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19-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संगठन का महत्व तथा संगठन द्वारा सर्टिफिकेट

पने को मोती वा मणका समझते हो? मोती वा मणके की वैल्यू किसमें होती है? मणका वा मोती माला से अलग होते हैं तो उसकी वैल्यू कम क्यों होती है? माला में पिरोने से उनकी वैल्यू होती है। अलग होने से कम क्यों होती है? कारण? संगठन में होने के कारण वह मोती, मणका शक्तिशाली हो जाता है। एक से दो भी आपस में मिल जाते हैं तो दो को 11 कहा जाता है। एक को एक ही कहा जावेगा। दो मिलकर 11 हो जाते हैं। तो कहां एक, कहां ग्यारह! इतनी उसकी वैल्यू बढ़ जाती है। दो के बदली 11 कहा जाता है। संगठन की शक्ति को प्रसिद्ध करने के लिये ऐसे कहने में आता है। आप अपने को कौन-सा मोती समझते हो? माला का मोती हो वा इन्डिपैन्डेंट्स मोती हो? अपनी वैल्यू को देखते हुये, अपनी शक्ति को देखते हुये यह अनुभव करते हो कि हम माला के मणके हैं? एक दो को ऐसे संगठन के रूप में पिराये हुए वैल्युएभले मोती समझते हो? दूसरे भी आपको समझते हैं वा सिर्फ आप् ही अपने को समझते हो? जैसे कोई विशेष करते हैं वा कोई भी रीति विजयी बन कर आते हैं तो उनको मैडल मिलता है ना। वैसे ही जो अब तक पुरूषार्थ कर रहे हैं, उसका सर्टिफिकेट प्रैक्टिकल में लेने के लिए ही बीच-बीच में यह संगठन होता है। तो इस संगठन में हरेक ने अपना संगठित रूप में चलने का, संगठन के शक्ति की वैल्यू का मैडल लिया है? युनिवार्सिटी में आई हो ना। तो अब तक के पुरूषार्थ वा ईश्वरीय सेवा का सार्टिफिकेट तो लेना चाहिए ना। सभी एक दो से कहां तक संतुष्ट हैं वा एक दो के समीप कितने हैं, इसका सार्टिफिकेट लेना होता है। एक तो है अपने संगठन में वा सम्पर्क में सहयोग और सभी के स्नेही रहने का मैडल वा इनाम, दूसरा है ईश्वरीय सेवा में अपने पुरूषार्थ से ज्यादा से ज्यादा प्रत्यक्षता करना इसका ईनाम। तीसरा फिर है जो जिस स्थान के निमित्त बने हुए हैं, उस स्थान की आत्माएं उनसे संतुष्ट हैं वा कोई स्वयं सभी से संतुष्ट हैं। अगर स्वयं भी संतुष्ट नहीं तो भी कमी रही और आने वालों में से एक भी कोई संतुष्ट नहीं है तो यह भी कमी रही। टीचर से सभी संतुष्ट हों। टीचर की पढ़ाई वा सम्बन्ध में जिसको आप लोग हैंडालिंग कहते हैं, उससे सभी संतुष्ट हैं तो इसका भी इनाम होता है। पहले शुरू में माला बनाते थे, किसलिये? उमंग-उत्साह बढ़ाने के लिये। जिस समय जो जिस स्टेज पर है उसको उस स्टेज का मिलने से खुशी होती है। उमंग-उत्साह बढ़ाने के लिए और एक दो की देख-रेख कराने के लिये यह साधन बनाते थे। इसका भाव यह नहीं था कि वह कोई फाइनल स्टेज का मैडल है। यह है समय की, पुरूषार्थ की बलिहारी का। इससे उमंग- उल्लास आता है, रिजल्ट का मालूम पड़ता है - कौन किस पुरूषार्थ में है वा किसका पुरूषार्थ में अटेन्शन है वा पास होकर विजय के अधिकारी बने हैं। इसको देख कर भी खुश होते हैं। आप लोग अब भी अपनी क्लासेज में किसी को इनाम देते हो ना। इनाम कोई बड़ी चीज़ नहीं है, भले ही एक रूमाल दो, लेकिन उसकी वैल्यू होती है। जो पुरूषार्थ किया उस विजयी की वैल्यू होती है, ना कि चीज़ की। आप किसी को थोड़ी सेवा का इनाम देते हो वा क्लास में नाम आउट करते हो तो आगे के लिए उसको छाप लग जाती है, उमंग- उत्साह का तिलक लग जाता है। कोई-कोई तो विशेष आत्माएं भी विशेष कर्त्तव्य करते रहते हैं ना। फिर भी निमित्त बने हुए हैं। रूर कोई श्रेष्ठता वा विशेषता है, तब तो ड्रामा अनुसार समर्पण होने के बाद, सर्वस्व त्यागी बनने के बाद औरों की सेवा के लिए निमित बने हो ना। हरेक में कोई विशेषतारूर है। एक दो की विशेषता का भी एक दो को परिचय होना चाहिए, कमियों का नहीं। आप लोग आपस में जब संगठन करते हो तो एक दो तरफ के समाचार किसलिये सुनाती हो? हरेक में जो विशेषता है वह अपने में लेने के लिए। हरेक को बाप-दादा की नॉलेज द्वारा कोई विशेष गुण प्राप्त होता है। अपना नहीं, मेरा गुण नहीं है, नॉलेज द्वारा प्राप्त हुआ। इसमें अभिमान नहीं आवेगा। अगर अपना गुण होता तो पहचानने से ही होता। लेकिन नॉलेज के बाद गुणवान बने हो। पहले तो भक्ति में गाते थे कि -- हम निर्गुण हारे में कोई...। तो यह स्वयं का गुण नहीं कहेंगे, नॉलेज द्वारा स्वयं में भरते जाते हो। इसलिये विशेषता का गुण वर्णन करते हुये यह स्मृति रहे कि नॉलेज द्वारा हमें प्राप्त हुआ। तो यह नॉलेज की बड़ाई है, ना कि आपकी। नॉलेजफुल की बड़ाई है। उसी रूप से अगर एक दो में वर्णन करो तो इसमें भी एक दो से विशेषताएं लेने में लाभ होता है। पहले आप लोगों का यह नियम चलता था कि अपने वर्तमान समय का सूक्ष्म पुरूषार्थ क्या है, इसका वर्णन करते थे। ऊपर-ऊपर की बात नहीं लेकिन सूक्ष्म कमजोरियों पर किस पुरूषार्थ से विजयय् पा रहे हैं, वह एक दो में वर्णन करते थे। इससे एक दो को एक दो का परिचय होने के कारण, जिसमें जो विशेषता है उसका वर्णन होने से आटोमेटिकली उसकी कमजोरी तरफ अटेंशन कम हो जायेगा, विशेषता तरफ ही अटेंशन जायेगा। पहले आपस में ऐसे सूक्ष्म रूह-रूहान करते थे। इससे लाभ बहुत होता है। एक दो के वर्तमान समय के पुरूषार्थ की विशेषता ही आपस में वर्णन करो तो भी अच्छा वातावरण रहेगा। जब टापिक ही यह हो जायेगा तो और टापिक्स आटोमेटिकली रह जावेंगे। तो यह आपस में मिलने का रूप होना चाहिए, और हरेक की विशेषता बैठ अगर देखो तो बहुत अच्छी है। ऐसे हो नहीं सकता जो कोई समझे मेरे में कोई विशेषता नहीं। इससे सिद्ध है वह अपने आपको जानते नहीं हैं। दृष्टि और वृति ऐसी नेचरल हो जानी चाहिए जैसे आप लोग दूसरों को मिसाल देते हो कि जैसे हंस होते हैं तो उनकी दृष्टि किसमें