25-10-75   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


बेहद की शिक्षिवा समझ वैराग्य वृत्ति को धारण करो

पंजाब, गुजरात जोन की टीचर्स के साथ अव्यक्त बापदादा के उच्चारे हुए मधुर महावाक्य:-

अपने को मास्टर विश्व की शिक्षक समझती हो अथवा अपने-अपने सेवाकेन्द्रों कि मैं फलाने स्थान की टीचर हूँ, यह बुद्धि में रहता है? यह बुद्धि में रहना चाहिए कि मैं विश्व की निमित्त बनी हुई मास्टर विश्व-शिक्षक हूँ! हद याद रहती है या बेहद? बेहद का नशा और बेहद की सेवा के प्लैन चलते हैं या अपने स्थान के प्लैन चलते हैं? बेहद का नशा रहेगा तब विश्व की मालिक बनेंगी। अगर हद का नशा और हद की स्मृति रहती है, तो विश्व के मालिकपन के संस्कार नहीं बनेंगे, फिर तो छोटा-छोटा राजा बनेंगे। विश्व-महाराजन की प्रालब्ध पाने की निशानियाँ अभी से ही दिखाई देंगी। जैसे कोई भी पहेली हल करानी होती है तो उसकी निशानियाँ पूछते हैं जिससे कैसी भी कठिन पहेली हो, वह जल्दी हल हो जाती है। तो यहाँ भी कौन क्या बनता है, यह पहेली है, तो इन निशानियों से परख सकता है। अपने आपको भी मालूम पड़ सकता है कि मैं अपने पुरूषार्थ प्रमाण क्या बन सकती हूँ।

टीचर्स स्वतन्त्र हैं, कोई कर्म-बन्धन नहीं सिर्फ सेवा का बन्धन है। वह बन्धन, बन्धन नहीं, लेकिन बन्धन-मुक्त करने वाला है। जब सब बातों में स्वतन्त्र हो, तो टीचर्स की बेहद की बुद्धि होनी चाहिए। जहाँ तक हो सके वहाँ तक बेहद की सेवा में सहयोग देने का चांस स्वयं लेना चाहिए। क्योंकि जितना स्वयं बेहद की सेवा का अनुभव करेंगे उतना ही जास्ती अनुभवीमूर्त्त कहलायेंगी। अनुभवी-मूर्त्त की ही वैल्यू होती है, जैसे पुराने जमाने के जो अनुभवी होते हैं उनकी राय की वैल्यु होती है कि यह पुराने अनुभवी हैं। तो यहाँ भी अनुभवी बनना चाहिए। स्वयं चांस लेना चाहिए। प्रोग्राम प्रमाण करना उसमें आधा हिस्सा अपना होता, आधा दूसरे का हो जाता है। जैसे कमाई का शेयर (हिस्सा) होता है। तो प्रोग्राम प्रमाण करने में आधा हो जाता है। जो स्वयं चांस लेते वह फुल ही मिलता है। ऐसे नहीं कहो कि मुझे योग्य समझा जाए। मैं स्वयं बनकर दिखलाऊं। आफरीन उसको मिलती है जो स्वयं को ऑफर करता है। यह कभी नहीं सोचना या इन्तज़ार करना कि मुझे चान्स मिलेगा तो करूंगी या मुझे आगे बढ़ाया जायेगा तो बढूँगी। यह भी आधार हुआ। टीचर तो स्वयं आधारमूर्त्त हैं। तो जो आधारमूर्त्त हैं वह किसका आधार नहीं लेते। यह भी लॉटरी नहीं गँवाना। स्वयं, स्वयं को ऑफर करो और बेहद के अनुभवी बनो। बेहद के बुद्धिवान बनो। चांस लेते जाओ तो चांस मिलता जायेगा। इसको कहेंगे मास्टर विश्व-शिक्षक। बाकी है अपने-अपने सेन्टर की शिक्षक। जैसे बाप को देखा एक स्थान मधुबन में रहते चारों ओर के प्लान बनाते थे, न कि सिर्फ मधुबन के। ऐसे ही निमित्त कहाँ भी रहती हो, लेकिन बेहद के प्लैन्स बनाती रहो। ऐसी हैं सब बेहद की बुद्धि वाली टीचर्स? चारों ओर चक्कर लगाती हो कि सिर्फ अपनी एरिया में चक्कर लगाती हो? जो जितना ईश्वरीय सेवा-अर्थ चक्कर लगाते हैं उतना ही चक्रवर्ती राजा बनते हैं। अच्छा, यह तो हुई बेहद की टीचर्स के निमित्त। अभी तो भविष्य प्लैन बताया।

