18-01-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"’स्मृति-स्वरूपका आधार याद और सेवा"

आज बापदादा अपनी अमूल्य मणियों को देख रहे हैं। हरेक मणी अपने-अपने स्थिति रूपी स्थान पर चमकती हुई मणियों के स्वरूप में बाप-दादा का श्रृंगार है। आज बाप-दादा अमृतवेले से अपने श्रृंगार (मणियों) को देख रहे हैं। आप सभी साकारी सृष्टि में हर स्थान को सजाते हो, भिन्न-भिन्न प्रकार के पुष्पों से सजाते हो। यह भी बच्चों की मेहनत बाप-दादा ऊपर से देखते रहते हैं। आज के दिन जैसे आप सब बच्चे मधुबन के हर स्थान की परिक्रमा लगाते हो, बाप-दादा भी बच्चों के साथ परिक्रमा पर होते हैं। मधुबन में भी 4 धाम विशेष बनाये हैं। जिसकी परिक्रमा लगाते हो, तो भक्तों ने भी 4 धाम का महत्व रखा है। जैसे आज के दिन आप परिक्रमा लगाते हो, वैसे भक्तों ने फालो किया है। आप लोग भी क्यू बनाकर जाते हो, भक्त भी क्यू लगाए दर्शन के लिए इन्तजार करते हैं। जैसे भक्ति में सत वचन महाराज कहते हैं वैसे संगम पर सत वचन के साथ-साथ आपके सत कर्म महान हो जाते हैं। अर्थात् यादगार बन जाते हैं। संगमयुग की यह विशेषता है। भक्त, भगवान के आगे परिक्रमा लगाते हैं लेकिन भगवान अब क्या करते हैं? भगवान बच्चों के पीछे परिक्रमा लगाते हैं। आगे बच्चों को करते पीछे खुद चलते हैं। सब कर्म में चलो बच्चे- चलो बच्चे कहते रहते हैं। यह विशेषता है ना। बच्चों को मालिक बनाते, स्वयं बालक बन जाते, इसलिए रोज मालेकम् सलाम कहते हैं।

भगवान ने आपको अपना बनाया है या आपने भगवान को अपना बनाया है। क्या कहेंगे? किसने किसको बनाया? बाप-दादा तो समझते हैं बच्चों ने भगवान को अपना बनाया है। बच्चे भी चतुर तो बाप भी चतुर। जिस समय आर्डर करते हो और हाजिर हो जाते हैं।

आज का दिन मिलन का दिन है आज के दिन को वरदान है- सदा स्मृति भव''। तो आज स्मृति भव का अनुभव किया? आज स्मृति भव के रिर्टन में मिलन मनाने आये हैं। याद और सेवा देनों का बैलेन्स स्मृति स्वरूप स्वत: ही बना देता है। बुद्धि में भी बाबा मुख से भी बाबा। हर कदम विश्व कल्याण की सेवा प्रति। संकल्प में याद और कर्म में सेवा हो यही ब्राह्मण जीवन है। याद और सेवा नहीं तो ब्राह्मण जीवन ही नहीं। अच्छा –

सर्व अमूल्यण मणियों को, स्मृति स्वरूप वरदानी बच्चों को हर कर्म सत कर्म करनेव ले महान और महाराजन, सदा बाप के स्नेह और सहयोग में रहने वाले, ऐसी विशेष आत्माओं को बाप-दादा का यादप्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात - बाप-दादा हर बच्चे को सदैव किस नजर से देखते हैं? बाप-दादा की नजर हरेक बच्चे की विशेषता पर जाती है। और ऐसा कोई भी नहीं हो सकता जिसमें कोई विशेषता न हो। विशेषता है तब विशेष आत्मा बनकर ब्राह्मण परिवार में आये हैं। आप भी जब किसी के सम्पर्क में आते हो तो विशेषता पर नजर जानी चाहिए। विशेषता द्वारा उनसे वह कार्य करा सकते हो और लाभ ले सकते हो। जैसे बाप होपलेस को होपवाला बना देते। ऐसा कोई भी हो कैसा भी हो उनसे कार्य निकालना है, यह है संगम- युगी ब्राह्मणों की विशेषता। जैसे जवाहरी की नजर सदा हीरे पर रहती, आप भी ज्वैलर्स हो आपनी नजर पत्थर की तरफ न जाए, हीरे को देखो। संगमयुग है भी हीरे तुल्य युग। पार्ट भी हीरो, युग भी हीरे तुल्य, तो हीरा ही देखो। फिर स्टेज कौन-सी होगी? अपनी शुभ भावना की किरणें सब तरफ फैलाते रहेंगे। वर्त्तमान समय इसी बात का विशेष अटेन्शन चाहिए। ऐसे पुरूषार्थी को ही तीव्र पुरू- षार्था कहा जाता है। ऐसे पुरूषार्थी को मेहनत नहीं करनी पड़ती सब कुछ सहज हो जाता है। सहजयोगी के आगे कितनी भी बड़ी बात ऐसे सहज हो जाती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं, सूली से काँटा। तो ऐसे सहजयोगी हो ना? बचपन में जब चलना सीखते हैं तब मेहनत लगती, तो मेहनत का काम भी बचपन की बातें हैं, अब मेहनत सामप्त सब में सहज। जहाँ कोई भी मुश्किल अनुभव होता है वहाँ उसी स्थान पर बाबा को रख दो। बोझ अपने ऊपर रखते हो तो मेहनत लगती। बाप पर रख दो तो बाप बोझ को खत्म कर देंगे। जैसे सागर में किचड़ा ड़ालते हैं तो वह अपने में नहीं रखता किनारे कर देता, ऐसे बाप भी बोझ को खत्म कर देते। जब पण्डे को भूल जाते हो तब मेहनत का रास्ता अनुभव होता। मेहनत में टाइम वेस्ट होता। अब मंसा सेवा करो, शुभाचिंतन करो, मनन शक्ति को बढ़ाओ। मेहनत मजदूर करते आप तो अधिकारी हैं। शक्ति को बढ़ाओ। मेहनत मजदूर करते आप तो अधिकारी हैं।



20-01-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"मन, बुद्धि, संस्कार के अधिकारी ही वरदानी मूर्त्त"

आज वरदाता और विधाता बाप अपने महादानी और वरदानी बच्चों को देख रहें हैं। वर्त्तमान समय महादानी का पार्ट सभी यथा शक्ति बजा रहे हैं। लेकिन अब अन्तिम समय समीप आते हुए विशेष वरदानी रूप का पार्ट प्रैक्टिकल में बजाना पड़े। महादानी विशेष वाणी द्वारा सेवा करते हैं, लेकिन साथ में मंसा की परसेन्टेज कम होती है। वाणी कम और मंसा की परसेन्टेज ज्यादी होती है। अर्थात् संकल्प द्वारा शुभ भावना और कामना द्वारा थोड़े समय में ज्यादा सेवा का प्रत्यक्ष फल देख सकते हो।

वरदानी रूप द्वारा सेवा करने के लिए पहल स्वयं में शुद्ध संकल्प चाहिए। तथा अन्य संकल्पों को सेकेण्ड में कन्ट्रोल करने का विशेष अभ्यास चाहिए। सारा दिन शुद्ध संकल्पों के सागर में लहराता रहे और जिस समय चाहे शुद्ध संकल्पों के सागर के तले में जाकर साइलेंस स्वरूप हो जाए अर्थात् ब्रेक पावरफुल हो। संकल्प शक्ति अपने कन्ट्रोल में हो। साथ-साथ आत्मा की और भी विशेष दो शक्तियाँ बुद्धि और संस्कार, तीनों ही अपने अधिकार में हों। तीनों में से एक शक्ति के ऊपर भी अगर अधिकारी कम है तो वरदानी स्वरूप की सेवा जितनी करनी चाहिए उतनी नहीं कर सकते।

इस वर्ष में जितना ही महा कार्य, महायज्ञ का रचा है उतना ही इस महायज्ञ में महादानी का पार्ट भी विशेष बजाना है। और साथ-साथ आत्म की तीनों शक्तियों के ऊपर सम्पूर्ण अधिकार की जो भी कमी हो उसको भी महायज्ञ में स्वाहा करना। जितना ही विशाल कार्य करना है उतना ही इस विशाल कार्य के बाद स्व चिन्तक, शुभ चिंतक, सर्व शक्तियों के मास्टर विधाता, श्रेष्ठ संकल्प द्वारा मास्टर वरदाता सदा सागर के तले के अन्दर अति मीठे शान्त स्वरूप लाइट और माइट हाउस बन इसी स्वरूप की सेवा करना।

जितना ही साधनों द्वारा सेवा की स्टेज पर आना है उतना ही सिद्धि स्वरूप बन साइलेन्स के स्वरूप की अनुभूति करनी है। सेवा के साधन भी बहुत अच्छे बनाये हैं। जितना विशाल सेवा का यज्ञ रच रहे हैं, वैसे ही वैसे ही संगठित रूप का, ज्वाला रूप शान्ति कुण्ड का महायज्ञ रचना है। यह सेवा का यज्ञ है - विश्व की आत्माओं में वाणी द्वारा हल चलाना। हल चलाने में हलचल होती है। उसके बाद जो बीज डालेंगे उसको शीतलता के रूप से, साइलेन्स की पावन से शीतल जल डालेंगे तभी शीतल जल पड़ने से फल निकलेगा। ऐसे नहीं समझना कि महायज्ञ हुआ तो सेवा का बहुत पार्ट समाप्त किया। यह तो हल चला करके बीज डालेंगे। मेहनत ज्यादा इसमें लगती है। उसके बाद फल निकालने के लिए महादानी के बाद वरदानी की सेवा करनी पड़े। वरदानी मूर्त्त अर्थात् स्वयं सदा वरदानों से सम्पन्न। सबसे पहला वरदान कौन सा है? सभी को दिव्य जन्म मिलते ही पहला वरदान कौन-सा मिला? वरदान अर्थात् जिसमें मेहनत नहीं। सहज प्राप्ति हो जाए वह वरदान क्या मिला? हरेक का अलग-अलग वरदान है या एक ही है? सुनाने में तो अलग-अलग अपना वरदान सुनाते हो ना। सभी का एक ही वरदान है जो बिना मेहनत के, बिना सोचे समझे हुए बाप ने कैसी भी कमजोर आत्मा को हिम्मतहीन आत्मा को अपना स्वीकार कर लिया। जो है जैसा है मेरा है। यह सेकेण्ड में वर्सें के अधिकारी बनाने की लाटरी कहो, भाग्य कहो, वरदान कहो, बाप ने स्वयं दिया। स्मृति के स्वीच को ऑन कर दिया कि तू मेरा है। सोचा नहीं था कि ऐसा भाग्य भी मिल सकता है। लेकिन भाग्य विधाता बाप ने भाग्य का वरदान दे दिया। इसी सेकेण्ड के वरदान ने जन्मजन्मान्तर के वर्से का अधिकारी बनाया, इस वरदान को स्मृति स्वरूप में लाना अर्थात् वरदानी बनना। बाप ने तो सबको एक ही सेकेण्ड में एक जैसा वरदान दिया। चाहे छोटा बच्चा हो चाहे वृद्ध हो, चाहे बड़े आक्यूपेशन वाले हों, चाहे साधारण हो, तन्दरूस्त हो वा बीमार हो, किसी भी धर्म के हों, किसी भी देश के हों, पढ़ा हुआ हो वा अनपढ़ हो सभी को एक ही वरदान दिया। इसी वरदान को जीवन में लाना, स्मृति स्वरूप बनना इसमें नम्बर बन गये। कोई न निरंतर बनाया, कोई ने कभी-कभी का बनाय। इस अन्तर के कारण दो मालायें बन गई। जो सदा वरदान के स्मृति स्वरूप रहे उनकी माला भी सदा सिमरी जाती है। और जिन्होंने वरदान को कभी-कभी जीवन में लाया वा स्मृति स्वरूप में लाया उन्हों की माला भी कभी-कभी सिमरी जाती है। वह वरदानी स्वरूप अर्थात् इस पहले वरदान में सदा स्मृति स्वरूप रहे। जो स्वयं बाप का सदा बना हुआ होगा वही औरों को भी बाप का सदा बना सकेगा। यह वरदान लेने में कोई मेहनत नहीं की। यह तो बाप ने स्वंय अपनाया। इस एक वरदान को ही सदा याद रखो तो मेहनत से छूट जायेंगे। वरदान को भूलते हो तो मेहनत करते रहो। अब वरदानी मूर्त्त द्वारा संकल्प शक्ति की सेवा करो।

इस वर्ष स्वयं शक्तियों द्वारा, स्वयं के गुणों द्वारा निर्बल आत्माओं को बाप के समीप लाओ। वर्त्तमान समय मैजारिटी में शुभ इच्छा उत्पन्न हो रही है कि आध्यात्मिक शक्ति जो कुछ कर सकती है वह और कोई कर नहीं सकता। लेकिन आध्यात्मिकता की ओर चलने के लिए अपने को हिम्मतहीन समझते। तो इच्छा रूपी एक टाँग अब प्रत्यक्ष रूप में दिखाई दे रही है। लेकिन उन्हें अपनी शक्ति से हिम्मत की दूसरी टाँग दो। तब बाप के समीप चल करके आ सकेंगे। अभी तो समीप आने में भी हिम्मतहीन हैं। पहले तो अपने वरदानों से हिम्मत में लाओ। उल्लास में लाओ कि आप भी बन सकते हो। तब निर्बल आत्माएं आपके सहयोग से वर्से के अधिकारी बन सकेंगी। लंगडों को चलाना है। तब आप वरदानी मूर्तों का बार-बार शुक्रिया मानेंगे। कुछ भक्त बनेंगे, कुछ प्रजा बनेंगे और कोई फिर लास्ट सो फास्ट भी होंगे। तो समझा इस वर्ष क्या करना है?

जैसे महायज्ञ की सेवा की धूम चारों और मचाई है वैसे इस यज्ञ के कार्य के साथ-साथ शान्ति कुण्ड के वायुमण्डल, वायब्रेशन्स - उसी धूम चारों ओर मचाओ। जैसे महायज्ञ के नये चित्र बनायें हैं, झाँकियाँ बना रहे हो, भाषण तैयार कर रहे हो, स्टेज तैयार कर रहे हो, वैसे चारों ओर हर ब्राह्मण बाप-समान चैतन्य चित्र बन जाए, लाइट और माइट हाउस की झाँकी बन जाए, संकल्प शक्ति का, साइलेन्स का भाषण तैयार करे, और कर्मातीत स्टेज पर वरदानी मूर्त्त का पार्ट बजावे तब सम्पूर्णता समीप आयेगी। इसी वर्ष में अति विशाल सेवा कार्य जो करना है वह भी इतना ही संगठित रूप में प्रत्यक्षता का, एक बल एक भरोसे का नारा लेकर सेवा की स्टेज पर आना है। सर्व ब्राह्मणों की अंगुली से कार्य को सम्पन्न करना है। वैसे ही इस ही वर्ष में सर्व के एक संकल्प द्वारा वरदानी रूप का भी ऐसा ही विशाल कार्य प्रैक्टिकल में लाना है। समझा अभी क्या करना है?

ऐसे आवाज में आते हुए भी आवाज से परे स्थिति में स्थित रहने वाले, अपनी हिम्मत द्वारा अन्य आत्माओं को हिम्मत देने वाले, अपनी समीपता द्वारा औरों को भी समीप लाने वाले लंगड़ी आत्माओं को दौड़ की रेस में लगाने वाले, ऐसे वरदानी और महादानी, बाप-दादा के समीप आत्माओं को बाप-दादा का यादप्यार और नमस्ते।

दादी जी से - समय समीप आ रहा है वा आप समय के समीप आ रही हो? स्वयं को ला रहे हैं वा समय स्वयं को खींच रहा है? ड्रामा आपको चला रहा है या आप ड्रामा को चला रहे हैं? मास्टर आप हो या ड्रामा? रचता ड्रामा है या आप हो?

अभी कई बार वाणी में निकलता है कि जो ड्रामा में होगा वही होगा। लेकिन आगे चलते हुए ड्रामा में क्या  होना है वह इतना स्पष्ट टच होगा जो फिर ऐसा नहीं कहेंगे कि जो होना होगा वह होगा। अथार्टी से कहेंगे कि यही ड्रामा में होना है। और वही होगा। जैसे भविष्य प्रालब्ध स्पष्ट है वैसे ड्रामा में क्या  होना है वह भी स्पष्ट होगा। कोई कितना भी कहे कि यह नूंध है नहीं, बनते हैं वा नहीं बनते, क्या पता। तो मानेंगे? नहीं। जेसे इस बात में नालेजफुल के आधार पर मास्टर हो गये, बस होना ही है। जो कल होना है वा एक सेकेण्ड के बाद होना है वह भी इतना अथार्टी से, नालेजफुल की पावर से स्पष्टता की पावर से ऐसे बोलेंगे कि यह होना ही है। जो होगा वह देख लेंगे - नहीं। देखा हुआ है, और वही होगा। इतना अथार्टी वाले बनते जायेंगे। यह भी एक अथार्टी है ना। बनना ही है, राज्य हमारा होना ही है। कितनी भी हिलाने की कोशिश कोई करे लेकिन वह स्पष्ट है जैसे इस पाइंट की अथार्टी हो जायेंगे। यह तब होगा जब थोड़ा सा एकान्तवासी होंगे। जितना एकान्तवासी होंगे उतना टचिंग्स अच्छी आयेंगी। क्या होना है, यह वर्त्तमान समान भविष्य किलियर हो जायेगा। अभी समय कम मिलता है। पर्दे के अन्दर ड्रामा की यह सीन है। यह भी अनुभूति होगी। इसलिए कहा कि इस वर्ष में जितना सेवा की हलचल उतना ही बिल्कुल जेस अण्डरग्राउण्ड चले जाओ। कोई भी नई इन्वेंशन और शक्तिशाली इन्वेंशन होती है तो उतना अन्डरग्राउण्ड करते हैं तो एकान्तवासी बनना ही अन्डरग्राउण्ड है। जो भी समय मिले, इकठ्ठा एक घण्टा वा आधा घण्टा समय नहीं मिलेगा। यह भी अभ्यास हो जायेगा। अभी-अभी बात की, अभी-अभी 5मिनट भी मिले तो सागर के तले में चले जायेंगे। जो आने वाला भी समझेगा कि यह कहाँ और स्थान पर है। यहाँ नहीं है। उनके भी संकल्प ब्रेक में आ जायेंगे। वाणी में आना चहेंगे तो आ न सकेंगे। साइलेन्स द्वारा ऐसा स्पष्ट उत्तर मिलेगा जो वाणी द्वारा भी कम स्पष्ट होता। जैसे साकार में देखा बीच-बीच में कारोबार में रहते भी गुम अवस्था की अनुभूति होती थी ना। सुनते-सुनाते डायरेक्शन देते अन्डरग्राउण्ड हो जाते थे। तो अभी इस अभ्यास की लहर चाहिए। चलते-चलते देखें कि यह जैसे कि गायब है। इस दुनिया में है नहीं। यह फरिश्ता इस देह की दुनिया और देह के भान से परे हो गये। इसको ही सब साक्षात्कार कहेंगे। जो भी सामने आयेगा वह इसी स्टेज में साक्षात्कार का अनुभव करेगा। जैसे शुरू में साक्षात्कार की लहर थी ना। उसी से ही आवाज फैला ना। चाहे जादू अथवा कुछ भी समझते थे परन्तु आवाज तो इससे हुआ ना। ऐसी स्टेज में जब अनुभव समान साक्षात्कार होंगे तो फिर प्रत्यक्षता होगी। नाम बाला होगा। साक्षात्कार होगा। प्रत्यक्षफल अनुभव होगा। इसी प्रत्यक्ष फल की सीजन में प्रत्यक्षता होगी। इसी को ही वरदानी रूप कहा जाता। जो आये वह अनुभव कर जाए। बात करते-करते खुद भी गुम दूसरे को भी गुम कर देंगे। यह भी होना है। वाणी द्वारा कार्य चलाकर देख रहे हैं। लेकिन यह अनुभव करने और कराने की स्टेज समस्याओं का हल सेकेण्ड में करेगी। टाइम कम और सफलता ज्यादा होगी। आजकल किसको भी कोई बात वाणी द्वारा दो तो क्या कह देते? हाँ यह तो सब पता है। नालेजफुल हो गये हैं। सेकेण्ड में कहेंगे यह तो हम जानते हैं। यही सुनने को मिलेगा। यह भी सब समझ गये हैं कि फलानी भूल की क्या शिक्षा मिलेगी। तो अब नया तरीका चाहिए। वह यह है। अनुभूति की कमी है, पाइंटस की कमी नहीं है। एक सेकेण्ड भी किसी को अनुभूति करा दो, शक्ति रूप की, शान्ति रूप की तो वह चुप हो जायेंगे।

पर्सनल मुलाकात - ब्राह्मण जीवन की विशेषता है अनुभव। नालेज के साथ-साथ हर गुण की अनुभूति होनी चाहिए। अगर एक भी गुण वा शक्ति की अनुभूति नहीं तो कभी-न-कभी विघ्न के वश हो जायेंगे। अभी अनुभूति का कोर्स शुरू करो। हर गुण वा शक्ति रूपी खज़ाने को यूज़ करो। जिस समय जि्ास गुण की आवश्यकता है उस समय उसका स्वरूप बन जाओ। जैसे आत्मा का गुण है प्रेम स्वरूप, सिर्फ प्रेम नहीं लेकिन प्रेम स्वरूप में आना चाहिए। जिस आत्म को देखो उसे रूहानी प्रेम की अनुभूति होनी हो। अगर स्वयं को वा दूसरों को अनुभव नहीं होता तो जो मिला है उसे यूज़ नहीं किया है। जैसे आजकल भी खज़ाना लाकर्स में पड़ा हो तो खुशी नहीं होती। वैसे नालेज की रीति से बुद्धि के लाकर में खज़ाने को रख न दो, यूज़ करो। फिर देखो यह ब्राह्मण जीवन कितना श्रेष्ठ लगता है। फिर वाह रे मैं का गीत गाते रहेंगे। अनुभवी के बोल और नालेज वाले के बोल में अन्तर होता है। सिर्फ नालेज वाला अनुभव नहीं करा सकता। तो चेक करो कि कहाँ तक मैं अनुभवी मूर्त्त बना हूँ। कौन-सी शक्ति किस परसेन्टेज में प्राप्त की है और समय पर कार्य में ला सकते हैं या नहीं। ऐसा न हो दुश्मन आवे और तलवान चले नहीं अथवा ढ़ाल के समय तलवार , और तलवार के समय ढाल याद आ जाए। जिस समय जिस चीज़ की आवश्यकता है वही यूज़ करो तब विजयी हो सकेंगे।

इस मुरली का सार

1. वरदानी रूप द्वारा सेवा करने के लिए पहले स्वयं में शुद्ध संकल्प चाहिए। संकल्प शक्ति कंट्रोल में हो। आत्मा की तीनों शक्तियाँ अधिकार में हों।

2. जितना एकान्तवासी होंगे उतनी टचिंग अच्छी आएगी। क्या होना है - वर्त्तमान समान भविष्य स्पष्ट दिखाई देगा।



07-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"शान्ति स्वरूप के चुम्बक बन चारों ओर शान्ति कि किरणें फैलाओ"

आज होलीएस्ट बाप होली हंसों से मिलन मनाने आये हैं। यह न्यारा और प्यारा मेला सिर्फं तुम सर्वश्रेष्ठ आत्मायें अनुभव कर सकती हो और अभी ही अनुभव कर सकती हो। बच्चों के स्नेह का रेसपान्ड देने के लिए बाप आये हैं। बच्चों ने स्नेह का रेसपान्ड सेवा में संगठित रूप में सहयोग का दिखाया। बाप-दादा स्नेह रूपी संगठन को देख अति हर्षित हो रहे हैं। लगन से प्रकृति और कलियुगी आसुरी सम्प्रदाय के विघ्नों कोपार करतेम निर्विघ्न कार्य समाप्त किया इस सहयोग और लगन के रिर्टन में बाप-दादा बच्चों को बधाई के पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं। बाप का कार्य सो मेरा कार्य इसी लगन से सफलता की मुबारक हो। यह एक संगठन की शक्ति का पहला कार्य अभी आरम्भ किया है। अभी सैम्पुल के रूप में किया है। अभी तो आपकी रचना और वृद्धि को पाते हुए और विशाल कार्य के निमित्त बनायेगी। अनुभव किया कि संगठित शक्ति के आगे भिन्न-भिन्न प्रकार के विघ्न कैसे सहज समाप्त हो जाते हैं। सबका एक श्रेष्ठ संकल्प कि सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है इस संकल्प ने कार्य को सफल बनाया। बच्चों के हिम्मत उल्लास मेहनत और मुहब्बत को देख बाप-दादा भी हर्षित हो रहे हैं।

इस संगठन ने विशेष क्या पाठ सिखाया? जानते हो? भी कार्य होता है वह आगे के लिए पाठ भी सिखाता है तो क्या पाठ पढ़ा? (सहन करने का) अभी तो यह पाठ और भी पढ़ाना है। इस कार्य ने आगे के लिए प्रैक्टिकल पाठ पढ़ाया - ‘‘सदा डबल लाइट बन एवररेडी कैसे रहो।'' जो डबल लाइट होगा वह स्वयं को हर बात में सहज ही सफलतामूर्त्त बना सकेगा। जैसा समय जैसे सर्कम्स्टॉन्स वैसे अपने को सरल रीति से चला सकेगा। मन से सदा मग्न अवस्था में रह सकेगा।

आज तो सिर्फ बच्चों के मेहनत की मुबारक देने आये हैं। और भी आगे विशाल कार्य करते चलो, बढ़ते चलो। बाप-दादा ने आप लोगों से भी ज्यादा सर्व कार्य देखे। आप लोग तो स्थूल साधनों के कारण कभी पहुँच सकते कभी नहीं पहुँच सकते। बाप-दादा को हर स्थान पर पहुँचने में कितना टाइम लगता है? जो आपने न देखा वह हमने देखा। बाप का स्नेह ही पाँव दबाता है। निमित्त दिल्ली वालों ने लेकिन सर्व ब्राह्मण आत्माओं के सहयोग से जो भी बच्चे सेवा के मैदान पर आये, सेवा के पहाड़ को अंगुली दी उन सभी बच्चों को बाप-दादा स्नेह और सदा साथ की छत्रछाया अन्दर याद प्यार से पाँव दबा रहे हैं। थक तो नहीं गये हो ना! निमित्त कहने में विदेशी आते हैं लेकिन हैं स्वदेशी। उन्होंने भी बहुत अच्छी लगन से अथक बन भारत के कुम्भकरणों को जगाने के लिए सफलता पूर्वक कार्य किया, इसलिए बाप-दादा सबको नम्बरवन का टाइटिल देते हैं। सुना विदेशियों ने? ऐसा भी दिन आयेगा जो विदेश में भी इतना बड़ा कार्य होगा। सब खुशी में नाच रहे हैं।

आज के इस मधुर मेले का विशेष यादगार बन रहा है। बाप-दादा को भी यह विशाल मेला अति प्रिय है। जो भी दूर-दूर से बच्चे मेहनत करके लगन से पहुँचे हैं उन सबको बाप-दादा विशेश याद प्यार दे रहे हैं। स्नेह दूर को नजदीक लाता है। तो भारत के भी सबसे दूर रहने वाले स्नेह के बन्धन में सहयोग की लगन में नजदीक अनुभव कर रहे हैं। इसलिए भारतवासी देश के हिसाब से दूर रहने वाले बच्चों को बाप-दादा विशेष स्नेह दे रहे हैं। बहुत भोले और बहुत प्यारे हैं। इसलिए भोलानाथ बाप की विशेष स्नेह की दृष्टि ऐसे बच्चों पर है। सभी अपने को इतना ही श्रेष्ठ पदमापदम भाग्यशाली समझते हो ना? अच्छा-

अब आगे वर्ष में क्या करना है? जो किया बहुत अच्छा किया अब आगे क्या करना है? वर्त्तमान समय विश्व की मैजारिटी आत्माओं को सबसे ज्यादा आवश्यकता है - सच्ची शान्ति की। अशान्ति के अनेक कारण दिन प्रतिदिन बढ़ रहे हैं और बढ़ते जायेंगे। अगर स्वयं अशान्त न भी होंगे तो औरों के अशान्ति का वायुमण्डल अशान्ति के वायब्रेशन्स उन्हों को भी अपने तरफ खीचेंगे। चलने में, रहने में, खाने में, कार्य करने में, सबसे अशान्ति का वातावरण शान्त अवस्था में बैठने नहीं देगा अर्थात् औरों की अशान्ति का प्रभाव भी आत्मा पर पड़ेगा। अशान्ति के तनाव का अनुभव बढ़ेगा। ऐसे समय पर आप शान्ति के सागर के बच्चों की सेवा क्या है? जैसे कहाँ आग लगती है तो शीतल पानी से आग को बुझाकर गर्म वायुमण्डल को शीतल बना देते हैं। वैसे आप सबका आजकल विशेष स्वरूप ‘‘मास्टर शान्ति के सागर का'' इमर्ज होना चाहिए। मंसा संकल्पों द्वारा शान्त स्वरूप की स्टेज द्वारा चारों ओर शान्ति कि किरणों को फैलाओ। ऐसा पावरफुल स्वरूप बनाओ जो अशान्त आत्माएं अनुभव करें कि सारे विश्व के कोने में यही थोड़ी सी आत्मायें शान्ति का दान देने वाली मास्टर शान्ति के सागर हैं। जैसे चारों ओर अंधकार हो और एक कोने में रोशनी जग रही हो तो सबका अटेन्शन स्वत: ही रोशनी की ओर जाता है। ऐसे सबको आकर्षण हो कि चारों ओर की अशान्ति के बीच यहाँ से शान्ति प्राप्त हो सकती है। शान्ति स्वरूप के चुम्बक बनो। जो दूर से ही अशान्त आत्माओं कतो खींच सको। नयनों द्वारा शान्ति का वरदान दो। मुख द्वारा शान्ति स्वरूप की स्मृति दिलाओ। संकल्प द्वारा अशान्ति के संकल्पों को मर्ज कर शान्ति के वायब्रेशन को फैलाओ। इसी विशेष कार्य अर्थ याद की विशेष विद्धि द्वारा सिद्धि को प्राप्त करो।

इस वर्ष में विशेष जो भक्त आपकी महिमा करते हैं - शान्ति देवा। इसी स्वरूम को इमर्ज करो। अभ्यास करो, मुझ आत्मा के शान्त स्वरूप के वायब्रेशन कहाँ तक कार्य करते हैं। शान्ति के वायब्रेशन नजदीक की आत्माओं तक पहुँचते हैं वा दूर तक भी पहुँचते हैं। अशान्त आत्मा के ऊपर अपने शान्ति के वायब्रेशन्स का अनुभव करके देखो। समझा - क्या करना है? अच्छा - अब तो मिलते रहेंगे।

सभी सदा स्नेह में रहने वाले, हर कार्य में सदा सहयोगी, मुहब्बत से मेहनत को खत्म करने वाले, सदा अथक बाप-दादा की छत्रछाया के अन्दर रहने वाले, सदा विघ्न विनाशक ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।

उड़ीसा तथा कर्नाटक जोन के भाई बहनों से पर्सनल मुलाकात आप सबका कितना श्रेष्ठ भाग्य है जो बच्चों से मिलने बाप खुद आते हैं। इसी भाग्य का सिमरण कर सदा हर्षित रहो - कि बाबा हमारे लिए आया है। भगवान को मैंने लाया। भगवान को अपने प्रेम के बंधन में बाँध लेना और क्या चाहिए। ऐसे नशे में रहो तो माया भाग जायेगी। माया को तो सबने तलाक दे दिया है ना! तलाक देना अर्थात् संकल्प में भी न आवे। मंसा से भी खत्म करना यह हुआ तलाक। तो तलाकनाम दे दिया ना। आप सब कितने लकीएस्ट हो जो दूर-दूर से बाप ने अपने बच्चों को ढूंढ लिया। इसलिए सदा अपने को सिकीलधे समझो।

2. फरिश्ते समान स्थिति बनाने के लिए - अपने को बाप की छत्रछाया के नीचे समझो –

अपने को सदा बाप की याद की छत्रछाया के अन्दर अनुभव करते हो? जितना-जितना याद में रहेंगे उतना अनुभव करेंगे कि मैं अकेली नहीं लेकिल बाप-दादा सदा साथ है। कोई भी समस्या सामने आयेगी तो अपने को कम्बाइन्ड अनुभव करेंगे, इसलिए घबरायेंगे नहीं। कम्बाइन्ड रूप की स्मृति से कोई भी मुश्किल कार्य सहज हो जायेगा। कभी भी कोई ऐसी बात सामने आवे तो बापदादा की स्मृति रखते अपना बोझ बाप के ऊपर रख दो तो हल्के हो जायेंगे। क्योंकि बाप बड़ा है और आप छोटे बच्चे हो। बड़ों पर ही बोझ रखते हैं। बोझ बाप पर रख दिया तो सदा अपने को खुश अनुभव करेंगे। फरिश्ते के समान नाचते रहेंगे। दिन रात 24 ही घंटे मन से डाँस करते रहेंगे। देह अभिमान में आना अर्थात् मानव बनना। देही अभिमानी बनना अर्थात् फरिश्ता बनना। सदैव सवेरे उठते ही अपने फरिश्ते स्वरूप की स्मृति में रहो और खुशी में नाचते रहो तो कोई भी बात सामने आयेगी उसे खुशी-खुशी से क्रास कर लेंगे। जैसे दिखाते हैं देवियों ने असुरों पर डाँस किया। तो फरिश्ते स्वरूप की स्थिति में रहने से आसुरी बातों पर खुशी की डाँस करते रहेंगे। फरिश्ते बन फरिश्तों की दुनिया में चले जायेंगे। फरिश्तों की दुनिया सदा स्मृति में रहेगी।

3. पाप कर्मों से छुटकारा पाने का साधन है - लाइट हाउस की स्थिति

सभी अपने को लाइट हाउस और माइट हाउस समझते हो? जहाँ लाइट होती है वहाँ कोई भी पाप का कर्म नहीं होता है। तो सदा लाइट हाउस रहने से माया कोई पाप कर्म नहीं करा सकती। सदा पुण्य आत्मा बन जायेंगे। ऐसे अपने को पुण्य आत्मा समझते हो? पुण्य आत्मा संकल्प में भी कोई पाप कर्म नहीं कर सकती। और पाप वहाँ होता है जहाँ बाप की याद नहीं होती। बाप है तो पाप नहीं, पाप है तो बाप नहीं। तो सदा कौन रहता है? पाप खत्म हो गया ना? जब पुण्य आत्मा के बच्चे हो तो पाप खत्म। तो आज से मैं पुण्य आत्मा हूँ पाप मेरे सामने आ नहीं सकता यह दृढ़ संकल्प करो। जो समझते हैं आज से पाप को स्वप्न में भी संकल्प में भी नहीं आने देंगे वह हाथ उठाओ। दृढ़ संकल्प की तीली से 21 जन्मों के लिए पाप कर्म खत्म। बाप-दादा भी ऐसे हिम्मत रखने वाले बच्चों को मुबारक देते हैं। यह भी कितना भाग्य है जो स्वयं बाप बच्चों को मुबारक देते हैं। इसी स्मृति में सदा खुश रहो और सबको खुश बनाओ।

4. संगमयुग में बाप द्वारा मिले हुए सर्व टाइटिल स्मृति में रहते हैं? बाप-दादा बच्चों को पहला-पहला टाइटिल देते हैं स्वदर्शन चक्रधारी । बाप-दादा द्वारा मिला हुआ टाइटिल स्मृति में रहता है? जितना-जितना स्वदर्शन चक्रधारी बनेंगे उतना मायाजीत बनेंगे। तो स्वदर्शन चक्र चलाते रहते हो? स्वदर्शन चक्र चलाते-चलाते कब स्व के बजाय पर-दर्शन चक्र तो नहीं चल जाता। स्वदर्शन चक्रधारी बनने वाले स्व राजय और विश्व राज्य के अधिकारी बन जाते हैं। स्वराज्य अधिकारी अभी बने हो? जो अभी स्वराज्य अधिकारी बनते वही भविष्य राज्य अधिकारी बन सकते हैं। राज्य अधिकारी बनने के लिए कन्ट्रोलिंग पावर चाहिए। जब जिस कर्म इन्द्रिय द्वारा जो कर्म कराने चाहें वह करा सकें, इसको कहा जाता है अधिकारी। ऐसी कन्ट्रोलिंग पावर है? कभी ऑखें वह मुख धोखा तो नहीं देते। जब कन्ट्रोलिंग पावर होती है तो कोई भी कर्मइन्द्रिय कभी संकल्प रूप में भी धोखा नहीं दे सकती।

5. साक्षीपन की सीट शान की सीट है, इस सीट पर बैठने वाले परेशानी से छूट जाते हैं –

जो कुछ भी ड्रामा में होता है उसमें कल्याण ही भरा हुआ है, अगर यह स्मृति में सदा रहे तो कमाई जमा होती रहेगी। समझदार बच्चे यही सोचेंगे कि जो कुछ होता है वह कल्याणकारी है। क्यों क्या का क्वेशचन समझदार के अन्दर उठ नहीं सकता। अगर स्मृति रहे कि यह संगमयुग कल्याणकारी युग है, बाप भी कल्याणकारी है तो श्रेष्ठ स्टेज बनती जायेगी। चाहे बाहर की रीति से नुकसान भी दिखाई दे लेकिन उस नुकसान में भी कल्याण समाया हुआ है, ऐसा निश्चय हो। जब बाप का साथ और हाथ है तो अकल्याण हो नहीं सकता। अभी पेपर बहुत आयेंगे, उसमें क्या क्यों का क्वेशचन न उठे। कुछ भी होता है होने दो।। बाप हमारा हम बाप के तो कोई कुछ नहीं सकता, इसको कहा जाता है निश्चय बुद्धि। बात बदल जाए लेकिन आप न बदलो - यह है निश्चय। कभी भी माया से परे- शान तो नहीं होते हो? कभी वातावरण से कभी घर वालों से, कभी ब्राह्मणों से परेशान होते हो। शान की सीट पर रहो। साक्षीपन की सीट शान की सीट है इससे परे न हो तो परेशानी खत्म हो जायेगी। प्रतिज्ञा करो कि कभी भी कोई बात में न परेशान होंगे न करेंगे। जब नालेजफुल बाप के बच्चे बन गये, त्रिकालदर्शी बन गये तो परेशान कैसे हो सकते। संकल्प में भी परेशानी न हो। क्यों शब्द को समाप्त करो। क्यों शब्द के पीछे बड़ी क्यू है।

विदाई के समय - दीदी से

मेला देखकर खुशी हो रही है ना? यह भी ड्रामा में जो कुछ होता है वह अच्छे ते अच्छा होता है। अभी तो बहुत आयेंगे, यह तो कुछ भी नहीं है। प्रबन्ध बढ़ाते जायेंगे, बढ़ने वाले बढ़ते जायेंगे। जब मधुबन में भीड़ लगे तब भक्ति में यादगार बनें। जितना बनाते जायेंगे उतना बढ़ते ही जायेंगे यह भी वरदान मिला हुआ है। यही यादगार में कहानियाँ बनाकर दिखाते हैं कि सागर तक भी पहुँच गये। फिर भी छोटा हो गया। अभी आबूरोड तक तो पहुँचो तब गायन हो। आबू रोड से माउण्ट तब बैठें तब प्रत्यक्षता होगी। सोचेंगे यह क्या हो रहा है। अटेन्शन तो जाता है ना। ब्र0कु0 कहाँ तब पहुँच गई हैं। अभी यह तो बच्चों का मेला है लेकिन बच्चे और भक्त जब मिक्स हो जायेंगे तब क्या हो जायेगा। अभी तो बहुत तैयारी करनी है। जब बाप का आना है तो बच्चों का भी बढ़ना है। वृद्धि न हो तो सेवा काहे की। सेवा का अर्थ ही है वृद्धि।

मुरली का सार

1. आप शान्ति के सागर बच्चों को अपनी मनसा संकल्पों द्वारा शान्त स्वरूप स्टेज द्वारा चारों ओर शान्ति की किरणें फैलानी हैं। अब शान्ति स्वरूप के चुम्बक बनो।

2. जो सदा अपने को बापदादा के साथ समझते, कभी अकेला नहीं समझते ऐसे कम्बाइन्ड अनुभव करने वाले सदा हल्के रहते हैं।

3. सदा अपने को लाइट हाउस, माइट हाउस समझने से पाप कर्म नहीं होगा।



09-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"मेहनत सामप्त कर निरन्तर योगी बनो"

आज दिलवाला बाप बच्चों के दिल की लगन को देख हर्षित हो रहे हैं। आज का मिलन दिलाराम बाप और दिलरूबा बच्चों का है। चाहे सम्मुख हैं, चाहे शरीर से दूर हैं लेकिन दिल के समीप हैं। दूर रहने वाले बच्चे भी अपनी दिल की लगन से दिलाराम बाप के सम्मुख हैं। ऐसे दिलरूबा बच्चे जिनके दिल से बाबा का ही साज बजता रहता है - अनहद साज, हद का नहीं - ऐसे बच्चे बाप के अब भी नयनों में समाये हुए हैं। उन्हों को भी बाप-दादा विशेष याद का रेसपान्ड कर रहे हैं। दिलाराम बाप के दिल तख्तनशीन तो सब बच्चे हैं फिर भी नम्बरवार तो कहेंगे ही। जैसे माला के मणके तो सब हैं लेकिन कहाँ आठ और कहाँ 16 हजार का लास्ट दाना। कहेंगे मणके दोनों को लेकिन अन्तर महान है। इन नम्बर का आधार मुख्य सलोगन है - पवित्र और योगी बनो।' एक हैं योग लगाने वाले योगी। दूसरे हैं सदा योग में रहने वाले योगी। तीसरे हैं योग द्वारा विघ्न हटाने, पाप मिटाने की मेहनत में रहने वाले। जितनी मेहनत उतना फल पाने वाले। जैसे आजकल की दुनिया में एक हैं जो पूर्व जन्म के, भक्ति के हिसाब से किए हुए श्रेष्ठ कर्म के आधार से, हद की राजाई का वर्सा बिना मेहनत के पाते हैं। वर्सें के अधिकार से प्राप्ति है इस कारण राजाई का नशा स्वत: ही रहता है। याद नहीं करना पड़ता कि मैं राजकुमार हूँ या राजा हूँ। नैचुरल स्मृति और सम्पत्ति की प्रापति होती है। आजकल तो राजायें हैं नहीं लेकिन यह द्वापर के आरम्भ की बात है, सतोगुणी भक्ति के समय की बात है। ऐसे नम्बर वन बच्चे स्वत: योगी जीवन में रहते हैं। प्राप्ती के भण्डार वर्से के आधार से सदा भरपूर रहते हैं। मेहनत नहीं करते - आज सुख दो, आज शान्ति दो। संकल्प का बटन दबाया और खान खुल जाती है। सदा सम्पन्न रहते हैं। अर्थात् योगयुक्त, योग लगा हुआ ही रहता है।

2. दूसरे नम्बर के हैं - योग लाने वाले। वह ऐसे हैं जैसे आजकल के बिजनेसमैन। कभी बहुत कमाते कभी कम कमाते। फिर भी खज़ाने रहते हैं।द्य कमाई का नशा रहता है खुशी भी रहती है लेकिन निरन्तर एकरस नहीं रहती है। कभी देखा तो बहुत सम्पन्नता का स्वरूप होगा और कभी - अभी और चाहिए अभी और चाहिए का संकल्प मेहनत में लायेगा। सदा सम्पन्न सदा एकरस नहीं होंगे। सदा स्वयं से सन्तुष्ट नहीं होगें। यह है योग लगाने वाले। लगाने वाले अर्थात् टूटता तब फिर लगाते हैं।

3. तीसरे हैं - जैसे आजकल के नौकरी करने वाले। कमाया और खाया। जितना कमाया उतना आराम से खाया। लेकिन स्टाक जमा नहीं होगा। इसलिए सदा खुशी में नाचने वाले नहीं होंगे। मेहनत के कारण कब दिलशिक्स्त और कब दिलखुश होंगे। ऐसे तीन प्रकार के बच्चे हैं।

बाप कहते हैं - सबको वर्से में सर्व प्राप्तियों का खज़ाना मिला है, अधिकारी हो, नैचुरल योगी हो, नैचुरल स्वराज्यधारी हो। बाप के खज़ाने के बालक सो मालिक हो। तो इतनी मेहनत क्यों करते हो? मास्टर रचता और नौकर के समान मेहनत करें यह क्यों? जैसे वह 200 कमाते और 200 खाते। दो हजार कमाते और दो हजार खाते वैसे दो घण्टा योग लगाते और दो घण्टा उसका फल लेते। आज 6 घण्टा योग लगा आज 4 घण्टा योग लगा यह क्यों? वारिस कभी भी यह नहीं कहता कि दो दिन की राजाई है, 4 दिन की राजाई है। सदा बाप के बच्चे हैं और सदा खज़ाने के मालिक हैं। कहना बाबा और करना याद की मेहनत, दोनों बाते एक दो के विपरीत हैं। तो सदा यह सलोगन याद रखो - कि मैं एक श्रेष्ठ आत्मा बालक सो मालिक हूँ। सर्व खज़ानें की अधिकारी हूँ। खोया - पाया, खोया - पाया यह खेल नहीं करो। जो पाना था वह पा लिया फिर खोना और पाना क्यों! नहीं तो यह गीत को बदली करो। पा रहा हूँ, पा रहा हूँ यह अधिकारी के बोल नहीं। सम्पन्न बाप के बालक हो सागर के बच्चे हो। अब क्या करेंगे? निरंतर योगी बनो - मैं कौन हूँ? हम सो ब्राह्मण सो देवता हैं व हम सो क्षत्रिय सो देवता हैं? बाप-दादा को बच्चों की मेहनत देख तरस पड़ता है। राजा के बच्चे नौकरी करें, यह शोभता है? सब मालिक बनो।

आज तो सिर्फ पार्टियों से ही मिलना है। लेकिन मुरली क्यों चली, इसका भी राज है। आज बहुत महावीर बच्चे बाबा को खींच रहे हैं। बाप-दादा आज उन्हों को सम्मुख रख मुरली चला रहे हैं। देश-विदेश के बहुत महावरी बच्चे याद कर रहे हैं। बाप-दादा भी ऐसे सेवाधारी आज्ञाकारी स्वत: योगी बच्चों को विशेष याद दे रहे हैं।

मधुबन निवासी विदेशी बच्चों को भी जो बड़े स्नेह से चात्रक बन मुरली सुनने के सदा अभिलाषी रहते हैं, ऐसे सर्विसएबुल लव- फुल, लवलीन बच्चों को भी बाप-दादा विशेष याद प्यार दे रहे हैं। मुधुबन निवासी और जो भी नीचे बैठे हैं लेकिन बाप-दादा के नयनों के सामने हैं ऐसे अथक सेवाधारी बच्चों को विशेष यादप्यार। साथ-साथ सम्मुख बैठे लेकी सितारे को भी विशेष यादप्यार और नमस्ते।

‘‘बंगाल बिहार, नेपाल जोन के भाई बहनों से प्रसनल मुलाकात''

मुरली तो सुनी, अब सुनने के बाद स्वरूप में लाना। एक होता है स्मृति में लाना और दूसरा हैं स्वरूप में लाना। जो कुछ सुनते हैं। स्मृति में तो सब लाते हैं, अज्ञानी भी सुने हुए को याद करते हैं लकिन ज्ञान का अर्थ ही है स्वरूप में लाना। तो कौन सी बात स्वरूप में लायेंगे। बालक सो मालिक , यह है स्वरूप में लाना। पुरूषार्थ के साथ-साथ प्रालब्ध का अनुभव हो। ऐसे नहीं अभी तो पुरूषार्थी हैं प्रालब्ध भविष्य में मिलेगी। संगमयुग की विशेषता ही है अभी-अभी पुरूषार्थ अभी-अभी प्रत्यक्ष फल। अभी स्मृति स्वरूप अभी अभी प्राप्ती का अनुभव। भविष्य की गारन्टी तो है लेकिन भविष्य से भी श्रेष्ठ भाग्य अब का है। अभी का वर्सा तो प्राप्त है ना? पा लिया है या पाना है? अगर पा लिय है तो फिर फरियाद तो नहीं करतेहो अमृत बेले? या तो है याद या है फरियाद। जहाँ यद है वहाँ फरियाद नहीं, जहाँ फरियाद है वहाँ याद नहीं। तो फरियाद समाप्त हुई? क्वेश्चन मार्क खत्म? फरियाद में होता है क्वेश्चन मार्क और याद में फुलस्टाप अर्थात् बिन्दी। बिन्दी स्वरूप बन बिन्दी को याद करना है। बाप भी बिन्दी आप भी बिन्दी। तो परिवर्त्तन भूमि में आकर कोई न कोई विशेष परिवर्त्तन जरूर करना चाहिए। अब फिरयाद को छोड़कर स्वत: योगी बनरक जाना। फिरयाद में उलझन होती है खुश नहीं। तो बाप से खुशी का खज़ाना लेना है, उलझन नहीं। उलझन तो लौकिक बाप का खज़ाना था अब वह तो खत्म हो गया। लौकिक सम्बन्ध खत्म तो फरियाद भी खत्म। अलौकिक बाप अलौकिक वर्सा। तो फरियाद की लिस्ट की चिटठी खत्म हो गया ना! फाड़ दिया ना! अगर मिटा हुआ होगा तो भी कहेंगे कि लिखा हुआ था, इसलिए फाड़कर खत्म करो। सेवा में समय दो जब तक तैयार नहीं होते हो तब तक राज्य आने में देरी है। सेवा का कोई नया प्लैन बनाया है? महायज्ञ में तो सभी ने सेवा की ना! ब्राह्मणों का संगठन होना ही, हाजिर होना ही सेवा है। यह कोई कम बात नहीं है। समय पर हाजिर होना, एवररेडी होना सहनशक्ति का लक्ष्य रखना यह भी रजिस्टर में जमा होता है। जिसका फिर लास्ट रिजल्ट से कनेक्शन होता है। जैसे आजकल भी 3 मास 6 मास में इम्तिहान लेते हैं फिर सबको मार्क्स का फाइनल से कनेक्शन करते हैं तो जो भी ब्राह्मणों के श्रेष्ठ कार्य होते हैं उनमें सहयोगी बनना इसकी भी मार्क्स हैं। वह मार्क्स अन्तिम रिजल्ट के लिए जमा हो गई। सहन किया, तन-मन-धन लगाया, लगाना माना पाना। डायरेक्शन प्रमाण किया यह भी मार्क्स जमा हुई। महायज्ञ में सिर्फ आना नहीं हुआ लेकिन फाइनल रिजल्ट की मार्क्स जमा हुई। तो सेवा हुई ना। यह आवाज बुलन्द करना भी सेवा का एक सबजेक्ट है। सेवा के कई स्वरूप होते हैं तो यह संगठि त रूप में आवाज बुलन्द होना भी यह भी सेवा है। परिवार को देखकर खुशी हुई ना। कितने भाई बहनों को देखा। इतना बड़ा परिवार को कभी किसी युग में किसका होता नहीं। यह भी सैम्पुल था सारा परिवार तो नहीं था ना। सारा परिवार इक्टठा करें तो पूरी दिल्ली अपनी बनानी पड़े। आबू में इकट्ठा करें तो आबूरोड़ तक अपना बनाना पड़े। वह भी दिन आयेगा जो सब आफर करेंगे कि जमारे मकान में आओ। कलकत्ता का विक्टोरिया ग्राउण्ड आपको तैयार करके देंगे। कहेंगे आओ - पधारो। धीरे-धीरे आवाज। फैलेगी। अभी यह तो समझते हैं ना कि यह कोई कम नहीं हैं। ब्रह्मा बाप के अव्यक्त होने के बाद इतना संगठन कहो यह देखकर बलिहारी जाते हैं। अब जगह संस्था टूटती है यहाँ बढ़ती है यह कमाल देखते हैं। सभी ने अपने-अपने शुद्ध संकल्प से, सहयोग की शक्ति, संगठन की शक्ति से, सेवा की। अभी सब जगह से निमन्त्रण मिलेगा। यह राष्ट्रपति भवन आपका घर हो जायेगा।

2. अपने को सदा दिल तख्तनशीन समझते हो? यह दिलतख्त सारे कल्प में सिवाए इस संगम युग के कहाँ भी प्राप्ति नहीं हो सकता। दिखतख्त पर कौन बैठ सकता है? जिसकी दिल सदा एक दिलाराम बाप के साथ है। एक बाप दूसरा न कोई ऐसी स्थिति में रहने वालों के लिए स्थान है दिलतख्त। तो किस स्थान पर रहते हो? अगर तख्त छोड़ देते हो तो फाँसी के तख्तेपर चले जाते। जनम जन्मान्तर के लिए माया की फाँसी में फंस जाते हो। यह तो है बाप का दिलतख्त या है माया की फाँसी का तख्ता। तो कहाँ रहना है? एक बाप के सिवाए और कोई याद न आये अपना शरीर भी नहीं। अगर देह याद आई तो देह के साथ देह के सम्बन्ध, पदार्थ, दुनिया सब एक के पीछे आ जायेंगे। जरा संकल्प रूप में भी अगर सूक्ष्म धागा जुटा हुआ होगा तो वह अपनी तरफ खींच लेगा। इसलिए मंसा, वाचा कर्मणा में कोई सूक्ष्म में भी रस्सी न हो। सदा मुक्त रहो तब औरों को भी मुक्त कर सकेंगे। आजकल सारी दुनिया माया के जाल में फँसकर तड़प रही है, उन्हें इस जाल से मुक्त करने के लिए पहले स्वयं को मुक्त होना पड़े। सूक्ष्म संक्लप में भी बंधन न हो। जितना निर्बन्धन होंगे उतना अपनी ऊंची स्टेज पर स्थित हो सकेंगे। बंधन होगा तो ऊंचा चाहते भी नींच आ जायेंगे।

3. सभी अपने को इस विश्व के अन्दर सर्व आत्माओं में से चुनी हुई श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? यह समझते हो कि स्वंय बाप ने हमें अपना बनाया है? बाप ने विश्व के अन्दर से कितनी थोड़ी आत्माओं को चुना। और उनमें से हम श्रेष्ठ आत्मायें हैं। यह संकल्प करते ही क्या अनुभव होगा? अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होगी। ऐसे अनुभव करते हो? अतीन्द्रिय सुख की अनुभूति होती है वा सुना है? प्रैक्टिकल का अनुभव है वा सिर्फ नालेज है? क्योंकि ज्ञान अर्थात् समझ। समझ का अर्थ ही है अनुभव में लाना। सुनना, सनाना अलग चीज़ है, अनुभव करना और चीज़ है। यह श्रेष्ठ ज्ञान है अनुभवी बनने का। द्वापर से अनेक प्रकार ज्ञान सुने और सुनाये। जो आधाकल्प किया वह अभी भी किया तो क्या बड़ी बात! यह नई जीवन, नया युग, नई दुनिया के लिए नया ज्ञान, तो इसकी नवीनता ही तब है जब अनुभव में लाओ। एक एक शब्द, आत्मा, परमात्मा, चक्र कोई भी ज्ञान का शब्द अनुभव में आये। । रियलाइजेशन हो। आत्मा हूँ यह अनुभूति हो, परमात्मा का अनुभव हो इसको कहा जाता है नवीनता। नया दिन, नई रात, नया परिवार सब कुछ नया ऐसे अनुभव होता है? भक्ति का फल अभी ज्ञान मिल रहा है तो ऐसे ज्ञान के अनुभवी बनो अर्थात् स्वरूप में लाओ।

4. सब विजयी रतन हो ना? विजय का झण्डा पक्का है ना। विजय हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। यह मुख का नारा नहीं लेकिन प्रैक्टिकल जीवन का नारा है। कल्प-कल्प के विजय हैं अब की बार नहीं हर कल्प के, अनगिनत बार के विजयी हैं। ऐसे विजयी सदा हर्षित रहते हैं। हार के अन्दर दुख की लहर होती है। सदा विजयी जो होंगे वह सदा खुश रहेंगे,कभी भभ् किसी सर्कमस्टाँस में भी दुख की लहर नहीं आ सकती। दुख की दुनिया से किनारा हो गया, रात खत्म हुई, प्रभात में आ गये तो दुख की लहर कैसे आ सकती। विजय का झण्डा सदा लहराता रहे नींचे न हो।

विदाई के समय दीदी से - बाप-दादा भी प्रेम के बंधन में बंधे हुए हैं। छूटने चाहें तो भी छूट नहीं सकते हैं? इसीलिए भक्ति में भी बंधन का चित्र दिखाया है। प्रैक्टिकल में प्रेम के बन्धन में अव्यक्त होते भी बंधना पड़ता है। व्यक्त से छुड़ाया फिर भी छूट नहीं सकते। इसीलिए आप भी बंधन में हो। बाप भी बंधन में है। (विदेशियों की ओर इशारा) यह भी तपस्या कर रहे हैं। दिन है वा रात है? इसीलिए तो कहते हैं जादू लगा दिया।

मुरली का सार

1. संगम युग की विशेषता है अभी-अभी पुरूषार्थ अभी-अभी प्रत्यक्ष फल।

2. जहाँ याद है वहाँ फरियाद नहीं, जहाँ फरियाद है वहाँ याद नहीं।

3. एक बाप दूसरा न कोई ऐसी स्थिति में स्थित रहने वालों के लिए स्थान है बाप का दिल तख्त। या तो है बाप दादा का दिल तख्त या है माया की फाँसी का तख्ता।



11-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सफलता के दो मुख्य आधार"

आज खुदा दोस्त अपने बच्चों से फ्रेंड के रूप में मिल रहे हैं। एक खुदा दोस्त के कितने फ्रेंडस होंगे? वैसे सतगुरू भी हैं, शिक्षक भी हैं, सर्व सम्बन्ध निभाने वाले हैं। आप सबको सबसे ज्यादा प्यारा सम्बन्ध कौन-सा लगता है? किसको टीचर अच्छा लगता, किसको साजन अच्छा लगता, किसको फ्रेंड अच्छा लगता है। लेकिन है तो एक ही ना। इसलिए एक से कोई भी सम्बन्ध निभाने से सर्व प्राप्ति हो ही जायेगी। यही एक जादूगरी है। जो एक से ही जो चाहो वह सम्बन्ध निभा सकते हो। और कहाँ जाने की आवश्यकता ही नहीं। इससे कोई और मिले यह इच्छा खत्म हो जाती है। सर्व सम्बन्ध की प्रीत निभाने के अनुभवी हो चुके हो? हो चुके हो या अभी होना है? क्या समझते हो! पूर्ण अनुभवी बन चुके हो? आज आफीशल मुरली चलाने नहीं आये हैं। बाप-दादा भी अपने सर्व सम्बन्धों से दूर-दूर से आई हुई आत्माओं को देख हर्षित हो रहे हैं। सबसे दूरदेशी कौन हैं? आप तो फिर भी साकारी लोक से आये हो, बाप-दादा आकारी लोक से भी परे निराकारी वतन से आकारी लोक में आये फिर साकार लोक में आये हैं। तो सबसे दूरदेशी बाप हुआ या आप हुए? इस लोक से हिसाब से जो सबसे ज्यादा दूर से आये हैं उन्हो को भी बाप-दादा स्नेह से मुबारक दे रहे हैं। सबसे दूर से आने वाले हाथ उठाओ। जितना दूर से आये हो, जितने मालइ चलकर आये हो उतने माइल से पदमगुणा एड करके मुबारक स्वीकार करें।

फारेनर्स अर्थात् फार एवर। ऐसे वरदानी हो ना? फारेनर्स नहीं लेकिन फार एवर। सदा सेवा के लिए एवररेडी। डायरेक्शन मिला और चल पड़े, यह है फार एवर ग्रुप की विशेषता। अभी-अभी अनुभव किया और अभी-अभी अनुभव कराने के लिए हिम्मत रख सेवा परउपस्थित हो जाते। यह देख बाप-दादा भी अति हर्षित होते हैं। एक से अनेक सेवाधज्ञरी निमित्त बन गये। सेवा की सफलता के विशेष दो आधार हैं, वह जानते हो? (कई उत्तर निकले) सबके उत्तर अपने अनुभव के हिसाब से बहुत राइट हैं। वैसे सेवा में वा स्वंय की चढ़ती कला में सफलता का मुख्य आधार है - एक बाप से अटूट प्यार। बाप सिवाए और कुछ दिखाई न दे। संकल्प में भी बाबा, बोल में भी बाबा, कर्म में भी बाप का साथ। ऐसी लवलीन आत्मा एक शब्द भी बोलती है तो उसके स्नेह के बोल दूसरी आत्मा को भी स्नेह में बाँध देते हैं। ऐसी लवलीन आत्मा का एक बाबा शब्द ही जादू की वस्तु का काम करता है। लवलीन आत्मा रूहानी जादूगर बन जाती है। एक बाप का लव अर्थात् लवलीन आत्मा। दूसरा सफलता का आधार हर ज्ञान की पाइंट के अनुभवी मूत होना। जैसे ड्रामा की पाइंट देते हैं, तो एक होता है नालेज के आधार पर पाइंट देना। दूसरा होता है। अनुभवी मूर्त्त होकर पाइंट देना ड्रामा की पाइंट के जो अनुभवी होंगे वह सदा साक्षीपन की स्टेज पर स्थिति होंगे। एक रस, अचल और अडोल होंगे। ऐसी स्थिति में स्थित रहने वाले को अनुभवी मूर्त्त कहा जाता है। रिजल्ट में बाहर के रूप से भले अच्छा हो वा बुरा हो। लेकिन ड्रामा के पाइंट की अनुभवी आत्म कभी भी बुरे में भी बुराई को न देख अच्छाई ही देखेगी अर्थात् स्व के कल्याण का रास्ता दिखाई देगा। अकल्याण का खाता खत्म हुआ। कल्याणकारी बाप के बच्चे होने कारण कल्याणकारी युग होने कारण अब कल्याण खाता आरम्भ हो चुका है। इस नालेज और अनुभव की अथार्टी से सदा अचल रहेंगे। अगर गिनती करो तो आप सबके पास कितने प्रकार की अथार्टीज हैं। और आत्माओं के पास एक दो अथार्टी होगी। किसको साइन्स की, किसको शास्त्र की, किसको डाक्टरी के नालेज की, किसको इन्जीनियरी के नालेज की अथार्टी होगी, आपको कौन सी अथार्टी है? लिस्ट निकालो तो बहुत लम्बी लिस्ट हो जायेगी। सबसे पहली अथार्टी वर्ल्ड आलमाइटी आपका हो गया। वर्ल्ड आलमाइटी की अथार्टी। जब वर्ल्ड आलमाइटी बाप आप का हो गया तो वर्ल्ड की जो भी अथार्टीज हैं वह आपकी हो गई। ऐसे लिस्ट निकालो। वर्ल्ड के आदि मध्य अन्त के नालेज की अथार्टी, जिस नालेज के यादगार शास्त्र बाइबिल वा कुरान आदि सब हैं। इसलिए गीता ज्ञान को सर्व शास्त्र वा बुक्स का माई बाप कहते हैं। शिरोमणी कहा जाता है। डायरेक्ट गीता कौन सुन रहा है? तो अथार्टी हो गये ना। इसी प्रकार सर्व धर्में में से नम्बरवन धर्म किसका है? (ब्राह्मणों का) आपके ब्राह्मण धर्म द्वारा ही सब धर्म पैदा होते हैं ब्राह्मण धर्म तना है। और भी इस धर्म की विशेषता है। ब्राह्मण धर्म डायरेक्ट परमपिता का स्थापन किया हुआ है। और धर्म, धर्मपिताओं के हैं और यह धर्म परमपिता का है। वह बच्चों द्वारा हैं। सन आफ गाड कहते हैं। वह गाड नहीं हैं। तो डायरेक्ट परमपिता द्वारा श्रेष्ठ धर्म की स्थापन हुआ, उस धर्म की अथार्टी हो। आदि पिता ब्रह्मा के डायरेक्ट मुख वंशावली की अथार्टी वाले हो। सर्वश्रेष्ठ कर्म के प्रैक्टिकल जीवन की अथार्टी हो। श्रेष्ठ कर्म की प्रालब्ध विश्व के अखण्ड राज्य के अधिकार की अथार्टी हो। भक्तों के पूज्य की अथार्टी हो। ऐसे और भी लिस्ट निकालो तो बहुत निकलेगा। समझा आप कितनी बड़ी अथार्टी हो! भक्तों के पूज्य की अथोर्टी हो। ऐसे और भी लिस्ट निकालो तो बहुत निकलेगा। समझा आप कितनी बड़ी अथार्टी! ऐसे अथार्टी वालों को बाप भी नमस्ते करते हैं। यह सबसे बड़ी अथार्टी है। ऐसे अथार्टी वालों को देख बाप-दादा भी हर्षित होते हैं।

सबने बहुत अच्छी मेहनत कर सेवा के कार्य को विस्तार में लाया है। अपने भटके हुए भाई बहनों को रास्ता बताया है। प्यासी आत्माओं को शान्ति और सुख की अंचली दे तृप्त आत्मा बनाने का अच्छा पुरूषार्थ कर रहे हैं। बाप से किया हुआ वायदा प्रैक्टिकल में निभा के बाप के सामने गुलदस्ते लाये हैं, चाहे छोटे हैं वा बड़े हैं। लेकिन छोटे भी बाप को प्रिय हैं। अब यह वायदा तो निभाया है, और भी विस्तार को प्राप्त करते रहेंगे। कोई ने नैकलेस बनाके लाया है, कोई ने माला बनाके लाई है। कोई ने कंगन, कोई ने रिंग बना के लाई है। तो सारी बाप-दादा की ज्वैलरी। एक-एक रतन वैल्युबल रतन है। ज्वैलरी तो बहुत बढ़िया लाई है बाप के सामने। अब आगे क्या करना है? ज्वैलरी को अब क्या करेंगे? (पालिश) मधुबन में आये हो तो पालिश हो ही जायेगी। अब शो केस मे रखो। वर्ल्ड के शोकेस में यह ज्वैलरी चमकती हुई सभी को दिखाई दे। शोकेस में कैसे आयेंगे? बाप के सामने आये, ब्राह्मणों के सामने आये यह तो बहुत अच्छा हुआ। अब वर्ल्ड के सामने आवे। ऐसा प्लैन बनाओ जो वर्ल्ड के कोने-कोने से यह आवाज निकले। कि यह भगवान के बच्चे कोने-कोने में प्रत्यख हो चुके हैं। चारों ओर एक ही लहर फैल जाए। चाहे भारत में चाहे विदेश के कोने-कोने में। जैसे एक ही सूर्य वा चन्द्रमा समय के अन्तर में दिखाई तो एक ही देता है ना। ऐसे यह ज्ञान सूर्य के बच्चे कोने-कोने से दिखाई दें। ज्ञान सितारों की रिमझिम चारों ओर दिखाई दे। सबके संकल्प में, मुख में यही बात हो कि ज्ञान सितारे ज्ञान सूर्य के साथ प्रगट हो चुके हैं। तब सब तरफ का मिला हुआ आवाज चारों आरे गूंजेगा। और प्रत्यक्षता का समय आयेगा। अभी तो गुप्त पार्ट चल रहा है। अब प्रत्यक्षता में लाओ। इसका प्लैन बनाओ फिर बाप-दादा भी बतायेंगे।

एक-एक रतन की विशेषता वर्णन करें तो अनेक रातें बीत जाएं। हरेक बच्चे की विशेषता हरेक के मस्तक पर मणी के माफिक चमक रही है।

ऐसे सर्व विशेष आत्माओं को, सर्व सपूत अर्थात् सर्विस के सबूत देने वाले, सदा सेवा और याद में रहने वाले सर्विसएबुल मास्टर आलमाइटी अथार्टी, सर्व की मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले अति लवली, लवलीन बच्चों को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।

प्रश्न:- बाप सदा बच्चों को आहवान करते हैं, बाप को भी सभी बच्चे बहुत प्रिय हैं - क्यों?

उत्तर:- बच्चे न हों तो बाप का नाम भी बाला न हो। बाप को बच्चे सदा प्रिय हैं क्योंकि बाप हर बच्चे की विशेषता को देखते हैं। बाप बच्चों के तीनों कालों को जानते हैं। भक्ति में भी कितना धक्का खाया यह भी जानते हैं और अब भी अपने-अपने यथाशक्ति कितना पुरूषार्थ कर आगे बढ़ रहे हैं यह भी जानते हैं और भविष्य में क्या बनने वाले हैं यह भी बाप के आगे स्पष्ट है, तो तीनों कालों को देख बाप को हर बच्चा अति प्रिय लगता है। को देख बाप को हर बच्चा अति प्रिय लगता है।



13-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"डबल रूप से सेवा द्वारा ही आध्यात्मिक जागृति"

आज बाप-दादा सर्व शुभ चिन्तक संगठन को देख रहे हैं। शुभ चिन्तक अर्थात् सदा शुभ चिन्तन में रहने वाले, स्व-चिन्तन में रहने वाले - ऐसे स्व-चिन्तक वा शुभ चिन्तक, सदा बाप द्वारा मिली हुई सर्व प्राप्तियाँ, सर्व खज़ाने वा शक्तियाँ, इन प्राप्तियों के नशे में, साथ-साथ सम्पूर्ण फरिश्ते वा सम्पूर्ण देवता बनने के निशाने के स्मृति स्वरूप रहते है? जितना नशा उतना निशाना स्पष्ट होगा। समीप होने कारण ही स्पष्ट होता है। जैसे अपने पुरूषार्थ का रूप स्पष्ट है वैसे सम्पूर्ण फरिश्ता रूप भी इतना हीह स्पष्ट अनुभव होगा। बनूंगा या नहीं बनूंगा यह संकल्प भी उत्पन्न नहीं होगा। अगर ऐसा कोई संकल्प आता है कि बनना तो चाहिए, वा जरूर बनेंगे ही। इससे सिद्ध होता है अपना फरिश्ता स्वरूप इतना समीप वा स्पष्ट नहीं। जैसे अपना ब्रह्माकुमार ब्रह्माकुमारी का स्वरूप स्पष्ट है और निश्चयबुद्धि होकर कहेंगे कि हाँ हम ब्रह्माकुमार कुमारी हैं, ऐसे नहीं कहेंगे कि हम भी ब्रह्माकुमार कुमारी होने तो चाहिए। हूँ तो मैं ही। यह ‘‘तो' 'शब्द नहीं निकलेगा। कहेंगे हाँ हम ही हैं। क्वेशचन नहीं उठेगा कि मैं हूँ या नहीं हूँ। कोई कितना भी क्रास एग्जामिन करे कि आप ब्रह्माकुमार कुमारी नहीं हो, भारत के ही ब्रह्माकुमार कुमारी हैं, बड़े-बड़े महारथी ब्रह्माकुमार कुमारी हैं, आप तो विदेशी क्रिश्चियन हो, ब्रह्मा तो भारत का है, आप कैसे ब्रह्मा कुमार कुमारी बनेंगे! गलती से क्रिश्चियन कुमार कुमारी के बदले ब्रह्माकुमार कुमारी कहते हो। ऐसा कोई कहे तो मानेंगे? नहीं मानेंगे ना। निश्चय बुद्धि हो उत्तर देंगे कि ब्रह्माकुमार कुमारी हम अभी के नहीं हैं लेकिन अनेक कल्पों के हैं। ऐसा निश्चय से बोलेंगे ना। वा कोई पूछेगा तो सोच में पड़े जायेंगे? क्या करेंगे? सोचेंगे वा निश्चय से कहेंगे कि हम ही हैं जैसे यह ब्रह्माकुमार कुमारी का पक्का निश्चय है, स्पष्ट है, अनुभव है, ऐसे ही सम्पूर्ण फरिश्ता स्टेज भी इतनी किलियर और अनुभव में आती है? आज पुरूषार्थी हैं कल फरिश्ता। ऐसा पक्का निश्चय हो जो कोई भी इस निश्चय से टाल न सके। ऐसे निश्चयबुद्धि हो? फरिश्ते स्वरूप की तस्वीर स्पष्ट सामने है! फरिश्ते स्वरूप की स्मृति, वृत्ति, दृष्टि, कृति वा फरिश्ते स्वरूप की सेवा क्या होती है उसकी अनुभूति है? क्योंकि ब्रह्माकुमार वा कुमारी स्वरूप की सेवा का रूप तो हरेक यथा शक्ति अनुभव कर रहे हैं। इस सेवा का परिणाम आदि से अब तक देख लिया। इस रूप की सेवा की भी आवश्यकता थी जो हुई और हो भी रही है,होती भी रहेगी।

आगे चल समय और आत्माओं की इच्छा की आवश्यकता अनुसार डबल रूप के सेवा की आवश्यकता होगी। एक ब्रह्माकुमार कुमारी स्वरूप अर्थात् साकारी स्वरूप की, दूसरी सूक्ष्म आकारी फरिश्ते स्वरूप की। जैसे ब्रह्मा बाप की दोनों ही सेवायें देखी। साकार रूप की भी, और फरिश्ते रूप की भी। साकार रूप की सेवा से अव्यक्त रूप के सवा की स्पीड तेज है। यह तो जानते हो, अनुभवी हो ना? अब अव्यक्त ब्रह्मा बाप अव्यक्त रूपधारी बन अर्थात् फरिश्ता रूप बन बच्चों को अव्यक्त फरिश्ते स्वरूप की स्टेज में खींच रहे हैं। फालो फादर करना तो आता है ना। ऐसे तो नहीं सोचते हम भी शरीर छोड़ अव्यक्त बन जावें। इसमें फालो नहीं करना। ब्रह्मा बाप फरिश्ता बना ही इसलिए कि अव्यक्त रूप का अग्जैम्पुल देख फालो सहज कर सको। साकार रूप में न होते हुए भी फरिश्ते रूप से साकार रूप समान ही साक्षात्कार कराते हैं ना। विशेष विदेशियों को अनुभव है। मधुबन में साकार ब्रह्मा की अनुभूति करते हो ना। कमरे में जा करके रूहरूहाण करते हो ना! चित्र दिखाई देता है या चैतन्य दिखाई देता है। अनुभव होता है तब तो जिगर से कहते हो ब्रह्मा बाबा। आप सबका ब्रह्मा बाबा है या पहले वाले बच्चों का ब्रह्मा बाबा है? अनुभव से कहते हो वा नालेज के आधार से कहते हो? अनुभव है? जैसे अव्यक्त ब्रह्मा बाप साकार रूप की पालना दे रहे हैं। साकार रूप की पालना का अनुभव करा रहे हैं, वैसे आप व्यक्त में रहते अव्यक्त फरिश्ते रूप का अनुभव करो। सभी को यह अनुभव हो कि यह सब फरिश्ते कौन हैं और कहाँ से आये हुए हैं! जैसे अभी चारों ओर यह आवाज फैल रहा है कि यह सफेद वस्त्रधारी कौन हैं और कहाँ से आये हैं! वैसे चारों ओर अब फरिश्ते रूप का साक्षात्कार हो। इसको कहा जाता है डबल सेवा का रूप। सफेद वस्त्रधारी औरसफेद लाइटधारी। जिसको देख न चाहते भी ऑख खुल जाए। जैस अन्धकार में कोई बहुत तेज लाइट सामने आ जाती है तो अचानक ऑख खुल जाती है ना कि यह क्या है, यह कौन है, कहाँ से आई! तो ऐसे अनोखी हलचल मचाओ। जैसे बादल चारों ओर छा जाते हैं, ऐसे चारों ओर फरिश्ते रूप से प्रगट हो जाओ। इसको कहा जाता है - आध्यात्मिक जागृति। इतने सब जो देश विदेश से आये हो, ब्रह्माकुमार कुमारी स्वरूप की सेवा की! आवाज बुलन्द करने की जागृति का कार्य किया। संगठन का झण्डा लहराया। अब फिर नया प्लैन करेंगे ना। जहाँ भी देखें तो फरिश्ते दिखाई दें, लण्डन में देखें, इण्डिया में देखें जहाँ भी देखें फरिश्ते-ही- फरिश्ते नजर आयें। इसके लिए क्या तैयारी करनी है। वह तो 10 सूत्री प्रोग्राम बनया था, इसके कितने सूत्र हैं? वह 10 सूत्री कार्यक्रम, यह है 16 कला के सूत्र का कार्यक्रम। इस पर आपस में भी रूह-रूहान करना और फिर आगे सुनाते रहेंगे। प्लैन बताया अब प्रोग्राम बनाना। मुख्य थीम बता दी है, अब डिटेल प्रोग्राम बनाना। ऐसे सदा शुभ-चिंतन में रहने वाले, शुभ चिन्तक, डबल रूप द्वारा सेवा करने वाले, डबल सेवाधारी, ब्रह्मा बाप को फालो करने वाले, निराकार बाप को प्रत्यक्ष करने वाले, सदा बाप समान सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न आत्माओं को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।

पर्सनल मुलाकात टीचर्स के साथ - टीचर्स तो है ही सदा भरपूर आत्मायें। ड्रामा अनुसार निमित्त बने हो, अच्छी मेहनत कर रहे हो और आगे भी करते ही रहेंगे। रिजल्ट अच्छी है। और भी अच्छी होगी। समय समीप आने के कारण जल्दी-जल्दी सेवा का विस्तार बढ़ता ही जायेगा। क्योंकि संगम पर ही त्रेता के अन्त तक की प्रजा, रायल फैमली और साथ-साथ कलियुग के अन्त तक की अपने धर्म की आत्मायें तैयार करनी है। विदेश के सभी स्थान पिकनिक के स्थान बनेंगे लेकिन ब्राह्मण आत्मायें तो राजाई घराने में आयेंगी, वहाँ राजाई नहीं करनी है, राजाई तो यहाँ करेंगे। सब अच्छी सेवा कर रहे हो लेकिन अभी और भी सेवा में, मनसा सेवा पावरफुल कैसे हो इसका विशेष प्लैन बनाओ। वाचा के साथ-साथ मंसा सेवा भी बहुत दूर तक कार्य कर सकती है। ऐसे अनुभव होगा। जैस आजकल फलाईग सासर देखते हैं वैस आप सबका फरिश्ता स्वरूप चारों ओर देखने में आयेगा और आवाज निकलेगा कि यह कौन हैं जो चक्र लगाते हैं। इस पर भी रिसर्च करेंगे। लेकिन आप सबका साक्षात्कार ऊपर से नीचे आते ही हो जायेगा और समझेंगे यह वही ब्रह्माकुमार कुमारियाँ हैं जो फरिश्ते रूप में साक्षात्कार करा रही हैं। अभी यह धूम मचाओ। अन्त: वाहक शरीर से चक्र लगाने का अभ्यास करो। ऐसा समय आयेगा जो प्लेन भी नहीं मिल सकेगा। ऐसा समय नाजुक होगा तो आप लोग पहले पहुँच जायेंगे। अन्त: वाहक शरीर से चक्र लगाने का अभ्यास जरूरी है। ऐसा अभ्यास करो जैस प्रैक्टिकल में सबदेखकर मिलकर आये हैं। दूसरे भी अनुभव करें - हाँ यह जमारे पास वहीं फरिश्ता आया था। फिर ढूंढने निकलेंगे फरिश्तों को। अगर इतने सब फरिश्ते चक्र लगायें तो क्या हो जाये? ऑटोमेटिकली सबका अटेन्शन जायेगा। तो अभी साकारी के साथ-साथ आकारी सेवा भी जरूर चाहिए। अच्छा - अभी अमृतबेले शरीर से डिटैच हो कर चक्र लगाओ।

प्रश्न:- सबसे बड़े ते बड़ी सेवा कौन-सी है जो तुम रूहानी सेवाधारियों को जरूर करनी है?

उत्तर:- किसी के दु:ख लेकर सुख देना यह है सबसे बड़ी सेवा। तुम सुख के सागर बाप के बच्चे हो, तो जो भी मिले उनका दु:ख लेते जाना और सुख देते जाना। किसका दु:ख लेकर सुख देना यही सबसे बड़े ते बड़ा पुण्य का काम है। ऐसे पुण्य करते-करते पुण्यात्मा बन जायेंगे। पुण्यात्मा बन जायेंगे।



15-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"स्वदर्शन चक्रधारी तथा चक्रवर्ता ही विश्व-कल्याणकारी"

आज नालेजफुल बाप अपने मास्टर नालेजफुल बच्चों को देखकर हर्षित हो रहे हैं हरेक बच्चा, बाप द्वारा मिली हुई नालेज में अच्छी तरह से रमण कर रहे हैं। हरेक नम्बरवार यथा योग यथा शक्ति अनुसार नालेजफुल स्टेज का अनुभव कर रहे हैं। नालेजफुल स्टेज अर्थात् सारी नालेज के हरेक पाइंट के अनुभवी स्वरूप बनना। जब बाप-दादा डायरेक्शन देते हैं कि नालेजफुल स्टेज पर स्थित हो जाओ तो एक सेकेण्ड में उस स्थिति में स्थित हो सकते हो? हो सकते हो वा हो गये हो? उस स्थिति में स्थित होकर फिर विश्व की आत्माओं तरफ देखो। क्या अनुभव करते हो? सर्व आत्मायें कैसे दिखाई देती हैं, अनुभव कर रहे हो? विश्व का दृश्य क्या दिखाई देता है? आज बापदादा के साथ-साथ नालेजफुल स्टेज पर स्थित हो जाओ। अनुभव करो कि इतनी शक्तिशाली विशाल बुद्धि की स्टेज है। त्रिकालदर्शी, त्रिनेत्री, दूरांदेशी, वर्ल्ड आलमाइटी अथार्टी, सर्व गुण और प्राप्ति सम्पन्न खज़ाने के मालिक पन की कितनी ऊंची स्टेज है! उस ऊंची स्टेज पर बैठ नीचे देखो। सब प्रकार की आत्माओं को देखो। पहले-पहले अपनी भक्त आत्माओं को देखो - क्या दिखाई दे रहा है? हरेक ईष्ट देव के अनेक प्रकार की भक्ति करने वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के भक्तों की लाइनें हैं। अनगिनत भक्त हैं। कोई सतोप्रधान भक्त हैं अर्थात् भावना पूर्वक भक्ति करने वाले भक्त हैं। कोई रजो, तमोगुणी अर्थात् स्वार्थ अर्थ भक्त। लेकिन हैं वह भी भक्तों की लाइन में। बिचारे ढूंढ़ रहे हैं, भटक रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। क्या उन्हों की पुकार सुन सकते हो? (एक मक्खी बाबा के आगे घूम रही थी।) जैसे यह मक्खी भटक रही है तो जैसे इनको ठिकाना देने का संकल्प आता है वैसे भक्तों के लिए ऐसा तीव्र संकल्प आता है? अच्छा - भक्तों को तो देख लिया।

अब धार्मिक लोगों को देखो। कितने प्रकार के नाम, वेष और कार्य की विधि है, कितने वैरायटी प्रकार के आकर्षण करने वाले साधन अपनाये हुए हैं। यह भी बड़ी अच्छी रौनक की धर्म की बड़ी बाजार लगी हुई है। हरेक के शोकेस में अपने-अपने विधि का शोपीस दिखाई देता है। कोई खूब खा पी रहा है। कोई खाना छोड़ के तपस्या कर रहा है। एक की विधि है खाओ पियो मौज करो, दूसरे की विधि है - सबका त्याग करो। वन्डरफुल दृश्य है ना! कोई लाल तो कोई पीला। भाँति-भाँति की थ्योरी है। उन्हों को देख - हे मास्टर नालेजफुल! क्या संकल्प आता है? धर्म आत्माओं के भी कल्याणकारी मास्टर परमात्मा, क्या सोच चलता है? विश्व के उद्धारमूर्त्त को इन आत्माओं के भी उद्धार का संकल्प उत्पन्न होता है। वा स्व के उद्धार में ही बिजी हो। अपने सेवाकेन्द्रों में ही बिजी हो? सर्व आत्माओं के पिता के बच्चे हो, सर्व आत्मायें आपके भाई हैं। हे मास्टर नालेजफुल, अपने भाइयों के तरफ संकल्प की नजर भी कब जाती है? विशाल बुद्धि दूरांदेशी अनुभव करते हो? छोटी-छोटी बातों में तो समय नहीं जा रहा है, ऊंची स्टेज पर स्थित हो विशाल कार्य दिखाई देता है?

अब तीसरे तरफ भी देखो। वर्त्तमान संगम समय पर और साथ-साथ भविष्य में भी आपके राज्य में सहयोग देने वाले विज्ञानी आत्मायें, वह भी कितनी मेहनत कर रहे हैं। क्या-क्या इन्वेन्शन निकाल रहे हैं। अभी भी आप जो सुन रहे हो, वैज्ञानियों के सहयोग (माइक, हैडफोन आदि) कारण सुन रहे हो। रिफाइन इन्वेन्शन तैयार कर आप श्रेष्ठ आत्माओं को गिफ्ट में दे चले जायेंगे। इन आत्माओं का भी कितना त्याग है! कितनी मेहतनत है! कितना दिमाग है! मेहनत खुद करते और प्रालब्ध आपको देते। इन आत्माओं को भी आफरीन और थैंक्स तो देंगे ना! विश्व कल्याणकारी इन आत्माओं के कल्याण की भी विधि संकल्प में आती है? वा यह समझकर छोड़ देते कि यह तो नास्तिक हैं, यह क्या जानें? लेकिन नास्तिक हैं वा आस्तिक हैं, फिर भी बच्चे तो हैं ना! आपके भाई तो हैं! ब्रदरहुड के नाते से भी इन आत्माओं को भी किसी प्रकार से वर्सा तो मिलेगा ना! विश्व-कल्याणकारी के रूप में इस तरफ आपके कल्याण की नजर नहीं तो जायेगी! वा इन आत्माओं के तरफ कल्याण की नजर नहीं डालेंगे? यह भी अधिकारी हैं। हरेक के अधिकार लेने का रूप अपना-अपना है। अच्छा, चलो आगे।

देश और विदेश के राज्य अधिकारियों को देखो। देखा? राज्य हिल रहा है वा अचल है? राजनीति का दृश्य क्या नजर आता है? कल्प पहले के यादगार में एक खेल दिखाया हुआ है, जानते हो कौन-सा खेल? जो साकार बाप का भी प्रिय खेल था। चौपड़ का खेल। अभी-अभी किसके तरफ पऊं बारह, अभी-अभी फिर इतनी हार जो अपने परिवार को पालने की भी हिम्मत नहीं। अभी- अभी बेताज बादशाह और अभी-अभी वोट के भिखारी। ऐसा खेल देख रहे हो। नाम और शान के भूखे हैं। ऐसी आत्माओं को भी कुछ तो अंचली देंगे। इन्हों पर भी रहम दिल आत्मायें बन रहम की दृष्टि, दाता के स्वरूप से कुछ कणा दाना देकर सन्तुष्ट करेंगे ना। हर सेक्शन की सेवा अपनी-अपनी है। वह फिर विस्तार आप करना। आगे चलो।

चारों ओर की आम पब्लिक जिसमें बहुत प्रकार की वैरायटी है। कोई क्या गीत गा रहे हैं कोई क्या गीत गा रहे हैं। चारों ओर ‘‘चाहिए'' ‘‘चाहिए'' के गीत बज रहे हैं। अब ऐसे गीत गाने वालों को कौन-सा गीत सुनाओ जो यह गीत समाप्त हो जाए? सर्व आत्माओं के प्रति महाज्ञानी, महादानी, महाशक्ति स्वरूप, वरदानी मूर्त्त, मास्टर दाता, सेकेण्ड के दृष्टि विधाता, ऐसे कल्याण करने का श्रेष्ठ संकल्प उत्पन्न होता है? फुर्सत है चारों तरफ देखने की? सर्च लाइट बने हो वा लाइट हाउस बने हो? अब चारों ओर चक्र लगाया।

ऐसे विश्व कल्याणकारी त्रिकालदर्शी, त्रिनेत्री, मास्टर नालेजफुल, मास्टर विश्व रचयिता, विश्व के चारों आरे परिक्रमा लगाओ। नजर डालो। रोज विश्व का च्रक लगाओ तब स्वदर्शन चक्रधारी कहलायेंगे। साथ-साथ चक्रवर्ता कहलायेंगे। सिर्फ स्वदर्शन चक्रधारी हो वा चक्रवर्ता भी हो? दोनों ही हो ना!

ऐसे मास्टर नालेजफुल, विश्व परिक्रमा देने वाले, चक्रवर्ता स्वराज्य अधिकारी, सदा सर्व आत्माओं के प्रति रहमदिल, कल्याण की भावना रखने वाले, ऐसे बाप समान श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

(आज दीदी-दादी दोनों ही बापदादा के सम्मुख बैठी हैं)

बापदादा विशेष निमित्त आत्माओं को देख क्यों खुश होते हैं? कोई भी बाप अपने बच्चों को तख्त देने के बाद कैसे तख्त पर बैठ राज्य चला रहे हैं। वह इस कलियुगी दुनिया में नहीं देखते हैं लेकिन अलौकिक बाप, पारलौकिक बाप, बच्चे सेवा के तख्तनशीन बन कैसे सेवा का कार्य चला रहे हैं, वह प्रैक्टिकल में देख हर्षित होते हैं। यह संगमयुग की विशेषता है जो बाप स्वयं बच्चों को देख सकते हैं। यही परम्परा सतयुग में भी चलेगी। वहाँ भी बाप बच्चों को राज्य तिलक दे देखेंगे, कलियुग में कोई नहीं देखता। बापदादा तो रोज देखते हैं। हर घड़ी का दृश्य, संकल्प बोल, कर्म, सर्व के सम्पर्क बापदादा के पास इतना स्पष्ट है जो आप लोगों से भी ज्यादा क्लीयर है। हर घड़ी का कार्य देख बाप खुश होते हैं। प्रैक्टिकल रिटर्न देख रहे हैं। बाप ने आप समान बनाया और बच्चों ने रेसपान्ड दिया। इसलिए बच्चों को देख हर्षित होते हैं।

एक दृश्य देख विशेष हर्षाते। रोज की एक वन्डरफुल रास देखते हैं आप लोगों की। जो सारे दिन में बहुत करते हो। करते सभी हैं लेकिन विशेष निमित्त यह हैं। इसलिए निमित्त वालों को भी ज्यादा करनी पड़ती हैं। वह है संस्कार मिलाने की रास। वैसे भी कोई कार्य शुरू करते तो रास मिलाते हैं ना। और रास करने में भी एक दो का मिलन होता है तो सारा दिन यह रास कितना समय करते हो? बापदादा के पास टी.वी. अथवा रेडियो आदि सब हैं, उसमें कैसी सीन लगती होगी? जब संस्कार, संस्कार में टकराते हैं वह भी सीन अच्छी होती है। फिर जैसे फारेन वालों की बाडी इलास्टिक होती है, जहाँ मोड़ने चाहें मोड़ लेते, तो वर्त्तमान समय अपने को मोड़ने में भी इजी होते जा रहे हैं। इसलिए वह भी दृश्य अच्छा लगता है। पहले टाइट होते फिर भी थोड़ा लूज होते फिर लूज होने के बाद मिलन हो जाता। फिर मिलने के बाद खुशी का नाच करते। तो सीन कितनी अच्छी होगी! बापदादा के पास सब आटोमेटिकली चलता है। सब साज, सब साधन एवररेडी हैं। संकल्प किया और इमर्ज हुआ। आजकल की साइन्स भी सब साधनों को बहुत सूक्ष्म कर रही है ना। अति छोटा और अति पावरफुल। सूक्ष्मवतन तो हैं ही पावरफुल वतन। इतनी बिन्दी के अन्दर आप सब देख सकते हो।। विस्तार करो तो बहुत बड़ा देखेंगे, छोटा करो तो बिल्कुल बिन्दी। फिर भी बच्चों की मेहनत और हिम्मत के ऊपर बापदादा भी न्योछावर हो जाते हैं। क्योंकि भले कैसे भी बच्चे हैं लेकिन एक बार जब बाबा कहा तो न्योछावर हो ही गये। फिर भी बच्चे ही हैं। तो जब बच्चे न्योछावर हुए तो बाप भी न्याछावर होता। और बाप सदा बच्चे की भूल में भी भले को ही देखते हैं। भूल को नहीं देखते। भूल से भ्ज्ञला क्या निकला बाप उसको देखते हैं। जैसे आपकी इस साकारी दुनिया में छोटे-छोटे बच्चों को खुश करने के लिए अगर कोई गिरता है तो उनको कहते हैं - क्या मिला? चेन्ज कर लेते हैं। तो यहाँ भी बच्चे अगर चलते-चलते ठोकर खा लेते हैं तो बाप कहते - ठोकर से अनुभवी बन ठाकुर बन गया। बाप ठोकर को नहीं देखते। ठोकर से ठाकुरपन कितना आया, बाप वह देखते हैं। इसलिए बाप को हर बच्चा अति प्रिय है। । चाहे प्यादा है, चाहे घोड़सवार हैं, लेकिन प्यारा न हो तो विजय नहीं पा सकते। इसलिए हरेक आत्मा की आवश्यकता है। बाप तीनों कालों को देखते हैं। सिर्फ वर्त्तमान नहीं देखते। बच्चे सिर्फ वर्त्तमान देखते हैं इसलिए कभी-कभी घबड़ा जाते हैं कि यह क्यों, यह क्या!

