06-08-72
ओम शान्ति अव्यक्त
बापदादा मधुबन
वृत्ति
चंचल
होने क
कारण -
व्रत
में हल्कापन
परिवर्तन-भूमि
में आकर अपने परिवर्तन
का अनुभव करते
हो?
भट्ठी
में आना
अर्थात् कमजोरियों
वा कमियों को भस्म
करना। तो ऐसे अनुभव
करते हो कि कमजोरियों
का सदा के लिये
किनारा होता जा
रहा है?
अपने में
इतनी विल-पावर
भरते जा रहे हो?
क्योंकि इस समय
का परिवर्तन सदाकाल
का परिवर्तन हो
जावेगा। जैसे अग्नि
में कोई भी वस्तु
डाली जाती है तो
अग्नि में डाली
हुई वस्तु का रूप,
रंग और कर्त्तव्य
बदल जाता है, वह
फिर से पहले वाला
हो नहीं सकता।
सदाकाल के लिए
रूप, रंग, कर्त्तव्य
बदल जावेगा। तो
ऐसे ही अपने में
अनुभव करते हो?
कमजोरियों का रूप-
रंग बदल रहा है,
ऐसा परिवर्तन कर
रहे हो? अपने अन्दर
दृढ़ संकल्प हो
कि मुझे
परिवर्तित
होकर
ही जाना है। इस
दृढ़ संकल्प की
लग्न की अग्नि
एसी तेज प्रज्वलित
की है जो इस श्रेष्ठ
संकल्प की लग्न
की अग्नि में पूरी
तरह से कमजोरियां
भस्म हो जायें?
अगर आग तेज नहीं
होती है तो ना पहला
रूप रहता, ना परिवर्तन
वाला रूप रहता
है, बीच में ही अधूरा
रह जाता है। तो
अपने आपको देखो
- इस श्रेष्ठ संकल्प
की अग्नि इतनी
तेज प्रज्वलित
हुई वा साधारण
संकल्प किया है
कि हां, प्रयत्न
कर रहे हैं, हो ही
जावेगा? इनको तीव्र
पुरूषार्थ नहीं
कहा जाता। करके
ही दिखावेंगे,
इसको कहा जाता
है तीव्र
पुरुषार्थी। इस समय
इस
भट्ठी
में आये
हुए अपनी स्टेज
तीव्र
पुरुषार्थी
का अनुभव
कर रहे हो? जो समझते
हैं कि परिवर्तन-भूमि
में आते ही तीव्र
पुरुषार्थी
की लिस्ट
में आ गये हैं, वह
हाथ उठाओ। तीव्र
पुरुषार्थी
की अविनाशी
छाप लगा ली है? अविनाशी
बाप द्वारा अविनाशी
प्राप्ति कर रहे
हो ना। जब बाप अविनाशी
है और प्राप्तियां
भी अविनाशी हैं;
तो अविनाशी प्राप्ति
द्वारा जो अपनी
स्टेज बना रहे
हो वह भी अविनाशी
हो। इतनी हिम्मत
अपने में समझते
हो कि अपनी शुभ
वृत्ति द्वारा
प्रवृत्ति को,
परिस्थिति को,
प्रकृति को बदल
सकते हो? अगर अपनी
वृत्ति श्रेष्ठ
है तो इसके आगे
प्रवृति वा परिस्थिति
कोई भी
प्रकार का
वार कर नहीं सकती,
क्योंकि शुभ वृत्ति
है ही यह कि मैं
मास्टर सर्वशक्तिवान्,
नॉलेजफुल हूं,
पावरफुल हूं। तो
क्या अपनी वृति
को इतना श्रेष्ठ
बनाया है? सदैव
वृति को चेक करो
कि हर समय अपनी
वृति श्रेष्ठ है,
साधारण वृति तो
नहीं रहती है? वृति
को श्रेष्ठ बनाने
के लिए वा प्रवृति
में रहते हुए प्रवृति
की परिस्थितियों
से निवृत रहने
का क्या साधन अपनाना
पड़े? सुनाया था
ना कि भक्ति में
करते हैं साधना,
यहां ज्ञान-मार्ग
में है साधन। वह
कौनसा साधन है?
वृति चंचल हो तो
क्या करेंगे? पहले
तो वृति चंचल होने
का कारण क्या है?
