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11-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


निर्णय शक्ति को बढ़ाने की कसौटी – “साकार बाप के चरित्र

र्तमान समय के विशेषताओं को जानते हुये अपने में वह सर्व-शक्तियाँ धारण कर अपने आप को विशेष आत्मा बनाया है? जैसे इस समय की विशेषताओं का वर्णन करते हो, वैसे ही अपने में भी वह विशेषतायें देखते हो? जितनी समय में विशेषताएं हैं उतनी स्वयं में भी हें? वा समय में ज्यादा हैं और स्वयं में कम हैं? समय और स्वयं में कितना अन्तर समझते हो? अन्तर है? आप स्वयं पावरफुल हैं वा समय पावरफुल है? (अभी समय है, होना स्वयं को चाहिए) अगर कहते हो, होना यह चाहिए तो दुनिया वाले अज्ञानी, निर्बल आत्माओं और आप ज्ञानी आत्माओं में वा मास्टर सर्वशक्तिवान आत्माओं में क्या अन्तर रहा? ऐसा होना चाहिए - यह होना चाहिए, यह तो वह लोग भी कहते हैं। आप भी कहते हो कि होना चाहिए, तो अन्तर क्या हुआ? ज्ञानी और अज्ञानी में यही अन्तर है। जो लोग कहते हैं-चाहिए-चाहिए, ज्ञानी लोग ‘चाहिए’ नहीं कहते, जो होना चाहिए वह करके दिखाते हैं। उन्हों का होता है कहना। ज्ञानियों का होता है करना। यही अन्तर है। वह सिर्फ कहते हैं, आप करते हो, अगर अब भी आप कहते हो कि यह होना चाहिए तो अन्तर क्या हुआ? अपने आप से पूछो कि समय की क्या-क्या विशेषताएं हैं और उन विशेषताओं में से मेरे में क्या-क्या विशेषता कम है? अगर कोई एक भी विशेषता कम हुई तो क्या विशेष आत्माओं में आ सकेंगे? नहीं आ सकेंगे ना। इस समय की विशेषताओं को निकालो तो अनेकानेक विशेषताएं दिखाई देंगी। उनमें से इस समय की श्रेष्ठ विशेषता कौनसी है? संगम का समय चल रहा है ना। श्रेष्ठ बनने का समय तो है लेकिन समय की श्रेष्ठता क्या है जो और कोई समय की नहीं हो सकती? इस संगमयुग की विशेषता यह है कि संगमयुग का हर सेकेण्ड मधुर मेला है, जिस मेले में आत्माओं का बाप से मिलन होता है। यह विशेषता और कोई भी युग में नहीं हैं। वह यहीं हैं। बाप और बच्चों का मेला अथवा मिलन कहो; तो इस विशेषता को सदा अपने में धारण करते हुये चलते हो? जैसे संगमयुग का हर सेकेण्ड का मेला है, वैसे हर समय अपने आप को बाप के साथ मिलन मनाने का अनुभव करते हो? वा इस महान श्रेष्ठ मेले में चलते-चलते कब-कब बापदादा का हाथ छोड़ मेले वा मिलन मनाने से वंचित हो जाते हो? जैसे कब-कब मेले में कई बच्चे खो जाते हैं ना। माँ-बाप का हाथ छोड़ देते। मेला होता है खुशी मनाने के लिये। अगर मेले में कोई बच्चा मॉं-बाप से बिछुड़ जाये वा हाथ-साथ छोड़ दे तो उसको क्या प्राप्ति होगी? खुशी के बजाय और ही अशान्त हो जावेंगे। तो ऐसे अपने आप को देखो कि मेले में सदा खुशी की प्राप्ति कर रहा हूँ, सदा मिलन में रहता हूँ? जो सदा मिलन में