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22-11-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


अंतिम सर्विस का अंतिम स्वरूप

पने अंतिम स्वरूप का साक्षात्कार होता रहता है? क्योंकि जितना- जितना नदीक आते जाते हैं उतना ऐसे अनुभव होगा, जैसे कोई सम्मुख वस्तु दिखाई दे रही है। ऐसे ही अनुभव होगा कि अभी-अभी यह बनेंगे। जैसे वृद्ध अवस्था वालों को यह सदा स्मृति रहती है कि अभी- अभी वृद्ध हूं, अभी-अभी जाकर बच्चा बनूंगा। ऐसे ही अपने अंतिम स्वरूप की स्मृति नहीं लेकिन सम्मुख स्पष्ट रूप से साक्षात्कार होता है-अभी यह हूं, फिर यह बनेंगे? जैसे शुरू में सुनाते थे कि जब मंजिल पर पहुंच जावेंगे तो ऐसे समझेंगे कि कदम रखने की देरी है। एक पांस रख चुके हैं, दूसरा रखना है। बस, इतना अन्तर है। तो ऐसे अपनी अंतिम स्टेज की समीपता का अनुभव होता है? अपरोक्ष स्पष्ट साक्षात्कार होता है? जैसे आइने में अपना रूप स्पष्ट दिखाई देता है, वैसे ही इस नॉलेज के दर्पण में ऐसा ही अपना अंतिम स्वरूप स्पष्ट दिखाई दे-जैसे कोई बहुत अच्छा सुन्दर चोला सामने रखा हो और मालूम हो कि हमको अभी यह धारण करना है तो न चाहते हुये भी जैसा-जैसा समय नजदीक धारण करने का आता रहेगा तो अटेंशन जावेगा क्योंकि सामने दिखाई दे रहा है। ऐसा ही अपना अंतिम स्वरूप सामने दिखाई देता है और उस स्वरूप तरफ अटेंशन जाता है? वह लाइट का स्वरूप कहो वा चोला कहो, लाइट ही लाइट दिखाई पड़ेगी। फरिश्तों का स्वरूप क्या होता है? लाइट। देखने वाले भी ऐसे अनुभव करेंगे कि यह लाइट के वस्त्रधारी हैं, लाइट ही इन्हों का ताज है, लाइट ही वस्त्र हैं, लाइट ही इन्हों का श्रृंगार है। जहां भी देखेंगे तो लाइट ही देखेंगे। मस्तक के ऊपर देखेंगे तो लाइट का क्राउन दिखाई पड़ेगा। नैनों में भी लाइट की किरणें निकलती हुई दिखाई देंगी। तो ऐसा रूप सामने दिखाई पड़ता है? क्योंकि माइट रूप अर्थात् शक्ति रूप का जो पार्ट चलता है वह प्रसिद्ध किससे होगा? लाइट रूप से कोई भी सामने आये तो एक सेकेण्ड में अशरीरी बन जाये - वह लाइट रूप से ही होगा। ऐसा चलता-फिरता लाइट-हाऊस हो जावेंगे जो किसी को भी यह शरीर दिखाई नहीं पड़ेगा। विनाश के समय पेपर में पास होना है तो सर्व परिस्थितियों का सामना करने के लिये लाइट-हाऊस होना पड़े, चलते-फिरते अपना यह रूप अनुभव होना चाहिए। यह प्रैक्टिस करनी है। शरीर बिल्कुल भूल जाये। अगर कोई काम भी करना है, चलना है, बात करनी है वह भी निमित्त आकारी लाइट का रूप धारण कर करना है। जैसे पार्ट बजाने के समय चोला धारण करते हो, कार्य समाप्त हुआ चोला उतारा। एक सेकेण्ड में धारण करेंगे, एक सेकेण्ड में न्यारे हो जावेंगे। जब यह प्रैक्टिस पक्की हो जावेगी, फिर यह कर्मभोग समाप्त होगा। जैसे इन्जेक्शन लगा कर दर्द को खत्म कर देते हैं। हठयोगी तो शरीर से न्यारा करने का अभ्यास कराते हैं। ऐसे ही यह स्मृति- स्वरूप का इंजेक्शन लगाकर और देह की स्मृति से गायब हो जायें। स्वयं भी अपने को लाइट रूप अनुभव करो तो दूसरे भी वही अनुभव करेंगे। अंतिम सर्विस, अंतिम स्वरूप यही है। इससे सारे कारोबार भी लाइट अर्थात् हल्के होंगे। जो कहावत है ना -- पहाड़ भी राई बन जाती है। ऐसे कोई भी कार्य