वृति चंचल वा साधारण
होने का कारण यही
है कि जो आने से
ही पहला व्रत लेते
हो वा प्रतिज्ञा
करते हो, उनसे नीचे
आ जाते हो। व्रत
को भंग कर लेते
हो वा प्रतिज्ञा
को भूल जाते हो।
पहला-पहला व्रत
है - मन, वाणी, कर्म
में पवित्र रहेंगे।
यह पहला-पहला व्रत
लिया। और, दूसरा
व्रत- एक बाप दूसरा
ना कोई - यह व्रत
सभी ने लिया हुआ
है। जो व्रत लेकर
बीच में छोड़ देते
हैं, तो भक्तिमार्ग
में भी व्रत रख
फिर बीच में खण्डन
कर दें तो इसको
क्या कहा जावेगा?
पुण्यात्मा के
बदले पापात्मा।
आपने व्रत कहां
तक धारण किया है?
व्रत को सदा कायम
रखा जाता है। भक्त
लोगों की अगर जान
भी चली जाये तो
भी व्रत नहीं तोड़ते।
तो जब आप लोगों
ने आने से ही व्रत
धारण किया तो सदैव
स्मृति में रखो।
स्मृति से कब भी
वृत्ति चंचल न
होगी। वृत्ति चंचल
ना होगी तो प्रवृति
वा परिस्थिति वा
प्रकृति के कोई
भी विघ्नों वश
नहीं होंगे, प्रकृति
को दासी, परिस्थिति
को स्व-स्थिति,
प्रवृति को शुद्ध
प्रवृत्ति का सैम्पल
बनाकर दिखावेंगे।
व्रत को हल्का
करने से ही वृति
चंचल
होती है। राखी
पर यह प्रतिज्ञा
करावेंगे ना कि
पवित्र बनो। तो
पहले स्वयं को
कंगन बांधना पड़े
तब दूसरों को भी
इस कंगन में बांध
सकेंगे। जिनको
राखी बांधते हो
वह पवित्र बनते
हैं वा व्रत लेते
हैं? इतनी हिम्मत
भी नहीं रखते।
कारण? पहले बांधने
वाले स्वयं व्रत
में रहते हैं? मंसा
में कोई भी अपवित्रता
अगर आ जाती है तो
पूरा व्रत कहेंगे?
इस कारण जितनी
बांधने वाले में
कमी है, तो जिसको
बांधते हो उन्हों
के ऊपर भी इतना
आपकी पवित्रता
के आकर्षण का प्रभाव
नहीं पड़ता है।
एक रीति-रस्म के
माफिक सिर्फ संदेश
लेते हैं कि इन्हों
का यह रहस्य है।
व्रत नहीं लेते,
क्यों? अपना ही
कारण कहेंगे ना
वा
कहेंगे कि भाग्य
में नहीं है? भाग्य
बनाने वाले तो
आप हो ना। भाग्य
बनाकर ही आओ वा
भाग्य बनाने की
इतनी तीव्र प्रेरणा
देकर आओ जो आपके
पीछे- पीछे
आकर्षित
हो भाग्य
बनाने बिना रह
न सकें। इतनी आकर्षण
वाली है ना। रिवाजी
आत्माओं के लिये
भी मिसाल देते
हैं कि फलाने के
दो शब्दों में
इतनी शक्ति थी
जो उनके पीछे सभी
लोग भागते रहते।
उन्हों के आगे
आप कितनी श्रेष्ठ
आत्माएं हो! आजकल
के जो महात्माएं
गाये जाते हैं
वह आप लोगों की
प्रजा के भी प्रजा
सदृश्य नहीं हैं
क्योंकि स्वर्ग
के अधिकारी तो
नहीं बनते हैं
ना। आपकी प्रजा
की भी जो प्रजा
होगी वह स्वर्गवासी
तो होंगे ना। स्वर्ग
के सुख का अनुभव
तो करेंगे ना।
यह तो स्वर्ग में
आ ही नहीं सकते।
तो जब इतनी श्रेष्ठ
आत्माएं हो तो
कोई विशेष कर्त्तव्य
करना चाहिए ना।
आप लोगों के एक-एक
बोल में इतनी शक्ति
होनी चाहिए जो
जैसे कि अनुभवीमूर्त
होकर बोलते हो,
आप बोलते जाओ और
वह अनुभव करते
जायें। आजकल के
जो सो-काल्ड (so-called; तथाकथित)
महात्माएं, पंडित
आदि हैं, जब उन्हों
में भी अल्पकाल
की इतनी शक्ति
है तो आप मास्टर
सर्वशक्तिवान्
के एक- एक बोल में
कितनी शक्ति होनी
चाहिए? एक-एक बोल
के साथ किसको अनुभव
कराते जाओ। जैसे
किसी को पहला पाठ
देते हो-आप आत्मा
हो। बोल के साथ
उन्हों को अनुभव
कराते जाओ। यही
तो विशेषता है।
ऐसे ही भाषण करना,
वह तो लोग भी करते
हैं। उस रीति बोलना,
यह वह भी करते हैं।
लेकिन जो अन्य
लोग नहीं कर सकते
हैं वह श्रेष्ठ
आत्माएं कर सकते
हो, वह अन्तर ही
इसमें है। तो यह
विशेषता प्रैक्टिकल
में दिखाई दे।
वह कैसे होगी? जब
अपने में सर्व
विशेषताओं को धारण
करो। अपने आप में
भी अगर विशेषता
को धारण नहीं किया
है तो औरों को भी
धारणामूर्त नहीं
बना सकते हो। इसलिये
वृति को श्रेष्ठ
बनाओ। बापदादा
के सम्मुख जो व्रत
लिया है उसमें
सदा कायम रहो।
फिर देखो, रिजल्ट
क्या निकलती है!