रहेगा उसकी निशानी क्या होगी? उनकी विशेषता क्या होगी? अतीन्द्रिय सुख में रहने वाले वा सदा मिलन मनाने वाले की निशानी क्या होगी? उनकी विशेषता क्या होंगी? जो सदैव मिलन में मग्न होगा वह कब भी कोई विघ्न में नहीं होगा। मिलन विघ्न को हटा देता है। वह विघ्न-विनाशक होगा। मिलन को ही लगन कहते हैं। कोई भी प्रकार का विघ्न आता है वा विघ्न के वश हो जाते हैं; तो इससे क्या सिद्ध होता है? सदा मिलन मेला नहीं मनाते हो। जैसे औरों को कहते हो कि समय को पहचानो, समय का लाभ उठाओ। तो अपने आप को भी यह सूचना देते हो? वा सिर्फ दूसरों को देते हो? अगर अपने आप को भी यह सूचना देते हो तो एक सेकेण्ड भी मिलन से दूर नहीं रह सकते हो। हर सेकेण्ड मिलन मनाते रहेंगे। जैसे कोई भी बड़ा मेला लगता है, उसका भी समय फिक्स होता है कि इतने समय के लिये यह मेला है। फिर वह समाप्त हो जाता है। अगर कोई श्रेष्ठ मेला होता है और बहुत थोड़े समय के लिये होता तो क्या किया जाता है? मेले को मनाने का प्रयत्न किया जाता है। वैसे ही इस संगम के मेले को अगर अब नहीं मनाया तो क्या फिर कब यह मेला लगेगा क्या? जबकि सारे कल्प के अन्दर यह थोड़ा समय ही बाप और बच्चों का मेला लगता है, तो इतने थोड़े समय के मेले को क्या करना चाहिए? हर सेकेण्ड मनाना चाहिए। तो समय की विशेषताओं को जानते हुये अपने में भी वह विशेषता धारण करो। तो स्वत: ही श्रेष्ठ आत्मा बन जावेंगे। लक्ष्य तो सभी का श्रेष्ठ आत्मा बनने का है ना। लक्ष्य श्रेष्ठ बनने का होते हुये भी पुरूषार्थ साधारण क्यों चलता है?

लक्ष्य श्रेष्ठ है तो फिर लक्षण साधारण आत्मा का क्यों? इसका कारण क्या है? लक्ष्य को ही भूल जाते हो। लक्ष्य रखने वाले, फिर लक्ष्य को भूल जाते? कोई भी विघ्न का निवारण करने की शक्ति कम क्यों है? इसका कारण क्या? निवारण क्यों नहीं कर सकते हो? निवारण न करने के कारण ही जो लक्ष्य रखा है इसको पा नहीं सकते हो। तो निवारण करने की शक्ति कम क्यों होती? श्रीमत पर चलने वाले का तो जैसा लक्ष्य वैसे लक्षण होंगे। अगर लक्ष्य श्रेष्ठ है और लक्षण साधारण है तो इसका कारण? क्योंकि विघ्नों को निवारण नहीं कर पाते हो। निवारण न करने का कारण क्या है? किस शक्ति की कमी है? निर्णय शक्ति; यह ठीक है। जब तक निर्णय नहीं कर पाते तब तक निवारण नहीं कर पाते। अगर निर्णय कर लो तो निवारण भी कर लो। लेकिन निर्णय करने में कमी रह जाती है। और निर्णय क्यों नहीं कर पाते हो, क्योंकि निर्विकल्प नहीं होते। व्यर्थ संकल्प, विकल्प बुद्धि में होने कारण, बुद्धि क्लीयर न होने कारण निर्णय नहीं कर पाते हो और निर्णय न होने कारण निवारण नहीं कर पाते। निवारण न कर सकने कारण कोई-न-कोई आवरण के वश हो जाते। निवारण नहीं तो आवरण अवश्य है। तो अपने निर्णय शक्ति को बढ़ाने लिये सहज