02-01-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सारे ज्ञान का सार - स्मृति

अव्यक्त बापदादा अपने समर्थ बच्चों प्रति बोले –

आज समर्थ बाप अपने चारों ओर के सर्व समर्थ बच्चों को देख रहे हैं। हर एक समर्थ बच्चा अपनी समर्थी प्रमाण आगे बढ़ रहे हैं। इस समर्थ जीवन अर्थात् सुखमय श्रेष्ठ सफलता संपन्न अलौकिक जीवन का आधार क्या हैं? आधार है एक शब्द- स्मृति' । वैसे भी सारे ड्रामा का खेल है ही विस्मृति और स्मृति' का। इस समय स्मृति का खेल चल रहा है । बापदादा ने आप ब्राह्मण आत्माओं को परिवर्तन किस आधार पर किया? सिर्फ स्मृति दिलाई कि आप आत्मा हो, न कि शरीर। इस स्मृति ने कितना अलौकिक परिवर्तन कर लिया। सब कुछ बदल गया ना! मानव जीवन की विशेषता है ही 'स्मृति' । बीज है स्मृति, जिस बीज से वृत्ति, दृष्टि, कृति सारी स्थिति बदल जाती है। इसलिए गाया जाता है - जैसी 'स्मृति वैसी स्थिति' । बाप ने फाउण्डेशन स्मृति को ही परिवर्तन किया। जब फाउण्डेशन श्रेष्ठ हुआ तो स्वत: ही पूरी जीवन श्रेष्ठ हो गई । कितनी छोटी-सी बात का परिवर्तन किया कि तुम शरीर नहीं आत्मा हो - इस परिवर्तन होते ही आत्मा मास्टर सर्वशक्तिवान होने के कारण स्मृति आते ही समर्थ बन गई । अब यह समर्थ जीवन कितना प्यारा लगता है! स्वयं भी स्मृति-स्वरूप बने और औरों को भी यही स्मृति दिलाए क्या से क्या बना देते हो! इस स्मृति से संसार ही बदल लिया। यह ईश्वरीय संसार कितना प्यारा है । चाहे सेवा अर्थ संसारी आत्माओं के साथ रहते हो लेकिन मन सदा अलौकिक संसार में रहता है । इसको ही कहा जाता है ‘स्मृति स्वरूप' । कोई भी परिस्थिति आ जाए लेकिन स्मृति-स्वरूप आत्मा समर्थ होने कारण परिस्थिति को क्या समझती? यह तो खेल है। कभी घबरायेगी नहीं। भल कितनी भी बड़ी परिस्थिति हो लेकिन समर्थ आत्मा के लिए मंजिल पर पहुँचने के लिए यह सब रास्ते के साइड सीन्स हैं अर्थात् रास्ते के नज़ारे है। साइड सीन्स तो अच्छी लगती है ना | खर्चा करके भी साइड सीन देखने जाते हैं। यहाँ भी आजकल आबू-दर्शन करने जाते हो ना! अगर रास्ते में साइड सीन्स न हो तो वह रास्ता अच्छा लगेगा? बोर हो जायेंगे । ऐसे स्मृति-स्वरूप, समर्थ-स्वरूप आत्मा के लिए परिस्थिति कहो, पेपर कहो, विघ्न कहो, प्रॉब्लम्स कहो, सब साइड सीन्स हैं । स्मृति में है कि यह मंजिल के साइड सीन्स अनगिनत बार पार की है । नथिंग न्यू इसका भी फाउण्डेशन क्या हुआ? 'स्मृति' । अगर यह स्मृति भूल जाती अर्थात् फाउण्डेशन हिला तो जीवन की पूरी बिल्डिंग हिलने लगती है । आप तो अचल है ना!

सारी पढ़ाई के चारों सब्जेक्ट्स का आधार भी 'स्मृति' है । सबसे मुख्य सबजेक्ट है याद । याद अर्थात् स्मृति – मैं कौन, बाप कौन? दूसरी सब्जेक्ट है 'ज्ञान' । रचता और रचना का ज्ञान मिला। उसका भी फाउण्डेशन स्मृति दिलाई के अनादि क्या हो और आदि क्या हो और वर्तमान समय क्या हो - ब्राह्मण सो फरिश्ता। फरिश्ता सो देवता और भी कितनी स्मृतियाँ दिलाई हैं तो ज्ञान की स्मृति हुई ना? तीसरी सब्जेक्ट है 'दिव्य गुण' । दिव्यगुणों  की भी स्मृति दिलाई कि आप ब्राह्मणों के यह गुण हैं। गुणों की लिस्ट भी स्मृति में रहती है तब समय प्रमाण उस गुण को कार्य में, कर्म में लगाते हो। कोई समय स्मृति कम होने से क्या रिजल्ट होती! समय पर गुण यूज़ नहीं कर सकते हो। जब समय बीत जाता फिर स्मृति में आता है कि यह नहीं करना चाहता था लेकिन हो गया, आगे ऐसा नहीं करेंगे। तो दिव्य गुणों  को भी कर्म में लाने के लिए समय पर स्मृति चाहिए। अभी-अभी ऐसे अपने पर भी हँसते हो। वैसे भी कोई बात वा कोई चीज़ समय पर भूल जाती है तो उस समय क्या हालत होती है? चीज़ है भी लेकिन समय पर याद नहीं आती, तो घबराते हो ना! ऐसे यह भी समय पर स्मृति न होने के कारण कभी-कभी घबरा जाते हो। तो दिव्य गुणों का आधार क्या हुआ? सदा स्मृति-स्वरूप। निरन्तर और नेचुरल दिव्य गुण सहज हर कर्म में, कार्य में लगता रहेगा। चौथी सबजेक्ट है 'सेवा' । इसमें भी अगर स्मृति-स्वरूप नहीं बनते कि मैं विश्व-कल्याणकारी आत्मा निमित्त हूँ, तो सेवा में सफलता नहीं पा सकते। सेवा द्वारा किसी आत्मा को स्मृति-स्वरूप नहीं बना सकते। साथ-साथ सेवा है ही - स्वयं की और बाप की स्मृति दिलाना।

 

तो चार ही सब्जेक्ट्स का फाउण्डेशन स्मृति' हुआ ना! सारे ज्ञान के सार का एक शब्द हुआ - स्मृति। इसलिए बापदादा ने पहले से ही सुना दिया है कि लास्ट पेपर का क्वेश्चन भी क्या आने वाला है? लम्बा-चौड़ा पेपर नहीं होना है । एक ही क्वेश्चन का पेपर होना है और एक ही सेकण्ड का पेपर होना है । क्वेश्चन कौन-सा होगा' नष्टोमोहा स्मृति-स्वरूप। क्वेश्चन भी पहले से ही सुन लिया है ना फिर तो सभी पास होने चाहिए । सभी नम्बरवन पास होंगे या नम्बरवार पास होंगे?

डबल विदेशी किस नम्बर में पास होंगे? (नम्बरवन) तो माला को खत्म कर दें? या अलग माला बना दें? उमंग तो बहुत अच्छा है । डबल फोरेनर को विशेष चांस है - लास्ट सो फास्ट जाने का। यह मार्जिन है। अलग माला बनायें तो जो पिकनिक के स्थान बनेंगे वहाँ जाना पड़ेगा। यह पसन्द हो तो अलग माला बनायें ' आप लोगों के लिए माला में आने की मार्जिन रखी है, आ जायेंगे। अच्छा।

सभी टीचर्स तो स्मृति-स्वरूप है ना! चारों ही सब्जेक्ट्स में स्मृति-स्वरूप। मेहनत का काम तो नहीं है ना! टीचर्स का अर्थ ही है अपने स्मृति-स्वरूप फीचर्स से औरों को भी स्मृति-स्वरूप बनाना। आपके फीचर्स ही औरों को स्मृति दिलाये कि मैं आत्मा हूँ, मस्तक में देखे ही चमकती हुई आत्मा वा चमकती हुई मणि। जैसे साँप की मणि देख करके साँप की तरफ कोई का ध्यान नहीं जायेंगा, मणि के तरफ जायेंगा। ऐसे अविनाशी चमकती हुई मणि को देख देहभान स्मृति में नहीं आये, अटेंशन स्वत: ही आत्मा की तरफ जायें। टीचर्स इसी सेवा के निमित्त हो। विस्मृति वालों को स्मृति दिलाना - यही सेवा है । समर्थ तो हो या कभी-कभी घबराती हो? अगर टीचर्स घबरा जायेंगी तो स्टूडैण्ट क्या होंगे? टीचर्स अर्थात् सदा नेचुरल, निरन्तर स्मृति-स्वरूप सो समर्थ-स्वरूप। जैसे ब्रह्मा बाप फ्रंट में रहा तो टीचर्स भी आगे हो ना। निमित्त माना आगे। जैसे सेवा प्रति समर्पण होने में हिम्मत रखी, समर्थ बनी। तो यह स्मृति क्या है, यह तो त्याग का भाग्य है। त्याग कर लिया, अभी भाग्य की क्या बड़ी बात है! त्याग तो किया लेकिन त्याग, त्याग नहीं है क्योंकि भाग्य बहुत ज्यादा है । त्याग क्या किया? सिर्फ सफ़ेद साड़ी पहनी, वह तो  और भी ब्यूटीफुल बन गई हो, फरिश्ते, परियाँ बन गई हो और क्या चाहिए । बाकी खाना-पीना छोड़ा. .वह तो आजकल डॉक्टर्स भी कहते है - ज्यादा नहीं खाओ, कम खाओ, सादा खाओ। आजकल तो डॉक्टर्स भी खाने नहीं देते। बाकी क्या छोड़ा? पहनना छोड़ा.. .आजकल तो गहनों के पीछे चोर लगते है । अच्छा किया जो छोड़ दिया, समझदारी का काम किया। इसलिए त्याग का पद्म गुणा भाग्य मिल गया। अच्छा!

 

अभी-अभी बापदादा को एथेन्स वाले याद आ रहे है (एथेन्स में सेवा का बड़ा कार्यक्रम चल रहा है) वह भी बहुत याद कर रहे हैं । जब भी कोई विशाल कार्य होता है, बेहद के कार्य में बेहद का बाप और बेहद का परिवार याद जरूर आता है। जो भी बच्चे गये हैं, हिम्मत वाले बच्चे हैं। जो निमित्त बने है, उन्हों की हिम्मत कार्य को श्रेष्ठ और अचल बना देती हैं । बाप के स्नेह और विशेष आत्माओं की शुभ भावना, शुभ कामना बच्चों के साथ है। बुद्धिवानों की बुद्धि किसी द्वारा भी निमित्त बनाए अपना कार्य निकाल देते है । इसलिए बेफिक्र बादशाह बन लाइट-हाउस, माइट-हाउस बन शुभ भावना, शुभ कामना के वाइब्रेशन फैलाते रहो । हर एक सर्विसएबुल बच्चे को बापदादा नाम और विशेषता सहित यादप्यार दे रहे है । अच्छा!

सदा निरन्तर स्मृति-स्वरूप समर्थ आत्माओं को, सदा स्मृति-स्वरूप बन हर परिस्थिति को साइड सीन अनुभव करने वाले विशेष आत्माओं को, सदा बाप समान चारों ओर स्मृति की लहर फैलाने वाले महावीर बच्चों को, सदा तीव्रगति से पास-विद-आनॅर होने वाले महारथी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

दिल्ली जोन से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

सदा अपने भाग्य को देख हर्षित होते हो! सदा 'वाह-वाह' के गीत गाते हो? 'हाय-हाय' के गीत समाप्त हो गये या कभी दु:ख ही लहर आ जाती है? दुःख के संसार से न्यारे हो गये और बाप के प्यारे हो गये, इसलिए दुःख की लहर स्पर्श नहीं कर सकती। चाहे सेवा अर्थ रहते भी हो लेकिन कमल समान रहते हो। कमल पुष्प कीचड़ से निकल नहीं जाता, कीचड़ में ही होता है, पानी में ही होता है लेकिन न्यारा होता है । तो  ऐसे न्यारे बने हो? न्यारे बनने की निशानी है - जितना न्यारे उतना बाप के प्यारे बनेंगे, स्वतः ही बाप का प्यार अनुभव होगा और वह  परमात्म-प्यार छत्रछाया बन जायेंगी। जिसके उपर छत्रछाया होती है वह कितना सेफ रहता है! जिसके ऊपर परमात्म-छत्रछाया है उसको कोई क्या कर सकते हैं! इसलिए फखुर में रहो कि हम परमात्म-छत्रछाया में रहने वाले है। अभिमान नहीं है लेकिन रूहानी फ़खुर है । बॉडी-कोन्सेस होगा तो अभिमान आयेगा, आत्म-अभिमानी होंगे तो अभिमान नहीं आयेगा लेकिन रूहानी फखुर होगा और जहां फखुर होता है वहाँ विघ्न नहीं हो सकता। या तो है फिक्र या है फखुर। दोनों साथ नहीं होते। दाल-रोटी अच्छे ते अच्छी देने के लिए बापदादा बंधा हुआ है। रोज़ 36 प्रकार के भोजन नहीं देंगे लेकिन दाल-रोटी प्यार की जरूर मिलेगी । निश्चित है, इसको कोई टाल नहीं सकता। तो फिक्र किस बात का! दुनिया में फिक्र रहता है कि हम भी खायें , पीछे वाले भी खायें । तो आप भी भूखे नहीं रहेंगे, आपके पीछे वाले भी भूखे नहीं रहेंगे। बाकी क्या चाहिए? डनलप के तकिये चाहिए क्या! अगर डनलप के तकिये वा बिस्तर में फिक्र की नींद हो तो नींद आयेगी? बेफिक्र होंगे तो धरनी पर भी सोयेंगे तो नींद आ जायेंगी। बॉहो को अपना तकिया बना लो तो भी नींद आ जायेंगी। जहाँ प्यार है वहां सूखी रोटी भी ३६ प्रकार का भोजन लगेगी। इसलिए बेफिक्र बादशाह हो । यह बेफिक्र रहने की बादशाही सब बादशाहियों से श्रेष्ठ है । अगर ताज पहनकर बैठ गये और फिक्र करते रहे तो तख़्त हुआ या चिंता हुई? तो भाग्य विधाता भगवान ने आपके मस्तक श्रेष्ठ भाग्य की लकीर खिंच दी है। बेफिक्र बादशाह हो गये हो! वह टोपी या कुर्सी वाले बादशाह नहीं । बेफिक्र बादशाह । कोई फ़िक्र है ' पोत्रो-धोत्रो का फिक्र है? आपका कल्याण हो गया तो उन लोगों का जरूर होगा। तो सदा अपने मस्तक पर श्रेष्ठ भाग्य की लकीर देखते रहो - वाह मेरा श्रेष्ठ ईश्वरीय भाग्य! धन-दौलत का भाग्य नही, ईश्वरीय भाग्य। इस भाग्य के आगे धन तो कुछ नहीं है, वह तो पीछे-पीछे आयेगा। जैसे परछाई होती है वह आपेही पीछे-पीछे आती है या आप कहते हो पिछे आओ । तो यह सब परछाई हैं लेकिन भाग्य है - 'ईश्वरीय भाग्य' । सदा इसी नशे में रहो - अगर पाना है तो सदा का पाना है। जब बाबा और आत्मा अविनाशी है तो प्राप्ति विनाशी क्यों? प्राप्ति भी अविनाशी चाहिए ।

ब्राह्मण-जीवन है ही खुशी की। खुशी से खाना, खुशी से रहना, खुशी से बोलना, खुशी से काम करना। उठते ही आँख खुली और खुशी का अनुभव हुआ। रात को ऑख बंद हुई, खुशी से आरामी हो गये-यही ब्राह्मण जीवन है। अच्छा!

गायत्री मोदी तथा मोदी-परिवार से बापदादा की मुलाकात

आज इसको बहुत खुशी हो रही है । अपने परिवार को देखकर नाच रही है । बापदादा इस परिवार की एक बात देखकर के बहुत खुश हैं । कौन-सी बात? आज्ञाकारी परिवार है । इतना दूर से पहुँच तो गये ना! यह भी दुआयें मिलती है। जो आज्ञा पालन करता है। चाहे किसी की भी, एक ने कहा दूसरे ने माना, तो खुशी होती है। दिल से एक दो के प्रति दुआयें निकलती है। कोई अच्छा दोस्त या भाई हो, अगर कहते यह बहुत अच्छा है। तो यह दुआयें हुई ना! किसी को भी ' हाँ जी '' करना वा आज्ञा मानना, इसकी गुप्त दुआयें मिलती है । तो दुआयें समय पर बहुत मदद देती है । उस समय पता नहीं पड़ता है। उस समय तो साधारण बात लगती है - चलो हो गया। लेकिन यह गुप्त दुआयें आत्मा को समय पर मदद देती है। यह जमा हो जाती है। इसलिए बापदादा देखकर खुश है। चाहे किसी भी कार्य के लिए आये, आये तो है ना और यह भी याद रखना कि परमात्म-स्थान पर किसी भी कारण से चाहो देखने के हिसाब से भी आ गये, जानने के हिसाब से भी आ गये - तो भी पाँव रखा, उसका भी फल जमा हो जायेंगा। यह भी कम भाग्य नहीं है। यह भाग्य भी आगे चलकर के अनुभव करेंगे। उस समय अपने को बहुत भाग्यवान समझेंगे- किसी भी कारण से हमने पाँव तो रख लिया, अभी तो पता नहीं पड़ेगा। अभी सोचते होंगे-पता नहीं क्या है। लेकिन बाप जानते हैं कि जाने-अनजाने भाग्य जमा हो गया। जो समय पर आपको भी पता पड़ेगा और काम में आयेगा। अच्छा।

रशिया के भाई-बहनों की याद चक्रधारी बहन ने दी -

अच्छा है, थोड़े समय में सफलता अच्छी और अच्छी-अच्छी प्यासी आत्मायें निकली है। उनका स्नेह बाप के पास पहुँच गया। सभी को यादप्यार लिखना और कहना कि बापदादा का स्नेह सभी बच्चों को सहयोग दे आगे बढ़ा रहा है। अच्छी सेवा है, बढ़ाते चलो। अच्छा।



06-01-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


होलीहंस की परिभाषा

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले –

आज ज्ञानसागर बाप 'होलीहँसो' का सगठन देख रहे है । होलीहँस अर्थात् स्वच्छता और विशेषता वाली आत्माएं। स्वच्छता अर्थात् मन-वचन-कर्म, सम्बन्ध सर्व में पवित्रता की निशानी सदा ही सफेद रंग दिखाते है। आप होलीहॅस भी सफेद वस्रधारी, साफ दिल अर्थात् स्वच्छता-स्वरूप हो। तन-मन और दिल से सदा बेदाग अर्थात् स्वच्छ हो। अगर कोई तन से अर्थात् बाहर से कितना भी स्वच्छ हो, साफ हो लेकिन मन से साफ न हो, स्वच्छ न हो तो कहते है कि पहले मन को साफ रखो! साफ मन वा साफ दिल पर साहेब राजी होता है । साथ-साथ साफ दिल वाले की सर्व मुराद अर्थात् कामनायें पूरी होती है । हँस की विशेषता स्वच्छता अर्थात् साफ है, इसलिए आप ब्राह्मण आत्माओं को होलीहॅस' कहा जाता है। चेक करो कि मुझ होलीहँस आत्मा की चारों ही बातों  में अर्थात् तन-मन-दिल और सम्बन्ध में स्वच्छता है? सम्पूर्ण स्वच्छता वा पवित्रता - यही इस संगमयुग में सबका लक्ष्य है । इसलिए ही आप ब्राह्मण सो देवताओं को सम्पूर्ण पवित्र गाया जाता है । सिर्फ निर्विकारी नहीं कहते लेकिन 'सम्पूर्ण निर्विकारी ' कहा जाता है । १६ कल्प सम्पन्न कहा जाता है । सिर्फ १६ कल्प नहीं कहते लेकिन उसमें 'संपन्न' । गायन आपके ही देवता रूप का है लेकिन बने कब? बाह्मण जीवन में वा देवता जीवन में? बनने का समय अब संगमयुग' है । इसलिए चेक करो कि कहाँ तक अर्थात् कितने परसेन्ट में स्वच्छता अर्थात् धारण की है?

 

तन की स्वच्छता अर्थात् सदा इस तन को आत्मा का मंदिर समझ उस स्मृति से स्वच्छ रखना। जितनी मूर्ति श्रेष्ठ होती है उतना ही मंदिर भी श्रेष्ठ होता है । तो आप श्रेष्ठ मूर्तियाँ हो या साधारण हो? ब्राह्मण आत्माएं सारे कल्प में नम्बरवन श्रेष्ठ आत्मायें! ब्राह्मणों के आगे देवतायें भी सोने तुल्य है और ब्राह्मण हीरे तुल्य है! तो आप सभी हीरे की मूर्तियाँ हो। कितनी ऊँची हो गई! इतना अपना स्वमान जान इस शरीर रूपी मंदिर को स्वच्छ रखो। सदा हो लेकिन स्वच्छ हो। इस विधि से तन की पवित्रता सदा रूहानी खुशबू का अनुभव करायेगी। ऐसी स्वच्छता, पवित्रता कहाँ तक धारण हुई? देहभान में स्वच्छता नहीं होती लेकिन आत्मा का मंदिर समझने से स्वच्छ रखते हो। और यह मंदिर भी बाप ने आपको संभालने और चलाने के लिए दिया है । इस मंदिर का ट्रस्टी बनाया है । आपने तो तन-मन-धन सब दे दिया ना! अभी आपका तो नहीं है। मेरा कहेंगे या तेरा कहेंगे? तो ट्रस्टीपन स्वत: ही नष्टोमोहा अर्थात् स्वच्छता और पवित्रता को अपने में लाता है। मोह से स्वच्छता नहीं, लेकिन बाप ने सेवा दी है -ऐसे समझ तन को स्वच्छ, पवित्र रखते हो ना वा जैसे आता है वैसे चलाते रहते हो? स्वच्छता भी रूहानियत की निशानी है।

ऐसे ही मन की स्वच्छता या पवित्रता इसकी भी परसेंटेज देखो। सारे दिन में किसी भी प्रकार का अशुद्ध संकल्प मन मैं चला तो इसको सम्पूर्ण स्वच्छता नहीं कहेंगे । मन के प्रति बापदादा का डायरेक्शन है - मन को मेरे में लगाओ वा विश्व-सेवा में लगाओ। 'मनमनाभव' - इस मंत्र की सदा स्मृति रहे। इसको कहते है- मन की स्वच्छता वा पवित्रता । और किसी तरफ भी मन भटकता है तो भटकना अर्थात् अस्वच्छता। इस विधि से चेक करो कि कितनी परसेन्ट में स्वच्छता धारण हुई? विस्तार तो जानते हो ना!

तीसरी बात- दिल की स्वच्छता। इसको भी जानते हो कि सच्चाई ही सफाई है। अपने स्व-उन्नति अर्थ जो भी पुरुषार्थ है जैसा भी पुरुषार्थ है, वह सच्चाई से बाप के आगे रखना। तो एक - स्वयं के पुरुषार्थ की स्वच्छता। दूसरा- सेवा करते सच्ची दिल से कहाँ तक सेवा कर रहे है, इसकी स्वच्छता। अगर कोई भी स्वार्थ से सेवा करते हो तो उसको सच्ची सेवा नहीं कहेंगे। तो सेवा में भी सच्चाई-सफाई कितनी है ' कोई-कोई सोचते कि सेवा तो करनी ही पड़ेगी। जैसे लौकिक गवर्नमेंट की ड्यूटी है, चाहे सच्ची दिल से करो, चाहे मजबूरी से करो, चाहे अलबेले बनके करो, करनी ही पड़ती है ना। कैसे भी ८ घण्टे पास करने ही है। ऐसे इस आलमाइटी गवर्मेन्ट द्वारा ड्यूटी मिली हुई है- ऐसे समझ के सेवा करना, इसको सच्ची सेवा नहीं कहा जाता। ड्यूटी सिर्फ नहीं है लेकिन ब्राह्मण-आत्माओं का निजी संस्कार ही 'सेवा' है । तो संस्कार स्वतः ही सच्ची सेवा के बिना रहने नहीं देते। तो ऐसे चेक करो कि सच्ची दिल से अर्थात् ब्राह्मण-जीवन के स्वत: संस्कार से कितनी परसेन्ट की सेवा की ' इतने मेले कर लिये, इतने कोर्स करा लिये लेकिन स्वच्छता और पवित्रता की परसेंटेज कितनी रही? ड्यूटी नहीं है लेकिन निजी संस्कार है, स्व-धर्म है. स्व-कर्म है।

चौथी बात - सम्बन्ध में स्वच्छता। इसका सार रूप में विशेष यह चेक करो कि संतुष्टता रूपी स्वच्छता कितने परसेंट में है? सारे दिन में भिन्न-भिन्न वैरायटी आत्माओं से सम्बन्ध होता है। तीन प्रकार के सम्बन्ध में आते हो। एक - ब्राह्मण परिवार के, दूसरा - आये हुये जिज्ञासू आत्माओं के, तीसरा - लौकिक परिवार के। तीनों ही सम्बन्ध में सारे दिन में स्वयं की संतुष्टता और सम्बन्ध में आने वाली दूसरी आत्माओं  की संतुष्टता की परसेंटेज कितनी रही? संतुष्टता की निशानी - स्वयं भी मन से हल्के और खुश रहेंगे और दूसरे भी खुश होंगे। असंतुष्टता की निशानी - स्वयं भी मन से भारी होंगे। अगर सच्चे पुरुषार्थी है तो बार-बार न चाहते भी वे संकल्प आता रहेगा कि ऐसे नहीं बोलते, ऐसे नहीं करते तो अच्छा। यह बोलते थे, यह करते थे - यह आता रहेगा। अलबेले पुरुषार्थी को यह भी नहीं आयेगा। तो यह बोझ खुश रहने नहीं देगा, हल्का रहने नहीं देगा। सम्बन्ध की स्वच्छता अर्थात् संतुष्टता। यही सम्बन्ध की सच्चाई और सफाई है । इसलिए आप कहते हो - 'सच तो बिठो नच' । अर्थात् सच्चा सदा खुशी में नाचता रहेगा। तो सुना, होलीहंस की परिभाषा? अगर सत्यता की स्वच्छता नहीं है तो हंस हो लेकिन होलीहंस नहीं हो। तो चेक करो - सम्पन और सम्पूर्ण का जो गायन है, वह कहाँ तक बने है? अगर ड्रामा अनुसार आज भी इस शरीर का हिसाब समाप्त हो जाए तो कितनी परसेंटेज में पास होंगे? वा ड्रामा को कहो - थोड़ा समय ठहरो! यह तो सोचकर नहीं बैठे हो कि छोटे-छोटे तो जाने वाले है ही नहीं? एवररेडी का अर्थ क्या है? समय का इंतजार तो नहीं करते कि अभी १०-११ वर्ष तो हैं? बहुत करके २००० का हिसाब सोचते है! लेकिन सृष्टि के विनाश की बात अलग है, अपने को एवररेडी रखना अलग बात है । इसलिए यह उससे नहीं मिलाना। भिन्न-भिन्न आत्माओं का भिन्न-भिन्न पार्ट है । इसलिए यह नहीं सोचो कि मेरा एडवांस पार्टी में तो नहीं है या मेरा तो विनाश के बाद भी पार्ट है! कोई आत्माओं का है लेकिन मैं एवररेडी रहूँ । नहीं तो अलबेलेपन का अंश प्रकट हो जायेगा। एवररेडी रहो, फिर चाहे २० वर्ष जिंदा रहो कोई हर्जा नहीं। लेकिन ऐसे आधार पर नहीं रहना। इसको कहते है - होलीहंस' । ज्ञान-सागर के कण्ठे आये हो ना। तो आज होलीहंस की स्वछता सुनाई फिर विशेषता सुनायेंगे।

टीचर्स को चेक करना आता है ना! टीचर्स को विशेष समर्पित होने का भाग्य मिला हुआ है । चाहे प्रवृत्ति वाले भी मन से समर्पित है फिर भी टीचर्स का विशेष भाग्य है। काम ही याद और सेवा' का है। चाहे खाना बनाती या कपड़े धुलाई करती - वह भी यह सेवा है। वह भी अलौकिक जीवन प्रति सेवा करती हो। प्रवृत्ति वालों को दोनों तरफ निभाना पड़ता है। आपको तो एक ही काम है ना, डबल तो नहीं है? जो सच्चाई और सफाई से बाप और सेवा में सदा लगे रहते है, उन्हें कोई और मेहनत करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। सुनाया था कि योग्य टीचर का भण्डारा और भण्डारी सदा भरपूर रहेगा। फिक्र नहीं करना पड़ेगा - अगला मास कैसे चलेगा, मेला कैसे होगा, सेवा के साथ-साथ साधन स्वत: प्राप्त होंगे। रूहानी आकर्षण सेवा और सेवाकेन्द्र स्वत: ही बढ़ाती रहती है। जब ज्यादा सोचते हो कि जिज्ञासु क्यों नहीं बढ़ते, ठहरते क्यों नहीं, चले क्यों जाते... तो जिज्ञासू नहीं ठहरते। योगयुक्त होकर रूहानियत से आह्वान करते हो तो जिज्ञासु स्वत: ही बढ़ते है। ऐसे होता है ना? तो मन सदा हल्का रखो, किसी प्रकार का बोझ नहीं रहे। किसी भी प्रकार का बोझ है चाहे अपना, चाहे सेवा का, चाहे सेवा साथियो का तो उड़ने नहीं देगा - सेवा भी ऊँची नहीं उठेगी। इसलिए सदा दिल साफ और मुराद हासिल करते रहो। प्राप्तियाँ आपके सामने स्वत: ही आयेगी। क्या सुना? सर्व रूहानी प्राप्तियां है ही ब्राह्मणों के लिए तो कहाँ जायेंगी! अधिकार ही आप लोगों का है । अधिकार कोई छीन नहीं सकता। अच्छा

सर्व होलीहँसो को, चारों ओर के सच्चे साहेब को राज़ी करने वाली सच्ची दिल वाले श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा स्वयं को एवररेडी रखने वाले नम्बरवन बच्चों को, सदा अपने को गायन योग्य समूर्ण और सम्पन बनाने वाले, बाप के समीप बच्चों को, सदा अपने को अमूल हीरे तुल्य अनुभव करने वाले अनुभवी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते । ''

महाराष्ट्र ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

सदा खुशहाल रहते हो? खुशहाल अर्थात्(भरपूर, सम्पन। खुशहाली स्वयं को भी प्रिय औरों को भी प्रिय लगती है। जहाँ खुशहाली नहीं होती, उसे काँटों का जंगल कहते है। तो आप सबकी जीवन खुशहाल बन गई है। और चाल कौन-सी हो गई? उड़ती कल्प वाली फरिश्ता की चाल हो गई । तो हाल भी अच्छा और चाल भी अच्छी । दुनिया वाले मिलते है तो हालचाल पूछते है ना! तो आपका क्या हालचाल है? हाल है 'खुशहाल' और चाल है 'फरिश्तो' की चाल। दोनों ही अच्छे है ना? खुशहाली में कोई काँटे नहीं आयेंगे। पहले काँटों के जंगल में जीवन थी, अभी बदल गई। अभी फूलों की खुशहाली में आ गये। सदा जीवन में दिव्य गुणों के फूलों की फुलवाड़ी लगी हुई है । दिव्य गुणों के गुलदस्ते का चित्र बनाते है ना, वह दिव्य गुणों का गुलदस्ता कौन सा है आप हो ना या दूसरे कोई है? काँटो का कभी गुलदस्ता नहीं बनता, फूलों का गुलदस्ता बनता है। सिर्फ पत्ते ही होंगे तो भी कहेंगे- गुलदस्ता ठीक नहीं है। तो आप स्वयं दिव्य गुणों का गुलदस्ता अर्थात् खुशहाल हो गये । जो भी आपके सम्पर्क में आयेगा उसे दिव्य गुणों के फूलों की खुशबू आती रहेगी और खुशहाली देख करके खुश होंगे। शक्ति का भी अनुभव करेंगे। इसलिए आजकल डॉक्टर्स भी कहते है - बगीचे में जाकर पैदल करो। तो खुशहाली औरों को भी शक्तिशाली बनाती है और खुशी में भी लाती है । इसलिए आप लोग कहते हो कि हम एवर हैप्पी है। चैलेंज भी करते हो कि अगर किसी को एवररेडी बनना हो तो हमारे पास आये। आप सभी को बाप की स्मृति दिलायेंगे। तो एवरहैल्दी, एवरवैल्दी और एवरहैप्पी - यह आपका जन्म-सिद्ध अधिकार है । यह अधिकार आपको तो मिल गया ना? सभी को कहते हो कि जन्म-सिद्ध अधिकार है । चाहे शरीर बीमार भी हो तो भी मन तन्दरुस्त है ना। मन खुश तो जहान खुश और मन बीमार तो शरीर पीला हो जाता है । मन ठीक होगा तो शरीर का रोग भी महसूस नहीं होगा। ऐसे होता है ना! क्योंकि आपके पास खुशी की खुराक बहुत बढ़िया है। दवाई अच्छी होती है तो बीमारी भाग जाती है । आपके पास जो खुशी की खुराक है वह बीमारी को भगा देती है, भुला देती है । तो मन खुश, जहान खुश, जीवन खुश। इसलिए एवरहैल्दी भी हो, वेअल्ति भी हो और हैप्पी भी हो। जब स्वयं हो तब दूसरे को चैलेंज कर सकते हो । नहीं तो चैलेंज नहीं कर सकते। अपने को देखकर औरों के उपर रहम आता है। क्योंकि अपना परिवार है ना! चाहे कैसी भी आत्माए है लेकिन है तो एक ही परिवार के। जिसको भी देखेंगे तो महसूस करेंगे कि यह हमारा ही भाई है, हमारे ही परिवार का है। परिवार में भी कोई नजदीक के होते है, कोई दूर के होते है, लेकिन कहेंगे तो परिवार के ना?

जैसे बाप रहमदिल है । बाप से यही मांगते है कि कृपा करो, रहम करो! तो आप भी कृपा करेंगे, रहम करेंगे ना। क्योंकि बाप समान निमित्त बने हुए हो । ब्राह्मण आत्मा को कभी भी किसी आत्मा के प्रति घृणा नहीं आ सकती। रहम आयेगा, घृणा नहीं आ सकती । क्योंकि जानते है कि चाहे कंस हो, चाहे जरासंध हो, चाहे रावण हो - कोई भी हो लेकिन फिर भी रहमदिल बाप के बच्चे कभी घृणा नहीं करेंगे। परिवर्तन की भावना रखेंगे - कल्याण की भावना रखेंगे । फिर भी अपना परिवार है, परवश है । परवश के ऊपर कभी घृणा नहीं आती । सभी माया के वश है । तो परवश के ऊपर दया आती है, रहम आता है । जहाँ घृणा नहीं आयेगी वहां क्रोध भी नहीं आयेगा। जब घृणा आती है तो जोश आता है, क्रोध आता है, जहाँ रहम होता है वहीं शान्ति का दान देंगे। दाता के बच्चे हो ना! तो शान्ति देंगे ना! अच्छा!!

