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17-04-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन


"ब्राह्मणों का मुख्य संस्कार - सर्वस्व त्यागी"

आप सभी का संगठन खास किसलिए मंगाया है? संगठन के लिए मुख्य चार बातें जरूरी हैं - 1 - आपस में एक दो में स्नेह 2-नजदीक सम्बन्ध 3-सर्विस की जिम्मेवारी और 4-ज्ञान-योग की धारणा का सबूत। इन चारों बातों में तैयार हो? एक दो में स्नेही कैसे बनना होता है? स्नेही बनने का साधन कौन-सा है? यह जो एक दो से दूर हो जाते हैं उसका कारण यह है - क्योंकि एक दो के संस्कार, एक दो के संकल्प नहीं मिलते हैं। सभी के संकल्प, संस्कार एक हो कैसे सकते हैं? (संस्कार तो हरेक के अपने-अपने होते हैं) संगमयुगी ब्राह्मणों का मुख्य संस्कार कौन- सा है? साकार रूप में मुख्य संस्कार कौन-सा था? जो ब्रह्मा का संस्कार वह ब्राह्मणों का। साकार ब्रह्मा का मुख्य संस्कार कौन सा था। ब्रह्मा में तो वह संस्कार सम्पूर्ण रूप से देख लिया। लेकिन ब्राह्मणों में यथा योग, यथा शक्ति है। उनका मुख्य संस्कार था - सर्वस्व त्यागी। निरहंकारी का मतलब ही है सर्वस्व त्यागी। अपना सभी कुछ त्याग कर लेते हैं। सर्वस्व त्यागी होने से सर्वगुण आ जाते हैं। दूसरों के अवगुणों को न देखना, यह भी त्याग है। त्याग का अभ्यास होगा तो यह भी त्याग कर सकेंगे। सर्वस्व त्यागी अर्थात् देह के भान का भी त्याग। तो ब्राह्मणों का मुख्य संस्कार है - सर्वस्व त्यागी। इस त्याग से मुख्य गुण कौन से आते हैं? सरलता और सहनशी- लता। जिसमें सरलता, सहनशीलता होगी वह दूसरों को भी आकर्षण जरूर करेंगे। और एक दो के स्नेही बन सकेंगे। अगर सरलता नहीं तो स्नेह भी नहीं हो सकता। एक दो में स्नेही बनना है तो उसका तरीका यह है। एक तो सर्वस्व त्यागी देह सहित। इस सर्वस्व त्यागी से सरलता, सह- नशीलता आपे ही आयेगी। सर्वस्व त्यागी की यह निशानी होगी - सरलता और सहनशीलता। साकर रूप में भी देखा ना। जितना ही नालेजकुल उतना ही सरल स्वभाव। जिसको कहते हैं बचपन के संस्कार। बुजुर्ग का बुजुर्ग, बचपन का बचपन।

आप सभी की चलन ऐसी हो जो आपकी चलन से बाप और दादा का चित्र देखने में आये। बोलने से नहीं। चलन से चित्र देखने में आयेगा। ऐसी चलन अभी है? अपकी चलन से बापदादा का चित्र देखने में आता है?

देखने में तो आता है लेकिन कभी-कभी। जब उस स्थिति में रहकर सर्विस करते हो तब आपकी वाणी से, सूरत से समझते हैं कि इन्हों को ज्ञान देने वाला बहुत ऊँचा है। कहते हैं ना आपकी चलन से बापदादा के चित्र देखते हैं। लेकिन कभी-कभी। आप भी कैमरा हो। आपके कैमरे में बापदादा के चित्र छपे हुए हैं। वह कभी-कभी दिखाते हो, क्यों? सदैव वही चित्र चलन से क्यों नहीं दिखाते हो? (पुरुषार्थ है) यह पुरुषार्थ शब्द कहाँ तक चलना है? कितना समय अभी पुरु- षार्थ करना है? क्या अन्त तक ऐसे ही कहते रहेंगे? कि हम पुरुषार्थी हैं। जैसे अब कह रहे हो ऐसे ही अन्त तक कहेंगे? पुरुषार्थ शब्द भी अब चेन्ज़ होना है। भले पुरुषार्थी तो अन्त तक रहेंगे लेकिन वह पुरुषार्थ ऐसा नहीं होगा जैसे अभी कहते हो। पुरुषार्थ का अर्थ ही है जो एक बार गलती हो फिर दूसरे बारी न हो। ऐसा पुरुषार्थ है? पुरुषार्थ का जो अर्थ है उसमें प्रैक्टिकल में आना है। एक ही भूल बार-बार हो तो उसको पुरुषार्थ कैसे कहेंगे? पुरुषार्थ का लक्ष्य जो होना चाहिए वह पुरुषार्थी बनने का भी पुरुषार्थ करना है। बाकी इस तरह का पुरुषार्थ शब्द भी निकल जाना चाहिए।