जावेगी? कंकड़ों को देखते हुये भी वह मोती को देखता है। इसी प्रकार नेचरल दृष्टि वा वृत्ति ऐसी होनी चाहिए कि किसी की कमजोरी वा कोई भी बात सुनते वा देखते हुये भी वह अन्दर न जानी चाहिए, और ही जिस समय कोई की भी कमजोरी सुनते वा देखते हो तो समझना चाहिए - यह कमजोरी इनकी नहीं, मेरी है क्योंकि हम सभी एक ही बाप के, एक ही परिवार के, एक ही माला के मणके हैं। अगर माला के बीच ऐसा-वैसा मोती होता है तो सारी माला की वैल्यू कम हो जाती है। तो जब एक ही माला के मणके हो तो क्या वृति होनी चाहिए कि यह मेरी भी कमजोरी हुई। जैसे कोई तीव्र पुरुषार्थी होते हैं तो अपने में जो कमजोरी देखेंगे वह मिली हुई युक्तियों के आधार पर फौरन ही उसको खत्म कर देते, कब वर्णन नहीं करेंगे। जब अपनी कमजोरी प्रसिद्ध नहीं करना चाहते हो तो दूसरे की कमजोरी भी क्यों वर्णन करते? फलाने ने साथ नहीं दिया वा यह बात नहीं की, इसलिये सर्विस की वृद्धि नहीं होती; वा मेरे पुरूषार्थ में फलानी बात, फलानी आत्मा, विघ्न रूप है -- यह तो अपनी ही बुद्धि द्वारा कोई आधार बना कर उस पर ठहरने की कोशिश करते हो। लेकिन वह आधार फाउंडेशनलेस है, इसलिये वह ठहरता नहीं है। थोड़े समय बाद वही आधार नुकसानकारक बन जाता है। इसलिये होली-हंस हो ना। तो होली हंसों की चाल कौनसी होती है? हरेक की विशेषता को ग्रहण करना और कमजोरियों को मिटाने का प्रयत्न करना। तो ऐसा पुरूषार्थ चल रहा है? हम सभी एक है - यह स्मृति में रखते हुए पुरूषार्थ चल रहा है? यही इस संगठन की विशेषता वा भिन्नता है जो सारे विश्व में कोई भी संगठन की नहीं। सभी देखने वाले, आने वाले, सुनने वाले क्या वर्णन करते कि यहां एक-एक आत्मा का उठना, बोलना, चलना सभी एक जैसा है। यही विशेषता गायन करते हैं। तो जो एकता वा एक बात, एक ही गति, एक ही रीति, एक ही नीति का गायन है, उसी प्रमाण अपने आपको चेक करो। वर्तमान समय के पुरूषार्थ में कारण शब्द समाप्त हो जाना चाहिए। कारण क्या चीज़ है? अभी तो आगे बढ़ते जा रहे हो ना। जब सृष्टि के परिवर्तन, प्रकृति के परिवर्तन की जिम्मेवारी को उठाने की हिम्मत रखने वाले हो, चैलेंज करने वाले हो; तो कारण फिर क्या चीज़ है? कारण की रचना कहां से होती है? कारण का बीज क्या होता है? किस-ना-किस प्रकार के चाहे मन्सा, चाहे वाचा, चाहे सम्पर्क वा सम्बन्ध में आने की कमजोरी होती है। इस कमजोरी से ही कारण पैदा होता है। तो रचना ही व्यर्थ है ना। कमजोरी की रचना क्या होगी? जैसा बीज वैसा फल। तो जब रचना ही उलटी है तो उसको वहां ही खत्म करना चाहिए या उसका आधार ले आगे बढ़ना चाहिए? फलाने कारण का निवारण हो तो आगे बढ़ें, कारण का निवारण हो तो सर्विस बढ़ेगी, विघ्न हटेंगे - अभी यह भाषा भी चेंज करो। आप सभी को निवारण देने वाले हो ना। आप लोगों के पास अज्ञानी लोग कारण का निवारण करने आते