सभी खुशहाल रहने वाले हो या कभी-कभी खुशी गायब हो जाती है? उगर क्रोध आया तो क्रोध अग्नि है। वह खुशी को खत्म कर देती है। कभी गुस्सा नहीं करना। रहमदिल के कभी क्रोध नहीं आ सकता। पाण्डवों में विशेष क्रोध' और माताओं में 'मोह ' होता है । पैसे भी छिपाकर रखेगी, पुराने-पुराने नोट भी छिपाकर रखेंगे। अभी तो नष्टोमोहा' हो ना! पुराने कपडे की गठरी बाँधकर तो नहीं रख दी है? कितनी भी तिजोरी हो, पेटी हो लेकिन माताओं में गठरी बाँधकर रखने की आदत होती है । और कुछ नहीं तो साड़ी बाँधकर रखेंगे। तो अभी कुछ बांधकर तो नहीं रखा है? पाण्डवो ने थोड़ा-थोड़ा क्रोध, अभिमान छिपाकर रखा है? मन की जेब में आईवेल के लिए छिपाकर तो नहीं रखा है? अंशमात्र भी न रहे। अंश, वंश को पैदा कर देगा, इसलिए फुल खाली करो। अच्छा ।

जोन वाइज़ ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

बाप के स्नेह ने सब कुछ भुलाकर उड़ाते हुए अपने स्वीट होम 'मधुबन' में पहुँचा दिया। क्या समझते हो? ट्रेन में आये हो या उड़ते हुए आये हो? शरीर चाहे ट्रेन या बस में आया लेकिन मन स्नेह में उड़ते हुए यहाँ पहुँच गया। मधुबन और मधुबन का बाबा याद आ गया तो सब भूल गया। भुलाने की मेहनत करनी नहीं पड़ती। बस, बाप और पढ़ाई - यही याद है ना! पढ़ाई भी देखा - राजकुमार और राजकुमारियोँ की भी ऐसी पढ़ाई नहीं है! कितनी रॉयल और ऊँच पढ़ाई है! सारे कल्प में राजा बनने की पढ़ाई कोई नहीं पढता। क्योंकि पढ़ाई से राजा कोई बनता ही नहीं है। इस समय आप ही इस पढ़ाई से राजा बनते हो । राजा भी नहीं, राजाओं का राजा । सारे कल्प में ऐसी पढ़ाई कोई नहीं पढता। राजकुमार बनकर राजकुमार- कालेज में जाते है, राजा बनने की पढ़ाई नहीं पढ़ते। वह तो जानते है कि धन दान से राजा बनते है, पढ़ाई से राजा नहीं बनते। आपकी पढ़ाई राजाई प्राप्त करने की है। अभी स्वराज मिला, फिर विश्व का राज्य मिलेगा। अभी राजा हो ना या प्रजा का राज है? प्रजा यानि कर्मन्द्रियाँ - यह कर्मचारी है । तो कोई कर्मेन्द्रिय अर्थात् प्रजा का राज तो नहीं है ना ' कभी-कभी प्रजा तेज़ तो नहीं हो जाती ' राजा को ढीला कर देती है । सतयुग में प्रजा का प्रजा पर राज्य नहीं होगा, राजा का राज्य होगा । यह तो चक्र के लास्ट मैं प्रजा का प्रजा पर राज्य है। लेकिन आपके पास तो प्रजा का राज्य नहीं है ना ? अच्छी तरह से चेक करना कभी प्रजा - राजा तो नहीं बन जाती?' अधिकार लेना माना राजा बनना। जैसे आजकल करते हे - एक सेकंड में राजा को उतारकर के दूसरा राजा बैठ जाता है । या उसको खत्म कर देते है या राज्य से उतार देते। तो आपकी प्रजा ऐसे तो नहीं करती - राजा को गुलाम बना दे और खुद राजा बन जायें ? शक्तिशाली राजा हो, कमज़ोर राजा नहीं । जिस राजा से प्रजा सदा खुश है, ठीक राज्य चलता है तो उसको उतारेगी कैसे! आप भी स्वराज ठीक रीति से चला रहे हो तो कोई कर्मन्द्रिय धोखा नहीं देगी क्योंकि वह संतुष्ट है। जहाँ असंतुष्टता होती है वहाँ धोखा देती है । तो आपका राज्य कैसे चल रहा है? सर्व कर्मेन्द्रियाँ संतुष्ट है? प्रजा खुश है? कर्मेन्द्रियॉ शीतल, शान्त हो गई है? धोखा देने की चंचलता समाप्त हो गई है? अभी क्या बन गये हो? शीतला देवी। जो स्वयं शीतला होगी तो यथा राजा तथा प्रजा होगी। वह सब कर्मेन्द्रियाँ भी शीतल हो जायेंगी। शीतला देवी में कभी क्रोध नहीं आता है। कई कहते है - क्रोध नहीं है, थोड़ा रोब तो रखना पड़ता है । रोब भी क्रोध का अंश है । तो जहाँ अंश होता है वहीँ वंश पैदा हो जाता है । तो शीतला देवी और शीतला देव हो ना । संगम पर बाप, माताओं को आगे रखते हैं । इसलिए गायन शीतला देवी का है लेकिन पांडव भी शीतला देव है । तो रोब का संस्कार परिवर्तन हो गया वा कभी स्वप्न में भी रोब का टेस्ट करते हो? जैसा संस्कार होता है वैसे कर्म स्वत: ही होते है । तो संस्कार ही शीतल हो गये।

ब्राह्मण का अर्थ ही है शीतल संस्कार वाले । ' आपका यह निजी ओरिजिनल संस्कार है । अभी जोश नहीं आ सकता । बाल-बच्चों पर भी जोश तो नहीं करते? कितना भी रोब दिखाओ लेकिन रोब से आत्माएं दबती वा बदलती नहीं है । उस समय दब जाती है लेकिन सदा दबना नहीं होता। और प्यार ऐसी चीज़ है जो पत्थर को भी पानी कर देता है । समझते हो कि रोब दिखाया तो ठीक हो गया। लेकिन ठीक नहीं होता। तो 'स्वराज अधिकारी आत्माए है ' - यह निश्चय और नशा सदा ही हो। स्वराज में सुख है, पर-राज्य में अधीनना है। तो सदा इस रूहानी नशे में नाचते और गाते रहो। खुशी की निशानी है - नाचना और गाना। नाचना- गाना तो छोटे बच्चों को भी आता है । तो सभी खुशी में नाचते-गाते हो या कभी रोते भी हो? मन का रोना भी रोना है। घर वाले दुःख देते है, इसलिए रोना आता है! वह देते है, आप लेने क्यों हो? अगर कोई चीज़ देता है, और कोई लेता नहीं तो वह किसके पास रहेगी ' उनका काम है देना, आप लो ही नहीं। ६३ जन्म तो रोया अभी दिल पूरी नहीं हुई है' जिस चीज़ से दिल भर जाती है वह कभी नहीं किया जाता। परमात्मा के बच्चे कभी रो नहीं सकते। रोना बंद। टंकी सुखा के जाना। न आँखों का रोना, न मन का रोना। जहाँ खुशी होगी वहां रोना नहीं होगा। खुशी वा प्यार के ऑसू को रोना नहीं कहा जाता। तो योग की धूप में टंकी को सुखा के जाना। विघ्न को विघ्न न समझ खेल समझेंगे तो पास हो जायेंगे। अच्छा।



10-01-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


होलीहँस की विशेषताऐ

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले -

आज सर्व बच्चों को विशेष आत्मा बनाने वाले बापदादा हर एक होलीहँस की विशेषता देख रहे हैं । जैसे हँस की निर्णय-शक्ति और परखने की शक्ति विशेष होती है। इसलिए ग्रहण करने की शक्ति भी विशेष है जो मोती और कंकड़ दोनों को परखता है और फिर निर्णय करता है, उसके बाद मोती ग्रहण करता है, कंकड़-पत्थर छोड़ देता है। तो परखना, निर्णय करना और ग्रहण करना अर्थात् धारण करना- तीनों शक्तियो की विशेषता के कारण संगमयुगी सरस्वती माँ की सवारी हँस दिखाया है। तो एक सरस्वती मां का यादगार नहीं लेकिन माँ समान बनने वाली ज्ञान-वीणा वादिनी आप सभी हो। इस ज्ञान को धारण करने के लिए भी वह तीनों विशेषताएं अति आवश्यक है। आप सभी ने ब्राह्मण-जीवन धारण करते ही ज्ञान द्वारा, विवेक द्वारा पहले परखने की शक्ति के आधार को पहचाना, अपने-आपको पहचाना, समय को पहचाना, अपने ब्राह्मण परिवार को पहचाना, अपने श्रेष्ठ कर्त्तव्य को पहचाना। इसके बाद निर्णय किया, तब ही ब्राह्मण-जीवन धारण की । यह वही कल्प पहले वाला बेहद का बाप है, परम-आत्मा है, मैं भी वही कल्प वाली श्रेष्ठ आत्मा हूँ, अधिकारी आत्मा हूँ - इस परखने के बाद निर्णय किया। बिना बाप को परखने के निर्णय नहीं कर सकते। कई आत्माएं अभी तक भी सम्बन्ध-संपर्क में है, बहुत अच्छा, बहुत अच्छा कहती रहती है लेकिन परमात्म पहचान वा परखने की शक्ति न होने कारण निर्णय नहीं कर सकते कि क्या बनना है वा क्या करना है । इसलिए ब्राह्मण-जीवन धारण नहीं कर सकते। सहजयोगी बनते है लेकिन सहज योगी जीवन नहीं बना सकते। क्योंकि दोनों शक्तियाँ नहीं है, इसलिए होलीहँस नहीं बन सकते। पवित्रता रूपी मोती और अपवित्रता रूपी कंकड़ - दोनों को अलग नहीं समझते तो पवित्रता को ग्रहण करने की शक्ति नहीं आ सकती । तो होलीहँस की विशेषता है - पहली शक्ति 'परखना' अर्थात् पहचानना। आप होली हँसो में यह दोनों शक्तियाँ है ना? क्योंकि बाप को पहचाना, अपने-आपको भी पहचाना, निर्णय भी ठीक किया तब तो ब्राह्मण बने और चल रहे हो। इस बात में तो सब पक्के पास हो। लेकिन जो सेवा करते हो और कर्म में आते हो, सारे दिन की दिनचर्या में जो कर्म करते हो, सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हो, उसमें सफलतापूर्वक हर कर्म रहे वा हर सम्पर्क वाली आत्मा के सम्बन्ध में आने में सदा सफलता रहे । हर प्रकार की सेवा मन्सा-वाचा-कर्मणा - तीनों में सदा सफलता अनुभव हो, उसका भी आधार 'परखने की शक्ति' और निर्णय करने की शक्ति' है । इसमें फुल पास हो?

सेवा की सफलता वा सम्पर्क में सफलता सदा न होने का कारण चेक करो - तो कार्य को, व्यक्ति को, आत्मा को परखने की शक्ति में अन्तर पड़ जाता है। जिस आत्मा को जिस समय जिस विधिपूर्वक सहयोग चाहिए वा शिक्षा चाहिए, स्नेह चाहिए, उस समय अगर परखने की शक्ति तीव्र है तो अवश्य सम्बन्ध में सफलता प्राप्त होगी। लेकिन होता क्या है – जिस आत्मा को जो सहयोग वा विधि उस समय चाहिए वो न देकर वा न परखने कारण अपने ढंग से उसको सहयोग देते हो वा विधि अपनाते हो, इसलिए संतुष्टता की सफलता नहीं होती। जैसे शारीरिक बीमारी को परखने की डॉक्टर को विधि न आये तो क्या होता है? ठीक होने के बजाए एक से अनेक रोग और पैदा हो जाते है। पेशेंट को संतुष्टता की सफलता नहीं मिलती। जिसको साधारण शब्दो में बापदादा कहते है कि हर एक की नब्ज को पहचानो। चलना और चलाना भी जरूरी है। तो क्या करना पड़ेगा? पहचानने अर्थात् परखने की शक्ति को तीव्र करना पड़े। इसमें अन्तर जाता है जिसको आप साधारण भाषा में कहते हो - हैण्डलिंग का फर्क। कहते हो ना - इनकी हैण्डलिंग पुरानी है, इनकी नई है.. । यह अन्तर क्यों पड़ा? क्योंकि हर समय हर आत्मा और हर कार्य को परखने की शक्ति चाहिए। टोटल परखने की शक्ति आ गई है लेकिन विस्तार से और बेहद की परखने की शक्ति की आवश्यकता है - उस समय आत्मा की ग्रहण शक्ति कितनी है, वायुमण्डल क्या है और उस आत्मा की सुनने वा शिक्षा लेने की मूड कैसी है.. । जैसे कोई कमज़ोर शरीर वाला हो और उसको ज्यादा-से-ज्यादा ताकत का इंजेक्शन दे देते तो क्या हालत होती? पेशेंट के बजाये पेशेंस हो जाता है, हार्टफेल हो जायेगा, शान्ति में चला जाता। ऐसे अगर सम्बन्ध में आने वाली आत्मा कमज़ोर है,आत्मा में हिम्मत नहीं है लेकिन आप उसको शिक्षा का डोज़ देते जाओ, उसका मूड, समय, वायुमण्डल परख न सके तो रिजल्ट क्या होती? एक तो दिलशिकस्त हो जाता और शक्ति न होने कारण ग्रहण नहीं कर सकता, और ही जिद्द और सिद्ध करने में उछलता है। आपने तो अच्छी भावना से किया लेकिन सफलता न मिलने का कारण परखने और निर्णय करने की शक्ति कम है, इसलिए सफलतामूर्त बनने में परसेन्टेज हो जाती। तो सारे दिन के कर्म और समय में परखने की शक्ति की आवश्यकता हुई ना। इसलिए शिक्षा भल दो लेकिन सब बातों  को परखकर फिर कदम उठाओ। ऐसे ही सेवा के क्षेत्र में भी अगर आत्माओं की आवश्यकता और इच्छा परखने के बिना कितना भी अच्छा ज्ञान दे दो, कितनी भी मेहनत कर लो लेकिन सफलता नहीं होगी। 'अच्छा-अच्छा' कहना तो एक रीति-रसम हो गई है क्योंकि आप कोई बुरी बात तो कहते भी नहीं हो। लेकिन जो सफलता का लक्ष्य रखते हो, उसमें समीप अनुभव करो, उसके लिए परखने की शक्ति अति आवश्यक है। जैसे कोई मुक्ति का इच्छुक है और उसको आप जीवन मुक्ति और मुक्ति - दोनों भी दे दो लेकिन वह रुचि नहीं रखेगा। पानी के प्यासे को ३६ प्रकार का भोजन दे दो लेकिन वह संतुष्ट पानी की बूँद से ही होगा, न कि भोजन से। तो मुक्ति के इच्छुक को अगर उसको मुक्ति के बारे में स्पष्टीकरण देंगे तो उसकी इच्छा भी बढ़ेगी और जीवनमुक्ति में परिवर्तन भी हो जायेंगे। किसको धारणा की बाते सुनना अच्छा लगता है, उसको आप कल्प ५००० वर्ष का वा गीता का भगवान कौन - यह बताना शुरू कर दो तो और ही इंटरेस्ट खत्म हो जायेगा। इसलिए सेवा में भी आत्मा की स्थिति वा उसकी आस्था क्या है - उसको परखना आवश्यक है। तो सेवा में सफलता का आधार किस शक्ति हुआ? परखने की शक्ति चाहिए। चाहे अज्ञानी आत्माओं की सेवा, चाहे सेवा-साथियों की सेवा - दोनों में सफलता का आधार एक ही है। तो होलीहँस की विशेषता - सबसे पहले परखने की शक्ति को बढ़ाओ। परखने की शक्ति यथार्थ है, श्रेष्ठ है तो निर्णय भी यथार्थ होगा और आप जिसको जो देना चाहते है वह उसमें ग्रहण करने की शक्ति स्वत: ही होगी। और क्या बन जायेंगे? नम्बरवन सफलतामूर्त। तो चाहे सेवा में, चाहे सम्बन्ध में लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस लक्षण को धारण करो ।

तो सारे दिन में यह चेक करो - सारे दिन की दिनचर्या में परखने की शक्ति कहाँ तक यथार्थ हुई और कहाँ करेक्शन-एडीशन करने की आवश्यकता रही? करने के बाद करेक्शन अपने-आप होती जरूर है क्योंकि दिव्य बुद्धि का वरदान सबको मिला हुआ है । चाहे समस्या के वश वा समय से, परिस्थिति के वश वा कोई आत्माओं के संग के वश वा माया द्वारा मनमत के वश, उस समय हो जाते हैं लेकिन समय, परिस्थिति, संग का प्रभाव, मनमत का प्रभाव जब हल्का हो जाता है, फिर दिव्य-बुद्धि अपना काम करती है, जिसको आप लोग कहते हो 'जोश से होश' में आ गये। फिर महसूस होता है कि यह करेक्शन वा एडीशन होनी चाहिए थी वा करनी है । लेकिन रजिस्टर में वा कर्मों के हिसाब के किताब में दाग नहीं, लेकिन बिन्दी तो पड़ गई, बिल्कुल साफ तो नहीं रहा ना। इसलिए कहा जता है - 'कर्मों की लीला अति गुह्य है।

टीचर्स तो कर्मों की लीला को अच्छी रीति जान गई है ना। टीचर्स सारा दिन क्या गीत गाती है कि वाह मेरे श्रेष्ठ कर्मों की लीला' कर्मों की गहन गति की लीला नहीं, श्रेष्ठ कर्मों की लीला। दुनिया वाले तो हर कर्म में, हर कदम में कर्मों को ही कूटते रहते हैं कि 'हाय मेरे कर्म!' आप कहेंगे - 'वाह श्रेष्ठ कर्म'! अब यह आगे बढ़ो कि सदा वाह श्रेष्ठ कर्म' हो, साधारण कर्म नहीं। कर्मों को कूटना तो खत्म हो गया लेकिन श्रेष्ठ कर्म हो इसमें अण्डरलाइन करना। अगर मिक्स कर्म है- साधारण भी है, श्रेष्ठ भी है तो सफलता भी मिक्स हो जाती है । अभी विशेष अटेंशन यह देना है कि साधारणता को विशेषता में परिवर्तन करो। इस पर भी कभी सुनायेंगे कि बापदादा हर एक की रोज़ की दिनचर्या में क्या-क्या देखते है । साधारणता कितनी है और विशेषता कितनी - यह रिजल्ट देखते रहते है ।

बापदादा के पास देखने के साधन इतने है जो एक ही समय देश-विदेश के सभी बच्चों को देख सकते है । अलग-अलग देखने की आवश्यकता नहीं, ५ मिनट में सबका पता लग जाता। बच्चों के वाह-वाह' के गीत भी गाते है, साथ-साथ समान बनने की एम से चेक भी करते हैं । सुनाया था ना कि बाप के स्नेह वा बाप की पहचान- इसमें तो सब पास हो और कभी-कभी तो कमाल के काम भी करते हो। अच्छी कमाल है, न कि धमाल वाली कमाल। कोई-कोई बच्चे धमाल की भी कमाल करते हैं ना! होती धमाल है लेकिन कहते हैं - यह तो हमारी कमाल है। इसलिए बापदादा कहते - परखने की शक्ति को बढाओ। अपने कर्मों को भी परख सकेगें और दूसरों के कर्मों को भी यथार्थ परख सकेंगे। उल्टे को सुल्टा नहीं कहेंगे। वह परखने की शक्ति की कमी है। और सदा एक बात याद रखो, सबके लिए कह रहे हैं - कभी भी कोई ऐसा व्यर्थ वा साधारण कर्म करते हो और अपने-आपको पहचान नहीं सकते हो कि यह राइट है वा रांग है, तो जब ऐसी परिस्थिति आती है, वशीभूत हो जाते है उस समय ऐसी परिस्थिति में सिद्धि को प्राप्त करने की श्रेष्ठ विधि क्या है? क्योंकि उस समय अपनी बुद्धि तो वशीभूत है । राइट को भी रांग समझते हो, रांग को रांग नहीं समझते हो, राइट समझते हो । फिर जिद्द करेंगे या सिद्ध करेंगे। यह निशानी है वशीभूत बुद्धि की। ऐसे समय पर सदैव एक बापदादा की श्रेष्ठ मत याद रखो कि जिन्हों को बाप ने निमित्त बनाया है वह निमित्त आत्माएं जो डायरेक्शन देती है, उसको महत्व देना चाहिए । उस समय यह नहीं सोचो की निमित्त बने हुए शायद कोई के कहने से कह रहे है। इसमें धोखा खा लेते हो। निमित्त बने हुए श्रेष्ठ आत्माओं द्वारा जो शिक्षा वा डायरेक्शन मिलते है। उसको उस समय महत्व देने से अगर कोई बुरी बात भी होगी तो आप जिम्मेवार नहीं। जैसे ब्रह्मा बाप के लिए सदा कहते हैं कि अगर ब्रह्मा द्वारा कोई गलती भी होगी तो वह गलती भी बदल के आपके प्रति सही हो जायेंगी। तो ऐसे निमित्त बनी हुई आत्माओं प्रति कभी भी यह व्यर्थ संकल्प नहीं उठना चाहिए। मानो कोई ऐसा फैसला भी दे देते हैं जो आपको ठीक नहीं लगता है। लेकिन आप उसमें जिम्मेवार नहीं है। आपका पाप नहीं बनेगा। आपका काम ठीक हो जायेगा। क्योंकि बाप बैठा है। बाप, पाप को बदल लेगा। यह गुह्य रहस्य है । गुप्त मशीनरी है। इसलिए निमित्त बनी हुई श्रेष्ठ आत्माओं के श्रेष्ठ डायरेक्शन को महत्व से कार्य में लगाओ। इसमें आपका फायदा है, नुकसान भी बदलकर फायदे में हो जायेंगा। यह बाप की गारण्टी है। समझा? इसलिए सुनाया कि कर्मों की लीला बड़ी विचित्र है। बाप जिम्मेवार है। जिनको निमित्त बनाया है उसका भी जिम्मेवार बाप है। आपके पाप को बदलने का भी जिम्मेवार है। ऐसे ही निमित्त नहीं बनाया है, सोच-समझ के ड्रामा के लॉ-मुजीब निमित्त बनाया गया है । समझा?

टीचर्स को अच्छा लगता है ना। इनमें फायदा है, बोझा हल्का हो गया। कोई भी बात आयेगी तो कहेंगे – निमित्त बने हुए बड़े जाने। हल्के हो गये ना। लेकिन सिर्फ कहने मात्र नहीं, समझने-मात्र, स्नेह-मात्र, स्वमान-मात्र हो। इन गुह्य बातों को बाप जाने और जो समझदार बच्चे है वह जानें। निमित्त बनी हुई आत्माओं के लिए कुछ भी कहना अर्थात् बाप के लिए कहना। निमित्त बाप ने बनाया है ना। बाप से ज्यादा आपको परखने की शक्ति है?

बापदादा का अति स्नेह सभी बच्चों से है । ऐसे नहीं कि निमित्त बने हुए से ही प्यार है। दूसरों से नहीं है। यह भी प्यार के कारण ही डायरेक्शन देते है। प्यार नहीं होता तो कहते - जैसे चल रहे हैं, चलते रहें। जब इतनी हिम्मत रखी है और ब्राह्मण-जीवन में चल रहे हो, उड़ रहे हो तो छोटी-सी कमज़ोरी भी क्यों रह जाए? यह है प्यार। प्यार वाले की कमी कभी नहीं देखी जाती है। यह है प्यार की निशानी। जिससे दिल का सच्चा प्यार होता है उसकी कमी को हमेशा अपनी कमी समझता है । अच्छा –

कोई भी कार्य करो तो कभी भी कोई हलचल के वातावरण के प्रभाव में नहीं आओ । अपना प्रभाव डालो तो वह आपके प्रभाव में आ जायेंगे और दिल से यही निकलेगा 'सफलता हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है । ' हिम्मत का बहुत महत्त्व है । कभी किसी बात में घबराओ नहीं। हजार भुजाओं वाले आप भी हो। बाप की हजार भुजाएं आपकी भी तो हुई ना। अच्छा –

बाम्बे सायन सेन्टर की टीचर्स तथा भाइयों को देख बापदादा बोले - यह सब कार्य समाप्त कर पहुँचे है । पास होके आये हो कि पास-विद्-ऑनर होके आये हो? अच्छा पार्ट बजाया। यह भी स्नेह का रिटर्न आत्मा को प्राप्त होता ही है । जिसको स्नेह मिला है वह समय पर स्नेह का रिटर्न जरूर करता है । कई आत्माओं की इस समय के पार्ट में भी आवश्यकता है और नई दुनिया के आदि में भी आवश्यकता है। तो क्या करेंगे? ड्रामा तो चलना ही है ना! इसलिए जो भी गये हैं वा जा रहे हैं - विशेष आत्माओं की आदि में भी आवश्यकता है । यह नया चैप्टर (पाठ) शुरू करेंगे ना। योगबल की पैदाइश का नया चैप्टर शुरू करने के लिए कौन-सी आत्मायें चाहिए? योगी आत्माएं चाहिए ना! निमित्त बहाना कोई भी बन जाता है, लेकिन चुक्तू भी होना है और सेवा भी होनी है । अभी यह नहीं सोचना कि कृष्ण को जन्म कौन देगा, राधे को कौन जन्म देगा। इस विस्तार में नहीं जाना । यह कोई टापिक नहीं है। इसलिए कहा कि कर्मों की लीला 'वाह-वाह' है, बाकी जन्म कोई भी दे - इनमें नहीं जाना। आपको जाना है या सोचना है ' अच्छा!

चारों ओर के सदा परखने की शक्ति की विशेष आत्माओं को सदा हर कर्म और सम्बन्ध में श्रेष्ठ सफलता प्राप्त करने वाली सफलतामूर्त आत्माओं को, सदा हिम्मत और शुभभावना और शुभकामना द्वारा परिवर्तन करने वाली शक्तिशाली आत्माओं को सदा, 'वाह मेरे श्रेष्ठ कर्म ' के खुशी के गीत गाने वाले बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

पार्टियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

सदा अपने को रूप-बसन्त अनुभव करते हो ? रूप अर्थात् ज्ञानी तू आत्मा भी है और योगी तू आत्मा भी है। जिस समय चाहे रूप बन जायें और जिस समय चाहे बसंत बन जाएँ । इसलिए आप सबका स्लोगन है - ' योगी बनो और पवित्र बनो माना ज्ञानी बनो' ' । औरों को यह स्लोगन याद दिलाने है ना। तो दोनों स्थिति सेकण्ड में बन सकते हैं । ऐसे न हो कि बनने चाहें रूप और याद आती रहे ज्ञान की बातें। सेकण्ड से भी कम टाइम में फुलस्टाप लग जायें । ऐसे नहीं - फुलस्टाप लगाओ अभी और लगे पाँच मिनट के बाद । इसे पावरफुल ब्रेक नहीं कहेंगे । पावरफुल ब्रेक का काम है, जहॉ लगाओ वहीँ लगे। सेकण्ड भी देर से लगी तो एक्सीडेंट हो जायेगा। फुलस्टाप अर्थात् ब्रेक पावरफुल हो। जहॉ मन-बुद्धि को लगाना चाहे वहां लगा लें। यह मन-बुद्धि-संस्कार आप आत्माओं की शक्तियाँ है। इसलिए सदा वह प्रैक्टिस करते रहो कि जिस समय, जिस विधि से मन-बुद्धि को लगाना चाहते हैं वैसा लगता है या टाइम लग जाता है? चेक करते हो या सारा दिन बीत जाता है फिर रात को चेक करते हो? बीच-बीच में चेक करो । जिस समय बहुत बुद्धि बिजी हो, उस समय ट्रायल करके देखो कि अभी-अभी अगर बुद्धि को इस तरफ से हटाकर बाप की तरफ लगाना चाहें तो सेकण्ड में लगती है? ऐसे तो सेकण्ड भी बहुत है । इसको कहते हैं – कंट्रोलिंग पावर। जिसमे कंट्रोलिंग पावर नहीं वह रूलिंग पावर के अधिकारी बन नहीं सकते। स्वराज्य के हिसाब से अभी भी रूलर (शासक) हो। स्वराज्य मिला है ना! ऐसे नहीं आँख को कहो यह देखो और वह देखे कुछ और, कान को कहो कि यह नहीं सुनो और सुनते ही रहे । इसको कंट्रोलिंग पावर नहीं कहते। कभी कोई कमेंन्द्रिय धोखा न दें - इसको कहते हैं - 'स्वराज्य । ' तो राज चलाने आना है ना? अगर राजा को प्रजा माने नहीं तो उसे नाम का राजा कहेंगे या काम का? आत्मा का अनादि स्वरूप ही राजा का है, मालिक का है । यह तो पीछे परतंत्र बन गई है लेकिन आदि और अनादि स्वरूप स्वतंत्र है । तो आदि और अनादि स्वरूप सहज याद आना चाहिए ना। स्वतंत्र हो या थोड़ा-थोड़ा परतंत्र हो? मन का भी बंधन नहीं। अगर मन का बंधन होगा तो यह बंधन और बंधन को ले आयेगा। कितने जन्म बंधन में रहकर देख लिया! अभी भी बंधन अच्छा लगता है क्या? बंधनमुक्त अर्थात् राजा, स्वराज्य-अधिकारी । क्योंकि बंधन प्राप्तियों का अनुभव करने नहीं देता। इसलिए सदा ब्रेक पावरफुल रखो, तब अन्त में पास-विद्-ऑनर होंगे अर्थात् फर्स्ट डिवीजन में आयेंगे। फर्स्ट माना फास्ट, ढीले-ढीले नहीं। ब्रेक फास्ट लगे। कभी भी ऊँचाई के रास्ते पर जाते हैं  तो पहले ब्रेक चेक करते हैं । आप कितना ऊँचे जाते हो! तो ब्रेक चाहिए ना! बार-बार चेक करो । ऐसा ना हो कि आप समझो ब्रेक बहुत अच्छी है लेकिन टाइम पर लगे नहीं, तो धोखा हो जायेगा। इसलिए अभ्यास करो- स्टाप कहा और स्टाप हो जायें । रिद्धि- सिद्धि वाले क्या करते हैं? सिद्धि दिखाते है - चलती हुई ट्रेन को स्टाप कर दिया... । लेकिन उससे क्या फायदा? आप संकल्पो की ट्रेफिक को स्टाप करते हो। इससे बहुत फायदे हैं। आपकी हैं 'विधि से सिद्धि ' और उनकी है 'रिद्धि-सिद्धि । ' वह अल्पकाल की है, यह सदाकाल की है। तो सभी नालेजफुल बन गये। रचना और रचता की सारी नालेज आ गई । दुनिया वाले समझते हैं - मातायें क्या करेगी । और मातायें असंभव को भी सम्भव बना देती हैं । ऐसी शक्तियाँ हो ना? अच्छा!



14-01-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पुरुषार्थ की तीव्रगति में कमी के दो मुख्य कारण

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले -

आज ब्राह्मणों के के अनादि रचता बापदादा विशेष अपनी डायरेक्ट समीप रचना, श्रेष्ठ रचना - ब्राह्मण बच्चों को देख रहे हैं। बापदादा की अति प्यारी रचना ब्राह्मण आत्माएं हो जो समीप और समान बनने के लक्ष्य को सदा स्मृति में रख आगे बढ़ रहे हो। जो आज ऐसी आदि रचना को विशेष रूप से देख रहे थे। सर्व तीव्र पुरुषार्थी और पुरुषार्थी दोनों की गतिविधि को देख रहे हैं। बापदादा द्वारा मिली हुई श्रेष्ठ सहज विधि द्वारा कब तीव्र गति व कब तीव्र, कभी कम गति - दोनों ही प्रकार के ब्राह्मण बच्चों को देखा। पढ़ाई, पालना और प्राप्ति - सबको एक जैसी एक द्वारा मिल रही है, फिर गति में अंतर क्यों? तीव पुरुषार्थी अर्थात् फर्स्ट डिवीजन वाले और पुरुषार्थी अर्थात् सेकण्ड डिवीजन में पास होने वाले । आज विशेष सभी का चार्ट चेक किया। कारण बहुत है लेकिन विशेष दो कारण है । चाहना सबकी फर्स्ट डिवीजन की है, सेकण्ड डिवीजन में आना कोई नहीं चाहता। लेकिन लक्ष्य और लक्षण, दोनों में अंतर पड़ जाता है। विशेष दो कारण क्या देखें?

एक - संकल्प शक्ति जो सबसे श्रेष्ठ शक्ति है उसको यथार्थ रीति स्वयं प्रति वा सेवा प्रति समय प्रमाण कार्य में लगाने की यथार्थ रीति नहीं है । दूसरा कारण - वाणी की शक्ति को यथार्थ रीति, समर्थ रीति से कार्य में लगाने की कमी। इन दोनों में कमी का कारण है - यूज़ के बजाय लूज़। शब्दो में अंतर थोड़ा है लेकिन परिणाम में बहुत अंतर पड़ जाता है। बापदादा ने सिर्फ ३-४ दिन की रिजल्ट देखी, टोटल रिजल्ट नहीं देखी । हर एक की ३-४ दिन की रिजल्ट में क्या देखा? ५०% अर्थात् आधा-आधा। संकल्प और बोल में दोनों शक्तियों के जमा का खाता ५०% आत्माओं का ठीक था लेकिन बिल्कुल ठीक नहीं कह रहे है और ५०% आत्माओं का जमा का खाता ४०%  और व्यर्थ वा साधारण का खाता ६०%  देखा। तो सोचो जमा कितना हुआ! ज्यादा वजन किसका हुआ? इसमें भी वाचा के कारण मन्सा पर प्रभाव पड़ता है। मन्सा, वाचा को भी अपनी तरफ खींचती है। आज बापदादा वाणी अर्थात् बोल की तरफ विशेष अटेंशन दिला रहे हैं। क्योंकि बोल का सम्बन्ध अपने साथ भी है और सर्व के साथ भी है। औरे देखा क्या? मन्सा द्वारा याद में रहना है - उसके लिए फिर भी बीच-बीच में प्रोग्राम रखते हैं। लेकिन बोल के लिए अलबेलापन ज्यादा है, इसलिए बापदादा इस पर विशेष अण्डरलाइन करा रहे हैं। दो वर्ष पहले बापदादा ने विशेष पुरुषार्थ में सेवा में आगे बढ़ने वाले महारथी आत्माओं को और सभी को तीन बातें ‘बोल' के लिए कही थी -  'कम बोलो, धीरे बोलो और मधुर बोलो। '' व्यर्थ बोलने की निशानी है - वह ज्यादा बोलेगा, मजबूरी से समय प्रमाण, संगठन प्रमाण अपने को कण्ट्रोल करेगा लेकिन अन्दर ऐसा महसूस करेगा जैसे कोई ने शान्ति में चुप रहने लिए बाँधा है। व्यर्थ बोल बडे-ते-बड़ा नुकसान क्या करता हैं? एक तो शारीरिक एनर्जी समाप्त होती क्योंकि खर्च होता है और दूसरा - समय व्यर्थ जाता है। व्यर्थ बोलने वाले की आदत क्या होगी? छोटी-सी बात को बहुत लंबा-चौड़ा करेगा और बात करने का तरीका कथा माफिक होगा। जैसे रामायण, महाभारत की कथा.. इंट्रेस्ट से सुनाते हैं ना। खुद भी रुचि से बोलेगा, दूसरे की भी रुचि पैदा कर लेगा। लेकिन रिजल्ट क्या होती? रामायण, महाभारत की रिजल्ट क्या है? राम बनवास गया और कौरवों और पाण्डवों की युद्ध हुई - जैसी दिखाते है ? सार कुछ भी नहीं लेकिन साज़ बहुत रमणीक होता है। इसको कहने हैं कथा । व्यर्थ बोलने वाले माया के प्रभाव के कारण जो कमज़ोर आत्मा हैं, उन्हों को सुनने और सुनाने के साथी बहुत जल्दी बनाते हैं। ऐसी आत्मा एकांतप्रिय हो नहीं सकती। इसलिए वह साथी बनाने में बहुत होशियार होगा। बाहर से कभी-कभी ऐसे दिखाई देता हैं कि इन्हों का संगठन पावरफुल और ज्यादा लगता है। लेकिन एक बात सदा के लिए याद रखो कि ' 'माया के जाने का अंतिम चरण हैं, इसलिए विदाई लेते-लेते भी अपना तीर लगाती रहती हैं। '' इसलिए कभी-कभी, कहीं-कहीं माया का प्रभाव अपना काम कर लेता है। वह आराम से जाने वाली नहीं है । लास्ट घड़ी तक डायरेक्ट नहीं तो इण्डायरेक्ट कडुवा रूप नहीं तो बहुत मीठा रूप और नया-नया रूप धारण कर ब्राह्मणों की ट्रायल करती रहती हैं । फिर भोले-भाले ब्राह्मण क्या कहते ? वह तो बापदादा ने सुनाया ही नहीं था कि इस रूप में भी माया आती है! अलबेलेपन के कारण अपने को चेक भी नहीं करते और सोचते कि बापदादा तो कहते हैं कि माया आयेगी.. । आधा अक्षर याद रखने हैं कि माया आयेगी लेकिन मायाजीत बनना है - यह भूल जाते हैं ।

और बात - व्यर्थ वा साधारण बोत के भिन्न-भिन्न रूप देखे।

एक - सीमा से बाहर अर्थात् लिमिट से परे हँसी-मज़ाक,

दूसरा – टांटिंग वे (Tonting way) ।

तीसरा - इधर-उधर के समाचार इकट्ठा कर सुनना और सुनाना,

चौथा - कुछ सेवा-समाचार और सेवा समाचार के साथ सेवाधारियों की कमजोरी का चिंतन - यह मिक्स चटनी और

पाँचवा - अयुक्तियुक्त बोल, जो ब्राह्मणों की डिक्शनरी में है ही नहीं। यह पाँच रूप रेखायें  देखी । इन पांचो को ही बापदादा 'व्यर्थ बोल' में गिनती करते हैं। ऐसा नहीं समझो - हँसी-मज़ाक अच्छी चीज़ है। हँसी-मज़ाक अच्छा वह है जिसमें रूहानियत हो और जिससे हँसी-मज़ाक करते हो उस आत्मा को फायदा हुआ, टाइम पास हुआ वा टाइम वेस्ट गया? रमणीकता का गुण अच्छा माना जाता हैं लेकिन व्यक्ति, समय, संगठन, स्थान, वायुमण्डल के प्रमाण रमणीकता अच्छी लगती है। अगर इन सब बातों में से एक बात भी ठीक नहीं तो रमणीकता भी व्यर्थ की लाइन में गिनी जायेंगी और सर्टिफिकेट क्या मिलेगा कि हँसाते बहुत अच्छा है लेकिन बोलते बहुत हैं । तो मिक्स चटनी हो गई ना। तो समय की सीमा रखो। इसको कहा जाता हैं - मर्यादा पुरुषोत्तम। ' कहते हैं - मेरा स्वभाव ही ऐसा हैं । वह कौन-सा स्वभाव है ? बापदादा वाला स्वभाव हैं? तो इसको भी 'मर्यादा पुरुषोत्तम ' नहीं कहेंगे साधारण पुरुष कहेंगे । बोल सदैव ऐसे हो जो सुनने वाले चात्रक हो कि यह कुछ बोले और हम सुनें - इसको कहा जाता हैं 'अनमोल महावाक्य । ' महावाक्य ज्यादा नहीं होते। जब चाहे तब बोलता रहें - इसको महावाक्य नहीं कहेंगे। तो सतगुरु के बच्चे - मास्टर सतगुरु के महावाक्य होते हैं, वाक्य नहीं। व्यर्थ बोलने वाला अपनी बुद्धि में व्यर्थ बातें, व्यर्थ समाचार, चारों ओर का कूड़ा-किचडा जरूर इकट्ठा करेगा क्योंकि उनको कथा का रमणीक रूप देना पड़ेगा। जैसे शास्त्रवादियों की बुद्धि है ना। इसलिए जिस समय और जिस स्थान पर जो बोल आवश्यक है, युक्तियुक्त हैं, स्वयं के और दूसरी आत्माओं के लाभ-लायक हैं, वही बोल बोलो। बोल के ऊपर अटेंशन कम है। इसलिए इस पर डबल अण्डरलाइन।

विशेष इस वर्ष बोल के ऊपर अटेंशन रखो। चेक करो - बोल द्वारा एनर्जी और समय कितना जमा किया और कितना व्यर्थ गया? जब इसको चेक करेंगे तो स्वत: ही अंतर्मुखता के रस को अनुभव कर सकेंगे। अतर्मुखता का रस और बोलचाल का रस - इसमें रात-दिन का अंतर हैं। अंतर्मुखी सदा भृकुटी की कुटिया में तपस्वीमूर्त का अनुभव करता है। समझा!

