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02-04-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


महिमा योग्य कैसे बनें ?

दा उपराम अवस्था में रहने के लिए विशेष किन दो बातों की आवश्यकता है? क्योंकि वर्तमान समय उपराम अवस्था में रहने के लिए हरेक नंबरवार पुरूषार्थ कर रहा है। वह दो बातें कौनसी आवश्यक हैं जिससे सहज ही उपराम स्थिति में स्थित हो सकते हो? याद तो है लेकिन उनमें भी दो बातें कौन-सी हैं, वह सुनाओ? दो बातें दो शब्दों में सुनाओ। अभी तो सारे ज्ञान के विस्तार को सार रूप में लाना है ना। शक्तियां विस्तार को सार में सहज कर सकती हैं? अपने अनुभव से सुनाओ। उपराम अवस्था वा साक्षीपन की अवस्था बात तो एक ही है। उसके लिए दो बातें यही ध्यान में रहें-एक तो मैं आत्मा महान् आत्मा हूँ, दूसरा मैं आत्मा अब इस पुरानी सृष्टि में वा इस पुराने शरीर में मेहमान हूँ। तो महान् और मेहमान - इन दोनों स्मृति में रहने से स्वत: और सहज ही जो भी कमजोरियां वा लगाव के कारण उपराम स्थिति न रह आकर्षण में आ जाते हैं वह आकर्षण समाप्त हो उपराम हो जायेंगे। महान् समझने से जो साधारण कर्म वा साधारण संकल्प वा संस्कारों के वश चलते हैं वह सभी अपने को महान् आत्मा समझने से परिवर्तित हो जाते हैं। स्मृति महान् की होने कारण संस्कार वा संकल्प वा बोल वा कर्म सभी चेन्ज हो जाते हैं। इसलिए सदैव महान् और मेहमान समझकर चलने से वर्तमान में और भविष्य में और फिर भक्ति-मार्ग में भी महिमा योग्य बन जायेंगे। अगर मेहमान वा महान् नहीं समझते तो महिमा योग्य भी नहीं बन सकते। महिमा सिर्फ भक्ति में नहीं होती लेकिन सारा कल्प किस-न-किस रूप में महिमा योग्य बनते हो। सतयुग में जो महान् अर्थात् विश्व के महाराजन वा महारानी बनते हैं, तो प्रजा द्वारा महिमा के योग्य बनते हैं। भक्ति-मार्ग में देवी वा देवता के रूप में महिमा योग्य बनते हैं और संगमयुग में जो महान् कर्त्तव्य करके दिखलाते हैं, तो ब्राह्मण परिवार द्वारा भी और अन्य आत्माओं द्वारा भी महिमा के योग्य बनते हैं। तो सिर्फ इस समय मेहमान और महान् आत्मा समझने से सारे कल्प के लिए अपने को महिमा योग्य बना सकते हो। हर कर्म और संकल्प को चेक करो कि महान् है अथवा मेहमान बनकर के चल रहे हैं वा कार्य कर रहे हैं? तो फिर अटैचमेन्ट खत्म हो जायेगी। मेहमान सिर्फ इस सृष्टि में भी नहीं लेकिन इस शरीर रूपी मकान में भी मेहमान हो। देह के भान की जो आकर्षण होती है वा स्मृति के रूप में जो संस्कार रूके हुए हैं वह बहुत ही सहज मिट सकते हैं, जब अपने को मेहमान समझेंगे। कोई आपका मकान है, आप उसको कारणे-अकारणे बेच देते हो, बेच दिया तो फिर अपना-पन चला गया। फिर भले उसी स्थान पर रहते भी हो लेकिन मेहमान समझकर रहेंगे। तो अपना समझ रहने में और मेहमान समझ रहने में कितना फर्क हो जाता है, तो यह शरीर जिसको समझते थे कि मैं शरीर हूँ, अभी इसको ऐसा समझो कि यह मेरा नहीं है। अभी