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08-06-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सम्पूर्ण स्टेज की परख

पने को विघ्न-विनाशक समझते हो? कोई भी प्रकार का विघ्न सामने आवे तो सामना करने की शक्ति अपने में अनुभव करते हो? अर्थात् अपने पुरूषार्थ से अपने आपको बापदादा के वा अपनी सम्पूर्ण स्थिति के समीप जाते अनुभव करते हो वा वहाँ का वहाँ ही रूकने वाले अपने को अनुभव करते हो? जैसे राही कब रूकता नहीं है, ऐसे ही अपने को रात के राही समझ चलते रहते हो? सम्पूर्ण स्थिति का मुख्य गुण प्रैक्टिकल कर्म में वा स्थिति में क्य्या दिखाई देता है वा सम्पूर्ण स्थिति का विशेष गुण कौनसा होता है, जिस गुण से यह परख सको कि अपनी सम्पूर्ण स्थिति के समीप हैं वा दूर हैं? अभी एक सेकेण्ड के लिए अपनी सम्पूर्ण स्थिति में स्थित होते हुए फिर बताओ कौनसा विशेष गुण सम्पूर्ण स्टेज को वा स्थिति को प्रत्यक्ष करता है? सम्पूर्ण स्टेज वा सम्पूर्ण स्थिति जब आत्मा की बन जाती है तो इसका प्रैक्टिकल कर्म में क्या गायन है? समानता का। निन्दा स्तुति, जय-पराजय, सुख-दु:ख सभी में समानता रहे, इसको कहा जाता है सम्पूर्णता की स्टेज। दु:ख में भी सूरत वा मस्तक पर दु:ख की लहर के बजाए सुख वा हर्ष की लहर दिखाई दे। निन्दा सुनते हुए भी ऐसे ही अनुभव हो कि यह निन्दा नहीं, सम्पूर्ण स्थिति को परिपक्व करने के लिये यह महिमा योग्य शब्द हैं, ऐसी समानता रहे। इसको ही बापदादा के समीपता की स्थिति कह सकते हैं। रा भी अन्तर ना आवे -- ना दृष्टि में, ना वृति में। यह दुश्मन है वा गाली देने वाला है, यह महिमा करने वाला है -- यह वृति न रहे। शुभाचिंतक आत्मा की वृति वा कल्याणकारी दृष्टि रहे। दोनों प्रति एक समान, इसको कहा जाता है -- समानता। समानता अर्थात् बैलेन्स ठीक ना होने के कारण अपने ऊपर बाप द्वारा ब्लिस नहीं ले पाते हो। बाप ब्लिसफुल है ना। अगर अपने ऊपर ब्लिस करनी है वा बाप की ब्लिस लेनी है तो इसके लिए एक ही साधन है -- सदैव दोनों बातों का बैलेन्स ठीक रहे। जैसे स्नेह और शक्ति - दोनों का बैलेन्स ठीक रहे तो अपने आपको ब्लिस वा बाप की ब्लिस मिलती रहेगी। बैलेन्स ठीक रखने नहीं आता है। जैसे वह नट होते हैं ना। उनकी विशेषता क्या होती है? बैलेन्स की। बात साधारण होती है लेकिन कमाल बैलेन्स की होती है। खेल देखा है ना नट का। यहाँ भी कमाल बैलेन्स ठीक रखने की है। बैलेन्स ठीक नहीं रखते हो। महिमा सुनते हो तो और ही नशा चढ़ जाता है, ग्लानि से घृणा आ जाती। वास्तव में ना महिमा का नशा, ना ग्लानि से घृणा आनी चाहिए। दोनों में बैलेन्स ठीक रहे; तो फिर स्वयं ही साक्षी हो अपने आपको देखो तो कमाल अनुभव होगी। अपने आपसे सन्तुष्टता का अनुभव होगा, और भी आपके