समझना अर्थात् बनना। जब कोई बात समझ में आ जाती है तो वह करेगा ज़रूर, समझेगा ज़रूर। टीचर्स तो हैं ही समझदार। तब तो भाग्य मिला हैं ना। निमित्त बनने का भाग्य - इसका महत्व अभी कभी-कभी साधारण लगता है, लेकिन यह भाग्य समय पर अति श्रेष्ठ अनुभव करेंगे। किसने निमित्त बनाया, किसने मुझ आत्मा को इस योग्य चुना - यह स्मृति ही स्वत: श्रेष्ठ बना देती है । ' 'बनाने वाला कौन' ' !- अगर इस स्मृति में रहो तो बहुत सहज निरन्तर योगी बन जायेंगे । सदा दिल में, बनाने वाले बाप के गुणों  के गीत गाते रहो तो निरन्तर योगी हो जायेंगे । यह कम बात नहीं है! सारे विश्व की कोटों की कोट आत्माओं में से कितनी निमित्त टीचर्स बनी हो! ब्राह्मण परिवार में भी टीचर्स कितनी हैं । तो कोई-में-कोई हो गई ना! टीचर अर्थात् सदा भगवान और भाग्य के गीत गाती रहें। बापदादा को टीचर्स पर नाज़ होता है लेकिन राज़युक्त टीचर्स पर नाज़ होता है अच्छा –

प्रवृत्ति वाले भी मजे में रहते हैं ना। मूंझने वाले हो या मजे में रहने वाले हो? ब्राह्मण-जीवन के हर सेकण्ड तन, मन, धन, जन का मज़ा ही मज़ा है । आराम से सोते हो, आराम से खाते हो। आराम से रहना, खाना, सोना और पढ़ना। और कुछ चाहिए क्या? पढना भी ठीक है या अमृतवेले सो जाते हो ? ऐसे कई बच्चे करते हैं, कहेंगे- सारी रात जाग रहे थे, सुबह को नींद आ गई । या एक सेवा करेंगे तो अमृतवेले को छोड़ देंगे। तो मज़ा क्या हुआ? एक्स्ट्रा जमा तो हुआ नहीं। एक तरफ सेवा की, दूसरे तरफ अमृतवेला मिस किया। तो क्या हुआ? लेकिन नेमीनाथ माफिक ऐसे झुटका खाते नहीं बैठना । वह टी .वी. बहुत अच्छी होती है । जैसे वह योग के आसन करते हैं ना - अनेक प्रकार के पोज़ बदलते रहते है । तो यहाँ भी ऐसे हो जाते हैं । सोचते हैं - सहज योग है ना, इसलिए आराम से बैठो । कइयों की तो ट्यून भी बापदादा के पास सुनने में आती है । बापदादा के पास वह भी कैसेट है । तो अब डबल अण्डरलाइन करेंगे ना। फिर बापदादा सुनायेंगे कि रिजल्ट में कितना अन्तर पड़ा। अच्छा –

चारों ओर के श्रेष्ठ लक्ष्य और श्रेष्ठ लक्षण धारण करने वाले तीव्र पुरुषार्थी आत्माओं को, सदा अपने बोल को समय और संयम में रखने वाले पुरुषोत्तम आत्माओं को, सदा महावीर बन माया के सर्व रूपों को जानने वाले नालेजफुल आत्माओं को सदा हर सेकण्ड मौज में रहने वाले बेफिक्र बादशाहों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते ।

जोन वाइज़ ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

१ साइलेन्स की शक्ति को अच्छी तरह से जानते हो? साइलेन्स की शक्ति सेकण्ड में अपने स्वीट होम, शान्तिधाम में पहुँचा देती है । साइंस वाले तो और फास्ट गति वाले यंत्र निकालने का प्रयत्न कर रहे हैं । लेकिन आपका यंत्र कितनी तीव्रगति का है! सोचा और पहुंचा! ऐसा यंत्र साइंस में है जो इतना दूर बिना खर्च के पहुँच जाएँ? वो तो एक-एक यंत्र बनाने में कितना खर्चा करते है, कितना समय और कितनी एनर्जी लगाते हैं, आपने क्या किया? बिना खर्चे मिल गया। 'यह संकल्प की शक्ति सबसे फास्ट है । ' आपको शुभ संकल्प का यंत्र मिला है, दिव्य बुद्धि मिली हैं । शुद्ध मन और दिव्य बुद्धि से पहुँच जाते हो । जब चाहो तब लौट आओ, जब चाहो तब चले जाओ । साइंस वालों को तो मौसम भी देखनी पड़ती हैं । आपको तो वह भी नहीं देखना पड़ता कि आज बादल हैं, नहीं जा सकेंगे। आजकल देखो - बादल तो क्या थोड़ी-सी फोगी भी होती है तो भी प्लेन नहीं जा सकता। और आपका विमान एवररेडी हैं या कभी फोगी आती है? एवररेडी हैं? सेकंड में जा सकते हैं - ऐसी तीव्रगति है? माया कभी रुकावट तो नहीं डालती है? मास्टर सर्वशक्तिवान को कोई रोक नहीं सकता। जहाँ सर्वशक्तियॉ है वहाँ कौन रोकेगा । कोई भी शक्ति की कमी होती है तो समय धोखा मिल सकता है । मानो सहनशक्ति आप में है लेकिन निर्णय करने की शक्ति कमज़ोर है, तो जब ऐसी कोई परिस्थिति आयेगी जिसमें निर्णय करना हो, उस समय नुकसान हो जायेगा। होती एक ही घड़ी निर्णय करने की है – हाँ या ना, लेकिन उसका परिणाम कितना बड़ा होता है! तो सब शक्तियाँ अपने पास चेक करो। ऐसे नहीं ठीक है, चल रहे हैं  योग तो लगा रहे है। लेकिन योग से जो प्राप्तियाँ है - वह सब है? या थोड़े में खुश हो गये कि बाप दो अपना हो गया। बाप तो अपना है लेकिन प्रॉपर्टी(वर्सा) भी अपनी है ना या सिर्फ बाप को पा लिया - ठीक है? वर्स के मालिक बनना है ना? बाप की प्रापर्टी है 'सर्वशक्तियॉ' इसलिए बाप की महिमा ही है सर्वशक्तिवान आलमाइटी अथार्टी। ' सर्वशक्तियो का स्टॉक जमा है? या इतना ही हें - कमाया और खाया, बस! बापदादा ने सुनाया है कि आगे चलकर आप मास्टर सर्वशक्तिवान के पास सब भिखारी बनकर आयेंगे । पैसे या अनाज के भिखारी नहीं लेकिन ‘शक्तियों’ के भिखारी आएंगे। तो जब स्टाक होगा तब तो देंगे ना! दान वही दे सकता जिसके पास अपने से ज्यादा है । अगर अपने जितना ही होगा तो दान क्या करेंगे? तो इतना जमा करो । संगम पर और काम ही क्या है? जमा करने का ही काम मिला है । सारे कल्प में और कोई युग नहीं है जिसमें जमा कर सको । फिर तो खर्च करना पड़ेगा, जमा नहीं कर सकेंगे । तो जमा के समय अगर जमा नहीं तो अन्त में क्या कहना पड़ेगा - '' अब नहीं तो कब नहीं '' फिर टू लेट का बोर्ड लग जायेगा। अभी तो लेट का बोर्ड है, टू लेट का नहीं ।

सभी माताओं ने इतना जमा किया है? शिव-शक्तियाँ हो या घर की माताएं हो? शिव-शक्ति कहने से शक्तियाँ याद आती है । किन माताओं को बाप ने शक्तियाँ बना दिया है! अगर कोई शक्ल आकर देखे तो क्या कहेंगे! ऐसी शक्तियॉ होती है क्या! लेकिन बाप ने पहचान लिया कि वह आत्माएं शक्तिशाली है। बाप तो आत्माओं को देखता है, न बूढ़ा देखता, न जवान देखता, न बच्चा देखता। आत्मा तो बूढ़ी वा छोटी है ही नहीं । तो यह खुशी हें ना कि हमको बाबा ने शिव-शक्ति' बना दिया । दुनिया में कितनी पढ़ी-लिखी माताएं हैं लेकिन बाप को गाँव वाले ही पसंद हैं, क्यों पसंद है? “सच्ची दिल पर साहेब राजी। बाप को सच्ची दिल प्यारी लगती है । जो भोले होंगे उन्हें झूठ-कपट करने नहीं आयेगा। जो चालाक, चतुर होते है उसमें यह सब बातें होती है। तो जिसकी दिल भोली है अर्थात् दुनिया की मायावी चतुराई से परे हैं, वह बाप को अति प्रिय है । बाप सच्ची दिल को देखता है। बाकी पढ़ाई को, शक्ल को, गाँव को, पैसे को नहीं देखता है। सच्ची दिल चाहिए, इसलिए बाप का नाम दिलवाला' है । अच्छा!

२ सदा इस ब्राह्मण-जीवन में राज़युक्त, योगयुक्त और युक्तियुक्त तीनों ही विशेषताएं अपने में अनुभव करते हो ? ज्ञान के सब राज़ बुद्धि में स्पष्ट स्मृति में रहे- इसको कहते है राज़युक्त' और सदा रचना बाप को याद रखना - इसको कहते हैं 'योगयुक्त' । तो जो ज्ञानी और योगी आत्मा है - उसके हर कर्म स्वतः युक्तियुक्त होते है। युक्तियुक्त अर्थात् सदा यथार्थ श्रेष्ठ कर्म। कोई भी कर्म रूपी बीज फल के सिवाए नहीं होता। उनके संकल्प भी युक्तियुक्त होंगे। जिस समय जो संकल्प चाहिए वही होगा। ऐसे नहीं - यह सोचना तो नहीं चाहिए था लेकिन सोच चलता ही रहा। इसे युक्तियुक्त नहीं कहेंगे। जो युक्तियुक्त होगा वह जिस समय जो संकल्प, वाणी या कर्म करना चाहे - वह कर सकेगा। ऐसे नहीं - यह करना नहीं चाहता था, हो गया। तो जो राज़युक्त, योगयुक्त होगा उसकी निशानी वह युक्तियुक्त होगा। तो वह निशानी सदा दिखाई देती है? अगर कभी-कभी दिखाई देती तो राज्य-भाग्य भी कभी-कभी मिल जायेगा, सदा नहीं मिलेगा। लेने में तो कहते हो - सदा चाहिए और करने में कभी-कभी। ऐसे नहीं करना। अभी परिवर्तन करके जाओ । कभी-कभी की लाइन से, अभी सदा वाली लाइन में आ जाओ। जब जान लिया अनुभव कर लिया कि अच्छे-अच्छे बीज है तो अच्छी बीज को छोड़ कोई घटिया चीज़ क्यों लेंगे? तो अविनाशी खान पर आकर लेने में कमी नहीं करना। लेना है तो पूरा लेना है। दाता के भण्डारे भरपूर है, जितना भी लो अखुट है। तो अखुट खज़ाने के मालिक बनो । अच्छा –



18-01-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्मृति दिवस पर अव्यक्त बापदादा के महावाक्य

आज सर्व बच्चों के स्नेही मात-पिता अपने स्नेही बच्चों के स्नेह के दिल की आवाज और स्नेह मेँ अनमोल मोतियों की मालाएं देखेदेख बच्चों को स्नेह का रिटर्न विशेष वरदान दे रहे हैं - ''सदा समीप भव, समान समर्थ भव, सदा सम्मन संतुष्ट भव'' सबके दिल का स्नेह आपके दिल में संकल्प उठते ही बापदादा के पास अति तीव्रगति से पहुँच जाता है। चारों ओर' के देश-विदेश के बच्चे आज प्यार के सागर में लवलीन है। बापदादा, उसमें भी विशेष ब्रह्मा माँ बच्चों को स्नेह में लवलीन देख स्वयं भी बच्चों के लव मेँ, स्नेह में समाये हुए हैं। बच्चे जानते हैं कि ब्रह्मा मॉ का बच्चों मे बिशेष स्नेह रहा और अब भी है। पालना करने वाली माँ का स्वत: ही विशेष स्नेह रहता हो है। तो आज़ ब्रह्मा माँ एक-एक बच्चे को देख हर्षित हो रही है कि बच्चों के मन में, बुद्धि में, दिल में, नयनों में मात-पिता के सिवाए ओर कोई नहीँ है। सब बच्चे "एक बल एक भरोसे से आगे बढ रहे हैं' अगर कहॉ रुकते भी है तो मात-पिता के स्नेह का हाथ फिर से समर्थ बनाए आगे बढा देता है।

आज़ मात-पिता बच्चों के श्रेष्ठ भाग्य के गीत्त गा रहे थे। क्योकि आज का दिवस विशेष सूर्य, चन्द्रमा का बैकबोन होकर सितारों को विश्व के आकाश में प्रत्यक्ष करने का दिन है । जैसे यज्ञ की स्थापना के आदि में ब्रह्मा बाप ने बच्चों के आगे अपना सब कुछ समर्पित किया अर्थात् 'विल' की। ऐसे आज के दिवस पर ब्रह्मा बाप ने बच्चों को सर्वशक्तियों की विल की अर्थात् विल पावर्स दी। आज के दिवस नयनों द्वारा और संकल्प द्वारा बाप नै बच्चों को विशेष "सन शोज़ फादर' की बिशेष सौगात दी। आज के दिवस बाप ने प्रत्यक्ष साकार रूप में करावनहार का पार्ट बजाने का प्रत्यक्ष रूप दिखाया। ब्रह्मा बाप भी आज़ के दिन प्रत्यक्ष रूप में करावनहार बाप के साथी बनै, करनहार निमित्त बच्चों को बनाया और करावनहार मात-पिता साथी बने। आज के दिन ब्रह्मा बाप ने अपनी सेवा की रीति और गति परिवर्तन की। आज के दिवस विशेष ब्रह्मा बाप देह से सूक्ष्म फरिश्ता स्वरूप धारण कर ऊँचे वतन, सूक्ष्मवतन निवासी बने, किसलिए? बच्चों को तीव्रगति से ऊँचा उठाने के लिए। बच्चों को फ़रिश्ते रूप से उड़ाने के लिए। इतना श्रेष्ठ महत्व का यह दिवस है। सिर्फ स्नेह का दिवस नहीं लेकिन विश्व की आत्माओं का, ब्राह्मण आत्माओं का और सेवा की गति का परिवर्तन ड्रामा में नूंधा हुआ था, जो बच्चे भी देख रहे है। विश्व की आत्माओं के प्रति बुद्धिवानो की बुद्धि बने। बुद्धि का परिवर्तन हुआ, संपर्क में आये सहयोगी बने। ब्राह्मण आत्माओं में श्रेष्ठ संकल्प द्वारा तीव्रगति से वृद्धि हुई। सेवा के प्रति सन शोज फादर' की गिफ्ट से विहंग-मार्ग की सेवा आरम्भ की। यह गिफ्ट सेवा की लिफ्ट बन गई। परिवर्तन हुआ ना! अब आगे चल सेवा में और परिवर्तन देखेंगे।

अभी तक आप ब्राह्मण -आत्माये अपने तन-मन की मेहनत से प्रोग्राम्स बनाते हो, स्टेज तैयार करने हो, निमंत्रण कार्ड छपाते हो, कोई वी.आई. पी. को बुलाते हो, रेडियो, टी. वी. वालो को सहयोगी बनाते हो, धन भी लगाते हो। लेकिन आगे चल आप स्वयं वी.आई.पी. हो जायेंगें। आपसे बडा कोई दिखाई नहीं देगा। बनीबनाईं स्टेज पर दूसरे लोग आपको निमंत्रण देंगे। अ प ने तन- मन-धन की सेवाओं की स्वयं ऑफर करेंगे।  आपकी मिन्नते करेंगे। मेहनत आप नहीं करेंगे, वह रिक्वेस्ट करेंगे कि आप हमारे पास आओ। तब ही प्रत्यक्षता की आवाज़ बुलंद होगीं और सबकी अटेंशन आप बच्चों द्वारा बाप तरफ़ जायेगी। वह ज्यादा समय नहीं चलेगा। सबकी नज़र बाप तरफ़ जाना अर्थात् प्रत्यक्षता होना और जय-जयकार के चारों और घंटे बजेगें। यह ड्रामा का सूक्ष्म राज़ बना हुआ है। प्रत्यक्षता के बाद अनेक आत्माए पश्चाताप करेगी। और बच्चों का पश्चाताप बाप देख नहीं सकता। इसलिए परिवर्तन हो जायेंगा। अभी आप ब्राह्मण-आत्माओं की ऊँची स्टेज सदाकाल की बन रही है। आपकी ऊँची स्टेज सेवा की स्टेज के निमंत्रण दिलायेगी। और बेहद विश्व की स्टेज पर जय-जयकार का पार्ट बजायेंगे। सुना, सेवा का परिवर्तन।

बाप के अव्यक्त बनने के ड्रामा मेँ गुप्त राज़ भरे हुए थे। कई बच्चे सोचते हैं - कम से कम ब्रह्मा बाप छुट्टी तो लेके जाते। तो क्या आप छुट्टी देते? नहीँ देते ना। तो बलबान कौन हुआ? अगर छुट्टी लेते तो 'कर्मातीत' नहीं बन सकते। क्योकि ब्लड-कनेक्शन से पदमगुणा ज्यादा आत्मिक-कनेक्शन होता है। ब्रह्मा को तो कर्मातीत होना था। या स्नेह के बंधन में जाना था? ब्रह्मा बाप भी कहते हैं - ड्रामा ने कर्मातीत बनाने के बंधन में बाँधा। और बाँधा कितने टाइम मेँ ! समय होता तो और पार्ट हो जाता। इसलिए घडी का खेल हो गया। बच्चों को भी अन्जान बना दिया, बाप को भी अन्जान बना दिया। इनको कहते हैं - वाह, ड्रामा वाह! ऐसा है ना। जब "वाह, ड्रामा वाह' है तो कोई संकल्प उठ नहीँ सकता। फुलस्टाप लगा दिया ना ! नहीँ तो कम-से-कम बच्चे पूछ तो सकते थे कि क्या हो रहा है ? लेकिन बाप भी चुप, बच्चे भी चुप रहे। इसको कहते हैं - ड्रामा का फुलस्टाप। उस घडी तो फुलस्टाप ही लगा ना। पीछे भले क्वेश्चन कितने भी उठे लेकिन उस घडी नहीं। तो "वाह ड्रामा वाह' कहेंगें ना ! 'बाबा-बाबा' कह बुलाया भी पीछे, पहले नहीं बुलाया। यह ड्रामा की विचित्र नूँध होनी ही थी और होनो ही है। परिवर्तनशील ड्रामा पार्ट को भी परिवर्तन कर देता है।

यह सब टीचर्स अव्यक्त रचना है - मैजारिटी। साकार की पालना लेने वाली टीचर्स बहुत थोडी हैं। फास्ट गति से पैदा हुईं हो। क्योकि संकल्प की गति सबसे फास्ट है। आदि रत्न है मुख-वंशावली, और आप हो संकल्प की वंशावली। इसलिए ब्रह्मा की दो रचना गाई हुई हैं। एक मुख वंशावली, एक संकल्प द्वारा सृष्टि रची। हो तो ब्रह्मा की रचना, तब तो ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी कहलाते हो। शिवकुमारी तो नहीं कहलाते हो ना। डबल फोरेनर्स भी सब संकल्प की रचना है । ऐसे तीव्रगति से सब टीचर्स आगे बढ़ रही हो? जब रचना ही तीव्रगति की हो तो पुरुषार्थ भी तीव्रगति से होना चाहिए । सदा यह चेक करो कि सदा तीव्र पुरुषार्थी हूँ वा कभी-कभी हूँ? समझा! अब 'क्या' 'क्यों', का गीत खत्म करो। 'वाह-वाह' के गीत गाओ । अच्छा!

चारों ओर के सर्व स्नेह और शक्ति संपन्न श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा बाप के साथ-साथ तीव्रगति से परिवर्तन के साथी समीप आत्माओं को, सदा अपनी उड़ती कला द्वारा अन्य आत्माओं को भी उड़ाने वाले निर्बन्धन उड़ते पंछी आत्माओं को, सदा 'सन शोज फादर' की गिफ्ट द्वारा स्वयं और सेवा मैं तीव्रगति से परिवर्तन लाने वाले, ऐसे सर्व लवलीन बच्चो को इस महत्त्व दिवस के महत्व के साथ मात-पिता का विशेष याद-प्यार और नमस्ते।

हुबली ज़ोन से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

सदा अपने को हर कदम में पद्मों की कमाई करने वाले भाग्यवान समझते हो? यह जो गायन है - हर कदम में पद्मकिसके लिए गायन है? सारे दिन में कितने पद्म इकट्ठे करते हो? संगमयुग बड़े-ते-बड़े कमाई के सीजन का युग है। तो सीजन के समय क्या किया जाना है? इतना अटेंशन रखते हो? हर समय यह याद रहे कि 'अब नहीं तो कब नहीं।' जो घड़ी बीत गई वह फिर से नहीं आयेगी। एक घड़ी व्यर्थ जाना अर्थात् कितने कदम व्यर्थ गये? पद्म व्यर्थ गये! इसलिए हर घडी यह स्लोगन याद रहे - 'जो समय के महत्व को जानते है वह स्वतःही महान बनते है।' स्वयं को भी जानना है और समय को भी जानना है। दोनों ही विशेष है। इस स्मृति दिवस पर विशेष सदा समर्थ बनने का श्रेष्ठ संकल्प  किया? व्यर्थ संकल्प, बोल, सब रूप से व्यर्थ  को समाप्त करने का दिन है। जब नालेज मिल गई कि व्यर्थ क्या है, समर्थ क्या है- तो नॉलेजफुल आत्मा कभी भी समर्थ को छोड़ व्यर्थ तरफ नहीं जा सकती । और जिनना स्वयं समर्थ बनेंगे उतना औरों को समर्थ बना सकेंगे। ६३ जन्म गँवाया और समर्थ बनने का यह एक जन्म है। तो इस समय को व्यर्थ तो नहीं करना चाहिए ना! अमृतवेले से लेकर रात तक अपनी दिनचर्या को चेक करो। ऐसे नहीं कि सिर्फ रात्रि को चार्ट चेक करो लेकिन बीच-बीच में चेक करो, बार-बार चेक करने से चेंज  कर सकेंगे। अगर रात को चेक करेंगे तो जो व्यर्थ गया वह व्यर्थ के खाते में ही हो जायेंगा। इसलिए बापदादा ने बीच-बीच में ट्रैफिक कंट्रोल का टाइम फिक्स किया है। ट्रैफिक कंट्रोल करते हो या दिन में बिजी रहते हो? अपना नियम बना रहना चाहिए । चाहे टाइम कुछ बदली हो जाय लेकिन अगर अटेंशन रहेगा तो कमाई जमा होगी। उस समय अगर कोई काम है तो आधे घण्टे के बाद करो लेकिन कर तौ सकते हो। घडी के आधार पर भी क्यों चलो। अपनी बुद्धि ही घड़ी हें, दिव्य बुद्धि की घड़ी को याद करो। जिस बात की आदत पड़ जाती है तो आदत ऐसी चीज है जो न चाहते भी अपनी तरफ खीचेगी । जब बुरी आदत रहने नहीं देती, अपनी तरफ आकर्षित करती है तो अच्छे संस्कार क्यों नहीं अपना बना सकते। तो सदा चेक करो और चेंज करो तो सदा के लिए कमाई जमा होती रहेगी। अच्छा।



20-01-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्रह्मा बाप के विशेष पांच कदम

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले –

आज विश्व स्नेही बाप अपने विशेष अति स्नेही और समिप बच्चों को देख रहे है। स्नेही सभी बच्चे है लेकिन अति स्नेही वा समीप बच्चे वही है जो हर कदम में फालो करने वाले है। निराकार बाप ने साकारी बच्चों को साकार रुप में फालो करने के लिए साकार ब्रह्मा बाप को बच्चों के आगे निमित्त रखा जिस आदि आत्मा ने ड्रामा में ८४ जन्मो के आदि से अंत तक अनुभव किये, साकार रूप मैं माध्यम बन बच्चों के आगे सहज करने के तिए एग्ज़ाम्पल बने। क्योंकि शक्तिशाली एग्ज़ाम्पल को देख फालो करना सहज होता है। तो स्नेही बच्चों के लिए स्नेह की निशानी बाप ने ब्रह्मा बाप को रखा और सर्व बच्चों को यही श्रेष्ठ श्रीमत दी कि हर कदम में 'फालो फादर।' सभी अपने को फालो फादर करने वाले समीप आत्मये समझते हो? फालो करना सहज लगता या मुश्किल लगता है? ब्रह्मा बाप के विशेष कदम क्या देखे?

* सबसे पहला कदम – सर्वंश त्यागी न सिर्फ तन से और लौकिक सम्बन्ध से लेकिन सबसे बड़ा त्याग, पहला त्याग मन-बुद्धि से समर्पण । अर्थात् मन-बुद्धि में हर समय बाप और श्रीमत की हर कर्म मैं स्मृति रही। सदा स्वयं को निमित्त समझ हर कर्म में न्यारे और प्यारे रहे। देह के सम्बन्ध से, मैं-पन का त्याग। जब मन-बुद्धि की बाप के आगे समर्पणता हो जाती है। तो देह के सम्बन्ध स्वत: ही त्याग हो जाते है। तो कदम - ' सर्वंश त्यागी।'

 

* दूसरा कदम – सदा आज्ञाकारी रहे। हर समय एक बात में - चाहे स्व पुरुषार्थ में, चाहे यज्ञ-पालना में निमित्त बने। क्योंकि स्व ही ब्रह्मा विशेष आत्मा है जिसका ड्रामा में पार्ट नूंधा हुआ है। एक ही आत्मा – माता भी है, पिता भी है। यज्ञ-पालना के निमित्त होते हुए भी सदा आज्ञाकारी रहे। स्थापना का कार्य विशाल होते हुए भी किसी भी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। हर समय 'जी हाज़िर' का प्रत्यक्ष स्वरूप सहज रूप में देखा।

* तीसरा कदम - हर संकल्प में भी वफादार। जैसे पवित्रता नारी एक पति के बिना और किसी को स्वप्न में भी याद नहीं कर सकती, ऐसे हर समय 'एक बाप दूसरा न कोई' - यह वफादारी का प्रत्यक्ष स्वरूप देखा। विशाल नई स्थापना की जिम्मेवारी के निमित्त होतें भी वफादारी के बल से, एक बल एक भरोसे के प्रत्यक्ष कर्म में हर परिस्थिति को सहज पार किया और कराया।

* चौथा कदम - विश्व सेवाधारी। सेवा की विशेषता - एक तरफ अति निर्मान-वर्ल्ड सर्वेंट; दूसरे तरफ ज्ञान की अथार्टी। जितना ही निर्मान उतना ही बेपरवाह बादशाह। सत्यता की निर्भयता - यही सेवा की विशेषता है। कितना भी सम्बंधिया ने, राजनेताओ ने, धर्म-नेताओ ने नये ज्ञान के कारण ऑपोजीशन किया लेकिन सत्यता और निर्भयता की पोजीशन से ज़रा भी हिला न सके। इसको कहते है निर्मानता और अथॉर्टी का बैलेस। इसकी रिजल्ट आप सभी देख रहे हो। गाली देने वाले भी मन से आगे झुक रहे है। सेवा की सफलता का विशेष आधार निर्मान-भाव, निमित्त-भाव, बेहद का भाव। इसी विधि से ही सिद्धिस्वरूप बने।

* पाँचवा कदम - कर्मबंधन मुक्त, कर्म-सम्बन्ध मुक्त। अर्थात् शरीर के बंधन से मुक्त फरिश्ता, अर्थात् कर्मातीत। सेकण्ड में नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप समीप और समान।

तो आज विशेष संक्षेप में पाँच कदम सुनाये। विस्तार तो बहुत है लेकिन सार रूप में इन पाँच कदमो के ऊपर कदम उठाने वाले को ही फालो फादर कहा जाता है । अभी अपने से पूछो - कितने कदमो में फालो किया है? समर्पित हुए हो या सर्वंश सहित समर्पित हुए हो? सर्वंश अर्थात् संकल्प, स्वभाव और संस्कार, नेचर में भी बाप समान हो। अगर अब तक भी चलते-चलते समझते हो और कहते हो- मेरा स्वभाव ऐसा है, मेरी नेचर ऐसी है वा न चाहते भी संकल्प चल जाते है, बोत निकल पड़ते है - तो इसको सर्वंश त्यागी नहीं कहेंगे। अपने को समर्पित कहलाते हो लेकिन सर्वंश समर्पण - इसमें मेरा-तेरा हो जाता है। जो बाप का स्वभाव, स्व का भाव अर्थात् आत्मिक भाव। संस्कार सदा बाप समान स्नेह, रहम, उदारदिल का, जिसको बड़ी दिल कहते हो। छोटी दिल अर्थात् हद का अपनापन देखना - चाहे अपने प्रति, चाहे अपने सेवा-स्थानो के प्रति, अपने सेवा के साथियो के प्रति। और बड़ी दिल - सर्व अपनापन अमुभव हो। बड़ी दिल मैं सदा हर प्रकार के कार्य- चाहे तन के, चाहे मन, चाहे धन के, चाहे समन्ध में सफलता की बरकत होती है। बरकत अर्थात् ज्यादा फायदा होता है। और छोटी दिल वाले को मेहनत ज्यादा, सफलता कम होती है। पहले भी सुनाया था कि छोटी दिल वालों के भण्डारे और भण्डारा - सदा बरकत की नहीं होती। सेवा-साथी दिलासे बहुत देंगे - आप ये करो हम करेंगे लेकिन समय सरकमस्टांस सुनाने शुरू कर देंगे। इसको कहते है बड़ी दिल तो बड़ा साहेब राजी। राजयुक्त पर साहेब सदा राजी रहता है। टीचर्स सभी बड़ी दिल वाली हो ना! बेहद के बड़े-ते-बडे कार्य अर्थ ही निमित्त हो। यह तो नहीं कहने हो ना - हम फलाने एरिया के कल्याणकारी है या फलाने देश के कल्याणकारी है? विश्व-कल्याणकारी हो ना। इतने बड़े कार्य के लिए दिल भी बड़ी चाहिए ना? बड़ी अर्थात् बेहद। वा टीचर्स कहेगी कि हमको तो हद बनाकर दी गई है? हद भी क्या बनाई गई है, कारण? छोटी दिल। कितना भी एरिया बनाकर दे लेकिन आप सदा बेहद का भाव रखो, दिल में हद नहीं रखो। स्थान की हद का प्रभाव दिल पर नहीं होना चाहिए। अगर दिल में हद का प्रभाव है तो बेहद का बाप हद की दिल में नहीं रह सकता। बड़ा बाबा है तो दिल बड़ी चाहिए ना। कभी ब्रह्मा बाप ने मधुबन में रहते यह संकत्य किया कि मेरा तो सिर्फ मधुबन है, बाकी पंजाब, यु.पी., कर्नाटक आदि बच्चों का है? ब्रह्मा बाप से तो सबको प्यार है ना। प्यार का अर्थ हें - बाप को फालो करना।

सभी टीचर्स फालो फादर करने वाली हो या मेरा सेंटर, मेरे जिज्ञासू, मेरी मंडोगरी और स्टूडैण्ट भी समझते - मेरी टीचर है? फालो फादर अर्थात् मेरे को तेरे में समाना, हद को बेहद में समाना। अभी इस कदम-पर-कदम रखने की आवश्यकता है। सबके संकल्प, बोल, सेवा की विधि बेहद की अनुभव हो। कहते हो ना - अभी क्या करना है इस वर्ष। तो स्व-परिवर्तन के लिए हर एक को सर्व वंश सहित समाप्त करो। जिसको भी देखो वा जो भी आपको देखे - बेहद के बादशाह का नशा अनुभव हो। हद की दिल वाले बेहद के बादशाह बन नहीं सकते। ऐसे नहीं समझना कि जितने सेंटर्स खोलते वा जितनी ज्यादा सेवा करते हो इतना बड़ा राजा बनेंगे। इस पर स्वर्ग की प्राइज नहीं मिलनी है। सेवा भी हो, सेंटर्स भी हौ लेकिन हद का नाम-निशान न हो। उसको नम्बरवार विश्व के राज्य का तख्त प्राप्त होगा। इसलिए अभी-अभी थोड़े समय के लिए अपनी दिल खुश करके नहीं बैठना। बेहद की खुशबू वाला बाप समान और समीप अब भी है और २१ जन्म भी ब्रह्मा बाप के समीप होगा। तो ऐसी प्राइज चाहिए या अभी की? बहुत सेंटर्स है, बहुत जिज्ञासु है... इस बहुत-बहुत में नहीं जाना। बड़ी दिल को अपनाओ। सुना, इस वर्ष क्या करना है? इस वर्ष स्वयं में भी किसके हद का संस्कार उत्पन्न न हो। हिम्मत है नाएक-दो  को फालो नहीं करना, बाप को फालो करना।

दूसरी बात - बापदादा ने वाणी के ऊपर भी विशेष अटेंशन दिलाया था। इस वर्ष अपने बोल के ऊपर विशेष डबल अटेंशन। सभी को बोल के लिए डायरेक्शन भेजा गया है। इस पर प्राइज मिलनी है। सच्चाई-सफाई से अपना चार्ट स्वयं ही रखना। सच्चे बाप के बच्चे हो ना। बापदादा सभी को डायरेक्शन देते है - जहाँ देखते हो सेवा स्थिति को डगमग करती है, उसे सेवा में कोई सफलता मिल नहीं सकती। सेवा भले कम करो लेकिन स्थिति को कम नहीं करो। जो सेवा स्थिति को नीचे ले आती है उसको सेवा कैसे कहेंगे। इसलिए बापदादा सभी को फिर से यही कहेंगे कि सदा स्व-स्थिति और सेवा अर्थात् स्व-सेवा और औरों की सेवा साथ-साथ सदा करो। स्व-सेवा को छोड़ पर-सेवा करना - इससे सफलता नहीं प्राण होती। हिम्मत रखो। स्व-सेवा और पर-सेवा की। सर्वशक्तिवान बाप मददगार है। इसलिए हिम्मत से दोनों का बैलेस रख आगे बढ़ो। कमज़ोर नहीं बनो। अनेक बार के निमित्त बने हुए विजयी आत्मा हो। ऐसी विजयी आत्माओं के लिए कोई मुश्किल नहीं, कोई मेहनत नहीं। अटेंशन और अभ्यास - यह भी सहज और स्वत: अनुभव करेंगे। अटेंशन का भी टेंशन नहीं रखना। कोई-कोई अटेंशन को  टेंशन मैं बदल लेते है। ब्राह्मण आत्माओं के निजी संस्कार 'अटेंशन' और 'अभ्यास' है। अच्छा!

बाकी रही विश्व-कल्याण की सेवा की बात तीन-चार वर्ष से चारों ओर के

देश-विदेश में बड़े-बड़े प्रोजैक्ट किये है - पीस का भी किया, ग्लोबल का भी किया। बड़े प्रोजैक्ट करने से आजकल की दुनिया के बड़े लोगों तक आवाज़ पहुंची भी है और पहुंचती भी रहेगी। देश-विदेश की सेवा की रिजल्ट अच्छी हैं - सम्पर्क-सम्बन्ध, सहयोग अनेक आत्माओं से हुआ है। लेकिन एक बड़े प्रोजैक्ट के पीछे दूसरा, फिर तीसरा प्रोजेक्ट करने से जो नया प्रोजेक्ट शुरू करते हो उस तरफ़ विशेष अटेन्शन, समय, एनर्जी देनी पड़ती है और देनी भी चाहिए। लेकिन जो आत्माएं सम्पर्क वाली बनी वा संदेश सुनने वाली बनी वा सहयोगी बनीं, उन आत्माओं को और आगे समीप लाने में बिजी होने के कारण अंतर पड़ जाता है। इसलिए इस वर्ष हर एक सेवाकेन्द्र जितने भी संदेश वा संपर्क वाले हैं, उन्हों को

निमंत्रण देकर यथाशक्ति स्नेह-मिलन करो। चाहे वर्गीकरण के हिसाब से करो वा स्नेह-मिलन करो लेकिन उन आत्माओं की तरफ़ विशेष अटेन्शन दो। पर्सनल मिलो। सिर्फ पोस्ट भेज देते हो तो उससे भी रिजल्ट कम निकलती है। अपने ही आने वाले स्टूडेंट्स के ग्रुप बनाओ और उन्हों को  थोड़े लोगों के पर्सनल समीप आने के निमित्त बनाओं। तो सब स्टूडेंट्स भी बिजी होगे और सेवा की सिलेक्शन भी हो जायेगी, जिसको आप लोग कहते हो- पीठ नहीं होतीं। ऐसी आत्माओं को भी कोई नई बात सुनाने की चाहिए। अभी तक तो बेटर बर्ल्ड क्या होगीं। उसके इकट्ठे किये हैं। अब फिर उन्हो को अपनी तरफ अटेंशन दिलाओ। उसका विशेष टॉपिक रखो 'सेल्फ प्रोग्रेस' और 'सेल्फ प्रोग्रेस का आधार'। यह नई विषय रखो। यह स्व-प्रोग्रेस के लिए स्प्रिटुअल  बजट बनाओ और बजट में सदैव बचत की स्कीम बनाई जानी है। तो स्प्रिटुअल बचत का खाता क्या है! समय, बोल, संकल्प और एनर्जी को 'वेस्ट से बैस्ट में चेंज' करना होगा। सभी को अब स्व तरफ अटेंशन दिलाओ। बच्चों ने टापिक निकाली थी - फॉरसेल्फ ट्रांसफरमेशन। लेकिन इस वर्ष हर एक सेवाकेद्र को फ्रीडम है - जितनी जो कर सके अपनी स्व-उनति के साथ-साथ पढ़ाई स्वयं के बचत की बजट बनायें और साथ में सेवा में औरों को इस बात का अनुभव कराये। अगर कोई बड़े प्रोग्राम्स रख सकते है तो रखे अगर नहीं कर सकते तो भले छोटे प्रोग्राम्स करे। लेकिन विशेष अटेंशन स्व-सेवा और पर-सेवा का बैलेन्स वा विश्व सेवा का बैलेन्स हो। ऐसे नहीं कि सेवा में ऐसे बिज़ी हो जाओ जो स्व-उनति का समय नहीं मिले। तो यह स्वतंत्र वर्ष है सेवा के लिए। जितना चाहो उतना करो। दोनों प्लैन स्मृति में रख और भी एडीशन कर सकते  हो और प्लेन में रत्न जड़ सकते हो। बाप सदैव बच्चा को आगे रखता है। अच्छा!

यह सीज़न की लास्ट नहीं है लेकिन फास्ट जाने का दिन है। लास्ट के साथ सदैव फर्स्ट जुड़ा होता है। तो फास्ट सो फर्स्ट जाने का दिन है। महारथी सेवाधारी बच्चे भी आज बहुत आये है। निमित्त बने हुए बड़े बच्चों को देख बापदादा खुश होते है। बापदादा जानते है - दोनों ही कांफ्रेंस आवाज़ बुलंद करने वाली रही। (जगदीश भाई एथेनस तथा मास्को से कांफ्रेंस अटेंड करके वापस आये है) 'हिम्मते बच्चे, मददे बाप' का प्रत्यक्ष स्वरूप बच्चों ने दिखाया। इसलिए जो भी सेवा के लिए निमित्त बने उन सबको बापदादा मुबारक दे रहे है। अच्छा!

