18-11-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगमयुग के राजदुलारे सो भविष्य के राज्य अधिकारी

स्नेह के सागर अव्यक्त बापदादा अपने स्नेही राज दुलारे बच्चों प्रति बोले -

आज सर्व बच्चों के दिलाराम बाप अपने चारों ओर के सर्व राजदुलारे बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चा दिलाराम के दुलार का पात्र है। यह दिव्य दुलार, परमात्म दुलार कोटों में कोई भाग्यवान आत्माओं को ही प्राप्त होता है। अनेक जन्म आत्माओं वा महान आत्माओं द्वारा दुलार अनुभव किया। अब इस एक अलौकिक जन्म में परमात्म प्यार वा दुलार अनुभव कर रहे हो। इस दिव्य दुलार द्वारा राज दुलारे बन गये हो। इसलिये दिलाराम बाप को भी अलौकिक फखर है कि मेरा हर एक बच्चा राजा बच्चा है। राजा हो ना? प्रजा तो नहीं? सभी अपना टाइटल क्या बताते हो? राजयोगी। सभी राजयोगी हो वा कोई प्रजायोगी भी है? सब राजयोगी हो तो प्रजा कहाँ से आयेगी? राज्य किस पर करेंगे? प्रजा तो चाहिये ना? तो वो प्रजायोगी कब आयेंगे? राजदुलारे अर्थात् अब के भी राजे और भविष्य के भी राजे। डबल राज्य है। सिर्फ भविष्य का राज्य नहीं। भविष्य से पहले अब स्वराज्य अधिकारी बने हो। अपने स्वराज्य के राज्य कारोबार को चेक करते हो? जैसे भविष्य राज्य की महिमा करते हो-एक राज्य, एक धर्म, सुख, शान्ति, सम्पत्ति सम्पन्न राज्य है, ऐसे हे स्वराज्य अधिकारी राजे, स्वराज्य के राज कारोबार में यह सब बातें सदा हैं?

एक राज्य है अर्थात् सदा मुझ आत्मा का राज्य इन सर्व राज्य कारोबारी कर्मेन्द्रियों पर है वा बीच-बीच में स्वराज्य के बजाय पर-राज्य अपना अधिकार तो नहीं करते? पर-राज्य है-माया का राज्य। पर-राज्य की निशानी है-पर-अधीन बन जायेंगे। स्वराज्य की निशानी है-सदा श्रेष्ठ अधिकारी अनुभव करेंगे। पर-राज्य, पर-अधीन वा परवश बनाता है। जब भी कोई अन्य राजा किसी राज्य पर अधिकार प्राप्त करता है तो पहले राजा को ही कैदी बनाता है अर्थात् पर-अधीन बनाता है। तो चेक करो कि एक राज्य है? कि बीच-बीच में माया के राज्य अधिकारी, आप स्वराज्य अधिकारी राजाओं को वा आपके कोई भी कर्मेन्द्रियों रूपी राज कारोबारी को परवश तो नहीं बना देते हैं? तो एक राज्य है वा दो राज्य है? आप स्वराज्य अधिकारी का लॉ और ऑर्डर चलता है वा बीच-बीच में माया का भी ऑर्डर चलता है?

साथ-साथ एक धर्म, धर्म अर्थात् धारणा। तो स्वराज्य का धर्म वा धारणा एक कौन-सी है? ‘पवित्रता’। मन, वचन, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क सब प्रकार की पवित्रता इसको कहा जाता है-एक धर्म अर्थात् एक धारणा। स्वप्न मात्र, संकल्प मात्र भी अपवित्रता अर्थात् दूसरा धर्म न हो। क्योंकि जहाँ पवित्रता है वहाँ अपवित्रता अर्थात् व्यर्थ वा विकल्प का नाम-निशान नहीं होगा। ऐसे समर्थ सम्राट बने हो? वा ढीलेढाले राजे हो? वा कभी ढीले, कभी सम्राट? कौन से राजे हो? अगर अभी छोटा-सा एक जन्म का राज्य नहीं चला सकते तो 21 जन्म का राज्य अधिकार कैसे प्राप्त करेंगे? संस्कार अब भर रहे हैं। अभी के श्रेष्ठ संस्कार से भविष्य संसार बनेगा। तो अभी से एक राज्य, एक धर्म के संस्कार भविष्य संसार का फाउन्डेशन है।

तो चेक करो-सुख, शान्ति, सम्पत्ति अर्थात् सदा हद की प्राप्तियों के आधार पर सुख है वा आत्मिक अतीन्द्रिय सुख परमात्म सुखमय राज्य है? साधन वा सैलवेशन वा प्रशंसा के आधार पर सुख की अनुभूति है वा परमात्म आधार पर अतीन्द्रिय सुखमय राज्य है? इसी प्रकार से अखण्ड शान्ति-किसी भी प्रकार की अशान्ति की परिस्थिति अखण्ड शान्ति को खण्डित तो नहीं करती है?अशान्ति का तूफान चाहे छोटा हो, चाहे बड़ा हो लेकिन स्वराज्य अधिकारी के लिये तूफान अनुभवी बनाने की उड़ती कला का तोहफा बन जाये, लिफ्ट की गिफ्ट बन जाये। इसको कहा जाता है-अखण्ड शान्ति। तो चेक करो-अखण्ड शान्तिमय स्वराज्य है?

ऐसे ही सम्पत्ति अर्थात् स्वराज्य की सम्पत्ति ज्ञान, गुण और शक्तियां हैं। इन सर्व सम्पत्तियों से सम्पन्न स्वराज्य अधिकारी हैं? सम्पन्नता की निशानी है-सम्पन्नता अर्थात् सदा सन्तुष्टता, अप्राप्ति का नाम-निशान नहीं। हद के इच्छाओं की अविद्या-इसको कहा जाता है सम्पत्तिवान। और राजा का अर्थ ही है दाता। अगर हद की इच्छा वा प्राप्ति की उत्पत्ति है तो वो राजा के बजाय मंगता (मांगने वाला) बन जाता है। इसलिये अपने स्वराज्य अधिकार को अच्छी तरह से चेक करो कि मेरा स्वराज्य एक राज्य, एक धर्म, सुख-शान्ति सम्पन्न बना है? कि अभी तक बन रहे हैं? अगर राजा बन रहे हैं तो जब राज्य अधिकारी स्थिति नहीं है तो उस समय क्या हो? प्रजा बन जाते हो वा न राजा, न प्रजा। बीच में हो? अभी बीच में नहीं रहो। यह भी नहीं सोचना कि अन्त में बन जायेंगे। अगर बहुतकाल का राज्य-भाग्य प्राप्त करना ही है तो बहुतकाल के स्वराज्य का फल है बहुतकाल का राज्य। फुल समय के राज्य अधिकार का आधार वर्तमान सदाकाल का स्वराज्य है। समझा? कभी अलबेले नहीं रह जाना। हो जायेगा, हो जायेगा नहीं करते रहना। बापदादा को बहुत मीठी बातों से बहलाते हैं। राजा के बजाय बहुत बढ़िया वकील बन जाते हैं। ऐसी-ऐसी लॉ प्वाइन्ट्स सुनाते हैं जो बाप भी मुस्कराते रहते हैं। वकील अच्छा या राजा अच्छा? बहुत होशियारी से वकालत करते हैं। इसलिये अब वकालत करना छोड़ दो, राज दुलारे बनो। बाप का बच्चों से स्नेह है इसलिये सुनते-देखते भी मुस्कराते रहते हैं। अभी धर्मराज से काम नहीं लेते।

स्नेह सभी को चला रहा है। स्नेह के कारण ही पहुँच गये हो ना। तो स्नेह के रेसपान्स में बापदादा भी पदमगुणा स्नेह का रिटर्न दे रहे हैं। देश-विदेश के सभी बच्चे स्नेह के विमान द्वारा मधुबन में पहुँचे हो। बापदादा साकार रूप में आप सबको और स्नेह स्वरूप में सर्व बच्चों को देख रहे हैं। अच्छा!

सर्व स्नेह में समाये हुए समीप बच्चों को, सर्व स्वराज्य अधिकारी सो विश्व राज्य अधिकारी श्रेष्ठ आत्माओं को, सर्व प्राप्तियों सम्पन्न श्रेष्ठ सम्पत्तिवान विशेष आत्माओं को, सदा एक धर्म, एक राज्य सम्पन्न स्वराज्य अधिकारी बाप समान भाग्यवान आत्माओं को भाग्यविधाता बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

सभी कार्य अच्छे चल रहे हैं ना? अच्छे उमंग-उत्साह से कार्य हो रहा है। करावनहार करा रहे हैं और निमित्त बन करने वाले कर रहे हैं। ऐसे अनुभव होता है ना? सर्व के सहयोग की अंगुली से हर कार्य सहज और सफल होता है। कैसे हो रहा है - ये जादू लगता है ना। दुनिया वाले तो देखते और सोचते रह जाते हैं। और आप निमित्त आत्मायें सदा आगे बढ़ते जायेंगे। क्योंकि बेफ़्रिक बादशाह हो। दुनिया वालों को तो हर कदम में चिन्ता है और आप सबके हर संकल्प में परमात्म चिन्तन है इसलिये बेफ़्रिक हैं। बेफ़्रिक हैं ना? अच्छा है, अविनाशी सम्बन्ध है। अच्छा, तो सब ठीक चल रहा है और चलना ही है। निश्चय है और निश्चिन्त हैं। क्या होगा, कैसे होगा-यह चिन्ता नहीं है।

टीचर्स को कोई चिन्ता है? सेन्टर्स कैसे बढ़ेंगे-यह चिन्ता है? सेवा कैसे बढ़ेगी-यह चिन्ता है? नहीं है? बेफ़्रिक हो? चिन्तन करना अलग चीज़ है, चिन्ता करना अलग चीज़ है। सेवा बढ़ाने का चिन्तन अर्थात् प्लैन भले बनाओ। लेकिन चिन्ता से कभी सफलता नहीं होगी। चलाने वाला चला रहा है, कराने वाला करा रहा है इसलिये सब सहज होना ही है, सिर्फ निमित्त बन संकल्प, तन, मन, धन सफल करते चलो। जिस समय जो कार्य होता है वो कार्य हमारा कार्य है। जब हमारा कार्य है, मेरा कार्य है तो जहाँ मेरापन होता है वहाँ सब कुछ स्वत: ही लग जाता है। तो अभी ब्राह्मण परिवार का विशेष कार्य वौन-सा है? टीचर्स बताओ। ब्राह्मण परिवार का अभी विशेष कार्य कौन सा है, किसमें सफल करेंगे? (ज्ञान सरोवर में) सरोवर में सब स्वाहा करेंगे। परिवार में जो विशेष कार्य होता है तो सबका अटेन्शन कहाँ होता है? उसी विशेष कार्य के तरफ अटेन्शन होता है। ब्राह्मण परिवार में बड़े से बड़ा कार्य वर्तमान समय यही है ना। हर समय का अपना-अपना है, वर्तमान समय देश-विदेश सर्व ब्राह्मण परिवार का सहयोग इस विशेष कार्य में है ना कि अपने-अपने सेन्टर में है? जितना बड़ा कार्य उतनी बड़ा दिल। और जितनी बड़ा दिल होता है ना उतनी स्वत: ही सम्पन्नता होती है। अगर छोटा दिल होता है तो जो आना होता है वह भी रूक जाता है, जो होना होता है वह भी रूक जाता है। और बड़े दिल से असम्भव भी सम्भव हो जाता है। मधुबन का ज्ञान सरोवर है वा आपका है? किसका है? मधुबन का है ना? गुजरात का तो नहीं है, मधुबन का है? महाराष्ट्र का है? विदेश का है? सभी का है। बेहद की सेवा का बेहद का स्थान अनेक आत्माओं को बेहद का वर्सा दिलाने वाला है। ठीक है ना। अच्छा!

मन, वचन, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क सब प्रकार की पवित्रता इसको कहा जाता है-एक धर्म अर्थात् एक धारणा। जहाँ पवित्रता है वहाँ अपवित्रता अर्थात् व्यर्थ वा विकल्प का नाम-निशान नहीं होगा।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

स्व-परिवर्तन का वायब्रेशन ही विश्व परिवर्तन करायेगा

सभी अपने को खुशनसीब आत्मायें अनुभव करते हो? खुशी का भाग्य जो स्वप्न में भी नहीं था वो प्राप्त कर लिया। तो सभी की दिल सदा यह गीत गाती है कि सबसे खुशनसीब हूँ तो मैं हूँ। यह है मन का गीत। मुख का गीत गाने के लिये मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन मन का गीत सब गा सकते हैं। सबसे बड़े से बड़ा खज़ाना है खुशी का खज़ाना। क्योंकि खुशी तब होती है जब प्राप्ति होती है। अगर अप्राप्ति होगी तो कितना भी कोई किसी को खुश रहने के लिये कहे, कितना भी आर्टीफिशल खुश रहने की कोशिश करे लेकिन रह नहीं सकते। तो आप सदा खुश रहते हो या कभी-कभी रहते हो? जब चैलेन्ज करते हो कि हम भगवान के बच्चे हैं, तो जहाँ भगवान् है वहाँ कोई अप्राप्ति हो सकती है? तो खुशी भी सदा है क्योंकि सदा सर्व प्राप्ति स्वरूप हैं। ब्रह्मा बाप का क्या गीत था? पा लिया-जो था पाना। तो यह सिर्फ ब्रह्मा बाप का गीत है या आप सबका? कभी-कभी थोड़ी दु:ख की लहर आ जाती है? कब तक आयेगी? अभी थोड़ा समय भी दु:ख की लहर नहीं आये। जब विश्व परिवर्तन करने के निमित्त हो तो अपना ये परिवर्तन नहीं कर सकते हो? अभी भी टाइम चाहिये, फुल स्टॉप लगाओ। ऐसा श्रेष्ठ समय, श्रेष्ठ प्राप्तियाँ, श्रेष्ठ सम्बन्ध सारे कल्प में नहीं मिलेगा। तो पहले स्व-परिवर्तन करो। यह स्व-परिवर्तन का वायब्रेशन ही विश्व परिवर्तन करायेगा।

डबल विदेशी आत्माओं की विशेषता है- फास्ट लाइफ। तो परिवर्तन में फास्ट हैं? फारेन में कोई ढीला-ढाला चलता है तो अच्छा नहीं लगता है ना। तो इसी विशेषता को परिवर्तन में लाओ। अच्छा है। आगे बढ़ रहे हैं और बढ़ते ही रहेंगे। पहचानने की दृष्टि अच्छी तेज है जो बाप को पहचान लिया। अभी पुरूषार्थ में भी तीव्र, सेवा में भी तीव्र और मंज़िल पर सम्पूर्ण बन पहुँचने में भी तीव्र। फर्स्ट नम्बर आना है ना? जैसे ब्रह्मा बाप फर्स्ट हुआ ना तो ब्रह्मा बाप के साथी बन फर्स्ट के साथ फर्स्ट में आयेंगे। ब्रह्मा बाप से प्यार है ना। अच्छा, मातायें कमाल करेंगी ना। जो दुनिया असम्भव समझती है वो आपने सहज करके दिखा दिया। ऐसा कमाल कर रही हो ना। दुनिया वाले समझते हैं कि मातायें निर्बल हैं, कुछ नहीं कर सकतीं आप असम्भव को सम्भव करके विश्व परिवर्तन में सबसे आगे बढ़ रही हो। पाण्डव क्या कर रहे हो? असम्भव को सम्भव तो कर रहे हो ना। पवित्रता का झण्डा लहराया है ना। हाथ में अच्छी तरह से झण्डा पकड़ा है या कभी नीचे हो जाता है? सदा पवित्रता के चैलेन्ज का झण्डा लहराते रहो।

ग्रुप नं. 2

रोज अमृतवेले कम्बाइन्ड स्वरूप की स्मृति का तिलक लगाओ

सदा अपने को सहज योगी अनुभव करते हो? कितनी भी परिस्थितियां मुश्किल अनुभव कराने वाली हों लेकिन मुश्किल को भी सहज करने वाले सहजयोगी हैं-ऐसे हो या मुश्किल के समय मुश्किल का अनुभव होता है? सदा सहज है? मुश्किल होने का कारण है बाप का साथ छोड़ देते हो। जब अकेले बन जाते हो तो कमज़ोर पड़ जाते हो और कमज़ोर को तो सहज बात भी मुश्किल लगती है। इसलिये बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि सदा कम्बाइन्ड रूप में रहो। कम्बाइन्ड को कोई अलग नहीं कर सकता। जैसे इस समय आत्मा और शरीर कम्बाइन्ड है ऐसे बाप और आप कम्बाइन्ड रहो। मातायें क्या समझती हो? कम्बाइन्ड हो या कभी अलग, कभी कम्बाइन्ड? ऐसा साथ फिर कभी मिलना है? फिर क्यों साथ छोड़ देती हो? काम ही क्या दिया है? सिर्फ यह याद रखो कि ‘मेरा बाबा’। इससे सहज काम क्या होगा? मुश्किल है? (63 जन्मों का संस्कार है) अभी तो नया जन्म हो गया ना। नया जन्म, नये संस्कार। अभी पुराने जन्म में हो या नये जन्म में? या आधा-आधा है? तो नये जन्म में स्मृति के संस्कार हैं या विस्मृति के? फिर नये को छोड़कर पुराने में क्यों जाते हो? नई चीज़ अच्छी लगती है या पुरानी चीज़ अच्छी लगती है? फिर पुराने में क्यों चले जाते हो? रोज अमृतवेले स्वयं को ब्राह्मण जीवन के स्मृति का तिलक लगाओ। जैसे भक्त लोग तिलक जरूर लगाते हैं तो आप स्मृति का तिलक लगाओ। वैसे भी देखो मातायें जो तिलक लगाती है वो साथ का तिलक लगाती हैं। तो सदा स्मृति रखो कि हम कम्बाइन्ड हैं तो इस साथ का तिलक सदा लगाओ। अगर युगल होगा तो तिलक लगायेंगे, अगर युगल नहीं होगा तो तिलक नहीं लगायेंगे। यह साथ का तिलक है। तो रोज स्मृति का तिलक लगाती हो या भूल जाता है?कभी लगाना भूल जाता, कभी मिट जाता! जो सुहाग होता है, साथ होता है वह कभी भूलता नहीं। तो साथी को सदा साथ रखो।

यह ग्रुप सुन्दर गुलदस्ता है। वेराइटी फूलों का गुलदस्ता शोभनीक लगता है। तो सभी जो भी, जहाँ से भी आये हैं, सभी एक-दो से प्यारे हैं। सभी सन्तुष्ट हो ना? सदा साथ हैं और सदा सन्तुष्ट हैं। बस, यही एक शब्द याद रखना कि कम्बाइन्ड हैं और सदा ही कम्बाइन्ड रह साथ जायेंगे। लेकिन साथ रहेंगे तो साथ चलेंगे। साथ रहना है, साथ चलना है। जिससे प्यार होता है उससे अलग हो नहीं सकते। हर सेकेण्ड, हर संकल्प में साथ है ही। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

समय अमूल्य है-समय को बचाना ही तीव्र पुरूषार्थ है

सदा यह नशा रहता है कि हम अभी भी श्रेष्ठ आत्मायें हैं और आगे भी अनेक जन्म देव आत्मा रहेंगे? वर्तमान और भविष्य दोनों का नशा है ना। वर्तमान का नशा भविष्य को प्रत्यक्ष कर रहा है। अभी श्रेष्ठ हो तभी भविष्य देवात्मा बनेंगे। वर्तमान का फल भविष्य में मिलेगा। महत्व वर्तमान का है। तो वर्तमान समय के महत्व को सदा याद रखते हो? इस समय का एक-एक सेकेण्ड कितना श्रेष्ठ है? सेकेण्ड भी गंवाया तो सेकेण्ड नहीं गंवाया लेकिन बहुत कुछ गंवाया। संगमयुग का सेकेण्ड और युगों के एक वर्ष से भी ज्यादा है। तो इतना महत्व सदा याद रहता है या कभी-कभी याद रहता है? सदा याद रहे तो हर सेकेण्ड परमात्म दुआयें प्राप्त करते रहेंगे। भक्त लोग तो दुआ लेने के लिये कितना पुरूषार्थ करते हैं। कितनी तकलीफ लेते हैं। और आपको बाप की दुआयें हर समय मिलती रहती हैं। तो दुआयें जमा करते हो या खर्च हो जाती हैं?जिसकी झोली परमात्म दुआओं से सदा भरपूर है उसके पास कभी माया आ नहीं सकती। माया आती है या दूर से ही भाग जाती है? या नजदीक आकर फिर भागती है? क्योंकि आयेगी तो फिर भगाना भी पड़ेगा। लेकिन दूर से ही भाग जायेगी तो भगाने में भी समय नहीं लगेगा। ऐसे शक्तिशाली बनो जो दूर से ही माया आने की हिम्मत नहीं रखे। जैसे कितने भी खौफनाक जानवर होते हैं लेकिन अगर आपके पास लाइट है, रोशनी है तो वो आगे नहीं आते। ऐसे सर्वशक्तियों की लाइट सदा आपके साथ है तो माया दूर से ही भाग जायेगी। तो दूर से भगाने वाले हो या नजदीक से भगाने वाले हो? क्योंकि समय अमूल्य है। समय को बचाना यही तीव्र पुरूषार्थ है। तो तीव्र पुरुषार्थी हो या पुरुषार्थी हो? तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् मायाजीत। तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् सदा विजयी। युद्ध करने वाले नहीं। तो सदा विजयी हो कभी हार नहीं होती? देखो गाया हुआ भी है कि जहाँ बाप है वहाँ विजय है ही। बाप सदा साथ है तो विजय है ही। थोड़ा भी किनारा किया तो युद्ध करनी पड़ेगी। तो युद्ध करने वाले नहीं, विजयी रत्न हो। कब तक युद्ध करेंगे? युद्ध करते-करते क्या बनना पड़ेगा? चन्द्रवंशी। तो चन्द्रवंशी हो या सूर्यवंशी हो? सूर्यवंशी अर्थात् सदा विजयी। तो विजय जन्म-सिद्ध अधिकार है-ये अनुभव हो, कहना नहीं, अनुभव हो। अधिकार कभी रहे, कभी नहीं रहे, यह नहीं होता है। अधिकार सदा साथ होता है। अच्छा!

तीव्र पुरूषार्थ करने वाले हो ना? सेवा करना अर्थात् खाता जमा करना। सेवा नहीं है, मेवा है। नाम सेवा है लेकिन है मेवा। तो सब जगह सेवा अच्छी चल रही है। सेवा और सम्पूर्णता दोनों में आगे हो ना। निर्विघ्न सेवा में आगे हो? निर्विघ्न सेवा-यही संगमयुग की विशेषता है। तो निर्विघ्न सेवा है या विघ्न आते हैं?समाचार तो बाप को पता पड़ता है ना कि विघ्न आते हैं। गुजरात को जितना समीपता का वरदान है और धरनी भी सात्विकता के वरदान की है ऐसे ही सदा निर्विघ्न रहने के वरदान में भी सदा आगे रहना चाहिये। एग्जाम्पल बनना चाहिये कि जितनी ज्यादा सेवा उतना ही निर्विघ्न। तो निर्विघ्न सेवा में नम्बरवन लेना है। कोई भी सेन्टर पर कोई खिटपिट नहीं है या अन्दर थोड़ी-थोड़ी होती है? आत्मायें बहुत अच्छी हो सिर्फ थोड़ा हरेक निर्विघ्न बन आगे बढ़ने का संकल्प दृढ़ करो। संख्या भी अच्छी है, सेवा भी अच्छी है। यह विशेषता है। लेकिन अब यह विशेषता ऐड करो कि गुजरात निर्विघ्न सेवा में नम्बरवन हो। हिम्मत है? बाप को अच्छे लगे तभी तो अपना बनाया ना। तो अच्छे तो हो ही। अब विघ्न आने नहीं पायें। विजय का अधिकार सदा प्रत्यक्ष स्वरूप में हो। अच्छा, विजयी भव।

ग्रुप नं. 4

मन्सा सेवा के लिए स्वयं की स्थिति पावरफुल बनाओ, निरन्तर सेवाधारी बनो

दा अपने को बाप के स्नेही, सहयोगी और सदा सेवाधारी आत्मायें समझते हो? जैसे स्नेह अटूट है ना। परमात्म-स्नेह को कोई भी शक्ति तोड़ सकती है? असम्भव है ना कि थोड़ा-थोड़ा सम्भव है? यह अविनाशी स्नेह विनाश हो नहीं सकता। स्नेह के साथ-साथ सदा सहयोगी हैं। किस बात में सहयोगी हैं? जो बाप के डायरेक्शन्स हैं उसमें सदा सहयोगी हैं। सदा श्रीमत पर चलने में सहयोगी हैं और सदा सेवाधारी हैं। ऐसे नहीं कि सेवा का चांस मिला तो सेवाधारी। सदा सेवाधारी। ब्राह्मण बनना अर्थात् सेवा की स्टेज पर ही रहना। ब्राह्मणों का काम क्या है? सेवा करना। वो नामधारी ब्राह्मण धामा खाने वाले और आप सेवा करने वाले। तो हर सेकेण्ड सेवा की स्टेज पर हैं-ऐसे समझते हो? कि जब चांस मिलता है तब सेवा करते हो? चांस पर सेवा करने वाले हो वा सदा सेवाधारी हो? खाना बनाते भी सेवा करते हो? क्या सेवा करते हो? याद में खाना बनाते हो तो यह सेवा करते हो। कोई भी कार्य करते हो तो याद में रहने से वायुमण्डल शुद्ध बनता है। क्योंकि वृत्ति से वायुमण्डल बनता है। तो याद की वृत्ति से वायुमण्डल बनाते हो। सेवाधारी अर्थात् हर समय अपने श्रेष्ठ दृष्टि से, वृत्ति से, कृति से सेवा करने वाले। जिसको भी श्रेष्ठ दृष्टि से देखते हो तो श्रेष्ठदृष्टि भी सेवा करती है। तो निरन्तर सेवाधारी हैं। ब्राह्मण आत्मा सेवा के बिना रह नहीं सकती। जैसे यह शरीर है ना तो श्वास के बिना नहीं रह सकता तो ब्राह्मण जीवन का श्वास है सेवा। जैसे श्वास न चलने पर मूर्छित हो जाते हैं ऐसे अगर ब्राह्मण आत्मा सेवा में बिजी नहीं तो मूर्छित हो जाती है। ऐसे पक्के सेवाधारी हो ना। तो जितना स्नेही हैं, उतना सहयोगी, उतना ही सेवाधारी हैं। सेवा का चांस तो बहुत है ना कि कभी किसको मिलता है, किसको नहीं मिलता? वाणी से सेवा का चांस नहीं मिलता लेकिन मन्सा से सेवा का चांस तो हर समय है ही। सबसे पॉवरफुल और सबसे बड़े से बड़ी सेवा मन्सा सेवा है। वाणी की सेवा सहज है या मन्सा सेवा सहज है? मन्सा सेवा के लिये पहले अपने को पॉवरफुल बनाओ। वाणी की सेवा तो स्थिति नीचे-ऊपर होते हुए भी कर लेंगे। भाषण करके आ जायेंगे। कोई कोर्स करने वाला आयेगा तो भी कोर्स करा देंगे। लेकिन मन्सा सेवा ऐसे नहीं हो सकती। अगर मन्सा थोड़ा भी कमज़ोर है तो मन्सा सेवा नहीं हो सकती। वाणी की कर सकते हो। ऐसे करना नहीं है लेकिन चलता है। तो अब मन्सा, वाचा, कर्मणा सब प्रकार की सेवा करो तब फुल मार्क्स ले सकेंगे। निरन्तर सेवाधारी बनो क्योंकि जितनी सेवा करते हो उतना प्रत्यक्षफल मिलता ही है। तो सेवाधारी अर्थात् प्रत्यक्षफल खाने वाले।

सभी सन्तुष्ट आत्मायें हो ना। संगम पर सन्तुष्ट नहीं रहेंगे तो कब रहेंगे? संगमयुग है ही सन्तुष्टता का युग। तो सभी सन्तुष्ट हैं कि थोड़ी खिटखिट है? न स्वयं में, न दूसरों के सम्पर्क में आने में। स्वयं सन्तुष्ट हैं लेकिन सम्पर्क में आने में सन्तुष्टता, इसमें थोड़ा फर्क है। माला के मणके हो ना। तो माला कैसे बनती है? सम्बन्ध से। अगर दाने का दाने से सम्पर्क नहीं हो तो माला बनेगी? तो माला के मणके हैं इसलिए सम्बन्ध-सम्पर्क में भी सदा सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना। सिर्फ रहना नहीं है, करना भी है तब माला के मणके बनते हैं। क्योंकि सभी परिवार वाले हो, निवृत्ति वाले नहीं। परिवार का अर्थ ही है सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना। बापदादा सभी स्थानों को एक-दो से आगे ही रखते हैं। ऐसे नहीं फलाना स्थान आगे है, दूसरे पीछे हैं। बाप के लिये सब आगे हैं। चाहे नये हैं, चाहे पुराने हैं, लेकिन सब आगे हैं। और अगर गुप्त हैं तो सबसे आगे हैं। जैसे गुप्त दान महादान कहा जाता है। ऐसे अगर गुप्त पुरुषार्थी हैं, नाम आउट नहीं होता है तो ऐसे नहीं समझो कि पीछे हैं लेकिन गुप्त पुरुषार्थी सदा आगे हैं। गुप्त सेवाधारी सदा ही आगे है। तो सभी क्या याद रखेंगे? कौन हो? निरन्तर सेवाधारी। सदा सेवा की स्टेज पर पार्ट बजा रहे हो। घर में नहीं, स्टेज पर हो। सेन्टर पर नहीं, स्टेज पर हो। तो स्टेज पर अलर्ट रहते हैं, घर में जायेंगे तो अलर्ट नहीं रहेंगे, अलबेले हो जायेंगे। स्टेज पर जायेंगे तो अलर्ट हो जायेंगे। तो सदा सेवा की स्टेज पर हैं-इस स्मृति से सदा अलर्ट रहना है। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

मास्टर सर्वशक्तिमान बन समय पर हर शक्ति को कार्य में लगाओ

अपने को सदा मास्टर सर्वशक्तिमान अनुभव करते हो? मास्टर का अर्थ है कि हर शक्ति को जिस समय आह्वान करो तो वो शक्ति प्रैक्टिकल स्वरूप में अनुभव हो। जिस समय, जिस शक्ति की आवश्यकता हो, उस समय वो शक्ति सहयोगी बने-ऐसे है? जिस समय सहनशक्ति चाहिये उस समय स्वरूप में आती है कि थोड़े समय के बाद आती है? अगर मानो शस्त्र एक मिनट पीछे काम में आया तो विजयी होंगे? विजय नहीं हो सकेगी ना। तो मास्टर सर्वशक्तिमान अर्थात् शक्ति को ऑर्डर किया और हाजर। ऐसे नहीं कि ऑर्डर करो सहन शक्ति को और आये सामना करने की शक्ति। तो उसको मास्टर सर्वशक्तिमान कहेंगे? जैसे कई परिस्थिति में सोचते हो कि किनारा नहीं करना है, सहन करना है लेकिन फिर सहन करते-करते सामना करने की शक्ति में आ जाते हो। ऐसे ही निर्णय शक्ति की आवश्यकता है। लेकिन निर्णय शक्ति यथार्थ समय पर यथार्थ निर्णय नहीं ले तो उसको क्या कहेंगे? मास्टर सर्वशक्तिमान या कमज़ोर? तो ऐसे ट्रायल करो कि जिस समय जो शक्ति आवश्यक है उस समय वो शक्ति कार्य में आती है? एक सेकेण्ड का भी फर्क पड़ा तो जीत के बजाय हार हो जाती है। सेकेण्ड की बात है ना। निर्णय करना हाँ या ना। और हाँ के बजाय अगर ना कर लिया तो सेकेण्ड का नुकसान सदा के लिये हार खिलाने के निमित्त बन जाता है। इसलिये मास्टर सर्वशक्तिमान का अर्थ ही है जो हर शक्ति ऑर्डर में हो। जैसे ये शरीर की कर्मेन्द्रियां ऑर्डर में हैं ना। हाथ पांव जब चलाओ, जैसे चलाओ वैसे चलाते हो ना ऐसे सर्वशक्तियां इतना ऑर्डर में चलें। जितना यूज़ करते जायेंगे उतना अनुभव करते जायेंगे।

माताओं में समाने की शक्ति है या थोड़ा कुछ होता है तो क्रोध आ जाता है? थोड़ा बच्चों पर क्रोध आ जाता है। पाण्डवों को गुस्सा आता है? बच्चों पर नहीं, बड़ों पर आता है? सदा अपना ये स्वमान स्मृति में रखो कि हम मास्टर सर्वशक्तिमान हैं। इस स्वमान की सीट पर सदा स्थित रहो। जैसी सीट होती है वैसे लक्षण आते हैं। कोई भी ऐसी परिस्थिति सामने आये तो सेकेण्ड में अपने इस सीट पर सेट हो जाओ। सीट पर सेट नहीं होते तो शक्तियां भी ऑर्डर नहीं मानती। सीट वाले का ऑर्डर माना जाता है। तो सेट होना आता है ना। सीट पर बैठने वाले कभी अपसेट नहीं होते। या तो है सीट या तो है अपसेट। लक्ष्य अच्छा है, लक्षण भी अच्छे हैं। सभी महावीर हैं। कभी-कभी सिर्फ थोड़ा माया से खेल करते हो। अब के विजयी ही सदा के विजयी बनेंगे। अब विजयी नहीं तो फिर कभी भी विजयी नहीं बनेंगे। इसलिये संगमयुग है ही सदा विजयी बनने का युग। द्वापर-कलियुग हार खाने का युग है और संगम विजय प्राप्त करने का युग है। इस युग को वरदान है। तो वरदानी बन विजयी बनो।

नया प्लैन कोई बनाया है? अच्छा है, जितनी सेवा बढ़ाते हो, उतना स्वयं को आगे बढ़ाते हो। औरों की सेवा करने के पहले अपनी सेवा स्वत: ही हो जाती है। अब कोई ऐसा नामीग्रामी माइक निकालो जो स्नेह के साथ समीप वाली आत्मा बन जाये। जिस एक द्वारा अनेकों की सेवा सहज होती रहे। अभी ऐसी विशेष आत्मायें मैदान पर लाओ। समझा? अच्छा!

ग्रुप नं. 6

त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित होकर तीनों कालों को देखो तो सदा खुशी रहेगी

सदा यह नशा रहता है कि हम विशेष आत्मायें हैं? तो गाया हुआ है कोटों में कोई, कोई में भी कोई तो पहले सुनते थे लेकिन अभी अनुभव कर रहे हो कि हम ही कोटों में कोई आत्मायें थी और हैं और सदा बनेंगी। कभी सोचा था कि इतना विशेष पार्ट इस ड्रामा के अन्दर हमारा नूँधा हुआ है! लेकिन अभी प्रैक्टिकल में अनुभव कर रहे हो। पक्का निश्चय है ना। कल्प-कल्प कौन बनता है? क्या कहेंगे? हम ही थे, हम ही हैं और हम ही रहेंगे। तीनों काल का ज्ञान अभी आ गया है। त्रिकालदर्शी बन गये ना। एक सेकेण्ड में तीनों काल को देख सकते हो? क्या थे, क्या हैं और क्या होंगे-स्पष्ट है ना। कल पुजारी, आज पूज्य बन रहे हैं। जब त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित होते हो तो कितना मजा आता है। जैसे कोई भी देश में जब टॉप प्वाइन्ट पर खड़े होकर सारे शहर को देखते हैं तो मजा आता है ना। ऐसे ही यह संगमयुग टॉप प्वाइन्ट है तो इस पर खड़े होकर देखो तो मजा आयेगा। कल थे और कल बनने वाले हैं। इतना स्पष्ट अनुभव होता है? कल क्या बनने वाले हो? देवता। कितने बार बने हो? अनेक बार बने हो। तो कितना सहज और स्पष्ट हो गया। फलक से कहते हो ना-हम ही तो थे और कौन होंगे। अभी तो यही दिल कहता है ना कि और कौन बनेगा, हम थे, हम ही बन रहे हैं इसको कहते हैं मास्टर नॉलेजफुल। फुल नॉलेज आ गई है ना। एक काल की नहीं, तीनों काल की। तो जैसे बाप नालेजफुल है, बाप की महिमा में फुल के कारण सागर कहते हैं। सागर सदा फुल रहता है। तो नॉलेजफुल बन गये। एक काल के भी ज्ञान की कमी नहीं। भरपूर। इतना नशा है?

सबसे ज्यादा खुशी किसको रहती है? सदा समान रहती है कि कभी कम, कभी ज्यादा रहती है? कुमारों को माया नहीं आती है? चाहे कुमार हैं, चाहे अधर कुमार हैं लेकिन अभी ब्रह्माकुमार हैं। अधर कुमार भी कुमार हैं, अधर कुमारी भी ब्रह्माकुमारी है। कुमारी जीवन या कुमार जीवन बहुत श्रेष्ठ जीवन है लेकिन ब्रह्माकुमार हैं तो। तो जो सदा खुश रहते हैं वो ब्रह्माकुमार हैं। दुनिया वाले तो सोचते रह जाते हैं और आप सदा सम्पन्न बन गये। वो सोचते रहते हैं पता नहीं क्या होगा, कब होगा और आप क्या कहते हो? जो होना था वो हो रहा है, जो पाना था वो पा लिया है, चैलेन्ज करते हो ना।

माताओं को सबसे बड़े ते बड़ी खुशी है कि बाप ने हमें अपना बना लिया। नाउम्मीद से सदा के उम्मीदवार बने गये। दुनिया वालों ने नाउम्मीद बनाया और बाप ने उम्मीदों के सितारे बना लिया। जो औरों को भी उम्मीदों के सितारे बनाने के निमित्त बने। एक्स्ट्रा खुशी यह है कि हमें बाप ने पसन्द कर लिया। कितना सहज पसन्द किया। कोई तकलीफ नहीं। पाण्डवों को क्या नशा है? पाण्डवों को अपना नशा है, अपनी खुशी है। पाण्डव सदा बाप के साथी दिखाते हैं। पाण्डवों ने कभी साथ नहीं छोड़ा, अन्त तक साथ निभाया। वही पाण्डव हो ना। पाण्डव दिल से गाते हैं कि हमारा साथी सदा भगवान् है। सदा साथ रहने वाले हैं। सदा साथ निभाने वाले हैं। ऐसे पाण्डव हो ना? सदा साथ रहने वाली वरदानी आत्मायें हैं। जब वरदाता साथ है तो वरदान भी साथ है ना। वरदानों से सदा झोली भरी हुई है। वरदान भरते-भरते इतने वरदानी बनते हो जो अनेक जन्म अनेक आत्माओं को वरदानी स्वरूप में दिखाई देते हो। आपके जड़ चित्रों से वरदान लेने आते हैं ना। ऐसे वरदानी आत्मायें बन गये। कभी वरदानों से अलग हो ही नहीं सकते। सदा भरपूर हैं। अच्छा!

सेवाधारी

सेवाधारी अर्थात् हर समय अपने श्रेष्ठदृष्टि से, वृत्ति से, कृति से सेवा करने वाले। जिसको भी श्रेष्ठ दृष्टि से देखते हो तो श्रेष्ठ दृष्टि भी सेवा करती है। तो निरन्तर सेवाधारी हैं। ब्राह्मण आत्मा सेवा के बिना रह नहीं सकती। जैसे यह शरीर है ना तो श्वास के बिना नहीं रह सकता तो ब्राह्मण जीवन का श्वास है सेवा। जैसे श्वास न चलने पर मूर्छित हो जाते हैं ऐसे अगर ब्राह्मण आत्मा सेवा में बिजी नहीं तो मूर्छित हो जाती है।



25-11-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सहज सिद्धि प्राप्त करने के लिए ज्ञान स्वरूप प्रयोगी आत्मा बनो

योग के प्रयोग की विधि सिखाने वाले ज्ञान दाता बाप अपने ज्ञानी तू आत्मा बच्चों प्रति बोले-

आज ज्ञान दाता वरदाता अपने ज्ञानी तू आत्मा, योगी तू आत्मा बच्चों को  देख रहे हैं। हर एक बच्चा ज्ञान स्वरूप और योगयुक्त कहाँ तक बना है? ज्ञान सुनने और सुनाने के निमित्त बने हैं वा ज्ञान स्वरूप बने हैं? समय प्रमाण योग लगाने वाले बने हैं वा सदा योगी जीवन अर्थात् हर कर्म में योगयुक्त, युक्तियुक्त, स्वत: वा सदा के योगी बने हैं? किसी भी ब्राह्मण आत्मा से कोई भी पूछेंगे कि ज्ञानी और योगी हैं तो क्या कहेंगे? सभी ज्ञानी और योगी हैं ना? ज्ञान स्वरूप बनना अर्थात् हर संकल्प, बोल और कर्म समर्थ होगा। व्यर्थ समाप्त होगा। क्योंकि जहाँ समर्थ है वहाँ व्यर्थ हो नहीं सकता। जैसे प्रकाश और अन्धियारा साथ-साथ नहीं होता। तो ‘ज्ञान’ प्रकाश है, ‘व्यर्थ’ अन्धकार है। वर्तमान समय व्यर्थ को समाप्त करने का अटेन्शन रखना है। सबसे मुख्य बात संकल्प रूपी बीज को समर्थ बनाना है। अगर संकल्प रूपी बीज समर्थ है तो वाणी, कर्म, सम्बन्ध सहज ही समर्थ हो ही जाता है। तो ज्ञान स्वरूप अर्थात् हर समय, हर संकल्प, हर सेकेण्ड समर्थ।

योगी तू आत्मा सभी बने हो लेकिन हर संकल्प स्वत: योगयुक्त, युक्तियुक्त हो, इसमें नम्बरवार हैं। क्यों नम्बर बने? जब विधाता भी एक है, विधि भी एक है फिर नम्बर क्यों? बापदादा ने देखा योगी तो बने हैं लेकिन प्रयोगी कम बनते हैं। योग करने और कराने दोनों में सभी होशियार हैं। ऐसा कोई है जो कहे कि योग कराना नहीं आता? जैसे योग करने-कराने में योग्य हो, ऐसे ही प्रयोग करने में योग्य बनना और बनाना-इसको कहा जाता है योगी जीवन अर्थात् योगयुक्त जीवन। अभी प्रयोगी जीवन की आवश्यकता है। जो योग की परिभाषा जानते हो, वर्णन करते हो वो सभी विशेषतायें प्रयोग में आती हैं? सबसे पहले अपने आपमें यह चेक करो कि अपने संस्कार परिवर्तन में कहाँ तक प्रयोगी बने हो? क्योंकि आप सबके श्रेष्ठ संस्कार ही श्रेष्ठ संसार के रचना की नींव हैं। अगर नींव मजबूत है तो अन्य सभी बातें स्वत: मजबूत हुई ही पड़ी हैं। तो यह देखो कि संस्कार समय पर कहाँ धोखा तो नहीं देते हैं? श्रेष्ठ संस्कार को परिवर्तन करने वाले कैसे भी व्यक्ति हो, वस्तु हो, परिस्थिति हो, योग के प्रयोग करने वाली आत्मा को श्रेष्ठ से साधारणता में हिला नहीं सकते। ऐसे नहीं कि बात ही ऐसी थी, व्यक्ति ही ऐसा था वा वायुमण्डल ऐसा था इसलिये श्रेष्ठ संस्कार को परिवर्तन कर साधारण वा व्यर्थ बना दिया, तो क्या इसको प्रयोगी आत्मा कहेंगे? अगर समय पर योग की शक्तियों का प्रयोग नहीं हुआ तो इसको क्या कहा जायेगा? तो पहले इस फाउन्डेशन को देखो कि कहाँ तक समय पर प्रयोगी बने हैं? अगर स्व के संस्कार परिवर्तक नहीं बने हैं तो नये संसार परिवर्तक कैसे बनेंगे?

प्रयोगी आत्मा की पहली निशानी है-संस्कार के ऊपर सदा प्रयोग में विजयी। दूसरी निशानी-प्रकृति द्वारा आने वाली परिस्थितियों पर योग के प्रयोग द्वारा विजयी। समय प्रति समय प्रकृति की हलचल भी योगी आत्मा को अपने तरफ आकर्षित करती है। ऐसे समय पर योग की विधि प्रयोग में आती है? कभी योगी पुरूष को वा पुरूषोत्तम आत्मा को प्रकृति प्रभावित तो नहीं करती? क्योंकि ब्राह्मण आत्मायें पुरूषोत्तम आत्मायें हो। प्रकृति पुरूषोत्तम आत्माओं की दासी है। मालिक, दासी के प्रभाव में आ जाये-इसको क्या कहेंगे? आजकल पुरूषोत्तम आत्माओं को प्रकृति साधनों और सैलवेशन के रूप में प्रभावित करती है। साधन वा सैलवेशन के आधार पर योगी जीवन है। साधन वा सैलवेशन कम तो योगयुक्त भी कम-इसको कहा जाता है प्रभावित होना। योगी वा प्रयोगी आत्मा की साधना के आगे साधन स्वत: ही स्वयं आते हैं। साधन साधना का आधार नहीं हो लेकिन साधना साधनों को स्वत: आधार बनायेगी। इसको कहा जाता है प्रयोगी आत्मा-तो चेक करो-संस्कार परिवर्तन विजयी और प्रकृति के प्रभाव के विजयी कहाँ तक बने हैं? तीसरी निशानी है-विकारों पर विजयी। योगी वा प्रयोगी आत्मा के आगे ये पांच विकार, जो दूसरों के लिये जहरीले सांप है लेकिन आप योगी-प्रयोगी आत्माओं के लिये ये सांप गले की माला बन जाते हैं। आप ब्राह्मणों के और ब्रह्मा बाप के अशरीरी तपस्वी शंकर स्वरूप का यादगार अभी भी भक्त लोग पूजते और गाते रहते हैं। दूसरा यादगार-ये सांप आपके अधीन ऐसे बन जाते जो आपके खुशी में नाचने की स्टेज बन जाते हैं। जब विजयी बन जाते हैं तो क्या अनुभव करते हैं? क्या स्थिति होती है? खुशी में नाचते रहते हैं ना। तो यह स्थिति स्टेज के रूप में दिखाई है। स्थिति को भी स्टेज कहा जाता है। ऐसे विकारों पर विजय हो-इसको कहा जाता है प्रयोगी। तो यह चेक करो-कहाँ तक प्रयोगी बने हैं? अगर योग का समय पर प्रयोग नहीं, योग की विधि से समय पर सिद्धि नहीं तो यथार्थ विधि कहेंगे? समय अपनी तीव्र गति समय प्रति समय दिखा रहा है। अनेकता, अधर्म, तमोप्रधानता हर क्षेत्र में तीव्र गति से बढ़ता जा रहा है। ऐसे समय पर आपके योग के विधि की वृद्धि वा विधि के सिद्धि में वृद्धि तीव्र गति से होना वश्यक है। नम्बर आगे बढ़ने का आधार है-प्रयोगी बनने की सहज विधि। तो बापदादा ने क्या देखा-समय पर प्रयोग करने में तीव्र गति के बजाय साधारण गति है। अभी इसको बढ़ाओ। तो क्या होगा-सिद्धि स्वरूप अनुभव करते जायेंगे। आपके जड़ चित्रों द्वारा सिद्धि प्राप्त करने का अनुभव करते रहते हैं। चैतन्य में सिद्धि स्वरूप बने हो तब यह यादगार चला आ रहा है। रिद्धि-सिद्धि वाले नहीं, विधि से सिद्धि। तो समझा क्या करना है? है सब कुछ लेकिन समय पर प्रयोग करना और प्रयोग सफल होना इसको कहा जाता है ज्ञान स्वरूप आत्मा। ऐसे ज्ञान स्वरूप आत्मायें अति समीप और अति प्रिय हैं। अच्छा!

सदा योग की विधि द्वारा श्रेष्ठ सिद्धि को अनुभव करने वाले, सदा साधारण संस्कार को श्रेष्ठ संस्कार में परिवर्तन करने वाले, संस्कार परिवर्तक आत्माओं को, सदा प्रकृति जीत, विकारों पर जीत प्राप्त करने वाले विजयी आत्माओं को, सदा प्रयोग के गति को तीव्र अनुभव करने वाले ज्ञान स्वरूप, योगयुक्त योगी आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

(24 नवम्बर को दो कुमारियों के समर्पण समारोह के बाद रात्रि 10 बजे दादी आलराउन्डर ने अपना पुराना चोला छोड़ बापदादा की गोद ली, 25 तारीख दोपहर में उनका अन्तिम संस्कार किया गया, सायंकाल मुरली के पश्चात दादियों से मुलाकात करते समय बापदादा ने जो महावाक्य उच्चारे वह इस प्रकार हैं) :-

खेल में भिन्न-भिन्न खेल देखते रहते हो। साक्षी हो खेल देखने में मजा आता है ना। चाहे कोई उत्सव हो, चाहे कोई शरीर छोड़े-दोनों ही क्या लगता है? खेल में खेल लगता है। और लगता भी ऐसे ही है ना जैसे खेल होता है और समय प्रमाण समाप्त हो जाता है। ऐसे ही जो हुआ सहज समाप्त हुआ तो खेल ही लगता है। हर आत्मा का अपना-अपना पार्ट है। सर्व आत्माओं की शुभ भावना, अनेक आत्माओं की शुभ भावना प्राप्त होना-यह भी हर आत्मा के भाग्य की सिद्धि है। तो जो भी हुआ, क्या देखा? खेल देखा या मृत्यु देखा? एक तरफ वहीं अलौकिक स्वयंवर देखा और दूसरे तरफ चोला बदलने का खेल देखा। लेकिन दोनों क्या लगे? खेल में खेल। फर्क पड़ता है क्या? स्थिति में फर्क पड़ता है? अलौकिक स्वयंवर देखने में और चोला बदलते हुए देखने में फर्क पड़ा?थोड़ी लहर बदली हुई कि नहीं? साक्षी होकर खेल देखो तो वो अपने विधि का और वो अपने विधि का। सहज नष्टोमोहा होना यह बहुत काल के योग के विधि की सिद्धि है। तो नष्टोमोहा, सहज मृत्यु का खेल देखा। इस खेल का क्या रहस्य देखा? देह के स्मृति से भी उपराम। चाहे व्याधि द्वारा, चाहे विधि द्वारा - और कोई भी आकर्षण अन्त समय आकर्षित नहीं करे। इसको कहा जाता है सहज चोला बदली करना। तो क्या करना है? नष्टोमोहा, सेन्टर भी याद नहीं आये। (टीचर्स को देखते हुए) ऐसे नहीं कोई जिज्ञासू याद आ जाये, कोई सेन्टर की वस्तु याद आ जाये, कुछ किनारे किया हुआ याद आ जाये ...। सबसे न्यारे और बाप के प्यारे। पहले से ही किनारे छुटे हुए हों। कोई किनारे को सहारा नहीं बनाना है। सिवाए मंज़िल के और कोई लगाव नहीं हो। अच्छा!

निर्मलशांता दादी से मुलाकात

संगठन अच्छा लगता है? संगठन की विशेष शोभा हो। सबकी नजर कितने प्यार से आप सबके तरफ जाती है! जब तक जितनी सेवा है उतनी सेवा शरीर द्वारा होनी ही है। कैसे भी करके शरीर चलता ही रहेगा। शरीर को चलाने का ढंग आ गया है ना। अच्छा चल रहा है। क्योंकि बाप की और सबकी दुआयें हैं। खुश रहना है और खुशी बांटनी है और क्या काम है। सब देख-देख कितने खुश होते हैं तो खुशी बांट रहे हैं ना। खा भी रहे हैं, बांट भी रहे हैं। आप सब एक-एक दर्शनीय मूर्त हो। सबकी नजर निमित्त आत्माओं तरफ जाती है तो दर्शनीय मूर्त हो गये ना। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

ब्राह्मण जीवन का आधार - याद और सेवा

ड्रामा अनुसार ब्राह्मण जीवन में सभी को सेवा का चांस मिला हुआ है ना। क्योंकि ब्राह्मण जीवन का आधार ही है याद और सेवा। अगर याद और सेवा कमज़ोर है तो जैसे शरीर का आधार कमज़ोर हो जाता है तो शरीर दवाइयों के धक्के से चलता है ना। तो ब्राह्मण जीवन में अगर याद और सेवा का आधार मजबूत नहीं, कमज़ोर है, तो वह ब्राह्मण जीवन भी कभी तेज चलेगा, कभी ढीला चलेगा, धक्के से चलेगा। कोई सहयोग मिले, कोई साथ मिले, कोई सरकमस्टांस मिले तो चलेंगे, नहीं तो ढीले हो जायेंगे। इसलिए याद और सेवा का विशेष आधार सदा शक्तिशाली चाहिए। दोनों ही शक्तिशाली हों। सेवा बहुत है, याद कमज़ोर है या याद बहुत अच्छी है, सेवा कमज़ोर है तो भी तीव्रगति नहीं हो सकती। याद और सेवा दोनों में तीव्रगति चाहिए। शक्तिशाली चाहिए। तो दोनों ही शक्तिशाली हैं या फर्क पड़ जाता है? कभी सेवा ज्यादा हो जाती, कभी याद ज्यादा हो जाती? दोनों साथ-साथ हों। याद और निस्वार्थ सेवा। स्वार्थ की सेवा नहीं, निस्वार्थ सेवा है तो माया जीत बनना बहुत सहज है। हर कर्म में, कर्म की समाप्ति के पहले सदा विजय दिखाई देगी। इतना अटल निश्चय का अनुभव होगा कि विजय तो हुई पड़ी है? अगर ब्राह्मण आत्माओं की विजय नहीं होगी तो किसकी होगी? क्षत्रियों की होगी क्या? ब्राह्मणों की विजय है ना। क्वेश्चन मार्क नहीं होगा। कर तो रहे हैं, चल तो रहे हैं, देख लेंगे, हो जायेगा, होना तो चाहिए-तो ये शब्द नहीं आयेंगे। पता नहीं क्या होगा, होगा या नहीं होगा-यह निश्चय के बोल हैं? निश्चयबुद्धि विजयी-यह गायन है ना? तो जब प्रैक्टिकल हुआ है तब तो गायन है। निश्चयबुद्धि की निशानी है-विजय निश्चित। जैसे किसी भी प्रकार की किसको शक्ति होती है-चाहे धन की हो, बुद्धि की हो, सम्बन्ध-सम्पर्क की हो तो उसको निश्चय रहता है-यह क्या बड़ी बात है, यह तो कोई बात ही नहीं है। आपके पास तो सब शक्तियां हैं। धन की शक्ति है कि धन की शक्ति करोड़पतियों के पास है? सबसे बड़ा धन है अविनाशी धन, जो सदा साथ है। तो धन की शक्ति भी है, बुद्धि की शक्ति भी है, पोजीशन की शक्ति भी है। जो भी शक्तियां गाई हुई हैं सब शक्तियां आप में हैं। हैं या कभी प्राय: लोप हो जाती हैं? इन्हें इमर्ज रूप में अनुभव करो। ऐसे नहीं-हाँ, हूँ तो सर्वशक्तिमान का बच्चा लेकिन अनुभव नहीं होता। तो सभी भरपूर हो कि थोड़ा-थोड़ा खाली हो? समय पर विधि द्वारा सिद्धि प्राप्त हो। ऐसे नहीं समय पर हो नहीं और वैसे नशा हो कि बहुत शक्तियां हैं। कभी अपनी शक्तियों को भूलना नहीं, यूज़ करते जाओ-अगर स्व प्रति कार्य में लगाना आता है तो दूसरे के कार्य में भी लगा सकते हैं। पाण्डवों में शक्ति आ गई या कभी क्रोध आता है? थोड़ा-थोड़ा क्रोध आता है? कोई क्रोध करे तो क्रोध आता है, कोई इन्सल्ट करे तो क्रोध आता है? यह तो ऐसे ही हुआ जैसे दुश्मन आता है तो हार होती है। माताओं को थोड़ा-थोड़ा मोह आता है? पाण्डवों को अपने हर कल्प के विजयपन की सदा खुशी इमर्ज होनी चाहिये। कभी भी कोई पाण्डवों को याद करेंगे तो पाण्डव शब्द से विजय सामने आयेगी ना। पाण्डव अर्थात् विजयी। पाण्डवों की कहानी का रहस्य ही क्या है? विजय है ना। तो हर कल्प के विजयी। इमर्ज रूप में नशा रहे। मर्ज नहीं। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

सर्व द्वारा मान प्राप्त करने के लिए निर्माण बनो

भी अपने को सदा कोटों में कोई और कोई में भी कोई श्रेष्ठ आत्मा अनुभव करते हों? कि कोटों में कोई जो गाया हुआ है वो और कोई है? या आप ही हो? तो कितना एक-एक आत्मा का महत्व है अर्थात् हर आत्मा महान है। तो जो जितना महान होता है, महानता की निशानी जितना महान उतना निर्माण। क्योंकि सदा भरपूर आत्मा है। जैसे वृक्ष के लिये कहते हैं ना जितना भरपूर होगा उतना झुका हुआ होगा और निर्माणता ही सेवा करती है। जैसे वृक्ष का झुकना सेवा करता है, अगर झुका हुआ नहीं होगा तो सेवा नहीं करेगा। तो एक तरफ महानता है और दूसरे तरफ निर्माणता है। और जो निर्माण रहता है वह सर्व द्वारा मान पाता है। स्वयं निर्माण बनेंगे तो दूसरे मान देंगे। जो अभिमान में रहता है उसको कोई मान नहीं देते। उससे दूर भागेंगे। तो महान और निर्माण है या नहीं है - उसकी निशानी है कि निर्माण सबको सुख देगा। जहाँ भी जायेगा, जो भी करेगा वह सुखदायी होगा। इससे चेक करो कि कितने महान हैं? जो भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आये सुख की अनुभूति करे। ऐसे है या कभी दु:ख भी मिल जाता है? निर्माणता कम तो सुख भी सदा नहीं दे सकेंगे। तो सदा सुख देते, सुख लेते या कभी दु:ख देते, दु:ख लेते? चलो देते नहीं लेकिन ले भी लेते हो? थोड़ा फील होता है तो ले लिया ना। अगर कोई भी बात किसी की फील हो जाती है तो इसको कहेंगे दु:ख लेना। लेकिन कोई दे और आप नहीं लो, यह तो आपके ऊपर है ना। जिसके पास होगा ही दु:ख वो क्या देगा? दु:ख ही देगा ना। लेकिन अपना काम है सुख लेना और सुख देना। ऐसे नहीं कि कोई दु:ख दे रहा है तो कहेंगे मैं क्या करूँ? मैंने नहीं दिया लेकिन उसने दिया। अपने को चेक करना है-क्या लेना है, क्या नहीं लेना है। लेने में भी होशियारी चाहिये ना। इसलिये ब्राह्मण आत्माओं का गायन है-सुख के सागर के बच्चे, सुख स्वरूप सुखदेवा हैं। तो सुख स्वरूप सुखदेवा आत्मायें हो। दु:ख की दुनिया छोड़ दी, किनारा कर लिया या अभी तक एक पांव दु:खधाम में है, एक पांव संगम पर है? ऐसे तो नहीं कि थोड़ा-थोड़ा वहाँ बुद्धि रह गई है? पांव नहीं है लेकिन थोड़ी अंगुली रह गई है? जब दु:खधाम को छोड़ चले तो न दु:ख लेना है न दु:ख देना है।

अच्छा! ये वैराइटी ग्रुप है। डबल विदेशी भी हैं। कहाँ के भी हो लेकिन एक के हो। एक के हैं और एक हैं। सब एक क्या हैं? ब्राह्मण आत्मायें हैं। ये तो सेवा के लिये भिन्न-भिन्न स्थान पर बैठै हो लेकिन याद क्या रहता है? हम एक के हैं और सब एक ब्राह्मण आत्मायें हैं। इतनी खुशी रहती है? जब ब्राह्मण आपस में मिलते हैं तो कितनी खुशी होती है! और खुशी भी अविनाशी खुशी। क्योंकि अपना खज़ाना है ना। तो अपना खज़ाना साथ रखेंगे या अलग कर देंगे। तो सभी उड़ते चलो और उड़ाते चलो। समझा। अभी उड़ना है, चलना नहीं है।

वर्तमान वा भविष्य में कभी मूंझते तो नहीं हो। लेकिन स्व-स्थिति के आगे परिस्थिति कुछ भी नहीं। कितना भी बड़ा पहाड़ हो लेकिन आप ऊंचे हो तो पहाड़ छोटा-सा लगेगा। तो जब कोई बड़ी परिस्थिति लगे तो उड़ती कला में चले जाओ। फिर परिस्थिति खिलौना लगेगी। क्या भी हो, कैसे भी हो लेकिन उड़ती कला के आगे कुछ नहीं है।

ग्रुप नं.. 3

माया जीत बनने के लिए मास्टर सवर्शक्तिमान की पोजीशन स्मृति में रखो

अपने को कमल पुष्प समान न्यारे और प्यारे समझते हो? सदा न्यारे और बाप के प्यारे अनुभव करते हो? वा कभी-कभी करते हो? अगर किसी भी प्रकार की माया की परछाई भी पड़ गई तो कमल पुष्प कहेंगे? तो माया आती है या सभी मायाजीत हो? क्योंकि सदा अपने को मास्टर सर्वशक्तिमान श्रेष्ठ आत्मा समझते हो तो मास्टर सर्वशक्तिमान के आगे माया आ नहीं सकती। माया चींटी है या शेर है? तो चींटी पर विजय प्राप्त करना बड़ी बात है क्या? जब अपनी स्मृति की ऊंची स्टेज पर होते हो तो माया चींटी को जीतना सहज लगता है और जब कमज़ोर होते हो तो चींटी भी शेर माफिक लगती है। तो सदा अमृतवेले इस स्मृति को इमर्ज करो कि मैं मास्टर सर्वशक्तिमान हूँ। तो अमृतवेले की स्मृति सारा दिन सहयोग देती रहेगी। जैसे स्थूल पोजीशन वाले अपने पोजीशन को भूलते नहीं। आजकल का प्राइम मिनिस्टर अपने को भूल जायेगा क्या कि मैं प्राइम मिनिस्टर हूँ? आपका पोजीशन है-मास्टर सर्वशक्तिमान। तो भूल नहीं सकते। लेकिन भूल जाते हो इसलिए रोज अमृतवेले इस स्मृति को इमर्ज करने से निरन्तर याद हो जायेगी।

माताओं को नशा रहता है कि जो दुनिया ढूंढ रही है वो हमें प्राप्त है, दुनिया वालों ने ठुकराया लेकिन बाप ने हमें आगे किया।

(तीन भाषा वाले बैठे हैं) बस, ये वेराइटी भाषाओं का थोड़ा सा समय है, फिर तो एक भाषा हो जायेगी। कौन सी एक भाषा होगी? (हिन्दी होगी) तो आपको भी सीखनी पड़ेगी ना। अभी देखो स्थूल पढ़ाई भी हो रही है, रूहानी पढ़ाई भी हो रही है। हिन्दी भी सीख रहे हो ना।

अच्छा है, लगन, स्नेह अच्छा है। कितना स्नेह है? सागर भी इसके आगे कुछ नहीं है। जितना जो स्नेह में रहता है उतना ही बाप द्वारा पदमगुणा स्नेह प्राप्त हुआ अनुभव करता है। अच्छा। सभी उमंग-उत्साह में हो ना। क्या से क्या बन गये!

ग्रुप नं. 4

हिम्मत और उमंग-उत्साह के आधार पर उड़ती कला का अनुभव करो

सदा उड़ती कला के लिये विशेष क्या स्मृति आवश्यक है? कभी भी नीचे नहीं आयें सदा ऊपर रहें उसके लिये क्या आवश्यक है? उड़ने के लिये पंख चाहते हैं ना। तो उड़ती कला के दो पंख कौन से है? (ज्ञान और योग) ज्ञान और योग के साथ हिम्मत और उमंग-उत्साह। अगर हिम्मत है तो हिम्मत से जो चाहे, जैसे चाहे वैसे कर सकते हैं। इसलिये गाया हुआ भी है हिम्मते बच्चे मददे बाप। तो हिम्मत और उमंग-उत्साह रहता है? क्योंकि किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए उमंग उत्साह बहुत जरूरी है। अगर उमंग उत्साह नहीं होगा तो कार्य सफल नहीं हो सकता। क्यों? जहाँ उमंग-उत्साह नहीं होगा वहाँ थकावट बहुत ज्यादा होगी और थका हुआ कभी सफल नहीं होगा। तो हिम्मत और उमंग-उत्साह-इसी आधार पर सदा उड़ती कला का अनुभव कर सकते हो। वर्तमान समय के अनुसार उड़ती कला के सिवाए मंज़िल पर पहुँच नहीं सकते। क्योंकि पुरूषार्थ है एक जन्म का और प्राप्ति 21 जन्म के लिए ही नहीं सारे कल्प की है। द्वापर के बाद भी पूज्य तो बनते हो ना। एक जन्म की मेहनत और अनेक जन्मों की प्राप्ति। तो कितना तीव्र गति से पुरूषार्थ करते हो? ऐसे तीव्र पुरुषार्थी हो या पुरुषार्थी हो? जब समय की पहचान स्मृति में रहती है तो तीव्र पुरूषार्थ के बिना रह नहीं सकते। समय का महत्व सदा याद रखो। ऐसे कभी सोचा था कि एक जन्म में अनेक जन्म सुधर जायेंगे, सफल हो जायेंगे। सोचा नहीं था लेकिन अनुभव कर लिया।

अभी क्या विशेषता करेंगे? प्रदर्शनी और मेला करेंगे! मेला तो कॉमन हो गया। नया क्या करेंगे? जो किया, जितना किया वो अच्छा किया लेकिन अभी कोई पावरफुल माइक निकालो। क्योंकि अभी थोड़े समय में तैयारी ज्यादा करनी है तो माइक चाहिये ना जो आपकी तरफ से एक अनेकों को सन्देश दे। आप कब तक अपना परिचय देते रहेंगे? अभी दूसरे आपका परिचय दें। मातायें ऐसी मातायें निकालो। ऐसी बहुत मातायें हैं जिनका आवाज बुलन्द हो सकता है। माइक का अर्थ है जिसका आवाज बुलन्द हो। मेहनत कम और फल ज्यादा निकले। सदा इसी स्मृति में रहो कि हम बाप के राइट हैण्ड अर्थात् सदा हर कार्य में सहयोगी आत्मायें हैं। तो राईट हैण्ड तो कमाल करेगा ना। अच्छा, कुमारियां भी आई हुई हैं। कुमारियां कमाल का प्लैन बना रही हो या अपने को छोटी समझती हो? क्या कमाल करेंगी? सबसे बड़े से बड़े को ऐसे समझो जो वो छोटा हो जाये आप बड़ी हो जाओ। अच्छा है, कुमारियों की जीवन श्रेष्ठ हो गई। अपने को भाग्यवान समझती हो ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

विशेष पार्टधारी अर्थात् हर कदम, हर सेकेण्ड सदा अलर्ट, अलबेले नहीं

सदा अपने को चलते-फिरते, खाते-पीते बेहद वर्ल्ड ड्रामा की स्टेज पर विशेष पार्टधारी आत्मा अनुभव करते हो? जो विशेष पार्टधारी होता है उसको सदा हर समय अपने कर्म अर्थात् पार्ट के ऊपर अटेन्शन रहता है। क्योंकि सारे ड्रामा का आधार हीरो पार्टधारी होता है। तो इस सारे ड्रामा का आधार आप हो ना। तो विशेष आत्माओं को वा विशेष पार्टधारियों को सदा इतना ही अटेन्शन रहता है? विशेष पार्टधारी कभी भी अलबेले नहीं होते। अलर्ट होते हैं। तो कभी अलबेलापन तो नहीं आ जाता? कर तो रहे हैं, पहुँच ही जायेंगे, ऐसे तो नहीं सोचते? कर रहे हैं लेकिन किस गति से कर रहे हैं? चल रहे हैं लेकिन किस गति से चल रहे हैं? गति में तो अन्तर होता है ना। कहाँ पैदल चलने वाला और कहाँ प्लेन में चलने वाला! कहने में तो आयेगा कि पैदल वाला भी चल रहा है और प्लेन वाला भी चल रहा है लेकिन फर्क कितना है? तो सिर्फ चल रहे हैं, ब्रह्माकुमार बन गये माना चल रहे हैं लेकिन किस गति से? तीव्रगति वाला ही समय पर मंज़िल पर पहुँचेगा। नहीं तो पीछे रह जायेगा। यहाँ भी प्राप्ति तो होती है लेकिन सूर्यवंशी की होती है या चन्द्रवंशी की होती है अन्तर तो होता है ना। तो सूर्यवंशी में आने के लिए हर संकल्प, हर बोल से साधारणता समाप्त हो। अगर कोई हीरो एक्टर साधारण एक्ट करे तो सभी उस पर हंसेंगे ना। तो यह सदा स्मृति रहे कि मैं विशेष पार्टधारी हूँ इसलिये हर कर्म विशेष हो, हर कदम विशेष हो, हर सेकेण्ड, हर समय, हर संकल्प श्रेष्ठ हो। ऐसे नहीं कि ये तो 5 मिनट साधारण हुआ। पांच मिनट, पांच मिनट नहीं है। संगमयुग के पांच मिनट बहुत महत्व वाले हैं, पांच मिनट पांच साल से भी ज्यादा हैं इसलिए इतना अटेन्शन रहे। इसको कहते हैं तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र पुरूषार्थियों का स्लोगन कौन-सा है? ‘‘अब नहीं तो कब नहीं।’’ तो यह सदा याद रहता है? क्योंकि सदा का राज्य भाग्य प्राप्त करना चाहते हो तो अटेन्शन भी सदा। अब थोड़ा समय सदा का अटेन्शन बहुतकाल, सदा की प्राप्ति कराने वाला है। तो हर समय ये स्मृति रहे और चेकिंग हो कि चलते-चलते कभी साधारणता तो नहीं आ जाती? जैसे बाप को परम आत्मा कहा जाता है, तो परम है ना। तो जैसे बाप वैसे बच्चे भी हर बात में परम यानी श्रेष्ठ।

तो अभी स्वयं का पुरूषार्थ भी तीव्र और सेवा में भी कम समय, कम मेहनत और सफलता ज्यादा। एक अनेकों जितना काम करे। तो ऐसा प्लैन बनाओ। पंजाब है तो बहुत पुराना। सेवा के आदि से हो तो आदि स्थान वाले कोई आदि रत्न निकालो। वैसे भी पंजाब को शेर कहते हैं ना। तो शेर गजगोर करता है ना। तो गजगोर अर्थात् बुलन्द आवाज। अब देखेंगे - क्या करते हैं और कौन करते हैं?

सदा स्मृति रहे कि मैं विशेष पार्टधारी हूँ। हर कदम विशेष हो, हर सेकेण्ड, हर समय, हर संकल्प श्रेष्ठ हो, उसको कहते हैं तीव्र पुरुषार्थी। तीव्र

पुरूषार्थियों का स्लोगन है --’’अब नहीं तो कब नहीं।’’



02-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नम्बरवन बनने के लिए-गुण मूर्त बन गुणों का दान करने वाले
महादानी बनो

अटल-अखण्ड भव का वरदान देने वाले बापदादा अपने दानी-महादानी बच्चों प्रति बोले -

आज बेहद के मात-पिता चारों ओर के विशेष बच्चों को देख रहे थे। क्या विशेषता देखी? कौन से बच्चे अखुट ज्ञानी, अटल स्वराज्य अधिकारी, अखण्ड निर्विघ्न, अखण्ड योगी, अखण्ड महादानी हैं-ऐसे विशेष आत्मायें कोटों में कोई बने हुए हैं। ज्ञानी, योगी, महादानी सभी बने हैं लेकिन अखण्ड कोई-कोई बने हैं। जो अखुट, अटल और अखण्ड हैं वही विजय माला के विजयी मणके हैं। बापदादा ने संगमयुग पर सभी बच्चों को ‘अटल-अखण्ड भव’ का वरदान दिया है लेकिन वरदान को जीवन में सदा धारण करने में नम्बरवार बन गये हैं। नम्बरवन बनने के लिये सबसे सहज विधि है अखण्ड महादानी बनो। अखण्ड महादानी अर्थात् निरन्तर सहज सेवाधारी। क्योंकि सहज ही निरन्तर हो सकता है। तो अखण्ड सेवाधारी अर्थात् अखण्ड महादानी। दाता के बच्चे हो, सर्व खज़ानों से सम्पन्न श्रेष्ठ आत्मायें हो। सम्पन्न की निशानी है अखण्ड महादानी। एक सेकण्ड भी दान देने के बिना रह नहीं सकते। द्वापर से दानी आत्मायें अनेक भक्त भी बने हैं लेकिन कितने भी बड़े दानी हों, अखुट खज़ाने के दानी नहीं बने हैं। विनाशी खज़ाने वा वस्तु के दानी बनते हैं। आप श्रेष्ठ आत्मायें अब संगम पर अखुट और अखण्ड महादानी बनते हो। अपने आपसे पूछो कि अखण्ड महादानी हो? वा समय प्रमाण दानी हो? वा चांस प्रमाण दानी हो?

