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23-11-72   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


शक्ति-दल की विशेषताएं

(मधुबन-निवासियों के सम्मुख बापदादा के उच्चारे हुए महावाक्य)

धुबन निवासी शक्तिसेना अपने को सदा शक्ति रूप में अनुभव करते हुये चलते हो? गायन ही है शक्ति दल। शक्ति दल के कारण ही बाप का नाम भी सर्वशक्तिवान् है। तो यह है सर्व-शक्तिवान् का शक्ति दल। शक्ति दल की विशेषता है सदा और सर्व समस्याओं को ऐसे पार करे जैसे कोई सीधा रास्ता सहज ही पार कर लेते हैं। सोचेंगे नहीं, ठहरेंगे नहीं। इसी प्रकार शक्ति दल की विशेषता यही है जो समस्याएं उनके लिऐ चढ़ती कला का सहज साधन अनुभव होगा। समस्या साधन के रूप में परिवर्तन हो जाये। तो साधन अपनाने में मुश्किल नहीं लगता है क्योंकि मालूम होता है कि यह साधन ही सिद्धि का आधार है। शक्ति दल को सदैव हर समस्या जानी- पहचानी हुई अनुभव होगी। वह कभी भी आश्चर्यवत नहीं होंगे। आश्चर्यवत के बजाये सदा सन्तुष्ट रहेंगे। कोई सहज साधन है वा जो भी सम्बन्ध में बातें आती हैं वह अपने अनुकूल हों - इस कारण संतुष्ट रहे तो इसको कोई संतुष्टता नहीं कहेंगे। जो अपने संबंध में वा अपनी स्थिति के प्रमाण अनुकूल न भी महसूस हों तो भी उसमें संतुष्ट रहें - ऐसी स्थिति होनी चाहिए। शक्ति दल के मुख से कभी ‘कारण’ शब्द नहीं निकलेगा। इस कारण से यह हुआ।

