24-09-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सत्य और असत्य का विशेष अन्तर

स्नेह में समायी हुई सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को यथार्थ सत्य की पहचान देते हुए अव्यक्त बापदादा बोले -

आज दिलाराम बाप अपने सर्व बच्चों के दिल की आश पूर्ण करने के लिए मिलन मनाने आये हैं। अव्यक्त रूप में तो सदा सर्व बच्चे मिलन मनाते रहते हैं। फिर भी व्यक्त शरीर द्वारा अव्यक्त मिलन मनाने की शुभ आश रखते हैं। इसलिए बाप को भी अव्यक्त से व्यक्त में आना पड़ता है। बापदादा इस समय चारों ओर देश-विदेश के बच्चों को देख रहे हैं-मन से मधुबन में हैं। आप साकार में हो और अनेक बच्चे अव्यक्त रूप से मिलन मना रहे हैं। बापदादा भी सर्व बच्चों के स्नेह का रिटर्न दे रहे हैं। जहाँ भी हैं लेकिन याद द्वारा बाप के समीप दिल में हैं। सबके स्नेह के साज़ बापदादा सुन रहे हैं। बाप जानते हैं कि बच्चों के लिए सिवाए बाप के और कोई याद करने वाला है नहीं और बाप को भी सिवाए बच्चों के और कोई है नहीं। सदा इसी स्मृति में रहते हैं कि मैं बाबा का और बाबा मेरा। यही स्मृति सहज भी है और समर्थ बनाने वाली है। ऐसा स्मृतिस्वरूप स्नेही बच्चा साकार में तो क्या लेकिन स्वप्न में भी कभी असमर्थ हो नहीं सकता। असमर्थ होना अर्थात् मेरा बाबाके बजाए कोई और मेरापनआता है। एक मेरा बाबा-यह है मिलन मनाना। अगर एकके बजाए दोमेरा हुआ तो क्या हो जाता? वह है मिलना और वह है झमेला।

कई बच्चे समझते हैं-बाबा तो मेरा है ही लेकिन और भी एक-दो को मेरा कहना ही पड़ता है। कहते हैं-और कोई नहीं, सिर्फ एक आधार चाहिए। लेकिन वायदा क्या है-एक बाप दूसरा न कोई या एक बाप एक और? भोले बन जाते हो। उस एक में अनेक समाये हुए होते हैं, इसलिए झमेला हो जाता है। इस पुरानी दुनिया में भी ऐसे खिलौने मिलते हैं जो बाहर से एक दिखाई देता है लेकिन एक में एक होता है। एक खोलते जाओ तो दूसरा निकलेगा, दूसरा खोलेंगे तो तीसरा निकलेगा। यह भी ऐसा ही खिलौना है। दिखाई एक देता लेकिन अन्दर समाये हुए अनेक हैं। और जब झमेले में चले गये तो मिलन मनाना कैसे हो सकता? झमेले में ही लगे रहेंगे या मिलन मनायेंगे? सिर्फ वो नहीं सोचो। सिवाए एक बाप के संकल्प में भी अगर कोई आत्मा को वा प्रकृति के साधन को मेरा सहारा स्वीकार किया तो यह आटोमेटिक ईश्वरीय मशीनरी बहुत फास्ट गति से कार्य करती है। जिस सेकेण्ड अन्य को सहारा बनाया, उसी सेकण्ड मन-बुद्धि का बाप से किनारा हो जाता है। सत्य बाप से किनारा होने के कारण बुद्धि असत्य को सत्य, रांग को राइट मानने लगती है, उल्टी जजमेंट देने लगती है। कितना भी कोई समझायेगा कि यह राइट नहीं है, लेकिन वह यथार्थ को, सत्य को भी असत्य की शक्ति से समझाने वाले को रांग सिद्ध करेगा। यह सदा याद रखो कि आजकल ड्रामा अनुसार असत्य का राज्य है और असत्य के राज्य-अधिकारी प्रेजीडेंट रावण है। उसके कितने शीश हैं अर्थात् असत्य की शक्ति कितनी महान है! उसके मन्त्री-महामन्त्री भी बड़े महान हैं। उसके जज और वकील भी बड़े होशियार हैं। इसलिए उल्टी जजमेन्ट की पॉइंट्स बहुत वैराइटी और बाहर से मधुर रूप की देते हैं। इसलिए सत्य को असत्य सिद्ध करने में बहुत होशियार होते हैं।

लेकिन असत्य और सत्य में विशेष अन्तर क्या है? असत्य की जीत अल्पकाल की होती है क्योंकि असत्य का राज्य ही अल्प-काल का है। सत्यता की हार अल्पकाल की और जीत सदाकाल की है। असत्य के अल्पकाल के विजयी उस समय खुश होते हैं। जितना थोड़ा समय खुशी मनाते वा अपने को राइट सिद्ध करते, तो समय आने पर असत्य के अल्पकाल का समय समाप्त होने पर जितनी असत्यता के वश मौज मनाई, उतना ही सौ गुणा सत्यता की विजय प्रत्यक्ष होने पर पश्चाताप करना ही पड़ता है। क्योंकि बाप से किनारा, स्थूल में किनारा नहीं होता, स्थूल में तो स्वयं को ज्ञानी समझते हैं लेकिन मन और बुद्धि से किनारा होता। और बाप से किनारा होना अर्थात् सदाकाल की सर्व प्राप्तियों के अधिकार से सम्पन्न के बजाए अधूरा अधिकार प्राप्त होना। कई बच्चे समझते हैं कि असत्य के बल से असत्य के राज्य में विजय की खुशी वा मौज इस समय तो मना लें, भविष्य किसने देखा। कौन देखेगा-हम भी भूल जायेंगे, सब भूल जायेंगे। लेकिन यह असत्य की जजमेंट है। भविष्य वर्तमान की परछाई है। बिना वर्तमान के भविष्य नहीं बनता। असत्य के वशीभूत आत्मा वर्तमान समय भी अल्पकाल के सुख के नाम, मान, शान के सुखों के झूले में झूल सकती है और झूलती भी है, लेकिन अतीन्द्रिय अविनाशी सुख के झूले में नहीं झूल सकती। अल्पकाल के शान, मान और नाम की मौज मना सकते हैं लेकिन सर्व आत्माओं के दिल के स्नेह का, दिल की दुआओं का मान नहीं प्राप्त कर सकते। दिखावा मात्र मान पा सकते हैं लेकिन दिल से मान नहीं पा सकते। अल्पकाल का शान मिलता है लेकिन बाप से सदा दिलतख्तनशीन का शान अनुभव नहीं कर सकते। असत्य के साथियों द्वारा नाम प्राप्त कर सकते हैं लेकिन बापदादा के दिल पर नाम नहीं प्राप्त कर सकते क्योंकि बापदादा से किनारा है। भविष्य की बात तो छोड़ो, वह तो अन्डरस्टुड है। लेकिन वर्तमान सत्यता और असत्यता की प्राप्ति में कितना अन्तर है? एक दूसरा मेरा बनाया अर्थात् असत्य का सहारा लिया। कितना झमेला हुआ! कहने में तो कहेंगे - और कुछ नहीं, सिर्फ कभी-कभी थोड़ा सहारा चाहिए। लेकिन वायदा तोड़ना अर्थात् झमेले में पड़ना। क्या ऐसा वायदा किया है - एक मेरा बाबा और कभी-कभी दूसरा?  दूसरा भी एलाउ है? यह लिखा था क्या?  चाहे अल्पकाल के नाम-मान-शान का सहारा लो, चाहे व्यक्ति का लो, चाहे वैभव का लो, जब दूसरा न कोई तो फिर दूसरा कहाँ से आया? यह असत्य के राज्य के झमेले में फंसाने की चतुराइयां हैं। जैसे बाप कहते हैं ना - मैं जो हूँ, जैसा हूँ, वैसा मुझे नम्बरवार जानते हैं। ऐसे असत्य के राज्य-अधिकारी रावण  को भी जो है, जैसा है, वैसे सदा नहीं जानते हो। कभी भूल जाते हो, कभी जानते हो। राज्य-अधिकारी है तो यह ताकत कम होगी! चाहे झूठा हो, चाहे सच्चा हो लेकिन राज्य तो है ना। इसलिए अपने को चेक करो, दूसरे को नहीं।

आजकल दूसरों को चेक करने में सब होशियार हो गये हैं। बापदादा कहते हैं-अपना चेकर बनो और दूसरे का मेकर बनो। लेकिन करते क्या हो? दूसरे का चेकर बन जाते हो और बातें बनाने में मेकर बन जाते हो। बापदादा रोज़ की हर एक बच्चे की कौन सी कहानियाँ सुनते हैं? बहुत बड़ा किताब है कहानियों का। तो अपने को चेक करो। दूसरे को चेक करने लगते हो तो लम्बी कथायें बन जाती हैं और अपने को चेक करेंगे तो सब कथायें समाप्त हो एक सत्य जीवन की कथा प्रैक्टिकल में चलेगी। सभी कहते हैं-बाबा, आप से बहुत प्यार है! सिर्फ कहते हो वा करते भी हो, क्या कहेंगे? कभी कहते हो, कभी करते हो। बाप के प्यार का प्रत्यक्ष सबूत बाप ने दे दिया। जो हो, जैसे हो-मेरे हो। लेकिन अभी बच्चों को सबूत देना है। क्या सबूत देना है? बाप कहते हैं-जो हो, जैसे हो-मेरे हो। और आप क्या कहेंगे? जो है वह सब आप हो। ऐसे नहीं-थोड़ा-थोड़ा और भी है। बाप से प्यार है लेकिन कभी-कभी असत्य के राज्य के प्रभाव में आ जाते हैं। अच्छा!

चारों ओर के यथार्थ सत्य को परखने वाले, सच्चे बाप के सच्चे बच्चों को, सर्व स्नेह में समाए हुए श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व सदा वायदे को निभाने वाली समर्थ आत्माओं को, सर्व यथार्थ परखने वाली शक्तिशाली आत्माओं को, सर्व याद और सेवा में निर्विघ्न रहने वाले, सदा साथ और समीप रहने वाले बच्चों को याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

जितना जो सेवा के निमित्त बनता है उतना ही दिल का हजार गुणा स्नेह सेवा के साथ अनुभव होता है। इसलिए जिम्मेवारी, जिम्मेवारी नहीं लगती, खेल लगता है। खेल तो नया ही देखना अच्छा होता है। पुराना खेल क्या देखेंगे। जब वृक्ष का विस्तार होता है तभी सार (बीज) प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। विस्तार सार को प्रत्यक्ष करता है। मजा आता है ना। विश्व के तख्तनशीन होने के पहले सेवा के तख्तनशीन बनना होता है। जो जितनी सेवा के तख्तनशीन बनता है उतना ही विश्व के तख्तनशीन बनता है। बेहद की सेवा का तख्त मिला है ना। अच्छा मेकअप किया है। अच्छा है मधुबन में रहना। ये सभी मधुबन में रहने वाले हैं। मधुबन की सीट मिली है ना। तो मधुबन है सेवा का तख्त, बेहद की सेवा का तख्त। अच्छा ग्रुप है। अच्छी सेवा चल रही है ना।

पर्यावरण अभियान प्रति सन्देश

सेवा का प्रत्यक्षफल है आत्माओं को अनुभूति कराना, सन्देश के साथ अनुभूति कराना। यही सेवा का प्रत्यक्षफल है। सन्देश देना तो कब भी (भविष्य में भी) जान सकते हैं लेकिन अनुभूतिप्रत्यक्षफल है। इसकी आवश्यकता है जो सिवाए आप लोगों के कोई करा नहीं सकता। सुनाने वाले अनेक हैं, अनुभव कराने वाले सिर्फ आप हो। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

दु:ख की लहर से मुक्त होने के लिये कर्मयोगी बनकर कर्म करो

सभी अपने को श्रीमत पर चलने वाली श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? नाम ही है श्रीमत। श्री का अर्थ है श्रेष्ठ। तो श्रेष्ठ मत पर चलने वाले श्रेष्ठ हुए ना। यह रूहानी नशा, बेहद का नशा रहता है ना। या कभी-कभी हद का नशा भी आ जाता है? इसलिये सदा अपने को देखो-चलते-फिरते कोई भी कार्य करते बेहद का रूहानी नशा रहता है? चाहे कर्म मजदूरी का भी हो, साधारण कर्म करते अपने श्रेष्ठ नशे को भूलते तो नहीं हो? घर में रहने वाली, घर की सेवा करने वाली साधारण मातायें हैं-यह याद रहता है या जगत माता हूँ, जगत का कल्याण करने के निमित्त यह कार्य कर रही हूँ-यह याद रहता है? जिसे यह रूहानी नशा होगा उसकी निशानी क्या होगी? वह खुशी में रहेगा, कोई भी कर्म करेगा लेकिन कर्म के बन्धन में नहीं आयेगा, न्यारा और प्यारा होगा। कर्म के बन्धन में आना अर्थात् कर्म में फंसना और जो न्यारा-प्यारा होता है वह कर्म करते भी कर्म के बन्धन में नहीं आता, कर्मयोगी बन कर्म करता है। अगर कर्म के बन्धन में आयेंगे तो खुशी गायब हो जायेगी। क्योंकि कर्म अच्छा नहीं होगा। लेकिन कर्मयोगी बनकर कर्म करने से दु:ख की लहर से मुक्त हो जायेंगे। सदा न्यारा होने के कारण प्यारे रहेंगे। तो समझा, कैसे रहना है? कर्मबन्धन मुक्त। कर्म का बन्धन खींचे नहीं, मालिक होकर कर्म करायें। मालिक न्यारा होता है ना। मालिक होकर कर्म कराना-इसे कहा जाता है बन्धन-मुक्त। ऐसी आत्मा सदा स्वयं भी खुश रहेगी और दूसरों को भी खुशी देगी। ऐसे रहते हो? सुनते तो बहुत हो, अभी ज् सुना है वह करना है। करेंगे तो पायेंगे। अभी-अभी करना, अभी-अभी पाना।

माताओं को कभी दु:ख की लहर आती है? कभी मन से रोती हो? मन का रोना तो सबको आ सकता है। तो श्रीमत है-सदा खुश रहो। श्रीमत यह नहीं है कि कभी-कभी रो लो। बहुतकाल मन से वा आंखों से रोया, रावण ने रूलाया ना। लेकिन अभी बाप के बने हो खुशी में नाचने के लिये, रोने के लिये नहीं। रोना खत्म हो गया। दु:ख की लहर-यह भी रोना है। यह मन का रोना हो गया। सुखदाता के बच्चे सदा सुख में झूलते रहो। दु:ख की लहर आ नहीं सकती। भूल जाते हो तब आती है। इसलिये अभूल बनो। अभी जो भी कमजोरी हो उसे महायज्ञ में स्वाहा करके जाना। साथ में लेकर नहीं जाना, यहाँ ही स्वाहा करके जाओ। स्वाहा करना आता है ना। दृढ़ संकल्प करना अर्थात् स्वाहा करना। अच्छा! सभी की आश पूरी हुई। यह भी भाग्यवान हो जो ऐसे मिलते रहते हो। आगे चलकर क्या होता है.....। यह भी भाग्य जितना मिलता है उतना लेते चलो। उड़ते जाओ। यही याद रखना कि महान हैं और महान बनाना है।

ग्रुप नं. 2

सर्व शक्तियों को समय पर कार्य में लगाना अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान बनना

शक्तियों का पूजन देखकर क्या स्मृति में रहता है? अपने को चेक करते हो-जैसे शक्तियों को अष्ट भुजाधारी दिखाते हैं तो हम भी अष्ट शक्तिवान, मास्टर सर्वशक्तिवान आत्मा हूँ। ये अष्ट तो निशानी मात्र हैं लेकिन हैं तो सर्व शक्तियाँ। शक्तियों का नाम सुनते, शक्तियों का पूजन देखते सर्व शक्तियों की स्मृति आती है या सिर्फ देखकर के खुश हो? जड़ चित्रों में कितनी कमाल भर देते हैं! तो चैतन्य का ही जड़ बनता है ना। तो चैतन्य में हम कितने कमाल के बने हैं अर्थात् श्रेष्ठ बने हैं! तो यह खुशी होती है कि यह हमारा यादगार है! या देवियों का है? देवियों के साथ गणेश की भी पूजा होती है ना। तो प्रैक्टिकल में ऐसे बने हैं तब तो यादगार बना है। सदैव अपने को चेक करो कि सर्व शक्तियाँ अनुभव होती हैं? बाप ने तो दी लेकिन मैंने कितनी ली, धारण की और धारण करने के बाद समय पर वो शक्ति काम में आती है? अगर समय पर कोई चीज काम में नहीं आये तो वह होना, न होना, एक ही बात है। कोई भी चीज़ रखते ही हैं समय पर काम में आने के लिये। अगर समय पर काम में नहीं आई तो क्या कहेंगे? है वा नहीं है, एक ही बात हुई ना। तो बाप ने दी लेकिन हमने कितनी ली-यह चेक करो। जब प्रैक्टिकल में काम में आये तब कहेंगे मास्टर सर्वशक्तिवान। शक्ति काम में नहीं आवे और कहें मास्टर सर्वशक्तिवान, यह शोभता नहीं है। एक भी शक्ति कम होगी तो समय पर धोखा दे देगी। कोई भी समय उसी शक्ति का पेपर आ जाये तो पास होंगे या फेल होंगे? अगर नहीं होगी तो फेल होंगे, होगी तो पास होंगे। माया भी जानती है-इसके पास इस शक्ति की कमी है। तो वही पेपर आता है। इसलिये एक भी शक्ति कम नहीं होनी चाहिये। समझा? ऐसे नहीं-शक्तियाँ तो आ गई, एक कम हुई तो क्या हर्जा है। एक में ही हर्जा है। एक ही फेल कर देगी। सूर्यवंशी में आना है तो फुल पास होना पड़ेगा ना। फुल पास होने का अर्थ ही है मास्टर सर्वशक्तिवान बनना।

माताओं में सहन शक्ति है? या थोड़ा-थोड़ा क्रोध आ जाता है? पाण्डवों को क्रोध या रोब आता है? सहन शक्ति की कमी है तब ही आयेगा ना। सर्व शक्तियों में सहन शक्ति भी तो शक्ति है ना। एक भी शक्ति कम हुई तो फुल पास होंगे या अधूरे पास होंगे? इसलिये सर्व शक्तियों को चेक करो। परसेन्टेज भी कम न हो। ऐसे नहीं-थोड़ा क्रोध आया, ज्यादा नहीं आया। यदि थोड़ा भी आ गया तो उसको फेल कहेंगे और आदत पड़ जायेगी थोड़ा-थोड़ा फेल होने की तो फुल पास कैसे होंगे? इसलिये एक भी शक्ति की कमी न हो। ऐसे अलबेले नहीं रहना कि एक थोड़ी कम है, बढ़ जायेगी। बहुत समय की कमी समय पर धोखा दे देगी। इसलिए मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् सर्व शक्तियों से सम्पन्न बनो। सर्व शक्तियों को कार्य में लगाते चलो और उड़ते चलो। समझा?

ग्रुप नं. 3

तेरे को मेरे में बदलना ही ब्राह्मण जीवन है

सभी अपने को “एक बल एक भरोसा” ऐसे अनुभव करते हो? “एक बाबा दूसरा न कोई” यह पक्का है ना। या बाबा भी है तो बच्चे भी हैं, सम्बन्धी भी हैं? जब बच्चे हैं, पति है, सासू-ससुर हैं-इतने सारे हैं तो एक कैसे हुआ? सामने हैं, देख रहे हैं, सेवा कर रहे हैं, फिर एक कैसे हुआ? ये मेरे नहीं हैं लेकिन बाप ने सेवा के लिये दिये हैं-ऐसी दृष्टि-वृत्ति रखने से एक ही याद रहेगा। चाहे कितने भी हों, कौन भी हों, लेकिन सभी बाप के बच्चे हैं और हमको सेवा के लिये ये आत्मायें मिली हैं। सासू नहीं है लेकिन सेवा के लिये आत्मा है-ऐसी वृत्ति रहती है? बच्ची को बच्ची नहीं समझते, मेरी कन्या है, मेरी कन्या का कल्याण करो-ऐसे नहीं कहते हो। बाप ने सेवा अर्थ निमित्त बनाया है। घर में नहीं रहे हुए हो लेकिन सेवा-स्थान पर रहे हुए हो। मेरा सब तेरा हो गया। मेरा कुछ नहीं, शरीर भी मेरा नहीं। जब मेरा है ही नहीं तो बॉडी-कॉन्सेस कैसे हो सकता है। मेरे में ही आकर्षण होती है। जब मेरा समाप्त हो जाता है तो मन और बुद्धि को अपनी तरफ खींच नहीं सकते हैं। ब्राह्मण जीवन अर्थात् मेरे को तेरे में बदलना। तो बार-बार यह चेक करो कि तेरा, मेरा तो नहीं बन गया। अगर मेरापन नहीं होगा, तेरा ही है तो डबल लाइट होंगे। अगर थोड़ा भी बोझ अनुभव करते हो तो समझो-मेरापन मिक्स हो गया है। भक्ति में कहते हैं कि सब-कुछ तेरा। ब्राह्मण जीवन में कहना नहीं है, करना है। यह करना सहज है ना। बोझ देना सहज होता है या लेना सहज होता है? तेरा कहना माना बोझ देना और मेरा कहना माना बोझ लेना। तो अभी एक बल एक भरोसा। बस, एक ही एक। एक लिखना सहज है ना। तो यह तेरा-तेरा कहने वाला ग्रुप है। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

पूज्य वह जिसकी आंख बाप के सिवाए कहाँ भी न डूबे

सदा यह नशा रहता है कि हम कल्प-कल्प की सर्वश्रेष्ठ पूज्य आत्मायें बनते हैं? कितनी बार आपकी पूजा हुई है? पूज्य आत्मा हूँ-यह पूज्यपन की अनुभूति क्या होती है? निशानी क्या है? नशा है, खुशी है-वह तो ठीक है। लेकिन कौनसा संस्कार ऐसा है जिससे समझते हो-मैं ही पूज्य था? जो पूज्य आत्मायें हैं उनकी विशेषता क्या है? किस विशेषता के आधार पर कोई पूज्य बनता है? लौकिक में भी देखो-किसको कहते हैं कि यह तो पूज्य है। पूज्य आत्मा की निशानी है-वह कभी भी किसी भी वस्तु के पीछे, व्यक्ति के पीछे झुकेगा नहीं। सब उसके आगे झुकेंगे लेकिन वह झुकेगा नहीं। नम्रता से झुकना-वह अलग चीज है। लेकिन झुकना अर्थात् प्रभावित होना। पूज्य के आगे सब झुकते हैं, पूज्य नहीं झुकता है। तो किसी भी प्रकार के व्यक्ति या वैभव की आकर्षण झुका लेवे-यह पूज्य की निशानी नहीं है। तो यह चेक करो कि कभी भी, किसी भी आकर्षण में मन और बुद्धि झुकती तो नहीं है, प्रभावित तो नहीं होते हो? सिवाए एक बाप के और कहाँ भी मन और बुद्धि का झुकाव नहीं। पूज्य अर्थात् झुकाने वाला, न कि झुकने वाला।

जो कल्प-कल्प का पूज्य होगा उसकी निशानी क्या होगी? सिवाए बाप के, और कहाँ भी आंख नहीं डूबेगी। यह बहुत अच्छा है, यह बहुत अच्छी चीज है-नहीं। पूज्य आत्माओं के आगे स्वयं सब व्यक्ति और वैभव झुकते हैं। जो इष्ट देव होते हैं, भक्त लोग स्वयं बढ़िया ते बढ़िया अच्छी चीज इष्ट के आगे भेंट चढ़ायेंगे। इष्ट उन चीजों पर प्रभावित नहीं होगा लेकिन वो चीजें स्वयं उसके आगे झुकेंगी। तो पूज्य की निशानी है-एक बाप के सिवाए कहाँ भी मन-बुद्धि का झुकाव नहीं। रिगॉर्ड और चीज है, प्यार और चीज है, नम्रता और चीज है लेकिन प्रभावित होना और चीज है। तो पूज्य आत्मा थे और बार-बार बनेंगे। यह निशानी अपने अन्दर चेक करो। कभी भी किसी भी संस्कार के वश आत्मा वशीभूत हो जाती है तो यह भी झुकना हुआ। मानो कोई ब्राह्मण आत्मा, पूज्य आत्मा कहे कि आज क्रोध के वश हो गई, लोभ के वश हो गई, अभिमान के वश हो गई-तो यह झुकना हुआ या झुकाना हुआ? तो पूज्य कभी झुकता नहीं। पूज्य के आगे सब आकर्षित होकर स्वयं आते हैं, पूज्य किसी के पीछे आकर्षित नहीं होता। तो यह निशानी देखो। अगर कभी-कभी झुकाव हो जाता है तो पूजा भी कभी-कभी होगी, सदा नहीं होगी। पूज्य में भी नम्बर होते हैं। वैरा-यटी होती है ना। कोई पूज्य सदा पूजे जाते हैं और कोई-कोई की कभी पूजा होती है, कोई की विधिपूर्वक होती है और कोई की काम-चलाऊ पूजा होती है। मन्दिरों में भी फर्क होता है ना। तो यहाँ भी ऐसे है। जो विधिपूर्वक श्रीमत को अपनाते नहीं, काम-चलाऊ, चलो अमृतवेले उठना है, बैठना है, कोई देखे नहीं, कोई कहे नहीं कि यह उठा नहीं, फिर चाहे बाप से मिलन मनाये या निद्रा से मिलन मनाये। यह काम-चलाऊ हो गया ना। अमृतवेले उठा, बैठा लेकिन विधिपूर्वक नहीं। तो मूर्ति को भी बिठा देते हैं लेकिन पूजा विधिपूर्वक नहीं होती है। लगाव तब होता है जब झुकाव होता है। बिना लगाव के झुकाव नहीं होता। आज के भक्तों का भी चाहे अल्पकाल की प्राप्ति की तरफ लगाव हो, तभी झुकाव होता है। आजकल पूज्य की तरफ लगाव नहीं है, अल्पकाल की प्राप्ति के तरफ लगाव है। लेकिन प्राप्ति कराने वाली पूज्य आत्मायें हैं, इसलिये झुकते उनकी तरफ ही हैं। तो समझा, पूज्य की निशानी क्या है? कल्प-कल्प की श्रेष्ठ पूज्य आत्मायें सदा स्वयं को सम्पन्न अनुभव करेंगी। जो सम्पन्न होता है उसकी आंख किसमें भी नहीं जाती। पूज्य आत्मा सम्पन्न होने के कारण सदा ही अपने रूहानी नशे में रहेगी। उनके मन-बुद्धि का झुकाव कहाँ भी नहीं होगा- न देह के सम्बन्ध में, न देह के पदार्थ में। सबसे न्यारा और सबसे प्यारा। ब्राह्मण जीवन का मजा जीवन्मुक्त स्थिति में है। न्यारा अर्थात् मुक्त। संस्कार के ऊपर भी झुकाव नहीं। जब कहते हो क्या करूँ, कैसे करूँ-तो उस समय जीवन्मुक्त हुए या जीवन-बन्ध?करना नहीं चाहते थे लेकिन हो गया-यह है जीवन-बन्ध बनना। इच्छा नहीं थी लेकिन अच्छा लग गया, शिक्षा देनी थी लेकिन क्रोध आ गया-यह है जीवन-बन्ध स्थिति। ब्राह्मण अर्थात् जीवन्मुक्त। कभी भी किसी बंधन में बंध नहीं सकते। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

संगठन में रहते भी न्यारा और प्यारा रहना ही फॉलो फादर करना है

यह वैरायटी ग्रुप है। सबसे अच्छे ते अच्छा ग्रुप किसको कहा जायेगा, उसकी विशेषता क्या होगी? सबसे अच्छा ग्रुप वह है जो ग्रुप में रहते हुए भी निर्विघ्न रहे, सन्तुष्ट रहे। कोई अकेला निर्विघ्न रहता है, यह कोई बड़ी बात नहीं। लेकिन बड़े संगठन में भी हो और निर्विघ्न भी हो। तो आप सभी संगठन में रहते निर्विघ्न रहते हो? कितना भी हंगामा हो लेकिन स्वयं अचल हो-ऐसे ग्रुप के हो? जैसे बाप अकेला तो नहीं है ना, परिवार वाला है। सबसे बड़े ते बड़ा परिवार बाप का है और जितना बड़ा परिवार उतना ही न्यारा और सर्व का प्यारा है। जितनी सेवा उतना न्यारा। तो फॉलो फादर करने वाले हो ना। इसीलिये आप सबका यादगार यहाँ अचलघर बना हुआ है। कितना भी कोई हिलावे, हिलेंगे नहीं। एक तरफ एक डिस्टर्ब करे, दूसरी तरफ दूसरा डिस्टर्ब करे-तो क्या करेंगे? कोई सैलवेशन नहीं मिले, फिर हलचल होगी? कोई इन्सल्ट कर दे, फिर हलचल होगी? अचल अर्थात् चारों ओर कितना भी कोई हिलाने की कोशिश करे लेकिन संकल्प में भी अचल।

देखो, अच्छे हो तब तो बापदादा ने पसन्द करके अपना बनाया है। अच्छे हैं और सदा अच्छे रहेंगे। अच्छा-अच्छा समझने से अच्छे हो ही जाते हैं। बापदादा हरेक बच्चे में विशेषता ही देखते हैं। विशेषता देखते, वर्णन करते-करते विशेष बन ही जायेंगे। कल थे, आज हैं और कल फिर बनेंगे। आजऔर कलमें सारा ड्रामा आ गया। जितना-जितना सम्पूर्ण बनते जायेंगे तो यह स्मृति स्पष्ट होती जायेगी। जितनी स्मृति स्पष्ट होती है उतना नेचुरल नशा रहता है। अच्छा! चारों ओर के डबल विदेशी बच्चों को डबल नशे में रहने की मुबारक! एक याद का नशा, एक सेवा का नशा-डबल नशा है ना। अच्छा है, हिम्मत बच्चों की, मदद बाप की। ऑस्ट्रेलिया के बच्चे भी जो चाहे वो कर सकते हैं। सिर्फ कभी गुप्त हो जाते हैं, कभी प्रत्यक्ष हो जाते हैं। लेकिन हिम्मत और मदद के भी पात्र हैं। अच्छा, सभी को याद।

ग्रुप नं. 6

हर ब्राह्मण ब्रह्मा बाप का दर्पण बने-यही है बाप की श्रेष्ठ आश

मधुबन निवासियों को कितने प्रत्यक्षफल मिलते हैं? मधुबन की विशेषता क्या है जो और कहाँ नहीं मिलती? श्रेष्ठ कर्मभूमि पर रहने वाले सदा फॉलो फादर करते हैं। मधुबन की श्रेष्ठता तो यह है कि ब्रह्मा बाप की विशेष कर्मभूमि है। तो मधुबन निवासी जो भी कर्म करते हैं वो फॉलो फादर करते हैं। कर्मभूमि में विशेषता कर्म की है। तो कर्म में फॉलो है? जो भी अमृतवेले से लेकर रात तक कर्म करते हो उसमें फॉलो फादर है? मधुबन निवासियों को और एक्स्ट्रा कर्मभूमि की याद का बल है। वह कर्म में दिखाई देता है वा देना है, क्या कहेंगे? आप अपने में देखते हो? एक-एक कदम सामने लाओ-उठना-बैठना, चलना, बोलना, सम्बन्ध-सम्पर्क में आना-सबमें ब्रह्मा बाप के कर्म को फॉलो है? कर्मभूमि का फायदा तो यही है ना। तो इतना लाभ ले रहे हो? शक्तियाँ क्या समझती हैं? कर्मभूमि का लाभ जितना मधुबन ले सकता है, उतना औरों को लेने आना पड़ता है और आपको मिला हुआ है। वरदान-भूमि है, कर्मभूमि है। तो हर कर्म वरदान योग्य है जो कोई भी देखे तो मुख से वरदान निकले? इसको कहेंगे वरदान-भूमि का वरदान लेना। चाहे साधारण कर्म कर रहे हों लेकिन साधारण कर्म में विशेषता दिखाई दे। यही मधुबन की विशेषता है ना। इसमें सर्टिफिकेट लेना है। आज इन्कम-टैक्स का सर्टिफिकेट मिला है ना। तो मधुबन वालों ने कौनसा सर्टिफिकेट लिया है? लेने वाले अधिकारी तो हो ही। विशेष ब्रह्मा बाप की अपने कर्मभूमि में रहने वालों के प्रति यह विशेष श्रेष्ठ आश है कि मधुबन का एक-एक ब्राह्मण आत्मा, श्रेष्ठ आत्मा हर कर्म में ब्रह्मा बाप के कर्म का दर्पण हो। तो दर्पण में क्या दिखाई देता है? यही दिखाई देता है ना। अगर आप दर्पण में खड़े होंगे तो हू-ब-हू आप ही दिखाई देंगे या दूसरा? तो ब्रह्मा बाप के कर्म आपके कर्म के दर्पण में दिखाई दें। भाग्यवान हो-यह तो सदा सभी कहते भी हैं और हैं भी। लेकिन हर कर्म में ब्रह्मा बाप के कर्म दिखाई दें। यह सर्टिफिकेट कौन लेगा और कब लेंगे? लेना तो है ना। या ले लिया है? जिसने यह सर्टिफिकेट ले लिया है कि हर कर्म में ब्रह्मा बाप के कर्म दिखाई दे रहे हैं, उनका बोल, ब्रह्मा का बोल समान, उठना-बैठना, देखना, चलना-सब समान। ऐसा सर्टिफिकेट लिया है? जिसको लेना है वो हाथ उठाओ। यह भी अच्छा है। कहने से पहले करके दिखायेंगे। लेकिन यह लक्ष्य रखो कि हर कर्म बाप समान हो। ब्रह्मा बाप को फॉलो करना तो सहज है ना। निराकारी बनना अर्थात् सदा निराकारी स्थिति में स्थित होना। उसके बजाय कर्म में फॉलो करना उससे सहज है। तो ब्रह्मा बाप तो सहज काम दे रहा है, मुश्किल नहीं। तो सभी लक्ष्य रखो कि मधुबन में जहाँ देखें, जिसको देखें-ब्रह्मा बाप के कर्म दिखाई दें। कर्म में सर्वव्यापी ब्रह्मा कर सकते हो। जहाँ देखें ब्रह्मा समान! हो सकता है ना।

मधुबन की महिमा अर्थात् मधुबन निवासियों की महिमा। मधुबन की दीवारों की महिमा नहीं है, मधुबन निवासियों की महिमा है। मधुबन की महिमा चारों ओर से रोज सुनते हो ना। मधुबन निवासियों की महिमा जो होती है वह किसकी है? आप सबकी है ना। नशा तो रहता है कि हम मधुबन निवासी हैं। जैसे यह नशा है वैसे यह नशा भी प्रत्यक्ष दिखाई दे कि यह ब्रह्मा बाप के समान फॉलो फादर करने वाले हैं। अच्छा! सभी सन्तुष्ट हो? कुछ सैलवेशन चाहिये? सैलवेशन की भूमि में बैठे हो। कितने बेफिक्र बैठे हो! शरीर की मेहनत करते हो, और तो सब बना बनाया मिलता है। जो शरीर की मेहनत नहीं करते हैं उनको एक्सरसाइज की मेहनत कराते हैं। आप तो लक्की हो ना जो एक्सरसाइज नहीं करना पड़े। हाथ-पांव चलते रहते हैं। जितना जो हार्ड वर्क (कठिन परिश्रम) करता है उतना वह सेफ है-माया से भी और शरीर की व्याधियों से भी। बुद्धि तो बिजी रहती है ना। और फालतू तो कुछ नहीं चलेगा। तो जो सदा बिज़ी रहते हैं वे बहुत लक्की हैं। इसलिये अपने को फ्री नहीं करना। चलो, बहुत समय कर लिया, अब फ्री हो जायें। बिज़ी रहना खुशनसीब की निशानी है। खुशनसीब हो ना। अपने को सदा बिज़ी रखना। अच्छा! मधुबन निवासियों को पहला चांस मिला है। यह भी लक्क है। अभी बापदादा को करके दिखाना। समझा?



03-10-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्राह्मण अर्थात् सदा श्रेष्ठ भाग्य के अधिकारी

परमात्म-पालना में पलने वाले सर्वश्रेष्ठ बच्चों प्रति भाग्यविधाता बापदादा बोले -

आज भाग्यविधाता बापदादा अपने सर्व बच्चों का श्रेष्ठ भाग्य देख हर्षित हो रहे हैं। इतना श्रेष्ठ भाग्य और इतना सहज प्राप्त हो-ऐसा भाग्य सारे कल्प में सिवाए आप ब्राह्मण आत्माओं के और किसी का भी नहीं हैं। सिर्फ आप ब्राह्मण आत्माए इस भाग्य के अधि-कारी हो। यह ब्राह्मण जन्म मिला ही है कल्प पहले के भाग्य अनुसार। जन्म ही श्रेष्ठ भाग्य के आधार पर है। क्योंकि ब्राह्मण जन्म स्वयं भगवान द्वारा होता है। अनादि बाप और आदि ब्रह्मा द्वारा यह अलौकिक जन्म प्राप्त हुआ है। जो जन्म ही भाग्यविधाता द्वारा हुआ है, वह जन्म कितना भाग्यवान हुआ! अपने इस श्रेष्ठ भाग्य को सदा स्मृति में रख हर्षित रहते हो? सदा स्मृति प्रत्यक्ष-स्वरूप में हो, सदा मन में इमर्ज करो। सिर्फ दिमाग में समाया हुआ है-ऐसे नहीं। लेकिन हर चलन और चेहरे में स्मृतिस्वरूप प्रत्यक्ष रूप में स्वयं को अनुभव हो और दूसरों को भी दिखाई दे कि इन्हों की चलन में, चेहरे में श्रेष्ठ भाग्य की लकीर स्पष्ट दिखाई देती है। कितने प्रकार के भाग्य प्राप्त हैं, उसकी लिस्ट सदा मस्तक पर स्पष्ट हो। सिर्फ डायरी में लिस्ट नहीं हो लेकिन मस्तक बीच भाग्य की लकीर चमकती हुई दिखाई दे।

पहला भाग्य-जन्म ही भाग्यविधाता द्वारा हुआ है। दूसरी बात-ऐसा किसी भी आत्मा वा धर्मात्मा, महान आत्मा का भाग्य नहीं जो स्वयं भगवान एक ही बाप भी हो, शिक्षक भी हो और सतगुरू भी हो। सारे कल्प में ऐसा कोई है? एक ही द्वारा बाप के सम्बन्ध से वर्सा प्राप्त है, शिक्षक के रूप से श्रेष्ठ पढ़ाई और पद की प्राप्ति है, सतगुरू के रूप में महामन्त्र और वरदान की प्राप्ति है। वर्से में सर्व खज़ानों का अधिकार प्राप्त किया है। सर्व खज़ाने हैं ना। कोई खज़ाने की कमी है? टीचर्स को कोई कमी है? मकान बड़ा होना चाहिए, जिज्ञासु अच्छे-अच्छे होने चाहिए - यह कमी है? नहीं है। जितनी सेवा निर्विघ्न बढ़ती है तो सेवा के साथ सेवा के साधन सहज और स्वत: बढ़ते ही हैं।

बाप द्वारा वर्सा और श्रेष्ठ पालना मिल रही है। परमात्म पालना कितनी ऊंची बात है! भक्ति में गाते हैं परमात्मा पालनहार है। लेकिन आप भाग्यवान आत्माए हर कदम परमात्म पालना के द्वारा ही अनुभव करते हो। परमात्म श्रीमत ही पालना है। बिना श्रीमत अर्थात् परमात्म-पालना के एक कदम भी नहीं उठा सकते। ऐसी पालना सिर्फ अभी प्राप्त है, सतयुग में भी नहीं मिलेगी। वह देव आत्माओं की पालना है और अभी परमात्म पालना में चल रहे हो। अभी प्रत्यक्ष अनुभव से कह सकते हो कि हमारा पालनहार स्वयं भगवान है। चाहे देश में हो, चाहे विदेश में हो लेकिन हर ब्राह्मण आत्मा फलक से कहेगी कि हमारा पालनहार परम आत्मा है। इतना नशा है! कि कब मर्ज हो जाता है, कब इमर्ज होता है? जन्मते ही बेहद के खज़ानों से भरपूर हो अविनाशी वर्से का अधिकार ले लिया। साथ-साथ जन्मते ही त्रिकालदर्शी सत शिक्षक ने तीनों कालों की पढ़ाई कितनी सहज विधि से पढ़ाई! कितनी श्रेष्ठ पढ़ाई है और पढ़ाने वाला भी कितना श्रेष्ठ है! लेकिन पढ़ाया किन्हों को है? जिन्हों में दुनिया की नाउम्मीद है उन्हों को उम्मीदवार बनाया। न सिर्फ पढ़ाया लेकिन पढ़ाई पढ़ने का लक्ष्य ही है ऊंच ते ऊंच पद प्राप्त करना। परमात्म-पढ़ाई से जो श्रेष्ठ पद प्राप्त कर रहे हो, ऐसा पद सारे वर्ल्ड के ऊंचे ते ऊंचे पद के आगे कितना श्रेष्ठ है! अनादि सृष्टि-चक्र के अन्दर द्वापर से लेकर अभी तक जो भी विनाशी पद प्राप्त हुए हैं, उन्हों में सर्वश्रेष्ठ पद पहले राज्य-पद गाया हुआ है। लेकिन आपके राज्य-पद के आगे वह राज्य-पद क्या है? श्रेष्ठ है? आजकल का श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ पद प्रेजीडेन्ट, प्राइम-मिनिस्टर है। बड़े ते बड़ी पढ़ाई द्वारा फ़िलोसोफर बनेंगे, चेयरमेन, डायरेक्टर आदि बन जायेंगे, बड़े ते बड़े ऑफिसर बन जायेंगे। लेकिन यह सब पद आपके आगे क्या हैं! आपको एक जन्म में जन्म-जन्म के लिए श्रेष्ठ पद प्राप्त होने की परमात्म-गारन्टी है और उस एक जन्म की पढ़ाई द्वारा एक जन्म भी पद प्राप्त कराने की कोई गारन्टी नहीं। आप कितने भाग्यवान हो जो पद भी सर्वश्रेष्ठ और एक जन्म की पढ़ाई और अनेक जन्म पद की प्राप्ति! तो भाग्य है ना! चेहरे से दिखाई देता है? चलन से दिखाई देता है? क्योंकि चाल से मनुष्य के हाल का पता लगता है। ऐसी चाल है जो आपके इतने श्रेष्ठ भाग्य का हाल दिखाई देवे? या अभी साधारण लगते हो? क्या है? साधारणता में महानता दिखाई दे। जब आपके जड़ चित्र अभी तक महानता का अनुभव कराते हैं। अब भी कैसी भी आत्मा को लक्ष्मी-नारायण वा सीता-राम वा देवियाँ बना देते हैं तो साधारण व्यक्ति में भी महानता का अनुभव कर सिर झुकाते हैं ना। जानते भी हैं कि यह वास्तव में नारायण वा राम आदि नहीं हैं, बनावटी हैं, फिर भी उस समय महानता को सिर झुकाते हैं, नमन-पूजन करते हैं। लेकिन आप तो स्वयं चैतन्य देव-देवियों की आत्माए हो। आप चैतन्य आत्माओं से कितनी महानता की अनुभूति होनी चाहिए! होती है? आपके श्रेष्ठ भाग्य को मन से नमस्कार करें, हाथ वा सिर से नहीं। लेकिन मन से आपके भाग्य का अनुभव कर स्वयं भी खुशी में नाचें।

इतनी श्रेष्ठ पढ़ाई की प्राप्ति श्रेष्ठ भाग्य है। लोग पढ़ाई पढ़ते ही हैं इस जीवन के शरीर निर्वाह अर्थ कमाई के लिए जिसको सोर्स आफ इन्कम कहा जाता है। आपकी पढ़ाई द्वारा सोर्स आफ इन्कम कितना है? मालामाल हो ना। आपकी इन्कम का हिसाब क्या है? उनका हिसाब होगा लाखों में, करोड़ों में। लेकिन आपका हिसाब क्या है? आपकी कितनी इन्कम है? कदम में पद्म। तो सारे दिन में कितने कदम उठाते हो और कितने पद्म जमा करते हो? इतनी कमाई और किसकी है? कितना बड़ा भाग्य है आपका! तो ऐसे अपनी पढ़ाई के भाग्य को इमर्ज रूप में अनुभव करो। किसी से पूछते हैं तो कहते हैं-ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी तो हैं, बन तो गये हैं। लेकिन ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी अर्थात् श्रेष्ठ भाग्य की लकीर मस्तक में चमकती दिखाई दे। ऐसे नहीं कि ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी तो हैं लेकिन मिल जायेगा, कुछ तो बन ही जायेंगे, चल तो रहे ही हैं, बन तो गये ही हैं...। बन गये हैं या भाग्य को देखकर के उड़ रहे हैं? इसमें बन तो गये हैं, बन ही रहे हैं, चल ही रहे हैं.... ये बोल किसके हैं? श्रेष्ठ भाग्यवान के ये बोल हैं? ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी अर्थात् मौज से मोहब्बत की जीवन बिताने वाले। ऐसे नहीं कि कभी मजबूरी, कभी मोहब्बत। जब कोई समस्या आती है तो क्या कहते हो? चाहते नहीं हैं लेकिन मजबूर हो गये हैं। भाग्यवान अर्थात् मजबूरी खत्म, मोहब्बत से चलने वाले। चाहते तो हैं लेकिन..... - ऐसी भाषा भाग्यवान ब्राह्मण आत्माओं की नहीं है। भाग्यवान आत्माए मोहब्बत के झूले में मौज में उड़ती हैं। उड़ती कला की मौज में रहती हैं। मजबूरी उनके आगे आ नहीं सकती। समझा? अपना श्रेष्ठ भाग्य मर्ज नहीं रखो, इमर्ज करो।

तीसरी बात-सतगुरू द्वारा क्या भाग्य प्राप्त हुआ? पहले तो महामन्त्र मिला। सतगुरू का महामन्त्र क्या मिला? पवित्र बनो, योगी बनो। जन्मते ही यह महामन्त्र सतगुरू द्वारा प्राप्त हुआ और यही महामन्त्र सर्व प्राप्तियों की चाबी सर्व बच्चों को मिली। ‘‘योगी जीवन, पवित्र जीवन’’ ही सर्व प्राप्तियों का आधार है। इसलिए यह चाबी है। अगर पवित्रता नहीं, योगी जीवन नहीं तो अधिकारी होते हुए भी अधिकार की अनुभूति नहीं कर सकेंगे। इसलिए यह महामन्त्र सर्व खज़ानों के अनुभूति की चाबी है। ऐसी चाबी का महामन्त्र सतगुरू द्वारा सभी को श्रेष्ठ भाग्य में मिला है और साथ-साथ सतगुरू द्वारा वरदान प्राप्त हुए हैं। वरदानों की लिस्ट तो बहुत लम्बी है ना! कितने वरदान मिले हैं? इतने वरदानों का भाग्य प्राप्त है जो वरदानों से ही सारी ब्राह्मण जीवन बिता रहे हो और बिता सकते हो। कितने वरदान हैं, लिस्ट का मालूम है? तो वर्सा भी है, पढ़ाई भी है, महामन्त्र की चाबी और वरदानों की खान भी है। तो कितने भाग्यवान हो! या छिपा कर रखा है, आगे चल अन्त में खोलेंगे? बहुतकाल से भाग्य की अनुभूति करने वाले अन्त में भी पद्मापद्म भाग्यवान प्रत्यक्ष होंगे। अब नहीं तो अन्त में भी नहीं। अभी है तो अन्त में भी है। ऐसे कभी नहीं सोचना कि सम्पूर्ण तो अन्त में बनना है। सम्पूर्णता की जीवन का अनुभव अभी से आरम्भ होगा तब अन्त में प्रत्यक्ष रूप में आयेंगे। अभी स्वयं को अनुभव हो, औरों को अनुभव हो, जो समीप सम्पर्क में आये हैं उन्हों को अनुभव हो और अन्त में विश्व में प्रत्यक्ष होगा। समझा?

बापदादा आज सर्व बच्चों के भाग्य की श्रेष्ठ लकीर को देख रहे थे। जितना बाप ने भाग्य देखा उतना ही बच्चे सदा अनुभव कम करते हैं। भाग्य की खान सभी को प्राप्त है। लेकिन कोई को कार्य में लगाना आता है और कोई को कार्य में लगाना नहीं आता है। जितना लगा सकते उतना नहीं लगाते हैं। मिला सबको एक जैसा है लेकिन खज़ाने को कार्य में लगाकर बाप का खज़ाना सो अपना खज़ाना अनुभव करना-इसमें नम्बरवार हैं। बाप ने नम्बरवार नहीं दिया, दिया सबको नम्बरवन है लेकिन कार्य में लगाना-इसमें अपने आप नम्बर बना दिये हैं। समझा, नम्बर क्यों बने हैं? जितना यूज़ करेंगे, कार्य में लगायेंगे, उतना बढ़ता जायेगा। मर्ज करके रख देंगे तो बढ़ेगा नहीं और स्वयं भी अनुभव नहीं करेंगे तो दूसरों को भी अनुभव नहीं करा सकेंगे। इसलिए चलन और चेहरे में लाओ। समझा, क्या करना है? जो भी नम्बर आवे अच्छा है। चलो, 108 नहीं तो 16000 में ही मिल जाये, कुछ तो बनेंगे। लेकिन 16 हजार की माला सदा नहीं जपी जाती, कहाँ-कहाँ और कभी-कभी जपते हैं। 108 की माला तो सदा जपते रहते हैं। अब मैं कौन? - यह स्वयं जानो। अगर बाप कहेंगे वा और कोई कहेंगे कि आप तो 16000 में आयेंगे तो क्या कहेंगे? मानेंगे? क्वेश्चन-मार्क शुरू हो जायेंगे। इसलिए अपने आपको जानो-मैं कौन? अच्छा!

चारों ओर के सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं को, सर्व जन्म से प्राप्त परमात्म-जन्म अधिकारी आत्माओं को, सर्व बाप द्वारा श्रेष्ठ वर्सा और परमात्म-पालना लेने वाले, सत् शिक्षक द्वारा श्रेष्ठ पढ़ाई का श्रेष्ठ पद और श्रेष्ठ कमाई करने वाले, सतगुरू द्वारा महामन्त्र और सर्व वरदान प्राप्त करने वाले-ऐसे अति श्रेष्ठ पद्मापद्म, हर कदम में पद्म जमा करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

यथार्थ सेवा वा यथार्थ याद की निशानी है-निर्विघ्न रहना और निर्विघ्न बनाना

सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य के गीत स्वत: ही मन में बजते रहते हैं? यह अनादि अविनाशी गीत है। इसको बजाना नहीं पड़ता लेकिन स्वत: ही बजता है। सदा यह गीत बजना अर्थात् सदा ही अपने खुशी के खज़ाने को अनुभव करना। सदा खुश रहते हो? ब्राह्मणों का काम ही है खुश रहना और खुशी बाँटना। इसी सेवा में सदा बिज़ी रहते हो? वा कभी भूल भी जाते हो? जब माया आती है फिर क्या करते हो? जितना समय माया रहती है उतना समय खुशी का गीत बन्द हो जाता है। बाप का सदा साथ है तो माया आ नहीं सकती। माया आने के पहले बाप का साथ अलग करके अकेला बनाती है, फिर वार करती है। अगर बाप साथ है तो माया नमस्कार करेगी, वार नहीं करेगी। तो माया को जब अच्छी तरह से जान गये हो कि यह दुश्मन है, तो फिर आने क्यों देते हो? साथ छोड़ देते हो ना, इसलिए माया को आने का दरवाजा मिल जाता है। दरवाजे को डबल लॉक लगाओ, एक लॉक नहीं। आजकल एक लॉक नहीं चलता। तो डबल लॉक है-याद और सेवा। सेवा भी निस्वार्थ सेवा-यही लॉक है। अगर निस्वार्थ सेवा नहीं तो वह लॉक ढीला लॉक हो जाता है, खुल जाता है। याद भी शक्तिशाली चाहिए। साधारण याद है तो भी लॉक नहीं कहेंगे। तो सदा चेक करो-याद तो है लेकिन साधारण याद है या शक्तिशाली याद है? ऐसे ही, सेवा करते हो लेकिन निस्वार्थ सेवा है या कुछ न कुछ स्वार्थ भरा है? सेवा करते हुए भी, याद में रहते हुए भी यदि माया आती है तो जरूर सेवा अथवा याद में कोई कमी है।

सदा खुशी के गीत गाने वाली श्रेष्ठ भाग्यवान आत्माए हैं-इस स्मृति से आगे बढ़ो। यथार्थ योग वा यथार्थ सेवा-यह निशानी है निर्विघ्न रहना और निर्विघ्न बनाना। निर्विघ्न हो या कभी-कभी विघ्न आता है? फिर कभी पास हो जाते हो, कभी थोड़ा फेल हो जाते हो। कोई भी बात आती है, उसमें अगर किसी भी प्रकार की जरा भी फीलिंग आती है-यह क्यों, यह क्या..... तो फीलिंग आना माना विघ्न। सदैव यह सोचो कि व्यर्थ फीलिंग से परे, फीलिंग-प्रूफ आत्मा बन जायें। तो मायाजीत बन जायेंगे। फिर भी, देखो-बाप के बन गये, बाप का बनना-यह कितनी खुशी की बात है! कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा कि भगवान के इतने समीप सम्बन्ध में आयेंगे! लेकिन साकार में बन गये! तो क्या याद रखेंगे? सदा खुशी के गीत गाने वाले। यह खुशी के गीत कभी भी समाप्त नहीं हो सकते हैं।

टीचर्स का अर्थ ही है अपने फीचर्स से सबको फरिश्ते के फीचर्स अनुभव कराने वाली। ऐसी टीचर्स हो? साधारण रूप नहीं दिखाई दे, सदा फरिश्ता रूप दिखाई दे। क्योंकि टीचर्स निमित्त हो ना। तो जो निमित्त बनते हैं वो जो स्वयं अनुभव करते हैं वह औरों को कराते हैं। यह भी भाग्य है जो निमित्त बने हो। अभी इसी भाग्य को स्वयं अनुभव में बढ़ाओ और दूसरों को अनुभव कराओ। सबसे विशेष बात अनुभवी मूर्त बनो।

ग्रुप नं. 2

‘‘मेरा बाबा’’ स्मृति में लाना अर्थात् सर्व प्राप्तियों के भण्डारे भरपूर होना

सबसे सहज सदा शक्तिशाली रहने की विधि क्या है जिस विधि से सहज और सदा निर्विघ्न भी रह सकते हैं और उड़ती कला का भी अनुभव कर सकते हैं? सबसे सहज विधि है-और कुछ भी भूल जाये लेकिन एक बात कभी नहीं भूले-’’मेरा बाबा।’’ ‘‘मेरा बाबा’’ दिल से मानना-यही सबसे सहज विधि है आगे बढ़ने की। मेरा-मेरा मानने का संस्कार तो बहुत समय का है ही। उसी संस्कार को सिर्फ परिवर्तन करना है। अनेकमेरे को एक  मेरा बाबा उसमें समाना है। एक को याद करना सहज है ना और एक मेरे में सब-कुछ आ जाता है। तो सबसे सहज विधि है-’’मेरा बाबा’’मेराशब्द ऐसा है जो न चाहते भी याद आती है। मेरेको याद नहीं करना पड़ता लेकिन स्वत: याद आती है। भूलने की कोशिश करते भी मेरानहीं भूलता। योग अगर कमजोर होता है तो भी कारण मेराहै और योग शक्तिशाली होता है तो उसका भी कारण मेराही है। ‘‘मेरा बाबा’’-तो योग शक्तिशाली हो जाता है और मेरा सम्बन्ध, मेरा पदार्थ-यह ‘‘अनेक मेरा’’ याद आना अर्थात् योग कमजोर होना। तो क्यों नहीं सहज विधि से पुरूषार्थ में वृद्धि करो।

विधि से ही सिद्धि प्राप्त होती है। रिद्धि-सिद्धि अल्पकाल की होती है लेकिन विधि से सिद्धि जो प्राप्त होती है वह अविनाशी होती है। तो यहाँ रिद्धि-सिद्धि की बात नहीं है लेकिन विधि से सिद्धि प्राप्त करनी है। विधि को अपनाना आता है या मुश्किल लगता है? कम-जोर बनना अर्थात् मुश्किल अनुभव होना। बिना कमजोरी के मुश्किल नहीं होता है। तो कमजोर हो क्या? या माया कभी-कभी कमजोर बना देती है? अगर ‘‘मेरा बाबा’’ याद आता है, तो बाप सर्वशक्तिवान है ना, तो जैसा बाप वैसे बच्चे। ‘‘मेरा बाबा’’ याद आने से अपना मास्टर सर्वशक्तिवान का स्वरूप याद आता है। ‘‘मेरा बाबा’’ कहने से ही बाप कौन है, वह स्मृति में आता है। तो मास्टर सर्वशक्तिवान बनने से न कमजोर बनेंगे, न मुश्किल अनुभव करेंगे। सदा सहज। जितना आगे बढ़ते जायेंगे उतना सहज से सहज अनुभव करते जायेंगे। एक ही बात को सदा स्मृति में रखना-’’मेरा बाबा’’‘‘मेरा बाबा’’ स्मृति में आना और सर्व प्राप्तियों के भण्डार अनुभव होना। तो भण्डारे भरपूर हैं ना। सब खज़ाने भरपूर हैं? या कोई हैं, कोई नहीं हैं? ऐसे नहीं-सुख का अनुभव तो होता है लेकिन शान्ति का नहीं होता है, शक्ति का नहीं होता। सर्व खज़ानों के मालिक के बालक हैं। बाप के खज़ाने सो मेरे खज़ाने हैं। तो जितना भरपूर रहेंगे, उतना जो भरपूर चीज होती है वह कभी हलचल में नहीं आती। थोड़ा भी खाली होता है तो हलचल होती है। तो सदा भरपूर अर्थात् सदा अचल। हलचल नहीं। कभी बुद्धि चंचल हो नहीं सकती है। किसी भी विकार के वश होना अर्थात् बुद्धि चंचल होना। अचल हैं और सदा अचल रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

याद से सब कार्य स्वत: सफल होते हैं, कहने वा मांगने की आवश्यकता नहीं

सदा और सहज याद कौन आता है? (बाबा) बाबा भी क्यों याद आता है? (प्यारा है) तो जो प्यारा होता है उसे याद किया नहीं जाता, उसकी याद स्वत: आती है। उससे दिल का प्यार है, सच्चा प्यार है, निस्वार्थ प्यार है। तो सबसे प्यारा कौन? बाप। तो बाप को भुलाना मुश्किल है या याद करना मुश्किल है? जब कोई ऐसी परिस्थिति आती है फिर स्थिति कैसी होती है? फिर याद करना पड़ता है या याद स्वत: आती है, क्या होता है? परिस्थिति का अर्थ ही है - पर-स्थिति। स्व नहीं है, पर है। दूसरे द्वारा आने वाली स्थिति - उसको कहते हैं पर-स्थिति। तो पर-स्थिति शक्तिशाली होती है या स्व-स्थिति शक्तिशाली होती है? लेकिन उस समय क्या होता है? उस समय पर-स्थिति पावरफुल हो जाती है और याद करना पड़ता है। मेरा बाबा, प्यारा बाबा-तो प्यारे को कभी भूल नहीं सकते। और निस्वार्थ प्यार सिवाए बाप के किसी आत्मा से मिल नहीं सकता। आत्मा को कोई न कोई अपने प्रति स्वार्थ रहता है। लेकिन परम आत्मा निस्वार्थ है, क्यों? क्योंकि परम आत्मा दाता है, आत्मा लेकर देने वाली है। आत्मा स्वयं दाता नहीं है लेकिन लेकर दे सकती है और परम आत्मा स्वयं दाता है।

आप कौन हो? मास्टर दाता हो ना। वास्तव में देना अर्थात् बढ़ना। जितना देते हो उतना बढ़ता है। विनाशी खज़ाना देने से कम होता है और अविनाशी खज़ाना देने से बढ़ता है-एक दो, हजार पाओ। तो देना आता है कि सिर्फ लेना आता है? दे कौन सकता है? जो स्वयं भरपूर है। अगर स्वयं में ही कमी है तो दे नहीं सकता। तो मास्टर दाता अर्थात् सदा भरपूर रहने वाले, सम्पन्न रहने वाले। तो सहज याद क्या हुई? ‘‘प्यारा बाबा’’। मतलब से याद नहीं करो। मतलब से याद करने में मुश्किल होता है, प्यार से याद करना सहज होता है। मतलब से याद करना याद नहीं, फरियाद होती है। तो फरियाद करते हो? ऐसा कर देना, ऐसा करो ना, ऐसा होना चाहिए ना....-ऐसे कहते हो? याद से सर्व कार्य स्वत: ही सफल हो जाते हैं, कहने की आवश्यकता नहीं। सफलता जन्मसिद्ध अधिकार है। अधिकार मांगने से नहीं मिलता, स्वत: मिलता है। तो अधिकारी हो या मांगने वाले हो? अधिकारी सदा नशे में रहते हैं-मेरा अधिकार है। मांगना तो बन्द हो गया ना। बाप से भी मांगना नहीं है। यह दे दो, थोड़ी खुशी दे दो, थोड़ी शान्ति दे दो....-ऐसे मांगते हो? बाप का खज़ाना मेरा खज़ाना है। जब मेरा खज़ाना है तो मांगने की क्या दरकार है। तो अधिकारी जीवन का अनुभव करने वाले हो ना। अनेक जन्म भिखारी बने, अभी अधिकारी बने हो। सदा इसी अधिकार के नशे में रहो। परमात्म-प्यार के अनुभवी आत्माए हो। तो सदा इसी अनुभव से सहजयोगी बन उड़ते चलो। अधिकारी आत्मायें स्वप्न में भी मांग नहीं सकतीं। बालक सो मालिक हो। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

एकरस स्थिति बनाने के लिये एक की याद में रहो, ट्रस्टी बनो

सदा एकरस स्थिति में स्थित रहने की सहज विधि क्या है? एक की याद एकरस स्थिति बनाती है। एक बाबा, दूसरा न कोई। क्योंकि एक में सब समाये हुए हैं। जैसे बीज में सब समाया हुआ होता है ना। वृक्ष की एक-एक चीज को याद करना मुश्किल है लेकिन एक बीज को याद करो तो सब सहज है। तो बाप भी बीज है। जिसमें सर्व सम्बन्धों का, सर्व प्राप्तियों का सार समाया हुआ है। एक बाप को याद करना अर्थात् सार-स्वरूप बनना। तो एक बाप, दूसरा न कोई। यह एक की याद एकरस स्थिति बनाती है। ऐसे अनुभव करते हो? या प्रवृत्ति में रहते हो तो दूसरा-तीसरा तो होता है? मेरा बच्चा, मेरा परिवार-यह नहीं रहता है? फिर एक बाप तो नहीं हुआ ना। मेरापरिवार है या तेरापरिवार है? ट्रस्टी बनकर सम्भालते हो या गृहस्थी बनकर सम्भालते हो? ट्रस्टी अर्थात् तेरा और गृहस्थी अर्थात् मेरा। तो आप कौन हो? मेरा-मेरा मानते क्या मिला? मेरा ये, मेरा ये.... मेरे-मेरे के विस्तार से मिला क्या? कुछ मिला या गंवाया? जितना मेरा-मेरा कहा, उतना ही मेरा कोई नहीं रहा। तो ट्रस्टी जीवन कितनी प्यारी है! सम्भा-लते हुए भी कोई बोझ नहीं, सदा हल्के। देखो, गृहस्थी बन चलने से बोझ उठाते-उठाते क्या हाल हुआ-तन भी गंवाया, मन भी अशान्त किया और सच्चा धन भी गंवा दिया। तन को रोगी बना दिया, मन को अशान्त बना लिया और धन में कोई शक्ति नहीं रही। आज का एक हजार पहले के एक रूपये के बराबर है। तो धन की ताकत चली गई ना। अभी जब बोझ उठाने का भी अनुभव कर लिया और हल्के रहने का भी अनुभव कर लिया, तो अनुभवी कभी धोखा नहीं खाता। कभी भी, किसी भी बात में अगर माया से धोखा खाते तो धोखा खाने की निशानी क्या है? दु:ख की लहर। जरा भी दु:ख की लहर संकल्प में भी आती है तो जरूर कहाँ धोखा खाया है। तो चेक करो कि किस बात में धोखा मिला, क्यों दु:ख की लहर आई? सुखदाता के बच्चे हो। तो सुखदाता के बच्चे को दु:ख की लहर आ सकती है? स्वप्न भी बदल गये। सुख के स्वप्न आयें, खुशी के स्वप्न आयें, सेवा के स्वप्न आयें, मिलन मनाने के स्वप्न आयें। संस्कार भी बदल गये तो स्वप्न भी बदल गये। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

एवररेडी वह है जो नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप है

सदा अपने को सर्व प्राप्ति-स्वरूप श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? क्योंकि प्राप्ति-स्वरूप ही औरों को सर्व प्राप्ति करा सकता है। देने में लेना स्वत: ही समाया है। अभी अपने बहन-भाइयों को भिखारी देख रहम तो आता है ना। जब परमात्म-प्राप्तियों के अधिकारी बन गये तो पा लिया-सदा दिल में यही गीत गाते हो? पाना था सो पा लिया। सम्पन्न बन गये। ऐसे सम्पन्न बन गये या विनाश तक बनेंगे? अगर समय सम्पन्न वा सम्पूर्ण बनाये तो रचना पावरफुल हुई या रचता? तो समय पर नहीं बनना है, समय को समीप लाना है। समय का इन्तज़ार करने वाले नहीं हो। जब पा लिया तो पाने की खुशी में रहने वाले सदा ही एवररेडी रहते हैं। कल भी विनाश हो जाये तो तैयार हो? या थोड़ा टाइम चाहिए? एवररेडी, नष्टोमोहा, स्मृतिस्वरूप - इसमें पास हो? एवररेडी का अर्थ ही है-नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप। या उस समय याद आयेगा कि पता नहीं बच्चे क्या कर रहे होंगे, कहाँ होंगे, छोटे-छोटे पोत्रों का क्या होगा? यहीं विनाश हो जाये तो याद आयेंगे? पति का भी कल्याण हो जाये, पोत्रे का भी कल्याण हो जाये, उन्हों को भी यहाँ ले आयें-याद आयेगा? बिजनेस का क्या होगा, पैसे कहाँ जायेंगे? रास्ते टूट जायें फिर क्या करेंगे? देखना, अचानक पेपर होगा।

सदा न्यारा और प्यारा रहना-यही बाप समान बनना है। जहाँ हैं, जैसे हैं लेकिन न्यारे हैं। यह न्यारापन बाप के प्यार का अनुभव कराता है। जरा भी अपने में या और किसी में भी लगाव न्यारा बनने नहीं देगा। न्यारे और प्यारेपन का अभ्यास नम्बर आगे बढ़ा-येगा। इसका सहज पुरूषार्थ है निमित्त भाव। निमित्त समझने से निमित्त बनाने वाला याद आता है। मेरा परिवार है, मेरा काम है। नहीं, मैं निमित्त हूँ। निमित्त समझने से पेपर में पास हो जायेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं 6

डबल लाइट बनने के लिये बाप की बातें सुनो, बाप के श्रेष्ठ कर्म को फॉलो करो

सभी साकार में वा स्थिति में समीप रहने वाली आत्मायें हो ना। आबू में रहने वाले अर्थात् आबू के बाबा जैसी स्थिति में रहने वाले। जैसे आबू की धरनी से प्यार है, तभी तो समीप रहना चाहते हो ना। ऐसे बाप से भी प्यार है ना। प्यार की निशानी है समान बनना। तो सभी प्यार का रिटर्न देने वाले, प्यार की निशानी दिखाने वाले हो। डॉक्टर्स को बहुत अच्छा चांस मिला है। सभी हल्के हो? रहने में, आने में, खाने में-सबमें हल्के हो? या थोड़ा-थोड़ा भारी हो? जो दिल से साथ रहते हैं, तो साथ की खुशी सब-कुछ भुला देती है। खुशी में भोजन भी न ठण्डा लगता, न गर्म लगता, बहुत प्यारा लगता है। जब बहुत खुशी का मौका होता है तो ठण्डा खाया या गर्म खाया-याद रहता है? खुशी से ही पेट भर जाता है! तो साथ रहने वाले अर्थात् खुशी से भरपूर रहने वाले। ऐसे हैं ना! यह भी ड्रामा की बहुत श्रेष्ठ भावी बनी हुई थी जो आप सबको गोल्डन चांस मिला। यह डबल विदेशी हैं और आप डबल सर्विसेबल हो। डबल सेवा करते हो या सिर्फ दवाई देते हो? एक ही समय पर डबल सेवा करने के निमित्त हो। डबल सेवाधारी, डबल स्नेह और सहयोग के पात्र बनते हैं। अच्छा है। समीप रहने का-यह भी चांस अच्छा मिलता है। समीप रहने वालों से यह पूछने की आवश्य-कता है क्या कि खुश हो, ठीक हो? मधुबन निवासी बनना अर्थात् सदा खुशी में उड़ना। तो हॉस्पिटल का काम कैसे चल रहा है? पंख लग गये हैं ना। उमंग-उत्साह के पंखों से उड़ रहे हैं।

डबल विदेशी आत्माओं की सदा उड़ती कला है ना? या कभी चढ़ती कला, कभी चलती कला और कभी उड़ती कला-क्या कहेंगे? सदा उड़ती कला। क्योंकि समय उड़ती कला से चल रहा है। अगर आप उड़ती कला से आगे नहीं बढ़ेंगे तो क्या रिजल्ट होगी? तो समय के पहले तैयार होने वाले हो ना। समय का इंतजार नहीं करना है लेकिन समय आप श्रेष्ठ आत्माओं का आह्वान कर रहा है। डबल विदेशी नाम है और चाल है डबल लाइट। बोझ उठाने का अनुभव 63 जन्म किया। अभी डबल लाइट रहने के अनुभव का यह एक ब्राह्मण जन्म है। तो अभी सदा डबल लाइट रहो। डॉक्टर्स भी डबल लाइट हैं ना। या कुछ बोझ है? देखने का, सुनने का कुछ बोझ है? या कभी-कभी थोड़ा बोझ हो जाता है? इसलिये बापदादा कहते हैं-जिस बात में कोई रस नहीं हो, कोई सम्बन्ध नहीं हो, तो वह सुनते हुए नहीं सुनो, देखते हुए नहीं देखो। देखते हुए, सुनते हुए सोचो नहीं। सोचो तो क्या सोचो? बाप की बातें। सुनो तो बाप की बातें, देखो तो बाप के श्रेष्ठ कर्म और फॉलो करने वालों के श्रेष्ठ कर्म। यही विधि है सदा डबल लाइट रहने की। डॉक्टर्स का काम ही है-शरीर में आने वाली व्यर्थ चीजों को खत्म करना। डॉक्टर्स की विशेषता है-व्यर्थ को समाप्त करना और समर्थ बनाना। रूहानियत में भी यही काम है और स्थूल में भी यही काम है। बाकी, सेवा अच्छी कर रहे हो और रिजल्ट अच्छी है और अच्छे ते अच्छी होनी ही है। प्यार से सेवा कर रहे हो। प्यार की दवाई पहले देते हो, पीछे और दवाई देते हो ना। तो आधा काम तो प्यार ही कर लेता है। अच्छा!

आबू निवासी भी लक्की हैं। समय पर आना नहीं पड़ेगा, हैं ही यहाँ। सभी डॉक्टर्स को अपनी सेवा पसन्द है? या थोड़ा और कहाँ चक्कर लगाने चाहते हो? बड़े शहरों में बड़ी सेवा हो जायेगी-यह नहीं समझते हो? खुश हो? सब अच्छे हैं। अच्छा!



13-10-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नम्बरवन बनना है तो ज्ञान और योग को स्वरूप में लाओ

स्वयं प्रकाश स्वरूप बन अनेकों का अन्धकार मिटाने वाले चैतन्य दीपकों प्रति सत् शिक्षक बापदादा बोले:

आज सत् शिक्षक अपनी श्रेष्ठ शिक्षा धारण करने वाले गॉडली स्टूडेन्ट को देख रहे हैं कि हर एक ईश्वरीय विद्यार्थी ने इस ईश्वरीय शिक्षा को कहाँ तक धारण किया है? पढ़ाने वाला एक है, पढ़ाई भी एक है लेकिन पढ़ने वाले पढ़ाई में नम्बरवार हैं। हर रोज का पाठ मुरली द्वारा हर स्थान पर एक ही सुनते हैं अर्थात् एक ही पाठ पढ़ते हैं। मुरली अर्थात् पाठ हर स्थान पर एक ही होता है। डेट का फर्क हो सकता है लेकिन मुरली वही होती है। फिर भी नम्बरवार क्यों? नम्बर किसलिए होते हैं? क्योंकि इस ईश्वरीय पढ़ाई पढ़ने की विधि सिर्फ सुनना नहीं है लेकिन हर महावाक्य स्वरूप में लाना है। तो सुनना सबका एक जैसा है लेकिन स्वरूप बनने में नम्बरवार हो जाते हैं। लक्ष्य सभी का एक ही रहता है कि मैं नम्बरवन बनूँ। ऐसा लक्ष्य है ना! लक्ष्य नम्बरवन का है लेकिन रिजल्ट में नम्बरवार हो जाते हैं। क्योंकि लक्ष्य को लक्षण में लाना-इसमें लक्ष्य और लक्षण में फर्क पड़ जाता है। इस पढ़ाई में सब्जेक्ट भी ज्यादा नहीं हैं। चार सब्जेक्ट को धारण करना-इसमें मुश्किल क्या है! और चारों ही सब्जेक्ट का एक-दो के साथ सम्बन्ध है। अगर एक सब्जेक्ट ज्ञानसम्पूर्ण विधिपूर्वक धारण कर लो अर्थात् ज्ञान के एक-एक शब्द को स्वरूप में लाओ, तो ज्ञान है ही मुख्य दो शब्दों का जिसको रचयिता और रचना वा अल्फ और बे कहते हो। रचयिता बाप की समझ आ गई अर्थात् परमात्म-परिचय, सम्बन्ध स्पष्ट हो गया और रचना अर्थात् पहली रचना ‘‘मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ’’ और दूसरा ‘‘मुझ आत्मा का इस बेहद की रचना अर्थात् बेहद के ड्रामा में सारे कल्प में क्या-क्या पार्ट है’’-यह सारा ज्ञान तो सभी को है ना। लेकिन श्रेष्ठ आत्मा स्वरूप बन हर समय श्रेष्ठ पार्ट बजाना-इसमें कभी याद रहता है, कभी भूल जाते हैं। अगर इन दो शब्दों का ज्ञान है, योग भी इन दो शब्दों के आधार पर है ना। ज्ञान से योग का स्वत: ही सम्बन्ध है। जो ज्ञानी तू आत्माहै वह योगी तू आत्माअवश्य ही है। तो ज्ञान और योग का सम्बन्ध हुआ ना। और जो ज्ञानी और योगी होगा उसकी धारणा श्रेष्ठ होगी या कमजोर होगी? श्रेष्ठ, स्वत: होगी ना, सहज होगी ना। कि धारणा में मुश्किल होगी? जो ज्ञानी तू आत्मा’, ‘योगी तू आत्माहै वह धारणा में कमजोर हो सकता है? नहीं। होते तो हैं। तो ज्ञान-योग नहीं है? ज्ञानी है लेकिन ज्ञानी तू आत्मावह स्थिति नहीं है। योग लगाने वाले हैं लेकिन योगी जीवन वाले नहीं हैं। जीवन सदा होती है और जीवन नेचुरल होती है। योगी जीवन अर्थात् ओरीजिनल नेचर योगी की है।

63 जन्मों के विस्मृति के संस्कार वा कमजोरी के संस्कार ब्राह्मण जीवन में कहाँ-कहाँ मूल नेचर बन पुरूषार्थ में विघ्न डालते हैं। कितना भी स्वयं वा दूसरा अटेन्शन खिंचवाता है कि यह परिवर्तन करो वा स्वयं भी समझते हैं कि यह परिवर्तन होना चाहिए लेकिन जानते हुए भी, चाहते हुए भी क्या कहते हो? चाहते तो नहीं हैं लेकिन मेरी नेचर है यह, मेरा स्वभाव है यह। तो नेचर नेचुरल हो गई है ना। किसके बोल में वा व्यवहार में ज्ञान-सम्पन्न व्यवहार वा योगी जीवन प्रमाण व्यवहार वा बोल नहीं होते हैं तो वो क्या कहते हैं? यही बोल बोलेंगे कि मेरा नेचुरल बोल ही ऐसा है, बोलने का टोन ही ऐसा है। वा कहेंगे-मेरी चाल-चलन ही ऑफिशियल वा गम्भीर है। नाम अच्छे बोलते हैं-जोश नहीं है लेकिन ऑफिशियल है। तो चाहते भी, समझते भी नेचर नेचुरल वर्क (कार्य) करती रहती है, उसमें मेहनत नहीं करनी पड़ती है। ऐसे जो ज्ञानी जीवन वा योगी जीवन में रहते हैं, तो ज्ञान और योग सम्पन्न हर कर्म नेचुरल होते हैं अर्थात् ज्ञान और योग-यही उनकी नेचर बन जाती है और नेचर बनने के कारण श्रेष्ठ कर्म, युक्तियुक्त कर्म नेचुरल होते रहते हैं। तो समझा, नेचर नेचुरल बना देती है। तो ज्ञान और योग मूल नेचर बन जायें-इसको कहा जाता है ज्ञानी जीवन, योगी जीवन वाला।

ज्ञानी सभी हो, योगी सभी हो लेकिन अन्तर क्या है? एक हैं-ज्ञान सुनने-सुनाने वाले, यथा शक्ति जीवन में लाने वाले। दूसरे हैं-ज्ञान और योग को हर समय अपने जीवन की नेचर बनाने वाले। विद्यार्थी सभी हो लेकिन यह अन्तर होने के कारण नम्बरवार बन जाते हैं। जिसकी नेचर ही ज्ञानी-योगी की होगी उसकी धारणा भी नेचुरल होगी। नेचुरल स्वभाव-संस्कार ही धारणास्वरूप होंगे। बार-बार पुरूषार्थ नहीं करना पड़ेगा कि इस गुण को धारण करूँ, उस गुण को धारण करूँ। लेकिन पहले फाउन्डेशन के समय ही ज्ञान, योग और धारणा को अपनी जीवन बना दी। इसलिए यह तीनों सब्जेक्ट ऐसी आत्मा की स्वत: और स्वाभाविक अनुभूतियां बन जाती हैं। इसलिए ऐसी आत्माओं को सहज योगी, सहज ज्ञानी, सहज धारणामूर्त कहा जाता है। तीनों सब्जेक्ट का कनेक्शन है। जिसके पास इतनी अनुभूतियों का खज़ाना सम्पन्न होगा, ऐसी सम्पन्न मूर्तियां स्वत: ही मास्टर दाता बन जाती हैं। दाता अर्थात् सेवाधारी। दाता देने के बिना रह नहीं सकता। दातापन के संस्कार से स्वत: ही सेवा का सब्जेक्ट प्रैक्टिकल में सहज हो जाता है। तो चारों का ही सम्बन्ध हुआ ना। कोई कहे कि मेरे में ज्ञान तो अच्छा है लेकिन धारणा में कमी है-तो उसको ज्ञानी कहा जायेगा? ज्ञान तो दूसरों को भी देते हो ना। है तब तो देते हो! एक है-समझना, दूसरा है-स्वरूप में लाना। समझने में सभी होशियार हैं, समझाने में भी सभी होशियार हैं लेकिन नम्बरवन बनना है तो ज्ञान और योग को स्वरूप में लाओ। फिर नम्बरवार नहीं होंगे लेकिन नम्बरवन होंगे।

तो सुनाया कि आज सत् शिक्षक अपने चारों ओर के ईश्वरीय विद्यार्थियों को देख रहे थे। तो क्या देखा? सभी नम्बरवन दिखाई दिये वा नम्बरवार दिखाई दिये? क्या रिजल्ट होगी? वा समझते हो-नम्बरवन तो एक ही होगा, हम तो नम्बरवार में ही आयेंगे? फर्स्ट डिवीज़न में तो आ सकते हो ना। उसमें एक नहीं होता है। तो चेक करो-अगर बार-बार किसी भी बात में स्थिति नीचे-ऊपर होती है अर्थात् बार-बार पुरूषार्थ में मेहनत करनी पड़ती है, इससे सिद्ध है कि ज्ञान की मूल सब्जेक्ट के दो शब्द-रचताऔर रचनाकी पढ़ाई को स्वरूप में नहीं लाया है, जीवन में मूल संस्कार के रूप में वा मूल नेचर के रूप में वा सहज स्वभाव के रूप में नहीं लाया है। ब्राह्मण जीवन का नेचुरल स्वभाव-संस्कार ही योगी जीवन, ज्ञानी जीवन है। जीवन अर्थात् निरन्तर, सदा। 8 घण्टा जीवन है, फिर 4 घण्टा नहीं-ऐसा नहीं होता। आज 10 घण्टे के योगी बने, आज 12 घण्टे के योगी बने, आज 2 घण्टे के योगी बने-वो योग लगाने वाले योगी हैं, योगी जीवन वाले योगी नहीं। विशेष संगठित रूप में इसीलिए बैठते हो कि सर्व के योग की शक्ति से वायुमण्डल द्वारा कमजोर पुरूषार्थियों को और विश्व की सर्व आत्माओं को योग शक्ति द्वारा परिवर्तन करें। इसलिए वह भी आवश्यक है लेकिन इसीलिए योग में नहीं बैठते हो कि अपना ही टूटा हुआ योग लगाते रहो। संगठित शक्ति-यह भी सेवा के निमित्त है लेकिन योग-भट्ठी इसलिए नहीं रखते हो कि मेरा कनेक्शन फिर से जुट जाये। अगर कमजोर हो तो इसलिए बैठते हो और ‘‘योगी तू आत्मा’’ हो तो मास्टर सर्वशक्तिवान बन, मास्टर विश्व-कल्याणकारी बन सर्व को सहयोग देने की सेवा करते हो। तो पढ़ाई अर्थात् स्वरूप बनना। अच्छा!