चारो ओर के सर्व फालो फादर करने वाली श्रेष्ठ आत्माएं, सदा डबल सेवा का बैलेस रखने वाले बाप की ब्लैसिग के अधिकारी आत्माओं को, सदा बेहद के बादशाह - ऐसे राजयोगी, सहजयोगी, स्वत: योगी, सदा अनेक बार के विजय के निश्चय और नशे में रहने वाले अति सहयोगी स्नेही बच्चों को बापदादा का याद- प्यार और नमस्ते।

ज़ोन वाइज़ ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

'मैं हर कल्प की पूजा आत्मा हूँ' - ऐसा अनुभव करते हो? अनेक बार पूज्य बने और फिर से पूज्य बन रहे है! पूज्य आत्माएं क्यों बनते हो? क्योंकि जो स्वयं स्वमान में रहते हैं उनको स्वतःही औरों द्वारा मान मिलना है। स्वमान को जानते हो? कितना ऊँच स्वमान है? कितनी भी बड़े स्वमान वाले हो लेकिन वह आपके आगे कुछ भी नहीं है क्योंकि उनका स्वमान हद का है और आपका आत्मिक स्वमान है। आत्मा अविनाशी है तो स्वमान भी अविनाशी है। उनको है देह का मान। देह विनाशी है तो स्वमान भी विनाशी है। कभी कोई प्रेजीडेंट बना या मिनिस्टर बना लेकिन शरीर जायेंगा तो स्वमान भी जायेंगा। फिर प्रेजीडेंट होंगे क्या? और आपका स्वमान क्या है? - श्रेष्ठ आत्मा हो, पूज्य आत्मा हो। आत्मा की स्मृति में रहते हो, इसलिए अविनाशी स्वमान है। आप विनाशी स्वमान की तरफ आकर्षित नहीं हो सकते। अविनाशी स्वमान वाले पूज्य आत्मा बनते है। अभी तक अपनी पूजा देख रहे हो। जब अपने पूज्य स्वरूप को देखते हो तो स्मृति आती है ना कि यह हमारे ही रूप है। चाहे भक्तो ने अपनी-अपनी भावना से रूप दे दिया है लेकिन हो तो आप ही पूज्य आत्माये! जितना ही स्वमान उतना ही फिर निर्मान। स्वमान का अभिमान नहीं है। ऐसे नहीं - हम तो ऊँच बन गये, दूसरे छोटे है या उनके प्रति घृणा भाव हो, यह नहीं होना चाहिए। कैसी भी आत्माये हो लेकिन रहम की दृष्टि से देखेंगे, अभिमान की दृष्टि से नहीं। न अभिमान, न अपमान। अभी ब्राह्मण-जीवन की यह चाल नहीं है। तो दृष्टि बदल गई है ना। अब जीवन ही बदल गई तो दृष्टि तो स्वत: ही बदल गई ना! सृष्टि भी बदल गई। अभी आपकी सृष्टि कौनसी है! आपकी सृष्टि वा संसार बाप ही है। बाप में परिवार तो आ ही जाता है। अभी किसीको को भी देखेंगे तो आत्मिक दृष्टि से, ऊँची दृष्टि से देखेंगे। अभी शरीर की तरफ दृष्टि जा नहीं सकनी। क्योंकि दृष्टि वा नयनो में सदा बाप समाया हुआ है। जिसके नयनो में बाप है वह देह के भान में कैसे जायेंगे? बाप समाया हुआ है या समा रहा है? बाप समाया है तो और कोई समा नहीं सकता। वैसे भी देखो तो ऑख की कमाल है ही बिन्दु से। यह सारा देखना-करना कौन करता है? शरीर के हिसाब से भी बिंदी ही है ना। छोटी-सी बिंदी कमाल करती है। तो देह के नाते से भी छोटी-सी बिंदी कमाल करती है और आत्मिक नाते से बाप बिंदु समाया हुआ है, इसलिए और कोई समा नहीं सकता। ऐसे समझते हो? जब पूज्य आत्माये बन गये तो पूज्य आत्माओं के नयन सदा निर्मल दिखाते है। अभियान या अपमान के नयन नहीं दिखाते। कोई भी देवी वा देवता के नयन निर्मल वा रूहानी होंगे। तो यह नयन किसके है? कभी किसी के प्रति कोई संकल्प भी आये तो याद रखो कि मैं कौन हूँ? मेरे जड़-चित्र भी रूहानी नैनधारी है तो मैं तो चैतन्य कैसा हूँ? लोग अभी तक भी आपकी महिमा में कहते है - सर्वगुण संपन्न, समूर्ण निर्विकारी। तो आप कौन हो? सम्पूर्ण निर्विकारी हो ना! अंशमात्र भी कोई विकार न हो। सदैव यह स्मृति रखो कि मेरे भक्त मुझे इस रूप से याद कर रहे है। चेक करो- जड़ चित्र और चैतन्य-चरित्र में अंतर तो नहीं है? चरित्र से चित्र बने है। संगम पर प्रैक्टिकल चरित्र दिखाया है तब चित्र बने है। अच्छा।

२ सदा अमृतवेले से लेकर रात तक यह कार्य चाहे लौकिक, चाहे अलौकिक.. सब कार्य सहज और सफल हो, उसकी सहज विधि क्या है? कोई भी कर्म करते हो तो पहले 'त्रिकालदर्शी' बन फिर कोई कर्म करो। क्योंकि त्रिकालदर्शी बनकर काम करने से, तीनों कालो का ज्ञान बुद्धि मैं रहने से कोई कर्म नीचे-ऊपर नहीं होगा। वैसे भी ज्ञानी का अर्थ ही है जो आगे-पीछे सोच-समझ कर कर्म करे, कर्म के पहले उसकी रिजल्ट को जाने। ऐसे नहीं - जल्दी-जल्दी जो आया वह कर लिया। उसमें सफलता नहीं होती। पहले परिणाम को सोचो फिर कर्म करो तो सदा श्रेष्ठ परिणाम निकलेगा। श्रेष्ठ परिणाम को ही सफलता कहा जाता है। ऐसे नहीं - बहुत बिज़ी था, जो काम सामने आया वह करना शुरू कर दिया। नहीं। जैसे बापदादा ने श्रीमत दी है कि भोजन करने के पहले  भोग लगाओ, पीछे खाओ। भोग लगाने का कर्म अगर नहीं करते और जल्दी-जल्दी में खा लिया तो परिणाम क्या होगा? याद भूलने से जो ब्रह्मा-भोजन का, अन्न का मन पर प्रभाव पड़ना चाहिए वह नहीं होगा। एक तो प्रभाव नहीं पड़ेगा और दूसरा बाप की श्रीमत न मानने का नुकसान होगा। क्योंकि अवज्ञा हो गई ना। उसका भी उल्टा फल मिलना है। अगर कर्म करने से यह आदत पड़ जाए कि पहले तीनो काल सोचना है, त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित होकर, फिर कर्म करो तो कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं होगा, साधारण नहीं होगा। लौकिक मैं भी सफलता प्राप्त करेंगे और अलौकिक मैं सफलता-ही-सफलता है। तो त्रिकालदर्शी के स्मृति की स्थिति रूपी तख्त पर बैठो, फिर निर्णय करो कि क्या करना है, क्या नहीं करना है, कैसे करना है! फिर कोई भी कर्म फल नहीं देवे - यह हो नहीं सकता। बीज अगर शक्तिशाली होगा तो फल अवश्य मिलेगा। लेकिन जल्दी-जल्दी में कमज़ोर कर्म करते हो तो फल भी थोड़ा-बहुत मिल जाता है, जितना मिलना चाहिए उतना नहीं मिलता, जिनना चाहते हो उतना नहीं मिलता। तो हर कर्म की सफलता का आधार है त्रिकालदर्शी स्थिति, ऐसे नहीं - सिर्फ याद रखो कि मास्टर त्रिकालदर्शी हूँ?. और कर्म करने के समय भूल जाओ। इसे यूज़ करना। इस अभ्यास में कभी भी अलबेले नहीं बनो। यह अभ्यास करो। क्योंकि २१ जन्म के लिए जमा करना है। एक जन्म में २१ जन्म का जमा करना है तो कितना अटेंशन देना पड़ेगा! टेंशन नहीं लेर्किन सदा अटेंशन रखो। अलबेलेपन का अब परिवर्तन करो। दाता दै रहा है तो पुरा लो! देने वाला दे और लेने वाला थोड़ा लेकर खुश हो जाए तो रिजल्ट क्या होगी? फिर नहीं मिलेगा। इसलिए पूरा अटेंशन दो। अच्छा।



22-02-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शिव जयन्ति पर अव्यक्त बापदादा के महावाक्य

आज त्रिमूर्ति शिव बाप हर एक बच्चे के मस्तक पर तीन तिलक देख रहे हैं । सभी बच्चे दिल के उमंग-उत्साह से त्रिमूर्ति शिव जयन्ति मनाने आये है। तो त्रिमूर्ति शिव बाप अर्थात् ज्योतिर्बिंदु बाप बच्चों के मस्तक पर तीन बिन्दियोँ का तिलक देख हर्षित हो रहे हैं । यह तिलक सारे ज्ञान का सार है । इन तीन बिन्दियोँ में सारा ज्ञान-सागर का सार भरा हुआ है । सारे ज्ञान का सार तीन बातों  में है - पढ़ाई आत्मा और ड्रामा अर्थात् रचना। आज का यादगार दिवस भी शिव अर्थात बिन्दु का है । बाप भी बिन्दु, आप भी बिन्दु और रचना अर्थात् ड्रामा भी बिन्दु । तो आप सभी बिन्दु, बिन्दु की जयन्ति मना रहे हो । बिन्दु बन मना रहे हो ना! सारा प्रकृति का खेल भी दो बातों का है - एक बिन्दु का और दूसरा लाइट ज्योति का। बाप को सिर्फ बिन्दु नहीं लेकिन ज्योतिर्बिंदु कहते है । रचना भी ज्योतिर्बिंदु है और आप भी हीरो पार्टधारी ज्योतिर्बिंदु हो, न कि सिर्फ बिन्दु हो । और सारा खेल भी देखो - जो भी कार्य करते है, उसका आधार लाइट है । आज संसार में अगर लाइट फ़ैल हो जाए तो एक सेकण्ड मैं संसार, संसार नहीं लगेगा। जो भी सुख के साधन है उन सबका आधार क्या है? लाइट। रचयिता स्वयं भी लाइट है । आत्मा और परमात्मा की लाइट अविनाशी है। प्रकृति का आधार भी लाइट है लेकिन प्रकृति की लाइट अविनाशी नहीं है । तो सारा खेल बिन्दु और लाइट है । आज के यादगार दिवस को विशेष निराकार रूप से मनाते है । लेकिन आप कैसे मनायेंगे? आप विशेष आत्माओं का मनाना भी विशेष है ना। ऐसा कभी सोचा था कि हम आत्माएं ऐसे पदमापदम भाग्यवान है जो डायरेक्ट त्रिमूर्ति शिव बाप के साथ साकार रूप में जयन्ति मनायेंगे ' कभी स्वपन में भी संकल्प नहीं था। दुनिया वाले यादगार नित्र से जयन्ति मनाते और आप चैतन्य में बाप को अवतरित कर जयन्ति मनाते हो। तो शक्तिशाली कौन हुआ - बाप या आप ? बाप कहते हैं - पहले आप। अगर बच्चे नहीं होते तो बाप आकर क्या करते! इसलिए पहले बाप बच्चों को मुबारक देते है, मन के मुहबत की मुबारक । बाप को दिल में प्रटश कर लिया है, तो दिल में बाप के प्रत्यक्ष करने की मुबारक। बाप को दिल में प्रत्यक्ष कर लिया है, तो दिल में बाप को प्रत्यक्ष करने की मुबारक। साथ-साथ विश्व की सर्व आत्माओं प्रति रहमदिल विश्व-कल्याणकारी की शुभभावना-शुभकामना से विश्व के आगे बाप को प्रत्यक्ष करने की सेवा के उमंग-उत्साह की मुबारक ।

बापदादा सभी बच्चों के उत्साह का उत्सव देख रहा था। सेवा करना अर्थात् उत्साह से उत्सव मनाना। जितनी बड़ी सेवा करते हो बेहद की, उतना ही बेहद का उत्सव मनाते हो। सेवा का अर्थ ही क्या है? सेवा क्यों करते हो? आत्माओं में बाप के परिचय द्वारा उत्साह बढ़ाने के लिए । जब सेवा के प्लान बनाते तो यही उत्साह रहता है ना कि जल्दी-से- जल्दी वंचित आत्माओं को बाप से वर्सा दिलाये, आत्माओं को खुशी की झलक का अनुभव करायें । अभी किसी भी आत्मा को देखते हो - चाहे आज के संसार में कितना भी बड़ा हो, लेकिन हर आत्मा के प्रति देखते ही पहले संकल्प क्या उठता है? यह प्राइम मिनिस्टर है, यह राजा है - यह दिखाई देता है या आत्मा से मिलते हो वा देखते हो? शुभभावना उठती है ना कि यह आत्मा भी बाप से प्राप्ति की अंचली ले लेवे। इस संकल्प से मिलते हो ना । अब यह शुभभावना उत्पन्न होती है तब ही आपकी शुभभावना का फल उस आत्मा को अनुभव करने का बल मिलता है । शुभभावना आपकी है लेकिन आपकी भावना का फल उनको मिल जाता है । क्योंकि आप श्रेष्ठ आत्माओं की शुभभावना के संकल्प मैं बहुत शक्ति है । आप एक एक श्रेष्ठ आत्मा का एकएक शुभसंकल्प वायुमण्डल की सृष्टि रचता है। संकल्प से सृष्टि कहते है ना! यह शुभभावना का शुभसंकल्प चारों ओर के वातावरण अर्थात सृष्टि को बदल देता है । इसलिए आने वाली आत्मा को सब अच्छे-ते-अच्छा अनुभव होता है, न्यारा संसार अनुभव होता है । थोड़े समय के लिए आपके शुभसंकल्प की भावना के फल में वह समझते है कि वह न्यारा और प्यारा स्थान है, न्यारे और प्यारे फ़रिश्ते आत्माएं है । कैसी भी आत्मा हो लेकिन थोड़े समय के पढ़ाई उत्साह में आ जाते है। सेवा का अर्थ क्या हुआ? उत्सव मनाना अर्थात् उत्साह में लाना। कोई भी चाहे स्थूल कर्म करते हो, चाहे वाणी द्वारा, चाहे संकल्प द्वारा करते हो लेकिन ब्राह्मण आत्माओं के हर सेकण्ड, हर कार्य, हर संकल्प, हर बोल उत्सव है क्योंकि उत्साह से करते हो और उत्साह दिलाते हो । इस स्मृति से कभी भी थकावट नहीं होगी, बोझ नहीं लगेगा। माथा भारी नहीं होगा, दिलशिकस्त नहीं होंगे। जब किसको थकावट होती है वा दिल सुस्त होती है तो दुनिया में क्या करते है? कोई-न-कोई मनोरंजन के स्थान पर चले जाते है । कहते है - आज माथा बहुत भारी है, इसलिए थोड़ा मनोरंजन चाहिए । उत्सव का अर्थ ही होता है मौज मनाना। खाओ-पियो मौज करो - यह उत्सव है । ब्राह्मणों को तो हर घड़ी उत्सव है, हर कर्म ही उत्सव है । उत्सव मनाने में थकावट होती है क्या? यहाँ मधुबन में जब मनोरजन का प्रोग्राम करने हो - भल ११ बज जाते हैं तो भी बैठे रहते हो । क्लास में ११ बज जाएँ तो आधा क्लास चला जाता है। मनोरंजन अच्छा लगना है ना ' तो सेवा भी उत्सव है - इस विधि से सेवा करो। स्वयं भी उत्साह में रहो, सेवा भी उत्साह से करो और आत्माओं में भी उत्साह लाओ तो क्या होगा ? जो भी सेवा करेंगे उस द्वारा अन्य आत्माओं का भी उत्साह बढ़ता रहेगा। ऐसा उत्साह हैं? वा सिर्फ मधुबन तक है? वही जाने से फिर सरकमस्टास दिखाई देंगे? उत्साह ऐसी चीज़ है जो उसके आगे कुछ भी नहीं है । जब उत्साह कम हो जाता है तब परिस्थिति बार करती है । उत्साह है तो परिस्थिति वार नहीं करेगी, आपके ऊपर बलिहार जायेंगी ।

आज उत्सव मनाने आने हो ना। शिव जयन्ति को उत्सव कहते है। उत्सव मनाने नहीं आये हो लेकिन 'हर घड़ी उत्सव' है - वह अंडरलाइन करने आये हो। ताकत भी न हो, मानो शरीर में शक्ति नहीं है वा धन की शक्ति की कमी के कारण मन में फील होता है कि वह नहीं हो सकता लेकिन उत्साह ऐसी चीज़ है जो आप मैं अगर उत्साह है तो दूसरे भी उत्साह में आगे बढ़कर के आपके सहयोगी बन जायेंगे । धन की कमी भी होगी तो कहॉ-न-कहॉ से धन को भी उत्साह खींचकर लायेंगा। उत्साह ऐसा चुम्बक है जो धन को भी खीचकर लायेगा। साथियोँ को भी खींचकर लायेगा, सफलता को भी खींचकर लायेगा। जैसे भक्ति में कहते है ना - हिम्मत, उत्साह, धुल को भी धन बना देता है । इतना हो जाता है! उत्साह ऐसी अनुभूति है जो किसी भी आत्मा की कमजोरी के संस्कार का प्रभाव नहीं पड़ सकता । आपका प्रभाव उस पर पड़ेगा उसका प्रभाव आपके ऊपर नहीं आयेगा। जो ख्याल-ख्वाब में भी नहीं होगा वह सहज साकार हो जायेंगा । यह बापदादा का सभी सेवाधारियां को गारण्टी का वरदान है । समझा?

 

बापदादा खुश है - अच्छी लगन से सेवा के प्लैन्स बना रहे हो । संस्कारो को मिलाना अर्थात् सम्पूर्णता को समीप लाना और समय को समीप लाना। बापदादा भी देख रहे है - संस्कार मिलन की रास अच्छी कर रहे थे, अच्छी खुशबू आ रही थी! तो सदा कैसे रहना? उत्सव मनाना है, उत्साह मैं रहना है । खुद न भी कर सको तो दूसरों को उत्साह दिलाओ तो दूसरे का उत्साह आपको भी उत्साह में लायेगा । निमित्त बने डुए बड़े यही काम करते है ना। दूसरों को उत्साह दिलाना अर्थात् स्वयं को उत्साह में लाना। कभी बाई चांस १४ आना उत्साह हो तो दूसरों को १६ आना उत्साह दिलाओ तो आपका भी २ आना उत्साह बढ़ जायेंगा । ब्रह्या बाप की विशेषता क्या रही? कोयले उठाने होंगे तो भी उत्साह से उठवायेंगे, मनोरंजन करेंगे। (कोयले के 35 वेगन आने थे  बापदादा मुरली में कोयले की बात कर रहे थे और थोड़े समय बाद ऐसा समाचार मिल कि आबू रोड में कोयले वेगन पहुँच गई है) अच्छा!

सभी पांडव क्या करेंगे? सदा उत्साह में रहेंगे ना। उत्साह कभी नहीं छोड़ना। अभी का उत्साह आपके जड-चित्रों के आगे जाकर, पहले उत्साह, हिम्मत लेकर फिर कार्य शुरू करते है । इतनी उत्साह भरी आत्माये हो जो आपके जड़-चित्र भी औरों को उत्साह हिम्मत दिला रहे है! पांड्वोका का महावीर का चित्र कितना प्रसिद्ध है! कमज़ोर शक्ति लेने के लिए महावीर के पास जाते हैं! अच्छा!

चारों ओर के सर्व अति श्रेष्ठ भाग्यवान बच्चों को, सदा ज्योतिर्बिंदु बन ज्योतिर्बिंदु बाप को प्रत्यक्ष करने के उमंग- उत्साह में रहने वाले, सदा दिल में बाप की प्रत्यक्षता का झन्डा लहराने वाले, सदा विश्व में बाप की प्रत्यक्षता का झण्डा लहराने वाले - ऐसे हीरे तुल्य बाप की जयन्ति सो बच्चों की जयन्ति की मुबारक हो। सदा मुबारक से उड़ने वाले है और सदा रहेंगे - ऐसे उत्साह में रहने वाले, हर समय उत्सव मनाने वाले और सर्व को उत्साह दिलाने वाले, महान शक्तिशाली आत्माओं को त्रिमूर्ति शिव बाप की याद-चार, मुबारक और नमस्ते ।

डबल विदेशी भाई-बहनों के ग्रुप से मुलाकात

बाप और बच्चों का इतना दिल का सूक्ष्म कनेक्शन हैं जो कोई की ताकत नहीं जो अलग कर सके । सबसे बड़े-ते-बड़ा नशा बच्चों को सदा यही रहता है कि दुनिया बाप को याद करती लेकिन बाप किसको याद करता! बाप को तो फिर भी आत्मायें याद करती लेकिन आप आत्माओं को कौन याद करता! किनना बड़ा नशा है! यह नशा सदा रहता है? कम ज्यादा तो नहीं होता? कभी उड़ते, कभी चढ़ने, कभी चलते.. ऐसे तो नहीं? न पीछे हटने वाले हो, न रुकने वाले हो लेकिन स्पीड चंज हो जाती है। बापदादा सदा बच्चों का खेल देखते रहते हैं - कभी चलना शुरू करते है, फिर क्या होता है? कोई-न-कोई ऐसा सरकमस्टांस बन जाता है, फिर जैसे कोई धक्का देता है तो चल पड़ते है, ऐसे कोई-न-कोई बात ड्रामा अनुसार होती है जो फिर से उड़ती कल्प की ओर ले जाती है । क्योंकि ड्रामानुसार निश्चयबुद्धि है, दिल में संसंकल्प कर लिया है कि बाप मेरा, मैं बाप का', तो ऐसी आत्माओं को स्वत: मदद मिल जाती है । मदद मिलते में कितना समय लगता है? (सेकण्ड) देखो- फोटो निकल रहा है । बाप का कैमरा सेकण्ड में सब निकाल लेता हैं । कुछ भी हो जाए लेकिन 'बाप और सेवा से कभी भी किनारा नहीं करना है ' याद करने में वा पढ़ाई पढ़ने में मन नहीं भी लगे तो भी जबरदस्ती सुनते रहो, योग लगाते रहो -ठीक हो जायेंगे। क्योंकि माया ट्रायल करती है । यह थोड़ा-सा किनारा कर ले तो आ जाऊँ इसके पास। इसलिए कभी किनारा नहीं करना। नियमो को कभी नहीं छोड़ना। ' अपनी पढ़ाई, अमृनवेला, सेवा जो भी दिनचर्या बनी हुई है, उसमें मन नहीं भी लगे लेकिन दिनचर्या में कुछ मिस नहीं करो। भारत में कहते हैं - 'जितना कायदा उतना फायदा। ' तो ये जो कायदे बने हुए है, नियम बने हुए है उसको कभी भी मिस नहीं करना है। देखो, आपके भक्त अभी तक आपका नियम पालन कर रहे हैं। चाहे मंदिर में मन नहीं भी लगे तो भी जायेंगे जरूर। यह किससे सीखे? आप लोगों ने सिखाया ना! सदैव यह अनुभव करो कि जो भी मर्यादायें वा नियम बने है, उसको बनाने वाले हम है। आपने बनाया है या बने हुए मिले है? लां-मेकर्स हो या नहीं? अमृतवेले उठना - यह आपका मन मानता है या बना हुआ है इसलिए इस पर चलते हो - आप स्वयं अनुभव करते, चलते हो या डायरेक्शन या नियम बना हुआ है इसलिए चलते हो? आपका मन मानता है ना! तो जो मन मानता है, वह मन ने ही बनाया ना! कोई मजबूरी से तो नहीं चल रहे हो - करना ही पड़ेगा। सब मन को पंसद है ना? क्योंकि जो खुशी से किया जाता है उसमें बंधन नहीं लगता है। यहाँ बाप ने आदि, मध्य, अंत - तीनों कालों की नालेज दे दी है। कुछ भी करते हो तो तीनों कालों को जान कर के और उसी खुशी से करते हो। बाप देखते है कि कमाल करने वाले बच्चे हैं । बाप से प्यार अटूट है इसलिए कोई भी बात होती है तो भी उड़ते रहते है। बाप से प्यार में सभी फुल पास हो। पढाई में नम्बरवार हो लेकिन प्यार में नम्बरवन हो। सेवा भी अच्छी करते है, लेकिन कभी-कभी थोड़ा खेल दिखाते है । जैसे बाप से नम्बरवन प्यार है, ऐसे मुरली से भी प्यार है? जब से आये हो तब से कितनी मुरलियाँ मिस हुई होंगी? कभी कोई ऐसे बहाने से क्लास मिस किया है? जैसे बाप को याद करना मिस नहीं कर सकते, ऐसे पढ़ाई मिस न हो। इसमें भी नम्बरवन होना है। बाप के रूप में याद, शिक्षक के रूप में पढ़ाई और सतगुरु के रूप में प्राप्त वरदान कार्य में लगाना - यह तीनों में नम्बरवन चाहिए। वरदान तो सबको मिलते है ना लेकिन समय पर वरदान को कार्य में लगाना - इसको कहते है वरदान से लाभ लेना। तो यह तीनों ही बाते चेक करना कि आदि से अब तक इन तीनों बातों  में कितना पास रहे, तब विजय माला के मणके बनेंगे । अच्छा!

बापदादा बच्चों के निश्चय और उमंग को देखकर खुश है। बापदादा एकएक की विशेषता देख रहे हैं । बापदादा जब देखते है कि कितना मुहब्बत से आगे बढ़ रहे है, मेहनत को - मेहनत नहीं समझते हैं, मुहब्बत से चल रहे है - तो खुश होते है। एकस्व की विशेषता की लिस्ट बापदादा के पास है । समझा? अच्छा!

दूसरा ग्रुप

सदा उड़ती कला में उड़ने वाले फरिश्ता अपने को समझते हो? फरिश्ते कहाँ रहते है- फर्श पर या अर्श पर? आप कहाँ रहते हो? अर्श पर रहते हो या नीचे रहते हो? ऊपर से नीचे आते हो ना। क्योंकि आप सभी अवतार हो, अवतरित हो जैसे बाप अवतरित हुए है आप श्रेष्ठ आत्मायें  भी अवतरित हुई हो, ऊपर से नीचे कर्म के लिए आती हो। रहने वाले सूक्ष्मवतन या मूलवतन में हो। तो अवतार किसलिए नीचे आते है? मैसेज देने के लिए नीचे आते है लेकिन स्थिति सदा ऊँची रहती है। देहभान रूपी मिटटी, पृथ्वी पर नहीं रहते, ऊपर रहते है। तो आप फरिश्ता के बुद्धि रूपी पाँव कभी धरती पर टच तो नहीं होते? वैसे भी जो सिकीलधे होते है, माँ-बाप उन्हों को धरती पर पाँव रखने नहीं देते। तो आप सभी परमात्मा के प्यारे हो, सिकीलधे हो, लाड़ले हो - तो धरती पर कैसे पाँव रखेंगे? पहले के जो राजायें होते थे वह दूसरों की धरती पर कभी पाँव नहीं रखते थे, अपनी धरती पर पाँव रखते थे। तो आप भी पुरानी दुनिया में क्या पाँव रखेंगे? अपना राज्य जब आयेगा तब राज्य करना। ऐसे रहते हो ना? कभी मिटटी में पांव रखने की दिल तो नहीं होती? कितना जन्म धरती की टेस्ट की? अभी तो अपना घर, अपना राज्य - दोनों याद है ना? तो सदा यह स्मृति रहे कि हम 'फरिश्ते' है। फरिश्ता सदैव लाइट में दिखाते है, चमकता हुआ दिखाते हैं। आप भी चमकते हुए सितारे हो, फरिश्ते हो- यह नशा सदा रहता है या कभी-कभी रहता है? जब एक बार अनुभव करके देख लिया कि यह सब असार संसार है, यह विष है। अनुभव कर लिया तो अनुभवी कभी धोखा नहीं खाते। तो यह क्वेश्चन अपने आपसे पूछो - क्या है और कौन है? बाप तो सभी बच्चों के प्रति यही समझते है कि एक-एक बच्चा बाप का अति प्यारा और दुनिया से न्यारा है। आप बच्चों के लिए भी प्यारे-ते-प्यारा बाप है। बाप के सिवाए और कोई पास है क्या? नहीं तो बाप का क्वेश्चन उठता है कि बताओ वह कौन है? बाप भी देखे ना - कौन है वह जो बच्चों को खिंच लेता है। तो सदा याद रखना कि हम फरिश्ता अवतरित हुई आत्मायें है, ब्राह्मण-आत्मायें है। शूद्र आत्मा तो खत्म हो गई। उसे मार भी दिया गया, जला भी दिया। शुद्रपन के संसार का अंश भी नहीं। अभी नई ब्राह्मण-आत्मा, अवतरित हुई आत्मा है - यह खुशी है ना? शिव-जयन्ति सिर्फ बाप की नहीं, आपकी भी है। बाप - ब्रह्मा, ब्राह्मण सबके साथ अवतरित होते है। तो आपका भी बर्थ-डे है। बार-बार अपने से पूछो, चेक करो कि फरिश्ता हूँ। फरिश्ता अर्थात् डबल लाइट। सब बोझ छोड़ दिया ना या कभी-कभी बोझ उठाने की दिल होती है? स्थूल में भी बोझ का काम होता है तो माताएं कहती है - भाई ही करे। लेकिन बुद्धि का बोझ तो नहीं है? स्थूल बोझ के लिए तो ना कर देती हो, बुद्धि का बोझ तो नहीं उठाती हो? हल्का रहना अच्छा है या बोझ उठाना अच्छा है? जब बोझ उठाने वाला उठाने के लिए तैयार है तो आप क्यों उठाते? डबल लाइट रहो और उड़ते रहो। अच्छा।

बापदादा ने मिलन-मुलाकात के पच्छात स्टेज पर खड़े होकर झण्डा लहराया तथा सभी बच्चों को जन्मदिन की मुबारक दी।

बापदादा के साथ-साथ लवली और लक्की बच्चों का भी दिव्य जन्म-दिन है। इसलिए ऐसे लवली और लक्की बच्चों को मुबारक हो, मुबारक हो, मुबारक हो! सबसे ज्यादा मुबारक है लास्ट सो फास्ट जाने वालों को। छोटे बच्चे सदा ही विशेष प्यारे भी होते है और लड़ले भी।

विदाई के समय

आज बापदादा और अनेक बच्चों के जन्म-दिवस की पद्मगुणा मुबारक हो। चारों ओर के बच्चों के जन्म-दिवस की पद्मगुणा मुबारक हो। चारों ओर के बच्चों के दिल का याद-प्यार और साथ-साथ स्थूल यादगार स्नेह-भरे पत्र और कार्ड्स मुबारक के पाये। सबके दिल की आवाज़ बाप के पास पहुँची। दिलाराम बाप सभी बड़ी दिल वाले बच्चों को बड़ी दिल से बहुत-बहुत-बहुत याद-प्यार देते हैं। पद्मगुणा कहना भी बच्चों के स्वमान के आगे कुछ नहीं है, इसलिए डायमण्ड नाइट की, डायमण्ड वर्से से मुबारक हो। सभी को बाद-प्यार और सदा फरिश्ता बन उड़ते रहने की मुबारक हो। अच्छा! डायमण्ड मार्निग।



01-03-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्राह्मण जीवन का फाउंडेशन – दिव्य बुध्धि और रूहानी द्रष्टि

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले –

आज दिव्य बुद्धि विधाता और रूहानी दृष्टि दाता बापदादा चारों ओर के दिव्य बुद्धि प्राप्त करने वाले बच्चों को देख रहे हैं। हर एक ब्राह्मण बच्चे को यह दोनों वरदान ब्राह्मण जन्म से ही प्राप्त है। दिव्य बुद्धि और रूहानी दृष्टि - यह बर्थ राइट में सबको मिले हुए है । यह वरदान ब्राह्मण-जीवन का फाउण्डेशन है । जीवन परिवर्तन वा मरजीवा जन्म, ब्राह्मण-जीवन इन दोनों प्राप्तियोँ को ही कहा जाता है। जीवन और वर्तमान ब्राह्मण-जीवन - दोनों का अंतर इन दो बातों का ही विशेष है । इन दोनों बातों के ऊपर संगममुगी पुरुषार्थ का नम्बर बनना है । इन दो बातों को सदा हर संकल्प में, बोल में, कर्म में जितना जो यूज करता है उतना ही नम्बर आगे लेता है। रूहानी दृष्टि, दृष्टि से वृत्ति, कृति स्वतः ही बदल जाती है । दिव्य बुद्धि द्वारा स्वयं प्रति, सेवा प्रति ब्राह्मण-परिवार के सम्बंध-सम्पर्क प्रति सदा और स्वतः हर बात के लिए निर्णय यथार्थ होता है और जहाँ दिव्य बुद्धि द्वारा यथार्थ निर्णय होता है तो निर्णय के आधार ही स्वयं, सेवा, सप्तन्ध-समर्क यथार्थ शक्तिशाली बन जाना है । मूल बात है ही 'दिव्य दृष्टि और दिव्य बुद्धि ।'

आज बापदा सभी बच्चों की दिव्य बुद्धि को चेक कर रहे थे । सबसे पहली दिव्य बुद्धि की परख - वह सदा बाप को, आपको (स्वयं को) और हर ब्राह्मण-आत्मा को जो है, जैसा है वैसे जानकर उस रूप में बाप से जितना लेना चाहिए वह अधिकार सदा प्राप्त करता रहता है । जो बापने बनाया है, सेवा के निमित्त रखा है, जो बाप ने ब्राह्मण-जीवन की विशेषताएँ वा दिव्यगुण दिये हैं, जैसा निमित्त बनाया है - ऐसे अपने-आपको उस प्रमाण अपने को आगे बढ़ाता है। साथ-साथ हर ब्राह्मण आत्मा के साथ, जो आत्मा जैसी विशेषता वाली है, जिस गुण वाली है, जिस सेवा के योग्य है, जैसे पुरुषार्थ के गति में चलने वाली है - हर एक को, जो है, जैसा है वैसे जान उस आत्मा से, उसी विधि से सम्पर्क में आना वा आगे बढ़ाना - इसको कहते हैं बाप को, आप (स्वयं) को और ब्राह्मण-आत्माओं को जो है, जैसा है वैसे जान आगे बढ़ाना। यह है दिव्य बुद्धि की पहली परख।

दिव्य बुद्धि अर्थात् होलीहँस बुद्धि । हँस अर्थात् स्वच्छता, क्षीर और नीर को या मोती और पत्थर को पहचान मोती ग्रहण करने वाले। जानते है कि यह कंकड़ है, यह मोती है लेकिन कंकड़ को धारण नहीं करते । इसलिए होलीहँस संगमयुगी ज्ञान-स्वरूप विद्या देवी ' 'सरस्वती '' का वाहन है । आप सभी ज्ञान-स्वरूप हो, इसलिए विद्यापति या विद्या देवी हो। यह वाहन दिव्य बुद्धि की निशानी है । आप सभी ब्राह्मण, बुद्धियोग द्वारा तीनों लोकों की सैर करते हो। बुद्धि को भी वाहन कहते है । वह दिव्य बुद्धि का वाहन सभी वाहन से तीव्रगति वाला है । दिव्य बुद्धि को बुद्धिबल भी कहा जाता है। क्योंकि बुद्धिबल द्वारा ही बाप से सर्वशक्तियां कैच कर सकते हो । इसलिए बुद्धिबल कहा जाता है। जैसे साइंस-बल है। साइंस-बल कितनी हद की कमाल दिखाते है! कई बातें जो आज मानव को असम्भव लगती है वह सम्भव कर दिखाते है। लेकिन यह विनाशी बल है। साइंस बुद्धिबल है लेकिन दिव्य बुद्धिबल नहीं है, संसारी बुद्धि है, इसलिए इस संसार के प्रति, प्रकृति के प्रति ही सोच सकते है और कर सकते है। दिव्य बुद्धिबल मास्टर सर्वशक्तिवान बनाता है, परमात्म-पहचान, परमात्म-मिलन, परमात्म-प्राप्ति की अनुभूति कराता है। दिव्य बुद्धि जो चाहो, जैसे चाहो, असंभव को संभव करने वाली है । दिव्य बुद्धि द्वारा हर कर्म में परमात्म-प्योर (पवित्र) टचिंग अनुभव कर हर कर्म में सफलता का अनुभव कर सकते है । दिव्य बुद्धि कोई भी माया के वार को हार खिला सकती है । जहाँ परमात्म-टचिंग है, प्योर- टचिंग है, मिक्सचर नहीं, वहां माया की टचिंग अथवा वार असम्मव है । माया का आना तो छोड़ो लेकिन टच भी नहीं कर सकती । माया दिव्य बुद्धि के आगे सफलता की वरमाला बन जाती है, माया नहीं रहती। जैसे द्वापर के रजोगुणी ऋषि-मुनि आत्माएं शेर को भी अपनी शक्ति से शांत कर देते थे ना। शेर साथी बन जाता, वाहन बन जाता, खिलौना बन जाता - परिवर्तन हो जाता है ना। तो आप सतोप्रधान, मास्टर सर्वशक्तिवान, दिव्य-बुद्धि- वरदानी - उन्हों के आगे माना क्या है, माना दुश्मन से परिवर्तन नहीं हो सकती? दिव्य बुद्धि बल अति श्रेष्ठ बल है । सिर्फ इसको यूज़ करो। जैसा समय उस विधि से यूज़ करो तो सर्व सिद्धियाँ आपकी हथेली है। सिद्धि कोई बड़ी चीज़ नहीं है, सिर्फ दिव्य बुद्धि की सफाई है । जैसे आजकल के जादूगर हाथ की सफाई दिखाने है ना । वह दिव्य बुद्धि की सफाई सर्व सिद्धियोँ को हथेली में कर देती है । आप सभी ब्राह्मण आत्माओं ने सर्व सिद्धियाँ प्राप्त की है लेकिन दिव्य सिद्धियाँ साधारण नहीं। तब आपकी मूर्तिके द्रारा आज तक भी भक्त सिद्धि प्राप्त करने के लिए जाते हैं । जब सिद्धि-स्वरूप बने हैं तब तो भक्त आपसे माँगने आते हैं । तो समझा दिव्य बुद्धि की क्या कमाल है! स्पष्ट हुई ना दिव्य बुद्धि की कमाल। लेकिन आज क्या देखा? क्या देखा होगा ' टीचर्स सुनाओ।

