20-05-72
ओम शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
सार-स्वरूप
बनने से संकल्प
और समय की बचत
मास्टर
बीजरूप की स्थिति
में स्थित रहने
का अभ्यास करते-करते
सहज इस स्मृति
में अपने आपको
स्थित कर सकते
हो? जैसे विस्तार
और वाणी में सहज
ही आ जाते हो, वैसे
ही वाणी से परे
विस्तार के बजाय
सार में
स्थित हो सकते
हो? हद के जादूगर
विस्तार को समाने
की शक्ति दिखाते
हैं। तो आप बेहद
के जादूगर विस्तार
को नहीं समा सकते
हो? कोई भी आत्मा
सामने आवे; साप्ताहिक
कोर्स एक सेकेण्ड
में किसको दे सकते
हो? अर्थात् साप्ताहिक
कोर्स से जो भी
आत्माओं में आत्मिक-शक्ति
वा सम्बन्ध की
शक्ति भरने चाहते
हो वह एक सेकेण्ड
में कोई भी आत्मा
में भर सकते हो
वा यह अन्तिम स्टेज
है? जैसे कोई भी
व्यक्ति दर्पण
के सामने खड़े होने
से ही एक सेकेण्ड
में स्वयं का साक्षात्कार
कर लेते हैं, वैसे
आपके आत्मिक-स्थिति,
शक्ति-रूपी दर्पण
के आगे कोई भी आत्मा
आवे तो क्या एक
सेकेण्ड में स्व-स्वरूप
का दर्शन वा साक्षात्कार
नहीं कर सकते हैं?
वह स्टेज बाप समान
लाइट-हाउस और माइट-हाउस
बनने के समीप अनुभव
करते हो वा अभी
यह स्टेज बहुत
दूर है? जबकि सम्भव
समझते हो तो फिर
अब तक ना होने का
कारण क्या है? जो
सम्भव है, लेकिन
प्रैक्टिकल में
अब नहीं है तो
ज़रूर कोई
कारण होगा। ढीलापन
भी क्यों है? ऐसी
स्थिति बनाने के
लिए
मुख्य
कौनसे
अटेन्शन की कमी
है? जब साईंस ने
भी अनेक कार्य
एक सेकेण्ड में
सिद्ध कर दिखाये
हैं, सिर्फ स्विच
ऑन और ऑफ करने की
देरी होती है।
तो यहां वह स्थिति
क्यों नहीं बन
पाती?
मुख्य
कौन-सा
कारण है? दर्पण
तो हो। दर्पण के
सामने साक्षात्कार
होने में कितना
टाइम लगता है? अभी
आप स्वयं ही विस्तार
में ज्यादा जाते
हो। जो स्वयं ही
विस्तार में जाने
वाले हैं वह और
कोई को सार-रूप
में कैसे स्थित
कर सकते? कोई भी
बात देखते वा सुनते
हो तो बुद्धि को
बहुत समय की आदत
होने कारण विस्तार
में जाने की कोशिश
करते हो। जो भी
देखा वा सुना उसके
सार को जानकर और
सेकेण्ड
में समा देने का
वा परिवर्तन करने
का अभ्यास कम है।
‘‘क्यों, क्या’’ के
विस्तार में ना
चाहते भी चले जाते
हो। इसलिए जैसे
बीज में शक्ति
अधिक होती है, वृक्ष
में कम होती है,
वृक्ष अर्थात्
विस्तार। कोई भी
चीज़
का विस्तार
होगा तो शक्ति
का भी विस्तार
हो जाता। जैसे
सेक्रीन (Saccharine; कोलतार की जीनी)
और वैसे मिठास
में फर्क होता
है ना। वह अधिक
क्वान्टिटी यूज
करनी पड़ेगी। सेक्रीन