इस कर्म से सन्तुष्ट होंगे। तो इसी पुरूषार्थ की कमी होने के कारण बैलेन्स की कमी कारण ब्लिसफुल लाइफ जो होनी चाहिए वह नहीं है। तो अब क्या करना पड़े? बैलेन्स ठीक रखो। कई ऐसी दो-दो बातें होती हैं -- न्यारा और प्यारा, महिमा और ग्लानि। तुम्हारा प्रवृति मार्ग है ना। आत्मा और शरीर भी दो हैं। बाप और दादा भी दो हैं। दोनों के कर्त्तव्य से विश्व-परिवर्तन होता है। तो प्रवृति-मार्ग अनादि, अविनाशी है। लौकिक प्रवृति में भी अगर एक ठीक चलता है, दूसरा ढीला होता है, बैलेन्स ठीक नहीं होता है तो खिटखिट होती है, समय वेस्ट जाता है। जो श्रेष्ठ प्राप्ति होनी चाहिए वह नहीं कर पाते हैं। एक पांव से चलने वाले को क्या कहा जाता है? लंगड़ा। वह हाई जम्प दे सकेगा वा तेज दौड़ लगा सकेगा? तो इसमें भी अगर समानता नहीं है तो ऐसे पुरुषार्थी को क्या कहा जावेगा? अगर पुरूषार्थ में एक चीज़ की प्राप्ति अधिक होती है और दूसरे की कमी महसूस करते हैं तो समझना चाहिए कि हाई जम्प नहीं दे सकेंगे, दौड़ नहीं सकेंगे। तो जब हाई जम्प नहीं दे सकेंगे, दौड़ नहीं सकेंगे तो सम्पूर्णता के समीप कैसे आयेंगे? यह कमी आ जाती है जो स्वयं भी वर्णन करते हो। स्नेह के समय शक्ति मर्ज हो जाती है, शक्ति के समय स्नेह मर्ज हो जाता है। तो बैलेन्स ठीक नहीं रहा ना। दोनों का बैलेन्स ठीक रहे, इसको कहा जाता है कमाल। एक समय एक जोर है; दूसरे समय पर दूसरा जोर है तो भी दूसरी बात। लेकिन एक ही समय पर दोनों बैलेन्स ठीक रहें, इसको कहा जाता है सम्पूर्ण। एक मर्ज हो दूसरा इमर्ज होता है तो प्रभाव एक का पड़ता है। शक्तियों के चित्रों में सदैव दो गुणों की समानता दिखाते हैं -- स्नेही भी और शक्ति-रूप भी। नैनों में सदैव स्नेह और कर्म में शक्ति- रूप। तो शक्तियों को चित्रकार भी जानते हैं कि यह शिव-शक्तियाँ दोनों गुणों की समानता रखने वाली हैं। इसलिए वह लोग भी चित्र में इसी भाव को प्रकट करते हैं। जब प्रैक्टिकल में किया है तभी तो चित्र बना है। तो ऐसी कमी को अभी सम्पन्न बनाओ, तब जो प्रभाव निकलना चाहिए वह निकल सकेगा। अभी इस बात का प्रभाव जास्ती, दूसरों का कम होने कारण थोड़ा प्रभाव होता है। एक बात का वर्णन कर देते हैं, सभी का नहीं कर सकते। बनना तो सर्व गुण सम्पन्न है ना। तो ऐसे सम्पूर्णता को समीप लाओ। जैसे धर्म और कर्म, दोनों का सहयोग बताते हो। लोग दोनों को अलग करते है, आप दोनों का सहयोग बताते हो। तो कर्म करते हुए। धर्म अर्थात् धारणा भी सम्पूर्ण हो तो धर्म और कर्म दोनों का बैलेन्स ठीक होने से प्रभाव बढ़ेगा। कर्म करने समय कर्म में तो लग जाते और धारणा पूरी नहीं होती; तो इसको क्या कहा जायेगा? लोगों को कहते हो - धर्म और कर्म को अलग करने के कारण आज की जीवन वा परिस्थितियाँ ऐसी