04-07-74   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


स्व-स्थिति की श्रेष्ठता से व्यर्थ संकल्पों की हलचल समाप्त

मर्यादा पुरूषोत्तम बनाने वाले, अपने सम्पूर्ण निशाने के नजदीक पहुँचाने वाले, व्यर्थ संकल्पों की हलचल समाप्त कर सामर्थ्यवान बनाने वाले और कर्मों की गुह्य गति को जानने वाले भोलेनाथ शिव बाबा बोले:

क्या अपने सम्पूर्ण निशाने के नज़दीक पहुंचे हो? क्या निशाने पर पहुँचने की निशानियाँ दिखाई देती हैं? क्या सम्पूर्ण निशाने के नज़दीक पहुंचने की निशानी का डबल नशा उत्पन्न होता है? पहला नशा है-कर्मातीत अर्थात् सर्व कर्म बन्धनों से मुक्त, न्यारे बन, प्रकृति द्वारा निमित्त-मात्र कर्म कराना। ऐसे कर्मातीत अवस्था का अनुभव होगा। न्यारे बनने का पुरूषार्थ बार-बार नहीं करना पड़ेगा। सहज और स्वत: ही अनुभव होगा कि कराने वाला और कराने वाली यह कर्मेन्द्रियाँ स्वयं से, हैं ही अलग। दूसरा नशा है-विश्व का मालिक बनने का, कि ऐसे अनुभव करेंगे जैसे कि स्थूल चोला व वस्त्र तैयार हुआ सामने दिखाई दे रहा है और निश्चय होगा कि वस्त्र तैयार है और थोड़े ही समय में उसे धारण करना है। वह सर्वगुण सम्पन्न और सतोप्रधान नया शरीर स्पष्ट दिखाई देगा और चलते-फिरते यह नशा और खुशी होगी कि कल यह पुराना शरीर छोड़ नया शरीर धारण करेंगे। जरासा संकल्प भी उत्पन्न नहीं होगा, कि दैवी-पद प्राप्त होगा या नहीं, देवता बनेंगे अथवा नहीं और राजा बनेंगे या प्रजा? ऐसे संशय का संकल्प भी उत्पन्न नहीं होगा क्योंकि सामने स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि आज हम यह हैं और कल यह होंगे। ज्ञान के तीसरे नेत्र द्वारा योग-युक्त अर्थात् सदा योगी होने के कारण बुद्धि की लाइन क्लियर अर्थात् स्पष्ट होने के कारण निश्चय बुद्धि विजयन्ति के आधार से अनुभव होगा कि अनेक बार यह चोला धारण किया है और अब भी करना ही है। ऐसा अटल विश्वास होगा और स्पष्ट साक्षात्कार होगा। यह बनेंगे अथवा नहीं बनेंगे?-यह हलचल जब तक बुद्धि में है, तब तक ही स्थिति में भी हलचल है।

जितना-जितना स्व-स्थिति, श्रेष्ठ-स्थिति, ज्ञानस्वरूप व आत्मा के सर्व-गुणों से सम्पन्न स्थिति, अचल, अडोल, निरन्तर और एक-रस होती जायेगी तो उतने ही  संकल्पों की हलचल समाप्त होती जायेगी। जैसे साकार में मात-पिता को देखा कि दोनों के ही नशे में संकल्प की भी हलचल नहीं थी। सम्पूर्ण अचल और अटल निश्चय था कि यह तो बना हुआ ही है अथवा यह तो निश्चित ही है। तो नशे की निशानी अटल निश्चय और निश्चिन्त अनुभव होगी। निशाने की निशानी नशा और नशे की निशानी निश्चय और निश्चिन्त। साथ-साथ माया के किसी भी प्रकार का वार होने से और हार खाने से भी निश्चिन्त। ना मालूम माया हार नहीं खिलावे, विजयी बनेंगे या नहीं-इस कमजोर संकल्प से भी निश्चिन्त, क्योंकि सामने दिखाई दे रहा है, क्या ऐसा अनुभव होता है? कमजोर संकल्पों की चिन्ता में कि माया आ नहीं जावे, कमजोर हो न जाऊँ, और मुझे सफलता मिलेगी अथवा नहीं? क्या इस भय के भूत के वश अपना समय और शक्तियाँ व्यर्थ तो नहीं गँवाते हो? ऐसा कमजोर संकल्प करना अर्थात् स्वयं में संशय का संकल्प रखने से कभी भी सम्पूर्ण नहीं बन सकेंगे। यह संकल्प करना अर्थात् कमजोरियों के रूप में एक भूत के साथ और माया के भूतों का आह्वान करते हो अथवा बुद्धि में स्थान देते हो व एक के साथ अनेकों को निमन्त्रण देते हो। इसलिए इस भय के भूत को भी जब तक बुद्धि से नहीं निकाला, तब तक इस भूत के साथ बाप की याद बुद्धि में कैसे रह सकती है? बाप की याद और भूत यह दोनों इकट्ठे निवास नहीं कर सकते; इसलिए कहावत भी है कि निश्चय बुद्धि विजयन्ति।

