13-12-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


तपस्या का फाउन्डेशन बेहद का वैराग्य

अव्यक्त बापदादा अपने तपस्वीमूर्त बच्चों बच्चों के प्रति बोले :

आज बापदादा सर्व स्नेही बच्चों के स्नेह के पुष्प आर्पित करते हुए देख रहे हैं। देश विदेश के सर्व बच्चों के दिल से स्नेह के पुष्पों की वर्सा बापदादा देख रहे हैं। सभी बच्चों के मन का एक ही साज अथवा गीत सुन रहे हैं। एक ही गीत है - ''मेरा बाबा’’। चारों ओर मिलन मनाने की शुभ-आशाओं के दीप जगमगा रहे हैं। यह दिव्य दृष्य सारे कल्प में सिवाए बापदादा और बच्चों के कोई देख नहीं सकता। यह अनोखे स्नेह के पुष्प यहाँ इस पुरानी दुनिया के कोहिनूर हीरे से भी अमूल्य है। यह दिल के गीत सिवाए बच्चों के और कोई गा नहीं सकता। ऐसी दीपमाला कोई मना नहीं सकता। बापदादा के सामने सर्व बच्चे इमर्ज हैं। इस स्थूल स्थान में सभी बैठ नहीं सकते। लेकिन बापदादा का दिलतख्त अति विशाल है। इसलिए सभी को इमर्ज रूप में देख रहे हैं। सभी की यादप्यार और स्नेह भरे अधिकार के उल्हने भी सुन रहे हैं और साथ-साथ हर एक बच्चे को रिटर्न में पद्मगुणा ज्यादा यादप्यार दे रहे हैं। बच्चे अधिकार से कहते - हम सब साकार स्वरूप में मिलन मनाएं। बाप भी चाहते, बच्चे भी चाहते। फिर भी समय प्रमाण ब्रह्मा बाप अव्यक्त फरिश्ते रूप में साकार स्वरूप से अनेक गुणा तीव्रगति से सेवा करते हुए बच्चों को अपने समान बना रहे हैं। न सिर्फ एक दो वर्ष, लेकिन अनेक वर्ष अव्यक्त मिलन, अव्यक्त रूप में सेवा का अनुभव कराया और करा भी रहे हैं। तो ब्रह्मा बाप ने अव्यक्त होते भी व्यक्त में क्यों पार्ट बजाया? समान बनाने के लिए। ब्रह्मा बाप अव्यक्त से व्यक्त में आये, तो बच्चों को रिटर्न में क्या करना है? व्यक्त से अव्यक्त बनना है। समय प्रमाण अव्यक्त मिलन, अव्यक्त रूप से सेवा अभी अति आवश्यक है। इसलिए समय प्रति समय बापदादा अव्यक्त मिलन की अनुभूति का इशारा देते रहते हैं। इसके लिए तपस्या वर्ष भी मना रहे हो ना। बापदादा को हर्ष है कि मैजारिटी बच्चों को उमंग-उत्साह अच्छा है। मैनारिटी ऐसा सोचते हैं कि प्रोग्राम प्रमाण करना ही है। एक है प्रोग्राम से करना और दूसरा है दिल के उमंग-उत्साह से करना। हर एक अपने से पूछे - मैं किसमें हूँ?

समय की परिस्थितियों के प्रमाण, स्व की उन्नति के प्रमाण, तीव्र गति के सेवा के प्रमाण, बापदादा के स्नेह के रिटर्न देने के प्रमाण तपस्या अति आवश्यक है। प्यार करना अति सहज है और सब करते हैं - यह भी बाप जानते हैं लेकिन रिटर्न स्वरूप में बापदादा समान बनना है। इस समय बापदादा यह देखने चाहते हैं। इसमें कोई में कोई निकलता है। चाहना सभी की है। लेकिन चाहने वाले और करने वाले - इसमें संख्या का अन्तर है। क्योंकि तपस्या का सदा और सहज फाउन्डेशन है - बेहद का वैराग्य। बेहद का वैराग्य अर्थात् चारों ओर के किनारे छोड़ देना। क्योंकि किनारे को सहारा बना दिया है। समय प्रमाण प्यारे बने और समय प्रमाण श्रीमत पर निमित्त बनी हुई आत्माओं के इशारे प्रमाण सेकेण्ड में बुद्धि प्यारे से फिर न्यारी बन जाये, वह नहीं होती। जितना जल्दी प्यारे बनते हो, उतने न्यारे नहीं बनते हो। प्यारे बनने में होशियार है, न्यारे बनने में सोचते हैं, हिम्मत चाहिए। न्यारा बनना ही किनारा छोड़ना है और किनारा छोड़ना ही बेहद की वैराग्य वृत्ति है। किनारों को सहारा बनाए पकड़ना आता है लेकिन छोड़ने में क्या करते हो? लम्बा क्वेश्चन मार्क लगा देते हो। सेवा का इन्चार्ज बनना बहुत अच्छा आता है लेकिन इन्चार्ज के साथ-साथ स्वयं की और औरों की बैटरी चार्ज करने में मुश्किल लगता है। इसलिए वर्तमान समय तपस्या द्वारा वैराग्य वृत्ति की अति आवश्यकता है।

तपस्या की सफलता का विशेष आधार वा सहज साधन है - एक शब्द का पाठ पक्का करो। दो-तीन लिखना मुश्किल होता है। एक लिखना बहुत सहज है। तपस्या अर्थात् एक का बनना। जिसको बापदादा एकनामी कहते हैं। तपस्या अर्थात् मन-बुद्धि को एकाग्र करना, तपस्या अर्थात् एकान्त-प्रिय रहना, तपस्या अर्थात् स्थिति को एकरस रखना, तपस्या अर्थात् सर्व प्राप्त खज़ानों को व्यर्थ से बचाना अर्थात् इकॉनामी से चलना। तो एक का पाठ पक्का हुआ ना - एक का पाठ मुश्किल है वा सहज है? है तो सहज, लेकिन - ऐसी भाषा तो नहीं बोलेंगे ना।

बहुत-बहुत भाग्यवान हो। अनेक प्रकार की मेहनत से छूट गये। दुनिया वालों को समय करायेगा और समय पर मजबूरी से करेंगे। बच्चों को बाप समय के पहले तैयार करते हैं और बाप की मोहब्बत से करते हो। अगर मोहब्बत से नहीं किया वा थोड़ा किया तो क्या होगा? मजबूरी से करना ही पड़ेगा। बेहद का वैराग्य धारण करना ही होगा लेकिन मजबूरी से करने का फल नहीं मिलता। मोहब्बत का प्रत्यक्षफल भविष्य फल बनता है और मजबूरी वालों को कहाँ से क्रॉस करना पड़ेगा! क्रॉस करना भी क्रॉस में चढ़ने के समान है। तो क्या पसन्द है? मोहब्बत से करेंगे। बापदादा कभी किनारों की लिस्ट सुनायेंगे। ऐसे तो जानने में होशियार हो। रिवाइज़ करायेंगे। क्योंकि बापदादा तो बच्चों की हर रोज की दिनचर्या जब चाहे तब देख सकते हैं। एक एक के देखने का सारा दिन धन्धा नहीं करते। साकार ब्रह्मा बाप को देखा उनकी नजर स्वत: ही कहाँ पड़ती थी। चाहे आपका पत्र हो, चाहे पोतामेल हो, चाहे कोई चालचलन हो, चाहे कोई आठ पेज का पत्र हो लेकिन बाप की नज़र कहाँ पड़ती? जहाँ डायरेक्शन देना होगा, जहाँ आवश्यकता होगी। बापदादा देखते भी सब हैं, लेकिन नहीं भी देखते हैं। जानते भी हैं, नहीं भी जानते। जो आवश्यक नहीं - वह न देखते हैं, न जानते हैं। खेल तो बहुत अच्छे देखते हैं वह फिर कभी सुनायेंगे। अच्छा।

तपस्या करना, बेहद की वैराग्य वृत्ति में रहना सहज है ना। किनारों को छोड़ना मुश्किल है? लेकिन बनना भी आपको ही है। कल्प-कल्प की प्राप्ति के अधिकारी बने हो और अवश्य बनेंगे। अच्छा। इस वर्ष कल्प पहले वाले अनेक कल्पों के पुराने और इस कल्प के नये बच्चों को चांस मिला है। तो चांस मिलने की खुशी है ना? मैजारिटी नये हैं, टीचर्स पुरानी हैं। तो टीचर क्या करेंगी?  वैराग्य वृत्ति धारण करेंगी ना?  किनारा छोड़ेंगी?  कि उस समय कहेंगी कि करने तो चाहते हैं लेकिन कैसे करें? करके दिखलाने वाले हो कि सुनाने वाले हो? जो भी चारों ओर के बच्चे आये हुए हैं सब बच्चों को बापदादा साकार रूप में देखने से हर्षित हो रहे हैं। हिम्मत रखी है और मदद बाप की सदा है ही। इसलिए सदैव हिम्मत से मदद के अधिकार को अनुभव करते सहज उड़ते चलो। बाप मदद देते हैं लेकिन लेने वाले लेवे। दाता देता है लेकिन लेने वाले यथा शक्ति बन जाते हैं। तो यथा शक्ति नहीं बनना। सदा सर्वशक्तिवान बनना। तो पीछे आने वाले भी आगे नम्बर ले लेंगे। समझा। सर्वशक्तियों के अधिकार को पूरा प्राप्त करो। अच्छा।

चारों ओर के सर्वस्नेही आत्माएं, सदा बाप के प्यार का रिटर्न देने वाले, अनन्य आत्माएं, सदा तपस्वी मूर्त स्थिति में स्थित रहने वाले, बाप की समीप आत्माएं, सदा बाप के समान बनने के लक्ष्य को लक्षण रूप में लाने वाले, ऐसे देश-विदेश के सर्व बच्चों को दिलाराम बाप की दिल व जान, सिक व प्रेम से यादप्यार और नमस्ते।''

दादियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

अष्ट शक्तिधारी, इष्ट और अष्ट हो ना। अष्ट की निशानी क्या है, जानते हो? हर कर्म में समय प्रमाण, परिस्थिति प्रमाण, हर शक्ति कर्म में लाने वाले। अष्ट शक्तियाँ इष्ट भी बना देती हैं और अष्ट भी बना देती हैं। अष्ट शक्तियाँधारी हो इसलिए आठ भुजायें दिखाते हैं। विशेष आठ शक्तियाँ हैं। वैसे है तो बहुत, लेकिन आठ में मैजारिटी आ जाती है। विशेष शक्तियों को समय पर कार्य में लाना है। जैसा समय, जैसी परिस्थिति वैसी स्थिति हो। इसको कहते हैं अष्ट वा इष्ट। तो ऐसा ग्रुप तैयार है ना? विदेश में कितने तैयार हैं? अष्ट में आने वाले हैं ना? अच्छा।

(सवेरे ब्रह्म मुहूर्त के समय सन्तरी दादी ने शरीर छोड़ा)

अच्छा है, जाना तो सबको ही है। एवररेडी हो या याद आयेगा - मेरा सेन्टर, अभी जिज्ञासुओं का क्या होगा? मेरा-मेरा तो याद नहीं आयेगा ना? जाना तो सबको है लेकिन हर एक के हिसाब अपने-अपने हैं। हिसाब-किताब चुक्तु करने के बिना कोई जा नहीं सकता। इसलिए सबने खुशी से छुट्टी दी। सबको अच्छा लगा ना। ऐसा जाना अच्छा है ना। तो आप भी एवररेडी हो जाना। अच्छा।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

प्रथम ग्रुप - दिल्ली और पंजाब दोनों ही सेवा के आदि स्थान हैं। स्थापना के स्थान सदा ही महत्वपूर्वक देखे जाते हैं, गाये जाते हैं। जैसे सेवा में आदि स्थान है, वैसे स्थिति में आदि रत्न हो? स्थान के साथ-साथ स्थिति की भी महिमा है ना। आदि रत्न अर्थात् हर श्रीमत को जीवन में लाने की आदि करने वाले। सिर्फ सुनने-सुनाने वाले नहीं, करने वाले। क्योंकि सुनने-सुनाने वाले तो अनेक हैं लेकिन करने वाले कोटो में कोई हैं। तो यह नशा रहता है कि हम कोटो में कोई हैं? यह रूहानी नशा, माया के नशों से छुड़ा देता है। यह रूहानी नशा सेफ्टी का साधन है। कोई भी माया का नशा - पहनने का, खाने का, देखने का अपनी तरफ आकार्षित नहीं कर सकता। ऐसे नशे में रहते हो या माया थोड़ा-थोड़ा आकार्षित करती है। अभी समझदार बन गये हो ना। माया की भी समझ है। समझदार कभी धोखा नहीं खाते। अगर समझदार कभी धोखा खा ले तो उसको सभी क्या कहेंगे? समझदार और धोखा खा लिया। धोखा खाना अर्थात् दु:ख का आह्वान करना। जब धोखा खाते हो तो उससे दु:ख मिलता है ना। तो दु:ख को कोई लेना चाहता है क्या? इसलिए सदा आदि रत्न हैं अर्थात् हर श्रीमत की आदि अपने जीवन में करने वाले। ऐसे हो? या देखते हो - पहले दूसरा करे, फिर हम करेंगे? यह नहीं करते तो हम कैसे करेंगे! करने में पहले मैं। दूसरा बदले, फिर मैं बदलूँ... यह भी बदले तो मैं बदलूँ... नहीं, जो करेगा वो पायेगा, और कितना पायेंगे? एक का पद्मगुणा। तो करने में मजा है ना। एक करो और पद्म पाओ। इसमें तो प्राप्ति ही प्राप्ति है। इसलिए प्रैक्टिकल श्रीमत को लाने में पहले मैं। माया के वश होने में पहले मैं नहीं, लेकिन इस पुरूषार्थ में पहले मैं - तभी सफलता हर कदम में अनुभव करेंगे। सफलता हुई पड़ी है। सिर्फ थोड़ा सा रास्ता बदली कर देते हो, बदली करने से मंज़ल दूर हो जाती है, समय लगता है। अगर कोई रांग रास्ते पर चला जायेगा। तो मंज़ल दूर हो जायेगी ना। तो ऐसे नहीं करना। मंज़िल सामने खड़ी है, सफलता हुई पड़ी है। जब कभी मेहनत करनी पड़ती है तो मोहब्बत का पलड़ा हल्का होता है। अगर मोहब्बत हो तो मेहनत कभी नहीं कर सकते। क्योंकि बाप अनेक भुजाओं सहित आपकी मदद करेगा। वो अपनी भुजाओं से सेकेण्ड में कार्य सफल कर देगा। पुरूषार्थ में सदा उड़ते रहेंगे। पंजाब वाले उड़ते हो या डरते हो? पक्के अनुभवी हो गये हो? कोई डरने वाले हो? क्या होगा, कैसे होगा..! नहीं। उन्हों को भी शान्ति का दान देने वाले हो। कोई भी आये शान्ति लेकर जाये, खाली हाथ नहीं जाये। चाहे ज्ञान नहीं दो लेकिन शान्ति के वायब्रेशन भी शान्त कर देते हैं। अच्छा।

(2) चारों तरफ से आई हुई श्रेष्ठ आत्माएं सभी ब्राह्मण हो, न कि राजस्थानी, न महाराष्ट्रीय, मध्य प्रदेश... सब एक हो। इस समय सभी मधुबन निवासी हो। ब्राह्मणों का ओरीजनल स्थान मधुबन है। सेवा के लिए भिन्न-भिन्न एरिया में गये हुए हो। यदि एक ही स्थान पर बैठ जाओ तो चारों ओर की सेवा कैसे होगी? इसलिए सेवा अर्थ भिन्न-भिन्न स्थानों पर गये हो। चाहे लौकिक में बिजनेसमेन हो या गवर्नमेन्ट सर्वेन्ट हो, या फैक्टरी में काम करने वाले हो.... लेकिन ओरीजनल आक्यूपेशन ईश्वरीय सेवाधारी हो। माताएं भी घर में रहते ईश्वरीय सेवा पर हैं। ज्ञान चाहे कोई सुने या न सुने, शुभ-भावना, शुभ-कामना को वायब्रेशन से भी बदलते हैं। सिर्फ वाणी की सेवा ही सेवा नहीं है, शुभ-भावना रखना भी सेवा है। तो दोनों ही सेवाएं करना आती हैं ना? कोई आपको गाली भी दे तो भी आप शुभ-भावना, शुभ-कामना नहीं छोड़ो। ब्राह्मणों का काम है - कुछ न कुछ देना। तो यह शुभ-भावना, शुभ-कामना रखना भी शिक्षा देना है। सभी वाणी से नहीं बदलते हैं। कैसा भी हो लेकिन कुछ न कुछ अंचली जरूर दो। चाहे पक्का रावण ही क्यों न हो। कई माताएं कहती है ना - हमारे सम्बन्धी पक्के रावण हैं, बदलने वाले नहीं हैं, ऐसी आत्माओं को भी अपने खज़ानें से, शुभ-भावना, शुभ-कामना की अंचली जरूर दो। कोई गाली देता है तो भी उनके मुख से क्या निकलता है? यह ब्रह्मा कुमारियाँ हैं... तो ब्रह्मा बाप को तो याद करते हैं, चाहे गाली भी देते लेकिन ब्रह्मा तो कहते हैं। फिर भी बाप का नाम तो लेते हैं ना। चाहे जाने व न जाने, आप फिर भी उनको अंचली दो। ऐसी अंचली देते हो या जो नहीं सुनता है उसको छोड़ देते हो? छोड़ना नहीं, नहीं तो पीछे आपके कान पकड़ेंगे, उल्हना देंगे - हम तो बेसमझ थे, आपने क्यों नहीं दिया। तो कान पकड़ेंगे ना। आप देते जाओ, कोई ले या न ले। बापदादा रोज इतना खज़ाना बच्चों को देते हैं। कोई पूरा लेते हैं, कोई यथा शक्ति लेते हैं। फिर बापदादा कभी कहते हैं - मैं नहीं दूँगा? क्यों नहीं लेते हो? तो ब्राह्मणों का कत्तव्य है देना। दाता के बच्चे हो ना। वो अच्छा कहे, फिर आप दो तो यह लेवता हुए। लेवता कभी दाता के बच्चे हो नहीं सकते, देवता नहीं बन सकते। आप देवता बनने वाले हो ना? देवताई चोला तैयार है ना? या अभी सिलाई हो रहा है, धुलाई हो रहा है या सिर्फ प्रेस रह गई है? देवताई चोला सामने दिखाई देना चाहिए। आज फरिश्ता, कल देवता। कितनी बार देवता बने हो? तो सदैव अपने को दाता के बच्चे और देवता बनने वाले हैं - यही याद रखो। दाता के बच्चे लेकर नहीं देते। मान मिले, रिगार्ड दे तो दूँ - ऐसा नहीं। सदा दाता के बच्चे देने वाले। ऐसा नशा सदा रहता है ना। या कभी कम होता है, कभी ज्यादा? अभी माया को विदाई नहीं दी है? धीरे-धीरे नहीं देना - इतना समय नहीं है। एक तो आये देरी से हो और फिर धीरे धीरे पुरूषार्थ करेंगे तो पहुँच नहीं सकेंगे। निश्चय हुआ, नशा चढ़ा और उड़ो। अभी उड़ती कला का समय है। उड़ना फास्ट होता है ना। आप लकी हो - उड़ने के टाइम पर आये हो। तो सदैव अपने को ऐसा ही अनुभव करो कि हम बहुत बड़े भाग्यवान हैं। ऐसा भाग्य फिर सारे कल्प में नहीं मिल सकता। तो दाता के बच्चे बनो, लेने का संकल्प भी न हो। पैसे दे, कपड़ा दे, खाना दे। दाता के बच्चे को सब स्वत: ही प्राप्त होता है। मांगने वालो को नहीं मिलता है। दाता बनो तो आपे ही मिलता रहेगा। अच्छा।

(3) महाराष्ट्र में रहते हुए सच्चे स्वरूप में महान बन गये - यह खुशी रहती है ना? वे तो नामधारी महान हैं, महात्माएं हैं, लेकिन आप प्रैक्टिकल स्वरूप से महात्माएं हो। यह खुशी है ना? तो महान आत्माएं सदैव ऊंची स्थिति में रहती हैं। वो लोग तो ऊंचे आसन पर बैठ जाते हैं, शिष्यों को नीचे बिठायेंगे, खुद ऊंचे बैठैंगे लेकिन आप कहाँ बैठते हो? ऊंची स्थिति के आसन पर। ऊंची स्थिति ही ऊंचा आसन है। जब ऊंची स्थिति के आसन पर रहते हो तो माया नहीं आ सकती। वो आपको महान समझकर आपके आगे झुकेगी। वार नहीं करेगी, हार मानेगी। जब ऊंचे आसन से नीचे आते हो तब माया वार करती है। अगर सदा ऊंचे आसन पर रहो तो माया के आने की ताकत नहीं। वह ऊंचे चढ़ नहीं सकती। तो कितना सहज आसन मिल गया है! भाग्य के आगे त्याग कुछ भी नहीं है। छोड़ा भी क्या? जेवर पड़े हैं, कपड़े पड़े हैं, घर में रहते हो। अगर छोड़ा है तो किचड़े को छोड़ा है। तो सदा श्रेष्ठ आसन पर स्थित रहने वाली महान आत्माएं हो। जितना सोचा नहीं था उतना ही अति श्रेष्ठ प्राप्ति के अधिकारी बन गये। इस भाग्य की खुशी है ना? दुनिया में खुशी नहीं है। काला पैसा है लेकिन खुशी नहीं है। खुशी के खज़ानें से सब गरीब हैं, भिखारी हैं। आप खुशी के खज़ानें से भरपूर हो। यह खुशी कितना समय चलेगी? सारा कल्प चलती रहेगी। आपके जड़ चित्रों से भी खुशी लेंगे। तो चेक करो कि इतनी खुशी जमा हुई है? ऐसे तो नहीं सिर्फ एक दो जन्म चलेगी, फिर खत्म हो जायेगी! इतना स्टॉक जमा करो जो अनेक जन्म साथ रहे। जिसके पास जितना जमा होता है उतना उसके चेहरे पर खुशी और नशा रहता है। आप कहो, न कहो, लेकिन आपकी सूरत बोलेगी। कहते हैं ना - ब्रह्माकुमारियाँ सदा खुश रहती हैं, पता नहीं क्या हुआ है इनको? दु:ख में भी खुश रहती हैं। आप बोलो, न बोलो, आपकी सुरत, आपके कर्म बोलते हैं। ब्रह्माकुमार कुमारियों की निशानी ही है - खुश रहना। दु:ख के दिन खत्म हो गये। इतना खज़ाना मिला, फिर दु:ख कहाँ से आयेगा? अच्छा।