आज दीपावली मनाने आए हैं। मनाने का अर्थ क्या है? दीपावली में क्या करते हो? दीप जलाते हो। आजकल तो लाइट जलाते हैं। और लाइट पर कौन आते हैं? परवाने। और परवाने की विशेषता क्या होती है? फिदा होना। तो दीपावली मनाने का अर्थ क्या हुआ? तो फिदा हो गये हो या आज होना है? हो गये हो या होना है? (हो गये हैं) तो दीपावली तो मना ली, फिर क्यों मनाते हो? जब फिदा हो गये तो दीपावली मना लिया। कि बीच-बीच में चक्कर लगाने जाते हो? फिदा हो गये हैं लेकिन थोड़े पंख अभी हैं, उससे थोड़ा चक्कर लगा लेते हो। तो चक्कर लगाने वाले तो नहीं हो ना। चक्कर लगाना अर्थात् किसी न किसी माया के रूप से टक्कर खाना। माया से टक्कर खाते हो या माया को हार खिलाते हो? वा कभी विजय प्राप्त करते हो, कभी टक्कर खाते हो?

दीपमाला-यह अपना ही यादगार मनाते हो। आपका यादगार है ना? कि मुख्य आत्माओं का यादगार है, आप देखने वाले हो? आप सबका यादगार है, इसीलिए आजकल बहुत अंदाज़ में दीपक के बजाए छोटे-छोटे बल्ब जगा देते हैं। दीपक जलायेंगे तो संख्या फिर भी उससे कम हो जायेगी। लेकिन आपकी संख्या तो बहुत है ना। तो सभी की याद में अनेक छोटे-छोटे बल्ब जगमगा देते हैं। तो अपना यादगार मना रहे हैं। जब दीपक देखते हो तो समझते हो यह हमारा यादगार है? स्मृति आती है? यही संगमयुग की विशेषता है जो चैतन्य दीपक अपना जड़ यादगार दीपक देखते हो। चैतन्य में स्वयं हो और जड़ यादगार देख रहे हो। ऐसे तो जिस दिन दीपावली मनाओ उस दिन ही वास्तविक तिथि है। यह तो दुनिया वालों ने तिथि फिक्स की है, लेकिन आपकी तिथि अपनी है। इसलिए जिस दिन आप ब्राह्मण मनाओ वही सच्ची तिथि है। इसलिए कोई भी तिथि फिक्स करते हैं तो किससे पूछते हैं? ब्राह्मणों से ही निकालते हैं। तो आज बापदादा सभी देश-विदेश के सदा जगे हुए दीपकों को दीपमाला की मुबारक दे रहे हैं, बधाई दे रहे हैं। दीपावली मुबारक अर्थात् मालामाल, सम्पन्न बनने की मुबारक।

ऐसे सदा जागती ज्योत, सदा स्वयं प्रकाशस्वरूप बन अनेकों का अन्धकार मिटाने वाले सच्चे दीपक, सदा चारों ही सब्जेक्ट को साथ-साथ जीवन में लाने वाले, सर्व सब्जेक्ट में नम्बरवन के लक्ष्य को लक्षण में लाने वाले, ऐसे ज्ञानी तू आत्माए, योगी तू आत्माए, दिव्यगुण स्वरूप आत्माए, निरन्तर सेवाधारी, श्रेष्ठ विश्व-कल्याणकारी आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

खुशनसीब वह जिसके चेहरे और चलन से सदा खुशी की झलक दिखाई दे

सभी अपने को सदा खुशनसीब आत्माए समझते हो? खुशनसीब आत्माओं की निशानी क्या होगी? उनके चेहरे और चलन से सदा खुशी की झलक दिखाई देगी। चाहे कोई भी स्थूल कार्य कर रहे हों, साधारण काम कर रहे हों लेकिन हर कर्म करते खुशी की झलक दिखाई पड़े। इसको कहते हैं निरन्तर खुशी में मन नाचता रहे। ऐसे सदा रहते हो? या कभी बहुत खुश रहते हो, कभी कम? खुशी का खज़ाना अपना खज़ाना हो गया। तो अपना खज़ाना सदा साथ रहेगा ना। या कभी-कभी रहेगा? बाप के खज़ाने को अपना खज़ाना बनाया है या भूल जाता है अपना खज़ाना? अपनी स्थूल चीज तो याद रहती है ना। वह खज़ाना आंखों से दिखाई देता है लेकिन यह खज़ाना आंखों से नहीं दिखाई देता, दिल से अनुभव करते हो। तो अनुभव वाली बात कभी भूलती है क्या? तो सदा यह स्मृति में रखो कि हम खुशी के खज़ाने के मालिक हैं। जितना खज़ाना याद रहेगा उतना नशा रहेगा। तो यह रूहानी नशा औरों को भी अनुभव करायेगा कि इनके पास कुछ है।

माताओं को सारा समय क्या याद रहता है? सिर्फ बाप याद रहता है या और भी कुछ याद रहता है? वर्से की तो खुशी दिखाई देगी ना। जब ब्राह्मण जीवन के लिए संसार ही एक बाप है, तो संसार के सिवाए और क्या याद आयेगा। सदा दिल में अपने श्रेष्ठ भाग्य के गीत गाते रहो। ऐसा श्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प में प्राप्त होगा? जो सारे कल्प में अभी प्राप्त होता है, तो अभी की खुशी, अभी का नशा सबसे श्रेष्ठ है। तो माताओं को और कोई सम्बन्धी याद आते हैं? कोई सम्बन्ध में नीचे-ऊपर हो तो मोह जाता है? मोह सारा खत्म हो गया? जो कहते हैं-कुछ भी हो जाये, मेरे को मोह नहीं आयेगा-वो हाथ उठायें। अच्छा, मोह का पेपर भले आवे? पाण्डव तो नष्टोमोहा हैं ना। व्यवहार में कुछ ऊपर-नीचे हो जाए, फिर नष्टोमोहा हैं? अभी भी बीच-बीच में माया पेपर तो लेती है ना। तो उसमें पास होते हो? या जब माया आती है तब थोड़ा ढीले हो जाते हो? तो सदा खुशी के गीत गाते रहो। समझा? कुछ भी चला जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। चाहे किसी भी रूप में माया आये लेकिन खुशी न जाये। ऐसे खुश रहने वाले ही सदा खुशनसीब हैं। अच्छा!

अभी आन्ध्रा और कर्नाटक वालों को कौनसी कमाल करनी है? ऐसी कोई भी आत्मा वंचित नहीं रह जाये। हरेक को सन्देश देना है। जहां भी रहते हो-सर्व आत्माओं को सन्देश मिलना चाहिए। जितना सन्देश देंगे उतनी खुशी बढ़ती जायेगी। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

परमात्म-प्यार की पालना का अनुभव करने के लिये हर कार्य न्यारे होकर करो

सभी अपने को संगमयुगी हीरे तुल्य श्रेष्ठ आत्मा समझते हो? क्योंकि संगम पर इस समय हीरे तुल्य हो। सतयुग में सोने तुल्य बनेंगे। लेकिन इस समय सारे चक्र के अन्दर श्रेष्ठ आत्मा का पार्ट बजा रहे हो। तो हीरे समान जीवन अर्थात् इतनी अमूल्य जीवन बनी है? सबसे बड़ी मूल्यवान जीवन संगमयुग की है। तो ऐसी स्मृति रहती है कि इतने श्रेष्ठ हैं? क्योंकि जैसी स्मृति होगी वैसी स्थिति होगी। अगर स्मृति श्रेष्ठ है तो स्थिति साधारण नहीं हो सकती। अगर स्थिति साधारण है तो स्मृति भी साधारण है। तो सदा सर्वश्रेष्ठ मूल्यवान जीवन अनुभव करने वाली आत्मा हूँ-यह स्मृति में इमर्ज रहे। ऐसे नहीं कि मैं हूँ ही, मालूम है कि हम हीरे तुल्य हैं। लेकिन स्मृति में इमर्ज रूप में रहता है और उसी स्मृति से, उसी स्थिति से हर कार्य करते हो? क्योंकि हीरे तुल्य जीवन वा हीरे तुल्य स्थिति वाले का हर कर्म हीरे तुल्य होगा अर्थात् मूल्यवान होगा, ऊंचे ते ऊंचा होगा। तो हर कर्म ऐसे ऊंचा रहता है या कभी ऊंचा, कभी साधारण? क्योंकि सदा हीरे तुल्य हो। हीरा तो हीरा ही होता है, वह कभी सोना वा चांदी नहीं बनता। तो हर कर्म करते हुए चेक करो कि हीरे तुल्य स्थिति है, चलते-चलते साधारणता तो नहीं आ गई? क्योंकि 63 जन्म का अभ्यास है साधारण रहने का। तो पिछला संस्कार कभी खींच लेता है। कमजोर को कोई खींच लेगा, बहादुर को कोई खींच नहीं सकता। बहादुर उसको भी चरणों में झुका देगा। तो कभी भी साधारण स्थिति नहीं हो। अगर कोई विशेष ऑक्यूपेशन वाला ऐसा कोई साधारण कर्म करे तो उसको क्या कहा जायेगा? आज का प्राइम-मिनिस्टर अगर कोई ऐसा हल्का काम करे तो सभी उलहना देंगे ना, अच्छा नहीं लगेगा ना। तो आप कौन हो?

इतना नशा स्मृति में रखो जो सबको चलते-फिरते दिखाई दे कि यह कोई विशेष आत्मायें हैं। जैसे हीरा कितना भी मिट्टी में छिपा हुआ हो लेकिन फिर भी अपनी चमक दिखाता है। तो चाहे आप कितने भी साधारण वायुमण्डल में हों, कितने भी बड़े साधारण व्यक्तियों के बीच हों लेकिन विशेष आत्मा, अलौकिक आत्मा दिखाई दो। चाहे प्रवृत्ति में रहते हो, उन्हों के बीच में भी न्यारे दिखाई दो। ऐसा पुरूषार्थ है? और जितना न्यारे होंगे उतना बाप के प्यार के पात्र होंगे। कहां भी लगाव है तो न्यारा नहीं हो सकते। इसलिए न्यारा और प्यारा। कुछ भी कार्य करो लेकिन न्यारे होकर। फिर अनुभव करेंगे कि परमात्म-प्यार की पालना में सदा आगे उड़ रहे हैं। परमात्म-प्यार उड़ाने का साधन है। तो उड़ने वाले हो ना। धरनी की आकर्षण से सदा ऊपर रहो। धरनी अर्थात् माया खींचे नहीं। कितना भी आकर्षित रूप हो लेकिन माया की आकर्षण आप उड़ती कला वालों के पास पहुँच नहीं सकती। जैसे राकेट जाता है ना, तो धरनी की आकर्षण से परे हो जाता है। तो आप नहीं हो सकते हो? इसकी विधि है न्यारा बनना। बाप और मैं, बस। बाप के साथ उड़ते रहें। आकर्षित होकर नीचे नहीं आओ। सेवा अर्थ आते भी हैं तो माया की आकर्षण आ नहीं सकती, माया प्रूफ बनकर के आयेंगे। बाप न्यारा है, इसीलिए प्यारा है। तो फॉलो फादर। सदा न्यारे, सदा बाप के प्यारे। समझा? अच्छा!

ग्रुप नं. 3

स्वप्न का आधार है-साकार जीवन

सभी साकार रूप में समीप आने का, बैठने का पुरूषार्थ करते हो। इसके लिए भाग दौड़ करते हो ना। तो समीप रहना अच्छा लगता है ना। लेकिन यह हुआ थोड़े समय के लिए समीप रहना। जो सदा समीप रहे तो वह कितना बढ़िया हुआ! बाप के सदा समीप कौन रह सकता है? समीप रहने वाले की विशेषता क्या होगी? समान होंगे। जो समान होता है वह समीप होता है। तो जैसे यह थोड़े समय की समीपता प्रिय लगती है, तो सदा समीप रहने वाले कितने प्रिय होंगे! तो सदा समीप रहते हो या सिर्फ थोड़े समय के लिए समीप हो? समीप रहने के लिए भक्ति मार्ग में भी सत्संग का बहुत महत्व है। संग रहो अर्थात् समीप रहो। वह तो सिर्फ सुनने वाले

होते हैं और आप संग में रहने वाले हो। ऐसे हो? कभी मुख मोड़ तो नहीं लेते हो? माया आकर ऐसे मुख कर लेवे तो? सीता के माफिक माया को पहचान नहीं सको-ऐसे धोखा तो नहीं खाते हो?

धोखा खाने वाले चन्द्रवंशी बन जाते हैं। तो अच्छी तरह से माया को पहचानने वाले हो ना। बाप को भी पहचाना और माया को भी अच्छी तरह से पहचाना। अभी वह नया रूप धारण करके आये तो भी पहचान लेंगे ना। या नया रूप देखकर के कहेंगे कि हमको क्या पता! शक्तियाँ पहचानती हो? या कभी-कभी घबरा जाती हो? घबराते तब हैं जब बाप को किनारे कर देते हैं। अगर बाप के संग में हैं तो माया की हिम्मत नहीं जो समीप आ सके। तो पहचान ही लकीर है, इस पहचान की लकीर के अन्दर माया नहीं आ सकती। तो लकीर के अन्दर रहते हो या कभी-कभी संकल्प से थोड़ा बाहर निकल आते हो? अगर संकल्प में भी साथ की लकीर से बाहर आ जाते हो तो माया के साथी बन जाते हो। संकल्प वा स्वप्न में भी बाप से किनारा नहीं। ऐसे नहीं कि स्वप्न तो मेरे वश में नहीं हैं। स्वप्न का भी आधार अपनी साकार जीवन है। अगर साकार जीवन में मायाजीत हो तो स्वप्न में भी माया अंश-मात्र में भी नहीं आ सकती। तो मायाप्रूफ हो जो स्वप्न में भी माया नहीं आ सकती? स्वप्न को भी हल्का नहीं समझो। क्योंकि जो स्वप्न में कमजोर होता है, तो उठने के बाद भी वह संकल्प जरूर चलेंगे और योग साधारण हो जायेगा। इसीलिए इतने विजयी बनो जो संकल्प से तो क्या लेकिन स्वप्न मात्र भी माया वार नहीं कर सके। सदा मायाजीत अर्थात् सदा बाप के समीप संग में रहने वाले। कोई की ताकत नहीं जो बाप के संग से अलग कर सके-ऐसे चैलेन्ज करने वाले हो ना। इतना दिल से आवाज निकले कि हम नहीं विजयी बनेंगे तो और कौन बनेंगे! कल्प पहले बने थे। सदा यह स्मृति में अनुभव हो-हम ही थे, हम ही हैं और हम ही रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

अकल्याण की सीन में भी कल्याण दिखाई दे

बाप में निश्चय है कि वही कल्प पहले वाला बाप फिर से आकर मिला है? ऐसे ही अपने में भी इतना निश्चय है कि हम भी वही कल्प पहले वाले बाप के साथ पार्ट बजाने वाली विशेष आत्माए हैं? या बाप में निश्चय ज्यादा है, अपने में कम है? अच्छा, ड्रामा में जो भी होता है उसमें भी पक्का निश्चय है? जो ड्रामा में होता है वह कल्याणकारी युग के कारण सब कल्याणकारी है। या कुछ अकल्याण भी हो जाता है? कोई मरता है तो उसमें कल्याण है? वो मर रहा है और आप कल्याण कहेंगे-कल्याण है! बिजनेस में नुकसान हो गया-यह कल्याण हुआ? तो नुकसान भी कल्याणकारी है! ज्ञान के पहले जो बातें कभी आपके पास नहीं आई, ज्ञान के बाद आई तो उसमें कल्याण है? माया नीचे-ऊपर कर रही है, कल्याण है? इसमें क्या कल्याण है? माया आपको अनुभवी बनाती है। अच्छा, तो ड्रामा में भी इतना ही अटल निश्चय हो। चाहे देखने में अच्छी बात न भी हो लेकिन उसमें भी गुप्त अच्छाई क्या भरी हुई है, वो परखना चाहिए। जैसे कई चीजें होती हैं, उनका बाहर से कवर (Cover;ढक्कन) अच्छा नहीं होता है लेकिन अन्दर बहुत अच्छी चीज होती है। बाहर से देखेंगे तो लगेगा-पता नहीं क्या है? लेकिन पहचान कर उसे खोलकर अन्दर देखेंगे तो बढ़िया चीज निकल आयेगी। तो ड्रामा की हर बात को परखने की बुद्धि चाहिए। निश्चय की पहचान ऐसे समय पर आती है। परिस्थिति सामने आवे और परिस्थिति के समय निश्चय की स्थिति, तब कहेंगे निश्चय बुद्धि विजयी। तो तीनों में पक्का निश्चय चाहिए-बाप में, अपने आप में और ड्रामा में। दर्द में तड़प रहे हो और कहेंगे-वाह ड्रामा वाह! उस समय चिल्लायेंगे या वाह-वाहकरेंगे? ‘हाय बाबा बचाओ’-यह नहीं कहेंगे? जब निश्चय है, तो निश्चय का अर्थ ही है-संशय का नाम-निशान न हो। कुछ भी हो जाए लेकिन अटल-अचल निश्चयबुद्धि, कोई भी परिस्थिति हलचल में नहीं ला सकती। क्योंकि हलचल में आना अर्थात् कमजोर होना।

कोई भी चीज ज्यादा हलचल में आ जाए, हिलती रहे-तो टूटेगी ना! तो संकल्प में भी हलचल नहीं। ऐसे अटल-अचल आत्माए अटल राज्य के अधिकारी बनती हैं। सतयुग-त्रेता में अटल राज्य है, कोई उस राज्य को टाल नहीं सकता। कोई और राजा लड़ाई करके राज्य छीन ले-यह हो ही नहीं सकता। इसलिए यह अविनाशी अटल राज्य गाया हुआ है। अनेक जन्म यह अटल-अखण्ड राज्य करते हो। लेकिन कौन अधिकारी बनता? जो यहां संगम पर अचल-अखण्ड रहते हैं, खण्डित नहीं होते। आज निश्चय है, कल निश्चय डगमग हो जाए-उसको कहते हैं खण्डित। तो खण्डित चीज कभी पूज्य नहीं होती। अगर मूर्ति भी कभी खण्डित हो जाए तो पूजा नहीं होगी। म्युजियम में भले रखें लेकिन पूजा नहीं होगी। तो अखण्ड निश्चयबुद्धि आत्माए। ऐसे निश्चयबुद्धि सदा ही विजय की खुशी में रहते हैं, उनके अन्दर सदा खुशी के बाजे बजते रहते हैं। आज की दुनिया में भी जब विजय होती है तो बाजे बजते हैं ना। तो ऐसे सदा निश्चयबुद्धि आत्मा के मन में सदा खुशी के बाजे-गाजे बजते रहते हैं। बार-बार बजाने नहीं पड़ते, आटोमेटिक बजते रहते हैं। ऐसे अनुभव करते हो? या कभी बाजे-गाजे बन्द हो जाते हैं? भक्ति में कहते हैं अनहद गीत-जिसकी हद नहीं होती, आटोमेटिक बजता रहे। तो अनहद गीत बजते रहें। डबल विदेशियों के पास आटोमेटिक गीत बजते हैं? सदा बजते हैं या कभी-कभी? सदा बजते हैं।

सबसे बड़े ते बड़ा खज़ाना खुशी का अभी मिलता है। सम्भालना आता है ना। सम्भाल करने की विधि है-सदा बाप को साथ रखना। अगर बाप सदा साथ है तो बाप का साथ ही बड़े ते बड़ा सेफ्टी का साधन है। तो खज़ाना सेफ रखना आता है या माया चोरी करके जाती है? छिप-छिप कर आती तो नहीं है? वो भी चतुर है। आने में वो भी कम नहीं है। लेकिन बाप का साथ माया को भगाने वाला है। तो आप कौनसी आत्माए हो? निश्चयबुद्धि विजयी आत्माए हो! सदा विजय का तिलक मस्तक पर लगा हुआ है, जिस तिलक को कोई मिटा नहीं सकता। अविनाशी तिलक है ना! या माया का हाथ आ जाता है तो मिट जाता है? अच्छा!

सभी महान आत्मायें हो ना। कहाँ के भी हो लेकिन इस समय तो सभी मधुबन निवासी हो। मधुबन कहने से खुशी होती है ना। क्यों? मधुबन कहने से मधुबन का बाबा याद आता है। इसीलिए मधुबन निवासी बनना पसन्द करते हो। सब चाहते हो ना-यहीं रह जायें। वो भी दिन आ जायेंगे। खटिया नहीं मिलेगी, तकिया नहीं मिलेगा-फिर नींद कैसे आयेगी? तैयार हो ऐसे सोने के लिए? अपनी बांह को ही तकिया बनाना पड़ेगा, पत्थर पर सोना पड़ेगा। कितने दिन सोयेंगे? अभ्यास सब होना चाहिए। अगर साधन मिलता है तो भले सोओ, लेकिन नहीं मिले तो नींद नहीं आवे-ऐसा अभ्यास नहीं हो। अभी तो किसी को खटिया चाहिए, किसी को अलग कमरा चाहिए। इसलिए ज्यादा नहीं मंगाते। अगर सभी पट पर सोओ तो कितने आ सकते हैं? डबल संख्या हो सकती है ना। फिर कोई नहीं कहेगा-टांग में दर्द है, कमर में दर्द है, बैठ नहीं सकती हूँ? क्या भी मिले, खाना मिले, नहीं मिले-तैयार हो? वो भी पेपर आयेगा। डबल विदेशी पट में सो सकेंगे? इतने पक्के होने चाहिए-अगर बिस्तरा मिला तो भी अच्छा, नहीं मिला तो भी अच्छा। हाय-हायनहीं करेंगे। सहन करने में माताए होशियार होती हैं। पाण्डव भी होशियार हैं। जब इतना साथ होगा तो संगठन की खुशी सब-कुछ भुला देती है। तो निश्चय है ना। ब्राह्मण जीवन अर्थात् मौज ही मौज-उठें तो भी मौज में, सोयें तो भी मौज में। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

अपनी श्रेष्ठ शान में रहो तो परेशानियां समाप्त हो जायेंगी

सभी अपनी स्थूल सीट पर सेट हो गये। सेट होने में खुशी होती है ना! अपसेट होना अच्छा नहीं लगता है और सेट होना अच्छा लगता है। तो ऐसे ही सदा मन और बुद्धि की स्थिति की सीट पर सेट रहते हो? या अपसेट भी होते हो? अपसेट होने से परेशानी होती है और सेट होने से खुशी होती है, आराम मिलता है। तो सदा खुशी में रहते हो या थोड़ा-थोड़ा परेशान होते हो? अपनी शान को भूलना अर्थात् परेशान होना। तो संगमयुग पर सबसे बड़े ते बड़ी आप ब्राह्मणों की शान कौनसी है? ईश्वरीय शान है ना-सर्वश्रेष्ठ आत्माए हैं। तो सर्वश्रेष्ठ बनने का शान है। तो याद रहता है कि हम ही ऊंचे ते ऊंचे भगवान के बच्चे ऊंचे ते ऊंचे हैं। जब ये शान याद रहता है तो कभी भी परेशान नहीं होंगे। चाहे कोई कितना भी परेशान करे लेकिन आप नहीं होंगे क्योंकि आपका शान सबसे ऊंचा है। तो कभी-कभी व्यवहार में, कभी वातावरण के कारण परेशान होते हो? परेशान 63 जन्म रहे। भटकना माना परेशान होना। भक्ति में भटकते रहे ना! तो आधा कल्प परेशान रहने का अनुभव कर लिया। अभी तो शान में रहेंगे ना!

देवताई शान से भी ऊंचा ये ब्राह्मण शान है। देवताई ताज और तख्त से ऊंचा तख्त अभी है। तो तख्त पर बैठना आता है या खिसक जाते हो नीचे? सभी को तख्त और तिलक मिला है, ताज भी मिला है। सेवा का ताज मिला है। तो ताज माथे में रूकता है या उतर जाता है? तो तख्तनशीन आत्माए कभी परेशान नहीं हो सकतीं। तख्त कोई छीन लेता है तो परेशान होते हैं। तो सदा अपनी प्राप्तियों की स्मृति में रहो। सदा अपनी बुद्धि में सर्व प्राप्तियों की लिस्ट रखो। कॉपी में नहीं, बुद्धि में रखो। अगर प्राप्तियों की लिस्ट सामने रहे तो सदा अपना श्रेष्ठ शान स्वत: स्मृति में रहेगा। एक भी प्राप्ति को सामने रखो तो कितनी शक्ति आती है! और सर्व प्राप्तियां स्मृति में रहें तो सर्वशक्तिवान स्थिति सहज हो जायेगी। जब प्राप्तियों की लिस्ट सदा बुद्धि में होगी तो स्वत: ही मन से, दिल से गीत गायेंगे-पाना था वो पा लिया......! सदा खुशी में नाचते रहेंगे-पा लिया! दुनिया वाले पाने के लिए भटक रहे हैं और आप कहेंगे-पा लिया, ठिकाना मिल गया, भटकना समाप्त हो गया। अभी मन व्यर्थ संकल्पों में भटकता है? जब भी मन या बुद्धि भटकती है तो यह गीत गाओ-पाना था सो पा लिया.......! बाप मिला सब-कुछ मिला। इसी नशे में रहो। समझा?

यह नहीं याद रखो कि हम दिल्ली के हैं या हम बनारस के हैं। कभी भी प्रवृत्ति में या घर में रहते-यह नहीं सोचो। सेवा-स्थान पर रह रहे हो। सेवा-स्थान समझने से न्यारे-प्यारे रहेंगे। घर समझने से मेरा-मेरा आएगा और सेवा-स्थान है तो ट्रस्टी रहेंगे। गृहस्थी अर्थात् मेरापन और ट्रस्टी अर्थात् तेरा। सेवा-स्थान समझने से सदा सेवा याद रहेगी। प्रवृत्ति है तो प्रवृत्ति को निभाने में ही लग जायेंगे। सेवाधारी सदा न्यारे रहेंगे। सब-कुछ बाप के हवाले कर दिया। इसलिए सब तेरा। जब संकल्प कर लिया कि मैं बाबा की और बाबा मेरा, तो जो संकल्प है वही साकार रूप में लाना है। सिर्फ संकल्प नहीं लेकिन साकार स्वरूप में, हर कर्म में ‘‘मेरा बाबा’’ मानकर के चलना। मेरा बाबा है बीज, बीज में सारा वृक्ष समाया हुआ है। अच्छा!



03-11-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


रूहानी रॉयल्टी की निशानी- सदा भरपूर-सम्पन्न वा तृप्त

सदा ब्रह्मा बाप को फॉलो करने वाली रॉयल आत्माओं प्रति अव्यक्त बापदादा बोले -

आज बापदादा चारों ओर के अपने रूहानी रॉयल फैमिली को देख रहे हैं। सारे कल्प में सबसे रॉयल आप आत्मायें ही हो। वैसे हद के राज्य-अधिकारी रॉयल फैमिली बहुत गाये हुए हैं। लेकिन रूहानी रॉयल फैमिली सिर्फ आप ही गाये हुए हो। आप रॉयल फैमिली की आत्मायें आदि काल में भी और अनादि काल में भी और वर्तमान संगमयुग में भी रूहानी रॉयल्टी वाली हो। अनादि काल स्वीट होम में भी आप विशेष आत्माओं की रूहानियत की झलक, चमक सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ है। आत्मायें सभी चमकती हुई ज्योति-स्वरूप हैं, फिर भी आपकी रूहानी रॉयल्टी की चमक अलौकिक है। जैसे साकारी दुनिया में आकाश बीच सितारे सब चमकते हुए दिखाई देते हैं, लेकिन कोई विशेष चमकने वाले सितारे स्वत: ही अपनी तरफ आकर्षित करते हैं, लाइट होते हुए भी उन्हों की लाइट विशेष चमकती हुई दिखाई देती है। ऐसे अनादि काल परमधाम में भी आप रूहानी सितारों की चमक अर्थात् रूहानी रॉयल्टी की झलक विशेष अनुभव होती है। इसी प्रकार आदि काल सतयुग अर्थात् स्वर्ग में आप आत्मायें विश्व-राज्य की रॉयल फैमिली के अधिकारी बनते हो। हर एक राजा की रॉयल फैमिली होती है।

लेकिन आप आत्माओं की रॉयल फैमिली की रॉयल्टी वा देव-आत्माओं की रॉयल्टी सारे कल्प में और किसी रॉयल फैमिली की हो नहीं सकती। इतनी श्रेष्ठ रॉयल्टी चैतन्य स्वरूप में प्राप्त की है जो आपके जड़ चित्रों की भी कितनी रॉयल्टी से पूजा होती है। सारे कल्प के अन्दर रॉयल्टी की विधि प्रमाण और कोई भी धर्म-पिता, धर्म-आत्मा या महान आत्मा की ऐसे पूजा नहीं होती। तो सोचो-जब जड़ चित्रों में भी रॉयल्टी की पूजा है तो चैतन्य में कितने रॉयल फैमिली के बनते हो! तो इतने रॉयल हो? वा बन रहे हो? अभी संगम पर भी रूहानी रॉयल्टी अर्थात् फरिश्ता-स्वरूप बनते हो, रूहानी बाप की रूहानी रॉयल फैमिली बनते हो। तो अनादि काल, आदि काल और संगमयुगी काल-तीनों काल में नम्बरवन रॉयल बनते हो। ये नशा रहता है कि हम तीनों काल में भी रूहानी रॉयल्टी वाली आत्मायें हैं?

इस रूहानी रॉयल्टी का फाउन्डेशन क्या है? सम्पूर्ण प्योरिटी। सम्पूर्ण प्योरिटी ही रॉयल्टी है। तो अपने से पूछो कि रूहानी रॉयल्टी की झलक आपके रूप से सबको अनुभव होती है? रूहानी रॉयल्टी की फलक हर चरित्र से अनुभव होती है? लौकिक दुनिया में भी अल्पकाल की रॉयल्टी न जानते हुए भी चेहरे से, चलन से अनुभव होती है। तो रूहानी रॉयल्टी गुप्त नहीं रह सकती, वो भी दिखाई देती है। तो हर एक नॉलेज के दर्पण में अपने को देखो कि मेरे चेहरे पर, चलन में रॉयल्टी दिखाई देती है वा साधारण चेहरा, साधारण चलन दिखाई देती है? जैसे सच्चा हीरा अपनी चमक से कहाँ भी छिप नहीं सकता, ऐसे रूहानी चमक वाले, रूहानी रॉयल्टी वाले छिप नहीं सकते।

कई बच्चे अपने को खुश करने के लिए सोचते हैं और कहते भी हैं कि-’’हम गुप्त आत्मायें हैं, इसलिए हमको कोई पहचानता नहीं है। समय आने पर आपेही मालूम पड़ जायेगा।’’ गुप्त पुरूषार्थ बहुत अच्छी बात है। लेकिन गुप्त पुरुषार्थी की झलक और फलक वा रूहानी रॉयल्टी की चमक औरों को अनुभव जरूर करायेगी। स्वयं, स्वयं को चाहे कितना भी गुप्त रखें लेकिन उनके बोल, उनका सम्बन्ध-सम्पर्क, रूहानी व्यवहार का प्रभाव उनको प्रत्यक्ष करता है। जिसको साधारण शब्दों में दुनिया वाले बोल और चाल कहते हैं। तो स्वयं, स्वयं को प्रत्यक्ष नहीं करते, गुप्त रखते-यह निर्माणता की विशेषता है। लेकिन दूसरे उनके बोल-चाल से अनुभव अवश्य वरेंगे। दूसरे कहें कि यह गुप्त पुरुषार्थी है। अगर स्वयं को कहते हैं कि मैं गुप्त पुरुषार्थी हूँ-तो यह गुप्त रखा या प्रत्यक्ष किया? कह रहे हो गुप्त लेकिन बोल रहे हो कि मैं गुप्त पुरुषार्थी हूँ! यह गुप्त हुआ? बहुत पत्र में भी लिखते हैं कि हम गुप्त पुरूषार्थियों को निमित्त बनी हुई दादियां नहीं जानती हैं। फिर यह भी लिखते हैं कि-देख लेना आगे हम क्या करते, क्या होता है-तो यह गुप्त रहे या प्रत्यक्ष किया? गुप्त पुरुषार्थी अपने को गुप्त रखें-यह बहुत अच्छा। लेकिन वर्णन नहीं करो, दूसरा आपको बोले। जो अपने आपको ही कहें उनको क्या कहा जाता है? (मियां मिट्ठू ) तो मियां मिट्ठू  बनना बहुत सहज है ना!

तो क्या सुना? रूहानी रॉयल्टी। रॉयल आत्मायें सदा ही एक तो भरपूर-सम्पन्न रहती हैं और सम्पन्नता की निशानी-वे सदा तृप्त आत्मा रहती हैं। तृप्त आत्मा हर परिस्थिति में, हर आत्माओं के सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हुए, जानते हुए सन्तुष्ट रहती है। चाहे कोई कितना भी असन्तुष्ट करने की परिस्थितियां उनके आगे लाये लेकिन सम्पन्न, तृप्त आत्मा असन्तुष्ट करने वाले को भी सन्तुष्टता का गुण सहयोग के रूप में देगी। ऐसी आत्मा के प्रति रहमदिल बन शुभ भावना और शुभ कामना द्वारा उनको भी परिवर्तन करने का प्रयत्न करेंगे। रूहानी रॉयल आत्माओं का यही श्रेष्ठ कर्म है। जैसे स्थूल रॉयल आत्मायें कभी भी छोटी-छोटी बातों में, छोटी-छोटी चीजों में अपनी बुद्धि वा समय नहीं देतीं, देखते भी नहीं देखतीं, सुनते भी नहीं सुनतीं। ऐसे रूहानी रॉयल आत्मा किसी भी आत्मा की छोटी-छोटी बातों में, जो रॉयल नहीं हैं-उनमें अपनी बुद्धि वा समय नहीं देगी। दुनिया वाले कहते हैं कि रॉयल्टी अर्थात् किसी भी हल्की बात में आंख नहीं डूबती। रूहानी रॉयल आत्माओं के मुख से कभी व्यर्थ वा साधारण बोल नहीं निकलेंगे, हर बोल युक्तियुक्त होगा। युक्तियुक्त का अर्थ है-व्यर्थ भाव से परे अव्यक्त भाव, अव्यक्त भावना। इसको कहा जाता है रॉयल्टी।

इस समय की रॉयल्टी भविष्य की रॉयल फैमिली में आने के अधिकारी बनाती है। तो चेक करो-वृत्ति रॉयल है? वृत्ति रॉयल अर्थात् सदा शुभ भावना, शुभ कामना की वृत्ति से हर एक आत्मा से व्यवहार में आये। रॉयल दृष्टि अर्थात् सदा फरिश्ता रूप से औरों को भी फरिश्ता रूप देखे। कृति अर्थात् कर्म में सदा सुख देना, सुख लेना-इस श्रेष्ठ कर्म के प्रमाण सम्पर्क में आये। ऐसे रॉयल बने हो? कि बनना है? ब्रह्मा बाप के बोल और चाल, चेहरे और चलन की रॉयल्टी को देखा। ऐसे फॉलो ब्रह्मा बाप। साकार को फॉलो करना तो सहज है ना! ब्रह्मा को फॉलो किया तो शिव बाप को फॉलो हो ही जायेगा। एक को तो फॉलो कर सकते हो ना। बाप समान बनने के प्वाइंट्स तो रोज़ सुनते हो! सुनना अर्थात् फॉलो करना। कॉपी करना तो सहज होता है ना। कि कॉपी करना भी नहीं आता?

बापदादा आज मुस्करा रहे थे कि मधुबन में आते हैं तो विशेष गुरूवार के दिन क्या करते हैं? एक तो भोग लगाते हैं। और क्या करते हैं जो सिर्फ मधुबन में ही करते हैं? जीते-जी मरने का भोग। आप सबने जीते-जी मरने का भोग लगा लिया है? बापदादा मुस्करा रहे थे कि जीते-जी मरनाकहकर मनाना तो सहज है-स्टेज पर बैठ गये, तिलक लगा लिया, मर गये! लेकिन जीते-जी मरना अर्थात् पुराने संस्कारों से मरना। पुराने संस्कार, पुराने संसार की आकर्षण से मरना-यह है जीते जी मरना। भोग लगा दिया, भण्डारी में जमा कर दिया और जीते जी मरना हो गया-यह तो बहुत सहज है। लेकिन मर गये? बापदादा सोच रहे थे कि पुराने संसार और पुराने संस्कार-इससे सदा के लिए संकल्प और स्वप्न में भी मरना मनाना, ऐसा जीते-जी मरना कौन और कब मना-येंगे? अगर स्टेज पर बिठाते हैं तो सब के सब बैठ जाते हैं। स्टेज पर बैठना-यह तो कॉमन (आम) बात है। लेकिन बुद्धि को बिठाना-इसको कहा जाता है यथार्थ जीते जी मरना मनाना। जब मर गये, मरना अर्थात् परिवर्तन होना। तो ऐसा जीते जी मरना, उसके लिए कितने तैयार होंगे? कि सेन्टर पर जाकर के कहेंगे कि क्या करें, चाहते नहीं थे लेकिन हो गया? यहाँ तो जीते जी मरना मनाकर जाते हैं, फिर जब कोई बात सामने आती है तो जिंदा हो जाते हो। ऐसे नहीं करना।

यादगार में भी दिखाते हैं कि रावण का एक सिर खत्म करते थे तो दूसरा आ जाता था। यहाँ भी एक बात पूरी होती तो दूसरी पैदा हो जाती, फिर समझते-हमने तो रावण को मार दिया, फिर यह कहाँ से आ गया? लेकिन मूल फाउन्डेशन को समाप्त न करने के कारण एक रूप बदल दूसरे रूप में आ जाते हैं। फाउन्डेशन को खत्म कर दो तो रूप बदलकर के माया वार नहीं करेगी, सदा के लिए विदाई ले जायेगी। समझा, क्या बनना है? रूहानी रॉयल्टी वाले। सदैव यह चेक करो कि हर कर्म रूहानी रॉयल परिवार के प्रमाण है? जब 99%  बोल, कर्म और संकल्प रॉयल्टी के हों तब समझो भविष्य में भी रॉयल फैमिली में आयेंगे। ऐसे नहीं सोचना-हम तो आ ही जायेंगे। चलो, सम्पन्न नहीं बने हैं तो एक परसेन्ट (1% ) फ्री देते हैं। लेकिन 99%  रॉयल्टी के संस्कार, बोल और संकल्प नेचुरल होने चाहिए। बार-बार युद्ध नहीं करनी पड़े, नेचुरल संस्कार हो जाए। अच्छा!

चारों ओर के रूहानी रॉयल्टी वाली रॉयल आत्माओं को, सदा प्योरिटी द्वारा रॉयल्टी अनुभव कराने वाली आत्माओं को, सदा परिश्ता स्वरूप के संस्कार को प्रैक्टिकल में लाने वाली आत्माओं को, सदा ब्रह्मा बाप को फॉलो करने वाली आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ ब्राह्मण संसार में ब्राह्मण संस्कार अनुभव करने वाले रूहानी रॉयल परिवार को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

सेवा में बिजी रहो तो सहज मायाजीत बन जायेंगे

सदा अपनी शक्तिशाली वृत्ति से वायुमण्डल को परिवर्तन करने वाली विश्व-परिवर्तक आत्माए हो ना। इस ब्राह्मण जीवन का विशेष ऑक्यूपेशन क्या है? अपनी वृत्ति से, वाणी से और कर्म से विश्व-परिवर्तन करना। ऐसे सम्पन्न बन गये या विनाश तक बनेंगे? अगर समय सम्पन्न वा सम्पूर्ण बनाये तो रचना पावरफुल हुई या रचता? तो समय पर नहीं बनना है, समय को समीप लाना है। समय का इन्तज़ार करने वाले नहीं हो। जब पा लिया तो पाने की खुशी में रहने वाले सदा ही एवररेडी रहते हैं। कल भी विनाश हो जाये तो तैयार हो? या थोड़ा टाइम चाहिए? एवररेडी, नष्टोमोहा, स्मृतिस्वरूप-इसमें पास हो? एवररेडी का अर्थ ही है-नष्टोमोहा स्मृतिस्वरूप। या उस समय याद आयेगा कि पता नहीं बच्चे क्या कर रहे होंगे, कहाँ होंगे, छोटे-छोटे पोत्रों का क्या होगा? यहीं विनाश हो जाये तो याद आयेंगे? पति का भी कल्याण हो जाये, पोत्रे का भी कल्याण हो जाये, उन्हों को भी यहाँ ले आयें-याद आयेगा? बिजनेस का क्या होगा, पैसे कहाँ जायेंगे? रास्ते टूट जायें फिर क्या करेंगे? देखना, अचानक पेपर होगा।

सदा न्यारा और प्यारा रहना-यही बाप समान बनना है। जहाँ हैं, जैसे हैं लेकिन न्यारे हैं। यह न्यारापन बाप के प्यार का अनुभव कराता है। जरा भी अपने में या और किसी में भी लगाव न्यारा बनने नहीं देगा। न्यारे और प्यारेपन का अभ्यास नम्बर आगे बढ़ायेगा। इसका सहज पुरूषार्थ है निमित्त भाव। निमित्त समझने से निमित्त बनाने वाला याद आता है। मेरा परिवार है, मेरा काम है। नहीं, मैं निमित्त हूँ। निमित्त समझने से पेपर में पास हो जायेंगे। तो सभी ऐसी सेवा करते हो? या टाइम नहीं मिलता है? वाणी के लिए समय नहीं है तो वृत्ति से, मन्सा-सेवा से परिवर्तन करने का समय तो है ना। सेवाधारी आत्माए सेवा के बिना रह नहीं सकतीं। ब्राह्मण जन्म है ही सेवा के लिए। और जितना सेवा में बिजी रहेंगे उतना ही सहज मायाजीत बनेंगे। तो सेवा का फल भी मिल जाये और मायाजीत भी सहज बन जायें-डबल फायदा है ना। जरा भी बुद्धि को फुर्सत मिले तो सेवा में जुट जाओ। वैसे भी पंजाब-हरियाणा में सेवा-भाव ज्यादा है। गुरूद्वारों में जाकर सेवा करते हैं ना। वह है स्थूल सेवा और यह है रूहानी सेवा। सेवा के सिवाए समय गँवाना नहीं है। निरन्तर योगी, निरन्तर सेवाधारी बनो-चाहे संकल्प से करो, चाहे वाणी से, चाहे कर्म से। अपने सम्पर्क से भी सेवा कर सकते हो। चलो, मन्सा-सेवा करना नहीं आवे लेकिन अपने सम्पर्क से, अपनी चलन से भी सेवा कर सकते हो। यह तो सहज है ना। तो चेक करो कि सदा सेवाधारी हैं वा कभी-कभी के सेवाधारी हैं? अगर कभी-कभी के सेवाधारी होंगे तो राज्य-भाग्य भी कभी-कभी मिलेगा। इस समय की सेवा भविष्य प्राप्ति का आधार है। कभी भी कोई यह बहाना नहीं दे सकते कि चाहते थे लेकिन समय नहीं है। कोई कहते हैं-शरीर नहीं चलता है, टांगें नहीं चलती हैं, क्या करें? कोई कहती हैं-कमर नहीं चलती, कोई कहती हैं-टांगे नहीं चलती। लेकिन बुद्धि तो चलती है ना! तो बुद्धि द्वारा सेवा करो। आराम से पलंग पर बैठकर सेवा करो। अगर कमर टेढ़ी है तो लेट जाओ लेकिन सेवा में बिजी रहो।

बिजी रहना ही सहज पुरूषार्थ है। मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। बार-बार माया आवे और भगाओ-तो मेहनत होती है, युद्ध होती है। बिजी रहने वाले युद्ध से छूट जाते हैं। बिजी रहेंगे तो माया की हिम्मत नहीं होगी आने की। और जितना अपने को बिजी रखेंगे उतना ही आपकी वृत्ति से वायुमण्डल परिवर्तन होता रहेगा। कोई भी ब्राह्मण आत्मा यह नहीं सोच सकती कि-क्या करें, वायुमण्डल बहुत खराब है। खराब है तब तो परिवर्तन करते हो। खराब ही नहीं होगा तो क्या करेंगे? अच्छे को बदलेंगे क्या? तो विश्व-परिवर्तक का काम है-बुरे को अच्छा बनाना। तो बुरा तो होगा ही, बुरे को अच्छा बनाने वाले आप हो! विश्व-परिवर्तन का कार्य किया है, तब तो अब तक भी आपका गायन है। शक्तियों के गायन में आपकी कितनी महिमा करते हैं! तो अपनी महिमा सुनते हुए खुशी होती है ना!

पाण्डवों की भी महिमा है। लक्ष्मी के साथ गणेश को जरूर रखते हैं। तो पाण्डव अपना कल्प पहले का यादगार अभी स्वयं देख रहे हैं, सुन रहे हैं। खुशी होती है ना! इतनी खुशी है जो कैसे भी दर्दनाक खेल हों लेकिन आप खुशी में नाचते रहते हो! पांव से नहीं नाचना। मन में खुशी से नाचते हैं। क्यों खुशी में नाचते हो? क्योंकि नॉलेज है-नथिंग न्यु, होना ही है। दर्दनाक बातें सुनकर कभी घबराते हो? पक्के हो? अगर आप ब्राह्मण आत्माए पक्के नहीं बनेंगे तो कौन बनेंगे? मास्टर सर्वशक्तिवान कभी घबराते नहीं हैं। जब भी कोई ऐसी परिस्थिति आवे तो पहले सोचो-मेरा साथी कौन! पाण्डवों ने कितना कुछ सहन किया लेकिन बाप का साथ होने के कारण विजयी बने। तो विजय की गारन्टी है। साथ में बाप है तो विजयी बनने की गारन्टी है। इसिलए कभी भी किसी बात में भी कच्चा नहीं बनना। दुनिया घबराये और आप खुशी में, मौज में घबराने वालों को भी शक्ति दो। सदा सामने मौत को देखते हुए बाप ही याद आता है ना। तो और ही याद में रहने का वातावरण मिला हुआ है। वैसे भी कहा जाता है कि मृत्यु के समय कौन याद आता है? तो आपको भी अकाले मृत्यु का समाचार मिलता है। मृत्युलोक को देख अपना स्वर्ग अर्थात् अमर लोक याद आता है। आज मृत्युलोक है, कल हमारा राज्य होगा! यह खुशी है ना। आज को देख कल की याद और ही ज्यादा आती है। तो सभी निर्भय रहने वाले हो ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

डबल हीरो हैं-इस पोजीशन की स्मृति से हर कर्म श्रेष्ठ होगा

सभी अपने को इस ड्रामा के अन्दर पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ पार्टधारी आत्मायें अनुभव करते हो? जैसे बाप ऊंचे ते ऊंचा है, ऐसे ऊंचे ते ऊंचा पार्ट बजाने वाली आप श्रेष्ठ आत्माए हो। डबल हीरो हो। हीरे तुल्य जीवन भी है और हीरो पार्टधारी भी हो। तो कितना नशा हर कर्म में होना चाहिए! अगर स्मृति में यह श्रेष्ठ पार्ट है, तो जैसी स्मृति होती है वैसी स्थिति होती है और जैसी स्थिति होगी वैसे कर्म होंगे। तो सदा यह स्मृति रहती है? जैसे शरीर रूप में जो भी हो, जैसा भी हो-वह सदा याद रहता है ना। तो आत्मा का ऑक्यूपेशन, आत्मा का स्वरूप जो है, जैसा है-वह भी याद रहना चाहिए ना। शरीर विनाशी है लेकिन उसकी याद अविनाशी रहती है। आत्मा अविनाशी है, तो उसकी याद भी अविनाशी रहती है? जैसे यह आदत पड़ गई है कि मैं शरीर हूँ। है उल्टा, रांग है। लेकिन आदत तो पक्की हो गई। तो भूलने चाहते भी नहीं भूलता। वैसे यथार्थ अपना स्वरूप भी ऐसे पक्का होना चाहिए। शरीर का ऑक्यूपेशन स्वप्न में भी याद रहता है। कोई क्लर्क है, कोई वकील है, बिजनेस करने वाला है-तो भूलता नहीं। ऐसे यह ब्राह्मण जीवन का ऑक्यूपेशन कि मैं हीरो पार्टधारी हूँ-यह पक्का होना चाहिए और नेचुरल होना चाहिए। तो चेक करो कि ऐसे नेचुरल जीवन है?

जो नेचुरल चीज होती है वह सदा होती है और जो अननेचुरल (Unnatural;अस्वाभाविक) होती है वह कभी-कभी होती है। तो यह स्मृति सदा रहनी चाहिये कि हम डबल हीरो हैं। इस नशे में नुकसान नहीं है, दूसरे नशे में नुकसान है। यह हद का नशा नहीं है, बेहद का रूहानी नशा है। उस नशे में भी सब बातें स्वत: ही भूल जाती हैं, भूलनी नहीं पड़ती हैं। यह रूहानी नशा जब होता है तो हद की बातें भूल जाती हैं, भूलने की मेहनत नहीं करनी पड़ती है। जब यह स्मृति रहती है कि मैं हीरो पार्टधारी आत्मा हूँ-तो स्वत: ही हर कर्म श्रेष्ठ होता है। हर कर्म से सभी को अनुभव होगा कि यह कोई विशेष आत्मा है, साधारण नहीं। ऐसे समझते हो? वा जैसे सब हैं वैसे हम हैं? न्यारे लगते हो? चाहे कितने भी अज्ञानी हों लेकिन अनेक अज्ञानियों के बीच आप ज्ञानी आत्माप्यारी अनुभव हो। इसको कहा जाता है हीरो पार्टधारी। ऐसे है? दूसरे भी अनुभव करें। ऐसे नहीं-सिर्फ अपने को समझें। अन्दर से समझें कि ये न्यारे हैं। न चाहते हुए भी सभी आपके आगे अपना सिर झुकायेंगे। अभिमान का सिर झुकेगा। परन्तु इतनी पक्की अवस्था चाहिए। चेक करो और चेंज करो। हर कर्म में अपने को चेक करो कि-न्यारी हूँ, प्यारी हूँ? डबल हीरो स्थिति का अनुभव बढ़ाते चलो। एक-दो से आगे बढ़ना है और एक-दो को आगे बढ़ाना है। ऐसे नहीं समझो कि दूसरा आगे जायेगा तो मैं पीछे हो जाऊंगा। नहीं, बढ़ाना ही बढ़ना है। ब्राह्मण जीवन अर्थात् बढ़ना और बढ़ाना।

ग्रुप नं. 3

श्रेष्ठ भाग्य के स्मृतिस्वरूप बनो तो दु:ख की लहर आ नहीं सकती

सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य को देख भाग्यविधाता बाप स्वत: ही याद आता है ना। भाग्यविधाता और भाग्य-दोनों याद रहते हैं ना। क्या-क्या भाग्य मिला है-उसकी स्मृति सदा इमर्ज रूप में रहे। ऐसे नहीं कि अन्दर में तो याद है। नहीं, बाहर दिखाई दे। क्योंकि सारे कल्प में ऐसा श्रेष्ठ भाग्य कभी भी मिल नहीं सकता। सतयुग के भाग्य और इस समय के भाग्य में क्या अन्तर है? अभी का भाग्य श्रेष्ठ है ना। क्योंकि इस समय हीरे तुल्य हो और सतयुग में सोने तुल्य हो जायेंगे। तो सदा दिल में श्रेष्ठ भाग्य के गीत गाते रहते हो। आटोमेटिक बजता है या कभी बन्द हो जाता है? सदा बजता है या कभी-कभी खराब हो जाता है? क्योंकि अविनाशी प्राप्ति कराने वाला भाग्यविधाता है। जो भाग्य मिला है उसकी अगर लिस्ट निकालो तो कितनी लम्बी लिस्ट हो जायेगी! लम्बी लिस्ट है ना। इसलिए कहा ही जाता है-कितना मिला, क्या मिला? तो कहते हैं-अप्राप्त कोई वस्तु नहीं रही। इससे सिद्ध है कि सब-कुछ मिल गया। जो मिला है उसको सम्भालना आता है? या कभी-कभी कोई चोरी करके चला जाता है? माया चोरी तो करके नहीं जाती?

माताओं को कभी थोड़ी-सी भी दु:ख की लहर आती है? तो उस समय अपना भाग्य भूल जाता है ना। स्मृति में लाते हो, इससे सिद्ध है कि विस्मृति हुई। सदा स्मृतिस्वरूप रहो। दुनिया वाले भाग्य के पीछे भटक रहे हैं और आपको घर बैठे भाग्यविधाता बाप ने भाग्य दे दिया! कितना बड़ा परिवर्तन आ गया! कभी भी अपने को इस श्रेष्ठ भाग्य से अलग नहीं करो। मेरा भाग्य है, तो मेराकभी भूलता है क्या? बाप का दिया हुआ खज़ाना अपना है ना। इतनी श्रेष्ठ भाग्यवान आत्मायें बनती हो जो अभी तक भी आपके भाग्य की महिमा कितनी करते रहते हैं! ये कीर्तन क्या है? आपके प्राप्त हुए भाग्य की महिमा है। तो जब भी कोई देवी-देवताओं का कीर्तन सुनते हो तो क्या लगता है? समझते हो कि हमारी प्राप्तियों की महिमा कर रहे हैं! चैतन्य में अपने जड़ चित्र की महिमा सुन रहे हो। सबसे ज्यादा खुशी किसको है? कोई को कम नहीं है! नम्बरवार तो होंगे ना। सभी नम्बरवन हो? विघ्नजीत में नम्बर-वन कौन है? कोई भी विघ्न आवे लेकिन उसको विनाश करने में नम्बरवन कौन है? कितना टाइम लगता है? एक दिन लगाया वा एक घण्टा लगाया? नम्बरवन अर्थात् कोई भी विघ्न आने के पहले ही मालूम पड़ जाये। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

विघ्न-विनाशक बनने के लिये सर्व शक्तियों से सम्पन्न बनो

सभी अपने को बाप के हर कार्य में सदा साथी समझते हो? जो बाप का कार्य है वह हमारा कार्य है। बाप का कार्य है-पुरानी सृष्टि को नया बनाना, सबको सुख-शान्ति का अनुभव कराना। यही बाप का कार्य है। तो जो बाप का कार्य है वह बच्चों का कार्य है। तो अपने को सदा बाप के हर कार्य में साथी समझने से सहज ही बाप याद आता है। कार्य को याद करने से कार्य-कर्ता की याद स्वत: ही आती है। इसी को ही कहा जाता है सहज याद। तो सदा याद रहती है या करना पड़ता है? जब कोई माया का विघ्न आता है फिर याद करना पड़ता है। वैसे देखो, आपका यादगार है विघ्न-विनाशक। गणेश को क्या कहते हैं? विघ्न- विनाशक। तो विघ्न-विनाशक बन गये कि नहीं? विघ्न-विनाशक अर्थात् सारे विश्व के विघ्न-विनाशक। अपने ही विघ्न-विनाशक नहीं। अपने में ही लगे रहे तो विश्व का कब करेंगे? तो सारे विश्व के विघ्न-विनाशक हो। इतना नशा है? कि अपने ही विघ्नों के भाग-दौड़ में लगे रहते हो?

विघ्न-विनाशक वही बन सकता है जो सदा सर्व शक्तियों से सम्पन्न होगा। कोई भी विघ्न विनाश करने के लिए क्या आवश्यकता है? शक्तियों की ना। अगर कोई शक्ति नहीं होगी तो विघ्न विनाश नहीं कर सकते। इसलिए सदा स्मृति रखो कि बाप के सदा साथी हैं और विश्व के विघ्न-विनाशक हैं। विघ्न-विनाशक के आगे कोई भी विघ्न आ नहीं सकता। अगर अपने पास ही आता रहेगा तो दूसरे का क्या विनाश करेंगे। सर्व शक्तियों का खज़ाना है? या थोड़ा-थोड़ा है? कोई भी खज़ाना अगर कम होगा तो समय पर विजय प्राप्त नहीं कर सकेंगे। तो सदा अपना स्टॉक चेक करो कि सर्व खज़ाने हैं, सर्व शक्तियाँ हैं? क्योंकि बाप ने सभी को सर्व शक्तियाँ दी हैं। या किसको कम दी हैं, किसको ज्यादा दी हैं? सबको सर्व शक्तियाँ दी हैं ना। और अपने को कहलाते भी हो-मास्टर सर्वशक्तिवान। तो सर्व शक्तियाँ मेरा वर्सा है। तो वर्सा कभी जा नहीं सकता। वर्से का नशा रहता है ना। अगर किसी को बहुत बड़ा वर्सा मिल जाये तो कितना नशा, कितनी खुशी रहती है! आपको तो अविनाशी वर्सा मिला है। तो नशा भी अवि-नाशी होना चाहिए। तो सदा नशा रहता है? बालक अर्थात् मालिक।

बापदादा बच्चों के सेवा की वृद्धि को देख खुश होते हैं। क्वान्टिटी और क्वालिटी-दोनों हैं ना। दोनों की सेवा का बैलेन्स है? या क्वान्टिटी ज्यादा है, क्वालिटी कम है? बाप को तो क्वान्टिटी भी चाहिए, क्वालिटी भी चाहिए। क्वालिटी की सेवा प्रति किसलिए कहते हैं? क्योंकि एक क्वालिटी वाला अनेक क्वान्टिटी को लायेगा। फिर भी बाप को प्रिय तो आजकल के हिसाब से साधारण आत्मायें ही हैं। वैसे तो विशेष हैं लेकिन आजकल के जमाने के हिसाब से साधारण गिने जाते हैं। यही कमाल है जो साधारण आत्मायें अति श्रेष्ठ बन गयीं! जिन्हों के लिए कोई सोच भी नहीं सकता कि ये आत्मायें इतने वर्से के अधिकारी बनेंगी! दुनिया सोचती रहती और आप बन गये! वो तो ढूँढते रहते-किस वेष में आयेंगे, कब आयेंगे? और आप क्या कहते? पा लिया। तो पा लियाकी खुशी है ना।

सबसे बड़ा खज़ाना है ही खुशी। अगर खुशी है तो सब-कुछ है और खुशी नहीं तो कुछ भी नहीं। तो मातायें सदा खुश रहती हो? या कभी-कभी मन में रोती भी हो? पाण्डव रोते हैं? आंखों से नहीं रोते, मन से रोते हो? उदास होते हो? कभी-कभी धन्धेधोरी में नुकसान हो जाये तो उदास होते हो ना। तो यह उदास होना भी मन का रोना है। उदास होगा तो हंसी नहीं आयेगी, माना खुशी गायब हो गई ना। अभी उदास भी नहीं हो सकते। क्योंकि प्राप्तियों के आगे ये थोड़ा-बहुत कुछ नुकसान होता भी है तो अखुट प्राप्तियों के आगे यह क्या बड़ी बात है! जब प्राप्तियों को भूल जाते हैं तो उदास होते हैं। कुछ भी हो जाये लेकिन कभी भी बाप का खज़ाना गंवाना नहीं। खुशीहै बाप का खज़ाना, उसको छोड़ना नहीं है। पहले भी सुनाया था ना कि शरीर चला जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। इतना पक्का बनना ही ब्राह्मण जीवन है। समझा? उदासी को तलाक दे दो। तलाक देने वाले को साथ नहीं रखा जाता है। तलाक दे दिया तो खत्म हुआ।

पीस पार्क में आयोजित शान्ति-मेले में सेवा के निमित्त सेवाधारियों प्रति

सेवा में तो अच्छी हिम्मत रखने वाले हैं। मेला अच्छा लगाया है। अनेक आत्माओं को सहज शान्ति का अनुभव कराना-यह कितना पुण्य का कार्य है! तो पुण्यात्मा बन पुण्य की पूंजी सेवा द्वारा जमा कर रहे हैं। अच्छी प्यार से सेवा कर रहे हैं। यह सेवा भी खुशी को बढ़ाती है। तो पहले स्वयं को अनुभवी बनाते हैं, फिर दूसरे को अनुभव कराते हैं। भाग्य बनाने का गोल्डन चान्स मिला है। अच्छा है, सहज साधन भी है और सिम्पल भी है। अच्छा! गुजरात के यूथ निर्विघ्न हैं? या थोड़ा-थोड़ा विघ्न है? ‘‘सी (See;देखना) फादर’’ करने से सदा निर्विघ्न रहेंगे। ‘‘सी सिस्टर’’, ‘‘सी ब्रदर’’ करने से कोई न कोई हलचल होती है। सदा ‘‘सी फादर’’। ब्रह्मा बाप ने क्या किया? अच्छा! मातायें तो नाचती रहती हैं। गरबा भी खूब करती हैं और खुशी में नाचती रहती हैं। गरबा करते हैं तो मिलन होता है ना एक-दो से। जो भी डांस करते हैं, तो एक-दो से मिलाते हैं ना। एक हाथ ऊपर करे, दूसरा नीचे करे-तो अच्छा लगेगा? ऐसे संस्कार मिलाने का गरबा करना है। समझा? यह गरबा तो अज्ञानी भी करते हैं। लेकिन ज्ञानियों को कौनसा गरबा करना है? संस्कार मिलाने का। सबके संस्कार बाप समान हों। यह संस्कार मिलाने की डांस आती है? या कभी आती है, कभी नहीं आती है? तो अब यह विशेषता दिखानी है। संस्कार से टक्कर नहीं खाना है, संस्कार मिलाना है। यदि कोई दूसरा गड़बड़ भी करे तो भी आप मिलाओ, आप गड़बड़ नहीं करो। और ही उसको शान्ति का सहयोग दो। तो समझा, विघ्न-विनाशक आत्मायें हो।

सदैव यह अनुभव करो कि हमारा ही यादगार विघ्न-विनाशक है। विघ्न-विनाशक बनने की विधि क्या है, कैसे विघ्न-विनाशक बनेंगे? शान्ति से या सामना करने से या थोड़ा हलचल करने से? शान्त रहना है और शान्ति से सर्व कार्य सम्पन्न करना है। ऐसे नहीं कहना कि थोड़ी हलचल करने से अटेन्शन खिंचवाते हैं। ऐसे नहीं करना। यह अटेन्शन नहीं खिंचवाते लेकिन टेन्शन पैदा करते हैं। इसलिए विघ्न-विनाशक बनना है तो शान्ति से, हलचल करने से नहीं। सदा शान्त। शान्ति की शक्ति-कितना भी बड़ा विघ्न हो, उसको सहज समाप्त कर देती है। तो शान्ति की शक्ति जमा है ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

ब्राह्मण जीवन की सेफ्टी का साधन-बाप की छत्रछाया

अपने को हर समय हर कर्म करते बाप की छत्रछाया के अन्दर रहने वाले अनुभव करते हो? छत्रछाया सेफ्टी का साधन हो जाये। जैसे स्थूल दुनिया में धूप से वा बारिश से बचने के लिए छत्रछाया का आधार लेते हैं। तो वह तो है स्थूल छत्रछाया। यह है बाप की छत्रछाया जो आत्मा को हर समय सेफ रखती है-आत्मा कोई भी अल्पकाल की आकर्षण में आकर्षित नहीं होती, सेफ रहती है। तो ऐसे अपने को सदा छत्रछाया में रहने वाली सेफ आत्मा समझते हो? सेफ हो या थोड़ा-थोड़ा सेक आ जाता है? जरा भी इस साकारी दुनिया का माया के प्रभाव का सेंक-मात्र भी नहीं आये। क्योंकि बाप ने ऐसा साधन दिया है जो सेक से बच सकते हो। वह सबसे सहज साधन है-छत्रछाया। सेकेण्ड भी नहीं लगता, बाबा कहा और सेफ! मुख से नहीं, मुख से बाबा-बाबा कहे और प्रभाव में खिंचता जाये-ऐसा कहना नहीं। मन से बाबा कहा और सेफ। तो ऐसे सेफ हो? क्योंकि आजकल की दुनिया में सभी सेफ्टी का रास्ता ढूँढते हैं। कोई भी बात करेंगे तो पहले सेफ्टी सोचेंगे, फिर करेंगे। तो आजकल सेफ्टी सब चाहते हैं-चाहे स्थूल, चाहे सूक्ष्म। तो बाप ने भी सदा ब्राह्मण जीवन की सेफ्टी का साधन दे दिया है। चाहे कैसी भी परिस्थिति आ जाये लेकिन आप सदा सेफ रह सकते हो। ऐसे सेफ हो या कभी हलचल में आ जाते हो? कितना सहज साधन दिया है! मेहनत नहीं करनी पड़ी।

मार्ग मेहनत का नहीं है लेकिन अपनी कमजोरी मेहनत का अनुभव कराती है। जब कमजोर हो जाते हो तब मेहनत लगती है, जब शक्तिशाली होते हो तो सहज लगता है। है सहज लेकिन स्वयं ही मेहनत का अनुभव कराने के निमित्त बनते हो। मेहनत में थकावट होती है और सहज में खुशी होती है। अगर कोई भी कार्य सहज सफल होता रहता है तो खुशी होगी ना। मेहनत करनी पड़ी तो थकावट होगी। तो खुशी अच्छी या थकावट अच्छी? बापदादा सदैव बच्चों को यही कहते हैं कि आधा कल्प मेहनत की, अभी भी मेहनत नहीं करो, अभी मौज मनाओ। मौज के समय भी मेहनत करें तो मौज कब मनायेंगे? अभी नहीं तो कभी नहीं मनायेंगे। इसलिए सदा सहज अर्थात् सदा मौज में रहने वाले। तो सदा छत्रछाया में रहते हो। या बाहर निकलकर देखने में मजा आता है? कई अच्छे स्थान पर बैठे भी होंगे, लेकिन आदत होती है देखने की तो अच्छा स्थान छोड़कर भी देखते रहेंगे, बाहर चक्कर लगाते रहेंगे। तो ऐसी आदत तो नहीं है? छत्रछाया के अन्दर रहने की मौज का अनुभव करो। यह क्या है, यह क्यों है, यह कैसा है-ये छत्रछाया के अन्दर से निकलकर चक्कर लगाना है। यह छत्रछाया सदा श्रेष्ठ सेफ रहने की लकीर है। लकीर से बाहर जाने से शोक वाटिकामिलती है और लकीर के अन्दर रहने से अशोक वाटिका। कोई शोक है क्या? कभी-कभी दु:ख की लहर आती है? किसी भी बात में थोड़ा-सा भी, संकल्प में भी अगर दु:ख की लहर आई तो शोक वाटिकामें हैं। संगमयुग में बाप अशोक वाटिकामें रहने का साधन बताते हैं और इस समय के अभ्यास से अनेक जन्म अशोक रहेंगे, शोक का नाम-निशान भी नहीं होगा। तो सदा सेफ रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हैं-यह अनुभव करते चलो। समर्थ बाप, समर्थ बच्चे। तो छत्रछाया पसन्द है ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 6

परमात्म-प्यार के पात्र बनो तो सहज मायाजीत बन जायेंगे

सभी अपने को परमात्म-शमा के परवाने समझते हो? परवाने दो प्रकार के होते हैं-एक हैं चक्र लगाने वाले और दूसरे हैं-सेकेण्ड में फिदा होने वाले। तो आप सभी कौनसे परवाने हो? फिदा हो गये हो या होने वाले हो? या अभी थोड़ा सोच रहे हो? सोचना अर्थात् चक्र लगाना। फिदा होने के बाद फिर चक्र नहीं काटना पड़ेगा। सभी हो गये? जब कोई अच्छी चीज मिल जाती है और समझ में आता है कि इससे अच्छी चीज कोई है ही नहीं-तो सोचने की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही सौदा किया है ना। बापदादा को भी ऐसे निश्चयबुद्धि विजयी रत्नों को देख हर्ष होता है। ज्यादा खुशी किसको होती है-बाप को या आपको? बाप कहते हैं-बच्चों को ज्यादा खुशी है तो बाप को पहले है। बापदादा ने, देखो, कहाँ-कहाँ से चुनकर एक बगीचे के रूहानी गुलाब बना दिया। इसी एक परिवार का बनने में कितनी खुशी है! इतना परिवार किसी का भी होगा? फॉलोअर्स हो सकते हैं लेकिन परिवार नहीं। कितनी खुशियां हैं-बाप की खुशी, अपने भाग्य की खुशी, परिवार की खुशी! खुशियाँ ही खुशियाँ हैं ना। आंख खुलते ही अमृतवेले खुशी के झूले में झूलते हो और सोते हो तो भी खुशी के झूले में। अतीन्द्रिय सुख पूछना हो तो किससे पूछें? हर एक कहेगा-मेरे से पूछो। यह शुद्ध नशा है, यह देह-भान का नशा नहीं है। हर एक आत्मा को अपना-अपना रूहानी नशा है। सिर्फ रूहानी नशे को हद का नशा नहीं बनाना।

बापदादा का सबसे ज्यादा प्यार बच्चों से है, उसकी निशानी क्या है? कोई प्रैक्टिकल निशानी सुनाओ। (सभी ने सुनाया) देखो, हर रोज़ इतना बड़ा पत्र (मुरली) कोई नहीं लिखता है। ऐसा प्यार कोई नहीं करेगा। परमात्म-प्यार के पात्र हो। कभी भी एक दिन पत्र मिस हुआ है? ऐसा माशूक सारे कल्प में नहीं हो सकता है। यह सब बातें जो सुनाई वह याद रखना। हर समय यही प्राप्तियां याद रहें तो कभी भी प्राप्ति के आगे और कोई भी व्यक्ति या वस्तु आकर्षित नहीं कर सकते और सदा सहज मायाजीत बन औरों को भी बनायेंगे। अच्छा!



12-11-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


भविष्य विश्व-राज्य का आधार-संगमयुग का स्वराज्य

विश्व-रचता बापदादा अपने स्वराज्य अधिकारी बच्चों प्रति बोले -

आज विश्व-रचता बापदादा अपने सर्व स्वराज्य अधिकारी बच्चों को देख रहे हैं। इस वर्तमान संगमयुग के स्वराज्य अधिकारी और भविष्य में विश्व-राज्य अधिकारी बनते हो। क्योंकि स्वराज्य से ही विश्व के राज्य का अधिकार प्राप्त करते हो। इस समय के स्वराज्य की प्राप्ति का अनुभव भविष्य विश्व के राज्य से भी अति श्रेष्ठ अनुभव है! सारे ड्रामा के अन्दर राज्य-अधिकारी राज्य करते आते हैं। सबसे श्रेष्ठ पहला है स्वराज्य, जिसके आधार से आप स्वराज्य अधिकारी आत्माए अनेक जन्म सतयुग-त्रेता तक विश्व-राज्य अधिकारी बनते हो। तो पहला है स्वराज्य, फिर आधा कल्प है विश्व-राज्य अधिकार और द्वापर से लेकर के, राज्य तो होता ही है लेकिन विश्व-राज्य नहीं, स्टेट के राजायें बनते हैं। सारे विश्व पर एक राज्य, वह सिर्फ सतयुग में ही होता है। तो तीन प्रकार के राज्य सुनाये। राज्य अर्थात् सर्व अधिकार की प्राप्ति। सतयुग-त्रेता की राजनीति, द्वापर की राजनीति और संगमयुग की स्वराज्य नीति-तीनों को अच्छी रीति से जानते हो।

संगमयुग की राजनीति अर्थात् हर एक ब्राह्मण आत्मा स्व का राज्य अधिकारी बनता है। हर एक राजयोगी है। सभी राजयोगी हो। या प्रजायोगी हो? राजयोगी हो ना। तो राजयोगी अर्थात् राजा बनने वाले योगी। स्वराज्य अधिकारी आत्माओं की विशेष नीति है-जैसे राजा अपने सेवा के साथियों को, प्रजा को जैसा, जो ऑर्डर करते हैं, उस ऑर्डर से, उसी नीति प्रमाण साथी वा प्रजा कार्य करते हैं। ऐसे आप स्वराज्य अधिकारी आत्माए अपनी योग की शक्ति द्वारा हर कर्मेन्द्रिय को जैसा ऑर्डर करती हो, वैसे हर कर्मेन्द्रिय आपके ऑर्डर के अन्दर चलती है। न सिर्फ यह स्थूल शरीर की सर्व कर्मेन्द्रियां लेकिन मन, बुद्धि, संस्कार भी आप राज्य-अधिकारी आत्मा के डायरेक्शन प्रमाण चलते हैं। जब चाहो, जैसे चाहो-वैसे मन अर्थात् संकल्प शक्ति को वहाँ स्थित कर सकते हो। अर्थात् मन, बुद्धि, संस्कार के भी राज्य-अधिकारी। संस्कारों के वश नहीं लेकिन संस्कार को अपने वश में कर श्रेष्ठ नीति से कार्य में लगाते हो, श्रेष्ठ संस्कार प्रमाण सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हो। तो स्वराज्य की नीति है-मन, बुद्धि, संस्कार और सर्व कर्मे-न्द्रियों के ऊपर स्व अर्थात् आत्मा का अधिकार। अगर कोई कर्मेन्द्रियां-कभी आंख धोखा देती, कभी बोल धोखा देता, वाणी अर्थात् मुख धोखा देता, संस्कार अपने कन्ट्रोल में नहीं रहते-तो उसको स्वराज्य अधिकारी नहीं कहेंगे, उसको कहेंगे-स्वराज्य अधिकार के पुरुषार्थी। अधिकारी नहीं लेकिन पुरुषार्थी। वास्तव में राज्य-अधिकारी आत्मा को स्वप्न में भी कोई कर्मेन्द्रिय वा मन, बुद्धि, संस्कार धोखा नहीं दे सकते। क्योंकि अधिकारी हैं, अधिकारी कभी अधीन नहीं हो सकता। अधीन हैं तो अधिकारी बनने के पुरुषार्थी हैं। तो अपने से पूछो-पुरुषार्थी हो या अधिकारी हो? अधिकारी बन गये या बन रहे हैं? तो स्वराज्य का रूहानी नशा क्या अनुभव कराता है? क्या बन जाते हो? बेफिक्र बादशाह, बेगमपुर के बादशाह!

सबसे बड़े ते बड़ा बादशाह है बेफिक्र बादशाह और सबसे बड़े ते बड़ा राज्य है बेगम्पुर का राज्य। बेगमपुर के राज्य अधिकारी के आगे यह विश्व का राज्य भी कुछ नहीं है। यह बेगमपुर के राज्य का अधिकार अति श्रेष्ठ और सुखमय है। है ही बे-गम। तो बेगमपुर का अनुभव है ना। या कभी-कभी नीचे आ जाते हो? सदा रूहानी नशे में बे॰गमपुर के बादशाह हैं-इस अधिकार में रहो। नीचे नहीं आओ। देखो, आजकल के राज्य में भी अगर कोई कुर्सी पर है तो उसका अधिकार है और कल कुर्सी से उतर आता तो उसका अधिकार रहता है? साधारण बन जाता है। तो आप भी स्वराज्य के नशे में रहते हो, अकाल तख्तनशीन रहते हो। सभी के पास तख्त है ना। तो तख्त को छोड़ते क्यों हो? सदा तख्तनशीन रहो, रूहानी नशे में रहो। अकालतख्त-वह अमृतसर वाला अकाल-तख्त नहीं, यह अकालतख्त। यह अकालतख्त सभी के पास है। तो अकाल तख्तनशीन स्वराज्य अधिकारी किसने बनाया? बाप ने हर ब्राह्मण बच्चे को तख्तनशीन राजा बना दिया है।

सारे सृष्टि-चक्र के अन्दर ऐसा कोई बाप होगा जिसके अनेक सब राजा बच्चे हों! लक्ष्मी-नारायण भी ऐसा नहीं बन सकते। यह परमात्म-बाप ही कहते हैं कि मेरे सभी बच्चे, राजा बच्चे हैं। वैसे दुनिया में कह देते हैं-यह राजा बच्चा है। लेकिन बने कुछ भी-सर्वेन्ट बने या कुछ भी बने। लेकिन कहने में आता है राजा बेटा। लेकिन इस समय आप प्रैक्टिकल में राजयोगी अर्थात् राजे बच्चे बनते हो। तो बाप को भी नशा है और बच्चों को भी नशा है। तो स्वराज्य की नीति क्या रही? स्व पर राज्य, हर कर्मेन्द्रिय के ऊपर अधिकार हो। ऐसे नहीं कि देखने तो नहीं चाहते थे लेकिन देख लिया। आंखें खुली थीं ना, इसलिए देखने में आ गया। कान को दरवाजा नहीं है, इसलिए कान में बात पड़ गई। लेकिन दो कान हैं। अगर ऐसी बात सुन भी ली तो निकालने का भी रास्ता है। इसलिए इस भारत में ही विशेष यह चित्र बापू की याद में बना हुआ है-बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न बोलो। यह तीन दिखाते हैं, आप चार दिखाते हो। बुरा सोचो भी नहीं। क्योंकि पहले सोचना होता, फिर बोलना होता, फिर देखना होता है। तो इसलिए कन्ट्रो-लिंग पॉवर, रूलिंग पॉवर रखो। राजा अर्थात् रूलिंग पॉवर। राजा हो और रूलिंग पॉवर हो ही नहीं, तो कौन राजा मानेगा। तो स्वराज्य अर्थात् रूलिंग पॉवर, कन्ट्रोलिंग पॉवर।

बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि कई बच्चे परखने में बहुत होशियार होते हैं। कोई भी गलती होती है, जो नीति प्रमाण नहीं है, तो समझते हैं कि यह नहीं करना चाहिए, यह सत्य नहीं है, यथार्थ नहीं है, अयथार्थ है, व्यर्थ है। लेकिन समझते हुए फिर भी करते रहते या कर लेते। तो इसको क्या कहेंगे? कौनसी पॉवर की कमी है? कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं। जैसे-आजकल कार चलाते हैं, देख भी रहे हैं कि एक्सीडेन्ट होने की सम्भावना है, ब्रेक लगाने की कोशिश करते हैं, लेकिन ब्रेक लगे ही नहीं तो जरूर एक्सीडेन्ट होगा ना। ब्रेक है लेकिन पॉवरफुल नहीं है और यहाँ के बजाए वहाँ लग गई, तो भी क्या होगा? इतना समय तो परवश होगा ना। चाहते हुए भी कर नहीं पाते। ब्रेक लगा नहीं सकते या ब्रेक पॉवरफुल न होने के कारण ठीक लग नहीं सकती। तो यह चेक करो। जब ऊंची पहाड़ी पर चढ़ते हैं तो क्या लिखा हुआ होता है? ब्रेक चेक करो। क्योंकि ब्रेक सेफ्टी का साधन है। तो कन्ट्रोलिंग पॉवर का वा ब्रेक लगाने का अर्थ यह नहीं कि लगाओ यहाँ और ब्रेक लगे वहाँ। कोई व्यर्थ को कन्ट्रोल करने चाहते हैं, समझते हैं-यह रांग है। तो उसी समय रांग को राइट में परिवर्तन होना चाहिए। इसको कहा जाता है कन्ट्रोलिंग पॉवर। ऐसे नहीं कि सोच भी रहे हैं लेकिन आधा घण्टा व्यर्थ चला जाये, पीछे कन्ट्रोल में आये। बहुत पुरूषार्थ करके आधे घण्टे के बाद परिवर्तन हुआ तो उसको कन्ट्रोलिंग पॉवर नहीं, रूलिंग पॉवर नहीं कहा जाता। यह हुआ थोड़ा-थोड़ा अधीन और थोड़ा-थोड़ा अधिकारी-मिक्स। तो उसको राज्य-अधिकारी कहेंगे या पुरुषार्थी कहेंगे? तो अब पुरुषार्थी नहीं, राज्य-अधिकारी बनो। यह स्वराज्य अधिकार का श्रेष्ठ मज़ा है।

स्वराज्य अधिकारी अर्थात् सदा मौज ही मौज में रहना। मौज में रहने वाला कभी किसी बात में मूँझता नहीं है। अगर मूंझते हैं तो मौज नहीं है। तो संगमयुग पर मौज ही मौज है ना। या कभी-कभी मौज है? शक्तियों को, पाण्डवों को मौज है ना। तो समझा, स्वराज्य की नीति क्या है और विश्व-राज्य की नीति क्या है? चाहे प्रजा है, चाहे रॉयल फैमिली है लेकिन प्रजा, प्रजा नहीं, प्रजा भी एक परिवार है। परिवार की नीति-यह है सतयुग-त्रेता की राजनीति। राजा कहलाते हैं लेकिन राजा होते भी परमप्रिय पिता का स्वरूप है। परिवार की विधि से राजनीति चलती है। चाहे राज्य कारोबार भिन्न-भिन्न हाथों में होगी लेकिन परिवार के स्नेह की विधि से कारोबार होगी। ऐसे नहीं कि राजा के पास बहुत धन-दौलत हो और प्रजा में कोई को खाने-पीने के लिये भी नहीं हो। द्वापर-कलियुग की राजनीति में लॉ एण्ड ऑर्डर चलता है। लेकिन विश्व-राज्य, देव-राज्य के समय यही नीति चलती है, लॉ नहीं लेकिन स्नेह और सम्बन्ध की नीति चलती है। कोई भी आत्मा दु:खशब्द को भी नहीं जानती। चाहे राजा हो, चाहे प्रजा हो लेकिन दु:ख-अशान्ति का नाम-निशान नहीं। दु:ख क्या चीज होती है-उसका अज्ञान है, ज्ञान ही नहीं है। जैसे इस समय स्वराज्य के समय भी आपको बापदादा किस नीति से चलाते हैं? स्नेह और श्रीमत। श्रीमत पर चलते रहते तो कोई भी सख्त ऑर्डर करने की आवश्यकता नहीं है। अगर नीति को भूलते हैं तो स्वयं, स्वयं को कलियुगी नीति में चलाते हैं। तो विश्व के राज्य की नीति भी बहुत प्यारी है। क्योंकि अनेकता नहीं है, एक राज्य है और अखुट खज़ाना है! प्रजा भी इतनी सम्पन्न होगी-आजकल के जो बड़े-बड़े पद्मपति हैं, उन्हों से भी ज्यादा! अप्राप्ति का नाम-निशान नहीं। लेकिन इसका आधार क्या? स्वराज्य।

इस समय सम्पन्न बनते हो, इसलिए परमात्म-सम्पत्ति की सम्पन्नता सतयुग-त्रेता के अनेक जन्म प्राप्त होती है। इसलिए कहा-नम्बरवन राज्य है स्वराज्य, फिर है विश्व-राज्य और तीसरा है द्वापर-कलियुग का अलग-अलग स्टेट का राज्य। इस राज्य को तो अच्छी तरह जानते ही हो, वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। तो सदा किस नशे में रहना है? स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है! किस जन्म का? ब्राह्मण जन्म का। ब्रह्मा बाप ने जन्मते ही स्वराज्य का तिलक हर ब्राह्मण आत्मा को लगाया। तिल-कधारी हो ना। तिलक है स्मृति का। तिलक भी है, तख्त भी है और ताज भी है। ताजधारी हो ना। कौनसा ताज है? विश्व-कल्याण का ताज। विश्व-कल्याणकारी हो ना। प्योरिटी का ताज और विश्व-कल्याण का ताज-डबल ताज है। प्योरिटी का ताज है-लाइट का ताज और विश्व-कल्याण का ताज है-सेवा का ताज।

विश्व-सेवाधारी हो ना। ऐसे नहीं कि स्टेट के सेवाधारी समझो-हम गुजरात के हैं, हम राजस्थान के हैं, हम दिल्ली के सेवाधारी हैं। नहीं। विश्व-सेवाधारी। कहाँ भी रहते हैं लेकिन वृत्ति और दृष्टि बेहद की। अगर विश्व-सेवाधारी नहीं बनेंगे तो न स्वराज्य, न विश्व-राज्य, फिर द्वापर-कलियुग में स्टेट का राजा बनना पड़ेगा। लेकिन विश्व-राज्य अधिकारी के लिए सदा अपना ताज, तिलक और तख्त-सदा इस पर स्थित रहो। शरीर से तख्त पर नहीं बैठना है लेकिन बुद्धि द्वारा स्मृति की स्थिति से स्थित रहना है। स्थिति में स्थित होना-यही तख्त पर बैठना है, जो सदैव बैठ सकते हैं। शरीर से तो कितने घण्टे बैठेंगे? थक जायेंगे ना। लेकिन बुद्धि द्वारा स्थिति में स्थित रहना-यह है तख्तनशीन होना। यह तो सहज है ना। तो स्वराज्य के नशे में निरन्तर स्थित रहो। समझा, क्या करना है? पुरुषार्थी नहीं लेकिन अधिकारी बनना।

सभी ने मिलन मनाया ना। सभी भाग-भाग कर आते हैं परमात्म-मिलन का मेला मनाने के लिए। तो मिलन के मेले में आये हो ना। यह मेला लगता है या भीड़ लगती है? आराम है ना। आराम से रहना, खाना, चलना-सब आराम से है ना। फिर भी बहुत लक्की हो। उन मेलों के माफिक मिट्टी में तो नहीं रहे हुए हो। फिर भी बिस्तरा और खटिया तो मिली हुई है ना। वहाँ मेले में तो नहाओ तो भी मिट्टी, रहो तो भी मिट्टी और खाओ तो भी मिट्टी साथ में आयेगी। यहाँ बच्चे आते हैं अपने घर में। नशे से आते हो। बाप भी खुश और बच्चे भी खुश। हाल में पीछे बैठने वाले सबसे आगे हो। क्योंकि बापदादा की पहली नज़र लास्ट तक जाती है। अच्छा!

