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22-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


नष्टोमोहा बनने की भिन्न-भिन्न युक्तियां

पने को हरेक स्मृति-स्वरूप समझते हो? स्मृति-स्वरूप हो जाने से स्थिति क्या बन जाती है और कब बनती है? स्मृति-स्वरूप तब बनते हैं जब नष्टोमोहा हो जाते हैं। तो ऐसे नष्टोमोहा स्मृति-स्वरूप बने हो कि अभी विस्मृति स्वरूप हो। स्मृति स्वरूप से विस्मृति में क्यों आ जाते हो?रूर कोई-न-कोई मोह अर्थात् लगाव अब तक रहा हुआ है। तो क्या जो बाप से पहल-पहला वायदा किया है कि और संग तोड़ एक संग जोड़ेंगे; क्या यह पहला वायदा निभाने नहीं आता है? पहला वायदा ही नहीं निभायेंगे तो पहले नंबर के पूज्य में, राज्य-अधिकारी वा राज्य के सम्बन्ध में कैसे आवेंगे? क्या सेकेण्ड जन्म के राज्य में आना है? जो पहला वायदा ‘नष्टोमोहा होने का’ निभाते हैं वही पहले जन्म के राज्य में आते हैं। पहला वायदा वहो वा पहला पाठ कहो वा ज्ञान की पहली बात कहो वा पहला अलौकिक जन्म का श्रेष्ठ संकल्प कहो - क्या इसको निभाना मुश्किल लगता है? अपने स्वरूप में स्थित होना वा अपने आप की स्मृति में रहना - यह कोई जन्म में मुश्किल लगा? सहज ही स्मृति आने से स्मृति-स्वरूप बनते आये हो ना। तो इस अलौकिक जन्म के स्व स्वरूप को स्मृति में मुश्किल क्यों अनुभव करते हो? जबकि साधारण मनुष्य के लिये भी कहावत है कि मनुष्य आत्मा की विशेषता ही यह है कि मनुष्य जो चाहे वह कर सकता है। पशुओं और मनुष्यात्मा में मुख्य अन्तर यही तो है। तो जब साधारण मनुष्यात्मा जो चाहे सो करके दिखा रही है; तो क्या आप श्रेष्ठ मनुष्य आत्माएं, शक्ति-स्वरूप आत्माएं, नॉलेजफुल आत्माएं, बाप के समीप सम्पर्क में आने वाली आत्माएं, बाप की डायरेक्ट पालना लेने वाली आत्माएं, पूजनीय आत्माएं, बाप से भी श्रेष्ठ मर्तबा पाने वाली आत्माएं जो चाहे वह नहीं कर सकती हैं? तो साधारण और श्रेष्ठ में अन्तर ही क्या रहा? साधारण आत्माएं जो चाहे कर सकते हैं लेकिन जब चाहे, जैसे चाहे वैसे नहीं कर सकतीं। क्योंकि उन्हों में प्रकृति की पावर है, ईश्वरीय पावर नहीं है। ईश्वरीय पावर वाली आत्माएं जो चाहे, जब चाहे, जैसे चाहे वैसे कर सकते हैं। तो जो विशेषता है उसको प्रैक्टिकल में नहीं ला सकते हो? वा आप लोग भी अभी तक यही कहते हो कि चाहते तो नहीं हैं लेकिन हो जाता है जो चाहते हैं वह कर नहीं पाते हैं। यह बोल मास्टर सर्वशक्तिवान के वा श्रेष्ठ आत्माओं के नहीं हैं। साधारण आत्माओं का है। तो क्या अपने को साधारण आत्माएं कहला सकते हो? अपना अलौकिक जन्म, अलौकिक कर्म जो है उसको भूल जाते हो। किसी भी वस्तु से वा किसी भी व्यक्ति से कोई भी व्यक्त भाव से लगाव क्यों होता है? क्या जो भी वस्तु देखते हो, उन वस्तुओं की तुलना में जो अलौकिक जन्म की प्राप्ति है वह और यह वस्तुएं - उन्हों में रात-दिन का अन्तर नहीं अनुभव हुआ है क्या? क्या व्यक्त भाव से प्राप्त हुआ दु:ख-अशान्ति का अनुभव अब तक पूरा नहीं किया है क्या? जो भी व्यक्तियाँ देखते हो उन सर्व व्यक्तियों से पुरानी दुनिया के नातों को वा सम्बन्ध को इस अलौकिक जन्म के साथ समाप्त नहीं किया है? जब जन्म नया