कम अन्दाज में
मिठास ज्यादा देगी।
इस रीति से कोई
भी बात के विस्तार
में जाने से समय
और संकल्प की शक्ति
दोनों ही व्यर्थ
चली जाती
हैं। व्यर्थ जाने
के कारण वह शक्ति
नहीं रहती। इसलिए
ऐसी श्रेष्ठ स्थिति
बनाने के लिए सदा
यह अभ्यास करो।
कोई भी बात के विस्तार
को समाकर सार में
स्थित रह सकते
हो। ऐसा अभ्यास
करते-करते स्वयं
सार-रूप बनने के
कारण अन्य आत्माओं
को भी एक सेकेण्ड
में सारे ज्ञान
का सार अनुभव करा
सकेंगे। अनुभवीमूर्त
ही अन्य को अनुभव
करा सकते हैं।
इस बात के स्वयं
ही अनुभवी कम हो,
इस कारण अन्य आत्माओं
को अनुभव नहीं
करा सकते हो। जैसे
कोई भी पावरफुल
चीज़
में वा
पावरफुल साधनों
में कोई भी चीज़
को परिवर्तन
करने की शक्ति
होती है। जैसे
अग्नि बहुत तेज
अर्थात् पावरफुल
होगी, तो उसमें
कोई भी
चीज़
डालेंगे
तो स्वत: ही रूप
परिवर्तन में आ
जाएगा। अगर अग्नि
पावरफुल नहीं है
तो कोई भी वस्तु
के रूप को परिवर्तन
नहीं कर पाएंगे।
ऐसे ही सदैव अपने
पावरफुल स्टेज
पर स्थित रहो तो
कोई भी बातें, जो
व्यक्त भाव वा
व्यक्त दुनिया
की वस्तुएं हैं
वा व्यक्त भाव
में रहने वाले
व्यक्ति हैं, आपके
सामने आएंगे तो
आपके पावरफुल स्टेज
के कारण उन्हों
की स्थिति वा रूपरेखा
परिवर्तन हो जाएगी।
व्यक्त भाव वाले
का व्यक्त भाव
बदलकर आत्मिक-स्थिति
बन जाएगी। व्यर्थ
बात परिवर्तन होते
समर्थ रूप धारण
कर लेगी। विकल्प
शब्द शुद्ध संकल्प
का रूप धारण कर
लेगा। लेकिन ऐसा
परिवर्तन तब होगा
जब ऐसी पावरफुल
स्टेज पर स्थित
हां। कोई भी लौकिकता
अलौकिकता में
परिवर्तित
हो जाएगी।
साधारण असाधारण
के रूप में
परिवर्तित
हो जाएंगे।
फिर ऐसी स्थिति
में स्थित रहने
वाले कोई भी व्यक्ति
वा वैभव वा वायुमण्डल,
वायब्रेशन, वृति,
दृष्टि के वश में
नहीं हो सकते हैं।
तो अब समझा क्या
कारण है? एक तो समाने
की शक्ति कम और
दूसरा
परिवर्तन करने
की शक्ति कम। अर्थात्
लाइट-हाउस, माइट-हाउस
- दोनों स्थिति
में स्थित सदाकाल
नहीं रहते हो।
कोई भी कर्म करने
के पहले, जो बाप-दादा
द्वारा विशेष शक्तियों
की सौगात मिली
है, उनको काम में
नहीं लाते हो।
सिर्फ देखते-सुनते
खुश होते हो परन्तु
समय पर काम में
न लाने कारण कमी
रह जाती है। हर
कर्म करने के पहले
मास्टर त्रिकालदर्शा
बनकर कर्म नहीं
करते हो। अगर मास्टर
त्रिकालदर्शा
बन हर कर्म, हर संकल्प
करो वा वचन बोलो,
तो बताओ कब भी कोई
कर्म व्यर्थ वा
अनर्थ वाला हो
सकता है? कर्म करने
के समय कर्म के
वश हो जाते हो।
त्रिकालदर्शा
