्रधान आसुरी संस्कार मिटाने वाले कैसे बनेंगे? जो अपने ही संस्कारों के वश हो जायें, वह सर्व वशीभूत हुई आत्माओं को मुक्त कैसे कर सकेंगे? जो अपने ही संस्कारों, जिससे स्वयं ही परेशान हैं वह औरों की परेशानी कैसे मिटायेंगे? ऐसे संस्कारों से मुक्ति पाने की सरल युक्ति कौन-सी है? कर्म में आने से पहले संस्कार, संकल्प में आते हैं - ‘‘यह कर दूँगा, ऐसा होना चाहिए, यह क्या समझते हैं, मैं भी सब करना जानता हूँ।’’ इस रूप के संकल्पों में संस्कार उत्पन्न होते हैं। जब जानते हो कि इस समय संस्कार संकल्प-रूप में अपना रूप दिखा रहे हैं, तो सदैव यह आदत डालो व अभ्यास करो कि हर संकल्प को पहले चेक करना है कि क्या यह संकल्प बाप-समान है?

जैसे कई बड़े आदमी होते हैं, वे जो कुछ भी स्वीकार करते हैं, तो पहले उस चीज़ की चेकिंग होती है। जैसे प्रेज़ीडेन्ट है या कोई भी विशेष व्यक्ति या बड़े-बड़े राजा होते हैं, तो उनका हर भोजन पहले चेक होता है, फिर वे स्वीकार करते हैं। उन्हें कोई भी वस्तु देंगे तो पहले उनकी चेकिंग होती है कि कहीं उसमें कुछ अशुद्धि या मिक्स तो नहीं है? वह बड़े आदमी आप के आगे क्या हैं? आपके राज्य में ये बड़े आदमी पाँव भी नहीं रख सकते। अब भी आपके पाँव पर पड़ने वाले हैं। जब राजाओं के भी राजा बनते हो और सृष्टि के बीच श्रेष्ठ आत्मा कहलाते हो तो आप विशेष आत्माओं का यह संकल्प रूपी बुद्धि का जो भोजन है उसके लिये भी चेकिंग होनी चाहिए। जब बिना चेकिंग के स्वीकार करते हो तब धोखा खाते हो। तो हर संकल्प को पहले चेक करो। जैसे सोने को यन्त्र द्वारा चेक करते हैं कि सच्चा है या मिक्स है, रीयल है अथवा रोल्ड गोल्ड है? ऐसे ही यह चेक करो कि संकल्प बापदादा समान हैं या नहीं है? इस आधार से चेक करो, फिर वाणी और कर्म में लाओ। आधार को भूल जाते हो, तब शूद्र-पने के और विष के संस्कार मिक्स हो जाते हैं। जैसे भोजन में विष मिक्स हो जाय तो वह मूर्छित कर देता है, ऐसे ही संकल्प रूपी आहार व भोजन में पुराने शूद्र-पन का विष मिक्स हो जाता है तो बाप की स्मृति और समर्थी स्वरूप से मूर्छित हो जाते हो। तो अपने को विशेष आत्मायें समझते हुए अपनेआपका स्वयं ही चेकर  बनो। समझा? विशेष आत्मा की अपनी शान में रहो तो परेशान नहीं होंगे। अच्छा यह हुई संस्कारों को मिटाने की युक्ति। अगर इस कार्य में सदा बिज़ी रहेगे व सदा होली-हंस स्वरूप में स्थित होंगे, तो शुद्ध व अशुद्ध, शूद्रपन और ब्राह्मणपन को सहज ही चेक कर सकेंगे और बुद्धि इसी कार्य में बिजी होने के कारण व्यर्थ संकल्पों की कम्पलेन्ट से फ्री  हो जायेगी।

दूसरी बात - सारा दिन, बाप के सर्व-सम्बन्धों का, हर समय प्रमाण सुख नहीं ले पाते हो। जो गोपियों और पोण्डवों के चरित्र गाये हुए हैं। बाप से सर्व- सम्बन्धों का सुख लेना और मगन रहना अथवा सर्व-सम्बन्धों के लव में लवलीन रहना - वह अनुभव अभी किया नहीं है। बाप और शिक्षक इन विशेष सम्बन्धों का सुख अनुभव करते हो लेकिन सर्व-सम्बन्धों के सुखों की प्राप्ति का अनुभव कम करते हो। इसलिए जिन सम्बन्धों के सुखों का अनुभव नहीं किया है उन सम्बन्धों में बुद्धि का लगाव जाता है और वह आत्मा का लगाव व बुद्धि की लगन, विघ्न-रूप बन जाती है। तो सारे दिन में भिन्न-भिन्न सम्बन्धों का अनुभव करो। अगर इस समय बाप से सवर्-सम्बन्धों का सुख नहीं लिया है तो सर्व-सुखों की प्राप्ति में, सर्व-सम्बन्धों की रसना लेने में कमी रह जायेगी। अभी अगर यह सुख नहीं लिया तो कब लेंगे? आत्माओं से सर्व-सम्बन्ध तो सारा कल्प अनुभव करेंगे लेकिन बाप से सर्व-सम्बन्धों का अनुभव अभी नहीं किया तो कभी भी नहीं करेंगे। तो इन सर्व-सम्बन्धों के सुखों में सारा दिन-रात अपने को बिजी रखो। इन सुखों में निरन्तर रहने से और सर्व-सम्बन्ध असार और नीरस अनुभव होंगे। इसलिए बुद्धि एक ठिकाने पर स्थित हो जायेगी और उसका भटकना बन्द हो जायेगा और आप इन सुखों के झूले में सदा झूलते रहेगे। ऐसी स्थिति बनाने से तीव्र पुरुषार्थी स्वत: और सहज बन जायेंगे, सर्व कम्पलेन्ट समाप्त हो कम्पलीट बन जायेंगे। समझा? अपने कम्पलेन्टस् का रेस्पॉन्स अच्छा –

ऐसे सदा अतीन्द्रिय सुखों के झूले में झूलने वाले, सदा बाप के साथ सर्व-सम्बन्ध निभाने वाले, सदा स्वयं को साक्षी और बाप को साथी समझने वाले, ऐसे खुदा-दोस्त, सदा खुदाई-खिदमत में रहने वाले, ऐसे बाप-समान बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

सुनने में खुश होते हो, लेकिन निभाने में कहीं मज़बूर हो जाते हो। जब सुनने में इतनी खुशी होती है, तो स्वरूप बनने में कितनी खुशी होगी? इस समय सभी हर्षित मुख हो, ऐसे ही सदा हर्षितमुख रहो तो स्वयं का भी समय बचायेंगे और निमित्त बनी हुई आत्माओं का भी समय बचा लेंगे। अभी तक गिरने और चढ़ने में, स्वयं को सम्भालने में व बुद्धि को ठिकाने लगाने में 25%  समय जो इसमें जाता है, तो यह समय बच जायेगा और वह कमाई में जमा हो जायेगा। अब बचत करना सीखो। समझा?

इस मुरली का मुख्य सार –

1. अगर एक बाप के साथ सर्व-सम्बन्धों के सुख व प्रीति की प्राप्ति का अनुभव करते हो तो और कहीं भी किसी सम्बन्ध तरफ बुद्धि नहीं जा सकती।

2. अपने को विशेष आत्मा समझते हुए अपने आप का ही स्वयं चेकर बनो। सदैव यह आदत डालो व अभ्यास करो कि हर संकल्प को पहले चेक करना है कि यह संकल्प बाप-समान है, एक दिलवाला बाप के सिवाय और किसी से भी दिल की लेन-देन करने का संकल्प तो नहीं है?

3. साक्षी अवस्था का अनुभव बाप के साथीपन का अनुभव कराता है।

4. विशेष आत्मा की निशानी है - वह सदा अपनी शान में रहता है, कभी भी परेशान नहीं होता।



13-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगमयुग में साथ निभाना सारे कल्प का आधार बन जाता है

नई दुनिया का साक्षात्कार कराने वाले, विश्व-परिवर्तक शिव बाबा बोले :-

अपनी नई दुनिया में कृष्ण के साथ झूला कौन झूलेगा? झूलने का मजा है। झुलाने वालों का तो पार्ट ही और है। जो यहाँ अपने जीवन में, जीवन के आदि से अन्त तक बाप के साथ रहे हैं अर्थात् बुद्धियोग से साथ रहे हैं - साकार रूप में साथ रहना यह तो लक्क है। लेकिन साकार के साथ होते हुए भी बुद्धि का साथ यदि सदा रहा है, जीवन के आदि से अन्त तक साथ रहे हैं, वही वहाँ भी हर जीवन के आयु के भिन्नभिन्न पार्ट में, बचपन में भी साथ रहेगे, पढ़ाई में भी साथ रहेगे, खेलने में भी और फिर राज्य करने में भी साथ रहेगे। तो यहाँ सदा साथ रहने वाले वहाँ भी सदा साथ रहेगे।

जैसे उस फर्स्ट आत्मा को नशा और खुशी होगी वैसे साथ रहने वाली आत्माओं को भी वैसा ही नशा और खुशी होगी। जो अभी बाप-समान बनते हैं उन्हों को वहाँ भी समान नशा होगा। तो सर्व-स्वरूप से साथ रहना - यह भी विशेष पार्ट है। बाल, युवा और वानप्रस्थ सब अवस्थाओं में साथ। इसका आधार यहाँ के जीवन के आदि, मध्य और अन्त तक साथ निभाने का है। मज़ा तो इसमें है ना? जो फर्स्ट में साथ रहते हैं, वह फिर 84 जन्मों में ही, भक्ति काल में अल्पकाल के राजे बनने में व कोई भी पार्ट बजाने में भी कोई-न-कोई साथ का सम्बन्ध कायम करते रहेगे। भक्ति भी साथ-साथ शुरू करेंगे। चढ़ेंगे भी साथ, पर गिरेंगे भी साथ। तो अभी का साथ निभाने का आधार सारे कल्प के साथ का आधार बन जाता है। अच्छा।

इस मुरली का सार

1. जो यहाँ संगमयुग में बुद्धियोग से बाप के सदा साथ रहते हैं वही सारे कल्प में, जीवन के भिन्न-भिन्न पार्ट में भी साथ रहेगे।

2. जो अभी बाप-समान बनते हैं उनकी भविष्य में भी फर्स्ट आत्मा के समान ही नशा व खुशी कायम रहेगी।



15-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


आत्म-घाती महापापी न बनकर डबल अहिंसक बनने की युक्तियाँ

अपने गुणों और अपनी शक्तियों को वरदान रूप में देकर मनुष्य-आत्माओं को सर्व-श्रेष्ठ एवं महान् बनाने वाले विश्व-कल्याणकारी शिव बाबा बोले -

आज बापदादा बच्चों का गुणगान कर रहे थे। गुणगान करते देखा कि ड्रामा के अन्दर बच्चों का कितना ऊंचा और सर्वश्रेष्ठ पार्ट है। वह भी कल्प में इसी संगमयुग पर ही महिमा योग्य बनते हैं। इसी युग में स्वयं परमात्मा भी आप श्रेष्ठ आत्माओं की महिमा गाते हैं। इस समय ही तुम डबल महिमा के अधिकारी बनते हो। एक बाप समान मास्टर सागर बनते हो, और जो बाप के गुण हैं व शक्तियाँ हैं उन दोनों में मास्टर बनते हो। साथ-साथ आत्मा की श्रेष्ठ स्टेज की भी महिमा है - सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण... इस महिमा व् भी प्रैक्टिकल में अनुभव अभी करते हो। सोलह कलायें क्या हैं? मर्यादायें क्या हैं? इन सब बातों की नॉलेज इस समय ही धारण करते हो। तो ही डबल महिमा के योग्य बनते हो। दो जहान के मालिक बनते हो, डबल पूजा के योग्य बनते हो। डबल वर्सा मुक्ति और जीवन-मुक्तिइन दोनों के अधिकारी बनते हो, डबल ताजधारी बनते हो, डबल अहिंसक बनते हो और डबल बाप के लाडले और सिकीलधे बच्चे बनते हो। ऐसे बच्चों की श्रेष्ठता का गुणगान कर रहे थे कि बच्चे कैसे बालक बन कर विश्व के मालिक के भी मालिक बन जाते हैं। ऐसे अपनी महिमा क्या स्वयं भी सुमिरण कर हर्षित होते हो? इस सुमिरण से कभी भी माया का वार नहीं हो सकेगा।

बाप आज देख रहे थे कि कौन-कौन से बच्चे किस स्टेज तक पहुँचे हैं? मुख्य बात है बाप समान सर्वगुणों में मास्टर सागर कहाँ तक बने हैं? सर्व शक्तियों का वर्सा प्रैक्टिकल जीवन में कहाँ तक अनुभव किया है? साथ-साथ आत्मा की जो श्रेष्ठ व महान् स्टेज है - सम्पूर्ण निर्विकारी, सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पन्न, मर्यादा पुरूषोत्तम और सम्पूर्ण अहिंसक - इस महानता को कहाँ तक जीवन में लाया है? गुण सम्पन्न अवस्था का केवल गायन ही है और सर्वगुण सम्पन्न की अवस्था में यदि एक भी गुण की कमी है तो उन्हें फुल महिमा के योग्य नहीं कहेंगे। तो अपने आप को चेक करो कि सर्व गुणों में से कितने गुणों में और कितने परसेन्टेज में स्वयं में गुणों की कमी है। सोलह कला अर्थात् सर्व विशेषताओं में सम्पन्न अर्थात् जैसा समय वैसा स्वरूप बना सकें, और जैसा संकल्प वैसा स्वरूप में ला सकें। बाप द्वारा प्राप्त हुए पुरूषार्थ की विधि द्वारा सर्व सिद्धियाँ समय पर स्वयं के प्रति व सर्व-आत्माओं की सेवा के प्रति कार्य में लगा सकें। सर्व-शक्तियों को अनुभव में लाते हुए सर्व-आत्माओं के प्रति उन्हों की आवश्यकता प्रमाण, वरदानी रूप में दे सकें। सर्व बातों में बैलेन्स रख सकें अर्थात् अभी-अभी लवफुल और अभी-अभी लॉ-फुल बन सकें। अभी-अभी महाकाली रूप और अभी-अभी शीतला रूप बन सकें। ऐसी सर्व विशेषताएं  अर्थात् सोलह कला सम्पन्न। इसके लिये सर्व-कर्मेन्द्रियों और सर्व-आत्मिक शक्तियों, मन, बुद्धि और संस्कार - इन सर्व पर अधिकार चाहिए। ऐसा अधिकारी ही सोलह कला सम्पन्न बन सकता है।

कोई भी कमज़ोरी वाला कला नहीं दिखा सकता अर्थात् विशेषतायें नहीं दिखा सकता और न ही अनुभव करा सकता है। इसी रीति से अपने को चेक करो कि सर्व विशेषतायें धारण की हैं अर्थात् सोलह कला सम्पन्न बने हैं? सम्पूर्ण निर्विकारी अर्थात् सर्व विकार सर्व वंश-सहित, अंश-मात्र भी अर्थात् संकल्प व स्वप्न-मात्र में भी न हो। उसको कहते हैं सम्पूर्ण निर्विकारी, मर्यादा पुरूषोत्तम अर्थात् हर संकल्प, हर सेकेण्ड और हर कदम श्रीमत् अनुसार अर्थात् मर्यादा के प्रमाण हो। संकल्प भी वा एक कदम भी ईश्वरीय मर्यादा की लकीर के बाहर न हो। अमृतवेले से रात के सोने तक हर कदम मर्यादा अनुकूल, स्मृति, वृत्ति, और दृष्टि भी सदा ही मर्यादा प्रमाण हो। ऐसे मर्यादा पुरूषोत्तम कहाँ तक बने हो?

डबल अहिंसक अर्थात् अपवित्रता अर्थात् काम महाशत्रुस्वप्न में भी वार न करें। सदा भाई-भाई की स्मृति सहज और स्वत: अर्थात् स्मृति स्वरूप में हो। ऐसे डबल अहिंसक, आत्मघात का महापाप भी नहीं करते। आत्मघात अर्थात् अपने सम्पूर्ण सतोप्रधान स्टेज से नीचे गिर कर अपना घात नहीं करते। ऊंचाई से नीचे गिरना ही घात है। आत्मा के असली गुण-स्वरूप और शक्ति-स्वरूप स्थिति से नीचे आना अर्थात् विस्मृत होना यह भी पाप के खाते में जमा होता है। इसलिये कहा जाता है आत्मघाती महापापी। साथ-साथ अहिंसक आत्मा कभी खून नहीं करती। खून करना अर्थात् हिंसा करना। तो आप में से कोई खून करते हैं? जो बाप द्वारा दिव्य-बुद्धि व दिव्य-विवेक व ईश्वरीय-विवेक मिला है वह माया वश, परमत वश, कुसंग वश, या परिस्थिति के वश अगर ईश्वरीय विवेक को दबाते हो, तो समझो कि ईश्वरीय विवेक का खून करते हो, या दिव्य-बुद्धि का खून करते हो। बाद में फिर चिल्लाते हो कि चाहता तो नहीं हूँ लेकिन कर लिया, न चाहते हुए भी हो गया। गोया यह है ईश्वरीय विवेक का खून करना। झूठ बोलना, चोरी करना, ठगी करना व धोखा देना इसको भी हिंसा व महापाप कहा जाता है। तो तुम ब्राह्मण चोरी कौनसी करते हो? शूद्रपन के संस्कार स्वभाव व बोल व किसी के प्रति भावना, ब्राह्मण बनने के बाद कार्य में लगाते हो व अपनाते हो तो गोया शूद्रों की वस्तु चोरी करते हो। जबकि यह ब्राह्मणों की वस्तु ही नहीं है। तो दूसरों की वस्तु यूज़ करना अर्थात् ब्राह्मण बनने के बाद आसुरी व शूद्रपन के संस्कार व स्वभाव धारण करना अर्थात् हिंसा करना है। ऐसे ही झूठ कैसे बोलते हो? कहते हो हम ट्रस्टी हैं - सब कुछ आपका है - तन, मन और धन सब तेरा। फिर मैं-मन में मोह वश होकर चलते हो। तो मैं-पन लाना या मेरा समझना यह भी झूठ हुआ ना? कहना तेरा और करना मेरा - झूठ हुआ ना? वायदा करते हो तुम्हीं से खांऊ, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से बोलूँ और तुम्हीं से सर्व- सम्बन्ध निभाऊं - लेकिन प्रैक्टिकल में अन्य आत्माओं से भी सम्बन्ध व सम्पर्क रखते हो। बाप की स्मृति के बजाय अन्य स्मृति भी साथ-साथ रखते हो। तो यह भी खून हुआ ना? वायदा है कि मेरा तो एक बाप, दूसरा न कोई। अगर वह नहीं निभाते तो यह भी झूठ हुआ। ऐसे ही धोखा और ठगी कौनसी करते हो? सबसे बड़ा धोखा स्वयं को देते हो कि जो जानते हुए, मानते हुए फिर भी स्वयं को श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित कर देते हो - यह हुआ स्वयं को धोखा देना। धोखे की निशानी है जिससे दु:ख की प्राप्ति होती है। साथ-साथ ब्राह्मण परिवार में भी धोखा देते हो। कहना एक और करना दूसरा, अपनी कमजोरी को छिपाकर बाहर से अपना नाम बाला करना या अपने को अच्छा पुरुषार्थी सिद्ध करना। यह एक दूसरे को धोखा देते हो। कोई भी गलती करके छिपाना यह भी धोखा देना है व ठगी करना है। तो डबल अहिंसक अर्थात् पुण्य आत्मा, महान् आत्मा, जिससे कोई प्रकार का पाप न हो। ऐसे अपने को चेक करो कि आत्मा की सर्वश्रेष्ठ स्टेज जो अभी सुनाई वह कहाँ तक धारण की है? ऐसे सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का बाप भी गायन करते हैं। तो आज ऐसे बच्चों का गुणगान कर रहे थे व माला सुमिरण कर रहे थे। अच्छा।

ऐसे सर्व महान्, सर्व योग्यतायें-सम्पन्न, गायन और पूजन योग्य और डबल अहिंसक बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। ओम् शान्ति!

इस मुरली का सार

1. इस संगमयुग पर तुम बच्चे डबल महिमा के अधिकारी बनते हो। एक बाप समान गुण और शक्तियों के मास्टर सागर बनते हो, साथ-साथ आत्मा की सर्वश्रेष्ठ स्टेज की महिमा - सर्वगुण सम्पन्न, सोलह कला सम्पूर्ण, सम्पूर्ण निर्विकारी, सम्पूर्ण अहिंसक और मर्यादा पुरूषोत्तम के योग्य बनते हो।

2. सोलह कला सम्पन्न बनने के लिये सर्व-कर्मेन्द्रियों और सर्व आत्मिक शक्तियों पर अधिकार चाहिये।

3. जिस व्यक्ति में सर्व विकार सर्व वंश सहित अंश-मात्र व स्वप्न-मात्र में भी न हो उसको कहेंगे - सम्पूर्ण निर्विकारी।

4. अमृत वेले से लेकर रात के सोने तक हर संकल्प, हर सेकेण्ड, हर बोल, हर कर्म, हर कदम ईश्वरीय मर्यादा के अनुकूल हो - ऐसे व्यक्ति को ही मर्यादा पुरूषोत्तम कहेंगे। 5. डबल अहिंसक अर्थात् अपवित्रता अर्थात् काम महाशत्रु स्वप्न में भी वार न करे, सदा भाई-भाई की सहज स्मृति रहे। ऐसे डबल अहिंसक अपने सम्पूर्ण सतोप्रधान स्टेज से गिर कर आत्मघात नहीं करते।



15-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


टीचर बनना अर्थात् सौभाग्य की लॉटरी लेना

पाण्डव शिव-शक्ति सेना तथा टीचर्स प्रति अव्यक्त बापदादा के अव्यक्त मधुर महावाक्य: -

आप हर कर्म करके दिखाने के निमित्त हैं। हर टीचर के पीछे देख कर चलने वाले, करने वाले, आगे बढ़ने वालों की कितनी बड़ी लाइन होती है? तो टीचर सही लाइन पर चलाने के निमित्त है। वह रूकती है तो सारी लाइन रूक जाती है, तुम्हारी लाइन की जिम्मेवारी है। ऐसी जिम्मेवारी समझ कर चले तो हर कर्म कैसा करेंगे? वैसे भी कहा जाता है - ज़िम्मेवारी बड़े से बड़ा टीचर है। जैसे टीचर लाइफ बनाते हैं ना, वैसे जिम्मेवारी भी लाइफ बनाने की शिक्षा देती है। तो हर टीचर के ऊपर इतनी विशाल जिम्मेवारी है। ऐसा समझने से भी अपने ऊपर अटेन्शन रहेगा। अब अटेन्शन रहेगा तो बाप और सेवा के सिवा और कुछ बुद्धि में रहेगा ही नहीं। जिम्मेवारी बड़ापन लाती है। यदि जिम्मेवारी नहीं तो बचपन हो जाता है। जिम्मेवारी होने से अलबेलापन समाप्त हो जाता है। टीचर को हर संकल्प, हर कदम पीछे, सोचना चाहिए कि मेरे पीछे कितनी जिम्मेवारी है। ऐसे भी नहीं कि यह जिम्मेवारी भारी करेगी-बोझ रहेगा। नहीं, जितनी यह जिम्मेवारी उठायेगे उतना जो अनेकों की आशीर्वाद मिलती है तो वह बोझ खुशी में बदल जाता है। वह बोझ महसूस नहीं होता, हल्के रहते हैं। जैसे ब्रह्मा बाप निमित्त बने वैसे आप सब निमित्त हैं। तो आप सबको ब्रह्मा बाबा को फॉलो करना चाहिए। जिम्मेवारी और हल्कापन दोनों का बैलेन्स था, ऐसे ही फॉलो फादर। टीचर्स का स्लोगन फॉलो फादर। फॉलो फादरनहीं तो सफल टीचर्स नहीं। टीचर का पहला सर्टिफिकेट है स्वयं संतुष्ट रहना और दूसरों को सन्तुष्ट करना। फर्स्ट नम्बर टीचर की निशानी सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना। टीचर सन्तुष्ट क्यों नहीं रहेगी? टीचर्स को चांस कितने हैं? एक चांस समर्पण होने का, दूसरा सेवा का चान्स, तीसरा निमित्त बनने से अपने ऊपर अटेन्शन का चान्स और चौथा जितनों को आप-समान बनायेंगी, उसमें पुरूषार्थ की सफलता का चान्स। सबसे ज्यादा पुरूषार्थ में नम्बर लेने का चान्स। आने वाले स्टुडेण्ट को तो हंस बगुला इकठ्ठा रहना पड़ता है। टीचर्स को वातावरण का भी चान्स अच्छा मिलता है। तो टीचर बनना अर्थात् लॉटरी लेना। टीचर्स का ड्रामा में बहुत अच्छा पार्ट है। टीचर्स को अपने भाग्य को देख खुश होना चाहिए। अपने प्राप्ति की लिस्ट सामने रखो कि क्या मिला है? कितना मिला है? वह देखते हो? अमृत वेले रूह-रूहान सब करती हो? जो रूह-रूहान करने से रस का अनुभव कर लेते हैं वह सारे दिन में सफल रहेगे। अलबेले तो नहीं रहते। सदा अपने ऊपर अटेन्शन रहता है और रस भी आता है? एक है नियम निभाने वाले, दूसरे प्राप्ति करने वाले। आप सब तो प्राप्ति करने वाली हो ना?