सर्व स्वराज्य-अधिकारी बेफिक्र बादशाह बच्चों को, सर्व विश्व-राज्य अधिकारी अनेक जन्म सम्पूर्ण सम्पन्न रहने वाली आत्माओं को, सदा तिलक, ताज और तख्तनशीन अधिकारी बच्चों को, सदा बेहद की सेवा के उमंग-उत्साह में रहने वाले विशेष बच्चों को, देश-विदेश के सर्व सम्मुख अनुभव करने वाले बच्चों को बापदादा का पद्मगुणा याद, प्यार। साथ-साथ सर्व के स्नेह के पत्रों का भी रेसपान्ड दे रहे हैं। विदेश और देश-दोनों अपने-अपने विधि प्रमाण स्व के पुरूषार्थ में सिद्धि को प्राप्त कर रहे हैं और सेवा में भी सदा आगे बढ़ने के उत्साह में लगे हुए हैं। इसलिए हर एक किसी भी कोने में रहने वाले हों लेकिन उन्हों की याद, सेवा-समाचार, प्यार के पत्र, स्थिति के उमंग-उत्साह का समाचार-सब प्राप्त हुआ और बापदादा सभी बच्चों को बहुत-बहुत-बहुत नाम सहित, हर एक की विशेषता सहित याद, प्यार दे रहे हैं और सदा इसी याद, प्यार की पालना से पल रहे हो, उड़ रहे हो और उड़ते-उड़ते मंजिल पर पहुँचना ही है वा यह कहें कि पहुँचे हुए ही हो। तो याद, प्यार और नमस्ते।

राजस्थान के राज्यपाल डॉ.एम.चन्ना रेड्डीजी से मुलाकात

संगमयुग के स्वराज्य-अधिकारी हो ना। स्वराज्य मिला ना। अच्छा, अपने ईश्वरीय परिवार का स्नेह प्रैक्टिकल में देखा। यह ईश्वरीय परिवार के प्यार का अधिकार किस विशेषता से प्राप्त किया? (बाबा के आशीर्वाद से)। लेकिन आपकी भी एक विशेषता है, जिस विशेषता के कारण समीप आ सके। (भक्ति) भक्ति भी है, और शक्ति भी है। आदि से अब तक जीवन में आगे बढ़ने का आधार जो है, वो है आपकी हिम्मत। गाया हुआ है-’’हिम्मते बच्चे मददे बाप’’। तो हर क्षेत्र में हिम्मत ने आपको सहारा दिया है, इसलिए हिम्मत के कारण बेफिक्र होकर आगे बढ़े हो। तो इसी विशेषता को सदा साथ रखना। सदा अमृतवेले जब आंख खुले तो अपने को तीन बिन्दियों का तिलक लगाना - (1) मैं आत्मा बिन्दु हूँ, (2) बाप भी बिन्दु है और (3) जो ड्रामा में हो गया, बीत चुका उसका फुलस्टॉप लगाना। तो यह तीन बिन्दियों का तिलक सदा ही राज्य-तिलक का अधिकारी बनायेगा। अभी स्वराज्य फिर विश्व का राज्य। भक्ति का फल तो मिलता है ना। भक्ति का फल है सहज मिलन। (युगल से) बच्ची भी अच्छी मौज में रहती है। मौज ही मौज है ना। (आपका आशीर्वाद चाहिए) सारा दिन सिर्फ एक शब्द याद रखो, वो है-’’मेरा बाबा’’। तो मेराकहने से अधिकार हो जायेगा। तो आशीर्वाद का अधिकार स्वत: ही प्राप्त होगा। यह तो सहज है ना। कोई भी कार्य करो लेकिन यह याद रखो कि मेरा बाबाऔर बाबा का यह कार्य कर रही हूँ। ट्रस्टी होकर कार्य करो। तो ट्रस्टी को कभी कोई बोझ नहीं होता है। न बोझ होगा, न भूलेंगे। फिर भी भक्ति में याद तो किया है ना। याद का रिटर्न है-मौज में रहना। (कृष्ण की भक्त है) तो कृष्ण के राज्य में चलना है ना। तो अभी चलेंगी? ये सब आपको लेकर ही जायेंगे, कोई छोड़कर नहीं जायेंगे। फिर भी दोनों के अच्छे विचार हैं। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

स्व-स्थिति को ऐसा शक्तिशाली बनाओ जो परिस्थिति कभी नीचे-ऊपर न कर सके

सदा अपने भाग्य के चमकते हुए सितारे को देखते रहते हो? भाग्य का सितारा कितना श्रेष्ठ चमक रहा है! सदा अपने भाग्य के गीत गाते रहते हो? क्या गीत है? वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! यह गीत सदा बजता रहता है? आटोमेटिक है या मेहनत करनी पड़ती है? आटोमेटिक है ना। क्योंकि भाग्यविधाता बाप अपना बन गया। तो जब भाग्यविधाता के बच्चे बन गये, तो इससे बड़ा भाग्य और क्या होगा! बस यही स्मृति सदा रहे कि भाग्यविधाता के बच्चे हैं। दुनिया वाले तो अपने भाग्य का वरदान लेने के लिए यहाँ-वहाँ भटकते रहते हैं और आप सभी को घर बैठे भाग्य का खज़ाना मिल गया। मेहनत करने से छूट गये ना। तो मेहनत भी नहीं और प्राप्ति भी ज्यादा। इसको ही भाग्य कहा जाता है-जो बिना मेहनत के प्राप्त हो जाये। एक जन्म में 21 जन्म की प्राप्ति करना-यह कितना श्रेष्ठ हुआ! और प्राप्ति भी अविनाशी और अखण्ड है, कोई खण्डित नहीं कर सकता। माया भी सरेन्डर हो जाती है, इसलिए अखण्ड रहता है। कोई लड़ाई करके विजय प्राप्त करना चाहे तो कर सकेगा? किसकी ताकत नहीं है। ऐसा अटल-अखण्ड भाग्य पा लिया! स्थिति भी अभी ऐसी अटल बनाओ। कैसी भी परिस्थिति आये लेकिन अपनी स्थिति को नीचे-ऊपर नहीं करो। अविनाशी बाप है, अविनाशी प्राप्तियां हैं। तो स्थिति भी क्या रहनी चाहिए? अविनाशी चाहिए ना। सभी निर्विघ्न हो? कि थोड़ा-थोड़ा विघ्न आता है? विघ्न-विनाशक गाये हुए हो ना। कैसा भी विघ्न आये, याद रखो-मैं विघ्न-विनाशक आत्मा हूँ। अपना यह टाइटल सदा याद है? जब मास्टर सर्वशक्तिवान हैं, तो मास्टर सर्वशक्तिवान के आगे कितना भी बड़ा कुछ भी नहीं है। जब कुछ है ही नहीं तो उसका प्रभाव क्या पड़ेगा?

ग्रुप नं. 2

सदा खुश रहने के लिये अनेकमेरे को एकमेरे में परिवर्तन करो

सभी सदा खुश रहते हो? सदा खुश रहने का सहज पुरूषार्थ कौन सा है? (याद) याद में भी क्या याद रखना सहज है? मेरापन सहज कर देता है। मेरापन होता है तो मेरा सहज याद आता है। तो मेरे के अधिकार से याद करना-ये है सहज विधि। अगर खुशी कम होती है तो उसका कारण ही है कि मेरे के अधिकार से बाप को याद नहीं किया। क्योंकि याद में जो विघ्न डालता है वो है ही मेरा-पन। मेरा शरीर, मेरा सम्बन्ध-यही मेरापन विघ्न डालता है। इसलिए इस अनेक मेरे-मेरेको एक मेरा बाबामें बदल दो। यही सहज विधि है। क्योंकि जीवन में सबसे बड़े ते बडी प्राप्ति है ही खुशी। अगर खुशी नहीं तो ब्राह्मण जीवन नहीं। ब्राह्मण जीवन का श्वांस है खुशी। इसलिए सदा खुश रहो। बाप मिला अर्थात् सबकुछ मिला। खुशी गायब तब होती है जब कोई अप्राप्ति होती है। तो ब्राह्मण अर्थात् सबकुछ मिला। प्राप्ति की निशानी है खुशी। खुश रहने वाले भी हो और खुशी बांटने वाले भी। बांटेगा कौन? जिसके पास स्टॉक होगा। अपने लिए तो स्टॉक है लेकिन दूसरे के लिए इतना ही स्टॉक जमा हो। तो सदैव अपना स्टॉक चेक करो कि इतना भरपूर है? ऐसे तो नहीं कि अन्दर ही अन्दर से स्टॉक माया खत्म कर ले और आप समझते रहें कि अभी स्टॉक है! जब कोई परिस्थिति आती है तो कहते हैं कि पता नहीं मेरी खुशी कहाँ चली गई? क्यों चली गई? अन्दर ही अन्दर स्टॉक खत्म हो गया। तो सदैव ही अपना स्टॉक चेक करो कि भरपूर है? क्योंकि माया को भी ब्राह्मण आत्माए प्रिय लगती हैं। वो भी अपना बनाने का पुरूषार्थ नहीं छोड़ती। इसलिए हर समय खबरदार, होशियार!

ग्रुप नं. 3

ब्रह्मा बाप के संस्कारों को अपना संस्कार बनाना ही फॉलो फादर करना है

सदा अपने को विश्व-परिवर्तक अनुभव करते हो? विश्व-परिवर्तन करने की विधि क्या है? स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन। बहुत-काल के स्व-परिवर्तन के आधार से ही बहुतकाल का राज्य-अधिकार मिलेगा। स्व-परिवर्तन बहुतकाल का चाहिए। अगर अन्त में स्व-परिवर्तन होगा तो विश्व-परिवर्तन के निमित्त भी अन्त में बनेंगे, फिर राज्य भी अन्त में मिलेगा। तो अन्त में राज्य लेना है कि शुरू से लेना है? अच्छा, लेना शुरू से है और करना अन्त में है? अगर लेना बहुतकाल का है तो स्व-परिवर्तन भी बहुतकाल का चाहिए। क्योंकि संस्कार बनता है ना। तो बहुतकाल का संस्कार न चाहते हुए भी अपनी तरफ खींचता है। जैसे अभी भी कहते हो कि मेरा यह पुराना संस्कार है ना, इसीलिए न चाहते भी हो जाता है। तो वह खींचता है ना। तो यह भी बहुत समय का पक्का पुरू-षार्थ नहीं होगा, कच्चा होगा, तो कच्चा पुरूषार्थ भी अपनी तरफ खींच्ोगा और रिजल्ट क्या होगी? फुल पास नहीं हो सकेंगे ना। इस-लिए अभी से स्व-परिवर्तन के संस्कार बनाओ। नेचुरल संस्कार बन जाये। जो नेचुरल संस्कार होते हैं उनके लिए मेहनत नहीं करनी पड़ती।

स्व-परिवर्तन का विशेष संस्कार क्या है? जो ब्रह्मा बाप के संस्कार वो बच्चों के संस्कार। तो ब्रह्मा बाप ने अपना संस्कार क्या बनाया, जो साकार शरीर के अन्त में भी याद दिलाया? निराकारी, निर्विकारी, निरअहंकारी-ये हैं ब्रह्मा बाप के अर्थात् ब्राह्मणों के संस्कार। तो ये संस्कार नेचुरल हों। निराकार तो हो ही ना, ये तो निजी स्वरूप है ना। और कितने बार निर्विकारी बने हो! अनेक बार बने हो ना। ब्राह्मण जीवन की विशेषता ही है निरहंकारी। तो ये ब्रह्मा के संस्कार अपने में देखो कि सचमुच ये संस्कार बने हैं? ऐसे नहीं-ये ब्रह्मा के संस्कार हैं, ये मेरे संस्कार हैं। फॉलो फादर है ना। पूरा फॉलो करना है ना। तो सदा ये श्रेष्ठ संस्कार सामने रखो। सारे दिन में जो भी कर्म करते हो, तो हर कर्म के समय चेक करो कि तीनों ही संस्कार इमर्ज रूप में हैं? तो बहुत समय के संस्कार सहज बन जायेंगे। यही लक्ष्य है ना! पूरा बनना है तो जल्दी-जल्दी बनो ना। समय आने पर नहीं बनना है, समय के पहले अपने को सम्पन्न बनाना है। समय रचना है और आप मास्टर रचयिता हैं। रचता शक्तिशाली होता है या रचना? तो अभी पूरा ही स्व-परिवर्तन करो। ब्राह्मणों की डिक्शनरी में कब-कब नहीं है। अब। तो ऐसे पक्के ब्राह्मण हो ना।

ग्रुप नं. 4

सफलता का आधार है - दिव्यता

बापदादा द्वारा हर बच्चे को दिव्य बुद्धि का वरदान मिला है। यह दिव्य बुद्धि का वरदान सभी ने अपने जीवन में कार्य में लगाया है? क्योंकि वरदान का लाभ तब होता है जब वरदान को कार्य में लगायें। तो दिव्य बुद्धि का वरदान मिला सबको है लेकिन यूज़ कितना करते हो? कोई भी चीज यूज करने से, कार्य में लगाने से बढ़ती भी है और उसको सुख की, खुशी की अनुभूति भी होती है। तो दिव्य बुद्धि को कार्य में कहाँ तक लगाते हैं, उसकी निशानी क्या होगी? सफलता होगी। हर कार्य दिव्य-अलौकिक अनुभव होगा, साधारण नहीं। क्योंकि कार्य में दिव्यता ही सफलता का आधार है। तो दिव्य बुद्धि की निशानी है-हर कर्म में दिव्यता। तो ऐसे अनुभव करते हो? या कभी साधारण कर्म भी हो जाते हैं?

दिव्य बुद्धि प्राप्त करने वाली आत्मायें सदा अदिव्य को भी दिव्य बना देती हैं। जैसे गाया जाता है कि पारस अगर लोहे को लगता है तो वह भी पारस बन जाता है। तो दिव्य बुद्धि अर्थात् पारस बुद्धि। ऐसे बने हो? क्योंकि बुद्धि हर बात को ग्रहण करती है। दिव्य बुद्धि दिव्यता को ही ग्रहण करेगी। ऐसे परिवर्तन कर सकते हो। अदिव्य को दिव्य बना सकते हो। या अदिव्यता का प्रभाव पड़ जायेगा? कोई अदिव्य बात हो जाये, अदिव्य कार्य हो जाये-उसका प्रभाव आपके ऊपर पड़ेगा? दिव्य बुद्धि के वरदान से परिवर्तन-शक्ति अदिव्य को भी दिव्य के रूप में बदल देगी। अदिव्य वातावरण या अदिव्य चलन, बोल दिव्य बुद्धि के ऊपर असर नहीं करेंगे। ऐसी स्थिति वाले को ही दिव्य बुद्धि वरदानी मूर्त कहा जायेगा। जैसे-वाटर-प्रूफ होता है, आग-प्रूफ होता है। साइन्स के साधन वाटर-प्रूफ बना देते हैं, आग-प्रूफ बना सकते हैं। तो साइलेन्स की शक्ति परिवर्तन नहीं कर सकती है, प्रूफ नहीं बना सकते हैं? नॉलेज रखना और चीज है-यह दिव्य है, यह अदिव्य है। लेकिन प्रभाव में आना और चीज है। दिव्यता की शक्ति श्रेष्ठ है या अदिव्यता की शक्ति श्रेष्ठ है? तो दिव्यता का प्रभाव अदिव्यता पर पड़ना चाहिए ना। तो अभी दिव्य बुद्धि के वरदान को कार्य में लगाओ। लगाना तो आता है या कभी भूल जाते हो? आधा कल्प भूलने वाले बने लेकिन अभी अभूल बनना है।

दिव्य बुद्धि ऐसा श्रेष्ठ यन्त्र है जो इस यन्त्र द्वारा व्यक्ति तो क्या, प्रकृति को भी दिव्य बना सकते हो। व्यक्ति को दिव्य बनाने से प्रकृति के ऊपर स्वत: ही प्रभाव पड़ता जायेगा। पहले अपने में देखो कि सदा दिव्य बुद्धि इमर्ज रूप में है? इतनी ताकत है जो प्रकृति को भी परिवर्तन कर दो। यह परमात्म-वरदान है। कोई महात्मा या धर्मात्मा का वरदान नहीं है। तो जैसे बाप सर्वशक्तिवान है, तो वरदान भी सर्वशक्तिवान है ना। तो जब भी कोई कार्य करते हो, पहले चेक करो कि दिव्य बुद्धि के वरदान द्वारा कार्य कर रहे हैं या साधारण बुद्धि से कार्य कर रहे हैं? आपकी दिव्यता का प्रभाव विश्व को दिव्य बना देता है। यही आपका ऑक्यूपेशन है ना। इन्जीनियर हूँ, डॉक्टर हूँ, क्लर्क हूँ, फलाना हूँ...-यह ऑक्यूपेशन तो शरीर निर्वाह के अर्थ है। लेकिन वास्तविक ऑक्यूपेशन है-विश्व को परिवर्तन करना। ऐसे समझ कर कार्य करते हो?

अगर वरदान को कार्य में लगाते हो तो वरदान की प्राप्ति सदा सहज अनुभव करायेगी। वरदान में मेहनत नहीं करनी पड़ती। तो यह दिव्य बुद्धि वरदान है। 63 जन्म मेहनत बहुत कर ली। अभी मेहनत नहीं, सहज। ब्राह्मण जीवन में भी अगर मेहनत करनी पड़ती, युद्ध करनी पड़ती-तो मौज कब मनायेंगे? सतयुग में तो पता ही नहीं होगा कि मौज भी मना रहे हैं। वहाँ कंट्रास्ट नहीं होगा। अभी तो कंट्रास्ट है-मेहनत क्या है, मौज क्या है? तो मौज अभी है, सतयुग में कॉमन बात होगी। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

परिवर्तन शक्ति द्वारा व्यर्थ को समर्थ बनाना ही होली हंस बनना है

सदा अपने को होली हंस समझते हो? होली हंस का कर्तव्य क्या है? व्यर्थ और समर्थ को परखना। वो तो कंकड़ और रत्न को अलग करता लेकिन आप होली हंस समर्थ को धारण करते हो, व्यर्थ को समाप्त करते हो। तो समर्थ और व्यर्थ, इसको परखना और परिवर्तन करना-यह है होली हंस का कर्तव्य। सारे दिन में व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ सम्बन्ध-सम्पर्क जो भी होता है, उस व्यर्थ को समाप्त करना-यह है होली हंस। कोई कितना भी व्यर्थ बोले लेकिन आप व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन कर दो। व्यर्थ को अपनी बुद्धि में स्वीकार नहीं करो। अगर एक भी व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म स्वीकार किया तो एक व्यर्थ अनेक व्यर्थ को जन्म देगा। एक व्यर्थ बोल भी स्पर्श हो गया तो वह अनेक व्यर्थ का अनुभव करायेगा, जिसको आप लोग कहते हो-फीलिंग आ गई। एक व्यर्थ संकल्प की फीलिंग आई तो वह फीलिंग को बढ़ायेगी। इसीलिए व्यर्थ की पैदाइस बहुत फास्ट होती है-चाहे कर्म हो, चाहे क्या भी हो। एक व्यर्थ बोल बोलेंगे तो उसे सिद्ध करने के लिए कितने व्यर्थ बोल बोलने पड़ेंगे! जैसे लोग कहते हैं ना-एक झूठ को सिद्ध करने के लिए कितने झूठ बोलने पड़ते हैं!

तो व्यर्थ का खाता समाप्त हो जाये और सदा समर्थ का खाता जमा होता रहे। वो व्यर्थ आपको दे लेकिन आप परिवर्तन कर समर्थ धारण करो। इतनी तीव्र परिवर्तन-शक्ति चाहिए। जैसे-आज की साइन्स व्यर्थ को कार्य में लगा कर अच्छा बना देती है, कई वेस्ट चीजों को बेस्ट में परिवर्तन कर लेते हैं। आपकी रचना इतना फास्ट परिवर्तन कर सकती है। जैसे-देखो, खाद होती है ना, तो खाद बुरी चीज है लेकिन पैदा क्या करती है? खाद गन्दी है लेकिन जब फूल पैदा होता है तो खुशबू वाला होता है। या बदबू वाला होता है? तो खाद में परिवर्तन करने की शक्ति है ना। स्वयं कैसी भी है लेकिन पैदा क्या करती है? फल, फूल, सब्जियां....। तो आपकी रचना में कितनी शक्ति है! तो आप में उससे ज्यादा शक्ति है ना। वो गाली दे और आप उसको फूल बनाकर धारण करो। वो गुस्सा करे और आप उसको शान्ति का शीतल जल दो। यह परिवर्तन-शक्ति चाहिए। होली हंस का यही कर्तव्य है। ऐसी जीवन बनी है? या कहेंगे-क्या करें, बोला ही खराब ना, किया ही बहुत खराब बात, है ही बहुत खराब? लेकिन खराब को ही तो अच्छा बनाना है। अच्छे को तो अच्छा नहीं बनाना है। अच्छे आये थे या खराब आये थे? तो बाप ने अच्छा बनाया ना। या कहा कि ये बहुत खराब हैं, इनको अच्छा कैसे बनाऊं? सोचा? बना दिया ना। तो बाप ने आप सभी को बुरे से अच्छा बनाया और आप बुरी बात को अच्छा नहीं बना सकते? बुरे का प्रभाव आपके ऊपर पड़ जाता है। वायुमण्डल ही खराब था ना। यह होली हंस का लक्षण नहीं है।

कैसा भी वातावरण हो, कैसी भी वृत्ति हो, कैसी भी वाणी हो, कैसी भी दृष्टि हो-लेकिन होली हंस सबको होली बना देते हैं। सदा यह पॉवर रहे और सदा ऐसे तीव्रगति के परिवर्तन करने की विधि आ जाये तो क्या बन जायेंगे? फरिश्ता। फरिश्ता किसके प्रभाव में नहीं आता। अपना कार्य किया और वो चला। फरिश्ता कभी किसी विघ्न के वश नहीं होता-न विघ्न के, न व्यक्ति के। तो होली हंस अर्थात् फरिश्ता। सेवा की और न्यारा। तो ऐसी स्थिति सदा है? ऐसे होली हंस बने हो या बन रहे हो? कब तक बनेंगे? कोई टाइम की हद भी है या नहीं? अगले साल भी यही कहेंगे कि-हाँ, बन रहे हैं? नॉलेजफुल बन गये हो ना। तो जब नॉलेज है कि मुझ होली हंस का कर्तव्य क्या है, तो नॉलेज की शक्ति से परिवर्तन नहीं कर सकते हो? दूसरे साल भी यह नहीं कहना कि बन रहे हैं।

तीव्र पुरुषार्थी का लक्ष्य ही होता है-अबऔर ढीले पुरुषार्थी का लक्ष्य होता है-कब। तो तीव्र पुरुषार्थी हो ना। बापदादा तो सदैव हर आत्मा में श्रेष्ठ भावना रखते हैं कि करने वाले ही हैं। इसलिए इस श्रेष्ठ भावना को प्रैक्टिकल में लाना होगा-अब करना ही है, होना ही है। अगर संकल्प में लक्ष्य है कि होना ही है, करना ही है-तो यह संकल्प सफलता अवश्य प्राप्त कराता है। क्योंकि दृढ़ता सफलता की चाबी है। तो सदा सफलता साथ रखना।

ग्रुप नं. 6

साधारणता में महानता का अनुभव कराना ही सेवा का सहज साधन है

सबसे साहूकार से साहूकार कौन है? जो समझते हैं कि सारे चक्र के अन्दर साहूकार से साहूकार हम आत्मा हैं, वो हाथ उठाओ। किसमें साहूकार हो? कितने प्रकार के धन मिले हैं? वो लिस्ट याद रहती है? बहुत खज़ाने मिले हैं! एक दिन में कितनी कमाई करते हो, मालूम है? पद्मों की कमाई करते हो। रहते गांव में हो और पद्मों की कमाई कर रहे हो! देखो, यही परमात्मा पिता की कमाल है जो देखने में साधारण लेकिन हैं सबसे साहूकार में साहूकार! तो अखबार में निकालेंगे-यहाँ सबसे साहूकार में साहूकार बैठे हैं। तो फिर सब आपके पीछे आयेंगे। आजकल आतंकवादी साहूकारों के पीछे पड़ते हैं ना। फिर आपके पीछे पड़ जायेंगे तो क्या करेंगे? उन्हों को भी साहूकार बना देंगे ना। हैं देखो कितने साधारण रूप में, कोई आपको देखकर समझेंगे कि ये सारे विश्व में साहूकार हैं या पद्मों की कमाई करने वाले हैं? लेकिन साधारणता में महानता समाई हुई है। जितने ही साधारण हो उतने ही अन्दर महान हो! तो यह नशा रहता है-बाप ने क्या से क्या बना दिया और क्या-क्या दे दिया! दोनों ही बातें याद रहती हैं ना। तो अखबार में निकालेंगे ना-रिचेस्ट इन दी वर्ल्ड (Richest In The World; विश्व में सबसे अधिक धनवान)।

और देखो, खज़ाना भी ऐसा है जिसको न चोर लूट सकता है, न आग जला सकती है, न पानी डूबो सकता है। ऐसा खज़ाना बाप ने दे दिया। अविनाशी खज़ाना है ना। अविनाशी खज़ाना कोई विनाश कर नहीं सकता। और कितना सहज मिल गया! जितना खज़ाना है उसके अन्तर में मेहनत की है कुछ? त्याग किया या भाग्य मिला? त्याग भी किया तो बुराई का किया ना। बुराई छोड़ना भी कोई छोड़ना हुआ क्या? दुनिया कहती है-त्याग किया और आप कहते हो-भाग्य मिला है। साहूकार को साहूकार बनाना बड़ी बात नहीं हुई ना। गरीब को साहूकार बनाना-यह है कमाल। जो आजकल के विनाशी धन के साहूकार हैं उनको बाप साहूकार नहीं बनाता। उनका भाग्य ही नहीं है। भाग्य है ही गरीबों का। कभी आपका नाम आया है हू इज हू’ (Who Is Who; नामीग्रामी व्यक्तियों की लिस्ट) में? औरों का आता है ना। और बाप की डिक्शनरी में, ‘हू इज हूमें आपका नाम है। भगवान का बुक ही न्यारा है। तो इतनी खुशी है? धरती और आकाश को माप लो, उससे भी ज्यादा खुशी है ना। बेअन्त है ना। आकाश और धरती तो हद हो जायेगी ना। आपकी उससे भी बेहद है। बेहद के मालिक बन गये हो ना। जब बाप भी बेहद का बाप है, तो प्राप्ति भी बेहद की करा-येगा ना। तो क्या याद रहता है? बेहद का बाप मिला, बेहद का राज्य-भाग्य मिला, बेहद का खज़ाना मिला। है नशा? हर कर्म में यह रूहानी नशा अनुभव होना चाहिए-स्वयं को भी और औरों को भी। चाहे वे समझें, नहीं समझें, इतना तो कहेंगे ना कि ये खुशी-मौज में रहते हैं। यह तो अनुभव करा सकते हो ना। जैसे-मधुबन में आते तो अन्जान भी हैं, लेकिन क्या अनुभव करते हैं? यहाँ का वातावरण और यहाँ की आत्माए खुश रहने वाली हैं, वायुमण्डल में खुशी है-यह तो अनुभव करते हैं ना। तो ऐसे आप सबके सम्बन्ध-सम्पर्क में अनुभव करें कि ये अलौकिक आत्माए हैं, भरपूर आत्माए हैं। ऐसा अनुभव करते हैं। चाहे देह-अभिमान के कारण कहें नहीं, लेकिन अन्दर तो जानते हैं ना। क्योंकि अगर बाहर से आपको कहें, तो खुद को भी बनना पड़े ना। इसीलिए कहेंगे नहीं लेकिन अन्दर में महसूस जरूर होगा। तो ऐसे श्रेष्ठ हो ना। इसलिए गायन है कि अगर अतीन्द्रिय सुख पूछना हो तो....। आपसे पूछें?

देखो, भगवान की पसन्दगी क्या है? जिसको कोई पसन्द नहीं करते उसको बाप पसन्द करते हैं! बाप की नज़र किसके ऊपर गई? आप लोगों के ऊपर। इतने नामीग्रामी लोगों पर नज़र नहीं गई। कहते हैं ना-तुम्हारी गत-मत तुम ही जानो, और कोई नहीं जानता। तो नशा है कि परमात्मा ने हमको पसन्द किया है। डबल विदेशी डबल नशे में रहते हैं। भारतवासियों को तो भारत में ही आकर चुना। लेकिन डबल विदेशियों को कहाँ से चुना? इतना दूर से बाप ने हमको चुना। तो डबल नशा है ना। जैसे आत्मा और शरीर साथ-साथ हैं और सदा साथ हैं, ऐसे यह नशा आत्मा के सदा साथ है। तो ऐसे नशे में रहने वाली श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ आत्माए! सदा खुशी में नाचने वाले। कोई प्राप्ति होती है तो खुशी में नाचते हैं। आपको तो हर कदम में प्राप्ति ही प्राप्ति है। इतनी प्राप्ति है जो दिल कहता है कि अप्राप्त नहीं कोई वस्तु परमात्म-खज़ाने में। इस समय का यही गीत है-ब्राह्मणों के खज़ानों में सर्व प्राप्तियाँ हैं। अच्छा!



21-11-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


कर्मों की गुह्य  गति के ज्ञाता बनो

बेफिक्र बादशाह बनाने वाले बापदादा अपने प्रसन्नचित्त बच्चों प्रति बोले -

आज सर्व खज़ानों के देने वाले बाप सर्व बच्चों के जमा का खाता देख रहे थे। खज़ाने तो सर्व बच्चों को अखुट मिले हैं और सर्व को एक जैसा, एक द्वारा सर्व खज़ाने मिले हैं। एक खज़ाना नहीं लेकिन अनेक खज़ाने प्राप्त हुए हैं। फिर भी जमा का खाता हर एक का अलग-अलग है। कोई ने सर्व खज़ाने अच्छी रीति जमा किये हैं और कइयों ने यथा शक्ति जमा किया है। और जितना ही जमा किया है उतना ही चलन और चेहरे में वह रूहानी नशा दिखाई देता है, जमा करने का रूहानी फखुर अनुभव होता है। रूहानी फखुर की पहली निशानी यही है कि जितना फखुर है उतना बेफिक्र बादशाह की झलक उनके हर कर्म में दिखाई देती है। क्योंकि जहाँ रूहानी फखुर है वहाँ कोई फिक्र नहीं रह सकता। यह फखुर और फिक्र-दोनों एक समय, एक साथ नहीं रह सकते हैं। जैसे रोशनी और अंधकार साथ नहीं रह सकते हैं।

बेफिक्र बादशाह की विशेषता-वह सदा प्रश्नचित्त के बजाए प्रसन्नचित्त रहते हैं। हर कर्म में-स्व के सम्बन्ध में वा सर्व के सम्बन्ध में वा प्रकृति के भी सम्बन्ध में किसी भी समय, किसी भी बात में संकल्प-मात्र भी क्वेश्चन मार्क नहीं होगा कि यह ऐसा क्योंवा यह क्या हो रहा है’, ‘ऐसा भी होता है क्या’? प्रसन्नचित्त आत्मा के संकल्प में हर कर्म को करते, देखते, सुनते, सोचते यही रहता है कि जो हो रहा है वह मेरे लिए अच्छा है और सदा अच्छा ही होना है। प्रश्नचित्त आत्मा क्या’, ‘क्यों’, ‘ऐसा’, ‘वैसा’-इस उलझन में स्वयं को बेफिक्र से फिक्र में ले आती है। और बेफिक्र आत्मा बुराई को भी अच्छाई में परिवर्तन कर लेती, इसलिए वह सदा प्रसन्न रहती।

आजकल के साइन्स के साधन से भी जो वेस्ट-खराब माल होता है, उसको परिवर्तन कर अच्छी चीज बना देते हैं। तो प्रसन्नचित्त आत्मा साइलेन्स की शक्ति से-चाहे बात बुरी हो, सम्बन्ध बुरे अनुभव होते हों, लेकिन वह बुराई को अच्छाई में परिवर्तन कर स्वयं में भी धारण करेगी और दूसरे को भी अपनी शुभ भावना के श्रेष्ठ संकल्प से बुराई को बदल अच्छाई धारण करने की शक्ति देगी। कई बच्चे सोचते हैं, कहते हैं कि-’’जब है ही बुरी वा गलत बात, तो गलत को गलत तो कहना ही पड़ेगा ना! वा गलत को गलत तो समझना ही पड़ेगा ना!’’ लेकिन गलत को गलत समझना-यह समझने के हिसाब से समझा। वह राइट और रांग-समझना, जानना अलग बात है लेकिन नॉलेजफुल रूप से जानने वाले समझने के बाद स्वयं में किसी भी आत्मा की बुराई को बुराई के रूप में अपनी बुद्धि में धारण नहीं करेंगे। तो समझना अलग चीज है, समझने तक राइट है। लेकिन स्वयं में वा अपनी चित्त पर, अपनी बुद्धि में, अपनी वृत्ति में, अपनी वाणी में दूसरे की बुराई को बुराई के रूप में धारण नहीं करना है, समाना नहीं है। तो समझना और धारण करना-इसमें अन्तर है।

अपने को बचाने के लिए यह कह देते हैं कि यह है ही रांग, रांग को तो रांग कहना पड़ेगा ना। लेकिन समझदार का काम क्या होता है? समझदार अगर समझता है कि यह बुरी चीज है, तो क्या बुरी समझते हुए अपने पास जमा करेगा? अपने पास अच्छी रीति सम्भाल कर रखेगा? छोड़ देगा ना। या जमा करना ही समझदारी है? यह समझदारी है? और सोचो, अगर बुरी बात वा बुरी चलन को स्वयं में धारण कर लिया, तो क्या आपकी बुद्धि, वृत्ति, वाणी सदा सम्पूर्ण स्वच्छ मानी जायेगी? अगर जरा भी कोई डिफेक्ट वा दाग रह जाता है, किचड़ा रह जाता है-तो डिफेक्ट वाला कभी परफेक्ट नहीं कहला सकता, प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता। अगर कोई की बुराई चित्त पर है, तो उसका चित्त सदा प्रसन्नचित्त नहीं रह सकता और चित्त पर धारण की हुई बातें वाणी में जरूर आयेंगी-चाहे एक के आगे वर्णन करे, चाहे अनेक के आगे वर्णन करे।

लेकिन कर्मों की गति का गुह्य रहस्य सदा सामने रखो। अगर किसी की भी बुराई वा गलत बात चित्त के साथ वर्णन करते हो-यह व्यर्थ वर्णन ऐसा ही है जैसे कोई गुम्बज़ में आवाज़ करता है तो वह अपना ही आवाज़ और ही बड़े रूप में बदल अपने पास ही आता है। गुम्बज़ में आवाज करके देखा है? तो अगर किसी की बुराई करने के, गलत को गलत फैलाने के संस्कार हैं, जिसको आप लोग आदत कहते हो, तो आज आप किसकी ग्लानि करते हो और अपने को बड़ा समझदार, गलती से दूर समझकर वर्णन करते हो, लेकिन यह पक्का नियम है अथवा कर्मों की फिलॉसफी है कि आज आपने किसकी ग्लानि की और कल आपकी कोई दुगुनी ग्लानि करेगा। क्योंकि यह गलत बातें इतनी फास्ट गति से फैलती हैं जैसे कोई विशेष बीमारी के जर्म्स (जीवाणु) बहुत जल्दी फैलते हैं और फैलते हुए जर्म्स जिसकी ग्लानि की वहाँ तक पहुँचते जरूर हैं। आपने एक ग्लानि की होगी और वह आपको गलत सिद्ध करने के लिए आपकी दस ग्लानि करेंगे। तो रिजल्ट क्या हुई? कर्मों की गति क्या हुई? लौट कर कहाँ आई? अगर आपको शुभ भावना है उस आत्मा को ठीक करने की, तो गलत बात शुभ भावना के स्वरूप में विशेष निमित्त स्थान पर दे सकते हो, फैलाना रांग है। कई कहते हैं-हमने किसको कहा नहीं, लेकिन वो कह रहे थे तो मैंने भी हाँ में हाँ कर दिया, बोला नहीं। आपके भक्ति-मार्ग के शास्त्रों में भी वर्णन है कि बुरा काम किया नहीं लेकिन देखा भी, साथ भी दिया तो वह पाप है। हाँमें हाँ मिलाना-यह भी कर्मों की गति के प्रमाण पाप में भागी बनना है।

वर्तमान समय कर्मों की गति के ज्ञान में बहुत इज़ी हो गये हैं। लेकिन यह छोटे-छोटे सूक्ष्म पाप श्रेष्ठ सम्पूर्ण स्थिति में विघ्न रूप बनते हैं। इज़ी बनने की निशानियां क्या हैं? वह सदा ऐसा ही सोचते-समझते कि यह तो और भी करते हैं, यह तो आजकल चलता ही है। या तो अपने आपको हल्का करने के लिए यही कहेंगे कि-मैंने हंसी में कहा, मेरा भाव नहीं था, ऐसे ही बोल दिया। यह विधि सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त होने में सूक्ष्म विघ्न बन जाता है। इसलिए ज्ञान तो बहुत मिल गया है, रचता और रचना के ज्ञान को सुनना, वर्णन करना बहुत स्पष्ट हो गया है। लेकिन कर्मों की गुह्य गति का ज्ञान बुद्धि में सदा स्पष्ट नहीं रहता, इसलिए इज़ी हो जाते हैं। कई बच्चों की रूहरिहान करते अपने प्रति भी कम्प्लेन होती है कि जैसे बाप कहते हैं, बाप बच्चों में जो श्रेष्ठ आशाए रखते हैं, जो चाहते हैं, जितना चाहते हैं-उतना नहीं है। इसका कारण क्या है? ये अति सूक्ष्म व्यर्थ कर्म बुद्धि को, मन को ऊंचा अनुभव करने नहीं देते। योग लगाने बैठते हैं लेकिन काफी समय युद्ध में चला जाता, व्यर्थ को मिटाए समर्थ बनने में समय चला जाता है। इसलिए क्या करना चाहिए? जितना ऊंचा बनते हैं, तो ऊंचाई में अटेन्शन भी ऊंचा रखना पड़ता है।

ब्राह्मण जीवन की मौज में रहना है। मौज में रहने का अर्थ यह नहीं कि जो आया वह किया, मस्त रहा। यह अल्पकाल के मुख की मौज वा अल्पकाल के सम्बन्ध-सम्पर्क की मौज सदाकाल की प्रसन्नचित्त स्थिति से भिन्न है। इसी को मौज नहीं समझना। जो आया वह बोला, जो आया वह किया-हम तो मौज में रहते हैं। अल्पकाल के मनमौजी नहीं बनो। सदाकाल की रूहानी मौज में रहो। यही यथार्थ ब्राह्मण जीवन है। मौज में भी रहो और कर्मों की गति के ज्ञाता भी रहो। तब ही जो चाहते हो, जैसे चाहते हो वैसे अनुभव करते रहेंगे। समझा? कर्मों की गुह्य गति के ज्ञाता बनो। फिर खज़ानों के जमा की रिजल्ट सुनायेंगे। अच्छा!

चारों ओर के फिक्र से फारिग बेफिक्र बादशाह आत्माओं को, सदा प्रसन्नचित्त विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं प्रति और सर्व आत्माओं प्रति श्रेष्ठ परिवर्तन शक्ति को कर्म में लाने वाले कर्मयोगी आत्माओं को, सदा रचता-रचना के ज्ञाता और कर्म-फिलॉसोफी के भी ज्ञाता-ऐसे ज्ञान-स्वरूप आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों के साथ मुलाकात

वर्तमान समय किस बात की आवश्यकता है? कर्मों की गुह्य गति का ज्ञान मर्ज हो गया है, इसलिए अलबेलापन है। पुरुषार्थी भी हैं लेकिन पुरूषार्थ में अलबेलापन आ जाता है। इसलिए अभी इसकी आवश्यकता है। बापदादा सभी की रिजल्ट को देखते हैं। जो चल रहा है वो अच्छा है। लेकिन अभी अच्छे ते अच्छा बनना ही है। बिज़ी रहना पड़ता है ना। ज्यादा समय बिजी किसमें रहना पड़ता है? किस बात में ज्यादा समय देना पड़ता है? चाहे आप लोगों की अपनी स्थिति न्यारी और प्यारी है, लेकिन समय तो देना पड़ता है। तो यही समय पावरफुल-शक्तिशाली लाइट-हाउस, माइट-हाउस वायब्रेशन्स फैलाने में जाये तो क्या हो जायेगा? संगठित रूप में यही वातावरण हो, और कोई बात ही नहीं हो-तो क्या वायब्रेशन विश्व में या प्रकृति तक पहुँचेगा? अभी तो सभी लोग इन्तजार कर रहे हैं कि कब हमारे रचता वा मास्टर रचता सम्पन्न या सम्पूर्ण बन हम लोगों से अपनी स्वागत कराते। प्रकृति भी तो स्वागत करेगी ना। तो वह सफलता की माला से स्वागत करे-वो दिन आना ही है। जब सफलता के बाजे बजेंगे तब प्रत्यक्षता के बाजे बजेंगे। बजने तो हैं ही ना। अच्छा!

दादी चन्द्रमणि जी सेवा पर जाने की छुट्टी ले रही हैं

आलराउन्ड बनना ही श्रेष्ठ सेवा है। अच्छा है, चक्कर लगाते रहो। चक्कर लगाने का पार्ट बच्चों का ही है। बाप तो अव्यक्त रूप में लगा सकते हैं। साकार रूप में भी चक्कर लगाने का पार्ट बाप का नहीं रहा, बच्चों का ही था। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

विजयी माला में आने के लिये तीव्र पुरुषार्थी बनो

सदा तीव्र पुरुषार्थी आत्माए हैं-ऐसे अनुभव करते हो? जब ब्राह्मण बने तो पुरुषार्थी तो हैं ही। तीव्र पुरुषार्थी हैं वा सिर्फ पुरुषार्थी हैं? सुनने और सुनाने वाले को पुरुषार्थी कहेंगे या तीव्र पुरुषार्थी कहेंगे? सुनना और सुनाना, उसके बाद क्या होता है? तीव्र पुरुषार्थी किसको कहेंगे-सुनने वाले को या बनने वाले को? जो माला का 16108वां नम्बर है वह भी सुनता और सुनाता तो है ही। नहीं तो माला में कैसे आयेगा। लेकिन 108 की माला में कौन आयेंगे? 108 की माला का नाम है विजयी माला। 16000 वाली माला का नाम विजयी माला नहीं है। तो सुनना और सुनाना-यह मैजारिटी करते हैं। लेकिन सुना और बना-इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र पुरुषार्थी 108 हैं और पुरुषार्थी 16108 हैं। तो अपने आपको चेक करो कि तीव्र पुरुषार्थी हैं या पुरुषार्थी हैं? जो हैं, जैसा हैं-वह मैजारिटी अपने आपको जान सकते हैं। कोई थोड़े ऐसे हैं जो अपने को नहीं भी जानते हैं, रांग को राईट समझकर भी चल जाते हैं। मैजारिटी अपने मन में अपने आपको सत्य जानते हैं कि-मैं कौन हूँ? इसलिए सदा अपने को देखो, दूसरे को नहीं।

अपने पुरूषार्थ को चेक करो और तीव्र पुरूषार्थ में चेंज करो। नहीं तो फाइनल समय आने पर चेंज नहीं कर सकेंगे। उस समय पढ़ाई का समय समाप्त होने पर, इम्तहान के समय पढ़ाई का चांस नहीं मिलता। अगर कोई स्टूडेन्ट समझे-एक प्रश्न का उत्तर नहीं आता है, किताब से पढ़कर उत्तर दे दें-तो राइट होगा या रांग होगा? तो उस समय अपने को चेंज नहीं कर सकेंगे। जो है, जैसा है, वैसे ही प्रालब्ध प्राप्त कर लेंगे। लेकिन अभी चांस है। अभी टू लेट (Too Late) का बोर्ड नहीं लगा है, लेट का लगा है। लेट हो गये लेकिन टू लेट नहीं। इसलिए फिर भी मार्जिन है। कई स्टूडेन्ट 6 मास में भी पास विद् ऑनर हो जाते हैं अगर सही पुरूषार्थ करते हैं तो। लेकिन समय समाप्त होने के बाद कुछ नहीं कर सकते। बाप भी रहम करना चाहे तो भी नहीं कर सकते। चलो, यह अच्छा है, इसको मार्क्स दे दो-यह बाप कर सकता है? इसलिए अभी से चेक करो और चेंज करो। अलबेलापन छोड़ दो। ठीक हैं, चल रहे हैं, पहुँच जायेंगे-यह अलबेलापन है। अलबेले को इस समय तो मौज लगती है। जो अल-बेला होता है उसे कोई फिक्र नहीं होता है, वह आराम को ही सब-कुछ समझता है। तो अलबेलापन नहीं रखना। सदा अलर्ट! पाण्डव सेना हो ना। सेना अलबेली रहती है या अलर्ट रहती है? सेना माना अलर्ट, सावधान, खबरदार रहने वाले। अलबेला रहने वाले को सेना का सैनिक नहीं कहा जायेगा। तो अलबेलापन नहीं, अटेन्शन! लेकिन अटेन्शन भी नेचुरल विधि बन जाये। कई अटे-न्शन का भी टेन्शन रखते हैं। टेन्शन की लाइफ सदा तो नहीं चल सकती। टेन्शन की लाइफ थोड़ा समय चलेगी, नेचुरल नहीं चलेगी। तो अटेन्शन रखना है लेकिन नेचुरल अटेन्शनआदत बन जाये। जैसे विस्मृति की आदत बन गई थी ना। नहीं चाहते भी हो जाता है। तो यह आदत बन गई ना, नेचुरल हो गई ना। ऐसे स्मृतिस्वरूप रहने की आदत हो जाये, अटेन्शन की आदत हो जाये। इसलिए कहा जाता है आदत से मनुष्यात्मा मजबूर हो जाती है। न चाहते भी हो जाता है-इसको कहते हैं मजबूर। तो ऐसे तीव्र पुरू-षार्था बने हो? तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् विजयी। तभी माला में आ सकते हैं।

बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। सदैव अलर्ट माना सदा एवररेडी! आपको क्या निश्चय है-विनाश के समय तक रहेंगे या पहले भी जा सकते हैं? पहले भी जा सकते हैं ना। इसलिए एवररेडी। विनाश आपका इन्तजार करे, आप विनाश का इन्तजार नहीं करो। वह रचना है, आप रचता हो। सदा एवररेडी। क्या समझा? अटेन्शन रखना। जो भी कमी महसूस हो उसे बहुत जल्दी से जल्दी समाप्त करो। सम्पन्न बनना अर्थात् कमजोरी को खत्म करना। ऐसे नहीं-यहाँ आये तो यहाँ के, वहाँ गये तो वहाँ के। सभी तीव्र पुरुषार्थी बनकर जाना। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

सदा सेफ रहने का स्थान-दिलाराम बाप का दिलतख्त

सदैव अपने को दिलाराम बाप की दिल में रहने वाले अनुभव करते हो? दिलाराम की दिल तख्त है ना। तो दिलतख्तनशीन आत्माए हैं-ऐसे अपने को समझते हो? सदा तख्त पर रहते हो या कभी उतरते, कभी चढ़ते हो? अगर किसको तख्त मिल जाये तो तख्त कोई छोड़ेगा? यह तो श्रेष्ठ भाग्य है जो भगवान के दिलतख्तनशीन बनने का भाग्य मिला है। इससे बड़ा भाग्य कोई हो सकता है? ऐसे प्राप्त हुए श्रेष्ठ भाग्य को भूल तो नहीं जाते हो? तो सदैव तख्तनशीन आत्माए हैं-इस स्मृति में रहो। जो दिल में समाया हुआ रहेगा, परमात्म-दिल में समाए हुए को और कोई हिला सकता है? दिलतख्तनशीन आत्माए सदा सेफ हैं। माया के तूफान से भी और प्रकृति के तूफान से भी-दोनों तूफान से सेफ। न माया की हलचल हिला सकती है और न प्रकृति की हलचल हिला सकती है। ऐसे अचल हो? या कभी-कभी अचल, कभी-कभी हिलते हो? यादगार अचलघर है। चंचल-घर तो बना ही नहीं। अनेक बार अचल बने हो। अभी भी अचल हो ना। हलचल में नुकसान होता है और अचल में फायदा है। कोई चीज हिलती रहे तो टूट जायेगी ना।

सदा यह याद रखो कि हम दिलाराम के दिलतख्तनशीन हैं। यह स्मृति ही तिलक है। तिलक है तो तख्तनशीन भी हैं। इसीलिए जब तख्त पर बैठते हैं तो पहले राज्य-तिलक देते हैं। तो यह स्मृति का तिलक ही राज्य-तिलक है। तो तिलक भी लगा हुआ है। या मिट जाता है कभी? तिलक कभी आधा रह जाता है और कभी मिट भी जाता है-ऐसे तो नहीं। यह अविनाशी तिलक है, स्थूल तिलक नहीं है। जो तख्तनशीन होता है, उसको कितनी खुशी होती है, कितना नशा होता है! आजकल के नेताओं को तख्त नहीं मिलता, कुर्सी मिलती है। तो भी कितना नशा रहता है-हमारी पार्टी का राज्य है! वो तो कुर्सी है, आपका तो तख्त है। तो स्मृति नशा दिलाती है। अगर स्मृति नहीं है तो नशा भी नहीं है। तिलक है तो तख्त है। तो चेक करो कि स्मृति का तिलक सदा लगा हुआ है अर्थात् सदा स्मृतिस्वरूप हैं?

दिल्ली वाले क्या कर रहे हो? राजधानी की क्या तैयारी कर रहे हो? राजधानी के लिये कितनी तैयारी चाहिए! प्रकृति भी तैयार चाहिए, राज्य करने वाले भी तैयार चाहिए। तो क्या तैयारी की है? आधी दिल्ली को तैयार किया है? दिल्ली की संख्या कितनी है? (85 लाख) और ब्राह्मण कितने हैं? (5 हजार) यह तो कुछ भी नहीं हुआ। तो तैयार कब करेंगे? जब विनाश का घण्टा बजेगा तब? चैरिटी बिगिन्स एट होम (Charity Begins At Home)! तो दिल्ली वालों को तैयार करो। पहले-पहले आदि की संख्या भी 9 लाख तो है ना। वो भी तैयार नहीं की, अभी तो हजार में है। तो क्या करना पड़ेगा? बनी-बनायी राजधानी में आयेंगे कि तैयार भी करेंगे? जो करेगा सो पायेगा। ऐसे नहीं समझना-चलो, राजधानी तैयार होगी, आ जायेंगे। नहीं, यह नियम है-जो करता है वो पाता है। तो करना पड़ेगा ना। यह तो बहुत स्लो (धीमी) गति है। तीव्र गति कब होगी? (5 साल में) 5 साल में विनाश हो जाये तो? तैयारी न हो और विनाश हो जाये तो क्या करेंगे? (आबादी बढ़ती जाती है) यह तो खुशखबरी है। आपकी सेवा में भी वृद्धि होती जाती है। सेवाधारियों को सेवा का चांस मिल रहा है। जानवर बढ़ते जावें तो शिकारी को खुशी होगी ना। तो दिल्ली वालों ने अपना काम पूरा नहीं किया है, अभी बहुत रहा हुआ है। अभी फास्ट गति करो।

एक को दस बनाने हैं। 12 मास में दस तो बना सकते हो। एक मास में एक-यह तो सहज है। आप लोगों ने हाँकहा, तो फोटो निकल रहा है, आटोमेटिक कैमरा में निकल रहा है। दृढ़ संकल्प का हाथ उठाना है। दृढ़ संकल्प का हाथ उठाया तो हुआ ही पड़ा है। दिल्ली वालों को तो सभी को निमन्त्रण देकर बुलाना है। हलचल की धरनी पर तो राज्य नहीं करना है, स्वर्ण धरनी पर राज्य करना है। तो बनाना पड़ेगा ना। अभी फास्ट गति करो। कभी भी यह नहीं सोचो कि सुनने वाले नहीं मिलते हैं। सुनने वाले तो बहुत हैं। थोड़ा पुरूषार्थ करो। अपनी स्थिति रूहानी आकर्षणमय बनाओ। जब चुम्बक अपनी तरफ खींच सकता है, तो क्या आपकी रूहानी शक्ति आत्माओं को नहीं खींच सकती? तो रूहानी आकर्षण करने वाले चुम्बक बनो। चुम्बक को कहना नहीं पड़ता-सुई आओ। स्वत: ही खींचती है। रूहानी आकर्षणमय स्थिति स्वयं आकर्षित करती है, मेहनत नहीं करनी पड़ती। ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ कर्म सेवाहै ना। और तो सब निमित्त-मात्र है लेकिन ब्राह्मण जीवन का श्रेष्ठ कर्म सेवाहै। सेवाधारी हो ना। अचल बनो और अचल बनाओ। सदा सन्तुष्ट। प्रोग्राम करो। यह बहुत अच्छा। प्रोग्राम अर्थात् प्रोग्रेस।

ग्रुप नं. 3

सहजयोग का आधार-एक की याद

सदा सहज पुरूषार्थ की विधि क्या है? सहज पुरूषार्थ का अनुभव है? क्या विधि अपनाई जो सहज हो गया? ‘एकको याद करना-यह है सहज विधि। क्योंकि अनेकोंको याद करना मुश्किल होता है। लेकिन एक को याद करना तो सहज है। सहजयोग का अर्थ ही है-एकको याद करना। एक बाप, दूसरा न कोई। ऐसा है? या बाप के साथ और भी कोई है? कभी-कभी देह-अभिमान में आ जाते हो। जब मेरा शरीरहै तो याद आता है, लेकिन मेरा है ही नहीं तो याद नहीं आता। तो तन-मन-धन तेरा है या मेरा है? जब मेरा है ही नहीं तो याद क्या आता? देहभान में आना, बॉडी-कॉन्सेस में आना अर्थात् मेरा शरीर है। लेकिन सदैव यह याद रखो कि मेरा नहीं, बाप का है, सेवा अर्थ बाप ने ट्रस्टी बनाया है। नहीं तो सेवा कैसे करेंगे? शरीर तो चाहिए ना। लेकिन मेरा नहीं, ट्रस्टी हैं। मेरापन है तो गृहस्थी और तेरापन है तो ट्रस्टी। ट्रस्टी अर्थात् डबल लाइट। गृहस्थी को मेरे-मेरे का कितना बोझ होता है-मेरा घर, मेरे बच्चे, मेरे पोत्रे.....! लम्बी लिस्ट होती है। यह बोझ है।

ट्रस्टी बन गये तो बोझ खत्म। ऐसे बने हो? या बदलते रहते हो? जब है ही कोई नहीं, एक बाप दूसरा न कोई-तो क्या याद आयेगा? सहज विधि क्या हुई? ‘एकको याद करना, ‘एकमें सब-कुछ अनुभव करना। इसलिए कहते हो ना कि बाप ही संसार है। संसार में सब-कुछ होता है ना। जब संसार बाप हो गया तो एककी याद सहज हो गई ना। मेहनत का काम तो नहीं है ना। आधा कल्प मेहनत की। ढूंढ़ना, भटकना-यही किया ना। तो मेहनत करनी पड़ी ना। अभी बापदादा मेहनत से छुड़ाते हैं। अगर कभी किसी को भी मेहनत करनी पड़ती है, तो उसका कारण है अपनी कमजोरी। कमजोर को सहज काम भी मुश्किल लगता है और जो बहादुर होता है उसको मुश्किल काम भी सहज लगता है। कमजोरी मुश्किल बना देती है, है सहज। तो बाप क्या चाहते हैं? सदा सहजयोगी बनकर चलो।

सदा सहजयोगी अर्थात् सदा खुश रहने वाले। सहजयोगी जीवन अर्थात् ब्राह्मण जीवन। पक्के ब्राह्मण हो ना। सबसे भाग्यवान आत्माए हैं-यह खुशी रहती है? आप जैसा खुश और कोई संसार में होगा? तो सदा क्या गीत गाते हो? ‘‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य!’’-यह गीत गाना सभी को आता है। क्योंकि मन का गीत है ना। तो कोई भी गा सकता है और सदा गा सकता है। ‘‘वाह मेरा भाग्य!’’ कहने से भाग्यविधाता बाप स्वत: ही याद आता है। तो भाग्य और भाग्यविधाता-इसी को ही कहा जाता है सहज याद। सहज-सहज करते मंजिल पर पहुँच जायेंगे।

अभी आन्ध्रा वालों को संख्या बढ़ानी है। हमजिन्स को जगायेंगे तो दुआए मिलेंगी। भटकती हुई आत्माओं को रास्ता दिखाना-यह बड़ा पुण्य का काम है। आन्ध्रा की विशेषता क्या है? एज्युकेटेड (Educated-शिक्षित) लोग बहुत होते हैं। तो ऐसे एज्युकेटेड लोग निकालो जो सेवा में आगे बढ़ें। ऐसा कोई आन्ध्रा में निमित्त बनाओ जो अनेकों को जगाए।

ग्रुप नं. 4

परमात्म-प्यार प्राप्त करना है तो न्यारे बनो

सदा अपने को रूहानी रूहे गुलाब समझते हो? रूहानी रूहे गुलाब अर्थात् सदा रूहानियत की खुशबू से सम्पन्न आत्मा। जो रूहे गुलाब होता है उसका काम है सदा खुशबू देना, खुशबू फैलाना। गुलाब का पुष्प जितना खुशबूदार होता है उतने कांटे भी होते हैं, लेकिन कांटों के प्रभाव में नहीं आता। कभी कांटों के कारण गुलाब का पुष्प बिगड़ नहीं जाता है, सदा कायम रहता है। कांटे हैं लेकिन कांटों से न्यारा और सभी को प्यारा लगता है। स्वयं न्यारा है तब प्यारा लगता है। अगर खुद ही कांटों के प्रभाव में आ जाए तो उसे कोई हाथ भी नहीं लगायेगा। तो रूहानी गुलाब की विशेषता है, किसी भी प्रकार के कांटे हों-छोटे हों या बड़े हों, हल्के हों या तेज हों-लेकिन हो सदा न्यारा और बाप का प्यारा। प्यारा बनने के लिए क्या करना पड़े? न्यारापन प्यारा बनाता है। अगर किसी भी प्रभाव में आ गये तो न बाप के प्यारे और न ब्राह्मण परिवार के। अगर सच्चा प्यार प्राप्त करना है तो उसके लिए न्यारा बनो-सभी हद की बातों से, अपनी देह से भी न्यारा। जो अपनी देह से न्यारा बन सकता है वही सबसे न्यारा बन सकता है।

कई सोचते हैं-हमको इतना प्यार नहीं मिलता, जितना मिलना चाहिए। क्यों नहीं मिलता? क्योंकि न्यारे नहीं हैं। नहीं तो परमात्म-प्यार अखुट है, अटल है, इतना है जो सर्व को प्राप्त हो सकता है। लेकिन परमात्म-प्यार प्राप्त करने की विधि है-न्यारा बनना। विधि नहीं आती तो सिद्धि भी नहीं मिलती। कई बच्चे कहते हैं-बाबा से मिलन मनाना चाहते हैं लेकिन अनुभव नहीं होता है, रूहरि-हान करते हैं लेकिन जवाब नहीं मिलता है। कारण क्या है? पहले न्यारे बने जो प्यार मिले? प्यार प्राप्त करने का फाउन्डेशन अगर पक्का है, तो प्राप्ति की मंजिल प्राप्त न हो-यह हो ही नहीं सकता। क्योंकि बाप की गारन्टी है। गारन्टी है-एक बात आप करो, बाकी सब मैं करूँ। एक बात-मुझे दिल से याद करो, मतलब से नहीं। कोई विघ्न आयेगा तो 4 घण्टा योग लगायेंगे और विघ्न खत्म हुआ तो याद भी खत्म हो गई। तो यह मतलब की याद हुई ना। इच्छा पूर्ण करने के लिए याद नहीं, अच्छा बनकर याद करना है। यह काम हो जाये, इसके लिए याद करूँ-ऐसे नहीं। पात्र बन परमात्म-प्यार का अनुभव कर सकते हो।

रूहानी गुलाब अर्थात् परमात्म-प्यार की पात्र आत्माए। परमात्म-प्यार के आगे आत्माओं का प्यार क्या है? कुछ भी नहीं। जब परमात्म-प्यार के अनुभवी बनते हो तो दिल से क्या निकलता है? कौनसा गीत गाते हो? पा लिया, और कुछ नहीं रहा। ऐसे प्राप्ति के अधिकारी आत्मा बनो। पात्र की निशानी है-प्राप्ति होना। अगर प्राप्ति नहीं होती, कम होती है-तो समझो पात्र कम हैं। क्योंकि देने वाला तो दाता है और अखुट खज़ाना है। तो क्यों नहीं मिलेगा? पात्र योग्य है तो प्राप्ति भी सब हैं। सदा बाबा मेरा है तो प्राप्ति भी सदा होगी ना। कभी भी, किसी भी हद के प्रभाव से न्यारा रहना ही है, कभी प्रभाव में नहीं आना। फिर बार-बार पात्र बनने का अभ्यास माना मेहनत करनी पड़ती है। इसलिये हद के प्रभाव में न आकर सदा बेहद की प्राप्तियों में मगन रहो। सदा चेक करो कि-रूहानी गुलाब सदा रूहानियत की खुशबू में रहता हूँ, न्यारा रहता हूँ, प्यार का पात्र बनता हूँ? क्योंकि आत्माओं द्वारा प्राप्ति तो 63 जन्म कर ली, उससे रिजल्ट क्या निकली? गंवा लिया ना। अभी पाने का समय है । हद की प्राप्तियां अर्थात् गंवाना, बेहद की प्राप्ति अर्थात् जमा होना। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

स्वराज्य का तिलक ही भविष्य के राजतिलक का आधार है

सभी अपने को विजयी रत्न अनुभव करते हो? विजय प्राप्त करना सहज लगता है या मुश्किल लगता है? मुश्किल है या मुश्किल बना देते हो, क्या कहेंगे? है सहज लेकिन मुश्किल बना देते हो। जब माया कमजोर बना देती है तो मुश्किल लगता है और बाप का साथ होता है तो सहज होता है। क्योंकि जो मुश्किल चीज होती है वह सदा ही मुश्किल लगनी चाहिए ना। कभी सहज, कभी मुश्किल-क्यों? सदा विजय का नशा स्मृति में रहे। क्योंकि विजय आप सब ब्राह्मण आत्माओं का जन्मसिद्ध अधिकार है। तो जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त करना मुश्किल होता है या सहज होता है? कितनी बार विजयी बने हो! तो कल्प-कल्प की विजयी आत्माओं के लिए फिर से विजयी बनना मुश्किल होता है क्या? अमृतवेले सदा अपने मस्तक में विजय का तिलक अर्थात् स्मृति का तिलक लगाओ। भक्ति-मार्ग में तिलक लगाते हैं ना। भक्ति की निशानी भी तिलक है और सुहाग की निशानी भी तिलक है। राज्य प्राप्त करने की निशानी भी राजतिलक होता है। कभी भी कोई शुभ कार्य में सफलता प्राप्त करने चाहते हैं तो जाने के पहले तिलक देते हैं। तो आपको राज्य प्राप्ति का राज्य-तिलक भी है और सदा श्रेष्ठ कार्य और सफलता है, इसलिए भी सदा तिलक है। सदा बाप के साथ का सुहाग है, इसलिए भी तिलक है। तो अविनाशी तिलक है। कभी मिट तो नहीं जाता है? जब अविनाशी बाप मिला तो अविनाशी बाप द्वारा तिलक भी अविनाशी मिल गया। सुनाया था ना-अभी स्वराज्य का तिलक है और भविष्य में विश्व के राज्य का तिलक है। स्वराज्य मिला है कि मिलना है? कभी गंवा भी देते हो? सदैव फलक से कहो कि हम कल्प-कल्प के अधिकारी हैं ही!

इस समय स्वराज्य अधिकारी और भविष्य में हैं विश्व-राज्य अधिकारी और फिर द्वापर-कलियुग में पूजनीय के अधिकारी बनेंगे, इसलिए पूज्य अधिकारी। आप सबकी पूजा होगी। अपने मन्दिर देखे हैं? डबल विदेशियों का मन्दिर है? दिलवाला मन्दिर में आप बैठे हो? क्योंकि जो ब्राह्मण बनते हैं वो ब्राह्मण देवता बनेंगे और देवताओं की पूजा होगी। अगर पक्के ब्राह्मण हो तो पक्का ही पूजन होगा। कच्चे ब्राह्मण हैं तो शायद पूजन होगा। डबल विदेशी सभी पक्के हो? पक्के थे, पक्के हैं और पक्के रहेंगे-ऐसे है ना। अच्छा! सभी पक्के हो? अनुभवी बन गये ना। अनुभवी कभी धोखा नहीं खाते। देखने वाले, सुनने वाले धोखा खा सकते हैं लेकिन अनुभव की अथॉरिटी वाले धोखा नहीं खा सकते। हर कदम में नया-नया अनुभव करते रहते हो। रोज नया अनुभव। उमंग-उत्साह वाले हो ना। उमंग-उत्साह-यही उड़ती कला के पंख हैं। कभी उमंग-उत्साह कम हुआ अर्थात् पंख कमजोर हो गये। अच्छा, जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो वह करके दिखाओ, तब कहेंगे नवीनता। सेन्टर खोलना, फंक्शन करना-यह तो सभी करते हैं। जैसे बाप को रहम आता है कि भटकती आत्माओं को ठिकाना दें, तो बच्चों के मन में भी यह रहम आना चाहिए। तो अभी ऐसा कोई नया साधन निकालो जिससे अनेक आत्माओं को सन्देश मिल जाये।



30-11-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व खज़ानों से सम्पन्न बनो - दुआए दो, दुआए लो

दुआओं के खज़ाने से सम्पन्न बनाने वाले बापदादा अपने ज्ञानी तू आत्माबच्चों प्रति बोले -

आज सर्व खज़ानों के मालिक अपने सम्पन्न बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चे को अनेक प्रकार के अविनाशी अखुट खज़ाने मिले हैं और ऐसे खज़ाने हैं, जो सर्व खज़ाने अब भी हैं और आगे भी अनेक जन्म खज़ानों के साथ रहेंगे। जानते हो कि खज़ाने कौनसे और कितने मिले हैं? खज़ानों से सदा प्राप्ति होती है। खज़ानों से सम्पन्न आत्मा सदा भरपूरता के नशे में रहती है। सम्प-न्नता की झलक उनके चेहरे में चमकती है और हर कर्म में सम्पन्नता की झलक स्वत: ही नजर आती है। इस समय के मनुष्या-त्माओं को विनाशी खज़ानों की प्राप्ति है, इसलिए थोड़ा समय नशा रहता है और साथ नहीं रहता है। इसलिए दुनिया वाले कहते हैं-खाली होकर जाना है। और आप कहते हो कि भरपूर होकर जाना है। आप सबको बापदादा ने अनेक खज़ाने दिये हैं।

सबसे श्रेष्ठ पहला खज़ाना है-ज्ञान-रत्नों का खज़ाना। सबको यह खज़ाना मिला है ना। कोई वंचित तो नहीं रह गया है ना। इस ज्ञान-रत्नों के खज़ाने से विशेष क्या प्राप्ति कर रहे हो? ज्ञान-खज़ाने द्वारा इस समय भी मुक्ति-जीवन्मुक्ति की अनुभूति कर रहे हो। मुक्तिधाम में जायेंगे वा जीवन्मुक्त देव पद प्राप्त करेंगे-यह तो भविष्य की बात हुई। लेकिन अभी भी मुक्त जीवन का अनुभव कर रहे हो। कितनी बातों से मुक्त हो, मालूम है? जो भी दु:ख और अशान्ति के कारण हैं, उनसे मुक्त हुए हो। कि अभी मुक्त होना है? अभी कोई विकार नही आता? मुक्त हो गये। अगर आता भी है तो विजयी बन जाते हो ना। तो कितनी बातों से मुक्त हो गये हो! लौकिक जीवन और अलौकिक जीवन-दोनों को साथ रखो तो कितना अन्तर दिखाई देता है! तो अभी मुक्ति भी प्राप्त की है और जीवन्मुक्ति भी अनुभव कर रहे हो। अनेक व्यर्थ और विकल्प, विकर्मों से मुक्त बनना-यही जीवन्मुक्त अवस्था है। कितने बन्धनों से मुक्त हुए हो? चित्र में दिखाते हो ना-कितने बन्धनों की रस्सियां मनुष्यात्माओं को बंधी हुई हैं! यह किसका चित्र है? आप तो वह नहीं हो ना। आप तो मुक्त हो ना। तो जीवन में रहते जीवन्मुक्त हो गये। तो ज्ञान के खज़ाने से विशेष मुक्ति-जीव-न्मुक्ति की प्राप्ति का अनुभव कर रहे हो।

दूसरा-याद अर्थात् योग द्वारा सर्व शक्तियों का खज़ाना अनुभव कर रहे हो। कितनी शक्तियाँ हैं? बहुत हैं ना! आठ शक्तियाँ तो एक सैम्पल रूप में दिखाते हो, लेकिन सर्व शक्तियों के खज़ानों के मालिक बन गये हो।

तीसरा-धारणा की सब्जेक्ट द्वारा कौनसा खज़ाना मिला है? सर्व दिव्य गुणों का खज़ाना। गुण कितने हैं? बहुत हैं ना। तो सर्व गुणों का खज़ाना। हर गुण की, हर शक्ति की विशेषता कितनी बड़ी है! हर ज्ञान-रत्न की महिमा कितनी बड़ी है!

चौथी बात-सेवा द्वारा सदा खुशी के खज़ाने की अनुभूति करते हो। जो सेवा करते हो उससे विशेष क्या अनुभव होता है? खुशी होती है ना। तो सबसे बड़ा खज़ाना है अविनाशी खुशी। तो खुशी का खज़ाना सहज, स्वत: प्राप्त होता है।

पांचवा-सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा ब्राह्मण परिवार के भी सम्पर्क में आते हो, सेवा के भी सम्बन्ध में आते हो। तो सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा कौनसा खज़ाना मिलता है? सर्व की दुआओं का खज़ाना मिलता है। यह दुआओं का खज़ाना बहुत बड़ा खज़ाना है। जो सर्व की दुआओं के खज़ानों से भरपूर है, सम्पन्न है उसको कभी भी पुरूषार्थ में मेहनत नहीं करनी पड़ती। पहले है मात-पिता की दुआए और साथ में सर्व के सम्बन्ध में आने से सर्व द्वारा दुआए। सबसे बड़े ते बड़े तीव्र गति से आगे उड़ने का तेज यन्त्र है-दुआए। जैसे-साइन्स का सबसे बड़े ते बड़ा तीव्र गति का रॉकेट है। लेकिन दुआओं का रॉकेट उससे भी श्रेष्ठ है। विघ्न जरा भी स्पर्श नहीं करेगा, विघ्न-प्रूफ बन जाते। युद्ध नहीं करनी पड़ती। सहज योगयुक्त, युक्तियुक्त हर कर्म, बोल, संकल्प स्वत: ही बन जाते हैं। ऐसा यह दुआओं का खज़ाना है। सबसे बड़ा खज़ाना इस संगमयुग के समय का खज़ाना है।

वैसे खज़ाने तो बहुत हैं। लेकिन जो खज़ाने सुनाये, सिर्फ इन खज़ानों को भी अपने अन्दर समाने की शक्ति धारण करो तो सदा ही सम्पन्न होने कारण जरा भी हलचल नहीं होगी। हलचल तब होती है जब खाली है। भरपूर आत्मा कभी हिलेगी नहीं। तो इन खज़ानों को चेक करो कि सर्व खज़ाने स्वयं में समाये हैं? इन सभी खज़ानों से भरपूर हो? वा कोई में भरपूर हो, कोई में थोड़ा अभी भरपूर होना है? खज़ाने मिले तो सभी को हैं ना। एक द्वारा, एक जैसे खज़ाने सभी को मिले हैं। अलग-अलग तो नहीं बांटा है ना। एक को लाख, दूसरे को करोड़ दिया हो-ऐसे तो नहीं है ना? लेकिन एक हैं सिर्फ लेने वाले-जो मिलता है लेते भी हैं लेकिन मिला और खाया-पिया, मौज किया और खत्म किया। दूसरे हैं जो मिले हुए खज़ानों को जमा करते-खाया-पिया, मौज भी किया और जमा भी किया। तीसरे हैं-जमा भी किया, खाया-पिया भी लेकिन मिले हुए खज़ाने को और बढ़ाते जाते हैं। बाप के खज़ाने को अपना खज़ाना बनाए बढ़ाते जाते। तो देखना है कि मैं कौन हूँ-पहले नम्बर वाला, दूसरे वा तीसरे नम्बर वाला?

जितना खज़ाने को स्व के कार्य में या अन्य की सेवा के कार्य में यूज़ करते हो उतना खज़ाना बढ़ता है। खज़ाना बढ़ाने की चाबी है-यूज करना। पहले अपने प्रति। जैसे-ज्ञान के एक-एक रत्न को समय पर अगर स्व प्रति यूज़ करते हो, तो खज़ाना यूज़ करने से अनुभवी बनते जाते हो। जो खज़ाने की प्राप्ति है वह जीवन में अनुभव की अथॉरिटीबन जाती है। तो अथॉरिटी का खज़ाना एड (Add,जमा) हो जाता है। तो बढ़ गया ना। सिर्फ सुनना और बात है। सुनना माना लेना नहीं है। समाना और समय पर कार्य में लगाना-यह है लेना। सुनने वाले क्या करते और समाने वाले क्या करते-दोनों में महान अन्तर है।

सुनने वालों का बापदादा दृश्य देखते हैं तो मुस्कुराते हैं। सुनने वाले समय पर परिस्थिति प्रमाण वा विघ्न प्रमाण, समस्या प्रमाण प्वाइन्ट को याद करते हैं कि बापदादा ने इस विघ्न को पार करने के लिए ये-ये पॉइंट्स दी हैं। ऐसा करना है, ऐसा नहीं करना है-रिपीट करते, याद करते रहते हैं। एक तरफ प्वाइन्ट रिपीट करते रहते, दूसरे तरफ वशीभूत भी हो जाते हैं। बोलते हैं-ऐसा नहीं करना है, यह ज्ञान नहीं है, यह दिव्य गुण नहीं है, समाने की शक्ति धारण करनी है, किसको दु:ख नहीं देना है। रिपीट भी करते रहते हैं लेकिन फेल भी होते रहते हैं। अगर उस समय भी उनसे पूछो कि ये राइट है? तो जवाब देंगे-राइट है नहीं लेकिन हो जाता है। बोल भी रहे हैं, भूल भी रहे हैं। तो उनको क्या कहेंगे? सुनने वाले। सुनना बहुत अच्छा लगता है। प्वाइन्ट बड़ी अच्छी शक्तिशाली है। लेकिन यूज़ करने के समय अगर शक्तिशाली प्वाइन्ट ने विजयी नहीं बनाया वा आधा विजयी बनाया तो उसको क्या कहेंगे? सुनने वाले कहेंगे ना।

समाने वाले जैसे कोई परिस्थिति या समस्या सामने आती है तो त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित हो स्व-स्थिति द्वारा पर-स्थिति को ऐसे पार कर लेते जैसे कि कुछ था ही नहीं। इसको कहा जाता है समाना अर्थात् समय पर कार्य में लगाना, समय प्रमाण हर शक्ति को, हर प्वाइन्ट को, हर गुण को ऑर्डर से चलाना। जैसे कोई स्थूल खज़ाना है, तो खज़ाने को स्वयं खज़ाना यूज़ नहीं करता लेकिन खज़ाने को यूज़ करने वाली मनुष्यात्माए हैं। वो जब चाहें, जितना चाहें, जैसे चाहें, वैसे यूज़ कर सकती हैं। ऐसे यह जो भी सर्व खज़ाने सुनाए, उनके मालिक कौन? आप हो वा दूसरे हैं? मालिक हैं ना। मालिक का काम क्या होता है? खज़ाना उसको चलाये या वो खज़ाने को चलाये? तो ऐसे हर खज़ाने के मालिक बन समय पर ज्ञानी अर्थात् समझदार, नॉलेजफुल, त्रिकालदर्शी होकर खज़ाने को कार्य में लगाओ। ऐसे नहीं कि समय आने पर ऑर्डर करो सहन शक्ति को और कार्य पूरा हो जाये फिर सहन शक्ति आये। समाने की शक्ति जिस समय, जिस विधि से चाहिए-उस समय अपना कार्य करे। ऐसे नहीं-समाया तो सही लेकिन थोड़ा-थोड़ा फिर भी मुख से निकल गया, आधा घण्टा समाया और एक सेकेण्ड समाने के बजाए बोल दिया। तो इसको क्या कहेंगे? खज़ाने के मालिक वा गुलाम?

