18-01-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


मधुबन रूपी परिवर्तन भूमि पर पवित्रता का वरदान देने वाले शिव बाबा सेवा-केन्द्रों से आये हुए वत्सों से बोले –

मधुबन की क्या महिमा करते हो? कहते हो कि यह परिवर्तन भूमि है। आप सभी परिवर्तन भूमि या वरदान भूमि में आये हुए हो। स्वयं में व अन्य में वरदान का अनुभव करते हो? यहाँ आना अर्थात् वरदान पाना, परिवर्तन करना। अब क्या परिवर्तन करना है? जो विशेष कमजोरी व विशेष संस्कार समय-प्रतिसम य विघ्न रूप बनता है, ऐसा संस्कार व ऐसी कमजोरी यहाँ परिवर्तन करके जाना है। तभी कहेंगे कि स्वयं में परिवर्तन लाया। विशेष उमंग, उत्साह और लगन से यहाँ तक पहुँचते हो तो यहाँ मधुबन में अपनी लगन को ऐसी अग्नि का रूप बनाओ कि जिस अग्नि में सर्व व्यर्थ संकल्प, सर्व कमजोरियाँ व सब रहे हुए पुराने संस्कार भस्म हो जाएँ।

मधुबन को कहा जाता है - अश्वमेघ रूद्र-ज्ञान महायज्ञ। यज्ञ में क्या किया जाता है? स्वाहा किया जाता है। आप बच्चे भी अमृत वेले उठ रोज यज्ञ रचते हो लगन की अग्नि का। जिस लगन रूपी अग्नि में अपनी कमज़ोरी स्वाहा करते हो। लेकिन यह महायज्ञ है। मधुबन में आना माना महायज्ञ में आना। मधुबन को क्यों महायज्ञ कहा है? क्योंकि यहाँ अनेक आत्माओं की लगन की अग्नि का समूह है। तो इसका लाभ उठाना चाहिए न। जैसे कई बार स्वत: प्रतिज्ञा करते हो, संकल्प लेते हो, वैसे ही मधुबन में आप भी ऐसी प्रतिज्ञा करते हो, संकल्प लेते हो? क्या समझते हो? क्या ऐसी आहुति डालते हो जो आगे के लिए समाप्त हो जाये? महायज्ञ में महा आहुति डालनी चाहिए। साधारण आहुति नहीं। अनेक आत्माओं के लगन की अग्नि की सामूहिक आहुति डाली है? यहाँ से जाते हो, डाल कर जाते हो या अब वापिस ली है या सोचते हो कि किस प्रकार के तिल व जौ डालें? यह चेक (जाँच) करते हो कि जितनी बार महायज्ञ में आते हो तो महायज्ञ में आहुति डालते हो।

सम्पूर्ण समर्पण हुए हो या वापिस ले जाते हो? आहुति सम्पूर्ण समर्पण हो जाती है या रह जाती है? क्या ऐसा तो नहीं सोचते कि यह पुरानी दुनिया में काम आयेगी? ऐसा होता है, कमज़ोर आदमी हाथ खींच लेते हैं। अगर आहुति डालने वाले कमज़ोर हों तो सेक (ताओ) होने के कारण, आधी आहुति बाहर, आधी अन्दर रह जाती है। यहाँ भी सोचते हैं कि करें या न करें? होगा या नहीं होगा; कर सकेंगे या नहीं कर सकेंगे? तो बुद्धि रूपी हाथ आगे-पीछे करते रहते हो। इसलिए सम्पूर्ण स्वाहा नहीं होते हो; किनारा रह जाता है, बिखर जाता है। जब सम्पूर्ण स्वाहा नहीं तो सम्पूर्ण सफल नहीं होता। सोचते ज्यादा हो, करते कम हो। तो फल भी कम मिलेगा। पहले हिम्मत कम है, संकल्प पॉवरफुल नहीं है, तो कर्म में बल भी नहीं होगा और इसीलिए फल भी कम ही होगा। फिर क्या करते हो? आधा यहाँ आधा वहाँ बिखेर देते हो। तो सफलता नहीं हुई न! अभी आप सब को रिजल्ट क्या हुई? सफलता हुई? यज्ञ में सम्पूर्ण आहुति रही या बिखर गई। आप सबकी अब की रिजल्ट बिखरना - माना रह गया है। अभी तो जो सोचना है वह प्रैक्टिकल में भर करके जाना है कि आज से यह कमज़ोरी फिर नहीं आयेगी। सम्पूर्ण समर्पण करने का साहस है या कम है? विनाश न हुआ तो? स्वर्ग न आया फिर? पहुँचेंगे या नहीं? फिर लोग क्या कहेंगे? ऐसे होशियार नहीं बनना। सब की यही हालत है! सहज हाथ आगे बढ़ाते हैं। सेक आता है तो हाथ खींच लेते हो। हिम्मत आती है, थोड़ा-सा विघ्न आता है तो कदम पीछे चल पड़ते हैं। ऐसों की गति क्या होगी? गति-सद्गति को भी तो जानते हो न?

