23-01-76   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


संकल्प, वाणी और स्वरूप के हाईएस्ट और होलीएस्ट होने से
बाप की प्रत्यक्षता

हाईएस्ट और होलीएस्ट शिव ब्रह्मा-वत्सों से बोले:-

अपने को हाईएस्ट और होलीएस्ट समझते हुए हर संकल्प व कर्म करते रहते हो? हाईएस्ट अर्थात् ऊँच से ऊँच ब्राह्मण। ब्राह्मणों को विराट रूप में चोटी का स्थान दिया गया है। जैसे स्थान ऊँच चोटी का है, वैसे ही स्थान के साथ-साथ स्थिति भी ऊँची है? जैसा ऊँचा नाम, वैसी ऊँची शान और वैसा ही ऊँचा काम। जैसे बाप के लिए गायन है - ऊँचे ते ऊँचा भगवान; वैसे बच्चों का भी गायन है - ऊँचे ते ऊँचे ब्राह्मण। इस ऊँची स्थिति का यादगार आज तक चला आया है कि जो कोई श्रेष्ठ कर्त्तव्य व शुभ कार्य करते हैं तो नामधारी ब्राह्मणों से ही कराते हैं। इस समय के श्रेष्ठ कर्म की यादगार अब भी चैतन्य सच्चे ब्राह्मण के रूप में देख और सुन रहे हो। श्रेष्ठ कर्म की महिमा व गायन भी सुन रहे हो, दूसरे तरफ स्वयं श्रेष्ठ पार्ट बजा रहे हो! यादगार और प्रैक्टिकल-दोनों साथ-साथ देख रहे हो। यादगार द्वारा भी सिद्ध होता है कि कितने ऊँचे थे, अब हैं और फिर होंगे। जैसे ब्राह्मण ऊँचे हैं, वैसे ही ब्राह्मणों का समय भी सब युगों में से सर्वश्रेष्ठ युग, अर्थात् संगमयुग का समय, अर्थात् अमृतवेला व ब्रह्ममुहूर्त का समय है। यह सर्वश्रेष्ठ स्थिति ब्राह्मणों की क्यों बनी? क्योंकि ब्राह्मण ही ऊँचे-से-ऊँचे अथवा श्रेष्ठ कर्त्तव्य में सहयोगी बनने का श्रेष्ठ भाग्य प्राप्त करते हैं। इतना अपना ऊँचा पार्ट, श्रेष्ठ बाप, श्रेष्ठ स्थान और श्रेष्ठ शान स्मृति में रहते हैं? इतना श्रेष्ठ भाग्य सारे कल्प के अन्दर फिर प्राप्त नहीं कर सकोगे। ऐसे हाईएस्ट और साथ-साथ होलीएस्ट का यादगार अब तक भी सुनते हो। लोग ब्राह्मणों की बजाय आपके देवता रूप का गायन करते हैं।

होलीएस्ट का कौनसा गायन है? कमल-नयन, कमल-हस्त, कमल-मुख के रूप में अब तक भी गायन करते रहते हैं। अब प्रैक्टिकल में चेक करो कि हर कर्म-इन्द्रिय कमल समान न्यारी बनी है? जैसे कमल सम्बन्ध और सम्पर्क में रहते हुए न्यारा है, ऐसे कर्मेन्द्रियाँ कर्म के और कर्म के फल के सम्पर्क में आते हुए न्यारी हैं? अर्थात् देह और देह के सम्बन्ध के, देह की इस पुरानी दुनिया के आकर्षण से परे हैं? कोई भी कर्म-इन्द्रिय का रस - देखने का, सुनने का, बोलने का अपने वशीभूत तो नहीं बनाता है? वशीभूत होने का अर्थ है होलीएस्ट से भूत बन जाना। जब भूत बन जाते हैं तो भूतों का कर्त्तव्य है - दु:खी होना और दु:खी करना। हाईएस्ट ब्राह्मण से शूद्र बन जाते हैं। इसलिये सदैव यह स्मृति में रखो कि मैं हाईएस्ट और होलीएस्ट हूँ।जब यह प्रत्यक्ष रूप में अर्थात् संकल्प और स्वरूप में स्मृति रहेगी तब ही प्रत्यक्षता वर्ष मना सकेंगे। ऊँचे से ऊँचे बाप को प्रत्यक्ष करने के लिए जब तक स्वयं स्वरूप में होलीएस्ट और हाईएस्ट नहीं बने हैं तो बाप को प्रत्यक्ष कैसे करेंगे? स्वयं में बाप-समान गुण और कर्त्तव्य को प्रख्यात करना ही बाप को प्रत्यक्ष करना है। ऊँचे काम से ऊँचे बाप का नाम होगा। अपनी रूहानी मूरत से रूहानी बाप की प्रत्यक्षता करनी है जो हर आत्मा हर ब्राह्मण में ब्रह्मा बाप को देखे। रचना अपने रचयिता को दिखाये। हर एक के मुख से एक ही बोल निकले कि स्वयं भगवान ने इन्हें इतना तकदीरवान बनाया है।हर-एक की तकदीर बाप-दादा की तस्वीर को प्रसिद्ध करे। हर एक अपने को ऐसा दिव्य-स्वच्छ दर्पण बनाओ कि हर दर्पण द्वारा अनेकों को बाप-दादा का साक्षात्कार हो। साक्षात् बाप समान की स्थिति ही बाप का साक्षात्कार करा सकती है।

प्रत्यक्षता वर्ष मनाने का अर्थ है स्वयं को बाप के समान बनाना। यह स्थूल साधन तो निमित्त मात्र साधन हैं। सदाकाल का साधन सिद्धि-स्वरूप का है। सिद्धि-स्वरूप ही स्वत: सिद्ध करेगा कि ऐसा ऊँचा बनाने वाला ऊँचे से ऊँचा भगवान् है। तो साधनों के साथ-साथ सिद्धि स्वरूप को अपनाओ। संकल्प, वाणी और स्वरूप - तीनों ही होलीएस्ट और हाईएस्ट हों। ऐसी स्टेज से ही बाप को प्रत्यक्ष कर सकोगे। बाप-दादा बच्चों का उमंग-उत्साह, श्रेष्ठ संकल्प, मेहनत और लगन को देख कर हर्षित भी होते हैं, लेकिन आगे के लिये सहयोग देने के लिये प्लैन बतला रहे हैं। सबका एक ही संकल्प है। एक संकल्प में महान् शक्ति है। एकरस स्थिति में स्थित हो इस संकल्प को स्वरूप में लाओ। कल्प-कल्प के विजय की तकदीर की तस्वीर का तो अब भी गायन है अथवा कायम है। अच्छा!

ऐसे अपने तकदीर द्वारा बाप-दादा की तस्वीर दिखाने वाले, सदा कमल के समान अल्पकाल के आकर्षण से परे रहने वाले, बाप-समान होलीएस्ट और हाईएस्ट स्वमान में स्थित रहने वाले, हर आत्मा में बाप के स्नेह को, स्वरूप को, और सम्बन्ध को प्रत्यक्ष करने वाले, सर्वश्रेष्ठ, ऊँचे से ऊँचे ब्राह्मणों को ऊँचे से ऊँचे बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते!

इस मुरली के विशेष ज्ञान-बिन्दु

अपने ऊँचे पार्ट, श्रेष्ठ बाप, श्रेष्ठ समय, श्रेष्ठ गायन, श्रेष्ठ कर्त्तव्य, श्रेष्ठ स्टेज, श्रेष्ठ स्थान, और श्रेष्ठ शान की स्मृति में रहना है।