टीचर्स के साथ- टीचर्स ने आप समान कितनी टीचर्स तैयार की हैं? बड़े तो बड़े-छोटे समान बाप हैं। जब हैण्डस तैयार हो जायेंगे तो सेवा के बिना रह न सकेंगे। फिर सेवा स्वत: ही बढ़ेगी। बापदादा के एडवांस में जो उच्चारे हुए महावाक्य हैं वह फिर प्रैक्टिकल हो जायेंगे। अभी कहाँ तक पहुँचे हो? जैसे नक्शे में हरेक स्टेट भी बिन्दी माफिक दिखाते हैं। वैसे सेवा में कहाँ तक पहुँचे हो? अभी तो बहुत सेवा पड़ी हुई है। अभी बहुत-बहुत बढ़ाते जाओ। कितने वर्ष पहले के बोल अभी सुन रहे हो। बाप की यही आश है कि एक-एक अनेक सेन्टर सम्भालें। तब कहेंगे नम्बर वन टीचर। जब कलियुगी प्राइम मिनिस्टर एक दिन में कितने चक्र लगाते, तो संगमयुगी टीचर्स को कितने चक्र लगाने चाहिए। तब कहेंगे चक्रवर्ता राजा। तो क्या करना पड़ेगा? प्लैन बनाओ। विदेश की सेवा में इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती, भारत में बहुत मेहनत लगती है। विदेश की धरनी फिर भी सुनी-सुनाई बातों से साफ है। भारत में यह भी मेहनत करनी पड़ती है। दूसरी बात - विदेशी आत्मायें अभी सब कुछ देखकर थक गई हैं, और भारत वालों ने देखना शुरू किया है। भारत वालों के अन्दर अभी इच्छा उत्पन्न हुई है, और उन्हों की पूरी हो गई है। इसलिए भारत की सेवा से विदेश की सेवा इजी है। लकी हो। जल्दी प्रत्यक्षफल निकाल सकते हो।

पार्टियों से - लौकिक में जब कोई घर से जाता है तो घर वालों को खुशी नहीं होती। लेकिन बापदादा बच्चों को बाहर जाते हुए देख खुश होते हैं, क्यों? क्योंकि समझते हैं कि एक-एक सपूत बच्चा सबूत निकालने के लिए जा रहा है? जाते नहीं हो लेकिन दूसरों को लाने के लिए जाते हो। एक जायेंगे अनेकों को लायेंगे तो खुशी होगी ना। कहाँ भी जायेंगे बापदादा साथ छोड़ नहीं सकते। बाप छोड़ने चाहें तो भी नहीं छोड़ सकते, बच्चे छोड़ने चाहें तो भी नहीं छोड़ सकते। दोनों बंधन में बँधे हुए हैं। (सतयुग में तो छोड़ देते) सतयुग में भी राज्यभाग देकर खुश हो जाते हैं। फेथ है ना बच्चों में कि यह अच्छा राज्य करेंगे इसलिए निश्चिन्त रहते हैं। लण्डन वालों ने अपने आस-पास वृद्धि तो अच्छी की है। अभी और भी चारों ओर विश्व में फैलाना चाहिए। जो भी स्थान खाली हैं, लण्डन में इतने हैण्डस हैं जो सेवा में सहयोगी बन सकते हैं। सबूत अच्छा दिया है।

अमृतबेले पावरफुल स्टेज रखने का भिन्न-भिन्न अनुभव करते रहो। कभी नालेजफुल स्टेज की अनुभूति करो, कभी प्रेम स्वरूप की अनुभूति करो। ऐसे भिन्न-भिन्न स्टेज के अनुभव में रहने से एक तो अनुभव बढ़ता जायेगा दूसरा याद में जो कभी-कभी आलस्य व थकावट आती है वह भी नहीं आयेगी। क्योंकि रोज नया अनुभव होगा। भिन्न-भिन्न स्टेज का अनुभव करते रहो। कभी कर्मातीत स्टेज का, कभी फरिश्ते रूप का, कब रूह-रूहाना का अनुभव करो। वैरायटी अनुभव करो। कब सेवाधारी बनकर सूक्ष्म रूप से परिक्रमा लगाओ। इसी अनुभव को आगे बढ़ाते रहो।

न्यूजीलैण्ड पार्टी - न्यूजीलैण्ड वालों को सदा क्या याद रहता है? न्यूजीलैण्ड को सदा याद रहे कि विश्व को क्या न्यू न्यूज दें। न्यूजीलैण्ड को विश्व में रोज न्यू न्यूज देनी चाहिए। तो न्यूजीलैण्ड क्या बन जायेगा? सारी विश्व के लिए लाइट हाउस बन जायेगा। सबकी नजर न्यूजीलैण्ड की तरफ जायेगी कि कहाँ से यह न्यूज आई है! अभी भी देखो अखबारों में कोई न्यू न्यूज आती है तो सबका अटेन्शन कहाँ जाता है? यह न्यूज कहाँ से आई? तो न्यूजीलैण्ड को यह कमाल करनी चाहिए। अब कोई नई बात करो। कोई नया प्लैन बनाओ। कमाल तो यह करो जो वहाँ से इतनी टीचर्स निकलें जो सब तरफ फैल जाएं। फिर कहेंगे जैसा नाम है वैसा काम है। सभी बहुत-बहुत सिकीलधे हो जो दूर-दूर से बाप ने चुन लिया। भारत छोड़ करके भी गये लेकिन भारत के बाप ने नहीं छोड़ा। न्यूजीलैण्ड की फुलवाड़ी भी बहुत खिली हुई है।

ट्रिनीडाड पार्टी- बापदादा सदा बच्चों में क्या विशेषता देखते हैं? बापदादा हरेक बच्चे को देख, हरेक बच्चों में उनके 21 जन्मों की प्रालब्ध को देखते हैं? क्या थे, क्या बने हैं और क्या बनने वाले हैं? तीनों काल देखते हुए भविष्य कितना श्रेष्ठ है, उसको देखकर हर्षित होते हैं। आप हरेक भी अपनी प्रालब्ध को समझकर, अनुभव कर हर्षित होते हो? अपनी प्रालब्ध इतनी स्पष्ट है कि आज हम यह हैं, कल यह बनने वाले हैं। यह तो अवश्य है जब बाप का बन गये तो बाप का बनना अर्थात् ब्राह्मण बनना। ब्राह्मण सो देवता भी अवश्य बनेंगे। बाकी देवता में भी क्या पद मिलना है वह है हरेक के अपने पुरूषार्थ पर।

अभी तो सेवा के अनेक साधन हैं। वाचा के साथ-साथ एक स्थान पर बैठे हुए भी विश्व की सेवा कर सकते हो। मंसा सेवा का भी बहुत अच्छा चांस है। सारा दिन कोई न कोई प्रकार से सेवा में बिजी रहो।। मधुबन में रिफ्रेश होना अर्थात् सेवा के लिए निमित्त बन करके सेवाधारी बनाकर सेवा का चांस लेना। सेवा करने के पहले जो निमित्त बने हुए सेवाधारी हैं उन्हों से सम्पर्क रखते हुए आगे बढ़ते चलो तो सफलता मिलती जायेगी। अभी देखेंगे कितने सेन्टर खोलकर आते हो। बुलेटिन में निकलेगा कि कितने नये सेवाकेन्द्र खोले।

सदा यही स्मृति रहे कि हम सब रूहानी सोशल वर्कर, सभी को भटकने से छुड़ाने वाले हैं। अनेक आत्मायें भटक रही हैं तो भटकती हुई आत्माओं को देख तरस आता है ना। जैसे अपनी पास्ट लाइफ को देखकर समझते हो कितना भटके हैं, कितने जन्मों से भटके हैं, अपने अनुभव के आधार से और ही ज्यादा तरस पड़ना चाहिए। तो सदा अपने अन्दर प्लैन बनाते रहो कि इन आत्माओं को भटकने से कैसे छुड़ायें। रोज नई-नई पाइंट सोचो। कौन-सी ऐसी पोइंट दें जो जल्दी से परिवर्त्तन हो जाएं। अब भक्तों को भक्ति का फल दिलाओ। सदा बाप से मिलाने के सहज रास्ते सोचते रहो। यही मनन चलता रहे।

अमेरिका - सदा अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलते रहते हो? बापदादा के सिकीलधे बच्चे हो। तो सिकीलधे बच्चों को माँ बाप सदा ऐसे स्थान पर बिठाते हैं जहाँ कोई भी तकलीफ न हो। बाप-दादा ने आप सिकीलधे बच्चों को कौन सा स्थान बैठने के लिए दिया है? दिलतख्त। यह दिलतख्त कितना बड़ा है? इस तख्त पर बैठकर जो चाहो वह कर सकते हो, तो सदा तख्तनशीन रहो। नीचे नहीं आओ। जैसे फारेन में जहाँ-तहाँ गलीचे लगा देते हैं कि मिट्टी न लगे। बापदादा भी कहते हैं - देहभान की मिट्टी में मैले न हो जाए इसलिए सदा दिल तख्तनशीन रहो। जो अभी तख्तनशीन होंगे वही भविष्य में भी तख्तनशीन बनेंगे। तो चेक करो कि सदा तख्तनशीन रहते हैं या उतरते चढ़ते हैं? तख्त पर बैठने के अधिकारी भी कौन बनते? जो सदा डबल लाइट रूप में रहते हैं। अगर जरा भी भारीपन आया तो तख्त से नीचे आ जायेंगें। तख्त से नीचे आये तो माया से सामना करना पड़ेगा। तख्तनशीन हैं तो माया नमस्कार करेगी। बापदादा द्वारा बुद्धि के लिए जो रोज शक्तिशाली भोजन मिलता है, उसे हजम करते रहो तो कभी भी कमजोरी आ नहीं सकती। माया का वार हो नहीं सकता।



17-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"इस सहज मार्ग में मुश्किल का कारण और निवारण"

आज विशेष डबल विदेशी बच्चों से मिलने के लिए आये हैं। डबल विदेशी डबल भाग्यशाली हैं, क्यों? एक तो बापदादा को जाना और वर्से के अधिकारी बने। दूसरा लास्ट में आते भी फास्ट जाए फर्स्ट जाने के बहुत ही उम्मीदवार हैं। लास्ट में आने वाले किसी हिसाब से भाग्यशाली हैं जो बने बनाये पर आये हैं। पहले पहले वाले बच्चों ने मनन किया, मेहनत की, मक्खन निकाला और आप सब मक्खन खाने के समय पर आये हो। आप लोगों के लिए बहुत-बहुत सहज है क्योंकि पहले वाले बच्चे रास्ता तय करके अनु- भवी बन गये हैं और आप सभी उन अनुभवियों के सहयोग से सहज ही मंजिल पर पहुँच गये हो। तो डबल भाग्यशाली हुए ना?

डबल भाग्य तो ड्रामा अनुसार मिला ही है, अभी और आगे क्या करना है?

जैसे अनुभवी महारथी निमित्त आत्माओं ने आप सबकी अनुभवों द्वारा सेवा की है। उसे आप सबको भी अपने अनुभवों के आधार से अनेकों को अनुभवी बनाना है। अनुभव सुनाना सबसे सहज है। जो भी ज्ञान की पाइंट्स है, वह पाइंटस नहीं हैं लेकिन हर पाइंट का अनुभव है। तो हर पाइंट का अनुभव सुनाना कितना सहज है! इतना सहज अनुभव करते हो वा मुश्किल लगता है? एक तो अनुभव के आधार के कारण सहज है, दूसरी बात - आदि से अन्त तक का ज्ञान एक कहानी के रूप में बापदादा सुनाते हैं। तो कहानी सुनना और सुनाना बहुत सहज होता है। तीसरी बात - बाप अभी जो सुना रहे हैं वह आपस सर्व आत्माओं ने पहली बार नहीं सुना है लेकिन अनेक बार सुना है और अब फिर से रिपीट कर रहे हो। तो कोई भी बात को रिपीट करने में, सुनने में या सुनाने में अति सहज होता है। नई बात मुश्किल लगती है लेकिन कई बार की सुनी हुई बातें रिपीट करना तो अति सहज होता है। याद को देखो - कितने प्यारे और समीप सम्बन्ध की याद है। नजदीक के सम्बन्ध को याद करना मुश्किल नहीं होता, न चाहते भी उनकी याद आती ही रहती है। और प्राप्ति को देखो, प्राप्ति के आधार पर भी याद करना अति सहज है। ज्ञान भी अति सहज और याद भी अति सहज। और अब तो ज्ञान और योग को आप अति सिकीलधों के लिए ज्ञान का कोर्स सात दिन में ही समाप्त हो जाता है और योग शिविर 3 दिन में ही पूरा हो जाता। तो सागर को गागर में समा दिया। सागर को उठाना मुश्किल है, गागर उठाना मुश्किल नहीं। आपको तो सागर को गागर में समा करके सिर्फ गागर दी है, बस। दो शब्दों में ज्ञान और योग आ जाता है - ‘‘आप और बाप''। तो याद भी आगया और ज्ञान भी आ गया, तो दो शब्दों को धारण करना कितना सहज है। इसीलिए टाइटिल ही है - सहज राजयोगी। जैसा नाम है वैसे ही अनुभव करते हो? और कुछ इनसे सहज हो सकता है क्या? वैसे मुश्किल क्यों होता है उसका कारण अपनी ही कमजोरी है। कोई न कोई पुराना संस्कार सहज रास्ते के बीच में बंधन बन रूकावट डालता है और शक्ति न होने के कारण पत्थर को तोड़ने लग जाते हैं और तोड़ते-तोड़ते दिलशिकस्त हो जाते हैं। लेकिन सहज तरीका क्या है? पत्थर को तोड़ना नहीं है लेकिन जम्प लगाके पार होना है। यह क्यों हुआ? यह होना नहीं चाहिए। आखिर यह कहाँ तक होगा। यह तो बड़ा मुश्किल है। ऐसा क्यों? यह व्यर्थ संकल्प पत्थर तोड़ना है। लेकिन एक ही शब्द ‘‘ड्रामा'' याद आ जाता तो एक ड्रामा शब्द के आधार से हाई जम्प दे देते। उसमें जो कुछ दिन वा मास लग जाते हैं, उसमें एक सेकेण्ड लगता। तो अपनी कमजोरी हुई या नालेज की?

दूसरी कमजोरी यह होती जो समय पर वह पाइंट टच नहीं होती है वैसे सब पाइंटस बुद्धि वा डायरियों में भी बहुत होती हैं, लेकिन समय रूपी डायरी में उस समय वह पाइंट दिखाई नहीं देती। इसके लिए सदा ज्ञान की मुख्य पाइंटस को रोज रिवाइज करते रहो। अनुभव में लाते रहो, चेक करते रहो और अपने को चेक करते चेन्ज करते रहो। फिर कभी भी टाइम वेस्ट नहीं होगा। और थोड़े ही समय में अनुभव बहुत कर सकेंगे। सदा अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान अनुभव करेंगे। समझा। अभी कभी भी व्यर्थ संकल्पों के हेमर से समस्या के पत्थर को तोड़ने में नहीं लगना। अब यह मजदूरी करना छोड़ो, बादशाह बनो। बेगमपुर के बादशाह हो। तो न समस्या काशब्द होगा न बार-बार समाधान करने में समय जायेगा। यही संस्कार पुराने, आपके दास बन जायेंगे, वार नहीं करेंगे। तो बादशाह बनो। तख्तनशीन बनो। ताजधारी बनो। तिलकधारी बनो।

जर्मन पार्टी से - सहज ज्ञान और योग के अनुभवी मूर्त्त हो? बापदादा हरेक श्रेष्ठ आत्मा की श्रेष्ठ तकदीर को देखते हैं। जैसे बाप हरेक के मस्तक पर चमका हुआ सितारा देखते हैं। वैसे आप भी अपने मस्तक पर सदा चमकता हुआ सितारा देखते हो? सितारा चमकता है? माया चमकते हुए सितारे को कभी ढक तो नहीं देती? माया आती है? मायाजीत जगतजीत कब बनेंगे? आज और अब यह दृढ़ संकल्प करो कि मास्टर सर्वशक्तिवान बन, मायाजीत जगतजीत बन करके ही रहेंगे। हिम्मत है ना? अगर हिम्मत रखेंगे तो बापदादा भी मदद अवश्य ही करेंगे। एक कदम आप उठाओ तो हजार कदम बाप मदद देंगे। एक कदम उठाना तो सहज है ना। तो आज से सब सहजयोगी का टाइटिल मधुबन वरदान भूमि से वरदान ले जाना। यह ग्रुप जर्मन ग्रुप नहीं लेकिन सहज योगी ग्रुप है। कोई भी बात सामने आये तो सिर्फ बाप के ऊपर छोड़ दो। जिगर से कहो - ‘‘बाबा''। तो बात खत्म हो जायेगी। यह ‘‘बाबा'' शब्द दिल से कहना ही जादू है। इतना श्रेष्ठ जादू का शब्द मिला हुआ है। सिर्फ जिस समय माया आती है उस समय भुला देती है। माया पहला काम यही करती है कि बाप को भुला देती। तो यह अटेन्शन रखना पड़े। जब यह अटेन्शन रखेंगे तो सदा कमल के फूल के समान अपने को अनुभव करेंगे। चाहे माया के समस्याओं की कीचड़ कितनी भी हो लेकिन आप याद के आधार पर कीचड़ से सदा परे रहेंगे। आपका ही चित्र है ना - कमल पुष्प! इसीलिए देखो जर्मन वालों ने झाँकी में कमल पुष्प बनाया ना। सिर्फ ब्रह्मा बाप कमल पर बैठे हैं या आप भी बैठे हो? कमल पुष्प की स्टेज आपका आसन है। आसन को कभी नहीं भुलाना। तो सदा चियरफुल रहेंगे। कभी भी किसी भी बात में हलचल में नहीं आयेंगे। सदा एक ही मूड़ होगी - चियरफुल'। सब देख करके आपकी महिमा करेंगे कि यह सदा सहजयोगी, सदा चियरफुल हैं। समझा? कमल पुष्प के आसन पर सदा रहो। सदा चियरफुल रहो। सदा बाप शब्द के जादू को कायम रखो। यह तीन बातें याद करना। जर्मन वालों की विशेषता है जो मधुबन में बहुत प्यार से भागते हुए आकर्षित होते हुए आये हैं। मधुबन से प्यार अर्थात् बाप से प्यार। बापदादा का भी इतना ही बच्चों से प्यार है। बाप का प्यार ज्यादा है या बच्चों का? (बाप का) आपका भी बाप से पदमगुणा ज्यादा है। बाप तो सदा बच्चों को आगे रखेंगे ना। बच्चे बाप के भी मालिक हैं। देखो, आप विश्व के मालिक बनेंगे, बाप मालिक बनायेगा, बनेगा नहीं। तो आप आगे हुए ना। इतना प्यार बाप का है बच्चों से। एक जन्म की तकदीर नहीं है, 21 जन्मों की तकदीर और अविनाशी तकदीर है। यह गैरन्टी है ना?

जर्मन ग्रुप को कमाल दिखानी है, जैसे अभी मेहनत करके गीता के भगवान के चित्र बनाये, ऐसे कोई नामीग्रामी व्यक्ति निकालो तो आवाज निकाले कि हाँ गीता का भगवान शिव है। बापदादा बच्चों की मेहनत को देख बहुत-बहुत मुबारक देते हैं। टापिक बहुत अच्छी चुनी है। इसी टापिक को सिद्ध किया तो सारे विश्व में जयजयकार हो जायेगी। जैसे अभी मेहनत की है वैसे और भी मेहनत करके आवाज बुलन्द करना। विचार सागर मंथन अच्छा किया है, चित्र बहुत अच्छे बनाये।

प्रश्न:- बापदादा हर स्थान की रिजल्ट किस आधार पर देखते हैं?

उत्तर:- उस स्थान का वायुमण्डल वा परिस्थिति कैसी है, उसी आधार पर बापदादा रिजल्ट देखते हैं। अगर सख्त धरनी से कलराठी जमीन से दो फूल भी निकल आये तो वह 100 से भी ज्यादा है। बाबा ‘‘दो को नहीं देखते लेकिन दो भी 100 के बराबर देखते हैं।'' कितना भी छोटा सेन्टर हो, छोटा नहीं समझना। कहाँ क्वालिटी है तो कहाँ क्वान्टिटी है। जहाँ भी बच्चों का जाना होता है वहाँ सफलता आपका जन्म सिद्ध अधिकार है।

प्रश्न:- किस डबल स्वरूप से सेवा करो तो वृद्धि होती रहेगी?

उत्तर:- रूप और बसन्त - दोनों स्वरूप से सेवा करो, दृष्टि से भी सेवा और मुख से भी सेवा। एक ही समय दोनों रूप की सेवा डबल रिजल्ट निकालेगी।''


 

 

 

 

 

 

 

 

 

18-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"मुश्किल को सहज करने की युक्ति ‘‘सदा बाप को देखो"

आज विशेष लण्डन निवासियों से मिलने आये हैं। मिलने का अर्थ है - बाप समान बनना। जब से बाप से मिले तो बापदादा ने क्या इशारा दिया? बच्चे, आप सब श्रेष्ठ आत्मायें बाप समान सर्व गुणों में, सर्व प्राप्तियों में मास्टर हो। बाप से भी श्रेष्ठ बाप के सिर के ताज हो। जो पहले-पहले इशारा मिला उसी इशारे प्रमाण बाप समान मास्टर सर्वशक्तिवान, मास्टर सर्वगुण सम्पन्न बने हो? जब अभी बाप समान बनो तब ही भविष्य में विश्व राज्य-अधिकारी देवता बन सकते हो। बाप समान कहाँ तक बने हैं यह चेकिंग करते रहते हो? एक-एक गुण, एक-एक शक्ति को सामने रखते हुए अपने में चेक करो कि कितने परसेन्ट में गुण व शक्ति स्वरूप बने हैं। यह फालो करना तो सहज है ना। बापदादा सामने एग्जाम्पल हैं। निराकारी रूप में और साकार रूप में दोनों ही रूप में बाप को देख फालो करते चलो। वैसे भी कहावत है जैसा बाप वैसे बच्चे और सन शोज फादर भी गाया हुआ है। बाप और बच्चे का सम्बन्ध ही है फालो फादर करने का। मुश्किल है नहीं, लेकिन बना लेते हो। क्योंकि अगर मुश्किल हो तो सदा ही मुश्किल लगना चाहिए। कोई को सहज लगता कोई को मुश्किल लगता। यह क्यों? अबौर कभी उसी को सहज लगता - कभी मुश्किल लगता। यह क्यों? इससे क्या सिद्ध होता है? चलने वाले की कोई कमजोरी है जो मुश्किल लगता है।

बाप की महिमा है जो अभी तक भक्त भी गाते हैं, साथ-साथ आप महान आत्माओं, पूज्य आत्माओं की भी वही महिमा है। याद है वह कौन-सी महिमा है? कोई भी मुश्किल कार्य आत्माओं के ऊपर आते हैं तो किसके पास जाते हैं? या बाप के पास या आप देव आत्माओं के पास। जो औरों की भी मुश्किल को सहज करने वाले हैं वह स्वयं मुश्किल अनुभव कैसे करेंगे? मुश्किल अनुभव करने के समय विशेष कौन-सी बात बुद्धि में आती है जो मुश्किल बना देती है? बहुत अनुभवी हो ना। ‘‘बाप को देखने के बजाए बातों को देखने लग जाते हो। बातों में जाने से फिर कई क्वेश्चन उत्पन्न हो जाते हैं। अगर बाप को देखो, जैसे बाप बिन्दु है वैसे ही हर बात को बिन्दु लगा दो। बातें हैं वृक्ष, और बाप है बीज। आप विस्तार वाले वृक्ष को हाथ उठाने चाहते हो इस लिए न बाप हाथ में आता, न वृक्ष। बाप को भी किनारे कर देते हो और वृक्ष के विस्तार को भी अपनी बुद्धि में समा नहीं सकते हो। तो जो चाहना रखते हो वह न पूरी होने के कारण दिलशिकस्त हो जाते हो। दिलशिकस्त की मुख्य निशानी होगी - बार-बार किसी न किसी परिस्थिति की, चाहे व्यक्ति की शिकायतें ही करते रहेंगे। और जितनी शिकायतें करते उतना ही खुद आपेही फँसते जाते। क्योंकि यह विस्तार एक जाल बन जाता है। जितना ही फिर उससे निकलने की कोशिश करते हैं उतना फँसते जाते। यह होगी बातें या होगा बाप। बातें सुनना और बातें सुनाना यह तो आधा कल्प किया। भक्ति मार्ग का भागवत या रामायण क्या है? कितनी लम्बी बातें हैं। जब बातें थी तो बाप नहीं था। अब भी जब बातों में जाते हो तो बाप को खो लेते हो। फिर कौन-सा खेल करते हो? (ऑख मिचौनी का)' तीसरे नेत्र को पटटी बाँधकर और ढूंढते हो। बाप बुलाता रहता और आप ढूंढते रहते। आखिर क्या होता? बाप स्वयं ही आकर स्वयं का साथ दिलाते। ऐसा खेल क्यों करते हो? क्योंकि बातों के विस्तार में रंग बिरंगी बातें होती हैं, वह अपनी तरफ आकर्षित कर लेती हैं। उससे किनारा हो जाए तो सदा सहज योगी हो जाएं। लण्डन निवासी तो मुश्किल का अनुभव नहीं करते हैं ना?

अपने आपको बिजी रखने का तरीका सीखो। न समय होगा न विस्तार में जायेंगे। जैसे जब कोई विशाल प्रोग्राम रखते हो और बहुत बिजी होते हो उस समय कुछ भी होता रहे आप उससे किनारे होते हो। सेवा की ही धुन में लगे हुए होते हो। खाने वा सोने का भी ख्याल नहीं रहता। ऐसे विश्व-कल्याणकारी आत्मायें सदा विशाल कार्य का प्लान इमर्ज रखो। इतना विशाल कार्य अपनी बुद्धि को दो जिससे फुर्सत ही नहीं हो। अपनी बुद्धि को बिजी रखने की डेली डायरी बनाओ। इससे सदा सहजयोग का स्वत: अनुभव करेंगे।

वर्णन करते हो सहज राजयोग', यह तो नहीं कहते हो - कभी सहज योग कभी मुश्किल योग। तो जैसा नाम है उसी स्वरूप में सब बच्चों को बापदादा देखने चाहते हैं। मास्टर सर्वशक्तिवान बनने के बाद भी मुश्किल अनुभव करेंगे तो सहज कब होगा? अब नहीं तो कब नहीं। इसके लिए आपस में प्रोग्राम बनाओ।

लण्डन पार्टी - एक-एक रतन अति प्रिय और अमूल्य है। क्योंकि हरेक रतन की अपनी-अपनी विशेषता है। सर्व की विशेषताओं द्वारा ही विश्व का कार्य सम्पन्न होना है। जैसे कोई स्थूल चीज़ भी बनाते हैं, उसमें अगर सब चीजें न डालो, साधारण मीठा या नमक भी न डालो तो चाहे कितनी भी बढ़िया चीज़ बनाओ लेकिन वह खाने योग्य नहीं बन सकती। तो ऐसे ही विश्व के इतने श्रेष्ठ कार्य के लिए हरेक रतन की आवश्यकता है। सबकी अंगुली चाहिए। चित्र में भी सबकी अंगुली दिखाते हैं ना। सिर्फ महारथियों की नहीं, सबकी अंगुली से ही विश्व परिवर्त्तन का कार्य सम्पन्न होना है। सब अपनी-अपनी रीति से महारथी हैं। बापदादा भी अकेले कुछ नहीं कर सकते। बापदादा बच्चों को आगे रखते हैं, निमित्त आत्मायें भी सबको आगे रखती हैं। तो सभी बहुत-बहुत आवश्यक और श्रेष्ठ रतन हो। बापदादा के स्वीकार किये हुए रतन हो। यादगार में तो दिखाते हैं - भगवान की पत्थर पर भी नजर पड़ जाए तो पत्थर भी पारस बन जाता है, आप तो उनके स्वीकार किये हुए श्रेष्ठ रतन हो। अपने कार्य की श्रेष्ठता की मूल्य को जानो। शक्तियों का अपना गायन है और पाण्डवों का अपना। तो आप सब महान आत्मायें हो। महान आत्मा की निशानी क्या है? जो जितना महान होगा उतना निमार्कण होगा। महान आत्मायें सदा अपने को ओबीडियन्ट सर्वेन्ट ही अनुभवी करती हैं। ऐसा ही ग्रुप है ना। शक्ति भवन की शक्तियों को तो अपना शक्ति स्वरूप स्वत: याद रहता होगा? स्थान से स्थिति भी याद आती है। शक्ति की विशेषता है मायाजीत। शक्ति के आगे किसी भी प्रकार की माया आ नहीं सकती, क्योंकि शक्ति माया के ऊपर सवारी करती है। शक्तियों के हाथ में सदा त्रिशूल दिखाते हैं। यह किसकी निशानी है? त्रिशूल स्टेज की निशानी है। संगमयुग के जो टाइटिल हैं - मास्टर त्रिमूर्ति, त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी, त्रिलोकीनाथ, यह सब स्थिति की निशानी इस त्रिशूल में आ जाती हैं। तो यह स्टेज स्मृति में रहती हैं? ‘निरन्तर' को अन्डरलाइन करो। बहुत अच्छा भाग्य बनाया है जो विश्व के वायुमण्डल से किनारे किया। बापदादा भी बच्चों के भाग्य को देख खुश होते हैं।

2. सदा अपने को पूज्य आत्मायें समझकर चलते हो? पूज्य आत्मायें अर्थात् महान आत्मायें। महान बनने की विशेषता है - सदा अपने को मेजमान समझ चलना। जो मेजमान समझकर चलता है वही महान पूज्य बन जाता है। क्यों? क्योंकि त्याग का भाग्य बन जाता है। मेजमान समझने से अपने देह रूपी मकान से भी निर्मोही हो जाते। मेजमान का अपना कुछ नहीं होता, कार्य में सब वस्तु लगायेंगे लेकिन अपनेपन का भाव नहीं होगा, इसलिए न्यारा भी और सर्व वस्तुओं को कार्य में लाने वाला प्यारा भी। ऐसे मेजमान समझने वाले प्रवृत्ति में रहते, सेवा के साधनों को अपनाते, सदा न्यारे और बाप के प्यारे रहते हैं। ऐसे महान हो ना? मेजमान समझते हो ना? आज यहाँ हैं कल चलेंगे अपने घर। फिर आयेंगे अपने राज्य में। यही धुन लगी है ना? इसलिए सदा देह से उपराम। जब देह से उपराम हो जाते हैं तो देह के सम्बन्घ और वैभवों से उपराम हुए ही पड़े हैं। यह उपराम अवस्था कितनी प्यारी है! अभी-अभी कार्य में आये, अभी-अभी उपराम। ऐसा अनुभव हैं ना? आपके जड़ चित्र पूज्य रूप में मन्दिरों में रखते हैं, लेकिन भक्ति में भी संगम की उपराम स्टेज की परम्परा चली आती है। मन्दिर लक्ष्मी नारायण का, लेकिन लक्ष्मी-नारायण अपना समझेंगे? उपराम हैं ना? जड़ चित्र जो पूज्य बनते हैं उन्हों में भी अपनापन नहीं तो चैतन्य पूज्य आत्मायें उनमें भी सदा मेजमान वृत्ति। जितनी मेजमान की वृत्ति रहेगी उतनी प्रवृत्ति श्रेष्ठ और स्टेज ऊंची रहेगी। लण्डन निवासी नाम मात्र कहा जाता है, लेकिन हैं सब मेजमान'। आज यहाँ हैं कल वहाँ होंगे। आज और कल - दो शब्दों में सारा चक्कर स्मृति में आ जाता। ऐसी महान आत्मायें पूज्य हो ना? लण्डन निवासि यों का निश्चय और उमंग बहुत अच्छा है। कमजोर आत्मायें नहीं हैं। विघ्न आया और पार किया। बकरियाँ नहीं हैं, सब शेरनियाँ हैं। बकरीपन अर्थात् मैं-मैं पन खत्म। शक्ति सेना का झण्डा अच्छा बुलन्द है। एक-एक शक्ति सर्वशक्तिवान बाप को प्रत्यक्ष करने वाली है। जब शक्ति सेना मैदान में आ जायेगी तब जय-जयकार होगी। पहले जय-जयकार का नारा कहाँ बजेगा? लण्डन में या अमेरिका में? बापदादा सदा स्नेही बच्चों को अमृतबेले मुबारक देते हैं। ‘‘ वाह मेरे बच्चे, वाह''! यह गीत गाते हैं। गीत सुनने आता है?

टीचर्स के साथ - यह लण्डन की सेवा श्रृंगार है। जैसे लण्डन के म्यूजियम में रानी का श्रृंगार रखा है ना। वैसे बापदादा के भी म्यूजियम में बापदादा की सेवा के श्रृंगार हो। सदा महान और सदा निमार्कन। यही विशेषता स्वयं को भी महान बनाती है और सेवा को भी महान बनाती हैं। संस्कार मिलाने में तो होशियार हो ना? जैसे स्थूल में अगर किसको हाथ पाँव चलाने नहीं आते तो दूसरे साथी क्या करते? हाथ में हाथ में मिला कर साथ दे करके उनको सिखा देते हैं। तो आप भी क्या करती हो? आगे बढ़ सहयोगी बन सह- योग का हाथ दे, संस्कार मिलाने की डान्स सिखाती हो ना? इसमें तो नम्बरवन हो ना? इसी विशेषता के आधार पर, जो सबसे ज्यादा संस्कार मिलाने की डान्स करता, बाप का सहयोगी बनता वही फर्स्ट जन्म में श्रीकृष्ण के साथ हाथ मिलाकर डान्स करेगा। डान्स करनी है ना? संस्कारों की रास मिलाने का सबसे सहज तरीका है - स्वयं नम्रचित बन जाओ और दूसरे को श्रेष्ठ सीट दे दो। उनको सीट पर बिठायेंगे तो वह आपको स्वत: ही उतरकर बिठा देगा। अगर आप बैठने की कोशिश करेंगे तो वह बैठने नहीं देगा। लेकिन आप उसे बिठायेंगे तो वह आपेही उतरकर आपको बिठायेगा। तो बिठाना ही बैठना हो जायेगा। ‘‘पहले आप'' का पाठ पक्का हो। फिर संस्कार सहज ही मिल जायेंगे। सीट भी मिल जायेगी, रास भी हो जायेगी। और भविष्य में भी रास करने का चान्स मिल जायेगा तो कितनी सहज बात हैं।

लण्डन का सच्चा सेवाधारी ग्रुप है, 'सेवाधारी' शब्द ही बहुत मीठा है। टीचर शब्द अच्छा लगता है या सेवाधारी? बाप भी अपने को ओबीडियेन्ट सर्वेन्ट कहते हैं, सर्वेन्ट कहने से ताजधारी स्वत: बन जायेंगे। तो चतुर बनने का यह तरीका है। मेहनत भी नहीं, प्राप्ति भी ज्यादा। तो चतुर सुजान बाप के चतुर सुजान बच्चे बनो।

फ़्रांन्स - याद की यात्रा में सदा चलते हुए हर कदम में पदमों की कमाई जमा कर रहे हो? हर कदम में पदमों की कमाई जमा करने वाले कितने मालामाल होंगे! ऐसी सम्पन्न आत्मा अपने को अनुभव करते हो? अखुट खज़ाना मिल गया है? खज़ाने की चाबी मिल गई है ना? चाबी लगाना आती है? कभी चाबी लगाते लगाते अटक तो नहीं जाती है। बहुत सहज चाबी है। ‘‘मैं अधिकारी हूँ।' अधिकारी पन की स्मृति ही खज़ानों की चाबी है। यह चाबी लगाने आती है? इस चाबी से जो खज़ाना जितना भी चाहिए ले सकते हो। सुख चाहिए, शान्ति चाहिए, प्रेम चाहिए, सब कुछ मिल सकता है।

प्रश्न:- कौन सा वेट कम करो तो आत्मा शक्तिशाली बन जायेगी?

उत्तर:- आत्मा पर वेस्ट का ही वेट है। वेस्ट संकल्प, वेस्ट वाणी, वेस्ट कर्म - इनसे ही आत्मा भारी हो जाती है। जब इस वेट को खत्म करो। इस वेट को समाप्त करने के लिए सदा सेवा में बिजी रहो। मनन शक्ति को बढ़ाओ। मनन शक्ति से आत्मा शक्ति- शाली बन जायेगी। जैसे भोजन हजम करने से खून बनता है, फिर वही शक्ति का काम करता, ऐसे मनन करने से आत्मा की शक्ति बढ़ती है।

प्रश्न:- कौन सा मंत्र भक्ति में बहुत ही प्रसिद्ध है, जिसकी स्मृति में रहो तो खुशी के झूले में झूलते रहेंगे?

उत्तर:- भक्ति में ‘‘हम सो, सो हम'' का मंत्र बहुत प्रसिद्ध है, अभी आप बच्चे हम सो' का राज प्रैक्टिकल में अनुभव कर रहे हो। यह मंत्र जमारे लिए है, हम ब्राह्मण सो देवता बनेंगे। हम ही सो देवता थे, सो देवता हम ब्राह्मण बने हैं। यह अभी पता चला। अब देवताओं के चित्र देखकर बुद्धि में आता - यह जमारे ही चित्र हैं। यही वन्डर हैं! इसी स्मृति में रहो तो खुशी के झूले में झूलते रहेंगे देवताओं के चित्र देखकर बुद्धि में आता - यह जमारे ही चित्र हैं। यही वन्डर हैं! इसी स्मृति में रहो तो खुशी के झूले में झूलते रहेंगे ।



19-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"विश्व के राज्य-अधिकारी कैसे बने?"

आज बापदादा अपने राइट हैन्डस को देख रहे हैं। बाप की कितनी भुजायें अथक सेवा में तत्पर हैं। एक-एक भुजा में अपनी-अपनी विशेषता है। राइट हैन्ड अर्थात् जो सदा बापदादा के डायरेक्शन प्रमाण हर संकल्प वा हर कदम उठावें। बाप की भुजायें बने हो इसलिए बापदादा भी अपनी भुजाओं को देख हर्षित हो रहे हैं। सभी राइट हैण्डस के हाथ में क्या है? राज्य भाग्य का गोला हाथ में हैं। चित्र भी देखा है ना कृष्ण के हाथ में गोला दिखाया है! तो एक कृष्ण अकेला थोड़े ही राज्य करेगा। आप सब भी साथ होंगे ना। तो आपका भी चित्र है। क्योंकि अधिकारी तो अब बनते हो। अभी के अधिकारीपन के संस्कार 21 जन्म तक चलेंगे। अभी भी राजे और भविष्य में भी राजे बनेंगे। अभी के राज्य-अधिकारी ही विश्व के राज्य-अधिकारी बनते हैं। तो अभी के राज्य-अधिकारी हो? राज्य-कारोबार सबकी ठीक चल रही है? आप सबके राज्य का क्या हाल चाल है? सभी राज्य कारोबारी ला एण्ड आर्डर में हैं? यहाँ ही अगर कभी-कभी के रूलर्स होंगे तो वहाँ क्या करेंगे? वहाँ भी एक-दो जन्म के राजे बन जायेंगे। बनना 21 जन्मों का है तो यहाँ फिर कभी-कभी का क्यों? यहाँ के संस्कार ही वहाँ चलेंगे। तो इसलिए सदा के राजे बनना पड़े। आस्ट्रेलिया निवासी तो रेस कर रहे हैं ना सभी से। कितने नम्बर तक पहुँचे हो? (दिलतख्त तक) उसमें भी नम्बर कौन-सा है? फिर भी पुरूषार्थी अच्छे हैं। मर्यादा पुरूषोत्तम के संस्कार भरने का लक्ष्य रखने में अच्छे हैं। सच्ची सीतायें बन लकीर के अन्दर रहने के लक्ष्य में अच्छे हिम्मत- वान हैं। रावण की अट्रैक्शन में तो नहीं आते हो ना? रावण के बहुरूपों को अच्छी तरह से जान गये हो? रावण के भी नालेजफुल बन गये हो? नालेज कम होने के कारण ही वह (रावण) अपना बना सकता है। नालेजफुल के आगे वह नजदीक भी नहीं आ सकते। चाहे सोने का, चाहे हीरे का रूप धारण करे। आस्ट्रेलिया में रावण आता है? वार करने नहीं, सिखाने आता है ना। रावण को भी आप सब आधे कल्प के मित्र बड़े प्यारे लगते हो। इसलिए छोड़ने नहीं चाहता। फिर क्या करेंगे? उसकी मित्रता नहीं निभा- येंगे? (नहीं)

अभी रावण 10 भुजाओं से आपकी 10 प्रकार की सेवा करेगा। इतनी भुजायें सेवा में तो लगायेगा ना। 10 भुजाओं के जोर से आपके लिए बहुत जल्दी-से-जल्दी और बहुत सुन्दर-से-सुन्दर राज्य तैयार करेगा। क्योंकि रावण भी समझ गया है कि अभी हम राज्य नहीं कर सकेंगे लेकिन राज्य तैयार करके देना पड़ेगा। कोई भी कार्य करना होता तो कहने में आता है 10 नाखून का जोर दे यह कार्य करना है। तो यह प्रकृति के 5 तत्व और साथ-साथ जो 5विकार हैं वह ट्रान्सफर होकर 5 विशेष दिव्य गुणों के रूप में आपकी सेवा के लिए आयेंगे। फिर तो रावण को धन्यवाद देंगे ना। रावण की बहुत सेना आपके लिए बहुत मेहनत कर रही है। कितने लगे हुए हैं। देखते हो? विदेश में तो विज्ञान द्वारा कितनी तैयारियाँ कर रहे हैं। यह सब किसके लिए हो रहा है? बोलो - जमारे लिए।

आस्ट्रेलिया वालों ने धैर्यता का गुण बहुत अच्छा दिखाया है। इसलिए बापदादा आज विशेष पिकनिक आस्ट्रेलिया वालों से करेंगे। हरेक स्थान की अपनी-अपनी विशेषता है। जो औरों को चांस दिया, ऐसे चान्सलर्स बनने के लिए बापदादा सभी को विशेष एक गिफ्ट दे रहे हैं। । कौन-सी? विशेष एक श्रृंगार दे रहे हैं। वह है - ‘‘‘सदा शुभ चिन्तक की चिन्दी''। ताज के साथ-साथ यह चन्दी जरूर होती है। जैसे आत्मा बिन्दी चमक रही है ऐसे मस्तक के बीच यह चिन्दी की मणी भी चमक रही है। यह सारा ही शुभचिन्तक ग्रुप है ना। परचिन्तन को तलाक देने वाले, सदा शुभ चिन्तक। जब भी कोई ऐसी बात सामने आये तो शुभ-चिन्तक की मणी की गिफ्ट सदा स्मृति में रखो। तो आस्ट्रेलिया में सदा पावरफुल वायब्रेशन, पावरफुल सर्विस और सदा फरिश्तों की सभा दिखाई देगी। शक्तियों और पाण्डवों का संगठन भी अच्छा है, सेवा का उमंग भी अच्छा है। सेवा तो सब करते हैं लेकिन सफलता स्वरूप सेवा वह है जिस सेवा में किसी भी संस्कार वा संकल्प का विघ्न न हो। यही बातें सर्विस की वृद्धि में समय लगा देती हैं। इसलिए सदा निर्विघ्न सेवाधारी बनो। आस्ट्रेलिया निवासियों ने कितने सेवा केन्द्र खोले हैं? सेवा का उमंग अच्छा रहे फिर भले ही कहीं भी जाओ। अपनीसेवा समझ कार्य करो। ऐसा नहीं यह जर्मनी की है, यह आस्ट्रेलिया की है नहीं। बाबा की सेवा वा विश्व की सेवा जमारी है। इसको कहा जाता है - बेहद की वृत्ति। बेहद वृत्ति वाले हो ना। जहाँ जाओ अपना ही है। विश्व के कल्याणकारी हो, न कि सिर्फ आस्ट्रेलिया के वा आस-पास के। यह तो निमित्त सेवा की वृद्धि कारण नियम बनाये हैं। अच्छी तरह से सेवा को सम्भाल सकें इसलिए निमित्त बनाया है। अभी आगे क्या करना है? सेवाकेन्द्र भी खोले, गीता पाठशाला भी खोली। अभी क्या करेंगे? (सूक्ष्म सेवा) सूक्ष्म सेवा के साथ-साथ और भी कुछ करना है। अभी आस्ट्रेलिया से कोई ऐसा वी.आई.पी. नहीं लाये हो। ऐसा वी.आई.पी लाओ जो भारत की सरकार को उनका स्वागत करना पड़े। गवर्मेन्ट तक आवाज जाना अर्थात् आवाज बुलन्द होना। अभी सारे विदेश में से कोई भी स्थान ऐसी सेवा करे। न चाहते भी भारत वालों के कानों में जबरदस्ती भी आवाज पड़े। जैसे कुम्भकरण के चित्र में दिखाते हो ना, अमृत कान में डाल रहे हैं। तो ऐसी सेवा हो तब कहेंगे विदेश का आवाज भारत तक पहुँचा। अभी छोटी छोटी तूतारियाँ तक पहुँचे हो, बिगुल बजाना पड़ेगा। फिर आप सबको बापदादा बहुत अच्छी गिफ्ट देंगे। जब ऐसा आवाज निकलेगा तब जय-जयकार की शहनाइयाँ बजेंगी। नहीं तो भारत के कुम्भकरण ऐसे सहज जागने वाले नहीं हैं। अब तो सिर्फ ‘‘क्या''कह करके खर्राटे मारते रहते। समझा, अब क्या करना है। विदेश में हर स्थान पर ऐसी हिम्मत वाले हैं। इस वारी नैरोबी वालों ने कोशिश बहुत अच्छी की। मेहनत अच्छी की। आफीशल प्रोग्राम बनायेंगे तब आवाज होगा। पर्सनल पोग्राम बनाते तो आवाज बुलन्द नहीं हो सकता। आप फिर जब ऐसी सेवा करेंगे तक महायज्ञ की समाप्ति समारोह करेंगे। अभी तो आरम्भ किया है।

शक्ति सेना ऐसे लग रही है जैसे बनी बनाई है। सूरत और सीरत दोनों ही शक्ति रूप के दिखाई दे रहे हैं। यूनीफार्म भी अच्छी है, सबके बैज भी अच्छे चमक रहे हैं। मेहनत अच्छी की है। आस्ट्रेलिया निवासी जितने ही शुरू में स्वतन्त्र संस्कार के रहे उतना ही अभी मर्यादा में भी अच्छे रह रहे हैं। अभी बाप के मीठे बन्धन में आ गये हैं। सब अच्छे हैं। जैसे जेवर होता है उनको स्वरूप में लाया जाता है यह भी जेवर अच्छे तैयार हो गये हैं। पालिश हो गई। पाण्डव भी सर्विसएबुल अच्छे हैं। रिगार्ड देना और रिगार्ड लेना, इस मंत्र से सदा सहज सेवा की वृद्धि होती रहती है। अभी रिगार्ड देने भी सीख गये हैं। लेने भी सीख गये हैं। रिगार्ड देना ही लेना है। यह सदा याद रखो। सिर्फ रिगार्ड लेने से नहीं मिलेगा, लेकिन देने से मिलेगा। इसलिए एक दो में स्नेह और युनिटी अच्छी रहती। यह मंत्र पक्का याद हैं ना।

दीदी-दादी को देख - वायरलेस सेट आपके पास हैं ना। जो सेकेण्ड से भी जल्दी जहाँ कर्त्तव्य कराना हो वहाँ वायरलेस द्वारा डायरेक्शन दे सकते। क्योकिं जितनी सेवा वृद्धि को प्राप्त होती जायेगी तो फिर यह पत्र व्यवहार या टेलीग्राम, टेलीफोन आदि क्या कर सकेंगे। आज यह तो ठीक हैं, कल नहीं। फिर सारी सेवा कैसे हैन्डल करेंगे? इसका भी साधन अपनाना पड़े। हाल भी बनायेंगे, भण्डारा भी बना दिया यह तो जो आयेंगे उन्हों के लिए ठीक हैं लेकिन चारों ओर के सेवाकेन्द्रों के इतने विस्तार को कैसे हैन्डल करेंगे? सबको यहाँ बुलायेंगे? क्यू तो प्रजा की होगी वारिस तो क्यू में नहीं आयेंगे ना। इसलिए विशेष सेकेण्ड में कर्मातीत स्टेज के आधार से आपने संकल्प किया और वहाँ ऐसे पहुँचेगा जैसे आप कहते जा रहे हैं और पहुँच रहा है। ऐसे भी अनुभव बहुत होते रहेंगे जो समाचार में भी आयेंगे कि आज ऐसा अनुभव हुआ। साक्षात्कार भी होंगे और संकल्पों की सिद्धि भी होगी। अभी यह विशे- षता आती जायेगी। महारथियों का पुरूषार्थ अभी विशेष इसी अभ्यास का ही है। अभी-अभी कर्म योगी, अभी-अभी कर्मातीत स्टेज। एक स्थान पर खड़े होते भी चारों ओर संकल्प की सिद्धि द्वारा सेवा में सहयोगी बन सकते हो।

बहुत समय देना पड़ता है। जितना टाइम देते हो उतनी ही खुशी की खान सबके पास भरती जा रही है। आपका टाइम देना अर्थात् खुशी की खान भरना। दूसरों की खुशी को देख और ही उन्हों को उमंग उत्साह दिलाने के लिए संकल्प होता है। सब अच्छा ही अनुभव कर रहे हैं। समय जरूर देना पड़ता है लेकिन समय की सफलता हजार गुणा ज्यादा हो जाती। इसलिए मधुबन की आकर्षण सबको दिन-प्रतिदिन और ही बढ़ती जाती। यह आप निमित्त आत्माओं की सेवा का फल है।

आस्ट्रेलिया के भिन्न-भिन्न सेवाकेन्द्रों से आये हुए भाई-बहनों के साथ अव्यक्त बापदादा की मधुर मुलाकात।

1. हर कदम में पदमों की कमाई जमा हो रही है? ऐसे अपने को पदमापदम भाग्यशाली अनुभव करतेहो? सारे दिन में कितने पदम जमा होते हैं? हिसाब निकाल सकते हो? पाण्डव मिलकर सेवा को वृद्धि में ला रहे हैं, यह बहुत अच्छा है। सदा एक दो से सन्तुष्ट रहते हो? सब सदा एकमत और एकरस हैं, यह भी एक बहुत अच्छा एग्जाम्पल है। एक ने कहा दूसरे ने माना, यह है सच्चे स्नेह का रेसपान्ड। ऐसे एग्जाम्पल को देख और भी सम्पर्क में आने के लिए हिम्मत रखते हैं। संगठन भी सेवा का साधन बन जाता है। एक बाप, एक मत, यही संस्कार सतयुग में एक राज्य की स्थापना करते हैं। निर्विघ्न सेवा चल रही है ना? कोई खिटखिट तो नहीं है? जहाँ माया देखती है कि इनकी युनिटी अच्छी है, घेराव है तो वहाँ आने की हिम्मत ही नहीं रखती। एक-एक अपने को सेवा के निमित्त समझकर चलते हैं। एक नहीं लेकिन हम सब निमित्त हैं। बाप ने निमित्त बनाया है, यह स्मृति रहे तो सफलता होती रहेगी। मनन की शक्ति से स्वयं की स्टेज भी पावरफुल होती जायेगी।

2. सदा अपने को निर्बन्धन आत्मा महसूस करते हो? किसी भी प्रकार का बन्धन तो नहीं महसूस करते? नालेजफुल की शक्ति से बन्धनों को खत्म नहीं कर सकते हो? नालेज में लाइट और माइट दोनों हैं ना। नालेजफुल बन्धन में कैसे रह सकते हैं? जैसे दिन और रात इकठ्ठा नहीं रह सकते, वैसे मास्टर नालेजफुल और बन्धन, यह दोनों इकठ्ठा कैसे हो सकते। नालेजफुल अर्थात् निर्बन्धन। बीती सो बीती। जब नया जन्म हो गया तो पास्ट के संस्कार अभी क्यों इमर्ज करते हो? जब ब्रह्माकुमार-कुमारी बन गये तो बन्धन कैसे हो सकता? ब्रह्मा बाप निर्बन्धन है तो बच्चे बन्धन में कैसे रह सकते? इसलिए सदा यह स्मृति में रखो कि हम मास्टर नालेज- फुल हैं। तो जैसा बाप वैसे बच्चे।

3. सदा सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है, इतना नशा रहता है? सफलता होगी या नहीं होगी यह क्वेश्चन ही नहीं। सफलता मूर्त्त हैं - ऐसे नशा रहता है? मास्टर शिक्षक हो ना। जैसे बाप शिक्षक की क्वालीफिकेशन है वैसे मास्टर शिक्षक की भी होगी ना। बाप समान बने हो ना? (हाँ) यह हाँ-हाँ के गीत अच्छा गाती हैं। इससे सिद्ध है कि यह बाप के गुण सभी को सुनाकर डांस करती कराती हैं। कुमारियों को देख करके बापदादा बहुत खुश होते हैं। क्योंकि कुमार और कुमारियाँ त्याग कर तपस्वी आकर बने हैं। बच्चों के त्याग की हिम्मत देख, तपस्या का उमंग देख बापदादा खुश होते हैं। बाप की महिमा तो भक्त करते हैं लेकिन बच्चों की महिमा बाप करते हैं। कितने जन्म आपने माला सिमरण की? अभी बाप रिटर्न में बच्चों की माला सिमरण करते हैं। आप लोग देखते हो किस समय बाप माला सिमरण करते हैं? (अमृतबेले) तो जिस समय बाप माला सिमरण करते उस समय आप सो तो नहीं जाते हो? शक्तियाँ तो सोने वालों को जगाने वाली हैं। खुद कैसे सोयेंगी? रिजल्ट अच्छी है। सर्टीफिकेट मिलना भी लक है। आस्ट्रेलिया वालों को अच्छा सर्टीफिकेट मिल रहा है। अपनी फुलवाड़ी को निश्चय और हिम्मत के जल से सींचते रहने से वृद्धि को पाते रहेंगे। वृद्धि होती रहेगी।

निर्मला बहन को - बापदादा जितनी भी महिमा करे उतनी कम है, ऐसे महिमा योग्य रतन हो। जैसा नाम है वैसे निमार्कनचित्त के गुण से विजयी बनी हो। सहनशक्ति और सामना करने की शक्ति के आधार पर सर्व स्थानों को निर्विघ्न बनाया है। तो बापदादा प्रत्यक्ष- फल को देखकर बहुत खुश हैं। इसलिए सदा विशेष आत्माओं की लिस्ट में हो। सदा बाप की मदद मिलती रहती है और मिलती रहेगी। विशेष बच्ची के मस्तक पर सदा बाप का हाथ है। सदा यही चित्र अपने पास रखना। सर्व दैवी परिवार का भी स्नेह और सर्टीफिकेट है।

मुरली का सार –

1. अभी के अधिकारी पन के संस्कार 21 जन्म तक चलेंगे, अभी के राज्य-अधिकारी ही विश्व के राज्य-अधिकारी बनते हैं।

2. जैसे रात दिन इकठ्ठा नहीं रह सकते वैसे मास्टर नालेजफुल और बन्धन दोनों इकठ्ठा नहीं हो सकते। नालेजफुल की शक्ति से बन्धनों को खत्म करो।



21-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सच्ची होली कैसे मनायें?"

आज बेगमपुर के बादशाह अपने बेगमपुर के मालिकों से मिलने आये हैं। ऐसे मालिकों को देख बापदादा भी खुश हो रहे हैं कि हर बालक, मालिक बन गये हैं। संगमयुग बेगमपुर, मूलवतन बेगमपुर, स्वर्ग बेगमपुर, तीनों के मालिक। बापदादा ऐसे मालिकों को देख, मालिकों को आज के होली की मुबारक देते हैं। रंग के होली की मुबारक नहीं। लेकिन हो-लिए' की मुबारक है। सब बाप के हो लिए अर्थात् हो गये। हो लिए ना? गीत क्या गाते हो? बाप के हो-लिए। जो बाप के हो लिए उन्हों को ही होली मुबारक। होंगे वा हो लिए? क्या कहेंगे? जब होली अर्थात् पास्ट इज पास्ट कर बाप के होलिए तब खुशी की पिचकारी लगाते हो। पिचकारी से रंग डालते हैं ना! तो आपकी पिचकारी से कितनी धारायें निकलती हैं? आजकल एक ही पिचकारी से भिन्न-भिन्न रंग भी डालते हैं। वह रंग लगने के बाद बेरंगी हो जाते हैं। इसलिए उन्हें वस्त्र वा अपनी सूरत ठीक करना पड़ता है। और आपका रंग इतना श्रेष्ठ और प्रिय है। जो जिसको भी लगाओ वह यही कहेगा कि और लगाओ। सदा लगाओ। आपकी खुशी की पिचकारी मनुष्य को कितना परिवर्त्तन कर देव आत्मा मना देती है। एक धारा - ‘‘मैं एक श्रेष्ठ आत्मा हूँ'', यह खुशी की धारा है। मैं विश्व के मालिक का बालक हूँ। मैं सृष्टि के आदि मध्य अन्त का नालेजफुल हूँ। ऊंचे ते ऊंचे बाप के साथ श्रेष्ठ मंच पर मेरा हीरो पार्ट है। इसी प्रकार कितनी खुशी की पाइंटस की धारायें आपकी पिचकारी में हैं। एक तो यह खुशी की पिचकारी एक-दो को लगाते हो ना। दूसरी सर्व प्राप्तियों के धाराओं की पिचकारी। जैसे अतीन्द्रिय सुख। आत्मा और परमात्मा के मिलन का रूहानी प्रेम। ऐसे और भी सोचो। यह तो कामन है। तीसरी पिचकारी, सर्व शक्तियों की पिचकारी। इन विदेशियों ने पिचकारी कब देखी है? जैसे गुलाबाशी होती है उसमें कितने सुराख होते हैं। ऐसे पिचकारी दूर से लगाई जाती है जो फोर्स से दूर-दूर तक जाती है। ज्ञान की अलौकिक पिचकारि याँ तो देखी हैं ना। अच्छा - चौथी पिचकारी ज्ञान की मूल पाइंटस। ऐसे पिचकारियों से होली खेलने से देव आत्मा बन जाते हो। गोपी-वल्लभ, गोप गोपियों से एक दिन होली नहीं खेलते लेकिन संगमयुग का हर दिन होली डे है। संगम पर होली और सतयुग मे होगी हाली डे। अभी हाली डे नहीं मनाना है। अभी तो मेहनत ही मुहब्बत के कारण हाली डे की अनुभूति कराती है। बापदादा ने बच्चों का एक दृश्य ऊपर से देखा। मेहनत का दृश्य देखा। (जहाँ नया हाल बनना है वहाँ भाई लोग रोज पत्थर उठाते हैं) कहाँ मन्दिरों में पूजे जाने वाले, प्रकृति भी आपकी दासी बनकर सेवा करने वाली, बाप भी बच्चों की माला सिमरण करते हैं - लेकिन बच्चे क्या कर रहे थे? पत्थर उठा रहे थे। यह मेहनत, मेहनत नहीं लगी मुहब्बत के कारण। समझा हमारा कार्य है, घर का कार्य है। यज्ञ सेवा है। तो बापदादा से मुहब्बत होने के कारण यह मेहनत भी एक खेल लग रहा था ना। संगमयुग की जितनी मेहनत उतनी फ्रीडम है। क्योंकि बुद्धि और शरीर बिजी रहते उतना व्यर्थ संकल्पों से फ्री रहते हैं। इसलिए कहा कि संगम पर मेहनत ही हाली डे है। बच्चों को देख बापदादा आपस में रूह-रूहाण कर रहे थे। अभी हॉल बनाने के लिए पत्थर उठा रहे हैं। लेकिन यह एक पत्थर हजार गुणा वृद्धि को पा कर हीरे मोती बन जायेंगे। जो आपके महलों में यह हीरे मोती कितनी सजावट करेंगे! वहाँ महल बनाना नहीं पड़ेगा। अभी जो मेहनत की उसका फल सजा सजाया महल मिलेगा। बापदादा देख रहे थे। बड़ी खुशी-खुशी से सेवा की लगन में मगन थे। तो अब समझा होली' कौन-सी है!

पहले जलाना है फिर मनाना है। एक दिन जलाते हैं दूसरे दिन मनाते हैं। आप भी एक दिन होली अर्थात् पास्ट इज पास्ट' करते हो। अर्थात् पिछला सब जलाते हो। तब ही फिर गीत गाते हो - हम तो बापदादा के हो लिए। यह है खुशी में मनाना। यादगार की होली में भी मनाने के दिन देवताओं के रूप साँग के रूप में बनाते हैं। लेकिन उसमें भी विशेष मस्तक पर लाइट जलाते हैं। यह आपका यादगार है। जब मस्तक की ज्योति जगती तो देवता बन जाते हो। बाप के हो लिए तो देवता बन जाते हो। आपका यह अनुभव और उन्हों का है- आपके अनुभव का यादगार मनाना। तो समझा आप लोगों ने होली कैसे मनाई और वह लोग क्या करते हैं? यथार्थ क्या और यादगार क्या! (बड़े-बड़े लोग एक महामूर्ख सम्मेलन भी करते हैं।) यह भी राइट है। क्योंकि जब बाप आते हैं तो बड़े-बडे लोग महामूर्ख ही बन जाते हैं, जितने बड़े उतने ही मूर्ख बनते। जो बाप को ही नहीं जान सकते तो महामूर्ख हुए ना! देखो बड़े-बड़े नेतायें जानते हैं? तो महामूर्ख हुए ना। यह भी अपनी कल्प पहले की महामूर्खता की यादगार मनाते हैं। सारा उल्टा कार्य करते हैं। बाप कहते - मेरे को जानो, वह कहते - बाप हैं ही नहीं। तो उल्टे हुए ना! आप कहते हो - बाप आया है, वह कहते - हो ही नहीं सकता। तो उल्टा कार्य करते हैं ना। ऐसे तो बहुत कुछ विस्तार कर लिया है। लेकिन सार है - बाप और बच्चों के मंगल मिलन का यादगार। संगमयुग ही मंगल मिलन का युग है। भारत में रहने वाले बच्चे तो इन बातों को जानते हैं, आज विदेश से आये हुए बच्चों को सुना रहे हैं। क्योंकि राज्य तो भारत में ही करना हैं ना। अमेरिका में तो नहीं करना है। भारत की बातें जरूर सुनेंगे, समझेंगे ना! आपकी बातें क्या बना दी हैं! कितना फर्क कर दिया है!

ऐसे होली कर होली के गीत गाने वाले, सदा भिन्न-भिन्न पिचकारियों द्वारा आत्मा की चोली रंगने वाले, सदा बाप से मंगल मिलन मनाने वाले, ब्राह्मण सो देवता बनने वाले, बेगमपुर के मालिकों को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते। मुरलियाँ तो बहुत सुनी हैं। कुछ रहा है सुनने का? अभी तो मिलना और मनाना है। सुनना और सुनाना भी बहुत हो गया। साकार रूप में सुनाया, अव्यक्त रूप में कितना सुनाया, एक वर्ष नहीं लेकिन 13 वर्ष। अभी तेरहवें में तेरा' ही होना चाहिए ना। तेरा हूँ - इसी धुन में रहो तो सारा सुनाने का सार आ जावेगा।

कल बच्चों के मनाने का दृश्य भी देखा है। खूब हँसा, खूब खेला। बापदादा मुस्कराते रहे। सदा ही ऐसे हँसते नाचते रहो। लेकिन अविनाशी। बापदादा बच्चों को बहलते हुए देख यही वरदान देते कि अविनाशी भव'। टांगे तो थक जायेंगे लेकिन बुद्धि से खुशी में नाचते रहेंगे। अव्यक्त वतन वासी बन फरिश्ते की ड्रेस में नाचते रहेंगे तो अविनाशी और निरंतर कर सकेंगे। यह भी संगमयुग के स्वेहज है। फिर नहीं होंगे। इसलिए खूब खेलो, खाओ, मौज करो लेकिन अविनाशी' शब्द भी याद रखो।

अमेरिका - एक-एक रतन अनेक आत्माओं के कल्याण के निमित्त बने हुए हैं। आत्माओं को भटकते हुए देख रहम आता है ना। अभी तो और भी ज्यादा दु:ख की हाहाकार बढ़ेगी। ऐसे अनुभव करेंगे जैसे सुख की एक जरा-सी झलक भी नहीं दिखाई देती। यह सुख के साधन सब उन्हों को दु:ख के साधन अनुभव होने लगेंगे। ऐसे टाइम पर सिर्फ एक ही बाप और बाप के बच्चों का सहारा उन्हों को दिखाई देगा। सारे देश में अन्धकार के बीच में एक ही लाइट हाउस दिखाई देगा। यह धीरे-धीरे अति में जल्दी-जल्दी जाता रहेगा। तो ऐसे समय पर लाइट और माइट देने के अभ्यासी आत्मायें चाहिए। इसी अभ्यास में रहते हो? एक समय पर तीनों प्रकार की सेवा करनी पड़ेगी। मंसा भी, वाचा भी, कर्मणा भी। कर्मणा से उनको बिठाकर आथत देना। तो ऐसी तैयारी करते चलो। क्योंकि अमेरिका में जितने ज्यादा वैभव है, जितना बड़ा स्थान है उतना ही बड़ा दु:ख का अनुभव भी करेंगे। तो विनाश की तैयारियाँ चल रही हैं ना! विनाश के निमित्त आत्माओं के साथ-साथ आप स्थापना करने वाली आत्मायें भी अपना झण्डा बुलल्द करेंगी। तो स्थापना के कार्य में विशेष आत्मा को कौन लायेगा? अमेरिका। विशेष आत्माओं को लाने से अमेरिका का सेवाकेन्द्र भी वी.आई.पी. हो जायेगा ना!

2. सानफ़्रांसिसको - जैसा स्थान है, स्थान के अनुसार कौन सा झण्डा लहरायेंगे। साइंस वाले तो और भी जगह हैं। लेकिन यहाँ की विशेषता क्या है? (धार्मिक नेतायें बहुत हैं) एक भी धार्मिक नेता को अगर अनुभव करा दिया तो कितना नाम बाला हो जायेगा! तो यह विशेषता दिखाओ। जब वह लोग भी प्रैक्टिकल अनुभव सुनेंगे तो अनुभव के आधार पर आकर्षित होंगे। तो यह नवीनता दिखाओ। कुमारियाँ ऐसे विद्वानों को बाण मारें। यह कल्प पहले की यादगार है ना। तो वह कौन सी कुमारियाँ हैं? आप हो ना। कोई भी निमित्त बनें। ब्रह्माकुमार नजदीक लायेंगे और ब्रह्मा कुमारियाँ जीत प्राप्त कर विजय का झण्डा लहरायेंगी। आप ब्रह्माकुमार शिकार को लायेंगे और आप शिकार को अपना बनाकर मरजीवा बना देंगी। पहला कार्य पाण्डवों का है। फल निकालने में थोड़ा समय लगता है, जो बीज डाल रहे हो उसका फल निकलेगा जरूर। प्यार से उन्हों की सेवा करनी है। उन्हों को महान-महान कहते हुए अपनी महानता दिखानी है अगर पहले उनको कहेंगे आप तो कुछ नहीं हैं, आप रांग कर रहे हैं, तो वह तुम्हारी सुनेंगे भी नहीं। इसलिए पहले महिमा करो। जैसे मुरली में सुनते हो ना - चूहा क्या करता है? पहले फूंक देता फिर काटता है, ऐसे करो। क्योंकि फिर भी विकारी दुनिया को पिलर्स देकर ठहराने का काम तो किया है ना। तो जो किया है उसकी महिमा तो करेंगे ना। अच्छा- अच्छा कहते, अच्छा बनाते जाओ। तो समझा आपको कौन-सा कार्य करना है! यह भी आपके मैसेन्जर बन जायेंगे। इन्हों का आवाज तो बड़ा होता है ना! माइक बड़े होते हैं, इसलिए ऐसे-ऐसे को सम्पर्क में लाओ। जिसका नाम अच्छा हो, बड़ा हो। आप उन्हों द्वारा अपना बड़ा कार्य निकाल सकते हो। ब्राह्मण बढ़ाने की सेवा तो करनी ही है। लेकिन यह है एडीशन। कोई बडा प्रोग्राम रखो, उस प्रोग्राम में ऐसे वी.आई.पीज को कोई पोजीशन देकर बुलाने की कोशिश करो। उन्हों को इस कार्य में सहयोगी बनाओ। उनके पास कोई अनुभवी परिवार ले जाओ तो उसके प्रैक्टिकल लाइफ का प्रभाव उन पर ज्यादा पड़ेगा। क्योंकि वह भी प्रूफ देखने चाहते हैं कि यह क्या करते हैं।

आफ्रिका - सेवा की वृद्धि का उमंग उत्साह तो सदा रहता है ना। जैसे दृष्टान्त देते हैं कि मछली नीर के बिना नहीं रह सकती वैसे ब्राह्मण सेवा के बिना नहीं रह सकते। क्योंकि सेवा करने से एक तो स्व उन्नति और साथ-साथ अनेक आत्माओं की भी उन्नति हो जाती है। तो अपनी उन्नति के कारण भी प्राप्ति होती और दूसरे की जो उन्नति होती उसका भी शेयर जमा हो जाता। इसलिए बापदादा सदा कहते - ब्राह्मण वह जो याद और सेवा में सदा तत्पर रहें। याद में रहकर सेवा करना अर्थात् मेवा ही मेवा है। जैसे मेहनत मुहब्बत में बदल जाती, वैसे सेवा मेवा में बदल जाती। तो ऐसे सेवा का उमंग रहता है? जो जितना करता है उसका पदमगुणा हो जमा हो जाता है। अफ्रीका में भावना वाली सहयोगी आत्मायें हैं। सेवा में सहयोग देने का अच्छा उमंग-उत्साह है। एक-एक रत्न बहुत वैल्युबल और लाडला है।

‘‘सी फादर'' - इस मंत्र को सदा सामने रखते हुए चढ़ती कला में चलते चलो। जब सी फादर और फालो फादर है तो उड़ते रहेंगे जब आत्मा को फॉलो करते तो नीचे आ जाते। कभी भी आत्मा को नहीं देखना। क्योंकि आत्मायें सब पुरूषार्थी हैं। पुरूषार्थी को फॉलो करोंगे तो पुरूषार्थी में अच्छाई भी होती और कुछ कमी भी होती है। सम्पन्न नहीं। तो फालो फादर, न कि ब्रदर या सिस्टर। जैसे फादर एकरस है तो फालो फादर करने वाले भी एकरस रहेंगे।

भारतवासी बच्चों को देखते हुए बापदादा बोले - फारेनर्स का अपना भाग्य, भारत वालों का अपना भाग्य। भारत वाले भाग्यशाली न बनते तो फारेन वाले कैसे आते? विदेश की महिमा लास्ट सो फास्ट के हिसाब से है लेकिन जो हैं ही आदि में वह आदि में ही रहेंगे। भारत वालों ने भगवान को अपना बनाया है, और उन्हों को बना बनाया भगवान मिला है। अगर भारतवासी बाप को न पहचानते तो उन्हों को पहचान कौन देता? बाप को प्रत्यक्ष करने के निमित्त तो फिर भी पहले भारत वाले हैं। गुप्त से प्रत्यक्ष पहले भारत वालों ने किया, फिर उन्होंने माना। जैसे दुकान खोलते हैं तो पहली रेढ़ी पर या पटरी पर लगाते हैं। फिर वृद्धि होते-होते बड़ी दुकान हो जाती। ऐसे भारत वालों ने पहले बहुत मेहनत की, दुकान खोले तब तो आप लोग आये हो ना! जितना सहन भारत वालों ने किया उतना फारेनर्स ने कहाँ किया है? इसलिए भारतवासी बच्चे इसमें नम्बरवन हैं। जो सहन करने में नम्बरवन हैं उन्हें वर्सा भी उसी हिसाब से मिलता है। आप लोग प्रैक्टिकल चरित्र करने वाले हो और वह सुनने वाले हैं। आप कहेंगे हमने ऑखों से ब्रह्मा में शिव बाप को देखा यही विशेषता है। वैसे तो सब एक-दो से आगे हैं क्योंकि ड्रामा अनुसार संगमयुग को ऐसा वरदान मिला हुआ है जो हरेक में कोई-न-कोई विशेषता सब से विशेष है। अभी देखो भोली की विशेषता और भाषण करने वालों की विशेषता। अगर भोली न होती तो भी काम नहीं चलता। अच्छा - यह भी होली खेल रहे हैं। आज है ही मनाना। यह भी पिचकारी लग रही है।

मुरली का सार

1. बाप दादा रंग की मुबारक नहीं देते परन्तु बाप के हो लिए अर्थात् हो गये उसकी मुबारक देते हैं।

2. खुशी की प्राप्तियों की, सर्वशक्तियों की, ज्ञान के मूल पांइन्टस आदि आदि की पिचकारियों से खेलते-खेलते तुम देव-आत्मा बन जाते हो। 3. ‘सी फादर' और फालो फादर करने से चढ़ती कला का अनुभव करेंगे।



23-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"फर्स्ट या एयरकन्डीशन में जाने का सहज साधन"

आज बादादा सब बच्चों की सूरत में विशेष एक बात देख रहे हैं। वह कौन-सी है? हरेक के चेहरे पर प्यूरिटी की ब्यूटी कहाँ तक आई है। अर्थात् पवित्रता के महानता की चमक कहाँ तक दिखाई देती है। जैसे शरीर की ब्यूटी में मस्तक, नयन,मुख आदि सब देखते हैं वैसे प्युरिटी की ब्यूटी में बापदादा, मस्तक में संकल्प की रेखायें अर्थात् स्मृति शक्ति, नयनों में आत्मिक वृत्ति की दृष्टि, मुख पर महान आत्मा बनने की खुशी की मुस्कान, वाणी में सदा महान बन महान बनाने के बोल, सिर पर पवित्रता की निशानी लाइट का ताज - ऐसा चमकता हुआ चेहरा हरेक का बापदादा देख रहे थे। आज वतन में प्यूरिटी की काम्पीटीशन थी। आप सबका नम्बर कितना होगा। यह जानते हो? फर्स्ट, सेकेण्ड, थर्ड प्राइज होती है। आप सबको कौन-सी प्राइज मिली?

फर्स्ट प्राइज के अधिकारी वह बच्चे बनते हैं जिन्हों की पाँचों ही बातें सम्पन्न होंगी। एक लाइट का ताज, उस ताज में भी जिसका ताज फुल सार्किल में है। जैसे चन्द्रमा का भी पूरा सार्किल होता है। कब अधूरा होता है, तो किन्हों का आधा था, किसका पूरा था। और किन्हों का तो लकीर मात्र था, जिसको कहेंगे नाम-मात्र। तो पहला नम्बर अर्थात् फर्स्ट प्राइज वाले फुल लाइट के ताजधारी।

दूसरा - जैसे मस्तक में तिलक चमकता है वैसे भाई-भाई की स्मृति अर्थात् आत्मिक स्मृति की निशानी मस्तक बीच बिन्दी चमक रही थी। तीसरा - नयनों में रूहानियत की चमक, रूहानी नजर। जिस्म को देखते हुए न देख रूहों को देखने के अभ्यास की चमक थी। रूहानी प्रेम की झलक थी। होंठों पर प्रभु प्राप्ति आत्मा और परमात्मा के महान मिलन की और सर्व प्राप्तियों की मुस्कान थी। चेहरे पर मात-पिता और श्रेष्ठ परिवार से बिछुड़े हुए कल्प बाद मिलने के सुख की लाली थी। बाप भी लाल, आत्मा भी लाल, घर भी लाल और बाप के भी बने तो लाल हो गये। कितने प्रकार की लाली हो गई? ऐसी पाँचों ही रेखायें सम्पूर्ण स्वरूप वाले फर्स्ट प्राइज में हैं। अब इसके आधार पर सोचो - फर्स्ट प्राइज 100 पाँचों ही रेखाओं में है? सेकेण्ड प्राइज वाले 70, थर्ड प्राइज वाले 30, अब बताओ आप कौन हो? सेकेण्ड प्राइज वाले - उसमें भी नम्बरवार मैजारिटी थे। फर्स्ट और थर्ड में कम थे। 30 से 50 के अन्दर मैजारिटी थे। कहेंगे उसको भी सेकेण्ड में, लेकिन पीछे। फर्स्ट क्लास वालों में भी दो प्रकार थे - एक जन्म से ही प्यूरिटी के ब्यूटी की पाँचों ही निशानियाँ जन्म सिद्ध अधिकार के रूप में प्राप्त किये हुए थे। प्राप्त करना नहीं पड़ा लेकिन प्राप्त किया हुआ है। उन्हों के चेहरे पर अपवित्रता के नालेज की रेखायें नहीं हैं। निजी संस्कार नैचुरल लाइफ है। संस्कार परिवर्त्तन करने की मेहनत नहीं। स्वप्न में भी संकल्प मात्र अपवित्रता का वार नहीं। अर्थात् प्यूरिटी की ब्यूटी में जरा भी महीन दाग नहीं।

दूसरे जन्म से नालेज की लाइट और माइट के आधार पर सदा प्यूरिटी की ब्यूटी वाले। अन्तर यह रहा जो पहले वाले सुनाये उन्हों के लास्ट जन्म के पिछले संस्कार का भी दाग नहीं। इसलिए पिछले जन्म के संस्कारों को मिटाने के मेहनत की रेखा नहीं। नालेज है कि पिछले जन्म का बोझ आत्मा पर है लेकिन चौरासिवें जन्म के पास्ट का ड्रामा अनुसार अपवित्रता के संकल्प का अनुभव नहीं। इसलिए यह भी लिफ्ट की गिफ्ट मिली हुई है। इसलिए निजी संस्कार के रूप में सहज महान आत्मा हैं। जैसे सहज योगी वैसे सहज पवित्र आत्मा। बी होली नहीं, वह हैं ही होली। उन्हों के लिए यह स्लोगन नहीं है कि ‘‘बी होली''। वह बने बनाये हैं। फर्स्ट प्राइज में भी नम्बरवन। समझो एयरकन्डीशन ग्रुप हो गया। फिर फर्स्टक्लास, उन्हों का सिर्फ थोडा सा अन्तर है। निजी संस्कार नहीं, संस्कार बनाना पड़ता है। अर्थात् मर जीवे जन्म के आदि में निमित्त मात्र नालेज के आधार पर अटेन्शन रखना पड़ा। जरा-सी पुरूषार्थ की रेखायें जन्म के आदि में दिखाई देती हैं, अभी नहीं। पहले आदि काल की बात है। एयरकन्डीशन अर्थात् बना बनाया था। और फर्स्टक्लास वालों ने आदि में स्वयं को बनाया। उसमें भी पुरूषार्थ सहज किया है। सहज पुरूषार्थ, तीव्र पुरूषार्थ, समर्थ पुरूषार्थ। लेकिन फिर भी पुरूषार्थ की रेखा है। यह प्यूरिटी की बात चल रही है। प्यूरिटी की सब्जेक्ट में वह बने बनाये और वह पुरूषार्थ की रेखा वाले हैं। बाकी टोटल सब सब्जेक्ट कीबात अलग है। यह एक सब्जेक्ट की बात है। वह 8 रत्नों की माला और वह 100 में पहले नम्बर। थर्ड क्लास तो इण्डिया गवर्मेण्ट भी कैन्सिल प्रजा है, थर्ड क्लास वाले तो सतयुग की पहली नामीग्रामी प्रजा है, जो रायल फैमली के सम्बन्ध में सदा रहेगी। अन्दर की प्रजा होगी। बाहर की नहीं। अन्दर वाले कनेक्शन में बहुत नजदीक होंगे, लेकिन मर्त्तबे से पीछे होंगे। लक्ष्य तो एयरकन्डीशन का है ना। फर्स्टक्लास के अन्तर से सेकेण्ड क्लास को तो समझ गये होंगे। सेकेण्ड क्लास से फर्स्ट वा एयरकन्डीशन में जाने का बहुत सहज साधन है। सिर्फ एक संकल्प का साधन है। वह एक संकल्प है - ‘‘मैं हूँ ही ओरीजनल पवित्र आत्मा।'' ओरीजनल स्वरूप अपवित्र तो नहीं था ना! अनादि और आदि दोनों काल का ओरीजनल स्वरूप पवित्र था। अपवित्रता तो आर्टिफीशियल है। रीयल नहीं है। शूद्रों की देन है। शूद्रों की चीज़ ब्राह्मण कैसे यूज़ कर सकते? सिर्फ यह एक संकल्प रखो - अनादि आदि रीयल रूप पवित्र आत्मा हूँ। किसी को भी देखों तो उसका भी अनादि आदि रीयल रूप देखो, स्वयं का भी, औरों का भी। रीयल को रियलाइज करो। लाल चश्मा लगाओ। स्मृति का चश्मा । वह चश्मा नहीं। मैं भी लाल वह भी लाल, बाप भी लाल। तो लाल चश्मा हो गया ना। फिर लाल किले के ऊपर झण्डा लहरायेंगे। अभी मैदान तक कदम उठाया है। गवर्मेन्ट की नजर तक आये हो फिर नजर के बाद दिल पर आ जायेंगे। सबकी दिल से निकलेगा कि अगर हैं तो यही हैं। अभी यह आवाज फैला कि यह बडी संस्था है। बड़ा कार्य है। यह काई साधारण संस्था नहीं। नामीग्रामियों की लिस्ट में है। अभी आपके मेहनत की प्रशंसा कर रहे हैं। फिर आपके परमात्म-मुहब्बत की महिमा करेंगे। अभी 81 में यह किया है, 82 में क्या करेंगे? यह भी अच्छा किया। बापदादा खुश हैं। संगठन का स्वरूप विश्व के आगे एक वन्डरफुल चित्र में रखा है ‘‘हम सब एक है'' इसका झण्डा लहराया। लोग समझते हैं कि हमने तो समझा यह ब्रह्माकुमारियाँ गई कि गई, कहाँ तक चलेंगी। लेकिन संगठन के नक्शे ने अनेक साधनों द्वारा जैसे रेडियो, टी.वी. अखबारें, नेतायें इन सबके सम्पर्क द्वारा अभी यह आवाज है कि ब्रह्माकुमारियाँ चढ़ती कला में अमर हैं, जाने वाली नहीं है, लेकिन सभी को ले जाने वाली हैं। जो सबने तन-मन-धन लगाया, विश्व के कोने-कोने के ब्राह्मण भावनाओं की मिट्टी देहली में पड़ गई। यह भी शुभ-भावनाओं की मिट्टी डालने की सेरीमनी हो गई। अपने राज्य की नींव को मजबूत किया। इसलिए कुछ फल निकला, कुछ निकलेगा। सब फल इकठ्ठा नहीं निकलता है। उल्हनों से बच गये। अब कोई उल्हना नहीं दे सकेगा कि बाहर की स्टेज पर कहाँ आते हो। लाल किले तक पहुँच गये तो उल्हना समाप्त हुआ। अपनी कमजोरी रही, आपका उल्हना नहीं रहा। इसलिए सफलतामूर्त्त हैं और सदा रहेंगे। आगे और नया प्लैन बनेगा। खर्चे का नहीं सोचों। खर्चा क्या किया - 10 पैसे ही तो दिये। लोग तो मनोरंजन संगठन के लिए, संगठित प्रोग्राम्स के लिए कितना खर्चा जमा करते हैं और खर्च करते हैं। आप सबका तो 10 पैसे या 10 रूपये में काम हो गया। इतना बड़ा परिवार देखना और मिलना। यह भी स्नेह का सबूत देखा। युनिटी की खुशबू, सेवा के स्नेह की खुशबू, श्रीमत पर एवररेडी रहने की खुशबू, उमंग-उत्साह और इन्वेंशन की खुशबू चारों ओर अच्छी फैलाई। बापदादा के वतन तक पहुँची। अब सिर्फ एक खुशबू रह गई। कौन सी? भगवान के बच्चे हैं, यह खुशबू रह गई है। महान आत्मायें हैं, यहाँ तक पहुँचे हो। आत्मिक बाम्ब लगा है। लेकिन परमात्म बाम्ब नहीं लगा है। बाप आया है, बाप के यह बच्चे वा साथी हैं, अब यह लास्ट झण्डा लहराना है। भाषणों द्वारा, झाँकियों में माइक द्वारा तो सन्देश दिया। लेकिन अब सबके ह्दय तक सन्देश पहुँच जाए। समझा अभी क्या करना है? यह भी दिन आ जायेगा। सुनाया ना विदेश से कोई ऐसे विशेष व्यक्ति लायेंगे तो यह भी हलचल मचेगी। सब फर्स्टक्लास प्यूरिटी की ब्यूटी में आ जायें, सेकेण्ड क्लास भी खत्म हो जाए तो यह भी दिन दूर नहीं होगा। सेकेण्ड क्लास वाले को ब्यूटीफुल बनने के लिए मेहनत का मेकप करना पड़ता। अभी यह भी छोड़ो। नैचुरल ब्यूटी में आ जाओ। जैसे देवताओं के संस्कारों में अपवित्रता की अविद्या है वही ओरीजनल संस्कार बनाओ तो विश्व के आगे प्यूरिटी की ब्यूटी का रूहानी आकर्षण स्वरूप हो जायेगा। समझा आज क्या काम्पीटीशन थी?

फारेन ग्रुप तो बहुत जाने वाला है। एक जाना अनेकों को लाना है। एक-एक स्टार अपनी दुनिया बनायेंगे। यह चैतन्य सितारों की दुनिया है इसलिए साइन्स वाले आपके यादगार सितारों में दुनिया ढूंढ रहे हैं। अभी उन्हों को भी अपनी दुनिया में ले आओ। तो मेहनत से बच जायें। उन्हों को अनुभव कराओ कि सितारों की दुनिया कौन सी है? जो आज भारत के बच्चों के साथ-साथ विदेशियों की भी विशेष ज्ञान के पिकनिक की खातिरी कर रहे हैं। जो जाने वाला होता है उनको पिकनिक देते हैं ना। तो बापदादा भी पार्टी दे रहे हैं। यह ज्ञान की पार्टी है।

ऐसे प्यूरिटी की ब्यूटी में नम्बरवन, इमप्युरिटी पर सदा विन करने वाले, प्युरिटी को निजी संस्कार बनाने वाले, सर्व सम्बन्ध का सुख एक बाप से सदा लेने वाले, एक में सारा संसार देखने वाले - ऐसे सदा आशिकों को माशुक बाप का याद प्यार और नमस्ते। महायज्ञ में सभी ने बहुत अच्छी मेहनत की है। मेहनत का फल मिल ही जाता है। आवाज बुलन्द करने में खर्चा तो करना ही पड़ता, कोई नई इन्वेंशन निकलने में खर्चा लगता है लेकिन उसकी सफलता पीछे भी फल देती रहती है। कहाँ नाम बाला होता, कहाँ आवाज निकलता, कहाँ ब्राह्मण परिवार में वृद्धि होती। महायज्ञ के कारण गवर्मेंन्ट द्वारा जो सहयोग प्राप्त हुआ वह भी हमेशा के लिए उनके रिकार्ड में तो आ गया ना। जैसे रेलवे कन्शेसन का हुआ, तो यह भी रिकार्ड में आ गया। ऐसे गुप्त कई कार्य होते हैं। प्रेजीडेन्ट तक भी आवाज तो गया कि इतने सेवाकेन्द्रों से इतने लगन से आये हैं। यह भी प्रत्यक्षफल है। जिन्होंने जो सेवा की, बापदादा रिजल्ट से सन्तुष्ट हैं। इसलिए मेहनत की मुबारक हो।

सेवाधारी भाई-बहनों से - हरेक अपने को कोटों में कोऊ, कोऊ मे कोऊ, ऐसी श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? सेवा की लाटरी मिलना यह भी एक भाग्य की लकीर है। यह सेवा, सेवा नहीं है लेकिन प्रत्यक्ष मेवा है। एक होता है ताजा फ्रीट, एक होता है सूखा फ्रीट। यह कौन सा फल है? यह प्रत्यक्ष भाग्य का फल है। अभी अभी करो, अभी-अभी खाओ। भविष्य में जमा होता ही है लेकिन भविष्य से भी पहले प्रत्यक्ष फल होता है। वायुमण्डल के सहयोग की छत्रछाया कितना सहज श्रेष्ठ बनाती है। साथ-साथ पुरानी दुनिया के आवाज और नजर से दूर हो जाते हो। नौकरी के बजाय, यज्ञ-सेवा घर की सेवा हो जाती है। नौकरी की टोकरी भी तो उतर जाती है ना। सेवा का ताज धारण हो जाता है। नौकरी की टोकरी तो मजबूरी से उठा रहे हो, दिल से नहीं, डायरेक्शन है तो कर रहे हो। तो इस सेवा से कितने फायदे हो जाते? संग कितना श्रेष्ठ मिल जाता, सागर का कण्ठा और सदा ज्ञान की चर्चा, बाप और सेवा के सिवाए और कुछ नहीं। यह मदद है ना। तो कितना भाग्य है। मातायें क्या समझती हैं? बना बनाया भाग्य हथेली पर आ जाता है। जैसे कृष्ण के चित्र में स्वर्ग हथेली पर है तो संगम पर भाग्य का गोला हाथ में है। इतने भाग्यवान हो। यह सेवा अभी साधारण बात लगती लेकिन यह साधारण नहीं है। यह वन्डरफुल लकीर है। जितना समय यह लाटरी मिलती है, इसी लाटरी को अविनाशी बना सकते हो। ऐसे अभ्यासी बन जाओ जो कहाँ भी रहते यहाँ जैसी स्थिति बना सको। यहाँ सहज योगी की अनुभूति होती है ना! मेहनत समाप्त हो जाती, तोय ही सहजयोग का अनुभव परम्परा चलाते रहो। संगमयुग में परम्परा। मधुबन में यह अनुभव छोड़ के नहीं जाना लेकिन साथ ले जाना। ऐसे कई कहते हैं - मधुबन से नीचे उतरे तो मीटर भी नीचे उतर गया। ऐसे नहीं करना। इसी अभ्यास का लाभ लो। सेवा करते हुए भी सहजयोगी की स्थिति पर अटेन्शन रखो। ऐसे नहीं सिर्फ कर्मणा सेवा में बिजी हो जाओ। कर्मणा के साथ-साथ मंसा स्थिति भी सदा श्रेष्ठ रहे, तब सेवा का फायदा है। शक्तियाँ भी अच्छी स्नेही हैं, अथक हैं, बाहों में दर्द तो नहीं पड़ता, बापदादा स्नेह से पाँव और बाँहें दबा रहे हैं। स्नेह ही पाँव दबाना है। अच्छा - मधुबन में सेवा का बीज डाला अर्थात् सदा के लिए श्रेष्ठ कर्मों का फल बोया।

मुरली का सार

1. फर्स्ट प्राइज के अधिकारी वे हैं जिनकी निम्नलिखित 5 बातें सम्पन्न होंगी -

अ- फुल लाइट के ताजधारी।

ब- जैसे मस्तक में तिलक चमकता है वैसे भाई-भाई की स्मृति, आत्मिक स्मृति की निशानी।

स- नयनों मे रूहानियत की चमक।

य- होठों पर परिवार प्राप्ति, आत्मा और परमात्मा के महान मिलन की और सर्व प्राप्तियों की मुस्कान।

र- चेहरे पर मात-पिता और श्रेष्ठ परिवार से कल्प बाद मिलने के सुख की लाली।

2. फर्स्ट वा एयरकन्डीशन में आने का सहज साधन है - सिर्फ यह सकंल्प रखो कि मैं अनादि, आदि रियल-रूप पवित्र आत्मा हूँ। किसको भी देखो उसका भी आदि अनादि पवित्र रूप देखो।



25-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"महानता का आधार संकल्प, बोल और कर्म की चेकिंग"

आज बापदादा अपने चरित्र भूमि, कर्म-भूमि, वरदान भूमि, महान तीर्थ भूमि, महान यज्ञ भूमि के सर्व साथियों से मिलने आये हैं। मधुबन निवासी अर्थात् महान पावन धरनी निवासी। इस धरनी पर आने वालों का भी महान पार्ट है तो सोचो रहने वालों का कितना महान पार्ट है! महान आत्माओं का निवास स्थान भी महान ही गाया जाता है। जब आने वाले भी अपने को भाग्यशाली अनुभव करते हैं, अनेक अनुभवों की स्वयं में अनुभूति करते हैं तो रहने वाले का अनुभव क्या होगा! जो रहते ही ज्ञान सागर में हैं, ऐसी आत्मायें कितनी श्रेष्ठ हैं! ऐसे सब मधुबन निवासी अपने को इतना महान अनुभव करते हो? जैसे टाप का स्थान है, ऐसे ही स्थिति भी टाप की रहती है। नीचे तो नहीं आते हो? मधुबन निवासियों को कितने प्रकार की लिफ्ट की गिफ्ट है, उसको जानते हो? कभी गिनती की है? वा इतनी है जो गिनती नहीं कर सकते हो? मधुबन की महिमा के गीत सभी गाते हैं। लेकिन मधुबन निवासी वह गीत गाते हैं? मधुबन वासियों का चित्र दूर-दूर रहने वाले भी अपने दिल में कितना श्रेष्ठ चित्र खींचते हैं, यह जानते हो? ऐसा चित्र चैतन्य में अपना तैयार किया है? जैसे स्थूल पहाड़ी है वैसे सदा ऊंची स्टेज की पहाड़ी पर रहते हो? ऐसी ऊंची स्टेज जहाँ पुरानी दुनिया के वातावरण का कोई प्रभाव आ नहीं सकता। ऐसी स्टेज पर रहते हो कि नीचे आ जाते हो?नीचे आने की आवश्यकता है? मधुबन को डबल लकीर है। एक तो मधुबन निवासी मधुबन की लकीर के अन्दर हैं। और दूसरा सदा श्रीमत की लकीर के अन्दर हैं। तो डबल लकीर के अन्दर हो। डबल लकीर के अन्दर रहने वालों की स्टेज कितनी श्रेष्ठ होगी। आज बापदादा अपने भूमि निवासियों से मिलने आये हैं। बाप की चरित्र भूमि है ना। तो भूमि निवासियों से विशेष स्नेह होगा ना।

बिचारे आज के भक्त तो भूमि की मिटटी मस्तक में लगाने के लिए तरस रहे हैं और आप सदा वहाँ निवास करते हो तो कितने भाग्यशाली हो! दिल तख्तनशीन तो सब हैं लेकिन मधुबन निवासी चुल्ह पर भी हैं तो दिल पर भी हैं। डबल हो गया ना। सबसे ताजा माल मधुबन निवासियों को मिलता है। सबसे बढ़िया अनुभवों की पिकनिक मधुबन निवासी करते हैं। सबसे ज्यादा मिलन महफिल मधुबन निवासी करते हैं। सबसे ज्यादा चारों ओर के समाचारों के नालेजफुल भी मधुबन निवासी हैं। मधुबन निवासियों से मिलने सभी को आना पड़ता है। तो इतना श्रेष्ठ भाग्य, और वर्णन कौन करता है? बाप बच्चों का भाग्य वर्णन कर रहे हैं। मधुबन निवासियों का कितना श्रेष्ठ भाग्य है! अगर एक बात भी सदा याद रखो तो नीचे कभी आ नहीं सकते। अब जितनी बाप ने मधुबन निवासियों के भाग्य की महिमा की, उतनी ही महान आत्मा समझकर चलते हो? मधुबन की महिमा सुनकर फारेनर्स भी देखो खुश हो रहे हैं। इन सबके मन में उमंग आ रहा है कि हम भी मधुबन निवासी हो जावें। आज फारेनर्स जैसे गैलरी में बैठे हैं। गैलरी में बैठकर देखने में मजा होता है। कब मधुबन निवासी देखने वाले कभी फारेनर्स देखने वाले। मधुबन निवासियों के लिए सिर्फ एक ही बात स्मृति में रख समर्थ बनने की है। वह कौन सी? जिस एक बात में सब समया हुआ है।

जो भी संकल्प करो, बोल बोलो, कर्म करो, सम्बन्ध वा सम्पर्क में आओ, सिर्फ एक चेकिंग करो कि यह सब बाप समान हैं? जो मेरा संकल्प वह बाप का संकल्प है? मेरा बोल बाप का बोल है? क्योंकि सबकी यही प्रतिज्ञा है बाप से, ‘‘कि जो बाप से सुना है वही सुनायेंगे। जो बाप सुनायेंगे वहीं सुनेंगे। जो बाप ने सोच के लिए दिया है वहीं सोचेंगे। यह तो सबका वायदा है ना? जब यह वायदा है तो सिर्फ यह चेकिंग करो। यह चेकिंग करना मुश्किल तो नहीं हैं ना। पहले मिलाओ फिर प्रैक्टिकल में लाओ। हर संकल्प पहले बाप समान है - यह चेक करो। पहले भी सुनाया था कि जो द्वापर युगी राज वा रजवाड़े होकर गये हैं, कोई भी चीज़ स्वीकार करेंगे तो पहले चेकिंग होती है फिर स्वीकार करते हैं। तो द्वापर के राजे आपके आगे क्या लगते हैं! आप लोग तो फिर भी अच्छे राजे बने होंगे। लेकिन गिरे हुए राजाओं की भी इतनी खातिरी होती तो आप सबका संकल्प भी बुद्धि का भोजन है। बोल भी मुख का भोजन ही है। कर्म - हाथों का, पाँव का भोजन है। तो सब चेक करना चाहिए ना। पहले करके पीछे सोंचना इसको क्या कहा जायेगा? डबल समझदार।

सिर्फ यह एक बात सदा अपना निजी संस्कार बना दो जैसे स्थूल में भी कई आत्माओं के संस्कार होते हैं, ऐसे वैसे कोई चीज़ कब स्वीकार नहीं करेंगे। पहले चेक करेंगे, देखेंगे फिर स्वीकार करेंगे। आप तो सब महान पवित्र आत्मायें हों, सर्व श्रेष्ठ आत्मायें हो। तो ऐसी आत्मायें बिना चेकिंग के संकल्प को स्वीकार कर दे , वाणी से बोल दें, कर्म को कर लें - यह महानता नहीं लगेगी। तो मधुबन निवासियों के लिए सिर्फ एक ही बात है। चेकिंग की मशीनरी तो है ना। अभ्यास ही मशीनरी है।

मधुबन वालों की महिमा भी बहुत गाते हैं। अथकपन की खुशबू तो बहुत काल से आती है। जैसे अथक पन की खुशबू आती है यह सर्टिफिकेट तो मिला है,इसके साथ और क्या ऐड करेंगे? जैसे अथक हो वैसे ही सदा एकरस। जब भी रिजल्ट देखें तो सबकी रिजल्ट एकरस अवस्था में एक नम्बर हो। दूसरा तीसरा नम्बर भी नहीं। क्योंकि मधुबन है सबको लाइट और माइट देने वाला। अगर लाइट-हाउस, माइट-हाउस ही हिलता रहेगा तो दूसरों का क्या हाल होगा! मधुबन निवासियों का सब वायुमण्डल बहुत जल्दी चारों ओर फैलता है। यहाँ की छोटी बात भी बाहर बड़े रूप में पहुँचती है। क्योंकि बड़े आदमी हो ना। सदा छत्रछाया में रहने वाले। स्वर्ग में तो प्रालब्ध मिलेगी लेकिन यहाँ भी काफी प्रालब्ध है।मधुबन निवासियों को सब बना बनाया मिलता है। एक डियूटी बजाई बाकी सब बना बनाया। कहाँ से आता है, कितना आता है, कोई संकल्प की जरूरत ही नहीं। सिर्फ सेवा करो और मेवा खाओ। 36 प्रकार के भोजन भी मधुबन वालों को बार-बार मिलते हैं। तो 36 गुण भी तो धारण करने पड़ेंगे। हरेक मधुबन निवासी को पवित्रता की लाइट के ताजधारी तो होना ही है। लेकिन डबल ताज। एक गुणों का ताज, दूसरा - पवित्रता का ताज जिस ताज में कम से कम 36 हीरे तो होने ही चाहिए।

आज बापदादा मधुबन निवासियों को खास और सभी को आम - गुणों के ताज की क्राउन-सेरीमनी करा रहे हैं। हरेक को जो भी देखे तो ताजधारी देखे। हरेक गुण रूपी रत्न चमकता हुआ औरों को भी चमकाने वाला हो। (बापदादा ने ड्रिल कराई)।

सभी लवलीन स्टेज पर स्थित हो ना! एक बाप दूसरा न कोई। इसी अनुभूति में कितना अतीन्द्रिय सुख है! सर्व गुणों से सम्पन्न श्रेष्ठ स्थिति अच्छी लगती है ना। इसी स्थिति में दिन और रात भी बीत जाये फिर भी सदा इसी में रहने का संकल्प रहेगा। सदा इसी स्मृति में समर्थ आत्मा रहो।

बापदादा निरंतर बच्चों से मिलन मनाते रहते हैं और मनाते रहेंगे। अनेक बच्चे होते भी हरेक बच्चे के साथ बाप मिलन मनाते ही हैं। क्योंकि शरीर के बन्धन से मुक्त बाप औरा दादा दोनों एक सेकेण्ड के अन्दर अनेकों को भासना दे सकते हैं।

दीदी जी के साथ - रायल फैमली बन चुकी है या अभी बन रही है? राज्य कारोबार चलाने वाले निकल चुके हैं या अभी निकलने हैं? एक हैं चलानेवाले, एक हैं कारोबार में आनेवाले। जो तख्त नशीन होंगे वह राज्य चलाने वाले। और जो सम्बन्ध में होंगे वह हैं राज्य कारोबार में आने वाले। तो राज्य कारोबार चलाने वाले भी अभी बन रहे हैं ना। राज्य कारोबार चलाने वालों की विशेषता क्या होगी? तख्त पर तो सब नहीं बैठेंगे, तख्त वालों के सम्बन्धी तो बनेंगे लेकिन तख्त पर बैठने वालों की तो लिमिट है ना। रायल फैमली में आनेवाले और राज्य सिंहासन पर बैठने वाले उन्हों में भी अन्तर होगा। कहलायेंगे तो वह भी नम्बर वन, नम्बर टू विश्वमहाराजन की रायल फैमली। लेकिन अन्तर क्या होगा? तख्तनशीन कौन होंगे, उसके भी कोई कायदे होंगे ना। इस पर सोचना।

संगमयुग पर तो दिलतख्त के अधिकारी सबको बाप बनाते हैं। भविष्य में राजे-महाराजे तो बनेंगे लेकिन फर्स्ट नम्बर वाला तख्त जो फर्स्ट लक्ष्मी नारायण वाला होगा उसके तख्तनशीन कौन होंगे? छोटे-छोटे तख्त और राज्य दरबार तो लगेगी लेकिन विश्व-महाराजन के तख्त का विशेष आधार है- हर बात में, हर सब्जेक्ट में बाप को पूरा फालो करने वाले। अगर एक भी सब्जेक्ट में फालो करने में कमी पड़ गई तो फर्स्ट तख्त के अधिकारी नहीं बन सकते। नर से नारायण, नारी से लक्ष्मी पद पा लेंगे लेकिन फर्स्ट नम्बर का ताज और तख्त उसके लिए बापदादा दोनों को हर बात में फालो करना पड़े। तब तख्त भी फालो में मिलेगा। हर बात में, हर संस्कार में, हर संकल्प में फालो फादर करना है। इसके आधार पर नम्बर भी बनेंगे। तख्त वहीं मिलेगा लेकिन उसमें भी नम्बर होंगे। सेकेण्ड लक्ष्मी-नारायण और आठवाँ लक्ष्मी-नारायण अन्तर तो होगा ना। यह फालो में अन्तर पड़ जाता है। इसमें भी गुह्य रहस्य है। महाराजा बनना और महारानी बनने का भी रहस्य है। बापदादा भी राजधानी देखते रहते हैं। कौन-कौन किस राज्य के अधिकारी बनते हैं। किस रेखाओं के हिसाब से बनते हैं, यह भी राज है ना।

फालो फादर की भी बड़ी गुह्य गति है। जन्म में फालो फादर। बचपन जीवन में फालो फादर। युवा जीवन में फालो फादर। सेवा की जीवन में फालो फादर। फिर अन्तिम जीवन में फालो फादर। स्थापना के कार्य के साथ और सहयोग में कितने समय से कितने परसेन्ट में फालो किया? पालना के कार्य में कहाँ तक फालो किया? अपने और औरों के विघ्न विनाशक कार्य में कहाँ तक फालो किया? यह हिसाब की मार्क्स मिलाकर फिर टोटल होता है। टोटल के हिसाब से फाइनल नम्बर होता है।

आप सब जम्प लगा सकते हो। कोटो में कोई ऐसी कमाल दिखा सकते हैं। अब वह कोटो में कोई कौन है? वह अपने से पूछो। ऐसे नहीं कि देरी से आये हो तो नहीं कर सकते हो। कर सकते हो। इतना बड़ा जम्प लगाना पड़े, लगाओ जम्प, बापदादा एकस्ट्रा मदद भी देंगे।

पर्सनल - जैसे बाप बच्चों की श्रेष्ठता को जानते हैं वैसे आप सभी जानते हो? इतना नशा रहता है वा समझते हो कभी रहता है कभी नहीं रहता? बातों को देखते हो या बाप को देखते हो? किसको देखते हो? क्योंकि जितना बड़ा संगठन है तो बातें भी तो इतनी ही होंगी ना। बातों का होना, यह तो संगठन में होगा ही। बातों के समय बाप याद रहता है? यह नहीं सोंचो कि बातें खत्म हों तो बाप याद आवे। लेकिन बातों को खत्म करने के लिए ही बाप की याद है। बातें खत्म ही तब होंगी जब हम आगे बढ़ेंगे। ऐसे नहीं, बातें खत्म हों तब हम आगे बढ़े, हम आगे बढ़ेंगे तो बातें पीछे हो जायेंगी। रास्ता नहीं आगे बढ़ता है, चलने वाला आगे बढ़ता है। कभी रास्ता आगे बढ़ता है क्या? कोई रास्ता पार करने वाला सोचे, रास्ता आगे बढ़े तो मैं बढूँ। रास्ता तो वहीं रहेगा लेकिन उसे तय करने वाला आगे बढ़ेगा। साइडसीन नहीं आगे बढ़ेंगी लेकिन देखने वाला आगे बढ़ेगा। तो यह शक्ति है? ‘एक बाप दूसरा न कोई' - यह पाठ मंसा वाचा कर्मणा में निरंतर याद है? दूसरा कोई व्यक्ति नहीं है, यह भी एक सब्जेक्ट है, लेकिन कोई वैभव है? कोई विघ्न है? कोई व्यर्थ संकल्प है, अगर एक बाप और दूसरा व्यर्थ संकल्प भी होगा तो दो हो गये ना! संकल्प में भी व्यर्थ न हो, बोल में भी और कुछ नहीं। आत्माओं से सम्पर्क निभाते स्मृति में बाबा। व्यक्ति वा सम्पर्क का विस्तार न हो। ऐसे हैं? आज तन पर, कल मन पर, परसों वस्तु पर कभी व्यक्ति पर, इसमें तो टाइम नहीं चला जाता है? व्यक्ति जायेगा, वैभव आयेगा, वैभव जायेगा, व्यक्ति आयेगा। यह तो लाइन होती है। क्योंकि माया जानती है, थोड़ा भी चांस आने का मिला तो वह बहुरूप से आयेगी। एक रूप से नहीं। यहाँ से वहाँ से, कोने से, छत से, बहु रूपों से, बहुत तरफ से आ जायेगी। लेकिन परखने वाला, एक बाप दूसरा न कोई इस पाठ के आधार पर उनको दूर से ही नमस्कार करायेगा। करेगा नहीं, करायेगा। तो एक बाप दूसरा न कोई यह चारों तरफ। का वातावरण हो। क्योंकि नालेज तो सब मिल गई है। कितनी पाइंटस हैं, पाइंटस होते हुए पाइंटस रूप में रहें, यह है उस समय की कमाल जिस समय कोई नीचे खींच रहा हो। कभी बात नीचे खींचेगी, कभी कोई व्यक्ति निमित्त बन जायेगा, कभी वायुमण्डल, कभी कोई चीज़, यह तो होगा। यह न हो, ऐसा हो नहीं सकता। लेकिन आप उसमें एकरस रहो, उसकी युक्ति सोचो, कोई नई इन्वेंशन निकालो। ऐसी इन्वेंशन हो जो सब वाह-वाह करें, यह अच्छी युक्ति सुनाई।

मुरली का सार

1. जो भी संकल्प करो, बोल बोलो कर्म करो, सम्बन्ध वा सम्पर्क में आओ, सिर्फ चेकिंग करो कि ये बाप समान हैं।

2. डबल ताजधारी बनो - एक गुणों का ताज, दूसरा - पवित्रता का ताज धारण करो।

3. विश्व-महाराजन के तख्त का विशेष आधार है - हर बात में, हर सब्जेक्ट में बाप को पूरा फालो करना।

3. माया कनैक्शन लूज करती है, कनफ्यूज करती है। क्यों, क्या को खत्म कर कनैक्शन ठीक करो तो सब ठीक हो जायेगा।



27-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"बाप पसन्द, लोक पसन्द, मन पसन्द कैसे बनें?"