जब व्रत लिया है
कि ‘एक बाप दूसरा
ना कोई’, तो फिर बुद्धि
क्यों जाती है?
यह व्रत लिया है
क्या कि दूसरे
से सुनेंगे? तुम्हीं
से सुनेंगे, तुम्हीं
से बोलेंगे.... यह
व्रत लिया है।
तो फिर दूसरी आत्माओं
के तरफ चंचल वृति
से देखते ही क्यों
हो वा सुनते ही
क्यों हो? जो बाप
से सुना है वही
बोलना है, फिर और
शब्द वा व्यर्थ
बातें
कैसे कर सकते हो?
यह तो व्रत को तोड़ना
हुआ ना। जब आत्म-
अभिमानी हो रहने
का व्रत लिया है
तो फिर देह को देखते
ही क्यों हो? यह
व्रत को तोड़ना
हुआ ना। अमृतवेले
से लेकर अपने आपको
चेक करो कि जो व्रत
लिया है उस पर चल
रहे हैं? संकल्प
क्या करना है, वाणी
में क्या बोलना
है, कर्म करते हुए
कैसे कर्मयोगी
की स्थिति रहेगी
-- यह व्रत लिया है
ना। प्रवृति में
रहते कमल पुष्प
समान रहेंगे-यह
भी व्रत लिया है
ना। जो कमल फूल
समान होगा वह परिस्थितियों
के वश हो सकता है
क्या? वह तो न्यारा
और प्यारा होना
चाहिए। अगर श्रेष्ठ
वृत्ति में स्थित
हों तो कोई भी वायुमण्डल,
वायब्रेशन आदि
डगमग कर सकते हैं
क्या? वृति से ही
वायुमण्डल बनता
है। अगर आपकी वृति
श्रेष्ठ है तो
वृति के आधार से
वायुमण्डल को शुद्ध
बना सकते हो। इतनी
पावर है? वा वायुमण्डल
की पावर तेज है?
जिस समय भी कोई
वायुमण्डल के वश
हो जाते हैं, एक
होता है मन्सा
में कमजोरी आई
और वहां ही उसको
समाप्त करना। लेकिन
वर्णन भी करते
हो -- वÌया करें वायुमण्डल
ऐसा है, वायुमण्डल
के कारण मेरी वृति
चंचल हुई। जब यह
शब्द बोलते हो
उस समय अपने को
क्या समझते हो?
