27-02-72
ओम शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
होलीहंस
बनने का
यादगार – होली
आप हैं
सदा बाप के संग
में रहने वाली,
रूहानी रंग में
रंगी हुई आत्मायें
होली हंस। जो सदा
होली रहते हैं
-- उन्हों के लिए
सदा होली ही है।
तो सदा ब्प के स्नेह,
सहयोग और सर्व
शक्तियों के रंग
में बाप समान
रहने
वाली आत्मायें
सदाकाल की होली
मनाते हो वा अल्पकाल
की? सदा होली मनाने
वाले सदा बाप के
साथ मिलन मनाते
रहते हैं। सदा
अतीन्द्रिय सुख
में वा अविनाशी
खुशी में झूमते
और झूलते रहते
हैं। ऐसे ही स्थिति
में स्थित रहने
वाले होली हंस
हो? लोग अपने को
उत्साह में लाने
के लिए हर उत्सव
का इन्तजार करते
हैं; क्योंकि उत्सव
उनमें अल्पकाल
का उत्साह लाता
है। लेकिन आप श्रेष्ठ
आत्माओं के लिए
हर दिन तो क्या
हर सेकेण्ड उत्सव
अर्थात् उत्साह
दिलाने वाला है।
अविनाशी अर्थात्
निरन्तर उत्सव
ही उत्सव है, क्योंकि
आप के उत्साह में
अन्तर नहीं आता
है, तो निरन्तर
हो गया ना। तो होली
मनाने के लिए आये
हो वा होली बनकर
होलीएस्ट
व स्वीटेस्ट
बाप से मिलन मनाने
आये हो वा अपने
सदा संग में रहने
के रंग का रूहानी
रूप दिखाने आये
हो? होली में अल्पकाल
की मस्ती में मस्त
हो जाते हैं। तो
क्या अपने अविनाशी
ईश्वरीय मस्ती
का स्वरूप अनुभव
करते हो? जैसे होली
की मस्ती में मस्त
होने कारण अपने
सम्बन्ध अर्थात्
बड़े छोटे के भान
को भूल जाते हैं,
आपस में एक समान
समझकर मस्ती में
खेलते हैं, मन के
अन्दर जो भी दुश्मनी
के संस्कार एक
दो के प्रति होते
हैं वह अल्पकाल
के लिए सभी भूल
जाते हैं क्योंकि
मंगल मिलन दिवस
मनाते हैं। यह
विनाशी रीति-रस्म
कहां से चली? यह
रस्म चलाने के
निमित्त कौन बने?
आप ब्राह्मण। अब
भी जब होली अर्थात्
पवित्रता की स्टेज
पर ठहरते हो वा
बाप के संग के रंग
में रंगे हुए होते
हो तो इस ईश्वरीय
मस्ती में यह देह
का भान वा भिन्न-भिन्न
सम्बन्ध का भान,
छोटे-बड़े का भान
विस्मृत हो एक
ही आत्म-स्वरूप
का भान रहता है
ना। तो आपके सदाकाल
की स्थिति का यादगार
दुनिया के लोग
मना रहे हैं। ऐसी
खुमारी वा खुशी
रहती है कि हमारी
ही प्रत्यक्ष स्थिति
का प्रमाण
स्वरूप
यह यादगार देख
रहे हैं? यादगार
को देखते हुए अपनी
कल्प पहले वाली
की हुई एक्टिविटी
याद आती है वा वर्तमान
समय प्रैक्टिकल
में अपने किये
हुए ईश्वरीय चरित्र
का साक्षात्कार
इन यादगार रूप
दर्पण में करते
रहते हो? अपने चरित्रों
का यादगार देखते
हो ना। अपनी स्थिति
का वर्णन अन्य
आत्माओं द्वारा
गायन के रूप में
सुनते हो ना। अपने
चैतन्य रूहानी
रूप का,
चरित्रों
का यादगार भी देख
रहे हो। यह सभी
देखते हुए, सुनते
हुए क्या अनुभव
करते हों? क्या
यह समझते हो कि
यह मैं ही तो हूँ?
