03-02-72
ओम शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
स्वयं
के जानने से संयम
और समय की पहचान
जैसे
बाप के
लिए कहा हुआ है
कि वह जो है, जैसा
है, वैसा ही उनको
जानने वाला सर्व
प्राप्तियां कर
सकता है। वैसे
ही स्वयं को जानने
के लिए भी जो हूँ,
जैसा हूँ, ऐसा ही
जान कर और मान कर
सारा दिन
चलते-फिरते
हो? क्योंकि जैसे
बाप को सर्व स्वरूपों
से वा सर्व सम्बन्धों
से जानना आवश्यक
है, ऐसे ही बाप द्वारा
स्वयं को भी ऐसा
जानना आवश्यक है।
जानना अर्थात्
मानना। मैं जो
हूँ, जैसा हूँ - ऐसे
मानकर चलेंगे तो
क्या स्थिति होगी?
देह में विदेही,
व्यक्त में होते
अव्यक्त, चलते-फिरते
फरिश्ता वा कर्म
करते हुए कर्मातीत।
क्योंकि जब स्वयं
को अच्छी तरह से
जान और मान लेते
हैं; तो जो स्वयं
को जानता है उस
द्वारा कोई भी
संयम अर्थात् नियम
नीचे-ऊपर नहीं
हो सकता। संयम
को जानना
अर्थात्
संयम
में चलना। स्वयं
को मानकर के चलने
वाले से स्वत: ही
संयम साथ-साथ रहता
है। उनको सोचना
नहीं पड़ता कि यह
संयम है वा नहीं,
लेकिन स्वयं की
स्थिति में स्थित
होने वाला जो कर्म
करता है, जो बोल
बोलता है, जो संकल्प
करता है वही संयम
बन जाता है। जैसे
साकार में स्वयं
की स्मृति में
रहने से जो कर्म
किया वही ब्राह्मण
परिवार का संयम
हो गया ना। यह संयम
कैसे बने? ब्रह्मा
द्वारा जो कुछ
चला वही
ब्राह्मण परिवार
के लिए संयम बना।
तो स्वयं की स्मृति
में रहने से हर
कर्म संयम बन ही
जाता है और साथ-साथ
समय की पहचान भी
उनके सामने सदैव
स्पष्ट रहती है।
जैसे बड़े आफीसर्स
के सामने सारा
प्लैन होता है,
जिसको देखते हुए
वह अपनी-अपनी कारोबार
चलाते हैं। जैसे
एरोप्लेन वा स्टीमर
चलाने वालों के
पास अपने-अपने
प्लैन्स होते हैं
जिससे वह रास्ते
को स्पष्ट समझ
जाते हैं। इसी
प्रकार जो स्वयं
को जानता है उससे
संयम आटोमेटिकली
चलते रहते हैं
और समय की पहचान
भी ऐसे स्पष्ट
होती है। सारा
दिन स्वयं जो है,
जैसा है वैसी स्मृति
रहती है। इसलिए
गाया हुआ भी है
- जो कर्म मैं करूंगा
मुझे देख सभी करेंगे।
तो ऐसे स्वयं को
जानने वाला
जो कर्म
करेगा वही संयम
बन जायेगा। उनको
देख सभी फालो करेंगे।
ऐसी स्मृति सदा
रहे। पहली स्टेज
जो होती है उसमें
पुरूषार्थ करना
पड़ता है, हर कदम
में सोचना पड़ता
है कि यह राइट है
वा
रॉंग
है, यह हमारा
संयम है वा नहीं?