‘कारण’ शब्द निवारण में परिवर्तित हो जावेगा। यह तो अज्ञानी भी कहते हैं कि इस कारण से यह हुआ। आपकी यह स्टेज न होनी चाहिए। सामने कोई कारण आवे भी तो उसी घड़ी उसको निवारण के रूप में परिवर्तन करना है। फिर यह भाषा खत्म हो जावेगी, समय गंवाना खत्म हो जावेगा। 10-20 मिनट लगें वा 2 मिनट लगें, समय तो गया ना। उसी समय फौरन त्रिकालदर्शा बन कल्प-कल्प इस कारण का निवारण किया था - वह स्पष्ट स्मृति में आने से कारण को निवारण में बदली कर देंगे। सोचेंगे नहीं कि - ‘‘यह करना चाहिए वा नहीं? यह ठीक होगा वा नहीं? यह कैसे होगा?’’ ऐसी भाषा खत्म हो जावेगी। जैसे मकान बनता है तो पहले छत डालने का आधार बनाते हैं। तो पहले वह समय था। अभी तो निराधार होना है। पहले यह बातें सुनने के लिये समय देते थे, पूछते थे -- कोई समस्या तो नहीं है, कोई सम्पर्क वाले विघ्न तो नहीं डालते। अब यह पूछने की आवश्यकता नहीं। अब अनुभवी हो चुके हो। तो ऐसी स्टेज तक पहुंची हो वा अभी तक यह बातें करती हो कि यह हुआ, फिर यह हुआ? इन बातों को कहते हैं रामायण की कथाएं-यह हुआ, फलानी ने यह बोला। रामायण की कथाओं में टाइम तो नहीं गंवाती हो? अभी तक भी कथा-वाचक नहीं हो? रामायण की कथा भी कोई एक हफ्ते में, कोई 10 दिन में पूरी करता है। ऐसी कथाएं तो नहीं करती हो? आपस में एक दो से मिलती भी हो तो याद की यात्रा की युक्तियां वा दिन-प्रतिदिन जो गुह्य-गुह्य बातें सुनते जाते हो उनकी लेन-देन करो। अब ऐसी स्टेज हो जानी चाहिए। जैसे भक्ति मार्ग को दुर्गति मार्ग समझ छोड़ देती हो ना। अगर भक्ति मार्ग की कोई भी रीति-रस्म अब तक भी हो तो आश्चर्य लगेगा ना। क्योंकि समझते हो वह दुर्गति मार्ग है। वैसे ही यह बातें करना वा इन बातों में समय गंवाना, इसको भी ऐसे समझना चाहिए जैसे भक्ति मार्ग दुर्गति मार्ग की रीति रस्म। जब ऐसा अनुभव होगा तब समझो परिवर्तन। जैसे अनुभव करती हो ना - भक्ति मार्ग जैसे पिछले जन्म की बातें। इस जन्म में कब घंटी बजावेंगे वा माला सुमिरण करेंगे? पास्ट लाइफ पर हंसी आवेगी। वैसे यह भी क्या है? अगर समझो, किसी के अवगुण वा ऐसी चलन का सुमिरण करती हो तो यह भी भक्ति हुई ना? जैसे बाप के गुणगान करना, सुमिरण करना वह माला हुई, अगर किसी के अवगुण वा ऐसी देखी हुई बातों का सुमिरण करती हो तो वह भी भक्ति मार्ग दुर्गति की माला फेरती हो। मन में संकल्प करना, यह भी जाप हुआ ना। जैसे वह अजपाजाप करते रहते हैं, वैसे संकल्प चलते रहते हैं, बंद नहीं होते। तो यह भी जाप हुआ। यह है भक्ति के दुर्गति की रस्म। एक दो को सुनाते हो, यह घंटियां बजाती हो -- फलानी ने यह किया, यह किया। यह भक्ति, दुर्गति की रस्म है। मधुबन निवासी तो ज्ञान स्वरूप हैं ना। कोई भी दुर्गति की रीति-रस्म चाहे स्थूल, चाहे सूक्ष्म है, उनसे वैराग्य आना चाहिए। जैसे भक्ति के स्थूल साधनों से वैराग्य आ गया नॉलेज के आधार पर, वैसे इन भक्ति-मार्ग के रस्म से भी ऐसे वैराग्य आना चाहिए। इस वैराग के बाद ही याद की स्पीड बढ़ सकेगी। नहीं तो कितना भी पुरूषार्थ करो। जैसे भक्त लोग कितना भी पुरूषार्थ करते हैं भगवान की याद में बैठने का, बैठ सकते हैं? कितना भी अपने को मारते हैं, कष्ट करते हैं, भिन्न रीति से समय देते हैं, सम्पत्ति लगाते हैं, फिर भी हो सकता है? यहां भी अगर दुर्गति मार्ग की रीति-रस्म है तो याद की यात्रा की स्पीड़ बढ़ नहीं सकती, अटूट याद हो नहीं सकती। घंटिया बजाना आदि छूट गया कि स्थूल रूप में छोड़ सूक्ष्म रूप ले लिया? भक्तों को तो खूब चैलेंज करते हो कि टाइम वेस्ट, मनी वेस्ट करते हो। अपने को चेक करो - कहां तक ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बने हो? ‘ज्ञानी तू आत्मा’ का अर्थ ही है हर संस्कार, हर बोल ज्ञान सहित हो। कर्म भी ज्ञान-स्वरूप हो। इसको ‘ज्ञानी तू आत्मा’ कहा जाता है। आत्मा में जैसे-जैसे संस्कार हैं वह आटोमेटिकली वर्क करते हैं। ‘ज्ञानी तू आत्मा’ के नेचरल कर्म, बोल ज्ञान-स्वरूप होंगे। तो अपने को देखो - ‘ज्ञानी तू आत्मा’ बने हैं? भक्ति अर्थात् दुर्गति में जाने का रा भी नाम-निशान न होना चाहिए। जैसे आप लोग कहते हो - जहां ज्ञान है वहां भक्ति नहीं, जहां भक्ति है वहां ज्ञान नहीं। रात और दिन की मिसाल देकर बताती हो ना। तो भक्तिपन के संस्कार स्थूल व सूक्ष्म रूप में भी न हों। ज्ञान के संस्कार भी बहुत समय से चाहिए ना। बहुत समय से अभी संस्कार न भरेंगे तो बहुत समय राज्य भी नहीं करेंगे। अन्त समय भरने का पुरूषार्थ करेंगे तो राज्य-भाग्य भी अंत में पावेंगे। अभी से करेंगे तो राज्य-भाग्य भी आदि से पावेंगे। हिसाब-किताब पूरा है। जितना और उतना। मधुबन निवासियों को तो लिफ्ट है और एकस्ट्रा गिफ्ट है क्योंकि सामने एग्जाम्पल है, सभी सहज साधन हैं। सिर्फ कारण को निवारण में परिवर्तन कर दो तो मधुबन निवासियों को जो गिफ्ट है उनसे अपने को बहुत परिवर्तित कर सकते हैं। सदैव आपके सामने निमित्त बनी हुई मूर्तियां एग्जाम्पल हैं। शक्तियों का संकल्प भी पावरफुल होता है, कमजोर नहीं। जो चाहे सो करें, ऐसे को शक्ति सेना कहा जाता है। यहां तो बहुत सहज साधन है। काम किया और अपने पुरूषार्थ में लग गये। मधुबन निवासियों से ही मधुबन की शोभा है। फिर भी बहुत लक्की हो। अपने को जानो न जानो, फिर भी लक्की हो। कई बातों से बचे हुए हो। स्थान के महत्व को, संग के महत्व को, वायुमण्डल के महत्व को भी जानो तो एक सेकेण्ड में महान् बन जावेंगे। कोई बड़ी बात नहीं। माला फिक्स नहीं है। सभी को चाँस है। अब देखेंगे प्रैक्टिकल में क्या परिवर्तन दिखाते हैं? उम्मीदवार तो हो ना? अच्छा।


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