सर्व शक्तियाँ बाप के अधिकार का खज़ाना है, वर्सा है, जन्म सिद्ध अधिकार है। तो जन्मसिद्ध अधिकार का कितना नशा होता है! छोटा-सा राजकुमार होगा, क्या खज़ाना है, उसका पता भी नहीं होगा लेकिन थोड़ा ही स्मृति में आने से कितना नशा रहता-मैं राजा का बच्चा हूँ! तो यह मालिकपन का नशा है ना। तो खज़ानों को कार्य में लगाओ। कार्य में कम लगाते हो। खुश रहते हो-भरपूर है, सब मिला है। लेकिन कार्य में लगाना, उससे स्वयं को भी प्राप्ति कराना और दूसरों को भी प्राप्ति कराना-उसमें नम्बरवार बन जाते हैं। नहीं तो नम्बर क्यों बने? जब देने वाला भी एक है, देता भी सबको एकरस है, फिर नम्बर क्यों? तो बापदादा ने देखा-खज़ाने तो बहुत मिले हैं, भरपूर भी सभी हैं, लेकिन भरपूरता का लाभ नहीं लेते। जैसे लौकिक में भी कइयों को धन से आनन्द या लाभ प्राप्त करने का तरीका आता है और कोई के पास होगा भी बहुत धन लेकिन यूज़ करने का तरीका नहीं आता, इसलिए होते हुए भी जैसे कि नहीं है। तो अन्डरलाइन क्या करना है? सिर्फ सुनने वाले नहीं बनो, यूज़ करने की विधि से अब भी सिद्धि को प्राप्त करो और अनेक जन्मों की सद्गति प्राप्त करो।

दिव्य गुण भी बाप का वर्सा है। तो प्राप्त हुए वर्से को कार्य में लगाना क्या मुश्किल है। ऑर्डर करो। ऑर्डर करना नहीं आता? मालिक को ही ऑर्डर करना आता। कमजोर को ऑर्डर करना नहीं आता, वह सोचेगा-कहूँ वा नहीं कहूँ, पता नहीं मदद मिलेगी वा नहीं मिलेगी...। अपना खज़ाना है ना। बाप का खज़ाना अपना खज़ाना है। या बाप का है और हमारा नहीं है? बाप ने किसलिए दिया? अपना बनाने के लिए दिया या सिर्फ देखकर खुश होने के लिए दिया? कर्म में लगाने के लिए मिला है। रिजल्ट में देखा जाता है कि सभी खज़ानों को जमा करने की विधि कम आती है। ज्ञान का अर्थ भी यह नहीं कि प्वाइन्ट रिपीट करना या बुद्धि में रखना। ज्ञान अर्थात् समझ-त्रिकालदर्शी बनने की समझ, सत्य-असत्य की समझ, समय प्रमाण कर्म करने की समझ। इसको ज्ञान कहा जाता है।

अगर कोई इतना समझदार भी हो और समय आने पर बेसमझी का कार्य करे-तो उसको ज्ञानी कहेंगे? और समझदार अगर बेस-मझ बन जाये तो उसको क्या कहा जायेगा? बेसमझ को कुछ कहा नहीं जाता। लेकिन समझदार को सभी इशारा देंगे कि-यह समझदारी है? तो ज्ञान का खज़ाना धारण करना, जमा करना अर्थात् हर समय, हर कार्य, हर कर्म में समझ से चलना। समझा? तो आप महान समझदार हो ना। ज्ञानी तू आत्माहो या ज्ञान सुनने वाली तू आत्माहो? चेक करो कि ऐसे ज्ञानी तू आत्मा कहाँ तक बने हैं-प्रैक्टिकल कर्म में, बोलने में...। ऐसे तो सबसे हाथ उठवाओ तो सब कहेंगे-हम लक्ष्मी-नारायण बनेंगे। कोई नहीं कहेगा कि हम राम-सीता बनेंगे। लेकिन कोई तो बनेंगे ना। सभी कहेंगे-हम विश्व-महाराजा बनेंगे। अच्छा है, लक्ष्य ऐसा ही ऊंचा रहना चाहिए। लेकिन सिर्फ लक्ष्य तक नहीं, लक्ष्य और लक्षण समान हों। लक्ष्य हो विश्व-महाराजन् और कर्म में एक गुण या एक शक्ति भी ऑर्डर नहीं माने, तो वह विश्व का महाराजा कैसे बनेंगे? अपना ही खज़ाना अपने ही काम में नहीं आये तो विश्व का खज़ाना क्या सम्भालेंगे? इसलिए सर्व खज़ानों से सम्पन्न बनो और विशेष वर्तमान समय यही सहज पुरूषार्थ करो कि सर्व से, बापदादा से हर समय दुआए लेते रहें।

दुआए किसको मिलती हैं? जो सन्तुष्ट रह सबको सन्तुष्ट करे। जहाँ सन्तुष्टता होगी वहाँ दुआए होंगी। और कुछ भी नहीं आता हो-कोई बात नहीं। भाषण नहीं करना आता है-कोई बात नहीं। सर्व गुण धारण करने में मेहनत लगती हो, सर्व शक्तियों को कन्ट्रोल करने में मेहनत लगती हो-उसको भी छोड़ दो। लेकिन एक बात यह धारण करो कि दुआए सबको देनी हैं और दुआए लेनी हैं। इसमें कोई मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। करके देखो। एक दिन अमृतवेले से लेकर रात तक यही कार्य करो-दुआए देनी हैं, दुआए लेनी हैं। और फिर रात को चार्ट चेक करो-सहज पुरूषार्थ रहा या मेहनत रही? और कुछ भी नहीं करो लेकिन दुआए दो और दुआए लो। इसमें सब आ जायेगा। दिव्य गुण, शक्तियाँ आपे ही आ जायेंगी। कोई आपको दु:ख दे तो भी आपको दुआए देनी हैं। तो सहन शक्ति, समाने की शक्ति होगी ना, सहनशीलता का गुण होगा ना। अन्डरस्टूड है।

दुआए लेना और दुआए देना-यह बीज है, इसमें झाड़ स्वत: ही समाया हुआ है। इसकी विधि है-दो शब्द याद रखो। एक है शिक्षाऔर दूसरी है क्षमा’, रहम। तो शिक्षा देने की कोशिश बहुत करते हो, क्षमा करना नहीं आता। तो क्षमा करनी है। क्षमा करना ही शिक्षा देना हो जायेगा। शिक्षा देते हो तो क्षमा भूल जाते हो। लेकिन क्षमा करेंगे तो शिक्षा स्वत: आ जायेगी। शिक्षक बनना बहुत सहज है। सप्ताह-कोर्स के बाद ही शिक्षक बन जाते हैं। तो क्षमा करनी है, रहमदिल बनना है। सिर्फ शिक्षक नहीं बनना है। क्षमा करेंगे-अभी से यह संस्कार धारण करेंगे तब ही दुआए दे सकेंगे । और अभी से दुआए देने का संस्कार पक्का करेंगे तभी आपके जड़ चित्रों से भी दुआए लेते रहेंगे। चित्रों के सामने जाकर क्या कहते हैं? दुआ करो, मर्सा (रहम) दो....। आपके जड़ चित्रों से जब दुआए मिलती हैं तो चैतन्य में आत्माओं से कितनी दुआए मिलेंगी! दुआओं का अखुट खज़ाना बापदादा से हर कदम में मिल रहा है, लेने वाला लेवे। आप देखो, अगर श्रीमत प्रमाण कोई भी कदम उठाते हो तो क्या अनुभव होता है? बाप की दुआए मिलती हैं ना। और अगर हर कदम श्रीमत पर चलो तो हर कदम में कितनी दुआए मिलेंगी, दुआओं का खज़ाना कितना भरपूर हो जायेगा!

कोई भल क्या भी देवे लेकिन आप उसको दुआए दो। चाहे कोई क्रोध भी करता है, उसमें भी दुआए हैं। क्रोध में दुआए हैं कि लड़ाई है? चाहे कोई कितना भी क्रोध करता है लेकिन आपको याद दिलाता है कि मैं तो परवश हूँ, लेकिन आप मास्टर सर्वशक्तिवान हो। तो दुआए मिली ना। याद दिलाया कि आप मास्टर सर्वशक्तिवान हो, आप शीतल जल डालने वाले हो। तो क्रोधी ने दुआए दी ना। वह क्या भी करे लेकिन आप उस से दुआए लो। सुनाया ना-गुलाब के पुष्प में भी देखो कितनी विशेषता है, कितनी गन्दी खाद से, बदबू से खुद क्या लेता है? खुशबू लेता है ना। गुलाब का पुष्प बदबू से खुशबू ले सकता और आप क्रोधी से दुआए नहीं ले सकते? विश्व-महाराजन गुलाब का पुष्प बनना चाहिये या आपको बनना चाहिए? यह कभी भी नहीं सोचो कि यह ठीक हो तो मैं ठीक होऊं, यह सिस्टम ठीक हो तो मैं ठीक होऊं। कभी सागर के आगे जाकर कहेंगे-’’हे लहर! आप बड़ी नहीं, छोटी आओ, टेढ़ी नहीं आओ, सीधी आओ’’? यह संसार भी सागर है। सभी लहरें न छोटी होंगी, न टेढ़ी होंगी, न सीधी होंगी, न बड़ी होंगी, न छोटी होंगी। तो यह आधार नहीं रखो-यह ठीक हो जाये तो मैं हो जाऊं। तो परिस्थिति बड़ी या आप बड़े?

बापदादा के पास तो सब बातें पहुँचती हैं ना। यह ठीक कर दो तो मैं भी ठीक हो जाऊं। इस क्रोध करने वाले को शीतल कर दो तो मैं शीतल हो जाऊं। इस खिटखिट करने वाले को किनारे कर दो तो सेन्टर ठीक हो जायेगा। ऐसे रूहरिहान नहीं करना। आपका स्लोगन ही है-’’बदला न लो, बदल कर दिखाओ।’’ यह ऐसा क्यों करता है, ऐसा नहीं करना चाहिए, इसको तो बदलना ही पड़ेगा....। परन्तु पहले स्व को बदलो। स्व-परिवर्तन से विश्व-परिवर्तन वा अन्य का परिवर्तन। या अन्य के परिवर्तन से स्व परिवर्तन है? स्लोगन रांग तो नहीं बना दिया है? क्या करेंगे? स्व को बदलेंगे या दूसरे को बदलने में समय गंवायेंगे? ‘‘चाहे एक वर्ष भी लगाकर देखो-स्व को नहीं बदलो और दूसरों को बदलने की कोशिश करो। समय बदल जायेगा लेकिन न आप बदलेंगे, न वो बदलेगा।’’ समझा? सर्व खज़ानों के मालिक बनना अर्थात् समय पर खज़ानों को कार्य में लगाना।

कई ऐसे होते हैं-कई अच्छी-अच्छी चीजें होती हैं तो खुश होते रहते हैं कि हमारे पास सब-कुछ है। लेकिन जब समय आता है तो याद ही नहीं आयेगा या वह चीज मिलेगी नहीं। कारण क्या होता है? समय-प्रति-समय उसको कार्य में नहीं लगाया। तो सिर्फ देख-कर के खुश नहीं होना लेकिन हर खज़ाने का मजा लो, मौज मनाओ। ज्ञान के खज़ाने से मौज मनाओ, समझ से कार्य करो, सिद्धि को प्राप्त करो, शक्तियों को ऑर्डर पर चलाओ-यह है मौज मनाना। गुणों को स्वयं प्रति कार्य में लगाओ और दूसरों को भी गुण-दान करो, ज्ञान-दान करो, शक्तियों का दान करो। अगर कोई निर्बल है तो शक्ति देकर उसको भी सम्पन्न बनाओ। इसको कहा जाता है भरपूर आत्मा। अच्छा!

सर्व खज़ानों से सम्पन्न आत्माओं को, सर्व खज़ानों को कार्य में लगाने वाले, बढ़ाने वाले ज्ञानी तू आत्माएबच्चों को, सर्व खज़ानों को मालिक बन समय पर विधिपूर्वक कार्य में लगाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, हर शक्ति, हर गुण की अथॉरिटी बन स्वयं में और सर्व में भरने वाली विशेष आत्माओं को, सदा दुआओं के खज़ाने से सहज पुरूषार्थ का अनुभव करने वाली सहजयोगी आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

बापदादा सेकेण्ड में कितनी बातें कर सकता है? समय कम और बातें बहुत। क्योंकि फरिश्ते इशारों से ही समझते हैं। तो यह दृष्टि की भाषा फरिश्तेपन की निशानी है। यह भी बापदादा सिखाते रहते हैं। आजकल के समय प्रमाण अगर वाणी द्वारा किसको सुनाओ तो समय भी चाहिए, साहस भी चाहिए। अगर मीठी दृष्टि द्वारा समझाने का प्रयत्न करते हैं तो कितना सहज हो जाता है! समय अनु-सार यह दृष्टि द्वारा परिवर्तन होना और परिवर्तन कराना-यही काम में आयेगा। सुनाते हैं तो सब कहते हैं-हमको पहले से ही पता है। लेकिन मीठी दृष्टि और शुभ वृत्ति-यह एक मिनट में एक घण्टा समझाने का कार्य कर सकता है। आजकल यही विधि श्रेष्ठ है और अन्त में भी यही काम में आयेगी। फॉलो फादर करते जायेंगे। विघ्न को भी मनोरंजन समझकर चलते रहते हैं। वाह ड्रामा वाह! चाहे किसी भी प्रकार का दृश्य हो लेकिन वाह-वाहही हो। अच्छा है, बापदादा बच्चों की हिम्मत, उमंग-उल्लास देख खुश हैं और बढ़ाते रहते हैं। यही निमित्त बनने की लिफ्ट की विशेष गिफ्ट है। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

श्रेष्ठ स्थिति का आधार है-श्रेष्ठ स्मृति

सभी को डबल नशा रहता है कि मैं श्रेष्ठ आत्मा मालिक भी हूँ और फिर बालक भी हूँ? एक है मालिकपन का रूहानी नशा और दूसरा है बालकपन का रूहानी नशा। यह डबल नशा सदा रहता है या कभी-कभी रहता है? बालक सदा हो या कभी-कभी हो? बालक सदा बालक ही है ना। परमात्म-बालक हैं और फिर सारे आदि-मध्य-अन्त को जानने वाले मालिक हैं। तो ऐसा मालिकपन और ऐसा बालकपन सारे कल्प में और कोई समय नहीं रह सकता। सतयुग में भी परमात्म-बच्चे नहीं कहेंगे, देवात्माओं के बच्चे हो जायेंगे। तीनों कालों को जानने वाले मालिक-यह मालिकपन भी इस समय ही रहता है। तो जब इस समय ही है, बाद में मर्ज हो जायेगा, तो सदा रहना चाहिए ना। डबल नशा रखो। इस डबल नशे से डबल प्राप्ति होगी-मालिकपन से अपनी अनुभूति होती है और बालकपन के नशे से अपनी प्राप्ति। भिन्न-भिन्न प्राप्तियां हैं ना। यह रूहानी नशा नुकसान वाला नहीं है। रूहानी है ना। देहभान के नशे नुकसान में लाते हैं। वो नशे भी अनेक हैं। देहभान के कितने नशे हैं? बहुत हैं ना-मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ.......। लेकिन सभी हैं नुकसान देने वाले, नीचे लाने वाले। यह रूहानी नशा ऊंचा ले जाता है, इसलिए नुकसान नहीं है। हैं ही बाप के। तो बाप कहने से बचपन याद आता है ना। बाप अर्थात् मैं बच्चा हूँ तभी बाप कहते हैं। तो सारा दिन क्या याद रहता है? ‘‘मेरा बाबा’’। या और कुछ याद रहता है? बाबा कहने वाला कौन? बच्चा हुआ ना। तो सदा बच्चे हैं और सदा ही रहेंगे।

सदा इस भाग्य को सामने रखो अर्थात् स्मृति में रखो-कौन हूँ, किसका हूँ और क्या मिला है! क्या मिला है-उसकी कितनी लम्बी लिस्ट है! लिस्ट को याद करते हो या सिर्फ कॉपी में रखते हो? कॉपी में तो सबके पास होगा लेकिन बुद्धि में इमर्ज हो-मैं कौन? तो कितने उत्तर आयेंगे? बहुत उत्तर हैं ना। उत्तर देने में, लिस्ट बताने में तो होशियार हो ना। अब सिर्फ स्मृतिस्वरूप बनो। स्मृति आने से सहज ही जैसी स्मृति वैसी स्थिति हो जाती है। स्थिति का आधार स्मृति है। खुशी की स्मृति में रहो तो स्थिति खुशी की बन जायेगी और दु:ख की स्मृति करो तो दु:ख की स्थिति हो जायेगी। बाप एक ही काम देते हैं-याद करो या स्मृति में रहो। एक ही काम मुश्किल होता है क्या? कभी बहुत काम इकट्ठे हो जाते हैं तो कन्फ्यूज (Confuse; मूँझना) हो जाते हैं-इतने काम कब करें, कैसे करें.....। एक ही काम हो तो घबराने की जरूरत नहीं होती ना। तो बाप ने एक ही काम दिया है ना। बस, याद करो। इसी याद में ही सब-कुछ आ जाता है। तो याद करो कि मालिक भी हैं, बालक भी हैं! रूहानी नशे में रहने से क्या मिलता और भूलने से क्या होता-दोनों अनुभव हैं ना। भूलने की आदत तो 63 जन्मों से है। लेकिन याद कितना समय करना है? एक जन्म। और यह जन्म भी कितना छोटा-सा है! तो सदाशब्द को अन्डरलाइन करना। अच्छा! सभी सदा खुश हो ना। यह सोचो कि हम खुश नहीं होंगे तो कौन होगा? माताए भी सदा खुश रहती या कभी-कभी थोड़ी दु:ख की लहर आती है? चाहे कितना भी दु:खमय संसार हो लेकिन आप सुख के सागर के बच्चे सदा सुख-स्वरूप हो। दु:ख में दु:खी हो जाते हो क्या? जानते हो कि संसार का समय ही दु:ख का है। लेकिन आपका समय कौनसा है? सुख का है ना कि थोड़ा-थोड़ा दु:ख का है? संसार में तो दु:ख बढ़ना ही है। कम नहीं होना है, अति में जाना है। लेकिन आप दु:ख से न्यारे हो। ठीक है ना। अच्छा है, मौज में रहो। क्या भी होता रहे लेकिन हम मौज में रहने वाले हैं। मौज में रहना अच्छा है ना।

ग्रुप नं. 2

समस्याओं के पहाड़ को उड़ती कला से पार करो

सभी अपने पुरूषार्थ को सदा चेक करते रहते हो? आपका पुरूषार्थ तीव्र गति का है वा समय तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है, क्या कहेंगे? समय तेज है और आप ढीले हो? समय रचता है या रचना है? रचना चाहे कितनी भी पॉवरफुल हो, फिर भी रचता तो रचता ही होगा ना। तो समय का आह्वान आपको करना है या समय आपका आह्वान करेगा? समय आपका आह्वान करे कि आओ मेरे मालिक! तो जैसे समय की रफ्तार सदा आगे बढ़ती जाती है, रूकती नहीं है। चाहे गिरावट का समय हो, चाहे बढ़ने का समय हो लेकिन समय कभी रूकता नहीं है, सदा आगे बढ़ता जाता है। समय को कोई रोकना चाहें तो भी नहीं रूकता है। और आपको कोई रोके तो रूकते हो? रूक जाते हो ना। रूकना नहीं है। कैसी भी परिस्थिति आ जाये, कैसी भी समस्याओं का पहाड़ आगे आ जाये लेकिन आप रूकने वाले हो क्या? उड़ती कला वाले हो ना। तो पहाड़ को भी क्या करेंगे? उड़ती कला होगी तो सेकण्ड में पार कर लेंगे। तो चढ़ती कला वाले हो या उड़ती कला वाले हो? उड़ने वाले कभी रूकेंगे नहीं। बिना मंजिल के अगर उड़ने वाली चीज रूक जाये तो क्या होगा? चलते-चलते प्लेन मंजिल के पहले ही रूक जाये तो एक्सीडेन्ट होगा ना। तो आप भी उड़ती कला वाले हो। उड़ती कला वाले मंजिल के पहले कहाँ रूकते नहीं। या थक जाते हो तो रूक जाते हो?

जहाँ प्राप्ति होती है, प्राप्ति वाला कभी थकता नहीं। बिजनेसमेन को अनुभव है ना। ग्राहक देरी से भी आये तो भी थकेंगे नहीं, आह्वान करते हैं-आओ.....। क्यों नहीं थकते? क्योंकि प्राप्ति है। तो आपको कितनी प्राप्तियाँ हैं? हर कदम में पद्मों की प्राप्ति है। सारे वर्ल्ड में ऐसा साहूकार कोई है जिसको कदम में पद्मों की कमाई हो? कितने भी नामीग्रामी हों लेकिन इतने साहूकार कोई नहीं हैं। चक्कर लगाकर आओ। देखो, विदेश में कोई मिल जाये? कितना भी बड़ा हो लेकिन आपके आगे वह कुछ भी नहीं है। तो इतनी बड़ी प्राप्ति वाले कभी थक नहीं सकते। प्राप्ति को भूलना अर्थात् थकना। उस बिजनेस में तो कितनी मेहनत करनी पड़ती है और मेहनत के बाद भी मिलेगा क्या? चलो, ज्यादा में ज्यादा करोड़ मिल जायें, मिलते तो नहीं हैं लेकिन मिल जायें। और यहाँ तो पद्मों की बात है। तो सदा अपनी प्राप्तियों को सामने रखो। सिर्फ पुरूषार्थ नहीं करो, पुरूषार्थ के पहले प्राप्तियों को सामने रखो। अगर मालूम होता है कि यह मिलना है, तो पुरूषार्थ को भूल जाते हैं, प्राप्ति को ही सामने रखते हैं। उसको पुरूषार्थ दिखाई नहीं देगा, प्राप्ति ही दिखाई देगी। खेती का काम भी करते हैं तो क्या दिखाई देता है? मेहनत दिखाई देती है या फल दिखाई देता है? फल की खुशी होती है ना। तो यह स्मृति रखने से कभी थकेंगे नहीं। न थकेंगे, न गति तीव्र से धीमी होगी, सदा तीव्र गति होगी।

गुजरात वालों की तो तीव्र गति है ना। गुजरात की मातायें भी तीव्र, जल्दी-जल्दी चलती हैं। देखो, गरबा करते हो तो मोटा हो, बूढ़ा हो-कितना जल्दी-जल्दी करते हैं। दूसरे तो देखेंगे कि यह इतना मोटा कैसे करेगा? लेकिन कितना फास्ट करते हैं! तो गुजरात वालों को तीव्र गति की आदत है। जब शरीर तीव्र चल सकता है तो आत्मा नहीं चल सकती? गुजरात की विशेषता ही सदा खुश रहने की है। गुजरात वाले सभी गरबा जानते हैं। बीमार को भी कहो कि रास करने के लिये आओ-तो आ जायेंगे, बिस्तर से भी उठ पड़ेंगे। तो यह निशानी है खुशी की, मौज मनाने की। मौज की निशानी गुजरात में झूला घर-घर में होता है। तो जैसे शरीर की मौज मनाते हो, तो आत्मा को भी तो मौज में रहना है। तो गुजरात का अर्थ हुआ मौज में रहने वाले, खुशी में रहने वाले। लेकिन सदा, कभी-कभी नहीं। गुजरात वालों की कभी भी खुशी कम हो, यह हो नहीं सकता। इतना पक्का निश्चय है या कभी-कभी मूँझ भी जाते हो? जब बाप को अपनी सब जिम्मेवारियां दे दी, तो आप मौज में ही रहेंगे ना। जिम्मेवारियाँ माथा भारी करती हैं। जब भी खुशी कम होती है तो कहते या सोचते हो कि-क्या करें, यह भी सम्भालना पड़ता है ना, करना पड़ता है ना, जिम्मेवारी है ना। उस समय सोचते हो ना। लेकिन जिम्मेवार बाप है, मैं निमित्त-मात्र हूँ। मेरी जिम्मेवारी है-तो भारीपन होता है। बाप की जिम्मेवारी है, मैं निमित्त हूँ-तो हल्के हो जायेंगे। हल्का उड़ेगा। भारी चीज उड़ेगी नहीं, बार-बार नीचे आ जायेगी। थोड़ा भी संकल्प आया-मुझे करना पड़ता है, मुझे ही करना है-तो भारीपन हुआ। तो डबल लाइट हो ना। या थोड़ा-थोड़ा बोझ है? सदा उड़ते रहो। उड़ती कला अर्थात् तीव्र गति।

आप लोग तो बहुत-बहुत भाग्यवान हो जो उड़ती कला के समय पर आये हो। जैसे आजकल के बच्चे कहते हैं ना कि हम भाग्यवान हैं जो बैलगाड़ी के समय नहीं थे, मोटरगाड़ी के टाइम पर आये हैं। आजकल के बच्चे पुरानों को यही कहते हैं कि-आप लोगों का जमाना बैलगाड़ी का था, हमारा जमाना एरोप्लेन का है। तो उन्हों को कितना नशा रहता है! आपको भी यह नशा रहना चाहिये कि हम उड़ती कला के समय पर आये हैं। समय भी, देखो, आपका सहयोग बन गया। तो अच्छी तरह से उड़ो। अपने पास छोटे-मोटे बोझ नहीं रखो-न पुरूषार्थ का बोझ, न सेवा का बोझ, न सम्बन्ध-सम्पर्क निभाने का बोझ। कोई बोझ नहीं। या थोड़ा-थोड़ा बोझ रखना अच्छा है? आदत पड़ी हुई है ना। 63 जन्म से बोझ उठाते आये, बीच-बीच में वह आदत अभी भी काम कर लेती है। लेकिन बोझ उठाने से क्या मिला? भारी रहे और भारी रहने से नीचे गिरते गये। अभी तो चढ़ना है ना। अच्छा! गुजरात वाले कभी भी ऐसे नहीं कहेंगे कि क्या करें, कैसे करें, माया आ गई। माया से डरने वाले हो। या विजय प्राप्त करने वाले हो? लड़ते रहेंगे तो चन्द्रवंशी में चले जायेंगे। इसलिये सदा विजयी। हार खाने वाले नहीं। हार खाना कमजोरों का काम है, ब्राह्मण तो सदा बहादुर हैं। अच्छा!

ग्रुप नं 3

राजयोगी वह जो अपनी कर्मेन्द्रियों को ईश्वरीय लॉ एण्ड ऑर्डर पर चलाये

आवाज में आना सहज लगता है ना। ऐसे ही, आवाज से परे होना इतना ही सहज लगता है? आवाज में आना सहज है। वा आवाज से परे होना सहज है? आवाज में आना सहज है और आवाज से परे होने में मेहनत लगती है? वैसे आप आत्माओं का आदि स्वरूप क्या है? आवाज से परे रहना या आवाज में आना? तो अभी मुश्किल क्यों लगता है? 63 जन्मों ने आदि संस्कार भुला दिया है। जब अनादि स्थान परमधामआवाज से परे है, वहाँ आवाज नहीं है और आदि स्वरूप आत्मा में भी आवाज नहीं है-तो फिर आवाज से परे होना मुश्किल क्यों? यह मध्य-काल का उल्टा प्रभाव कितना पक्का हो गया है! ब्राह्मण जीवन अर्थात् जैसे आवाज में आना सहज है वैसे आवाज से परे हो जाना-यह भी अभ्यास सहज हो जाये। इसकी विधि है-राजा होकर के चलना और कर्म-इन्द्रियों को चलाना। राजा ऑर्डर करे-यह काम नहीं होना है; तो प्रजा क्या करेगी? मानना पड़ेगा ना।

आजकल तो कोई राजा ही नहीं है, प्रजा का प्रजा पर राज्य है। इसलिए कोई किसका मानता ही नहीं है। लेकिन आप लोग तो राज-योगी हो ना। आपके यहाँ प्रजा का प्रजा पर राज्य नहीं है ना। राजा का राज्य है ना। तो बाप कहते हैं-’’हे राजे! आपके कन्ट्रोल में आपकी प्रजा है? या कभी कन्ट्रोल से बाहर हो जाती है? रोज़ राज्य-दरबार लगाते हो?’’ रोज रात्रि को राज्य दरबार लगाओ। अपने राज्य कारोबारी कर्मेन्द्रियों से हालचाल पूछो। जैसे राजा राज्य-दरबार लगाता है ना। तो आप अपनी राज्य-दरबार लगाते हो? या भूल जाते हो, सो जाते हो? राज्य-दरबार लगाने में कितना टाइम लगता है? उन्हों के राज्य-दरबार में तो खिटखिट होती है। यहाँ तो खिटखिट की बात ही नहीं है। अपोजिशन तो नहीं है ना। एक का ही कन्ट्रोल है। कभी-कभी अपने ही कर्मचारी अपोजिशन करने लग पड़ते हैं। तो राजयोगी अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान राजा आत्मा, एक भी कर्मेन्द्रिय धोखा नहीं दे सकती। स्टॉप कहा तो स्टॉप। ऑर्डर पर चलने वाले हैं ना। क्योंकि भविष्य में लॉ और ऑर्डर पर चलने वाला राज्य है। तो स्थापना यहाँ से होनी है ना।

यहाँ ही आत्माराजा अपनी सर्व कर्मेन्द्रियों को लॉ और ऑर्डर पर चलाने वाली बने, तभी विश्व-महाराजन बन विश्व का राज्य लॉ और ऑर्डर पर चला सकती है। पहले स्वराज्य लॉ और ऑर्डर पर हो। तो क्या हालचाल है आपके राज्य-दरबार का? ऊपर-नीचे तो नहीं है ना। सभी का हाल ठीक है? कोई गड़बड़ तो नहीं है? जो यहाँ कभी-कभी ऑर्डर में चला सकता है और कभी-कभी नहीं चला सकता-तो वहाँ भी कभी-कभी का राज्य मिलेगा, सदा का नहीं मिलेगा। फाउन्डेशन तो यहाँ से पड़ता है ना। तो सदा चेक करो कि मैं सदा अकाल तख्तनशीन स्वराज्य चलाने वाली राजा आत्माहूँ? सभी के पास तख्त है ना। खो तो नहीं गया है? तो तख्त पर बैठकर राज्य चलाया जाता है ना। या तख्त पर आराम से अलबेले होकर सो जायेंगे? तख्त पर रहना अर्थात् राज्य-अधिकारी बनना। तो तख्तनशीन हो या कभी उतर आते हो?

सदा स्मृति रखो कि ‘‘मैं आत्मातो हूँ लेकिन कौनसी आत्मा? राजा आत्मा’, राज्य-अधिकारी आत्माहूँ, साधारण आत्मानहीं हूँ।’’ राज्य-अधिकारी आत्मा का नशा और साधारण आत्मा का नशा- इसमें कितना फर्क होगा! तो राजा बन अपनी राज्य कारोबार को चेक करो-कौनसी कर्मेन्द्रिय बार-बार धोखा देती है? अगर धोखा देती है तो उसको चेक करके अपने ऑर्डर में रखो। अगर अलबेले होकर छोड़ देंगे तो उसकी धोखा देने की आदत और पक्की हो जायेगी और नुकसान किसको होगा? अपने को होगा ना। इसलिए क्या करना है? अकाल तख्तनशीन बन चेक करो।

भविष्य में क्या बनने वाले हो-इसका यथार्थ परिचय किस आधार पर कर सकते हो? कोई आधार है जिससे आपको पता पड़ जाये कि मैं भविष्य में क्या बनने वाला हूँ? लक्ष्य अच्छा रखो। क्योंकि अभी रिजल्ट आउट नहीं हुई है। चेयर्स (कुर्सियों) का गेम (खेल) होता है ना, तो लास्ट में सीटी बजती है। उस लास्ट सीटी पर पता पड़ता कि कौन विजयी होता है। अभी कोई भी फिक्स नहीं हुआ है, सिवाए फर्स्ट नम्बर के। दो तो फिक्स हो गये हैं, अभी 6 में मार्जिन है। लेकिन सुनाया ना-फर्स्ट विश्व-महाराजन या विश्व-महारानी नहीं बनेंगे तो फर्स्ट डिवीजन में तो आयेंगे ना। फर्स्ट नम्बर में एक होता है लेकिन फर्स्ट डिवीजन में बहुत होते हैं। तो फर्स्ट नम्बर में नहीं आयेंगे लेकिन फर्स्ट डिवीजन में आ सकते हैं। वहाँ रॉयल फैमिली का पद भी इतना होता है जितना तख्त-नशीन राजा-रानी का होता है। इसलिए फर्स्ट डिवीजन का लक्ष्य सदा रखना। रॉयल फैमिली वहाँ कम नहीं होती है-इतना ही पद होता है, इतना ही रिगार्ड होता है जितना लक्ष्मी-नारायण का। तो फर्स्ट रॉयल फैमिली में आना भी इतना ही है जितना लक्ष्मी-नारायण बनना। इसलिए पुरूषार्थ करना, चांस है। तो लक्ष्य तो बहुत अच्छा रखा है।

बापदादा ने पहले भी सुनाया कि बापदादा को यही खुशी है जो और किसी भी बाप को नहीं हो सकेगी-जो सभी बच्चे कहते हैं कि हम राजा हैं। प्रजा कोई नहीं कहता। तो एक बाप के इतने रा॰जे बच्चे हों तो कितने नशे की बात है! और सभी लक्ष्मी-नारायण बनने वाले हैं। इसलिए बापदादा को खुशी है। समझा? ये वैरायटी ग्रुप है। लेकिन बापदादा तो सभी को मधुबन निवासी देख रहे हैं। आपकी असली एड्रेस क्या है? बाम्बे है, राजस्थान है, बैंगलोर है... क्या है? नष्टोमोहा बनने की यही सहज युक्ति है कि मेरा घर नहीं समझो। मेरा घर है, मेरा परिवार है- तो नष्टोमोहा नहीं हो सकेंगे। सेवा-स्थान है, घर मधुबन है। तो सदा घर में रहते हो या सेवा-स्थान पर रहते हो? सेवा-स्थान समझने से नष्टोमोहा हो जायेंगे। मेरी जिम्मेवारी, मेरा काम है, मेरा विचार यह है, मेरी फर्ज-अदाई है...-ये सब मोह उत्पन्न करता है। सेवा के निमित्त हूँ। जो सच्चा सेवाधारी होता है उसकी विशेषता क्या होती है? सेवाधारी सदा अपने को निमित्त समझेगा, मेरा नहीं समझेगा। और जितना निमित्त भाव होगा उतना निर्मान होंगे, जितना निर्मान होंगे उतना निर्माण का कर्तव्य कर सकेंगे। निमित्त भाव नहीं तो देह-भान से परे निर्मान बन नहीं सकेंगे। इसलिए सेवाधारी अर्थात् समर्पणता। सेवाधारी में अगर समर्पण भाव नहीं तो कभी सेवा सफल नहीं हो सकती, मेरापन का भाव सफलता नहीं दिलायेगा।

डबल विदेशी विदेश में क्यों गये हो? सेवा के लिए ना। लेकिन हो मधुबन निवासी। भारत निवासी हो या विदेश निवासी हो? भारत की आत्माए हो ना। देखो, अगर आप डबल विदेशी नहीं बनते तो सेवा में भाषाओं की कितनी प्रॉब्लम होती! एक खास स्कूल बनाना पड़ता सब भाषाए सीखने के लिए। अभी सहज सेवा तो हो रही है ना। तो सेवा अर्थ विदेश में पहुँच गये हो। राज्य भारत में करना है ना। विश्व ही भारत बन जायेगा। अमेरिका आदि सब भारत बन जायेगा। अभी तो टुकड़ा-टुकड़ा हो गया है। सभी ने महा-भारत से अपना-अपना टुकड़ा ले लिया है। जो लिया है वो देना पड़ेगा ना। क्योंकि भारत महादानी है, इसलिए सबको टुकड़ा- टुकड़ा दे दिया है। आपको कहना नहीं पड़ेगा कि हमको टुकड़ा दे दो, आपेही देंगे। तो सदैव बेहद का नशा रखो कि हम सभी बेहद के राज्य-अधिकारी हैं! स्व-राज्य की स्थिति द्वारा विश्व के राज्य की अपनी तकदीर को जान सकते हैं। अगर अभी स्वराज्य ठीक नहीं है तो समझ लो-विश्व का राज्य भी पहले नहीं मिलेगा, पीछे मिलेगा। तो सभी के पास दर्पण है ना। नारद को आइना दिया ना कि-’’देखो मैं कौन हूँ? लक्ष्मी को वरने वाला हूँ?’’ तो यह स्वराज्य की स्थिति दर्पण है। इस दर्पण में आप स्वयं ही देख सकते हैं कि क्या बनने वाला हूँ? अच्छा!

ग्रुप नं. 4

हम कल्प-कल्प के विजयी हैं-इस निश्चय से बड़ी बात को भी छोटा बनाओ

सभी को सबसे ज्यादा कौनसी खुशी है? सबसे ज्यादा खुशी की बात यह है कि जिनके ऊपर दुनिया के आत्माओं की कोई नज़र नहीं उनके ऊपर परम आत्मा की नज़र पड़ गई! आजकल के जमाने में चुनाव होता है ना। तो आपको किसने चुना? चुनाव में कोई गड़बड़ हुई है क्या? कोई खर्चा करना पड़ा है क्या? तो बाप ने हम आत्माओं को चुन लिया, अपना बना लिया। दुनिया की नज़र में अति साधारण आत्माए थीं, लेकिन बाप की नज़र में महान आत्माए, विशेष आत्माए हो। तो इसी खुशी में रहो-कल क्या थे और आज क्या बन गये, किसकी नजर में आ गये! दुनिया-वालों ने ठुकरा दिया और बाप ने अपना बना लिया। कितनी ठोकरों से बचा लिया! 63 जन्म ठोकरें ही खाई ना। चाहे भक्ति की, तो भी ठोकरें खाई। अपनी प्रवृत्ति की लाइफ में भी भिन्न-भिन्न प्रकार की ठोकरें खाते रहे। और बाप ने आकर ठिकाना दे दिया। जब ठिकाना मिल जाता है तो ठोकर खाना बन्द हो जाता है। तो ठिकाना मिल गया है ना। तो क्या थे और क्या बन गये! स्वप्न में था कि इतना महान बनेंगे? लेकिन कितना सहज बन गये! कुछ भी मुश्किल नहीं देखनी पड़ी। कितना श्रेष्ठ भाग्य है! तो कौनसा गीत गाते हो? पाना था वो पा लिया। यह गीत आटोमेटिक चलता रहता है। मुख से गाने की आवश्यकता नहीं है लेकिन दिल गाती रहती है। यह दिल की टेपरिकॉर्ड कभी खराब नहीं होती, बार-बार चलाना नहीं पड़ता, स्वत: ही चलती रहती है ना। अच्छा!

सभी ने माया को जीत लिया है? सभी मायाजीत बन गये हो? कि अभी विजयी बनना है? माया का काम है खेल करना और आपका काम है खेल देखना। खेल में घबराना नहीं। घबराते हैं तो वह समझ जाती है कि ये घबरा तो गये हैं, अब लगाओ इसको अच्छी तरह से। माया भी तो जानने में होशियार है ना। कुछ भी हो जाये, घबराना नहीं। विजय हुई ही पड़ी है। इसको कहा जाता है सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि। पता नहीं क्या होगा, हार तो नहीं जाऊंगा, विजय होगी वा नहीं........-ये नहीं। सदैव यह नशा रखो कि पाण्डव सेना की विजय नहीं होगी तो किसकी होगी! कौरवों की होगी क्या? तो आप कौन हो? पाण्डवों की विजय तो निश्चित है ना।

कोई भी बड़ी बात को छोटा बनाना या छोटी बात को बड़ी बनाना अपने हाथ में है। किसका स्वभाव होता है छोटी बात को बड़ा बनाने का और किसका स्वभाव होता है बड़ी बात को छोटा बनाने का। तो माया की कितनी भी बड़ी बात सामने आ जाये लेकिन आप उससे भी बड़े बन जाओ तो वह छोटी हो जायेगी। आप नीचे आ जायेंगे तो वह बड़ी दिखाई देगी और ऊपर चले जायेंगे तो छोटी दिखाई देगी। कितनी भी बड़ी परिस्थिति आये, आप ऊंची स्व-स्थिति में स्थित हो जाओ तो परिस्थिति छोटी-सी बात लगेगी और छोटी-सी बात पर विजय प्राप्त करना सहज हो जायेगा। निश्चय रखो कि अनेक बार के विजयी हैं। अभी कोई इस कल्प में विजयी नहीं बन रहे हैं, अनेक बार विजयी बने हैं। इसलिए कोई नई बात नहीं है, पुरानी बात है। लेकिन उस समय याद आये। ऐसे नहीं-टाइम बीत जाये, पीछे याद आये कि ये तो छोटी बात है, मैंने बड़ी क्यों बना दी। समय पर याद आवे कि मैं कल्प-कल्प का विजयी हूँ।

माताओं को नशा है? माताओं का तो भाग्य खुल गया। माताए क्या से क्या बन गई! जिन माताओं को लोगों ने नीचे गिराया, पांव की जुती बना दी, तो पांव सबसे नीचे होता है और जुती तो पांव के भी नीचे होती है, और बाप ने सिर का ताज बना दिया। माताओं को ज्यादा खुशी है ना! तो खुशी में नाचना होता है। तो नाचती हो? पांव से नहीं, मन से खुशी में नाचो। बाप मिला, सब-कुछ मिला। जब बाप को खुशी होती है तो बच्चों को भी खुशी होगी ना। आज के विश्व में और सब-कुछ मिल सकता है लेकिन सच्ची खुशी नहीं मिल सकती। और आपको सच्ची खुशी मिली। बाप को याद भी इसलिए करते हो क्योंकि प्राप्ति है। बाप प्यारा तब लगता है जब वर्सा दे। बाप ने खुशी का खज़ाना दे दिया। इसलिए खुशी-खुशी से याद करते हो। चाहे कोई पद्म खर्च करे लेकिन यह खुशी नहीं मिल सकती। तो आपने क्या खर्चा किया? कोई कौड़ी लगाई? ‘बाबाकहा और खज़ाना मिला! तो बिन कौड़ी बादशाह बन गये! लगाया कुछ नहीं और बन गये बादशाह!

सबसे बड़े ते बड़ा बादशाह कौनसा है? (बेफिक्र बादशाह) तो आप बेफिक्र बादशाह हो? या यहाँ आकर बेफिक्र हो, वहाँ जाकर फिक्र होगा? माताओं को फिक्र होगा-बच्चों को क्या करें, पोत्रों को क्या करें? यहाँ भी नहीं है, वहाँ भी नहीं होगा। आजकल के बादशाह हैं फिक्र के बादशाह और आप हो बेफिक्र बादशाह। बच्चे को कोई फिक्र होता है क्या? जब बाप बैठा है तो बच्चे बेफिक्र होते हैं। तो बेफिक्र बादशाह बन गये हो। वैसे भी कोई भी बात का फिक्र करो तो फिक्र करने वाले को कभी भी सफलता नहीं मिलती। फिक्र करने वाला समय भी गंवाता, स्वयं को भी गंवाता, क्योंकि एनर्जी (Energy; शक्ति) वेस्ट होती है, और काम को भी गंवा देता-जिस काम के लिए फिक्र करता वह काम भी बिगाड़ देता। तो सफलता अगर चाहिए तो उसकी विधि है-बेफिक्र बनना। ऐसे बादशाह!

सेवाओं की कोई नई इन्वेन्शन निकालो। लक्ष्य रखने से टाचिंग स्वत: ही होती है। सेवा में आगे बढ़ना अर्थात् स्वयं के पुरूषार्थ में भी आगे बढ़ना। जो सच्ची दिल से सेवा करते हैं वो सदा उन्नति को प्राप्त करते हैं। अगर मिक्सचर सेवा करते हैं तो सफलता नहीं होती, स्वउन्नति भी नहीं होती। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

अच्छा बनो तो सर्व इच्छायें स्वत: ही पूरी हो जायेंगी

सदा अपने मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ अनुभव होता है? अविनाशी तिलक अविनाशी बाप द्वारा लगा हुआ है। तो तिलक है स्मृति की निशानी। तिलक सदा मस्तक पर लगाया जाता है। तो मस्तक की विशेषता क्या है? याद या स्मृति। तो विजय के तिलकधारी अर्थात् सदा विजय भवके वरदानी। जो स्मृतिस्वरूप हैं वे सदा वरदानी हैं। वरदान आपको मांगने की आवश्य-कता नहीं है। वरदान दे दो-मांगते हो? मांगना क्या चाहिए-यह भी आपको नहीं आता था। क्या मांगना चाहिए-वह भी बाप ही आकर सुनाते हैं। मांगना है तो पूरा वर्सा मांगो। बाकी हद का वरदान-एक बच्चा दे दो, एक बच्ची दे दो, एक मकान दे दो, अच्छी वाली कार दे दो, अच्छा पति दे दो........-यही मांगते रहे ना। बेहद का मांगना क्या होता है-वो भी नहीं आता था। इसीलिए बाप जानते हैं कि इतने नीचे गिर गये जो मांगते भी हद का हैं, अल्पकाल का हैं। आज कार मिलती है, कल खराब हो जाती है, एक्सीडेन्ट हो जाता है। फिर क्या करेंगे? फिर और मांगेंगे-दूसरी कार दे दो! आप तो अधिकारी बन गये। बेहद के बाप के बेहद के वर्से के अधिकारी बन गये। अभी स्वत: ही वरदान प्राप्त हो ही गये। जब दाता के बच्चे बन गये, वरदाता के बच्चे बन गये-तो वरदान का खज़ाना बच्चों का हुआ ना। तो जब वरदानों का खज़ाना ही हमारा है तो मांगने की क्या आवश्यकता है!

अभी खुशी में रहो कि मांगने से बच गये। जो सोच में भी नहीं था वह साकार रूप में मिल गया। हर बात में भरपूर हो गये, कोई कमी नहीं। आपके देवताई जीवन में भी जो गायन करते हैं उसमें भी सर्व गुण सम्पन्न कहते हैं, थोड़े-थोड़े गुण सम्पन्न नहीं कहते। सर्व गुण सम्पन्न, 16 कला सम्पन्न। 14 कला तो नहीं कहते ना। पुरूषोत्तम कहते हैं, साधारण पुरूष नहीं कहते हैं। पुरूषों में भी उत्तम। तो सर्व अर्थात् सम्पन्न और सम्पूर्ण हो गये। क्योंकि बाप सर्वशक्तिवान है, तो आप सभी भी सर्व बने ना-सर्व गुण सम्पन्न, मास्टर सर्वशक्तिवान। तो इतनी खुशी रहती है? वैसे भी बिना मांगे जो मिलता है उसको अच्छा माना जाता है। तो बाप ने वर्से के अधिकार के रूप में सब दे दिया, अधिकार में कमी नहीं छोड़ी। कोई चीज की कमी है क्या? छोटा मकान है, बढ़िया और बड़ा मकान होना चाहिए-यह सोचते हो? बड़ा मकान मिल जाये तो गीता-पाठशाला खोल दें-यह सोचते हो? यह मांगते हो? मांगना नहीं है। मांगने से मिलना नहीं है। क्योंकि मांगना अर्थात् इच्छा। हद की इच्छा हो गई ना। चाहे सेवा-भाव हो, लेकिन मांगना’-यह राइट नहीं। मांगने की आवश्यकता ही नहीं है, अगर आपका बेहद की सेवा का संकल्प बिना हद की इच्छा के होगा तो अवश्य पूरा होगा। इच्छा रखने वाले की इच्छा पूरी नहीं होगी। लेकिन अच्छा बनने वाले की इच्छा पूरी होगी, स्वत: ही प्राप्ति हो जायेगी। इस-लिए कुछ भी मांगने की आवश्यकता नहीं है। प्राप्ति-स्वरूप हो ना। कि मांगने वाला स्वरूपहो? शुभ इच्छा स्वत: ही पूर्ण होती है। सोचेंगे भी नहीं कि क्या होगा, कैसे होगा, लेकिन स्वत: ही प्राप्ति हो जायेगी। यह सोचा था कि हम इतने ऊंचे ब्राह्मण बन जायेंगे? नहीं सोचा था। लेकिन सहज बन गये ना।

सदा भरपूर रहो। भरपूर आत्मा अचल होगी। जो भरपूर नहीं होगा उसमें हलचल होगी। इस समय भी भरपूर बने हो, फिर भविष्य में जब राज्य करेंगे तो भी कितने भरपूर होंगे! कोई कमी नहीं होगी। और जब पूज्य बनते हो तो आपके मन्दिर भी कितने भरपूर हो जायेंगे! भारत के मन्दिरों से और लोग मालामाल हुए। जब जड़ चित्र मन्दिर भी आपके इतने सम्पन्न थे तो आप कितने सम्पन्न होंगे! अप्राप्ति का नाम-निशान नहीं होगा। सतयुग में कोई अप्राप्ति होगी? अभी कोई अप्राप्ति है? सब-कुछ मिल गया! अच्छा, सतयुग में बाप (शिवबाबा) होगा? तो अप्राप्ति हुई या नहीं हुई? हो गई ना। तो सतयुग से भी ज्यादा सर्व प्राप्तियां अभी हैं। कितनी खुशी, कितना नशा है!

सदा यह स्मृति में रखो कि हम ही आधा कल्प राज्य-अधिकारी बनते हैं और आधा कल्प पूज्य आत्माए बनते हैं और संगम पर सर्व प्राप्ति सम्पन्न आत्मा बनते हैं। तो सारा कल्प भरपूर हो ना! क्योंकि इस समय की सम्पन्नता सारे कल्प राज्य के रूप में और पूज्य रूप में चलती है। अभी भी देखो-चाहे कलियुग का अन्त है, फिर भी स्वयं सूखी रोटी खायेंगे लेकिन देवताओं को बढ़िया भोग लगायेंगे। चैतन्य मनुष्यों को रहने का स्थान नहीं होगा, फुटपाथ पर सोते हैं, झोपड़ियां लगाकर सोते हैं और आपके जड़ चित्र कितने विधिपूर्वक मन्दिरों में रहते हैं! तो चैतन्य को जगह नहीं मिलती लेकिन आपके जड़ चित्रों को भी जगह देते हैं! कितने बड़े-बड़े मन्दिर हैं! और मूर्ति कितनी होती है! तीन पैर पृथ्वी चाहिए लेकिन मन्दिर कितने बड़े बनाते हैं! तो इस अन्तिम जन्म में भी आप आत्माए कितनी सम्पन्न हो! जड़ चित्र भी आपके सम्पन्न हैं। तो चैतन्य में भी सम्पन्न हो ना।

सारे कल्प का श्रेष्ठ भाग्य अब मिल रहा है। मिल गया। भाग्यविधाता ने हर बच्चे की सारे कल्प की तकदीर की लकीर खींच दी। सारा कल्प नाम बाला होगा। तो इतना नशा रहता है? समझते हो-हमारी पूजा हो रही है? किसकी पूजा हो रही है? आपका मन्दिर है? या बड़े-बड़े महारथियों के मन्दिर हैं? जो ब्राह्मण बनता है वह ब्राह्मण सो देवता बनता है और देवता सो पूज्य जरूर बनता है। नम्बरवार हैं लेकिन पूज्य जरूर बनते हैं। मन्दिरों में भी नम्बरवार हैं ना। कोई मूर्ति की पूजा देखो कितना विधिपूर्वक होती है! और कोई मन्दिरों में कभी-कभी पूजा होती है। जो कभी-कभी याद में रहता है उसकी मूर्ति की पूजा भी कभी-कभी होती है और जो सदा याद में रहते हैं, सदा श्रीमत पर चलते हैं उनकी पूजा भी सदा होती है। जो हर कर्म में कर्मयोगी बनता है, उसकी पूजा भी हर कर्म की होती है। बड़े-बड़े मन्दिरों में हर कर्म की पूजा होती है-भोजन की भी होगी, झूले की भी होगी, सोने की भी होगी तो उठने की भी होगी। तो जितनी याद उतना राज्य, उतनी पूजा। अभी अपने आपसे पूछो कि मैं कितना याद में रहता हूँ?



10-12-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पूर्वज और पूज्य की स्मृति में रहकर सर्व की अलौकिक पालना करो

अपने रूहानी सोशल सेवाधारी बच्चों प्रति अव्यक्त बापदादा बोले -

आज विश्व-रचता बाप अपनी श्रेष्ठ रचना को देख रहे हैं। सर्व रचना में से श्रेष्ठ रचना आप ब्राह्मण आत्मायें हो क्योंकि आप ही विश्व की पूर्वज आत्मायें हो। एक तरफ पूर्वज हो, साथ-साथ पूज्य आत्मायें भी हो। इस कल्प-वृक्ष की फाउन्डेशन अर्थात् जड़ आप ब्राह्मण आत्मायें हो। इस वृक्ष के मूल आधार-तनाभी आप हो। इसलिए आप सर्व आत्माओं के लिए पूर्वज हो। सृष्टि-चक्र के अन्दर जो विशेष धर्म-पिता कहलाये जाते हैं उन धर्म-पिताओं को भी आप पूर्वज आत्माओं द्वारा ही बाप का सन्देश प्राप्त होता है, जिस आधार से ही समय प्रमाण वो धर्म-पितायें अपने धर्म की आत्माओं प्रति सन्देश देने के निमित्त बनते हैं। जैसे ब्रह्मा बाप ग्रेट-ग्रेट ग्रैन्ड फादर है, तो ब्रह्मा के साथ आप ब्राह्मण आत्मायें भी साथी हो। इसलिए आप पूर्वज आत्मायें गाई हुई हो।

पूर्वज आत्माओं का, डायरेक्ट चाहे इन्डायरेक्ट, सर्व आत्माओं से कनेक्शन है। जैसे-वृक्ष की सर्व टाल-टालियों का सम्बन्ध जड़ से वा तना से जरूर होता है। चाहे किसी भी धर्म की छोटी वा बड़ी टाल-टालियाँ हों लेकिन सम्बन्ध स्वत: ही होता है। तो पूर्वज हुए ना। आधा कल्प राज्य-अधिकारी बनने के बाद फिर पूज्य आत्मायें बनते हो। पूज्य बनने में भी आप आत्माओं जैसी पूजा और किसी भी धर्म के आत्माओं की नहीं होती। जैसे आप पूज्य आत्माओं की विधिपूर्वक पूजा होती है, ऐसे कोई धर्म-पिता की भी पूजा नहीं होती। बाप के कार्य में जो आप ब्राह्मण साथी बनते हो, उन्हों की भी देवता वा देवी के रूप में विधिपूर्वक पूजा होती है। और कोई भी धर्म-पिता के साथी धर्म की पालना करने वाली आत्माओं की विधिपूर्वक पूजा नहीं होती, गायन होता है। स्टैच्यू (Statue) बनाते हैं लेकिन आप जैसे पूज्य नहीं बनते।

आपका गायन भी होता है तो पूजा भी होती है। गायन की विधि भी आप ब्राह्मण आत्माओं की सबसे न्यारी है। जैसे आप देवात्माओं का गायन बहुत सुन्दर रूप से कीर्तन के रूप में होता है, आरती के रूप में होता है, ऐसे अन्य आत्माओं का गायन इसी प्रकार से नहीं होता। ऐसे क्यों होता? क्योंकि आप श्रेष्ठ रचना पूर्वज और पूज्य हो। आदि आत्मायें आप ब्राह्मण आत्मायें हो क्योंकि आदि देव ब्रह्मा के सहयोगी श्रेष्ठ कार्य के निमित्त बने हो। अनादि रूप में भी परम आत्मा के अति समीप रहने वाले हो। आत्माओं का जो चित्र दिखाते हो उसमें सबसे समीप आत्मायें कौनसी दिखाते हो? उसमें आप हो। तो अनादि रूप में भी अति समीप हो जिसको डबल विदेशी कहते हैं-नियरेस्ट और डियरेस्ट। ऐसे अपने को समझते हो?

पूर्वज का क्या काम होता है? पूर्वज सभी की पालना करते हैं। बड़ों की पालना ही प्रसिद्ध होती है। तो आप सभी पूर्वज आत्मायें सर्व आत्माओं की पालना कर रहे हो? या सिर्फ अपने आने वाले स्टूडेन्ट्स की पालना करते हो? वा सम्बन्ध-सम्पर्क वाली आत्माओं की पालना करते हो? सारे विश्व की आत्माओं के पूर्वज हो वा सिर्फ ब्राह्मण आत्माओं के पूर्वज हो? जो जड़ वा तना होता है वह सारे वृक्ष के लिए होता है। वा सिर्फ अपने तना के लिए ही होता है? सब टाल-टालियों के लिए होता है ना। जड़ अथवा तना द्वारा सारे वृक्ष के पत्तों को पानी मिलता है। वा सिर्फ थोड़ी टाल-टालियों को पानी मिलता है? सबको मिलता है ना। लास्ट वाले पत्तों को भी मिलता है। इतना बेहद का नशा है? वा बेहद से हद में भी आ जाते हो? कितनी सेवा करनी है! हर एक पत्ते को पानी देना है अर्थात् सर्व आत्माओं की पालना करने के निमित्त हो।

किसी भी धर्म की आत्माओं को मिलते हो वा देखते भी हो तो ‘‘हे पूर्वज आत्मायें! ऐसे अनुभव करती हो कि यह सब आत्मायें हमारे ग्रेट-ग्रेट ग्रैन्ड फादर की वंशावली है, हम ब्राह्मण आत्मायें भी मास्टर ग्रेट-ग्रेट ग्रैन्ड फादर हैं अर्थात् पूर्वज हैं, यह सब हमारे हैं?’’ वा सिर्फ ब्राह्मण आत्मायें हमारी हैं? जब भाई-भाई कहते हैं तो आप पूर्वज आत्मायें बड़े भाई अर्थात् बाप समान हो। इस स्मृति को ही प्रैक्टिकल लाइफ में अनुभव करना है और कराना है। आप सभी पूर्वज आत्माओं की पालना का स्वरूप क्या है? लौकिक जीवन में भी पालना का आधार क्या होता है? पालना करना अर्थात् किसी को भी शक्तिशाली बनाना। किसी भी विधि से, साधन से पालना द्वारा शक्तिशाली बनाते-चाहे भोजन द्वारा, चाहे पढ़ाई द्वारा। लेकिन पालना का प्रत्यक्षस्वरूप आत्मा में शक्ति, शरीर में शक्ति आती है। तो पालना का प्रत्यक्षस्वरूप हुआ शक्तिशाली बनाना।

आप पूर्वज आत्माओं के पालना की विधि क्या है? अलौकिक पालना का स्वरूप है-स्वयं में बाप द्वारा प्राप्त हुई सर्व शक्तियाँ अन्य आत्माओं में भरना। जिस आत्मा को जिस शक्ति की आवश्यकता है, उसकी उस समय उस शक्ति द्वारा पालना करना-ऐसी पालना करनी आती है? पूर्वज तो हो ना। सभी पूर्वज आत्मायें हो कि छोटे हो? सभी पूर्वज हैं या कोई-कोई विशेष आत्मायें हैं? तो पूर्वजों को पालना करनी आती है ना। सिर्फ सेन्टर की पालना करते हो या सारे विश्व की आत्माओं की पालना करते हो? सिर्फ प्रवृत्ति की पालना करते हो वा विश्व की पालना करते हो? वर्तमान समय आप पूर्वज आत्माओं के पालना की सर्व आत्माओं को आवश्यकता है।

समाचार तो सब इन्ट्रेस्ट से सुनते हो कि क्या-क्या हो रहा है। (आयोध्या की घटना के बाद कई स्थानों से हिंसा के समाचार मिल रहे हैं) लेकिन पूर्वज आत्माओं ने समाचार सुनने के बाद सर्व की पालना की? अशान्ति के समय आप पूर्वज आत्माओं का और विशेष कार्य स्वत: ही हो जाता है। तो हे पूर्वज! अपने पालना की सेवा में लग जाओ। जैसे अशान्ति के समय विशेष पुलिस वा मिलेट्री समझती है कि यह हमारा कार्य है-अशान्ति को शान्त करना। ऑर्डर द्वारा पहुँच जाते हैं और ऐसे टाइम पर विशेष अटेन्शन से अपनी सेवा के लिए अलर्ट हो जाते हैं। आप सबने हलचल का समाचार तो सुना, लेकिन सेवा में अलर्ट हुए वा सुनने का ही आनन्द लिया? अपना पूर्वजपन स्मृति में आया? सभी आत्माओं की शान्ति की शक्ति से पालना की? या यही सोचते रहे-यहाँ यह हुआ, वहाँ यह हुआ? विशेष आत्माओं की ऐसे समय पर सेवा की अति आवश्यकता है। अपनी वृत्ति द्वारा, मन्सा-शक्ति द्वारा विशेष सेवा की? वा जैसे विधिपूर्वक याद में रहते हो, सेवा करते हो, उसी रीति ही किया? आप रूहानी सोशल वर्कर भी हो। तो रूहानी सोशल वर्कर ने अपनी विशेष एक्स्ट्रा सोशल सेवा की? इतनी अपनी जिम्मेवारी समझी? या प्रोग्राम मिलेगा तो करेंगे? ऐसे समय पर सेकेण्ड में अपनी सेवा पर अलर्ट हो जाना चाहिए। यही आप पूर्वज आत्माओं की जिम्मेवारी है।

अभी भी विश्व में हलचल है और यह हलचल तो समय प्रति समय बढ़नी ही है। आप आत्माओं का फर्ज है-ऐसे समय पर आत्माओं में विशेष शान्ति की, सहन शक्ति की हिम्मत भरना, लाइट-हाउस बन सर्व को शान्ति की लाइट देना। समझा, क्या करना है? अभी अपनी जिम्मेवारी वा फर्ज-अदाई और तीव्र गति से पालन करो जिससे आत्माओं को रूहानी शक्ति की राहत मिले, जलते हुए दु:ख की अग्नि में शीतल जल भरने का अनुभव करें। यह फर्ज-अदाई कर सकते हो? दूर से भी कर सकते या जब सामने आयेंगे तब करेंगे? कर तो रहे हो लेकिन अभी और जैसे हलचल तेज होती जाती है, तो आपकी सेवा भी और तेज हो। समझा, पूर्वजों की पालना क्या है? ऐसे नहीं कि पूर्वज हैं लेकिन पालना नहीं कर सकते। पूर्वज का काम ही है-पालना द्वारा शक्ति देना। श्रेष्ठ शक्तिशाली स्थिति द्वारा परिस्थिति को पार करने की शक्ति अनुभव कराओ। अच्छा!

चारों ओर के सर्व आदि देव ब्रह्मा के मददगार आदि आत्माओं को, सर्व आत्माओं के फाउन्डेशन पूर्वज आत्माओं को, सदा सर्व आत्माओं प्रति बेहद सेवा की श्रेष्ठ वृत्ति रखने वाली आत्माओं को, सर्व रूहानी सोशल सेवाधारी आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

वर्तमान समय अशान्त आत्माओं को शान्ति देना-यही सभी का विशेष कार्य है। रहमदिल बाप के बच्चों को सर्व आत्माओं के प्रति रहम आता है ना। रहमदिल क्या करता है? रहम का अर्थ ही है-किसी भी प्रकार की हिम्मत देना, निर्बल आत्मा को बल देना। तो आत्माओं के दु:ख का संकल्प तो मास्टर सुखदाता आत्माओं के पास पहुँचता ही है। जैसे वहाँ दु:ख की लहर है, ऐसे ही विशेष आत्माओं में सेवा की विशेष लहर चले-देना है, कुछ करना है। क्या किया-वो हर एक को सेवा का एक्स्ट्रा चार्ट चेक करना चाहिए। जैसे साधारण सेवा चलती है, वो तो चलती है। लेकिन वर्तमान समय वायुमण्डल द्वारा, वृत्ति द्वारा सेवा का विशेष अटेन्शन रखो। इसी से स्व की स्थिति भी स्वत: ही शक्तिशाली हो जायेगी। ऐसी लहर फैलाई है? विश्व के राजे बनते हैं तो सर्व आत्माओं के प्रति लहर होनी है ना। वंचित कोई आत्मा न रह जाये। चाहे अन्य धर्म की आत्मायें हों लेकिन हैं तो अपनी वंशावली। चाहे कोई भी धर्म की आत्मायें हैं लेकिन जड़ तो एक ही है। यह लहर है? (नहीं है) अटेन्शन प्लीज़!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

व्यर्थ के प्रभाव में आने वाले नहीं, अपना श्रेष्ठ प्रभाव डालने वाले बनो

सदा अपने को पुरूषार्थ में आगे बढ़ने वाली आत्मा हूँ-ऐसे अनुभव करते हो? पुरूषार्थ में कभी भी कभी ठहरती कला, कभी उतरती कला-ऐसा नहीं होना चाहिए। कभी बहुत अच्छा, कभी अच्छा, कभी थोड़ा अच्छा-ऐसा नहीं। सदा बहुत अच्छा। क्योंकि समय कम है और सम्पूर्ण बनने की मंजिल श्रेष्ठ है। तो अपने भी पुरूषार्थ की गति तीव्र करनी पड़े। पुरूषार्थ के तीव्र गति की निशानी है कि वह सदा डबल लाइट होगा, किसी भी प्रकार का बोझ नहीं अनुभव करेगा। चाहे प्रकृति द्वारा कोई परिस्थिति आये, चाहे व्यक्तियों द्वारा कोई परिस्थिति आये लेकिन हर परिस्थिति, स्व-स्थिति के आगे कुछ भी अनुभव नहीं होगी। स्व-स्थिति की शक्ति पर-स्थिति से बहुत ऊंची है, क्यों? यह स्व है, वह पर है। अपनी शक्ति भूल जाते हो तब ही पर-स्थिति बड़ी लगती है। सदा डबल लाइट का अर्थ ही है कि लाइट अर्थात् ऊंचे रहने वाले। हल्का सदा ऊंचा जाता है, बोझ वाला सदा नीचे जाता है। आधा कल्प तो नीचे ही आते रहे ना। लेकिन अभी समय है ऊंचा जाने का। तो क्या करना है? सदा ऊपर।

शरीर में भी देखो तो आत्मा का निवास-स्थान ऊपर है, ऊंचा है। पांव में तो नहीं है ना। जैसे शरीर में आत्मा का स्थान ऊंचा है, ऐसे स्थिति भी सदा ऊंची रहे। ब्राह्मण की निशानी भी ऊंची चोटी दिखाते हैं ना। चोटी का अर्थ है ऊंचा। तो स्थूल निशानी इसीलिए दिखाई है कि स्थिति ऊंची है। शूद्र को नीचे दिखाते हैं, ब्राह्मण को ऊंचा दिखाते हैं। तो ब्राह्मणों का स्थान और स्थिति-दोनों ऊंची। अगर स्थान की याद होगी तो स्थिति स्वत: ऊंची हो जायेगी। ब्राह्मणों की दृष्टि भी सदा ऊपर रहती है। क्योंकि आत्मा, आत्माओं को देखती है, आत्मा ऊपर है तो दृष्टि भी ऊपर जायेगी। कभी भी किससे मिलते हो या बात करते हो तो आत्मा को देखकर बात करते हो, आत्मा से बात करते हो। आपकी दृष्टि आत्मा की तरफ जाती है। आत्मा मस्तक में है ना। तो ऊंची स्थिति में स्थित रहना सहज है।

जब ऐसी स्थिति हो जाती है तो नीचे की बातों से, नीचे के वायुमण्डल से सदा ही दूर रहेंगे, उसके प्रभाव में नहीं आयेंगे। अच्छा प्रभाव पड़ता है या खराब भी पड़ जाता है? अगर प्रवृत्ति में खराब वायुमण्डल हो, फिर क्या करते हो? प्रभावित होते हैं? खराब को अच्छा बनाने वाले हो या प्रभाव में आने वाले हो? क्योंकि माया भी देखती है कि-अच्छा, अंगुली तो पकड़ ली है। अंगुली के बाद हाथ पकड़ेगी, हाथ के बाद पांव पकड़ लेगी। इसलिए प्रभाव में नहीं आना। प्रभाव में आने वाले नहीं, श्रेष्ठ प्रभाव डालने वाले। तो ब्राह्मण आत्मा अर्थात् सदा डबल लाइट, ऊंचे रहने वाले। इसी स्मृति से आगे उड़ते चलो। अच्छा!

सभी खुश रहते हो ना। दु:ख की लहर तो नहीं आती? क्योंकि जो दु:खधाम छोड़ चले उनके पास दु:ख की लहर कैसे आ सकती। संगम पर दु:खधाम और सुखधाम-दोनों का ज्ञान है। दोनों के नॉलेजफुल शक्तिशाली आत्मायें हैं। गलती से भी दु:खधाम में जा नहीं सकते। सदा खुश रहने वालों के पास दु:ख की लहर कभी आ नहीं सकती। अच्छा! सेवा और स्व-उन्नति-दोनों का बैलेन्स रखो। ऐसे नहीं-सेवा में मस्त हो गये तो स्व-उन्नति भूल गये। सेवा का शौक ज्यादा है। लेकिन दोनों का बैलेन्स। समझा?

अच्छे चल रहे हैं लेकिन सिर्फ अच्छे तक नहीं रहना, और अच्छे ते अच्छे।

ग्रुप नं. 2

अनेक भावों को समाप्त कर श्रेष्ठ आत्मिक भाव धारण करो

सबसे सहज आगे बढ़ने की विधि क्या है? आगे तो सभी बढ़ रहे हो लेकिन सबसे सहज विधि कौनसी है? योग भी सहज हो जाये, उसकी विधि क्या है? सबसे सहज विधि है-’’मेरा बाबा’’। और कुछ भी याद न हो, हर समय एक ही बात याद हो -’’मेरा बाबा’’। क्योंकि मन वा बुद्धि कहाँ जाती है? जहाँ मेरापन होता है। अगर शरीर-भान में भी आते हो तो क्यों आते हो? क्योंकि मेरापन है। अगर ‘‘मेरा बाबा’’ हो जाता तो स्वत: ही मेरे तरफ बुद्धि जायेगी। सहज साधन है-’’मेरा बाबा’’। मेरापन न चाहते हुए भी याद आता है। जैसे चाहते नहीं हो कि शरीर याद आवे, लेकिन क्यों याद आता है? मेरापन खींचता है ना, न चाहते भी खींचता है। जब यह सदा निश्चय और स्मृति में रहे- ‘‘मेरा बाबा’’-तो पुरूषार्थ की मेहनत करने के बजाए स्वत: ही मेरापन खींचेगा। तो सहज साधन क्या हुआ? इसीलिए एकको ही याद करो। एकको ही याद करना सहज होता है।

जितना-जितना गहरा सम्बन्ध जुटा हुआ होगा उतनी याद सहज होगी और सहज बात ही निरन्तर होती है। अगर सहज नहीं होगा तो निरन्तर नहीं होगा। कोई भी मेहनत का काम निरन्तर नहीं कर सकते। सारा दिन-रात कोई को मेहनत का काम दो तो मजबूरी से करेगा, लेकिन प्यार से नहीं करेगा। तो बापदादा सहज करके देता है। सहज के कारण निरन्तर होना मुश्किल नहीं है। जो सदा इस स्मृति में रहते हैं उनकी निशानी क्या होगी? वे सदा खुश रहेंगे। क्योंकि बाप से प्राप्ति होती है। तो प्राप्ति की खुशी होती है ना। तो ‘‘मेरा बाबा’’ की स्मृति की प्रैक्टिकल निशानी खुशीहै। कोई भी बात हो जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। क्योंकि प्राप्ति के आगे वह बात क्या लगेगी? कुछ भी नहीं लगेगी। बाप का अर्थ ही वर्से की प्राप्ति है। बाप का सम्बन्ध क्यों प्यारा लगता है? क्योंकि वर्सा मिलता है। तो बाप कहना अर्थात् वर्से की याद स्वत: ही आती है। बाप मिला, वर्सा मिला-तो खुशी होगी ना। अल्पकाल की प्राप्ति की भी खुशी होती है। तो यह तो अविनाशी प्राप्ति है, इसकी खुशी भी अविनाशी होनी चाहिए। तो खुश रहते हो? या कभी-कभी रहते हो? सदा खुश रहते हो? जो अपनी चीज होती है वह कभी भूलती नहीं है। चाहे छोटी-सी चीज भी अपनी है, तो भूलेगी? तो यह खुशीअपना खज़ाना है। बाप का खज़ाना सो अपना खज़ाना। अपनी चीज भूल नहीं सकती। तो निरन्तर योगी बनना सहज है ना। इस सहज विधि से औरों को भी सहज प्राप्ति करा सकते हो। क्योंकि जब अपने को खुशी प्राप्त होती तो दूसरों को खुशी अवश्य देंगे। जिसको कोई अच्छी चीज मिलती है तो वह दूसरों को देने बिना नहीं रह सकते।

सदा अपने को जैसे बाप न्यारा और प्यारा है, ऐसे न्यारे और प्यारे अनुभव करते हो? बाप सबका प्यारा क्यों है? क्योंकि न्यारा है। जितना न्यारा बनते हैं उतना सर्व का प्यारा बनते हैं। न्यारा किससे? पहले अपनी देह की स्मृति से न्यारा। जितना देह की स्मृति से न्यारे होंगे उतने बाप के भी प्यारे और सर्व के भी प्यारे होंगे। क्योंकि न्यारा अर्थात् आत्म-अभिमानी। जब बीच में देह का भान आता है तो प्यारापन खत्म हो जाता है। इसलिए बाप समान सदा न्यारे और सर्व के प्यारे बनो। आत्मा रूप में किसको भी देखेंगे तो रूहानी प्यार पैदा होगा ना। और देहभान से देखेंगे तो व्यक्त भाव होने के कारण अनेक भाव उत्पन्न होंगे-कभी अच्छा होगा, कभी बुरा होगा। लेकिन आत्मिक भाव में, आत्मिक दृष्टि में, आत्मिक वृत्ति में रहने वाला जिसके भी सम्बन्ध में आयेगा अति प्यारा लगेगा। तो सेकेण्ड में न्यारे हो सकते हो? कि टाइम लगेगा? जैसे शरीर में आना सहज लगता है, ऐसे शरीर से परे होना इतना ही सहज हो जाये। कोई भी पुराना स्वभाव-संस्कार अपनी तरफ आकर्षित नहीं करे और सेकेण्ड में न्यारे हो जाओ। सारे दिन में, बीच-बीच में यह अभ्यास करो। ऐसे नहीं कि जिस समय याद में बैठो उस समय अशरीरी स्थिति का अनुभव करो। नहीं। चलते-फिरते बीच-बीच में यह अभ्यास पक्का करो-’’मैं हूँ ही आत्मा!’’ तो आत्मा का स्वरूप ज्यादा याद होना चाहिए ना! सदा खुशी होती है ना! कम नहीं होनी चाहिए, बढ़नी चाहिए। इसका साधन बताया-मेरा बाबा। और कुछ भी भूल जाये लेकिन मेरा बाबायह भूले नहीं। अच्छा!

अब कोई ऐसी नई इन्वेन्शन निकालो जो ‘‘कम खर्चा बाला नशीन’’ हो। खर्चा भी कम हो, आवाज भी ज्यादा फैले। जैसे कोई समय था प्रदर्शनी की इन्वेन्शन निकाली, मेले की इन्वेन्शन निकाली। यह नवीनता थी ना। लेकिन अब तो पुरानी बात हो गई। ऐसे कोई नई इन्वेन्शन निकालो जो सभी कहें कि हमको भी ऐसे करना है। जैसे अभी शान्ति-अनुभूति की नई बात निकाली तो सब अच्छा अनुभव करते हैं ना। ऐसे सेवा की कोई नई इन्वेन्शन निकालो। कांफ्रेंस होना या मेला होना-यह अभी पुरानी लिस्ट में आ गया। तो कोई नवीनता करके दिखाना। समझा?

स्वयं को भी आगे बढ़ाओ और सेवा को भी आगे बढ़ाओ। क्योंकि सुनाया ना-अभी बेहद की सेवा करनी है! सर्व धर्म की आत्माओं को भी सन्देश पहुँचाना है। तो कितनी सेवा अभी रही हुई है! अभी तीव्र गति से सेवा को बढ़ाओ। लेकिन स्व की उन्नति पहले, बाद में सेवा। सिर्फ सेवा नहीं। स्वउन्नति और सेवा की उन्नति-जब दोनों साथ होंगी तब सेवा की सफलता अविनाशी होगी। नहीं तो थोड़े समय की सफलता होगी। अच्छा! अभी देखेंगे कि क्या नवीनता निकालते हो?