अखण्ड महादानी सदा तीन प्रकार से दान करने में बिजी रहते हैं-पहला मन्सा द्वारा शक्तियां देने का दान, दूसरा वाणी द्वारा ज्ञान का दान, तीसरा कर्म द्वारा गुणों का दान। इन तीनों प्रकार के दान देने वाले सहज महादानी बन सकते हैं। रिजल्ट में देखा वाणी द्वारा ज्ञान दान मैजारिटी करते रहते हो। मन्सा द्वारा शक्तियों का दान यथा शक्ति करते हो और कर्म द्वारा गुण दान ये बहुत कम करने वाले हैं और वर्तमान समय चाहे अज्ञानी आत्मायें हैं, चाहे ब्राह्मण आत्मायें हैं दोनों को आवश्यकता गुणदान की है। वर्तमान समय विशेष स्वयं में वा ब्राह्मण परिवार में इस विधि को तीव्र बनाओ।

ये दिव्य गुण सबसे श्रेष्ठ प्रभु प्रसाद है। इस प्रसाद को खूब बांटो। जैसे-जब कोई से भी मिलते हो तो एक-दो में भी स्नेह की निशानी स्थूल टोली खिलाते हो ना, ऐसे एक-दो में ये गुणों की टोली खिलाओ। इस विधि से जो संगमयुग का लक्ष्य है-’’फरिश्ता सो देवता’’ यह सहज सर्व में प्रत्यक्ष दिखाई देगा। यह प्रैक्टिस निरन्तर स्मृति में रखो कि मैं दाता का बच्चा अखण्ड महादानी आत्मा हूँ। कोई भी आत्मा चाहे अज्ञानी हो, चाहे ब्राह्मण हो लेकिन देना है। ब्राह्मण आत्माओं को ज्ञान तो पहले ही है लेकिन दो प्रकार से दाता बन सकते हो।

1- जिस आत्मा को, जिस शक्ति की आवश्यकता है उस आत्मा को मन्सा द्वारा अर्थात् शुद्ध वृत्ति, वायब्रेशन्स द्वारा शक्तियों का दान अर्थात् सहयोग दो।

2- कर्म द्वारा सदा स्वयं जीवन में गुण मूर्त बन, प्रत्यक्ष सेम्पल बन औरों को सहज गुण धारण करने का सहयोग दो। इसको कहा जाता है गुण दान। दान का अर्थ है सहयोग देना। आजकल ब्राह्मण आत्मायें भी सुनने के बजाय प्रत्यक्ष प्रमाण देखना चाहती हैं। किसी को भी शक्ति धारण करने की वा गुण धारण करने की शिक्षा देना चाहते हो तो कोई दिल में सोचते, कोई कहते कि ऐसे धारणा मूर्त कौन बने हैं? तो देखना चाहते हैं लेकिन सुनना नहीं चाहते। ऐसे एक-दो में कहते हो ना-कौन बना है, सबको देख लिया... ...। जब कोई बात आती है तो कहते हैं कोई नहीं बना है, सब चलता है। लेकिन यह अलबेलेपन के बोल हैं, यथार्थ नहीं हैं। यथार्थ क्या है? फॉलो ब्रह्मा बाप। जैसे ब्रह्मा बाप ने स्वयं, सदा अपने को निमित्त एग्जाम्पल बनाया, सदा यह लक्ष्य लक्षण में लाया-जो ओटे सो अर्जुन अर्थात् जो स्वयं को निमित्त प्रत्यक्ष प्रमाण बनाता है वही अर्जुन अर्थात् अव्वल नम्बर का बनता है। अगर फॉलो फादर करना है तो दूसरे को देख बनने में नम्बरवन नहीं बन सकेंगे। नम्बरवार बन जायेंगे।

नम्बरवन आत्मा की निशानी है-हर श्रेष्ठ कार्य में मुझे निमित्त बन औरों को सिम्पल करने के लिये सेम्पल बनना है। दूसरे को देखना, चाहे बड़ों को, चाहे छोटों को, चाहे समान वालों को लेकिन दूसरों को देख बनना कि पहले यह-यह बनें तो मैं बनूँ, तो नम्बरवन तो वह हो गया ना-जो बनेगा। तो स्वयं स्वत: ही नम्बरवार में आ जाते हैं। तो अखण्ड महादानी आत्मा सदा अपने को हर सेकण्ड तीनों ही महादान में से कोई न कोई दान करने में बिजी रखता है। जैसा समय वैसी सेवा में सदा लगा हुआ रहता है। उनको व्यर्थ देखने, सुनने वा करने की फुर्सत ही नहीं। तो महादानी बने हो? अभी अण्डरलाइन करो-अखण्ड बने हैं। अगर बीच-बीच में दातापन में खण्डन पड़ता है तो खण्डित को सम्पूर्ण नहीं कहा जाता। वर्तमान समय आपस में विशेष कर्म द्वारा गुणदाता बनने की आवश्यकता है। हर एक संकल्प करो कि मुझे सदा गुण मूर्त बन सबको गुण मूर्त बनाने का विशेष कर्तव्य करना ही है। तो स्वयं की और सर्व की कमज़ोरियां समाप्त करने की इस विधि में हर एक अपने को निमित्त अव्वल नम्बर समझ आगे बढ़ते चलो।ज्ञान तो बहुत है, अभी गुणों को इमर्ज करो, सर्वगुण सम्पन्न बनने और बनाने का एग्जाम्पल बनो। अच्छा!

सर्व अखण्ड योगी तू आत्मायें, सर्व सदा गुण मूर्त आत्माओं को, सर्व हर संकल्प हर सेकण्ड महादानी वा महासहयोगी विशेष आत्माओं को, सदा स्वयं को श्रेष्ठता में सेम्पल बन सर्व आत्माओं को सिम्पल सहज प्रेरणा देने वाले, सदा स्वयं को निमित्त नम्बरवन समझ प्रत्यक्ष प्रमाण देने वाले बाप समान आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादी जानकी से मुलाकात

(आस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि के चक्कर का समाचार सुनाया और सबकी याद दी)

सबकी याद पहुँच गई। चारों ओर के बच्चे सदा बाप के सामने हैं इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है जब भी याद करते तो समीप और साथ का अनुभव करते हैं। बाबा कहा दिल से और दिलाराम हाजर। इसीलिये ही कहते हैं हजूर हाजर है, हाजरा हजूर है। जहाँ भी हैं, जो भी हैं लेकिन हर स्थान पर हर के पास हाजर हो जाते हैं इसीलिये हाजरा हजूर हो गया। इस स्नेह की विधि को लोग नहीं जान सकते। यह ब्राह्मण आत्मायें ही जानती हैं। अनुभवी इस अनुभव को जानते हैं। आप विशेष आत्मायें तो हैं ही कम्बाइन्ड ना। अलग हो ही नहीं सकते। लोग कहते हैं जिधर देखते हैं उधर तू ही तू है और आप कहते हो जो करते हैं, जहाँ जाते हैं बाप साथ ही है अर्थात् तू ही तू है। जैसे कर्तव्य साथ है तो हर कर्तव्य कराने वाला भी सदा साथ है। इसलिये गाया हुआ है करनकरावनहार। तो कम्बाइन्ड हो गया ना-करनहार और करावनहार। तो आप सबकी स्थिति क्या है? कम्बाइन्ड है ना। करनकरावनहार करनहार के साथ है ही, करावनहार अलग नहीं है। इसको ही कम्बाइन्ड स्थिति कहा जाता है। सभी अपना-अपना अच्छा पार्ट बजा रहे हो। अनेक आत्माओं के आगे सेम्पल हो, सिम्पल करने के। ऐसे लगता है ना। मुश्किल को सहज बनाना-यही फॉलो फादर है। ऐसे है ना। अच्छा पार्ट बजाया ना। जहाँ भी हैं, विशेष पार्टधारी विशेष पार्ट बजाने के सिवाए रह नहीं सकते। यह ड्रामा की नूँध है। अच्छा। चक्कर लगाना बहुत अच्छा है। चक्कर लगाया फिर स्वीट होम में आ गये। सेवा का चक्कर अनेक आत्माओं के प्रति विशेष उमंग-उत्साह का चक्कर है। सब ठीक है ना? अच्छा ही अच्छा है। ड्रामा की भावी खींचती जरूर है। आप रहना चाहो लेकिन ड्रामा में नहीं है तो क्या करेंगे। सोचते भी जाना पड़ेगा। क्योंकि सेवा की भावी है तो सेवा की भावी अपना कार्य कराती है। आना और जाना यही तो विधि है। अच्छा। संगठन अच्छा है।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप. नं. 1

परमात्म प्यार का अनुभव करने के लिए दु:ख की लहर से न्यारे बनो

बापदादा ने संगम पर अनेक खज़ाने दिये हैं उन सभी खज़ानों में से श्रेष्ठ से बा श्रेष्ठ खज़ाना है - सदा खुशी का खज़ाना। तो यह खुशी का खज़ाना सदा साथ रहता है? कैसी भी परिस्थिति आ जाये लेकिन खुशी नहीं जा सकती।

जब परिस्थिति कोई दु:ख की लहर वाली आती है तो भी खुश रहते हो कि थोड़ी-थोड़ी लहर आ जाती है? क्योंकि संगम पर हो ना। तो एक तरफ है दु:खधाम, दूसरे तरफ है सुखधाम। तो दु:ख के लहर की कई बातें सामने आयेंगी लेकिन अपने अन्दर वो दु:ख की लहर दु:खी नहीं करे। जैसे गर्मी के मौसम में गर्मी तो होगी ना लेकिन स्वयं को बचाना वो अपने ऊपर है। तो दु:ख की बातें सुनने में आयेंगी लेकिन दिल में प्रभाव नहीं पड़े। इसलिये कहा जाता है न्यारा और प्रभु का प्यारा। तो दु:ख की लहर से न्यारा तब प्रभु का प्यारा बनेंगे। जितना न्यारा उतना प्यारा। अपने आपको देखो कि कितने न्यारे बने हैं? जितना न्यारा बनते जाते हो उतना ही सहज परमात्म प्यार का अनुभव करते हो। तो हर रोज चेक करो कि कितने न्यारे रहे, कितने प्यारे रहे। क्योंकि ये प्यार परमात्म प्यार है जो और कोई भी युग में प्राप्त हो नहीं सकता। जितना प्राप्त करना है उतना अभी करना है। अभी नहीं तो कभी भी नहीं हो सकता। और कितना थोड़ा सा समय यह परमात्म प्यार की प्राप्ति का है। तो थोड़े समय में बहुत अनुभव करना है। तो कर रहे हो? दुनिया वाले खुशी के लिये कितना समय, सम्पत्ति खर्च करते हैं और आपको सहज अविनाशी खुशी का खज़ाना मिल गया। कुछ खर्चा किया क्या? खुशी के आगे खर्च करने की वस्तु है ही क्या जो देंगे। तो यही खुशी के गीत गाते रहो कि जो पाना था वो पा लिया। पा लिया ना? तो जब कोई चीज़ मिल जाती है तो खुशी में नाचते रहते हैं। दूसरों को भी यह खुशी बांटते जाओ। जितनी बांटते जाते हो उतनी बढ़ती जाती है। क्योंकि बांटना माना बढ़ना। तो जो भी सम्बन्ध में आये वह अनुभव करे कि इनको कोई श्रेष्ठ प्राप्ति हुई है, जिसकी खुशी है। क्योंकि दुनिया में तो हर समय का दु:ख है और आपके पास हर समय की खुशी है। तो दु:खी को खुशी देना-यह सबसे बड़े से बड़ा पुण्य है। तो सभी निर्विघ्न बन आगे उड़ रहे हो या छोटे-छोटे विघ्न रोकते हैं? विघ्नों का काम है आना और आपका काम है विजय प्राप्त करना। जब विघ्न अपना कार्य अच्छी तरह से कर रहे हैं तो आप मास्टर सर्वशक्तिमान अपने विजय के कार्य में सदा सफल रहो। सदा यह याद रखो कि हम विघ्न-विनाशक आत्मायें हैं। विघ्न-विनाशक का जो यादगार है उसका प्रैक्टिकल में अनुभव कर रहे हो ना। अच्छा।

ग्रुप. नं. 2

अचल स्थिति बनाने के लिए मास्टर सर्वशक्तिमान का टाइटल स्मृति में रखो

स्वयं को सदा सर्व खज़ानों से भरपूर अर्थात् सम्पन्न आत्मा अनुभव करते हो? क्योंकि जो सम्पन्न होता है तो सम्पन्नता की निशानी है कि वो अचल होगा, हलचल में नहीं आयेगा। जितना खाली होता है उतनी हलचल होती है। तो किसी भी प्रकार की हलचल, चाहे संकल्प द्वारा, चाहे वाणी द्वारा, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क द्वारा, किसी भी प्रकार की हलचल अगर होती है तो सिद्ध है कि खज़ाने से सम्पन्न नहीं हैं। संकल्प में भी, स्वप्न में भी अचल। क्योंकि जितना-जितना मास्टर सर्वशक्तिमान स्वरूप की स्मृति इमर्ज होगी उतना ये हलचल मर्ज होती जायेगी। तो मास्टर सर्वशक्तिमान की स्मृति प्रत्यक्ष रूप में इमर्ज हो। जैसे शरीर का आक्यूपेशन इमर्ज रहता है, मर्ज नहीं होता, ऐसे यह ब्राह्मण जीवन का आक्यूपेशन इमर्ज रूप में रहे। तो यह चेक करो-इमर्ज रहता है या मर्ज रहता है? इमर्ज रहता है तो उसकी निशानी है-हर कर्म में वह नशा होगा और दूसरों को भी अनुभव होगा कि यह शक्तिशाली आत्मा है। तो कहा जाता है हलचल से परे अचल। अचलघर आपका यादगार है। तो अपना आक्यूपेशन सदा याद रखो कि हम मास्टर सर्वशक्तिमान हैं - क्योंकि आजकल सर्व आत्मायें अति कमज़ोर हैं तो कमज़ोर आत्माओं को शक्ति चाहिये। शक्ति कौन देगा? जो स्वयं मास्टर सर्वशक्तिमान होगा। किसी भी आत्मा से मिलेंगे तो वो क्या अपनी बातें सुनायेंगे? कमज़ोरी की बातें सुनाते हैं ना? जो करना चाहते हैं वो कर नहीं सकते तो इसका प्रमाण है कि कमज़ोर हैं और आप जो संकल्प करते हो वो कर्म में ला सकते हो। तो मास्टर सर्वशक्तिमान की निशानी है कि संकल्प और कर्म दोनों समान होगा। ऐसे नहीं कि संकल्प बहुत श्रेष्ठ हो और कर्म करने में वो श्रेष्ठ संकल्प नहीं कर सको, इसको मास्टर सर्वशक्तिमान नहीं कहेंगे। तो चेक करो कि जो श्रेष्ठ संकल्प होते हैं वो कर्म तक आते हैं या नहीं आ सकते? मास्टर सर्वशक्तिमान की निशानी है कि जो शक्ति जिस समय आवश्यक हो उस समय वो शक्ति कार्य में आये। तो ऐसे है या आह्वान करते हो, थोड़ा देरी से आती है? जब कोई बात पूरी हो जाती है, पीछे स्मृति में आये कि ऐसा नहीं, ऐसा करते, तो इसको कहा जाता है समय पर काम में नहीं आई। जैसे स्थूल कर्मेन्द्रियां ऑर्डर पर चल सकती हैं ना, हाथ को जब चाहो, जहाँ चाहो वहाँ चला सकते हो, ऐसे यह सूक्ष्म शक्तियां इतने कन्ट्रोल में हों - जिस समय जो शक्ति चाहो काम में लगा सको। तो ऐसी कन्ट्रोलिंग पावर है? ऐसे तो नहीं सोचते कि चाहते तो नहीं थे लेकिन हो गया। तो सदा अपनी कन्ट्रोलिंग पॉवर को चेक करते हुए शक्तिशाली बनते चलो। सब उड़ती कला वाले हो कि कोई चढ़ती कला वाला, कोई उड़ती कला वाला? वा कभी उड़ती, कभी चढ़ती, कभी चलती कला हो जाती है? बदली होता है वा एकरस आगे बढ़ते रहते हो? कोई विघ्न आता है तो कितने समय में विजयी बनते हो? टाइम लगता है? क्योंकि नॉलेजफुल हो ना। तो विघ्नों की भी नॉलेज है। नॉलेज की शक्ति से विघ्न वार नहीं करेंगे लेकिन हार खा लेंगे। इसी को ही मास्टर सर्वशक्तिमान कहा जाता है। तो अमृतवेले से इस आक्यूपेशन को इमर्ज करो और फिर सारा दिन चेक करो।

ग्रुप. नं. 3

हर घड़ी अन्तिम घड़ी समझते हुए एवररेडी बनो, अपने भाग्य का गीत सदा गाते रहो

भी अपने भाग्य को देख सदा हर्षित रहते हो? दिल में सदा ये गीत गाते हो कि वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य कि कभी-कभी गीत बजता है, कभी बन्द हो जाता है? सदा एकरस गीत बजता है या कभी स्लो हो जाता है, कभी तेज हो जाता है? सदा भाग्य के गीत गाते रहो। क्योंकि ये भाग्य किसने बनाया? भाग्य विधाता ने भाग्य बनाया। ऊंचे ते ऊंचे भगवान् ने भाग्य बनाया। तो जब स्वयं ऊंचे ते ऊंचा है तो भाग्य भी ऊंचा बनायेगा। तो यह नशा और खुशी रहे कि भगवान् ने श्रेष्ठ भाग्य बना दिया और कितने जन्मों का भाग्य बनाया? जन्म-जन्म के लिये भाग्य बनाया। सिर्फ 21 जन्म नहीं लेकिन सारे कल्प के अन्दर भाग्यवान रहे। 21 जन्म पूज्य बनते हो और फिर द्वापर से पुजारी आपकी पूजा करते हैं। तो वो चैतन्य पूज्य राज्य अधिकारी बनते हो और द्वापर से जड़ चित्र आपके पूजे जाते हैं। तो सारे कल्प का भाग्य है। अब अन्तिम जन्म में भी अपने यादगार देख रहे हो ना। एक तरफ चैतन्य में आप हो और दूसरे तरफ आपके ही जड़ चित्र हैं तो चित्र और चैतन्य दोनों सामने हैं। चित्र को देखकरके भी खुशी होती है ना तो ऐसे पूज्य बाप द्वारा बने हैं। सारे कल्प में कोई अपना चैतन्य रूप में जड़ चित्र देखे, यह नहीं होता। अगर देखते भी होंगे तो भिन्न जन्म होने के कारण जानते नहीं हैं। लेकिन आप जानते हो कि ये हमारे ही जड़ चित्र हैं। मातायें जानती हो? आप सबकी पूजा होती है? तो चित्र और चैतन्य यही विशेषता है। कल क्या थे, आज क्या हैं और कल क्या होंगे-तीनों ही काल सामने हैं।

मातायें सदा खुश रहती हो कि कभी-कभी रहती हो? ब्राह्मण जीवन अर्थात् सदा खुश जीवन। ब्राह्मण बने किसलिये? कभी-कभी खुश रहने के लिये? सदा खुश रहने के लिये। तो कभी-कभी खुश नहीं रहना, सदा खुश रहना। बाप ने अविनाशी खज़ाना दिया है, कभी-कभी का नहीं दिया है। कभी बाप ने कहा है क्या कि कभी-कभी खुश रहना, कभी दु:ख आये तो कोई हर्जा नहीं। सदा खुशी भव, सदा शान्त भव। कभी-कभी का वरदान नहीं होता है। तो क्या करना है - सदा रहना है ना या कभी-कभी भी ठीक है, चलेगा? ‘कभी-कभी’ शब्द समाप्त कर दो। कभी-कभी नहीं, अभी-अभी। हर घड़ी कहो अभी खुश हैं। आपका स्लोगन भी क्या है? अभी का स्लोगन है या कभी का है? अभी का है ना। तो जिस घड़ी कोई देखे, कोई मिले तो अभी-अभी खुशनसीब हैं ऐसे अनुभव करे। कभी-कभी खुश रहने वाले क्या कहलायेंगे? सूर्यवंशी या चन्द्रवंशी? तो सूर्यवंशी हो या चन्द्रवंशी हो? सूर्यवंशी हो पक्का या यहाँ कहते हो सूर्यवंशी, वहाँ चन्द्रवंशी बन जायेंगे? सदा सूर्यवंशी हो ना। भगवान् के बनकर फिर भी चन्द्रवंशी बने तो क्या किया? गायन है ना कि जब भगवान् ने भाग्य बांटा तो सोये हुए थे क्या? अगर आधा लेते हैं तो आधा समय सोये हुए थे तभी नहीं लिया। तो पूरा भाग्य लेने वाले हो, आधा नहीं। तो डबल विदेशी कौन हो? सूर्यवंशी। एक भी चन्द्रवंशी नहीं। पक्का सोच लिया है, ऐसे ही तो नहीं कह रहे हो? फलक से कहो कि हम नहीं बनेंगे तो कौन बनेंगे? और कोई है क्या? आप ही हो ना। तो यह नशा रखो कि हम ही थे, हम ही हैं और हम ही बनेंगे। तीनों काल के लिये निश्चय है।

तो सबसे तीव्र पुरुषार्थी कौन है? तीव्र पुरुषार्थी हो या कभी ढीला कभी तीव्र? सदा तीव्र। क्योंकि हर घड़ी अन्तिम घड़ी है अगर साधारण पुरुषार्थी हैं और अंतिम घड़ी आ जाये तो धोखा हो जायेगा ना। इसलिये हर घड़ी अन्तिम घड़ी समझते हुए एवररेडी रहो। एवररेडी अर्थात् तीव्र पुरुषार्थी। ऐसे नहीं सोचो कि अभी तो विनाश होने में कुछ तो टाइम लगेगा ही फिर तैयार हो जायेंगे। अन्तिम घड़ी को नहीं देखो। लेकिन अपनी अन्तिम घड़ी का कोई भरोसा नहीं है इसलिये एवररेडी। तो डबल विदेशी एवररेडी हैं? करना ही क्या है? कोई काम रह गया है क्या? (म्युज़ियम बनाना है) म्युज़ियम बनाना होगा तो कोई भी बना देगा। आप तो एवररेडी हो ना कि म्युज़ियम के बाद एवररेडी होंगे। अपनी स्थिति सदा उपराम। अब भी जो होगा वो अच्छा। ऐसे रेडी हो या सोचना पड़ेगा कि यह कर लें, यह कर लें। नहीं। सदा निर्मोही और निर्विकल्प, निर-व्यर्थ। व्यर्थ भी नहीं। इसको कहा जाता है एवररेडी। मातायें एवररेडी हैं या थोड़ा-थोड़ा मोह है? पोत्रे धौत्रे में मोह है? यह करना है, यह सम्भालना है? पाण्डवों का मोह है? जेब खर्च में मोह है? कमाना है, खाना है, खिलाना है- यह नहीं सोचते हो? न्यारे हो गये हो या थोड़ा-थोड़ा मोह है? नष्टोमोहा अर्थात् सर्व से न्यारे और बाप के प्यारे। तो सदा क्या याद रखेंगे? हम ऊंचे ते ऊंचे भाग्यवान हैं। सदा अपने भाग्य का सितारा चमकता हुआ दिखाई दे। अच्छा!

ग्रुप. नं. 4

राजऋषि अर्थात् स्वराज्य के साथ-साथ बेहद के वैरागी बनो

अपने को राजऋषि समझते हो? राज भी और ऋषि भी। स्वराज्य मिला तो राजा भी हो और साथ-साथ पुरानी दुनिया का ज्ञान मिला तो पुरानी दुनिया से बेहद के वैरागी भी हो इसलिये ऋषि भी हो। एक तरफ राज्य, दूसरे तरफ ऋषि अर्थात् बेहद के वैरागी। तो दोनों ही हो? बेहद का वैराग्य है या थोड़ा-थोड़ा लगाव है। अगर कहाँ भी, चाहे अपने में, चाहे व्यक्ति में, चाहे वस्तु में कहाँ भी लगाव है तो राजऋषि नहीं। न राजा है, न ऋषि है। क्योंकि स्वराज्य है तो मन-बुद्धि-संस्कार सब अपने वश में है। लगाव हो नहीं सकता। अगर कहाँ भी संकल्प मात्र थोड़ा भी लगाव है, तो राजऋषि नहीं कहेंगे। अगर लगाव है तो दो नाव में पांव हुआ ना। थोड़ा पुरानी दुनिया में, थोड़ा नई दुनिया में। इसलिए एक बाप, दूसरा न कोई। क्योंकि दो नाव में पांव रखने वाले क्या होते हैं? न यहाँ के, न वहाँ के। इसलिये राजऋषि राजा बनो और बेहद के वैरागी भी बनो। 63 जन्म अनुभव करके देख लिया ना? तो अनुभवी हो गये फिर लगाव कैसा? अनुभवी कभी धोखा नहीं खाते हैं। सुनने वाला, सुनाने वाला धोखा खा सकता है। लेकिन अनुभवी कभी धोखा नहीं खाता। तो दु:ख का अनुभव अच्छी तरह से कर लिया है ना फिर अब धोखा नहीं खाओ। यह पुरानी दुनिया का लगाव सोनी हिरण के समान है। यह शोक वाटिका में ले जाता है। तो क्या करना है? थोड़ा-थोड़ा लगाव रखना है? अच्छा नहीं लगता लेकिन छोड़ना मुश्किल है! खराब चीज़ को छोड़ना और अच्छी चीज़ को लेना मुश्किल होता है क्या? अगर कोई सोचता है कि छोड़ना है, तो मुश्किल लगता है। लेना है तो सहज लगता है। तो पहले लेते हो, पहले छोड़ते नहीं हो। लेने के आगे यह देना तो कुछ भी नहीं है। तो क्या-क्या मिला है वह लम्बी लिस्ट सामने रखो। सुनाया है ना कि गीत गाते रहो-पाना था वो पा लिया, काम क्या बाकी रहा? तो यह गीत गाना आता है? मुख का नहीं, मन का। मुख का गीत तो थोड़ा टाइम चलेगा। मन का गीत तो सदा चलेगा। अविनाशी गीत चलता ही रहता है। आटोमेटिक है।

अच्छा, ये वैराइटी ग्रुप है। वैराइटी फूलों का बगीचा अच्छा लगता है ना। कोई कहाँ के, कोई कहाँ के लेकिन हैं एक माली के। एक के हैं और एक हैं। ये तो सेवा के अर्थ भिन्न-भिन्न स्थानों पर गये हुए हैं। नहीं तो विश्व की सेवा कैसे होगी। अच्छा!

ग्रुप. नं. 5

सदा एकरस स्थिति के आसन पर स्थित रहने वाले ही तपस्वी हैं

भी अपने को तपस्वी आत्मायें अनुभव करते हो? तपस्वी अर्थात् सदा  अपनी तपस्या में रहने वाले। तो तपस्या क्या है? एक बाप दूसरा न कोई। ऐसे तपस्वी हो या दूसरा-तीसरा भी कोई है? तपस्वी सदा आसनधारी होते हैं, कोई न कोई आसन पर तपस्या करते हैं। तो आपका आसन कौनसा है? स्थिति आपका आसन है। जैसे एकरस स्थिति यह आसन हो गया। फरिश्ता स्थिति यह आसन हो गया। तो आसन पर स्थित होते हैं ना, बैठते हैं अर्थात् स्थित हो जाते हैं। तो इन श्रेष्ठ स्थितियों में स्थित हो जाते हो, टिक जाते हो इसी को आसन कहा जाता है। स्थूल आसन पर स्थूल शरीर बैठता है लेकिन यह श्रेष्ठ स्थितियों के आसन पर मन-बुद्धि को बिठाना है। मन-बुद्धि द्वारा इन स्थितियों में स्थित हो जाते हो अर्थात् बैठ जाते हो - ऐसे तपस्वी हो? तो अच्छा आसन मिला है ना। यहाँ है आसन फिर भविष्य में मिलेगा सिंहासन। तो जितना जो आसन पर स्थित रहता वो उतना ही सिंहासन पर भी स्थित रह सकता है। जितना समय चाहो, जब चाहो, तब आसन रूपी स्थिति में स्थित होते हो ना। होते हो या हलचल होती है? क्या होता है? जैसे देखो शरीर आसन पर नहीं टिक सकता तो हलचल करेगा ना। ऐसे मन हलचल तो नहीं करता? अचल है या हलचल भी है कि दोनों है? सदा अचल अडोल। जरा भी हलचल नहीं हो। अगर कभी हलचल और कभी अचल है तो सिंहासन भी कभी मिलेगा, कभी नहीं मिलेगा। तो सदा का राज्य भाग्य लेना है या कभी-कभी का और स्थित सदा होना है या कभी-कभी? कितना भी कोई हिलावे लेकिन आप अचल रहो। परिस्थिति श्रेष्ठ है या स्वस्थिति श्रेष्ट है? कभी परिस्थिति वार कर लेती है? तो सोचो कि ये परिस्थिति पावरफुल या स्वस्थिति पावरफुल? तो इस स्थिति से कमज़ोर से शक्तिशाली बन जायेंगे। आप तपस्वी आत्माओं की स्थिति का यादगार आजकल के तपस्वियों ने कॉपी की है लेकिन उल्टी की है। आप तपस्वी एकरस स्थिति में एकाग्र होते हो और आजकल के क्या करते हैं? एक टांग पर खड़े हो जाते हैं। तो कहाँ एकरस स्थिति और कहाँ एक टांग पर स्थित रहना, फर्क हो गया ना। आपका कितना सहज है! और उन्हों का कितना मुश्किल है! तो सहजयोगी हो ना। एक को याद करना सहज है वा अनेकों को याद करना सहज है? तो द्वापर से क्या किया? अनेकों को याद किया और अभी क्या करते हो? एक को याद करते हो ना। एक को याद करना सहज है या मुश्किल है ? माया आती है? आयेगी तो अन्त तक लेकिन माया का काम है आना और आपका काम है विजय प्राप्त करना। माया आये तभी तो मायाजीत बनेंगे ना। तो माया का आना बुरी बात नहीं है लेकिन हार खाना कमज़ोरी है। तो मायाजीत हो ना?

सदा ये याद रखो कि अनेक बार के विजयी हैं और सदा विजयी रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप. नं. 6

सदा इसी स्वमान में रहो कि मैं विश्व कल्याणकारी आत्मा हूँ, कल्याण करना मेरा कर्तव्य है

इस समय अर्थात् संगमयुग को कल्याणकारी युग कहा जाता है। यह कल्याणकारी युग है और कल्याणकारी आप आत्मायें हो। तो सदा ये अपना स्वमान याद रहता है कि मैं कल्याणकारी आत्मा हूँ? संगमयुग पर विशेष कर्तव्य ही है कल्याण करना। पहले स्व का कल्याण और साथ-साथ सर्व का कल्याण। तो ऐसे कल्याण करने की शक्ति अपने में अनुभव करते हो? किसी के वायुमण्डल का प्रभाव तो नहीं पड़ता है? दुनिया का वायुमण्डल है अकल्याण का और आपका वायुमण्डल है कल्याण करने का। तो अकल्याण का वायुमण्डल शक्तिशाली या कल्याण का वायुमण्डल शक्तिशाली? तो आपके ऊपर औरों का वायुमण्डल प्रभाव नहीं कर सकता। वो कमज़ोर है और आप शक्तिशाली हो। तो शक्तिशाली कमज़ोर के ऊपर जीत प्राप्त करता है, कमज़ोर शक्तिशाली के ऊपर जीत नहीं प्राप्त करता। कैसा भी तमोगुणी वायुमण्डल हो लेकिन आप सर्वशक्तिमान बाप के साथी हो। जहाँ भगवान् है वहाँ विजय है। तो वायुमण्डल को बदलने वाले हो। चैलेन्ज की है ना कि हम विश्व परिवर्तक हैं। तो कल्याणकारी युग है, कल्याणकारी आप आत्मायें हो और कल्याणकारी बाप है। तो कितनी शक्ति हो गई। समय की भी शक्ति, स्वयं की भी शक्ति और बाप की भी शक्ति। तो यह याद रखो-दुनिया के लिये अकल्याण का समय है, आपके लिये कल्याण का समय है। दुनिया वालों को सिर्फ विनाश दिखाई देता है और आपको विनाश के साथ स्थापना सामने है। तो सदा दिल में यह श्रेष्ठ संकल्प इमर्ज करो कि स्थापना हुई कि हुई। अपना भविष्य स्पष्ट है ना। जैसे वर्तमान स्पष्ट है ऐसे ही भविष्य भी स्पष्ट है। शक्तियों को तो नशा होना चाहिये कि संगमयुग विशेष शक्तियों का युग है। संगम पर ही बाप शक्तियों को आगे करते हैं। पाण्डवों को भी खुशी होती है ना कि शक्तियां आगे हैं तो हम आगे हैं ही। सदा मन में यही शुभ भावना रहती है कि सर्व का कल्याण हो। मनुष्यात्मायें तो क्या प्रकृति का भी कल्याण करने वाले। इसलिये प्रकृतिजीत, मायाजीत कहलाते हो। क्योंकि पुरूष हो ना, आत्मा पुरूष है तो आत्मा पुरूष प्रकृतिजीत बनती है। प्रकृति भी सुखदायी बन जाती है। इस समय देखो प्रकृति कितना दु:ख देती है। थोड़ा सा भी तूफान आया, थोड़ा सा धरनी हलचल में आई कितनों को दु:ख मिलता है। तो आपके लिये सुखदायी प्रकृति है और लोगों के लिये दु:खदायी। कोई भी दु:ख की घटना देखते हो, सुनते हो तो दु:ख की लहर आती है? कभी पोत्रा, धोत्रा दु:खी होता हो तो दु:ख की लहर आती है? दु:खधाम से न्यारे हो गये। संगम पर हो या कलियुग में हो? तो दु:खधाम से किनारा कर लिया या कि थोड़ा-थोड़ा दु:खधाम से लगाव है? बिल्कुल न्यारे हो गये? या हो रहे हो? तो सदा समय और स्वयं को याद रखो। स्वयं भी कल्याणकारी और समय भी कल्याणकारी। तो इस स्मृति से सदा ही मायाजीत और प्रकृतिजीत रहेंगे। जरा भी हलचल नहीं हो। तो अचल भी हो, अडोल भी हो, अटल भी हो। कोई इस निश्चय से टाल नहीं सकता। अच्छा। सभी उड़ती कला वाले हो ना? उड़ते चलो और उड़ाते चलो।


 


09-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


एकाग्रता की शक्ति से दृढ़ता द्वारा सहज सफलता की प्राप्ति

सहज सफलता की विधि बताने वाले विश्व परिवर्तक बापदादा अपने जिम्मेवार बच्चों प्रति बोले -

आज ब्राह्मण संसार के रचता अपने चारों ओर के ब्राह्मण परिवार को देख हर्षित हो रहे हैं। ये छोटा-सा न्यारा और अति प्यारा अलौकिक ब्राह्मण संसार है। सारे ड्रामा में अति श्रेष्ठ संसार है। क्योंकि ब्राह्मण संसार की हर गति-विधि न्यारी और विशेष है। इस ब्राह्मण संसार में ब्राह्मण आत्मायें भी विश्व में से विशेष आत्मायें हैं। इसलिये ही ये विशेष आत्माओं का संसार है। हर ब्राह्मण आत्मा की श्रेष्ठ वृत्ति, श्रेष्ठ दृष्टि और श्रेष्ठ कृति विश्व की सर्व आत्माओं के लिये श्रेष्ठ बनाने के निमित्त है। हर आत्मा के ऊपर ये विशेष जिम्मेवारी है तो हर एक अपने इस जिम्मेवारी को अनुभव करते हो? कितनी बड़ी जिम्मेवारी है! सारे विश्व का परिवर्तन! न सिर्फ आत्माओं का परिवर्तन करते हो लेकिन प्रकृति का भी परिवर्तन करते हो। ये स्मृति सदा रहे-इसमें नम्बरवार हैं। सभी ब्राह्मण आत्माओं के अन्दर संकल्प सदा रहता है कि हम विशेष आत्मा नम्बरवन बनें लेकिन संकल्प और कर्म में अन्तर पड़ जाता है। इसका कारण? कर्म के समय सदा अपनी स्मृति को अनुभवी स्थिति में नहीं लाते। सुनना, जानना, ये दोनों याद रहता है लेकिन स्वयं को उस स्थिति में मानकर चलना, इसमें मैजारिटी कभी अनुभवी और कभी सिर्फ मानने और जानने वाले बन जाते हैं। इस अनुभव को बढ़ाने के लिये दो बातों के विशेष महत्व को जानो-एक स्वयं के महत्व को, दूसरा समय के महत्व को। स्वयं के प्रति बहुत जानते हो। अगर किसी से भी पूछेंगे कि आप कौन-सी आत्मा हो? वा अपने से भी पूछेंगे कि मैं कौन? तो कितनी बातें स्मृति में आयेंगी? एक मिनिट के अन्दर अपने कितने स्वमान याद आ जाते हैं? एक मिनिट में कितने याद आते हैं? बहुत याद आते हैं ना। कितनी लम्बी लिस्ट है-स्वयं के महत्व की! तो जानने में तो बहुत होशियार हो। सभी होशियार हो ना? फिर अनुभव करने में अन्तर क्यों पड़ जाता है? क्योंकि समय पर उस स्थिति के सीट पर सेट नहीं होते हो। अगर सीट पर सेट है तो कोई भी, चाहे कमज़ोर संस्कार, चाहे कोई आत्मायें, चाहे प्रकृति, चाहे किसी भी प्रकार की रॉयल माया अपसेट नहीं कर सकती। जैसे शरीर के रूप में भी बहुत आत्माओं को एक सीट पर वा स्थान पर एकाग्र होकर बैठने का अभ्यास नहीं होता तो वह क्या करेगा? हिलता रहेगा ना। ऐसे मन और बुद्धि को किसी भी अनुभव के सीट पर सेट होना नहीं आता तो अभी-अभी सेट होगा, अभी-अभी अपसेट। शरीर को बिठाने के लिये स्थूल स्थान होता है और मन-बुद्धि को बिठाने के लिये श्रेष्ठ स्थितियों का स्थान है। तो बापदादा बच्चों का यह खेल देखते रहते हैं-अभी-अभी अच्छी स्थिति के अनुभव में स्थित होते हैं और अभी-अभी अपने स्थिति से हलचल में आ जाते हैं। जैसे छोटे बच्चे चंचल होते हैं तो एक स्थान पर ज्यादा समय टिक नहीं सकते। तो कई बच्चे यह बचपन के खेल बहुत करते हैं। अभी-अभी देखेंगे बहुत एकाग्र और अभी-अभी एकाग्रता के बजाय भिन्न-भिन्न स्थितियों में भटकते रहेंगे। तो इस समय विशेष अटेन्शन चाहिये-मन और बुद्धि सदा एकाग्र रहे।

एकाग्रता की शक्ति सहज निर्विघ्न बना देती है। मेहनत करने की आवश्यकता ही नहीं है। एकाग्रता की शक्ति स्वत: ‘एक बाप दूसरा न कोई ये अनुभूति सदा कराती है। एकाग्रता की शक्ति सहज एकरस स्थिति बनाती है। एकाग्रता की शक्ति सदा सर्व प्रति एक ही कल्याण की वृत्ति सहज बनाती है। एकाग्रता की शक्ति सर्व प्रति भाई-भाई की दृष्टि स्वत: बना देती है। एकाग्रता की शक्ति हर आत्मा के सम्बन्ध में स्नेह, सम्मान, स्वमान के कर्म सहज अनुभव कराती है। तो अभी क्या करना है? क्या अटेन्शन देना है? ‘एकाग्रता’। स्थित होते हो, अनुभव भी करते हो लेकिन एकाग्र अनुभवी नहीं होते। कभी श्रेष्ठ अनुभव में, कभी मध्यम, कभी साधारण, तीनों में चक्कर लगाते रहते हो। इतना समर्थ बनो जो मन-बुद्धि सदा आपके ऑर्डर अनुसार चले। स्वप्न में भी सेकण्ड मात्र भी हलचल में नहीं आये। मन, मालिक को परवश नहीं बनाये।

परवश आत्मा की निशानी है - उस आत्मा को उतना समय सुख, चैन, आनन्द की अनुभूति चाहते हुए भी नहीं होगी। ब्राह्मण आत्मा कभी किसी के परवश नहीं हो सकती, अपने कमज़ोर स्वभाव और संस्कार के वश भी नहीं। वास्तव में ‘स्वभाव’ शब्द का अर्थ है ‘स्व का भाव’। स्व का भाव तो अच्छा होता है, खराब नहीं होता। ‘स्व’ कहने से क्या याद आता है? आत्मिक स्वरूप याद आता है ना। तो स्व-भाव अर्थात् स्व प्रति व सर्व प्रति आत्मिक भाव हो। जब भी कमज़ोरी वश सोचते हो कि मेरा स्वभाव वा मेरा संस्कार ही ऐसा है, क्या करूँ, है ही ऐसा........ यह कौन-सी आत्मा बोलती है? यह शब्द वा संकल्प परवश आत्मा के हैं। तो जब भी यह संकल्प आये कि स्वभाव ऐसा है, तो श्रेष्ठ अर्थ में टिक जाओ। संस्कार सामने आये कि मेरा संस्कार...., तो सोचो क्या मुझ विशेष आत्मा के यह संस्कार हैं, जिसको मेरा संस्कार कह रहे हो? मेरा कहते हो तो कमज़ोर संस्कार भी मेरापन के कारण छोड़ते नहीं हैं। क्योंकि यह नियम है जहाँ मेरापन होता है वहाँ अपनापन होता है और जहाँ अपनापन होता है वहाँ अधिकार हाेता है। तो कमज़ोर संस्कार को मेरा बना लिया तो वो अपना अधिकार छोड़ते नहीं हैं। इसलिये परवश होकर बाप के आगे अर्जा डालते रहते हो कि छुड़ाओ-छुड़ाओ। ‘संस्कार’ शब्द कहते याद करो कि अनादि संस्कार, आदि संस्कार ही मेरा संस्कार है। ये माया के संस्कार हैं, मेरे नहीं। तो एकाग्रता की शक्ति से परवश स्थिति को परिवर्तन कर मालिकपन की स्थिति की सीट पर सेट हो जाओ।

योग में भी बैठते हैं, बैठते तो सभी रूचि से हैं लेकिन जितना समय, जिस स्थिति में स्थिति होना चाहते हैं, उतना समय एकाग्र स्थिति रहे, उसकी आवश्यकता है। तो क्या करना है? किस बात को अण्डरलाइन करेंगे? (एकाग्रता) एकाग्रता में ही दृढ़ता होती है और जहाँ दृढ़ता है वहाँ सफलता गले का हार है। अच्छा!

चारों ओर के अलौकिक ब्राह्मण संसार की विशेष आत्माओं को, सदा श्रेष्ठ स्थिति के अनुभव की सीट पर सेट रहने वाली आत्माओं को, सदा स्वयं के महत्व को अनुभव करने वाले, सदा एकाग्रता की शक्ति से मन-बुद्धि को एकाग्र करने वाले, सदा एकाग्रता के शक्ति से ही दृढ़ता द्वारा सहज सफलता प्राप्त करने वाले सर्वश्रेष्ठ, सर्व विशेष, सर्व स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप. नं. 1

उड़ती कला में जाने के लिए डबल लाइट बनो, कोई भी आकर्षण आकर्षित न करे

सभी अपने को वर्तमान समय के प्रमाण तीव्र गति से उड़ने वाले अनुभव करते हो? समय की गति तीव्र है वा आत्माओं के पुरूषार्थ की गति तीव्र है? समय आपके पीछे-पीछे है या आप समय के प्रमाण चल रहे हो? समय के इन्तजार में तो नहीं हो ना कि अन्त में सब ठीक हो जायेगा। सम्पूर्ण हो जायेंगे, बाप समान हो जायेंगे? ऐसे तो नहीं है ना! क्योंकि ड्रामा के हिसाब से वर्तमान समय बहुत तीव्र गति से जा रहा है, अति में जा रहा है। जो कल था उससे आज और अति में जा रहा है। यह तो जानते हो ना? जैसे समय अति में जा रहा है, ऐसे आप श्रेष्ठ आत्मायें भी पुरूषार्थ में अति तीव्र अर्थात् फास्ट गति से जा रहे हो? कि कभी ढीले, कभी तेज? ऐसे नहीं कि नीचे आकर फिर ऊपर जाओ। नीचे-ऊपर होने वाले की गति कभी एकरस फास्ट नहीं हो सकती। तो सदा सर्व बातों में श्रेष्ठ वा तीव्र गति से उड़ने वाले हो। वैसे गायन है ‘चढ़ती कला सर्व का भला’ लेकिन अभी क्या कहेंगे? ‘उड़ती कला, सर्व का भला’। अभी चढ़ती कला का समय भी समाप्त हुआ, अभी उड़ती कला का समय है। तो उड़ती कला के समय कोई चढ़ती कला से पहुँचना चाहे तो पहुँच सकेगा? नहीं। तो सदा उड़ती कला हो। उड़ती कला की निशानी है सदा डबल लाइट। डबल लाइट नहीं तो उड़ती कला हो नहीं सकती। थोड़ा भी बोझ नीचे ले आता है। जैसे प्लेन में जाते हैं, उड़ते हैं तो अगर मशीनरी में या पेट्रोल में जरा भी कचरा आ गया तो क्या हालत होती है? उड़ती कला से गिरती कला में आ जाता है। तो यहाँ भी अगर किसी भी प्रकार का बोझ है, चाहे अपने संस्कारों का, चाहे वायुमण्डल का, चाहे किसी आत्मा के सम्बन्ध-सम्पर्क का, कोई भी बोझ है तो उड़ती कला से हलचल में आ जाता है। कहेंगे वैसे तो मैं ठीक हूँ लेकिन ये कारण है ना इसीलिये ये संस्कार का, व्यक्ति का, वायुमण्डल का बंधन है। लेकिन कारण कैसा भी हो, क्या भी हो, तीव्र पुरुषार्थी सभी बातों को ऐसे क्रॉस करते हैं जैसे कुछ है ही नहीं। मेहनत नहीं, मनोरंजन अनुभव करेंगे। तो ऐसी स्थिति को कहा जाता है उड़ती कला। तो उड़ती कला है या कभी-कभी नीचे आने का, चक्कर लगाने का दिल हो जाता है। कहीं भी लगाव नहीं हो। जरा भी कोई आकर्षण आकर्षित नहीं करे। रॉकेट भी तब उड़ सकता है, जब धरती की आकर्षण से परे हो जाये। नहीं तो ऊपर उड़ नहीं सकता। न चाहते भी नीचे आ जायेगा। तो कोई भी आकर्षण ऊपर नहीं ले जा सकती। सम्पूर्ण बनने नहीं देगी। तो चेक करो संकल्प में भी कोई आकर्षण आकर्षित नहीं करे। सिवाए बाप के और कोई आकर्षण नहीं हो। पाण्डव क्या समझते हैं? ऐसे तीव्र पुरुषार्थी बनो। बनना तो है ही ना। कितने बार ऐसे बने हो? अनेक बार बने हो। आप ही बने हो या दूसरे बने हैं? आप ही बने हो। तो नम्बरवार में तो नहीं आना है ना, नम्बरवन में आना है। मातायें क्या करेंगी? नम्बरवन या नम्बरवार भी चलेगा? 108 नम्बर भी चलेगा? 108 नम्बर बनेंगे कि पहला नम्बर बनेंगे? अगर बाप के बने हैं, अधिकारी बने हैं तो पूरा वर्सा लेना है या थोड़ा कम? फिर तो नम्बरवन बनेंगे ना। दाता फुल दे रहा है और लेने वाला कम ले तो क्या कहेंगे? इसलिये नम्बरवन बनना है। नम्बरवन चाहे एक ही हो लेकिन नम्बरवन डिविजन तो बहुत हैं ना। तो सेकण्ड में नहीं आना है। लेना है तो पूरा लेना है। अधूरा लेने वाले तो पीछे-पीछे बहुत आयेंगे। लेकिन आपको पूरा लेना है। सभी पूरा लेने वाले हो या थोड़े में राजी होने वाले हो? जब खुला भण्डार है और अखुट है तो कम क्यों लें? बेहद है ना, हद हो कि 8 हजार इसको मिलना है, 10 हजार इसको मिलना है तो कहेंगे भाग्य में इतना ही है, लेकिन बाप का खुला भण्डार है, अखुट है, जितना लेना चाहे ले सकते हैं फिर भी अखुट है। अखुट खज़ाने के मालिक हो। बालक सो मालिक हो। तो सभी सदा खुश रहने वाले हो ना कि थोड़ा-थोड़ा कभी दु:ख की लहर ती है? दु:ख की लहर स्वप्न में भी नहीं आ सकती। संकल्प तो छोड़ो लेकिन स्वप्न में भी नहीं आ सकती। इसको कहा जाता है नम्बरवन। तो क्या कमाल करके दिखायेंगे? सभी नम्बरवन आकर दिखायेंगे ना?

वैसे भी दिल्ली को दिल कहते हैं। तो जैसा दिल होगा वैसा शरीर चलेगा। आधार तो दिल होता है ना। दिल है दिलाराम की दिल। तो दिल की गद्दी यथार्थ चाहिये ना, नीचे-ऊपर नहीं चाहिये। तो नशा है ना कि हम दिलाराम का दिल हैं। तो अभी अपने श्रेष्ठ संकल्पों से स्वयं को और विश्व को परिवर्तन करो। संकल्प किया और कर्म हुआ। ऐसे नहीं, सोचा तो बहुत था, सोचते तो बहुत हैं, लेकिन होता बहुत कम है, वे तीव्र पुरुषार्थी नहीं हैं। तीव्र पुरुषार्थी अर्थात् संकल्प और कर्म समान हो तब ही बाप समान कहेंगे। खुश हैं और सदा खुश रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। खुश रहने वाले ही खुशनसीब हैं। यह पक्का है या थोड़ा-थोड़ा कच्चा हो जाता है? कच्ची चीज़ अच्छी लगती है? पक्के को पसन्द किया जाता है। तो पूरा ही पक्का रहना है।

रोज अमृतवेले यह पाठ पक्का करो कि कुछ भी हो जाये खुश रहना है, खुश करना है। अच्छा और कोई खेल नहीं दिखाना। यही खेल दिखाना, और-और खेल नहीं करना। अच्छा!

ग्रुप. नं. 2

अपकारी पर भी उपकार करना - यही ज्ञानी तू आत्मा का कर्तव्य है

विश्व कल्याण के कार्य अर्थ निमित्त आत्मा हूँ, ऐसे निमित्त समझ हर कार्य मैं करते हो? जो विश्व कल्याण के निमित्त आत्मा हैं वो स्वयं-स्वयं के प्रति अकल्याणकारी संकल्प भी नहीं कर सकते। क्योंकि विश्व की जिम्मेवार आप निमित्त आत्माओं की वृत्ति से वायुमण्डल परिवर्तन होना है। तो जैसा संकल्प होगा वैसी वृत्ति जरूर होती है। कभी भी किसी के प्रति वा अपने प्रति कोई भी व्यर्थ संकल्प है तो वृत्ति में क्या होगा? वही भाव वृत्ति में होगा और वही कर्म स्वत: ही होगा। तो एक सेकेण्ड भी वृत्ति व्यर्थ नहीं बना सकते। एक सेकेण्ड भी व्यर्थ संकल्प नहीं कर सकते क्योंकि आपके पीछे विश्व की जिम्मेवारी है। ऐसे समझते हो? कि ये बाप की जिम्मेवारी है आपकी नहीं? ऐसा समझते हो या सोचते हो कि हम तो छोटे हैं तो छोटी जिम्मेवारी है। नहीं, बड़ी जिम्मेवारी उठाई है। तो विश्व कल्याणकारी। जैसे बाप, वैसे बच्चे। कैसी भी परिस्थिति हो, कोई भी व्यक्ति हो लेकिन स्व की भावना, स्व की वृत्ति कौन सी है? विश्व कल्याणकारी। इतना याद रहता है या अलबेले भी हो जाते हो? तो अलबेले नहीं होना। विश्व कल्याणकारी विश्व के राज्य अधिकारी बन सकते हो। अगर विश्व कल्याण की भावना नहीं तो विश्व राज्य का भी अधिकार नहीं। सम्बन्ध है ना। तो सदा सर्व प्रति शुभ भावना, शुभ कामना हो। हो सकती है? आपकी कोई ग्लानि करे तो भी शुभ कामना रख सकते हो? कोई गाली दे तो भी शुभ भावना रखेंगे? कि थोड़ा-सा मन में आयेगा? थोड़ा-सा तो आयेगा ना कि ये क्या करता है, ये क्या करती है? कोई आपका कल्याण करे और कोई आपका अकल्याण करे तो दोनों समान लगेगा? थोड़ा तो फर्क होगा ना? कोई रोज आपकी ग्लानि करे, एक साल तक करे और एक साल तक भी नहीं बदले तो आप कल्याण करेंगे? वो अकल्याण करे, आप कल्याण करेंगे? ऐसे करते हैं या थोड़ा-सा मुंह ऐसे (किनारा) हो जाता है? चलो, घृणा भाव नहीं हो लेकिन मन से किनारा करेंगे कि यह ठीक नहीं है या उसको ठीक करेंगे? क्या करेंगे? ठीक करेंगे? करेंगे - यह कहना तो सहज है लेकिन करते हो? अपकारी पर भी उपकार। यही ज्ञानी तू आत्मा का कर्तव्य है। बाप ने आपका अकल्याण देखा? कितने जन्म बाप को गाली दी? 63 जन्म दी। फिर बाप ने ग्लानि को भी कल्याणकारी दृष्टि से देखा। तो फॉलो फादर है ना। उपकारी पर उपकार तो दुनिया वाले भी करते हैं, भक्त आत्मा भी करते हैं। लेकिन ज्ञानी तू आत्मा उनसे श्रेष्ठ है। तो आप कौन हो? ज्ञानी तू आत्मा हो या ज्ञानी तू आत्मा बन रहे हो? सभी हैं कि आधा भक्त, आधाज्ञानी? पूरे ज्ञानी तू आत्मा हो या थोड़ा-थोड़ा भक्त भी हो? नहीं, ज्ञानी तू आत्मा। तो ज्ञानी तू आत्मा का अर्थ ही है सर्व के प्रति कल्याण की भावना। अकल्याण संकल्प मात्र भी नहीं हो। विश्व कल्याणकारी हैं तो मालिक हो गये ना। मालिक के आगे सभी जैसे बच्चे हुए ना। तो बाप बच्चों के ऊपर कल्याण की, रहम की भावना रखेगा। कैसा भी बच्चा होगा लेकिन बाप का फर्ज क्या है? रहम और कल्याण की भावना। इसीलिये बाप की महिमा में रहमदिल विशेष गाया हुआ है। चाहे देश में, चाहे विदेश में बाप के आगे जायेंगे तो रहम दिल, मर्सीफुल कहेंगे। किसी भी चर्च में जायेंगे, कहीं भी जायेंगे तो मर्सीफुल कहते हैं ना। तो आप सभी भी रहमदिल हो ना। तो जो रहमदिल होगा वही कल्याण कर सकता है। और बाप को सबमें सागर कहते हैं। क्षमा का सागर, रहम का सागर..। सागर का अर्थ क्या है? अथाह, बेहद। तो इतना अथाह यानी बेहद का रहम है? सभी रहमदिल हो या घृणादिल भी है? नहीं। नॉलेजफुल आत्मा अर्थात् ज्ञानी तू आत्मा सदैव हर एक के प्रति मास्टर स्नेह का सागर है। बिना स्नेह के उसके पास और कुछ है नहीं। कोई भी आयेगा तो उसे स्नेह ही तो देंगे ना। और आपके पास क्या है! सच्चा स्नेह है और आजकल सम्पत्ति से भी ज्यादा स्नेह की आवश्यकता है। तो स्नेह का खज़ाना जमा होगा तभी तो दूसरे को देंगे ना। अगर अपने जितना ही होगा तो दूसरे को क्या देंगे! इसीलिये सबमें मास्टर हो। स्नेह में भी मास्टर स्नेह के सागर। तो इतना स्नेह जमा है या कम है? दाता के बच्चे हो ना। तो दाता के बच्चे क्या करते हैं? देते हैं। ले करके देना वो देना नहीं हुआ। लिया और दिया तो वो बिजनेस हो गया। बिजनेस में पहले लेते हैं फिर देते हैं। तो आप दाता के बच्चे हो ना। लेकरके देना, तो देने का महत्व नहीं है। उसको दाता नहीं कहेंगे। कोई दे तो हम देवें, यह नहीं। दाता के बच्चे देते जाओ। कोई भी खाली नहीं जाये। अथाह खज़ाना है ना। जिसको जो चाहिये देते जाओ। किसी को शान्ति चाहिये, किसी को खुशी चाहिये, किसी को स्नेह चाहिये, देते जाओ। ऐसे है कि हिसाब रखते हो, इसने कितना दिया, मैंने कितना दिया? हिसाब तो नहीं रखते ना? खुला खाता है, हिसाब किताब का खाता नहीं है। दाता के बच्चे हो या थोड़ी-थोड़ी कंजूसी करते हो? अच्छा, कंजूस नहीं तो हिसाब-किताब रखने वाले हो? इसने ये किया तब ही मैंने यह किया, यह भी हिसाब का खाता हुआ ना। दाता के दरबार में इस समय सब खुला है। इस समय हिसाब-किताब नहीं है, जितना चाहिये लो, जितना चाहिये दो। धर्मराजपुरी में हिसाब किताब है, अभी नहीं। तो याद रखना कि दाता के बच्चे हैं, देना है। वहाँ जाकर हिसाब का चौपड़ा शुरू नहीं कर देना।

अच्छा, ये वैराइटी ग्रुप है। जहाँ से भी आये हो लेकिन एक बाप के हैं, एक परिवार है। डबल विदेशी क्या समझते हैं? एक परिवार है ना? या डबल विदेशी अलग हैं और देश वाले अलग हैं? नहीं। सभी एक हैं। चाहे डबल विदेशी हैं, चाहे देश वाले हैं लेकिन सभी कहेंगे हम ब्रह्मा कुमार और ब्रह्माकुमारी हैं। विदेश में और कोई नाम तो नहीं कहते ना। एक ही हैं ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी। तो एक ही परिवार हो गया ना। और एक ही परिवार में कितनी खुशी है। इतना बड़ा परिवार सारे कल्प में नहीं मिलता है। सतयुग में इतना बड़ा परिवार होगा? तीन लाख, चार लाख का होगा। वहाँ होंगे ही दो बच्चे और माँ बाप और यहाँ देखो कितना बड़ा परिवार है। बेहद का परिवार देख खुशी होती है ना। देखो विदेश से भी भाग-भागकर क्यों आते हैं? बाप से और परिवार से मिलने।

तो सब खुश हो? कोई नाराज़ तो नहीं? नाराज़ क्यों होते हैं? राज़ नहीं जानते हैं तो नाराज़ होते हैं। कोई नाराज़ हो तो समझो कोई राज़ को नहीं समझा। राज़ को जानने वाले नाराज़ नहीं होते। अच्छा!

ग्रुप. नं. 3

अपनी श्रेष्ठ स्थिति बनाने के लिए अमृतवेले तीन बिन्दियों का तिलक लगाओ

दा अमृतवेले स्वयं को तीन बिन्दियों का तिलक देते हो? तिलक का अर्थ क्या है? स्मृति का तिलक। तो तिलक का बहुत महत्व होता है। तिलक राज्य की भी निशानी है। जब राज्य देते हैं तो राज तिलक कहा जाता है और भक्ति में भी तिलक की निशानी जरूर रखेंगे और सुहाग और भाग्य की निशानी भी तिलक है। तो तिलक का महत्व है। क्योंकि तिलक स्मृति की निशानी है। तो ज्ञान मार्ग में भी स्मृति का ही महत्व है ना। जैसी स्मृति वैसी स्थिति होती है। अगर स्मृति श्रेष्ठ है तो स्थिति भी श्रेष्ठ होगी। अगर स्मृति व्यर्थ है तो स्थिति भी समर्थ की बजाय व्यर्थ हो जाती है। तो बाप ने तीन बिन्दियों का तिलक अर्थात् तीन स्मृतियों का तिलक दिया है। क्योंकि तीनों ही स्मृति आवश्यक हैं और तीनों ही बिन्दी सहज हैं। छोटे बच्चे को भी कहो कि बिन्दी लगाओ तो लगा देगा ना। तो मैं आत्मा हूँ, यह स्व की स्मृति फिर बाप की स्मृति और फिर श्रेष्ठ कर्म के लिये ड्रामा की स्मृति। ड्रामा चलता रहता है, बीत जाता है। जो अभी प्रेजन्ट है वो सेकण्ड में पास्ट हो जाता है। तो बीत जाता है इसीलिये बीती सो बीती, फुलस्टॉप (.)। तो बिन्दी हो गई ना। तो यह तीनों स्मृति सदा हैं तो स्थिति भी श्रेष्ठ है। सिर्फ आत्मा की स्मृति नहीं। आत्मा के साथ बाप की स्मृति है ही है और बाप के साथ ड्रामा की स्मृति भी अति आवश्यक है। अगर ड्रामा का ज्ञान नहीं है तो भी कर्म में नीचे-ऊपर होंगे। जो भी भिन्न-भिन्न परिस्थितियां आती हैं, उसमें ड्रामा का ज्ञान अति आवश्यक है। अनुभवी हो ना। क्या स्मृति रहती है? होना ही है, नथिंग न्यु। पहले से ही जानते हैं कि यह होना है तो विचलित नहीं होंगे। जब नॉलेज है कि होना ही है तो खेल समझकर देखेंगे। तूफान नहीं लेकिन खेल है। नाटक में भी तूफान, बाढ़ सब देखते हैं ना, लेकिन विचलित होते हैं क्या? क्योंकि समझते हैं कि यह ड्रामा है। तो अचल हो या थोड़ा-थोड़ा हिलते हो? क्यों, क्या होता है? क्या होगा, कैसे होगा .. यह आता है? जब ड्रामा का ज्ञान है तो अचल-अडोल हैं। ड्रामा का ज्ञान नहीं तो हलचल है। तो सभी सदा अचल हो? अभी नहीं लेकिन सदा। ‘सदा’ शब्द नहीं भूलना। सदा माना अविनाशी। सदाकाल वाले या कभी-कभी वाले? माताओं को कभी थोड़ा-थोड़ा मोह नहीं आता? थोड़ा-थोड़ा मेरापन नहीं आता? जहाँ मेरापन होगा वहाँ हलचल होगी। हद का मेरा नहीं। बेहद का मेरा, वह है मेरा बाबा। हद का मेरा-मेरा बहुत है। तो हद का मेरापन नहीं है? पाण्डव क्या समझते हैं? मेरी रचना, मेरी दुकान, मेरा पैसा, मेरा घर, कुछ नहीं आता? सब तेरा कर दिया कि थोड़ा किनारे रखा है? अगर थोड़ा भी किनारे रखा तो जो मंज़िल का किनारा है वह नहीं मिलेगा। तो मेरा-मेरा समाप्त। सदा स्मृति के तिलकधारी आत्मायें। तो जहाँ स्मृति है वहाँ समर्थी है। स्मृति नहीं तो समर्थी भी नहीं। तो सभी सन्तुष्ट हो या कोई असन्तुष्टता है? अनेक जन्म असन्तुष्ट रहे, अब भी असन्तुष्ट रहे तो क्या कहेंगे? इसलिये सदा सन्तुष्ट। अच्छा!

ग्रुप. नं. 4

खुशियों के सागर के बच्चे हो इसलिए दु:खधाम को सदा के लिए विदाई दे दो

दा ये नशा रहता है कि हम भाग्य विधाता के बच्चे हैं? भाग्य विधाता बाप स बन गया और क्या चाहिये? सब चाहनायें पूरी हो गई कि और रही हुई हैं? नशा सदा बढ़ता जाता है या कभी कम होता है, कभी बढ़ता है? जब माया आती है तब फिर क्या करते हैं? फिर कम होता है? माया तो अन्त तक आनी ही है। क्योंकि माया नहीं आये तो मायाजीत कैसे कहलायेंगे? तो माया का आना, ये तो होना ही है लेकिन आपका काम है मायाजीत बनना। मायाजीत हो या कभी हार, कभी जीत? अभी बहुतकाल से मायाजीत बनने का समय है। कभी हार, कभी जीत नहीं, सदा माया जीत।

अभी तक हिन्दी नहीं समझते हो! क्योंकि सतयुग में जाना है, वहाँ आपकी यह भाषा नहीं होगी। आप सबकी आदि भाषा हिन्दी है ना। तो बोलना नहीं भी आवे तो समझना तो आवे ना। तो कौन हिन्दी समझता है हाथ उठाओ। समझने के लिये पुरूषार्थ करो। क्योंकि बाप जिस भाषा में बोलते हैं वह भाषा तो समझनी चाहिये ना। वैसे भी देखो अगर इंगलिश बोलने वाले माँ-बाप होंगे तो बच्चे भी क्या सीखेंगे? तो बाप की भाषा तो समझनी चाहिये। अच्छा!

