20-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सर्व-प्राप्तियों को सहेजने का सहज साधन - परहेज़

सर्व प्राप्तियों और शक्तियों का सहज अनुभव कराने वाले रूहानी पिता शिव बोलेः-

अपने को मास्टर ऑलमाइटी-अथॉरेटी समझते हो? बाप द्वारा जो सर्व-शक्तियों की, सर्व नॉलेज की, स्व पर राज्य करने की और विश्व पर राज्य करने की अथॉरेटी मिली है उस अथॉरेटी को कहाँ तक स्वरूप में लाया है? यह रूहानी नशा निरन्तर बुद्धि में रहता है? सारे दिन के अन्दर स्व पर राज्य करने की अथॉरेटी कहाँ तक प्रैक्टिकल में रहती है, यह चैकिंग करते हो? नॉलेज की अथॉरेटी से पॉवरफुल स्वरूप कहाँ तक रहता है? सर्व प्राप्त हुई शक्तियों की अथॉरेटी माया-जीत व प्रकृति-जीत बनने में कहाँ तक प्रैक्टिकल में अनुभव होती है? जब जिस शक्ति द्वारा जो कार्य कराना चाहो वही कार्य सफलता रूप में दिखाई दे - ऐसी अथॉरेटी अनुभव करते हो? बेहद का बाप सभी बच्चों को आप समान ऑलमाइटी अथॉरेटी बनाते हैं - तो बाप समान बने हो? कहाँ तक बने हैं, यह चैकिंग करना आता है?

कई बच्चे बापदादा से रूह-रूहान करते हुए यह एक बात बार-बार कहते हैं कि चेक करते हैं, लेकिन अपने को चेन्ज नहीं कर पाते। जानते हैं, मानते हैं, और सोचते हैं लेकिन कर नहीं पाते हैं। युक्ति चलाते हैं लेकिन मुक्ति नहीं पाते हैं, उसके लिए क्या करें? इसका कारण एक छोटी-सी गलती व भूल है जो कि इस भूल-भुलैया के चक्कर में लाती है-वह क्या है? जैसे दवाई चाहे कितनी भी बढ़िया हो और अपना डोज़ (Dose) भी ले रहे हों लेकिन एक बार भी परहेज़ में से कोई एक वस्तु स्वीकार कर ली व जो स्वीकार करनी थी वह नहीं की तो दवाई द्वारा व्याधि से मुक्ति नहीं पा सकते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी नॉलेज रूपी दवाई लेते हैं अर्थात् नॉलेज को बुद्धि में दौड़ाते हैं-यह यथार्थ है या यह अयथार्थ है, यह करना चाहिए या नहीं करना चाहिये, यह राँग है या यह राइट है और यह हार है या जीत है - यह समझ बुद्धि में है? अर्थात् समय प्रमाण दवाई का डोज़ ले रहे हैं, रूह-रूहान कर रहे हैं, क्लास कर रहे हैं, सेवा कर रहे हैं और यह सब डोज़ ले रहे हैं लेकिन जो पहली-पहली परहेज़ व मर्यादा है –

पहली परहेज़ - एक बाप दूसरा न कोई’ - इसी स्मृति में और समर्थी में रहना-यह मूल परहेज़ निरन्तर नहीं करते हैं और ही कहीं न कहीं अपने को यह कह कर धोखे में रखते हैं कि मैं तो हूँ ही शिव बाबा का, और मेरा है ही कौन? लेकिन प्रैक्टिकल में ऐसा स्मृति-स्वरूप हो जो संकल्प में भी एक बाप के सिवाय दूसरा कोई व्यक्ति व वैभव, सम्बन्ध-सम्पर्क वा कोई साधन स्मृति में न आये। यह है कड़ी अर्थात् मुख्य परहेज। इस परहेज़ में, अलबेले होने के कारण, मन-मत के कारण, वातावरण के प्रभाव के कारण या संगदोष के कारण निरन्तर नहीं रह सकते। जितना अटेन्शन देना चाहिए उतना नहीं देते हैं। अल्पकाल के लिए फुल अटेन्शन रखते हैं फिर धीरे-धीरे फुलखत्म हो, अटेन्शन हो जाता है। उसके बाद अटेन्शन अनेक प्रकार के टेन्शन में चला जाता है। परिस्थितियों व परीक्षाओं-वश अटेन्शन बदल टेन्शन का रूप हो जाता है। इसी कारण जैसे स्मृति बदलती जाती है तो समर्थी भी बदलती जाती है। ऑलमाइटी अथॉरेटी के बदले माया के वशीभूत होने के कारण वशीकरण मन्त्र काम नहीं करता अर्थात् युक्ति-मुक्ति नहीं दिलाती है। और फिर चिल्लाते हैं कि चाहते भी हैं फिर क्यों नहीं होता? तो मूल परहेज़ चाहिये-इस एक बात पर निरन्तर अटेन्शन रखो।

दूसरी परहेज़ - बाप ने तो अधिकार दिया है अपने आप का मालिक बनने का व रचयिता-पन का लेकिन रचयिता बनने के बजाय स्वयं को रचना अर्थात् देह समझ लेते हैं। जब रचयिता-पन भूलते हो तब माया अर्थात् देह-अभिमान तुम रचयिता के ऊपर रचयिता बनती है अर्थात् अपना अधिकार रखती है। रचयिता पर कोई अधिकार नहीं कर सकता, विश्व के मालिक के ऊपर कोई मालिक नहीं बन सकता। माया के आगे रचना बन जाते हो और अधीन बन जाते हो। तो इस मालिकपन की व अधिकारीपन की स्मृति स्वरूप रहने की परहेज़ निरन्तर नहीं करते हो?