हो गई हैं। तो अपने आप से पूछो कि धर्म और कर्म अर्थात् धारणायें और कर्म, दोनों की समानता रहती है वा कर्म करते फिर भूल जाते हो? जब कर्म समाप्त होता तब धारणा स्मृति में आती है। जब बहुत कर्म में बिजी रहते हो, उस समय इतनी धारणा भी रहती है वा जब कार्य हल्का होता है तब धारणा भारी होती है? जब धारणा भारी है तो कर्म हल्का हो जाता है? तराजू का दोनों तरफ एक समान चलता रहे तब तराजू का मूल्य होता है। नहीं तो तराजू का मूल्य ही नहीं। तराजू है बुद्धि। बुद्धि में दोनों बातों का बैलेन्स ठीक है तो उनको श्रेष्ठ बुद्धिवान वा दिव्य बुद्धिवान, तेज बुद्धिवान कहेंगे। नहीं तो साधारण बुद्धि। कर्म भी साधारण, धारणायें भी साधारण होती हैं। तो साधारणता में समानता नहीं लानी है लेकिन श्रेष्ठता में समानता हो। जैसे कर्म श्रेष्ठ वैसी धारणा भी श्रेष्ठ। कर्म धारणा अर्थात् धर्म को मर्ज ना कर दे, धारणा कर्म को मर्ज न करे तो धर्म और कर्म - दोनों ही श्रेष्ठता में समान रहें - इसको कहा जाता है धर्मात्मा। धर्मात्मा कहो वा महान् आत्मा वा कर्मयोगी कहो, बात एक ही है। ऐसे धर्मात्मा बने हो? ऐसे कर्मयोगी बने हो? ऐसे ब्लिसफुल बने हो? एकान्तवासी भी और साथ-साथ रमणीकता भी इतनी ही हो। कहाँ एकान्तवासी और कहाँ रमणीकता! शब्दों में तो बहुत अन्तर है, लेकिन सम्पूर्णता में दोनों की समानता रहे। जितना ही एकान्तवासी उतना ही फिर साथ-साथ रमणीकता भी होगी।

एकान्त में रमणीकता गायब नहीं होनी चाहिए। दोनों समान और साथ- साथ रहें। आप जब रमणीकता में आते हो तो कहते हो अन्तर्मुखता से नीचे आ गये और अन्तर्मुखता में आते हो तो कहते हो आज रमणीकता कैसे हो सकती है? लेकिन दोनों साथ-साथ हों। अभी-अभी एकान्तवासी, अभी-अभी रमणीक। जितनी गम्भीरता उतना ही मिलनसार भी हों। ऐसे भी नहीं - सिर्फ गम्भीरमूर्त हों। मिलनसार अर्थात् सर्व के संस्कार और स्वभाव से मिलने वाला। गम्भीरता का अर्थ यह नहीं कि मिलने से दूर रहें। कोई भी बात अति में अच्छी नहीं होती है। कोई बात अति में जाती है तो उसको तूफान कहा जाता है। एक गुण तूफान मिसल हो, दूसरा मर्ज हो तो अच्छा लगेगा? नहीं। तो ऐसे अपने में पावरफुल धारणा करनी है। जैसे चाहो वहां अपने को टिका सको। ऐसे नहीं कि बुद्धि रूपी पांव टिक ना सके। बैलेन्स ठीक ना होने के कारण टिक नहीं सकते। कब कहां, कब कहां गिर जाते वा हिलते-जुलते रहते हैं। यह बुद्धि की हलचल होने का कारण समानता नहीं है अर्थात् सम्पन्न नहीं हैं। कोई भी चीज़ अगर फुल हो तो उसके बीच में कब हलचल नहीं हो सकती। हलचल तब होती है जब कमी होती है, सम्पन्न नहीं होता है। तो यह बुद्धि में व्यर्थ संकल्पों की वा माया की हलचल तब मचती है जब फूल (Full) नहीं हो, सम्पन्न नहीं हो। दोनों में