आज बापदादा विशेष किस लिए आये हैं? आज विशेष डबल विदेशी बच्चों से रूह-रूहान करने के लिए आये हैं। लेन-देन करने के लिए आये हैं। दूर-दूर से सब बच्चे मधुबन में आये हैं तो मधुबन वाले बाप आये हुए बच्चों को खास ज्ञान के रूह रूहान की खातिरी करने आये हैं। आज बापदादा बच्चों से सुनने के लिए आये हैं कि किसी को भी किसी बात में कोई मुश्किल तो अनुभव नहीं होता। बाप और आपका मिलना भी सहज हो गया ना। जब मिलन सहज हुआ, परिचय सहज मिला, मार्ग सहज मिला, फिर भी कोई मुश्किल तो नहीं है। मुश्किल है नहीं, लेकिन कोई ने मुश्किल बना तो नहीं दिया है? बाप द्वारा जो खज़ाना मिला है उनकी चाबी जब चाहो तब लगाओ, ऐसी विधि आ गई? विधि है तो सिद्धि भी जरूर है। विधि में कमी है तो सिद्धि भी नहीं होती। क्या हाल चाल है?

सब उड़ रहे हो? जब ऊंचे बाप के सिकीलधे बच्चे बन गये तो चलने की भी क्या जरूरत है? उड़ना ही है। रास्ते पर चलेंगे तो कहाँ बीच में रूकावट आ सकती है, लेकिन उड़ने में कोई रूकावट नहीं होती। सब उड़ते पंछी हैं। ज्ञान और योग के पंख सभी को अच्छी तरह से उड़ा रहे हैं। उड़ते उड़ते थकावाट तो नहीं होती? सबको अथक भव' का वरदान मिल चुका है। बात भी बड़ी सहज ही है। अनुभव होता है ना। अपनी ही बात सुनाते हो। इसलिए है ही बहुत सहज। सम्बन्धों की बातें सुनाना इसमें मुश्किल क्या है। दो बातें सिर्फ सुनानी है :-

एक - अपने परिवार की अर्थात् सम्बन्ध की बात और दूसरी - प्राप्ति की बात। इसलिए बापदादा सदा बच्चों को हर्षित ही देखते हैं। कभी सारे दिन में एकरस स्थिति के बजाए और रस आकर्षित तो नहीं करते हैं? एक रस हो गये हो? नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप हो गये? अब तो गीता का युग समाप्त होना चाहिए। ज्ञान की प्रालब्ध में आ गये ना सभी! स्मृति स्वरूप होना - यह है ज्ञान की प्रालब्ध। तो अब पुरूषार्थ समाप्त हुआ। जो वर्णन करते हो स्व-स्वरूप का, वह सर्वगुण सदा अनुभव रहते हैं ना। जब चाहो आनन्द स्वरूप हो जाओ, जब चाहो तब प्रेम स्वरूप हो जाओ। जो स्वरूप चाहो जितना समय चाहो, उसी स्वरूप में स्थित हो सकते हो, यह भी नहीं, हुए पड़े हो ना? बाप के गुण वहीं बच्चों के गुण। जो बाप का कर्त्तव्य वह बच्चों का कर्त्तव्य। जो बाप की स्टेज वह बच्चों की स्टेज। इसको कहा जाता है - संगमयुगी प्रालब्ध। तो प्रालब्धी हो या पुरूषार्थी हो? प्राप्ति स्वरूप हो? प्राप्त करना है, होता नहीं है, कैसे होगा, यह भाषा बदल गई ना? आज धरनी पर, कल आकाश में, ऐसे आते जाते तो नहीं हो ना? आज क्वेश्चन में कल फुलस्टाप में। ऐसे तो नहीं करते हो। एकरस अर्थात् एक ही सम्पन्न मूड में रहने वाला। मूड भी बदली न हों। बापदादा वतन से देखते हैं - कई बच्चों के मूड बहुत बदलते हैं। कभी आश्चर्यवत की मूड, कभी क्वेश्चन मार्ग की मूड। कभी कनफ्यूज की मूड। कभी टेन्शन, कभी अटेन्शन का झूला तो नहीं झूलते? मधुबन से प्रालब्धी स्वरूप में जाना है। बार-बार पुरूषार्थ कहाँ तक करते रहेंगे। जो बाप वह बच्चा। बाप की मूड आफ होती है क्या? अभी तो बाप समान बनना है। मास्टर हैं ना। मास्टर तो बड़ा होना चाहिए। कम्पलेन्टस् सब खत्म हुई? वास्तव में बात होती है छोटी। लेकिन सोच-सोचकर छोटी बात को बड़ा कर देते हो। सोचने की खातिरी से वह बात छोटी से मोटी बन जाती। सोचने की खातिरी नहीं करो। यह क्यों आया, यह क्यों हुआ। पेपर आया है तो उसको करना है। पेपर क्यों आया यह क्वेश्चन होता है क्या? वेस्ट और बैस्ट सेकेण्ड मैं जज करो और सेकेण्ड में समाप्त करो। वेस्ट है तो आधाकल्प के लिए वेस्ट पेपर बाक्स में उसको डाल दो। वेस्ट पेपर बाक्स बहुत बड़ा है। जज बनो, वकील नहीं बनो। वकील छोटे केस को भी लम्बा कर देते हैं। और जज सेकेण्ड में हाँ वा ना की जजमेंट कर देता है। वकील बनते हो तो काला कोट आ जाता है। है एक सेकेण्ड की जजमेंट, यह बाप का गुण है वा नहीं। नहीं है, तो वेस्ट पेपर बाक्स में डाल दो। अगर बाप का गुण है तो तो बैस्ट के खाते में जमा करो। बापदादा का सैम्पुल तो सामने है ना। कापी करना अर्थात् फालो करना। कोई नया मार्ग नहीं बनाना है। कोई नई नालेज इन्वैन्ट नहीं करनी है। बाप जो सुनाता है वह स्वरूप बनना है। सब विदेशी 100 प्रालब्ध पा रहे हो। संगमयुगी प्रालब्ध है - ‘‘बाप समान।''भविष्य प्रालब्ध है ‘‘देवता पद''। तो बाप समान बन बाप के साथ-सथ उसी स्टेज पर बैठने का कुछ समय तो अनुभव करेंगे ना। कोई भी राजा तख्त पर बैठते हैं, कुछ समय तो बैठेगा ना। ऐसे तो नहीं, अभी-अभी बैठा और अभी-अभी उतरा। तो संगमयुग की प्रालब्ध है - बाप समान स्टेज अर्थात् सम्पन्न स्टेज के तख्तनशीन बनना। यह प्रालब्ध भी तो पानी है ना। और बहुत समय पानी है। बहुत समय कें संस्कार अभी भरने हैं। सम्पन्न जीवन है। सम्पन्न की सिर्फ कुछ घडियाँ नहीं हैं। लेकिन जीवन है। फरिश्ता जीवन है, योगी जीवन है। सहज जीवन है। जीवन कुछ समय की होती है, अभी-अभी जन्मा, अभी- अभी गया। वह जीवन नहीं कहेंगे? कहते हो पा लिया, तो क्या पा लिया? सिर्फ उतरना चढ़ना पा लिया? मेहनत पा लिया? प्रालब्ध को पा लिया? बाप समान जीवन को पा लिया? मेहनत कब तक करेंगे? आधाकल्प अनेक प्रकार की मेहनत की। गृहस्थ व्यवहार, भक्ति, समस्यायें - कितनी मेहनत की! संगमयुग तो है मुहब्बत का युग, मेहनत का युग नहीं। मिलन का युग है। शमा और परवाने के समाने का युग है। नाम मेहनत कहते हो, लेकिन मेहनत है नहीं। बच्चा बनना मेहनत होती है क्या? वर्से में मिला है कि मेहनत में मिला है? बच्चा तो सिर का ताज होता है। घर का श्रृंगार होता है। बाप का बालक सो मालिक होता है। तो मालिक फिर नीचें क्यों आते? आपके नाम देखो कितने ऊंचे हैं! कितने श्रेष्ठ नाम हैं! तो नाम और काम एक हैं ना! सदा बाप के साथ श्रेष्ठ स्टेज पर रहो। असली स्थान तो वही है। अपना स्थान क्यों छोड़ते हो? असली स्थान को छोड़ना अर्थात् भिन्न-भिन्न बातों में भटकना। आराम से बैठो। नशे से बैठो। अधिकार से बैठो। नीचे आकर फिर कहते हो - अब क्या करें? नीचे आते ही क्यों हो? जो भी कोई बोझ अनुभव हो, बोझ अपने सिर पर नहीं रखो। जब मैं-पन आता है तो बोझ सिर पर आ जाता है। मैं क्या करूँ, कैसे करूँ, करना पड़ता है। क्या आप करते हो?वा सिर्फ नाम आपका है काम बाप का रहता है। उस दिन खिलौना देखा - वह खुद चल रहा था या कोई चला रहा था? साइन्स चला सकती है, बाप नहीं चला सकता? यह तो बाप बच्चों का नाम बाला करने के लिए निमित्त बना देते हैं। क्योंकि बाप इस नाम रूप से न्यारा है। जब बाप आपको आफर कर रहे हैं कि बोझ बाप को दे दो आप सिर्फ नाचो, उड़ो फिर बोझ क्यों उठाते हो? कैसे सर्विस होगी, कैसे भाषण करेंगे यह तो क्वेश्चन ही नहीं। सिर्फ निमित्त समझ कनेक्शन पावर हाउस से जोड़कर बैठ जाओ। फिर देखो भाषण होता है वा नहीं! वह खिलौना चल सकता है, आपका मुख नहीं चल सकता? आपकी बुद्धि में प्लैन नहीं चल सकते? कैसे कहने से जैसे तार के ऊपर रबड़ आ जाता है। रबड़ आ जाने के कारण कनेक्शन जुटता नहीं और प्रत्यक्षफल नहीं दिखाई देता। इसलिए थक जाते हो - पता नहीं क्या होगा! बाप ने निमित्त बनाया है तो अवश्य होगा। अगर कोई स्थान पर हैं ही 6-8 तो दूसरे स्थान से निकालो। दिलशिकस्त क्यों होते हो? चक्कर लगाओ। आसपास जाओ, चक्कर तो बहुत बड़ा है। कहाँ से 8 निकले वह भी कम नहीं। फिर भी कोने में छिपे हुए को निकाला तो आपके कितने गुण गायेंगे। बाप के साथ निमित्त बनी हुई आत्मा को भी दिल से दुवायें तो देते हैं ना। कहाँ से एक रतन भी निकला, एक के लिए भी जाना तो पड़ेगा। ना। क्या उसको छोड़ देंगे? वह आत्मा वंचित रह जायेगी। जितने निकलें उतने निकालो। फिर आगे बढ़ो। अब तो विश्व के सिर्फ कोने तक पहुँचे हो। शिकार भी बहुत है, जंगल भी बहुत बड़ा है। सोचते क्यों हो? सोचने के कारण क्या होता? बुद्धि में व्यर्थ भर जाने के कारण टचिंग नहीं होती। परखने की शक्ति कार्य नहीं करती। जितना स्पष्ट होगा उतना जो जैसी चीज़ होगी, वह स्पष्ट दिखाई देगी। तो क्यों क्या के कारण निर्णय शक्ति, टचिंग पावर कार्य नहीं करती। फिर थकावट होती है या दिलशिकस्त होते हैं। जहाँ भी गये हो वहाँ कोई न कोई छिपा हुआ रतन निकला तब तो पहुँचे हो ना! ऐसा तो कोई स्थान नहीं जहाँ से एक भी न निकला हो। कहाँ वारिस निकलेंगे, कहाँ प्रजा, कहाँ साहुकार! सब चाहिए ना! सब राजा तो नहीं बनेंगे। प्रजा भी चाहिए। प्रजा बनाने का यह कार्य निमित्त बने हुए बच्चों को ही करना है। या आप रायल फैमली बनायेंगे, बाबा प्रजा बनायेंगे। दोनों ही बनाना है ना। सिर्फ दो बातें देखो, एक - लाइन किलियर है। दूसरा - मर्यादाओं की लकीर के अन्दर हैं। अगर दोनों बातें ठीक हैं तो कभी भी दिलशिकस्त नहीं होंगे। जिसका कनेक्शन ठीक है, चाहे बाप से चाहे निमित्त बनने वालों से, वह कभी भी असफल नहीं हो सकता। सिर्फ बाप से ही कनेक्शन हो वह भी करेक्ट नहीं। परिवार से भी चाहिए। क्योंकि बाप से तो शक्ति मिलेगी लेकिन सम्बन्ध में किसके आना है। सिर्फ बाप से? राजधानी अर्थात् परिवार से सम्पर्क में आना है। तीन सर्टीफिकेट लेने हैं। सिर्फ एक नहीं।

एक - बाप पसन्द अर्थात् बाप का सर्टीफिकेट। दूसरा - लोक पसन्द अर्थात् दैवी परिवार से सन्तुष्टता का सर्टीफिकेट। तीसरा - मन पसन्द। अपने मन में भी सन्तुष्टता हो। अपने आप से भी मूंझा हुआ न हो - पता नहीं कर सकूंगा, चल सकूंगा? तो अपने मन पसन्द अर्थात् मन की सन्तुष्टता का सर्टीफिकेट। यह तीन सर्टीफिकेट चाहिए। त्रिमूर्ति हैं ना। तो यह त्रिमूर्ति सर्टीफिकेट चाहिए। दो से भी काम नहीं चलेगा। तीनों चाहिए। कोई समझते हैं - हम अपने से सन्तुष्ट हैं, बाप भी सन्तुष्ट है। चल जायेगा। लेकिन नहीं। जब बाप सन्तुष्ट है, आप भी सन्तुष्ट हो तो परिवार सन्तुष्ट न हो, यह हो नहीं सकता। परिवार को सन्तुष्ट करने के लिए सिर्फ छोटीसी एक बात है। ‘‘ रिगार्ड दो और रिगार्ड लो।'' यह रिकार्ड दिन रात चलता रहे। रिगार्ड का रिकार्ड निरन्तर चलता रहे। कोई कैसा भी हो लेकिन आप दाता बन देते जाओ। रिटर्न दे वा न दे लेकिन आप देते जाओ। इसमे निष्काम बनो। मैंने इतना दिया। उसने तो कुछ दिया नहीं। हमने सौ बार दिया, उसने एक बार भी नहीं। इसमें निष्काम बनो तो परिवार स्वत: ही सन्तुष्ट होंगे। आज नहीं तो कल। आपका देना जमा होता जायेगा, वह जमा हुआ फल जरूर देगा। और बाप पसन्द बनने के लिए क्या चाहिए? बाप तो बड़े भोले हैं। बाप जिसको भी देखते हैं, सब अच्छे ते अच्छे हैं। अच्छा नहीं' ऐसा तो कोई नजर ही नहीं आता। एक एक पाण्डव, एक एक शक्ति एक से एक आगे है। तो बाप पसन्द बनने के लिए -’’सच्ची दिल पर साहेब राजी।''जो भी हो सच्चाई, सत्यता बाप को जीत लेती है। और मन पसन्द बनने के लिए क्या चाहिए? मनमत पर नहीं चलना। मनपसन्द और चीज़ हैं। मन पसन्द बनने के लिए बहुत सहज साधन है - श्रीमत की लकीर के अन्दर रहो। संकल्प करो तो भी श्रीमत की लकीर के अन्दर। बोलो, कर्म करो, जो कुछ भी करो लकीर के अन्दर। तो सदा स्वयं से भी सन्तुष्ट और सर्व को भी सन्तुष्ट कर सकेंगे। संकल्प रूपी नाखून भी बाहर न हो।

बापदादा भी जानते हैं कि कितनी लगन है, कितना दृढ़ संकल्प है। सिर्फ बीच बीच में थोड़े से नाजुक हो जाते। जब नाजुक बनते तो नखरे बहुत करते। प्यार ही इन्हों की टिकेट है तब पहुँचते हैं। प्यार न होता तो प्यार की टिकेट बिना यहाँ कैसे पहुँच सकते? यही टिकेट मधुबन निवासी बनाती। चारों ओर सेवा के लिए निमित्त बनाती। बापदादा ने आफरीन तो दी ना? जो वायदा करके गये वह निभाया। बाकी वृद्धि होती रहेगी। स्थापना तो कर ली ना। स्व-उन्नति और सेवा की उन्नति - दोनों का बैलेन्स हो तो सदा वृद्धि होती रहेगी।

यह भी एक विशेषता देखी। बहुत समय के इन्डीपैडेंट रहने वाले, अपने को संगठित रूप में चला रहे हैं। यह भी बहुत अच्छा परि- वर्त्तन है। एक एक अलग रहने वाले 4-6 इकट्ठे रहें और फिर संस्कार मिलाकर रहें - यह भी स्नेह का रिटर्न है। पाण्डव भवन, शक्ति भवन सफल रहे यह भी विशेषता है। बाप दादा इस रिटर्न को देख हर्षित होते हैं। एकनामी, एकानामी यह भी रिटर्न है ना। अपना शरीर निर्वाह और सेवा का निर्वाह दोनों में हाफ-हाफकर चलाना - यह भी अच्छी इन्वेंशन निकाली है। डबल कार्य हो गया ना। कमाया और लगाया। यहाँ एक बैंक बैलेन्स नहीं बनता लेकिन भविष्य जमा होता है। बुद्धि तो फ्री है ना? आया और लगाया। बेफकर बादशाह! शक्तियों और पाण्डवों दोनों की रेस है। दीपक जगाऔर जगाने चल पड़तीं। लक्ष्य बहुत अच्छा रखा है। भारत में हैन्डस निकालने की मेहनत करते और वहाँ बने बनाये हैन्डस सहज निकल आते हैं, यह भी वरदान है। पीछे आने वालों को यह लिफ्ट है। यहाँ वालों को बंधन काँटने में टाइम लगता और इन्हों को बंधन कटा कटाया है। तो लिफ्ट हो गई ना। सिर्फ मन का बन्धन नहीं हो।

टीचर्स ने भी मेहनत की है। टीचर बनना अर्थात् सेवा के बन्धन में बंधना। लेकिन नाम सेवा है प्राप्ति बड़ी हैं। क्योंकि पुण्य-आत्मा बनते हो ना। टीचर का अर्थ ही है महापुण्य-आत्मा बनना। पुण्य का फल तो भक्ति में भी मिलता है। और यहाँ प्रत्यक्ष फल मिलता है। जितनी सेवा करते उतना हुल्लास हिम्मत, उमंग रहता। और ज्ञान के मुख्य राज अन्दर ही अन्दर स्पष्ट होते जाते। तो सेवाधारी बनना अर्थात् प्राप्ति स्वरूप बनना। इसलिए सब फालो करते हैं कि हम भी सेवाधारी बनें।

सिर्फ टीचर कहते हैं तो कभी टीचर का थोड़ा सा रोब भी आ जाता है। लेकिन हम मास्टर शिक्षक हैं। मास्टर कहने से बाप स्वत: याद आता है। बनाने वाले की याद आने से स्वयं स्वत: ही निमित्त हूँ यह स्मृति में आ जाता है। विशेष स्मृति यह रखो कि हम पुण्य आत्मा है। पुण्य का खाता जमा करना और कराना। यह है विशेष सेवा। पाप का खाता रावण ने जमा कराया और पुण्य का खाता बाप निमित्त शिक्षकों के द्वारा कराते। तो पुण्य करना और कराना, पुण्य-आत्मा कभी पाप का एक परसेन्ट, संकल्प मात्र भी नहीं कर सकती। पाप का संकल्प भी आया तो पुण्य आत्मा नहीं। मास्टर शिक्षक का अर्थ ही है - पुण्य का खाता जमा करने और कराने वाले। शिक्षक का बापदादा विशेष समान फ्रेंडस का रूप देखते। फ्रेंडस तब बनते जब समानता होती। संस्कार मिलन होता। जो निमित्त बनते हैं उनके हर संकल्प में, बोल में, कर्म में बाप ही दिखाई दे। जो भी देखें तो उनके मुख से यही निकले कि यह तो बाप समान है। जो कहावत है - बड़े ते बड़े, छोटे सुभान अल्ला'। यह कहावत प्रैक्टिकल अनुभव करेंगे।

याद प्यार तो है ही। महिमा योग्य को सदा हर पल बाप द्वारा यादप्यार मिलता है। यह तो रीति रसम के कारण देना पड़ता है। याद और प्यार के सिवाए आप सब बड़े कैसे हुए? इसी याद प्यार से ही बड़े हुए हो। यादप्यार ही मुख्य पालना है। इसी पालना के आधार पर मास्टर बन गये हो।

विदेशी बच्चों ने विशेष कौन सा नया प्लैन बनाया है? (प्लैन सुनाया) सभी ने चारों ओर कोन्फेरेंस रखी है। कोन्फेरेंस के कनेक्शन से वी.आई.पीज से तो मिलना होगा ही, जाल डालने का तरीका अच्छा है। हरेक के शुद्ध संकल्प से आत्माओं को आकर्षण तो होती ही है। इसलिए चारों ओर के संकल्प और प्लैन चारों ओर नाम बाला करेंगे। जितना जल्दी विशेष आत्माओं को सम्पर्क में लायेंगे उतना ही जल्दी आवाज बुलन्द होगा। जब भारत में आवाज निकले तब समझो सेवा की समाप्ति होगी। एक तरफ आवाज बुलन्द होगा दूसरे तरफ हालते खराब होंगी। दोनों का मेल होगा। इसलिए सहज ही अनुभव करेंगे कि हमने क्या किया अब जल्दी जल्दी तैयारी करो। जैसे फारेन में विनाश के साधन बहुत बढ़िया बना रहे हैं ना! वैसे नाम बाला, आवाज बुलन्द करने के स्थापना के निमित्त भी आप अच्छे प्लैन बनाओ। अभी सन्देश मिलना रहा हुआ है। इसलिए विनाश का बुलन्द आवाज नहीं निकला वह भी बिचारे सोच में हैं क्या हो रहा है। स्थापना के कारण विनाश रूका हुआ है। जैसे विनाश की सामग्री सिर्फ बटन तक रही हुई है, इतनी तैयारी हो गई है, ऐसे स्थापना की तैयारी भी इतनी पावरफुल हो जाए। जो आवे सेकेण्ड में जो प्राप्ति चाहे वह कर ले। संकल्प का बटन दबाना पड़े, बस। तब वह भी बटन दबेगा। तो इसकी भी तैयारी करनी पड़े। संकल्प इतने पावरफुल हों। सिर्फ एक बाप सदा संकल्प में हो तो सेवा भी स्वत: होती रहेगी। अभी अटेन्शन रखना पड़ता है लेकिन नैचुरल पावरफुल स्टेज बन जाए। तो ऐसे बटन तैयार हैं? टीचर्स क्या समझती हैं? अभी कोन्फेरेंस करना माना शस्त्र चलाना, और वह बटन दबाना। अभी तो आपको निमंत्रण देना पड़ता, स्टेज बनानी पड़ती और फिर स्वयं आयेंगे, अभी सुनने के लिए आते हैं फिर लेने के लिए आयेंगे। कुछ दे दो, माँगनी करेंगे, जरा भी दे दो। बटन दबाते जायेंगे और स्टैम्प लगती जायेगी - प्रजा, साहूकार, पहली प्रजा, दूसरी प्रजा। तो अब यह करना पड़ेगा।

विश्व-महाराजन के तख्त का विशेष आधार है - हर बात में, हर सब्जेक्ट में बाप को पूरा फालो करना।



29-03-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"ज्ञान का सार मैंऔर मेरा बाबा’"

बापदादा सभी बच्चों को सम्पन्न स्वरूप बनाने के लिए रोज-रोज भिन्न-भिन्न प्रकार से पाइंटस बताते रहते हैं। सभी पाइंटस का सार है - सभी को सार में समाए बिन्दु बन जाओ। यह अभ्यास निरंतर रहता है? कोई भी कर्म करते हुए यह स्मृति रहती है कि - मैं ज्योतिबिन्दु इन कर्मेन्द्रियों द्वारा यह कर्म कराने वाला हूँ। यह पहला पाठ स्वरूप में लाया है? आदि भी यही है ओर अन्त में भी इसी स्वरूप में स्थित हो जाना है। तो सेकेण्ड का ज्ञान, सेकेण्ड के ज्ञान स्वरूप बने हो? विस्तार को समाने के लिए एक सेकेण्ड का अभ्यास है। जितना विस्तार को समाने के लिए एक सेकेण्ड का अभ्यास है। जितना विस्तार में आना सहज है उतना ही सार स्वरूप में आना सहज अनुभव होता है? सार स्वरूप में स्थित हो फिर विस्तार में आना, यह बात भूल तो नहीं जाते हो? सार स्वरूप में स्थित हो विस्तार में आने से कोई भी प्रकार के विस्तार की आकर्षण नहीं होगी। विस्तार को देखते, सुनते, वर्णन करते ऐसे अनुभव करेंगे जैसे एक खेल कर रहे हैं। ऐसा अभ्यास सदा कायम रहे। इसको ही सहज याद' कहा जाता है।

जीवन के हर कर्म में दो शब्द काम में आते हैं, चाहे ज्ञान में, चाहे अज्ञान में। वह कौन से? - मैं और मेरा। इन दो शब्दों में ज्ञान का भी सार है। मैं ज्योति-बिन्दु वा श्रेष्ठ आत्मा हूँ। ब्रह्माकुमार वा कुमारी हूँ। और मेरा तो एक बाप दूसरा न कोई। मेरा बाबा इसमें सब आ जाता है। मेरा बाबा अर्थात् मेरा वर्सा हो ही गया। तो यह मैं' और मेरा' दो शब्द तो पक्का है ना! मेरा बाबा कहने से अनेक प्रकार का मेरा समा जाता है। तो दो शब्द स्मृति में लाना मुश्किल है वा सहज है? पहले भी यह दो शब्द बोलते थे, अभी भी यही दो शब्द बोलते लेकिन अन्तर कितना है? मैं और मेरा यही पहला पाठ भूल सकता है क्या? यह तो छोटासा बच्चा भी याद कर सकता है। आप नालेजफुल होना। तो नालेजफुल दो शब्द याद न कर सकें, यह हो सकता है क्या! इसी दो शब्दों से मायाजीत, निर्विघ्न, मास्टर सर्वशक्तिवान बन सकते हो। दो शब्दों को भूलते हो तो माया हजारों रूपों में आती है। आज एक रूप में आयेगी, कल दूसरे रूप में। क्योंकि माया का मेरा-मेरा' बहुत लम्बा चौड़ा है। और मेरा बाप तो एक ही है। एक के आगे माया के हजार रूप भी समाप्त हो जाते हैं। ऐसे माया जीत बन गये हो? माया को तलाक देने में टाइम क्यों लगाते हो? सेकेण्ड का सौदा है। उसमें वर्ष क्यों लगाते हो। छोड़ो तो छूटो। सिर्फ मेरा बाबा', फिर उसमें ही मगन रहेंगे। बाप को बार-बार यही पाठ पढ़ाना पड़ता है। दूसरों को पढ़ाते भी हो फिर भी भूल जाते हो। दूसरों को कहते हो याद करो, याद करो। और खुद फिर क्यों भूलते हो? कौन-सी डेट फिक्स करेंगे जो अभुल बन जाओ। सभी की एक ही डेट होगी या अलग-अलग हो सकती होगी? जितने यहाँ बैठे हो उन्हों की एक ही डेट हो सकती है। फिर बातें करना तो खत्म हो गया। खुश खबरी भल सुनाओ, समस्यायें नहीं सुनाओ। जैसे मेला वा प्रदर्शनी करते हो तो उद्घाटन के लिए कैंची से फूलों की माला कटवाते हो। तो आज क्या करेंगे? खुद ही कैंची हाथ में उठायेंगे। वह भी दो तरफ जब मिलती है तब चीज़ कटती है। तो ज्ञान और योग दोनों के मेल से माया की समस्याओं का बन्धन खत्म हो गया, यह खुशखबरी सुनाओ। आज इसी समस्याओं के बन्धन को काटने का दिन है एक सेकेण्ड की बात है ना? तैयार हो ना? जो सोचकर फिर यह बंधन काटेंगे वह हाथ उठाओ। फिरतो सब डबल विदेशी तीव्र पुरूषार्थी की लिस्ट में आ जायेंगे। सुनने समय ही सब के चेहरे चेन्ज हो गये हैं तो जब सदा के लिए हो जायेंगे तो क्या हो जायेगा? सभी चलते फिरते अव्यक्त वतन के फरिश्ते नजर आयेंगे। फिर संगमयुग फरिश्तों का युग हो जायेगा। इसी फिरश्तों द्वारा फिर देवताय प्रगट होंगे। फरिश्तों का देवतायें भी इन्तजार कर रहे हैं। वह भी देख रहे हैं कि जमारे आने के लिए योग्य स्टेज तैयार है। फरिश्ता और देवता दोनों का लास्ट घड़ी मेल होगा। देवतायें आप सब फरिश्तों के लिए वरमाला लेकर के इन्तजार कर रहे हैं फरिश्तों को वरने लिए। आपका ही देवपद इन्त- जार कर रहा है। देवताओं की प्रवेशता सम्पन्न शरीर में होगी ना। वह इन्तजार कर रहे हैं कि यह 16 कला सम्पन्न बनें और वरमाला पहनें। कितनी कला तैयार हुई है। सूक्ष्मवतन में सम्पन्न फरिश्ते स्वरूप और देवताओं के मिलन का दृश्य बहुत अच्छा होता है। फरिश्तों के बजाए जब पुरूषार्थी स्वरूप होता तो देवतायें भी दूर से देखते रहते। समय के प्रमाण समीप आते-आते भी सम्पन्न न होने के कारण रह जाते हैं। यह वरमाला पहनाने की डेट भी फिक्स करनी पड़ेगी। यह फिर कौन-सी डेट होगी? डेट फिक्स होने से जैसा लक्ष्य वैसे लक्षण' आ जाते हैं। वह डेट तो आज हो गई। तो यह भी नजदीक हो जायेगी ना। क्योंकि निर्विघ्न भव की स्टेज कुछ समय लगातार चाहिए। तब बहुतकाल निर्विघ्न राज्य कर सकेंगे। अभी समस्याओं के और समाधान के भी नालेजफुल हो गये हो। जो बात किससे पूछते हो उससे पहले नालेज के आधार से समझते भी हो कि यह ऐसा होना चाहिए। दूसरे से मेहनत लेने के बजाय, समय गंवाने के बजाय क्यों न उसी नालेज की लाइट और माइट के आधार पर सेकेण्ड में समाप्त करके आगे बढ़ते हो? सिर्फ क्या है कि माया दूर से ऐसी परछाई डालती है जो निर्बल बना देती है। आप उसी घड़ी कनेक्शन को ठीक करो। कनेक्शन ठीक करने से मास्टर सर्वशक्तिवान स्वत: हो जायेंगे।

माया कनेक्शन को ही ढ़ीला करती है उसकी सिर्फ सम्भाल करो। यह समझ लो कि कनेक्शन कहाँ लूज हुआ है तब निर्बलता आई है। क्यों हुआ, क्या हुआ यह नहीं सोचो। क्यों क्या के बजाए कनेक्शन को ही ठीक कर दो तो खत्म। सहयोग के लिए समय भल लो। योग का वायुमण्डल वायब्रेशन बनाने के लिए सहयोग भल लो, बाकी और व्यर्थ बातें करना वा विस्तार में जाना इसके लिए कोई का साथ न लो। वह हो जायेगा शुभचिन्तन और वह हो जायेगा परचिन्तन। सब समस्याओं का मूल कारण कनेक्शन लूज होना है। है ही यह एक बात। मेरा ड्रामा में नहीं है, मेरे को सहयोग नहीं मिला, मेरे को स्थान नहीं मिला। यह सब फालतू बातें हैं। सब मिल जावेगा सिर्फ कनेक्शन को ठीक करो तो सर्व शक्तियाँ आपके आगे घूमेंगी। कहाँ जाने की फुर्सत ही नहीं होगी। बापदादा के सामने जाकर बैठ जाओ तो कनेक्शन जोड़ने के लिए बापदादा आपके सहयोगी बन जायेंगे। अगर एक दो सेकेण्ड अनुभव न भी हो तो कनफ्यूज न हो जाओ। थोड़ा सा जो टूटा हुआ कनेक्शन है उसको जोड़ने में एक सेकेण्ड वा मिनट लग भी जाता है तो हिम्मत नहीं हारो। निश्चय ही फाउन्डेशन को हिलाओ नहीं। और ही निश्चय को परिपक्व करो। बाबा मेरा, मैं बाबा का - इसी आधार से निश्चय की फाउन्डेशन को और ही पक्का करो। बाप को भी अपने निश्चय के बन्धन में बाँध सकते हो। बाप भी जा नहीं सकते। इतनी अथार्टी इस समय बच्चों को मिली हुई है। अथार्टी को, नालेज को यूज़ करो। परिवार के सहयोग को यूज़ करो। कम्पलेन्ट लेकर नहीं जाओ, सहयोग की भी माँग नहीं करो। प्रोग्राम सेट करो, कमजोर हो कर नहीं जाओ, क्या करूँ, कैसे करूँ, घबरा के नहीं जाओ। लेकिन सम्बन्ध के आधार से, सहयोग के आधार से जाओ। समझा! सेकेण्ड में सीढ़ी नीचे, सेकेण्ड में ऊपर, यह संस्कार चेन्ज करो। बापदादा ने देखा है - डबल विदेशी नीचे भी जल्दी उतरते, ऊपर भी जल्दी जाते। नाचते भी बहुत हैं लेकिन घबराने की डान्स भी अच्छी करते हैं। अभी यह भी परिवर्त्तन करो। मास्टर नालेजफुल हो, फिर यह डान्स क्यों करते हो?

सच्चाई और सफाई की लिस्ट के कारण आगे भी बढ रहे हैं। यह विशेषता नम्बरवन है। इस विशेषता को देख बापदादा खुश होते हैं। अब सिर्फ घबराने की डान्स को छोड़ो तो बहुत फास्ट जायेंगे। नम्बर बहुत आगे ले लेंगे। यह बात तो सबको पक्की है किलास्ट सो फास्ट, फास्ट सो फर्स्ट'। खुशी की डान्स भल करो। बाप का हाथ छोड़ते हो तो बाप को भी अच्छा नहीं लगता कि यह कहाँ जा रहे हैं! बाप के हाथ में हाथ हो फिर तो घबराने की डान्स हो नहीं सकती। माया का हाथ पकड़ते हो तब वह डान्स होती है। बाप का इतना प्रेम है आप लोगों से, जो दूसरे के साथ जाना देख भी नहीं सकते। बाप जानते हैं कि कितना भटक कर परेशान हो फिर बाप के पास पहुँचे हैं, तो कनफ्यूज करने कैसे देंगे? साकार रूप में भी देखा, स्थूल में भी बच्चे कहाँ जाते थे तो बच्चों को कहते थे - आओ बच्चे, आओ बच्चे।' जब माया अपना रूप दिखावे तो यह शब्द याद करना।

अमृतवेले की याद पावरफल बनाने के लिए पहले अपने स्वरूप को पावरफुल बनाओ। चाहे बिन्दु रूप हो बैठो, चाहे फरिश्ता स्वरूप हो बैठो। कारण क्या होता है स्वयं अपना रूप चेन्ज नहीं करते। सिर्फ बाप को उस स्वरूप में देखते हो। बाप को बिन्दु रूप में या फरिश्ते रूप में देखने की कोशिश करते लेकिन जब तक खुद नहीं बने हैं तब तक मिलन मना नहीं सकते। सिर्फ बाप को उस रूप में देखने की कोशिश करना यह तो भक्ति मार्ग समान हो जाता, जैसे वह देवताओं को उस रूप में देखते और खुद वैसे के वैसे होते। उसी समय वायुमण्डल खुशी का होता। थोड़े समय का प्रभाव पड़ता लेकिन वह अनुभूति नहीं होती। इसलिए पहले स्वस्व रूप को चेन्ज करने का अभ्यास करो। फिर बहुत पावरफुल स्टेज का अनुभव होगा।

दीदी से - वैरायटी देख करके खुशी होती है ना! फिर भी अच्छी हिम्मत वाले हैं। अपना सब कुछ चेन्ज करना और दूसरे को अपना बनाना, यह भी इन्हों को हिम्मत है। इतना ट्रान्सफर हो गये हैं जो अपने ही परिवार के लगते हैं। यह भी ड्रामा में इन्हों का विशेष पार्ट है। अपने पन की भासना से ही यह आगे बढ़ते हैं। एक-एक को देख करके खुशी होती है। पहले तो थे एक ही भारत की अनेक लकड़ियों का एक वृक्ष। लेकिन अभी विश्व के चारों कोनो से अनेक संस्कार, अनेक भाषायें, अनेक खानपान, सब आत्मायें एक वृक्ष के बन गये हैं, यह भी तो वन्डर है! यही कमाल है जो सब एक थे और है और होंगे। ऐसा ही अनुभव करते हैं। विशेष सर्व का स्नेह प्राप्त हो ही जाता है।

पाण्डवों से - सभी महादानी हो ना? किसी को खुशी देना यह सबसे बड़े ते बड़ा पुण्य का कार्य है। सेवा है। पाण्डव तो सदा एकरस, एकता में रहने वाले एकानामी करने वाले हैं ना। सभी पाण्डव महिमा योग्य हैं, पूज्यनीय भी हैं। भक्तों के लिए तो अभी भी पूज्यनीय हो सिर्फ प्रत्यक्ष नहीं हो। (पाण्डवों की पूजा सिर्फ गणेश व हनुमान के रूप में ही होती है।) नहीं, और देवतायें भी हैं। गणेश वह हैं जो पेट में सब बातें छिपाने वाले हैं। हनुमान - पूँछ से आसुरी संस्कार जलाने वाला है। पूँछ भी सेवा के लिए है। पूछपूछ का पूँछ नहीं है। पाण्डवों की यह विशेषता है - बात पचाने वाले हैं, इधर-उधर करने वाले नहीं। सभी सदा सन्तुष्ट हो ना? पाण्डवपति और पाण्डव यह सदा का कम्बाइन्ड रूप है। पाण्डवपति पाण्डवों के सिवाए कुछ नहीं कर सकते। जैसे शिवशक्ति है, वैसे पाण्डवपति। जैसे पाण्डवों ने पाण्डवपति को आगे किया, पाण्डवपति ने पाण्डवों को आगे किया। तो सदा कम्बाइन्ड रूप याद रहता है? कभी अपने को अकेले तो नहीं महसूस करते हो? कोई फ्रेंड चाहिए, ऐसे तो नहीं महसूस करते? किसको कहें, कैसे कहें, ऐसे तो नहीं? जो सदा कम्बाइन्ड रूप में रहते हैं उसके आगे बापदादा साकार में जैसे सब सम्बन्धों से सामने होते हैं। जितनी लगन होगी उतना जल्दी बाप सामने होगा। यह नहीं निराकार है, आकार है बातें कैसे करें? जो आपस में भी बातें करने में टाइम लगता, ढूंढेंगे। यहाँ तो ढूंढने व टाइम की भी जरूरत नहीं। जहाँ बुलाओ वहाँ हाजिर। इसलिए कहते हैं हाजिरा हजूर। तो ऐसा अनु- भव होता है? अभी तो दिन-प्रतिदिन ऐसे देखेंगे कि जैसे प्रैक्टिकल में अनुभव किया कि आज बापदादा आये, सामने आये हाथ पकड़ा, बुद्धि से नहीं, ऑखों से देखेंगे, अनुभव होगा। लेकिन इसमें सिर्फ एक बाप दूसरा न कोई', यह पाठ पक्का हो। फिर तो जैसे परछाई घूमती है ऐसे बापदादा ऑखों से हट नहीं सकते।

कभी हद का वैराग तो नहीं आता है? बेहद का तो रहना चाहिए। सभी ने यज्ञसेवा की जिम्मेवारी का बीड़ा तो उठा लिया है। अभी सिर्फ हम सब एक हैं, हम सबका सब काम एक है, प्रैक्टिकल दिखाई दे। अभी एक रिकार्ड तैयार करना है, वह कौन-सा है? वह रिकार्ड मुख का नहीं है। एक दो को रिगार्ड का रिकार्ड। यही रिकार्ड फिर चारों ओर बजेगा। रिगार्ड देना, रिगार्ड लेना। छोटे को भी रिगार्ड देना, बड़े को भी देना। यह रिगार्ड का रिकार्ड अभी निकलना चाहिए। अभी चारों ओर इस रिकार्ड की आवश्यकता है।

स्व-उन्नति और विश्व-उन्नति दोनों का प्लैन साथ-साथ हो। दैवीगुणों के महत्व का मनन करो। एक-एक गुण को धारण करने में क्या समस्या आती है? उसे समाप्त कर धारण कर चारों तरफ खुशबू फैलाओ जो सभी अनुभव करें। समझा।

मुरली का सार

1. सार स्वरूप में स्थित हो विस्तार में आने से कोई भी प्रकार के विस्तार की आकर्षण नहीं होगी।

2. ‘‘मैं और मेरा'' इन दो शब्दों की स्मृति से मायाजीत, निर्विघ्न, मास्टर सर्वशक्तिवान बन सकते हो।

3. माया कनैक्शन लूज करती है, कनफ्यूज करती है। क्यों, क्या को खत्म कर कनैक्शन ठीक करो तो सब ठीक हो जायेगा।



03-04-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"ज्ञान मार्ग की यादगार - भक्ति मार्ग"

आज मधुबन के तट पर कौन-सा मेला है? आज अनेक नदियों और सागर का मेला है। हरेक छोटी-बड़ी ज्ञान-नदियाँ पतित-पावन बाप समान पतित-पावनी हैं। बाप अपने सेवा के साथियों को देख रहे हैं। देश से विदेश तक भी पतित पावनी नदियाँ पहुँच गई हैं। देश-विदेश की आत्मायें पावन बन कितने महिमा के गीत गाती हैं। यह मन के गीत फिर द्वापर में मुख के गीत बन जाते हैं। अभी बाप श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ कार्य, श्रेष्ठ जीवन की कीर्ति गाते हैं। फिर भक्ति मार्ग में कीर्त्तन हो जायेगा। अभी अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति के कारण खुशी में आत्माओं का मन नाचता है और भक्ति में फिर पाँव से नाचेंगे। अभी श्रेष्ठ आत्माओं के गुणों की माला सिमरण करते हैं वा वर्णन करते हैं फिर भक्ति मार्ग में मणकों की माला सिमरण करेंगे। अभी आप सब स्वयं बाप को भोग लगाते हो, भक्ति में इसका रिटर्न आप सबको भोग लगायेंगे। जैसे अभी आप सब सिवाए बाप को स्वीकार कराने कोई भी वस्तु स्वीकार नहीं करते, ‘‘पहले बाप'' यह स्नेह सदा दिल में रहता है, ऐसे ही भक्ति में सिवाए आप देव आत्माओं को स्वीकार कराने के खुद स्वीकार नहीं करते हैं। पहले देवता, पीछे हम। जैसे अभी आप कहते हो पहले बाप फिर हम। तो सब कापी की है। आप याद स्वरूप बनते, वह यादगार के स्मृति स्वरूप रहते। जैसे आप सब अटूट अव्यभिचारी अर्थात् एक की याद में रहते हो, कोई भी हिला नहीं सकता, बदल नहीं सकता, ऐसे ही नौधा भक्त, सच्चे भक्त, पहले भक्त, अपने इष्ट के निश्चय में अटूट और अटल निश्चय बुद्धि होते हैं। चाहे हनुमान के भक्त को राम भी मिल जाए तो भी वह हुनमान के भक्त रहेंगे। ऐसे अटल विश्वासी होते हैं। आपका एक बल, एक भरोसा - इसको कापी की है।

आप सभी अभी रूहानी यात्रु बनते। आपकी याद की यात्रा और उन्हों की यादगार की यात्रा। आप लोग वर्त्तमान समय ज्ञान स्तम्भ, शान्ति स्तम्भ के चारों ओर शिक्षा के स्मृति स्वरूप महावाक्य के कारण चक्कर लगाते हो और सभी को लगवाते हो। आप शिक्षा के कारण चक्कर लगाते हो, एक तरफ भी छोड़ते नहीं हो। जब चारों तरफ चक्कर सम्पन्न होता तब समझते हो सब देखा, अनुभव किया। भक्तों ने आपके याद स्वरूपों का चक्कर लगाना शुरू किया। जक तक परिक्रमा नहीं लगाते तो भक्ति सम्पन्न नहीं सम- झते। सबका सब कर्म और गुण सूक्ष्म स्वरूप से स्थूल रूप का भक्ति में कापी किया हुआ है। इसलिए बापदादा सर्व देव आत्माओं को सदा यही शिक्षा देते कि सदा एक में अटल निश्चय बुद्धि रहो। अगर आप अभी एक की याद में एकरस नहीं रहते, एकाग्र नहीं रहते, अटल नहीं बनते तो आपके भक्त अटल निश्चय बुद्धि नहीं होंगे। यहाँ आपकी बुद्धि भटकती है और भक्त पाँव से भटकेंगे। कब किसको देवता बनायेंगे, कब किसको। आज राम के भक्त होंगे, कल कृष्ण के बन जायेंगे। ‘‘सर्व प्राप्ति एक द्वारा'' - ऐसी स्थिति आपकी नहीं होगी तो भक्त आत्मायें भी हर प्राप्ति के लिए अलग-अलग देवता के पास भटकेंगे। आप अपनी श्रेष्ठ शान से परे हो जाते हो तो आपके भक्त भी परेशान होंगे। जैसे यहाँ आप याद द्वारा अलौकिक अनुभूतियाँ करने के बजाए अपनी कमजोरि यों के कारण प्राप्ति के बजाए उल्हनें देते हो। चाहे दिलशिकस्त हो उल्हनें देते, चाहे स्नेह से उल्हनें देते, तो आपके भक्त भी उल्हनें देते रहेंगे। उल्हनें तो सब अच्छी तहर जानते हो इसलिए सुनाते नहीं हैं।

बाप कहते हैं - रहमदिल बनो, सदा रहम की भावना रखो। लेकिन रहम के बदले अहम् भाव वा वहम् भाव हो जाता है। तो भक्तों में भी ऐसा होता है। वहम् भाव अर्थात् यह करें, ऐसा होगा, नहीं होगा, ऐसे तो नहीं होगा। इसी में रहम भूल जाता है। स्वयं के प्रति भी रहम दिल और सर्व के प्रति भी रहमदिल। स्वयं के प्रति भी वहम् होता है और औरों के प्रति भी वहम् होता है। अगर वहम् की बीमारी बढ़ जाए तो कैन्सर के समान रोग हो जाता। फर्स्ट स्टेज वाला फिर भी बच सकता है लेकिन लास्ट स्टेज वाले का बचना मुश्किल है। न जिंदा रह सकता है, न मर सकता। तो यहाँ भी न पूरा अज्ञानी बन सकता न ज्ञान बन सकता। उन्हों की निशानी होगी - एक ही सलोगन रटते रहेंगे वा कहेंगे - मैं हूँ ही ऐसा, वा दूसरे के प्रति कहेंगे - यह है ही ऐसा। कितना भी बदलने की कोशिश करेंगे, कहेंगे यह है ही ऐसा। कितना भी बदलने की कोशिश करेंगे लेकिन यही रट होगी। कैन्सर वाला पेशेन्ट खाता पीता बहुत अच्छा है। बाहर का रूप अच्छा दिखाई देगा लेकिन अन्दर शक्तिहीन होगा। वहम् की बीमारी वाले बाहर से अपने को बहुत अच्छा चलायेंगे, बाहर कोई कमी नहीं रखेंगे, न कोई और रखेगा तो स्वीकार करेंगे। लेकिन अन्दर ही अन्दर आत्मा असन्तुष्ट होने के कारण खुशी और सुख की प्राप्ति कमजोर होते जाते। ऐसे ही दूसरा है - अहम् भाव। रहम भाव की निशानी है - हर बोल में, हर सकंल्प में एक बाप दूसरा न कोई'। रहम भाव वाले को जहाँ देखो बाप ही बाप दिखाई देगा। और अहम् वाले को जहाँ जाओ, जहाँ देखो मैं ही मैं। वह मैं-मैं की माला सिमरण वाला और वह बाप की माला सिमरण वाला। मैं-पन बाप में समा गया इसको कहा जाता है - लव में लीन हो गया। वह लवलीन आत्मा और वह है मैं-मैं लीन आत्मा। अब समझा। आपको कापी करने वाले सारे कल्प में हैं। भक्ति के मास्टर भगवान हो, सतयुग त्रेता में प्रजा के लिए प्रजापिता हो। संगम पर बापदादा के नाम और कर्त्तव्य को प्रतयक्ष करने के आधारमूर्त्त हो। चाहे अपने श्रेष्ठ कर्म द्वारा, परिवर्त्तन द्वारा बाप का नाम बाला करो, चाहे व्यर्थ कर्म द्वारा, साधारण चलन द्वारा नाम बदनाम करो। है तो बच्चों के ही हाथ में।

विनाशकाल में विश्व के लिए महान कल्याणकारी, महावरदानी, महादानी, महान पुण्य आत्माओं के स्वरूप में होंगे। तो सर्व काल में कितने महान हो! हर काल में आधारमूर्त्त हो। ऐसे अपने को समझते हो? आदि में भी, मध्य में भी और अन्त में भी, तीनों ही काल का परिचय स्मृति में आया। आप एक नहीं हो, आपके पीछे अनेक कापी करनेवाले हैं। इसलिए सदा हर संकल्प में भी अटेन्शन। ऐसे तीनों कालों में महान, सदा एक बाप की स्मृति के समर्थ स्वरूप, सदा रहमदिल, हर सेकेण्ड प्राप्ति स्वरूप और प्राप्ति दाता, ऐसे बाप समान सदा सम्पन्न स्वरूप आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

टीचर्स प्रति अव्यकत बापदादा के महावाक्य- टीचर्स का वास्तविक स्वरूप है ही निरंतर सेवाधारी। यह तो अच्छी तरह से जानते हो। और सेवाधारी की विशेषता क्या होती है? सेवाधारी सफल किस बात से बनते हैं? सेवा में सदा खोया हुआ रहे, ऐसे सेवाधारी की विशेषता यह है जो मैं सेवा कर रही हूँ, मैंने सेवा की - इस सेवा-भाव का भी त्याग हो। जिसको आप लोग कहते हो त्याग का भी त्याग। मैंने सेवा की, तो सेवा सफल नहीं होती। मैंने नहीं की लेकिन मैं करनहार हूँ, करावनहार बाप है। तो बाप की महिमा आयेगी। जहाँ मैं सेवाधारी हूँ, मैंने किया मैं करूँगी, तो यह मैं-पन' सेवाधारी के हिसाब से भी ‘‘मैं पन'' जो आता है वह सेवा की सफलता नहीं होने देता। क्योंकि सेवा में मैं-पन जब मिक्स हो जाता है तो स्वार्थ भरी सेवा हो जाती है, त्याग वाली नहीं। दुनिया में भी दो प्रकार के सेवाधारी होते हैं - एक स्वार्थ के हिसाब से सेवाधारी, दूसरे स्नेह के हिसाब से त्यागमूर्त्त सेवाधारी। तो कौन से सेवाधारी हो? जैसे सुनाया ना - मैं पन बाबा के लव में लीन हो गया हो, इसको कहा जाता है - सच्चे सेवाधारी'। मैं और तू की भाषा ही खत्म। कराने वाला बाबा,हम निमित्त हैं। कोई भी निमित्त बन जाए। मैं पन जब आता है तो मैं-पन क्या होता है? मैं मैं कौन करता है? (बकरी)। मैं मैं कहने से मोहताजी आ जाती है। जैसे बकरी की गर्दन सदा झुकी हुई रहती है और शेर की गर्दन सदा ऊपर रहती है, तो जहाँ मैं पन आ जाता है वहाँ किसी न किसी कामना के कारण झुक जाते हैं। सदा नशे में सिर ऊंचा नहीं रहता। काई न कोई विघ्न के कारण सिर बकरी के समान नीचे रहता। गृहस्थी जीवन भी बकरी समान जीवन है, क्योंकि झुकते हैं ना। निमार्कनता से झुकना वह अलग चीज़ है, वह माया नहीं झुकाती है, यह तो माया बकरी बना देती है। जबरदस्ती सिर नीचे करा देती, ऑखें नीचे करा देती। सेवा में मैं-पन का मिक्स होना अर्थात् मोहताज बनना। फिर चाहे किसी व्यक्ति के मोहताज हों, पार्ट के मोहताज हों, वस्तु के हों या वायुमण्डल के हों, किसी न किसी के मोहताज बन जाते हैं। अपने संस्कारों के भी मोहताज बन जाते हैं। मोहताज अर्थात् परवश। जो मोहताज होता है वह परवश ही होता है। सेवाधारी में यह संस्कार हो ही नहीं सकते।

सेवाधारी चैलेन्ज करने वाला होता है। चैलेन्ज हमेशा सिर ऊंचा करके करेंगे, गलती होगी तो ऐसे नीचे झुककर बोलेंगे। सेवाधारी अर्थात् चैलेन्ज करने वाला, माया को भी और विश्व की आत्माओं को भी बाप का चैलेन्ज देने वाला। चैलेन्ज भी वह दे सकते है जिन्होंने स्वयं अपने पुराने संस्कारों को चैलेन्ज दी है। पहले अपने संस्कारों को चैलेन्ज देना है फिर जनरल विघ्न जो आते हैं उनको चैलेन्ज देना है। विघ्न कभी भी ऐसे सेवाधारी को रोक नहीं सकते। चैलेन्ज करने वाला माया के पहाड़ के रूप को सेकेण्ड में राई बना देगा। आप लोग भी ड्रामा करते हो ना - माया वाला, उसमें क्या कहते हो? पहाड़ को राई बना देंगे।

तो सच्चे सेवाधारी अर्थात् बाप समान। क्योंकि बाप पहले पहले अपने को क्या कहते? मैं वर्ल्ड सर्वेन्ट हूँ। सेवाधारी बनना अर्थात् बाप समान बनना। एक जन्म की सेवा अनेक जन्मों के ताज और तख्तधारी बना देती है। संगमयुग सेवा का युग है ना। वह भी कितना समय? संगमयुग की आयु वैसे भी छोटी है और उसमें भी हरेक को सेवा का चांस कितना थोड़ा टाइम मिलता! अच्छा, समझो किसी ने 50-60 वर्ष की सेवा की, तो 5000 वर्ष में से 60 भी कम कर दो, बाकी तो सब प्रालब्ध है। 60 वर्ष की सेवा बाकी सब मेवा। क्योंकि संगमयुग के पुरूषार्थ के अनुसार पूज्य बनेंगे। पूज्य के हिसाब से नम्बरवार पुजारी बनेंगे। पुजारी भी नम्बरवन बनते हो। फिर लास्ट जन्म भी देखो कितना अच्छा रहा। जो अच्छे पुरूषार्थी है उनका लास्ट जन्म भी इतना अच्छा रहा तो आगे क्या होगा। यह तो सुख के हिसाब से दु:ख कहा जाता है। जैसे कोई साहुकार हो और थोड़ा गरीब बन जाए तो कहने में तो आता है ना। कोई बड़े आदमी को थोड़ा आधा डिग्री भी बुखार हो तो कहेंगे फलाने को बुखार आ गया लेकिन अगर गरीब को 5 डिग्री भी ज्यादा बुखार हो जाए तो कोई पूछता भी नहीं। तो आप भी इतने दु:खी होते नहीं हो लेकिन अति सुखी के हिसाब से दु:खी कहा जाता है। लास्ट जन्म में भी भिखारी तो नहीं बने ना! दर-दर दो रोटी माँगने वाले तो नहीं बने। इसलिए कहा - पुरूषार्थ का समय बहुत थोड़ा है और प्रारब्ध का समय बहुत बड़ा है। प्रालब्ध कितनी श्रेष्ठ है और कितने समय के लिए यह स्मृति में रहे तो क्या स्टेज हो जायेगी? श्रेष्ठ हो जायेगी ना! तो सेवाधारी बनना अर्थात् पूरे कल्प मेवे खाने के अधिकारी बनना। यह कभी नहीं सोचो कि क्या संगमयुग सारा सेवा ही करते रहेंगे? जब मेवा खायेंगे तब कहेंगे क्या कि सारा कल्प मेवा ही खाते रहेंगे। अभी तो याद है ना कि मिलेगा। एक का लख गुणा जो बनता है तो हिसाब भी होगा ना! सेवाधारी बनना अर्थात् सारे कल्प के लिए सदा सुखी बनना। कम भाग्य नहीं है। टीचर्स कहो या सेवाधारी कहो क्योंकि मेहनत का हजार गुणा फल मिलता है। और वह भी मेहनत क्या है? यहाँ भी स्टूडेन्ट के लिए तो दीदी-दादी बन जाती हो। टाइटल तो मिल जाता है ना। 10 वर्ष का स्टूडेन्ट भी दो वर्ष की आने वाली जो टीचर बनती उसको दीदी-दादी कहने लगते। यहाँ भी ऊंची स्टेज पर तो देखते हैं ना। रिगार्ड तो देते हैं ना। अगर सच्चे सेवाधारी हैं तो यहाँ भी रिगार्ड मिलने के योग्य बन जाते। अगर मिक्स है तो आज दीदी-दादी कहेंगे, कल सुना भी देंगे। सेवा मिक्स है तो रिगार्ड भी मिक्स ही मिक्स है, इसलिए सेवाधारी अर्थात् बाप समान। सेवाधारी अर्थात् बाप के कदम के ऊपर कदम रखने वाले, जरा भी आगे पीछे नहीं। चाहे मंसा, चाहे वाचा, चाहे कर्मणा, चाहे सम्पर्क सबमें फुट स्टैप लेने वाले। एकदम पाँव के ऊपर पाँव रखने वाले, इसको कहा जाता है फुट स्टैप लेने वाले'। क्या समझते हो, ऐसा ही ग्रुप है ना? टीचर्स तो सदा सहजयोगी है ना। टीचर्स मेहनत का अनुभव करेंगे तो स्टूडेन्ट का क्या हाल होगा?



05-04-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"समर्थ कर्मों का आधार - धर्म"

आज बापदादा अपने विश्व परिवर्त्तक विश्व-कल्याण कारी बच्चों को देख रहे हैं। जब से ब्राह्मण जीवन हुआ तब से इसी महान कर्त्तव्य का संकल्प किया। ब्राह्मण जीवन का मुख्य कर्म ही यह है। मानव जीवन में हरेक आत्मा की विशेष दो धारणायें हैं। एक धर्म, दूसरा - कर्म। धर्म में स्थित होना है और कर्म करना है। धर्म के बिना जीवन के कर्म में सफलता मिल नहीं सकती। धर्म अर्थात् विशेष धारणा। मैं क्या हूँ? इसी धारणा अर्थात् धर्म के आधार से मुझे क्या करना है - वह बुद्धि में स्पष्ट होता है। चाहे यथार्थ धर्म अर्थात् धारणा हो चाहे अयथार्थ हो। असमर्थ कर्म भी अयथार्थ धारणा है। अर्थात् मैं मानव हूँ, मेरा धर्म ही मानव धर्म है, जिसको देह अभिमान कहते हो। इसी धर्म के आधार पर कर्म भी उल्टे हुए। ऐसे ब्राह्मण जीवन में भी यथार्थ यह धारणा है कि - मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ। मैं आत्मा शान्त, सुख, आनंद स्वरूप हूँ। इसी आधार पर कर्म बदल गया। अगर कर्म में श्रेष्ठ के बजाए साधारण कर्म हो जाता है, उसका भी आधार इसी धर्म अर्थात् धारणा की कमी हो जाती कि मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ, श्रेष्ठ गुणों का स्वरूप हूँ। तो फाउन्डेशन क्या हुआ? इसी कारण धर्मात्मा शब्द कहा जाता है। आप सब धर्मात्मा हो ना। धर्मात्माओं द्वारा स्वत: ही व्यर्थ वा साधारण कर्म समाप्त हो जाते हैं। पहले यह चेक करो कि सदा धर्म में स्थित रहता हूँ। तो कर्म स्वत: ही समर्थ चलता रहेगा। यही पहला पाठ है - मैं कौन? इसी - मैं कौन के क्वेश्चन में सारा ज्ञान आ जाता है। मैं कौन, इसी प्रश्न के उत्तर निकालो तो कितनी लिस्ट बन जायेगी। अभी अभी सेकेण्ड में अगर स्मृति में लाओ तो कितने टाइटल्स याद आ जायेंगे। क्योंकि कर्म के आधार पर सबसे ज्यादा टाइटल्स वह आपके भी टाइटल्स। सबमें मास्टर हो गये ना। सारे कल्प के अन्दर टाइटल्स की लिस्ट इतनी बड़ी किसकी भी नहीं होगी। देवताओं की भी नहीं है। सिर्फ अपने टाइटल्स लिखने लगो तो छोटा सा पुस्तक बन सकता है। यह इस संगम के टाइटल्स आपकी डिग्री हैं। उन्हों की डिग्री भले कितनी भी बड़ी हो लेकिन आप लोगों के आगे वह कुछ नहीं है। इतना नशा रहता है? फिर भी शब्द यही आयेगा - मैं कौन? रोज नया नया टाइटल स्मृति में रखो अर्थात् उसी टाइटल के धारणा स्वरूप धर्मात्मा बन कर्म करो। कर्म करते धर्म को न छोड़ो। धर्म और कर्म का मेल होना यही संगमयुग की विशेषता है।

जैसे आत्मा और परमात्मा के टूटे हुए सम्बन्ध को बाप ने जोड़ लिया, ऐसे धर्म और कर्म के सम्बन्ध को भी जोड़ लो। तब धर्मात्मा प्रत्यक्ष होंगे। आज बापदादा सर्व बच्चों का यही खेल देख रहे थे कि कौन धर्म और कर्म का मेल कर चलते हैं, एक को पकड लेते हैं, एक को छोड़ देते। जैसे कर्मयोग, तो कर्म और योग का मेल है, अगर दोनों में से एक को छोड़ दें तो ऐसे ही होगा जैसे झूला झूलने में दोनों रस्सी जरूरी होती है, अगर एक रस्सी टूट जाए वा नीचे ऊपर हो जाए, वा छोटी बड़ी हो, समान न हो तो क्या हाल होगा! ऐसे ही धर्म और कर्म दोनों के मेल से सर्व प्राप्तियों के झूले में झूलते रहेंगे। नीचे ऊपर हो जाने से प्राप्ति के झूले से अप्राप्त स्वरूप का अनुभव कर लेते हो। चलते चलते चेक करना नहीं आता इसलिए झूलने के बजाए चिल्लाने लग जाते हो कि क्या करें, कैसे करें? जैसे अज्ञानियों को कहते हो - मैं कौन हूँ यह पहली नहीं जानते हो। ऐसे अपने से पूछो - मैं कौन हूँ? यह अच्छी तरह से जाना? इसमें भी तीन स्टेजेज है। एक है जानना है दूसरा है स्वयं को मानना, तीसरा है मानकर चलना अर्थात् वह स्वरूप बनना। तो किस स्टेज तक पहुँचे हो? जानने में तो सब पास हो ना। मानने में भी सब पास हो। और तीसरा नम्बर है - मानकर चलना अर्थात् स्वरूप बनना, इसमें क्या समझते हो? जब स्वरूप बन गये तो स्वरूप कब भूल नहीं सकता। जैसे देह का स्वरूप कब भूल सकते हो क्या? भल करके देह समझना उल्टा है लेकिन स्वरूप तक आ गया तो भुलाते भी नहीं भूलते हो ना! ऐसे ही हर टाइटल सामने रख करके देखो स्वरूप में लाया है? जैसे रोज बापदादा स्वदर्शन चक्रधारी का टाइटल स्मृति में दिलाते हैं। ऐसे चेक करो - स्वदर्शन चक्रधारी यह संगम का स्वरूप है, तो जानने तक लाया है वा मानने तक वा स्वरूप तक? सदा स्वदर्शन चलता है वा पर-दर्शन स्वदर्शन को भुला देता है। यह देह को देखना भी परदर्शन है। स्व आत्मा है, देह पर है, प्रकृति पर है। प्रकृति भाव में आना भी प्रकृति के वशीभूत होना है। यह भी परदर्शन चक्र है। जब अपनी देह को देखना भी परदर्शन हुआ तो दूसरे की देह को देखना - इसको स्वदर्शन कैसे कहेंगे? व्यर्थ संकल्प वा पुराने संस्कार यह भी देहभान के सम्बन्ध से हैं। आत्मिक स्वरूप के संस्कार जो बाप के संस्कार वह आत्मा के संस्कार। बाप के संस्कार जानते हो? वह सदा विश्व कल्याणकारी, परोपकारी रहमदिल, वरदाता है। ऐसे संस्कार नैचुरल स्वरूप में बने हैं? संस्कार बनना अर्थात् संकल्प, बोल और कर्म स्वत: ही उसी प्रमाण सहज चलना। संस्कार ऐसी चीज़ हैं जो आटोमेटिक आत्मा को अपने प्रमाण चलाते रहते। संस्कार समझो आटोमेटिक चाबी है जिसके आधार पर चलते रहते हो। जैसे खिलौने को नाचने की चाबी देते तो वह नाचता ही रहता। अगर किसको गिरने की देंगे तो गिरता ही रहेगा। ऐसे जीवन में संस्कार भी चाबी है। तो बाप के संस्कार निजी संस्कार बनाये हैं? जिसको दूसरे शब्दों में कहते हो - मेरी यह नेचर है। बाप समान नेचर हो जाए - सदा वरदानी, सदा उपकारी, सदा रहमदिल। तो मेहनत करनी पड़ेगी। जब मैं कौन हूँ को स्वरूप में लाओ, इसी धर्म को कर्म में अपनाओ तब कहेंगे स्वरूप तक लाया। नहीं तो जानने और मानने वाली लिस्ट में चले जायेंगे। सदा यह स्मृति रखो - मेरा धर्म ही यह है। इसी धर्म में सदा स्थित रहो, कुछ भी हो जाए, चाहे व्यक्ति, चाहे प्रकृति, चाहे परिस्थिति लेकिन आप लोगों का सलोगन है ‘‘धरत परिये धर्म न छोड़िये।'' इसी सलोगन को अथवा प्रतिज्ञा को सदा स्मृति में रखो।

इस समय कल्प पहले वाले पुराने सो नये बच्चे आये हैं। पुराने ते पुराने भी हो और नये भी हो। नये बच्चे अर्थात् सबसे छोटे, छोटे सबसे लाडले होते हैं। नये पत्ते सबको सुन्दर लगते हैं ना! तो भल नये हैं लेकिन अधिकार में नम्बर वन। ऐसे सदा पुरूषार्थ करते चलो। सबसे पहला अधिकार पवित्रता का। उसके आधार पर सुख-शान्ति, सर्व अधिकार प्राप्त हो जाते। तो पहला पवित्रता का अधिकार लेने में सदा नम्बरवन रहना। तो प्राप्ति में भी नम्बरवन हो जायेंगे। पवित्रता की फाउन्डेशन को कभी कमजोर नहीं करना। तब ही लास्ट सो फास्ट जायेंगे। बापदादा को भी बच्चों को देख खुशी होती है कि फिर से अपना अधिकार लेने पहुँच गये हैं। इसलिए खूब रेस करो। अभी भी टूलेट का बोर्ड नहीं लगा है। सब सीट्स खाली है, फिक्स नहीं हुई हैं। जो नम्बर लेने चाहो वह ले सकते हो, इतना अटेन्शन रखते चलते चलो। अधिकारी बनते चलो। योग्यताओं को धारण कर योग्य बनते चलो।

ऐसे बाप समान सदा श्रेष्ठ धर्म और श्रेष्ठ कर्मधारी, सदा धर्म-आत्मा, सदा स्वदर्शन चक्रधारी स्वरूप, सदा सर्व प्राप्ति स्वरूप, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

होवनहार टीचर्स कुमारियों के ग्रुप से बापदादा की मुलाकात –

यह ग्रुप होवनहार विश्व कल्याणकारी ग्रुप है ना। यही लक्ष्य रखा है ना। स्व-कल्याण कर विश्व-कल्याणकारी बनेंगे - यही दृढ़ संकल्प किया है ना? बापदादा हर निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं को देख खुश होते हैं कि यह एक-एक कुमारी अनेक आत्माओं के कल्याण के प्रति निमित्त बनने वाली है। वैसे कुमारी को 100 ब्राह्मणों से उत्तम कहते हैं लेकिन 100 भी हद हो गई। यह तो सब बेहद के विश्व कल्याणकारी हैं बेहद की हो ना? हद का संकल्प भी नहीं। फिर सभी एक दो से रेस में आगे हो वा नम्बरवार हो? क्या समझती हो? हरेक में अपनी अपनी विशेषता तो होगी लेकिन यहाँ सर्व विशेषताओं से सम्पन्न हो? जब सब विशेषताएं धारण करो तब सम्पन्न बनो। तो क्या लक्ष्य रखा है? बात बहुत छोटी है, कोई बड़ी बात नहीं है, संकल्प दृढ है तो प्राप्ति स्वत: हो जाती है। अगर सिर्फ संकल्प है, उसमें दृढ़ता नहीं तो भी अन्तर पड़ जाता है। कभी कहते हैं ना विचार तो है, करना तो चाहिए इसको दृढ संकल्प नहीं कहेंगे। दृढ़ संकल्प अर्थात् करना ही है, होना ही है। तो ‘‘शब्द'' निकल जाता है। बनना तो है, नहीं। लेकिन बनना ही है। यह लक्ष्य रखो तो नम्बरवन हो जायेंगे। सहज जीवन अनुभव होती है? मुश्किल तो नहीं लगता? कालेज का वातावरण प्रभाव तो नहीं ड़ालता, आपका वातावरण उन्हों पर प्रभाव डालता है? सदा निर्विघ्न रहना। स्व को देखना अर्थात् निर्विध्न बनना। सुनाया ना - बाप के संस्कार सो अपने संस्कार, फिर जैसे निमित्त मात्र कर रहे हैं लेकिन करावनहार बाप है। करन-करावनहार जो गाया जाता है वह इस समय का ही प्रैक्टिकल अनुभव है। अच्छा एगजाम्पुल बनी हो। सदा सपूत बन सबूत देते रहना। सपूत उसको ही कहा जाता है जो सबूत दे। कभी आपस में खिट-खिट तो नहीं होती है? नालेजफुल हो जाने से एक दो के संस्कार को भी जानकर संस्कार परिवर्त्तन की लगन में रहते हैं। यह नहीं सोचते कि यह तो ऐसे हैं ही लेकिन यह ऐसे से ऐसा कैसे बने, यह सोचेंगे। रहमदिल बनेंगे। घृणा दृष्टि नहीं रहम की दृष्टि - क्योंकि नालेजफुल हो गये ना! सहज जीवन और श्रेष्ठ प्राप्ति, इस जैसा भाग्य और कब मिल सकता है? अच्छे सर्विसएबुल हैन्डस हैं, ऐसे ही हैन्डस निकलते जाएं तो बहुत अच्छा। हिम्मते बच्चे मददे बाप। शक्तियाँ तो हैं ही विजयी। शक्ति की विजय न हो यह हो नहीं सकता।

सर्व ब्राह्मण बच्चों प्रति इस वर्ष के लिए अव्यक्त बापदादा का विशेष इशारा

इस वर्ष हरेक बच्चे को यह विशेष अटेन्शन देना है कि हमें तीनों ही सर्टीफिकेट (मनपसंद, लोकपसंद और बाप पसंद) लेने हैं। मन पसंद का सर्टीफिकेट है या नहीं उसकी परख बापदादा के कमरे में जाकर कर सकते हो, क्योंकि उस समय बाप बन जाता है दर्पण और उस दर्पण में जो कुछ होता है वह स्पष्ट दिखाई देता है। अगर उस समय बाप के आगे अपना मन सर्टीफिकेट देता है कि मैं ठीक हूँ तो समझो ठीक, अगर उस समय मन में चलता - यह ठीक नहीं है, तो अपने को परिवर्त्तन कर देना चाहिए। अगर मानो मैजारिटी किसी बात के प्रति कोई इशारा देते हैं लेकिन स्वयं नहीं समझते कि मैं राँग हूँ, फिर भी जब लोक-संग्रह के प्रति ऊपर से डायरेक्शन मिले कि यह अटेन्शन रखना चाहिए तो फिर उस समय अपनी नहीं चलानी चाहिए। क्योंकि अगर सत्यता की शक्ति है तो सत्य को कहा ही जाता है - ‘‘ सत्यता महानता है।'' और महान वही है जो स्वयं झुकता है। अगर मानो कल्याण के प्रति झुकना भी पड़ता है तो वह झुकना नहीं है, लेकिन महानता है। अनेकों की सेवा के अर्थ महान को झुकना ही पड़ता है। तो यह विशेष अटेन्शन रखो। इसी में ही अलबेलापन आ जाता है। मैं ठीक हूँ, ठीक तो हो लेकिन जो ठीक रह सकता है वह स्वयं को मोल्ड भी कर सकता है। अगर मानो दूसरे को मेरी कोई चलन से कोई भी संकल्प उत्पन्न होता है तो स्वयं को मोल्ड करने में नुकसान ही क्या है? फिर भी सबकी आशीर्वाद तो मिल जायेगी। यह आशीर्वाद भी तो फायदा हुआ ना। क्यों-क्या में नहीं जाओ। यह क्यों, यह ऐसे होगा वैसे होगा। इसको फुलस्टाप लगाओ। अब यह विशेषता चारों ओर लाइट हाउस के मुआफिक फैलाओ। इसको कहा जाता है - एक ने कहा, दूसरे ने माना अर्थात् अनेकों को सुख देने के निमित्त। इसमें यह नहीं सोचो कि मैं कोई नीचे हो गया। नहीं। गलती की तभी मैं परिवर्त्तन कर रहा हूँ, यह नहीं सोचो लेकिन सेवा के लिए परिवर्त्तन कर रहा ह। सेवा के लिए स्थूल में भी कुछ मेहनत करनी पड़ती है ना! तो श्रेष्ठ, महान आत्मा बनने के लिए थोड़ा बहुत परिवर्त्तन भी क्या तो हर्जा ही क्या है? इसमें हे! अर्जुन, बनो। इससे वातावरण बनेगा। एक से दो, दो से तीन अगर कोई गलती है और मान ली तो यह कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन गलती नहीं है और लोक-संग्रह अर्थ करना पड़ता है। यह है महानता। इसमें अगर कोई समझता भी है कि इसने यह किया अर्थात् नीचे हो गया, तो दूसरों के समझने से कुछ नहीं होता, बाप की लिस्ट में तो आगे नम्बर है ना। इसको दबाना नहीं कहा जाता है। यह भी ब्राह्मणों की भाषा होती है ना - कहाँ तक दबेंगे, कहाँ तक मरेंगे, कब तक सहन करेंगे, अगर यहाँ दबेंगे भी तो अनेक आप के पाँव दबायेंगे। यह दबाना नहीं है लेकिन अनेकों के लिए पूज्य बनना है। महान बनना है।

2. इस वर्ष ऐसा कोई नया प्लैन बनाओ जैसे मोहजीत परिवार की कहानी सुनाते हैं कि जिस भी सम्बन्धी के पास गया उसको ज्ञान सुनाया, तो यहाँ भी आप बच्चों से जब भी कोई मिलने आये तो उसको यही अनुभव हो कि मैं कोई फरिश्ते से मिल रहा हूँ। आने से ही उसे जादू लग जाए। जहाँ जाए, जिससे मिले उससे जादू का ही अनुभव करे। जैसे शुरू-शुरू में बाप को देखा, मुरली सुनी, परिवार को देखा तो मस्त हो जाता था, ऐसे अभी भी जो सोचकर आवे, उससे पदमगुणा अनुभव करके जाए। ऐसा अब प्लैन बनाओ। दृढ़ संकल्प से सब कुछ हो सकता है। अगर एक ऐसा अनुभव करायेगा तो सब उसको फालो करेंगे।

3. इस वर्ष विशेष सहनशीलता का गुण हरेक को धारण करना है - संगठन में अगर कोई एक के लिए कुछ बोलता भी है तो दूसरा चुप रहे तो बोलने वाला कब तक बोलेगा? आखिर तो चुप ही हो जायेगा। सिर्फ उसमें 10 बारी सुनने की हिम्मत चाहिए। दूसरे को बदलने के लिए थोड़ा तो सहन करना पड़ेगा। इसमें सहनशक्ति बहुत चाहिए। दो बारी में ही दिलशिकस्त नहीं हो जाओ। 10-12 बार तो सुनकर सहन करो। बाप ने भी कितने बच्चों के संस्कारों को बदला। ब्रह्मा, जो इतनी बड़ी फर्स्ट अथार्टी है उसने भी छोटे-छोटे बच्चों से सुना, अज्ञानियों से भी सुना, इनसल्ट सहन की ना! ब्रह्मा बाप की भी इनसल्ट करते थे, तो आप कौन हो! जब बाप ने सब कुछ सहन कर परिवर्त्तन किया तो फालो फादर। सिर्फ हिम्मत की बात है, सब सहज हो जायेगा। सिर्फ थोड़ा पहले लगता है - कैसे होगा, कहाँ तक सहन करेंगे? हिम्मत न हारो तो अभी-अभी हो जाए। जब भविष्य पर छोड़ते हो कि कहाँ तक होगा... तभी संकल्प कमजोर होते है। कहाँ तक होगा यह नहीं सोचों, संकल्प में दृढ़ता लाओ। भविष्य पर छोड़ने से वर्त्तमान कम- जोर हो जाता है।

गुजरात पार्टियों से बापदादा की मुलाकात - जैसे साकार में आना और जाना सहज हो गया है, अभी-अभी आये, अभी- अभी गये, तो जैसे साकार में सहज प्रैक्टिस हो गई है आने-जाने की, वैसे आत्मा को अपनी कर्मातीत अवस्था में रहने की भी प्रैक्टिस है? अभी-अभी कर्मयोगी बन कर्म में आना, कर्म समाप्त हुआ फिर कर्मातीत अवस्था में रहना, इसका भी अनुभव सहज होता है? जैसे लक्ष्य रखते हो मधुबन जाना है, फिर तैयारी कर पहुँच जाते वैसे यह भी सदा लक्ष्य रहे कि कर्मातीत अवस्था में रहना है, निमित्त मात्र कर्म करने के लिए कर्मयोगी बने फिर कर्मातीत। कर्मातीत - इसके लिए तैयारी कौन-सी करनी है? डबल लाइट बनो। तो डबल लाइट बनना आता है ना। ट्रस्टी समझाना अर्थात् लाइट बनना। दूसरा - आत्मा समझना अर्थात् लाइट होना। तो यह तैयारी करने तो आती है ना। यही अटेन्शन रखने से फिर सेकेण्ड में कर्मातीत, सेकेण्ड में कर्मयोगी। जैसे कर्म में आना स्वाभाविक हो गया है। वैसे कर्मातीत होना भी स्वाभाविक हो जाए। यही तो अभ्यास है ना। जो सदा याद और सेवा में रहने वाले हैं उन्हों को प्रत्य- क्षफल सहज प्राप्त होता है। सोचेंगे भी नहीं कि ऐसा हो सकता है! लेकिन सहज अनुभव होते रहेंगे। चलते-चलते ऐसे अनुभव करेंगे जैसे भक्ति मार्ग में कहावत है, ‘‘भगवान छप्पर फाड़कर देते हैं।'' तो यहाँ भी मेहनत का छप्पर फाड़कर सहज अनुभूति होगी। जब सर्वशक्तिवान के बच्चे बन गये तो मेहनत रही क्या? सभी सहजयोगी हो ना।

विदेशी बच्चों से - अभी सभी जा रहे हो फिर से एक से अनेक होकर आने के लिए। इसीलिए जा रहे हो ना? इतनी आत्माओं को सन्देश देना है तो जरूर इतनी तीव्रगति से पुरूषार्थ करेंगे तब तो सफल होंगे ना। अभी हरेक को सेवा के तीव्रगति का प्लैन बनाना पड़े। सदा यही समझो - जैसे शान्ति की चिड़िया दिखाते हैं ना, ऐसे हम भी शान्ति के सन्देशी बनकर जा रहे हैं। जहाँ भी जाओ वहाँ शान्ति की लहर फैला दो। क्योंकि विदेश में शान्ति की खोज वाले बहुत हैं। तो ऐसे के लिए आप शान्ति दाता के बच्चे शान्ति का सन्देश देने वाले हो। जब सबको शान्ति का सन्देश मिले तब आपको शान्ति की देवी वा शान्ति का देवता मानेंगे। तो ऐसे बनकर जा रहे हो ना? चारों ओर जब इतने शान्ति की देवी और देवतायें फैल जायेंगे तो क्या हो जायेगा? शान्ति दाता बाप की प्रत्यक्षता का झण्डा लहरा जायेगा। जर्मनी वाले भी कोई नया झण्डा लहरायेंगे जो सबकी नजर जर्मनी की तरफ जायेगी।

मुरली का सार

1. धर्म अर्थात् विशेष धारणा। धर्म में स्थित होना है और कर्म करना है। धर्म के बिना कर्म में सफलता नहीं मिल सकती।

2. धर्म और कर्म के सम्बन्ध को जोड़ लो तब धर्मात्मा प्रत्यक्ष होंगे। धर्म और कर्म दोनों के मेल से सर्व प्राप्तियों के झूले में झूलते रहेंगे।

3. ‘‘धरत पड़िये धर्म न छोड़िये'' कुछ भी हो जाए, धर्म में सदा स्थित रहो।



07-04-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"मनन शक्ति द्वारा सर्वशक्तियों के स्वरूप की अनुभूति"

आज बापदादा अपने सर्व कल्प पहले वाले सिकीलधे बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। जैसे बाप अति स्नेह से बच्चों को सदा याद करते हैं वैसे ही बच्चे भी सदा बाप को याद करने वा बाप की श्रेष्ठ मत पर चलने में दिन-रात लगे हुए हैं। बापदादा बच्चों की लगन, बच्चों की दिल वा जान, सिक व प्रेम से सदा सेवा में लगन देख सदा ऐसे बच्चों को आफरीन देते हैं। बच्चों का भाग्य के पीछे त्याग देख बापदादा सदा त्याग पर मुबारक देते हैं। सर्व बच्चों का एक ही संकल्प - बाप को प्रत्यक्ष करने वा स्वयं को सम्पन्न बनाने का - यह भी देख बापदादा खुश होते हैं। क्या थे और क्या बन गये - इस अन्तर को सदा स्मृति में रखते हुए सभी इसी ईश्वरीय नशे में रहते हैं। इसको देख बापदादा भी फखुर से कहते हैं - ‘‘वाह संगमयुगी बच्चे, वाह!'' इतने तकदीरवान जो अब लास्ट जन्म तक भी आपके तकदीर की तस्वीर मस्तक में महिमा द्वारा, मुख में गीतों द्वारा और हाथों से चित्र द्वारा, नयनों में स्नेह द्वारा तकदीर की तस्वीर खींचते रहते हैं। अब तक भी आप श्रेष्ठ आत्माओं के शुभ घड़ी को याद कर रहे हैं कि फिर से कब आयेंगे आह्वान की धूम मचाये हुए हैं। ऐसे तुम तकदीरवान हो जो स्वयं बाप भी आपके तकदीर के गुण गाते हैं। अन्तिम भक्त तो आपके चरणों को भी पूजते रहते हैं। सिर्फ आपसे क्या माँगतें है कि अपने चरणों में ले लो। इतनी महान आत्मायें हो, इसलिए बापदादा भी देख हर्षित होते हैं। सदा अपना ऐसा श्रेष्ठ स्वरूप , श्रेष्ठ तकदीर की तस्वीर स्मृति में रखो। इससे क्या होगा समर्थ स्मृति द्वारा, सम्पन्न चित्र द्वारा चरित्र भी सदा श्रेष्ठ ही होंगे। कहा जाता है - जैसा चित्र वैसा चरित्र'। जैसी स्मृति वैसी स्थिति। तो सदा समर्थ स्मृति रखो तो स्थिति स्वत: ही समर्थ हो जायेगी। सदा अपना सम्पूर्ण चित्र सामने रखो जिसमें सर्वगुण, सर्व शक्तियाँ सब समाई हुई हैं। ऐसा चित्र रखने से स्वत: ही चरित्र श्रेष्ठ होगा। मेहनत करने की जरूरत ही नहीं होगी। मेहनत तक करनी पड़ती है जब मनन शक्ति की कमी होती है। सारा दिन यही मनन करते रहो, अपना श्रेष्ठ चित्र सदा सामने रखो तो मनन शक्ति से मेहनत समाप्त हो जायेगी। सुना भी बहुत है, वर्णन भी बहुत करते हो फिर भी चलते-चलते कभी-कभी अपने को निर्बल क्यों अनुभव करते हो, मेहनत अनुभव क्यों करते हो? मुश्किल है - यह संकल्प क्यों आता है? इसका कारण? सुनने बाद मनन नहीं करते। जैसे शरीर की शक्ति आवश्यक है, वैसे आत्मा को शक्तिशाली बनाने के लिए मनन शक्ति' इतनी ही आवश्यक है। मनन शक्ति से बाप द्वारा सुना हुआ ज्ञान स्व का अनुभव बन जाता है। जैसे पाचन शक्ति द्वारा भोजन शरीर की शक्ति, खून के रूप में समा जाता है। भोजन की शक्ति अपने शरीर की शक्ति बन जाती है। अलग नहीं रहती। ऐसे ज्ञान की हर पाइंट मनन शक्ति द्वारा स्व की शक्ति बन जाती है। जैसे आत्मा की पहली पाइंट सुनने के बाद मनन शक्ति द्वारा स्मृति स्वरूप बन जाने कारण, स्मृति समर्थ बना देती है - ‘‘मैं हूँ ही मालिक''। यह अनुभव समर्थ स्वरूप बना देता है। लेकिन केसे बना? मनन शक्ति के आधार पर। तो आत्मा की पहली पाइंट अनुभव स्वरूप हो गई ना। इसी प्रकार ड्रामा की पाइंट - सिर्फ ड्रामा है, यह कहने वा सुनने मात्र नहीं लेकिन चलते-फिरते अपने को हीरो एक्टर अनुभव करते हो तो मनन शक्ति द्वारा अनुभव स्वरूप हो जाना यही विशेष आत्मिक शक्ति है। सबसे बड़े ते बड़ी शक्ति अनुभव-स्वरूप है।

अनुभवी सदा अनुभव की अथार्टी से चलते, अनुभवी कभी धोखा नहीं खा सकते। अनुभवी किसी के डगमग करने से, सुनी सुनाई से विचलित नहीं हो सकते। अनुभवी का बोल हजार शब्दों से भी ज्यादा मूल्यवान होता है। अनुभवी सदा अपने अनुभवों के खज़ानों से सम्पन्न रहते हैं। ऐसे मनन शक्ति द्वारा हर पाइंट के अनुभवी सदा शक्तिशाली, मायाप्रूफ, विघ्न प्रूफ, सदा अंगद के समान हिलाने वाला, न कि हिलने वाला होता। तो समझा अभी क्या करना है?

जैसे शरीर की सर्व बीमारियों का कारण कोई न कोई विटामिन की कमी होती है तो आत्मा की कमजोरी का कारण भी मनन शक्ति द्वारा हर पाइंट के अनुभव की विटामिन की कमी है। जैसे उसमें भी वैरायटी ए.बी.सी. विटामिन हैं ना। तो यहाँ भी किसी न किसी अनुभव के विटामिन की कमी है, कुछ भी समझ लो। ए आत्मा की विटामिन, विटामिन बी बाप की। विटामिन सी ड्रामा की, क्रियेशन वा सार्किल कहो। ऐसे कुछ भी बना लो। इसमें तो होशियार हो। तो चेक करो कौन से विटामिन की कमी है। आत्मा की अनुभूति की कमी है, परमात्म सम्बन्ध की कमी है, ड्रामा के गुह्यता के अनुभूति की कमी है। सम्पर्क में आने के विशेषताओं की अनुभूति की कमी है। सर्व शक्तियों के स्वरूप के अनुभूति की कमी है। और वही कमी मनन शक्ति द्वारा भरो। श्रोता स्वरूप वा भाषण करता स्वरूप - सिर्फ यहाँ तक आत्मा शक्तिशाली नहीं बन सकेगी। ज्ञान स्वरूप अर्थात् अनुभव स्वरूप। अनुभवों को बढ़ाओ और उसका आधार है मनन शक्ति। मनन वाला स्वत: ही मगन रहता है। मगन अवस्था में योग लगाना नहीं पड़ता लेकिन निरंतर लगा हुआ ही अनुभव करता। मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। मगन अर्थात् मुहब्बत के सागर में समाया हुआ। ऐसे समाया हुआ जो कोई अलग कर ही नहीं सकता। तो मेहनत से भी छूटो। बाहरमुखता को छोड़ो तो मेहनत से छूटो। और अनुभवों के अन्तर्मुखता स्वरूप में सदा समा जाओ। अनुभवों का भी सागर है। एक दो अनुभव नहीं अथाह हैं। एक दो अनुभव कर लिया तो अनुभव के तालाब में नहीं नहाओ। सागर के बच्चे अनुभवों के सागर में समा जाओ। तालाब के बच्चे तो नहीं हो ना! यह धर्मपितायें, महान आत्मायें कहलाने वाले, यह हैं तालाब। तालाब से तो निकल आये ना। अनेक तालाबों का पानी पी लिया। अब तो एक सागर में समा गये ना।

ऐसे सदा समर्थ आत्माओं को, सदा सर्व अनुभवों के सागर में समाई हुई आत्माओं को, सदा अपना सम्पूर्ण चित्र और श्रेष्ठ चरित्रवान आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को , सदा अन्तर्मुखी , सर्व को सुखी बनाने वाली आत्माओं को, ऐसे डबल हीरो आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।

पार्टियों से - सदा स्वयं बाप के समीप रत्न समझते हो? समीप रत्न की निशानी क्या होगी? समीप अर्थात् समान। समीप अर्थात् संग में रहने वाले। संग में रहने से क्या होता है? वह रंग लग जाता है ना। जो सदा बाप के समीप अर्थात् संग में रहने वाले हैं उनको बाप का रंग लगेगा तो बाप समान बन जायेंगे। समीप अर्थात् समान ऐसे अनुभव करते हो? हर गुण को सामने रखते हुए चेक करो कि क्या-क्या बाप समान है। हर शक्ति को सामने रख चेक करो कि किस शक्ति में समान बने हैं। आपका टाइटल ही है - मास्टर सर्वगुण सम्पन्न, मास्टर सर्व शक्तिवान। तो सदा यह टाइटल याद रहता है? सर्वशक्तियाँ आ गई अर्थात् विजयी हो गये, फिर कभी भी हार हो नहीं सकती। जो बाप के गले का हार बन गये उनकी कभी भी हार नहीं हो सकती। तो सदा यह स्मृति में रखो कि मैं बाप के गले का हार हूँ, इससे माया से हार खाना समाप्त हो जायेगा। हार खिलाने वाले होंगे,खाने वाले नहीं। ऐसा नशा रहता है? हनुमान को महावीर कहते हैं ना! महावीर ने क्या किया? लंका को जला दिया। खुद नहीं जला, पूँछ द्वारा लंका जलाई। तो लंका को जलाने वाले महावीर हो ना! माया अधिकार समझकर आये लेकिन आप उसके अधिकार को खत्म कर अधीन बना दो। हनुमान की विशेषता दिखाते हैं कि वह सदा सेवाधारी था। अपने को सेवक समझता था। तो यहाँ जो सदा सेवाधारी हैं वही माया के अधिकार को खत्म कर सकते हैं। जो सेवाधारी नहीं वह माया के राज्य को जला नहीं सकते। हनुमान के दिल में सदा राम बसता था ना। एक राम दूसरा न कोई। तो बाप के सिवाए और कोई भी दिल में न हो। अपने देह की स्मृति भी दिल में नहीं। सुनाया ना कि देह भी पर है, जब देह ही पर हो गई तो दूसरा दिल में कैसे आ सकता?