सदा खुश रहने वाले तो हो ही। खुश रहने वाली आत्मायें बाप को भी प्यारी हैं। क्योंकि बाप सदा खुश रहने वाले हैं, खुशी के सागर हैं तो बच्चे भी खुश रहते हैं तो बाप को भी खुशी होती है। तो दु:ख को सदा के लिये विदाई दे दी ना। या कभी-कभी निमन्त्रण दे देते हो? दु:ख की दुनिया से निकल चुके। दु:खधाम में रहते हो क्या? कहाँ रहते हो? संगमयुग पर, दु:खधाम में नहीं। दुनिया वाले दु:खधाम में हैं लेकिन आप संगमयुग, खुशियों का युग, मौजों का युग, उसमें हो। ऐसे है? कभी गलती से दु:खधाम में तो नहीं चले जाते? कभी थोड़ी-थोड़ी दिल होती है? तो नशा रहता है कि हम संगमयुगी श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मायें हैं? इसलिये ब्राह्मणों को सदा ही ऊंची चोटी दिखाते हैं। तो जैसे ऊंचे से ऊंचे गाये हुए हो वैसे सदा ऊंची स्थिति भी हो। साधारण स्थिति नहीं, सदा ऊंची स्थिति। कभी साधारण स्थिति में तो नहीं आ जाते? बाप मिला सब कुछ मिला-यही स्मृति सदा ऊंचा बना देती है। ये याद रहता है ना। ये आटोमेटिक गीत बजता ही रहता है। तो कितना सहज और सर्व प्राप्ति कर ली। मेहनत करनी पड़ी? थोड़ी-थोड़ी मेहनत लगती है? टाइटल ही है सहजयोगी। कोई अपने को कहता है मैं मुश्किल योगी हूँ। दुनिया वाले कहते हैं कि कष्ट के बिना परमात्मा नहीं मिल सकता और आप क्या कहते हो? घर बैठे बाप मिल गया। बाप के घर में तो पीछे आते हो, पहले तो घर बैठे बाप मिला। इतना सहज सोचा नहीं था लेकिन मिल गया। तो सदा यही याद रखना कि हम भाग्य विधाता के बच्चे हैं। सदा अपना भाग्य याद आने से खुश रहेंगे और खुशियां बांटेंगे।

ग्रुप. नं. 5

चिंताओं से फ्री सदा निश्चिंत वा बेफ़्रिक बादशाह रहने के लिए निश्चयबुद्धि बनो

दा अपने को कल्प-कल्प की अधिकारी आत्मा अनुभव करते हो? अनेक बार यह अधिकार प्राप्त किया है और आगे के लिये भी निश्चित है कि कल्प-कल्प करते ही रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। क्योंकि निश्चय है इस ब्राह्मण जीवन का फाउन्डेशन। अगर निश्चय का फाउन्डेशन पक्का है तो कभी भी हिलेंगे नहीं। चाहे कितने भी तूफान आ जाये, चाहे कितने भी भूकम्प हो जायें लेकिन हिलेंगे नहीं। क्योंकि फाउन्डेशन पक्का है। अभी भी देखो, प्रकृति का भूकम्प आता है तो कौन सी बिल्डिंग गिरती है? जो कच्ची होती है। पक्के फाउन्डेशन वाली नहीं गिरेगी। तो आपका फाउन्डेशन कितना पक्का है? हिलने वाला है क्या? हिलेगी नहीं लेकिन थोड़ी दरार आ जायेगी? थोड़ी भी नहीं। क्योंकि कोई तो गिर जाते हैं कोई गिरते नहीं लेकिन थोड़ी दरार आ जाती है। तो आप उनसे भी पक्के हो। तो निश्चय की निशानी है-हर कार्य में मंसा में भी, वाणी में भी, कर्म में भी, सम्बन्ध-सम्पर्क में भी हर बात में सहज विजय हो। मेहनत करके विजयी बने, वह विजय नहीं है। सहज विजयी। तो निशानी दिखाई देती है या विजय प्राप्त करने में मेहनत लगती है? कभी सहज, कभी मेहनत? लेकिन निश्चय की निशानी है सहज विजय। अगर मेहनत लगती है तो समझो कुछ मिक्स है। संशय नहीं भी हो लेकिन कुछ व्यर्थ मिक्स है इसलिये सहज विजय नहीं होती। नहीं तो विजय निश्चयबुद्धि आत्माओं के लिये तो सदा एवररेडी है। उसका स्थान ही वह है। जहाँ निश्चय है, वहाँ विजय होगी। निश्चय वालों के पास ही जायेगी ना। तो निश्चय सब बातों में चाहिये। सिर्फ बाप में निश्चय नहीं। लेकिन अपने आपमें भी निश्चय, ब्राह्मण परिवार में भी निश्चय, ड्रामा के हर दृश्य में भी निश्चय। तभी कहेंगे कि सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि। अगर बाप में निश्चय है लेकिन अपने में नहीं है, चलते-चलते अपने से दिलशिकस्त होते हैं तो निश्चय नहीं है तब तो होते हैं। तो वह भी अधूरा निश्चय हुआ। बाप में भी है, अपने आपमें भी है लेकिन परिवार में नहीं है। परिवार के कारण डगमग होते हैं। तो भी अधूरा निश्चय कहेंगे। ड्रामा में भी फुल निश्चय हो। जो हुआ सो अच्छा हुआ। इसको कहते हैं ड्रामा में निश्चय। ऐसे सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि हैं? कभी तो फुल है, कभी आधा है। जब अनेक बार का नशा है तो अनेक बार विजयी बने हो, अब रिपीट कर रहे हो। कोई नई बात नहीं कर रहे हो, रिपीट कर रहे हो। तो रिपीट करना तो सहज होता है ना। तो निश्चयबुद्धि विजयी-सदा यह स्मृति में रहे। निश्चय भी है और विजय भी है। ये नशा हो कि हमारी विजय नहीं होगी तो किसकी होगी। विजय है और सदा होगी। तो अटल निश्चय हो। टलने वाला नहीं हो, थोड़ी सी बात हुई और निश्चय अटल नहीं रहे, ऐसा निश्चय नहीं हो। अटल निश्चय तो अटल विजय होगी। विजय की भावी टल नहीं सकती। अटल है। तो ऐसे निश्चयबुद्धि सदा हर्षित रहेंगे, निश्चिंत रहेंगे। क्योंकि चिन्ता खुशी को खत्म करती है। और निश्चिन्त हैं तो खुशी सदा रहेगी। तो निश्चयबुद्धि की दूसरी निशानी है निश्चिन्त। नहीं तो थोड़ी बात भी होगी तो चिन्ता होगी कि ये क्या हुआ, ये ऐसा हुआ। इस क्यों क्या से भी निश्चिन्त। क्या, क्यों, कैसे-ये चिन्ता की लहर है। अभी बड़ी चिन्ता नहीं होगी, इस रूप में होगी। होना नहीं चहिये था, हो गया, ऐसा, वैसा, क्यों, क्या, कैसा, ये शब्द बदल जाते हैं। तो ऐसा है कि कभी-कभी क्वेश्चन मार्क होता है? कई कहते हैं ना कि मेरे पास ही ये क्यों होता है? मेरे से ही क्यों होता है? मेरे पीछे ये बंधन क्यों है, मेरे पीछे माया क्यों आती है, मेरा ही हिसाब किताब कड़ा है क्यों? तो ‘क्यों’ आना माना चिन्ता की लहर है। तो इस चिन्ताओं से भी परे-इसको कहा जाता है निश्चिन्त। तो कौन हो? निश्चिन्त हो या थोड़ी-थोड़ी क्यों, क्या है? निश्चिन्त आत्मा का सदा सलोगन है अच्छा हुआ, अच्छा है और अच्छा ही होना है। बुराई में भी अच्छाई अनुभव करेंगे। बुराई से भी अपना पाठ पढ़ लेंगे। बुराई को बुराई के रूप में नहीं देखेंगे। इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि, निश्चिन्त। ‘चिन्ता’ शब्द से भी अविद्या हो। जैसे गायन है ना इच्छा मात्रम अविद्या। ऐसे चिन्ता की भी अविद्या हो। चिन्ता क्या होती है-यह अनुभव नहीं हो। तो ऐसी अवस्था इसको कहा जाता है निश्चिन्त। कोई भी बात आये तो ‘क्या होगा’ नहीं आयेगा, फौरन ही यह आयेगा ‘अच्छा होगा’, बीत गया अच्छा हुआ। जहाँ अच्छा है वहाँ सदा बेफ़िक्र बादशाह हैं। तो निश्चयबुद्धि का अर्थ है बेफ़िक्र बादशाह। तो ऐसे होते हैं। तो भी अधूरा निश्चय कहेंगे। ड्रामा में भी फुल निश्चय हो। जो हुआ सो अच्छा हुआ। इसको कहते हैं ड्रामा में निश्चय। ऐसे सम्पूर्ण निश्चयबुद्धि हैं? कभी तो फुल है, कभी आधा है। जब अनेक बार का नशा है तो अनेक बार विजयी बने हो, अब रिपीट कर रहे हो। कोई नई बात नहीं कर रहे हो, रिपीट कर रहे हो। तो रिपीट करना तो सहज होता है ना। तो निश्चयबुद्धि विजयी - सदा यह स्मृति में रहे। निश्चय भी है और विजय भी है। ये नशा हो कि हमारी विजय नहीं होगी तो किसकी होगी। विजय है और सदा होगी। तो अटल निश्चय हो। टलने वाला नहीं हो, थोड़ी सी बात हुई और निश्चय अटल नहीं रहे, ऐसा निश्चय नहीं हो। अटल निश्चय तो अटल विजय होगी। विजय की भावी टल नहीं सकती। अटल है। तो ऐसे निश्चयबुद्धि सदा हर्षित रहेंगे, निश्चिंत रहेंगे। क्योंकि चिन्ता खुशी को खत्म करती है। और निश्चिन्त हैं तो खुशी सदा रहेगी। तो निश्चयबुद्धि की दूसरी निशानी है निश्चिन्त। नहीं तो थोड़ी बात भी होगी तो चिन्ता होगी कि ये क्या हुआ, ये ऐसा हुआ। इस क्यों क्या से भी निश्चिन्त। क्या, क्यों, कैसे-ये चिन्ता की लहर है। अभी बड़ी चिन्ता नहीं होगी, इस रूप में होगी। होना नहीं चहिये था, हो गया, ऐसा, वैसा, क्यों, क्या, कैसा, ये शब्द बदल जाते हैं। तो ऐसा है कि कभी-कभी क्वेश्चन मार्क होता है? कई कहते हैं ना कि मेरे पास ही ये क्यों होता है? मेरे से ही क्यों होता है? मेरे पीछे ये बंधन क्यों है, मेरे पीछे माया क्यों आती है, मेरा ही हिसाब किताब कड़ा है क्यों? तो ‘क्यों’ आना माना चिन्ता की लहर है। तो इस चिन्ताओं से भी परे-इसको कहा जाता है निश्चिन्त। तो कौन हो? निश्चिन्त हो या थोड़ी-थोड़ी क्यों, क्या है? निश्चिन्त आत्मा का सदा सलोगन है अच्छा हुआ, अच्छा है और अच्छा ही होना है। बुराई में भी अच्छाई अनुभव करेंगे। बुराई से भी अपना पाठ पढ़ लेंगे। बुराई को बुराई के रूप में नहीं देखेंगे। इसको कहा जाता है निश्चयबुद्धि, निश्चिन्त। ‘चिन्ता’ शब्द से भी अविद्या हो। जैसे गायन है ना इच्छा मात्रम अविद्या। ऐसे चिन्ता की भी अविद्या हो। चिन्ता क्या होती है - यह अनुभव नहीं हो। तो ऐसी अवस्था इसको कहा जाता है निश्चिन्त। कोई भी बात आये तो ‘क्या होगा’ नहीं आयेगा, फौरन ही यह आयेगा ‘अच्छा होगा’, बीत गया अच्छा हुआ। जहाँ अच्छा है वहाँ सदा बेफ़िक्र बादशाह हैं। तो निश्चयबुद्धि का अर्थ है बेफ़िक्र बादशाह। तो ऐसे है या थोड़ा-थोड़ा फ़िक्र कभी आ जाता है? तो बेफ़िक्र बादशाह ही बाप समान है। बाप को फ़िक्र है का? इतना बड़ा परिवार होते भी फ़िक्र है का? सब कुछ जानते हुए, देखते हुए बेफ़िक्र । ऐसे बेफ़िक्र हो? मातायें बेफ़िक्र हो या प्रवृत्ति में जाकर थोड़ा फ़िक्र हो जाता है? वायुमण्डल में जाकर थोड़ा प्रभाव पड़ जाता है? वायुमण्डल का प्रभाव नहीं पड़ता? अपना प्रभाव वायुमण्डल पर डालो, वायुमण्डल का प्रभाव आपके ऊपर नहीं पड़े। क्योंकि वायुमण्डल रचना है, आप मास्टर रचता हो। वायुमण्डल बनाने वाला कौन? मनुष्यात्मा । तो रचता हो गया ना। तो रचता के ऊपर रचना का प्रभाव नहीं हो, लेकिन रचता का रचना के ऊपर प्रभाव हो। तो कोई भी बात आये तो यह याद करो कि मैं विजयी आत्मा हूँ।

अच्छा, ये महाराष्ट्र और गुलबर्गा है। (अर्थ क्वेक आता रहता है) इसलिये सुनाया कि निश्चयबुद्धि रहो, होना ही है। आगे चलकर अति होना है या कम होना है? तो अति का आह्वान कर रहे हो या घबराते हो? घबराने की कोई बात नहीं। अगर शरीर जायेगा तो भी गैरेन्टी है और रहेगा तो सेवा करनी है। दोनों में अच्छा है। तीन पैर पृथ्वी तो मिलनी है। बेफ़िक्र हो ना। नालेज है ना इसलिये बेफ़्रिक हैं। सारी सभा बेफ़िक्र बादशाहों की बैठी है ना।

जाने वाले कहाँ भी होंगे तो जायेंगे, चाहे भूकम्प में जायें, चाहे किस स्थिति में भी जायें, अच्छे-अच्छे चलते चलते भी चले जायेंगे। जाने वाले को कोई रोक नहीं सकता। जाने वाले चले गये लेकिन बेफ़िक्र आपको देकर क्यों जाये? फ़िक्र भी साथ में लेकर चले जाये ना। ज्ञान की शक्ति है ना। अच्छा। होने वाला होना ही है। आप सभी तो बेफ़िक्र बादशाह हो।



16-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सच्चे स्नेही बन एक बाप द्वारा सर्व सम्बन्धों का
साकार में अनुभव करो

साकार स्वरूप में सर्व सम्बन्धों का अनुभव कराने वाले बापदादा अपने स्नेही बच्चों प्रति बोले-

आज विश्व स्नेही बापदादा अपने अति स्नेही और सदा बाप के साथी वा सहयोगी आत्माओं को देख रहे हैं। चारों ओर की सर्व ब्राह्मण आत्मायें स्नेही अवश्य हैं। स्नेह ने ब्राह्मण जीवन में परिवर्तन किया है। फिर भी स्नेही तीन प्रकार के हैं-एक हैं स्नेह करने वाले, दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले और तीसरे हैं स्नेह में समाये हुए। समाना अर्थात् समान बनना। स्नेह करने वाले कभी स्नेह करते हैं लेकिन करते-करते कभी स्नेह टूट जाता है, कभी जुट जाता है। इसलिये समय प्रति समय स्नेह जोड़ने में पुरूषार्थ करना पड़ता है। क्योंकि बाप के साथ-साथ और कहाँ भी स्नेह, चाहे व्यक्ति से, चाहे प्रकृति के साधनों से, कहाँ भी संकल्प मात्र भी स्नेह जुटा हुआ है तो बाप से स्नेह करने वालों की लिस्ट में आ जाते हैं। स्नेह की निशानी है बिना कोई मेहनत के स्नेही के तरफ स्नेह स्वत: ही जाता है। स्नेह करने वाली आत्मा का हर समय, हर स्थिति, हर परिस्थिति में आधार अनुभव होता है। अगर साधनों से स्नेह है तो उस समय बाप से भी ज्यादा साधन का आधार अर्थात् सहारा अनुभव होता है। उस समय उस आत्मा के संकल्प में बाप का स्नेह याद भी आता है, सोचते भी हैं कि बाप का स्नेह श्रेष्ठ है लेकिन यह साधन वा व्यक्ति का आधार भी आवश्यक है। इसलिये दोनों तरफ स्नेह अधूरा हो जाता है और बार-बार स्नेह जोड़ना पड़ता है। एक बल, एक भरोसा के बजाय दूसरा भी भरोसा साथ-साथ आवश्यक लगता है। इसलिये बाप के स्नेह द्वारा जो सर्व प्राप्ति का अनुभव हो उसके बजाय दूसरे सहारे द्वारा अल्पकाल की प्राप्ति अपने तरफ आकर्षित कर लेती है। इतना आकर्षित करती है जो उसी को ही आवश्यक समझने लगते हैं। लगाव नहीं समझते, लेकिन सहारा समझते हैं। इसको कहा जाता है स्नेह करने वाले।

दूसरे हैं स्नेह निभाने वाले। स्नेह करने के साथ-साथ निभाने की भी शक्ति है। निभाना अर्थात् स्नेह का रेसपॉन्स देना, रिटर्न देना। स्नेह का रिटर्न है जो स्नेही बाप बच्चों से श्रेष्ठ आशायें रखते हैं वो सर्व आशायें प्रैक्टिकल में पूर्ण करना। तो निभाने वाले बहुत करके प्रैक्टिकल में करके दिखाते हैं, लेकिन सदा बाप समान अर्थात् समाये हुए वो अनुभूति कभी होती है, कभी नहीं होती। फिर भी निभाने वाले समीप हैं, लेकिन समान नहीं है। निभाने वालों को निभाने के रिटर्न में पदमगुणा हिम्मत और उमंग-उत्साह की मदद विशेष बाप द्वारा मिलती रहती है। तीसरे, जो स्नेह में समाये हुए हैं उन आत्माओं के नयनों में, मुख में, संकल्प में, हर कर्म में सहज और स्वत: स्नेही बाप का साथ सदा ही अनुभव होता है। बाप उससे जुदा नहीं और वो बाप से जुदा नहीं। हर समय बाप के स्नेह के रिटर्न में प्राप्त हुई सर्व प्राप्तियों में सम्पन्न और सन्तुष्ट रहते हैं। इसलिये और किसी भी प्रकार का सहारा उन्हों को आकर्षित नहीं कर सकता। क्योंकि कोई न कोई अल्पकाल की प्राप्ति की आवश्यकता किसी और को सहारा बनाती है अर्थात् सम्पूर्ण स्नेह में अन्तर डालती है। स्नेह में समाई हुई आत्मायें सदा सर्व प्राप्ति सम्पन्न होने के कारण सहज ही ‘एक बाप दूसरा न कोई’ इस अनुभूति में रहती हैं। तो स्नेही सभी हैं लेकिन तीन प्रकार के हैं। अब अपने से पूछो मैं कौन? अपने को तो जान सकते हैं ना। स्नेही हैं तभी स्नेह के कारण ब्राह्मण जीवन में चल रहे हो। लेकिन स्नेह के साथ निभाने की शक्ति, इसमें नम्बरवार बन जाते हैं। स्नेह के साथ शक्ति भी आवश्यक है। जिसमें स्नेह और शक्ति दोनों का बैलेन्स है, वही बाप समान बनता है। ऐसे समाई हुई आत्माओं का अनुभव यही होगा-बाप के स्नेह से दूर होना, यह मुश्किल है। समाना सहज है, दूर होना मुश्किल है। क्योंकि समाई हुई आत्माओं के लिये एक बाप ही संसार है।

संसार में आकर्षित करने वाली दो ही बातें हैं-एक व्यक्ति का सम्बन्ध और दूसरा भिन्न-भिन्न वैभवों वा साधनों द्वारा प्राप्ति होना। तो समाई हुई आत्मा के लिये सर्व सम्बन्ध के रस का अनुभव एक बाप द्वारा सदा ही होता है। सर्व प्राप्तियों का आधार एक बाप है, न कि वैभव वा साधन। वैभव वा साधन रचना है और बाप रचता है। जिसका आधार रचता है उसको रचना द्वारा अल्पकाल के प्राप्ति का स्वप्न मात्र भी संकल्प नहीं हो सकता। बापदादा को कभी-कभी बच्चों की स्थिति को देख हंसी आती है। क्योंकि आश्चर्य तो कह नहीं सकते, फुलस्टॉप है। चलते-चलते बीज को छोड़ टाल-टालियों में आकर्षित हो जाते हैं। कोई आत्मा को आधार बना लेते हैं, कोई साधनों को आधार बना लेते हैं। क्योंकि बीज का रूप-रंग शोभनीक नहीं होता और टाल-टालियों का रूप-रंग बड़ा शोभनीक होता है। देहधारी के सम्बन्ध का आधार देह भान में सहज अनुभव होता है और बाप का आधार देह भान से परे होने से अनुभव होता है। देहभान में आने की आदत तो है ही। न चाहते भी हो सकते हैं। इसलिये देहधारी के सम्बन्ध का आधार वा सहारा सहज अनुभव होता है। समझते भी हैं कि ये ठीक नहीं है फिर भी सहारा बना लेते हैं। बापदादा देख-देख मुस्कराते रहते हैं। उस समय की स्थिति हंसाने वाली होती है। जैसे आप लोग क्लासेस में वा भाषणों में एक तोते की कहानी सुनाते हो-उसको मना किया कि नलके पर नहीं बैठो लेकिन वो नलके पर बैठ करके बोल रहा था। ऐसे बच्चे भी उस समय मन में अपने आपसे एक तरफ यही सोचते रहते कि ‘एक बाप, दूसरा न कोई’, बार-बार अपने आपसे रिपीट भी करते रहते लेकिन साथ-साथ फिर यह भी सोचते कि स्थूल में तो सहारा चाहिए। तो उस समय हंसी आयेगी ना और उस समय फिर माया चांस लेती है। बुद्धि को ऐसा परिवर्तन करेगी जो झूठा सहारा ही सच्चा सहारा अनुभव होगा। जैसे आजकल झूठा, सच्चे से भी अच्छा लगता है, ऐसे उस समय रांग, राइट अनुभव होता है। और वो रांग बात, झूठा सहारा उसको पक्का करने के लिये वा झूठ को सच्चा साबित करने के लिये, जैसे कोई भी कमज़ोर स्थान होता है तो उसको मजबूत करने के लिये पिल्लर्स लगाये जाते हैं तो माया भी कमज़ोर संकल्प को मजबूत बनाने के लिये बहुत रॉयल पिल्लर्स लगाती है। क्या पिल्लर लगाती है? माया यही संकल्प देती है कि ऐसा तो होता ही है, कई बड़े-बड़े भी ऐसे ही करते हैं, ऐसे ही चलते हैं, या कहते अभी तो पुरुषार्थी ही हैं, सम्पूर्ण तो हुए नहीं हैं, तो जरूर अभी कोई न कोई कमी रहेगी ही, आगे चल सम्पूर्ण बन जायेंगे-ऐसे-ऐसे व्यर्थ संकल्प रूपी पिल्लर्स कमज़ोरी को मजबूत कर देते हैं। तो ऐसे पिल्लर का आधार नहीं लेना। समय आने पर यह आर्टीफिशयल पिल्लर धोखा दे देते हैं। सर्व सम्बन्धों का सहारा एक बाप सदा रहे, यह अनुभव कम करते हो। इस सर्व सम्बन्धों के अनुभव को बढ़ाओ। सर्व सम्बन्धों की अनुभूति कम होने के कारण कहीं न कहीं अल्पकाल का सम्बन्ध जुट जाता है। स्थूल जीवन में भी स्थूल रूप का सहारा वा हर परिस्थिति में स्थूल रूप का सहयोग देने वाला सहारा बाप है। यह अनुभव और बढ़ाओ। ऐसे नहीं कि बाप तो है ही सूक्ष्म में सहयोग देने वाला। निराकार है, आकार है, साकार तो है नहीं, लेकिन हर सम्बन्ध को साकार रूप में अनुभव कर सकते हो। साकार स्वरूप में साथ का अनुभव कर सकते हो। इस अनुभूति को गहराई से समझो और स्वयं को इसमें मजबूत करो। तो व्यक्ति, वैभव व साधन अपने तरफ आकर्षित नहीं करेंगे। साधनों को निमित्त मात्र कार्य में लाना वा साक्षी हो सेवा प्रति कार्य में लगाना-ऐसी अनुभूति को बढ़ाओ। सहारा नहीं बनाओ, निमित्त मात्र हो। इसको कहा जाता है स्नेह में समाई हुई समान आत्मा। तो अपने से सोचना कि मैं कौन? समझा? अच्छा!

सदा स्नेह में समाये हुए समान आत्माओं को, सदा एक बाप से सर्व सम्बन्ध का अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा एक बाप को आधारमूर्त, सच्चा सहारा अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा सर्व प्राप्ति रचता बाप द्वारा अनुभव करने वाली आत्माओं को, सदा सहज-स्वत: ‘एक बल, एक भरोसा’ अनुभव करने वाली सच्चे स्नेही आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

सदा समाये हुए हैं या याद करने की मेहनत करनी पड़ती है? सिवाए एक बाप के और कोई दिखाई नहीं देता। जब कहानियां सुनते हो तो हंसी आती है ना। कहानी जब तक चलती है तब तक समझ में नहीं आती और जब कहानी समाप्त होती है तो सोचते हैं यह क्या हुआ? मैं थी या और कोई था-ऐसे भी सोचते हैं। क्योंकि उस समय परवश होते हैं ना। तो परवश को अपना होश नहीं होता है। जब अपना होश आता है तो फिर आगे बढ़ने का जोश भी आता है। अच्छा-संगठन बढ़ता जा रहा है और बढ़ता ही रहेगा। और आप निमित्त आत्माएं यह सब खेल देख हर्षित होते रहते हो। सभी चल रहे हैं, कोई चल रहा है, कोई उड़ रहा है और आप लोग क्या करते हो? उड़ते-उड़ते साथ में औरों को भी उड़ा रहे हो। क्योंकि रहमदिल बाप के रहमदिल आत्मायें बन गये, तो रहम आता है ना। घृणा नहीं आती लेकिन रहम आता है। और यह रहम ही दिल के प्यार का काम करता है। अच्छा, जो भी चल रहा है अच्छे ते अच्छा चल रहा है। अथक बन सेवा कर रहे हैं ना। निमित्त आत्माओं के अथकपन को देख सबमें उमंग आता है ना।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

साधारणता को समाप्त कर विशेषता के संस्कार नेचुरल और नेचर बनाओ

अपने को सदा संगमयुग के रूहानी मौजों में रहने वाले अनुभव करते हो? मौजों में रहते हो वा कभी मौज में, कभी मूझंते भी हो या सदा मौज में रहते हो? क्या हालचाल है? कभी कोई ऐसी परिस्थिति आ जाए वा ऐसी कोई परीक्षा आ जाए तो मूंझते हो? (थोड़े टाइम के लिए) और उस थोड़े टाइम में अगर आपको काल आ जाए तो फिर क्या होगा? अकाले मृत्यु का तो समय है ना। तो थोड़ा समय भी अगर मौज के बजाए मूंझते हैं और उस समय अन्तिम घड़ी हो जाए तो अन्त मति सो गति क्या होगी? इसलिए सुनते रहते हो ना सदा एवररेडी! एवररेडी का मतलब क्या है? क्या हर घड़ी ऐसे एवररेडी हो? कोई भी समस्या सम्पूर्ण बनने में विघ्न रूप नहीं बने। अन्त अच्छी तो भविष्य आदि भी अच्छा होता है। जैसा मत में होगा वैसी गति होगी। तो एवररेडी का पाठ इसलिए पढ़ाया जा रहा है। ऐसे नहीं सोचो कि थोड़ा समय होता है लेकिन थोड़ा समय भी, एक सेकण्ड भी धोखा दे सकता है। वैसे सोचते हैं ज्यादा टाइम नहीं चलता, ऐसा दो-चार मिनट चलता है लेकिन एक सेकण्ड भी धोखा देने वाला हो सकता है तो मिनिट की तो बात ही नहीं सोचो। क्योंकि सबसे वैल्युएबुल त्मायें हो, अमूल्य हो। अमूल्य आत्माओं का कोई दुनिया वालों से मूल्य नहीं कर सकते। दुनिया वाले तो आप सबको साधारण समझेंगे। लेकिन आप साधारण नहीं हो, विशेष आत्मायें हो।

विशेष आत्मा का अर्थ ही है जो भी कर्म करे, जो भी संकल्प करे, जो भी बोल बोले वो हर बोल और हर संकल्प विशेष हैं, साधारण नहीं हो। समय भी साधारण रीति से नहीं जाये। हर सेकेण्ड और हर संकल्प विशेष हो। इसको कहा जाता है विशेष आत्मा। तो विशेष करते-करते साधारण नहीं हो जाये-ये चेक करो। कई ऐसे सोचते हैं कि कोई गलती नहीं की, कोई पाप कर्म नहीं किया, कोई वाणी से भी ऐसा उल्टा-सुल्टा शब्द नहीं बोला, लेकिन भविष्य और वर्तमान श्रेष्ठ बनाया? बुरा नहीं किया लेकिन अच्छा किया? सिर्फ ये नहीं चेक करो कि बुरा नहीं किया, लेकिन बुरे की जगह पर अच्छे ते अच्छा किया या साधारण हो गया ? तो ऐसे साधारणता नहीं हो, श्रेष्ठता हो। नुकसान नहीं हुआ, लेकिन जमा हुआ? क्योंकि जमा का समय तो अभी है ना। अभी का जमा किया हुआ भविष्य अनेक जन्म खाते रहेंगे। तो जितना जमा होगा उतना ही खायेंगे ना। अगर कम जमा किया तो कम खाना पड़ेगा अर्थात् प्रालब्ध कम होगी। लेकिन लक्ष्य है श्रेष्ठ प्रालब्ध पाने का या साधारण भी हो जाये, तो कोई हर्जा नहीं? स्वर्ग में तो आ ही जायेंगे, दु:ख तो होगा नहीं, साधारण भी बने तो क्या हर्जा..? हर्जा है या चलेगा? तो चेक करो कि हर सेकण्ड, हर संकल्प विशेष हो। जैसे आधा कल्प के देहभान का अभ्यास नेचरली न चाहते हुए भी चलता रहता है ना। देह अभिमान में आना नेचरल हो गया है ना। ऐसे देही अभिमानी अवस्था नेचरल और नेचर हो जाये। तो जो नेचर होती है वह स्वत: ही अपना काम करती है, सोचना नहीं पड़ता है, बनाना नहीं पड़ता है, करना नहीं पड़ता है लेकिन स्वत: हो ही जाती है। तो ऐसे विशेषता के संस्कार नेचर बन जायें और हर एक के दिल से निकले। ऐसे नहीं कि मेरी नेचर यह है, मेरी नेचर यह है नहीं, हर एक के मुख से, मन से यही निकले कि मेरी नेचर है ही विशेष आत्मा के विशेषता की। तो ऐसे है या मेहनत करनी पड़ती है? जो नेचर होती है उसमें मेहनत नहीं होती। किसी की नेचर रमणीक है तो स्वत: ही रमणीकता चलती रहती है ना। उसको पता भी नहीं पड़ेगा कि मैंने क्या किया? कोई कहेगा तो भी कहेंगे कि मैं क्या करूँ, मेरी नेचर है। तो विशेषता की भी ऐसी नेचर हो जाये। कोई पूछे आपकी नेचर क्या है? तो सबके दिल से निकले कि हमारी नेचर है ही विशेषता की। साधारण कर्म की समाप्ति हो गई। क्योंकि मरजीवा हो गये ना। तो साधारणता से मर गये, विशेषता में जी रहे हैं माना नया जन्म हो गया। तो साधारणता पास्ट जन्म की नेचर है, अभी की नहीं। क्योंकि नया जन्म ले लिया। तो नये जन्म की नेचर विशेषता है-ऐसे अनुभव हो। तो अभी क्या करेंगे? साधारणता की समाप्ति। संकल्प में भी साधारणता नहीं।

मातायें मौज में रहती हो? कितना भी कोई मुंझाने की कोशिश करे लेकिन आप मौज में रहो। मुंझाने वाला मूंझ जाये लेकिन आप नहीं मूंझो। क्योंकि अज्ञानियों का काम है मुंझाना और ज्ञानियों का काम है मौज में रहना। तो वो अपना काम करे और आप अपना काम करो। सदा मौज का अनुभव करो तब तो फलक से कह सकेंगे। होंगे तब ही तो कह सकेंगे ना? जो होगा नहीं तो कह भी नहीं सकता। चैलेन्ज कर सकते हो-हम मूँझने वाले नहीं हैं। क्योंकि विशेष आत्मायें हैं। क्या याद रखेंगे? मौज में रहने वाली विशेष आत्मा हैं। ऐसी हिम्मत वाले हो ना। हिम्मत वालों को मदद स्वत: ही मिलती है।

जहाँ भी रहो लेकिन ये आवाज बुलन्द हो कि ये ब्राह्मण आत्मायें विशेष हैं। गुप्त से प्रत्यक्ष तो होना ही है ना। सबकी नजर ब्राह्मण आत्माओं की तरफ जानी ही है। जा रही है कि अभी शुरू नहीं हुआ है? तो कमाल करके दिखाने वाले हो ना। ऐसी कमाल करो जो अभी तक किसी ने नहीं किया हो। सेमीनार किया, कोन्फेरेंस की - यह तो सभी करते हैं। कोई नई बात करके दिखाओ।

तो सभी ठीक हो? बहुत आराम से रहे हुए हो ना। निर्भय आत्मायें हो औरों को भी निर्भय बनाने वाली। ऐसे हो या कभी-कभी डरते हो? क्या होगा, कैसे होगा? नहीं। जो होगा, अच्छा होगा। दुनिया के लिये तो बुरा है लेकिन आप सोच-समझ सकते हो कि परिवर्तन होना ही है इसलिये जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है। क्योंकि जानते हो कि होना ही है। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

सदा उमंग-उत्साह में रह अपने चेहरे और चलन द्वारा दूसरों का उमंग- उत्साह बढ़ाओ

सभी अपने को सदा उमंग-उत्साह से उड़ने वाली आत्मायें अनुभव करते हो? सदा उमंग-उत्साह बढ़ता रहता है या कभी कम होता है कभी बढ़ता है? क्योंकि जितना उमंग-उत्साह होगा उतना औरों को भी उमंग-उत्साह में उड़ायेंगे। सिर्फ स्वयं नहीं उड़ने वाले हो लेकिन औरों को भी उड़ाने वाले हो। तो उमंग-उत्साह ये उड़ने के पंख हैं। अगर पंख मजबूत होते हैं तो तीव्र गति से उड़ सकते हैं। अगर पंख कमज़ोर होंगे और तीव्र गति से उड़ने की कोशिश भी करेंगे तो नहीं उड़ सकेंगे, बार-बार नीचे आयेंगे। तो उमंग-उत्साह के पंख सदा मजबूत हों। कभी कमज़ोर, कभी मजबूत नहीं, सदा मजबूत। क्योंकि अनेक आत्माओं को उड़ाने वी जिम्मेवार आत्मायें हो। विश्व कल्याण करने की जिम्मेवारी ली है ना?तो सदा इतनी बड़ी जिम्मेवारी स्मृति में रहे। जब कोई भी जिम्मेवारी होती है तब जो भी काम करेंगे तो तीव्र गति से करेंगे और जिम्मेवारी नहीं होती है तो अलबेले होते हैं। तो हरेक के ऊपर कितनी बड़ी जिम्मेवारी है! सभी ने यह जिम्मेवारी का संकल्प लिया है? या सोचते हो कि यह बड़ों का काम है, हम तो छोटे हैं - ऐसे तो नहीं। यह तो पुराने जाने हम तो नये हैं - ऐसे तो नहीं। चाहे बड़े हों, चाहे छोटे हों, चाहे पुराने हों, चाहे नये हों, लेकिन ब्राह्मण बनना अर्थात् जिम्मेवारी लेना। चाहे नये हैं, चाहे पुराने हैं लेकिन हैं तो बी.के. या और कुछ हैं? तो बी.के. अर्थात् ब्राह्मण बनना और ब्राह्मणों की जिम्मेवारी है ही। तो ये जिम्मेवारी की स्मृति कभी भी आपको अलबेला नहीं बनायेगी। लौकिक कार्य में भी जब कोई जिम्मेवारी बढ़ती है तो आलस्य और अलबेलापन आता है या चला जाता है? अगर कोई कहेगा भी ना कि चलो थोड़ा आराम कर लो, बैठ जाओ, क्या करना है, तो बैठ सकेंगे? तो जिम्मेवारी, आलस्य और अलबेलापन खत्म कर देती है। तो चेक करो कि कभी भी आलस्य या अलबेलापन तो नहीं आ जाता? चल तो रहे हैं, हो जायेगा - ये है अलबेलापन। आज नहीं तो कल हो जायेगा - ये आलस्य है। कल नहीं, आज भी नहीं, अब। क्योंकि कोई भरोसा नहीं। अगर अधूरा पुरूषार्थ रह गया तो कहाँ पहुँचेंगे? सूर्यवंश में या चन्द्रवंश में? आधा पुरूषार्थ रहा तो प्रालब्ध भी आधी मिलेगी ना। तो चन्द्रवंश में जाना है? नहीं जाना है? कोई एक भी नहीं जायेगा? मातायें भी सभी सूर्यवंशी बनेंगी? अच्छा। क्योंकि जब पाना है तो पूरा ही पायें ना। आधा पाना तो समझदारी नहीं है। समझदार सदा ही स्वयं को पूरा अधिकारी बनायेगा क्योंकि बच्चा अर्थात् अधिकारी। तो ऐसी अधिकारी आत्मायें हो या कभी-कभी थक भी जाते हो? अधिकार लेते-लेते थक तो नहीं जाते? कभी मन में थक जाते हैं - कहाँ तक करेंगे? अथक हैं, थकने वाले नहीं हैं। थकना काम चन्द्रवंशियों का है और अथक रहना ये सूर्यवंशी की निशानी है। क्या भी हो जाये लेकिन सदा अथक। जिसको उमंग-उत्साह होता है वह कभी थकता नहीं। उमंग कम होगा तो थकावट जरूर आयेगी। उमंग-उत्साह वाले सदैव अपने चेहरे से औरों को भी उमंग दिलाते रहेंगे। एक है चेहरा, दूसरा है चलन। तो अपने चेहरे और चलन से सदा औरों को भी उमंग-उत्साह में बढ़ाते रहो। ऐसी चलन हो जो कोई भी देखे तो सोचे कि ये उमंग-उत्साह में सदा कैसे रहता है? जैसे कोई बहुत खुश रहता है तो उसको देख करके दूसरे भी खुश हो जाते हैं ना। कोई रोने वाले होते हैं तो रोने वाले को देखकर दूसरे क्या करेंगे? अगर रोयेंगे नहीं तो मुस्करायेंगे भी नहीं। तो आपकी चलन और चेहरा ऐसे हैं? फलक से जवाब दो कि हम नहीं होंगे तो कौन होगा। कल्प-कल्प के आप ही हैं और सदा ही रहेंगे। यह पक्का निश्चय है ना। तो हम ही थे और हम ही रहेंगे। पक्का है ना? जब सीजन ही उड़ने की है तो उड़ने के समय पर गिरना तो अच्छा नहीं होता है ना। तो उड़ने वाले हैं और उड़ाने वाले भी। कभी भी, कोई भी बात आये तो याद करो कि हम कौन हैं? हमारी क्या जिम्मेवारी है?

अभी देखेंगे कि स्व स्थिति वा सेवा में नम्बर आगे कौन जाता है। स्व स्थिति में भी नम्बर वन लेना है तो सेवा में भी नम्बर वन लेना है। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

सर्व की ब्लैसिंग लेने के लिए कर्म और योग का बैलेन्स रखो

दा अपने को कर्मयोगी आत्मायें अनुभव करते हो? कर्मयोगी अर्थात् हर कर्म योगयुक्त हो। कर्म अलग, योग अलग नहीं। कर्म में योग, योग में कर्म। सदा दोनों साथ हैं तब कहते हैं कर्मयोगी। ऐसे नहीं, जब योग में बैठे तो योगी हैं और कर्म में जायें तो योग साधारण हो जाये और कर्म महान हो जाये। सदा दोनों का साथ रहे, बैलेन्स रहे। तो ऐसे कर्मयोगी हो या जब कर्म में लग जाते हो तो योग कम हो जाता है? और जब योग में बैठते हो तो लगता है कि बैठे ही रहें तो अच्छा है। कर्मयोगी आत्मा सदा ही कर्म और योग का साथ रखने वाली अर्थात् बैलेन्स रखने वाली। कर्म और योग का बैलेन्स है तो हर कर्म में बाप द्वारा तो ब्लैसिंग मिलती ही है लेकिन जिसके सम्बन्ध-सम्पर्क में आते हैं उनसे भी दुआयें मिलती हैं। कोई अच्छा काम करता है तो दिल से उसके लिये दुआयें निकलती हैं ना कि बहुत अच्छा है। तो बहुत अच्छा मानना-यह दुआयें है। और जो अच्छा कार्य करता है उसके संग में रहना सदा सभी को अच्छा लगता है। उसके सहयोगी बहुत बन जाते हैं। तो दुआयें भी मिलती हैं, सहयोग भी मिलता है। तो जहाँ दुआयें हैं, सहयोग है वहाँ सफलता तो है ही। तो कितनी प्राप्ति हैं? बहुत प्राप्ति हुई ना। इसलिये सदा कर्मयोगी। जब योग होगा तो कर्म स्वत: ही श्रेष्ठ होगा क्योंकि योग का अर्थ ही है श्रेष्ठ बाप की स्मृति में रहना और स्वयं भी श्रेष्ठ आत्मा हूँ - इस स्मृति में रहना। तो जब स्मृति श्रेष्ठ होगी तो स्थिति भी श्रेष्ठ होगी ना और स्थिति श्रेष्ठ होने के कारण न चाहते भी वायुमण्डल श्रेष्ठ बन जाता है। तो कर्मयोगी अर्थात् श्रेष्ठ स्मृति, श्रेष्ठ स्थिति और श्रेष्ठ वायुमण्डल। कोई ज्ञान सुने, नहीं सुने, योग सीखे, नहीं सीखे लेकिन वायुमण्डल का प्रभाव स्वत: ही उनको आकर्षित करता है। मधुबन में क्या विशेष अनुभव करते हो? तपस्या का वायुमण्डल है ना। तो जो भी आते हैं उनका योग बिना मेहनत के ही लग जाता है। योग लगाना नहीं पड़ता, योग लग ही जाता है। ऐसे होता है ना। मधुबन में योग लगाने की मेहनत नहीं करनी पड़ती क्योंकि वायुमण्डल तपस्या का है, संग तपस्वी आत्माओं का है। ऐसे जहाँ भी आप कर्मयोगी बन कर्म करते हो वहाँ का वातावरण, वायुमण्डल ऐसे औरों को सहयोग देगा। अनुभवी हो ना, सहयोग मिलता है ना? तो आपका सहयोग भी औरों को मिलेगा। जहाँ रहते हो वहाँ सेवा होती है? सदा कर्मयोगी आत्मा बाप को भी प्रिय है तो विश्व को भी प्रिय है। विश्व के भी प्रिय बने हो या बन रहे हो? देखो, कल्प पहले भी विश्व के प्रिय बने हो तब तो आपके जड़ चित्रों को भी सभी कितना प्यार करते हैं। तो वो आपके चित्र हैं ना। अपने से इतना प्यार नहीं होगा जितना चित्रों से होगा। तो चैतन्य में बने हो तब ही जड़ चित्रों की निशानी देख रहे हो। चैतन्य रूप में अपने जड़ चित्र यादगार देख रहे हो। तो देख करके खुशी होती है ना हम ऐसे विश्व के प्रिय बने हैं। क्योंकि बाप के प्रिय बने हो ना। तो कितनी खुशी है! खुशी में नाचते रहते हो? सभी को खुशी में नाचना आता है? ऐसा कोई है जिसको खुशी में नाचना नहीं आता? सभी को आता है। पांव से नाचना तो किसी को आयेगा, किसी को नहीं आयेगा। लेकिन खुशी में नाचना तो सभी को आयेगा और इस नाचने में थकते भी नहीं। तो सदा नाचते रहते हो? ब्राह्मण जीवन में सिवाए खुशी के और है ही क्या? दु:खधाम तो छोड़ दिया ना, तो दु:ख क्यों आये? और जहाँ दु:ख नहीं होगा तो खुशी होगी ना। संगमवासी सदा खुश रहते हैं, कलियुग वासी दु:खी रहते हैं। तो संगमयुगी हो या कभी-कभी दु:खधाम वासी भी बन जाते हो? या कभी-कभी गलती से चले जाते हो? स्वप्न में भी दु:ख की लहर नहीं आ सकती। साकार की तो बात ही नहीं है। तो सभी याद रखना कि हम कर्मयोगी हैं, कर्म और योग को सदा साथ रखने वाले हैं।

सदा खुश रहने वाले कर्मयोगी, बाप के प्रिय आत्मायें हैं-यही खुशी सदा अविनाशी रहे। कभी-कभी वाले नहीं, सदा वाले। कभी खुशी, कभी दु:ख की लहर वाले, यह अच्छा नहीं लगता। तो खुश हैं और सदा खुश रहेंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

सदा खुशनसीब, भाग्यवान आत्मा की स्मृति में रहकर सबको भाग्यवान बनाओ

सदा अपने श्रेष्ठ भाग्य को स्मृति में रखते हुए अपने को समर्थ आत्मायें अनुभव करते हो? क्योंकि जितनी स्मृति होगी उतनी समर्थी होगी। स्मृति कम तो समर्थी भी कम। तो स्मृति स्वरूप बने हो या स्मृति लानी पड़ती है? जैसे अपना साकार स्वरूप कभी नहीं भूलता है। सदा स्मृति रहती ही है - कि मैं फलाना हूँ, मैं ऐसा हूँ, ऐसे ही अपने भाग्य के स्मृति स्वरूप बनो। याद करने से स्मृति आये और चलते-चलते स्मृति, विस्मृति में आ जाये तो उसको स्वरूप नहीं कहेंगे, स्वरूप कभी भूलता नहीं। एक हैं स्मृति करने वाले और दूसरे हैं स्मृति स्वरूप रहने वाले। तो आप सभी कौन हो? स्वरूप बन गये हो या विस्मृति-स्मृति का खेल चलता है?

(हॉस्पिटल और आबू निवासी बापदादा के सामने बैठे हैं)

आप सभी तो बहुत-बहुत भाग्यवान हो। क्योंकि मैजारिटी मधुबनवासी हो या समझते हो कि मधुबन और हॉस्पिटल अलग है? मधुबन निवासी हो ना? किस वातावरण में रहते हो? मधुबन के वातावरण में रहते हो या अलग हॉस्पिटल के वातावरण में रहते हो? क्योंकि सबसे बड़ी पालना है ज्ञान की पालना, मुरली की पालना। तो वो हॉस्पिटल या अपने-अपने घरों में सुनते हो वा मधुबन में ही सुनते हो? तो सबसे श्रेष्ठ पालना मुरली है। और दूसरी पालना ब्रह्मा भोजन है। वो आत्मा की पालना, वो शरीर की पालना। तो दोनों मधुबन में होती हैं ना। अगर कोई घर में भी खाते हो तो क्या याद करके खाते हो? मधुबन में बैठे हैं ना और हॉस्पिटल वाले तो खाते ही मधुबन में हैं ना। तो कितने लक्की हो! सदा ब्रह्मा भोजन मिलता रहे-यह कम भाग्य नहीं है! सदा आत्मा की पालना विशेष आत्माओं द्वारा होती रहे-यह भी कम पालना नहीं है! सदा वायुमण्डल श्रेष्ठ मिलता रहे, संग श्रेष्ठ मिलता रहे-कितने भाग्य हैं! अमृतवेले से लेकर रात तक अपने भिन्न-भिन्न भाग्य को स्मृति में लाओ। दिनचर्या के आदि में ही पहला भाग्य बाप से मिलन मनाना। दुनिया तड़पती रहती है और आप अमृतवेले से रात तक मिलन मनाते रहते हो। अगर रात को सोते भी हो तो कहाँ सोते हो? बिस्तर पर?तो देखो, आदि में भी भाग्य, मध्य में भी भाग्य और अन्त में क्या होगा? भाग्य ही भाग्य होगा ना। तो सदा अपने भाग्य की लिस्ट सामने रखो। और यही गीत सदा गाते रहो-’वाह मेरा भाग्य’। वाह बाबा तो है ही लेकिन उसके साथ-साथ वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य। हद का भाग्य नहीं, बेहद का श्रेष्ठ भाग्य। तो जो स्वयं सदा अपने भाग्य के स्मृति में रहेंगे वो औरों को भी भाग्यवान बनायेंगे ना। जो जैसा होगा वैसा ही बनायेगा ना। तो हॉस्पिटल वाले सारा दिन क्या करते हो? पेशेन्ट को देखते रहते हो या अपने भाग्य को भी देखते रहते हो? क्या देखते हो? भाग्य को देखते हो ना। पेशेन्ट के साथ-साथ पहले अपने भाग्य को देखो। तो भगवान् और भाग्य - दोनों याद रहे।

देखो, टाइटिल तो बहुत अच्छा मिला है-’आबू निवासी’। तो आबू नि्ावासी सुनने से परमधाम निवासी तो सहज ही याद आता है ना। क्योंकि आबू है ब्रह्मा बाबा का, तो ब्रह्मा बाबा याद आया तो शिव बाप सहज ही याद आयेगा, कम्बाइन्ड है ना। तो ‘आबू निवासी’ सुनने से स्वीट होम भी याद आ जाता है अर्थात् बापदादा दोनों सहज याद आ जाते हैं। हॉस्पिटल भी कहाँ है? आबू में है ना।

ज्यादा सहज याद में हॉस्पिटल वाले रहते हो या जो अपने-अपने स्थानों में आबू निवासी कहलाते हो वो रहते हो या जो सेन्टर पर रहते हो वो रहते हैं? कौन रहते हैं? याद में तो सभी रहते हो लेकिन सहज याद में रहने वाले कौन हैं? डबल विदेशी तो खुश रहते ही हैं। डबल विदेशी माना डबल खुश। हॉस्पिटल में खुशी कम होती है या बढ़ती है? कि कभी-कभी कम हो जाती है? कम नहीं होनी चाहिये। क्या भी हो, कैसा भी हो, मरने तक बात आ जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। मृत्यु भले हो जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। शरीर चला जाये कोई हर्जा नहीं। क्योंकि गैरन्टी है ना अगर खुशी में जायेंगे तो अनेकों को खुश करने के लिये जायेंगे। तो इतना पक्का है - शरीर जाये लेकिन खुशी नहीं जाये। ब्राह्मण जीवन माना खुशी की जीवन, अगर ब्राह्मण है और खुशी नहीं है तो ब्राह्मण जीवन ही नहीं है। तो सभी पक्के ब्राह्मण तो हैं ही। इसमें तो पूछने की बात ही नहीं। सब जब अपने साइन करते हो तो पहले आक्यूपेशन में ‘बी.के.’ लिखते हो ना। तो ब्राह्मण अर्थात् खुशनसीब, सदा खुश रहने वाले। किसी की हिम्मत नहीं जो ब्राह्मण आत्मा की खुशी कम कर सके। माया हो या माया का बाप हो लेकिन खुशी नहीं गायब कर सके। (माया का बाप कौन?) रावण को माया का बाप कह दो। तो खुशी कम हो नहीं सकती।

चाहे जहाँ भी रहो लेकिन खुशी गायब नहीं हो सकती। असम्भव है। इतने फलक से कहते हो पता नहीं कभी-कभी संभव हो भी जाये। यह अच्छी तरह से पता है ना कि ब्राह्मण जीवन में खुशी का जाना असम्भव है। तो हर एक का चेहरा खुशनुमा, खुशनसीब दिखाई दे। हर एक के मस्तक पर खुशी का भाग्य चमक रहा है। चमक रहा है ना? बादल तो नहीं आते हैं? बादल किसी भी चीज़ को छिपा देते हैं। तो बादल नहीं आ सकते। सदा चमकते रहो।

शक्तियां क्या सोचती हैं? शक्तियां खुशी के गीत गाती रहती हैं और पाण्डव नाचते रहते हैं। ब्राह्मण जीवन में है ही नाचना और गाना। कर्म भी करते हो तो कर्म भी तो एक डांस है ना। डांस में हाथ-पांव चलाना होता है ना। तो कर्मयोगी बनकर जो कर्म करते हो वह भी नाचना ही है ना। खेल कर रहे हो ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सन्तुष्टता सबसे बड़ा खज़ाना है, जहाँ सन्तुष्टता है वहाँ सर्व प्राप्तियां हैं

सदा अपने इस ब्राह्मण जीवन की आदि से अब तक की सर्व प्राप्तियाँ स्मृति में रहती हैं? कितनी प्राप्तियां हैं? अगर प्राप्तियों की लिस्ट निकालो तो कितनी लम्बी है? सार रूप में यही कहेंगे कि अप्राप्त नहीं कोई वस्तु ब्राह्मण जीवन में। तो ऐसे अनुभव करते हो? सर्व प्राप्तियाँ सम्पन्न हो गये? और प्राप्तियाँ भी अविनाशी हैं। एक जन्म, आधा जन्म की नहीं, सदा काल के लिये प्राप्तियाँ प्राप्त हो गई। कोई भी युग नहीं जहाँ आप आत्माओं को कोई प्राप्ति नहीं हो। अगर द्वापर से गिरती कला शुरू भी होती है, फिर भी द्वापर से लेकर अब तक पूजे तो जाते हो ना। तो आधा कल्प राज्य अधिकारी बनते हो और आधा कल्प पूज्य बनते हो। चाहे स्वयं पुजारी बन जाते हो चैतन्य में लेकिन जड़ चित्र के रूप में तो पूजे जाते हो। तो पूज्य की प्राप्ति तो है ही ना। चाहे जानते नहीं हो अपने को लेकिन प्राप्ति सारे कल्प के लिये है। राज्य पद और पूज्य पद। कितने नशे की बात है। तो सदा सर्व प्राप्तियों की स्मृति में रहो, स्मृति स्वरूप रहो। तो प्राप्तियाँ याद रहती हैं कि कभी भूल जाती हैं, कभी याद रहती हैं? हद के प्राप्ति वालों को भी कितना नशा रहता है। तो आपको अविनाशी प्राप्तियां हैं तो अविनाशी रूहानी नशा है?

(कुमारियों से) कुमारियों को नशा रहता है? सदा रहता है या कभी-कभी?कभी भूल भी जाता है? कभी मूड ऑफ होता है? कुमारियों का मूड ऑफ होता है? रोती नहीं हो लेकिन चुप हो जाती हो? कितने समय से नहीं रोया है? जब से ब्रह्माकुमारी बनी हो तब से नहीं रोया है या अभी नहीं रोती हो? मन में भी नहीं रोया है? कुमारियों को कोमल होने के कारण रोना जल्दी आता है। नहीं रोती हो तो पक्की हो ना। सभी खुश रहती हो? और पुरूषार्थ में भी उड़ती कला वाली हो या चढ़ती कला वाली हो? सभी उड़ती कला वाली हो? अच्छा है, कभी नीचे कभी ऊपर नहीं होना, सदा उड़ते रहना। माताओं की भी उड़ती कला है या बीच-बीच में गिरना भी अच्छा लगता है। गिरकर उड़ना है या उड़ना ही उड़ना है?पाण्डव उड़ती कला वाले हैं? उड़ना ही है। क्योंकि समय कम है और मंज़िल श्रेष्ठ है। तो बिना उड़ती कला के मंज़िल पर पहुँचना मुश्किल है। इसलिये सदा उड़ते रहो और उड़ने का साधन है सदा सर्व प्राप्तियों को स्मृति में रखना। इमर्ज रूप में, मर्ज नहीं। जानते ही हैं, नहीं, मर्ज से इमर्ज करो। क्या-क्या मिला! क्या थे और क्या बने गये! कल क्या और आज क्या! तो प्राप्तियों की खुशी कभी नीचे, हलचल में नहीं लायेगी। नीचे आना तो छोड़ो लेकिन हलचल भी नहीं, अचल। जो सम्पन्न होता है वो हलचल में नहीं आता है। जो खाली होता है वह हिलता है। कोई भी चीज़ हिलने वाली होती है तो उसको चारों ओर से सम्पन्न कर देते हैं, भरपूर कर देते हैं तो हिलती नहीं है और कोना भी खाली होगा तो हिलेगी और हिलते-हिलते टूटेगी। तो सम्पन्नता अचल बनाती है। हलचल से छुड़ा देती है। तो सर्व प्राप्तियों में सम्पन्न हो ना? जब दाता मिल गया तो दाता क्या करेगा? सम्पन्न बनायेगा ना। तो ये भी नशा है कि हम दाता के बच्चे हैं। साधारण बाप के बच्चे नहीं, दाता के बच्चे हैं। तो जो स्वयं दाता है तो वो मास्टर दाता बनायेगा ना। तो क्या याद रखेंगे, कौन हो? मास्टर दाता हो। सर्व प्राप्तियों से सम्पन्न आत्मा हो। जरा भी अप्राप्ति नहीं। कोई अप्राप्ति है? कोई-कोई रह गई है या कोई चीज़ चाहिये, नाम चाहिये, सेवा चाहिये, थोड़ा चांस मिल जाये, मेरा नाम हो जाये, मेरे को आगे रखा जाये, यह अप्राप्ति तो नहीं है। किसी को है तो बता दो। मकान अच्छा मिल जाये, कार मिल जाये। कार हो तो सेवा अच्छी तरह से कर सकें। जितने साधन उतनी बुद्धि भी जाती है। जैसे हैं, जहाँ हैं, सदा राजी। जो थोड़े में सन्तुष्ट रहता है उसको सदा सर्व प्राप्तियों की अनुभूति होती है। सन्तुष्टता सबसे बड़े से बड़ा खज़ाना है। जिसके पास सन्तुष्टता है, उसके पास सब-कुछ है। जिसके पास सन्तुष्टता नहीं है तो सब-कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। क्योंकि असन्तुष्ट आत्मा सदा इच्छाओं के वश होगी। एक इच्छा पूरी होगी और 10 इच्छायें उत्पन्न होगी। तो आप क्या हो? हद के इच्छा मात्रम् अविद्या। ऐसे हो कि कभी-कभी छोटी-मोटी इच्छा हो जाती है? सन्तुष्ट हो? सदा यह गीत गाते रहो पाना था वो पा लिया। अच्छा। सभी सन्तुष्ट मणियाँ हो ना?


 


23-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पवित्रता के दृढ़ व्रत द्वारा वृत्ति का परिवर्तन

पवित्रता के फाउन्डेशन को मजबूत करने की प्रेरणा देने वाले परम पवित्र बापदादा बोले-

आज ऊंचे से ऊंचा बाप अपने सर्व महान बच्चों को देख रहे हैं। महान आ आत्मा तो सभी बच्चे बने हैं क्योंकि सबसे महान बनने का मुख्य आधार ‘पवित्रता’ को धारण किया है। पवित्रता का व्रत सभी ने प्रतिज्ञा के रूप में धारण किया है। किसी भी प्रकार का दृढ़ संकल्प रूपी व्रत लेना अर्थात् अपनी वृत्ति को परिवर्तन करना। दृढ़ व्रत वृत्ति को बदल देता है। इसलिये ही भक्ति में व्रत लेते भी हैं और व्रत रखते भी हैं। व्रत लेना अर्थात् मन में संकल्प करना और व्रत रखना अर्थात् स्थूल रीति से परहेज करना। चाहे खान-पान की, चाहे चाल-चलन की, लेकिन दोनों का लक्ष्य व्रत द्वारा वृत्ति को बदलने का है। आप सभी ने भी पवित्रता का व्रत लिया और वृत्ति श्रेष्ठ बनाई। सर्व आत्माओं के प्रति क्या वृत्ति बनाई? आत्मा भाई-भाई हैं, ब्रदरहुड-इस वृत्ति से ही ब्राह्मण महान आत्मा बने। यह व्रत तो सभी का पक्का है ना?

ब्राह्मण जीवन का अर्थ ही है पवित्र आत्मा, और ये पवित्रता ब्राह्मण जीवन का फाउण्डेशन है। फाउण्डेशन पक्का है ना कि हिलता है? ये फाउण्डेशन सदा अचल-अडोल रहना ही ब्राह्मण जीवन का सुख प्राप्त करना है। कभी-कभी बच्चे जब बाप से रूहरिहान करते अपना सच्चा चार्ट देते हैं तो क्या कहते हैं? कि जितना अतीन्द्रिय सुख, जितनी शक्तियाँ अनुभव होनी चाहियें, उतनी नहीं हैं या दूसरे शब्दों में कहते हैं कि हैं, लेकिन सदा नहीं हैं। इसका कारण क्या? कहने में तो मास्टर सर्वशक्तिमान कहते हैं, अगर पूछेंगे कि मास्टर सर्वशक्तिमान हो, तो क्या कहेंगे? ‘ना’ तो नहीं कहेंगे ना। कहते तो ‘हाँ’ हैं। मास्टर सर्वशक्तिमान हैं तो फिर शक्तियां कहाँ चली जाती हैं? और हैं ही ब्राह्मण जीवनधारी। नामधारी नहीं हैं, जीवनधारी हैं। ब्राह्मणों के जीवन में सम्पूर्ण सुख-शान्ति की अनुभूति न हो वा ब्राह्मण सर्व प्राप्तियों से सदा सम्पन्न न हों तो सिवाए ब्राह्मणों के और कौन होगा? और कोई हो सकता है? ब्राह्मण ही हो सकते हैं ना। आप सभी अपना साइन क्या करते हो? बी.के. फलानी, बी.के. फलाना कहते हो ना। पक्का है ना? बी.के. का अर्थ क्या है? ‘ब्राह्मण’। तो ब्राह्मण की परिभाषा यह है।

‘जितना’ और ‘उतना’ शब्द क्यों निकलता है? कहते हो सुख-शान्ति की जननी पवित्रता है। जब भी अतीन्द्रिय सुख वा स्वीट साइलेन्स का अनुभव कम होता है, इसका कारण पवित्रता का फाउण्डेशन कमज़ोर है। पहले भी सुनाया है कि पवित्रता सिर्फ ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं, ये व्रत भी महान है क्योंकि इस ब्रह्मचर्य के व्रत को आज की महान आत्मा कहलाने वाले भी मुश्किल तो क्या लेकिन असम्भव समझते हैं। तो असम्भव को अपने दृढ़ संकल्प द्वारा सम्भव किया है और सहज पालन किया है इसलिये ये व्रत भी धारण करना कम बात नहीं है। बापदादा इस व्रत को पालन करने वाली आत्माओं को दिल से दुआओं सहित मुबारक देते हैं। लेकिन बापदादा हर एक ब्राह्मण बच्चे को सम्पूर्ण और सम्पन्न देखना चाहते हैं। तो जैसे इस मुख्य बात को जीवन में अपनाया है, असम्भव को सम्भव सहज किया है तो और सर्व प्रकार की पवित्रता को धारण करना क्या बड़ी बात है! पवित्रता की परिभाषा सभी बहुत अच्छी तरह से जानते हो। अगर आप सबको कहें ‘‘पवित्रता क्या है’’ इस टॉपिक पर भाषण करो तो अच्छी तरह से कर सकते हो ना? जब जानते भी हो और मानते भी हो फिर ‘उतना’, ‘जितना’ ये शब्द क्यों? कौन-सी पवित्रता कमज़ोर होती है, जो सुख, शान्ति और शक्ति की अनुभूति कम हो जाती है? पवित्रता किसी न किसी स्टेज में अचल नहीं रहती, तो किस रूप की पवित्रता की हलचल है उसको चेक करो। बापदादा पवित्रता के सर्व रूपों को स्पष्ट नहीं करते क्योंकि आप जानते हो, कई बार सुन चुके हो, सुनाते भी रहते हो, अपने आपसे भी बात करते रहते हो कि हाँ, ये है, ये है.। मैजारिटी की रिजल्ट देखते हुए क्या दिखाई देता है? कि ज्ञान बहुत है, योग की विधि के भी विधाता बन गये, धारणा के विषय पर वर्णन करने में भी बहुत होशियार हैं और सेवा में एक-दो से आगे हैं, बाकी क्या है? ज्ञाता तो नम्बरवन हो गये हैं, सिर्फ एक बात में अलबेले बन जाते हो, वो है -’’स्व को सेकण्ड में व्यर्थ सोचने, देखने, बोलने और करने में फुलस्टॉप लगाकर परिवर्तन करना।’’ समझते भी हो कि यही कमज़ोरी सुख की अनुभूति में अन्तर लाती है, शक्ति स्वरूप बनने में वा बाप समान बनने में विघ्न स्वरूप बनती है फिर भी क्या होता है? स्वयं को परिवर्तन नहीं कर सकते, फुलस्टॉप नहीं दे सकते। ठीक है, समझते हैं-का कॉमा (,) लगा देते हैं, वा दूसरों को देख आश्चर्य की निशानी (!) लगा देते हो कि ऐसा होता है क्या! ऐसे होना चाहिये! वा क्वेश्चन मार्क की क्यू (लाइन) लगा देते हो, क्यों की क्यू लगा देते हो। फुलस्टॉप अर्थात् बिन्दु (.)। तो फुल स्टॉप तब लग सकता है जब बिन्दु स्वरूप बाप और बिन्दु स्वरूप आत्मा-दोनों की स्मृति हो। यह स्मृति फुल स्टॉप अर्थात् बिन्दु लगाने में समर्थ बना देती है। उस समय कोई-कोई अन्दर सोचते भी हैं कि मुझे आत्मिक स्थिति में स्थित होना है लेकिन माया अपनी स्क्रीन द्वारा आत्मा के बजाय व्यक्ति वा बातें बार-बार सामने लाती है, जिससे आत्मा छिप जाती है और बार-बार व्यक्ति और बातें सामने स्पष्ट आती हैं। तो मूल कारण स्व के ऊपर कन्ट्रोल करने की कन्ट्रोलिंग पॉवर कम है। दूसरों को कन्ट्रोल करना बहुत आता है लेकिन स्व पर कन्ट्रोल अर्थात् परिवर्तन शक्ति को कार्य में लगाना कम आता है।

बापदादा कोई-कोई बच्चों के शब्द पर मुस्कराते रहते हैं। जब स्व के परिवर्तन का समय आता है वा सहन करने का समय आता है वा समाने का समय आता है तो क्या कहते हो? बहुत करके क्या कहते कि ‘मुझे ही मरना है’, ‘मुझे ही बदलना है’, ‘मुझे ही सहन करना है’ लेकिन जैसे लोग कहते हैं ना कि ‘मरा और स्वर्ग गया’ उस मरने में तो स्वर्ग में कोई जाते नहीं हैं लेकिन इस मरने में तो स्वर्ग में श्रेष्ठ सीट मिल जाती है। तो यह मरना नहीं है लेकिन स्वर्ग में स्वराज्य लेना है। तो मरना अच्छा है ना? क्या मुश्किल है? उस समय मुश्किल लगता है। मैं गलत हूँ ही नहीं, वो गलत है, लेकिन गलत को मैं राइट कैसे करूँ, यह नहीं आता। रांग वाले को बदलना चाहिये या राइट वाले को बदलना चाहिये? किसको बदलना है? दोनों को बदलना पड़े। ‘बदलने’ शब्द को आध्यात्मिक भाषा में आगे बढ़ना मानो, ‘बदलना’ नहीं मानो, ‘बढ़ना’। उल्टे रूप का बदलना नहीं, सुल्टे रूप का बदलना। अपने को बदलने की शक्ति है? कि कभी तो बदलेंगे ही।

पवित्रता का अर्थ ही है - सदा संकल्प, बोल, कर्म, सम्बन्ध और सम्पर्क में तीन बिन्दु का महत्व हर समय धारण करना। कोई भी ऐसी परिस्थिति आये तो सेकण्ड में फुलस्टॉप लगाने में स्वयं को सदा पहले ऑफर करो-’’मुझे करना है’’। ऐसी ऑफर करने वाले को तीन प्रकार की दुआएं मिलती हैं - (1) स्वयं को स्वयं की भी दुआएं मिलती हैं, खुशी मिलती है, (2) बाप द्वारा, (3) जो भी श्रेष्ठ आत्मायें ब्राह्मण परिवार की हैं उन्हों के द्वारा भी दुआएं मिलती हैं। तो मरना हुआ या पाना हुआ, क्या कहेंगे? पाया ना। तो फुल स्टॉप लगाने के पुरूषार्थ को वा कन्ट्रोलिंग पॉवर द्वारा परिवर्तन शक्ति को तीव्र गति से बढ़ाओ। अलबेलापन नहीं लाओ-ये तो होता ही है, ये तो चलना ही है. . . ये अलबेलेपन के संकल्प हैं। अलबेलापन परिवर्तन कर अलर्ट बन जाओ। अच्छा!

चारों ओर के महान आत्माओं को, सर्वश्रेष्ठ पवित्रता के व्रत को धारण करने वाली आत्माओं को, सदा स्व को सेकण्ड में फुलस्टॉप लगाए श्रेष्ठ परिवर्तक आत्माओं को, सदा स्वयं को श्रेष्ठ कार्य में निमित्त बनाने की ऑफर करने वाली आत्माओं को, सदा तीन बिन्दु का महत्व प्रैक्टिकल में धारण कर दिखाने वाली बाप समान आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

सभी आप लोगों को देखकर खुश होते हैं। क्यों खुश होते हैं? (बापदादा सभी से पूछ रहे हैं) दादियों को देख खुश होते हो ना? क्यों खुश होते हो? क्योंकि अपने वायब्रेशन वा कर्म द्वारा खुशी देते हैं इसलिये खुश होते हो। जब भी ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं से मिलते हो तो खुशी अनुभव करते हो ना। (टीचर्स से) फॉलो भी करती हो ना। कई सोचते हैं बाप तो बाप है, कैसे समान बन सकते हैं? लेकिन जो निमित्त आत्मायें हैं वो तो आपके हमजिन्स हैं ना? तो जब वो बन सकती हैं तो आप नहीं बन सकते? तो लक्ष्य सभी का सम्पूर्ण और सम्पन्न बनने का है। अगर हाथ उठवायेंगे कि 16 कला बनना है या 14 कला तो किसमें उठायेंगे? 16 कला। तो 16 कला का अर्थ क्या है? सम्पूर्ण ना। जब लक्ष्य ही ऐसा है तो बनना ही है। मुश्किल है नहीं, बनना ही है। छोटी-छोटी बातों में घबराओ नहीं। मूर्ति बन रहे हो तो कुछ तो हेमर लगेंगे ना, नहीं तो ऐसे कैसे मूर्ति बनेंगे! जो जितना आगे होता है उसको तूफान भी सबसे ज्यादा क्रॉस करने होते हैं लेकिन वो तूफान उन्हों को तूफान नहीं लगता, तोहफा लगता है। ये तूफान भी गिफ्ट बन जाती है अनुभवी बनने की, तो तोहफा बन गया ना। तो गिफ्ट लेना अच्छा लगता है या मुश्किल लगता है? तो ये भी लेना है, देना नहीं है। देना मुश्किल होता है, लेना तो सहज होता है।

ये नहीं सोचो-मेरा ही पार्ट है क्या, सब विघ्नों के अनुभव मेरे पास ही आने है क्या! वेलकम करो-आओ। ये गिफ्ट है। ज्यादा में ज्यादा गिफ्ट मिलती है, इसमें क्या? ज्यादा एक्यूरेट मूर्ति बनना अर्थात् हेमर लगना। हेमर से ही तो उसे ठोक-ठोक करके ठीक करते हैं। आप लोग तो अनुभवी हो गये हो, नथिंग न्यु। खेल लगता है। देखते रहते हो और मुस्कराते रहते हो, दुआयें देते रहते हो। टीचर्स बहादुर हो या कभी-कभी घबराती हो? ये तो सोचा ही नहीं था, ऐसे होगा, पहले पता होता तो सोच लेते....। डबल फॉरेनर्स समझते हो इतना तो सोचा ही नहीं था कि ब्राह्मण बनने में भी ऐसा होता है? सोच-समझकर आये हो ना या अभी सोचना पड़ रहा है? अच्छा!

कितना भी कोई कैसा भी हो लेकिन बापदादा अच्छाई को ही देखते हैं। इसलिये बापदादा सभी को अच्छा ही कहेंगे, बुरा नहीं कहेंगे। चाहे 9 बुराई हों और एक अच्छाई हो तो भी बाप क्या कहेगा? अच्छे हैं या कहेंगे कि ये तो बहुत खराब है, ये तो बड़ा कमज़ोर है? अच्छा। ये बड़ा ग्रुप हो गया है। (21 देशों के लोग आये हैं) अच्छा है, हाउसफुल हो तब तो दूसरा बनें। अगर फुल नहीं होगा तो बनने की मार्जिन नहीं होगी। आवश्यकता ही साधन को सामने लाती है।

पवित्रता ब्राह्मण जीवन वा फाउण्डेशन है। फाउण्डेशन हमेशा पक्का होना चाहिये। क्योंकि फाउण्डेशन सदा अचल-अडोल रहना ही ब्राह्मण जीवन का सुख प्राप्त करना है। ब्राह्मण का अर्थ ही है ‘पवित्र आत्मा’।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

प्रकृति और मनुष्यात्माओं को परिवर्तन करने के लिए अपने वायब्रेशन और वृत्ति को शक्तिशाली बनाओ

दिल्ली ग्रुप से:- दिल्ली को परिस्तान कब बनायेंगे? कितना समय चाहिये? समय चाहिये या एवररेडी हो? (एवररेडी हैं) तो कल दिल्ली में परिस्तान हो जायेगा? (बाबा चाहें तो) लेकिन निमित्त तो आप हो ना। निमित्त बच्चों को बनाया है। बच्चों को आगे रखकरके बाप बैकबोन रहता है। तो कब परिस्तान बनायेंगे? बनाना तो है ना, बनना ही है। तो सभी इन्तजार कर रहे हैं कि दिल्ली परिस्तान बने और जायें। निमित्त तो दिल्ली वाले हैं ना। चाहे सर्व के सहयोग से हो, होना ही है। फिर भी जो दिल्ली में बैठे हो उन्हों का तो विशेष पार्ट है ना। तो इतनी तैयारी कर रहे हो, कि पहले कब्रिस्तान बने, फिर परिस्तान बनायेंगे? क्या करेंगे? (समय करायेगा) समय नहीं करायेगा, समय को लायेंगे। क्योंकि अनेक बार ये निमित्त बनने का पार्ट बजाया है, अभी तो सिर्फ रिपीट करना है। तो अपने श्रेष्ठ वायब्रेशन्स द्वारा, शुभ भावना, शुभ कामनाओं द्वारा परिवर्तन कर रहे हो? जितना-जितना शक्तिशाली सतोप्रधान वायब्रेशन होंगे तो यह प्रकृति और मनुष्यात्माओं की वृत्ति दोनों ही चेंज हो जायेगी। मनुष्यात्माओं को वृत्ति से चेंज करना है और प्रकृति को वायब्रेशन द्वारा परिवर्तन करना है। तो परिवर्तन करने वालों की वृत्ति सदा ही शक्तिशाली चाहिए, साधारण नहीं। साधारण वृत्ति या साधारण वायब्रेशन से परिवर्तन होना मुश्किल है। तो दिल्ली वालों की बड़ी जिम्मेवारी है। अपनी जिम्मेवारी समझते हो या समझते हो कि हो जायेगा? नहीं। निमित्त बनना है। ड्रामा में मालूम है, ब्रह्मा को भी मालूम है और था कि नारायण बनना ही है, फिर भी क्या किया? निमित्त बने ना। जगदम्बा को पता था कि लक्ष्मी बनना ही है फिर भी निमित्त बनकर दिखाया। तो सदा अपनी जिम्मेवारी को स्मृति में रखो तो जिम्मेवारी क्या करती है? कभी भी कोई कार्य की जिम्मेवारी होती है तो अलर्ट हो जाते हैं। तो सदा अलर्ट रहना पड़े। कभी-कभी नहीं, सदा। कितनी बड़ी जिम्मेवारी है। हर आत्मा को बाप द्वारा कोई न कोई वर्सा दिलाना ही है। चाहे मुक्ति का दिलाओ, चाहे जीवनमुक्ति का दिलाओ, लेकिन वर्से के अधिकारी तो बनेंगे ना। तो दिल्ली वालों को कितना काम है? तो अलबेले नहीं बनो। यह सभी की जिम्मेवारी है या समझते हो यह तो बड़ों की जिम्मेवारी है, हम तो छोटे हैं!इसमें छोटे शुभान अल्लाह। बड़े तो बड़े हैं, छोटे शुभान अल्लाह। सभी को सदैव यह शुभ संकल्प इमर्ज हो कि दाता के बच्चे बन सभी आत्माओं को वर्सा दिलाने के निमित्त बनें, कोई वंचित नहीं रहे। फिर भी ब्रदर्स तो हैं ना। तो ब्रदर्स होने के कारण रहम तो आयेगा ना। चाहे कैसा भी है लेकिन बाप का तो है ना। आप भी कहेंगे भाई-भाई तो हैं ना या कहेंगे अज्ञानी भाई नहीं हैं, ज्ञानी भाई हैं। सबको कहेंगे ना भाई-भाई। तो चलो और कुछ नहीं, जो सबकी इच्छा है जन्म-मरण से मुक्त हो जायें, वो तो अनुभव करायेंगे ना। वो आशा तो पूर्ण करायेंगे ना।

आपकी क्या आशा है? मुक्ति में रहना है? मुक्ति में रहेंगे तो बहुत आराम मिलेगा। एक युग रहकर पीछे आओ? सतयुग के बाद त्रेता में आ जाओ, नहीं? मुक्ति में नहीं रहना है? जीवनमुक्ति में आना है? अच्छा, पाण्डवों को मुक्ति चाहिये? जीवनमुक्ति चाहिये? डबल चाहिये, सिंगल नहीं चाहिये। जीवन भी हो और मुक्ति भी हो। लेने में होशियार हैं। तो सदैव यही गीत गाते रहते हो ना कि वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! भगवान भी मिला और भाग्य भी मिला। कोई पूछे या सोचे कि मेरा भाग्य क्या है? अज्ञानी लोग तो सोचते हैं ना कि पता नहीं मेरा भाग्य क्या है? आप सोचते हो कि मेरा भाग्य क्या है? कभी संकल्प आता है या नहीं आता है? अपने भाग्य पर निश्चय है? जब भाग्य विधाता अपना बन गया तो भाग्य कहाँ जायेगा? जहाँ भाग्य विधाता है वहीं भाग्य है। तो सोचने की भी आवश्यकता नहीं है - क्या होगा! तो इतनी खुशी है कि कम-ज्यादा होती है? अभी कम नहीं होना चाहिये। ज्यादा से ज्यादा हो, लेकिन कम नहीं हो।

(दिल्ली को परिस्तान बनाने के लिये विशेष क्या करना चाहिये?)

विशेष तो माइक तैयार करना चाहिये। जिसमें मेहनत कम और सफलता सहज हो। एक द्वारा अनेकों को सन्देश मिल जाये और कार्य में भी सहयोगी बनें। जितना-जितना निमित्त बनते हैं उतना कार्य में भी सहज सहयोगी हो जाते हैं। तो अभी यही लक्ष्य रखो कि भिन्न-भिन्न वर्ग के ऐसे माइक तैयार करें जो वह स्वयं ही अपने-अपने वर्ग के निमित्त बन जायें। तो ऐसे कोई आत्मायें निमित्त बनने वाली तैयार करो।

(माइक तैयार करने के लिये क्या करना है?)