सम्पन्न वा समानता हो तो हलचल हो ही नहीं सकती। तो अपने आपको किसी भी हलचल से बचाने के लिए सम्पन्न बनते जाओ तो सम्पूर्ण हो जायेंगे। सम्पूर्ण स्थिति वा सम्पूर्ण स्टेज अर्थात् सम्पूर्ण वस्तु का प्रभाव ना निकले - यह तो हो ही नहीं सकता। चन्द्रमा भी जब 16 कला सम्पूर्ण हो जाता है तो ना चाहते हुए भी हरेक को अपनी तरफ आकर्षित करता है। कोई भी वस्तु सम्पन्न होती है तो अपने आप आकर्षण करती है। तो सम्पूर्णता की कमी के कारण विश्व की सर्व आत्माओं को आकर्षण नहीं कर पाते हो। जितनी अपने में कमी है उतना आत्माओं को अपनी तरफ कम आकर्षित कर पाते हो। चन्द्रमा की कला कम होती है तो किसका अटेन्शन नहीं जाता है। जब सम्पूर्ण हो जाता है तो ना चाहते हुए भी सभी का अटेन्शन जाता है। कोई देखे ना देखे, लेकिन रूर देखने में आता ही है। सम्पूर्णता में प्रभाव की शक्ति होती है। तो प्रभावशाली बनने के लिए सम्पन्न बनना पड़े। समझा?

अगर बैलेन्स ठीक नहीं होता है तो हिलने-जुलने का जो खेल करते हो, वह साक्षी हो देखो तो अपने ऊपर भी बहुत हंसी आवे। जैसे कोई अपने पूरे होश में नहीं होता है तो उनकी चलन देख हंसी आती है ना। तो अपने आपको भी देखो - जब माया थोड़ा-बहुत भी बेहोश कर देती है, अपनी श्रेष्ठ स्मृति का होश गायब कर देती है; तो उस समय चाल कैसी होती है? वह नजारा सामने आता है? उस समय अगर साक्षी हो देखो तो अपने आप पर हंसी आवेगी। बापदादा साक्षी होकर खेल देखते हैं। हरेक बच्चे का तो...ऐसा खेल दिखाना अच्छा लगता है? बापदादा क्या देखना चाहते हैं, उसको भी तुम जानते हो। जब जानते हो, मानते भी हो, फिर चलते क्यों नहीं हो? तीन कोने ठीक हों बाकी एक ठीक ना हो; तो क्या होगा? चारों ही बातें जानते हुए भी, मानते हुए भी, वर्णन भी करते हो लेकिन कुछ चलते हो, कुछ नहीं चलते हो। तो कमी हो गई ना। अभी इस कमी को भरने का प्रयत्न करो। जैसे दो- दो बातें सुनाईं ना। तो ऐसे ही नॉलेजफुल और पावरफुल - इन दोनों का बैलेन्स ठीक रखो तो सम्पूर्णता के समीप आ जायेंगे। नॉलेजफुल बहुत बनते हो, पावरफुल कम बनते हो; तो बैलेन्स ठीक नहीं रहता। शक्तियों को और शक्ति को बैलेन्सड दिखाते हैं, आशीर्वाद देता हुआ दिखाते हैं। तो स्वयं अपने बैलेन्स में ठीक ना होंगे, अपने ऊपर ही बैलेन्स नहीं कर सकेंगे तो अनेकों के लिए मास्टर ब्लिसफुल कैसे बन सकेंगे? अभी तो इस चीज़ के सभी भिखारी हैं। ब्लिस के वरदानी वा महादानी शिव और शक्तियों के सिवाए कोई नहीं हैं। तो जिस चीज़ के वरदानी वा महादानी हो वह पहले स्वयं में सम्पन्न होंगी तभी तो दूसरों को दे सकेंगे ना। ऐसे मास्टर नॉलेजफुल, ब्लिसफुल और इतना ही फिर केयरफुल, श्रेष्ठ आत्माओं को नमस्ते।


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