तीसरी परहेज़ - बाप द्वारा सबके ट्रस्टीबने हो? इस तन के भी ट्रस्टी हो, मन अर्थात् संकल्प के भी ट्रस्टी, लौकिक व अलौकिक जो प्रवृत्ति मिली है उसमें भी ट्रस्टी हो, लेकिन ट्रस्टी के बजाय गृहस्थी बन जाते हो। गृहस्थी की दुर्दशा का मॉडल आप बनाते हो। कौन-सा मॉडल बनाते हो जो सभी तरफ से खिंचा रहता है, दूसरा गृहस्थी को गधे के रूप में दिखाया है। अनेक प्रकार के बोझ दिखाये गए हैं - ऐसा मॉडल बनाते हो ना? जब गृहस्थी बन जाते हो तो मेरेपन के अनेक प्रकार के बोझ हो जाते हैं। सबसे रॉयल रूप का बोझ है - वह मेरी ज़िम्मेवारी है इसको तो निभाना ही पड़ेगाऔर कोई गृहस्थी हीं तो अपनी कर्म-इन्द्रियों के वश हो अनेक रस में समय गँवाने के गृहस्थी तो बहुत हैं। आज कन-रस वश समय गँवाया, कल जीभ-रस वश समय गँवाया। ऐसे गृहस्थी में फंसने के कारण ट्रस्टीपन भूल जाते हो। यह तन भी मेरा नहीं, तन का भी ट्रस्टी हूँ। तो ट्रस्टी, मालिक के बिगर किसी भी वस्तु को अपने प्रति यूज़ नहीं कर सकते हैं। तो कर्म-इन्द्रियों के रस में मस्त हो जाना उसको भी गृहस्थी कहेंगे, न कि ट्रस्टी, क्योंकि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ मालिक जिसके आप ट्रस्टी हो उनकी श्रीमत एक के रस में सदा एक-रस स्थिति में रहने की है। इन कर्म-इन्द्रियों द्वारा एक का ही रस लेना है। तो फिर अनेक कर्म-इन्द्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न रस क्यों लेते हो? तो लौकिक व अलौकिक प्रवृत्ति में गृहस्थी बन जाते हो। इसलिये अनेक प्रकार के बोझ-जिसके लिये बाप डायरेक्शन देते हैं कि सब मेरे को दे दो - वह बोझ कार्य ही अपने ऊपर उठाये, बोझ धारण करते हुए उड़ना चाहते हो। लेकिन कर नहीं पाते हैं। तो इस परहेज़ की कमी के कारण युक्ति चलाते हो लेकिन मुक्ति नहीं पाते हो।

बापदादा को भी ऐसे बच्चों पर तरस पड़ता है। मास्टर सागर और एक अन्चली के प्यासे हैं। अर्थात् योग और ज्ञान द्वारा जो अनुभव की प्राप्ति होती है उस अनुभव की अन्चली के प्यासे हैं। इसलिये अब परहेज़ को अपनाओ तो सर्व- प्राप्तियाँ सदा अनुभव हों। सर्व-प्राप्तियों की प्रॉपर्टी के मालिक ऐसे, बालक सो मालिक, प्राप्ति से वंचित हों? यह तो बाप से भी नहीं देखा जाता। तो अब 63 जन्मों के गृहस्थी-पन के संस्कार छोड़ो। तन के और मन के ट्रस्टी बनो। सब बाप की जिम्मेवारी है, मेरी जिम्मेवारी नहीं, इस स्मृति से हल्के बन जाओ तो फिर जो सोचेंगे वही होगा अर्थात् हाई जम्प लगायेंगे। तो यह रोना चिल्लाना रूह- रूहान में परिवर्तन हो जायेगा। रूह-रूहान द्वारा रूहों में राहत भर सकेंगे। नहीं तो कभी अपनी शिकायतें और कभी परिस्थितियों की शिकायतें इसमें ही रूह- रूहान का समय समाप्त कर देती हैं। तो अब शिकायतों को रूहानियत में बदली करो, तब संगमयुग के सुखों को अनुभव करेंगे। समझा?

ऐसे सदा रूहानियत में रहने वाले, कदम-कदम पर श्रीमत पर चलने वाले, ऐसे आज्ञाकारी, फरमानवरदार, और हर फरमान को स्वरूप में लाने वाले, ऐसे बाप के प्रिय ज्ञानी तू आत्मायें और योगी तू आत्मायें बच्चों को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते। अच्छा। ओम् शान्ति।

इस मुरली का सार

1. कई बच्चों की बापदादा से यह शिकायत है कि कुछ जानते मानते और सोचते हुए भी कर क्यों नहीं पाते हैं? सर्व प्राप्तियों को अपने जीवन में अनुभव क्यों नहीं कर पाते हैं? इसका कारण यह है कि ज्ञान-औषधि का सेवन करने के साथ-साथ धारणाओं रूपी परहेज़ नहीं रखते हैं अर्थात् ईश्वरीय मर्यादा में नहीं रहते हैं।

2. पहली परहेज़ एक बाप दूसरा न कोई को भूल दूसरा कोई व्यक्ति, वैभव, सम्बन्ध, सम्पर्क या साधन अपना लेते हैं, दूसरी परहेज़ स्वयं को रचयिता अर्थात् आत्मा समझने के बजाय रचना अर्थात् देह समझ लेते हैं, तीसरी परहेज़ ट्रस्टी के बजाय गृहस्थी बन जाते हैं।

3. तो अब परहेज़ को अपनाओ, शिकायतों को रूहानियत में बदली करो तो ही संगम युग के सुखों का अनुभव कर सकेंगे।