यह निश्चय व स्मृति रखो और समर्थी रक्खो कि अनेक बार बाप के बने हैं व मायाजीत बने हैं, तो अब बनना क्या मुश्किल है? क्या स्मृति स्पष्ट नहीं है कि मुझ श्रेष्ठ आत्मा ने विजयी बनने का पार्ट अनेक बार बजाया है? अगर स्पष्ट स्मृति नहीं है तो इससे सिद्ध है कि बाप के आगे स्वयं को स्पष्ट नहीं किया है। किसी भी कारण से बाप के आगे कुछ छिपाया है तो यह भय का भूत इस कारण से ही छिपा हुआ है। जो हूँ और जैसा हूँ, वैसा ही बाप का हूँ, इस निश्चय में कमी के कारण यह भी निश्चय नहीं कि मैं अनेक बार बना हूँ। तो पहले यह चैक करो कि स्वयं को बाप के आगे स्पष्ट किया है? अथवा अपने को और बाप को खुश करते हो कि बाप तो जानी जाननहार है वह तो सब-कुछ जानते ही हैं। क्या बाप यह नहीं जानता कि मैं जानता हूँ? विश्व के शिक्षक के भी शिक्षक बनते हो? बाप को विस्मृति हुई है क्या जो बाप को स्मृति दिलाते हो? इसलिए यह एक ईश्वरीय नियम व मर्यादा है कि कोई भी एक मर्यादा का पालन नहीं करते, तो वे मर्यादा पुरूषोत्तम नहीं बन सकते, इसलिए कारण का निवारण करो। बाप के आगे छिपाने से एक के ऊपर लाख गुणा बोझ चढ़े हुए होने के कारण जब तक स्वयं को हल्का नहीं किया है तो सोचो कि एक गलती के पीछे अनेक गलतियाँ करने से और एक मर्यादा का उल्लंघन होने से अनेक मर्यादाओं का उल्लंघन हो जाने के कारण व इतना लाख गुणा बोझ चढ़ा हुआ होने से चढ़ती कला में कदम कैसे बढ़ा सकते हो और निशाने के समीप कैसे आ सकते हो? लौकिक दुनिया में भी कोई चीज छिपाने वाले को कौन-सा टाइटल दिया जाता है? छोटी-सी चीज को छिपाने वाले को चोर की लिस्ट में तो गिनेंगे ना? तो जब तक ऐसे संस्कार है, बाप-दादा के आगे झूठ बोलना व किसी प्रकार से बात को चला देना तो मालूम है कि इसका कितना पाप होता है? ऐसे अनेक प्रकार के चरित्र बाप के आगे दिखाते हैं; ऐसे चरित्र दिखाने वाले कभी श्रेष्ठ चरित्रवान नहीं बन सकते। बाप को भोलानाथ समझते हैं ना, इसलिए समझते हैं कि छिप जायेगा और चल जायेगा। लेकिन बाप के रूप में भोलानाथ है, साथ-साथ हिसाब-किताब चुक्तु कराने के समय फिर लॉफुल भी तो है, फिर उस समय क्या करेंगे? क्या स्वयं को छिपा सकेंगे व बचा सकेंगे?