इस मुरली का सार

1. जिम्मेवारी बड़े से बड़ा टीचर है। जैसे टीचर लाइफ बनाते हैं वैसे जिम्मेवारी भी लाइफ बनाने की शिक्षा देती है। जिम्मेवारी बड़ापन लाती है और इससे अलबेलापन समाप्त हो जाता है।

2. टीचर्स का स्लोगन है - फॉलो फादर। फॉलो फादर नहीं तो सफल टीचर



16-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


प्रसिद्धि-संकल्प और बोल की सिद्धि पर आधारित है

ज्ञान की धारणाओं की गुह्यता और महीनता में ले जाने वाले, आनन्द के सागर शिव बाबा बोले -

महारथी बच्चों को वर्तमान समय कौन-सा  पोतामेल रखना है? अभी महारथियों की सीज़न है सिद्धि-स्वरूप बनने की। उनके हर बोल और संकल्प सिद्ध हों। वह तब होंगे जब उनका हर बोल और हर संकल्प ड्रामा अनुसार सत् और समर्थ हो। तो महारथी अब यह पोतामेल रखें कि सारे दिन में जो उनके संकल्प चलते हैं या मुख से जो बोल निकलते है वह कितने सिद्ध होते है? संकल्प है बीज, जो समर्थ बीज होगा उसका फल अच्छा निकलता है। उसको कहेंगे संकल्प-सिद्ध होना। तो सारे दिन में कितने संकल्प और बोल सिद्ध होते हैं? जो बोला ड्रामा अनुसार, वही बोला और जो होना है वही बोला। इसमें हर बोल और संकल्प को समर्थ बनाने में अटेन्शन रखना पड़े। तो महारथियों का पोतामेल अब यह होना चाहिये। जैसे भक्ति में भी कहा जाता है कि यह सिद्धपु रूष है। तो यहाँ भी जिसका संकल्प और बोल सिद्ध होता है तो उस सिद्धि के आधार पर वह प्रसिद्ध बनता है। अगर सिद्ध नहीं तो प्रसिद्ध नहीं। भक्ति में कई देवियाँ व देवताएं प्रसिद्ध होते हैं, कई प्रसिद्ध नहीं होते। वे देवता व देवी तो माने जाते हैं लेकिन प्रसिद्ध नहीं होते। तो संकल्प और बोल सिद्ध होना यह आधार हैं प्रसिद्ध होने का। इससे ऑटोमेटिकली अव्यक्त फरिश्ता बन जायेंगे और समय बच जायेगा। वाणी में आना ऑटोमेटिकली समाप्त हो जायेगा क्योंकि साइलेन्स-होम अथवा शान्ति धाम में जाना है ना? तो वह साइलेन्स के व आकारी फरिश्तेपन के संस्कार अपनी तरफ खींचेंगे। सर्विस भी इतनी बढ़ती जायेगी कि जो वाणी द्वारा सेवा करने का चांस ही नहीं मिलेगा। ज़रूर नैनों द्वारा और अपने मुस्कराते हुए मुख द्वारा, मस्तक में चमकती हुई मणि द्वारा सेवा कर सकेंगे। परिवर्तन होगा ना? वह अभ्यास तब बढ़ेगा जब यह पोतामेल रखेंगे - यह है महारथियों का पोतामेल। महारथी यह पोतामेल तो नहीं रखेंगे ना कि किसको दु:ख दिया व किस विकार के वश हुए? यह तो घुड़सवारों का काम है। महारथियों का पोतामेल भी महान् है। ऐसे आपस में गुह्य पुरूषार्थ के प्लैन्स बनाओ। इस लिये बीच-बीच में टाइम मिलता है। मेले में तो टाइम नहीं मिलता है ना? मेले में फिर दूसरे प्रकार की सेवा में तत्पर होते हो। मेले में है देने का समय और मेले के बाद फिर स्वयं को भरने का समय मिलता है। मेले में देने में ही दिन-रात समाप्त हो जाता है ना?

बापदादा भी जानते हैं कि जब इतनी आत्माओं को देने के निमित्त बनते हैं तो ज़रूर देने के प्लैन्स व संकल्प चलेंगे। तब तो सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट ऑटोमेटिकली मिल जाता है। सब की सन्तुष्टता यह भी अपने पुरूषार्थ में हाई- जम्प देने में सहयोग देती है। यह तो करना ही पड़ेगा लेकिन यह सब बाद की बातें हैं। नोट तो सब करते हो ना? फिर उसको बैठ रिवाइज करना। अभी तो जो मिलता है वह बुद्धि में जमा करते जाते हो फिर बैठ जब रिवाइज़ करके उसकी महीनता व गुह्यता में जायेंगे तो दूसरों को भी गुह्यता में ले जा सकेंगे। अभी जो कुछ चल रहा है, जैसे चल रहा है, बापदादा सन्तुष्ट और हर्षित है। अच्छा।



16-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संकल्प शक्ति को कंट्रोल कर सिद्धि-स्वरूप बनने की युक्तियाँ

ज्ञानवान और योगी वत्सों को संगठन रूप से एक संकल्प और एक विचार वाला बनने की विधि बताने वाले बापदादा बोले -

सदा बाप-समान निराकारी स्थिति में स्थित होते हुए इस साकार शरीर का आधार लेकर इस कर्म-क्षेत्र पर कर्मयोगी बनकर हर कर्म करते हो? जबकि नाम ही है कर्मयोगी। यह नाम ही सिद्ध करता है कि योगी हैं अर्थात् निराकारी आत्मिक स्वरूप में स्थित होकर कर्म करने वाले हैं। कर्म के बिना तो एक सेकेण्ड भी रह नहीं सकते। कर्म-इन्द्रियों का आधार लेने का अर्थ ही है-निरन्तर कर्म करना। तो जैसे कर्म के बिना रह नहीं सकते, वैसे ही याद अर्थात् योग के बिना भी एक सेकेण्ड रह नहीं सकते। इसलिए कर्म के साथ योगी नाम भी साथ-साथ ही है। जैसे कर्म स्वत: ही चलते रहते हैं, कर्मेन्द्रियों को नेचुरल अभ्यास है। ऐसे ही बुद्धि को याद का नेचुरल अभ्यास होना चाहिए। इन कर्मेन्द्रियों का आदि-अनादि अपना-अपना कार्य है। हाथ को हिलाने व पाँव को चलाने में कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती, उसी प्रमाण ब्राह्मण जीवन का तथा इस संगमयुगी जीवन में बुद्धि का निजी कार्य व जन्म का कार्य याद है। जो जीवन का निजी कार्य होता है वह नेचुरल और सहज ही होता है। तो क्या ऐसे अपने को सहज कर्मयोगी अनुभव करते हो या यह मुश्किल लगता है? अपना कार्य कभी भी मुश्किल नहीं लगता है, दूसरे का मुश्किल लगता है। यह तो कल्प-कल्प का अपना कार्य है। फिर भी यदि मुश्किल लगता है अर्थात् निरन्तर कर्मयोगी स्थिति अनुभव नहीं होती है तो इसका कारण क्या है?

अगर योग नहीं लगता तो अवश्य ही इन्द्रियों द्वारा अल्पकाल के सुख प्राप्त कराने वाले और सदाकाल की प्राप्ति से वंचित कराने वाले, कोई-न-कोई भोग भोगने में लगे हुए हैं। इसलिए अपने निजी कार्य को भूले हुए हैं। जैसे आजकल के सम्पत्ति वाले वा कलियुगी राजा जब भोग-विलास में व्यस्त हो जाते हैं तो अपना निजी कार्य, राज्य करना व अपना अधिकार भूल जाते हैं, ऐसे ही आत्मा भी भोग भोगने में व्यस्त होने के कारण योग भूल जाती है अर्थात् अपना अधिकार भूल जाती है, जब तक अल्पकाल के भोग भोगने में मस्त हैं। तो जहाँ भोग है वहाँ योग नहीं। इसी कारण मुश्किल लगता है।

वर्तमान समय माया ब्राह्मण बच्चों की बुद्धि पर ही पहला वार करती है। पहले बुद्धि का कनेक्शन तोड़ देती है। जैसे जब कोई दुश्मन वार करता है तो पहले टेलीफोन, रेडियो आदि के कनेक्शन तोड़ देते हैं। लाइट और पानी का कनेक्शन तोड़ देते हैं फिर वार करते हैं, ऐसे ही माया भी पहले बुद्धि का कनेक्शन तोड़ देती है जिससे लाइट, माइट, शक्तियाँ और ज्ञान का संग ऑटोमेटिकली बन्द हो जाता है। अर्थात् मूर्छित बना देती है। अर्थात् स्वयं के स्वरूप की स्मृति से वंचित कर देती है व बेहोश कर देती है। उसके लिए सदैव बुद्धि पर अटेन्शन का पहरा चाहिए। तब ही निरन्तर कर्मयोगी सहज बन पायेंगे।

ऐसा अभ्यास करो जो जहाँ बुद्धि को लगाना चाहे वहाँ स्थित हो जायें। संकल्प किया और स्थित हुआ। यह रूहानी ड्रिल सदैव बुद्धि द्वारा करते रहो। अभी-अभी परम- धाम निवासी, अभी-अभी सूक्ष्म अव्यक्त फरिश्ता बन जायें और अभी-अभी साकार कर्मेन्द्रियों का आधार लेकर कर्मयोगी बन जायें। इसको कहा जाता है - संकल्प शक्ति को कन्ट्रोल करना। संकल्प को रचना कहेंगे और आप उसके रचयिता हो। जितना समय जो संकल्प चाहिए उतना ही समय वह चले। जहाँ बुद्धि लगाना चाहे, वहाँ ही लगे। इसको कहा जाता है - अधिकारी। यह प्रैक्टिस अभी कम है। इसलिये यह अभ्यास करो, अपने आप ही अपना प्रोग्राम बनाओ और अपने को चेक करो कि जितना समय निश्चित किया, क्या उतना ही समय वह स्टेज रही?

हठयोगी अपनी किसी कर्मेन्द्रिय को, कोई टाँग को या बाँह को एकाग्र करने के लिए कोई टाइम निश्चित करते हैं कि इतना समय एक टाँग व एक हाथ नीचे करेंगे व ऊपर करेंगे, सिर नीचे करेंगे अथवा ऊपर करेंगे। लेकिन यह राँग कापी की है। बाप ने सिखाया है बुद्धि में एक संकल्प धारण करके बैठो। उसकी उल्टी कॉपी कर एक टाँग ऊपर कर लेते हैं। बाप कहते हैं कि एक संकल्प में स्थित हो जाओ, वह फिर एक टाँग पर स्थित हो जाते हैं। बाप कहते हैं कि सदा ज्ञान-सूर्य के सम्मुख रहो, विमुख न बनो। वह फिर स्थूल सूर्य की तरफ मुख कर बैठते हैं। तो उल्टी कॉपी कर ली ना? यथार्थ बुद्धि-योग का अभ्यास अभी तुम सीख रहे हो। वह हठ से करते, आप अधिकार से करते हो। इसलिये वह मुश्किल है, यह सहज है। अभी उसके अभ्यास को बढ़ाते जाओ। एक सेकेण्ड में सब एक मत हो जायें। जब संगठन का एक संकल्प, एक स्मृति होगी, और सबका एक स्वरूप होगा तब इस संगठन की जय-जयकार का नाम बाला होगा।

जैसे स्थूल कार्य व सेवा में विचारों का मेल करते हो अर्थात् सब एक विचार वाले हो जाते हो तब ही कार्य सफल होता है, ऐसे ही संगठन रूप में सब एक संकल्प स्वरूप हो जाये। बीज-रूप स्मृति चाहे व स्थिति चाहे तो सब बीज-रूप में स्थित हो जायें। ऐसे जब एक स्मृति-स्वरूप हो जायेंगे। तब हर संकल्प की सिद्धि अनुभव करेंगे व सिद्धि-स्वरूप हो जायेंगे। जो सोचेंगे, और जो बोलेंगे वही प्रैक्टिकल में देखेंगे। इसको कहते हैं - सिद्धि-स्वरूप। यही जयजयकार की निशानी है। इसी का ही यादगार है - कलियुगी पर्वत, उसे एक साथ में ही अंगुली देना। यह संकल्प ही अंगुली है। तो अभी ऐसे प्रोग्राम्स बनाओ।

संगठन रूप में एक स्मृति-स्वरूप होने से वायुमण्डल पॉवरफुल हो जायेगा। लगन की अग्नि की भट्ठी अनुभव होगी जिसके वाइब्रेशन्स  चारों ओर फैलेंगे। जैसे एटम बम एक स्थान पर छोड़ने से चारों ओर उसके अंश फैल जाते हैं - वह एटम बम है, और यह आत्मिक बम है। इसका प्रभाव अनेक आत्माओं को आकर्षित करेगा और सहज ही प्रजा की वृद्धि हो जायेगी। जैसे उस एटम बम का बहुत काल के लिये धरनी पर प्रभाव पड़ जाता है, वैसे ही चैतन्य जीवन की धरनियों पर बहुत करके बेहद के वैराग्य का प्रभाव पड़ेगा। इसलिये सहज प्रजा बन जायेगी। अच्छा।

ऐसे रूहानी ड्रिल के अभ्यासी, सदा अधिकारी, विश्व-कल्याणी, हर संकल्प को सिद्ध कर सिद्धि-स्वरूप आत्माओं, ऐसे बाप-समान प्रकृति को अधीन कर चलाने वाले और ऐसे सर्व समर्थ बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और गुडमोर्निंग । अच्छा।



19-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


वृक्षपति द्वारा कल्प-वृक्ष की दुर्दशा का आँखों देखा हाल

मनुष्य-सृष्टि रूपी वृक्ष के बीज रूप और नये कल्प-वृक्ष के रचयिता परमपिता शिव वृक्ष की सैर का समाचार सुनाते हुए बाबा बोले :-

आज वृक्षपति और आदि देव दोनों ही अपने वृक्ष की देख-रेख करने गये। आदि देव अर्थात् साकार मनुष्य सृष्टि का रचयिता बाप (प्रजापिता ब्रह्मा) ने जब वृक्ष को चारों ओर से देखा तो क्या देखा? हर-एक मनुष्य आत्मा रूपी पत्ता पुराना तो हो ही गया है लेकिन मैजॉरिटी पत्तों को बीमारी भी लगी हुई है जिससे उस पत्ते का रंग- रूप बदला हुआ है अर्थात् रौनक बदली हुई है। एक तरफ राज्य-सत्ता को देखा, दूसरी तरफ धर्म सत्ता, तीसरी तरफ भक्ति की सत्ता, चौथी तरफ प्रजा की सत्ता - यह चारों ही सत्तायें बिल्कुल अन्दर से शक्तिहीन, खोखली दिखाई दीं। अन्दर खाली, बाहर से सिर्फ रूप रहा हुआ था। जैसे दीमक लगती है तो अन्दर से खाया हुआ होता है सिर्फ बाहर का रूप ही दिखाई पड़ता है, ऐसे ही राज्य सत्ता में राज्य की सत्ता नहीं थी। नाम राज्य लेकिन अन्दर दिन-रात एक-दूसरे में खींचातान अर्थात् ईर्ष्या की अग्नि जल रही थी। राज्य से सुखों की प्राप्ति तो क्या लेकिन एक मिनट भी चैन नहीं। नींद का भी चैन नहीं। जो मानव जीवन में सारे दिन की थकावट का, संकल्पों को समाने का साधन निद्रा का नियम बना हुआ है, वह अल्पकाल का भी चैन भाग्य में नहीं। अर्थात् भाग्यहीन राज्य। न राज्य सत्ता, न राज्य द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति की सत्ता, ऐसा सत्ताहीन राज्य देखा। सदा भय के भूतों के बीच कुर्सी पर बैठा हुआ देखा। यह देखते हुए फिर और तरफ क्या देखा?’’

धर्म सत्ता - धर्म सत्ता में कुछ थोड़े बहुत छोटे-छोटे नये पत्ते दिखाई दे रहे थे, लेकिन उन पत्तों को बहुत जल्दी अहंकार अर्थात् स्व-अभिमान और सिद्धि स्वीकार की चिड़िया खा रही थी। दूसरी तरफ क्या देखा-नाम धर्म लेकिन है अति कुकर्म। कुकर्म अर्थात् विकर्म का कीड़ा उन्हों की धर्म सत्ता अर्थात् शक्ति को खत्म कर रहा है। अनेक प्रकार के उलटे नशों में चूर, धर्म के होश से बेहोश थे। तो धर्मसत्ता भी बाहर के आडम्बर रूप में देखी। त्याग, तपस्या और वैराग्य के बदले लोगों को रिद्धियों-सिद्धियों में खेलते हुए देखा। वैराग्य के बजाय राग-द्वेष में देखा। मैजॉरिटी जैसे राज्य सत्ता लॉटरी की जुआ खेल रही है वैसे ही वे धर्म सत्ता होते हुए भी भूले भक्तों से अल्पकाल की सिद्धियों का जुआ खेल रहे थे। बड़े-बड़े दाव लगा रहे हैं - यह प्राप्त करा दूंगा तो इतना देना होगा, बीमारी को मिटायेंगे तो इतना दान पुण्य करना होगा। ऐसे सिद्धियों के जुआ के दाव लगा रहे हैं। फिर क्या देखा?

भक्ति की सत्ता - उसमें क्या देखा? अन्ध-श्रद्धा की पट्टियाँ ऑखों पर बंधी हुई हैं - और ढूँढ रहे हैं मन्जिल को। यह खेल देखा है ना, जो ऑखों पर पट्टी बांधे हुए होते हैं तो फिर रास्ता कैसे ढूँढते हैं? जहाँ से आवाज आयेगा वहाँ चल पड़ेंगे। अन्दर घबराहट होगी क्योंकि ऑखों पर पट्टी है। तो भक्त भी अन्दर से दु:ख-अशान्ति से घबड़ा रहे हैं। जहाँ से कोई आवाज सुनते हैं कि फलानी आत्मा बहुत जल्दी प्राप्ति कराती है तो उस आवाज के पीछे अन्ध-श्रद्धा में भाग रहे हैं। कोई ठिकाना नहीं। दूसरी तरफ गुड़ियों के खेल में इतने मस्त कि यदि कोई घर (परमधाम) का सही रास्ता बतायें तो कोई सुनने के लिये तैयार नहीं। भक्ति की सत्ता है अति स्नेह की लेकिन स्नेह की सत्ता स्वार्थ में बदल गई है। स्वार्थ का बोल बाला होता है। सब स्वार्थ में भिखारी दिखाई दिया - शान्ति दो, सुख दो, सम्बन्धी की आयु बड़ी दो, सम्पत्ति में वृद्धि हो, यह दो, यह दो, वह दो - ऐसे भीख मांगने वाले भिखारी थे। तो भक्तों को भिखारी रूप में देखा और आगे चलो।

प्रजा की सत्ता - प्रजा में क्या देखा? सभी चिन्ता की चिता पर बैठे हुए हैं। खा भी रहे हैं, चल भी रहे हैं और कोई कर्म भी कर रहे हैं लेकिन सदैव यह भय का संकल्प है कि अभी तीली अर्थात्. आग लगी कि लगी। संकल्पों में स्वप्न मुआफिक यह दिखाई देता रहता है कि अभी पकड़ गये कि पकड़े गये - कभी राज्य सत्ता द्वारा, कभी प्रकृति की आपदाओं द्वारा, कभी डाकुओं द्वारा - ऐसे ही संकल्पों में स्वप्न देखते रहते। ऐसी चिन्ताओं की चिता पर सवार, परेशान, दु:खी और अशान्त थे जो कोई रास्ता नजर न आये जिससे अपने को बचा सकें। वहाँ जायें तो आग है, वहाँ जायें तो पानी है। ऐसे चारों ओर की टेन्शन (तनाव) के बीच घबराये हुए नज़र आये यह थी आज की सैर।

जब यह सैर कर लौटे तो नये वृक्ष की कलम को देखा। कलम में कौन थे? आप सभी अपने को कलम समझते हो? जब पुराने वृक्ष को बीमारी लग गई, जड़जड़ीभूत हो गया तो अब नया वृक्ष-आयेपण आप आधार मूर्तियों द्वारा ही होगा। ब्राह्मण हैं ही नये वृक्ष की जड़ें अर्थात् फाउण्डेशन, आप हो फाउण्डेशन। तो देखा कि फाउण्डेशन कितना पॉवरफुल निमित्त बना हुआ है। ब्रह्मा बाप को चारों ओर की दुर्दशा देखते हुए संकल्प आया कि अभी-अभी बच्चों के तपस्वी रूप द्वारा योग अग्नि द्वारा इस पुराने वृक्ष को भस्म कर लें। इतने में तपस्वी-रूप ब्राह्मण व रूहानी सेना इमर्ज की। सब तपस्वी रूप में अपने-अपने यथा शक्ति फोर्स (शक्ति) लगा रहे थे। योग-अग्नि प्रज्जवलित हुई दिखाई दे रही थी। संगठन रूप में योग अग्नि का प्रभाव अच्छा जरूर था, लेकिन विश्व् के विनाश अर्थ विशाल रूप नहीं था। फोर्स था लेकिन फुलफोर्स नहीं था। अर्थात् सर्व ब्राह्मणों के नम्बर अनुसार यथा-शक्ति फुल स्टेज जो हर ब्राह्मण को अपने-अपने नम्बर प्रमाण सम्पूर्ण अर्थात् फुल स्टेज प्राप्त करनी थी, उसमें फुल नहीं थे अर्थात् सम्पन्न नहीं थे इस लिये फुलफोर्स नहीं था, जो एक धक से विनाश हो जाए व पुराना वृक्ष भस्म हो जाय। अब क्या करेंगे? ब्रह्मा बाप के संकल्प को साकार में लाओ। बाप स्नेही बन इस विशाल कार्य में सहयोगी बनो। लेकिन कब नहीं, अभी से ही स्वयं को सम्पन्न बनाओ। समझा? अच्छा।

ऐसे संकल्प को साकार करने वाले, स्नेह का रिटर्न सहयोग में देने वाले, सदा रहम दिल, विश्व कल्याणकारी स्थिति में स्थित होने वाले, अचल और अड़ोल रहने वाले और ऐसे सदा शुभ चिन्तन में रहने वाले शुभ-चिन्तक बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली का सार

1. इस कल्प-वृक्ष का हर-एक मनुष्यात्मा रूपी पत्ता पुराना तो हो ही गया है, साथ ही उसमें बीमारियाँ भी लगी हुई हैं जिससे उसका रंग रूप बदला हुआ है अर्थात् रौनक नहीं है। चारों प्रकार की सत्ताएं -राज्य सत्ता, धर्म सत्ता, भक्ति सत्ता एवं प्रजा सत्ताबिल्कुल अन्दर से शक्तिहीन, खोखली दिखाई दीं, बाहर से सिर्फ उनका रूप (ढाँचा) ही रहा हुआ है।



19-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


माया को ललकारने वाला लश्कर ही अपना झण्डा बुलन्द कर सकेगा

हिम्मत और हुल्लास भरकर निर्भय बनाने वाले, पाण्डवों के अहिंसक लश्कर के प्रति शिव बाबा बोले: -

आज सुना कि ब्रह्मा बाप क्या चाहते हैं? - लश्कर तैयार चाहते हैं - तो साकार में निमित्त बनी हुई आत्माओं को अब लश्कर को तैयार करने में तीव्रगति चाहिए। तीव्रगति अर्थात् क्विक होना चाहिए। क्विक अर्थात् सोचा और किया। संकल्प और कर्म में समानता आ जाय, प्लैन  और प्रैक्टिकल में समानता हो - ऐसी गति है? या प्लैन बहुत बनाते - प्रैक्टिकल कम होता है? संकल्प बहुत करते हैं लेकिन कर्म में कम आते हैं? संकल्प और कर्म में समानता ही सम्पूर्णता की निशानी है। इस निशानी से ही अपने निशाने को जज कर सकेंगे कि कितने समीप हैं? तो अपना ऐसा झुण्ड तैयार करो जिसको देखते हुए और भी हिम्मत हुल्लास में आकर फॉलो करें। जैसे साकार बाप का सैम्पल पुरूषार्थियों के पुरूषार्थ को सिम्पल कर देता है। ऐसे सैम्पल तैयार करो जिसको देखकर अन्य का पुरूषार्थ सिम्पल हो जाय - ऐसा झुण्ड तैयार है? ऐसी शक्तियों की ललकार करने वाला झुण्ड हो जो माया को भी ललकार करने वाला हो, चाहे वह माया किसी प्रकार की भी सत्ता वालों में ही क्यों न हो।

जुआ में हार तो उन्हों की है ही - कल्प पहले ही यादगार में भी जुआ दिखाया है लेकिन यथार्थ रूप नहीं दिखाया है। कौरव अपनी जुआ में लगे हुए हैं और धर्म सत्ता वाले अपनी जुआ में लगे हुए हैं, जुआ में हो उन्हों की हार होनी है और पाण्डवों का झण्डा बुलन्द होना है - ऐसी ललकार करने वाले निर्भय, माया के तूफानों से भी नहीं डरने वाले, निरन्तर विजय का चैलेन्ज करने वाली इस सेना की इन्चार्ज बने तब और भी फॉलो करेंगे। अच्छा!