हैं ना? जो अनेक प्रकार के कारणों को निवारण करने वाले हैं वह यह आधार कैसे ले सकते! जब सभी आधार खत्म हुए तो फिर यह देह-अभिमान, संस्कार आटोमेटिकली खत्म हो जावेंगे। यह बातें ही देह-अभिमान में लाती हैं। बातें ही खत्म हो जावेंगी तो उसका परिणाम भी खत्म हो जावेगा। छोटे-छोटे कारण में आने से भिन्न-भिन्न प्रकार के देह-अभिमान आ जाते हैं। तो क्या अब तक देह-अभिमान को छोड़ा नहीं है? बहुत प्यारा लगता है? अभी अपनी भाषा और वृति सभी चेंज करो। कोई को भी किस समय भी, किस परिस्थिति में, किस स्थिति में देखते हो लेकिन वृति और भाव अगर यथार्थ हैं तो आपके ऊपर उसका प्रभाव नहीं पड़ेगा। कल्याण की वृति और भाव शुभाचिंतक का होना चाहिए। अगर यह वृति और भाव सदा ठीक रखो तो फिर यह बातें ही नहीं होंगी। कोई क्या भी करे, कोई आपके विघ्न रूप बने लेकिन आपका भाव ऐसे के ऊपर भी शुभाचिंतकपन का हो - इसको कहा जाता है तीव्र पुरुषार्थी वा होली हंस। जिसका आपके प्रति शुभ भाव है उसके प्रति आप भी शुभ भाव रखते हो वह कोई बड़ी बात नहीं। कमाल ऐसी करनी चाहिए जो गायन हो। अपकारी पर उपकार करने वाले का गायन है। उपकारी पर उपकार करना - यह बड़ी बात नहीं। कोई बार-बार गिराने की कोशिश करे, आपके मन को डगमग करे, फिर भी आपको उसके प्रति सदा शुभाचिंतक का अडोल भाव हो, बात पर भाव न बदले। सदा अचल-अटल भाव हो, तब कहेंगे होली हंस हैं। फिर कोई बातें देखने में ही नहीं आवेंगी। नहीं तो इसमें भी टाइम बहुत वेस्ट होता है। बचपन में तो टाइम वेस्ट होता ही है। बच्चा टाइम वेस्ट करेगा तो कहेंगे बच्चा है। लेकिन समझदार अगर टाइम वेस्ट कर रहा है.........। बच्चे का वेस्ट टाइम नहीं फील होगा, उनका तो काम ही यह है। तो आप अब जिस सेवा के अर्थ निमित्त बने हुए हो वह स्टेज ही जगत्-माता की है। विश्व-कल्याणकारी हो ना। हद का कल्याण करने वाले अनेक है। विश्व-कल्याण की भावना की स्टेज है --जगत्- माता। तो जगत्-माता की स्टेज पर होते अगर इन बातों में टाइम वेस्ट करें तो क्या समझेंगे? पंजाब की धरती पर कौरव गवर्मेंट को नाज है, तो पाण्डव गवर्मेंट को भी नाज है। पंजाब की विशेषता यह है जो बापदादा के कार्य में मददगार फलस्वरूप सभी से ज्यादा पंजाब से निकले हैं। सिन्ध से निकले हुए निमित्त बने हुए रत्नों ने आप रत्नों को निकाला। ब फिर आप लोगों का कर्त्तव्य है ऐसे अच्छे रत्न निकालो। खिट-पिट वाली न हों। आप लोगों द्वारा जो सबूत निकलना चाहिए वह अब अपनी चेकिंग करो। अपनी रचना से कब तंग हो जाते हो क्या? यह तो सभी शुरू से चलता आता है। आप लोगों के लिये तो और ही सहज है। आप लोगों को कोई स्थूल पालना नहीं करनी पड़ती, सिर्फ रूहानी पालना। लेकिन पहला पूर निकलने समय तो दोनों ही जिम्मेवारी थी। एक जिम्मेवारी को पूरा करना सहज होता है, दोनों जिम्मेवारी में समय देना पड़ता