लाइट रूप बनने से हल्का हो जावेगा, बुद्धि लगाने की भी आवश्यकता नहीं रहेगी। हल्के काम में बुद्धि नहीं लगानी पड़ती है। तो इसी लाइट-स्वरूप की स्थिति में, जो मास्टर जानी-जाननहार वा मास्टर त्रिकालदर्शा के लक्षण हैं, वह आ जाते हैं। करें या न करें -- यह भी सोचना नहीं पड़ेगा। बुद्धि में वही संकल्प होगा जो यथार्थ करना है। उसी अवस्था के बीच कोई भी कर्मभोग की भासना नहीं रहेगी। जैसे इंजेक्शन के नशे में बोलते हैं, हिलते हैं, सभी कुछ करते भी स्मृति नहीं रहती है। कर रहे हैं - यह स्मृति नहीं रहती है, स्वत: ही होता रहता है। वैसे कर्मभोग व कर्म किसी भी प्रकार का चलता रहेगा लेकिन स्मृति नहीं रहेगी। वह अपनी तरफ आकर्षित नहीं करेगा। ऐसी स्टेज को ही अंतिम स्टेज कहा जाता है। ऐसा अभ्यास होना है। यह स्टेज कितना समीप है? बिल्कुल सम्मुख तक पहुंच गये हैं? जब चाहें तब लाइट रूप हो जावें, जब चाहें तब शरीर में आवें वा जो कुछ करना हो वह करें। सदाकाल वह स्थिति एकरस जब तक रहे तब तक बीच-बीच में कुछ समय तो रहे। फिर ऐसे रहते-रहते सदाकाल हो जावेगी। जैसे साकार में आकार का अनुभव करते थे ना। फर्स्ट में रहते भी फरिश्ते का अनुभव करते थे। ऐसी स्टेज तो आनी है ना। शुरू-शुरू में बहुतों को यह साक्षात्कार होते थे। लाइट ही लाइट दिखाई देती थी। अपने लाइट के क्राउन के भी अनेक बार साक्षात्कार करते थे। जो आदि में सैम्पल था वह अंत में प्रैक्टिकल स्वरूप होगा। संकल्प की सिद्धि का साक्षात्कार होगा। जैसे वाचा से आप डायरेक्शन देती हो ना, वैसे संकल्प से सारे कारोबार चला सकती हो। नीचे पृथ्वी से ऊपर तक डायरेक्शन लेते रहते हैं, तो क्या श्रेष्ठ संकल्प से कारोबार नहीं चल सकती है? साईंस ने कॉपी तो साइलेंस से ही किया है। तो एग्जाम्पल देने अर्थ पहले से ही स्पष्ट रूप में आपके सामने है। कल्प पहले तो आप लोगों ने किया है ना। फिर बोलने की आवश्यकता नहीं। जैसे बोलने में बात को स्पष्ट करते हैं, वैसे ही संकल्प से सारे कारोबार चलें। जितना-जितना अनुभव करते जाते हो, एक दो के समीप आते जाते हो तो संकल्प भी एक-दो से मिलते जाते हैं। लाइट रूप होने से व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ समय समाप्त हो जाने के बाद संकल्प वही उठेगा जो होना है। आपकी बुद्धि में भी वही संकल्प उठेगा और जिसको करना है उनकी बुद्धि में भी वही संकल्प उठेगा कि यही करना है। नवीनता तो यह है ना। यह कारोबार कोई देखे तो समझेंगे इन्हों की कारोबार कहने से नहीं, इशारों से चलती है। नर से देखा और समझ गये। सूक्ष्मवतन यहां ही बनना है। ऐसी प्रैक्टिस कराती हो? टीचर्स को यह सिखलाती हो कि अजुन भाषण करना सिखलाती हो? आप लोगों की स्टेज अपनी है। आप लोग वह स्टेज पार कर चुके हैं। नंबरवार तो हैं ना। जैसे भविष्य में ताज, तख्त धारण करके फिर छोडकर देते जावेंगे ना। तब तो दूसरे लेंगे। यहां भी आप लोग स्टेज को पार करते चलते जावेंगे तब दूसरे उस स्टेज पर आवेंगे। भविष्य की रूपरेखा यहां चलेगी ना। उस स्टेज से ऐसी लगन लग जावेगी जो उनके बिना जैसे अच्छा ही नहीं लगेगा। न चाहते भी बार-बार उस तरफ चले जावेंगे। अच्छा!


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