उसके लिये एक ही समय पर तीन प्रकार की सेवा चाहिये। जैसे कोई भी बहुत होशियार, चाहे योद्धा हो, चाहे आतंकवादी हो, कोई बड़े को पकड़ने के लिये क्या किया जाता है? चारों ओर से उसको पकड़ने की कोशिश की जाती है, तब पकड़ा जाता है। तो यह भी एक ही समय पर मंसा में, वाणी में भी, सम्बन्ध-सम्पर्क से भी, वायुमण्डल में-ये चारों ओर का घेराव हो तभी ये विशेष निमित्त बनने वाली आत्मायें समीप आयेंगी। तो श्रेष्ठ वायब्रेशन्स से उन्हों को समीप लाते रहो। क्योंकि वाणी से समीप जाने का समय तो कम ही मिलता है ना। लेकिन वायब्रेशन, वायुमण्डल बनाने की सेवा सदैव होनी चाहिये। चारों ओर वायब्रेशन द्वारा उन आत्माओं को पकड़ना चाहिये। सिर्फ एक-दो नहीं, लेकिन संगठित रूप में चाहिये। तो देहली वालों को तो बहुत काम करना है। अगर देहली में आवाज बुलन्द हो जाये तो विश्व में तो बहुत जल्दी हो जाये। देहली में एक कोई बड़ा माइक निकल जाये तो चारों ओर आपेही वायब्रेशन फैलेगा। तो दिल्ली वाले अब वायब्रेशन से सेवा करके माइक तैयार करो। और कोई वायब्रेशन में नहीं चले जाना। बहुत बड़ी जिम्मेवारी है। जिम्मेवारी के समय कभी भी कोई व्यर्थ टाइम, व्यर्थ इनर्जा नहीं गंवाता। तो अभी कोई नया जलवा दिखाओ। जैसे देहली में नम्बरवन सेवा का केन्द्र खुला तो देहली से माइक निकलेगा। सेवा की स्थापना तो दिल्ली से हुई ना। और देहली ने कई अच्छी-अच्छी सेवाओं को प्रैक्टिकल में भी लाया है। समय प्रति समय सेवा में सहयोगी बनते रहे हो। अब इसमें नम्बर लो। विदेश वाले भी प्रयत्न कर रहे हैं। लेकिन पहले चैरिटी बिगिन्स एट होम होना चाहिये ना। अच्छा है, लक्ष्य तो सभी का अच्छा है और सेवा से प्यार भी है। अभी सिर्फ जो बीच-बीच में व्यर्थ आ जाता है, उसको समाप्त कर समर्थ वायब्रेशन से समीप लाओ। समझा, क्या करना है? देखेंगे कितने समय में करते हो? जल्दी करना है या समय आयेगा तभी करेंगे। (हुआ ही पड़ा है) लेकिन कितने टाइम में हुआ पड़ा है? (जब गेट खुलेगा) गेट किसको खोलना है? ब्राह्मण फरिश्ते बनेंगे तो गेट खुलेगा। तो कमाल दिखायेंगे या वहाँ जाकर अपने कामों में बिजी हो जायेंगे? चाहे कोई भी निमित्त सेवा मिली हुई है लेकिन बेहद की हो, हद की नहीं। तो बेहद परिवर्तन की सेवा में तीव्र गति लाओ। ऐसे नहीं, कर तो रहे हैं ना, इतने बिजी होते हैं जो टाइम ही नहीं मिलता..। इसके लिये टाइम की भी आवश्यकता नहीं है। निमित्त सेवा करते हुए भी बेहद के सहयोगी बन सकते हो। मातायें बन सकती हैं कि फुर्सत ही नहीं मिलती? फुर्सत है कि बच्चे ही नहीं सुनते, क्या करें? जितना बेहद में बिजी रहेंगे, तो जो ड्युटी मिली है वह और ही सहज हो जायेगी। तो समझा क्या करना है? सदा अपने को बेहद के सेवाधारी और सदा के सेवाधारी, हर संकल्प में, हर सेकण्ड में सेवाधारी बनाओ। इसको कहा जाता है बेहद के सेवाधारी। ऐसे नहीं चार घण्टा तो सेवा कर ली। नहीं, सदा सेवाधारी। छोटे-छोटे बच्चे भी सेवा करेंगे ना? अच्छा!

ग्रुप नं. 2

सब कुछ बाप हवाले करना अर्थात् डबल लाइट बनना

दा अपने को कमल पुष्प समान न्यारे और बाप के प्यारे अनुभव करते हो? क्योंकि जितना न्यारापन होगा उतना ही बाप का प्यारा होगा। चाहे कैसी भी परिस्थितियां हो, समस्यायें हों लेकिन समस्याओं के अधीन नहीं, अधिकारी बन समस्याओं को ऐसे पार करें, जैसे खेल-खेल में पार कर रहे हैं। खेल में सदा खुशी रहती है। चाहे कैसा भी खेल हो, लेकिन खेल है तो कैसा भी पार्ट बजाते हुए अन्दर खुशी में रहते हो? चाहे बाहर से रोने का भी पार्ट हो लेकिन अन्दर हो कि यह सब खेल है। तो ऐसे ही जो भी बातें सामने आती हैं-ये बेहद का खेल है, जिसको कहते हो ड्रामा और ड्रामा के आप सभी हीरो एक्टर हो, साधारण एक्टर तो नहीं हो ना। तो हीरो एक्टर अर्थात् एक्यूरेट पार्ट बजाने वाले। तब तो उसको हीरो कहा जाता है। तो सदा ये बेहद का खेल है-ऐसे अनुभव करते हो? कि कभी-कभी खेल भूल जाता है और समस्या, समस्या लगती है। कैसी भी कड़ी परिस्थिति हो लेकिन खेल समझने से कड़ी समस्या भी हल्की बन जाती है। तो जो न्यारा और प्यारा होगा वो सदा हल्का अनुभव करने के कारण डबल लाइट होगा। कोई बोझ नहीं। क्योंकि बाप का बनना अर्थात् सब बोझ बाप को दे दिया। तो सब बोझ दे दिया है या थोड़ा-थोड़ा अपने पास रख लिया है? थोड़ा बोझ उठाना अच्छा लगता है। सब कुछ बाप के हवाले कर दिया या थोड़ा-थोड़ा जेबखर्च रख लिया है? छोटे बच्चे जेबखर्च नहीं रखते हैं। रोज उनको जेब खर्च देते हैं, खाओ, पीयो, मौज करो। कोई भी चीज़ रखी होती है तो डाकू आता है। जब पता होता है कि ये मालदार है, कुछ मिलेगा तब डाका लगाते हैं। यदि पता हो कि कुछ नहीं मिलेगा तो डाका लगाकर क्या करेंगे। अगर थोड़ा भी रखते हैं तो डाकू माया जरूर आती है और वह अपनी चीज़ तो ले ही जाती है लेकिन जो बाप द्वारा शक्तियां मिली हैं वो भी साथ में ले जाती है। इसीलिये कुछ भी रखना नहीं है। सब दे दिया। डबल लाइट का अर्थ ही है सब-कुछ बाप-हवाले करना। तन भी मेरा नहीं। ये तन तो सेवा अर्थ बाप ने दिया है। आप सबने तो वायदा कर लिया ना कि तन भी तेरा, मन भी तेरा, धन भी तेरा। ये वायदा किया है कि तन तेरा है बाकी आपका है? जब तन ही नहीं तो बाकी क्या। तो सदा कमल पुष्प का दृष्टान्त स्मृति में रहे कि मैं कमल पुष्प समान न्यारी और प्यारी हूँ। जब आपकी रचना ‘कमल’ न्यारा रह सकता है तो आप मास्टर रचता उससे भी ज्यादा रह सकते हो। तो सभी कमल पुष्प समान न्यारे और प्यारे हो ना और चाहिये ही क्या, जब परमात्मा के प्यारे हो गये तो और क्या चाहिये! दुनिया में जो भी मेहनत करते हैं, जो भी कुछ प्रयत्न वरते हैं, किसलिये? प्यारा बनने के लिये। प्यार मिले और प्यार दें। और आपको परमात्म प्यार का अधिकार मिला है। तो जहाँ प्यार है वहाँ सब-कुछ है, और जहाँ सब-कुछ है और प्यार नहीं है वहाँ कुछ नहीं है। तो आप कितने लक्की हो परमात्म प्यार के पात्र बन गये! और कितना सहज! कोई मुश्किल हुआ क्या?

मातायें प्यार का अनुभव करती हो कि बाल बच्चों के प्यार का अनुभव करती हो? परमात्म प्यार में सब प्यार समाया हुआ है। पोत्रे का प्यार, धोत्रे का प्यार सब समाया हुआ है क्योंकि रचता है ना। तो रचता में रचना आ ही जाती है। जो भी स्नेह चाहिये उस रूप से स्नेह का अनुभव कर सकते हो। लेकिन आत्माओं का प्यार नहीं, परमात्म प्यार। तो ऐसे अधिकारी हो ना? पूरा अधिकार लिया है? थोड़े में खुश होने वाले तो नहीं हो ना। जब दाता फुल दे रहा है तो थोड़ा क्यों लें? अच्छा!

मोदी नगर होस्टेल की कुमारियों से -

हॉस्टल की कुमारियां क्या कमाल कर रही हो? स्कूल या कॉलेज में जहाँ पढ़ती हो, वो समझते हैं कि ये न्यारी कुमारियां हैं? कि जैसे वो वैसे आप? क्योंकि ब्रह्माकुमारियां अर्थात् न्यारी कुमारी। कुमारियां तो सभी हैं लेकिन आप ब्रह्माकुमारियां हो। ब्रह्माकुमारियां कमाल करने वाली हो। जहाँ भी जाये, वहाँ विशेष आत्मा अनुभव हो। तो बाप से पूरा ही प्यार है ना? पक्का, कोई व्यक्ति के तरफ नहीं, वैभव के तरफ नहीं? जब एक बाप से प्यार होगा तो सेफ रहेंगे। बाप से कम होगा तो फिर कहीं न कहीं फंस जायेंगे। तो कहाँ फंसने वाली तो नहीं हो? देखना, सर्टीफिकेट मिलेगा! अच्छा, हिम्मत रखी है तो हिम्मत और मदद से आगे बढ़ते रहो।

ग्रुप नं. 3

सर्वशक्तिमान बाप के साथ सदा कम्बाइन्ड रहो तो सफलता आगे पीछे घूमती रहेगी

दा अपने को चमकता हुआ सितारा अनुभव करते हो? जैसे आकाश के सितारे सभी को रोशनी देते हैं ऐसे आप दिव्य सितारे विश्व को रोशनी देने वाले हो ना! सितारे कितने प्यारे लगते हैं! तो आप दिव्य सितारे भी कितने प्यारे हो! सितारों में भी भिन्न-भिन्न प्रकार के सितारे गाये जाते हैं। एक हैं साधारण सितारे और दूसरे हैं लक्की सितारे और तीसरे हैं सफलता के सितारे। तो आप कौन-से सितारे हो? सभी सफलता के सितारे हो! सफलता मिलती है कि मेहनत करनी पड़ती है? कम्बाइन्ड कम रहते हो इसलिए सफलता भी कम मिलती है। क्योंकि जब सर्वशक्तिमान कम्बाइण्ड है तो शक्तियां कहाँ जायेंगी? साथ ही होगी ना। और जहाँ सर्व शक्तियां हैं वहाँ सफलता न हो, यह असम्भव है। तो सदा बाप से कम्बाइन्ड रहने में कमी है इस कारण सफलता कम होती है या मेहनत करने के बाद सफलता होती है। क्योंकि जब बाप मिला तो बाप मिलना अर्थात् सफलता जन्म सिद्ध अधिकार है। नाम ही अधिकार है तो अधिकार कम मिले, यह हो नहीं सकता। तो सफलता के सितारे, विश्व को ज्ञान की रोशनी देने वाले हैं। मास्टर सर्वशक्तिमान के आगे सफलता तो आगे-पीछे घूमती है। तो कम्बाइन्ड रहते हो या कभी कम्बाइन्ड रहते हो, कभी माया अलग कर देती है। जब बाप कम्बाइन्ड बन गये तो ऐसे कम्बाइन्ड रूप को छोड़ना हो सकता है क्या? कोई अच्छा साथी लौकिक में भी मिल जाता है तो उसको छोड़ सकते हैं? ये तो अविनाशी साथी है। कभी धोखा देने वाला साथी नहीं है। सदा ही साथ निभाने वाला साथी है। तो ये नशा, खुशी है ना, जितना नशा होगा कि स्वयं बाप मेरा साथी है उतनी खुशी रहेगी। तो खुशी रहती है? (बहुत रहती है) बढ़ती रहती है या कम और ज्यादा होती रहती है? कोई बात आती है तो कम होती है? थोड़ा तो कम होती है! फिर सोचते हैं क्या करें, वैसे तो ठीक है, लेकिन बात ही ऐसी हो गई ना। कितनी भी बड़ी बात हो लेकिन आप तो मास्टर रचता हो, बात तो रचना हैं। तो रचता बड़ा होता है या रचना बड़ी होती है?

कभी कोई बात में घबराने वाले तो नहीं हो? वहाँ जाकर कोई बात आ जाये तो घबरायेंगे नहीं? देखना, वहाँ जायेंगे तो माया आयेगी। फिर ऐसे तो नहीं कहेंगे कि मैंने तो समझा नहीं था, ऐसे भी हो सकता है! नये-नये रूप में आयेगी, पुराने रूप में नहीं आयेगी। फिर भी बहादुर हो। निश्चय है कि अनेक बार बने हैं, अब भी हैं और आगे भी बनते रहेंगे। निश्चय की विजय है ही। मास्टर सर्वशक्तिमान की स्मृति में रहने वाले कभी घबरा नहीं सकते।

सभी एवररेडी हो गये हो या थोड़ा-थोड़ा अभी तैयार होना है? कल विनाश आ जाये तो तैयार हो? कि सोचेंगे कि अभी ये करना था एवररेडी हो, सम्पूर्ण हो गये हो? (सम्पूर्ण बनना है) तो एवररेडी कैसे हुए? बनना है तो देरी है ना। ऐसे नहीं सोचना कि उस समय हो जायेंगे। इसके लिए बहुत समय का अभ्यास चाहिये। अगर उस समय कोशिश करेंगे तो मुश्किल है, हो नहीं सकेंगे, टिक नहीं सकेंगे। इसीलिये अभी से एवररेडी के संस्कार इमर्ज करो।

माताओं को विशेष खुशी है ना कि क्या से क्या बन गये! दुनिया वालों ने जितना गिराया, बाप ने उतना ही चढ़ा दिया। माताओं को कभी दु:ख की लहर आती है? अच्छा-पाण्डवों को कभी दु:ख की लहर आती है? बिजनेस में, नौकरी में नुकसान हो जाये तो! देवाला निकल जाए तो? इतने पक्के हो? क्योंकि निश्चय है अगर बाप के सच्चे बच्चे बने, तो बाप दाल रोटी खिलाते रहेंगे। ज्यादा नहीं देगा लेकिन दाल रोटी देगा। चाहिये भी क्या? दाल-रोटी ही चाहिये ना। रोटी नहीं तो चावल ही मिल जायेगा। इतना पक्का निश्चय है ना। बस ऐसे ही निश्चय में अटल, अखण्ड, अटल उड़ते रहो।

ग्रुप नं. 4

श्रेष्ठ कर्म का आधार - श्रेष्ठ स्मृति

अपने को सदा संगमयुगी श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा अनुभव करते हो? श्रेष्ठ ब्राह्मण अर्थात् जिन्हों का हर संकल्प, हर सेकण्ड श्रेष्ठ हो। ऐसे श्रेष्ठ बने हो कि कभी साधारण, कभी श्रेष्ठ? अभी साधारण और श्रेष्ठ दोनों चलते हैं या सिर्फ श्रेष्ठ चलते हैं? क्या होता है? थोड़ा-थोड़ा चलता है? तो सदैव मैं ऊंचे से ऊंची श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा हूँ - यह स्मृति इमर्ज रखो। देखो, जो आजकल के नामधारी ब्राह्मण हैं, उन ब्राह्मणों से भी कौन-सा कार्य कराते हैं? जहाँ कोई श्रेष्ठ कार्य होगा तो ब्राह्मणों को बुलाते हैं। तो यह आप लोगों के यादगार हैं ना। क्योंकि आप श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने सदा श्रेष्ठ कार्य किया है, तभी अब तक भी यादगार में ब्राह्मण श्रेष्ठ कार्य के निमित्त हैं। अगर कोई ब्राह्मण ऐसा कोई काम कर लेता है तो उसको कहते हैं यह ब्राह्मण नहीं है। तो ब्राह्मण अर्थात् श्रेष्ठ कार्य करने वाले, श्रेष्ठ सोचने वाले, श्रेष्ठ बोलने वाले। तो जैसा कुल होता है वैसे कुल के प्रमाण कर्तव्य होता है। अगर कोई श्रेष्ठ कुल वाला ऐसा-वैसा काम करे तो उसको शर्मवाते हैं कि ये क्या करते हो! तो अपने आपसे पूछो कि मैं ब्राह्मण ऊंचे से ऊंची आत्मा हूँ, श्रेष्ठ आत्मा हूँ तो कोई भी ऐसा कार्य कर कैसे सकते। क्योंकि श्रेष्ठ कर्म का आधार है श्रेष्ठ स्मृति। स्मृति श्रेष्ठ है तो कर्म स्वत: ही श्रेष्ठ होंगे। तो सदा यह श्रेष्ठ स्मृति रखो कि हम श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं। यह तो सदा याद रहता है या याद करना पड़ता है? कभी शरीर को याद करते हो कि मैं फलाना हूँ, मैं फलानी हूँ? क्योंकि याद तब किया जाता है जब भूलते हैं। अगर कोई बात भूली नहीं तो याद करनी पड़ेगी। तो मैं ब्राह्मण आत्मा हूँ यह भी स्वत: याद रहे, न कि करना पड़े। तो स्वत: और सदा याद रहे कि ‘‘मैं श्रेष्ठ ब्राह्मण आत्मा हूँ’’। जब तक ब्राह्मण जीवन है तब तक ये स्वत: याद रहे।

अच्छा, महाराष्ट्र अथवा आंध्रा वाले अब कोई नई बात करके दिखाओ तभी तो कहेंगे कमाल किया है। कोई नई इन्वेन्शन करके, कोई नवीनता करके दिखाओ, जो सब कहें कि यह तो हम भी करेंगे। कमाल उसको कहा जाता है जो किसी ने किया नहीं हो और आप करके दिखाओ। जो सब कर रहे हैं वो करेंगे तो कमाल नहीं कहेंगे। ऐसा कोई प्लैन बनाओ जिसमें कम खर्चा, कम समय और रिजल्ट सौ गुना से भी ज्यादा। कम समय में रिजल्ट सौ गुना निकलना - इसको कहा जाता है कमाल। तो अगले वर्ष जब आयेंगे तो नया कार्य करके ही आयेंगे ना कि फिर कहेंगे करेंगे! ‘करेंगे, करेंगे’ तो नहीं कहेंगे ना।

ग्रुप नं. 5

हर कदम में पदमों की कमाई जमा करने का युग-संगमयुग

(डबल विदेशी भाई बहिनों से)

पने को पदमापदम भाग्यवान समझते हो? हर कदम में पदमों की कमाई जमा हो रही है? तो कितने पदम जमा किये हैं? अनगिनत हैं? क्योंकि जानते हैं कि जमा करने का समय अब है। सतयुग में जमा नहीं होगा। कर्म वहाँ भी होंगे लेकिन अकर्म होंगे। क्योंकि वहाँ के कर्म का सम्बन्ध भी यहाँ के कर्मों के फल के हिसाब में है। तो यहाँ है करने का समय और वहाँ है खाने का समय। तो इतना अटेन्शन रहता है? कितने जन्मों के लिये जमा करना है? (84) जमा करने में खुशी होती है ना? मेहनत तो नहीं लगती? क्यों नहीं मेहनत महसूस होती है? क्योंकि प्रत्यक्षफल भी मिलता है। प्रत्यक्षफल मिलता है कि भविष्य के आधार पर चल रहे हो? भविष्य से भी प्रत्यक्षफल अति श्रेष्ठ है। सदा ही श्रेष्ठ कर्म और श्रेष्ठ प्रत्यक्षफल मिलने का साधन है कि सदा ये याद रखो कि ‘‘ अब नहीं तो कब नहीं।’’ जैसे नाम है डबल फॉरेनर्स, तो डबल का टाइटिल बहुत अच्छा है। तो सबमें डबल-खुशी में, नशे में, पुरूषार्थ में, सबमें डबल। सेवा में भी डबल। और रहते भी सदा डबल हो, कम्बाइन्ड, सिंगल नहीं। कभी डबल होने का संकल्प तो नहीं आता? कम्पनी चाहिये या कम्पैनियन चाहिये? चाहिये तो बता दो। ऐसे नहीं करना कि वहाँ जाकर कहो कम्पैनियन चाहिये। कितने भी कम्पैनियन करो लेकिन ऐसा कम्पैनियन नहीं मिल सकता। कितने भी अच्छे कम्पैनियन हो लेकिन सब लेने वाले होंगे, देने वाले नहीं। इस वर्ल्ड में ऐसा कम्पैनियन कोई है? अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका आदि में थोड़ा ढूंढ कर आओ, मिलता है! क्योंकि मनुष्यात्मायें कितने भी देने वाले बनें फिर भी देते-देते लेंगे जरूर। तो जब दाता कम्पैनियन मिले तो क्या करना चाहिये? कहाँ भी जाओ, फिर आना ही पड़ेगा। ये सब जाने वाले नहीं हैं। कोई कमज़ोर तो नहीं हैं? फोटो निकल रहा है। फिर आपको फोटो भेजेंगे कि आपने कहा था। कहो यह होना ही नहीं है। बापदादा भी आप सबके बिना अकेला नहीं रह सकता।

क्रिसमस वा बड़े दिन की मुबारक: -

क्रिसमस मना लिया कि अभी मनायेंगे? क्रिसमस का अर्थ ही है फादर द्वारा गिफ्ट लेना। वो क्रिसमस फादर है और यह गॉड फादर है। तो क्रिसमस फादर क्या देता है? छोटी-छोटी गिफ्ट देंगे। और गॉड फादर क्या गिफ्ट देता है? जन्म-जन्म के लिये सर्वश्रेष्ठ प्राप्तियों के अधिकारी बना देते हैं। स्वर्ग हाथ में दे देते हैं। स्वर्ग आपके हाथ में है? यह आपका चित्र है या सिर्फ ब्रह्मा बाप का है ? क्योंकि चित्र में तो एक ही दिखाया जाता है? लेकिन अधिकारी सभी बनते हैं। ये नशा है?

ये बड़ा दिन कहकर मनाते हैं लेकिन आपका हर घड़ी बड़ी घड़ी हो गई। क्योंकि एक सेकण्ड में कितनी कमाई करते हो तो बड़ी हो गई ना! और क्रिसमस की निशानी क्या दिखाते हैं? (क्रिसमस ट्री) तो संगम पर आपको भी ट्री का नॉलेज मिला है ना। आपकी ट्री कितनी बड़ी है! तो आप कहाँ बैठे हो? कल्प ट्री के अन्दर बैठे हो। यह संगमयुग की यादगार एक दिन करके मनाते हैं। तो क्रिसमस की मुबारक मिली? ये मिलना ही मुबारक है। अच्छा!



31-12-93   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नये वर्ष में सदा उमंग-उत्साह में उड़ना और सर्व के प्रति महादानी, वरदानी बन व्यर्थ को समाप्त करना

नव जीवन दे उड़ती कला में उड़ाने वाले, नव युग के रचयिता शिवबाबा अपने आधारमूर्त बच्चों प्रति बोले-

आज नव युग नई सृष्टि के रचता बापदादा अपने नवयुग के आधारमूर्त बच्चों को देख रहे हैं। बापदादा के साथ-साथ आप सभी बच्चे सदा सहयोगी हो, इसलिये आप ही आधारमूर्त हो। दुनिया के हिसाब से आज का दिन वर्ष का संगम है। पुराना वर्ष जा रहा है और नया वर्ष आ रहा है। ये है वर्ष का संगम दिन और आप बैठे हो बेहद के संगमयुग पर। आप सभी नव वर्ष के साथ-साथ नव युग की सभी को मुबारक देते हो। एक दिन की मुबारक नहीं, लेकिन नव युग के अनेक जन्मों की मुबारक देते हो। इस संगम पर अच्छी तरह से अनुभव करते हो कि इस समय हम ब्राह्मण आत्माओं की नई जीवन है। नई जीवन में आ गये हो ना। ब्राह्मणों का संसार ही नया है। अमृतवेले से देखो तो नई रीत, नई प्रीत है। पुरानी दुनिया की दिनचर्या और नये जीवन ब्राह्मण जीवन की दिनचर्या में कितना अन्तर है! सब नया हो गया-स्मृति नई, वृत्ति नई, दृष्टि नई, सब बदल गया ना। और नई जीवन कितनी प्यारी लगती है! वैसे भी नई चीज़ सबको प्यारी लगती है। पुरानी चीज़ छोड़ना चाहते हैं और नई चीज़ लेना चाहते हैं। तो इस समय का यह छोटा-सा नया संसार है। संसार भी नया और संस्कार भी नये। इसलिये दुनिया वाले भी नये वर्ष को धूमधाम से मनाते हैं।

मनाने का अर्थ है उमंग-उत्साह में आना। उत्साह होता है, इसीलिये मनाने के दिन को उत्सव कहा जाता है। उत्साह से ही एक-दो को बधाइयां वा मुबारक देते हैं वा ग्रीटिंग्स देते हैं। आप ब्राह्मण आत्माओं के लिये हर दिन उत्सव है। सदा उत्सव अर्थात् उमंग-उत्साह में रहते हो। यह उमंग-उत्साह ही ब्राह्मण जीवन है। दुनिया की रीति प्रमाण विशेष दिन को मनाते हो, आज मनाने के लिये इकठ्ठे हुए हो ना। लेकिन आपका नव युग नई जीवन का उमंग-उत्साह सदा ही है। ऐसे नहीं कि 2 तारीख हो जायेगी तो उमंग-उत्साह खलास हो जायेगा, एक मास हो गया तो और खत्म हो जायेगा। हर दिन उमंग-उत्साह बढ़ता जाता है, कम नहीं होता। ऐसे है ना? कि अपने-अपने स्थान पर जायेंगे तो उत्साह खत्म हो जायेगा? हर घड़ी उमंग-उत्साह की है। क्योंकि उमंग-उत्साह ही आप ब्राह्मणों की उड़ती कला के पंख है। इस उमंग-उत्साह के पंखों से सदा उड़ते रहते हो। अगर कार्य अर्थ कर्म में भी आते हो फिर भी उड़ती कला की स्थिति से कर्मयोगी बन कर्म में आते हो। तो उड़ती कला वाले हो ना, तो बिना पंखों के तो उड़ नहीं सकते। यह उमंग-उत्साह उड़ती कला के पंख सदा साथ हैं। यह उमंग-उत्साह आप ब्राह्मणों के लिये बड़े से बड़ी शक्ति है। नीरस जीवन नहीं है। दुनिया वाले तो कहेंगे कि क्या करें, रस नहीं है, नीरस है, बेरस है और आप क्या कहेंगे उमंग-उत्साह का रस है ही है। कभी दिलशिकस्त नहीं हो सकते हो। सदा दिल खुश। कैसी भी मुश्किल बात हो, लेकिन उमंग-उत्साह मुश्किल को सहज कर देता है। उत्साह तूफान को भी तोहफा बना देता है, पहाड़ को भी राई नहीं लेकिन रूई बना देता है। उत्साह किसी भी परीक्षा वा समस्या को मनोरंजन अनुभव कराता है। इसलिये उमंग-उत्साह में रहने वाले नव युग के आधारमूर्त नव जीवन वाले ब्राह्मण आत्मायें हो। अपने को जानते हो। मानते भी हो या सिर्फ जानते हो? क्या कहेंगे? जानते भी हैं, मानते भी हैं और उसी में चलते भी हैं। सदा यह उत्साह रहता है कि कल्प पहले भी हम ही थे, अब भी हैं और अनेक बार हम ही बनेंगे। तो अविनाशी उत्साह हो गया ना। थे, हैं और सदा होंगे-तीनों काल का हो गया ना। पास्ट, प्रेजन्ट और फ्युचर-तीन काल हो गये। तो अविनाशी हो गया ना। बापदादा देख रहे थे कि अविनाशी उमंग-उत्साह में रहने वाली आत्मायें नम्बरवार हैं या सब नम्बरवन हैं?जब हैं ही निश्चयबुद्धि विजयी तो विजयी तो जरूर नम्बरवन होंगे ना, नम्बरवार थोड़ेही होंगे।

तो सदा नव जीवन के इस उत्साह में उड़ते चलो क्योंकि आप आधारमूर्त हो। सिर्फ अपने जीवन के लिये आधार नहीं हो लेकिन विश्व के सर्व आत्माओं के आधारमूर्त हो। आपकी श्रेष्ठ वृत्ति से विश्व का वातावरण परिवर्तन हो रहा है। आपके पवित्र दृष्टि से विश्व की आत्मायें और प्रकृति - दोनों पवित्र बन रही हैं। आपके दृष्टि से सृष्टि बदल रही है। आपके श्रेष्ठ कर्मों से श्रेष्ठाचारी दुनिया बन रही है। तो कितनी जिम्मेवारी है! विश्व की जिम्मेवारी का ताज पहना हुआ है ना? कि कभी भारी लगता है तो उतार देते हो? क्या करते हो? जो डबल लाइट रहते हैं उनको ये जिम्मेवारी का ताज भी सदा लाइट (हल्का) अनुभव होगा, भारी नहीं लगेगा। इस समय के ताजधारी भविष्य के ताजधारी बनते हैं। तो नये वर्ष में क्या करेंगे? अव्यक्त वर्ष भी मनाया, अव्यक्त वर्ष अर्थात् फरिश्ता बन गये, कि अभी बनना है? फरिश्ते क्या करते हैं?

अव्यक्त का अर्थ ही है फरिश्ता। वर्ष पूरा किया तो फरिश्ता बने ना, कि नहीं? अव्यक्त वर्ष अभी लम्बा कर दें? दो वर्ष का एक वर्ष बना दें? अभी और आगे बढ़ना है ना। अव्यक्त वर्ष मनाया, अब फरिश्ता बनकर क्या करेंगे?

सदा हर दिन, हर समय महादानी और वरदानी बनना है। तो यह वर्ष महादानी वरदानी वर्ष मनाओ। जो भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आये उस आत्मा को महादानी बन कोई न कोई शक्ति का, ज्ञान का, गुण का दान देना ही है। तीनों खज़ाने कितने भरपूर हो गये हैं! ज्ञान का खज़ाना भरपूर है, कि थोड़ा कम है? मास्टर नॉलेजफुल हो ना। तो ज्ञान का खज़ाना भी है, शक्तियों का खज़ाना भी है और गुणों का खज़ाना भी है। तीनों में सम्पन्न हो, कि एक में सम्पन्न हो, दो में नहीं? वर्तमान समय आत्माओं को तीनों की बहुत आवश्यकता है। सारे दिन में कोई न कोई दान देना ही है, चाहे ज्ञान का, चाहे शक्तियों का, चाहे गुणों का, लेकिन देना ही है। महादानी आत्माओं का बिना दान दिये हुए कोई भी दिन न हो। ऐसे नहीं, वर्ष पूरा हो जाये और कहो हमें तो चान्स नहीं मिला। चान्स लेना भी अपने ऊपर है कि चान्स देने वाला दे तब चान्स ले सकते हैं या स्वयं भी चांस ले सकते हैं लेना आता है? कि कोई देवे तो लेना आता है? कोई चान्स नहीं देगा तो क्या करेंगे? देखते, सोचते रहेंगे? सारे दिन में चाहे ब्राह्मण आत्माओं के, चाहे अज्ञानी आत्माओं के सम्बन्ध-सम्पर्क में तो आते ही हो ना, जिसके भी सम्बन्ध-सम्पर्क में आओ उनको कोई न कोई दान अर्थात् सहयोग दो। दान शब्द का रूहानी अर्थ है सहयोग देना। तो रोज महादानी वा वरदानी बन वरदान कैसे देंगे? वरदान देने की विधि क्या है? आपके जड़ चित्र तो अभी तक वरदान दे रहे हैं। तो वरदान देने की विधि है-जो भी आत्मा सम्बन्ध-सम्पर्क में आये उनको अपने स्थिति के वायुमण्डल द्वारा और अपने वृत्ति के वायब्रेशन्स द्वारा सहयोग देना अर्थात् वरदान देना। कैसी भी आत्मा हो, गाली देने वाली भी हो, निन्दा करने वाली हो लेकिन अपनी शुभ भावना, शुभ कामना द्वारा, वृत्ति द्वारा, स्थिति द्वारा ऐसी आत्मा को भी गुण दान या सहनशीलता की शक्ति का वरदान दो। अगर कोई क्रोध अग्नि में जलता हुआ आपके सामने आये तो आग में तेल डालेंगे या पानी डालेंगे? पानी डालेंगे ना कि थोड़ा तेल का भी छींटा डालेंगे? अगर क्रोधी के आगे आपने मुख से क्रोध नहीं किया, मुख से तो शान्त रहे लेकिन आंखों द्वारा, चेहरे द्वारा क्रोध की भावना रखी तो भी तेल के छींटे डाले। क्रोधी आत्मा परवश है, रहम के शीतल जल द्वारा वरदान दो। तो ऐसे वरदानी बने हो? कि जिस समय आवश्यकता है उस समय सहनशक्ति का तीर नहीं चलता है? अगर समय पर कोई भी अमूल्य वस्तु कार्य में नहीं लगी तो उसको अमूल्य कहा जायेगा? अमूल्य अर्थात् समय पर मूल्य कार्य में लगे। तो इस वर्ष क्या करेंगे? महादानी, वरदानी बनो। चैतन्य में संस्कार भरते हो तब तो जड़ चित्रों द्वारा भी वरदानी मूर्त बनते हो। संस्कार तो अभी भरने है ना, कि जिस समय मूर्ति बनेगी उस समय भरेंगे?

महादानी-वरदानी मूर्त बनने से व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जायेगा। क्योंकि जो महादानी हैं, वरदानी हैं, दूसरे को देने वाले दाता हैं तो दाता का अर्थ ही है समर्थ। समर्थ होगा तब तो देगा। तो जहाँ समर्थ है वहाँ व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जाता है। समर्थ स्थिति है स्विच ऑन होना। जैसे इस स्थूल लाइट का स्विच ऑन करना अर्थात् अन्धकार को समाप्त करना, ऐसे समर्थ स्थिति अर्थात् स्विच ऑन करना। तो स्विच ठीक है या कभी ठीक, कभी लूज हो जाता है या फ्यूज हो जाता है? ऑन करना तो आता है ना। आजकल तो छोटे-छोटे बच्चे भी स्विच ऑन करने में होशियार होते हैं। टी.वी. का स्विच ऑन कर देते हैं ना। तो स्विच ऑन होने से एक-एक व्यर्थ संकल्प को समाप्त करने की मेहनत से छूट जायेंगे। अव्यक्त फरिश्तों का यही श्रेष्ठ कार्य है। और क्या नवीनता करेंगे? अव्यक्त वर्ष में अपना चार्ट रखा था कि कभी रखा, कभी नहीं रखा? कभी-कभी वाले बने या सदा वाले बनें? कभी-कभी वाले ज्यादा हैं।

इस नये वर्ष में नया चार्ट रखना। क्या नया चार्ट रखेंगे? चार सब्जेक्ट को तो अच्छी तरह से जानते हो। तो इस वर्ष का यही चार्ट रखना कि चारों ही सब्जेक्ट में-चाहे ज्ञान में, चाहे योग में, धारणा में, सेवा में, हर सब्जेक्ट में हर रोज कोई न कोई नवीनता लानी है। ज्ञान अर्थात् समझदार बनना, समझ देना और समझदार बन चलना। ज्ञान में भी नवीनता का अर्थ है जो अपने में कमी है उसको धारण किया तो नवीनता हुई ना। ना से हाँ हुई तो नया हुआ ना। इसी रीति से योग के प्रयोग में हर रोज कोई न कोई नया अनुभव करो। योग में बहुत अच्छे बैठे, बहुत अच्छा योग लगा, लेकिन नवीनता क्या हुई? परसेन्टेज बढ़ना भी नवीनता है। आज अगर आपकी परसेन्टेज योग की 50% है और कल 50 से वृद्धि हो गई तो नवीनता हो गई। ऐसे नहीं कि एक ही मास में 50-50 लगाते जाओ। तो चारों ही सब्जेक्ट में स्व के प्रगति में नवीनता, विधि में नवीनता, प्रयोग में नवीनता, औरों को सहज योगी बनाने में और परसेन्टेज बढ़ना माना नवीनता। किसको दु:ख दिया, किसको क्रोध किया-यह तो कॉमन चार्ट है। यह तो आपकी जो रॉयल प्रजा है वह भी रखती है। आप रॉयल प्रजा हो वा राजा हो? तो नवीनता से स्वत: ही तीव्र पुरूषार्थ के समीपता की अनुभूति होती रहेगी। समझा क्या चार्ट रखना है? और हर तीन मास में रोज का नहीं यहाँ भेजना, काम बढ़ जायेगा। इस वर्ष तो आपको इकॉनामी भी करनी है ना। यह वर्ष विशेष इकॉनॉमी का है। एक नामी और इकॉनामी। ज्ञान सरोवर बना रहे हो तो सबमें इकॉनामी करना। सब खज़ानों में, समय में भी, संकल्प में भी, सम्पत्ति में भी, सबमें इकॉनामी। तो हर तीन मास का स्वयं ही साक्षी हो कर चार्ट चेक करके शॉर्ट में अपना समाचार देना। हर तीन मास में देखना-प्रगति है या जैसे हैं वैसे ही हैं? गिरती कला में तो जाना नहीं। लेकिन ऐसा भी नहीं कि जैसा है, वैसा ही हो। पुरूषार्थ में मिडगेट नहीं बनना। मिडगेट अच्छा लगेगा! ऐसे नहीं कहना कि चाहते तो थे लेकिन क्या करें. . .! क्या-क्या नहीं कहना। ब्राह्मणों की यह भाषा है-क्या करें, कैसे करें, ऐसा करें तो क्या. . . लेकिन दूसरों को भी सहयोग दो कि ऐसे करो। समझा क्या चार्ट रखना है? अब देखेंगे कौन-कौन क्या-क्या करता है?

बापदादा स्नेह के कारण नाम एनाउन्स नहीं करते हैं। किसने क्या-क्या किया, जानते तो हैं ना। आजकल टी.वी. का फैशन है बापदादा के पास भी टी.वी. है। बापदादा जानते हैं जो पिछले वर्ष काम दिया वो किसने कितना किया?नाम एनाउन्स करें-हाफ कास्ट कितने रहे, फुल कॉस्ट कितने रहे?

तो इस वर्ष महादानी-वरदानी मूर्त स्वयं प्रति भी और सर्व प्रति भी बनो और हर रोज कोई न कोई नवीनता अर्थात् प्रोग्रेस अवश्य करो। तो ये हुआ स्व के पुरूषार्थ के प्रति। सेवा में क्या करेंगे? सेवा में भी नवीनता लानी है ना। मेले भी बहुत कर लिये, प्रदर्शनियां तो अनगिनत कर लीं, सेमीनार-कोन्फेरेंस भी बहुत की, अभी आवाज बुलन्द करने वाले माइक तो तैयार करने ही हैं लेकिन उसकी विधि क्या है? वैसे पहले भी सुनाया है लेकिन किया कम है। सेवा की रिजल्ट में देखा गया है कि बड़े निमित्त आत्माओं को समीप लाने के पहले चाहे कोई नेता है, चाहे कोई बड़े इन्डस्ट्रियलिस्ट हैं, चाहे कोई बड़े ऑफीसर हैं, लेकिन उन्हों को समीप लाने का साधन है उन्हों के सेक्रेटरी को अच्छी तरह से समीप लाओ। आप लोग बड़ों के ऊपर टाइम देते हो। वो अच्छा-अच्छा कहकर फिर सो जाते हैं। उन्हों को फिर जगाने के लिये इतना टाइम तो मिलता नहीं, न वो देते हैं, न आप जा सकते हो, इसलिये सेक्रेटरी जो होते हैं वो बदलते भी नहीं हैं, बड़े तो सब बदल भी जाते हैं। आज एक मिनिस्टर की सेवा करते हो और कल वो प्रजा बन जाता है। सेक्रेटरी काफी सहयोगी बन सकते हैं। तो किसी भी वर्ग की सेवा में इस वर्ष विशेष सेक्रेटरी, मैनेजर्स या प्राइवेट असिस्टेन्ट जो भी शक्तिशाली हों, बड़ों के समीप हों, उन आत्माओं की सेवा विशेष करो।

दूसरी बात, पहले भी इशारा दिया है कि वर्तमान समय ‘कम खर्चा और नाम बाला’ उसकी विधि है कि जो भी छोटी या बड़ी संस्थायें हैं, एसोसिएशन्स हैं उन्हों से सम्बन्ध-सम्पर्क रखो, बनी-बनाई स्टेज पर नाम बाला करो। कम खर्चा, नाम बाला। करते हो लेकिन और तीव्र गति से। हर देश में या हर गांव में या हर जिले में जो भी भिन्न-भिन्न प्रकार के एसोसिएशन्स हैं या बहुत वर्ग के कार्य करने वाले हैं, कोन्फेरेंस करने वाले हैं या सम्मेलन करते हैं तो बनी-बनाई स्टेज पर सन्देश दो। तो समय और मेहनत, दोनों बच जायेंगी। अभी इसको तीव्र गति में लाओ। चेक करो कि जिस देश के या जिस स्थान के निमित्त बने हैं उस स्थान की कोई भी संस्था वंचित नहीं रह जाये। क्योंकि वर्तमान समय वायुमण्डल परिवर्तन हो गया है। अभी डर कम है, स्नेह ज्यादा है, अच्छा मानते हैं। अच्छा बनते नहीं हैं लेकिन अच्छा मानते हैं। इसलिये इस दो प्रकार की सेवा को और अन्डरलाइन करो तो सहज माइक तैयार हो जायेंगे। नया वर्ष शुरू किया है तो नया विधि और विधान भी चाहिये ना।

इस नये वर्ष का अमृतवेले सदा यह स्लोगन इमर्ज करना कि ‘‘सदा उमंग-उत्साह में उड़ना है और दूसरों को भी उड़ाना है।’’ बीच-बीच में चेक करना। ऐसे नहीं कि अमृतवेले चेक करो और सारा दिन मर्ज कर दो। फिर रात को सोचो कि आज का दिन तो ऐसे ही रहा। नहीं, बीच-बीच में चेक करो, इमर्ज करो कि उमंग-उत्साह के बजाय कोई और रास्ते पर तो नहीं चले गये? उड़ती कला के बजाय और किसी कला ने तो अपने तरफ आकर्षित नहीं किया? अच्छा!

चारों ओर के नव जीवन अनुभव करने वाले सर्व ब्राह्मण बच्चों को, सदा नव युग के आधारमूर्त श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा संकल्प, बोल और कर्म द्वारा महादानी-वरदानी आत्माओं को, सदा स्वयं की स्थिति द्वारा औरों की परिस्थिति को भी सहज बनाने वाली समर्थ आत्माओं को, सदा हर दिन स्वयं में प्रगति अर्थात् नवीनता अनुभव करने वाले समीप आत्माओं को, सदा एकनामी और इकॉनामी करने वाले बाप समान समीप आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

निमित्त आत्मायें हर समय प्रत्यक्षफल खाने वाली। भविष्य तो आपके लिये निश्चित है ही , वह तो होना ही है। लेकिन प्रत्यक्ष फल कितना प्यारा है! अभी-अभी किया और अभी-अभी श्रेष्ठ प्राप्ति की अनुभूति करते ही रहते हो। सबसे श्रेष्ठ प्रत्यक्ष फल है-समीपता का अनुभव होना और समीपता की निशानी है-समान बनना। प्रत्यक्ष फल खाने वाले हो इसीलिये सदा हेल्दी, वेल्दी और हैप्पी हो। कोई भी पूछेगा कैसे हो तो क्या कहेंगे? कहेंगे हेल्दी भी हैं, वेल्दी भी हैं और हैप्पी भी हैं। तो जैसे साकार दुनिया में आजकल कहते हैं ना कि फल खाओ तो तन्दरूस्त रहेंगे। हेल्दी रहने का साधन फल बताते हैं। और आप तो हर सेकण्ड प्रत्यक्ष फल खाते ही रहते हो, मिलता ही रहता है। तो सदा एवरहेल्दी हैं ही। बापदादा ने सुनाया था ना अगर ब्राह्मण बच्चों से कोई पूछे-क्या हाल है तो क्या कहेंगे? खुशहाल है। और चाल क्या है? फरिश्तों की चाल। फरिश्तों की चाल है और खुशहाल है। (सभा से पूछते हुए) सभी ऐसे हो ना या कभी कोई हालचाल में फर्क पड़ जाता है? एक-दो से मिलते हैं तो क्या पूछते हैं? ‘क्या हालचाल है?’ तो ब्राह्मण अर्थात् खुशहाल और फरिश्तों की चाल में सदा उड़ने वाले। तो नये वर्ष में हर सेकण्ड, हर संकल्प में खुशहाल रहना है। बेहाल नहीं, खुशहाल। नाचो, गाओ। नाचना, गाना आता है ना। तो गाओ और नाचो और क्या करना है? ब्रह्मा भोजन खाओ और नाचो और गाओ। कहाँ भी हो लेकिन याद में बनाते हो, याद में खाते हो तो ब्रह्मा भोजन है। तो ठीक है? सब अच्छे से अच्छा है।

अच्छा, डबल विदेशी डबल खुश होते हैं क्या? ऐसे नहीं-खुश भी बहुत हो और फिर कभी उदास भी बहुत हो जाओ, ऐसे नहीं करना। इस वर्ष में उदास या अकेलापन या व्यर्थ भाव लाना ही नहीं है। तब तो नई दुनिया को समीप लायेंगे ना। अच्छा! नये वर्ष में नया उमंग है, नया उत्साह है। अभी सभी को ऐसे नचाते-गाते रहना। अच्छा! हर समय मुबारक है ना। अविनाशी मुबारक। अच्छा!

महादानी-वरदानी

मूर्त बनने से व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जायेगा। क्योंकि दाता का अर्थ ही है समर्थ। जो महादानी हैं, वरदानी हैं, दूसरे को देने वाले दाता हैं वो समर्थ होगें। जहाँ समर्थ है वहाँ व्यर्थ स्वत: ही खत्म हो जाता है।

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

याद की छत्रछाया में रहो तो मायाजीत बन जायेंगे

भी सदा अपने को बाप की छत्रछाया में रहने वाले अनुभव करते हो? बाप की याद ही छत्रछाया है। जितना याद में रहते हैं उतना ही साथ का भी अनुभव होता है। छत्रछाया में रहने वाले अर्थात् सदा सेफ रहने वाले। जब संकल्प से भी छत्रछाया से बाहर निकलते हो तब माया का वार होता है। छत्रछाया में रहना अर्थात् मायाजीत विजयी बनना। तो सभी मायाजीत हो या कभी हार, कभी जीत है? मातायें क्या समझती हो? हार जीत का खेल तो नहीं करते हो ना? सभी छत्रछाया में रहने वाले सदा मायाजीत हैं। ये आपका ही यादगार है। मर्यादा अर्थात् याद की लकीर के अन्दर रहने से कोई की हिम्मत नहीं-अन्दर आने की। याद की लकीर से निकले तो माया तो है ही होशियार। आप होशियार हो या माया होशियार है? कभी हार नहीं होती? सदा विजयी आत्माओं का यादगार क्या है? विजय माला विजयी रत्नों की यादगार है। अनेक बार विजयी बने हैं तब तो यादगार बना है ना। अनेक बार के विजयी हैं-इस स्मृति से सदा समर्थ रहेंगे। जब अनेक बार किया हुआ कार्य है तो क्वेश्चन नहीं उठेगा कि कैसे करें, क्या करें। कोई नई बात तो है ही नहीं। कोई नई बात सुनी जाती है या करनी होती है तो क्वेश्चन उठता है-ऐसे करें, कैसे करें..। तो आपकी आत्मा में अनगिनत बार करने के संस्कार भरे हुए हैं। क्या होगा-ये संकल्प नहीं, लेकिन अच्छा ही हुआ पड़ा है। बाबा कहा और बाप के साथ का अनुभव उसी सेकेण्ड, उसी संकल्प में होता ही है। सेकण्ड की बात है। इतनी शक्ति है ना। मास्टर सर्वशक्तिमान का अर्थ ही है कि शक्तियां जमा हैं तब मास्टर सर्वशक्तिमान हो। क्या भी हो जाये, कैसी भी परिस्थिति आ जाये लेकिन मास्टर सर्वशक्तिमान हैं और सदा रहेंगे कि ऐसे कहेंगे कि इतनी बात तो सोची नहीं थी, ऐसा भी होता है क्या! ऐसे तो नहीं कहेंगे? क्योंकि माया भी जानती है कि कोई ऐसे नये रूप से आयें जो विचलित हों लेकिन किसी भी रूप में, कैसी भी परिस्थिति आये, मास्टर सर्वशक्तिमान कभी हलचल में नहीं आ सकते। बात बड़ी नहीं, आप बड़े से बड़े हो। यह नशा है ना? सिर्फ बढ़ते रहना, न ठहरना, न पीछे रहना। आगे- आगे उड़ते जाना। उड़ती कला वाले हो ना या कभी-कभी थोड़ी ठहरती कला भी अच्छी लगती है? चलते-चलते, उड़ते-उड़ते थक जाते हो तो ठहर जाते हो! तो सदा उड़ने वाले, कोई माया की स्टेशन पर रूकने वाले नहीं। कभी कुछ माया की वस्तु आकर्षित करे और स्टेशन पर उतर जाओ तो! सभी पक्के हो? हिम्मत अच्छी है। हिम्मत रखेंगे तो मदद मिलेगी। अपना राज्य तो नहीं है ना कि ऑर्डर करो और चलो। दूसरे के राज्य में अपना राज्य स्थापन कर रहे हो। ये तो नशा है ना कि अपना राज्य आया कि आया! लक्ष्मी-नारायण का राज्य आयेगा कि आपका राज्य आयेगा? आप सभी का राज्य होगा। जो अपनी चीज़ होती है उसका नशा जरूर रहता है। ये अपना राज्य है। कभी भी दिल में ऐसा संकल्प नहीं आयेगा कि पता नहीं, राजा बनूँगा या प्रजा बनूँगा? राजा तो बनेंगे लेकिन प्रजा बनाई है? इतने सारे राजा बनेंगे तो प्रजा भी तो इतनी चाहिये। तो बापदादा भी बच्चों का निश्चय और नशा देख खुश होते हैं। इस नये साल में कुछ भी हो जाए लेकिन यह तीव्र पुरूषार्थ नहीं छोड़ना। ऐसे पक्के रहना। यह पत्र नहीं लिखना कि क्या करें.. माया आ गई.. ये हो गया... ये कर लिया..क्या पत्र लिखेंगे? बस, दो अक्षर ही लिखो-ध्.ख्. लम्बे-चौड़े पत्र नहीं लिखो। मैं भी खुश और सभी मेरे से खुश, बस यही लाइन लिखो। क्योंकि और भी सर्टीफिकेट दे ना, या सिर्फ स्वयं ही कहो कि मैं ठीक हूँ! अच्छा!

ग्रुप नं. 2

परमात्म प्यार ही ब्राह्मण जीवन का आधार है, न्यारे बनो तो इस प्यार के पात्र बन जायेंगे

भी अपने को प्रवृत्ति में रहते न्यारे और प्यारे अनुभव करते हो? कि प्रवृत्ति में रहने से प्रवृत्ति के प्यारे हो जाते हो, न्यारे नहीं हो सकते हो? जो न्यारा रहता है वही हर कर्म में प्रभु प्यार अर्थात् बाप के प्यार का अनुभव करता है। अगर न्यारे नहीं रहते तो परमात्म प्यार का अनुभव भी नहीं करते और परमात्म प्यार ही ब्राह्मण जीवन का विशेष आधार है। वैसे भी कहा जाता है कि प्यार है तो जीवन है, प्यार नहीं तो जीवन नहीं। तो ब्राह्मण जीवन का आधार है ही परमात्म प्यार और वह तब मिलेगा जब न्यारे रहेंगे। लगाव है तो परमात्म प्यार नहीं। न्यारा है तो प्यार मिलेगा। इसीलिये गायन है जितना न्यारा उतना प्यारा। वैसे स्थूल रूप में लौकिक जीवन में अगर कोई न्यारा हो जाये तो कहेंगे कि ये प्यार का पात्र नहीं है। लेकिन यहाँ जितना न्यारा उतना प्यारा। जरा भी लगाव नहीं, लेकिन सेवाधारी। अगर प्रवृत्ति में रहते हो तो सेवा के लिये रहते हो। कभी भी यह नहीं समझो कि हिसाब-किताब है, कर्म बन्धन है .. लेकिन सेवा है। सेवा के बन्धन में बंधने से कर्म-बन्धन खत्म हो जाता है। जब तक सेवा भाव नहीं होता तो कर्मबन्धन खींचता रहता है। बाप ने डायरेक्शन दिया है उसी श्रीमत पर रहे हुए हो, अपने हिसाब किताब से नहीं। कर्मबन्धन है या सेवा का बन्धन है .. उसकी निशानी है अगर कर्म बन्धन होगा तो दु:ख की लहर आयेगी और सेवा का बन्धन होगा तो दु:ख की लहर नहीं आयेगी, खुशी होगी। तो कभी भी किसी भी समय अगर दु:ख की लहर आती है तो समझो कर्मबन्धन है। कर्मबन्धन को बदलकर सेवा का बन्धन नहीं बनाया है। परिवर्तन करना नहीं आया है। विश्व सेवाधारी हैं, तो विश्व में जहाँ भी हो तो विश्व सेवा अर्थ हो। यह पक्का याद रहता है या कभी कर्मबन्धन में फंस भी जाते हो? सेवाधारी कभी फंसेगा नहीं। वो न्यारा और प्यारा रहेगा। समझते तो हो कि न्यारे रहना है लेकिन जब कोई परिस्थिति आती है तो उस समय न्यारे रहो। कोई परिस्थिति नहीं है, उस समय तो लौकिक में भी न्यारे रहते हो। लेकिन अलौकिक जीवन में सदा ही न्यारे। कभी-कभी न्यारे नहीं, सदा ही न्यारे। कभी-कभी वाले तो राज्य भी कभी-कभी करेंगे। सदा राज्य करना है तो सदा न्यारा भी रहना है ना। इसलिए सदा शब्द को अन्डरलाइन करो। सब संस्कार अभी भरने हैं। अगर अभी कभी-कभी के संस्कार भरे तो वही भरे हुए संस्कार ही काम करेंगे। जैसे रिकॉर्ड भरते हैं तो अगर थोड़ा भी नीचे ऊपर भर दिया तो वैसे ही भर जायेगा ना। तो संगम पर ही 84 जन्मों के श्रेष्ठ राज्य करने के ऊंचे पद के संस्कार भरते हो इसलिए अभी से हर पुरूषार्थ की सबजेक्ट में सदा शब्द देखो। चल रहे हैं, कर रहे हैं... नहीं, चल रहे हैं लेकिन किस गति से चल रहे हैं, कर रहे हैं लेकिन कैसा कर्म कर रहे हैं? यह तो चेक करना है ना।

तो न्यारे रहने की निशानी है-प्रभु प्यार की अनुभूति और जितना प्यार होता है उतना अलग नहीं होंगे, सदा साथ रहेंगे, प्यार उसको ही कहा जाता है जो साथ रहे। तो परमात्म प्यार अर्थात् सदा परमात्म साथ हो। कभी अपने को अकेले तो नहीं समझते हो? बाप साथ है ना। जब बाप साथ है तो बोझ अपने ऊपर नहीं उठाओ। बोझ बाप को देकर हल्के हो जाओ। बोझ रखते हो तो परेशान होते हो। हल्के रहो तो उड़ते रहेंगे। सब-कुछ बाप के हवाले कर दो। जब कुछ है ही नहीं तो बोझ काहे का? कुछ रखा है तभी बोझ है, तभी परेशानी है। बाप के हवाले नहीं किया है, थोड़ा छिपाकर, जेबखर्च रख लिया है क्या? जेब खर्च होता है तो कभी-कभी काम में आ जाता है। तो माताओं ने जेबखर्च रखा है? वैसे भी माताओं की आदत होती है-साड़ी में गठरी बांध कर रख लेती हैं। साड़ी के कोने में भी बांध लेती हैं। तो अच्छी तरह से देखो कहाँ छिपाकर रखा तो नहीं है? बाप के हवाले कर लिया अर्थात् नष्टोमोहा हो गये? पाण्डव नष्टोमोहा हैं? अच्छा नष्टो क्रोध हैं? नष्टो रोब हैं या थोड़ा-थोड़ा रोब आ जाता है? अधिकारी समझते हैं तो रोब आ जाता है। तो सिर्फ नष्टोमोहा नहीं, नष्टोक्रोध भी होना है। रोब भी नहीं। निर्मान। तो इस वर्ष क्या करेंगे? थोड़ा-थोड़ा रोब को छुट्टी देंगे? साल पूरा हुआ, रोब भी पूरा हुआ कि कभी-कभी उसको दोस्त बना लेंगे? काम की चीज़ नहीं है ना। ऐसे तो नहीं रोब तो करना पड़ेगा ना!

तो नष्टोमोहा अर्थात् न्यारा और प्यारा। रहते हुए भी न्यारा। तो मातायें सभी हिम्मत वाली हो? इस वर्ष में मोह नहीं आयेगा? मोह तो आधा कल्प का साथी है, ऐसे कैसे चला जायेगा! देख लिया ना नष्टोमोहा बनने से क्या होता और मोह रखने से क्या होता? तो देखेंगे अभी इस नये वर्ष में क्या कमाल करते हैं?

ग्रुप नं. 3

टाइटल की स्मृति से उसी स्थिति में स्थित होने का अनुभव करो

पने को सदा स्वदर्शन चक्रधारी आत्मा अनुभव करते हो? स्व का दर्शन अर्थात् स्व की पहचान। अच्छी तरह से स्व को पहचान लिया कि मैं कौन हूँ? अपने को अच्छी तरह से पहचाना है? सिर्फ मैं आत्मा हूँ-यह जानना ही जानना नहीं है लेकिन मैं कौन-सी आत्मा हूँ? ये स्मृति रहती है? आपके कितने टाइटल हैं? (बहुत हैं) तो टाइटल याद रहते हैं या भूल जाते हैं? कभी याद रहते हैं, कभी भूल जाते हैं? माया हार भी खिलाती रहे और कहते रहो कि मैं महावीर हूँ, ऐसे तो नहीं? क्योंकि जो टाइटल बाप द्वारा मिले हैं वह हैं ही स्थिति में स्थित होने के लिये। तो जैसे टाइटल याद आये वैसी स्थिति बन जाये। वैसी स्थिति बनती है या हिलती रहती है? जैसे लौकिक दुनिया में अगर कोई टाइटल मिलता है तो टाइटल के साथ-साथ वह सीट भी मिलती है ना। समझो जज का टाइटल मिला, तो वह जज की सीट भी मिलेगी ना। अगर जज की सीट पर नहीं बैठे तो कौन मानेगा कि ये जज है। अगर स्थिति नहीं है और सिर्फ बुद्धि में वर्णन करते रहते हो कि मैं स्वदर्शन चक्रधारी हूँ, मैं स्वदर्शन चक्रधारी हूँ और परदर्शन भी हो रहा है तो सीट पर सेट नहीं हुए ना। तो जो टाइटल स्मृति में लाते हो वैसी समर्थ स्थिति अवश्य चाहिये-तब कहेंगे कि हाँ यह स्वदर्शन चक्रधारी है, यह हीरो एक्टर है। एक्ट साधारण हो और कहे कि यह हीरो एक्टर है तो कौन मानेगा? और सदा ये याद रखो कि ये टाइटल देने वाला कौन? दुनिया में कितना भी बड़ा टाइटल हो लेकिन आत्मा, आत्मा को देगी। चाहे प्रेजीडेन्ट है या प्राइम मिनिस्टर है, लेकिन है कौन? आत्मा है ना। संगम पर स्वयं बाप बच्चों को टाइटल देते हैं। कितना नशा चाहिये! यह रूहानी नशा रहता है? देहभान का नशा नहीं। क्रोध कर रहे हैं और कहे कि मैं तो हूँ ही नूरे रत्न, ऐसा नशा नहीं। ऐसे तो नहीं करते हो? मातायें क्या करती हैं? घर में खिटखिट कर रहे हो और कहो कि हम तो हैं ही बाबा की अचल-अडोल आत्मायें! ऐसे तो नहीं करते? तो सदा अपने भिन्न-भिन्न टाइटल्स को स्मृति में रखो और उस स्थिति में स्थित होकर चलो फिर देखो कितना मजा आता है।

स्वदर्शन चक्रधारी अर्थात् सदा मायाजीत। स्वदर्शन चक्रधारी के आगे माया हिम्मत नहीं रख सकती। तो कभी-कभी माया आती है या चली गई? तो माया हार खाकर जाती है या हार खिला कर जाती है? माया से हार होती है? स्वदर्शन चक्र का गायन कल्प पहले का भी गाया हुआ है। तो स्वदर्शन चक्र के आगे कोई ठहर नहीं सका। तो कल्प पहले स्वदर्शन चक्रधारी कौन बने थे? आप थे या दूसरे कोई थे? कल्प पहले भी थे, और अब भी हैं और सदा आप ही होंगे। ये आपका पक्का अनुभव है ना?

अच्छा, ये वेरायटी ग्रुप है। लेकिन इस समय सभी कौन हो? कहाँ के हो? राजस्थान के हो, कर्नाटक के हो? या मधुबन के हो? आप सबकी ओरीजिनल एड्रेस कौन-सी है? माउण्ट है? मधुबन वाले हो ना। ये तो सेवा के कारण अलग-अलग स्थान पर गये हो। आत्मा के नाते एड्रेस है परमधाम और ब्राह्मण आत्मा के नाते से एड्रेस है मधुबन। तो खुशी है ना कि हम मधुबन वाले हैं! कहीं भी सेवा अर्थ हो लेकिन अपना असली एड्रेस भूलते हैं क्या! चाहे कलकत्ता में भी रहने वाले हों लेकिन कहेंगे ओरीजिनल हम राजस्थान के हैं। तो ब्राह्मण अर्थात् मधुबन निवासी। और ऐसे समझने से कभी भी अपने हद के सेवा-स्थान से लगाव नहीं होगा। तो सदैव प्रवृत्ति में रहते लक्ष्य रखो कि सेवा-स्थान पर सेवा के लिये हैं। जहाँ भी रहते हो वहाँ का वातावरण सेवा-स्थान जैसा बनाया है कि सेन्टर का वातावरण और है, घर का वातावरण और है? थोड़ा-थोड़ा मेरापन आ जाता है? कभी भी यह गृहस्थी का घर है, प्रवृत्ति है, ऐसे नहीं सोचो। प्रवृत्ति का अर्थ ही है पर-वृत्ति में रहने वाले, पर अर्थात् मेरापन नहीं। बाप का है तो पर-वृत्ति। ऐसे रहते हो कि बनाने की कोशिश कर रहे हो! क्या विनाश तक कोशिश करेंगे? कोई भी आये तो अनुभव करे कि ये न्यारे और प्रभु के प्यारे हैं। क्योंकि अभी अलौकिक हो गये ना। तो वातावरण भी लौकिक नहीं, अलौकिक। अलौकिक अर्थात् लौकिक से न्यारा। अभी देखेंगे नये वर्ष में नवीनता लाने में कौन नम्बर आगे लेते हैं? सभी नम्बरवन बनेंगे। कहना और करना-दोनों ही समान हो। ऐसे नहीं, कहे बहुत और करे थोड़ा। कहना और करना समान-इसी को ही ब्राह्मण कहा जाता है।

ग्रुप नं. 4

तीनों काल अच्छे से अच्छा होना ही ब्राह्मण जीवन की जन्म-पत्री है

पने को नव जीवन अर्थात् ब्राह्मण जीवन वाली आत्मायें अनुभव करते हो? सभी ब्राह्मण आत्मायें हो? तो नये जीवन में आपकी जन्म पत्री बदल गयी है या थोड़ी-थोड़ी पुरानी भी है? तो ब्राह्मणों की जन्म पत्री क्या है? आदि देवी-देवता हो और अभी बी.के. हो ना, पक्के? तो आपकी रोज की जन्म पत्री क्या है? गुरूवार अच्छा है, बुद्धवार अच्छा नहीं है, क्या कहेंगे? (हर दिन अच्छा है) तो जन्म पत्री बदल गयी ना। ब्राह्मणों की जन्म पत्री में तीनों ही काल अच्छे से अच्छा है। जो हुआ वह भी अच्छा और जो हो रहा है वो और अच्छा और जो होने वाला है वह बहुत-बहुत-बहुत अच्छा। सिर्फ कहने मात्र नहीं लेकिन ब्राह्मण जीवन की जन्म पत्री सदा ही अच्छे से अच्छी है। सभी के मस्तक पर श्रेष्ठ तकदीर की लकीर खींची हुई है। अपने तकदीर की लकीर देखी है? अच्छी है ना? कितने जन्मों की गैरेन्टी है? 21 या 84 जन्म? 84 जन्म में तो विदेशी बन गये। (सर्विस अर्थ बने) बहुत अच्छा उत्तर दिया। डबल विदेशी इसलिये बने कि विदेश में सेवा हो रही है। आपको भारत सेवाधारी नहीं कहते हैं, विश्व सेवाधारी कहते हैं। कोई भी स्थान नहीं छूटना चाहिये। इसलिये अलग-अलग स्थान पर पहुँचे हो। अगर आप लोग अपने देश में नहीं होते तो भारत से कहाँ तक जा सकते थे? इसलिये सेवा अर्थ पहुँच गये हैं। ये नशा रहता है? तो सेवा करते हो ना? क्योंकि ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य ही है याद और सेवा। याद के बिना भी रह नहीं सकते और सेवा के बिना भी रह नहीं सकते। याद और सेवा ऐसे नेचुरल हो जाये जैसे शरीर में श्वास नेचुरल है और कितनी आवश्यक है। ऐसे ब्राह्मण जीवन में याद और सेवा नेचुरल और आवश्यक है।

बहुत भाग्यवान हो जो भाग्यविधाता ने आपके भाग्य की रेखा श्रेष्ठ बना दी। भाग्यविधाता को अपना बना लिया। बनाया है ना! सभी क्या कहेंगे? ‘हमारा बाबा’। ‘मेरा’ तो कभी भूलता नहीं है। बापदादा डबल विदेशियों को देखकर खुश होते हैं कि कितना दूर-दूर रहते भी बाप के समीप पहुँच गये। देह से तो दूर हो लेकिन दिल से कितने समीप हो! सदा कहाँ रहते हो? बाप के दिल तख्त पर। सबसे महत्व दिल का होता है ना। अगर किसी से प्यार होता है तो कहेंगे दिल में समाये हुए हो। और आप लोग भी जब यादप्यार भेजते हो तो हार्ट ही भेजते हो ना। तो समीप रहना अर्थात् दिल तख्तनशीन होना। सभी दिल तख्तनशीन हैं कि कोई बांहों में हैं, कोई गले में हैं? दिल को ही दिल तख्त कहा जाता है। जो अभी दिल तख्तनशीन होते हैं वही विश्व के राज्य के तख्तनशीन बनते हैं। तो डबल विदेशी भी राज्य सिंहासन पर बैठेंगे ना? अच्छा। हिम्मत अच्छी है। हिम्मत का प्रत्यक्ष स्वरूप दिखाना है। सदा हिम्मत से आगे उड़ते रहना।

ग्रुप नं. 5

सर्व खज़ाने सफल करना ही सफलता प्राप्त करने का सहज साधन है

सभी अपने को सफलता मूर्त अनुभव करते हो? सफलता ब्राह्मण जीवन का जन्म सिद्ध अधिकार है-ऐसे अनुभव करते हो? सदा सफलता सहज रहे उसका साधन वा सबसे सहज विधि क्या है? निश्चय में भी मेहनत करनी पड़ती है, साथ निभाने में भी मेहनत करनी पड़ती है। सबसे सहज साधन है - सर्व खज़ानों को सफल करते जाओ तो सफलता आपेही आपके आगे आयेगी। सफल करना ही सफलता प्राप्त करना है। तो सफल करना आता है? अच्छा, समय को सफल करते हो तो उसकी सफलता आपको क्या मिलती है? जो यहाँ समय सफल करते हैं उन्हें सतयुग, त्रेता तो क्या लेकिन सारे कल्प का समय या तो राज्य अधिकारी बनते हो या पूज्य अधिकारी बनते हो। यहाँ एक जन्म के समय को सफल करते हो तो कितने जन्म के लिए समय सफल हो जाता है। वैसे जो भी खज़ाने मिले हैं उन खज़ानों को सफल करते जाओ। कितने खज़ाने हैं! तो सारे दिन में सभी खज़ाने सफल करते हो या कभी कोई करते हो, कभी कोई करते हो?

