21-06-72
ओम शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
विश्व- महाराजन
बनने वालों की
विश्व-कल्याणकारी
स्टेज़
अपने आपको
एक सेकेण्ड में
शरीर से न्यारा
अशरीरी आत्मा समझ
आत्म-अभिमानी वा
देही-अभिमानी स्थिति
में स्थित हो सकते
हो? अर्थात् एक
सेकेण्ड में कर्म-इन्द्रियों
का आधार लेकर कर्म
किया और
एक सेकेण्ड
में फिर कर्म-इन्द्रियों
से न्यारा, ऐसी
प्रैक्टिस हो गई
है? कोई भी कर्म
करते कर्म के बन्धन
में तो नहीं फंस
जाते हो? कर्म करते
हुए कर्म के बन्धन
से न्यारा बन सकते
हो वा अब तक भी कर्म-इन्द्रयों
द्वारा कर्म के
वशीभूत हो जाते
हो? हर कर्म-इन्द्रिय
को जैसे चलाना
चाहो वैसे चला
सकते हो वा आप
चाहते
एक हो, कर्मइन्द्रियां
दूसरा कर लेती
हैं? रचयिता बनकर
रचना को
चलाते
हो? जैसे और कोई
भी जड़ वस्तु को
चैतन्य आत्मा वा
चैतन्य मनुष्यात्मा
जैसे चाहे वैसे
रूप दे सकती है
और जैसे चाहे वैसे
कर्त्तव्य में
लगा सकती है, जहाँ
चाहे वहाँ रख सकती
है। जड़ वस्तु चैतन्य
के वश में है,
चैतन्य
आत्मा जैसे चलाना
चाहे वैसे नहीं
चला सकती है? जैसे
जड़ वस्तु को किस
भी रूप में परिवर्तन
कर सकते हो, वैसे
कर्म-इन्द्रियों
को विकारी से निर्विकारी
वा विकारों के
वश आग में जले हुए
कर्म-इन्द्रियों
को शीतलता में
नहीं ला सकते हो?
क्या चैतन्य आत्मा
में यह परिवर्तन
की शक्ति नहीं
आई है?
कोई भी
कर्म-इन्द्रियों
की चंचलता को सहनशील-सरलचित
नहीं बना सकते
हो? इतनी शक्ति
अपने में अनुभव
करते हो? शक्तिशाली
आत्मायें हो ना।
जो भाग्यशाली आत्मायें
हैं वह शक्तिशाली
भी बनी हैं वा सिर्फ
ब्रह्माकुमार-ब्रह्माकुमारी
बनने के भाग्य
के कारण भाग्यशाली
बने हो? सिर्फ भाग्यशाली
बनने से भी मायाजीत
नहीं बन सकेंगे।
भाग्यशाली के साथ-
साथ शक्तिशाली
भी बनना है। दोनों
अनुभव होता है?
जैसे भाग्यशालीपन
का नशा तो अविनाशी
है ना। इसको कोई
नाश नहीं कर सकता।
वैसे शक्तिशाली
का वरदान वरदाता
से ले लिया है वा
अभी लेना है? क्या
समझते
हो? ब्रह्माकुमार-कुमारी
तो हो ही। वह तो
अविनाशी छाप लगी
हुई है। अब शक्तिशाली
का वरदान ले लिया
है कि लेना है? जब
शक्तिशाली बन गए
तो माया की शक्ति
वार कर सकती है?
यह है रचयिता की
शक्ति, वह है रचना
की शक्ति। तो कमजोर
शूरवीर के ऊपर
वार करने की हिम्मत
रख सकता है क्या?
रखे भी तो उसका
परिणाम क्या होगा?
विजयी कौन बनेगा?
शूरवीर। तो रचयिता
की शक्ति महान्
है, फिर माया का
वार कैसे हो सकता
वा माया से हार
कैसे हो सकती? जब
अपने को शक्तिशाली
नहीं समझते हो
वा सदाकाल शक्तिशाली
स्थिति में, स्मृति
में स्थित नहीं
होते तब हार होती
है। जहां स्मृति
है वहां विस्मृति
का आना असम्भव
है। जैसे दिन के
समय रात का होना
असम्भव है। ऐसा
अपने को बनाया
है वा अब तक सम्भव
है? कब भी माया का
कोई वार नहीं होगा
- ऐसा अविनाशी निश्चयबुद्धि
हो गये हो? संकल्प
में भी कब यह न आये
कि माया कब हार
खिला भी सकती है।
ऐसे बन गये हो वा
अभी माया आयेगी
तो युद्ध करके
विजय प्राप्त करेंगे?