जब स्वयं की स्मृति
में सदा रहते हैं
तो नेचरल हो जाता
है। फिर यह सोचने
की आवश्यकता नहीं
रहती। कब भी कोई
कर्म बिना संयम
के हो नहीं सकता।
जैसे साकार में
स्वयं के नशे में
रहने के कारण
अथॉरिटी
से कह
सकते थे कि अगर
साकार द्वारा उलटा
भी कोई कर्म हो
गया तो उसको भी
सुलटा कर देंगे।
यह
अथॉरिटी
है ना।
उतनी
अथॉरिटी
कैसे
रही? स्वयं के नशे
से। स्वयं के स्वरूप
की स्मृति में
रहने से यह नशा
रहता है कि कोइ
भी कर्म उलटा हो
ही नहीं सकता।
ऐसा नशा
नंबरवार सभी
में रहना चाहिए।
जब फालो फादर है
तो फालो करने वालों
की यह स्टेज नहीं
आयेगी? इसको भी
फालो करेंगे ना।
साकार रूप फिर
भी पहली आत्मा
है ना। जो फर्स्ट
आत्मा ने निमित
बनकर के दिखाया,
तो उनको सेकेण्ड,
थर्ड जो
नंबरवार आत्माएं
हैं वह सभी बात
में फालो कर सकती
हैं। निराकार स्वरूप
की बात अलग है।
साकार में निमित
बनकर के जो कुछ
करके दिखाया वह
सभी फालो कर सकते
हैं
नंबरवार पुरूषार्थ
अनुसार। इसी को
कहा जाता है अपने
में सम्पूर्ण निश्चय-बुद्धि।
जैसे बाप में 100% निश्चयबुद्धि
बनते हैं, तो बाप
के साथ-साथ स्वयं
में भी इतना निश्चयबुद्धि
ज़रूर बनें।
स्वयं की स्मृति
का नशा कितना रहता
है? जैसे साकार
रूप में निमित
बन हर कर्म संयम
के रूप में करके
दिखाया, ऐसे प्रैक्टिकल
में आप लोगों को
फालो करना है।
ऐसी स्टेज है? जैसे
गाड़ी अगर ठीक पट्टे
पर चलती है तो निश्चय
रहता है - एक्सीडेंट
हो नहीं सकता।
बेफिक्र हो चलाते
रहेंगे। वैसे ही
अगर स्वयं की स्मृति
का नशा है, फाउन्डेशन
ठीक है तो कर्म
और वचन संयम के
बिना हो नहीं सकता।
ऐसी स्टेज समीप
आ रही है। इसको
ही कहा जाता है
सम्पूर्ण स्टेज
के समीप। इस स्वमान
में स्थित होने
से अभिमान नहीं
आता। जितना स्वमान
उतनी निर्माणता।
इसलिए उनको अभिमान
नहीं रहेगा। जैसे
निश्चय की विजय
अवश्य है, इसी प्रकार
ऐसे निश्चयबुद्धि
के हर कर्म में
विजय है; अर्थात्
हर कर्म संयम के
प्रमाण है तो विजय
है ही है। ऐसे अपने
को चेक करो - कहाँ
तक इस स्टेज के
नजदीक
हैं? जब आप
लोग नजदीक आयेंगे
तब फिर दूसरों
के भी
नंबर
नजदीक
आयेंगे। दिन-प्रतिदिन
ऐसे परिवर्तन का
अनुभव तो होता
होगा। वेरीफाय
कराना, एक दो को
रिगार्ड देना वह
दूसरी बात है लेकिन
अपने में निश्चय
रख कोई से पूछना
वह दूसरी बात है।
वह जो कर्म करेगा
निश्चयबुद्धि
होगा। बाप भी बच्चों
को रिगार्ड देकर
के राय-सलाह देते
हैं ना। ऐसी स्टेज
को देखना है कितना
नजदीक आये हैं?
फिर यह संकल्प
नहीं आयेगा - पता
नहीं यह राइट है
वा
रॉंग
है; यह संकल्प
मिट जायेगा क्योंकि
मास्टर
नॉलेजफुल हो।
स्वयं के नशे में
कमी नहीं होनी
चाहिए। कारोबार
के संयम के प्रमाण
एक दो को रिगार्ड
देना - यह भी एक संयम
है। ऐसी स्टेज
है, जैसे एक सैम्पल
रूप में देखा ना!
तो साकार द्वारा
देखी हुई बातों
को फालो करना तो
सहज है ना। तो ऐसी
स्टेज समानता की
आ रही है ना। अभी
ऐसे महान् और गुह्य
गति वाला
पुरूषार्थ चलना
है। साधारण पुरूषार्थ
नहीं। साधारण पुरूषार्थ
तो बचपन का हुआ।
लेकिन अब विशेष
आत्माओं के लिए
विशेष ही है। अच्छा!