अर्थात् साक्षीपन
की स्थिति में
स्थित होकर इन
कर्म-इन्द्रियों
द्वारा कर्म नहीं
करते हो, इसलिए
वशीभूत हो जाते
हो। वशीभूत होना
अर्थात् भूतों
का आह्वान करना।
कर्म करने के बाद
पश्चाताप होता
है। लेकिन उससे
क्या हुआ? कर्म
की गति वा कर्म
का फल तो बन गया
ना। तो कर्म और
कर्म के फल के बन्धन
में फंसने के कारण
कर्म-बन्धनी आत्मा
अपनी ऊंची स्टेज
को पा नहीं सकती
है। तो सदैव यह
चेक करो कि आये
हैं कर्मबन्धनों
से मुक्त होने
के लिए लेकिन मुक्त
होते-होते कर्मबन्धन-युक्त
तो नहीं हो जाते
हो? ज्ञानस्वरूप
होने के बाद वा
मास्टर
नॉलेजफुल, मास्टर
सर्वशक्तिवान
होने के बाद अगर
कोई ऐसा कर्म जो
युक्तियुक्त नहीं
है वह कर लेते हो,
तो इस कर्म का बन्धन
अज्ञान काल के
कर्मबन्धन से पद्मगुणा
ज्यादा है। इस
कारण बन्धन-युक्त
आत्मा स्वतन्त्र
न होने कारण जो
चाहे वह नहीं कर
पाती। महसूस करते
हैं कि यह न होना
चाहिए,
यह होना चाहिए,
यह मिट जाए, खुशी
का अनुभव हो जाए,
हल्कापन आ जाए,
सन्तुष्टता का
अनुभव हो जाए,
सर्विस
सक्सेसफुल
हो जाए वा दैवी
परिवार के समीप
और स्नेही बन जाएं।
लेकिन किये हुए
कर्मों के बन्धन
कारण चाहते हुए
भी वह अनुभव नहीं
कर पाते हैं। इस
कारण अपने आपसे
वा अपने पुरूषार्थ
से अनेक आत्माओं
को सन्तुष्ट नहीं
कर सकते हैं और
न रह सकते हैं।
इसलिए इस कर्मों
की गुह्य गति को
जानकर अर्थात्
त्रिकालदर्शा
बनकर हर कर्म करो,
तब ही कर्मातीत
बन सकेंगे। छोटी
गलतियां संकल्प
रूप में भी हो जाती
हैं, उनका हिसाब-किताब
बहुत कड़ा बनता
है। छोटी गलती
अब बड़ी समझनी है।
जैसे अति स्वच्छ
वस्तु के अन्दर
छोटा-
सा दाग भी
बड़ा दिखाई देता
है। ऐसे ही वर्तमान
समय अति स्वच्छ,
सम्पूर्ण स्थिति
के समीप आ रहे हो।
इसलिए छोटी-सी
गलती
भी अब
बड़े रूप में गिनती
की जाएगी। इसलिए
इसमें भी अनजान
नहीं रहना है कि
यह छोटी- छोटी गलतियां
हैं, यह तो होंगी
ही। नहीं। अब समय
बदल गया। समय के
साथ-साथ पुरूषार्थ
की रफ्तार बदल
गई। वर्तमान समय
के प्रमाण छोटी-सी
गलती
भी बड़ी कमजोरी
के रूप में गिनती
की जाती है। इसलिए
कदम-कदम पर सावधान!
एक छोटी-सी
गलती
बहुत
समय के लिए अपनी
प्राप्ति से वंचित
कर देती है। इसलिए
नॉलेजफुल अर्थात्
लाइट-हाउस, माइट-हाउस
बनो। अनेक आत्माओं
को रास्ता दिखाने
वाले स्वयं ही
रास्ते चलते-चलते
रूक जाएं
तो औरों को रास्ता
दिखाने के निमित
कैसे बनेंगे? इसलिए
सदा विघ्न-विनाशक
बनो। अच्छा!
ऐसे सदा
त्रिकालदर्शी,
कर्मयोगी बन चलने
वालों को नमस्ते।