नॉलेजफुल होते हुए अगर कोई न करे तो क्या कहेंगे? इनको वापिस लिया तो क्या गति होगी? जान-बूझ करके भी अगर न करे तो क्या कहेंगे? लाईट रूप और माईट रूप होते हुए भी क्यों नहीं कर पाते हो? कारण क्या है? नॉलेज तुम्हारी बुद्धि तक है; समझ तक है। ठीक है - जानते हो, लेकिन नॉलेज को प्रैक्टिकल में लाना और समाना नहीं आता है। भोजन है, खाते भी हैं। परन्तु खाना अलग बात है, खा कर हजम करना अलग बात है। समाते नहीं हो, हजम नहीं होता, रस नहीं बनता और शक्ति नहीं मिलती। जीभ तक खा लिया तो रस नहीं बनेगा, शक्ति नहीं मिलती। समाने के बाद ही शक्ति का स्वरूप बनता है। समाया नहीं तो जीभ-रस है। समाया तो शक्ति है। सुनने का रस आया, समझ में आया, समझा किन्तु समाया नहीं, प्रैक्टिकल में नहीं लाया। जितना धारणा में आता है, संस्कार बन जाता है तब ही प्रैक्टिकल सफलता का स्वरूप दिखाई पड़ता है। नॉलेजफुल का अर्थ क्या है? नॉलेजफुल का अर्थ है हरेक कर्मेन्द्रियों में नॉलेज समा जाए। क्या करना है और क्या नहीं? तो धोखा खाने की बात रहेगी? ऑखे और वृत्ति धोखा नहीं खायेंगी जब आत्मा में नॉलेज आ जाती है तो सर्व इन्द्रियों में नॉलेज समा जाती है। जैसे भोजन से शक्ति भर जाती है तो शक्ति के आधार से काम होता है। अभी नॉलेज को समाना है। हरेक कर्मेन्द्रियों को नॉलेजफुल बनाओ।

हर वर्ष आते हो, कहते हो कि अभी करूंगा। वायदा करके जाते हो। अभी कब पूरा होगा? क्या कारण है? जो तुम सोचते हो और जो कर्म करते हो, उसमें अन्तर क्यों? कारण क्या? सोचते हो फुल करने की बात, और होती है आधी - इतना अन्तर पड़ने का कारण क्या है? प्लान भी खूब रचते हो, उमंग भी खूब लाते हो और समझ कर वायदा करते हो। सब बातें आयेंगी ही, लेकिन प्रैक्टिकल और समझ में अन्तर आ जाता है - इसका कारण क्या है? संस्कारों की आहुति करके जाते हो, फिर सब कहाँ से आया? स्वाहा करके जाते हो फिर क्यों आता है? देह-अभिमान, अलबेलापन वापिस क्यों लौट आता है, कारण क्या है? कारण है कि संकल्प करके जाते हो स्वाहा करने का, लेकिन संकल्प के साथ-साथ (जैसे बीज बोते हो, बाद में सम्भाल करते हो) परन्तु इसमें जो सम्भाल चाहिए वह सम्भाल नहीं रखते हो। समय-प्रमाण उनकी आवश्यकता रखनी चाहिए, आप बीज डाल कर अलबेले हो जाते हो। सोचते हो कि बाबा को दिया, अब बाबा जाने, यह बाबा का काम है। आप उसकी पालना नहीं करते हो। तो वाचा और मन्सा पर अटेन्शन चाहिए। जैसे बीज बो कर पानी डालते हो कि बीज पक्का हो जाये। बीज को रोज-रोज पानी देना होता है, वैसे ही संकल्प रूपी बीज को रिवाइज करना है। उसमें कमी रह जाती है और आप निश्चिन्त हो जाते हो - आराम पसंद हो जाते हो। आराम पसन्द के संस्कार नहीं, मगर चिन्तन का संकल्प होना चाहिए, एक-एक संस्कार की चिन्ता लगनी चाहिए। पुरूषार्थ की एक भी कमी का दाग बहुत बड़ा देखने में आता है। फिर हमेशा ख्याल आता है कि छोटा-सा दाग मेरी वैल्यू कम कर देगा। चिन्तन चिन्ता के रूप में होना चाहिए। वह नहीं तो अलबेलापन है। कहते हो, करते नहीं हो। जो पीछे की युक्ति है उसे प्रैक्टिकल में लाओ, आराम-पसन्दी देवता स्टेज का संस्कार है, वह ज्यादा खींचता है। संगमयुग के ब्राह्मण के संस्कार जो त्याग मूर्त के हैं, वह कम इमर्ज होते हैं। त्याग-बिना भाग्य नहीं बनता अच्छा, कर लेंगे, देखा जायेगा - यह आराम पसन्दी के संस्कार हैं। ‘‘ज़रूर करूंगा’’, ये ब्राह्मणपन के संस्कार हैं। लौकिक पढ़ाई में जिसको चिन्ता रहती है, वह पास होता है। उसकी नींद फिट जाती है। जो आराम-पसन्द हैं वे पास क्या होंगे? अभी सोचते हो कि प्रैक्टिकल करना है। चिन्ता लगनी चाहिए, शुभ चिन्तन, सम्पूर्ण बनने की चिन्ता, कमजोरी को दूर करने की चिन्ता और प्रत्यक्ष फल देने की चिन्ता।

इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु

1. मधुबन है अविनाशी रूद्र ज्ञान महायज्ञ। इस महायज्ञ में अपनी लगन को ऐसी अग्नि बनाओ जिस अग्नि में सब व्यर्थ संकल्प, सर्व कमजोरियाँ व सब रहे हुये पुराने संस्कार बिल्कुल भस्म हो जायें।

2. बुद्धि में नॉलेज तो है लेकिन नॉलेजफुल नहीं बने हो। नॉलेजफुल का अर्थ है कि हर एक कर्मइन्द्रियों में नॉलेज समा जाये। तो जैसे भोजन खाने से, साथ ही समाने अर्थात् हजम करने से शरीर में शक्ति आती है वैसे ही तुम्हारी आत्मा शक्तिशाली बनती है।

3. जितना ज्ञान धारणा में आता है वह संस्कार बन जाता है तब ही प्रैक्टिकल सफलता का स्वरूप दिखाई पड़ता है।