अपने अनेक प्रकार के बोझ को चैक करो। अमृतवेले से लेकर जो ईश्वरीय मर्यादायें बनी हुई हैं और जानते भी हो कि सारे दिन में कितनी मर्यादायें उल्लंघन की हैं। एक-एक मर्यादा के ऊपर प्राप्ति के मार्क्स भी हैं और साथ-साथ सिर पर बोझ का भी हिसाब है और जिन मर्यादाओं को साधारण समझते हो उन्हों में भी उनकी प्राप्ति और उनके बोझ का हिसाब है। संकल्प, बोल, समय और शक्तियों का खज़ाना इन सबको व्यर्थ करने से व्यर्थ का बोझ चढ़ता है। जैसे यज्ञ की स्थूल वस्तु, भोजन व अन्न अगर व्यर्थ गँवाते हो तो बोझ चढ़ता है ना? ऐसे ही जब यह मरजीवा जीवन का समय बाप ने विश्व की सेवा-अर्थ दिया है, तो सर्वशक्तियाँ स्वयं के व विश्व के कल्याण अर्थ दी है, मन शुद्ध संकल्प करने के लिए दिया है और यह तन विश्व-कल्याण की सेवा के लिए दिया है। आप सबने तन, मन और धन जो दे दिया है तो वह आपका है क्या? जो अर्पण किया वह बाप का हो गया ना? बाप ने फिर वह विश्व सेवा के लिये दिया है। श्रेष्ठ संकल्प से वायुमण्डल और वातावरण को शुद्ध करने के लिये मन दिया है, ऐसे ईश्वरीय देन को अर्थात् ईश्वर द्वारा दी गई वस्तु को यदि व्यर्थ में लगाते हो तो बोझा नहीं चढ़ेगा?

आजकल भी जड़ मूर्तियों द्वारा व मन्दिरों में जो थोड़ा-सा प्रसाद भी मिलता है तो उसको कब व्यर्थ नहीं गँवाते हैं। अगर जरा-सा कणा भी पाँव में गिर जाता है, तो पाप समझ मस्तक से लगाकर स्वीकार करते हैं। अनेकों के मुख में डाल प्रसाद को सफल करने का पुरूषार्थ करेंगे और उसे व्यर्थ नहीं गँवायेंगे। यह स्वयं बाप द्वारा मिली हुई जो वस्तु मन व तन परमात्म-प्रसाद हो गया, क्या इसको व्यर्थ करने का बोझ नहीं चढ़ेगा? जैसे समय की गति गहन होती जा रही है तो वैसे ही अब पुरूषार्थ की प्राप्ति और बोझ की गति भी गहन होती जा रही है। इसको ही कहा जाता है कि कर्मों की गति अति गुह्य है। तो आज कर्मों की गुह्य गति सुना रहे हैं कि जिससे ही सद्गति पा सकेंगे। अब समझा, कि निशाने के समीप की निशानियाँ क्या हैं? वा निशाने के समीप जाने की विधि क्या है?

बाप-दादा को भी रहम पड़ता है कि सभी को अभी से सम्पूर्ण बना देवे। लेकिन रचयिता भी मर्यादाओं व ईश्वरीय नियमों में बँधा हुआ है। बाप भी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं कर सकते। जो करेगा, वह पावेगा’, यह मर्यादा बाप को पूर्ण करनी पड़ती है। हाँ इतनी मार्जिन है कि जो एक का सौ गुणा दे देते हैं। हिम्मत करने पर मदद कर सकते हैं, बाकी और कुछ नहीं कर सकते हैं। अच्छा!

ऐसे हिम्मत और उल्लास में रहने वाले, सदा निश्चय बुद्धि विजयी बनने वाले, निशाने के समीप पहुँची हुई आत्मा, सदा नशे में रहने वाली आत्मायें, व्यर्थ को समर्थ बनाने वाली आत्मायें, हर सेकेण्ड और हर संकल्प को सफल करने वाली सफलतामूर्त आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार, गुडनाइट और नमस्ते।