ऐसे अनुभव करते
हों वा यह समझते
हो कि यह यादगार
किन विशेष आत्माओं
का है? जैसे साकार
रूप में यह निश्चय
हर कर्म में देखा
कि अपने भविष्य
यादगार को देखते
हुए सदा यह खुमारी
और खुशी थी कि यह
मैं ही तो हूँ, ऐसे
ही आप सभी को यादगार
चित्र देखते हुए
वा चरित्र सुनते
हुए वा गुणों का
गायन सुनते हुए
यह खुमारी और खुशी
रहती है कि यह मैं
ही तो हूँ? यह सदा
स्मृति में रहना
चाहिए कि अभी-अभी
हम प्रत्यक्ष रूप
में पार्ट बजा
रहे हैं और अभी-अभी
अपने पार्ट का
यादगार भी देख
रहे हैं। सारे
कल्प के अन्दर
ऐसी कोई आत्माएं
हैं जो अपना यादगार
अपनी स्मृति में
देखें? यूं तो देखते
सभी हैं लेकिन
स्मृति तो नहीं
रहती है ना। सिर्फ
आप आत्माओं का
ही पार्ट है जो
इस स्मृति से अपनी
यादगार को देखते
हो। तो स्मृति
से अपनी यादगार
को देखते हुए क्या
होना चाहिए? (कोई-कोई
ने बताया) विजयी
तो हो ही। विजय
का तिलक लगा हुआ
है। जैसे गुरूओं
पास वा पण्डितों
के पास जाते हैं
तो वह तिलक लगाते
हैं, यहाँ भी आने
से ही, बच्चे बनने
से ही पहले-पहले
स्व- स्मृति द्वारा
सदा विजयी बनने
का तिलक बापदादा
द्वारा लग ही जाता
है। इसलिए पण्डित
भी तिलक लगा देते
हैं। सभी रस्म
ब्राह्मणों द्वारा
ही अब
चलती हैं।
ब्राह्मणों का
पिता रचयिता तो
साथ है ही। बच्चे
शब्द ही बाप को
सिद्ध कर देता
है। बलिहार जाने
वाले की हार नहीं
होती है। स्मृति
समर्थी
को लाती
है और
समर्थी
में आने
से ही कार्य सफल
होते हैं। अथवा
जो सुनाया
-- खुशी,
मस्ती, नशा वा निशाना
सभी हो जाता है।
यह सभी बातें गायब
होने कारण निर्बलता
है। विस्मृति के
कारण असमर्थी। तो स्मृति
से
समर्थी
आने से
सभी सिद्धि प्राप्त
हो जाती हैं अर्थात्
सभी कार्य सिद्ध
हो जाते हैं। स्व-
स्मृति
में रहने वाला
सदैव जो भी कार्य
करेगा वा जो भी
संकल्प करेगा उसमें
उसको सदा निश्चय
रहता है कि यह कार्य
वा यह संकल्प सिद्ध
हुआ ही पड़ा है अर्थात्
ऐसा निश्चयबुद्धि
अपनी विजय वा सफलता
निश्चित समझ कर
चलता
है। निश्चय ही
है, जो ऐसे निश्चित
सफ़लता
समझकर
चलने वाले हैं
उनकी स्थिति कैसी
रहेगी? उनके चेहरे
में क्या विशेष
झलक दिखाई देगी?
निश्चय तो सुनाया
कि निश्चय होगा-विजय
हमारी निश्चित
है; लेकिन उनके
चेहरे
पर क्या दिखाई
देगा? जब विजय निश्चित
है तो निश्चिन्त
रहेगा ना। कोई
भी बात में चिन्ता
की रेखा दिखाई
नहीं देगी। ऐसे
निश्चयबुद्धि
विजयी, निश्चित
और सदा निश्चिन्त
रहने वाले हो? अगर
नहीं तो निश्चयबुद्धि
100% कैसे कहेंगे?