प्रवृत्ति में रहते भी अपने को ट्रस्टी समझो, ग्रहस्थी नहीं। गृहस्थी समझने से अगला पिछला बोझ सिर पर आ जाता। ट्रस्टी अर्थात् डबल लाइट। जब आत्मिक स्वरूप है तो ट्रस्टी, देह की स्मृति है तो ग्रहस्थी। गृहस्थी माना मोजमाया के जाल में फँसा हुआ, ट्रस्टी माना सदा हल्का बन खुशी में उड़ने वाला। ट्रस्टी अर्थात् माया का जाल खत्म।



11-04-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सत्यता की शक्ति से विश्व परिवर्त्तन"

आज की यह सभा कौन सी सभा है? यह है विधि-विधाताओं की सभा। सिद्धि-दाताओं की सभा। अपने को ऐसे विधि-विधाता वा सिद्धि दाता समझते हो? इस सभा की विशेषाताओं को जानते हो? विधि-विधाताओं की विशेष शक्ति है जिस द्वारा सेकेण्ड में सर्व को विधि द्वारा सिद्धि स्वरूप बना सकते। उसको जानते हो? वह है - ‘‘सत्यता अर्थात् रियल्टी''। सत्यता ही महानता है। सत्यता की ही मान्यता है। वह सत्यता अर्थात् महानता स्पष्ट रूप से जानते हो? विशेष विधि ही सत्यता के आधार पर है। पहला फाउन्डेशन अपनी नालेज अर्थात् अपने स्वरूप में स्त्यता देखो। सत्य स्वरूप क्या है और मानते क्या थे? तो पहला सत्य हुआ आत्मा स्वरूप का। जब तक यह सत्य नहीं जाना तो महानता थी? महान थे वा महान के पुजारी थे? जब अपने आपको जाना तो क्या बन गये? महान आत्मा बन गये। सत्यता की अथार्टी से औरों को भी कहते हो - हम आत्मा हैं। इसी प्रकार से सत्य बाप का सत्य परिचय मिलने से अथार्टी से कहते हो - परमात्मा हमारा बाप है। वर्से के अधिकार की शक्ति से कहते हो बाप हमारा और हम बाप के। ऐसे अपनी रचना के वा सृष्टि चक्र के सत्य परिचय को अथार्टी से सुनते हो - अब यह सृष्टि चक्र समाप्त हो फिर से रिपीट होना है। अब संगम का युग है, न कि कलियुग। चाहे सारी विश्व के विद्वान पण्डित और अनक आत्मायें शास्त्र के प्रमाण कलियुग ही मानत लेकिन आप 5 पाण्डव अर्थात् कोटों मे कोई थोड़ी सी आत्मायें चैलेन्ज करते हो कि अभी कलियुग नहीं, संगमयुग है, यह किस अथार्टी से? सत्यता की महानता के कारण। विश्व में मैसेज देते हो कि आओ और आकर समझो। सोये हुए कुम्भकरणों को जगाकर कहते हो - समय आ गया। यही सत् बाप, सत् शिक्षक, सत् गुरू द्वारा सत्यता की शक्ति मिली है। अनुभव करते हो - यही सत्यता है।

सत् के दो अर्थ है। एक सत् अर्थात् सत्य दूसरा सत् अर्थात् अविनाशी। तो बाप सत्य भी है और अविनाशी भी है इसलिए बाप द्वारा जो परिचय मिला वह सब सत् अर्थात् सत्य और अविनाशी है। भक्त लोग भी बाप की महिमा गाते हैं - ‘‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्''। सत्यम् भी मानते और अविनाशी भी मानते। गाड इज टत्र्थ भी मानते। तो बाप द्वारा सत्यता की अथार्टी प्राप्त हो गई है। यह भी वर्सा मिला है ना! सत्यता की अथार्टी प्राप्त हो गई है। यह भी वर्सा मिला हैना। सत्यता की अथार्टी वाले का गायन भी सुना है, उसकी निशानी क्या होगी? सिन्धी में वहावत है - ‘‘सच ते बिठो नच''। और भी कहावत है - ‘‘सत्य की नाव हिलेगी लेकिन डूब नहीं सकती''। आपको भी हिलाने की कोशिश तो बहुत करते हैं ना! यह झूठ है, कल्पना है। लेकिन सच तो बिठो नच। आप सत्यता की महानता के नशे में सदा खुशी के झूल में झूलते रहते। खुशी में नाचते रहते हो ना। जितना वह हिलाने की कोशिश करते उतना ही क्या होता? आपके झूले को हिलाने से और ही ज्यादा झूलते हो। आपको नहीं हिलाते लेकिन झूले को हिलाते। और ही उसको धन्यवाद दो कि हम बाप के साथ झूलें, आप झुलाओ। यह हिलाना नहीं लेकिन झुलाना है। ऐसे अनुभव करते हो। हिलते नहीं हो लेकिन झूलते हो ना! सत्यता की शक्ति सारी प्रकृति को ही सतोप्रधान बना देती है। युग को सतयुगी बना देती है। सर्व आत्माओं के सदगति की तकदीर बना देती है। हर आत्मा आपके सत्यता की शक्ति द्वारा अपने-अपने यथा शक्ति अपने धर्म में, अपने समय पर गति के बाद सदगति में ही अवतरित होंगे। क्योंकि विधि-विधाताओं द्वारा संगमयुग पर अन्त तक भी बाप को याद करने की विधि का सन्देश जरूर मिलना है। फिर किसको वाणी द्वारा, किसको चित्रों द्वारा, किसको समाचारों द्वारा, किसको आप सबके पावरफुल वायब्रेशन द्वारा, किसको अन्तिम विनाश लीला की हलचल द्वारा, वैराग वृत्ति के वायुमण्डल द्वारा। यह सब साइन्स के साधन आपके इस सन्देश देने के कार्य में सहयोगी होंगे।

संगम पर ही प्रकृति सहयोगी बनने का अपना पार्ट आरम्भ कर देगी। सब तरफ से प्रकृति-पति का और मास्टर प्रकृतिपति का आयजान करेगी। सब तरफ से आफरीन और आफर होगी। फिर क्या करेंगे? यह जो भक्ति में गायन है, हर प्रकृति के तत्व को देवता के रूप में दिखाया है। देवता अर्थात् देने वाला। तो अन्त में यह सब प्रकृति के तत्व आप सबको सहयोग देने वाले दाता बन जायेंगे। यह सागर भी आपको सहयोग देंगे। चारों ओर की सामग्री भारत की धरनी पर लाने में सहयोगी होंगे। इसलिए कहते हैं सागर ने रतनों की थालियाँ दी। ऐसे ही धरनी की हलचल सारी वैल्युबल वस्तु आप श्रेष्ठ आत्माओं के लिए एक स्थान भारत में इकठ्ठी कर देने में सहयोगी होगी। इन्द्र देवता कहते हैं ना! तो बरसात भी धरनी की सफाई के सहयोग में हाजिर हो जायेगी। इतना सारा किचड़ा आप तो नहीं साफ करेंगे। यह सारा प्रकृति का सहयोग मिलेगा। कुछ वायु उड़ायेगी, कुछ बरसात साथ ले जायेगी। अग्नि को तो जानते ही हो। तो अन्त में यह सब तत्व आप श्रेष्ठ आत्माओं को सहयोग देने वाले देवता बनेंगे। और सर्व आत्मायें अनुभव करेंगी। फिर भक्ति में जो अब सहयोग देने के कर्त्तव्य के कारण देवता बने उस कर्त्तव्य का अर्थ भूल, देवताओं का मनुष्य रूप दे देते हैं। जैसे सूर्य है तत्व लेकिन मनुष्य रूप दे दिया है। तो समझा विधि-विधाता बन क्या कार्य करना है।

उन्हों की है विधान सभा और यह है विधि-विधाताओं की सभा। वहाँ सभा के मेम्बर होते हैं। यहाँ अधिकारी महान आत्मायें होती हैं। तो समझा सत्यता की महानता कितनी है! सत्यता पारस के समान है। जैसे पारस लोहे को भी पारस बना देता है। आपके सत्यता की शक्ति आत्मा को, प्रकृति को, समय को, सर्व सामग्री को, सबको सतोप्रधान बना देती है। तमोगुण का नाम निशान समाप्त कर देती है। सत्यता की शक्ति आपके नाम को, रूप को सत् अर्थात् अविनाशी बना देती है। आधाकल्प चैतन्य रूप, आधा कल्प चित्र रूप। आधा कल्प प्रजा आपको नाम गायेगी, आधा कल्प भक्त आपका नाम गायेंगे। आपका बोल सत् वचन के रूप में गाया जाता है। आज तक भी एक-आधा वचन लेने से अपने को महान अनुभव करते। आपकी सत्यता की शक्ति से आपका देश भी अविनाशी बन जाता है। वेष भी अविनाशी बन जाता है। आधाकल्प देवताई वेष में रहेंगे, आधाकल्प देवताई वेष का यादगार चलेगा। अब अन्त तक भी भक्त लोग आपके चित्रों को भी ड्रेस से सजाते रहते हैं। कर्त्तव्य और चरित्र - यह सब सत् हो गये। कर्त्तव्य का यादगार भागवत बना दिया है। चरित्रों की अनेक कहानियाँ बना दी हैं। यह सब सत्य हो गये। किस कारण? सत्यता की शक्ति कारण। आपकी दिनचर्या भी सत् हो गई है। भोजन खाना, अमृत पीना सब सत् हो गया है। आपके चित्रों को भी उठाते हैं, बिठाते हैं, परिक्रमा लगवाते हैं, भोग लगाते हैं, अमृत रखते और पीते हैं। हर कर्त्तव्य वा हर कर्म का यादगार बन गया है। इतनी शक्ति को जानते हो? इतनी अथार्टी से सबको चैलेन्ज करते हो वा सेवा करते हो? नये-नये आये हैं ना! ऐसे तो नहीं समझते हम थोड़े हैं, लेकिन आलमाइटी अथार्टी आपका साथी है। सत्यता की शक्ति वाले हो। पाँच नहीं हो लेकिन विश्व का रचयिता आपका साथी है। इसी फलक से बोलो। मानेंगे, नहीं मानेंगे, कहें, कैसे कहें। यह संकल्प तो नहीं आते जहाँ सत्यता है, सत् बाप है वहाँ सदा विजय है। निश्चय के आधार पर अनुभवी मूर्त्त बन बोलो तो सफलता सदा आपके साथ है।

आप सब आये हैं तो बापदादा भी आये हैं, आपको भी आना पड़ता तो बापदादा को भी आना पड़ता। बाप को भी परकाया में बैठना पड़ता है ना! आपको ट्रेन में बैठना पड़ता, बाप को परकाया में बैठना पड़ता। तकलीफ मालूम पड़ती है क्या? अभी तो आपके पोत्रे-धोत्रे सभी आने वाले हैं। भक्त भी आने वाले हैं, फिर क्या करेंगे? भक्त तो आपको बैठने ही नहीं देंगे। अभी तो फिर भी आराम से बैठे हो, फिर आराम देना पड़ेगा। फिर भी तीन पैर पृथ्वी तो मिली है ना। भक्त तो खड़े-खडे तपस्या करते हैं। आपके चित्रों को देखने लिए भक्त क्यू लगाते। तो आप भी अनुभव तो करो। सीजन का फल खाने आये हो ना! नये-नये बच्चों को बापदादा विशेष स्नेह दे रहे हैं। क्योंकि बापदादा जानते हैं कि यह लास्ट वाले भी फास्ट जायेंगे। सदा लगन द्वारा विघ्न विनाशक बन विजयी रतन बनेंगे। जैसे लौकिक रूप में भी बड़ों से छोटे दौड़ लगाने में होशियार होते हैं। तो आप सब भी रेस में खूब दौड़ लगाकर नम्बर वन में आ जाओ। बापदादा ऐसे उमंग उत्साह रखने वाले बच्चों के सदा सहयोगी हैं। आपका योग बाप का सहयोग। दोनों से जितना चाहो उतना आगे बढ़ सकते हो। अभी चांस है फिर यह भी समय समाप्त हो जायेगा।

ऐसे सदा सत्यता की महानता में रहने वाले, सर्व आत्माओं के विधि-विधाता, सदगति दाता, विश्व को स्व के सत्यता की शक्ति द्वारा सतोप्रधान बनाने वाले, ऐसे बापदादा के सदा स्नेही और सहयोगी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ:-

1- सदा स्वयं को शक्तिशाली आत्मा अनुभव करते हो?शक्तिशाली आत्मा का हर संकल्प शक्तिशाली होगा। हर संकल्प में सेवा समाई हुई हो। हर बोल में बाप की याद समाई हो। हर कर्म में बाप जैसा चरित्र समाया हुआ हो। तो ऐसी शक्तिशाली आत्मा अपने को अनुभव करते हो? मुख में भी बाप, स्मृति में भी बाप और कर्म में भी बाप के चरित्र - इसको कहा जाता है बाप समान शक्तिशाली। ऐसे हैं? एक शब्द ‘‘ बाबा'', लेकिन यह एक ही शब्द जादू का शब्द है। जैसे जादू में स्वरूप परिवर्त्तन हो जाता वैसे एक बाप' शब्द समर्थ स्वरूप बना देता है। गुण बदल जाते, कर्म बदल जाते, बोल बदल जाते। यह एक शब्द ही जादू का शब्द है। तो सभी जादूगर बने हो ना! जादू लगाना आता है ना! बाबा बोला और बाबा का बनाया, यह है जादू।

2. वरदान भूमि पर आकर वरदाता द्वारा वरदान पाने का भाग्य बनाया है? जो गायन है - भाग्य विधाता बाप द्वारा जो चाहो वह अपने भाग्य की लकीर खींच सकते हो। यह इस समय का वरदान है। तो वरदान के समय को, वरदान के स्थान का कार्य में लाया? क्या वरदान लिया? जैसे बाप सम्पन्न है इसलिए सागर कहा जाता है। सागर का अर्थ ही है ‘‘सम्पन्न''। बाप समान बनने का दृढ़ संकल्प किया? बच्चे के लिए गाया जाता है - बालक सो मालिक। तो बालक बाप का मालिक है। मालिकपन के नशे में रहने के लिए बाप समान स्वयं को सम्पन्न बनाना पड़े। बाप की विशेषता है सर्व शक्तिवान अर्थात् सर्व शक्तियों की विशेषता है। तो जो बालक सो मालिक है उनमें भी सर्वशक्तियाँ होंगी। एक शक्ति की भी कमी नहीं। अगर एक भी शक्ति कम रही तो शक्ति- वान कहेंगे, सर्वशक्तिवान नहीं। तो कौन हो? सर्वशक्तिवान अर्थात् जो चाहे वह कर सके, हर कर्मेन्द्रिय अपने कंट्रोल में हो। संकल्प किया और हुआ, क्योंकि मास्टर हैं ना! तो आप सब स्वराज्य अधिकारी हो ना! पहले स्व-राज्य फिर विश्व का राज्य।

देहली राजधानी में रहने वाले स्व-राज्यधारी हैं ना? यह तो बहुत काल का संस्कार चाहिए। अगर अन्त में बनेंगे तो विश्व का राज्य भी कब मिलेगा? अगर विश्व का राज्य आदि में लेना है तो आदिकाल से यह भी संस्कार चाहिए। बहुत समय का राज्य, बहुत समय के संस्कार। मास्टर सर्वशक्तिवान के आगे कोई भी बड़ी बात नहीं। दिल्ली निवासी अभी क्या सोंच रहे हैं? कि सोचते हो महायज्ञ किया, बस। चढ़ती कला की ओर जा रहे हो ना। जो किया उससे और आगे । आगे चलते-चलते अपना राज्य हो जायेगा। अभी तो दूसरे के राज्य में अपना कार्य करना पड़ता है, फिर अपना राज्य हो जायेगा। प्रकृति भी आपको आफर करेगी। प्रकृति जब आफर करेगी तो आत्मायें क्या करेंगी? आत्मायें तो सिर झुकायेंगी। तो क्या करेंगे अभी? फिर भी जो किया ड्रामा अनुसार हिम्मत हुल्लास से कार्य सफल किया। उसके लिए बापदादा हिम्मत के ऊपर खुश हैं। मेहनत जो की वह तो जमा हो गया। वर्त्तमान भी बना और भविष्य भी बना।

सेवा का बीज अविनाशी होने के कारण कुछ आवाज निकला और कुछ निकलता रहेगा। बीज पड़ने से अनेक आत्माओं को गुप्त रूप से सन्देश मिला। सबकी थकावट तो उतर गई है ना! फिर भी बापदादा का स्नेह सहयोग सदा मिलने से आगे बढ़ते रहेंगे। दिल्ली को भी यह वरदान मिला हुआ है। श्रेष्ठ कर्म के निमित्त बनने का। फिर भी सेवा की जन्म-भूमि है ना! सेवा की हिस्ट्री में नाम तो जाता है ना? और अनेकों को सेवा के लिए साधन मिल जाता है। सेवा की भूमि में रहने वाले तो वरदानी हो गये ना! मेहनत बहुत अच्छी की।

मुरली का सार

1. सत्यता की महानता है, सत्यता की मान्यता है। सत् बाप, सत् शिक्षक तथा सत् गुरू आकर आत्मा का, परमात्मा का, सृष्टि चक्र का सत्य परिचय देकर सत्यता की शक्ति भरते हैं।

2. सत्यता की शक्ति प्रकृति को सतोप्रधान, युग को सतयुग बना देती है। सर्व आत्माओं के सदगति की तकदीर बना देती है।।

3. देवता अर्थात् देने वाला। अन्त में सब प्रकृति के तत्व आप सबको सहयोग देने वाले देवता बन जायेंगे। भक्ति में सहयोग देने के कर्त्तव्य के कारण तत्वों को मनुष्य का रूप दे देते हैं।



13-04-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"रूहे-गुलाब की विशेषता सदा रूहानी वत्ति"

आज बागवान अपने रूहे-गुलाब बच्चों को देख रहे हैं। चारों ओर के रूहे गुलाब बच्चे बापदादा के सम्मुख हैं। साकार में चाहे कहाँ भी बैठे हैं ( आज आधे भाई बहन नीचे मुरली सुन रहे हैं) लेकिन बापदादा उन्हों को भी अपने नयनों के सामने ही देख रहे हैं। अभी भी बापदादा बच्चों के संकल्प को सुन रहे हैं। सभी सम्मुख मुरली सुनने चाहते हैं लेकिन नीचे होते हुए भी बापदादा बच्चों को सामने देख रहे हें। हरेक रूहे-गुलाब की खुशबू बापदादा के पास आ रही है। हैं तो सब नम्बरवार लेकिन इस समय सभी एक बाप दूसरा न कोई इसी रूहानी खुशबू में नम्बरवन स्थिति में हैं। इसलिए रूहानी खुशबू वतन तक भी पहुँच रही है। रूहानी खुशबू की विशेषताएं जानते हो? किस आधार पर रूहानी खुशबू सदाकाल एकरस और दूर दूर तक फैलती है अर्थात् प्रभाव डालती है? इसका मूल आधार है रूहानी वृत्ति। सदा वृत्ति में रूह, रूह को देख रहे हैं, रूह से ही बोल रहे हैं। रूह ही अलग अलग अपना पार्ट बजा रहे हैं। मैं रूह हूँ, सदा सुप्रीम रूह की छत्रछाया में चल रहा हूँ। मैं रूह हूँ - हर संकल्प भी सुप्रीम रूह की श्रीमत के बिना नहीं चल सकता है। मुझ रूह का करावनहार सुप्रीम रूह है। करावनहार के आधार पर मैं निमित्त करने वाला हूँ। मैं करनहार वह करावनहार है। वह चला रहा, मैं चल रहा हूँ। हर डायरेक्शन पर मुझ रूह के लिए संकल्प, बोल और कर्म में सदा हजूर हाजिर हैं। इसलिए हजूर के आगे सदा मुझ रूह की जी हजूर है। सदा रूह और सुप्रीम रूह कम्बाइन्ड हूँ। सुप्रीम रूह मुझ के बिना रह नहीं सकते और मैं भी सुप्रीम रूह के बिना अलग नहीं हो सकता। ऐसे हर सेकेण्ड हजूर को हाजिर अनुभव करने वाले सदा रूहानी खुशबू में अविनाशी और एकरस रहते हैं। यह हैं नम्बरवन खुशबूदार रूहे-गुलाब की विशेषता।

 ऐसे की दृष्टि में भी सदा सुप्रीम रूह समाया हुआ होगा। वह बाप की दृष्टि में और बाप उनकी दृष्टि में समाया हुआ होगा। ऐसे रूहेगुलाब को देह वा देह की दुनिया वा पुरानी देह की दुनिया की वस्तु, व्यक्ति देखते हुए भी नहीं दिखाई देंगे। देह द्वारा बोल रहा हूँ लेकिन देखता रूह को है, बोलता रूह से है। क्योंकि उनके नयनों की दुनिया में सदा रूहानी दुनिया है, फरिश्तों की दुनिया है, देवताओं की दुनिया है। सदा रूहानी सेवा में रहते। दिन है वा रात है लेकिन उनके लिए सदा रूहानी सेवा है। ऐसे रूहे-गुलाब की सदा रूहानी भावना रहती कि सर्व रूहें जमारे समान वर्से के अधिकारी बन जाएं। परवश, आत्माओं को बाप द्वारा प्राप्त हुई शक्तियों का सहयोग दे उन्हों को भी अनुभव करावें। किसी की भी कमजोरी और कमी को नहीं देखेंगे। अपने धारण किये हुए गुणों का, शक्तियों का सहयोग देने वाला दाता बनेंगे। ब्राह्मण परिवार के लिए सहयोगी, अन्य आत्माओं के लिए महादानी। यह ऐसा है, यह भावना नहीं। लेकिन इसको भी बाप समान बनाऊं, यह शुभ भावना। साथ साथ यही श्रेष्ठ कामना। यह सर्व आत्मायें कंगाल, दु:खी, अशान्त से सदा शान्त, सुख-रूप मालामाल बन जाएं। सदा स्मृति में एक ही धुन होगी कि विश्व परिवर्त्तन जल्दी से जल्दी कैसे हों - इसको कहा जाता है रूहे-गुलाब।

आज महाराष्ट्र का टर्न है। महाराष्ट्र वाले सदा एक ही महा शब्द को याद रखें तो सब महान अर्थात् नम्बरवन बन जाएं। महाराष्ट्र वालों का क्या लक्ष्य है? महान बनना। स्व को भी महान बनाना है, विश्व को भी महान बनाना है। यही सदा स्मृति में रहता है ना!

और कर्नाटक वाले सदा नाटक में हीरो पार्ट बजाने वाले हैं। बनना भी हीरो है, बनाना भी हीरो है। आंध्रा अर्थात् अन्धियारा मिटाने वाले। सब प्रकार का अंधेरा। आंध्रा में गरीबी का अंधकार भी ज्यादा है। तो गरीबी को मिटाए सर्व को सम्पन्न बनाना है। तो आंध्रा वाले विश्व को सदा साहूकार बनाने वाले हैं। जो न तन की गरीबी, न धन की गरीबी, न मन के शक्तियों की गरीबी। तन-मन-धन तीनों ही गरीबी को मिटाने वाले। इस अंधकार को मिटाकर सदा रोशनी लाने वाले। तो आंध्रा निवासी हो गये - मास्टर ज्ञान सूर्य। मद्रास अर्थात् सदा रास में मगन रहने वाले। संस्कार मिलन की भी रास, खुशी की भी रास। और फिर स्थूल में भी रास करने वाले। मद - मगन को भी कहा जाता है। तो सदा इसी रास में मगन रहने वाले। समझा सभी का आक्यूपेशन क्या है। अब तो सबसे मिले ना। मिलना अर्थात् लेना। तो ले लिया ना। आखिर तो नयन मुलाकात तक पहुँचना है। बापदादा के लिए नीचे वा ऊपर बैठे हुए सब वी.आई.पी. हैं।

टीचर्स के साथ- बापदादा सर्व निमित्त बने हुए सेवाधारियों को किस रूप में देखना चाहते हैं, यह जानते हो? बापदादा सर्व सेवाधारि यों को सदा अपने समान, जैसे बाप कर्त्तव्य के कारण अवतरित होते हैं वैसे हर सेवाधारी सेवा के प्रति अवतरित होने वाले सब अवतार बन जाएं। एक अवतार ड्रामा अनुसार सृष्टि पर आता तो कितना परिवर्त्तन कर लेता। वह भी आत्मिक शक्ति वाले और यह इतने परमात्म-शक्तिस्वरूप चारों ओर अवतार अवतरित हो जाएं तो क्या हो जायेगा? सहज परिवर्त्तन हो जायेगा। जैसे बाप लोन लेता है, बंधन में नहीं आता, जब चाहे आये, जब चाहे चलें जायें, निर्बन्धन है। ऐस्ो सब सेवाधारी शरीर के संस्कारों के, स्वभाव के बधनों से मुक्त, जब चाहें जैसे चाहें वैसा संस्कार अपना बना सकें। जैसे देह को चलाने चाहें वैसे चला सकें। जैसा स्वभाव बनाने चाहे वैसा बना सकें। ऐसा नहीं कि मेरा स्वभाव ही ऐसा है, क्या करूँ? मेरा संस्कार,मेरा बंधन ऐसा है नहीं। लेकिन ऐसे निर्बन्धन जैसे बाप निर्बन्धन है। कई सोचते हैं हम तो जन्म-मरण के चक्र के कारण शरीर के बंधन में हैं, लेकिन यह बंधन है क्या? अब तो शरीर आपका है ही नहीं, फिर बंधन आपका कहाँ से आया? जब मरजीवा बन गये तो शरीर किसका हुआ? तनमन- धन तीनों अर्पण किया है या सिर्फ दो को अर्पण किया, एक को नहीं। जब मेरा तन ही नहीं, मेरा मन ही नहीं तो बंधन हो सकता है। यह भी कमजोरी के बोल हैं - क्या करें जन्म जन्म के संस्कार हैं, शरीर का हिसाब किताब है। लेकिन अब पुराने जन्म का पुराना खाता संगमयुग पर समाप्त हुआ। नया शुरू किया। अभी उधर का पुराना रजिस्टर समाप्त हुआ। नया शुरू किया। अभी उधर का पुराना रजिस्टर समाप्त हो गया या अभी तक सम्भाल कर रखा है? खत्म नहीं किया है क्या? तो समझा बापदादा क्या देखना चाहते हैं?

इतने सब अवतार प्रकट हो जाएं तो सृष्टि पर हलचल मच जायेगी ना! अवतार अर्थात् ऊपर से आने वाली आत्मा। मूलवतन की स्थिति में स्थित हो ऊपर से नीचे आओ। नीचे से ऊपर नहीं जाओ। है ही परमधाम निवासी आत्मा, सतोप्रधान आत्मा। अपने आदि, अनादि स्वरूप में रहो। अन्त की स्मृति में नहीं रहो अनादि, आदि फिर क्या हो जायेगा? स्वयं भी निर्बन्धन और जिन्हों की सेवा केनिमित्त बने हो वह भी निर्बन्धन हो जायेंगे। नहीं तो वह भी कोई न कोई बंधन में बंध जाते हैं। स्वयं निर्बन्धन अवतरित हुई आत्मा समझ कर कर्म करो, तो और भी आपको फालो करेंगे। जैसे साकार बाप को देखा, क्या याद रहा? बाप के साथ मैं भी कर्मातीत स्थिति में हूँ या देवताई बचपन रूप में। अनादि, आदि रूप सदा स्मृति में रहा तो फालो फादर। टीचर्स से पूछने की जरूरत ही नहीं कि सन्तुष्ट हो। टीचर से पूछना माना टीचर की इनसल्ट करना। इसलिए बापदादा इनसल्ट तो नहीं कर सकते। बाप समान निमित्त हो। निमित्त का अर्थ ही है - सदा करन-करावनहार के स्मृति स्वरूप। यही स्मृति समर्थ स्मृति है। करनहार हूँ लेकिन करन-करावनहार के आधार पर करनहार हूँ। निमित्त हूँ लेकिन निमित्त बनाने वाले को भूलना नहीं। मैं-पन नहीं, सदा बापदादा ही मुख में, मन में, कर्म में रहे - यही पाठ पक्का है ना!

पार्टियों के साथ –

1. अमृतवेले से लेकर रात तक जो भी बाप ने श्रेष्ठ मत दी है उसी मत के अनुसार सारी दिनचर्या व्यतीत करते हो? उठना कैसे है, चलना कैसे है, खाना कैसे है, कार्य व्यवहार कैसे करना है, सबके प्रति श्रेष्ठ मत मिली हुई है। उसी श्रेष्ठ मत के प्रमाण हर कार्य करते हो?

 हर कर्म करते हुए अपनी स्थिति श्रेष्ठ रहे उसके लिए कौन सा एक शब्द सदा स्मृति में रखो - ट्रस्टी। अगर कर्म करते ट्रस्टीपन की स्मृति रहे तो स्थिति श्रेष्ठ बन जायेगी। क्योंकि ट्रस्टी बनकर चलने से सारा ही बोझ बाप पर पड़ जाता है, आप सदा डबल लाइट बन जाते। डबल लाइट होने के कारण हाई जम्प दे सकते हो। अगर गृहस्थी समझते तो दुम्ब लग जाता। सारा बोझ अपने पर आ जाता। बोझ वाला हाई जम्प दे नहीं सकता। और ही साँस फूलता रहेगा। ट्रस्टी समझने से स्थिति सदा ऊंची रहेगी। तो सदा ट्रस्टी होकर रहने की श्रेष्ठ मत को स्मृति में रखो।

2. बापदादा द्वारा सभी बच्चों को कौन सी नम्बरवन श्रीमत मिली हुई है? नम्बरवन श्रीमत है कि अपने को आत्मा समझो और आत्मा समझकर बाप को याद करो। सिर्फ आत्मा समझने से भी बाप की शक्ति नहीं मिलेगी। याद न ठहरने का कारण ही है कि आत्मा समझकर याद नहीं करते हो। आत्मा के बजाए अपने को साधारण शरीरधारी समझकर याद करते हो। इसलिए याद टिकती नहीं। वैसे भी कोई दो चीजों को जब जोड़ा जाता है तो पहले समान बनाते हैं। ऐसे ही आत्मा समझकर याद करो तो याद सहज हो जायेगी, क्योंकि समान हो गये ना! यह पहली श्रीमत ही प्रैक्टिकल में सदा लाते रहो। यही मुख्य फाउन्डेशन है। अगर फाउन्डेशन कच्चा होगा तो आगे चढ़ती कला नहीं हो सकती। अभी अभी चढ़ती कला, अभी अभी नीचें आ जायेंगे। मकान का भी फाउन्डेशन अगर पक्का न हो तो दरार पड़ जाती है या गिर जाता है। ऐसे ही अगर यह फाउन्डेशन मजबूत नहीं तो माया नीचे गिरा देगी। इसलिए फाउन्डेशन सदा पक्का। सहज बात के ऊपर भी बार-बार अटेन्शन। अगर अटेन्शन नहीं देते तो सहज बात भी मुश्किल हो जाती।

3. सदा यह नशा रहता है कि हम ही कल्प-कल्प के अधिकारी आत्मायें हैं हम ही थे हम ही हैं, हम ही कल्प कल्प होंगे। कल्प पहले का नजारा ऐसे ही स्पष्ट स्मृति में आता है? आज ब्राह्मण हैं, कल देवता बनेंगे। हम ही देवता थे यह नशा रहता है? हम सो, सो हम यह मंत्र सदा याद रहता है? इसी एक नशे में रहो तो सदा जैसे नशे में सब बातें भूल जाती हैं, संसार ही भूल जाता है, ऐसे इस में रहने से यह पुरानी दुनिया सहज ही भूल जायेगी। ऐसी अपनी अवस्था अनुभव करते हो? तो सदा चेक करो - आज ब्राह्मण कल देवता, यह कितना समय नशा रहा। जब व्यवहार में जाते तो भी यह नशा कायम रहता कि हल्का हो जाता है? जो जैसा होता है उसको वह याद रहता है। जैसे प्रेजीडेन्ट है वह कोई भी काम करते यह नहीं भूलता कि मैं प्रेजीडेन्ट हूँ। तो आप भी सदा अपनी पोजीशन याद रखो। इससे सदा खुशी रहेगी, नशा रहेगा। सदा खुमारी चढ़ी रहे। हम ही देवता बनेंगे, अभी भी ब्राह्मण चोटी हैं, ब्राह्मण तो देवताओं से भी ऊंच है। इस नशे को माया कितना भी तोड़ने की कोशिश करे लेकिन तोड़ न सके। माया आती तभी है जब अकेला कर देती है। बाप से किनारा करा देती है। डाकू भी अकेला करके फिर वार करते हैं ना। इसलिए सदा कम्बाइन्ड रहो कभी भी अकेले नहीं होना। मैं और मेरा बाबा - इसी स्मृति में कम्बाइन्ड रहो।

4. सभी अपने को महान भाग्यशाली समझते हो ना? देखो कितना बड़ा भाग्य है जो वरदान भूमि पर वरदानों से झोली भरने के लिए पहुँच गये हो। ऐसा भाग्य विश्व में कितनी आत्माओं का है? कोटों में कोई और कोई में भी कोई! तो यह खुशी सदा रखो कि जो सुनते थे, वर्णन करते थे, कोटों में कोई, कोई में भी कोई आत्मा, वह हम ही है। इतनी खुशी है? सदा इसी खुशी में नाचते रहो - वाह मेरा भाग्य! यही गीत गाते रहो और इसी गीत के साथ खुशी में नाचते रहो। यह गीत गाना तो आता है ना - वाह रे मेरा भाग्य और वाह मेरा बाबा! वाह ड्रामा वाह! यह गीत गाते रहो। बहुत लकी हो। बाप तो सदा हर बच्चे को लवली बच्चा ही कहते हैं। तो लवली भी हो, लकीएस्ट भी हो। कभी अपने को साधारण नहीं समझना, बहुत श्रेष्ठ हो। भगवान आपका बन गया तो और क्या चाहिए! जब बीज को अपना बना दिया तो वृक्ष तो आ ही गया ना! तो सदा इसी खुशी में रहो। आपकी खुशी को देख दूसरे भी खुशी में नाचते रहेंगे।


 

 

 

 

 

 

 

 


15-04-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"नम्बरवन तकदीरवान की विशेषताएं"

आज भाग्य विधाता बाप अपनी श्रेष्ठ भाग्यशाली आत्माओं को देख रहे हैं। हरेक ने अपने-अपने तदबीर द्वारा कैसे तकदीर की लकीर खींची है। नम्बरवार पुरूषार्थ अनुसार कोई ने नम्बरवन तकदीर बनाई है, कोई ने सेकेण्ड नम्बर में बनाई है। पहले नम्बर की तकदीर जिसमें सर्व प्राप्ति स्वरूप हैं, चाहे सर्वगुणों में, चाहे ज्ञान खज़ाने में, चाहे सर्व शक्तियों में, सदा प्राप्तियों के झूले में झूलते हैं। अभी से अप्राप्त कोई नहीं वस्तु ऐसे तकदीरवान के जीवन में। हर सेकेण्ड, हर श्वाँस, हर संकल्प अखुट खज़ाने प्राप्त करने वाले। ऐसी आत्मा को जीवन के हर कदम में चढ़ती कला की अनुभूति होती है। चारों ओर अनेक प्रकार के खज़ाने ही खज़ाने दिखाई देते। हर आत्मा अपने अति स्नेही, अनादि स्मबन्ध के स्वरूप से अपनी लगती है। हर आत्मा एक बाप की सन्तान होने के कारण भाई-भाई लगती है। हर आत्मा के प्रति यही शुभभावना, शुभ कामना इमर्ज रूप में रहती है कि यह सर्व आत्मायें सदा सुखी और शान्त हो जायें। बेहद का परिवार और बेहद का स्नेह होता। हद में दु:ख होता है, बेहद में दु:ख नहीं होता। क्योंकि बेहद में आने से बेहद का सम्बन्ध, बेहद का ज्ञान, बेहद की वृत्ति, बेहद का रूहानी स्नेह दु:ख को समाप्त कर सुख स्वरूप बना देते हैं। रूहानी नालेज के कारण, हर आत्मा की कर्म कहानी के पार्ट के संस्कारों की लाइट और माइट होने के कारण जो भी देखेंगे, सुनेंगे, सम्पर्क में, सम्बन्ध में आयेंगे, हर कर्म में अति न्यारे और अति प्यारे होंगे। न्यारे और प्यारे बनने की समानता होगी। किस समय प्यारा बनना है, किस समय न्यारा बनना है - यह पार्ट बजाने की विशेषता आत्मा को सदा सुखी और शान्त बना देती है। रूहानी सम्बन्ध होने के कारण, बुद्धि सदा एकाग्र रहती है। हलचल में नहीं आते हैं। अभी दु:खी, अभी सुखी यह हलचल समाप्त हो जाती है। साथ-साथ एकाग्रता के कारण निर्णय शक्ति, समाने की शक्ति, सामना करने की शक्ति, सर्व शक्तियाँ हर आत्मा के पार्ट और अपने पार्ट को अच्छी तरह से जानकर पार्ट में आते हैं। इसलिए अचल और साक्षी रहते हैं। ऐसी तकदीरवान आत्मा हर संकल्प और कर्म को, हर बात को त्रिकालदर्शी की स्थिति में स्थित हो देखती है। इसलिए क्वेश्चन मार्क समाप्त हो जाता। यह क्यों, यह क्या - यह क्वेश्चन मार्क है। सदा फुल स्टाप। सभी को तीन बिन्दी का तिलक लगा हुआ है ना? उसमें आश्चर्य नहीं लगता। नाथिंग न्यू। क्या हुआ - नहीं। क्या करना है - यह है नम्बरवन तकदीरवान।

आप सब नम्बरवन तकदीरवान की लिस्ट में हो ना! सबको फर्स्टक्लास पसन्द है ना? सब आये ही हैं बाप से पूरा वर्सा लेने के लिए। चन्द्रवंशी बनने के लिए तैयार हो? सूर्यवंशी अर्थात् फर्स्टक्लास हो गया। सदा अपनी श्रेष्ठ तकदीर को स्मृति में रख समर्थ स्वरूप में रहो। ऐसे ही अनुभव करते हो ना! जो बाप के गुण वह जमारे गुण। सदा अपना अनादि असली स्वरूप स्मृति में रहता है ना! माया के नकली स्वरूप के स्वाँग तो नहीं बन जाते हो? जैसे ड्रामा करते हो तो नकली फेस लगा देते हो ना! जैसा गुण जैसा कर्त्तव्य वैसा ही फेस लगा देते हैं। तो नकली स्वरूप पर हँसी आती है ना। ऐसे माया भी नकली गुण और कर्त्तव्य का स्वरूप बना देती है। किसको क्रोधी, किसको लोभी बना देती है। किसको दु:खी, किसको अशान्त। लेकिन असली स्वरूप इन बातों से परे है। तो सदा उसी स्वरूप में स्थित रहो। अच्छा - जैसे भक्ति में लास्ट टुब्बी होती है ना। उसका भी महत्व होता है। तो यहाँ भी सभी सागर में टुब्बी (डुबकी) लगाने आये हैं वा समाने के लिए आये हैं। सब रीति रसम अभी से शुरू कर रहे हैं। संगम है ही मिलन युग, आज बेहद का दिन है।

हरेक जोन की अपनी-अपनी महिमा है। गुजरात अर्थात् जहाँ रात गुजर गई (अर्थात् बीत गई) सदा दिन है। सदा रोशनी ही रोशनी है। अन्धकार मिट गया। यू0 पी0 की विशेषता वहाँ चीनी बहुत बनती है। यू0 पी0 में सदा चारों ओर स्थूल और सूक्ष्म मीठा ही मीठा है।

राजस्थान तो है ही विश्व के नये राज्य का फाउन्डेशन डालने वाला। राजस्थान में ही महान तीर्थ है। राजस्थान की विशेषता है क्योंकि राजस्थान ही बापदादा की कर्म भूमि, चरित्रभूमि है। राजस्थान की महिमा सदा सर्वश्रेष्ठ है।

पंजाब वाले सदा अकाल तख्तनशीन हैं। पंजाब वालों को अकालतख्त कब भूलता नहीं।सदा अकालमूर्त्त बाप के साथ अकाल स्वरूप रहते हैं। दिल्ली है दिलाराम की दिल लेने वाली। नाम भी दिल्ली है - दिल ली। तो बापदादा की दिल क्या है? विश्व पर सदा के लिए सुख और शान्ति का झण्डा लहर जाए। सदा चैन की बंसुरी बजती रहे। तो देहली वालों ने इस लक्ष्य को लेकर महा- यज्ञ का महा कर्त्तव्य भी किया। सदा सर्व के सहयोग की अंगुली से कि हम सब एक हैं - यही नारा विश्व को बुलन्द आवाज से सुनाया। देहली में सभी का हक है। क्योंकि सब राज्य-अधिकारी बन रहे हो ना! तो सेवा के नये-नये कार्य में दिल लेने वाले।

बाम्बे को गवर्मेन्ट भी जैसे सुन्दर बना रही है, विस्तार कर रही है, ऐसे ही पाण्डवों की सेवा में भी सेवा का विस्तार अच्छा हुआ,सह- योगी और अधिकारी दोनों ही प्रकार की आत्मायें सेवा के विस्तार के लिए अच्छी निमित्त बनी हुई हैं। वरदान मिला हुआ है ना!

मध्य प्रदेश में एक निराकार बाप की यादगार अच्छी है। ऐसे ही ब्राह्मण आत्माओं में भी एक बाप से लगन लगाने वाले, एक नम्बर में आने वाले इस लगन में रहने वालों की अच्छी रेस चल रही है। विधि भी है और वृद्धि भी है। अभी तो सब की विशेषतायें सुनी ना। सभी की इकट्ठी टुब्बी हो गई ना।! ज्ञान सागर और नदियों का मिलन हो गया। मिलना अर्थात् लेना। खज़ाना ले लिया ना! श्रेष्ठ तकदीर की लकीर खींच गई ना!

बापदादा का सदा एक सलोगन याद रखना कि ‘‘सदा खुश रहना है और सर्व को सदाखुश करना है। चारों ओर अब खुशी के बाजे बजाओ। क्योंकि हो ही खुशनशीब आत्मायें।''

ऐसे श्रेष्ठ तकदीरवान, सदा सर्व खुशियों के खज़ाने से सम्पन्न सर्व को सुख का रास्ता बताने वाले, मास्टर सुख दाता, सदा सर्व के संकट मोचन, विघ्न विनाशक - ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

दीदी जी के साथ :- महावीरों की श्रेष्ठ सेवा का स्वरूप कौन सा है? जैसे और सब शक्तियाँ चित्र में भी दिखाई हुई हैं। इन सब शक्तियों में विशेष शक्ति सेवा के अर्थ कौन-सी है? सभी वाणी द्वारा, भिन्न-भिन्न साधनों द्वारा, प्लैन्स प्रोग्राम द्वारा तो सेवा कर रहे हैं। आप लोगों की विशेष सेवा, कौन-सी है? जैसे इसी पुरानी सृष्टि और हिस्ट्री में है - पहले जमाने में पंछियों द्वारा सन्देश भेजते थे। जो सन्देश देकर फिर वापिस आ जाते थे। आपकी सेवा कौन-सी है। वह पक्षियों द्वारा सन्देश भेजते थे आप संकल्प शक्ति द्वारा किसी भी आत्मा के प्रति सेवा कर सकते हो। संकल्प का बटन दबाया औरवहाँ सन्देश पहुँचा। जैसे अन्त: वाहक शरीर द्वारा सहयोग दे सकते हैं वैसे संकल्प की शक्ति द्वारा अनेक आत्माओं की समस्या का हल कर सकते हैं। अपने श्रेष्ठ संकल्प के आधार से उन्हों के व्यर्थ वा कमजोर संकल्प परिवर्त्तन कर सकते हो। यह विशेष सेवा समय प्रमाण बढ़ती रहेगी। समस्यायें ऐसी आयेंगी जो स्थूल साधन समाप्त हो जायेंगे। फिर क्या करना पड़े? इतना ही स्वयं के संकल्पों को पावरफुल बनाना है जो उसका प्रभाव दूर तक पहुँच सके। जितनी पावर होगी उतना दूर तक पहुँच सकेंगे। जैसे रोशनी में भी जितनी पावर ज्यादा होती है तो दूर तक फैलती है। तो संकल्प में भी इतनी शक्ति आ जायेगी जो आप ने यहाँ संकल्प किया और वहाँ फल मिला। जैसे बाप भक्ति का फल देते हैं वैसे आप श्रेष्ठ आत्मायें परिवार में सहयोग का फल देंगी और उस फल का भिन्न-भिन्न अनुभव करेंगे, यह भी सेवा आरम्भ हो जायेगी।

नये-नये को देखकर, परिवार की वृद्धि देखकर, सेवा की सिद्धि देख खुशी होती है ना! यह भी अपनी राजधानी बना रहे हो। राज- धानी में तो सब प्रकार की आत्मायें चाहिए। सम्पर्क वाली भी चाहिए। सेवाधारी भी चाहिए, सम्बन्धी चाहिए और अधिकारी भी चाहिए। अब तो आवाज बुलन्द हो रहा है। अभी अजुन सब यहाँ वहाँ देखकर कोशिश कर रहे हैं कि यह कहाँ का आवाज है। सुनाई देता है लेकिन अभी क्लियर सुनाई नहीं देता है। कहाँ से आवाज आ रहा है, किस तरफ जाना है वह नहीं समझते। क्लियर होगा जब वाणी के साथ-साथ श्रेष्ठ संकल्प की शक्ति उन्हों तक पहुँचे। तब आवाज क्लियर होगा। अभी अटेन्शन जाना शुरू हुआ है।

हर सीजन का अपना-अपना रौनक का पार्ट है। बापदादा के लिए तो सब सिकीलधे हैं, सब कार्य सहज, स्वत: ही वृद्धि को पाते रहेंगे। कितने बड़े परिवार वाले हो!

सतयुग के आदि की संख्या अपनी ऑखों से देखेंगे वा नहीं। वा स्वप्न में देखेंगे, वा समाचार पत्रों में सुनेंगे - क्या होगा? अभी तो एक हजार को भी रख नहीं सकते हो, फिर कहाँ रखेंगे? सब ब्राह्मण परिवार है। जिस दिन सब मधुबन भूमि पर इकट्ठे हो जायेंगे फि रतो हलचल शुरू हो जायेगी। संगठन का चित्र तो दिखाया है ना! कि सभी ने अंगुली दी। सूक्ष्म में तो देते ही हो लेकिन इतना बड़ा परिवार है, परिवार को देखना तो चाहिए ना! इसका प्लैन बनाया है। सतयुग में तो सिर्फ आपकी प्रजा होगी, यहाँ तो आपके भक्त भी आयेंगे। डबल वंशावली होगी। जब भक्तों को पता पड़ेगा कि जमारे इष्ट इकट्ठे हो गये हैं तो क्या करेंगे? वह भी पूछेंगे नहीं। पहुँच जायेंगे। जैसे अभी भी कई पहुँच जाते हैं ना! भक्त तो होते ही चात्रक हैं।

बापदादा शक्तियों का नाम बाला देखकर हर्षित हो रहे हैं। सर्वशक्तिवान गुप्त है और शक्तियाँ प्रत्यक्ष रूप में हैं। तो शिव, शक्तियों को देख हर्षित होते हैं। बापदादा वतन से भी देखते रहते हैं, कितनी क्यू लगती है, यह भी देखते रहते हैं । हरेक चैतन्य मूर्तियों के मन्दिर के बाहर क्यू तो शुरू हो गई है ना!

बच्चों की सेवा देख बापदादा भी हर्षित होते हैं। बाप से भी लाख गुणा ज्यादा प्रत्यक्ष रूप में सेवा के मैदान में आ गये हैं और भी आयेंगे।

पार्टियों के साथ - (यू.पी. जोन) सदा अपने को विश्वि के आगे एक यथार्थ रास्ता दिखाने वाले रूहानी पण्डे समझते हो? पण्डों का नाम क्या है? यू.पी. में पण्डे बहुत होते हैं ना! वह पण्डे क्या करते और आप क्या करते? वह कौन-सी यात्रा कराते और आप कौन-सी यात्रा कराते हो? आप ऐसी यात्रा कराते जो जन्म-जन्म के लिए यात्रा करने से छूट जायेंगे, और वह बार-बार यात्रा करते रहेंगे। तो सदा के लिए मुक्ति और जीवनमुक्ति की मंजिल पर पहुँचाने वाले पण्डे हो। आधे पर छोड़ने वाले, भटकाने वाले नहीं हो। मंजिल पर पहुँचाने वाले हो। जैसे बाप का कार्य है, बाप ने रास्ता दिखाया ना! वैसे बच्चों का भी वही कार्य। रास्ता भी वह दिखा सकते जो स्वयं जानते हो। रास्ता क्या है? ज्ञान और योग, इसी रास्ते द्वारा ही मुक्ति और जीवनमुक्ति की मंजिल पर पहुँच रहे हो। रास्ते के बीच जो साइडसीन आती हैं उसमें रूक तो नहीं जाते हो? क्योंकि माया साइडसीन के रूप में रोकने की कोशिश करती है, कोई-न-कोई परिस्थिति व बात ऐसे आयेगी जो रोकने की कोशिश करेगी लेकिन पक्के यात्री रूकते नहीं, मंजिल पर पहुँचाने वाले हो ना। अगर इतने सब पण्डे तैयार हो जायेंगे तो अनेक आत्माओं को रास्ता दिखा देंगे, विश्व की कितनी आत्मायें हैं, सबको रास्ता दिखाना है ना!

अलग-अलग ग्रुप से –

1. सभी सदा साक्षी स्थिति में स्थित हो हर पार्ट बजाते हो? साक्षीपन की स्टेज कायम रहती है? कभी साक्षी के बजाए पार्ट बजातेबजाते पार्ट में साक्षीपन की स्टेज को भूल तो नहीं जाते? जो साक्षी होगा वह कभी भी किसी पार्ट में चलायमान नहीं होगा। न्यारा होगा, प्यारा भी होगा। अच्छे में अच्छा, बुरे में बुरा ऐसे नहीं होगा। साक्षी अर्थात् सदा हर कार्य करते हुए कल्याण की वृत्ति में रहने वाले। जो कुछ हो रहा है उसमें कल्याण भरा हुआ है। अगर कोई माया का विघ्न भी आता तो उससे भी लाभ उठाकर, शिक्षा लेकर आगे बढ़ेगें, रूकेंगे नहीं। ऐसे हो? सीट पर बैठकर खेल देखते हो। साक्षीपन है सीट। इस सीट पर बैठकर ड्रामा देखो तो बहुत मजा आयेगा। सदा अपने को साक्षी की सीट पर सेट रखो, फिर वाह ड्रामा वाह! यही गीत गाते रहेंगे।

2. सभी तीव्र पुरूषार्थी हो ना? नये सो कल्प-कल्प के पुराने, पुराने समझने से अपना अधिकार ले लेंगे। ऐसे समझते हो कि हम कल्प-कल्प के अधिकारी हैं। लास्ट आते भी फास्ट जाना है, उसके लिए सहज साधन है- निरंतर याद। याद में अन्तर नहीं आना चाहिए। सदा कर्मयोगी। कर्म भी करो और याद में भी रहो। जो सदा कर्मयोगी की स्टेज पर रहते हैं वह सहज ही कर्मातीत हो सकते हैं। जब चाहें कर्म में आयें और जब चाहें न्यारे।

3. सदा सेवा के उमंग उत्साह में रहते हुए विश्व-कल्याण की वृत्ति में रहते हो? सदाविश्व-कल्याणकारी हूँ और सर्व का कल्याण करना है, यही वृत्ति रहती है? सदा यही वृत्ति रहे - इसी वृत्ति द्वारा विश्व का कल्याण कर सकते हो। चाहे वाणी द्वारा, चाहे वृत्ति द्वारा लेकिन सदा कल्याणकारी की स्मृति में रहो। जितना यह वृत्ति रहेगी उतना ही आगे बढ़ते जायेंगे। सेवा जितनी कोई करता है उतना औरों को खुशी का रिटर्न और स्वयं में भी खुशी की प्राप्ति का अनुभव होता है। औरों की सेवा नहीं है लेकिन प्राप्ति में वृद्धि है। ऐसे अनुभव करते हो? सदा चढ़ती कला की ओर जाने वाले रूकने का समय अभी नहीं है । अगर रूकते रहेंगे तो मंजिल पर कैसे पहुँचेंगे? हर घड़ी, हर सेकेण्ड में चढ़ती कला। अटेन्शन को अन्डरलाइन करना तो सदा चढ़ती कला होती रहेगी।

4. जितना याद में रहेंगे उतना किसी भी प्रकार की हलचन को अचल बना सकते हैं। नाथिंग न्यू - यह पाठ सदा पक्का रहे तो हलचल हो ही नहीं सकती। साइडसीन को देखकर रूकेंगे नहीं, आगे बढ़ते जायेंगे। ऐसे बहादुर हो ना! हिम्मते बच्चे मददे बाप। जो भी कुछ होता है। साइडसीन है। साइडसीन के कारण मंजिल को नहीं छोड़ा जाता। चलते चलो, पार करते चलो तो मंजिल सदा समीप अनुभव करेंगे। आज यहाँ हैं कल अपने राज्य में होंगे। वातावरण को पावरफुल बनाने वाले बनो, हिलने वाले नहीं। याद के पावरफुल प्रोग्राम रखो। वाचा सर्विस से भी ज्यादा याद के प्रोग्राम रखने चाहिए। वाणी में भी आने से कहाँ-कहाँ नीचे आ जाते हैं इसालिए कुछ समय याद का किला मजबूत बनाकर फिर सेवा के मैदान पर आओ। जो बात आती है वह चली भी जाती है, जैसे बात आती है और चली जाती है तो आप समझो - यह साइडसीन आई और चली गई। वर्णन भी नहीं करो, सोचो भी नहीं, इसको कहा जाता है - फुल स्टाप।

5. सदा अपने को रूहानी सेवाधारी समझते हो? उठते-बैठते चलते फिरते सेवाधारी को सदा सेवा का ही ख्याल रहता और यह सेवा ऐसी सहज है जो मंसा, वाचा और कर्मणा किसी से भी कर सकते हो। अगर कोई बीमार भी है, बिस्तर पर भी है तो भी सेवा कर सकते हैं। अगर शरीर ठीक नहीं भी है तो बुद्धि तो ठीक है ना! मंसा सेवा बुद्धि द्वारा ही होती है। ऐसे सदा सेवा का उमंग उत्साह व सेवा की लगन रहती है? क्योंकि जितनी सेवा करेंगे उतना यह प्रकृति भी आपकी जन्म-जन्म सेवा करती रहेगी। प्रकृति दासी बन जायेगी। अभी प्रकृति दु:ख का कारण बन जाती है फिर यही प्रकृति सेवाधारी बन जायेगी। सेवा करना अर्थात् मेवा लेना। यह सेवा करना नहीं है लेकिन सर्व प्राप्ति करना है। अभी-अभी सेवा की, अभी-अभी खुशियों का भण्डारा भरपूर हुआ। एक आत्मा की भी सेवा करेंगे तो कितना दिन उसकी खुशी का प्रभाव रहता है क्योकि वह आत्मा जन्म-जन्म के लिए दु:ख से छूट गई। जन्म-जन्म का भविष्य बनाया तो आपको भी उसकी खुशी होगी। ऐसे सभी के अनेक जन्म सुधारने वाले, मास्टर भाग्य विधाता हो। क्योकि उनका भाग्य बदलने के निमित्त बन जाते हो ना! गिरती कला के बदले चढ़ती कला का भाग्य हो जाता। सेवा करना अर्थात् खुशी का मेवा खाना, यह ताजा फल है। डॉक्टर भी कमजोर को कहते हैं - ताजा फल खाओ। यहाँ ताजा फल खाओ तो आत्मा शक्तिशाली बन जायेगी। सदा सेवा की हिम्मत रखने वाले, विश्व परिवर्त्तन करने की हिम्मत रखने वाले, अपने को फर्स्ट लाने की हिम्मत रखने वाले, ऐसे सदा हिम्मत रख औरों को भी निर्बल से बलवान बनाओ। बापदादा हिम्मत रखने वाले बच्चों को सदा मुबारक देते हैं।

6. सदा ज्ञान सागर की भिन्न-भिन्न लहरों में लहराते रहते हो? शुरू से लेकर अब तक बाप द्वारा ज्ञान की कितनी पाइंटस मिली हैं, उसी पाइंटस को मनन कर सदा हर्षित रहो। जैसे ज्ञान सागर बाप ज्ञान में सम्पन्न हैं वैसे बच्चे भी ज्ञान में सम्पन्न बन ज्ञान की हर पाइंट के नशे और खुशी में रहो। अखुट पाइंटस मिली हैं। एक भी पाइंट रोज बुद्धि में रखो और उसी के अनुभव में सदा रहो तो ज्ञान स्वरूप बन जायेंगे। कितना श्रेष्ठ ज्ञान और किसने दिया है! यही सदा स्मृति में रहे। भक्त आत्मायें जिसके लिए तड़प रही हैं, प्यासी हैं, उससे आप तृप्त हो गये। भक्ति की प्यास बुझ गई है ना! तो सदा यही गीत गाते रहो - पाना था सो पा लिया.....

ओम् शान्ति।



02-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सदा मिलन के झूले में झूलने का आधार"

सर्व झमेलों से छुड़ाने वाले, सर्व प्राप्ति स्वरूप बनाने वाले ज्ञान सागर शिव बाबा बोले:-

आज चारों ओर के याद में रहने वाले बच्चों को बापदादा साकार वा आकार में सम्मुख देखते हुए याद का रेसपान्ड पदमगुणा याद प्यार दे रहे हैं। कोई तन से, कोई मन से एक ही मिलन के संकल्प में, एक ही याद में स्थित हैं। बापदादा खज़ाना तो दे ही चुके हैं। साकार द्वारा, आकार अव्यक्त रूप द्वारा सर्व खज़ानों के मालिक बना चुके हैं। जब सर्व खज़ानों के मालिक बन गये तो बाकी क्या रह गया है? कुछ रहा है? बापदादा तो सिर्फ मालिको को मालेकम् सलाम करने आये हैं। देखने में तो मास्टर बन ही गये हो, बाकी क्या रह गया है!

सुनने का हिसाब निकालो और सुनाने वाले का भी हिसाब निकालो। अथाह सुन लिया, अथाह सुना लिया। सुनते-सुनते सुनाने वाले भी बन गये। तो सुनाने वालों को क्या सुनना है? आप लोगों का ही गीत है, अनुभव का गीत गाते हो, ‘‘पाना था वो पा लिया- अब काम क्या बाकी रहा। यह गीत किसका गीत है? ब्रह्मा बाप का है वा ब्राह्मणों का भी है? यही गीत है ना आपका? तो बाप भी पूछते हैं- काम क्या बाकी रहा? बाप आप में समा गये और आप बाप में समा गये, जब समा गये तो बाकी क्या रह गया? समा गये हो या समा रहे हो? क्या कहेंगे? समा गये वा समा रहे हो? नदी और सागर का मेला तो हो ही गया ना! समाना अर्थात् मिलन मनाना। तो मिलन तो मना लिया ना? सागर गंगा से अलग नहीं, गंगा सागर से अलग नहीं। गंगा सागर का अविनाशी मेला है। समा गये अर्थात् समान बन गये। समान बनने वालों को बापदादा भी स्नेह की मुबारक देते हैं।

इस बारी बापदादा सिर्फ देखने आयें है। मालिको की आज्ञा मानकर मिलने के लिए आ गये हैं। मालिको को ना नहीं कर सकते हैं। तो ''जी हाजर’’ का पाठ पढ़कर हाजर हो गये हैं। ऐसे ही तत् त्वम्। बापदादा आदिकाल से ''तत् त्वम्’’ का वरदान ही दे रहे हैं। संकल्प और स्वरूप दोनों में तत्त्वम् के वरदानी हो। धर्म और कर्म दोनों में तत्त्वम् के वरदानी हो। ऐसे वरदानी सदा समीप और समान के अनुभवी होते हैं। बाप-दादा ऐसे समीप और समान बच्चों को देख हर्षित होते हैं। अमृतबेले से लेकर दिन के समाप्ति समय तक सिर्फ एक शब्द धर्म और कर्म में लाओ तो सदा मिलन के झूले में झूलते रहेंगे। जिस मिलन के झूले में प्रकृति और माया दोनों ही आपके झूले को झुलाने वाले, दासी बन जायेंगे। सर्व खज़ाने आपके इस श्रेष्ठ झूले के श्रृंगार बन जायेंगे। शक्तियों को, गुणों को, मेहनत से धारण नहीं करना पड़ेगा, लेकिन यह स्वयं आपका श्रृंगार बन आपके सामने स्वत: ऐसा मिलन का झूला, जिसमें बाप और आप, समान अर्थात् समाये हुए हों। ऐसे झूले में सदा झूलने का आधार एक शब्द - ''बाप समान’’

समान नहीं तो समा नहीं सकते। अगर समाना नहीं आता तो संगमयुग को गंवाया। क्योंकि संगमयुग ही नदी-सागर के समाने का मेला है। मेला अर्थात् समाना। मिलन मनाना। तो समाना आता है? मेला नहीं मनाते तो क्या करते? झमेला करते। तो या है झमेला या है मेला। बच्चे कहते हैं अकेला हूँ लेकिन बाप कहते अकेला होना ही नहीं है। जिसको अकेला कहते हो उसमें भी साथ है। संगम युग है ही कम्बाइन्ड रहने का युग। बाप से तो अकेले नहीं हो सकते ना! सदा के साथी हैं। बाकी छोटे-छोटे बच्चे झमेले में फंस जाते हैं। और झमेले भी अनेक हैं, एक नहीं। मेला एक है झमेले अनेक। तो मेले में रहो तो झमेले समाप्त हो जाएं। अब तो सम्पन्नता के प्रालब्धी बनो। अल्पकाल की प्रालब्ध को समाप्त कर सम्पूर्णता के सम्पन्नता की प्रालब्ध को अनुभव में लाओ। अच्छा-

ऐसे बाप समान, सदा बाप के मिलन मनाने के झुले में झूलने वाले, पाना था वा पा लिया- ऐसे सर्व प्राप्ति स्वरूप, सदा हर संकल्प और बोल में, कर्म में जी हजूर और जी हाजर करने वाले, ऐसे सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को, साकार द्वारा वा आकार द्वारा मिलन मनाने वाले देश विदेश के सर्व बच्चों को, बालक सो मालिको को बाप का मालेकम सलाम व याद प्यार। साथ-साथ श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।

प्राण अव्यक्त बापदादा की मधुर मुलाकात पार्टियों के साथ :-

कर्नाटक जोन-

1. सभी सदा साक्षी स्थिति में स्थित हो, हर कर्म करते हो? जो साक्षी हो कर्म करते हैं उन्हें स्वत: ही बाप के साथीपन का अनुभव भी होता है। साक्षी नहीं तो बाप भी साथी नहीं इसलिए सदा साक्षी अवस्था में स्थित रहो। देह से भी साक्षी। जब देह के सम्बन्ध और देह के साक्षी बन जाते हो तो स्वत: ही इस पुरानी दुनिया से साक्षी हो जाते हो। देखते हुए, सम्पर्क में आते हुए सदा न्यारे और प्यारे। यही स्टेज सहज योगी का अनुभव कराती है। तो सदा साक्षी इसको कहते हैं - साथ में रहते हुए भी निर्लेप। आत्मा निर्लेप नही है लेकिन आत्मअभिमानी स्टेज निर्लेप है अर्थात् माया के लेप व आकर्षण से परे है। न्यारा अर्थात् निर्लेप। तो सदा ऐसी अवस्था में स्थित रहते हो? किसी भी प्रकार की माया का वार न हो। बाप पर बलिहार जाने वाले माया के वार से सदा बचे रहेंगे। बलिहार वालों पर वार नहीं हो सकता। तो ऐसे हो ना? जैसे फर्स्ट चांस मिला है वैसे ही बलिहार और माया के बार से परे रहने में भी फर्स्ट। फर्स्ट का अर्थ ही है फास्ट जाना। तो इस स्थिति में सदा फर्स्ट। सदा खुश रहो, सदा खुश नशीब रहो। अच्छा।

2. जैसे बाप के गुणों का वर्णन करते हो वैसे स्वयं में भी वे सर्व गुण अनुभव करते हो? जैसे बाप ज्ञान का सागर, सुख का सागर है वैसे ही स्वयं को भी ज्ञान-स्वरूप, सुख-स्वरूप अनुभव करते हो? हर गुण का अनुभव सिर्फ वर्णन नहीं लेकिन अनुभव। जब सुख-स्वरूप बन जायेंगे तो सुख-स्वरूप आत्मा द्वारा सुख की किरणें विश्व में फैलेंगी क्योंकि मास्टर ज्ञान सूर्य हो तो जैसे सूर्य की किरणें सारे विश्व में जाती हैं वैसे आप ज्ञान सूर्य के बच्चों की ज्ञान, सुख, आनन्द की किरणें सर्व आत्माओं तक पहुँचेंगी। जितने ऊंचे स्थान और स्थिति पर होंगे उतना चारों और स्वत: फैलती रहेंगी। तो ऐसे अनुभवी मूर्त्त हो। सुनना-सुनाना तो बहुत हो गया, अभी अनुभव को बढ़ाओ। बोलना अर्थात् स्वरूप बनना, सुनना अर्थात् स्वरूप बनना।

3. सदा खुशी के खज़ानों से खेलने वाले हो ना? खुशी भी एक खज़ाना है जिस खज़ाने द्वारा अनेक आत्माओं को माला-माल बना सकते हो। आजकल विशेष इसी खज़ाने की आवश्यकता है। और सब हैं लेकिन खुशी नहीं। आप सबको तो खुशियों की खान मिल गयी है। अनगिनत खज़ाना मिल गया है। खुशी के खज़ाने में भी वैराइटी है ना! कभी किस बात की खुशी, कभी किस बात की खुशी। कभी बालक पन की खुशी तो कभी मालिकपन की खुशी। कितने प्रकार के खुशी के खज़ाने मिले हैं! वो वर्णन करते हुए औरों को भी मालामाल बना सकते हो। तो इन खज़ानों को सदा कायम रखो। और सदा खज़ानों के मालिक बनो।

सदा बाप द्वारा मिली हुई शक्तियों को कार्य में लगाते रहो। बाप ने तो शक्तियाँ दे दी हैं। अब सिर्फ उन्हें कार्य में लगाओ। सिर्फ मिल गया है, इसमें खुश नहीं रहो लेकिन जो मिला है वो स्वयं के प्रति और सर्व के प्रति यूज़ करो तो सदा मालामाल अनुभव करेंगे।

4. सब वरदानी आत्मायें हो ना? इस समय विशेष भारत में किसकी याद चल रही है? वरदानियों की। देवी अर्थात् वरदानी, देवियों को विशेष वरदानी के रूप में याद करते हैं, तो ऐसा महसूस होता है कि हमें याद कर रहे हैं? अनुभव होता है? भक्तों की पुकार महसूस होती है कि सिर्फ नालेज के आधार से जानते हो? एक है जानना, दूसरा है अनुभव होना। तो अनुभव होता है? वरदानी मूर्त्त बनने के लिए विशेषता कौन-सी चाहिए? आप सब वरदानी हो ना! तो वरदानी की विशेषता क्या है? वे सदा बाप के समान और समीप रहने वाले होगें। अगर कभी बाप समान और कभी बाप समान नहीं लेकिन स्वयं के पुरूषाथी तो वरदानी नहीं बन सकते। क्योंकि बाप पुरूषार्थ नहीं करता लेकिन सदा सम्पन्न स्वरूप में है तो अगर बहुत पुरूषार्थ करते हैं तो पुरूषार्थी छोटे बच्चे हैं, बाप समान नहीं। समान अर्थात् सम्पन्न। ऐसे सदा समान रहने वाले सदा वरदानी होगें।

अच्छा, ओम् शान्ति।



04-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"संकल्प शक्ति का महत्व"

सर्वसिद्धि स्वरूप बनाने वाले बापदादा बोले:-

बापदादा सर्व बच्चों को अन्तिम स्टेज अर्थात् सम्पन्न और सम्पूर्ण स्टेज-इसी शक्तिशाली स्थिति का अनुभव कराते हैं। जिस स्थिति में सदा मास्टर सर्वशक्तिवान, मास्टर ज्ञानसागर, सर्व गुणों में सम्पन्न, हर संकल्प में, हर श्वास में हर सेकेण्ड सदा साक्षी-द्रष्टा और सदा बाप के साथीपन का, सर्व ब्राह्मण परिवार की श्रेष्ठ आत्माओं के स्नेह, सहयोग के साथीपन का सदा अनुभव होगा। ऐसे अनु- भूति होगी जैसे साइंस के साधनों द्वारा दूर की वस्तु समीप अनुभव करते हैं। ऐसे दिव्य बुद्धि द्वारा कितनी ही दूर रहने वाली आत्माओं को समीप अनुभव करेंगे। जैसे स्थूल में साथ रहने वाली आत्माओं को समीप अनुभव करेंगे। जैसे स्थूल में साथ रहने वाली आत्मा को स्पष्ट देखते, बोलते, सहयोग देते और लेते हो, ऐसे चाहे अमेरिका में बैठी हुई आत्मा हो लेकिन दिव्य-दृष्टि, दिव्य दृष्टि ट्रान्स नहीं लेकिन रूहानियत भरी दिव्य दृष्टि- जिस दृष्टि द्वारा नैचुरल रूप में आत्मा और आत्माओं का बाप भी दिखाई देगा। आत्मा को देखूँ यह मेहनत नहीं होगी, पुरूषार्थ नहीं होगा लेकिन हूँ ही आत्मा, हैं ही सब आत्मायें। शरीर का भान ऐसे खोया हुआ होगा जैसे द्वापर से आत्मा का भान खो गया था। सिवाए आत्मा के कुछ दिखाई नहीं देगा। आत्मा चल रही है, आत्मा कर रहीं है। सदा मस्तक मणी के तरफ तन की ऑखे वा मन की ऑखे जायेंगी। बाप और आत्माएं- यही स्मृति निरन्तर नैचुरल होगी। उस समय की भाषा क्या होगी? श्रेष्ठ संकल्प की भाषा होगी। भाषण करने वाले नहीं, आत्मिक आकर्षण करने वाले होगें। बोलने से नहीं लेकिन स्थिति के द्वारा, श्रेष्ठ जीवन के दर्पण द्वारा सहज ही स्वरूप अनुभव करायेंगे। मुख के बजाए नयन ही स्वरूप अनुभव कराने के साधन बन जायेंगे। नयनों की भाषा संकल्प की भाषा है। संकल्प शक्ति आपके मुख के आवाज की गति से भी तेज गति से कार्य करेगी। इसलिए श्रेष्ठ संकल्प की शक्ति को ऐसे स्वच्छ बनाओ जो जरा भी व्यर्थ की अस्वच्छता भी न हो। जिसको कहा जाता है लाइन क्लीयर।

इस संकल्प शक्ति द्वारा बहुत ही कार्य सफल होने की सिद्धि के अनुभव करेंगे। जिन आत्माओं को, जिन स्थूल कार्यों को वा सम्बन्ध सम्पर्क में आने वाली आत्माओं के संस्कारों को, मुख द्वारा वा अन्य साधनों द्वारा परिवर्त्तन करते हुए भी सम्पूर्ण सफलता नहीं अनुभव करते, वे सब उम्मीदें संकल्प शक्ति द्वारा सम्पूर्ण सफल ऐसे हो जायेंगी जैसे हुई पड़ी थीं। चारों ओर जैसे स्थूल आकाश में भिन्न-भिन्न सितारे देखते हो ऐसे विश्व के वायुमण्डल के आकाश में चारों ओर सफलता के सितारे चमकते हुए देखेंगे। वर्त्तमान समय उम्मीदों के तारे और सफलता के तारे दोनों दिखाई देते हैं लेकिन अन्तिम समय, अन्तिम स्थिति, बाप के अन्त में खोये हुए श्रेष्ठ स्थिति में सफलता के सितारे ही होगे। यह रूहानी नयन, यह रूहानी मूर्त्त ऐसे दिव्य दर्पण बन जायेगी- जिस दर्पण में हर आत्मा बिना मेहनत के आत्मिक स्वरूप ही देखेगी। सेकेण्ड में इस दर्पण द्वारा आत्मिक स्वरूप का अनुभव करने के कारण बाप की तरफ आकर्षित हो, अहो प्रभू के गीत गाते, देहभान से सहज अर्पण हो जायेंगे। अहो आपका भाग्य! ओहो मेरा भाग्य! इस भाग्य की अनुभूति के कारण देह और देह के सम्बन्ध की स्मृति का त्याग कर देंगे क्योंकि भाग्य के आगे त्याग करना अति सहज है।

आप सब भी इस सहज त्याग और भाग्य को लेने चाहते हो वा देने वाले बनने चाहते हो? यह तो नहीं सोचते हो कि इतने वर्षों की मेहनत से तो अन्त समय सहज त्याग और भाग्य वाले बन जाएं, क्या पसन्द है? अन्त में सहज अनुभव जरूर करेंगे लेकिन कितने समय का अनुभव होगा? जितने थोड़े समय की पहचान उतने ही थोड़े समय के लिए प्राप्ति। आप सब बहुकाल के साथी हो और बहुकाल के राज्य अधिकारी हो। अन्त की कमजोर आत्माओं को महादानी वरदानी बन अनुभव का दान और पुण्य करो। यही सेकेण्ड का शक्तिशाली स्थिति द्वारा किया हुआ पुण्य आधाकल्प के लिए पूजनीय और गायन योग्य बना देगा। क्योंकि अन्तिम काल में आत्माओं के अन्तिम समय में आप सम्पूर्ण आत्माओं द्वारा प्राप्ति के अनुभव और सम्पूर्ण स्वरूप के प्रत्यक्षता का सम्पन्न स्वरूप, यही अन्तिम अनुभव का संस्कार लेकर आत्माए आधाकल्प के लिए अपने घर में विश्रामी होगीं। कुछ प्रजा बनेंगी, कुछ भक्त बनेंगी इसलिए अन्त काल जो अन्त मती सो द्वापर में भक्तपन की गति में अर्थात् श्रेष्ठ भक्त माला के शिरोमणि आत्मायें बन जायेंगी। कोई विश्व अधिकारी के रूप में देखेंगे, कोई प्रजा बनने के संस्कार कारण आपके राज्य में प्रजा बन जायेंगी। कोई अति पूज्य स्वरूप में देखेंगे तो भक्त आत्मायें बन जायेंगे। ऐसी श्रेष्ठ स्थिति, जिस स्थिति द्वारा इतनी सिद्धि को पायेंगे, ऐसी श्रेष्ठता का अनुभव कर रहे हो? संकल्प के æखज़ाने के महत्व को जानते हुए श्रेष्ठ संकल्प की शक्ति जमा कर रहे हो? समझा अन्तिम स्टेज क्या है?

बापदादा भी तो आवाज से परे जायेंगे या आवाज में ही आयेंगे? प्रैक्टिस करो आवाज में कम आने की तो आवाज से परे की स्थिति स्वत: ही आकर्षण करेगी। पहला गेट तो आवाज से परे जाने का खुलता है ना! तो गेट खोलने का उद्घाटन कब करेंगे? और तो उद्घाटन बहुत करते हो ना- मधुबन में? इसका उद्घाटन बापदादा अकेले करेंगे या साथ मे करेंगे? तो तैयार हो? अच्छाफिर दूसरे बारी इसका हिसाब लेंगे। हिसाब तो लेना पड़ेगा ना! अच्छा-

ऐसे सर्व सिद्धि-स्वरूप आत्माओं को, संकल्प शक्ति द्वारा सर्व की श्रेष्ठ कामनाओं को पूर्ण करने वाले, स्व के सम्पन्न दर्पण द्वारा सर्व आत्माओं को निजी स्वरूप दिखाने वाले, बाप को प्रत्यक्ष कर सर्व शक्तियों के वरदानी स्वरूप पुण्य आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

टीचर्स के साथ - ‘‘यह सेवाधारी ग्रुप है। टीचर्स नहीं सेवाधारी। बाप भी सबसे पहले सेवाधारी बन करके आते हैं। सबसे बडे ते बड़े टाइटल बाप अपने ऊपर वर्ल्ड सवेन्ट का ही रखते हैं। तो जैसे बाप का टाइटल है वैसे बच्चों का भी। सेवाधारी समझने से स्वत: ही निर्विघ्न हो जाते। क्योंकि सेवाधारी अर्थात् त्यागी और तपस्वी। जहाँ त्याग और तपस्या है वहाँ भाग्य तो उनके आगे दासी के समान आता ही है। तो सभी सेवाधारी हो ना! टीचर बनकर नहीं रहना, सेवाधारी बनकर रहना। नहीं तो क्या होता है, अगर आप अपने को टीचर समझेंगी तो आने वाले थोड़ा भी आगे बढ़ेगे तो वे भी अपने को टीचर समझने लगेंगे। टीचर समझने से सूक्ष्म यह कामना उत्पन्न होती कि कोई गद्दी मिले, कोई स्थान मिले। यह भी माया का बहुत बड़ा विघ्न है। टीचर हूँ तो सीट चाहिए, मान चाहिए, शान चाहिए। सेवाधारी देने वाले होते, लेने वाले नहीं। तो जैसे आप निमित्त आत्मायें होगी वैसे और भी आपको देखकर सेवाधारी सदा रहेंगे। फिर चारों ओर त्याग तपस्या का वातावरण रहेगा। जहाँ त्याग और तपस्या का वातावरण है वहाँ सदा विघ्नविनाशक की स्टेज है। तो सभी सेवाधारी हो ना! टीचर कहने से स्टूडेन्ट कहते हम भी कम नहीं, सेवाधारी कहने से सब नम्बरवन भी हैं तो एक दो से कम भी हैं। तो नाम भी अपना सेवाधारी समझो और चलो। सारे विघ्नों की जड़ है अपने को टीचर समझकर स्टेज लेना। फिर फॉलो टीचर करते हैं, फॉलो फादर नहीं करते।

वृद्धि को तो पा ही रहे हो, अभी वृद्धि के साथ विधि पूर्वक वृद्धि को पाते चलो। विधि कम होती है तो वृद्धि में विघ्न ज्यादा होते। तो विधि सम्पन्न वृद्धि को पाने वाले बनो। मेहनत अच्छी कर रहे हो।

पार्टियों से:-

सभी सदा सुख के सागर बाप की स्मृति में रहते हुए स्वरूप का अनुभव करते हो? क्योंकि सुख के सागर के बच्चे हो। तो जैसे बाप सुख का सागर है वैसे बच्चे भी सुख-स्वरूप हैं। मास्टर हैं ना! तो सदा दु:ख की दुनिया में रहते हुए सुख स्वरूप हैं। मास्टर हैं ना! कभी भी दु:ख की लहर तो नहीं आती? चाहे दुनिया में कितना भी दु:ख अशान्ति का प्रभाव हो लेकिन आप न्यारे और प्यारे हो क्योंकि आप सुख के सागर के साथ हो। ऐसे सदा सुखी, सदा सुखों के झूले में झूलने वाले अपने को अनुभव करते हो? संकल्प में भी दु:ख नहीं। दु:ख का संकल्प आना यह भी मास्टर सुख के सागर के बच्चों का नहीं। क्योंकि आत्मा दु:ख की दुनिया से किनारा कर संगम पर पहुँच गई। किनारा छोड़ चुके हो ना! छोड़ा है कि अभी दु:ख की दुनिया में हो? कोई रस्सी बँधी हुई तो नहीं है ना? सब रस्सियाँ टूट गई हैं? जब सब रस्सियाँ टूट गई तो सुख के सागर में लहराते रहो। नहीं है ना? सब रस्सियाँ टूट गई हैं? जब सब रस्सियाँ टूट गई तो सुख के सागर में लहराते रहो।



06-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"दादी जी, जयन्ती बहन और लच्छू बहन के विदेश सेवा से वापिस आने पर बापदादा के उच्चारे हुए महावाक्य"

आज जहान के नूर अपने नयनों के सितारों से मिलने आये हैं। नूरे रत्नों से मिलने आये हैं। सारे जहान की जिसमें नजर है, उसकी नजर किसमें हैं? जिसको विश्व याद करता, वह किसको याद करता है? जिसकी विश्व महिमा गाता वह स्वयं किसकी महिमा गाते? तो बड़ा कौन हुआ? बच्चे वा बाप? तो बापदादा ऐसे नयनों के नूरों से मिलने आयें हैं। जिन बच्चों ने बाप के प्रति वा सेवा के प्रति स्वयं को न्योछावर किया, ऐसे बच्चों को रिटर्न देने के लिए बापदादा भी न्योछावर होते हैं।

बाप के आगे आज ऐसे अमूल्य रत्न सामने हैं। चाहे कहाँ भी हैं, शरीर से दूर हैं लेकिन आज की सभा में आप सबके साथ, बाप के सामने साकार हैं, आज किसके सामने बाप बैठे हैं, जानते हो? आज बाप के सामने अति सिकीलधे, सदा दिल तख्तनशीन 9 रत्न सामने हैं। अष्ट और इष्ट आत्मायें सामने हैं। वह भी जान रहे हैं कि हमें बापदादा याद कर रहे हैं। दिव्य दूरदर्शन में वे भी देख रहे हैं। ऐसे रत्नों की विशेषताओं की बापदादा सदा माला सिमरण करते हैं। बाप सदा ऐसे रत्नों को देख कौन सा गीत गातें हैं? वह गीत सुना है? कौन सा? बाप दादा का गीत भी शार्ट है, लम्बा नहीं है, बाप का यही गीत है - ‘‘वाह मेरे बच्चे, वाह!'' तो यह गीत सुनाई देता है? कितनी बार सुनते हो? बच्चे क्या रेस्पान्स देते हैं? बाप तो है एक और बच्चे हैं अनेक। तो बाप सब बच्चों का गीत सुनते हैं। बहुत मजा आता है गीत सुनने में। कोई कैसा गाता है। सुनायें कैसे गाते हैं? कोई कहते - ‘‘वाह बाबा वाह'' कोई कहते ''वाह मेरा बाबा वाह!’’। और कोई गाते ''हा बाबा हा’’ । और भी सनायें- कोई मजबूरी से गाते हैं, कौन-सी मजबूरी? क्योंकि जानते हैं कि बाप को याद करने के बिना मिलना कुछ नहीं हैं, इसलिए याद करना पड़ेगा, ''वाह बाबा वाह’’ का गीत गाना ही पड़ेगा। एक का होता है - मन के सितार का साज और दूसरे का होता है - मुख का साज। तो बापदादा गीत तो सुनेंगे ना! कौन सा गीत गाते हैं। क्या बाप और बच्चों की कहानियाँ सुनायें? एक-एक की अपनी कहानी है और सबकी कहानियाँ इकठ्ठी करो तो कितनी हो जायेंगी? एक-एक की रोज की कहानी भी अलग-अलग है। तो बाप को तो सुनना पड़ेगा या नहीं? आप लोग उल्हना देते हो ना कि बाबा वहाँ क्या करते हैं? वहाँ भी यही काम करते हैं। जो साकार में करते थे वही करते हैं। साकार में समय ज्यादा लगता था, अभी समय कम लगता है।

आज तो विशेष बच्चों की सेवा का रिटर्न देने के लिए आये है। जैसे बच्चे स्नेह से सेवा के बन्धन में बंधे हुए है वैसे बाप भी बच्चों के स्नेह में बंधा हुआ है। (जयन्ती बहन से) आज कहाँ मिल रही हो? बापदादा आज विशेष कहाँ आये हैं? मधुबन में तो आतें ही हैं, लेकिन यह सभा क्या है जिसके बीच में मिल रहे हैं। लण्डन में विशेष कहाँ मिलती हो? बापदादा आज गार्डेन में मिल रहे हैं, यह अल्लाह का बगीचा है ना! क्योंकि गार्डेन में मिलना अर्थात् बेहद में मिलना। बापदादा के लिए यह बगीचा सबसे अच्छा है। वे बगीचे तो फिर बैकुण्ठ के बगीचे हैं, उनके आगे यहाँ के यह बगीचे क्या हैं? अच्छा- ''जी हाजर’’ तो हो गये ना! मास्टर हजूर के आगे जी हाजर हो गये। सभी को देख करके भी खुशी हो रही है। सभी को सेवा के उमंग और उत्साह पूर्वक करने की सफलता की बधाइयाँ हैं। सेवा में लगन से एक दो से आगे जाने की रेस अच्छी कर रहे हैं। रीस नहीं, रेस कर रहे हैं। इसलिए मैजारिटी विदेश सेवा के निमित्त बने रत्न रिटर्न अच्छा दे रहे हैं।

लण्डन फाउन्डेशन है इसलिए दस वर्ष के अन्दर जो सेवा की है बापदादा उसके रिटर्न में कौन सा दीपक जगायेंगे? बाप दादा चारों ओर के विदेशी बच्चों में से जो विशेष सेवा में दिन-रात लगे हुए हैं, उन विशेष आत्माओं की विशेषता के दीपक जगायेंगे। गुणों का घृत डाल विशेषताओं के दीपक जगा रहे हैं। बधाई हो, सेवा की बधाई हो! हाँगकाँग वालों को भी यही गीत सुनाना, उनके भी 10 वर्ष हुए हैं। आज दोनों को 10 वर्ष की मुबारक। लण्डन निवासी मुरबी बच्चे विदेश में मास्टर ज्ञान-सूर्य के स्वरूप में सेवा के उमंग उत्साह की किरणें अच्छी फैला रहे हैं, इसलिए ज्ञान सूर्य बाप, मास्टर ज्ञान सूर्य बच्चों को बधाई दें रहे हैं।

आस्ट्रेलिया वालों ने भी त्याग और भाग्य, त्याग द्वारा भाग्य का सबूत अच्छा दिखाया है। बापदादा आस्ट्रेलिया की सेवा के प्रति निमित्त बने हुए बच्चों को एकरस, अचल, अडोल रहने के सर्टीफिकेट की मुबारक देते हैं। ऐसे ही नैरोबी वालों की भी विशेषता के कारण बापदादा मुबारक देते हैं। वह विशेषता कौन सी है? जिगर से बाप और बाप के सेवा की लग्न में बहुत अच्छे हैं। सर्कमस्टांन्स को नहीं देखते, सेवा को देखते हैं। सेवा में हम सब एक हैं, यह सबूत की विशेषता अच्छी दिखाई है। सेवा से प्यार अर्थात् बापदादा से प्यार। मिटाने और समाने दोनों की अच्छी कमाल दिखाई है। इसलिए बापदादा ऐसी विशेषता वाले बच्चों को महावीर बच्चे कहते हैं।

अमेरिका भी कम नहीं है, अमेरिका वालों ने बड़े आवाज फैलाने वाले माइक को तो पकड़ लिया है। सेवा का साधन सहज और श्रेष्ठ मिल गया है। जो भी अमेरिका के सेवाकेन्द्र हैं सभी वी.आई.पीज. की सर्विस में अच्छी सफलता को पा रहे हैं। अब विदेश में वी.आई.पीज. की सर्विस मुश्किल नहीं है ना! अब तो लण्डन में भी नाम बाला है।

तो इस वर्ष विदेश को वरदान प्राप्त हुआ है विशेष व्यक्तियों की सेवा का। कितने वर्ष मुश्किल लगा? और सहज कैसे हो गया, मालूम पड़ा? तो विदेश में चारों ओर के मुख्य स्थानों का नाम ले लिया-लेकिन और भी चारों ओर सेवा की अच्छी लहर चल रही है। ग्याना हो, जर्मनी हो, जो भी हो सबका नाम बोलना, मोरीशियस भी। हर स्थान की अपनी-अपनी विशेषता है। अभी इन्होनें विशेष प्रोग्राम से विशेष आत्माओं को तैयार किया है, वैसे चारों ओर अच्छा उमंग-उत्साह है, इसलिए सभी का नाम नोट कर लेना।

दादी से :- ''बैलेंन्स और ब्लैसिंग का अनुभव किया? सफर ठीक रहा? (लच्छू बहन से) यह भी विदेश की यात्रा करके आई। इसने भी तपस्या की है ना? यह भी लकी है जो बचपन से श्रेष्ठ संग में रही है। अंग-संग रही है। ऐसा भाग्य भी सबका नहीं होता है। अभी विदेश के रिटर्न में क्या करेंगी? भाषण किया कहाँ? अभी प्रैक्टिस करो, क्लास भी कराने की प्रैक्टिस करो। बहुत डायरेक्ट सुना है जो नाखून में छिपाकर बात कहने वाली, वह भी सुनी है, उसका रिटर्न तो देना है ना! अच्छा- सर्विसएबुल बच्चे जहाँ जाते हैं तो सर्विस का सबूत जरूर देते हैं। दिया ना? सर्विसएबुल अर्थात् सेवा, सेवा और सेवा। देखना भी सेवा, बोलना भी सेवा, चलना भी सेवा और करना भी सेवा। जो 5 चित्र दिखाते हो ना- वह ‘‘सी नो..'' दिखाया है और यहाँ हाँ वाले हैं। तो 5 ही बातों में वह ‘‘ना'' है, यह ‘‘हाँ'' हैं। इसको कहा जाता है सर्विसएबुल। सर्विसएबुल का चित्र क्या हुआ? सेवा करना बहुत अच्छा लगा ना? यह भी अनुभव हुआ। हर स्थान को विशेषताओं से सम्पन्न बनते-बनते चारों ओर सेवा में सम्पन्नता आ जाएगी। इसलिए यह भी अनुभव अच्छा है।

जमुना का किनारा भी आया है। (दिल्ली ग्रुप) और साथ-साथ जमुना के किनारे पर नाटक करने वाले कर्नाटक भी आया है। बम्बई तो चुंगे में आ गई है। अच्छा है, जमुना का किनारा भी है और जमुना के बीच में गार्डन भी है, तो उसके बीच में बापदादा से मिल रहे हो। फिर भी सेवा का फाउन्डेशन तो दिल्ली है। और सभी ने सेवा का पाँव डाला भी दिल्ली में है। मैजारिटी महारथियों ने सेवा के प्रति दिल्ली में पाँव डाल रखा है। अच्छा, फिर सुनायेंगे दिल्ली को क्या करना है। आज तो बगीचे में बातें कर रहे हैं ना!

ऐसे खेल में खेल देखने वाले, खेला और मेला दोनों का अनुभव करने वाले, सदा बाप के गुण गाने वाले, साथ-साथ स्वयं को बाप समान मास्टर गुण मूर्त्त बनाने वाले, विश्व के सदा शुभाचिंतक, विश्व का सदा कल्याण करने वाले विश्व कल्याणकारी, ऐसे श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।

दीदी जी से :- ‘‘उड़ता पंछी बन सेवा का पार्ट बजाते हुए अपने विश्राम के स्थान पर पहुँच गई? शार्ट और स्वीट सफर रहा। बापदादा भी बच्चों की हिम्मत और सेवा की उमंग पर वारी जाते हैं। हिम्मत औषधि का काम कर लेती है। कितनों को ब्लैंसिंग दी? अभी आप विशेष आत्माओं का है ही ब्लैंसिंग देने का पार्ट। चाहे नयनों से दो, चाहे मस्तकमणी द्वारा। बोलने वाले तो बहुत हैं लेकिन अब आप लोंगो का कार्य है - ब्लैसिंग देना। जैसे साकार में देखा - लास्ट कर्मातीत स्टेज का पार्ट क्या रहा? ब्लैंसिंग देना। बेलेन्स की भी विशेषता और ब्लैसिंग की भी कमाल। फालो फादर। सहज सेवा भी यही है और शक्तिशाली भी यही है। वैसे जो भी शक्तिशाली वस्तु होती है वह जितनी शक्तिशाली उतनी ही रूप में बहुत कम, छोटी होती है। जैसे बीज शक्तिशाली है तो कितना छोटा होता है! एटम शक्तिशाली है और कितना छोटा। ऐसे ही आत्मिक स्मृति से ब्लैसिंग देना यह भी बहुत सहज और शक्तिशाली है। समय भी कम, मेहनत भी कम और रिजल्ट ज्यादा। और वह भी ज्यादा समय तक। अभी-अभी सुना, अभी-अभी भूला, नहीं। अनुभव हो जाता है ना! तो आप शक्तिशाली आत्माओं की अभी सेवा है - ब्लैंसिंग देना''

जयन्ती बहन से :- ‘‘आप में कितनी आत्मायें समयई हुई हैं? आज कितनी आत्मायें आप में समाई हैं? अच्छा है सर्विस में बहुत गैलप किया। लौकिक, अलौकिक, पारलौकिक तीनों की बधाई आप आत्मा को मिली। अच्छा पार्ट बजा रही हो। लोक पसन्द है ना! इसलिए ही इस पाइंट की स्मृति के कारण ही सफलाता है। सेवा में सफलता का आधार ही है - करन-करावनहार बाप की स्मृति। इसलिए सेफ भी हो और सफल भी हो ना? बाप को तो फालो किया है लेकिन निमित्त बनी हुई अपनी दादी (जानकी दादी) को भी फालो किया है, गुणों को फालो किया है। अच्छा है। जनक को विशेष याद देना। उसको को भी प्रत्यक्षफल मिला है - निरोगी काया। काया कल्पतरू हो गई ना!

वैसे तो ग्याना के फाउन्डेशन के आधार पर अमेरिका के वी.आई.पीज. निकले, अमेरिका का भी फाउन्डेशन गयाना है। विदेश में फर्स्ट नम्बर वी.आई.पीज युगल ग्याना का ही है। इसलिए बहुत-बहुत लवली हैं, दोनों की सेवा में विशेषता है। एक दो से आगे हैं। ऐसा भी कोई विरला ही फूल होता है। इसके कारण नाम भी अच्छा फैल रहा है। बच्चियाँ भी अच्छी हैं। मकान भी अच्छा तैयार किया है। विघ्न को निर्विघ्न बना दिया, इसलिए सारा परिवार लवली परिवार है। लवली भी है लेकिन लवलीन भी है। और आने वाले जो भी सभी ब्राह्मण हैं, उनकी लगन बाप और सेवा से अच्छी है। ज्यादा मेहनत लेने वाले नहीं हैं, अच्छे हैं। कोई-कोई स्थान पर यह विशेषता होती है, मेहनत कम लेते हैं। गयाना की विशेषता है - मेहनत कम लेते, लग्न में अच्छे हैं। इसलिए सभी को याद देना और यही विशेषता की सौगात देना।

पार्टियों से :- ''संगमयुग पर सबसे बड़े ते बड़ा खज़ाना कौन सा मिलता है? खुशी का। खुशी का खज़ाना सदा सम्पन्न रहे ऐसे नहीं कभी थोड़ी खुशी, कभी बहुत खुशी। जब अविनाशी अखुट बेहद का खज़ाना है तो कभी कम, कभी जास्ती, यह नहीं। सदा खज़ाने की प्राप्ति में एकरस रहो। खुशी में रहते हैं, यह सिर्फ नहीं, लेकिन एकरस और निरन्तर रहते हैं। नम्बर इस आधार पर बनेंगे। सिर्फ निरन्तर हैं, एकरस नहीं तो भी सेकेण्ड नम्बर हो गए। लेकिन निरन्तर और एकरस दोनों ही है तो नम्बरवन हो गये। अगर किसी झमेले में आ जाते हो तो फिर खुशी का झूला ढीला हो जाता है, तेज नहीं, रूक-रूककर झूलेंगे। इसलिए सदा खुशी के झुले में झुलो। संगमयुग अनुभव का युग है, यही विशेषता है, इस युग की विशेषता का लाभ उठाओ।’’



08-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"ब्रह्मा बाप की एक शुभ आशा"

विजयी रत्न ब्राह्मण कुल-भूषण बच्चों के प्रति बापदादा बोले-

''आज बापदादा विजयी रत्नों को देख रहे हैं। आज भक्त लोग विजय-दशमी मना रहे हैं। भक्तों का है जलाना और तुम बच्चों का है मिलन मनाना। जलाने के बाद मिलन मनाना होता है। भक्ति मार्ग में भी रावण को जलाने के बाद अर्थात् विजय प्राप्त करने के बाद कौन सा मिलन दिखाते हैं? भक्ति के बातों को तो अच्छी तरह से जानते हो। रावण समाप्त होने के बाद कौन सी स्टेज हो जाती है? उसकी निशानी क्या है? ‘‘भरत मिलाप''। यह है ब्रदरहुड की स्थिति। भाई-भाई की दृष्टि की निशानी है - सेवा और स्नेह। स्नेह कि निशानी दीपमाला दिखाई है। सेवा की सफलता का आधार ब्रदरहुड दिखाया है। इसके बिना दीपमाला नहीं मना सकते। दीपमाला के सिवाए राज-तिलक नहीं कर सकते। तो आज का यादगार विजय दशमी मनाई है। इसका आधार पहले अष्टमी मनाते हैं। बिना अष्टमी के विजय नहीं। तो कहाँ तक पहुँचे हो? अष्टमी मनाई है? सभी नौ दुर्गा बन गये हैं? अष्ट शक्ति और एक शक्तिवान। सर्व शक्तिवान बाप के साथ अष्ट शक्ति स्वरूप, ऐसे नौ दुर्गा बने हैं? दुर्गा अर्थात् दुर्गुण समाप्त कर सर्वगुण सम्पन्न। तब ही दशहरा मना सकते हो। तो बापदादा देखने आये हैं कि बच्चों ने दशहरा मनाया है? हर एक अपने आपको अच्छी तरह से जानते हो और मानते भी हो कि दशहरा मनाया है या अष्टमी मनाई है! अविनाशी तीली लगाई है या अल्प समय की तीली लगाई है? रावण को जलाया है या रावण के सर्व वंश को जलाया है? रावण को समाप्त किया है वा रावणराज्य को समाप्त किया है?