31-12-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


तपस्या ही बड़े ते बड़ा समारोह है, तपस्या अर्थात् बाप से मौज मनाना

सदा मौज में रहने वाली भाग्यवान आत्माओं प्रति बापदादा बोले: -

आज बापदादा चारों ओर के सर्व नये नालेज द्वारा हर समय नये जीवन, नई वृत्ति, नई दृष्टि, नई सृष्टि अनुभव करने वाले बच्चों को मोहब्बत की मुबारक दे रहे हैं। इस समय चारों ओर के बच्चे अपने दिल रूपी दूरदर्शन द्वारा वर्तमान समय के दिव्य दृष्य को देख रहे हैं। सभी का एक ही संकल्प दूर होते समीप करने का है। बापदादा भी सभी बच्चों को देख रहे हैं। सभी के नये उमंग-उत्साह के दिल के मुबारकों के साज सुन रहे हैं। सभी के वैरायटी स्नेह भरे साज बहुत सुन्दर हैं। इसलिए सभी को साथ-साथ रिटर्न रेसपान्ड कर रहे हैं। नये वर्ष की नये उमंग उत्साह की हर समय अपने में दिव्यता लाने की सदा की मुबारक हो। सिर्फ आज नये वर्ष के कारण मुबारक नहीं, लेकिन अविनाशी बाप की अविनाशी प्रीत निभाने वाले बच्चों प्रति संगमयुग की हर घड़ी जीवन में नवीनता लाने वाली है। इसलिए हर घड़ी अविनाशी बाप की अविनाशी मुबारकें हैं। बापदादा की विशेष खुशियों भरी बधाइयों से ही सर्व ब्राह्मण वृद्धि को प्राप्त कर रहे हैं। ब्राह्मण जीवन की पालना का आधार बधाइयाँ हैं। बधाइयों की खुशी से ही आगे बढ़ते जा रहे हो। बाप के स्वरूप में हर समय बधाइयाँ हैं। शिक्षक के स्वरूप से हर समय शाबास शाबास का बोल पास विद् आनर बना रहा है। सतगुरु के रूप में हर श्रेष्ठ कर्म की दुआएं सहज और मौज वाली जीवन अनुभव करा रही हैं। इसलिए पद्मापद्म भाग्यवान हो। भाग्यविधाता भगवान के बच्चे बन गये। अर्थात् सम्पूर्ण भाग्य के अधिकारी बन गये। लोग तो विशेष दिन पर विशेष मुबारक देते हैं। और आपको सिर्फ नये वर्ष की मुबारक मिलती है क्या? पहली तारीख से दूसरी तारीख हो जायेगी तो मुबारक भी खत्म हो जायेगी क्या? आपके लिए हर समय, हर घड़ी विशेष है। संगमयुग है ही विशेष युग, मुबारकों का युग। अमृतवेले हर रोज बाप से मुबारकें लेते हो ना! ये तो निमित्त मात्र दिन को मनाते हो। लेकिन सदा याद रखो कि हर घड़ी मौजों की घड़ी है। मौज ही मौज है ना? कोई पूछे आपके जीवन में क्या है? तो क्या उत्तर देंगे? मौज ही मौज है ना! सारे कल्प की मौजें इस जीवन में अनुभव करते हो। क्योंकि बाप से मिलन की मौजों का अनुभव सारे कल्प के राज्य अधिकारी और पूज्य अधिकारी दोनों का अनुभव कराते हैं। पूज्यपन की मौज और राज्य करने की मौज - दोनों का नॉलेज अभी है। इसलिए मौज अब है।

इस वर्ष क्या करेंगे? नवीनता करेंगे ना! इस वर्ष को समारोह वर्ष मनाना। सोच रहे हो तपस्या करनी है या समारोह मनाना है? तपस्या ही बड़े ते बड़ा समारोह है। क्योंकि हठयोग तो करना नहीं है। तपस्या अर्थात् बाप से मौज मनाना। मिलन की मौज, सर्व प्राप्तियों की मौज, समीपता के अनुभव की मौज, समान स्थिति की मौज। तो ये समारोह हुआ ना। सेवा के बड़े-बड़े समारोह नहीं करेंगे, लेकिन तपस्या का वातावरण वाणी के समारोह से भी ज्यादा आत्माओं को बाप की तरफ आकर्षित करेगा। तपस्या रूहानी चुम्बक है जो आत्माओं को शान्ति और शक्ति के अनुभव का दूर से अनुभव होगा। तो अपने में क्या नवीनता लायेंगे? नवीनता ही सबको प्रिय लगती है ना। तो सदैव अपने को चेक करो कि आज के दिन मन्सा अर्थात् स्वयं के संकल्प शक्ति में विशेष क्या विशेषता लाई? और अन्य आत्माओं के प्रति मन्सा सेवा अर्थात् शुभ भावना, शुभ कामना के विधि द्वारा कितना वृद्धि को प्राप्त किया? अर्थात् श्रेष्ठता की नवीनता क्या लाई? साथ-साथ बोल में मधुरता, सन्तुष्टता, सरलता की नवीनता कितनी लाई? ब्राह्मण आत्माओं के बोल साधारण बोल नहीं होते। बोल में इन तीनों बातों में से अपने को और अन्य आत्माओं को अनुभूति हो। इसको कहा जायेगा नवीनता। साथ में हर कर्म में नवीनता अर्थात् हर कर्म स्व के प्रति व अन्य आत्मा के प्रति प्राप्ति का अनुभव करायेगा। कर्म का प्रत्यक्षफल व भविष्य जमा का फल अनुभव हो। वर्तमान समय प्रत्यक्षफल सदा खुशी और शक्ति की प्रसन्नता की अनुभूति हो और भविष्य जमा का अनुभव हो। तो सदैव अपने को भरपूर सम्पन्न अनुभव करेंगे। कर्म रूपी बीज प्राप्ति के वृक्ष से भरपूर हो। खाली नहीं हो। भरपूर आत्मा का नेचुरल नशा अलौकिक होता है। तो ऐसे नवीनता के कर्म किये? साथ में सम्बन्ध-संपर्क इसमें नवीनता क्या लानी है? इस वर्ष दाता के बच्चे मास्टर दाता - इस स्मृति स्वरूप में अनुभव करो। चाहे ब्राह्मण आत्मा हो, चाहे साधारण आत्मा हो लेकिन जिसके भी सम्पर्क-सम्बन्ध में आओ,उन आत्माओं को मास्टर दाता द्वारा प्राप्ति का अनुभव हो। चाहे हिम्मत मिले, चाहे उल्लास-उत्साह मिले, चाहे शान्ति वा शक्ति मिले, सहज विधि मिले, खुशी मिले - अनुभव की वृद्धि की अनुभूति हो। हरेक को कुछ न कुछ देना है, लेना नहीं है, देना है। देने में लेना समाया हुआ है। लेकिन मुझ आत्मा को मास्टर दाता बनना है। इसी प्रमाण अपने स्वभाव संस्कार में बाप समान की नवीनता लानी है। मेरा स्वभाव नहीं, जो बाप का स्वभाव सो मेरा स्वभाव। जो ब्रह्मा के संस्कार वो ब्राह्मणों के संस्कार। ऐसे हर रोज अपने में नवीनता लाते हुए नये संसार की स्थापना स्वत: ही हो जायेगी। तो समझा नये वर्ष में क्या करेंगे? जो बीत चुका तो बीते वर्ष का समाप्ति समारोह मनाना और वर्तमान का समानता और समीपता का समारोह मनाना और भविष्य का सदा सफलता का समारोह मनाना। समारोह वर्ष मनाते उड़ते रहना।

डबल विदेशी मौजों में रहना पसन्द करते हैं ना! तो मौजों के लिए दो बोल याद रखना एक डॉट (DOT) और दूसरा नॉट (NOT)। नॉट किसको करना है - यह तो जानते हो ना। माया को नॉट एलाऊ। नॉट करना आता है? कि थोड़ा-थोड़ा एलाऊ करेंगे। डॉट लगा दो तो नॉट हो ही जायेगा। डबल नशा है ना।

भारतवासी क्या करेंगे? भारत महान देश है - यह आजकल का स्लोगन है। और भारत की ही महान आत्माएं महात्माएं गाई हुई हैं। तो भारत महान अर्थात् भारतवासी महान आत्माएं। तो हर समय अपनी महानता से भारत महान आत्माओं का स्थान, देव आत्माओं का स्थान साकार रूप में बनायेंगे। चित्र समाप्त हो चैतन्य देव आत्माओं का स्थान सभी को दिखायेंगे। तो डबल विदेशी और भारत निवासी नहीं, लेकिन दोनों ही अभी मधुबन निवासी हो। अच्छा।

चारों ओर के सर्व मास्टर दाता आत्माओं को, सदा बाप द्वारा मुबारक प्राप्त करने वाले विशेष आत्माओं का, सदा मौज में रहनेवाले भाग्यवान आत्माओं को, सदा स्वयं में नवीनता लाने वाली महान आत्माओं को, फरिश्ता सो देव आत्मा बनने वाले सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार। हर घड़ी की मुबारक और नमस्ते।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

(1) अचल-अडोल आत्माएं हैं - ऐसा अनुभव करते हो? एक तरफ है हलचल और दूसरी तरफ आप ब्राह्मण आत्माएं सदा अचल हैं। जितनी वहाँ हलचल है उतनी आपके अन्दर अचल-अडोल स्थिति का अनुभव बढ़ता जा रहा है। कुछ भी हो जाये, सबसे सहज युक्ति है - नाथिंग न्यु। कोई नई बात नहीं है। कभी आश्चर्य लगता है कि यह क्या हो रहा है, क्या होगा? आश्चर्य तब हो जब नई बात हो। कोई भी बात सोची नहीं हो, सुनी नहीं हो, समझी नहीं हो और अचानक होती है तो आश्चर्य लगता है। तो आश्चर्य नहीं लेकिन फुलस्टॉप हो। दुनिया मूँझने वाली और आप मौज में रहने वाले हो। दुनिया वाले छोटी-छोटी बात में मूँझेंगे - क्या करें, कैसे करें...। और आप सदा मौज में हो, मूँझना खत्म हो गया। ब्राह्मण अर्थात् मौज, क्षत्रिय अर्थात् मूँझना। कभी मौज, कभी मूँझ। आप सभी अपना नाम ही कहते हो - ब्रह्माकुमार और कुमारियाँ। क्षत्रिय कुमार और क्षत्रिय कुमारी तो नहीं हो ना? सदा अपने भाग्य की खुशी में रहने वाले हो। दिल में सदा, स्वत: एक गीत बजता रहता - वाह बाबा और वाह मेरा भाग्य। यह गीत बजता रहता है, इसको बजाने की आवश्यकता नहीं है। यह अनादि बजता ही रहता है। हाय-हाय खत्म हो गई, अभी है वाह-वाह। हाय-हाय करने वाले तो बहुत मैजारिटी हैं और वाह वाह करने वाले बहुत थोड़े हो। तो नये वर्ष में क्या याद रखेंगे? वाह-वाह। जो सामने देखा, जो सुना, जो बोला - सब वाह-वाह, हाय-हाय नहीं। हाय ये क्या हो गया! नहीं, वाह, ये बहुत अच्छा हुआ। कोई बुरा भी करे लेकिन आप अपनी शक्ति से बुरे को अच्छे में बदल दो। यही तो परिवर्तन है ना। अपने ब्राह्मण जीवन में बुरा होता ही नहीं। चाहे कोई गाली भी देता है तो बलिहारी गाली देने वाले की, जो सहन शक्ति का पाठ पढ़ाया। बलिहारी तो हुई ना, जो मास्टर बन गया आपका! मालूम तो पड़ा आपको कि सहन शक्ति कितनी है, तो बुरा हुआ या अच्छा हुआ? ब्राह्मणों की दृष्टि में बुरा होता ही नहीं। ब्राह्मणों के कानों में बुरा सुनाई देता ही नहीं। इसलिए तो ब्राह्मण जीवन मौजों की जीवन है। अभी-अभी बुरा, अभी-अभी अच्छा तो मौज नहीं हो सकेगी। सदा मौज ही मौज है। सारे कल्प में ब्रह्माकुमार और कुमारी श्रेष्ठ हैं। देव आत्माएं भी ब्राह्मणों के आगे कुछ नहीं हैं। सदा इस नशे में रहो, सदा खुश रहो और दूसरों को भी सदा खुश रखो। रहो भी और रखो भी। मैं तो खुश रहता हूँ, ये नहीं। मैं सबको खुश रखता हूँ - यह भी हो। मैं तो खुश रहता हूँ - यह भी स्वार्थ है। ब्राह्मणों की सेवा क्या है? ज्ञान देते ही हो

खुशी के लिए।

(2) विश्व में जितनी भी श्रेष्ठ आत्माएं गाई जाती हैं उनसे आप कितने श्रेष्ठ हो। बाप आपका बन गया। तो आप कितने श्रेष्ठ बन गये! सर्वश्रेष्ठ हो गये। सदैव यह स्मृति में रखो - ऊंचे ते ऊंचे बाप ने सर्वश्रेष्ठ आत्मा बना दिया। दृष्टि कितनी ऊंची हो गई, वृत्ति कितनी ऊंची हो गई! सब बदल गया। अब किसी को देखेंगे तो आत्मिक दृष्टि से देखेंगे और सर्व के प्रति कल्याण की वृत्ति हो गई। ब्राह्मण जीवन अर्थात् हर आत्मा के प्रति दृष्टि और वृत्ति श्रेष्ठ बन गई।

(3) अपने आपको सफलता के सितारे हैं - ऐसे अनुभव करते हो? जहाँ सर्वशक्तियाँ हैं, वहाँ सफलता जन्म सिद्ध अधिकार है। कोई भी कार्य करते हो, चाहे शरीर निर्वाह अर्थ, चाहे ईश्वरीय सेवा अर्थ। कार्य में कार्य करने के पहले यह निश्चय रखो। निश्चय रखना अच्छी बात है लेकिन प्रैक्टिकल अनुभवी आत्मा बन निश्चय और नशे में रहो। सर्व शक्तियाँ इस ब्राह्मण जीवन में सफलता के सहज साधन हैं। सर्व शक्तियों के मालिक हो इसलिए किसी भी शक्ति को जिस समय आर्डर करो, उस समय हाजिर हो। जैसे कोई सेवाधारी होते हैं, सेवाधारी का जिस समय आर्डर करते हैं तो सेवा के लिए तैयार होता है ऐसे सर्व शक्तियाँ आपके आर्डर में हो। जितना-जितना मास्टर सर्वशक्तिवान की सीट पर सेट होंगे उतना सर्वशक्तियाँ सदा आर्डर में रहेंगी। थोड़ा भी स्मृति की सीट से नीचे आते हैं तो शक्तियाँ आर्डर नहीं मानेंगी। सर्वेन्ट भी होते है तो कोई ओबीडियेन्ट होते हैं, कोई थोड़ा नीचे-ऊपर करने वाले होते हैं। तो आपके आगे सर्वशक्तियाँ कैसे हैं? ओबिडियेन्ट हैं या थोड़े देर के बाद पहुँचती है। जैसे इन स्थूल कर्मेन्द्रियों को, जिस समय, जैसा आर्डर करते हो, उस समय वो आर्डर से चलती है? ऐसे ही ये सूक्ष्म शक्तियाँ भी आपके आर्डर पर चलने वाली हो। चेक करो कि सारे दिन में सर्वशक्तियाँ आर्डर में रहीं? क्योंकि जब ये सर्वशक्तियाँ अभी से आपके आर्डर पर होंगी तब ही अन्त में भी आप सफलता को प्राप्त कर सकेंगे। इसके लिए बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। तो इस नये वर्ष में आर्डर पर चलाने का विशेष अभ्यास करना। क्योंकि विश्व का राज्य प्राप्त करना है ना। विश्व राज्य अधिकारी बनने के पहले स्वराज्य अधिकारी बनो। निश्चय और नशा हर एक बच्चे को उड़ती कला का अनुभव करा रहा है। डबल फॉरेनर्स लकी हैं जो उड़ती कला के टाइम पर आ गये। चढ़ने की मेहनत नहीं करनी पड़ी। विजय का तिलक सदा मस्तक पर चमक रहा है। यही विजय का तिलक औरों को खुशी दिलायेगा। क्योंकि विजयी आत्मा का चेहरा सदा ही हर्षित रहता है। तो आपके हर्षित चेहरे को देखकर सब खुशी के पीछे आकर्षित होते हैं। क्योंकि दुनिया की आत्माएं खुशी को ढूँढ रही हैं और आपके चेहरों पर जब खुशी की झलक देखते तो खुद भी खुश होते। वो समझते हैं इन्हों को कुछ प्राप्ति हुई है। आगे चलकर आपके चेहरे खुशी की आकर्षण से और नजदीक लायेंगे। किसी को सुनने का समय नहीं भी होगा तो सेकेण्ड में आपका चेहरा उन आत्माओं की सेवा करेगा। आप सभी भी प्यार और खुशी को देखकर ब्राह्मण बने ना। तो तपस्या वर्ष में ऐसी सेवा करना। (4) एक बाप, दूसरा न कोई - ऐसी स्थिति में सदा स्थित रहने वाली सहयोगी आत्मा हो? एक को याद करना सहज है। अनेकों को याद करना मुश्किल होता है। अनेक विस्तार को छोड़ सार स्वरूप एक बाप - इस अनुभव में कितनी खुशी होती है। खुशी जन्म सिद्ध अधिकार है, बाप का खज़ाना है तो बाप का खज़ाना बच्चों के लिए जन्म सिद्ध अधिकार होता है। अपना खज़ाना है तो अपने पर नाज होता है - अपना है। और मिला भी किससे है? अविनाशी बाप से। तो अविनाशी बाप जो देगा, अविनाशी देगा। अविनाशी खज़ाने का नशा भी अविनाशी है। यह नशा कोई छुड़ा नहीं सकता क्योंकि यह नुकसान वाला नशा नहीं है। यह प्राप्ति कराने वाला नशा है। वह प्राप्तियाँ गंवाने वाला नशा है। तो सदा क्या याद रहता? एक बाप, दूसरा न कोई। दूसरा-तीसरा आया तो खिटखिट होगी। और एक बाप है तो एकरस स्थिति होगी। एक के रस में लवलीन रहना बहुत अच्छा लगता है। क्योंकि आत्मा का ओरीजनल स्वरूप ही है - एकरस।

विदाई के समय नये वर्ष 1991 के शुभारम्भ की बधाई बापदादा ने सभी बच्चों को दी...