है। फिर भी पहला पूर निकला तो सही ना। अब आप सभी का भी यह लक्ष्य होना चाहिए कि जल्दी-जल्दी अपने समीप आने वाले और प्रजा - दोनों प्रकार की आत्माओं को अब प्रत्यक्ष करें। वह प्रत्यक्षफल दिखाई दे। अभी मेहनत ज्यादा करते हो, प्रत्यक्षफल इतना दिखाई नहीं देता। इसका कारण क्या है? बापदादा की पालना और आप लोगों की ईश्वरीय पालना में मुख्य अन्तर क्या है जिस कारण शमा के ऊपर जैसे परवाने फिदा होने चाहिए वह नहीं हो पाते? ड्रामा में पार्ट है वह बात दूसरी है लेकिन बाप समान तो बनना ही है ना। प्रत्यक्षफल का यह मतलब नहीं कि एक दिन में वारिस बन जायेंगे लेकिन जितनी मेहनत करते हो, उम्मीद रखते हो, उस प्रमाण भी फल निकले तो प्रत्यक्षफल कहा जाये। वह क्यों नहीं निकलता? बापदादा कोई भी कर्म के फल की इच्छा नहीं रखते। एक तो निराकार होने के नाते से प्रारब्ध ही नहीं है तो इच्छा भी नहीं हो सकती और साकार में भी प्रैक्टिकल पार्ट बजाया तो भी हर वचन और कर्म में सदैव पिता की स्मृति होने कारण फल की इच्छा का संकल्प-मात्र भी नहीं रहा। और यहां क्या होता है - जो कोई कुछ करते हैं तो यहां ही उस फल की प्राप्ति का रहता है। जैसे वृक्ष में फल लगता रूर है लेकिन वहां का वहां ही फल खाने लगें तो उसका फल पूरा पक कर प्रैक्टिकल में आवे, वह कब न होगा क्योंकि कच्चा ही फल खा लिया। यह भी ऐसे है, जो कुछ किया उसके फल की इच्छा सूक्ष्म में भी रहती रूर है, तो किया और फल खाया; फिर फलस्वरूप कैसे दिखाई देवे? आधे में ही रह गया ना। फल की इच्छाएं भी भिन्न-भिन्न प्रकार की हैं, जैसे अपार दु:खों की लिस्ट है। वैसे फल की इच्छाएं वा जो उसका रेस्पान्स लेने का सूक्ष्म संकल्प रूर रहता है। कुछ-ना-कुछ एक-दो परसेन्ट भी होता रूर है। बिल्कुल निष्काम वृति रहे - ऐसा नहीं होता। पुरूषार्थ के प्रारब्ध की नॉलेज होते हुए भी उसमें अटैचमैंट ना हो, वह अवस्था बहुत कम है। मिसाल - आप लोगों ने किन्हों की सेवा की, आठ को समझाया, उसकी रिजल्ट में एक-दो आप की महिमा करते हैं और दूसरे ना महिमा, ना ग्लानि करते हैं, गम्भीरता से चलते हैं। तो फिर भी देखेंगे - आठ में से आपका अटेन्शन एक-दो परसेन्टेज में उन दो तीन तरफ ज्यादा जावेगा जिन्होंने महिमा की; उसकी गम्भीरता की परख कम होगी, बाहर से जो उसने महिमा की उनको स्वीकार करने के संस्कार प्रत्यक्ष हो जावेंगे। दूसरे शब्दों में कहते हैं - इनके संस्कार, इनका स्वभाव मिलता है। फलाने के संस्कार मिलते नहीं हैं, इसलिये दूर रहते हैं। लेकिन वास्तव में है यह सूक्ष्म फल को स्वीकार करना। मूल कारण यह रह जाता है -- करेंगे और रिजल्ट का इंतजार रहेगा। पहले अटेन्शन इस बात में जावेगा कि इसने मेरे लिये क्या कहा? मैंने भाषण किया, सभी ने क्या कहा? उसमें अटेन्शन जावेगा। अपने को आगे बढ़ाने की एम से रिजल्ट लेना, अपनी