मेरा कहेंगे? अभी यह शरीर आपका नहीं रहा, जिससे मरजीवा बने। तो मेरा शरीर भी नहीं। तन अर्पण कर दिया वा मेरा समझती हो? अभी इस पुराने शरीर की आयु तो समाप्त हो चुकी। यह तो ड्रामा अनुसार ईश्वरीय कर्त्तव्य अर्थ शरीर चल रहा है। इसलिए आप अभी यह नहीं कह सकतीं कि यह मेरा शरीर है। इस शरीर में भी मेरापन खत्म हो गया। अभी तो बाप ने आत्मा को कर्म करने के लिए यह टैम्प्रेरी लोन के रूप में दिया है। जैसे बाप समझते हैं मेरा शरीर नहीं, लोन लेकर कर्त्तव्य करने के लिए पार्ट बजाते हैं। तो आप भी बाप समान हो ना। मेरा शरीर समझेंगे तो सभी बातें आ जायेंगी। मेरा शब्द के साथ बहुत कुछ है। मेरापन ही खत्म तो उनके कई साथी भी खत्म हो जायेंगे। उपराम हो जायेंगे। यह शरीर लोन लिया है-ईश्वरीय कर्त्तव्य के लिए। और कोई कर्त्तव्य के लिए यह शरीर नहीं है। ऐसे अपने को मेहमान समझकर चलने से हर कर्म महान् स्वत: ही होगा। जब शरीर ही अपना नहीं तो शरीर के सम्बन्ध में जो भी व्यक्तियां वा वैभव हैं वह भी अपने नहीं रहे, तो सदा ऐसा समझकर चलो। ऐसे समझकर चलने वाले सदैव नशे में रहते हैं। उनको स्वत: ही अपना घर स्मृति में रहता है। न सिर्फ घर लेकिन 6 बातें जो बाप के प्रति सुनाते हो, वह सभी स्वत: स्मृति में रहती हैं। तो जैसे बाप का परिचय देने के लिए सार रूप में सुनाते हो, उसमें सारा ज्ञान आ जाता है, वह सार 6 बातों में सुनाते हो। तो अपने को अगर मेहमान समझकर चलेंगे तो अपनी भी 6 बातें सदा स्मृति में रहेंगी। नाम – सर्वोत्तम ब्राह्मण हैं। रूप-शालिग्राम है। इसी प्रकार से समय की स्मृति, घर की स्मृति, कर्त्तव्य की स्मृति, वर्से की स्मृति स्वत: ही रहती है। सारा ज्ञान जो विस्तार में इतना समय सुना है वह सार रूप में आ जाता है। जो भी बोल बोलेंगे वा कर्म करेंगे उसमें सार भरा होगा, असार नहीं होगा। असार अर्थात् व्यर्थ। तो आप के हर बोल और कर्म में सारे ज्ञान का सार होना चाहिए। वह तब होगा जब सारे ज्ञान का सार बुद्धि में होगा। सदा नशे में रहने से ही निशाना लगा सकेंगे। अगर नशा नहीं तो निशाना ही नहीं लगता है। सारे ज्ञान का सार 6 शब्दों में बुद्धि में आने से सारा ज्ञान रिवाइज हो जाता है। तो नशा कम होने कारण निशाना ऊपर-नीचे हो जाता है। अभी-अभी फुल फोर्स में नशा रहता, अभी- अभी मध्यम हो जाता है। नीचे की स्टेज तो खत्म हो गई ना। नीचे की स्टेज क्या होती है, उसकी अविद्या होनी चाहिए। बाकी श्रेष्ठ और मध्यम की स्टेज। मध्य की स्टेज में आने के कारण रिजल्ट वा निशाना भी मध्यम ही रहेगा। वर्तमान समय अपनी स्मृति की स्टेज में, सर्विस की स्टेज - दोनों में अगर देखो तो रिजल्ट मध्यम दिखाई देती। मैजारिटी कहते हैं - जितना होना चाहिए उतना नहीं है। उस मध्यम रिजल्ट का मुख्य कारण यह है कि मध्यकाल के संस्कारों को अभी तक पूरी रीति भस्म नहीं किया है। तो यह मध्यकाल के संस्कार अर्थात् द्वापर काल से लेकर जो देह-अभिमान वा कमजोरी के संस्कार