चारों ओर के लवली और लकी सभी बच्चों को विशेष नये उमंग, नये उत्साह की हर घड़ी की मुबारक। स्वयं भी डायमंड हो और जीवन भी डायमंड है और डायमंड मोर्निंग, इवनिंग, डायमंड नाइट सदा रहे। इसी विधि से बहुत जल्दी अपना राज्य स्थापन करेंगे और राज्य करेंगे। अपना राज्य प्यारा लगता है ना। तो अभी जल्दी-जल्दी लाओ और राज्य करो। अपना राज्य सामने दिखाई दे रहा है ना। तो अभी फरिश्ता बनो और देवता बनो। चारों ओर के बच्चों को विशेष पद्मगुणा यादप्यार स्वीकार हो। विदेश वाले, चाहे देश वाले तपस्या के उमंग-उत्साह में अच्छे हैं और जहाँ तपस्या है वहाँ सेवा है ही है। सदा सफलता की मुबारक हो। हर एक ऐसी नवीनता दिखाना जो सारा विश्व आपकी ओर देखे। नवीनता के लाइट हाउस बनना। अच्छा। हर एक अपने लिए यादप्यार और मुबारक स्वीकार करें ।



18-01-91   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विश्व कल्याणकारी बनने के लिए सर्व स्मृतियों से सम्पन्न बन सर्व को सहयोग दो

सदा विश्व कल्याणकारी अव्यक्त बाप दादा अपने बच्चों प्रति बोले: -

आज समर्थ बाप अपने स्मृति स्वरूप बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। विश्व के देश एवं विदेश के सर्व बच्चे स्मृति दिवस मना रहे हैं। आज का स्मृति दिवस बच्चों को अपने ब्राह्मण जीवन अर्थात् समर्थ जीवन की स्मृति दिलाते हैं क्योंकि ब्रह्मा बाप की जीवन कहानी के साथ ब्राह्मण बच्चों की भी जीवन कहानी है। निराकार बाप ने साकार ब्रह्मा के साथ ब्राह्मण रचे। तब ही ब्राह्मणों द्वारा अविनाशी यज्ञ की रचना हुई। ब्रह्मा बाप आप ब्राह्मणों के साथ-साथ स्थापना के निमित्त बने, तो ब्रह्मा बाप के साथ आदि ब्राह्मणों की भी जीवन कहानी है। आदि देव ब्रह्मा और आदि ब्राह्मण दोनों का महत्व यज्ञ स्थापना में रहा। अनादि बाप ने आदि देव ब्रह्मा द्वारा आदि ब्राह्मणों की रचना की। और आदि ब्राह्मणों ने अनेक ब्राह्मणों की वृद्धि की। यही स्थापना की, ब्रह्मा बाप की कहानी आज के स्मृति दिवस पर वर्णन करते हो। स्मृति दिवस कहते हो तो सिर्फ ब्रह्मा बाप को याद किया वा ब्रह्मा बाप द्वारा जो बाप ने स्मृतियाँ दिलाई हैं वह सर्व स्मृतियाँ स्मृति में आई? आदि से अब तक क्या-क्या और कितनी स्मृतियाँ दिलाई है - याद है? अमृतवेले से लेकर रात तक भी सर्व स्मृतियों को सामने लाओ - एक दिन में पूरी हो जायेगी! लम्बी लिस्ट है ना! स्मृति सप्ताह भी मनाओ तो भी विस्तार ज्यादा है, क्योंकि सिर्फ रिवाइज़ नहीं करना है लेकिन रियलाइज़ करते हो। इसलिए कहते ही हो स्मृति स्वरूप। स्वरूप अर्थात् हर स्मृति की अनुभूति। आप स्मृति स्वरूप बनते हो और भक्त सिर्फ सिमरण करते हैं। तो क्या-क्या स्मृतियाँ अनुभव की हैं - इसका विस्तार तो बहुत बड़ा है। जैसे बाप का परिचय कितना बड़ा है लेकिन आप लोग सार रूप में पांच बातों में परिचय देते हो। ऐसे स्मृतियों के विस्तार को भी 5 बातों में भी सार रूप में लाओ कि आदि से अब तक बापदादा ने कितने नाम स्मृति में दिलाये! कितने नाम होंगे! विस्तार है ना। एक-एक नाम को स्मृति में लाओ और स्वरूप बन अनुभव करो, सिर्फ रिपीट नहीं करना। स्मृति स्वरूप बनने का आनन्द अति न्यारा और प्यारा है। जैसे बाप आप बच्चों को नूरे रत्न नाम की स्मृति दिलाते हैं। बाप के नयनों के नूर। नूर की क्या विशेषता होती है, नूर का कर्त्तव्य क्या होता है, नूर की शक्ति क्या होती हैं? ऐसी अनुभूतियाँ करो अर्थात् स्मृति स्वरूप बनो। इसी प्रकार हर एक नाम की स्मृति अनुभव करते रहो। यह एक दृष्टान्त रूप सुनाया। ऐसे ही श्रेष्ठ स्वरूप की स्मृतियाँ कितनी हैं? आप ब्राह्मणों के कितने रूप हैं जो बाप के रूप वह ब्राह्मणों के रूप हैं। उन सभी रूपों के स्मृति की अनुभूति करो। नाम, रूप, गुण - अनादि, आदि और अब, ब्राह्मण जीवन के सर्वगुण स्मृति स्वरूप बनो।

ऐसे ही कर्त्तव्य। कितने श्रेष्ठ कर्त्तव्य के निमित्त बने हो! उन कत्तव्यों की स्मृति इमर्ज करो। पांचवी बात बापदादा ने अनादि-आदि देश की स्मृति दिलाई। देश की स्मृति से वापस घर जाने की समर्था आ गई, अपने राज्य में राज्य अधिकारी बनने की हिम्मत आ गई और वर्तमान संगमयुगी ब्राह्मण संसार में खुशियों के जीवन जीने की कला स्मृति में आ गई। जीने की कला अच्छी रीति आ गई है ना? दुनिया मरने की कला में तेज जा रही है और आप ब्राह्मण सुखमय खुशियों के जीवन की कला में उड़ रहे हो। कितना अन्तर है!

तो स्मृति दिवस अर्थात् सर्व स्मृतियों के रूहानी नशे का अनुभव करना। इस स्मृति दिवस पर दुनिया के समान आप सभी यह शब्द नहीं कहते कि ऐसे हमारा ब्रह्मा बाप था। उन्होंने यह कहा था, यह किया था, दुनिया वाले था.. था.. करते हैं और दु:ख की लहर फैलाते हैं लेकिन आप ब्राह्मणों की यह विशेषता है - आप कहेंगे अब भी साथ है। साथ का अनुभव करते हैं। तो आप लोगों में यह विशेषता है। आप ऐसे नहीं कहेंगे कि ब्रह्मा बाप चले गये। जो वायदा किया है - साथ रहेंगे, साथ चलेंगे। अगर आदि आत्मा भी वायदा नहीं निभाये तो कौन वायदा निभायेगा? सिर्फ रूप और सेवा की विधि परिवर्तन हुई है। आप सभी का लक्ष्य है - फरिश्ता सो देवता।' फरिश्ता रूप का सैम्पल ब्रह्मा बाप बना है। सर्व बच्चों की पालना अब भी ब्रह्मा द्वारा ही हो रही है। इसलिए ब्रह्मा कुमार और ब्रह्मा कुमारियाँ कहलाते हो। समझा? स्मृति दिवस का महत्व क्या है? इन स्मृतियों में सदा ही लवलीन रहो। इसको ही कहते हैं - बाप समान बनने की अनुभूति। आप आत्माओं ने बाप समान अनुभव किया। इसी समान' शब्द को लोगों ने समाना' शब्द कह दिया है। आत्मा परमात्मा में समा नहीं जाती, लेकिन बाप समान बनती है। सभी बच्चों ने अपने-अपने नाम से स्मृति दिवस की याद भेजी है। कई सन्देश बनकर यादप्यार ले आये और हर एक कहता है मेरी खास याद देना। तो एक एक को अलग याद पत्र लिखने की बजाए दिल से पत्र लिख रहे हैं। हर एक के दिल का प्यार बापदादा के नयनों में, दिल में समाया हुआ है और अब विशेष समाया है। खास याद करने वालों को बापदादा खास अब भी इमर्ज करके यादप्यार दे रहे हैं। हर एक के दिल के उमंग और दिल की रूहरिहान, दिल के हालचाल, दिलाराम बाप के पास पहुँच गये। बापदादा सभी बच्चों को यही स्मृति दिला रहे हैं कि सदा दिल के साथ हो, सेवा में साथ हो और स्थिति में सदा साक्षी हो। तो सदा ही मायाजीत का झण्डा लहराता रहेगा। सभी बच्चों को नाथिंग न्यु का पाठ हर परिस्थिति में सदा स्मृति में रहे। ब्राह्मण जीवन अर्थात् क्वेश्चन मार्क और आश्चर्य की रेखा हो नहीं सकती। कितनी बार यह समाचार भी सुना होगा। नया समाचार है क्या? नहीं। ब्राह्मण जीवन अर्थात् हर समाचार सुनते कल्प पहले की स्मृति में समर्थ रहे - जो होना है वह हो रहा है, इसलिए क्या होगा - यह क्वेश्चन उठ नहीं सकता। त्रिकालदर्शी हो, ड्रामा के आदि-मध्य-अन्त को जानने वाले हो तो क्या वर्तमान को नहीं जानते हैं? घबराते तो नहीं हो ना! ब्राह्मण जीवन में हर कदम में कल्याण है। घबराने की बात नहीं है। आप सबका कर्त्तव्य है अपनी शान्ति की शक्ति से अशान्त आत्माओं को शान्ति की किरणें देना। सामने ही आपके भाई-बहिन हैं, तो अपने ईश्वरीय परिवार के सम्बन्ध से सहयोगी बनो। जितना ही युद्ध में तीव्र गति है, आप योगी आत्माओं का योग उन्हों को शान्ति का सहयोग देगा। इसलिए और विशेष समय निकाल शान्ति का सहयोग दो - यह है आप ब्राह्मण आत्माओं का कर्त्तव्य। अच्छा।

सर्व स्मृति स्वरूप श्रेष्ठ आत्माओं को सदा बाप समान बनने के लक्ष्य और लक्षण धारण करने वाली आत्माओं को, सदा स्वयं को बाप के साथ अनुभव करने वाले समीप आत्माओं को, सदा नथिंग न्यु पाठ को सहज स्वरूप में लाने वाले, सदा विश्व कल्याणकारी बन विश्व की आत्माओं को सहयोग देने वाले - ऐसे सदा विजयी रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

दादियों से :- आदि ब्राह्मणों की माला ब्रह्मा बाप के साथ आदि ब्राह्मण निमित्त बने ना। आदि ब्राह्मणों का बहुत बड़ा महत्व है। स्थापना पालना और परिवर्तन। विनाश शब्द थोड़ा ऑफिशियल लगता है तो स्थापना, पालना और विश्व परिवर्तन करने में आदि ब्राह्मणों का विशेष पार्ट है। शक्तियों की पूजा बहुत धूमधाम से होती है। निराकार बाप व ब्रह्मा बाप की पूजा इतनी धूमधाम से नहीं होती। ब्रह्मा के मन्दिर भी बहुत गुप्त ही हैं। लेकिन शक्ति सेना भक्ति में भी नामीग्रामी है। इसलिए अन्त तक स्टेज पर विशेष बच्चों का पार्ट है। ब्रह्मा का भी गुप्त पार्ट है - अव्यक्त रूप अर्थात् गुप्त। ब्राह्मणों को तैयार किया और ब्रह्मा का पार्ट गुप्त हो गया। सर-स्वती को भी गुप्त दिखाते हैं क्योंकि उनका भी ड्रामा में गुप्त पार्ट चल रहा है। आदि ब्राह्मण आत्माएं सभी एक दो के समीप और शक्तिशाली हैं। शरीर भी कमजोर नहीं है, शक्तिशाली है। (दादी जानकी से) यह तो थोड़ा सा बीच में रेस्ट दिलाने का साधन बन गया। बाकी कुछ भी नहीं है। वैसे तो रेस्ट करती नहीं हो। कोई कारण बनता है रेस्ट करने का। सभी दादियों में बहुत प्यार है ना! बाप के साथ-साथ निमित्त आदि ब्राह्मणों से भी प्यार है। तो आप सबके प्यार की दुआएं, शुभ भावनाएं आदि ब्राह्मण आत्माओं को तन्दरूस्त रखती है। अच्छा है - साइलेन्स की सेवा का पार्ट अच्छा मिला है। कितनी आत्माएं अशान्त हैं, कितनी प्रेयर कर रही हैं! उन्हों को कुछ न कुछ अंचली तो देंगे ना? देवियों से जाकर शक्ति मांगते हैं ना! तो शक्ति देना आप विशेष आत्माओं का कर्तव्य है ना? दिन प्रतिदिन यह अनुभव करेंगे कि कहाँ से शान्ति की किरणें आ रही है। फिर ढूँढेगे, सबकी नज़र भारत भूमि पर आयेगी। अच्छा-

ग्रुप नं. 1:- निश्चय बुद्धि विजयी आत्माएं हैं - ऐसा अनुभव करते हो? सदा निश्चय अटल रहता है? वा कभी डगमग भी होते हो? निश्चयबुद्धि की निशानी है - वो हर कार्य में, चाहे व्यावहारिक हो, चाहे परमार्थी हो, लेकिन हर कार्य में विजय का अनुभव करेगा। कैसा भी साधारण कर्म हो, लेकिन विजय का अधिकार उसको अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि ब्राह्मण जीवन का विशेष जन्म सिद्ध अधिकार विजय है। कोई भी कार्य में स्वयं से दिल शिकस्त नहीं होगा, क्योंकि उसे निश्चय है कि विजय जन्म सिद्ध अधिकार है। तो इतना अधिकार का नशा रहता है। जिसका भगवान मददगार है उसकी विजय नहीं होगी तो किसकी होगी! कल्प पहले का यादगार भी दिखाते हैं कि जहाँ भगवान है वहाँ विजय है। चाहे पांच पाण्डव दिखाते हैं, लेकिन विजय क्यों हुई? भगवान साथ है, तो जब कल्प पहले यादगार में विजयी बने हो तो अभी भी विजयी होंगे ना? कभी भी कोई कार्य में संकल्प नहीं उठना चाहिए कि ये होगा, नहीं होगा, विजय होगी या नहीं, होगी.. - यह क्वेश्चन उठ नहीं सकता। कभी भी बाप के साथ वाले की हार हो नहीं सकती। यह कल्प-कल्प की नूंध निश्चित है। इस भावी को कोई टाल नहीं सकता। इतना दृढ़ निश्चय सदा आगे उड़ाता रहेगा। तो सदा विजय की खुशी में नाचते गाते रहो।

(2) सदा अपने को भाग्य विधाता के भाग्यवान बच्चे हैं - ऐसा अनुभव करते हो? पद्मापद्म भाग्यवान हो या सौभाग्यवान हो? जिसका इतना श्रेष्ठ भाग्य है वह सदा हर्षित रहेंगे । क्योंकि भाग्यवान आत्मा को कोई अप्राप्ति है ही नहीं। तो जहाँ सर्व प्राप्तियाँ होंगी, वहाँ सदा हर्षित होंगे। कोई को अल्पकाल की लॉटरी भी मिलती है तो उसका चेहरा भी दिखाता है कि उसको कुछ मिला है। तो जिसको पद्मापद्म भाग्य प्राप्त हो जाए वह क्या रहेगा? सदा हर्षित। ऐसे हर्षित रहो जो कोई भी देखकर पूछे कि क्या मिला है? जितना-जितना पुरूषार्थ में आगे बढ़ते जायेंगे उतना आपको बोलने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। आपका चेहरा बोलेगा कि इनको कुछ मिला है, क्योंकि चेहरा दर्पण होता है। जैसे दर्पण में जो चीज जैसी होती है, वैसी दिखाई देती है। तो आपका चेहरा दर्पण का काम करे। इतनी आत्माओं को जो सन्देश मिला है तो इतना समय कहाँ मिलेगा जो आप लोग बैठकर सुनाओ। समय भी नाजुक होता जायेगा, तो सुनाने का भी समय नहीं मिलेगा। तो फिर सेवा कैसे करेंगे? अपने चेहरे से। जैसे म्युजियम के चित्रों से सेवा करते हो। चित्र देखकर प्रभावित होते हैं ना। तो आपका चैतन्य चित्र सेवा के निमित्त बन जाये - ऐसे तैयार चित्र हो? इतने चैतन्य चित्र तैयार हो जायें तो आवाज बुलन्द कर देंगे। सदैव चलते-फिरते, उठते-बैठते यह स्मृति रखो कि हम चैतन्य चित्र हैं। सारे विश्व की आत्माओं की हमारे तरफ नज़र है। चैतन्य चित्र में सबके आकर्षण की बात कौन सी होती है? सदा खुशी होगी। तो सदा खुश रहते हो या कभी उलझन आती है? या वहाँ जाकर कहेंगे - यह हो गया इसलिए खुशी कम हो गई। क्या भी हो जाये, खुशी नहीं जानी चाहिए। ऐसे पक्के हो? अगर बड़ा पेपर आये तो भी पास हो जायेंगें? बापदादा सबका फोटो निकाल रहे हैं कि कौन-कौन हाँ कह रहा है। ऐसे नहीं कहना कि उस समय कह दिया। मास्टर सर्वशक्तिवान के आगे वैसे कोई भी बड़ी बात नहीं है। दूसरी बात आपको निश्चय है कि हमारी विजय हुई ही पड़ी है। इसलिए कोई बड़ी बात नहीं है। जिसके पास सर्वशक्तियों का खज़ाना है तो जिस भी शक्ति को ऑर्डर करेंगे वह शक्ति मददगार बनेगी। सिर्फ आर्डर करने वाला हिम्मत वाला चाहिए। तो आर्डर करना आता है या आर्डर पर चलना आता है? कभी माया के आर्डर पर तो नहीं चलते हो? ऐसे तो नहीं कि कोई बात आती है और समाप्त हो जाती है? पीछे सोचते हो - ऐसे करते थे तो बहुत अच्छा होता। ऐसे तो नहीं? समय पर सर्वशक्तियाँ काम में आती हैं या थोड़ा पीछे से आती हैं? अगर मास्टर सर्वशक्तिवान की सीट पर सेट हो तो कोई भी शक्ति आर्डर नहीं माने - यह हो नहीं सकता। अगर सीट से नीचे आते हो और फिर आर्डर करते हो तो वो नहीं मानेंगे। लौकिक रीति से भी कोई कुर्सी से उतरता है तो उसका आर्डर कोई नहीं मानता। अगर कोई शक्ति आर्डर नहीं मानती है तो अवश्य पोजीशन की सीट से नीचे आते हो। तो सदा मास्टर सर्वशक्तिवान की सीट पर सेट रहो, सदा अचल अडोल रहो, हलचल में आने वाले नहीं। बापदादा कहते हैं शरीर भी चला जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। पैसा तो उसके आगे कुछ भी नहीं है। जिसके पास खुशी का खज़ाना है उसके आगे कोई बड़ी बात नहीं और बापदादा का सदा सहयोगी सेवाधारी बच्चों का साथ है। बच्चा बाप के साथ है तो बड़ी बात क्या है? इसलिए घबराने की कोई बात नहीं। बाप बैठा है, बच्चों को क्या फिकर है। बाप तो है ही मालामाल। किसी भी युक्ति से बच्चों की पालना करनी ही है, इसलिए बेफिकर। दु:खधाम में सुखधाम स्थापन कर रहे हो तो दु:खधाम में हलचल तो होगी ही। गर्मा की सीजन में गर्मा होगी ना! लेकिन बाप के बच्चे सदा ही सेफ हैं, क्योंकि बाप का साथ है।

सर्व बच्चों प्रति बापदादा का सन्देश

सर्व तपस्वी बच्चों प्रति यादप्यार। देखो बच्चे, समय के समाचार सुनते ऊंचे ते ऊंचे साक्षीपन के आसन और बेफिकर बादशाह के सिंहासन पर बैठ सब खेल देख रहे हो ना? इस ब्राह्मण जीवन में घबराने का तो स्वप्न में भी संकल्प उठ नहीं सकता। यह तो तपस्या वर्ष के निरन्तर लगन की अग्नि में बेहद की वैराग-वृत्ति प्रज्जवलित करने का पंखा लग रहा है। आपने बाप समान सम्पन्न बनने का संकल्प किया अर्थात् विजय का झण्डा लहराने का प्लान बनाया, तो दूसरे तरफ समाप्ति की हलचल भी तो साथ-साथ नूँधी है ना? रिहर्सल ही ड्रामा के रील को समाप्त करने का साधन है, इसलिए नथिंग न्यु।

समय के सरकमस्टांस प्रमाण आने-जाने में व किसी वस्तु के मिलने में कुछ खींचतान हो, मन के संकल्प की खींचतान में नहीं आना। जहाँ जिस परिस्थिति में रहो, दिलखुश मिठाई खाते रहो। खुशहाल रहो, फरिश्तों की चाल में उड़ो। साथ साथ इस समय हरेक सेन्टर पर विशेष तपस्या का प्रोग्राम चलता रहे। जो जितना ज्यादा समय निकाल सकते हैं, उतना साइलेन्स का सहयोग दो। अच्छा। ओम् शान्ति।



13-02-91   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विश्व परिवर्तन में तीव्रता लाने का साधन एकाग्रता की शक्ति एवं एकरस स्थिति

कल्याणकारी शिव बाबा अपने कल्याणकारी बच्चों प्रति बोले: -

आज दूरदेशी बाप अपने दूरदेशी और देशी बच्चों को मिलन मुबारक देने आये हैं। आप सभी भी दूरदेश से आये हैं। बाप भी दूर देश से आये हैं। बच्चे बाप को मुबारक देने आये हैं और बाप बच्चों को पद्म गुना मुबारक देते हैं। मनाना अर्थात् समान बनाना। दुनिया में सिर्फ मनाते हैं लेकिन बाप मनाते अर्थात् बनाते हैं। सभी बच्चे, चाहे साकार रूप में सम्मुख हो, चाहे आकार रूप में सम्मुख हैं, सब बच्चे विश्व के कोने कोने में बाप की हीरे तुल्य जयन्ती मना रहे हैं। बापदादा आकारी रूप में सम्मुख बच्चों को भी हीरे तुल्य जयन्ती की हीरे तुल्य पद्मापद्म मुबारक दे रहे हैं। इस महान अवतरित होने की जयन्ती को आप सभी बच्चे मनाते स्वयं भी हीरे तुल्य बन गये हो। इसको कहा जाता है मनाना अर्थात् बनाना। हर एक बच्चे के मस्तक पर पद्मापद्म भाग्यवान बनने का सितारा चमक रहा है। तो मनाते मनाते सदा के लिए भाग्यवान बन गये। ऐसी अलौकिक जयन्ती सारे कल्प में कोई भी नहीं मनाते हैं। चाहे महान आत्माओं की भी जयन्ती मनाते हैं, लेकिन वह महान आत्माएं मनाने वालों को महान बनाते नहीं हैं। इस संगम पर ही आप बच्चे परमात्म जयन्ती मनाते महान बन जाते हो। श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ आत्माएं बन जाते हो। ऐसे हीरे तुल्य जीवन बनाते जो जन्म जन्मान्तर हीरे और रतनों से खेलते रहते। आज का यादगार दिवस सिर्फ बाप का नहीं है लेकिन बच्चों का भी बर्थ डे है, क्योंकि जब बाप अवतरित होते हैं तो बाप के साथ ब्रह्मा दादा भी परिवार्तित आत्मा अवतरित होते हैं। बाप और दादा दोनों का साथ-साथ अवतरण होता है। सिवाए ब्राह्मणों के बापदादा स्थापना का यज्ञ रच नहीं सकते, इसलिए बापदादा और ब्राह्मण बच्चे साथ-साथ अवतरित होते हैं। तो किसका जन्म दिन कहेंगे - आपका या बाप का? आपका भी है ना! तो आप बाप को मुबारक देते और बाप आपको मुबारक देते।