आज वतन में ब्रह्मा बाप की रूह-रिहान चल रही थी- किस समय? (क्लास के समय) बापदादा भी बच्चों की रूह-रिहान सुनते हैं। सभी मैजारिटी बच्चों को जब यह प्रश्न पूछा जाता है कि दशहरा मनाया है, तो न ना' में हाथ उठाते न हाँ' में हाथ उठाते हैं। अगर लिखते भी हैं तो जवाब देने में भी बड़े चतुर हैं। झूठ भी नहीं बोलते, लेकिन स्पष्ट भी नहीं लिखते। तीन-चार जवाब सबको आतें हैं और उन्हीं जवाब में कोई न कोई जवाब देते हैं। तो ब्रह्मा बाप की रूह-रिहान चल रहीं थी। ब्रह्मा बाप तो घर के गेट का उद्घाटन करने के लिए बच्चों को आह्वान कर रहे हैं। लेकिन सबके आज के प्रश्न के उत्तर कागज पर नहीं, मन के संकल्प द्वारा तो बाप के आगे स्पष्ट ही हैं। क्लास के समय बच्ची (दादी) प्रश्न पूछ रहीं थी और बापदादा सबके उत्तर देख रहे थे। उत्तर का सार तो सुना ही दिया। सुनाने की भी आवश्यकता नहीं है, आप ज्यादा जानते हो। उत्तर देखते हुए ब्रह्मा बाप ने क्या किया? बड़ी अच्छी बात की। ब्रह्मा बाप के विशेषता सम्पन्न संस्कार को जानते हो? विशेषता के संस्कार का ही पार्ट बजाया, अब वह क्या होगा? उस बात का सम्बन्ध ब्रह्मा बाप के आदिकाल की प्रवेशता के जीवन से सम्बन्धित है। जब रिजल्ट देखी तो एक सेकेण्ड के लिए ब्रह्मा बाप बड़े सोच में पड़ गये और बोले- आज एक बात जमारी पूर्ण करनी पड़ेगी, कौन सी? ब्रह्मा बाप ने बोला, ‘‘आज हमें चाबी दे दो।'' कौन-सी? सबके बुद्धियों को परिवर्त्तन करने की, सम्पन्न बनाने की। जैसे आदि में भी चाबी का नशा था, खज़ाना है, चाबी है बस खोलना है। ऐसे ब्रह्मा बाप ने भी आज सम्पन्न बनाने की चाबी की बाप से माँगनी की। उस समय के दृश्य को साकार में अनुभव करने वाले जान सकते हैं कि ब्रह्मा और बाप की कैसी रूह-रूहान चलती थी। अब ब्रह्मा को चाबी दे सकते हैं? और ब्रह्मा को बाप ना कर सकते हैं? बच्चे भी न तो ना' करते हैं न हाँ' करते हैं।

लेकिन इतना अवश्य है कि ब्रह्मा बाप को बच्चों को सदा सम्पन्न देखने की बहुत-बहुत इच्छा है। बनने हैं, यह नहीं अब बन जाएं। जब भी बच्चों की बातें चलती हैं तो ब्रह्मा की सूरत दीपमाला के समान बन जाती, ऐसा तीव्र उमंग और मास्टर सागर के समान ऊंची लहर पैदा होती जो उसी उमंग की ऊंची लहर में सबको सम्पन्न बनाए दीपमाला जगा दें। ब्रह्मा को एक बोल जन्म से ही नहीं अच्छा लगता वह कौन सा? अपने कार्य में भी वह अच्छा नहीं लगता, वह कौन सा? अपने कार्य में भी वह अच्छा नहीं लगा, न बच्चों के। ‘‘कब कर लेंगे'' - यह शब्द अच्छा नहीं लगा। हर बात में अब किया और कराया। सेवा के प्लैन में देखो, स्व के परिवर्त्तन में देखो, अभी-अभी जाओ, अभी-अभी करो, ट्रेन का टाइम थोड़ा है तो भी जाओ, ट्रेन लेट हो जायेगी। तो क्या संस्कार रहा? अभी-अभी, कब नहीं लेकिन अब। तो जैसे विशेष भाषा ‘‘अभी-अभी'' की सुनी ऐसे ही आज भी वतन में, अभी-अभी होना चाहिए, यही भाषा चल रही थी। एक और हंसी की बात सुनाते हैं, वह क्या होगी? ब्रह्मा बाप स्वयं सम्पन्न होने के कारण यह देख नहीं सकते कि बच्चे ‘‘कब-कब'' क्यों करते हैं? इसलिए बार-बार बाप को कहते - यह क्यों नहीं बदलते, यह ऐसे क्यों करते हैं? अब तक यह क्यों कहते हैं? आश्चर्य लगता है। ड्रामा की बात अलग रही, यह रमणीक हंसी की बात है। ऐसे नहीं ड्रामा को नहीं जानते हैं लेकिन देख-देख कर स्नेह के कारण बाप से हँसते हैं। बाप से हँसी करना तो छुट्टी है ना! बाप भी मुस्कुराते हैं। तो अब ब्रह्मा बाप क्या चाहते हैं, यह तो जान लिया ना? अब मुक्त बन, मुक्तिधाम के गेट को खोलने के लिए बाप के साथी बनो - यह है ब्रह्मा बाप की बच्चों के प्रति शुभ आशा। पहले यह दीवाली मनाओ, बाप के शुभ आशा का दीपक जगाओ। इसी एक दीपक से दीपमाला स्वत: ही जग जायेगी। समझा? अच्छा-

फिर भरत मिलाप का रहस्य सुनायेंगे। अच्छा- ऐसे बापदादा के श्रेष्ठ संकल्प को साकार में लाने वाले, अविनाशी दृढ़ संकल्प की तीली लगाए अविनाशी विजयी बनने वाले, साकार बाप के समान सदा ‘‘अब'' की भाषा कर्म में लाने वाले, कभी को समाप्त कर सभी को साकार बाप की मूर्त्त, सूरत में दिखाने वाले, ऐसे विजयी रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

कुमारियों से :- ‘‘कुमारियाँ तो हैं ही उड़ता पंछी। क्योंकि कुमारियाँ अर्थात् सदा हल्की। कुमारी अर्थात् कोई बोझ नहीं। हल्की चीज़ ऊपर जायेगी ना! सदा ऊपर जाने वाले माना ऊंची स्टेज पर जाने वाली। तो ऐसी हो? कहाँ तक पहुँची हो? जो बाप की श्रीमत है उसी प्रमाण, उसी लकीर के अन्दर सदा रहने वाले सदा ऊपर उड़ते रहते हैं। तो लकीर के अन्दर रहने वाली कौन हुई? सच्ची सीता। तो सभी सच्ची सीताएं हो ना? पक्का? लकीर के बाहर पाँव निकाला तो रावण आ जायेगा। रावण इन्तजार में रहता है-कि कहाँ कोई पाँव निकाले और मैं भगाऊं! तो कुमारी अर्थात् सच्ची सीता। यहाँ से बाहर जाकर बदल न जाना। क्योंकि मधुबन में वायुमण्डल के वरदान का प्रभाव रहता, यहाँ एकस्ट्रा लिफ्ट होती है, वहाँ मेहनत से चलना पड़ेगा। कुमारियों को देखकर बापदादा को हजार गुणा खुशी होती है क्योंकि कसाईयों से बच गई। तो खुशी होगी ना! अच्छा-अभी पक्का वादा करके जाना।''

पाण्डवों से :- ‘‘सभी पाण्डव शक्ति स्वरूप हो ना? शक्ति और पाण्डव कम्बाईन्ड हो? सर्वशक्तिवान के आगे शक्ति बन जाते और पार्ट बजाने मे पाण्डव। सर्वशक्तिवान को शक्ति बन कर याद नहीं करेंगे तो मजा नहीं आयेगा। आत्मा सीता है और वह राम है। तो इस पार्ट में भी बहुत मजा है। यही पार्ट सबसे वन्डरफुल है संगम का, जो पाण्डव शक्तियाँ बन जाती और शक्तियाँ भाई बन जाती। इससे सिद्ध होता है कि देहभान भूल गये। आत्मा में दोनों ही संस्कार हैं, कभी मेल का कभी फिमेल का पार्ट तो बजाया है ना! संगम पर मजा है, आशिक बन माशुक को याद करना। शक्ति बनकर सर्वशक्तिवान को याद करना। सीता बनकर राम को याद करना।''

माताओ से :- ‘‘शक्ति सेना सदा शस्त्रधारी है ना? शक्ति का श्रंगार ही है शस्त्र। जो सदा शस्त्रधारी है वही सदा महादानी, वरदानी हैं। सब शस्त्र कायम रहते हैं? कभी-कभी नहीं, सदा। शक्तियों की तपस्या ने सर्वशक्तिवान को लाया। अभी शक्तियों को सर्वशक्तिवान को प्रत्यक्ष करना है। हर कदम मे वरदान देते जाओ, शुभ भावना से सबको वरदान देना है।

सुख के सागर के बच्चे सदा सुख-स्वरूप हो ना? सदा मिलन मेले की खुशी में झुलते रहते हो ना! खाते, पीते,चलते अशोक अर्थात् संकल्प मात्र में भी शोक व दु:ख की लहर न आये। सदा सुख-स्वरूप। दु:ख को तलाक देने वाले। क्योंकि दु:ख की दुनिया मे आधा कल्प रहे, अब तो सुख की बारी है। सुख का सागर मिला तो दु:ख काहे का? सदा सुखी - यही वरदान बाप से सदा के लिए मिल गया। अच्छा''



09-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"अन्तर्मुखी ही सदा बन्धनमुक्त और योगयुक्त"

आज बापदादा अपने सदा सहयोगी, सदा शक्ति-स्वरूप, सदा मुक्त और योगयुक्त ऐसे विशेष बच्चों को अमृतवेले से विशेष रूप से देख रहे हैं। बापदादा ने हर एक बच्चे की दो बातों की विशेषता देखी। एक बात - मुक्त कहाँ तक हुए हैं, दूसरी बात - जीवनमुक्त कहाँ तक हुए हैं? जीवनमुक्त अर्थात् योगयुक्त। बापदादा के पास भी बच्चों के मन के संकल्प की हर सेकेण्ड की रेखायें स्पष्ट दिखाई देती हैं, रेखाओं को देख बापदादा ने मुस्कराते हुए विशेष एक बात का चित्र देखा, जिस चित्र में दो प्रकार के लक्षण देखे।

एक -’’सदा अन्तर्मुखी''। जिस कारण स्वयं भी सदा सुख के सागर में समाये हुए और अन्य आत्माओं को भी सदा सुख के संकल्प और वायब्रेशन द्वारा, वृत्ति और बोल द्वारा, सम्बन्ध और सम्पर्क द्वारा, सुख की अनुभूति कराते हैं।

दूसरे - ‘‘बाह्यमुखी''। जो सदा बाह्यमुखता के कारण, बाह्य अर्थात् व्यक्त भाव, व्यक्ति के भाव-स्वभाव और व्यक्त भाव के वायब्रेशन, संकल्प, बोल और सम्बन्ध, सम्पर्क द्वारा एक दो को व्यर्थ की तरफ उकसाने वाले, सदा अल्पकाल के मुख के लड्डू खाने और ओरों को भी यही खिलाने वाले, सदा किसी न किसी प्रकार के चिन्तन में रहने वाले, आन्तरिक सुख, शान्ति और शक्ति से सदा दूर रहने वाले, कभी-कभी थोड़ी सी झलक अनुभव करने वाले, ऐसे बाह्यमुखी भी देखे।

दीपावली आ रही है ना! तो बिजनेसमैन तो अपने चौपड़े देखेंगे। पुराने खाते, नये खाते देखेंगे, बाप क्या देखेंगे? बाप भी हर बच्चे के पुराने खाते कहाँ तक समाप्त हुए हैं, नये खाते में क्या-क्या जमा किया है, यही चौपड़े देखते हैं। तो आज यह अन्तर देख रहे थे क्योंकि कल भी सुनाया कि ब्रह्मा बाप को अब किस बात का इन्तजार है? (उद्घाटन का) इसी उद्घाटन के लिए क्या तैयारी कर रहे हो, किसी से भी उद्घाटन कराते हो तो क्या करते हो? क्या चीजें रखते हो? उद्घाटन के पहले जो भी रिबन बांधते हो या फूलों को बांधते हो, उसे पहले कैंची से काटते हो फिर उद्घाटन होता है। और कैंची को रखते कहाँ हो? फूलों से सजी हुई थाली के अन्दर। इससे क्या सिद्ध होता है? बन्धनमुक्त होने के पहले स्वयं को गुणों के फूलों से सम्पन्न करना है तो स्वत: ही बन्धनमुक्त हो ही जायेंगे। उद्घाटन की तैयारी क्या हुई? एक तरफ स्वयं को सम्पन्न बनाना, लेकिन सम्पन्न बनने के पहले बाह्यमुखता के बन्धनों से मुक्त होना। ऐसे तैयार हुए हो? बाह्यमुखता के रस बाहर से बड़े आकर्षित करते हैं, इसलिए इसको कैंची लगाओ। यह रस ही सूक्ष्म बंधन बन सफलता की मंजिल से दूर कर देते हैं। प्रशंसा हो जाती लेकिन प्रत्यक्षता और सफलता नहीं हो सकती, इसलिए अब उद्घाटन की तैयारी करो। उद्घाटन की तैयारी करने वाले सदा फूलों के बगीचे में बापदादा द्वारा लगी हुई फुलवाड़ी, फूलों के विशेषता की खुशबू लेने में और उसी खुशबू को सूंघने में सदा तत्पर होंगे अर्थात् उनकी जीवन रूपी थाली में सदा फूल ही फूल होंगे। ऐसे तैयार हो? इसमें नम्बरवन कौन जायेगा? मधुबन वाले या दिल्ली वाले? बहुत मर्त्तबा मिलेगा। बापदादा के साथ-साथ उद्घाटन करने वाले, इससे बड़ा भाग्य और क्या है? समान वाली आत्मायें ही साथ में उद्घाटन करेंगी। ऐसे तो नहीं समझते हो कि उद्घाटन करना माना सदा के लिए सूक्ष्मवतनवासी बनना वा मूल वतनवासी बनना। ब्रह्मा बाप के साथ मूलवतन निवासी क्या सभी बनेंगे या थोड़े बनेंगे? क्या समझते हो? सब सर्विस स्थान छोड़कर के साथ जायेंगे? साथ जायेंगे वा रूकेंगे? (साथ जायेंगे) अच्छा सूक्ष्मवतन में ब्रह्मा बाप गया फिर आप यहाँ क्यों बैठ गये? तो क्या करेंगे? (दादी से) (साथ चलेंगे) अच्छा, दीदी-दादी दोनों ही साथ जायेंगे? क्या होगा? यह भी विचित्र रहस्य है। तो विशेष बात थी - उद्घाटन के लिए तैयार हो? दिल्ली वाले तैयार हैं? निमित्त सेवाधारी क्या समझते हो? कोई आशायें तो नहीं रहीं हुई हैं? (संगम अच्छा लगता है) बापदादा ही चले जायेंगे फिर भी रहेंगे? कब तक रहना है? साथ में जाने वाले तो धर्मराज को टाटा करेंगे, धर्मराज के पास जायेंगे ही नहीं। अच्छा - बाप तो चौपड़े साफ देखने चाहते हैं। थोड़ा भी पुराना खाता अर्थात् बाह्यमुखता का खाता, संकल्प वा संस्कार रूप में न रह जाए। सदा सर्व बन्धनमुक्त और योगयुक्त, इसी बाह्यमुखता के वायुमण्डल को समाप्त करने के लिए इस वर्ष विशेष इशारा दे रहे हैं। सेवा करो, खूब करो लेकिन बाह्यमुखता से अन्तर्मुखी बनकर करो। वह होगा अन्तर्मुखता की सूरत द्वारा। सेवा में बाह्यमुखता में ज्यादा आ जाते हो इसलिए - सेवा अच्छी है, सेवा बहुत करते हैं - सिर्फ यह नाम बाला होता है। बाप इन्हों का बड़ा अच्छा है, बाप ऊंचे ते ऊंचा है - यह प्रत्यक्षता की सफलता कम होती है। इसलिए सुनाया बाह्यमुखता की रिजल्ट - प्रशंसा करेंगे लेकिन प्रसन्नि चत्त नहीं बनेंगे। ‘‘बाप के बन जायें'', यह है प्रसन्नचित्त बनना।

ऐसे सदा अन्तर्मुखी, सदा प्रसन्नचित्त, अन्य आत्माओं को भी सदा प्रसन्नचित्त बनाने वाले, सदा स्वयं को गुण सम्पन्न, बाप समान, सदा सुख के सागर में समाये हुए, सदा एक बाप दूसरा न कोई, इसी लगन में मगन रहने वाले - ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते

दिल्ली जोन :- बापदादा को सभी बच्चे अति प्रिय हैं क्योंकि बापदादा ने विशेषताओं के आधार पर ड्रामा अनुसार चुनकर इस ब्राह्मण परिवार के गुलदस्ते में लाया है। यह चैतन्य फूलों का गुलदस्ता है ना! हरेक फूल की विशेषता, रंग-रूप अपना-अपना होता है। किसमें खुशबू ज्यादा होगी, किसका रंग रूप गुलदस्ते को सजाने वाला होगा लेकिन है तो दोनों ही आवश्यक। सिर्फ गुलाब के फूलों का गुलदस्ता बनाओ और वैरायटी का बनाओ, तो सुन्दर क्या लगेगा? वैरायटी भी चाहिए। लेकिन गुलाब के फूलों को तो सदा बीच में डालेंगे और वैरायटी फूलों को किनारे पर डालेंगे। तो मैं कौन हूँ? - वह हरेक अपने आपको जानता है। बापदादा के बेहद के गुलदस्ते के अन्दर मेरा स्थान कहाँ है, वह भी जानते हो क्योंकि गुलदस्ते के अन्दर तो हो ना! यह तो पक्का है, तब मधुबन के अन्दर आये हो।

पाण्डव भवन (दिल्ली) के पाण्डव क्या करते हैं? यादगार में भी यही समाचार पूछा ना! पाण्डव क्या कर रहे हैं? पाण्डव भवन है नेक्स्ट मधुबन। तो पाण्डव भवन निवासी क्या सर्विस का प्लैन बना रहे हो? ऐसी सेवा करो जो सबकी नजर सेवा के कारण पाण्डव भवन की तरफ जाये, यह है नई बात। ऐसा कुछ प्लैन बनाया है? पाण्डव भवन है ही विश्व के अन्दर विशेष भवन। तो विशेष में वी.आई.पी. स्थान हो गया तो जैसे वी.आई.पी. स्थान है, वैसे वी.आई.पी.की सेवा हो ना! दिल्ली है वी.आई.पी.की नगरी और स्थान भी वी.आई.पी. और करने वाले भी अच्छे महावीर वी.आई.पी. हो। तो अभी क्या करेंगे? अपनी दिनचर्या को सेट करो। अभी देखो यहाँ (मधुबन में) इतना बड़ा कार्य है, दिनचर्या सेट होने के कारण चारों ओर के कार्य में सफलता तो पा रहे हैं। कार्य बढ़ रहा है लेकिन दिनचर्या सेट होने के कारण कार्य ठीक हो जाता है, सिर्फ यह अटेन्शन। सुबह से रात तक अपना फिक्स प्रोग्राम डेली डायरी बनाओ क्योंकि जिम्मेवार आत्मायें हो, रिवाजी आत्मायें नहीं। विश्व-कल्याणकारी आत्मायें हो। तो जितना बड़ा आदमी होता है, उसकी दिनचर्या सेट होती है। बड़े आदमी की निशानी है - एक्यूरेट। एक्यूरेट का साधन है दिनचर्या की सेटिंग। एक व्यक्ति 10 व्यक्ति का कार्य कर सकता है। सेटिंग से समय, एनर्जा बच जाती है। इसके कारण एक के बजाए 10 कार्य हो जाते हैं। अच्छा, सदा सन्तुष्ट आत्मायें हो ना? सदा बाप के साथ अर्थात् सदा सन्तुष्ट। बाप और आप सदा कम्बाइन्ड हो तो कम्बाइन्ड की शक्ति कितनी बड़ी है, एक कार्य के बजाए हजार कार्य कर सकते हो क्योंकि हजार भुजाओं वाला बाप आपके साथ है।

2. सभी सहजयोगी हो ना? बाप का बनना अर्थात् सहजयोगी बनना क्योकि बच्चा अर्थात् भाग्यशाली। बच्चे को सिवाए बाप के और है ही क्या? माँ होते हुए भी प्राप्ति का आधार बाप है। प्यार के सम्बन्ध में माँ याद आयेगी, प्राप्ति के सम्बन्ध में बाप याद आयेगा। योग लगाना न पड़े लेकिन न चाहते हुए भी एक बाप के सिवाए और कोई नजर न आये। बाप का बनना अर्थात् सहजयोगी बनना। अच्छा - ओम् शान्ति।



12-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"वर्त्तमान ही भविष्य का आधार"

सृष्टि के आदि, मध्य और अन्त के राज खोलने वाले, बीजरूप ज्ञान सागर शिव बाबा बोले :-

आज वृक्षपति बाप अपने वृक्ष के पहले-पहले पत्तों को वा वृक्ष के आधारमूर्त्त श्रेष्ठ आत्माओं को देख रहे हैं। ब्राह्मण आत्मायें ही नये वृक्ष के कलम हैं। कलम पर ही आधार होता है-नये वृक्ष का। आप हर आत्मा नये वृक्ष के कलम हो, इसलिए हर आत्मा अमूल्य है। सदा अपने को ऐसे अमूल्य आधारमूर्त्त वृक्ष का कलम समझकर चलते हो? कलम में जो कमजोरी होगी, वह सारे वृक्ष में कमजोरी होगी। इतनी जिम्मेवारी हर एक अपनी समझते हो? यह तो नहीं समझते कि हम छोटे हैं वा पीछे आने वाले हैं, जिम्मेवारी बड़ों के ऊपर है - ऐसे तो नहीं समझते हो ना? जब वर्सा लेने में नया, चाहे छोटा, चाहे बड़ा हरेक अपने को पूरा अधिकारी समझते हो, कोई भी चन्द्रवंशी का वर्सा लेने के लिए तैयार नहीं होते हो, सब यही हक रखते हो कि हम सूर्यवंशी बनेंगे। साथ-साथ संगमयुग की प्राप्ति के ऊपर, बाप के ऊपर अपना पूरा हक लगाते हो। यही बोल बोलते हो कि पहले हम छोटों का बाप है। छोटों पर ज्यादा स्नेह है बाप का, इसीलिए हमारा ही बाबा है। पहले हमको सब अधिकार होना चाहिए। स्नेह से अपने अधिकार का वर्णन करते हो। तो जैसे बाप के ऊपर, प्राप्ति के ऊपर अपना अधिकार समझते हो वैसे जिम्मेवारी में भी छोटे बड़े सब अधिकारी हो। सब साथी हो। तो इतनी जिम्मेवारी के अधिकारी समझ करके चलो। स्व-परिवर्त्तन, विश्व-परिवर्त्तन दोनों के जिम्मेवारी के ताजधारी सो विश्व के राज्य के ताज के अधिकारी होंगे। संगमयुगी ताजधारी सो भविष्य का ताजधारी। वर्त्तमान नहीं तो भविष्य नहीं। वर्त्तमान ही भविष्य का आधार है। चेक करो और नालेज के दर्पण में दोनों स्वरूप देखो-संगमयुगी ब्राह्मण और भविष्य देवपदधारी। दोनों रूप देखो और फिर दोनों में चेक करो-ब्राह्मण जीवन में डबल ताज है वा सिंगल ताज है? एक है पवित्रता का ताज, दूसरा है प्रैक्टिकल जीवन में पढ़ाई और सेवा का। दोनों ताज समान हैं? सम्पूर्ण हैं? वा कुछ कम है? अगर यहाँ कोई भी ताज अधूरा है, चाहे पवित्रता का, चाहे पढ़ाई वा सेवा का, तो वहाँ भी छोटे से ताज के अधिकारी वा एक ताजधारी अर्थात् प्रजा पद वाले बनना पड़ेगा। क्योंकि प्रजा को भी लाइट का ताज तो होगा अर्थात् पवित्र आत्मायें होंगी। लेकिन विश्वराजन् वा महाराजन् का ताज नहीं प्राप्त होगा। कोई महाराजन् कोई राजन् अर्थात् राजा, महाराजा और विश्व महाराजा, इसी आधार पर नम्बरवार ताजधारी होंगे।

इसी प्रकार तख्त को देखो - वर्त्तमान समय ब्राह्मण जीवन में कितना समय अकाल तख्तधारी और दिलतख्तधारी, दोनों तख्तन- शीन कितना समय रहते हो? अकाल तख्तनशीन निरन्तर होंगे अर्थात् सदाकाल होंगे तो दिलतख्तनशीन भी सदाकाल होंगे। दोनों का सम्बन्ध है। ब्राह्मण जीवन में कभी-कभी तख्तनशीन तो भविष्य में भी पूरा आधाकल्प तख्तनशीन अर्थात् रायल फैमली में नहीं आ सकते। क्योंकि रायल फैमली ही तख्तनशीन गाई जाती है। तो यहाँ के सदाकाल के तख्तनशीन सो भविष्य सदाकाल के राज्य अधिकारी अर्थात् तख्तनशीन। तो दर्पण में देखो - वर्त्तमान क्या और भविष्य क्या? इसी रीति तिलक को चेक करो - अविनाशी अर्थात् अमिट तिलकधारी हो? संगमयुग पर ही देवों के देव के सुहाग और परमात्म वा ईश्वरीय सन्तान के भाग्य का तिलक प्राप्त होता है। तो यह सुहाग और परमात्म वा ईश्वरीय सन्तान के भाग्य का तिलक प्राप्त होता है। तो यह सुहाग और भाग्य का तिलक अविनाशी है? माया सुहाग वा भाग्य का तिलक मिटा तो नहीं देती? यहाँ के सुहाग, भाग्य के सदा तिलकधारी सो भविष्य के सदा राज्य-तिलकधारी। हर जन्म में राज्य तिलक का उत्सव होगा। राजा के साथ रायल फैमली का भी तिलक-दिवस मनाया जाता है। वहाँ के हर जन्म के राज तिलक का उत्सव और यहाँ ब्राह्मण जीवन में सदा बाप से मिलन मेले का, स्वयं की सदा चढ़ती कला का, हर प्रकार की सेवा का अर्थात् तन-मन-धन-जन सबकी सेवा का सदा उत्साह और उमंग होगा। तो अब का उत्साह और भविष्य का उत्सव होगा।

इसी प्रकार तन-मन-धन का सम्बन्ध है। यहाँ आदि से अब तक और अब से अन्त तक अपने तन को कितना समय सेवा में समर्पण किया? मन को कितना समय याद और मंसा सेवा में लगाया? मंसा सेवा है - शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना। इसमें भी सेवा हद की रही वा बेहद की रही? सर्व के प्रति शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना रही वा कोई के प्रति रही, कोई के प्रति नहीं रही? इसी प्रकार धन, स्व प्रति लगाते हैं. स्वार्थ से लगाते हैं वा नि:स्वार्थ सेवा में लगाते हैं? अमानत में खयानत तो नहीं डालते हैं? बेहद के बजाए हद में तो नहीं लगाते हैं? इस चेकिंग के आधार पर वहाँ भी प्रालब्ध में परसेन्टेज के आधार पर नम्बरवार पद की प्राप्ति होती है। सब में फुल परसेन्ट तो फुल समय और फुल प्रालब्ध। नहीं तो स्टेटस् में और समय में अन्तर हो जाता है। फुल समय वाले और फुल प्रालब्ध वाले वन-वन-वन के संवत से पहला-पहला सम्पूर्ण फुल सतोप्रधान प्रकृति, फुल राज्य-भाग्य, संवत भी वन, प्रालब्ध भी वन, प्रकृति का सुख भी वन। नहीं तो फिर सेकेण्ड, थर्ड यह शुरू हो जायेगा।

अब दोनों रूप से चेक करो - ब्राह्मण और देवता। संगमयुगी और सतयुगी, दोनों स्वरूप को सामने रखो। संमगयुग में है तो सत- युग में होगा ही, निश्चित है। इसलिए ब्राह्मण जीवन के 16 रूहानी श्रृंगारों को देखो। 16 कलाओं को देखो। स्वयं ही स्वयं को देखो, जो कमी देखो वह अब भरते चलो। समझा-क्या करना है? स्व को दर्पण में देखो। अच्छा-

आज महाराष्ट्र का टर्न है तो महान बनने की बातें सुनायेंगे ना? महाराष्ट्र अर्थात् अब के भी महान और भविष्य में भी महान। अच्छा। ऐसे बेहद के सेवाधारी, सर्व प्रति सदा शुभचिन्तन, सदा याद और सेवा के उत्साह में रहने वाले, सदा के सुहाग और भाग्य के तिलकधारी, ऐसे वर्त्तमान के राज्य अलंकारी, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

आज बीच-बीच में बिजली बहुत आ जा रही थी, तो बाबा बोले - ‘‘बिजली की हलचल में बुद्धि की हलचल तो नहीं? आपके इस साकार सृष्टि का गीत है जो भक्त लोग गाते हैं, बाप को कहते हैं देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई'...तो बाप भी देख रहे हैं, भक्तों का आवाज भी आ रहा है और देख भी रहे हैं। जब नाम ही है असार संसार तो किसी भी साधन में सार क्या होगा? अच्छा।’’

महाराष्ट्र जोन की पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मधुर मुलाकात:-

संगमयुग का बड़े ते बड़ा खज़ाना कौन सा है? बाप ही सबसे बड़े ते बड़ा खज़ाना है। बाप मिला तो सब कुछ मिला। बाप नहीं तो कुछ नहीं। तो सतयुग में भी यह बड़े ते बड़ा खज़ाना नहीं होगा। प्रालब्ध होगी, यह खज़ाना नहीं होगा। तो ऐसे युग में, जो सब खज़ाना ही खज़ाना मिलता है। संगमयुग में सतयुग से भी श्रेष्ठ खज़ाना मिलता है। तो ऐसे युग में, जो सब खज़ाने प्राप्त होने का युग है और प्राप्त करने वाली आत्मायें भी आप ही हो तो ऐसी आत्मायें सम्पन्न होंगी ना! ब्राह्मणों के जीवन में अप्राप्त नहीं कोई वस्तु। देवताओं के जीवन में बाप की अप्राप्ति होगी, लेकिन ब्राह्मणों के जीवन में कोई भी अप्राप्ति नहीं। तो मन का अविनाशी गीत यही बजता रहता है कि - ‘‘अप्राप्त नहीं कोई वस्तु हम ब्राह्मणों के खज़ाने में!'' खज़ानों के मालिक हो कि बनना है? बालक बनना अर्थात् मालिक बनना। मालिक तो बन गये बाकी सम्भालना कहाँ तक आता है, यह हरेक का नम्बरवार है। तो सदा इसी खुशी में नाचते रहो कि - मैं बालक सो मालिक हूँ!''

2-सभी निश्चयबुद्धि विजयन्ती हो ना! निश्चय में कभी डगमग तो नहीं होते हो? अचल, अडोल, महावीर हो ना? महावीर की विशे- षता क्या है? सदा अचल, अडोल, संकल्प वा स्वप्न में भी व्यर्थ संकल्प न आए इसको कहा जाता है अचल, अडोल महावीर। तो ऐसे हो ना? जो कुछ होता है-उसमें कल्याण भरा हुआ है। जिसको अभी नहीं जानते लेकिन आगे चल करके जानते जायेंगे। कोई भी बात एक काल की दृष्टि से नहीं देखो, त्रिकालदर्शी हो करके देखो। अब यह क्यों? अब यह क्या? ऐसे नहीं, त्रिकालदर्शी होकर देखने से सदा यही संकल्प रहेगा कि जो हो रहा है उसमें कल्याण है। ऐसे ही त्रिकालदर्शी होकर चलते हो ना? सेवा के आधारमूर्त्त जितने मजबूत होंगे उतनी सेवा की बिल्डिंग भी मजबूत होगी। जो बाबा बोले वह करते चलो, फिर बाबा जाने बाबा का काम जाने। जैसे बाबा वैसे चलो तो उसमें कल्याण भरा हुआ है। बाबा कहे ऐसे चलो, ऐसे रहो - जी हाजर। ऐसे क्यों? नहीं। जी हाजर। समझा? जी हजूर वा जी हाजर! तो सदा उड़ती कला में जाते रहेंगे। रूकेंगे नहीं, उड़ते रहेंगे क्योंकि हल्के हो जायेंगे ना!

3-सभी अपने को सदा विश्व के अन्दर कोटों में कोई, कोई में भी कोई, ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें समझते हो? ऐसे अनुभव होता है कि यह हमारा ही गायन है? एक होता है ज्ञान के आधार पर जानना, दूसरा होता है किसी का अनुभव सुनकर उस आधार पर मानना और तीसरा होता है - स्वयं अनुभव करके महसूस करना। तो ऐसे महसूस होता है कि हम कल्प पहले वाली कोटों में से कोई, कोई में से कोई श्रेष्ठ आत्मायें हैं? ऐसी आत्माओं की निशानी क्या होगी? ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें सदा बाप शमा के पीछे परवाने बन फिदा होने वाली होंगी। चक्र लगाने वाली नहीं। आए चक्र लगाया, थोड़ी सी प्राप्ति की, ऐसे नहीं। लेकिन फिदा होना अर्थात् मर जाना - ऐसे जल मरने वाले परवाने हो ना? जलना ही बाप का बनना है। जो जलता है वही बनता है। जलना अर्थात् परिवर्त्तन होना। अच्छा-

सदा हर परिस्थिति में एकरस स्थिति रहे, उसका सहज साधन क्या है? क्योंकि सभी का लक्ष्य एक है, जैसे एक बाप, एक घर, एक ही राज्य होगा, ऐसे अभी भी एकरस स्थिति। लेकिन एकरस स्थिति में रहने का सहज साधन क्या मिला है? एक शब्द बताओ। वह एक शब्द है - ट्रस्टी। अगर ट्रस्टी बन जाते तो न्यारे और प्यारे होने से एकरस हो जाते। जब गृहस्थी है तो अनेक रस हैं, मेरा-मेरा बहुत हो जाता है। कभी मेरा घर, कभी मेरा परिवार,....गृहस्थीपन अर्थात् अनेक रसों में भटकना। ट्रस्टीपन अर्थात् एकरस। ट्रस्टी सदा हल्का और सदा चढ़ती कला में जाएगा। तो यह सारा ग्रुप ट्रस्टी ग्रुप है ना! जरा भी मेरापन है तो मेरा माना गृहस्थीपन। जहाँ मेरापन होगा वहाँ ममता होगी। ममता वाले को गृहस्थी कहेंगे, ट्रस्टी नहीं। गृहस्थी तो आधाकल्प रहे और गृहस्थीपन के जीवन में क्या प्राप्ति हुई, उसका भी अनुभव किया। अब ट्रस्टी बनो। अगर थोड़ा भी गृहस्थीपन हो तो मधुबन में छोड़कर जाना। जो दु:ख की लहर पैदा करने वाला हो उसे छोड़कर जाना और जो सुख देने वाला हो उसे लेकर जाना। अच्छा।''

मीठी दादी जी अम्बाला मेले में जाने की छुट्टी बापदादा से ले रही हैं, बापदादा बोले:-

बापदादा अनेक बच्चों की खुशी देखकर खुश होते हैं! सेवा के लिए जहाँ भी जाओ, अनेक खज़ाने अनेकों को मिल जाते हैं। इसलिए ड्रामा में अब तक जाने का है, तो चल रहा है, स्टाप होगा तो सेकेण्ड में हो जायेगा। जैसे साकार में देखा, तैयारी की हुई भी थी, पार्ट समाप्त था तो तैयारी होते भी नहीं जा सके। ऐसे यह भी ड्रामा में समाप्त होगा तो सेकेण्ड में अचानक होगा। अब तक तो जाना भी है, रिफ्रेश करना भी है। सबके दिल को खुश करना यह भी सबसे बड़ा पुण्य है। सबका आह्वान है ना! आह्वान में प्रत्यक्ष होना ही पड़ता है। जड़ चित्रों का भी आह्वान करते हैं तो उसमें भी जान अनुभव होती है। तो यह आह्वान करना भी शुरू यहाँ से ही होता है इसलिए सभी को यादप्यार देते हुए यही कहना कि अभी वाचा के साथ-साथ संकल्प शक्ति की सेवा जो ही अन्तिम पावर- फुल सेवा है, वह भी करो। संकल्प शक्ति और वाणी की शक्ति, मंसा सेवा और वाणी की सेवा - दोनों का जब कम्बाइंड रूप होगा तब सहज सफलता होगी। सिंगल से सिंगल रिजल्ट है, कम्बाइंड सेवा से दुगनी रिजल्ट होगी। पहले संकल्प शक्ति फिर है वाणी की शक्ति। तो मंसा और वाचा दोनों सेवा साथ-साथ चाहिए। वाणी में मंसा सेवा न हो सके - यह भी नहीं और मंसा में वाणी न बोल सके - यह भी नहीं। वाणी की सेवा करने वाले थोड़े होते हैं, बाकी रेख देख करने वाले, दूसरे कार्य में जो रहते हैं उन्हें मंसा सेवा करनी चाहिए। इससे वायुमण्डल योगयुक्त बनता है। संगठन में मिलन ज्यादा होता है, लेकिन मिलन के साथ सेवा का भी लक्ष्य हो। हरेक समझे कि हमें सेवा करनी है फिर वातावरण पावरफुल रहेगा और सेवा भी डबल हो जायेगी। उमंग उत्साह से कर रहे हैं यह बहुत अच्छा है! लेकिन उमंग उत्साह के साथ-साथ यह भी लक्ष्य जरूरी है। अच्छा-सभी को बहुत-बहुत याद देना।''

प्रश्न :- बाप के याद की लगन, अग्नि का काम करती है, कैसे?

उत्तर :- जैसे अग्नि में कोई भी चीज़ डालो तो नाम, रूप, गुण सब बदल जाता है, ऐसे जब बाप के याद की लगन की अग्नि में पड़ते हो तो परिवर्त्तन हो जाते हो ना! मनुष्य से ब्राह्मण बन जाते, फिर ब्राह्मण से फरिश्ता सो देवता बन जाते। तो कैसे परिवर्त्तन हुए? लग्न की अग्नि से। अपनापन कुछ भी नहीं। मानव, मानव नहीं रहा फरिश्ता बन गया। जैसे कच्ची मिट्टी को साँचे में ढालकर आग में डालते हैं तो ईट बन जाती, ऐसे यह भी परिवर्त्तन हो जाता। इसलिए इस याद को ही ज्वाला रूप कहा है। ज्वालामुखी भी प्रसिद्ध है, तो ज्वालादेवी वा देवतायें भी प्रसिद्ध हैं। अच्छा-ओमशान्ति।



14-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सर्व खज़ानों की चाबी एक शब्द - बाबा'"

सर्वश्रेष्ठ भाग्य विधाता, पद्मापदम भाग्यशाली बनाने वाले बापदादा बोले –

आज भाग्यविधाता बाप अपने भाग्यशाली बच्चों को देख रहे हैं। भाग्यशाली तो सभी बने हैं लेकिन भाग्यशाली शब्द के आगे कहाँ सौभाग्यशाली, कहाँ पद्मापदम भाग्यशाली। भाग्यशाली शब्द दोनों के लिए कहा जाता है। कहाँ सौ और कहाँ पदम, अन्तर हो गया ना, भाग्य विधाता एक ही है। विधाता की विधि भी एक ही है। समय और वेला भी एक ही है। फिर भी नम्बरवार हो गये। विधाता की विधि कितनी श्रेष्ठ और सहज है। वैसे लौकिक रीति से आजकल किसी के ऊपर ग्रहचारी के कारण तकदीर बदल जाती है तो ग्रहचारी को मिटा कर श्रेष्ठ तकदीर बनाने के लिए कितने प्रकार की विधियाँ करते हैं! कितना समय, कितनी शक्ति और सम्पत्ति खर्च करते हैं! फिर भी अल्पकाल की तकदीर बनती है। एक जन्म की भी गारन्टी नहीं क्योंकि वे लोग विधाता द्वारा तकदीर नहीं बदलते। अल्पज्ञ, अल्प-सिद्धि के प्राप्त हुए व्यक्ति द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति करते हैं। वह हैं अल्पज्ञ व्यक्ति और यहाँ है विधाता। विधाता द्वारा अविनाशी तकदीर की लकीर खिंचवा सकते हो। क्योंकि भाग्यविधाता दोनों बाप इस समय बच्चों के लिए हाजर ना जर हैं। जितना भाग्य विधाता से भाग्य लेने चाहो उतना अब ले सकते हो। इस समय ही भाग्य-दाता भाग्य बाँटने के लिए आयें हैं। इस समय को ड्रामा अनुसार वरदान है। भाग्य के भण्डारे भरपूर खुले हुए हैं। तन का भण्डारा, मन का, धन का, राज्य का, प्रकृति दासी बनने का, भक्त बनाने का, सब भाग्य के भण्डारे खुले हैं। किसी को भी विधाता द्वारा स्पेशल प्राप्ति का चांस नहीं मिलता है। सबको एक जैसा चांस है। कोई भी बातों का कारण भी बंधन के रूप में नहीं है। पीछे आने का कारण, प्रवृत्ति में रहने का कारण, तन के रोग का कारण, आयु का कारण, स्थूल डिग्री या पढ़ाई का कारण, किसी भी प्रकार के कारण का ताला भण्डारे में नहीं लगा हुआ है। दिन-रात भाग्य विधाता के भण्डारे भरपूर और खुले हुए हैं। कोई चौकीदार नहीं है। फिर भी देखो लेने में नम्बर बन जातें हैं। भाग्य विधाता नम्बर से नहीं देते हैं। यहाँ भाग्य लेने के लिए क्यू में भी नहीं खड़ा करते हैं। इतने बड़े भण्डारे हैं भाग्य के, जब चाहो जो चाहो अधिकारी हो। ऐसे है ना? कोई ताला और क्यू तो नहीं है ना? अमृतवेले देखो-देश विदेश के सभी बच्चे एक ही समय पर भाग्य विधाता से मिलन मनाने आते, तो मिलना हो ही जाता है। मिलन मनाना ही मिलना हो जाता है। माँगते नहीं हैं, लेकिन बड़े ते बड़े बाप से मिलना अर्थात् भाग्य की प्राप्ति होना। एक है बाप बच्चों का मिलना, दूसरा है कोई चीज़ मिलना। तो मिलन भी हो जाता है ओर भाग्य मिलना भी हो जाता है। क्योंकि बड़े आदमी कभी भी किसी को खाली नहीं भेज सकते हैं। तो बाप तो है ही विधाता, वरदाता, भरपूर भण्डारे। खाली कैसे भेज सकते! फिर भी भाग्यशाली, सौभाग्यशाली पदम भाग्य शाली, पद्मापद्म भाग्यशाली, ऐसे क्यों बनतें हैं? देने वाला भी है, भाग्य का खज़ाना भी भरपूर है, समय का भी वरदान है। इन सब बातों का ज्ञान अर्थात् समझ भी हैं। अनजान भी नहीं हैं फिर भी अन्तर क्यों? (ड्रामा अनुसार)। ड्रामा को ही अभी वरदान है, इसलिए ड्रामा नहीं कह सकते।

विधि भी देखो कितनी सरल है। कोई मेहनत भी नहीं बतलाते, धक्के नहीं खिलाते, खर्चा नहीं कराते। विधि भी एक शब्द की है। कौन सा एक शब्द? एक शब्द जानते हो? एक ही शब्द सर्व खज़ानों की वा श्रेष्ठ भाग्य की चाबी है। वही चाबी है, वही विधि है। वह क्या है? यह ‘‘बाबा'' शब्द ही चाबी और विधि है। तो चाबी तो सबके पास है ना? फिर फर्क क्यों? चाबी अटक क्यों जाती है? राइट के बजाए लेफ्ट तरफ घुमा देते हो। स्वचिन्तन के बजाए, परचिन्तन, यह उल्टे तरफ की चाबी है। स्वदर्शन के बदले परदर्श न, बदलने के बजाए, बदला लेने की भावना, स्वपरिवर्त्तन के बजाए पर-परिवर्त्तन की इच्छा रखना। काम मेरा नाम बाप का, इसके बजाए नाम मेरा काम बाप का, इसी प्रकार की उल्टी चाबी धुमा देते हैं, तो खज़ाने होते हुए भी भाग्यहीन खज़ाने पा नहीं सकते। भाग्य विधाता के बच्चे और बन क्या जाते हैं? थोड़ी सी अंचली लेने वाले बन जाते। दूसरा क्या करते हैं?

आजकल की दुनिया में जो अमूल्य खज़ाने लाकर्स वा तिजोरियों में रखते हैं, उन्हों के खोलने की विधि डबल चाबी लगातें हैं वा दो बारी चक्कर लगाना होता है। अगर वह विधि नहीं करेंगे तो खज़ाने मिल नहीं सकते। लाकर्स में देखा होगा - एक आप चाबी लगायेंगे, दूसरा बैंक वाला लगायेगा। तो डबल चाबी होगी ना! अगर सिर्फ आप अपनी चाबी लगाकर खोलने चाहो तो खुल नहीं सकता। तो यहाँ भी आप और बाप दोनों के याद की चाबी चाहिए। कई बच्चे अपने नशे में आकर कहते हैं - मैं सब कुछ जान गया हूँ, मैं जो चाहूँ वह कर सकता हूँ, करा सकता हूँ। बाप ने तो हमको मालिक बना दिया है। ऐसे उल्टे मै-पन के नशे में बाप से सम्बन्ध भूल, स्वयं को ही सब कुछ समझने लगते हैं। और एक ही चाबी से खज़ाने खोलने चाहते हैं। अर्थात् खज़ानों का अनुभव करने चाहते हैं। लेकिन बिना बाप के सहयोग वा साथ के खज़ाने मिल नहीं सकते, तो डबल चाबी चाहिए। कई बच्चे बाप-दादा अर्थात् दोनों बाप के बजाए एक ही बाप द्वारा खज़ाने के मालिक बनने के विधि को अपनाते हैं, इससे भी प्राप्ति से वंचित हो जाते हैं। हमारा निराकार से डायरेक्ट कनेक्शन है, साकार ने भी निराकार से पाया इसलिए हम भी निराकार द्वारा ही सब पा लेंगे, साकार की क्या आवश्यकता है। लेकिन ऐसी चाबी खण्डित चाबी बन जाती है। इसलिए सफलता नहीं मिल पाती है। हंसी की बात तो यह है, नाम अपना ब्रह्माकुमारी, कुमारी कहलायेंगे और कनेक्शन शिव बाप से रखेंगे। तो अपने को शिवकुमार, कुमारी कहलाओ ना! ब्रह्माकुमार और कुमारी क्यों कहते? सरनेम ही है शिव वंशी ब्रह्माकुमार, ब्रह्माकुमारी तो दोनों ही बाप का सम्बन्ध हुआ ना!

दूसरी बात - शिव बाप ने भी ब्रह्मा द्वारा ही स्वयं को प्रत्यक्ष किया। ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मण एडाप्ट किये। अकेला नहीं किया। ब्रह्मा माँ ने बाप का परिचय दिलाया। ब्रह्मा माँ ने पालना कर बाप से वर्से के योग्य बनाया।

तीसरी बात - राज्य-भाग्य को प्रालब्ध में किसके साथ आयेंगे? निराकार तो निराकारी दुनिया के वासी हो जायेंगे। साकार ब्रह्मा बाप के साथ राज्य-भाग्य की प्रालब्ध भोगेंगे। साकार में हीरो पार्ट बजाने का सम्बन्ध साकार ब्रह्मा बाप से है वा निराकार से? तो साकार के बिना सर्व भाग्य के भण्डारे के मालिक कैसे हो सकते हैं? तो खण्डित चाबी नहीं लगाना। भाग्य विधाता ने भाग्य बाँटा ही ब्रह्मा द्वारा है। सिवाए ब्रह्माकुमार, कुमारी के भाग्य बन नहीं सकता।

आप लोंगो के यादगार में भी यही गायन है कि ब्रह्मा ने जब भाग्य बाँटा तो सोये हुए थे! सोये हुए थे वा खोये हुए थे? इस लिए उल्टी चाबी नहीं लगाओ, डबल चाबी लगाओ। डबल बाप भी और डबल आप और बाप भी, इसी सहज विधि से सदा भाग्य के खज़ाने से पद्मापद्म भाग्यशाली बन सकते हो। कारण को निवारण करो तो सदा सम्पन्न बन जायेंगे। समझा? अच्छा।

ऐसे भाग्य विधाता के सदा श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को, सहज विधि द्वारा विधाता को ही अपना बनाने वाले, सदा सर्व भाग्य के खज़ानों से खेलने वाले, ‘‘बाबा-बाबा'' कहना नहीं लेकिन ‘‘बाबा'' को अपना बनाना और खज़ानों को पाना, ऐसे सदा अधिकारी बच्चों को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।

पार्टियों से व्यक्तिगत मुलाकात

सुना तो बहुत है, सुनने के बाद स्वरूप बने? सुनना अर्थात् स्वरूप बनना। इसको कहा जाता है - मनरस। सिर्फ सुनना तो कनरस हो गया। लेकिन सुनना और बनना, यह है मनरस। मंत्र ही है - मनमनाभव। मन को बाप में लगाना। जब मन लग जाता है तो जहाँ मन होगा, वहाँ स्वरूप भी सहज बन जायेंगे। जैसे देखो किसी भी स्थान पर बैठे सुख व खुशी की बातों में मन चला जाता है तो स्वरूप ही वह बन जाता है। तो मनरस अर्थात् जहाँ मन होगा वैसा बन जायेंगें। अब कनरस का समय समाप्त हुआ और मनरस का समय चल रहा है। तो अभी क्या बन गये? भाग्य के खज़ानों के मालिक, सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान बन गये ना! जैसा बाप वैसे हम। ऐसे समझते हो ना? चाबी भी सुना दी और विधि भी सुना दी। अभी लगाना आप का काम है। चाबी लगाने तो आती हैं ना? अगर चाबी को उल्टा चक्कर लग गया तो बहुत मुश्किल हो जायेगा। चाबी भी चली जायेगी और खज़ाना भी चला जायेगा। तो आप सब सुल्टी चाबी लगाने वाले पद्मापद्म भाग्यशाली हो ना? पद्मापद्म भाग्यशाली की निशानी क्या होगी? उनके हर कदम में भी पद्म होंगे और वे हर कदम में भी पद्मो की कमाई जमा करेंगे। एक भी कदम पद्मों की कमाई से वंचित नहीं होगा। इसलिए डबल पद्म, एक पद्म कमल पुष्प को भी कहते हैं, अगर कमल पुष्प के समान नहीं तो भी अपने भाग्य को बना नहीं सकते। कीचड़ में फंसना अर्थात् भाग्य को गंवाना। तो पद्मापद्म भाग्य शाली अर्थात् पद्म समान रहना और पद्मों की कमाई करना, तो देखो यह दोनों ही निशानियाँ हैं! सदा न्यारे और बाप के प्यारे बने हैं! न्यारा पन ही बाप को प्यारा है। जितना जो न्यारा रहता है उतना स्वत: ही बाप का प्यारा हो जाता। क्योंकि बाप भी सदा न्यारा है, तो वह बाप समान हो गया ना! तो हर कदम में चेक करो कि हर कदम अर्थात् हर सेकेण्ड, हर संकल्प में, हर बोल में, हर कर्म में, पदमों की कमाई होती है! बोल भी समर्थ, कर्म भी समर्थ, संकल्प भी समर्थ। समर्थ में कमाई होगी, व्यर्थ में कमाई जायेगी। तो हरेक अपना चार्ट स्वत: ही चेक करो। करने के पहले चेक करना यह है, यथार्थ चेकिंग। इसके करने के बाद चेक करो तो जो कर चुके वह तो हो ही गया ना! इसलिए पहले चेक करना फिर करना। समझदार वा नालेज- फुल की निशानी ही है - ‘‘पहले सोचना फिर करना।'' करने के बाद अगर सोचा तो आधा गंवाया, आधा पाया। कने के पहले सोचा तो सदा पाया। ज्ञानी तू आत्मा अर्थात् समझदार। सिर्फ रात को वा सुबह को चेंकिंग नहीं करते, लेकिन हर समय पहले चेकिंग करेंगे फिर करेंगे। जैसे बड़े आदमी पहले भोजन को चेक कराते हैं फिर खाते हैं। तो यह संकल्प भी बुद्धि का भोजन है, इसलिए आप बच्चों को संकल्प की भी चेकिंग कर फिर स्वीकार करना है अर्थात् कर्म में लाना है। संकल्प ही चेक हो गया तो वाणी और कर्म स्वत: ही चेक हो जायेंगे। बीज तो संकल्प है ना! आप जैसे बड़े और कल्प में हुए ही नहीं हैं।

2. सदा कर्मयोगी बन हर कर्म करते हो? कर्म और योग दोनों कम्बाइन्ड रहता है? जैसे शरीर और आत्मा दोनों कम्बाइन्ड होकर कर्म कर ही है, ऐसे कर्म और योग दोनों कम्बाइंड रहते हैं? कर्म करते याद न भूले और याद में रहते कर्म न भूले। कई ऐसे करते हैं कि जब कर्मक्षेत्र पर जाते हैं तो याद भूल जाती है। तो इससे सिद्ध है कि कर्म और याद अलग हो गई। लेकिन यह दोनों कम्बा- इन्ड हैं। टाइटल ही है - कर्मयोगी। कर्म करते याद में रहने वाले सदा न्यारे और प्यारे होंगे, हल्के होंगे, किसी भी कर्म में बोझ अनुभव नहीं करेंगे। कर्मयोगी को ही दूसरे शब्दों में कमल पुष्प कहा जाता है। तो कमल पुष्प के समान रहते हो? कभी किसी भी प्रकार का कीचड़ अर्थात् माया का वायब्रेशन टच तो नहीं होता है? कभी माया आती है या विदाई लेकर चली गई? माया को अपने साथ बिठा तो नही देते हो? माया को बिठाना अर्थात् बाप से किनारा करना। इसलिए माया के भी नालेजफुल बन दूर से ही उसे भगा दो। नालेजफुल अनुभव के आधार से जानते हैं कि माया की उत्पत्ति कब और कैसे होती है। माया का जन्म कमजोरी से होता है। किसी भी प्रकार की कमजोरी होगी तो माया आयेगी। जैसे कमजोरी से अनेक बीमारियों के जर्मस पैदा हो जाते हैं। ऐसे आत्मा की कमजोरी से माया को जन्म मिल जाता है। कारण है - अपनी कमजोरी, और उसका निवारण है - रोज की मुरली। मुरली ही ताजा भोजन है, शक्तिशाली भोजन है। जो भी शक्तियाँ चाहिए, उन सबसे सम्पन्न रोज का भोजन मिलता है। जो रोज शक्तिशाली भोजन ग्रहण करता है वह कमजोर हो नहीं सकता। रोज यह भोजन तो खाते हो न, उस भोजन का व्रत रखने की जरूरत नहीं। रोज ऐसे शक्तिशाली भोजन मिलने से मास्टर सर्वशक्तिवान रहेंगे। भोजन के साथ-साथ भोजन को हजम करने की भी शक्ति चाहिए। अगर सिर्फ सुनने की शक्ति है, मनन करने की शक्ति नहीं, तो भी शक्तिशाली नहीं बन सकते। सुनने की शक्ति अर्थात् भोजन खाया और मनन शक्ति अर्थात् भोजन को हजम किया। दोनों शक्ति वाले कमजोर नहीं हो सकते।

टीचर्स के साथ - सेवाधारी की विशेषता ही है - त्याग और तपस्या। जहाँ त्याग और तपस्या है, वहाँ सेवाधारी की सदा सफलता है। सेवाधारी अर्थात् जिसका एक बाप के सिवाए ओर कोई नहीं। एक बाप ही सारा संसार है। जब संसार ही बाप हो गया तो और क्या चाहिए! सिवाए बाप के और दिखाई न दे। चलते-फिरते, खाते-पीते एक बाप और दूसरा न कोई। यही स्मृति में रखना अर्थात् सफलता मूर्त्त बनना। सफलता कम होती तो चेक करो- जरूर बापदादा के साथ कोई दूसरा बीच में आ गया है। सफलतामूर्त्त की निशानी - एक बाप में सारा संसार।



17-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सभी परिस्थितियों का समाधान - उड़ता पंछी बनो"

अव्यक्त बापदादा वतन निवासी, सदा न्यारे और सर्व के प्यारे शिव बाबा बोले :-

‘‘बापदादा सभी बच्चों को नयनों की भाषा द्वारा इस लोक से परे अव्यक्त वतनवासी बनने के इशारे देते हैं। जैसे बापदादा अव्यक्त वतनवासी हैं वेसे ही तत्त्वम् का वरदान देते हैं। फरिश्तों की दुनिया में रहते हुए इस साकार दुनिया में कर्म करने के लिए आओ। कर्म किया, कर्मयोगी बने फिर फरिश्ते बन जाओ। यही अभ्यास सदा करते रहो। सदा यह स्मृति रहे कि मैं फरिश्तों की दुनिया में रहने वाला अव्यक्त फरिश्ता-स्वरूप हूँ। फर्श निवासी नहीं, अर्श निवासी हूँ। फरिश्ता अर्थात् इस विकारी दुनिया, अर्थात् विकारी दृष्टि वा वृत्ति से परे रहने वाले। इन सब बातों से न्यारे। सदा वह बाप के प्यारे और बाप उनके प्यारे। दोनों एक दो के स्नेह मे समाये हुए, फरिश्ते बने हो? जैसे बाप न्यारा होते हुए प्रवेशकर कार्य के लिए आतें हैं, ऐसे फरिश्ता आत्मायें भी कर्म बन्धन के हिसाब से नहीं लेकिन सेवा के बन्धन से शरीर मे प्रवेश हो कर्म करते और जब चाहे तब न्यारे हो जाते। ऐसे कर्मबन्धनमुक्त हो - इसी को ही फरिश्ता कहा जाता है।

बाप के बने अर्थात् पुरानी देह और देह की दुनिया का सम्बन्ध समाप्त हुआ। इसीलिए इसको मरजीवा जीवन कहते हो। तो पुराने कर्मों का खाता समाप्त हुआ, नया ब्राह्मण जीवन का खाता शुरू हुआ। यह तो सभी जानते और मानते हो ना, कि मरजीवा बने हैं। बने हो, वा बन रहे हो? क्या कहेंगे?मर रहे हैं या मर रहे हैं? जब मर गयें, पिछला हिसाब समाप्त हुआ। ब्राह्मण जीवन कर्मबन्धन का जीवन नही होता। कर्मयोगी का जीवन होता। मालिक बन कर्म करते तो कर्मबन्धन नहीं हुआ लेकिन कर्मेन्द्रियों के मालिक बन जो चाहो, जैसा कर्म चाहों, जितना समय कर्म करने चाहो वैसे कर्मेन्द्रियों से कराने वाले होंगे। तो ब्राह्मण अर्थात् फरिश्ता। कर्मबन्धनी आत्मा नहीं लेकिन सेवा के शुद्ध बन्धन वाली। यह देह सेवा के अर्थ मिली है। आपके कर्मबन्धन के हिसाब किताब के जीवन का हिसाब समाप्त हुआ। यह नया जीवन है। यह तो सभी समझते हो ना! पुराना हिसाब अब तक रहा हुआ तो नहीं है? क्या समझते हैं महाराष्ट्र वाले? टीचर्स क्या समझती हैं? हिसाब किताब चुक्तू करने में होशियार हैं वा ढीलें हैं? चुक्तू करने आता तो हैं ना? फरिश्ता बन जाओ तो मेहनत से छूट जायेंगे। चलने वाले, दौड़ने वाले, जम्प लगाने वाले, इन सबसे ऊंचे उड़ने वाले हो जायेंगे। तो मेहनत से छूट जायेंगे ना! अनादि रूप में हैं ही उड़ने वाले। आत्मा उड़ता पंछी है, चलता हुआ पंछी नहीं। तो अनादि संस्कार जो बोझ के कारण भूल गये हैं, फरिश्ते के बजाए कर्मबन्धनी, उड़ते पंछी के बजाए पिंजड़े के पंछी बन गये हैं। अब फिर से अनादि संस्कार उड़ते पंछी के इमर्ज करो। अर्थात् फरिश्ते रूप में स्थित रहो। ततत्त्वम् के वरदानी बनो। इसी को ही सहज पुरूषार्थ कहा जाता है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में क्या करूँ, कैसे करूँ की जो मेहनत करते हो इससे परिस्थिति बड़ी और आप छोटे हो जाते हो। परिस्थिति शक्तिशाली और आप कमजोर हो जाते हो। किसी भी परिस्थिति में चाहे प्रकृति के आधार पर कोई परिस्थिति हो, चाहे अपने तन के सम्बन्ध से कोई परिवर्त्तन हो, अपने वा दूसरों के संस्कार के आधार पर कोई परिस्थिति हो, सब परिस्थितियों मे क्या और क्यों का एक ही उत्तर है -’’उड़ता पंछी बन जाओ''। परिस्थिति नीचे और आप ऊपर हो जायेंगे। ऊपर से नीचे की वस्तु कितनी भी बड़ी हो लेकिन छोटी-सी अनुभव होगी। इसीलिए सब परिस्थितियों को सहज पार करने का सहज रास्ता है - फरिश्ता बनो, उड़ता पंछी बनो। समझा - सहज पुरूषार्थ क्या है? मेरा यह स्वभाव है, संस्कार है, बंधन है, इस मेरे-पन के बन्धन को मरजीवा बने तो क्या समाप्त नहीं किया? फरिश्तेपन की भाषा मेरा-मेरा' नहीं। फरिश्ता अर्थात् मेरा सो तेरा हो गया। यह मेरा-मेरा ही फर्शवासी बनाता है। और तेरा-तेरा ही तख्तवासी बनाता है। तो फरिश्ता बनना अर्थात् मेरे-मेरे के बन्धन से मुक्त बनना। अलौकिक जीवन में भी मेरा एक बाप दूसरा मेरा कोई नहीं। तो ऐसे फरिश्ते बने हो? तो महाराष्ट्र वाले क्या बनेंगे? फरिश्ता बनना आता है ना? सब समस्याओं का एक ही समाधान याद रखना - उड़ता पंछी बनना है और बनाना है। समझा! अच्छा।

ऐसे बाप समान अव्यक्त रूपधारी फरिश्ते-स्वरूप, एक बाप मेरा दूसरा न कोई मेरा, ऐसे न्यारी और प्यारी स्थिति में रहने वाले, सदा कर्मेन्द्रियों जीत, कर्मयोगी और कर्मातीत, इसी अभ्यास में रहने वाले, सदा बन्धनमुक्त, सेवा के सम्बन्ध में रहने वाले ऐसे बाप समान ततत्त्वम के वरदानी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते''

पार्टियों के साथ अव्यक्त मुलाकात

सदा अपने को इस सृष्टि ड्रामा के अन्दर हीरो पार्टधारी समझकर चलते हो? जो हीरो पार्टधारी होते हैं उनको हर कदम पर अपने ऊपर अटेन्शन रहता है, उनका हर कदम ऐसा उठता है जो सदा वाह-वाह करें, वन्स मोर करें। अगर हीरो पार्टधारी का कोई भी एक कदम नीचे ऊपर हो जाता है तो वह हीरो' नहीं कहला सकता। तो आप सभी डबल हीरो हो। हीरो विशेष पार्टधारी भी हो और हीरो जैसा जीवन बनाने वाले भी। तो ऐसा अपना स्वमान अनुभव करते हो? एक है जानना और दूसरा है जानकर चलना। तो जानते हो वा जानकर चलते हो? तो सदा अपने हीरो पार्ट को देख हर्षित रहो, वाह ड्रामा और वाह मेरा पार्ट! अगर जरा भी साधारण कर्म हुआ तो हीरो नहीं कहला सकते। जैसे बाप हीरो पार्टधारी है तो उनका हर कर्म गाया और पूजा जाता है, ऐसे बाप के साथ जो सहयोगी आत्मायें हैं उन्हों का भी हीरो पार्ट होने के कारण हर कर्म गायन और पूजन योग्य हो जाता है। तो इतना नशा है या भूल जाता है? आधाकल्प तो भूले, अभी भी भूलना है क्या? अब तो याद-स्वरूप बन जाओ। स्वरूप बनने के बाद कभी भूल नहीं सकते।

2. जीवन को श्रेष्ठ बनाने का सहज साधन कौन सा है? श्रेष्ठ जीवन तब बनती जब अपने को ट्रस्टी समझकर चलते। ट्रस्टी अर्थात् न्यारा और प्यारा। तो सभी को बाप ने ट्रस्टी बना दिया। ट्रस्टी हो ना? ट्रस्टी होकर रहने से गृहस्थी पन स्वत: निकल जाता है। गृहस्थीपन ही श्रेष्ठ जीवन से नीचे ले आता। ट्रस्टी का मेरापन कुछ नहीं होता। जहाँ मेरापन नहीं वहाँ नष्टोमोहा स्वत: हो जाते। सदा निर्मोही अर्थात् सदा श्रेष्ठ सुखी। मोह में दु:ख होता है। तो नष्टोमोहा बनो।

प्रवृत्ति वालो से :- ‘‘सभी प्रवृत्ति मे रहते सदा न्यारे और प्यारे स्थिति में रहने वाले हो ना! प्रवृत्ति के किसी भी लौकिक सम्बन्ध वा लौकिक वायुमण्डल, वायब्रेशन मे तो नहीं आते हो? इन सब लौकिकता से परे अलौकिक सम्बन्ध में, वायुमण्डल में, वायब्रेशन में रहते हो? लौकिक-पन तो नहीं है ना? घर का वायुमण्डल भी ऐसा ही अलौकिक बनाया है जो लौकिक घर न लगे लेकिन सेवा केन्द्र का वायुमण्डल अनुभव हो? कोई भी आवे तो अनुभव करे कि यह अलौकिक है, लौकिक नहीं। कोई भी लौकिकता की फींलिग न हो। आने वाले अनुभव करें, यह कोई साधारण घर नहीं है। लेकिन मन्दिर है। यही है पवित्र प्रवृत्ति वालों की सेवा का प्रत्यक्ष-स्वरूप। स्थान भी सेवा करें, वायुमण्डल भी सेवा करे।

जैसे सेवाकेन्द्र पर अगर कोई भी जरा स्व-भाव स्व-संस्कार के वश होकर ऐसी चाल-चलन चलते हैं तो सब कहते हो ऐसा नहीं होना चाहिए। ऐसे ही आपके घर के स्थान पर भी ऐसी महसूसता हो कि इस स्थान पर ऐसा कोई कर्म नहीं होना चाहिए। यह फीलिंग दिल में आये कि यह कर्म हम नहीं कर सकते। जैसे सेवा स्थान पर कोई भी कमी पेशी देखते हो तो ठीक कर देते हो ऐसे अपने लौकिक स्थान को और स्थिति को ठीक कर देना। घर मन्दिर लगे, गृहस्थी नहीं। जैसे मन्दिर का वायुमण्डल सबको आकर्षित करता, ऐसे आपके घर से पवित्रता की खुशबू आये। जिस प्रकार अगरबत्ती की खुशबू चारों ओर फैलती, इसी प्रकार पवित्रता की खुशबू दूर-दूर तक फैलनी चाहिए, इसको कहा जाता है पवित्र प्रवृत्ति। अच्छा''



19-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"हर ब्राह्मण चैतन्य तारा मण्डल का श्रृंगार"

ज्ञान सूर्य, ज्ञान चन्द्रमा अव्यक्त बापदादा ज्ञान सितारों के प्रति बोले-

‘‘आज ज्ञान सूर्य, ज्ञान चन्द्रमा अपने तारामण्डल को देखने आये हैं। सितारों के बीच ज्ञान सूर्य, ज्ञान चन्द्रमा दोनों ही साथ में आये हैं। वैसे साकार सृष्टि में सूर्य,चन्द्रमा और साथ-साथ में सितारे इकट्ठे नहीं होते हैं। लेकिन चैतन्य सितारे, सूर्य और चाँद के साथ हैं। यह सितारों का अलौकिक संगठन है। तो आज बापदादा भिन्न-भिन्न सितारों को देख रहे हैं। हर सितारे में आपनी-अपनी विशेषता है। छोटे-छोटे सितारे भी इस तारा मण्डल को बहुत अच्छा शोभनीक बना रहे हैं। बड़े तो बड़े हैं ही लेकिन छोटों की चमक से संग- ठन की शोभा बढ़ रहीं है। बापदादा यही बात देख-देख हर्षित हो रहे हैं कि हरेक सितारा कितना आवश्यक है। छोटे से छोटा सितारा भी अति आवश्यक है। महत्वपूर्ण कार्य करने वाला है, तो आज बापदादा हरेक के महत्व को देख रहे थे। जैसे हद के परि- वार मे माँ-बाप हर बच्चे के गुणों की, कर्त्तव्यों की, चाल-चलन की बातें करते हैं वैसे बेहद के माँ-बाप, ज्ञान सूर्य और चन्द्रमा बेहद के परिवार वा सर्व सितारों के विशेषताओं की बातें कर रहे थे। ब्रह्मा बाप वा चन्द्रमा आज चारों ओर विश्व के कोने-कोने में चमकते हुए अपने सितारों को देख-देख खुशी में विशेष झूम रहे थे। ज्ञान सूर्य बाप को हर सितारे की आवश्यकता और विशेषता सुनाते हुए इतना हर्षित हो रहे थे कि बात मत पूछो। उस समय का चित्र बुद्धियोग की कैमरा से खीच सकते हो। साकार में जिन्होने अनुभव किया वह तो अच्छी तरह से जान सकते हैं। चेहरा सामने आ गया ना? क्या दिखाई दे रहा है? इतना हर्षित हो रहे हैं जो नयनों में मोती चमक रहे हैं। आज जैसे जौहरी हर रत्न की महिमा कर रहे थे। आप समझते हो कि आप सबकी क्या महिमा की होगी? अपने महानता की महिमा जानते हो?

सभी की विशेष एक बात की विशेषता वा महानता बहुत स्पष्ट है, जो कोई भी महारथी हो, वा प्यादा हो, छोटा सितारा हो वा बड़ा सितारा हो, लेकिन बाप को जानने की विशेषता, बाप का बनने की विशेषता, यह तो सब में है ना! बाप को बड़े-बड़े शास्त्र की अथार्टी, धर्म के अथार्टी, विज्ञान के अथार्टी, राज्य के अथार्टी, बड़े-बड़े विनाशी टाइटल्स के अथार्टीज, उन्होने नहीं जाना, लेकिन आप सबने जाना। वे अब तक आह्वान ही कर रहे हैं। शास्त्रवादी तो अभी हिसाब ही लगा रहे हैं। विज्ञानी अपनी इन्वेन्शन में इतने लगे हुए हैं जो बाप की बातें सुनने और समझने की फुर्सत नहीं है। अपने ही कार्य में मगन हैं। राज्य की अथार्टीज अपने राज्य की कुर्सा को सम्भालने में बिजी हैं। फुर्सत ही नहीं है। धर्मनेतायें अपने धर्म को सम्भालने में बिजी हैं कि कहाँ हमारा धर्म प्राय:लोप न हो जाए। इसी जमारे-जमारे में खूब बिजी है। लेकिन आप सब आह्वान के बदले मिलन मनाने वाले हो। यह विशेषता वा महानता सभी की है। ऐसे तो नही समझते हो कि जमारे में क्या विशेषता है, वा जमारे में तो कोई गुण नहीं है। यह तो भक्तों के बोल हैं कि जमारे में कोई गुण नहीं। गुणों के सागर बाप के बच्चे गनना अर्थात् गुणवान बनना। तो हरेक में किसी न किसी गुण की विशेषता है। और बाप उसी विशेषता को देखते हैं। बाप जानते हैं - जैसे राज्य-परिवार के हर व्यक्ति में इतनी सम्पन्नता जरूर होती है जो वह भिखारी नहीं हो सकता। ऐसे गुणों के सागर बाप के बच्चे कोई भी गुण की विशेषता के बिना बच्चा कहला नहीं सकते। तो सभी गुणवान हो, महान हो, विशेष आत्माये हो, चैतन्य तारामण्डल का श्रृगार हो। तो समझा आप सब कौन हो? निर्बल नहीं हो, बलवान हो। क्योंकि मास्टर सर्वशक्तिवान हो। ऐसा रूहानी नशा सदा रहता है? रूहानियत में अभिमान नहीं होता है। स्वमान होता है। स्वमान अर्थात् स्व-आत्मा का मान। स्वमान और अभिमान दोनों में अन्तर है। तो सदा स्वमान की सीट पर स्थित रहो। अभिमान की सीट छोड़ दो। अभिमान की सीट ऊपर से बड़ी सजी-सजाई है। देखने में आरामपसन्द, दिलपसन्द है लेकिन अन्दर काँटो की सीट है। यह अभिमान की सीट ऐसे ही समझो जैसे कहावत है - खाओ तो भी पछताओ और न खाओ तो भी पछताओ। एक दो को देख सोचते हैं कि हम भी टेस्ट कर लें। फलाने-फलाने ने अनुभव किया, हम भी क्यों नहीं करें। तो छोड़ भी नहीं सकते और जब बैठते हैं तो काँटे तो लगने ही हैं। तो ऐसे बाहर से दिखावटी, धोखा देने वाली अभिमान की सीट पर कभी भी बैठने का प्रयत्न नहीं करो। स्वमान की सीट पर सदा सुखी, सदा श्रेष्ठ, सदा सर्व प्राप्ति-स्वरूप का अनुभव करो। अपनी विशेषता बाप को जानने और मिलन मनाने की, इसी को स्मृति में रख सदा हर्षित रहो। जैसे सुनाया कि चन्द्रमा सितारों को देख हर्षित हो रहे थे, ऐसे फालो फादर।

(दादी जी को)

आपने भी सबकी विशेषता देखी ना! चक्कर में क्या देखा? छोटों की भी विशेषता, बड़े की भी विशेषता देखी ना! तो विशेषता वर्णन करने में, सुनने में कितना सब हर्षित होतें हैं। सब हर्षित होकर सुन रहे थे ना! (दादी जी ने अम्बाला और फिरोजाबाद मेले मा समाचार क्लास में सुनाया थी) ऐसे ही सदा सभी विशेषता का ही वर्णन करें तो क्या हो जायेगा? सदा जैसे विशेष कार्य में खुशी के बाजे बजते हैं ऐसे ब्राह्मण परिवार में चारों ओर सदा खुशी के ही साज बजते रहेंगे वा बाजे बजते रहेंगे। शार्ट और स्वीट सफर रहा। खुशियों की खान ले सबको खुशियों से मालामाल करके आई। हर स्थान की हिम्मत, उल्लास, एक दो से श्रेष्ठ है। बाप भी बच्चों की हिम्मत और उल्लास पर हर बच्चे की महिमा के गुणों के पुष्प बरसातें हैं। अच्छा- तो समझा क्या बनना है? क्या समझना है अपने को और कहाँ बैठना है? दोनों ही बातें सुनी ना! अच्छा।

ऐसे सदा स्वमान की सीट पर स्थित रहने वाले, सदा अपने को विशेष आत्मा समझ विशेषता द्वारा औरों को भी विशेष आत्मा बनाने वाले, चन्द्रमा और ज्ञान सूर्य को सदा फालो करने वाले, ऐसे वफादार, फरमावरदार,सपूत बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ - हरेक अपनी श्रेष्ठ तकदीर को जानते हो ना? कितनी श्रेष्ठ तकदीर श्रेष्ठ कर्मों द्वारा बना रहे हो? जितने श्रेष्ठ कर्म उतनी तकदीर की लकीर लम्बी और स्पष्ट। जैसे हाथों द्वारा तकदीर देखते हैं तो क्या देखते हैं? लकीर लम्बी है, बीच-बीच में कट तो नहीं है। ऐसे यहाँ भी ऐसा ही है। अगर सदा श्रेष्ठ कर्म वाले हैं तो तकदीर की लकीर भी लम्बी और सदा के लिए स्पष्ट और श्रेष्ठ है। अगर कभी-कभी श्रेष्ठ,कभी साधारण तो लकीर में भी बीच-बीच में कट होता रहेगा। अविनाशी नहीं होगा। कभी रूकेंगे, कभी आगे चलेंगे। इसीलिए सदा श्रेष्ठ कर्मधारी। बाप ने तकदीर बनाने का साधन दे ही दिया है - श्रेष्ठ कर्म। कितना सहज है तकदीर बनाना। श्रेष्ठ कर्म करो और पदमापदम भाग्यशाली की तकदीर प्राप्त करो। श्रेष्ठ कर्म का आधार है - श्रेष्ठ स्मृति। श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ बाप की स्मृति में रहना अर्थात् श्रेष्ठ कर्म होना। ऐसे तकदीर वान हो ना? तकदीरवान तो सभी हैं लेकिन श्रेष्ठ है या साधारण - इसमें नम्बर है। तो सदा के तकदीर की लकीर खींच ली है या छोटी-सी खींच ली है? लम्बी है ना, अविनाशी है ना! बीच-बीच में खत्म होने वाली नहीं, सदा चलने वाली। ऐसे तकदीरवान! अब की भी तकदीरवान और अनेक जन्मों के भी तकदीरवान।

2. सभी अपने को इस ड्रामा के अन्दर बाप के साथ स्नेही और सहयोगी आत्मायें हैं, ऐसा समझकर चलते हो? हम आत्माओं को इतना श्रेष्ठ भाग्य मिला है, यह आक्यूपेशन सदा याद रहता है? जैसे लौकिक आक्यूपेशन वाली आत्मा के साथ भी कार्य करने वाले को कितना ऊंचा समझते हैं! लेकिन आपका पार्ट, आपका कार्य स्वयं बाप के साथ है। तो कितना श्रेष्ठ पार्ट हो गया! ऐसे समझते हो? पहले तो सिर्फ पुकारते थे कि थोड़ी घड़ी के लिए दर्शन मिल जाए। यही इच्छा रखते थे ना? अधिकारी बनने की इच्छा वा संकल्प तो सोच भी नहीं सकते थे, असम्भव समझते थे। लेकिन अभी जो असम्भव बात थी वह सम्भव और साकार हो गई। तो यह स्मृति रहती है? सदा रहती है वा कभी-कभी। अगर कभी-कभी रहती है तो प्राप्ति क्या करेंगे? कभी-कभी राज्य मिलेगा। कभी राजा बनेंगे, कभी प्रजा बनेंगे। जो सदा के राजयोगी हैं वही सदा के राजे हैं। अधिकार तो अविनाशी और सदाकाल का है। जितना समय बाप ने गैरन्टी दी है, आधाकल्प उसमें सदाकाल राज्य पद की प्राप्ति कर सकते हो। लेकिन राजयोगी नहीं तो राज्य भी नहीं। जब चांस सदा का है तो थोड़े समय का क्यों लेते। अच्छा''



22-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सदा दाता के बच्चे दाता बनो"

सदा दया के सागर, कृपालु शिव बाबा बोले:

''आज दया के सागर अपने मास्टर दया के सागर बच्चों से मिलने आये हैं। भक्त लोग बापदादा को और आप सर्वश्रेष्ठ आत्माओं का दयालु-कृपालु इसी नाम से गायन करते हैं। बापदादा से वा आप सर्वश्रेष्ठ आत्माओं से सर्व धर्म की आत्मायें एक मुख्य चीज़ जरूर चाहते हैं। ज्ञान और योग की बातें हर धर्म में अलग-अलग हैं, जिसको कहा जाता है - मान्यतायें। लेकिन एक बात सब धर्मों में एक ही है, सर्व आत्मायें दया वा कृपा जिसको वे अपनी भाषा में ब्लैसिंग कहते हैं, यह सब चाहते हैं। आप सभी आत्माओं से अब लास्ट जन्म में भी आपके भक्त यही चाहते हैं - जरा-सी कृपा दृष्टि कर लो। जरा जमारे ऊपर भी दया कर लो। सर्व धर्मों की मूल निशानी दया मानते हैं। अगर कोई भी धमार्क आत्मा दयालु नहीं वा दया दृष्टि वाला नहीं तो उसको धमार्क नही मानते हैं। धर्म अर्थात् दया। तो आज बापदादा दयालु और कृपालु कहाँ तक बने हैं-वह देख रहे हैं।

सभी ब्राह्मण आत्मायें अपने को आदि सनातन प्राचीन धर्म की श्रेष्ठ आत्मायें अर्थात् धर्मात्मा मानते ही हो। तो, हे धर्मात्मायें, आप सबका पहला धर्म अर्थात् धारणा है ही स्व के प्रति, ब्राह्मण परिवार के प्रति और विश्व की सर्व आत्माओं के प्रति दया भाव और कृपा दृष्टि। तो अपने आप से पूछो कि सदा दया की भावना और कृपा दृष्टि सर्व के प्रति रहती है वा नम्बरवार रहती है? दया भाव वा कृपा दृष्टि किस पर करनी होती है? जो कमजोर आत्मा है, अप्राप्त आत्मा है, किसी-न-किसी बात के वशीभूत आत्मा है - ऐसी आत्मायें दया वा कृपा की इच्छा रखती हैं वा उनकी इच्छा न भी हो तो आप दाता के बच्चे उन आत्माओं को शुभ-इच्छा से देने वाले हो। सारे दिन में जिन भी आत्माओं के सम्पर्क में आते हो, चाहे ज्ञानी, चाहे अज्ञानी, सबके प्रति सदा यही दृष्टि रहती है वा दूसरी-दूसरी दृष्टि भी रहती है? चाहे कोई कैसा भी संस्कार वाला हो लेकिन या दया वा कृपा की भावना वा दृष्टि पत्थर को भी पानी कर सकती है। अपोजीशन वाले अपनी पोजीशन में टिक सकते हैं। स्वभाव के टक्कर खाने वाले ठाकुर बन सकते हैं। क्रोध- अग्नि, योग-ज्वाला बन जायेगी। अनेक जन्मों के कड़े हिसाब-किताब सेकण्ड में समाप्त हो नया सम्बन्ध जुट जायेगा। कितना भी विरोधी है - वह इस विधि से गले मिलने वाले हो जायेंगे। लेकिन इन सबका आधार है -’’दया भाव''। दया भाव की आवश्यकता ऐसी परिस्थिति और ऐसे समय में है! समय पर नहीं किया तो क्या मास्टर दया के सागर कहलायेंगे? जिसमें दया भाव होगा वह सदा निराकारी, निर्विकारी और निरअहंकारी होगा। मंसा निराकारी, वाचा निर्विकारी, कर्मणा निरअहंकारी। इसको कहा जाता है दयालु और कृपालु आत्मा। तो, हे दया से भरपूर भण्डार आत्मायें, समय पर किसी आत्मा के प्रति दया भाव की अंचली भी नहीं दे सकते हो? भरपूर भण्डार से अंचली दे दो तो सारे ब्राह्मण परिवार की समस्यायें ही समाप्त हो जाएं। संस्कार तो आप सबके अनादि, आदि, अविनाशी दातापन के हैं। देवता अर्थात् देने वाला। संगम पर मास्टर दाता हो। आधाकल्प देवता देने वाले हो। द्वापर से भी आपके जड़ चित्र देने वाले देवता ही कहलाते हैं। तो सारे कल्प के संस्कार दातापन के हैं। ऐसे दातापन के संस्कार वाली, हे सम्पन्न आत्मायें, समय पर क्यों नहीं दाता बनते हो? लेने की भावना दाता के बच्चे कर नहीं सकते। यह दे तो मैं दूँ, यह देवता नहीं लेवता हो गये। तो कौन-सी आत्मायें हो? देवता वा लेवता?

हे इच्छा मात्रम् अविद्या आत्मायें, अल्पकाल वी इच्छा खातिर देवता के बजाय लेवता नहीं बनो। देते जाओ, देते हुए गिनती नहीं करो। मैंने इतना किया, इसने नहीं किया, यह गिनती करना दातापन के संस्कार नहीं! फराखदिल बाप के बच्चे यह बातें गिनती नहीं करते। भण्डारे भरपूर हैं, गिनती क्यों करते हो? सतयुग में भी कोई हिसाब-किताब गिनती नहीं रखते। रायल फैमिली, राज्यवंशी मास्टर दाता होते हैं। वहाँ यह सौदेबाजी नहीं होगी। इतना दिया, इतना किया। जो जितना ले उतना भरपूर बन जाए! राज्यवंश अर्थात् दाता का घर। तो यह संस्कार भरने के हैं। कहाँ भरने हैं? क्या सतयुग में? अभी से ही भरने हैं ना! यहाँ भी बाप से सौदेबा जी करते हैं। बाप ने हमको पूछा नहीं, बाप ने हमसे किया नहीं। और आपस में तो सौदेबाजी बहुत करते हैं। शाहनशाह बनो, दाता के बच्चे दाता बनो। इसने किया तब मैंने यह किया, इसने दो कहा तब मैंने चार कहा। इसने दो बारी कहा वा किया मैंने एक बारी किया। यह हिसाब-किताब दाता के बच्चे कर नहीं सकते। कोई आपको दे, न दे, लेकिन आप देते जाओ। इसको कहा जाता है - दयाभाव वा कृपा दृष्टि! तो, हे दयालु-कृपालु आत्मायें, देने वाले बनो। समझा?

बापदादा के पास सब बच्चों के खाते हैं। सारे दिन में कितना समय दयालु वा कृपालु बनते हैं और कितना समय देने की भावना के बजाए लेने की भावना रखते हैं, यह सारे दिन की लीला बापदादा भी देखते हैं। जैसे आप लोगों ने यह वीडियो सेट लगाया है तो देखते भी हो और सुनते भी हो, तो बापदादा के पास भी हरेक के लिए टी.वी. सेट है। जब चाहें तब स्वीच आन करें।

यह हैं सेवा के साधन और वह हैं बाप-बच्चों के हालचाल का साधन। वैसे तो अन्त में यह सब साधन समाप्त हो जायेंगे। यह वीडिओ नहीं काम में आयेगा लेकिन विल-पावर का सेट काम में आयेगा। लेकिन साइन्स वाले बच्चों ने जो इतना समय, एनर्जा, मनी खर्च करके साधन बनाया है, बच्चों की मेहनत बाप की सेवा में लग रही है। इसलिए बाप भी बच्चों की मेहनत देख खुश होते हैं कि सेवा के साधन अच्छे बनाये हैं! फिर भी हैं तो बच्चे ना! बाप, बच्चों की इन्वेन्शन देख खुश तो होंगे ना! जिस भी कार्य में लगे हुए हैं उसी कार्य में सफलता पा रहे हैं। चाहे अल्पकाल की हो लेकिन सफलता तो है ना! इसलिए बापदादा वीडियो सेट को नहीं देखते लेकिन उन बच्चों को देखते हैं। अच्छा।

इसी साधन द्वारा देश-विदेश के बच्चे चारों ओर देखेंगे और सुनेंगे तो बापदादा भी चारों ओर के सर्व बच्चों को, जो यही लगन लगाकर बैठे हैं कि आज मधुबन में क्या होगा! शरीर से विदेश वा देश में हैं लेकिन आकार रूप द्वारा मधुबन निवासी हैं। बापदादा उन सभी आकारी याद-स्वरूप आत्माओं को विशेष याद-प्यार दे रहे हैं। बापदादा डबल सभी देखते हैं, सिंगल नहीं। एक साकारी सभा, एक आकारी सभा। (चन्दू और शीला अमेरिका से आये हैं) यह भी सबकी याद ले आये हैं ना! सबकी याद पहुँच रही है। अच्छा-सभी के पत्रों का एक ही उत्तर है - वे बाप को याद करते, बाप पदमगुणा उन बच्चों को याद करते हैं। जैसे वे दिन गिन रहे हैं वैसे बाप हर बच्चे के गुणों की माला सदा स्मरण करते हैं। सभी बच्चों का एक ही मिलन का संकल्प है और बापदादा भी ऐसे मिलन मनाने वाले, संकल्प रखने वाली आत्माओं को विशेष अमृतवेले के मिलन में मिलन मनाए रेसपान्ड देते हैं और सर्व को सेवा के प्रति विशेष संकल्प देते रहते हैं। अच्छा।

ऐसे सदा दयाभाव और कृपा दृष्टि रखने वाले, सदा देने वाले, लेने की कामना नहीं रखने वाले, इच्छा मात्रम् अविद्या - ऐसी स्थिति में रहने वाले, ऐसे राज्यवंश संस्कार वाले, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

गुजरात जोन (पार्टियों से पर्सनल मुलाकात)

सदा अपने को महावीर अर्थात् महान आत्मा समझकर चलते हो? किसके बने हैं और क्या बने हैं सिर्फ यह भी सोचो तो कभी भी व्यक्त भाव में नहीं आ सकते। व्यक्त भाव से ऊपर रहो अर्थात् फरिश्ते बन सदा ऊपर उड़ते रहो। फरिश्ते नीचे नहीं आते, धरती पर पाँव नहीं रखते। यह व्यक्त भाव भी देह की धरनी है। तो जब फरिश्ते बन गये फिर देह की धरनी में कैसे आ सकते, फरिश्ता अर्थात् उड़ने वाले। तो सभी उड़ता पंछी हो, पिंजड़ेवाले तो नहीं हो ना? आधाकल्प तो पिंजरे के थे अब उड़ते पंछी हो गये। स्वतन्त्र हो गये। नीचे की आकर्षण अभी खींच नहीं सकती। नीचे होंगे तो शिकारी शिकार कर देंगे, ऊपर उड़ते रहेंगे तो कोई कुछ नहीं कर सकता। तो सभी उड़ता पंछी हो ना? पिंजरा खत्म हो गया? चाहे कितना भी सुन्दर पिंजरा हो लेकिन है तो बंधन ना! यह अलौकिक सम्बन्ध भी सोने का पिंजरा है, इसमें भी नहीं फंसना। स्वतन्त्र तो स्वतन्त्र। सदा बन्धनमुक्त रहने वाले ही जीवनमुक्त स्थिति का अनुभव कर सकेंगे। अच्छा।



24-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सच्चे आशिक की निशानी"

रूहानी माशूक शिवबाबा अपने सच्चे रूहानी आशिकों के प्रति बोले:-

‘‘आज बाप कहाँ आये हैं और किन्हों से मिलने आयें हैं? जानते हो? किस रूप से विशेष मिलने आयें हैं? जैसे बाप का रूप वैसे बच्चों का रूप। तो आज किस रूप से बाप मिलने आयें हैं, जानते हो? लोंगो ने यह जो गलती कर दी है कि परमात्मा के अनेक रूप हैं, यह गलती है वा राइट है? इस समय बाप अनेक सम्बन्धाें के अनके रूपों से मिलते हैं। तो एक के अनेक रूप, सम्बन्ध के आधार से वा कर्त्तव्य के आधार से प्रैक्टिकल में हैं ना! तो भक्त भी राइट है ना! आज किस रूप में बाप मिलने आयें हैं और कहाँ मिल रहे हैं? आज की मुरली में (सुबह) वह सम्बन्ध सुना है। तो बाप कौन हुआ और आप कौन हुए? आज रूहानी माशूक रूहानी आशिकों से मिलने आये हैं! कहाँ मिलने आये हैं? सबसे ज्यादा मिलने का प्रिय स्थान कौन-सा है? रूहानी माशूक आप आशिकों को आदि के समय में कहाँ पर ले जाते थे, याद है ना? (सागर पर) तो आज भी सर्व खज़ानों और गुणों से सम्पन्न, सागर के कण्ठे पर, साथ में ऊंची स्थिति की पहाड़ी पर, शीतलता की चाँदनी में रूहानी माशूक, रूहानी आशिकों से मिल रहे हैं। सागर है सम्पन्नता का और पहाड़ी है ऊची स्थिति की। सदा शीतल-स्वरूप है चाँदनी। तीनों ही साथ में हैं। आज रूहानी आशिकों को देख रूहानी माशूक हर्षित हो रहे हैं और कौन-सा गीत गातें हैं? (हरेक अपना-अपना गीत सुना रहे हैं) वैसे तो एक ही गीत सुन सकते हैं लेकिन बाप सभी का गीत सुन सकते हैं। आशिक अपना गीत गा रहे हैं और माशूक गीत का रेसपान्ड कर रहे हैं। जो भी गीत गाओ सब ठीक है। हर एक के स्नेह के बोल बाप स्नेह से ही सुनते हैं। आशिकों को माशूक को याद करना सहज है ना? सहज और निरन्तर याद का सम्बन्ध और स्वरूप यह रूहानी आशिक और माशूक का है। याद करना नहीं पड़ता लेकिन याद भूलाते भी भूल नहीं सकती।

आज हर एक आशिक के स्नेह को देख क्या देखा? आशिक अनेक और माशूक एक। लेकिन अनेक अनुभव यही कहते हैं कि मेरा माशूक क्योंकि स्नेह का सागर रूहानी माशूक है! तो सागर बेहद है इसलिए जितने भी, जितना भी स्नेह लें फिर भी सागर अखुट और सम्पन्न है। इसलिए मुझे कम, तुम्हें ज्यादा यह बातें नहीं। लेने वाले जितना लें। स्नेह के भण्डार भरपूर हैं। लेने वाले लेने में नम्बरवार हो जाते हैं लेकिन देने वाला सबको नम्बरवन देता है। लेने वाले समाने में नम्बरवार हो जाते हैं। प्यार करना सबको आता है लेकिन तोड़ निभाने में नम्बर हो जातें हैं। ‘‘मेरा माशूक'' सब कहते हैं लेकिन मेरा कहते भी क्या करतें हैं? जानते हो क्या करते हैं! तो बताओं क्या करते हैं। फिर फेरा लगाने के बाद जब थक जाते हैं तब फिर कहते हैं - ‘‘मेरा माशूक''। और कई आशिक नाज भी बहुत करते हैं। क्या नाज करते हैं? (दीदी, दादी को) नाज-नखरे तो साकार में आपके आगे ही बहुत दिखातें हैं ना! इतना नाज दिखातें हैं - हम तो ऐसे करेंगे, हम तो ऐसे चलेंगे, आपका काम है हमें बदलना। हम तो ऐसे ही हैं। बाप की बातें बाप को सुनाने का नाज रखते हैं। एक बोल तो अच्छी तरह से याद करते हैं - ‘‘जैसी भी हूँ, कैसी भी हूँ लेकिन आपकी हूँ'' माशूक भी कहते - हो तो जमारी लेकिन जोड़ी तो ठीक बनो ना! अगर समान जोड़ी नहीं होगी तो दृश्य देखने वाले क्या कहेंगे? माशूक सजा-सजाया और आशिक बिना श्रृंगारी हुई, शोभेगी? तो आप स्वयं ही सोचो-वह चमकीली ड्रेस वाले और आशिक काली ड्रेस वाली वा दागों वाली ड्रेस पहने हुए, तो अच्छा लगेगा? क्या समझते हो? फिर कहते क्या हैं? जमारे दागों को मिटाना तो आपका काम है। लेकिन जब माशूक ड्रेस ही परिवर्त्तन कर देते हैं, तो वह क्यों नहीं पहनते! दाग मिटाने में भी समय क्यों गंवायें। माशूक का बनना अर्थात् सबका परिवर्त्तन होना। तो पुरानी काली, अनेक दागों वाली ड्रेस की स्मृति क्यों लाते हो अर्थात् बार-बार धारण क्यों करते हो? चमकीली ड्रेस वाले चमकते हुए श्रृंगारधारी बन माशूक के साथ चमकीली दुनिया में क्यों नहीं रहते! वहाँ कोई दाग लग ही नहीं सकता।

 तो हे आशिको, सदा माशूक समान सम्पन्न और सदा चमकीले-स्वरूप में अर्थात् सम्पूर्ण स्वरूप में स्थित रहो! माशूक को और भी एक बात की मेहनत करनी पड़ती है। जानते हो किस बात की मेहनत करनी पड़ती है? वह भी रमणीक बात है। जो वादा किया है माशूक ने आशिकों के साथ, कि ‘‘साथ ले जायेंगे''। तो क्या करते हैं? माशूक है बहुत हल्का और आशिक इतने भारी बन जाते, जो माशूक को ले जाने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। तो यह भी जोड़ी अच्छी लगेगी? माशूक कहते हैं - हल्के बन जाओ। तो क्या करते हैं? हल्के होने का साधन जो एक्सरसाइज है, वह करते नहीं। तो हल्के कैसे बने? रूहानी एक्सरसाइज तो जानते हो ना! अभी-अभी निराकारी, अभी-अभी अव्यक्त फरिश्ता, अभी-अभी साकारी कर्मयोगी। अभी-अभी विश्व सेवाधारी। सेकेण्ड में स्वरूप बन जाना, यह है रूहानी एक्सरसाइज। और कौन-सा बोझ अपने ऊपर रखते हैं? वेस्ट की वेट बहुत है इसलिए हल्के नहीं हो सकते। कोई समय के वेस्ट के वेट में है, कोई संकल्पों के और कोई शक्तियों को वेस्ट करते हैं। कोई सम्बन्ध और सम्पर्क वेस्ट अर्थात् व्यर्थ बना लेते हैं। ऐसे भिन्न-भिन्न प्रकार के वेट बढ़ने के कारण माशूक समान डबल लाइट बन नहीं सकते। सच्चे आशिक की निशानी है - ‘‘माशूक के समान'' अर्थात् माशूक जो है, जैसा है वैसे समान बनना। तो सभी कौन हो? आशिक तो हो ही लेकिन माशूक समान आशिक हो? समानता ही समीपता लाती है! समानता नही तो समीप भी नहीं हो सकते। गायन भी करते हैं कि 16 हजार पटरानियाँ थीं। 16 हजार में भी नम्बर तो होंगें ना! एक माशूक के इतने आशिक दिखाये तो हैं लेकिन अर्थ नहीं समझते हैं। रूहानियत को भूल गये हैं। तो आज रूहानी माशूक, आशिकों को कहते हैं - ‘‘समान बनो'' अर्थात् समीप बनो। अच्छा!

