15-04-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


विघ्न-विनाशक बन कर अंगद समान माया पर विजय प्राप्त करो

विघ्न-विनाशक, विश्व-पालक और माया पर विजय प्राप्त करा कर उमंग और उल्लास को बढ़ाने वाले शिवबाबा बोले :-

क्या सभी उन्नति की ओर बढ़ते जा रहे हो? चढ़ती कला की निशानी क्या है, क्या वह जानते हो? सदा लगन में मग्न और विघ्न-विनाशक यह दोनों निशानियाँ क्या अनुभव में आ रही हैं? या विघ्नों को देख विघ्न-विनाशक बनने के बजाय, विघ्नों को देख अपनी स्टेज से नीचे तो नहीं आ जाते हो? क्या अनेक प्रकार के आये हुए तूफान आपकी बुद्धि में तूफान तो पैदा नहीं करते हैं? जैसे कोई के द्वारा तोहफा मिलता है तो बुद्धि में हलचल नहीं होती है बल्कि उल्लास होता है। इसी प्रकार आये हुए तूफान उल्लास बढ़ाते हैं या हलचल बढ़ाते हैं? अगर तूफान को तूफान समझा तो हलचल होगी और तोहफा समझा व अनुभव किया तो उससे उल्लास और हिम्मत अधिक बढ़ेगी। यह है चढ़ती कला की निशानी। घबराने के बजाय गहराई में जाकर अनुभव के नये-नये रत्न इन परीक्षाओं के सागर से प्राप्त करेंगे तो क्या ऐसे अनुभव करते हो? यह क्या हो रहा है, क्यों हो रहा है और ऐसे कैसे चलेगा? यह जो संकल्प चलते हैं इसको हलचल कहा जाता है। हलचल के अन्दर रत्न समाये हुए हैं। ऊपर-ऊपर से अर्थात् बहिर्मुखता की दृष्टि और बुद्धि द्वारा देखने से हलचल दिखाई देगी अथवा अनुभव होगी? लेकिन उसी आई हुई बातों को अन्तर्मुखी दृष्टि व बुद्धि से देखने से अनेक प्रकार के ज्ञान-रत्न अर्थात् प्वाइन्ट्स प्राप्त होंगे।

अगर कोई भी बात को देखते या सुनते हुए आश्चर्य अनुभव होता है तो यह भी फाइनल स्टेज नहीं है। ऐसा तो होना नहीं चाहिए, अच्छा जो हुआ वह होना ही चाहिए, अगर ऐसा संकल्प ड्रामा के होने पर भी उत्पन्न होता है तो इसको भी अंशमात्र्  की हलचल का रूप कहेंगे। अब तक यह क्यों-क्या का क्वेश्चन का अर्थ है - हलचल। विघ्न आना आवश्यक है और जितना विघ्न आना आवश्यक है अगर उतना यह बुद्धि में रहेगा तो उतना ही ऐसा महारथी हर्षित रहेगा। नथिंग न्यू यह है फाइनल स्टेज । यदि कोई भी हलचल का कर्त्तव्य करते हो व पार्ट बजाते हो तो सागर समान ऊपर से हलचल भले ही दिखाई दे रही हो अर्थात् चाहे कर्मेन्द्रियों की हलचल में आ रहे हों लेकिन स्थिति नथिंग न्यू की हो। एकाग्र, एकरस, एकान्त अर्थात् एक रचयिता और रचना के अन्त को जानने वाले त्रिकालदर्शी की स्टेज पर, क्या आराम से शान्ति की स्टेज पर स्थित हैं या कर्मेन्द्रियों की हलचल आन्तरिक स्टेज को भी हिलाती है? जब स्थूल सागर दोनों ही रूप दिखाता है तो क्या मास्टर ज्ञान सागर ऐसा रूप नहीं दिखा सकते? यह प्रकृति ने पुरूष से कॉपी की है। आप तो पुरूषोत्तम हो। जो प्रकृति अपनी क्वॉलिफिकेशन दिखा सकती है, क्या वह पुरूषोत्तम नहीं दिखा सकते?