शिव जयन्ती अर्थात् परमात्म जयन्ती को महाशिवरात्रि क्यों कहते हैं? सिर्फ शिव रात्रि नहीं कहते लेकिन महाशिवरात्रि कहते हैं क्योंकि इस अवतरित दिवस पर शिव बाप ब्रह्मा दादा और ब्राह्मणों ने महान संकल्प का व्रत लिया कि विश्व को पवित्रता के व्रत से महान श्रेष्ठ बनायेंगे। विशेष आदि देव ब्रह्मा अपने निमित्त ब्राह्मण आदि बच्चों के साथ इस महान व्रत लेने के निमित्त बने, तो महान बनाने के व्रत लेने का दिव्य दिवस है। इसलिए महा शिवरात्रि कहा जाता है। और आप ब्राह्मण बच्चों ने यह महान व्रत लिया इसके यादगार स्वरूप में आज तक भी भक्त लोग व्रत रखते हैं। यह महान जयन्ती प्रतिज्ञा लेने की जयन्ती है। एक तरफ प्रत्यक्ष होने की जयन्ती है, दूसरी तरफ प्रतिज्ञा लेने की जयन्ती है। आदि समय में आप सभी जो भी निमित्त बने, आदि देव के साथ आदि रत्न निकले उन्हों की प्रतिज्ञा का प्रत्यक्ष फल आप सभी प्रत्यक्ष हुए। देखो कहाँ कहाँ कोनों में चले गये थे। कितने कोने में चले गये लेकिन बाप ने मिट्टी में छिपे हुए अपने हीरे-तुल्य बच्चों को ढूँढ लिया ना। अभी तो विश्व के कोने-कोने में आप होलीएस्ट और हाइएस्ट हीरे चमक रहे हो। तो यह परमात्म जयन्ती के व्रत और प्रतिज्ञा का फल है। आप सभी अब भी चारों ओर शिव बाप के झण्डे के आगे प्रतिज्ञा लेते हो ना। तो यह आदि रसम की विधि अब तक आप भी करते रहते हो। यह परमात्म जयन्ती जिसको शिव रात्रि भी कहते हैं। रात्रि अर्थात् अंधकार। अंधकार में जो व्यक्ति वा वस्तु जैसी होती है वैसी दिखाई नहीं देती है। होते हुए भी दिखाई नहीं देती। जब बाप अवतरित होते हैं तो आप भी जो आप हैं, जो हैं, जैसे हैं, न अपने आपको देख सकते थे, न बाप को देख वा जान सकते थे। मैं आत्मा हूँ यह होते हुए भी ज्ञान व अनुभव के नेत्र द्वारा देख नहीं सकते थे। नेत्र होते हुए भी अंधकार में थे। नेत्र यथार्थ कार्य नहीं करते थे। स्पष्ट दिखाई नहीं देता। तो आप भी अंधकार में थे ना। अपने को ही नहीं देख सकते थे। इसलिए बाप पहले इस अंधकार को मिटाते हैं। तो शिवरात्रि अर्थात् अंधकार को मिटाए यथार्थ का प्रकाश प्रज्जवलित होना। इसलिये शिवरात्रि कहकर मनाते हैं। भक्ति मार्ग की विधियाँ भी आपकी यथार्थ विधियों का यादगार है। एक तरफ भक्तों की विधि और दूसरे तरफ है बच्चों की सम्पूर्ण विधि। दोनों ही देख बाप हर्षित होते हैं। आप लोग भी हर्षित होते हो ना कि हमारे भक्त फालो करने में कितने होशियार हैं। लास्ट जन्म तक भी अपनी भक्ति की विधियाँ निभाते आते हैं। यह सब है बाप और आप बिन्दु रूप की कमाल। शिव बाबा के साथ सालिग्राम भी साथ-साथ पूजे जाते हैं। आप सभी बिन्दु स्वरूप के महत्व को जानते हो। इसलिए आज तक भक्तों में शिव अर्थात् बिन्दु स्वरूप का महत्व है। वह सिर्फ बिन्दु रूप को जानते हैं, यथार्थ नहीं जानते हैं, अपने रूप से जानते हैं। लेकिन आप बाप को सिर्फ बिन्दु रूप से नहीं लेकिन बिन्दु के साथ जो सर्व खज़ानों का सिन्धु है, तो बिन्दु के साथ सिन्धु रूप को भी जानते हो। दोनों रूप से जाना है ना? सिन्धु स्वरूप को जानते आप भी मास्टर सिन्धु बन गये। आपमें कितने खज़ानें भरे हुए हैं - हिसाब लगा सकते हो! अनगिनत, अथाह और अविनाशी खज़ानें हैं। सभी मास्टर सिन्धु बने हो ना कि अब बनना है?

तपस्या वर्ष में क्या करेंगे? तपस्या अर्थात् जो भी संकल्प करेंगे वह दृढ़ता से। तपस्या अर्थात् एकाग्रता और दृढ़ता। योगी जीवन में तो अभी भी हो। आप सब योगी जीवन वाले हो ना? कि 8 घण्टा, 6 घण्टा या कुछ घण्टे योग लगाने वाले हो? योगी जीवन तो है ही, फिर खास तपस्या वर्ष क्यों रखा है? बापदादा सभी बच्चों को योगी जीवन वाले योगी आत्माओं के रूप में देखते हैं और हो भी योगी जीवन में। और जीवन तो समाप्त हो गई। भटकी हुई भोगी जीवन से थककर निराश होकर सोच समझकर योगी बने हो। सोच समझकर बने हो या किसके कहने से बन गये हो। अनुभव करके बने हो या सिर्फ अनुभव सुनकर बन गये हो? अनुभवी बन करके योगी बने हो या सिर्फ सुना और देखा तो अच्छा लग गया? सिर्फ देख करके सौदा किया है या सुनकर सौदा किया है? कहाँ किसके धोखे में तो नहीं आये हो? अच्छी तरह से देख लिया है? अभी भी देख लो। कोई जादू तो नहीं लग गया है? तीनों आंखे खोल कर सौदा किया है? क्योंकि बुद्धि भी आंख है। यह दो आंखे और बुद्धि की आंख, तीनों खोल कर सौदा किया है। सभी पक्के हैं?

सभी बच्चे मीठी-मीठी रूहरिहान करते हैं। कहते हैं - बाबा है तो आपके ही, और कहाँ तो जायेंगे ही नहीं। और ज्ञानी-योगी जीवन भी बहुत अच्छी लगती है लेकिन थोड़ा-थोड़ा किसी न किसी बात में सहन करना पड़ता है। उस समय मन और बुद्धि हलचल में आ जाती है यह कब तक होगा, कैसे होगा..? बीच-बीच में जो हलचल होती है - चाहे अपने से, चाहे सेवा से, चाहे साथियों से - यह हलचल निरन्तर में अन्तर ले आती है। तो सहन शक्ति की परसेन्टेज थोड़ी कम हो जाती है। हैं पक्के, लेकिन पक्के को भी कभी कभी ये बातें हिला देती हैं। तो तपस्या वर्ष अर्थात् सर्व गुणों में, सर्व शक्तियों में, सर्व सम्बन्धों में, सर्व स्वभाव-संस्कार में 100 पास होना। अभी पास हो लेकिन फुल पास नहीं। एक है पास, दूसरा है फुल पास और तीसरा है पास विद् ऑनर। तो तपस्या वर्ष में अगर पास विद् ऑनर थोड़े बने तो फुल पास तो सब बन सकते हैं। और फुल पास होने के लिए सबसे सहज साधन है जो भी कोई पेपर आते हैं और इस तपस्या वर्ष में भी पेपर आयेंगे। ऐसे नहीं कि नहीं, आयेंगे लेकिन पेपर समझकर पास करो। बात को बात नहीं समझो, पेपर समझो। पेपर के क्वेश्चन के विस्तार में नहीं जाते - यह क्यों आया, कैसे आया, किसने किया? पास होने का सोच कर पेपर को पार करते हैं। तो पेपर समझकर पास करो। यह क्या हो गया, ऐसा होता है क्या, या अपनी कमजोरी में भी यह नहीं सोचो कि यह तो होता ही है। अपने लिए सोचते हो - यह तो होता ही है, इतना तो होगा ही और दूसरों के लिए सोचते हो यह क्यों किया, क्या किया। इन सब बातों को पेपर समझकर फुल पास होने का लक्ष्य रख करके पास करो। पास होना है, पास करना है और बाप के पास रहना है तो फुल पास हो जायेंगे। समझा।

अभी मैजारिटी रिजल्ट में देखा जाता है कई बातों में तो अच्छी तरह से पास हो गये हैं। सिर्फ अपने पुराने स्वभाव और संस्कार, जो कभी-कभी नये जीवन में इमर्ज हो जाते हैं। अपने व दूसरों के स्वभाव-संस्कार भी टक्कर खाते हैं। अपना कमजोर संस्कार दूसरे के संस्कार से टक्कर खाता है। यह कमजोरी अभी विशेष लक्ष्य को पहुँचने में विघ्न डालती है। फुल पास के बजाए पास मार्क दिला देती है। न अपने स्वभाव-संस्कार को संकल्प व कर्म में लाओ, न दूसरों के स्वभाव व संस्कार से टक्कर खाओ। दोनों में सहन शक्ति और समाने की शक्ति की आवश्यकता है। यह फुल पास के समीप लाने नहीं देती और यही कारण है जो कहाँ अलबेलापन, कहाँ आलस्य आ जाता है। तपस्या वर्ष में मन-बुद्धि को एकाग्र करना अर्थात् एक ही संकल्प में रहना है कि मुझे फुल पास होना ही है। अगर मन-बुद्धि जरा भी विचलित हो तो दृढ़ता से फिर से उसको एकाग्र करो। करना ही है, होना ही है। यह सब जो भी कमजोरियाँ हैं उनको तपस्या की योग अग्नि में भस्म करो। योग अग्नि प्रज्जवलित हो गई है? लगन की अग्नि में अभी भी रहते हो लेकिन कभी कभी अग्नि थोड़ी सी परसेन्टेज में कम हो जाती है। बुझती नहीं है, कम होती है। तेज आग में जो भी चीज डालो तो या तो परिवर्तन या भस्म होगी। परिवर्तन और भस्म करने, दोनों में तेज आग चाहिए। योग अग्नि है। लगन की अग्नि भी जगी हुई है लेकिन सदा ही तेज रहे। कभी तेज, कभी कम नहीं। जैसे यहाँ स्थूल अग्नि में भी अगर कोई चीज अच्छी बनाने चाहते हो और टाइम पर बनाने चाहते हो तो अग्नि को उसी रूप में रखेंगे जो चीज समय पर और अच्छी रीति तैयार हो जाए। अगर बीच में आग बुझ जाये तो समय पर चीज तैयार हो सकेगी? भल तैयार होगी परन्तु समय पर नहीं। तो आपकी योग अग्नि भी बीच-बीच में ढीली हो जाती है तो सम्पन्न बनेंगे लेकिन लास्ट में बनेंगे। लास्ट में सम्पन्न बनने वाले को फास्ट और फर्स्ट राज्य भाग्य का अधिकार नहीं मिल सकता। आप सभी का लक्ष्य फर्स्ट जन्म में राज्य भाग्य करने का है या दूसरे-तीसरे जन्म में आयेंगे। पहले जन्म में आना है ना?

तपस्या वर्ष अर्थात् फास्ट पुरूषार्थ कर फर्स्ट जन्म में फर्स्ट नम्बर आत्माओं के साथ राज्य में आना। घर में साथ चलना है ना? फिर राज्य में भी ब्रह्मा बाप के साथ आना है। तो समझा तपस्या वर्ष क्यों रखा है? एकाग्रता की शक्ति को बढ़ाओ। अभी भी न चाहते भी व्यर्थ चल जाता है। व्यर्थ का तरफ कोई-कोई समय शुद्ध-श्रेष्ठ संकल्प से भारी हो जाता है। तपस्या अर्थात् व्यर्थ संकल्प की समाप्ति। क्योंकि यह समाप्ति ही सम्पूर्णता को लायेगी। समाप्ति के बिना सम्पूर्णता नहीं आयेगी। तो आज के दिन से तपस्या वर्ष आरम्भ कर रहे हो। उमंग-उत्साह के लिए बापदादा मुबारक देते हैं। चारों ही सब्जेक्ट में फुल पास होने की मार्क्स लेनी है। ऐसे नहीं समझना कि मेरी तीन सब्जेक्ट तो ठीक है, सिर्फ एक में कमी है। फुल पास हो जायेंगे? नहीं, फिर भी पास की लिस्ट में आयेंगे। फुल पास अर्थात् चारों सब्जेक्ट में फुल मार्क्स हो। सदा हर आत्मा के प्रति कल्याण की भावना, चाहे वह आपकी स्थिति को हिलाने की भी कोशिश करे लेकिन अकल्याण करने वाले के ऊपर भी कल्याण की भावना, कल्याण की दृष्टि, कल्याण की वृत्ति, कल्याणमय कृति। इसको कहा जाता है - कल्याणकारी आत्मा। शिव का अर्थ भी कल्याणकारी है ना? तो शिव जयन्ती अर्थात् कल्याणकारी भावना। कल्याण करने वाले के ऊपर कल्याण करना यह तो अज्ञानी भी करते हैं। अच्छे के साथ अच्छा चलना यह तो सभी जानते हैं। लेकिन अकल्याण के वृत्ति वाले को अपने कल्याण की वृत्ति से परिवर्तन करो या क्षमा करो। परिवर्तन न भी कर सकते, क्षमा तो कर सकते हो ना! मास्टर क्षमा के सागर तो हो ना! तो आपकी क्षमा उस आत्मा के लिए शिक्षा हो जायेगी। आजकल शिक्षा देने से कोई समझता, कोई नहीं समझता। यह करो तो यह शिक्षा हो जायेगी। क्षमा अर्थात् शुभ भावना की दुवाएं देना, सहयोग देना। शिक्षा देने का समय अभी चला गया। अभी स्नेह दो, सम्मान दो, क्षमा करो। शुभ भावना रखो, शुभ कामना रखो - यही शिक्षा की विधि है। वह विधि अब पुरानी हो गई। तो नई विधि आती है ना? तपस्या वर्ष में इस नई विधि से सर्व को और समीप लाओ। सुनाया था ना कि दाने कुछ तैयार हो भी गये हैं लेकिन माला अभी तैयार नहीं है। धागा भी है, दाने भी है लेकिन दाना दाने के समीप नहीं है इसलिए माला तैयार नहीं है। अपनी रीति से दाना तैयार है लेकिन संगठन में, समीपता में तैयार नहीं है। तो तपस्या वर्ष में बाप समान तो बनना ही है लेकिन दाना दाने के समीप भी आना है। समझा। बाकी योगी थे, योगी है, सदा योगी जीवन में ही रहना है। ड्रामा के हर सीन को प्यारा देखते हुए चलो। हर सीन प्यारी है। दुनिया के लिए जो अप्यारी सीन है, वह आपके लिए प्यारी है। जो भी होता है उसमें कोई राज़ भरा हुआ होता है। राज़ को जानने से कभी किसी बात में,किसी दृश्य में नाराज़ नहीं होंगे। राज़ को जानने वाले नाराज़ नहीं होते। राज़ को न जानने वाले नाराज़ होते हैं।

डबल विदेशी भी इस बारी शिव जयन्ती मनाने टाइम पर पहुँच गये हैं। दृढ़ निश्चय रखा कि जाना ही है तो पहुँच गये ना? जाये न जाये - यह सोचने वाले रह गये। अभी तो यह कुछ भी नहीं है, अभी तो होना है। अभी प्रकृति ने फुल फोर्स की हलचल शुरू नहीं की है। करती है लेकिन फिर आप लोगों को देखकर थोड़ा ठण्डी हो जाती है। वह भी डर जाती है कि मेरे मालिक तैयार नहीं हैं। किसकी दासी बनें? निर्भय हो ना? डरने वाले तो नहीं हो ना? लोग डरते हैं मरने से और आप तो है ही मरे हुए। पुरानी दुनिया से मरे हुए हो ना? नई दुनिया में जीते हो, पुरानी दुनिया से मरे हुए हो, तो मरे हुए को मरने से क्या डर लगेगा? और ट्रस्टी हो ना? अगर कोई भी मेरापन होगा तो माया बिल्ली म्याऊं म्याऊं करेगी। मैं आऊं, मैं आऊं...। आप तो हो ही ट्रस्टी। शरीर भी मेरा नहीं। लोगों को मरने का फिकर होता है या चीजों का या परिवार का फिक्र होता है। आप तो हो ही ट्रस्टी। न्यारे हो ना, कि थोड़ा-थोड़ा लगाव है? बॉडी कान्सेसनेस है तो थोड़ा-थोड़ा लगाव है। इसलिए तपस्या अर्थात् ज्वाला स्वरूप, निर्भय। अच्छा।

दोनों मुरब्बी दादियाँ सुन रही हैं, देख रही हैं। कुछ नवीनता देखनी चाहिए ना। बापदादा ने पहले भी सुनाया कि एक है वाणी की सेवा, दूसरी है फरिश्ता मूर्त और शक्तिशाली स्नेहमयी दृष्टि की सेवा। कुछ समय इन्हों को यह सेवा का पार्ट मिला हुआ है। आदि से वाणी और कर्म की सेवा तो करती ही रही है। इस विधि की सेवा का यह भी ड्रामा में है, अन्त में यही सेवा रह जायेगी। यह पार्ट थोड़े समय के लिए इन्हों को मिला है। फिर भी मुरब्बी बच्चे हैं ना। इन्हों के हिसाब-किताब चुक्तु होने में भी सेवा है। निमित्त हिसाब है लेकिन राज़ सेवा का है। बेहद के खेल में यह भी एक वन्डरफुल खेल है। दोनों का पार्ट भी नवीनता है। यह जल्दी-जल्दी हिसाब-किताब चुक्तु कर सम्पन्नता और सम्पूर्णता के समीप जा रही हैं। अकेले नहीं जायेंगे - यह कोई नहीं सोचो। हर एक को चुक्तु तो करना ही है लेकिन कोई सिर्फ चुक्तु करता है, कोई चुक्तु करते भी सेवा करते हैं। सारे विजयी बन गये ना? सबकी दुवाओं की दवा भी सूली से कांटा कर देती है। हिसाब-किताब के प्रभाव में नहीं आई। दोनों ठीक हो गये हैं। सिर्फ परहेज में है। रेस्ट भी परहेज है। जैसे खाने में परहेज होती है। यह फिर चलने फिरने बोलने की परहेज है। स्नेह क्या नहीं कर सकता है! कहावत है - स्नेह पत्थर को पानी कर सकता है, तो यह बीमारी नहीं बदल सकता है? बदल तो गई ना! हार्ट की बीमारी बदल गई। पत्थर से पानी तो हो गया ना! तो यह आप सबका प्यार है। बाकी अब सिर्फ पानी रह गया, पत्थर खत्म हो गया। रेस्ट में रहने से दोनों के चेहरे चमक गये हैं। परिवार का प्यार भी बहुत मदद देता है। अच्छा।

चारों ओर के सर्व विश्व कल्याण की श्रेष्ठ भावना रखने वाले, चारों ओर के ऐसे दृढ़ संकल्प करने वाले, तपस्या द्वारा स्वयं को, विश्व को परिवर्तन करने वाले, एकाग्रता की शक्ति से एकरस तीव्र स्थिति में रहने वाले, ऐसे तपस्वी आत्माओं को स्नेही आत्माओं को, सदा बाप के साथ रहने वाली आत्माओं को, सदा भिन्न-भिन्न विधि से सेवा में साथी रहने वाले बच्चों को महा-परमात्म जयन्ती की मुबारक और यादप्यार स्वीकार हो और साथ-साथ नमस्ते।

(दादी जी, दादी जानकी जी तथा मुख्य भाई-बहिनों के साथ बापदादा ने स्टेज पर खड़े होकर झण्डा फहराया तथा सर्व को मुबारक दी। 55 मोमबत्ती जलाई तथा तपस्या वर्ष के शुभारम्भ में 14 मास तपस्या के प्रतीक 14 मोमबत्ती और दो बापदादा के स्मृति की मोमबत्ती जलाते बापदादा ने केक काटी)

चारों ओर के सर्व अति स्नेही सहयोगी और सेवा के साथियों को निरन्तर उत्साह में रहने की इस शिव जयन्ती के उत्सव की मुबारक हो, मुबारक हो..। सदा सर्व खज़ानों से झोली भरपूर रहने की मुबारक हो।



25-02-91   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सोच और कर्म में समानता लाना ही परमात्म प्यार निभाना है