एक दो के स्नेही कैसे बन सकेंगे? सिर्फ पत्र व्यवहार करना, संगठन करना? इससे नहीं बनेंगे। यह तो स्थूल बात है। लेकिन एक दो के स्नेही तब बनेंगे जबकि संस्कार और सकल्पों को एक दो से मिलायेंगे। उसका तरीका भी बताया (सर्वस्व त्यागी) सर्वस्व त्यागी की निशानी क्या होगी? (सरलता, सहनशीलता) यह बातें जब धारण करेंगे तब स्नेही बनेंगे। सरलता लाने के लिए सिर्फ एक बात जरूर वर्तमान समय ध्यान में रखनी है। वर्तमान समय देखा जाता है - आजकल की स्थिति जो है वह कुछ स्तुति के आधार पर है। स्तुति और निंदा दो शब्द हैं ना। तो वर्तमान समय स्तुति के आधार पर स्थिति है। अर्थात् जो कर्म करते हैं उनके फल की इच्छा वा लोभ रहता है। कन्तव्य के फल की इच्छा ज्यादा रखते हो। स्तुति नहीं मिलती है तो स्थिति भी नहीं रहती। स्तुति होती है तो स्थिति भी रहती है। अगर निंदा होती है तो निधन के बन जाते हैं। अपनी स्टेज को छोड़ देते हैं और धनी को भी भूल जाते हैं। तो यह कभी नहीं सोचना कि हमारी स्तुति हो। स्तुति के आधार पर स्थिति नहीं रखना। स्तुति के आधार पर स्थिति रखी तो डगमग होते रहेंगे।

जो अनन्य हैं, उन्हों का प्रभाव दिन प्रतिदिन आपे ही निकलेगा। लेकिन प्रभाव में खुद ही प्रभावित नहीं होना है। यहाँ ही फल को स्वीकार कर लिया तो भविष्य फल को खत्म कर लेंगे। जितना गुप्त पुरुषार्थ, उतना गुप्त मददगार, उतना ही गुप्त पद बन जाता है। दूसरे भले कितनी भी महिमा करे लेकिन उनकी महिमा के प्रभाव में खुद प्रभावित नहीं होना है।

कोई भी कार्य करना है तो संगम पर ठहर कर जजमेंन्ट करना है। क्योंकि आप सभी संगमयुगी कहलाते हो। इसलिए जो भी बात होती है हर बात के दो तरफ तो होते है। दोनों तरफ से संगम पर ठहर जजमेंन्ट करनी है। न उस तरफ ज्यादा न इस तरफ ज्यादा। संगम पर ठहरना है। तुम संगमयुगी ब्राह्मणों का जो भी कन्तव्य चलता है वह संगम पर नहीं ठहरता है। इस तरफ वा उस तरफ चला जाता है। जैसे आप लोग गहस्थ व्यवहार में रहते हो और सर्विस में भी मददगार हो तो दोनों तरफ सम्भालने के लिए बीच में ठहरना पड़ेगा। दोनों के बीच की अवस्था में स्थित रहना है। संगम पर होंगे तो दोनों को ठीक करेंगे। तुम्हारा खान-पान, पहनना आदि सभी बीच का ही है। इस रीति जो जजमेंन्ट करते हो तो बीच की स्थिति में स्थित होकर दोनों तरफ की जज- मेंन्ट कर फिर चलना है। कई बातों में दिखाई पड़ता है इस तरफ वा उस तरफ विशेष हो जाते हो। होना चाहिए बीच में। बीच की अवस्था है बीज। बिन्दी। जैसे बीज सूक्ष्म होता है वैसे बीच की स्थिति भी सूक्ष्म है। उस पर ही ठहरने की हिम्मत और तरीका चाहिए।

यह भी लक्ष्य दिया हुआ है - कहाँ बालक हो चलना है, कहाँ मालिक हो चलना है। जहाँ मालिक हो चलना है वहाँ बालक नहीं बनना है। और जहाँ बालक बनना है वहाँ मालिक नहीं बनना चाहिए। यह भी बहुतों से मिसअन्डरस्टेन्डिग हो जाती है। यह भी चेकिंग बहुत रखनी है। बालकपन भी पूरा तो मालिकपन भी पूरा रखना है। इसलिए कहा कि संगम पर ठहरना है। सिर्फ बालक भी नहीं बनना है और सिर्फ मलिक भी नहीं बनना है। दोनों गुण होने से सभी ठीक चला सकेंगे। बालकपन अर्थात् निरसंकल्प हो। जो कोई भी आज्ञा मिले, डायरेक्शन मिले उस पर चलना। मालिकपन अर्थात् अपनी राय देना। किस स्थान पर मालिक बनना है वह स्थान और बात देखनी है। सभी जगह मालिक नहीं बनना है। जहाँ बालक बनना है वहाँ अगर मालिक बन जायेंगे तो फिर सस्कारों का टक्कर हो जायेगा। इसलिए आपस में एक दो के मददगार बनने के लिए दोनों ही बातें धारण करनी है। नहीं तो सस्कारों का टक्कर होगा। जहाँ बालक बनना चाहिए वहाँ मालिक बन जाते हैं तो दो मालिक बनने से फिर सस्कारों का टक्कर हो जाता है। मालिक भी बनना है, बालक भी बनना है। राय दी, मालिक बने। फिर जब फाईनल होता है तो बालक बन जाना चाहिए, फिर मालिक। किस समय बालक किस समय मालिक बनना है यह भी बुद्धि की जजमेंन्ट चाहिए। किस समय कौन-सा स्वरूप धारण करना है, वह भी विचार करना है। बहुरूपी बनना है ना। सदैव एक रूप नहीं। जैसा समय वैसा रूप। उल्टे रूप से बहुरूपी नहीं बनना है। सुल्टे रूप से बनना है।

अच्छा - ओम् शान्ति


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