अब इसको भी समाप्त
करना है। जबकि
दुनिया वालों को
सन्देश देते हो
कि अब बहुत थोड़ा
समय रह गया है, तो
क्या यह थोड़ा-सा
समय युद्ध करने
की स्टेज वा युद्ध
करने वाली चन्द्रवंशी
स्टेज समाप्त कर
सूर्यवंशी स्टेज
नहीं बना सकते
हो? सूर्यवंशी
अर्थात् ज्ञान-सूर्य
की स्टेज। सूर्य
का कर्त्तव्य क्या
होता है? सूर्य
तो सभी को भस्म
कर देता है। सूर्यवंशी
स्टेज अर्थात्
सर्व विकारों को
भस्म कर सदा विजयी
बनने की स्टेज।
तो अब अपनी कौनसी
स्टेज समझते हो?
सूर्यवंशी हो वा
चन्द्रवंशी हो?
अगर युद्ध करने
में समय देना पड़ता
है तो चन्द्रवंशी
स्टेज कहेंगे।
अब तक अपने आप प्रति
ही समय देते रहेंगे
तो बाप के मददगार
बन प्रैक्टिकल
में मास्टर
विश्व-कल्याणकारी
बनकर
विश्व
के कल्याण
प्रति सारा समय
कब देंगे? लास्ट
स्टेज कौनसी है?
विश्व-कल्याणकारी
की है ना। अब यह
प्रयत्न करो -- दिन-रात
संकल्प, सेकेण्ड
विश्व
के कर्त्तव्य
में वा सेवा में
जाये। जैसे लौकिक
रीति में भी जब
लौकिक रचना के
रचयिता बनते हैं
तो रचयिता बनने
से अपने तरफ समय
देने के बजाय्य
रचना की तरफ ही
लगाते। इसके तो
अनुभवी हो ना।
अगर अति रोगी, अति
दु:खी, अति अशान्त
रचना होती है तो
रचयिता मां-बाप
का पूरा
अटेन्शन
उसी प्रति रहता
है ना। अपने आप
को जैसे भूले हुए
होते हैं। वह तो
है हद की रचना लेकिन
आप तो बेहद
विश्व
के मास्टर
रचयिता हो ना।
पहले अपने प्रति
समय दिया लेकिन
अब की स्टेज मास्टर
रचयिता की है।
सिर्फ एक-दो की
बात नहीं, पूरे
विश्व
की आत्मायें
दु:खी, अशान्त, रोगी,
परेशान हैं, भिखारी
हैं। बेहद रचना
अर्थात् सारे
विश्व
को कल्याणकारी
बन सदाकाल के लिए
सुखी और शान्त
बनाना है तो बेहद
रचयिता का अटेन्शन
होना
चाहिए।
विश्व
कल्याण
में होना चाहिए
वा अब तक भी अपने
में ही अपने प्रति
बहुत समय दिया,
युद्ध करने में
बहुत समय लगाया?
अब ऐसे ही समझो
कि यह जो थोड़ा समय
रह गया है वह है
विश्व
के कल्याण
प्रति। भक्ति-मार्ग
में जो महादानी-कल्याणकारी
वृत्ति वाले सेवाधारी
होते हैं वह कोई
भी दान आदि अपने
प्रति नहीं करेंगे,
सर्व आत्माओं प्रति
ही संकल्प करेंगे।
तो यह रीति-रस्म
आप श्रेष्ठ अथवा
कल्याणकारी आत्माओं
से शुरू हुई है,
जो भक्ति में भी
रस्म चली आती है।
ज़रूर प्रैक्टिकल
में हुई है तब तो
यादगार रूप में
रस्म चल रही है।
प्रैक्टिकल का
नया यादगार बनता
है क्या? तो अब यह
परिवर्तन लाओ।
दूसरों के अर्थ
सेवाधारी बनने
से वा दूसरों के
प्रति समय और संकल्प
लगाने से,
सर्विसएबल बनने
से सदा सक्सेसफुल
स्वत: ही बन जाएंगे।
क्योंकि अनेक आत्माओं
को सुखी वा शान्त
बनाने का रिटर्न
प्रत्यक्षफल के
रूप में स्वत: ही
प्राप्त हो जाता
है। जब सेवा करेंगे
तो इसका खाता भी
जमा होगा और सेवा
के प्रत्यक्षफल
की प्राप्ति स्वत:
ही प्राप्त हो
जाएगी। तो क्यों
ना सदा सेवाधारी
बनो। तो अपनी उन्नति
स्वत: ही हो जाएगी,
करनी नहीं पड़ेगी।
दूसरों को देना
अर्थात् स्वयं
में भरना। तो स्वयं
अपनी उन्नति के
लिए अलग समय क्यों
लगाते हो? एक ही
समय में अगर दो
कार्य हो जाएं,
भले प्राप्ति हो
जाए; तो सिंगल प्राप्ति
में समय क्यों
लगाते हो? सारे
दिन में
विश्व-कल्याण
के प्रति कितना
समय देते हो? ब्राह्मणों
का यह अलौकिक जन्म
ही किसलिए है?