महावाक्यों का सार

1. संकल्प और कर्म इन दोनों में समानता लाना ही सम्पूर्णता की निशानी है।

2. ऐसे सैम्पल तैयार हों जिनके पुरूषार्थ को देखकर अन्य पुरूषार्थियों का पुरूषार्थ सिम्पल हो जाये।

3. अब पाण्डवों के झुण्ड का झण्डा बुलन्द होना है।

4. ऐसा लश्कर तैयार करना चाहिये जो क्विक हो अर्थात् सोचा और किया।

5. निरन्तर विजय का चैलन्ज करने वाली अर्थात् माया के तूफानों से भी न डरने वाली निर्भाक इस सेना की इन्चार्ज बनें तब और भी फॉलो



20-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


त्याग-मूर्त्त और तपस्वी-मूर्त्त सेवाधारी ही यथार्थ टीचर

सर्वस्व त्यागी, अथक सेवाधारी, विश्व-शिक्षक शिव बाबा ने ये मधुर महावाक्य उच्चारे :-

टीचर्स अर्थात् सेवाधारी। सेवाधारी अर्थात् त्याग और तपस्वी-मूर्त्त। टीचर्स को अपने अन्दर महीन रूप से चैकिंग करनी चाहिए। मोटे रूप से नहीं बल्कि महीन रूप से। वह यही है कि सारे दिन में सर्व प्रकार के त्याग-मूर्त्त रहे अथवा कहीं त्याग-मूर्त्त के बजाय कोई भी साधन व कोई भी वस्तु को स्वीकार करने वाले बनें? जो त्याग-मूर्त्त होगा वह कभी भी कोई वस्तु स्वीकार नहीं करेगा। जहाँ स्वीकार करने का संकल्प आया तो वहाँ तपस्या भी समाप्त हो जायेगी। त्याग, तपस्या-मूर्त्त ज़रूर बनायेगा। जहाँ त्याग और तपस्या खत्म वहाँ सेवा भी खत्म। बाहर से कोई कितने भी रूप से सेवा करे, परन्तु त्याग और तपस्या नहीं तो सेवा की भी सफलता नहीं।

कई टीचर्स सोचती है कि सर्विस में सफलता क्यों नहीं? सर्विस में वृद्धि न होना वह तो और बात है, परन्तु विधि-पूर्वक चलना यह है सर्विस की सफलता। तो वह तब होगी जब त्याग और तपस्या होगी। मैं टीचर हूँ, मैं इन्चार्ज हूँ, मैं ज्ञानी हूँ या योगी हूँ यह स्वीकार करना, इसको भी त्याग नहीं कहेंगे। दूसरा भले ही कहे, परन्तु स्वयं को स्वयं न कहे। अगर स्वयं को स्वयं कहते हैं तो इसको भी स्व-अभिमान ही कहेंगे। तो त्याग की परिभाषा साधारण नहीं। यह मोटे रूप का त्याग तो प्रजा बनने वाली आत्मायें भी करती हैं, परन्तु जो निमित्त बनते हैं उनका त्याग महीन रूप में है। कोई भी पोज़ीशन को या कोई भी वस्तु को किसी व्यक्ति द्वारा भी स्वीकार न करना - यह है त्याग। नहीं तो कहावत है कि जो सिद्धि को स्वीकार करते तो वह करामत खैर खुदाई। तो यहाँ भी कोई सिद्धि को स्वीकार किया जो ज्ञानयोग से प्राप्त हुआ मान व शान तो यह भी विधि का सिद्धि-स्वरूप प्रालब्ध ही है। तो इनमें से किसी को भी स्वीकार करना अर्थात् सिद्धि को स्वीकार करना हुआ। जो सिद्धि को स्वीकार करता है, उसकी प्रालब्ध यहाँ ही खत्म फिर उसका भविष्य नहीं बनता। तो टीचर्स की चैकिंग बड़ी महीन रूप से हो। सेवाधारी के नाते से त्याग और तपस्या निरन्तर हो। तपस्या अर्थात् एक बाप की लगन में रहना। कोई भी अल्पकाल के प्राप्त हुए भाग्य में यदि बुद्धि का झुकाव है तो वह सेवा में सफलतामूर्त्त नहीं बन सकता। सफलतामूर्त्त बनने के लिये त्याग और तपस्या चाहिए। त्याग का मतलब यह नहीं कि सम्बन्ध छोड़ यहाँ आकर बैठे। नहीं। महिमा का भी त्याग, मान का भी त्याग और प्रकृति दासी का भी त्याग - यह है त्याग। फिर देखो मेहनत कम सफलता ज्यादा निकलेगी। अभी मेहनत ज्यादा, सफलता कम क्यों? क्योंकि अभी इन दोनों बातों में अर्थात् त्याग और तपस्या की कमी है। जिसमें त्याग-तपस्या दोनों हैं वह है यथार्थ टीचर अर्थात् काम करने वाला टीचर। नहीं तो नाम-मात्र का टीचर ही कहेंगे।

टीचर्स को कोई भी सब्जेक्ट में कमज़ोर नहीं होना चाहिए। अगर टीचर कमज़ोर है तो वह जिनके लिये निमित्त बनी है वह भी कमज़ोर होंगे। इसलिए टीचर्स को सभी सब्जेक्ट्स में परफेक्ट होना चाहिए। टीचर्स का यह काम नहीं कि वह कहे कि क्या करूँ, कैसे करूँ या कहे कि आता नहीं। यह टीचर के बोल नहीं, यह तो प्रजा के बोल हैं। ऐसे अपने को सफलतामूर्त समझती हो? चेक करो, कहीं न कहीं रूकावट है। इसलिए सफलतामूर्त्त नहीं। जहाँ त्याग-तपस्या की आकर्षण होगी वहाँ सर्विस भी आकर्षित हो पीछे आयेगी। समझा? ऐसे सफलता-मूर्त्त टीचर बनो। ऐसे टीचर के पीछे सर्विस की वृद्धि का आधार है। ऐसे को कहते है लक्की (भाग्यवान)। इसके लिए ही कहावत है - धूल भी सोना हो जाता है। धूल भी सोना हो जायेगा अर्थात् सफलतामूर्त्त बन जायेंगे। टीचर्स ऐसे सफलतामूर्त्त हैं? नम्बरवार तो होंगे। टीचर्स के नम्बर तो आगे हैं। अच्छा अगर ऐसी सफलतामूर्त्त न बनी हो तो अभी से बन जाना।

बाप से प्रीति निभाने वाले का मुख्य लक्षण

बाप को जीवन का साथी बनाया है? साथी के साथ सदा साथ निभाना होता है। साथ निभाना अर्थात् हर कदम उसकी मत पर चलना पड़े। तो कदम-कदम पर उसकी मत पर चलना अर्थात् साथ निभाना। ऐसे निभाने वाले हो या सिर्फ प्रीति लगाने वाली हो? कोई तो अब तक प्रीति लगाने में लगे हुए हैं। इसलिये कहते है कि योग नहीं लगता। जिसका थोड़ा समय योग लगता है फिर टूटता है ऐसे को कहेंगे प्रीति लगाने वाले। जो प्रीति निभाने वाले होते हैं वह प्रीति में खोये हुए होते हैं। उनको देह की और देह के सम्बन्धियों की सुध-बुध भूली हुई होती है तो आप भी बाप के साथ ऐसी प्रीति निभाओ तो फिर देह और देह के सम्बन्धी याद कैसे आ सकेंगे?

प्रश्न :- बाप द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों का प्रैक्टिकल जीवन में शक्तिपन की निशानी क्या दिखाई देगी?

उत्तर:- शक्तिपन की निशानी है -कहीं भी किसमें आसक्ति न हो। दूसरा, शक्ति-स्वरूप सदा सेवा में तत्पर रहेगा। सेवा में रहने वाले की कहीं भी आसक्ति नहीं होती। सेवा करने वाले त्याग और तपस्या-मूर्त्त होते हैं इसलिए उनकी कहीं भी आसक्ति नहीं होती - अर्थात् उनको बॉडी-कान्शस नहीं होता। तीसरे, उन्हें शक्तियाँ देने वाला बाप और उनके द्वारा मिली हुई शक्तियाँ ही याद रहती हैं। ऐसे शक्ति अवतार ही मायाजीत बनते हैं।

इस मुरली का सार

1. सेवाधारी ही टीचर्स है और सेवाधारी त्याग-तपस्या मूर्त्त अवश्य होगा। सर्विस में सफलता न मिलने का कारण त्याग-तपस्या में कमी है।

2. कोई भी पोज़ीशन (मैं टीचर्स हूँ, मैं इन्चार्ज हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, योगी हूँ) वाले को, कोई भी वस्तु को, किसी भी व्यक्ति द्वारा स्वीकार न करना - यह है त्याग और तपस्या अर्थात् एक बाप की याद में मग्न रहना।

3. टीचर्स को सभी विषयों में परफेक्ट (सम्पूर्ण) होना चाहिये-अगर टीचर्स कमज़ोर है तो वह जिनके लिये निमित्त बनी हैं वह भी कमज़ोर होंगे।

4. जो सिद्धि को स्वीकार करता है उसकी प्रालब्ध यहाँ ही खत्म हो जाती है।



20-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व-प्राप्तियों को सहेजने का सहज साधन - परहेज़

सर्व प्राप्तियों और शक्तियों का सहज अनुभव कराने वाले रूहानी पिता शिव बोलेः-

अपने को मास्टर ऑलमाइटी-अथॉरेटी समझते हो? बाप द्वारा जो सर्व-शक्तियों की, सर्व नॉलेज की, स्व पर राज्य करने की और विश्व पर राज्य करने की अथॉरेटी मिली है उस अथॉरेटी को कहाँ तक स्वरूप में लाया है? यह रूहानी नशा निरन्तर बुद्धि में रहता है? सारे दिन के अन्दर स्व पर राज्य करने की अथॉरेटी कहाँ तक प्रैक्टिकल में रहती है, यह चैकिंग करते हो? नॉलेज की अथॉरेटी से पॉवरफुल स्वरूप कहाँ तक रहता है? सर्व प्राप्त हुई शक्तियों की अथॉरेटी माया-जीत व प्रकृति-जीत बनने में कहाँ तक प्रैक्टिकल में अनुभव होती है? जब जिस शक्ति द्वारा जो कार्य कराना चाहो वही कार्य सफलता रूप में दिखाई दे - ऐसी अथॉरेटी अनुभव करते हो? बेहद का बाप सभी बच्चों को आप समान ऑलमाइटी अथॉरेटी बनाते हैं - तो बाप समान बने हो? कहाँ तक बने हैं, यह चैकिंग करना आता है?

कई बच्चे बापदादा से रूह-रूहान करते हुए यह एक बात बार-बार कहते हैं कि चेक करते हैं, लेकिन अपने को चेन्ज नहीं कर पाते। जानते हैं, मानते हैं, और सोचते हैं लेकिन कर नहीं पाते हैं। युक्ति चलाते हैं लेकिन मुक्ति नहीं पाते हैं, उसके लिए क्या करें? इसका कारण एक छोटी-सी गलती व भूल है जो कि इस भूल-भुलैया के चक्कर में लाती है-वह क्या है? जैसे दवाई चाहे कितनी भी बढ़िया हो और अपना डोज़ (Dose) भी ले रहे हों लेकिन एक बार भी परहेज़ में से कोई एक वस्तु स्वीकार कर ली व जो स्वीकार करनी थी वह नहीं की तो दवाई द्वारा व्याधि से मुक्ति नहीं पा सकते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी नॉलेज रूपी दवाई लेते हैं अर्थात् नॉलेज को बुद्धि में दौड़ाते हैं-यह यथार्थ है या यह अयथार्थ है, यह करना चाहिए या नहीं करना चाहिये, यह राँग है या यह राइट है और यह हार है या जीत है - यह समझ बुद्धि में है? अर्थात् समय प्रमाण दवाई का डोज़ ले रहे हैं, रूह-रूहान कर रहे हैं, क्लास कर रहे हैं, सेवा कर रहे हैं और यह सब डोज़ ले रहे हैं लेकिन जो पहली-पहली परहेज़ व मर्यादा है –

पहली परहेज़ - एक बाप दूसरा न कोई’ - इसी स्मृति में और समर्थी में रहना-यह मूल परहेज़ निरन्तर नहीं करते हैं और ही कहीं न कहीं अपने को यह कह कर धोखे में रखते हैं कि मैं तो हूँ ही शिव बाबा का, और मेरा है ही कौन? लेकिन प्रैक्टिकल में ऐसा स्मृति-स्वरूप हो जो संकल्प में भी एक बाप के सिवाय दूसरा कोई व्यक्ति व वैभव, सम्बन्ध-सम्पर्क वा कोई साधन स्मृति में न आये। यह है कड़ी अर्थात् मुख्य परहेज। इस परहेज़ में, अलबेले होने के कारण, मन-मत के कारण, वातावरण के प्रभाव के कारण या संगदोष के कारण निरन्तर नहीं रह सकते। जितना अटेन्शन देना चाहिए उतना नहीं देते हैं। अल्पकाल के लिए फुल अटेन्शन रखते हैं फिर धीरे-धीरे फुलखत्म हो, अटेन्शन हो जाता है। उसके बाद अटेन्शन अनेक प्रकार के टेन्शन में चला जाता है। परिस्थितियों व परीक्षाओं-वश अटेन्शन बदल टेन्शन का रूप हो जाता है। इसी कारण जैसे स्मृति बदलती जाती है तो समर्थी भी बदलती जाती है। ऑलमाइटी अथॉरेटी के बदले माया के वशीभूत होने के कारण वशीकरण मन्त्र काम नहीं करता अर्थात् युक्ति-मुक्ति नहीं दिलाती है। और फिर चिल्लाते हैं कि चाहते भी हैं फिर क्यों नहीं होता? तो मूल परहेज़ चाहिये-इस एक बात पर निरन्तर अटेन्शन रखो।

दूसरी परहेज़ - बाप ने तो अधिकार दिया है अपने आप का मालिक बनने का व रचयिता-पन का लेकिन रचयिता बनने के बजाय स्वयं को रचना अर्थात् देह समझ लेते हैं। जब रचयिता-पन भूलते हो तब माया अर्थात् देह-अभिमान तुम रचयिता के ऊपर रचयिता बनती है अर्थात् अपना अधिकार रखती है। रचयिता पर कोई अधिकार नहीं कर सकता, विश्व के मालिक के ऊपर कोई मालिक नहीं बन सकता। माया के आगे रचना बन जाते हो और अधीन बन जाते हो। तो इस मालिकपन की व अधिकारीपन की स्मृति स्वरूप रहने की परहेज़ निरन्तर नहीं करते हो?

तीसरी परहेज़ - बाप द्वारा सबके ट्रस्टीबने हो? इस तन के भी ट्रस्टी हो, मन अर्थात् संकल्प के भी ट्रस्टी, लौकिक व अलौकिक जो प्रवृत्ति मिली है उसमें भी ट्रस्टी हो, लेकिन ट्रस्टी के बजाय गृहस्थी बन जाते हो। गृहस्थी की दुर्दशा का मॉडल आप बनाते हो। कौन-सा मॉडल बनाते हो जो सभी तरफ से खिंचा रहता है, दूसरा गृहस्थी को गधे के रूप में दिखाया है। अनेक प्रकार के बोझ दिखाये गए हैं - ऐसा मॉडल बनाते हो ना? जब गृहस्थी बन जाते हो तो मेरेपन के अनेक प्रकार के बोझ हो जाते हैं। सबसे रॉयल रूप का बोझ है - वह मेरी ज़िम्मेवारी है इसको तो निभाना ही पड़ेगाऔर कोई गृहस्थी हीं तो अपनी कर्म-इन्द्रियों के वश हो अनेक रस में समय गँवाने के गृहस्थी तो बहुत हैं। आज कन-रस वश समय गँवाया, कल जीभ-रस वश समय गँवाया। ऐसे गृहस्थी में फंसने के कारण ट्रस्टीपन भूल जाते हो। यह तन भी मेरा नहीं, तन का भी ट्रस्टी हूँ। तो ट्रस्टी, मालिक के बिगर किसी भी वस्तु को अपने प्रति यूज़ नहीं कर सकते हैं। तो कर्म-इन्द्रियों के रस में मस्त हो जाना उसको भी गृहस्थी कहेंगे, न कि ट्रस्टी, क्योंकि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मालिक जिसके आप ट्रस्टी हो उनकी श्रीमत एक के रस में सदा एक-रस स्थिति में रहने की है। इन कर्म-इन्द्रियों द्वारा एक का ही रस लेना है। तो फिर अनेक कर्म-इन्द्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न रस क्यों लेते हो? तो लौकिक व अलौकिक प्रवृत्ति में गृहस्थी बन जाते हो। इसलिये अनेक प्रकार के बोझ-जिसके लिये बाप डायरेक्शन देते हैं कि सब मेरे को दे दो - वह बोझ कार्य ही अपने ऊपर उठाये, बोझ धारण करते हुए उड़ना चाहते हो। लेकिन कर नहीं पाते हैं। तो इस परहेज़ की कमी के कारण युक्ति चलाते हो लेकिन मुक्ति नहीं पाते हो।

बापदादा को भी ऐसे बच्चों पर तरस पड़ता है। मास्टर सागर और एक अन्चली के प्यासे हैं। अर्थात् योग और ज्ञान द्वारा जो अनुभव की प्राप्ति होती है उस अनुभव की अन्चली के प्यासे हैं। इसलिये अब परहेज़ को अपनाओ तो सर्व- प्राप्तियाँ सदा अनुभव हों। सर्व-प्राप्तियों की प्रॉपर्टी के मालिक ऐसे, बालक सो मालिक, प्राप्ति से वंचित हों? यह तो बाप से भी नहीं देखा जाता। तो अब 63 जन्मों के गृहस्थी-पन के संस्कार छोड़ो। तन के और मन के ट्रस्टी बनो। सब बाप की जिम्मेवारी है, मेरी जिम्मेवारी नहीं, इस स्मृति से हल्के बन जाओ तो फिर जो सोचेंगे वही होगा अर्थात् हाई जम्प लगायेंगे। तो यह रोना चिल्लाना रूह- रूहान में परिवर्तन हो जायेगा। रूह-रूहान द्वारा रूहों में राहत भर सकेंगे। नहीं तो कभी अपनी शिकायतें और कभी परिस्थितियों की शिकायतें इसमें ही रूह- रूहान का समय समाप्त कर देती हैं। तो अब शिकायतों को रूहानियत में बदली करो, तब संगमयुग के सुखों को अनुभव करेंगे। समझा?

ऐसे सदा रूहानियत में रहने वाले, कदम-कदम पर श्रीमत पर चलने वाले, ऐसे आज्ञाकारी, फरमानवरदार, और हर फरमान को स्वरूप में लाने वाले, ऐसे बाप के प्रिय ज्ञानी तू आत्मायें और योगी तू आत्मायें बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। अच्छा। ओम् शान्ति।

इस मुरली का सार

1. कई बच्चों की बापदादा से यह शिकायत है कि कुछ जानते मानते और सोचते हुए भी कर क्यों नहीं पाते हैं? सर्व प्राप्तियों को अपने जीवन में अनुभव क्यों नहीं कर पाते हैं? इसका कारण यह है कि ज्ञान-औषधि का सेवन करने के साथ-साथ धारणाओं रूपी परहेज़ नहीं रखते हैं अर्थात् ईश्वरीय मर्यादा में नहीं रहते हैं।

2. पहली परहेज़ एक बाप दूसरा न कोई को भूल दूसरा कोई व्यक्ति, वैभव, सम्बन्ध, सम्पर्क या साधन अपना लेते हैं, दूसरी परहेज़ स्वयं को रचयिता अर्थात् आत्मा समझने के बजाय रचना अर्थात् देह समझ लेते हैं, तीसरी परहेज़ ट्रस्टी के बजाय गृहस्थी बन जाते हैं।

3. तो अब परहेज़ को अपनाओ, शिकायतों को रूहानियत में बदली करो तो ही संगम युग के सुखों का अनुभव कर सकेंगे।



21-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बेहद की वैराग्य-वृत्ति ही विश्व परिवर्तन का आधार

नये विश्व के परिवर्तक, सर्व आत्माओं के परमप्रिय शिव बाबा ने नव-विश्व-निर्माण के आधारमूर्त्त बच्चों से मधुर मुलाकात करते हुए ये अनमोल महावाक्य उच्चारे:-

अभी नयी दुनिया लाने के निमित्त बने हुए हो? नई दुनिया कब आयेगी, यह सबको इन्तज़ार है। सबके अन्दर संकल्प है की तिथि तारीख का मालूम पड़ जाये कि नई दुनिया कब आने वाली है? तिथि तारीख मालूम पड़ेगा? मालूम होना तो ज़रूर चाहिए जबकि त्रिकालदर्शी हैं अर्थात् तीनों कालों को जानने वाले हैं तो भविष्य का जानना भी ऐसे ही होगा जैसे वर्तमान को जानना और भविष्य को जानने का आधार भी वर्तमान होगा। नई दुनिया में आने वाले भी तो ब्राह्मण ही हैं। तो नई दुनिया में जो आने वाले हैं उन्हों की वर्तमान से ही भविष्य की तिथि तारीख ऑटोमेटिकली सिद्ध हो ही जायेगी। जब नई दुनिया कहते हैं तो नई दुनिया की अधिकारी आत्माओं में भी नयापन होना चाहिए। कोई भी पुराना संस्कार व संकल्प व बोल व कोई एक्टिविटी पुरानेपन की न हो। जैसे अभी भी एक-दो में पुरानी चाल देख कर कहते हो ना कि यह इनकी पुरानी चाल है अथवा अब तक यह पुरानी आदत व चाल इनकी गई नहीं है। किसी भी बात में पुरानापन न हो। संकल्प भी पुराने स्वभाव व संस्कार के वश न हो। जब मैजारिटी व मुख्य आत्माओं में ऐसी नवीनता दिखाई दे तब नई दुनिया के आने की तिथि तारीख स्पष्ट हो जायेगी। जो निमित्त हैं उन मुख्य आत्माओं में नवीनता का और परिवर्तन का अनुभव होगा। उन्हों के परिवर्तन के आधार पर विश्वपरिवर्त न की तारीख प्रत्यक्ष होगी।

विश्व-परिवर्तन होने के पहले विश्व की सर्व-आत्माओं में वैराग्य वृत्ति होगी। और वैराग्य वृत्ति से ही बाप के परिचय को धारण कर सकेंगे कि हाँ हम आत्माओं का बाप आ चुका है। तो जैसे विश्व की आत्माओं में वैराग्य-वृत्ति ही परिवर्तन का आधार होगा वैसे ही जो निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं उन्हों में भी सम्पूर्ण परिवर्तन का आधार बेहद का वैराग्य बनेगा। तो संगठन में भी बेहद के वैराग्य-वृत्ति को लाने का पुरूषार्थ करो। एक-दो के साथी व सहयोगी बनो। जब वैराग्य-वृत्ति इमर्ज रूप में होगी तो पुराने संस्कार व स्वभाव बहुत जल्दी और सहज ही वैराग्य-वृत्ति के अन्दर मर्ज हो जायेंगे। सब सोचते हैं ना कि क्या होगा जो पुराना पन सब भूल जायेगा। मनुष्य को जब हद का वैराग्य होता है तो पुराने आकर्षण के संस्कार और स्वभाव आदि को समाप्त करने में वैराग्य-वृत्ति ही आधार बनेगी। इस से ही चेन्ज आयेगी।

अब ऐसी धरनी बनाओ और ऐसे बेहद के वैरागियों का संगठन बनाओ, जिन्हों के वाइब्रेशन्स और वायुमण्डल द्वारा अन्य आत्माओं में भी वह संस्कार इमर्ज हो जायें। जैसे सेवाधारियों का संगठन होता है वैसे बेहद के वैरागियों का संगठन मजबूत होना चाहिए जिसको देखते ही अन्य आत्माओं को भी ऐसा वायब्रेशन आये। एक तरफ बेहद का वैराग्य होगा दूसरी तरफ बाप के समान बाप के लव में लवलीन होंगे, तब ही बेहद का वैराग्य आयेगा। एक सेकेण्ड भी और एक संकल्प भी इस लवलीन अवस्था से नीचे नहीं आयेंगे। ऐसे लवली बाप के लवली बच्चों का संगठन हो। उनको कहेंगे लवली संगठन। एक तरफ अति लव दूसरी तरफ बेहद का वैराग्य दोनों का संगठन साथ-साथ समान दिखाई देगा, ऐसा संगठन बनाओ तो वह तारीख स्पष्ट दिखाई देगी। यह संगठन ही तारीख को प्रसिद्ध करेगा।

इस मुरली का सार

1. नई दुनिया की अधिकारी आत्माओं में कोई भी पुराना संस्कार, संकल्प, बोल व ऐक्टिविटी पुरानेपन की न हो तब ही नयी दुनिया आयेगी।

2. जैसे विश्व की आत्माओं में वैराग्य वृत्ति ही परिवर्तन का आधार होगी वैसे ही जो निमित्त बनी हुई आत्मायें हैं उन्हीं में भी सम्पूर्ण परिवर्तन का आधार बेहद का वैराग्यबनेंगा।

3. एक तरफ अति लव और दूसरी तरफ बेहद का वैराग्य दोनों का संगठन साथ-साथ समान दिखाई देगा तो ऐसा संगठन ही नयी दुनिया की तिथि तारीख को प्रसिद्ध करेगा।



23-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


इन्तज़ार को छोड़कर इन्तज़ाम करो!