इस वर्ष में क्या करेंगे? सभी खज़ाने यूज़ करेंगे ना। क्योंकि जितना सफल करेंगे उतना बढ़ता जायेगा। यहाँ कम नहीं होते हैं, बढ़ते हैं। तो सभी अपने को सन्तुष्ट मणियां समझते हो? कभी असन्तुष्ट नहीं होते हो? क्योंकि ब्राह्मण जीवन का सबसे बड़े से बड़ा खज़ाना है सन्तुष्ट रहना। जहाँ सन्तुष्टता है वहाँ सब-कुछ है। तो जहाँ सर्व प्राप्तियां हैं वहाँ सन्तुष्टता होगी ही।

(रात्रि 12 बजे बापदादा ने मोमबत्तियां जलाई तथा केक काटी, फिर सभी से मिलते हुए नये वर्ष की मुबारक दी)

यह ग्रुप तो लकी है ही जो दिल से भी नजदीक हो और नयनों के भी नजदीक बैठे हो। वैसे भी बापदादा ने कहा कि सभी सन्तुष्टता के रत्न हो। सर्व प्राप्ति स्वरूप हो, इसका गीत कौन सा गाते हो? पाना था वह पा लिया। अच्छा, यू.के.को क्या वरदान है? ओ.के.। तो ओ.के.हैं? औरों को भी ओ.के.बनाते हो या स्वयं रहते हो? अभी इस वर्ष में हर रोज किसी न किसी प्रकार से महादानी, वरदानी बनना है तो सदा दूसरों की भी सेवा करते रहना। लण्डन निवासी वा यू.के.निवासी श्रेष्ठ भाग्यवान हैं जो विशेष आत्माओं की पालना मिलती रहती है। और सबसे पहले तुरत दान महापुण्य मुरली भी लण्डन में पहुंचती है।

अनेक समाचार ऐसे होते हैं जो भारत वालों को नहीं पहुँचते हैं लेकिन लन्दन में पहुँचते हैं। क्योंकि लन्दन फॉरेन का पहला-पहला सेन्टर खुलने का निमित्त बना। तो अभी लन्दन वाले क्या करेंगे? सब सब्जेक्ट में नम्बरवन।

फिर भी बापदादा सभी विदेश में सेवा करने वालों को मुबारक देते हैं कि मेहनत और उमंग अच्छी है। हिम्मत के कारण सफलता मिल रही है और आगे बढ़ते ही रहेंगे। हिम्मत सदा साथ रखना। जहाँ हिम्मत है वहाँ बाप की मदद है ही।

बापदादा ने विदाई के समय सभी बच्चों को नये वर्ष की मुबारक दी

चारों ओर के सर्व बच्चों के नये वर्ष के उमंग-उत्साह के याद-प्यार और अच्छी-अच्छी गिफ्ट भी पाई। बापदादा सभी बच्चों को, पद््मापदम भाग्यवान आत्माओं को पद््मापदम गुना याद-प्यार दे रहे हैं। इस संगमयुग की और नई दुनिया की दोनों की मुबारक दे रहे हैं। जैसे नये वर्ष के आरम्भ में उत्सव मनाते भी हैं और साथ-साथ एक-दो में मुख भी मीठा करते हैं। तो आप सभी कौन-सी मिठाई खिलायेंगे? हर समय, हर दिन सभी को दिलखुश मिठाई खिलाते रहना। ये मीठा तो सभी खा सकते हैं ना। खाते भी रहना और खिलाते भी रहना। सदा जिस भी आत्मा से सम्पर्क-सम्बन्ध में आओ तो पहले मुस्कराते मिलना और फिर दिलखुश मिठाई खिलाकर मिलते रहना। और गिफ्ट क्या देंगे? गुणों की गिफ्ट देना, शक्तियों की गिफ्ट देना। आपके पास बहुत गिफ्ट हैं ना। स्टॉक है? तो खूब गिफ्ट बांटते रहना। सदा उमंग-उत्साह में उड़ते रहना और उड़ाते रहना। नये वर्ष की गुडमोर्निंग

अच्छा, ओम् शान्ति।



10-01-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


वर्तमान सीजन में एक पॉइन्ट शब्द को तीन रूपों से स्मृति वा स्वरूप में लाना-यही सेफ्टी का साधन है

माया की छाया से सेफ रखने के लिए ज्ञान की लाइट-माइट के स्वरूप में स्थित कराने वाले सर्व स्नेही बापदादा बोले-

विश्व कल्याणकारी बापदादा अपने सर्व मास्टर विश्व कल्याणकारी बच्चों को देख रहे हैं। हर एक बच्चे का इस ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य अति श्रेष्ठ है। हर एक नम्बरवन पुरूषार्थ करने का लक्ष्य रखते हुए आगे उड़ते जा रहे हैं। लक्ष्य सभी का नम्बरवन का है लेकिन लक्षण नम्बरवार हैं। तो लक्ष्य और लक्षण दोनों में अन्तर क्यों है? ज्ञान दाता बाप भी एक है, योग की विधि भी एक है, दिव्य गुण धारण करने का सहज प्रत्यक्ष प्रमाण साकार ब्रह्मा बाप भी एक है, सेवा के साधन और सेवा की विधि सिखाने वाला भी एक है। मुख्य बात है - पढ़ाई और पालना - दोनों ही देने वाला एक और एक नम्बर है, फिर भी प्रत्यक्ष जीवन में लक्षण नम्बरवार क्यों? ये तो सभी स्वयं को अच्छी तरह से जानते ही हो कि लक्षण धारण करने में मैं किस नम्बर में हूँ? नम्बरवार होने का विशेष आधार है एक ही शब्द पॉइन्ट। पॉइन्ट स्वरूप को अनुभव करना। दूसरा, कोई भी संकल्प, बोल वा कर्म व्यर्थ है उसको पॉइन्ट लगाना अर्थात् बिन्दी लगाना। तीसरा, ज्ञान की वा धारणा की अनेक पॉइन्ट्स को मनन कर स्व प्रति वा सेवा प्रति समय पर कार्य में लगाना। तो शब्द एक ही पॉइन्ट है लेकिन तीनों स्वरूप की पॉइन्ट को समय पर स्मृति में, स्वरूप में लाना-इसमें अन्तर पड़ जाता है। स्मृति सबको रहती है लेकिन स्मृति को स्वरूप में लाना, इसमें नम्बरवार हो जाते हैं। कई बार बापदादा सभी बच्चों को देखते हैं कि स्मृति में बहुत होशियार होते हैं। ऐसा होना चाहिये-वह सोचते भी रहते हैं; यह राइट है, यह राँग है-यह ज्ञान भी इमर्ज होता है। ज्ञान अर्थात् नॉलेज और नॉलेज इज लाइट, नॉलेज इज माइट कहा जाता है तो जहाँ लाइट भी है, माइट भी है वहाँ ये होना चाहिये, नहीं होता। क्या सोचते हैं कि बापदादा यह कहते तो हैं, बनना तो है, ज्ञान तो यह है, लेकिन उस समय मेरे में क्या है, वह चाहिये-चाहिये में ही रह जाता है। इसका अर्थ है कि ज्ञान को लाइट और माइट के रूप से समय प्रमाण कार्य में नहीं लगा सकते। इसको कहा जाता है-स्मृति में है लेकिन स्वरूप में लाने की शक्ति कम है। जब लाइट अर्थात् रोशनी है कि ये राँग है, ये राइट है; ये अन्धकार है, ये प्रकाश है; ये व्यर्थ है, ये समर्थ है, तो अन्धकार समझते भी अन्धकार में रहना, इसको ज्ञानी वा समझदार कहेंगे? ज्ञानी नहीं तो क्या हुए?भक्त वा अधूरे ज्ञानी? राँग समझते भी राँग कर्मों के वा संकल्पों के वा स्वभाव-संस्कार के वशीभूत हो जाएं तो इसको क्या कहा जायेगा? उसका क्या टाइटल होना चाहिये? बापदादा समय की गति को देख सभी बच्चों को बार-बार अटेन्शन दिलाते हैं।

‘अटेन्शन’ शब्द को भी डबल अन्डर लाइन करा रहे हैं कि ये प्रकृति की तमोगुणी शक्ति और माया की सूक्ष्म रॉयल समझदारी की शक्ति अपना कार्य तीव्र गति से कर रही है और करती रहेगी। प्रकृति के विकराल रूप को जानना सहज है लेकिन भिन्न-भिन्न विकराल हलचल में अचल रहना इसमें और अटेन्शन चाहिये। माया के अति सूक्ष्म स्वरूप को जानने में भी धोखा खा लेते हैं। माया ऐसा रॉयल रूप रखती है जो राँग को राइट अनुभव कराती है। है बिल्कुल राँग लेकिन बुद्धि को ऐसा परिवर्तित कर देती है जो रीयल समझ को, महसूसता की शक्ति को गायब कर देती है। जैसे कोई जादू मन्त्र करते हैं ना तो परवश हो जाते हैं, ऐसी महसूसता शक्ति गायब करने की रॉयल माया रीयल को समझने नहीं देती है। होगा बिल्कुल राँग लेकिन माया की छाया के वशीभूत होने के कारण राँग को राइट समझते और सिद्ध करने में माया के सुप्रीम कोर्ट का वकील बन जाते हैं। तो वकील क्या करते हैं? झूठ को सच सिद्ध करने में होशियार होते हैं। सच को सच सिद्ध करने में भी होते हैं लेकिन झूठ को सच सिद्ध करने में होशियार होते हैं, दोनों में होशियार होते हैं। इसीलिये बापदादा ‘अटेन्शन’ को डबल अन्डर लाइन करा रहे हैं। महसूसता शक्ति को परिवर्तित करने की सूक्ष्म स्वरूप की माया की छाया से सदा अपने को सेफ रखो। क्योंकि विशेष माया का स्वरूप विशेष इस स्वरूप में अपना कार्य कर रहा है। समझा? अभी क्या करेंगे? केयरफुल रहना। अगर कोई भी विशेष आत्मायें इशारा देती हैं तो अच्छी तरह से माया की इस छाया से निकल बाप की छत्रछाया में अपने को, विशेष मन-बुद्धि को इस छत्रछाया के सहारे में लाओ। क्योंकि मन में निगेटिव भाव और भावना पैदा करने का विशेष माया का प्रभाव चल रहा है और बुद्धि में यथार्थ महसूसता को समाप्त करने का विशेष माया का कार्य चल रहा है। जैसे कोई सीजन होती है ना तो सीजन से बचने के लिये उसी प्रमाण विशेष अटेन्शन रखा जाता है। जैसे बारिश आयेगी तो छाते, रैन कोट आदि का अटेन्शन रखेंगे, सर्दी आयेगी तो गरम कपड़े रखेंगे, अटेन्शन देंगे ना। तो मन और बुद्धि के ऊपर प्रभाव नहीं पड़े-इसके लिये पहले ही सेफ्टी के साधन विशेष अपनाओ। वो विशेष साधन है बहुत सहज, पहले भी सुनाया है-एक ही ‘पॉइन्ट’ शब्द। सहज है ना। लम्बा-चौड़ा तो नहीं सुनाया ना। कहते रहते हैं-हाँ, मैं आत्मा बिन्दू हूँ, ज्योति रूप हूँ, लेकिन उसमें टिकते नहीं हैं। लगाना चाहते हैं पॉइन्ट लेकन लग जाता है क्वेश्चन मार्क और आश्चर्य की निशानी। पॉइन्ट लगाना सहज या आश्चर्य की निशानी वा क्वेश्चन मार्क की निशानी? क्या सहज है? बिन्दी लगाना सहज है ना। फिर क्वेश्चन और आश्चर्य में क्यों चले जाते हैं? इस विधि को अपनाओ। सीजन है-झूठ, सच सिद्ध होने का और झूठ, सत्य से भी स्पष्ट और आकर्षण वाला होगा। जैसे आजकल का फैशन है ना-झूठी चीज़ कितनी आकर्षण वाली होती है, उसके आगे सच्चे की वैल्यु कम हो जाती है। रीयल सिल्वर देखो और व्हाइट सिल्वर देखो-क्या सुन्दर लगता है? रीयल सिल्वर काला हो जायेगा और व्हाइट सिल्वर सदा चमकता रहेगा। तो आकर्षण व्हाइट करेगा या रीयल करेगा? तो सीजन को पहचानो, माया के स्वरूप को पहचानो, प्रकृति के तमोगुण के भिन्न-भिन्न रंगत को पहचानो। एक है जानना, दूसरा है पहचानना। जानते जयादा हो, पहचानने में कभी गलती कर देते हो, कभी राइट कर देते हो। अभी क्या करेंगे? सेफ रहेंगे ना। फिर ये नहीं कहना कि हमने तो समझा नहीं, ऐसा भी होता है क्या? यह क्या-क्या नहीं चलेगा। अभी तो फिर भी बाप थोड़ा-थोड़ा रहम करता, थोड़ा-थोड़ा कदम उठाता है। लेकिन फिर ‘क्या’ और ‘क्यों’ कोई नहीं सुनेगा। ऐसा नहीं, वैसा-ये वकालत नहीं चलेगी। जज बनो, माया का वकील नहीं बनो। मजा बहुत आता है जब वकालत करते हैं। अनुभवी तो सब हो ना, अनुभव होता है ना। सुन-सुनकर साक्षी हो हर्षित होते रहते हैं। अच्छी तरह से समझा? पाण्डवों ने, शक्तियों ने समझा, टीचर्स ने समझा? सभी हाँ-हाँ तो कर रहे हैं। फोटो निकल रहा है हाँ का।

तीसरी सीजन है विशेष कमज़ोरी के स्वभाव-संस्कार, सम्बन्ध-सम्पर्क में आना। इसका विस्तार भी बहुत बड़ा है। वो आज नहीं सुनायेंगे। कई बच्चे कहते हैं क्या करें, पहले तो था ही नहीं, अभी पता नहीं क्या हो गया है। ये संस्कार मेरे में था ही नहीं, अभी आ गया है। इसका कारण और इसकी विधि का विस्तार फिर कभी सुनायेंगे। अच्छा!

चारों ओर के बापदादा के महावाक्य सुनने और धारण करने वाले चात्रक बच्चों को, सर्व सब्जेक्ट को स्मृति के साथ स्वरूप में लाने वाले समीप आत्माओं को, सदा ज्ञान के हर बात को लाइट और माइट के स्वरूप से कार्य में लगाने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा लक्ष्य और लक्षण समान करने वाले बाप के ज्ञानी तू आत्मा बच्चों को, सदा बाप की छत्रछाया में रहने वाले, माया की छाया से सेफ रहने वाले, जानना और पहचानना, दोनों की विशेषता को जीवन में लाने वाले ऐसे विशेष आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

शक्ति सेना तीव्र गति से चल रही है ना। सेना को बापदादा के साथ-साथ आप निमित्त आत्मायें भी चलाने के निमित्त हो। बाप तो सदा साथ है और सदा ही रहेंगे। फिर भी बापदादा की श्रेष्ठ भुजायें तो हैं ना। बाप शक्ति देते हैं, बाप माइट रूप में है लेकिन निमित्त समझाने के लिये माइक तो आप निमित्त हो। कितनी मजे की बातें सुनते हो। खेल लगता है ना। खेल है ना। खेल-खेल में विजयी बन सभी को मायाजीत विजयी बनाना ही है, ये तो गैरन्टी है ही। लेकिन बीच-बीच में ये खेल देखने पड़ते हैं। तो थकते तो नहीं हो ना? हंसते, खेलते, पार करते और कराते चलते। कोई भी ऐसी बात सुनते तो दिल से क्या निकलता? वाह ड्रामा वाह! हाय ड्रामा हाय नहीं निकलता। वाह ड्रामा! वाह-वाह करते हुए सभी को वाह-वाह बनना ही है। ये सब पार करना ही है। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है, इस निश्चय और नशे से निर्विघ्न स्थिति का अनुभव करो

जैसे ऊंचे से ऊंचा बाप है ऐसे हम आत्मायें भी ऊंचे से ऊंची श्रेष्ठ आत्मायें हैं-यह अनुभव करते हुए चलते हो? क्योंकि दुनिया वालों के लिये तो सबसे श्रेष्ठ, ऊंचे से ऊंचे हैं बाप के बाद देवतायें। लेकिन देवताओं से ऊंचे आप ब्राह्मण आत्मायें हो, फरिश्ते हो-ये दुनिया वाले नहीं जानते। देवता पद को इस ब्राह्मण जीवन से ऊंचा नहीं कहेंगे। ऊंचा अभी का ब्राह्मण जीवन है। देवताओं से भी ऊंचे क्यों हो, उसको तो अच्छी तरह से जानते हो ना। देवता रूप में बाप का ज्ञान इमर्ज नहीं होगा। परमात्म मिलन का अनुभव इस ब्राह्मण जीवन में करते हो, देवताई जीवन में नहीं। ब्राह्मण ही देवता बनते हैं लेकिन इस समय देवताई जीवन से भी ऊंच हो, तो इतना नशा सदा रहे, कभी-कभी नहीं। क्योंकि बाप अविनाशी है और अविनाशी बाप जो ज्ञान देते हैं वह भी अविनाशी है, जो स्मृति दिलाते हैं वह भी अविनाशी है, कभी-कभी नहीं। तो यह चेक करो कि सदा यह नशा रहता है वा कभी-कभी रहता है? मजा तो तब आयेगा जब सदा रहेगा। कभी रहा, कभी नहीं रहा तो कभी मजे में होंगे, कभी मूँझे हुए रहेंगे। तो अभी-अभी मजा, अभी-अभी मूँझ नहीं, सदा रहे। जैसे यह श्वास सदा ही चलता है ना। यदि एक सेकण्ड भी श्वास रूक जाये या कभी-कभी चले तो उसे जीवन कहेंगे? तो इस ब्राह्मण जीवन में निरन्तर मजे में हो? अगर मजा नहीं होगा तो मूँझेंगे जरूर। तो मातायें सदा मजे में रहती हो? शक्तियां हो ना, साधारण तो नहीं हो या घर में जाती हो तो साधारण मातायें बन जाती हो? नहीं, सदा यह याद रहे कि हम शक्तियां हैं। हद के नहीं हैं, बेहद के विश्व कल्याणकारी हैं। शक्तियां अर्थात् असुरों के ऊपर िवजय प्राप्त करने वाली। शक्तियों को कहते ही हैं - असुर संहारनी अर्थात् आसुरी संस्कार को संहार करने वाली। तो सभी शक्तियां ऐसी बहादुर हो? और पाण्डव अर्थात् विजयी। पाण्डव कभी यह नहीं कह सकते कि चाहते नहीं हैं लेकिन हार हो जाती है। क्योंकि आधा कल्प हार खाई, अभी विजय प्राप्त करने का समय है तो विजय के समय पर भी यदि हार खायेंगे तो विजयी कब बनेंगे? इसलिये इस समय सदा विजयी। विजय जन्म-सिद्ध अधिकार है। अधिकार को कोई छोड़ते नहीं, लड़ाई-झगड़ा करके भी लेते हैं और यहाँ तो सहज मिलता है। विजय अपना जन्म-सिद्ध अधिकार है। अधिकार का नशा वा खुशी रहती है ना? हद के अधिकार का भी कितना नशा रहता है! प्राइम मिनिस्टर को भूल जायेगा क्या कि मैं प्राइम मिनिस्टर हूँ? सोयेगा, खायेगा तो भूलेगा क्या कि मैं प्राइम मिनिस्टर हूँ? तो हद का अधिकार और बेहद का अधिकार कितना भी कोई भुलाये भूल नहीं सकता। माया का काम है भुलाना और आपका काम है विजयी बनना क्योंकि समझ है ना कि विजय और हार क्या है? हार के भी अनुभवी हैं और विजय के भी अनुभवी हैं। तो हार खाने से क्या हुआ और विजय प्राप्त करने से क्या हुआ-दोनों के अन्तर को जानते हो इसलिये सदा विजयी हैं और सदा रहेंगे। क्योंकि अविनाशी बाप और अविनाशी प्राप्ति के अधिकारी हम आत्मायें हैं-यह सदा इमर्ज रूप में रहे। ऐसे नहीं हैं तो! बने तो हैं! जानते तो हैं! ऐसे नहीं। प्रैक्टिकल में हैं। जो जानते हैं वही निश्चय कर चलते हैं। तो हर कर्म में विजय का निश्चय और नशा हो। नशे का आधार है ही निश्चय। निश्चय कम तो नशा कम। इसीलिये कहते हैं निश्चयबुद्धि विजयी। तो फाउन्डेशन क्या हुआ? निश्चय। निश्चय में कभी-कभी वाले नहीं बनना। नहीं तो अन्त में रिजल्ट के समय भी प्राप्ति कभी-कभी की होगी फिर पश्चाताप् करना पड़ेगा। अभी प्राप्ति है, फिर पश्चाताप होगा। तो प्राप्ति के समय प्राप्ति करो, पश्चाताप के समय प्राप्ति नहीं कर सकेंगे। कर लेंगे, हो जायेगा! नहीं, करना ही है-यह निश्चय हो। कर लेंगे.... दिलासे पर नहीं चलो। कर तो रहे हैं ना.. और क्या होगा... हो ही जायेंगे.... नहीं, अभी होना है। गें-गें नहीं, हैं। जब दूसरों र्वी चैलेन्ज करते हो कि श्वास पर कोई भरोसा नहीं, औरों को ज्ञान देते हो ना तो पहले स्वयं को ज्ञान दो। कभी करने वाले हैं या अब करने वाले हैं? तो सदा विजय के अधिकारी आत्मायें हो। विजय जन्म-सिद्ध अधिकार है - इस स्मृति से उड़ते चलो। कुछ भी हो जाये, ये स्मृति में लाओ कि मैं सदा विजयी हूँ। क्या भी हो जाये, निश्चय अटल है, कोई टाल नहीं सकता।

अच्छा - अब सभी ऐसी कमाल करके दिखाओ जो हर स्थान विजयी अर्थात् निर्विघ्न हो। कोई भी विघ्न न आये। विघ्न आयेंगे लेकिन हार नहीं होनी चाहिये। तो जहाँ विजय है, विघ्न हट जायेगा तो निर्विघ्न बन जायेंगे। सदा निर्विघ्न-ये कमाल करके दिखाओ। कोई भी गीता पाठशाला हो, उप-सेवाकेन्द्र हो, केन्द्र हो लेकिन स्वयं निर्विघ्न बनो और औरों को भी निर्विघ्न बनाओ। ऐसी कमाल दिखाओ। करना ही है। करेंगे, देखेंगे! नहीं। गे गे कहेंगे माना निश्चय में परसेन्टेज है। सब ये खुशखबरी सुने कि सभी छोटे-बड़े सेन्टर्स निर्विघ्न हैं। किसी प्रकार का विघ्न आ ही नहीं सकता। दूसरे के विघ्न को भी मिटायेंगे, विजयी बनेंगे। ऐसा समाचार आये। कहाँ से भी, कोई विघ्न का समाचार न आये। ऐसे नहीं कहना कि हम तो ठीक हैं, ये करते हैं, हम क्या करें। तीन मास विजयी रह करके दिखाओ। तीन मास में ही पता पड़ जायेगा। सभी हाँ करते हो तो ये कमाल करके दिखाओ।

ग्रुप नं. 2

फरिश्ता बनना है तो मेरे पन के बोझ को समाप्त करो, सबके प्यारे बनो

सदा अपने को डबल लाइट अर्थात् फरिश्ता आत्मा अनुभव करते हो? डबल लाइट का अर्थ ही है कि आत्मा लाइट और फरिश्ता स्वरूप भी लाइट। कर्म करते भी फरिश्ता स्वरूप में कर्म करने वाले। सभी फरिश्ता हो या गृहस्थी हो? बाल बच्चों का बोझ नहीं है? सब बोझ बाप के हवाले कर दिया? या अभी तक कोई मेरा है? पोत्रा मेरा है, यह मकान मेरा है, बाकी मैं बाप का हूँ-ऐसे तो नहीं? सच्चे-सच्चे बिन कौड़ी बादशाह हैं। एक कौड़ी भी नहीं, लेकिन बादशाह हैं। बिन कौड़ी बादशाह कितना अच्छा है। सम्भालना भी नहीं पड़े और हो भी बादशाह। ऐसे समझते हो? जब देह ही मेरा नहीं, तो देह के साथी, देह के पदार्थ और देह के सम्बन्ध तन-मन-धन सब तेरा कि मन तेरा और धन मेरा-ऐसे तो नहीं? योग तो लगाते हैं लेकिन पैसा तो रखना पड़ेगा। मेरापन नहीं हो। मेरापन बोझ है और बोझ नीचे ले आता है, फरिश्ता बनने नहीं देगा। कोई भी मेरापन, मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार, मेरी नेचर, कुछ भी मेरा है तो बोझ है और बोझ वाला उड़ नहीं सकता, फरिश्ता नहीं बन सकता। तो फरिश्ते हो या कोई न कोई बोझ अभी रहा हुआ है? आइवेल के लिये थोड़ा-थोड़ा छिपाकर रखा है?

मेरा-मेरा कहते मैले हो गये थे, अभी तेरा-तेरा कहते स्वच्छ बन गये। तो फरिश्ता अर्थात् मेरापन अंशमात्र भी नहीं। संकल्प में भी मेरे-पन का भान आये तो समझो मैला हुआ। किसी भी चीज़ के ऊपर मैल चढ़ जाये तो मैल का बोझ हो जायेगा ना। तो ये मेरापन अर्थात् मैलापन। फरिश्ते हैं, पुरानी दुनिया से कोई रिश्ता नहीं। सेवा अर्थ हैं, रिश्ता नहीं है। सेवा भाव से सम्बन्ध में आते हो। गृहस्थी बनकर सेवा नहीं करते हो, सेवाधारी बनकर सेवा करते हो। ऐसे सेवाधारी हो? सेवास्थान समझते हो या घर समझते हो? तो जैसे सेवा स्थान की विधि होती है उसी विधि प्रमाण चलते हो कि गृहस्थी प्रमाण चलते हो? सेवास्थान समझने की विधि है न्यारे और बाप के प्यारे। जरा भी मेरेपन का प्रभाव नहीं पड़े। आग है लेकिन सेक नहीं आये। क्योंकि साधन हैं ना। जैसे आग बुझाने वाले आग में जाते हैं लेकिन खुद सेक में नहीं आते, सेफ रहते हैं क्योंकि साधन हैं, अगर आग बुझाने वाले ही जल जायें तो लोग हंसेंगे ना। तो चाहे वायुमण्डल में परिस्थितियों की आग हो लेकिन प्रभाव नहीं डाले, सेक नहीं आये। ऐसे नहीं कि परिस्थिति नहीं है तो बहुत अच्छे और परिस्थिति आ गई तो सेक लग गया।

तो ऐसे फरिश्ते हो ना। फरिश्ता कितना प्यारा लगता है! अगर स्वप्न में भी किसके पास फरिश्ता आता है तो कितना खुश होते हैं। फरिश्ता जीवन अर्थात् सदा प्यारा जीवन। बाप प्यारे से प्यारा है ना तो बच्चे भी सदा सर्व के प्यारे से प्यारे हैं। सिर्फ बाल बच्चे, पोत्रे धोत्रों के प्यारे नहीं, हद के प्यारे नहीं, बेहद के प्यारे। क्योंकि सर्व आत्मायें आपका परिवार हैं, सिर्फ 10-12 का परिवार नहीं है। कितना बड़ा परिवार है? बेहद। सर्व के प्यारे। चाहे कैसी भी आत्मा हो, लेकिन आप सर्व के प्यारे हो। जो प्यार करे उसके प्यारे हो, ये नहीं। सर्व के प्यारे। लड़ाई करने वाले, कुछ बोलने वाले प्यारे नहीं। ऐसे नहीं, सर्व के प्यारे। आप लोगों ने द्वापर से बाप को कितनी गाली दी, फिर बाप ने प्यार किया या घृणा की? प्यार किया ना। तो फॉलो फादर। कैसी भी आत्मायें हो लेकिन अपनी दृष्टि, अपनी भावना प्यार की हो-इसको कहा जाता है सर्व के प्यारे। 12 के प्यारे हैं, एक के प्यारे नहीं। नहीं, सर्व के प्यारे। ऐसे है या किसी आत्मा के प्रति थोड़ा-थोड़ा आ जाता है? कोई थोड़ा इन्सल्ट करते हैं, कोई घृणा करते हैं तो प्यार आता है या घृणा आती है? नहीं, परवश आत्मायें हैं। सर्व के प्यारे-इसको कहा जाता है फरिश्ता। कोई-कोई के प्यारे हैं तो फरिश्ते नहीं।

अभी सोचकर बताओ कि कौन हो? मातायें क्या कहेंगी? सासू बहुत खराब है, नन्द बहुत खराब है। नहीं, सब प्यारे हैं। किसी से और कोई भावना नहीं। चाहे वो क्या भी कहे, क्या भी करे लेकिन आपकी भावना शुद्ध हो। इसका भी कल्याण हो। सर्व प्रति कल्याण की भावना हो - इसको कहते हैं फरिश्ता। मंज़िल तो ऊंची है ना या सहज है? तो ऐसी ऊंची अवस्था भी है? क्योंकि अगर फरिश्ता नहीं तो देवता भी कैसे बनेंगे? देवताई दुनिया में जायेंगे लेकिन पद प्राप्त नहीं कर सकते। नाम तो देवता होगा लेकिन पद क्या होगा? एक ही कॉलेज से कोई बड़ा बन जाये, इंजीनियर बन जाये, डॉक्टर बन जाये और कोई बूट पॉलिश वाला बन जाये तो अच्छा लगेगा? सतयुग में तो आयेंगे लेकिन पद क्या प्राप्त करना है वह भी सोचना। ऊंचा पद पाना है या जो मिले वो ठीक है? ऊंच पद पाने का साधन है-फरिश्ता बनना। तो फरिश्ते की परिभाषा समझी ना। सभी बाप के बन गये। तो बाप का बनना अर्थात् बाप समान बनना। जैसे ब्रह्मा बाप फरिश्ता बना ना तो फॉलो फादर।

ग्रुप नं. 3

मैं परम पूज्य आत्मा हूँ-इस स्मृति से पवित्रता का फाउन्डेशन मजबूत करो

पने को कल्प-कल्प की पूज्य आत्मायें अनुभव करते हो? स्मृति है कि हम ही पूज्य थे, हम ही हैं और हम ही बनेंगे? पूज्य बनने का विशेष साधन क्या है? कौन पूज्य बनते हैं? जो श्रेष्ठ कर्म करते हैं और श्रेष्ठ कर्मों का भी फाउन्डेशन है पवित्रता। पवित्रता पूज्य बनाती है। अभी भी देखो जो नाम से भी पवित्र बनते हैं तो पूज्य बन जाते हैं। लेकिन पवित्रता सिर्फ ब्रह्मचर्य नहीं। ब्रह्मचर्य व्रत को धारण किया इसमें ही सिर्फ श्रेष्ठ नहीं बनना है। यह भी श्रेष्ठ है लेकिन साथ में और भी पवित्रता चाहिये। अगर मन्सा संकल्प में भी कोई निगेटिव संकल्प है तो उसे भी पवित्र नहीं कहेंगे, इसलिए किसी के प्रति भी निगेटिव संकल्प नहीं हो। अगर बोल में भी कोई ऐसे शब्द निकल जाते हैं जो यथार्थ नहीं है तो उसको भी पवित्रता नहीं कहेंगे। यदि संकल्प और बोल ठीक हों लेकिन सम्बन्ध-सम्पर्क में फर्क हो, किससे बहुत अच्छा सम्बन्ध हो और किससे अच्छा नहीं हो तो उसे भी पवित्रता नहीं कहेंगे। तो ऐसे मन्सा-वाचा-कर्मणा अर्थात् सम्बन्ध-सम्पर्क में पवित्र हो? ऐसे पूज्य बने हो? अगर मानो कोई भी बात में कमी है तो उसको खण्डित कहा जाता है। खण्डित मूर्ति की पूजा नहीं होती है। इसलिए जरा भी मन्सा, वाचा, कर्मणा में खण्डित नहीं हो अर्थात् अपवित्रता न हो, तब कहा जायेगा पूज्य आत्मा। तो ऐसे पूज्य बने हो? जड़ मूर्ति भी खण्डित हो जाती है तो पूजा नहीं होती। उसको पत्थर मानेंगे, मूर्ति नहीं मानेंगे। म्युज़ियम में रखेंगे, मन्दिर में नहीं रखेंगे। तो ऐसे पवित्रता का फाउन्डेशन चेक करो-कोई भी संकल्प आये, तो स्मृति में लाओ कि मैं परम पूज्य आत्मा हूँ। यह याद रहता है या जिस समय कोई बात आती है उस समय भूल जाता है, पीछे याद आता है? फिर पश्चाताप होता है-ऐसे नहीं करते तो बहुत अच्छा होता। तो सदा पवित्र आत्मा हूँ, पावन आत्मा हूँ। पवित्रता अर्थात् स्वच्छता। स्वच्छता कितनी प्यारी लगती है। अगर मन्दिर भी हो, मूर्ति भी हो लेकिन स्वच्छता नहीं तो अच्छा लगेगा? तो मैं पूज्य आत्मा इस शरीर रूपी मन्दिर में विराजमान हूँ-ये स्मृति सदा जीवन में लाओ। सिर्फ सोचो नहीं लेकिन जीवन में लाओ। सोचते तो बहुत हैं ना-ये भी हूँ, ये भी हूँ.... लेकिन प्रैक्टिकल अनुभव में आये। तो क्या याद रखेंगे? सम्पूर्ण पूज्य आत्मा हँ। परसेन्टेज में नहीं-80% पूज्य, 20% खण्डित। नहीं। तो 100% पूज्य अर्थात् 100% पवित्र। सभी को स्वच्छता अच्छी लगती है या कचरा अच्छा लगता है? तो अपने से पूछो कि मन स्वच्छ बना है, बुद्धि स्वच्छ बनी है? या थोड़ी-थोड़ी स्वच्छ बनी है, थोड़ी-थोड़ी अस्वच्छ है? अगर यहाँ कचरा पड़ा हो तो आप उस पर बैठेंगे? उस पर बैठना अच्छा नहीं लगेगा ना। तो ऐसे सोचो कि जरा भी अपवित्रता अर्थात् कचरा है तो बाप को अच्छा नहीं लगेगा। कचरा है तो बाप के प्यारे तो नहीं हुए ना। ब्राह्मण बने ही हो बाप का प्यारा बनने के लिए। पूज्य आत्मायें सर्व की प्यारी हैं। जड़ मूर्ति है लेकिन कितनी प्यारी लगती है। अपने चैतन्य परिवार से इतना प्यार नहीं होगा जितना मूर्ति से प्यार होगा। आपस में झगड़ेंगे लेकिन मूर्ति को प्यार करेंगे। क्यों प्यार करते हैं?पवित्रता है ना। पवित्रता अर्थात् जरा भी अपवित्रता नहीं हो। सभी को सुनाते हो ना कि अगर एक बूंद भी विष की एक मण दूध में पड़ जाये तो सारा विष हो जायेगा। ऐसे अगर जरा भी अशुद्धि है तो कौन-सी आत्मा कहलायेंगे? शुद्ध या अशुद्ध? कहेंगे आधे, हाफ कास्ट हैं। तो सदा हर कर्म करते, संकल्प करते, बोल बोलते ये चेक करो कि बाप को प्यारे कौन हैं? पवित्र आत्मा या मिक्स आत्मा?पवित्र आत्मा प्यारी है क्योंकि बाप सदा परम पवित्र है तो उसको प्यारी भी पवित्रता लगती है। तो इस वर्ष में क्या करेंगे? जरा भी खण्डित नहीं। सदा परमपूज्य। कमाल करके दिखायेंगे ना कि सोचेंगे, देखेंगे? नहीं। करेंगे। हाथ उठाने का फोटो निकल रहा है। अच्छा है बाप तो सदा ही बच्चों में निश्चय रखते हैं। बहुत अच्छा और बढ़ते चलो, उड़ते चलो। जो ओटे वो अव्वल नम्बर अर्जुन। बाप तो सबको अव्वल नम्बर ही देखता हैं। सेकण्ड थर्ड तो नहीं आना है ना कि चलो, पर उपकार करते हैं, उसको पहला नम्बर देते हैं। ऐसा तो नहीं सोचते? पुरूषार्थ में रेस भले करो, और बातों में रेस नहीं करो। तो सिर्फ पूज्य नहीं परम पूज्य आत्मायें हैं - यह सदा स्मृति में रहे। देखना यहाँ पूज्य कहकर जाओ और वहाँ खण्डित हो जाओ। फिर कहो कि ठोकर लगी तो खण्डित हो गये। कितना भी कोई ठोकर लगाये लेकिन खण्डित नहीं हो। चाहे कितना भी बड़ा मोटा हेमर लगाये लेकिन खण्डित नहीं होना। तो पक्का याद रखेंगे ना। देखेंगे रिजल्ट। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

स्वयं सन्तुष्ट रहना और दूसरों को सन्तुष्ट करना-यही कर्मयोगी की मुख्य निशानी है

सभी अपने को सहजयोगी अनुभव करते हो? सहज की निशानी क्या है? उसमें मेहनत नहीं होगी। वह सदा होगी, निरन्तर होगी। मुश्किल काम होता है तो सदा नहीं कर सकते। जो सहज होगा वह स्वत: और निरन्तर चलता रहेगा। तो सहज योगी अर्थात् निरन्तर योगी। कभी साधारण, कभी योगी, ऐसे नहीं? योगी जीवन है तो जीवन सदा होता है। इसलिए योग लगाने वाले नहीं, लेकिन योगी जीवन वाले। ब्राह्मण जीवन है तो योग कभी नीचे-ऊपर हो ही नहीं सकता। क्योंकि सिर्फ योगी नहीं हो लेकिन कर्मयोगी हो। तो कर्म के बिना एक सेकण्ड भी रह नहीं सकते। अगर सोये भी हो तो सोने का कर्म तो कर रहे हो ना। तो जैसे कर्म के बिना रह नहीं सकते ऐसे योगी जीवन वाले योग के बिना रह नहीं सकते। ऐसे अनुभव करते हो या योग टूटता है, फिर लगाना पड़ता है? फिर कभी लगता है, कभी टाइम लगता है-ऐसे तो नहीं है ना। योग का सहज अर्थ ही है याद। तो याद किसकी आती है? जो प्यारा लगता है। सारे दिन में देखो कि याद अगर आती है तो प्यारी चीज़ होती है। तो सबसे प्यारे से प्यारा कौन है? (बाबा) तो सहज और स्वत: याद आयेगा ना। अगर कहाँ भी, चाहे देह में, देह के सम्बन्ध में, पदार्थ में प्यार होगा तो बाप के बदले में वो याद आयेगा। कभी-कभी देह से प्यार हो जाता तो बॉडी कान्शियस हो जाते हो। तो चेक करना है कि सिवाय बाप के और कोई आकर्षित करने वाली वस्तु या व्यक्ति तो नहीं है?कर्मयोगी आत्मा का हर कर्म योगयुक्त, युक्तियुक्त होगा। अगर कोई भी कर्म युक्तियुक्त नहीं होता तो समझो कि योगयुक्त नहीं है। अगर साधारण कर्म होता, व्यर्थ कर्म हो जाता तो भी निरन्तर योगी नहीं कहेंगे। कर्मयोगी अर्थात् हर सेकण्ड, हर संकल्प, हर बोल सदा श्रेष्ठ है। तो सहज योगी अर्थात् कर्मयोगी और कर्मयोगी अर्थात् सहजयोगी। तो चेक करो कि सारे दिन में कोई साधारण कर्म तो नहीं होता? श्रेष्ठ हुआ? श्रेष्ठ कर्म की निशानी होगी-स्वयं सन्तुष्ट और दूसरे भी सन्तुष्ट। ऐसे नहीं-मैं तो सन्तुष्ट हूँ, दूसरे हों या नहीं हो। योगी जीवन वाले का प्रभाव स्वत: दूसरों के ऊपर पड़ेगा। अगर कोई स्वयं से असन्तुष्ट है वा और उससे असन्तुष्ट रहते हैं तो समझना चाहिये कि योगयुक्त बनने में कोई कमी है। तो सभी सन्तुष्ट रहते हो कि अपने को खुश करते हो कि मैं बिल्कुल ठीक हूँ?सभी सन्तुष्ट हैं या कोई सन्तुष्ट, कोई असन्तुष्ट? अपने से सन्तुष्ट रहते हो कि कभी कोई कमज़ोरी आती है तो असन्तुष्ट होते हो? कभी होता है या सम्पूर्ण हो गये?सन्तुष्टता योगी जीवन का विशेष लक्ष्य है। तो आपके साथियों से पूछें कि सन्तुष्ट हैं या नहीं हैं? वो हाँ कहेंगे या थोड़ी शक्ल ऐसी करेंगे? क्योंकि योगी जीवन के तीन सर्टीफिकेट हैं-एक-स्व से सन्तुष्ट और दूसरा-बाप सन्तुष्ट और तीसरा-लौकिक-अलौकिक परिवार सन्तुष्ट। तो तीनों सर्टीफिकेट हैं कि लेना है? जैसे साइन्स के साधनों का वायुमण्डल में प्रभाव पड़ता है ना, एयरकण्डीशन चलता है तो वायुमण्डल में ठण्डाई का प्रभाव पड़ता है, ऐसे ही योगी जीवन का प्रभाव होता है। ऐसा प्रभाव है? योग माना साइलेन्स की शक्ति। इसको कहा जाता है योगी जीवन अर्थात् साइलेन्स की शक्ति वाला जीवन। तो ऐसे है कि हाँ-हाँ करते रहते हो? हर रोज की चेकिंग हो। चेक करेंगे तो चेंज होंगे। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

प्रत्यक्षफल की प्राप्ति होना - यही संगमयुग की सबसे बड़ी विशेषता है

पने को संगमयुगी ब्राह्मण आत्मायें समझते हो? संगमयुग की महिमा को अच्छी तरह से जानते हो ना? संगमयुग की सबसे बड़ी विशेषता क्या है?बाप और बच्चों का, आत्मा और परमात्मा का मेला संगम पर लगता है।

इस समय संगमयुग पर है बाप और बच्चों का मेला और लोगों ने यहाँ नदियों के मेले को संगम बना दिया है। तो यह किससे कॉपी की है? इस समय को कॉपी की है ना। और संगमयुग की क्या विशेषता है जो और किसी युग की नहीं है?सबसे अच्छी विशेषता है कि संगमयुग पर ही प्रत्यक्षफल मिलता है। तो ये विशेषता है ना। सतयुग में संगम के कर्म का फल मिलेगा। लेकिन यहाँ बाप का बना और वर्सा मिला। सेवा की और सेवा करने के साथ-साथ खुशी मिली। जो भी याद में रहकर सेवा करते हो वा कोई भी कर्म करते हो तो कर्म का प्रत्यक्षफल अनुभव करते जाओ। अगर कर्म किया, सेवा की और प्रत्यक्षफल के रूप में कोई अनुभव नहीं होता तो चेक करो-क्यों फल नहीं मिला? अगर कर्म में स्वार्थ होगा, सेवा में स्वार्थ होगा तो फल नहीं मिलेगा। लेकिन योगयुक्त कर्म वा योगयुक्त यथार्थ सेवा का फल खुशी, अतीन्द्रिय सुख या डबल लाइट की अनुभूति, कोई न कोई बाप के गुणों की अनुभूति जरूर होती है। तो प्रत्यक्षफल खाने वाले हो ना, खाते हो? तो जो प्रत्यक्षफल खाने वाला है उसको क्या अनुभूति होगी? सदा मन और बुद्धि तन्दरूस्त होगी। अगर कमज़ोर रहती है तो समझो ताजा प्रत्यक्षफल नहीं खाते हो। लोग शरीर के लिये फ्रे फ्रुट क्यों खाते हैं? हेल्थ के लिये खाते हैं ना। तो ये आत्मा के लिए प्रत्यक्षफल सदा हेल्दी बनाता है। इसलिये ही आपका स्लोगन है-एवर हेल्दी, एवर वेल्दी और एवर हैप्पी। एवर वेल्दी भी हो ना?कितने खज़ाने मिले हैं? ज्ञान का खज़ाना, शक्तियों का खज़ाना, गुणों का खज़ाना, समय का खज़ाना-सब खज़ाने हैं ना या कोई है, कोई नहीं है? इतना जयादा है जो दूसरों को भी देते रहते हैं। महादानी हो ना। रोज देते हो या कभी-कभी देते हो? अखण्ड महादानी। चाहे मन्सा से दो, चाहे वाणी से दो, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क से दो लेकिन देना जरूर है। ये तो सहज है या चान्स मिलेगा तो देंगे? क्या सोचते हो? अखण्ड है ना? फॉलो फादर करने वाले हो ना? जिससे प्यार होता है उसको फॉलो करना सहज होता है। तो बाप से कितना प्यार है? (अनलिमिटेड) तो खज़ाने भी अनलिमिटेड, सेवा भी अनलिमिटेड। बेहद है ना। हद तो नहीं है ना। सदा बेहद की खुशी, बेहद का नशा, बेहद की प्राप्ति।

डबल विदेशी इस वर्ष में क्या नवीनता करेंगे? (पुरूषार्थ में फर्स्ट नम्बर लेंगे) फर्स्ट नम्बर में तो आयेंगे लेकिन और क्या करेंगे? अपने-अपने स्थान पर जहाँ से भी आये हो, अपने सेवा स्थान वा अपने देश में सारे वायुमण्डल को ऐसा शक्तिशाली बनाओ जो सबके सब अचल रहें, कोई हलचल में नहीं आये। ये कर सकते हो? इस वर्ष एक भी ब्राह्मण हलचल में नहीं आये। ऐसा वातावरण बनाओ। इस वर्ष में यही देखेंगे। स्वयं निर्विघ्न तो बनना ही है लेकिन औरों को भी बनाना है। हिम्मत है ना?

एक, पॉइन्ट स्वरूप को अनुभव करना। दूसरा, कोई भी संकल्प, बोल वा कर्म व्यर्थ है उसको पॉइन्ट लगाना अर्थात् बिन्दी लगाना। तीसरा, ज्ञान की वा धारणा की अनेक पॉइन्ट्स को मनन कर स्व प्रति वा सेवा प्रति समय पर कार्य में लगाना।



18-01-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्राह्मण जन्म का आदि वरदान - स्नेह की शक्ति

स्नेह की शक्ति के वरदान द्वारा असम्भव को सम्भव बनाने वाले स्नेह के सागर बापदादा बोले-

आज चारों ओर के सर्व बच्चों की स्नेह भरी स्मृतियाँ समर्थ बापदादा के पास स्नेह के सागर समान पहुँच गई। हर एक बच्चे के दिल में दिलाराम समाया बहुत बड़ी शक्ति है।

·       स्नेह की शक्ति मेहनत को सहज कर देती है। जहाँ मोहब्बत है वहाँ मेहनत नहीं होती। मेहनत मनोरंजन बन जाती है। खेल लगता है।

·       स्नेह की शक्ति देह और देह की दुनिया सेकण्ड में भूला देती है। स्नेह में जो भुलाना चाहें वह भुला सकते हैं, जो याद करना चाहें उसमें समा जाते हैं।

·       स्नेह की शक्ति सहज समर्पण करा देती है।

·       स्नेह की शक्ति बाप समान बना देती है।

·       स्नेह सदा हर समय परमात्म साथ का अनुभव कराता है।

·       स्नेह सदा अपने ऊपर बाप की दुआओं का हाथ छत्रछाया समान अनुभव कराता है।

·       स्नेह असम्भव को सम्भव इतना सहज कर देता जैसे कार्य हुआ ही पड़ा है।

·       स्नेह निष्पल (हर समय)निश्चिन्त अनुभव कराता है।

·       स्नेह हर कर्म में निश्चित विजयी स्थिति का अनुभव कराता है। ऐसे स्नेह की शक्ति अनुभव करते हो ना?

बापदादा जानते हैं कि अनेक जन्म अनेक प्रकार की मेहनत कर थकी हुई आत्मायें हैं। भिन्न-भिन्न बन्धनों में बन्धी हुई आत्मायें होने के कारण मेहनत करती रही हैं। इसलिये बापदादा मेहनत से मुक्त होने के लिये सहज विधि ‘स्नेह की शक्ति’ सभी बच्चों को वरदान में देते हैं। अपने ब्राह्मण जीवन के आदि समय को याद करो। तो जन्मते ही सभी को स्नेह की शक्ति ने ही नया जीवन दिया। स्नेह की अनुभूति के लिये मेहनत की? मेहनत करनी पड़ी? सहज अनुभव किया ना। तो यह आदि जन्म की अनुभूति ही वरदान है। प्यार-प्यार में ही खो गये। सदा इस स्नेह के वरदान को स्मृति में रखो। मेहनत के समय इस वरदान द्वारा मेहनत को परिवर्तन कर सकते हो। बापदादा को बच्चों का मेहनत अनुभव करना अच्छा नहीं लगता। स्नेह की शक्ति की विस्मृति मेहनत अनुभव कराती है।

कितनी भी बड़ी कैसी भी परिस्थिति हो प्यार से, स्नेह से परिस्थिति रूपी पहाड़ भी परिवर्तन हो पानी समान हल्का बन सकता है। पत्थर को पानी बना सकते हो। कैसा भी माया का विकराल रूप वा रॉयल रूप सामना करे तो सेकण्ड में स्नेह के सागर में समा जाओ तो सामना करने की माया की शक्ति समाप्त हो जायेगी। आपके समाने की शक्ति छू-मन्त्र नहीं लेकिन शिव-मन्त्र बन जायेगी। सबके पास शिव-मन्त्र की शक्ति है ना कि खो जाती है? शिव स्नेह में समा जाओ, सिर्फ डुबकी मारकर नहीं निकल आओ। थोड़ा समय स्मृति में रहते हो-मीठा बाबा, प्यारा बाबा, तो डुबकी लगाकर फिर निकल आते हो तो माया की नजर पड़ जाती है। समा जाओ, तो माया की नजर से दूर हो जायेंगे। और कुछ भी नहीं आए तो स्नेह की शक्ति जन्म का वरदान है। उस वरदान में खो जाओ। खो जाना नहीं आता है? स्नेह तो सहज है ना! सबको अनुभव है ना!कोई है जिसको ब्राह्मण जीवन में रूहानी स्नेह का अनुभव नहीं हो, है कोई?

·       स्नेह ही सहज योग है, स्नेह में समाना ही सम्पूर्ण ज्ञान है।

·       आज के दिन का महत्व भी स्नेह है।

अमृतवेले से विशेष किस लहर में लहरा रहे हो? बापदादा के स्नेह में ही लहरा रहे हो। सर्व आत्माओं के अन्दर एक बाप के सिवाय और कुछ याद रहा? सहज याद रही ना कि मेहनत करनी पड़ी? तो सहज कैसे बनी? स्नेह के कारण। तो क्या सिर्फ आज का दिन स्नेह का है? संगमयुग है ही परमात्म-स्नेह का युग। तो युग के महत्व को जान स्नेह की अनुभूतियों को अनुभव करो। स्नेह का सागर स्नेह के हीरे-मोतियों की थालियाँ भरकर दे रहे हैं। तो अपने को सदा भरपूर करो। थोड़े से अनुभव में खुश नहीं हो जाओ। सम्पन्न बनो। भविष्य में तो स्थूल हीरे-मोतियों से सजेंगे। ये परमात्म-प्यार के हीरे-मोती अनमोल हैं, तो इससे सदा सजे सजाये रहो।

चारों ओर के बच्चों की याद, स्नेह के गीत बापदादा सदा भी सुनते रहते हैं लेकिन आज विशेष स्नेह स्वरूप बच्चों को स्नेह के रिटर्न में सदा स्नेही भव, सदा स्नेह के वरदान द्वारा सहज उड़ती कला का विशेष फिर से वरदान दे रहे हैं। सदा जैसे छोटे बच्चे होते हैं, कोई भी मुश्किल बात आयेगी वा कोई भी परिस्थिति आयेगी तो मात-पिता की गोदी में समा जायेंगे, ऐसे सेकण्ड में स्नेह की गोदी में समा जाओ तो मेहनत से बच जायेंगे। सेकण्ड में उड़ती कला द्वारा बापदादा के पास पहुँच जाओ तो कैसे भी स्वरूप में आई हुई माया दूर से भी आपको छू नहीं सकेगी। क्योंकि परमात्म-छत्रछाया के अन्दर तो क्या लेकिन दूर से भी माया की छाया आ नहीं सकती। तो बच्चा बनना अर्थात् माया से बचना। बच्चा बनना तो अच्छा है ना। बच्चा बनने का अर्थ ही है स्नेह में समा जाना। अच्छा!

चारों ओर के दिलाराम के दिल में समाये हुए बच्चों को, सदा मेहनत को मोहब्बत में परिवर्तन करने वाली शक्तिशाली आत्माओं को, सदा परमात्म-स्नेह के संगमयुग को महान अनुभव करने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को, सदा स्नेह की शक्ति से बाप के साथ और दुआओं के हाथ को अनुभव कर औरों को भी कराने वाली विशेष आत्माओं को, सदा स्नेह के सागर में समाये हुए समान बच्चों को स्नेह के सागर बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

आज के दिन क्या-वÌया याद आया? विशेष विल पॉवर के हाथ याद आये?विल पॉवर सब कार्य सहज करा देती है। ब्रह्मा बाप ज्यादा याद आया या बाप-दादा दोनों याद रहे? फिर भी ब्रह्मा बाप की याद के चरित्र सभी को विशेष याद आते रहे। ब्रह्मा बाप ब्रह्मा बना ही तब जब बाप-दादा कम्बाइन्ड हुए। परमात्म-प्रवेशता के साथ ही ब्रह्मा का कर्तव्य शुरू हुआ। इस अव्यक्त स्वरूप के अव्यक्त रूप के चरित्र भी न्यारे और प्यारे हैं। 25 वर्ष की सेवा की हिस्ट्री आदि से याद करो-कितनी तीव्र गति की हिस्ट्री है। अव्यक्त होना अर्थात् तीव्र गति से सर्व कार्य होना। समय का परिवर्तन भी फास्ट और सेवा की वृद्धि की गति भी फास्ट। फास्ट हुई है ना? इसलिये अव्यक्त होने से समय को भी तीव्र गति मिली है तो सेवा को भी तीव्र गति मिली है। अव्यक्त पार्ट में आने वाली आत्माओं को भी पुरूषार्थ में तीव्र गति का भाग्य सहज मिला हुआ है। अव्यक्त पार्ट में आई हुई आत्माओं को लास्ट सो फास्ट, फास्ट सो फर्स्ट का वरदान प्राप्त है। (सभा से)

वरदान को कार्य में लगाओ, सिर्फ स्मृति तक नहीं। समय प्रमाण वरदान को स्वरूप में लाओ। वरदान को स्वरूप में लाने से स्वत: ही फास्ट गति का अनुभव करेंगे। अव्यक्त पालना सहज ही शक्तिशाली बनाने वाली है। इसलिये जितना आगे बढ़ना चाहो, बढ़ सकते हो। बापदादा और निमित्त आत्माओं की आप सबके ऊपर विशेष सदा आगे उड़ने की दुआएं हैं। ऐसे है ना? दादियों की भी दुआएं हैं। सिर्फ फायदा ले लो। मिलता बहुत है, यूज़ कम करते हो। सिर्फ बुद्धि के किनारे रखते नहीं रहो, खाओ, खर्च करो। आता है यूज़ करना, खर्च करना आता है कि सम्भाल कर रखते हो? बहुत अच्छा, बहुत अच्छा-ये सम्भाल कर रखना है। अच्छाई को स्वयं प्रति और दूसरों के प्रति कार्य में लगाओ। यहाँ खर्चना अर्थात् बढ़ाना है। जैसे आजकल का फैशन है ना-जो अमूल्य चीज़ होती है वह कहाँ रखते हैं? (लॉकर में) यूज़ नहीं करते, लॉकर में रखते हुए खुश होते हैं। तो कई बार ऐसे करते हैं-पॉइन्ट बड़ी अच्छी है, विधि बड़ी अच्छी है, सिर्फ बुद्धि के लॉकर में देखकर खुश हो जाते हैं। तो आप सभी लॉकर में रखते हो या यूज़ करते हो? अच्छा!

पाण्डव सेना का क्या हाल है? (अच्छा है) सिर्फ अच्छा-अच्छा कहने वाले तो नहीं ना। ऐसी सेना तैयार हो जो सेकण्ड में जो ऑर्डर मिले कर ले। ऐसे तैयार हैं? शक्ति सेना तैयार है? शक्तियों की सेवा अपनी है, पाण्डवों की सेवा अपनी है। पाण्डवों के सहयोग के बिना भी शक्तियां नहीं चल सकती, शक्तियों के सहयोग के बिना भी पाण्डव नहीं चल सकते।

(दादी जी ने मैक्सिको की कानफ्रेन्स का समाचार बापदादा को सुनाया)

अच्छा है साइन्स वाले तो काम में लगे ही हैं। प्रयोग करने में साइन्स वाले होशियार होते हैं ना। तो एक भी अच्छी तरह से योगी और प्रयोगी बन गया तो बड़े से बड़े माइक का काम करेगा।

(लास एंजिलिस में भूकम्प आया है) ये समय के तीव्र गति की निशानियां समय प्रति समय प्रकृति दिखा रही है। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

फल की इच्छा छोड़ रहमदिल बन शुभ भावना का बीज डालते चलो

बापदादा द्वारा सर्व बच्चों को इस संगमयुग पर विशेष कौन-सा खज़ाना मिला बा हुआ है? खज़ाने तो बहुत हैं लेकिन विशेष खज़ाना खुशी का खज़ाना है। तो खुशी का खज़ाना कितना श्रेष्ठ मिला है। तो यह सदा साथ रहता है या कभी किनारे भी हो जाता है? जब अनगिनत मिलता है तो हर समय खज़ाने को कार्य में लगाना चाहिए ना। लोग किनारे इसीलिए रखते हैं कि आइवेल में काम में आयेगा। लेकिन आपके पास तो अथाह है। इस जन्म की तो बात छोड़ो लेकिन अनेक जन्म यह खुशी का खज़ाना साथ रहेगा। अनगिनत है तो यूज़ करो ना। बापदादा ने पहले भी सुनाया है कि प्राण चले जायें लेकिन खुशी नहीं जाये। इसलिये खुशी को कभी भी किनारे नहीं रखो और ही महादानी बनो। क्योंकि वर्तमान समय और कुछ भी मिल सकता है लेकिन सच्ची खुशी नहीं मिल सकती। अल्पकाल की खुशी प्राप्त करने के लिये लोग कितना समय वा धन खर्च करते हैं फिर भी सच्ची खुशी नहीं मिलती। तो ऐसे आवश्यकता के समय आप आत्माओं को महादानी बनना है। कैसी भी अशान्त आत्मा, दु:खी आत्मा हो अगर उसको खुशी की अनुभूति करा दो तो कितनी दिल से दुआयें देगी। आप दाता के बच्चे हो तो फ्राकदिली से बांटो। बांटना तो आता है ना? तो क्यों नहीं बांटते हो? समय को देख रहे हो? दिल से रहम आना चाहिये। जो अशान्ति-दु:ख में भटक रहे हैं वो आपका परिवार है ना। परिवार को सहयोग दिया जाता है ना। तो वर्तमान समय महादानी बनने के लिये विशेष रहमदिल के गुण को इमर्ज करो। आपके जड़ चित्र वरदान दे रहे हैं। तो आप भी चैतन्य में रहम दिल बन बांटते जाओ। क्योंकि परवश आत्मायें हैं। कभी भी ये नहीं सोचो कि ये तो सुनने वाले नहीं हैं, ये तो चलने वाले नहीं हैं। नहीं, आप रहमदिल बनो, देते जाओ। गाया हुआ है कि भावना का फल मिलता है। तो चाहे आत्माओं में ज्ञान के प्रति, योग के प्रति शुभ भावना नहीं भी हो लेकिन आपकी शुभ भावना उनको फल दे देती है। ऐसे नहीं सोचो कि इतना कुछ सेवा की लेकिन फल तो मिला ही नहीं। लेकिन फल एक जैसे नहीं होते। कोई सीजन का फल होता है, कोई सदा का फल होता है। तो सीजन का फल सीजन पर ही फल देगा ना। तो आपने शुभ भावना का बीज डाला, अगर सीजन का फल होगा तो सीजन में निकलेगा ही। वैसे भी देखो जो खेती का काम करते हैं, तो जो सीजन पर चीज़ निकलने वाली होती है तो ये नहीं सोचते हैं कि 6 मास के बाद ये निकलेगा इसलिये बीज डालो ही नहीं। तो आप भी बीज डालते चलो। समय पर सर्व आत्माओं को जगना ही है। आपकी रहम भावना, शुभ भावना फल अवश्य देगी। अगर कोई आपोजिशन भी करता है तो भी आपको अपने रहम की भावना छोड़नी नहीं है और ही सोचो कि ये आपोजिशन या इन्सल्ट, गालियां-ये खाद का काम करेंगी। तो खाद पड़ने से अच्छा फल निकलेगा। जितनी गालियां देंगे, उतना आपके गुण गायेंगे। इसलिये हर आत्मा को दाता बन देते जाओ। अच्छा माने तो दें, नहीं। ये तो लेवता हो गये? लेने की इच्छा नहीं रखो कि वो अच्छा बोले, अच्छा माने तो दें। नहीं। इसको कहा जाता है दाता के बच्चे मास्टर दाता। चाहे वृत्ति द्वारा, चाहे वायब्रेशन्स द्वारा, चाहे वाणी द्वारा देते जाओ। इतने भरपूर हो ना? सब खज़ाने हैं?

डबल विदेशियों को देख बापदादा डबल खुश होते हैं क्यों? डबल पुरूषार्थ करते हैं। एक तो अपना रीति-रस्म परिवर्तन करने का भी पुरूषार्थ करते हैं। बापदादा देखते हैं कि उमंग-उत्साह मैजारिटी में अच्छा है। अगर कभी उमंग-उत्साह बीच-बीच में नीचे-ऊपर होता है तो आज विधि सुनाई कि समा जाओ, स्नेह की गोदी में छिप जाओ, फिर माया आयेगी ही नहीं। ये तो सहज है ना। बीज रूप होने में मेहनत है, इसमें मेहनत नहीं है। और कुछ भी नहीं आये लेकिन स्नेह में समाना तो आता है कि ये मुश्किल है? (नहीं) तो ये करो। अभी मुश्किल शब्द नहीं बोलना। नीचे आते हो तो छोटी-सी चीज़ बड़ी लगती है, ऊपर चले जाओ तो बड़ी चीज़ भी छोटी लगेगी। फरिश्ते हो या साधारण मानव हो? (फरिश्ता) फरिश्ता कहाँ रहता है? ऊपर रहता है या नीचे? (ऊपर) तो नीचे क्यों ठहरते हो, अच्छा लगता है? कभी-कभी दिल होती है नीचे आने की? नहीं, फिर क्यों आते हो? बाप का साथ छोड़ते हो तब नीचे आते हो।

तो डबल विदेशियों को डबल पुरूषार्थ का प्रत्यक्ष फल डबल चांस है। इसका फायदा लो। इस वर्ष में क्या करेंगे? डबल सर्विस। महादानी-वरदानी बनेंगे या खुद बाप के आगे कहेंगे शक्ति दे दो औरों को भी शक्तियां दो। अच्छा है, हिम्मत रखने में नम्बर ले लिया। अभी फास्ट पुरूषार्थ कर आगे उड़ते चलो।

ग्रुप नं. 2

एक बल एक भरोसे द्वारा सदा एकरस स्थिति का अनुभव करो

सभी एक बल एक भरोसे का अनुभव करते हो? एक बल, एक भरोसे वाले की निशानी क्या होगी? एक बल, एक भरोसे में रहने वाली आत्मा सदा एक रस स्थिति में स्थित होगी। एकरस स्थिति अर्थात् सदा अचल, हलचल नहीं। तो ऐसे रहते हो कि कभी हलचल, कभी अचल? हलचल के समय एक बल, एक भरोसा कहेंगे या अनेक बल, अनेक भरोसा कहेंगे? जब एक बाप द्वारा सर्वशक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं तो एक बल, एक भरोसा चाहिये ना। एक को भूलते हो तभी हलचल होती है। तो अचल रहने वाले हो ना?

यहाँ आपका यादगार कौन-सा है? अचल घर है या हलचल घर है? या अचल घर कभी हलचल घर हो जाता है! यादगार आपका ही है ना। फिर हलचल में क्यों आते हो? प्रैक्टिकल का ही यादगार बना है ना। तो सदा ये याद करो कि एक बल एक भरोसे में रहने वाले हैं। क्योंकि भक्ति में अनेक के ऊपर भरोसा रखकरके अनुभव कर लिया ना तो क्या मिला? सब कुछ गंवा लिया ना। सतयुग का इतना सारा धन कहाँ गंवाया? भक्ति में गँवाया ना। अच्छी तरह से अनुभव कर लिया ना। तो जब भी कोई ऐसे हलचल की परिस्थिति आती है तो अपने यादगार अचल घर को याद करो। जब यादगार ही अचल घर है तो मैं कैसे हलचल में आ सकती हूँ! ये तो सहज याद आयेगा ना।

एकरस स्थिति का अर्थ ही है कि एक द्वारा सर्व सम्बन्ध, सर्व प्राप्तियों के रस का अनुभव करना। तो अनुभव होता है कि बीच-बीच में और कोई सम्बन्ध भी खींचता है? जब सर्व सम्बन्ध एक द्वारा अनुभव होता है तो दूसरे सम्बन्ध में आकर्षण होने की तो बात ही नहीं है। सर्व सम्बन्ध का अनुभव है कि कोई-कोई सम्बन्ध का अनुभव है? सर्व सम्बन्ध से बाप को अपना बनाया है कि कोई सम्बन्ध किनारे रख दिया है? सर्व हैं कि एक-दो में अटेन्शन जाता है? कोई का भाई में, कोई का बच्चे में, कोई का पोत्रे में! नहीं? निभाना अलग चीज़ है, आकर्षित होना अलग चीज़ है। तो नष्टोमोहा हो? पाण्डवों को पैसे कमाने में मोह नहीं है? ट्रस्टी होकर कमाना अलग चीज़ है। लगाव से कमाना, मोह से कमाना अलग चीज़ है।

कभी धन में मोह जाता है? थोड़ा-थोड़ा जाता है? क्या होगा, कैसे होगा, जमा कर लें, कुछ कर लें, पता नहीं कितने वर्ष के बाद विनाश होता है, दस वर्ष लगते हैं या 50 वर्ष लगते हैं.. ये नहीं आता? नष्टोमोहा बनकर, ट्रस्टी बनकरके चलना और मोह से चलना कितना अन्तर है! नष्टोमोहा की निशानी क्या होगी? कभी कमाने में, धन सम्भालने में दु:ख की लहर नहीं आयेगी। कभी कम, कभी जयादा में दु:ख की लहर आती है? पोत्रा-धोत्रा थोड़ा बीमार हो गया तो दु:ख की लहर आती है? नष्टोमोहा हैं? कुछ भी हो जाये बेफ़्रिक हो? नष्टोमोहा अर्थात् दु:ख और अशान्ति का नाम-निशान नहीं। ऐसे हो या बनना है? तो एक बल, एक भरोसा अर्थात् जरा भी दु:ख के लहर की हलचल नहीं हो। सदा ये स्मृति स्वरूप हो कि सदा एक बल, एक भरोसे वाले हैं और आगे भी सदा रहेंगे। खुशी रहे कि मैं ही था, मैं ही हूँ और मैं ही बनूँगा। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

स्थिति का आधार स्मृति है, स्मृति का परिवर्तन कर कर्म में श्रेष्ठता लाओ

सभी अपने को संगमयुगी पुरूषोत्तम आत्मायें अनुभव करते हो? पुरूषोत्तम अर्थात् पुरूषों में उत्तम पुरूष। तो अभी साधारण नहीं हो पुरूषोत्तम हो। क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् श्रेष्ठ। ब्राह्मणों को सदा ऊंचा दिखाते हैं। मुख वंशावली दिखाते हैं ना। तो ब्राह्मण बन गये अर्थात् श्रेष्ठ बन गये। साधारण पुरूष आप पुरूषोत्तम आत्माओं की पूजा करते हैं क्योंकि ब्राह्मण अर्थात् पवित्र बन गये ना। तो पवित्रता की ही पूजा होती है। साधारण आत्मा भी पवित्रता को धारण करती है तो महान आत्मा कहलाती है। तो आप सब पवित्र आत्मायें हो ना कि मिक्स आत्मा हो? थोड़ी-थोड़ी अपवित्रता, थोड़ी-थोड़ी पवित्रता! नहीं। पवित्र आत्मा बन गये। तो पवित्रता ही श्रेष्ठता है। पवित्रता ही पूज्य है। तो ये नशा रहता है कि हम पुजारी से पूज्य बन गये? ब्राह्मणों की पवित्रता का गायन है। कोई भी शुभ कार्य होगा तो ब्राह्मणों से करायेंगे। अशुभ कार्य ब्राह्मणों से नहीं करायेंगे। अशुभ कार्य ब्राह्मण करें तो कहेंगे ये नाम का ब्राह्मण है, काम का नहीं। तो आप नामधारी हो या कामधारी? नामधारी ब्राह्मण तो बहुत हैं। लेकिन आप जैसा नाम वैसा काम करने वाले हो। साधारण आत्मा नहीं हो, विशेष आत्मा हो। ये खुशी है ना। कल साधारण थे और आज विशेष बन गये। तो विशेष आत्मा समझने से जैसी स्मृति होगी वैसी स्थिति होगी और जैसी स्थिति वैसे कर्म होंगे। चेक करो जब स्थिति कमज़ोर होती है तो कर्म कैसे होते हैं। कर्म में भी कमज़ोरी आ जायेगी और स्थिति शक्तिशाली तो कर्म भी शक्तिशाली होंगे। तो स्थिति का आधार है स्मृति। स्मृति खुशी की है तो स्थिति भी खुश। कर्म भी खुशी-खुशी से करेंगे। फाउन्डेशन है स्मृति। तो बाप ने स्मृति बदल ली। साधारण से विशेष आत्मा बने तो स्मृति चेंज हो गई। चाहे कर्म साधारण हों लेकिन साधारण कर्म में भी विशेषता हो। मानो खाना बना रहे हो तो ये तो साधारण कर्म है ना, सब करते हैं लेकिन आपका खाना बनाना और दूसरों के खाना बनाने में फर्क होगा ना। आपके याद का भोजन और साधारण भोजन में अन्तर है। वो प्रसाद है, वो खाना है। तो विशेषता आ गई ना। याद में जो खाना खाते हो या बनाते हो तो उसको ब्रह्मा भोजन कहते हैं। तो सदा याद रखना कि पुरूषोत्तम विशेष आत्मायें बन गये तो साधारण कर्म कर नहीं सकते।

ग्रुप नं. 4

सदा विघ्न विनाशक बनने के लिए अपने मस्तक पर परमात्म हाथ का अनुभव करो

बाम्बे में सबसे ज्यादा पूजा किसकी होती है? गणेश की। गणेश को विघ्न विनाशक कहते हैं। आप सब विघ्न विनाशक हो? कोई विघ्न के वश तो नहीं होते हो? विघ्न विनाशक कौन बनता है? जिसमें सर्वशक्तियाँ हैं वही विघ्न विनाशक है। तो सर्वशक्तियां आपका जन्म-सिद्ध अधिकार हैं। सदा ये नशा रखो कि मैं मास्टर सर्वशक्तिमान हूँ और सर्वशक्तियों को समय प्रमाण कार्य में लगाओ। ऐसे नहीं कि समय पर कार्य में नहीं लगाओ, समय बीत जाने के बाद सोचो कि ऐसे करना चाहिये था। तो सभी विघ्न विनाशक हो? फलक से कहो कि हम मास्टर विघ्न विनाशक हैं। कितने भी रूप से माया आये लेकिन आप नॉलेजफुल बनो। माया की भी नॉलेज है ना। अच्छी तरह से समझ गये हो या कभी घबरा जाते हो, नया रूप समझते हो। माया से घबराते हो? कभी हार, कभी वार-ऐसे तो नहीं? माया का जन्म कैसे होता है, पता है? जानते भी हो कि माया का जन्म ऐसे होता है फिर भी जन्म दे देते हो! माया से प्यार है क्या? तो नॉलेजफुल आत्मा कभी भी माया से हार नहीं खा सकती। मायाजीत का टाइटल है, माया से हार खाने वाले नहीं। बापदादा का सदा हाथ और साथ है तो सदा मायाजीत हैं। तो सदा साथ है या कभी अकेले भी हो जाते हो? कम्बाइन्ड रहते हो ना। अपने मस्तक पर सदा ही बाप की दुआओं का हाथ अनुभव करो। तो जिसके ऊपर परमात्म हाथ है वो विघ्न विनाशक होगा ना। जिसके ऊपर दुआओं का हाथ है वो सदा निश्चित और निश्चिन्त रहता है। सभी के मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ है। यह अविनाशी तिलक है। तो विजय के तिलकधारी अर्थात् विघ्न विनाशक। सदा अमृतवेले विजय के तिलक को स्मृति में लाओ। भक्त भी रोज तैयार होकर तिलक जरूर लगायेंगे। आपका तो अविनाशी तिलक है ही।

सभी सदा खुश रहते हो या खुशी कभी कम होती है, कभी बढ़ती है? ब्राह्मण जीवन की खुराक खुशी है। तो सदा खुराक खाते हो या कभी-कभी खाते हो? खुश नसीब हैं और खुशी की खुराक खाने वाले हैं और खुशी बांटने वाले हैं - ये याद रहता है? दिल से निकलता है कि मेरे जैसा खुशनसीब और कोई हो नहीं सकता? सारे विश्व में और कोई है? लण्डन की महारानी वा अमेरिका का प्रेजीडेन्ट है? कोई नहीं? अगर लण्डन की रानी आपको ताज तख्त दे तो लेंगे? नहीं लेंगे? अभी भी ले लो, भविष्य में भी ले लेना। तख्त पर बैठेंगे तो ऑर्डर तो करेंगे ना। (बाबा का तख्त मिला है उस तख्त की जरूरत नहीं है) वो तख्त आजकल तख्त नहीं है, तख्ता है। इतना बेफ़्रिक होता है। और आप बेफ़्रिक बादशाह हो। ऐसी बेफ़्रिक जीवन, सारे कल्प में इस समय जो अनुभव करते हो वो और कोई युग में नहीं है। सतयुग में बेफ़्रिक होंगे लेकिन अभी आपको ज्ञान है कि फ़्रिक क्या है, बेफ़्रिक क्या है? वहाँ ज्ञान नहीं होगा।

बाम्बे वाले डबल बेफ़्रिक हो! क्योंकि बाम्बे वालों को पता है कि बाम्बे अगर गई तो हम तो ठीक ही रहेंगे। देखो ना हलचल होती है लेकिन ब्राह्मण तो सेफ होते हैं। योगयुक्त आत्मा स्वत: ही सेफ हो जाती है। तो बाम्बे वाले डरते तो नहीं हैं ना कि सागर आ जायेगा! पहले से ही नष्टोमोहा हो गये। अच्छा, बाम्बे वालों ने क्या नया प्लैन बनाया है? (कार यात्रा का नया बनाया है।) इससे माइक निकलेंगे ना? बाम्बे विश्व में बिजनेस में नम्बरवन है। तो ज्ञान की बिजनेस में कितना नम्बर है? वन नम्बर है ना। नम्बर टू तो चन्द्रवंश हो जायेगा। नम्बरवन सूर्यवंश। तो सूर्यवंशी हैं या चन्द्रवंशी? सबमें नम्बर है तो इसमें पीछे कैसे हो सकता है। बाम्बे वालों ने साकार पालना भी ली है। ये भी बाम्बे का भाग्य है। अभी भी निमित्त बनी हुई बाप समान आत्माओं की पालना मिल रही है ना। तो इसमें भी नम्बरवन हो। देखना, फिर कभी टू, कभी वन नहीं बनना। सदा नम्बरवन रहना। बाम्बे वालों में हिम्मत अच्छी है। सेवा के क्षेत्र में, हर कार्य में हिम्मत रखते हैं। और जो हिम्मत रखते हैं उसको बाप की गुप्त मदद स्वत: ही मिलती है। और मदद की निशानी है कि हर कार्य सहज होता है। तो सहज लगता है या कभी मुश्किल भी लगता है? मुश्किल को सहज बनाने वाले औरों की मुश्किल को मिटाने वाले हो। तो मुश्किल को सहज करने वाले ही विघ्न विनाशक हैं। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

याद की शक्ति द्वारा सेकण्ड में मन-बुद्धि को एकाग्र करना और सेवा द्वारा खज़ानों को बढ़ाना-यह बैलेन्स ही ब्लैसिंग प्राप्त करने का साधन है

दा याद और सेवा दोनों का बैलेन्स रखने वाले हो? क्योंकि याद से जो शक्तियों की वा गुणों की प्राप्ति होती है वो सेवा द्वारा औरों को देना है। तो दोनों ही अच्छी तरह से चेक करते हो? कि कभी सेवा ज्यादा होती तो योग कम, कभी योग जयादा तो सेवा कम-ऐसे तो नहीं होता? सेवा करने से, जो खज़ाने मिले हुए हैं वह बढ़ते हैं, तो बढ़ाने की विधि आती है ना? तो सेवा में होशियार हो या याद में होशियार हो? याद की शक्ति का अर्थ है कि जहाँ बुद्धि को लगाना चाहो, वहाँ लग जाये। ऐसी शक्ति है? जब चाहो, जहाँ चाहो, अपनी बुद्धि को लगा सकते हो या टाइम लगेगा? कितने टाइम में लगा सकते हो? कोई भी वायुमण्डल है लेकिन कैसे भी वायुमण्डल के बीच अपने मन को, बुद्धि को कितने समय में एकाग्र कर सकते हो? (सेकण्ड में) कहते हो या करते हो? कहना तो सहज है लेकिन एकाग्रता की शक्ति है वा नहीं है-वह समय पर मालूम पड़ता है। परिस्थिति हलचल की हो, वायुमण्डल तमोगुणी हो, माया अपने हिम्मत से अपना बनाने का प्रयत्न कर रही हो फिर सेकण्ड में एकाग्र हो सकते हो या टाइम लगेगा? ये अभ्यास सदा करते रहो तो समय पर शक्ति कार्य में ला सकते हो। इसको कहा जाता है जब चाहे, जहाँ चाहे वहाँ स्थित हो सकते हैं। कितना भी व्यर्थ संकल्पों का तूफान हो लेकिन सेकण्ड में तूफान आगे बढ़ने का तोहफा बन जाये। ऐसी कन्ट्रोलिंग पॉवर हो तो ऐसी शक्तिशाली आत्मा कभी ये संकल्प भी नहीं लायेगी कि चाहते तो नहीं, लेकिन हो जाता है। जो सोचा वो हुआ। ऐसे नहीं, सोचते हैं नहीं होना चाहिये और हो जाये। क्योंकि अगर समय पर कोई भी शक्ति काम में नहीं आई तो प्राप्ति के बजाय पश्चाताप करना पड़ता है। तो प्राप्ति स्वरूप बनो। बापदादा ने सभी आत्माओं को सर्वशक्तियाँ वर्से में दे दी। तो वर्से वाली चीज़ सदा याद रहती है। फलक से कहेंगे ना कि ये शक्तियाँ हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार हैं।

सदा ‘एक बाप दूसरा न कोई’ इसी अनुभव में रहते हो ना? बस एक है, कि दूसरा-तीसरा भी हो जाता है? एक बाप ही संसार बन गया। कोई आकर्षण नहीं, कोई कर्मबन्धन नहीं। अपने कोई कमज़ोर संस्कार का भी बन्धन नहीं? कोई कमज़ोर संस्कार हैं? कोई पुराना संस्कार अभी तक है? कभी थोड़ा रोब आता है?कभी छोटों के ऊपर रोब आता है? (क्रोध आता है) क्रोध तो रोब से भी बड़ा है। क्रोध आता है तो इसका अर्थ है कर्म का बन्धन है। पाण्डवों में क्रोध आता है और माताओं में मोह आता है। अभिमान भी आता है-मैं पुरूष हूँ, कभी बच्चों पर, कभी माताओं पर अभिमान आता है मैं बड़ा हूँ। अधिकार रखते हो कि ये क्यों किया! मेरी है, ये समझते हो? सेवा के साथी हैं, न कि मेरे का अधिकार है। मेरा समझने से ही क्रोध, अभिमान या मोह आता है। अगर मेरा नहीं तो क्रोध भी नहीं आयेगा। मातायें, बच्चों के ऊपर क्रोध करती हो? जब बहुत चंचलता करते हैं तो क्रोध नहीं करती?