सर्विस के रिजल्ट को जानना, अपनी उन्नति के लिये जानना - वह अलग बात है; लेकिन अच्छे और बुरे की कामना रखना वह अलग बात है। अभी- अभी किया और अभी-अभी लिया तो जमा कुछ नहीं होता है, कमाया और खाया। उसमें विल-पावर नहीं रहती। वह अन्दर से सदैव कमजोर रहेंगे, शक्तिशाली नहीं होंगे क्योंकि खाली-खाली हैं ना। भरी हुई चीज़ पावरफुल होती है। तो मुख्य कारण यह है। इसलिये फल पक कर सामने आवे, वह बहुत कम आते हैं। जब यह बात खत्म हो जावेगी तब निराकारी, निरहंकारी और साथ-साथ निर्विकारी - मन्सा-वाचा-कर्मणा में तीनों सब्जेक्ट दिखाई देंगे। शरीर में होते निराकारी, आत्मिक रूप दिखाई देगा। जैसे साकार में देखा- बुजुर्ग था ना, लेकिन फिर भी शरीर को न देख रूह ही दिखाई देता था, व्यक्त गायब हो अव्यक्त दिखाई देता था! तो साकार में निराकार स्थिति होने कारण निराकार वा आकार दिखाई देता था। तो ऐसी अवस्था प्रैक्टिकल रहेगी। अब स्वयं भी बार-बार देह-अभिमान में आते हो तो दूसरे को निराकारी वा आकार रूप का साक्षात्कार नहीं होता है। यह तीनों ही होना चाहिए - मन्सा में निराकारी स्टेज, वाचा में निरहंकारी और कर्म में निर्विकारी, रा भी विकार ना हो। तेरा-मेरा, शान-मान - यह भी विकार हैं। अंश भी हुआ तो वंश आ जावेगा। संकल्प में भी विकार का अंश ना हो। जब यह तीनों स्टेज हो जावेंगी तब अपने प्रभाव से जो भी वारिस वा प्रजा निकलनी होगी वह फटाफट निकलेगी। आप लोग अभी जो मेहनत का अविनाशी बीज डाल रहे हो उसका भी फल और कुछ प्रत्यक्ष का प्रभाव -- दोनों इकट्ठे निकलेंगे। फिर क्विक सर्विस दिखाई देगी। तो अब कारण समझा ना? इसका निवारण करना, सिर्फ वर्णन तक ना रखना। फिर क्या हो जावेगा? साक्षात्कारमूर्त हो जावेंगे, तीनों स्टेज प्रत्यक्ष दिखाई देंगी। आजकल सभी यह देखने चाहते हैं, सुनने नहीं चाहते। द्वापर से लेकर तो सुनते आये हैं। बहुत सुन-सुन कर थक जाते हैं, तो मैजारिटी थके हुए हैं। भक्ति-मार्ग में भी सुना और आजकल के नेता भी बहुत सुनाते हैं। तो सुन-सुन कर थक गये। अब देखने चाहते हैं। सभी कहते हैं - कुछ करके दिखाओ, प्रैक्टिकल प्रमाण दो तब समझेंगे कि कुछ कर रहे हो। तो आप लोग की प्रत्यक्ष हर चलन, यही प्रत्यक्ष प्रमाण है। प्रत्यक्ष को कोई प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं रहती। तो अब प्रत्यक्ष चलन में आना है। जो फ्यूचर में महाविनाश होने वाला है और नई दुनिया आने वाली है, वह भी आपके फीचर्स से दिखाई दे। देखेंगे तो फिर वैराग्य आटोमेटिकली आ जावेगा। एक तरफ वैराग्य, दूसरे तरफ अपना भविष्य बनाने का उमंग आवेगा। जैसे कहते हो - एक आंख में मुक्ति, एक में जीवनमुक्ति। तो विनाश मुक्ति का गेट और स्थापना जीवनमुक्ति का गेट है; तो दोनों आंखों से यह दिखाई दें। यह पुरानी दुनिया जाने वाली है -- आपके नैन और मस्तक यह