विश्व की तकदीर को ऊंचा बनाने वाले, मायावी-सृष्टि का महाविनाश कर दैवी-सृष्टि की स्थापना करने वाले, रचयिता शिव बाबा, नव-निर्माण के इन्तज़ाम में एक-जुट हो जाने का आह्वान करते हुए बोले:-

आज बापदादा विश्व की तकदीर बनाने वाले तकदीर-वान बच्चों की तस्वीर देख रहे हैं। किस-किस आत्मा में कौन-कौन सी तकदीर की लकीरें दिखाई देती हैं और कौन-कौनसी अब स्पष्ट होने वाली है? हर एक के तकदीर की लकीर अपनी-अपनी दिखाई दे रही है। तकदीर की रेखाओं में मुख्य चार सब्जेक्ट्स की चार रेखायें दिखाई देती है। बहुत थोड़े बच्चे हैं जिनकी चारों की चारों ही रेखायें स्पष्ट हैं अर्थात् चारों ही सब्जेक्ट्स में तदबीर द्वारा अपनी ऊंची तकदीर बनाई है। इस प्रमाण पास विद् ऑनर्स और फर्स्ट क्लास अर्थात् फर्स्ट डिवीज़न में ऐसे तकदीरवान ही आयेंगे जिन्हों की चारो ही तकदीर की लकीरें स्पष्ट हैं। पास विद् ऑनर्स की तकदीर की लकीरें चारों ही ओर एक समान चमकती हुई स्पष्ट दिखाई देती हैं। जो हैं अष्ट रत्न।दूसरे नम्बर में फर्स्ट डिवीज़न वाले सौ रत्न, जिनकी चारों ही लकीरें दिखाई देती हैं लेकिन समान स्पष्ट रूप नहीं हैं। कोई ज्यादा तेज हैं, कोई कुछ कम। सेकेण्ड डिवीज़न सोलह हजार। उन सोलह हजार में से पहले दो तीन हजार की रेखाओं में चार सब्जेक्ट्स में से तीन सब्जेक्ट्स 50% मार्क्स में पास हैं और एक सब्जेक्ट्स में 25%  में पास हैं अर्थात् न के बराबर हैं। ऐसे सर्व तकदीरवानों की तकदीर देखी।

आज बापदादा चारों तरफ के ब्राह्मण बच्चों की जन्म-पत्री देख रहे थे। जन्म-पत्री देखते वर्तमान समय मैजॉरेटी के अन्दर एक विशेष संकल्प चलता हुआ देखा। वह क्या? विश्व की आधारमूर्त्त आत्मायें भी कोई आधार पर खड़ी हुई देखीं। वह आधार क्या? दुनिया के विनाशकारी साधनों को देखते हैं वा प्रकृति की हलचल कब होती है, कहाँ होती है, होती है या नहीं होती है? - इस आधार पर आधारमूर्त्त को खड़े हुए देखा। ऐसे आधार पर ठहरने वाले बच्चों से बापदादा का प्रश्न है कि स्थापना करने वाले विनाश के आधार पर रहेगे तो स्थापना करने वालों का भविष्य क्या होगा? विनाश ज्वाला प्रज्जवलित करने के आधारमूर्त्त कौन? प्रकृति का परिवर्तन करने वाले कौन? प्रकृति व विनाश के साधनों के आधार पर खड़े हुए पुरूषों से उत्तम पुरूषोत्तम हो सकते हैं अथवा पुरूषोत्तम के ऑर्डर पर अर्थात् श्रेष्ठ संकल्प के आधार पर, सर्व आधारमूर्त्तो के सम्पूर्ण बनने के आधार पर विनाशकारी साधन व प्रकृति अपना कार्य करेगी? ऑर्डर देने वाला कौन? अधिकारी कौन - प्रकृति या पुरूषोत्तम? आधारमूर्त्त का किसी आधार पर रहना उनको अधिकारी कहेंगे? तो क्या देखा?-इन्तज़ाम करने वाले इन्तज़ार में हैं। इंतज़ाम करने में अलबेलापन और इंतज़ार करने में अलर्ट (चौकन्ने) हैं। इसको देखते हुए बापदादा को हँसी भी आई और रहम भी आया, - क्यों? माया की चतुराई को अब तक बच्चे परख नहीं सके हैं। इन्तज़ार की मीठी नींद में माया सुला रही है और बच्चे आधे कल्प के सोने के संस्कार-वश हो कर कोई तो सेकेण्ड का झुटका खाते हैं और फिर होश में आते हैं, फिर इन्तज़ाम करने के जोश में आ जाते हैं और कोई तो कुछ मिनटों के लिये सो भी जाते हैं, फिर जोश और होश में आते हैं। तीसरी प्रकार के बच्चे काफी आराम से सोते-सोते बीच-बीच मे ऑख खोल कर देखते रहते हैं कि अभी कुछ हुआ, अभी तक तो कुछ नहीं हुआ है। जब होगा तब देखा जायेगा। यह दृश्य देख क्या हंसी नहीं आयेगी?

तीसरा नेत्र मिलते हुए भी माया को परख नहीं सकते, इसलिये माया को अच्छी तरह से परखने के लिये परख-शक्ति को विशेष रूप से अपने में धारण् करो। दो मास हैं या चार मास हैं, यह समय की गिनती नहीं करो लेकिन स्वयं को समर्थ बनाओ। होगा अथवा नहीं होगा, क्या होगा और कब होगा? इन संकल्पों के बजाए पुरूषोत्तम स्थिति में स्थित हो संगठन को सम्पूर्ण बनाने के संकल्प के आधार से प्रकृति को ऑर्डर देने के अधिकारी बनो। होना तो चाहिए लेकिन पता नहीं क्या होगा, शायद हो, दो चार मास में तो कुछ दिखाई नहीं देता है, संगमयुग चालीस वर्ष का है अथवा पचास वर्ष का है - इसी प्रकार के संकल्प भी सम्पूर्ण निश्चय के आगे बाप के व स्वयं के स्थापना के कार्य में विघ्न डालने वाला अति सूक्ष्म रूप का रॉयल संशय है। जब तक यह संशय है तब तक सम्पूर्ण विजयी नहीं बन सकते। गायन ही है - निश्चय बुद्धि विजयन्ति।तो विजयी आत्मा को संशय के रॉयल रूप का संकल्प हो नहीं सकता।

सम्पूर्ण निश्चय बुद्धि अपने विश्व-परिवर्तन के कार्य में दिन-रात बिज़ी रहेगे। जैसे कोई विशेष कार्य की ज़िम्मेवारी होती है तो दिन-रात इन्तज़ाम में लग जाते हैं, न कि इन्तज़ार करते हैं कि जब टाइम होगा तब स्टेज सजायेंगे व साधनों को अपनायेंगे। समय के पहले इन्तज़ाम किया जाता है। तो विश्व के परिवर्तन की ज़िम्मेवारी, यह भी परिवर्तन समारोह अभी मनाने का है। सर्व आत्माओं को अपने-अपने अनुसार सतोप्रधान बनाने का व बाप का परिचय देने का विशाल विश्व का सम्मेलन करना है। इसके लिये पहले से ही आप को अपनी स्थिति की स्टेज बनाने का इन्तज़ाम करना है या उस समय करोगे? जैसे स्थूल स्टेज के बिना, भाषण करना व सन्देश देना नहीं हो सकता वैसे अन्तिम समय पर स्वयं के सम्पूर्ण स्थिति की स्टेज बिना विशाल विश्व-सम्मेलन में सन्देश कैसे दे सकेंगे? अर्थात् बाप को प्रसिद्ध व प्रख्यात कैसे कर सकेंगे? तो स्टेज को पहले से तैयार करेंगे अथवा उस समय करेंगे? इसलिए इन्तज़ार को छोड़ इन्तज़ाम में लग जाओ। यह संकल्प भी व्यर्थ संकल्प है, इस व्यर्थ को भी समर्थ में परिवर्तन करो। अधिकारी बनो। प्रकृति को ऑर्डर करने के समर्थ स्टेज को बनाओ। संगठित रूप से सर्व ब्राह्मणों के अन्दर रहम की भावना, विश्व-कल्याण की भावना, सर्व-आत्माओं को दु:खों से छुड़ाने की शुभ कामनाए जब तक दिल से उत्पन्न नहीं होंगी तब तक विश्व-परिवर्तन रूका हुआ है। अभी हलचल में हो - एक ही संकल्प में अचल और अटल नहीं हो। अंगद समान अडोल बनना अर्थात् अन्तिम घड़ी लाना। तो संगठित रूप से ऐसे एक संकल्प को अपनाओ अर्थात् दृढ़ संकल्प की इकट्ठी अंगुली सभी दो, तो यह कलियुगी पर्वत परिवर्तन करके गोल्डन वर्ल्ड को ला सके। समझा? क्या इन्तज़ाम करना है? अच्छा।

अन्त में बापदादा ने एक संकल्प में अंगद समान अचल रहने वाले कि - यह सब हुआ ही पड़ा है, ऐसे सम्पूर्ण निश्चय बुद्धि, हर संकल्प, बोल और कर्म में सदा विजयी, ऐसे अधिकारी बच्चों को याद-प्यार दिया और नमस्ते की।

दीदी जी के साथ

संगठन का बल अर्थात् एक ही संकल्प

रूहानी यात्री जो डबल यात्रा करने आते हैं - एक मधुबन की यात्रा, दूसरी विशेष मधुबन में रूहानी यात्रा। तो डबल यात्रा करने वाले यात्री जो भी आते हैं वह आराम से अपनी यात्रा सफल करके जाते हैं। सब सन्तुष्ट रहते हैं। गाया जाता है कि यदि दिल बड़ा है, तो जगह भी बड़ी है। स्थूल जगह भले ही कम हो लेकिन आने वालों की, स्वागत करने वालों की और सैट करने वालों की दिल बड़ी है तो जगह की कमी महसूस नहीं होगी। फिर 63 जन्मों की, की हुई यात्राओं से तो सब सेलवेशन्स संगम की यात्रा पर ज्यादा मिलती हैं। वह जड़ चित्रों की यात्रा कितनी मुश्किल होती है।

आप लोग भी तो यह देख-रेख करती हो कि हमारा संगठन एक संकल्प वाला कहाँ तक बना है? शास्त्रों में गायन है कि ब्रह्मा को संकल्प उठा कि सृष्टि रचें तो सृष्टि रची गई। यहाँ अकेले ब्रह्मा की तो बात नहीं, लेकिन ब्रह्मा सहित सब ब्राह्मणों का भी जब एक साथ यह संकल्प उठे कि अब हम सब एवररेडी हैं और नई दुनिया की स्थापन होनी ही चाहिए या होगी ही - ऐसा दृढ संकल्प जब ब्राह्मणों के अन्दर उत्पन्न हो, तब ही सृष्टि का परिवर्तन हो अर्थात् नई सृष्टि की रचना प्रैक्टिकल में दिखाई दे। इसमें भी संगठन का बल चाहिए। एक दो का वा सिर्फ आठ का नहीं, लेकिन सारे संगठन का एक संकल्प चाहिये। संकल्प से सृष्टि रचना, इसका रहस्य इस प्रकार से है। संकल्प उत्पन्न होगा और सेकेण्ड में समाप्ति का नगाड़ा बजना शुरू हो जायेगा।

एक तरफ समाप्ति का नगाड़ा, दूसरी तरफ नई दुनिया का नज़ारा साथ-साथ दिखाई देगा। वहाँ ही विनाश की अति होगी और वहाँ ही जलमई के बीच चारों ओर विनाश में एक हिस्सा धरती और बाकी तीन हिस्सा तो जलमई होगी ना? यह जो सभी पीछेपीछे अनेक धर्मो के कारण अनेक देश बने हैं, वह अनेक धर्म जब समाप्त होंगे तो अनेक देश भी एक सैरगाह के रूप में जल के बीच एक टापू के मुआफिक हो जायेंगे। तो एक तरफ विनाश की अति के नगाड़े होंगे, दूसरी तरफ फर्स्ट प्रिन्स (श्रीकृष्ण) के जन्म का आवाज बुलन्द होगा, वह पत्ते पर नहीं आयेगा। दिखाते हैं ना जलमई के बाद पत्ते पर श्रीकृष्ण आया। तीन हिस्से जलमई में होने के कारण भारत जब परिस्तान बनता है तो उसको जलमई दिखा दिया है। ऐसे जलमई के बीच पहला पत्ता जो फर्स्ट आत्मा है उसके जन्म का चारों ओर आवाज प्रसिद्ध होगा कि फर्स्ट प्रिन्स प्रत्यक्ष हो चुका है, जन्म हो चुका है। तो वह भी अति में होगा अर्थात् जलमई के तीन हिस्से का नज़ारा होगा और एक हिस्सा भारत-परिस्तान के रूप में प्रगट होगा। जो दिखाते हैं कि सोने की द्वारिका पानी से निकल आयी, लेकिन पानी से नहीं - तीन हिस्से पानी में होंगे। इसलिये पानी के बीच सोने की द्वारिका दिखाई देगी। इसलिये कहते हैं कि सोने की द्वारिका पानी से निकल आयी। सिर्फ उस बात का पूरा वर्णन नहीं कर सके हैं और उसी समय पर फर्स्ट आत्मा के जन्म की जयजयकार होगी। ऐसे नज़ारे सामने आते हैं तो पुरानी दुनिया के महाविनाश का नगाड़ा और नये फर्स्ट प्रिन्स के जन्म का नज़ारा साथसाथ दिखाई देगा। जैसे नगाड़ा बजाने से पहले नगाड़े को गर्म किया जाता है तब आवाज बुलन्द होती है। यह भी योग अग्नि से नगाड़ा बजने के पहले तैयारी चाहिए तब नगाड़े में आवाज़ बुलन्द होगी। इन्तज़ाम में लगे हुए हो ना? इन्तज़ार करने वालों को भी इन्तज़ाम में लगाओ तब जयजयकार हो जायेगी।

जब शरीर को चलाना आ जायेगा तब राज्य चलाना आ जायेगा। शरीर को चलाना अर्थात् राज्य करना। तो राज्य करने के संस्कार भरने हैं ना? नॉलेजफुल कहा जाता है तो फुल नालेज में तन, मन, धन और जन सब आ जाता है। अगर एक की भी नॉलेज कम है तो नॉलेजफुल नहीं कहेंगे। समझा? सदा सफलतामूर्त बनने का आधार भी नॉलेजफुल है। नॉलेज नहीं तो सफलतामूर्त भी नहीं हो सकते। समय के प्रमाण पुरूषार्थ की गति भी तीव्र होनी चाहिए। समय की रफ्तार तेज है और चलने वालों की रफ्तार ढीली है तो समय पर कैसे पहुँचेंगे? ‘एक बल, एक भरोसा’, - यह है मुख्य सब्जेक्ट। हर समय एक की ही याद में एक-रस रहना। इसी पुरूषार्थ में ही सदा सफल हो तो मुज़िल पर पहुँच ही जायेंगे। जो अटूट स्नेह में रहते हैं उनको सहयोग भी स्वत: प्राप्त होता है।

मुरली है लाठी, इस लाठी के आधार से कोई कमी भी होगी तो वह भर जायेगी। यह आधार ही अपने घर तक और अपने राज्य तक पहुँचायेगा लेकिन लक्ष्य से, नियमपूर्वक नहीं, लेकिन लगन से। तो लगन से मुरली पढ़ना व सुनना अर्थात् मुरलीधर की लगन में रहना। मुरलीधर से स्नेह की निशानी मुरलीहै। जितना मुरली से स्नेह है उतना ही समझो मुरलीधर से भी स्नेह है। सच्चे ब्राह्मण की परख मुरली से होगी। मुरली से लगन अर्थात् सच्चा ब्राह्मण। मुरली से लगन कम अर्थात् हाफ-कास्ट ब्राह्मण।



24-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


हरेक ब्रह्मा-मुखवंशी ब्राह्मण चेतन सालिग्राम का मन्दिर है

दृष्टि और वृत्ति को पवित्र बनाकर सच्चे अर्थ में ब्राह्मण बनने की युक्तियाँ बताते हुए बापदादा बोले: -

अपने को कमल-पुष्प समान अति न्यारा और सदा बाप का प्यारा अनुभव करते हो? कमल-पुष्प एक तो हल्का होने के कारण जल में रहते भी जल से न्यारा रहता है - प्रवृत्ति होते हुए भी स्वयं निवृत्त रहता है। ऐसे ही आप सब भी लौकिक या अलौकिक प्रवृत्ति में रहते हुए निवृत्त अर्थात् न्यारे रहते हो? निवृत्त रहने के लिये विशेष अपनी वृत्ति को चेक करो। जैसी वृत्ति, वैसी प्रवृत्ति बनती है। वृत्ति कौन-सी रखनी है? - आत्मिक वृत्ति और रूहानी वृत्ति। इस वृत्ति द्वारा प्रवृत्ति में भी रूहानियत भर जायेगी अर्थात् प्रवृत्ति में रूहानियत के कारण अमानत समझ कर चलेंगे। तो मेरा-पन सहज ही समाप्त हो जायेगा। अमानत में कभी मेरा-पन नहीं होता है। मेरे-पन में ही मोह के साथसाथ अन्य विकारों की भी प्रवेशता होती है। मेरा-पन समाप्त होना अर्थात् विकारों से मुक्त, निर्विकारी अर्थात् पवित्र बनना है जिससे प्रवृत्ति भी पवित्र-प्रवृत्ति बन जाती है। विकारों का नष्ट होना अर्थात् श्रेष्ठ बनना है। तो क्या ऐसे अपने को विकारों को नष्ट करने वाली श्रेष्ठ आत्मा समझते हो?

प्रवृत्ति को पवित्र-प्रवृत्ति बनाया है? सबसे पहली प्रवृत्ति है अपनी देह की प्रवृत्ति। फिर है देह के सम्बन्ध की प्रवृत्ति। तो पहली प्रवृत्ति, देह के हर कर्म-इन्द्रिय को पवित्र बनाना है। जब तक देह की प्रवृत्ति को पवित्र नहीं बनाया है तब तक देह के सम्बन्ध की प्रवृत्ति चाहे हद की और चाहे बेहद की हो, उसको भी पवित्र प्रवृत्ति नहीं बना सकेंगे। ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियों की प्रवृत्ति कौनसी है? जैसे हद के सम्बन्ध की प्रवृत्ति है वैसे ब्रह्माकुमार और कुमारी के नाते से सारे विश्व की आत्माओं से साकारी भाई-बहन का सम्बन्ध - इतनी बड़ी बेहद की प्रवृत्ति है। लेकिन पहले अपनी देह की प्रवृत्ति बनायें, तब बेहद की प्रवृत्ति को भी पवित्र बना सकेंगे। कहावत है - चेरिटी बिगिन्स एट होम - पहले अपनी देह की प्रवृत्ति अर्थात् घर को पवित्र बनाने की सेवा करनी है। फिर बेहद की करनी है। तो पहले अपने आपसे पूछो कि अपने शरीर रूपी घर को पवित्र बनाया है? संकल्प को, बुद्धि को, नयनों को और मुख को रूहानी अर्थात् पवित्र बनाया है? जैसे दीपावली पर घर के हर कोने को स्वच्छ करते हैं, कोई एक कोना भी न रह जाये इतना अटेन्शन रखते हैं -- ऐसे हर कर्म-इन्द्रिय को स्वच्छ बना कर आत्मा का दीपक सदाकाल के लिये जगाया है? ऐसे रूहानी दीवाली मनाई है अथवा अभी मनानी है? सबके दीपक अखण्ड जगमगा रहे है ना? जैसे गायन है कि घर-घर मन्दिर बनेंगे। ऐसे अपने देह रूपी घर को मन्दिर बनाया है? जब घर-घर मन्दिर बनाओ तब ही विश्व को भी चैतन्य देवताओं का निवास स्थान मन्दिर बनायेंगे।

जितने भी ब्राह्मण हैं हर-एक ब्राह्मण चैतन्य सालिग्राम का मन्दिर है, चैतन्य शक्ति मन्दिर है, ऐसे मन्दिर समझते हुए उनको शुद्ध पवित्र बनाया है? अभी के पुरूषार्थ के समय प्रमाण व विश्व के सम्पन्न परिवर्तन के समय प्रमाण इस समय कोई भी कर्म-इन्द्रिय द्वारा प्रकृति व विकारों के वशीभूत नहीं होना चाहिए जैसे मन्दिर में भूत प्रवेश नहीं होते हैं। तो हर घर को मन्दिर बनाया है? जहाँ अशुद्धि होती है वहाँ ही अशुद्ध विकार अथवा भूत प्रवेश होता है। चैतन्य सालिग्राम के मन्दिर में व चैतन्य शक्तिस्वरूप के मन्दिर में, असुर संहारनी के मन्दिर में आसुरी संकल्प व आसुरी संस्कार कभी प्रवेश नहीं कर सकते। अगर प्रवेश होते हैं तो कोई-न-कोई प्रकार की अशुद्धि अर्थात् अस्वच्छता है। ऐसे अपने को चेक करो - कहीं भी कोई प्रकार की अशुद्धि रह गई हो तो उसको अभी खत्म करो अर्थात् सच्ची दीपावली मनाओ। जब ऐसी अपनी पवित्र प्रवृत्ति बनाओ तब ही विश्व-परिवर्तन होगा।

यहाँ मधुबन में भी रूहानी यात्रा करने आते हो तो रूहानी यात्रा में अपनी कमज़ोरियों को छोड़ कर जाना। मधुबन है ही परिवर्तन भूमि। परिवर्तन भूमि में आकर परिवर्तन नहीं किया तो परिवर्तन भूमि का लाभ क्या उठाया? सिर्फ परिवर्तन भूमि के अन्दर परिवर्तन नहीं लाना है लेकिन सदाकाल का परिवर्तन लाना है। मधुबन को महायज्ञ व राजस्व अश्वमेघ यज्ञ कहते हैं, तो यज्ञ में आहुति डाली जाती है। महायज्ञ में महान् आहुति डालकर जाते हो अथवा डाली हुई आहुति फिर वापिस लेते हो। जो नाम देते हो वैसा काम भी करते हो वा नहीं? नाम है महायज्ञ, परिवर्तन भूमि और वरदान भूमि, तो जैसा नाम वैसा कार्य करो। जो प्रतिज्ञा करके जाते हो इसको निभाते रहो अथवा निभाना मुश्किल लगता है? निभाने में तीन प्रकार की आत्मायें बन जाती हैं। कोई तो निभाने में सच्चे परवाने मुआफिक स्वयं को बाप पर न्योछावर कर देते हैं अर्थात् फरमान पर कुर्बान हो जाते हैं और कोई निभाने में भक्त बन जाते हैं अर्थात् बाप से ही बारबार शक्ति लेते रहते हैं अर्थात् माँगते रहते हैं, सहन-शक्ति दो, तो निभाऊं और सामना करने की शक्ति दो तो निभाऊं - ऐसे भीख माँगते रहते हैं अर्थात् भक्त बन जाते हैं। और कोई फिर ठगत भी बन जाते हैं - कहते और लिखते है एक और करते दूसरा हैं। बाप के आगे भी ठगी करते हैं, अपनी गलती को छिपाने की ठगी करते हैं - ऐसे ठगत भी हैं। कईयों में निभाने की शक्ति है नहीं, लेकिन अपने को बचाने के लिये फिर बहानेबाज़ होते है। अपनी कमजोरी को छुपाकर दूसरों के बहाने बनाते रहते हैं - फलाना सम्बन्ध ऐसा है इसलिये यह हुआ है व वायुमण्डल और वातावरण ऐसा है इसलिए यह होता है, सरकमस्टॉन्सेज अनुसार होता है - ऐसे बहाने बनाते रहते हैं। निभाने में इतने प्रकार के निभाने वाले बन जाते हैं। कहना सबका एक है कि मेरा तो एक बाप दूसरा न कोई, जो कहेंगे और करायेंगे वही करेंगे, लेकिन करने में और प्रैक्टिकल आने में अनेक प्रकार के बन जाते हैं। इस लिए अब तक साधारण समझ जो किया उसको बीती सो बीती करो अर्थात् अपने ऊपर रहम करो। इस भूमि के महत्व को भी अच्छी रीति जानो। इस भूमि को साधारण भूमि नहीं समझना। महान् स्थान पर आते हो अपने को महान् बनाने के लिए। महान् बनना अर्थात् महत्व को जानना। समझा?