टीचर्स तो बाप समान मास्टर शिक्षक हो गई ना । टीचर अर्थात् हर संकल्प, बोल और हर सेकण्ड सेवा में उपस्थित - ऐसे सेवाधारी को ही बापदादा टीचर कहते हैं । हर समय तो वाणी द्वारा सेवा नहीं कर सकते हो। थक जायेंगे ना। तेकिन अपने फीचर्स द्वारा हर समय सेवा कर सकते हो। इसमें थकावट की बात नहीं है । यह तो कर सकते हैं ना, टीचर्स बोलने की सेवा तो यथाशक्ति समय प्रमाण ही करेंगे लेकिन फ़रिश्ता फ्यूचरके फीचर्स हों । संगमयुग का फ्यूचर फ़रिश्ता है, वह फीचर्स में दिखाई दे तो कितनी अच्छी सेवा होगी? जब जड-चित्र फीचर्स द्वारा अंतिम जन्म तक भी सेवा कर रहे हैं, तो आप चैतन्य श्रेष्ठ आत्माएं अपने फीचर्स द्रारा सेवा सहज कर सकते हो। आपके फीचर्स में सदा सुख की, शान्ति की, खुशी की झलक हो । कैसी भी दुखी, अशांत आत्मा, परेशान आत्मा आपके फीचर्स द्वारा अपना श्रेष्ठ फ्यूचर बना सकती है । ऐसा अनुभव है ना। अमृतवेले अपने फीचर्स को चेक करो। जैसे शरीर के फीचर्स को चेक करने हो ना, वैसे फ़रिश्ता फीचर्स में खुशी का, शान्ति का, सुख का शृंगार ठीक है - यह चेक करो तो स्वत: और सहज सेवा होती रहेगी। सहज लगता है ना टीचर्स को ? यह तो १२ घण्टा ही सेवा कर सकते हो । यह वाणी की सेवा तो दो-चार घण्टा ही करेंगे। प्लेनिंग का काम, भाषण का काम करेंगे तो थक जायेंगे। इसमें तो थकने की बात ही नहीं। नेचुरल है ना। वैसे अनुभवी सभी हो लेकिन... बापदादा ने देखा फ़ोरिन में कुत्ते और बिल्ली बहुत पालते हैं। ऐसे खिलौने भी यही लाते हैं। तो अनुभव बहुत अच्छा करते हो लेकिन कभी कुत्ता आ जाता, कभी कोई बिल्ली आ जाती है। उसको निकालने में टाइम लगा देते हो। लेकिन आज सुनाया ना कि माया आपकी सफलता की माला बन जायेंगी। सभी निमित्त सेवाधारी के गले में माला पडी हुई है । सफलता की माला है वा कभी-कभी गले में माला होते भी दिखाई नहीं देती है? बाहर ढूँढते रहते कि सफलता मिले। जैसे रानी की कहानी सुनाते हैं ना - गले में हार होते हुए भी बाहर ढूँढती रही। ऐसे तो नहीं करते हो ना । सफलता हर ब्राह्मण-आत्मा का अधिकार है। सभी टीचर्स सफलतामूर्त हो ना, कि पुरुषार्थीमूर्त, मेहनतमूर्त हो? पुरुषार्थ भी सहज पुरुषार्थ, मेहनत वाला नहीं। यथार्थ पुरुषार्थ की परिभाषा ही है कि नेचुरल अटेन्शन। कई कहते हैं - अटेन्शन रखना है ना। लेकिन अटेन्शन, टेन्शन में बदल जाती है, यह पता नहीं पड़ता। नेचुरल अटेन्शन अर्थात् यथार्थ पुरुषार्थी।

 

टीचर्स से बापदादा का प्यार है, इसलिए मेहनत करने नहीं देते है । दिल का प्यार तो यही होता है ना। अच्छा, फिर दूसरी बार सुनायेंगे कि और क्या-क्या देखा! थोड़ा-थोड़ा सुनायेंगे। सबके अंदर अपना चित्र तो आ रहा है ।

देश-विदेश में सेवा की धूमधाम अच्छी है । भारत की कोन्फेरेंस भी बहुत अच्छी सफल रही। सफलता की निशानी है - सफलता की खुशबू पर आने वाली आत्माएं अपने उमंग-उत्साह से संख्या में बढ़ती जाती है। अच्छे की निशानी यह है कि सबके अंदर देखने-सुनने-पाने की इच्छा बढ़ रही है। यह है अच्छे की निशानी। तो यह नहीं सोचो - संख्या कम होगी । अगर अच्छा करते हो तो इच्छा बढ़ेगी, संख्या तो बढ़ेगी। चाहे फ़ोरिन की रिट्रीट में, चाहे कोन्फेरेंस में - दोनों की रिजल्ट दिन-प्रतिदिन अच्छे-ते-अच्छी दिखाई दे रही है। सबसे अच्छी रिजल्ट यह है कि पहले जो फ़ोरिन में कहते थे कि ब्रह्माकुमारियोँ के नाम से कोई आयेगा नहीं । ' 'अभी तो डायरेक्ट ब्रह्माकुमारियोँ के आश्रम में रिट्रीट करने जा रहे हैं, राजयोग के लिए जा रहे हैं '' यह समझते हैं । तो यह है परदे के बाहर आये, घूँघट खोला है । मधुबन निवासी वा सेवाधारी सभी ने चाहे भारत के अनेक स्थानो से आकर सेवा की, मधुबन निवासी वा चारों ओर के सेवाधारियोँ ने स्नेह से, बातों को न देख, आराम को न देख, अच्छी अथक सेवा की। इसलिए बापदादा चारों ओर की अथक सेवा की सफलता को प्राप्त करने वाली विशेष बच्चों को सेवा की मुबारक, दिल की मुबारक दे रहे हैं। आवाज़ गूँजती हुई चारों ओर फैल रही है । अच्छा –

सर्व दिव्य बुद्धि रूहानी वरदानी आत्माएं, सदा बुद्धि-बल को समय प्रमाण, कार्य प्रमाण यूज करने वाली ज्ञान-स्वरूप आत्माओं को, सदा अपने फरिश्ते फीचर्स द्वारा अखण्ड सेवा करने वाले स्वत: सहज पुरुषार्थी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

डबल विदेशी भाई-बहनों के अलग-अलग ग्रुप से

अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

१. सभी अपने श्रेष्ठ भाग्य को देख हर्षित रहते हो? चाहे और कितनी भी आये लेकिन आपका भाग्य तो सदा है ही। आप उन्हों को आगे करके भी आगे रहेंगे। क्योंकि आगे करने वाले स्वत: ही आगे रहते है । औरों को आगे रखने से आपका पुण्य जमा हो जाता है। तो आगे बढ़ गये ना! सदा यह लक्ष्य हर कदम में हो कि आगे बढ़ना और बढ़ाना है। जैसे बाप ने बच्चों को आगे किया, स्वयं बैकबोन रहा लेकिन आगे बच्चों को किया। तो फालो फादर करने वाले हो ना! जितना यहाँ बाप को फालो करते हो उतना ही नम्बरवार विश्व के राज्य तख्त पर भी नम्बरवार फालो करेंगे। तख्त लेना है या नख्तनशीन को देखना है ' (बैठना है) सतयुग में तो आठ बेठेंगे, फिर क्या करेंगे? थोड़ा समय टेस्ट करेंगे । जब विश्व-महाराजन अपने महल में जायेंगा तो आप बैठकर देखेंगे । फिर क्या करेंगे? जितना इस समय सदा बाप के साथ खाते-पीते रहते, खेलते, पढाई करते उतना ही वहाँ साथ रहते । तो ब्रह्मा बाप से बहुत प्यार है ना! बापदादा को भी खुशी है कि ब्रह्मा बाप के लाड़ले ब्रह्माकुमार और कुमारियॉ है! ब्रह्मा बाप के साथ अनेक जन्म समीप रहेंगे, साथ रहेंगे। २१ जन्म की तो गारण्टी है - भिन्न नाम-रूप से ब्रह्मा की आत्मा के साथ सम्बन्ध में रहेंगे । यह दिल मैं आता है या सुना है इसलिए कहते हो है फीलिंग आती है? जितना समीपताकी स्मृति रहती है उतना नेचुरल नशा, निश्चय स्वत: रहेगा। दिल से सदा यह अनुभव करो कि अनेक बार बाप के साथी बने है, अभी भी हैं और अनेक बार बनते रहेंगे । बच्चों का अविनाशी पुरुषार्थ देख बापदादा को विशेष खुशी होती है । सदैव मॉ-बाप और परिवार का छोटे बच्चों के ऊपर विशेष प्यार होता है और सभी का प्यार ही उन्हों को बढ़ाता है । बापदादा सदा देखते रहते हैं कि कौन-सा बच्चा कितना आगे बढ़ रहा है और कितनी सेवा में वृद्धि कर रहा है! तो सदा यही वरदान याद रखना कि सदा निरंतर और नेचुरल पुरुषार्थ हो। इस वर्ष इसी वरदान को स्मृति में रख स्मृतिस्वरूप बनना। हर एक समझे कि यह वरदान मेरा वरदान है! अच्छा!

 

२ सदा अपने दिल में बाप के गुणों  के गीत गाते रहते हो ना! सभी को यह गीत गाना आता है? ब्राह्मण बने और यह गीत ऑटोमैटिक बजता रहता है, यह कितना मीठा गीत है! खुशी का गीत है, दुःख या वियोग का गीत नहीं है । योगयुक्त होने का यह गीत है। योगी आत्मा ही वह गीत गा सकती है, दुखी आत्मा नहीं गा सकती । गीत है ही क्या - 'वाह बाबा वाह और वाह मैं श्रेष्ठ आत्मा वाह, वाह ड्रामा वाह। ' तो 'वाह-वाह' का गीत है, 'हाय-हाय' का नहीं। पहले थे 'हाय-हाय' के गीत, अभी है 'वाह-वाह' के गीत। कुछ भी हो जाए लेकिन आपके दिल से वाह' निकलेगा 'हाय' नहीं। दुनिया जिस बात को 'हाय-हाय' कहनी, आपके लिए वही बात 'वाह-वाह ' है । तो सभी यह गीत गाने हो ना! यह दिल के गीत है, मुख के नहीं। कोई भी बात होती है तो यह ज्ञान है कि नथिग न्यू, हर सीन अनेक बार रिपीट की है। नथिग न्यू की स्मृति से कभी भी हलचल में नहीं आ सकते, सदा ही अचल अटल रहेंगे । कोई नई बात होती है तो आश्वर्य से निकलता है - यह क्या, ऐसा होता है क्या? लेकिन नथिग न्यू है तो 'क्या' और क्यों' का क्वेक्वेश्चन नहीं, फुलस्टॉप आ जाता है । तो फुलस्टॉप वाले हो या स्वेसुन वाले हो या केखन मार्क वाले हो? सबसे सहज बिंदी होती है । बच्चों को भी हाथ में पेन्सिल देंगे तो पहले बिंदी लगायेगा। तो फुलस्टॉप बिंदी है । क्वेश्चन मार्क मुश्किल होता है। जो फुलस्टॉप देना जानते है वह फुल पास होते हैं। तो फुल पास होने वाले हो या धक्के से होने वाले हो? होना है तो फुल । धक्के से पास होने वाले को पास नहीं कहेंगे । अच्छा! कहाँ भी रहते आप सबका मन कहाँ रहता है? सेवा के निमित्त पत्र अलग- अलग स्थानों पर रहते हो लेकिन मन तो मधुबन में रहता है ना। मधुबन अर्थात् मधुरता वाले हो ना। या कभी बच्चों के ऊपर क्रोध करते हो? पाण्डव कभी दफ्तर में क्रोध करते हो? काम-काज में क्रोध करते हो या मधुर रहते हो माताएं कभी किसीके ऊपर क्रोध तो नहीं करती - चाहे बच्चों पर चाहे आपस में बड़ो से क्रोध तो नहीं करते ' माताओं को क्रोध आता है? (बच्चों पर कभी-कभी आता है) तो उनको बच्चे नहीं समझो । बच्चे माना ही बेसमझ। बड़े तो नहीं है ना, बच्चे हैं। बच्चे कहने से कभी नहीं बदलते। कहने से सिर्फ दबते है, बदलते नहीं। आप आज उनको कहेंगे और कल वे दूसरों को कहेंगे। तो सिखाते हो। परिवर्तन नहीं लाते हो लेकिन सिखाते हो। कहाँ तक दबेगें । एक घण्टा दबकर बैठैगे फिर वैसे-के-वैसे। इसलिए कैसा भी बच्चा हो, अन्जान हो, चाहे बड़ा भी है लेकिन ज्ञान से उस समय अन्जान है ना! अन्जान के ऊपर कभी क्रोध नहीं किया जाता, रहम किया जाता है। तो फालो फाधर करो। बापदादा कभी गुस्सा करते हैं क्या? आप लोग गलतियाँ करते हो, बार-बार भूल करते हो, विस्मृति में तो आते हो ना! तो बाप गुस्सा करता है क्या ? तो फिर आप क्यों करते हो? बाप के आगे तो आप सब बडे-बड़े भी बच्चे हैं ना! जैसे बाप रहम का सागर है ऐसे आप मास्टर हो। सदा शुभ-भावना, शुभ-कामना से परिवर्तन करो । बाप ने परिवर्तन किया - शुभ-भावना रखी कि यह श्रेष्ठ आत्माएं है, ब्राह्मण-आत्माएं है । तो परिवर्तन हो गया ना । तो फालो फाधर करो। पहले अपने को देखो मैं कितनी भूल करती हूँ फिर बाप क्या करता है उस जगह पर ठहर कर देखो, तो कभी क्रोध नहीं आयेगा। समझा । शुभ-भावना, शुभ-कामना की दृष्टि से स्वयं भी संतुष्ट रहेंगे। अनुभव है ना! संतुष्ट रहना ही संतुष्ट करना है । कुछ भी हो जाए, कितना भी कोई हिलाने की कोशिश करे लेकिन संतुष्ट रहना है और करना है - यह सदा स्मृति रहे । अच्छा तो यही लगता है ना! संतुष्ट रहनेवाला सदा मनोरंजन में रहेगा। तो यह वरदान याद रखना। ब्राह्मण अर्थात् संतुष्ट । असंतुष्टता ब्राह्मण-जीवन नहीं है । अच्छा!

 

३. सभी अमूल्य रत्न हो। कितने अमूल्य हो? इस दुनिया में ऐसा शब्द नहीं जो आपको कहे! बहुत श्रेष्ठ रत्न हो, इसलिए द्वापर से जब आपके मंदिर बनते है तो उसमे रत्न जड़ते है, जड-चित्रों को भी रत्नों से सजाते है। तो जब जड़-चित्र इतने अमूल्य बने तो चैतन्य में कितने श्रेष्ठ हो, अमूल्य हो। और अपने राज्य में जब होंगे तो यह रत्न क्या होंगे! जैसे यहाँ पत्थर सजाते हो वैसे वही रत्न-जड़ित महल होंगे। याद है अपने राज्य में क्या-क्या किया था? अनगिनत बार की बात याद नहीं है! अपने वर्तमान समय को ही देखो तो यह जीवन कौड़ी से क्या बन गई है? हीरे तुल्य जीवन है ना! यह हीरे-रत्न आपके लिए अनगिनत हो जायेंगे । सदा अपने वर्तमान श्रेष्ठ जीवन के आधार पर भविष्य सोचो कि कर्म का फल क्या मिलेगा, कितना शक्तिशाली कर्म रूपी बीज डाल रहे हो। तो फल भी अच्छा मिलेगा ना! इससे अच्छा फल और किसी को मिल नहीं सकता। यह नशा रहता है ना! अच्छा!

सभी बिजी रहते हो ना । जो बिजी होता है उसके पास माया नहीं आती। क्योंकि आपके पास उसे रिसीव करने का टाइम ही नहीं है। तो इतने बिजी रहते हो या कभी- कभी रिसीव कर लेते हो? ब्राह्मण बने ही क्यो? बिजी रहते के लिए ना। बापदादा हँसी में कहते है कि बिजी रहने वाले ही बडे-ते-बडे बिजनिसमैन हैं। सारे दिन में कितना बड़ा बिजनेस करते हो! जानते हो हिसाब? हिसाब रखना आता है? हर कदमो में पढ़ाई की कमाई है। कदम मैं पदम् - सारे कल्प में ऐसा बिजनेस कोई नहीं कर सकता। तो जितना जमा होता है उस जमा की खुशी होती है । सबसे ज्यादा खुशी किसको रहती है? नशे से कहो - 'हम नहीं खुश होंगे तो कौन होगा!' यह नशा भी हो किन्तु निर्माण। जैसे अच्छे वृक्ष की निशानी है - फल वाला होगा लेकिन झुका होगा। ऐसा नशा है? तो दोनों साथ-साथ हो । आप सबकी नेचुरल जीवन ही यह हो गई है - किसी को भी देखेंगे तो उसी स्मृति से देखेंगे कि यह एक ही परिवार की आत्माएं है । इसलिए नुकसान वाला नशा नहीं है । हर आत्मा के प्रति दिल का प्यार स्वत: ही इमर्ज होता हें । कभी किसी के प्रति घृणा नहीं आ सकती । कभी कोई गाली देवे तो भी घृणा नहीं आ सकती, क्वेश्चन नहीं उठ सकता। जहाँ क्वेश्चन मार्क होगा वही हलचल जरूर होगी। फुलस्टॉप लगाने वाले फुल पास होते है। फुलस्टॉप वही लगा सकते है - जिनके पास शक्तियो का फुलस्टॉक हो। अच्छा -



07-03-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


रूलिंग तथा कंट्रोलिंग पावर से स्वराज्य की प्राप्ति

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले:-

आज बच्चों के स्नेही बापदादा हर एक बच्चे को विशेष दो बातों में चेक कर रहे थे। स्नेह का प्रत्यक्ष स्वरुप बच्चों को सम्पन्न और सम्पूर्ण बनाना है। हर एक में रूलिंग पावर और कंट्रोलिंग पावर कहाँ तक आई है - आज यह देख रहे थे। जैसे आत्मा की स्थूल कर्मेंन्द्रियाँ आत्मा के कंट्रोल से चलती है, जब चाहे, जैसे चाहे और जहाँ चाहे वैसे चला सकते हैं और चलाते रहते हैं। कंट्रोलिंग पावर भी है। जैसे हाथ-पांव स्थूल शक्तियाँ हैं ऐसे मन-बुद्धि संस्कार आत्मा की सूक्ष्म शक्तियाँ हैं। सूक्ष्म शक्तियों के ऊपर कंट्रोल करने की पावर अर्थात् मन-बुद्धि को, संस्कारों को जब चाहें, जहाँ चाहे, जैसे चाहें, जितना समय चाहें - ऐसे कंट्रोलिंग पावर, रूलिंग पावर आई है? क्योंकि इस ब्राह्मण-जीवन में मास्टर आलमाइटी अथॉरिटी बनते हो। इस समय की प्राप्ति सारा कल्प राज्य रूप और पुजारी के रूप में चलती रहती है। जितना ही आधा कल्प विश्व की राज्य-सत्ता प्राप्त करते हो, उस अनुसार ही जितना शक्तिशाली राज्य पद वा पूज्य पद मिलता है, उतना ही भक्ति-मार्ग में भी श्रेष्ठ पुजारी बनते हो। भक्ति में भी श्रेष्ठ आत्मा की मन-बुद्धि-संस्कारों के ऊपर कंट्रोलिंग पावर रहती है। भक्तों में भी नंबरवार शक्तिशाली भक्त बनते हैं। अर्थात् जिस इष्ट की भक्ति करने चाहें, जितना समय चाहें, जिस विधि से करने चाहें - ऐसी भक्ति का फल, भक्ति की विधि प्रमाण संतुष्टता, एकाग्रता, शक्ति और खुशी को प्राप्त करता है। लेकिन राज्य-पद और भक्ति की शक्ति की प्राप्ति का आधार यह ब्राह्मण जन्म है। तो इस संगमुयग का छोटा-सा एक जन्म सारे कल्प के सर्व जन्मों का आधार है! जैसे राज्य करने में विशेष बनते हो वैसे ही भक्त भी विशेष बनते हो, साधारण नहीं। भक्त-माला वाले भक्त अलग हैं लेकिन आप आपेही पूज्य आपेही पुजारी आत्माओं की भक्ति भी विशेष है। तो आप बापदादा बच्चों के इस मूल आधार जन्म को देख रहे थे। आदि से अब तक ब्राह्मण-जीवन में रूलिंग पावर, कंट्रोलिंग पावर सदा और कितनी परसेन्टेज में रही है। इसमें भी पहले अपनी सूक्ष्म शक्तियों की रिजल्ट को चेक करो। रिजल्ट में क्या दिखाई देता है? इस विशेष तीन शक्तियों - ``मन-बुद्धि-संस्कार'' पर कंट्रोल हो तो इसको ही स्वराज्य अधिकारी कहा जाता है। तो यह सूक्ष्म शक्तियाँ ही स्थूल कर्मेंन्द्रियों को संयम और नियम में चला सकती हैं। रिजल्ट क्या देखी? जब, जहाँ, और जैसे - इन तीनों बातों में अभी यथाशक्ति हैं। सर्वशक्ति नहीं हैं लेकिन यथाशक्ति। जिसको डबल विदेशी अपनी भाषा में समथिंग (Something) अक्षर यूज़ करते हैं। तो इसको आलमाइटी अथॉरिटी  कहेंगे? माइटी तो हैं लेकिन आल हैं? वास्तव में इसको ही ब्राह्मण-जीवन का फाउण्डेशन कहा जाता है। जिसका जितना स्व पर राज्य है अर्थात् स्व को चलने और सर्व को चलाने की विधि आती है, वही नंबर आगे लेता है। इस फाउण्डेशन में अगर यथाशक्ति है तो ऑटोमैटिकली नंबर पीछे हो जाता है। जिसको स्वयं को चलाने और चलने आता है वह दूसरों को भी सहज चला सकता है अर्थात् हैंडलिंग  पावर आ जाती है। सिर्फ दूसरे को हैंडलिंग करने के लिए हैंडलिंग  पावर नहीं चाहिए। जो अपनी सूक्ष्म शक्तियों को हैंडिल कर सकता है। वह दूसरों को भी हैंडिल कर सकता है। तो स्व के ऊपर कंट्रोलिंग पावर, रूलिंग पावर सर्व के लिए यथार्थ हैंडलिंग  पावर बन जाती है। चाहे अज्ञानी आत्माओं को सेवा द्वारा हैंडिल करो, चाहे ब्राह्मण-परिवार में स्नेह सम्पन्न, संतुष्टता सम्पन्न व्यवहार करो - दोनों में सफल हो जायेंगे। कयोंकि कई बच्चे ऐसे हैं जो बाप को जानना, बाप का बनना और बाप से प्रीत की रीति निभाना - यह बहुत सहज अनुभव करते हैं लेकिन सभी ब्राह्मण-आत्माओं से चलना - इसमें समथिंग कहते हैं। इसका कारण क्या? बाप से निभाना सहज क्यों लगता है? क्योंकि दिल का प्यार अटूट है। प्यार में निभाना सहज होता है। जिससे प्यार होता है उसका कुछ शिक्षा का इशारा मिलना भी प्यारा लगता है और सदैव दिल में अनुभव होता है कि जो कुछ कहा मेरे कल्याण के लिए कहा। क्योंकि उसके प्रति दिल की श्रेष्ठ भावना होती है। तो जैसे आपके दिल में उनके प्रति श्रेष्ठ भावना है, वैसे ही आपकी शुभभावना का रिटर्न दूसरे द्वारा भी प्राप्त होता है। जैसे गुम्बज में आवाज करते हो तो वही लौटकर आपके पास आती है। तो जैसे बाप के प्रति अटूट, अखण्ड, अटल प्यार है, श्रेष्ठ भावना है, निश्चय है - ऐसे ब्राह्मण-आत्माएं नंबरवार होते हुए भी आत्मिक प्यार अटूट, अखण्ड है? वैराइटी चलन, वैरायटी संस्कार देखकर प्यार करते हैं वह अटूट और अखण्ड नहीं होता है। किसी भी आत्मा की अपने प्रति वा दूसरों के प्रति चलन अर्थात् चरित्र वा संस्कार दिल-पसंद नहीं होंगे तो प्यार की परसेन्टेज कम हो जाती है। लेकिन आत्मा का श्रेष्ठ आत्मा के भाव से आत्मिक प्यार उसमें परसेन्टेज नहीं होती है। कैसे भी संस्कार हों, चलन हो लेकिन ब्राह्मण-आत्माओं का सारे कल्प में अटूट सम्बन्ध है, ईश्वरीय परिवार है। बाप ने हर आत्मा को विशेष चुनकर ईश्वरीय परिवार में लाया है। अपने-आप नहीं आये हैं, बाप ने लाया है। तो बाप को सामने रखने से हर आत्मा से भी आत्मिक अटूट प्यार हो जाता है। किसी भी आत्मा की कोई बात आपको पसंद नहीं आती तब ही प्यार में अन्तर आता है। उस समय बुद्धि में यही रखो कि इस आत्मा को बाप ने पसंद किया है, अवश्य कोई विशेषता है तब बाप ने पसंद किया है। शुरू से बापदादा बच्चों को यह सुनाते रहते हैं कि मानों 36 गुणों में किसमें 35 गुण नहीं हैं लेकिन एक गुण भी विशेष है तब बाप ने उनको पसंद किया है। बाप ने उनके 35 अवगुण देखे वा एक ही गुण देखा? क्या देखा? सबसे बड़े-ते-बड़ा गुण वा विशेषता बाप को पहचानने की बुद्धि, बाप के बनने की हिम्मत, बाप से प्यार करने की विधि है जो सारे कल्प में धर्म-पिताओं में भी नहीं थी, राज्य नेताओं में भी नहीं, धनवानों में भी नहीं लेकिन उस आत्मा में हैं। बाप आप सबसे पूछते हैं कि आप जब बाप के पास आये तो गुण सम्पन्न हो के आये थे? बाप ने आपकी कमजोरियों को देखा क्या? हिम्मत बढ़ाई है ना कि आप ही मेरे थे, हैं और सदा बनेंगे। तो फालो फादर करो ना! जब विशेष आत्मा समझ किसको भी देखेंगे, सम्बन्ध-सम्पर्क में आयेंगे तो बाप को सामने रखने से आत्मा में स्वत: ही आत्मिक प्यार इमर्ज हो जाता है। आपके स्नेह से सर्व के स्नेही बन जायेंगे और आत्मिक स्नेह से सदा सभी द्वारा सद्भावना,  सहयोग की भावना स्वत: ही आपके प्रति दुआओं के रूप में प्राप्त होगी। इसको कहते हैं। रूहानी यथार्थ श्रेष्ठ हैंडलिंग।

बापदादा आज मुस्कारा रहे थे। बच्चों में तीन शब्दों के कारण कंट्रोलिंग पावर, रूलिंग पावर कम हो जाती है। वह तीन शब्द हैं - 1. व्हाई (WHY, क्यों), 2.वाट (WHAT, क्या), 3. वान्ट (WANT, चाहिए)। यह तीन शब्द खत्म कर एक शब्द बोलो। व्हाई आये तो भी एक शब्द बोलो - वाह, व्हाट शब्द आये तो भी बोलो ``वाह''``वाह'' शब्द तो आता है ना। वाह बाबा, वाह मैं और वाह ड्रामा। सिर्फ ``वाह'' बोले तो यह तीन शब्द खत्म हो जायेंगे। उस दिन भी सुनाया ना कि बापदादा ने कौन सा खेल देखा! आप लोगों का एक चित्र पहले का बनाया हुआ है जिसमें दिखाया है - योगी योग लगा रहा है, बुद्धि को एकाग्रचित कर रहा है, बैलेंस रख रहा है, बैलेंस की तराजू दिखाई है, जितना बुद्धि का बैलेंस करता उतना कोई बन्दर आकर बैठ जाता है। इन तीनों बातों का बन्दर आ जाते हैं तो बैलेंस क्या होगा! हलचल हो जायेगी, बैलेंस नहीं रहेगा। तो यह तीन शब्द बैलेंस को समाप्त कर देते हैं, बुद्धि को नचाने लगते हैं। बन्दर आराम से बैठ सकता है क्या? और कुछ नहीं हो तो पूंछ को ही हिलाता रहेगा। तो इसमें भी बैलेंस न होने के कारण बाप द्वारा हर कदम में जो दुआयें मिलती हैं वा आत्मिक स्नेह कारण परिवार द्वारा जो दुआयें मिलती हैं उससे वंचित हो जाते हैं। जैसे बाप से सम्बन्ध रखना अवश्यक है, ऐसे ईश्वरीय परिवार से सम्बन्ध रखना भी अति अवश्यक है। सारे कल्प में नम्बरवन आत्मा ब्रह्मा बाप और ईश्वरीय परिवार के सम्बन्ध-सम्पर्क में आना है। ऐसे नहीं समझना - अच्छा, बाप तो हमारा है, हम बाप के है। यह भी पास विद ऑनर की निशानी नहीं है। क्योंकि आप सन्यासी आत्माएं नहीं हो। ऋषि-मुनि की आत्माएं नहीं हो। किनारा करने वाले नहीं हो लेकिन विश्व का सहारा बनने वाली आत्माएं हो। विश्व-किनारा नहीं, विश्व-कल्याणकारी हो। ब्राह्मण-आत्माओं की तो बात छोड़ों लेकिन प्रकृति को भी परिवर्तन करने के सहारे आप हो! परिवार के अविनाशी प्यार के धागे के बीच से निकल नहीं सकते हो। विजयी रत्न प्यार के धागे के बीच से निकल नहीं सकते। इसलिए कभी भी किसी भी बात में, किसी स्थान में, किसी सेवा से, किसी साथी से किनारा करके अपनी अवस्था को अच्छा बनाके दिखाऊं - यह संकल्प नहीं करना। कहते हैं ना - हम इसके साथ नहीं चल सकते, उसके साथ चलेंगे, इस स्थान पर उन्नति नहीं होगी, दूसरे स्थान पर होगी, इस सेवा में विघ्न है, दूसरी सेवा में अच्छा होगा। यह सब किनारा करने की बातें हैं। अगर एक बार यह आदत आपने में डाली तो यह आदत आपको कहाँ भी टिकने नहीं देगी, बुद्धि को एकाग्र रहने नहीं देगी। क्योंकि बुद्धि को बदलने की आदत पड़ गई। यह भी कमजोरी गिनी जायेगी, उन्नति नहीं गिनी जायेगी। सदैव अपने में शुभ उम्मीदें रखो, नाउम्मीद नहीं बनो। जैसे बाप ने हर बच्चे में शुभ उम्मीदें रखी। कैसे भी हैं, बाप लास्ट नंबर से भी कभी दिलशिकस्त नहीं बने। सदा ही उम्मीद रखी। तो आप भी न अपने से, न दूसरे से, न सेवा में नाउम्मीद, दिलशिकस्त नहीं बनो। दिलशाह बनो। शाह माना फ्राकदिल, सदा बड़ी दिल। कोई भी कमजोर संस्कार नहीं धारण करो। माया भिन्न-भिन्न रूप से कमजोर बनाने का प्रयास करती है। लेकिन आप माया के भी नॉलेजफुल हो, ना कि अधूरी नॉलेज है? यह भी याद रखो कि माया नये-नये रूप में आती है, पुराने रूप में नहीं। क्योंकि वह भी जानती है कि यह पहचान लेंगे। बात वही होती है लेकिन रूप नया धारण कर लेती है। समझा! अच्छा!

टीचर्स माया के नॉलेजफुल हो? सिर्फ नॉलेज नहीं लेकिन नॉलेजफुल हो? बाप को पहचान लिया - सिर्फ यह नहीं सोचो, माया को भी पहचानना है। अभी बंधन में बंध गई हो वा कठिन लगता है? मीठा बंधन लगता या थोड़ा मुश्किल बंधन लगता? सोचते हो - यह तो बहुत मरना पड़ेगा, बाप के बन गये अब फिर यह करना है, यह करना है, कहाँ तक करेंगे! अगर यह पता होता तो आते ही नहीं - ऐसा सोच चलता है? जहाँ प्यार है वहाँ कोई मुश्किल नहीं। पतंगा भी शमा पर कुर्बान हो जाता है। तो आप श्रेष्ठ आत्माएं परमात्म-प्यार के पीछे मुश्किल अनुभव कर सकती हो क्या? जब परवाना कुर्बान हो सकता है तो आप क्या नहीं कर सकती? जिस घड़ी मुश्किल अनुभव होता है तो जरूर प्यार की परसेन्टेज में अन्तर आ जाता है, इसलिए कुछ समय मुश्किल लगता है। अगर होवे ही मुश्किल तो सदा मुश्किल लगना चाहिए, कभी-कभी क्यों मुश्किल लगता? परमात्मा और आपके बीच में कोई बात आ जाती है, इसलिए मुश्किल हो जाता है और परसेन्टेज में फर्क पड़ जाता है। वह बीच से निकाल दो तो फिर सहज हो जाए।

बापदादा सदा कहते हैं टीचर्स अर्थात् सदा स्वयं हिम्मत में रहने वाली और दूसरों को हिम्मत देने के निमित्त बनने वाली। नहीं तो टीचर बनी क्यों? टीचर माना ही स्टूडेन्ट के निमित्त हैं। कमजोर को हिम्मत दे आगे बढ़ाने की सेवा के निमित्त हो। सफल टीचर की पहली निशानी यह होगी - वह कभी हिम्मतहीन नहीं बनेंगी। जो खुद हिम्मत में रहता है वह दूसरे को भी हिम्मत जरूर देता है। खुद में ही हिम्मत कम होगी तो दूसरे को भी नहीं दे सकेंगे। अच्छा!

चारों ओर के हिम्मते बच्चे मददे बाप के अधिकार को अनुभव करने वाले, सदा स्वराज्य की शक्तियों को हर समय प्रमाण प्रयोग में लाने वाले, सदा बाप और सर्व आत्माओं के अटूट स्नेही, सदा हर कार्य में, सम्बन्ध-सम्पर्क में ``वाह-वाह'' के गीत गाने वाले, ऐसी आलमाइटी अथॉरिटी  बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

डबल विदेशी भाई-बहनों के ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात

1. सभी अपने को सदा भाग्यवान आत्मा समझते हो? वो लोग तो अपने भाग्य की प्राप्ति के लिए कितना साधन अपनाते हैं! कभी सोचेंगे - पुत्रवान बन जाएं, कभी सोचेंगे - धनवान बन जाएं, कभी सोचेंगे – आयुष्वान बन जाएं। और मांगते भी किससे हैं? बाप से और आप पूज्य आत्माओं से। क्योंकि आप श्रेष्ठ आत्मओं को भाग्य देने वाला स्वयं भाग्यविधाता बाप है। आपका तो मांगना पूरा हो गया ना। या कभी-कभी थोड़ा मांगते हो? मेरा नाम हो, मेरा शान हो - यह भी नहीं। स्वमान मिल गया। उसके आगे यह अल्पकाल का मान क्या है! यह भी मांगने का संकल्प नहीं आता, मांगना खत्म हो गया ना? ज्ञानी तू आत्मा हो गये ना, भक्त तू आत्मा नहीं। कमजोर आत्मा को भी बापदादा भक्त कह देते हैं तो आप ऐसे भक्त भी नहीं हो ना! बुद्धिवान हो। ज्ञानी तू आत्मा अर्थात् बुद्धिवान आत्मा। इच्छा मात्रम् अविद्या - ऐसी आत्माएं हो ना? बिना मांगे सब मिलता है, मांगने की क्या आवश्यकता है। कोई कमी होती है तो मांगना पड़ता है। अगर स्वयं ही सर्व प्राप्ति हो जाएं तो मांगने का संकल्प भी नहीं उठेगा। ऐसे इच्छा मात्रम् अविद्या अर्थात् ज्ञानी तू आत्मा। एक साथ सब कुछ दे दिया, एक-एक कहने की जरूरत ही नहीं। क्योंकि बाप जानते हैं इन्हों को मांगने भी नहीं आता। थोड़ी-थोड़ी चीज में ही खुश हो जाते हैं। अभी तो मांगने वाले से दाता के बच्चे मास्टरदाता बन गये। जो बाप से मिला है वह इतना मिला है कि मास्टरदाता बन गये। ऐसे हैं ना? सभी पक्के हो ना? जब बाप सर्वशक्तिवान् हैं तो बच्चे कच्चे कैसे होंगे? माया कितनी भी कोशिश करे - कच्चे नहीं बना सकती। क्योंकि आप दूर से ही जान लेते हो कि माया आ रही है। डोंट केयर। वह भी पहचान जाती है कि यह मास्टर सर्वशक्तिवान् हैं, यहाँ काम नहीं होगा। तो खुद ही वापस चली जाती है। मायाके रूप में वार नहीं कर सकती। वह सफलता की माला बन जाती है। तो सभी ऐसे विजयी हो? पांडव अर्थात् विजयी। कभी कुछ भी देखो-सुनो तो अपने-आपसे बात करो कि मैं वही पांडव हूँ, अनेक बार की विजयी हूँ। यही खुशी है ना? यह भी आता है या नॉलेज के आधार से कहते हो? ऐसे तो नहीं कि बाप कहते हैं तो जरूर होगा ही! आत्मा में जो रिकार्ड भरा हुआ है वह इमर्ज होता है ना? अच्छा! सभी खुशी के झूले में झूलने वाले हो ना? बाप ने ऐसा झूला दे दिया है जिसके लिए जगह की आवश्यकता नहीं, जहाँ चाहो वहाँ लगाओ, सिर्फ स्मृति में ही लाना है। इसलिए सहज है। इसमें थकावट भी नहीं होती, खुशी का झूला है ना। खुशी में थकावट नहीं होती। ब्राह्मण जन्म ही खुशी के झूले में हुआ है और जायेंगे भी तो खुशी के झूले में झूलते-झूलते जायेंगे। ऐसे ही जायेंगे या दर्द में जायेंगे? ऐसे तो नहीं समझेंगे - हाय कर्मबंधन, कर्मभोग बहुत कड़ा है! चाहे कितना भी कड़ा हिसाब हो लेकिन आप चुक्तू करने वाले हैं। तो चुक्तू का सदा नशा रहता है। कितना भी पुराना कड़ा हिसाब हो, लेकिन जब चुक्तू होता है तो खुशी होती है। ऐसे हिम्मत है या घबरा जायेंगे? थोड़ा-सा दर्द होगा तो घबरायेंगे तो नहीं? जब परमात्मा के प्यारे बन गये तो उसे खुशी होगी ना। अच्छा!