जब बाप संसार है, मेरा बाबा है तो और सब मेरा-मेरा एक मेरे बाप में समा जाता है। तो अभी दिल में क्या आता है? मेरा या तेरा? जैसे भक्ति में कहते हैं तेरा लेकिन मानते हैं मेरा तो ऐसे तो नहीं करते ना। मेरापन ही बोझ है, तो बोझ को छोड़ना अच्छी बात है ना। तो सदा यह याद रखो कि हम याद और सेवा का बैलेन्स रखने वाले बाप के ब्लैसिंग के अधिकारी आत्मायें हैं।

ग्रुप नं. 6

सन्तुष्ट रहने का दृढ़ संकल्प लो तो सफलता सदा साथ रहेगी

भी आवाज से परे रहना सहज अनुभव करते हो वा आवाज में आना सहज अनुभव करते हो? सहज क्या है? आवाज में आना या आवाज से परे होना? आवाज से परे होना अर्थात् अशरीरी स्थिति का अनुभव होना। तो शरीर के भान में आना जितना सहज है, उतना ही अशरीरी होना भी सहज है कि मेहनत करनी पड़ती है? सेकण्ड में आवाज में तो आ जाते हो लेकिन सेकण्ड में कितना भी आवाज में हो, चाहे स्वयं हो या वायुमण्डल आवाज का हो लेकिन सेकण्ड में फुल स्टॉप लगा सकते हो कि कॉमा लगेगी, फुल स्टॉप नहीं? इसको कहा जाता है फरिश्ता वा अव्यक्त स्थिति की अनुभूति में रहना, व्यक्त भाव से सेकण्ड में परे हो जाना। इसके लिये ये नियम रखा हुआ है कि सारे दिन में ट्रैफक ब्रेक का अभ्यास करो। ये क्यों करते हो? कि ऐसा अभ्यास पक्का हो जाये जो चारों ओर कितना भी आवाज का वातावरण हो लेकिन एकदम ब्रेक लग जाये। आत्मा का आदि वा अनादि लक्षण तो शान्त है, तो सेकण्ड में ऑर्डर हो कि अपने अनादि स्वरूप में स्थित हो जाओ तो हो सकते हो कि टाइम लगेगा?सुनाया था ना कि लगाना चाहें बिन्दी और लग जाये क्वेश्चन मार्क तो क्या होगा? इसको किस अवस्था का अभ्यास कहेंगे? सभी फरिश्ते स्थिति का अभ्यास करते हो? अभी और अभ्यास करना है कि जितना समय चाहे उतना समय उस विधि से स्थित हो जायें। अभी देखो कोई भी प्रकृति की आपदा या परिस्थिति की आपदा आती है तो अचानक आती है ना, और दिन प्रतिदिन अचानक यह प्रकृति अपनी हलचल बढ़ाती जाती है। यह कम नहीं होनी है, बढ़नी ही है। अचानक आपदा आ जाती है। तो ऐसे समय पर समाने वा समेटने की शक्ति की आवश्यकता है। और कहाँ भी बुद्धि नहीं जाये, बस बाप और मैं, बुद्धि को जहाँ लगाना चाहें वहाँ लग जाये। क्यों-क्या में नहीं जाये, ये क्या हुआ, ये कैसे होगा, होना तो नहीं चाहिये, हो कैसे गया-इसको ब्रेक कहेंगे? तो उड़ती कला के लिये ब्रेक बहुत पॉवर फुल चाहिये। जब पहाड़ी पर ऊंचे चढ़ते हैं तो बार-बार क्या कहते हैं कि ब्रेक चेक करो, ब्रेक चेक करो। तो ऊंची अवस्था में जा रहे हो ना तो बार-बार ये ब्रेक चेक करो। कोई भी संकल्प वा संस्कार निगेटिव से पॉजिटिव में परिवर्तन कर सकते हैं और कितने समय में कर सकते हैं? समय है एक सेकण्ड का और आप पांच सेकण्ड में करो तो क्या होगा? तो अटेन्शन इस परिवर्तन शक्ति का चाहिये। पहले स्वयं को परिवर्तन करो तब विश्व को परिवर्तन कर सकते हो। तो स्व-परिवर्तक बने हो? पहले है स्व-परिवर्तक उसके बाद है विश्व परिवर्तक। क्योंकि अनुभव होगा कि व्यर्थ संकल्प की गति बहुत फास्ट होती है। एक सेकण्ड में कितने व्यर्थ संकल्प चलते हैं, अनुभव है ना। फास्ट चलते हैं ना। तो ऐसे फास्ट गति के समय पॉवरफुल ब्रेक लगाकर परिवर्तन करने का अभ्यास चाहिये। तो आज के दिन फरिश्तेपन का अभ्यास किया? सहज अनुभव हुआ कि मेहनत लगी? अभी सर्व आत्मायें आप शान्ति-सुख देने वाली फरिश्ते आत्माओं को याद करती हैं कि कोई फरिश्ते आयें और वरदान देकर जायें। तो वो फरिश्ते कौन हैं? आप हो? नशा रहता है ना कि हम ही कल्प-कल्प की श्रेष्ठ आत्मायें हैं। कितने बार यह पार्ट बजाया है? याद है कि भूल गये? फरिश्ता स्वरूप कितना प्यारा है। क्योंकि फरिश्ता दाता होता है, लेवता नहीं होता है। तो देने वाले दाता हो ना कि लेकर देने वाले हो? बाप से लेना अलग बात है। और आत्मायें कुछ दें तो आप दो ऐसे तो नहीं? फरिश्ता अर्थात् सन्तुष्ट रहना और सन्तुष्ट करना। तो सन्तुष्ट रहते हो कि कोई-कोई बात में असन्तुष्ट भी हो जाते हो?कुछ भी नीचे-ऊपर हो जाये, असन्तुष्ट होंगे? कोई इन्सल्ट कर दे तो भी सन्तुष्ट रहेंगे? कोई नीचे-ऊपर करने की कोशिश करे तो सन्तुष्ट रहेंगे? पक्का? कोई कमी हो जाये तो भी सन्तुष्ट रहेंगे? देखो, सोच-समझकर जवाब दो। कोई टीचर ने आपको कम पूछा, कम बोला तो सन्तुष्ट होंगे या असन्तुष्ट होंगे? रिकॉर्ड मंगायें? कुछ भी हो जाये, दाता के बच्चे दाता हैं तो किसी भी बात में असन्तुष्ट नहीं हो सकते। सन्तुष्टता ब्राह्मणों का विशेष लक्षण है। स्वयं से भी सन्तुष्ट और औरों से भी सन्तुष्ट। जो पार्ट मिला है उसमें सन्तुष्ट रहना ही आगे बढ़ना है। ऐसे सन्तुष्ट हो? मातायें सन्तुष्ट देवी हो ना? सन्तोषी मां का पूजन होता है, वो कौन हैं? आप ही हो ना। तो कुछ भी हो जाये अपनी विशेषता को सदा साथ रखो। अगर दृढ़ संकल्प है तो जहाँ दृढ़ता है वहाँ सफलता है ही। दृढ़ संकल्प रखो कि सन्तुष्टता को कभी छोड़ना नहीं है तो सफलता आपके सदा ही साथ रहेगी। संकल्प में भी दृढ़ता, बोल में भी दृढ़ता और कर्म में भी दृढ़ता। ऐसे नहीं कि संकल्प तो दृढ़ किया था लेकिन कर्म में थोड़ा नीचे-ऊपर हो गया। नहीं। इस वर्ष सदा सन्तुष्ट रहना अर्थात् सफल रहना, सफलता को नहीं छोड़ना है। कितना भी कड़ा पेपर आ जाये लेकिन सन्तुष्ट रहना है और सन्तुष्ट करना है। क्योंकि आपका टाइटल है विश्व कल्याणकारी।

जैसे आज के दिन को स्मृति दिवस सो समर्थ दिवस कहते हैं तो सारा वर्ष ही समर्थ दिवस मनाना। व्थर्थ समाप्त। दृढ़ संकल्प अर्थात् बहुत् तीव्र पुरूषार्थ के संकल्प वाले। तो पुरुषार्थी नहीं बनना, तीव्र पुरुषार्थी। अच्छा!

कितनी भी बड़ी कैसी भी परिस्थिति हो प्यार से, स्नेह से परिस्थिति रूपी पहाड़ भी परिवर्तन हो पानी समान हल्का बन सकता है। पत्थर को पानी बना सकते हो। कैसा भी माया का विकराल रूप वा रॉयल रूप सामना करे तो सेकण्ड में स्नेह के सागर में समा जाओ तो सामना करने की माया की शक्ति समाप्त हो जायेगी। आपके समाने की शक्ति छू-मन्त्र नहीं लेकिन शिव-मन्त्र बन जायेगी।



25-01-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


ब्राह्मणों की नेचर विशेषता की नेचर है - इसे नेचरल स्मृति-स्वरूप बनाओ

भाग्य की श्रेष्ठ रेखा खींचने का कलम देने वाले भाग्य विधाता बाप, भाग्यवान विशेष आत्माओं प्रति बोले-

आज बापदादा अपने सर्व विश्व की विशेष आत्माओं को देख रहे हैं। ड्रामानुसार आप आत्माओं का कितना विशेष पार्ट नूँधा हुआ है। आज बापदादा हर एक बच्चे की विशेषताओं को देख हर्षित हो रहे हैं। हर एक बच्चे को देख ‘वाह बच्चे’ यह स्नेह का गीत दिल में बज रहा था। साथ-साथ यह भी देख रहे थे कि बच्चों के दिल से ये ‘वाह-वाह’ का गीत सदा निकलता है? हर कर्म में, हर कदम में, हर संकल्प में ये श्रेष्ठ अनुभव होता है वा कभी-कभी होता है? साधारण जीवन से विशेष जीवन सदा स्वत: रहती है वा स्मृति लाने से अनुभव होता है? जब जीवन है तो जीवन का अर्थ ही है सदा और स्वत: रहे। स्मृति में लाया तो अनुभव किया और स्मृति में नहीं लाया तो विशेषता के बजाय साधारण जीवन अनुभव हो - यह आप विशेष आत्माओं की विशेषता नहीं है। ब्राह्मण जन्म ही विशेष जन्म है। जिसका जन्म ही विशेष है उसका जीवन क्या होगा? विशेष होगा या साधारण? ब्राह्मण जन्म भी श्रेष्ठ, ब्राह्मण धर्म भी श्रेष्ठ और ब्राह्मण कर्म भी श्रेष्ठ। क्योंकि ब्राह्मण जन्म दाता, ब्राह्मण धर्म स्थापक, सर्वश्रेष्ठ परम आत्मा और आदि आत्मा ब्रह्मा बाप है। तो जैसे रचता सर्वश्रेष्ठ तो रचना भी सर्वश्रेष्ठ अर्थात् विशेष है। ब्राह्मणों का कर्म विशेष क्यों है? क्योंकि कर्म में फॉलो करने के लिए आप सबके सामने आदि आत्मा ब्रह्मा बाप सेम्पल है। कर्म में फॉलो साकार ब्रह्मा बाप को करते हो। इसलिये भाग्य विधाता अर्थात् कर्म द्वारा भाग्य की रेखा श्रेष्ठ बनाने वाला ब्रह्मा गाया हुआ है। भाग्य की रेखा का कलम कर्म है। तो श्रेष्ठ कर्म का सहज सिम्बल ब्रह्मा बाप है। इसलिये आप सभी विशेष पुरूषार्थ का शब्द यही वर्णन करते हो कि बाप समान बनना है।

इस अव्यक्त वर्ष में सभी का लक्ष्य क्या रहा? निराकारी स्थिति में निराकार बाप समान अशरीरी स्थिति का अनुभव किया? साकार कर्म में ब्रह्मा बाप समान बनने का नम्बरवार अनुभव किया? तो विशेष जीवन का आधार विशेष जन्म, धर्म और श्रेष्ठ कर्म है। जैसे लौकिक जीवन में भी अगर किसी आत्मा का जन्म विशेष राज परिवार में हो, राजकुमार हो वा राजकुमारी हो तो यह विशेषता जन्म की होने के कारण हर समय सदा और स्वत: रहती है वा बार-बार स्मृति में लाते हैं कि मैं राजकुमारी हूँ? सहज याद होती है ना। पुरूषार्थ करते हैं क्या? चाहे कर्म अपनी रूचि के कारण कितना भी साधारण हो लेकिन अपने जन्म की विशेषता भूल जाते हैं क्या? नेचरल और नेचर बन जाती है। तो आप ब्राह्मण आत्माओं की नेचर क्या है? विशेष है या साधारण है? अभी भी कोई-कोई बच्चे जब कोई साधारण कर्म कर लेते हैं तो बापदादा के आगे अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिये क्या कहते हैं? मैं चाहता नहीं था वा चाहती नहीं थी कि ये कर्म करूँ लेकिन मेरी नेचर है इसलिये हो गया। वैसे ये कहना वा सोचना यथार्थ है? मैं कौन? ब्राह्मण जीवन वाले हैं ना। तो ब्राह्मण जीवन वाली आत्मा ये सोच सकती है कि ये मेरी नेचर है? यह कहना राइट है? तो उस समय क्यों बोलते हैं? उस समय ब्राह्मण नहीं बोलता, माया बोलती है। तो जैसे ये साधारण नेचर वा मायावी नेचर नेचरल काम कर लेती है ना, इसलिये कहते हैं चाहते नहीं थे लेकिन हो गया। तो ब्राह्मण नेचर अर्थात् विशेषता की नेचर भी नेचरल होनी चाहिये। नेचरल चीज़ सदा रह सकती है। तो विशेष जीवन की स्मृति नेचर के रूप में नेचरल होनी चाहिये वा कभी भूलना, कभी याद होना? तो सदा स्मृति स्वरूप में रहो। स्मृति लाने वाले नहीं, स्मृति स्वरूप। इसलिये बापदादा देख रहे थे-अव्यक्त वर्ष समय प्रमाण समाप्त हुआ, लेकिन बापदादा समान स्वयं को सम्पन्न बनाया? इस अव्यक्त वर्ष का विशेष लक्ष्य रखा कि अव्यक्त अर्थात् फरिश्ता स्वरूप बनना और बनाना है। सभी ने यही लक्ष्य रखा था ना, फिर रिजल्ट क्या निकली? अपने आपको चेक किया?’फरिश्ता भव’ का वरदान भी वरदाता से मिला तो वरदान और लक्ष्य-दोनों की स्मृति से कहाँ तक सफलता अनुभव की है, ये सूक्ष्म चेकिंग स्वयं की की वा ये सोचा कि अव्यक्त वर्ष पूरा हुआ, यथाशक्ति जितना भी अनुभव किया उतना ही ड्रामानुसार ठीक रहा? वर्ष परिवर्तन के साथ-साथ स्व परिवर्तन की गति क्या रही-इस विधि से चेक किया? जैसे वर्ष समाप्त हुआ वैसे स्वयं लक्ष्य और लक्षण में सम्पन्न बने वा ये सोचते हो कि इस वर्ष में और बन जायेंगे? समय और स्वयं की गति समान रही? वैसे तो समय से भी स्वयं की गति तीव्र होनी है क्योंकि समाप्ति के समय को लाने वाली आप विशेष आत्मायें निमित्त हो। तीव्र गति से वर्ष तो सम्पन्न हो गया। मालूम हुआ वर्ष कैसे पूरा हो गया? तो चेक करो - मुझ विशेष आत्मा की परिवर्तन की गति तीव्र रही वा कभी तीव्र, कभी मध्यम रही?

फरिश्ता अर्थात् जिसका पुराने संस्कार और संसार से रिश्ता नहीं। तो चेक करो-पुराने संसार की कोई भी आकर्षण, चाहे सम्बन्ध रूप में, चाहे अपने देह की तरफ आकर्षण वा किसी देहधारी व्यक्ति के तरफ आकर्षण, कोई वस्तु की तरफ आकर्षण कितने परसेन्ट में रही? ऐसे ही पुराने संस्कार की आकर्षण, चाहे संकल्प रूप में, वृत्ति के रूप में, वाणी के रूप में, सम्बन्ध-सम्पर्क अर्थात् कर्म के रूप में कितनी परसेन्ट रही? फरिश्ता अर्थात् डबल लाइट। तो निजी लाइट स्वरूप स्मृति स्वरूप में कहाँ तक रहा? साथ-साथ लाइट अर्थात् हल्कापन, स्व के परिवर्तन के पुरूषार्थ में कहाँ तक लाइट अर्थात् हल्के रहे? मन अर्थात् संकल्प शक्ति में व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने में अर्थात् व्यर्थ के बोझ को हल्का करने में कहाँ तक सफल रहे? इसी प्रकार व्यर्थ समय, व्यर्थ संग, व्यर्थ वातावरण-इस सबमें कहाँ तक परिवर्तन करने में हल्के रहे? ब्राह्मण परिवार के सम्बन्ध में, सेवा के सम्बन्ध में कहाँ तक हल्के रहे? इसको कहा जाता है फरिश्तापन के तीव्र गति की स्थिति। इस विधि से चेक करो और भविष्य के लिये चेन्ज अर्थात् परिवर्तन करो। अपने ब्राह्मण जन्म की विशेषता को नेचरल नेचर बनाना-इसको ही सहज पुरूषार्थ कहा जाता है। सिर्फ एक विशेष आत्मा हूँ-इस स्मृति स्वरूप में स्थित हो जाओ तो बाप समान बनना अति सहज अनुभव करेंगे। क्योंकि स्मृति स्वरूप सो समर्थी स्वरूप बन जाते हैं। वर्ष तो पूरा हुआ। बापदादा रिजल्ट तो देखेंगे ना। तो रिजल्ट में यथाशक्ति मैजारिटी हैं और सदा शक्तिशाली, यथाशक्ति के मैजारिटी में मैनारिटी हैं।

स्मृति दिवस भी बहुत स्नेह से मनाया। अब विशेष जैसे स्नेह से मनाया, वैसे स्नेह का सबूत बाप समान स्मृति स्वरूप बनना ही है। सुना रिजल्ट? आगे क्या करना है? यथाशक्ति या सदा शक्ति स्वरूप? तो देखेंगे इस वर्ष में मैजारिटी सदा शक्तिशाली का सबूत कहाँ तक देते हैं? टीचर्स क्या समझती हो?

किस लाइन में आयेंगे? सदा शक्तिशाली! सबका टी.वी.में फोटो निकल रहा है। क्या भी हो जाये, कैसी भी परिस्थिति बन जाये लेकिन सदा शक्तिशाली। नाम नोट होते हैं ना कौन-कौन किस ग्रुप में आये? अभी टीचर्स का सम्मेलन होने वाला है ना। तब तक की रिजल्ट सभी टीचर्स की क्या होगी? जिसको करना होता है वो कब को नहीं सोचता है। दृढ़ संकल्प का अर्थ है अब। साधारण संकल्प का अर्थ है कब हो जायेगा! तो ‘कब’ वाले हो या ‘अब’ वाले हो? शक्ति सेना बहुत बड़ी सेना है। ‘कब’ वाली हो या ‘अब’ वाली हो? पाण्डव क्या समझते हो? देखो नाम सबके नोट हैं। अभी नाम नहीं सुनाते हैं आखिर वो समय भी आ जायेगा जो नाम सुनायेंगे। समझा!

सबसे ज्यादा संख्या किस जोन की आई है? देखेंगे पंजाब-इन्दौर क्या कमाल दिखाते हैं? टीचर्स भी ज्यादा आती हैं, संख्या ज्यादा तो टीचर्स भी जयादा होती। पंजाब वाले नम्बरवन लेंगे या सेकण्ड? इन्दौर भी नम्बरवन लेंगे? और कर्नाटक क्या करेंगे? कौन-सा नाटक दिखायेंगे? कर - नाटक, तो हीरो नाटक दिखाना, ऐसा-वैसा नहीं दिखाना। और महाराष्ट्र तो महान ही बनेंगे ना?और यू.पी. को क्या कहते हैं? यू.पी.में नदियां हैं अर्थात् यू.पी.पतित को पावन करने वाली है। पावन बनने-बनाने में नम्बरवन। तो यू.पी. वाले भी नम्बरवन बनेंगे। इस समय तो कोई भी नम्बर टू नहीं कहेंगे। राजस्थान तो है ही लक्की, जो राजस्थान में ही चरित्र भूमि है। हेड क्वार्टर राजस्थान में है ना। तो जहाँ हेड क्वार्टर है वो क्या बनेगा? हेड बनेगा ना! सभी खुशी से कह रहे हैं नम्बरवन लेकिन वहाँ जाकर ऐसे नहीं कहना कि क्या करें.. कर नहीं सकते... चाहते तो नहीं, लेकिन हो जाता है... ऐसी भाषा सोचना भी नहीं। अच्छा, डबल विदेशी भी सेवा में रेस अच्छी कर रहे हैं और रेस में नम्बरवन आना है ना। देश वालों को हिम्मत दिलाने में विदेश अच्छा निमित्त बना है। इस हिम्मत दिलाने के कारण एक्स्ट्रा मदद भी मिलती है। समझा! इसी को स्मृति में रख सहज बढ़ते चलो और बढ़ाते चलो। अच्छा!

चारों ओर की सर्व विशेष आत्माओं को, सदा साकार ब्रह्मा बाप के श्रेष्ठ कर्मों को फॉलो करने वाले कर्मयोगी आत्माओं को, सदा विशेषता को नेचरल और नेचर बनाने वाली कोटों में कोई आत्माओं को, सदा दृढ़ संकल्प द्वारा विशेष जन्म, धर्म और कर्म के स्मृति स्वरूप आत्माओं को बापदादा का विशेषता सम्पन्न याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

आप ब्राह्मण जितने सम्पन्न बनते जायेंगे उतना भविष्य में प्रकृति भी प्रगति को प्राप्त करेगी क्योंकि प्रकृति समय प्रति समय अपना सिग्नल दिखा रही है। तो जितनी प्रकृति की हलचल उतनी अचल स्थिति प्रकृति को परिवर्तन करेगी। कितनी आत्मायें समय प्रति समय दु:ख की लहर में आती हैं। तो ऐसे दु:खी आत्माओं का सहारा तो बाप और आप ही हो। तो रहम पड़ता है ना। जब समाचार सुनते हो तो क्या दिल में आता है? नथिंग न्यू-अपनी अचल स्थिति के लिये तो ठीक है लेकिन प्रकृति की हलचल से जब आत्मायें चिल्लाती हैं तो किसको चिल्लाती हैं? तो जब मर्सी, रहम मांगते हैं तो आप लोगों को उनके रहम की पुकार पहुँचती तो है ना! ये छोटी-छोटी आपदायें और तड़पती हैं। ब्राह्मण सम्पन्न हो जाओ तो दु:ख की दुनिया सम्पन्न हो जाये। तो रहम पड़ता है या नहीं? रहम पड़ता है तो फिर क्या करते हो? फिर भी ईश्वरीय परिवार के हैं ना। तो परिवार का कोई भी दु:ख, सुख में परिवर्तन करने का संकल्प तो आता है ना। कोई परिवार में बीमार भी हो तो क्या संकल्प होता है? जल्दी ठीक हो जाये। तो चिल्लाते-चिल्लाते मरना और एकधक से परिवर्तन होना, फर्क तो है ना। महाविनाश और रिहर्सल का विनाश, फर्क है। महाविनाश अर्थात् महान परिवर्तन। उसके निमित्त आप हो। सम्पन्न बनेंगे तो समाप्ति होगी। तो जो परेशान हैं वो तो समझते हैं कि प्रत्यक्षता का पर्दा खुल जाये, लेकिन स्टेज पर आने वाले हीरो एक्टर सम्पन्न तैयार होने चाहिये ना, तब तो पर्दा खुलेगा कि आधे में खुल जायेगा? परिवर्तन की शुभ भावना को तीव्र करना अर्थात् अपने को तीव्र गति से सम्पन्न बनाना। आप भी कभी कैसे, कभी कैसे होते हो तो प्रकृति भी कभी बहुत तीव्र गति से कार्य करती, कभी ठण्डी हो जाती। तो अभी क्या करना है? रहम की भावना इमर्ज करो, चाहे स्व प्रति, चाहे सर्व आत्माओं के प्रति। जहाँ रहम होगा, वहाँ तेरा-मेरा की हलचल नहीं होगी। पूज्य स्वरूप, मर्सीफुल का धारण करो। ठीक है ना। अभी ये लहर फैलाओ। हर संकल्प में मर्सीफुल। संकल्प में होंगे तो वाणी और कर्म स्वत: ही हो जायेंगे। सब चिल्लाते भी क्या हैं? मर्सी-मर्सी। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

माया की छाया से बचने का साधन है-बापदादा की छत्रछाया

सदा अपने को बापदादा की छत्रछाया के नीचे रहने वाली सदा सेफ आत्मायें अनुभव करते हो? सदा छत्रछाया है या कभी बाहर निकल जाते हो? या है बाप की छत्रछाया या है माया की छाया। तो माया की छाया से बचने का साधन है छत्रछाया। तो छत्रछाया में रहने वाले कितने खुश रहेंगे। क्योंकि बेफ़्रिक बादशाह हो गये ना। फ़्रिक है तो खुशी गुम होती है। कभी भी देखो खुशी गुम होती है तो कारण क्या होता है? कोई न कोई चिन्ता, फ़्रिक, बोझ खुशी को गुम कर देता है। और खुशी गुम हुई, कमज़ोर हुए तो माया की छाया का प्रभाव पड़ ही जाता है। कमज़ोरी माया का आह््वान करती है। जैसे शारीरिक कमज़ोरी बीमारियों का आह््वान करती है तो आत्मिक कमज़ोरी माया का आह््वान करती है। फिर उस छाया से निकलने में कितनी मेहनत करनी पड़ती है। अगर माया की छाया स्वप्न में भी पड़ गई तो स्वप्न भी परेशान करेगा। फिर ब्राह्मण से क्षत्रिय बन जाते हैं तो युद्ध करनी पड़ती है। क्षत्रिय जीवन मेहनत का है और ब्राह्मण जीवन खुशी का है। तो क्या पसन्द है? कभी-कभी युद्ध करनी पड़ती है? युद्ध करना अच्छा लगता है? छोटे से भी व्यर्थ संकल्प की छाया कितनी मेहनत कराती है इसलिए सदा बाप के याद की छत्रछाया में रहो। याद ही छत्रछाया है। तो सदाकाल के लिए छत्रछाया में रहना आता है? कभी-कभी के लिये नहीं, सदा। अविनाशी बाप है ना। तो वर्सा भी सदा का लेना है। सदा खुश रहने वाले। छत्रछाया अर्थात् खुश रहना। बेफ़्रिक होंगे ना। सब फ़्रिक बाप को दे दिया कि एक-दो सम्भाल कर रखा है? क्या करें..., कैसे करें.., ये शब्द फ़्रिक के हैं। बेफ़्रिक के बोल सदा विजय के होते हैं। ‘क्या’, ‘कैसे’ के नहीं होते। तो सदा ये याद रखो कि हम सभी बाप की छत्रछाया में रहने वाले हैं। चक्कर लगाने वाले नहीं। संकल्प में भी चक्कर में आये तो चक्कर में आने वाले चकनाचूर हो जायेंगे। आप तो अमर हो ना। अमर हो गये-ये स्मृति सदा ही स्वयं भी बेफ़्रिक और दूसरों को भी बेफ़्रिक बनाती रहेगी। सदा खुशी में ये गीत गाते रहेंगे-पाना था वो पा लिया। बच्चा बनना माना पाना। बच्चा बने अर्थात् पा लिया। अच्छा!

बनारस वाले क्या कमाल कर रहे हैं? बनारस में तो बहुत बड़े-बड़े माइक हैं। मण्डलेश्वर बहुत हैं ना। तो कोई महामण्डलेश्वर नजदीक आ रहा है? आपके बदले वो आपकी विशेषता वर्णन करे। अभी तो यहाँ तक आये हैं कि इन्हों का कार्य भी अच्छा है लेकिन ‘यही अच्छा है’ यह नहीं कहते। यह भी हैं। यही हैं, तब आवाज बुलन्द होगा। जैसे अभी कहा ना 24 अवतार में 25 ये भी गिन लो। तो ये क्या हुआ? ये भी हैं या यही हैं? ‘यही हैं,’यही हैं कहें तो इसको कहा जाता है माइक बन आवाज फैलाना। तो कोई भी अथॉरिटी वाला, अगर अथॉरिटी से बोलता है तो माइक का काम करता है। तो देखेंगे इसमें नम्बर कौन लेता है?चारों ओर ये गीत गाने लगें-यही हैं वो यही हैं। यह तो होना ही है ना। निश्चित है। सिर्फ निमित्त बन रिपीट करना है। अच्छा, राजस्थान के भी जगह-जगह से आये हैं। अभी राजस्थान में और घेराव डालो। अभी राजस्थान में बहुत स्थान खाली हैं। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

अधीनता को समाप्त करने के लिए अधिकार के रूहानी नशे में रहो

पने को सदा बाप के वर्से के अधिकारी स्वराज्य अधिकारी और साथ-साथ विश्व के राज्य अधिकारी अनुभव करते हो? क्योंकि बाप का वर्सा ही है स्वराज्य और विश्व का राज्य। तो बाप के वर्से के अधिकारी अर्थात् स्वराज्य और विश्व के राज्य अधिकारी। यह विश्व आपके हस्तों पर आयेगा। अभी तो अनेकों के हाथ में है ना। इसलिए विश्व भी हलचल में है। कभी यहाँ लुढ़कता है, कभी वहाँ लुढ़कता है। जब आपके हाथ में आ जायेगा तो हलचल खत्म, एकरस रहेगा। याद आता है विश्व पर कितने बार राज्य किया है! अनेक बार किया है यह अनुभव होता है? बुद्धि के कैमरा में अपने राज्य का चित्र स्पष्ट आता है? या बाप कहता है तो जरूर होगा। ऐसा ही स्पष्ट है जैसे वर्तमान स्पष्ट है। क्योंकि कल की ही तो बात है। कल था, कल आने वाला है। आज स्वराज्य कल विश्व का राज्य। आज कल की बात है ना। तो अधिकारी आत्मा सदा रूहानी नशे में रहती है और नशा पुरानी दुनिया सहज भुला देता है। स्थूल नशा सब कुछ भुला देता है ना। वह है अल्पकाल का और यह है सदाकाल का। जब अधिकार का नशा रहता है तो नई दुनिया के आगे यह पुरानी दुनिया क्या लगती है? कुछ भी नहीं। पुरानी दुनिया को भूलना मुश्किल नहीं लगता है। अधिकारी कभी अधीन नहीं होता। कोई भी बात के अधीन नहीं। जहाँ अधिकार है वहाँ अधीनता नहीं है और जहाँ अधीनता है वहाँ अधिकार नहीं है। अधिकार भूलता है तब अधीन होते। तो कोई भी वस्तु के, व्यक्ति के, संस्कार के अधीन नहीं होना।

माताओं को थोड़ा थोड़ा मोह आता है? साल में एक दो बारी आता है?नहीं। जब कोई ज्यादा बीमार होता है तो मोह आता है? पाण्डवों को क्या आता है? क्रोध नहीं आता रोब आता है? बाप मिला सब कुछ मिला। तो यह हद की बातें कुछ भी नहीं लगती हैं। छोड़ना नहीं पड़ता लेकिन स्वत: ही छूट जाती हैं। मेहनत नहीं करनी पड़ती है।

अच्छा, ये वेराइटी ग्रुप है। रंग बिरंगे वेराइटी फूलों का गुलदस्ता अच्छा है। लेकिन इस समय सब कहाँ के हो? इस समय मधुबन निवासी हो या अपने-अपने स्थान याद हैं? इस समय सब एक हो। मधुबन निवासी बनने में मजा आता है ना? मजा आता हैं तो क्यों जाते हो? कहो सेवा के लिए जाते हैं। मधुबन प्यारा है लेकिन सेवा भी प्यारी है। तो कहाँ भी रहते यह स्मृति में सदा रहे कि सेवा अर्थ हैं। हिसाब किताब के अर्थ नहीं, सेवा अर्थ। ब्राह्मण अर्थात् सेवाधारी। सेवा में मजा है ना। घर समझेंगे तो बंधन है और सेवास्थान समझेंगे तो खुशी है। जा भी रहे हैं तो सेवाअर्थ जा रहे हैं। हिसाब-किताब अर्थ नहीं जा रहे हैं। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

होलीहंस बनने का साधन - मन-बुद्धि की स्वच्छता और ज्ञान रत्नों की धारणा

सदा होली हंस बन गये - ऐसा अनुभव करते हो? होली हंस हो ना! तो हंस क्या करता है? हंस का काम क्या होता है? (मोती चुगना) और दूसरा? दूध और पानी को अलग करना। एक है ज्ञान रत्न चुगना अर्थात् धारण करना और दूसरी विशेषता है निर्णय शक्ति की विशेषता। दूध और पानी को अलग करना अर्थात् निर्णय शक्ति की विशेषता। जिसमें निर्णय शक्ति होगी वो कभी भी दूध की बजाय पानी नहीं धारण करेगा। दूध की वैल्यु पानी से ज्यादा है। तो दूध और पानी का अर्थ है व्यर्थ और समर्थ का निर्णय करना। व्यर्थ को पानी समान कहते हैं और समर्थ को दूध समान कहते हैं। तो ऐसे होली हंस हो? निर्णय शक्ति अच्छी है? कि कभी पानी को दूध समझ लेते, कभी दूध को पानी समझ लेते? व्यर्थ को अच्छा समझ लें और समर्थ में बोर हो जायें। नहीं। तो होली हंस अर्थात् सदा स्वच्छ। हंस सदा स्वच्छ दिखाते हैं। स्वच्छता अर्थात् पवित्रता। तो अभी स्वच्छ बन गये ना। मैलापन निकल गया या अभी भी थोड़ा-थोड़ा है? थोड़ा-थोड़ा रह तो नहीं गया? कभी मैले के संग का रंग तो नहीं लग जाता? कभी-कभी मैले का असर होता है? तो स्वच्छता श्रेष्ठ है ना। मैला भी रखो और स्वच्छ भी रखो तो क्या पसन्द करेंगे? स्वच्छ पसन्द करेंगे या मैला भी पसन्द करेंगे?तो सदा मन-बुद्धि स्वच्छ अर्थात् पवित्र। व्यर्थ की अपवित्रता भी नहीं। अगर व्यर्थ भी है तो सम्पूर्ण स्वच्छ नहीं कहेंगे। तो व्यर्थ को समाप्त करना अर्थात् होलीहंस बनना। हर समय बुद्धि में ज्ञान रत्न चलते रहें, मनन चलता रहे। ज्ञान चलेगा तो व्यर्थ नहीं चलेगा। इसको कहा जाता है रत्न चुगना। व्यर्थ है पत्थर। कभी भी अगर व्यर्थ आता है तो दु:ख की लहर आती है ना। परेशान तो होते हो ना कि ये क्यों आया? तो पत्थर दु:ख देता है और रत्न खुशी देता है। अगर किसी के हाथ में रत्न आ जाये तो परेशान होगा या खुश होगा? खुश होगा ना। अगर कोई पत्थर फेंक दे तो दु:ख होगा। तो बुद्धि द्वारा भी पत्थर ग्रहण नहीं करना। सदा ज्ञान रत्न ग्रहण करना। एक-एक रत्न की अनगिनत वैल्यु है! आपके पास कितने रत्न हैं? अनगिनत हैं ना! रत्नों से भरपूर हैं, खाली तो नहीं हैं? कभी भी बुद्धि को खाली नहीं रखो। कोई न कोई होम वर्क अपने आपको देते रहो। बुद्धि को होम वर्क में बिजी रखो। रोज बाप होम वर्क देता है ना। ये विशेषतायें, वरदान, विशेष धारणायें क्या हैं? ये होम वर्क है। होम वर्क करते हो या क्लास में सुना फिर खत्म? होम वर्क किसलिये मिलता है? बिजी रहने के लिये। तो मातायें होम वर्क करती हैं? गॉडली स्टूडेन्ट हो ना कि घर में जाती हो तो अपने को माता समझती हो? स्टूडेन्ट का काम क्या होता है? स्टडी। कितना सहज करके देते हैं। तो किसमें बिजी रहते हो? पाण्डव बिजी रहते हो? बिजी रहना अर्थात् सेफ रहना। और कितना सहज होम वर्क है! जो सुना वो करना है, बस। कितनी खुशी है कि होमवर्क देने वाला कौन! और कहाँ से आते हैं! कितना दूर से आते हैं! ऊंचे से ऊंचा भगवान् शिक्षक बन करके आते हैं-कितने नशे की बात है! सारे कल्प में ऐसा शिक्षक नहीं मिलेगा। तो होम वर्क अच्छी तरह से करना चाहिये ना। अच्छा!

ग्रुप नं. 4

कुसंग और व्यर्थ संग से बचने के लिए सदा ईश्वरीय संग में रहो

सभी अपने को ज्ञान बल और योग बल दोनों में सदा आगे बढ़ने वाले स अनुभव करते हो? दुनिया में और अनेक प्रकार के बल हैं - साइन्स का भी बल है, राज्य का भी बल है, भक्ति का भी बल है लेकिन आपमें क्या बल है? ज्ञान बल और योग बल। ये सबसे श्रेष्ठ बल है। तो योग बल में जो बल होता है, शक्ति होती है वो किसलिये होती है? विजय प्राप्त करने के लिये। जैसे साइन्स का बल है तो साइन्स का बल अन्धकार के ऊपर विजय प्राप्त कर रोशनी कर देता है। ऐसे योगबल सदा के लिये माया पर विजयी बनाता है। तो माया जीत बनने का बल है? कि कभी हार होती, कभी जीत? सदा के विजयी। कभी-कभी के विजयी को विजयी नहीं कहा जायेगा। क्योंकि बाप द्वारा ये ज्ञान बल और योग बल इतना श्रेष्ठ मिला है जो माया की शक्ति उसके आगे कुछ नहीं है। तो योग बल बड़ा है या माया कभी-कभी खेल करने आती है? माया जीत आत्मायें कभी स्वप्न में भी हार नहीं खा सकतीं। स्वप्न में भी कमज़ोरी नहीं आ सकती। स्वप्न भी शक्तिशाली। ऐसे बहादुर हो या कभी-कभी की छुट्टी दे रखी है? सदा के विजयी हैं। आपके मस्तक पर विजय का तिलक लगा हुआ है ना। नशा है कि - विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है? तो जन्म-सिद्ध अधिकार कभी खो नहीं सकता। सदा ये स्मृति में रहे कि विजयी हैं और सदा विजयी रहेंगे। या सोचते हो-पता नहीं, रहेंगे या नहीं रहेंगे... कभी ये संकल्प आता है? पता नहीं आगे क्या होगा.... पता नहीं माया आ जाये तो... कभी संग का रंग लग जाये तो.... ऐसे तो तो आता है! अगर ऐसा कोई संग मिल जाये तो क्या करेंगे? उसको भी कुसंग से सत के संग में लायेंगे? क्योंकि जब तक फाइनल रिजल्ट निकले तब तक पेपर तो आयेगा ही। पेपर का काम है आना और आपका काम पास विद् ऑनर होना। कैसा भी संग खराब हो लेकिन आपका श्रेष्ठ संग उसके आगे कितना गुणा शक्तिशाली है! ईश्वरीय संग के आगे और सब संग कुछ भी नहीं है। सब कमज़ोर हैं। खुद कमज़ोर बनते हो तब उल्टे संग का वार होता है। तो माया जीत अर्थात् सिवाए एक बाप के और किसी भी संग के रंग से प्रभावित होने वाले नहीं। इसीलिये सतसंग गाया जाता है। सतसंग की महिमा देखो कितनी है! आप तो सतसंग अर्थात् सत बाप के संग में रहने वाले हो। ऐसे है ना। एक बाप (परमात्मा) का संग है सतसंग और दूसरे सब हैं कुसंग या व्यर्थ संग। कई कुसंग से बच जाते हैं, लेकिन व्यर्थ संग से प्रभावित हो जाते हैं। क्योंकि व्यर्थ बातें रमणीक होती हैं। जैसे आजकल कथायें कितनी रमणीक सुनाते हैं। तो व्यर्थ बातें, व्यर्थ संग बाहर से आकर्षित करने वाला है। इसलिए बाप की शिक्षा है-न व्यर्थ सुनो, न व्यर्थ बोलो, न व्यर्थ करो, न व्यर्थ देखो, न व्यर्थ सोचो। बुरे की तो बात ही खत्म हो गई। लेकिन व्यर्थ में कभी-कभी फंस जाते हैं। बाहर का शो बहुत अच्छा होता है ना। तो सदा के विजयी आत्मायें-मायाजीत जगतजीत। शक्तियां वा पाण्डव ऐसे मायाजीत हो? क्योंकि माया भी नये-नये रूप से आती है, पुराने रूप से नहीं आती। पुराने को तो जान गये हो ना, तो नये-नये रूपों से आयेगी। इसमें निर्णय करने की शक्ति चाहिए कि यह माया है या परमात्म ज्ञान है। तो कितने टाइम में परख सकते हो? या थोड़ा चक्कर खाकर पीछे परखेंगे? अगर थोड़ा भी चक्कर में आ गये तो समय व्यर्थ चला जायेगा और नम्बर पीछे हो जायेगा। फिर मेहनत करके आगे बढ़ सकते हो लेकिन फिर भी दाग तो लग गया ना। कितना भी मिटाओ लेकिन मिटाने का भी मालूम पड़ता है। इसलिए सदा के विजयी बनो। अधिकार है ना। तो अधिकार कोई भी छोड़ता नहीं।

सभी को विशेष यह खुशी रहती है ना कि बाप मिला सब-कुछ मिला?मिला है या मिलना है? अगर कोई आ करके आपको कहे कि नहीं और भी कुछ रहा हुआ है, आओ हम आपको दें तो टेस्ट तो करेंगे ना, थोड़ी टेस्ट करने में हर्जा है क्या? एक बल, एक भरोसा कि थोड़ा-थोड़ा दूसरा भी है? और बहुत अच्छी-अच्छी बातें सुनायें तो सुनेंगे? सुन करके उसको बदलने की कोशिश करेंगे? क्या करेंगे? सुनना भी नहीं है, सुना तो चक्कर में आ जायेंगे। जो सुनना था वो सुन लिया। इसलिये कहते हैं जो पाना था, जो सुनना था, जो करना था वो कर लिया। इतना भरपूर रहो। जरा भी खालीपन होगा तो और कुछ भर जायेगा। भरपूर में और कुछ भर नहीं सकता। तो कोई के भी संग के चक्कर में आने वाले नहीं। ऐसे पक्के रहने में ही मजा है। अगर कच्चे रहेंगे तो कभी कोई यहाँ से आयेगा, कोई वहाँ से आयेगा। पक्के को कोई कुछ कर नहीं सकता। न प्रकृति हिला सकती, न माया हिला सकती। न किसी का संग हिला सकता। कैसा भी वायुमण्डल हो लेकिन वायुमण्डल को बदलने वाले, वायुमण्डल के वश होने वाले नहीं। इतनी हिम्म्त है ना! तो जहाँ हिम्मत है वहाँ बाप की पदमगुणा मदद है ही। ऐसे अनुभव करते हो ना। एक कदम आपका और पदम कदम बाप का। तो सभी हिम्मत वाले हो या थोड़ा हिलने वाले भी हो? दिल से आवाज निकले कि हम नहीं हिम्मत रखेंगे तो और कौन रखेगा? अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सुखदाता के बच्चे मास्टर सुखदाता बनो - न दु:ख दो न दु:ख लो

सभी अपने को तख्त नशीन आत्मायें अनुभव करते हो? इस समय भी  तख्तनशीन हो कि भविष्य में बनना है? अभी कौन-सा तख्त है? एक अकाल तख्त, दूसरा दिल तख्त। तो दोनों तख्त स्मृति में रहते हैं? तख्तनशीन आत्मा अर्थात् राज्य अधिकारी आत्मा। तख्त पर वही बैठता जिसका राज्य होता है। अगर राज्य नहीं तो तख्त भी नहीं। तो जब अकाल तख्तनशीन हैं तो भी स्वराज्य अधिकारी हैं और बाप के दिल तख्तनशीन हैं तो भी बाप के वर्से के अधिकारी। जिसमें राज्य-भाग्य सब आ जाता है। तो तख्तनशीन अर्थात् राज्य अधिकारी। राज्य अधिकारी हो कि कभी-कभी तख्त से नीचे उतर आते हो? सदा तख्त नशीन हो कि कभी-कभी के हो? कभी तख्त पर बैठकर थक जाये तो नीचे आ जायें! नहीं। दिल तख्त इतना बड़ा है जो सब-कुछ करते भी तख्तनशीन। कर्मयोगी अर्थात् दोनों तख्तनशीन। अकाल तख्त पर बैठ कर्म करते हो तो वो कर्म भी कितने श्रेष्ठ होते हैं! क्योंकि सर्व कर्मेन्द्रियां लॉ और ऑर्डर पर रहती हैं। अगर कोई तख्त पर ठीक न हो तो लॉ और ऑर्डर चल नहीं सकता। अभी देखो प्रजा का प्रजा पर राज्य है तो लॉ और ऑर्डर चल सकता है? एक लॉ पास करेगा तो दूसरा लॉ ब्रेक करेगा। तो तख्तनशीन आत्मा अर्थात् सदा यथार्थ कर्म और यथार्थ कर्म का प्रत्यक्षफल खाने वाली। श्रेष्ठ कर्म का प्रत्यक्षफल भी मिलता है और भविष्य भी जमा होता है - डबल है। तो प्रत्यक्षफल क्या मिला है? खुशी मिलती है, शक्ति मिलती है। कोई भी श्रेष्ठ कर्म करते हो तो सबसे पहले खुशी होती है। और दिल खुश तो जहान खुश। तो दिल सदा खुश रहता है या कभी संकल्प मात्र भी दु:ख की लहर आ जाती है? कभी भी नहीं आती या कभी-कभी चाहते नहीं हैं लेकिन आ जाती है? दु:खधाम से किनारा कर लिया। किया है या एक पांव इधर है, एक पांव उधर है? एक दु:खधाम में, एक सुखधाम में-ऐसे तो नहीं? आप कलियुग निवासी हो या संगम निवासी हो कि कभी-कभी कलियुग में भी चले जाते हो? संगमयुगी ब्राह्मण अर्थात् दु:ख का नाम-निशान नहीं। क्योंकि सुखदाता के बच्चे हो। तो सुखदाता के बच्चे मास्टर सुखदाता होंगे। जो मास्टर सुखदाता है वो स्वयं दु:ख में कैसे आ सकता है। तो बुद्धि से दु:खधाम का किनारा कर लिया। स्वयं तो सुख स्वरूप हैं ही लेकिन सुखदाता के बच्चे औरों को भी सुख देने वाले मास्टर सुखदाता हैं। तो दूसरों को सुख देते हो कि सिर्फ स्वयं सुखी रहते हो? दाता हो ना। जो बाप का कार्य वो बच्चों का कार्य है। तो बाप हर आत्मा को सदा सुख देते हैं ना। अनुभव है ना। तो फॉलो फादर करो। ऐसे नहीं कोई दु:ख देता है तो आप भी दु:ख देंगे। नहीं। अच्छा, कोई दु:ख दे रहा है तो आप क्या करेंगे? उसे लेंगे या नहीं? आपका स्लोगन ही है ‘ना दु:ख दो, ना दु:ख लो।’ लेना भी नहीं है। अगर लेंगे तो सुख के साथ दु:ख भी मिक्स हो गया ना। तो लेना भी नहीं है। कोई कितना भी कुछ हिलाने की कोशिश करे लेकिन आप सदा अचल रहो। जरा भी कोई हिला नहीं सकता।

अच्छा, सभी अन्तर्मुखी सदा सुखी हो? पाण्डव क्या समझते हैं? अन्तर्मुखी हैं या थोड़ा-थोड़ा बाहरमुखता भी है? कोई बाहर की आकर्षण आकर्षित तो नहीं करती? कभी मनमत, कभी परमत आकर्षित तो नहीं करती? या कभी-कभी थोड़ा मजा चख लेते हो? फिर जब धोखा खाते हैं तो होश में आ जायें। नहीं। हैं ही सदा सुखी रहने वाले, सुखदाता के बच्चे मास्टर सुखदाता। बाहरमुखता से मुक्त हो गये। अच्छा!



01-02-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


त्रिकालदर्शी स्थिति के श्रेष्ठ आसन द्वारा सदा विजयी बनो

दिव्य बुद्धि वा विशाल बुद्धि का वरदान देने वाले त्रिकालदर्शी बापदादा अपने मास्टर त्रिकालदर्शी बच्चों प्रति बोले-

ज त्रिकालदर्शी बापदादा अपने सर्व मास्टर त्रिकालदर्शी बच्चों को देख रहे हैं। त्रिकालदर्शी बनने का साधन बापदादा ने हर बच्चे को दिव्य बुद्धि का वरदान वा ब्राह्मण जन्म की विशेष सौगात दी है। क्योंकि दिव्य बुद्धि द्वारा ही बाप को, अपने आपको और तीनों कालों को स्पष्ट जान सकते हो। दिव्य बुद्धि तथा याद द्वारा ही सर्व शक्तियों को धारण कर सकते हो। इसलिये पहला वरदान दिव्य बुद्धि है। ये वरदान बापदादा ने सर्व बच्चों को दिया है। लेकिन इस वरदान को प्रत्यक्ष जीवन में नम्बरवार कार्य में लगाते हो। दिव्य बुद्धि त्रिकालदर्शी स्थिति का अनुभव कराती है। चारों ही सब्जेक्ट धारण करने का आधार दिव्य बुद्धि है। चारों ही सब्जेक्ट को सभी बच्चे अच्छी तरह से जानते हैं, वर्णन भी करते हैं लेकिन जानना, वर्णन करना-यह सभी को आता है। चाहे नये हैं, चाहे पुराने हैं, इसमें सभी होशियार हैं लेकिन धारण करना-इसमें नम्बर बन जाते हैं। दिव्य बुद्धि की विशेषतायें, दिव्य बुद्धि वाली आत्मायें कोई भी संकल्प को कर्म वा वाणी में लाने समय हर बोल और हर कर्म को तीनों काल से जान कर फिर प्रैक्टिकल में आती हैं। साधारण बुद्धि वाली आत्मायें बहुत करके वर्तमान को स्पष्ट जानती हैं लेकिन भविष्य और भूतकाल को स्पष्ट नहीं जानतीं। दिव्य बुद्धि वाली आत्मा को पास्ट और फ्युचर भी इतना ही स्पष्ट होता है जैसे प्रेजेन्ट स्पष्ट है। तीनों ही काल साथ-साथ स्पष्ट अनुभव होता है। वैसे सभी कहते भी हैं कि जो सोचो, जो करो, जो बोलो, आगे-पीछे को सोच-समझ करके करो। कर्म के पहले परिणाम को सामने रखो, परिणाम हुआ भविष्य। तो नम्बरवन है त्रिकालदर्शी बुद्धि। त्रिकालदर्शी बुद्धि कभी असफलता का अनुभव नहीं करेगी। लेकिन बच्चों में तीन प्रकार की बुद्धि वाले हैं। पहला नम्बर सुनाया सदा त्रिकालदर्शी बुद्धि। दूसरा नम्बर कभी त्रिकालदर्शी और कभी एक कालदर्शी। तीसरा नम्बर अलबेली बुद्धि, जो सदा वर्तमान को देखते, सदा यही सोचते कि जो अभी हो रहा है या मिल रहा है वा चल रहा है इसमें ठीक रहें, भविष्य क्या होगा इसको क्या सोचें। लेकिन अलबेली बुद्धि आदि-मध्य-अन्त को न सोचने के कारण सदा सफलता प्राप्त करने में धोखा खा लेती है। तो बनना है त्रिकालदर्शी बुद्धि।

त्रिकालदर्शी स्थिति ऐसा श्रेष्ठ आसन है जिस आसन अर्थात् स्थिति द्वारा स्वयं भी सदा विजयी और दूसरों को भी विजयी बनने की शक्ति वा सहयोग देने वाले हैं। दिव्य बुद्धि विशाल बुद्धि है। दिव्य बुद्धि बेहद की बुद्धि है। तो चेक करो कि स्वयं की बुद्धि किस नम्बर की बनाई है? बापदादा ने बच्चों की रिजल्ट में देखा कि ज्ञान, गुण, शक्तियों का खज़ाना जमा सभी बच्चों के पास है लेकिन जमा होते भी नम्बरवार क्यों हैं? ऐसा कोई भी नहीं दिखाई दिया जिसके पास खज़ाने जमा नहीं हों। सभी के पास जमा हैं ना! फिर नम्बरवार क्यों? अगर किसी से भी पूछेंगे-स्वयं का ज्ञान है, बाप का ज्ञान है, चक्कर का ज्ञान है, कर्मों के गति का ज्ञान है? सभी के पास सर्वशक्तियाँ हैं कि कोई हैं, कोई नहीं हैं? ज्ञान में सभी ने हाँ किया और शक्तियों में हाँ क्यों नहीं किया? अच्छा, सभी गुण हैं? सर्व गुण बुद्धि में हैं? बुद्धि में ज्ञान भी है, शक्तियाँ भी हैं फिर नम्बरवार क्यों? फर्क क्या होता है? खज़ाने को विधिपूर्वक कार्य में लगाना नहीं आता है समय बीत जाता है फिर सोचते हैं कि ऐसे करते थे, इस विधि से चलते थे तो सिद्धि मिल जाती थी। तो समय को जानना और समय प्रमाण शक्ति वा गुण वा ज्ञान को कार्य में लगाना-इसके लिये दिव्य बुद्धि की विशेषता आवश्यक है। वैसे ज्ञान की पाइंट्स बहुत सोचते रहते हैं, सुनाते भी रहते हैं, कापियों में भी भरी हुई रहती हैं, सबके पास कितनी डायरियां इकùी हुई होंगी, काफी स्टॉक हो गया है ना, तो जैसे बाप के लिये गाया हुआ है कि मैं जो हूँ, जैसा हूँ वैसे मुझे जानने वाले कोटों में कोई हैं। जानते तो सभी हैं लेकिन अण्डरलाइन है-जो हूँ, जैसा हूँ, उसमें अन्तर पड़ जाता है। इसी रीति जैसा समय और जो ज्ञान की पाइंट या गुण या शक्ति आवश्यक है वैसा कार्य में लगाना इसमें अन्तर पड़ जाता है और इसी अन्तर के कारण नम्बर बन जाते हैं। तो कारण समझा? एक तो समय प्रमाण विधि का अन्तर पड़ जाता है, दूसरा कोई भी कर्म वा संकल्प त्रिकालदर्शी बन नहीं करते, इसलिये नम्बर बन जाते हैं। कोई भी संकल्प बुद्धि में आता है तो संकल्प है बीज, वाचा और कर्मणा बीज का विस्तार है, अगर संकल्प अर्थात् बीज को त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित होकर चेक करो, शक्तिशाली बनाओ तो वाणी और कर्म में स्वत: ही सहज सफलता है ही है। संकल्प को चेक नहीं करते अर्थात् बीज शक्तिशाली नहीं होता तो वाणी और कर्म में भी सिद्धि की शक्ति नहीं रहती। लक्ष्य सभी का सिद्धि स्वरूप बनने का है ना, तो सदा सिद्धि स्वरूप बनने की विधि जो सुनाई, उसको चेक करो। बीच-बीच में बुद्धि अलबेली बन जाती है इसलिये कभी सिद्धि अनुभव करते और कभी मेहनत अनुभव करते।

बापदादा का सभी बच्चों से प्यार की निशानी है कि सब बच्चे सदा सहज सिद्धि स्वरूप बन जायें। आपके जड़ चित्रों द्वारा भक्त आत्मायें सिद्धि प्राप्त करती रहती हैं, तो चैतन्य में सिद्धि स्वरूप बने हो तब तो जड़ चित्रों द्वारा भी और आत्मायें सिद्धि प्राप्त करती रहती हैं। जो त्रिकालदर्शी स्थिति में स्थित रहते हैं तो त्रिकालदर्शी स्थिति समर्थ स्थिति है। इस समर्थ स्थिति वाले व्यर्थ को ऐसा सहज समाप्त कर देते हैं जो स्वप्न मात्र भी व्यर्थ समाप्त हो जाता है। अगर त्रिकालदर्शी बुद्धि द्वारा कर्म नहीं करते हैं तो व्यर्थ का बोझ बार-बार ऊंचे नम्बर में अधिकारी बनने नहीं देता। तो दिव्य बुद्धि का वरदान सदा हर समय कार्य में लगाओ।

बापदादा ने पहले भी इशारा दिया है कि ज्ञानी-योगी आत्मायें बने हो, अबज्ञान और योग को, शक्ति को प्रयोग में लाने वाले प्रयोगशाली आत्मायें बनो। जैसे साइन्स की शक्ति का प्रयोग दिखाई देता है ना, लेकिन साइन्स की शक्ति के प्रयोग का भी मूल आधार क्या है? आज जो भी साइन्स ने प्रयोग के साधन दिये हैं, उन सब साधनों का आधार क्या है? साइन्स के प्रयोग का आधार क्या है? मैजारिटी देखेंगे लाइट है। लाइट द्वारा ही प्रयोग होता है। अगर कम्प्युटर भी चलता है तो किसके आधार से? कम्प्युटर माइट है लेकिन आधार लाइट है ना। तो आपके साइलेन्स की शक्ति का भी आधार क्या है? लाइट है ना। जब वह प्रकृति की लाइट द्वारा एक लाइट अनेक प्रकार के प्रयोग प्रैक्टिकल में करके दिखाती है तो आपकी अविनाशी परमात्म लाइट, आत्मिक लाइट और साथ-साथ प्रैक्टिकल स्थिति लाइट, तो उससे क्या नहीं प्रयोग हो सकता! आपके पास स्थिति भी लाइट है और मूल स्वरूप भी लाइट है। जब भी कोई प्रयोग करना चाहते हो तो पहले अपने मूल आधार को चेक करो। जैसे कोई भी साइन्स के साधन को यूज़ करेंगे तो पहले चेक करेंगे ना कि लाइट है या नहीं है। ऐसे जब योग का, शक्तियों का, गुणों का प्रयोग करते हो तो पहले ये चेक करो कि मूल आधार आत्मिक शक्ति, परमात्म शक्ति वा लाइट (हल्की) स्थिति है? अगर स्थिति और स्वरूप डबल लाइट है तो प्रयोग की सफलता बहुत सहज कर सकते हो। और सबसे पहले इस अभ्यास को शक्तिशाली बनाने के लिये पहले अपने पर प्रयोग करके देखो। हर मास वा हर 15 दिन के लिये कोई न कोई विशेष गुण वा कोई न कोई विशेष शक्ति का स्व प्रति प्रयोग करके देखो। क्योंकि संगठन में वा सम्बन्ध-सम्पर्क में पेपर तो आते ही हैं तो पहले अपने ऊपर प्रयोग में चेक करो कोई भी पेपर आया लेकिन जो शक्ति वा जो गुण का प्रयोग करने का लक्ष्य रखा, उसमें कहाँ तक सफलता मिली? और कितने समय में सफलता मिली? जैसे साइन्स का प्रयोग दिन-प्रतिदिन थोड़े समय में प्रत्यक्ष रूप का अनुभव कराने में आगे बढ़ रहा है तो समय भी कम करते जाते हैं। थोड़े समय में सफलता जयादा-यह साइन्स वालों का भी लक्ष्य है। ऐसे जो भी लक्ष्य रखा उसमें समय को भी चेक करो और सफलता को भी चेक करो। जब स्व के प्रति प्रयोग में सफल हो जायेंगे तो दूसरी आत्माओं के प्रति प्रयोग करना सहज हो जायेगा और जब स्व के प्रति सफलता अनुभव करेंगे तो आपके दिल में औरों के प्रति प्रयोग करने का उमंग-उत्साह स्वत: ही बढ़ता जायेगा। अन्य आत्माओं के सम्बन्ध-सम्पर्क में स्व के प्रयोग द्वारा उन आत्माओं को भी आपके प्रयोग का प्रभाव स्वत: ही पड़ता रहेगा। जैसे एक दृष्टान्त सामने रखो कि मुझे सहनशक्ति का प्रयोग करना है तो जब स्वयं में सहनशक्ति का प्रयोग करेंगे तो जो दूसरी आत्मायें आपकी सहनशक्ति को हिलाने के निमित्त हैं वो भी बच जायेंगी ना, उनका भी तो किनारा हो जायेगा। और जैसे छोटे-छोटे संगठन में रहते हो, सेन्टर्स हैं तो सेन्टर्स पर छोटे संगठन हैं ना तो पहले स्व के प्रति ट्रायल करो फिर अपने छोटे संगठन में ट्रायल करो। संगठन रूप में कोई भी गुण वा शक्ति के प्रयोग का प्रोग्राम बनाओ। उससे क्या होगा? संगठन की शक्ति से उसी गुण वा शक्ति का वायुमण्डल बन जायेगा, वायब्रेशन फैलेगा और वायुमण्डल वा वायब्रेशन का प्रभाव अनेक आत्माओं के ऊपर पड़ता ही है। तो ऐसे प्रयोगशाली आत्मायें बनो। पहले स्वयं में सन्तुष्टता का अनुभव करो फिर औरों में सहज हो जायेगा। क्योंकि विधि आ जायेगी। जैसे साइन्स के कोई भी साधन को पहले सेम्पल के रूप में प्रयोग करते हैं फिर विशाल रूप में प्रयोग करते हैं, ऐसे आप पहले स्वयं को सेम्पल के रीति से यूज़ करो। और ये प्रयोग करने की रूचि बढ़ती जायेगी और बुद्धि-मन इसमें बिजी रहेगा, तो छोटी-छोटी बातों में जो समय लगाते हो, शक्तियाँ लगाते हो उनकी बचत हो जायेगी। सहज ही अन्तर्मुखता की स्थिति अपनी तरफ आकर्षित करेगी। क्योंकि कोई भी चीज़ का प्रयोग और प्रयोग की सफलता स्वत: ही और सब तरफ से किनारा करा देती है। ये प्रयोग तो सभी कर सकते हो ना, कि मुश्किल है? इस वर्ष प्रयोगशाली आत्मायें बनो। समझा क्या करना है? और हर एक स्वयं के प्रति प्रयोग में लग जायेंगे तो प्रयोगशाली आत्माओं का संगठन कितना पॉवरफुल बन जायेगा! वह संगठन की किरणें अर्थात् वायब्रेशन्स बहुत कार्य करके दिखायेंगी। इसमें सिर्फ दृढ़ता चाहिये-’मुझे करना ही है’। दूसरों के अलबेलेपन का प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये। आपकी दृढ़ता का प्रभाव औरों पर पड़ना चाहिये। क्योंक दृढ़ता की शक्ति श्रेष्ठ है या अलबेलेपन की शक्ति श्रेष्ठ है? बापदादा का वरदान है जहाँ दृढ़ता है वहाँ सफलता है ही। तो क्या बनेंगे?प्रयोगशाली, त्रिकालदर्शी आसनधारी। और तीसरा क्या करेंगे? जैसा समय, वैसी विधि से सिद्धि स्वरूप। तो वर्ष का ये होमवर्क है। ये होमवर्क स्वत: ही बाप के समीप लायेगा। जैसे ब्रह्मा बाप को देखा-कोई भी कर्म करने के पहले आदि-मध्य-अन्त को सोच-समझ कर्म किया और कराया। अलबेलापन नहीं कि जैसा हुआ ठीक है, चलो, चलाना ही है। नहीं। तो फॉलो ब्रह्मा बाप। फॉलो करना तो सहज है ना! कॉपी करना है ना, कॉपी करने का तो अक्ल है ना!

अच्छा, ये ग्रुप चांस लेने वाला ग्रुप है। एक्स्ट्रा लॉटरी मिली है। जो अचानक लॉटरी मिलती है तो उसकी खुशी जयादा ही होती है। तो ये लक्की ग्रुप हुआ ना, चांस लेने वाला लक्की ग्रुप। दूसरे सोचते रहते कब जायेंगे और आप पहुँच गये। अब डबल विदेशियों का टर्न शुरू होने वाला है। भारतवासियों ने अपनी लॉटरी ले ली। चारों ओर के डबल विदेशी बच्चों ने जो रिट्रीट का प्रोग्राम बनाया है-उसमें मेहनत अच्छी की। विशेष निमित्त आत्माओं को समीप लाने की विधि अच्छी है। और जितना हिम्मत रख आगे बढ़ते रहे हैं उतनी सफलता हर वर्ष श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मिलती रही है। ऐसे अनुभव होता है ना! कोई समय था जो निमित्त विशेष आत्माओं से सम्पर्क करना भी मुश्किल लगता था और अभी क्या लगता है? जितना सोचते हो उससे और ही ज्यादा आते हैं ना! तो ये हिम्मत का प्रत्यक्षफल है। भारत में भी सम्पर्क बढ़ता जाता है। पहले आप निमन्त्रण देने की मेहनत करते थे और अभी स्वयं आने की ऑफर करते हैं। फर्क पड़ गया है ना!वो कहते हैं हम चलें और आप कहते हो नम्बर नहीं है। ये है ‘हिम्मते बच्चे मददे बाप’ का प्रत्यक्ष स्वरूप। अच्छा!

चारों ओर के मास्टर त्रिकालदर्शी आत्माओं को, सदा समय के महत्व को जानने और समय प्रमाण खज़ाने को कार्य में लगाने वाले दिव्य बुद्धिवान आत्माओं को, सदा अन्तर्मुखता की प्रयोगशाला में प्रयोग करने वाली प्रयोगशाली आत्माओं को, सदा हिम्मत द्वारा बाप के मदद का प्रत्यक्ष अनुभव करने वाली आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात: -

आप निमित्त आत्मायें किस प्रयोगशाला में रहते हो? सारा दिन कौन-सी प्रयोगशाला चलती है? नई-नई इन्वेन्शन करते रहते हो ना! नये-नये अनुभव करते जाते हो और नई-नई विधि की टचिंग होती रहती है। क्योंकि जो निमित्त हैं उनको विशेष नई-नई बातें टच होने का विशेष वरदान है। थोड़ा समय भी बीतेगा तो विचार चलते हैं ना, टचिंग आती है ना कि अभी ये हो, अभी ये हो, अभी ये होना चाहिये। तो निमित्त आत्माओं को विशेष उमंग-उत्साह बढ़ाने के वा परिवर्तन शक्ति को बढ़ाने के प्लैन की जरूरत है। इसके बिना रह नहीं सकते हैं। बुद्धि चलती है ना। देख-देख आश्चर्यवत् नहीं होते लेकिन उमंग-उत्साह में आगे बढ़ाने के लिए प्लैनिंग बुद्धि बनते हैं। माया संगठन को हिलाने के नये-नये प्लैन बनाती है, नई-नई बातें सुनती हो ना और आप लोग सभी को हिम्मत-उमंग में लाने के प्लैन बनाते हो। कभी आश्चर्य लगता है? नहीं लगता है ना। माया भी पुरानी विधि से थोड़ेही अपना बनायेगी। वो भी तो नवीनता लायेगी ना। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

अविनाशी अधिकार निश्चित है इस स्मृति से सदा निश्चिन्त रहो, सब बोझ बाप को दे दो

सभी अपने को बाप के वर्से के अधिकारी आत्मायें अनुभव करते हो। अधिकारी आत्माओं की निशानी क्या होती है? अधिकार का निश्चय और नशा रहता है। ये अविनाशी रूहानी नशा है। तो अधिकार में क्या-क्या मिला है, उसकी लिस्ट निकालो तो कितनी है? बड़ी लिस्ट है या छोटी लिस्ट है? तो सदैव अपने भिन्न-भिन्न प्राप्त अधिकारों को सामने रखो। इमर्ज रूप में लाओ। जितना इमर्ज होगा, स्मृति में होगा, तो स्मृति की समर्थी आती है। कभी किस अधिकार को याद करो, कभी किस अधिकार को याद करो। वेराइटी है ना। आजकल के मानव को भी वेराइटी में रूचि होती है ना। तो आपके पास कितनी वेराइटी है? बहुत है ना! कभी वरदान को इमर्ज करो, कभी वर्से में खज़ाने जो मिले हैं उनको इमर्ज करो तो कैसी स्थिति रहेगी? क्योंकि जैसी स्मृति वैसी स्थिति रहती है। अगर स्मृति अधिकार की रही तो स्थिति क्या रहेगी? खुशी में नाचते रहेंगे ना। आजकल की दुनिया में किसी को रिवाजी अधिकार भी मिलता है तो कितना मेहनत करके अधिकार लेते हैं, जानते हैं यह सदा काल का नहीं है फिर भी कितना कुछ करते हैं। और आपको बिना मेहनत के अधिकार मिल गया। मेहनत करनी पड़ी क्या? बच्चा बनना अर्थात् अधिकार लेना। मेरा माना और अधिकार मिला। तो वाह मेरा अधिकार! वाह मैं श्रेष्ठ अधिकारी आत्मा! हद के अधिकार में नहीं, बेहद के अधिकार में। हद के अधिकार के पीछे अगर कोई जाता है तो बेहद का अधिकार गंवाता है। तो सदा बेहद के अधिकार की खुशी में रहो। खुश रहते हो ना? आप जैसी खुशी किसके पास है? निश्चिन्त हो गये, कोई चिन्ता है क्या? पता नहीं, क्या होगा-ये चिन्ता है? निश्चिन्त हैं। क्योंकि अविनाशी अधिकार निश्चित ही है। तो जहाँ निश्चित होता है वहाँ निश्चिन्त होते हैं। कोई भी बात निश्चित नहीं होती है तो उसकी चिन्ता रहती है, पता नहीं क्या होगा! मातायें सभी निश्चिन्त है कि कोई-कोई चिन्ता रहती है? अगर सब बाप के हवाले कर दिया तो निश्चिन्त होंगे। अपने ऊपर बोझ रखा तो निश्चिन्त नहीं होंगे, फिर चिन्ता जरूर होगी। मेरी जिम्मेवारी है, मेरी फर्ज-अदाई है, मेरापन आना माना चिन्ता। अगर फर्ज है या जिम्मेवारी है तो बेहद की है, हद की नहीं। विश्व की है। दो-चार की नहीं। अपने को अभी जगत माता समझती हो कि चार-पांच बच्चे, पोत्रे पोत्रियों की मातायें हो? किसी आत्मा को भी देखेंगे तो क्या लगता है? यह हमारा परिवार है? कि सिर्फ लौकिक को अपना परिवार समझते हो? बेहद परिवार के हैं। बाप की सहयोगी आत्मायें हैं। बेहद का नशा है ना, कि कभी हद का, कभी बेहद का? जैसे बाप वैसे बच्चे होते हैं तो बाप बेहद का बाप है तो बच्चे भी बेहद के हुए ना। तो क्या याद रखेंगे? हम अधिकारी आत्मायें हैं। सिर्फ वर्से के नहीं, वरदानों के भी-डबल अधिकार है। वरदान भी देखो कितने मिलते हैं! रोज वरदान मिलता है ना! तो वरदानों से भी झोली भरते हो और वर्से से भी झोली भरते हो। इसलिये सदा भरपूर रहते हो, खाली नहीं। सदा यह स्मृति रखो कि अनेक बार की अधिकारी आत्मायें हैं।

सभी ठीक है? हलचल तो नहीं है? कभी व्यर्थ की, कभी और कोई परिस्थिति की, प्रकृति की हलचल होती है? जो विश्व को अचल-अडोल बनाने वाले हैं वो स्वयं कैसे हलचल में आयेंगे? परिस्थिति कितनी भी बड़ी हो लेकिन स्व-स्थिति के आगे कितनी भी बड़ी परिस्थिति क्या है? कुछ भी नहीं है। महारथी को कोई हिला नहीं सकता। तो स्वयं सदा अचल बन औरों को भी अचल बनाना। हलचल का नामनिशान भी नहीं। बाप से प्यार है ना तो प्यार की निशानी होती है समान बनना।

ग्रुप नं. 2

अपने श्रेष्ठ टाइटल्स की स्मृति से रूहानी नशे का अनुभव करो, वाह-वाह के गीत सदा गाते रहो

दा क्या से क्या बन गये-ये स्मृति रहती है? कल कौड़ी तुल्य थे और आज हीरे तुल्य बन गये। तो कहाँ कौड़ी और कहाँ हीरा-कितना अन्तर है? जब अन्तर का मालूम होता है तो कितनी खुशी होती है! बाप ने क्या से क्या बना दिया! कल अन्धकार में थे और आज रोशनी में आ गये। तो अन्धकार में क्या मिला? ठोकरें मिली ना। अन्धकार में ठोकर खाते हैं और रोशनी में इनज्वाय करते हैं। तो कल क्या और आज क्या - ये सदा सामने स्पष्ट हो। और बापदादा सदा कहते हैं कि डबल हीरो बन गये। एक हीरे समान जीवन और दूसरा इस ड्रामा के हीरो एक्टर बन गये। तो डबल हीरो हो गये ना। अगर सारे ड्रामा के अन्दर देखो तो हीरो पार्टधारी कौन है? कहेंगे ना हम हैं। तो डबल हीरो हैं। तो डबल खुशी है ना। ऐसे तो देखो आपको बाप द्वारा कितने टाइटल मिलते हैं? टाइटल्स की लिस्ट है ना। रोज की मुरली में कोई न कोई विशेष टाइटल मिलता है। तो टाइटल का कितना नशा होता है! किसको प्रधान मन्त्री या प्रेजीडेन्ट टाइटल दे तो कितना नशा रहेगा! और आपको टाइटल देने वाला कौन? जो भाग्यविधाता बाप है वो स्वयं बच्चों को टाइटल देते हैं। तो जैसे बाप अविनाशी तो टाइटल भी अविनाशी। विनाशी टाइटल का नशा विनाशी, अल्पकाल का रहता है। और ये रूहानी टाइटल का नशा अविनाशी है। जिसे अविनाशी नशा रहता है उसके दिल में सदा ये गीत बजता है-वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! ऑटोमेटिक बजता है, बजाना नहीं पड़ता है। दूसरी जो भी मशीनरीज होती हैं वो आज ठीक हैं, कल खराब हो जायेंगी लेकिन ये दिल का गीत सदा ही बजता रहता है। तो ये गीत गाना आता है? कौन-सा गीत? वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! जैसे देह का आक्युपेशन स्वत: याद रहता है। एक बार मालूम पड़ा कि मैं ये हूँ तो भूलता नहीं है। तो ‘मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ’ ये अविनाशी आक्युपेशन भी भूलना नहीं चाहिये। ये हर जन्म का आक्युपेशन है। वो एक जन्म का आक्युपेशन होता है। चाहे शरीर बदलेंगे लेकिन आत्मा तो अविनाशी है ना। कोई भी जन्म में आत्मा तो अमर ही है, अविनाशी है। लेकिन इस समय आप विशेष आत्मायें हो। आत्मा तो हो ही लेकिन विशेष आत्मा हो। अपनी विशेषतायें सदा याद रहती हैं?