विश्व-कल्याण
अर्थ है ना। तो
जिस प्रति जन्म
है वह कर्म क्यों
नहीं करते हैं?
जैसे देखो -- जिस
कुल में जन्म लेते
हैं उस कुल के संस्कार
जन्म लेते ही स्वत:
हो जाते हैं। स्थूल
काम करने वाले
मजदूर आदि के घर
में बच्चा पैदा
होगा तो छोटेपन
में ही मां-बाप
को देखते हुए उस
कार्य के संस्कार
स्वत: ही उसमें
इमर्ज हो जाते
हैं। तो अब जन्म
ही ब्रह्माकुमारी
का है तो जो बाप
का कर्त्तव्य वह
स्वत: ही बच्चों
के संस्कार होने
चाहिए। जैसे
साकार बाप को प्रत्यक्ष
रूप में देखो - तो
रात का नींद का
समय अथवा अपने
शरीर के रेस्ट
का समय भी ज्यादा
कहां देते थे?
विश्व-कल्याण
के कर्त्तव्य में,
सर्व आत्माओं के
कल्याण प्रति,
ना कि अपने प्रति।
वाणी द्वारा भी
सदा
विश्व-कल्याण
के संकल्प ही करते
थे। इसको कहा जाता
है
विश्व
कल्याणकारी।
तो यह मन के विघ्नों
से युद्ध करने
में ही समय देना
- यह तो अपने प्रति
व्यर्थ समय देना
हुआ ना। इनको आवश्यक
नहीं, व्यर्थ कहेंगे।
बाप ने आवश्यक
समय भी कल्याण
प्रति दिया और
बच्चे व्यर्थ समय
अपने प्रति लगाते
रहें तो फालो फादर
हुआ? बाप समान बनना
है ना। तो सदा यह
चेक करो कि ज्यादा
से ज्यादा तो क्या
लेकिन सदा ही समय
और संकल्प
विश्व-कल्याण
प्रति लगाते हैं?
ऐसे सदा
विश्व-कल्याण
के निमित्त समय
और संकल्प लगाने
वाले क्या बनेंगे?
विश्व-महाराजन्।
अगर अपने प्रति
ही समय लगाते रहते
हैं तो
विश्व-महाराजन्
कैसे बनेंगे? तो
विश्व-महाराजन्
बनने के लिए
विश्व-कल्याणकारी
बनो। जब इतने बिजी
हो जायेंगे तो
क्या व्यर्थ समय
और संकल्प आयेगा?
व्यर्थ स्वत: ही
समाप्त हो जायेगा
और सदा समर्थ संकल्प
चलेंगे, सदा
विश्व-सेवा
में समय लगेगा।
इस स्टेज के आगे
छोटी-छोटी बातों
में समय देना वा
बुद्धि की शक्ति
व्यर्थ गंवाना
क्या बचपन का खेल
नहीं लगता है? लौकिक
रीति में भी रचयिता
हद के ब्रह्मा
बनते हैं, विष्णु
भी बनते हैं लेकिन
शंकर नहीं बनते
हैं। ऐसे ही हद
की स्थिति में
रहने वाले भी व्यर्थ
संकल्पों के रचता
बनते हैं, पालनहार
भी बनते हैं लेकिन
विनाशकारी नहीं
बन सकते। क्योंकि
हद की स्थिति में
स्थित हो। अगर
बेहद की स्थिति
में स्थित रहो
तो अपने अन्दर
की बात तो छोड़ो
लेकिन सारे
विश्व
से व्यर्थ
विकल्प वा विकर्म
वा विकार विनाश
कराने वाले विनाशकारी
बन सकते हैं। लास्ट
स्टेज है विनाशकारी।
विनाशकारी तब बनेंगे
जब कल्याणकारी
बनेंगे। ऐसी स्थिति
है ना। हद को अब
छोड़ चुके हो ना।
अच्छा।
ऐसे सदा
विश्व-कल्याणकारी
स्मृति और सेवा
में स्थित रहने
वाली
महान् आत्माओं
को नमस्ते।