2. रूहानी दृष्टि मिलते ही सृष्टि बदल गई ना! रूहानी दृष्टि से अपने-आपको देखा - मैं कौन और बाप को देखा कि वही हमारा बाप है। इसमें सृष्टि बदल गई। पूरी सृष्टि बदली है या थोड़ी-थोड़ी कभी छिप-छिपकर पुरानी सृष्टि देख लेते हो? कभी स्वप्न में पुरानी दुनिया आती है? स्वप्न भी बदल गये। क्योंकि ब्राह्मण-जीवन अर्थात् सृष्टि ही बदल गई। बाप ही संसार बन गया! और कुछ है क्या? संसार में विशेष दो प्राप्ति हैं - एक है व्यक्ति, दूसरी है वस्तु। तो बाप ने सर्व सम्बन्ध के रूप में संसार में जो चाहिए वह दे दिया। सर्व सम्बन्ध बाप से अनुभव होते हैं? या कोई सम्बन्ध व्यक्ति से रह गये हैं? और वस्तु से क्या मिला है? खुशी मिलती है, सुख मिलता है। बाप ने अविनाशी प्राप्ति कराई है। तो प्राप्ति का अनुभव होता है? वैसे भी देखो - किसी भी आत्मा से मिलते हैं, अगर कोई सदा खुश रहने वाला होता है तो वो चेहरा अच्छा लगता है या जो खुश नहीं होता है वह अच्छा लगता है? आप सदा चियरफुल रहते हो? नशे से कहो - हम नहीं खुश होंगे तो कौन खुश रहेगा? बापदादा हर एक बच्चे का खुश चेहरा देखना चाहते हैं। आपको भी वही पसंद है तो बाप को भी वही पसंद है। इसलिए बापदादा कहते हैं कि यह गीत सदा गाते रहो - ``पाना था वो पा लिया, काम बाकी क्या रहा!'' यह गीता आपका है ना! बापदादा ने ब्राह्मण जन्म होते ही सबको बड़े-ते-बड़ा खज़ाना ``खुशी'' दी। यह ब्राह्मण जन्म की गिफ्ट है। सिर्फ संभालने में कभी-कभी अलबेले हो जाते हो तब सदा नहीं होता है। बापदादा के पास बच्चों के लिए ही यह खज़ाने हैं। जिसको जितना चाहिए उतना मिलता है, हिसाब की बात नहीं है। सबका पूरा अधिकार है। अच्छा!

बापदादा ने विदाई के समय सभी बच्चों को होली की मुबारक दी

होली बच्चों के लिए सदा होली है। सदा ही ज्ञान-रंग में रंगे हुए हो, इसलिए खास रंग लगाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। ये लोग तो लगाते भी नहीं हैं ना। फॉरेन में नहीं लगाते हो। वह तो हुआ मनोरंजन। बाकी रंग में रंगकर मिक्की माउस नहीं बनना है। सदा होलीहंस हो,  होली रहने वाले हो और होली मनाने वाले हो। औरों को भी होली बनाने का रंग डालते हो। सभी बच्चों को हाली की मुबारक हो और साथ-साथ उमंग-उत्साह वाली जीवन में उड़ने की भी मुबारक हो। अच्छा!



13-03-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगम पर परमात्मा का आत्माओं से विचित्र मिलन

अव्यक्त बापदादा अपने बच्चों प्रति बोले:-

आज अनेक बार मिलने वाले सिकीलधे बच्चे फिर से आकर मिले हैं। बाप भी उसी पहचान से बच्चों को देख रहे हैं और बच्चे भी उसी ``अनेक बार मिलने वाली स्मृति'' से मिल रहे हैं। यह आत्मा और परमात्मा बाप का विचित्र मिलन है। सारे कल्प में कोई भी आत्मा इस स्मृति में नहीं मिलती कि अनेक बार मिलने बाद फिर से मिले हैं। चाहे समय प्रति समय धर्म-पिताएं आये हैं और अपने फालोअर्स को ऊपर से नीचे लाये लेकिन धर्म-पिताए भी इस स्मृति से नहीं मिलते हैं कि अनेक कल्प मिले हुए फिर से मिल रहे हैं। इस स्पष्ट स्मृति से सिवाए परमपिता के कोई आत्माओं से मिल नहीं सकते। चाहे इस कल्प में पहली बार ही मिलते हैं लेकिन मिलते ही पुरानी स्मृति, पुरानी पहचान जो आत्माओं में संस्कार के रूप में रिकार्ड भरा हुआ है- वह इमर्ज हो जाता है और दिल से यही स्मृति का आवाज़ आता है यह वही मेरा बाप है। बच्चे कहते तुम हो मेरे और बाप कहते तुम हो मेरे। मेरा संकल्प उत्पन्न हुआ, उसी सेकण्ड उस शक्तिशाली स्मृति से संकल्प से नया जीवन और नया जहान मिल गया। और सदा के लिए ``मेरा बाबा'' इस स्मृति-स्वरूप में टिक गये। जैसे कि स्मृति स्वरूप बने तो स्मृति के रिटर्न में सामर्थी स्वरूप बने। समर्थ स्वरूप बन गये ना, कमजोर स्वरूप तो नहीं हो ना? और जो जितना स्मृति में रहते हैं, उतना समार्थियों का अधिकार स्वत: ही प्राप्त करते हैं। जहाँ स्मृति है वहाँ सामर्थी है ही है। थोड़ी भी विस्मृति है तो व्यर्थ है। चाहे व्यर्थ संकल्प हो चाहे बोल हों, कर्म हो। इसलिए बापदादा सभी बच्चों को किस दृष्टि से देखते हैं कि हर एक बच्चे स्मृति स्वरूप सो समर्थ है। आज तक भी अपना सिमरण भक्तों द्वारा सुन रहे हैं। अपने स्मृति में लाया ``मेरा बाबा'' तो भक्त आत्मा भी यही सिमरण करती मेरा इष्ट वा देवी। जैसे आपने अति प्यार से दिल से बाप को याद किया, उतना ही भक्त आत्माएं आप इष्ट आत्माओं को दिल से अति प्यार से याद करती है। आप ब्राह्मण-आत्माओं में भी कोई दिल के स्नेह सम्बन्ध से याद करते हैं और दूसरे दिमाग द्वारा नॉलेज के आधार पर सम्बन्ध अति प्यारा अर्थात् अति समीप हैं वहाँ याद भूलना मुश्किल है। जहाँ सिर्फ सम्बन्ध है नॉलेज के आधार पर लेकिन दिल का अटूट स्नेह नहीं है, वहाँ याद कभी सहज, कभी मुश्किल होती। जैसे शरीर के अंदर नस-नस में ब्लड समाया हुआ है, ऐसे आत्मा में निश-पल अर्थात् हर पल याद समाई हुई है। इसको कहते हैं दिल के स्नेह सम्पन्न निरंतर याद। जैसे भक्त आत्माएं बाप के लिए कहती हैं - जहाँ देखते हैं तू ही तू है। ऐसे बाप के स्नेही समान आत्माओं को जो भी देखे कि इन्हों की दृष्टि में, बोल में, कर्म में परमात्मा बाप ही अनुभव होता है। इसको कहते हैं - स्नेही सो समान बाप। तो स्मृति स्वरूप तो सभी हो, सम्बन्ध भी सभी का है। अधिकार भी सभी का है क्योंकि सभी का फुल अधिकार का सम्बन्ध बाप और बच्चे का है। सभी कहते हैं मेरा बाबा। मेरा चाचा, मेरा काका कोई नहीं कहते। अधिकार का सम्बन्ध होने के कारण सर्व प्राप्तियों के वर्से के अधिकारी हो। चाहे 53 वर्ष वाले हैं, चाहे 6 मास वाले हैं, मेरा कहने से अधिकारी तो बन ही गये। लेकिन अंतर क्या होता है! बाप अधिकार तो सभी को एक जैसा देता है - क्योंकि अखुट वर्सा देने वाला दाता है। अढ़ाई लाख तो क्या लेकिन सर्व आत्माएं भी अधिकारी बनें उनसे भी अथाह खज़ाना बाप के पास है। तो कम क्यों दें? तो दाता सभी को देता एक जैसा है लेकिन लेवता में फर्क है। कोई प्राप्तियों के वर्से को वा खज़ाने को समय प्रमाण स्वयं प्रति वा सेवा प्रति कार्य में लगाकर उसका लाभ अनुभव करते हैं। इसलिए बाप का खज़ाना अपना खज़ाना बना देते हैं अर्थात् अपने में समा देते हैं। शुद्ध नशा, उल्टा नहीं। और दूसरे खज़ाना मिला है - इस खुशी में रहते हैं, मेरा है। लेकिन सिर्फ मेरा है और उसको कार्य में नहीं लगाते हैं। काई भी अमूल्य वस्तु को सिर्फ अपने पास स्टाक में जमा कर लिया लेकिन सिर्फ जमा करने और यूज़ करने की अनुभूति में अंतर है। जितना कार्य में लगाते हैं उतनी शक्ति और बढ़ती है, वह सदा नहीं करते, कभी-कभी करते हैं। इसलिए सदा वालों में और कभी-कभी वालों में अंतर पड़ जाता है। कार्य में लगाने की विधि यूज़ नहीं करते। तो दाता अंतर नहीं करता लेकिन लेवता में अंतर हो जाता है। आप सभी कौन हो? कार्य में लगाने वाले या सिर्फ जमा देख खुश होने वाले? पहला नम्बर वाले हो या दूसरा नम्बर हो? बापदादा को तो खुशी है कि सभी नम्बरवन है या इस समय नम्बरवन हो? बापदादा सदैव कहते हैं सदा बच्चों के मुख में गुलाब जामुन हो। जो कहा वह किया अर्थात् सदा गुलाब जामुख मुख में है। दुनिया वाले कहते मुख में गुलाब। लेकिन गुलाब से मुख मीठा नहीं होगा। इसलिए गुलाब जामुन मुख में हो तो सदा ही ऐसे मुस्कराते रहे। अच्छा!

कई नये-नये फिर से मिलने पहुँच गए हैं। जो भी इस कल्प में फिर से मिलन मना रहे हैं उन बच्चों के लिए विशेष बापदादा स्नेह का वरदान देते हैं कि सदा अपने मस्तक पर बाप का हाथ अनुभव करते चलो। जिसके सिर पर बाप का हाथ है वह सदा इस वरदान के अनुभव से सब बातों में सेफ है। यह वरदान का हाथ हर बात में आपकी सेफ्टी का साधन है। सबसे बड़े-ते-बड़ी सिक्यूरिटी यही है।

बापदादा सभी टीचर्स की निमित्त बनने की हिम्मत देख खुश है। हिम्मत रख निमित्त तो बन ही जाते हो ना। टीचर निमित्त बनना अर्थात् बेहद की स्टेज पर हीरो पार्ट बजाना। जैसे हद की स्टेज पर हीरो पार्टधारी आत्मा की तरफ सबका विशेष अटेन्शन होता है, ऐसे जिन आत्माओं के निमित्त बनते हो विशेष वह और जनरल सर्व आत्माएं आप निमित्त बनी टीचर्स को उसी दृष्टी से देखते हैं। सभी का विशेष अटेन्शन होता है ना! तो टीचर्स को अपने में भी विशेष अटेन्शन रखना पड़े। क्योंकि सेवा में हीरो पार्टधारी बनना अर्थात् हीरो बनना। दुआयें भी टीचर्स को ज्यादा मिलती हैं। जितनी दुआयें मिलती हैं, उतना अपने ऊपर ध्यान देना अवश्यक है। यह भी ड्रामा अनुसार विशेष भाग्य है। तो सदा इस प्राप्त हुए भाग्य को बढ़ाते चलो। सौ से हजार, हजार से लाख, लाख से करोड़, करोड़ से पद्म, पद्म से भी पद्मापद्म, सदा इस भाग्य को बढ़ाते चलना है। इसको कहते हैं योग्य आदर्श टीचर। बापदादा निमित्त बने हुए बच्चों को सिमरण जरूर करते हैं और सदा अमृतवेले ``वाह बच्चे वाह'' यह दुआयें देते हैं। सुना सेवाधारियों ने? टीचर्स माना नम्बरवन सेवाधारी। अच्छा!

चारों ओर के अनेक कल्प न्यारा और प्यारा मिलन मनाने वाले, सदा प्राप्त हुए वर्से के खज़ानों को हर समय प्रमाण कार्य में लगानेवाले, सदा दिल से अति स्नेही और बाप समान बन स्वयं द्वारा बाप का अनुभव कराने वाले, सदा स्मृति स्वरूप सो भक्तों द्वारा समर्थ स्वरूप बनने वाले, सदा अपने प्राप्त भाग्य को बांटने वाले अर्थात् बढ़ाने वाले - ऐसे मास्टर दाता समर्थ बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

मधुबन में ग्लोबल विजन पर आधारित बुक तैयार करने वाले भाई-बहनों प्रति:-

ऑफिस का काम अच्छा चल रहा है ना? काम करने वाले भी अच्छे और काम भी अच्छा। थक तो नहीं जाते। सदा अपने में सर्व-शक्तियाँ प्रत्यक्ष कर यह बुक बनाओ तो बाप प्रत्यक्ष हो जायेगा। तो सभी अपनी शक्ति, खुशी, गुण, विशेषताएं सब भर देना। सिर्फ लिखना नहीं, भरना भी है। जिसके हाथ में जाए - जिसको जो चाहिए, गुण चाहिए, शक्ति चाहिए, खुशी चाहिए उनको वही अनुभूति हो। यही लक्ष्य है ना? तो जब भी काम शुरू करते हो तो पहले उसमें यह भरो, पीछे काम शुरू करो। तो जिसे भी यह बुक मिलेगी उनको वही वायब्रेशन आयेंगे। इसमें सबकी अंगुली भरी हुई है। यह तो निमित्त बने हैं - लिखने वा तैयार करने के लिए। लेकिन देश-विदेश के हर ब्राह्मण आत्मा ने इस कार्य में अंगुली लगाई है। पहले तो है सर्व ब्राह्मणों का सहयोग फिर है विश्व का सहयोग। इस कार्य में सर्व ब्राह्मण श्रेष्ठ आत्माओं का साथ है, हाथ है अर्थात् अंगुली है। तो सब इस बुल में वायब्रेशन भरो। ऐसे नहीं जो ऑफिस में काम करने वाले हैं, वह जानें, हमारा क्या काम है? सबका काम है। कोई भी चीज़ तैयार होती है या कोई भी प्रोग्राम होता है, सर्व ब्राह्मणों के शुभ सहयोग के वायब्रेशन कार्य को सफल कर देते हैं। इसलिए सभी तैयार कर रहे हो। ऐसे नहीं सिर्फ 25-30 तैयार कर रहे हैं। हर एक शुभ वायब्रेशन का हीरा लगाये तो हीरेतुल्य बुक सबको दिखाई देगी। अच्छा हो रहा है और अच्छा ही रहेगा। अच्छा!

डबल विदेशी भाई-बहनों से ग्रुप वाइज मुलाकात:-

1. सभी अपने को बहुत-बहुत भाग्यवान समझते हो? क्योंकि कभी स्वप्न में भी संकल्प नहीं होगा कि ऐसी श्रेष्ठ आत्माएं बनेंगे, लेकिन अभी साकार में बन गये? देखो कहाँ-कहाँ से बापदादा ने रत्नों को चुनकर, रत्नों की माला बनाई है। ब्राह्मण-परिवार की माला में पिरो गये। कभी माला से बाहर तो नहीं निकलते हो? कोई भी माला की विशेषता और सुंदरता क्या होती है? दाना दाने के साथ मिला हुआ होता है। अगर बीच में धागा दिखाई दे, दाना दाने के साथ नहीं लगा हुआ हो तो सुंदर नहीं लगेगा। तो आप ब्राह्मण परिवार की माला में हो अर्थात् सर्व ब्राह्मण आत्माओं के समीप हो गये हो। जैसे बाप के समीप हो वैसे बाप के साथ-साथ परिवार के भी समीप हो। क्योंकि यह परिवार भी इस पहचान से, परिचय से अभी मिलता है। परिवार में मजा आता है ना? ऐसे नहीं कि सिर्फ बाप की याद में मजा आता है। योग परिवार से नहीं लगाना है लेकिन समीप एक-दो के रहना है। इतना बड़ा अढ़ाई लाख का परिवार होगा? तो परिवार अच्छा लगता है या सिर्फ बाबा अच्छा लगता है? जिसे सिर्फ बाबा अच्छा लगेगा वह परिवार में नहीं आ सकेगा। बापदादा परिवार को देख सदा हार्षित होते हैं और सदा एक-दो की विशेषता को देख हार्षित रहते हैं। हर ब्राह्मण आत्मा के प्रति यही संकल्प रहता कि वाह ब्राह्मण-आत्मा वाह! देखो बाप का बच्चों से इतना प्यार है तब तो आते हैं ना, नहीं तो ऊपर बैठकर मिल लें। सिर्फ ऊपर से तो बैठकर नहीं मिलते। आप विदेश से आते हो तो बापदादा भी विदेश से आते हैं। सबसे दूर से दूर से आते हैं लेकिन आते सेकण्ड में हैं। आप सभी भी सेकण्ड में उड़ती कला का अनुभव करते हो? सेकण्ड में उड़ सकते हो? इतने डबल लाइट हो, संकल्प किया और पहुँच गये। परमधाम कहा और पहुँचे, ऐसी प्रैक्टिस है? कहाँ अटक तो नहीं जाते हो? कभी कोई बादल तंग तो नहीं करते हैं, केयरफुल भी और क्लियर भी ऐसे है ना।

डबल विदेशी बच्चों को आते ही सेंटर मिल जाते हैं। बहुत जल्दी टीचर बन जाते हैं, इसलिए सेवा की भी दुआयें मिलती हैं। दुआयें मिलने की विशेष लिफ्ट मिलती है, साथ-साथ आते ही इतने बिजी हो जाते हो जो और बातों के लिए फुर्सत ही नहीं मिलती। इसलिए बिजी रहने से घबराना नहीं, यह गुड साइन है। कई कहते हैं ना - लौकिक कार्य भी करें फिर अलौकिक सेवा भी करें और अपनी सेवा भी करें - यह तो बहुत बिजी रहना पड़ता है। लेकिन यह बिजी रहना अर्थात् मायाजीत बन जाना। यह ठीक लगता है या लौकिक जॉब करना मुश्किल है? लौकिक जॉब (नौकरी) जो करते हैं उसमें जो कमाई होती है वह कहाँ लगाते हो? जैसे समय लगाते वैसे धन भी लगाते हो। तो तन-मन-धन तीनों ही लग जाते हैं। सफल हो जाता है ना, इसलिए थकना नहीं। सेंटर खोलते हो तो कितनी आत्माओं का सन्देश सुनते ही कल्याण होता है। तो मन और धन का कनेक्शन है, जहाँ धन होगा वहाँ मन होगा। जहाँ मन होगा, वहाँ धन होगा। बापदादा डबल विदेशियों को सर्व प्रकार से सफल करने में बिजी देख खुश होते हैं। सभी गोल्डन चांसलर हो। सदा याद रखना कि सफलतामूर्त है और सदा सफलता मेरे गले का हार है। कोई भी कार्य करो तो पहले यह सोचो कि सफलता मेरे गले की माला है। जैसा निश्चय होगा वैसा प्रत्यक्ष फल मिलेगा। अच्छा।

2. यह स्वीट साइलेन्स प्रिय लगती है ना? क्योंकि आत्मा का ओरिजनल स्वरूप ही स्वीट साइलेन्स है। जो जिस समय चाहो उस समय इस स्वीट सालेन्स की स्थिति का अनुभव कर सकते हो? क्योंकि आत्मा अभी इन बन्धनों से मुक्त हो गई इसलिए जब चाहे तब अपने ओरिजनल स्थिति में स्थित हो जाए। तो बंधनमुक्त हो गए या होना है? इस बार मधुबन में दो शब्द छोड़कर जाना - समथिंग और समटाइम। यह पसंद है ना? सभी छोड़ेंगे? हिम्मत रखने से मदद मिल जायेगी। क्योंकि यह तो जानते हो 63 जन्म अनेक बंधनों में रहे और एक जन्म स्वतंत्र बनने का है, इसका ही फल अनेक जन्म जीवनमुक्ति प्राप्त करेंगे। तो फाउण्डेशन यहाँ डालना है। जब इतना फाउण्डेशन पक्का होगा तब तो 21 जन्म चलेगा। जितना अपने में निश्चय करेंगे उतना ही नशा होगा। बाप में

भी निश्चय, अपने में भी निश्चय और फिर ड्रामा में भी निश्चय। तीनों निश्चय में पास होना है। अच्छा - एक-एक रत्न की अपनी विशेषता है। बापदादा सबकी विशेषता को जानते हैं। अभी आगे चलकर अपनी विशेषता को और कार्य में लगाओ तो विशेषता बढ़ती जायेगी। दुनिया में खर्च करने से धन कम होता है लेकिन यहाँ जितना यूज़ करेंगे, खर्च करेंगे उतना बढ़ेगी। सभी अनुभवी हो ना। तो इस वर्ष का यही वरदान याद रखना कि हम विशेष आत्मा हैं और विशेषता को कार्य में लगाए और आगे बढ़ायेंगे। जेसे यहाँ नजदीक बैठना अच्छा लगता है वैसे वहाँ भी सदा नजदीक रहना। बापदादा सदा हर एक को इसी श्रेष्ठ नज़र से देखते हैं कि एक-एक बच्चा योगी भी है और योग्य भी है। अच्छा!

3. हर एक अपने को बापदादा के अति स्नेही, अति लाडले हैं - ऐसा अनुभव करते हो? बापदादा हर बच्चे को अति लाडले समझते हैं। बापदादा सर्व सम्बन्ध से ही बच्चों को याद करते लेकिन फिर भी मुख्य तीन सम्बन्ध जो गाये हुए हैं उन तीन सम्बंधों से तीन विशेषताएं बच्चों को देते हैं। जानते हो ना? इसी को ही कहते हैं दिल का प्यार। बाप के रूप में सिर्फ नहीं देते, लेकिन शिक्षक के रूप में पढ़ाई द्वारा श्रेष्ठ पद की भी प्राप्ति कराते हैं और सतगुरू के रूप में सदा वरदान देते रहते हैं। तो कितना प्यारा हुआ! लौकिक बाप तो सिर्फ वर्सा देंगे लेकिन यहाँ वरदान भी है, वर्सा भी है और पढ़ाई भी है। ऐसा बाप सारे कल्प में मिला? सारी वर्ल्ड घूमकर आओ, देखो तो नहीं मिलेगा। क्योंकि बाप बच्चों की मेहनत देख नहीं सकते। कोई-कोई बच्चे बहुत पुरूषार्थ करने में भी मेहनत करते हैं। बापदादा को अच्छा नहीं लगता, मेहनत क्यों करते? बच्चों को सदैव बालक सो मालिक कहा जाता है। मालिक कभी मेहनत नहीं करते। मालिक हो या लेबर हो? कभी वह बन जाते कभी वह बन जाते। जब अभी से मालिकपन के संस्कार डालेंगे तभी विश्व के मालिक बनेंगे। जब सर्वशक्तिवान् बाप सदा साथ है तो मेहनत क्यों करेंगे? साथ में रहने वाले को मेहनत करके याद किया जाता है क्या? जहाँ सर्वशक्तिवान् बाप साथ है तो शक्तियाँ भी साथ होंगी ना। जहाँ सर्वशक्तियाँ हैं वहाँ मेहनत करने की जरूरत नहीं। इसलिए बापदादा कहते हैं कि सदा अपने को लाडला समझो। सतगुरू वरदाता हर बच्चे को हर कर्म में वरदान देते हैं। जब बाप साथ है, वरदाता साथ है तो वरदान ही देगा ना! जब हर कर्म में वरदाता का वरदान मिला हुआ है तो वरदान जहाँ होता है वहाँ मेहनत नहीं होती। वरदानों से जन्म हुआ, वरदानों से पालना हुई, वरदानों से सदैव उड़ रहे हो, इतना वरदान मिला है ना? किसको कम, किसको ज्यादा नहीं मिला है? कोई को कम तो नहीं मिला है ना? किसको कम, किसको ज्यादा नहीं मिला है? कोई को कम तो नहीं मिला है? सबको फुल मिला है इसलिए सदा अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान् समझ इसी स्मृति से आगे बढ़ते रहो। सभी उड़ती कला वाले हो ना? या कभी चलते हो, कभी उड़ते हो? क्योंकि टाइम कम है और पहुँचना ऊंची मंजिल पर है तो क्या करना पड़े? सदा उड़ती कला फरिश्ते हो ना? फरिश्ते को पंख दिखाते हैं। फरिश्ता अर्थात् डबल नाइट। लाइट चीज सदा ऊपर जाती है, नीचे नहीं आती। तो चलते-फिरते फरिश्ते हो ना। सदा यही स्मृति में रखो कि मैं डबल लाइट फरिश्ता हूँ। ऊंची स्थिति में रहने वाले, नीचे की स्थिति में आने वाले नहीं। आधाकल्प तो नीचे रहे अब उड़ती कला - कुछ बोझ है? देह भान का बोझ है? अपने ही कमजोर संस्कार का बंधन है? व्यर्थ संकल्पों का बोझ है? कोई भी बोझ अगर बहुत समय से चलता रहेगा तो अंत में भी यह बोझ नीचे खींच सकता है। संगमयुग का एक वर्ष कई वर्षों के समान है। तो एक साल में भी अगर बोझ है तो अनेक वर्षों का बहुतकाल हो जाता है। इसलिए बहुतकाल डबल लाइट का अभ्यास करो। तो चेक करो और चेंज करो। क्योंकि कोई भी बंधन, बोझ उड़ती कला में जाने नहीं देगा। कितनी भी मेहनत करो बार-बार नीचे आ जायेंगे। इसलिए सदा डबल लाइट और उड़ती कला। अच्छा!



19-03-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


उड़ती कला का आधार उमंग-उत्साह के पंख

आज सर्व बच्चों को स्नेह सम्पन्न मिलन-भावना और सम्पूर्ण बनने की श्रेष्ठ कामना के शुभ उमंग-उत्साह के वायब्रेशन बापदादा देख रहे हैं। हर बच्चे के अंदर उसमें भी इस कल्प में पहली बार मिलने वाले बच्चों का उत्साह और इस कल्प में अनेक बार मिलनेवाले  वाले बच्चों का उत्साह अपना-अपना है। जिसको आप अपनी भाषा में कहते हो नये बच्चे और पुराने बच्चे। लेकिन हैं सभी आति पुराने-ते-पुराने। क्योंकि पुरानी पहचान, बाप की तरफ, ब्राह्मण-परिवार की तरफ आकर्षित कर यहाँ लाई है। यह सिर्फ निशानी मात्र कहा जाता है नया और पुराना। तो नये बच्चों का उमंग-उत्साह यही है कि थोड़े समय में बहुत आगे उड़ते हुए बाप समान बन करके दिखायें। पुराने बच्चों का यही श्रेष्ठ संकल्प है कि जो बापदादा से पालना मिली है, खज़ाना मिला है - उसका रिटर्न बाप के

आगे सदा रखते रहें। दोनों का उमंग-उत्साह श्रेष्ठ है। और यही उमंग-उत्साह पंख बन उड़ती कला की ओर ले जा रहा है। उड़ती कला के पंख ज्ञान-योग तो हैं ही लेकिन प्रत्यक्ष स्वरूप में सारी दिनचर्या में हर समय, हर कर्म में, उड़ती कला का आधार है। कैसा भी कार्य हो, चाहे सफाई करने का हो, बर्तन मांजने का हो, साधारण कर्म हो लेकिन उस में भी उमंग-उत्साह नैचुरल और निरंतर होगा। ऐसे नहीं कह जब ज्ञान की पढ़ाई कर और करा रहे हैं वा याद में बैठे हैं, किसको बिठा रहे हैं, वा आध्यात्मिक सेवा में बिजी हैं तो उस समय सिर्फ उमंग-उत्साह हो और साधारण कर्म हो तो स्थिति भी साधारण हो जाए, उमंग-उत्साह भी साधारण हो जाए - यह उड़ती कला की निशानी नहीं। उड़ती कला वाली श्रेष्ठ आत्मा के उमंग-उत्साह के पंख सदा ही उड़ते रहेंगे। तो बापदादा सभी बच्चों के उमंग-उत्साह को देख रहे हैं। पंख तो सभी के हैं लेकिन कभी-कभी उमंग-उत्साह में उड़ते-उड़ते थक जाते हैं। कोई छोटा-बड़ा कारण बनता है अर्थात् रूकावट आती है, कभी तो प्यार से पार कर लेते हैं, लेकिन कभी घबरा जाते हैं। जिसको आप लोग कहते हैं कनफ्यूज हो जाते हैं। इसलिए सहज पार नहीं करने का कारण थक जाते हैं लेकिन थोड़ा-थोड़ा थकते हैं फिर भी लक्ष्य श्रेष्ठ हैं, मंजिल अति प्यारी लगती है इसलिए उड़ने लग जाते हैं। श्रेष्ठ लक्ष्य और प्यारी मंजिल और बाप के प्यार का अनुभव थकावट से नीचे की स्थिति में ठहरने नहीं देता है। इसलिए फिर से उड़ने लग जाते हैं। तो बापदादा बच्चों का यह खेल दिखाते रहते हैं। फिर भी बाप का प्यार रूकने नहीं देता। और प्यार में मैजारिटी पास हैं इसलिए रूकावट कितना भी रोकने की कोशिश करे और करती है। कभी-कभी सोचते हैं कि बड़ा मुश्किल है, इससे तो जैसे थे वैसे बन जायें। लेकिन चाहते भी पास्ट लाइफ में जाने का मजा नहीं आता। क्योंकि पहले तो इस परमात्म-प्यार और देहधारियों का प्यार दोनों का अंतर सामने हैं तो उड़ते-उड़ते जब ठहरती कला में आ जाते हैं तो दो रास्तों के बीच में होते हैं और सोचते हैं - इधर जायें वा उधर जायें। कहाँ जायें? लेकिन परमात्म प्यार का अनुभव कनफ्यूज को सुरजीत कर देता है और उमंग-उत्साह के पंख मिल जाते हैं इसलिए सोचते भी फिर ठहरती कला से उड़ती कला में उड़ जाते हैं। बातें बहुत छोटी-छोटी होती है लेकिन उस समय कमजोर होने के कारण बड़ी लगती है। जैसे शरीर की कमजोरी वाले को एक पानी का गिलास भी मुश्किल लगता है और जो हिम्मत वाला है उसको दो बाल्टी उठाना खेल लगता है। ऐसे ही छोटी-सी बात बड़ी अनुभव करने लगते हैं। तो उमंग-उत्साह के पंख सदा उड़ाते रहते हैं। रोज अमृतवेले अपने सामने सारा दिन किस स्मृति से उमंग-उत्साह में रहें - वह वैराइटी उमंग-उत्साह भी प्वाइंट्स इमर्ज करो। सिर्फ एक ही प्वाइंट कि मैं ज्योतिर्बिन्दु हूँ, बाप भी ज्योतिर्बिन्दु है, घर जाना है फिर राज्य में आना है - यह एक ही बात कभी-कभी बच्चों को बोर कर देती है। फिर सोचते हैं कुछ नया चाहिए। लेकिन हर दिन की मुरली में उमंग-उत्साह की भिन्न-भिन्न प्वाइंट्स होती है। वह उमंग-उत्साह की विशेष प्वाइंट अपने पास नोट करो। बहुत बड़ी लिस्ट बना सकते हैं। डायरी में भी नोट करो तो बुद्धि में भी नोट करो। जब बुद्धि में इमर्ज न हो तो डायरी से इमर्ज करो और वैराइटी प्वाइंट्स हर रोज नया उमंग-उत्साह बढ़ायेंगी। मनुष्य आत्मा का यह नेचर है कि वैराइटी पसन्द आती है इसलिए चाहे ज्ञान का प्वांइट मनन करो या रूहरिहान करो। सारा दिन बिंदु याद करेंगे तो बाहर हो जायेंगे। लेकिन बिंदु बाप भी है बिंदु आप भी हो। संगमयुग पर हीरो पार्टधारी भी हो, जीरो के साथ हीरो भी हो। सिर्फ जीरो नहीं हो। संगमयुग पर हीरो होने के कारण सारे दिन में वैराइटी पार्ट बजाते हो। मुझ जीरो का सारे कल्प में क्या-क्या पार्ट रहा है और इस समय क्या हीरो पार्ट है, किसके साथ पार्ट है, कितना समय और क्या पार्ट बजाना है, इस वैरायटी रूप से जीरो बज अपने हीरो पार्ट की स्मृति में रहो। याद में भी वैराइटी रूप से कभी बीज-रूप स्थिति में रहे, कभी फरिश्ता रूप में, कभी रूहरिहान के रूप में रहो। कभी बाप के मिले हुए खज़ानों के के एक-एक रत्न को सामने लाओ। जिस समय जो रूचि हो उसी रीति से याद करो। जिस समय जिस सम्बन्ध से बाप का मिलन, बाप का स्नेह चाहो उस सम्बन्ध से मिलन मनाओ। इसलिए जो सर्व सम्बन्ध से बाप ने आपको अपना बनाया और आपने भी बाप को सर्व सम्बन्ध से अपना बनाया। सिर्फ एक सम्बन्ध तो नहीं है, वैराइटी है ना? लेकिन एक बात ध्यान में रखनी है कि सिवाए बाप के, सिवाए बाप की प्राप्तियों के वा सिवाए बाप के खज़ानों के और कोई याद न आये। वैराइटी प्राप्ति है, वैराइटी खज़ाने हैं, वैराइटी सम्बन्ध है, वैराइटी खुशी की बातें हैं - उमंग-उत्साह की बातें हैं। उसी विधि से यूज़ करो। बाप और आप यही सेफ्टी की लकीर है। इस स्मृति की लकीर से बाहर नहीं आओ। बस, यह लकीर परमात्मा-छत्रछाया है, जब तक इस छत्रछाया की लकीर के अंदर हैं तब तक कोई माया की हिम्मत नहीं। फिर मेहनत क्या होती, रूकावट क्या होती, विघ्न क्या होता - इन शब्दों से अविद्या हो जायेगी। जैसे आदि स्थापना के समय जब सतयुग की आत्माएं प्रवेश होती थीं तो उन आत्माओं को विकार क्या होता है, दु:ख क्या होता , माया क्या होती है - इन शब्दों की अविद्या रहती थी। बच्चों को यह अनुभव हैं ना? पुराने तो इन बातों को जानते हैं। ऐसे जो बाप और आप - इस स्मृति की लकीर की छत्रछाया में हैं, उनको इन बातों की अविद्या हो जाती है। इसलिए सदा सेफ हैं, सदा बाप के दिल में रहते हैं। आप लोगों को दिल ज्यादा पसंद आती है ना। सौगात भी हार्ट ही बनाकर लाते हो। केक भी हार्ट बनाते हो, बॉक्स भी हार्ट जैसा बनाते हो। तो रहते भी हार्ट में हो ना? बाप की हार्ट तरफ माया आ नहीं सकती। जैसे जंगल में भी रोशनी कर देते हैं तो जंगल का राजा शेर भी नहीं आ सकता, भागा जाता है। बाप की हार्ट कितनी लाइट और माइट है! उसके आगे माया का कोई रूप आ नहीं सकता। तो मेहनत से सेफ हो गये ना! जन्म भी सहज हुआ, मेहनत लगी क्या जन्म लेने में? बाप का परिचय मिला, पहचाना और सेकण्ड में अनुभव किया। बाप मेरा, मैं बाप का। जन्म सहज हुआ, भटकना नहीं पड़ा। आपके देश रूपी घर में बाप ने बच्चों को निमित्त बनाकर भेजा। ढूंढना वा भटकना तो नहीं पड़ा। घर बैठे बाप मिला ना। यह तो अभी प्यारे से भारत में आते हो मिलने। लेकिन परिचय तो वहाँ ही मिला, जन्म तो वहाँ मिला ना? जन्म अति सहज हुआ तो पालना भी आति सहज है। सिर्पु अनुभव करो। और जायेंगे भी सहज ही। बाप के साथ-साथ जाना है ना या बीच में धर्मराजपुरी में रूकना है। सभी साथ चलने वाले हो ना। सभी का यह दृढ़ संकल्प है कि साथ है और साथ चलेंगे। और आगे भी ब्रह्मा बाप के साथ राज्य में वा पार्ट में आयेंगे - पक्का संकल्प है ना? चलते-चलते थक जायेंगे तो रूक जायेंगे फिर क्या करेंगे? क्योंकि बाप तो उस समय रूकेंगे नहीं। अभी रूक रहे हैं। अभी समय दिया है, उस समय नहीं रूकेंगे। उस समय तो सेकण्ड में उड़ेंगे। अभी नये नये बच्चों के लिए लेट हुआ है लेकिन टू लेट का बोर्ड नहीं लगा है। अभी तो नई दुनिया आने के लिए, नये-नये बच्चों के लिए रूकी हुई है कि यह भी लास्ट सो फास्ट और फर्स्ट नम्बर तक पहुंच जाएं। सभी साथ जाने के लिए तैयार हो ना? जो इस कल्प में पहली बार आये हैं, बापदादा मुबारक देते हैं। छोटे-छोटे बच्चों पर बड़ों का प्यार होता है। तो बाप का और बड़े भाई-बहनों का आप लोगों से विशेष प्यार है। लाडले हो गये ना। नये बच्चे लाडले हैं। चाहे नये हो वा पुराने हो सभी के लिए फास्ट गति फर्स्ट आने की है - छत्रछाया में रहना, सदा दिल में रहना, यही सबसे सहज तीव्रगति है।