बोलें। मस्तक भी बहुत बोलता है। कोई का भाग्य मस्तक दिखाता है, समझते हैं - यह बड़ा चमत्कारी है। तो ऐसी जब सर्विस करें तब जयजयकार हो। तो अब विश्व के आगे एक सैम्पल बनना है। अनेक स्थान-सेंटर्स होते हुए भी सभी एक हो। सभी बेहद बुद्धि वाले हो। बेहद के मालिक और फिर बालक। सिर्फ मालिक नहीं बनना है। बालक सो मालिक, मालिक सो बालक। एक-दो के हर राय को रिगार्ड देना है। चाहे छोटा है वा बड़ा है, चाहे आने वाला स्टूडेन्ट है, चाहे रहने वाला साथ है - हरेक की राय को रिगार्ड रूर देना चाहिए। कोई की राय को ठुकराना गोया अपने आपको ठुकराना है। पहले तो रूर रिगार्ड देना चाहिए, फिर भले कोई समझानी दो, वह दूसरी बात है। पहले से ही कट ना करना चाहिए कि यह रॉंग है, यह हो नहीं सकता। यह उसकी राय का डिसरिगार्ड करते हो। इससे फिर उनमें भी डिसरिगार्ड का बीज पड़ता है। जैसे मां-बाप घर में होते हैं तो नेचरल बच्चों में वह संस्कार होते हैं मां-बाप को कॉपी करने के। मां-बाप कोई बच्चों को सिखलाते नहीं हैं। यह भी अलौकिक जन्म में बच्चे हैं। बड़े मां-बाप के समान होते हैं। इसलिये आज आपने उनकी राय का डिसरिगार्ड किया, कल आपको वह डिसरिगार्ड देगा। तो बीज किसने डाला? जो निमित्त हैं। चूहा पहले फूंक देकर फिर काटता है। तो व्यर्थ को कट भी करना हो तो पहले उनको रिगार्ड दो। फिर उसको कट करना नहीं लेकिन समझेंगे - हमको श्रीमत मिल रही है। रिगार्ड दे आगे बढ़ाने में वह खुश हो जावेंगे। किसको खुश कर फिर कोई काम भी निकालना सहज होता है। एक दो की बात को कब कट नहीं करना चाहिए। हां, क्यों नहीं, बहुत अच्छा है - यह शब्द भी रिगार्ड देंगे। पहले ‘ना’ की तो नास्तिक हो जावेंगे। पहले सदैव ‘हां’ करो। चीज़ भले कैसे भी हो लेकिन उसका बिठन (डिब्बी) अच्छा होता है तो लोग प्रभावित हो जाते हैं। तो ऐसे ही जब सम्पर्क में आते हो तो अपना शब्द और स्वरूप भी ऐसा हो। ऐसे नहीं कि रूप में फिर ‘ना’ की रूपरेखा हो। इसमें रहम और शुभ कल्याण की भावना से चेहरे में कब चेंज नहीं आवेगी, शब्द भी युक्तियुक्त निकलेंगे। बापदादा भी किसको शिक्षा देते हैं तो पहले स्वमान दे फिर शिक्षा देते हैं। तो आजकल जो भी आते हैं वह अपने मान लेने वाले, ठुकराये हुए को स्वमान-रिगार्ड चाहिए। इसलिये कब भी किसको डिसरिगार्ड नहीं, पहले रिगार्ड देकर फिर काटो। उनकी विशेषता का पहले वर्णन करो, फिर कमजोरी का। जैसे आपरेशन करते हैं तो पहले इंजेक्शन आदि से सुध-बुध भुलाते हैं। तो पहले उसको रिगार्ड से उस नशे में ठहराओ, फिर कितना भी आपरेशन करेंगे तो आपरेशन सक्सेस होगा। यह भी एक तरीका है। जब यह संस्कार भर जावेंगे तो विश्व से आपको रिगार्ड मिलेगा। अगर आत्माओं को कम रिगार्ड देंगे तो प्रारब्ध में भी कम रिगार्ड मिलेगा। अच्छा।


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