दिलाराम बापदादा अपने दिलतख्त नशील बच्चों प्रति बोले: -

आज बापदादा अपने सर्व स्वराज्य अधिकारी बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं क्योंकि स्वराज्य अधिकारी वही अनेक जन्म विश्व राज्य अधिकारी बनते हैं। तो आज डबल विदेशी बच्चों से बापदादा स्वराज्य का समाचार पूछ रहे हैं। हर एक राज्य अधिकारी का राज्य अच्छी तरह से चल रहा है? आपके राज्य चलाने वाले साथी सहयोगी साथी, सदा समय पर यथार्थ रीति से सहयोग दे रहे हैं कि बीच-बीच में कभी धोखा भी दे देते हैं? जितने भी सहयोगी कर्मचारी कर्मेन्द्रियाँ, चाहे स्थूल हैं, चाहे सूक्ष्म हैं, सभी आपके आर्डर में है? जिसको जिस समय जो आर्डर करो उसी समय उसी विधि से आपके मददगार बनते हैं? रोज अपनी राज्य दरबार लगाते हो? राज्य कारोबारी सभी 100 आज्ञाकारी, वफादार, एवररेडी हैं? क्या हालचाल है? अच्छा है व बहुत अच्छा है व बहुत, बहुत, बहुत अच्छा है? राज्य दरबार अच्छी तरह से सदा सफलतापूर्वक होती है वा कभी-कभी कोई सहयोगी कर्मचारी हलचल तो नहीं करते हैं? इस पुरानी दुनिया की राज्य सभा का हालचाल तो अच्छी तरह से जानते हो - न लॉ है, न आर्डर है। लेकिन आपकी राज्य दरबार लॉ फुल भी है और सदा हाँ जी, जी हाजिर - इस आर्डर में चलती है। जितना राज्य अधिकारी शक्तिशाली है उतना राज्य सहयोगी कर्मचारी भी स्वत: भी सदा इशारे से चलते, राज्य अधिकारी ने आर्डर दिया कि यह नहीं सुनना है और यह नहीं करना है, नहीं बोलना है, तो सेकेण्ड में इशारे प्रमाण कार्य करें। ऐसे नहीं कि आपने आर्डर किया - नहीं देखो और वह देख करके फिर माफी मांगे कि मेरी गलती हो गई। करने के बाद सोचे तो उसको समझदार साथी कहेंगे? मन को आर्डर दिया कि व्यर्थ नहीं सोचो, सेकेण्ड में फुल स्टॉप, दो सेकेण्ड भी नहीं लगने चाहिए। इसको कहा जाता है - युक्तियुक्त राज्य दरबार। ऐसे राज्य अधि-कारी बने हो? रोज राज्य दरबार लगाते हो या जब याद आता है तब आर्डर देते हो? रोज दिन समाप्त होते अपने सहयोगी कर्मचारियों को चेक करो। अगर कोई भी कर्मेन्द्रियों से वा कर्मचारी से बार-बार गलती होती रहती है तो गलत कार्य करते-करते संस्कार पक्के हो जाते हैं। फिर चेंज करने में समय और मेहनत भी लगती है। उसी समय चेक किया और चेंज करने की शक्ति दी तो सदा के लिए ठीक हो जायेंगे। सिर्फ बार-बार चेक करते रहो कि यह रांग है, यह ठीक नहीं है और उसको चेंज करने की युक्ति व नॉलेज की शक्ति नहीं दी तो सिर्फ बार-बार चेक करने से भी परिवर्तन नहीं होता। इसलिए पहले सदा कर्मेन्द्रियों को नॉलेज की शक्ति से चेंज करो। सिर्फ यह नहीं सोचो कि यह रांग है। लेकिन राइट क्या है और राइट पर चलने की विधि स्पष्ट हो। अगर किसी को कहते रहेंगे तो कहने से परिवर्तन नहीं होगा लेकिन कहने के साथ-साथ विधि स्पष्ट करो तो सिद्धि हो। जो आत्मा स्वराज्य चलाने में सफल रहती है तो सफल राज्य अधिकारी की निशानी है वह सदा अपने पुरूषार्थ से और साथ-साथ जो भी सम्पर्क में आने वाली आत्माएं हैं वह भी सदा उस सफल आत्मा से सन्तुष्ट होंगी और सदा दिल से उस आत्मा के प्रति शुक्रिया निकलता रहेगा। सर्व के दिल से, सदा दिल के साज से वाह-वाह के गीत बजते रहेंगे, उनके कानों में सर्व द्वारा यह वाह-वाह का शुक्रिया का संगीत सुनाई देगा। यह गीत आटोमेटिक है। इसके लिए टेपरिकार्डर बजाना नहीं पड़ता। इसके लिए कोई साधनों की आवश्यकता नहीं। यह अनहद गीत है। तो ऐसे सफल राज्य अधिकारी बने हो? क्योंकि अभी के सफल राज्य अधिकारी भविष्य में सफलता का फल विश्व का राज्य प्राप्त करेंगे। अगर सम्पूर्ण सफलता नहीं, कभी कैसे हैं, कभी कैसे हैं, कभी 100 सफलता है, कभी सिर्फ सफलता है। 100 सफल नहीं हैं तो ऐसे राज्य अधिकारी आत्मा को विश्व का, राज्य का तख्त, ताज प्राप्त नहीं होता लेकिन रॉयल फैमिली में आ जाता है। एक हैं तख्तनशीन और दूसरे हैं तख्तनशीन रॉयल फैमिली। तख्त नशीन अर्थात् वर्तमान समय भी सदा डबल तख्तनशीन रहे। डबल तख्त कौन सा? एक अकाल तख्त और दूसरा बाप का दिल तख्त। तो जो अभी सदा डबल तख्त नशीन है, कभी-कभी वाला नहीं, ऐसे सदा दिलतख्तनशीन विश्व का भी तख्तनशीन होता है। तो चेक करो - सारे दिन में डबल तख्तनशीन रहे? अगर तख्तनशीन नहीं तो आपके सहयोगी कर्मचारी कर्मेन्द्रियाँ भी आपके आर्डर पर नहीं चल सकतीं। राजा का आर्डर माना जाता है। राज्य (तख्त) पर नहीं हो और वह आर्डर करे तो माना नहीं जाता है। आजकल तो तख्त के बजाए कुर्सी हो गई है, तख्त तो खत्म हो गया। योग्य नहीं है तो तख्त गायब हो गया है। कुर्सी पर हैं तो सब मानेंगे। अगर कुर्सी पर भी नहीं हैं तो सब नहीं मानेंगे। लेकिन आप तो कुर्सी वाले नेता नहीं हो। स्वराज्य अधिकारी राजे हो। सभी राजा हो कि कोई प्रजा भी है? राजयोगी अर्थात् राजा। देखो कितने पद्म पद्म पद्म भाग्यवान हो! दुनिया, उसमें भी विशेष विदेश हलचल में है। वह वार और हार की दुविधा में है। कोई हार रहा है, कोई वार कर रहा है और कोई हालचाल सुन करके उसी हलचल में है। तो वह है हार और वार की हलचल में और आप हो बापदादा के प्यार में। परमात्म प्यार दूर-दूर से खिंचकर लाया है। कैसी भी परिस्थितियाँ हो लेकिन परमात्मा प्यार के आगे परिस्थितियाँ रोक नहीं सकतीं। परमात्म प्यार बुद्धिवान की बुद्धि बन परिस्थिति को श्रेष्ठ स्थिति में बदल लेता है। डबल विदेशियों में भी देखो पहले पोलेण्ड वाले कितने प्रयत्न करते थे, असम्भव लगता था और अभी क्या लगता है? रशिया वाले भी असम्भव समझते थे, चाहे 24 घण्टा भी लाइन में खड़ा रहना पड़ा, पहुँच तो गये ना। मुश्किल सहज हो गया। तो शुक्रिया कहेंगे ना। ऐसे ही सदा होता रहेगा। कई सोचते हैं अन्त में विमान बन्द हो जायेंगे फिर हम कैसे जायेंगे? परमात्म प्यार में वह शक्ति है जो किसी की आंखों में ऐसा जादू कर देगी जो वह आपके भेजने लिए परवश हो जायेंगे लेकिन सिर्फ प्यार करने वाले नहीं, लेकिन निभाने वाले हों। निभाने वाली आत्माओं से बाप का भी वायदा है - अन्त तक हर समस्या को पार करने में प्रीति की रीति निभाते रहेंगे। कभी-कभी प्रीत करने वाले नहीं बनना। सदा निभाने वाले। प्रीत करना अनेकों को आता है लेकिन निभाना कोई-कोई को आता है इसलिए आप कोई में कोई हो।

बापदादा सदैव डबल विदेशी बच्चों को देख खुश होते हैं क्योंकि हिम्मत से बाप की मदद के पात्र बन अनेक प्रकार की माया के बान्डेज और अनेक प्रकार के रीति, रिवाज और रस्म के बाउन्ड्रीज़ को पार करके पहुँच गये हैं। यह हिम्मत भी कम नहीं है। हिम्मत सभी ने अच्छी रखी है। चाहे नये हैं, चाहे पुराने हैं, दोनों बैठे हैं। बहुत पुराने से पुराने भी हैं और इस कल्प के नये भी हैं। दोनों की हिम्मत अच्छी है। इस हिम्मत में तो सभी नम्बरवन हो फिर नम्बर किस बात में है? डबल विदेशी विशेष पुरूषार्थ करते हैं और रूहरिहान में भी कहते हैं - 108 की माला में जरूर आयेंगे। कोई क्वेश्चन करते हैं कि आ सकते हैं? आने अवश्य हैं। डबल विदेशियों के लिए भी माला में सीट रिजर्व्ड है। लेकिन कौन और कितने - वह आगे चल सुनायेंगे। तो नम्बर क्यों बनते हैं? हर एक अपने अधिकार से कहते हो - मेरा बाबा है। तो अधिकार भी पूरा है फिर भी नम्बर क्यों? जो नम्बरवन होगा और नम्बर आठ होगा, दोनों में अन्तर तो होगा ना! इतना अन्तर क्यों पड़ता? 16 हजार की तो बात छोड़ो, 108 में भी देखो - कहाँ एक, कहाँ 108। तो क्या अन्तर हुआ? हिम्मत में सब पास हो लेकिन हिम्मत के रिटर्न में जो बाप और ब्राह्मण परिवार द्वारा मदद मिलती है, उस मदद को प्राप्त कर कार्य में लगाना और समय पर मदद का यूज़ करना, जिस समय जो मदद अर्थात् शक्ति चाहिए उसी शक्ति द्वारा समय पर काम लेना, यह निर्णय शक्ति और कार्य में लगाने की कार्य शक्ति इसमें अन्तर हो जाता है। सर्वशक्तिवान बाप द्वारा सर्व शक्तियों का वर्सा सभी को मिलता है। कोई को 8 शक्ति, कोई को 6 शक्ति नहीं मिलती। सर्वशक्तियाँ मिलती हैं। पहले भी सुनाया ना कि विधि से सिद्धि होती है। कार्य शक्ति की विधि - एक है बाप के बनने की विधि, दूसरी है बाप से वर्सा प्राप्त करने की विधि और तीसरी है प्राप्त किये हुए वर्से को कार्य में लगाने की विधि। कार्य में लगाने की विधि में अन्तर हो जाता है। प्वाइन्ट्स सबके पास है। एक टॉपिक पर वर्कशॉप करते हो तो कितने प्वाइन्ट्स निकालते हो! तो एक प्वाइन्ट बुद्धि में रखना, यह है एक विधि, और दूसरा है प्वाइन्ट बन प्वाइन्ट को कार्य में लगाना। प्वाइन्ट रूप भी हो और प्वाइन्ट्स भी हों। दोनों का बैलेन्स हो। यह है नम्बरवन विधि से से नम्बरवन सिद्धि प्राप्त करना। कभी प्वाइन्ट के विस्तार में चले जाते हो। कभी प्वाइन्ट रूप में टिक जाते हैं। प्वाइन्ट रूप और प्वाइन्ट साथ-साथ चाहिए। कार्य शक्ति को बढ़ाओ। समझा। नम्बरवन आना है तो यह करना पड़ेगा।

आजकल साइन्स की शक्ति, साइन्स के साधनों द्वारा कार्य-शक्ति कितनी तेज कर रही है! जो चैतन्य मनुष्य कार्य कर सकता है, जितने समय और जितना यथार्थ चैतन्य मनुष्य कर सकता है उतना साइन्स के साधन कम्प्युटर कितना जल्दी काम करता है। चैतन्य मनुष्य को भी करेक्शन करता है। तो जब साइन्स के साधन कार्य-शक्ति को तीव्र बना सकते हैं, कई ऐसी इन्वेन्शन निकली भी हैं और निकल भी रही हैं, तो ब्राह्मण आत्माओं की साइलेन्स की शक्ति कितना तीव्र कार्य यथार्थ सफल कर सकती है। सेकेण्ड में निर्णय हो, सेकेण्ड में कार्य को प्रैक्टिकल में सफल करो। सोचना और करना - इसका भी बैलेन्स चाहिए। कई ब्राह्मण आत्माएं सोचती बहुत है, लेकिन करने के समय जितना सोचते हैं उतना करते नहीं हैं और कई फिर करने में लग जाते हैं - सोचते पीछे हैं कि ठीक किया वा नहीं किया? क्या करना है अभी? तो सोचना और करना - दोनों साथ-साथ हो। नहीं तो क्या होता है? सोचते हैं कि यह करना है लेकिन सोच के करेंगे और सोचते सोचते कार्य का समय और परिस्थिति बदल जाती है। फिर कहते हैं करना तो था, सोचा तो था..। जब साइन्स के साधन तीव्र गति के हो रहे हैं, एक सेकेण्ड में क्या नहीं कर लेते हैं! विनाश के साधन तीव्र गति के तरफ जा रहे हैं तो स्थापना के साइलेन्स के शक्तिशाली साधन क्या नहीं कर सकते! अभी तो प्रकृति आप मालिकों का आह्वान कर रही है। आप लोग उनको आर्डर नहीं करते तो प्रकृति कितनी धमाल कर रही है! मालिक तैयार हो जाओ तो प्रकृति आपका स्वागत करे। ऐसे तैयार हो? कि अभी तैयार कर रहे हो? सम्पूर्ण तैयारी की महिमा आपके भक्त लोग अब तक कर रहे हैं। अपनी महिमा को जानते हो? अब चेक करो कि इन सबमें सर्वगुण सम्पन्न भी हो, सम्पूर्ण निर्विकारी भी हो, सम्पूर्ण आहिंसक और मर्यादा पुरूषोत्तम भी हो, 16 कला सम्पन्न भी हो? सभी बातों में फुल है तो समझो मालिक तैयार हैं और इसमें परसेन्टेज है तो मालिक तैयार नहीं। बालक है लेकिन मालिक नहीं बने हैं। तो प्रकृति आप मालिक का स्वागत करेगी। बाप के बालक हैं। वह तो ठीक है। इसमें पास हो। लेकिन इन पांचों ही बातों में सम्पन्न बनना अर्थात् मालिक बनना। प्रकृति को आर्डर करें? अच्छा। तपस्या वर्ष में तो तैयार हो जायेंगे ना? फिर तो आर्डर करें ना? यह तपस्या वर्ष लास्ट चांस है या फिर है और थोड़ा चांस दो। फिर तो नहीं कहेंगे ना! अच्छा।

चारों ओर के सर्व राज्य अधिकारी आत्माओं को, सदा डबल तख्तनशीन विशेष आत्माओं को, सदा सोचना और करना दोनों शक्तियों को समान बनाने वाली वरदानी आत्माओं को, सदा परमात्म प्यार निभाने वाले सच्चे दिल वाले बच्चों को दिलाराम बाप-दादा का यादप्यार और नमस्ते।



17-03-91   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सन्तुष्टमणि के श्रेष्ठ आसन पर आसीन होने के लिए प्रसन्नचित्त, निश्चिंत आत्मा बनो

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले:-

आज बापदादा अपने चारों ओर की सन्तुष्ट मणियों को देख रहे हैं। संगमयुग है ही सन्तुष्ट रहने और सन्तुष्ट बनाने का युग। ब्राह्मण जीवन की विशेषता सन्तुष्टता है। सन्तुष्टता ही बड़े ते बड़ा खज़ाना है। सन्तुष्टता ही ब्राह्मण जीवन के प्योरिटी की पर्सनालिटी है। इस पर्सनालिटी से विशेष आत्मा सहज बन जाते हैं। सन्तुष्टता की पर्सनालिटी नहीं तो विशेष आत्मा कहला नहीं सकते हैं। आजकल दो प्रकार की पर्सनालिटी गाई जाती है - एक शारीरिक पर्सनालिटी, दूसरी पोजीशन की पर्सनालिटी। ब्राह्मण जीवन में जिस ब्राह्मण आत्मा में सन्तुष्टता की महानता है - उनकी सूरत में, उनके चेहरे में भी सन्तुष्टता की पर्सनालिटी दिखाई देती है और श्रेष्ठ स्थिति के पोजीशन की पर्सनालिटी दिखाई देती है। सन्तुष्टता का आधार है बाप द्वारा सर्व प्राप्त हुए प्राप्तियों की सन्तुष्टता अर्थात् भरपूर आत्मा। असन्तुष्टता का कारण अप्राप्ति होती है। सन्तुष्टता का कारण है सर्व प्राप्तियाँ। इसलिए बापदादा ने आप सभी ब्राह्मण बच्चों को ब्राह्मण जन्म होते ही पूरा वर्सा दे दिया ना या किसको थोड़ा, किसको बहुत दिया? बापदादा सदैव सब बच्चों को यही कहते कि बाप और वर्से को याद करना है। वर्सा है सर्व प्राप्तियाँ। इसमें सर्व शक्तियाँ भी आ जातीं, गुण भी आ जाते, ज्ञान भी आ जाता है। सर्व शक्तियाँ, सर्व गुण और सम्पूर्ण ज्ञान। सिर्फ ज्ञान नहीं, लेकिन सम्पूर्ण ज्ञान। सिर्फ शक्तियाँ और गुण नहीं लेकिन सर्व गुण और सर्व शक्तियाँ हैं, तो वर्सा सर्व अर्थात् सम्पन्नता का है। कोई कमी नहीं है। हर ब्राह्मण बच्चे को पूरा वर्सा मिलता है, अधूरा नहीं। सर्व गुणों में से दो गुण आपको, दो गुण इसको ऐसे नहीं बांटा है। फुल वर्सा अर्थात् सम्पन्नता, सम्पूर्णता। जब हर एक को पूरा वर्सा मिलता है तो जहाँ सर्व प्राप्ति है वहाँ सन्तुष्टता होगी। बापदादा सर्व ब्राह्मणों के सन्तुष्टता की पर्सनालिटी देख रहे थे कि कहाँ तक यह पर्सनालिटी आई है। ब्राह्मण जीवन में असन्तुष्टता का नाम-निशान नहीं। ब्राह्मण जीवन का मजा है तो इस पर्सनालिटी में है। यही मजे की जीवन है, मौज की जीवन है।

तपस्या का अर्थ ही है सन्तुष्टता की पर्सनालिटी नयनों में, चैन में, चेहरे में, चलन में दिखाई दे। ऐसे सन्तुष्ट मणियों की माला बना रहे थे। कितनी माला बनी होगी? सन्तुष्ट मणि अर्थात् बेदाग मणि। सन्तुष्टता की निशानी है - सन्तुष्ट आत्मा सदा प्रसन्नचित्त स्वयं को भी अनुभव करेगी और दूसरे भी प्रसन्न होंगे। प्रसन्नचित्त स्थिति में प्रश्न चित्त नहीं होता। एक होता है प्रसन्नचित्त, दूसरा है प्रश्न-चित्त। प्रश्न अर्थात् क्वेश्चन। प्रसन्नचित्त ड्रामा के नॉलेजफुल होने के कारण प्रसन्न रहता, प्रश्न नहीं करता। जो भी प्रश्न अपने प्रति या किसके प्रति भी उठता उसका उत्तर स्वयं को पहले आता। पहले भी सुनाया था व्हाट (what) और व्हाई (why) नहीं, लेकिन डॉट। क्या, क्यों नहीं, फुलस्टॉप बिन्दु। एक सेकेण्ड में विस्तार, एक सेकेण्ड में सार। ऐसा प्रसन्नचित्त सदा निश्चिन्त रहता है। तो चेक करो - ऐसी निशानियाँ मुझ सन्तुष्ट मणि में हैं? बापदादा ने तो सबको टाइटल दिये हैं - सन्तुष्ट मणि का। तो बापदादा पूछ रहे हैं कि हे सन्तुष्ट मणियो, सन्तुष्ट हो? फिर प्रश्न है - स्वयं से अर्थात् स्वयं के पुरूषार्थ से, स्वयं के संस्कार परिवर्तन के पुरूषार्थ से, स्वयं के पुरूषार्थ की परसेन्टेज में, स्टेज में सदा सन्तुष्ट हो? अच्छा दूसरा प्रश्न- स्वयं के मन्सा, वाचा और कर्म, अर्थात् सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा सेवा में सदा सन्तुष्ट हो? तीनों ही सेवा, सिर्फ एक सेवा नहीं। तीनों ही सेवा में और सदा सन्तुष्ट हो? सोच रहे हैं, अपने को देख रहे हैं कि कहाँ तक सन्तुष्ट हैं? अच्छा, तीसरा प्रश्न- सर्व आत्माओं के सम्बन्ध-सम्पर्क में स्वयं द्वारा वा सर्व द्वारा सदा सन्तुष्ट हो? क्योंकि तपस्या वर्ष में तपस्या का, सफलता का फल यही प्राप्त करना है। स्वयं में, सेवा में और सर्व में सन्तुष्टता। चार घण्टा तो योग किया - बहुत अच्छा, और चार से आठ घण्टा तक भी पहुँच जायेंगे। यह भी बहुत अच्छा। योग का सिद्धि स्वरूप हो। योग विधि है। लेकिन इस विधि से सिद्धि क्या मिली? योग लगाना यह विधि है, योग की प्राप्ति यह सिद्धि है। तो जैसे 8 घण्टे का लक्ष्य रखा है तो कम से कम यह तीन प्रकार की सन्तुष्टता की सिद्धि का स्पष्ट श्रेष्ठ लक्ष्य रखो। कई बच्चे स्वयं को मियाँ मिटठु माफिक भी सन्तुष्ट समझते हैं। ऐसे सन्तुष्ट नहीं बनना। एक है दिल माने, दूसरा है दिमाग माने। दिमाग से अपने को समझते सन्तुष्ट हैं ही, क्या परवाह है। हम तो बेपरवाह हैं। तो दिमाग से स्वयं को सन्तुष्ट समझना - ऐसी सन्तुष्टता नहीं, यथार्थ समझना है। सन्तुष्टता की निशानियाँ स्वयं में अनुभव हो। चित्त सदा प्रसन्न हो, पर्सनालिटी हो। स्वयं को पर्सनालिटी समझें और दूसरे नहीं समझें इसको कहा जाता है – मियाँ मिटठु । ऐसे सन्तुष्ट नहीं। लेकिन यथार्थ अनुभव द्वारा सन्तुष्ट आत्मा बनो। सन्तुष्टता अर्थात् दिल-दिमाग सदा आराम में होंगे। सुख-चैन की स्थिति में होंगे। बेचैन नहीं होंगे। सुख चैन होगा। ऐसी सन्तुष्ट मणियाँ सदा बाप के मस्तक में मस्तक मणियों समान चमकती हैं। तो स्वयं को चेक करो। सन्तुष्टता बाप की और सर्व की दुवाएं दिलाती है। सन्तुष्ट आत्मा समय प्रति समय सदा अपने को बाप और सर्व की दुवाओं के विमान में उड़ता हुआ अनुभव करेगा। यह दुवाएं उनका विमान है। सदा अपने को विमान में उड़ता हुआ अनुभव करेगा। दुवा मांगेगा नहीं, लेकिन दुवाएं स्वयं उसके आगे स्वत: ही आयेगी। ऐसे सन्तुष्ट मणि अर्थात् सिद्धि स्वरूप तपस्वी। अल्प काल की सिद्धियाँ नहीं, यह अविनाशी और रूहानी सिद्धियाँ हैं। ऐसी सन्तुष्ट मणियों को देख रहे थे। हरेक अपने आपसे पूछे - मैं कौन?