हो गया तो पुराने जन्म के व्यक्तियों के साथ पुराने सम्बन्ध समाप्त नहीं हो गये क्या? नये जन्म में पुराने सम्बन्ध का लगाव रहता है क्या। तो व्यक्तियों से भी लगाव रख ही कैसे सकते हो? जबकि वह जन्म ही बदल गया तो जन्म के साथ सम्बन्ध और कर्म नहीं बदला? वा तो यह कहो कि अब तक अलौकिक जन्म नहीं हुआ है। साधारण रीति से जहाँ जन्म होता है, जन्म के प्रमाण ही कर्म होता है, सम्बन्ध सम्पर्क होता है। तो यहाँ फिर जन्म अलौकिक और सम्बन्ध लौकिक से क्यों वा कर्म फिर लौकिक क्यों? तो अब बताओ, नष्टोमोहा होना सहज है वा मुश्किल है? मुश्किल क्यों होता है? क्योंकि जिस समय मोह उत्पन्न होता है उस समय अपनी शक्ल नहीं देखती हो? आईना तो मिला हुआ है ना। आईना साथ में नहीं रहता है क्या? अगर सिकल को देखेंगे तो मोह खत्म हो जावेगा। अगर यह देखने का अभ्यास पड़ जाये तो अभ्यास के बाद न चाहते भी बार-बार स्वत: ही आईने के तरफ खि्ांच जावेंगी। जैसे स्थूल में कइयों को आदत होती है बार-बार देखने की। प्रोग्राम नहीं बनाते लेकिन आटोमेटिकली आईने तरफ चले जाते हैं। क्योंकि अभ्यास है। यह भी नॉलेज रूपी दर्पण में, अपने स्वमान रूपी दर्पण में बार-बार देखते रहो तो देह-अभिमान से फौरन ही स्वमान में आ जायेंगे। जैसे स्थूल शरीर में कोई भी अन्तर मालूम होता है तो आइने में देखने से फौरन ही इसको ठीक कर देते हैं। वैसे ही इस अलौकिक दर्पण में जो वास्तव का स्वरूप है इसको देखते हुये जो देह-अभिमान में आने से व्यर्थ संकल्पों का स्वरूप, व्यर्थ बोल का स्वरूप वा व्यर्थ कर्म वा सम्बन्ध का स्वरूप स्पष्ट देखने से व्यर्थ को समर्थ में बदल लेते फिर यह मोह रहेगा क्या। और जब नष्टोमोहा हो जावेंगे तो नष्टोमोहा के साथ सदा स्मृति-स्वरूप स्वत: ही हो जायय्ेंगे। सहज नहीं हैं? जब सर्व प्राप्ति एक द्वारा होती है तो उस में तृप्त आत्मा नहीं होते हो क्या! कोई अप्राप्त वस्तु हो जाती है तब तो तृप्त नहीं होते हैं। तो क्या सर्व प्राप्ति का अनुभव नहीं होता है? अभी तृप्त आत्मा नहीं बने हो। जो बाप दे सकते हैं, क्या वह यह विनाशी आत्माएं इतने जन्मों में दे सकी है? जब अनेक जन्मों में भी अनेक आत्माएं वह चीज़ वह प्राप्ति नहीं करा सकी है और बाप द्वारा एक ही जन्म में प्राप्त होती है तो बताओ बुद्धि कहाँ जानी चाहिए? भटकाने वालों में, रूलाने वालों में, ठुकराने वालों में वा ठिकाना देने वालों में? जैसे आप और आत्माओं से बहुत प्रश्न करते हो ना। तो बाप का भी आप आत्माओं से यही एक प्रश्न है। इस एक प्रश्न का ही उत्तर अब तक दे नहीं पाये हो। जिन्होंने इस प्रश्न का उत्तर दिया है वह सदा के लिये प्रसन्न रहते हैं। जिन्होंने उत्तर नहीं दिया है वह बार-बार उतरती कला में उतरते ही रहते हैं। नष्टो मोहा बनने के लिये अपनी स्मृति स्वरूप को चेंज करना पड़ेगा। मोह तब जाता है जब यह स्मृति रहती है कि हम गृहस्थी हैं। हमारा घर, हमारा सम्बन्ध है तब मोह जाता है। यह तो इस हद के जिम्मेवारी को बेहद के जिम्मेवारी में परिवर्तन कर लो तो बेहद की जिम्मेवारी से हद के जिम्मेवारी स्वत: ही पूरी हो जावेंगी। बेहद को भूलकर और हद के ज़िम्मेवारी को निभाने के लिये जितना ही समय और संकल्प