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28-07-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अपवित्रता और वियोग को संघार करने वाली शक्तियाँ ही - असुर संघारनी है

बाप द्वारा आने से ही मुख्य दो वरदान कौन से मिले हैं? उन मुख्य दो वरदानों को जानते हो? पहले-पहले आने से यही दो वरदान मिले कि - ‘योगी भव’ और ‘पवित्र भव’। दुनिया वालों को भी एक सेकेण्ड में 35 वर्षां के ज्ञान का सार इन ही शब्दों में सुनाती हो ना। पुरूषार्थ का लक्ष्य वा प्राप्ति भी यही है ना। वा सम्पूर्ण स्टेज वा सिद्धि की प्राप्ति तो यही होती है। तो जो पहले-पहले आने से वरदान मिले वा स्मृति दिलाई कि आप सभी आत्माओं का वास्तविक स्वरूप यही है, क्या वह पहली स्मृति वा यह वरदान प्राप्त करते जीवन में यह दोनों ही बातें धारण कर ली हैं? अर्थात् योगी भव और पवित्र भव - ऐसी जीवन बन गई है कि अभी बना रही हो? धारणामूर्त बन गये हो वा अभी धारण कर रहे हो? है तो बहुत कामन बात ना। सारे दिन में अनेक बार यह दो बातें वर्णन करते होंगे। तो यह दो बातें धारण हो गई हैं वा हो रही है? अगर योगीपन में रा भी वियोग है, भोगी तो नहीं कहेंगे। बाकी रही यह दो स्टेज। तो कब माया योगी से वियोगी बना देती है। तो योग के साथ अगर वियोग भी है तो योगी कहेंगे क्या? आप लोग स्वयं ही औरों को सुनाती हो कि अगर पवित्रता में रा भी अपवित्रता है तो उसको क्या कहेंगे। अभी भी वियोगी हो क्या? वा वियोगी बन जाते हो क्या? चक्रवर्ता राजा बनने के संस्कार होने कारण दोनों में ही चक्र लगाती हो क्या - कब योग में, कब वियोग में? आप लोग विश्व के सर्व त्माओं को इस चक्र से निकालने वाले हो ना। कि बाप निकालने वाला है और आप चक्र लगाने वाले हो? तो जो चक्र से निकालने वाले हैं वह स्वयं भी चक्र लगाते हैं? तो फिर सभी को निकालेंगे कैसे? जैसे भक्ति-मार्ग के अनेक प्रकार के व्यर्थ चक्रों से निकल चुके हो, तब ही अपने निश्चय और नशे के आधार पर सभी को चेलेंज करती हो कि इन भक्ति के चक्रों से छूटो। ऐसे ही वह है तन द्वारा चक्र काटना, और यह है मन द्वारा चक्र काटना। तो तन द्वारा चक्र लगाना अब छोड़ दिया। बाकी मन का चक्र अभी नहीं छूटा है? कब वियोग, कब योग - वह मन द्वारा ही तो चक्र लगाती हो। क्या अब तक भी माया में इतनी शक्ति रही है क्या, जो मास्टर सर्वशक्तिवान को भी चक्र में ला देवे? अब तक माया को इतनी शक्तिशाली देखकर, क्या माया को मूर्छित करना वा माया को हार खिलाना नहीं आता है? अभी तक भी उसको देखते रहते हो कि हमारे ऊपर वार कर रही है। अभी तो आप शक्ति-सेना और पाण्डव-सेना को अन्य आत्माओं के ऊपर माया का वार देखते हुये रहमदिल बनकर रहम करने का समय आया है। तो क्या अब तक अपने ऊपर भी रहम नहीं किया है? अब तो शक्तियों की शक्ति अन्य आत्माओं की सेवा प्रति कर्त्तव्य में लगने की हैं। अब अपने प्रति शक्ति काम में लगाना, वह समय नहीं है। अब शक्तियों का कर्त्तव्य विश्व-कल्याण का है। विश्व-कल्याणी गाई हुई हो कि स्वयं कल्याणी हो? नाम क्या है और काम क्या है। नाम एक, काम दूसरा? जैसे लौकिक रूप में भी जब अलबेले छोटे होते हैं, जिम्मेवारी नहीं होती है; तो समय वा शक्ति वा धन अपने प्रति ही लगाते हैं। लेकिन जब हद के रचयिता बन जाते हैं तो जो भी शक्तियाँ वा समय है वह रचना के प्रति लगाते हैं। तो अब कौन हो? अब मास्टर रचयिता, जगत्-माताएं नहीं बनी हो? विश्व के उद्धार मूर्त नहीं बनी हो? विश्व के आधार मूर्त नहीं बनी हो? जैसे शक्तियों का गायन है कि एक सेकेण्ड की दृष्टि से