ऐसे समय प्रमाण स्वयं को परिवर्तन करने वाले, विश्व-परिवर्तन के निमित्त बने हुए, बाप के साथ प्रीति की रीति निभाने वाले, बाप को सदा अपना साथी बनाने वाले और सदा कमल-पुष्प समान साक्षी रहने वाले, ऐसे सदा स्नेही बच्चों को बापदादा का याद- प्यार और नमस्ते।

इस मुरली का ज्ञान-बिन्दु

जैसी वृत्ति, वैसी प्रवृत्ति बनती है। आत्मिक या रूहानी वृत्ति से प्रवृत्ति में रूहानीयत भर जाने के कारण, अमानत समझ कर चलने से मेरा-पन सहज ही समाप्त हो जायेगा।



24-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शक्तियों का विशेष गुण - निर्भयता

शिव-शक्ति सेना के सर्वोच्च अधिपति सर्वशक्तिवान् शिव बाबा ने पंजाब व गुजरात ज़ोन की
शिव-शक्तियों को सम्बोधित करते हुए ये मधुर महावाक्य उच्चारे :-

शक्तियों का विशेष गुण निर्भयता का गाया हुआ है। वह अपने में अनुभव करती हो? निर्भय सिर्फ कोई मनुष्यात्मा से नहीं लेकिन माया के वार से भी निर्भय। जो माया से घबराने वाली नहीं, उसको शक्ति कहा जाता है। माया से डरती तो नहीं हो? जो डरता है वह हार खाता है। जो निर्भय होता है उससे माया खुद भयभीत होती है, क्योंकि भय के कारण शक्ति खो जाती है और समझ भी खो जाती है। वैसे भी जब किसी से भय होता है तो होश-हवास गुम हो जाते हैं, जो समझ होती है वह भी गुम हो जाती है। तो यहाँ भी जो माया से घबराते हैं उनकी माया से समझ खो जाती, इसलिए वे माया को जीत नहीं सकते। तो जैसा नाम है - शक्ति सेना। तो जब शक्तिपन की विशेषता - निर्भयता प्रैक्टिकल में दिखाई दे, तब कहेंगे शक्तियाँ। किसी भी प्रकार का भय है तो उसे शक्ति नहीं कहेंगे। अबला जो होती है वह सदैव अधीन होती है, वह अधिकारी नहीं होती। आप तो अधिकारी हो ना? भय के कारण अधीन तो नहीं हो जायेंगी? तो पंजाब की शक्ति-सेना ऐसी निर्भय है?

जब से ब्राह्मण बने हो तो माया को चैलेन्ज दी है कि - ‘‘आओ माया! जितना वार करना हो, उतना करो, मैं शिव-शक्ति हूँ।’’ माया के परवश होना अपनी किसी कमज़ोरी के कारण होता है। जहाँ कमजोरी है वहाँ माया है। जैसे जहाँ गन्दगी है वहाँ मच्छर ज़रूर पैदा होते हैं। वैसे ही माया भी, जहाँ कमज़ोरी होती है वह वहीं प्रवेश होती है। तो कमज़ोर होना अर्थात् माया का आह्वान करना। खुद ही आह्वान करते और खुद ही डरते, तो फिर आह्वान करते ही क्यों हो? यह नशा रखो कि - ‘‘हम हैं ही शिव-शक्ति सेना। कल्प पहले भी माया पर विजयी बनी थीं। अब भी वही पार्ट फिर रिपीट कर रही हूँ।’’ कितनी ही बार के विजयी हो? जो अनेक बार का विजयी है वह कितना निर्भय होगा? क्या वह डरेंगे? शक्तियों ने बाप को प्रत्यक्ष करने का नगाड़ा कौन-सा  बजाया है? कुम्भकरण को जगाने के लिये बड़ा नगाड़ा बजाओ। छोटा नगाड़ा बजाती हो तो कुम्भकरण करवट तो बदलते हैं अर्थात् अच्छा-अच्छा तो करते हैं परन्तु फिर सो जाते हैं। तो उन्हों के लिए अब छोटे-मोटे नगाड़े से काम न होगा, इसलिए बार-बार सम्पर्क बढ़ाना पड़े। उन्हों का दोष नहीं, वह तो गहरी नींद में हैं। तुम्हारा काम है कोई विशेष प्रोग्राम बनाय उन्हों को जगाना।

प्रवृत्ति में रहते अपने को सेवाधारी समझने से ही बाप को सदा साथी बना सकेंगे

पंजाब से आये हुए गोपों से मुलाकात करते समय अव्यक्त बापदादा ने ये मधुर महावाक्य उच्चारे: -

जैसा स्थान होता है, उस स्थान की स्मृति से भी स्थिति में बल मिलता है। जैसे मधुबन-निवासी कहने से फरिश्तापन की स्थिति ऑटोमेटिकली हो जाती है। फरिश्ता अर्थात् जिसका देह से रिश्ता नहीं। तो जो भी देह के रिश्ते हैं वह सब यहाँ भूल जाते हैं। थोड़े समय के लिए भी यह अनुभव तो करते हो ना। यह बीच-बीच में मधुबन में आना; इतना मुश्किल होते हुए भी यह अनुभव करने क्यों आते हो? बार-बार यह अनुभव तो कराया जाता है। यहाँ का अनुभव वहाँ स्मृति में बल देता है। इसलिए मधुबन में आना ज़रूरी है। वहाँ प्रवृत्ति में रहते हो, वह भी सेवा-अर्थ। घर समझेंगे तो गृहस्थी’, सेवाधारी समझेंगे तो ट्रस्टी। गृहस्थी में चारों ओर के कर्म-बन्धन खींचेंगे। सेवाधारी समझेंगे तो ट्रस्टीपन में मेरा-पन खत्म होगा। गृहस्थी में मेरा-पन होता है। मेरा-पन बहुत लम्बा है। जहाँ मेरा-पन है वहाँ बाप नहीं हो सकता। जहाँ मेरा-पन नहीं वहाँ बाप है। गृहस्थीपन में हद के अधिकारी बन जाते हो - ‘‘मेरा माना जाय, मेरा सुना जाय और मेरे प्रमाण चलना चाहिए।’’ जहाँ हद का अधिकार है, वहाँ बेहद का अधिकार खत्म हो जाता है। अब बीती को बीती करके फुलस्टॉप लगाते जाओ। फुलस्टॉप बिन्दी होता है। फुलस्टॉप नहीं लगाते अर्थात् बिन्दी रूप में स्थित नहीं होते तो या आश्चर्य (!) या कॉमा (,) या क्वेश्चन (?) लगा देते हो। आश्चर्य की निशानी क्या कहे? जो कहते हैं - ‘‘ऐसे यह होता है क्या! ब्राह्मणों में यह-यह बात होती है!’’ यह आश्चर्य की निशानी हो गई। यह भी नहीं होना चाहिये। यह क्यों हुआ? ‘क्यों-क्याकहना यह क्वेश्चन हुआ। यह भी व्यर्थ संकल्प उत्पन्न होने का आधार है। जो होता है उसको साक्षी हो देखो। साक्षी के बजाय आत्मा के साथी बन जाते हो, बाप के साथी के बजाय आत्मा के साथी बन जाते हो। ‘‘अच्छा ऐसी बात है!, मैं भी ऐसे समझता हूँ।’’ - यह है सुनने का साथ और सुनाने का साथ। तो जहाँ आत्मा के साथी बने तो परमात्मा के साथी कैसे बनेंगे? जितना समय आत्मा का साथी, उतना समय बाप के साथी नहीं बनेंगे। यह खण्डित योग हो जाता है। खण्डित चीज़ फैंकने वाली होती है। वही मूर्ति जो पूजने योग्य होती है - जब वह खण्डित हो जाती है तो उसकी कोई वैल्यू नहीं होती। तो यहाँ भी जब योग खण्डित, तो श्रेष्ठ प्राप्ति नहीं, अर्थात् वैल्यू नहीं। सदा के साथी। अखण्ड योगी। अटूट योगी और निरन्तर बापदादा के साथी - ऐसे हैं पंजाब निवासी?

इस मुरली के विशेष तथ्य

1. जैसा स्थान होता उस स्थान की स्मृति से भी स्थिति में बल मिलता है।

2. प्रवृत्ति में रहते घर समझेंगे तो गृहस्थी, सेवाधारी समझेंगे तो ट्रस्टी।

3. अब बीती को बीती करके फुलस्टॉप (.) लगाते जाओ तो व्यर्थ संकल्पों का चक्कर चलना रूक जायेगा।

4. सिर्फ मनुष्यात्मा से ही नहीं बल्कि माया के वार से भी निर्भय आत्मा शक्तिहै।

5. अपनी ही किसी कमज़ोरी के कारण माया के परवश होते हैं।

6. मैं कल्प-कल्प की अनेक बार की विजयी आत्मा हूँ - यह याद रहने से माया से निर्भय रहेगे।



25-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बेहद की शिक्षिवा समझ वैराग्य वृत्ति को धारण करो

पंजाब, गुजरात जोन की टीचर्स के साथ अव्यक्त बापदादा के उच्चारे हुए मधुर महावाक्य:-

अपने को मास्टर विश्व की शिक्षक समझती हो अथवा अपने-अपने सेवाकेन्द्रों कि मैं फलाने स्थान की टीचर हूँ, यह बुद्धि में रहता है? यह बुद्धि में रहना चाहिए कि मैं विश्व की निमित्त बनी हुई मास्टर विश्व-शिक्षक हूँ! हद याद रहती है या बेहद? बेहद का नशा और बेहद की सेवा के प्लैन चलते हैं या अपने स्थान के प्लैन चलते हैं? बेहद का नशा रहेगा तब विश्व की मालिक बनेंगी। अगर हद का नशा और हद की स्मृति रहती है, तो विश्व के मालिकपन के संस्कार नहीं बनेंगे, फिर तो छोटा-छोटा राजा बनेंगे। विश्व-महाराजन की प्रालब्ध पाने की निशानियाँ अभी से ही दिखाई देंगी। जैसे कोई भी पहेली हल करानी होती है तो उसकी निशानियाँ पूछते हैं जिससे कैसी भी कठिन पहेली हो, वह जल्दी हल हो जाती है। तो यहाँ भी कौन क्या बनता है, यह पहेली है, तो इन निशानियों से परख सकता है। अपने आपको भी मालूम पड़ सकता है कि मैं अपने पुरूषार्थ प्रमाण क्या बन सकती हूँ।

टीचर्स स्वतन्त्र हैं, कोई कर्म-बन्धन नहीं सिर्फ सेवा का बन्धन है। वह बन्धन, बन्धन नहीं, लेकिन बन्धन-मुक्त करने वाला है। जब सब बातों में स्वतन्त्र हो, तो टीचर्स की बेहद की बुद्धि होनी चाहिए। जहाँ तक हो सके वहाँ तक बेहद की सेवा में सहयोग देने का चांस स्वयं लेना चाहिए। क्योंकि जितना स्वयं बेहद की सेवा का अनुभव करेंगे उतना ही जास्ती अनुभवीमूर्त्त कहलायेंगी। अनुभवी-मूर्त्त की ही वैल्यू होती है, जैसे पुराने जमाने के जो अनुभवी होते हैं उनकी राय की वैल्यु होती है कि यह पुराने अनुभवी हैं। तो यहाँ भी अनुभवी बनना चाहिए। स्वयं चांस लेना चाहिए। प्रोग्राम प्रमाण करना उसमें आधा हिस्सा अपना होता, आधा दूसरे का हो जाता है। जैसे कमाई का शेयर (हिस्सा) होता है। तो प्रोग्राम प्रमाण करने में आधा हो जाता है। जो स्वयं चांस लेते वह फुल ही मिलता है। ऐसे नहीं कहो कि मुझे योग्य समझा जाए। मैं स्वयं बनकर दिखलाऊं। आफरीन उसको मिलती है जो स्वयं को ऑफर करता है। यह कभी नहीं सोचना या इन्तज़ार करना कि मुझे चान्स मिलेगा तो करूंगी या मुझे आगे बढ़ाया जायेगा तो बढूँगी। यह भी आधार हुआ। टीचर तो स्वयं आधारमूर्त्त हैं। तो जो आधारमूर्त्त हैं वह किसका आधार नहीं लेते। यह भी लॉटरी नहीं गँवाना। स्वयं, स्वयं को ऑफर करो और बेहद के अनुभवी बनो। बेहद के बुद्धिवान बनो। चांस लेते जाओ तो चांस मिलता जायेगा। इसको कहेंगे मास्टर विश्व-शिक्षक। बाकी है अपने-अपने सेन्टर की शिक्षक। जैसे बाप को देखा एक स्थान मधुबन में रहते चारों ओर के प्लान बनाते थे, न कि सिर्फ मधुबन के। ऐसे ही निमित्त कहाँ भी रहती हो, लेकिन बेहद के प्लैन्स बनाती रहो। ऐसी हैं सब बेहद की बुद्धि वाली टीचर्स? चारों ओर चक्कर लगाती हो कि सिर्फ अपनी एरिया में चक्कर लगाती हो? जो जितना ईश्वरीय सेवा-अर्थ चक्कर लगाते हैं उतना ही चक्रवर्ती राजा बनते हैं। अच्छा, यह तो हुई बेहद की टीचर्स के निमित्त। अभी तो भविष्य प्लैन बताया।

बेहद की वैराग्य वृत्ति को टीचर्स अपने में अनुभव करती हैं? बेहद की वैराग्य वृत्ति है कि अपने सेन्टर्स व जिज्ञासुओं से लगाव नहीं। जब इस लगाव से बेहद का वैराग्य होगा तब जयजयकार होगी। सब स्थूल, सूक्ष्म साधनों से बेहद का वैराग्य। ऐसी धरनी बनी है अथवा थोड़ा सेन्टर्स से चेन्ज करें तो हिलेंगी? जिज्ञासुओं पर तरस नहीं पड़ेगा? जरा भी उन्हों के प्रति संकल्प नहीं आयेगा? ऐसे अपने को चेक करना चाहिए कि ऐसा पेपर आये तो नष्टोमोहा हैं? वह है लौकिक सम्बन्ध और यह है सेवा का सम्बन्ध। यदि उस सम्बन्ध में मोह जाये तो आप लोग वाणी चलाती हो। यह अलौकिक सेवा का सम्बन्ध है, इसमें यदि आपका मोह होगा तो आने वाले स्टूडेण्ट्स इस पर वाणी चलायेंगे। तो अपनी महीन रूप से चेकिंग करो कि अभी कोई ऑर्डर हो तो एवररेडी हैं? इस सेन्टर की सर्विस अच्छी है, तो सर्विस अच्छी से भी लगाव तो नहीं है? जब सबसे उपराम हों तब बेहद की वैराग्य वृत्ति कहेंगे। अपने शरीर से भी उपराम। जैसे कि निमित्त सेवा-अर्थ चलाते हैं।

लगाव की निशानी यह है कि बुद्धि बार-बार बाप से हट कर उस तरफ जाये तो समझो लगाव है। अपने आप से भी लगाव न हो। जो अपने में विशेषता है, कोई में हैंडलिंग पॉवर अच्छी है वा कोई में वाणी की पॉवर है तो कहेंगी मैं ऐसी हूँ। परन्तु यह तो बापदादा की देन है। अपने ज्ञान की विशेषता, विशेषता कोई भी हो, उससे भी लगाव नहीं। इसमें भी अभिमान आ जाता है इससे तो यह बुद्धि में रखो कि - ‘‘यह बाप से मिला हुआ वर्सा है। जो सर्व-आत्माओं के प्रति हमें मिला है, जो दे रहे हैं, हम तो निमित्त हैं।’’ ऐसे बेहद के वैराग्य वृत्ति का संगठन टीचर्स का होना चाहिए। जो चलने से, देखने से और बोलने से सबको महसूस हो कि ये बेहद के वैरागी हैं। ज्ञान से सेवा करने में होशियार हैं, यह तो सब महसूस करते हैं। अब बेहद के वैराग्य का अनुभव करो, जो दूसरे भी अनुभव करें। अच्छा।

महावाक्यों की विशेष बातें

1. टीचर्स स्वतन्त्र हैं, कोई कर्म-बन्धन नहीं, सिर्फ सेवा का बन्धन है। यह बन्धन भी बन्धन-मुक्त करने वाला है।

2. टीचर्स को जहाँ तक हो सके, वहाँ तक बेहद की सेवा में सहयोग देने का चांस स्वयं लेना चाहिये तभी अनुभवी-मूर्त्त बन सकेंगी। अनुभवी-मूर्त्त की वैल्यू होती है।

3. जो जितना ही ईश्वरीय सेवा-अर्थ चक्कर लगाते रहते हैं उतना ही वे चक्रवर्ती राजा बनते हैं।

4. जब अपने सेन्टर्स व जिज्ञासुओं के लगाव से बेहद का वैराग्य होगा तब जयजयकार होगी।

5. अपने में कोई विशेषता है तो उससे भी लगाव नहीं होना चाहिये। बुद्धि में समझना है कि यह बाप से मिला हुआ वर्सा



26-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विकारी देह रूपी साँप से सारी कमाई खत्म

सर्व प्राप्तियों का अधिकार दिलाने वाले, बीती को बीती कर वर्तमान और भविष्य के हर संकल्पों को श्रेष्ठ बनाने वाले और आत्माओं के कर्मों की कर्म-कहानी को जानने वाले धर्मराज शिव बाबा बोले :-

बाप-दादा सब बच्चों को देख रहे हैं कि हर-एक ने यहाँ आने पर कोर्स किया है? कोर्स किया है ना। कोर्स के बाद फिर रिवाइज़ कोर्स चला। रिवाइज के बाद अब अन्तिम कोर्स है रियलाइजेशन कोर्स। अर्थात् जो कुछ सुना, जो पाया, जो बाप के चरित्र देखे उसी प्रमाण अपने में समाया कितना और गँवाया कितना? सिर्फ सुनने वाले बने या स्वयं सम्पन्न बने? समर्थ बने या सिर्फ अन्य श्रेष्ठ आत्माओं व बापदादा के गुणगान करने वाले बने? ज्ञान-स्वरूप, याद-स्वरूप, दिव्य गुण सम्पन्न स्वरूप और सदा सेवाधारी स्वरूप बने या इन सबके सिर्फ सुमिरण वाले बने? ज्ञान तो बहुत ऊँचा है, योग बड़ा श्रेष्ठ है, दिव्य-गुण धारण करना आवश्यक है और सेवा करना मुझ ब्राह्मण का फर्ज है, ऐसा सिर्फ सुमिरण करते हो या स्वरूप भी बने हैं? इसी प्रकार से अपने आप को रियलाइज करना, यह है लास्ट कोर्स। जैसे दीपावली पर पुराना पोतामेल समाप्त कर नया शुरू करते हैं और अपने रजिस्टर्स चेक करते हैं ऐसे आप सबको भी आदि से अन्त तक अर्थात् आज तक अपना रजिस्टर चेक करना है, कि हर सब्जेक्ट में कितनी मार्क्स ली हैं? समय के प्रमाण जबकि मंज़िल सामने दिखाई दे रही है, डबल लक्ष्य स्पष्ट है - वर्तमान संगमयुगी फरिश्तेपन का लक्ष्य और भविष्य देवता स्वरूप का लक्ष्य। जैसे लक्ष्य स्पष्ट है वैसे लक्षण स्पष्ट दिखाई देते हैं? विश्व-परिवर्तन के पहले क्या स्वयं में परिवर्तन हुआ अनुभव होता है? ऐसी चेकिंग की है?

बापदादा ने सर्व बच्चों के रजिस्टर चेक किये। जिन्होंने अपनी कर्म-कहानी लिखी उनकी रिजल्ट भी देखी। तो क्या देखा - कई आत्माओं ने भय और लज्जा के वश लिखी ही नहीं है। लेकिन बापदादा के पास निराकारी और साकारी बाप के रूप में हर बच्चे का रजिस्टर आदि से आज तक का स्पष्ट है। इसको तो कोई मिटा नहीं सकता है। अब तक के रजिस्टर की रिजल्ट में विशेष तीन प्रकार की रिजल्ट हैं - एक छिपाना; दूसरा - कहीं-न-कहीं फँसना; तीसरा- अलबेलेपन में बहाना बनाना। बहानेबाजी में बहुत होशियार हैं। अपने आप को व अपनी गलती को छिपाने के लिए बहुत वन्डरफुल बातें बनाते हैं। आदि से अब तक ऐसी बातों का संग्रह करें तो आजकल के शास्त्रों समान बड़े शास्त्र बन जायें। अपनी गलती को गलती मानने के बजाय उसे यथार्थ सिद्ध करने में व झूठ को सच सिद्ध करने में आजकल के काले कोट वाले वकीलों के समान हैं, माया से लड़ने के बजाय ऐसे केस लड़ने में बहुत होशियार हैं। लेकिन यह याद नहीं रहता कि अभी अपने को सिद्ध करना अर्थात् बाप द्वारा जन्म-जन्मान्तर के लिए सर्व-सिद्धियों की प्राप्ति से वंचित होना है। सिद्ध करने वालों में जिद्द करने के संस्कार ज़रूर होते हैं। ऐसी आत्मा सद्गति को नहीं पा सकती। अब तक मैजॉरिटी पहले पाठ अर्थात् पहली बात - पवित्र दृष्टि और भाई-भाई की वृत्तिमें फेल हैं। अब तक इस पहले फरमान पर चलने वाले फरमाँबरदार बहुत थोड़े हैं। बार-बार इस फरमान का उल्लंघन करने के कारण अपने ऊपर बोझ उठाते रहते हैं। इसका कारण यह है कि पवित्रता की मुख्य सब्जेक्ट का महत्व नहीं जानते हैं, उसके नुकसान की नॉलेज को नहीं जानते।

कोई भी देहधारी में संकल्प से व कर्म से फंसना, इस विकारी देह रूपी साँप को टच करना अर्थात् अपनी की हुई अब तक की कमाई को खत्म करना है। चाहे कितना भी ज्ञान का अनुभव हो या याद द्वारा शक्तियों की प्राप्ति का अनुभव किया हो या तन-मन-धन से सेवा की हो, लेकिन सर्व प्राप्तियाँ इस देह रूपी साँप को टच करने से इस साँप के विष के कारण, जैसे विष मनुष्य को खत्म कर देता है, वैसे ही यह साँप भी अर्थात् देह में फँसने का विष सारी कमाई को खत्म कर देता है। पहले की हुई कमाई के रजिस्टर पर काला दाग पड़ जाता है जिसको मिटाना बहुत मुश्किल है। जैसे योग-अग्नि पिछले पापों को भस्म करती है वैसे यह विकारी भोग भोगने की अग्नि पिछले पुण्य को भस्म कर देती है। इसको साधारण बात नहीं समझना। यह पाँचवीं मंज़िल से गिरने की बात है। कई बच्चे अब तक अलबेलेपन के संस्कार-वश इस बात को कड़ी भूल व पाप कर्म नहीं समझते हैं। वर्णन भी ऐसा साधारण रूप में करते हैं कि मेरे से चार पाँच बार यह हो गया, आगे नहीं करूँगा। वर्णन करते समय भी पश्चाताप का रूप नहीं होता, जैसे साधारण समाचार सुना रहे हैं। अन्दर में लक्ष्य रहता है कि यह तो होता ही है मंज़िल तो बहुत ऊँची है, अभी यह कैसे होगा?