ग्रुप नं. 2

फरिश्ता बनना है तो सर्व लगाव की जंजीरों को समाप्त करो

बाप समान निराकारी और आकारी-इसी स्थिति में स्थित रहने वाली आत्मायें अनुभव करते हो? क्योंकि शिव बाप है निराकारी और ब्रह्मा बाप है आकारी। तो आप सभी भी साकारी होते हुए भी निराकारी और आकारी अर्थात् अव्यक्त स्थिति में स्थित हो सकते हो। या साकार में ज्यादा आ जाते हो? जैसे साकार में रहना नेचुरल हो गया है, ऐसे ही मैं आकारी फरिश्ता हूँ और निराकारी श्रेष्ठ आत्मा हूँ-यह दोनों स्मृतियां नेचुरल हों। क्योंकि जिससे प्यार होता है, तो प्यार की निशानी है समान बनना। बाप और दादा-निराकारी और आकारी हैं और दोनों से प्यार है तो समान बनना पड़ेगा ना। तो सदैव यह अभ्यास करो कि अभी-अभी आकारी, अभी-अभी निराकारी। साकार में आते भी आकारी और निराकारी स्थिति में जब चाहें तब स्थित हो सकें। जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियां आपके कन्ट्रोल में हैं। आंख को वा मुख को बंद करना चाहो तो कर सकते हो। ऐसे मन और बुद्धि को उसी स्थिति में स्थित कर सको जिसमें चाहो। अगर फरिश्ता बनने चाहें तो सेकेण्ड में फरिश्ता बनो-ऐसा अभ्यास है या टाइम लगता है? क्योंकि हलचल जब बढ़ती है तो ऐसे समय पर कौनसी स्थिति बनानी पड़ेगी? आकारी या निराकारी। साकार देहधारी की स्थिति पास होने नहीं देगी, फेल कर देगी। अभी भी देखो-किसी भी हलचल के समय अचल बनने की स्थिति फरिश्ता स्वरूप या आत्म-अभिमानी स्थिति ही है। यही स्थिति हलचल में अचल बनाने वाली है। तो क्या अभ्यास करना है? आकारी और निराकारी। जब चाहें तब स्थित हो जाए-इसके लिए सारा दिन अभ्यास करना पड़े, सिर्फ अमृतवेले नहीं। बीच-बीच में यह अभ्यास करो।

फरिश्ता सदा ही ऊपर से नीचे आता है, फिर नीचे से ऊपर उड़ जाता है। फरिश्ता सेकण्ड में ऊंचा क्यों उड़ जाता? क्योंकि उसका कोई लगाव नहीं होता-न देह से, न देह की पुरानी दुनिया से। तो चेक करो कि लगाव की कोई जंजीरें रही हुई तो नहीं हैं? अगर कोई भी लगाव की जंजीर वा धागा लगा हुआ होगा तो उड़ सकेंगे? वह रस्सी वा धागा खींचकर नीचे ले आयेगा। तो फरिश्ता अर्थात् जिसका पुरानी दुनिया से कोई रिश्ता नहीं हो। ऐसे है या थोड़ा-थोड़ा रिश्ता है? मोटे-मोटे धागे खत्म हो गये। सूक्ष्म कोई रह तो नहीं गये? बहुत महीन धागे हैं। ऐसे न हो-मोटे-मोटे को देखकर समझो कि स्वतन्त्र हो गये और जब उड़ने लगो तो नीचे आ जाओ। तो सूक्ष्म रीति से चेक करो। अंश-मात्र भी नहीं हो। सुनाया था ना कि कई बच्चे कहते हैं-इच्छा नहीं है कोई चीज की लेकिन अच्छा लगता है। तो यह क्या हुआ? अंश-मात्र हो गया ना। जो चीज़ अच्छी लगेगी वह अपनी तरफ आकर्षित करेगी ना। तो इच्छाहै मोटा धागा और अच्छाहै सूक्ष्म धागा। मोटा तो खत्म कर दिया, लेकिन सूक्ष्म है तो उड़ने नहीं देगा।

बाप से प्यार अर्थात् बाप समान बनना। रोज़ फरिश्ते की बात सुनते हो ना। सिर्फ सुनते हो या बन गये हो? बन रहे हैं या बन गये हैं? कब तक बनेंगे? विनाश तक? उससे पहले बनेंगे तो उसका हिसाब है। ऐसे नहीं-10 साल में विनाश होगा तो 9 साल के बाद एक साल में बन जाओ। ऐसे नहीं करना। बहुतकाल का चाहिए। अगर थोड़े समय का अभ्यास होगा तो थोड़े समय तो स्थित होंगे लेकिन बहुतकाल नहीं हो सकेंगे, मेहनत करनी पड़ेगी। अभी मेहनत कर लो, तो उस समय मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। अगर मेहनत करते-करते चले गये तो रिजल्ट क्या होगी? कहाँ जायेंगे-सूर्यवंश में या चन्द्रवंश में? तो चेक करो और चेंज करो। जो कमी हो उसको भरते जाओ। सम्पन्न बनो। सदैव याद रखो कि बाप को प्यार का सबूत देना है-समान बनना है। सदा अपने को बाप समान बनाने का अभ्यास और तीव्र गति से बढ़ाओ। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

सदा मालिकपन और बालकपन के नशे में रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? जब चाहो मालिकपन की स्थिति में स्थित हो जाओ और जब चाहो तो बालकपन की स्थिति में स्थित हो जाओ-ऐसा अनुभव है? या जिस समय बालक बनना हो उस समय मालिक बन जाते और जिस समय मालिक बनना हो उस समय बालक बन जाते? जब चाहो, जैसे चाहो वैसी स्थिति में स्थित हो जाओ-ऐसे है? क्योंकि यह डबल नशा सदा ही निर्विघ्न बनाने वाला है। जब भी कोई विघ्न आता है तो उस समय जिस स्थिति में स्थित होना चाहिए, उसमें स्थित न होने कारण विघ्न आता है।

विघ्न-विनाशक आत्मायें हो या विघ्न के वश होने वाली हो? सदैव यह स्मृति में रखो कि हमारा टाइटल ही है विघ्न-विनाशक। विघ्न-विनाशक आत्मा स्वयं कैसे विघ्न में आयेगी? चाहे कोई कितना भी विघ्न रूप बनकर आये लेकिन आप विघ्न विनाश करेंगे। सिर्फ अपने लिये विघ्न-विनाशक नहीं हो लेकिन सारे विश्व के विघ्न-विनाशक हो। विश्व-परिवर्तक हो। तो विश्व-परिवर्तक शक्तिशाली होते हैं ना। शक्ति के आगे कोई कितना भी शक्तिशाली हो लेकिन वह कमजोर बन जाता है। विघ्न को कमजोर बनाने वाले हो, स्वयं कमजोर बनने वाले नहीं। अगर स्वयं कमजोर बनते हो तो विघ्न शक्तिशाली बन जाता है और स्वयं शक्तिशाली हो तो विघ्न कमजोर बन जाता है। तो सदा अपने मास्टर सर्वशक्तिवान स्वरूप की स्मृति में रहो।

सुना तो बहुत है, बाकी क्या रहा? बनना। सुनने का अर्थ ही है बनना। तो बन गये हो? बाप भी ऐसे शक्तिशाली बच्चों को देख हर्षित होते हैं। लौकिक में भी बाप को कौनसे बच्चे प्यारे लगते हैं? जो आज्ञाकारी, फॉलो फादर करने वाले होंगे। तो आप कौन हो? फॉलो फादर करने वाले हो। फॉलो करना सहज होता है ना। बाप ने कहा और बच्चों ने किया। सोचने की भी आवश्यकता नहीं। करें, नहीं करें, अच्छा होगा, नहीं होगा-यह सोचने की भी आवश्यकता नहीं। फॉलो करना सहज है ना। हर कर्म में क्या-क्या फॉलो करो और कैसे करो-यह भी सभी को स्पष्ट है। जो हर कदम में फॉलो करने वाले हैं उनको क्या नशा रहता है? यह निश्चय का नशा रहता है कि हर कर्म में सफलता हुई ही पड़ी है। होगी या नहीं होगी-नहीं। हुई ही पड़ी है। क्योंकि कल्प पहले भी पाण्डवों की विजय हुई ना। पाण्डवों ने क्या किया? भगवान की मत पर चले अर्थात् फॉलो किया तो विजय हुई। तो वही कल्प पहले वाले हो ना। तो यह निश्चय स्वत: ही नशा दिलाता है। कोई भी बात मुश्किल नहीं लगेगी। तो सदा ही सहज और श्रेष्ठ प्राप्ति का अनुभव करते चलो। मालिक सो बालक हैं-यह डबल नशा समय प्रमाण प्रैक्टिकल में लाओ। कभी कोई खिटखिट भी हो जाये तो भी खुशी कम न हो। सदा खुश रहो। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

सिर्फ कल्याणकारी नहीं, विश्व-कल्याणकारी बनो

अपने को सदा संगमयुगी कल्याणकारी आत्मायें अनुभव करते हो? संगमयुग एक ही इस सृष्टि-चक्र में ऐसा युग है जो चढ़ती कला का युग है। और युग धीरे-धीरे नीचे उतारते हैं। सतयुग से कलियुग में आते हो तो कितनी कलायें कम हो जाती हैं? तो सभी युगों में उतरते हो और संगमयुग में चढ़ते हो। चढ़ने के लिए भी लिफ्ट मिलती है। सभी को लिफ्ट मिली है ना। बीच में अटक तो नहीं जाती है? ऐसे तो नहीं-कभी अटक जाओ, कभी लटक जाओ। ऐसी लिफ्ट मिलती है जो कभी भी न लटकाने वाली है, न अट-काने वाली है। देखो, कितने लक्की हो जो कल्याणकारी युग में आये और कल्याणकारी बाप मिला। आपका भी ऑक्यूपेशन है विश्व-कल्याणकारी। तो बाप भी कल्याणकारी, युग भी कल्याणकारी, आप भी कल्याणकारी और आपका ऑक्यूपेशन भी विश्व-कल्याणकारी। तो कितने लक्की हो! अच्छा, यह लक्क कितना समय चलेगा? सारा कल्प या आधा कल्प? जो कहते हैं आधा कल्प, वह हाथ उठाओ। जो कहते हैं सारा कल्प, वह हाथ उठाओ। सभी राइट हो। क्योंकि आधा कल्प राज्य करेंगे, आधा कल्प पूज्य बनेंगे। तो यह भी लक्क ही है।

डबल विदेशी पूज्य बनेंगे? आपके मन्दिर हैं? देखो, एक ही देवता धर्म है जिसके 33 करोड़ गाये और पूजे जाते हैं। आप उसमें तो हो ही ना। अच्छा, आबू में अपना मन्दिर देखा है? उसमें आपकी मूर्ति है? नम्बर लगाकर आये हो कि यह मेरी है? जब बाप को फॉलो करने वाले हो, तो जैसे बाप ब्रह्मा पूज्य बनेंगे, तो फॉलो करने वाले भी अवश्य पूज्य ही बनेंगे। सारा कल्प ब्रह्मा बाप के साथ राज्य का, पूजा का और पूज्य बनने का-सब पार्ट बजायेंगे। ऐसा निश्चय है? पूजा भी ब्रह्मा बाप के साथ शुरू करेंगे। किसकी पूजा शुरू करेंगे? आपने पूजा की है? अपनी भी पूजा की है? देवताओं की पूजा की तो अपनी की ना। इसलिए गाया हुआ है-आपे ही पूज्य, आपे ही पुजारी। इतना ब्रह्मा बाप से प्यार है जो सदा ही साथ रहेंगे। लेकिन कौन साथ रहेगा? जो फॉलो करने वाले हैं। तो जो भी कर्म करते हो वह चेक करो कि ब्रह्मा बाप समान श्रेष्ठ कर्म है या साधारण कर्म है? जब विशेष कर्म करने वाले बनेंगे तब ही विशेष ब्रह्मा आत्मा के साथ पार्ट बजायेंगे।

सदा मैं विश्व-कल्याणकारी आत्मा हूँ-इस स्मृति में रहने से जो भी कर्म करेंगे वह कल्याणकारी करेंगे। कल्याणकारी समझने से संगमयुग जो कल्याणकारी है वह भी याद आता है और कल्याणकारी बाप भी स्वत: याद आता है। सिर्फ कल्याणकारी नहीं, विश्व-कल्याणकारी बनना है। सबसे बड़े भाग्य की निशानी यह है जो संगमयुग पर साधारण आत्मा बने हो। अगर साहूकार होते तो बाप के नहीं बनते, सिर्फ कलियुग की साहूकारी ही भाग्य में मिलती। तो साधारण बनना अच्छा है ना। स्थूल धन से साधारण हो लेकिन ज्ञान-धन से साहूकार हो। तो खुशी है ना कि बाप ने सारे विश्व में से हमें अपना बनाया। सारा दिन खुशी में रहते हो? मुरली रोज़ सुनते हो? कभी मिस तो नहीं करते? मिस करते हो तो फॉलो फादर नहीं हुआ ना। ब्रह्मा बाप ने एक दिन भी मुरली मिस नहीं की। अच्छा!

मधुबन निवासी और ग्लोबल हॉस्पिटल वाले-दोनों ही अपनी अच्छी सेवा कर रहे हैं। ये ग्लोबल वाले शरीरों को निरोगी बनाए आत्मा को शक्तिशाली बना रहे हैं और मधुबन निवासी सभी को सन्तुष्ट करने की सेवा कर रहे हैं। दोनों की सेवा बापदादा देख हर्षित होते हैं। सेवाधारी भी अथक बन सेवा में सदा आगे बढ़ते रहते हैं। सभी को सेवा की मुबारक! सालगांव में भी अच्छी प्यार से सेवा कर रहे हैं, आपके प्यार की सेवा सफलता को समीप ला रही है। नीचे तलहटी वाले भी अच्छी सेवा कर रहे हैं। डबल विदेशी भी अच्छी सेवा कर रहे हैं। अच्छी कर रहे हैं और अच्छी रहेगी। विदेश में भी अच्छी सेवा का उमंग है। भारत और विदेश में सेवा वृद्धि को प्राप्त कर रही है और तीव्र गति से वृद्धि को प्राप्त करना ही है। अच्छा!

डबल विदेशी भाई-बहनों प्रति बापदादा का सन्देश

सब सेवा की लगन में मग्न रहने वाले हैं। स्व-उन्नति और सेवा की उन्नति-दोनों का बैलेन्स बढ़ाते हुए आगे बढ़ रहे हैं और बढ़ा रहे हैं। सेवा भी हो रही है और याद में भी बैठते ही हैं। लेकिन अभी बैलेन्स के ऊपर और अटेन्शन दिलाते चलो। कभी सेवा में बहुत आगे चले जाते, कभी स्व-उन्नति की भी लग्न लग जाती है। लेकिन दोनों साथ-साथ हों तो सफलता सहज और जो चाहते हैं वही हो जाती है। तो यही अटेन्शन दिलाते रहते हो ना। जिनको बैलेन्स रखना आता है वे सदा दुआए लेते हैं और दुआए देते हैं। बैलेन्स की प्राप्ति है-ब्लैसिंग। बैलेन्स वाले को ब्लैसिंग नहीं मिले-यह हो नहीं सकता। तो बैलेन्स की निशानी है-ब्लैसिंग। यदि नहीं मिलती तो बैलेन्स की कमी है। आप सभी की पालना किससे हुई? दुआओं से आगे बढ़े ना। कि मेहनत करनी पड़ी? माता, पिता और परिवार की दुआओं से सहज आगे बढ़ते गये और अभी भी दुआए मिल रही हैं। महारथियों की पालना क्या है? दुआए ना। आपको कितनी दुआए मिलती हैं! तो महारथी की पालना ही दुआए हैं। अच्छा!



20-12-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


आज्ञाकारी ही सर्व शक्तियों के अधिकारी

सर्वशक्तिवान बापदादा अपने मास्टर सर्वशक्तिवान बच्चों प्रति बोले -

आज सर्व शक्तियों के दाता बापदादा अपने शक्ति सेना को देख रहे हैं। सर्वशक्तिवान बाप ने सभी ब्राह्मण आत्माओं को समान सर्व शक्तियों का वर्सा दिया है। किसको कम शक्ति वा किसको ज्यादा-यह अन्तर नहीं किया। सभी को एक द्वारा, एक साथ, एक समान शक्तियाँ दी हैं। तो रिजल्ट देख रहे थे कि एक समान मिलते हुए भी अन्तर क्यों है? कोई सर्व शक्ति सम्पन्न बने और कोई सिर्फ शक्ति सम्पन्न बने हैं, सर्व नहीं। कोई सदा शक्तिस्वरूप बने, कोई कभी-कभी शक्तिस्वरूप बने हैं। कोई ब्राह्मण आत्माए अपनी सर्व-शक्तिवान की अथॉरिटी से जिस समय, जिस शक्ति को ऑर्डर करती हैं वह शक्ति रचना के रूप में मास्टर रचता के सामने आती है। ऑर्डर किया और हाज़र हो जाती है। कोई ऑर्डर करते हैं लेकिन समय पर शक्तियाँ हाज़र नहीं होतीं, ‘जी-हाज़रनहीं होती। इसका कारण क्या? कारण है-जो बच्चे सर्वशक्तिवान बाप, जिसको हज़ूर भी कहते हैं, हाज़र-नाज़र भी कहते हैं-तो जो बच्चे हज़ूर अर्थात् बाप के हर कदम की श्रीमत पर, हर समय जी-हाज़रवा हर आज्ञा में जी-हाज़रप्रैक्टिकल में करते हैं, तो जी-हाज़रकरने वाले के आगे हर शक्ति भी जी-हाज़रवा जी मास्टर हज़ूरकरती है।

अगर कोई आत्मायें श्रीमत वा आज्ञा जो सहज पालन कर सकते हैं वह करते हैं और जो मुश्किल लगती है वह नहीं कर सकते-कुछ किया, कुछ नहीं किया, कभी जी-हाज़र’, कभी हाज़र’-इसका प्रत्यक्ष सबूत वा प्रत्यक्ष प्रमाण रूप है कि ऐसी आत्माओं के आगे सर्व शक्तियाँ भी समय प्रमाण हाज़र नहीं होती हैं। जैसे-कोई परिस्थिति प्रमाण समाने की शक्ति चाहिए तो संकल्प करेंगे कि हम अवश्य समाने की शक्ति द्वारा इस परिस्थिति को पार करेंगे, विजयी बनेंगे। लेकिन होता क्या है? सेकेण्ड नम्बर वाले अर्थात् कभी-कभी वाले समाने की शक्ति का प्रयोग करेंगे-10 बार समायेंगे लेकिन समाते हुए भी एक-दो बार समाने चाहते भी समा नहीं सकेंगे। फिर क्या सोचते हैं? मैंने किसको नहीं सुनाया, मैंने समाया लेकिन यह साथ वाले थे, हमारे सहयोगी थे, समीप थे-इसको सिर्फ इशारा दिया। सुनाया नहीं, इशारा दिया। कोई शब्द बोलने नहीं चाहते थे, सिर्फ एक-आधा शब्द निकल गया। तो इसको क्या कहा जायेगा? समाना कहेंगे? 10 के आगे तो समाया और एक-दो के आगे समा नहीं सकते, तो इसको क्या कहेंगे? समाने की शक्ति ने ऑर्डर माना? जबकि अपनी शक्ति है, बाप ने वर्से में दिया है, तो बाप का वर्सा सो बच्चों का वर्सा हो जाता। अपनी शक्ति अपने काम में न आये तो इसको क्या कहा जायेगा? ऑर्डर मानने वाले या ऑर्डर न मानने वाले कहा जायेगा?

आज बापदादा सर्व ब्राह्मण आत्माओं को देख रहे थे कि कहाँ तक सर्व शक्तियों के अधिकारी बने हैं। अगर अधिकारी नहीं बने, तो उस समय परिस्थिति के अधीन बनना पड़े। बापदादा को सबसे ज्यादा रहम उस समय आता है जब बच्चे कोई भी शक्ति को समय पर कार्य में नहीं लगा सकते हैं। उस समय क्या करते हैं? जब कोई बात सामना करती तो बाप के सामने किस रूप में आते हैं? ज्ञानी-भक्त के रूप में आते हैं। भक्त क्या करते हैं? भक्त सिर्फ पुकार करते रहते कि यह दे दो। भागते बाप के पास हैं, अधिकार बाप पर रखते हैं लेकिन रूप होता है रॉयल भक्त का। और जहाँ अधिकारी के बजाए ज्ञानी-भक्त अथवा रॉयल भक्त के रूप में आते हैं, तो जब तक भक्ति का अंश है, तो भक्ति का फल सद्गति अर्थात् सफलता, सद्गति अर्थात् विजय नहीं प्राप्त कर सकते। क्योंकि जहाँ भक्ति का अंश रह जाता वहाँ भक्ति का फल ज्ञान अर्थात् सर्व प्राप्ति नहीं हो सकती, सफलता नहीं मिल सकती। भक्ति अर्थात् मेहनत और ज्ञान अर्थात् मुहब्बत। अगर भक्ति का अंश है तो मेहनत जरूर करनी पड़ती और भक्ति की रस्म-रिवाज है कि जब भीड़ पड़ेगी तब भगवान याद आयेगा, नहीं तो अलबेले रहेंगे। ज्ञानी-भक्त भी क्या करते हैं? जब कोई विघ्न आयेगा तो विशेष याद करेंगे।

एक है-सेवा प्रति याद में बैठना और दूसरा है-स्व की कमजोरी को भरने लिए याद में बैठना। दोनों में अन्तर है। जैसे-अभी भी विश्व पर अशान्ति का वायुमण्डल है तो सेवा प्रति संगठित रूप में विशेष याद के प्रोग्राम बनाते हो, वह अलग बात है। वह तो दाता बन देने के लिए करते हो। वह मांगने के लिए नहीं करते हो, औरों को देने के लिए करते हो। तो वह हुआ सेवा प्रति। लेकिन अपनी कमजोरी भरने के प्रति समय पर विशेष याद करते हो और वैसे अलबेलेपन की याद होती है। याद होती है, भूलते नहीं हो लेकिन अलबेलेपन की याद आती है-हम तो हैं ही बाबा के, और है ही कौन। लेकिन यथार्थ शक्तिशाली याद का प्रत्यक्ष-प्रमाण समय प्रमाण शक्ति हाज़र हो जाए। कितना भी कोई कहे-मैं तो याद में रहती ही हूँ वा रहता ही हूँ, लेकिन याद का स्वरूप है सफ-लता। ऐसे नहीं-जिस समय याद में बैठते उस समय खुशी भी अनुभव होती, शक्ति भी अनुभव होती और जब कर्म में, सम्बन्ध-सम्पर्क में आते उस समय सदा सफलता नहीं होती। तो उसको कर्मयोगी नहीं कहा जायेगा। शक्तियाँ शस्त्र हैं और शस्त्र किस समय के लिए होता है? शस्त्र सदा समय पर काम में लाया जाता है।

यथार्थ याद अर्थात् सर्व शक्ति सम्पन्न। सदा शक्तिशाली शस्त्र हो। परिस्थिति रूपी दुश्मन आया और शस्त्र काम में नहीं आये, तो इसको क्या कहा जायेगा? शक्तिशाली या शस्त्र धारी कहेंगे? हर कर्म में याद अर्थात् सफलता हो। इसको कहा जाता है कर्मयोगी। सिर्फ बैठने के टाइम के योगी नहीं हो। आपके योग का नाम बैठा-बैठा योगी है या कर्मयोगी नाम है? कर्मयोगी हो ना। निरन्तर कर्म है और निरन्तर कर्मयोगी हो। जैसे कर्म के बिना एक सेकेण्ड भी रह नहीं सकते, चाहे सोये हुए हो-तो वह भी सोने का कर्म कर रहे हो ना। तो जैसे कर्म के बिना रह नहीं सकते वैसे हर कर्म योग के बिना कर नहीं सकते। इसको कहा जाता है कर्मयोगी। ऐसे नहीं समझो कि बात ही ऐसी थी ना, सरकमस्टांश ही ऐसे थे, समस्या ही ऐसी थी, वायुमण्डल ऐसा था। यही तो दुश्मन है और उस समय कहो-दुश्मन आ गया, इसलिए तलवार चला न सके, तलवार काम में लगा नहीं सके, या तलवार याद ही नहीं आये, या तलवार ने काम नहीं किया-तो ऐसे को क्या कहा जायेगा? शस्त्र धारी? शक्ति-सेना हो। तो सेना की शक्ति क्या होती है? शस्त्र । और शस्त्र हैं सर्व शक्तियाँ। तो रिजल्ट क्या देखा? मैजारिटी सदा समय पर सर्व शक्तियों को ऑर्डर पर चला सकें-इसमें कमी दिखाई दी। समझते भी हैं लेकिन सफलता-स्वरूप में समय प्रमाण या तो शक्तिहीन बन जाते हैं या थोड़ा-सा असफलता का अनुभव कर फौरन सफलता की ओर चल पड़ते हैं। तीन प्रकार के देखे।

एक-उसी समय दिमाग द्वारा समझते हैं कि यह ठीक नहीं है, नहीं करना चाहिए लेकिन उस समझ को शक्तिस्वरूप में बदल नहीं सकते।

दूसरे हैं-जो समझते भी हैं लेकिन समझते हुए भी समय वा समस्या पूरी होने के बाद सोचते हैं। वह थोड़े समय में सोचते हैं, वह पूरा होने के बाद सोचते।

तीसरे-महसूस ही नहीं करते कि यह रांग है, सदा अपने रांग को राइट ही सिद्ध करते हैं। अर्थात् सत्यता की महसूसता-शक्ति नहीं। तो अपने को चेक करो कि मैं कौन हूँ?

बापदादा ने देखा कि वर्तमान समय के प्रमाण सदा और सहज सफलता किन बच्चों ने प्राप्त की है। उसमें भी अन्तर है। एक हैं सहज सफलता प्राप्त करने वाले और दूसरे हैं मेहनत और सहज-दोनों के बाद सफलता पाने वाले। जो सहज और सदा सफलता प्राप्त करते हैं उनका मूल आधार क्या देखा? जो आत्मायें सदा स्वयं को निर्माणचित की विशेषता से चलाते रहते हैं, वही सहज सफलता को प्राप्त होते आये हैं। निर्माणशब्द एक है लेकिन निर्माण-स्थिति का विस्तार और निर्माण-स्थिति के समय प्रमाण प्रकार........ वह बहुत हैं। उस पर फिर कोई समय सुनायेंगे। लेकिन यह याद रखना कि निर्मान बनना ही स्वमान है और सर्व द्वारा मान प्राप्त करने का सहज साधन है। निर्मान बनना झुकना नहीं है लेकिन सर्व को अपनी विशेषता और प्यार में झुकाना है। समझा?

सभी ने रिजल्ट सुनी। समय आपका इन्तज़ार कर रहा है और आप क्या कर रहे हो? आप समय का इन्तजार कर रहे हो? मालिक के बालक हो ना। तो समय आपका इन्तज़ार कर रहा है कि ये मेरे मालिक मुझ समय को परिवर्तन करेंगे। वह इन्तजार कर रहा है और आपको इन्तजाम करना है, इन्तजार नहीं करना है। सर्व को सन्देश देने का और समय को सम्पन्न बनाने का इन्तजाम करना है। जब दोनों कार्य सम्पन्न हों तब समय का इन्तजार पूरा हो। तो ऐसा इन्तजाम सब कर रहे हो? किस गति से? समय को देख आप भी कहते हो कि बहुत फास्ट समय बीत रहा है। इतने वर्ष कैसे पूरे हो गये-सोचते हो ना! अव्यक्त बाप की पालना को भी 25 वर्ष होने को हो गये। कितना फास्ट समय चला! तो आपकी गति क्या है? फास्ट है? या फास्ट चलकर कभी-कभी थक जाते हो, फिर रेस्ट करते हो? कर रहे हैं-यह तो ड्रामा के बंधन में बंधे हुए ही हो। लेकिन गति क्या है, इसको चेक करो। सेवा हो रही है, पुरूषार्थ हो रहा है, आगे बढ़ रहे हैं-यह तो ठीक है। तो अब गति को चेक करो, सिर्फ चलने को चेक नहीं करो। गति को चेक करो, स्पीड को चेक करो। समझा? सभी अपना काम कर रहे हो ना। अच्छा!

चारों ओर के सदा बाप के आगे जी-हाज़रकरने वाले, सदा मास्टर सर्वशक्तिवान बन सर्व शक्तियों को स्वयं के आर्डर में चलाने वाले, सर्व शक्तियाँ जी-हाज़रका पार्ट बजाने वाली-ऐसे सदा सफलतामूर्त आत्मायें, सदा हर कर्म में याद का स्वरूप अनुभव करने वाले और कराने वाले-ऐसे अनुभवी आत्माओं को सदा हर कर्म में, सम्बन्ध में, सम्पर्क में निर्माण बन विजयी-रत्न बनने वाले, ऐसे सहज सफलतामूर्त श्रेष्ठ बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

साधारण कर्म में भी ऊंची स्थिति की झलक दिखाना ही फॉलो फादर करना है

सदा संगमयुगी पुरूषोत्तम आत्मा हैं-ऐसे अनुभव करते हो? संगमयुग का नाम ही है पुरूषोत्तम। अर्थात् पुरूषों से उत्तम पुरूष बनाने वाला युग। तो संगमयुगी हो? आप सभी पुरूषोत्तम बने हो ना। आत्मा पुरूष है और शरीर प्रकृति है। तो पुरूषोत्तम अर्थात् उत्तम आत्मा हूँ। सबसे नम्बरवन पुरूषोत्तम कौन है? (ब्रह्मा बाबा) इसीलिए ब्रह्मा को आदि देव कहा जाता है। फरिश्ता ब्रह्माभी उत्तम हो गया और फिर भविष्य में देव आत्मा बनने के कारण पुरूषोत्तम बन जाते। लक्ष्मी-नारायण को भी पुरूषोत्तम कहेंगे ना। तो पुरूषोत्तम युग है, पुरूषोत्तम मैं आत्मा हूँ। पुरूषोत्तम आत्माओं का कर्तव्य भी सर्वश्रेष्ठ है। उठा, खाया-पीया, काम किया-यह साधारण कर्म नहीं, साधारण कर्म करते भी श्रेष्ठ स्मृति, श्रेष्ठ स्थिति हो। जो देखते ही महसूस करे कि यह कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। जैसे-जो असली हीरा होगा वह कितना भी धूल में छिपा हुआ हो लेकिन अपनी चमक जरूर दिखायेगा, छिप नहीं सकता। तो आपकी जीवन हीरे तुल्य है ना।

कैसे भी वातावरण में हों, कैसे भी संगठन में हों लेकिन जैसे हीरा अपनी चमक छिपा नहीं सकता, ऐसे पुरूषोत्तम आत्माओं की श्रेष्ठ झलक सबको अनुभव होनी चाहिए। तो ऐसे है या दफ्तर में जाकर, काम में जाकर आप भी वैसे ही साधारण हो जाते हो? अभी गुप्त में हो, काम भी साधारण है। इसीलिए पाण्डवों को गुप्त रूप में दिखाया है। गुप्त रूप में राजाई नहीं की, सेवा की। तो दूसरों के राज्य में गवर्मेन्ट-सर्वेन्ट कहलाते हो ना। चाहे कितना भी बड़ा आफीसर हो लेकिन सर्वेन्ट ही है ना। तो गुप्त रूप में आप सब सेवा-धारी हो लेकिन सेवाधारी होते भी पुरूषोत्तम हो। तो वह झलक और फलक दिखाई दे।

जैसे ब्रह्मा बाप साधारण तन में होते भी पुरूषोत्तम अनुभव होता था। सभी ने सुना है ना। देखा है या सुना है? अभी भी अव्यक्त रूप में भी देखते हो-साधारण में पुरूषोत्तम की झलक है! तो फॉलो फादर है ना। ऐसे नहीं-साधारण काम कर रहे हैं। मातायें खाना बना रही हैं, कपड़े धुलाई कर रही हैं-काम साधारण हो लेकिन स्थिति साधारण नहीं, स्थिति महान हो। ऐसे है? या साधारण काम करते साधारण बन जाते हैं? जैसे दूसरे, वैसे हम-नहीं। चेहरे पर वो श्रेष्ठ जीवन का प्रभाव होना चाहिए। यह चेहरा ही दर्पण है ना। इसी से ही आपकी स्थिति को देख सकते हैं। महान हैं या साधारण हैं-यह इसी चेहरे के दर्पण से देख सकते हैं। स्वयं भी देख सकते हो और दूसरे भी देख सकते हैं। तो ऐसे अनुभव करते हो? सदैव स्मृति और स्थिति श्रेष्ठ हो। स्थिति श्रेष्ठ है तो झलक आटोमेटिकली श्रेष्ठ होगी।

जो समान स्थिति वाले हैं वे सदा बाप के साथ रहते हैं। शरीर से चाहे किसी कोने में बैठे हों, किनारे बैठे हों, पीछे बैठे हों लेकिन मन की स्थिति में साथ रहते हो ना। साथ वही रहेंगे जो समान होंगे। स्थूल में चाहे सामने भी बैठे हों लेकिन समान नहीं तो सदा साथ नहीं रहते, किनारे में रहते हैं। तो समीप रहना अर्थात् समान स्थिति बनाना। इसलिए सदा ब्रह्मा बाप समान पुरूषोत्तम स्थिति में स्थित रहो। कई बच्चों की चलन और चेहरा लौकिक रीति में भी बाप समान होता है तो कहते हैं-यह तो जैसे बाप जैसा है। तो यहाँ चेहरे की बात तो नहीं लेकिन चलन ही चित्र है। तो हर चलन से बाप का अनुभव हो-इसको कहते हैं बाप समान। तो समीप रहना चाहते हो या दूर? इस एक जन्म में संगम पर स्थिति में जो समीप रहता है, वह परमधाम में भी समीप है और राजधानी में भी समीप है। एक जन्म की समीपता अनेक जन्म समीप बना देगी।

हर कर्म को चेक करो। बाप समान है तो करो, नहीं तो चेंज कर दो। पहले चेक करो, फिर करो। ऐसे नहीं-करने के बाद चेक करो कि यह ठीक नहीं था। ज्ञानी का लक्षण है-पहले सोचे, फिर करे। अज्ञानी का लक्षण है-करके फिर सोचते। तो आप ‘‘ज्ञानी तू आत्मा’’ हो ना। या कभी-कभी भक्त बन जाते हो? पंजाब वाले तो बहादुर हैं ना। मन से भी बहादुर। छोटी-सी माया चींटी के रूप में आये और घबरा जायें-नहीं। चैलेन्ज करने वाले। स्टूडेन्ट कभी पेपर से घबराते हैं? तो आप बहादुर हो या छोटे से पेपर में भी घबराने वाले हो? जो योग्य स्टूडेन्ट होते हैं वो आह्वान करते हैं कि जल्दी से पेपर हो और क्लास आगे बढ़े। जो कमजोर होते हैं वो सोचते हैं-डेट आगे बढ़े। आप तो होशियार हो ना।

यह निश्चय पक्का हो कि हम ही कल्प-कल्प के विजयी हैं और हम ही बार-बार बनेंगे। इतना पुरूषार्थ किया है? आप नहीं बनेंगे तो कौन बनेंगे? आप ही विजयी बने थे, विजयी बने हैं और विजयी रहेंगे। विजयीशब्द बोलने से ही कितनी खुशी होती है! चेहरा बदल जाता है ना। जो सदा विजयी रहते वो कितना खुश रहते हैं! इसीलिए जब भी कोई किसी भी क्षेत्र में विजय प्राप्त करता है तो खुशी के बाजे बजते हैं। आपके तो सदा ही बाजे बजते हैं। कभी भी खुशी के बाजे बन्द न हों। आधा कल्प के लिए रोना बन्द हो गया। जहाँ खुशी के बाजे बजते हैं वहाँ रोना नहीं होता। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

यथार्थ निर्णय का आधार-निश्चयबुद्धि और निश्चिंत स्थिति

सदा अपने को विजयी रत्न अनुभव करते हो? सदा विजयी बनने का सहज साधन क्या है? सदा विजयी बनने का सहज साधन है-एक बल एक भरोसा। एक में भरोसा और उसी एक भरोसे से एक बल मिलता है। निश्चय सदा ही निश्चिंत बनाता है। अगर कोई समझते हैं कि मुझे निश्चय है, तो उसकी निशानी है कि वो सदा निश्चिंत होगा और निश्चिंत स्थिति से जो भी कार्य करेगा उसमें जरूर सफल होगा। जब निश्चिंत होते हैं तो बुद्धि जजमेन्ट यथार्थ करती है। अगर कोई चिंता होगी, फिक्र होगा, हलचल होगी तो कभी जजमेन्ट ठीक नहीं होगी। तराजू देखा है ना। तराजू की यथार्थ तौल तब होती है जब तराजू में हलचल नहीं हो। अगर हलचल होगी तो यथार्थ नहीं कहा जायेगा। ऐसे ही, बुद्धि में अगर हलचल है, फिक्र है, चिन्ता है तो हलचल जरूर होगी।

इसीलिए यथार्थ निर्णय का आधार है-निश्चयबुद्धि, निश्चिंत। सोचने की भी आवश्यकता नहीं। क्योंकि फॉलो फादर है ना। यह करूँ, वह करूँ........-ये तब सोचे जब अपना कुछ करना हो। फॉलो करना है ना। तो फॉलो करने के लिए सोचने की आवश्यकता नहीं। कदम पर कदम रखना। कदम है श्रीमत। जो श्रीमत मिली है उसी प्रमाण चलना अर्थात् कदम पर कदम रखना। तो सोचने की आवश्यकता है क्या? नहीं है ना। निश्चिंत हैं तो सदा ही निर्णय यथार्थ देंगे। जब निर्णय यथार्थ होगा तो विजयी होंगे। निर्णय ठीक नहीं होता तो जरूर हलचल है। जब भी कोई हलचल हो तो सोचो कि ब्रह्मा बाप ने क्या किया? क्योंकि ब्रह्मा बाप कर्म का सैम्पल है। ब्रह्मा बाप ने हर कदम श्रीमत पर उठाये। तो फॉलो फादर। सिर्फ फॉलो ही करना है, कोई नया रास्ता नहीं निकालना है, सोचना नहीं है। जब मनमत मिक्स करते हो तब मुश्किल होता है। एक-मुश्किल होगा, दूसरा-असफल। मेहनत तो की है ना। गांव में खेती का काम करते हैं तो मेहनत करते हैं। यहाँ तो मेहनत नहीं करनी है। सहज पसन्द है या मेहनत? मेहनत करके, अनुभव करके देख लिया।

अब बाप कहते हैं-मेहनत छोड़ मोहब्बत में रहो, लवलीन रहो। जो लव में लीन होता है उसको मेहनत नहीं करनी पड़ती है। ब्राह्मण माना मौज, ब्राह्मण माना मेहनत नहीं। बाप ने कहा और बच्चों ने किया-इसमें मेहनत की क्या बात है! बच्चों का काम है करना, सोचना नहीं। सहज योगी हो ना। सदा विजयी रत्न हो ना। यह रूहानी निश्चय चाहिए कि हम नहीं बनेंगे तो कौन बनेंगे! इतना अटल निश्चय हो। जब फॉलो फादर कर रहे हो तो कौन बनेंगे। वही बनेंगे ना। निश्चय तो निश्चय ही हुआ ना। अगर निश्चय में 10%, 20% कम हुआ तो निश्चय नहीं कहेंगे।

जो सदा विजयी है उसी को ही बेफिक्र बादशाह कहा जाता है। जो अभी बादशाह बनता है वो ही भविष्य में बादशाह बनेंगे। अभी बेफिक्र बादशाह नहीं तो भविष्य में भी नहीं। तो राजा बनने वाले हो या औरों को राज्य करते हुए देखेंगे? स्वराज्य है तो विश्व-राज्य है। ऐसे अधिकारी हो? अधीन तो नहीं होते-क्या करें, संस्कार पक्का है? ऐसे तो नहीं-चाहते नहीं लेकिन हो जाता है? इसको कहेंगे अधीन। तो कभी अधीन तो नहीं हो जाते? क्रोध करना तो नहीं चाहते लेकिन आ जाता है। चाहते नहीं हैं लेकिन मज-बूर हो जाते हैं। नहीं। अधिकारी बन गये तो अधीनता समाप्त हुई। जैसे चाहें, जो चाहें वह कर सकते हैं। अधिकारी के संकल्प में यह कभी नहीं आयेगा कि-’’चाहते नहीं हैं, हो जाता है, पुरूषार्थ कर रहे हैं, हो जायेगा।’’ इससे सिद्ध है कि अधीन हैं। जो अधीन होगा वह अधिकारी नहीं। जो अधिकारी होगा वो अधीन नहीं। या रात होगी या दिन होगा। दोनों इकट्ठे नहीं। अधिकारऔर अधीनता’-दोनों इकट्ठे नहीं चल सकते। मातायें अधिकारी बन गई? लोगों ने कहाँ फेंक दिया और बाप ने कहाँ रख दिया! लोगों ने पांव की जुत्ती बना दिया और बाप ने सिर का ताज बनाया। खुशी है ना। कहाँ जूती, कहाँ ताज-कितना फर्क है! अभी तो शक्तिस्वरूप बन गये। पाण्डव भी शक्तिरूप में देखते हैं ना। शिव शक्ति भी विजयी हैं तो पाण्डव भी विजयी हैं। अविनाशी निश्चय, अविनाशी नशा है तो सदा ही विजय निश्चित है। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

सदा तन्दरूस्त रहने के लिये रोज खुशी की खुराक खाइये

सभी अपने को खुशनसीब आत्मायें अनुभव करते हो? जो खुशनसीब आत्मायें हैं उनके मन में सदा खुशी के गीत बजते हैं। ‘‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य!’’-यह गीत बजता है ना। यह खुशी का गीत गाना तो सभी को आता है ना। चाहे बूढ़ा हो, चाहे बच्चा हो, चाहे जवान हो-सभी गाते हैं। और मन में है ही क्या जो चले। यही खुशी के गीत बजेंगे ना। और सब बातें खत्म हो गई। बस, बाप और मैं, तीसरा न कोई। जब ऐसी स्थिति बन जाती है तब खुशी के गीत बजते हैं-’’वाह बाबा वाह, वाह मेरा भाग्य वाह!’’ वैसे भी गाया हुआ है-खुशीसबसे बड़ी खुराक है, खुशी जैसी और कोई खुराक नहीं। जो खुशी की खुराक खाने वाले हैं वो सदा तंदुरुस्त रहेंगे, हेल्दी रहेंगे, कभी कमजोर नहीं होंगे। जो अच्छी खुराक खाते हैं वो शरीर से कमजोर नहीं होते हैं। खुशी है मन की खुराक। मन कभी कमजोर नहीं होगा, सदा शक्तिशाली। मन और बुद्धि सदा शक्तिशाली हैं तो स्थिति शक्तिशाली होगी। ऐसी शक्तिशाली स्थिति वाले सदा ही अचल-अडोल रहेंगे। तो खुशी की खुराक खाते हो? या कभी खाते हो, कभी भूल जाते हो? ऐसे होता है ना। शरीर के लिए भी ताकत की चीजें देते हैं तो कभी खाते हैं, कभी भूल जाते हैं। यह खुराक किस समय खाते हो? कभी खाओ, कभी न खाओ-ऐसे तो नहीं है।

सबसे बड़ी खुशी की बात है-बाप ने अपना बना लिया! दुनिया वाले तड़पते हैं कि भगवान की एक सेकेण्ड भी नज़र पड़ जाये और आप सदा नयनों में समाये हुए हो! वो तो एक घड़ी की नज़र कहते हैं और आप रहते ही बाप की नज़रों में हो। इसीलिए टाइटल है-नूरे रत्न आंखों के नूर। तो वे तड़पते हैं और आप समा गये। इसको कहा जाता है खुशनसीब। सोचा नहीं था लेकिन बन गये। अपना नसीब देखकर के नशे में रहते हो ना। वाह-वाह! अभी हाय-हायतो नहीं करते ना। कभी हाय-हायकरते हो? थोड़ा भी दु:ख की लहर अनुभव हुई अर्थात् हाय-हायहुई। ‘‘हाय! यह होना नहीं चाहिए, ऐसे हो गया........’’-कभी दु:ख की लहर आती है? सुखदाता के बच्चे को दु:ख कहाँ से आया? सागर के बच्चे हो और पानी सूख जाए तो उसे क्या कहेंगे? दु:ख की लहर समाप्त हुई? कभी तन का, कभी धन का, कभी बीमारी का दु:ख होता है? कभी पोत्रे-धोत्रे बीमार हो जाए, कभी खेती में नुकसान हो जाए-तो दु:ख होगा?

सदा यह स्मृति में रहे कि हम सुखदाता के बच्चे मास्टर सुखदाता हैं। जो दाता है, उसके पास है तभी तो देगा ना। तो इतना है जो मास्टर दाता बनो? जिसके पास अपने खाने के लिए ही नहीं हो वह दाता कैसे बनेगा। इसलिए जैसा बाप वैसे बच्चे। बाप को सागर कहते हैं। सागर अर्थात् बेहद, खुटता नहीं। कितना भी सागर को सुखाते हैं, खुटता नहीं। तो आप भी मास्टर सागर हो, नदी-नाले नहीं। भाग्यविधाता बाप बन गया। तो बाप के पास जो है वह बच्चों का है। भाग्य आपका वर्सा है। वर्सा सम्भालने आता है? या गँवाने वाले हो? कई बच्चों को सम्भालना नहीं आता तो खत्म कर देते हैं और कइयों को सम्भालना अच्छा आता है तो बढ़ा देते हैं। आप कौन हो? बढ़ाने वाले। ऐसा भाग्य सारे कल्प में अभी मिलता है। तो ऐसी अमूल्य चीज़ बढ़ानी है, न कि गँवानी है। बढ़ाने का साधन है-बाँटना।

जितना औरों को भाग्यवान बनायेंगे अर्थात् भाग्य बांटेंगे उतना भाग्य बढ़ता जायेगा। गायन है ना-जब ब्रह्मा ने भाग्य बांटा तो सोये हुए थे क्या? तो ब्रह्मा ने भाग्य बांटा और ब्रह्माकुमार-कुमारी क्या करते? भाग्य बांटते हो ना। जितना बांटेंगे उतना बढ़ेगा। दूसरा धन खर्च करने से कम होता है और यह भाग्य जितना खर्चेंगे उतना बढ़ेगा। पाण्डव तो कमाने में होशियार होते हैं। क्योंकि जानते हो कि एक जन्म जमा का है और अनेक जन्म खाने के हैं। सतयुग में कमाई करेंगे क्या? आराम से खाते रहेंगे। एक जन्म का पुरूषार्थ और अनेक जन्म की प्रालब्ध। तो जन्म-जन्म के लिए इसी एक जन्म में इकठ्ठा करना है। अच्छा! सभी सन्तुष्ट हो ना। ब्राह्मण जीवन में अगर सन्तुष्ट नहीं रहे तो कब रहेंगे। अभी ही सन्तुष्टता का मजा है। ब्राह्मण जीवन का लक्षण ही है सन्तुष्ट रहना। सन्तुष्ट हैं तो खुश हैं, अगर सन्तुष्ट नहीं तो खुश नहीं। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

ड्रामा के ज्ञान की स्मृति हर विघ्न को नथिंग-न्युकर देगी

अपने को सदा विघ्न-विनाशक आत्मा अनुभव करते हो? या विघ्न आये तो घबराने वाले हो? विघ्न-विनाशक आत्मा सदा ही सर्व शक्तियों से सम्पन्न होती है। विघ्नों के वश होने वाले नहीं, विघ्न-विनाशक। कभी विघ्नों का थोड़ा प्रभाव पड़ता है? कभी भी किसी भी प्रकार का विघ्न आता है तो स्मृति रखो कि-विघ्न का काम है आना और हमारा काम है विघ्न-विनाशक बनना। जब नाम है विघ्न-विनाशक, तो जब विघ्न आयेगा तब तो विनाश करेंगे ना। तो ऐसे कभी नहीं सोचना कि हमारे पास यह विघ्न क्यों आता है? विघ्न आना ही है और हमें विजयी बनना है। तो विघ्न-विनाशक आत्मा कभी विघ्न से न घबराती है, न हार खाती है। ऐसी हिम्मत है? क्योंकि जितनी हिम्मत रखते हैं, एक गुणा बच्चों की हिम्मत और हजार गुणा बाप की मदद। तो जब इतनी बाप की मदद है तो विघ्न क्या मुश्किल होगा? इसलिए कितना भी बड़ा विघ्न हो लेकिन अनुभव क्या होता है? विघ्न नहीं है लेकिन खेल है। तो खेल में कभी घबराया जाता है क्या? खेल करने में खुशी होती है ना! ऐसे खेल समझने से घबरायेंगे नहीं लेकिन खुशी-खुशी से विजयी बनेंगे। सदा ड्रामा के ज्ञान की स्मृति से हर विघ्न को नथिंग न्युसमझेगा। नई बात नहीं, बहुत पुरानी है।

कितने बार विजयी बने हो? (अनेक बार) याद है या ऐसे ही कहते हो? सुना है कि ड्रामा रिपीट होता है, इसीलिए कहते हो या समझते हो अनेक बार किया है? अगर ड्रामा की प्वाइन्ट बुद्धि में क्लीयर है कि हू-ब-हू रिपीट होता है, तो उस निश्चय के प्रमाण हू-ब-हू जब रिपीट होता है, तो अनेक बार रिपीट हुआ है और अब रिपीट कर रहे हैं। लेकिन निश्चय की बात है। अगले कल्प में और कोई विजयी बने और इस कल्प में आप विजयी बनो-यह हो नहीं सकता। क्योंकि जब बना-बनाया ड्रामा कहते हैं, तो बना हुआ है और बना रहे हैं अर्थात् रिपीट कर रहे हैं। ऐसा निश्चयबुद्धि अचल-अडोल रहता है।

अचलघर किसका यादगार है? ज्ञान के राज़ों में जो अचल रहता है उसका यादगार अचलघर है। तो यह नशा रहता है ना कि हम प्रैक्टिकल में अपना यादगार देख रहे हैं। जो सदा विघ्न-विनाशक स्थिति में स्थित रहता है वह सदा ही डबल लाइट रहता है। कोई बोझ है? सब-कुछ तेरा कर लिया है? कि आधा तेरा, आधा मेरा? 75%  बाप का, 25%  मेरा? कभी तेरा कह दो, और जब मतलब हो तो मेरा कह दो? मेरा-मेरा कहते तो अनुभव कर लिया, क्या मिला? तेरा कहने से भरपूर हो जायेंगे। मेरा-मेरा कहेंगे तो खाली हो जायेंगे। सदा डबल लाइट अर्थात् सब-कुछ तेरा। जरा भी अगर मोह है तो मेरा है। तेरा अर्थात् निर्मोही।

ग्रुप नं. 5

सब-कुछ समर्पित कर एवररेडी बनो

सभी अपने को हर कदम में पद्मों की कमाई जमा करने वाले समझते हो? कितना जमा किया है? अरब, खरब-कितना जमा किया है? हिसाब कर सकते हो? आजकल का कम्प्यूटर हिसाब कर सकता है? तो सारे कल्प में और सारे वर्ल्ड में ऐसा साहूकार कोई होगा? आप सभी हो? या कोई कम हो, कोई ज्यादा हो? सभी भरपूर हो? सदैव ये नशा रहे कि हर कदम में पद्मों की कमाई करने वाली आत्मा हूँ। लौकिक दुनिया में कहते हैं कि इतना कमा कर इकठ्ठा करें जो वंश के वंश खाते रहें। तो आपकी कितनी जनरेशन (पीढ़ियां) खाती रहेंगी? एक जन्म में अनेक जन्मों की कमाई जमा कर ली है और अनेक जन्म आराम से खाते रहेंगे। सतयुग में अमृतवेले उठकर योग लगायेंगे? योग की सिद्धि प्राप्त करेंगे। जैसे-पढ़ाई तब तक पढ़ी जाती है जब तक पास नहीं हो जाते। तो अनेक जन्मों जितना जमा किया है? कभी भी विनाश हो जाये तो आपका जमा रहेगा ना। या कहेंगे-थोड़ा समय मिले तो और कर लें? अभी और टाइम चाहिए? एवररेडी हो? आप यहाँ आये हो और यहीं विनाश शुरू हो जाए तो सेन्टर या सेन्टर का सामान याद आयेगा? कुछ याद नहीं आयेगा। इतने बेफिक्र बादशाह बने हो ना! जब देह भी अपनी नहीं तो और क्या अपना है! तन, मन, धन-सब दे दिया ना! जब संकल्प किया कि सब-कुछ तेरा, तो एवररेडी हो गये ना। सभी ने दृढ़ संकल्प कर लिया है कि मैं बाप की और बाप मेरा। संकल्प किया या दृढ़ संकल्प किया? कोई फिक्र नहीं है। कोई ऐसी खबर आ जाये तो फिक्र होगा? फ्लैट याद नहीं आयेगा? अच्छा है, पक्के हैं। जब ब्राह्मण बनना ही है तो पक्का बनना है, कच्चा बनने से क्या फायदा! जीते-जी मर गये कि थोड़ा-थोड़ा श्वांस चलता है? कहाँ श्वांस छिप तो नहीं गया है?

देखो, बाप का बच्चों से प्यार है। तो प्यार की निशानी क्या होती है? प्यार की निशानी है-जिससे प्यार होता है उस पर सब न्यौछावर कर देते हैं। तो बाप ने सब वर्सा आपको दे दिया ना! कुछ अपने लिए रखा है? और देखो, ऐसा कोई प्यार नहीं कर सकता जो रोज इतना प्यार का पत्र लिखे। रोज याद-प्यार मिलता है ना। तो बच्चों का प्यार है तब बाप प्यार का रेसपान्ड देते हैं। आपका भी इतना ही प्यार है ना। कि बाप से भी ज्यादा प्यार है? प्यार की और निशानी है कि-जिससे प्यार होगा उससे कभी अलग नहीं होंगे। तो बाप बच्चों को कभी अलग नहीं करता, सदा साथ है और सदा साथ रहेंगे। और कोई है ही नहीं जिसका साथ पकड़ो। बाप समान बनने का पुरूषार्थ फास्ट गति से कर रहे हो ना। समीप आने वाले हो ना। कौनसी माला में आने वाले हो? (108) 16108 में आने वाला कोई नहीं है? तो 108 की माला डबल विदेशियों की बननी है? अच्छा है, लक्ष्य सदा श्रेष्ठ रखना ही यथार्थ पुरूषार्थ है।

मन्सा-सेवा और वाचा-सेवा-दोनों करते हो या एक करते हो? डबल सेवा करते हो? सहज कौनसी लगती है? (कुछ ने मन्सा सेवा में और कुछ ने वाचा सेवा में हाथ उठाया, कुछ ने दोनों में ही हाथ उठाया) दोनों ही अभ्यास जरूरी हैं। क्योंकि जैसा समय वैसी सेवा कर सकेंगे। तो सभी जगह सेवा अच्छी चल रही है। विदेश में सतयुग के आदि की जो संख्या है उनमें से कितने तैयार किये हैं? एक लाख तैयार हुए हैं? इन्डिया 8 लाख करे तो फारेन एक लाख तो करे। कब करेंगे? कितना टाइम चाहिए? अभी सभी को समाचार गया है ना! एक मास में एक तो कर सकते हो ना। हो सकता है? तो 12 मास में कितने हो जायेंगे? समय आप मालिकों का इन्तज़ार कर रहा है। कम से कम 9 लाख तो तैयार चाहिए ना। मन्सा और वाचा-डबल सेवा से जल्दी से जल्दी सेवा को बढ़ाओ। सेवा का उमंग अच्छा रहता है। लेकिन सदैव आगे बढ़ते रहना है। इसलिए सेवा का उमंग है और आगे उमंग को बढ़ाओ। बापदादा बच्चों के पुरूषार्थ की लगन और सेवा की लगन-दोनों को देख हर्षित होते हैं। इसलिए बहुत फास्ट गति से तैयार करो।

सभी उड़ती कला वाली आत्माए हो ना। डबल फॉरेनर्स मजबूत हैं? घबराने वाले तो नहीं हो ना! बापदादा सदैव कहते हैं कि डबल फॉरेनर्स अभी एक शब्द सदा के लिए समाप्त करो। कौनसा शब्द? (कभी-कभी) तो फीनिश (समाप्त) किया? कि अभी भी सम-टाइम’(Sometime; कभी-कभी) है! जब बाप का प्यार सदा है तो बच्चों का भी प्यार सदा है। या सम-टाइमहै? तो सम-टाइमशब्द खत्म हुआ? क्योंकि अब से सदा खुश रहने का, सदा शक्तिशाली रहने का अभ्यास करेंगे तो बहुत समय का पुरूषार्थ अन्त में काम में आयेगा। ऐसे कभी नहीं सोचना कि आगे चलकर हो जायेंगे। सब सन्तुष्ट हो? दृष्टि मिली और वरदान मिला-’’सम-टाइम फीनिश’’सदाशब्द को सदा याद रखना।

इस समय सभी मधुबन निवासी हो। मधुबन निवासी बनना अच्छा लगता है ना। ओरिजिनल एड्रेस (पता) मधुबन है ना। घर है मधु-बन और गये हैं सेवा-स्थान पर। सारे विश्व की सेवा होनी है, इसलिए अलग-अलग स्थानों पर सेवा करने के लिए गये हो। लेकिन ओरिजिनल मधुबन निवासी हो और आगे भी भारत पर ही राज्य करने वाले हो। भारत ही सबसे महान और सबसे सुन्दर बनेगा।

जो पहली बार आये हैं उन्हों को वरदान है कि सदा नम्बर पहला लेना है। नम्बरवन बनने के लिए जो हर समय विन करता है वह वन होता है। फास्ट गति से उड़ते रहना। ताकत है ना। पंख मजबूत हैं? किसके कमजोर तो नहीं हैं? ज्ञान और योग-ये दोनों पंख मजबूत होंगे तो उड़ते रहेंगे। ज्ञान अर्थात् हर कदम श्रीमत पर चलने की समझ। याद अर्थात् सदा बाप के साथ का अनुभव करना। तो दोनों ही पंख मजबूत हैं ना। अगर किसी भी प्रकार की कमजोरी है तो कमजोरी सहज को मुश्किल कर देती है और शक्ति-शाली हैं तो मुश्किल सहज हो जायेगा, असम्भव भी सम्भव हो जायेगा। इतने पावरफुल हो ना।

दादियों से मुलाकात

वर्तमान समय कौनसा बैलेन्स चल रहा है? एक तरफ धमाल, दूसरे तरफ कमाल। कुछ भी हो लेकिन कमाल ही हो रही है ना। हर क्षेत्र में आप लोग तो आगे ही बढ़ रहे हो ना। तो दुनिया में है धमाल और आपके पास समाचारों में कमाल है। जितनी धमाल होगी उतनी आपकी कमाल होगी और प्रत्यक्ष होते जायेंगे। दुनिया वाले डरते हैं और आप और ही निर्भय होते हैं। निर्भय हो या धमाल से डरते हो? जितनी धमाल देखते हो उतना यही सोचते हैं कि आज धमाल है और कल हमारी कमाल हुई ही पड़ी है! बैलेन्स चल रहा है ना। देखो, डिग्री भी मिल रही है, (दादी जी को उदयपुर युनिवार्सिटी से डॉक्टरेट की डिग्री मिलने वाली है) मकान भी मिल रहे हैं। जो असम्भव बातें हैं वो सम्भव हो रही हैं। तो यह कमाल है ना। निमन्त्रण भी मिल रहे हैं। कुछ समय पहले यह नहीं था, अभी बढ़ रहा है। तो कमाल बढ़ रही है ना। ये बाप ब्रह्मा द्वारा फास्ट गति की सेवा का सबूत दिखा रहे हैं। जो मुश्किल बातें होती हैं वे समय अनुसार ऐसी सहज होती जायेंगी जैसे हुई ही पड़ी हों! इसलिए आपको भय नहीं है। सोचते हो कि ये कब धमाल तो होनी ही है और हमारी कमाल भी होनी ही है। कोई डरते हैं-कर्फ्यू लगा, ये सिविल वार हो रही है, क्या होगा! डरते हो? ड्रामा अनुसार यह सभी और पुरूषार्थ को मजबूत करते हैं। अच्छा! और सब ठीक है? (दादी जी को थोड़ी खांसी है) तबियत का हिसाब चुक्तू कर रही हो। एक तो आयु के हिसाब से भी हिसाब चुक्तू होता है और दूसरा रहस्य यह है कि महारथियों को सब हिसाब यहीं चुक्तू करना है, जरा भी रहना नहीं है। बापदादा को तो खेल लगता है। जब ब्रह्मा बाप ने क्रॉस (Cross; पार) किया तो आप सबको भी क्रॉस तो करना ही है। या तो है योगबल से सहज क्रॉस करना, या तो है धर्मराज के क्रॉस (शूली) पर चढ़ना। तो ये क्रॉस कर रहे हैं, इसलिए क्रॉस पर नहीं चढ़ेंगे। अच्छा!

क्रिसमस प्रति बापदादा का सन्देश

जिन्होंने भी क्रिसमस के, न्यु-इयर के कार्ड भेजे हैं-सभी बच्चों को बापदादा का पद्म गुणा याद, प्यार स्वीकार हो। क्रिसमस का अर्थ है बड़ा दिन। वो बड़ा दिन मनाते हैं और आप सब बड़ी दिल वाले हो। तो बड़ी दिल रखने वाले जो होते हैं वो सदा स्वयं भी भरपूर रहते हैं और दूसरों को भी भरपूर रखते हैं। तो बड़ी दिल से बड़ा दिन मनाने वालों को मुबारक। क्रिसमस-डेकी गिफ्ट तो बापदादा ने सभी को वरदान दिये। यह सबसे बड़ी गिफ्ट है। ब्लेसिंग याद है ना। अच्छा!



31-12-92   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सफलता प्राप्त करने का साधन-सब-कुछ सफल करो

अपने सर्व खज़ानों को सफल करने की लगन में मग्न रहने वाले बच्चों प्रति नव-जीवन दाता बापदादा बोले -

आज नव-जीवन देने वाले रचता बाप अपनी नव-जीवन बनाने वाले बच्चों को देख रहे हैं। यह नव-जीवन अर्थात् श्रेष्ठ ब्राह्मण-जीवन है ही नव-युग की रचना करने के लिए। तो हर ब्राह्मण आत्मा की नई जीवन नव-युग लाने के लिए ही है जिसमें सब नया ही नया है। प्रकृति भी सतोप्रधान अर्थात् नई है।

दुनिया के हिसाब से नया वर्ष मनाते हैं-नये वर्ष की बधाइयां देते हैं वा एक-दो को नये वर्ष की निशानी गिफ्ट भी देते हैं। लेकिन बाप और आप नव-युग की मुबारक देते हो। सर्व आत्माओं को खुशखबरी सुनाते हो कि अब नव-युग अर्थात् गोल्डन दुनिया सत-युगवा स्वर्गआया कि आया! यही सेवा करते हो ना। यही खुशखबरी सुनाते हो ना। नये युग की गोल्डन गिफ्ट भी देते हो। क्या गिफ्ट देते हो? जन्म-जन्म के अनेक जन्मों के लिए विश्व का राज्य-भाग्य। इस गोल्डन गिफ्ट में सर्व अनेक गिफ्टस आ ही जाती हैं। अगर आज की दुनिया में कोई कितनी भी बड़ी ते बड़ी वा बढ़िया ते बढ़िया गिफ्ट दे, तो भी क्या देंगे? अगर कोई किसको आजकल का ताज वा तख्त भी दे दे, वह भी आपकी सतोप्रधान गोल्डन गिफ्ट के आगे क्या है? बड़ी बात है क्या?

नव-जीवन रचता बाप ने आप सभी बच्चों को यह अमूल्य अविनाशी गिफ्ट दे दी है। अधिकारी बन गये हो ना। ब्राह्मण आत्मायें सदा अखुट निश्चय की फलक से क्या कहते कि यह विश्व का राज्य-भाग्य तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है! इतनी फलक है ना। या कभी कम हो जाती, कभी ज्यादा हो जाती? ‘‘निश्चय है और निश्चित है’’-इस अधिकार की भावी को कोई टाल नहीं सकता। निश्चयबुद्धि आत्माओं के लिए यह निश्चित भावी है। निश्चित है ना। या कुछ चिन्ता है-पता नहीं, मिलेगा या नहीं? कभी संकल्प आता है? अगर ब्राह्मण हैं तो निश्चित है-ब्राह्मण सो फरिश्ता, फरिश्ता सो देवता। पक्का निश्चय है ना। कि थोड़ी हलचल होती है? अचल, अटल है? तो ऐसी गोल्डन गिफ्ट बाप ने आपको दी और आप क्या करेंगे? औरों को देंगे। अल्पकाल की गिफ्ट है तो अल्पकाल समाप्त होने पर गिफ्ट भी समाप्त हो जाती है। लेकिन यह अविनाशी गिफ्ट हर जन्म आपके साथ रहेगी।

वास्तविक मनाना तो नव-युग का ही मनाना है। लेकिन इस संगमयुग में हर दिन ही मनाने का है, हर दिन मौज में रहने का है, हर दिन खुशी के झूले में झूलने का है वा खुशी में नाचने का है, अविनाशी गीत गाने का है। इसलिए ब्राह्मण जीवन का हर दिन मनाते रहते हो। हर दिन ब्राह्मणों के लिए उत्साह-उमंग बढ़ाने वाला उत्सव है। इसलिए यादगार रूप में भी भारत में अनेक उत्सव मनाते रहते हैं। यह प्रसिद्ध है कि भारत में साल के सभी दिन मनाने के हैं। और कहाँ भी इतने उत्सव नहीं होते जितने भारत में होते हैं। तो यह आप ब्राह्मणों के हर दिन मनाने का यादगार बना हुआ है। इसलिए नये वर्ष का दिन भी मना रहे हो। नया वर्ष मनाने के लिए आये हो। तो सिर्फ एक दिन मनायेंगे? पहली तारीख खत्म होगी तो मनाना भी खत्म हो जायेगा?

आप श्रेष्ठ आत्माओं का नया जन्म अर्थात् इस ब्राह्मण जन्म की श्रेष्ठ राशि है-हर दिन मनाना, हर दिन उत्सव। आपकी जन्म-पत्री में लिखा हुआ है कि हर दिन सदा श्रेष्ठ से श्रेष्ठ होना है। आप ब्राह्मणों की श्रेष्ठ राशि है ही सदा उड़ती कला की। ऐसे नहीं कि दो दिन बहुत अच्छे और फिर दो दिन के बाद थोड़ा फर्क होगा। मंगल अच्छा रहेगा, गुरूवार उससे अच्छा रहेगा, शुक्रवार फिर विघ्न आयेगा-ऐसी राशि आपकी है क्या? जो हो रहा है वह भी अच्छा और जो होने वाला है वह और अच्छा! इसको कहते हैं ब्राह्मणों के उड़ती कला की राशि। ब्राह्मण जीवन की राशि बदल गई। क्योंकि नया जन्म हुआ ना। तो इस वर्ष हर रोज अपनी श्रेष्ठ राशि देख प्रैक्टिकल में लाना।

दुनिया के हिसाब से यह नया वर्ष है औप आप ब्राह्मणों के हिसाब से विशेष अव्यक्त वर्ष मना रहे हो। नया वर्ष अर्थात् अव्यक्त वर्ष का आरम्भ कर रहे हो। तो इस नये वर्ष का वा अव्यक्त वर्ष का विशेष स्लोगन सदा यही याद रखना कि सदा सफलता का विशेष साधन है-हर सेकेण्ड को, हर श्वांस को, हर खज़ाने को सफल करना। सफल करना ही सफलता का आधार है। किसी भी प्रकार की सफलता-चाहे संकल्प में, बोल में, कर्म में, सम्बन्ध-सम्पर्क में, सर्व प्रकार की सफलता अनुभव करने चाहते हो तो सफल करते जाओ, व्यर्थ नहीं जाये। चाहे स्व के प्रति सफल करो, चाहे और आत्माओं के प्रति सफल करो। तो आटोमेटिकली सफलता की खुशी की अनुभूति करते रहेंगे। क्योंकि सफल करना अर्थात् वर्तमान के लिए सफलता और भविष्य के लिए जमा करना है।

जितना इस जीवन में समयसफल करते हो, तो समय की सफलता के फलस्वरूप राज्य-भाग्य का फुल (Full) समय राज्य-अधिकारी बनते हो। हर श्वांस सफल करते हो, इसके फलस्वरूप अनेक जन्म सदा स्वस्थ रहते हो। कभी चलते-चलते श्वांस बन्द नहीं होगा, हार्ट फेल नहीं होगा। एक गुणा का हजार गुणा सफलता का अधिकार प्राप्त करते हो। इसी प्रकार से सर्व खज़ाने सफल करते रहते हो। इसमें भी विशेष ज्ञान का खज़ाना सफल करते हो। ज्ञान अर्थात् समझ। इसके फलस्वरूप ऐसे समझदार बनते हो जहाँ भविष्य में अनेक वजीरों की राय नहीं लेनी पड़ती, स्वयं ही समझदार बन राज्य-भाग्य चलाते हो। दूसरा खज़ाना है-सर्व शक्तियों का खज़ाना। जितना शक्तियों के खज़ाने को कार्य में लगाते हो, सफल करते हो उतना आपके भविष्य राज्य में कोई शक्ति की कमी नहीं होती। सर्व शक्तियाँ स्वत: ही अखण्ड, अटल, निर्विघ्न कार्य की सफलता का अनुभव कराती हैं। कोई शक्ति की कमी नहीं। धर्म-सत्ता और राज्य-सत्ता - दोनों ही साथ-साथ रहती हैं। तीसरा है-सर्व गुणों का खज़ाना। इसके फलस्वरूप ऐसे गुणमूर्त बनते हो जो आज लास्ट समय में भी आपके जड़ चित्र का गायन सर्व गुण सम्पन्न देवताके रूप में हो रहा है। ऐसे हर एक खज़ाने की सफलता के फलस्वरूप का मनन करो। समझा? आपस में इस पर रूहरिहान करना। तो इस अव्यक्त वर्ष में सफल करना और सफलता का अनुभव करते रहना।

यह अव्यक्त वर्ष विशेष ब्रह्मा बाप के स्नेह में मना रहे हो। तो स्नेह की निशानी है-जो स्नेही को प्रिय वह स्नेह करने वाले को भी प्रिय हो। तो ब्रह्मा बाप का स्नेह किससे रहा? मुरली से। सबसे ज्यादा प्यार मुरली से रहा ना तब तो मुरलीधर बना। भविष्य में भी इसलिए मुरलीधर बना। मुरली से प्यार रहा तो भविष्य श्रीकृष्ण रूप में भी मुरलीनिशानी दिखाते हैं। तो जिससे बाप का प्यार रहा उससे प्यार रहना-यह है प्यार की निशानी। सिर्फ कहने वाले नहीं-ब्रह्मा बाप बहुत प्यारा था भी और है भी। लेकिन निशानी? जिससे ब्रह्मा बाप का प्यार रहा, अब भी है-उससे प्यार सदा दिखाई दे। इसको कहेंगे ब्रह्मा बाप के प्यारे। नहीं तो कहेंगे नम्बरवार प्यारे। नम्बरवन नहीं कहेंगे, नम्बरवार कहेंगे। अव्यक्त वर्ष का लक्ष्य है-बाप के प्यार की निशानियां प्रैक्टिकल में दिखाना। यही मनाना है। जिसको दूसरे शब्दों में कहते हो बाप समान बनना।

जो भी कर्म करो, विशेष अन्डरलाइन करो कि कर्म के पहले, बोल के पहले, संकल्प के पहले चेक करो कि यह ब्रह्मा बाप समान है, यह प्यार की निशानी है? फिर संकल्प को स्वरूप में लाओ, बोल को मुख से बोलो, कर्म को कर्मेन्द्रियों से करो। पहले चेक करो, फिर प्रैक्टिकल करो। ऐसे नहीं कि सोचा तो नहीं था लेकिन हो गया। नहीं। ब्रह्मा बाप की विशेषता विशेष यही है-जो सोचा वह किया, जो कहा वह किया। चाहे नया ज्ञान होने के कारण अपोजिशन कितनी भी रही लेकिन अपने स्वमान की स्मृति से, बाप के साथ की समर्थी से और दृढ़ता, निश्चय के शस्त्र से, शक्ति से अपनी पोजिशन की सीट पर सदा अचल-अटल रहे। तो जहाँ पोजिशन है वहाँ अपोजिशन क्या करेगी। अपोजिशन, पोजिशन को दृढ़ बनाती है। हिलाती नहीं, और दृढ़ बनाती है। जिसका प्रैक्टिकल विजयी बनने का सबूत स्वयं आप हो और साथ-साथ चारों ओर की सेवा का सबूत है। जो पहले कहते थे कि यह धमाल करने वाले हैं, वे अब कहते हैं-कमाल करके दिखाई है! तो यह कैसे हुआ? अपोजिशन को श्रेष्ठ पोजिशन से समाप्त कर दिया।

तो अब इस वर्ष में क्या करेंगे? जैसे ब्रह्मा बाप ने निश्चय के आधार पर, रूहानी नशे के आधार पर निश्चित भावी के ज्ञाता बन सेकेण्ड में सब सफल कर दिया; अपने लिए नहीं रखा, सफल किया। जिसका प्रत्यक्ष सबूत देखा कि अन्तिम दिन तक तन से पत्र-व्यवहार द्वारा सेवा की, मुख से महावाक्य उच्चारण किये। अन्तिम दिवस भी समय, संकल्प, शरीर को सफल किया। तो स्नेह की निशानी है-सफल करना। सफल करने का अर्थ ही है-श्रेष्ठ तरफ लगाना। तो जब सफलता का लक्ष्य रखेंगे तो व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जायेगा। जैसे-रोशनी से अंधकार स्वत: ही खत्म हो जाता है। अगर यही सोचते रहो कि अंधकार को निकालो........-तो टाइम भी वेस्ट, मेहनत भी वेस्ट। ऐसी मेहनत नहीं करो। आज क्रोध आ गया, आज लोभ आ गया, आज व्यर्थ सुन लिया, बोल दिया, आज व्यर्थ हो गया-इसको सोचते-सोचते मेहनत करते दिलशिकस्त हो जायेंगे। लेकिन ‘‘सफल करना है’’-इस लक्ष्य से व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जायेगा। यह सफल का लक्ष्य रखना मानो रोशनी करना है। तो अंधकार स्वत: ही खत्म हो जायेगा। समझा, अव्यक्त वर्ष में क्या करना है? बापदादा भी देखेंगे कि नम्बरवन प्यारे बनते हैं या नम्बरवार प्यारे बनते हैं। सभी नम्बरवन बनेंगे? डबल विदेशी क्या बनेंगे? नम्बरवन बनेंगे? ‘नम्बरवनकहना बहुत सहज है! लेकिन लक्ष्य दृढ़ है तो लक्षण अवश्य आते हैं। लक्ष्य लक्षण को खींचता है। अब आपस में प्लैन बनाना, सोचना। बापदादा खुश हैं। अगर सब नम्बरवन बन जायें तो बहुत खुश हैं। फर्स्ट डिवीजन तो लम्बा-चौड़ा है, बन सकते हो। फर्स्ट डिवीजन में सब फर्स्ट होते हैं। तो नये वर्ष की यह मुबारक हो कि सभी नम्बरवन बनेंगे।

व्यर्थ पर विन करेंगे तो वन आयेंगे। व्यर्थ पर विन नहीं करेंगे तो वन नहीं बनेंगे। अभी भी व्यर्थ का खाता है-किसका संकल्प में, किसका बोल में, किसका सम्बन्ध-सम्पर्क में। अभी पूरा खाता खत्म नहीं हुआ है। इसलिए कभी-कभी निकल आता है। लेकिन लक्ष्य अपनी मंजिल को अवश्य प्राप्त कराता है। व्यर्थ को स्टॉप कहा और स्टॉप हो जाए। जब स्टॉप करने की शक्ति आयेगी तो जो पुराने खाते का स्टॉक है वह खत्म हो जायेगा। इतनी शक्ति हो। परमात्म-सिद्धि है। रिद्धि-सिद्धि वाले अल्पकाल का चमत्कार दिखाते हैं और आप परमात्म-सिद्धि वाले विधि द्वारा सिद्धि को प्राप्त करने वाले हो। परमात्म-सिद्धि क्या नहीं कर सकती! स्टॉपसोचा और स्टॉप हुआ। इतनी शक्ति है? या स्टॉप कहने के बाद भी एक-दो दिन भी लग जाते तो एक घण्टा, 10 घण्टा भी लग जाता है? स्टॉप तो स्टॉप। तो यही निशानी बाप को देनी है। समझा?

सेवा की सफलता वा प्रत्यक्षता तो ड्रामा अनुसार बढ़ती जायेगी। बढ़ रही है ना अभी। पहले आप निमन्त्रण् देते थे, अभी वे आपको निमन्त्रण देते हैं। तो सेवा के सफलता की प्रत्यक्षता हो रही है ना। आप लोगों को कोई स्टेज मिलने की वा डिग्री मिलने की आव-श्यकता नहीं है, लेकिन यह सेवा की प्रत्यक्षता है। भगवान की डिग्री के आगे यह डिग्री क्या है। (उदयपुर विश्वविद्यालय ने दादी जी को मानद् डॉक्टरेट की डिग्री दी है) लेकिन यह भी प्रत्यक्षता का साधन है। साधन द्वारा सेवा की प्रत्यक्षता हो रही है। बनी बनाई स्टेज मिलनी ही है। वह भी दिन आना ही है जो यह धर्मनेतायें भी आपको आमन्त्रित करके चीफ गेस्ट आपको ही बनायेंगे। अभी थोड़ा बाहर की रूपरेखा में उनको रखना पड़ता है, लेकिन अन्दर में महसूस करते हैं कि इन पवित्र आत्माओं को सीट मिलनी चाहिए। राजनेता तो कह भी देते हैं कि-हमको चीफ गेस्ट बनाते हो, यह तो आप ही बनते तो बेहतर होता। लेकिन ड्रामा में नाम उन्हों का, काम आपका हो जाता है।

जैसे सेवा में प्रत्यक्षता होती जा रही है, विधि बदलती जा रही है। ऐसे हर एक अपने में सम्पूर्णता और सम्पन्नता की प्रत्यक्षता करो। अभी इसकी आवश्यकता है और अवश्य सम्पन्न होनी ही है। कल्प-कल्प की निशानी आपकी सिद्ध करती है कि सफलता हुई ही पड़ी है। यह विजय माला क्या है? विजयी बने हैं, सफलतामूर्त बने हैं तो तो निशानी है ना! इस भावी को टाल नहीं सकते। कोई कितना भी सोचे कि अभी तो इतने तैयार नहीं हुए हैं, अभी तो खिट-खिट हो रही है-इसमें घबराने की जरूरत नहीं। कल्प-कल्प के सफलता की गारन्टी यह यादगार है। क्या होगा’, ‘कैसे होगा’-इस क्वेश्चन-मार्क की भी आवश्यकता नहीं है। होना ही है। निश्चित है ना। निश्चित भावी को कोई हिला नहीं सकता। अगर नाव और खिवैया मजबूत हैं तो कोई भी तूफान आगे बढ़ाने का साधन बन जाता है। तूफान भी तोहफा बन जाता है। इसलिए यह बीच-बीच में बाईप्लाट्स होते रहते हैं। लेकिन अटल भावी निश्चित है। इतना निश्चय है? या थोड़ा कभी नीचे-ऊपर देखते हो तो घबरा जाते हो-पता नहीं कैसे होगा, कब होगा? क्वेश्चन-मार्क आता है? यह तूफान ही तोहफा बनेगा। समझा? इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि विजयी। सिर्फ फॉलो फादर। अच्छा!

सर्व अटल निश्चय बुद्धि विजयी आत्मायें, सदा हर खज़ाने को सफल करने वाले सफलतामूर्त आत्मायें, सदा ब्रह्मा बाप को हर कदम में सहज फॉलो करने वाले, सदा नई जीवन और नवयुग की स्मृति में रहने वाली समर्थ आत्मायें, सदा स्वयं में बाप के स्नेह की निशानियों को प्रत्यक्ष करने वाली विशेष आत्माओं को श्रेष्ठ परिवर्तन की, अव्यक्त वर्ष की मुबारक, याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

ड्रामा का दृश्य देख हर्षित हो रही हो ना। ‘‘वाह ड्रामा वाह! वाह बाबा वाह........’’-यही गीत अनादि, अविनाशी चलते रहते हैं। बच्चे बाप को प्रत्यक्ष करते हैं और बाप शक्ति सेना को प्रत्यक्ष करते हैं। अच्छी सेवा रही। नई रूपरेखा तो होनी ही है। ऐसे ही सबके मुख से ‘‘बाबा-बाबा’’ शब्द निकलता रहे। क्योंकि विश्व-पिता है। तो ब्राह्मण आत्माओं के दिल से, मुख से तो बाबानिकलता ही है, लेकिन सर्व आत्माओं के दिल से वा मुख से ‘‘बाबा’’ निकले। तब तो समाप्ति हो ना। चाहे ‘‘अहो प्रभु’’ के रूप में निकले, चाहे ‘‘ वाह बाबा’’ के रूप में निकले। लेकिन बाबाशब्द का परिचय मिलना तो है ही। तो अभी यही सेवा का साधन अनुभव किया कि एक माइक कितनी सेवा कर सकता है। सन्देश देने का कार्य तो हो ही जाता है ना। तो अभी माइक तैयार करने हैं। यह (राजस्थान के राज्यपाल डॉ.एम.चन्ना रेड्डी) सैम्पल है। फिर भी माइक तैयार करने में भारत ने नम्बर तो ले ही लिया। ऐसे तैयार करना है अभी! राजस्थान का माइक आबू ने तैयार किया है, राजस्थान ने नहीं। तीर तो आबू से लगा ना। अच्छा!

अव्यक्त-बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

महावीर वह जिसके स्वप्न में भी दु:ख की लहर न आवे

सभी अपने को महावीर अनुभव करते हो? महावीर अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान। जो महावीर आत्मा है उसके लिए सर्व शक्तियाँ सदा सहयोगी हैं। ऐसे नहीं कि कोई शक्ति सहयोगी हो और कोई शक्ति समय पर धोखा देने वाली हो! हर शक्ति आर्डर पर चलने वाली हो। जिस समय जो शक्ति चाहिए वो सहयोगी बनती है या टाइम निकल जाता है, पीछे शक्ति काम करती है? आर्डर किया और हुआ। ये सोचना वा कहना न पड़े कि-करना नहीं चाहिए था लेकिन कर लिया, बोलना नहीं चाहिए लेकिन बोल लिया। इससे सिद्ध है कि शक्ति समय पर सहयोगी नहीं होती। सुनना नहीं चाहिए लेकिन सुन लिया, तो कान कर्मेन्द्रिय अपने वश में नहीं हुई ना! अगर सुनने नहीं चाहते और सुन लिया तो कान ने धोखा दे दिया। अपनी कर्मेन्द्रियां अगर समय पर धोखा दे दें तो उसको राजा कैसे कहेंगे?

राजयोगी का अर्थ ही है हर कर्मेन्द्रिय ऑर्डर पर चले। जो चाहे, जब चाहे, जैसा चाहिए-सर्व कर्मेन्द्रियां वैसा ही करें। महावीर कभी भी यह बहाना नहीं बना सकता कि समय ऐसा था, सरकमस्टांश ऐसे थे, समस्या ऐसी थी। नहीं। समस्या का काम है आना और महावीर का काम है समस्या का समाधान करना, न कि हार खाना। तो अपने आपको परीक्षा के समय चेक करो। ऐसे नहीं-परीक्षा तो आई नहीं, मैं ठीक हूँ! पास तो पेपर के टाइम होना पड़ता है! या पेपर हुआ ही नहीं और मैं पास हो गया? तो सदा निर्भय होकर विजयी बनना। कहना नहीं है, करना है! छोटी-मोटी बात में कमजोर नहीं होना है। जो महावीर विजयी आत्मा होते हैं वो सदा हर कदम में तन से, मन से खुश रहते हैं। उदास नहीं रहते, चिंता में नहीं आते। सदा खुश और बेफिक्र होंगे। महावीर आत्मा के पास दु:ख की लहर स्वप्न में भी नहीं आ सकती। क्योंकि सुख के सागर के बच्चे बन गये। तो कहाँ सुख का सागर और कहाँ दु:ख की लहर! स्वप्न भी परिवर्तन हो जाते हैं। नया जन्म हुआ तो स्वप्न भी नये आयेंगे ना! संकल्प भी नये, जीवन भी नई।

जब बाप के बन गये तो जैसा बाप वैसे बच्चे। बाप सागर और बच्चे खाली हों-यह हो सकता है? सागर का अर्थ है सदा भरपूर। सागर के बच्चे और सुख से खाली हो जाए-कौन मानेगा! सागर कभी सूख नहीं सकता। कितना भी सुखाते रहें लेकिन सागर समाप्त हो सकता है? तो सदा बाप की विशेषताओं को याद रखो-बाप क्या और मैं क्या? कभी मन में भी रोना न आये। दु:ख की निशानी है-रोना और खुशी की निशानी है-नाचना, गाना। अगर मन में भी रोना होता है तो समझो दु:ख की लहर है। सुख के सागर के बच्चे हो तो दु:ख कहाँ से आया? ऐसा अलबेलापन नहीं रखना-हो जायेगा, अन्त में ठीक हो जायेंगे। नहीं। धोखा खा लेंगे। तो सदा सुख के झूले में झूलते रहो। इसको कहा जाता है महावीर।

ग्रुप नं. 2

फरिश्ता बनना अर्थात् कर्म करते भी कर्म के बंधन से मुक्त होना

सभी अपने को डबल लाइट अर्थात् फरिश्ता समझते हो? फरिश्ते की विशेष निशानी है-फरिश्ता अर्थात् न्यारा और बाप का प्यारा, पुरानी दुनिया और पुरानी देह से लगाव का रिश्ता नहीं। देह से आत्मा का रिश्ता तो है, लेकिन लगाव का संबंध नहीं। एक है संबंधऔर दूसरा है बंधन। एक है कर्म-बन्धन और दूसरा है कर्म-सम्बन्ध। तो संबंध तो रहना ही है। जब तक कर्मेन्द्रियां हैं तो कर्म का संबंध तो रहेगा लेकिन बंधन नहीं हो। बंधन की निशानी है-जिसके बंधन में जो रहता है उसके वश रहता है। जो संबंध में रहता है वह स्वतन्त्र रहता है, वश नहीं होता। कर्मेन्द्रियों से कर्म के संबंध में आना अलग बात है लेकिन कर्मबन्धन में नहीं आना। फरिश्ता अर्थात् कर्म करते भी कर्म के बंधन से मुक्त। ऐसे नहीं कि आज आंख कहे कि यह करना ही है, देखना ही है-तो वश होकर के देख लें। जैसे कोई जेल में बंधन में होता है, तो जेलर जैसे चाहे उसको बिठायेगा, चलायेगा, खिलायेगा। तो बंधन में होगा ना! वो चाहे मैं जेल से चला जाऊं, तो जा सकता है? बंधन है ना। ऐसे पुराने शरीर का बंधन न हो, सिर्फ सेवा प्रति संबंध हो। ऐसी अवस्था है? या कभी बंधन, कभी संबंध? बंधन बार-बार नीचे ले आयेगा। तो फरिश्ता अर्थात् बंधनमुक्त। ऐसे नहीं-कोशिश करेंगे। कोशिशशब्द ही सिद्ध करता है कि पुरानी दुनिया की कशिश है। कोशिशशब्द नहीं। करना ही है, होना ही है। है’-’है’...... उड़ा देगा, ‘गे’-’गे’...... नीचे ले आयेगा। तो कोशिशशब्द समाप्त करो। फरिश्ता अर्थात् जीवन्मुक्त, जीवन-बंधन नहीं। न देह का बंधन, न देह के संबंध का बंधन, न देह के पदार्थों का बंधन। ऐसे जीवन्मुक्त हो? अव्यक्त वर्ष का अर्थ ही है फरिश्ता स्थिति में स्थित रहना।

चेक करो कि कौनसा लगाव नीचे ले आता है? अपनी देह का लगाव खत्म किया तो संबंध और पदार्थ आपे ही खत्म हो जायेंगे। अपनी देह का लगाव अगर है तो संबंध और पदार्थ का लगाव भी अवश्य ही खींचेगा। इसलिए पहला पाठ पढ़ाते हो कि-देह-भान को छोड़ो, तुम देह नहीं आत्मा हो। तो यह पाठ पहले अपने को पढ़ाया है? देह-भान को छोड़ने का सहज ते सहज तरीका क्या है? चलो, आत्मा बिन्दी याद नहीं आती, खिसक जाती है। लेकिन यह तो वायदा है कि तन भी तेरा, मन भी तेरा, धन भी तेरा.........। जब देह मेरी है ही नहीं तो लगाव किससे? जब मेरा है ही नहीं तो ममता कहाँ से आई? मेरे में ममता होती है! जब मैंने दे दिया तो लगाव खत्म हुआ। इस एक बात से ही सब लगाव सहज खत्म हो जायेंगे। अभी यह देह बाप की अमानत है सेवा के लिए। तो सदा फरिश्ता बनने के लिए पहले यह प्रैक्टिकल अभ्यास करो कि सेवा अर्थ है, अमानत है, मैं ट्रस्टी हूँ। ट्रस्टी अगर ट्रस्ट की चीज में ट्रस्ट नहीं करे तो उसको क्या कहा जायेगा? इस बात को पक्का करो। फिर देखो, फरिश्ता बनना कितना सहज लगता है! मेरा एक बाबा’; और मेरा सब-कुछ इस एक मेरेमें समा गया। सभी समेटने और समाने में होशियार हो ना! वो मेरा-मेरा है फँसाने वाला और यह एक मेरा है छुड़ाने वाला। एक मेराकहा तो सब छूटा। अच्छा!