असुर संहार करती है। तो क्या अपने से आसुरी संस्कार वा अपवित्रता को सेकेण्ड में संहार नहीं किया है? वा दूसरों प्रति संहारनी हो, अपने प्रति नहीं? अब तो माया अगर सामना भी करे तो उसकी क्या हालत होनी चाहिए? जैसे छुईमुई का वृक्ष देखा है ना। अगर कोई भी मनुष्य का रा भी हाथ लगता है तो शक्तिहीन हो जाती है। उसमें टाइम नहीं लगता। तो आप के सिर्फ एक सेकेण्ड के शुद्ध संकल्प की शक्ति से माया छुईमुई माफिक मूर्छित हो जानी चाहिए। ऐसी स्थिति नहीं आई है? अब तो यही सोचो कि विश्व के कल्याण प्रति ही थोड़ा-सा समय रहा हुआ है। नहीं तो विश्व की आत्माएं आप लोगों को उलहना देंगी कि - आप लोगों ने 35 वर्षों में इतनी पालना ली, फिर भी कहती हो ‘योगी भव’, ‘पवित्र भव’ बन रहे हैं, और हमको कहती हो 4 वर्ष में वर्सा ले लो। फिर आपका ही उलहना आपको देंगे। फिर आप क्या कहेंगे? यह जो कहते हो कि अभी बन रहे हैं वा बनेंगे, करेंगे - यह भाषा भी बदलनी है। अभी मास्टर रचयिता बनो। विश्व- कल्याणकारी बनो। अब अपने पुरूषार्थ में समय लगाना, वह समय बीत चुका। अब दूसरों को पुरूषार्थ कराने में लगाओ। जबकि कहते हो दिन-प्रति-दिन चढ़ती कला है; तो चढ़ती कला, सर्व का भला’ - इसी लक्ष्य को हर सेकेण्ड स्मृति में रखो। जो अपने प्रति समय लगाते हैं वह दूसरों की सेवा में लगाने से ऑटोमेटिकली अपनी सेवा हो ही जायेंगी। अपनी अपनी तरक्की करने के लिये पुराने तरीकों को चेंज करो। जैसे समय बदलता जाता है, समस्याएं बदलती जाती हैं, प्रकृति का रूप-रंग बदलता जाता है, वैसे अपने को भी अब परिवर्तन में लाओ। वही रीति-रस्म, वही रफ्तार, वही भाषा, वही बोलना अभी बदलना चाहिए। आप अपने को ही नहीं बदलेंगे तो दुनिया को कैसे बदलेंगे। जैसे तमोगुण अति में जा रहा है, यह अनुभव होता है ना। तो आप फिर अतीन्द्रिय सुख में रहो। वह अति गिरावट के तरफ और आप उन्नति के तरफ। उन्हों की गिरती कला, आपकी चढ़ती कला। अभी सुख को अतीन्द्रिय सुख में लाना है। इसलिये अन्तिम स्टेज का यही गायन है कि अतीन्द्रिय सुख गोप-गोपियों से पूछो। सुख की अति होने से विशेष अर्थात् दु:ख की लहर के संकल्प का भी अन्त हो जावेगा। तो अब यह नहीं कहना कि करेंगे, बनेंगे। बनकर बना रहे हैं। अब सिर्फ सेवा के लिये ही इस पुरानी दुनिया में बैठे हैं। नहीं तो जैसे बाबा अव्यक्त बने, वैसे आपको भी साथ ले जाते। लेकिन शक्तियों की जिम्मेवारी, अंतिम कर्त्तव्य का पार्ट नूँधा हुआ है। सिर्फ इसी पार्ट के लिये बाबा अव्यक्त वतन में और आप व्यक्त में हो। व्यक्त भाव में फँसी हुई आत्माओं को इस व्यक्त भाव से छुड़ाने का कर्त्तव्य आप आत्माओं का है। तो जिस कर्त्तव्य के लिये इस स्थूल वतन में अब तक रहे हुये हो, उसी कर्त्तव्य को पालन करने में लग जाओ। तब तक बाप भी आप सभी का सूक्ष्मवतन में आह्वान कर रहे हैं। क्योंकि घर तो साथ चलना है ना। आपके बिना बाप भी अकेला घर में नहीं जा सकता। इसलिये अब जल्दी- जल्दी इस स्थूल वतन के कर्त्तव्य का पालन करो, फिर साथ घर में चलेंगे वा अपने राज्य में राज्य करेंगे। अब कितना समय अव्यक्त वतन में आह्वान करेंगे? इसलिये बाप समान बनो। क्या बाप विश्व-कल्याणकारी बनने से अपने आप को सम्पन्न नहीं बना सके? बनाया ना। तो जैसे बाप ने हर संकल्प, हर कर्म बच्चों के प्रति वा विश्व की आत्माओं प्रति लगाया, वैसे ही फालो फादर करो। अच्छा!

ऐसे हर संकल्प, हर कर्म विश्व कल्याण अर्थ लगाने वाले, बाप समान बनने वाले बच्चों प्रति याद-प्यार और नमस्ते।


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