चाँदनी में बैठे हो ना? शीतल-स्वरूप में रहना अर्थात् चाँदनी में बैठना। सदा ही चाँदनी रात में रहो। चादनी रात में ड्रेस भी स्वत: चमकीली हो जायेगी। जहाँ देखेंगे वहाँ चमकते हुए दिखाई देंगे। और सदा सागर के कण्ठे पर रहो अर्थात् सदा सागर समान सम्पन्न स्थिति में रहो। समझा कहाँ रहना है? माशूक को यही किनारा प्रिय है। अच्छा।

सदा माशूक समान, साथ से साथ, हाथ में हाथ अर्थात् स्नेही और सहयोगी, साथ अर्थात् स्नेह, हाथ अर्थात् सहयोग, ऐसे मेरा तो एक माशूक दूसरा न कोई, ऐसी स्थिति में सदा सहज रहने वाले, ऐसे सच्चे आशिकों को रूहानी माशूक का याद-प्यार और नमस्ते।

आज देहली और गुजरात आया है। दिल्ली वाले यह तो नहीं समझते हैं कि जमारे यहाँ जमुना का किनारा है, सागर तो है नहीं। संगम पर सागर है और भविष्य में नदी का किनारा है। संगम में खेला भी सागर के किनारे पर है ना! तो संगम पर है सागर का किनारा और भविष्य की बातें हैं जमुना का किनारा। तो देहली और गुजरात का क्या सम्बन्ध है? देहली है जमुना का किनारा और गुजरात है गर्भा करने वाले। तो किनारे पर रास मशहुर है ना,जमुना किनारे पर। इसीलिए दिल्ली और गुजरात दोनों आ गये हैं। अच्छा-विदेश भी आया है। विदेश वाले जैसे अभी निमन्त्रण देते हैं ना, आओ चक्कर लगाने आओ। दीदी आवे, दादी आवे, फलाने आवें, तो जैसे अभी चक्कर लगाने जाते हो-थोड़े टाइम के लिए, ऐसे ही भविष्य में भी चक्कर लगाने जायेंगे। सेकेण्ड में पहुँचेंगे। देरी नहीं लगेगी। क्योंकि एक्सीडेंट तो होगा नहीं। इसलिए स्पीड की कोई लिमिट की आवश्यकता नहीं। एक ही दिन में सारा चक्कर लगा सकते हो। सारा वर्ल्ड एक दिन में घूम सकते हो। यह एटम एनर्जा आपके काम में आनी है। रिफाइन करने में लगे हुए हैं ना! यह आप लोगों को कोई दु:ख नहीं देगी। सबसे ज्यादा सेवा कौन-सा तत्व करेगा? सूर्य। सूर्य की किरणें भिन्न-भिन्न प्रकार की कमाल दिखायेंगी। यह सब आपके लिए तैयारियाँ हो रही हैं। गैस जलाने की, कोयले जलाने की, लकड़ी जलाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। सबसे छूट जायेंगे। अच्छा-बहुत रंगत देखते जायेंगे। वह मेहनत करेंगे और आप फल खायेंगे। फिर यह वायर्स (तारें) वगैरा लगाने की भी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। बिना मेहनत के नैचुरल नेचर द्वारा नैचुरल प्राप्ति हो जायेगी। लेकिन इसके लिए, नेचर के सुख लेने के लिए भी अपनी आरिजनल नेचर को बनाओ। तब नेचर द्वारा सर्व सुखों को प्राप्त कर सकेंगे। नैचुरल नेचर अर्थात् आनदि संस्कार। सुनते हुए भी अच्छा लगता है तो जब प्रालब्ध में होंगे तो कितना अच्छा लगेगा! जैसे यहाँ पंछी उड़ते हैं, वैसे वहाँ विमान उड़ेंगे। कितने होंगे? जैसे यहाँ पंछियों का संगठन लाइन में जाता हैं, वैसे विमानों के संगठन जायेंगे। ऐसे नहीं एक जायेगा तो दूसरा नहीं जा सकेगा। ऐसे भिन्न-भिन्न डिजाइन में जायेंगे। राज्य फैमिली अपनी डिजाइन में जायेगी, साहूकार अपनी डिजाइन में जायेंगे। जहाँ चाहो वहाँ उतार लो। अभी प्रकृतिजीत बनो तो प्रकृति दासी बनेगी। अभी प्रकृतिजीत कम तो प्रकृति दासी भी कम होगी! समझा-अच्छा।

तो दिल्ली और गुजरात वालों ने अच्छी तरह से मिलन मना लिया ना! गुजरात और दिल्ली वाले आज महादानी भी तो बनने हैं। औरों को चांस देना भी चांसलर बनना है, तो आज दिल्ली और गुजरात चांसलर बन गये। (मधुबन निवासी और सेवाधारियों से मिलना है) सबको पसंद है ना! इसीलिए बापदादा गुजरात और दिल्ली वालों से रूह-रूहान कर रहे हैं, क्योंकि महादानी बन रहे हैं ना। अभी प्रैक्टिकल में महादानी बनो। अच्छा

मधुबन निवासियों से :- मधुबन निवासी कौन हैं? मधुबन निवासियों को कौन-सा टाइटल देंगे? नया कोई टाइटल सुनाओ? इस समय कौन-सी चीज़ मधुबन में लगाई है? फोटो स्टेट मशीन लगाई है ना! तो मधुबन निवासी फोटो स्टेट कापी है। जैसे बाप वैसे बच्चे। उस मशीन में हूबहू होता है ना! मशीन की यही विशेषता है ना जो जरा भी फर्क नहीं आता। तो मधुबन निवासी फोटो कापी हो। मधुबन है - मशीन और मधुबन निवासी हैं - फोटो। तो आपके हर कर्म विधाता की कर्म रेखायें बतायें। कर्म द्वारा ही भाग्य की लकीर खींचते हो तो आप सबका हर कर्म श्रेष्ठ-भाग्य की कर्म की लकीर खींचने वाला हो। जैसे बापदादा का हर कर्म स्व के प्रति और अनेकों के प्रति भाग्य की लकीर खींचने वाला रहा, ऐसे ही बाप समान। मधुबन में इतने साधन, इतना सहयोग, इतना श्रेष्ठ संग प्राप्त है, अप्राप्त नहीं कोई वस्तु मधुबन के भण्डारे में, तो सर्व प्राप्तिवान क्या हो गये? सम्पूर्ण हो गये ना! किस बात की कमी है? अगर कमी है तो स्व के धारणा की। मधुबन वालों का सदा एक निजी संस्कार इमर्ज रूप में होना चाहिए। वह कौन-सा, कर्म में सफलता पाने के लिए ब्रह्मा बाप का निजी संस्कार कौन-सा था जो आप सबका भी वही संस्कार हो? ‘‘हाँ जी'' के साथसाथ ‘‘पहले आप'', ‘‘पहले मैं'' नहीं, पहले आप। जैसे ब्रह्मा बाप ने पहले जगत-अम्बा को आगे किया ना! कोई भी स्थान में पहले बच्चे, हर बात में बच्चों को अपने से आगे रखा। जगत-अम्बा को अपने आगे रखा। ‘‘पहले आप'' वाला ही ‘‘हाँ जी'' कर सकता है। इसलिए मुख्य बात है ‘‘पहले आप'' लेकिन शुभ भावना से। कहने मात्र नहीं, लेकिन शुभचिन्तक की भावना से। शुभ भावना और श्रेष्ठ कामना के आधार से पहले आप' करने वाला स्वयं ही पहले हो जाता है। पहले आप कहना ही पहला नम्बर होना है। जैसे बाप जगदम्बा को पहले किया, बच्चों को पहले किया लेकिन फिर भी नम्बरवन गया ना! इसमें कोई स्वार्थ नहीं रखा, नि:स्वार्थ पहले आप' कहा, करके दिखाया। ऐसे ही पहले आप का पाठ पक्का हो। इसने किया अर्थात् मैंने किया। इसने क्यों किया, मैं ही करूँ, मैं क्यों नहीं करूँ, मैं नहीं कर सकता हूँ क्या! यह भाव नहीं। उसने किया तो भी बाप की सेवा, मैंने किया तो भी बाप की सेवा। यहाँ कोई को अपना-अपना धन्धा तो नहीं है ना! एक ही बाप का धंधा है। ईश्वरीय सेवा पर हो। लिखते भी हो गाडली सर्विस, मेरी सर्विस तो नहीं लिखते हो ना! जैसा बाप एक है, सेवा भी एक है, ऐसे ही इसने किया, मैंने किया वह भी एक। जो जितना करता, उसे और आगे बढ़ाओ। मैं आगे बढूँ, नहीं दूसरों को आगे बढ़ाकर आगे बढ़ो। सबको साथ लेकर जाना है ना! बाप के साथ सब जायेंगे अर्थात् आपस में भी तो साथ-साथ होंगे ना! जब यही भावना हरेक में आ जाए तो ब्रह्मा बाप की फोटो स्टेट कापी हो जाओ।

मधुबन निवासियों को देखा अर्थात् ब्रह्मा को देखा क्योंकि कापी तो वही है ना! फिर ऐसा कोई नहीं कहेगा कि हमने तो ब्रह्मा बाप को देखा ही नहीं। आपके कर्म, आपकी स्थिति ब्रह्मा बाप को स्पष्ट दिखाये। यह है मधुबन निवासियों की विशेषता। क्योंकि मधुबन निवासियों को सब फालो करते हैं। तो मधुबन वाले एक-एक मास्टर ब्रह्मा हो। अभी देखो ब्रह्मा बाप का फोटो किसी को भी दो तो प्यार से सम्भाल लेते हैं, सबसे बढ़िया सौगात इसी को मानते हैं तो आप सब भी ब्रह्मा बाप की फोटो हो जाओ। ब्रह्मा बाप समान हो जाओ तो आप भी अमूल्य सौगात हो जायेंगे।

ब्रह्मा बाप की विशेषता सूरत में क्या देखी? गम्भीरता के चिन्ह भी और मुस्कराहट भी। गम्भीरता अर्थात् अन्तर्मुखता और साथसाथ रमणीकता। अन्तर्मुखी की निशानी सदा सागर के तले में खोये हुए गम्भीरमूर्त्त। मननाचिंतन करने वाला चेहरा और फिर रमणीक अर्थात् मुस्कराता हुआ चेहरा। तो दोनों ही लक्षण सूरत में देखे ना! ऐसे आपकी सूरत भी ब्रह्मा बाप के कापी स्वरूप हो। सूरत और सीरत से ब्रह्मा बाप दिखाई दे। क्योंकि ब्रह्मा बाप का सेवास्थान, कर्मभूमि तो मधुबन है ना! तो इस भूमि के रहने वालों द्वारा वही कर्म और सेवा प्रत्यक्ष होनी चाहिए। इसी आशा के दीपक को सदा जगाओ। ब्रह्मा बाप की आप बच्चों प्रति यही आश है। अब ऐसी दीपावली मनाओ। बापदादा की इस एक आशा का दीपक जगाओ। जब हरेक यह दीपक जगायेगा तो दीपमाला तो हो ही जायेगी ना! दीपमाला में भी देखो अगर बीच में एक दो दीपक बुझे हुए हों तो अच्छा लगेगा? अगर बीच-बीच में एक दो दीपक भी टिमटिमाता है तो अच्छा नहीं लगता। इसलिए सर्व जगे हुए दीपकों की माला।

मधुबन निवासी सब जस्टिस होने चाहिए, सेल्फ जस्टिस। कोई भी बात करने के पहले स्वयं जज करो तो न स्वयं का समय जायेगा और न दूसरों का। मधुबन तो पीस-पैलेस' है। मन की भी पीस, मुख की भी पीस, तब मधुबन पीस पैलेस से पीस की किरणें फैलेंगी। आप पीस-पैलेस वालों से सभी पीस की भिक्षा माँगते हैं, क्योंकि वे स्वयं ही स्वयं से तंग हो रहे हैं। विनाशकारियों के पास अभी तक आपके पीस की किरणें पहुँचती नहीं हैं इसीलिए कशमकश में हैं। कभी शान्त, कभी अशान्त। तो उन्हों को शान्त करने के लिए पीस-पैलेस से पीस की किरणें जानी चाहिए, तब उन्हों की बुद्धि में ही एक फाइनल फैसला होगा, खत्म करेंगे और शान्त हो शान्तिधाम में चले जायेंगे। तो ऐसे भिखारियों को अब महादानी बन महादान वा वरदान देने वाले बनो।

बापदादा तो सदा समझते हैं कि मधुबन वाले विश्व को बापदादा के समीप लाने वाले समीप रत्न हैं। तो अब ऐसा सबूत दिखाओ। जब ब्रह्मा बाप समान सब कापियाँ तैयार हो जायेंगी तब बेहद का बारूद चलेगा, फटाके छूटेंगे और ताजपोशी होगी। तो अब यह डेट फिक्स करो, जब आप सब ब्रह्मा बाप की बिल्कुल फोटो कापी होंगे तब ही यह डेट आयेगी। मधुबन निवासी जो चाहें वह कर सकते हैं। अच्छा-तो अभी सब क्या सोच रहे हो।

बापदादा के पास मन के संकल्पों की ही कैमरा नहीं लेकिन हरेक के मन में क्या चलता है, वह भी बापदादा स्पष्ट देख सकते हैं। साइंस वाले तो अभी तक कोशिश ही कर रहे हैं कि ऐसी कैमरा निकालें जो अन्दर के संकल्प की रेखायें मालूम हो जाएं। वे बिचारे मेहनत बहुत कर रहे हैं। यह सब इन्वेन्शन करते-करते रह जायेंगे और आप तैयार हुए साधन कार्य में लायेंगे। अच्छा।

पार्टियों के साथ :- जिस स्थान पर पहुँचे हो - इस स्थान के महत्व को अच्छी तरह से जान लिया है? महान तीर्थ स्थान पर आये हो। तो यहाँ आने से क्या बन गये? पुण्य आत्मा। तो सदा यही स्मृति में रखना कि हम पुण्य आत्मा हैं। हर संवल्प सर्व प्रति शुभ भावना और कामना का, यही बड़े ते बड़ा पुण्य है। तो तीर्थ स्थान पर जा करके कुछ छोड़कर आते हैं, कुछ लेकर आते हैं, इसलिए जो भी आपकी प्रगति में विघ्न डालने वाली चीज़ हो वह छोड़कर जाना और सदा सद्गति की ओर तीव्रगति से चलते रहना। सद्गतिदाता के बच्चों का संग पुण्य आत्मा सहज ही बना देगा। बहुत श्रेष्ठ लक है, भाग्यवान आत्मायें हो। अभी इसी भाग्य को सदा कायम रखने के लिए सदा श्रेष्ठ संग। संग के रंग में सदा श्रेष्ठ रहेंगे। बाप तो सभी बच्चों को सदा सिकीलधे बच्चे ही देखते हैं। अभी श्रेष्ठ वर्से के अधिकारी बनकर चलते चलो। थोड़े में खुश नहीं हो जाना। दाता के बच्चे थोड़े में खुश नहीं होते, सब कुछ लेते हैं। तो पूरा ही वर्सा, पूरा अधिकार लेना है। इसको कहा जाता है - सदा श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मायें। अच्छा।

टीचर्स के साथ :- ‘‘सभी बापदादा की विशेष सहयोगी आत्मायें हो। सहयोगी वही बन सकता है जो स्नेही है। जहाँ स्नेह होगा वहाँ सहयोग देने के सिवाए रह नहीं सकेंगे। तो सेवाधारी अर्थात् स्नेही और सहयोगी। साथ रहने वाले, साथ देने वाले और फिर है लास्ट में साथ चलने वाले। तो तीनों में एवररेडी। साथ रहना और देना अभी है, चलना पीछे है। जब दोनों ही बातें ठीक हो जायेंगी तो तीसरे की डेट भी आ जायेगी। आप सब निमित्त आत्मायें हो ना! जितना आप लोग साथ देंगे और साथ रहेंगे उतना आपको देखकर औरों का भी उंमग उत्साह स्वत: बढेंगा। एक आप अनेकों के निमित्त हो। मैं नहीं लेकिन बाप ने निमित्त बनाया है। मैं-पन तो समाप्त हो गया ना! मैं के बजाए मेरा बाबा', मैंने किया, मैंने कहा, यह नहीं, बाबा ने कराया, बाबा ने किया, फिर देखो सफलता सहज हो जायेगी। आपके मुख से ‘‘बाबा-बाबा'' जितना निकलेगा उतना अनेकों को बाबा का बना सकेंगे। सबके मुख से यही निकले कि इनकी तात और बात में बाबा-ही-बाबा है तब औरों को भी तात लग जायेगी। जो बात-तात अर्थात् लगन में होगी वही तात वही बात होगी। बापदादा छोटी-छोटी कुमारियों की हिम्मत औरा त्याग देखकर हर्षित होते हैं। बड़ों ने तो चखकर फिर त्याग किया है, वह कोई बड़ी बात नहीं। चखकर देखा और फिर छोड़ा। लेकिन इन्होंनें तो पहले ही समझ का काम कर लिया है। जितनी छोटी उतनी बड़ी समझदार।

दिल्ली और गुजरात है, कोई कम थोड़े ही हैं। अभी दिल्ली में बिजनेसमैन नहीं निकले हैं। एक बिजनेसमैन लाखों को आगे बढ़ा सकता है। क्योंकि एक बिजनेसमैन अनेकों के सम्पर्क में आते हैं। जितनों के सम्पर्क में आते हैं उनसे आधे भी सन्देश सुनने वाले निकले तो भी कितने हो जायेंगे! यह भी बिजनेस है। बिजनेसमैन को कितने शेयर्स मिलेंगे। सेवा का चांस बिजनेसमैन को अच्छा है। अभी बिजनेसमैन का ग्रुप तैयार करके आना।

मधुबन में आये हुए सेवाधारियों के साथ

जितना बड़ा महत्व यज्ञ का है, उतना ही यज्ञ-सेवाधारियों का भी महत्व है। इसी सेवा का यादगार अब तक अनेक धर्मस्थानों में कायम है। जो भी पीछे वाले धर्म स्थान बनते हैं, उसी स्थानों की सेवा का भी महत्व समझते हैं। तो चैतन्य महायज्ञ के सेवाधारियों का कितना महत्व है। यह सेवा नहीं कर रहे हो लेकिन पद्मगुणा मेवा खा रहे हो। सम्पत्तिवान जो होते हैं ना उसके लिए कहते हैं - यह सदा ही मेवा खाते रहते हैं। गरीब के लिए कहते - यह दाल-रोटी खाते और साहूकार के लिए कहते यह तो मेवा खाते। सेवा- धारी अर्थात् मेवा खाने वाले। तो कितने श्रेष्ठ हो गये! हर कदम में डबल कमाई। मंसा भी और कर्मणा भी। मंसा अर्थात् याद में रहकर सेवा करते हो तो डबल कमाई हो गई ना! तो कौन कितनी कमाई करता है वह हरेक स्वयं ही जान सकता है। सेवा का भण्डार भरपूर है। महायज्ञ अर्थात् सेवा का भण्डार। सेवा का भण्डार भरपूर है जो जितनी करे। हद भी नहीं है और खुटने वाली भी नहीं है। यह भी हद नहीं है कि यह काम पूरा हो गया अब क्या करूँ, भण्डार भरपूर। बेहद का भण्डार है इसलिए जितनी सेवा करो उतनी कर सकते हो। माला-माल बनने की लाटरी है। लाटरी तो मिली है, अभी लाटरी में कौन-सी लाटरी ली है, पद्मों वाली, लाखों वाली, हजार वाली या सौ वाली, वह आपके ऊपर है। लाटरी महान है, पद्मों की भी ले सकते हो।

बापदादा भी सेवाधारी बनकर आते हैं। वर्ल्ड आलमाइटी अथार्टी का पहला स्वरूप तो वर्ल्ड सवेंन्ट' है ना! तो जैसे बाप वैसे बच्चों का गायन है। निर्विघ्न सेवाधारी हो ना! सेवा के बीच में कोई विघ्न तो नहीं आता। वायुमण्डल का, संग का, आलस्य का, भिन्नभिन्न विघ्न हैं तो किसी भी प्रकार का विघ्न आया तो सेवा खण्डित हो गई ना! अखण्ड सेवा। किसी प्रकार के विघ्न में कभी भी नहीं आना। निर्विघ्न सेवा, उसका ही महत्व है। जरा भी संकल्प मात्र भी विघ्न न हो। ऐसे अखण्ड सेवाधारी कभी किसी चक्र में नहीं आते। कभी कोई व्यर्थ चक्र में नहीं आना तब सेवा सफल हो जायेगी। नहीं तो सेवा की सफलता नहीं होगी। अच्छा। कभी कोई व्यर्थ चक्र में नहीं आना तब सेवा सफल हो जायेगी। नहीं तो सेवा की सफलता नहीं होगी। अच्छा।



27-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"’दीपावलीके शुभ अवसर पर प्राण अव्यक्त बापदादा के उच्चारे हुए महावाक्य"

ज्ञानसूर्य परमात्मा शिव बाबा अपने चैतन्य दीपकों के प्रति बोले:-

''आज दीपकों वे मालिक अपनी दीपमाला को देखने आये हैं। जिन चैतन्य दीपकों की यादगार जड़ दीपकों की दीपमाला मनाते रहते हैं। भक्त लोग जड़ चित्र और जड़ दीपकों के साथ दीपावली मनायेंगे और आप चैतन्य दीपक सदा जगे हुए दीपक, दीपकों के मालिक से बालक बन मिलन मना रहे हो अर्थात् दीपावली मेला मना रहे हो। हर एक दीपक कितना सुन्दर जगमगा रहा है। बापदादा हर एक बच्चे के मस्तक में जगे हुए दीपक को ही देख रहे हैं। इतनी बड़ी दीपमाला कहाँ हो ही नहीं सकती। कितने भी अनेक स्थूल दीपक जगायें लेकिन ऐसी दीपमाला जो अविनाशी, अमर ज्योति स्वरूप है, ऐसी दीपमाला कहाँ हो सकती है? ऐसी दीपावली, दीपराज और दीपरानियाँ, ऐसा मेला कब देखा? देखने वाले भी आप और मनाने वाले भी आप। बापदादा सिर्फ गुजरात के दीपकों को नहीं देख रहे हैं। बापदादा के सामने देश-विदेश के चारों ओर के चैतन्य दीपक हैं। (1000 से अधिक भाई-बहन आये हैं इसलिए नीचे 3-4 स्थानों पर मुरली सुन रहे हैं) नीचे वाले भी नीचे नहीं हैं। बापदादा के नयनों में हैं। यहाँ स्थूल में स्थान नहीं है, लेकिन बापदादा के नयनों में ऐसे दीपकों का सदा स्थान है।

आज दीपराज अपनी सर्व दीपरानियों को अमर ज्योति की बधाई दे रहे हैं। ‘‘सदा अमर भव''। विदेश वाले भी मुस्करा रहे हैं। (डिनेस बहन अमेरिका से आई है) यह एक नहीं है एक में अनेक हैं। चारों ओर के देश वाले भी स्मृति की लव लगाये हैं। उसी लव के आधार पर दूर होते भी सम्मुख है। बापदादा बेहद दीपकों की दीपमाला देख रहे हैं।

मधुबन के आंगन में आज अनेक बच्चे फरिश्तों के रूप में हाजर-नाजर हैं। साकार रूप की सभा तो बहुत छोटी है लेकिन आकारी फरिश्तों की सभा बहुत बड़ी है। यह बड़ा हाल जो बना रहे हो वह भी छोटा है। सागर के बच्चों के आगे कितना भी बड़ा हाल बनाओ लेकिन सागर के समान हो जायेगा, फिर क्या करेंगे। आकाश और धरनी इसी बेहद के हाल में समा सकते हो। बेहद बाप के बच्चे चार दीवारों की हद में कैसे समा सकते हैं! ऐसा भी समय आयेगा जब बेहद के हाल में यह चार तत्व चार दीवारों का काम करेंगे। कोई मौसम के नीचे-ऊपर होने के कारण छत की वा दीवारों की आवश्यकता ही नहीं होगी। कहाँ तक बड़े हाल बना- येंगे? यह प्रकृति भविष्य की रिहर्सल आपको यहाँ ही अन्त में दिखायेगी। चारों ओर कितनी भी किसी तत्व द्वारा हलचल हो लेकिन जहाँ आप प्रकृति के मालिक होंगे वहाँ प्रकृति दासी बन सेवा करेगी। सिर्फ आप प्रकतिजीत बन जाओ। प्रकृति आप मालिकों का अब से आह्वान कर रही है। वह दिव्य दिवस जिसमें प्रकृति मालिकों को माला पहनायेगी, कौन सी माला पहनायेगी? चंदन की माला पहनेंगे वा हीरे रतनों की पहनेंगे? प्रकृति सहयोग की ही माला पहनायेगी। जहाँ आप प्रकृतिजीत ब्राह्मणों का पाँव होगा, स्थान होगा वहाँ कोई भी नुकसान हो नहीं सकता। एक दो मकान के आगे नुकसान होगा लेकिन आप सेफ होंगे। सामने दिखाई देगा यह हो रहा है, तूफान आ रहा है, धरनी हिल रही है लेकिन वहाँ सूली होगी, यहाँ काँटा होगा। वहाँ चिल्लाना होगा, यहाँ अचल होंगे। सब आपके तरफ स्थूल-सूक्ष्म सहारा लेने के लिए भागेंगे। आपका स्थान एसलम बन जायेगा। तब सबके मुख से,’’अहो प्रभु, आपकी लीला अपरमपार है'' यह बोल निकलेंगे। ‘‘धन्य हो, धन्य हो। आप लोगों ने पाया, हमने नहीं जाना, गंवाया।'' यह आवाज चारों ओर से आयेगा। फिर आप क्या करेंगे? विधाता के बच्चे विधाता और वरदाता बनेंगे। लेकिन इसमें भी एसलम लेने वाले भी स्वत: ही नम्बरवार होंगे। जो अब से अन्त तक वा स्थापना के आदि से अब तक भी सहयोग भाव में रहे हैं, विरोध भाव में नहीं रहे हैं, मानना न मानना अलग बात है लेकिन ईश्वरीय कार्य में वा ईश्वरीय परिवार के प्रति विरोध भाव के बजाए सहयोग का भाव, कार्य अच्छा है वा कार्यकर्ता अच्छे हैं, यही कार्य परिवर्त्तन कर सकता है, ऐसे भिन्न-भिन्न सहयोगी भावना यें वाले, ऐसे आवश्यता के समय इस भावना का फल नजदीक नम्बर में प्राप्त करेंगे अर्थात् एसलम के अधिकारी नम्बरवन बनेंगे। बाकी इस भावना में भी परसेन्टेज वाले उसी परसेन्ट प्रमाण एसलम की अंचली ले सकेंगे। बाकी देखने वाले देखते ही रह जायेंगे। जो अभी भी कहते हैं - देख लेंगे तुम्हारा क्या कार्य है वा देख लेंगे आपको क्या मिला है! जब कुछ होगा तब देखेंगे, ऐसे समय की इन्तजार करने वाले, एसलम के इन्तजाम के अधिकारी नहीं बन सकते। उस समय भी देखते ही रह जायेंगे। जमारी बारी कब आती है, इसी इन्तजार में ही रहेंगे और आप दूर में इन्तजार करने वाली आत्माओं को भी मास्टर ज्ञान सूर्य बन,शुभ भावना, श्रेष्ठ बनने के कामना की किरणें चारों ओर की आत्माओं पर विश्व-कल्याणकारी बन डालेंगे। फिर-कितनी भी विरोधी आत्मायें हैं, अपने पश्चाताप की अग्नि में स्वयं को जलता हुआ, बेचैन अनुभव करेंगी। और आप शीतला देवियाँ बन रहम, दया, कृपा की शीतल छीटों से विरोधी आत्माओं को भी शीतल बनायेंगी। अर्थात् सहारे के गले लगायेंगी। उस समय आपके भक्त बन ‘‘ओ माँ, ओ माँ'' पुकारते हुए विरोधी से बदल भक्त बन जायेंगे। यह हैं आपके लास्ट भक्त। तो विरोधी आत्माओं को भी अन्त में भक्तपन की अंचली जरूर देंगे। वरदानी बन भक्त भव' का वरदान देंगे। फिर भी हैं तो आपके भाई ना! तो ब्रदरहुड का नाता निभायेंगे, ऐसे वरदानी बने हो? जैसे प्रकृति आपका आह्वान कर रही है ऐसे आप सब भी अपने ऐसे सम्पन्न स्थिति का आह्वान कर रहे हो? यही दीपमाला मनाओ! वे तो लक्ष्मी का आह्वान करेंगे आप क्या आह्वान करेंगे? वे तो धन देवी का आह्वान करते हैं, आप सभीधनवान भव' की स्थिति का आह्वान करो। ऐसी दीपमाला मनाओ। समझा-क्या करना है? अच्छा-

ऐसे दीपमाला के दीपकों को, सदा सर्व खज़ानों से सम्पन्न धनवान भव बच्चों को, सदा अमर ज्योति भव बच्चों को, सदा हर आत्मा को शुभ भावना का फल देने वाले, वरदानी महादानी बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।’’

दीदी-दादी से - बापदादा आज क्या देख रहे हैं? विशेष आज, अभी ब्रह्मा बाप देख रहे हैं। आज ब्रह्मा बाप के साथ जगदम्बा भी आई है। ब्रह्मा बाप और दोनों क्या देख रहे हैं? आज के दिन माँ को भी याद करते हैं ना! तो जगत माँ और ब्रह्मा बाप क्या देख रहे हैं? आज विशेष रूप में जगदम्बा वा चैतन्य होवनहार लक्ष्मी, अपनी विशेष सहयोगी हमशरीक साथियों से मिलने के लिए आई हैं। बचपन की सखी है ना! याद है ना बचपन, आज सखियों को बापदादा के सदा सहयोग में ‘‘जी हाजर'' ‘‘जी हजूर'' का प्रैक्टिकल पाठ कर्त्तव्य में देख खुश हो रही है।

आज माँ-बाप अपने राजवंश को देख रहे हैं। राज्य दरबार सामने आ रही है। कितनी सजी-सजाई दरबार है। अष्ट देवता अपने- अपने सिंहासन पर विराजमान हैं। तो आप कहाँ बैठी हो? जितना सेवा की सीट में नजदीक हो उतना ही राज्य सिंहासन में भी नजदीक हैं। यहाँ तपस्या और सेवा का आसन और वहाँ राज्य भाग्य का सिंहासन। तो जो सदा तपस्या और सेवा के आसन पर हैं वह सदा सिंहासनधारी हैं। जितना यहाँ सेवा के सदा सहयोगी उतना वहाँ राज्य के सदा साथी। जैसे यहाँ हर कर्म में बापदादा की याद में साथी हैं, वैसे वहाँ हर कर्म में बचपन से लेकर राज्य करने के हर कर्म में साथी हैं। आयु में भी हमशरीक हैं, इसीलिए पढ़ाई में, खेल में, सैर में, राज्य में, हर कर्म में हमशरीक साथी हैं। अगर यहाँ कोई-कोई कर्म में याद से साथी बनते हैं, तो वहाँ भी सर्व कर्म मे साथी नहीं बनेंगे। कोई-कोई कर्म में साथ होंगे, कोई में अलग। कोई में नजदीक होंगे, कोई में दूर। जो सदा समीप, सदा साथी, सदा सहयोगी, सदा तपस्या और सेवा के आसन पर रहते हैं वह वहाँ भी सदा साथ रहते हैं। तो स्मृति में आता है ना! जैसे यहाँ अलौकिक जीवन में, आध्यात्मिक जीवन में ,किशोर जीवन से लास्ट तक साथी रहे हो ना, बचपन के साथी और अन्त तक के साथी, वैसे ही ब्रह्मा के रूप में जो आदि से अन्त हर कर्म में, हर चरित्र में, हर सेवा के समय में साथी रहे हैं, वह भविष्य में भी साथी रहेंगे। अच्छा

टीचर्स के साथ :- गुजरात के सच्चे सेवाधारी। सच्चे सेवाधारी कहो वा रूहानी सेवाधारी कहो। रूहानी सेवाधारी अर्थात् सच्चे सेवाधारी। तो गुजरात के रूहानी सेवाधारियों की विशेषता क्या है? (एवररेडी है) एवररेडी स्थूल सेवा में तो हैं क्योंकि सेवा के जो भिन्न-भिन्न साधन हैं उसमें जहाँ बुलावा होता है वहाँ पहुँचने वाले हैं। लेकिन मंसा से भी जो संकल्प धारण करने चाहो उसमें भी सदा एवररेडी हो? जो सोचो वह करो, उसी समय। इसको कहा जाता है - एवररेडी। मंसा से भी एवररेडी, संस्कार परिवर्त्तन में भी एवररेडी। रूहानी सम्बन्ध और सम्पर्क निभाने में भी एवररेडी। तो ऐसे एवररेडी हो या टाइम लगता है? संस्कार मिटाने में वा संस्कार मिलाने में टाइम लगता है? इसमें भी एवररेडी बनो। क्योंकि गुजरात की रास मशहूर है। वह रास तो बहुत अच्छी करते हो, लेकिन रास मिलाना, बाप से संस्कार मिलाना यह है बाप के संस्कारों से रास मिलाने की रास। एक है रास करना, एक है रास मिलाना। जैसे रास करने में होशियार हो वैसे बाप से संस्कार मिलाने में, आपस में श्रेष्ठ संस्कार मिलाने में होशियार हो? संस्कार मिलाना यही बड़े ते बड़ी रास है। तो ऐसी रास करते हो ना? आज सब यही संकल्प करो कि सदा संस्कारों की रास मिलाते चलेंगे।

आज के दिन लक्ष्मी के साथ आपका भी पूजन होता है। माँ के साथ बच्चों का भी होता है। किस रूप में होता है? लक्ष्मी के साथ गणेश की भी पूजा करते हैं। गणेश बच्चा है ना! तो सिर्फ लक्ष्मी की पूजा नहीं लेकिन आप सब गणेश अर्थात् बुद्धिवान हो। तीनों कालों के नालेजफुल, इसको कहा जाता है - गणेश अर्थात् बुद्धिवान, समझदार। और गणेश को ही विघ्न-विनाशक कहते हैं। तो जो तीनों लोक और त्रिमूर्ति के नालेजफुल हैं वही विघ्न-विनाशक हैं। तो नालेजफुल भी हो और विघ्न-विनाशक भी हो, इसलिए पूजा होती है। तो आज आपके पूजा का दिन है। आप सबका दिन है ना! तो सदा किसी भी परिस्थिति में विघ्न रूप न बन, विघ्नविनाशक बनो। अगर और कोई विघ्न रूप बने तो आप विघ्न-विनाशक बन जाओ तो विघ्न खत्म हो जायेंगे। ऐसा वातावरण है, ऐसी परिस्थिति है इसलिए यह करना पड़ा, यह बोल विघ्न-विनाशक के नहीं। विघ्न-विनाशक अर्थात् वातावरण, वायुमण्डल को परिवर्त्तन करने वाले। ऐसे विघ्न विनाशक हो? गुजरात विघ्न-विनाशक हो गया तो फिर कोई भी विघ्न की बातचीत ही नहीं होगी ना! नाम निशान भी नहीं। जब आपकी रचना, हद का सूर्य अंधकार को समाप्त कर सकता है तो आप बेहद के मास्टर ज्ञान सूर्य क्या यह नहीं समाप्त सकते हो? जैसे गुजरात सेवा में नम्बरवन है ऐसे विघ्न-विनाशक में नम्बरवन हो तब प्राइज देंगे। बहुत बढ़िया प्राइज देंगे। जो बाप को सौगात मिलती है ना वह आप गुजरात को देंगे। अच्छा।''

दीपावली और नये वर्ष की मुबारक :- (27 ता. रात्रि डेढ़ बजे) सदा ही आपका नया वर्ष तो क्या लेकिन हर घड़ी नई है। इसलिए हर घड़ी में नया उमंग, नया उत्साह, नया सेवा का प्लैन। हर घड़ी नये ते नई। इसी नवीनता की सदा के लिए बधाई। लोगों के लिए नया वर्ष है और आप लोंगो के लिए नवयुग है और नवयुग में हर घड़ी उत्साह होन के कारण उत्सव है। हर घड़ी दीवाली है। हर घड़ी उत्सव है। क्योंकि उत्सव का अर्थ ही है उत्साह दिलाने वाला। तो हर घड़ी, हर सेकेण्ड उत्साह दिलाने वाला हो। इसलिए वह तो वर्ष-वर्ष उत्सव मनाते हैं और आप हर घड़ी उत्सव मनाते हो। यह ब्राह्मण जीवन ही आपका उत्सव है। जिसमें सदा हर घड़ी खुशी में झूलते रहो। ऐसे नया दिन कहो, नया वर्ष कहो, नया सेकेण्ड कहो, संकल्प कहो, हर नये रूप की बधाई। दीवाली भी मनाई, नया वर्ष भी मनाया, दोनों का संगम हो गया। गुजरात वाले लकी हैं, संगमयुग में भी संगम मनाया। अच्छा-अविनाशी बधाई। बधाई।



29-10-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"बाप और बच्चों का रूहानी मिलन"

अति मीठे-मीठे अव्यक्त बाप-दादा अपने अति मीठे-मीठे बच्चों के प्रति बोले:-

‘‘रूहानी बाप रूहानी बच्चों से मिलन मना रहे हैं। यह रूहानी मेला सिर्फ आप बच्चे ही मना सकते हो। एक बाप से एक ही समय यह मेला मना सकते हो। आप सभी दीवाली का मेला मनाने आये हो। मेले में एक होता है - मनाना, दूसरा - एक-दो से मिलना, तीसरा - कुछ लेना, कुछ देना, चौथा - खेलना। आप सभी ने भी यह चार ही बातें की। मेले में तो आये लेकिन मनाना अर्थात् सदा अविनाशी उत्साह भरी, उमंग भरी जीवन में सदा रहने का दृढ़ संकल्प करना। यह रूहानी मेला मनाना, अविनाशी उत्सव मनाना, एक दो दिन के लिए नहीं, संगमयुग है ही सदा का उत्सव अर्थात् उत्साह बढ़ाने वाला। तो दिवाली गई नहीं लेकिन दिवाली है। नया वर्ष सदा के लिए है। हर घड़ी आपके लिए नई है। जैसे नये वर्ष में उसी दिन विशेष नये-नये वस्त्र, नया-नया श्रृंगार, नया उमंग और विशेष खुशी का दिन समझते हुए सबको बधाई देते हैं, मुख मीठा कराते हैं वैसे आप रूहानी बच्चों के लिए संगमयुग का हर दिन सर्व को बधाई देने का है और सर्व का सदा के लिए मुख मीठा करने का है। ऐसे सदा उत्साह में रहना और औरों को भी उत्साह दिलाना। सदा मुख में मीठा बोल, यह है मुख मीठा होना और औरों को भी मीठे बोल द्वारा, मीठे बाप की स्मृति दिलाना, सम्बन्ध में लाना यह है - मीठा मुख कराना। तो सदा मुख मीठा है? मीठे बोल की मिठाई सदा आपके मुख में है और सदा औरों को खिलाते रहते हो? हर दिन श्रेष्ठ स्थिति अर्थात् हर दिन अपने में नवीनता धारण करते रहते हो? सेकेण्ड बीता और नई स्थिति। जो एक सेकेण्ड पहले स्थिति थी वह दूसरे सेकेण्ड चढ़ती कला की अनुभूति के कारण सदा श्रेष्ठ वा नई होती है। तो स्थिति धारण करना अर्थात् नये वस्त्र धारण करना। सतयुग में तो स्थूल में सदा नई ड्रेस पहनेंगे, विश्व-महाराजन् वा राज्यवंशी पहनी हुई ड्रेस नहीं पहनेंगे। तो यह संस्कार यहाँ से राज्य-अधिकारी आत्माओं के भरते हैं। हर समय की नई स्थिति और हर समय बाप-दादा द्वारा ज्ञान-विज्ञान द्वारा, नया श्रृंगार हो रहा है। जैसे सबसे ज्यादा सम्पत्तिवान,सदा नया-नया श्रृंगार करेंगे। तो सर्वश्रेष्ठ सम्पन्न बाप, आप श्रेष्ठ सम्पन्न बच्चों को रोज नया श्रृंगार करते हैं ना! तो रोज नया वर्ष हो गया ना! नये वस्त्र, नया श्रृंगार, नया उत्सव अर्थात् उत्साह और सदा मुख मीठा। निरन्तर ही मुख में मीठेपन की मिठाई। इसलिए बाप भी रोज क्या बोलते हैं? (मीठे- मीठे बच्चे) यह तो पक्का याद है ना! बाप भी मीठे-मीठे बच्चे कहते और बच्चे भी क्या कहते? (मीठे-मीठे बाबा) तो मुख में क्या हो गया? तो रोज का नया वर्ष हो गया ना! नया वर्ष तो क्या, नई घड़ी हो गई। तो इसी प्रकार मनाया? या उत्सव गया और उत्साह भी गया? ऐसा अल्पकाल का तो नहीं मनाया ना? यहाँ रूहानी मेला अर्थात् अविनाशी मेला। दूसरी बात - मनाने के साथ मिलना। तो रूहानी मिलना वा मिलन करना अर्थात् मिलना अर्थात् बाप समान बनना। यह सिर्फ गले मिलन नहीं लेकिन गुणों से मिलन। संस्कारों से मिलन। मिलना अर्थात् समान बनना। इसीलिए ही संग के रंग का गायन है। ऐसे रूहानी मिलन मनाया? वा सिर्फ एक दो संस्कारों का मिलन, यह तो सदा काल का है ना? रोज मिलन मनाना है। तो चेक करो - मेले में आये तो ऐसा मिलन मनाया!

तीसरी बात- लेना और देना। लौकिक रीति से भी किसी मेले में जायेंगे तो पैसा देंगे और कोई चीज़ लेंगे। कुछ न कुछ लेते जरूर हैं। और लेने से पहले देना तो है ही। तो सदा लेते हो। एक दो में भी सदा हर एक की विशेषता वा गुणों को लेते ही हो। लेते हो ना सदा? जब लेते हो अर्थात् स्वयं में धारण करते हो। तो जब विशेषता धारण करेंगे उसके बदले साधारणता स्वत: ही खत्म हो जाती है। गुण को धारण करते हो तो उस गुण के धारणा की कमजोरी स्वत: ही समाप्त हो जाती है। तो यही देना हो जाता है। तो गुजरात वालों ने लिया और दिया- लेना और देना किया? तो यह लेना और देना भी हर समय चलता ही रहता है और चलता ही रहेगा। हर सेकेण्ड लेते हो और देते हो क्योंकि लेने से देना बंधा हुआ है। तो देने में भी फराखदिल हो या कन्जूस हो? फराखदिल हो ना? और देते भी क्या हो? जिससे मजबूर हो वही चीज़ देते हो ।

बाप आते ही तब है जब सब बच्चे बिल्कुल खाली हो जाते हैं। न तन की शक्ति,न मन की,न धन की। तन की शक्ति से खाली इसका यादगार शिव की बरात कैसी दिखाई है? और मन की शक्ति की समाप्ति की निशानी-''सदा की पुकार’’ की यादगार है। रोज पुकारते रहते हैं ना! धन से खाली की निशानी - अभी देखों जो थोड़ा बहुत सोना भी रहा है, उसके ऊपर भी सदा गवर्मेन्ट की ऑख है। डर-डर के पहनते हैं। अगर धन है भी तो नाम क्या है? ''काला धन’’। जितना बड़ा धनवान नाम का, उतना 90 ब्लैकमनी होगी। तो नाम का धन रहा या काम का? तो जब सब तरफ से खाली हो जाते हो, सिर्फ सुदामे के सुखे चावल रह जाते हैं तब बाप आते हैं। तो सूखे चावल खाने से तो नुकसान हो जायेगा। सिर्फ चावल देते हो, वह भी सूखे और लेते क्या हो? सर्वगुण, सर्व- शक्तियाँ, सर्व खज़ाने। 36 प्रकार से भी ज्यादा वैरायटी, तो लेना हुआ या देना हुआ? सूखे चावल भी मिट्टी वाले लाते हो। मिट्टी की ही स्मृति रहती है ना! अब तो बदल गये लेकिन जब बाप के पास आये तब मिट्टी वाले ही थे? मिट्टी को देखते, मिट्टी से खेलते और क्या करते थे। और अब रतनों से खेलते हो। तो लेना और देना यह भी सदा चलता ही रहेगा। देने में भी हैं मिट्टी के सूखे चावल लेकिन फिर भी कई बच्चे देने में भी नाज-नखरे बहुत करते हैं। आज कहेंगे दे दिया लेकिन सुदामा के मिसल वह भी कच्छ (बगल) में छिपाकर रखते हैं। बाप तो ले सकते हैं लेकिन देने वाले का बनेगा? अगर खींच कर ले लेंगे तो देकर के लेना, उसमें कमी पड़ जायेगी। एक देना और पद्म पाना। तो स्व-इच्छा अर्थात् दृढ़ संकल्प से एक देना पदम पाना। इसलिए देना आपको ही पड़ेगा। क्योंकि देने में ही कल्याण है। तो समझा, लेना-देना क्या है?

जब ऐसा मनाना, मिलना और लेना-देना हो जाता है, फिर क्या होता है? सदा बाप के साथ खुशी में खेलना। सदा अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलना। तो ऐसा मेला मनाया? यही रूहानी मेला सदा मनाते रहो। और हर रोज मेला है! समझा? अच्छा।

ऐसे हर सेकेण्ड मेला मनाने वाले, सदा स्वयं का और सर्व का मुख मीठा करने वाले, सदा नया उत्साह रखने वाले, अर्थात् सदा उत्सव मनाने वाले,हर सेकेण्ड चढ़ती कला की नई स्थिति अर्थात् नये वस्त्रधारी, नये श्रृंगारधारी, सदा बाप के साथ खुशी में खेलने वाले, ऐसे सदा रूहानी मेला मनाने वाले श्रेष्ठ आत्माओं को बाप-दादा का याद प्यार और नमस्ते।''

युगलों से :- ‘‘अपनी विशेषता को जानते हो? इस ग्रुप की विशेषता क्या है? यह ग्रुप संन्यासी को भी नीचे झुकाने वाला है। संन्यासी अर्थात् आजकल की महान आत्मायें। तो आजकल के महात्मा कहलाने वालों को भी अपने जीवन द्वारा बाप का परिचय दिलाने वाले हो। इसी विशेषता को सदा स्मृति में रखते हुए हर कदम उठायेंगे तो हर कर्म चरित्र हो जायेगा। जैसे ब्रह्मा का हर कर्म चरित्र के रूप में वर्णन करते हो ना! यहाँ मधुबन में ब्रह्मा बाप की चरित्र भूमि समझकर आते हो ना! तो जैसे ब्रह्मा बाप का हर कर्म चरित्र बन गया क्योंकि श्रेष्ठ कर्म है, ऐसे इस ग्रुप की विशेषता है, हर कर्म चरित्र समान करने वाले। क्योंकि अभी अलौकिक बाप के बच्चे अलौकिक हो गये। ब्रह्माकुमार,कुमारी का अलौकिक नाता हो गया। अलौकिक बाप,अलौकिक बच्चे और अलौकिक कर्म। अलौकिक कर्म को ही चरित्र कहेंगे। तो सारे दिन में अमृतवेले से लेकर रात तक हर कर्म चरित्र हो,साधारण नहीं, अलौकिक हो। अलौकिक जीवन वाले साधारण कर्म कर ही नहीं सकते।

सभी की गाड़ी दो पहिये वाली ठीक चल रही है ना? कभी कोई पहिया नीचे ऊपर तो नहीं होता! एक पहिया आगे चले दूसरा पीछे, ऐसे तो नहीं होता? आप सब की यही विशेषता हो - -जो एक-दो से आगे भी रहो और एक-दो को आगे करने वाले भी। एक-दो को आगे रखना ही आगे होना है। ऐसे नहीं मैं पुरूष हूँ, और वह समझे मैं शक्ति हूँ। अगर आप शक्ति हो तो वह पाण्डव भी कम नहीं,तो शक्तियाँ भी कम नहीं। दोनों ही बाप के सहयोगी हैं इसलिए पाण्डव आगे हैं या शक्तियाँ आगे हैं,यह भी नहीं कह सकते। शक्तियों को ढाल इसीलिए कहते हैं क्योंकि वह अपने को बहुत समय से नीचे समझती हैं, इसलिए नशा चढ़ाने के लिए आगे रखा है। शक्तियों को आगे रखने में ही पाण्डवों को फायदा है। शक्ति पीछे रहेगी तो आपको भी पीछे खींच लेगी। क्योंकि शक्तियों में आकर्षण करने की शक्ति ज्यादा होती है। इसलिए शक्तियों को आगे रखना ही आपका आगे होना है। वैसे भी शक्तियाँ पाण्डवों की ढाल हैं। पाण्डव कहीं ऐसा भाषण करें तो डण्डे खाने पड़े। वैसे भी गीता पाठ शाला खोलते हो तो कहते हो बहन भेजो। माता गुरू है,इसलिए माता में भावना सहज बैठ जाती है। ब्रह्मा बाप भी बैकबोन रहा और शक्तियों को आगे किया तो आप भी ब्रह्मा की हमजिन्स हो। तो जैसे बाप ने शक्तियों को आगे किया तो सफलता मिली वैसे आप भी शक्तियों को आगे रखो तो सफलता मिल जायेगी।

प्रवृत्ति में कोई खिटखिट तो नहीं होती? कभी बर्त्तन, बर्त्तन में लगकर ठका तो नहीं होता? क्योंकि कोई भी आवाज होगा तो क्या कहेंगे? भगवान के बच्चे, और बर्त्तन बर्त्तन से टकराता है! वैसे तो बर्त्तन, बर्त्तन में लगेगा तो आवाज जरूर होगा लेकिन यहाँ आवाज नहीं हो सकता, क्यों? क्योंकि यहाँ बीच में बाप है! जहाँ बीच में बाप आ गया वहाँ आवाज होगा? जब बीच से बाप को निकाल देते हो फिर टक्कर होता है, आवाज होता है। तो सदा बाप को साथ रखो। बाप साथ होगा तो कोई भी बात अगर हुई भी तो ठीक हो जायेगी। वैसे भी जब किसी दो की बात में,तीसरा बीच में पड़ता है तो बात खत्म हो जाती है ना! ऐसे ही बाप को बीच में रखेंगे तो बात बढ़ेगी नहीं,फैसला हो जायेगा।

प्रवृत्ति में रहते भी सदा देह के सम्बन्ध से निवृत्त रहो। तभी पवित्र प्रवृत्ति का पार्ट बजा सकेंगे। मैं पुरूष हूँ, यह स्त्री है - यह भान स्वप्न में भी नहीं आना चाहिए। आत्मा भाई-भाई है तो स्त्री-पुरूष कहाँ से आये? युगल तो आप और बाप हो ना! फिर यह मेरी युगल है - ऐसा कैसे कह सकते? यह तो निमित्त मात्र सिर्फ सेवा अर्थ है बाकी कम्बाइन्ड रूप तो आप और बाप हो। फिर भी बापदादा मुबारक देते हैं, हिम्मत पर। हिम्मत रख आगे चल रहे हो और चलते रहेंगे। इस हिम्मत की मुबारक देते हैं।

कुमारों से :- अपने को सदा राजऋषि समझते हो? अधिकारी और ऋषि अर्थात् तपस्वी। स्व का राज्य प्राप्त होने से स्वत: ही तपस्वी बन जाते हैं। क्योंकि जब स्व का राज्य होता है तो स्वयं को आत्मा समझने से बाप का बनने से,यही तपस्या हो जाती है। आत्मा बाप की बनी अर्थात् तपस्वी बनी। तो राज्य भी और ऋषि भी। तो सभी स्वराज्य अधिकारी बने हो? कोई भी कर्मेन्द्रिय अपने तरफ आकर्षित न करे,सदा बाप की तरफ आकर्षित रहें। किसी भी व्यक्ति व वस्तु की तरफ आकर्षण न जाये। ऐसे राज्य अधिकारी तपस्वी कुमार हो? बिल्कुल विजयी। क्योंकि वायुमण्डल तो कलियुगी है ना और साथ भी हंस और बगुलों का है। ऐसे वातावरण में रहते हुए स्वराज्यधारी होंगे तब सेफ रहेंगे। जरा भी दुनिया के वायब्रेशन की आकर्षण न हो। कोई कम्पलेन नहीं, सदा कम्पलीट। कुमारों की कम्पलेन आती है? कुमार यदि विजयी बन जाएं तो सबसे महान हैं। क्योंकि गवर्मेन्ट भी यूथ को आगे बढ़ाती है। उसमें भी कुमार ज्यादा होते हैं। कुमार जो चाहें वह कर सकते हें क्योंकि शक्ति बहुत होती है। लेकिन शक्ति को व्यर्थ तो नहीं गंवाते हो। संकल्प और स्वप्न में बाप के सिवाए और कोई नहीं तब कहेंगे नम्बरवन कुमार। कुमार निर्विघ्न हो गये तो सबको निर्विघ्न बना सकते हैं। कुमारों का टाइटल ही है - विघ्न-विनाशक। किसी भी प्रकार का विघ्न - मंसा, चाहे वाचा, चाहे कर्मणा,किसी भी विघ्न के वशीभूत न हों। इसलिए बच्चों का ही टाइटल है - विघ्न-विनाशक। गणेश बच्चा है ना! तो आपके यादगार में विघ्न-विनाशक नाम प्रसिद्ध है। प्रैक्टिकल बने हो तब यादगार बना है। विघ्न-विनाशक बनने से स्वत: ही मंसा द्वारा भी सेवा होती रहेगी। वायुमण्डल भी निर्विघ्न बनता जायेगा। जैसे तत्वों से मौसम बदलती है वैसे विघ्न-विनाशक बच्चों से वायुमण्डल बदल जायेगा। तो चारों ओर विघ्न-विनाशक की लहर फैल जाए। सदा यही स्मृति में रखो कि हमें विजयी वायुमण्डल बनाना है। जैसे सूर्य स्वयं शक्तिशाली है तो चारों ओर अपनी शक्ति से प्रकाश फैलसता है, ऐसे ही शक्तिवान बनो। कुमारों को कोई न कोई काम जरूर चाहिए, कुमार अगर फ्री हुए ता खिटखिट हो जायेगी। कुमार बिजी रहे तो स्व का भी कल्याण, विश्व का भी कल्याण। तो विघ्न-विनाशक बन वायुमण्डल बनाने में बिजी रहो। अपनी विशेषता को इस कार्य में लगाओ। एक-एक कुमार अनेकों को संजी- वनी बूटी देने वाले महावीर अर्थात् मूर्छित को महावीर सुरजीत करने वाले हो। तो सदा अपना यह आक्युपेशन याद रखो। जैसे लौकिक आक्युपेशन नहीं भूलता ऐसे यह अलौकिक आक्युपेशन भी सदा याद रहे। संगमयुग पर बाप द्वारा जो भी टाइटल मिले हैं उनकी स्मृति में रहो। टाइटल याद आने से स्वत: ही ज्ञान और ज्ञानदाता दोनों की याद आ जायेंगी। अच्छा।

कुमारियों से :- कुमारियों को देखकर बापदादा बहुत हर्षित होते हैं। क्यों? क्योंकि एक-एक कुमारी अनेको को जगाने के निमित्त बनने वाली है। तो कुमारियों के भविष्य को देख करके हर्षित होते हैं। एक-एक कुमारी विश्व-कल्याणकारी बनेगी। परिवार कल्याण वाली नहीं, विश्व-कल्याण करने वाली। अगर कुमारी गृहस्थी हो गई तो परिवार कल्याणकारी हो गई और ब्रह्मकुमारी बन गई तो विश्व-कल्याणकारी हो गई। तो क्या बनने वाली हो? वैसे भी देखो कुमारियों का भक्तिकाल के अन्त में भी पूजन होता है। तो लास्ट तक भी इतनी श्रेष्ठ हो। कुमारी जीवन का बहुत महत्व है। कुमारियों को ब्राह्मण जीवन में लिफ्ट भी है। कुमारियाँ कितना जल्दी सेवाकेन्द्र की इन्चार्ज बन जाती हैं। कुमारों को देरी से चांस मिलता है। कुमारी अगर रेस में आगे जाए तो बहुत अपने को आगे बढ़ा सकती है। एक कुमारी अनेक सेवावेन्द्रों को सम्भाल सकती है। ड्रामा अनुसार यह लिफ्ट गिफ्ट की रीति से मिली हुई है। मेहनत नहीं की है। कुमारियों की विशेषता क्या है? कुमारी जीवन अर्थात् सम्पूर्ण पावन। अगर कुमारी जीवन में यह विशेषता नहीं तो उसका कोई महत्व नहीं। ब्रह्माकुमारी अर्थात् मंसा में भी अपवित्रता का संकल्प न हो। तभी पूज्य है, नहीं तो खण्डित हो जाती है और खण्डित की पूजा नहीं होती। तो इस विशेषता को जानती हो?

इतनी सब कुमारियाँ सेवाधारी बन जाएं तो कितने सेन्टर खुल जाएं! बापदादा किसी को लौकिक सेवा छोड़ने के लिए भी नहीं कहते। लेकिन बैलेंस हो। जितना-जितना इस सेवा में बिजी होती जायेंगी तो वह आपेही छूट जायेगी। किसी को कहो नौकरी छोड़ो तो सोच में पड़ जाते। जैसे अज्ञानी को कहो बीड़ी छोड़ो, सिग्रेट छोड़ो, तो छोड़ने से नहीं छूटती, अनुभव से छोड़ देते हैं। ऐसे ही आप भी जब इस सेवा में बिजी हो जायेंगे तो वह छूट जायेगी। अभी तक गुजरात को दहेज में सेन्टर नहीं मिले हैं,बाम्बे को मिले हैं। गुजरात जो चाहे वह कर सकता है। कमी नहीं है सिर्फ संकल्प और सिस्टम नहीं शुरू हुई है। सभी कुमारियाँ बापदादा के कुल की दीपक हो ना? अपने भाग्य को देखकर सदा हर्षित रहो तो इस जीवन में बाप की बन गई। यही जीवन गिराने वाली भी है और चढ़ाने वाली भी है। तो सभी चढ़ती कला के रास्ते पर पहुँच गई हो। अच्छा।

पार्टियों से :- संगमयुग को नवयुग भी कह सकते हैं क्योंकि सब कुछ नया हो जाता है। नवयुग वालों की हर समय ही हर चाल नई। उठना भी नया, बोलना भी नया, चलना भी नया। जिसको कहते हैं नया अर्थात् अलौकिक। नई तात,नई बात,सब नया हो गया ना! स्मृति में ही नवीनता आ गई। जैसी स्मृति वैसी स्थिति हो गई। बातें भी नई, मिलना भी नया, सब नया। देखेंगे तो भी आत्मा,आत्मा को देखेंगे! पहले शरीरधारी शरीर को देखते थे अब आत्मा को देखते हैं। पहले संपर्क में आते थे तो कई विकारी भावना से आते थे। अभी भाई-भाई की दृष्टि से सम्पर्क में आते हो। अभी बाप के साथी बन गये। पहले लौकिक साथी थे। ब्राह्मणों की भाषा भी नई। आपकी भाषा दुनिया वाले नहीं समझ सकते। सिर्फ यह बात भी बोलते हो कि भगवान आया है तो भी आश्चर्य खाते हैं, समझते नहीं। कहते हैं, यह क्या बोलते हो! तो आपकी सब बातें नई हैं। इस लिए हर सेकेण्ड अपने में भी नवीनता लाओ। जो एक सेकेण्ड पहले अवस्था थी वह दूसरे सेकेण्ड नहीं, उससे आगे। इसी को कहा जाता - फास्ट पुरूषार्थ। जो कभी चढ़ती कला में, कभी रूकती कला में, उनको नम्बरवन पुरूषार्थी नहीं कहेंगे। नम्बरवन पुरूषार्थी की निशानी है हर सेकेण्ड, हर सकंल्प चढ़ती कला। अभी 80 हैं तो सेकेण्ड के बाद 81 ऐसे नहीं कि 80 का 80 रहें। चढ़ती कला अर्थात् सदा आगे बढ़ते रहना। ब्राह्मणजीवन का कार्य ही है - बढ़ना और बढ़ाना। आपकी चढ़ती कला में सर्व का भला है। इतनी जिम्मेवारी है आप सबके ऊपर।

अच्छा- ओम् शान्ति।



01-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सेवा की सफलता की कुंजी"

सदा कृपालु, दयालु, अव्यक्त बापदादा अपने ईश्वरीय सेवाधारियों प्रति बोले:

‘‘आज बापदादा सर्व बच्चों को किस रूप में देख रहे हैं अर्थात् अपने खुदाई खिदमतगार बच्चों को देख रहे हैं। जो हैं ही खुदाई खिदमतगार उन्हों को सदा स्वत: ही खुदा और खिदमत अर्थात् बाप और सेवा दोनों साथ-साथ याद रहती ही हैं। वैसे भी आजकल की दुनिया में कोई किसका कार्य नहीं करता वा सहयोगी नहीं बनता तो एक दो को कहते हैं - भगवान के नाम से यह काम करो। वा खुदा के नाम से यह काम करो। क्योंकि समझते हैं - भगवान के नाम से सहयोग मिल जायेगा और सफलता भी मिल जायेगी। कोई असम्भव कार्य वा होपलेस बात होती है तो भी यही कहते हैं - ‘‘भगवान का नाम लो तो काम हो जायेगा।'' इससे क्या सिद्ध होता है?असम्भव से सम्भव, ना उम्मीद से उम्मीदवार कार्य बाप ने आकर किये हैं तब तो अब तक भी यह कहावत चलती आती है। परन्तु आप सब तो हैं ही खुदाई खिदमतगार'। सिर्फ भगवान का नाम लेने वाले नहीं लेकिन भगवान के साथी बन श्रेष्ठ कार्य करने वाले हैं। तो खुदाई खिदमतगार बच्चों के हर कार्य सफल हुए ही पड़े हैं। खुदाई खिदमतगार के कार्य में कोई असम्भव बात नहीं। सब सम्भव और सहज है।। खुदाई खिदमतगार बच्चों को विश्व-परिवर्तन का कार्य क्या मुश्किल लगता है? हुआ ही पड़ा है। ऐसे अनुभव होता है ना? सदा यही अनुभव करते हो-कि यह तो अनेक बार किया हुआ है। कोई नई बात ही नहीं लगती। होगा, नहीं होगा, कैसे होगा, यह क्वेश्चन ही नहीं उठता। क्योंकि बाप के साथी हो। जबकि अब तक सिर्फ भगवान के नाम से ही काम हो जाते तो साथ में कार्य करने वाले बच्चों का हर कार्य तो सफल हुआ ही पड़ा है। इसलिए बापदादा बच्चों को सदा सफलतामूर्त्त कहते हैं। सफलता के सितारे अपने सफलता द्वारा विश्व को रोशन करने वाले। तो सदा अपने को ऐसे सफलतामूर्त्त अनुभव करते हो? अगर चलते-चलते कभी असफलता या मुश्किल का अनुभव होता है तो उसका कारण सिर्फ खिदमतगार बन जाते हो। खुदाई खिदमतगार नहीं होते। खुदा को खिदमत से जुदा कर देते हो। इसलिए अकेले होने के कारण सहज भी मुश्किल हो जाता और सफलता दूर दिखाई देती है। लेकिन नाम ही है - खुदाई खिदमतगार। तो कम्बाइन्ड को अलग नहीं करो। लेकिन अलग कर देते हो ना! सदा यह नाम याद रहे तो सेवा में स्वत: ही खुदाई जादू भरा हुआ होगा। सेवा के क्षेत्र में जो भिन्न-भिन्न प्रकार के स्व प्रति वा सेवा प्रति विघ्न आते हैं, उसका भी कारण सिर्फ यही होता, जो स्वयं को सिर्फ सेवाधारी समझते हो। लेकिन ईश्वरीय सेवाधारी, सिर्फ सर्विस नहीं लेकिन गाडली-सर्विस - इसी स्मृति से याद और सेवा स्वत: ही कम्बाइन्ड हो जाती है। याद और सेवा का सदा बैलेन्स रहता है। जहाँ बैलेन्स है वहाँ स्वयं सदा ब्लिसफुल अर्थात् आनन्द स्वरूप और अन्य के प्रति सदा ब्लैसिंग अर्थात् कृपा-दृष्टि सहज ही रहती है। इसके ऊपर कृपा करूँ, यह सोचने की भी आवश्यकता नहीं। हो ही कृपालु। सदा का काम ही कृपा करना है। ऐसे अनादि संस्कार स्वरूप हुए हैं! जो विशेष संस्कार होता है वह स्वत: ही कार्य करते रहते हैं। सोच के नहीं करते लेकिन हो ही जाता है। बार-बार यही कहते हो - मेरे संस्कार ऐसे हैं, इसलिए हो ही गया। मेरा भाव नहीं था, मेरा लक्ष्य नहीं था लेकिन हो गया। क्यों ? संस्कार हैं। कहते हो ना-ऐसे? कई कहते हैं - हमने क्रोध नहीं किया लेकिन मेरे बोलने के संस्कार ही ऐसे हैं। इससे क्या सिद्ध हुआ? अल्पकाल के संस्कार भी स्वत: ही बोल और कर्म कराते रहते हैं। तो सोचो-अनादि,आरिजनल संस्कार आप श्रेष्ठ आत्माओं के कौन से हैं? सदा सम्पन्न और सफलतामूर्त्त। सदा वरदानी और महादानी- तो यह संस्कार स्मृति में रहने से स्वत: ही सर्व के प्रति कृपा-दृष्टि रहती ही है। अल्पकाल के संस्कारों को अनादि संस्कारों से परिवर्तन करो। तो भिन्न-भिन्न प्रकार के विघ्न, अनादि संस्कार इमर्ज होने से सहज समाप्त हो जायेंगे। बापदादा को अब तक भी बच्चों की स्व-परिवर्तन वा विश्व-परिवर्तन की सेवा में मेहनत देख सहन नहीं होता। खुदाई खिदमतगार और मेहनत! जब नाम से काम निकाल रहे हैं, तो आप तो अधिकारी हो। आप लोगों की मेहनत कैसे हो सकती है? फिर छोटी सी गलती करते हो-कौन सी? गलती करते हो-कौन सी? गलती करते हो, जानते हो? जानते भी अच्छी तरह से हो फिर क्यों करते हो? मजबूर बन जाते हो। सिर्फ छोटी सी गलती -’’मेरा संस्कार,मेरा स्वभाव'', अनादि काल के बजाए मध्यकाल के समझ लेते हो। मध्यकाल के संस्कार, स्वभाव को मेरा संस्कार, मेरा स्वभाव सम- झना यही गलती है। यह रावण का स्वभाव है, आप का नहीं है। पराई चीज़ को अपना मानना, यही गलती करते हो। मेरा कहने और समझने से मेरे में स्वत: ही झुकाव हो जाता है। इसलिए छोड़ने चाहते भी छोड़ नहीं सकते । समझा - गलती क्या है?

तो सदा याद रखो - खुदाई खिदमतगार हैं। ‘‘मैंने किया'' - नहीं, खुदा ने मेरे से कराया। इस एक स्मृति से सहज ही सर्व विघ्नों के बीज को सदा के लिए समाप्त कर दो। सर्व प्रकार के विघ्नों का बीज दो शब्दों में है। वह कौन से दो शब्द हैं जिन शब्दों से ही विघ्न का रूप आता है? विघ्न आने के दरवाजे को जानते हो? तो वह नामीग्रामी दो शब्द कौन-से हैं? विस्तार तो बहुत है लेकिन दो शब्दों में सार आ जाता है- 1. अभिमान और 2. अपमान। सेवा के क्षेत्र में विशेष विघ्न इन दो रास्तों से आता है। या तो ‘‘मैंने किया'', यह अभिमान और अपमान की भावना भिन्न-भिन्न विघ्नों के रूप में आ जाती है। जब है ही खुदाई खिदमतगार, करनकरावनहार बाप है तो छोटी-सी गलती है ना! इसलिए कहा जाता कि खुदा को जुदा नहीं करो। सेवा में भी कम्बाइन्ड रूप याद रखो। खुदा और खिदमत। तो यह करना नहीं आता? बहुत सहज है। मेहनत से छूट जायेंगें। समझा क्या करना है? अच्छा।

ऐसे सदा अनादि संस्कार स्मृति स्वरूप, सदा स्वयं को निमित्त मात्र और बाप को करन-करावनहार अनुभव करने वाले, सदा स्वयं अनादि स्वरूप अर्थात् ब्लिसफुल, किसी भी प्रकार के विघ्नों के बीज को समाप्त करने में समर्थ आत्मायें, ऐसे सदा बाप के साथी, ईश्वरीय सेवाधारियों को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''

अधरकुमारों से :- सभी अपने को बाप के स्नेही और सहयोगी श्रेष्ठ आत्मायें समझते हो ना? सदा यह नशा रहता है कि हम श्रेष्ठते- श्रेष्ठ आत्मायें हैं क्योंकि बाप के साथ पार्ट बजाने वाली हैं। सारे चक्र के अन्दर इस समय बाप के साथ पार्ट बजाने के निमित्त बने हो। ऊंच-ते ऊंच पार्ट बजाने के निमित्त बने हो। ऊंचे-ते-ऊंचे भगवान के साथ पार्ट बजाने वाले कितनी ऊंची आत्मायें हो गई। लौकिक में भी कोई पद वाले के साथ काम करते हैं, उनको भी कितना नशा रहता है! प्राइम मिनिस्टर के प्राइवेट सेक्रेटरी को भी कितना नशा रहता! तो आप किसके साथ हो? ऊंचे-ते-ऊंचे बाप के साथ और फिर उसमें भी विशेषता यह है कि एक कल्प के लिए नहीं, अनेक कल्प यह पार्ट बजाया है और सदा बजाते ही रहेंगे। बदली नहीं हो सकता। ऐसे नशे में रहो तो सदा निर्विघ्न रहेंगे। कोई विघ्न तो नहीं आता है ना? वायुमण्डल का, वायब्रेशन का, संग का कोई विघ्न तो नहीं है? कमलपुष्प के समान हो? कमलपुष्प समान न्यारा और प्यारा। बाप का कितना प्यारा बना हूँ, उसका हिसाब न्यारेपन से लगा सकते हो। अगर थोड़ा-सा न्यारा है, बाकी फंस जाते हैं तो प्यारे भी इतने होंगे। जो सदा बाप के प्यारे हैं उनकी निशानी है - स्वत: याद। प्यारी चीज़ स्वत: सदा याद आती है ना! तो यह कल्प-कल्प की प्रिय चीज़ है। एक बार बाप के नहीं बने हो, कल्प-कल्प बने हो। तो ऐसी प्रिय वस्तु को कैसे भूल सकते! भूलते तब हो जब बाप से भी अधिक कोई व्यक्ति या वस्तु को प्रिय समझने लगते हो। अगर सदा बाप को प्रिय सम- झते तो भूल नहीं सकते। यह नहीं सोचना पड़ेगा कि याद कैसे करें, लेकिन भूले कैसे - -यह आश्चर्य लगेगा! तो नाम अधर-कुमार है लेकिन हो तो ब्र.कु.। ब्रह्माकुमार सदा नशे और खुशी में रहेंगे। तो निश्चयबुद्धि विजयी हो ना? अधरकुमार तो अनुभवी कुमार हैं। सब अनुभव कर चुके। अनुभवी कभी भी धोखा नहीं खाते। पास्ट के भी अनुभवी और वर्तमान के भी अनुभवी। एक-एक अधरकुमार अपने अनुभवों द्वारा अनेंकों का कल्याण कर सकते हैं। यह है विश्व-कल्याणकारी ग्रुप। अच्छा।

माताओं को :- प्रवृत्ति में रहते एक बाप दूसरा न कोई इसी स्मृति में रहती हो, यह चेकिंग करती हो? क्योंकि प्रवृत्ति के वायुमण्डल में रहते, उस वायुमण्डल का असर न हो, सदा बाप के प्यारे रहें इसके लिए इसी बात की चेकिंग चाहिए। निमित्त मात्र प्रवृत्ति है लेकिन बाप की याद में रहना। परिवार की सेवा का कितना भी पार्ट बजाना पड़े लेकिन ट्रस्टी होकर बजाना है। ट्रस्टी होंगे तो नष्टोमोहा हो जायेंगे। गृहस्थीपन होगा तो मोह आ जायेगा। बाप याद नहीं आता माना मोह है। बाप की याद से हर प्रवृत्ति का कार्य भी सहज हो जायेगा क्योंकि याद से शक्ति मिलती है। तो बाप के याद की छत्रछाया के नीचे रहती हो ना? छत्रछाया के नीचे रहने वाले हर विघ्न से न्यारे होंगे। मातायें तो बापदादा को अति प्रिय हैं क्योंकि माताओं ने बहुत सहन किया है। तो बाप ऐसे बच्चों को सहन करने का फल - सहयोग और स्नेह दे रहे हैं। सदा सुहागवती रहना। इस जीवन में कितना श्रेष्ठ सुहाग मिल गया है। जहाँ सुहाग है वहाँ भाग्य तो है ही। इसलिए सदा सुहागवती भव!

यू.पी.और गुजरात जोन बापदादा के सामने बैठा है, बापदादा उनकी विशेषता सुना रहे हैं सर्व स्थानों की अपनी-अपनी विशेषता है। यू.पी. भी कम नहीं तो गुजरात भी कम नहीं। दिल्ली के बाद यू.पी. निकला। जो आदि में स्थापना के निमित्त बने हैं उन्हों का भी ड्रामा में विशेष पार्ट है। फिर भी आदि वालों ने डबल लाटरी तो ली है ना! साकार और निराकार। डबल लाटरी मिली है। यह भी कोई कम पार्ट है क्या! कल्प-कल्प के चरित्र में सदा साथ रहने का भी यादगार है। यह भी विशेष भाग्य है। अभी भी बापदादा अव्यक्त रूप में सब पार्ट बजाते हैं लेकिन साकार तो साकार है। साकार वालों की अपनी विशेषता इन्हों की फिर अपनी विशेषता है। यह अव्यक्त से साकार का स्नेह खींचने वाले हैं। कई हैं जो साकार के साथ रहने वालों से भी अधिक अनुभव अभी करते हैं। तो सब एक-दो से आगे हैं। अच्छा! आज यू.पी. वालों का चांस है। नदियों के किनारे पर यू.पी. ज्यादा है। जमुना नदी के किनारे पर राजधानी और रास दिखाते हैं लेकिन यू.पी. की पतित पावनी मशहूर है,यानी यू.पी. को सेवा का स्थान दिखाया है। तो ऐसा कोई यू.पी.से निकला जरूर जो अनेकों की सेवा के निमित्त बने। ऐसा कोई तैयार हो जायेगा। जैसे अमेरिका से एक से अनेकों की सेवा हो रही है,ऐसे यू.पी. से भी कोई निकल आयेगा जो एक से अनेकों की सेवा हो जायेगी। आवाज तो फैलेगा ना! जब विदेश से आवाज आयेगा तब सब जाग जायेंगे। अभी एकदम बड़ा वी.आई.पी. नहीं निकला है। अभी तक जो वी.आई.पी. निकले हैं उनसे ज्यादा नामीग्रामी तो वही विदेश का कहेंगे ना! जो प्रैक्टिकल अनेकों को सन्देश दिलाने के निमित्त बन रहे हैं। भारत भी आगे जा सकता है, लेकिन अभी की बात है। आखिर जय-जयकार तो भारत में ही होनी है ना! विदेश से भी जय-जयकार के नारे लगाते-लगाते पहुँचेंगे तो भारत में ही ना! उन्हों के मुख से भी यही निकलेगा - हमारा भारत। भारत में बाप आये हैं, ऐसे नहीं कहेंगे कि यू.एन. में बाप आये हैं। विदेश इस समय रेस में आगे जा रहा है। अभी की बात है, कल दूसरा भी बदल सकता है। एक-दो को देख करके और ही आगे बढ़ेंगे। अभी यू.पी. का कोई वी.आई.पी. लाओ। पतित-पावनी! कोई को पावन करके छू मंत्र करो।

गुजरात वृद्धि में नम्बरवन हो गया है। वी.आई.पीज भी स्टेज पर आ जायेगे। ऐसे वी.आई.पीज हो जो बेहद की सेवा करें। गुजरात का गुजरात में किया वह तो छोटा माइक हो गया। चारों ओर करें उसको कहेंगे बड़ा माइक। अच्छा!

प्रश्न: जो संगम पर मास्टर नालेजफुल बन जाते हैं, उनकी निशानी क्या होगी?

उत्तर: मा.नालेजफुल सदा मायाजीत होंगे। क्योंकि वह जानते हैं कि माया किस रूप से और क्यों आती है? माया के आने का मुख्य कारण अपनी कमजोरी है। कमजोरी ही माया को जन्म देती है। संकल्प या संस्कार में जब कमजोरी होती है तो माया को जन्म मिल जाता है। इसलिए नालेजफुल बच्चे, कारण को जानकर पहले ही सदाकाल का निवारण कर देते हैं। संगम पर हर बात में नालेजफुल बनना है, तन के भी नालेजफुल, मन के भी नालेजफुल और धन के भी नालेजफुल। ऐसे नालेजफुल ही पावरफुल बन मायाजीत, जगतजीत बन जाते हैं। अच्छा!



03-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"योद्धा नहीं, दिलतख्तनशीन बनो"

दूर देश में रहने वाले परदेशी बापदादा बोले:-

‘‘आज दूरदेश में रहने वाले परदेशी अपने बच्चों से मिलने आये हैं। बच्चों को भी स्वदेश की स्मृति दिलाने आये हैं। और समर्थ बनाए साथ ले जाने आये हैं। स्वदेश स्मृति में आ गया है ना? यह पराया देश और पराया राज्य है,जिसमें पुराना-ही-पुराना दिखाई देता है। व्यक्ति देखो वा वस्तु देखो सब क्या दिखाई देता है? सब जड़जड़ीभूत हो गये हैं। चारों ओर अंधकार छाया हुआ है। ऐसे देश में आप सभी बंधनों में बंधे हुए बन्धनयुक्त आत्मा बन गये तब बाप आकर स्वरूप और स्वदेश की स्मृति दे बन्धनमुक्त बनाए स्वदेश में ले जाते हैं। साथ-साथ स्वराज्य के अधिकारी बनाते हैं। तो सभी बच्चे अपने स्वदेश में जाने के लिए तैयार हो? वा जैसे आप लोग एक ड्रामा दिखाते हो,स्वर्ग में जाने के लिए चाहते हुए भी कोई विरला तैयार होता है। ऐसे ही बातें बनाकर ''चलेंगे- चलेंगे कहने वाले तो नहीं हो? हिसाब-किताब समाप्त कर लिया है वा अभी कुछ रहा हुआ है? अपने हिसाब-किताब के समाप्ति का समाप्ति समारोह मना लिया है वा अभी तक तैयारी ही कर रहें हो? ऐसे तो नहीं समझते हो कि अन्त में यह समाप्ति समारोह मनायेंगे? समाप्ति समारोह अब से मनायेंगे तब अन्त में सम्पूर्णता समारोह मनायेंगे। यह पुराना हिसाब-किताब समाप्त करना है। वह अब करने से बहुतकाल के बन्धनमुक्त,बहुतकाल के जीवनमुक्त पद को पा सकेंगे। नहीं तो अन्त तक युद्ध करने वाले योद्धा ही रह जायेंगे। जो अन्त तक योद्धा जीवन में रहता उसकी प्रालब्ध क्या होगी? योद्धा जीवन तो बचपन का जीवन है। अब तो स्वराज्य-अधिकारी हो गये। स्मृति का तिलक,बाप के दिलतख्तनशीन हो गये। तख्तनशीन योद्धे होते हैं क्या? युद्ध की प्रालब्ध तख्त और ताज मिल गया। क्या यह वर्तमान प्रालब्ध वा प्रत्यक्षफल प्राप्त नहीं हुआ है? संगमयुग की प्रालब्ध पा ली है वा पानी है? गीत क्या गाते हो? पाना था वह पा लिया वा पाना है? जबकि वर्तमान के साथ भविष्य का सम्बन्ध है तो भविष्य प्रालब्ध 2500 वर्ष है तो क्या वर्तमान प्रालब्ध अन्त के 5-6 मास होगी वा 5 दिन होगी वा 5 घण्टे होगी वा संगम का बहुकाल होगा? अगर संगम युग की प्रालब्ध बहुकाल नहीं होगी तो भविष्य प्रालब्ध बहुकाल कैसे होगी? वहाँ के 2500 वर्ष, यहाँ के 25 वर्ष भी नहीं होगी? डायरेक्ट बाप के बच्चे बन संगमयुग का सदाकाल का वर्सा न पाया तो पाया ही क्या? सर्व खज़ानों के खानों के मालिक उसके बालक बन खज़ानों से सम्पन्न नहीं बने तो मालिक के बालक बनकर क्या किया?

‘‘सफलता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है'' - यह कहते सदा सफलता का अनुभव नहीं किया तो जन्मसिद्ध अधिकारी बनके क्या किया? भाग्य विधाता के दोनों बाप के बच्चे बने फिर भी सदा पद्मापद्म भाग्यशाली न बने तो दो बाप के बच्चे बनके क्या किया? श्रेष्ठ कर्मों की वा श्रेष्ठ चरित्र बनाने की अति सहज विधि वरदाता बनके बाप ने दी फिर भी सिद्धि स्वरूप नहीं बने तो क्या किया? क्या युद्ध करना, मेहनत करना, धीरे-धीरे आराम से चलना,यही पसन्द है क्या? युद्ध का मैदान पसन्द आता है? दिलतख्त पसन्द नहीं है क्या? अगर तख्त ही पसन्द है, तो तख्तनशीन के पास माया आ नहीं सकती। तख्त से उतर युद्ध के मैदान में चले जाते हो तब मेहनत करनी पड़ती है। जैसे कई बच्चे होते हैं, लड़ने-झगड़ने के बिना रह नहीं सकते,और कोई नहीं मिलेगा तो अपने से ही कोई-न-कोई कशमकश करते रहेंगे। युद्ध के संस्कार राज्य तख्त छुड़ा के भी युद्ध के मैदान में ले जाते हैं। अब युद्ध के संस्कार समाप्त करो। राज्य कें संस्कार धारण करो। प्रालब्धी बनो। तब बहुकाल के भविष्य प्रालब्धी भी बनेंगे। अन्त तक योद्धेपन की जीवन होगी तो क्या बनेंगे? चन्द्रवंशी बनाना पडेंगा।

सूर्यवंशी की निशानी - सदा खुशी की रास करने वाले। सदा अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलने वाले। चन्द्रवंशी राम को कब झूले में नहीं झुलाते हैं। रास नहीं दिखाते हैं। युद्ध का तीर कमान ही दिखाते हैं। पीछे का राज्य भाग्य मिलेगा। आधा समय का राज्य बहुकाल तो नहीं हुआ ना! तो सदा झूले में झूलते रहो। सर्व से रास मिलाते हुए,खुशी की रास करते रहो। इसको कहा जाता है - संगमयुग की प्रालब्ध स्वरूप। पुरूषार्थी हैं, यह शब्द भी कहाँ तक?

अभी-अभी पुरूषार्थी,अभी-अभी प्रालब्धी। संगम के पुरूषार्थी, सतयुग के प्रालब्धी नहीं। संगमयुग के प्रालब्धी के बनना है। अभी अभी बीज बोओ, अभी-अभी फल खाओ। जब साइंस वाले भी हर कार्य में प्राप्ति के गति को तीव्र बना रहे हैं, तो साइलेंस की शक्ति वाले अपने गति को उससे भी ज्यादा तीव्र करेंगे ना! वा एक जन्म में करना और दूसरे जन्म में पाना? वे लोग आवाज की गति से भी तेज जाने चाहते हैं। सब कार्य सेकेण्ड की गति से भी आगे करना चाहते हैं। इतने सारे विश्व का विनाश कितने थोड़े समय में करने के लिए तैयार हो गये हैं? तो स्थापना के निमित्त बनी हुई आत्मायें सेकेण्ड में करना,सेकेण्ड में पाना,ऐसी तीव्र गति के अनुभवी नहीं होंगे। तो समझा - अभी क्या करना है? प्रत्यक्ष फल खाओ। प्रत्यक्षफल नहीं अच्छा लगता? मेहनत करने वाला फल अच्छा लगता है? मेहनत का सूखा फल खा के तो ऐसे कमजोर बन गये, नयनहीन, बुद्धिहीन, श्रेष्ठ कर्महीन बन गये। अब तो ताजा प्रत्यक्षफल खाओ। मेहनत को मुहब्बत में बदल दो। अच्छा।

ऐसे सदा राज्य वंश के संस्कार वाले, सदा सर्व खज़ानों के अधिकारी अर्थात् बालक सो मालिक, सदा संगमयुगी प्रालब्धी संस्कार वाले, प्रत्यक्षफल खाने वाले, ऐसे सदा प्राप्ति स्वरूप, सदा सर्व बन्धनमुक्त, संगमयुगी जीवनमुक्त, ऐसे तख्त, ताजधारी बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ पर्सनल मुलाकात

1. सदा रूहानी नशे में स्थित रहते हो? रूहानी नशा अर्थात् आत्म-अभिमानी बनना। सदा चलते-फिरते आत्मा को देखना यही है रूहानी नशा। रूहानी नशे में सदा सर्व प्राप्ति का अनुभव सहज ही होगा। जैसे स्थूल नशे वाले भी अपने को प्राप्तिवान समझते हैं, वैसे यह रूहानी नशे में रहने वाले सर्व प्राप्ति स्वरूप बन जाते हैं। इस नशे में रहने से सर्व प्रकार के दु:ख दूर हो जाते हैं। दु:ख और अशान्ति को विदाई हो जाती है। जब सदाकाल के लिए सुखदाता के, शान्तिदाता के बच्चे बन गये तो दु:ख अशान्ति को विदाई हो गई ना! अशान्ति का नामनिशान भी नहीं। शान्ति के सागर के बच्चे अशान्त कैसे हो सकते? रूहानी नशा अर्थात् दु:ख और अशान्ति की समाप्ति। उसकी विदाई का समारोह मना दिया? क्योंकि दु:ख अशान्ति की उत्पत्ति होती है अपवित्रता से। जहाँ अपवित्रता नहीं वहाँ दु:ख अशान्ति कहाँ से आई। पतित पावन बाप के बच्चे मास्टर पतित पावन हो गये। जो औरों को पतित से पावन बनाने वाले हैं वह स्वयं भी तो पावन होंगे ना! जो पावन पवित्र आत्मायें हैं उनके पास सुख और शान्ति स्वत: ही है। तो पावन आत्मायें,श्रेष्ठ आत्मायें विशेष आत्मायें हो। विश्व में महान आत्मायें हों क्योंकि बाप के बन गये। सबसे बड़े ते बड़ी महानता है - पावन बनना। इसलिए आज भी इसी महानता के आगे सिर झुकाते हैं। वह जड़ चित्र किसके हैं? अभी मन्दिर में जायेंगे तो क्या समझेंगे? किसकी पूजा हो रही है? स्मृति में आता है-कि यह जमारे ही जड़ चित्र हैं। ऐसे अपने को महान आत्मा समझकर चलो। ऐसे दिव्य दर्पण बनो जिसमें अनेक आत्माओं को अपनी असली सूरत दिखाई दे।

2.सदा चढ़ती कला में जा रहे हो? हर कदम में चढ़ती कला के अनुभवी। संकल्प, बोल, कर्म, सम्पर्क और सम्बन्ध सबमें सदा चढ़ती कला। क्योंकि समय ही है चढ़ती कला का, और कोई भी युग चढ़ती कला का नहीं है। संगमयुग ही चढ़ती कला का युग है, तो जैसा समय वैसा ही अनुभव होना चाहिए। जो सेकण्ड बीता उसके आगे का सेकण्ड आया, तो चढ़ती कला। ऐसे नहीं - दो मास पहले जैसे थे वैसे ही अभी हो। हर समय परिवर्तन। लकिन परिवर्तन भी चढ़ती कला का। किसी भी बात में रूकने वाले नहीं। चढ़ती कला वाले रूकते नहीं हैं, वे सदा औरों को भी चढ़ती कला में ले जाते हैं।

प्रश्न :- जो सदा उड़ते पंछी होंगे उनकी निशानी क्या होगी?

उत्तर :- वह चक्रवर्ता होंगे। आलराउन्ड पार्टधारी। उड़ती कला वाले ऐसे निर्बन्धन होंगे जो जहाँ भी सेवा हो वहाँ पहुँच जायेंगे। और हर प्रकार की सेवा में सफलतामूर्त्त बन जायेंगे। जैसे बाप आलराउन्ड पार्टधारी है, सखा भी बन सकते तो बाप भी बन सकते, ऐसी उड़ती कला वाले जिस समय जो सेवा की आवश्यकता होगी उसमें सम्पन्न पार्ट बजा सकेंगे, इसको ही कहा जाता है - आलराउन्ड उड़ता पंछी। अच्छा!



06-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"विशेष युग का विशेष फल"

सदा कल्याणकारी शिव बाबा विश्व-कल्याण के आधारमूर्त्त बच्चों प्रति बोले:-

‘‘आज विश्व-कल्याणकारी बाप अपने विश्व-कल्याण के कार्य के आधारमूर्त्त बच्चों को देख रहे हैं। यही आधारमूर्त्त विश्व के परिवर्त न करने में विशेष आत्मायें हैं। ऐसी विशेष आत्माओं को बापदादा भी सदा विशेष नजर से देखते हैं। हरेक विशेष आत्मा की विशेषता सदा बापदादा के पास स्पष्ट सातने है। हर बच्चा महान है,पुण्य आत्मा है। पुरूषोत्तम अर्थात् देव आत्मा है। विश्व-परिवर्तन के निमित्त आत्मायें हैं। ऐसे हरेक अपने को समझकर चलते हो? क्या थे और क्या बन गये हैं? यह महान अन्तर सदा सामने रहता है? यह अन्तर महामन्त्र स्वरूप स्वत: बना देता है। ऐसा अनुभव करते हो? जैसे बाप के सामने सदा हरेक बच्चा विशेष आत्मा के रूप में सामने रहता है वैसे आप सब भी अपनी विशेषता और सर्व की विशेषता यही सदा देखते हो? सदा कीचड में रहने वाले कमल को देखते हो? वा कीचड़ और कमल दोनों को देखते हो? संगमयुग विशेष युग है और इसी विशेष युग में आप सर्व विशेष आत्माओं का विशेष पार्ट हैं। क्योकि बापदादा के सहयोगी हो। विशेष आत्माओं का कर्त्तव्य क्या है? स्व की विशेषता द्वारा विशेष कार्य में रहना अर्थात् अपनी विशेषता का सिर्फ मन में वा मुख से वर्णन नहीं करना लेकिन विशेषता द्वारा कोई विशेष कार्य कर दिखाना। जितना अपनी विशेषता को मंसा वा वाणी और कर्म की सेवा में लगायेंगे तो वही विशेषता विस्तार को पाती जायेगी। सेवा में लगाना अर्थात् एक बीज से अनेक फल प्रगट करना। ऐसे स्व की चेकिंग करो कि बाप द्वारा इस श्रेष्ठ जीवन में जो जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में विशेषता मिली है उसको सिर्फ बीज रूप में ही रखा है वा बीज को सेवा की धरनी में ड़ाल विस्तार को पाया है? अर्थात् अपने स्वरूप वा सेवा के सिद्धि स्वरूप के अनुभव किये हैं? बापदादा ने सर्व बच्चों की विशेषता के तकदीर की लकीर जन्म से ही खींच ली है। जन्म से हर बच्चे के मस्तक पर विशेषता के तकदीर का सितारा चमका हुआ ही है। कोई भी बच्चा इस तकदीर से वंचित नहीं है। यह तकदीर जगा करके ही आये हो। फिर अन्तर क्या हो जाता ? जो सुनाया कि कोई इस वरदान के बीज को, तकदीर के बीज को वा जन्मसिद्ध अधिकार के बीज को विस्तार में लाते, कोई बीज को कार्य में न लाने के कारण शक्तिहीन बीज कर देते हैं। जैसे बीज को समय पर कार्य में नहीं लगाओ तो फल दायक बीज नहीं रहता। कोई फिर क्या करते? बीज को सेवा की धरनी में ड़ालते भी हैं लेकिन फल निकलने से पहले वृक्ष को देख उसी में ही खुश हो जाते हैं कि मैंने बीज को कार्य में लगाया। इसकी रिजल्ट क्या होती? वृक्ष बढ़ जाता, डाल-डालियाँ शाखायें उपशाखायें निकलती रहती, लेकिन वृक्ष बढ़ता लेकिन फल नहीं आता। देखने में वृक्ष बड़ा सुन्दर होता लेकिन फल नहीं निकलता। अर्थात् जो जन्मसिद्ध अधिकार रूप में विशेषता मिली उससे न स्वयं सफलता रूपी फल पायेगा, न औरों को उस विशेषता द्वारा सफलता स्वरूप बना सकेगा। विशे- षता के बीज का सबसे श्रेष्ठ फल है - ‘‘सन्तुष्टता''। इसीलिए आजकल के भक्त सन्तोषी माँ की पूजा ज्यादा करते हैं। तो सन्तुष्ट रहना और सर्व को सन्तुष्ट रखना - यह है विशेष युग का विशेष फल।

कई बच्चे ऐसे फलदायक नहीं बनते। वृक्ष का विस्तार अर्थात् सेवा का विस्तार कर लेंगे लेकिन बिना सन्तुष्टता के फल के वृक्ष क्या काम का? तो विशेषता के वरदान वा बीज को सर्वशक्तियों के जल से सींचो तो फल दायक हो जायेंगे। नहीं तो विस्तार हुआ वृक्ष भी समय प्रति समय आये हुए तूफान से हिलते-हिलते कब कोई डाली,कब कोई डाली टूटती रहेगी। फिर क्या होगा? वृक्ष होगा सूखा हुआ वृक्ष। कहाँ एक तरफ सूखा वृक्ष-जिसमें आगे बढ़ने का उमंग, उत्साह, खुशी, रूहानी नशा कोई भी हरियाली नहीं, न बीज में हरियाली, न वृक्ष में। और साथ-साथ दूसरे तरफ सदा हराभरा फलदायक वृक्ष। कौन-सा अच्छा लगेगा? इसलिए बापदादा ने विशेषता के वरदान का शक्तिशाली बीज सब बच्चों को दिया है। सिर्फ विधिपूर्वक फलदायक बनाओ। यह रही स्व के विशेषता की बात। अब विशेष आत्माओं के सम्बन्ध-सम्पर्क में सदा रहते हो क्योंकि ब्राह्मण परिवार अर्थात् विशेष आत्माओं का परिवार। तो परिवार के सम्पर्क में आते हरेक की विशेषता को देखो। विशेषता देखने की ही दृष्टि धारण करो। अर्थात् विशेष चश्मा पहन लो। आजकल फैशन और मजबूरी चश्में की है। तो विशेषता देखने वाला चश्मा पहनो। तो दूसरा कुछ दिखाई नहीं देगा। जब साइंस के साधनों द्वारा लाल चश्मा पहनो तो हरा भी लाल दिखाई दे सकता है। तो इस विशेषता की दृष्टि द्वारा विशेषता ही देखेंगे। कीचड़ को नहीं देख, कमल को देखेंगे और हरेक की विशेषता द्वारा विश्व-परिवर्तन के कार्य में विशेष कार्य के निमित्त बन जायेंगे। तो एक बात - अपनी विशेषता को कार्य में लगाओ, विस्तार कर फलदायक बनाओ, दूसरी बात - सर्व में विशेषता देखो। तीसरी बात - सर्व की विशेषताओं को कार्य में लगाओ। चौथी बात - विशेष युग की विशेष आत्मा हो, इसलिए सदा विशेष संकल्प, बोल और कर्म करना है। तो क्या हो जायेगा? विशेष समय मिल जायेगा। क्योंकि विशेष न समझने के कारण स्वयं द्वारा स्वयं के विघ्न और साथ-साथ सम्पर्क में आने से भी आये हुए विघ्नों में समय बहुत जाता है। क्योंकि स्वयं की कमजोरी वा औरों की कमजोरी, इसकी कथा और कीर्तन, दोनों बड़े लम्बे होते हैं। जैसे आपके यादगार ‘‘रामायण'' को देखा-तो कथा और कीर्तन दोनों ही बड़े दिलचस्प और लम्बे हैं। लेकिन है क्या? विशेषता न देख ईर्ष्या में आये तो कितना लम्बा कीर्तन और कहानी हो गई! ऐसे विशेषता को न देखने से लक्ष्मी-नारायण की कथा के बजाए रामकथा बन जाती है। और इसी कथा कीर्तन में स्वयं का, सेवा का समय व्यर्थ गंवाते हो। और भी मजे की बात करते हो, सिर्फ अकेला कीर्तन कथा नहीं करते लेकिन कीर्तन मण्डली भी तैयार करते हैं - इसीलिए सुनाया कि इस व्यर्थ कीर्तन कथा से समय बचने के कारण विशेष समय भी मिल जाता है। तो समझा क्या करना है, क्या नहीं करना है? जैसे आजकल की दुनिया में किसी को कहते हो - भक्ति का फल प्राप्त करो,सहज राजयोगी बनो तो ज्यादा किसमें रूचि रखते हैं? भक्ति के कथा-कीर्तन में ज्यादा रूचि रखते हैं ना! मनोरंजन समझते हैं। ऐसे कई विशेष आत्मायें भी व्यर्थ की रामकथा की मण्डली में वा कीर्तन-मण्डली में बड़ा मनोरंजन समझती हैं। ऐसे समय पर उन आत्माओं को कहो - छोड़ो इस कीर्तन को, शान्ति में रहो तो मानेंगे नहीं क्योंकि संस्कार पड़े हुए हैं ना! अब इस कीर्तन मण्डली को समाप्त करो। समझा? विशेष आत्माओं की सभा में बैठे हो ना! और ग्रुप भी विशेष है। दोनों ही गद्दी वाले हैं। एक प्रवेशता की गद्दी, दूसरी राजगद्दी। वह राज्य की चाबी मिलने की गद्दी (कलकत्ता) और वह है राज्य करने की गद्दी (दिल्ली) तो दोनों ही गद्दी हो गई ना! तो दोनों की विशेषता हुई ना! चाबी नहीं मिलती तो राज्य भी नहीं करते। इसलिए विशेषता को नहीं भूलना अच्छा!