बेहद की वैराग्य वृत्ति को टीचर्स अपने में अनुभव करती हैं? बेहद की वैराग्य वृत्ति है कि अपने सेन्टर्स व जिज्ञासुओं से लगाव नहीं। जब इस लगाव से बेहद का वैराग्य होगा तब जयजयकार होगी। सब स्थूल, सूक्ष्म साधनों से बेहद का वैराग्य। ऐसी धरनी बनी है अथवा थोड़ा सेन्टर्स से चेन्ज करें तो हिलेंगी? जिज्ञासुओं पर तरस नहीं पड़ेगा? जरा भी उन्हों के प्रति संकल्प नहीं आयेगा? ऐसे अपने को चेक करना चाहिए कि ऐसा पेपर आये तो नष्टोमोहा हैं? वह है लौकिक सम्बन्ध और यह है सेवा का सम्बन्ध। यदि उस सम्बन्ध में मोह जाये तो आप लोग वाणी चलाती हो। यह अलौकिक सेवा का सम्बन्ध है, इसमें यदि आपका मोह होगा तो आने वाले स्टूडेण्ट्स इस पर वाणी चलायेंगे। तो अपनी महीन रूप से चेकिंग करो कि अभी कोई ऑर्डर हो तो एवररेडी हैं? इस सेन्टर की सर्विस अच्छी है, तो सर्विस अच्छी से भी लगाव तो नहीं है? जब सबसे उपराम हों तब बेहद की वैराग्य वृत्ति कहेंगे। अपने शरीर से भी उपराम। जैसे कि निमित्त सेवा-अर्थ चलाते हैं।

लगाव की निशानी यह है कि बुद्धि बार-बार बाप से हट कर उस तरफ जाये तो समझो लगाव है। अपने आप से भी लगाव न हो। जो अपने में विशेषता है, कोई में हैंडलिंग पॉवर अच्छी है वा कोई में वाणी की पॉवर है तो कहेंगी मैं ऐसी हूँ। परन्तु यह तो बापदादा की देन है। अपने ज्ञान की विशेषता, विशेषता कोई भी हो, उससे भी लगाव नहीं। इसमें भी अभिमान आ जाता है इससे तो यह बुद्धि में रखो कि - ‘‘यह बाप से मिला हुआ वर्सा है। जो सर्व-आत्माओं के प्रति हमें मिला है, जो दे रहे हैं, हम तो निमित्त हैं।’’ ऐसे बेहद के वैराग्य वृत्ति का संगठन टीचर्स का होना चाहिए। जो चलने से, देखने से और बोलने से सबको महसूस हो कि ये बेहद के वैरागी हैं। ज्ञान से सेवा करने में होशियार हैं, यह तो सब महसूस करते हैं। अब बेहद के वैराग्य का अनुभव करो, जो दूसरे भी अनुभव करें। अच्छा।

महावाक्यों की विशेष बातें

1. टीचर्स स्वतन्त्र हैं, कोई कर्म-बन्धन नहीं, सिर्फ सेवा का बन्धन है। यह बन्धन भी बन्धन-मुक्त करने वाला है।

2. टीचर्स को जहाँ तक हो सके, वहाँ तक बेहद की सेवा में सहयोग देने का चांस स्वयं लेना चाहिये तभी अनुभवी-मूर्त्त बन सकेंगी। अनुभवी-मूर्त्त की वैल्यू होती है।

3. जो जितना ही ईश्वरीय सेवा-अर्थ चक्कर लगाते रहते हैं उतना ही वे चक्रवर्ती राजा बनते हैं।

4. जब अपने सेन्टर्स व जिज्ञासुओं के लगाव से बेहद का वैराग्य होगा तब जयजयकार होगी।

5. अपने में कोई विशेषता है तो उससे भी लगाव नहीं होना चाहिये। बुद्धि में समझना है कि यह बाप से मिला हुआ वर्सा