तपस्या वर्ष का उमंग-उत्साह तो अच्छा है। हर एक यथा शक्ति कर भी रहे हैं। और आगे के लिए भी उत्साह है। यह उत्साह बहुत अच्छा है। अभी तपस्या द्वारा प्राप्तियों को स्वयं अपने जीवन में और सर्व के सम्बन्ध-सम्पर्क में प्रत्यक्ष करो। अपने आपमें अनुभव करते हो लेकिन अनुभव को सिर्फ मन-बुद्धि से अनुभव किया, यहाँ तक नहीं रखो। उनको चलन और चेहरे तक लाओ, सम्बन्ध-सम्पर्क तक लाओ। तब पहले स्वयं में प्रत्यक्ष होंगे, फिर सम्बन्ध में प्रत्यक्ष होंगे फिर विश्व की स्टेज पर प्रत्यक्ष होंगे। तब प्रत्यक्षता का नगाड़ा बजेगा। जैसे आपके यादगार शाðां में कहते हैं - शंकर ने तीसरी आंख खोली और विनाश हो गया। तो शंकर अर्थात् अशरीरी तपस्वी रूप। विकारों रूपी सांप को गले का हार बना दिया। सदा ऊंची स्थिति और ऊंचे आसनधारी। यह तीसरी आंख अर्थात् सम्पूर्णता की आंख, सम्पन्नता की आंख। जब आप तपस्वी सम्पन्न, सम्पूर्ण स्थिति से विश्व परिवर्तन का संकल्प करेंगे तो यह प्रकृति भी सम्पूर्ण हलचल की डांस करेगी। उपद्रव मचाने की डांस करेगी। आप अचल होंगे और वह हलचल में होगी क्योंकि इतने सारे विश्व की सफाई कौन करेगा?  मनुष्यात्माएं कर सकती हैं?  यह वायु, धरती, समुद्र, जल - इनकी हलचल ही सफाई करेगी। तो ऐसी सम्पूर्णता की स्थिति इस तपस्या से बनानी है। प्रकृति भी आपका संकल्प से आर्डर तब मानेगी जब पहले आपके स्वयं के, सदा के सहयोगी कर्मेन्द्रियाँ मन-बुद्धि-संस्कार आर्डर मानें। अगर स्वयं के, सदा के सहयोगी आर्डर नहीं मानते तो प्रकृति क्या आर्डर मानेगी? इतनी पॉवरफुल तपस्या की ऊंची स्थिति हो जो सर्व के एक संकल्प, एक समय पर उत्पन्न हो। सेकेण्ड का संकल्प हो - ‘‘परिवर्तन'', और प्रकृति हाजिर हो जाये। जैसे विश्व की ब्राह्मण आत्माओं का एक ही टाइम वर्ल्ड पीस का योग करते हो ना। तो सभी का एक समय और एक ही संकल्प यादगार रहता है। ऐसे सर्व के एक संकल्प से प्रकृति हलचल की डांस शुरू कर देगी। इसलिए कहते ही हो - स्व परिवर्तन से विश्व परिवर्तन। यह पुरानी दुनिया से नई दुनिया परिवर्तन कैसे होगी? आप सर्व के शक्तिशाली संकल्प से संगठित रूप से सबका एक संकल्प उत्पन्न होगा। समझा क्या करना है? तपस्या इसको कहा जाता है। अच्छा।

बापदादा डबल विदेशी बच्चों को देख सदा हर्षित रहते हैं। ऐसे नहीं कि भारतवासियों को देख हर्षित नहीं होते। अभी डबल विदेशियों का टर्न है इसलिए कहते हैं। भारत पर तो बाप सदा प्रसन्न हैं। तब तो भारत में आये हैं। और आप सबको भी भारतवासी बना दिया है। इस समय आप सभी विदेशी हो या भारतवासी हो। भारतवासी में भी मधुबन वासी। मधुबन वासी बनना अच्छा लगता है। अभी जल्दी-जल्दी सेवा पूरी करो तो मधुबन वासी बन ही जायेंगे। सारे विदेश में सन्देश जल्दी जल्दी देकर पूरा करो। फिर यहाँ आयेंगे तो फिर भेजेंगे नहीं। तब तक स्थान भी बन जायेंगे। देखो मैदान तो लम्बा-चौड़ा (पीस पार्क) पड़ा ही है, वहाँ पहले से प्रबन्ध कर लेंगे फिर आपको तकलीफ नहीं होगी। लेकिन जब ऐसा समय आयेगा उस समय अपनी अटैची पर भी सो जायेंगे। खटिया नहीं लेंगे। वह समय ही और होगा। यह समय और है। अभी तो सेवा का एक ही समय पर, मंसा-वाचा-कर्मणा इकठ्ठा संकल्प हो तब है सेवा की तीव्र गति। मन्सा द्वारा पॉवरफुल, वाणी द्वारा नॉलेजफुल, सम्बन्ध-सम्पर्क अर्थात् कर्म द्वारा लवफुल। यह तीनों अनुभूतियाँ एक ही समय पर इकट्ठी हों। इसको कहा जाता है - तीव्र गति की सेवा।

अच्छा तन से ठीक हैं, मन से ठीक हैं? फिर भी दूर-दूर से आते हैं तो बापदादा भी दूर से आये हुए बच्चों को खुश देख खुश होते हैं। फिर भी दूर से आने वाले अच्छे हो। क्योंकि विमान में आते हो। जो इस कल्प में पहली बार आये हैं उन्हों को बापदादा विशेष यादप्यार दे रहे हैं। फिर भी हिम्मत वाले अच्छे हैं। यहाँ से जाते ही टिकिट का इकठ्ठा करते हैं और आ जाते हैं। यह भी एक याद की विधि है। जाना है, जाना है, जाना है....। यहाँ आते हो तो सोचते हो - विदेश जाना है। फिर जाने के साथ आना सोचते हो। ऐसा भी टाइम आना ही है, जो गवर्मेन्ट भी समझेगी कि आबू की शोभा यह ब्राह्मण आत्माएं ही है। अच्छा।

चारों ओर की सर्व महान सन्तुष्ट आत्माओं को, सदा प्रसन्नचित्त निश्चिन्त रहने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा एक ही समय तीन सेवा करने वाले तीव्र गति के सेवाधारी आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ स्थिति के आसनधारी तपस्वी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

प्रथम ग्रुप :- सभी अपने को होली हंस समझते हो? होलीहंस का विशेष कर्म क्या है? (हरेक ने सुनाया) जो विशेषताएं सुनाई वह प्रैक्टिकल में कर्म में आती हैं? क्योंकि सिवाए आप ब्राह्मणों के होलीहंस और कौन हो सकता है? इसलिए फलक से कहो। जैसे बाप सदा ही प्योर हैं, सदा सर्वशक्तियाँ कर्म में लाते हैं, ऐसे ही आप होलीहंस भी सर्वशक्तियाँ प्रैक्टिकल में लाने वाले और सदा पवित्र हैं। थे और सदा रहेंगे। तीनों ही काल याद है ना? बापदादा बच्चों का अनेक बार बजाया हुआ पार्ट देख हर्षित होते हैं। इस-लिए मुश्किल नहीं लगता है ना। मास्टर सर्वशक्तिवान के आगे कभी मुश्किल शब्द स्वप्न में भी नहीं आ सकता। ब्राह्मणों की डिक्शनरी में मुश्किल अक्षर है? कहाँ छोटे अक्षरों में तो नहीं है? माया के भी नॉलेजफुल हो गये हो ना? जहाँ फुल है वहाँ फेल नहीं हो सकते। फेल होने का कारण क्या होता है? जानते हुए भी फेल क्यों होते हो? अगर कोई जानता भी हो और फेल भी होता है तो उसे क्या कहेंगे? कोई भी बात होती है तो फेल होने का कारण है कि कोई न कोई बात फील कर लेते हो। फीलिंग फ्लु हो जाता है। और फ्लु क्या करता है - पता है? कमजोर कर देता है। उससे बात छोटी होती है लेकिन बड़ी बन जाती है तो अभी फुल बनो। फेल नहीं होना है, पास होना है। जो भी बात होती है उसे पास करते चलो तो पास विथ ऑनर हो जायेंगे। तो पास करना है, पास होना है और पास रहना है। जब फलक से कहते हो कि बापदादा से जितना मेरा प्यार है उतना और किसी का नहीं है। तो जब प्यार है तो पास रहना है या दूर रहना है? तो पास रहना है और पास होना है। यू.के. वाले तो बापदादा की सर्व आशाओं को पूर्ण करने वाले हो ना। सबसे नम्बरवन बाप की शुभ आशा कौन सी है? खास यू.के. वालों के लिए कह रहे हैं। बड़े बड़े माइक लाने हैं। जो बाप को प्रत्यक्ष करने के निमित्त बनें और बाप के नजदीक आएं। अभी यू.के. में, अमेरिका में और भी विदेश के देशों में माइक निकले जरूर है लेकिन एक हैं सहयोगी और दूसरे हैं सहयोगी-समीप वाले। तो ऐसे माइक तैयार करो। वैसे सेवा में वृद्धि अच्छी हो रही है, होती भी रहेगी। अच्छा- रशिया वाले छोटे बच्चे हैं लेकिन लकी हैं। आपका बाप से कितना प्यार है! अच्छा है बापदादा भी बच्चों की हिम्मत पर खुश हैं। अभी मेहनत भूल गई ना। अच्छा।

ग्रुप नं. 2:- बापदादा के समीप आत्माएं हैं - ऐसा अनुभव करते हो? जो समीप आत्माएं होती हैं तो समीप की निशानी क्या होती है? समीपता की निशानी है - समान। तो सदा हर कर्म में अपने को बाप समान अनुभव करते हो? ब्रह्मा बाप का श्रेष्ठ संकल्प क्या था? जो बाप कहते हैं, वह करना। तो आपका भी संकल्प ऐसा है? हर संकल्प में दृढ़ता है? या किसमे है, किसमें नहीं है? क्योंकि जैसे ब्रह्मा बाप ने दृढ़ संकल्प से हर कार्य में सफलता प्राप्त की, तो दृढ़ता सफलता का आधार बना। ऐसे फालो फादर करो। उनके बोल की विशेषता क्या थी? तो अपने में चेक करो - वह विशेषताएं हमारे में हैं? ऐसे ही कर्म में विशेषता क्या रही? कर्म और योग साथ-साथ रहा? ऐसे कर्म में भी चेक करो? फिर देखो - संकल्प, बोल और कर्म में कितना समीप हैं? जितना समीप होंगे उतना ही समान होंगे। जैसे ब्रह्मा बाप ने एक बाप, दूसरा न कोई - यह प्रैक्टिकल में कर्म करके दिखाया। ऐसे बाप समान बनने वालों को भी इसी कर्म को फालो करना है। तब कहेंगे बाप समान। इतनी हिम्मत है? कभी दिलशिकस्त तो नहीं बनते? पास्ट इज पास्ट, फ्युचर नहीं करना। फ्युचर के लिए यही ब्रह्मा बाप के समान दृढ़ संकल्प करना कि कभी दिलशिकस्त नहीं बनना है, सदा दिलखुश रहना है। फ्युचर के लिए इतनी हिम्मत है ना? माया हिलाये तो भी नहीं हिलना। अगर मायाजीत बनने का दृढ़ संकल्प होगा तो माया कुछ नहीं करेगी। सदैव यह स्मृति रखो कि कितने भी बड़े रूप से माया आये लेकिन नाथिंग न्यु। कितने बार विजयी बने हो? तो फिर से बनना बड़ी बात नहीं होगी। अगर माया हिमालय जितने बड़े रूप से आये तो क्या करेंगे? उस समय रास्ता नहीं निकालना, उड़ जाना। सेकेण्ड में उड़ती कला वाले के लिए पहाड़ भी रूई बन जायेगी। तो कितना भी बड़ा पहाड़ का रूप हो, लेकिन डरना नहीं, घबराना नहीं। यह कागज का शेर है, कागज का पहाड़ है। ऐसे पॉवरफुल आत्माएं ब्रह्मा बाप को फालो कर समीप और समान बन जायेंगी। अच्छा।

ग्रप नं. 3 :- इस ड्रामा के श्रेष्ठ युग संगम की श्रेष्ठ आत्माएं हैं - ऐसे अनुभव करते हो? संगमयुग की महिमा अच्छी तरह से स्मृति में रहती है? क्योंकि संगमयुग को वरदान मिला हुआ है - संगमयुग में ही वरदाता वरदानों से झोली भरते हैं। आप सबकी बुद्धि रूपी झोली वरदानों से भरी हुई है? खाली तो नहीं है? थोड़ी खाली है या इतना भरा हुआ है जो औरों को भी दे सकते हो? क्योंकि वरदानों का खज़ाना ऐसा है, जो जितना औरों को देंगे, उतना आपमें भरता जायेगा। तो देते जाओ और बढ़ता जाता है। जितना बढ़ाने चाहते हो उतना देते जाओ। देने की विधि आती है ना? क्योंकि जानते हो - यह सब अपना ही परिवार है। आपके ब्रदर्स है ना? अपने परिवार को खाली देख रह नहीं सकते हैं। ऐसा रहम आता है? क्योंकि जैसा बाप, वैसे बच्चे। तो सदैव यह चेक करो कि मैंने मर्सीफुल बाप का बच्चा बन कितनी आत्माओं पर रहम किया है? सिर्फ वाणी से नहीं, मन्सा अपनी वृत्ति से वायुमण्डल द्वारा भी आत्माओं को बाप द्वारा मिली हुई शक्तियाँ दे सका। तो मन्सा सेवा करने आती है? जब थोड़े समय में सारे विश्व की सेवा सम्पन्न करनी है तो तीव्र गति से सेवा करो। जितना स्वयं को सेवा में बिज़ी रखेंगे उतना स्वयं सहज मायाजीत बन जायेंगे। क्योंकि औरों को मायाजीत बनाने से उन आत्माओं की दुवाएं आपको और सहज आगे बढ़ाती रहेगी। मायाजीत बनना सहज लगता है या कठिन? आप जब कमजोर बन जाते हैं तब माया शक्तिशाली बनती है। आप कमजोर नहीं बनो। बाबा तो सदैव चाहते हैं कि हर एक बच्चा मायाजीत बनें। तो जिससे प्यार होता है, वो जो चाहता है, वही किया जाता है। बाप से तो प्यार है ना? तो करो। जब यह याद रहेगा कि बाप मेरे से यही चाहता है तो स्वत: ही शक्तिशाली हो जायेंगे और मायाजीत बन जायेगे। माया आती तब है, जब कमजोर बनते हो। इसलिए सदा मास्टर सर्वशक्तिवान बनो। मास्टर सर्वशक्तिवान बनने की विधि है - चलते-फिरते याद की शक्ति और सेवा की शक्ति देने में बिजी रहो। बिजी रहना अर्थात् मायाजीत रहना। रोज अपने मन का टाइमटेबुल बनाओ। मन बिजी होगा तो मनजीत मायाजीत हो ही जायेंगे।

ग्रुप नं. 4 :- सभी अपने को इस समय भी तख्तनशीन आत्माएं अनुभव करते हो? डबल तख्त है या सिंगल? आत्मा का अका-लतख्त भी याद है और दिलतख्त भी याद है। अगर अकाल तख्त को भूलते हो तो बॉडी कांशेस में आते हो। फिर परवश हो जाते हो। सदैव यही स्मृति रखो कि मैं इस समय इस शरीर का मालिक हूँ। तो मालिक अपनी रचना के वश कैसे हो सकता है? अगर मालिक अपनी रचना के वश हो गया तो मोहताज हो गया ना! तो अभ्यास करो और कर्म करते हुए बीच-बीच में चेक करो कि मैं मालिकपन की सीट पर सेट हूँ? या नीचे तो नहीं आ जाता? सिर्फ रात को चेक नहीं करो। कर्म करते बीच-बीच में चेक करो। वैसे भी कहते हैं कि कर्म करने से पहले सोचो, फिर करो। ऐसे नहीं कि पहले करो, फिर सोचो। फिर निरन्तर मालिकपन की स्मृति और नशे में रहेंगे। संगमयुग पर बाप आकर मालिकपन की सीट पर सेट करता है। स्वयं भगवान आपको स्थिति की सीट पर बिठाता है। तो बैठना चाहिए ना! अच्छा- ओम् शान्ति।



03-04-91   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व हदों से निकल बेहद के वैरागी बनो

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले: -

आज कल्प बाद फिर से मिलन मनाने सभी बच्चे अपने साकारी स्वीट होम मधुबन में पहुँच गये हैं। साकारी वतन का स्वीट होम मधुबन ही है। जहाँ बाप और बच्चों का रूहानी मेला लगता है। मिलन मेला होता है। तो सभी बच्चे मिलन मेले में आये हुए हो। यह बाप और बच्चों का मिलन मेला सिर्फ इस संगमयुग पर और मधुबन में ही होता है। इसलिए सभी भाग कर मधुबन में पहुँचे हो। मधुबन बापदादा का साकार रूप में भी मिलन कराता और साथ-साथ सहज याद द्वारा अव्यक्त मिलन भी कराता है, क्योंकि मधुबन धरनी को रूहानी मिलन की, साकार रूप में मिलन की अनुभूति का वरदान मिला हुआ है। वरदानी धरनी होने के कारण मिलन का अनुभव सहज करते हो। और कोई भी स्थान पर ज्ञान सागर और ज्ञान नदियों का मिलन मेला नहीं होता। सागर और नदियों के मिलन मेले का यह एक ही स्थान है। ऐसे महान वरदानी धरनी पर आये हो - ऐसे समझते हो?