दिल्ली वालों ने कौनसा माइक तैयार किया है? दिल्ली में माइक तो बहुत हैं ना! जितने दिल्ली में माइक हैं उतने कहाँ भी नहीं हैं। आबू ने माइक तैयार करके दिखाया है। लेकिन दिल्ली वालों ने नहीं किया है। तो फॉलो हेड-क्वार्टर (मुख्यालय)। माइक से जो सेवा होती है और आप जो सेवा करेंगे-कितना फर्क है! आप खुद अपना परिचय दो और दूसरा आपका परिचय दे, तो प्रभाव किसका पड़ेगा? तो माइक का काम है आपका परिचय देना! इसका प्रभाव तो पड़ता है ना। चाहे मानें, चाहे नहीं मानें लेकिन यह तो समझते हैं कि कुछ है..। पहले यह तीर लगता है, फिर कुछ के बाद सब कुछ होता है। तो पहले तीर लगाओ। माइक तैयार करो। क्योंकि दिल्ली का जो माइक निकलेगा उसका आवाज और भी बुलन्द होगा। दिल्ली का माइक और पावरफुल होगा जो वर्ल्ड में आवाज फैला सकेगा। इस वर्ष ही तैयार करेंगे या दूसरे वर्ष? दिल्ली की धरनी तो देव आत्माओं का आह्वान कर रही है। दिल्ली की धरनी पर ही देवात्मायें आयेंगी। तो दिल्ली वालों को सेवा भी ऐसी करनी है। अच्छा! हिम्मत रखने वालों को मदद मिलती है।

ग्रुप नं. 3

विश्व-राज्य के तख्तनशीन बनने का आधार है-अकालतख्तनशीन बनना

अपने को तख्तनशीन श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हो? आत्मा सदा किस तख्त पर विराजमान है, जानते हो? इसको कौनसा तख्त कहते हैं? अकाल है ना। आत्मा अकाल है, इसलिए उसके तख्त का नाम भी अकालतख्त है। आत्मा शरीर में सदा भृकुटि के बीच अकालतख्तनशीन है। तो तख्त नशीन जो होता है उसे राजा कहा जाता है। तख्त पर तो राजा ही बैठेगा ना। तो आप आत्मा भी अकालतख्तनशीन राजा हो। और अकालतख्तनशीन आत्माए बाप के दिल का तख्त और विश्व के राज्य का तख्त भी प्राप्त करती हैं। तो तीनों ही तख्त कायम हैं? तख्त पर बैठना आता है? या घड़ी-घड़ी नीचे आ जाते हो? जो पहले अकालतख्तनशीन हो सकते हैं वही बाप के दिलतख्तनशीन हो सकते हैं और जो दिलतख्तनशीन हैं वही विश्व के राज्य के तख्तनशीन हो सकते हैं। तो पहला आधार है-अकालतख्त। स्वराज्य है तो विश्व-राज्य है। जिसको स्वराज्य करना नहीं आता वह विश्व का राज्य नहीं कर सकता। तो स्वराज्य का तख्त है यह भृकुटि-अकालतख्त। बाप और बच्चे के सम्बन्ध का तख्त है बाप के दिल का तख्त। इन दो तख्त के आधार पर विश्व के राज्य का तख्त। तो पहले फाउन्डेशन क्या हुआ? अकालतख्त।

अकालतख्तनशीन आत्मा सदा नशे में रहती है। तख्त का नशा तो होगा ना। लेकिन यह रूहानी नशा है। अल्पकाल का नशा नहीं, नुकसान वाला नशा नहीं। यह रूहानी नशा हद के नशों को समाप्त कर देता है। हद के नशे तो अनेक प्रकार के हैं और रूहानी नशा एक है। मैं बाप का, बाप मेरा-यह रूहानी नशा है। बाप का बन गया-यह रूहानी नशा है। तो यह रूहानी नशा सदा रहता है? या उतरता-चढ़ता है-कभी ज्यादा चढ़ता, कभी कम चढ़ता? अगर कोई राजा हो, तख्त भी हो लेकिन तख्त का, राजाई का नशा नहीं हो तो वह राजा बिना नशे के राज्य चला सकेगा? अगर आत्मा रूहानी नशे में नहीं तो स्वराज्य कैसे कर सकेंगे? राज्य में हलचल होगी। देखो, प्रजा का प्रजा पर राज्य है तो हलचल है ना। अगर आत्मा स्वराज्य के नशे में नहीं, तो प्रजा का प्रजा पर राज्य हो जाता है। यह कर्मेन्द्रियां ही राज्य करती हैं। तो प्रजा का राज्य हुआ ना। उसका नतीजा होगा-हलचल। तो सदा तख्तनशीन आत्मा का रूहानी नशा रखो। ऐसा श्रेष्ठ बाप के दिल का तख्त सारे कल्प में नहीं मिल सकता। विश्व के राज्य का तख्त तो अनेक जन्म मिलता है लेकिन बाप के दिलतख्तनशीन सिर्फ अभी होते हैं। तो उसका फायदा लेना चाहिए ना।

जो बाप के दिलतख्तनशीन है उसके आगे कोई विघ्न, कोई समस्या नहीं आ सकती। न प्रकृति वार कर सकती, न माया वार कर सकती। दिलतख्तनशीन बनना अर्थात् सहज प्रकृतिजीत, मायाजीत बनना। तो ऐसे प्रकृतिजीत, मायाजीत बने हो? प्रकृति भी हलचल में लाती है ना। प्रकृति की हलचल ब्राह्मण आत्माओं को हिला देती है? तो हलचल नहीं होनी चाहिए ना। तख्त नशीन नहीं हैं तो हलचल में आते हैं। अगर तख्त नशीन हों तो किसकी हिम्मत नहीं हलचल में लाये। तो हलचल में आना अच्छा लगता है? अच्छा नहीं लगता है लेकिन हो जाता है। तो परवश हो गये ना। बन्धना किसी को भी अच्छा नहीं लगता है, लेकिन जब परवश हो जाता है तो बन्ध जाता है। तो परवश आत्मा हो या स्वतन्त्र आत्मा हो? मुक्त कब होंगे? जीवन-मुक्ति का मजा तो अभी है। भविष्य में जीवन-मुक्त और जीवन-बन्ध का कंट्रास्ट नहीं होगा। लेकिन इस समय तो समझते हो ना कि जीवन-बन्ध क्या है, जीवन-मुक्त क्या है। इस समय के जीवन्मुक्त का अनुभव श्रेष्ठ है। जीवन में हैं लेकिन मुक्त हैं, बन्धन में नहीं हैं। आप लोगों का स्लोगन है-मुक्ति और जीवनमुक्ति जन्मसिद्ध अधिकार है। तो अधिकार प्राप्त किया है? या जब परमधाम में जायेंगे तब ही प्राप्त करेंगे? वहाँ तो पता ही नहीं पड़ेगा-मुक्ति क्या है, जीवन-मुक्ति क्या है। इसका अनुभव तो अभी होता है। अनुभवी हो ना। सभी ने जीवन-मुक्त का अनुभव किया है या जब सतयुग में जायेंगे तब करेंगे? ब्राह्मण जीवन में जीवन-मुक्ति का अनुभव हो सकता है? (हो सकता है) तो होता है?

बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि जब आपकी रचना कमल पुष्प में यह विशेषता है कि न्यारा रह सकता है, जल में रहते जल के बन्धन से मुक्त है। तो मनुष्यात्मा रचता है और वह रचना है। तो रचना में यह विशेषता है और मास्टर रचता में नहीं? है ना। कभी भी बन्धनमुक्त के बजाए अगर बन्धनयुक्त हो जाओ, बन्धन में फंस जाओ तो अपने सामने कमल पुष्प का दृष्टान्त रखो कि जब कमल पुष्प न्यारा-प्यारा बन सकता है तो क्या मास्टर सर्वशक्तिवान नहीं बन सकता! तो सदा बन जायेंगे। थोड़ा टाइम बनते हैं, थोड़ा टाइम नहीं बनते हैं-इसमें मजा नहीं है ना। कभी बन्धन, कभी बन्धनमुक्त-यह अच्छा लगता है? तो जो अच्छी चीज नहीं लगती उसे छोड़ दिया जाता है। या थोड़ा-थोड़ा रखा जाता है? तो जीवन्मुक्त बनने की विधि क्या है? न्यारा और प्यारा बनने की विधि क्या है? तख्तनशीन बनो। सदा तख्तनशीन आत्मा बन जीवन्मुक्ति का अनुभव करते रहो। यह जीवन्मुक्ति की स्थिति बहुत प्यारी है।

सभी सदा राजी रहने वाले हो? हर बात में राजी-कोई गाली देवे तो भी राजी, कोई इन्सल्ट (अपमान) कर दे तो भी राजी! या उस समय काजी बन जाते हो? सदा खुश रहने वाले, सदा राजी रहने वाले समीप भी बनते और समान भी बनते। राजी रहना अर्थात् सर्व राज़ों को जानना। नाराज़ माना राज़ नहीं जानते तो नाराज़ रहते हैं। आप तो सब राज़ जान गये हो ना। तो राज़ को जानने वाले राजी रहेंगे ना। नाराज़ वो रहता जो राज़ को नहीं जानता। आप तो त्रिकालदर्शी, नॉलेजफुल हो गये हो ना। तो सब राज़ को जानने वाले, सदा राजी रहने वाले हैं। या प्रवृत्ति में थोड़ी खिटखिट होती है तो नाराज हो जाते हो? सदा राजी रहते हो? फलक से कहो-हाँ जी, हम नहीं रहेंगे तो कौन रहेंगे! सदैव यह स्मृति रखो कि भगवान बाप के बनने से अब राजी नहीं होंगे तो कब होंगे? अभी तो होना है ना। इसीलिए कहते ही हैं खुश-राजी। जो खुश होगा वो राजी होगा, जो राजी होगा वो खुश होगा। पूछते हैं ना एक-दो से-खुश-राजी हो? तो सदा राज़ को जानने वाले अर्थात् सदा खुश रहने वाले-खुश-राजी। ऐसे नहीं-यहाँ कहो हाँऔर वहाँ जाओ तो कहो क्या करें?’

ग्रुप नं. 4

विशेषतायें बाप की देन हैं, इसलिये कभी भी मेरापन न आये

बाप द्वारा जो सर्व खज़ाने मिले हैं उन सभी खज़ानों की चाबी क्या है? कौनसी चाबी लगाने से अनुभव होता है? ‘मेरा बाबा’-यही चाबी है। मेराऔर फिर बाबा। तो जब मेरा हो गया तो जो बाप का सो आपका हो गया और बाबाकहा अर्थात् वर्से के अधिकारी बने। खज़ाने सभी आत्माओं को प्राप्त हैं लेकिन खज़ानों का अनुभव तब कर सकते हो जब दिल से ये स्मृति में रहे कि मेरा बाबा। बाप कहते ही वर्सा याद आ जाता है।

मालिक के साथ बालक भी हो और बालक के साथ मालिक भी हो। बालक बनने से सदा बेफिक्र, सदा डबल लाइट रहते हैं और मालिक अनुभव करने से मालिकपन का रूहानी नशा रहता है। तो बालकपन का अनुभव भी आवश्यक है और मालिकपन का अनुभव भी आवश्यक है। अभी-अभी मालिक, अभी-अभी बालक-यह दोनों ही विधि आती हैं? कई ऐसी बातें वा सम्बन्ध-सम्पर्क में आने से कई समय ऐसे आते हैं जिसमें कहाँ मालिक बनना पड़ता है और कहाँ बालक बनना पड़ता है। अगर बालक बनने के बजाए उस समय मालिक बन जायें तो भी हलचल में आ जाते हैं और जिस समय मालिक बनना चाहिए उस समय बालक बन जायें तो भी हलचल। जैसा समय वैसा स्वरूप। कोई भी कार्य करते हो तो मालिक बनकर करते हो लेकिन जब कोई बड़े यह फाइनल करते हैं कि यह काम ऐसे नहीं, ऐसे हो-तो उस समय फिर बालक बन जाते हो। राय के समय मालिक और जब मैजारिटी फाइनल करते हैं तो उस समय बालक, उस समय मालिकपन का नशा नहीं-मैंने जो सोचा वो राइट है। अभी-अभी मालिक, अभी-अभी बालक। तो जैसा समय वैसे स्वरूप में स्थित रहना-यह विधि आती है? इसको कहा जाता है आलराउन्ड पार्ट बजाने वाले। रायबहादुर भी बने और हाँ जीकरने वाला भी। तो ऐसा करना आता है? क्योंकि इस ईश्वरीय मार्ग में कभी भी कोई ऐसे कह नहीं सकता कि मेरी बुद्धि का प्लैन बहुत अच्छा है, मेरी राय बहुत अच्छी है, मेरी राय क्यों नहीं मानी गई? ‘मेरीहै? मेरी बुद्धि बहुत अच्छा काम करती है, मेरी बुद्धि को रिगार्ड नहीं दिया गया। तो मेराहै? जो भी विशेषता है वह मेरीहै या बापकी देन है? तो बाप की देन में मेरापन नहीं आ सकता। इसलिए सदा ही न्यारे और प्यारे रहने वाले। तो यह भी एक सीढ़ी है बालक और मालिक बनने की। यह सीढ़ी है-कभी चढ़ो, कभी उतरो। कभी बालक बन जाओ, कभी मालिक बन जाओ। इससे सदा ही हल्के रहेंगे, किसी प्रकार का बोझ नहीं।

सब प्रकार का बोझ बाप को दे दिया ना। बोझ उठाने की आदत तो नहीं है ना। बोझ उठाने की आदत होती है तो कितना भी कहो, बोझ उठायेंगे जरूर। बोझ उठाने वाले नहीं, हल्के रहने वाले। जितना हल्का उतना ऊंची स्थिति में उड़ता रहेगा। बोझ वाले की निशानी है-वह नीचे स्वत: ही आ जाता है और हल्के की निशानी है-वह स्वत: सहज ऊंचा उड़ता रहेगा। तो कौन हो? उड़ने वाले ना। जब समय ही है उड़ती कला का, तो उड़ती कला के समय उड़ने में ही प्राप्ति है। दोनों में बिज़ी रहते हो-याद में भी और सेवा में भी। दिन-रात सेवाधारी को सेवा के बिना चैन नहीं आता है। ऐसे सेवाधारी हो? या जब चांस मिलता है तब सेवा करते हो? जैसे सेवा में आगे बढ़ते हो ऐसे याद में भी सदा आगे बढ़ो। याद और सेवा का बैलेन्ससदा आगे बढ़ाता है। बैलेन्स रखना आता है? कभी सेवा में बहुत आगे चले जाओ, कभी याद में आगे जाओ तो सेवा भूल जाओ-ऐसे नहीं। याद और सेवा - दोनों सदा साथ रहें। अच्छा!

प्रवृत्ति में रहते सभी न्यारे और प्यारे रहते हो ना। किसी भी बंधन में फँस तो नहीं जाते हो? आधा कल्प तो स्वयं को फंसाते रहे, निकलने की कोशिश करते भी फंसते रहे। अब बाप ने सब बन्धनों से न्यारा बना दिया, तो संकल्प मात्र भी किसी भी सम्बन्ध में, अपने देह में, पदार्थों में फंसना नहीं। 63 जन्म अनुभव करके देखा ना, पँसने से क्या मिला? जो-कुछ था वो गंवाया ना। तो संकल्प में भी बंधन-मुक्त। इसको कहा जाता है न्यारा और प्यारा। संकल्प में भी बंधन आकर्षित न करे। क्योंकि संकल्प में आयेगा तो संकल्प के बाद फिर कर्म में आ जाता है। तो संकल्प में ही खत्म कर दो। इसी न्यारे और प्यारे अर्थात् अव्यक्त स्थिति का विशेष अभ्यास करना है। व्यक्त भाव में आते भी, व्यक्त भाव के आकर्षण में नहीं आना। अव्यक्त का अर्थ ही है व्यक्त भाव से परे। अव्यक्त बनना आता है ना। तो अभी सदाशब्द को अन्डरलाइन करना। सभी खुश हैं? कभी खुशी चली तो नहीं जाती? कभी कम हो जाती है? आपका खज़ाना है तो बढ़ते रहना चाहिए, कम नहीं होना चाहिए। तो खुश रहना और खुशी बाँटना। अच्छा है, सेवा भी बढ़ाते चलो और स्वयं को भी उड़ाते चलो।

ग्रुप नं. 5

गम्भीरता और हर्षितमुखता के बैलेन्स से एकरस स्थिति का अनुभव करो

सभी बाप के साथ और हाथ का अनुभव सदा करते हो? सदा साथ अर्थात् हर कदम में बाप की मदद का सहज अनुभव होता रहे। जैसे बच्चे को बाप या माँ का साथ होता है तो वो कितना सहज आगे बढ़ता रहता है! तो ऐसे साथ का अनुभव होता है? ‘सदाहोता है या कभी-कभीहोता है? सम-टाइम (कभी-कभी) समाप्त हुआ या अभी भी सम-टाइम है? बाप का साथ सहज बनाता है और बाप का साथ नहीं है, बाप से किनारा है तो मुश्किल होता है। बाप बच्चों को इस समय साथ रहने की ऑफर करते हैं। तो जब बाप ऑफर करते हैं तो इस ऑफर को प्रैक्टिकल में लाना चाहिए ना! 63 जन्म भिन्न-भिन्न नाम-रूप में पुकारते रहे। अभी बाप मिला है तो सदा साथ का अनुभव करो।

आप सबका ब्रह्मा बाप से कितना प्यार है? ब्रह्मा बाप से प्यार है तो ब्राह्मण कल्चर से भी तो प्यार है। सबसे श्रेष्ठ दृष्टि है अनुभव की। अनुभव के नेत्र से जो देखते हैं वो कभी भी किसी के कहने से हलचल में नहीं आ सकते। देखा हुआ फिर भी सोचना पड़ेगा-पता नहीं ठीक देखा, नहीं देखा। लेकिन अनुभव की आंख से देखने, अनुभव करने वाली चीज सदा ही यथार्थ होती है। सभी अनुभव तो किया है ना। अगर एक लाख आत्माए आपको कहें कि ब्रह्मा बाप को देखा नहीं है आपने; तो क्या कहेंगे? कहेंगे-देखा है। इससे कोई आपको हटा नहीं सकता।

फॉरेन में कितनी माला तैयार की है? 108 की माला तैयार की है या 16108 की? तो डबल फॉरेनर्स की अलग 108 की माला बनेगी या मिक्स में आयेंगे? अलग तो नहीं है ना। तो सभी 108 में हो! तो इन्डिया वाले कौनसी माला में आयेंगे? (सभी एक में ही आयेंगे) हिम्मत अच्छी रखते आये हो और आगे भी हिम्मत सदा आगे बढ़ाती रहेगी। अभी कन्फ्यूज (मूंझना) होने की माया तो नहीं आती है ना। कभी-कभी कन्फ्यूज करती है? मूड चेंज तो नहीं होती? तो इस वर्ष में न कोई कन्फ्यूज होना और न कभी किसी बात से मूड चेंज करना। सदा हर कर्म में फॉलो ब्रह्मा बाप। ब्रह्मा बाप भी सदा हर्षित और गम्भीर-दोनों के बैलेन्स की एकरस स्थिति में रहे। तो फॉलो फादर। और कोई माया तो नहीं आती है ना। सदा अपने को विजयी अर्थात् मायाजीत अनुभव करते उड़ते चलो। तो सभी मायाजीत हो ना। संकल्प में भी माया नहीं आती? वेस्ट थॉट्स (व्यर्थ संकल्प) के रूप में आती है? तो मायाजीत का टाइटल मिल गया। कि लेना है? सेरीमनी हो गई है। या सेरीमनी नहीं हुई है? फरिश्ते की ड्रेस पहन ली? मिल गई? जैसे दादी को डॉक्टरेट की ड्रेस मिली है, ऐसे ही आपको भी फरिश्ते की ड्रेस मिल गई है? फिर व्यर्थ संकल्प कहाँ से आये? तो फरिश्ते को वेस्ट थॉट्स आते हैं क्या! अभी वेस्ट का नाम-निशान खत्म कर देना। बापदादा बच्चों का उमंग-उत्साह देख हर्षित होते हैं। सिर्फ सदाशब्द को बार-बार अन्डरलाइन लगाते रहना। तो यह कौनसा ग्रुप है? फरिश्ता ग्रुप। डबल फॉरेनर्स ग्रुप नहीं, फरिश्ता ग्रुप। अच्छा! जैसे संकल्प किया है वैसे सदा स्वयं भी फरिश्ता बन उड़ते रहना और औरों को भी फरिश्ता बनाते उड़ते रहना।

ग्रुप नं. 6

बेफिक्र रहने के लिये बुद्धि को स्वच्छ बनाओ

सदा अपने को बेफिक्र बादशाह अनुभव करते हो? क्योंकि फिक्र तब होता है जब मेरापन है। जब सब बाप के हवाले कर दिया तो बेफिक्र हो गये ना! सब-कुछ बाप को देकर बेफिक्र बादशाह बन गये। न अपनी देह है, न देह के संबंध हैं। तो बेफिक्र हो गये ना! सब प्रकार का फिक्र बाप को दे दिया। बेफिक्र बनने के कारण फिक्र खत्म हुआ और फखुर यानी नशा आ गया! क्या होगा, कैसे होगा, कल क्या होगा, परसों क्या होगा?-यह फिक्र रहता है? जब हालतें खराब होती हैं तब होता है? फिक्र रखने से जो भी अच्छा कर सकते हो वह भी नहीं कर सकेंगे। जिसको फिक्र हो जाता है उसकी बुद्धि यथार्थ निर्णय नहीं करती है। निर्णय ठीक न होने के कारण और ही मुश्किल बढ़ती जाती है। इसलिए सदैव बेफिक्र होंगे तो बुद्धि निर्णय अच्छा करेगी। निर्णय अच्छा हुआ तो सफलता हुई पड़ी है। देखो, आज कोई लखपति होता है और कल कखपति बन जाता है। कारण क्या होता है? निर्णय शक्ति राइट काम नहीं करती है-हाँके बजाए नाकर दिया, ‘नाके बजाए हाँकर दिया; तो खत्म। निर्णय शक्ति यथार्थ काम तब करेगी जब बुद्धि खाली होगी। फिक्र से बुद्धि फ्री नहीं है तो और ही नुकसान होता है। इसलिए बेफक्र अर्थात् सदा मन और बुद्धि फ्री हो। तो ऐसे फ्री हो या कोई किचड़ा है? योग-अग्नि द्वारा जो भी किचड़ा था वह जल गया! अगर अग्नि तेज नहीं होगी तो कुछ जलेगा, कुछ रह जायेगा। योग-अग्नि द्वारा जो भी बुद्धि में किचड़ा था वो खत्म हो गया! जिसकी बुद्धि इतनी स्वच्छ होगी वही सदा बेफिक्र रह सकता है। इसीलिए सदा स्वच्छता सबको प्यारी है। कहाँ भी गन्दगी होगी तो उसे कौन पसन्द करेगा! तो किसी भी प्रकार की कमजोरी-यह गन्दगी है। तो सदैव चेक करो कि स्वच्छता है? मिक्स तो नहीं है? जरा-सा व्यर्थ संकल्प भी किचड़ा है।

सदा सवेरे अपनी बुद्धि को बिजी रखने का टाइम-टेबल बनाओ। जैसे अपनी स्थूल दिनचर्या बनाते हो, ऐसे बुद्धि का टाइम-टेबल बनाओ कि इस समय बुद्धि में इस समर्थ संकल्प से व्यर्थ को खत्म करें। जो बिजी होता है उसके पास कोई भी आता नहीं है, चला जाता है। अगर फ्री होगा तो सभी आकर बैठ जायेंगे। तो बुद्धि को बिजी रखने की विधि सदैव अपनाते रहो। बड़े आदमी जो होते हैं उनका एक-एक सेकेण्ड फिक्स होता है। तो आप कितने बड़े हो! तो अपने हर समय की दिनचर्या सेट करो। तो व्यर्थ को समाप्त करने का सहज साधन है-सदा बिजी रहना। जो बिजी रहता है वह व्यर्थ संकल्पों से मुक्त होने के कारण बेफिक्र और डबल लाइट रहता है! तो डबल लाइट हो ना! दृढ़ता है तो सफल हो जायेंगे। इस सारे वर्ष में चेक करना कि सारे वर्ष बेफिक्र रहे? किसी भी प्रकार का एक सेकेण्ड भी फिक्र नहीं हो। अच्छा!

अमृतवेले 2.30 बजे नये वर्ष की बधाई देते हुए बापदादा बोले-

चारों ओर के अति स्नेही, सदा समीप रहने वाले सर्व बच्चों को नये वर्ष की हर रोज़ की पद्म गुणा मुबारक। क्योंकि वर्ष का हर दिन कोई न कोई नवीनता ले आता है। सभी ब्राह्मण आत्माओं को हर समय कुछ न कुछ नवीनता अपने में और सेवा में अवश्य लानी है। तो इस वर्ष यह चेक करना कि हर दिन में स्व-उन्नति के प्रति वा सेवा के प्रति क्या नवीनता लाई है? सदा अपनी श्रेष्ठ स्टेज और पुरूषार्थ की स्पीड को आगे बढ़ाते रहना। आप सभी ब्राह्मण आत्माओं का आगे बढ़ना अर्थात् विश्व-परिवर्तन के कार्य में आगे बढ़ने की निशानी है। तो सदा हर समय नवीनता की मुबारक लेते रहना और औरों को भी नये उमंग-उत्साह से आगे बढ़ाते रहना। सदा उमंग-उत्साह से हर दिन उत्सव मनाते रहना। तो सदा उत्सव में खुशी में नाचते रहना और बाप के गुणों के गीत गाते रहना। मधुरता की मिठाई से स्वयं का मुख मीठा करते रहना और मधुर बोल, मधुर संस्कार, मधुर स्वभाव द्वारा दूसरों का भी मुख मीठा कराते रहना। ऐसे नये वर्ष की पद्म गुणा मुबारक हो, मुबारक हो, मुबारक हो। अच्छा!

जिन्होंने भी याद-प्यार भेजा है, कार्ड भेजे हैं, गिफ्ट भेजी हैं उन सबको हर देश और हर आत्मा को नाम सहित विशेष मुबारक और याद, प्यार। अच्छा!



09-01-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अव्यक्त वर्ष मनाना अर्थात् सपूत बन सबूत देना

ब्रह्मा बाप समान अव्यक्त फरिश्ता बनने के उमंग-उत्साह में रहने वाले बच्चों प्रति अव्यक्त बापदादा बोले -

आज अव्यक्त बाप अपने अव्यक्तमूर्त बच्चों से मिलन मना रहे हैं। अव्यक्त अर्थात् व्यक्त भाव से न्यारे और अव्यक्त बाप समान प्यारे। सभी बच्चे विशेष इस वर्ष ऐसे बाप समान बनने का लक्ष्य रखते हुए यथा शक्ति बहुत अच्छा पुरूषार्थ कर रहे हैं। लक्ष्य के साथ लक्षण भी धारण करते चल रहे हैं। बापदादा सभी बच्चों का पुरूषार्थ देख हर्षित होते हैं। हर एक समझते हैं कि यही समान बनना स्नेह का सबूत है। इसलिए ऐसे सबूत देने वाले बच्चों को ही सपूत बच्चे कहा जाता है। तो सपूत बच्चों को देख बापदादा खुश भी होते हैं और विशेष एकस्ट्रा मदद भी देते हैं।

जितना हिम्मतवान बनते हैं उतना पद्मगुणा बाप की मदद के स्वत: ही पात्र बन जाते हैं। ऐसे पात्र बच्चों की निशानी क्या होती है? जैसे बाप के लिए गायन है कि बाप के भण्डारे सदा भरपूर हैं, ऐसे सपूत बच्चों के सदा सर्व के दिल के स्नेह की दुआओं से, सर्व के सहयोग की अनुभूतियों से, सर्व खज़ानों से भण्डारे भरपूर रहते हैं। किसी भी खज़ाने से अपने को खाली नहीं अनुभव करेंगे। सदा उन्हों के दिल से यह गीत स्वत: बजता है-अप्राप्त नहीं कोई वस्तु बाप के हम बच्चों के भण्डारे में। उनकी दृष्टि से, वृत्ति से, वायब्रेशन्स से, मुख से, सम्पर्क से सदा भरपूर आत्माओं का अनुभव होता है। ऐसे बच्चे सदा बाप के साथ भी हैं और साथी भी हैं। यह डबल अनुभव हो। स्व की लगन में सदा साथ का अनुभव करते और सेवा में सदा साथी स्थिति का अनुभव करते। यह दोनों अनुभव साथीऔर साथका स्वत: ही बाप समान साक्षी अर्थात् न्यारा और प्यारा बना देता है। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा कि बाप और आप कम्बाइन्ड-रूप में सदा अनुभव किया और कराया। कम्बाइन्ड स्वरूप को कोई अलग कर नहीं सकता। ऐसे सपूत बच्चे सदा अपने को कम्बाइन्ड-रूप अनुभव करते हैं। कोई ताकत नहीं जो अलग कर सके।

जैसे सतयुग में देवताओं की प्रकृति दासी रहती है अर्थात् सदा समय प्रमाण सहयोगी रहती है, ऐसे सपूत बच्चों की श्रेष्ठ स्थिति कारण सर्व शक्तियाँ और सर्व गुण समय प्रमाण सदा सहयोगी रहते हैं अर्थात् सर्व शक्तियों के, गुणों के राज्य-अधिकारी रहते हैं। साथ-साथ ऐसे सपूत बच्चों का सेवा का विशेष स्वरूप क्या रहता? जैसे सभी वाणी द्वारा वा मन्सा-सेवा द्वारा सेवा करते रहते हैं, ऐसे सेवा वे भी करते हैं लेकिन उन्हों की विशेष सेवा यही है कि सदा अन्य आत्माओं को प्राप्त हुए बाप के गुणों और शक्तियों का दान नहीं लेकिन सहयोग वा प्राप्ति का अनुभव कराना। अज्ञानियों को दान देंगे और ब्राह्मण आत्माओं को सहयोग वा प्राप्ति करायेंगे। क्योंकि सबसे बड़े ते बड़ा दान गुण दान वा शक्तियों का दान है। निर्बल को शक्तिवान बनाना-यही श्रेष्ठ दान है वा सहयोग है। तो ऐसा सहयोग देना आता है? कि अभी लेने के लिए सोचते हो? अभी तक लेने वाले हो या दाता के बच्चे देने वाले बने हो? वा कभी लेते हो, कभी देते हो-ऐसे? देने लग जाओ तो लेना स्वत: ही सम्पन्न हो जायेगा। क्योंकि बाप ने सभी को सबकुछ दे दिया है। कुछ अपने पास रखा नहीं है, सब दे दिया है। सिर्फ लेने वालों को सम्भालना और कार्य में लगाना नहीं आता है। तो जितना देते जायेंगे उतना ही सम्पन्नता का अनुभव करते जायेंगे। ऐसे सपूत हो ना! सपूतकी लाइन में हो कि सपूत बनने की लाइन में हो? जैसे लौकिक में भी माँ-बाप बच्चों को अपने हाथों पर नचाते रहते हैं अर्थात् सदा खुश रखते, उमंग-उत्साह में रखते। ऐसे सपूत बच्चे सदा सर्व को उमंग-उत्साह में नचाते रहेंगे, उड़ती कला में उड़ाते रहेंगे। तो यह वर्ष अव्यक्त वर्ष मना रहे हो। अव्यक्त वर्ष अर्थात् बाप के सपूत बन सबूत देने वाला बनना। ऐसा सबूत देना अर्थात् मनाना। अव्यक्त का अर्थ ही है व्यक्त भाव और व्यक्त भावना से परे।

जीवन में उड़ती कला वा गिरती कला का आधार दो बातें ही हैं-(1) भावना और (2) भाव। अगर किसी भी कार्य में कार्य प्रति या कार्य करने वाले व्यक्ति के प्रति भावना श्रेष्ठ है, तो भावना का फल भी श्रेष्ठ स्वत: ही प्राप्त होता है। एक-है सर्व प्रति कल्याण की भावना; दूसरी है-कोई कैसा भी हो लेकिन सदा स्नेह और सहयोग देने की भावना; तीसरी है-सदा हिम्मत-उल्लास बढ़ाने की भावना; चौथी है-कोई कैसा भी हो लेकिन सदा अपनेपन की भावना और पाँचवी है-इन सबका फाउन्डेशन आत्मिक-स्वरूप की भावना। इनको कहा जाता है सद्भावनायें वा पॉजिटिव भावनायें। तो अव्यक्त बनना अर्थात् ये सर्व सद्भावनायें रखना। अगर इन सदभावनाओं के विपरीत हैं तब ही व्यक्त भाव अपनी तरफ आकर्षित करता है। व्यक्त भाव का अर्थ ही है इन पांचों बातों के नैगेटिव अर्थात् विपरीत स्थिति में रहना। इसके विपरीत को तो स्वयं ही जानते हो, वर्णन करने की आवश्यकता नहीं। जब भावना विपरीत होती है तो अव्यक्त स्थिति में स्थित नहीं हो सकते।

माया के आने के विशेष यही दरवाजे हैं। किसी भी विघ्न को चेक करो-उसका मूल प्रीत के बजाए विपरीत भावनायें ही होती हैं। भावना पहले संकल्प रूप में होती है, फिर बोल में आती है और उसके बाद फिर कर्म में आती है। जैसी भावना होगी वैसे व्यक्तियों के हर एक चलन वा बोल को उसी भाव से देखेंगे, सुनेंगे वा सम्बन्ध में आयेंगे। भावना से भाव भी बदलता है। अगर किसी आत्मा के प्रति किसी भी समय ईर्ष्या की भावना है अर्थात् अपनेपन की भावना नहीं है तो उस व्यक्ति के हर चलन, हर बोल से मिस-अन्डरस्टैण्ड (Misunderstand-गलतफहमी) का भाव अनुभव होगा। वह अच्छा भी करेगा लेकिन आपकी भावना अच्छी न होने के कारण हर चलन और बोल से आपको बुरा भाव दिखाई देगा। तो भावना भाव को बदलने वाली है। तो चेक करो कि हर आत्मा के प्रति शुभ भावना, शुभ भाव रहता है? भाव को समझने में अन्तर पड़ने से मिस-अन्डरस्टैण्डिंग  माया का दरवाजा बन जाती है। अव्यक्त स्थिति बनाने के लिए विशेष अपनी भावना और भाव को चेक करो तो सहज अव्यक्त स्थिति में विशेष अनुभव करते रहेंगे।

कई बच्चे अशुद्ध भावना वा अशुभ भाव से अलग भी रहते हैं। लेकिन एक है-शुभ भाव और भावना; दूसरी है-व्यर्थ भाव और भावना, तीसरी है साधारण भावना वा भाव। क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् सेवा-भाव। तो साधारण भावना वा साधारण भाव नुकसान नहीं करता लेकिन जो ब्राह्मण जीवन का कर्तव्य है शुभ भावना से सेवा-भाव, वह नहीं कर सकते हैं। इसलिए ब्राह्मण जीवन में जो सेवा का फल जमा होने का विशेष वरदान है उसका अनुभव नहीं कर सकेंगे। तो साधारण भावना और भाव को भी श्रेष्ठ भावना, श्रेष्ठ भाव में परिवर्तन करो। चेक करेंगे तो चेंज करेंगे और अव्यक्त फरिश्ता बाप समान सहज बन जायेंगे। तो समझा, अव्यक्त वर्ष कैसे मनाना है?

शुभ भावनामन्सा-सेवा का बहुत श्रेष्ठ साधन है और श्रेष्ठ भावसम्बन्ध-सम्पर्क में सर्व के प्यारे बनने का सहज साधन है। जो सदा हर एक प्रति श्रेष्ठ भाव धारण करता वही माला का समीप मणका बन सकता है। क्योंकि माला सम्बन्ध-सम्पर्क में समीप और श्रेष्ठता की निशानी है। कोई किसी भी भाव से बोले वा चले लेकिन आप सदा हर एक प्रति शुभ भाव, श्रेष्ठ भाव धारण करो। जो इसमें विजयी होते हैं वही माला में पिरोने के अधिकारी हैं। चाहे सेवा के क्षेत्र में भाषण नहीं कर सकते, प्लैन नहीं बना सकते लेकिन जो हर एक से सम्बन्ध-सम्पर्क में शुभ भाव रख सकते हैं, तो यह शुभ भावसूक्ष्म सेवा-भाव में जमा हो जायेगा। ऐसे शुभ भाव वाला सदा सभी को सुख देगा, सुख लेगा। तो यह भी सेवा है और यह सेवा-भाव आगे नम्बर लेने का अधिकारी बना देगा। इसलिए माला का मणका बन जायेंगे। समझा? कभी भी ऐसे नहीं सोचना कि हमको तो भाषण करने का चांस ही नहीं मिलता है, बड़ी-बड़ी सेवा का चांस नहीं मिलता। लेकिन यह सेवा-भाव का गोल्डन चांस लेने वाला चान्सलर की लाइन में आ जायेगा अर्थात् विशेष आत्मा बन जायेगा। इसलिए इस वर्ष में विशेष यह शुभ भावनाऔर श्रेष्ठ भावधारण करने का विशेष अटेन्शन रखना।

अशुभ भाव और अशुभ भावना को भी अपने शुभ भाव और शुभ भावना से परिवर्तन कर सकते हो। सुनाया था ना कि गुलाब का पुष्प बदबू की खाद से खुशबू धारण कर खुशबूदार गुलाब बन सकता है। तो आप श्रेष्ठ आत्मायें अशुभ, व्यर्थ, साधारण भावना और भाव को श्रेष्ठता में नहीं बदल सकते! वा कहेंगे-क्या करें, इसकी है ही अशुभ भावना, इनका भाव ही मेरे प्रति बहुत खराब है, मैं क्या करूँ? ऐसे तो नहीं बोलेंगे ना! आपका तो टाइटल ही है विश्व-परिवर्तक। जब प्रकृति को तमोगुणी से सतोगुणी बना सकते हो; तो क्या आत्माओं के भाव और भावना के परिवर्तक नहीं बन सकते? तो यही लक्ष्य बाप समान अव्यक्त फरिश्ता बनने के लक्षण सहज और स्वत: लायेगा। समझा, कैसे अव्यक्त वर्ष मनाना है? मनाना अर्थात् बनना-यह ब्राह्मणों की भाषा का सिद्धान्त है। बनना है ना। कि सिर्फ मनाना है? तो ब्राह्मणों में वर्तमान समय इसी पुरूषार्थ की विशेष आवश्यकता है और यही सेवा माला के मणकों को समीप लाए माला प्रसिद्ध करेगी। माला के मणके अलग-अलग तैयार हो रहे हैं। लेकिन माला अर्थात् दाने, दाने की समीपता। तो यह दो बातें दाने की दाने से समीपता का साधन हैं। इसको ही कहा जाता है सपूत अर्थात् सबूत देने वाले। अच्छा!

चारों ओर के सर्व स्नेह का सबूत देने वाले सपूत बच्चों को, सदा बाप समान फरिश्ता बनने के उमंग-उत्साह में रहने वाली आत्माओं को, सदा सर्व प्रति श्रेष्ठ भावना और श्रेष्ठ भाव रखने वाली विजयी आत्माओं को, सदा हर आत्मा को श्रेष्ठ भावना से परिवर्तन करने वाले विश्व-परिवर्तक आत्माओं को, सदा विजयी बन विजय माला में समीप आने वाले विजयी रत्नों को बापदादा का अव्यक्त वर्ष की मुबारक के साथ-साथ याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

(जानकी दादी से) अपनी हिम्मत और सर्व के सहयोग की दुआयें शरीर को चला रही हैं। समय पर शरीर भी सहयोग दे देता है। इसको कहते हैं एकस्ट्रा दुआओं की मदद। तो विशेष आत्माओं को यह एकस्ट्रा मदद मिलती ही है। थोड़ा शरीर को रेस्ट भी देना पड़ता है। अगर नहीं देते हैं तो वो खिटखिट करता है। जैसे औरों को जो चाहता है वो दे देते हो ना! किसको शान्ति चाहिए, किसको सुख चाहिए, किसको हिम्मत चाहिए-तो देते हो ना! तो शरीर को जो चाहिए वो भी दे दिया करो। इसको भी तो कुछ चाहिए ना! क्योंकि यह शरीर भी अमानत है ना! इसको भी सम्भालना तो पड़ता है ना! अच्छी हिम्मत से चला रही हो और चलना ही है। समय पर आवश्यकतानुसार जैसे शरीर आपको सहयोग दे देता है, तो आप भी थोड़ा-थोड़ा सहयोग दे दो। नॉलेजफुल तो हो ही। अच्छा है। क्योंकि इस शरीर द्वारा ही अनेक आत्माओं का कल्याण होना है। आप लोगों के सिर्फ साथ के अनुभव से ही सब बहुत बड़ी मदद का अनुभव करते हैं। हाजिर होना भी सेवा की हाजिरी हो जाती है। चाहे स्थूल सेवा न भी करें लेकिन हाजिर होने से हाजिरी पड़ जाती है। सेकेण्ड भी सेवा के बिना न रह सकते हो, न रहते हो। इसलिए सेवा का जमा का खाता जमा हो ही रहा है।

बहुत अच्छा पार्ट बजा रही हो, बजाती रहेंगी। अच्छा पार्ट मिला है ना! इतना बढ़िया पार्ट ड्रामा अनुसार दुआओं के कारण मिला है! ये ब्राह्मण जन्म के आदि के संस्कार रहमदिलऔर सहयोग की भावनाका फल है। चाहे तन से, चाहे मन से-रहमदिल और सहयोग की भावना का पार्ट आदि से मिला हुआ है। इसलिए उसका फल सहज प्राप्त हो रहा है। शारीरिक सहयोग की भी सेवा दिल से की है। इसलिए शरीर की आयु इन दुआओं से बढ़ रही है। अच्छा!

(दादी जी से) अच्छा, सर्विस करके आई हो! यह ड्रामा भी सहयोगी बनता है और ये शुभ भावना का फल और बल मिलता है। संगठित रूप में शुभ भावना ये फल देती है। तो अच्छा रहा और अच्छे ते अच्छा रहना ही है। अभी तो और भी अव्यक्त स्थिति द्वारा विश्व की आत्माओं को और सेवा में आगे बढ़ने का बल मिलेगा। सिर्फ ब्राह्मणों के दृढ़ परिवर्तन के लिए विश्व-परिवर्तन रूका हुआ है। ब्राह्मणों का परिवर्तन कभी पॉवरफुल होता है, कभी हल्का होता है। तो ये हलचल भी कभी जोर पकड़ती है, कभी ढीली होती है। सम्पन्न बनने तो यही ब्राह्मण हैं। अच्छा!

(चन्द्रमणि दादी से) बेहद की चक्रवर्ती बन गई-आज यहाँ, कल वहाँ! तो इसको ही कहा जाता है विश्व की आत्माओं से स्वत: और सहज सम्बन्ध बढ़ना। विश्व का राज्य करना है, विश्व-कल्याणकारी हैं, तो कोने-कोने में पांव तो रखने चाहिए ना। इसलिए देश-विदेश में चांस मिल जाता है। प्रोग्राम न भी बनाओ लेकिन यह ड्रामानुसार संगम की सेवा भविष्य को प्रत्यक्ष कर रही है। इसलिए बेहद की सेवा और बेहद के सम्बन्ध-सम्पर्क बढ़ रहे हैं और बढ़ते रहेंगे। स्टेट का राजा तो नहीं बनना है, विश्व का बनना है! पंजाब का राजा तो नहीं बनना है! वो तो निमित्त डयुटी है, डयुटी समझकर निभाते हो। बाकी ऑर्डर करें कि मधुबन निवासी बनना है, तो सोचेंगे क्या कि पंजाब का क्या होगा? नहीं। जब तक जहाँ की जो डयुटी है, बहुत अच्छी तरह से निभाना ही है।

(जानकी दादी से) अभी कहें कि आप फॉरेन से यहाँ आ जाओ तो बैठ जायेंगी ना! बाप भेजते हैं, खुद नहीं जाती हो। आखिर तो सभी को यहाँ आना ही पड़ेगा ना! इसलिए बार-बार आते-आते फिर रह जायेंगे। चक्कर लगाकर आ जाते हो ना! इसलिए न्यारे भी हो और सेवा के प्यारे भी। देश और व्यक्तियों के प्यारे नहीं, सेवा के प्यारे। अच्छा! सबको याद देना, अव्यक्त वर्ष की मुबारक देना।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

बचने के लिये बुद्धि को शुद्ध संकल्पों में बिजी रखो

सदा खुश रहते हो! या कभी खुश रहते और कभी खुशी के बजाए कोई व्यर्थ संग वा संकल्प में आ जाते हो? अगर कोई भी व्यर्थ संकल्प वा व्यर्थ संग मिलता है वा चलता है तो खुशी समाप्त हो जाती है। क्योंकि व्यर्थ संग वा व्यर्थ संकल्प बोझ है और खुशी हल्की चीज़ है! इसलिए देखो, जब खुश होते हैं तो नाचते हैं। जो हल्का होगा वह खुशी में नाचता है! शरीर कितना भी भारी हो लेकिन मन हल्का होगा तो भी नाचेगा। मन भारी होगा तो हल्का भी नाचेगा नहीं। तो खुशी है हल्कापन और व्यर्थ संकल्प वा व्यर्थ संग है भारी,बोझ। बोझ सदा नीचे ले आता है और हल्की चीज़ सदा ऊंची जाती है। तो खुश रहने का सहज साधन है-सदा हल्के रहो। शुद्ध संकल्प हल्के हैं और व्यर्थ संकल्प भारी हैं। जब भी किसके व्यर्थ संकल्प चलते हैं तो क्या अनुभव करते हो? माथा भारी हो जाता है। बोझ है तभी तो माथा भारी करता है ना! तो सदा बाप के संग में रहना और सदा बाप के दिये हुए शुद्ध संकल्पों में रहना! यह रोज़ की मुरली रोज के लिए शुद्ध संकल्प हैं। तो कितने शुद्ध संकल्प बाप द्वारा मिले हैं! जब कोई अच्छी चीज़ वा बढ़िया चीज़ मिल जाती है तो हल्की (घटिया) चीज़ को क्या करेंगे? खत्म करेंगे ना!

सारा दिन बुद्धि को बिजी रखने के लिए रोज़ सवेरे-सवेरे बाप शुद्ध संकल्प देते हैं। जहाँ शुद्ध होंगे वहाँ व्यर्थ नहीं होंगे। बुद्धि को खाली रखते हो, इसलिए व्यर्थ आते हैं। यही सहज उपाय है, साधन है कि सदा शुद्ध संकल्पों से बुद्धि को बिजी रखो। सिर्फ खुशरहना है-यही याद नहीं रखना लेकिन सदा खुशरहना है! यह सोचो कि ब्राह्मण खुश नहीं रहेंगे तो कौन रहेगा! ब्राह्मण ही श्रेष्ठ हैं ना। देवताओं से भी ब्राह्मण श्रेष्ठ हैं। ब्राह्मणों की खुराक ही खुशी है। इसलिये गाते हैं-खुशी जैसी कोई खुराक नहीं। अगर कोई सदा खुश रहता है तो पूछते हैं-आपको क्या मिला है! आप लौकिक जीवन से अलौकिक जीवन वाले हो गये। तो यह अलौकिकता की झलक चेहरे पर दिखाई देनी चाहिए। ऐसे नहीं-मैं अन्दर से तो खुश रहती हूँ, बाहर से दिखाई नहीं देता। अन्दर का बाहर अवश्य आता है। तो सदा चेक करो कि हमारा चेहरा और चलन अलौकिकता की झलक दिखाता है? अच्छा!

ग्रुप नं. 2

अचल-अडोल बनने के लिये रोज़ तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ

अपने को त्रिकालदर्शी अनुभव करते हो? संगमयुग पर बाप सभी आत्माओं को त्रिकालदर्शी बनाते हैं। क्योंकि संगमयुग है श्रेष्ठ, ऊंचा। तो जो ऊंचा स्थान होता है वहाँ खड़ा होने से सब कुछ दिखाई देता है। तो संगमयुग पर खड़े होने से तीनों ही काल दिखाई देते हैं। एक तरफ दु:खधाम का ज्ञान है, दूसरे तरफ सुखधाम का ज्ञान है और वर्तमान काल संगमयुग का भी ज्ञान है। तो त्रिकालदर्शी बन गये ना! तीनों ही काल का ज्ञान इमर्ज है? तीनों ही काल स्मृति में रखो-कल दु:खधाम में थे, आज संगमयुग में हैं और कल सुखधाम में जायेंगे। जो भी कर्म करो वह त्रिकालदर्शी बनकर के करो तो हर कर्म श्रेष्ठ होगा। व्यर्थ नहीं होगा, समर्थ होगा! समर्थ कर्म का फल समर्थ मिलता है। त्रिकालदर्शी बनने से-यह क्यों हुआ, यह क्या हुआ, ‘ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए’.......-यह सब क्वेश्चन-मार्क खत्म हो जाते हैं। नहीं तो बहुत क्वेश्चन उठते हैं। क्योंका क्वेश्चन उठने से व्यर्थ संकल्पों की क्यू लग जाती है और त्रिकालदर्शी बनने से फुलस्टॉप लग जाता है। नथिंग न्यु, तो फुल स्टॉप लग गया ना! फुलस्टॉप अर्थात् बिन्दी लगाने से बिन्दु रूप सहज याद आ जाता है।

बापदादा सदा कहते हैं कि अमृतवेले सदा तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ। आप भी बिन्दी, बाप भी बिन्दी और जो हो गया, जो हो रहा है, नथिंग न्यु, तो फुलस्टॉप भी बिन्दी। यह तीन बिन्दी का तिलक अर्थात् स्मृति का तिलक। मस्तक स्मृति का स्थान है, इसलिए तिलक मस्तक पर ही लगाते हैं। तीन बिन्दियों का तिलक लगाना अर्थात् स्मृति में रखना। फिर सारा दिन अचल-अडोल रहेंगे। यह क्यूंऔर क्याही हलचल है। तो अचल रहने का साधन है-अमृतवेले तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ। यह भूलो नहीं। जिस समय कोई बात होती है उस समय फुलस्टॉप लगाओ। ऐसे नहीं कि याद था लेकिन उस समय भूल गया। गाड़ी में यदि समय पर ब्रेक न लगे तो फायदा होगा या नुकसान? तो समय पर फुलस्टॉप लगाओ। नथिंग न्यु-होना था, हो रहा है। और साक्षी होकर के देखकर आगे बढ़ते चलो। तो त्रिकालदर्शी अर्थात् आदि, मध्य, अन्त-तीनों को जान जैसा समय, वैसा अपने को सदा सेफ रख सको। ऐसे नहीं कहो कि-यह समस्या बहुत बड़ी थी ना, छोटी होती तो मैं पास हो जाती लेकिन समस्या बहुत बड़ी थी! कितनी भी बड़ी समस्या हो लेकिन आप तो मास्टर सर्वशक्तिवान हो ना! तो बड़े हुए ना! बड़े के आगे समस्या नहीं है लेकिन खेल है! इसको कहा जाता है त्रिकालदर्शी। त्रिकालदर्शी आत्मा सदा ही निश्चिंत रहती है क्योंकि उसे निश्चय है कि हमारी विजय हुई ही पड़ी है।

जब अपने को जिम्मेवार समझते हो तब चिंता होती है और बाप को जिम्मेवार समझते हो तो निश्चिंत हो जाते हो। कई बार कहते हैं ना-क्या करें, जिम्मेवारी है ना, निभाना पड़ता है। लेकिन ट्रस्टी बन निभाओ। गृहस्थी बनकर निभा नहीं सकेंगे। ट्रस्टी बनकर के निभाने से सहज भी होगा और सफल भी होंगे। तो सब चिंता छोड़कर जाना। जिनके पास थोड़ी-बहुत हो, तो छोड़कर जाना, साथ नहीं ले जाना। वैसे तीर्थ पर कुछ छोड़कर आते हैं ना। तो यह भी महान तीर्थ है ना! तो सदा के लिए निश्चिंत, निश्चयबुद्धि। समझा? किचड़ा साथ में नहीं रखा जाता है। माताओं को आदत होती है-पुरानी चीज़ भी होगी तो गांठ बांधकर रख देंगी! तो यह भी गांठ बाँधकर नहीं जाना। मातायें गठरी बांधती हैं, पाण्डव जेब में रखते हैं। तो इसे छोड़कर निश्चिंत अर्थात् सदा अचल-अडोल स्थिति में रहना। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

सफलतामूर्त बनने का साधन है-जीवनमुक्त स्थिति

ब्राह्मण जीवन अर्थात् सदा जीवन-मुक्त स्थिति वाले, सर्व बंधनों से मुक्त। पहला बंधन है अपने देहभान का बंधन। ब्राह्मण जीवन में देह का बंधन, संबंध का बंधन, साधनों का बंधन-सब खत्म हो गया ना! मोटा धागा खत्म हो गया। महीन धागा रह तो नहीं गया? अभी सम्बन्ध है लेकिन बंधन नहीं। बंधन अपने वश में करता है और संबंध स्नेह का सहयोग देता है। लेकिन शुद्ध संबंध। देह के सम्बन्धियों का देह के नाते से सम्बन्ध नहीं लेकिन आत्मिक संबंध। तो बंधन में हो या सम्बन्ध में? अगर वश होते हो, परवश हो जाते हो तो बंधन है और मुक्त रहते हो तो संबंध है! कैसे रहते हो? थोड़ा-थोड़ा आकर्षित होते हो? ब्राह्मण अर्थात् जीवन-मुक्त। तो चेक करो-कोई भी कर्म मुक्त होकर के करते हैं? क्योंकि कर्म के बिना तो रह नहीं सकते हैं, जब कर्मेन्द्रियों का आधार है तो कर्म तो करना ही है, लेकिन कर्म-बन्धन नहीं, कर्म-सम्बन्ध। जीवन-मुक्त अवस्था अर्थात् सफलता भी ज्यादा और कर्म का बोझ भी नहीं। जो मुक्त हैं वो सदा ही सफलतामूर्त हैं। जीवन-मुक्त आत्मा सदा फलक से कहेगी कि सफलता जन्मसिद्ध अधिकार है। जो बंधन में होगा वो सदा सोचता रहेगा कि सफलता होगी या नहीं, यह करें या नहीं करें, ठीक होगा या नहीं होगा? लेकिन ब्राह्मण आत्माओं की सफलता निश्चित है, विजय निश्चित है। ऐसे नहीं समझना कि भविष्य में जीवन-मुक्त होंगे! अभी जीवन-मुक्त होना है। इस समय ही जीवनबंध और जीवन-मुक्त का ज्ञान है! सतयुग में यह ज्ञान नहीं होगा! मजा है तो इस समय का है! जीवनबंध का भी अनुभव किया और जीवन-मुक्त का भी अनुभव कर रहे हो! सदा जीवन-मुक्त रहने का सहज साधन है-मैंऔर मेरा बाबा’! क्योंकि मेरे-मेरे का ही बंधन है। मेरा बाबा हो गया तो सब मेरा खत्म। जब एक मेरामें सब मेरा-मेरासमाप्त हो गया, तो बंधन-मुक्त हो गये। तो यह सहज साधन आता है ना! कर्म के पहले चेक करो कि बंधन में फँस के तो कर्म नहीं कर रहे हैं? दुनिया वाले तो बहुत कठिन तप करते हैं मुक्ति प्राप्त करने को। और आपको सहज मिला ना! मेरा बाबाकहा और बंधन खत्म। तो जो सहज होता है, उसको सदा अपनाया जाता है। जो मुश्किल होता है उसे सदा नहीं कर सकते हैं। तो सदा सहज है या कभी-कभी थोड़ा मुश्किल लगता है? तो यही याद रखना कि हम ब्राह्मण जीवन-मुक्त आत्मा हैं। सहजयोगी अर्थात् सफलतामूर्त। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

स्वमान में रहो तो सर्व हद की इच्छायें समा जायेंगी

स्वयं को श्रेष्ठ स्वमानधारी आत्मा अनुभव करते हो? जितना स्वमान में स्थित होते हो, तो स्वमान, देहभान को भुला देता है। आधा कल्प देहभान में रहे और देह-भान के कारण अल्पकाल के मान प्राप्त करने के भिखार रहे। अभी बाप ने आकर स्वमानधारी बना दिया। स्वमान में स्थित रहते हो या कभी हद के मान की इच्छा रखते हो? जो स्वमान में रहता उसे हद के मान प्राप्त करने की कभी इच्छा नहीं होती, इच्छा मात्रम् अविद्या हो जाते। एक स्वमान में सर्व हद की इच्छायें समा जाती हैं, मांगने की आवश्यकता नहीं रहती। क्योंकि यह हद की इच्छायें कभी भी पूर्ण नहीं होती हैं। एक हद की इच्छा अनेक इच्छाओं को उत्पन्न करती है, सम्पन्न नहीं करती लेकिन पैदा करती है। स्वमान सर्व इच्छाओं को सहज ही सम्पन्न कर देता है। तो जब बाप सदा के लिए स्वमान देता है, तो कभी-कभी क्यों लेवें! स्वमानधारी सदा बेफिक्र बादशाह होता है, सर्व प्राप्ति स्वरूप होता है। उसे अप्राप्ति की अविद्या होती है। तो सदा स्वमानधारी आत्मा हूँ-यह याद रखो। स्वमानधारी सदा बाप के दिलतख्तनशीन होता है क्योंकि बेफिक्र बादशाह है! बादशाह का जीवन कितना श्रेष्ठ है! दुनिया वालों के जीवन में कितनी फिक्र रहती हैं-उठेंगे तो भी फिक्र, सोयेंगे तो भी फिक्र। और आप सदा बेफिक्र हो।

पाण्डवों को फिक्र रहता है? कल व्यापार ठीक होगा या नहीं, कल देश में शान्ति होगी या अशान्ति........-यह फिक्र रहता है?कल बच्चे अच्छी तरह से सम्भाल सकेंगे या नहीं-यह फिक्र माताओं को रहता है? दुनिया में कुछ भी हो लेविन अशान्ति के वायुमण्डल में आप तो शान्तस्वरूप आत्मायें हो, औरों को भी शान्ति देने वाले। या अशान्ति होगी तो आप भी घबरा जायेंगे? आपके घर के बाहर बहुत हंगामा हो रहा हो, तो आप उस समय क्या करते हो? याद में बैठ जाते हो ना! बाप को याद करके शान्ति लेकर औरों को देना-यह सेवा करो। क्योंकि जो अच्छी चीज अपने पास है और दूसरों को उसकी आवश्यकता है, तो देनी चाहिए ना! तो अशान्ति के समय पर मास्टर शान्ति-दाता बन औरों को भी शान्ति दो, घबराओ नहीं। क्योंकि जानते हो कि-जो हो रहा है वो भी अच्छा और जो होना है वह और अच्छा! विकारों के वशीभूत मनुष्य तो लड़ते ही रहेंगे। उनका काम ही यह है। लेकिन आपका काम है-ऐसी आत्माओं को शान्ति देना। क्योंकि विश्व कल्याणकारी हो ना! विश्व-कल्याणकारी आत्मायें सदा मास्टर दाता बन देती रहती हैं। तो सभी शक्ति-रूप हो ना! मातायें चार दीवारी में रहने वाली अबलायें हीं हो, शक्तियाँ हो। तो शक्ति सदा वरदानी होगी और पाण्डव भी सदा महावीर। महावीर की सदा विजय है। कभी हार नहीं खा सकते। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सम्पन्न बनने का सहज साधन - सदा बाप के साथ रहो

(डबल विदेशी बच्चों से) सदा अपने को इस सृष्टि-ड्रामा की बेहद स्टेज पर पार्ट बजाने वाले हीरो एक्टर समझते हो? ऊंचे ते ऊंचे बाप के साथ पार्ट बजाने वाले ऊंचे ते ऊंचे एक्टर हो गये ना। बाप के साथ पार्ट बजा रहे हो, इसलिए विशेष पार्टधारी बन गये। हीरो एक्टर के ऊपर सभी की नज़र होती है। तो सारे विश्व के आत्माओं की नजर अभी आप सबके तरफ है! तो एक नशा यह है कि हम बाप के साथ पार्ट बजाने वाले हैं और दूसरा नशा है कि सारे विश्व की नजर हम श्रेष्ठ आत्माओं के ऊपर है! तो डबल नशा है। डबल खुशी है-एक श्रेष्ठ आत्मा बनने की खुशी, दूसरी बाप से मिलने की! डबल हीरो हो-एक हीरे तुल्य जीवन बनाई है और दूसरा विशेष पार्टधारी हो! ऐसा कभी सोचा था कि इतना विशेष पार्ट बजाने वाली आत्मा हूँ? सोचा नहीं था लेकिन सेकेण्ड में बन गये। सेकेण्ड का सौदा है ना! सहज प्राप्त किया या मेहनत लगी? फॉरेन कल्चर से ब्राह्मण कल्चर बदलने में मेहनत नहीं लगी? कितनी बार ब्राह्मण कल्चर में रहे हो? अनेक बार के संस्कार याद आते हैं? या इमर्ज करने में मेहनत लगती है? यह समटाइम (Sometime; कभी-कभी) कब तक रहेगा? अगर अभी विनाश हो जाए तो एवररेडी हुए? अच्छा!

भारत वाले तैयार हो? कल विनाश हो जाए-इतने सम्पन्न बने हो? एवररेडी बनना ही सेफ्टी का साधन है। अगर समय मिलता है तो संगमयुग की मौज मनाओ लेकिन रहो एवररेडी। क्योंकि फाइनल विनाश की डेट कभी भी पहले मालूम नहीं पड़ेगी, अचानक होना है। एवररेडी नहीं होंगे तो धोखा हो जायेगा। इसलिए एवररेडी बनो। सदा ये याद रखो कि हम और बाप सदा साथ हैं। तो जैसे बाप सम्पन्न है वैसे साथ रहने वाले भी सम्पन्न हो जायेंगे। जब साथ का अनुभव करेंगे तो निरन्तर योगी सहज बन जायेंगे। सदा साथ हैं, साथ रहेंगे और स्वीट होम में साथ चलेंगे। जो कम्पैनियन होंगे वे साथ चलेंगे और बराती होंगे, देखने वाले होंगे तो पीछे-पीछे चलेंगे। समान बनने वाले ही साथ चलेंगे। तो यह प्लैन बनाओ कि समान बनना ही है और साथ चलना ही है। अच्छा! (डबल विदेशी बच्चों प्रति) सबको बापदादा की तरफ से नये वर्ष की मुबारक और याद, प्यार देना। बापदादा देख रहे हैं-सभी अपने को बाप समान बनाने के उमंग-उत्साह में उड़ रहे हैं। तो उड़ रहे हैं और सदा उड़ते रहेंगे।



18-01-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


प्रत्यक्षता का आधार - दृढ़ प्रतिज्ञा

परमात्म-गले का हार बनने वाले विजयी-रत्नों प्रति सदा समर्थ बापदादा बोले -

आज समर्थ बाप अपने समर्थ बच्चों से मिलन मना रहे हैं। समर्थ बाप ने हर एक बच्चे को सर्व समर्थियों का खज़ाना अर्थात् सर्व शक्तियों का खज़ाना ब्राह्मण जन्म होते ही जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में दे दिया और हर एक ब्राह्मण आत्मा अपने इस अधिकार को प्राप्त कर स्वयं सम्पन्न बन औरों को भी सम्पन्न बना रही है। यह सर्व समर्थियों का खज़ाना बापदादा ने हर एक बच्चे को अति सहज और सेकेण्ड में दिया। कैसे दिया? सेकेण्ड में स्मृति दिलाई। तो स्मृति ही सर्व समर्थियों की चाबी बन गई। स्मृति आई-मेरा बाबाऔर बाप ने कहा-मेरे बच्चे। यही रूहानी स्मृति’-सर्व खज़ानों की चाबी सेकेण्ड में दी। मेरा माना और सर्व जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त हुआ! तो सहज मिला ना। अभी हर ब्राह्मण आत्मा निश्चय और नशे से कहती है कि-बाप का खज़ाना सो मेरा खज़ाना। बाप के खज़ाने को अपना बना दिया।

आज के दिन को भी विशेष स्मृति-दिवस कहते हो। यह स्मृति-दिवस बच्चों को सर्व समर्थी देने का दिवस है। वैसे तो ब्राह्मण जन्म का दिवस ही समर्थियाँ प्राप्त करने का दिन है लेकिन आज के स्मृति-दिवस का विशेष महत्व है। वह क्या महत्व है? आज के स्मृति-दिवस पर विशेष ब्रह्मा बाप ने अपने आपको अव्यक्त बनाए व्यक्त साकार रूप में विशेष बच्चों को विश्व के आगे प्रत्यक्ष करने की विशेष विल-पॉवर विल की। जैसे आदि में अपने को, सर्व सम्बन्ध और सम्पत्ति को सेवा अर्थ शक्तियों के आगे विल किया, ऐसे आज के स्मृति दिवस पर ब्रह्मा बाप ने साकार दुनिया में साकार रूप द्वारा विश्व-सेवा के निमित्त शक्ति सेना को अपना साकार रूप् का पार्ट बजाने की सर्व विल-पावर्स बच्चों को विल की। स्वयं अव्यक्त गुप्त रूपधारी बने और बच्चों को व्यक्त रूप में विश्व-कल्याण के प्रति निमित्त बनाया अर्थात् साकार रूप में सेवा के विल-पावर्स की विल की। इसलिए इस दिन को स्मृति-दिवस वा समर्थी-दिवस कहते हैं।

बापदादा देख रहे हैं कि उसी स्मृति के आधार पर देश-विदेश में चारों ओर बच्चे निमित्त बन सेवा में सदा आगे बढ़ते रहते हैं और बढ़ते ही रहेंगे क्योंकि विशेष त्रिमूर्ति वरदान बच्चों के साथ हैं। शिवबाबा का तो है ही लेकिन साथ में भाग्यविधाता ब्रह्मा बाप का भी वरदान है, साथ में जगत अम्बा सरस्वती माँ का भी मधुर वाणी का वरदान है। इसलिए त्रिमूर्ति वरदानों से सहज सफलता का अधिकार अनुभव कर रहे हो। आगे चल और भी सहज साधन और श्रेष्ठ सफलता के अनुभव होने ही हैं। बापदादा को प्रत्यक्ष करने का उमंग-उत्साह चारों ओर है कि जल्दी से जल्दी प्रत्यक्षता हो जाए। सभी यही चाहते हैं ना! कब हो जाये? कल हो जाये ताकि यहाँ ही बैठे-बैठे प्रत्यक्षता के नगाड़े सुनो? हुआ ही पड़ा है। सिर्फ क्या करना है? कर भी रहे हो और करना भी है। सम्पूर्ण प्रत्यक्षता का नगाड़ा बजाने के लिए सिर्फ एक बात करनी है। प्रत्यक्षता का आधार आप बच्चे हैं और बच्चों में विशेष एक बात की अन्डरलाइन करनी है। प्रत्यक्षता और प्रतिज्ञा-दोनों का बैलेन्स सर्व आत्माओं को बापदादा द्वारा ब्लैसिंग प्राप्त होने का आधार है। प्रतिज्ञा तो रोज़ करते हो, फिर प्रत्यक्षता में देरी क्यों? अभी-अभी हो जानी चाहिए ना।

बापदादा ने देखा-प्रतिज्ञा दिल से, प्यार से करते भी हो लेकिन एक होता है प्रतिज्ञा’, दूसरा होता है दृढ़ प्रतिज्ञा। दृढ़ प्रतिज्ञा की निशानी क्या है? जान चली जाये लेकिन प्रतिज्ञा नहीं जा सकती। जब जान की बाज़ी की बात आ गई, तो छोटी-छोटी समस्यायें वा समय प्रति समय के कितने भी विकराल रूपधारी सर्कमस्टांश (Circumstance; हालात) हों........-तो जान की बाज़ी के आगे यह क्या हैं! तो दृढ़ प्रतिज्ञा इसको कहा जाता है जो कैसी भी परिस्थितियां हों लेकिन पर-स्थिति, स्व-स्थिति को हिला नहीं सकती। कभी भी किसी भी हालत में हार नहीं खा सकते लेकिन गले का हार बनेंगे, विजयी रत्न बनेंगे, परमात्म-गले का श्रृंगार बनेंगे। इसको कहा जाता है दृढ़ संकल्प अर्थात् दृढ़ प्रतिज्ञा। तो दृढ़ताशब्द को अन्डरलाइन करना है। प्रतिज्ञा करना अर्थात् प्रत्यक्ष सबूत देना। लेकिन कभी-कभी कई बच्चे प्रतिज्ञा भी करते लेकिन साथ में एक खेल भी बहुत अच्छा करते हैं। जब कोई समस्या वा सरकमस्टांश होता जो प्रतिज्ञा को कमजोर बनाने का कारण होता, उस कारण को निवारण करने के बजाए बहाने-बाज़ी का खेल बहुत करते हैं। इसमें बहुत होशियार हैं।

बहानेबाजी की निशानी क्या होती? कहेंगे-ऐसे नहीं था, ऐसे था; ऐसा नहीं होता तो वैसा नहीं होता; इसने ऐसे किया, सरकमस्टांश ही ऐसा था, बात ही ऐसी थी। तो ऐसाऔर वैसा’-यह भाषा बहानेबाज़ी की है और दृढ़ प्रतिज्ञा की भाषा है-ऐसाहो वा वैसाहो लेकिन मुझे बाप जैसाबनना है। मुझे बनना है। दूसरों को मेरे को नहीं बनाना है, मुझे बनना है। दूसरे ऐसे करें तो मैं अच्छा रहूँ, दूसरा सहयोग दे तो मैं सम्पन्न वा सम्पूर्ण बनूँ-नहीं। इस लेने के बजाए मास्टर दाता बन सहयोग, स्नेह, सहानुभूति देना ही लेना है। याद रखना-ब्राह्मण जीवन का अर्थ ही है-देना ही लेना है’, ‘देने में ही लेना है। इसलिए दृढ़ प्रतिज्ञा का आधार है-स्व को देखना, स्व को बदलना, स्वमान में रहना। स्वमान है ही मास्टर दातापन का। इस अव्यक्त वर्ष में क्या करेंगे? मधुबन में प्रतिज्ञा करके जायेंगे और वहाँ जा के बहानेबाज़ी का खेल करेंगे?

प्रतिज्ञा दृढ़ होने के बजाए कमजोर होने का वा प्रतिज्ञा में लूज़ होने का एक ही मूल कारण है। जैसे कितनी भी बड़ी मशीनरी हो लेकिन एक छोटा-सा स्क्रू (Screw; पेंच) भी लूज (ढीला) हो जाता तो सारी मशीन को बेकार कर देता है। ऐसी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए प्लैन बहुत अच्छे-अच्छे बनाते हो, पुरूषार्थ भी बहुत करते रहते हो लेकिन पुरूषार्थ वा प्लैन को कमजोर करने का स्क्रू एक ही है-अलबेलापन। वह भिन्न-भिन्न रूप में आता है और सदा नये-नये रूप में आता है, पुराने रूप में नहीं आता। तो इस अलबेलेपनके लूज़ स्क्रू को टाइट (Tight; कसना) करो। यह तो होता ही है-नहीं। होना ही है। चलता ही है, होता ही है-यह है अलबेलापन। हो जायेगा-देख लेना, विश्वास करो; दादी-दीदी मेरे ऊपर ऐतबार करो-हो जायेगा। नहीं। बाप जैसा बनना ही है, अभी-अभी बनना है। तीसरी बात-प्रतिज्ञा को दृढ़ से कमजोर बनाने का आधार पहले भी हँसी की बात सुनाई थी कि कई बच्चों की नजदीक की नजर कमजोर है और दूर की नज़र बहुत-बहुत तेज़ है। नजदीक की नज़र है-स्व को देखना, स्व को बदलना और दूर की नज़र है-दूसरों को देखना, उसमें भी कमजोरियों को देखना, विशेषता को नहीं। इसलिए उमंग-उत्साह में अन्तर पड़ जाता है। बड़े-बड़े भी ऐसे करते हैं, हम तो हैं ही छोटे। तो दूर की कमजोरी देखने की नज़र धोखा दे देती है, इस कारण प्रतिज्ञा को प्रैक्टिकल में ला नहीं सकते। समझा, कारण क्या है? तो अभी स्क्रू टाइट करना आयेगा वा नहीं? ‘समझका स्क्रू-ड्राइवर (Screw Driver; पेंचकस) तो है ना, यन्त्र तो है ना।

इस वर्ष समझना, चाहना और करना-तीनों को समान बनाओ। तीनों को समान करना अर्थात् बाप समान बनना। अगर बापदादा कहेंगे कि सभी लिखकर दो तो सेकेण्ड में लिखेंगे! चिटकी पर लिखना कोई बड़ी बात नहीं। मस्तक पर दृढ़ संकल्प की स्याही से लिख दो। लिखना आता है ना। मस्तक पर लिखना आता है या सिर्फ चिटकी पर लिखना आता है? सभी ने लिखा? पक्का? कच्चा तो नहीं जो दो दिन में मिट जाये? करना ही है, जान चली जाये लेकिन प्रतिज्ञा नहीं जाये-ऐसा दृढ़ संकल्प ही बाप समानसहज बनायेगा। नहीं तो कभी मेहनत, कभी मुहब्बत-इसी खेल में चलते रहेंगे। आज के दिन देश-विदेश के सभी बच्चे तन से वहाँ हैं लेकिन मन से मधुबन में हैं। इसलिए सभी बच्चों के स्मृति-दिवस के अलौकिक अनुभव में बापदादा ने देखा-अच्छे-अच्छे अनुभव किये हैं, सेवा भी की है। अलौकिक अनुभवों की और सेवा की हर एक बच्चे को मुबारक दे रहे हैं। सबके शुद्ध संकल्प, मीठी-मीठी रूहरिहान और प्रेम के मोतियों की मालायें बापदादा के पास पहुँच गई हैं। रिटर्न में बापदादा भी स्नेह की माला सभी बच्चों के गले में डाल रहे हैं। हर एक बच्चा अपने-अपने नाम से विशेष याद, प्यार स्वीकार करना। बापदादा के पास रूहानी वायरलेस-सेट इतना पॉवरफुल है जो एक ही समय पर अनेक बच्चों के दिल का आवाज़ पहुँच जाता है। न सिर्फ आवाज पहुँचता लेकिन सभी की स्नेही मूर्त भी इमर्ज हो जाती है। इसलिए सभी को सम्मुख देख विशेष याद, प्यार दे रहे हैं। अच्छा!

सर्व समर्थ आत्माओं को, सर्व दृढ़ प्रतिज्ञा और प्रत्यक्षता का बैलेन्स रखने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा समझना, चाहना और करना-तीनों को समान बनाने वाले बाप समान बच्चों को, सदा समस्याओं को हार खिलाने वाले, परमात्म-गले का हार बनने वाले विजयी रत्नों को समर्थ बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

सभी दोनों ही विल के पात्र हो-आदि की विल भी और साकार स्वरूप के अन्त की विल भी। विल-पॉवर आ गई ना! विल-पॉवर की विल विल-पॉवर द्वारा सदा ही स्व के पुरूषार्थ से एक्स्ट्रा कार्य कराती है। ये हिम्मत के प्रत्यक्षफल में पद्मगुणा मदद के पात्र बने। कई सोचते हैं-ये आत्मायें ही निमित्त क्यों बनीं? तो इसका रहस्य है कि विशेष समय पर विशेष हिम्मत रखने का प्रत्यक्षफल सदा का फल बन गया। इसलिए गाया हुआ है-एक कदम हिम्मत का और पद्म कदम बाप की मदद के। इसलिए सदा सब बातों को पार करने की विल-पॉवर विल के रूप में प्राप्त हुई। ऐसे है ना! आप सभी भी साथी हो। अच्छा साथ निभा रही हो। निभाने वालों को बाप भी अपना हर समय सहयोग का वायदा निभाते हैं। तो ये सारा ग्रुप निभाने वालों का है। (सभा से पूछते हुए) आप सभी भी निभाने वाले हो ना। या सिर्फ प्रीत करने वाले हो? करने वाले अनेक होते हैं और निभाने वाले कोई-कोई होते हैं। तो आप सभी किसमें हो? कोटों में कोई हो, कोई में भी कोई हो! देखो, दुनिया में हंगामा हो रहा है और आप क्या कर रहे हो? मौज मना रहे हो। वा मूँझे हुए हो-क्या करना है, क्या होना है? आप कहते हो कि सब अच्छा होना है। तो कितना अन्तर है! दुनिया में हर समय क्वेश्चन-मार्क है कि क्या होगा? और आपके पास क्या है? फुलस्टॉप। जो हुआ सो अच्छा और जो होना है वो हमारे लिए अच्छा है। दुनिया के लिए अकाले मृत्यु है और आपके लिए मौज है। डर लगता है? थोड़ा-थोड़ा खून देखकर के डर लगेगा? आपके सामने 7-8 को गोली लग जाये तो डरेंगे? नींद में दिखाई तो नहीं देंगे ना! शक्ति सेना अर्थात् निर्भय। न माया से भय है, न प्रकृति की हलचल से भय है। ऐसे निर्भय हो या थोड़ा-थोड़ा कमजोरी है? अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

सर्व शक्तियाँ ऑर्डर में हों तो मायाजीत बन जायेंगे

सभी अपने को सदा मायाजीत, प्रकृतिजीत अनुभव करते हो? मायाजीत बन रहे हैं या अभी बनना है? जितना-जितना सर्व शक्तियों को अपने ऑर्डर पर रखेंगे और समय पर कार्य में लगायेंगे तो सहज मायाजीत हो जायेंगे। अगर सर्व शक्तियाँ अपने कन्ट्रोल में नहीं हैं तो कहाँ न कहाँ हार खानी पड़ेगी।

मास्टर सर्वशक्तिवान अर्थात् कन्ट्रोलिंग पॉवर हो। जिस समय, जिस शक्ति को आह्वान करें वो हाजिर हो जाए, सहयोगी बने। ऐसे ऑर्डर में हैं? सर्व शक्तियाँ ऑर्डर में हैं या आगे-पीछे होती हैं? ऑर्डर करो अभी और आये घण्टे के बाद-तो उसको मास्टर सर्व-शक्तिवान कहेंगे? जब आप सभी का टाइटल है मास्टर सर्व शक्तिवान, तो जैसा टाइटल है वैसा ही कर्म होना चाहिए ना। है मास्टर और शक्ति समय पर काम में नहीं आये-तो कमजोर कहेंगे या मास्टर कहेंगे? तो सदा चेक करो और फिर चेन्ज (परिवर्तन) करो-कौनसी 2 शक्ति समय पर कार्य में लग सकती है और कौनसी शक्ति समय पर धोखा देती है? अगर सर्व शक्तियाँ अपने ऑर्डर पर नहीं चल सकतीं तो क्या विश्व-राज्य अधिकारी बनेंगे? विश्व-राज्य अधिकारी वही बन सकता है जिसमें कन्ट्रोलिंग पॉवर, रूलिंग पॉवर हो। पहले स्व पर राज्य, फिर विश्व पर राज्य। स्वराज्य अधिकारी जब चाहें, जैसे चाहें वैसे कन्ट्रोल कर सकते हैं।

इस वर्ष में क्या नवीनता करेंगे? जो कहते हैं वो करके दिखायेंगे। कहना और करना-दोनों समान हों। जैसे-कहते हैं मास्टर सर्व-शक्तिवान और करने में कभी विजयी हैं, कभी कम हैं। तो कहने और करने में फर्क हो गया ना! तो अभी इस फर्क को समाप्त करो। जो कहते हो वो प्रैक्टिकल जीवन में स्वयं भी अनुभव करो और दूसरे भी अनुभव करें। दूसरे भी समझें कि यह आत्मायें कुछ न्यारी हैं। चाहे हजारों लोग हों लेकिन हजारों में भी आप न्यारे दिखाई दो, साधारण नहीं। क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् अलौकिक। यह अलौकिक जन्म है ना। तो ब्राह्मण जीवन अर्थात् अलौकिक जीवन, साधारण जीवन नहीं। ऐसे अनुभव करते हो? लोग समझते हैं कि यह न्यारे हैं? या समझते हैं-जैसे हम हैं वैसे यह?