भरते गये हैं उनके वश होने कारण मध्यम रिजल्ट दिखाई देती है। कम्पलेन भी यही करते हैं कि चाहते नहीं हैं लेकिन संस्कार बहुत काल के होने कारण फिर हो जाता। तो इन मध्यकाल के संस्कारों को पूरी रीति भस्म नहीं किया है। डाक्टर लोग भी बीमारी के जर्मस (कीटाणु) को पूरी रीति खत्म करने की कोशिश करते हैं। अगर एक अंश भी रह जाता है तो अंश से वंश पैदा हो जाता। तो इसी प्रकार मध्यकाल के संस्कार अंश रूप में भी होने कारण आज अंश है, कल वंश हो जाता है। इसी के वशीभूत होने कारण जो श्रेष्ठ रिजल्ट निकलनी चाहिए वह नहीं निकलती। कोई से भी पूछो कि आप अपने आप से सन्तुष्ट, अपने पुरूषार्थ से, अपनी सर्विस से वा अपने ब्राह्मण परिवार के सम्पर्क से सन्तुष्ट हो; तो सोचते हैं। भले हां करते भी हैं लेकिन सोच कर करते हैं, फलक से नहीं कहते। अपने पुरूषार्थ में, सर्विस में और सम्पर्क में - तीनों में ही सर्व आत्माओें के द्वारा सन्तुष्टता का सर्टिफिकेट मिलना चाहिए। सर्टिफिकेट कोई कागज पर लिखत नहीं मिलेगा लेकिन हरेक द्वारा अनुभव होगा। ऐसे सर्व आत्माओं के सम्पर्क में अपने को सन्तुष्ट रखना वा सर्व को सन्तुष्ट करना इसी में ही जो विजयी बनते हैं वही अष्ट देवता विजयी रत्न बनते हैं। दो बातों में ठीक हो जाते, बाकी जो यह तीसरी बात है उसमें यथा शक्ति और नंबरवार हैं। हैं तो सभी बातों में नंबरवार लेकिन इस बात में ज्यादा हैं। अगर तीनों में सन्तुष्ट नहीं तो श्रेष्ठ वा अष्ट रत्नों में नहीं आ सकते। ‘पास विद् ऑनर’ बनने के लिए सर्व द्वारा सन्तुष्टता का पासपोर्ट मिलना चाहिए। सम्पर्क की बात में कमी पड़ जाती है। सम्पर्क में सन्तुष्ट रहने और सन्तुष्ट करने की बात में पास होने के लिए कौनसी मुख्य बात होनी चाहिए? अनुभव के आधार से देखो, सम्पर्क में असन्तुष्ट क्यों होते हैं? सर्व को सन्तुष्ट करने के लिए वा अपने सम्पर्क को सन्तुष्ट करने के लिए वा अपने सम्पर्क को श्रेष्ठ बनाने के लिए मुख्य बात अपने में सहन करने की वा समाने की शक्ति होनी चाहिए। असन्तुष्टता का कारण यह होता है जो कोई की वाणी वा संस्कार वा कर्म देखते हो वो अपने विवेक से यथार्थ नहीं लगता है, इसी कारण ऐसा बोल वा कर्म हो जाता है जिससे दूसरी आत्मा असन्तुष्ट हो जाती है। कोई का भी कोई संस्कार वा शब्द वा कर्म देख आप समझते हो - यह यथार्थ नहीं है वा नहीं होना चाहिए; फिर भी अगर उस समय समाने की वा सहन करने की शक्तियां धारण करो तो आपकी सहन शक्ति वा समाने की शक्ति आटोमे- टिकली उसको अपने अयथार्थ चलन का साक्षात्कार करायेगी। लेकिन होता क्या है-वाणी द्वारा वा नैन-चैन द्वारा उसको महसूस कराने वा साक्षात्कार कराने लिए आप लोग भी अपने संस्कारों के वश हो जाते हो। इस कारण न स्वयं सन्तुष्ट, न दूसरा सन्तुष्ट होता है। उसी समय अगर समाने की शक्ति हो तो उसके आधार से वा सहन करने की शक्ति के आधार से उनके कर्म वा संस्कार को थोड़े समय के लिए अवायड कर लो तो आपकी सहन शक्ति वा समाने की शक्ति उस आत्मा के ऊपर सन्तुष्टता का बाण लगा सकती है। यह न होने कारण असन्तुष्टता होती है। तो सभी के सम्पर्क में सर्व को सन्तुष्ट करने वा सन्तुष्ट रहने के लिए यह दो गुण वा दो शक्तियां बहुत आवश्यक हैं।