तपस्या वर्ष में विशेष इस कल्प में पहली बार मिलने वाले बच्चों को गोल्डन चांस मिला है। कितने लकी हो! तपस्या के आदि में ही नये बच्चों को एक्स्ट्रा बल मिला है। तो आदि में ही यह एक्स्ट्रा बल आगे के लिए, आगे बढ़ने में सहयोगी बनेगा। इसलिए नये बच्चों को ड्रामा ने भी आगे बढ़ने का सहयोग दिया है। इसलिए यह उल्हना नहीं दे सकेंगे कि हम तो पीछे आये हैं। नहीं, तपस्या वर्ष को भी वरदान मिला हुआ है। तपस्या वर्ष में वरदानी भूमि पर आने का अधिकार मिला है, चांस मिला है। यह एक्स्ट्रा भाग्य कम नहीं है! यह वर्ष का, मधुबन धरनी का और अपने पुरूषार्थ का - तीनों वरदान विशेष आप नये बच्चों को मिले हुए हैं। तो कितने लकी हुए! इतने अविनाशी भाग्य का नशा साथ में रखना। सिर्फ यहाँ तक नशा न रहे, लेकिन अविनाशी बाप है, अविनाशी आप श्रेष्ठ आत्माएं हो, तो भाग्य भी अविनाशी है। अविनाशी भाग्य को अविनाशी रखना। यह सिर्फ सहज अटेन्शन देने की बात है। टेन्शन वाला अटेन्शन नहीं। सहज अटेन्शन हो, और मुश्किल है भी क्या? मेरा बाबा जान लिया, मान लिया। तो जो जान लिया, मान लिया, अनुभव कर लिया, अधिकार प्राप्त हो गया फिर मुश्किल क्या है? सिर्फ एक ही मेरा बाबा - यह अनुभव होता रहे। यही फुल नॉलेज है। एक ‘‘बाबा'' शब्द में सारा आदि-मध्य-अन्त का ज्ञान समाया हुआ है। क्योंकि बीज है ना। बीज में तो सारा झाड़ समाया हुआ होता है ना। विस्तार भूल सकता है लेकिन सार एक बाबा शब्द - यह याद रहना मुश्किल नहीं है। सदा सहज है ना! कभी सहज, कभी मुश्किल नहीं। सदा बाबा मेरा है। कि कभी कभी मेरा है? जब सदा बाबा मेरा है तो याद भी सदा सहज है। कोई मुश्किल बात नहीं। भगवान ने कहा - आप मेरे और आपने कहा - आप मेरे। फिर क्या मुश्किल है? इसलिए विशेष नये बच्चे और आगे बढ़ो। अभी भी आगे बढ़ने का चांस है। अभी फाइनल समाप्ति का बिगुल नहीं बजा है। इसलिए उड़ो और औरों को भी उड़ाते चलो। इसकी विधि है वेस्ट अर्थात् व्यर्थ को बचाओ। बचत का खाता, जमा का खाता बढ़ाते चलो। क्योंकि 63 जन्म से बचत नहीं की है लेकिन गंवाया है। सभी खाते व्यर्थ गंवा कर खत्म कर दिया है। श्वांस का खज़ाना भी गंवाया, संकल्प का खज़ाना भी गंवाया, समय का खज़ाना भी गंवाया, गुणों का खज़ाना भी गंवाया, शक्तियों का खज़ाना भी गंवाया, ज्ञान का खज़ाना भी गंवाया। कितने खाते खाली हो गये! अभी इन सभी खातों को जमा करना है। जमा होने का समय भी अभी है और जमा करने की विधि भी बाप द्वारा सहज मिल रही है। विनाशी खज़ानें खर्च करने से कम होते हैं, खुटते हैं और यह सब खज़ानें जितना स्व के प्रति, और औरों के प्रति शुभ वृत्ति से कार्य में लगायेंगे, उतना जमा होता जायेगा, बढ़ता जायेगा। यहाँ खज़ानों को कार्य में लगाना, यह जमा की विधि है। वहाँ रखना जमा करने की विधि है और यहाँ लगाना जमा करने की विधि है। फर्क है। समय को स्वयं प्रति या औरों प्रति शुभ कार्य में लगाओ तो जमा होता जायेगा। ज्ञान को कार्य में लगाओ। ऐसे गुणों को, शक्तियों को जितना लगायेंगे उतना बढ़ेगा। यह नहीं सोचना - जैसे वह लॉकर में रख देते हैं और समझते हैं बहुत जमा है, ऐसे आप भी सोचो मेरे बुद्धि में ज्ञान बहुत है, गुण भी मेरे में बहुत हैं, शक्तियाँ भी बहुत हैं। लॉकप करके नहीं रखो, यूज़ करो। समझा। जमा करने की विधि क्या है? कार्य में लगाना। स्वयं प्रति भी यूज़ करो, नहीं तो लूज़ हो जायेंगे। कई बच्चे कहते हैं कि सर्व खज़ानें मेरे अन्दर बहुत समाये हुए हैं। लेकिन समाये हुए की निशानी क्या है? समाये हुए हैं अर्थात् जमा है। तो उसकी निशानी है - स्व प्रति व औरों के प्रति समय पर काम में आये। काम में आये ही नहीं और कहे बहुत जमा है, बहुत जमा है। तो इसको यथार्थ जमा की विधि नहीं कहेंगे। इसलिए अगर यथार्थ विधि नहीं होगी तो समय पर सम्पूर्णता की सिद्धि नहीं मिलेगी। धोखा मिल जायेगा। सिद्धि नहीं मिलेगी।

गुणों को, शक्तियों को कार्य में लगाओ तो बढ़ते जायेंगे। तो बचत की विधि, जमा करने की विधि को अपनाओ। फिर व्यर्थ का खाता स्वत: ही परिवर्तन हो सफल हो जायेगा। जैसे भक्ति मार्ग में यह नियम है कि जितना भी आपके पास स्थूल धन है तो उसके लिये कहते हैं - दान करो, सफल करो तो बढ़ता जायेगा। सफल करने के लिए कितना उमंग-उत्साह बढ़ाते हैं, भक्ति में भी। तो आप भी तपस्या वर्ष में सिर्फ यह नहीं चेक करो कि व्यर्थ कितना गंवाया? व्यर्थ गंवाया, वह अलग बात है। लेकिन यह चेक करो कि सफल कितना किया? जो सारे खज़ानें सुनाये। गुण भी है बाप की देन। मेरा यह गुण है, मेरी शक्ति है - यह स्वप्न में भी गलती नहीं करना। यह बाप की देन है तो प्रभु देन। परमात्म देन को मेरा मानना - यह महापाप है। कई बार कई बच्चे साधारण भाषा में सोचते भी हैं और बोलते भी हैं कि मेरे इस गुण को यूज़ नहीं किया जाता, मेरे में यह शक्ति है, मेरी बुद्धि बहुत अच्छी है, इसको यूज़ नहीं किया जाता है। मेरी' कहाँ से आई? ‘मेरी' कहा और मैली हुई। भक्ति में भी यह शिक्षा 63 जन्मों से देते रहे हैं कि मेरा नहीं मानो, तेरा मानो। लेकिन फिर भी माना नहीं। तो ज्ञान मार्ग में भी कहना तेरा और मानना मेरा - यह ठगी यहाँ नहीं चलती। इसलिए प्रभु प्रसाद को अपना मानना - यह अभिमान और अपमान करना है। ‘‘बाबा-बाबा'' शब्द कहाँ भी भूलो नहीं। बाबा ने शक्ति दी है, बुद्धि दी है, बाबा का कार्य है, बाबा का सेन्टर है, बाबा की सब चीजें है। ऐसे नहीं समझो - मेरा सेन्टर है, हमने बनाया है, हमारा अधिकार है। हमारा' शब्द कहाँ से आया? आपका है क्या? गठरी सम्भाल कर रखी है क्या? कई बच्चे ऐसा नशा दिखाते हैं - हमने सेन्टर का मकान बनाया है तो हमारा अधिकार है। लेकिन बनाया किसका सेन्टर? बाबा का सेन्टर है ना! तो जब बाबा को अर्पण कर दिया तो फिर आपका कहाँ से आया? मेरा कहाँ से आया? जब बुद्धि बदलती है तो कहते हैं - मेरा है। मेरे-मेरे ने ही मैला किया फिर मैला होना है? जब ब्राह्मण बने तो ब्राह्मण जीवन का बाप से पहला वायदा कौन सा है? नयों ने वायदा किया है, या पुरानों ने किया है? नये भी अभी तो पुराने होकर आये हो ना? निश्चय बुद्धि का फार्म भरकर आये हो ना? तो सबका पहला-पहला वायदा है - तन-मन-धन और बुद्धि सब तेरे। यह वायदा सभी ने किया है?

अभी वायदा करने वाले हो तो हाथ उठाओ। जो समझते हैं कि आइवेल के लिए कुछ तो रखना पड़ेगा। सब कुछ बाप को कैस दे देंगे? कुछ तो किनारा रखना पड़ेगा। जो समझते हैं कि यह समझदारी का काम है, वह हाथ उठाओ। कुछ किनारे रखा है? देखना, फिर यह नहीं कहना कि हमको किसने देखा? इतनी भीड़ में किसने देखा? बाप के पास तो टी.वी. बहुत क्लीयर है। उससे छिप नहीं सकते हो। इसलिए सोच, समझ करके थोड़ा रखना हो, भल रखो। पाण्डव क्या समझते हो? थोड़ा रखना चाहिए? अच्छी तरह से सोचो। जिनको रखना है वे अभी हाथ उठा ले, बच जायेंगे। नहीं तो यह समय, यह सभा, यह आपका कांध का हिलाना - यह सब दिखाई देगा। कभी भी मेरापन नहीं रखो। बाप कहा और पाप गया। बाप नहीं कहते तो पाप हो जाता है। पाप वश के हो करके, फिर बुद्धि काम नहीं करती है। कितना भी समझाओ, कहेंगे नहीं, यह तो राइट है। यह तो होना ही है। यह तो करना ही है। बाप को भी रहम पड़ता है। क्योंकि उस समय पाप के वश होते हैं। बाप भूल जाता है तो पाप आ जाता है। और पाप के वश होने के कारण जो बोलते हैं, जो करते हैं वह स्वयं भी नहीं समझते कि हम क्या कर रहे हैं, क्योंकि परवश होते हैं। तो सदा ज्ञान के होश में रहो। पाप के जोश में नहीं आओ। बीच-बीच में यह माया की लहर आती है। आप नये इन बातों से बच करके रहना। मेरा-मेरा में नहीं जाना। थोड़ा पुराने हो जाते हैं तो फिर यह मेरे-मेरे की माया बहुत आती है। मेरा विचार, मेरी बुद्धि ही नहीं है तो मेरा विचार कहाँ से आया? तो समझा, जमा करने की विधि क्या है? कार्य में लगाना। सफल करो, अपने ईश्वरीय संस्कारों को भी सफल करो तो व्यर्थ संस्कार स्वत: ही चले जायेंगे। ईश्वरीय संस्कारों को कार्य में नहीं लगाते हो तो वह लॉकर में रहते और पुराना काम करते रहते। कइयों की यह आदत होती है कि बैंक में या अलमारियों में रखने की। बहुत अच्छे कपड़े होंगे, पैसे होंगे, चीजें होंगी, लेकिन यूज़ फिर भी पुराने करेंगे। पुरानी वस्तु से उन्हों को प्यार होता है और अलमारी की चीजें अलमारी में ही रह जायेगी और वह पुराने से ही चला जायेगा। तो ऐसे नहीं करना - पुराने संस्कार यूज करते रहो और ईश्वरीय संस्कार बुद्धि के लॉकर में रखो। नहीं, कार्य में लगाओ, सफल करो। तो यह चार्ट रखो कि सफल कितना किया? सफल करना माना बचाना या बढ़ाना। मंसा से सफल करो, वाणी से सफल करो। सम्बन्ध-सम्पर्क से, कर्म से, अपने श्रेष्ठ संग से, अपने अति शक्तिशाली वृत्ति से सफल करो। ऐसे नहीं कि मेरी वृत्ति तो अच्छी रहती है। लेकिन सफल कितना किया? मेरे संस्कार तो है ही शान्त लेकिन सफल कितना किया? कार्य में लगाया? तो यह विधि अपनाने से सम्पूर्णता की सिद्धि सहज अनुभव करते रहेंगे। सफल करना ही सफ-लता की चाबी है। समझा - क्या करना है? सिर्फ अपने में ही खुश नहीं होते रहो - मैं तो बहुत अच्छी गुणवान हूँ, मैं बहुत अच्छा भाषण कर सकती हूँ, मैं बहुत अच्छा ज्ञानी हूँ, योग भी मेरा बहुत अच्छा है। लेकिन अच्छा है तो यूज़ करो ना। उसको सफल करो। सहज विधि है - कार्य में लगाओ और बढ़ाओ। बिना मेहनत के बढ़ता जायेगा और 21 जन्म आराम से खाना। वहाँ मेहनत नहीं करनी पड़ेगी।

विशाल महफिल है (ओम् शान्ति भवन का हाल एकदम फुल भर गया इसलिए कइयों को नीचे मेडिटेशन हाल, छोटे हाल में बैठना पड़ा। हाल छोटा पड़ गया) शास्त्रों में यह आपका जो यादगार है, उसमें भी गायन है - पहले गिलास में पानी डाला, फिर उससे घड़े में डाला, फिर घड़े से तालाब में डाला, तालाब से नदी में डाला। आखरीन कहाँ गया? सागर में। तो यह महफिल पहले हिस्ट्री हाल में लगी, फिर मेडिटेशन हाल में लगी, अभी ओम् शान्ति भवन में लग रही है। अब फिर कहाँ लगेगी? लेकिन इसका मतलब नहीं कि साकार मिलन के बिना अव्यक्त मिलन नहीं मना सकते हो। अव्यक्ति मिलन मनाने का अभ्यास समय प्रमाण बढ़ना ही है और बढ़ाना ही है। यह तो दादियों ने रहमदिल होकर आप सबके ऊपर विशेष रहम किया है, नयों के ऊपर। लेकिन अव्यक्त अनुभव को बढ़ाना - यह समय और कार्य में आयेगा। देखो, नये-नये बच्चों के लिए ही बापदादा विशेष यह साकार में मिलन का पार्ट अब तक बजा रहे हैं। लेकिन यह भी कब तक?

सभी खुशराजी हो, सन्तुष्ट हो? बाहर रहने में भी सन्तुष्ट हो? यह भी ड्रामा में पार्ट है। जब कहते हो सारा आबू हमारा होगा, तो वह कैसे होगा? पहले आप चरण तो रखो। फिर अभी जो धर्मशाला नाम है वह अपना हो जायेगा। देखो, विदेश में अभी ऐसे होने लगा है। चर्च इतने नहीं चलते हैं तो बी.के. को दे दी है। जो ऐसे बड़े-बड़े स्थान है, चल नहीं पाते हैं तो ऑफर करते हैं ना। तो ब्राह्मणों के चरण पड़ रहे हैं जगह-जगह पर, इसमें भी राज़ है। ब्राह्मणों को रहने का ड्रामा में पार्ट मिला है। तो सारा ही अपना जब हो जायेगा फिर क्या करेंगे? आप ही ऑफर करेंगे आप सम्भालो। हमें भी सम्भालो, आश्रम भी सम्भालो। जिस समय जो पार्ट मिलता है, उसमें राजी रह करके पार्ट बजाओ। अच्छा।

मधुबन निवासी और टीचर्स सभी नीचे सुन रहे हैं। सुनने द्वारा मिल रहे हैं। टीचर्स और मधुबन निवासियों को सेवा का प्रत्यक्षफल सबके सन्तुष्टता की दुआएं मिलती है। यह ब्राह्मण आत्माओं की या बाप की दुआएं एक्स्ट्रा लिफ्ट के रूप में काम में आती हैं। यह ब्राह्मण आत्माओं के दिल की दुआएं कम नहीं है। अच्छा-

चारों ओर के सर्व मिलन मनाने के, ज्ञान रतन धारण करने के चात्रक आत्माओं को आकार रूप में वा साकार रूप में मिलन मेला मनाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा सर्व खज़ानों को सफल कर सफलता स्वरूप बनने वाली आत्माओं को, सदा मेरा बाबा और कोई हद का मेरापन अंशमात्र भी न रखने वाले ऐसे बेहद के वैरागी आत्माओं को सदा हर समय विधि द्वारा सम्पूर्णता की सिद्धि प्राप्त करने वाले बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

दादियों से :- सदैव कोई नई सीन होनी चाहिए ना। यह भी ड्रामा में नई सीन थी जो रिपीट हुई। यह सोचा था कि यह हाल भी छोटा हो जायेगा? सदा एक सीन तो अच्छी लगती नहीं। कभी-कभी की सीन अच्छी लगती है। यह भी एक रूहानी रौनक है ना! इन सभी आत्माओं का संकल्प पूरा होना था, इसलिए यह सीन हो गई। यहाँ से छुट्टी दे दी - भले आओ। तो क्या करेंगे? अभी तो नये और बढ़ने हैं। और पुराने तो पुराने हो गये। जैसे उमंग से आये हैं वैसे अपने को सेट किया है, यह अच्छा किया है। विशाल तो होना ही है। कम तो होना है ही नहीं। जब विश्व कल्याणकारी का टाइटल है तो विश्व के आगे यह तो कुछ भी नहीं हैं। वृद्धि भी होनी है और विधि भी नये से नई होनी है। कुछ न कुछ तो विधि होती रहनी है। अभी वृत्ति पावरफुल होगी। तपस्या द्वारा वृत्ति पावरफुल हो जायेगी तो स्वत: ही वृत्ति द्वारा आत्माओं की भी वृत्ति चेंज होगी। अच्छा- आज सब सेवा करते थकते तो नहीं हो ना। मौज में आ रहे हो। मौज ही मौज है। अच्छा।

पार्टियों से :- सदा अपने को एकरस स्थिति में अनुभव करते हो? एकरस स्थिति है या और हद के रस आकार्षित करते हैं? निर-न्तर योगी बन गये? सदा पावरफुल योग है या फर्क पड़ता है? निरन्तर अर्थात् अन्तर न हो। ऐसे शक्तिशाली बने हो या बन रहे हो? कितने तक बने हो? 75 तक पहुँचे हो? क्योंकि सदा एकरस का अर्थ ही है एक के साथ सदा जैसे बाप, वैसे मैं, बाप समान। बनना तो बाप समान है। बाप तो शक्ति भरते ही हैं। रोज की मुरली क्या है? शक्ति भरती है ना! लेकिन भरने वाले भरते हैं। सदैव स्मृति रखो कि हम महावीर हैं, शिवशक्तियाँ हैं तो कभी भी निर्बल नहीं होंगे, कमजोर नहीं होंगे। क्योंकि कोई भी विघ्न तब आता है जब कमजोर बनते हैं। अगर कमजोर नहीं बनो तो विघ्न नहीं आ सकता। महावीर को कहते हैं विघ्न विनाशक। तो यह किसका टाइटल है? आप सभी विघ्न विनाशक हो या विघ्नों में घबराने वाले हो? कोई भी शक्ति की कमी हुई तो मास्टर सर्व शक्तिवान नहीं कहेंगे। इसलिए सदा याद रखो कि सर्व शक्तियाँ बाप का वर्सा है। वर्सा तो पूरा मिला है या थोड़ा मिला है? तो एक भी शक्ति कम नहीं होनी चाहिए। इस समय सभी मधुबन निवासी हो ना! अभी मधुबन को साथ ले जाना। क्योंकि मधुबन अर्थात् मधुरता। मधुबन आपके साथ होगा तो सदा ही सम्पूर्ण और सदा ही सन्तुष्ट रहेंगे। ऐसे नहीं कहना कि मधुबन में तो बहुत अच्छा था। अभी बदल गये। मधुबन का बाबा भी साथ है। तो मधुबन की विशेषता भी साथ है। तो सदा अपने को मास्टर सर्व शक्तिवान अनु-भव करेंगे। सभी तीव्र पुरुषार्थी हो या पुरुषार्थी हो? तीव्र पुरुषार्थी की निशानी क्या होती है? तीव्र पुरुषार्थी सदा उड़ती कला वाला होगा, सदा डबल लाइट होगा। कभी ऊपर, कभी नीचे नहीं, सदा उड़ती कला। जितना-जितना विचित्र बाप से प्यार है तो जिससे प्यार होता है वैसा ही बनना होता है। स्वयं भी विचित्र आत्मा रूप में स्थित होंगे तो उड़ती कला में रहेंगे। अच्छा।

(बापदादा का मधुर याद पत्र डबल विदेशी भाई-बहनों प्रति)

चारों ओर के डबल विदेशी बच्चों को बापदादा दिलवर की दिल से बहुत-बहुत यादप्यार स्वीकार हो।

सर्व बच्चों की मधुबन के रिफ्रेशमेन्ट के उमंग-उत्साह की खुशबू पत्रों द्वारा, रूहरिहान द्वारा बाप के पास पहुँच रही है। बापदादा भी बच्चों का तीव्र पुरूषार्थ देख खुश हो रहे हैं और सदा आगे उड़ाने में साथी है। ईश्वरीय परिवार के भी सहयोग की दुआएं सदा सबके साथ हैं। देखो, मीठे बच्चे इस तपस्या वर्ष में लगन की अग्नि द्वारा सर्व व्यर्थ संकल्प, समय और संस्कारों को समाप्त कर समर्थ-सम्पन्न बनने का जो दृढ़ संकल्प किया है, उनको अपनी हिम्मत और बाप की मदद से पूरा करना ही है और होना ही है। इसके लिए सदा बाप को अपने कम्पेनियन के रूप में साथ रखना और कम्पनी तीव्र पुरुषार्थी फालो फादर ब्राह्मण आत्माओं की करनी है। इसमें ही सहज सफलता अनुभव करते रहेंगे। डबल विदेशी बच्चों पर तो विशेष बाप का प्यार है क्योंकि बच्चे भी बाप के लव में लीन रहते हैं। उड़ते रहो और उड़ाते रहो। अच्छा।



10-04-91   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


दिल तख्तनशीन और विश्व तख्तनशीन बनने के लिए सुख दो और सुख लो

अव्यक्त बापदादा अपने दिलतख्तनशीन बच्चों प्रति बोले: -

आज विश्व के मालिक, अपने बालक सो मालिक बच्चों को देख रहे हैं। सभी बच्चे इस समय भी स्व के मालिक हैं और अनेक जन्म भी विश्व के मालिक हैं। परमात्म-बालक मालिक बन जाते हैं। ब्राह्मण आत्माएं अर्थात् मालिक आत्माएं। इस समय सर्व कर्मे-न्द्रियों के मालिक हो, अधीन आत्माएं नहीं हो। अधिकारी अर्थात् मालिक हो। कर्मेन्द्रियों के वशीभूत नहीं हो, इसलिए बालक सो मालिक हो। बालकपन का भी ईश्वरीय नशा अनुभव करते हो और स्वराज्य के मालिकपन का नशा भी अनुभव करते हो। डबल नशा है। नशे की निशानी है अविनाशी रूहानी खुशी। सदा अपने को विश्व में खुशनसीब आत्माएं समझते हो? वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य अर्थात् श्रेष्ठ नसीब! खुशनसीब भी हो और सदा खुशी की खुराक खाते और खिलाते हो। साथ-साथ सदा खुशी के झूले में झूलते रहते हो। औरों को भी खुशी का महादान दे खुशनसीब बनाते हो। ऐसे अमूल्य हीरे तुल्य जीवन बनाने वाले हो। बन गये हैं या अभी बनना है? ब्राह्मण जीवन का अर्थ ही है - खुशी में रहना, खुशी की खुराक खाना और खुशी के झूले में रहना। ऐसे ब्राह्मण हो ना? सिवाए खुशी के और जीवन ही क्या है! जीवन ही खुशी है। खुशी नहीं तो ब्राह्मण जीवन नहीं। खुश रहना ही जीना है।

