16-01-77   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


सन्तुष्ट आत्मा ही अनेक आत्माओं का इष्ट बन सकती है

सर्व शक्तियों से सम्पन्न, श्रेष्ठ कर्म सिखलाने वाले, नज़र से निहाल करने वाले शिवबाबा बोले :-

वरदाता बाप द्वारा सर्व वरदानों को प्राप्त करते हुए बाप समान वरदानी मूर्त्त बने हो? एक है - ज्ञान रत्नों का महादान। दूसरा है - कमज़ोर आत्माओं प्रति अपने शुद्ध संकल्प व शुभ भावना द्वारा सर्वशक्तिवान से, प्राप्त हुई शक्तियों का वरदान। ज्ञान-धन दान देने से आत्मा स्वयं भी ज्ञान-स्वरूप बन जाती है। लेकिन जो कमज़ोर आत्माएं ज्ञान को धारण नहीं कर सकती, ज्ञानी तू आत्मा नहीं बन सकती, स्वयं के पुरूषार्थ द्वारा श्रेष्ठ प्रालब्ध नहीं बना सकती - ऐसी सिर्फ स्नेह, सहयोग, सम्पर्क, भावना में रहने वाली आत्माएं आप वरदानी मूर्तों द्वारा वरदान के रूप में कोई न कोई विशेष शक्ति प्राप्त कर थोड़ी-सी प्राप्ति में भी अपने को भाग्यशालाr अनुभव करेंगी, जिसको प्रजा पद की प्राप्ति करने वाली आत्माएं कहेंगे। ऐसी आत्माएं डायरेक्ट (सम्मुख) योग द्वारा वा स्वयं की सर्व धारणाओं द्वारा, बाप-दादा द्वारा सर्व शक्तियों को प्राप्त नहीं कर पातीं। लेकिन प्राप्त की हुई आत्माओं द्वारा आत्माओं के सहयोग से कुछ न कुछ वरदान प्राप्त कर लेती हैं।

शक्तियों को विशेष रूप में वरदानीकह कर पुकारते हैं। तो अभी अन्त के समय में महादानी से भी ज्यादा, वरदानी रूप की सेवा होगी। स्वयं की अन्तिम स्टेज पावरफुल होने के कारण, सम्पन्न होने के कारण ऐसी प्रजा आत्माएं थोड़े समय में, थोड़ी-सी प्राप्ति में भी बहुत खुश हो जाती हैं। स्वयं की संतुष्ट स्थिति होने के कारण वे आत्माएं भी जल्दी संतुष्ट हो जाती हैं और खुश हो कर बार-बार महान आत्माओं के गुण गायेंगी। कमाल हैयही आवाज़ चारों ओर अनेक आत्माओं के मुख से निकलेगा। बाप का शुक्रिया और निमित्त बनी आत्माओं का शुक्रियां, यही गीतो के रूप में चारों ओर गूंजेगा। प्राप्ति के आधार पर हर एक आत्मा अपने दिल से महिमा के फूलों की वर्षा करेगी। अब ऐसे वरदानी मूर्त्त बनने के लिए विशेष अटेंशन एक बात का रखना है। सदा स्वयं से और सर्व से संतुष्ट - संतुष्ट आत्मा ही अनेक आत्माओं का इष्ट बन सकती है व अष्ट देवता बन सकती है। सबसे बड़े से बड़ा गुण कहो या दान कहो या विशेषता कहो या श्रेष्ठता कहो, वह संतुष्टता ही है। संतुष्ट आत्मा ही प्रभु प्रिय, लोक प्रिय और स्वयं प्रिय होती है। संतुष्ट आत्मा की परख इन तीनों बातों से होती है। ऐसी संतुष्ट आत्मा ही वरदानी रूप में प्रसिद्ध होगी। तो अपने को चेक करो कि कहाँ तक सन्तुष्ट आत्मा सो वरदानी आत्मा बने हैं? समझा? अच्छा।