इससे ही आपके गुण गायन होंगे। भले उसी समय विजय नहीं दिखाई देगी, हार दिखाई देगी। लेकिन उसी समय की हार अनेक जन्मों के लिए आपके गले में हार डालेगी। इसलिए ऐसी हार को भी जीत मानना चाहिए। यह कमी होने कारण इस सब्जेक्ट में जितनी सफलता होनी चाहिए उतनी नहीं होती है। बुद्धि में नॉलेज होते हुए भी किस समय किस रूप से किसको नॉलेज वा युक्ति से बात देनी है, वह भी समझ होनी चाहिए। समझते हैं - मैंने उनको शिक्षा दी। लेकिन समय नहीं है, उनकी समर्थी नहीं है तो वह शिक्षा, शिक्षा का काम नहीं करती है। जैसे धरती देखकर और समय देखकर बीज बोया जाता है तो सफलता भी निकलती है। समय न होगा वा धरनी ठीक नहीं होगी तो फिर भले कितना भी बड़ी क्वालिटी का बीज हो लेकिन फिर वह फल नहीं निकलेगा। इसी रीति ज्ञान के प्वाइंट्स वा शिक्षा वा युक्ति देनी है तो धरनी और समय को देखना है। धरती अर्थात् उस आत्मा की समर्थी को देखो और समय भी देखो तब शिक्षा रूपी बीज फल दे सकता है। समझा?

तो वर्तमान समय सर्व श्रेष्ठ आत्माओं को वा महावीर, महावीरनियों को इसी विशेष पुरूषार्थ तरफ अटेन्शन देना चाहिए। यही महावीरता है। सन्तुष्ट को सन्तुष्ट रखना महावीरता नहीं है, स्नेही को स्नेह देना महावीरता नहीं, सहयोगी साथ सहयोगी बनना महावीरता नहीं। लेकिन जैसे अपकारियों पर भी उपकार करते हैं, कोई कितना भी असहयोगी बने, अपने सहयोग की शक्ति से असहयोगी को सहयोगी बनाना - इसको महावीरता कहा जाता है। ऐसे नहीं कि इस कारण से यह नहीं होता है, यह आगे नहीं बढ़ता है तब यह नहीं होता है। वह बढ़े वा न बढ़े, आप तो बढ़ सकते हो ना? ऐसे समझना चाहिए कि यह भी सम्बन्ध का स्नेह है। कोई सम्बन्धी अगर कोई बात में कमजोर होता है तो कमजोर को कमजोर समझ छोड़ देना मर्यादा नहीं कही जाती है। ईश्वरीय मर्यादा वही है जो कमजोर को कमज़ोर समझ छोड़ न दे। लेकिन उसको भले देकर भलेवान बनावे और साथी बनाकर ऐसे कमजोर को हाई जम्प देने योग्य बनावे, तब कहेंगे महावीर। तो इस सब्जेक्ट के ऊपर अटेन्शन रखने से फिर जो भी सर्विस के प्लैन्स बनाते हो वा प्वाइंट्स निकालते हो वह सर्विस के प्लैन्स रूपी जेवरों में यह हीरे चमक जायेंगे। सिर्फ सोना दूर से इतनी आकर्षण नहीं करता है। अगर सोने के अन्दर हीरा होता है तो वह दूर से ही अपने तरफ आकर्षित करता है। प्लान्स बनाते हो वह तो भले बनाओ लेकिन प्लॉन में यह जो हीरा है उसको हरेक अपने आप में लगाकर फिर प्लॉन को प्रैक्टिकल में करो तो फिर सारे विश्व में जो आवाज फैलाने चाहते हो उसमें सफलता मिल सकेगी। दूर दूर की आत्मायें इस हीरे पर आकर्षित हो आयेंगी। समझा? अच्छा!


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