लगाती हो इतना ही निभाने के बजाय बिगाड़ते जाते हो। भले समझते हो कि हम फर्ज निभा रहे हैं वा कर्त्तव्य को सम्भाल रहे हैं। वह निभाना वा सम्भालना नहीं हैं। और ही अपने हद की स्मृति में रहने के कारण उन निमित बनी हुई आत्माओं के भी भाग्य बनाने के बजाय बिगाड़ने के निमित बनती हो। जो फिर वह आत्माएं भी आपके अलौकिक चलन को न देखते हुये अलौकिक बाप के साथ सम्बन्ध जोड़ने में वंचित रह जाते हैं। तो फर्ज के बजाय और ही अपने आप में भी मर्ज लगा देते हो। यह मोह का मर्ज है। और वही मर्ज अनेक आत्माओं में भी स्वत: ही लग जाता है। तो जिसको फर्ज समझ रही हो वह फर्ज बदलकर के मर्ज का रूप हो जाता है। इसलिये सदा अपने इस स्मृति को परिवर्तन करने का पुरूषार्थ करो। मैं गृहस्थी हूँ, फलाने बन्धन वाली हूँ वा मैं फलाने जिम्मेवारी वाली हूँ – उसके बजाय अपने मुख्य 5 स्वरूप स्मृति में लाओ। जैसे 5 मुखी ब्रह्मा दिखाते हैं ना। 3 मुख भी दिखाते हैं, 5 मुख भी दिखाते हैं। तो आप ब्राह्मणों को भी 5 मुख्य स्वरूप स्मृति में रहें तो मर्ज निकल विश्व के कल्य्याणकारी के फर्ज में चलें जायेंगे। वह स्वरूप कोनसे हैं जिस स्मृति-स्वरूप में रहने से यह सभी रूप भूल जावें? स्मृति में रखने के 5 स्वरूप बताओ। जैसे बाप के 3 रूप बताते हो वैसे आप के 5 रूप हैं - (1) मैं बच्चा हूँ (2) गॉडली स्टूडेन्ट हूँ(3) रूहानी यात्री हूँ (4) योद्धा हूँ और (5) ईश्वरीय वा खुदाई-खिदमतगार हूँ। यह 5 स्वरूप स्मृति में रहें। सवेरे उठने से बाप के साथ रूह-रूहान करते हो ना। बच्चे रूप से बाप के साथ मिलन मनाते हो ना। तो सवेरे उठने से ही अपना यह स्वरूप याद रहे कि मैं बच्चा हूँ। तो फिर गृहस्थी कहाँ से आवेगी? और आत्मा बाप से मिलन मनावे तो मिलन से सर्व प्राप्ति का अनुभव हो जाये। तो फिर बुद्धि यहाँ-वहाँ क्यों जावेगी? इससे सिद्ध है कि अमृतवेले की इस पहले स्वरूप की स्मृति की ही कमज़ोरी है। इसलिये अपने गिरती कला के रूप स्मृति में आते हैं। ऐसे ही सारे दिन में अगर यह पाँचों ही रूप समय- प्रति-समय भिन्न कर्म के प्रमाण स्मृति में रखो तो क्या स्मृति-स्वरूप होने से नष्टोमोहा: नहीं हो जावेंगे? इसलिये बताया -- मुश्किल का कारण यह है जो सिकल को नहीं देखती हो। तो सदैव कर्म करते हुए अपने दर्पण में इन स्वरूपों को देखो कि इन स्वरूपों के बदली और स्वरूप तो नहीं हो गया। रूप बिगड़ तो नहीं गया। देखने से बिगड़े हुए रूप को सुधार लेंगे और सहज ही सदाकाल के लिये नष्टोमोहा: हो जावेंगे। समझा? अभी यह तो नहीं कहेंगे कि नष्टोमोहा: कैसे बने? नहीं। नष्टोमोहा: ऐसे बने। ‘कैसे’ शब्द को ‘ऐसे’ शब्द में बदल देना है। जैसे यह स्मृति में लाती हो कि हम ही ऐसे थे, अब फिर से ऐसे बन रहे हैं। तो ‘कैसे’ शब्द को ‘ऐसे’ में बदल लेना है। ‘कैसे बने’ इसके बजाये ‘ऐसे बने’, इसमें परिवर्तन कर लो तो जैसे थे वैसे बन जावेंगे। ‘कैसे’ शब्द खत्म हो ऐसे बन ही जावेंगे। अच्छा!

ऐसे सेकेण्ड में अपने को विस्मृति से स्मृति-स्वरूप में लाने वाले नष्टोमोहा सदा स्मृति-स्वरूप बनने वाले समर्थ आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।


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