तो डबल हीरो हो साधारण पार्टधारी नहीं। हीरे समान बने हो या अभी भी कुछ पत्थर है, कुछ हीरा है? कहाँ हीरे की वैल्यु, कहाँ पत्थर की वैल्यु! अगर विस्मृति है तो पत्थर है और स्मृति है तो हीरा है। अब विस्मृति का समय समाप्त हुआ। जो हूँ, जैसा हूँ-वो भूल नहीं सकता। तो विस्मृति की दुनिया को छोड़ कर आ गये। अभी संगमयुग स्मृति का युग है। कलियुग विस्मृति का युग है। तो आप सब संगमयुग के रहवासी हो या कभी-कभी कलियुग में चक्कर लगाने चले जाते हो? अगर थोड़ा भी बुद्धि गई तो चक्कर में फंस जायेंगे। विस्मृति की दुनिया से निकल आये। कलियुग में तो बहुत रौनक है! तो उस रौनक को क्यों छोड़कर आ गये? रौनक जरूर है लेकिन धोखा देने वाली रौनक है। बाहर से रौनक दिखाई देती है और अन्दर धोखा देने वाली है। क्या अनुभव है? धोखा देने वाली रौनक है ना। सब अच्छी तरह से अनुभव कर चुके हो ना? कि अभी कुछ अनुभव करना बाकी है? धोखा खाते-खाते थक गये। आर्टीफिशयल दुनिया है ना। लेकिन चमक आर्टीफिशयल की जयादा है। तो कभी आर्टीफिशयल चमक आकर्षित तो नहीं करती? जब एक बार धोखा खाकर देख लिया तो दुबारा धोखा खाया जाता है क्या? इसलिये बच गये।

मातायें अपना श्रेष्ठ भाग्य देख खुशी में नाचती रहती हो ना। संगम पर शक्तियों की बारी पहले है। द्वापर-कलियुग में पाण्डवों को चांस मिलता है और संगम पर शक्तियों को चांस मिलता है। अभी देखो बाप ने माताओं को चांस दिया तो दुनिया में भी आजकल माताओं को चांस देने का बुद्धि में आया है। धर्मनेताओं में देखो पहले कोई माता नहीं होती थी लेकिन अभी महामण्डलेश्वरियां भी हैं। अभी मातायें भी गुरू बन जाती हैं। तो जब बाप ने चांस दिया तो लोग भी चांस देने लगे। तो माताओं को डबल खुशी है ना कि हमको बाप ने ऊंचा बना दिया!

ग्रुप नं. 3

सर्व श्रेष्ठ शक्ति शान्ति की शक्ति है - जिससे असम्भव को भी सम्भव बना सकते हो

क बल एक भरोसा - ऐसी श्रेष्ठ आत्मा हैं, ऐसे अनुभव करते हो? एक बल एक भरोसा है या अनेक बल अनेक भरोसे हैं? एक बल कौन सा है? साइलेन्स का बल, योग का बल। एक बाप में भरोसा अर्थात् निश्चय होने से यह साइलेन्स का बल, योग का बल स्वत: ही अनुभव होता है। तो साइलेन्स की शक्ति वाले हैं, योग बल वाले हैं - यह स्मृति रहती है? शान्ति की शक्ति सर्व श्रेष्ठ शक्ति है। क्योंकि और सभी शक्तियां कहाँ से निकलती हैं? शान्ति की शक्ति से ना! आज साइन्स की शक्ति का प्रभाव है लेकिन वह भी निकली कहाँ से? शान्ति की शक्ति से निकली ना? तो शान्ति की शक्ति द्वारा जो चाहो वह कर सकते हो। असम्भव को भी सम्भव कर सकते हो। जो दुनिया वाले आज असम्भव कहते हैं आपके लिए वह सम्भव है ना! तो सम्भव होने के कारण सहज लगता है। मेहनत नहीं लगती। दुनिया वाले तो अभी भी यही सोचते रहते हैं कि परमात्मा को पाना बहुत मुश्किल है। और आप क्या कहेंगे? पा लिया। वह कहेंगे कि परम आत्मा तो बहुत ऊंचा हजारों सूर्यों से भी तेजोमय है और आप कहेंगे वह तो बाप है। स्नेह का सागर है। जलाने वाला नहीं है। हजारों सूर्य से तेजोमय तो जलायेगा ना और आप तो स्नेह के सागर के अनुभव में रहते हो, तो कितना फर्क हो गया। जो दुनिया ना कहती वह आप हाँ करते। फर्क हो गया ना। कल आप भी नास्तिक थे और आज आस्तिक बन गये। कल माया से हार खाने वाले और आज मायाजीत बन गये। फर्क है ना। मातायें जो कल पिंजड़े की मैना थी और आज उड़ती कला वाले उड़ते पंछी है। तो उड़ती कला वाले हो या कभी-कभी वापस पिंजड़े में जाते हो? कभी-कभी दिल होती है पिंजड़े में जाने की? बंधन है पिंजड़ा और निर्बन्धन है उड़ना। मन का बंधन नहीं होना चाहिए। अगर किसी को तन का बंधन है तो भी मन उड़ता पंछी है। तो मन का कोई बंधन है या थोड़ा-थोड़ा आ जाता है? जो मनमनाभव हो गये वह मन के बंधन से सदा के लिए छूट गये। अच्छा, प्रवृत्ति को सम्भालने का बंधन है? ट्रस्टी होकर सम्भालते हो? अगर ट्रस्टी हैं तो निर्बन्धन और गृहस्थी हैं तो बंधन है। गृहस्थी माना बोझ और बोझ वाला कभी उड़ नहीं सकता। तो सब बोझ बाप को दे दिया या सिर्फ थोड़ा एक दो पोत्रा रख दिया है? पाण्डवों ने थोड़ा-थोड़ा जेबखर्च रख दिया है? थोड़ा-थोड़ा रोब रख दिया, क्रोध रख दिया, यह जेबखर्च है? मेरे को तेरा कर दिया? किया है या थोड़ा-थोड़ा मेरा है? ठगी करते हैं ना मेरा सो मेरा और तेरा भी मेरा। ऐसी ठगी तो नहीं करते? आधाकल्प तो बहुत ठगत रहे ना। कहना तेरा और मानना मेरा तो ठगी की ना। अभी ठगत नहीं लेकिन बच्चे बन गये। उड़ती कला कितनी प्यारी है, सेकेण्ड में जहाँ चाहो वहाँ पहुंच जाओ। उड़ती कला वाले सेकेण्ड में अपने स्वीट होम में पहुंच सकते हैं। इसको कहा जाता है योगबल, शान्ति की शक्ति।

माताओं को नाम ही दिया है शिव शक्तियां। तो शक्ति नाम याद आने से स्वत: ही शक्ति आ जायेगी। हम घर की मातायें हैं तो कमज़ोर हैं। शक्ति हैं तो शक्तिशाली हैं। एक बल एक भरोसा अर्थात् सदा शक्तिशाली। पाण्डवों को भी सदा शक्तिशाली दिखाते हैं। कल्प कल्प की शक्तियां और पाण्डव सेना वाले हैं - यह स्पष्ट स्मृति है ना तो हम ही थे, हम ही हैं और सदा हम ही बनेंगे। यह स्मृति स्पष्ट है कि सोचते हो तो याद आता है? या सुना है तो समझते हो? नहीं। दिल में वह इमर्ज होना चाहिए। बुद्धि में स्पष्ट होना चाहिए-हाँ हम ही थे, हैं और होंगे। जहाँ एक बल एक भरोसा है वहाँ कोई हिला नहीं सकता। ऐसी कोई मायावी शक्ति है कि कमज़ोर है? एक बल एक भरोसे वाली आत्माओं के आगे माया मूर्छित हो जाती है, सरेन्डर हो जाती है। सरेन्डर हो गई कि कभी कभी जाग जाती है? तो सदा मायाजीत कभी हार कभी जीत वाले नहीं। सदा विजयी। तो यही नशा सदा रहे कि विजय हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है। यह रूहानी नशा है ना। इस जन्म-सिद्ध अधिकार को कोई छीन नहीं सकता।

ग्रुप नं. 4

मधुबन निवासी बनना अर्थात् बेहद सेवा की स्टेज पर आना

धुबन निवासियों से सबका प्यार है ना। सभी का मधुबन निवासियों से प्यार क्यों है? क्या कारण है? मधुबन निवासियों से सबका प्यार इसीलिए है क्योंकि मधुबन निवासी अर्थात् बड़े ते बड़े सेवाधारी। मधुबन निवासी होना अर्थात् सेवा की स्टेज पर आना। जो भी मधुबन में आये तो सेवा के लिए आये ना। और बापदादा भी अपने ऊपर सबसे बड़े से बड़ा टाइटल विश्व सेवाधारी का ही देते हैं। तो मधुबन निवासी अर्थात् जितना बाप से प्यार उतना सेवा से प्यार। मधुबन निवासी हर सेकण्ड सेवा की स्टेज पर रहते हैं। चलते फिरते सेवा ही करते हो ना! एक्जैम्पुल हो ना! तो मधुबन निवासी हर आत्मा को, हरेक आत्मा विशेष आत्मा के रूप में देखती है। मधुबन निवासी अर्थात् विशेष आत्मा। संकल्प में भी विशेषता, बोल में भी विशेषता और कर्म में भी विशेषता। कितना महत्व है मधुबन निवासी आत्माओं का। ऐसी स्मृति रहती है? मधुबन को सब फॉलो करते हैं। मधुबन के बाप से प्यार है तो मधुबन निवासियों से भी प्यार है। जैसे मधुबन के बाप की महिमा वैसे मधुबन निवासियों की महिमा है। क्योंकि मधुबन बाप की कर्मभूमि, चरित्रभूमि सो तपस्वी भूमि है। ऐसे भूमि का अनुभव होता है ना? भूमि का वायब्रेशन, वायुमण्डल सहयोग देता है। मधुबन वालों के ऊपर बापदादा की भी विशेष ब्लैसिंग है। तो अपने श्रेष्ठ भाग्य को प्रैक्टिकल में अनुभव करते हुए आगे बढ़ रहे हो? सभी उड़ती कला वाले हो या कभी रूकती कला कभी उड़ती कला? ब्रह्मा बाप की विशेषता कौन सी गायन करते हो?अथक सेवाधारी। तो पुरूषार्थ की गति में भी अथक। थकने वाले नहीं, औरों को भी उड़ाने वाले। जिम्मेवारी है ना। क्योंकि मधुबन वालों को सभी सहज फॉलो करते हैं।

तो इस वर्ष में अपने तीव्र पुरूषार्थ का कोई विशेष प्लैन बनाया है? क्योंकि मधुबन के पुरूषार्थ की लहर भी चारों ओर फैलती है। मधुबन वाले भट्टी करते हैं, तपस्या पावरफुल करते हैं तो चारों ओर वह वायब्रेशन जाता है। तो कुछ नया तीव्र गति का प्लैन बनाओ। जैसे कोई भी बड़ा स्थान बनाते हैं तो पहले क्या करते हैं? ज्ञान सरोवर बनाना था तो पहले मॉडल बनाया ना। तो मधुबन निवासी हैं मॉडल। तो जितना मॉडल वैल्युएबुल होता है, उतना ही ओरीज्नल मकान भी वैल्युएबुल होता है। निमित्त तो मॉडल ही बनता है ना। कोई नया प्लैन बनाया है?क्योंकि मधुबन निवासी इन्वेन्टर हैं ना। (आपने जो होमवर्क दिया वह करेंगे) अच्छा, मधुबन निवासी पहले मधुबन के ग्रुप में प्रयोग करके अनुभव सुनायेंगे तो सबमें उमंग-उत्साह आयेगा। जिसको भी देखें सबका एक दृढ़ संकल्प हो तो संगठन का बल तो मिलता है ना। मधुबन की यही विशेषता सभी को प्रिय लगती है कि हर आत्मा का हर कर्म विशेष हो। साधारण नहीं। क्योंकि यहाँ सहयोग बहुत है। एक तो सभी आत्माओं की शुभ भावना का मधुबन निवासियों को बहुत सहयोग है। कोई भी बात होगी तो सभी की भावना पहले मधुबन के तरफ जाती है। वायुमण्डल की, पढ़ाई की, बाहर के पोल्युशन की कितनी मदद है यहाँ मधुबन में। प्रकृति की पोल्युशन भी नहीं है। तो रिजल्ट में मधुबन निवासी सभी किस माला में आयेंगे? पहली माला या दूसरी माला? पहली में। सारी सीट मधुबन वाले ही लेंगे? सभी खज़ानों से भरपूर हो ना? कि कोई कमी है? कोई सैलवेशन चाहिए? कि सदा तृप्त आत्मायें हो? सभी ज्ञान के खज़ानों में भी भरपूर, शक्तियों में भी भरपूर, गुणों में भी भरपूर? (हाँ जी) गुणमूर्त देखना हो तो कहाँ देखें? मधुबन में या और स्थानों में? सबमें मधुबन नम्बरवन। जिसको जब देखें जहाँ देखें गुणमूर्त, शक्तिमूर्त, ज्ञान मूर्त, साधारण नहीं। मधुबन माना ही विशेष। मधुबन वाले बेफ़्रिक बादशाह तो हैं ही या कोई फ़्रिक रहता है? (सम्पूर्ण बनने का) यह फ़्रिक फखर में लाता है। फ़्रिक, फ़्रिक नहीं है फखर है। बनना ही है। अच्छा।

मधुबन निवासियों के तीव्र पुरूषार्थ का सलोगन कौन सा है? (जो कर्म हम करेंगे हमें देख और करेंगे) सलोगन ठीक सुनाया। जो भी कर्म करो पहले यह सलोगन याद रखो कि जो हम करेंगे वह सब करेंगे। तो स्वत: ही विशेष कर्म होगा। अच्छा, बाकी कारोबार तो ठीक चल रही है ना। सबकी डिपार्टमेंट ठीक है? अच्छा!

जब स्व के प्रति प्रयोग में सफल हो जायेंगे तो दूसरी आत्माओं के प्रति प्रयोग करना सहज हो जायेगा और जब स्व के प्रति सफलता अनुभव करेंगे तो आपके दिल में औरों के प्रति प्रयोग करने का उमंग-उत्साह स्वत: ही बढ़ता जायेगा। अन्य आत्माओं के सम्बन्ध-सम्पर्क में स्व के प्रयोग द्वारा उन आत्माओं को भी आपके प्रयोग का प्रभाव स्वत: ही पड़ता रहेगा।



18-02-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्वमान की स्मृति का स्विच ऑन करने से - देह भान के अंधकार की समाप्ति

ताज, तख्त और तिलक की स्मृति दिलाकर फरिश्ते स्वरूप में स्थित कराने वाले अकालमूर्त बापदादा अपने अकाल तख्तनशीन बच्चों प्रति बोले-

ज अकाल मूर्त बाप सभी अकाल तख्तधारी, विश्व कल्याण के ताजधारी, मस्तक में चमकते हुए बिन्दी के तिलकधारी बच्चों को देख रहे हैं। हर एक तख्तधारी भी हैं, ताजधारी भी हैं, तिलक भी सभी का चमक रहा है। सभी के मस्तक बीच आत्मा बिन्दी सितारे के समान दिखाई दे रही है। आप सभी भी अपने तख्त, ताज और तिलक को देख रहे हो। सारी सभा बापदादा को ताज और तिलकधारी, तख्तनशीन दिखाई दे रही है। ये अलौकिक सभा, कलियुगी राज्य सभा और सतयुगी राज्य सभा से कितनी न्यारी और प्यारी है! तो ऐसी सभा की अधिकारी आत्मायें कितनी प्यारी हैं! आप सभी को भी अपना ये तख्त, ताज और तिलकधारी स्वरूप प्यारा लगता है ना! जब अकाल तख्तनशीन, अकालमूर्त, श्रेष्ठ आत्मा स्थिति में स्थिति हो तख्त पर बैठते हो तो यह स्थिति कितनी श्रेष्ठ है! सभी के श्रेष्ठ स्थिति की झलक इस सूरत को फरिश्ता बना देती है। साधारण सूरत नहीं, फरिश्ता सूरत। तो फरिश्ता सूरत भी कितनी प्यारी है! फरिश्ते सभी को बहुत प्यारे लगते हैं। क्योंकि फरिश्ता सर्व का होता है, एक-दो का नहीं। बेहद की दृष्टि, बेहद की वृत्ति, बेहद की स्थिति वाला है। फरिश्ता सर्व आत्माओं के प्रति परमात्म सन्देश वाहक है। फरिश्ता अर्थात् सदा उड़ती कला वाला। फरिश्ता अर्थात् सर्व का रिश्ता एक बाप से जुटाने वाला है। फरिश्ता अर्थात् डबल लाइट। देह और देह के सम्बन्ध से न्यारा, हल्का। फरिश्ता अर्थात् सर्व को स्वयं की चलन और चेहरे द्वारा बाप समान बनाने वाला। फरिश्ता अर्थात् सहज और स्वत: अनादि और आदि संस्कार सदा इमर्ज स्वरूप में दिखाने वाला। फरिश्ता अर्थात् निमित्त भाव, निर्मान स्वभाव और सर्व प्रति कल्याण की श्रेष्ठ भावना वाला। ऐसे फरिश्ते हो ना? फलक से कहो-हम नहीं होंगे तो कौन होगा! फलक है ना! तो बापदादा ऐसे फरिश्तों की दरबार देख रहे हैं। सिर्फ इसी स्वमान में स्थित रहने से देहभान स्वत: ही समाप्त हो जायेगा।

बाप देखते हैं कि बच्चे देहभान को छोड़ने की बहुत मेहनत करते हैं। एक देहभान के रूप को छोड़ते हैं तो दूसरा आ जाता है, फिर दूसरे को छोड़ते हैं तो तीसरा आ जाता है। लेकिन छोड़ना सदा मुश्किल होता है और धारण करना सहज होता है। तो बापदादा कहते हैं कि स्वमान में सदा रहो। जहाँ स्वमान है वहाँ देहभान आ ही नहीं सकता। तो छोड़ने की मेहनत नहीं करो लेकिन स्वमान में स्थित रहने का अटेन्शन रखो और संगमयुग पर स्वयं बाप द्वारा कितने अच्छे-अच्छे स्वमान प्राप्त हैं। प्राप्त करना नहीं है, प्राप्त हैं। अपने स्वमान की लिस्ट निकालो। कितनी बड़ी लिस्ट है! सारे कल्प में कितने भी स्वमान अर्थात् टाइटल्स किसी भी नामीग्रामी आत्मा के हों, चाहे राजनेता हो, चाहे अभिनेता हो, चाहे धर्मात्मा हो, चाहे महान आत्मा हो, उनके अगर टाइटल गिनती भी करो तो आपके स्वमान की लिस्ट से ज्यादा हो सकते हैं? और रोज सवेरे-सवेरे बापदादा स्वमान की स्मृति दिलाते हैं, स्वमान में स्थित कराते हैं। रोज भी एक नये ते नया स्वमान स्मृति में रखो तो स्वमान के आगे देहभान ऐसे भाग जाता जैसे रोशनी के आगे अंधकार भाग जाता। न समय लगता, न मेहनत लगती। तो बार-बार भिन्न-भिन्न देहभान को मिटाने की मेहनत क्यों करते हो? स्वमान की स्मृति का स्विच ऑन करना नहीं आता है क्या? कितना भी गहरा काला बादल सूर्य की रोशनी को छिपाने वाला हो लेकिन आपके पास ऑटोमेटिक डायरेक्ट परमात्म लाइट का कनेक्शन है। डायरेक्ट लाइन है ना? लाइन क्लीयर है या लीकेज है? किसका लिंक होता है लेकिन लीकेज हो जाती है। तो डायरेक्ट लाइन कितनी पॉवरफुल होती है! डायरेक्ट कनेक्शन है या इनडायरेक्ट है? सभी की डायरेक्ट लाइन है ना? सभी को डायरेक्ट लाइन मिल गई है? फिर तो एक बादल क्या, सारे बादल आ जायें, अंधकार कर सकते हैं क्या? स्मृति का स्विच डायरेक्ट लाइन से ऑन किया और इतनी लाइट आ जायेगी जो स्वयं तो लाइट में होंगे ही लेकिन औरों के लिये भी लाइट हाउस हो जायेंगे। ऐसे होता है ना? अनुभवी हो ना? लेकिन कभी-कभी अनुभव को किनारे रख देते हैं। सहारा मिला है लेकिन कभी-कभी सहारे के बजाय किनारे हो जाते हैं। मेहनत लगती है क्या? सदा नहीं लगती, कभी-कभी लगती है! स्विच ऑन करना भूल जाते हो क्या? वास्तव में अगर एक मास्टर सर्वशक्तिमान का स्वमान भी याद हो तो मेहनत की कोई बात ही नहीं है। मार्ग मेहनत का नहीं है लेकिन हाइ-वे के बजाय गलियों में चले जाते हो वा मंज़िल के निशाने से और आगे बढ़ जाते हो तो लौटने की मेहनत करनी पड़ती है। बापदादा सदा अपने स्नेह और सहयोग की गोदी में बिठाकर मंज़िल पर ले जा रहे हैं। गोदी में बैठकर मंज़िल पर पहुँचने में मुश्किल क्यों होता है? स्नेह और सहयोग की गोदी से निकल कभी और आकर्षण खींचती है तो चक्कर लगाने निकल जाते हो। थक भी जाते हो फिर मेहनत भी महसूस करते हो। तो इस वर्ष क्या करेंगे? मेहनत समाप्त। मोहब्बत में, लव में लीन हो जाओ, लवलीन हो हर कार्य करो। जो लीन होता है उसको और कुछ दिखाई नहीं देता, आकर्षित नहीं करता। तो लव में रहते हो। ऐसा कोई होगा जो कहे-मुझे बाप से प्यार नहीं है, लव नहीं है! सभी का लव है ना! लेकिन कभी लव में रहते हो, कभी लव में लीन रहते हो। नहीं तो देखो मन-बुद्धि द्वारा स्थिति में बाप का सर्व सम्बन्धों से साथ है। साथ भी है और सेवा में बाप हर समय साथी है। तो स्थिति में साथ है और सेवा में साथी है। जहाँ सदा साथ भी है और साथी भी है तो वहाँ क्या मुश्किल है? परम आत्मा की महिमा ही है मुश्किल को सहज करने वाले। ऐसा बाप आपके साथ है और साथी है तो मुश्किल हो सकता है? फिर क्यों मुश्किल करते हो?

सर्व सम्बन्धों की सर्व समय प्रमाण बाप स्वयं हर बच्चे को ऑफर करते हैं। जैसा समय वैसे सम्बन्ध से साथ रहो वा साथी बनाओ। कोई समय तो सम्बन्ध से साथी बनाते हो और कोई समय साथी को किनारे कर देते हो। फिर कहते हैं कि अकेलापन फील होता है। चलते-चलते अकेलापन लगता है। और अकेलापन होने से क्या होता है? अपना श्रेष्ठ जीवन साधारण जीवन अनुभव होता है। फिर कहते हैं बोरिंग लाइफ हो गई है, कुछ चेंज चाहिये। एक तरफ बापदादा को खुश करते हैं कि हम तो कम्बाइन्ड हैं। कम्बाइन्ड कभी अकेला होता है क्या? बड़ी अच्छी-अच्छी बातें करते हैं-बाबा, हम तो हैं ही कम्बाइन्ड। फिर 15-20 वर्ष बीतता तो कहते हैं चेंज चाहिये, अकेले हो गये हैं। वैसे भी देखो दुनिया में अगर चेंज चाहते हैं तो कोई सागर के किनारे पर जाकर सो जाते हैं, कोई मनोरंजन में चले जाते हैं, डांस करते हैं, कोई गीतों के मौज में मौज मनाते हैं, कोई कम्पनी या कम्पैनियन का साथ लेते हैं। यही करते हो ना! खेल करते हो? खेलों की दुनिया में बगीचे में चले जाते हो! यहाँ ज्ञान सागर का किनारा है यह भूल जाते हो। अगर सागर पसन्द है तो सागर के किनारे बैठ जाओ। बाप ज्ञान सागर है ना। बाप कम्पैनियन नहीं है क्या? उससे मजा नहीं आता है? कि समझते हो बिन्दी से क्या मजा आयेगा! आप सभी को सदा बहलाने के लिये तो ब्रह्मा बाप भी अव्यक्त हुए। लेकिन यहाँ तो सदा का साथी चाहिये ना। जब भी अपने को अकेलापन अनुभव करो तो उस समय बिन्दु रूप नहीं याद करो। वह मुश्किल होगा, उससे बोर हो जायेंगे। लेकिन अपने ब्राह्मण जीवन की भिन्न-भिन्न समय की रमणीक अनुभव की कहानियाँ स्मृति में लाओ। अनुभव की कहानियों का किताब सभी के पास है। जब बोर हो जाते हैं तो नॉवेल्स पढ़ते हैं ना। तो आप अपने कहानियों का किताब खोलो और उसे पढ़ने में बिजी हो जाओ। अपने स्वमान की लिस्ट को सामने लाओ, अपने प्राप्तियों की लिस्ट को सामने लाओ। ब्राह्मण संसार के विचित्र प्रैक्टिकल कहानियों को स्मृति में लाओ। जैसे अपने को चेंज करने के लिये समाचार पत्र पढ़ने का भी आधार लेते हैं तो ब्राह्मण संसार के कितने अलौकिक समाचार आदि से अब तक देखे हैं वा सुने हैं, समाचार पत्र भी आपके पास हैं। कइयों को पेपर पढ़ने के बिना चैन नहीं आता है। पेपर भी आपके पास है। पेपर पढ़ो। डान्स और साज़  तो जानते ही हो। बिना थकावट के डांस करते हो। मनमनाभव होना ही सबसे बड़ा मनोरंजन है। क्योंकि सर्व सम्बन्धों का रस वा अनुभूतियां करना ही मनमनाभव है। सिर्फ बाप के रूप में या विशेष तीन रूपों के सम्बन्ध से अनुभव नहीं है लेकिन सर्व सम्बन्धों के स्नेह का अनुभव कर सकते हो। सम्बन्धों से याद तो करते हो लेकिन फर्क क्या हो जाता है? एक है दिमाग से नॉलेज के आधार पर सम्बन्ध को याद करना और दूसरा है दिल से उस सम्बन्ध के स्नेह में, लव में लीन हो जाना। आधा तो करते हो बाकी आधा रह जाता है। इसलिये थोड़ा समय तो ठीक रहते हो, थोड़े समय के बाद सिर्फ दिमाग से ही सम्बन्ध को याद किया तो दिमाग में दूसरी बात आने से दिल बदल जाता है। फिर मेहनत करनी पड़ती है। फिर क्या कहते हो-हमने याद तो किया, बाबा मेरा कम्पैनियन है, लेकिन कम्पैनियन ने तोड़ तो निभाई नहीं, अनुभव तो कुछ हुआ नहीं - ये दिमाग से याद किया। दिल में स्नेह को समाया नहीं। जब भी कोई बात दिमाग में आती है तो वह निकलती भी जल्दी है। लेकिन दिल में समा जाती है तो उसको चाहे सारी दुनिया भी दिल से निकालना चाहे, तो भी नहीं निकाल सकती। तो सर्व सम्बन्धों को समय प्रमाण, जिस समय जिस सम्बन्ध की आवश्यकता है, आवश्यकता है फ्रेंड की और याद करो बाप को तो मजा नहीं आयेगा। इसलिये जिस समय, जिस सम्बन्ध की अनुभूति चाहिये, उस सम्बन्ध को स्नेह से, दिल से अनुभव करो। फिर मेहनत भी नहीं लगेगी और बोर भी नहीं होंगे, सदा मनोरंजन। तो इस वर्ष क्या करेंगे?

मेहनत से निकलना है। हर मास सिर्फ ओ.के. लिखना, और कुछ नहीं लिखना। ओ.के. से समझ जायेंगे कि मेहनत से निकल गये। लम्बे-लम्बे पत्र नहीं लिखना। नहीं तो कहते हैं कि पत्र तो लिखा, जवाब नहीं मिलता। ऐसे नहीं है कि आपके पत्र पहुँचते नहीं हैं। पत्र लिखना शुरू करते हो और वहाँ कम्प्युटर में पहले आ जाता है, पोस्ट में पीछे पहुँचता है। वैसे बापदादा इतने लम्बे पत्रों का रोज की मुरली में सबको जवाब देता है। रोज पत्र लिखते हैं। इतना लम्बा पत्र कोई लिखता है! तो इतने अपने स्वमान को देखो-परमात्मा का कितना प्यार है आप सबसे। परमात्मा का प्यार है तब पत्र लिखते हैं अर्थात् मुरली में उत्तर भी देते हैं और याद-प्यार भी देते हैं। अगर कोई भी क्वेश्चन उठता है या कोई भी समस्या सामने आती है तो मुरली से रेसपॉन्स मिलता है। तो फिर कभी शिकायत नहीं करना कि उत्तर नहीं आया। बाकी अच्छा करते हो जो दिल में बात आती है वो बाप के आगे रखना अर्थात् दिल से निकाल दिया। वो भले करो, लेकिन शॉर्ट लिखो। पत्र जब लिखते हो तो उसी समय दिल तो हल्की हो जाती है ना। क्योंकि दे दिया ना। फिर दूसरे दिन की मुरली उस विधि से देखो कि जो मैंने पत्र लिखा उसका उत्तर क्या है? रेसपॉन्स मिलता तो है ना। बेहद का बाप है तो पत्र भी बेहद का लिखेगा, छोटा थोड़ेही लिखेगा।

बापदादा ने देखा कि चारों ओर के डबल विदेशी बच्चे सेवा में अच्छी लगन से लगे हुए हैं। एक-एक को देखते हैं तो हर एक एक-दो से प्यारे लगते हैं। अगर नाम लेंगे तो कितने नाम लेंगे! इसीलिये सभी अपने नाम से विशेष सेवा की रिटर्न मुबारक स्वीकार करना। नाम लेना शुरू करेंगे तो माला बनानी पड़ेगी। लेकिन माला के सभी मणके बापदादा के सामने हैं। समय प्रति समय बेहद की सेवा और सफलता सम्पन्न होती जा रही है। वर्तमान समय विशेष विदेश में दो सेवाओं का रिजल्ट अच्छा प्रत्यक्ष हुआ। अनेक प्रकार की सेवायें तो चलती ही रहती हैं लेकिन विशेष एक ये ग्लोबल बुक, जो मेहनत करके तैयार किया है, उसके निमित्त चारों ओर विशेष आत्माओं का सम्बन्ध-सम्पर्क में आना सहज हो गया। तो जिन बच्चों ने दिल व जान, सिक व प्रेम से समय दिया, सहयोग दिया, उसके प्रत्यक्षफल सेवा के निमित्त आत्माओं को बापदादा पदम गुणा मुबारक दे रहे हैं। और साथ-साथ जो अभी डॉयलाग वा रिट्रीट किया उसकी रिजल्ट भी पहले से अच्छे ते अच्छी रही। और सभी देश वालों ने इसमें जो सहयोग दिया, उन सबको भी मुबारक। लक्ष्य अच्छा रखा। तो चारों ओर अभी इस दो प्रकार की सेवा की अच्छी धूम-धाम चल रही है और आगे भी चलती रहेगी। बापदादा को याद है कि पहले विदेश से वी.आई.पीज. तो छोड़ो, आई.पीज. लाना भी मुश्किल लगता था। और अभी तो सहज लगता है ना! तो यह सेवा का प्रत्यक्षफल है। और कितनों की दुआयें मिलीं! जिसके हाथ में बुक जाता है, उन सबकी दुआयें किसके खाते में जमा होती हैं? जो निमित्त बनते हैं। चाहे देने की सेवा, चाहे बनाने की सेवा, चाहे आइडिया निकालने की, चाहे लिखने की-सबको दुआयें मिलती हैं। तो कितनी दुआयें मिल रही हैं! बहुत दुआयें मिलती हैं, आप सिर्फ रिसीव करो। अपने में ही बिजी रहते हो तो दुआयें रिसीव नहीं करते हो। और जो भी आई.पीज. या वी.आई.पीज. सम्पर्क में आते हैं तो एक कितनों को अनुभव सुनायेंगे तो उन सभी की दुआयें ब्राह्मण आत्माओं को बहुत-बहुत प्राप्त होती हैं। अगर दुआयें रिसीव करो तो भी सम्पन्न तो हो ही जायेंगे। बुक भी अच्छा निकाला और ये प्रोग्राम भी बहुत अच्छा है। और भारत वालों की विशेष सेवा अभी कार यात्रा की चल रही है। (बिजनेस विंग के भाई-बहिनों ने 11 कारों की एक रेली राजकोट से बाम्बे तक निकाली है, जिसमें अनेक प्रकार की सेवायें हो रही हैं) उसकी भी रिजल्ट बहुत अच्छी निकल रही है और आगे एक भी निमित्त बन गये तो अनेकों के भाग्य जगाते रहेंगे। तो ये भी सेवा की रिजल्ट अच्छी दिखाई दे रही है। जो भी इस सेवा में निमित्त हैं, उमंग-उत्साह से बढ़ रहे हैं, उन सभी को भी, चारों ओर के भारतवासी बच्चों को, सहयोगी बच्चों को, निमित्त बच्चों को बापदादा मुबारक देते हैं। मेहनत नाम मात्र और सफलता ज्यादा, अब ऐसी सेवा के प्लैन बनाओ। इस सेवा में भी यह दिखाई देता है कि मेहनत कम, रिजल्ट जयादा। ऐसे विदेश के दोनों प्रोग्राम में भी ऐसे हैं। अच्छा।

देश-विदेश के सर्व सेवा में उमंग-उत्साह से आगे बढ़ने वाले, अथक बन औरों को दान-वरदान देने वाली आत्माओं को, चारों ओर के बाप के सर्व सम्बन्ध के लव में लीन रहने वाली लवलीन आत्माओं को, सदा सहज अनुभव करने, औरों को भी सहज अनुभव कराने वाली सहजयोगी आत्माओं को, सदा स्वयं को स्वमान द्वारा सहज देहभान से मुक्त करने वाली जीवनमुक्त आत्माओं को, सदा बाप को साथ अनुभव करने वाले और साथी अनुभव करने वाले समीप आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।

रिट्रीट विदेश सेवा में सहयोगी भाई बहेनों से तथा दादियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात -

सभी खुशी से सेवा करते हैं तो उसका रिजल्ट भी ऐसा निकलता है। जैसा समय समीप आ रहा है, समय के साथ सफलता भी समीप आ रही है। कुछ समय पहले सफलता दूर लगती थी लेकिन अभी सफलता कितनी समीप अनुभव हो रही है। अभी कोई भी कार्य करते हो तो आता है ना कि सफलता हुई पड़ी है। सबकी स्थिति भी सहजयोगी की बढ़ती जाती है ना। तो जितनी स्थिति सहजयोगी की बढ़ती है उतनी सफलता भी स्वयं आगे आती है। सफलता के पीछे नहीं जाते, लेकिन सफलता स्वयं आती है। अच्छी विधि है। अभी स्वयं ऑफर करते हैं। पहले कॉन्टेक्ट करना मुश्किल था। बापदादा को जयन्ती (लण्डन की जयन्ती बहन) की बात याद आती है। जब बाहर की सेवा कहते थे तो सभी को कहती थी बड़ा मुश्किल है, विदेश है। आप लोगों को विदेश का पता नहीं। और अभी व्यक्ति मिलते हैं, स्थान कम है। मधुबन में भी देखो स्थान के कारण नम्बर मिलता है। सभी ने मेहनत अच्छी की। मोहब्बत में रहकर मेहनत की इसलिये मेहनत मोहब्बत में बदल गई। (बहनों ने बापदादा को ग्लोबल बुक तथा ज्वेल आफ लाइट बुक दिखाई, बापदादा ने सभी सेवा में सहयोग देने वालों को स्टेज पर बुलाया) इन्टरनेशनल है ना। जब चीज़ तैयार हो जाती है तो कितनी खुशी होती है। पहले बनाया जाता है फिर जब तैयार हो जाती है तो सभी के सामने आ जाती है। लण्डन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया सभी ने इसमें सहयोग अच्छा दिया है। इसलिए जो भी निमित्त बने सभी अपने-अपने नाम से याद स्वीकार करना। बापदादा सभी निमित्त बने हुए बच्चों को मुबारक देते हैं। (चिकागो की कोन्फेरेंस भी अच्छी रही) कानफ्रेन्स की सफलता भी अच्छी हुई। सभी ने अच्छी सेवा की। अच्छी हिम्मत रखी और हिम्मत का प्रत्यक्षफल सर्व की मदद मिली। ब्राह्मण समाचार पत्रों में तो विशेष नाम आ गया। जो भी विशेष सेवा करते हैं उसका प्रत्यक्षफल पहले मन में खुशी होती है और साथ-साथ ब्राह्मणों के बुक में जमा हो जाता है। (मैक्सिको की कोन्फेरेंस भी अच्छी हुई) सुनाया ना कि हर कार्य में सफलता समीप आ रही है। जो भी, जहाँ भी सेवा कर रहे हो तो सर्व के संगठन के वायब्रेशन से विशेष कार्य में सफलता मिल रही है। जैसे बिल्डिंग बनती है ना तो एक-एक कण का सहयोग होता है, एक-एक ईट का सहयोग होता है तब बिल्डिंग बनती है। कहने में तो ऐसा ही आता है कि फलाने कॉन्ट्रेक्टर ने बनाया लेकिन ईट नहीं होती तो कॉन्ट्रेक्टर क्या करता? तो आप सभी सेवा के सफलता के बिल्डिंग की एक-एक विशेष ईट हो, फाउन्डेशन हो। बाकी जिस कार्य के लिये जो निमित्त बनता है उनका विशेष नाम हो जाता है। (यह यू.एन.की गोल्डन जुबली है। फैमिली इयर चल रहा है) तो गोल्डन सफलता लायेंगे ना। आपका तो हर वर्ष फैमिली इयर चल रहा है। फैमिली बढ़ रही है, फैमिली सुखी हो रही है। फैमिली प्लैनिंग तो आपका है ही। फैमिली कन्ट्रोल प्लैनिंग नहीं, फैमिली बढ़ने का प्लैनिंग। दुनिया वाले कहते हैं छोटा परिवार सुखी परिवार और यहाँ कहते हैं बड़ा परिवार, सुखी परिवार। सभी अच्छी मेहनत करते हैं। ‘मेहनत’ शब्द के बजाय, अच्छी सेवा करते हो। ‘मेहनत’ शब्द थोड़ा अच्छा नहीं लगता। सेवा द्वारा प्रत्यक्षफल खा रहे हो। डॉयलॉग अच्छा हुआ ना? सेवा से सभी खुश हैं? सब आगे बढ़ रहे हैं और बढ़ते ही रहेंगे। बुद्धि अच्छी चलाते हो। अब ऐसा प्लैन बनाओ जो कोई भी आत्मा ब्राह्मण परिवार से किनारे नहीं हो जाये। किले को ऐसा मजबूत करना पड़े जो कोई जा ही नहीं सके। अभी फिर भी सुनते हैं अच्छे-अच्छे चले गये, क्यों चले गये, कहाँ चले गये? तो ऐसा किला मजबूत करो तो जो कोई सोचे तो भी जा नहीं सके। जैसे चारों ओर करेन्ट की तारें लगा देते हैं ना तो आप भी वायब्रेशन द्वारा करेन्ट की तारें लगा दो, जो उन्हों को स्मृति आ जाये। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

ग्रुप नं. 1

सर्व खज़ानों से भरपूर रहने वाला ही विश्व कल्याणकारी है

सभी अपने को विश्व कल्याणकारी बाप के बच्चे विश्व कल्याणकारी आत्मायें अनुभव करते हो? विश्व कल्याणकारी आत्माओं की विशेषता क्या होगी? विश्व का कल्याण करने वाली आत्मा पहले स्वयं सर्व खज़ानों से सम्पन्न होगी। तो सर्व खज़ानों से भरपूर हो? कितने खज़ाने हैं? बहुत हैं ना! तो सब खज़ानों से भरपूर आत्मायें ही औरों को दे सकेंगी। अगर ज्ञान का खज़ाना है तो फुल ज्ञान हो, कोई भी कमी नहीं हो तब कहेंगे भरपूर। तो फुल है या कभी कोई कम भी हो जाता है? है लेकिन समय पर कार्य में लगा सके-ये चेकिंग सदा करते रहो। तो समय पर यूज़ कर सकते हो कि समय बीत जाता है पीछे सोचते हो? फिर क्या कहना पड़ता है-ऐसे करते थे, ऐसे होता था तो ‘थे’ और ‘था’ होता है। क्या चेक करना है कि समय पर जो खज़ाना चाहिये वो खज़ाना कार्य में लगा या नहीं? विश्व कल्याणकारी आत्मायें सदा हर समय चाहे मन्सा, चाहे वाचा, चाहे कर्मणा, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क में, हर समय सेवा में बिजी रहती हैं। तो इतने बिजी रहते हो? सबसे ज्यादा सेवा में बिजी कौन रहता है? क्योंकि जब नाम ही है विश्व कल्याणकारी तो यह आक्युपेशन हो गया ना। तो जो आक्युपेशन होता है उसके बिना रह नहीं सकते। तो सदा बिजी हैं और सदा रहेंगे। सारा दिन बुद्धि में क्या रहता है? कोई आत्मा मिले और सन्देश दें। अच्छा है, भारतवासी अपने विधि से सेवा में आगे बढ़ रहे हैं और मलेशिया वाले अपनी विधि से, रशिया वाले अपनी विधि से, लेकिन सभी याद और सेवा की लगन से आगे बढ़ रहे हैं।

बापदादा को भी सभी बच्चों को देख खुशी होती है कि कहाँ-कहाँ से बिछुड़ी हुई आत्मायें अपने परिवार में पहुँच गई। आप सभी को भी खुशी है ना?अपना परिवार देख खुशी में नाचते हो ना? विश्व कल्याणकारी हैं तो चारों ओर के विश्व की आत्माओं का पार्ट नूंधा हुआ है। एक भी कोना रह जायेगा तो विश्व नहीं कहेंगे। अच्छा, रशिया में सेवा अच्छी बढ़ रही है। मलेशिया तो है ही आगे ना! अच्छी रिजल्ट है। भारत तो है ही फाउन्डेशन। भारत जगा तब तो विदेश जगा ना। तो हर स्थान और हर बच्चे की अच्छी खुशबू बाप के पास आती रहती है। भारतवासियों को अनेक तरफ की आत्माओं को देख और ज्यादा खुशी होती है। भारतवासी फ्राकदिल हैं। खुशी बढ़ती है ना-वाह, हमारा परिवार। आप सबको देख करके सभी के दिल से दुआयें निकलती हैं। बहुत अच्छा, जो हमारे बिछड़े हुए भाई-बहनें मिल गये। कोई बिछड़ा हुआ आकर परिवार में मिल जाये तो कितनी खुशी होती है! तो आपको भी खुशी और सभी को भी खुशी होती है। श्रीलंका वाले भी लक्की हैं। क्योंकि नाम ही है श्रीलंका। श्री सदा श्रेष्ठ को कहते हैं। तो श्रेष्ठ आत्मायें बन गये हैं ना! कितना भी कहाँ हंगामा होता रहे लेकिन आप सेफ हो। याद की छत्रछाया में हो। अच्छा!

ग्रुप नं. 2

स्वयं और समय के महत्व को जानकर भविष्य प्रालब्ध जमा करो

दा अपने को बाप के साथ रहने वाली श्रेष्ठ आत्मायें अनुभव करते हो? सदा साथ रहने वाले वा कभी-कभी साथ रहने वाले क्या समझते हो? जब बाप का साथ छूटता है तो और कोई साथी बनते हैं? माया तो साथी बनती है ना! कितने जन्म माया के साथी रहे? बहुत रहे ना। और बाप का साथ प्रैक्टिकल में कितने समय का है? संगमयुग है ना और संगमयुग है भी सबसे छोटा युग। तो क्या करना चाहिये? सदा होना चाहिये। क्योंकि सारे कल्प में कितना भी पुरूषार्थ करो तो भी साथ का अनुभव कर सकेंगे? (नहीं) तो इसका सलोगन क्या है? (अभी नहीं तो कभी नहीं) यह याद रहता है? समय का भी महत्व याद रहे और स्वयं का भी महत्व याद रहे। दोनों महत्व वाले हैं ना! इस संगमयुग के समय को, जीवन को-दोनों को हीरे तुल्य कहा जाता है। हीरे का मूल्य कितना होता है! तो इतना महत्व जानते हुए एक सेकण्ड भी संगमयुग के साथ को छोड़ना नहीं है। सेकण्ड गया, तो सेकण्ड नहीं लेकिन बहुत कुछ गया। ऐसी स्मृति रहती है? सारे कल्प की प्रालब्ध जमा करने का समय अब है। अगर सीजन पर सीजन को महत्व नहीं देते तो सदा के लिये वंचित रह जाते हैं। तो इस समय का महत्व है, जमा करने का समय है। अगर राज्य अधिकारी भी बनते हो तो भी अभी के जमा के हिसाब से और पूज्य भी बनते हो तो इस समय के जमा के हिसाब से। एक छोटे से जन्म में अनेक जन्मों की प्रालब्ध जमा करना है। ये याद रहता है कि कभी-कभी? सम टाइम है? तो ये सम टाइम शब्द कब खत्म करेंगे? समाप्ति समारोह कब मनायेंगे? रावण को भी मारने के बाद जलाकर खत्म कर देते हैं? तो अभी मारा है, जलाया नहीं है। अच्छा, ये वेराइटी ग्रुप है। बापदादा एक-एक रत्न की वैल्यु को जानते हैं। उसी अमूल्य रत्न की दृष्टि से देखते हैं। है ना अमूल्य रत्न! कम भाग्य नहीं है जो ऊंचे ते ऊंचे भगवान् के बन गये। तो खुश रहो और खुशी बांटते चलो। भरपूर हैं ना कि थोड़ा कम है? जो फुल होता है वह फेल नहीं होता। तो विजयी हैं ना? अच्छा!

ग्रुप नं. 3

सपूत बन स्वयं पर श्रीमत और वरदानों का हाथ अनुभव करते हुए समान बनने का सबूत दो

भी का लक्ष्य बाप समान बनने का है ना। बाप समान बनना है या बने हैं? फलक से कहो कि हम ही बने थे, हम ही हैं और हम ही बनते रहेंगे। आप सभी का सलोगन है ‘फॉलो फादर’। तो फॉलो फादर करने वाले को क्या कहेंगे? समान हुए ना। जो बाप के कदम वो आपके कदम, तभी तो फॉलो फादर कहेंगे। तो फॉलो फादर है? बापदादा सभी बच्चों को सदा सपूत बच्चों के रूप में देखते हैं। सपूत बच्चा किसको कहा जाता है? जो हर कर्म में सपूत बन बाप को सबूत दे। सपूत अर्थात् सबूत देने वाले। प्रत्यक्षफल खा रहे हो ना कि भविष्य के लिए सिर्फ जमा होता है, वर्तमान में नहीं। एक कदम सेवा का करते हो वा याद में रहते हो तो शक्ति मिलती है, खुशी भी मिलती है, अनुभव है? प्रत्यक्षफल खाने वाले अर्थात् सदा हेल्दी, वेल्दी और हैप्पी रहने वाले। तो सभी वेल्दी भी हो। कितने खज़ाने हैं? बहुत खज़ाने हैं ना। भरपूर हो ना? या थोड़ा-थोड़ा खाली हैं? जितना खज़ानों से भरपूर रहेंगे तो जो सम्पन्न होता है उसमें हलचल भी नहीं होती और दूसरी चीज़ भर भी नहीं सकती। सपूत बच्चे अर्थात् सदा बाप के श्रीमत का हाथ और साथ अनुभव करने वाले। तो श्रीमत का हाथ सदा अपने ऊपर अनुभव करते चलो। सदा हाथ है? तो जहाँ बाप का हाथ है वहाँ सफलता है ही है। बाप की श्रीमत का हाथ अर्थात् वरदान का हाथ। कोई भी कार्य करते हो तो पहले ये स्मृति में लाओ कि श्रीमत का हाथ, वरदान का हाथ सदा हमारे ऊपर है। अनुभव करते हो ना और बाप को भी सपूत बच्चों को वरदान देने में खुशी होती है। कभी भी ये वरदान का हाथ छूट नहीं सकता। कोई छुड़ा सकता है, है किसकी ताकत कि कभी-कभी माया की हो जाती है? माया ने विदाई कर ली या कभी-कभी उसको बुला लेते हो? कमज़ोर होना अर्थात् माया को बुलाना। कमज़ोर होते हो क्या? चाहते नहीं हो लेकिन हो जाते हो? नहीं, हो ही नहीं सकते। मास्टर सर्वशक्तिमान और कमज़ोर हो सकता है क्या? रोशनी के होते अंधकार होगा क्या? तो सर्वशक्तिमान और कमज़ोर दोनों बातें मिलती हैं क्या?फिर माया को क्यों बुलाते हो? बुलाते नहीं हो, वो जबरदस्ती आती है। माया का आपसे प्यार है, आपका माया से नहीं? सदा अमृतवेले अपने आपको विजय का तिलक लगाओ और बार-बार उसे रिफ्रेश करो। अनेक बार के विजयी हो। ये तो पक्का है ना! जब इतनी हिम्मत रख बाप के बन गये तो बनने के बाद हिम्मत की पद्म गुणा मदद मिलती है। एक कदम की हिम्मत और पदम कदम की मदद। यह अनुभव है ना? पदमगुणा मदद अनुभव करने वाले अर्थात् सदा बाप समान विजयी हैं ही हैं।  सबसे ज्यादा प्यार बाप से है ना। तो जिससे प्यार होता है उस जैसा तो बनना ही है। प्यार का रेसपॉन्स है समान बनना। अच्छा, सभी अपने को बाप के समीप, बाप के प्यारे ते प्यारी आत्मायें अनुभव कर उड़ते चलो।

ग्रुप नं. 4

सदा बाप के दिलतख्तनशीन, परमात्म प्यारे बनो तो बेफ़्रिक बादशाह बन जायेंगे

सभी लास्ट सो फास्ट हो ना। फर्स्ट डिवीजन में आने वाले हो? फर्स्ट आने वाले अर्थात् राज्य अधिकारी आत्मायें। तो सभी राज्य अधिकारी हो? सतयुग-त्रेता के विश्व राज्य के तख्तनशीन समय प्रमाण कितने बनेंगे?सब बनेंगे! तो तख्त पर बैठेंगे या बैठने वाले के साथी होंगे? जब सभी को सुनाते  हो 21 जन्म हैं, तो कितने नम्बरवार तख्त पर बैठेंगे? इकठ्ठे-इकठ्ठे बैठेंगे या टर्न बाई टर्न बैठेंगे? सबसे बड़े से बड़े राज्य अधिकार का अनुभव अब संगम पर स्वराज्य का होता है। मजा तो स्वराज्य अधिकारी का अभी अनुभव कर रहे हो ना। स्वराज्य का नशा है ना या सतयुग में जब तख्त पर बैठेंगे तब होगा? अभी का नशा बड़ा है या सतयुग का नशा बड़ा है? (अभी का) तो निश्चय से सदा कहते हो कि स्वराज्य अधिकारी सो विश्व राज्य अधिकारी। स्वराज्य हमारा ब्राह्मण जन्म का अधिकार है। याद रहता है ना कि कभी प्रजा भी बन जाते हो?प्रजा का अर्थ है अधीन रहना और राजा का अर्थ है अधिकारी। तो सदा अधिकारी रहते हो या कभी अधीन भी हो जाते हो? अभी संगमयुग पर भी अगर ‘सम टाइम’ होगा तो ‘सदा’ कब होगा? अभी का सदा है या भविष्य का? पाण्डव विजयी हो गये? इस समय विजयी हो या वहाँ भी जाकर रहेंगे, क्या होगा?क्योंकि आप सभी बाप के प्यारे हो ना तो दिल तख्तनशीन हो। तो जो दिल तख्तनशीन हैं, दिल के प्यारे हैं उसका चित्र स्वत: ही दिल में खिंचता है। आप सभी क्या कहते हो कि हम सदा कहाँ रहते हैं? बाप के दिल में रहते हो ना?दिल से जुदा हो ही नहीं सकते। कोई की हिम्मत नहीं जो दिलाराम के दिल से आपको अलग कर सके। ये पक्का निश्चय है ना? गीत गाते हो ना-हम जुदा हो नहीं सकते। चाहे सारी दुनिया अलग करने की कोशिश करे तो भी नहीं हो सकते। क्योंकि कोटों में कोई एक आप हो, और तो आपके आगे कुछ भी नहीं हैं। फास्ट ग्रुप की यही निशानी है ना। शरीर छूट जाये लेकिन दिलतख्त नहीं छूट सकता। इतना पक्का है ना? तो ये तख्त किसको मिलता है? जो पदमापदम भाग्यवान हैं। तो छोड़ेंगे कैसे? चैलेन्ज करते हो कि भले ट्रॉयल करो। इतने अटल हो ना। बच्चों की हिम्मत को देख बाप भी बलिहार जाते हैं। दुनिया के आगे फखर से कहते हो कि हम परमात्म प्यारे बन गये। इसी फखर में रहने वाले फ़्रिक से फरिग हो। फ़्रिक सब खत्म हो गई ना कि एक दो कोने में रह गया? कोई जेब में छिपा हुआ तो रह नहीं गया? जब बाप साथ है तो बेफ़्रिक बादशाह हो। बाप को सब फ़्रिक दे दी ना? देने में होशियार हो ना? कि सम्भालने में होशियार हो? देने में भी होशियार हो और लेने में भी होशियार हो! कभी गलती से कहते हो कि मेरा मन आज थोड़ा-सा उदास है, तो मेरा है क्या? या तेरा हो गया? या उस समय मेरा हो जाता है? मेरा मन नहीं लगता, मेरा मन नहीं करता-ये बोल ही व्यर्थ बोल हैं। मेरा कहना माना मुश्किल में पड़ना। तो मन दे दिया है या रख दिया है? या कभी-कभी वापस ले लेते हो? तो ब्राह्मणों की भाषा क्या है? मेरा या तेरा? तो क्यों सोचते हो? ये डिक्शनरी की भाषा ही नहीं है। मेरा-मेरा कहकर मैला कर देते हैं। मन दे दिया, तन दे दिया, धन दे दिया, ट्रस्टी हो, मेरा नहीं है। ट्रस्टी हो या गृहस्थी हो? गृहस्थी माना मेरा, ट्रस्टी माना तेरा। कौन हो सभी? अपने में ट्रस्ट है? बाप तो स्वयं ऑफर करता है मैं आपके साथ हूँ। अच्छा, विश्व कल्याण के यज्ञकुण्ड भिन्न-भिन्न देशों में प्रज्जवलित कर लिये। बापदादा अनेक देशों में मैसेज देने वाले सेवाधारी बच्चों को देख बहुत हर्षित होते हैं कि वाह मेरे बच्चे वाह! कौन हो? वाह-वाह बच्चे। वाह-वाह हो ना। हाय-हाय करने वाले तो नहीं ना? अच्छा, बाप विश्व कल्याणकारी है ना तो कोई भी एरिया वंचित न रहे। कोने-कोने से, चाहे एक निकले, चाहे दो निकले, लेकिन निकलने जरूर हैं। तो वृद्धि तो होनी है। तो हिम्मत है, मदद भी है।

जहाँ बाप का हाथ है वहाँ सफलता है ही है। बाप की श्रीमत का हाथ अर्थात् वरदान का हाथ। कोई भी कार्य करते हो तो पहले ये स्मृति में लाओ कि श्रीमत का हाथ, वरदान का हाथ सदा हमारे ऊपर है।



09-03-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


न्यारा-प्यारा, वन्डरफुल, स्नेह और सुखभरा अवतरण - शिव जयन्ती

व्रत, जागरण और बलि के यथार्थ स्वरूप में स्थित कराने वाले शिव भोलानाथ बाबा अपने सालिग्राम बच्चों प्रति बोले-

त्रिदेव रचता बाप अपने पूज्य सालिग्राम बच्चों से मिलने आये हैं। जैसे आज बिन्दु ज्योति स्वरूप बाप की पूजा होती है, यादगार मनाते हैं तो बाप के साथ-साथ आप सालिग्राम आत्माओं की भी पूजा होती है। बाप एक त्रिमूर्ति शिव गाया और पूजा जाता है और आप सालिग्राम आत्मायें अनेक हो। पूजा दोनों की होती है। क्योंकि बाप ने सभी बच्चों को अपने समान पूज्य बनाया है। कभी भी सालिग्राम को देखते हो तो क्या अनुभव करते हो? ये हम ही हैं-ऐसे लगता है? तो बाप ने बच्चों को समान तो क्या लेकिन अपने से भी श्रेष्ठ पूज्य बनाया है। बच्चों की पूजा डबल रूप में होती है। बाप की पूजा एक ही शिवालिंग के रूप में होती है। आप बच्चों की सालिग्राम के रूप में भी होती है और देव आत्माओं के रूप में भी होती है। बाप से भी ज्यादा डबल रूप के पूजा के अधिकारी आत्मायें आप हो। जैसे डबल विदेशी कहलाते हो तो डबल पूज्य भी हो। डबल ताजधारी भी आप बनते हो। निराकार बाप नहीं बनते। कहाँ-कहाँ भक्त लोग शिव की प्रतिमा को ताज डाल देते हैं। क्योंकि ताजधारी बनाया है इसलिये कहाँ-कहाँ ताज दिखा देते हैं। लेकिन बाप कभी भी रत्न जड़ित सोने-चाँदी के ताजधारी नहीं बनते। क्योंकि ताज धारण होता है प्रैक्टिकल में, मस्तक में। तो निराकार बाप को मस्तक है क्या? शरीर ही नहीं है तो ताज क्या धारण करेंगे! लेकिन स्नेह के कारण ताज दिखा देते हैं। तो बाप ने बच्चों को अपने से भी आगे रखा है। इतनी खुशी और इतनी श्रेष्ठ स्मृति रहती है? बापदादा को अपनी जयन्ती मनाने की खुशी नहीं है लेकिन आप सबकी भी जयन्ती है, इसलिये बच्चों की जयन्ती की खुशी है। क्योंकि बाप अकेला कुछ नहीं कर सकता और आप भी अकेले कुछ नहीं कर सकते। चाहे कहीं-कहीं कोई-कोई बच्चों को थोड़ा आ जाता है कि मैं ही करने वाला हूँ लेकिन सिवाए बाप के सफलता नहीं मिलती। तो न बाप अकेला कुछ कर सकता, न बच्चे अकेले कुछ कर सकते हैं। अगर बाप बच्चों से मिलन मनाने भी साकार में चाहे वा आकार में भी चाहे तो ब्रह्मा का आधार लेना ही पड़ता है। ब्रह्मा के बिना भी कुछ कर नहीं सकता। माध्यम के बिना साकार मिलन नहीं मना सकता। तो कितना प्यार बाप का बच्चों से है और बच्चों का बाप से है! एक-दो के बिना कुछ नहीं कर सकते। अगर बाप को किनारा किया, साथ नहीं रखा तो अकेले कुछ कर सकते हो। बाप कर सकता है? बाप भी नहीं कर सकता। तो ये बाप और बच्चों का साथ-साथ दिव्य जन्म लेना, साथ-साथ विश्व परिवर्तन करना और साथ-साथ अपने स्वीट होम में जाना-ये ड्रामा की अविनाशी नूँध है। इसको कोई बदल नहीं सकता। तो यह नूँध अच्छी है ना, प्यारी लगती है ना?तो आज सब बाप का बर्थ डे मनाने आये हो या अपना? बाप कहेंगे आपका और बच्चे बाप को कहेंगे कि आपका।

ये दिव्य अवतरण, जिसको शिव जयन्ती वा शिवरात्रि कहते हैं, कितना आत्माओं के लिये स्नेहभरा, सुखभरा अवतरण है। सतयुग में भी ऐसा बर्थ डे नहीं मनायेंगे। आत्मायें, आत्माओं का बर्थ डे मनायेंगी लेकिन इस समय आत्मायें परम आत्मा का बर्थ डे मनाती हैं। सारे कल्प में ऐसा न्यारा और प्यारा, वन्डरफुल बर्थ डे, जो एक ही समय पर बाप का भी हो और बच्चों का भी हो - ऐसा कभी होता है क्या? अगर तारीख एक भी होगी तो वर्ष का या मास का या डेट का अन्तर होगा। लेकिन ये अवतरण दिवस कितना वन्डरफुल है जो बाप और बच्चों का साथ-साथ है।

इस यादगार दिवस पर विशेष भक्त लोग भी दो विशेषताओं से ये दिवस मनाते हैं। दो विशेषतायें कौन-सी हैं? एक-विशेष व्रत धारण करते हैं और दूसरा-स्वयं को समार्पित न करते हुए और किसी को बलि चढ़ाते हैं। तो बलि चढ़ाना और व्रत धारण करना ये दोनों विशेषताएं इस दिवस की हैं। अनेक प्रकार के व्रत धारण करते हैं। चाहे कोई भोजन का करते हैं, कोई जागरण का करते हैं, कोई दूर-दूर से पैदल करते हुए चलने का करते, कितना भी थक जायें लेकिन व्रत अपना पूरा करते हैं। चाहे कितने दिन भी लग जायें, कितना समय भी लग जाये लेकिन व्रत नहीं छोड़ते। तो यह यादगार किससे कॉपी की? आपका है ब्राह्मण जीवन का व्रत और भक्तों का है एक दिन का व्रत। आपने भी जब ब्राह्मण जन्म वा दिव्य बर्थ लिया तो क्या व्रत लिया? सदा अज्ञान नींद से जागरण का व्रत लिया ना कि थोड़ा-थोड़ा नींद करेंगे यह व्रत लिया? वा थोड़े-थोड़े झुटके खा लेंगे ऐसे तो नहीं किया? तो आप सभी ने भी शिव जयन्ती वा दिव्य बर्थ डे पर जागरण का व्रत लिया इसलिये भक्त भी यादगार रूप में जागरण करते हैं। और आप सबने भी शुद्ध भोजन का व्रत लिया। इसलिए भक्त लोग भी, कुछ भी हो जाये, चाहे बीमार भी हो जाते हैं तो भी अन्न के व्रत को तोड़ेंगे नहीं। तो आप सब भी कोई भी मन के आगे, तन के आगे, परिस्थितियाँ आ जायें तो व्रत तोड़ते हो क्या? कभी कुछ मिक्स खा लिया-ऐसे करते हो क्या? कोई देखता तो है नहीं, चलो खा लिया, अपना नियम पक्का रखते हो ना कि कच्चे हो? भी-कभी देखकरके थोड़ी दिल होती है? एक ही जैसा खाना खाते-खाते कभी दूसरा भी खाने की दिल होती है? अच्छा, इसमें अमेरिका, आस्ट्रेलिया, यूरोप, एशिया वा रशिया सभी पक्के हो ना या थोड़ा-थोड़ा कच्चे हो?

तो डबल विदेशी सभी पास हो गये और भारत वाले तो पास हैं ही ना!भारत वालों को फिर भी सहज है। डबल विदेशियों को इसमें डबल मेहनत भी है। लेकिन पास हो इसकी मुबारक। तो एक बर्थ डे की मुबारक, दूसरी पास होने की मुबारक और तीसरी कभी भी हलचल में न आए सदा अचल रहना, इसमें पास हो? इसमें कह देते हैं-क्या करें-सम-टाइम। आज बापदादा ने डबल विदेशियों के लिये बहुत रमणीक भाषा इमर्ज की, क्योंकि डबल विदेशी एंज्वाय ज्यादा पसन्द करते हैं ना। कुछ होना चाहिये, कुछ एंज्वाय हो, ऐसे शान्त-शान्त क्या रहें। तो बापदादा शिवरात्रि पर इन शब्दों का सभी से दृढ़ व्रत कराते हैं। व्रत लेने के लिये तैयार हो? या जब सुनेंगे तब कहेंगे कि ये तो थोड़ा, थोड़ा मुश्किल है। पहले तो ‘मुश्किल’ शब्द संकल्प में भी नहीं लायेंगे-यह व्रत लेने के लिये तैयार हो? तो बापदादा ने देखा कि जब तक संकल्प में दृढ़ता नहीं तब तक सफलता नहीं होती। संकल्प होता है लेकिन दृढ़ नहीं होता तो कमज़ोरी आती है। बहुत करके कमज़ोरी के यही शब्द कहते हैं कि क्या करें - व्हाट। तो अभी व्हाट नहीं कहना लेकिन व्हाट के बजाय क्या कहेंगे? फ्लाय (उड़ना)। तो जब भी व्हाट शब्द आये तो ब्राह्मण डिक्शनरी में व्हाट के बजाए फ्लाय शब्द है। दूसरा शब्द क्या बोलते हो? व्हाई (क्यों), तो व्हाई को क्या करेंगे? बॉय-बॉय। सदा के लिये बॉय-बॉय करेंगे या थोड़े टाइम के लिये? और तीसरा शब्द क्या बोलते हैं? हाउ। तो हाउ (How) नहीं, नो (Know), जानते हैं, कैसे नहीं, नो अर्थात् जानने वाले। जब त्रिकालदर्शी बन जायेंगे, जानने वाले बन जायेंगे तो फिर हाउ कहेंगे क्या? हाउ कहना माना हौव्वा आना। तो हौव्वा अच्छा लगता है क्या? इसीलिये यही शब्द हैं जो कमज़ोरी लाते हैं। यही शब्द हैं जो व्यर्थ संकल्प का गेट खोलते हैं। सोचो, जब भी व्यर्थ संकल्पों की क्यू लगती है तो किस शब्द से लगती है? इन्हीं शब्दों से लगती है ना। या क्यों होगा, या क्या वा कैसे होगा। ये कैसे हुआ! ये कैसे कहा! ये क्यों कहा! अब क्या करें! ... कैसे करें! तो कमज़ोरी के या व्यर्थ संकल्पों के गेट ये शब्द हैं। इसको डिक्शनरी में चेंज कर दो। फिर क्या होगा? आप भी चेंज हो जायेंगे ना। तो भक्त लोग आपको ही कॉपी कर रहे हैं। आपकी बेहद की बात है और उन्होंने हद के रूप में यादगार रखा है। तो यह दृढ़ व्रत रखना-यही शिव जयन्ती वा शिवरात्रि मनाना है। मनाना अर्थात् बनना। ऐसे नहीं, सिर्फ केक काट लिया लाइट जला ली, दीपक जला लिया, तो ये मनाना नहीं, ये मनोरंजन भी आवश्यक है लेकिन इसके साथ-साथ कुछ काटना है और कुछ जलाना भी है।

एक तरफ दीपक वा मोमबत्ती जलाते हो, दूसरा केक काटते हो, तीसरा झण्डा लहराते हो, चौथा-गीत गाते हो, पांचवा-डांस भी करते हो। और क्या करते हो? मीठा बांटते और खाते हो। तो अभी ये 6 बातें ही करनी पड़ेंगी। पहले तोदृढ़ संकल्प का अपने मन में दीप जलाओ कि अब से दृढ़ता द्वारा सफलता को पाना ही है। देखेंगे, पता नहीं, पता नहीं, नहीं। होना ही है, करना ही है, गे शब्द नहीं, है। और दूसरा केक कौन-सा काटेंगे? केक पूरा नहीं खाया जाता, काटकर खाया जाता है। तो क्या काटेंगे? जो भी सम्पन्न बनने में या सम्पूर्ण बनने में कोई भी संकल्प मात्र भी रूकावट हो उसको अब से काट लो, खत्म। और जो कमज़ोरी हो उसके बजाय शक्ति धारण करने का केक मुख में डालो। पहले काटो, फिर मुख में खाओ। समझा? झण्डा कौन-सा लहरायेंगे? ये तो यादगार के रूप से झण्डा लहराते हैं लेकिन अपने दिल में बाप को हर संकल्प, बोल और कर्म द्वारा सदा प्रत्यक्ष करने का झण्डा दिल में लहराओ। कोई भी संकल्प, बोल और कर्म ऐसा नहीं हो जो बाप को प्रत्यक्ष करने का नहीं हो। क्योंकि सबके दिल में बाप के स्नेह के कारण यही संकल्प है कि बाप को प्रत्यक्ष करना है। तो कैसे करेंगे?सदा अपने संकल्प, बोल और कर्म द्वारा दिल में प्रत्यक्ष करने का झण्डा लहराओ और सदा खुश रहने की डांस करते रहो। कभी खुश, कभी उदास-यह नहीं। जब उदास होते हो तो उस समय भी अपना एक फोटो निकालो। और जब खुश होते हो तो भी फोटो निकालो। फिर दोनों फोटो साथ रखो। फिर देखो अच्छा क्या है?मैं ये हूँ या वो हूँ? तो सदा हर्षित रहने का, खुश रहने का डांस करो। कुछ भी हो जाये, कोई कितना भी खुशी चुराने की कोशिश करे। क्योंकि माया किसी के द्वारा ही तो करायेगी ना। कुछ भी हो जाये, कितना भी कोई किसी भी प्रकार से खुशी कम करने या खुशी गुम करने का प्रयत्न करे लेकिन जब तक जीना है तब तक खुश रहना है। यह पक्का व्रत लिया है ना। क्या नहीं कर सकते हो, विल पॉवर है ना? तो जिसके पास विल पॉवर है वो क्या नहीं कर सकता अगर आप मास्टर सर्वशक्तिमान नहीं कर सकेंगे तो और कौन करेगा! कोई और पैदा होने वाले हैं या आप ही हो? माला के मणके आपको ही बनना है या औरों का इंतजार कर रहे हो? फर्स्ट डिवीजन में आना है ना कि सेकण्ड भी चलेगा? तो यह दृढ़ संकल्प अर्थात् व्रत लो कि जब तक जीना है तब तक खुश रहना है। और जो खुश रहेगा वो खुशी की मिठाई बांटता रहेगा। उस मिठाई से तो सिर्फ मुख मीठा होता है और इससे मन, तन, दिल सब खुश हो जाते हैं। तो यह मीठा बांटना है। और गीत सदा क्या गाते हो? मीठा बाबा, प्यारा बाबा, मेरा बाबा-यही गीत गाते हो ना सदा यह गीत ऑटोमेटिक बजता रहे। ऐसे नहीं, सेल खत्म हो जाये तो गीत खत्म हो जाये। बैटरी स्लो हो जाये। नहीं। जब बैटरी स्लो होती है, तो पता है कैसे गीत गाते हो? सबको अनुभव तो है ना। फिर क्या होता है? मेरा है तो बाबा, तो तो आ जाता है। सिर्फ मेरा बाबा नहीं कहेंगे, मेरा है तो बाबा। मिक्स हो गया ना। बैटरी स्लो होती है तो आवाज स्लो हो जाता है और उसमें तो तो शब्द एड हो जाता है। मेरा बाबा फलक से नहीं, मेरा है तो बाबा।

तो शिवरात्रि मनाना अर्थात् ये दृढ़ व्रत लेना। ऐसी शिवरात्रि मनाई ना? या सोचकर पीछे जवाब देंगे! अच्छा, बहुत होशियार हो, अभी-अभी सोच लिया। डबल विदेशी हो इसीलिये डबल होशियार हो। अच्छा!