लेकिन फिर भी आज ऐसे पाप आत्मा, ज्ञान की ग्लानि कराने वालों को बापदादा  वार्निंग देते हैं कि आज से भी इस गलती को कड़ी भूल समझकर यदि मिटाया नहीं तो बहुत कड़ी सज़ा के अधिकारी बनेंगे। बार-बार अवज्ञा के बोझ से ऊँची स्थिति तक पहुँच नहीं सकेंगे। प्राप्ति करने वालों की लाइन के बजाय पश्चाताप करने वालों की लाइन में खड़े होंगे। प्राप्ति करने वालों की जयजयकार होगी और अवज्ञा करने वालों के नैन और मुख हाय हायका आवाज निकालेंगे और सर्व प्राप्ति करने वाले ब्राह्मण ऐसी आत्माओं को कुलकलंकित की लाइन में देखेंगे। अपने किये विकर्मों का कालापन चेहरे से स्पष्ट दिखाई देगा। इसलिये अब से यह विकराल भूल अर्थात् बड़ी-से-बड़ी भूल समझकर के अभी ही अपनी पिछली भूलों का पश्चाताप दिल से करके बाप से स्पष्ट कर अपना बोझ मिटाओ। अपने आप को कड़ी सजा दो ताकि आगे की सज़ाओं से भी छूट जायें।

अगर अब भी बाप से छुपावेंगे व अपने को सच्चा सिद्ध करके चलाने की कोशिश करेंगे तो अभी चलाना अर्थात् अन्त में और अब भी अपने मन में चिल्लाते रहेगे - क्या करूँ, खुशी नहीं होती, सफलता नहीं होती, सर्व-प्राप्तियों की अनुभूति नहीं होती। ऐसे अब भी चिल्लायेंगे और अन्त में हाय मेरा भाग्यकह चिल्लायेंगे। तो अब का चलाना अर्थात् बार-बार चिल्लाना। अगर अभी बात को चलाते हो तो अपने जन्म-जन्मान्तर के श्रेष्ठ तकदीर को जलाते हो। इसलिये इस विशेष बात पर विशेष अटेन्शन रखो। संकल्प में भी इस विष-भरे साँप को टच नहीं करना। संकल्प में भी टच करना अर्थात् अपने को मूर्छित करना है। तो रजिस्टर में विशेष अलबेलापन देखा। दूसरी रिजल्ट कल सुनाई थी कि किन-किन बातों में चढ़ती कला के बजाय रूक जाते हैं। तीव्र गति के बजाय मध्यम गति हो जाती है। यह है मैजॉरिटी का रिजल्ट। इसलिये अब अपने आप को रियलाइज़ करो अर्थात् अन्तिम रियलाइज कोर्स समाप्त करो। अपने आप को अच्छी तरह हर प्रकार से हर सब्जेक्ट में चेक करो। सर्व मर्यादाओं को, बाप के फरमानों को और श्रेष्ठ-मत को कहाँ तक प्रैक्टिकल में लाया है, उसको चेक करो और साथ-साथ मधुबन महायज्ञ में सदाकाल के लिये अन्तिम आहुति डालो। समझा? अभी बाप के प्रेम-स्वरूप का उल्टा एडवान्टेज नहीं उठाओ। नहीं तो अन्तिम महाकाल रूप के आगे एक भूल का हजार गुणा पश्चाताप करना पड़ेगा।

ऐसे इशारे से समझने वाले ब्राह्मण सो देवता, सर्व प्राप्ति के अधिकार प्राप्त करने वाले अधिकारी और बीती को बीती कर भविष्य और वर्तमान के हर संकल्प को श्रेष्ठ बनाने वाले, ऐसे ब्राह्मण-कुल के दीपकों को, उम्मीदवार सितारों को अपनी और विश्व की तकदीर जगाने वाले तकदीरवान आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली की विशेष बातें

1. बच्चों के कर्म-कहानी के रजिस्टर्स में विशेष तीन प्रकार की रिजल्ट हैं - एक छिपाना, दूसरा कहीं-न-कहीं फंसना, तीसरा अलबेलेपन में बहाने बनाना।

2. अभी अपने से हुई भूल को सच सिद्ध करना अर्थात् बाप द्वारा जन्मजन्मान्तर के लिए सर्व सिद्धियों की प्राप्ति से वंचित होना है।

3. कोई भी देहधारी में संकल्प से व कर्म से फंसना अर्थात् अपनी की हुई अब तक की कमाई को खत्म करना है।

5. जैसे लक्ष्य स्पष्ट है - वर्तमान संगमयुगी फरिश्तेपन का और भविष्य देवता स्वरूप का - वैसे लक्षण भी स्पष्ट दिखाई देने चाहिएं। ए प्रतिज्ञा करो कि - देह-रूपी विष भरे साँप को संकल्प में भी टच नहीं करेंगे।



27-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महादानी और वरदानी ही महारथी

विश्व-कल्याणी और महावरदानी शिव बाबा महारथी बच्चों को देख बोले:-

ब्रह्मा बाप के समान क्या महारथी भी बाप समान सदा अपने को निमित्त-मात्र अनुभव करते हैं? महारथियों की यह विशेषता है कि उनमें मैं-पन का अभाव होगा। मैं निमित्त हूँ और सेवाधारी हूँ - यह नैचुरल स्वभाव होगा। स्वभाव बनाना नहीं पड़ता है। स्वभाव-वश संकल्प, बोल और कर्म स्वत: ही होता है। महारथियों के हर कर्त्तव्य में विश्वकल् याण की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देगी। उसका प्रैक्टिकल सबूत व प्रमाण हर बात में अन्य आत्मा को आगे बढ़ाने के लिए पहले आपका पाठ पक्का होगा। पहले मैं नहींआपकहने से ही उस आत्मा के कल्याण के निमित्त बन जायेंगे। ऐसे महारथी जिनकी ऐसी श्रेष्ठ आत्मा है और ऐसा श्रेष्ठ स्वभाव हो, ऐसे ही बाप समान गाये जाते हैं।

महारथी अर्थात् महादानी। अपने समय का, अपने सुख के साधनों का, अपने गुणों का और अपनी प्राप्त हुई सर्व शक्तियों का भी अन्य आत्माओं की उन्नति-अर्थ दान करने वाला - उसको कहते हैं महादानी। ऐसे महादानी के संकल्प और बोल स्वत: ही वरदान के रूप में बन जाते हैं। जिस आत्मा के प्रति जो संवल्प करेंगे या जो बोल बोलेंगे वह उस आत्मा के प्रति वरदान हो जायेगा। क्योंकि महादानी अर्थात् त्याग और तपस्यामूर्त्त होना। इसी कारण त्याग, तपस्या और महादान का प्रत्यक्ष फल उनका संकल्प वरदान रूप हो जाता है। इसलिए महारथी की महिमा महादानी और वरदानीगाई हुई है। ऐसे महारथियों का संगठन लाइट-हाउस और माइट-हाउस का काम करेगा। ऐसी तैयारी हो रही है ना। ऐसा संगठन तैयार होना अर्थात् जयजयकार होना और फिर हाहाकार होना। यह दृश्य भी वन्डरफुल होगा। एक तरफ अति हाहाकार और दूसरी तरफ फिर जयजयकार। अच्छा।

मुरली का मुख्य सार

1. महारथी की यह विशेषता है कि उसमें मैं-पन का अभाव होगा। 2. महारथी के हर कर्त्तव्य में विश्व-कल्याण की भावना स्पष्ट रूप से दिखाई देगी।



27-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


क्वेश्चन, करेक्शन और कोटेशन से पुरूषार्थ में ढीलापन

रूहानी बगीचे के बागवान शिव बाबा फुलवारी के फूलों को देख बोले:-

आज बापदादा बेहद की फुलवारी को विशेष रूप से देख रहे थे कि हर एक फूल के अन्दर रूप, रंग और कितनी खुशबू है। रूप अर्थात् साकारी स्वरूप में नैन और चैन में अर्थात् चेहरे में ब्राह्मण-पन का व फरिश्ते-पन का, श्रेष्ठ पार्टधारी आत्मा की स्मृति का नशा और खुशी प्रत्यक्ष रूप में कितनी दिखाई देती है? रंग अर्थात् निरन्तर बाप के संग का रंग अर्थात् सदा साथी बनने का रंग कितना चढ़ा हुआ है? खुशबू अर्थात् सदा रूहानी वृत्ति और दृष्टि कहाँ तक अपनायी है? हर-एक में यह तीन विशेषतायें देखीं।

यह विशेषता देखते हुए एक और विचित्र विशेषता देखी। वह क्या देखी कि जिन विशेष फूलों में बापदादा की नजर है, उमंग और उल्लास की झलक भी है, उम्मीदवार भी हैं, सर्व ब्राह्मण परिवार का स्नेह भी है, लक्ष्य भी बहुत श्रेष्ठ है और कदम भी तीव्र गति के हैं - लेकिन अभी-अभी इसी रूप में दिखाई दे रहे हैं (जो वर्णन किया है); कुछ समय के बाद बाप की नजर में रहने वालों के ऊपर माया के रॉयल रूप की नजर लगने के कारण रूप-रंग बदल जाता है। कदमों की तीव्र गति यथार्थ मार्ग के बजाय व्यर्थ मार्ग पर तीव्र गति से चल पड़ते हैं। फरिश्तेपन के नशे के बजाय और ईश्वरीय खुशी के बजाय अनेक प्रकार के नशे जो कि विनाशी नशे हैं, साथ-साथ साधनों के आधार पर जो प्राप्त हुई खुशी और नशे हैं - उनमें मस्त हो जाते हैं। सदा बाप के संग के रंग के बजाय अर्थात् एक बाप का सहारा लेने के बजाय समय-प्रति-समय जिन आत्माओं से अल्पकाल का सहारा मिलता है उन आत्माओं को ही साकारी सहारा बना देते हैं। अर्थात् संग के रंग में रंग जाते हैं। इसमें भी मैजॉरिटी बच्चों में एक बात दिखाई दी।

मैजारिटी इस ब्राह्मण जीवन के आदि में अर्थात् पहले-पहले जब बाप द्वारा बाप का परिचय, ज्ञान का खज़ाना प्राप्त होता है, अपने जन्म-सिद्ध अधिकार का मालूम पड़ता है, याद द्वारा अनुभव प्राप्त होता है, दु:ख, ‘सुखमें बदल जाता है, अशान्ति, ‘शान्तिमें बदल जाती है और भटकना बन्द हो, ठिकाना मिल जाता - उस शुरू की स्थिति में बहुत अच्छे, तीव्र उमंग-उल्लास वाले, खुशी में झूमने वाले, सेवा में रात-दिन एक करने वाले, सम्बन्ध और शरीर की सुधबुध भूले हुए, ऐसे फर्स्ट क्लास सर्विस-एबल, नॉलेजफुल और पॉवरफुल स्वयं को भी अनुभव करते हैं और अन्य ब्राह्मण भी उनको ऐसे ही अनुभव करते हैं। लेकिन आदि के बाद फिर जब मध्य में आते हैं तो पुरूषार्थ से, अपनी सेवा से, खुशी और उमंग से संतुष्ट नहीं रहते। अपने आप से क्वेश्चन करते रहते हैं कि-’’पहले ऐसा था अभी ऐसा क्यों, पहले जैसा उमंग कहाँ चला गया? पहले वाली खुशी गायब क्यों हो गई? चढ़ती कला के बजाय रूकावट क्यों हो गई? जबकि ज्ञान गुह्य हो रहा है, समय समीप आ रहा है, सेवा के साधन भी बहुत प्राप्त हो रहे हैं और फिर भी पहले जैसा अनुभव क्यों नहीं होता?’’ मैजॉरिटी का यह अनुभव देखा। अब इसका कारण क्या?

कारण यह है - जब सेवा में और ब्राह्मण परिवार के सम्पर्क में व सेवा द्वारा जो प्रत्यक्ष फल प्राप्त होता है उसमें चलते-चलते कोई हद की पोज़ीशन में आ जाते हैं, कोई हमशरीक सर्विस-साथियों व सम्पर्क में आने वाले अपने साथियों का ऑपोज़ीशन करने में लग जाते हैं, कोई स्थूल सेलवेशन लेने में लग जाते हैं अर्थात् सेलवेशन के आधार पर सेवा और पुरूषार्थ करते हैं, कोई क्वेश्चन और करेक्शन करने लग जाते हैं और फिर कोई दूसरे की कोटेशन (उदाहरण) देने लग पड़ते हैं अर्थात् दूसरे के दृष्टान्त से अपना सिद्धान्त बनाने लग जाते हैं। इन पाँच में से कोई-न-कोई उल्टा मार्ग अपना लेते हैं। बाप ने कहा कि सदा तपस्वी बनकर के अपने ईश्वरीय ब्राह्मणपन के, सर्वस्व त्यागी के पोज़ीशन में स्थित रहो। लेकिन हद की पोज़ीशन कि - ‘‘मैं सबसे ज्यादा सर्विसएबल हूँ, प्लैनिंग-बुद्धि हूँ, इनवेन्टर हूँ, धन का सहयोगी हूँ, दिन-रात तन लगाने वाला हूँ अर्थात् हार्ड-वर्कर हूँ या इन्चार्ज हूँ।’’ - इस प्रकार के हद के नाम, मान और शान के उन उल्टे पोज़ीशन को पकड़ लेते हैं। अर्थात् यथार्थ मंज़िल से व्यर्थ मार्ग पर तीव्र गति से चल पड़ते हैं।

बाप ने कहा - सैलवेशन आर्मी हो अर्थात् अन्य आत्माओं को सैलवेशन देने प्रति हो लेकिन हद की सैलवेशन कि यह साधन होगा तो सर्विस करेंगे, पहले साधन दो फिर सर्विस करेंगे। साधन भी सेवा-अर्थ नहीं, लेकिन अपने सुख के अर्थ मांगते हैं। अगर यह किया जाए तो बहुत सर्विस कर सकता हूँ, एक्स्ट्रा स्नेह, रिगार्ड दिया जाय, एक्स्ट्रा खातिरी की जाय और विशेष नाम लिया जाय - ऐसे प्रकार के सैलवेशन के आधार पर अपना पुरूषार्थ करने लग पड़ते हैं। इसलिये आधार गलत होने के कारण उन्हें अपनी उन्नति का अनुभव नहीं होता।

इसी प्रकार बाप ने कहा - माया से ऑपोजीशन करना है। लेकिन माया के तो मित्र बन जाते हैं अर्थात् आसुरी संस्कारों रूपी आसुरी सम्प्रदाय के बजाय ईश्वरीय सम्प्रदाय अर्थात् एक-दो में ऑपोज़ीशन करते रहते हैं - ‘‘यह ऐसा करता है तो मैं इससे भी ज्यादा करके दिखाउं, यह सर्विसएबल है तो मैं भी सर्विसएबुल हूँ।’’ यह आगे है तो मैं पीछे क्यों? मैं गुप्त पुरुषार्थी हूँ, मुझे पहचानते नहीं और निमित्त टीचर से तो मैं ज्यादा सर्विसएबुल हूँ। टीचर से भी ऑपोज़ीशन करते हैं। तुम अनुभवी नहीं, मैं तो अनुभवी हूँ, तुम अनपढ़ हो, मैं पढ़ी हुई हूँ। ऐसे एक-दो में ऑपोज़ीशन करने से अपना सदाकाल का श्रेष्ठ पोज़ीशन गँवा देते हैं। आपस में ऑपोज़ीशन के कारण माया से ऑपोज़ीशन करने में कमज़ोर बन जाते हैं अर्थात् विजयी नहीं बन सकते हैं।

इसी प्रकार क्वेश्चन, करेक्शन और कोटेशन देने में तो बड़े होशियार, वकील और जज बन जाते हैं। बाप को करेक्शन देते रहते। अपने आपको छुड़ाने के लिये अर्थात् अपनी गलती को छिपाने के लिये कोटेशन देंगे - ‘‘मेरे से बड़ा महारथी भी ऐसे करता है। इस समस्या पर फलाने को बापदादा ने ऐसा कहा था, इसलिये मैंने भी वह श्रीमत मानी। फलाने डेट की मुरली में यह बात कही गई है, उसी प्रमाण मैं यह कर रहा हूँ।’’ समय और सरकमस्टान्सेज को नहीं देखते लेकिन शब्द पकड़ लेते हैं। इन्हीं भूलों के कारण एक भूल से अनेक भूलें बढ़ती जाती हैं। अलबेलापन के संस्कार बढ़ते जाते हैं। पुरूषार्थ की गति तीव्र से मध्यम हो जाती है।

बाप ने कहा है कि मास्टर त्रिकालदर्शी अर्थात् तीनों कालों को जानने वाले हो। इस धारणा को अपनाने के कारण अपनी करेक्शन के बजाय दूसरों की करेक्शन करते रहेगे। दूसरों की करेक्शन में बाप से कनेक्शन तोड़ देते हैं। इसलिये शक्तिहीन होने के कारण उलझते रहते हैं। सुख-शान्ति व अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति का ठिकाना नज़र नहीं आता। परचिन्तन पतन की तरफ ले जाता है। समझा? इन बातों में आने के कारण जो आदि का नशा और खुशी का अनुभव होता है यह खत्म हो जाता है। इसलिये अपने आप को चेक करो कि इन पाँच में से कोई भी उल्टे व व्यर्थ मार्ग पर चल कर समय बर्बाद तो नहीं कर रहे हैं? चेक करो और फिर अपने को चेन्ज करो तो फिर चढ़ती कला की ओर चल पड़ेंगे। ऐसा मैजॉरिटी आत्माओं का अनुभव बापदादा ने देखा।

अभी मेले का अन्त है। तो अन्त में अन्तिम आहुति डालो अर्थात् सदाकाल के लिये अपने को समर्थ बनाओ। रिजल्ट तो सुनायेंगे ना। तो वर्तमान समय के पुरूषार्थियों का चलते-चलते रूक जाने का समाचार सुनाया। आगे से परिवर्तन- भूमि का परिवर्तन सदा साथ रखना। इसको कहेंगे मेला मनाना अर्थात् स्वयं को सम्पन्न बनाना। अच्छा!

ऐसे सेकेण्ड में स्वयं को दृढ़ संकल्प से परिवर्तन करने वाले, अपनी वृत्ति द्वारा वायुमण्डल को सतोप्रधान बनाने वाले और नज़र से निहाल करने वाले ऐसे बाप के सदा साथी, सहयोगी और शक्तिशाली आत्माओं को बापदादा का याद- प्यार और नमस्ते।

इस मुरली की विशेष बातें

1. अपने रूप, रंग और खुशबू को देखना है। रूप अर्थात् चेहरे में ब्राह्मणपन व फरिश्तेपन की झलक, रंग अर्थात् निरन्तर बाप के संग का रंग और खुशबू अर्थात् रूहानियत कहाँ तक आयी है?



28-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सौ ब्राह्मणों से उत्तम कन्या बनने के लिये धारणायें

कुमारियों के साथ उच्चारे हुए अव्यक्त बापदादा के अव्यक्ती बोल :-

अभी कुमारियों ने जो बाप से पहला वायदा किया हुआ है कि एक बाप, दूसरा न कोई’ - वह निभाती हैं? इसी वायदे को सदा निभाने वाली कुमारी विश्व-कल्याण के अर्थ निमित्त बनती हैं। कुमारियों का पूजन होता है, पूजन का आधार है सम्पूर्ण पवित्र।तो कुमारियों का महत्व पवित्रता के आधार पर है। अगर कुमारी, कुमारी होते हुए भी पवित्र नहीं तो कुमारी जीवन का महत्व नहीं। तो कुमारीपन की जो विशेषता है, उसको सदा साथ-साथ रखना, उसे छोड़ना नहीं। नहीं तो अपनी विशेषता को छोड़ने से वर्तमान जीवन का अति-इन्द्रिय सुख और भविष्य के राज्य का सुख दोनों से वंचित हो जायेंगी। ब्रह्माकुमारी होते हुए भी, सुनेंगी, बोलेंगी कि - अतीन्द्रिय सुख संगम का वर्सा है लेकिन अनुभव नहीं होगा। जब सदा कुमारी जीवन का महत्व स्मृति में रखेंगी तो सफल टीचर व ब्रह्माकुमारी बन सकेंगी। जब ऐसा लक्ष्य है तो कुमारीपन की विशेषता के लक्षण सदा कायम रहे। चाहे माया कितना भी इस विशेषता को हिलाना चाहे तो भी अंगदके समान कायम रहे।

कुमारी निर्बन्धन तो हैं लेकिन डर रहता है कि कहीं कुमारी होते माया के वश नहीं हो जायें। अगर इस कारण को कुमारी मिटा देवें तो देखने की ट्रॉयल करने की ज़रूरत नहीं। दूसरे - परिवर्तन करने की शक्ति चाहिए। कोई भी आत्मा हो, कैसी भी परिस्थिति हो लेकिन स्वयं को परिवर्तन करने की शक्ति हो, तब ही सफल टीचर और सेवाधारी बन सकेंगी। सम्पूर्ण पवित्रता और परिवर्तन- शक्ति - इन दोनों विशेषताओं से सेवा, स्नेह और सहयोग में विशेष आत्मा बन सकेंगी। नहीं तो ट्रॉयल की लिस्ट में रहेगी। सरेण्डर की लिस्ट में नहीं आ सकेंगी। इन दोनों विशेषताओं को कायम रखने वाली कुमारी स 198 ही गायन-पूजन योग्य होंगी। अल्पकाल का वैराग्य नहीं, लेकिन सदाकाल का वैराग्य। अर्थात् त्याग और तपस्या’ - तब कहेंगे विशेष कुमारी। अभी तो निमित्त को ध्यान रखना पड़ता है। क्योंकि अभी तक विशेषता दिखाई नहीं है। इसलिये सेवा रोकनी पड़ती है। कोई शिकायत किसी द्वारा न सुनी जाये, तब ही कम्पलीट टीचर अथवा सौ ब्राह्मणों से उत्तम कन्या बन सकती हैं। अच्छा!

महावाक्यों का सार

1. मेरा तो एक बाप दूसरा न कोई’ - इस वायदे को सदा निभाने वाली कुमारी विश्व-कल्याण के अर्थ निमित्त बनती हैं।

2. अगर कुमारी, कुमारी होते हुए भी पवित्र नहीं तो कुमारी जीवन का महत्व नहीं।

3. सम्पूर्ण पवित्रता और परिवर्तन-शक्ति से सेवा, स्नेह और सहयोग में विशेष आत्मा बन सकते हैं।

4. सदाकाल का वैराग्य, त्याग और तपस्या हो, तब कहेंगे विशेष कुमारी।



28-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मास्टर जानी-जाननहार की स्टेज से सर्वशक्तिवान् की प्रत्यक्षता

दीदी जी के साथ अव्यक्त बापदादा के उच्चारे हुए मधुर महावाक्य:-

किस विशेष कमज़ोरी को मिटाने के लिये विशेष संगठन चाहिये। महाकाली स्वरूप शक्तियों का संगठन चाहिये जो अपने योग-अग्नि के प्रभाव से इस वातावरण को परिवर्तन करे। अभी तो ड्रामा अनुसार हर एक चलन रूपी दर्पण में अन्तिम रिजल्ट स्पष्ट होने वाली है। आगे चल कर महारथी बच्चे अपने नॉलेज की शक्ति द्वारा हर एक के चेहरे से उन्हों की कर्म-कहानी को स्पष्ट देख सकेंगे। जैसे मलेच्छ भोजन की बदबू समझ में आ जाती है, वैसे मलेच्छ संकल्प रूपी आहार स्वीकार करने वाली आत्माओं की वायब्रेशन से बुद्धि में स्पष्ट टचिंग होगी। इसका यन्त्र है बुद्धि की लाइन क्लियर। जिसका यह यन्त्र पॉवरफुल होगा वह सहज जान सकेंगे।

शक्तियों व देवताओं के जड़ चित्रों में भी यह विशेषता है, जो कोई भी पाप-आत्मा अपना पाप उन्हों के आगे जाकर छिपा नहीं सकती। आपेही यह वर्णन करते रहते हैं कि हम ऐसे हैं! यह स्वत: ही वर्णन करते रहते। तो जड़ यादगार में भी अब अन्तकाल तक यह विशेषता दिखाई देती है। चैतन्य रूप में शक्तियों की यह विशेषता प्रसिद्ध हुई है, तब तो यादगार में भी है। यह है मास्टर जानीजाननहार की स्टेज, अर्थात् नॉलेजफुल की स्टेज। यह स्टेज भी प्रैक्टिकल में अनुभव होगी, होती जा रही है और होगी भी। ऐसा संगठन बनाया है? बनना तो है ही। ऐसे शमा-स्वरूप संगठन चाहिए, जिन्हों के हर कदम से बाप की प्रत्यक्षता हो।

जो सदा बाप में लवलीन अर्थात् याद में समाये हुए हैं, ऐसी आत्माओं के नैनों में और मुख में अर्थात् मुख के हर बोल में बाप समाया हुआ होने के कारण 200 शक्ति-स्वरूप के बजाय सर्वशक्तिवान् नजर आयेगा। जैसे आदि स्थापना में ब्रह्मा रूप में सदैव श्रीकृष्ण दिखाई देता था, ऐसे शक्तियों द्वारा सर्वशक्तिवान् दिखाई दे। ऐसे अनुभव हो रहा है ना, जो सदा बाप की याद में होंगे और मैंपन की त्याग-वृत्ति में होंगे, उन्हों से ही बाप दिखाई देगा। जैसे स्वयं मैं-पन भूले हुए हैं, वैसे दूसरों को भी उन्हों का वह रूप दिखाई नहीं देगा, लेकिन सर्वशक्तिवान का रूप दिखाई देगा। अच्छा!