आज बापदादा सर्व बच्चों का पुण्य का खाता देख रहे थे। क्योंकि आप सभी पुण्य आत्माएं हो। पुण्य का खाता अनेक जन्मों के लिए जमा कर रहे हो। सारे दिन में पुण्य कितना जमा किया? यह स्वयं भी चेक कर सकते हो ना। एक है दान करना, दूसरा है पुण्य करना। दान से भी पुण्य का ज्यादा महत्व है। पुण्य कर्म निस्वार्थ सेवाभाव का कर्म है। पुण्य कर्म दिखावा नहीं होता है, लेकिन दिल से होता है। दान दिखावा भी होता है, दिल से भी होता है। पुण्य कर्म अर्थात् आवश्यकता के समय किसी आत्मा के सहयोगी बनना। अर्थात् काम में आना। पुण्य कर्म करने वाली आत्मा को अनेक आत्माओं के दिल की दुवाएं प्राप्त होती है। सिर्फ मुख से शुक्रिया वा थैंक्स नहीं कहते लेकिन दिल की दुवाएं गुप्त प्राप्ति जमा होती जाती हैं। पुण्य आत्मा, परमात्म दुवाएं, आत्माओं की दुवाएं - इस प्राप्त हुए प्रत्यक्षफल से भरपूर होते हैं। पुण्य आत्मा की वृत्ति, दृष्टि औरों को भी दुआयें अनुभव कराती हैं। पुण्य आत्मा के चेहरे पर सदा प्रसन्नता, सन्तुष्टता की झलक दिखाई देती है। पुण्य आत्मा सदा प्राप्त हुए फल के कारण अभिमान और अपमान से परे रहती है। क्योंकि वह भरपूर बादशाह है। अभिमान और अपमान से बेफिकर बादशाह है। पुण्य आत्मा पुण्य की शक्ति द्वारा स्वयं के हर संकल्प, हर समय की हलचल को, हर कर्म को सफल करने वाले होते हैं। पुण्य का खाता जमा होता है। जमा की निशानी है - व्यर्थ की समाप्ति। ऐसी पुण्य आत्मा विश्व के राज्य के तख्तनशीन बनती है। तो अपने खाते को चेक करो कि ऐसे पुण्य आत्मा कहाँ तक बने हैं? अगर पूछेंगे कि सभी पुण्य आत्मा हो? तो सब हाँ जी कहेंगे ना। है भी सभी पुण्य आत्मा। लेकिन नम्बरवार है, कि सब नम्बरवन है? नम्बरवार है ना। सतयुग-त्रेता के विश्व के तख्त पर कितने बैठेंगे? सभी इकट्ठे बैठेंगे? तो नम्बरवार है ना। नम्बर क्यों बनते हैं - कारण? एक विशेष बात बापदादा ने बच्चों की चेक की। और वही बात नम्बरवन बनने में रूकावट डालती है।

अभी तपस्या वर्ष में सभी का लक्ष्य सम्पूर्ण बनने का है या नम्बरवार बनने का है? सम्पूर्ण बनना है ना। आप सभी एक स्लोगन बोलते भी हो और लिखकर लगाते भी हो। वह है - सुख दो और सुख लो। दु:ख न दो, न दु:ख लो। यह स्लोगन पक्का है। तो रिजल्ट में क्या देखा? दु:ख न दो - इसमें तो मैजारिटी का अटेन्शन है। लेकिन आधा स्लोगन ठीक है। देने के लिए सोचते हैं, देना नहीं है। लेकिन लेने के लिए कहते हैं कि उसने दिया इसलिए हुआ। इसने यह कहा, इसने यह कहा, इसलिए यह हुआ। ऐसी जजमेन्ट देते हो ना। अपना ही वकील बन करके केस में यही बताते हो। तो आधा स्लोगन के ऊपर अटेन्शन ठीक है और भी होना चाहिए अन्डरलाइन। फिर भी आधे स्लोगन पर अटेन्शन है लेकिन और जो आधा स्लोगन है उस पर अटेन्शन नाम मात्र है। उसने दिया लेकिन आपने लिया क्यों? किसने कहा आप लो? बाप की श्रीमत है क्या कि दु:ख लो। झोली भरो दु:ख से। तो न दु:ख दो, न दु:ख लो। तभी पुण्य आत्मा बनेंगे, तपस्वी बनेंगे। तपस्वी अर्थात् परिवर्तन तो उनके दुख को भी आप सुख के रूप में स्वीकार करो। परिवर्तन करो तब कहेंगे तपस्वी। ग्लानि को प्रशंसा समझो। तब कहेंगे पुण्य आत्मा। जगत अम्बा माँ ने सदैव सभी बच्चों को यही पाठ पक्का कराया कि गाली देने वाले या दु:ख देने वाली आत्मा को भी अपने रहमदिल स्वरूप से, रहम की दृष्टि से देखो। ग्लानि की दृष्टि से नहीं। वह गाली देवे, आप फूल चढ़ाओ। तब कहेंगे पुण्य आत्मा। ग्लानि वाले को दिल से गले लगाओ। बाहर से गले नहीं लगाना। लेकिन मन से। तो पुण्य के खाते जमा होने में विघ्न रूप यही बात बनती है। मुझे दुख लेना भी नहीं है। देना तो है ही नहीं, लेकिन लेना भी नहीं है। जब अच्छी चीज नहीं है तो फिर किचड़ा लेकर जमा क्यों करते हो? जहाँ दु:ख लिया, किचड़ा जमा हुआ, तो किचड़े से क्या निकलेंगे? पाप के अंश रूपी जर्म्स। अभी मोटे पाप तो नहीं करते हो ना। अभी पाप का अंश रह गया है। लेकिन अंश भी नहीं होना चाहिए। कई बच्चे बड़ी मीठी-मीठी बातें सुनाते हैं। रूहरिहान तो सभी करते हैं ना? एक स्लोगन तो सभी को पक्का हो गया है - ‘‘चाहते तो नहीं थे, लेकिन हो गया...।'' जब आप नहीं चाहते तो और कौन चाहता? जो कहते हो, हो गया! और कोई आत्मा है! होना नहीं चाहिए, लेकिन होता है - यह कौन बोलता है? और कोई आत्मा बोलती है, कि आप बोलते हो? तो तपस्या इन बातों के कारण सिद्ध नहीं कर सकेंगे। जो होना नहीं चाहिए, जो करने नहीं चाहते वह न होना ही, न करना ही पुण्य आत्मा की निशानी है। बापदादा के पास रोज बच्चों की अनेक ऐसी कहानियाँ आती हैं। बोलने में इतनी इन्टरेस्ट वाली कहानियाँ करके बताते जो सुनते रहो। कोई लम्बी कहानी बताने में आदती हैं, कोई छोटी बताते। लेकिन कहानियाँ बहुत बताते हैं। आज इस वर्ष के मिलन की अन्तिम टुब्बी है ना। सभी टुब्बी लगाने आये हो ना। जबकि भक्ति मार्ग में भी डुबकी लगाते हैं तो कोई न कोई संकल्प जरूर करते हैं, चाहे कुछ स्वाहा करते हैं, चाहे कुछ स्वार्थ रखते हैं। दोनों से संकल्प करते हैं। तो तपस्या वर्ष में यह संकल्प करो कि सारा दिन संकल्प द्वारा, बोल द्वारा, कर्म द्वारा पुण्य आत्मा बन पुण्य करेंगे, और पुण्य की निशानी बताई कि पुण्य का प्रत्यक्षफल है हर आत्मा की दुआएं। हर संकल्प में पुण्य जमा हो। बोल में दुआएं जमा हो। सम्बन्ध-सम्पर्क से दिल से सहयोग की शुक्रिया निकले - इसको कहते हैं तपस्या। ऐसी तपस्या विश्व परिवर्तन का आधार बनेगी। ऐसी रिजल्ट पर प्राइज मिलेगी। फिर कहानी नहीं सुनाना कि ऐसा हो गया..! वैसे पहला नम्बर प्राइज़ सभी टीचर्स को लेना चाहिए और साथ में मधुबन निवासियों को लेना चाहिए। क्योंकि मधुबन की लहर, निमित्त टीचर्स की लहर प्रवृत्ति वालों तक, गॉडली स्टूडेन्ट्स तक सहज पहुँची है। तो आप सब नम्बर आगे तो हो ही जायेंगे। अब देखेंगे कि किस-किस के नाम प्राइज़ में आते हैं? टीचर्स के आते या मधुबन वालों के या गॉडली स्टूडेन्ट्स के आते हैं? डबल विदेशी भी तीव्र पुरूषार्थ कर रहे हैं। बापदादा के पास प्राइज बहुत हैं, जितना चाहो ले सकते हो। प्राइज की कमी नहीं हैं। भण्डारे भरपूर हैं। अच्छा।

सभी मेले में पहुँच गये हैं। मेला अच्छा लगा कि तकलीफ हुई? बारिश ने भी स्वागत किया, प्रकृति का भी आपसे प्यार है। घब-राये तो नहीं ना? ब्रह्मा भोजन तो अच्छा मिला ना। 63 जन्म तो धक्के खाये हैं। अभी तो और ही ठिकाना मिला ना। तीन पैर पृथ्वी तो मिली ना। इतना बड़ा हाल जो बनाया है तो हाल की भी शोभा बढ़ाई ना। हाल को सफल किया ना। किसी को भी तकलीफ तो नहीं हुई ना। लेकिन ऐसे नहीं मेला करते रहना। रचना के साथ साधन भी साथ ही आते हैं। अच्छा।

सर्व बालक सो मालिक श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा हर कदम में पुण्य का खाता जमा करने वाली पुण्य आत्माओं को, सदा दिलत-ख्तनशीन और विश्व के तख्त अधिकारी विशेष आत्माओं को सदा सुख देने और सुख लेने वाले मास्टर सुख के सागर आत्माओं को, सदा खुशी में रहने वाले और खुशी देने वाले मास्टर दाता बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

दादियों से :- बापदादा ने देखा कि सभी महारथियों ने दिल से सबको शक्तिशाली बनाने की सेवा बहुत अच्छी की। इसके लिए शुक्रिया क्या करें लेकिन खाता बहुत जमा हुआ। बहुत बड़ा खाता जमा हुआ। बापदादा महावीर बच्चों की हिम्मत और उमंग-उल्लास देख पद्मगुणा से भी ज्यादा हर्षित होते हैं। हिम्मत रखी है, संगठन सदा स्नेह के सूत्र में रहा है इसलिए इसकी सफलता है। संगठन मजबूत है ना! छोटी माला मजबूत है। कंगन तो बना है। माला तो नहीं बने, कंगन तो है ना। इसलिए छोटी माला भी पूजी जाती है। बड़ी अच्छी तैयार हो रही है, वह भी हो जायेगी, होनी ही है। सुनाया था ना - बड़ी माला दाने तैयार है लेकिन दाने से दाना मिलने में थोड़ी सी मार्जिन है। लेकिन छोटी माला अच्छी तैयार है। इसी माला के कारण ही सफलता सहज है और सफलता सदा माला के मणकों के गले में पिरोई हुई है। विजयी का तिलक लगा हुआ है। बापदादा खुश है, पद्मगुणा मुबारक है। निमित्त तो आप हैं ना। बाप तो करावनहार है। करने वाला कौन है? करने के लिए निमित्त आप हो, बाप तो बैकबोन है। इसलिए बहुत अच्छी प्रीति की रीति भी निभाई और पालना की रीति भी अच्छी निभाई। अच्छा।

(6.4.91 को खास दादी जी तथा दादी जानकी जी से मिलने दीदी के कमरे में बापदादा पधारे)

कर्मातीत स्थिति के समीप आ रहे हैं। कर्म भी वृद्धि को प्राप्त होता रहता है। लेकिन कर्मातीत अर्थात् कर्म के किसी भी बंधन के स्पर्श से न्यारे। ऐसा ही अनुभव बढ़ता रहे। जैसे मुझ आत्मा ने इस शरीर द्वारा कर्म किया ना, ऐसे न्यारापन रहे। न कार्य के स्पर्श करने का और करने के बाद जो रिजल्ट हुई - उस फल को प्राप्त करने में भी न्यारापन। कर्म का फल अर्थात् जो रिजल्ट निकलती है उसका भी स्पर्श न हो, बिल्कुल ही न्यारापन अनुभव होता रहे। जैसे कि दूसरे कोई ने कराया और मैंने किया। किसी ने कराया और मैं निमित्त बनी। लेकिन निमित्त बनने में भी न्यारापन। ऐसी कर्मातीत स्थिति बढ़ती जाती है - ऐसा फील होता है?

महारथियों की स्थिति औरों से न्यारी और प्यारी स्पष्ट हो रही है ना। जैसे ब्रह्मा बाप स्पष्ट थे, ऐसे नम्बरवार आप निमित्त आत्माएं भी साकार स्वरूप से स्पष्ट होती जातीं। कर्मातीत अर्थात् न्यारा और प्यारा। कर्म दूसरे भी करते हैं और आप भी करते हो लेकिन आपके कर्म करने में अन्तर है। स्थिति में अन्तर है। जो कुछ बीता और न्यारा बन गया। कर्म किया और वह करने के बाद ऐसा अनुभव होगा जैसे कि कुछ किया नहीं। कराने वाले ने करा लिया। ऐसी स्थिति का अनुभव करते रहेंगे। हल्कापन रहेगा। कर्म करते भी तन का भी हल्कापन, मन की स्थिति में भी हल्कापन। कर्म की रिजल्ट मन को खैंच लेती है। ऐसी स्थिति है? जितना ही कार्य बढ़ता जायेगा उतना ही हल्कापन भी बढ़ता जायेगा। कर्म अपनी तरफ आकार्षित नहीं करेगा लेकिन मालिक होकर कर्म कराने वाला करा रहा है और निमित्त करने वाले निमित्त बनकर कर रहे हैं।

आत्मा के हल्केपन की निशानी है - आत्मा की जो विशेष शक्तियाँ हैं मन, बुद्धि, संस्कार, यह तीनों ही ऐसी हल्की होती जायेगी। संकल्प भी बिल्कुल ही हल्की स्थिति का अनुभव करायेंगे। बुद्धि की निर्णय शक्ति भी ऐसा निर्णय करेगी जैसे कि कुछ किया ही नहीं, और कोई भी संस्कार अपनी तरफ आकार्षित नहीं करेगा। जैसे बाप के संस्कार कार्य कर रहे हैं। यह मन-बुद्धि-संस्कार, सूक्ष्म शक्तियाँ जो हैं, तीनों में लाइट (हल्का), अनुभव करेंगे। स्वत: ही सबके दिल से, मुख से यही निकलता रहेगा कि जैसे बाप, वैसे बच्चे न्यारे और प्यारे हैं। क्योंकि समय प्रमाण बाहर का वातावरण दिन प्रतिदिन और ही भारी होता जायेगा। जितना ही बाहर का वातावरण भारी होगा उतना ही अनन्य बच्चों के संकल्प, कर्म, सम्बन्ध लाइट (हल्के) होते जायेंगे और इस लाइटनेस के कारण सारा कार्य लाइट चलता रहेगा। वायुमण्डल तो तमोप्रधान होने के कारण और भिन्न-भिन्न प्रकार से भारीपन का अनुभव करेंगे। प्रकृति का भी भारीपन होगा। मनुष्यात्माओं की वृत्तियों का भी भारीपन होगा। इसके लिए भी बहुत हल्कापन भी औरों को भी हल्का करेगा। अच्छा, सब ठीक चल रहा है ना। कारोबार का प्रभाव आप लोग के ऊपर नहीं पड़ता। लेकिन आपका प्रभाव कारोबार पर पड़ता है। जो कुछ भी करते हो, सुनते हो तो आपके हल्केपन की स्थिति का प्रभाव कार्य पर पड़ता है। कार्य की हलचल का प्रभाव आप लोगों के ऊपर नहीं आता। अचल स्थिति कार्य को भी अचल बना देती है। सब रीति से असम्भव कार्य सम्भव और सहज हो रहे हैं और होते रहेंगे। अच्छा।

मधुबन निवासी भाई-बहिनों से

मधुबन निवासी अर्थात् राजऋषि कुमार और कुमारियाँ। राजऋषि अर्थात् राज्य अधिकारी और तपस्वी, क्योंकि मधुबन है ही तपस्या भूमि। जो रहते ही हैं तपस्या भूमि में वो तपस्वी हुए ना! तो राजऋषि अर्थात् राज्य अधिकारी के साथ तपस्या भी। राज्य अधिकारी बनें भी तब, जब तपस्वी बनें। तपस्वी नहीं तो राज्य अधिकारी नहीं। मधुबन निवासियों की अखण्ड तपस्या है ना, या एक साल की तपस्या है? अखण्ड तपस्वी हो ना? जैसे यहाँ सेवा का भी अखण्ड पाठ चलता है ना। सिर्फ विधि बदलती है सेवा की। लेकिन सेवा का अखण्ड पाठ चलता है। तो जैसे सेवा अखण्ड है, ऐसे मधुबन निवासियों की तपस्या भी अखण्ड है। अखण्ड तपस्या अर्थात् कभी भी खण्डित नहीं और मधुबन निवासियों की तपस्या अति सहज है। क्यों? क्योंकि मधुबन निवासी बेफिकर बादशाह हैं। सेवा भी करते हो लेकिन बना बनाया भी मिलता है और सबसे ज्यादा मधुबन निवासियों को सर्व ब्राह्मणों की दुआएं मिलती है। सबके मुख से, दिल से क्या निकलता है? मधुबन वाले बहुत अच्छे हैं। तो दुआओं का खज़ाना मधुबन निवासियों को विश्व की आत्माओं के द्वारा मिलता है। योग शिविर में भी चाहे वी.आई.पीज. आये, चाहे आई.पीज. आये.. सभी के मुख से मधु-बन निवासियों के लिए दुआएं निकलती हैं, तो सिकीलधे हो गये ना। मेहनत जरूर करते हो। लेकिन मेहनत का प्रत्यक्षफल भी खाते हो। सेवा का रिकार्ड तो सदा से अच्छा रहा है और अच्छा रहेगा। समय प्रमाण एवररेडी भी बन जाते हो और कोई भी बात का सामना भी कर लेते हो। पहाड़ उठाने में होशियार हो। तो अभी इस बड़े मेले में थके तो नहीं? सबसे ज्यादा काम है वैसे पानी वालों का, भण्डारे वालों का भी अपना है, भेजने वालों का भी अपना है। हरेक डिपार्टमेंन्ट वालों का अपना है। एक भी डिपार्टमेन्ट नहीं हो, तो नहीं चल सकता। सभी डिपार्टमेन्ट के निमित्त बने हुए मिलकर अथक होकर करते हो। तभी सफलता प्राप्त होती है। तो सेवा की सफलता में सदा प्राइज़ मिलती है। अभी तपस्या में प्राइज़ लो। सभी ने अच्छा सहयोग दिया है और रिजल्ट भी बहुत अच्छी रही। नाम नहीं लेते हैं लेकिन हर डिपार्टमेन्ट ने अच्छा किया है - तो पद्मगुणा मुबारक हो। इस बार निर्विघ्न रहा। इतनी बड़ी सीज़न होते भी कोई ऐसा केस नहीं हुआ। कोई शरीर छोड़ता है तो मधुबन निवासियों को दो दिन खाना नहीं मिलता। इस बारी तो कुछ नहीं हुआ। चाहे पत्तलें मंगाई, चाहे टेंट लगाया, बारिश आई, या हवाएं आई, लेकिन निर्विघ्न हो। अभी सिर्फ जाना रह गया, बस ना। आने-जाने, खातिरी करने वाले सभी ने बहुत अच्छा निभाया। आप सभी भी खुश है ना कि निर्विघ्न बीता। सबने कमाल की। पहुँचाने वाले भी रात्रि में जागते रहे। तो मधुबन निवासियों का जागरण बहुत होता होगा तभी और लोग भी जागते हैं। कोई न कोई देव या देवी के रूप में आपका जागरण होता है। तो अच्छे मार्क्स हैं। समझा। अभी ऐसी तपस्या करना जो चारों ओर मधुबन की तपस्या का सहयोग प्राप्त हो। सभी अनुभव करें कि विशेष सहयोग मिल रहा है। सबकी तबियत तो ठीक रही ना? अच्छा।

(डबल विदेशियों से) - डबल विदेशी सदा ही डबल अर्थात् कम्बाइन्ड रहने के आदती हैं। कम्पनी को पसन्द करते हैं ना। कम्पे-नियन को भी पसन्द करते हैं। तो कम्पेनियन भी मिल गया और कम्पनी भी मिल गई। दोनों मिल गये ना! अच्छा। रेस तो अच्छी कर रहे हो। डबल विदेशी, चाहे विदेश की सेवा पीछे हुई है, लेकिन सबमें आगे जाने का उमंग अच्छा है और हिम्मत भी अच्छी रखते हैं। इसलिए बापदादा की मदद भी मिलती रहती है और सदा अधिकारी हैं मदद मिलने के। डबल विदेशियों को सदा नशा रहता है ना। पुरानी दुनिया में तो भाषा की भी समस्या हो जाती है। अपने राज्य में यह कोई समस्या नहीं है। अच्छा। सभी तीव्र पुरुषार्थी हो ना। पुरुषार्थी नहीं बनना। अच्छा।