न्यारे बनने की निशानी है-जितना न्यारे बनेंगे उतना सर्व के प्यारे बनेंगे। जैसे-बाप सबसे न्यारा है और सबका प्यारा है। तो न्यारा-पन प्यारा बना देता है। तो ऐसे न्यारे और आत्माओं के प्यारे कहाँ तक बने हैं-यह चेक करो। लौकिक जीवन में भी अलौकिकता का अनुभव कराओ। न्यारे बनने की युक्ति तो आती है ना। जितना अपने देह के भान से न्यारे होते जायेंगे उतना प्यारे लगेंगे। देह-भान से न्यारा। तो अलौकिक हो गया ना! तो सदैव अपने को देखो कि-’’देह-भान से न्यारे रहते हैं? बार-बार देह के भान में तो नहीं आते हैं?’’ देह-भान में आना अर्थात् लौकिक जीवन। बीच-बीच में प्रैक्टिस करो-देह में प्रवेश होकर कर्म किया और अभी-अभी न्यारे हो जायें। तो न्यारी अवस्था में स्थित रहने से कर्म भी अच्छा होगा और बाप के वा सर्व के प्यारे भी बनेंगे। डबल फायदा है ना। परमात्म-प्यार का अधिकारी बनना-ये कितना बड़ा फायदा है! कभी सोचा था कि ऐसे अधिकारी बनेंगे? स्वप्न में भी नहीं सोचा होगा लेकिन ऐसे अधिकारी बन गये। तो सदा यह स्मृति में लाओ कि परमात्म-प्यार के पात्र आत्मायें हैं! दुनिया तो ढूँढ़ती रहती है और आप पात्र बन गये। तो सदा ‘‘वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य!’’-यह गीत गाते रहो, उड़ते रहो। उड़ती कला सर्व का भला। आप उड़ते हो तो सभी का भला हो जाता है, विश्व का कल्याण हो जाता है। अच्छा! सभी खुश रहते हो? सदा ही खुश रहना और दूसरों को भी खुश करना। कोई कैसा भी हो लेकिन खुश रहना है और खुश करना है। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

विश्व कल्याणकारी बन सेवा पर रहो तो सेवा का फल और बल मिलता रहेगा

अपने सारे कल्प के श्रेष्ठ भाग्य को जानते हो? आधा कल्प राज्य अधिकारी बनते हो और आधा कल्प पूज्य अधिकारी बनते हो। लेकिन सारे कल्प का भाग्य बनाने का समय कौनसा है? अब है ना! तो भाग्य बनाने का समय कितना है और भाग्य प्राप्त करने का समय कितना है-यह स्मृति में रहता है वा मर्ज रहता है? क्योंकि जितना समय इमर्ज रहेगा उतना समय खुशी रहेगी और मर्ज होगा तो खुशी नहीं रहेगी। पाण्डवों को काम-काज में जाने से याद रहता है या काम करने के समय काम का ही नशा रहता है कि मैं फलाना हूँ? चाहे क्लर्क हो, चाहे बिजनेसमैन हो, चाहे कुछ भी हो-वो याद रहता है या यह याद रहता है कि मैं कल्प-कल्प का भाग्यवान हूँ? क्योंकि आपका असली ऑक्यूपेशन है-विश्व-कल्याणकारी। यह याद रहता है वा हद का काम याद रहता है? माताओं को खाना बनाते समय क्या याद रहता है? विश्व-कल्याणकारी हूँ-यह याद रहता है या खाना बनाने वाली हूँ-यह याद रहता है?

कुछ भी करो लेकिन अपना ऑक्यूपेशन नहीं भूलो। जैसे आपके यादगारों में भी दिखाया है कि पाण्डवों ने गुप्त वेष में नौकरी की। लेकिन नशा क्या था? विजय का। तो आप भी गवर्मेन्ट सर्वेन्ट बनते हो ना, नौकरी करते हो। लेकिन नशा रहे-विश्व-कल्याणकारी हूँ। तो इस स्मृति से स्वत: ही समर्थ रहेंगे और सदा सेवा-भाव होने के कारण सेवा का फल और बल मिलता रहेगा। फल भी मिल जाये और बल भी मिल जाए-तो डबल फायदा है ना! ऐसे नहीं कि कपड़ा धुलाई कर रहे हैं तो कपड़े धोने वाले हैं। जब विश्व-कल्याणकारी का संकल्प रखेंगे तब आपकी यह भावना अनेक आत्माओं को फल देगी। गाया हुआ है ना कि भावना का फल मिलता है। तो आपकी भावना आत्माओं को फल देगी-शान्ति, शक्ति देगी। यह फल मिलेगा। ऐसी सेवा करते हो? या समय नहीं मिलता है? अपनी प्रवृत्ति बहुत बड़ी है? निभाना पड़ता है! बेहद में रहने से हद के भान से सहज निकलते जायेंगे। गृहस्थीपन का भान है हद और ट्रस्टीपन का भान है बेहद। थोड़ा-थोड़ा गृहस्थी, थोड़ा-थोड़ा ट्रस्टी-नहीं। अगर गृहस्थी का बोझ होगा तो कभी उड़ती कला का अनुभव नहीं कर सकते। निमित्त भाव बोझ को खत्म कर देता है। मेरी जिम्मेवारी है, मेरे को ही सम्भालना है, मेरे को ही सोचना है........-तो बोझ होता है। जिम्मेवारी बाप की है और बाप ने ट्रस्टी अर्थात् निमित्त बनाया है! मेरा है तो बोझ आपका है, तेरा है तो बाप का है! इसमें कई चालाकी भी करते हैं-कहेंगे तेरा लेकिन बनायेंगे मेरा! कभी भी किसी भी कार्य में अगर बोझ महसूस होता है तो यह निशानी है कि तेरे के बजाए मेरा कहते हैं। तो यह गलती कभी नहीं करना। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

ब्राह्मण का अर्थ है - असम्भव को सम्भव करने वाले

सदा एक बल एक भरोसा-यह अनुभव करते रहते हो? जितना एक बाप में भरोसा अर्थात् निश्चय है तो बल भी मिलता है। क्योंकि एक बाप पर निश्चय रखने से बुद्धि एकाग्र हो जाती है, भटकने से छूट जाते हैं। एकाग्रता की शक्ति से जो भी कार्य करते हो उसमें सहज सफलता मिलती है। जहाँ एकाग्रता होती है वहाँ निर्णय बहुत सहज होता है। जहाँ हलचल होगी तो निर्णय यथार्थ नहीं होता है। तो एक बल, एक भरोसाअर्थात् हर कार्य में सहज सफलता का अनुभव करना। कितना भी मुश्किल कार्य हो लेकिन एक बल, एक भरोसेवाले को हर कार्य एक खेल लगता है। काम नहीं लगता है, खेल लगता है। तो खेल करने में खुशी होती है ना! चाहे कितनी भी मेहनत करने का खेल हो लेकिन खेल अर्थात् खुशी। देखो, मल्ल-युद्ध करते हैं तो उसमें भी कितनी मेहनत करनी पड़ती! लेकिन खेल समझ के करते हैं तो खुश होते हैं, मेहनत नहीं लगती। खुशी-खुशी से कार्य सहज सफल भी हो जाता है। अगर कोई कार्य भी करते हैं, खुश नहीं, चिंता वा फिक्र में हैं तो मुश्किल लगेगा ना! एक बल, एक भरोसा’-इसकी निशानी है कि खुश रहेंगे, मेहनत नहीं लगेगी। एक भरोसा, एक बलद्वारा कितना भी असम्भव काम होगा तो वो सम्भव दिखाई देगा।

ब्राह्मण जीवन में कोई भी-चाहे स्थूल काम, चाहे आत्मिक पुरूषार्थ का, लेकिन कोई भी असम्भव नहीं हो सकता। ब्राह्मण का अर्थ ही है-असम्भव को भी सम्भव करने वाले। ब्राह्मणों की डिक्शनरी में असम्भवशब्द है नहीं, मुश्किल शब्द है नहीं, मेहनत शब्द है नहीं। ऐसे ब्राह्मण हो ना। या कभी-कभी असम्भव लगता है? यह बहुत मुश्किल है, यह बदलता नहीं, गाली ही देता रहता है, यह काम होता ही नहीं, पता नहीं मेरा क्या भाग्य है-ऐसे नहीं समझते हो ना। या कोई काम मुश्किल लगता है? जब बाप का साथ छोड़ देते हो, अकेले करते हो तो बोझ भी लगेगा, मेहनत भी लगेगी, मुश्किल और असम्भव भी लगेगा और बाप को साथ रखा तो पहाड़ भी राई बन जायेगी। इसको कहा जाता है-एक बल, एक भरोसे में रहने वाले। एक बल, एक भरोसेमें जो रहता वो कभी भी संकल्प-मात्र भी नहीं सोच सकता कि क्या होगा, कैसे होगा? क्योंकि अगर क्वेश्चन-मार्क है तो बुद्धि ठीक निर्णय नहीं करेगी। क्लीयर नहीं है! अगर कोई भी काम करते क्वेश्चन आता है-’’पता नहीं क्या होगा?’’ कैसे होगा? तो इसको कहा जाता है युद्ध की स्थिति। तो ब्राह्मण हो या क्षत्रिय? क्योंकि अभी तक समय अनुसार अगर युद्ध के संस्कार हैं तो सूर्यवंशी में पहुँचेंगे या चन्द्रवंशी में? चन्द्रवंशी में तो नहीं जाना है ना! योग में भी बैठते हो तो कुछ समय योग लगता है और कुछ समय युद्ध करते रहते हो! उसी समय अगर शरीर छूट जाए तो कहाँ जायेंगे? ‘अन्त मती सो गतिक्या होगी? इसलिए सदा विजयीपन के संस्कार धारण करो। जब सर्वशक्तिवान बाप साथ है, तो जहाँ भगवान है वहाँ युद्ध है या विजय है? तो ऐसे विजयी रत्न बनो। इसको कहते हैं एक बल एक भरोसा। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

अटेन्शन और चेकिंग रूपी पहरेदार ठीक हैं तो खज़ाना सेफ रहेगा

सदा अपने को बाप के सर्व खज़ानों के मालिक हैं-ऐसा अनुभव करते हो? मालिक बन गये हो या बन रहे हो? जब सभी बालक सो मालिक बन गये, तो बाप ने सभी को एक जैसा खज़ाना दिया है। या किसको कम दिया, किसको ज्यादा? एक जैसा दिया है! जब मिला एक जैसा है, फिर नम्बरवार क्यों? खज़ाना सबको एक जैसा मिला, फिर भी कोई भरपूर, कोई कम। इसका कारण है कि खज़ाने को सम्भालना नहीं आता है। कोई बच्चे खज़ाने को बढ़ाते हैं और कोई बच्चे गँवाते हैं। बढ़ाने का तरीका है-बाँटना। जितना बांटेंगे उतना बढ़ेगा। जो नहीं बांटते उनका बढ़ता नहीं। अविनाशी खज़ाना है, इस खज़ाने को जितना बढ़ाना चाहें उतना बढ़ा सकते हो। सभी खज़ानों को सम्भालना अर्थात् बार-बार खज़ानों को चेक करना। जैसे खज़ाने को सम्भालने के लिए कोई न कोई पहरे वाला रखा जाता है। तो इस खज़ाने को सदा सेफ रखने के लिए अटेन्शनऔर चेकिंग’-यह पहरे वाले हों। तो जो अटेन्शन और चेकिंग करना जानता है उसका खज़ाना कभी कोई ले जा नहीं सकता, कोई खो नहीं सकता। तो पहरे वाले होशियार हैं या अलबेलेपन की नींद में सो जाते हैं? पहरेदार भी जब सो जाते हैं तो खज़ाना गँवा देते हैं। इसलिए अटेन्शनऔर चेकिंग’-दोनों ठीक हों तो कभी खज़ाने को कोई छू नहीं सकता! तो अनगिनत, अखुट, अखण्ड खज़ाना जमा है ना! खज़ानों को देख सदा हर्षित रहते हो? कभी भी किसी भी परिस्थिति में दु:ख की लहर तो नहीं आती है?

स्वप्न में भी दु:ख की लहर न हो। जब दु:ख की लहर आती है तब खुशी कम होती है। उस समय बाप को सुख के सागर के स्वरूप से याद करो। जब बाप सुख का सागर है तो बच्चों में दु:ख की लहर कैसे आ सकती! आप आत्माओं का अनादि, आदि स्वरूप भी सुख-स्वरूप है। जब परमधाम में हैं तो भी सुख-स्वरूप हैं और जब आदि देवता बने तो भी सुख-स्वरूप थे! तो अपने अनादि और आदि स्वरूप को स्मृति में रखो तो कभी भी दु:ख की लहर नहीं आयेगी। अच्छा! पाण्डवों को कभी दु:ख की लहर आती है? कभी क्रोध करते हो? क्रोध करना अर्थात् दु:ख देना, दु:ख लेना। जिसको कभी क्रोध नहीं आता है वो हाथ उठाओ! घर वालों का भी सर्टिफिकेट चाहिए। कभी कोई गाली दे, इन्सल्ट करे-तब भी क्रोध न आये। सभी का फोटो निकल रहा है। नहीं आता है तो बहुत अच्छा। लेकिन आगे चलकर किसी भी परिस्थिति में भी माया को आने नहीं देना। अगर अभी तक सेफ हैं तो मुबारक, लेकिन आगे भी अविनाशी रहना। अच्छा! माताओं को मोह आता है? पाण्डवों में होता है रोबजो क्रोध का ही अंश है और माताओं में होता है मोह’! तो इस वर्ष क्या करेंगे? क्रोध बिल्कुल ही नहीं आये। ऐसे तो नहीं कहेंगे-करना ही पड़ता है, नहीं तो काम नहीं चलता? आजकल के समय के प्रमाण भी क्रोध से काम बिगड़ता है और आत्मिक-प्यार से, शान्ति से बिगड़ा हुआ कार्य भी ठीक हो जाता है। इसलिए यह भी एक बहुत बड़ा विकार है। तो क्रोध-जीत बनना ब्राह्मण जीवन के लिए अति आवश्यक है। माताओं को मोहजीत बनना है। कई बार मोह के कारण क्रोध भी आ जाता होगा! सब ने क्या लक्ष्य रखा है? बाप समान बनना है। तो बाप में क्रोध वा मोह है क्या? तो समान बनना पड़े ना! कैसी भी परिस्थिति आ जाये लेकिन मायाजीत बनना अर्थात् ब्राह्मण जीवन का सुख लेना। तो और अन्डरलाइन करके इस वर्ष में समाप्त करो। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

राजयोगी वह जो अपनी कर्मेन्द्रियों को ऑर्डर में चलाये

सभी एक सेकेण्ड में अशरीरी स्थिति का अनुभव कर सकते हो? या टाइम लगेगा? आप राजयोगी हो, राजयोगी का अर्थ क्या है? राजा हो ना। तो शरीर आपका क्या है? कर्मचारी है ना! तो सेकेण्ड में अशरीरी क्यों नहीं हो सकते? ऑर्डर करो-अभी शरीर-भान में नहीं आना है; तो नहीं मानेगा शरीर? राजयोगी अर्थात् मास्टर सर्वशक्तिवान। मास्टर सर्वशक्तिवान कर्मबन्धन को भी नहीं तोड़ सकते तो मास्टर सर्वशक्तिवान कैसे कहला सकते? कहते तो यही हो ना कि हम मास्टर सर्वशक्तिवान हैं। तो इसी अभ्यास को बढ़ाते चलो। राजयोगी अर्थात् राजा बन इन कर्मेन्द्रियों को अपने ऑर्डर में चलाने वाले। क्योंकि अगर ऐसा अभ्यास नहीं होगा तो लास्ट टाइम पास विद् ऑनरकैसे बनेंगे! धक्के से पास होना है या पास विद् ऑनरबनना है? जैसे शरीर में आना सहज है, सेकेण्ड भी नहीं लगता है! क्योंकि बहुत समय का अभ्यास है। ऐसे शरीर से परे होने का भी अभ्यास चाहिए और बहुत समय का अभ्यास चाहिए। लक्ष्य श्रेष्ठ है तो लक्ष्य के प्रमाण पुरूषार्थ भी श्रेष्ठ करना है।

सारे दिन में यह बार-बार प्रैक्टिस करो-अभी-अभी शरीर में हैं, अभी-अभी शरीर से न्यारे अशरीरी हैं! लास्ट सो फास्ट और फर्स्ट आने के लिए फास्ट पुरूषार्थ करना पड़े। सबसे ज्यादा खुशी किसको रहती है? किस बात की खुशी है? सदैव अपने प्राप्त हुए भाग्य की लिस्ट सामने रखो। कितने भाग्य मिले हैं? इतने भाग्य मिले हैं जो आपके भाग्य की महिमा अभी कल्प के अन्त में भी भक्त लोग कर रहे हैं। जब भी कोई कीर्तन सुनते हो तो क्या लगता है? किसकी महिमा है? डबल फॉरेनर्स का कीर्तन होता है? संगम पर भाग्यवान बने हो और संगम पर ही अब तक अपना भाग्य वर्णन करते हुए सुन भी रहे हो। चैतन्य रूप में अपना ही जड़ चित्र देख हर्षित होते हो? अच्छा!

ग्रुप नं. 6

अलौकिक जीवन बनाने के लिए सब बातों में ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बनो

(मधुबन-निवासियों से मुलाकात) मधुबन की महिमा चारों ओर प्रसिद्ध है ही। मधुबन की महिमा अर्थात् मधुबन-निवासियों की महिमा। मधुबन की महिमा ज्यादा है या मधुबन-निवासियों की ज्यादा है? मधुबन किसे कहा जाता है? क्या इन भवनों को मधुबन कहा जाता है? मधुबन-निवासियों से मधुबन है। जो मधुबन की महिमा वो ही मधुबन-निवासियों की महिमा है। सदैव यही स्मृति में रखो कि मधुबन की महिमा सो हमारी महिमा! महिमा उसकी गाई जाती है जो महान होता है। साधारण की महिमा नहीं होती है। महानता की महिमा होती है। तो मधुबन निवासी महान हो गये ना! कि कभी साधारण भी बन जाते हैं? मधुबन निवासी अर्थात् सर्व-श्रेष्ठ, महान। अलौकिकता ही महानता है। लौकिकता को महानता नहीं कहेंगे। तो मधुबन निवासी अर्थात् हर कर्म, हर बोल, हर संकल्प-अलौकिक। मधुबन निवासी अर्थात् साधारणता से परे। उनकी दृष्टि, उनकी वृत्ति, उनकी स्मृति, कृति-सब अलौकिक अर्थात् महान। यह है मधुबन निवासियों की महिमा। समझा? तो मधुबन में दीवारों की महिमा नहीं है, आपकी है।

मधुबन निवासी हर कर्म में फर्स्ट आने वाले हो ना। तो अव्यक्त वर्ष में फर्स्ट किस बात में आना है? ‘बाप समानबनने में, अलौकिकता में फर्स्ट आना है। तो मधुबन में अभी से, साधारण चाल, साधारण बोल का जब नाम-निशान नहीं रहेगा तब मधुबन वालों को विशेष इनाम मिलेगा। सारा वर्ष हर मास की रिजल्ट निकलेगी। तो हर मास में जरा भी साधारणता नहीं हो, महानता हो। महा-नता ही तो फर्स्ट है ना। साधारणता को फर्स्ट नहीं कहेंगे। तो मधुबन में देखेंगे-फर्स्ट प्राइज कौन लेता है? तो यह इनाम लेंगे ना? देखेंगे कौन इनाम लेते हैं! क्योंकि मधुबन निवासियों को विशेष ड्रामा अनुसार वरदानों की प्राप्ति है। जो मधुबन निवासी करेंगे वो चारों ओर स्वत: और सहज होता है। तो मधुबन को इस वरदान की दुआयें मिलेंगी। क्योंकि मधुबन है लाइट-हाउस, माइट-हाउस। लाइट-हाउस की लाइट चारों ओर फैलती है ना। बल्ब की लाइट चारों ओर नहीं फैलेगी, लाइट हाउस की चारों ओर फैलेगी। लाइट-हाउस बन अव्यक्त स्थिति, अव्यक्त चलन की लाइट चारों ओर फैलाओ। पसन्द है ना! अनुभवी हैं मधुबन वाले। मधुबन वालों को क्या मुश्किल है! जो चाहे वह कर सकते हैं। क्योंकि साधना का वायुमण्डल भी है और साधन भी हैं। जितने मधुबन में साधन हैं उतने सेवावेन्द्रों पर नहीं हैं। जैसा वायुमण्डल साधना का मधुबन में है वैसा सेवाकेन्द्र में बनाना पड़ता है, यहाँ स्वत: है।

पुरूषार्थ हरेक का इन्डीविज्युअल (Individual; व्यक्तिगत) है। चाहे संख्या कितनी भी हो लेकिन पुरूषार्थ हरेक को स्वका करना है। अलौकिकता लाने के लिये एक स्लोगन सदा याद रखना, जो ब्रह्मा बाप का सदा प्यारा रहा! वह कौनसा स्लोगन है? ‘‘कम खर्चा बाला-नशीन’’- यह स्लोगन सदा याद रखो। कम खर्चे में भी बालानशीन करके दिखाओ। ऐसे नहीं-कम खर्चा करना है तो कमी दिखाई दे। कम खर्चा हो लेकिन उससे जो प्राप्ति हो वह बहुत शानदार हो। कम खर्चे में शानदार रिजल्ट हो-इसको कहते हैं ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’। तो अलौकिक जीवन बनाने के लिए सब में ‘‘कम खर्च बाला नशीन’’ बनना है-बोल में भी, कर्म में भी। कम खर्च अर्थात् एनर्जी-संकल्प ज्यादा खर्च नहीं। कम खर्च में काम ज्यादा। ऐसे नहीं-काम ही कम कर दो। कम समय हो लेकिन काम ज्यादा हो, कम बोल हों लेकिन उस कम बोल में स्पष्टीकरण ज्यादा हो, संकल्प कम हों लेकिन शक्तिशाली हों-इसको कहा जाता है कम खर्च बाला-नशीन। सर्व खज़ाने कम खर्च में बाला-नशीन करके दिखाओ। मधुबन-निवासी तो भरपूर हैं। सुनाया था ना-मधुबन का भण्डारा भी भरपूर तो भण्डारी भी भरपूर है। तो मधुबन-निवासियों के भी सर्व शक्तियों के खज़ाने से भण्डारे भरपूर हैं। अच्छा!

(बाबा, एडवान्स पार्टी का इस समय क्या रोल है?) जो आप लोगों का रोल है वही उन लोगों का रोल है। आप शुभ भावना से सेवा कर रहे हो ना। लड़ाई-झगड़े के बीच जाकर के तो नहीं कर रहे हो। तो वो भी अपने वायब्रेशन से सब करते रहते हैं।

कांफ्रेंस के लिए सन्देश

कांफ्रेंस के पहले इतना शान्ति का वायब्रेशन दो, जो आने वाले आ सकें। अभी तो इसकी आवश्यकता है। और योग लगाओ। यह भी ब्राह्मणों के लिये गोल्डन चान्स हो जाता है! जब भी कोई ऐसी बात होती है तो क्या कहते हैं? योग लगाओ, अखण्ड योग करो। तो दुनिया की अशान्ति और ब्राह्मणों का गोल्डन चान्स। तो यह भी बीच-बीच में चान्स मिलता है बुद्धि को और एकाग्र करने का। (कर्फ्यू के समय क्लास में नहीं आ सकते हैं) लेकिन स्टूडेन्ट माना स्टडी जरूर करेंगे। घर में तो कर सकते हैं ना। टीचर का काम ही है-अपनी योग-शक्ति से अपने एरिया में कर्फ्यू खत्म कराना। यह सीन भी देखने से निर्भयता का अनुभव बढ़ता जाता है। अच्छा!



18-02-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्राह्मण जीवन का श्वांस-सदा उमंग और उत्साह

सर्व बच्चों को शिव जयन्ती की मुबारक देते हुए अव्यक्त बापदादा बोले -

आज त्रिमूर्ति शिव बाप सर्व बच्चों को विशेष त्रि-सम्बन्ध से देख रहे हैं। सबसे पहला प्यारा सम्बन्ध है-सर्व प्राप्तियों के मालिक वारिस हो, वारिस के साथ ईश्वरीय विद्यार्थी हो, साथ-साथ हर कदम में फॉलो करने वाले सतगुरू के प्यारे हो। त्रिमूर्ति शिव बाप बच्चों के भी यह तीन सम्बन्ध विशेष रूप में देख रहे हैं। वैसे तो सर्व सम्बन्ध निभाने की अनुभवी आत्मायें हो लेकिन आज विशेष तीन सम्बन्ध देख रहे हैं। यह तीन सम्बन्ध सभी को प्यारे हैं। आज विशेष त्रिमूर्ति शिव जयन्ती मनाने के उमंग से सभी भाग-भागकर पहुँच गये हैं। बाप को मुबारक देने आये हो वा बाप से मुबारक लेने आये हो? दोनों काम करने आये हो। जब नाम ही है शिव जयन्ती वा शिवरात्रि, तो त्रिमूर्ति क्या सिद्ध करता है? प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा क्या करते हैं? आप ब्राह्मणों की रचना रचते हैं ना। उन्हों की फिर पालना होती है। तो त्रिमूर्ति शब्द सिद्ध करता है कि बाप के साथ-साथ आप ब्राह्मण बच्चे भी साथ हैं। अकेला बाप क्या करेगा! इसलिए बाप की जयन्ती सो आप ब्राह्मण बच्चों की भी जयन्ती। तो बाप बच्चों को इस अलौकिक दिव्य जन्म की वा इस डायमन्ड जयन्ती की पद्मापद्म गुणा मुबारक दे रहे हैं। आप सबके मुबारक के पत्र, कार्ड बाप के पास पहुँच ही गये और अभी भी कई बच्चे दिल से मुबारक के गीत गा रहे हैं-चाहे दूर हैं, चाहे सम्मुख हैं। दूर वालों के भी मुबारक के गीत कानों में सुनाई दे रहे हैं। रिटर्न में बापदादा भी देश-विदेश के सर्व बच्चों को पद्म-पद्म बधाइयां दे रहे हैं।

यह तो सभी बच्चे जानते ही हो कि ब्राह्मण जीवन में कोई भी उत्सव मनाना अर्थात् सदा उमंग-उत्साह भरी जीवन बनाना। ब्राह्मणों की अलौकिक डिक्शनरी में मनाने का अर्थ है बनना। तो सिर्फ आज उत्सव मनायेंगे वा सदा उत्साह भरी जीवन बनायेंगे? जैसे इस स्थूल शरीर में श्वाँस है तो जीवन है। अगर श्वाँस खत्म हो गया तो जीवन क्या होगी? खत्म। ऐसे ब्राह्मण जीवन का श्वांस है-सदा उमंग और उत्साह। ब्राह्मण जीवन में हर सेकेण्ड उमंग-उत्साह नहीं तो ब्राह्मण जीवन नहीं। श्वाँस की गति भी नार्मल (सामान्य) होनी चाहिए। अगर श्वाँस की गति बहुत तेज हो जाए-तो भी जीवन यथार्थ नहीं और स्लो हो जाए-तो भी यथार्थ जीवन नहीं कही जायेगी। हाई प्रेशर या लो प्रेशर हो जाता है ना। तो इसको नार्मल जीवन नहीं कहा जाता। तो यहाँ भी चेक करो कि-’’मुझ ब्राह्मण जीवन के उमंग-उत्साह की गति नार्मल है? या कभी बहुत फास्ट, कभी बहुत स्लो हो जाती? एकरस रहती है?’’ एकरस होना चाहिए ना। कभी बहुत, कभी कम-यह तो अच्छा नहीं है ना। इसलिए संगमयुग की हर घड़ी उत्सव है। यह तो विशेष मनोरंजन के लिए मनाते हैं। क्योंकि ब्राह्मण जीवन में और कहाँ जाकर मनोरंजन मनायेंगे! यहाँ ही तो मनायेंगे ना! कहाँ विशेष सागर के किनारे पर या बगीचे में या क्लब में तो नहीं जायेंगे ना। यहाँ ही सागर का किनारा भी है, बगीचा भी है तो क्लब भी है। यह ब्राह्मण क्लब अच्छी है ना! तो ब्राह्मण जीवन का श्वांस है-उमंग-उत्साह। श्वांस की गति ठीक है ना। कि कभी नीचे-ऊपर हो जाती है? बापदादा हर एक बच्चे को चेक करते रहते हैं। ये कान में लगाकर चेक नहीं करना पड़ता। आजकल तो साइन्स ने भी सब आटोमेटिक निकाले हैं।

तो शिव जयन्ती वा शिवरात्रि दोनों के रहस्य को अच्छी तरह से जान गये हो ना! दोनों ही रहस्य स्वयं भी जान गये हो और दूसरों को भी स्पष्ट सुना सकते हैं। क्योंकि बाप की जयन्ती के साथ आपकी भी है। अपने बर्थ-डे (जन्म-दिन) का रहस्य तो सुना सकते हो ना! यादगार तो भक्त लोग भी बड़ी भावना से मनाते हैं। लेकिन अन्तर यह है कि वह शिवरात्रि पर हर साल व्रत रखते हैं और आप तो पिकनिक करते हो। क्योंकि आप सब ने जन्मते ही सदाकाल के लिए अर्थात् सम्पूर्ण ब्राह्मण जीवन के लिए एक बार व्रत धारण कर लिया, इसलिए बार-बार नहीं करना पड़ता। उन्हों को हर साल व्रत रखना पड़ता है। आप सभी ब्राह्मण आत्माओं ने जन्म लेते ही यह व्रत ले लिया कि हम सदा बाप समान सम्पन्न और सम्पूर्ण रहेंगे। यह पक्का व्रत लिया है या थोड़ा कच्चा........? जब आत्मा और परमआत्मा का सम्बन्ध अविनाशी है तो व्रत भी अविनाशी है ना। दुनिया वाले सिर्फ खान-पान का व्रत रखते हैं। इससे भी क्या सिद्ध होता है? आपने ब्राह्मण जीवन में सदा के लिए खान-पान का भी व्रत लिया है ना। कि यह फ्री है-खाना-पीना जो भी चाहे खा लो? पक्का व्रत है वा ‘‘कभी-कभी थक जाओ तो व्रत तोड़ दो? कभी टाइम नहीं मिलता तो क्या बनायें, कुछ भी मंगाकर खा लेवें?’’ थोड़ा-थोड़ा ढीला करते हो? देखो, आपके भक्त व्रत रख रहे हैं। चाहे साल में एक बार भी रखते हैं लेकिन मर्यादा को पालन तो कर रहे हैं ना। तो जब आपके भक्त व्रत में पक्के हैं, तो आप कितने पक्के हो? पक्के हो? कभी-कभी थोड़ा ढीला कर देते हो-चलो, कल भोग लगा देंगे, आज नहीं लगाते। यह भी आप ब्राह्मण आत्माओं की जीवन के बेहद के व्रत के यादगार बने हुए हैं।

विशेष इस दिन पवित्रता का भी व्रत रखते हैं। एक-पवित्रता का व्रत रखते; दूसरा-खान-पान का व्रत रखते; तीसरा-सारा दिन किसी को भी किसी प्रकार का दु:ख या धोखा नहीं देंगे-यह भी व्रत रखते हैं। लेकिन आप का इस ब्राह्मण जीवन का व्रत बेहद का है, उन्हों का एक दिन का है। पवित्रता का व्रत तो ब्राह्मण जन्म से ही धारण कर लिया है ना! सिर्फ ब्रह्मचर्य नहीं लेकिन पांचों ही विकारों पर विजय हो-इसको कहते हैं पवित्रता का व्रत। तो सोचो कि पवित्रता के व्रत में कहाँ तक सफल हुए हैं? जैसे ब्रह्मचर्य अर्थात् काम महाशत्रु को जीतने के लिये विशेष अटेन्शन में रहते हो, ऐसे ही और भी चार साथी जो काम महाशत्रु के हैं, उनका भी इतना ही अटेन्शन रहता है? कि उसके लिए छुट्टी है-थोड़ा-थोड़ा क्रोध भल कर लो? छुट्टी है नहीं, लेकिन अपने आपको छुट्टी दे देते हो। देखा गया है कि क्रोध के बाल-बच्चे जो हैं उनको छुट्टी दे दी है। क्रोध महाभूत को तो भगाया है लेकिन उसके जो बाल-बच्चे हैं उनसे थोड़ी प्रीत अभी भी रखी है। जैसे छोटे बच्चे अच्छे लगते हैं ना। तो यह क्रोध के छोटे बच्चे कभी-कभी प्यारे लगते हैं! व्रत अर्थात् सम्पूर्ण पवित्रता का व्रत। कई बच्चे बहुत अच्छी-अच्छी बातें सुनाते हैं। कहते हैं-’’क्रोध आया नहीं लेकिन क्रोध दिलाया गया, तो क्या करें? मेरे को नहीं आया लेकिन दूसरा दिलाता है।’’ बहुत म॰जे की बातें करते हैं। कहते हैं-आप भी उस समय होते तो आपको भी आ जाता। तो बापदादा क्या कहेंगे? बापदादा भी कहते-अच्छा, तुमको माफ कर दिया, लेकिन आगे फिर नहीं करना।

शिवरात्रि का अर्थ ही है-अंधकार मिटाए प्रकाश लाने वाली रात्रि। मास्टर ज्ञान-सूर्य प्रकट होना-यह है शिवरात्रि। आप भी मास्टर ज्ञान-सूर्य बन विश्व में अंधकार को मिटाए रोशनी देने वाले हो। जो विश्व को रोशनी देने वाला है वह स्वयं क्या होगा? स्वयं अंध-कार में तो नहीं होगा ना। दीपक के माफिक तो नहीं हो? दीपक के नीचे अंधियारा होता है, ऊपर रोशनी होती है। आप मास्टर ज्ञान-सूर्य हो। तो मास्टर ज्ञान-सूर्य स्वयं भी प्रकाश-स्वरूप है, लाइट-माइट रूप है और दूसरों को भी लाइट-माइट देने वाले हैं। जहाँ सदा रोशनी होती है वहाँ अंधकार का सवाल ही नहीं, अंधकार हो ही नहीं सकता। तो सम्पूर्ण पवित्रता अर्थात् रोशनी। अंधकार मिटाने वाली आत्माओं के पास अंधकार रह नहीं सकता। रह सकता है? आ सकता है? चलो, रहे नहीं लेकिन आकर चला जाए-यह हो सकता है? अगर किसी भी विकार का अंश है तो उसको रोशनी कहेंगे या अंधकार कहेंगे? अंधकार खत्म हो गया ना। शिवरात्रि का चित्र भी दिखाते हो ना। उसमें क्या दिखाते हो? अंधकार भाग रहा है। कि थोड़ा-थोड़ा रह गया? इस शिवरात्रि पर विशेष क्या करेंगे? कुछ करेंगे या सिर्फ झण्डा लहरायेंगे? जैसे सदा प्रतिज्ञा करते हो कि हम यह नहीं करेंगे, यह नहीं करेंगे........ और फिर करेंगे भी-ऐसे तो नहीं? पहले भी सुनाया है कि प्रतिज्ञा का अर्थ ही है कि जान चली जाए लेकिन प्रतिज्ञा न जाये। कुछ भी त्याग करना पड़े, कुछ भी सुनना पड़े लेकिन प्रतिज्ञा न जाये। ऐसे नहीं-जब कोई समस्या नहीं तब तो प्रतिज्ञा ठीक है, अगर कोई समस्या आ गई तो समस्या शक्तिशाली हो जाए और प्रतिज्ञा उसके आगे कमजोर हो जाए। इसको प्रतिज्ञा नहीं कहा जाता। वचन अर्थात् वचन। तो ऐसे प्रतिज्ञा मन से करें, कहने से नहीं। कहने से करने वाले उस समय तो शक्तिशाली संकल्प करते हैं। कहने से करने वाले में शक्ति तो रहती है लेकिन सर्व शक्तियाँ नहीं रहतीं। जब मन से प्रतिज्ञा करते हो और किससे प्रतिज्ञा की? बाप से। तो बाप से मन से प्रतिज्ञा करना अर्थात् मन को मन्मनाभवभी बनाना और मन्मनाभव का मन्त्र सदा किसी भी परिस्थिति में यन्त्र बन जाता है। लेकिन मन से करने से यह होगा। मन में आये कि मुझे यह करना नहीं है। अगर मन में यह संकल्प होता है कि-कोशिश करेंगे; करना तो है ही; बनना तो है ही; ऐसे नहीं करेंगे तो क्या होगा; क्या करेंगे, इसलिए कर लो........। इसको कहा जायेगा थोड़ी-थोड़ी मजबूरी। जो मन से करने वाला होगा वह यह नहीं सोचेगा कि करना ही पड़ेगा........। वह यह सोचगा कि बाप ने कहा और हुआ ही पड़ा है। निश्चय और सफलता में निश्चित होगा। यह है फर्स्ट नम्बर की प्रतिज्ञा। सेकेण्ड नम्बर की प्रतिज्ञा है- बनना तो है, करना तो है ही, पता नहीं कब हो जाये। यह तो’, ‘तो’........करना अर्थात् तोता हो गया ना। बापदादा के पास हर एक ने कितनी बार प्रतिज्ञा की है, वह सारा फाइल है। फाइल बहुत बड़े हो गये हैं। अभी फाइल नहीं भरना है, फाइनल करना है। जब कोई बापदादा को कहते हैं कि प्रतिज्ञा की चिटकी लिखायें, तो बापदादा के सामने सारी फाइल आ जाती है। अभी भी ऐसे करेंगे? फाइल में कागज एड करेंगे कि फाइनल प्रतिज्ञा करेंगे?

प्रतिज्ञा कमजोर होने का एक ही कारण बापदादा ने देखा है। वह एक शब्द भिन्न-भिन्न रॉयल रूप में आता है और कमजोर करता है। वह एक ही शब्द है-बाडी-कॉनसेस का मैं। यह मैंशब्द ही धोखा देता है। मैंयह समझता हूँ, ‘मैंही यह कर सकता हूँ, ‘मैंनेजो कहा वही ठीक है, ‘मैंनेजो सोचा वही ठीक है-तो भिन्न-भिन्नरॉयल रूप में यह मैं-पन प्रतिज्ञा को कमजोर करता है। आखिर कमजोर होकर के दिलशिकस्त के शब्द सोचते हैं-मैं इतना सहन नहीं कर सकता; अपने को इतना एकदम निर्माण कर दूँ, इतना नहीं कर सकता; इतनी समस्यायें पार नहीं कर सकते, मुश्किल है। यह मैं-पनकमजोर करता है। बहुत अच्छे रॉयल रूप हैं। अपनी लाइफ में देखो-यही मैं-पनसंस्कार के रूप में, स्वभाव के रूप में, भाव के रूप में, भावना के रूप में, बोल के रूप में, सम्बन्ध-सम्पर्क के रूप में और बहुत मीठे रूप में आता है? शिवरात्रि पर यह मैं’-’मैंकी बलि चढ़ती है। भक्त बेचारों ने तो बकरी के मैं-मैं........करने वाले को बलि चढ़ाया। लेकिन है यह मैं-मैं’, इसकी बलि चढ़ाओ। यादगार तो आप लोगों का और रूप में मना रहे हैं। बलि चढ़ चुके हैं या अभी थोड़ी मैं-पनकी बलि रही हुई है? क्या रिजल्ट है? प्रतिज्ञा करनी है तो सम्पूर्ण प्रतिज्ञा करो। जब बाप से प्यार है, प्यार में तो सब पास हैं। कोई कहेगा-बाप से 75%  प्यार है, 50%  प्यार है? प्यार के लिए सब कहेंगे-100% से भी ज्यादा प्यार है! बाप भी कहते हैं कि सभी प्यार करने वाले हैं, इसमें पास हैं। प्यार में त्याग क्या चीज है! तो प्रतिज्ञा मन से करो और दृढ़ करो। बार-बार अपने आपको चेक करो कि प्रतिज्ञा पॉवरफुल है या परीक्षा पॉवरफुल है? कोई न कोई परीक्षा प्रतिज्ञा को कमजोर कर देती है।

डबल विदेशी तो वायदा करने में होशियार हैं ना। तोड़ने में नहीं, जोड़ने में होशियार हो। बापदादा सभी डबल विदेशी बच्चों का भाग्य देख हर्षित होते हैं। बाप को पहचान लिया-यही सबसे बड़े ते बड़ी कमाल की है! दूसरी कमाल-वैराइटी वृक्ष की डालियां होते हुए भी एक बाप के चन्दन के वृक्ष की डालियां बन गये! अब एक ही वृक्ष की डालियां हो। भिन्नता में एकता लाई। देश भिन्न है, भाषा भिन्न-भिन्न है, कल्चर भिन्न-भिन्न है लेकिन आप लोगों ने भिन्नता को एकता में लाया। अभी सबका कल्चर कौनसा है? ब्राह्मण कल्चर है। यह कभी नहीं कहना कि हमारा विदेश का कल्चर ऐसे कहता है; या भारतवासी कहें कि हमारे भारत का कल्चर ऐसे होता है। न भारत, न विदेश-ब्राह्मण कल्चर। तो भिन्नता में एकता-यही तो कमाल है! और कमाल क्या की है? बाप के बने तो सब प्रकार की अलग-अलग रस्म-रिवाज, दिनचर्या आदि सब मिलाकर एक कर दी। चाहे अमेरिका में हों, चाहे लण्डन में हों, कहाँ भी हों लेकिन ब्राह्मणों की दिनचर्या एक ही है। या अलग है? विदेश की दिनचर्या अलग हो, भारत की अलग हो-नहीं। सबकी एक है। तो यह भिन्नता का त्याग-यह कमाल है। समझा, क्या-क्या कमाल की है? जैसे आप बाप के लिए गाते हो ना कि-बाप ने कमाल कर दी! बाप फिर गाते हैं-बच्चों ने कमाल कर दी। बापदादा देख-देख हर्षित होते हैं। बाप हर्षित होते हैं और बच्चे खुशी में नाचते हैं।

सेवा भी चारों ओर-विदेश की, देश की सुनते रहते हैं। दोनों ही सेवा में रेस कर रहे हैं। प्रोग्राम्स सभी अच्छे हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे। यह दृढ़ संकल्प यूज़ किया अर्थात् सफल किया। जितना दृढ़ संकल्प को सफल करते जायेंगे उतनी सहज सफलता अनुभव करते जायेंगे। कभी भी यह नहीं सोचो कि यह कैसे होगा। कैसेके बजाए सोचो कि ऐसेहोगा। संगम पर विशेष वर-दान ही है-असम्भव को सम्भव करना। तो कैसेशब्द आ ही नहीं सकता। यह होना मुश्किल है नहीं। निश्चय रखकर चलो कि यह हुआ पड़ा है, सिर्फ प्रैक्टिकल में लाना है। यह रिपीट होना है। बना हुआ है, बने हुए को बनाना अर्थात् रिपीट करना। इसको कहा जाता है सहज सफलता का आधार दृढ़ संकल्प के खज़ाने को सफल करो। समझा, क्या होगा, कैसे होगा-नहीं। होगा और सहज होगा! संकल्प की हलचल है तो वह सफलता को हलचल में ले आयेगी। अच्छा!

चारों ओर के सदा उत्सव मनाने वाले, सदा उमंग-उत्साह से उड़ने वाले, सदा सम्पूर्ण प्रतिज्ञा के पात्र अधिकारी आत्मायें, सदा अस-म्भव को सहज सम्भव करने वाले, सदा हर प्रकार की परीक्षा को कमजोर कर प्रतिज्ञा को पॉवरफुल बनाने वाले, सदा बाप के प्यार के रिटर्न में कुछ भी त्याग करने की हिम्मत वाले, ऐसे त्रिमूर्ति शिव बाप के जन्म-साथी, ब्राह्मण आत्माओं को अलौकिक जन्मदिन की याद, प्यार और मुबारक। बापदादा की विशेष श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।

बापदादा ने दादी तथा दादी जानकी को गले लगाया और बोले-

देखने वालों को भी खुशी है। सभी सदा ब्रह्मा बाप की भुजाओं में समाये हुए हैं। सदा ब्रह्मा बाप की भुजायें सभी बच्चों की सेफटी का साधन हैं। तो कहाँ रहते हो? भुजाओं में रहते हो ना! जो प्यारे होते हैं वो सदा भुजाओं में होते हैं। सेवा में बापदादा की भुजायें हो और रहने में बाप की भुजाओं में रहते हो। दोनों ही दृश्य अनुभव होते हैं ना। कभी भुजाओं में समा जाओ और कभी भुजायें बन-कर सेवा करो! कौनसी भुजा हो? राइट हैण्ड। राइट हैन्ड हो ना! लेफट तो नहीं हो ना। राइट हैण्ड का अर्थ ही है-श्रेष्ठ कार्य करने वाले। लेफट हैण्ड तो आपकी प्रजा की भी प्रजा होगी। लेकिन आप सभी ब्राह्मण राइट हैण्ड हो। यह नशा है कि हम भगवान के राइट हैण्ड है? कोई रिवाजी महात्मा, धर्मात्मा के नहीं, परम आत्मा के राइट हैण्ड हैं! दोनों को देखकर के सब खुश होते हैं। निमित्त आत्माओं को थकाते तो नहीं हो? अच्छी-अच्छी कहानियां सुनाते हैं। अच्छा है। आप लोगों को सर्व अनुभवों की खान भरने के निमित्त हैं ये। अच्छा! कांफ्रेंस वा रिट्रीट-दोनों की रिजल्ट अच्छी रही! अच्छा! विदेश के निमित्त बने हुए आदि रत्न भी अच्छी अंदाज़ में आये हुए हैं। कोई-कोई दूर होते भी समीप हैं। फिर भी अच्छे पहुँच गये हैं। (17 तारीख को 10 वर्षों से ज्ञान में चलने वाले भाई-बहनों का विशेष समारोह गया) अच्छा है, हिम्मत की मुबारक! 10 वर्ष निश्चयबुद्धि बन पार किया है, तो अचल-अडोल रहने की मुबारक। अभी फिर 10 वर्ष वालों को क्या करना है? जैसे 10 वर्ष समस्याओं को पार करते हिम्मत-उमंग से चलते उड़ते रहे हो, ऐसे ही फिर अभी जल्दी स्थापना की डायमन्ड जुबली होनी है, उसमें फिर पार्ट लेना। डायमन्ड जुबली का भी इनएडवांस पक्का है ना। ज्यादा दिन तो नहीं हैं। अच्छा दृश्य था, बाप को अच्छा लगा। रूहानियत का दृश्य अच्छा था!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

संगम का हर सेकेण्ड अच्छे ते अच्छा है - इस निश्चय से सहजयोगी बनो

सभी प्वाइंट्स का सार क्या है? प्वाइंट बनना। सब प्वाइंट्स का इसेन्स हुआ-प्वाइंट बनना। तो प्वाइट बनना सहज है या मुश्किल है? जो सहज बात होती है वो सदा होती है और मुश्किल होती है तो समटाइम (Sometime-कभी-कभी) होती है। सबसे इजी (सहज) क्या है? प्वाइंट। प्वाइंट को लिखना सहज है ना! जब भी प्वाइंट रूप में स्थित नहीं होते तो क्वेश्चन-मार्क की क्यू होती है ना! क्वेश्चन-मार्क मुश्किल होता है! तो जब भी क्वेश्चन-मार्क आये तो उसके बदले इजी प्वाइंटलगा दो। किसी भी बात को समाप्त करना होता है तो कहते हैं-इसको बिन्दी लगा दो। फुलस्टॉप लगाना आता है ना! फुलस्टॉप लगाने का सहज स्लोगन याद रखो-जो हुआ, जो हो रहा है, जो होगा वह अच्छा होगा! क्योंकि क्वेश्चन तब उठता है जब अच्छा नहीं लगता है। इसलिए संगमयुग है ही अच्छे ते अच्छा, हर सेकेण्ड अच्छे ते अच्छा। इससे सदा सहज योगी जीवन का अनुभव करेंगे! अच्छाकहने से अच्छा हो ही जाता है। स्वयं भी अच्छे और जो एक्ट करेंगे वह भी अच्छी! अच्छे को देखकर के दूसरे आकर्षित अवश्य होंगे। सभी अच्छा ही पसन्द करते हैं। अच्छा! सेवा अच्छी चल रही है ना! संख्या भी बढ़ाओ और क्वालिटी भी बढ़ाते चलो। ऐसे माइक तैयार करो जो एक के नाम से अनेकों का कल्याण हो जाए। स्वयं सदा सन्तुष्ट हो? अपने लिए तो कोई क्वेश्चन नहीं है ना! निश्चयहै फाउ-न्डेशन, निश्चय का फाउन्डेशन होगा तो कर्म आटोमेटिकली श्रेष्ठ होंगे। पहले स्मृति निश्चय की होती है। संकल्प में निश्चय अर्थात् दृढ़ता होगी तो कर्म आटोमेटिकली फल देंगे। अच्छा! सभी खुश और सन्तुष्ट हैं! सदा खुशी में नाचने वाले हैं! हलचल का समय समाप्त हो गया। पास्ट को पास्ट किया और फयुचर तो है ही बहुत सुन्दर! गोल्डन फयुचर है!

ग्रुप नं. 2

सर्व खज़ानों को सफल करना ही समर्थ आत्मा की निशानी है

सदा अपने को बाप के समर्थ बच्चे अनुभव करते हो? समर्थ आत्माओं की निशानी क्या है? समर्थ आत्मायें कोई भी खज़ाने को व्यर्थ नहीं करेंगी। समर्थ अर्थात् व्यर्थ की समाप्ति। संगमयुग पर बाप ने कितने खज़ाने दिये हैं? सबसे बड़ा खज़ाना है श्रेष्ठ संकल्पों का खज़ाना। संगम का समय-यह भी बड़े ते बड़ा खज़ाना है। सर्व शक्तियाँ-यह भी खज़ाना है; सर्व गुण-यह भी खज़ाना है। तो सभी खज़ानों को सफल करना-यह है समर्थ आत्मा की निशानी। सदा हर खज़ाने सफल होते हैं या व्यर्थ भी हो जाते हैं? कभी व्यर्थ भी होता है? जितना समर्थ बनते हैं तो व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जाता है। जैसे-रोशनी का आना और अंधकार का जाना। क्योंकि जानते हो कि-हर खज़ाने की वैल्यु कितनी बड़ी है, संगमयुग के पुरूषार्थ के आधार पर सारे कल्प की प्रालब्ध है! तो एक सेकेण्ड, एक श्वॉस, एक गुण की कितनी वैल्यु है! अगर एक भी संकल्प वा सेकेण्ड व्यर्थ जाता है तो सारा कल्प उसका नुकसान होता है। तो इतना याद रहता है? एक सेकेण्ड कितना बड़ा हुआ! तो कभी भी ऐसे नहीं समझना कि सिर्फ एक सेकेण्ड ही तो व्यर्थ हुआ! लेकिन एक सेकेण्ड अनेक जन्मों की कमाई या नुकसान का आधार है। गाया हुआ है ना-कदम में पद्मों की कमाई है। एक कदम उठाने में कितना टाइम लगता है? सेकेण्ड ही लगता है ना। सेकेण्ड गँवाना अर्थात् पद्मापद्म गँवाना। इस वैल्यु को सदा सामने रखते हुए सफल करते जाओ। चाहे स्वयं के प्रति, चाहे औरों के प्रति-सफल करते जाओ तो सफल करने से सफलतामूर्त अनु-भव करेंगे। सफलता समर्थ आत्मा के लिए जन्मसिद्ध अधिकार है। बर्थ-राइट (Birth Right) मिला है ना! कोई भी कर्म करते हो-ज्ञान-स्वरूप होकर के कर्म करने से सफलता अवश्य प्राप्त होती है। तो सफलता का आधार है-व्यर्थ न गँवाकर सफल करना। ऐसे नहीं-व्यर्थ नहीं गँवाया। लेकिन सफल भी किया? जितना कार्य में लगायेंगे उतना बढ़ता जायेगा।

खज़ानों को बढ़ाना आता है? सफल करना अर्थात् लगाना। तो सदा कार्य में लगाते हो या जब चांस मिलता है तब लगाते हो? हर समय चेक करो-चाहे मन्सा, चाहे वाचा, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क से सफल जरूर करना है। सारे दिन में कितनों की सेवा करते हो? अगर सेवाधारी सेवा नहीं करे तो अच्छा नहीं लगेगा ना। तो विश्व-सेवाधारी हो! हर दिन सेवा करनी ही है! सदा याद रखो कि जो भी अखुट खज़ाने मिले हैं वो देने ही है। दाता के बच्चे हो, तो रोज़ देना जरूर है। जो महादानी होते हैं वो एक दिन भी देने के बिना नहीं रह सकते। अगर वाचा का चांस नहीं मिलता तो मन्सा करो, मन्सा का नहीं मिलता तो अपने कर्म वा प्रैक्टिकल लाइफ द्वारा सेवा करो। कई कहते हैं कि आज कोई स्टूडेन्ट मिला ही नहीं, कोई सुनने वाला नहीं मिला। लेकिन मन्सा-सेवा तो बेहद की सेवा है। मन्सा-सेवा करनी आती है? जितना आप मन्सा से, वाणी से स्वयं सैम्पल (Sample) बनेंगे, तो सैम्पल को देखकर के स्वत: ही आकर्षित होंगे। तो आप सभी फर्स्ट-क्लास सैम्पल हो ना। फर्स्ट-क्लास सैम्पल फर्स्ट-क्लास को लायेगा ना! सिर्फ दृढ़ संकल्प रखो तो सहज हो जायेगा। अगर कोई भी व्यर्थ संकल्प अपने अन्दर ही होगा कि पता नहीं सफलता मिलेगी वा नहीं मिलेगी-तो यह संकल्प सफलता को भी पीछे कर देता है! इसलिए जब समय परिवर्तन का है तो परिवर्तन होना ही है, हुआ ही पड़ा है! हिम्मत का कदम उठाओ तो मदद है ही है। हिम्मत वाले हो ना। खुशी से बोलो-हाँ जी! पाण्डव थोड़े गम्भीर हैं? सोच रहे हैं! समर्थ आत्मा हूँ-यह बार-बार याद रखना। तो कमाल करके दिखायेंगे। अच्छा! अभी जितने आये हो उससे 10गुणा बढ़ाकर आना। मुश्किल है? तो क्यों नहीं कहते हो कि 10गुणा नहीं, 100गुणा बढ़ाकर के आयेंगे। कितनी दुआयें मिलेंगी! सेवा की दुआयें बहुत सहज उड़ाने वाली हैं। उड़ने वाले हो ना। दूसरे वर्ष रिजल्ट देखेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

वरदानी वर्ष में दृढ़ता से सफलता का सहज अनुभव करो

वरदान और मेहनत में क्या अन्तर है? एक होता है बहुत मेहनत के बाद फल मिलना और दूसरा होता है निमित्त मेहनत और वर-दान से सफलता। इस वर्ष जो यह दृढ़ संकल्प करेंगे कि ‘‘व्यर्थ संकल्प स्वप्न-मात्र भी नहीं आये’’-ऐसा दृढ़ संकल्प करेंगे तो सफलता सहज अनुभव करेंगे। लाभ लेना चाहिए ना। देखेंगे-कौन इस वरदानी वर्ष का फायदा लेता है? चाहे स्वयं प्रति भी जिस बात को मुश्किल समझते हो वो सहज अनुभव कर सकते हो, सिर्फ क्वेश्चन मार्क को खत्म करो। क्वेश्चन-मार्क सफलता प्राप्त करने में दीवार बन जाता है। इसलिये इस दीवार को खत्म करो। समझा? यह दृढ़ता सफलता की चाबी बन जायेगी। तो चाबी को यूज़ करो। चाबी यूज़ करनी आती है? चाबी है या खो जाती है? क्योंकि माया को भी यह चाबी अच्छी लगती है। देखो, कोई भी कहाँ वार करता है तो पहले आप से चाबी मांगेगा। तो माया भी पहले चाबी उड़ा लेती है। आप सोचेंगे-मेरा संकल्प तो बहुत अच्छा था लेकिन क्यों नहीं हुआ? क्योंकि बीच से दृढ़ता की चाबी खो जाती है। चाबी सम्भालने में मातायें ज्यादा होशियार होती हैं। पाण्डवों को चाबी सम्भालनी आती है? या कभी मिस कर देते हो?

सभी का लक्ष्य सेवा के प्रति वा स्वयं के प्रति बहुत अच्छा है, सिर्फ लक्ष्य को प्रैक्टिकल में लाने के लिये बीच-बीच में अटेन्शन रखना पड़ता है। कभी-कभी एक बात मिस कर देते हो-अटेंशनकी की’ (Key; चाबी) को उड़ा देते हो। तो क्या हो जाता है? (टेन्शन) तो जहाँ टेन्शन होता है ना, वहाँ मुश्किल हो जाता है। अटेन्शन का भी टेन्शन कर देते हो। बापदादा कहते हैं ना- अटेन्शन रखो, अटेन्शन रखो। तो अटेन्शन को भी टेन्शन में बदली कर देते हैं। सदा यही स्मृति में रखो कि बापदादा की सदा मदद अर्थात् सहयोग का हाथ मेरे सिर पर है। यह चित्र सदा इमर्ज रूप में रखो। तो जिसके सिर पर बाप का हाथ है उसके मस्तक पर सदा विजय का तिलक है ही है। तो अपने मस्तक पर सदा विजय का तिलक नजर आता है? या कभी मिट जाता है? जैसे बाप अविनाशी है, आप आत्मायें भी अविनाशी हैं-तो यह विजय का तिलक भी अविनाशी लगा हुआ है।

अच्छा है, सेवा का उमंग-उत्साह जितना रखते जाते हो उतना सहज निर्विघ्न बनते हो। क्योंकि सेवा में बुद्धि बिजी रहती है। खाली रहने से किसी और को आने का चान्स है और बिजी रहने से सहज निर्विघ्न बन जाते हैं। तो बिजी रहते हो? कि थोड़ा बिजी रहते हो, थोड़ा खाली रहते हो? बुद्धि भी बिजी रहे, सिर्फ हाथ-पाँव नहीं। मन और बुद्धि का टाइम-टेबल बनाना आता है? रोज बनाते हो या जब फुर्सत मिलती है तब बनाते हो? जैसे कर्म का टाइम-टेबल रोज़ बनाते हो ना, ऐसे मन-बुद्धि का टाइम-टेबल बनाओ। क्योंकि आप सबसे बड़े ते बड़े, ऊंचे ते ऊंचे हो। बाप तो बच्चों को आगे रखता है ना। तो जितने वी.आई.पी. (V.I.P.) होते हैं, वे क्या करते हैं? टाइम-टेबल पर चलते हैं। तो आप से ऊंचा सारे चक्र में कोई है? तो टाइम-टेबल पर चलना पड़े ना। अच्छा!

यू.के. में सेवा-स्थान और सेवा अच्छी चल रही है। स्थान लेने में तो मेकअप (Make Up; कमी पूरी करना) कर रहे हो, लेकिन स्थिति में भी मेकअप कर रहे हो? अच्छी रिजल्ट है, क्यों? क्योंकि आप सभी के बड़ी दिल का सहयोग है। यह सहयोग ही सेवा बड़ी कर रहा है। चाहे निमित्त कोई भी बनता है लेकिन देखा गया कि यू.के. वालों की हर कार्य में दिल बड़ी है, उसका प्रत्यक्ष फल मिल रहा है। अभी यू.के. को फॉलो करो। फ्रीन्स, केनाडा, सब फॉलो करो। अभी जिन्हें सहयोगी बनाया है उन्हों को वारिस बनाओ। एक तरफ वारिस बनाओ, दूसरी तरफ माइक बनाओ। लन्दन वालों ने इतना बड़ा माइक नहीं निकाला है जो इन्डिया तक आवाज आये। लन्दन का लन्दन में ही आवाज है। आप तो विश्व-कल्याणकारी हो ना। जब बड़ी दिल रखने वाले हो तो सेवा का प्रत्यक्षफल भी बड़ा निकलना ही है। कोई भी कार्य करो तो स्वयं करने में भी बड़ी दिल और दूसरों को सहयोगी बनाने में भी बड़ी दिल। कभी भी स्वयं प्रति वा सहयोगी आत्माओं के प्रति, साथियों के प्रति संकुचित दिल नहीं रखो। यह विधि बहुत अच्छी है। बड़ी दिल रखने से-जैसे गाया हुआ है कि मिट्टी भी सोना हो जाती है-कमजोर साथी भी शक्तिशाली साथी बन जाता है, असम्भव सफलता सम्भव हो जाती है। बड़ी दिल वाले हो ना। मैं’-’मैंकरने वाले तो नहीं हो ना। यह मैं’-’मैंजो करता है उसे कहेंगे बकरी दिल और बड़ी दिल वाले को कहेंगे शेर दिल। शक्तियों की सवारी किसके ऊपर है? बकरी के ऊपर या शेर के ऊपर? शेर पर है ना। आप भी शक्ति सेना हो। तो शेर पर सवारी है ना। मै’-’मैंको बलि चढ़ा लिया ना, समाप्त कर दिया। तो सदा यह स्मृति में रखो कि हर सेकेण्ड, हर संकल्प को सफल करते हुए सफलता का अधिकार हर समय प्राप्त करते रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. नं. 4

बिन्दु रूप या डबल लाइट रहना ही उड़ती कला का सहज साधन है

सदा अपने को कौनसे सितारे समझते हो? (सफलता के सितारे, लक्की सितारे, चमकते हुए सितारे, उम्मीदों के सितारे) बाप की आंखों के तारे। तो नयनों में कौन समा सकता है? जो बिन्दु है। आंखों में देखने की विशेषता है ही बिन्दु में। जितना यह स्मृति रखेंगे कि हम बाप के नयनों के सितारे हैं, तो स्वत: ही बिन्दु रूप होंगे। कोई बड़ी चीज़ आंखों में नहीं समायेगी। स्वयं आंख ही सूक्ष्म है, तो सूक्ष्म आंख में समाने का स्वरूप ही सूक्ष्म है। बिन्दु-रूप में रहते हो? यह बड़ा लम्बा-चौड़ा शरीर याद आ जाता है? बापदादा ने पहले भी सुनाया था कि हर कर्म में सफलता वा प्रत्यक्षफल प्राप्त करने का साधन है-रोज़ अमृतवेले तीन बिन्दु का तिलक लगाओ। तो तीन बिन्दु याद हैं ना। लगाना भी याद रहता है? क्योंकि अगर तीनों ही बिन्दी का तिलक सदा लगा हुआ है तो सदैव उड़ती कला का अनुभव होता रहेगा। कौनसी कला में चल रहे हो? उड़ती कला है? या कभी उड़ती, कभी चलती, कभी चढ़ती? सदा उड़ती कला। उड़ने में मजा है ना। या चढ़ने में मजा है? चारों ओर के वायुमण्डल में देखो कि समय उड़ता रहता है। समय चलता नहीं है, उड़ रहा है। और आप कभी चढ़ती कला, कभी चलती कला में होंगे तो क्या रिजल्ट होगी? समय पर पहुँ-चेंगे? तो पहुँचने वाले हो या पहुँचने वालों को देखने वाले हो? सभी पहुँचने वाले हो, देखने वाले नहीं। तो सदा उड़ती कला चाहिए ना।

उड़ती कला का क्या साधन है? बिन्दु रूप में रहना। डबल लाइट। बिन्दु तो है लेकिन कर्म में भी लाइट। डबल लाइट हो तो जरूर उड़ेंगे। आधा कल्प बोझ उठाने की आदत होने कारण बाप को बोझ देते हुए भी कभी-कभी उठा लेते हैं। तंग भी होते हो लेकिन आदत से मजबूर हो जाते हो। कहते हो तेरालेकिन बना देते हो मेरा। स्व उन्नति के लिए वा विश्व-सेवा के लिए कितना भी कार्य हो वह बोझ नहीं लगेगा। लेकिन मेरा मानना अर्थात् बोझ होना। तो सदैव क्या याद रखेंगे? मेरा नहीं, तेरा। मन से, मुख से नहीं। मुख से तेरा-तेरा भी कहते रहते हैं और मन से मेरा भी मानते रहते हैं। ऐसी गलती नहीं वर्ना।

बिन्दु-स्वरूप में स्थित होना अर्थात् डबल लाइट बनना। बड़ी चीज को उठाना मुश्किल होता है, छोटी चीज को उठाना सहज होता है। छोटे बिन्दु रूप को स्मृति में रखते हो या लम्बे शरीर को याद रखते हो? याद के लिए कहा जाता है-बुद्धि में याद रखना। मोटी चीज को याद रखते हो और छोटी चीज को छोड़ देते हो, इसलिए मुश्किल हो जाता है। लाइफ में भी देखो-छोटा बनना अच्छा है या बड़ा बनना अच्छा है? छोटा बनना अच्छा है। तो छोटा स्वरूप याद रखना अच्छा है ना। क्या याद रखेंगे? बिन्दु। सहज काम दिया है या मुश्किल? तो फिर कभी-कभीक्यों करते? सहज काम तो सदाहो सकता है ना। जब बाप भी बिन्दु, आप भी बिन्दु, काम भी बिन्दु से है-तो बिन्दु को याद करना चाहिए। तो अभी डॉट (बिन्दु) को नहीं भूलना। बोझ नहीं उठाना। अच्छा! यह वैरायटी गुलदस्ता है। अच्छा! सभी एक-दो के साथी हैं। विन करना सहज है। क्यों सहज है? (बाबा साथ है) और अनेक बार विजयी बने हैं तो रिपीट करने में क्या मुश्किल है! कोई नई बात करनी होती है तो मुश्किल लगता है और किया हुआ काम फिर से करो तो मुश्किल लगता है क्या? तो कितनी बारी विजयी बने हो? कितना सहज है! किये हुए कार्य में कभी क्वेश्चन नहीं उठेगा-कैसे होगा, क्या होगा, ठीक होगा, नहीं होगा। किया हुआ है तो इजी हो गया ना। कितना इजी? बहुत इजी है! अभी इजी लग रहा है वहां जा के मुश्किल हो जायेगा? सदा इजी। जब मुश्किल लगे तो याद करो-’’कितने बारी किया है तो मुश्किल के बजाये इजी हो जायेगा।’’ सभी बहादूर हैं। क्या याद रखेंगे? बिन्दु। बनना भी बिन्दु है, लगाना भी बिन्दु है। फुल स्टॉप लगाना अर्थात् बिन्दु लगाना। तो इसको भूलना नहीं। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सेल्फ पर राज्य करने वाले बेफिक्र बादशाह बनो

सदा अपने को राजा समझते हो? सेल्फ पर राज्य है अर्थात् स्वराज्य अधिकारी हो। और दूसरे कौनसे राजा हो? बेफिक्र बादशाह। बेफिक्र बादशाह इस समय बनते हो। क्योंकि सतयुग में फिक्र वा बेफिक्र का ज्ञान ही नहीं है। कल क्या थे और आज क्या बने हो! बेफिक्र बादशाह बन गये ना! बेफिक्र बनने से भण्डारे भरपूर हो गये हैं। ब्राह्मण जीवन अर्थात् बेफिक्र बादशाह। स्वराज्य मिला-सब-कुछ मिला। स्वराज्य मिला है? कभी कोई कर्मेन्द्रियां तो धोखा नहीं देती? कभी-कभी थोड़ा खेल करती हैं तो कन्ट्रो-लिंग पॉवर या रूलिंग पॉवर कम है। तो सदैव चलते-फिरते यह स्मृति सदा रहे कि-मैं स्वराज्य अधिकारी बेफिक्र बादशाह हूँ। बाप आया ही है आप सबके फिक्र लेने के लिए। तो फिक्र दे दिया ना। थोड़ा छिपाके तो नहीं रखा है? पॉकेट चेक करके देखो। बुद्धि रूपी, मन रूपी पॉकेट दोनों ही देखो। जब हैं ही बाप के बच्चे, तो बच्चे बेफिक्र होते हैं। क्योंकि बाप दाता है, तो दाता के बच्चों को क्या फिक्र है! अच्छा, यह कौनसी भाषा वाले हैं? (स्पेनिश, पोर्तुगीज) देखो, साइन्स के साधन आपके काम में तो आ रहे हैं ना! ड्रामा अनुसार साइन्स वालों को भी टच तभी हुआ है जब बाप को आवश्यकता है। साधन यूज़ करना अलग चीज़ है और साधनों के वश होना अलग चीज़ है। तो आप साधनों को यूज़ करते हो या साधनों के वश हो जाते हो? कभी कोई साधन अपनी तरफ खींचते तो नहीं हैं? मास्टर क्रियेटर होकर के क्रियेशन से लाभ भले लो। अगर वशीभूत हो गये तो दु:ख देंगे। अच्छा!

अमृतवेले 3.00 बजे स्वयं अव्यक्त बापदादा ने शिव-ध्वज फहराया और उसी स्थान पर खड़े रहकर ब्रह्मा वत्सों को सम्बोधित करते हुए बोले-

आज के इस-शिवरात्रि कहो वा शिवजयन्ती कहो-शिवरात्रि वा शिवजयन्ती के उत्सव की सभी को पद्मापद्म गुणा मुबारक हो! सदा हर सेकेण्ड उमंग-उत्साह बढ़ाते-बढ़ाते इस विश्व को ही उत्साह भरा अपना राज्य बना लेंगे। आज औरों के राज्य में सेवाधारी बन सेवा कर रहे हो और कल अपने स्वराज्य के साथ विश्व के राज्य के राज्य अधिकारी बने कि बने! तो सदा हर सेकेण्ड उत्साह भरना और दुआयें लेना। हर सेकेण्ड दुआयें लेते जाओ और दुआयें देते जाओ। आपकी दुआओं से सदा सर्व आत्मायें सुखी हो जायेंगी। वो दिन आया कि आया-जब सभी आत्मायें बाप के झण्डे के नीचे, छत्रछाया के नीचे खड़ी होंगी! तो मुबारक हो! चारों ओर के बच्चों को, दिल में रहने वाले बच्चों को मुबारक हो! मुबारक हो!!



07-03-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


होली मनाना अर्थात् हाइएस्ट और होलिएस्ट बनना

आज बापदादा अपने सर्व हाइएस्ट और होलीएस्ट बच्चों को देख रहे हैं। सभी बच्चे इस बेहद के ड्रामा के अन्दर वा सृष्टि-चक्र के अन्दर सबसे हाइएस्ट भी हो और सबसे ज्यादा होलीएस्ट भी हो। आदि से अब संगम समय तक देखो कि आप आत्माओं से कोई हाइएस्ट श्रेष्ठ बना है? जितना आप श्रेष्ठ स्थिति को, श्रेष्ठ पद को प्राप्त करते हो इतना और कोई भी आत्मायें, चाहे धर्म-पितायें हैं, चाहे महान आत्मायें हैं-कोई भी इतना श्रेष्ठ नहीं रहे। क्योंकि आप ऊंचे ते ऊंचे भगवान द्वारा डायरेक्ट पालना, पढ़ाई और श्रेष्ठ जीवन की श्रीमत लेने वाली आत्मायें हो। जानते हो ना अपने को? अपने अनादि काल को देखो-अनादि काल में भी परमधाम में बाप के समीप रहने वाली हो। अपना स्थान याद है ना? तो अनादि काल में भी हाइएस्ट हो, समीप, साथ हो और आदिकाल में भी सृष्टि-चक्र के सतयुग काल में देव-पद प्राप्त करने वाली आत्मायें हो। देव आत्माओं का समय आदिकालभी सर्वश्रेष्ठ है और साकार मनुष्य जीवन में सर्व प्राप्ति सम्पन्न, श्रेष्ठ हो। सृष्टि-चक्र के अन्दर ये देव पद अर्थात् देवता जीवन ही ऐसी जीवन है जहाँ तन, मन, धन, जन-चारों ही प्रकार की सर्व प्राप्तियां प्राप्त हैं। अपनी दैवी जीवन याद है? कि भूल गये हो? अनादि काल भी याद आ गया, आदि काल भी याद आ गया! अच्छी तरह से याद करो। तो दोनों समय में हाइएस्ट हो ना!

उसके बाद मध्य काल में आओ। तो द्वापर में आप आत्माओं के जड़ चित्र बनते हैं अर्थात् पूज्य आत्मायें बनते हैं। पूज्य में भी देखो-सबसे विधिपूर्वक पूजा देव आत्माओं की होती है। आप सबके मन्दिर बने हैं। डबल विदेशियों के मन्दिर बने हुए हैं? कि सिर्फ भारतवासियों के बनते हैं? बने हुए हैं ना! जैसे देव आत्माओं की पूजा होती है ऐसे और किसी आत्माओं की पूजा नहीं होती। कोई महात्मा वगैरह को मन्दिर में बिठा भी देते हैं, लेकिन ऐसे भावना और विधिपूर्वक हर कर्म की पूजा हो-ऐसी पूजा नहीं होती। तो मध्य काल में भी पूज्य रूप में श्रेष्ठ हो, हाइएस्ट हो। अब अन्त में आओ-अब संगमयुग पर भी ऊंचे ते ऊंचे ब्राह्मण आत्मायें ब्राह्मण सो फरिश्ताआत्मायें बनते हो। तो अनादि, आदि, मध्य और अन्त-हाइएस्ट हो गये ना। है इतना नशा? रूहानी नशा है ना! अभिमान नहीं लेकिन स्वमान है, स्वमान का नशा है। स्व अर्थात् आत्मा का, श्रेष्ठ आत्मा का रूहानी नशा है। तो सारे चक्र में हाइएस्ट भी हो और साथ-साथ होलीएस्ट भी हो। चाहे और आत्मायें भी होली अर्थात् पवित्र बनती हैं लेकिन आपकी वर्तमान समय की पवित्रता और फिर देवता जीवन की पवित्रता सभी से श्रेष्ठ और न्यारी है। इस समय भी सम्पूर्ण पवित्र अर्थात् होली बनते हो।

सम्पूर्ण पवित्रता की परिभाषा बहुत श्रेष्ठ है और सहज भी है। सम्पूर्ण पवित्रता का अर्थ ही है-स्वप्न-मात्र भी अपवित्रता मन और बुद्धि को टच नहीं करे। इसी को ही कहा जाता है सच्चे वैष्णव। चाहे अभी नम्बरवार पुरुषार्थी हो लेकिन पुरूषार्थ का लक्ष्य सम्पूर्ण पवित्रता का ही है। और सहज पवित्रता को धारण करने वाली आत्मायें हो। सहज क्यों है? क्योंकि हिम्मत बच्चों की और मदद सर्वशक्तिवान बाप की। इसलिए मुश्किल वा असम्भव भी सम्भव हो गया है और नम्बरवार हो रहा है। तो होली अर्थात् पवित्रता की भी श्रेष्ठ स्थिति का अनुभव आप ब्राह्मण आत्माओं को है। सहज लगती है या मुश्किल लगती है? सम्पूर्ण पवित्रता मुश्किल है या सहज है? कभी मुश्किल, कभी सहज? सम्पूर्ण बनना ही है-ये लक्ष्य है ना। लक्ष्य तो हाइएस्ट है ना! कि लक्ष्य ही ढीला है कि-कोई बात नहीं, सब चलता है? नहीं। यह तो नहीं सोचते हो-थोड़ा-बहुत तो होता ही है? ये तो नहीं सोचते-’’थोड़ा तो चलता ही है, चला लो, किसको क्या पता पड़ता है, कोई मन्सा तो देखता ही नहीं है, कर्म में तो आते ही नहीं हैं?’’ लेकिन मन्सा के वाय-ब्रेशन्स भी छिप नहीं सकते। चलाने वाले को बापदादा अच्छी तरह से जानते हैं। ऐसे आउट नहीं करते, नहीं तो नाम भी आउट कर सकते हैं। लेकिन अभी नहीं करते। चलाने वाले स्वयं ही चलते-चलते, चलाते-चलाते त्रेता तक पहुँच जायेंगे। लेकिन लक्ष्य सभी का सम्पूर्ण पवित्रता का ही है।

सारे चक्र में देखो-सिर्फ देव आत्मायें हैं जिनका शरीर भी पवित्र है और आत्मा भी पवित्र है। और जो भी आये हैं-आत्मा पवित्र बन भी जाये लेकिन शरीर पवित्र नहीं होगा। आप आत्मायें ब्राह्मण जीवन में ऐसे पवित्र बनते हो जो शरीर भी, प्रकृति भी पवित्र बना देते हो। इसलिए शरीर भी पवित्र है तो आत्मा भी पवित्र है। लेकिन वो कौनसी आत्मायें हैं जो शरीरऔर आत्मा’-दोनों से पवित्र बनती हैं? उन्हों को देखा है? कहाँ हैं वो आत्मायें? आप ही हो वो आत्मायें! आप सभी हो या थोड़े हैं? पक्का है ना कि हम ही थे, हम ही बन रहे हैं। तो हाइएस्ट भी हो और होलीएस्ट भी हो। दोनों ही हो ना! कैसे बने? बहुत अलौकिक रूहानी होली मनाने से होली बने। कौनसी होली खेली है जिससे होलीएस्ट भी बने हो और हाइएस्ट भी बने हो?