उस समय कौनसी आत्मा
हो? कमजोर आत्मा।
अपने आपको भूले
हुए हो। लौकिक
रूप में भी कोई
अपने आपको भूलता
है क्या? मैं कौन
हूँ, किसका बच्चा
हूं, मेरा आक्यूपेशन
क्या है -- अगर यह
किसको भूल जाये
तो सभी हंसेंगे
ना। उस समय अपने
को देखो-क्या हम
अपने को, अपने बाप
को, अपने पोजीशन
को भूल गया? इस व्रत
को अब पक्का करो।
फिर देखो, कैसे
सदा के विजयी होते
हैं। कोई भी बातें
हिला नहीं सकेंगी।
इस व्रत को बार-बार
अपने बुद्धि में
रिवाइज करो कि
कौनसी कौनसी प्रतिज्ञा
बाप से की है, कौनसा
व्रत लिया है; तो
फिर यह व्रत
रिफ्रेश
होगा,
स्मृति में रहेगा।
और, जितना स्मृति
में रहेगा उतनी
समर्थी
रहेगी।
तो ऐसा अपने को
समर्थ बनाओ। लक्ष्य
यह रखना है कि हमको
नंबरवन आना
चाहिए।
नंबरवन ग्रुप
की यादगार निशानी
वरदान-भूमि में
क्या देकर जाते
हो-उस निशानी से
नंबर
आपेही
सिद्ध हो जावेगा।
ऐसी यादगार निशानी
देकर जाना। यादगार
से उनकी स्मृति
आती है ना। ऐसा
एग्जाम्पल बनने
के लिये फिर विशेष
कमाल करनी पड़ेगी।
कोई कमाल की बात
करके दिखावेंगे
तब तो यादगार रहेगा।
अब देखेंगे यह
ग्रुप कौनसी यादगार
निशानी कायम कर
जाता है। निशानी
भी अविनाशी हो।
अब तो अपने में
सर्व-शक्तियों
की प्राप्ति का
अनुभव करते हो
ना। धारणामूर्त
का पेपर तो यहां
हो जाता है। बाकी
प्रैक्टिकल पेपर
परिस्थितियों
को सामना करने
का, वह फिर वहां
जाकर देना होता
है। उसकी रिजल्ट
भी यहां आवेगी।
ऐसा प्रैक्टिकल
पेपर देना है जो
सभी महसूस करें
कि इनमें तो बहुत
परिवर्तन है। हिम्मत
रखने से मदद स्वत:
ही मिलती है। हिम्मत
में कुछ जरा-सा
भी कमी होती है
तब मदद में भी कमी
पड़ती है। कई समझते
हैं मदद मिलेगी
तो करके दिखावेंगे।
लेकिन मदद मिलेगी
ही हिम्मत रखने
वालों को। पहले
हिम्मते बच्चे,
फिर मददे बाप है।
हिम्मत धारण करो
तो आपकी एक गुणा
हिम्मत बाप की
सौ गुणा मदद। अगर
एक भी कदम ना उठावें
तो बाप भी 100 कदम ना
उठावेंगे। जो करेगा
वो पावेगा। हिम्मत
रखना अर्थात् करना।
सिर्फ बाप के ऊपर
रखना कि बाबा मदद
करेगा तो होगा
-- यह भी पुरूषार्थहीन
के लक्षण हैं।
बापदादा को मालूम
नहीं है कि हमको
मदद करनी है? क्या
आपके कहने से करेंगे?
जो कहने से करता
है उसको क्या कहा
जाता है? जो स्वयं
दाता बन कर रहे
हैं उनको कह करके
कराना, यह इनसल्ट
नहीं है? देने वाले
दाता के आगे 5 पैसे
क्या देते हो? तो
बापदादा को भी
शिक्षा स्मृति
में दिलाते हो
कि आपको मदद करनी
चाहिए?
यह संकल्प कब ना
रखो। यह तो स्वत:
ही प्राप्त होंगे।
जब अपने को वारिस
समझते हो तो वारिस
वर्से के अधिकारी
स्वत: ही होते हैं,
मांगना नहीं पड़ता
है। लौकिक में
तो उन्हों को स्वार्थ
रहता है तब मांगते
हैं। यहां अपना
स्वार्थ ही नहीं
तो बाकी रख कर क्या
करेंगे। इसलिये
यह संकल्प रखना
भी कमजोरी है।
पूरा निश्चय-बुद्धि
बनना है -- बाप हमारा
साथी है, बाबा सदा
मददगार है। निश्चय
बुद्धि विजयन्ति।
ऐसा सदा स्मृति
में रखते हुये,
हर कदम उठाओ तो
देखो विजय आपके
गले का हार बन जावेगी।
जिन्हों के गले
में विजय की माला
पड़ती वही विजय
माला के मणके बनते
हैं। अगर अभी विजयी
नहीं बनते तो विजय
माला में नहीं
आते। तो यह सदा
स्मृति में रख
कदम उठाओ तो फिर
सदा सिद्धि-स्वरूप
हो जावेंगी। कोई
संकल्प वा बोल
वा कर्म सिद्ध
ना हो - यह हो ही नहीं
सकता, अगर पुरूषार्थ
की विधि यथार्थ
है तो। कोई भी कर्म
विधिपूर्वक करने
से ही सिद्धि होती
है। विधिपूर्वक
नहीं करते हो तो
सिद्धि भी नहीं
होती। विधिपूर्वक
का प्रत्यक्षफल
‘सिद्धि’ मिलेगी
ही। अच्छा!