साधन कौनसा दिया हुआ है? जैसे सोने को परखने के लिये कसौटी को रखा जाता है, इससे मालूम हो जाता है कि सच्चा है वा झूठा है। ऐसे ही निर्णय शक्ति को बढ़ाने के लिये आपके सामने कौनसी कसौटी है? साकार बाप का हर कर्त्तव्य और हर चरित्र यही - कसौटी है। जो भी कर्म करते हो, जो भी संकल्प करते हो - अगर इस कसौटी पर देख लो कि यह यथार्थ है वा अयथार्थ है, व्यर्थ है वा समर्थ है इस कसौटी पर देखने के बाद जो भी कर्म करेंगे वह सहज और श्रेष्ठ होगा। तो इस कसौटी को ही साथ नहीं रखते हो, इसलिये मेहनत लगती है। जो सहज युक्ति है, इसको भूल जाते हो। इस कारण विघ्नों से मुक्ति नहीं पा सकते हो। अगर सोने का काम करने वाले के पास कसौटी ठीक न हो तो क्या होगा? धोखा खा लेंगे। ऐसे ही अगर यह कसौटी सदा साथ, स्मृति में न रखते हो तब मुश्किल अनुभव करते हो। है तो सहज ना। फिर मुश्किल क्यों हो जाता? क्योंकि युक्ति को यु नहीं करते हो। युक्ति यू करो तो मुक्ति रूर हो जाये। चाहे संकल्पों के तूफान से, चाहे कोई भी सम्बन्ध द्वारा वा प्रकृति वा समस्याओं द्वारा कोई भी तूफान वा विघ्न आते हैं तो उससे मुक्ति न पाने का कारण युक्ति नहीं। युक्ति-युक्त नहीं बने हो। जितना योग युक्त, युक्ति-युक्त होंगे उतना सर्व विघ्नों से मुक्त रूर होंगे। सर्व विघ्नों से मुक्त हो या युक्त हो? योग-युक्त नहीं रहते हो तब विघ्नों से युक्त हो। जो कोई भी प्रोग्राम रखते हो, वा भाषण आदि करते हो, वा किसको भी समझाते हो तो उसमें सभी को मुख्य कौन सी बात सुनाते हो? मुक्ति-जीवनमुक्ति आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। तो जब आपका जन्मसिद्ध अधिकार है तो उनको प्राप्त करो। फिर कहते हो - अब नहीं तो कब नहीं। तो यह जो मुख्य स्लोगन है - मुक्ति-जीवनमुक्ति जन्मसिद्ध अधिकार है; इसको आप लोगों ने पाया है? बच्चे बने और अधिकार नहीं पाया? औरों को समझाते हो-बच्चा बना और वर्से का अधिकारी बना। तो यह सिर्फ समझाने का है वा प्रैक्टिकल करने की बात है? लायक बनना दूसरी बात है, लेकिन मुक्ति-जीवनमुक्ति का वर्से मिल गया है वा नहीं? यहाँ ही पा लिया है वा मुक्तिधाम में मुक्ति और स्वर्ग में जीवन-मुक्ति लेना है भविष्य में तो मिलना है लेकिन भविष्य के साथ-साथ अभी मुक्ति-जीवन मुक्ति नहीं मिली है? जब बाप अभी मिला है तो वर्सा भी अभी मिला है। भविष्य के दिलासे पर चल रहे हो? (चेक मिला है) बच्चों को चेक नहीं दिया जाता। बच्चे तो बाप के हर