100% निश्चयबुद्धि
अर्थात् निश्चित
विजयी और निश्चिन्त।
अब इससे अपने आपको
देखो कि 100% सभी बातों
में निश्चय बुद्धि
हैं? सिर्फ बाप
में निश्चय को
भी निश्चय बुद्धि
नहीं कहा जाता।
बाप में निश्चयबुद्धि,
साथ-साथ अपने आप
में भी निश्चयबुद्धि
होने
चाहिए
और साथ-साथ
जो भी ड्रामा के
हर सेकेण्ड की
एक्ट रिपीट हो
रही है-उसमें भी
100% निश्चयबुद्धि
चाहिए - इसको कहा
जाता है निश्चयबुद्धि।
जैसे बाप में 100% निश्चयबुद्धि
हो ना। उसमें संशय
की बात नहीं। सिर्फ
एक में पास नहीं
होना है। अपने
आप में भी इतना
ही निश्चय होना
चाहिए कि मैं भी
वही कल्प पहले
वाली, बाप के साथ
पार्ट बजाने वाली
श्रेष्ठ आत्मा
हूँ और साथ- साथ
ड्रामा के हर पार्ट
को भी इसी स्थिति
से देखें कि हर
पार्ट मुझ श्रेष्ठ
आत्मा के लिए कल्याणकारी
है। जब यह तीनों
प्रकार के निश्चय
में सदा पास रहते
हैं, ऐसे निश्चयबुद्धि
ही मुक्ति और जीवन-मुक्ति
में बाप के पास
रहते हैं। ऐसे
निश्चयबुद्धि
को कब क्वेश्चन
नहीं उठता। ‘‘क्यों,
क्या’’ की भाषा निश्चयबुद्धि
की नहीं होती।
क्यों के पीछे
क्यू लगती है; तो
क्यू में भक्त
ठहरते, ज्ञानी
नहीं। आपके आगे
तो क्यू लगनी है
ना। क्यू में इन्तजार
करना होता है।
इन्तजार की घड़ियां
अब समाप्त हुईं।
इन्तजार की घड़ियां
हैं भक्तों की।
ज्ञान अर्थात्
प्राप्ति की घड़ियां,
मिलन की घड़ियां।
ऐसे निश्चयबुद्धि
हो ना। ऐसे निश्चय
बुद्धि आत्माओं
की यादगार यहां
ही दिखाई हुई है।
अपनी यादगार देखी
है? अचल घर देखा
है? जो सदा सर्व
संकल्पों सहित
बापदादा के ऊपर
बलिहार
हैं उन्हों
के आगे माया कब
वार नहीं कर सकती।
ऐसे माया के वार
से बचे हुए रहते
हैं। बच्चे बन
गये तो बच गये।
बच्चे नहीं तो
माया से भी बच नहीं
सकते। माया से
बचने की युक्ति
बहुत सहज है। बच्चे
बन जाओ, गोदी में
बैठ जाओ तो बच जायेंगे।
पहले बचने की युक्ति
बताते हैं, फिर
भेजते हैं। बहादुर
बनाने लिए ही भेजते
हैं, हार खाने लिए
नहीं, खेल खेलने
लिए, जब अलौकिक
जीवन में हो, अलौकिक
कर्म करने वाले
हो, तो इस अलौकिक
जीवन में खिलौने
सभी अलौकिक हैं
जो सिर्फ इस अलौकिक
युग में ही अनुभव
करते हो। यह तो
खिलौने हैं जिससे
खेलना है, न कि हारना
है। तन्दुरूस्ती
वा शारीरिक शक्ति
के लिए भी खेल कराया
जाता है ना। अलौकिक
युग में अलौकिक
बाप द्वारा यह
अलौकिक खेल है,
ऐसे समझकर खेलो
तो फिर डरेंगे,
घबरायेंगे नहीं,
परेशान नहीं होंगे,
हार नहीं खायेंगे।
सदा इसी शान में
रहो। तो यह हैं
अलौकिक खिलौने
खेलने के लिए।
इस ईश्वरीय शान
में रहने से सहज
ही देह का भान खत्म
हो जायेगा। ईश्वरीय
शान से नीचे उतरते
हो तब देह-अभिमान
में आते हो। तो
सदाकाल के संग
से संग का रंग लगाओ।
हर सेकेण्ड बाप
से मिलन मनाते
हर रोज अमृतवेले
से मस्तक पर विजय
का तिलक जो लगा
हुआ है उसको देखो।
अपने चार्ट रूपी
दर्पण में, जैसे
अमृतवेले उठकर
शरीर का श्रृंगार
करते हो ना, वैसे
पहले बाप द्वारा
मिली हुई सर्व
शक्तियों से आत्मा
का श्रृंगार करो।
जो श्रृंगार किये
हुए होंगे वह संहारीमूर्त
भी होंगे। सारे
विश्व
में सर्वश्रेष्ठ
आत्मायें हो ना।
श्रेष्ठ आत्माओं
का श्रृंगार भी
श्रेष्ठ होता है।
आपके जड़ चित्र
सदा श्रृंगारे
हुए रहते हैं।
शक्तियों वा देवियों
के चित्र में श्रृंगारमूर्त
और संहारीमूर्त
दोनों हैं। तो
रोज अमृतवेले साक्षी
बन आत्मा का श्रृंगार
करो। करने वाले
भी आप हो, करना भी
अपने आप को ही है।
फिर कोई भी प्रकार
की परिस्थितियों
में डगमग नहीं
होंगे, अडोल रहेंगे।
ऐसे को होली हंस
कहा जाता है। लोग
होली मनाते हैं
लेकिन आप स्वयं
होली हंस हो। अच्छा!
ऐसे होली हंसों
को होलीएस्ट
बापदादा
का यादप्यार और
नमस्ते।