इस मुरली का सार

1. बुद्धि की लाइन क्लियर होने से और अपनी नॉलेज की शक्ति के द्वारा हर एक चेहरे से उन्हों की कर्म-कहानी को जान सकते हैं।

2. जो सदा बाप की याद में होंगे, मैं-पन के त्याग-वृत्ति में होंगे उन्हों से ही सर्वशक्तिवान् बाप दिखाई



31-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महारथी की सर्व विशेषताओं को इस वर्ष धारण करो

मीटिंग में आये हुए सभी जोन्स के महारथी भाई-बहनों के साथ अव्यक्त बापदादा ने यह मधुर महावाक्य उच्चारे:-

प्लानिंग-बुद्धि पार्टी है, साथ-साथ सफलतामूर्त्त भी हैं। प्लैनिंग-बुद्धि के बाद सफलता-मूर्त्त बनने में जो टाइम देते हो, मेहनत करते हो वह रिजल्ट निकालने के लिए। महारथियों की सफलता विशेष एक बात में है, वह एक बात कौनसी है? महारथी की विशेषता क्या होती है? जिस विशेषता से महारथी बना जाय, वह क्या है? महारथियों की विशेषता यह है जो सर्व की सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट लेवें। तब कहेंगे महारथी। सन्तुष्टता ही श्रेष्ठता व महानता है। प्रजा भी इस आधार से बनेगी। सन्तुष्ट हुई आत्मायें उनको राजा मानेंगी। कोई-न-कोई सेवा सहयोग द्वारा प्राप्त कराई हो - स्नेह की, सहयोग की, हिम्मत-उल्लास की और शक्ति दिलाने की प्राप्ति कराई हो तो महारथी और अगर सन्तुष्टता न कराई है तो नाम के महारथी हैं, वे काम के नहीं। बड़े भाई-बहन तो माता-पिता समान होते हैं। माता-पिता सबको सन्तुष्ट करते हैं। तो महारथी को यह अटेन्शन पहले देना है। इसके लिए स्वयं को परिवर्तन करना पड़े। परन्तु यह सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट ज़रूर लेना है। यह चेकिंग करो कि - ‘‘कितनी आत्मायें मेरे से सन्तुष्ट हैं? मुझे क्या करना है जो मेरे से सब सन्तुष्ट रहें?’’

महारथी में स्वयं को मोल्ड करने की शक्ति होनी चाहिए। मोल्ड करने वाला ही गोल्ड होता है। जो मोल्ड नहीं कर सकते वो रीयल गोल्ड नहीं हैं, मिक्स हैं। मिक्स होना अर्थात् घोड़ेसवार। महारथी मोल्ड होता है। प्लैन बनाना अर्थात् बीज बोना। तो बीज पॉवरफुल होना चाहिए। सर्व के सन्तुष्टता की और स्नेह की दुआयें, आशीर्वाद और स्नेह का पानी ज़रूर चाहिये। नहीं तो प्लैनिंग रूपी बीज तो पॉवरफुल होता है, लेकिन स्नेह और सहयोग रूपी पानी न मिलने से पेड़ नहीं निकलता है। कभी पेड़ निकल आता है तो फल नहीं लगता, अगर फल लगता भी है तो सेकेण्ड या थर्ड किस्म का। इसका कारण पानी का नहीं मिलना है। महारथी - जिसमें सर्व-सिफ्तें हों अर्थात् सर्व गुण सम्पन्न, सर्व कलायें और सर्व विशेषतायें हों - अगर एक-दो कला कम हैं तो सर्व कला सम्पूर्ण नहीं। सर्व गुण नहीं तो महारथी के टाइटिल से निकल जाते हैं। ये ग्रुप  महारथियों का है। निमन्त्रण महारथियों को मिला है।

सफलता-मूर्त्त बनने के लिये मुख्य दो ही विशेषतायें चाहियें - एक प्योरिटी, दूसरी यूनिटी। अगर प्योरिटी की भी कमी है तो यूनिटी में भी कमी है। प्योरिटी सिर्फ ब्रह्मचर्य व्रत को नहीं कहा जाता, संकल्प, स्वभाव, संस्कार में भी प्योरिटी। मानों एक-दूसरे के प्रति ईर्ष्या या घृणा का संकल्प है; तो प्योरिटी नहीं, इमप्योरिटी कहेंगे। प्योरिटी की परिभाषा में सर्व विकारों का अंश-मात्र तक न होना है। संकल्प में भी किसी प्रकार की इमप्योरिटी न हो। आप बच्चे निमित्त बने हुए हो बहुत ऊंचे कार्य को सम्पन्न करने के लिये। निमित्त तो महारथी रूप से बने हुए हो ना। अगर लिस्ट निकालते हैं तो लिस्ट में भी तो सर्विसएबल तथा सर्विस के निमित्त बने ब्रह्मा-वत्स ही महारथी की लिस्ट में गिने हुए हैं। महारथी की विशेषता कहाँ तक आयी हुई है - सो तो हर-एक स्वयं जाने। महारथी जो लिस्ट में गिना जाता है वो आगे चल कर महारथी होगा अथवा वर्तमान की लिस्ट में महारथी है। तो इन दोनों बातों के ऊपर अटेन्शन चाहिए।

यूनिटी अर्थात् संस्कार-स्वभाव के मिलन की यूनिटी। कोई का संस्कार और स्वभाव न भी मिले तो भी कोशिश करके मिलाओ। यह है यूनिटी। सिर्फ संगठन को यूनिटी नहीं कहेंगे। सर्विसएबल निमित्त बनी आत्मायें इन दो बातों के सिवाय बेहद की सर्विस के निमित्त नहीं बन सकती हैं, हद के हो सकते हैं। बेहद की सर्विस के लिये ये दोनों बातें चाहियें। सुनाया था ना - रास में ताल मिलाने पर ही होती है - वाह! वाह! तो यहाँ भी ताल मिलाना अर्थात् रास मिलाना है। इतनी आत्मायें जो नॉलेज वर्णन करती हैं तो सबके मुख से यह निकलता है - ये एक ही बात कहते हैं, इन सब का एक ही टॉपिक, एक ही शब्द है यह सब कहते हैं ना। इसी प्रकार सबके स्वभाव और संस्कार एक-दो में मिलें, तब कहेंगे रास मिलाना। इसका प्लैन  बनाया है? (प्लैन सुनाये गये)।

ऐम तो रखी है स्थापना के कार्य को प्रख्यात करने की। प्रख्यात करने का जो प्लैन बनाया है वह अच्छा है। प्रख्यात करने के लिये प्लैन तो दूसरे वर्ष का बनाया है, लेकिन इस वर्ष का जो कुछ समय अभी रहा हुआ है, इस समय ही हर एक स्थान पर वर्तमान वातावरण के अनुसार सम्पर्क में आने वाले व्यक्ति ज़रूर चाहिएँ। दूसरे वर्ष की सर्विस की सफलता इस वर्ष के आधार पर होगी। कोई भी प्रोपेगण्डा में ऐसी सहयोगी आत्माओं का सहयोग चाहिये, जिससे एक तो कम खर्च बाला नशीनद्वारा मेहनत कम सफलता अधिक होती है। समय प्रमाण आप उन्हों की सेवा करेंगे तो सहयोग नहीं मिल सकेगा। लेकिन समय के पहले सेवा कर सहयोग लेने का प्रभाव पड़ता है। प्लैन्स तो सब ठीक-ठाक हैं, सर्व प्लैन्स जो सुनाये। तो हर डिपार्टमेन्ट के व्यक्ति ज़रूर सम्पर्क में आने चाहियें। जैसे एज्युकेशन के व्यक्ति सम्पर्क में आने से बनी-बनाई स्टेज मिलेगी। कोई भी प्लैन की विहंग मार्ग की सर्विस के लिए यह ज़रूरी है। गीता की प्वॉइन्टस से या तो हाहाकार होगा या जयजयकार होगी। लेकिन पहले हलचल होती है पीछे जयजयकार होती है। ऐसी प्वॉइन्टस को क्लियर करने के लिए सबका सहयोग चाहिये। मिनिस्टर, वकील और जज सब चाहियें। जैसे यहाँ भी सब आ रहे हैं। डॉक्टर, वकील आदि। तो इसके लिये भी सबका सम्पर्क ज़रूर चाहिये – मिनिस्ट्री एसोसियेशन आदि का। अभी सभी सुनने की इच्छा रखते हैं लेकिन उनमें चलने की हिम्मत नहीं है। सहयोगी बन सकते हैं। पहले उनकी सेवा से धरनी तैयार कर पीछे विशाल कार्य का बीज डालो।

प्लैन अच्छे हैं। इस वर्ष में कोई नई बात ज़रूर होनी है। सन् 76 में जिसका प्लैन बनाया है। लेकिन निमित्त बनना पड़ता है। परन्तु होना तो ड्रामानुसार है लेकिन जो निमित्त बनता है, उसका सारे ब्राह्मण कुल में नाम बाला होता है। यह भी प्राइज है। हर-एक अपने-अपने जोन की तरफ मीटिंग का रिजल्ट निकालो। प्लैन सेट कर फिर रिजल्ट की मीटिंग करो। प्लैन में सब हाँ-हाँ करते हैं। रिजल्ट में सिर्फ पाँच निकलते हैं। तो रिजल्ट की भी मीटिंग रखो। उत्साह बढ़ाने का भी लक्ष्य रखो। सबको बिजी रखो, ताकि उनको भी खुशी हो कि हमने भी अंगुली दी। चाहे हार्ड-वर्कर हो, चाहे प्लैनिंग बुद्धि हो -- छोटों को भी आगे बढ़ाना है। नहीं तो एक उमंग और उत्साह में सर्विस करते हैं और दूसरों का वायब्रेशन, सफलता में विघ्न डालता है। तो सबकी मदद चाहिए। हर-एक को कोई-न-कोई ड्यूटी बाँटों ज़रूर। जैसे प्रसाद सबको देते हैं। तो यह सेवा का प्रसाद भी सबको बाँटो। सबके उत्साह का वायुमण्डल रहेगा तो वायुमण्डल के प्रभाव से कोई भी बाहर नहीं निकलेगा। चाहे चक्कर लगाने वाला हो और चाहे फिदा होने वाला हो। तो इस वर्ष में यह विशेषता हो। जैसे सब कहते हैं कि मेरा बाबा। वैसे कहे कि मेरी सेवा, मेरा प्रोग्राम बना हुआ है। ऐसे नहीं कहे कि बड़ों ने बनाया है, चलेगा व नहीं? नहीं, मेरा प्रोग्राम है। ऐसा सबका आवाज हो, तब सफलता निकलेगी। सबको सर्विस का चांस दो। अच्छा!

इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु

1. महारथियों की विशेषता यह है कि जो सर्व की सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट लेवें।

2. सन्तुष्टता ही श्रेष्ठता व महानता है।

3. महारथी में स्वयं को मोल्ड करने की शक्ति होनी चाहिये। जो मोल्ड होते हैं वे ही रीयल गोल्ड हो सकते हैं।

4. सफलता-मूर्त्त बनने के लिए मुख्य दो विशेषताओं की धारणा चाहिए- एक प्योरिटी और दूसरी यूनिटी।

5. प्योरिटी अर्थात् सर्व विकारों के अंश मात्र का जीवन में न होना और यूनिटी अर्थात् संस्कार, स्वभाव के मिलन की यूनिटी होगी।



06-12-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अलौकिक शमा पर रूहानी पतंगे बन स्वाहा हो

विश्व के शो-केस में अमूल्य रत्न के रूप में प्रसिद्धि दिलाने वाले, मास्टर त्रिकालदर्शी की स्टेज पर स्थित कराने वाले, सर्व-गुणों के मास्टर सागर स्वरूप बनाने वाले, रूहानियत की लाली से तस्वीर को चित्ताकर्षक बनाने वाले रूहानी पिता शिव बोले :-

अपने को सारी दुनिया के बीच चमकता हुआ विशेष लक्की सितारा अनुभव करते हो? ऐसे लक्की जिन्हों का स्वयं बाप गायन करते हैं! इससे श्रेष्ठ भाग्य और किसी का हो सकता है? सदा ऐसी खुशी रहती है, जो अपनी खुशी को देखते हुए देखने वालों के गम के बादल व दु:ख की घटायें समाप्त हो जायें, दु:ख को भूल सुख के झूले में झूलने लग जायें! ऐसे अपने को अनुभव करते हो? जैसे गायन है - पारस के संग में लोहा भी पारस बन जाता है; ऐसे आप पारसमणियों के संग से अन्य आइरन-एजड आत्मायें गोल्डन बन जायें, ऐसी अवस्था अनुभव करते हो? कोई भी आत्मा भिखारी बन कर आये और वह मालामाल हो कर जाये, ऐसे अपने तकदीर की तस्वीर रोज अपने दर्पण में देखते हो? किस समय देखते हो? क्या अमृतवेले? देखने का टाइम निश्चित है अथवा चलते-फिरते जब आता है तब देखते रहते हो? सारे दिन में कितनी बार देखते हो? बार-बार देखते हो या एक ही बार? आजकल का फैशन है कि बार-बार अपना चेहरा देखते हैं। वह देखते हैं अपने फीचर्स  और आप देखते हो अपना फ्यूचर आपका फीचर्स तरफ अटेन्शन नहीं है लेकिन हर समय अपने फ्यूचर को श्रेष्ठ बनाने का ही अटेन्शन है। तो अपने तकदीर की तस्वीर देखते हो कि हमारी तस्वीर में कहाँ तक रूहानियत बढ़ती जा रही है? जैसे वे लोग लौकिक दृष्टि से रूप में व शक्ल में अपनी लाली को देखते हैं कि कहाँ तक लालहुए हैं; और आप सब अलौकिक तस्वीर देखते हुए रूहानियतरूपी लाली को देखते हो।

आज तो विशेष दूर देशी व डबल विदेशी अर्थात् त्रिकालदर्शी बच्चों से विशेष मिलने आये हैं। यह भी विशेष लक्क हुआ ना। ऐसा लक्की अपने को समझते हो? पद्मा-पद्म भाग्यशाली अपने को समझते हो या सौभाग्यशाली या पद्मा-पद्म शब्द भी कुछ नहीं है? अपने को क्या समझते हो? कहो पद्म तो हमारे कदमों में समाये हुए हैं। जिनके कदमों में अनेक पद्म भरे हुए हों वह स्वयं क्या हुआ? जैसे कोई भी विशेषता सुनाते हैं वा अपनी श्रेष्ठता वर्णन करते हैं तो कहते हैं ना वह तो हमारे पाँव के नीचे हैं, यह हमारे आगे क्या हैं? ऐसे ही पद्म तो आपके पॉव के नीचे हैं। ऐसे श्रेष्ठ लक्की हो? सिर्फ अपने भाग्य का ही सुमिरण करो तो क्या बन जायेंगे? भाग्य का सुमिरण करते-करते बाप से भी सर्व-श्रेष्ठ और बाप के भी सिर के ताज बन जायेंगे। अपनी सर्वश्रेष्ठ स्थिति का यादगार चित्र देखा है? आपके सर्वश्रेष्ठ भाग्य की निशानी का यादगार चित्र कौन-सा है कि जिससे सर्व से ऊंचे प्रसिद्ध होते हो? विराट् स्वरूप में ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठ यादगार में चोटी दिखाई है। चोटी से ऊंचा कुछ होता है क्या? शक्ति सेना भी ऐसे अपने को लक्की समझती है? यह (मीरा लण्डन की) सबसे अधिक अपने को लक्की समझती है, क्योंकि इसकी अपनी हम-जिन्स में तो यह एक ही विशेष रत्न है ना अभी।

बाप भी आज विशेष बच्चों का विशेष भाग्य देख हर्षित हो रहे हैं। कैसे कोने-कोने से विदेश के कोनों से भी निकलकर के अपने घर में पहुँच गये हैं। बाप भी घर में आये हुए बच्चों को, जो आधा कल्प की आशा लगाते हुए अब यहाँ तक पहुँच गये हैं, तो बच्चों को अपने ठिकाने पर आया देख कर व सर्व आशायें पूरी होती हुई देख कर बाप भी हर्षित होते हैं। विदेशी ग्रुप की विशेषता क्या है? विदेशियों को देख कर बाप भी विदेशियों की विशेषता देखते हुए विशेष हर्षित होते हैं। क्योंकि भले मैजॉरिटी  भारतवासियों की है लेकिन अब विदेशी कहलवाये वा कहे जाते हैं। तो मैजॉरिटी में जो पहली क्वॉलिटी है, आने से ही पतंगे मिसल शमा पर जल कर मर जाना उसमें फिर सोचना नहीं। सुना, अनुभव किया और चल पड़े। तो विदेशियों में यह क्वॉलिटी भारतवासियों से विशेष है। भारतवासी पहले क्वेश्चन करेंगे, फिर सोचेंगे, फिर बाद में स्वाहा होंगे। विदेश से जो निकली हुई आत्मायें हैं उनकी शमा पर पतंगे के समान स्वाहा होने की विशेषता है। समझा? जैसे कोई दूर बैठे बहुत तड़पन में हो और ऐसी तड़पती हुई आत्मा को ठिकाना मिल जाये तो ऐसी तड़पती हुई आत्माएँ मैजॉरिटी रूप से विदेशी ग्रुप में दिखाई देती हैं। समझा? अपनी विशेषता को। पतंगा होने के कारण ऑटोमेटिकली उन्हों का पुरूषार्थ यादऔर सेवाके सिवाय और कुछ रहता नहीं। इसलिये फास्ट जाते हैं।

आप लोग कब, क्यों और क्या का क्वेश्चन करते हो? माया के वार से हार खाने वाले हो या सदा विजयी हो? माया को हार खिलाने वाले हो, न कि खाने वाले। तो विदेशियों को बाप की विशेष लिफ्ट भी है जिस लिफ्ट के गिफ्ट के कारण फास्ट जा रहे हैं। इस विशेषता को सदा कायम रखना। क्यों और क्याके क्वेश्चन के बजाय सदा मास्टर त्रिकालदर्शी स्टेज पर स्थित होते और हर कार्य व संकल्प को उसी प्रमाण स्वरूप में लाओ। जब त्रिकालदर्शी हो तो फिर क्यों और क्या का क्वेश्चन समाप्त हो जायेगा ना? तो सदा मास्टर त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित रहो, सदा अपने को एक बाप की याद में समाया हुआ बाप-समान समझते हुए चलो। जैसे तत्वयोगी सदा यही लक्ष्य रखते हैं कि तत्व में समा जायें व लीन हो जायें - लेकिन यह कब अनुभव नहीं करते हैं। इस समय नॉलेज के आधार पर तुम समझते हो कि बाप की याद में समा जाना व लवलीन हो जाना, अपने आप को भूल जाना इसी को ही वह एक हो जाना कहते हैं। जब लव में लीन हो जाते हो अर्थात् लगन में मग्न हो जाते हो तो बाप के समान बन जाते हो, इसी को उन्हों को समा जाना कह दिया है। तो ऐसा अनुभव करते हो? आत्मा बाप के लव में अपने को बिल्कुल खोई हुई अनुभव करे, क्या ऐसा अनुभव होता है? जैसे कोई सागर में समा जाय तो उस समय का उसका अनुभव क्या होगा? सिवाय सागर के और कुछ नजर नहीं आयेगा। तो बाप अर्थात् सर्वगुणों के सागर में समा जाना। इसको कहा जाता है लवलीन हो जाना अर्थात् बाप के स्नेह में समा जाना। बाप में नहीं समाना है, लेकिन बाप की याद में समा जाना है। क्या ऐसा अनुभव होता है ना?

विदेश पार्टी को देख बापदादा उन्हों के भविष्य को देख रहे हैं। विदेश पार्टी का भविष्य क्या है? सतयुग का नहीं, सतयुग का भविष्य तो राजा-रानी है लेकिन संगम का भविष्य क्या है? (बाप को प्रत्यक्ष करने का) लेकिन वह कब करेंगे? उनकी डेट क्या है? जब तक डेट फिक्स नहीं करेंगे तब तक पॉवरफुल प्लैन नहीं बनेगा। विदेशियों द्वारा ही भारत के कुम्भकरण जागने हैं। अगर आप लोग भी सोचेंगे कि कर लेंगे तो वह भी कहेंगे - हाँ, जाग जायेंगे।इसलिये जगाने वालों को फुलफोर्स से अपना पॉवरफुल प्लैन बनाना पड़े। इस वर्ष यह-यह करना ही है तब वह भी सोचेंगे कि इस वर्ष के अन्दर जगना ही है। अभी जगाने वालों का भी समय निश्चित नहीं है। इसलिये जागने वालों के पास भी समय निश्चित नहीं है। जैसे जगाने वाले सोचते हैं - करना तो है, ऐसे वह भी सोचते हैं, जागना तो है अन्त में जाग जायेंगे। इसलिये विदेशियों का भविष्य क्या रहा? भारत के नामी-ग्रामियों को जगाना है। यह है विदेशियों का भविष्य। साधारण कुम्भकरण नहीं लेकिन नामी-ग्रामी कुम्भकरणों को जगाना है। जिस एक के जगाने से अनेक जग जायें उसको कहते हैं नामी-ग्रामी। धरणी अथवा स्टेज तो तैयार होती जा रही है। अब सिर्फ पार्टधारियों को पार्ट बजाना है लेकिन पार्ट भी हीरो पार्ट, साधारण पार्ट से नहीं होगा। हीरो पार्ट बजाने से कुम्भकरण भी जाग कर हिअर-हिअरकरेंगे। अच्छा!

ऐसे तकदीर जगाने के निमित्त बने हुए जागती ज्योति, सदा स्वयं के और समय के मूल्य को जानने वाले, ऐसे अमूल्य रत्न, विश्व के शोकेस में विशेष प्रसिद्ध होने वाले सर्व-सिद्धि स्वरूप, हर संकल्प को स्वरूप में लाने वाले बाप-समान सर्व गुणों को सेवा और स्वरूप में लाने वाले, ऐसी विशेष आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

ग्रुप्स से मुलाकात

समय की समीपता की निशानी है कि हर कदम में सदा सफलता समाई हो। सफलता होगी अथवा नहीं यह स्वप्न में भी संकल्प नहीं आयेगा। हर कार्य करने के पीछे निश्चित रूप से सफलता दिखाई देगी। करें अथवा नहीं करें और होगा या नहीं, यह संकल्प भी नहीं उठेगा। जो होना ही है वही ऑटोमेटिकली होता रहेगा। सफलता ब्राह्मणों के रास्ते में फूलों के समान आजान करती है। जैसे कोई भी बड़ा आदमी आता है तो उसके रास्ते में फूल को बिछा देते हैं और उससे उन्हों का स्वागत करते हैं। तो जैसे विशेष आत्मा होते जाते हैं वैसे सफलता फूलों के सदृश्य आजान करती है। आह्वान करती है कि सफलता-मूर्त्त मुझे अपनावें। स्वयं को आह्वान नहीं करना पड़ता सफलता का। लेकिन सफलता-मूर्त्त का सफलता आह्वान करती है। यह फर्क पड़ जाता है। अच्छा!