ऐसे सदा विशेषता को देखने वाले, विशेषता को कार्य में लगाने वाले, विशेष समय सेवा में लगाए सेवा का प्रत्यक्ष फल खाने वाले, सदा सन्तुष्ट आत्मा, सदा सन्तुष्टता की किरणें द्वारा सर्व को सन्तुष्ट करने वाले, ऐसे विशेष आत्माओं को बापदादा का यादप् यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ

1. आवाज से परे जाने की युक्ति जानते हो? अशरीरी बनना अर्थात् आवाज से परे हो जाना। शरीर है तो आवाज है। शरीर से परे हो जाओ तो साइलेंस। साइलेंस की शक्ति कितनी महान है! इसके अनुभवी हो ना? साइलेंस की शक्ति द्वारा सृष्टि की स्थापना कर रहे हो। साइंस की शक्ति से विनाश, साइलेंस की शक्ति से स्थापना। तो ऐसे समझते हो कि हम अपनी साइलेंस की शक्ति द्वारा स्थापना का कार्य कर रहे हैं। हम ही स्थापना के कार्य के निमित्त हैं तो स्वयं साइलेंस रूप में स्थित रहेंगे तब स्थापना का कार्य कर सकेंगे। अगर स्वयं हलचल में आते तो स्थापना का कार्य सफल नहीं हो सकता। विश्व में सबसे प्यारे से प्यारी चीज़ है - शान्ति अर्थात् साइलेंस। इसके लिए ही बड़ी-बड़ी कोन्फेरेंस करते हैं। शान्ति प्राप्त करना ही सबका लक्ष्य है। यही सबसे प्रिय और शक्तिशाली वस्तु है। और आप समझते हो - साइलेंस तो हमारा स्वधर्म है। आवाज में आना जितना सहज लगता है उतना सेकेंड में आवाज से परे जाना- यह अभ्यास है? साइलेंस की शक्ति के अनुभवी हो? कैसी भी अशान्त आत्मा को शान्त स्वरूप होकर शान्ति की किरणें दो तो अशान्त भी शान्त हो जाए। शान्ति स्वरूप रहना अर्थात् शान्ति की किरणें सबको देना। यही काम है। विशेष शान्ति की शक्ति को बढ़ाओ। स्वयं के लिए भी, औरों के लिए भी शान्ति के दाता बनो। भक्त लोग शान्ति देवा कहकर याद करते हैं ना? देव यानी देने वाले। जैसे बाप की महिमा है शान्ति दाता,वैसे आप भी शान्तिदेवा हो। यही सबसे बड़े ते बड़ा महादान है। जहाँ शान्ति होगी वहाँ सब बातें होंगी। तो सभी शान्ति देवा हो, अशान्त के वातावरण में रहते स्वयं भी शान्त स्वरूप और सबको शान्त बनाने वाले, जो बापदादा का काम है,वही बच्चों का काम है। बापदादा अशान्त आत्माओं को शान्ति देते हैं तो बच्चों को भी फॉलो फादर करना है। ब्राह्मणों का धन्धा ही यह है। अच्छा!

2-ब्राह्मणों का विशेष कर्त्तव्य है - ज्ञान सूर्य बन सारे विश्व को सर्वशक्तियों की किरणें देना। सभी विश्व-कल्याणकारी बन विश्व को सर्वशक्तियों की किरणें दे रहे हो? मास्टर ज्ञान सूर्य हो ना! तो सूर्य क्या करता है? अपनी किरणों द्वारा विश्व को रोशन करता है। तो आप सभी भी मास्टर ज्ञान सूर्य बन सर्वशक्तियों की किरणें विश्व में देते रहते हो? सारे दिन में कितना समय इस सेवा में देते हो? ब्राह्मण जीवन का विशेष कर्त्तव्य ही यह है। बाकी निमित्त मात्र। ब्राह्मण जीवन वा जन्म मिला ही है विश्व-कल्याण के लिए। तो सदा इसी कर्त्तव्य में बिजी रहते हो? जो इस कार्य में तत्पर होंगे। वह सदा निर्विघ्न होंगे। विघ्न तब आते हैं जब बुद्धि फ्री होती है। सदा बिजी रहो तो स्वयं भी निर्विघ्न और सर्व के प्रति भी विघ्न-विनाशक। विघ्न-विनाशक के पास विघ्न कभी भी आ नहीं सकता। अच्छा-

3-संगमयुग पर ब्राह्मणों का विशेष स्थान है - बापदादा का दिलतख्त। सभी अपने को बापदादा के दिलतख्त नशीन अनुभव करते हो ? ऐसा श्रेष्ठ स्थान कभी भी नहीं मिलेगा। सतयुग में हीरे सोने का मिलेगा लेकिन दिलतख्त नहीं मिलेगा। तो सबसे श्रेष्ठ आप ब्राह्मण और आपका श्रेष्ठ स्थान दिलतख्त। इसलिए ब्राह्मण चोटी अर्थात् ऊंचे ते ऊंचे हैं। इतना नशा रहता है कि हम तख्तनशीन हैं? ताज भी हैं, तख्त भी है, तिलक भी है। तो सदा ताज, तख्त, तिलकधारी रहते हो? स्मृति भव का अविनाशी तिलक लगा हुआ है ना? सदा इसी नशे में रहो कि सारे कल्प में जमारे जैसा कोई भी नहीं। यही स्मृति सदा नशे में रखेगी और खुशी में झूमते रहेंगे।

4-रूहानी सेवाधारी का कर्त्तव्य है - लाइट हाउस बन सबको लाइट देना। सदा अपने को लाइट हाउस समझते हो? लाइट हाउस अर्थात् ज्योति का घर। इतनी अथाह ज्योति अर्थात् लाइट जो विश्व को लाइट हाउस बन सदा लाइट देते रहें। तो लाइटहाउस में सदा लाइट रहती ही है तब वह लाइट दे सकते हैं। अगर लाइट हाउस खुद लाइट के बिना हो तो औरों को कैसे दें? हाउस में सब साधन इकट्ठे होते हैं। तो यहाँ भी लाइट हाउस अर्थात् सदा लाइट जमा हो, लाइट हाउस बनकर लाइट देना यह ब्राह्मणों का आक्यूपेशन है। सच्चे रूहानी सेवाधारी, महादानी अर्थात् लाइट हाउस होंगे। दाता के बच्चे दाता होंगे। सिर्फ लेने वाले नहीं लेकिन देना भी है। जितना देंगे उतना स्वत: बढ़ता जायेगा। बढ़ाने का साधन है - देना।

5-सर्व वरदानों से सम्पन्न बनने का समय है - संगमयुग। इस श्रेष्ठ समय के महत्व को वा समय के वरदान को जानते हो ना? सारे कल्प में वरदानी समय कौन-सा है? (संगम) तो इस वरदानी समय पर स्वयं को वरदानों से सम्पन्न बनाया है? क्योंकि यह भी जानते हो कि विधाता द्वारा वरदानों का भण्डार भरपूर भी है और खुला भण्डार है, जो जितना चाहे उतना अपने को मालामाल बना सकते हैं। तो ऐसे मालामाल बनाया है? थोड़ा सा खज़ाना ले करके, थोड़े में सन्तुष्ट नहीं होंना। लेना है तो पूरा ही लेना है, थोड़ा नहीं। जो अधिकारी आत्मायें होंगी वह थोड़े में खुश नहीं होगी। बनना है तो नम्बरवन बनना है, लेना है तो सम्पन्न ही लेना है। तो ऐसा ही लक्ष्य और लक्षण दोनों समान हों।

सदा हर बात में बैलेंस रखो। बैलेंस से ही बाप द्वारा और सर्व द्वारा ब्लेसिंग मिलती रहेगी और ब्लिसफुल लाइफ बन जायेगी। बैलेंस रख ब्लेसिंग लेना और ब्लेसिंग देना - यही मुख्य सौगात मधुबन से लेकर जाना। यही है यहाँ की रिफ्रेशमेंट।

अच्छा-ओम् शान्ति।



08-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"अन्तर सम्पन्न करने का साधन - तुरन्त दान महापुण्य"

गुणों के सागर अव्यक्त बापदादा बोले:-

''आज बापदादा सवेरे प्रात:काल की वतन की,बापदादा दोनों के रूह-रूहान की चित्रों सहित कहानी सुनाते हैं। कहानी सुनने में सबको रूचि होती है ना! तो आज की कहानी क्या थी? ब्रह्मा बाप वतन के बगीचे में सैर कर रहे थे। सैर करते हुए सामने कौन थे? बाप के सामने सदा कौन रहते हैं? यह तो सभी अच्छी तरह से जानते हो ना? बाप बच्चों की माला स्मरण करते। कौन-सी माला? गुण माला। तो ब्रह्मा बाप गुण माला स्मरण कर रहे थे। शिव बाप ने ब्रह्मा से पूछा - ‘‘क्या स्मरण कर रहे हो?'' ब्रह्मा बाप बोले - ‘‘जो आपका काम सो मेरा काम'' बच्चों के गुण-मालाओं को देख रहे थे। शिव बाप पूछे - ‘‘क्या-क्या देखा?'' क्या देखा होगा? कोई बच्चों की सिर्फ नैकलेस के माफिक माला थी और कोई बच्चों की पाँव तक लम्बी माला थी। कोई बच्चों की कई लड़ियों की माला थी। कोई बच्चे इतनी मालाओं से सजे हुए थे जैसे मालायें उनकी ड्रेस बन गई थी।

ब्रह्मा बाप वैरायटी गुण-मालाओं से सजे हुए बच्चों को देख-देख हर्षित हो रहे थे। आप हरेक अपनी गुण-माला को जानते हो? कितने सजे हुए हो, यह अपना चित्र देखते हो? ब्रह्मा बाप चित्र-रेखा बन चित्र खींच रहे थे। अर्थात् चित्र में तकदीर की रेखायें खींच रहे थे। आप स्वयं भी स्वयं का चित्र अर्थात् तकदीर की तस्वीर खींच सकते हो ना? फोटो खींच सकते हो ना? फोटो निकालने आता है? अपना वा दूसरे का? अपना फोटो खींचने आता है? तो आज सबका फोटो वतन में था। कितना बड़ा कैमरा होगा! सिर्फ आप लोगों का नहीं, सभी ब्राह्मणों का फोटो था। मालाओं का श्रृंगार देखते कोई-कोई बच्चों की विशेषता क्या देखी - हर गुण हीरों के रूप में वैरायटी रूप रेखा और रंग वाले थे। विशेष चार प्रकार के रंग थे। जिसमें मुख्य चार सब्जेक्टस के चार रंग थे। सब्जेक्ट तो जानते हो ना? ज्ञान-योग-धारणा और सेवा।

ज्ञान स्वरूप की निशानी कौन-सा रंग होगा? ज्ञान स्वरूप की निशानी - गोल्डन कलर जो हल्का-सा गोल्ड कलर होने के कारण उस एक ही हीरे से सर्व रंग दिखाई देते थे। एक ही हीरे से भिन्न-भिन्न रंगों की किरणों के माफिक चमक दिखाई देती थी। दूर से ऐसे अनुभव करेंगे जैसे चमक रहा है। और यह उससे भी सुन्दर सूर्य। क्योंकि सर्व रंगो की किरणें दूर से ही स्पष्ट दिखाई देती थीं। चित्र सामने आ रहा है ना! कैसे चमक रहा है हीरा?

याद की निशानी - यह तो सहज है ना? याद में यहाँ भी बैठते हो तो क्या करते हो? लाल रंग। लेकिन इस लाल रंग में भी गोल्डन रंग मिक्स था, इसलिए आपकी इस दुनिया में वह रंग नहीं है। कहने में तो लाल रंग आयेगा।

धारणा की निशानी सफेद रंग। लेकिन सफेदी में भी जैसे चन्द्रमा की लाईट के बीच सुनहरी रंग मिक्स करो या चाँदनी के रंग में हल्का-सा पीला रंग एड करो तो दिखाई चांदनी जैसा देगा लेकिन हल्का सा सुनहरी होने के कारण उसकी चमक और ही सुन्दर हो जाती है। यहाँ वह रंग बना नहीं सकेंगे। क्योंकि वे चमकने वाले रंग हैं। कितनी भी ट्रायल करो लेकिन वतन के रंग यहाँ कहाँ से आयेंगे?

सेवा की निशानी हरा रंग। सेवा में चारों ओर हरियाली कर देते हो ना! कांटो के जंगल को फूलों का बगीचा बना देते हो।

तो अभी सुना चार रंग कौन से हैं? इन चार रंगो के हीरों से सजी हुई मालायें सबके गले में थीं। इसमें भिन्न-भिन्न साइज और चमक में अन्तर था। कोई की ज्ञान स्वरूप की माला बड़ी थी तो कोई की याद स्वरूप की माला बड़ी थी। और कोई-कोई की चार ही मालायें थोड़े से अन्तर में थी। जिन्हों की चार ही रंगों की अनेक मालायें थीं- वह कितने सुन्दर लगते होंगे? तो बापदादा सबकी रिजल्ट मालाओं के रूप में देख रहे थे। दूर से हीरे ऐसे चमक रहे थे जैसे छोटे-छोटे बल्बों की लाइन-यह था चित्र। अब इस चित्रों द्वारा रिजल्ट देख ब्रह्मा बाप बोले - ‘‘समय की रफ्तार प्रमाण सर्व बच्चों का श्रृंगार सम्पन्न हुआ है?'' क्योंकि रिजल्ट में तो अन्तर था। तो इस अन्तर को सम्पन्न कैसे करें? ब्रह्मा बाप बोले - ‘‘बच्चे मेहनत तो बहुत करते हैं! मेहनत के साथ सबकी इच्छा भी है, संकल्प भी करते हैं''। बाकी क्या रह गया? जानते तो सब हो ना! नालेजफुल तो बन गये हो। तो बताओ क्या अन्तर रह जाता है, जिससे कोई की नैकलेस, कोई की पाँव तक लम्बी मालायें, वह भी अनेक मालायें? सुनते भी एक हो, सुनाते भी एक हो, विधि भी सबकी एक है और विधाता भी एक है, विधान भी एक है, बाकी क्या अन्तर रह जाता है? संकल्प भी एक है, संसार भी एक है? फिर अन्तर क्यों?

ब्रह्मा बाप को आज बच्चों पर बहुत-बहुत स्नेह आ रहा था। सभी चित्रों को सम्पन्न बनाने के लिए तीव्र उमंग आ रहा था कि अभी का अभी ही सबको मालाओं से सजा दें। बाप तो सजा भी दें लेकिन धारण करने की समर्था भी चाहिए! सम्भालने की समर्था भी चाहिए। तो ब्रह्मा ने शिव बाप से पूछा - क्या बात है? बच्चे साथ चलने के लिए सम्पूर्ण सजते क्यों नहीं हैं? साथ में तो सजे सजाये ही जायेंगे। कारण क्या निकला? शिव बाप बोले - अन्तर तो छोटा-सा है। सोचते सब हैं, करते भी सब हैं लेकिन कोई- कोई हैं जो सोचते और करते एक ही समय पर हैं। अर्थात् सोचना और करना साथ-साथ है, वह सम्पन्न बन जाते हैं और कोई-कोई हैं जो सोचते हैं और करते भी हैं लेकिन सोचने और करने के बीच में मार्जिन रह जाती है। सोचते बहुत अच्छा हैं लेकिन करते कुछ समय के बाद हैं। उसी समय नहीं करते हैं। इसलिए संकल्प मे जो उस समय की तीव्रता, उमंग-उल्लास-उत्साह होता है वह समय पड़ने से परसेन्टेज कम हो जाती है। जैसे गर्म वा ताजी चीज़ का अनुभव और ठण्डी वा रखी हुई चीज़ का अनुभव में अन्तर आ जाता है ना! ताजी चीज़ की शक्ति और रखी हुई चीज़ की शक्ति में अन्तर पड़ जाता है ना! चीज़ कितनी भी बढ़िया हो लेकिन रखी हुई तो उसकी रिजल्ट वही नहीं निकल सकती। ऐसे संकल्प जो करते हैं वह उसी समय प्रैक्टिकल में करना-उसकी रिजल्ट, और सोचना आज, करना कब, उसकी रिजल्ट में अन्तर पड़ जाता है। बीच में समय की मार्जिन होने के कारण, एक तो सुनाया कि परसेन्टेज सब की कम हो जाती है। जैसे ताजी चीज़ के विटामिन्स में फर्क पड़ जाता है। दूसरा - मार्जिन होने के कारण समस्याओं रूपी विघ्न भी आ जाते हैं। इसलिए सोचना और करना साथ-साथ हो। इसको कहा जाता है - ‘‘तुरन्त दान महापुण्य।'' नहीं तो महापुण्य के बजाए पुण्य हो जाता है। तो अन्तर हो गया ना? महापुण्य की प्राप्ति और पुण्य की प्राप्ति में अन्तर हो जाता है। समझा कारण क्या है? छोटा सा कारण है। करते भी हो सिर्फ अब' के बजाए कब' करते हो इसलिए मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है। तो ब्रह्मा बाप बच्चों से बोले - ‘‘अब इस कारण का निवारण करो।'' सुना आज की कहानी! दोनों बाप के बीच की कहानी। अब क्या करेंगे? निवारण करो। निवारण करना ही निमार्कण करना हो जायेगा। तो स्व में भी नव-निमार्कण और विश्व में भी नव-निर्वाण। अच्छा! ऐसे सदा सजे-सजाये, सोचना और करना समान बनाने वाले, सदा बाप समान तुरन्त दानी महापुण्य-आत्मायें, दोनों बाप के शुभ इच्छा को पूर्ण करने वाले, ऐसे सम्पन्न आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

टीचर्स के साथ- सेवाधारी अमृतवेले से लेकर रात तक सेवा की स्टेज पर हो? अगर आराम भी करते हो तो भी स्टेज पर हो, स्टेज पर भी सोने का पार्ट बजाते हैं ना! सबकी नजर होती है कि कैसे सोये हुए हैं। इस रीति सेवाधारी अर्थात् 24 घण्टे स्टेज पर पार्ट बजाने वाले। तो हर कदम, हर सेकण्ड सारी विश्व के आगे हैं। सेवाधारी सदा हीरो पार्टधारी समझ करके चलें, सेंटर पर नहीं बैठे हो लेकिन स्टेज पर बैठे हो, विश्व की स्टेज पर। तो इतना अटेन्शन रहने से हर संकल्प और कर्म स्वत: ही श्रेष्ठ होंगे ना! नैचुरल अटेन्शन होगा। अटेन्शन देना नहीं पड़ेगा लेकिन रहेगा ही क्योंकि स्टेज पर हो ना! और सदा अपने को पूज्य आत्मा समझो तो पूज्य आत्मा अर्थात् पावन आत्मा। कल्प-कल्प पूज्य हैं। पूज्य समझने से संकल्प और स्वप्न भी सदा पावन होंगे। तो ऐसा नशा रहता है? वैसे भी सेवाधारी मैजारटी कुमारियाँ हैं। कुमारियाँ डबल कुमारियाँ हो गई, ब्रह्माकुमारी भी और कुमारी भी। तो कितनी महान हो गई। कुमारी की, अब 84 वें अन्तिम जन्म में भी, चरणों की पूजा होती है। तो इतनी पावन बनी हो तब इतनी पूजा हो रही है। कुमारियों को कभी भी झुकने नहीं देंगे। कुमारियों के चरणों में सब झुकते हैं। चरण धोकर पीते हैं। तो वह कौन सी कुमारियाँ हैं? ब्रह्माकुमारियाँ हैं ना! तो सेवाधारी ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें हो। किसकी पूजा हो रही है? आप लोगों की। गीत भी है ना - पूजा होती है घर-घर में...। इसलिए बोलो - जमारी पूजा होती है। बापदादा भी देखो नमस्ते करते हैं ना! तो इतनी पूज्य हो तब तो बाप भी नमस्ते करते हैं। इसी स्मृति स्वरूप में रहने से सदा वृद्धि होती रहेगी। अपनी भी और सेवा की भी। सब विघ्न खत्म हो जायेंगे। इसी स्मृति में सब विशेषतायें भरी हैं। अच्छा

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात:-

1.जीवन की अनेक समस्याओं का हल-तीर्थ स्थान की स्मृति- भाग्य विधाता की भूमि पर पहुँचना यह भी बहुत बड़ा भाग्य है। यह कोई खाली स्थान नहीं है, महान तीर्थस्थान है। वैसे भी भक्ति मार्ग में मानते हैं कि तीर्थ स्थान पर जाने से पाप खत्म हो जाते हैं, लेकिन कब होते हैं, कैसे होते हैं, यह जानते नहीं हैं। इस समय तुम बच्चे अनुभव करते हो कि इस महान तीर्थस्थान पर आने से पुण्य आत्मा बन जाते हैं। यह तीर्थस्थान की स्मृति जीवन की अनेक समस्याओं से पार ले जायेगी। यह स्मृति भी एक तावीज का काम करेगी। जब भी याद करेंगा तो यहाँ के वातावरण की शान्ति और सुख आपके जीवन में इमर्ज हो जायेगा। तो पुण्य आत्मा हो गये ना! इस धरनी पर आना भी भाग्य की निशानी है। इसलिए बहुत-बहुत भाग्यशाली हो। अब भाग्यशाली तो बन गये लेकिन सौभाग्यशाली बनना वा पद्मापद्म भाग्यशाली बनना यह आपके हाथ में है। बाप ने भाग्यशाली बना दिया, यही भाग्य समय प्रति समय सहयोग देता रहेगा। कोई भी बात हो तो मधुवन में बुद्धि से पहुँच जाना। फिर सुख और शान्ति के झूले में झूलने का अनुभव करेंगे। अच्छा!

2.स्वदर्शन चक्रधारी की निशानी है - सफलता स्वरूप। सभी अपने को स्वदर्शन चक्रधारी समझते हो, बाप की जितनी महिमा है, उसी महिमा स्वरूप बने हो? जैसे बाप के हर कर्म चरित्र के रूप में अभी भी गाये जाते हैं ऐसे आपके भी हर कर्म चरित्र समान हो रहे हैं? ऐसे चरित्रवान बने हो, कभी साधारण कर्म तो नहीं होते हैं? जो बाप के समान स्वदर्शन चक्रधारी बने हैं उनसे कभी भी साधारण कर्म हो नहीं सकते। जो भी कार्य करेंगे उसमें सफलता समाई हुई होगी। सफलता होगी या नहीं होगी, यह संकल्प भी नहीं उठ सकता। निश्चय होगा कि सफलता हुई पड़ी है। स्वदर्शन चक्रधारी मायाजीत होंगे। मायाजीत होने के कारण सफलतामूर्त्त होंगे। और जो सफलतामूर्त्त होंगे वह सदा हर कदम में पद्मापद्मपति होंगे। ऐसे पद्मापद्मपति अनुभव करते हो? इतनी कमाई जमा कर ली है जो 21 जन्मों तक चलती रहे। सूर्यवंशी अर्थात् 21 जन्मों के लिए जमा करने वाले। तो सदा हर सेकेण्ड में जमा करते रहो। अच्छा।

3.चैतन्य छीपमाला के दीपकों का कर्त्तव्य है-अंधकार में रोशनी करना। अपने को सदा जगे हुए दीपक समझते हो? आप विश्व के दीपक अविनाशी दीपक हो जिसका यादगार अभी भी दीपमाला मनाई जाती है। तो यह निश्चय और नशा रहता है कि हम दीपमाला के दीपक हैं? अभी तक आपकी माला कितनी सिमरण करते रहते हैं? क्यों सिमरण करते हैं? क्योंकि अंधकार को रोशन करने वाले बने हो। स्वयं को ऐसे सदा जगे हुए दीपक अनुभव करो। टिमटिमाने वाले नहीं। कितने भी तूफान आयें लेकिन सदा एकरस, अखण्ड ज्योति के समान जगे हुए दीपक। ऐसे दीपकों को विश्व भी नमन करती है और बाप भी ऐसे दीपकों के साथ रहते हैं। टिमटिमाते दीपकों के साथ नहीं रहते। बाप जैसे सदा जागती ज्योति है, अखण्ड ज्योति है, अमर ज्योति है, ऐसे बच्चे भी सदा अमर ज्योति'! अमर ज्योति के रूप में भी आपका यादगार है। चैतन्य में बैठे अपने सभी जड़ यादगारों को देख रहे हो। ऐसी श्रेष्ठ आत्मायें हो।

अच्छा!



11-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"बिन्दु का महत्व"

ज्योति-बिन्दु शिव बाबा निराकार, ज्योति-बिन्दु आत्माओं प्रति बोले:-

आज स्नेह के सागर बाप अपने स्नेही आत्माओं से मिलने आये हैं। बाप के स्नेह में दूर-दूर से भागते हुए मिलन स्थान पर पहुँच गये। बापदादा ऐसी स्नेही आत्माओं को स्नेह का रिटर्न स्नेह ओर सहयोग सदा देते हैं, अब भी दे रहे हैं और देते रहेंगे।

सर्व स्थानों की स्नेही आत्मायें अब भी सूक्ष्म फरिश्तों के रूप में इस मिलन सभा में सम्मुख हैं। बापदादा डबल सभा देख रहे हैं। एक साकारी शरीरधारी इस धरनी पर बैठे हुए हैं दूसरे आकारी रूपधारी जिन्हों को इस धरनी के स्थान की आवश्यकता नहीं, धरनी से ऊपर लाइट रूप में लाइट के आसनधारी, जो थोड़े स्थान पर बहुत दिखाई दे रहे हैं। तो दोनों सभाओं को बापदादा देख हर्षित हो रहे हैं।

बापदादा बच्चों के स्नेह की शक्ति देख रहे हैं कि स्नेह की शक्ति के आधार पर सेकेण्ड में कितनी भी दूर से समीप पहुँच जाते हैं। जितनी स्नेह की शक्ति महान है, उतनी सम्मुख पहुँचने की स्पीड महान है। कितने अमूल्य रतन सामने आ रहे हें। एक-एक रत्न की महिमा महान है। किस-किस महारथी का वर्णन करें। शमा के ऊपर परवाने आ रहे हैं। सभी बच्चों को बापदादा सदा सहजयोगी भव का वरदान दे रहे हैं। सिर्फ एक बिन्दी को याद करो। सबसे सरल मात्रा बिन्दी है। तो बापदादा सिर्फ बिन्दी का ही हिसाब बताते हैं। स्वयं भी बिन्दु रूप बनो, याद भी बिन्दु को करो और ड्रामा के हर दृश्य को जाने,करने के बाद बिन्दु की मात्रा लगा दो। एक बिन्दु की मात्रा में आप, बाप और रचना, सब आ जाता है। तो जानना ही क्या है - ‘‘बिन्दु''। करना भी क्या है -’’बिन्दु को याद''। इसी बिन्दु की मात्रा के महत्व को जान सदा सहजयोगी बन सकते हो। कितना भी बड़ा विस्तार है लेकिन समाया हुआ बिन्दु में है। बीज बिन्दु, उसी में सारा वृक्ष समाया हुआ है। आत्मा बिन्दु उसी में 84 जन्मों के संस्कार समाये हुए हैं। 5 हजार वर्ष के ड्रामा को अब संगम के अन्त में समाप्त कर रहे हो, अब ड्रामा का चक्र पूरा हुआ। अर्थात् जो चक्र बीत चुका उसको फुल स्टाप अर्थात् बिन्दी लगाये, बिन्दी बन,अब घर जाना है। बिन्दु के साथ बिन्दु बनकर जाना है। घर भी सर्व बिन्दुओं का घर है। संकल्प, कर्म, संस्कार सब मर्ज अर्थात् बिन्दी लगी हुई है। समाप्ति की मात्रा है ही बिन्दु। सर्वगुण,सर्वज्ञान के खज़ानों के सागर...लेकिन सागर भी है - बिन्दु। सम्बन्ध और सम्पर्क मे भी आओ तो सर्व के मस्तक में क्या चमक रहा है - बिन्दु। सर्व कार्यकर्ता कौन हैं? बिन्दु ही हैं ना! चाहे धरनी से चन्द्रमा तक पहुँचे तो भी बिन्दु पहुँचा। चाहे आप साइलेन्स की शक्ति से 3 लोकों तक पहुँचते तो भी कौन पहुँचता - बिन्दु। साइंस की शक्ति या साइलेन्स की शक्ति, निमार्कण करने की शक्ति वा निर्वाण में जाने की शक्ति है तो बिन्दु ना! बीज से इतना सारा वृक्ष विस्तार को पाता लेकिन विस्तार के बाद समाता किसमे है? बीज अर्थात् बिन्दु में। तो अनादि अविनाशी है ही बिन्दु। आप भी तीन कालों की नालेज, तीन लोकों की नालेज प्राप्त करते हो लेकिन प्राप्त करने वाला कौन? ''बिन्दु’’। आदि से अन्त तक वैरायटी पार्ट बजाया लेकिन पार्टधारी कौन? किसने पार्ट बजाया? बिन्दु ने। तो महत्व सारा बिन्दु का है। और बिन्दु को जाना तो सब कुछ जाना। सब कुछ पाया। बिन्दु रूप में स्थित हो जो संकल्प करो, जो भावना रखो, जो बोल बोलो, जो कर्म करो, जैसे बिन्दु महान है वैसे सर्व बातें महान हो जाती हैं अर्थात् स्वत: श्रेष्ठ हो जाती हैं।

आत्मिक एनर्जा भी बिन्दु है, जो स्थापना की एनर्जा है और विनाशकारी भी एटामिक एनर्जा बिन्दु है। विनाश भी बिन्दु से होता,स्थापना भी बिन्दु से होती। सृष्टि चक्र के आदि में भी बिन्दु बन उतरते हो और अन्त में भी बिन्दु बन जाते हो। तो आदि अन्त का स्वरूप भी बिन्दु हुआ। कितना सहज हो गया। एक बिन्दु को याद करना मुश्किल है क्या? स्कूल में भी छोटे बच्चे बिन्दु की मात्रा सहज लगा सकते हैं। कहाँ भी पैन्सिल को रख दें तो बिन्दु हो जायेगी। तो इतनी सहज मात्रा याद नहीं रहती? इससे सहज और क्या बता सकते हैं। इससे सहज कुछ है? भक्ति में तो लम्बा चौड़ा आकार याद करते। बुद्धि में भावना द्वारा चित्र बनाते, तब भक्ति सिद्ध होती। यहाँ तो नालेज द्वारा सिर्फ क्या सामने रखते? बिन्दु। इसी बिन्दु की स्मृति द्वारा स्वयं ही सिद्धि स्वरूप बन जाते। तो क्या सहज हुआ? बुद्धि में बिन्दु लगाना या आकार इमर्ज करना? इसीलिए सहजयोगी बनो। बिन्दु को जानो तो सदा सहज है। तो स्नेह का रिटर्न सहज साधन द्वारा सहजयोगी भव। तो सभी सहजयोगी बन गये ना! विस्तार में जाते हो तो मुश्किल में चले जाते हो। क्योंकि विस्तार में जाने से क्वेश्चनमार्क बहुत लग जाते हैं। इसलिए जैसे क्वेश्चनमार्क की मात्रा स्वयं ही टेढी हैं, तो क्या-क्या के क्वेश्चनमार्क के टेढ़े मार्ग पर चले जाते हो। बिन्दु बन विस्तार में जाओ तो सार मिलेगा। बिन्दु को भूल विस्तार मे जाते हो तो जंगल में चले जाते हो। जहाँ कोई सार नहीं। बिन्दु रूप में स्थित रहने वाले सारयुक्त, योगयुक्त, युक्तियुक्त स्वरूप का अनुभव करेंगे। उन्हों की स्मृति, बोल और कर्म सदा समर्थ होंगे। बिना बिन्दु बनने के विस्तार में जाने वाले सदा क्यों, क्या के व्यर्थ बोल और कर्म में समय और शक्तियाँ भी व्यर्थ गंवायेंगे क्योंकि जंगल से निकलना पड़ता है। तो सदा क्या याद रखेंगे? एक ही बात - बिन्दु। सहज है ना? इसमें भाषा जानो, न जानो लेकिन बिन्दु तो सब भाषा में है। और कुछ भी न जान सको लेकिन बिन्दु शब्द को तो जान जायेंगे। समझा-क्या करना है? बिन्दु शब्द ही कमाल का शब्द है। जादू का शब्द है। बिन्दु बनो और आर्डर करो तो सब तैयार है। संकल्प की ताली बजाओ और सब तैयार हो जायेगा। लेकिन बिन्दु की ताली प्रकृति भी सुनेगी, सर्व कर्मइन्द्रियाँ भी सुनेंगी और सर्व साथी भी सुनेंगे। बिन्दु बन करके ताली बजाने आती है? अच्छा!

सदा अनादि अविनाशी स्वरूप रूप में स्थित रहने वाले, बिन्दु के महत्व को जान सदा महान रहने वाले,बिन्दु स्वरूप हो सर्व खज़ानों के सार को पाने वाले, सारयुक्त, योगयुक्त, जीवनमुक्त आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।''

टीचर्स के साथ- सभी रूहानी सेवाधारी हो- रूहानी सेवाधारी का अर्थ ही है रूहानी खज़ानों से सम्पन्न। तब ही रूहानी सेवाधारी बन सकते हो। सेवाधारी अर्थात् देने वाला। सेवा द्वारा सुख देने वाला, इसको कहते हैं सेवाधारी। तो देने वाला जरूर स्वयं सम्पन्न होगा तब तो औरों को दे सकेगा! तो सेवाधारी अर्थात् मास्टर सुख दाता, मास्टर शान्ति दाता, मास्टर ज्ञान दाता। दाता सदा सम्पन्न मूर्त्त होते हैं। जैसे स्वयं होंगे वैसे औरों को बनायेंगे। अगर स्वयं में किसी भी शक्ति की कमी है तो औरों को भी सर्व शक्तिवान नहीं बना सकते हैं। रूहानी सेवाधारी अर्थात् सर्वशक्तिवान। रूहानी सेवाधारी अर्थात् एवररेडी और आलराउन्ड। आलराउन्ड सेवाधारी ही सच्चे सेवाधारी हैं। तो सच्चे सेवाधारी के सर्व लक्षण अपने में अनुभव करते हो? जो सम्पन्न होंगे वह सदा सन्तुष्ट होंगे और सर्व को सन्तुष्ट करेंगे। किसी भी प्रकार की अप्राप्ति, असन्तुष्टता पैदा करती है। सर्व प्राप्ति हैं तो सदा सन्तुष्ट। सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना, उसकी विधि है - सम्पन्न और दाता। दोनों बातें चाहिए। कोई सम्पन्न हो लेकिन दाता न हो तो भी सन्तुष्ट नहीं कर सकते। तो दाता भी और सम्पन्न भी।

यह खुशी तो सभी को है ना कि हम विशेष आत्मायें हैं? सारे विश्व में से कितनी थोड़ी सी आत्मायें सदा बाप की सेवा में तत्पर रहने वाली निमित्त बनती हैं। तो जो कोटो में कोई, कोई में कोई आत्मायें निमित्त बनती हैं उसमें हमारा ही पार्ट है, हमारा नाम है, यह कितनी बड़ी खुशी है! कोटों में कोई...यह हमारा गायन है, यह रूहानी नशा रहता है? रूहानी नशा सदा जितना ऊंचा उतना नम्र बनायेगा। देहभान का नशा होगा थोड़ा लेकिन घमण्ड से, अभिमान से ऊंचा समझेंगे। सच्चे नशे में रहने वाले सदा नम्रचित होंगे। नम्रता से ही सबको अपने आगे झुकायेंगे। सुखदाता, नम्रचित आत्मा बन सकती है। अभिमान नम्रचित बनने नहीं देता। नम्रचित नहीं तो सेवा हो नहीं सकती। तो सेवाधारी की विशेषता - सदा नम्रचित, स्वयं झुका हुआ होगा तब औरों को झुका सकेगा। तो रूहानी सेवाधारी! रूहानी' शब्द सदा याद रखो। चलते-फिरते, बोलते... कर्म में रूहानियत दिखाई दे। साधारणता नहीं, रूहानियत।

सन्तुष्ट आत्मा को ही सेवाधारी का टाइटल मिल सकता है। सन्तुष्ट नहीं तो सेवा लेंगे। तो सेवा लेने वाले हो या सेवा करने वाले हो? रूहानी सेवाधारी लेने वाले नहीं, आज यह हुआ, कल यह हुआ... ऐसी बातों के पीछे समय गंवाकर सेवा तो नहीं लेते हो! यह सब बचपन ही बातें हैं। अब बचपन समाप्त हुआ। अभी जो लिया उसका रिटर्न करना है। अभी कोई भी कचहरी न होनी चाहिए। बड़ों का एक्स्ट्रा समय नहीं लेना है। किस्से-कहानियाँ समाप्त। अगर अभी तक भी सेवा लेने वाले हो तो आज से समाप्त कर देना। बिन्दी लगा देना। बीती सो बीती, बिन्दी लग गई ना! तो समाप्ति की बिन्दी लगाकर जाना। बिन्दी लगाकर सदा सन्तुष्ट रहना और सबको सन्तुष्ट करना, यही पाठ सदा याद रखना। अच्छा!

निर्मलशान्ता दादी से :- महान आत्मा अर्थात् सफलता मूर्त्त। तो सदा सफलतामूर्त्त हो ना? जो जितने हल्के रहते हैं, उतना सहज और स्वत: कार्य हो जाता है। जो ज्यादा कार्य का बोझ उठाते हैं तो बोझ के कारण निर्णय शक्ति काम नहीं कर सकती है इसलिए सफलता में फर्क पड़ जाता है। कार्य करने के पहले सदा स्वयं डबल लाइट,वायुमण्डल भी लाइट,स्वयं भी लाइट, साथी भी सब लाइट-तो लाइट हाउस का कार्य हो ही जाता है।

लेकिन कोई भी कार्य जब शुरू करते हैं तो लक्ष्य ठीक रखते हैं, फिर बीच में वह लक्ष्य मर्ज हो जाता है। आदि शक्तिशाली होता,मध्य में परसेन्टेज कम हो जाती है। जैसे आदि में प्लैन के समय अटेन्शन रखते,ऐसे जब प्रैक्टिकल कार्य में बिजी हो जाते हो तब भी अटेन्शन रहे। आदि-मध्य-अन्त एक समान रहे तो सफलता सहज हो जायेगी। अच्छा-

इस बारी मेले में शान्ति कुण्ड बनाना। जिससे सब समझें कि यहाँ आवाज होते भी शान्ति है। वृत्ति और अनुभूति ही बदल जाए। (बापदादा कलकत्ते में आवें) जरूर, हाँ वह समय दिखायेगा, क्योंकि बच्चे बुलावें बाप न आवें - यह हो नहीं सकता। लेकिन किस रीति से आयेंगे यह देखना। कुछ नया होना चाहिए ना! अच्छा- जो बनायेंगे उसमें सफल हो जायेंगे, क्योंकि सच्ची दिल पर साहब राजी। यह मेला भी बाप के दर्शन करने का स्थान है। भक्त दर्शन करेंगे और बच्चे मिलन मनायेंगे। अच्छा है, यह भी एक साधन है स्व के लिए और अन्य आत्माओं के लिए। ब्राह्मण भी उमंग-उत्साह में आ जाते हैं और अन्य की भी सेवा हो जाती है। स्व की भी सेवा और औरों की भी सेवा। अच्छा!

विदाई के समय :- सभी ने सुना तो बहुत है, बाकी कुछ सुनना रह गया है क्या? सिर्फ एक ही बात रह गई है-वह कौन सी? पाना था वो पा लिया काम क्या बाकी रहा? सब समाप्त हो गया है, क्या रहा है? अभी सिर्फ एक बात बापदादा देखना चाहते हैं। सभी 16 श्रृंगारधारी सजी-सजाई सजनियाँ अर्थात् 16 कला सम्पन्न। 16 श्रृंगार ही 16 कला हैं। तो सभी 16 कला सम्पन्न अर्थात् 16 श्रृंगारधारी बनें। अभी तक कोई 8 कला, कोई 10 कला, कोई 11कला... लेकिन सभी 16 कला बन जाएं। अपने-अपने नम्बर अनुसार सभी 16 कला तो होंगे ना! जैसे और धर्मों की भी अपने हिसाब से गोल्डन स्टेज होती है। तो यहाँ भी सभी की अपने हिसाब से 16 कला होंगी ना! कहना,करना और सोचना सब समान हो तो सम्पन्न बन जायेंगे। बापदादा अब इसी स्वरूप में सबको देखना चाहते हैं। वह कब होगा? इसके लिए सब तैयारी भी करते हैं, संकल्प भी करते हैं, इच्छा भी यही एक है। बाकी क्या रह जाता है? स्टेज पर जब बैठते हो तो क्या सुनाते हो कि बस, अब सम्पन्न बनना है! तो इच्छा भी सबको है, लेकिन बाकी क्या रह जाता है? अगर और सब इच्छाओं से इच्छा मात्रम अविद्या हो जाओ तो यह इच्छा पुरी हो जाये। छोटी-छोटी और इच्छायें इस एक इच्छा को पूर्ण करने नहीं देती हैं। अच्छा।

पार्टियों से

प्रश्न- कौन-सी पहचान बुद्धि मे स्पष्ट है तो समर्थ आत्मा बन जायेंगे?

उत्तर- समय की और स्वयं की पहचान अगर बुद्धि में स्पष्ट है तो समर्थ आत्मा बन जायेंगे, क्योंकि यह संगम का समय ही है श्रेष्ठ तकदीर बनाने का। सारे कल्प के श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ तकदीर अभी ही बना सकते हो। संगम पर ही बाप द्वारा सर्व अधिकार प्राप्त होते हैं। तो अधिकारी आत्मा हो, श्रेष्ठ आत्मा हो, श्रेष्ठ प्रालब्ध पाने वाले हो। सदा यह स्मृति में रखो तो समर्थ हो जायेंगे। समर्थ होने से मायाजीत बन जायेंगे। समर्थ आत्मा विघ्न-विनाशक होती है। संकल्प में भी विघ्न आ नहीं सकता। मास्टर सर्वशक्तिवान सदा विघ्न-विनाशक होंगे। अच्छा! विघ्न-विनाशक होंगे।

अच्छा!



13-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"परखने और निर्णय शक्ति का आधार- साइलेंस की शक्ति"

शान्ति के सागर शिव बाबा अपने शान्ति मूर्त्त बच्चों प्रति बोले:-

आज निर्वाण अर्थात् वाणी से परे शान्त स्वरूप स्थिति का अनुभव करा रहे हैं। आप आत्माओं का स्वधर्म और सुकर्म, स्व-स्वरूप, स्वदेश है ही - शान्त। संगमयुग की विशेष शक्ति भी साइलेंस की शक्ति है। आप सभी संगमयुगी आत्माओं का लक्ष्य भी यही है कि अब स्वीट साइलेन्स होम में जाना है। इसी अनादि लक्षण-शान्त स्वरूप रहना और सर्व को शान्ति देना- इसी शक्ति की विश्व में आवश्यकता है। सर्व समस्याओं का हल इसी साइलेन्स की शक्ति से होता है। क्यों? साइलेन्स अर्थात् शान्त स्वरूप आत्मा एकान्तवासी होने के कारण सदा एकाग्र रहती है और एकाग्रता के कारण विशेष दो शक्तियाँ सदा प्राप्त होती हैं। एक- परखने की शक्ति। दूसरी- निर्णय करने की शक्ति। यही विशेष दो शक्तियाँ व्यवहार वा परमार्थ दोनों की सर्व समस्याओं का सहज साधन है।

परमार्थ मार्ग में विघ्न- विनाशक बनने का साधन है- माया को परखना। और परखने के बाद निर्णय करना। न परखने के कारण ही भिन्न-भिन्न माया के रूपों को दूर से भगा नहीं सकते हैं। परमार्था बच्चों के सामने माया भी रायल ईश्वरीय रूप रच करके आती है। जिसको परखने के लिए एकाग्रता की शक्ति चाहिए। और एकाग्रता की शक्ति साइलेन्स की शक्ति से ही प्राप्त होती है।

वर्तमान समय ब्राह्मण आत्माओं में तीव्रगति का परिवर्तन कम है। क्योंकि माया के रायल ईश्वरीय रोल्ड गोल्ड को रीयल गोल्ड समझ लेते हैं। जिस कारण वर्तमान न परखने के कारण बोल क्या बोलते हैं- मैंने जो किया वा कहा, वह ठीक बोला। मैं किसमें रांग हूँ! ऐसे ही तो चलना पड़ेगा! रांग होते भी अपने को रांग नहीं समझेंगें। कारण? परखने की शक्ति की कमी। माया के रायल रूप को रीयल समझ लेते। परखने की शक्ति न होने के कारण यथार्थ निर्णय भी नहीं कर सकते। स्व-परिवर्तन करना है वा परपरिवर्त न होना है, यह निर्णय नहीं कर सकते। इसलिए परिवर्तन की गति तीव्र चाहिए। समय तीव्रगति से आगे बढ़ रहा है। लेकिन समय प्रमाण परिवर्तन होना और स्व के श्रेष्ठ संकल्प से परिवर्तन होना- इसमें प्राप्ति की अनुभूति में रात-दिन का अन्तर है। जैसे आजकल की सवारी कार चलाते हो ना! एक है सेल्फ स्टार्ट होना और दूसरा है धक्के से स्टार्ट होना। तो दोनों में अन्तर है ना! तो समय के धक्के से परिवर्तन होना यह है पुरूषार्थ की गाड़ी धक्के से चलाना। सवारी में चलना नहीं हुआ, सवारी को चलाना हुआ। समय के आधार पर परिवर्तन होना अर्थात् सिर्फ थोड़ा-सा हिस्सा प्राप्ति का प्राप्त करना। जैसे एक होते हैं मालिक, दूसरे होते हैं थोड़े से शेयर्स लेने वाले। कहाँ मालिकपन, अधिकारी और कहाँ अंचली लेने वाले। इसका कारण क्या हुआ? साइलेन्स के शक्ति की अनुभूति नहीं है जिसके द्वारा परखने और निर्णय करने की शक्ति प्राप्त होने के कारण परिवर्तन तीव्रगति से होता है। समझा- साइलेन्स की शक्ति कितनी महान है! साइलेन्स की शक्ति क्रोध-अग्नि को शीतल कर देती है। साइलेन्स की शक्ति व्यर्थ संकल्पों की हलचल को समाप्त कर सकती है। साइलेन्स की शक्ति ही कैसे भी पुराने संस्कार हों, ऐसे पुराने संस्कार समाप्त कर देती है। साइलेन्स की शक्ति अनेक प्रकार के मानसिक रोग सहज समाप्त कर सकती है। साइलेंन्स की शक्ति, शान्ति के सागर बाप से अनेक आत्माओं का मिलन करा सकती है। साइलेन्स की शक्ति अनेक जन्मों से भटकती हुई आत्माओं को ठिकाने की अनुभूति करा सकती है। महान आत्मा, धर्मात्मा सब बना देती है। साइलेन्स की शक्ति सेकण्ड में तीनों लोकों की सैर करा सकती है। समझा कितनी महान है? साइलेन्स की शक्ति- कम मेहनत, कम खर्चा बालानशीन करा सकती है। साइलेन्स की शक्ति- समय के खज़ाने में भी एकानामी करा देती है अर्थात् कम समय में ज्यादा सफलता पा सकते हो। साइलेन्स की शक्ति हाहाकार से जयजयकार करा सकती है। साइलेन्स की शक्ति सदा आपके गले में सफलता की मालायें पहनायेंगी। जयजयकार भी हो गई, मालायें भी पड़ गई, बाकी क्या रहा? सब कुछ हो गया ना! तो सुना आप कितने महान हो? महान शक्ति को कार्य में कम लगाते हो।

वाणी से तीर चलाना आ गया है, अब ‘‘शान्ति'' का तीर चलाओ। जिससे रेत में भी हरियाली कर सकते हो। कितना भी कड़ा सा पहाड़ हो लेकिन पानी निकाल सकते हो। वर्तमान समय ‘‘शान्ति की शक्ति'' प्रैक्टिकल में लाओ। मधुबन की धरनी भी क्यों आकर्षण करती है? शान्ति की अनुभूति होती हैं ना! ऐसे ही चारों और के सेवाकेन्द्र और प्रवृत्ति के स्थान- ‘‘शान्ति कुण्ड'' बनाओ। तो चारों ओर शान्ति की किरणें विश्व की आत्माओं को शान्ति की अनुभूति की तरफ आकर्षित करेंगी। चुम्बक बन जायेंगे। ऐसा समय आयेगा जो आपके सर्व स्थान शान्ति प्राप्ति के चुम्बक बन जायेंगे, आपको नहीं जाना पड़ेगा वह स्वयं आयेंगे। लेकिन तब, जब सर्व में शान्ति की महान शक्ति निरन्तर संकल्प बोल और कर्म में हो जायेगी। तब ही मास्टर शान्तिदेवा बन जायेंगे। तो अभी समझा क्या करना है? अच्छा!

(आज सुबह मधुबन में कर्नाटक जोन के एक भाई ने अचानक हार्ट फेल होने से शरीर छोड़ दिया जिसका अन्तिम संस्कार आबू में ही किया गया)

आज क्या पाठ पढ़ा? कर्नाटक के ग्रुप ने क्या पाठ पक्का कराया? सदा एवररेडी रहने का पाठ पक्का किया? सदा देह, देह के सम्बन्ध, पदार्थ, संस्कार सब का पेटी बिस्तरा सदा ही बन्द हो। चित्रों में भी समेटने की शक्ति को क्या दिखाते हो? पेटी बिस्तर पैक, यही दिखाते हो ना! संकल्प भी न आये यह करना था, यह बनना था, अभी कुछ रह गया है? सेकण्ड में तैयार? समय का बुलावा हुआ और एवररेडी। तो यह पाठ पक्का किया ना? यह भी आत्मा के भाग्य की लकीर खींच गई। वैसे तो संस्कार के समय एक पण्डित को या ब्राह्मण को बुलाते हैं और वह भी नामधारी और यहाँ कितने ब्राह्मणों का हाथ लगा? महान तीर्थस्थान और सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण। ‘‘स्मृति भव'' का सहयोग, कितना श्रेष्ठ भाग्य हो गया! ताे सदा एवररेडी रहने का विशेष पाठ सभी ने पढ़ लिया। (उसकी युगल को देखते हुए बाबा बोले) क्या पाठ पढ़ा? अपना सफलता स्वरूप दिखाया। बहादुर हो। शक्ति रूप का प्रत्यक्ष स्वरूप दिखाया। अच्छा

सदा अपने स्व-स्वरूप, स्वधर्म, श्रेष्ठ कर्म, स्वदेश की स्मृति स्वरूप, शान्त मूर्ति, सदा शान्ति की शक्ति द्वारा सर्व को शान्त स्वरूप बनाने वाले, शान्ति के सागर की, शान्ति की लहरों में सदा लहराते हुए अनेंकों प्रति धर्मात्मा, महान आत्मा, बनने वाले, ऐसे शान्ति के शक्ति स्वरूप श्रेष्ठ पुण्य आत्मा बनने वाले, आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों से:-

1. महावीर बच्चों का वाहन है श्रेष्ठ स्थिति और अलंकार हैं सर्वशक्तियाँ:- सभी अपने को महावीर समझते हो ना? महावीर अर्थात् सदा शस्त्रधारी। शक्तियों को वा पाण्डवों को सदा वाहन में दिखाते हैं और शस्त्र भी दिखाते हैं। शस्त्र अर्थात् अलंकार। तो वाहनधारी भी और अलंकारधारी भी। वाहन है श्रेष्ठ स्थिति और अलंकार हैं सर्वशक्तियाँ। ऐसे वाहनधारी और अलंकारधारी ही साक्षात्कारमूर्त्त बन सकते हैं। तो साक्षात बन सब को बाप का साक्षात्कार कराना यह है महावीर बच्चों का कर्त्तव्य।

महावीर अर्थात् सदा उड़ने वाले। तो सभी उड़ने वाले अर्थात् उड़ती कला वाले हो ना! अब चढ़ती कला भी समाप्त हो गई, जम्प भी समाप्त हो गया, अब तो उड़ना है। उड़ा और पहुँचा। उड़ती कला में जाने से और सब बातें नीचे रह जायेंगी। नीचे की चीजों को, परिस्थितियों को, व्यक्तियों को पार करने की जरूरत ही नहीं, उड़ते जाओं तो नदी नाले, पहाड़, वृक्ष सब पार करते जायेंगे। बड़ा पहाड़ भी एक गेंद हो जायेगा। उड़ती कला वाले के लिए परिस्थितियाँ भी एक खिलौना हैं। ऊपर जाओ तो इतने बड़े-बड़े देश गाँव सब क्या लगते हैं? खिलौने लगते हैं ना, माडल लगते हैं। तो यहाँ भी उड़ती कला वाले के लिए कोई भी परिस्थिति वा विघ्न खेल वा खिलौना है, चींटी समान है। चीटीं भी मरी हुई, जिन्दा नहीं, जिन्दा चींटी भी कभी-कभी महावीर को गिरा देती है। तो चींटी भी मरी हुई। पहाड़ भी राई नहीं, रूई समान। महावीर हो ना! अच्छा

मुरली का सार

परमार्थ मार्ग में विघ्न-विनाशक बनने का साधन है- माया को परखना और परखने के बाद निर्णय करना। परखने के लिए एकाग्रता की शक्ति चाहिए और एकाग्रता की शक्ति साइलेन्स की शक्ति से प्राप्त होती है। साइलेन्स की शक्ति द्वारा परखने और निर्णय की शक्ति प्राप्त होने के कारण परिवर्तन तीव्र गति से होता है। साइलेन्स की शक्ति महान है। साइलेन्स की शक्ति क्रोधाग्नि को शीतल कर देती है, व्यर्थ संकल्पों की हलचल को समाप्त कर देती है, पुराने संस्कार समाप्त कर देती है, तड़पती हुई आत्माओं को जीयदान दे सकती है, शान्ति के सागर बाप से मिलन कराती है, भटकती हुई आत्माओं को ठिकाने का अनुभव करा सकती है.... साइलेन्स की शक्ति महान पुण्य-आत्मा बनाती है, अत: इस शक्ति को कार्य में लगाते रहो।



16-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"विजयमाला में नम्बर का आधार"

अव्यक्त बापदादा अपने विजयी रत्नों, बच्चों के प्रति बोले:-

‘‘आज बापदादा अपने सिकीलधे श्रेष्ठ आत्माओं से फिर से मिलने आये हैं। याद आता है कि - इसी समय, इसी रूप में कितने बार मिले हो? अनेक बार मिलन की स्मृति स्पष्ट रूप में अनुभव में आती है? नालेज के आधार पर, चक्र के हिसाब से समझते हो वा अनुभव करते हो? जितना स्पष्ट अनुभव होगा उतना ही श्रेष्ठ वा समीप की आत्मा होंगे। वर्तमान सर्व प्राप्ति और भविष्य श्रेष्ठ प्रालब्ध की अधिकारी आत्मा होंगे। अपने आपको इसी अनुभव के आधार पर जान सकते हो कि मुझ आत्मा का विजय माला में कौन सा नम्बर है! वर्तमान समय बापदादा भी बच्चों के पुरूषार्थ और प्राप्ति के आधार पर नम्बरवार याद करते अर्थात् माला और यादगार रूप की विजय माला, जिसको वैजयन्ती माला कहते हैं। तो दोनों मालाओं में मेरा नम्बर कौन-सा है, यह जानते हो? अपने नम्बर को स्वयं ही जानते हो वा यह कहेंगे कि बापदादा सुनावें? बापदादा तो जानते ही हैं, लेकिन अपने आप को जानते जरूर हो। बाहर से वर्णन करो, न करो लेकिन अन्दर तो जानते हो ना? हाँ कहेंगे, वा न कहेंगे? अभी अगर बापदादा माला निकलवायें तो क्या अपना नम्बर नहीं दे सकते? संकोच वश न सुनाओ वह दूसरी बात है। अगर नहीं जानते तो क्या कहेंगे? औरों को चैलेन्ज करते हो, निश्चय और फखुर से कहते हो कि हम अपने 84 जन्मों की जीवन कहानी जानते हैं, यह कहते हो ना सभी? तो 84 जन्म में यह वर्तमान का जन्म तो सबसे श्रेष्ठ है ना! इसको नहीं जान सकते हो? मैं कौन? इस पहेली को अच्छी तरह से जाना है ना? तो यह भी क्या हुआ? मैं कौन की पहेली। जानने का हिसाब बहुत सहज है। एक है- याद की माला, तो जितना स्नेह और जितना समय आप बाप को याद करते उतना और उसी स्नेह से बाप भी याद करते हैं। तो अपना नम्बर निकाल सकते हो। अगर आधा समय याद रहता और स्नेह भी 50 का है, वा 75 का है तो उसी आधार से सोचो 50 स्नेह और आधा समय याद तो माला में भी आधी माला समाप्त होने के बाद आयेंगे। अगर याद निरन्तर और सम्पूर्ण स्नेह, सिवाए बाप के और कोई नजर ही नहीं आता, सदा बाप और आप भी कम्बाइन्ड हैं तो माला में भी कम्बाइन्ड दाने के साथ-साथ आप भी कम्बाइन्ड होंगे। अर्थात् साथ-साथ मिले हुए होंगे। सदा सब बातों में नम्बर वन होंगे। तो माला में भी नम्बरवन होंगे। जैसे लौकिक पढ़ाई में फर्स्ट डिवीजन, सेकेण्ड, थर्ड होती हैं, वैसे यहाँ भी महारथी, घोड़े सवार और पैदल तीन डिवीजन हैं।

फर्स्ट डिवीजन- सदा फास्ट अर्थात् उड़ती कला वाले होंगे। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में बाप के साथ का, सहयोग का, स्नेह का अनुभव करेंगे। सदा बाप के साथ और हाथ में हाथ की अनुभूति करेंगे। सहयोग दो,'यह नहीं कहेंगे। सदा स्वयं को सम्पन्न अनुभव करेंगे।

सेकेण्ड डिवीजन- चढ़ती कला का अनुभव करेंगे लेकिन उड़ती कला का नहीं। चढ़ती कला में आये हुए विघ्नों को पार करने में कभी ज्यादा, कभी कम समय लगायेंगे। उड़ती कला वाले ऊपर से क्रास करने के कारण ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कोई विघ्न आया ही नहीं। विघ्न को विघ्न नहीं लेकिन साइडसीन समझेंगे, रास्ते के नजारे हैं। और चढ़ती कला वाले- रूकेंगे, विघ्न है यह महसूस करेंगे। इसलिए जरा-सा लेसमात्र कभी-कभी पार करने की थकावट वा दिलशिकस्त होने का अनुभव करेंगे।

तीसरी डिवीजन- उसको तो जान गये होंगे। रूकना और चलना और चिल्लाना। कभी चलेंगे, कब चिल्लायेंगे। याद की मेहनत में रहेंगे। क्योंकि सदा कम्बाइन्ड नहीं रहते। सर्व सम्बन्ध निभाने के प्रयत्न में रहते हैं। पुरूषार्थ में ही सदा लगे रहते हैं। वह प्रयत्न में रहते और वह प्राप्ति में रहते।

तो इससे अभी समझो- ‘‘मेरा नम्बर कौन-सा?'' माला के आदि में है अर्थात् फर्स्ट डिवीजन में है वा माला के मध्य में अर्थात् सेकेण्ड डिवीजन में वा माला के अन्त में अर्थात् थर्ड डिवीजन में है? तो याद और विजय दोनों के आधार से अपने आपको जान सकते हो। तो जानना सहज है वा मुश्किल है? तो हरेक का नम्बर निकलवायें? निकाल सकेंगे ना?

बापदादा सदा अमृतवेले से बच्चों की माला सिमरण करने शुरू करते हैं। हरेक रत्न की वा मणके की विशेषता देखते हैं। तो अमृ- तवेले सहज ही अपने आपको भी चेक कर सकते हो। याद की शक्ति से, सम्बन्ध की शक्ति से, स्पष्ट रूहानी टी.वी. में देख सकते हो कि बापदादा किस नम्बर में मुझे सिमरण कर रहे हैं। उसके लिए विशेष बात- बुद्धि की लाइन बहुत क्लीयर चाहिए। नहीं तो स्पष्ट नहीं देख सकेंगे। अच्छा, समझा मैं कौन हूँ!

अब तो समय की समीपता कारण स्वयं को बाप के समान अर्थात् समानता द्वारा समीपता में लाओ। संकल्प, बोल, कर्म, संस्कार और सेवा सब में बाप जैसे समान बनना अर्थात् समीप आना। चाहे पीछे आने वाले हों चाहे पहले। लेकिन समानता से समीप आ सकते हो। अभी सभी को चांस है। अभी सीट फिक्स की सीटी नहीं बजी है। इसलिए जो चाहो वह बन सकते हो। अभी टू लेट' का बोर्ड नहीं लगा है। इसलिए क्या करेंगे? महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश दोनों हैं ना! महाराष्ट्र का तो नाम ही ‘‘महा'' है। तो महान ही हो गया ना! मध्यप्रदेश की क्या विशेषता है? जानते हो? बापदादा की सेवा के आदि में पहली नजर मध्यप्रदेश की तरफ गई। बच्चों को भी भेजा था। तो सेवा के क्षेत्र में पहली नजर जब मध्य प्रदेश पर गई तो मध्य प्रदेश की सेवा में और सेवा का प्रत्यक्षफल खाने में पहला नम्बर होगा ना? क्योंकि बापदादा की विशेष नजर पड़ी। जहाँ नजर पड़ी वा नम्बरवन नजर से निहाल हो गये ना! इसलिए दोनों ही महान हो।

महाराष्ट्र में बापदादा के साकार में चरण पड़े। चरित्र भूमि भी महाराष्ट्र को बनाया। तो महाराष्ट्र क्या करेगा? महाराष्ट्र को तो डबल फल देना पड़ेगा। क्या डबल फल देंगे? देखें, पहले टच होता है कि क्या फल देना है? अगर टच नहीं होता तो महाराष्ट्र से मध्य प्रदेश वन नम्बर हो जायेगा।

एक है वारिस और दूसरे हैं वी. आई. पीज.। तो वारिस भी निकालने हैं और वी. आई. पीज. भी निकालने हैं, यह है डबल फल। कहाँ वी. आई. पीज. निकालते, कहाँ वारिस निकालते लेकिन दोनों निकालने हैं। वारिस भी नामीग्रामी हों और वी. आई. पीज. भी नामीग्रामी हों। तो इसमें कौन नम्बरवन लेगा? फारेन लेगा, महाराष्ट्र लेगा वा मध्यप्रदेश लेगा? कौन लेगा? और भी ले सकते हैं लेकिन आज तो यह सामने बैठे हैं? अच्छा तो क्या सुना? जो ओटे सो अर्जुन गाया हुआ है ना? इसमें जो भी आगे जाये जा सकता है। अभी नम्बर आउट नहीं हुई हैं इसलिए जो भी निमित्त बन नम्बरवन आने चाहे वह आ सकते है। समझा क्या करना है? उसका साधन भी सुनाया-’’उड़ती कला''। चढ़ती कला नहीं उड़ती कला। उसके लिए सदा डबल लाइट रहो। यह तो जानते हो ना! जानते सब हो अभी स्वरूप और अनुभव में लाओ। अच्छा!

ऐसे सदा बाप के साथी, हर संकल्प, बोल और कर्म में बाप समान अर्थात् बाप के समीप रत्न, सदा स्वरूप और सफलता स्वरूप, विजय माला के समीप रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''



18-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सम्पूर्णता के समीपता की निशानी"

सदा दिलखुश, खुशनसीब बच्चों प्रति बापदादा बोले:-

‘‘आज दिलाराम बाप अपने दिलतख्तनशीन बच्चों से दिल की बातें करने आये हैं। सभी बच्चे जानते हैं कि दिलाराम के दिल में कौन सी एक बात रहती है? दिलाराम बाप की दिल में सदा सर्व को आराम देने वाले, ऐसे दिल वाले बच्चे दिल में रहते हैं। बाप की दिल में सर्व बच्चों व्ो प्रति एक ही बात यही है कि हर एक बच्चा विशेष आत्मा विश्व का मालिक बने। विश्व के राज्य भाग अधिकारी बनें। हरेक बच्चा एक दो से श्रेष्ठ सजा-सजाया, गुण सम्पन्न, शक्ति सम्पन्न नम्बर वन बने। हर एक की विशेषता एक दो से ज्यादा आर्कषणमय हो जो विश्व देखकर हरेक के गुण गाये। हरेक विश्व की आत्माओं के लिए लाइट हाउस हो, माइट हाउस हो, धरती के चमकते हुए सितारे हो। हरेक सितारे की श्रेष्ठ कर्म, श्रेष्ठ संकल्प द्वारा जमा की हुई विशेषताएं वा खज़ाने इतने अखुट हों जो हरेक सितारे की अपनी विशेष दुनिया दिखाई दे। हरेक देख-देख अपने दु:ख भूलकर सुख की अनुभूति कर हर्षित हो जायें। सर्व प्राप्तियों की हरेक की अलौकिक दुनिया देख वाह-वाह के गीत गाएं। यह है दिलाराम बापदादा के दिल की बात।

अब बच्चों के दिल में क्या है हरेक अपनी अपनी दिल को अच्छी तरह से जानते हो? दूसरों की दिल को भी जानते हो? वा सिर्फ अपने को जानते हो? जब आपस में रूह-रूहान करते हो तो अपने दिल के उमंग उत्साह सुनाते हो ना! उसमें मुख्य क्या वर्णन करते हो? सबका विशेष यही संकल्प रहता ही है कि जो बाप कहते हैं वह करके दिखायेंगे। वा बाप समान बन ही जाएंगे। तो बाप की दिल और बच्चों के दिल की बात तो एक ही है। फिर भी नम्बरवार पुरूषार्थी क्यों? सभी नम्बरवन क्यों नहीं? क्या सभी नम्बर वन हो सकते हैं? सब विश्व के राजे बन सकते हैं कि वह भी नहीं बन सकते हैं? सिर्फ एक विश्व का राजा बनेगा या और भी बनेंगे अपने अपने समय पर विश्व के राजे बनेंगे? फिर सभी क्यों कहते हो कि हम विश्व का राज्य ले रहे हैं वा विश्व के राज्य-अधिकारी बन रहे हैं? राज्य में आयेंगे या राज्य करेंगे कोई करने वाले और कोई राज्य में आने वाले बनेंगे वा सब करने वाले बनेंगे, क्या होगा? प्रजा तो और बहुत मिल जायेगी, उसकी चिंता नहीं करो। बस सिर्फ राज्य में आने के लिए ही इतनी मेहनत कर रहे हो? राज्य पाने के लिए नहीं, राज्य में आने के लिए? तो राज्य सब करेंगे ना? हरेक समझता है मैं तो करूँगा बाकी कोई आवे, करें वह वो जाने। राजयोग सीख रहे हो ना? राजा बनने का योग सीख रहे हो या राज्य में आने का योग सीख रहे हो? राजयोगी हो ना? राज्य में आने वाले योगी तो नहीं हो ना? ऐसे ही सब नम्बरवन बनेंगे या नम्बरवार ही अन्त तक रहेंगे?

पहले भी सुनाया था कि हरेक अपनी स्टेज के अनुसार, अपने हिसाब से नम्बर वन तो बनेंगे ना! उनके लिए तो वही नम्बर वन गोल्डन स्टेज होगी ना! सबसे श्रेष्ठ नम्बर वन स्टेज, उसके हिसाब से तो अन्त में बन ही जायेंगे ना! अपने हिसाब से सम्पन्न और सम्पूर्ण तो बनेंगे ही ना! सारे कल्प के अन्दर उस आत्मा की नम्बरवन श्रेष्ठ स्टेज तो वही होगी ना! उस हिसाब में नम्बरवार होते भी नम्बरवन बन जायेंगे। हरेक आत्मा की अपनी सम्पूर्ण स्टेज है। जैसे ब्रह्मा की पुरूषार्थी और सम्पूर्ण स्टेज दोनों देखी और अनुभव भी कर रहे हो कि सम्पूर्ण स्टेज पर पहुँचने से क्या-क्या विशेषताएं अव्यक्त रूप में भी पार्ट में ला रहे हैं। जैसे ब्रह्मा बाप की सम्पूर्ण स्टेज और पुरूषार्थी स्टेज, दोनों का अन्तर अनुभव कर रहे रहो वैसे हर एक ब्राह्मण आत्मा का भी सम्पूर्ण स्टेज का स्वरूप है। जो अव्यक्त वतन में बापदादा इमर्ज कर देखते रहते हैं और दिखा भी सकते हैं। उसी सम्पूर्ण स्वरूप को देखते हुए बापदादा देख रहे हैं कि हरेक के सम्पूर्ण स्वरूप कितने रूहानी और झलक और फलक वाले हैं। अभी सम्पूर्णता को पा रहे हो और पाना भी जरूर है। लेकिन कोई बच्चों की सम्पूर्ण स्टेज समीप है। जिसकी निशानी जैसे ब्रह्मा बाप को देखा-सदा अपने सम्पूर्ण स्टेज और भविष्य प्रालब्ध अर्थात् फरिश्ता स्वरूप और देवपद स्वरूप दोनों ही सदा ऐसे स्पष्ट स्मृति में रहते थे जो सामने जाने वाले भी पुरूषार्थी स्वरूप होते हुए भी फरिश्ता रूप और भविष्य श्रीकृष्ण का रूप देखते और वर्णन करते थे। ऐसे बच्चों में भी सम्पूर्णता के समीप आने की निशानी स्वयं भी समीपता का अनुभव करेंगे और औरों को भी अनुभव होगा। व्यक्त में होते अव्यक्त रूप की अनुभूति करेंगे। जिससे सामने आने वाली आत्मायें व्यक्त भाव को भूल अव्यक्त स्थिति का अनुभव करेंगी। यह है समीपता की निशानी। और कई बच्चों को अभी सम्पूर्णता स्पष्ट और समीप नहीं अनुभव होती, उनकी निशानी क्या होगी? जो स्पष्ट चीज़ होती है और समीप चीज़ होती है उसको अनुभव करना सहज होता है। और दूर की चीज़ को अनुभव करना, उसमें विशेष बुद्धि लगानी पड़ती है। ऐसे ही ऐसी आत्माएं भी नालेज के आधार से बुद्धियोग द्वारा सम्पूर्ण स्टेज को खींचकर मेहनत से उसमें स्थित रह सकती हैं।

दूसरी बात- ऐसी आत्माओं को स्पष्ट और समीप न होने के कारण कभी कभी यह भी संकल्प उत्पन्न होता है कि बनना तो चाहिए लेकिन बन सकूंगी? स्वयं के प्रति जरा-सा व्यर्थ संकल्प के रूप में शक पैदा होगा-जिसको कहा जाता है - ‘‘संशय का रायल रूप''। शक जरा-सा लहर के माफिक भी आया तो गया। लेकिन निश्चय बुद्धि विजयन्ति। उसमें यह स्वप्न मात्र संकल्प, लहर मात्र संकल्प भी फाइनल नम्बर में उसे दूर कर देता है। उसका विशेष संस्कार वा स्वभाव अभी अभी बहुत उमंग-उत्साह में उड़ने वाले और अभी अभी स्वयं से दिलशिकस्त। बार-बार जीवन में यह सीढ़ी उतरते और चढ़ते रहेंगे। दिलखुश और दिलशिकस्त की सीढ़ी, कारण? अपनी सम्पूर्ण स्टेज स्पष्ट और समीप नहीं। तो अभी क्या करना है? अभी सम्पूर्ण स्टेज को समीप लाओ। कैसे लायेंगे? उसकी विधी को जानते भी हो। क्या जानते हो? है तो हंसी की बात। बापदादा क्या देखते हैं। कई बच्चे, सब नहीं लेकिन मैजारिटी, क्या करते हैं? ऊंचे ते ऊंचे बाप के लाडले होने के कारण ज्यादा लाडले हो जाते हैं। तो ज्यादा लाडले होने के कारण नाजुक बन जाते हैं। नाजुक तो नाज-नखरे ही करेंगे। नाज नखरे भी कौन से करते हैं? बाप की बातें बाप को ही सुनाने लगते हैं। आप नाजुक बनते और बाप को कहते हैं हमारे तरफ से आप करो। सहनशक्ति की मजबूती कम है, सहनशक्ति है सर्व विघ्नों से बचने का कवच। कवच न पहनने के कारण नाजुक बन जाते हैं। मुझे करना है,यह पाठ बहुत कच्चा रहता है। लेकिन दूसरा करे या बाप करे, यह पाठ नाजुक बना देता है। इसी कारण अलबेलेपन का पर्दा आ जाता है और सम्पूर्ण स्टेज समीप और स्पष्ट नहीं दिखाई देती है। इसलिए तीन लोकों में चक्कर लगाने के बजाऐ इसी दिलखुश और दिलशिकस्त की बातों में, इसी दुनिया में या इसी सीढ़ी पर उतरते चढ़ते हैं। तो इसीलिए क्या करना पड़े? लाड़ले भले बनो लेकिन अलबेलेपन के लाडले नहीं बनो। तो क्या हो जायेगा? अपनी सम्पूर्णता को सहज पा सकेंगे। पहले तो अपने सम्पूर्ण स्टेज को, स्वयं को वरना है अर्थात् सदा उमंगउत्साह की वरमाला पहननी है तब फिर लक्ष्मी को वरेंगे। वा नारायण को वरेंगे। समझा क्या करना है? आप सबकी सम्पूर्ण स्टेज आप पुरूषार्थी का आह्वान कर रही है। जब आप सब सम्पूर्ण स्टेज को पाओ तब ही सम्पूर्ण ब्रह्मा और ब्राह्मण साथ-साथ ब्रह्मघर में जा सकें और फिर राज्य अधिकारी बन सकें। अच्छा!

ऐसे सम्पूर्ण स्टेज के समीप आत्मायें, ब्रह्मा बाप के साथ-साथ सम्पूर्ण स्टेज को वरने वाले, सदा अपने सम्पूर्ण स्टेज के अनुभूति द्वारा औरों को भी सम्पूर्ण बनने की प्रेरणा देने वाले, हरेक को अपने स्पष्टता द्वारा दर्पण बन, सम्पूर्ण स्टेज का स्पष्ट साक्षात्कार कराने वाले, सदा दिलखुश, ऐसे खुशनसीब बच्चों को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''''

टीचर्स के साथ-’’बाप समान रूहानी सेवाधारी। तो सेवाधारियों को कौन सी सौगात चाहिए? जब एक दो में समान मिलते हैं ते एक दो को सौगात देते हैं ना! तो सेवाधारी हैं ही बाप समान। तो बाप क्या सौगात देगा? वा आप देंगे? ज्ञान तो बहुत सुना है। मुरली भी सुनी। अभी बाकी क्या रह गया? सेवाधारी बापदादा के अति समीप आत्मायें हो, समीप आत्माओं को बापदादा कौन-सी सौगात देंगे? सेवाधारियों को आज बापदादा विशेष एक गोल्डन वर्शन्स की सौगात देते हैं। वह क्या है? ‘‘सदा हर दिन स्व-उत्साह और सर्व को भी उत्साह दिलाने का उत्सव मनाओ।'' यह है सेवाधारियों के लिए स्नेह की सौगात। इसी सौगात को फिर मुरली में स्पष्ट करेंगे लेकिन सौगात तो छोटी अच्छी होती है। तो आज मुरली नहीं चलायेंगे लेकिन सार रूप में सुना रहे हैं कि उत्साह में रहने और उत्साह दिलाने का उत्सव मनाओ। इससे क्या होगा? जो मेहनत करनी पड़ती है वह खत्म हो जायेगी। संस्कार मिलाने की, संस्कार मिटाने की मेहनत से छूट जायेंगे। जैसे जब कोई विशेष उत्सव मनाते हो तो उसमें तन का रोग, धन की कमी, सम्बन्ध सम्पर्क की खिटपिट सब भूल जाता है। ऐसे अगर यह उत्सव सदा मनाओ तो सारी समस्यायें खत्म हो जायेंगी। फिर समय भी नहीं देना पड़ेगा, शक्तियाँ भी नहीं लगानी पड़ेंगी। सदा ऐसे अनुभव करेंगे जैसे सभी फरिश्ते बनकर चल रहे हैं। वैसे भी कहावत है - फरिश्तों के पैर धरनी पर नहीं होते। खुशी में जो नाचता रहता है उसके लिए भी कहते हो कि यह तो उड़ता रहता है, इसके पाँव धरनी पर नहीं हैं। तो सब उड़ने वाले फरिश्ते बन जायेंगे। इसलिए रूहानी सेवाधारी अब यह सेवा करो। कोर्स देना, दिलाना, प्रद- र्शनी करना-कराना, मेले करना-कराना, यह बहुत मेहनत की। अभी इस मेहनत को सहज करने का साधन यह है (जो ऊपर सुनाया) इससे घर बैठे अनुभव करेंगे जैसे शमा के ऊपर परवाने स्वत: ही भागते हुए आ रहे हैं। आखिर भी यह मेहनत कब तक करेंगे, यह साधन भी तो परिवर्तन होंगे ना! तो कम खर्च वाला मशीन, वा कम मेहनत सफलता ज्यादा उसका साधन है- यह सौगात। फिर आपको मेला नहीं करना पड़ेगा लेकिन मेला करने वाले और अनेक निमित्त बन जायेंगे। आपको निमन्त्रण देकर बुलायेंगे। जैसे अभी भी भाषण के लिए बनी बनाई स्टेज पर बुलाते हैं ना! वैसे मेले आदि की फिर इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। अभी आप सब दीदी-दादियों को उद्घाटन के लिए बुलाते हो फिर आप भी दीदी-दादीयाँ हो जायेंगी, उद्घाटन करने वाली दर्शनीय मूर्त्त हो जायेंगी। तो यह अच्छा है ना! अभी तक भी लगाओ टेन्ट, गाइड बुलाओ, लगाने वालों को बुलाओ... यही मेहनत करनी है! अच्छा-अभी तो सौगात मिल गई ना? अभी देंगी क्या? यही संकल्प करो कि ‘‘न कभी उत्साह कम करेंगे और न दूसरों का उत्साह कम होने देंगे।'' यही देना है। कुछ भी हो जाय, जैसे स्थूल व्रत रखते हैं, तो उसमें भी भूख और प्यास लगती है लेकिन लगते हुए भी व्रत नहीं छोड़ते, चाहे बेहोश भी क्यों न हो जायें। तो आप भी व्रत लो- कोई भी समस्या आ जाए, कोई उत्साह को मिटाने वाला आ जाए लेकिन न उत्साह छोड़ेंगे, न औरों में कम करायेंगे। बढ़ेंगे और बढ़ायेंगे। तो सदा ही उत्सव होंगे, सदा मेले होगे, सदा सेमीनार होंगे, सदा इन्टरनेशनल कोन्फेरेंस होगी अच्छा-मिली भी सौगात, ले भी ली और क्या चाहिए।'' विदेशी बच्चों की सेवा की मुबारक देते हुए-सेवा के प्रति और भी इशारा-

‘‘बापदादा सेवा के लिए कभी भी मना नहीं करते हैं, खूब धूमधाम से सेवा करो। जिन्हों को भी निमन्त्रण देना हो दे सकते हो। फारेन वालों को सेवा की मुबारक हो। सभी सेवा की उमंग-उत्साह में अच्छे आगे बढ़ रहे हैं। और ऐसे बड़ते हुए विशेष आत्माओं की सेवार्थ निमित्त बन जायेंगे। जिनको विशेष वी.आई.पी. कहते हो, अभी वी.आई.पीज. के निकलने का समय पहुँच गया है। इसलिए सेवा से स्वत: निकलते रहेंगे।

सभी को विशेष रूहानियत का अनुभव कराओ। शान्ति, शक्ति का अनुभव कराओ। नालेज तो बहुत है लेकिन एक सेकेण्ड की अनुभूति ही उन्हों के लिए नवीनता है। सारी विदेश की मैजारिटी आर्टिफीशियल शान्ति है, तो रीयल शान्ति, रीयल सुख रीयल स्वरूप की अनुभूति है ही नहीं। अगर वह एक सेकेण्ड की भी हो जायेगी तो नवीनता का अनुभव करेंगे। वैसे भी विदेश में सदा नई चीज़ पसन्द करते हैं। इसलिए यह नवीनता करो। कोई भी नामधारी महात्मा यह अनुभूति नहीं करा सकते। आत्मा परमात्मा का शब्द तो सुनते रहते हैं लेकिन कनेक्शन जुड़वाकर अनुभव करना यह नवीनता है। जिसको कहा जाता है- रीयल्टी का अनुभव करना। यही साधन है। सभी सर्विसएबुल समीप रत्नों को नाम सहित याद। अच्छा!''

कुमारों के साथ-अव्यक्त बापदादा की मुलाकात-’’कुमारों को सदा यह स्मृति रहे कि हम कुमार नहीं लेकिन ब्रह्माकुमार हैं, रूहानी सेवाधारी हैं। सेवाधारी अर्थात् स्वयं सम्पन्न स्वरूप होकर औरों को देने वाले। तो सदा अपने को सर्व खज़ानों से सम्पन्न अनुभव करते हो? सेवाधारी समझ कर सेवा करेंगे तो सफलतामूर्त्त होंगे। सेवा की विशेषता ही है सदा नम्रचित। निमित्त और नम्रचित यह दोनों विशेषताएं सेवा में सफलता स्वरूप बनाती हैं। कुमार सेवा के क्षेत्र में आगे बढ़ने वाले होते हैं। लेकिन बागे बढ़ते हुए निमित्त और नम्रचित की विशेषता नहीं होगी तो सेवा करेंगे, मेहनत करेंगे सफलता कम दिखाई देगी। तो कुमार सेवा में तो होशियार हो ना? सभी प्लैनिंग बुद्धि हो। जैसे सेवा की भाग दौड़ में होशियार हो वैसे इन दो विशेषताओं में भी होशियार बनो। विशेषताओं सहित विशेष सेवाधारी बनो। नहीं तो टैम्प्रेरी टाइम की सफलता तो होगी लेकिन चलते-चलते थोड़े टाइम के बाद कनफ्युजड हो जायेंगे। यह क्या हुआ, यह क्यों हुआ, यह दीवार आ जायेगी।

तो सदा यह दो बातें स्मृति में रखना। इससे सर्विस में फास्ट और फर्स्ट हो जायेंगे। कुमारों को सेवा तो करनी है लेकिन मर्या- दाओं की लकीर के अन्दर रहकर करनी है फिर देखो सफलता हुई पड़ी है।

कुमारों को सब प्रकार के चांस हैं, सेवा करने में भी चांस, पुरूषार्थ में आगे जाने का भी चांस और साथ-साथ अपने परिवार को आगे बढ़ाने का चांस है। कुमार जीवन लकी जीवन है। कुमार अर्थात् सदा स्वतन्त्र। किसी भी प्रकार के बंधन के वश नहीं। ऐसे स्वतन्त्र अनुभव करते हो ना? स्वयं के व्यर्थ संकल्प भी एक बंधन है,यह बंधन भी उड़ती कला से नीचे ले आते हैं। तो निर्बन्धन कुमार। व्यर्थ संकल्प भी समाप्त। निर्बन्धन आत्मा ही तीव्रगति में जा सकती है। बापदादा को कुमारों के ऊपर नाज है कि कुमार अपने जीवन को कितना श्रेष्ठ बना रहे हैं। सदा इसी स्मृति में रहो कि जमारे जैसा भाग्यवान कोई नहीं, कुमारों का अपना भाग्य, कुमारियों का अपना। कुमारियाँ स्वतन्त्र होकर सेवा नहीं कर सकती। कुमार तो कहाँ भी अकेले जाकर सेवा कर सकते हैं। कुमारों को क्या बंधन है। कुमारियाँ तो फिर भी आजकल की दुनिया के हिसाब से बंधन में हैं, कुमार तो आलराउन्ड सेवा कर सकते हैं।

कुमार हैं डबल लाइट। किसी भी प्रकार का बोझ नहीं। न संकल्पों का बोझ, न संबंध सम्पर्क का बोझ। कुमार हैं ही निर्बन्धन, क्योंकि नालेजफुल हो गये। नालेजफुल व्यर्थ की तरफ कभी भी जा नहीं सकते। व्यर्थ संकल्प भी नालेजफुल के आगे आ नहीं सकता। संकल्प में भी शक्तिवान, कर्म में भी शक्तिवान। मास्टर सर्वशक्तिवान हो। तो सदा ऐसे अनुभव करते हो कि हम मास्टर सर्वशक्तिवान हैं? क्योंकि कुमारों के पीछे माया चक्र बहुत लगाती है। माया को भी कुमार-कुमारियाँ अच्छे लगते हैं। जैसे बाप को बहुत प्रिय हो, ऐसे माया को भी प्रिय हो। इसलिए माया से सावधान रहना। सदा अपने को कम्बाइन्ड समझना, अकेला नहीं, युगल साथ है। सदा कम्बाइन्ड समझेंगे तो माया आ नहीं सकती। अच्छा!''

पार्टियों के साथ-व्यक्तिगत मुलाकात

1. वर्तमान समय का विशेष अटेन्शन- व्यर्थ संकल्पों की समाप्ति : ‘‘सभी अपने को समर्थ आत्मायें समझते हो? समर्थ आत्मायें अर्थात् जिनका व्यर्थ का खाता समाप्त हो। नहीं तो ब्राह्मण जीवन में व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म बहुत समय व्यर्थ गंवा देते हैं। जितनी कमाई जमा करने चाहो उतनी नहीं कर सकते हो। व्यर्थ का खाता समर्थ बनने नहीं देता। अब व्यर्थ का खाता समाप्त करो। जब नया चौपड़ा रखते हो तो पुराने को खत्म कर देते हो ना! तो वर्तमान समय यही विशेष अटेन्शन रखो कि व्यर्थ का समाप्त कर सदा समर्थ रहें। मास्टर सर्वशक्तिवान जो चाहो वह कर सकते हो। जैसे किसको तन की वा धन की शक्ति है तो जो चाहो वह कर सकता है, अगर शक्ति नहीं तो चाहते भी मजबूर हो जाता। ऐसे आप मा. सर्वशक्तिवान क्या नहीं कर सकते! सिर्फ अटेन्शन। बार-बार अटेन्शन चाहिए। अमृतवेले अटेन्शन दिया, रात को दिया, बाकी मध्य में अलबेलापन हो गया तो रिजल्ट क्या होगी? व्यर्थ का खाता समाप्त नहीं होगा। कुछ न कुछ पुराना खाता रह जायेगा। इसलिए बार-बार यही अटेन्शन दो कि हम मा. सर्वशक्तिवान हैं। चैकिंग चाहिए अच्छी तरह से। क्योंकि माया अभी भी अपनी बारी लेने के लिए होशियार बैठी है। वह अन्त में सबसे ज्यादा होशियार हो जाती है क्योंकि सदा के लिए विदाई लेनी है ना! तो अपनी होशियारी तो दिखायेगी ना! इसलिए सदा अटेन्शन रखो। क्लास में गये, याद में बैठे उस समय तो अटेन्शन रहता है लेकिन बार-बार अटेन्शन। और जिसका बार-बार अटेन्शन है उसकी निशानी है- सब टेन्शन से परे। लाडले तो हो ही, बाप के बने, श्रेष्ठ भाग्य का सितारा चमका और क्या चाहिए। सिर्फ यही छोटा-सा काम दिया है-कि बार-बार बुद्धि द्वारा अटैन्शन रखो। अच्छा!''

पार्टियों से:-

मायाजीत बनने के साथ-साथ प्रकृतिजीत भी बनो:- सदा मायाजीत और प्रकृतिजीत हो? मायाजीत तो बन ही रहे हो लेकिन प्रकृतिजीत भी बनो क्योंकि अभी प्रकृति की हलचल तो बहुत होनी हैं ना! हलचल में अचल रहो, ऐसे अचल बने हो? कभी समुद्र का जल अपना प्रभाव दिखायेगा तो कभी धरनी अपना प्रभाव दिखायेगी। अगर प्रकृतिजीत होंगे तो प्रकृति की कोई भी हलचल अपने को हिला नहीं सकेगी। सदा साक्षी होकर सब खेल देखते रहेंगे। जैसे फरिश्तों को सदा ऊंची पहाड़ी पर दिखाते हैं, तो आप फरिश्ते सदा ऊंची स्टेज अर्थात् ऊंची पहाड़ी पर रहने वाले। ऐसी ऊंची स्टेज पर रहते हो? जितना ऊंचे होंगे उतना हलचल से स्वत: परे रहेंगे। अभी देखो यहाँ पहाड़ी पर आते हो तो नीचे की हलचल से स्वत: ही परे हो ना! शहरों में कितनी हलचल और यहाँ कितनी शान्ति और साधारण स्थिति में भी कितना रात-दिन का अन्तर होगा।



21-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"छोड़ो तो छूटो"

सदा कर्मबन्धन-मुक्त, बीजरूप, वृक्षपति शिव बाबा बोले-

‘‘सदा सहयोगी, सदा बच्चों के साथी बापदादा अपने सहयोगी बच्चों को, सदा के साथी बच्चों को आज वतन की,बापदादा की रम- णीक बात सुनाते हैं। आप सभी भी रूहानी रमणीक मूर्त्त हो ना! तो ऐसे बच्चों को बाप भी रमणीक बात सुनाते हैं। आज वतन में बापदादा के सामने, एक बड़ा सुन्दर अलौकिक अर्थ सहित वृक्ष इमर्ज हुआ। वृक्ष बड़ा सुन्दर था और वृक्ष की डालियाँ अनेक थीं, कोई छोटी कोई बड़ी, कोई मोटी कोई पतली थीं। लेकिन उस अलौकिक वृक्ष के ऊपर भिन्न-भिन्न प्रकार के रंग-बिरंगे बहुत सुन्दर पंछी थे। जो हरेक अपनी-अपनी डाली पर बैठे थे। पंछियों के कारण वृक्ष बड़ा सुन्दर लग रहा था। कई पंछी उड़ते हुए बापदादा की अंगुली पर भी आकर बैठते। कई कंधे पर भी आकर बैठते और कोई आगे पीछे चक्कर लगाते रहते। कोई डाली पर बैठे-बैठे दूर से नयन मुलाकात भी करते, खुश भी बहुत थे। लेकिन दूसरे पंछियों के मिलन का खेल देखते हुए खुश थे। स्वयं समीप नहीं आये। ऐसा दृश्य देख ब्रह्मा बाप मुस्कराते हुए ताली बजाए उन पंछियों को बुलाने लगे- ‘‘आओ बच्चे, आओ बच्चे,'' कहकर बहुत मीठा बुलावा कर रहे थे। फिर भी पंछी नहीं आये। पंख भी थे। पंख हिला भी रहे थे लेकिन अपने ही पाँव से डाली को ऐसा मजबूत पकड़े हुए थे जो उड़कर समीप नहीं आ सकते थे। फिर क्या हुआ? चाहते हुए भी उड़ नहीं पाये। ‘‘बाबा-बाबा'' कहकर बड़े प्यार से बुलाने लगे, बोलने लगे, क्या बोला होगा? ‘‘उडाओ, उड़ाओ'' बोलने लगे। वा ‘‘छुड़ाओ-छुड़ाओ, ‘बोलने लगे। बापदादा बोले- ‘‘छुड़ाओ-छुड़ाओ नहीं, लेकिन छोड़ो तो छूटो।'' लेकिन वे पंछी इतने कोई चतुर थे, कोई कमजोर थे जो डाली को भी छोड़ने नहीं चाहते और बाप का साथ भी लेना चाहते थे। दोनों बातें साथ चाहते थे, यह थे चतुर पंछी। और कमजोर व भोले पंछी छोड़ने चाहते, लेकिन युक्ति नहीं आती मुक्ति पाने की। और भोले पंछी तो अपने भोलेपन में यह भी नहीं समझते कि यह छोड़ना भी है। तो ऐसे पंछियों को देख बापदादा बार-बार उन्हों को यही बोले-’’छोड़ो तो छूटो''। लेकिन वे अपनी बोली बोलते रहे। बापदादा युक्ति भी बताते लेकिन थोड़ा-सा डाली का साथ छोड़ते हुए फिर पकड़ लें। इसलिए बुलाते रहे, बोलते रहे लेकिन उड़ता पंछी बन बाप के साथ समीप मिलन का अनुभव और विश्व-परिक्रमा अर्थात् बेहद की सेवा की परिक्रमा का अनुभव कर नहीं सकते।

अभी आप हरेक अपने से पूछो कि मैं कहाँ था? डाली पर वा बाप के कंधे पर? वा अगुंली पर नाच रहे थे? वा आसपास घूम रहे थे? अपने आपको तो जानते हो ना? अपने आप से पूछो-’ ‘छोड़ो तो छूटो'', यह पाठ कितना पक्का किया है? ‘‘छोड़ो तो छूटो''- यह पाठ सदा याद है? वा दूसरा छोड़े तो मैं छूटूँ? वा बाप छुड़ाये तो मैं छूटूँ? ऐसा पाठ तो नहीं पढ़ लेते हो? किसी भी प्रकार की ड़ाली को अपने बुद्धि रूपी पाँव से पकड़ के तो नहीं बैठे हो? किसी भी पुराने स्वभाव-संस्कार वा किसी भी शक्ति की कमी होने कारण, निर्बल होने कारण डाली पर ही तो नहीं बैठ गये हो? हर बात में ‘‘छोड़ो तो छूटों'', यह प्रैक्टिकल में लाते हो? यही पाठ ब्रह्मा बाप को नम्बरवन ले गया। शुरू से छोड़ा तो छूट गया ना! यह नहीं सोचा कि- साथी मुझे छोड़ें तो छूटूँ, सम्बन्धी छोड़ें तो छूटूँ। विघ्न डालने वाले विघ्न डालने से छोड़ें तो छूटूँ। भिन्न-भिन्न परिस्थितियाँ मुझे छोड़ें तो छुटूँ। यह कभी सोचा? सदा स्वयं को यही पाठ पक्का प्रैक्टिकल में दिखाया वैसे फालो फादर किया है? इसको कहा जाता है- जो ओटे सो अर्जुन। तो अर्जुन बन गया ना! अर्थात् बाप के अति समीप, समान, कम्बाइन्ड बन गये। जो आप सभी भी बापदादा कम्बाइन्ड बोलते हो ना? तो ऐसे बने हो? वा कभी कैसे, कभी कैसे? जैसे यह बिजली कर रही है। (बिजली बार-बार आती और जाती थी) तो कभी छोड़ो तो छूटो, कभी दूसरा छोड़े तो छूटो, यह खेल तो नहीं खेलते हो? यह बिजली का भी खेल है ना? कभी आना, कभी जाना यह भी खेल हुआ। तो ऐसा खेल तो नहीं करते हो? सदा अच्छा लगता है या आना-जाना अच्छा लगता है? तो हर बात में चाहे स्वभाव परिवर्तन में, संस्कार परिवर्तन में, एक दो के सम्पर्क में आने में, परिस्थितियों या विघ्नों को पार करने में, क्या पाठ पक्का करना है? ‘‘स्वयं छोड़ो तो छूटो''। परिस्थिति आपको नहीं छोड़ेगी, आप छोड़ो तो छूटो। दूसरी आत्मायें संस्कार के टकराव में भी आती हैं। तो भी यही सोचो कि मैं छोडूं तो छूटूँ, यह टकराव छोड़ें तो छूटूँ, यह नहीं। अगर यह छोड़ें तो छूटूँ होगा तो टकराव समाप्त होकर फिर दूसरा शुरू हो जायेगा। कहाँ तक इन्तजार करते रहेंगे कि यह छोड़े तो छूटूँ! यह माया के विघ्न वा पढ़ाई में पेपर तो समय प्रति समय भिन्न भिन्न रूपों से आने ही हैं। तो पास होन के लिए- मैं पढूं ते पास हूँ या टीचर पेपर हल्का करे तो पास हूँ? क्या करना पड़ता है? मैं पढूं तो पास हूँ, यही ठीक है ना! ऐसे ही यहाँ भी सब बातों को- मैं स्वयं पास कर जाऊं। फलाना व्यक्ति पास करे- यह नहीं। फलानी परिस्थिति पास करे-यह नहीं। मुझे पास करना है।इसको कहा जाता है- ‘‘छोड़ो तो छूटो।'' इन्तजार नहीं करो, इन्तजाम करो। नहीं तो पंछी भी हो, पंख भी हैं और सुन्दर भी बहुत हो, बाप के वृक्ष पर भी बैठ गये हो अर्थात् ब्राह्मण परिवार के भी बन गये हो लेकिन किसी भी प्रकार के स्व के संस्कार वा स्वभाव, वा दूसरों के स्वभाव और संस्कार देखने और वर्णन करने की कमजोरी है, पुरूषार्थ में निराधार नहीं, आधार है, किसी भी व्यक्ति या वस्तु का लगाव है, किसी भी गुण वा शक्ति की कमी है- यह हैं भिन्न-भिन्न डालियाँ। तो इन डालियों में से किसी डाली को पकड़ के तो नहीं बैठे हो? अगर किसी भी डाली को पकड़ा हुआ है तो बाप के सदा अगुंली पर नाचने अर्थात् सदा श्रीमत की अंगुली के आधार पर चलने, ऐसा समीप का अनुभव नहीं कर सकेंगे। वा सदा बाप के हर कर्त्तव्य में सहयोगी अर्थात् कन्धे पर नाच नहीं सकेंगे। एक हैं सदा सहयोगी और दूसरे हैं कभी सहयोगी, कभी वियोगी। क्यों? क्योंकि किसी न किसी डाली को पकड़ लेते हैं तो सहयोगी के बजाए वियोगी बन जाते हैं। अब अपने आप से पूछो- मैं कौन? समझा! तो आज का पाठ क्या पक्का किया? ‘‘छोड़ो तो छूटो?'' पक्का किया ना! डाली को तो नहीं पकड़ेंगे ना! थक जाते हैं ना तो ड़ाली को पकड़कर बैठ जाते हैं। कभी स्वयं से थक जाते हैं, कभी दूसरों से थक जाते हैं, कभी सेवा से थक जाते हैं। तो डाली को पकड़ कर फिर चिल्लाते हैं ‘‘अब छुड़ाओ अब छुड़ाओ।'' पकड़ा खुद ओर छुड़ावे बाप। यह क्यों? इसीलिए बाप सदा छोड़ने की युक्ति बताते। छोड़ेंगे तो खुद ना! करेंगे तो पायेंगे। यह भी बाप करेंगे तो पायेंगे कौन? करें बाप और पायें आप? इसलिये बाप करावनहार बन निमित्त आपको बनाते हैं। तो महाराष्ट्र और राजस्थान में पंछी तो सब सुन्दर हो ना?