अपने-आपको कभी भी बोर नहीं करो। सदा अपने-आपके लिए वैराइटी रूप से उमंग-उत्साह इमर्ज करो। डबल विदेशी कभी कभी कोई-कोई यह भी सोचते हैं कि हमारा कल्चर और इंडिया का कल्चर बहुत फर्क है। इंडियन कल्चर कभी पसन्द आता कभी नहीं आता। लेकिन यह तो न इंडियन कल्चर है न विदेश का कल्चर है। यह तो ब्राह्मण कल्चर है। ब्रह्माकुमार, ब्रह्माकुमारी यह नाम तो सभी को पसंद है ना? ब्रह्मा बाप से भी बहुत प्यार है और बी.के. जीवन भी अति प्यारी है। कभी-कभी सफेद कपड़ों के बजाए रंगीन कपड़े याद आते हैं क्योंकि सफेद कपड़े जल्दी मैले हो जाते हैं। दफ्तर में जाते हो वा कहाँ भी ऐसे स्थानों पर जाते हो तो जो ड्रेस आप पहनते हो उसके लिए बापदादा मना नहीं करते लेकिन उसी वृत्ति से नहीं पहनो कि हमारा फॉरेन कल्चर है, यही मेरी पर्सनैलिटी है - इस रीति से नहीं पहनो। सेवाभाव से भले पहनो, पर्सनैलिटी के लक्ष्य से नहीं | ब्राह्मण-जीवन का लक्ष्य हो, सेवा अर्थ | आवश्यकता अर्थ पहनते हो तो कोई मना नहीं। लेकिन वह भी निमित्त बनी हुई आत्माओं से वैरीफाय कराओ। ऐसे नहीं कि बापदादा ने तो छुट्टी दे दी फिर आप मना क्यों करते हो? कभी-कभी बहुत हंसी की बातें करते हैं। जो मतलब के अक्षर होते हैं वह याद रखते हैं लेकिन उसके पीछे जो कायदे की बात होती वह भूल जाते। होशियारी तो बापदादा को अच्छी लगती है लेकिन होशियारी लिमिट में हो, अनलिमिट में न हो। खाओ, पियो, पहनो, खेलो - लेकिन लिमिट में। तो कौन सा कल्चर पसन्द हैं? जो ब्रह्मा बाप का कल्चर वह ब्रह्माकुमार, कुमारियों का कल्चर है, पसंद है ना? इन्हों में एक बात अच्छी है जो साफ बोल देते हैं, सभी एक जैसे नहीं हैं - कोई-कोई ऐसे हैं जो अपनी कमजोरी वर्णन करते हैं, लेकिन विम्जीकल बन जाते हैं। बार-बार वही स्मृति में लाते रहते - मैं कमजोर हूँ...। ऐसे नाजुक नहीं बनो। विशेषताओं को भूल जायेंगे, कमजोरी को ही सोचते रहेंगे, यह नहीं करना। कमजोरी सुनाओ जरूर लेकिन जब बाप को दी तो फिर किसके पास रही? फिर क्यों यह सोचते हो मैं ऐसा हूँ.... बाप को दे दिया ना। बापदादा को पत्र लिख कमजोरियाँ दे देते हो या पत्र लिख बापदादा के कमरे में रख देते हो तो फिर सोचते हो जवाब तो मिला नहीं। बापदादा ऐसे जवाब नहीं देते। जो कमी आपने दे दी तो बापदादा देता है वह लेते नहीं हो, सिर्फ सोचते हो कि जवाब तो मिला नहीं। जो बाप देता है उसको लेने का प्रयत्न करो। जवाब का इंतजार नहीं करो - शक्ति, खुशी लेते जाओ। फिर देखो कितना अच्छा उमंग-उत्साह रहता है। जिस घड़ी अपनी कमजोरी लिखते हो वा निमित्त बनी हुई आत्माओं को सुनाते हो तो दे दी माना खत्म। अभी मिल क्या रहा है वह सोचो। बापदादा के पास एक-एक के कितने पत्र आते, बापदादा उत्तर नहीं देता लेकिन जो आवश्यकता है, जो कमी है उसको भरने का रिटर्न देता है। बाकी याद-प्यार तो रोज देते ही हैं। कोई दिन ऐसा है जो याद-प्यार न मिला हो? बापदादा सभी को रोज दो-तीन पेज का पत्र लिखते हैं। (मुरली) इतना बड़ा पत्र तो रोज कोई भी किसको नहीं लिखता! कितना भी आपका प्यारा हो कोई ने इतना बड़ा पत्र लिखा? मुरली पत्र है ना। आपकी बातों का रेसपाण्ड होता है ना? तो इतना बड़ा पत्र लिखते भी बोलते भी - जो आप विशेष पत्र लिखते हो उसका विशेष रिटर्न भी करते हैं क्योंकि लाडले, सिकीलधे हो। बापदादा रिटर्न में शक्ति और खुशी एक्स्ट्रा देते हैं। सिर्फ बुद्धि को सदा केयरफुल और क्लियर रखो। पहले भी सुनाया था वह बात अपनी बुद्धि से निकाल दो। वो बातें भी रखी हुई होती हैं तो बुद्धि क्लियर नहीं होती। इसलिए बाप जो रिटर्न देता वह मिक्स हो जाता। कभी मिस कर देते हो। कभी मिक्स कर देते हो।

कभी-कभी कोई बच्चे क्या करते हैं - आज हालचाल सुनाते हैं। कई सोचते हैं सेवा तो कर रहे हैं लेकिन बाप का वायदा है कि मैं सदा मददगार हूँ - इस सेवा में तो मदद की नहीं। सफलता कम निकली। बापदादा ने क्यों नहीं मदद की। फिर सोचते शायद मैं योगय नहीं हूँ। मैं सेवा कर नहीं सकती हूँ, मैं कमजोर हूँ। व्यर्थ सोचते हैं लेकिन अगर कोई बच्चा सेवा की मदद के लिए बाप के आगे संकल्प करते भी हैं, खुली दिल से करो। लेकिन इसका रिटर्न बापदादा सेवा के समय विशेष मदद देते हैं - सिर्फ एक विधि अपनाओ। कैसी भी मुश्किल सेवा हो लेकिन बाप को सेवा भी बुद्धि से अर्पण कर दो। मैंने किया, सफलता नहीं हुई, मैं कहाँ से आया? बाप करनकरावनहार की जिम्मेवारी भूल करके अपने ऊपर क्यों उठाई। यह रांग हो जाता है। बाप की सेवा हैं, बाप अवश्य करेगा। बाप को आगे रखो, अपने को आगे नहीं रखो। मैंने यह किया, यह मैं शब्द सफलता को दूर करता है। समझा।

दोनों प्रकार के पत्र और रूहरिहान होती है। एक कमजोरी के पत्र या रूहारिहान और कोई सेवा में सफलता प्रति पत्र लिखते या रूहरिहान करते। आप करने वाले निमित्त हो। मैं योग्य नहीं हैं - यह संकल्प कैसे करते हो? यह कमजोर संकल्प, यह बीज ही कमजोर डालते हो और फिर सोचते हो फल अच्छा क्यों नहीं निकला। बीज कमजोर और फल शक्तिशाली निकले यह हो सकता है क्या! फाउण्डेशन कमजोर डालते हो। बाकी बापदादा, ब्राह्मण-परिवार, ड्रामा, संगमयुग का समय सब आपकी सफलता में मददगार हैं। आपके चारों तरफ शक्तिशाली हैं। बापदादा, ब्राह्मण-परिवार, समय और स्वयं। चारों तरफ मजबूत हैं तो हिलेगा क्यों, समझा? लेटर्स जो लिखते हो वह फालतू नहीं लिखते। बापदादा के प्यारे हो। बापदादा ने हर बच्चे की जिम्मेवारी सदा के लिए ली हुई है। सिर्फ अपने ऊपर जिम्मेवारी गलती से नहीं ले लो। फिर देखो सफलता आपके चरणों में, स्वयं सफलता आपके गले की माला बनेगी, चरण छुयेगी। सिवाए ब्राह्मणों के और कहीं सफलता जा नहीं सकती। यह संगमयुग का वरदान है। सिर्फ बाप की जिम्मेवारी को अपने ऊपर नहीं उठाओ। समझा? सदा उमंग-उत्साह के पंखों से उड़ती कला की ओर जाओ। ठहरती कला में नहीं आओ। न गिरती कला, न ठहरती कला, सदा उड़ती कला हो। सभी टीचर्स कौन-सी कला वाली हो? टीचर अर्थात् सेवा के निमित्त। चाहे स्व सेवा हो, चाहे विश्व की सेवा हो लेकिन सदा सेवा में तत्पर रहना - यही टीचर्स की विशेषता है। अपने मन-बुद्धि और शरीर द्वारा सदा बिजी रहने वाले, कभी शरीर द्वारा कर्म करते हो तो मन-बुद्धि को फ्री रख देते हो। मन-बुद्धि को फ्री रखना माना माया को वेलकल करना। जिसको वैलकम करेंगे वह तो जरूर बैठ जायेगी ना। फिर कहते हो बापदादा माया को भगाओ। बुलाते आप हो और भगाये बापदादा! तो टीचर वा नंबरवन गॉडली स्टूडेंट की विशेषता है - मन बुद्धि शरीर से अपने को बिजी रखना। विशेष निमित्त बने हुए सेवाधारी को यह अंडरलाइन करनी चाहिए तो सहज ही अथक बन जायेंगे। अच्छा-आज फुल कुंभ मेला है। भारतवासियों को 3 पैर पृथ्वी चाहिए और डबल विदेशियों को डबल चाहिए। 3 पैर लगेज के लिए तो 3 पैर पृथ्वी के चाहिए। भारतवासी इन सब मकानों में 1600 रहते हैं और अभी 1125 फॉरेनर्स रहे हैं, इन्हों को 6 पैर पृथ्वी चाहिए। अच्छा!

चारों ओर के सदा उमंग-उत्साह में उड़ने वाले तीव्र पुरुषार्थी आत्माओं को, सदा बाप की दिल में रहने वाली विशेष मणियों को, सदा बाप और आप इस स्मृति की छत्रछाया में रहने वाले सदा ठहरती कला-गिरती कला से पार उड़ती कला में आगे बढ़ने वाले, सदा अपने को वैराइटी प्वाइंट्स से खुशी और नशे में आगे बढ़ाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

ग्रुप के साथ - पर्सनल मुलाकात

सदा यह खुशी रहती है कि बाप मेरे लिए आये हैं? अनुभव होता है, इसलिए सभी खुशी और नशे से कहते हो मेरा बाबा। मेरा अर्थात् अधिकार है। जहाँ अधिकार होता है वहाँ मेरा कहा जाता है। तो कितने समय का अधिकार है फिर-फिर प्राप्त करते हो। अनगिनत बार यह अधिकार प्राप्त किया है, जब यह सोचते हो तो कितनी खुशी होती है। यह खुशी खत्म हो सकती है? माया खत्म करे तो? वैसे भी नॉलेज को लाइट, माइट कहा जाता है। जिसमें फुल नॉलेज हैं अर्थात् फुल लाइट माइट है तो माया आ नहीं सकती। माया वार नहीं करेगी लेकिन बलिहार जायेगी। अच्छा- सदा अपने को अविनाशी प्राप्ति के अधिकारी बालक को मालिक समझते हो? बालकपन और मालिकपन का डबल नशा रहता है? इस समय स्व के मालिक हो, स्वराज्य-अधिकारी हो और फिर बनेंगे विश्व के मालिक। तो समय पर बालकपन का नशा, खुशी और समय पर मालिकपन का नशा और खुशी। ऐसे नहीं कि जिस समय मालिक बनना हो उस समय बालक बन जाओ और जिस समय बालक बनना हो उस समय मालिक बन जाओ, यह नहीं हो। जिस समय कोई ऐसी बात होती है जिसमें स्वयं को कमजोर समझते हो, बड़ी बात लगती है तो बालक बनकर जिम्मेवारी बाप को दे दो। जिस समय सेवा करते हो तो बालक सो मालिक बनकर बाप के खज़ाने सो मेरे खज़ाने समझ बांटो। समझा!



25-03-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व अनुभूतियों की प्राप्त का आधार पवित्रता

आज स्नेह के सागर बापदादा अपने चारों ओर के रूहानी बच्चों के रूहानी फीचर्स देख रहे हैं। हर एक ब्राह्मण बच्चे के फीचर्स में रूहानियत है लेकिन नंबरवार है। क्योंकि रूहानियत का आधार पवित्रता है। संकल्प, बोल और कर्म पवित्रता की जितनी-जितनी धारणा है उसी प्रमाण रूहानियत की झलक सूरत में दिखाई देती है। ब्राह्मण-जीवन की चमक पवित्रता है। निरंतर अतीन्द्रिय सुख और स्वीट साइलेन्स का विशेष आधार है - पवित्रता। तो पवित्रता नंबरवार है तो इन अनुभूतियों की प्राप्ति भी नंबरवार है। अगर पवित्रता नंबरवन है तो बाप द्वारा अनुभूतियों की प्राप्ति भी नंबरवन है। पवित्रता की चमक स्वत: ही निरंतर चेहरे पर दिखाई देती है। पवित्रता की रूहानियत के नयन सदा ही निर्मल दिखाई देंगे। सदा नयनों में रूहानी आत्मा और रूहानी बाप की झलक अनुभव होगी। आज बापदादा सभी बच्चों की विशेष यह चमक और झलक देख रहे हैं। आप भी अपने रूहानी पवित्रता के फीचर्स को नॉलेज के दर्पण में देख सकते हो। क्योंकि विशेष आधार पवित्रता है। पवित्रता सिर्फ ब्रह्मचर्य को नहीं कहा जाता। लेकिन सदा ब्रह्मचारी और सदा ब्रह्माचारी अर्थात् ब्रह्मा बाप के आचरण पर हर कदम में चलने वाले। उसका संकल्प, बोल और कर्म रूपी कदम नैचुरल ब्रह्मा बाप के कदम-ऊपर-कदम होगा। जिसको आप फुट स्टेप कहते हो। उनके हर कदम में ब्रह्मा बाप का आचरण दिखाई देगा। तो ब्रह्मचारी बनना मुश्किल नहीं है लेकिन यह मन-वाणी-कर्म के कदम ब्रह्माचारी हों - इस पर चेक करने की आवश्यकता है। और जो ब्रह्माचारी हैं उनका चेहरा और चलन सदा ही अर्न्तमुखी और अतीन्द्रिय सुखी अनुभव होगा। एक है साइंस के साधन और ब्राह्मण-जीवन में हैं ज्ञान के साधन। तो ब्रह्माचारी आत्मा साइंस के साधन वा ज्ञान के साधन के आधार पर सदा सुखी नहीं होते। लेकिन साधनों को भी अपनी साधना के स्वरूप में कार्य में लाते। साधनों को आधार नहीं बनाते लेकिन अपनी साधना के आधार से साधनों को कार्य लाते - जैसे कोई ब्राह्मण-आत्माएं कभी-कभी कहते हैं हमें यह चांस नहीं मिला, इस बात की मदद नहीं मिली। यह साथ नहीं मिला, इसलिए खुशी कम हो गई अथवा सेवा का, स्वं का उमंग-उत्साह कम हो गया। पहले-पहले तो बहुत अतीन्द्रिय सुख था, उमंग-उत्साह कम हो गया। पहले-पहले तो बहुत अतीन्द्रिय सुख था, उमंग-उत्साह भी रहा। मैं और बाबा और कुछ दिखाई नहीं दिया। लेकिन मैजारिटी 5 वर्ष से 10 वर्ष के अन्दर अपने में कभी कैसे, कभी कैसे अनुभव करने लगते हैं। इसका कारण क्या है? पहले वर्ष से 10 वर्ष में उमंग-उत्साह 10 गुणा बढ़ना चाहिए ना। लेकिन कम क्यों हो गया? उसका कारण यही है कि साधना की स्थिति में रह साधनों को कार्य में नहीं लगाते। कोई-न-कोई आधार को अपनी उन्नति का आधार बना देते हैं और वह आधार हिलता है, उमंग-उत्साह भी हिल जाता है। वैसे आधार लेना कोई बुरी चीज नहीं। लेकिन आधार को ही फाउण्डेशन बना देते हैं। बाप बीच से निकल जाता है और आधार को फाउण्डेशन बना देते हैं। इसलिए हलचल क्या होती, यह होता तो ऐसा नहीं होता, यह होगा तो ऐसे होगा। यह तो बहुत अवश्यक है - ऐसे अनुभव होने लगता है। साधना और साधन का बैलेन्स नहीं रहता। साधनों की तरफ बुद्धि ज्यादा जाती है। साधना की तरफ बुद्धि कम हो जाती। इसलिए कोई भी कार्य में, सेवा में बाप की ब्लैसिंग अनुभव नहीं करते। और ब्लैसिंग का अनुभव न होने के कारण साधन द्वारा सफलता मिल जाती तो उमंग-उत्साह बहुत अच्छा रहता और सफलता कम होती तो उमंग-उत्साह भी कम हो जाता है। साधना अर्थात् शक्तिशाली याद। निरंतर बाप के साथ दिल का सम्बन्ध। साधना इसको नहीं कहते कि सिर्फ योग में बैठ गये लेकिन जैसे शरीर से बैठते हो वैसे दिल, मन, बुद्धि एक बाप की तरफ बाप के साथ-साथ बैठ जाएं। शरीर भल यहाँ बैठा है, और मन एक तरफ, बुद्धि दूसरे तरफ जा रही है, दिल में और कुछ आ रहा है तो इसको साधना नहीं कहते। मन, बुद्धि, दिल और शरीर चारें ही साथ-साथ बाप के साथ समान स्थिति में रहें - यह है यर्थाथ साधना। समझा? अगर यथार्थ साधना नहीं होती तो फिर आराधना चलती है। पहले भी सुनाया है कभी तो याद करते हैं लेकिन कभी फिर फरियाद करते हैं। याद में फरियाद की आवश्यकता नहीं। साधना वाले का आधार सदा बाप ही होता है। और जहाँ बाप है वहाँ सदा बच्चों की उड़ती कला है। कम नहीं होगा लेकिन अनेक गुणा बढ़ता जायेगा। कभी ऊपर, कभी नीचे इसमें थकावट होती है। आप कोई भी हलचल के स्थान पर बैठो तो क्या होगा? ट्रेन में बहुत हिलने से थकावट होती है ना। कभी बहुत उमंग-उत्साह में उड़ते हो, कभी बीच में रहते हो, कभी नीचे आ जाते हो तो हलचल हो गई ना। इसलिए या थक जाते हो या बोर हो जाते हो। फिर सोचते हैं क्या ऐसे ही चलना है! लेकिन जो साधना द्वारा बाप के साथ हैं, उसके लिए संगमयुग पर सब नया ही नया अनुभव होता है। हर घड़ी में, हर संकल्प में नवीनता। क्योंकि हर कदम में उड़ती कला अर्थात् प्राप्ति में प्राप्ति होती रहेगी। हर समय प्राप्ति है। संगमयुग में हर समय, बाप वर्से और वरदान के रूप में प्राप्ति कराते हैं। तो प्राप्ति में खुशी होती है और खुशी में उमंग-उत्साह बढ़ता रहेगा। कम हो ही नहीं सकता। चाहे माया भी आये तो भी विजयी बनने की खुशी होगी। क्योंकि माया पर विजय प्राप्त करने के नॉलेजफुल बन गये हो। तो 10 साल वालों को 10 गुणा, 20 साल वालों का 20 गुणा हो रहा है? तो कहने में ऐसे आता लेकिन है तो अनेक गुणा।

अब इस वर्ष में क्या करेंगे? उमंग-उत्साह तो बाप द्वारा मिली हुई आपकी अपनी जायजाद है। बाप की प्रॉपर्टी को अपना बनाया है तो प्रॉपर्टी को बढ़ाया जाता है या कम किया जाता है? इस वर्ष विशेष 4 प्रकार की सेवा पर अटेन्शन अंडरलाइन करना। पहला- नम्बर है स्व की सेवा। दूसरा- विश्व की सेवा। तीसरा- मन्सा सेवा। एक है वाणी द्वारा सेवा दूसरी मन्सा सेवा भी विशेष है। चार- यज्ञ-सेवा। जहाँ भी हो, जिस भी सेवास्थान पर हो वह सब सेवास्थान यज्ञकुण्ड है। ऐसे नहीं कि सिर्फ मधुबन यज्ञ है। और आपके स्थान यज्ञ नहीं है। तो यज्ञ-सेवा अर्थात् कर्मणा द्वारा कुछ-न-कुछ सेवा जरूर करनी चाहिए। बापदादा के पास सेवा के तीन प्रकार के खाते सबके जमा होते हैं। मन्सा-वाचा और कर्मणा, तन-मन और धन। कई ब्राह्मण सोचते हैं हम तो धन से सहयोगी नहीं बन सकते, सेवा नहीं कर सकते क्योंकि हम तो समर्पण हैं। धन कमाते ही नहीं तो धन से सेवा कैसे करेंगे? लेकिन समर्पित आत्मा अगर यज्ञ के कार्य में एकॉनामी करती है अपने अटेन्शन से, तो जैसे धन की एकॉनामी की, वह एकॉनमी वाला धन अपने नाम से जमा होता है यह सूक्ष्म खाता है। अगर कोई नुकसान करता है तो खाते में बोझ जमा होता है और एकॉनामी करते तो उसका धन के खाते में जमा होता है। यज्ञ का एक-एक कण मुहर के समान है। अगर यज्ञ की दिल से (दिखावे से नहीं) एकॉनामी करते हैं तो उसकी मुहरें एकत्रित होती रहती हैं। दूसरी बात- अगर समर्पित आत्मा सेवा द्वारा दूसरों के धन को सफल कराती है तो उसमें से उसका भी शेयर जमा होता है। इसलिए सभी का 3 प्रकार का खाता है। तीनों खाते की परसेंटेज अच्छी होनी चाहिए। कोई समझते हैं हम तो वाचा सेवा में बहुत बिजी रहते हैं। हमारी ड्यूटी ही वाचा की है, मन्सा और कर्मणा में परसेन्टेज कम होती है लेकिन यह भी बहाना चलेगा नहीं। वाणी के समय अगर मन्सा और वाचा की इकùी सेवा करो तो क्या रिजल्ट होगी? मन्सा और वाचा इकùी सेवा हो सकती है? लेकिन वाचा सहज है, मन्सा में अटेन्शन देने की बात है। इसलिए वाचा का तो जमा हो जाता लेकिन मन्सा का खाता खाली रह जाता है। और वाचा में तो बाप से भी सभी होशियार हो। देखो आजकल बड़ी दादियों से अच्छे भाषण छोटे-छोटे करते हैं।

क्योंकि न्यू ब्लड है ना। भले आगे जाओ, बापदादा खुश होते हैं। लेकिन मन्सा का खाता खाली रह जायेगा। क्योंकि हर खाते की 100 मार्क्स है। सिर्फ स्थूल सेवा को कर्मणा सेवा नहीं कहते। कर्मणा अर्थात् संगठन में सम्पर्क-सम्बन्ध में आना। यह कर्म के खाते में जमा हो जाता है। तो कईयों के तीनों खातें में बहुत फर्क है और वे खुश होते रहते हैं कह हम बहुत सेवा कर रहे हैं, बहुत अच्छे है। खुश भले रहो लेकिन खाता खाली भी नहीं रहना चाहिए क्योंकि बापदादा तो बच्चों के स्नेही हैं ना। फिर ऐसा उल्हना न दो कि हमको इशारा भी नहीं दिया गया कि यह भी होता है। उस समय बापदादा यह प्वाइंट याद करायेगा। टी.वी. में चित्र सामने आ जायेगा। इसलिए इस वर्ष सेवा भले बहुत करो लेकिन यह तीनों प्रकार के खाते और चारों प्रकार की सेवा साथ-साथ करो। वाचा का तरफ भारी हो जाए और मन्सा तथा कर्मणा हल्का हो जाए तो क्या होगा? बैलेन्स नहीं रहेगा ना। बैलेन्स न रहने के कारण उमंग-उत्साह भी नीचे-ऊपर होता है। एक तो अटेंशन रखना लेकिन बापदादा बार-बार कहते हैं अटेंशन को टेंशन में नहीं बदलना। कई बार अटेंशन को टेंशन बना देते हैं - यह नहीं करना। सहज और नैचुरल अटेंशन रहे। डबल लाइट स्थिति में नैचुरल अटेंशन होता ही है। अच्छा!

तीसरी बात- सेवा की विधि क्या अपनायेंगे? यह तो हो गई सिद्धि की बात। अभी विधि क्या करेंगे? एक तो जो आपका कार्य चल रहा है 2 वर्ष से सर्व के सहयोग का, इस कार्य को सम्पन्न करना है। समाप्त नहीं लेकिन सम्पन्न कहेंगे। इसलिए लिए चाहे फंक्शन रखने हैं, चाहे किताब तैयार कर फिर लोगों को संदेश देना है, यह भल करो। लेकिन एक बात जरूर ध्यान में रखना कि कम खर्चा बालानशीन। बापदादा हर कार्य के लिए आदि से अब तक यही विधि अपनाते रहे हैं कि न बहुत ऊंचा न बिल्कुल सादा बीच का हो। क्योंकि दो प्रकार की आत्माएं होती हैं। अगर ज्यादा मंहगा करते हो तो भी लोग कहते हैं, इन्हों के पास बहुत पैसे हैं और कम करते हो तो वैल्यु नहीं रहती। इसलिए सदैव बीच का रखना चाहिए। बुक भी अभी तक जो बनाया है, अच्छा है। सम्पन्न करना ही है लेकिन ज्यादा विस्तार नहीं करना। ज्यादा बड़ा नहीं बनाना। शार्ट भी हो और स्वीट भी हो, सार भी हो। विस्तार से कहाँ-कहाँ सार छिप जाता है। और सार होता है तो बुद्धि को टच होता है। कार्य ठीक कर रहे हो लेकिन अपनी बुद्धि की एनर्जी में भी कम खर्चा बालानशीन। बाकी मेहनत करने वालों को मुबारक हो। चाहे प्रोग्राम दूसरे वर्ष में रखो लेकिन सम्पन्न तो करना ही है। कई बच्चे समझते हैं बहुत लम्बा चला है। टू मच बिजी रहे हैं, टू मच खर्चा भी हुआ... लेकिन जो हुआ वह अच्छा हुआ और जो होगा वह और अच्छा होगा। थकना नहीं है। अमंग-उत्साह और बढ़ाओ। जिस रूचि से इस कार्य को आरम्भ किया, उससे अनेक गुणा कम खर्चा बालानशीन कि विधि से सम्पन्न करो। समझा? समय निश्चित होना चाहिए काम करने का। कई समझते हैं रात को जागकर काम करते तो अच्छा काम होता। लेकिन बुद्धि थक जाती है और अमृतवेला शक्तिशाली न होने के कारण हो कार्य दो गुणा होना चाहिए वह एक गुणा होता है। इसलिए टाइम की भी लिमिट होनी चाहिए। फिर सवेरे उठकर फ्रेश बुद्धि से पढ़ाई पढ़नी है। काम करने की लिमिट होनी चाहिए। ऐसे तो बापदादा बच्चों का उमंग देख खुश भी होते हैं लेकिन फिर भी हद तो देनी पड़ेगी ना। सदा बुद्धि फ्रेश रहे और फ्रेश बुद्धि से जो काम होगा वह एक घंटे में दो घंटे का काम कर सकते हो। एक तो सेवा का यह कार्य है।

दूसरा:- वर्तमान समय धन और समय देश वा विदेश में इस बिजी प्रोग्राम में बहुत लगाया है। इसलिए अभी चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क में अपने वाले हैं चाहे और नई आत्माओं को संदेश दे स्नेह-मिलन करो। छोटे-छोटे सेंटर्स पर 5 का भी अगर स्नेह-मिलन होता है तो कोई हर्जा नहीं। वह और ही रिफ्रेश हो जायेंगे, समीप होते जायेंगे। छोटे-छोटे स्नेह-मिलन करो। 5 से लेकर 50 तक 100 तक का सम्मेलन कर सकते हो। बड़ा फंक्शन नहीं, जितना स्थान है और कम खर्च बालानशीन में आपको स्थान भी सहज मिल सकता है। ज्यादा भाग-दौड़ नहीं करनी है। अगर आपके पास 100 आत्माएं आनी हैं तो ड्रामा अनुसार स्थान भी सहज मिल जायेगा। लेकिन यह नहीं कि छोटे सेंटर वाले भी समझे कि हमें 100 का प्रोग्राम करना है। यथा-शक्ति यथा-सहयोगी, यथा-स्नेह और धन की शक्ति 5 का करो - 50 का करो, 25 का करा, लेकिन करना जरूर है। बिजी जरूर रहना है और हम 3 मास के बाद वा यथा-शक्ति 3 करो वा 4 करो। लेकिन करना जरूर है और पहले 5 का स्नेह-मिलन करेंगे तो 5 आत्माएं और दो-तीन को लायेंगी तो दूसरी बार 10 का हो जायेगा फिर 15 का हो जायेगा। क्योंकि डबल लाइट से करेंगे। बर्डन से नहीं करना। अलबेले भी नहीं बनना कि सेवा तो बहुत कर ली है। नहीं सेवा बिजी रहने का साधन है। लेकिन बर्डन् से सेवा करते हो इसलिए थक जाते हो। सेवा तो खुशी बढ़ाती है। सेवा अनेक आत्माओं की दुआयें प्राप्त कराती है। सेवा नहीं करेंगे तो 9 लाख तक कैसे पहुँचेंगे? सेवा करो लेकिन अंडरलाइन यह करना कि बर्डन वाली सेवा नहीं। चाहे बुद्धि का बड़न, चाहे धन का बर्डन और इजी होकर करेंगे तो सार्विस भी इजी रूप में बढ़ती जायेगी। तो जो विधियाँ अपनाते हो वह करनी जरूर हैं। अगर आपके कोई सहयोगी बन जाते और बनी-बनाई स्टेज आपको बड़े फंक्शन के लिए देते हैं तो बड़ा फंक्शन भी कर लेंगे और न बुद्धि का, न धन का बर्डन रहेगा। ऐसी कई संस्थाएं भी होती हैं, उन्हों को अपने सहयोगी बनाओ, यह ट्रॉयल करो। और अगर हिम्मत है तो एक बड़ा फंक्शन जरूर करो। हिम्मत नहीं है तो नहीं करना। बड़ा फंक्शन संस्था का बाला करता है। लेकिन डबल लाइट होकर करो। और यह लक्ष्य रखो कि अपनी एनर्जी लगाने के बजाए दूसरों की एनर्जी इस ईश्वरीय कार्य में लगावें। लक्ष्य रखो तो बहुत निमंत्रण मिलेंगे। किसी भी वर्ग के सहयोगी क्षेत्र हर छोटे-बड़े देश में मिल सकते हैं। वर्तमान समय ऐसी कई संस्थाएं हैं, जिनके पास एनर्जी है, लेकिन विधि नहीं आती यूज़ करने की। वह ऐसा सहयोग चाहती हैं। कोई ऐसा उन्हों को नजर नहीं आता। बड़े प्यार से आपको सहयोग देंगे, समीप आयेंगे। और आपकी 9 लाख प्रजा में भी वृद्धि हो जायेगी। कोई वारिस भी निकलेंगे, कोई प्रजा निकलेंगे। देखो, यहाँ भी पहले सहयोगी नब करके आये, ग्लोबल के कार्य के और अभी वारिस बन गये हैं। मेहमान बनकर आये और महान् बन गये तो ऐसी भी बहुत अच्छी-अच्छी समीप की आत्माए निकली हैं और आगे भी निकलेंगी। कुछ-न-कुछ करते रहो। लेकिन बापदादा बार-बार स्मृति दिला रहे हैं कि डबल लाइट होकर रहो। भारत में भी इसी विधि से स्नेह-मिलन करते-करते लास्ट में बड़ा फंक्शन ज़रूर करना। और भारत में तो प्रदर्शनी से भी अच्छी रिजल्ट निकलती है। छोटे-छोटे स्नेह-मिलन कर समीप लाओ और फिर बड़े फंक्शन में उन्हों को स्टेज पर लाओ। वह अपने अनुभव से कहें। आपको कहने की जरूरत नहीं पड़े। बड़े प्रोग्राम का प्रभाव अपना है।

स्नेह-मिलन का प्रभाव, सफलता अपनी है। स्नेह-मिलन है आत्मओं को धरनी को तैयार करना और बड़ा फंक्शन है – आवाज बुलंद करना। लेकिन यथा-शक्ति करो। ऐसे नहीं डॉयरेक्यान मिला है, कर तो नहीं सकते, मजबूरी से नहीं करो। समझा?

तीसरी बात:- स्व उन्नति के लिए पहले भी सुनाया - तीनों ही खाते अपने जमा करो। लेकिन उसके साथ-साथ बापदादा रिजल्ट में देख रहे हैं कि सेवा की वृद्धि के साथ-साथ जो निमित्त आत्माएं हैं, जिसको आप निमित्त सेवाधारी कहते हो, बापदादा टीचर शब्द ज्यादा यूज़ नहीं करते। क्योंकि कहाँ-कहाँ टीचर समझने से नशा चढ़ जाता है। इसलिए निमित्त सेवाधारी कहते हैं। तो सेवा के साथ-साथ निमित्त सेवाधारियों के पुरूषार्थ की विधि में बहुत अच्छी प्रोग्रेस अर्थात् उन्नति होनी चाहिए। सेवा की जो स्पीड है उसमें समय के प्रमाण जो हो रहा है उसको तो बापदादा सदा अच्छा कहतो है लेकिन समय की गति और सेवा के संपूर्ण समाप्ति की स्टेज को देख बापदादा समझते हैं कि सेवाधारियों के पुरूषार्थ की विधि में अगर वृद्धि हो जाए तो सेवा की चार गुणा वृद्धि हो सकती है। इसलिए पहले वह सेवा भी बहुत आवश्यकता है। सेवा का समय अपना अलग निश्चित करो और पुरूषार्थ की वृद्धि का समय अलग निश्चित करो। सेवा के निमित्त आत्मओं में अभी विल पावर चाहिए। विल पावर बढ़ाने से औरों को भी बाप के आगे सहयोगी बनाए विल करा सकते हो। कई आत्माए आपके सहयोग के लिए चात्रक हैं। लेकिन अपनी शक्ति नहीं है। आपको अपनी शक्तियों की मदद विशेष देनी पड़ेगी। इसलिए निमित्त बने हुए सेवाधारियों में सर्वशक्तियों की पावर है लेकिन जितनी होनी चाहिए उतनी नहीं है। अपने प्रति यूज़ करने के कारण दूसरों को फुल शक्तियाँ नहीं दे सकते हैं। जैसे ब्रह्मा बाप ने लास्ट में शक्तियों की विल की, बच्चों को। उस विल से यह कार्य चल रहा है। आदि में धन की विल की जिससे यज्ञ स्थापन हुआ और अंत में शक्तियों की विल की जिससे यह सेवा वृद्धि को पा रही है। ब्रह्मा ने तो किया, फालों करने वाले तो बच्चे हैं ना। एक ब्रह्मा के विल से कितनी आत्माएं आई और आ रही है। अगर इतने सब निमित्त सेवाधारी भी ऐसे शक्तियों की विल आत्माओं प्रति करें तो क्या हो जाएगा, तो अभी यह आवश्यकता है। ऐसे नहीं कि अपने ही पुरूषार्थ में एनर्जी वेस्ट करें। चाहे अपनी उन्नति करनी भी पड़ती है लेकिन वेस्ट भी जाती है इसलिए समय की गति प्रमाण, सेवा की समाप्ति की गति प्रमाण सेवाधारियों की गति और अधिक चाहिए। अभी अपने को निमित्त बनाये। इसमें दूसरों को पहले आप नहीं करे। पहले अपने को पहले आप करे। और दिल से उमंग से समझें कि मुझे ``हे अर्जुन'' बनना है। अर्जुन अर्थात् मास्टर ब्रह्मा। अवल अर्थात् अर्जुन। प्रोग्राम प्रमाण स्व-उन्नति के प्रोग्राम रखते आये हो लेकिन इस वर्ष बापदादा हर एक स्नेही आत्मा द्वारा स्नेह का प्रत्यक्षरूप दिल की प्रोग्रस चाहते हैं ना कि प्रोग्राम प्रमाण। जहाँ स्नेह होता है वहाँ कुर्बान करना मुहब्बत होता न कि मुश्किल होता है। सबकी दिल से यह उमंग हो तो सफलता होगी। अगर बाप से प्यार है तो बाप इस बार दिल के प्यार को देखेंगे। कुछ कुर्बान करना भी पड़ा तो क्या बड़ी बात है। यह तो जानते हो सेवा में सफलता के लिए क्या कुर्बान करना चाहिए? इसके लिए भी समय तो चाहिए ना। सेवा भी जरूर करनी है। और स्व-उन्नति भी जरूर करनी है। इस बारी बापदादा अपने मिलने का समय देते हैं। रिजल्ट देखकर बापदादा प्रोग्राम बनायेंगे। ऐसे नहीं कि आयेंगे ही नहीं। जो इस वर्ष बापदादा से मिलने नहीं आ सकें हैं, चाहे देश वाहे, चाहे विदेश वाले उन्हें के प्रति आयेंगे। उसके लिए विधि क्या होगी वह भी सुनाते हैं। भारत वालें के लिए 5 दिन हर ग्रुप रिफ्रेश हो। बाकी एक दिल आना एक दिन जाना। इस विधि से भारतवासियों के 4 ग्रुप और विदेशियों के 3 ग्रुप होंगे। विदेशियों का तो 15 दिन का ही प्रोग्राम रहेगा। बापदादा हर ग्रुप में एक बार मिलेंगे। मुरली द्वारा और गुप से भी। बाकी जो समय बचेगा - उसमें विशेष सेवाधारियों का हो। चाहे विदेश वालों का भी एक ग्रुप हो लेकिन मधुबन में हो। बाकी 4 ग्रुप किस समय मधुबन की सैलवेशन प्रमाण हो सकते वह आप बनाओ। जैसे विदेशी दिसम्बर में फिर मार्च में आते हैं तो दो ग्रुप एक मास में, एक ग्रुप दूसरे मास में रख सकते हो। बाकी भारत का तो 18 जनवरी ही है। विदेशियों का शिव जयन्ति। सितंबर से नवंबर यह मास सेवा के बहुत अच्छे हैं। फुल फोर्स से सेवा करो। बाकी समय सेवाधारियों के ग्रुप बनाओ। लेकिन बापदादा की यही बात नहीं भूलना - प्रोग्रामा प्रामण प्रोग्रेस नहीं करना, दिल की प्रोग्रेस हो। दिल के उमंग से प्रोग्रेस की भटठी हो। स्वयं दृढ़ संकल्प करो। दृढ़ता रखो कि मुझे बदलना है। मुझे ``हे अर्जुन'' बनना है। मास्टर ब्रह्मा बनना है।

चौथी बात:- सभी सेवास्थानों पर कम-से-कम 8 दिन अगर ज्यादा  कर सकते हैं तो 15 दिन स्व-उन्नति की रिट्रीट वा स्नेह मिलन हर सेवाकेन्द्र चाहे अपना इंडिविजुअल करे, चाहे छोटे-छोटे स्थानों को मिलाकर करें। लेकिन हर गॉडली-स्टूडेंट को, हर ब्राह्मण आत्मा को यह स्व-उन्नति की रिट्रीट, स्नेह-मिलन या दिल से पुरूषार्थ की प्रगति का प्रोग्राम जरूर बनाना है। चारों ओर की ब्राह्मण-आत्माओं को यह चांस देना भी है और लेना भी है। बापदादा यह भी गुप्त राज सुना रहे हैं। जो विशेष दिल से प्रगति की भटठी करेंगे- उनको एक्स्ट्रा बापदादा की दुआओं की गिफ्ट मिलनी है। स्थूल गिफ्ट तो कोई बड़ी बात नहीं है - लेकिन विशेष उस आत्मा के प्रति, बापदादा के पास तो सेकण्ड-सेकण्ड की टी.वी. है ना। और एक ही समय पर सभी को देख सकते हैं। इसलिए जो दिल से प्रगति का संकल्प करेगा, प्रोग्रेस करेगा उसको विशेष दुआयें मिलेंगी। अनुभव करेंगे, वह दिन आप समझना विशेष दुआओं का है। मीटिंग में भी यह नवीनता पहले करना। प्रोग्राम कुछ दिमाग के, कुछ सेवा के - लेकिन दिल के बनें। दिमाग की मात्रा ज्यादा है फिर रिजल्ट के बाद दूसरे वर्ष का नया प्रोग्राम बतायेंगे। पुरानों के लिए कोई नया प्लैन बाद में बनायेंगे अच्छा!