अब समय किस ओर बढ़ रहा है यह जानते हो? अति की तरफ बढ़ रहा है। सभी तरफ अति दिखाई पड़ रही है। अन्त की निशानी अति है। तो जैसे प्रकृति समाप्ति की तरफ अति में जा रही है वैसे ही सम्पन्न बनने वाली आत्माओं के सामने अब परीक्षायें व विघ्न भी अति के रूप में आयेंगे। इसलिये आश्चर्य नहीं खाना है कि पहले यह नहीं था अब क्यों है? यह आश्चर्य भी नहीं। फाइनल पेपर में आश्चर्यजनक बातें क्वेश्चन के रूप में आयेंगी तब तो पास और फेल हो सकेंगे। न चाहते हुए भी बुद्धि में क्वेश्चन उत्पन्न न हों, यही तो पेपर है। और है भी एक सेकेण्ड का ही पेपर। क्यों का संकल्प चन्द्रवंशी की क्यू में लगा देगा। पहले तो सूर्यवंशी का राज्य होगा ना? चन्द्रवंशियों का नम्बर पीछे होगा। तो उनका, राज्य के तख्तनशीन बनने की क्यू में नम्बर आयेगा। इसलिए एकरस स्थिति में स्थित होने का अभ्यास निरन्तर हो। समस्या के सीट को सम्भालने नहीं लग जाओ। लेकिन सीट पर बैठ समस्या का सामना करना है। अब तो समस्या सीट की याद दिलाती है। विघ्न आता है, तो विशेष योग लगाते हो और भट्ठी रखते हो ना? इससे सिद्ध होता है कि दुश्मन ही शस्त्र की स्मृति दिलाते हैं लेकिन स्वत: और सदा-स्मृति नहीं रहती। निरन्तर योगी हो या अन्तर वाले योगी हो? टाइटल तो निरन्तर योगी का है ना? दुश्मन आवे ही नहीं, समस्या सामना न कर सके। सूली से कांटा बनना यह भी फाइनल स्टेज नहीं। सूली से कांटा बने और कांटे को फिर योगाग्नि से दूर से ही भस्म कर दें। कांटा लगे और फिर निकालो, यह फाइनल स्टेज नहीं है। कांटे को अपनी सम्पूर्ण स्टेज से समाप्त कर देना है-यह है फाइनल स्टेज। ऐसा लक्ष्य रखते हुए अपनी स्टेज को आगे चढ़ती कला की तरफ बढ़ाते चलो। बड़ी बात को छोटा अनुभव करना, इस स्टेज तक महारथी नम्बरवार यथा-शक्ति पहुंचे हैं। अब पहुंचना वहाँ तक है जो कि अंश और वंश भी समाप्त हो जाए।

आप सभी हिम्मत, उल्लास और सर्व के सहयोगी सदा रहते हुए चल रहे हो ना? कलियुगी दुनिया को समाप्त करने के लिये व परिवर्तन करने के लिए, माया को विदाई देने के लिये संगठन अर्थात् घेराव डाला हुआ है ना? मज़बूत घेराव डाला हुआ है या बीच-बीच में कोई ढीले हो जाते हैं अथवा थक तो नहीं जाते या चलते- चलते रूक तो नहीं जाते हो ना? न आगे बढ़ना, न पीछे हटना, जैसे-थे-वैसे रहना वह पाठ तो पक्का नहीं करते हो? समय धक्का लगावेगा तो चल पड़ेंगे, ऐसा सोच जहाँ के तहाँ रूक तो नहीं गये हो? किसी के किसी प्रकार के सहारे का तो इन्तज़ार करते हुए, खड़े तो नहीं हो गये हो? तो ऐसी स्टेज वालों को क्या कहेंगे? क्या इसको ही तो अंगदकी स्टेज नहीं समझते हो? अगर ऐसे रूक गये, तो फिर लास्ट वाले फास्ट चले जावेंगे। जब भी पहाड़ों पर बर्फ गिरती है और जम जाती है तो रास्ते रूक जाते हैं। तो फिर बर्फ को गलाने के लिए व उसे हटाने के लिये पुरूषार्थ करते है ना? यहाँ भी अगर बर्फ के माफिक जम जाते हो तो इससे सिद्ध होता है कि योग-अग्नि की कमी है। योग-अग्नि को तेज़ करो तो रास्ता क्लियर हो जायेगा। मिली हुई हिम्मत और उल्लास के प्वाइन्ट्स बुद्धि में दौड़ाओ तो रास्ता क्लियर हो जायेगा। अब की रिज़ल्ट में ऐसे आधा ही चल रहे हैं। इसलिए इसको आगे बढ़ाओ। यह रिज़ल्ट क्या पुरूषोत्तम आत्माओं को अच्छी लगती है? इसलिये न पुरूषार्थ की गति में अंगद बनो, न माया से हार खाने के लिये अंगद बनो, बल्कि विजयी बनने के लिए अंगद बनना है। अच्छा,

ऊंच-ते-ऊंच बाप द्वारा पालना लेने वाले, विश्व की पालना करने वाले, विष्णु-कुल की श्रेष्ठ आत्मायें, प्रकृति को परिवर्तन करने वाली पुरूषोत्तम आत्मायें, विश्व के आगे साक्षात्मूर्त्त प्रसिद्ध होने वाली आत्मायें और योगी तू आत्माओं के प्रति बाप-दादा का याद-प्यार और गुड मार्निग। अच्छा!