सबसे अच्छे ते अच्छा श्रेष्ठ रंग कौनसा है? सबसे अविनाशी रंग है-बाप के संग का रंग। जैसा संग होता है ना, वैसा रंग लगता है। आपको किसका रंग लगा? बाप का ना! तो बाप के संग का रंग जितना पक्का लगता है उतना ही होली बन जाते हो, सम्पूर्ण पवित्र बन जाते हो। संग का रंग तो सहज है ना! संग में रहो, रंग आपेही लग जायेगा, मेहनत करने की भी आवश्यकता नहीं। संग में रहना आता है? कि डबल विदेशियों को अकेला रहना, अकेलापन महसूस करना जल्दी आता है? कभी-कभी कम्पलेन आती है ना कि मैं अपने को एलोन (अकेला) महसूस करती हूँ। क्यों अकेले रहते हो? क्यों अकेलापन महसूस करते हो? आदत है, इसलिए? ब्राह्मण आत्माए एक सेकेण्ड भी अकेले नहीं हो सकतीं। हो सकती हैं? (नहीं) होना नहीं है लेकिन हो जाते हो! बापदादा ने स्वयं अपना साथी बनाया, फिर अकेले कैसे हो सकते हो! कई बच्चे कहते हैं कि बाप को कम्पेनियन’ (साथी) तो बनाया है लेकिन सदा कम्पनी (साथ) नहीं रहती। क्यों? कम्पेनियन बनाया है, इसमें तो ठीक हैं। सभी से पूछेंगे-आपका कम्पेनियन कौन है? तो बाबा ही कहेंगे ना।

बापदादा ने देखा कि जब कम्पेनियन बनाने से भी काम नहीं चलता, कभी-कभी फिर भी अकेले हो जाते हो। अभी और क्या युक्ति अपनायें? कम्पेनियन बनाया है लेकिन कम्बाइन्ड नहीं बने हो। कम्बाइन्ड-स्वरूप कभी अलग नहीं होता। कम्पेनियन से कभी-कभी फ्रेंडली क्वरल (Quarrel-झगड़ा) भी हो जाता है तो अलग हो जाते हो। कभी-कभी कोई ऐसी बात हो जाती है ना, तो बाप से अकेले बन जाते हो। तो कम्पेनियन तो बनाया है लेकिन कम्पेनियन को कम्बाइन्ड रूप में अनुभव करो। अलग हो ही नहीं सकते, किसकी ताकत नहीं जो मुझ कम्बाइन्ड रूप को अलग कर सके-ऐसा अनुभव बार-बार स्मृति में लाते-लाते स्मृतिस्वरूप बन जाओ। बार-बार चेक करो कि कम्बाइन्ड हूँ, किनारा तो नहीं कर लिया? जितना कम्बाइन्ड-रूप का अनुभव बढ़ाते जायेंगे उतना ब्राह्मण जीवन बहुत प्यारी, मनोरंजक जीवन अनुभव होगी। तो ऐसी होली मनाने आये हो ना। कि सिर्फ रंग की होली मनाकर कहेंगे कि होली हो गई? सदैव याद रखो-संग के रंग की होली से होलीएस्ट और हाइएस्ट सहज बनना है। मुश्किल नहीं, सहज। पर-मात्म-संग कभी मुश्किल का अनुभव नहीं कराता। बापदादा को भी बच्चों का मेहनत या मुश्किल अनुभव करना अच्छा नहीं लगता। मास्टर सर्वशक्तिवान वा सर्वशक्तिवान के कम्बाइन्ड-रूप और फिर मुश्किल कैसे हो सकती! जरूर कोई अलबेलापन वा आलस्य वा पुरानी पास्ट लाइफ के संस्कार इमर्ज होते हैं तब मुश्किल अनुभव होता है। जब मरजीवा बन गये तो पुराने संस्कार की भी मृत्यु हो गयी, पुराने संस्कार इमर्ज हो नहीं सकते। बिल्कुल भूल जाओ-ये पुराने जन्म के हैं, ब्राह्मण जन्म के नहीं हैं। जब पुराना जन्म समाप्त हुआ, नया जन्म धारण किया तो नया जन्म, नये संस्कार।

अगर माया पुराने संस्कार इमर्ज कराती भी है तो सोचो-अगर कोई दूसरे की चीज आपको आकर के देवे तो आप क्या करेंगे? रख देंगे? स्वीकार करेंगे? सोचेंगे ना कि ये हमारी चीज नहीं है, ये दूसरे की चीज मैं कैसे ले सकता हूँ? अगर माया पुराने जन्म के संस्कार इमर्ज करने के रूप में आती भी है तो आपकी चीज तो आई नहीं। सोचो-ये मेरी चीज नहीं है, ये पराई है। पराई चीज को संकल्प में भी अपना नहीं मान सकते हो। मान सकते हैं? सोचो-पराई चीज जरूर धोखा देगी, दु:ख देगी। सोचकर के उसी सेकेण्ड पराई चीज को छोड़ दो, फेंक दो अर्थात् बुद्धि से निकाल दो। पराई चीज को अपनी बुद्धि में रख नहीं लो। नहीं तो परेशान करते रहेंगे। सदा ये सोचो कि-ब्राह्मण जीवन में बाप ने क्या-क्या दिया, ब्राह्मण जीवन का अर्थात् मेरा निजी स्वभाव, संस्कार, वृति, दृष्टि, स्मृति क्या है? ये निजी है, वो पराई है। पराया माल अच्छा लगता है कि अपना माल अच्छा लगता है? ये रावण का माल है और ये बाप का माल है-कौनसा अच्छा लगता है? कभी भी गलती से भी संकल्प में भी नहीं लाओ-’’क्या करें, मेरा स्वभाव ऐसा है, मेरा संस्कार ऐसा है? क्या करें, संस्कार को मिटाना बहुत मुश्किल है।’’ आपका है ही नहीं। मेरा क्यों कहते हो? मेरा है ही नहीं। रावण की चीज को मेरा कहते हो! मेरा बनाते हो ना, तब ही वो संस्कार भी समझते हैं कि इसने अपना तो बना लिया, तो अब अच्छी तरह से खातिरी करो। निजी संस्कार, निजी स्वभाव इमर्ज करो तो वह स्वत: ही मर्ज हो जायेंगे। समझा, क्या करना है?

तो ऐसी होली मनाने आये हो ना। वो एक दिन कहेंगे-होली है; दूसरे दिन कहेंगे-होली हो गई। और आप क्या कहेंगे? आप कहेंगे-हम सदा ही संग के रंग की होली मना रहे हैं और होली बन गये। होली मनाते-मनाते होली बन गये। होली मना ली या मनानी है? जबसे ब्राह्मण बने हो तब से होली मना रहे हो! क्योंकि संगमयुग का समय ही सदा उत्सव का समय है। दुनिया वाले तो एकस्ट्रा खर्च करके मौज मनाते हैं। लेकिन आप सदा ही हर सेकेण्ड मौज मनाने वाले हो, हर सेकेण्ड नाचते-गाते रहते हो। सदा खुशी में नाचते हो या जब कल्चरल प्रोग्राम होता है तभी नाचते हो? सदा नाचते रहते हो ना। सदा बाप की महिमा और अपनी प्राप्तियों के गीत गाते रहो। सबको गाना आता है ना। सभी गा सकते हो, सभी नाच सकते हो। सदा नाचना-गाना मुश्किल है क्या? सहज है और सदा सहज अनुभव करते सम्पन्न बनना ही है। कभी भी ये नहीं सोचो-पता नहीं, हम सम्पन्न बनेंगे या नहीं बनेंगे। ये कमजोर संकल्प कभी आने नहीं दो। सदा यही सोचो कि अनेक बार मैं ही बनी हूँ और मुझे ही बनना ही है। अच्छा!

चारो ओर के सदा परमात्म-संग के रंग की होली मनाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें, सृष्टि-चक्र के अन्दर सदा हाइएस्ट पार्ट बजाने वाली श्रेष्ठ आत्मायें, सर्व आत्माओं से श्रेष्ठ होलीएस्ट आत्मायें, सदा कम्बाइन्ड रहने वाली पद्मापद्म भाग्यवान आत्मायें, सदा सर्व की मुश्किल को भी सहज बनाने वाली ब्राह्मण आत्मायें, सदा नये जन्म के नये स्वभाव-संस्कार, नये उमंग-उत्साह में रहने वाली उड़ती कला की अनुभवी आत्माओं को बापदादा का याद, प्यार और नमस्ते।

दादी जानकी से मुलाकात

अच्छा चल रहा है ना। रथ को चलाने का तरीका आ गया है। दादियों को ठीक देखकर के ही खुश हो जाते हैं। शरीर के भी नाले-जफुल, आत्मा के भी नॉलेजफुल। चाहे पिछला हिसाब-किताब चुक्तू करना ही पड़ता है लेकिन नॉलेजफुल होने से सहज चुक्तू हो जाता है। तरीका आ जाता है ना। चलने का और चलाने का-दोनों तरीके आ जाते हैं। फिर भी सेवा का बल दुआओं का काम कर रहा है। यह दुआयें दवाई का काम कर रही हैं। सेवा का उमंग आता है ना-जल्दी-जल्दी तैयार हो जाए तो सेवा करें। तो वह उमंग जो आता है ना, वह उमंग सूली से कांटा कर देता है। अच्छा है, फिर भी हिम्मत अच्छी है।

(सभा से) निमित्त आत्माओं को देखकर के खुश होते हो ना। अभी अव्यक्त वर्ष में हर एक कोई न कोई कमाल करके दिखाओ। सेवा में कमाल हो रही है, वह तो होनीहै। लेकिन पर्सनल पुरूषार्थ में ऐसी कमाल दिखाओ जो देखने वाले कहें कि-हाँ, कमाल है! दूसरे के मुख से निकले कि कमाल है। सिर्फ यह नहीं कि चल तो रहे हैं, बढ़ तो रहे हैं। लेकिन कमाल क्या की? कमाल उसको कहा जाता है जो असम्भव को कोई सम्भव करके दिखाये, मुश्किल को सहज करके दिखाये। जो कोई के स्वप्न में भी नहीं हो वह बात साकार में करके दिखाये-इसको कहा जाता है कमाल। समय प्रमाण कमाल होना-वह और बात है। वह तो होनी ही है, हुई पड़ी है। लेकिन स्व के अटेन्शन से कोई ऐसी कमाल करके दिखाओ। ब्रह्मा बाप के 25 वर्ष पूरे हुए। जब कोई भी उत्सव मनाना होता है, तो जिसका मनाते हैं उसको कोई न कोई दिल-पसन्द गिफ्ट दी जाती है। ब्रह्मा बाप के दिल-पसन्द क्या है? वह तो जानते ही हो ना। जो स्वयं को भी मुश्किल लगता हो ना, वो ऐसा सहज हो जाए जो स्वयं भी आप अनुभव करो-तब कमाल है। ठीक है ना। क्या करेंगे? बाप के दिल-पसन्द करके दिखाओ। क्या-क्या दिल-पसन्द है-यह तो जानते हो ना। बाप को क्या पसन्द है, जानते हो ना। अच्छा! देखेंगे कौनसी-कौनसी गिफ्ट देते हैं? जैसे स्थूल गिफ्ट बड़े प्यार से ले आते हो ना। अच्छा है, डबल विदेशी अपना भाग्य अच्छी तरह से प्राप्त कर रहे हैं। वृद्धि कर रहे हो ना। वृद्धि करने वालों को पहले तपस्या के साथ त्याग करना ही पड़ता है। वृद्धि होती है तो खुश होते हो ना। या समझते हो-हमारे को कमी पड़ जायेगी? अच्छा है, वृद्धि अच्छी कर रहे हो। यह नहीं सोचो-हमारा कम हो रहा है। बढ़ रहा है। सारी मशीनरी सूक्ष्म वतन की ही चल रही है।

डबल विदेशी भाई-बहनों के अलग-अलग ग्रुप से अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात’’

ग्रुप नं. 1

स्थूल कर्म करते भी मंसा द्वारा वायबेशन्स फैलाने की सेवा करो

सभी अपने को सदा विश्व की सर्व आत्माओं के कल्याणकारी आत्मायें अनुभव करते हो? सारा दिन विश्व-कल्याण के कर्तव्य में बिजी रहते हो या दो-चार घण्टे? कितना भी स्थूल कार्य हो लेकिन स्थूल कार्य करते हुए भी मन्सा द्वारा वायब्रेशन्स फैलाने की सेवा कर सकते हो। क्योंकि जिसका जो कार्य होता है ना, वो कहाँ भी होगा, अपना कार्य कभी भी नहीं भूलेगा। जैसे-कोई बिजनेसमेन है तो स्वप्न में भी अपना बिजनेस देखेगा। तो आपका काम ही है-विश्व-कल्याण करना। कोई भी पूछे-आपका ऑक्यूपेशन क्या है? तो क्या यह कहेंगे-टाइपिस्ट हैं या इन्जीनियर हैं या बिजनेसमेन हैं। यह तो हुआ निमित्त-मात्र, लेकिन सदा स्मृति विश्व-कल्याणकारी ऑक्यूपेशन की है। इतना बड़ा कार्य मिला है जो फुर्सत ही नहीं है और बातों में जाने की। ऐसे बिजी रहते हो? मन-बुद्धि बिजी रहती है? कभी खाली रहती है? अगर सदा मन-बुद्धि से बिजी हैं तो मायाजीत हो ही गये। क्योंकि माया को भी समय चाहिए ना। आपको समय ही नहीं तो माया क्या करेगी? बिजी देखकर के आने वाला स्वत: ही वापस चला जाता है। तो मायाजीत हो गये? मन-बुद्धि को फ्री रखना माना माया का आह्वान करना।

वर्तमान समय की विशेष माया है-व्यर्थ सोचना, व्यर्थ बोलना, व्यर्थ समय गँवाना। तो यह माया कभी-कभी आ जाती है ना। तो इसका मतलब फ्री रहते हो। सबसे बड़े ते बड़े बिजनेसमेन या इन्डस्ट्रियलिस्ट आप हो। कोई का कितना भी बड़ा व्यापार हो, धन्धा हो, फैक्टरी हो लेकिन वो अगर कमाई करेगा तो कितनी करेगा? एक दिन में एक करोड़ भी कमा ले, लेकिन आपकी सारे दिन में कितनी कमाई है? (अनगिनत) तो इतने बड़े हो ना। जब कोई बिजी होता है तो और कहाँ बुद्धि जाने की फुर्सत ही नहीं होती। तो आपका मन या बुद्धि कहीं जा सकते हैं? नहीं! तो मायाजीत हो गये ना! माया आवे और उसको भगाओ-अभी वह समय गया। अभी सदा बिजी रहो। फिर कोई कम्प्लेन नहीं रहेगी। सबसे सहज साधन यह है कि बिजी रहो। इससे एक तो मायाजीत बन जायेंगे, दूसरा सदा खुशी में नाचते रहेंगे। क्योंकि प्राप्ति में खुशी होती है ना! तो और क्या चाहिए! खुशी चाहिए ना! तो बिजी रहने से कभी भी न माया आयेगी, न खुशी जायेगी।

बापदादा को बच्चों को देखकर के खुशी होती है-फास्ट जाकर के फर्स्ट नम्बर आयेंगे। फर्स्टएक होता है या बहुत होते हैं? फर्स्ट डिविजन में आयेंगे। हिम्मत अच्छी है॰ इसलिए एकस्ट्रा मदद भी मिल रही है। ऐसे अनुभव करते हैं ना! (गोली की स्पीड से भी तेज चल रहे हैं) आजकल तो गोली की स्पीड कुछ नहीं है। राकेट तेज चलता है। राकेट से भी तेज। सोल (आत्मा) रूप में स्थित होना अर्थात् तेज होना। फास्ट जाना ही है। सेवायें तो भिन्न-भिन्न रीति से कर ही रहे हो। लेकिन और भी थोड़ा छोटे-छोटे प्रोग्राम करके, जैसे योग-शिविर में अनुभव कराते हो, ऐसे रिट्रीट के प्रोग्राम करने चाहिए। सभी जगह अनुभव कराओ। सिर्फ सुन के नहीं जाये, अटेन्शन यह रखो-अनुभव करके जाये। अच्छा! सभी क्या याद रखेंगे? कौन हो? चलते-फिरते अपना यही ऑक्यूपेशन याद रखना कि मैं हर समय विश्व-कल्याणकारी आत्मा हूँ तो विश्व के कल्याण के निमित बनूँ। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

शरीर भी चला लाये लेकिन खुशी नहीं जाये - यह दृढ़ प्रतिज्ञा करो

सदा अपने को पद्मापद्म भाग्यवान अनुभव करते हो? क्योंकि बाप द्वारा वर्सा मिला है। तो वर्से में कितने अविनाशी खज़ाने मिले हैं? जब खज़ाने अविनाशी हैं तो भाग्य की स्मृति भी अविनाशी चाहिए। अविनाशी का अर्थ क्या है? सदा या कभी-कभी? सदा अपने को पद्मापद्म भाग्यवान आत्मायें हैं-यह स्मृति में रखो और खज़ानों को सदा सामने इमर्ज रूप में रखो। कितने खज़ाने मिले हैं? अगर सदा खज़ानों को सामने रखेंगे तो नशा वा खुशी भी सदा रहेगी और कभी भी कम-ज्यादा नहीं रहेगी, बेहद की रहेगी। तो खज़ाने को बढ़ाओ भी और इमर्ज रूप में भी रखो। बढ़ाने का साधन क्या है? जितना बांटेंगे उतना बढ़ेगा। सदा यह सोचो कि आज के दिन खज़ाने को बढ़ाया या जितना था उतना ही है? खज़ाना जितना बढ़ेगा, तो बढ़ने की निशानी है-खुशी बढ़ेगी। तो बढ़ते जाते हैं ना। क्योंकि यह खज़ाने सदा खुशी को बढ़ाने वाले हैं। इसलिए कभी भी खुशी कम नहीं होनी चाहिए। कितना भी बड़ा विघ्न आ जाये लेकिन विघ्न खुशी को कम ना करे। किसी भी प्रकार का विघ्न खुशी को कम तो नहीं करता है ? बापदादा ने पहले भी कहा है कि शरीर चला जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। इतनी अपने आपसे दृढ़ प्रतिज्ञा की है? तो सदा यह दृढ़ संकल्प करो कि-खुशी नहीं जायेगी। ब्राह्मण जीवन का आधार ही है खुशी। अगर खुशी नहीं तो ब्राह्मण जीवन नहीं। ब्राह्मण जीवन अर्थात् खुश रहना और दूसरों को भी खुशी बाँटना। वर्तमान समय में सभी को अविनाशी खुशी की आवश्यकता है, खुशी के भिखारी हैं। और आप दाता के बच्चे हो। दाता के बच्चों का काम है-देना। जो भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आये-खुशी बांटते जाओ, देते जाओ। कोई खाली नहीं जाये। इतना भरपूर हो ना!

हर समय देखो कि मास्टर दाता बनकर के कुछ दे रहा हूँ या सिर्फ अपने में ही खुश हैं। जिस समय जिसको कोई भी चीज की आवश्यकता होती है और आवश्यकता के समय अगर कोई वही चीज उसको देता है, तो उसके दिल से दुआयें निकलती हैं। वो दुआयें भी आपको सहज पुरुषार्थी बनने में सहयोगी बन जायेंगी। तो आपका कर्तव्य है - दुआयें देना और दुआयें लेना। इसी में बिजी रहते हो ना! सारे विश्व को इसकी आवश्यकता है। तो कितना काम है! या समझते हो कि जहाँ रहते हैं उसी देश मे देना है? विश्व को देने वाले दाता हो। विश्व-महाराजन बनना है ना! कि स्टेट्स का राजा बनना है? तो विश्व को देंगे तभी तो विश्व का महाराजन बनेंगे ना! अपने देश में रहते विश्व को कैसे देंगे? मन्सा-सेवा करनी आती है? या व्यर्थ संकल्प मन में चलते हैं? जब व्यर्थ संकल्प मन में होंगे तो मन्सा-सेवा कर सकेंगे? तो सदा मन्सा-सेवा करते हो या कभी व्यर्थ संकल्प भी आ जाते हैं?

मन-बुद्धि को इतना बिजी रखो जो व्यर्थ संकल्प आवे ही नहीं। आवे और फिर भगाओ- तो टाइम जायेगा ना! वेस्ट थॉट (व्यर्थ संकल्प) आवे ही नहीं उसकी विधि है कि अपने मन को सदा मन्सा, वाचा और कर्मणा सेवा में बिजी रखो। हर रोज़ की मुरली साधन है मन को बिजी रखने का। हर रोज़ मुरली सुनते हो, पढ़ते हो। तो बिजी रखते हो ना। तो वेस्ट खत्म ! क्योंकि अभी से वेस्ट को खत्म करेंगे तो जब फाइनल समय आयेगा, तो पास हो सकेंगे। नहीं तो, अगर व्यर्थ संकल्प चलने का अभ्यास होगा तो समय पर पास नहीं हो सकेंगे। तो पास विद् ऑनर बनने वाले हो ना। या सिर्फ पास होने वाले हो? अच्छा है, सदा पास विद् आनर बनने का लक्ष्य सामने रखो और अभ्यास करो। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

दिलतख्तनशीन बनने के लिये स्मृति के तिलकधारी बनो

सदा अपने को बाप के दिलतख्तनशीन आत्मायें अनुभव करते हो? ऐसा तख्त सारे कल्प में अब एक बार ही मिलता है और कोई समय नहीं मिलता। जो श्रेष्ठ बात हो और मिले भी एक ही बार-तो उस तख्त को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए। जो बाप के दिल तख्तनशीन होंगे, सदा होंगे-तो तख्तनशीन की निशानी क्या है? तख्त पर बैठने से क्या होता है? तख्त पर बैठने से अपने को बेफिक्र बादशाह अनुभव करेंगे। तो सदा बेफिक्र रहते हो या कभी थोड़ा-थोड़ा फिक्र आ जाता है-चाहे अपना, चाहे सेवा का, चाहे दूसरों का? तो सदा दिलतख्त पर बैठने वाली आत्मा नशे में भी रहती और नशा रहने के कारण स्वत: ही बेफिक्र रहती। क्योंकि इस तख्त में यह विशेषता है कि जब तक जो तख्तनशीन होगा वह सब बातों में बेफिक्र होगा। जैसे आजकल भी कोई-कोई स्थान को विशेष कोई न कोई नवीनता, विशेषता मिली हुई है। तो दिलतख्त की यह विशेषता है-फिक्र आ नहीं सकता। तो नीचे क्यों आते जो फिक्र हो? काम करने के लिए नीचे आना पड़ता है! दिलतख्त को यह भी वरदान मिला हुआ है कि कोई भी कार्य करते भी दिलतख्तनशीन बन सकते। फिर सदा क्यों नहीं रहते?

और कोई अट्रेक्शन (आकर्षण) है ? है नहीं लेकिन हो जाती है। कभी भी कोई भी बात सामने आये तो फौरन दिलतख्तनशीन बन जाओ तो कोई भी बात अपनी तरफ खींचेगी नहीं। बैठने की प्रैक्टिस है या कभी-कभी प्रैक्टिस भूल जाती है? तख्तनशीन बनने के लिए तिलकधारी भी बनना पड़े। तिलक कौनसा है? स्मृति का। तिलक है तो तख्तनशीन भी हैं, तिलक नहीं तो तख्त नहीं। अविनाशी तिलक लगा हुआ है? या कभी मिटता है, कभी लगता है? अविनाशी तिलक है ना! स्मृति का तिलक लगा और तख्तनशीन हो सदा स्वयं भी नशे में रहेंगे और दूसरों को भी नशे की स्मृति दिलायेंगे। तिलक लगाना मुश्किल है कि सहज है? सदा इजी है ना! सदाशब्द में मुस्कुराते हैं। अगर बापदादा पूछे कि 21 जन्मों में कभी राज्य-अधिकारी बनो कभी प्रजा बनो, राज्य-अधिकारी नहीं बनो-मंजूर है? नहीं! तो अभी चान्स है। क्योंकि भविष्य का आधार वर्तमान पर है। अगर अभी सदा तख्तनशीन हैं तो वहाँ भी सदा राज्य-अधिकारी बनेंगे। तो सदाशब्द को अन्डरलाईन करो। बच्चों को कभी भी बाप का वर्सा भूलता है क्या! तो यह दिलतख्त भी बाप का वर्सा है, तो वर्सा तो सदा साथ रहेगा ना! क्या याद रखेंगे? कौन हो? बेफिक्र बादशाह। बार-बार स्मृति को इमर्ज करते रहना। सदा यह नशा रहे कि हम साधारण आत्मा नहीं हैं लेकिन विशेष आत्मायें हैं। आप जैसी विशेष आत्मायें सारे विश्व में बहुत थोड़ी हैं। थोड़ों में आप हो-इसी खुशी में सदा रहो। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

मुश्किल का कारण अपनी कमजोरी है, इसलिये मास्टर सर्वशक्तिवान बनो

सभी अपने को सहजयोगी अनुभव करते हो? जो सहज बात होती है वो सदा सहज होती है। या कभी-कभी मुश्किल होती है? योग मुश्किल है या आप मुश्किल कर देते हो? तो मुश्किल क्यों करते हो? अच्छा लगता है मुश्किल? जब अपने में कोई न कोई कमजोरी लाते हो, तो मुश्किल हो जाता है। कमजोरी मुश्किल बनायेगी। तो कमजोरी आने क्यों देते हो? बच्चे किसके हो? तो बाप कमजोर है? तो आप क्यों कमजोर हो? आप अपने को मास्टर सर्वशक्तिवान कहलाते हो या मास्टर कमजोर? मास्टर सर्व-शक्तिवान! फिर कमजोर क्यों? अगर कमजोरी आ जाती है, चाहते नहीं हो लेकिन आ जाती है-तो आने-जाने का कारण क्या है? चेकिंग ठीक नहीं है। चलते-चलते कहाँ न कहाँ किसी बात में अलबेलापन आ जाता है, तब कमजोरी आ जाती है। तो सदा अटेन्शन रखो कि कहाँ भी, कभी भी अलबेलापन नहीं हो। अलबेलापन अनेक प्रकार से आता है। सबसे रॉयल रूप अलबेलेपन का है पुरूषार्थ कर रहे हैं, हो जायेगा, समय पर जरूर करके ही दिखायेंगे। पुरूषार्थ करते हैं लेकिन समय पर आधार रखते हैं, ‘स्वयंपर आधार नहीं रखते तो-अलबेले हो जाते हैं। तो आप कौन हो? अलबेले हो या तीव्र पुरुषार्थी?

सदैव यह स्मृति में रहे कि हर समय एवररेडी रहना है। किसी भी समय कोई भी परिस्थिति आ जाये लेकिन हम सदा एवररेडी रहेंगे। कल भी विनाश हो जाये तो तैयार हो? सम्पन्न हुए हो? नहीं। तो एवररेडी कैसे? क्योंकि ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य है सम्पूर्ण बनना। एवररेडी अर्थात् सम्पूर्ण। तो कितना टाइम चाहिए? तो एवररेडी तो हो ना। अगर एवररेडी होंगे तो टाइम-कान्सेस (Time-Conscious) नहीं होंगे। बाप के बन गये, तो सिवाए बाप के और कोई है क्या? तो क्या तैयार होना है? एक बाप, दूसरा न कोई-यह तो तैयारी है ना। वो तो हो ही। फिर क्यों कहते हो- एक साल चाहिए, दो साल चाहिए। जब एक ही है तो एक के तरफ मन्मनाभव हो गये ना। तो एवररेडी हो ना। कोई मेहनत नहीं।

अनेकों को याद करना मुश्किल होता है, एक को याद करना तो सहज है। जब एक बाप के तरफ बुद्धि लग गई तो बाकी क्या करना है! यही तो पुरूषार्थ है। क्या मुश्किल है! जब है ही बाप याद, तो बाप की याद में माया तो कुछ नहीं कर सकती। आ सकती है क्या माया? एवररेडी होकर के सेवा करेंगे तो सेवा में भी और सहयोग मिलेगा, सहज होती जायेगी, सफलता मिलेगी। तो सदा ये स्मृति में रखो कि-है ही एक बाप, दूसरा कुछ है ही नहीं। अगर वन बाप है तो विन जरूर है। सहज योगी हो ना। मास्टर सर्वश-क्तिवान के आगे माया की हिम्मत नहीं जो वार कर सके। और ही माया सरेन्डर होगी, वार नहीं करेगी। जब सर्वशक्तिवान बाप साथ है तो सदा ही जहाँ बाप है वहाँ विजय है ही है। कल्प-कल्प के विजयी हैं, अभी भी हैं और सदा रहेंगे। ये स्मृति है ना। कितनी बार विजयी बने हो? तो अनेक बार किया हुआ कार्य फिर से करना, उसमें क्या मुश्किल है! नई बात तो नहीं है ना। तो नशे से कहो कि हम सहज योगी नहीं होंगे तो कौन होगा! ऐसा नशा है?

सभी के मस्तक पर श्रेष्ठ भाग्य की लकीर नूंधी हुई है। क्योंकि भाग्यविधाता के बच्चे हैं। तो जिसका बाप भाग्यविधाता है, उसका कितना बड़ा भाग्य है! तो सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य की लकीर को देख हर्षित रहते हो और सदा रहते रहना। ये भाग्य की लकीर सिर्फ एक जन्म के लिए नहीं है लेकिन अनेक जन्म ये भाग्य साथ रहेगा। भाग्य आपके साथ जायेगा ना। गारन्टी है ना। दुनिया वाले कहते हैं-हाथ खाली आये, हाथ खाली जायेंगे। लेकिन आप कहते हो- हम भाग्यविधाता के बच्चे भरकर जायेंगे, खाली नहीं जायेंगे। ये निश्चय है ना। भाग्य का अनुभव करते हो ना। सभी अनुभवी हैं। तो इसी अनुभव को सदा आगे बढ़ाते रहो। स्मृति रखना माना बढ़ाना। बापदादा हर एक बच्चे के भाग्य को देख हर्षित हो रहे हैं। क्योंकि आप ब्राह्मण आत्माओं के श्रेष्ठ भाग्य से ऊंचा भाग्य किसका है ही नहीं। अभी क्या नवीनता करेंगे? नवीनता है कि कम समय में ज्यादा सेवा कर सफलता प्राप्त होना। उसके लिये क्या करेंगे? ऐसी आत्माओं को निमित्त बनाओ जो एक के आवाज से अनेक सहज बाप के समीप आ जायें। बापदादा ने कहा ना-अभी माइक तैयार करो जिनका आवाज बुलन्द हो। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सम्पूर्ण पवित्रताही ब्राह्मण जीवन की पर्सनालिटी है

संगमयुग को कौनसा विशेष वरदान मिला हुआ है? संगमयुग को विशेष वरदान है सहज प्राप्ति का। मेहनत कम और सफलता ज्यादा। इसलिए आपके योग का नाम भी है सहजयोग। जितनी प्राप्ति कर रहे हो उसके अन्तर में मेहनत क्या की! बिना मेहनत के सदाकाल के लिए सर्व प्राप्ति करने के अधिकारी बन गये। सबसे बड़े ते बड़ी प्राप्ति-बाप मिला, सब-कुछ मिला! तो बाप सहज मिला या मुश्किल मिला? घर बैठे मिला ना! कोई खर्चा किया? खर्च करने की भी मेहनत नहीं करनी पड़ती। आप लोगों ने आधा कल्प मेहनत की लेकिन मेहनत से बाप नहीं मिला। बाप को ढूंढ़ने की कोशिश की लेकिन बिना परिचय ढूंढ़ नहीं सके और बाप ने सहज ही ढूंढ़ लिया ना। चाहे कितने भी दूर चले गये लेकिन बाप ने ढूंढ़ लिया।

संगमयुग को विशेष वरदान है ही सहज प्राप्ति का। याद करना मुश्किल लगता है या सहज लगता है? तो जो सहज होता है वो स्वत: ही निरन्तर होता है। तो निरन्तर सहजयोगी हो ना। जब बाप साथ है और बाप से प्यार है, तो जिससे प्यार होता है उसका साथ छोड़ा जाता है क्या? तो साथ क्यों छोड़ते हो? तो सदा साथ रहना है। सदा साथ रहने से मायाजीत भी सदा सहज होंगे। वायदा क्या करते हो कि-कभी आपको नहीं छोड़ेंगे, कभी नहीं भूलेंगे। तो फिर क्यों छोड़ते हो? तो जो वायदा किया है उसको सदा स्मृति में रखो। क्योंकि ड्रामानुसार समय भी वरदानी मिला है। तो समय भी सहयोगी है। बापदादा आते ही हैं सब सहज करने। तो जो भी कदम उठाते हो, हर कदम में सहज का अनुभव करना-यही ब्राह्मण जीवन है। क्योंकि बाप सर्व प्राप्तियों के भण्डारे भरपूर कर देते हैं। तो जहाँ प्राप्तियों का भण्डारा भरपूर है, वहाँ कोई बात मुश्किल नहीं है। सर्व शक्तियों का भण्डार भरपूर है? जो नॉलेजफुल है उसके सर्व खज़ानों से भण्डारे फुल हैं। अगर कोई कमी है-चाहे शक्तियों में, चाहे गुणों में, किसी भी खज़ाने में कमी है तो नॉलेज की कमी है। तो बाप समान बनना है ना। तो चेक करो कि किस खज़ाने की कमी है और उसको भरते जाओ। अच्छा!

सभी ने होली मनाई कि अभी मनानी है? होली मनाना अर्थात् होली बनना। ब्राह्मण जीवन की विशेषता ही है होली अर्थात् पवित्र। पवित्रता की विशेषता से ही अभी भी महान हो और सदा ही महान रहेंगे। प्योरिटी सहज लगती है या मुश्किल लगती है? तो पवित्रता धारणा कर ली या पवित्रता धारण करने में अभी टाइम चाहिए? सब विकार चले गये? या थोड़ा अंश रह गया है? पाण्डवों को कभी क्रोध आता है? माताओं को मोह आता है? सम्पूर्ण पवित्र अर्थात् अपवित्रता का अंश-मात्र भी न हो। क्योंकि जितनी पवित्रता है उतनी ब्राह्मण जीवन की पर्सनैलिटी है। अगर पवित्रता कम तो पर्सनैलिटी कम। ये प्योरिटी की पर्सनैलिटी सेवा में भी सहज सफलता दिलायेगी। कोई भी पर्सनैलिटी का प्रभाव पड़ता है ना। तो सबसे बड़े ते बड़ी पर्सनैलिटी है प्योरिटी की। अगर एक विकार भी अंश-मात्र है तो दूसरे साथी भी उसके साथ जरूर होंगे। जैसे आप लोग दूसरों को कहते हो कि-जहाँ पवित्रता है वहाँ सुख-शान्ति है, अगर पवित्रता नहीं तो सुख-शान्ति नहीं। जैसे पवित्रता का सुख-शान्ति से गहरा सम्बन्ध है, ऐसे अपवित्रता का भी पांच विकारों से गहरा सम्बन्ध है। इसलिए कोई भी विकार का अंश-मात्र भी न रहे। इसको कहा जाता है पवित्रता। तो ऐसा ही लक्ष्य है ना। या थोड़ा-थोड़ा रह गया हो तो कोई बात नहीं? तो सदा लक्ष्य को सामने रख लक्ष्य प्रमाण लक्षण धारण करते उड़ते चलो। जब सभी कहते हो- नम्बरवन आना है; कोई टू नम्बर नहीं कहते। तो किस आधार से नम्बरवन बनेंगे? पवित्रता के आधार से ना। तो नम्बर-वन प्योर बनो। अच्छा!

बापदादा ने सभी बच्चों को विदाई के समय होली की मुबारक दी

चारों ओर के होली हंसों को होली के उत्सव की उमंग-उत्साह भरी याद; प्यार। सभी बच्चों के रूहानी होली मनाने की, खुशी के उमंग-उत्साह की संकल्पों द्वारा, पत्रों द्वारा, कार्ड द्वारा, खिलौनों द्वारा याद; प्यार मिली। रूहानी बच्चों की संगमयुग पर सदा होली रहने की होली है। फिर भी, संगम है ही सुहेज (मौज) मनाने का युग। इसलिए विशेष सदा बाप के संग रहने की, सदा सम्पूर्ण होली बनने की और सदा बीती को बीती करने वाली होली की सभी को बहुत-बहुत मुबारक हो! मुबारक हो!! मुबारक हो!!!



26-03-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अव्यक्त वर्ष में लक्ष्य और लक्षण को समान बनाओ

आज निराकारी और आकारी बापदादा सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण आत्माओं को आकार रूप से और साकार रूप से देख रहे हैं। साकार रूप वाली आप सभी आत्मायें भी बाप के सम्मुख हो और आकारी रूपधारी बच्चे भी सम्मुख हैं। दोनों को बापदादा देख हर्षित हो रहे हैं। सभी के दिल में एक ही संकल्प है, उमंग है कि-हम सभी बाप समान साकारी सो आकारी और आकारी सो निराकारी बाप समान बनें। बापदादा सभी के इस लक्ष्य और लक्षण को देख रहे हैं। क्या दिखाई दिया?

मैजॉरिटी का लक्ष्य बहुत अच्छा दृढ़ है लेकिन लक्षण कभी दृढ़ हैं, कभी साधारण हैं। लक्ष्य और लक्षण में समानता आना-यह निशानी है समान बनने की। लक्ष्य धारण करने में 99%  भी कोई हैं, बाकी नम्बरवार हैं। लेकिन सदा, सहज और नेचुरल नेचर में लक्षण धारण करने में कहाँ तक हैं-इसमें मेनॉरिटी 90%  तक हैं, बाकी और नम्बरवार हैं। तो लक्ष्य और लक्षण में और लक्षण को भी नेचुरल और नेचर बनाने में अन्तर क्यों है? समय प्रमाण, सरकमस्टांश प्रमाण, समस्या प्रमाण कई बच्चे पुरूषार्थ द्वारा अपने लक्ष्य और लक्षण को समान भी बनाते हैं। लेकिन यह नेचुरल और नेचर हो जाये, उसमें अभी और अटेन्शन चाहिए। यह वर्ष अव्यक्त फरिश्ता स्थिति में स्थित रहने का मना रहे हो। यह देख बापदादा बच्चों के प्यार और पुरूषार्थ-दोनों को देख-देख खुश होते हैं, ‘‘वाह बच्चे, वाह’’ का गीत भी गाते हैं। साथ-साथ अभी और आगे सर्व बच्चों के लक्ष्य और लक्षण में समानता देखना चाहते हैं। आप सब भी यही चाहते हो ना। बाप भी चाहते, आप भी चाहते-फिर बीच में बाकी क्या है? वह भी अच्छी तरह से जानते हो। आपस में वर्कशॉप करते हो ना!

बापदादा ने लक्ष्य और लक्षण में अन्तर होने की विशेष एक ही बात देखी। चाहे आकारी फरिश्ता, चाहे निराकारी निरन्तर, नेचुरल नेचर हो जाये-इसका मूल आधार है निरहंकारी बनना। अहंकार अनेक प्रकार का है। सबसे विशेष कहने में भल एक शब्द देह-अभिमानहै लेकिन देह-अभिमान का विस्तार बहुत है। एक है मोटे रूप में देह-अभिमान, जो कई बच्चों में नहीं भी है। चाहे स्वयं की देह, चाहे औरों की देह-अगर औरों की देह का भी आकर्षण है, वो भी देह-अभिमान है। कई बच्चे इस मोटे रूप में पास हैं, मोटे रूप से देह के आकार में लगाव वा अभिमान नहीं है। परन्तु इसके साथ-साथ देह के सम्बन्ध से अपने संस्कार विशेष हैं, बुद्धि विशेष है, गुण विशेष हैं, कोई कलायें विशेष हैं, कोई शक्ति विशेष है-उसका अभिमान अर्थात् अहंकार, नशा, रोब-ये सूक्ष्म देह-अभिमान है। अगर इन सूक्ष्म अभिमान में से कोई भी अभिमान है तो न आकारी फरिश्ता नेचुरल-निरन्तर बन सकते, न निराकारी बन सकते। क्योंकि आकारी फरिश्ते में भी देहभान नहीं है, डबल लाइट है। देह-अहंकार निराकारी बनने नहीं देगा। सभी ने इस वर्ष अटेन्शन अच्छा रखा है, उमंग-उत्साह भी है, चाहना भी बहुत अच्छी है, चाहते भी हैं लेकिन आगे और अटेन्शन प्लीज! चेक करो-’’किसी भी प्रकार का अभिमान वा अहंकार नेचुरल स्वरूप से पुरुषार्थी स्वरूप तो नहीं बना देता है? कोई भी सूक्ष्म अभिमान अंश रूप में भी रहा हुआ तो नहीं है जो समय प्रमाण और कहाँ सेवा प्रमाण भी इमर्ज हो जाता है?’’ क्योंकि अंश-मात्र ही समय पर धोखा देने वाला है। इसलिए इस वर्ष में जो लक्ष्य रखा है, बापदादा यही चाहते हैं कि लक्ष्य सम्पन्न होना ही है।

चलते-चलते कोई विशेष स्थूल रूप में-उस दिन, उस समय-कोई भूल भी नहीं करते हो लेकिन कभी-कभी ये अनुभव करते हो ना कि-’’आज वा अभी नामालूम क्या है जो जैसी खुशी होनी चाहिए वैसी नहीं है, ना-मालूम आज अकेलापन वा निराशा वा व्यर्थ संकल्पों का अचानक तूफान क्यों आ रहा है! अमृतवेला भी किया, क्लास भी किया, सेवा भी, जॉब भी किया-परन्तु ये क्यों हो रहा है?’’ कारण क्या होता है? मोटे रूप को तो चेक कर लेते हो और उसमें समझते हो कि कोई गलती नहीं हुई। लेकिन सूक्ष्म अभिमान के स्वरूप का अंश सूक्ष्म में प्रकट होता है। इसलिए कोई भी काम में दिल नहीं लगेगी, वैराग्य, उदास-उदास फील होगा। या तो सोचेंगे-कोई एकान्त के स्थान पर चले जायें, या सोचेंगे-सो जायें, रेस्ट में चले जायें या परिवार से किनारा कर लें थोड़े टाइम के लिए। इन सब स्थितियों का कारण अंश की कमाल होती है। कमाल नहीं कहो, धमाल ही कहो। तो सम्पूर्ण निरहंकारी बनना अर्थात् आकारी-निराकारी सहज बनना। जैसे कभी-कभी दिल नहीं होती कि क्या सदा एक ही दिनचर्या में चलना है, चेंज तो चाहिए ना? न चाहते भी यह स्थिति आ जाती है।

जब निरहंकारी बन जायेंगे तो आकारी और निराकारी स्थिति से नीचे आने की दिल नहीं होगी। उसी में ही लवलीन अनुभव करेंगे। क्योंकि आपकी ओरीजिनल अनादि स्टेज तो निराकारी है ना। निराकार आत्मा ने इस शरीर में प्रवेश किया है। शरीर ने आत्मा में नहीं प्रवेश किया, आत्मा ने शरीर में प्रवेश किया। तो अनादि ओरीजिनल स्वरूप तो निराकारी है ना। कि शरीरधारी है? शरीर का आधार लिया लेकिन लिया किसने? आप आत्मा ने, निराकार ने साकार शरीर का आधार लिया। तो ओरीजिनल क्या हुआ-आत्मा या शरीर? आत्मा। ये पक्का है? तो ओरीजिनल स्थिति में स्थित होना सहज या आधार लेने वाली स्थिति में सहज?

अहंकार आने का दरवाजा एक शब्द है, वो कौनसा? ‘मैं। तो यह अभ्यास करो-जब भी मैंशब्द आता है तो ओरीजिनल स्वरूप सामने लाओ-मैंकौन? मैं आत्मा या फलाना-फलानी? औरों को ज्ञान देते हो ना-मैंशब्द ही उड़ाने वाला है, ‘मैंशब्द ही नीचे ले आने वाला है। मैंकहने से ओरीजिनल निराकार स्वरूप याद आ जाये, ये नेचुरल हो जाये तो यह पहला पाठ सहज है ना। तो इसी को चेक करो, आदत डालो-मैंसोचा और निराकारी स्वरूप स्मृति में आ जाये। कितनी बार मैंशब्द कहते हो! मैंने यह कहा, ‘मैंयह करूँगी, ‘मैंयह सोचती हूँ........-अनेक बार मैंशब्द यूज़ करते हो। तो सहज विधि यह है निराकारी वा आकारी बनने की-जब भी मैंशब्द यूज़ करो, फौरन अपना निराकारी ओरीजिनल स्वरूप सामने आये। ये मुश्किल है वा सहज है? फिर तो लक्ष्य और लक्षण समान हुआ ही पड़ा है। सिर्फ यह युक्ति-निरहंकारी बनाने का सहज साधन अपनाकर के देखो। यह देहभान का मैंसमाप्त हो जाये। क्योंकि मैंशब्द ही देह-अहंकार में लाता है और अगर मैंनिराकारी आत्मा स्वरूप हूँ- यह स्मृति में लायेंगे तो यह मैंशब्द ही देह-भान से परे ले जायेगा। ठीक है ना। सारे दिन में 25-30 बार तो जरूर कहते होंगे। बोलते नहीं हों तो सोचते तो होंगे-मैंयह करूँगी, मुझे यह करना है........। प्लैन भी बनाते हो तो सोचते हो ना। तो इतने बार का अभ्यास, आत्मा स्वरूप की स्मृति क्या बना देगी? निराकारी। निराकारी बन, आकारी फरिश्ता बन कार्य किया और फिर निराकारी! कर्म-सम्बन्ध के स्वरूप से सम्बन्ध में आओ, सम्बन्ध को बन्धन में नहीं लाओ। देह-अभिमान में आना अर्थात् कर्म-बन्धन में आना। देह सम्बन्ध में आना अर्थात् कर्म-सम्बन्ध में आना। दोनों में अंतर है। देह का आधार लेना और देह के वश होना-दोनों में अन्तर है। फरिश्ता वा निराकारी आत्मा देह का आधार लेकर देह के बंधन में नहीं आयेगी, सम्बन्ध रखेगी लेकिन बन्धन में नहीं आयेगी। तो बापदादा फिर इसी वर्ष में रिजल्ट देखेंगे कि निरहंकारी, आकारी फरिश्ते और निराकारी स्थिति में-लक्ष्य और लक्षण कितने समान हुए?

महानता की निशानी है निर्माणता। जितना निर्माण उतना सबके दिल में महान स्वत: ही बनेंगे। बिना निर्माणता के सर्व के मास्टर सुखदाता बन नहीं सकते। निर्माणता निरहंकारी सहज बनाती है। निर्माणता का बीज महानता का फल स्वत: ही प्राप्त कराता है। निर्माणता सबके दिल में दुआयें प्राप्त कराने का सहज साधन है। निर्माणता सबके मन में निर्माण आत्मा के प्रति सहज प्यार का स्थान बना देती है। निर्माणता महिमा योग्य स्वत: ही बनाती है। तो निरहंकारी बनने की विशेष निशानी है- निर्माणता। वृत्ति में भी निर्माणता, दृष्टि में भी निर्माणता, वाणी में भी निर्माणता, सम्बन्ध-सम्पर्क में भी निर्माणता। ऐसे नहीं कि मेरी वृत्ति में नहीं था लेकिन बोल निकल गया। नहीं। जो वृत्ति होगी वो दृष्टि होगी, जो दृष्टि होगी वो वाणी होगी, जो वाणी होगी वही सम्बन्ध-सम्पर्क में आयेगा। चारों में ही चाहिए। तीन में है, एक में नहीं है-तो भी अहंकार आने की मार्जिन है। इसको कहा जाता है फरिश्ता। तो समझा, बाप-दादा क्या चाहते हैं और आप क्या चाहते हो? ‘चाहनादोनों की एक है, अभी करनाभी एक करो। अच्छा!

आगे सेवा के नये-नये प्लैन क्या बनायेंगे? कुछ बनाया है, कुछ बनायेंगे। चाहे यह वर्ष, चाहे आगे का वर्ष-जैसे और प्लैन सोचते हो कि भाषण भी करेंगे, सम्बन्ध-सम्पर्क भी बढ़ायेंगे, बड़े प्रोग्राम भी करेंगे, छोटे प्रोग्राम भी करेंगे-ये तो सोचते ही हो लेकिन वर्त-मान समय के गति प्रमाण अभी सेवा की भी फास्ट गति चाहिए। वो कैसे होगी? वाणी द्वारा, सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा तो सेवा कर ही रहे हो, मन्सा-सेवा भी करते हो लेकिन अभी चाहिए-थोड़े समय में सेवा की सफलता ज्यादा हो। सफलता अर्थात् रिजल्ट। उसकी विधि है कि वाणी के साथ-साथ पहले अपनी स्थिति और स्थान के वायब्रेशन्स पॉवरफुल बनाओ। जैसे आपके जड़ चित्र क्या सेवा कर रहे हैं? वायब्रेशन्स द्वारा कितने भक्तों को प्रसन्न करते हैं! डबल विदेशियों ने मन्दिर देखे हैं? आपके ही तो मन्दिर हैं ना! कि सिर्फ भारत वालों के मन्दिर हैं? आपके चित्र सेवा कर रहे हैं ना! तो वाणी द्वारा भल करो लेकिन अभी ऐसी प्लैनिंग करो, वाणी के साथ-साथ वायब्रेशन की ऐसी विधि बनाओ जो वाणी और वायब्रेशन डबल काम करे। वायब्रेशन बहुतकाल रहता है। वाणी से सुना हुआ कभी-कभी कइयों को भूल भी जाता है लेकिन वायब्रेशन की छाप ज्यादा समय चलती है। जैसे-आप लोग अपने जीवन में अनुभवी हो कि कोई का उल्टा वायब्रेशन अगर आपके मन में या बुद्धि में बैठ जाता है, तो उल्टा कितना समय चलता है! वायब्रेशन अन्दर बैठ जाता है ना। और बोल तो उसी समय भूल जायेगा लेकिन वायब्रेशन के रूप में मन और बुद्धि में छाप लग जाती है। और कितना समय उसी वायब्रेशन के वश, उस व्यक्ति से व्यवहार में आते हो? चाहे उल्टा हो, चाहे सुल्टा हो लेकिन वायब्रेशन मुश्किल से मिटता है।

लेकिन यह रूहानी वायब्रेशन्स फैलाने के लिए पहले अपने मन में, बुद्धि में व्यर्थ वायब्रेशन्स समाप्त करेंगे तब रूहानी वायब्रेशन फैला सकेंगे। किसी के भी प्रति अगर व्यर्थ वायब्रेशन्स धारण किये हुए हैं तो रूहानी वायब्रेशन्स नहीं फैला सकते। व्यर्थ वायब्रेशन रूहानी वायब्रेशन के आगे एक दीवार बन जाती है। चाहे सूर्य कितना भी प्रकाशमय हो, अगर सामने दीवार आ गई, बादल आ गये-तो सूर्य के प्रकाश को प्रज्ज्वलित होने नहीं देते। जो पक्का वायब्रेशन है-वो है दीवार और जो हल्के वायब्रेशन हैं-वो है हल्के बादल या काले बादल। वो रूहानी वायब्रेशन्स को आत्माओं तक पहुँचने नहीं देंगे। जैसे सागर में कोई जाल डालकर अनेक चीजों को एक ही बार इकठ्ठा व्र देते हैं या कहाँ भी अपनी जाल फैलाकर एक समय पर अनेकों को अपना बना लेते हैं, तो वायब्रेशन्स एक ही समय पर अनेक आत्माओं को आकर्षित कर सकते हैं। वायब्रेशन्स वायुमण्डल बनाते हैं। तो आगे की सेवा में वृत्ति द्वारा रूहानी वायब्रेशन से साथ-साथ सेवा करो, तभी फास्ट होगी। वायब्रेशन और वायुमण्डल के साथ-साथ वाणी की भी सेवा करेंगे तो एक ही समय पर अनेक आत्माओं का कल्याण कर सकते हो।

बाकी प्रोग्राम्स के लिए आगे भी बनी बनाई स्टेज का प्रयोग और ज्यादा करो, उसको और बढ़ाओ। सम्पर्क वालों द्वारा यह सहयोग लेकर इस सेवा को वृद्धि को प्राप्त कर सकते हैं। सहयोगियों का सहयोग किसी भी विधि से बढ़ाते चलो तो स्वत: ही सेवा में सह-योगी बनने से सहज योगी बन जायेंगे। कई ऐसी आत्मायें होती हैं जो सीधा सहजयोगी नहीं बनेंगी लेकिन सहयोग लेते जाओ, सह-योगी बनाते जाओ। तो सहयोग में आगे बढ़ते-बढ़ते सहयोग उन्हों को योगी बना देता है। तो सहयोगी आत्माओं को और स्टेज पर लाओ, उन्हों का सहयोग सफल करो। समझा, क्या करना है? कोई एक आत्मा भी सहयोगी बनती है तो वह आत्मा प्रैक्टिकल में सहयोग लेने से, देने से, प्रत्यक्ष दुआओं से सहज आगे बढ़ती है और अनेकों की सेवा के निमित्त बनती है।

साथ-साथ वर्ष में मास मुकर करो-कुछ मास विशेष स्वयं के पुरूषार्थ वा श्रेष्ठ शक्ति धारण करने के अभ्यास के, जिसको आप तपस्या, रिट्रीट या भट्ठियाँ कहते हो। हरेक देश के प्रमाण दो-दो मास फिक्स करो, जैसी सीज़न हो। दो मास तपस्या के, दो मास छोटी-छोटी सेवाओं के, दो मास बड़े रूप की सेवाओं के- ऐसे फिक्स करो। ऐसे नहीं कि 12 मास सेवा में इतने बिजी हो जाओ जो स्व की प्रगति के लिए टाइम कम मिले। जैसा देश का सीज़न हो, कई समय ऐसे होते हैं जिसमें बाहर की विशेष सेवा नहीं कर सकते, वो समय अपने प्रगति के प्रति विशेष रूप से रखो। सारा साल सेवा नहीं करो-यह भी नहीं हो सकता, सारा साल सिर्फ तपस्या करो-यह भी नहीं हो सकता। इसलिये दोनों को साथ-साथ लक्ष्य में रखते हुए अपने स्थान के प्रमाण मुकर करो जिसमें सेवा और स्व की प्रगति-दोनों साथ-साथ चलें।

अच्छा, इस वर्ष की सीज़न की समाप्ति है। समाप्ति में क्या किया जाता है? समाप्ति में एक तो समारोह किया जाता है और दूसरा आध्यात्मिक बातों में स्वाहा किया जाता है। तो समारोह तो कल मना लिया है। (कल 10 साल से पुराने डबल विदेशी भाई-बहनों की सेरीमनी मनाई गई थी) देखने वालों ने भी मनाया या सिर्फ बैठने वालों ने, सिर्फ दस वर्ष वालों ने मनाया? सभी ने मनाया ना! अभी स्वाहा क्या करेंगे? एक बात विशेष मन-बुद्धि से स्वाहा करो, वाणी से नहीं, सिर्फ पढ़ लिया वह नहीं, मन-बुद्धि से स्वाहा करो। फिर देखो, स्व और सेवा में तीव्र गति कैसे होती है! तो आज की लहर है-किसी भी आत्मा के प्रति व्यर्थ वायब्रेशन को स्वाहा करो। स्वाहा कर सकते हो? कि थोड़ा-थोड़ा रहेगा? ऐसे नहीं समझो कि यह है ही ऐसा तो वायब्रेशन तो रहेगा ना! कैसा भी हो लेकिन आप नैगेटिव वायब्रेशन को बदल पॉजिटिव वायब्रेशन रखेंगे तो वह आत्मा भी नैगेटिव से पॉजिटिव में आ ही जायेगी, आनी ही है। क्योंकि जब तक यह व्यर्थ वायब्रेशन मन-बुद्धि में है, तो फास्ट गति की सेवा हो ही नहीं सकती।

वृत्ति द्वारा रूहानी वायब्रेशन्स फैलाने हैं। वृत्ति है रॉकेट, जो यहाँ बैठे-बैठे जहाँ भी चाहो, जितना भी पॉवरफुल परिवर्तन करने चाहो वह कर सकते हो। यह रूहानी रॉकेट है। जहाँ तक जितनों को पहुँचाने चाहो, उतना पॉवरफुल वृत्ति से वायब्रेशन, वायब्रेशन से वायुमण्डल बना सकते हो। चाहे वो रीयल में रांग भी हो लेकिन आप उसका रांग धारण नहीं करो। रांग को आप क्यों धारण करते हो? ये श्रीमत है क्या? समझना अलग चीज है। नॉलेजफुल भले बनो लेकिन नॉलेजफुल के साथ पॉवरफुल बनकर के उसको समाप्त कर दो। समझना अलग चीज है, समाना अलग चीज है, समाप्त करना और अलग चीज है। भल समझते हो-ये रांग है, ये राइट है, ये ऐसा है। लेकिन अन्दर वह समाओ नहीं। समाना आता है, समाप्त करना नहीं आता है। ज्ञान अर्थात् समझ। लेकिन समझदार उसको कहा जाता है जिसको समझना भी आता हो और मिटाना भी आता हो, परिवर्तन करना भी आता हो।

इस वर्ष में मन और बुद्धि को बिल्कुल व्यर्थ से फ्री करो। यही फास्ट गति को साधारण गति में ले आती है। इसलिए ये समाप्ति समारोह करो अर्थात् स्वाहा करो। बिल्कुल क्लीन। कैसा भी है, लेकिन क्षमा करो। शुभ भावना, शुभ कामना के वृत्ति से शुभ वायब्रेशन्स धारण करो। क्योंकि लास्ट में आगे बढ़ते हुए यही वृत्ति-वायब्रेशन आपकी सेवा बढ़ायेगी, तब जल्दी से जल्दी कम से कम 9 लाख बना सकेंगे। समझा, क्या स्वाहा करना है? व्यर्थ वृत्ति, व्यर्थ वायब्रेशन स्वाहा! फिर देखो, नेचुरल योगी और नेचर में फरिश्ता बने ही हुए हैं। इस अनुभव पर रिट्रीट करो, वर्कशॉप करो-’’कैसे होगा, नहीं; ऐसे होगा।’’ अच्छा!

अनेक बच्चों के देश-विदेश से अपने विजय के, पुरूषार्थ के और स्नेह के और भिन्न-भिन्न उत्सव के प्रति पत्र, कार्ड भी बहुत आये हैं और स्नेह की सौगात भी बहुत आई हैं। जिस स्नेह से सभी बच्चों ने याद, प्यार, सौग्त भेजी है, बापदादा ने उन हर एक बच्चे की याद, प्यार वा सौगात पद्म गुणा स्नेह सम्पन्न स्वीकार की। बापदादा के पास सबके मन के संकल्प और दिल के प्यार की दिलियां सब पहुँच गई। इसलिए मैसेन्जर बनकर लाये हो तो फिर ये याद, प्यार का रिटर्न, सन्देश सन्देशी बनकर के सबको देना। बापदादा जानते हैं कि सभी बच्चे दूर बैठे भी दिल के समीप हैं और जो सहयोग अधिकार के रूप से बच्चे बाप से मांगते हैं या कहते हैं, तो अधिकारी बच्चों को सहयोग का अधिकार प्राप्त है और अन्त तक प्राप्त होना ही है। चाहे सम्मुख हो, चाहे दूर बैठे सम्मुख हैं- सभी बच्चों को बाप का स्नेह, सहयोग, सर्व शक्तियों का अधिकार अवश्य प्राप्त है। इसलिए कभी भी कोई न कमजोर बनना, न दिल-शिकस्त बनना, न पुरूषार्थ में साधारण पुरुषार्थी बनना। बाप कम्बाइन्ड है, इसलिए उमंग-उत्साह से बढ़ते चलो। कमजोरी, दिलशि-कस्तपन बाप के हवाले कर दो, अपने पास नहीं रखो। अपने पास सिर्फ उमंग-उत्साह रखो। जो काम की चीज नहीं है वो क्यों रखते हो! इसलिए सदा उमंग-उत्साह में नाचते रहो, गाते रहो और ब्रह्मा भोजन करते रहो। सदा फरिश्ता अर्थात् देह-भान से न्यारा, निरहंकारी, देह-अहंकार के रिश्ते से न्यारा और बाप का प्यारा।

सदा स्वयं को बार-बार ओरीजिनल स्वरूप मैं निराकारी हूँ’- ऐसे निश्चय और नशे में उड़ने वाले, सदा निर्माणता द्वारा महानता की प्राप्ति के अनुभवी आत्मायें, ऐसे निर्माण, सदा महान और सदा आकारी निराकारी स्थिति को नेचर और नेचुरल बनाने वाले सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का बहुत-बहुत-बहुत याद, प्यार और नमस्ते।

मधुबन निवासियों को सेवा की मुबारक देते हुए बापदादा बोले -

अच्छा, विशेष मधुबन निवासियों को बहुत-बहुत मुबारक हो। सारा सीज़न अपनी मधुरता और अथक सेवा से सर्व की सेवा के निमित्त बने। तो सबसे पहले सारी सीजन में निमित्त सेवाधारी विशेष मधुबन निवासियों को बहुत-बहुत मुबारक। मधुबन है ही मधु अर्थात् मधुरता। तो मधुरता सर्व को बाप के स्नेह में लाती है। इसलिए चाहे हाल में हो, चाहे चले गये हो लेकिन सभी को विशेष एक-एक डिपार्टमेन्ट को बापदादा विशेष मुबारक सेवा की दे रहे हैं और ‘‘सदा अथक भव, मधुर भव’’ के वरदानों से बढ़ते, उड़ते चलो।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

अलबेलापन कमजोरी लाता है, इसलिये अलर्ट रहो

सभी संगमयुगी श्रेष्ठ आत्मायें हो ना! संगमयुग की विशेषता क्या है जो किसी भी युग में नहीं है? संगमयुग की विशेषता है-एक तो प्रत्यक्ष फल मिलता है और एक का पद्म गुणा प्राप्ति का अनुभव इसी जन्म में ही होता है। प्रत्यक्ष फल मिलता है ना। अगर एक सेकेण्ड भी हिम्मत रखते हो तो मदद कितने समय तक मिलती रहती है! किसी एक की भी सेवा करते हो तो खुशी कितनी मिलती है! तो एक की पद्म गुणा प्राप्ति अर्थात् प्रत्यक्षफल इस संगम पर मिलता है। तो ताजा फ्रूट खाना अच्छा लगता है ना। तो आप सभी प्रत्यक्ष फल अर्थात् ताजा फल खाने वाले हो, इसीलिए शक्तिशाली हो। कमजोर तो नहीं हैं ना। सब पॉवरफुल हैं। कमजोरी को आने नहीं देना। जब तन्दरूस्त होते हैं तब कमजोरी स्वत: खत्म हो जाती है। सर्वशक्तिवान बाप द्वारा सदा शक्ति मिलती रहती है, तो कमजोर कैसे होंगे। कमजोरी आ सकती है? कभी गलती से आ जाती है? जब कुम्भकरण की नींद में अलबेले होकर सो जाते हो तब आ सकती है, नहीं तो नहीं आ सकती है। आप तो अलर्ट हो ना। अलबेले हो क्या? सभी अलर्ट हैं? सदा अलर्ट हैं? संगम-युग में बाप मिला सब-कुछ मिला। तो अलर्ट ही रहेंगे ना। जिसको बहुत प्राप्तियां होती रहती हैं वो कितना अलर्ट रहते हैं! रिवाजी बिजनेसमैन को बिजनेस में प्राप्तियां होती रहती हैं तो अलबेला होगा या अलर्ट होगा? तो आपको एक सेकेण्ड में कितना मिलता है! तो अलबेले कैसे होंगे? बाप ने सर्व शक्तियाँ दे दीं। जब सर्व शक्तियाँ साथ हैं तो अलबेलापन नहीं आ सकता है। सदा होशि-यार, सदा खबरदार रहो!

यू.के. को तो बापदादा कहते ही हैं ओ.के.। तो जो ओ.के. होगा वह जब अलर्ट होगा तब तो ओ.के. होगा ना। फाउन्डेशन पॉवरफुल है, इसलिए जो भी टाल-टालियां निकली हैं वह भी शक्तिशाली हैं। विशेष बापदादा ने-ब्रह्मा बाप ने अपने दिल से लण्डन का पहला फाउन्डेशन डाला है। ब्रह्मा बाप का विशेष लाडला है। तो आप प्रत्यक्ष फल के सदा अधिकारी आत्मायें हो। कर्म करने के पहले फल तैयार है ही। ऐसे ही लगता है ना। या मेहनत लगती है? नाचते-गाते फल खाते रहते हो। वैसे भी डबल विदेशियों को फल अच्छा लगता है ना। बापदादा भी यू.के. अर्थात् सदा ओ.के. रहने वाले बच्चों को देख हर्षित होते हैं। अपना यह टाइटल सदा याद रखना-ओ.के.। यह कितना बढ़िया टाइटल है! सभी सदा ओ.के. रहने वाले और औरों को भी अपने चेहरे से, वाणी से, वृत्ति से ओ.के. बनाने वाले। यही सेवा करनी है ना! अच्छा है। सेवा का शौक भी अच्छा है। जो भी जहाँ से भी आये हो लेकिन सभी तीव्र पुरुषार्थी और उड़ती कला वाले हो। सबसे ज्यादा खुश कौन रहता है? नशे से कहो-मैं! सिवाए खुशी के और है ही क्या! खुशीब्राह्मण जीवन की खुराक है। खुराक के बिना कैसे चलेंगे। चल रहे हो, तो खुराक है तभी तो चल रहे हो ना। स्थान भी बढ़ रहे हैं। देखो, पहले तीन पैर पृथ्वी लेना बड़ी बात लगती थी और अभी क्या लगता है? सहज लगता है ना। तो लण्डन ने कमाल की है ना। (अभी 50 एकड़ जमीन मिली है) हिम्मत दिलाने वाले भी अच्छे हैं और हिम्मत रखने वाले भी अच्छे हैं। देखो, आप सबकी अंगुली नहीं होती तो कैसे होता। तो सभी यू.के. वाले लक्की हैं और अंगुली देने में बहादुर हैं।

ग्रुप नं. 2

अपनी सर्व जिम्मेवारियां बाप को देकर बेफिक्र बादशाह बनो

सदा अपने को बेफिक्र बादशाह अनुभव करते हो? या थोड़ा-थोड़ा फिक्र है? क्योंकि जब बाप ने आपकी जिम्मेवारी ले ली, तो जिम्मेवारी का फिक्र क्यों? अभी सिर्फ रेस्पोंसिबिलिटी है बाप के साथ-साथ चलते रहने की। वह भी बाप के साथ-साथ है, अकेले नहीं। तो क्या फिक्र है? कल क्या होगा-ये फिक्र है? जॉब का फिक्र है? दुनिया में क्या होगा- ये फिक्र है? क्योंकि जानते हो कि-हमारे लिए जो भी होगा अच्छा होगा। निश्चय है ना। पक्का निश्चय है या हिलता है कभी ? जहाँ निश्चय पक्का है, वहाँ निश्चय के साथ विजय भी निश्चित है। ये भी निश्चय है ना कि विजय हुई पड़ी है। या कभी सोचते हो कि पता नहीं होगी या नहीं? क्योंकि कल्प-कल्प के विजयी हैं और सदा रहेंगे-ये अपना यादगार कल्प पहले वाला अभी फिर से देख रहे हो। इतना निश्चय है ना कि कल्प-कल्प के विजयी हैं। इतना निश्चय है? कल्प पहले भी आप ही थे या दूसरे थे? तो सदा यही याद रखना कि हम निश्चयबुद्धि विजयी रत्न हैं। ऐसे रत्न हो जिन रत्नों को बापदादा भी याद करते हैं। ये खुशी है ना? बहुत मौज में रहते हो ना। इस अलौकिक दिव्य श्रेष्ठ जन्म की और अपने मधुबन घर में पहुंचने की मुबारक।

ग्रुप नं. 3

बाप और आप - ऐसे कम्बाइण्ड रहो जो कभी कोई अलग न कर सके

सभी अपने को सदा बाप और आप कम्बाइण्ड हैं-ऐसा अनुभव करते हो? जो कम्बाइण्ड होता है उसे कभी भी, कोई भी अलग नहीं कर सकता। आप अनेक बार कम्बाइण्ड रहे हो, अभी भी हो और आगे भी सदा रहेंगे। ये पक्का है? तो इतना पक्का कम्बाइण्ड रहना। तो सदैव स्मृति रखो कि-कम्बाइण्ड थे, कम्बाइण्ड हैं और कम्बाइण्ड रहेंगे। कोई की ताकत नहीं जो अनेक बार के कम्बा-इण्ड स्वरूप को अलग कर सके। तो प्यार की निशानी क्या होती है? (कम्बाइण्ड रहना) क्योंकि शरीर से तो मजबूरी में भी कहाँ-कहाँ अलग रहना पड़ता है। प्यार भी हो लेकिन मजबूरी से कहाँ अलग रहना भी पड़ता है। लेकिन यहाँ तो शरीर की बात ही नहीं। एक सेकेण्ड में कहाँ से कहाँ पहुंच सकते हो! आत्मा और परमात्मा का साथ है। परमात्मा तो कहाँ भी साथ निभाता है और हर एक से कम्बाइण्ड रूप से प्रीत की रीति निभाने वाले हैं। हरेक क्या कहेंगे-मेरा बाबा है। या कहेंगे-तेरा बाबा है? हरेक कहेगा-मेरा बाबा है! तो मेरा क्यों कहते हो? अधिकार है तब ही तो कहते हो। प्यार भी है और अधिकार भी है। जहाँ प्यार होता है वहाँ अधिकार भी होता है। अधिकार का नशा है ना। कितना बड़ा अधिकार मिला है! इतना बड़ा अधिकार सतयुग में भी नहीं मिलेगा! किसी जन्म में परमात्म-अधिकार नहीं मिलता। प्राप्ति यहाँ है। प्रालब्ध सतयुग में है लेकिन प्राप्ति का समय अभी है। तो जिस समय प्राप्ति होती है उस समय कितनी खुशी होती है! प्राप्त हो गया-फिर तो कॉमन बात हो जाती है। लेकिन जब प्राप्त हो रहा है, उस समय का नशा और खुशी अलौकिक होती है! तो कितनी खुशी और नशा है! क्योंकि देने वाला भी बेहद का है। तो दाता भी बेहद का है और मिलता भी बेहद का है। तो मालिक किसके हो-हद के या बेहद के? तीनों लोक अपने बना दिये हैं। मूलवतन, सूक्ष्मवतन हमारा घर है और स्थूल वतन में तो हमारा राज्य आने वाला ही है। तीनों लोकों के अधिकारी बन गये! तो क्या कहेंगे- अधिकारी आत्मायें। कोई अप्राप्ति है? तो क्या गीत गाते हो? (पाना था वह पा लिया) पाना था वह पा लिया, अभी कुछ पाने को नहीं रहा। तो ये गीत गाते हो? या कोई अप्राप्ति है-पैसा चाहिए, मकान चाहिए! नेता की कुर्सी चाहिए? कुछ नहीं चाहिए। क्योंकि कुर्सी होगी तो भी एक जन्म का भी भरोसा नहीं और आपको कितनी गारन्टी है? 21 जन्म की गारन्टी है। गारन्टी-कार्ड माया तो चोरी नहीं कर लेती है? जैसे यहाँ पासपोर्ट खो लेते हैं तो कितनी मुश्किल हो जाती है! तो गारन्टी-कार्ड माया तो नहीं ले लेती है? छुपा-छुपी करती है। फिर आप क्या करते हो? लेकिन ऐसे शक्तिशाली बनो जो माया की हिम्मत नहीं।

ग्रुप नं. 4

त्रिकालदर्शी बन बनकर हर कर्म करो

सभी अपने को तख्तनशीन आत्मायें अनुभव करते हो? अभी तख्त मिला है या भविष्य में मिलना है, क्या कहेंगे? सभी तख्त पर बैठेंगे? (दिलतख्त बहुत बड़ा है) दिलतख्त तो बड़ा है लेकिन सतयुग के तख्त पर एक समय में कितने बैठेंगे? तख्त पर भले कोई बैठे लेकिन तख्त अधिकारी रॉयल फैमिली में तो आयेंगे ना। तख्त पर इकट्ठे तो नहीं बैठ सकेंगे! इस समय सभी तख्तनशीन हैं। इसलिए इस जन्म का महत्व है। जितने चाहें, जो चाहें दिलतख्तनशीन बन सकते हैं। इस समय और कोई तख्त है? कौनसा है? (अकालतख्त) आप अविनाशी आत्मा का तख्त ये भृकुटी है। तो भृकुटी के तख्तनशीन भी हो और दिलतख्तनशीन भी हो। डबल तख्त है ना! नशा है कि मैं आत्मा भृकुटी के अकालतख्तनशीन हूँ! तख्तनशीन आत्मा का स्व पर राज्य है, इसीलिए स्वराज्य अधिकारी हैं। स्वराज्य अधिकारी हूँ-यह स्मृति सहज ही बाप द्वारा सर्व प्राप्ति का अनुभव करायेगी। तो तीनों ही तख्त की नॉलेज है। नॉलेजफुल हो ना! पॉवरफुल भी हो या सिर्फ नॉलेजफुल हो? जितने नॉलेजफुल हो, उतने ही पॉवरफुल हो। या नॉलेज-फुल अधिक, पॉवरफुल कम? नॉलेज में ज्यादा होशियार हो! नॉलेजफुल और पॉवरफुल-दोनों ही साथ-साथ। तो तीनों तख्त की स्मृति सदा रहे।

ज्ञान में तीन का महत्व है। त्रिकालदर्शी भी बनते हैं। तीनों काल को जानते हो। या सिर्फ वर्तमान को जानते हो? कोई भी कर्म करते हो तो त्रिकालदर्शी बनकर कर्म करते हो या सिर्फ एकदर्शी बनकर कर्म करते हो? क्या हो-एक दर्शी या त्रिकालदर्शी? तो कल क्या होने वाला है-वह जानते हो? कहो-हम यह जानते हैं कि कल जो होगा वह बहुत अच्छा होगा। ये तो जानते हो ना! तो त्रिकालदर्शी हुए ना। जो हो गया वो भी अच्छा, जो हो रहा है वह और अच्छा और जो होने वाला है वह और बहुत अच्छा! यह निश्चय है ना कि अच्छे से अच्छा होना है, बुरा नहीं हो सकता। क्यों? अच्छे से अच्छा बाप मिला, अच्छे से अच्छे आप बने, अच्छे से अच्छे कर्म कर रहे हो। तो सब अच्छा है ना। कि थोड़ा बुरा, थोड़ा अच्छा है? जब मालूम पड़ गया कि मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ, तो श्रेष्ठ आत्मा का संकल्प, बोल, कर्म अच्छा होगा ना! तो यह सदा स्मृति रखो कि-कल्याणकारी बाप मिला तो सदा कल्याण ही कल्याण है। बाप को कहते ही हैं विश्व-कल्याणकारी और आप मास्टर विश्व-कल्याणकारी हो! तो जो विश्व का कल्याण करने वाला है उसका अकल्याण हो ही नहीं सकता। इसलिए यह निश्चय रखो कि हर समय, हर कार्य, हर संकल्प कल्याणकारी है। संगमयुग को भी नाम देते हैं-कल्याणकारी युग। तो अकल्याण नहीं हो सकता। तो क्या याद रखेंगे? जो हो रहा है वह अच्छा और जो होने वाला वह बहुत-बहुत अच्छा। तो यह स्मृति सदा आगे बढ़ाती रहेगी। अच्छा, सभी कोने-कोने में बाप का झण्डा लहरा रहे हो। सभी बहुत हिम्मत और तीव्र पुरूषार्थ से आगे बढ़ रहे हो और सदा बढ़ते रहेंगे। फ्युचर दिखाई देता है ना। कोई भी पूछे- आपका भविष्य क्या है? तो बोलो-हमको पता है, बहुत अच्छा है।

ग्रुप नं. 5

स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है - इस नशे में रहकर हर कर्म करो

सभी तीन बिन्दु के रहस्य को जानते हो? जानते हो या प्रैक्टिकल में भी अनुभवी हो? तीन बिन्दी लगानी आती हैं? या कभी भूल जाते हो, कभी लगाते हो? क्योंकि ये तीनों ही याद रखना आवश्यक है। अगर एक बाप बिन्दु को याद करो तो दोनों और बिन्दु सहज ही याद आ जायेंगे। तो बाप को याद करना सहज है या मुश्किल है? सहज है तो सदा क्यों नहीं? माया पॉवरफुल है या मास्टर सर्वशक्तिवान पॉवरफुल? मास्टर तो और ही तेज होता है। फिर माया पॉवरफुल कैसे हो जाती है? (अपनी कमजोरी के कारण) कमजोरी कब तक रहनी है? फिर दूसरे वर्ष भी तो नहीं कहेंगे? चाहे माया कितना भी शक्तिशाली हो लेकिन सर्वशक्तिवान बाप से कोई शक्तिशाली है नहीं। तो भूल जाते हो कि हम मास्टर हैं। क्या यह कभी भूलते हो कि मैं फलानी हूँ? शरीर नहीं भूलते हो और अपने आपको भूल जाते हो! ये वन्डर (Wonder; आश्यर्च) नहीं है! तो आप वन्डर करते हो? ये वन्डर नहीं करना। सदा बाप और आप साथ हैं, कम्बाइन्ड हैं, तो भूल कैसे सकते हैं। बाप से अलग रहते हो क्या? तो यही कहो कि न भूलते हैं, न भूलेंगे। बाप से प्यार है ना। तो सबसे प्यारा भूल सकता है? भूलना चाहें तो भी नहीं भूल सकते। जब अनुभव कर लिया कि बाप ही संसार है, तो संसार के सिवाए और कुछ है क्या? फिर भूलते क्यों हो? खेल करते हो? कहो-भूल नहीं सकते। सोचो कि सारे कल्प में बाप अभी मिला है, फिर मिल नहीं सकता। गोल्डन एज में भी बाप नहीं होगा। ब्रह्मा बाप साथ होगा। शिव बाप अभी मिलते हैं, तो भूल कैसे जायेंगे? तो अभी क्या कहेंगे-भूलना मुश्किल है या याद करना मुश्किल है? (जो कम्बाइन्ड है उसको अलग करना मुश्किल है)

मास्टर सर्वशक्तिवान बन हर शक्ति को कार्य में लगाओ। सर्व शक्तियों जो मिली हैं वह हैं ही समय पर यूज़ करने के लिए। अगर समय पर कोई चीज़ काम में नहीं आई तो उस चीज का महत्व ही क्या रहा! समय पर यूज़ करते-करते अभ्यासी हो जायेंगे। मालिक बनकर शक्तियों को ऑर्डर करो। मालिक बनकर ऑर्डर करेंगे तो शक्तियाँ मानेंगी भी। अगर कमजोर होकर ऑर्डर करेंगे तो नहीं मानेंगी। शक्तियाँ आपके ऑर्डर को मानने के लिए सदा तैयार हैं, सिर्फ मालिकपन नहीं भूलो। बापदादा सभी बच्चों को मालिक बनाते हैं, कमजोर नहीं बनाते। सभी राजयोगी हो, कमजोर योगी तो नहीं हो ना। राजा कमजोर होता है क्या? राजयोगी हो। बाप को यही खुशी है कि हर बच्चा राजा है, कोई प्रजा नहीं है। सारे कल्प में ऐसा कोई नहीं होगा जिसके इतने सारे बच्चे राजा हों! तो सब राजा हो। स्वराज्य अधिकारी बन गये। तो यही खुशी और नशा रखो कि हम सभी स्वराज्य अधिकारी हैं। कोई पूछे-स्वराज्य मिला है? तो क्या कहेंगे? कहो- स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। ये नशा रखो कि स्वराज्य बर्थ-राइट है। बर्थ-राइट कोई छीन नहीं सकता। अभी सभी जो भी आये हो-अगले वर्ष तीन गुणा ज्यादा संख्या बढ़ाना। देखेंगे-कौन ज्यादा बड़ी माला बनाकर लाते हैं। सारे विश्व की आत्मायें सुख-शान्ति की भीख मांगने के लिये आपके सामने आनी हैं। आप दाता के बच्चे मास्टर दाता सबको मालामाला करेंगे। क्योंकि सिवाए एक बाप के और कहाँ जायेंगे? तो अपने सर्व खज़ानों से भण्डारे भरपूर करते जाओ-जो कोई भी आवे तो खाली हाथ नहीं जाये, भरपूर होकर जाये। ये नज़ारा आगे चलकर अनुभव करेंगे।

विदाई के समय सभी ने बापदादा को बधाइयां दीं और गीत गाया। रेस्पाण्ड देते हुए बापदादा बोले -

सभी सन्तुष्ट हुए। अच्छा, जो सदा सन्तुष्ट हैं वह ताली बजाओ। (सभी ने खूब तालियां बजाई) बाप को हर बच्चा अति-अति प्यारा है। यह सीजन निर्विघ्न और उत्साह भरी उत्सव सम्पन्न समाप्त हुई। कितने उत्सव मनाये हैं? देखो, शिवरात्रि मनाई, होली मनाई और 10 वर्ष वालों के कितने फंक्शन मनाये! तो कितने उत्सव मनाये? तो यह सीजन कौनसी रही ? तो सदा ऐसे उत्साह में रहते उत्सव मनाते उड़ते रहना। उत्सव अच्छा लगता है ना। अच्छा लगता है? तो सदा मनाते रहना। बाप साथ है तो सारा परिवार बीज में है। जब भी अपने को अकेला समझो तो मधुबन में पहुंच जाना बिना टिकेट। कौन-सी प्लेन मिलेगी? दिव्य बुद्धि के विमान में बिना टिकेट आ सकते हो। यह प्लेन तो सबके पास है ना। एवररेडी है। इस प्लेन की कभी स्ट्राइक (हड़ताल) भी नहीं होगी और लेट भी नहीं आयेगा, टाइम पर आयेगा। अच्छा!

बाप अकेला कुछ नहीं कर सकता। आप सबका बाप के साथ धन्यवाद है।



23-04-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निश्चयबुद्धि भव, अमर भव

सिलवर जुबली में आये हुए पुराने भाई-बहनों के स्नेह भरे निमन्त्रण पर प्यारे अव्यक्त बापदादा बच्चों की महफिल में पधारे तथा मीठी दृष्टि देते हुए बोले - आज बापदादा सर्व अति स्नेही, आदि से यज्ञ की स्थापना के सहयोगी, अनेक प्रकार के आये हुए भिन्न-भिन्न समस्याओं के पेपर में निश्चयबुद्धि विजयी बन पार करने वाली आदि स्नेही, सहयोगी, अटल, अचल आत्माओं से मिलन मनाने आये हैं। निश्चय की सब्जेक्ट में पास हो चलने वाले बच्चों के पास आये हैं। यह निश्चय-चाहे इस पुरानी जीवन में, चाहे अगले जीवन में भी सदा विजय का अनुभव कराती रहेगी। निश्चयका, ‘अमर भवका वरदान सदा साथ रहे। विशेष आज जो बहुतकाल की अनुभवी बुजुर्ग आत्मायें हैं, उन्हों के याद और स्नेह के बंधन में बंधकर बाप आये हैं। निश्चय की मुबारक!

एक तरफ यज्ञ अर्थात् पाण्डवों के किले का जो नींव अर्थात् फाउन्डेशन आत्मायें हैं वह भी सभी सामने हैं और दूसरे तरफ आप अनुभवी आदि आत्मायें इस पाण्डवों के किले की दीवार की पहली ईटें हो। फाउन्डेशन भी सामने है और आदि ईटे, जिनके आधार पर यह किला मजबूत बन विश्व की छत्रछाया बना, वह भी सामने हैं। तो जैसे बाप ने बच्चों के स्नेह में ‘‘जी हज़ूर, हाज़र’’ करके दिखाया, ऐसे ही सदा बापदादा और निमित्त आत्माओं की श्रीमत वा डायरेक्शन को सदा जी हाज़रकरते रहना। कभी भी व्यर्थ मनमत वा परमत नहीं मिलाना। हाज़र हज़ूर को जान श्रीमत पर उड़ते चलो। समझा? अच्छा! (इस प्रकार आधे घण्टे पश्चात् ही प्यारे अव्यक्त बापदादा ने हाथ हिलाते हुए सभी बच्चों से विदाई ली)