महावाक्यों की विशेष बातें

1. सदा ऐसी खुशी में रहो कि आपकी खुशी को देखते हुए देखने वालों के गम के बादल व दु:ख की घटायें समाप्त हो जायें और वे सुख के झूले में झूलने लग जाएं।

2. अपनी अलौकिक तस्वीर को देखते हुए रूहानियत रूपी लाली सदा देखते रहो कि कहाँ तक चेहरे में रूहानी लाली बढ़ी है?

3. विराट रूप में ब्राह्मणों की यादगार चोटी दिखाई गई है जो कि आपके सर्वश्रेष्ठ भाग्य की निशानी यादगार चित्र है।

4. विदेश से जो निकली हुई आत्मायें हैं उनकी शमा पर पतंगे के समान स्वाहा होने की विशेष विशेषता है।

5. सदा मास्टर त्रिकालदर्शी की स्थिति में रहने से सारे क्वेश्चन समाप्त हो जायेंगे।

6. सदा अपने को एक बाप की याद में समाया हुआ बाप-समान समझते हुए चलो। बाप में नहीं समाना है लेकिन बाप की याद में समा जाना है।



08-12-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शक्तियों की सिद्धि से महारथी की परख

सर्व शक्तियों और सिद्धियों का वरदान देने वाले सर्वशक्तिमान् शिव बाबा बोले:-

हर एक के मस्तक द्वारा मस्तक-मणि को देखते हुए क्या तकदीर की लकीर को पहचान सकती हो? मस्तक बीच चमकती हुई मणि अर्थात् श्रेष्ठ आत्मा के वायब्रेशन द्वारा सहज पहचान हो जाती है। हर एक आत्मा के पुरूषार्थ व प्राप्ति का अनुभव वायब्रेशन द्वारा सहज ही समझ में आ सकता है। जैसे कोई खुशबू की चीज़ फौरन ही वातावरण में फैल जाती है और सहज ही परख में आ जाती है कि यह अच्छी है अथवा नहीं है। इसी प्रकार जितना-जितना परखने की शक्ति बढ़ती जाएगी तो कोई भी आत्मा सामने आयेगी तो वह कहाँ तक रूहानियत की अनुभवी है वह फौरन ही उसके वायब्रेशन द्वारा स्पष्ट समझ में आ जायेगा। परसेन्टेज की परख भी सहज आ जायेगी कि कितने परसेन्टेज में रूहानी स्थिति में स्थित रहने वाला है। जैसे साइन्स के यन्त्रों द्वारा परसेन्टेज का मालूम पड़ जाता है। ऐसे ही साइलेन्स की शक्ति के द्वारा अर्थात् आत्मा की स्थिति द्वारा यह भी समझ में आ जायेगा। इसको कहा जाता है परखने की शक्ति। संस्कारों द्वारा, वाणी द्वारा और चलन द्वारा परखना यह तो कॉमन बात है लेकिन संकल्पों के वायब्रेशन द्वारा परखना - इसको कहा जाता है परखने की शक्ति समझा? महारथियों के परखने की शक्ति यह है।

यह शक्ति इतनी तब बढ़ेगी जो भले कोई सामने न भी हो-लेकिन आने वाला हो अथवा दूर भी हो, लेकिन दूर होते हुए भी परखने की शक्ति के आधार से ऐसे उनको परख सके जैसे कि कोई सामने वाले को परखा जाता है। इसी को ही दूसरे शब्दों में शक्तियों की सिद्धिकहा गया है यह सिद्धि प्राप्त होगी। जैसे आत्म-ज्ञानियों को भी यह सिद्धि होती है कि जबान से कोई बोल न भी बोले लेकिन वह क्या बोलना चाहते हैं वह समझ जाते हैं, क्या करने वाला है उनको पहले परख लेते हैं। तो यहाँ भी यह परखने की शक्ति सिद्धि के रूप में प्राप्त होगी। लेकिन सिर्फ इन शक्तियों को यथार्थ रीति से कार्य में लाना है -- न व्यर्थ गँवायें, न व्यर्थ कार्य में लगायें। फिर यह सिद्धि व शक्ति बहुत कल्याण के निमित्त बनती है। यह भी आयेगी। जिसको देखते हुए सबके मुख से शक्तियों की महिमा जो भक्ति में निकली है - आप यह हो, यह हो! यह सब महिमा पहले प्रत्यक्ष रूप में होगी। जो फिर यादगार में चलती आयेगी। यह भी स्टेज होनी है लेकिन थोड़े समय के लिए और थोड़ों की। इसलिए कहते हैं कि जो अन्त तक होंगे उनको यह सब नज़ारे देखने और अनुभव होने के प्राप्त होंगे। अन्त तक अंगुली देने लिये पार्ट भी ऐसे शक्तियों के होंगे ना? शक्ति व पाण्डव। लेकिन शक्ति स्वरूप के होंगे, कमज़ोरों के नहीं। बिल्कुल साथ-साथ होगा। एक तरफ हाहाकार और दूसरी तरफ जयजयकार। वह भी अति में और यह भी अति में होगा। अच्छा!

इस मुरली के विशेष तथ्य

1. महारथियों के परखने की शक्ति यह है कि वे संकल्पों के वायब्रेशन द्वारा किसी भी आत्मा को परख सकते हैं कि वह कितने परसेन्टेज में रूहानी स्थिति में रहने वाली है।

2. शक्तियों व सिद्धियों को यथार्थ रीति से कार्य में लाना है, न व्यर्थ गँवाना है न व्यर्थ कार्यो में लगाना है। तब यह सिद्धि व शक्ति बहुत कल्याण के निमित्त बनती है।



08-12-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बच्चों की विभिन्न स्टेजिस्

सदा विजयी स्वरूप बनाने वाले, सर्व वरदानों के अधिकारी और विश्व द्वारा सदा सत्कारी बनाने वाले, विश्व-कल्याणकारी पिता बोले:-

अशरीरी भव – यह वरदान प्राप्त कर लिया है? जिस समय संकल्प करो कि मैं अशरीरी हूँ’, उसी सेकेण्ड स्वरूप बन जाओ। ऐसा अभ्यास सहज हो गया है? सहज अनुभव होना - यही सम्पूर्णता की निशानी है। कभी सहज, कभी मुश्किल, कभी सेकेण्ड में, कभी मिनट में या और भी ज्यादा समय में अशरीरी स्वरूप का अनुभव होना अर्थात् सम्पूर्ण स्टेज से अभी दूर है। सदा सहज अनुभव होना - यही सम्पूर्णता की परख है।

अभी-अभी बापदादा विदेश और अपने भारत देश के सर्व बच्चों की देखरेख करने चक्कर पर निकले। चक्कर लगाते विशेष बात क्या देखी? तीन प्रकार के बच्चों को देखा।

1. ज्ञान-रत्नों और याद की शक्ति के द्वारा सर्व शक्तियों को स्वयं में सम्पन्न करने वाले, निरन्तर चैतन्य चात्रक जो हर सेकेण्ड लेने वाले अर्थात् धारण करने वाले जिन्हें सिवाय प्राप्ति के या स्वयं को सम्पन्न बनाने के और कोई लगाव नहीं। रात है अथवा दिन है, लगन एकरस है -- ऐसे चैतन्य चात्रक विदेश में और भारत में दोनों ही स्थानों पर देखे।

2. सर्विस की लगन में मगन - दिन-रात सर्विस के प्लैन्स बनाने में व्यस्त। सर्विस के फल-स्वरूप स्वयं में खुशी का अनुभव करने वाले। लेकिन सर्वशक्तियों का, हर संकल्प में मायाजीत बनने की शक्ति का वा अशरीरी भवके वरदान की प्राप्ति का अनुभव करने में सदा एक-रस स्थिति नहीं। खुशी का अनुभव विशेष, लेकिन शक्ति का अनुभव कम करने वाले नॉलेजफुल का अनुभव ज्यादा और पॉवरफुल का अनुभव कम करने वाले, ज्ञान का सुमिरण ज्यादा, समर्थी-स्वरूप कम - ऐसे बच्चे भी देखे।

3. दिन-रात मंज़िल को सामने रखते हुए, सम्पूर्ण बनने की शुभ आशा रखते हुए, सदा पुरूषार्थ में व्यस्त, पुरूषार्थ में समय ज्यादा और प्राप्ति के समय कम अनुभव करने वाले, किसी-न-किसी समस्या का सामना करने में ही ज्यादा समय लगाने वाले, मुश्किल को सहज बनाने में लगने वाले - ऐसे बच्चे बहुत समय युद्धस्थल में ही स्वयं को अनुभव करने वाले हैं, अति-इन्द्रिय सुख के झूले में अर्थात् प्राप्ति के अनुभव में कम समय रहने वाले। ऐसे भी बहुत देखे।

पहले नम्बर के चात्रकों की स्थिति सदा यही रही जो पाना था, वह पा लिया। अब समय भी बाकी थोड़ा रहा है। दूसरे नम्बर वाले जो सर्विसएबल, नॉलेजफुल ज्यादा, पॉवरफुल कम थे उनकी स्थिति यह रहती है कि पा लिया है, मिल रहा है और निश्चय है कि पा ही लेंगे। खुशी के झूले में झूलते हैं लेकिन बीच-बीच में झूले को तेज झुलाने के लिए कोई आधार की आवश्यकता है। वह आधार क्या है? कोई अन्य द्वारा की हुई सर्विस प्रति हिम्मत, उल्लास दिलाने वाला हो अर्थात् बहुत अच्छाऔर बहुत अच्छाकरने वाला हो। नहीं तो खुशी का झूला झूलते-झूलते रूक जाता है। तो रूके हुए को चलाना चाहिए। पहली स्टेज वालों का ऑटोमेटिक झूला है।

तीसरी स्टेज वालों की स्थिति-कभी प्राप्ति व विजय के आधार पर अति हर्षित और कभी बार-बार युद्ध की परिस्थिति में थकावट अनुभव करने वाले। किसी-न-किसी साधन के सहारे पर स्वयं को थोड़े समय के लिए खुश अनुभव करने वाले - कभी खुश, कभी शिकायत। क्या करूँ, कैसे करूँ, कर तो रहा हूँ इतनी मेहनत कर रहा हूँ, मेरी तकदीर ही ऐसी है, ड्रामा में मेरा ऐसा ही पार्ट नूँधा हुआ है और कल्प पहले इतना ही हुआ था ऐसे कभी ऊंचा, कभी नीचा इसी सीढ़ी पर चढ़ते-उतरते रहते हैं। ऐसे तीन प्रकार के बच्चे देखे। समय के प्रमाण वर्तमान स्थिति हर समय सर्व-प्राप्ति के अनुभव की होनी चाहिए। अब यह लास्ट समय युद्ध में नहीं लेकिन सदा विजयीपन के नशे में रहना चाहिए। क्योंकि बाप ने सर्व-शक्तियों का मास्टर बना दिया है, स्वयं से भी श्रेष्ठ प्राप्ति का अधिकारी बना दिया है। ऐसे मास्टर व सर्व अधिकारी दूसरी व तीसरी स्टेज के अनुभव में नहीं लेकिन फर्स्ट स्टेज के अनुभव में रहने चाहिये। विदेशी ग्रुप जो लास्ट इज फास्ट कहलाते हैं। फास्ट इज फर्स्ट कहा जाता है। तो जो भी विदेशी ग्रुप आया है वह सब फर्स्ट स्टेज वाले हो ना? फर्स्ट स्टेज अर्थात् सदा अनुभवी मूर्त्त। हर सेकेण्ड अनुभव में मग्न रहने वाले, ऐसा है ना? कभी और अभी कहने वाला नहीं। कभी यह होता और कभी वह होता - यह नहीं। सदा एक के रस में रहने वाले और एक के द्वारा सर्व अनुभव पाने वाले - उसको कहा जाता फर्स्ट है। बापदादा को भी ऐसे लास्ट सो फास्ट वाले बच्चों पर नाज़ है। हर- एक के मस्तक की तकदीर की लकीर बापदादा तो देखते हैं ना - कि हर एक बच्चे का भविष्य क्या है? भविष्य को देख हर्षित होते है। अभी के आये हुए ग्रुप में भी अच्छे उम्मीदवार बच्चे हैं। जो विश्व के दीपक बन बाप-समान अनेकों को रास्ता बताने के निमित बनेंगे। अभी तो विशेष विदेशियों के अर्थ हैं ना? कुछ यहाँ बैठे हैं सम्मुख और कुछ विदेश में दिन-रात इसी ही याद में रहते। वह क्या अनुभव कर रहे हैं - जैसे रेडियो व टी.वी. में कोई विशेष प्रोग्राम आना होता है तो सब अपना-अपना स्विच ऑन करके रखते हैं। सबका अटेन्शन उस एक तरफ ही होता है। ऐसे ही विदेश में चारों ओर बच्चे अपनी स्मृति का स्विच ऑन करके बैठे हैं। सबका संकल्प यही एक मधुबन की स्मृति का है। दूर होते हुए भी कई बच्चे बाप को इस संगठन में सम्मुख दिखाई देते हैं। अच्छा।

ऐसे साकार रूप में सम्मुख बैठने वाले व आकारी रूप में बुद्धियोग द्वारा सम्मुख बैठे हुए ऐसे सदा विजयी स्वरूप, अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलने वाले, प्राप्ति-स्वरूप, सर्व वरदानों के अधिकारी, विश्व द्वारा सदा सत्कारी और विश्व प्रति सदा कल्याणी, ऐसे विश्व के दीपकों को, बापदादा के दिलतख्तनशीन बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

इस मुरली का सार

1. पहले नम्बर के चात्रकों की स्थिति सदा यही रहती है कि जो पाना था, वह पा लिया। वे सदा झूले में झूलते रहते हैं।

2. समय के प्रमाण, वर्तमान स्थिति हर समय सर्व प्राप्ति के अनुभव की होनी चाहिए। क्योंकि बाप ने तुम्हें सर्व शक्तियों का मास्टर बना दिया है।



09-12-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महावीर अर्थात् विशेष आत्माओं की विशेषताएं

विशेष पुरूषार्थ से विशेष अनुभवी बनाने वाले विशेष आत्माओं के प्रति शिव बाबा बोले:-

महारथी अर्थात् महावीरों का संगठन। महावीर अर्थात् विशेष-आत्मा। ऐसे महावीर, विशेष आत्माओं के संगठन की विशेषता कौन-सी होती है? वर्तमान समय विशेष आत्माओं की विशेषता यह होनी चाहिए जो एक ही समय सबकी एक-रस, एक-टिक स्थिति हो। अर्थात् जितना समय, जिस स्थिति में ठहरना चाहे, उतना समय, उस स्थिति में संगठित रूप में स्थित हों - संगठित रूप में सबके संकल्प रूपी अंगुली एक हो। जब तक संगठन की यह प्रैक्टिस नहीं है, तब तक सिद्धि नहीं होगी। संगठन में ही हलचल है, तो सिद्धि में भी हलचल हो जाती है। सिद्धि की नॉलेज है, लेकिन स्वरूप में नहीं आते। ऑर्डर मिले और रेडी। विशेष निमित्त बनी हुई विशेष आत्माओं को ही प्रैक्टिकल में लाना है ना। अभी ऑर्डर हो कि पाँच मिनट के लिए व्यर्थ संकल्प बिल्कुल समाप्त कर बीजरूप पॉवरफुल स्थिति में एक-रस स्थित हो जाओ - तो ऐसा अभ्यास है? ऐसे नहीं कोई मनन करने की स्थिति में हो, कोई रूह-रूहान कर रहा हो और कोई अव्यक्त स्थिति में हो। ऑर्डर है बीजरूप होने का और कर रहे हैं रूह-रूहान तो ऑर्डर नहीं माना ना। यह अभ्यास तब होगा जब पहले व्यर्थ संकल्पों की समाप्ति करेंगे। हलचल होती ही व्यर्थ संकल्पों की है। तो इन व्यर्थ संकल्पों की समाप्ति के लिए अपने संगठन को शक्तिशाली व एक मत बनाने के लिए कौन-सी शक्ति चाहिए कि जिससे संगठन पॉवरफुल और एक-मत हो जाए और व्यर्थ संकल्प भी समाप्त हो जायें?

इसके लिए एक तो फेथ और समाने की शक्ति चाहिए। संगठन को जोड़ने का धागा है फेथ। किसी ने जो कुछ किया, मानो राँग भी किया, लेकिन संगठन प्रमाण वा अपने संस्कारों प्रमाण व समय प्रमाण उसने जो किया उसका भी ज़रूर कोई भाव-अर्थ होगा। संगठित रूप में जहाँ सर्विस है, वहाँ उसके संस्कारों को भी रहमदिल की दृष्टि से देखते हुए, संस्कारों को सामने न रख इसमें भी कोई कल्याण होगा इसको साथ मिलाकर चलने में ही कल्याण है ऐसा फेथ जब संगठन में एक दूसरे के प्रति हो, तब ही सफलता हो सकती है। पहले से ही व्यर्थ संकल्प नहीं चलाने चाहिएँ। जैसे कोई अपनी गलती को महसूस भी करते हैं लेकिन उसको कभी फैलायेंगे नहीं बल्कि उसे समायेंगे। दूसरा उसको फैलायेगा तो भी बुरा लगेगा। इसी प्रकार दूसरे की गलती को भी अपनी गलती समझ फैलाना नहीं चाहिए। व्यर्थ संकल्प नहीं चलाने चाहियें बल्कि उन्हें भी समा देना चाहिए। इतना एक-दो में फेथ हो! स्नेह की शक्ति से ठीक कर देना चाहिए। जैसे लौकिक रीति भी घर की बात बाहर नहीं करते हैं, नहीं तो इससे घर को ही नुकसान होता है। तो संगठन में साथी ने जो कुछ किया उसमें ज़रूर रहस्य होगा, यदि उसने राँग भी किया हो, तो भी उसको परिवर्तन कर देना चाहिए। यह दोनों प्रकार के फेथ रख कर एक-दूसरे के सम्पर्क में चलने से, संगठन की सफलता हो सकती है। इसमें समाने की शक्ति ज्यादा चाहिए। व्यर्थ संकल्पों को समाना है। बीते हुए संस्कारों को कभी भी वर्तमान समय से टैली न करो अर्थात् पास्ट को प्रेजेन्ट न करो। जब पास्ट को प्रेजेन्ट में मिलाते हैं, इससे ही संकल्पों की क्यू लम्बी हो जाती है और जब तक यह व्यर्थ संकल्पों की क्यू है, तब तक संगठित रूप में एकरस स्थिति हो नहीं सकती।

दूसरे की गलती सो अपनी गलती समझना’ - यह है संगठन को मजबूत करना। यह तब होगा जब एक-दूसरे में फेथ होगा। परिवर्तन करने का फेथ या कल्याण करने का फेथ। जैसे आत्म-ज्ञानियों के सिद्धि का गायन है, वैसे आप सबके संगठन का एक ही संकल्प हो। एक संकल्प की शक्ति संगठित रूप में न होने के कारण बिगड़े हुए हैं। जैसे बिगड़ी हुई शक्ति है वैसे रिजल्ट भी बिगड़ा हुआ है। इसमें समाने की शक्ति ज़रूर चाहिए। देखा और सुना - उसको बिल्कुल समा कर, वही आत्मिक दृष्टि और कल्याण की भावना रहे। जब अज्ञानियों के लिए कहते हो - अपकारियों पर उपकार करना है; तो संगठन में भी एक दूसरे के प्रति रहम की भावना रहे। अभी रहम की भावना कम रहती है क्योंकि आत्मिक-स्थिति का अभ्यास कम है।

ऐसा पॉवरफुल संगठन होने से ही सिद्धि होगी। अभी आप सिद्धि का आह्वान करते हो, लेकिन फिर आपके आगे सिद्धि स्वयं झुकेगी। जैसे सतयुग में प्रकृति दासी बन जाती है, वैसे सिद्धि आपके सामने स्वयं झुकेगी। सिद्धि आप लोगों का आह्वान करेगी। जब श्रेष्ठ नॉलेज है, स्टेज भी पॉवरफुल है तो सिद्धि क्या बड़ी बात है? अल्पकाल वालों को सिद्धि प्राप्त होती है और सदाकाल स्थिति में रहने वालों को सिद्धि प्राप्त न हो, यह हो नहीं सकता। तो यह संगठन की शक्ति चाहिए। एक ने कुछ बोला, दूसरे ने स्वीकार किया। सामना करने की शक्ति ब्राह्मण परिवार के आगे यूज़ नहीं करनी है। वो सामना करने की शक्ति माया के आगे यूज़ करनी है। परिवार से सामना करने की शक्ति यूज़ करने से संगठन पॉवरफुल नहीं होता। कोई भी बात नहीं जंचती तो भी एक-दूसरे का सत्कार करना चाहिए। उस समय किसी के संकल्प वा बोल को कट नहीं करना चाहिए। इसलिये अब समाने की शक्ति को धारण करो।

जैसे साकार बाप को देखा। अथॉरिटी होते हुए भी बाप के आगे बच्चे तो छोटे ही हैं, रचना हैं - लेकिन रचना होते हुए भी बच्चों से रिगार्ड के बोल बोलते थे। कभी किसी को भी कुछ नहीं कहा, अथॉरिटी होते हुए भी अथॉरिटी को यूज़ नहीं किया तो आपस में भाई-बहन के नाते आपको कैसा होना चाहिए?

संगठित रूप में आप ब्राह्मण बच्चों की आपस के सम्पर्क की भाषा भी अव्यक्त भाव की होनी चाहिए। जैसे फरिश्ते अथवा आत्मायें आत्माओं से बोल रही हैं! किसी की सुनी हुई गलती को संकल्प में भी स्वीकार न करना और न कराना ही चाहिये। ऐसी जब स्थिति हो तब ही बाप की जो शुभ कामना हैसंगठ न की, वह प्रैक्टिकल में होगी। एक भी पॉवरफुल संगठन होने से एक-दूसरे को खींचते हुए 108 की माला का संगठन एक हो जायेगा। एक-मत का धागा हो और संस्कारों की समीपता हो तब-ही माला भी शोभेगी। दाना अलग होगा या धागा अलग-अलग होगा तो माला शोभेगी नहीं।

अब प्रत्यक्षता वर्ष मनाने से पहले स्वयं में वा निमित्त बने हुए सेवाधारियों के संगठित रूप से यह शक्ति भी प्रत्यक्ष होनी चाहिए। अगर स्वयं में ही शक्ति की प्रत्यक्षता नहीं होगी, तो बाप को प्रत्यक्ष करने में जितनी सफलता चाहते हो, उतनी नहीं होगी। ड्रामानुसार होना है, वह तो हो ही जाता है। लेकिन निमित्त बने हुए को निमित्त बनने का फल दिखाई दे, वह नहीं होता। भावी करा रही है।

इसलिए संगठित रूप में, ऐसे विशेष पुरूषार्थ की लेन-देन और याद की यात्रा के प्रोग्राम होने चाहिएं । विशेष पुरूषार्थ अथवा विशेष अनुभवों की आपस में लेन-देन हो। ऐसा संगठन पाण्डवों का होना चाहिए। ऐसे विशेष योग के प्रोग्राम चलते रहे तो फिर देखो विनाश ज्वाला को कैसे पंखा लगता है। योग- अग्नि से विनाश की अग्नि जलेगी। वह है विनाश-ज्वाला, यह है योग ज्वाला। जो ज्वाला से ज्वाला प्रज्वलित होगी। आप लोगों के योग का साधारण रूप है तो विनाश ज्वाला भी साधारण है। संगठन पॉवरफुल हो। जैसे जब कोई चीज बनती है तो उसमें पानी चाहिए, घी चाहिए और नमक भी चाहिए, नहीं तो वह चीज़ बन न सके। वैसे हर-एक में अपनी-अपनी विशेषता है लेकिन यहाँ तो सर्व की विशेषताओं का संगठन चाहिए। क्योंकि समय भी अब चैलेन्ज  कर रहा है ना। अच्छा!

इस मुरली का सार

1. संगठन में हलचल होने से ही सिद्धि में भी हलचल हो जाती है। संगठित रूप से सबकी स्थिति की संकल्प रूपी अंगुली एक होने से ही सिद्धि होगी।  

2. व्यर्थ संकल्पों की समाप्ति के लिए, अपने संगठन को शक्तिशाली व एक-मत बनाने के लिए एक तो एक-दूसरे में फेथ और दूसरा समाने की शक्ति की आवश्यकता है।

3. सामना करने की शक्ति ब्राह्मण परिवार के आगे नहीं, माया के आगे यूज़ करनी है। परिवार में सामना करने की शक्ति यूज़ करने में संगठन पॉवरफुल नहीं होता।

4. जैसे कोई चीज़ बनाने के लिए घी, नमक और पानी सब कुछ चाहिए वैसे ही हर-एक में अपनी-अपनी विशेषता तो है लेकिन सर्व की विशेषताओं का संगठन चाहिए।