डबल विदेशियों ने मधुबन में कौन-सी विशेष सेवा की? क्या किया? ब्रह्मा बाबा को प्रत्यक्ष किया। स्टेम्प का फंक्शन मनाया। विशेष योग भी लगाया ना। पॉवरफुल योग लगाया तो विघ्न विनाशक हो गये ना। चाहे मधुबन निवासियों के योग ने, चाहे डबल विदेशियों के योग ने, चाहे चारों ओर ब्राह्मण बच्चों के योग ने कमाल की ना। क्योंकि चारों ओर सबका यह एक ही संकल्प था कि ब्रह्मा बाप को प्रत्यक्ष करना ही है। फिर कोई ने भाग-दौड़ की सेवा की, कोई ने मंसा सेवा की, कोई ने वाचा सेवा की, लेकिन जिन्होंने जो भी योगयुक्त होकर सेवा की ऐसे सेवाधारियों को सफलता की मुबारक। कितनी खुशी हुई! क्योंकि ब्रह्मा बाप से सबका दिल का अति सूक्ष्म प्यार है। सभी ने ब्रह्मा बाप को देखा है या जानते हो? क्या कहेंगे-देखा है या जाना है? जो कहते हैं हमने देखा है वह हाथ उठाओ। जो कहते हैं जाना तो है लेकिन अभी देखना है वो हाथ उठाओ। (थोड़े लोगों ने उठाया) अच्छा, अनुभव किया है? ब्रह्मा हमारा बाप है यह अनुभव किया है?क्योंकि अनुभव भी एक आंख है, जैसे स्थूल आंखों से देखा जाता है तो सबसे बड़ी आंख है अनुभव। अनुभव की आंख से देखा तो भी देखा कहेंगे। अगर अनुभव भी नहीं किया और अव्यक्त रूप से, अव्यक्त स्थिति द्वारा देखा नहीं तो फिर अपना नाम दादियों को नोट कराना तो वो अनुभव करा देंगी। रह नहीं जाना। क्योंकि दूसरों को स्टैम्प द्वारा ब्रह्मा बाप का अनुभव करा रहे हो और खुद नहीं करो तो अच्छा नहीं है ना। इसलिये जब ब्रह्मा बाप के चित्र के आगे बैठते हो तो चित्र से चैतन्यता के मिलन की, अनुभव की अनुभूति नहीं होती है? रूहरिहान का रेसपॉन्स नहीं मिलता है? मिलता है ना। तो बाप है तभी तो सुनता है और देता है। फिर भी इस अनुभव से वंचित नहीं रह जाना। समझा? तो सभी ने जो सेवा की, विशेष भारतवासियों ने ज्यादा सेवा का चांस लिया तो बापदादा नाम नहीं लेते हैं लेकिन सभी अपने सेवा के रिटर्न में नाम सहित मुबारक स्वीकार करें। डबल विदेशियों को भी सेवा का चांस मिल गया। अच्छा लगा ना! नाच रहे थे ना! अच्छा!

चारों ओर के ब्राह्मण जन्म के दिव्य जन्म के अधिकारी आत्माओं को, सदा बाप और आप साथ-साथ रहने वाले समीप आत्माओं को, सदा डबल पूज्य स्वरूप के स्मृति में रहने वाले समर्थ आत्माओं को, सदा दृढ़ संकल्प वा दृढ़ व्रत को निभाने वाले सफलता के अधिकारी आत्माओं को, सदा खुश रहने वाले और औरों को भी खुश करने वाले खुशनसीब बच्चों को, त्रिदेव रचता बाप की और ब्रह्मा बाप की विशेष बर्थ डे की मुबारक भी हो और याद-प्यार भी। साथ-साथ सर्वश्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।

दादियों से अव्यक्त बापदादा की मुलाकात -

(दादी जी ने ब्रह्मा बाबा की स्टेम्प का एलबम बापदादा को दिखाया)

सबके बुद्धियों को टच किया है। सबके पुरूषार्थ और सबके श्रेष्ठ संकल्प ने विजय प्राप्त करा ली। सफलता अधिकार है। पुरूषार्थ करना भी ड्रामा में नूँध है और सफलता प्राप्त होना भी निश्चित है। सिर्फ निश्चय को देखने के लिये बीच-बीच में हलचल होती है। तो अनुभव किया, योग के प्रयोग से सहज हो गया ना। सिर्फ पुरूषार्थ से नहीं, पुरूषार्थ में ज्यादा लग जाते, योग का प्रयोग कम करते तो सफलता थोड़ी दूर हो जाती है। पुरूषार्थ और योग के प्रयोग से सबकी वृत्तियों को परिवर्तन करना-ये साथ-साथ रहता है तो सफलता समीप आती है। तो योग के प्रयोग का यह भी अनुभव देख लिया। एक दृढ़ निश्चय और दूसरा प्रयोग द्वारा किसी की भी बुद्धि को परिवर्तन कर सकते हैं लेकिन इतना पॉवरफुल योग हो। यह संगठन के प्रयोग ने सफलता प्रत्यक्ष रूप में दिखाई। हिस्ट्री में देखो, आदि से सेवा की हिस्ट्री में जब भी कोई हलचल हुई है तो सफलता योग के प्रयोग की विशेषता से ही हुई है। पुरूषार्थ निमित्त बनता है, पुरूषार्थ धरनी बनाता है, वो भी जरूरी है। लेकिन सफलता का बीज उत्पन्न होने का साधन, बाहर आने का साधन फिर भी योग का प्रयोग ही रहा। यह सबको अनुभव है ना। धरनी को बनाना भी जरूरी है लेकिन बीज से फल प्रत्यक्षरूप में आये उसके लिये बैलेन्स चाहिये। बैलेन्स में जरा भी, 5%, 10% भी कमी पड़ती है तो फर्क हो जाता है। लेकिन सभी ने उमंग-उत्साह से सहयोग दिया और सफलता प्राप्त की। तो बापदादा सभी बच्चों को सफलता की मुबारक देते हैं। अच्छा!

अव्यक्त बापदादा की पर्सनल मुलाकात

डबल विदेशियों भाई बहनों से

ग्रुप नं. 1

स्वयं और समय पर भरोसा नहीं-इसलिए दृढ़ संकल्प से कमज़ोरियों को निकाल दो

सभी अपने को विश्व सेवाधारी अनुभव करते हो? विश्व सेवाधारी वा विश्व कल्याणकारी वही बन सकता है जिसके पास सर्वशक्तियों का खज़ाना सम्पन्न है। तो सर्वशक्तियों का स्टॉक जमा है? सर्वशक्तियाँ हैं वा कोई शक्ति है, कोई नहीं है? कभी-कभी कोई कम हो जाती है? सदा अपने आपको चेक करो कि सर्वशक्तियां हैं वा कोई शक्ति की कमी है? अगर कमी है तो उसके कारण को सोचो। क्योंकि कारण को समझेंगे तो निवारण कर सकेंगे। क्योंकि ये माया का नियम है कि जो कमज़ोरी आपमें होगी उसी कमज़ोरी के द्वारा ही आपको मायाजीत बनने नहीं देगी। तो वर्तमान समय भी समय प्रति समय माया उसी कमज़ोरी का लाभ लेगी और आगे चलकर जब अन्त समय आयेगा तो भी वो कमज़ोरी धोखा दे देगी। तो ऐसे नहीं सोचना कि थोड़ी सी कमज़ोरी है, एक ही कमज़ोरी है, बाकी तो बहुत अच्छा हूँ, अच्छी हूँ! एक कमज़ोरी भी धोखा दे देगी। इसलिये कोई भी कमज़ोरी अपने अन्दर रहने नहीं दो। अगर स्वयं नहीं मिटा सकते हो तो कोई का सहयोग लो, जो शक्तिशाली आत्मायें हैं, उनका सहयोग लो। विशेष योग का प्रयोग करो। किसी भी विधि से कमज़ोरी को मिटाना ही है-यह दृढ़ संकल्प करो। यह भी नहीं सोचो कि आगे चलकर हो जायेगा। नहीं, अभी से निकाल दो। क्योंकि स्वयं पर और समय पर कोई भरोसा नहीं है। ऐसे नहीं सोचो कि आगे चलकर ये करेंगे, हो जायेगा। नहीं। आपका सलोगन है ‘अब नहीं तो कब नहीं’ तो जो करना है वो अभी करना है। क्योंकि बाप सम्पन्न है और आपका बाप से प्यार है तो बाप जैसा बनना ही प्यार का प्रैक्टिकल स्वरूप है। जितना बाप से बहुत-बहुत प्यार है इतना ही पुरूषार्थ से भी बहुत-बहुत प्यार है?जितना बाप से प्यार के लिये फलक से कहते हो कि 100% से भी ज्यादा प्यार है, ऐसे पुरूषार्थ के लिये भी कहो। सोचेंगे, करेंगे.. नहीं। सब कमज़ोरियां खत्म। गें, गें नहीं। शिवरात्रि मनाने आये हो तो कुछ तो बलि चढ़ेंगे ना। बापदादा सभी बच्चों को सम्पन्न देखना चाहते हैं। बाप का प्यार है इसलिए बच्चों की कमी अच्छी नहीं लगती। तो क्या याद रखेंगे कि सदा सम्पन्न, सम्पूर्ण रहना ही है कि थोड़ी-थोड़ी कम्पलेन करते रहेंगे? कम्पलीट! कम्पलेन खत्म। सम्पन्न बनना ही मनाना है।

ग्रुप नं. 2

वेस्ट को बेस्ट बनाना अर्थात् होलीहंस बनना

सभी अपने को सदा होली हंस अनुभव करते हो? होली हंस का अर्थ है संकल्प, बोल और कर्म जो व्यर्थ होता है उसको समर्थ में बदलना। क्योंकि व्यर्थ जैसे पत्थर होता है, पत्थर की वैल्यु नहीं, रत्न की वैल्यु होती है। तो व्यर्थ को समाप्त करना अर्थात् होली हंस बनना। तो व्यर्थ आता है? होली हंस फौरन परख लेता है कि ये काम की चीज़ नहीं है, ये काम की है। तो आप होली हंस हो ना। तो व्यर्थ समाप्त हुआ? क्योंकि अभी नॉलेजफुल बने हो कि अगर अभी संकल्प, बोल या कर्म व्यर्थ गंवाते हैं तो सारे कल्प के लिये अपने जमा के खाते में कमी हो जाती है। जानते हो ना, नॉलेजफुल हो? तो जानते हुए फिर व्यर्थ क्यों करते हो? चाहते नहीं हैं लेकिन हो जाता है-ऐसे कहेंगे? जो समझते हैं अभी भी हो सकता है वो हाथ उठाओ। आप हो कौन? (राजयोगी) राजयोगी का अर्थ क्या है? राजा हो ना, तो मन को कन्ट्रोल नहीं कर सकते! किंग में तो रूलिंग पॉवर होती है ना! तो आप में रूलिंग पॉवर नहीं है? अमृतवेले और फिर सारे दिन में बीच-बीच में अपना आक्युपेशन याद करो-मैं कौन हूँ? क्योंकि काम करते-करते यह स्मृति मर्ज हो जाती है कि मैं राजयोगी हूँ। इसलिये इमर्ज करो। ये नियम बनाओ। ऐसे नहीं समझो कि हम तो हैं ही राजयोगी। लेकिन राजयोगी की सीट पर सेट होकर रहो। नहीं तो चलते-चलते कर्म में बिजी होने के कारण योग भूल जाता है, सिर्फ कर्म ही रह जाता है। लेकिन आप कर्मयोगी कम्बाइन्ड हो। योगी सदा ही रूलिंग पॉवर, कन्ट्रोलिंग पॉवर में रहें। फिर राजयोगी डबल पॉवर वाले कभी भी व्यर्थ सोच नहीं सकते। तो अभी कभी नहीं कहना, सोचना भी नहीं कि राजयोगी वेस्ट कर सकते हैं। तो ये कौन-सा ग्रुप है? बेस्ट ग्रुप। बापदादा को भी बेस्ट ग्रुप अति प्यारा है क्यों? 63 जन्म बहुत वेस्ट किया ना, अभी यह छोटा-सा जन्म बेस्ट ही बेस्ट। अच्छा!

ग्रुप नं. 3

प्योरिटी की रॉयल्टी ही ब्राह्मण जीवन की विशेषता है

सभी ब्राह्मण जीवन की विशेषता वा फाउन्डेशन को जानते हो? क्या है? (प्योरिटी) यह पक्का है कि प्योरिटी ही फाउन्डेशन है? तो सभी पक्के ब्राह्मण हैं ना! प्योरिटी की रायल्टी ब्राह्मण जीवन की विशेषता है। जैसे कोई रॉयल फैमिली का बच्चा होगा तो उसके चेहरे से चलन से मालूम पड़ता है कि यह कोई रायल कुल का है। ऐसे ब्राह्मण जीवन की परख यह प्योरिटी की झलक से ही होती है। और चेहरे वा चलन से प्योरिटी की झलक तब दिखाई देगी जब सदा संकल्प में भी प्योरिटी हो। संकल्प में भी अपवित्रता का नाम निशान न हो। तो ऐसे हैं या कभी संकल्प में थोड़ा सा प्रभाव पड़ता है? क्योंकि पवित्रता सिर्फ ब्रह्मचर्य व्रत नहीं। लेकिन प्योरिटी अर्थात् किसी भी विकार अर्थात् अशुद्धि का प्रभाव न हो। तो फाउन्डेशन पक्का है या कभी कभी क्रोध को छुट्टी दे देते हो? बाल बच्चा आ जाता या अंश और वंश सब खत्म। क्या समझते हो?माताओं में मोह आता है? बॉडी कॉन्शसनेस की अटैचमेंट है? कोई विकार का अंश मात्र भी नहीं। क्योंकि बड़ों से तो मोह वा लगाव जल्दी निकल जाता है, लेकिन छोटों-छोटों से थोड़ा ज्यादा होता है। जैसे लौकिक संबंध में भी बच्चों से इतना प्यार नहीं होगा जितना पोत्रों और धोत्रों से होता है। ऐसे विकारों के भी ग्रेट चिल्ड्रेन से प्यार तो नहीं है? फाउन्डेशन प्योरिटी है इसलिए इस फाडन्डेशन के ऊपर सदा ही अटेन्शन रहे। सबका लक्ष्य बहुत अच्छा है। तो जैसे लक्ष्य है वैसे ही लक्षण स्वयं को भी अनुभव हों और दूसरों को भी अनुभव हों। क्योंकि अनेक अपवित्र आत्माओं के बीच में आप पवित्र आत्मायें बहुत थोड़े हो। तो थोड़ी सी पवित्र आत्माओं को अपवित्रता को खत्म करना है। तो कितनी पावर चाहिए! तो सदा चेक करो कि अपवित्रता का अंश मात्र भी न हो। क्योंकि आपके जड़ चित्रों का भी सदा ही निर्विकारी कहकर गायन करते हैं। यह किसकी महिमा करते हैं? आपकी है या भारतवासियों की है? तो प्रैक्टिकल चेतन में बने हैं तब तो महिमा हो रही है। यह पक्का निश्चय है ना कि यह हम ही हैं! तो ब्राह्मण अर्थात् प्योरिटी की रॉयल्टी में रहने वाले। प्योरिटी ब्राह्मण जीवन की विशेषता है। हिम्मत रखकर आगे बढ़ रहे हो और और भी आगे से आगे बढ़ना ही है। उड़ती कला वाले हो ना कि चलने वाली कला में हो? कभी नीचे ऊपर होते हो? सदा फाइन है या कभी-कभी फाइन? सम टाइम खत्म हुआ? अभी - रूहरिहान में तो आकर नहीं कहेंगे कि नहीं थोड़ा थोड़ा रह गया है? नहीं। अभी क्या रूहरिहान करेंगे? ओ.के.। ओ.के. कहने से ही देखो चेहरे मुस्कराते हैं। और जब समटाइम कहते हो तो आंखे नीचे हो जाती हैं। सदैव यह स्मृति में रखो कि अब नहीं बनेंगे तो कब बनेंगे। अभी बनना है। पुरूषार्थ करेंगे, देखेंगे, नहीं। होना ही है, तो इसको कहा जाता है निश्चय बुद्धि विजयी। तो कौन हो? प्योरिटी की रॉयल्टी में रहने वाले। अच्छा, सभी स्वयं को फर्स्ट डिवीजन वाली आत्मायें अनुभव करते हो?सदा फर्स्ट रहना है और सदा ही औरों को भी फास्ट गति से आगे बढ़ाना है।

ग्रुप नं. 4

सन्तुष्टमणि बनने के लिए अपने अनादि और आदि स्वरूप की स्मृति में रहो

सदा अपने अनादि और आदि स्वरूप को सहज स्मृति में ला सकते हो? अनादि रूप है निराकार ज्योति स्वरूप आत्मा और आदि स्वरूप है देव आत्मा। तो दोनों स्वरूप सदा स्मृति में रहते हैं और सहज स्मृति रहती है?जितना देहभान में रहना सहज है, उतना ही देही अभिमानी स्थिति में स्थित होना भी सहज है? बॉडी काँन्शस में कितने टाइम में आ जाते हैं? टाइम लगता है?न मेहनत लगती है, न टाइम लगता है। क्योंकि अभ्यास है। तो ऐसे ही जब अब नॉलेज मिली तो नॉलेज की लाइट, नॉलेज की माइट के आधार पर अभी सोल कॉन्शसनेस की स्मृति का ऐसा सहज अनुभव हो। यह भी अभ्यास करते-करते सहज हो गया है ना। या 63 जन्म का अभ्यास शक्तिशाली है? विस्मृति के 63 जन्म और स्मृति का यह एक छोटा-सा जन्म भी 63 जन्मों से शक्तिशाली है।

क्योंकि इस समय नॉलेज की लिफ्ट मिली हुई है तो लिफ्ट में पहुँचना सहज होता है। लिफ्ट से सेकण्ड में पहुँच जाते हो ना कि उतरते चढ़ते हो? सेकण्ड में स्मृति आई और अनुभव में टिक जायें। क्योंकि स्मृति शक्तिशाली है, विस्मृति कमज़ोर करती है। तो शक्तिशाली हो ना? कितनी पॉवर है? फुल है? पॉवर फुल है ना?पॉवर शब्द अलग नहीं कहते, पॉवरफुल कहते हैं। ऐसे बहादुर हो या कभी फेल, कभी फुल! हर कल्प में स्मृति स्वरूप बने हैं, अभी भी बने हैं और हर कल्प में बनते रहेंगे। कितने कल्पों का अभ्यास है? अनेक बार का अभ्यास है ना, अनेक बार किया है ना कि नई बात है? बाप का बनना अर्थात् परिवर्तन होना। ब्राह्मण बनना अर्थात् स्मृति स्वरूप बनना। इस अपने अनादि स्वरूप में स्थित होने से स्वयं भी स्वयं से सन्तुष्ट रहते और औरों को भी सन्तुष्टता की विशेषता अनुभव कराते हैं। तो सभी सन्तुष्ट मणियाँ हो या बनना है? असन्तुष्टता का कारण होता है अप्राप्ति। तो आपको कोई अप्राप्ति है क्या? आपका सलोगन क्या है? पाना था वो पा लिया। तो पा लिया कि थोड़ा-थोड़ा रह गया है? क्योंकि बाप का बनना अर्थात् वर्से का अधिकारी बनना। तो अधिकारी आत्मायें हो ना? तो सदा क्या गीत गाते हो? पा लिया .. ये आपका गीत है या कोई-कोई का है, कोई का नहीं है?सभी का है? कोई का दूसरा गीत हो तो बोलो। क्योंकि एक के हैं तो गीत भी एक ही है। और अब नहीं पाया तो कब पायेंगे? तो अपने को सदा पद््मापदम भाग्यवान समझो। पदम भी आपके आगे कुछ नहीं हैं। इतना नशा है ना? कितने भी साधन प्राप्त करने वाली आत्मायें हैं लेकिन जितने ही विनाशी प्राप्ति वाले हैं उतने ही अविनाशी प्राप्ति के भिखारी हैं। यह अनुभव है ना? जितने ज्यादा साधन होंगे उतनी शान्ति की नींद भी नहीं होगी। और आपकी जीवन कितनी शान्त है!कोई अशान्ति है? कभी तन वा मन की अशान्ति तो नहीं है? एवरहेल्दी है ना?माइन्ड भी हेल्दी तो हेल्थ भी हेल्दी। दोनों है ना? दुनिया के आगे चैलेन्ज करने वाले हो। अगर एवरहेल्दी देखना हो तो किसको देखें? आपको! हरेक कहता है मेरे को देखें या जानकी दादी को देखें-ऐसे तो नहीं कहते? आप ही हो ना?क्यों, बाप के खज़ानों के मालिक हो तो जो मालिक होता है वो सदा भरपूर, सम्पन्न होता है। तो ऐसे कम्पलीट हो या कम्पलेन और कम्पलीट-दोनों ही चलता है। तो यही सदा स्मृति में रखो कि अधिकारी हैं और अनेक जन्म अधिकारी रहेंगे। गैरन्टी है ना? यह सुख-शान्ति-पवित्रता का अधिकार जन्म-जन्म रहेगा। तो फलक से कहो एक जन्म तो क्या, अनेक जन्म के अधिकारी हैं। अच्छा!

ग्रुप नं. 5

सहजयोग का आधार-संबंध और प्राप्ति

सभी अपने को सहज योगी आत्मायें अनुभव करते हो? सहज योग का आधार क्या है? विशेष दो बातें हैं। कौन-सी? सहज का आधार है - स्नेह, लेकिन स्नेह का आधार सम्बन्ध है। सम्बन्ध से याद करना सहज होता है और सम्बन्ध से प्यार पैदा होता है। और दूसरी बात है प्राप्तियाँ। जहाँ प्राप्ति होगी, चाहे अल्पकाल की भी प्राप्ति हो तो मन और बुद्धि वहाँ सहज ही चली जायेगी। तो मुख्य दो बातें हैं-सम्बन्ध और प्राप्ति। अनुभव है ना? वैसे भी देखो, ‘बाबा’ कहकर याद करो और ‘मेरा बाबा’ कहकर याद करो, तो फर्क पड़ता है? ‘मेरा’ कहने से सहज होता है ना। क्योंकि जहाँ मेरापन होता है वहाँ अधिकार होता है। और अधिकार होने के कारण अधिकारी को प्राप्ति जरूर होती है। तो सर्व सम्बन्ध है ना कि एक-दो नहीं हैं, बाकी सब हैं? और प्राप्तियां कितनी हैं? सब हैं ना। जब देने वाला दे रहा है तो लेने में क्या हर्जा है? (कौन-सी प्राप्तियां?) जो बाप ने शक्तियों का, ज्ञान का, गुणों का खज़ाना दिया, सुख-शान्ति, आनन्द, प्रेम, सब खज़ाने दिये। तो कितनी प्राप्तियां हैं! क्योंकि बाप के पास ये खज़ाने हैं ही बच्चों के लिये। तो बच्चे नहीं लेंगे तो कौन लेंगे? तो बच्चे हैं या नहीं हैं-यह भी सोच रहे हो? फिर अधिकार लेने में क्यों कमी करते हो? अगर अभी अधिकार नहीं लिया तो कब लेंगे? जो भी भिन्न-भिन्न प्राप्तियां हैं, उन प्राप्तियों को सामने रखो। प्राप्ति को इमर्ज करने से प्राप्ति की खुशी की अनुभूति होगी। सिर्फ बाप मेरा है, नहीं, लेकिन बाप के साथ वर्सा भी मेरा है। बच्चे को प्रापर्टी की खुशी होती है ना। तो यह बेहद की प्रापर्टी है। बालक सो मालिक हूँ-इस खुशी में सदा रहो। कोटों में कोई और कोई में भी कोई जो गायन है वह किसका है? आप कोटों में कोई हो ना? बापदादा सभी बच्चों को इतना श्रेष्ठ आत्मा के रूप में देखते हैं। दुनिया भटक रही है और आप मौज मना रहे हो। मौज में रहते हो ना कि अभी भी यहाँ वहाँ भटकते हो? ठिकाना मिल गया ना? तो दिन-रात खुशी में नाचते रहो, खुशी में सो जाओ। अगर जीवन है तो ब्राह्मण जीवन है। तो स्वयं के महत्व को सदा स्मृति में रखो। क्या थे और क्या बन गये! श्रेष्ठ बन गये ना। अपने इस श्रेष्ठ भाग्य को कर्म करते हुए भी स्मृति में रखो। वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य! दिल में यह आता है? इसलिये अपना बर्थ डे मनाने आये हो ना! अपना भी बर्थ डे मनाने आये या सिर्फ बाप का मनाने आये हो? ये दिव्य जन्म कितना न्यारा भी है और प्यारा भी है! क्योंकि बाप के प्यारे बने हो ना। जो भगवान् के प्यारे हैं उसके जीवन में प्यार हर समय है। तो दिल से यही गीत गाते रहो-वाह बाबा वाह और वाह मेरा भाग्य वाह! अच्छा!

बापदादा ने सभी बच्चों से मिलन मनाने के पश्चात स्टेज पर खड़े होकर झण्डा लहराया तथा 58वीं त्रिमूर्ति शिव जयन्ती की बधाई दी:-

आज के इस विशेष शिव जयन्ती के दिवस पर चारों ओर के बच्चों को हीरे तुल्य जयन्ती की हीरे तुल्य जीवन वाली आत्माओं को पदमगुणा मुबारक हो, मुबारक हो, मुबारक हो।

प्योरिटी की रायल्टी ब्राह्मण जीवन की विशेषता है।

जैसे कोई रॉयल फैमिली का बच्चा होगा तो उसके चेहरे से चलन से मालूम पड़ता है कि यह कोई रायल कुल का है। ऐसे ब्राह्मण जीवन की परख यह प्योरिटी की झलक से ही होती है। और चेहरे वा चलन से प्योरिटी की झलक तब दिखाई देगी जब सदा संकल्प में भी प्योरिटी हो। संकल्प में भी अपवित्रता का नाम निशान न हो।



03-04-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सन्तुष्टता का आधार - सम्बन्ध, सम्पत्ति और सेहत (तन्दुरूस्ती)

सन्तुष्टता की स्थिति द्वारा परिस्थितियों को परिवर्तन करने की विधि बताने वाले बापदादा अपने सन्तोषी बच्चों प्रति बोले-

आज दिलाराम बाप अपने सदा सन्तुष्ट रहने वाली सन्तुष्ट आत्माओं व सन्तुष्ट मणियों को देख रहे हैं। ये रूहानी मणियों की चमक सारे दरबार को चमका रही है। सन्तोषी आत्मायें स्वयं को भी प्रिय और सर्व को भी प्रिय और बाप को तो प्रिय हैं ही। तो ऐसे हो ना? क्योंकि इस श्रेष्ठ ब्राह्मण जीवन में अप्राप्ति का नाम ही नहीं है। सर्व प्राप्ति सम्पन्न आत्मायें हो। तो जहाँ सर्व प्राप्ति हैं वहाँ सदा सन्तुष्टता स्वत: और स्वाभाविक है ही। नेचरल स्वभाव उसका सन्तोष का है और सन्तुष्टता का स्वरूप व स्वभाव, निजी संस्कार ऐसा श्रेष्ठ है जो असन्तुष्ट आत्मा के भी असन्तुष्टता का वायब्रेशन, वायुमण्डल, सन्तोष वायुम-ण्डल में बदल देता है। इस संगमयुग में विशेष बापदादा की देन सन्तुष्टता है। एक सन्तुष्टता की विशेषता और विशेषताओं को भी सहज अपने समीप लाती है। लेकिन सदा सन्तुष्ट हो। परिस्थिति कितनी भी बदले लेकिन सन्तुष्टता की स्थिति को परिस्थिति बदल नहीं सकती। पर-स्थिति है ही बदलने वाली। लेकिन स्व-सन्तुष्टता की स्थिति सदा प्रगतिशील है। आपके आगे कैसी भी हिलाने वाली परिस्थिति ऐसे ही अनुभव होती है जैसे पपेट (कठपुतली) शो देखते हो ना। होता सब कुछ है लेकिन होता पपेट है। तो कैसी भी परिस्थिति पपेट शो लगता है वा आजकल का जो फैशन है कार्टून शो, अच्छा लगता है ना। होता तो शेर भी है, बिल्ली भी होती है, लेकिन होता क्या है? कार्टून। कहानी पूरी होती है लेकिन है कार्टून की स्टोरी, रीयल नहीं है। कभी भी, कोई भी परिस्थिति आए तो यही समझो एक बेहद के स्क्रीन पर कार्टून शो चल रहा है वा पपेट शो चल रहा है। तो वह देखकर के परेशान होंगे कि मनोरंजन करेंगे? शो देखना तो अच्छा ही है ना। तो यह माया का वा प्रकृति का यह भी एक शो है। जिसको साक्षी स्थिति में सदा सन्तुष्टता के स्वरूप में देखते रहो। अपनी शान में रहते हुए देखो-सन्तुष्ट मणि हूँ, सन्तोषी आत्मा हूँ। ये है संगम का श्रेष्ठ शान। तो शान में स्थित होना आता है ना कि परेशान होना अच्छा लगता है? सदा सन्तुष्टता की विशेषता को इमर्ज रूप में स्मृति में रखो।

प्राप्तियों में विशेष सम्बन्ध और सम्पत्ति आवश्यक है। सम्बन्ध में भी अगर एक भी सम्बन्ध अप्राप्त है तो सम्पूर्ण सन्तुष्टता नहीं होगी। तो सम्बन्ध में भी सर्व चाहिये और अविनाशी चाहिये। अगर कोई भी सम्बन्ध विनाशी है तो अप्राप्ति और असन्तुष्टता स्वत: हो जाती है। लेकिन एक ही वर्तमान संगमयुग है जिसमें सर्व अविनाशी सम्बन्ध एक बाप से अनुभव कर सकते हो। सतयुग में भी सम्बन्ध बहुत थोड़े हैं, सर्व नहीं हैं, लेकिन इस समय जिस सम्बन्ध की आकर्षण हो, अनुभूति करना चाहे वो सम्बन्ध परम आत्मा द्वारा अनुभव कर सकते हो। हर एक के जीवन में सम्बन्ध की भी अलग-अलग पसन्दी होती है। किसको बाप का सम्बन्ध इतना अच्छा नहीं लगेगा, फ्रेंड ज्यादा अच्छा लगेगा। लेकिन एक समय पर और एक से सर्व सम्बन्ध प्राप्त हैं? सर्व प्राप्ति है कि कुछ रहा हुआ है? पीछे बैठे हुए क्या समझते हैं? आज नये-नये को आगे बैठने का चांस दिया है। अच्छा, जो इस कल्प में इस बार पहली बार आये हैं वो हाथ उठाओ। भले पधारे। बापदादा भी पदमगुणा स्नेह सम्पन्न वेलकम कर रहे हैं। नये होते भी कल्प-कल्प के अधिकारी हैं, ये तो समझते हो ना? बापदादा सदा कहते हैं-बड़े तो बड़े हैं लेकिन छोटे समान बाप हैं। इसलिये सदा अपने रूहानी बेहद के सम्पूर्ण अधिकार के निश्चय और नशे में रहो। बेहद का नशा है, हद का नहीं रखना। देखो, कितने श्रेष्ठ अधिकारी हो जो स्वयं बाप ऑलमाइटी अथॉरिटी के ऊपर अधिकार रख दिया। परमात्म-अधिकारी-इससे बड़ा अधिकार और है ही क्या!जब बीज को अपना बना लिया तो वृक्ष तो समाया हुआ है ही। सर्व सम्बन्धों का भी अविनाशी अधिकार ले लिया और सम्पत्ति में भी अगर सिर्फ स्थूल सम्पत्ति है तो भी सदा सन्तुष्ट नहीं रह सकते। स्थूल सम्पत्ति के साथ अगर सर्व गुणों की सम्पत्ति, सर्व शक्तियों की सम्पत्ति और श्रेष्ठ सम्पन्न ज्ञान की सम्पत्ति नहीं है तो सन्तुष्टता सदा नहीं रह सकती। लेकिन आप सबके पास यह श्रेष्ठ सम्पत्तियाँ हैं। सम्पत्तिवान हो ना? दुनिया वाले तो सिर्फ स्थूल सम्पत्ति वाले को सम्पत्ति भव का वरदान देते हैं लेकिन आप सबको वरदाता बाप सर्वश्रेष्ठ सम्पत्ति भव का वरदान देते हैं। तो सब सम्पत्ति हैं ना कि कोई कम है? फुल है? पीछे वालों के ऊपर सबसे ज्यादा ध्यान है। आगे वालों का ध्यान बाप के तरफ ज्यादा है और बाप का ध्यान पीछे वालों के ऊपर ज्यादा है। जितना ही दूर हैं उतना ही नयनों में समाये हुए हैं।

साकार वतन में तो साकार की बातें होती हैं। देखो, परमधाम में आप सभी आत्मायें कितनी समीप होंगी! सभी साथ होंगे ना और सूक्ष्म वतन में भी इतना बेहद है जो जितना समीप आना चाहे आ सकते हैं। लेकिन बच्चों का स्नेह निराकार और आकार को भी साकार बनाना चाहता है। तो बाप क्या कहते हैं? जी हजूर, जी हाजर। बच्चे तो बाप के भी हजूर हैं, मालिक हैं ना। मालिक को ह जूर कहा जाता है और बालक को भी मालिक कहा जाता है। तो सभी कौन हो? सन्तुष्ट मणियां। सम्बन्ध में भी सन्तुष्ट और सम्पत्ति में भी सन्तुष्ट। सम्बन्ध, सम्पत्ति और तीसरी होती है सेहत, तन्दुरूस्ती। आप सभी तन्दुरूस्त हो ना कि बीमार हो? आत्मा तो तन्दुरूस्त है ना, शरीर की कोई बात ही नहीं। आत्मा सदा शक्तिशाली है। संगम पर श्रेष्ठ सेहत वा तन्दुरूती है आत्मा की तन्दुरूस्ती। इस समय के आत्मा की तन्दुरूस्ती जन्म-जन्म के शरीर की तन्दुरूस्ती भी दिलाती है। लेकिन इस समय थोड़ा-सा प्रकृति अपना रूप दिखाती है। इसमें भी कोई बड़ी बात नहीं। यह भी कार्टून शो है। तो सर्व प्राप्तियाँ हैं ना। सम्बन्ध भी हैं, सम्पत्ति भव भी है, ‘सर्व सम्बन्ध भव’ भी है और ‘सदा तन्दुरूस्त भव’ भी हैं। तीनों वरदान वरदाता बाप से मिले हुए हैं। तो वरदानों को समय पर कार्य में लगाओ। सिर्फ वरदान सुनकर खुश नहीं हो जाओ कि हाँ, मुझे बहुत अच्छा वरदान मिला या सिर्फ नोट करके नहीं रखो लेकिन समय पर वरदान को काम में लगाने से वरदान कायम रहते हैं। अगर वरदानों को समय पर काम में नहीं लगाया तो वह वरदान फल नहीं देता। वरदान तो अविनाशी बाप का है लेकिन वरदान को फलीभूत करना है। बीज तो है लेकिन उससे फल कितना निकालते हो, वह आपके हाथ में है। कोई सिर्फ वरदान के बीज को देखकरके खुश होते रहते हैं-बहुत अच्छा, बहुत अच्छा, लेकिन फलदायक बनाओ। बार-बार स्मृति का पानी दो, वरदान के स्वरूप में स्थित होने की धूप दो, फिर देखो वरदान सदा फलीभूत होता रहेगा, और वरदानों को भी साथ में लायेगा। वरदानों के फल स्वरूप बन जायेंगे। तो आज के त्रि- वरदान को फलीभूत करना और समय पर जरूर याद रखना। समय पर भूल जाते हैं, पीछे पढ़ते रहते हो कि हाँ, ये वरदान तो था! वरदानों को जितना समय पर कार्य में लगायेंगे उतना वरदान और श्रेष्ठ स्वरूप दिखाता रहेगा। तो सभी को वरदान मिला ना! अच्छा।

अभी जो 5 तरफ से ग्रुप आये हैं वो नम्बरवार हाथ उठाओ।

एशिया - इसमें भारतवासी तथा मधुबनवासी भी हाथ उठाओ। मधुबनवासी तो विशेष हैं। ये बड़ा ग्रुप है। भारत वाले भी चांस लेने में होशियार हैं। तो एशिया निवासियों के प्रति विशेष आज के दिन तीन वरदान तो सभी के हैं ही, लेकिन विशेष एशिया प्रति ‘सदा शुभ भावना और श्रेष्ठ भाव भव’। शुभ भावना और श्रेष्ठ भाव-ये विशेष वरदान एशिया निवासियों के प्रति है।

यूरोप - यूरोप में इंगलैण्ड भी आ गया। यूरोप निवासियों के प्रति विशेष वरदान है कि ‘सदा जीरो और हीरो भव’। जीरो का तो पता है ना। तीन जीरो याद रखना, सिर्फ एक नहीं। जीरो और हीरो एक्टर हैं और हीरे समान हैं, डबल हीरो। तो तीन जीरो और डबल हीरो। तो ये वरदान यूरोप निवासियों के प्रति है।

अमेरिका - पूरा अमेरिका हाथ उठाओ। एक्सरसाइज करो और सीधा हाथ उठाओ। कइयों को आदत है छोटा हाथ उठाने की। बापदादा को छोटा हाथ वाला हाफ कास्ट लगता है। फुल हाथ उठाओ।

तो अमेरिका निवासी सर्व आत्माओं के प्रति विशेष यही वरदान है कि ‘सदा माया से इनोसेन्ट और विजय में सेन्ट परसेन्ट और स्थिति में सदा सेन्ट।’ सेन्ट खुशबू वाले भी और सेन्ट अर्थात् महान आत्मा, डबल सेन्ट। तो ‘सदा इनोसेन्ट भी और डबल सेन्ट भव’।

अफ्रीका, मॉरिशियस - आज बापदादा सीधा हाथ उठाने की ड्रिल करा रहे हैं। डॉक्टर्स भी कहते हैं ना ड्रिल करो। सर्व अफिका निवासी बच्चों प्रति विशेष यही वरदान है कि ‘सदा सर्व प्रासपर्टी और सदा हर संकल्प, बोल और कर्म में सहज ऑनेस्टी भव, प्रासपर्टी भव और त्रि-स्वरूप से सहज ऑनेस्टी भव’।

ऑस्ट्रेलिया, न्युजीलैण्ड - ऑस्ट्रेलिया निवासी सर्वश्रेष्ठ भाग्यवान आत्माओं प्रति विशेष यही वरदान है कि ‘सदा माया से विजयी और साथ-साथ माया जीत, विश्व के राज्य जीत श्रेष्ठ वरदान भव’। साथ-साथ ‘सदा निश्चिन्त और निश्चय निश्चित भव’। ऑस्ट्रेलिया निवासी विशेष बाप के प्रिय हैं। हैं तो सभी प्रिय लेकिन विशेष ऑस्ट्रेलिया निवासी प्रिय क्यों हैं? बाप की विशेष स्नेह की नजर ऑस्ट्रेलिया निवासियों के ऊपर रहती है। क्यों? क्योंकि ऑस्ट्रेलिया निवासियों की धरनी कमाल करने में बहुत अच्छी है लेकिन बाप विशेष धरनी को स्नेह का पानी देते हैं। इसीलिये विशेष स्नेह है। समझा? तो ऑस्ट्रेलिया वाले कमाल बहुत कर सकते हैं। अभी थोड़ी-थोड़ी की है। और ऑस्ट्रेलिया का नाम भी अन्त में लिया है तो अन्त वाले को कुछ एक्स्ट्रा देना चाहिये। तो सभी को वरदान मिला।

मधुबन - मधुबन निवासी विशेष हैं। चाहे वर्तमान समय ज्ञान सरोवर निवासी हैं, चाहे विश्व को सदा हेल्दी बनाने वाले हॉस्पिटल वाले हैं, सिर्फ हेल्दी नहीं, हैप्पी हेल्दी। चाहे मधुबन में चारों ओर घेराव डालने वाले बच्चे हैं। आबू में घेराव डाल रहे हैं ना। तो सर्व मधुबन निवासी विशेष बच्चों प्रति विशेष वरदान है कि ‘सदा मन्सा, वाचा, कर्मणा-तीनों में सेन्ट-परसेन्ट प्रगति भव’।

बाकी जहाँ से भी सभी बच्चे आये हैं भिन्न-भिन्न विदेश के देशों से वा भारत के देश से सभी को विशेष ‘सदा सम्पन्न और सम्पूर्ण भव’। अहमदाबाद वाले भी सेवा बहुत अच्छी करते हैं। मधुबन में भी अथक सेवाधारी हैं तो विशेष अहमदाबाद, दिल्ली और बाम्बे-इन तीनों स्थानों को भी सेवा का बहुत अच्छा चांस मिला हुआ है। सभी स्थान अपने स्नेह-सम्पन्न अथक सेवाधारी बन सेवा कर रहे हैं और करते रहेंगे। सेवा की मुबारक हो।

और चारों ओर के जो दूर बैठे बहुत दिल में समीप हैं, तो चारों ओर के देश-विदेश के सर्व सन्तोषी आत्माओं को, सन्तुष्टमणियों को, सर्व प्राप्ति सम्पन्न आत्माओं को, जिन्होंने भी याद, पत्र, कार्ड आज के दिवस के भी भेजे हैं, तो आज के विशेष दिवस की भी सर्व बच्चों को याद-प्यार पदमगुणा स्वीकार हो। चाहे दूर बैठकर मन में, दिल में मना रहे हैं, चाहे सम्मुख मना रहे हैं, कार्ड वा पत्र सब पहले वतन में पहुँचते हैं। तो सभी के पत्र, कार्ड और शुभ संकल्पों की याद, शुभ भावनाओं की याद के रिटर्न में बापदादा का विशेष याद-प्यार और सर्व बालक सो मालिक बच्चों को नमस्ते। अच्छा।

दादियों से मुलाकात:

सूक्ष्म इशारों की भाषा तो जानते हो ना। जैसे अव्यक्त बाप इशारों की ही भाषा जानते हैं। अव्यक्त वतन में तो नयनों की भाषा और इशारों की भाषा है। तो आप भी जानते हो ना। नयनों की भाषा जानते हो? साकार से सीखे हो ना। मुख की भाषा तो सुनी, अभी है नयनों की भाषा। नयनों की भाषा बड़ी प्यारी है। आवाज से परे तो जाना ही है। फिर भी बाप जी हजूर तो करते ही हैं। अच्छा।

(लास्ट में बापदादा ने हाथ उठाकर सभी को आशीर्वाद दिया और विदाई ली)

कोई भी परिस्थिति आए तो यही समझो एक बेहद के स्क्रीन पर कार्टून शो चल रहा है वा पपेट शो चल रहा है। तो वह देखकर के परेशान नहीं होंगे। माया का वा प्रकृति का यह भी एक शो है। जिसको साक्षी स्थिति में सदा सन्तुष्टता के स्वरूप में देखते रहो। अपनी शान में रहते हुए देखो-सन्तुष्ट मणि हूँ, सन्तोषी आत्मा हूँ।



14-04-94   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्नेह का रिटर्न है - स्वयं को टर्न (परिवर्तन) करना

शुभ संकल्पों का महत्व बताने वाले, स्नेह वा शक्ति मूर्त बापदादा अपने स्नेही बच्चों की सभा को देखते हुए बोले-

आज स्नेह और शक्ति मूर्त बापदादा अपने चारों ओर के स्नेही बच्चों को देख रहे हैं। जितनी सभा साकार में है, उससे भी ज्यादा आकारी रूप की सभा है। सर्व साकार रूपधारी वा आकार रूपधारी बच्चों को बापदादा स्नेह की भुजाओं में समाये हुए हैं। स्नेह की भुजायें कितनी बड़ी हैं! चारों ओर के सभी बच्चे स्नेह की भुजाओं में ऐसे समा जाते हैं, जैसे नदी सागर में समा जाती है। स्नेह की भुजायें, स्नेह का सागर बेहद है। सभी बच्चे, चाहे नम्बरवार भी हैं लेकिन स्नेह में सब बन्धे हुए हैं। सर्व बच्चों में बापदादा का स्नेह समाया हुआ है। स्नेह की शक्ति से ही सभी आगे उड़ते जा रहे हैं। स्नेह की उड़ान सर्व बच्चों को तन से वा मन से, दिल से बाप के समीप लाती है। स्नेह का विमान सेकण्ड की गति से बाप के समीप लाता है। ज्ञान, योग, धारणा उसमें यथाशक्ति नम्बरवार हैं लेकिन स्नेह में हर एक अपने को नम्बर वन अनुभव करते हैं। स्नेह सर्व बच्चों को ब्राह्मण जीवन प्रदान करने का मूल आधार है। अगर सभी बच्चों से पूछें कि निरन्तर योगी हो? निरन्तर ज्ञान स्वरूप हो? ज्ञानी नहीं लेकिन ज्ञान स्वरूप हो? तो सोचेंगे, कहेंगे ‘हैं तो.....’ निरन्तर धारणा स्वरूप हो, तो क्या कहेंगे? लक्ष्य तो है ही। लेकिन जब पूछेंगे कि निरन्तर स्नेही हो तो कहेंगे ‘हाँ जी’। स्नेह में सभी पास हैं। कोई पास विद् ऑनर हैं, कोई पास हैं। पास हैं ना? डबल विदेशी, भारत वाले सब पास हैं? पास नहीं होते तो पास नहीं आते। पास आना सिद्ध करता है कि पास हैं। स्नेह का अर्थ ही है पास रहना और पास होना और हर परिस्थिति को बहुत सहज पास करना। तो सभी तीनों में पास हो ना? पास करना भी सहज है ना कि पास करने में कभी मुश्किल, कभी सहज है? पास रहने में तो आनन्द ही आनन्द है और पास करना इसमें नम्बरवार हैं या सब नम्बर वन हैं? देखो, नम्बर वन नहीं कहते हैं, सभी चुप हो गये माना समाथिंग है। लेकिन समय प्रति समय स्नेह की शक्ति से पास करना भी इतना ही सहज हो रहा है और होना ही है जैसे पास रहना सहज है और जब पास करना सदा सहज हो जायेगा तो पास होना क्या, पास हुए ही पड़े हैं। यह तो पक्का निश्चय है कि पास हुए ही पड़े हैं। सिर्फ रिपीट करना है। इतना अटल निश्चय है ना? दूर बैठे भी सब नजदीक हो ना! दिलतख्त पर हैं। कोई नयनों के नूर हैं, कोई दिल तख्तनशीन हैं। सबसे नजदीक नयन हैं और दिल है। आप सभी ओम शान्ति भवन में नहीं बैठे हो लेकिन बापदादा के दिल तख्त पर या नयनों में नूरे रत्न बन समाये हुए हो। समाया हुआ कभी दूर नहीं होता।

इस वर्ष क्या करेंगे? कहने में तो कहते हो कि इस वर्ष के मिलन की अन्तिम बारी है। लेकिन अन्त, आदि की याद ज्यादा दिलाता है। आदि, मध्य की याद दिलाता है लेकिन अन्त आदि की याद दिलाता। तो अन्त नहीं, लेकिन आदि है। तीव्र गति के उड़ान की आदि है। जो अनादि रफ्तार है, अनादि स्वरूप है आत्म स्वरूप, तो अनादि स्वरूप की रफ्तार क्या है? कितनी तेज रफ्तार है! आजकल के भिन्न-भिन्न साइन्स के साधनों के तीव्र गति से भी तीव्र गति। साइन्स के साधनों की रफ्तार फिर भी साइन्स, साइन्स द्वारा रफ्तार को कट भी कर सकती, पकड़ सकती है लेकिन आत्मा की गति को कोई अभी तक न पकड़ सका है, न पकड़ सकता है। इसमें ही साइन्स अपने को फेल समझती है। और जहाँ साइन्स फेल है वहाँ साइलेन्स की शक्ति से जो चाहो वो कर सकते हो। तो आत्म शक्ति की उड़ान की तीव्र गति की आदि करो। चाहे स्व परिवर्तन में, चाहे किसी की भी वृत्ति परिवर्तन में, चाहे वायुमण्डल परिवर्तन में, चाहे सम्बन्ध-सम्पर्क के परिवर्तन में अभी तीव्र गति लाओ। तीव्रता की निशानी है सोचा और हुआ। ऐसे नहीं, सोचा तो है.. हो जायेगा..। नहीं, सोचा और हुआ, संकल्प, बोल और कर्म तीनों श्रेष्ठ साथ-साथ हों। व्यर्थ को वा उल्टे संकल्प को चेक करो तो उसकी गति बहुत फास्ट होती है। अभी-अभी संकल्प आया, अभी-अभी बोल लिया, अभी-अभी कर भी लिया। संकल्प, बोल, कर्म इकठ्ठा-इकठ्ठा बहुत फास्ट होता है। उसकी गति का जोश इतना तीव्र होता है जो श्रेष्ठ संकल्प, कर्म, मर्यादा, ब्राह्मण जीवन की महानता का होश समाप्त हो जाता है। व्यर्थ का जोश-सत्यता का होश, यथार्थता का होश समाप्त कर देता है और कुछ समय के बाद जब होश आता तब सोचते हैं करना नहीं चाहिये था, यथार्थ नहीं है लेकिन उस समय जब जोश होता है तो यथार्थ की पहचान बदल कर अयथार्थ को यथार्थ अनुभव करते हैं। तो व्यर्थ का जोश, होश को æखत्म कर देता है। तो इस वर्ष सभी बच्चे विशेष व्यर्थ से इनोसेन्ट बनो। जैसे जब आप आत्मायें अपने सतयुगी राज्य में थीं तो व्यर्थ वा माया से इनोसेन्ट थीं इसलिये देवताओं को महान आत्मायें, सेन्ट कहते हैं, ऐसे अपने वो संस्कार इमर्ज करो, व्यर्थ की अविद्या स्वरूप बनो। समय, श्वास, बोल, कर्म, सर्व में व्यर्थ की अविद्या अर्थात् इनोसेन्ट। जब व्यर्थ की अविद्या हो गई तो दिव्यता स्वत: ही सहज ही अनुभव होगी और अनुभव करायेगी। अभी तक यह नहीं सोचो कि पुरूषार्थ तो कर ही रहे हैं...। पुरूष इस रथ पर कर रहा है तो पुरूष बन रथ द्वारा वराना-इसको कहा जाता है पुरूषार्थ। पुरूषार्थ चल रहा है, नहीं, लेकिन पुरुषार्थी सदा उड़ रहा है। यथार्थ पुरुषार्थी इसको कहा जाता है। पुरूषार्थ का अर्थ यह नहीं है कि एक बारी की गलती बार-बार करते रहो और पुरूषार्थ को अपना सहारा बनाओ। यथार्थ पुरुषार्थी हो, स्वभाव भी स्वाभाविक हो, अति सहज। अभी मेहनत को किनारे करो। अल्पकाल के आधारों का सहारा, जिसको किनारा बनाकर रखा है, ये अल्पकाल के सहारे के किनारे अभी छोड़ दो। जब तक ये किनारे हैं तो सदा बाप का सहारा अनुभव नहीं हो सकता और बाप का सहारा नहीं है इसलिये हद के किनारों को सहारा बनाते हैं। चाहे अपने स्वभाव-संस्कारों को, चाहे परिस्थितियों को, जो किनारे बनाये हैं ये सब अल्पकाल के दिखावा-मात्र धोखे वाले हैं। धोखे में नहीं रह जाओ। बाप का सहारा छत्रछाया है। अल्पकाल की बातें धोखेबाज हैं। माया की बहुत मीठी-मीठी बातें सुनते रहते हैं, बहुत सुन चुके हैं। जैसे द्वापर के शास्त्र बनाने वाले बातें बनाने में बहुत होशियार हैं, कितनी मीठी-मीठी बातें बना दी हैं। तो बातें नहीं बनाओ, बातें बनाने में सब एक-दो से होशियार हैं। न बातें बनाओ, न बातें देखो, न बातें करो। लेकिन क्या करो? बाप को देखो, बाप समान करो, बाप समान बनो। जब कोई बात सामने आती तो बात बनाना सेकण्ड में आ जाता है। क्योंकि माया की गति भी तीव्र है ना। ऐसे सुन्दर रूप की बात बना देती है जो सुनते बाप को तो हंसी आती है लेकिन दूसरे प्रभावित हो जाते हैं-बोलते तो ठीक हैं, बहुत अच्छा है, बात तो ठीक है और स्वयं को भी ठीक लगते हो। लेकिन समय की तीव्र गति को देख अब इन किनारों से तीव्र उड़ान करो। ये अनेक प्रकार की बातें व्यर्थ रजिस्टर के रोल बनाती रहती हैं। रोल के ऊपर रोल बनता जाता है। इसलिये इससे इनोसेन्ट बनो। इस इनोसेन्ट स्टेज से बनी-बनाई सेवा की स्टेज आपके सामने आयेगी। इस वर्ष के यथार्थ पुरूषार्थ के प्रत्यक्षफल की निशानी बनी-बनाई सेवा आपके सामने आयेगी। व्यर्थ का सामना करना समाप्त करो तो सेवा की ऑफर सामने आयेगी। आप सभी सेवा के निमित्त तो अनेक वर्ष बने, अब औरों को निमित्त बनाने की सेवा के निमित्त बनो। माइक वो हो और माइट आप हो। बहुत समय आप माइक बने, अब माइक औरों को बनाओ, आप माइट बनो। आपके माइट से माइक निमित्त बनें। इसको कहा जाता है तीव्र गति के उड़ान की निशानी। समझा क्या करना है? तीव्र उड़ान है ना। कि कभी तीव्र, कभी स्लो? सदा तीव्र गति के उड़ान से उड़ते रहेंगे। बादलों को देख घबराओ नहीं। ये बातें ही बादल हैं। सेकण्ड में क्रॉस करो। विधि को जानो और सेकण्ड में विधि द्वारा सिद्धि को प्राप्त करो। एक तरफ है रिद्धि-सिद्धि का फोर्स और आपका है विधि सम्पन्न सिद्धि का फोर्स। रिद्धि-सिद्धि है अल्पकाल और विधि-सिद्धि सदाकाल के लिये।

बापदादा अभी ऐसा ग्रुप चाहता है जो सदा मन्सा में, वाणी में, बोल में, सम्पर्क में जो ओटे सो अर्जुन। मैं अर्जुन हूँ। मैं जो करूँगा, (‘मैं’ बॉडी कॉन्सेस का नहीं, मैं श्रेष्ठ आत्मा हूँ) मुझे देख और करेंगे। तो जो ओटे सो अर्जुन। जो गाया हुआ है, अव्वल नम्बर अर्थात् अर्जुन, अलौकिक जन। ऐसा ग्रुप बापदादा देखना चाहते हैं। बातों को नहीं देखें, दूसरों को नहीं देखें, दूसरे का व्यर्थ नहीं सुनें। बस, अलौकिक जन। संकल्प, बोल और कर्म सबमें अलौकिक, दिव्यता की झलक हो। इसको कहा जाता है अर्जुन, अलौकिक जन। ऐसा ग्रुप इस वर्ष में तैयार होगा कि दूसरे वर्ष में तैयार होगा? जो इस ग्रुप में आना चाहते हैं वह हाथ उठाओ। मुझे बनना है, मैं अर्जुन हूँ। फिर कोई ऐसा समाचार नहीं आवे-क्या करें.. हो जाता है.. सरकमस्टांस ऐसे हैं.. मदद नहीं मिलती है.. दुआयें नहीं मिलती हैं.. सहारा नहीं मिलता.. जिन्हों को कुछ समय चाहिये वो हाथ उठाओ। एक-दो मास चाहिये वा एक वर्ष चाहिये। जो भी ग्रुप आवे उनसे पूछना फिर रिजल्ट सुनाना। टीचर्स तो पहले। क्योंकि जो निमित्त बनते हैं उनका सूक्ष्म वायुमण्डल, वायब्रेशन्स जरूर जाता है। पदमगुणा पुण्य भी मिलता है और पदम गुणा निमित्त भी बनते हैं। और शब्द तो नहीं बोलेंगे ना। टीचर बनना बहुत अच्छा है, गद्दी तो मिल जाती है ना!दीदी-दीदी का टाइटल मिल जाता है ना। लेकिन िजम्मेदारी भी फिर इतनी है। इस वर्ष में कुछ नवीनता दिखाओ। यह नहीं सोचो-हाथ तो अनेक बार उठा चुके हैं, प्रतिज्ञा भी बहुत वर्ष कर चुके हैं, ऐसे संकल्प न सूक्ष्म में आये, न औरों के प्रति आये। ये संकल्प भी ढीला करता है। ये तो चलता ही आता है, ये तो होता ही रहता है... ये वायब्रेशन भी कमज़ोर बनाता है। दृढ़ संकल्प करो तो दृढ़ता सफलता को अवश्य लाती है। कमज़ोर संकल्प नहीं उत्पन्न करो। उनको पालने में बहुत टाइम व्यर्थ जाता है। उत्पत्ति बहुत जल्दी होती है। एक सेकण्ड में सौ पैदा हो जाते हैं। और पालना करने में कितना समय लगता है! मिटाने में मेहनत भी लगती, समय भी लगता और बापदादा के वरदान व दुआओं से भी वंचित रह जाते। सर्व की शुभ भावनाओं की दुआओं से भी वंचित हो जाते हैं। शुद्ध संकल्प का बंधन, घेराव, ऐसा बांधो सबके लिये, चाहे कोई थोड़ा कमज़ोर भी हो, उनके लिये भी ये शुद्ध संकल्पों का घेराव एक छत्रछाया बन जाये, सेफ्टी का साधन बन जाये, किला बन जाये। शुद्ध संकल्प की शक्ति को अभी कम पहचाना है। एक शुद्ध वा श्रेष्ठ शक्तिशाली संकल्प क्या कमाल कर सकता है-इसकी अनुभूति इस वर्ष में करके देखो। पहले अभ्यास में युद्ध होगी, व्यर्थ संकल्प शुद्ध संकल्प को कट करेगा। जैसे कौरव-पाण्डव के तीर दिखाते हैं ना, तीर, तीर को रास्ते में ही खत्म कर देता है तो संकल्प, संकल्प को खत्म करने की कोशिश करता है, करेगा लेकिन दृढ़ संकल्प वाले का साथी बाप है। विजय का तिलक सदा है ही है। अब इसको इमर्ज करो तो व्यर्थ स्वत: ही मर्ज हो जायेगा। व्यर्थ को समय देते हो। कट नहीं करते हो लेकिन उसके रंग में रंग जाते हो। सेकण्ड से भी कम समय में कट करो। शुद्ध संकल्प से समाप्त करो। तो सर्व के शुभ संकल्पों का वायुमण्डल का घेराव कमाल करके दिखायेगा। पहले से ही यह नहीं सोचो कि होता तो है नहीं, करते तो बहुत हैं, सुनते तो बहुत हैं, अच्छा भी बहुत लगता है, लेकिन होता नहीं है। यह भी व्यर्थ वायुमण्डल कमज़ोर बनाता हैं। होना ही है-दृढ़ता रखो, उड़ान करो। क्या नहीं कर सकते हो! लेकिन पहले स्व के ऊपर अटेन्शन। स्व का अटेन्शन ही टेन्शन खत्म करेगा। समझा क्या करना है? कोई कहे यह तो होता ही रहता है, पहले भी प्रतिज्ञा की थी-यह नहीं सुनो। इसमें कमज़ोरों को साथ नहीं देना, साथी बनाना। अगर कोई ऐसा-वैसा बोलता है तो एक-दो में कहते हैं ना शुभ बोलो, शुभ सोचो, शुभ करो। अच्छा। सभी खुश राजी हैं ना, सभी से बात की ना? यह भी बाप का स्नेह है। स्नेह की निशानी है वो स्नेही की कमी नहीं देख सकता। स्नेही की गलती अपनी गलती समझेगा। बाप भी जब बच्चों की कोई बात सुनते हैं तो समझते हैं मेरी बात है। तो स्नेही, सम्पन्न, सम्पूर्ण, समान देखना चाहते हैं। सभी स्नेह में एक शब्द बापदादा के आगे चाहे दिल से, चाहे गीत से, चाहे बोल से, चाहे संकल्प से जरूर कहते हैं, बापदादा तो सबका सुनता है ना। सभी एक बात बहुत बार कहते हैं कि बाबा के स्नेह का रिटर्न क्या दें? क्योंकि क्या से क्या तो बन गये हो ना। कोटों में कोई तो बन गये हो ना, कोई में कोई नहीं बने हो। तो कोटों में कोई तो बने हो ना। इसमें सब पास हो। बाप रिटर्न क्या चाहते हैं? रिटर्न करना है अपने को टर्न करना। समझा? बस, यही रिटर्न है। यह तो कर सकते हो ना? स्नेह के पीछे यह नहीं कर सकते हो! मतलब का स्नेह तो नहीं है ना! स्नेह में त्याग करने के लिये तैयार हो? बाप जो भी आज्ञा करे तैयार हो? स्नेह में सब सेन्ट-परसेन्ट हो या परसेन्टेज है? अपने को टर्न करने के लिये तैयार हो? स्नेह के पीछे यह त्याग है या भाग्य है? भक्त तो सिर उतार कर रखने के लिये तैयार हैं, आप रावण का सिर उतार कर रखने के लिये तैयार हो? शरीर का सिर नहीं उतारो लेकिन रावण का सिर तो उतारो! पांचों ही सिर उतारेंगे या एक-दो रखेंगे? थोड़ा कमज़ोरी का सिर रखेंगे? चलो पांच नहीं, छठा दिखाते हैं ना बेसमझी का, वो रखेंगे? अच्छा। अभी एक-एक जोन हाथ उठाओ।

दिल्ली - दिल्ली वाले क्या कमाल करेंगे, रिटर्न का टर्न करेंगे? त्याग का भाग्य लेने में कितना नम्बर आयेगा? फर्स्ट! सभी फर्स्ट नम्बर लेंगे, फास्ट जायेंगे परिवर्तन करने में? दिल्ली का किला मजबूत है ना।

महाराष्ट्र जोन - महाराष्ट्र कौन-सा नम्बर लेंगे? फर्स्ट! और फर्स्ट से आगे क्या है? ए वन कौन होगा? महाराष्ट्र ए वन होगा या वन होगा? ए वन को आगे जाना पड़ेगा। वैसे दिल्ली वाले भी ए वन कह सकते हैं लेकिन ए वन हैं या वन हैं? वन माना विन, ए वन माना डबल विन। महाराष्ट्र वाले वन से भी आगे ए वन बनना।

कर्नाटक - अब कर्नाटक क्या करेगा? सदा ए वन का नाटक दिखायेगा और नाटक नहीं दिखाना। वैसे कर्नाटक में नाटक बहुत होते हैं। अभी ए वन का नाटक दिखाना।

इस्टर्न- इस्टर्न जोन क्या कमाल करेगा? चारों ओर ए वन का सूर्य उदय करेगा।

तामिलनाडु, केरला - तामिलनाडु में विशेष डांस का महत्व है। तो चारों ओर ए वन का खुशी का नाच दिखायेंगे। सब ए वन।

इन्दौर जोन - इन्दौर वाले क्या करेंगे? इन-डोर का अर्थ है अन्तर्मुखता। तो इन्दौर वाले चारों ओर अन्तर्मुखता की शक्ति के वायब्रेशन से चारों ओर ए वन के वायब्रेशन्स फैलायेंगे। मंजूर है?

यू.पी. - यू.पी. वाले क्या कमाल करेंगे? यू.पी. की विशेषता है नदियों की महानता। सभी विशेष नदियाँ कहाँ हैं? यू.पी. में हैं ना। तो ए वन बनने और बनाने की नदियां बहायेंगे। मंजूर है? नदी कहाँ से निकलेगी? कानपुर से या इलाहाबाद से या सबका मेल होगा? वो तीन नदियाँ मिलती हैं ना। यू.पी. के सर्व सेन्टर की नदियाँ साथ-साथ संगम होकर निकलें। ठीक है ना!

गुजरात जोन - गुजरात वाले मान न मान, मैं तेरा मेहमान हैं। होशियार हैं ना, तो गुजरात वाले क्या कमाल करेंगे? मेहमान बनने में होशियार हो ना तो कमज़ोरी या व्यर्थ की मेहमानी को जो मेहमान बनकर आती है, यह कमज़ोरी ओरीजनल तो है नहीं। तो ए वन बनना बनाना अर्थात् व्यर्थ के मेहमान को समाप्त करना। तो गुजरात वाले अपनी शक्ति से, अपने शुभ ए वन श्रेष्ठ संकल्प से यह व्यर्थ की रात गुजर - गई यह शुभ समाचार सुनायेंगे। गुजरात माना रात गुजर गई। श्रेष्ठता का दिन लाने वाले। मंजूर है? मेहमान बनने में होशियार, मेहमान को निकालने में भी होशियार।

राजस्थान - राजस्थान क्या करेगा? समर्थता पर राज्य करेगा। समझा? व्यर्थ को खत्म कर समर्थता पर राज्य करने वाले राजस्थान। तो ए वन तो हो ही गये ना। ए वन मधुबन है ना राजस्थान में। तो ए वन में एड करो ऑल वन।

पंजाब, हरियाणा - पंजाब ने इस पुरानी दुनिया में भी अभी क्या कमाल की है? आतंकवाद को कमज़ोर कर दिया। तो पंजाब क्या कमाल करेगा? दो, तीन, चार, दस नम्बर को कमज़ोर करेगा। इस आतंकवाद को खत्म करके सदा नम्बरवन। अच्छा!

डबल विदेशी - विदेश क्या करेगा? विदेश वाले कमज़ोरी को अपने विदेश में भेज दो। बिल्कुल दूर देश में भेज दो, जो वापस नहीं आवे। कमज़ोरी, व्यर्थ को विदेश में भेज, देश को समर्थ बनाओ। भारत में या देश में अपने समर्थी का झण्डा लहराओ। इसमें सदा ही एवररेडी, ए वन। समझा! कभी-कभी वाले रेडी नहीं। एवर रेडी, ए वन। समझा!

अभी दिल्ली वाले क्या कमाल करेंगे? क्योंकि दिल्ली सेवा का फाउन्डेशन है। दिल्ली से पहले गरीब निवाज की प्रथा आरम्भ हुई। दिल्ली ने समय की आवश्यकता में सहयोग दिया। दिल्ली से पहला नम्बरवन पाण्डव (जगदीश) निकला। इन्वेन्शन भी दिल्ली काफी नम्बरवन होकर निकालती है। अभी तो सब होशियार हो गये हैं लेकिन निमित्त तो दिल्ली बनी। तो अब ओटे सो अर्जुन में ए नम्बर। ठीक है ना। पाण्डव किला मजबूत करने में ए वन। मंजूर है ना?अच्छा, सभी जोन से मिले। मधुबन वाले जो नीचे बैठे हैं, त्याग किया है, उन्हों को बापदादा दिलतख्त की गिफ्ट सहित विशेष याद-प्यार और पदमगुणा मुबारक दे रहे हैं। सारी सीजन मधुबन वालों ने सेवा की है तो निर्विघ्न, अथक सेवाधारियों को, चाहे मधुबन निवासी, चाहे चारों ओर के मेहमाननिवाजी करने वाले सेवाधा-रियों को बापदादा-सदा उन्नति को प्राप्त होते ही रहेंगे, होना ही है-यह प्रगति का तिलक दे रहे हैं। हॉस्पिटल वाले सभी डॉक्टर्स वा सेवाधारी जो भी हॉस्पिटल में हैं, वो सब हेल्दी और हैप्पी हैं? स्थूल हेल्थ नहीं, आत्मिक हेल्थ। तो सदा हेल्दी और सदा हैप्पी की मुबारक और आबू रोड वाले या तलहटी वाले सभी को बहुत प्यार से रिसीव करते हैं और ठण्डे पानी का आराम देते हैं, गर्म चाय से उमंग दिलाते हैं और भटके हुए को राह भी दिखाते हैं इसलिये रिसीव करने वाले, स्वागत करने वाले और मेहमाननिवाजी करने वाले, सभी को बापदादा सेवा की मुबारक के साथ ‘सदा प्रगति भव’ का वरदान दे रहे हैं। आबू निवासी प्रवृत्ति वाले भी बहुत हैं। सदा प्रवृत्ति में रह श्रेष्ठ वायब्रेशन्स फैलाने की मुबारक। आबू निवासी भी अभी मेहमाननिवाजी अच्छी करते हैं। स्थान देते हैं ना। खुश होते हैं ना सभी। तो सदा उड़ते रहो और उड़ाते रहो।

ज्ञान सरोवर तो है ही सरोवर। सरोवर में जाते ही परिवर्तन हो जाता है। तो ज्ञान सरोवर को बापदादा आत्माओं की वृत्ति और जीवन परिवर्तन करने का सरोवर कहते हैं। इसलिये ज्ञान सरोवर में सेवा करने वाले सदा ही अथक भव और सदा वृद्धि को प्राप्त भव आत्मायें हैं। प्रगति की सफलता का वरदान ज्ञान सरोवर के स्थान और सेवाधारियों को सदा है ही। अच्छा!

चारों ओर के मन की उड़ान में उड़ने वाले मधुबन निवासी अव्यक्त रूपधारी आत्माओं को और साथ-साथ संकल्प के विमान द्वारा मधुबन में पहुँचने वाली श्रेष्ठ आत्माओं को और चारों ओर के सर्वश्रेष्ठ स्नेही, स्नेह में त्याग के भाग्य का श्रेष्ठ संकल्प करने वाली आत्माओं को, सदा ए वन के संकल्प को प्रत्यक्ष जीवन में लाने वाले बाप के समीप आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और हर एक भिन्न-भिन्न भारत के देश वा विदेश के हर एक बच्चे को नाम सहित विशेषता सम्पन्न याद-प्यार और नमस्ते।

दादियों से मुलाकात

हर समय की सीन न्यारी और प्यारी है। आप लोगों का बचपन का गीत कौन-सा है? ‘नया दिन लागे, नयी रात लागे.....’ इस गीत पर नशे से डांस करते थे ना! तो नवीनता में मजा है ना। वही-वही सीन बदलनी तो है ही और जो बदलता है वो नया ही होता है। पुराना तो खत्म होता है, नया होता है। तो हर समय की सीन, हर समय की बातें नये ते नयी। तो नया अच्छा लगता है या पुराना? नया अच्छा है ना! (याद पुराना करते हैं) याद करते हैं लेकिन पसन्द तो नया करते हैं ना। तो नया ही होना है। अच्छा! सभी खुश हैं ना? तन से, मन से खुश ही खुश हैं।

1- अब आत्म-शक्ति के उड़ान के तीव्रगति की आदि करो तो जो सोचेंगे वही होगा।

2- सेंट (महान) बनने के लिए व्यर्थ से इनोसेंट बनो।

3- व्यर्थ की अविद्या होना ही दिव्यता की अनुभूति का आधार है।

4- सच्चा पुरुषार्थी वह है जो पुरूष बन रथ द्वारा कार्य कराये।

5- हद के किनारों का सहारा छोड़ एक बाप को अपना सहारा बनाओ।

6- अल्पकाल की बातें धोखेबाज हैं, बाप का सहारा ही छत्रछाया है।

7- व्यर्थ का सामना करना समाप्त करो तो सेवा की ऑफर सामने आयेगी।

8- औरों को माइक बनाओ, आप माइट बनो।

9- तीव्रगति की उड़ान में अनेक प्रकार की बातें ही बादल हैं, उन्हें सेकण्ड में क्रास करो।

10- शुद्ध संकल्पों का ऐसा घेराव डालो जो कमज़ोर आत्माओं के लिए सेफ्टी का साधन बन जाए।

11- शुद्ध वा श्रेष्ठ संकल्प इमर्ज करो तो व्यर्थ स्वत: मर्ज हो जायेगा।