चीज़ पर अधिकारी होते हैं। अधिकारी को चेक का दिलासा नहीं दिया जाता। तो प्रैक्टिकल जो वर्सा है वह अभी प्राप्त होता है। जीवन-बन्ध के साथ ही जीवन-मुक्त का अनुभव होता है। वहाँ तो जीवन-बन्ध की बात ही नहीं, वहाँ तो सिर्फ उसी प्रारब्ध में होंगे। मुक्ति-धाम के मुक्ति का अनुभव जो अभी कर सकते हो वह वहाँ नहीं कर सकेंगे। तो यह नहीं समझना कि मुक्ति-जीवनमुक्ति का जन्मसिद्ध अधिकार भविष्य में पाना है। नहीं। जब से बच्चे बने तो वर्सा भी पा लिया है। बाकी रहा आज्ञाकारी, वफादार, फ़रमानबरदार कहाँ तक बनते हो वह नंबर। वर्से के अधिकारी तो बन जाते हो। उस वर्से को जीवन में धारण कर के उससे लाभ उठाना, वह हरेक की अवस्था पर है। वर्सा देने में बाप कोई अन्तर नहीं करता है। लायक और ना-लायक बनने पर अन्तर हो जाता है। इसलिये कहा कि जन्मसिद्ध अधिकार अपने आप में सदा प्राप्ति करते हो। सदा मुक्त रहना चाहिए ना। देह से, देह के सम्बन्ध से भी मुक्त और पुरानी दुनिया की स्मृति से भी मुक्त। मुक्त नहीं बने हो? मुक्ति की अवस्था का अनुभव अगर करते हो तो मुक्त होने बाद जीवन-मुक्ति का अनुभव ऑटोमे- टिकली हो जाता है। क्योंकि जीवन में तो हो ना। शरीरधारी हो ना। जीवन में रहते हुये देह और देह के सम्बन्ध और पुरानी दुनिया के आकर्षण से मुक्त हो - इसको ही जीवन-मुक्त अवस्था कहा जाता है। तो मुक्ति-जीवनमुक्ति का अनुभव अभी करना है न कि भविष्य में। भविष्य में तो यहाँ की प्राप्ति की प्रालब्ध मिलती रहेंगी। लेकिन प्राप्ति का अनुभव अभी होता है, भविष्य में तो अन्डरस्टूड है। वह है श्रेष्ठ कर्मों की प्रारब्ध। लेकिन श्रेष्ठ कर्म तो अभी होते हैं ना। तो प्राप्ति का भी अनुभव अभी होगा ना। भिवष्य के दिलासे पर सिर्फ न रहना। चेक रख अपनी चेकिंग में रह जाओ - ऐसे नहीं करना। अपने आप को देखो कि बाप द्वारा जो वर्सा मिला है इसको कहाँ तक प्राप्त कर चल रहे हैं? बाप ने तो दे दिया। अधिकारी का अधिकार कोई छीन नहीं सकता। तो हम अधिकारी हैं - इस नशें में, निश्चय में रहो। सिर्फ यह देखो कि मिले हुये वर्से को कहाँ व्यर्थ गंवा तो नहीं लेते हो? ऐसे कई बच्चे होते हैं जिनको मिलता बहुत है लेकिन गंवाते भी बहुत हैं। गंवाने कारण, मिलते हुये भी भिखारी रह जाते। अधिकारी होते भी अधीन बन जाते हैं। जब अधिकार न होगा तो रूर अधीनता होगी। विघ्नों के अधीन हो जाते हो ना। क्योंकि अधिकार को नहीं पाया है। अगर सदा अधिकारी बनकर चलो तो कोई भी विघ्न के अधिकारी हो नहीं सकते। इस प्रकृति के अधीन नहीं बनना है। जैसे बाप प्रकृति को अधीन कर आता है, अधीन नहीं होता। वैसे ही इस देह वा जो भी यह प्रकृति है उसको अधीन कर चलना है, न कि अधीन। अच्छा!

कलाबाजी का खेल देखा? भट्ठी वालों ने आज कलाबाजी अच्छी दिखाई। अभी समाप्ति में सभी कमजोरियाँ भी समाप्त हो जावेगी ना। फिर यह कलाबाजी तो नहीं खेलेंगे ना। सदा मुक्ति और जीवनमुक्ति अधिकार के निश्चय और नशे में रहने वाले, सर्व श्रेष्ठताओं को धारण कर श्रेष्ठ आत्मा बनने वाली आत्माओं को याद-प्यार और नमस्ते।


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