बाम्बे में सुन्दर पंछी होते हैं ना! और राजस्थान में भी! हो तो बाप के सभी सुन्दर पंछी, पंखों वाले पंछी। लेकिन डाली वाले पंछी हैं वा उड़ने वाले हैं- यह चैक करो। कइयों की आदत भी होती है, कितना भी उड़ावें फिर जाकर बैठ जायेंगे। किसी भी बात में वशीभूत होना अर्थात् डाली को पाँव से पकड़ना, वशीकरण मंत्र भूल जाते तो वशीभूत हो जाते। तो महाराष्ट्र के पंछी कौन हैं? उड़ते पंछी। सारा महाराष्ट्र का ग्रुप कौन से पंछी हैं? उड़ते पंछी हैं वा डाली वाले हैं? और राजस्थान से कौन से पंछी आए हैं?

‘‘छोड़ो तो छूटो'' या ‘‘छोड़ दिया है और छूट गये हैं।'' थक जाते हैं तो डाली को पकड़ लेते हैं। राजस्थान के पंछी तो बहुत सुन्दर प्रसिद्ध हैं। नाचने वाले पंछी हैं ना! किसके वश तो नहीं होते ना! चक्कर लगाने वाले पंछी अर्थात् सोचते बहुत हैं- यह करेंगे, यह करके दिखायेंगे, लेकिन फिरते रहते हैं आस पास, उड़ते नहीं हैं। ऐसे भी बहुत हैं- ‘‘करेंगे-करेंगे, होगा, दिखायेंगे सोचेंगे...।''

गें-गें करने वाले हैं। यह है आस पास चक्कर लगाने वाले। तो कौन सा ग्रुप लाई हो? बाम्बे से कौन लाई हो? राजस्थान से कौन सा लाई हो? सुन्दर तो सभी हैं क्योंकि बाप के बन गये। ब्राह्मण बनना अर्थात् रंग लग गया। रंग तो आ गया और पंख् भी आ गये। बाकी है ‘‘छोड़ो तो छूटो।'' अच्छा। तो आज रमणीक बच्चे आये हैं ना! तो बापदादा ने भी वतन की रमणीक बातें सुनाई। अच्छा! ऐसे सदा बाप समान, उड़ते पंछी, सदा बेहद के सेवा की सदा परिक्रमा लगाने वाले, सदा सर्व डालियों के बंधन से मुक्त, जब चाहें उड़ जाए, ऐसे सदा स्वतन्त्र पंछी, सदा बाप के अंगुली पर नाचने वाले अर्थात् श्रीमत के आधार पर सदा श्रेष्ठ संकल्प, बोल और कर्म करने वाले ऐसे श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ अव्यक्त बापदादा की मधुर मुलाकात (राजस्थान और महाराष्ट्र जोन)।

1. सच्ची सीता वह, जिसकी नस-नस में राम के स्मृति का आवाज हो- अपने को सच्ची सीता समझते हो? सच्ची सीता अर्थात् हर कदम श्रीमत की लकीर के अन्दर। तो सदा लकीर के अन्दर रहते हो ना? राम एक है, बाकी सब सीतायें हों। सीता को लकीर के अन्दर ही बैठना है। सदा बाप की याद, सदा बाप की श्रीमत- ऐसी लकीर के अन्दर रहने वाली सच्ची सीता। एक कदम भी बिना श्रीमत के नहीं। जैसे ट्रेन को पटरी पर खड़ा कर देते हैं तो आटोमेटिकली रास्ते पर चलती रहती है, ऐसे ही रोज अमृततवेले याद की लकीर पर खड़े हो जाओ। अमृतवेला है फाउन्डेशन। अमृतवेला ठीक है तो सारा दिन ठीक हो जायेगा। प्रवृत्ति में रहने वालों का विशेष अमृतवेले का फाउन्डेशन पक्का होना चाहिए तो सारा दिन स्वत: सहयोग मिलता रहेगा। लौकिक प्रवृत्ति में रहते भी सदा एक बाप की सच्ची सीता बनकर रहो। सीता को सदा राम ही याद रहे। नस-नस में राम के स्मृति की आवाज हो- ऐसी सच्ची सीताएं हो ना! इसी को कहा जाता है न्यारा और प्यारा। जितना न्यारे उतना बाप के प्यारे।

2. हर कदम में पदमों की कमाई का साधन-अपने को विशेष आत्मा समझकर चलो

सदा हर कदम में पदमों की कमाई जमा करने का साधन है। हर कदम में अपने को विशेष आत्मा समझो-तो जैसी स्मृति होगी वैसी स्थिति स्वत: हो जायेगी। कर्म भी विशेष हो जायेंगे। तो सदा यह स्मृति रहे कि मैं विशेष आत्मा हूँ क्योंकि बाप ने अपना बना लिया। इससे बड़ी विशेषता और क्या हो सकती है? भगवान के बच्चे बन जाना, यह सबसे बड़ी विशेषता है। सदा इसी स्मृति में रहना अर्थात् पदमों की कमाई जमा करना। किसके बने और क्या बने हैं यह भी याद रखो तो कमाई होती रहेगी।

विश्व के आत्माओं की निगाह आपके ऊपर है, इतनी ऊंचे ते ऊंची आत्माएं हो, तो सदा हर पार्ट बजाते, उठते-बैठते, चलते-फिरते इस स्मृति में रहो कि हम स्टेज पर पार्ट बजा रहे हैं। यह ब्राह्मण जीवन है ही आदि से अन्त तक स्टेज के ऊपर पार्ट बजाने वाले। जब सदा यह स्मृति रहेगी कि मैं बेहद विश्व की स्टेज पर हूँ तो स्वत: हर कर्म के ऊपर अटेन्शन रहेगा। इतना अटेन्शन रखकर कर्म करेंगे तो कमाई जमा होती रहेगी।

3. समीप आत्माओं की निशानी- सदा बाप के समान

सदा अपने को बाप के समीप आत्मा समझते हो? समीप आत्माओं की निशानी क्या होती है? सदा बाप के समान। जो बाप के गुण वह बच्चों के गुण। जो बाप का कर्त्तव्य वह सदा बच्चों का कर्त्तव्य। हर संकल्प और कर्म में बाप समान, इसको कहते हैं समीप आत्मा। जो समीप स्थिति वाले हैं वे सदा विघ्न-विनाशक होंगे। किसी भी प्रकार के विघ्न के वशीभूत नहीं होंगे। अगर विघ्न के वशीभूत हो गये तो विघ्न-विनाशक नहीं कह सकते। किसी भी प्रकार के विघ्न को पार करने वाला, इसको कहा जाता है विघ्नविनाशक। तो कभी किसी भी प्रकार के विघ्न को देखकर घबराते तो नहीं हो? क्या और कैसे का क्वेश्चन तो नहीं उठता है। अनेक बार के विजयी हैं- यह स्मृति रहे तो विघ्न-विनाशक हो जायेंगे। अनेक बार की हुई बात रिपीट कर रहे हो, ऐसे सहजयोगी। इस निश्चय में रहने वाली विघ्न-विनाशक आत्माँ स्वत: और सहजयोगी होंगी।

4. संगमयुग है समर्थ युग, इससे व्यर्थ को समाप्त कर समर्थ बनो

सदा अपने को समर्थ आत्माएं समझकर चलते हो? जब सर्वशक्तिवान की स्मृति है तो स्वत: समर्थ हो। समर्थ आत्मा की निशानी क्या होगी? जहाँ समर्था है वहाँ व्यर्थ सदा के लिए समाप्त हो जाता है। समर्थ आत्मा अर्थात् व्यर्थ से किनारा करने वाले। संकल्प में भी व्यर्थ नहीं। ऐसे समर्थ बाप के बच्चे सदा समर्थ। आधा कल्प तो व्यर्थ सोचा, व्यर्थ किया-अब संगमयुग है समर्थ युग। समर्थ युग, समर्थ बाप और समर्थ आत्माएं। तो व्यर्थ समाप्त हो गया ना! सदा यह स्मृति मे रखो कि हम समर्थ युग के वासी, समर्थ बाप के बच्चे, समर्थ आत्मा हैं। जैसा समय, जैसा बाप वैसे बच्चे। कलियुग है व्यर्थ। जब कलियुग का किनारा कर चुके,संगमयुगी बन गये तो व्यर्थ से किनारा हो ही गया। तो सिर्फ समय की याद रहे तो समय के प्रमाण स्वत: कर्म चलेंगे। अच्छा-ओम् शान्ति। गये तो व्यर्थ से किनारा हो ही गया। तो सिर्फ समय की याद रहे तो समय के प्रमाण स्वत: कर्म चलेंगे।

अच्छा-ओम् शान्ति।



23-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"त्याग का भी त्याग"

सदा सहयोगी, आज्ञाकारी सपूत बच्चों प्रति अव्यक्त बापदादा बोले:-

''आज बापदादा किससे मिलने आये हैं? जानते हो? आज अनेक भुजाधारी बाप अपनी भुजाओं से अर्थात् सदा सहयोगी बच्चों से मिलने आये हैं। कितनी विशेष सहयोगी आत्मायें बाप की राइट हैण्ड बन हर कार्य में सदा एवररेडी हैं। बापदादा ने डायरेक्शन का इशारा दिया, और राइट हैण्ड अर्थात् विशेष भुजायें अर्थात् आज्ञाकारी बच्चे सदा कहते-’’हाँ बाबा, हम सदा तैयार हैं।'' बाप कहते- ‘‘हे बच्चे।'' बच्चे कहते- ‘‘हाँ बाबा।'' ऐसी विशेष भुजाओं को बाप देख रहे हैं। चारों ओर की विशेष भुजाओं द्वारा यही आवाज बच्चों का सुन रहे हैं। ‘‘हाँ जी बाबा, अभी बाबा, हाजर बाबा।'' ऐसे बच्चों के मधुर आलाप बापदादा के पास पहुँच रहे हैं। बाप भी ऐसे बच्चों को सदा, ‘‘मुरबी बच्चे, सपूत बच्चे, विश्व के श्रृंगार बच्चे, मास्टर भाग्य विधाता, मास्टर वरदाता बच्चे'' कहकर बुलाते हैं।

आज बापदादा ऐसे बच्चों के नाम गिन रहे थे। बताओ कितनी माला बनाई होगी? छोटी माला वा बड़ी माला? और उस माला में आप सबका नम्बर कहाँ होगा? लास्ट के रिजल्ट माला की नहीं कह रहे हैं। वर्तमान समय ऐसे राइट हैण्डस कितने हैं? वह माला बना रहे हैं। वर्तमान का नम्बर तो सहज लगा सकते हो ना? माला के नम्बर गिनती करते-करते ब्रह्मा बाप ने एक विशेष बात बोली, क्या बोला होगा? आज विशेष विषय, राइटहैण्ड अर्थात् सहयोग का था। इसी सहयोग की विषय पर आज प्रवृत्ति में रहते, प्रवृत्ति की वृत्ति से परे रहने वाले, व्यवहार में रहते अलौकिक व्यवहार का सदा ध्यान रखने वाले ऐसे न्यारे और बाप के प्यारे विशेष बच्चों की विशेषता देख रहे थे। वायुमण्डल की अग्नि के सेक से भी परे। ऐसे अग्नि प्रूफ बच्चे बापदादा ने देखे। आज ऐसे डबल पार्टधारी, लौकिक में अलौकिकता का पार्ट बजाने वाले बच्चों की महिमा कर रहे थे।

डबल पार्टधारियों की एक यह विशेषता वर्णन हुई-कि कई ऐसे अनासक्त बच्चे भी हैं, जो कमाते हैं, सुख के साधन जितने जुटाने चाहें इतना जुटा सकते हैं लेकिन साधारण खाते,साधारण चलते, साधारण रहते हैं। पहले अलौकिक सेवा का विशेष हिस्सा निकालते हैं। लौकिक कार्य, लौकिक प्रवृत्ति, लौकिक सम्बन्ध, सम्पर्क निभाते भी हैं लेकिन अपनी विशाल बुद्धि के कारण नाराज भी नहीं करते और ईश्वरीय कमाई के जमा का राज जानते हुए विशेष हिस्सा राजयुक्त हो निकाल भी लेते। इस विशेषता में गोपिकायें भी कम नहीं। ऐसी-ऐसी गुप्त गोपिकायें भी हैं, जो लौकिक में हाफ पार्टनर कहलाती हैं लेकिन बाप के साथ सौदा करने में फुल पार्टनर हैं। ऐसी सच्ची दिल वाली फराखदिल गोपिकायें भी हैं तो पाण्डव भी हैं। सुनाया ना-आज ऐसे बच्चों के नाम गिन रहे थे। ऐसे भी एकनामी कर अलौकिक कार्य में फराखदिल से लगाते हैं। अपने आराम का समय भी, अपने आराम के लिए नहीं, धन का हिस्सा होते हुए भी 75 अलौकिक कार्य में लगाते हैं और निमित्त मात्र लौकिक कार्य को निभाते हैं। ऐसे त्यागवान बच्चे सदा अविनाशी भाग्यवान हैं। लेकिन ऐसे युक्तियुक्त पार्ट बजाने वाले ज्यादा संख्या में नहीं थे। अगुंलियों पर गिनने वाले थे। फिर भी डबल पार्टधारी ऐसी विशेष आत्माओं की महिमा जरूर वर्णन हुई।

दूसरे नम्बर के बच्चे भी थे- जो करते भी हैं लेकिन सेकण्ड नम्बर बन जात हैं। इसी गुप्त दान-महादान, गुप्त महादानी की विशेषता है- त्याग के भी त्यागी। जो श्रेष्ठ कर्म का फल प्राप्त होता है वह प्रत्यक्षफल है- सर्व द्वारा महिमा होना। सेवाधारी को श्रेष्ठ गायन की सीट मिलती है- मान, मर्तबे की सीट मिलती है, यह सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है। क्योंकि यह सिद्धियाँ रास्ते की चट्टियाँ हैं, यह फाइनल मंजिल नहीं है, इसलिए इसके त्यागवान, भाग्यवान बनो। इसको कहा जाता है- महात्यागी।

अभी-अभी किया, अभी-अभी खाया, जमा नहीं होता। यह अल्पकाल की सिद्धियाँ कर्म के प्रत्यक्षफल के रूप में प्राप्त जरूर होंगी क्योंकि संगमयुग प्रत्यक्षफल देने वाला युग है। भविष्य तो अनादि नियम प्रमाण मिलना ही है लेकिन संगमयुग वरदान युग है। अभी- अभी किया, अभी-अभी मिला। लेकिन अभी-अभी खाया, यह नहीं करना। यह प्रसाद समझकर बाँट लो या बाप के आगे भोग लगा दो। तो एक का पदमगुणा जमा हो जायेगा। तो सौगा करने में होशियार बनो, भोले नहीं बनो। सुना-यह हैं सेकेण्ड नम्बर। अच्छा तीसरा नम्बर भी सुनेंगे? तीसरा नम्बर- सेवा में सहयोगी कम बनते हैं लेकिन सीट पहले जैसी लेनी चाहते हैं। सर्व खज़ाने स्वयं के आराम प्रति ज्यादा लगाते हैं।

पहला नम्बर एकनामी और एकानामी वाले, दूसरा नम्बर कमाया और खाया। और तीसरा नम्बर कमाई कम और खाना ज्यादा। औरों की भी कमाई को खाने वाले। वह हैं- लाओ और खाओ। श्रेष्ठ आत्माओं के भाग्य का हिस्सा, त्यागवान बच्चों कें प्रत्यक्ष- फल, सर्व प्राप्तियों को त्यागवान त्याग करते लेकिन तीसरे नम्बर वाले उन्हों के हिस्से का भी स्वयं स्वीकार कर लेते हैं। कमाने वाले नहीं सिर्फ खाने वाले। इस कारण नम्बरवन बच्चे बोझ उतारने वाले और वह बोझ चढ़ाने वाले क्योंकि अपनी मेहनत की कमाई नहीं खाते। ऐसी खाती-पीती आत्मायें भी देखीं।

अभी सुना तीन नम्बर? अभी सोचा मैं कौन? अच्छा, फिर भी आज की रूह-रूहान में प्रवृत्ति में रहकर एकनामी और एकनामी वाले बच्चों की बार-बार महिमा गाई। अच्छा!

ऐसे सदा हाँ बाबा, हाजर बाबा कहने वाले, सदा स्वयं त्याग का भी त्याग कर औरों को भाग्यवान बनाने वाले, सदा बापदादा से श्रेष्ठ सौदा करने वाले, सदा सेवा में सर्व खज़ानें लगाने वाले, ऐसे गुप्त दानी महाभागी आत्माओं को बापदादा का याद प्यार और नमस्ते।''

राजस्थान (जयपुर) ग्रुप को सेवा की वृद्धि का विशेष इशारा तथा प्लैन

राजस्थान वाले भी राजगद्दी के स्थान वाले हो। तो राजगद्दी के स्थान पर क्या-क्या कर रहे हो? इस सारे साल के अन्दर क्या-क्या नवीनता की है? महातीर्थ कराने के लिए यात्रियों की पार्टियाँ लाई? लौकिक यात्रा पर भी संगठन बनाकर ले जाते हैं, पूरी ट्रेन की ट्रेन ले जाते हैं, तो राजगद्दी वालों ने इस महातीर्थ की यात्रा कितनों को कराई? राजस्थान की राजगद्दी वालों ने मुख्य स्थान (हैड-क्वार्टर) पर कितनों को लेकर आये? बस भरकर लाये? या राजस्थान में यात्री हैं ही नहीं, क्या समझते हो? यात्री नहीं है या पण्डे तैयार नहीं हैं? अगर इतने सब पण्डे हों तो यात्री कितने होने चाहिए? तो यात्रियों को लायेंगे या खुद को ही लायेंगे। इस साल प्रोग्राम बनायेंगे या दूसरे साल? अच्छा, कोई नया प्लैन बनाया है? जैसे जयपुर का इन्टरनेशनल स्थान है तो कम से कम यह विशेषता जरूर करो जो अब तक कोई ने नहीं की हो! मेन स्थान पर बहुत अच्छा सुन्दर बड़ा बोर्ड लगाओ। यह तो कर सकते हो ना? बोर्ड ऐसा आकर्षण वाला हो जो चलते फिरते सबकी नजर जाए। उसकी सजावट और मैटर ऐसा हो जो न चाहते भी सब उसे देखें जरूर। और मैटर भी ऐसा बनाओ जो सब पढ़ कर समझें यह करना चाहिए, यहाँ जाना चाहिए। ऐसे चलते फिरते सन्देश मिलता रहे, एड्रेस हो और वहाँ का विशेष निमन्त्रण भी हो। ऐसा कम शब्दों में आकर्षण वाला मैटर भी बनाओ और बोर्ड की सजा- वट का प्लैन निकालो जिससे अनेकों को सन्देश मिलता रहेगा। ऐसे मुख्य स्थान पर खर्चा हो तो भी कोई हर्जा नहीं। तो अभी यह करके दिखाओ। कोई नई इन्वेंशन हो जो न चाहते हुए भी सबको चमकता हुआ नजर आता रहे। ऐसा कोई प्लैन बनाओ, एड्रेस, फोन नम्बर सब लिखा हुआ हो, निमन्त्रण भी हो। तो कोई न कोई विशेष आत्मा जाग जायेगी। जहाँ मेन सबका आना जाना है, नजर जाने वाली है, ऐसे स्थान पर कुछ करो लेकिन ऐसा आकर्षण वाला हो जो देखने के बिना कोई भी रह न सके। अच्छा, दूसरा क्या करेंगे? किसी न किसी विशेष आत्मा को हर मास यात्रा जरूर करानी है। ऐसा लक्ष्य रखो। बस भराकर न आओ लेकिन एक दो को तो ले आ सकते हो ना! एक विशेष ऐसी आत्मा लाओ जो अनेकों को सन्देश सुनाने के निमित्त बन जाए। साधन तो सब हैं सिर्फ करने वाले करें तो सहज हो। एक बार सम्पर्क करके छोड़ नहीं देना है, बार-बार सम्पर्क रखते रहो। ऐसे सम्पर्क वाले फिर कहना न मानें यह होता नहीं है। तो क्या करेंगे? सदैव सोचो-कि मुझे करना है। दूसरे को नहीं देखो। इनमें जो ओटे सो अर्जुन। मुझे देख और करेंगे...तो फिर क्या हो जायेगा? हरेक यह पाठ पढ़ ले कि मुझे करना है तो सब करने लग जायेंगे। इसमें दूसरों को न देख स्वयं को मैदान में लाओ। अच्छा, स्व में तो ठीक हो लेकिन सेवा में भी नम्बरवन। सेवा में भी फुल मार्क्स लेनी हैं। अच्छा!

टीचर्स के साथ- टीचर्स को डबल चांस मिला है। डबल इसीलिए मिल रहा है कि अनेंकों को बाटेंगी। क्योंकि शिक्षक अर्थात् सदा औरों की सेवा के लिए जीने वाली। शिक्षक की जीवन सदा औरों को सिखाने के लिए होती है। स्व के प्रति नहीं लेकिन सेवा के प्रति। जब मास्टर शिक्षक वा सच्चेधारी यह लक्ष्य रखते हैं कि हमारा हर सैकण्ड और हर संकल्प दूसरों को पढ़ाने के लिए है तो ऐसा मास्टर शिक्षक वा सेवाधारी सदा सफलता मूर्त्त होते हैं। जीना ही सेवा है, चलना ही सेवा है, बोलना, सोचना अब सेवा के लिए। हर नस-नस में सेवा का उमंग और उत्साह भरा हुआ हो। जैसे नसों में खून चलता है तो जीवन है। ऐसे सेवाधारी अर्थात् हर नस यानी हर संकल्प, हर सैकण्ड में सेवा के उमंग-उत्साह का खून भरा हुआ हो। ऐसे ही सेवाधारी हो ना? गुडनाइट करें तो भी सेवा, गुड मा\नग करें तो भी सेवा। उसमें स्व की सेवा स्वत: समाई हुई है। तो इसको कहा जाता है- सच्चे सेवाधारी। सेवाधारी के स्वप्न भी कौन से होंगे? सेवा के। स्वप्न में भी सेवा करते रहेंगे। ऐसे ही हो ना?

सेवाधारियों को लिफ्ट भी बहुत बड़ी है। अनेक दुनिया के बन्धनों से मुक्त हो। यहाँ ही जीवनमुक्त स्थिति की प्राप्ति है। सेवाधारी का अर्थ ही है - बन्धनमुक्त, जीवनमुक्त। कितने हद की जिम्मेवारियों से छूटे हुए हो। और अलौकिक जिम्मेवारी भी बाप की है, इससे भी छूटे हुए हो। सिर्फ सेवा किया-आगे चलो। जिम्मेवारी का बोझ नहीं है। क्या किसी के ऊपर कोई बोझ है? सेन्टर का बोझ है क्या? सेन्टर को चलाने का बोझ नहीं है, यह फिकर नहीं रहता है कि जिज्ञासू कैसे आवें (रहता है) तो बोझ हुआ ना!

सफलता भी तब होगी जब यह समझो कि मैं बढ़ाने वाली नहीं हूँ लेकिन बाप की याद से स्वत: बढ़ेगी। मैं बढ़ाने वाली हूँ, तो बढ़ नहीं सकती। बाप को बोझ दे देंगे तो बढ़ती रहेगी। इसलिए इससे भी निश्फुरने रहना। जितना स्वयं हल्के होगे उतना सेवा और स्वयं सदा ऊपर चढ़ती रहेंगी अर्थात् उन्नति को पाती रहेंगी। जब मै-पन आता है तो बोझ हो जाता है और नीचे आ जाते हो। इसलिए इस बोझ से भी निश्चिन्त। सिर्फ याद के नशे में सदा रहो। बाप के साथ कम्बाइन्ड सदा रहो तो जहाँ बाप कम्बाइन्ड हो गया वहाँ सेवा क्या है? स्वत: हुई पड़ी है। अनुभवी हो ना?

तो शिक्षक अर्थात् सेवाधारी को यह भी लिफ्ट हो गई ना! याद में रहो और उड़ते रहो। सेवा तो निमित्त हैं। करावनहार करा रहा है तो हल्के भी रहेंगे और सफलतामूर्त्त भी रहेंगे। क्योंकि जहाँ बाप है वहाँ सफलता है ही। अच्छा!

बापदादा अपनी हमजिन्स को देखकर खुश होते हैं। मास्टर भाग्यविधाता हो। भाग्यविधाता को याद कर अनेंको के भाग्य के तकदीर की लकीर खींचने वाले हो। सन्तुष्ट तो सदा हो ही। पूछने की जरूरत है क्या? मास्टर शिक्षक से पूछना यह भी इनसल्ट हो जायेगी ना! सदा सन्तुष्ट हो और सदा रहेंगी।

अच्छा, महाराष्ट्र और राजस्थान का मेला पूरा हुआ? यह दिन भी ड्रामा में लिपटता जा रहा है। फिर कब आयेगा? हर घड़ी का, हर सैकण्ड का अपना-अपना महत्व है। संगमयुग है ही महत्व का युग। महान बनने का युग और महान बनाने का युग। इसलिए संगम के हर सैकण्ड का महत्व है। संगम पर शिक्ष्क अर्थात् सेवाधारी बनने का भी महत्व है, प्रवृत्ति में रहकर न्यारे रहने का भी महत्व है। गोपिकायें बनने का भी महत्व है, पाण्डव बनने का भी महत्व है। सबका अपना-अपना महत्व है। लेकिन निमित्त शिक्षक को चांस बहुत अच्छा है। तो सभी चांस लेने वाली हो ना!

अच्छा-ओम् शान्ति।



26-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"सहयोगी ही सहजयोगी"

राजऋषि, सहयोगी, सहजयोगी बच्चों के प्रति अव्यक्त बापदादा बोले-

‘‘आज बापदादा अपने स्वराज्य-अधिकारी, राजऋषि भविष्य में राज्य-वंशी बच्चों को देख रहे हैं। सभी सहजयोगी अर्थात् राज- ऋषि हो। बापदादा सभी बच्चों को वर्तमान वरदानी समय पर विशेष वरदान कौन-सा देते हैं? सहजयोगी भव! यह वरदान अनुभव करते हो? योगी तो बहुत बनते हैं लेकिन सहजयोगी सिर्फ संगमयुगी आप श्रेष्ठ आत्मायें बनती हो। क्योंकि वरदाता बाप का वरदान है। ब्राह्मण बने अर्थात् इस वरदान के वरदानी बने। सबसे पहला जन्म का वरदान यही सहजयोगी भव का वरदान है। तो अपने आप से पूछो- वरदानी बाप, वरदानी समय और आप भी वरदान लेने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो। इस वरदान को सदा बुद्धि में याद रखना-यह है वरदान को जीवन में लाना। तो ऐसे वरदान को सदा प्राप्त की हुई आत्मा, प्राप्ति स्वरूप आत्मा समझते हो? वा मेहनत भी करनी पड़ती है? सदा वरदानी आत्मा हो? इस वरदान को सदा कायम रखने की विधि जानते हो? सबसे सहज विधि कौन-सी है? जानते हो ना? सदा सर्व के और सेवा में सहयोगी बनो। तो सहयोगी ही सहज योगी हैं। कई ब्राह्मण आत्मायें सहज योग का अनुभव सदा नहीं कर पाती। योग कैसे लगायें? कहाँ लगायें? इसी क्वेश्चन में अब तक भी हैं। सहज योग में क्वेश्चन नहीं होता हैं। साथ-साथ वरदान है, वरदान में मेहनत नहीं होती है। और सहज, सदा स्वत: ही रहता है अर्थात् सहज योगी वरदानी आत्मा स्वत: निरन्तर योगी होती है। नहीं रहते इनका कारण? प्राप्त हुए वरदान को वा ब्राह्मण जन्म के इस अलौकिक गिफ्ट को सम्भालना नहीं आता। स्मृति द्वारा समर्था रखने में अलबेले बन जाते हो। नहीं तो ब्राह्मण और सहज योगी न हों तो ब्राह्मण जीवन की विशेषता ही क्या रही। वरदानी होते भी सहज योगी नहीं तो और कब बनेंगे? यह नशा और निश्चय सदा याद रखो- यह हमारा जन्म का वरदान है। इसी वरदान को सर्व आत्माओं के प्रति सेवा में लगाओ। सेवा में सहयोगी बनना- यही विधी है सहजयोगी की। अमृतवेले से लेकर सहयोगी बनो। सारे दिन की दिनचर्या का मूल लक्ष्य एक शब्द रखो कि सहयोग देना है। सहयोगी बनना है। अमृतवेले बाप से मिलन मना कर बाप समान मास्टर बीजरूप बन, मास्टर विश्व-कल्याणकारी बन सर्व आत्माओं को अपनी प्राप्त हुई शक्तियों के द्वारा आत्माओं की वृत्ति और वायुमण्डल परिवर्तन करने के लिए सहयोगी बनो। बीज द्वारा सारे वृक्ष को रूहानी जल देने के सहयोगी बनो। जिससे सर्व आत्माओं रूपी पत्तों को प्राप्ति के पानी मिलने का अनुभव हो। ऐसे अमृतवेले से लेकर जो भी सारे दिन में कार्य करते हो, हर कार्य का लक्ष्य- ‘‘सहयोग देना'' हो। चाहे व्यवहार के कार्य में जाते हो, प्रवृत्ति को चलाने के कार्य में रहते हो। लेकिन सदा यह चैक करो- लौकिक व्यवहार में भी स्व प्रति वा साथियों के प्रति शुभ भावना और कामना से वायुमण्डल रूहानी बनाने का सहयोग दिया? वा ऐसे ही रिवाजी (साधारण) रीति से अपनी डियुटी बजाकर आ गये। जैसा जिसका आक्युपेशन होता है, वह जहाँ भी जायेंगे, अपने आक्युपेशन प्रमाण कार्य जरूर करेंगे। आप सबका विशेष आक्युपेशन ही है- ‘‘सहयोगी बनना''। वह कैसे भूल सकते! तो हर कार्य में सहयोगी बनना है अर्थात् सहजयोगी बन जायेंगे। कोई भी सेकण्ड सह- योगी बनने के सिवाए न हो। चाहे मंसा में सहयोगी बनो चाहे वाचा से सहयोगी बनो। चाहे सम्बन्ध सम्पर्क के द्वारा सहयोगी बनो। चाहे स्थूल कर्म द्वारा सहयोगी बनो। लेकिन सहयोगी जरूर बनना है। क्योंकि आप सभी दाता के बच्चे हो। दाता के बच्चे सदा देते रहते हैं। तो क्या देना है? ‘‘सहयोग''

स्व परिवर्तन के लिए भी स्वयं के भी सहयोगी बनो। कैसे? साक्षी बन स्व के प्रति भी सदा शुभचिन्तन की वृत्ति और रूहानी वायुमण्ड ल बनाने के लिए स्व प्रति भी सहयोगी बनो। जब प्रकृति अपने वायुमण्डल के प्रभाव में सभी को अनुभव करा सकती है- जैसे सर्दा, गमार्क प्रकृति अपना वायुमण्डल पर प्रभाव डाल देती है, ऐसे प्रकृतिजीत, सदा सहयोगी, सहज योगी आत्मायें अपने रूहानी वायुमण्डल का प्रभाव अनुभव नहीं करा सकती? सदा स्व प्रति और सर्व के प्रति सहयोग की शुभ भावना रखते हुए सहयोगी आत्मा बनो। वह ऐसा है, वा ऐसा कोई करता है, यह नहीं सोचो। कैसा भी वायुमण्डल है, व्यक्ति है- ‘‘मुझे सहयोग देना है''

ऐसे सभी ब्राह्मण आत्मायें सदा सहयोगी बन जाएं तो क्या हो जायेगा? सभी सहज योगी स्वत: हो जायेंगे क्योंकि सर्व आत्माओं का सहयोग मिलने से कमजोर भी शक्तिशाली हो जाते हैं। कमजोरी समाप्त होने से सहयोगी तो हो ही जायेंगे ना! कोई भी प्रकार की कमजोरी, मुश्किल वा मेहनत का अनुभव कराती है। शक्तिशाली हैं तो सब सहज है। तो क्या करना पड़े? सदा चाहे तन से, मन से, धन से, मंसा से, वाणी से वा कर्म से सहयोगी बनना है। अगर कोई मन से नहीं कर सकते तो तन और धन से सहयोगी बनो। मंसा, वाणी से नहीं तो कर्म से सहयोगी बनो। सम्बन्ध जुड़वाने वा सम्पर्क रखाने के सहयोगी बनो। सिर्फ सन्देश देने के सहयोगी नहीं बनो, अपने परिवर्तन से सहयोगी बनो। अपने सर्व प्राप्तियों के अनुभव सुनाने के सहयोगी बनो। अपने सदा हर्षित रहने वाली सूरत से सहयोगी बनो। किसी को गुणों के दान द्वारा सहयोगी बनो। किसी को उमंग-उत्साह बढ़ाने के सहयोगी बनो। जिसमें भी सहयोगी बन सको उसमें सहयोगी सदा बनो। यही सहज योग है। समझा क्या करना है? यह तो सहज है ना! जो है वह देना है। जो कर सकते हो वह करो। सब नहीं कर सकते हो तो एक तो कर सकते हो? जो भी एक विशेषता हो उसी विशेषता को कार्य में लगाओ अर्थात् सहयोगी बनो। यह तो कर सकते हो ना यह तो नहीं सोचते हो कि मेरे में कोई विशेषता नहीं। कोई गुण नहीं। यह हो नहीं सकता। ब्राह्मण बनने की ही बड़ी विशेषता है। बाप को जानने की बड़ी विशेषता है। इसलिए अपनी विशेषता द्वारा सदा सह- योगी बनो। अच्छा!

ऐसे सदा सहयोगी अर्थात् सहजयोगी, सदा अपने श्रेष्ठ वृत्ति द्वारा वायुमण्डल बनाने के सहयोगी आत्मा, कमजोर आत्माओं को उत्साह दिलाने की सहयोगी आत्मा, ऐसे अमृतवेले से हर समय सहयोगी बनने वाली आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ-

 1. साइलेन्स की शक्ति से दैवी स्वराज्य की स्थापना- साइलेन्स की शक्ति से सारे विश्व पर दैवी राजस्थान का फाउन्डेशन डाल रहे हो ना! वह आपस में लड़ते हैं और बाप दैवी राजस्थान बना रहे हो, क्या बनना है? यह उन्हों को क्या पता वह तो अपना-अपना प्रयत्न करते रहते हैं लेकिन भावी क्या है- उसको तो आप जानते हो? तो सभी बच्चे साइलेन्स की शक्ति से दैवी स्वराज्य बना रहे हो ना? उनकी है जबान की शक्ति, या बाहुबल, शस्त्रों की शक्ति और आपकी है- साइलेन्स की शक्ति। इसी शक्ति के द्वारा दैवी राज्य स्थापन हो ही जायेगा- यह तो अटल निश्चय है ना! वे भी समझते हैं कि वर्तमान समय कोई ईश्वरीय शक्ति चाहिए जो कार्य करे। लेकिन गुप्त होने के कारण जान नहीं सकते हैं। आप जानते हो और कर भी रहे हो। पंजाब में वृद्धि तो हो रही है ना! पंजाब भी सेवा का आदि स्थान है। तो आदि स्थान से कोई विशेष कार्य होना चाहिए। रूहानी बाप के बच्चे होने के नाते रूहानी सेवा करना हर बच्चे का कार्य है। जो बाप का कार्य वही बच्चों का कार्य। जैसे रूहानी बाप का कर्त्तव्य है- रूहानी सेवा करना ऐसे बच्चों को भी इसी कार्य में तत्पर रहना है। यह रूहानी सेवा हर सेकेण्ड में, हर कदम में प्रत्यक्ष फल प्राप्त कराती है। प्रत्यक्ष फल है खुशी। जितनी सेवा करते उतना खुशी का खज़ाना बढ़ता जाता है, एक का पदमगुणा मिलता है। ऐसे समझते हो? आपका आक्युपेशन ही है- रूहानी सेवाधारी। लौकिक में भल कोई भी पोजशन हो लेकिन अलौकिक में रूहानी सेवाधारी हो। अगर कोई डाक्टर है, तो रूहानी और जिस्मानी डबल डाक्टर बनो। वह सेवा करते भी मूल कर्त्तव्य है रूहानी डाक्टर बनना। बार-बार रोगी आये, इससे तो रोग ही खत्म हो जाए, सदा के लिए। तो ऐसी दवाई देनी चाहिए ना! रोगी आता ही है सदा शफा पाने के लिए। सदा शफा होगी रूहानी सेवा से। अच्छा! रूहानी सेवा से। अच्छा!



28-11-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"आप पूर्वजों से सर्व आत्माओं की आशाएं"

ग्रेट-ग्रेट ग्रैन्ड-फादर तथा गाड-फादर बाप दादा बोले:-

‘‘आज ग्रेट ग्रेट ग्रैन्ड फादर अपनी सारी वंशावली से मिल रहे हैं। कितनी बड़ी वंशावली है, इसको आप सब जानते हो? आप सभी इस वंशावली के आदि फाउन्डेशन हो वा वंशावली के वृक्ष के मूल तना हो। आप लोगों द्वारा वंशावली कैसे वृद्धि को पाती है, यह सब राज अच्छी तरह से जानते हो ना? किसी भी आत्मा को देखते हो वा सम्पर्क में आते हो तो यह स्मृति में आता है कि सर्व आत्माओं के हम पूर्वज हैं वा सारे वृक्ष की शाखायें, उपशाखायें, सबके मूल आधार हैं अर्थात् फाउन्डेशन हैं। यह स्मृति सदा इमर्ज रूप में रहती है? इस श्रेष्ठ स्मृति से स्वत: ही समर्थ स्वरूप हो ही जायेंगे। अगर तना अर्थात् मूल फाउन्डेशन कमजोर होता है तो सारा वृक्ष कमजोर बन जाता है। तना शक्तिशाली है तो वृक्ष भी शक्तिशाली है। सारे वृक्ष के हर पत्ते का सम्बन्ध बीज के साथसाथ तना से भी होता है। बीज की शक्ति तना द्वारा ही शाखाओं, उपशाखाओं को पहुँचती है। तो आज आपकी सर्व वंशावली को आप पूर्वजों द्वारा वा मूल आधार द्वारा कौन-सी शक्ति चाहिए? सर्व आत्मायें आप पूर्वजों का किस आशाओं से याद कर रही हैं? कौन-सी शुभ चाहना आप मास्टर दाता, वरदाताओं द्वारा चाहते हैं? सर्व आत्माओं की अर्थात् अपनी बेहद की वंशावली के शुभ संकल्प वा इच्छाओं को जानते हो?

आज सर्व आत्माओं का एक ही आवाज सुनने में आ रहा है। सबका एक ही आवाज है- दो घड़ी के लिए भी सुख और चैन से जीना चाहते हैं। बेचैन हैं। सम्पत्ति और साधन होते हुए भी सुख और चैन की नींद ऑखों में नहीं है। आजकल मैजारिटी-सच्चे सुख और शान्ति के वा सच्ची खुशी के प्यासे होने के कारण रास्ता ढूंढ़ रहे हैं। अनेक अल्पकाल के रास्ते अनुभव करते, सन्तुष्टता न मिलने के कारण अब धीरे-धीरे उन अनेक रास्तों से लौट रहे हैं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। अब नेती-नेती के अनुभव में आ रहे हैं। अभी, ‘‘सही रास्ता कुछ और है'',- ऐसी अनुभूति करने लगे हैं। ऐसे समय पर आप पूर्वजों का कार्य है- ऐसी आत्माओं को शमा बन रास्ता दिखाना। अमर ज्योति बन अंधकार से ठिकाने पर लाना। ऐसे संकल्प आते हैं? यह स्मृति रहती है कि हम पूर्वज आत्मायें सर्व वंशावली के आगे जो करेंगे वही सारे वंशावली तक पहुँचता है? आप पूर्वजों की वृत्ति विश्व के वातावरण को परिवर्त न करने वाली है। आप पूर्वजों की दृष्टि सर्व वंशावली को ब्रदरहुड की स्मृति दिलाने वाली है। आप पूर्वजों की बाप की स्मृति, सर्व वंशावली को स्मृति दिलायेगी कि हमारा बाप आया है। आप पूर्वजों के श्रेष्ठ कर्म वंशावली को श्रेष्ठ चरित्र अर्थात् चरित्र निमार्कण की शुभ आशा उत्पन्न करेंगे।

सबकी नजर आप पूर्वजों को ढूंढ रही है। अब बेहद के स्मृति स्वरूप बनो। तो हद की व्यर्थ बातें स्वत: ही समाप्त हो जायेंगी। उल्टे वृक्ष के हिसाब से बीज के साथ तना भी ऊपर ऊंचा है। डायरेक्टर बीज और मुख्य दो पत्ते, त्रिमूर्ति के साथ समीप के सम्बन्ध वाले तना हो। कितनी ऊंची स्टेज हो गई। इसी ऊंची स्टेज पर स्थित रहो तो हद की बातें क्या अनुभव होंगी! बचपन के अलबेलेपन की बातें अनुभव होंगी। अपने बेहद के बुजुर्गपन में आओ। तो सदा सर्व अनुभवीमूर्त्त हो जायेंगे। जो बेहद के पूर्वजपन का आक्युपेशन है, उसको सदा स्मृति में रखो। अब कितना कार्य रहा हुआ है? सदा यह स्मृति में रखो। लेकिन यह सारा कार्य सहज सम्पन्न कैसे होगा? जैसे आपकी रचना साइंस वाले विस्तार को सार में समा रहे हैं। अति सूक्ष्म और शक्तिशाली साधन बना रहे हैं। जिससे समय, सम्पत्ति और शस्त्र कम से कम खर्चा हो। पहले विनाश के कार्य में कितनी बड़ी सेना, कितने शस्त्र और कितना समय लगता था और अब विस्तार को सार में लाया है ना! ऐसे आप मास्टर रचयिता बन स्थापना के कार्य में ऐसे ही सूक्ष्म द्वारा निमित्त स्थूल साधन कार्य में लगाओ। नहीं तो स्थूल साधनों के विस्तार में सूक्ष्म शक्ति गुप्त हो जाती है। स्थूल साधन का विस्तार, जैसे वृक्ष का विस्तार बीज को छुपा देता है, वैसे सूक्ष्म शक्ति की परसेन्टेज गुप्त हो जाती है। आप पूर्वज आत्माओं की अलौकिकता- ‘‘सूक्ष्म शक्ति'' है। जो सब अनुभव करें कि पूर्वजों द्वारा कोई विशेष शक्ति उत्पन्न हो रही है। वंशावली आप आत्माओं द्वारा कोई नवीनता चाहती है। साधनों की शक्ति, वाणी की शक्ति यह तो सबके पास है। लेकिन अप्राप्त शक्ति कौन-सी है? वह है- श्रेष्ठ संकल्प की शक्ति, शुभ वृत्ति की शक्ति, स्नेह और सहयोग की दृष्टि।' यह किसके पास नहीं है। तो हे पूर्वज आत्मायें! अपनी वंशावली के प्राप्ति के आशाओं के दीपक जलाए यथार्थ मंजिल तक लाओ। समझा क्या करना है? जो लोग करते हैं वह किया तो क्या किया! आप तो अल्लाह-लोग हो, न्यारे लोग हो। अभी वाणी के बाम्बस फेंकते हो लेकिन यह अभी बेबी बाम्बस हैं। अभी प्राप्ति के अनुभूति के बाम्बस चलाओ। जो सीधा जीवन परिवर्तन कर दें। दिमाग तक तीर लगाये हैं, दिल का तीर नहीं लगाया है। आगे क्या करना है, वह प्लैन तो देना पड़ेगा ना! अभी मुख का आवाज निकलता है कि अच्छा कार्य कर रहे हैं। लेकिन दिल से आवाज निकले कि ‘‘यही एक मार्ग है''। मुख का सौदा करने वाले बहुत होते हैं, दिल से सौदा करने वाले कोटों में कोई होते हैं। लेकिन आप सभी दिलवाला के बच्चे हो, दिल से सौदा कराने वाले हो। तो अब क्या करेंगे? ऐसा शक्तिशाली सेवा का चक्र चलाओ जो सर्व आत्मायें अपने पूर्वजो को पहचान प्राप्ति के अधिकार को प्राप्त कर लें। कुछ सुना, अच्छा सुना, इसके बदले, कुछ मिला ऐसे अनुभूति करें। समझा? सुनाते अच्छा हैं, नहीं बनाते अच्छा हैं। कम खर्चा, कम शक्ति, कम समय इसी विधि से सिद्धि स्वरूप बनो।

पंजाब का जोन है ना? पंजाब को क्या बनायेंग ऐसी कुछ नवीनता करके दिखाओ। अनुभव कराना अर्थात् वारिस बनाना। अच्छा सुनने वाले, अच्छा-अच्छा कहने वाले, वह हो गई प्रजा। अब चाहिए वारिस क्वालिटी। एक वारिस वारिस के पीछे प्रजा तो आपेही आ जायेगी। पंजाब क्या करेगा? क्वान्टिटी नहीं बढ़ती तो क्वालिटी तो निकाल सकते हो। क्या करेंगे? अभी वारिस क्वालिटी चारों ओर कम है। तो पंजाब इसमें नम्बरवन हो जाओ। कोई क्वान्टिटी में नम्बरवन तो कोई क्वालिटी में नम्बरवन हो जाओ। समझा - पंजाब वाले क्या करेंगे? क्वालिटी वाला एक, और क्वान्टिटी कितनी होगी? क्योंकि एक क्वालिटी वाला क्वान्टिटी को स्वत: ही ले आता है। उनके नाम से आपका काम हो जायेगा। यह तो सहज है ना? अच्छा।

आज पंजाब और मधुबन का टर्न है। पंजाब वाले सबको मधुबन में आकर सरेन्डर करायेंगे। पंजाब से नदिया निकलेंगी और समा- येंगी कहाँ? मधुबन है ही सागर का कण्ठा। तो पंजाब और मधुबन का मेल हो गया। विशेष टर्न पंजाब का है इसीलिए पंजाब को कह रहे हैं। बाकी तो सब आ गये ना उसमें। मधुबन में तो सब आ गये। सबको किसमें समाना है? मधुबन में ना! अच्छा।

चारों ओर के सर्व पूर्वज आत्माओं को, सदा सर्व की आशायें सदाकाल के लिए पूर्ण करने वाले, अप्राप्त आत्माओं को प्राप्ति के अंचली की अनुभूति कराने वाले, सर्व को अनेक रास्तों से निकाल एक रास्ते पर लाने वाले, ऐसे सर्व आत्माओं के मूल आधार, सदा सर्व को एक बाप के अधिकारी बनाने वाले ऐसी श्रेष्ठ पूर्वज आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

सुना तो बहुत है अब विशेषता है स्वरूप बनाना। जितना स्वयं सर्व प्राप्ति स्वरूप होंगे उतना सर्व को प्राप्ति स्वरूप बना सकेंगे। आजकल सर्व आत्मायें पाना चाहती हैं, न कि सुनना। जब पा लेते हैं तब ही खुशी से यह गीत गायेंगे कि पाना था वो पा लिया। जैसे आप लोग यह खुशी का गीत गाते हो ना! पा लिया। ऐसे अन्य आत्मायें भी यह खुशी का गीत गायेंगी। वर्तमान समय आत्माओं को यही आवश्यकता है। जो आवश्यकता है उसी को पूर्ण कनना यही आप श्रेष्ठ आत्माओं का कर्त्तव्य है। इसी कर्त्तव्य में सदा अनुभवी मूर्त्त अनुभव कराते चलो। यही चाहते हैं ना! इसी चाहना को पूर्ण करने वाले अर्थात् सर्व को तृप्त आत्मा बनाने वाले। तो सदा तृप्त आत्मा हो? सदा सर्व खज़ानों से सम्पन्न होगा वही तृप्त होगा। और जो स्वयं के पास होगा वही औरों को भी जरूर देगा। तो सदा प्राप्ति स्वरूप के नशे और खुशी में रहो- यही संगमयुग के जीवन की विशेषता है। बाप को पाया अर्थात् संगम युग का प्रत्यक्षफल पाया। प्रत्यक्षफल है- सर्व प्राप्ति। इसी स्थिति से सर्व सिद्धि हो जायेंगी।

मधुबन निवासी भाई-बहिनों के साथ:-

मधुबन निवासी इतने खुशनसीब हो जो सब देखकर खुश हो रहे हैं। इतनी अपनी तकदीर को जानते हो ना! कितने तकदीरवान हो जो सदा सागर के कण्ठे पर रहते हो। सदा स्थूल में भी बाप और श्रेष्ठ आत्माओं का साथ है तो कितना बड़ा भाग्य हो गया! तो सदा अपने भाग्य के गुण गाते रहते हो? बस यही गुण गाते और खुशी के झूले में झूलते रहो। मधुबन निवासी अर्थात् सदा मधु के समान मीठे। तो सदा मुख मीठा रहना और सदा सर्व का मुख मीठा करने वाले। सागर के कण्ठे पर रहने वाले होलीहंस हो। हंस क्या करते हैं? सदा मोती चुगते हैं। कंकड़ को देखते नहीं, रत्नों को देखते हैं। तो सभी रत्नों को ग्रहण करने वाले हो ना! महान तीर्थ- स्थान पर रहने वाली महान आत्मायें हो। तो यह महात्माओं का ग्रुप हो गया ना! महात्मा अर्थात् जो सदा महान वस्तु को देखे। तो महान वस्तु कौन-सी है? (आत्मा) तो महात्मा की नजर कहाँ जायेंगी? महान वस्तु पर। तो सदा महान देखने वाले, महान बोल बोलने वाले और महान कर्म करने वाले, इसको कहा जाता है महात्मा। तो पाण्डव सभी महात्मा हो! बापदादा की सबसे ज्यादा आशायें किसमें हैं? मधुबन निवासियों में। मधुबन वालों को आशाओं के दीपक जगाने आते हैं ना? तो सदा मधुबन में दीवाली हैं ना! सदा शुभ आशाओं के दीप जग रहे हैं तो रोज दीपावली हो गई। तो मधुबन में कभी अंधकार हो नहीं सकता! मधुबन वाले मास्टर शिक्षक हो। आप सिखाओ, न सिखाओ लेकिन आपका हर कर्म हरेक आत्मा को शिक्षा देता रहता है। चाहे साधारण भी करेंगे तो भी सीखकर जाते हैं और श्रेष्ठ करते हो तो भी सीखकर जाते हैं। शिक्षा देते नहीं हो लेकिन मधुबन निवासी बनना अर्थात् मास्टर शिक्षक बनना। तो सदा याद रखो कि मैं मास्टर शिक्षक हूँ। तो हर कर्म, हर बोल शिक्षा देने वाला हो। आप लोगों को खास तख्त पर बैठकर सिखाने की जरूरत नहीं। चलते - फिरते शिक्षक हो। जैसे आजकल चलती - फिरती लाइब्रेरी होती है ना! तो आप चलते - फिरते मास्टर शिक्षक हो। आपका स्कूल अच्छा है ना! तो सदा अपने सामने स्टूडेन्ट को देखो, अकेले नहीं हो, सदा स्टूडेन्ट के सामने हो। सदा स्टडी कर भी रहे हो और करा भी रहे हो। योग्य शिक्षक कभी भी स्टूडेन्ट के आगे अलबेले नहीं होंगे, अटेन्शन रखेंगे। आप सोते हो, उठते हो, चलते हो, खाते हो, हर समय समझो - हम बड़े कालेज में बैठे हैं, स्टूडेन्ट देख रहे हैं, तो वन्डरफुल शिक्षक हो गये ना!

आप सबकी क्या महिमा करें? मधुबन वालों की जो भी महिमा है वह सब है। ऐसे महान समझते हुए सदा चलो। बाप जितनी महिमा करेंगे उतनी फिर निभानी भी पड़ेगी। तो निभाने में भी होशियार हो ना! मधुबन का नक्शा सारे विश्व में चला जाता है। सबकी बुद्धि में सदा क्या याद रहता है? मधुबन में क्या हो रहा है। तो सर्व की बुद्धि में स्मृति स्वरूप हो। मधुबन निवासी हरेक लाइट, माइट का गोला बनो। तो लाइट और माइट के अन्दर निवासी हरेक लाइट स्वयं ही सभी आकर्षित होकर आयेंगे। अभी तो बाप का कर्त्तव्य चल रहा है, उसके कारण बाप के बनने वाले बच्चे सहज ही अनुभव कर रहे हैं और करते रहेंगे। आपका कर्त्तव्य अभी गुप्त है। आप अभी अपने शक्ति स्वरूप से वायुमण्डल बनाओ। यह तो ड्रामा अनुसार होना ही है, बढ़ना ही है, चलना ही है इसलिए चलाने वाला चला रहा है लेकिन अभी ऐसे ही फालो फादर करो। अभी हर आत्मा शक्ति स्वरूप हो जाए। जिसके भी सम्पर्क में आते हो वह अलौकिकता का अनुभव करे। अभी वह पार्ट चलना है। सुनाया ना अभी अच्छा-अच्छा कहते हैं, लेकिन अच्छा बनना है यह प्ररेणा नहीं मिल रही है। उसका एक ही साधन है- संगठित रूप में ज्वाला स्वरूप बनो। एक-एक चैतन्य लाइट हाउस बनो। सेवाधारी हो, स्नेही हो, एक बल एक भरोसे वाले हो, यह तो सब ठीक है, लेकिन मास्टर सर्वशक्तिवान की स्टेज, स्टेज पर आ जाए तो सब आपके आगे परवाने के समान चक्र लगाने लग जाएं। अभी सिर्फ बाप शमा की आर्कषण है और सर्व शमा की आक- र्षण हो जाए तो क्या होगा? शमा तो हो लेकिन अभी स्टेज पर नहीं आये हो। स्टेज पर आओ तो देखो आबू वाले कैसे आपके पीछे - पीछे दौड़ते हैं। आप लोगों को जाने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी वह स्वयं आकर कहेंगे- जी हजूर, कोई सेवा!

अभी लाडले बच्चे बने हो, इसमें तो ठीक, बच्चे और बाप के साथ लाडकोड में, सम्बन्ध निभाने में ठीक हो लेकिन अब मास्टर शिक्षक बनकर, मास्टर सतगुरू बनकर स्टेज पर आओ। अभी यह दो पार्ट रहे हुए हैं। समझा - अच्छा। मधुबन निवासियों को बापदादा सदा विशेष आत्मा के रूप में देखते हैं। सदा बाप की आशाओं के दीपक मधुबन निवासी है। सभी सन्तुष्ट तो सदा हो ना? सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना यही आप सबका सदा का सलोगन हो। सदा आपके बोर्ड पर कौन-सा सलोगन लिखा है? सन्तुष्ट रहना भी है और करना भी है। इसी सर्टिफिकेट वाले भविष्य में भी राज्य भाग्य का सर्टिफिकेट ले लेंगे। तो मधुबन वालों ने यह सर्टीफिकेट तो लिया है ना सदा! अमृतवेले इस सलोगन को स्मृति में लाओ। जैसे बोर्ड पर सलोगन लिखते हो वैसे सदा अपने मस्तक के बोर्ड पर यह सलोगन दौड़ाओ। तो सभी सन्तुष्ट मूर्तियाँ हो जायेंगे। अच्छा।

सेवाधारियों के साथ- सेवाधारी, किस स्थान के सेवाधारी हो? यह तो अच्छी तरह से जानते हो ना कि महायज्ञ के सेवाधारी हैं। जो महायज्ञ के सेवाधारी हैं उन्हों को यज्ञ से प्रसाद मिलता है। यज्ञ के प्रसाद का बहुत महत्व होता है ना! वैसे भी लौकिक में भी प्रसाद मिलने वाले को महान आत्मा, भाग्यवान आत्मा कहा जाता है। सबको प्रसाद नहीं मिलता है। भाग्यवान को मिलता है। तो यह है महायज्ञ का महाप्रसाद। महाप्रसाद क्या है? सदा कमाई जमा होना, सर्व खज़ाने प्राप्त होना यही महाप्रसाद है। क्योंकि देखो, यहाँ यज्ञ सेवा करने से जो सबसे श्रेष्ठ खज़ाना है- शक्तियों का, सुख का, शान्ति का वह सर्व खज़ानों की अनुभूति होती है ना! तो यही यज्ञ-प्रसाद है। इसी प्रसाद द्वारा सदा प्रसन्न भी रहते हो और आगे भी सदा प्रसन्न रहेंगे। तो सबसे बड़ा खज़ाना वा प्रसाद प्रसन्नता की प्राप्ति। यहाँ रहते सदा प्रसन्न रहे हो ना? किसी भी प्रकार के वातावरण में प्रसन्न रहने के अभ्यासी बन गये। वातावरण आपको अपनी तरफ न खीचें। लेकिन आप वातावरण को परिवर्तन कर लो, यह है महावीर की निशानी। तो क्या आप समझते हो महाप्रसाद मिला? महाप्रसाद लेने वाले महान भाग्यवान हो।

जितनी भी आत्माओं की सेवा की उन सर्व आत्माओं की शुभ भावना आपके प्रति आशीर्वाद का रूप बन गई। तो कितनी आत्माओं की आशीर्वाद मिली होगी? सर्वश्रेष्ठ आत्माओं की आशीर्वाद अनेक जन्मों के लिए सदा सम्पन्न बना देती है। तो सबकी आशीर्वाद ली? सदा राजयुक्त अर्थात् राजी रहे? कभी सेवा में नाराज तो नहीं हुए? सदा राजी। कोई नाराज करे तो भी नाराज न हों क्योंकि जो राज को जानते हैं कि यह वैरायटी वृक्ष है, तो इस राज को जानने वाले कभी नाराज नहीं होते। नाराज होना अर्थात् इस राज को न जानना। तो सभी राजयुक्त हो।

सेवा का चान्स मिला अर्थात् लाटरी का लकी नम्बर खुल गया। सेवाधारी अर्थात् लकी नम्बर वाले। लकी नम्बर हैं ना? लकी नम्बर बहुत थोड़ों का निकलता है और लकी नम्बर में सर्वश्रेष्ठ प्राप्ति होती है। लकी नम्बर अर्थात् स्वयं लकी बन गये। अच्छा

माताओं ने जन्म-जन्म का खाता जमा किया। एक जन्म में अनेक जन्मों की प्रालब्ध बनाना, यह तो सस्ता सौदा हो गया ना! थोड़ासा समय मेहनत और जन्म-जन्म का फल। तो सभी ने सस्ता सौदा करके अपनी कमाई जमा कर ली। मातायें सदा सहयोगी रहीं, इसकी मुबारक हो। जैसे यहाँ सेवा का भाग्य बनाया वैसे इस भाग्य को सदा साथ रखना। सदा भाग्य का दीपक जगा रहे इसके लिए सदा अटेन्शन। अपना भाग्य साथ रखना अर्थात् भाग्यविधाता को साथ रखना। आपके भाग्य का सितारा चमकता हुआ देख औरों का भी भाग्य खुल जायेगा। अच्छा।

प्रश्न- कुमारियों को कौन-सी कमाल करके दिखानी चाहिए?

उत्तर- सबसे बड़े ते बड़ी कमाल है- बाप ने कहा और बच्चों ने किया। जैसे चात्रक होता है ना, बूंद आई और धारण की। तो सबसे बड़ी कमाल है बाप का हर बोल करके दिखाना। कर्म से बाप के बोल को प्रत्यक्ष करना। यह है कुमारियों की कमाल। इसीलिए यादगार में भी दिखाते हैं- कुमारियों ने बाप को प्रत्यक्ष किया। विजय प्राप्त की ना! तो वह कौन-सी कुमारी थी? हरेक समझें मैं। इसमें हरेक अपने को आगे रखे। पहले मैं। इसको कहा जाता है कुमारियों की कमाल। हरेक बाप को प्रत्यक्ष करने वाली निमित्त आत्मा बन जाए, सभी अमूल्यय रत्न हो जायेंगे। अच्छा!



29-12-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"दूरदेशी बच्चों से दूर देशी बाप दादा का मिलन"

दूरदेशी अव्यक्त बापदादा बोले:-

‘‘आज बापदादा अपने लवली अर्थात् लवलीन बच्चों से मिलने आये हैं। दूरदेश से आये हैं। दूरदेश से आये हुए बच्चों से दूरदेशी बापदादा मिलन मनाने के लिए आये हैं। जितना बच्चों ने बापदादा को दिल से याद किया तो दिल की याद का रेसपान्ड दिलाराम बाप देने के लिए आये हैं। आप एक-एक लवलीन आत्मायें दिखाई दे रही हैं। जिन्होंने दूर होते हुए भी अपना याद प्यार भेजा है वो सब लवली आत्मायें आकारी रूप में इस संगठन के बीच बापदादा के सामने इमर्ज हैं। बापदादा के सामने बहुत बड़ी सभा लगी हुई है। आप सबके अन्दर जो सबका याद-प्यार समाया हुआ है वह याद का रूप आकार रूप में सबके साथ है। बापदादा सभी बच्चों के उमंग-उत्साह और खुशी के गीत सुन रहे हैं। इतने प्यार के, खुशी के गीत बापदादा सिर्फ देख नहीं रहे हैं। लेकिन देखने के साथ-साथ गीत-माला सुन भी रहे हैं। सभी बच्चों के अन्दर, दिल में वा नयनों में एक ही बाप के याद की एकरस स्थिति की झलक दिखाई दे रही है।

‘‘एक बाप दूसरा न कोई'', इसी स्थिति में स्थित बच्चों को देख रहे हैं। आज मेले में आये हैं। वाणी सुनाने नहीं आये हैं। सिर्फ तकदीरवान बच्चों की तस्वीरें देखने आये हैं। खिले हुए रूहे गुलाब बच्चों की खुशबू लेने आये हैं। सभी बच्चों ने हिम्मत के आधार पर, स्नेह का प्रत्यक्ष फल सम्मुख मिलन का अच्छा दिखाया है। भिन्न -भिन्न प्रकार के बन्धनों को पार करते हुए अपने स्वीट होम में पहुँच गये हैं। ऐसे बन्धनमुक्त बच्चों को बापदादा पदमगुणा मुबारक दे रहे हैं।

छोटे-छोटे बच्चों की भी कमाल है। यह छोटे बच्चे संगमयुग का श्रृंगार हैं और भविष्य में क्या करेंगे? अब के श्रृंगार हो, भविष्य के अधिकारी हो। सबकी हथेली पर स्वर्ग के स्वराज्य का गोला दिखाई दे रहा है ना! जो चित्र बनाया है वह एक का नहीं है, आप सबका है। अपना चित्र देखा है? समझते हो हम सबका चित्र है या एक श्रीकृष्ण का है? किसका है? आप सबका है कि नहीं? तो सदा याद रहता है कि आज ब्राह्मण और कल फरिश्ते से देवपदधारी बने कि बने? नालेज के दर्पण से अपना यह चित्र ‘‘फरिश्ता सो देवता'' सदा दिखाई देता है? जैसे अभी सबके दिल का आवाज सदा निकलता है, कौन सा? ‘‘मेरा बाबा''। ऐसे सदा नालेज के दर्पण में अपना चित्र देखते हुए यह आवाज निकलता है कि यह मेरा चित्र है? मेरा बाबा, मेरा चित्र! क्योंकि अभी अपने राज्य और राज्य करने के राज्य-अधिकारी स्वरूप के बहुत समीप आ रहे हो। जो समीप चीज़ आ जाती है वह स्पष्ट अनुभव होती है। तो ऐसे स्पष्ट अपना फरिश्ता स्वरूप, देवता स्वरूप अनुभव होता है? अच्छा।

आज तो विशेष बच्चों ने बुलाया और बापदादा बच्चों के आज्ञाकारी होने के कारण मिलन मनाने आये हैं। विशेष एक दो आत्माओं के कारण सभी बच्चों से मिलन हुआ। यही लगन का रेसपान्ड है। अच्छा- डबल फारेनर्स की पसन्दी सदा अलग-अलग मिलने की होती है। जैसे बाप बच्चों का दिल देखते हैं वैसे ही बाप भी बच्चों के दिल की रेसपान्ड करते हैं। तो मिलते रहेंगे। अब तो अल्लाह के बगीचे में पहुँच गये हो। मिलन मनाते रहेंगे। अच्छा।

ऐसे स्नेह के बन्धन में बंधने वाले और बाँधने वाले, सदा लवलीन बच्चों को, सदा बाप के गुणों के गीत गाने वाले खुशमिजाज बच्चों को, सदा खुशी के झूले में झूलने वाले खुशनसीब बच्चों को, सदा खुश रहने की मुबारक के साथ-साथ बापदादा का यादप् यार और नमस्ते।''

छोटे-छोटे बच्चों से- बापदादा छोटे-छोटे बच्चों को देख बहुत खुश होते हैं। हरेक बच्चे के मस्तक पर क्या दिखाई दे रहा है? क्या है आपके मस्तक पर? आत्मा मणी के समान चमक रही है। बापदादा सभी बच्चों के मस्तक में चमकती हुई मणी देख रहे हैं। आप सबके मन में क्या संकल्प है? छोटे-छोटे बच्चे अर्थात् बापदादा के गले की माला के मणके। आप बच्चे किस नम्बर में हो, यह जानते हो? (फर्स्ट नम्बर में) लक्ष्य कितना अच्छा रखा है। बापदादा तो छोटे बच्चों को आगे रखेंगे। पीछे नहीं। क्योंकि आप सभी छोटे बच्चे जन्म से पवित्र हो और पवित्र आत्माओं के संग में हो। इसलिए पवित्र आत्माओं को सदा नयनों पर रखते हैं। तो क्या हो गये आप सभी? ऑखों के तारे, नूरे रतन हो गये ना! ऐसे समझते हो? बच्चों की यादप्यार, आने के पहले ही पहुँच गई। सबने बहुत-बहुत, अच्छे-अच्छे चित्र भी भेजे। अच्छे-अच्छे लक्ष्य के संकल्प भी किये। जिन्होंने भी जो लक्ष्य रखा है, कोइ टीचर बनकर के जायेंगे, कोई नम्बरवन ब्रह्माकुमारी वा ब्रह्माकुमार बनकर जायेंगे। तो नम्बरवन टीचर वा ब्रह्माकुमार-कुमारी की विशेषता क्या ले जायेंगे? बहुत सहज है। सिर्फ एक छोटी-सी बात याद रखनी है। एक बाप की याद में रहना है। एक बाप का सन्देश हरेक को देना है। कोई भी परिस्थिति आये, बात आये, एकरस रहना है। बस यही नम्बरवन ब्रह्माकुमार कुमारी हैं। तो सहज है या मुश्किल है?

सभी सुबह को उठते ही गुडमॉर्निंग  करते हो? याद में बैठते हो? अभी से भी रोज अमृतवेले उठते ही पहले याद में बैठना। अच्छा, आप सब छोटे-छोटे बच्चों को सबसे अच्छी कौन-सी चीज़ लगती है? (टोली) (फिर तो बापदादा ने सभी को टोली खिलाई)

डाक्टर्स के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात:-

‘‘सभी ने मिलकर सेकण्ड में शफा देने की कोई गोली निकाली है? आजकल के समय और सरकमस्टेन्स प्रमाण अभी सेकण्ड में शफा पाने की इच्छुक अनेक आत्मायें हैं। प्रदर्शनी समझाओ, चाहे भाषण करो लेकिन सब भाषण सुनते, प्रदर्शनी देखते, इच्छा क्या रखते हैं कि सेकण्ड में शफा पायें। दो इच्छायें सर्व आत्माओं की हैं- एक तो सदा के लिए शफा हो और दूसरे- बहुत जल्दी से जल्दी शफा हो क्योंकि अनेक प्रकार के दु:ख-दर्द सहन करते-करते सब आत्मायें थकी हुई हैं। तो आप डबल डाक्टर्स के पास किस इच्छा से आयेंगी? इन दो इच्छाओं को लेकर के आयेंगी। आपस में जो मीटिंग की उसमें ऐसी कोई चीज़ निकाली? मेडीटे- शन में भी सहज तरीका निकाला? एग्जीबीशन तो बनायेंगे और बनी हुई भी है लेकिन हर चित्र में ऐसा सार भरो- जो उसी सार की तरफ अटेन्शन जाते ही शान्ति और सुख की अनुभूति करें। क्योंकि विस्तार तो सब जानते हैं लेकिन हर चित्र में रूहानियत हो। जैसे कोई भी चीज़ में सेन्ट लगा दो,खुशबू लगा दो तो कोई भी चीज़ में वह खुशबू आकर्षित जरूर करेगी। अनुभव करेंगे- हाँ, यह खुशबू हाँ से आ रही है। चित्र तो भले बनाओ लेकिन चित्र के साथ जो प्रभाव पड़ेगा वह चित्र में भी चैतन्यता भरी हो। जैसे देखो, यहाँ मधुबन में जड़ में चैतन्यता का अनुभव करते हो ना! हर स्थान पर जाओ, चाहे झोपड़ी में जाओ लेकिन क्या अनुभव करते हो? चैतन्यता का अनुभव करते हो ना? इसी रीति से वायुमण्डल ऐसा बनाओ, वायब्रेशन ऐसे फैलाओ जो चित्रों में भी चैतन्यता का अनुभव हो। जो भी स्टाल बनाओ, तो जैसे साइंस वाले कहाँ हरियाली की फीलिंग दिलाते हैं, कहाँ सागर की, पानी की फीलिंग दिलाते हैं। ऐसा स्टाल बनाते हैं जो अनुभव होता है कि सागर में आ गये हैं, पहाड़ी पर आ गये हैं। इसी रीति से वातावरण ऐसा हो जो अनुभव करें- कि सुख के स्थान पर पहुँच गये हैं। वैसे मेहनत जो की है वह अच्छी की है। मिलन भी हुआ, प्लैन भी निकाले। अभी आवश्यकता है पॉइन्ट रूप बन पॉइन्ट देने की। पॉइन्ट द्वारा पॉइन्ट बताना यह समय अभी नहीं है। लेकिन पॉइन्ट रूप बनकर पॉइन्ट शार्ट में देनी है। तो ऐसा स्वयं को भी शक्तिशाली स्टेज पर सदा लाओ और दूसरों को भी ऐसी स्टेज पर खींचो। जो आपके सामने आते हैं ऐसे अनुभव करे कि किसी ऐसे स्थान पर पहुँच गये हैं, जहाँ जो प्राप्ति चाहिए वह होगी। जैसे स्थूल डाक्टरी द्वारा पेश्न्ट को फेथ में लाते हो ना कि यह डाक्टर बड़ा अच्छा है, यहाँ से शफा मिल जायेगी। ऐसे रूहानी डाक्टरी में भी ऐसी शक्ति- शाली स्टेज हो जो सबका फेथ हो जाए कि यहाँ पहुँचे हैं तो प्राप्ति अवश्य होगी। दोनों ही बातें निकाली हैं ना? दोनों का बैलेन्स हो। वह भी जरूरी है- क्योंकि आजकल के समय अनुसार जो बहुत जन्मों के हिसाब-किताब अर्थात् कर्मभोग हैं वह समाप्त भी जरूर होने हैं। कर्मभोग का हिसाब खत्म करने के लिए स्थूल दवाई और कर्मयोगी बनाने के लिए यह रूहानी दवाई। अभी सब भोग कर खत्म करेंगे। चाहे मंसा द्वारा, चाहे शरीर द्वारा। सभी आत्मायें मुक्तिधाम में जायेंगी ना! अभी न रोगी रहेंगे, न डाक्टर रहेंगे। इसकी प्रैक्टिस अन्त में भी होगी। जो डाक्टर होंगे लेकिन कुछ कर नहीं सकेंगे, इतने पेशन्ट होंगे। बस उस समय सिर्फ अपनी दृष्टि द्वारा, वायब्रेशन द्वारा, उनको टैम्प्रेरी वरदान द्वारा शान्ति दे सकते हो। मरेंगे भी बहुत। मरने वालों के लिए जलाने का ही समय नहीं होगा। क्योंकि अति में जाना है ना अभी। अति में जाकर अन्त हो जायेगी। अभी के समाचारों के अनुसार भी देखों कोई नई बीमारी फैलती है तो कितनी फास्ट फैलती है। जब तक डाक्टर उस नई बीमारी की दवाई निकाले- तब तक कई खत्म हो जाते हैं। क्योंकि अति में जा रहा है। और जब ऐसा हो तब तो डाक्टर भी समझें कि हमसे भी कोई श्रेष्ठ चीज़ है। अभी तो अभिमान के कारण कहते हैं, आत्मा वगैरा कुछ नहीं है। डाक्टरी ही सब कुछ है। फिर वह भी अनुभव करेंगे। जब कुछ भी कन्ट्रोल नहीं कर पायेंगे तो कहाँ नजर जायेगी? अभी तो नई-नई बीमारियाँ कई आने वाली हैं। लेकिन यह नई बीमारियाँ नया परिवर्तन लायेगी।

आप लोग तो बहुत-बहुत भाग्यवान आत्मायें हो जो विनाश के पहले अपना अधिकार पा लिया। और सब चिल्लायेंगे, हाय हमने कुछ नहीं पाया, और आप बापदादा के साथ दिलतख्त नशीन होकर उन्हों को वरदान देंगे। तो कितने भाग्यवान हो। सदा ही खुश रहते हो ना? सदा इसी मस्ती में झूमते हुए सभी पेशन्ट को भी सदा खुशी के झूले में झुलाओ। फिर आपको ही भगवान का ही अवतार मानने लग जायेंगे लेकिन आप फिर इशारा करेंगे यथार्थ की तरफ। जब ऐसे भावना में आवें तब इशारा कर सकेंगे ना! तो सभी ऐसे तैयार हो ना? सभी डाक्टर का बहुत अच्छा ग्रुप है। अब ऐसा ही वी.आई.पीज ग्रुप लाओ। जो जैसा होता है वह वैसा ही लाता है ना! तो जितने डाक्टर्स आये हैं उतने वी.आई.पीज तो आयेंगे ही ना!

फारेन में भी अनुभव के आगे सब झुक जाते हैं। साइंस, साइलेंस की शक्ति के आगे झुकेगी जरूर। अभी बड़े-बड़े साइंस वाले भी नाउम्मीद होने लग गये हैं। कहाँ जायेंगे? जहाँ आप साइलेंस वालो की किरणें दिखाई देंगी वहाँ ही नजर जायेगी। आपके एटम से ही उन्होंने एटम बनाया है। कापी तो आपको की है। अगर आत्मिक शक्ति नहीं होती तो यह एटामिक बाम्बस बनाने वाला कौन? जब चारों ओर अंधकार छा जायेगा तब आपकी किरणें अंधकार में स्पष्ट दिखाई देंगी। नालेज की लाइट, गुणों की लाइट, शक्तियों की लाइट, सब लाइट्स, लाइट हाउस का कार्य करेंगी। मधुबन में आये रिफ्रेश भी हुए और सेवा भी हुई और प्रत्यक्ष फल भी मिल गया। प्लैन्स जो बनाये हैं उनको आगे बढ़ाते रहना। बापदादा के पास तो आपके संकल्प भी पहुँच जाते हैं। कागज तो आप पीछे लिखते हो। अच्छा

पार्टियों के साथ:-

संगमयुगी ब्राह्मणों का श्रृंगार है: सर्वशक्तियाँ और सर्वगुण:- सदा बाप की याद के छत्रछाया के अन्दर रहते हो? ऐसे अनुभव करते हो कि सदा बाप की छत्रछाया जमारे ऊपर है? जैसे कल्प पहले के यादगार में देखा है कि पहाड़ी को छत्रछाया बना दिया। तो सारे कलियुगी समस्याओं के पहाड़ को बाप की याद द्वारा समस्या नहीं लेकिन छत्रछाया बना दिया? ऐसे समस्याओं का समाधान करने वाले मास्टर सर्वशक्तिवान हो? किसी भी प्रकार की समस्या स्वयं को कमजोर तो नहीं बनाती है? विघ्न-विनाशक हो? लगन के आधार पर विघ्न क्या अनुभव होता है? एक खिलौना। जैसे खिलौने से खेलते हैं, घबराते नहीं हैं, खुशी होती है। ऐसे किसी भी प्रकार के विघ्न एक खेल के समान खिलौने लगते हैं। इसको कहा जाता है- मास्टर सर्वशक्तिवान तो सर्वशक्तिवान अपने जीवन का एक श्रृंगार बन गई हैं? संगमयुगी ब्राह्मणों का श्रृंगार ही है सर्वशक्तियाँ। तो सर्वशक्तियों से श्रृंगारी हुई सजी सजाई मूर्त्त। अभी गुणों और शक्तियों से सजे हुए और भविष्य में स्थूल गहनों से सजे हुए। लेकिन अब का श्रृंगार सारे कल्प से श्रेष्ठ है। 16 श्रृंगार, 16 कला सम्पन्न। तो अभी से संस्कार डालने हैं ना! तो ऐसी सजी सजाई मूर्त्त हो ना! अच्छा। कला सम्पन्न। तो अभी से संस्कार डालने हैं ना! तो ऐसी सजी सजाई मूर्त्त हो ना! अच्छा।



31-12-81       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


"नव वर्ष पर बापदादा द्वारा दिया गया सलोगन- निर्बलता हटाओ’"

अति स्नेही और समीप बच्चों के प्रति नव वर्ष के अवसर पर अव्यक्त बापदादा बोले:-

बापदादा, सदा हर कदम में, हर संकल्प में उड़ती कला वाले बच्चों को देख रहे हैं। सेकण्ड में अशरीरी भव का वरदान मिला और सेकण्ड में उडा।'' अशरीरी अर्थात् ऊंचा उड़ना। शरीर भान में आना अर्थात् पिंजड़े का पंछी बनना। इस समय सभी बच्चे अशरीरी भव के वरदानी उड़ते पंछी बन गये हो। यह संगठन स्वतन्त्र आत्मायें अर्थात् उड़ते पंछियों का है। सभी स्वतन्त्र हो ना? आर्डर मिले अपने स्वीट होम में चले जाओ तो कितने समय में जा सकते हो? सेकण्ड में जा सकते हो ना! आर्डर मिले अपने मास्टर सर्वशक्तिवान की स्टेज द्वारा, अपनी सर्वशक्तियों की किरणों द्वारा अंधकार में रोशनी लाओ, ज्ञान सूर्य बन अंधकार को मिटा लो, तो सेकण्ड में यह बेहद की सेवा कर सकते हो? ऐसे मास्टर ज्ञान सूर्य बने हो? जब साइन्स के साधन सेकण्ड में अंधकार से रोशनी कर सकते हैं तो हे ज्ञान सूर्य बच्चे, आप कितने समय में रोशनी कर सकते हो? साइन्स से तो साइलेन्स की शक्ति अति श्रेष्ठ है। तो ऐसे अनुभव करते हो कि सेकण्ड में स्मृति का स्विच आन करते अंधकार में भटकी हुई आत्मा को रोशनी में लाते हैं? क्या समझते हो?

सात दिन के सात घण्टे का कोर्स दे अंधकार से रोशनी में ला सकते हो वा तीन दिन के योग शिविर से रोशनी में ला सकते हो? वा सेकण्ड की स्टेज तक पंहुच गये हो? क्या समझते हो? अभी घण्टों के हिसाब से सेवा की गति है वा मिनट वा सेकण्ड की गति तक पहुँच गये हो? क्या समझते हो? अभी टाइम चाहिए वा समझते हो कि सेकण्ड तक पहुँच गये हैं? जो चैलेन्ज करते हो- सेकण्ड में मुक्ति-जीवनमुक्ति का वर्सा प्राप्त करो, उसको प्रैक्टिकल में लाने लिए तैयार हो स्व-परिवर्तन की गति सेकण्ड तक पंहुची है? क्या समझते हो? पुराना वर्ष समाप्त हो रहा है, नया वर्ष आ रहा है, अभी संगम पर बैठे हो। तो पुराने वर्ष में स्व-परिवर्त न व विश्व-परिवर्तन की गति कहाँ तक पहुँची है? तीव्र गति रही? रिजल्ट तो निकालेंगे ना तो इस वर्ष की रिजल्ट क्या रही? स्व-प्रति, सम्बन्ध और सम्पर्क प्रति वा विश्व की सेवा प्रति। इस वर्ष का लक्ष्य मिला? जानते है ना- उड़ता पंछी वा उड़ती कला। तो इसी लक्ष्य प्रमाण गति क्या रही? जब सबकी गति सेकण्ड तक पहुँचेगी तो क्या होगा? अपना घर और अपना राज्य, अपने घर लौटकर राज्य में आ जायेंगे।

तो नये वर्ष में नया उमंग, हर संकल्प और सेकण्ड में हर कर्म में प्राप्ति के सिद्धि की नवीनता हो। अभी कल से क्या शुरू होगा? नया वर्ष तो होगा लेकिन क्या कहेंगे? नया वर्ष कहाँ से शुरू होता है? लौकिक में भी वन-वन से शुरू होगा ना! और आप क्या शुरू करेंगे? वह तो वन से शुरू होगा, आपका क्या रहेगा? ‘‘वन और विन''। हर संकल्प में विन अर्थात् विजय हो। हर दिन अपने मस्तक पर इस वर्ष का कौन-सा तिलक लगायेंगे? ‘‘विजय का तिलक''। सलोगन कौन-सा याद रखेंगे? ‘‘हम विजयी रत्न कल्प-कल्प के विजयी हैं। विजयी थे, विजयी हैं और सदा विजयी रहेंगे।'' ताज कौन-सा धारण करेंगे? ‘‘लाइट और माइट'' यह डबल ताज धारण करना। क्योंकि लाइट है और माइट कम है तो सदा सिद्धि स्वरूप नहीं हो सकते। लाइट के साथ माइट भी है तब ही सदा विजयी बन जायेंगे। लाइट और माइट के डबल ताजधारी।

कंगन कौन-सा पहनेंगे? कंगन भी जरूरी है ना? कौन-सा कंगन अच्छा लगता है? प्यूरिटी का कंगन तो है ही। लेकिन इस विशेष वर्ष का नया कंगन कौन-सा पहनेंगे? (किसी ने कहा सहयोग, किसी ने कहा संस्कार मिलन का, अनेक उत्तर मिले) यह तो सारी बाँह ही कंगनों से भर जायेगी।

इस वर्ष का यही विशेष कंगन बाँधना कि- ‘‘सदा उत्साह में रहना है और उत्साह में सर्व को सदा आगे बढ़ाते रहना है।'' न स्वयं का उत्साह कम करना है, न औरों का कराना है। इसके लिए सदा कंगन को मजबूत रखने के लिए व टाइट रखने के लिए एक ही बात सदा याद रखना- ‘‘हर बात में चाहे स्व के प्रति, चाहे औरों के प्रति आगे बढ़ने और बढ़ानें के लिए मोल्ड होना ही रीयल गोल्ड बनना है।'' अच्छा-कंगन भी पहन लिया। अभी विशेष सेवा का लक्ष्य क्या रखेंगे? जैसे आजकल की गवर्नमेन्ट हर वर्ष का विशेष कार्य बनाती है, उस गवर्नमेन्ट ने तो अपंगों का बनाया था। आप क्या करेंगे? जैसे बाप की महिमा में गायन करते हैं- ‘‘निर्बल को बल देने वाला''। जैसे स्थूल में निर्बल आत्माओं को साइन्स के साधनों से बलवान बना देते हैं। लंगड़े को चलाने की शक्ति दे देते हैं। इसी प्रकार हरेक कमजोर को शक्ति के साधन दे देते हैं। ऐसे आप सभी भी, चाहे ब्राह्मण परिवार में, चाहे विश्व की आत्माओं में हर आत्मा को, निर्बल को बल देने वाले महाबलवान बनो। जैसे वह लोग नारा लगाते हैं- गरीबी हटाओ, वैसे आप निर्बलता को हटाओ। ‘‘हिम्मत और मद'' निमित्त बन बाप से दिलाओ। तो इस वर्ष का विशेष नारा कौन-सा हुआ? ‘‘निर्बलता हटाओ''। तब ही जो सलोगन मिला सदा उत्साह दिलाने का, वह प्रैक्टिकल में ला सकेंगे। समझा, नये वर्ष में क्या करना है?

डबल फारेनर्स को न्यू ईयर का महत्व ज्यादा रहता है। तो न्यू ईयर का महत्व इस महानता से सदा रहेगा। 82 का वर्ष महत्व मनाओ फिर 83 में क्या करेंगे? 83 में इस सर्व महानता द्वारा सिद्धि स्वरूप, सिद्धि पाने वाले, सर्व कार्य सिद्ध होने वाले, सर्व को सिद्धि प्राप्त करने की सेकण्ड की विधि बताना। ऐसा सिद्धि का वर्ष मनाओ। कार्य भी सर्व सिद्ध हों, संकल्प भी सिद्ध हो और स्वरूप भी सदा सिद्धि स्वरूप हो। तब ही प्रत्यक्षता और जय-जयकार का नारा लगेगा। साईस सदा सिद्धि स्वरूप नहीं होती। लेकिन आप सभी सदा सिद्धि स्वरूप हो। (आज लाइट बीच-बीच में बहुत आती-जाती थी) आपके राज्य में यह खिट-खिट होगी? आपके स्वीट होम में तो इसकी आवश्यकता ही नहीं है। तो अभी अपने स्वीट होम और स्वीट राजधानी को समीप लाओ अर्थात् स्वयं जाओ। समझा क्या करना है? अच्छा!

ऐसे सदा एक की याद में रहने वाले, एक के साथ सर्व का सम्बन्ध जुड़वाने वाले, सदा एक रस स्थिति में रहने वाले, ऐसे बाप समान, बापदादा को स्वयं और सेवा द्वारा प्रत्यक्ष करने वाले, प्रत्यक्ष फल स्वरूप, अति स्नेही और समीप बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

(विदेशी बच्चों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात)

नैरोबी पार्टी:-

सर्व बच्चे अति स्नेही और सहयोगी आत्मायें हैं। ऐसे अनुभव करते हो? जो स्नेही होगा वह सहयोगी बनने के सिवाए रह नहीं सकता। वैसे भी लौकिक में देखो- जहाँ स्नेह होता है वहाँ तन-मन-धन से स्वत: ही न्योछावर हो जाते हैं अर्थात् सहयोगी बन जाते हैं। तो आप सभी बाप के अति स्नेही हो इसलिए सर्व प्रकार के सहयोगी आत्मायें भी हो। तो बापदादा अति स्नेही और सहयोगी बच्चों को देख खुश होते हैं। जैसे बच्चे बाप को देख खुश होते हैं, तो बाप बच्चों को देखकर और ही पदमगुणा खुश होते हैं क्योंकि बापदादा जानते हैं कि बच्चा कितना तकदीरवान है। हरेक के तकदीर की रेखा कितनी महान है। वे आजकल के महात्मा तो आप लोगों के आगे कुछ भी नहीं हैं, नामधारी हैं और आप प्रैक्टिकल काम करने वाले हो। तो क्या से क्या बन गये हो और क्या बनने वाले हो? यह खुशी रहती है? धरती पर रहते हो या तख्त पर रहते हो? धरती पर तो नहीं आते? धरती को छोड़ चुके ना? बाप को बुलाते हैं- छोड़ भी दे आकाश सिंहासन...। और बाप कहते हैं- छोड़ भी दे धरती का सिंहासन और दिल का सिंहासन ले लो। तो सभी ने यह सिंहासन ले लिया है, फिर वापस अपने धरती पर तो नहीं आ जाते? धरती की आकर्षण तो नहीं खींचती है? क्योंकि धरती पर रहकर तो देख लिया है ना कि धरती की आकर्षण कहाँ ले गई? नर्क की तरफ ले गई ना! और अभी दिलतख्त सो विश्व के राज्य तख्तनशीन बन गये तो यह आकर्षण स्वर्ग की ओर ले जायेगी। तो एक बार के अनुभवी सदा के लिए समझदार बन गये। टाइटल ही है- ‘‘नालेजफुल''। नालेजफुल कभी धोखा नहीं खा सकते। अच्छा-सभी सदा सन्तुष्ट रहने वाले हो ना? कोई कम्पलेन्ट नहीं। न अपनी न दूसरों की। कम्पलेन्ट है तो कम्पलीट नहीं। अपने प्रति भी कम्पलेन्ट रहती है-योग नहीं लगता, नष्टोमोहा नहीं हैं, जैसा होना चाहिए वैसा नहीं हैं। तो यह कम्पलेन्ट हुई ना! तो सब कम्पलेन्ट समाप्त अर्थात् कम्पलीट सम्पूर्ण बनना। अच्छा।

बापदादा को तो सदा बच्चों के ऊपर नाज रहता है, यही बच्चे कल्प-कल्प के अधिकारी हैं। बापदादा हरेक रत्न की वैल्यु को जानते हैं। बच्चे कभी-कभी अपनी वैल्यु को कम जानते हैं। बाप तो अच्छी तरह से जानते है। कैसा भी बच्चा हो, भले अपने को लास्ट नम्बर में समझता हो, तो भी महान है क्योंकि कोटो में कोई-कोई में भी कोई है। तो करोड़ो में से वह एक भी महान हुआ ना! तो सदा अपनी महानता को जानो इससे महान आत्मा बन फिर देवात्मा बन जायेंगे। नैरोबी वाले कहाँ तक विस्तार करके पहुँचे हैं? नैरोबी में ही बैठे हो या चक्रवर्ता हो? जो स्वयं नहीं उड़ सकते, उन्हों को बल देकर उड़ने वाले हो ना! नैरोबी की विशेषता ही है परिवार के परिवार, छोटे से बड़े तक परिवर्तन हो गये हैं। क्योंकि गुजरात का फाउन्डेशन है। अफ्रीका में भी किन्हों का भाग्य खुला? अफ्रीका में रहते भारतवासी भाग्यवान बनें। थोड़ा सा परिचय का पानी पड़ने से बीज निकल आया। अभी की विशेष सेवा यह हो जो पहले हरेक की आवश्यकता है उसको परखो और परखने के बाद प्राप्ति स्वरूप बन प्राप्ति कराओ। परखने की शक्ति से ही सेवा की सिद्धि हो सकती है। अच्छा।

लण्डन पार्टी- लण्डन निवासी तो हैं ही सेवा के फाउण्डर। लण्डन सेवा का मुख्य स्थान है। सबकी जनर लण्डन के ऊपर है। लण्डन से क्या डायरेक्शन मिलते हैं! तो मेन सेवा का सर्विस स्थान लण्डन हो गया ना! तो लण्डन निवासी हैं विशेष सेवाधारी। ब्राह्मण जीवन का धन्धा ही है सेवा। तो सदा इसी सेवा में बिजी रहते हो? देखो, बिजनेसमैन की बुद्धि में रात को स्वप्न में भी क्या आयेगा? जो बिजनेस होगा वही आयेगा। रात को स्वप्न में भी ग्राहक व चीजे ही दिखाई देंगी। तो आप को स्वप्न में क्या आयेगा? आत्माओं को मालामाल कर रहे हैं। स्वप्न में सेवा, उठते भी सेवा, चलते-फिरते भी सेवा। इसी सेवा के आधार पर स्वयं भी सदा सम्पन्न भरपूर और औरों को भी सदा भरपूर कर सकते हो। हरेक अमूल्य रत्न हो, चाहे लण्डन का राज्य भाग्य एक तरफ रखें, दूसरे तरफ आप लोगों को रखें तो आपका भाग्य ज्यादा है। क्योंकि वह राज्य तो मिट्टी के समान हो जायेगा, आप सदा मूल्यवान हो। सदा बाप के अमूल्य रत्न हो। बापदादा एक-एक रत्न के विशेषता की माला जपते हैं। तो सदा अपने को ऐसी विशेष आत्मा समझकर हर कदम उठाते रहो। अभी सब प्रकार के बोझ समाप्त हो गये हैं ना! अभी पिंजड़े की मैना से उड़ते पंछी हो गये। कण्ठी वाले उड़ने वाले तोते बन गये। पिंजड़े वाले नहीं, बापदादा के गीत गाने वाले। लण्डन निवासी, हिन्दी जानने वालों को पहला चांस मिला है। फिर भी डायरेक्ट मुरली सुनने वाले लकी हो। ट्रान्सलेशन तो नहीं करनी पड़ती। इसको कहेंगे- तवा टू माउथ'। ट्रान्सलेशन होने में फिर भी थोड़ी तो रोटी सूखेगी ना! तो आपका भाग्य अपना है, उन्होंका भाग्य अपना है। तो सभी ऐसे नहीं समझना कि विदेश में विदेशियों की ही महिमा है। आप लोगों का संगठन देखकर यह आत्मायें भी प्रभावित हुई। आप लोग निमित्त हो। फिर भी भारतवासियों को अपने बर्थप्लेस का नशा है। अच्छा।

कुमारों से- कुमार ग्रुप अर्थात् डबल स्वतन्त्र। एक लौकिक जिम्मेवारी से स्वतन्त्र और दूसरा आत्मा सर्व बन्धनों से स्वतन्त्र। माया के बन्धन और लौकिक बन्धन से भी स्वतन्त्र। ऐसे स्वतन्त्र हो ? डबल स्वतन्त्र आत्मायें डबल सेवा भी कर सकती हैं। क्योंकि कुमारों को स्वतन्त्र होने के कारण समय बहुत है। तो समय के खज़ाने से अनेकों को सम्पत्तिवान बना सकते हो। सबसे बड़े से बड़ा खज़ाना संगमयुग का समय है। तो कुमार ग्रुप अर्थात् समय के खज़ाने से सम्पन्न और समय होने के कारण औरों की सेवा में भी सम्पन्न बन सकते हो। सेवा की सबजेक्ट में भी 100 ले सकते हो। सदा बन्धनमुक्त अर्थात् सदा योगयुक्त। संसार ही बाप हो गया ना! कुमारों का संसार क्या हैं? ‘‘बापदादा''। औरों का संसार तो हद में है लेकिन आप लोगों का एक ही बेहद का संसार है। तो सहजयोगी भी हो क्योंकि संसार में ही बुद्धि जायेगी ना! संसार ही बाप है तो बुद्धि बाप में ही जायेगी। तो कुमारों को सहजयोगी बनने की लिफ्ट है।

तो अब अशान्त आत्माओं को शान्ति देना, भटकी हुई आत्माओं को ठिकाना देना, यह बड़े से बड़ा पुण्य करते रहो। जैसे प्यासी आत्मा को पानी पिलाना पुण्य है वैसे यह सेवा करना अर्थात् पुण्य आत्मा बनना। तो किसी भी अशान्त आत्मा को देख तरस आता है ना! रहमदिल बाप के बच्चे हो तो सदा पुण्य का काम करते रहो।

अच्छा!