ऐसे विश्व-कल्याणकारी, महा वरदानी, एक सेकेण्ड के संकल्प द्वारा अनुभव कराने वाले, सर्व शक्तियों का प्रसाद तड़पती हुई आत्माओं को दे प्रसन्न करने वाले, ऐसे साक्षात्कार मूर्त्त, दर्शनीय मूर्त्त, सम्पन्न और समान मूर्त्त, सर्व की श्रेष्ठ भावनाएं, श्रेष्ठ कामनायें पूर्ण करने वाली आत्माओं को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

टीचर्स के साथ:

सभी टीचर्स अपने को जैसे बाप विश्व शिक्षक है वैसे स्वयं को भी विश्व के निमित्त शिक्षक समझती हैं अथवा हद के? टीचर्स के प्रति विशेष पुरूषार्थ का स्लोगन कौन-सा है? हर सेकेण्ड मन, वाणी और कर्म तीनों द्वारा साथ-साथ सर्विस करेंगे। अर्थात् एक सेकेण्ड में व हर सेकेण्ड में तीनों रूपों की सेवा में उपस्थित रहेंगे। जब टीचर्स इस स्लोगन को सदा प्रैक्टीकल में लाएं तब ही विश्वकल्याण कर सकेंगे। इतने बड़े विश्व का कल्याण करने के लिए एक ही समय पर जब तीनों ही रूपों से सेवा हो तब यह सेवा का कार्य समाप्त हो सकेगा। वाणी द्वारा वा मन्सा द्वारा अलग-अलग समय नहीं। एक ही समय तीनों रूपों से सेवा करने वाले विश्व-कल्याणकारी बन सकेंगे। तो यही चेक करों कि हर समय तीनों ही रूपों से सेवा होती है? बाप के साथ तीन सम्बन्ध हैं। बाप, शिक्षक और सतगुरू के स्वरूप से सेवा करते हैं तो निमित्त टीचर्स को एक ही समय में तीन रूपों से सेवा करनी है। तो मास्टर त्रिमूर्त्रि हो जायेंगे। समझा? जितना-जितना टीचर्स शक्ति सम्पन्न बनेंगी उतना ही सर्व आत्माओं के प्रति निमत्त बन सकेंगी। निमित्त बनने वालों के ऊपर बहुत जिम्मेवारी होती है। निमित्त बनने वाले का एक सेकेण्ड में एक का पद्मगुण बनना भी है, प्राप्ति का भी चान्स है और फिर अगर निमित्त बने हुए कोई ऐसा कर्म करते जिसको देख और सभी विचलित हों उसकी पद्मगुणा उल्टी प्राप्ति भी होती है। संकल्प से वृत्ति बनेगी और वृत्ति से वातावरण बनेगा। तो ऐसा कोई संकल्प व वृत्ति न हो जिससे वातावरण अशुद्ध बने। ऐसा कोई बोल न हो जिसको सुन कर कोई विचलित हो। क्योंकि सबका अटेंशन निमित्त बनी हुई टीचर्स के प्रति रहता है तो टीचर्स को डबल अटेंशन रखना पड़े। सभी ऐसे ही डबल अटेंशन रखते हुए चल रहे हो ना? ‘पहले सोचो फिर करो। पहले करो फिर सोचो नहीं। नहीं तो टाईम और एनर्जी वेस्ट चली जाती है। टीचर्स को तो विशेष खुशी होनी चाहिए क्योंकि टीचर्स को लिफ्ट है - एक बाप और सेवा में रहने की और कोई वातावरण नहीं है। तो इस लिफ्ट का लाभ उठाना चाहिए ना? तो सदा हर्षित हो ना? सदा हर्षित कौन रहता है? जो कहाँ भी आकर्षित न हो। अगर किसी भी तरफ चाहे प्रकृति, चाहे आत्माओं, चाहे आत्माओं के गुणों की तरफ आकर्षित होते हो तो हर्षित नहीं रह सकेंगे। सर्व आकर्षण से परे, सिवाए एक बाप के, ऐसी आत्मा ही सदा हर्षित रह सकती है। अच्छा।