सदा अपने चेहरे और चलन में पवित्रता के रूहानियत की चमक वाले, सदा हर कदम में ब्रह्माचारी श्रेष्ठ आत्माएं, सदा अपने सेवा के सर्व खातों को भरपूर रखने वाले, सदा दिल से अपनी उन्नति का दृढ़ संकल्प करने वाले, सदा स्व-उन्नति प्रति स्वयं को नंबरवन आत्मा निमित्त बनाने वाले - ऐसे बाप के प्यारे और विशेष ब्रह्मा मां के प्यारे, आज मां का दिन मनाया है ना, तो ब्रह्मा मां के राजदुलारे बच्चों को ब्रह्मा मां की और विशेष और की भी दिल से याद-प्यार और नमस्ते।

मधुबन निवासियों से:-

मधुबन निवासियों को अच्छे और गोल्डन चांस मिलते हैं इसलिए ड्रामा अनुसार जिन्हें बार-बार गोल्डन चांस मिलते हैं उन्हें बापदादा बड़े-ते-बड़े चांसलर कहते हैं। सेवा का फल और बल दोनों ही प्राप्त होता है। बल भी मिल रहा है, वह बल सेवा कर रहा है, और फल सदा शक्तिशाली बनाए आगे बढ़ा रहा है। सबसे ज्यादा मुरलियाँ कौन सुनता है? मधुबन वाले। वो तो गिनती से मुरलियाँ सुनते हैं और आप सदा ही मुरलियाँ सुनते रहते हो। सुनने में भी नंबरवन हो और करने में? करने में भी वन नंबर हो या कभी टू हो जाता है? जो समीप होते हैं उन पर विशेष हुज्जत होती है तो बापदादा की भी विशेष हुज्जत है, करना ही है और नंबरवन करना है। किसी में भी नंबर पीछे नहीं। सब जमा के खाते नंबरवन फुल होने चाहिए। एक भी खाता जरा खाली नहीं होना चाहिए। जेसे मधुबन में सर्व प्राप्तियाँ - चाहे आत्मिक, चाहे शारीरिक सब नंबरवन मिलती है - ऐसे अब करने में सदा नंबरवन। वन की निशानी है हर बात में विन करना। अगर विन (विजयी) हैं तो वन जरूर हैं। विन कभी-कभी हैं तो नंबरवन नहीं। अच्छा- सेवा की मुबारकें सेवा के सर्टिफिकेट्स तो बहुत मिले हैं और कौन से सर्टिफिकेट लेने हैं? एक- अपने पुरूषार्थ में दिलपसंद हो, दूसरा- प्रभु पसंद हो और तीसरा- परिवार पसंद हो हो। यह तीनों सर्टिफिकेट हरेक को लेने हैं। ऐसे नहीं एक सर्टिफिकेट हो दिल-पसन्द का दूसरे न हों। तीनों ही चाहिए। तो बाप के पसंद कौन हैं? जो बाप ने कहा और किया। यह है प्रभु-पसंद का सर्टाफिकेट। और अपने पसंद अर्थात् जो आपकी दिल है वही बाप की दिल हो। अपने हद के दिल-पसंद नहीं लेकिन बाप की दिल सो मेरी दिल। जो बाप की दिल-पसंद वा मेरी दिल-पसंद इसको कहते हैं दिल-पसंद का सर्टिफिकेट और परिवार की संतुष्टता का सर्टिफिकेट। तो यह तीनों सर्टिफिकेट लिए हैं? सर्टिफिकेट जो मिलता है उसमें वैरीफाय भी होता है। बड़ों से वैरीफाय भी करना पड़े बाप तो जल्दी राजी हो जाते लेकिन यह सबको रानी करना है। तो जो साथ रहते हैं उनसे सर्टिफिकेट को वैरीफाय करना पड़े। बाप तो ज्यादा रहमदिल है ना तो हाँ जी कह देंगे। अच्छा सभी की डिपार्टमेन्ट निर्विघ्न हैं स्वयं भी निर्विघ्न हैं? सेवा की खुशबू तो विश्व में भी है तो सूक्ष्म वतन तक भी है। अभी सिर्फ इन तीन सर्टिफिकेट को वैरीफाय करना। अच्छा!

2. भारतवासियों से:-

ऐसा अनुभव होता है कि सुखदाता बाप के साथ सुखी बच्चे बन गये हैं? बाप सुखदाता है तो बच्चे सुख स्वरूप होंगे ना? कभी दु:ख की लहर आती है? सुखदाता के बच्चों के पास दु:ख आ नहीं सकता। क्योंकि सुखदाता बाप का खज़ाना अपना खज़ाना हो गया है। सुख अपनी प्रॉपर्टी हो गई। सुख, शान्ति, शक्ति, खुशी - आपका खज़ाना है। बाप का खज़ाना सो आपका खाजाना हो गया। बालक सो मालिक हो ना! अच्छा। भारत भी कम नहीं है। हर ग्रुप में पहुँच जाते हैं। बाप भी खुश होते हैं। पांच हजार वर्ष खोये हुए फिर से मिल जाएं तो किनती खुशी होगी। अगर कोई 10-12 वर्ष भी खोया हुआ भी फिर से मिलता है तो कितनी खुशी होती है। और यह 5 हजार वर्ष बाप और बच्चे अलग हो गये और अब फिर से मिल गये। इसलिए बहुत खुशी है ना। सबसे ज्यादा खुशी किसके पास है? सभी के पास है। क्योंकि यह खुशी का खज़ाना इतना बड़ा है जो कितने भी लेवें, जितने भी लेंवे, अखुट है। इसीलिए हर एक अधिकारी आत्मा है। ऐसे हैं ना? संगमयुग को कौन-सा युग कहते हैं? संगमयुग खुशी का युग है। खज़ाने ही खज़ाने हैं, जितने खज़ाने चाहो उतना भर सकते हो। धनवान भव का, सर्व खज़ाने भव का वरदान मिला हुआ है। सर्व खज़ानों कार वरदान प्राप्त है। ब्राह्मण-जीवन में तो खुशियाँ-ही-खुशियाँ हैं। यह खुशी कभी गायब तो नहीं हो जाती है? माया चोरी तो नहीं करती है खज़ानों की? जो सावधान, होशियार होता है उकसा खज़ाना कभी कोई लूट नहीं सकता। जो थोड़ा-सा अलबेला होता है उसका खज़ाना लूट लेते हैं। आप तो सावधान हो ना या कभी-कभी सो जाते हो? कोई सो जाते हैं तो चोरी हो जाती है ना। अलबेले हो गये। सदा होशियार, सदा जागती ज्योति रहे तो माया की हिम्मत नहीं जो खज़ाना लूट कर ले जाऐ। अच्छा - जहाँ से भी आये हो सब पद्मापद्म भाग्यवान् हो! यही गीत गाते रहो - सब कुछ मिल गया। 21 जन्मों के लिए गारंटी है कि ये खज़ाने साथ रहेंगे। इतनी बड़ी गारंटी कोई दे नहीं सकता। तो यह गारंटी कार्ड ले लिया है ना! यह गारंटी कार्ड कोई रिवाजी आत्मा देने वाली नहीं है। दाता है, इसलिए कोई डर नहीं है, कोई शक नहीं है। अच्छा!



31-03-90   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


रहमदिल और बेहद की वैराग वृत्ति

आप लवफुल और मर्सीफुल बापदादा अपने समान बच्चों को देख रहे हैं। आप बापदादा विश्व के सर्व अंजान बच्चों को देख रहे थे। भले अंजान हैं लेकिन फिर भी बच्चे हैं। बापदादा के सम्बन्ध से सर्व बच्चों को देखते हुए क्या अनुभव किया कि मैजारिटी आत्माओं को समय प्रति समय किसी-न-किसी कारण से जाने-अन्जाने भी वर्तमान समय मर्सी अर्थात् रहम की, दया की आवश्यकता है और आवश्यकता के कारण ही मर्सीफुल बाप को याद करते रहते हैं। तो चारों ओर की आवश्यकता प्रमाण इस समय रहम-दृष्टि की पुकार है। क्योंकि एक तो भिन्न-भिन्न समस्याओं के कारण अपने मन और बुद्धि का संतुलन न होने के कारण मर्सीफुल बाप को वा अपनी-अपनी मान्यता वालों को मर्सी के लिए बहुत दु:ख से, परेशानी से पुकारते रहते हैं। चाहे अंजान आत्माएं बाप को न जानने के कारण अपने धर्म पिताओं वा गुरूओं को वा इष्ट देवों को मर्सीफुल समझकर पुकारते हैं लेकिन आप सब तो जानते ही हो कि इस समय एक सिवाए एक बाप परम आत्मा के और कसी भी आत्मा द्वारा मर्सी मिल नहीं सकती। भले बाप उन्हों की इच्छा पूर्ण करने के कारण भावना का फले देने के कारण किसी भी इष्ट को वा महान आत्मा को निमित्त बना दे लेकिन दाता एक है - इसलिए वर्तमान समय के प्रमाण मर्सीफुल बाप बच्चों को भी कहते हैं कि बाप के सहयोगी साथी भुजाएं आप ब्राह्मण बच्चे हो। तो जिस चीज की आवश्यकता है, वह देने से प्रसन्न हो जाते हैं। तो मास्टर मर्सीफुल बने हो? आपके ही भाई-बहने हैं - चाहे सगे हैं वा लगे हैं लेकिन हैं तो परिवार के। अपने परिवार के अंजान, परेशान आत्माओं के ऊपर रहमदिल बनो। दिल से रहम आये। विश्व की अंजान आत्माओं के लिए भी रहम चाहिए। और साथ-साथ ब्राह्मण-परिवार के पुरूषार्थ की तीव्रगति के लिए वा स्व-उन्नति के लिए रहमदिल की आवश्यकता है। स्व-उन्नति के लिए स्व पर जब रहमदिल बनते हैं तो रहमदिल आत्मा को सदा बेहद की वैराग्यवृत्ति स्वत: ही आती है। स्व के प्रति भी रहम हो कि मैं कितनी ऊंच-ते-ऊंच बाप की वही आत्मा हूँ और वही बाप समाम बनने के लक्ष्यधारी हूँ। उस प्रमाण ओरिज्नल श्रेष्ठ स्वभाव वा संस्कार में अगर कोई कमी है तो अपने ऊपर दिल का रहम कमियों से वैराग्य दिला देगा।

बापदादा आज यही रूहानियत कर रहे थे कि सभी बच्चे नॉलेज में तो बहुत होशियार हैं। प्वाइंट स्वरूप तो बन गये हैं लेकिर हर कमजोरी को जानने की प्वाइंटस हैं, जानत भी है कि यह होना चाहिए, करना नहीं चाहिए यह जानते हुए भी प्वाइंट-स्वरूप बनना और जो कुछ व्यर्थ देखा-सुना और अपने से हुआ उसको फुलस्टाप की प्वांई लगानानहीं आता है। प्वाइंट्स तो हैं लेकिन प्वाइंट स्वरूव बनने के लिए विशेष क्या आवश्यकता है? अपने ऊपर रहम और, औरों को ऊपर रहम। भक्ति-मार्ग में भी सच्चे भक्त होंगे वा आप भी सच्चे भक्त बने हो, आत्मा में रिकॉर्ड भरा हुआ है ना। तो सच्चे भक्त सदा रहमदिल होते हैं इसलिए वे पाप-कर्म से डरते हैं। बाप से नहीं डरते लेकिन पाप से डरते हैं। इसलिए कई पाप-कर्म से बचे हुए रहते हैं। तो ज्ञान-मार्ग में भी जो यथार्थ रहमदिल हैं - उसमें 3 बातों से किनारा करने की शक्ति होती है। जिसमें रहम नहीं होता वे समझते हुए, जानते हुए तीन बातों के पर वश बन जाते हैं। वह तीनों बातें हैं - अलबेलापन, इर्ष्या और घृणा। कोई भी कमजोरी वा कमी का कारण वश यह तीनों बातें होती हैं। और जो रहमदिल होगा वह बाप के साथी धर्मराज की सजा से किनारा करने की शुभ-इच्छा रखते हैं। जैसे भक्त डर के मारे अलबेले नहीं होते, ऐसे ब्राह्मण-आत्माए बाप के प्यार के कारण, धर्मराजपुरी से क्रास न करना पड़े - इस मीठे डर से अलबेले नहीं होते हैं। बाप का प्यार उससे किनारा करा देता है। अपने दिल का रहम अलबेलापन समाप्त कर देता है। और जब अपने प्रति रहम भावना आती है तो जैसी वृत्ति, जैसी स्मृति, वैसी सर्व ब्राह्मण सृष्टि के प्रति स्वत: ही रहमदिल बनते हैं। यह है यथार्थ ज्ञानयुक्त रहम। बिना ज्ञान के रहम कभी नुकसान भी करता है। लेकिन ज्ञानयुक्त रहम कभी भी किसी आत्मा के प्रति ईर्ष्या वा घृणा का भाव दिल में उत्पन्न करने नहीं देगा। ज्ञानयुक्त रहम के साथ-साथ स्वयं का रूहानियत का रूहाब भी अवश्य होता है। अकेला रहम नहीं होता। लेकिन रहम ओर रूहाब दोनों का बैलेंस रहता है। अगर ज्ञानयुक्त रहम नहीं है, साधारण रहम है तो किसी भी आत्मा के प्रति चाहे लगाव के रूप से चाहे किसी भी कमजोरी से उसके ऊपर प्रभावित हो सकते हैं। प्रभावित भी नहीं होना है। न घृणा चाहिए, न प्रभावित चाहिए। क्योंकि आप तन-मन-बुद्धि सहित बाप के ऊपर प्रभावित हो चुके हो। जब मन और बुद्धि एक के तरफ और ऊंचे-ते-ऊंचे तरफ प्रभावित हो चुकी तो फिर दूसरे के ऊपर प्रभावित कैसे हो सकते? अगर दूसरे के ऊपर प्रभावित होते हैं तो उसको क्या कहेंगे? दी हुई वस्तु को फिर से स्वयं यूज़ करना उसको कहा जाता है - अमानत में ख्यानत। जब मन-बुद्धि दे दिया तो फिर आपकी रही कहाँ जो प्रभावित होते हो? बाप के हवाले कर दिया है या आधी रखी है, आधी दी है? जिन्होंने फुल दी है वे हाथ उठाओ। देखो, ब्राह्मण-जीवन का फाउण्डेशन महामंत्र क्या है? मनमनाभव । तो मनमनाभव नहीं हुए हो? तो ज्ञान सहित रहम दिल आत्मा कभी किसी के ऊपर चाहे गुणों के ऊपर, चाहे सेवा के ऊपर, चाहे किसी भी प्रकार के सहयोग प्राप्त होने के कारण आत्मा पर प्रभावित नहीं हो सकती। क्योंकि बेहद की वैरागी होने के कारण बाप बाप के स्नेह, सहयोग, साथ - इनके सिवाए और कुछ उसको दिखाई नहीं देगा। बुद्धि में आयेगा ही नहीं। तुम्हीं से उठूं, तुम्हीं से सोऊं, तुम्हीं से खाऊं, तुम्हीं से सेवा करूं, तुम्हीं साथ कर्मयोगी बनूं - यही स्मृति सदा उस आत्मा को रहती है। भले कोई श्रेष्ठ आत्मा द्वारा सहयोग मिलता भी है लेकिन उसका भी दाता कौन? तो एक बाप की तरफ ही बुद्धि जायेगी ना। सहयोग लो, लेकिन दाता कौन है, यह भूलना नहीं चाहिए। श्रीमत एक बाप की है। कोई निमित्त आत्मा आपको बाप की श्रीमत की स्मृति दिलाती है तो उनकी श्रीमत नहीं कहेंगे, लेकिन बाप की श्रीमत को फॉलो कर औरों को भी फॉलो कराने के लिए स्मृति दिलाती है। निमित्त आत्माएं, श्रेष्ठ आत्माएं कभी यही नहीं कहेंगे कि मेरी मत पर चलो। मेरी मत ही श्रीमत है - यह नहीं कहेंगी। श्रीमत की फिर से स्मृति दिलते, इसको कहते हैं यथार्थ सहयोग लेना और सहयोग देना। दादी की दादी की श्रीमत नहीं कहेंगे। निमित्त बनते हैं श्रीमत की शक्ति स्मृति दिलाते हैं। इसलिए कोई भी आत्मा के ऊपर प्रभावित नहीं होना। अगर किसी भी बात में किसी पर प्रभावित होते हैं, चाहे उसके नाम की महिमा पर, रूप पर वा किसी विशेषता पर तो लगाव के कारण, प्रभावित होने के कारण बुद्धि वहाँ अटक जायेगी। अगर बुद्धि अटक गई तो उड़ती कला हो नहीं सकती। अपने ऊपर भी प्रभावित होते हैं - मेरी बहुत अच्छी प्लैनिंग बुद्धि है, मेरा ज्ञान बहुत स्पष्ट है, मेरे जैसी सेवा और कोई कर नहीं सकते। मेरी इन्वेंटर बुद्धि है, गुणवान हूँ - यह अपने ऊपर भी प्रभावित नहीं होना है। विशेषता है, प्लैनिंग बुद्धि है लेकिन सेवा के निमित्त किसने बनाया? मालूम था क्या कि सेवा क्या होती है। इसलिए स्व-उन्न्ति के लिए यथार्थ ज्ञानयुक्त रहमदिल बनना बहुत आवश्यक है। फिर यह ईर्ष्या, घृणा समाप्त हो जाती है। तीव्र गति की कमी का मूल कारण यही है - ईर्ष्या वा घृणा या प्रभावित होना। चाहे अपने ऊपर चाहे दूसरे के ऊपर और चौथी बात सुनाई - अलबेलापन। यह तो होता ही है, टाइम पर तैयार हो जायेंगे, यह है अलबेलापन। बापदादा ने एक हंसी की बात पहले भी सुनाई है। ब्राह्मण-आत्माओं को दूर की नजर बड़ी तेज है। और नजदीक की नजर थोड़ी कमजोर है इसलिए दूसरों की कमी जल्दी दिखाई देती है और अपनी कर्मा देरी से दिखाई देती है। तो रहम की भावना लवफुल भी हो और मर्सीफुल भी हो। इससे दिल से वैराग आयेगा। जिस समय सुनते हैं वा भटठी होती है, रूहरिहान होती है, उस समय तो सब समझते हैं कि ऐसे ही करना है। वह अल्पकाल का वैराग आता है, दिल का नहीं होता। जो बाप को अच्छा नहीं लगता उससे दिल से वैराग आना चाहिए। अपने-आपको भी अच्छा नहीं लगता है लेकिन बेहद की वैराग वृत्ति का हल चलाओ, रहमदिल बनो। कई बच्चे बहुत अच्छी-अच्छी बातें सुनाते हैं। कहते हैं - जब कोई झूठ बोलता है तभी बहुत गुस्सा आता, झूठ पर गुस्सा आता है या कोई गलती करता है तो गुस्सा आता है। वैसे नहीं आता, उसने झूठ बोला यह तो ठीक है, उसको रांग समझते हो और जो आप गुस्स करते हो वह फिर राइट है क्या? रांग, रांग को केसे समझा सकते? उसका असर केसे हो सकता है। उस पर अपनी गलती को नहीं देखते लेकिन दूसरे की झूठ की छोटी बात को भी बड़ा कर देते हैं। ऐसे समय पर रहम दिल बनो। अपनी प्राप्त हुई बाप की शक्तियों द्वारा रहमदिल बनो, सहयोग दो। लक्ष्य अच्छा रखते हैं कि उनको झूठ से बचा रहे हैं, लक्ष्य अच्छा है उसके लिए मुबारक हो। लेकिन रिजल्ट क्या निकली? वह भी फेल, आप भी फेल। तो फेल वाला फेल वाले को क्या पास करायेगा? कई फिर समझते हैं - हमारी जिम्मेवारी है - उसको अच्छा बनाना, आगे बढ़ाना। लेकिन जिम्मेवारी निभाने वाला पहले अपनी जिम्मेवारी उस समय निभा रहे हो जो दूसरे की निभाते हो। कई निमित्त टीचर बनते हैं तो समझते हैं छोटों के लिए हम जिम्मेवार हैं, इनको शिक्षा देनी है, सिखाना है। लेकिन सदैव यह सोचो कि यथार्थ नॉलेज सोर्स ऑफ इनकम होगी। अगर आपने शिक्षक की जिम्मेवारी से शिक्षा दी तो पहले यह देखो कि उस शिक्षा से दूसरे की कमाई जमा हुई? सोर्स ऑफ इनकम हुआ या सोर्स ऑफ गिरावट हुआ? इसलिए बापदादा सदा कहते हैं कि कोई भी कमz करते हो तो त्रिकालदर्शा स्थिति में स्थित होकर करो। सिर्फ वर्तमान नहीं देखो कि इसने किया - इसलिए कहा। लेकिन उसका भविष्य परिणाम क्या होगा वह भी देखा। जो पास्ट आदि अनादि स्थिति ब्राह्मण आत्माओं की थी, अब भी है और आगे भी रहेगी, उसी प्रमाण हैं? तीनों काल चेक करो तो बापदादा क्या चाहते हैं। स्व-उन्नति तो करेंगे लेकिन परिवर्तन क्या लायेंगे? चाहे महारथी हो चाहे नये हो - बापदादा की एक ही शुभ आशा है, जितना चाहते हैं उतना अभी हुआ नहीं है। रिजल्ट तो सुनायेंगे ना। बापदादा अल्पकाल का वैराग नहीं चाहते हैं। निजी वैराग आये – जो बाप को अच्छा नहीं लगता वह नहीं करना है, नहीं सोचना है, नहीं बोना है। इसको बापदादा कहते दिल का प्यार। अभी मिक्स है, कभी दिल का प्यार है, कभी दिमाग का प्यार है। माला का हर एक मणका हरेक मणके के साथ समीप हो, स्नेही हो, प्रगति के लिए सहयोगी हो, इसलिए माला रूकी हुई है। क्योंक माला तैयार होना अर्थात् युगल दाने के समान एक-दो के भी समीप स्नेही बनना। पहले 108 की माला बने तब दूसरी बने। बापदादा बहुत बार माला तैयार करने के लिए बैठते हैं लेकिन अभी पूरी ही नहीं हुई है। मणका, मणके के समीप तब आता है अर्थात् बाप उसको पिरोता तभी है जब उस मणके को तीन सर्टिफिकेट हों:- बाप पसंद, ब्राह्मण-परिवार पसंद और अपने यथार्थ पुरूषार्थ पसंद। तीनों बाते चेक करते हैं तो मणका हाथ में ही रह जाता है, माला में नहीं आता। तो इस वर्ष कौन-सा सलोगन याद रखेंगे? त्रिमूर्ति बाप और विशेष तीनों सम्बन्ध द्वारा तीन सर्टिफिकेट लेना है। और औरों को भी दिलाने में सहयोगी बनना है। माला का समीप मणका बनना ही है। तो सुना स्व-उन्नति क्या करनी हैं? जैसे ब्रह्मा बाप का फाउण्डेशन नंबरवन परिवर्तन में क्या रहा? बेहद का वैराग। जो बाप ने कहा वह ब्रह्मा ने किया, इसलिए विन करने वन बन गये। अच्छा।

बापदादा यह रिजल्ट देखेंगे। हर एक अपने को देखे, दूसरे को नहीं देखना है। कई समझते हैं सीजन का आज लास्ट डे है लेकिन बापदादा कहते हैं - लास्ट नहीं है, माला बनने का फास्ट सीजन का दिन है। सभी को चांस है। अभी माला के मणके पिरोये नहीं है फिक्स नहीं हुए हैं। तीन सर्टिफिकेट लो और पिरोये जाओ। जितना प्रत्यक्ष सुबूत देने वाले प्रत्यक्ष चेहरे और चलन में देखेंगे उतना फिर से नहीं रंगत देखेंगे। अगर आप भी वहीं के वहीं रहे तो रंगत भी वहीं की वहीं रही। इसलिए अपने में नवीनता लाओ, परिवार में भी तीव्र पुरूषार्थ की नई लहर लाओ। फिर आगे चलकर कितन वंडरफुल नजारे देखेंगे। जो अब तक हुआ वह बीता, अभी हर कर्म में नया उमंग, नया उत्साह... इन पंखों से उड़ते चलो। बाकी जिन्होंने भी जो सेवा में सहयोग दिया अर्थात् अपना भाग्य जमा किया वह अच्छा किया। चाहे देश चाहे विदेश के चारों ओर के सेवाधारियों ने सेवा की। इसलिए सेवाधारियों को बापदादा सदा यही कहते हैं कि सेवापधारी अर्थात् गोल्टन चांस का भाग्य लेने वाले। अभी इसी भाग्य को जाहाँ भी जाओ वहाँ बढ़ाते रहना, कम नहीं होने देना। थोड़े समय का चांस सदा के लिए तीव्र पुरूषार्थ का गोल्डन चांस दिलाता रहेगा। सेवाधारी भी जो चले गये हैं अथवा जो जा रहे हैं, सभी को मुबारक। अच्छा।

सर्व रहमदिल श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा स्वयं को स्व-उन्नति की उड़ती कला में ले जाने वाले, तीव्र पुरुषार्थी आत्माओं को, सदा हर समय एक बाप को साथ अनुभव करने वाले अनुभवी आत्मओं को, सदा बाप को दिल की आशाओं को पू करने वाले कुल दीपक आत्माओं को, सदा अपने को माला के समीप मणके बनाने वाले विजी आत्माओं को, बेहद की वैराग वृत्ति से हर समय बाप को फालो कर बाप समान बनने वाले अति स्नेही राइट हैंड बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

डबल विदेशी भाई-बहनों से ग्रुप वाइज मुलाकात:-

1. हर समय ऐसा अनुभव करते हो कि बापदादा के स्नेह की दुवायें हम ब्राह्मण-आत्माओं की पालना कर आगे बढ़ा रही है। जहाँ दुवायें होती है, वहाँ बाप का सर्व सम्बन्ध की प्रगति बहुत सहज और तीव्र होती है। तो सहज लगता है या कभी-कभी मुश्किल हो जाता है? जब मेहनत का अनुभव हो तो उस समय चेक करना चाहिए कि किसल श्रीमत की लकीर से बाहर जा रहे हैं? चाहे संकल्प में, चाहे बोल में, चाहे कर्म वा सेवा की लकीर से बाहर निकलते हौ तब माया की आकर्षण मेहनत कराती है। ब्राह्मण जीवन की मर्यादाएं पसंद है या मुश्किल लगती है? कौन-सी मर्यादा मुश्किल लगती है? जो भी मार्यादाएं हैं, उससे देखो- इसमें फायदा क्या है? अगर फायदा सामने आयेगा तो मुश्किल नहीं लगेंगी। जब कोई कमजोरी आती है तब मुश्किल लगता है। यह मर्यादाएं बनाने वाला कौन है, किसने बनाई है? बाप ने बनाई है! बाप का बच्चों से बेहद का प्यार है, जिससे प्यार होता है उसके लिए हमेशा कोई भी उसकी मुश्किल होती तो सहज की जायेगी। कोई सैलवेशन चाहिए तो ले सकते हो लेकिन मुश्किल है नहीं। जो निमित्त बने हैं, उनसे स्पष्ट बोलो, अपने दिल का भाव सुनाओ फिर अगर राइट होगा तो उसी प्रमाण सैलवेशन मिलेगी। क्योंकि जिसे आप समझते हो कि यह होना चाहिए और वह नहीं होता तो मुश्किल लगता है लेकिन जिसे आप समझते हो - होना चाहिए, उससे कितना फायदा, कितना नुकशान है - वह बाप और अनुभवी आत्माएं ज्यादा जानती हैं। जहाँ प्यार होता है वहाँ कुछ मुश्किल नहीं होता है। और बापदादा ऐसी बात तो कहेंगे नहीं जिससे बच्चों का कोई नुकसान हो, इसलिए ये मर्यादाएं भी बाप का प्यार है, क्योंकि इसमें चलने से शक्ति आती हे, सेफ रहते हो और खुशी होती है। बापदाद जानते हैं - आस्ट्रेलिया के बच्चे मैजारिटी पुराने, अनुभवी और मजबूत हैं। इसलिए जो मजबूत हैं, उसे सदा ही सहज अनुभव होता है। अगर शक्तियाँ आगे बढ़ती है तो पांडवों को खुशी होती है ना? किसको आगे बढ़ाना इसमें स्वयं को आगे बढ़ाना समाया हुआ है। जो सब बातों में विन करता है वह वन है। फलक से कहो हम नहीं विजयी होंगे तो कौन होगा! भले दूसरे आयें लेकिन आप तो हो ना? सदा विजयी बन आगे बढ़ने और औरों को आग्र बढ़ाने के वरदानी हो। बापदादा देखते हैं कि अच्छा औरों वे लिए एग्॰जाम्पुल बने हुए हैं। एक-दो के प्रत्यक्ष जीवन को देखकर दूसरों में भी हिम्मत आ जाती है। तो यह सेवा भी बहुत श्रेष्ठ है। अपनी जीवन को सदा ही संतुष्ट और खुशनुमा बनाने वाले हर कदम में सेवा करते हैं। वाणी द्वारा तो सेवा करते रहेंगे, लेकिन वाणी के साथ-साथ अपने चेहरे और चलन से निरंतर सेवा करते रहना। जो भी संपर्क में आये, उसके दिल से स्वत: ही वाह-वाह के गीत निकलें। अच्छा!

2. यह विशेष खुशी है कि हम फिर से अपने परिवार में अपने बाप के पास पहुंच गये! देखो सभी कहाँ से कहाँ बिखर गये थे और अभी आपस में मिल गये। यह मिलन-आत्मा का परमात्मा बाप से और अलौकिक परिवार से कितना प्यार है। यह मेला प्यारा लगता है ना? सदा खुशी में ही गीत गाते हो। ऐसा गीत हो जो आपके दिल के खुशी का गीत भगवान् को भी खुश कर देता है। रशिया वाले भी चतुर निकले। सबसे लास्ट अभी रशिया का सेंटर निकला है इसलिए लाडला है। सभी का आपसे विशेष प्यार है। अभी और भी नये-नये स्थान खुलेंगे। विश्व का पिता है तो विश्व के कोने-कोने में संदेश तो जायेगा ना। अभी कई कोने रहे हुए हैं तो सभी को पहुंचना है। बाप तो है विश्व पिता लेकिन आप सबको भी टाइटल है विश्वकल्याणकारी। तो विश्व के कोने-कोने में आवाज जरूर फैलाना है, संदेश जरूर देना है। ऐसे नहीं सोचना विनाश की तैयारियाँ तो अभी दिखाई नहीं दे रही है, जब ऐसा समय समीप आयेगा तब सभी को संदेश दे देंगे। कई समझते हैं अभी तो आपस में समीप आ रहे हैं, शान्ति की बातें हो रही हैं। लेकिन जब सभी की बुद्धि में आयेगा कि बहुत समय पड़ा है, तब ही अचानक होगा। इसलिए सदा एवररेडी। एवररेडी अर्थात् सदा अपने को सब रीति से सम्पन्न बनाना। इसको कहते हैं - लास्ट सो फास्ट। अच्छा |

अव्यक्त बापदादा की डबल विदेशी भाई-बहनों से पर्सनल मुलाकात

1. सदा यह खुशी रहती है कि हम बाप के वर्से के अधिकारी हैं? और शिक्षक द्वारा श्रेष्ठ पढ़ाई से श्रेष्ठ पद प्राप्त करने वाले हैं और सतगुरू द्वारा वरदान प्राप्त करने वाली श्रेष्ठ आत्माएं हैं। तीनों सम्बन्ध द्वारा तीनों ही प्राप्तियों की स्मृति रहने से सदा ही सहज तीव्र पुरुषार्थी हो जायेंगे। सिर्फ वर्सा नहीं मिलता लेकिन श्रेष्ठ पद भी है और वरदान भी है। तो तीनों ही प्राप्तियों का नशा सदा रहना चाहिए। कभी भी पढ़ाई में मेहनत का अनुभव तो बाप को, गुरू से प्राप्त हुए वरदानों को सामने रखो तो मुश्किल सहज हो जायेगी। यह वैराइटी प्राप्तियाँ उमंग-उल्लास को बढ़ा देंगी और सदैव अपने को बाप के स्नेह के साथ छत्रछाया में अनुभव करेंगे। यह छत्रछा या सबको मिली है ना? इसी छत्रछाया के अंदर सदा रहते हो? बाहर तो नहीं निकलते? यह इतनी बड़ी छत्रछाया है जो छत्रछाया से बाहर निलने की दिल होती है? थोड़ा चक्कर लगाकर आयें, कभी-कभी दिल होती है? बिल्कुल नहीं? क्योंकि बाप की छत्रछाया से बाहर तो रहकर देख लिया, इतने जन्म तो छत्रछाया से बाहर रहकर अनुभव किया कि क्या किया और क्या बन गये, एक जन्म का भी नहीं, 63 जन्म का अनुभव कर लिया, क्या बन गये? गिरती कला में चले गये ना। देखो पहला जन्म आपका क्या था और अभी लास्ट जन्म देखो क्या से क्या बन गये! कहाँ देवता, कहाँ आज के मनुष्य! ऐसा सब देखो - तन क्या हो गया, मन क्या हो गया, धन क्या हो गया, सम्बन्ध क्या हो गया! तो मालूम पड़ेगा क्या से क्या हो गये! कितना फर्क है। तो सदैव इसी स्मृति में रहो कि हम इतने भाग्यवान् हैं जो परमात्म-छत्रछाया में हैं। याद रहता है इसलिए सदा खुश रहते हो या कभी दु:ख की लहर आती है? जब जीवन बदल गई तो संकल्प, स्वप्न सब बदल गये। अभी अतीन्द्रिय सुख के झूले में सदा झूलने वाले हो - ऐसे हैं ना? बाप तो है सदा बच्चों के लिए। बच्चे कहें न कहें लेकिन बाप सदा साथ देने के लिए बंधा हुआ है। थोड़ा भी नीचे-ऊपर होते हो तो देखो बाप किसी-न-किसी रीति से बच्चों को पकड़ लेते हैं और तरफ जाने से। एक-एक अति प्यारा है, जिससे प्यार होता है उसको छोड़ा नहीं जाता, साथ रखा जाता है। ऐसे है ना? बच्चे थोड़ा-बहुत नटखट करते हैं। कभी-कभी खेल दिखाते हैं लेकिन बाप का प्यार फिर स्मृति दिला देता है फिर नटखट से नॉलेजफुल बन जाते हैं। तो सदा यही याद रखना कि छत्रछाया में रहने वाले हैं। अच्छा-

अहमदाबाद, दिल्ली तथा मेहसाना से आये हुए सेवाधारियों प्रति- जैसे भारत सबसे महान और भाग्यवान है, चाहे धनवान और देश है लेकिन फिर भी महान भारत ही गाया जाता है। भाग्यविधाता भाग्य की लकीर खींचने के लिए भारत में ही आता है इसलिए फिर भी बाप को मिलने के लिए सभी को भारत में ही आना पड़ता है। अमेरिका में तो बाप नहीं मिलेगा ना, तो भारतवासी कितने महान हों? स्वयं महान बन गये हो इसलिए सब देश वाले आपके मेहमान होकर आते हैं। सभी देशों के मेहमानों की मेहमाननिवाजी कौन करते हैं? भारत वाले करते हैं। आज मेहमाननिवाजी करने वाला ग्रुप आया है ना! यह मेहमाननिवाजी करने का भी भाग्य है। थकते तो नहीं हो? एक ही स्थान पर विश्व की आत्माए आ जाएं और विश्व की सेवा के निमित्त बन जाओ, कितना जमा होता है विश्व में जाकर सेवा करने के बजाए आपके पास विश्व की आत्माए आ जाएं, कितना अच्छा चांस है। बापदादा भी सेवाधारियों को देख खुश होते हैं। ऐसे नहीं कि कर्मणा सेवा करते हैं, कोई ज्ञान की तो करते नहीं हैं। लेकिन कर्म का प्रभाव वाणी से बड़ा है। एक होता है सुना हुआ और दूसरा होता है देखा हुआ। जो भी बेहद की सेवा के निमित्त हो वह बहुत श्रेष्ठ सेवा कर रहे हो। बहुत ही अच्छा है और अच्छा ही रहेगा। सदैव भाग्यविधाता बाप और और भाग्यवान मै, यह रूहानी नशा रहता है ना? रूहानी नशा अर्थात् अविनाशी नशा। बापदादा सभी से पूछते हैं कि संतुष्ट रहते हो? संतुष्टता सब गुणों को स्वत: ही लाती है। जिसके पास संतुष्टता है उसके पास और गुण भी अवश्य होंगे, गुणों की खान हो जाती है। कोई भी बात हो जाए, कोई भी समस्य आ जाए लेकिन संतुष्टता नहीं आये। बात आयेगी भी और चली जायेगी लेकिन संतुष्टता को नहीं जाने दो क्योंकि यह अविनाशी खज़ाना है, बाप का वर्सा है। यह संतुष्टता का खज़ाना हर समय आपको भरपूरता का अनुभव करता रहेगा। अच्छा!