29-05-77   ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा    मधुबन


पुरूषार्थ की रफ्तार में रूकावट का कारण और उसका निवारण

सदा मर्यादा पुरूषोत्तम, सर्व खजानों को सफल करने वाले, सफलतामूर्त्त, बाप के आज्ञाकारी, श्रीमत पर चलने वाले आत्माओं प्रति बाबा बोले-

हरेक पुरुषार्थी यथा शक्ति पुरूषार्थ में चल रहे हैं - बाप-दादा भी हरेक पुरुषार्थी की रफ्तार को देखते, जानते हैं हरेक के सामने कौन से विघ्न आते हैं और कैसे लगन से विघ्न-विनाशक बनते हैं। कभी रूकते हैं, कभी दौड़ लगाते हैं, और कभी हाई जम्प (ऊँची छलांग) भी लगाते हैं। लेकिन रूकावटें क्यों आती हैं, जिसके कारण तीव्र पुरुषार्थी से पुरुषार्थी बन जाते हैं? चढ़ती कला की बजाए ठहरती कला में आ जाते हैं। मालिक वा मास्टर सर्वशक्तिवान के बजाए, उदास वा दास बन जाते हैं। कारण? बहुत छोटी-छोटी बातें हैं। जैसे उस दिन सुनाया, मूल बात मैजारिटी के सामने व्यर्थ संकल्पों का तूफान ज्यादा है।

व्यर्थ संकल्प आने का आधार है, शुभ संकल्प अर्थात् शुद्ध विचार, ज्ञान के खज़ाने की कमी। मिलते हुए भी यूज़ (USE) करना नहीं आता है। और जमा करना नहीं आता है। वा तो विधि नहीं आती, इस कारण वृद्धि नहीं होती। सुना अर्थात् मिला, लेकिन उसी समय अल्पकाल की खुशी, वा शक्ति का अनुभव करके, खत्म कर देते हैं। जैसे लौकिक रूप में कमाया और खाया, कुछ खाया कुछ उड़ाया। इसी रीति से धारणा शक्ति की कमजोरी होने कारण, विधि स्ो वृद्धि न करने कारण सदा स्वयं को ज्ञान और शक्तियों के खज़ाने से खाली अनुभव करते हैं। इसलिए निरन्तर शक्तिशाली नहीं बन पाते हैं। निरन्तर हर्षित नहीं रह सकते। कमज़ोर होने के कारण, माया के विघ्नों के वशीभूत वा माया के दास बन जाते हैं। साथ-साथ अन्य आत्माओं को सम्पन्न देखते हुए, स्वयं उदास हो जाते हैं। ज्ञान का खजाना जमा करना, श्रेष्ठ समय का खजाना जमा करना, वा स्थूल खज़ाने को, एक से लाख गुणा बनाना अर्थात् जमा करना, इन सब खजानों को जमा करने का मुख्य साधन है - स्वच्छ अर्थात् हमारे बुद्धि और सच्छी दिल। प्योर बुद्धि का आधार है बुद्धि द्वारा बाप को जान, बुद्धि को भी बाप के आगे समर्पण करना। समर्पण करना अर्थात् मेरापन मिटाना। ऐसे बद्धि को समर्पण किया है? शुद्रपन की बुद्धि समर्पण करना अर्थात् देना। तो देने के साथ दिव्य बुद्धि का लेना है। देना ही लेना है। जैसा सौदा करते हैं, तो देकर फिर लेते हैं ना। पैसा देना, वस्तु लेना। वैसे यहाँ भी देना ही लेना है। पहले सब कुछ देना है। कैसे? शुभ संकल्प द्वारा। सब कुछ बाप का है, मेरा नहीं। मेरेपन का अधिकार छोड़ना, इसी को ही समर्पण कहा जाता है। इसी को ही नष्टोमोहा स्टेज कहा जाता है। स्मृति स्वरूप न होने का कारण, वा व्यर्थ संकल्प चलने का कारण, उदास वा दास बनने का कारण, मेरेपन से नष्टोमोहा नहीं हैं। मेरेपन का विस्तार बहुत है। बाप-दादा भी सारा दिन सभी बच्चें का, विशेष देने की चतुराई का खेल देखते रहते हैं। अभी-अभी देंगे, अभी-अभी फिर वापिस ले लेंगे। अभी-अभी मुख से कहेंगे-मेरा कुछ नहीं, लेकिन मन्सा में अधिकार रखा हुआ है। अधिकार अर्थात् लगाव। कभी कर्म से देकर वाणी से वापिस ले लेते। चतुराई यह करते हैं कि नए के साथ पुराना भी अपने पास रखना चाहते हैं। कहलाते हैं ट्रस्टी, लेकिन प्रेक्टीकल (Practical;व्यवहार) हैं गृहस्थी। तो व्यर्थ संकल्प मिटाने का आधार है, गृहस्थीपन छोड़ना। चाहे कुमारी है वा कुमार है लेकिन, मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार, मेरी बुद्धि यह विस्तार गृहस्थीपन है। जो समर्पण हो गए तो जो बाप का स्वभाव, वह आपका स्वभाव। जो बाप का संस्कार, वह आपके संस्कार। जैसे बाप की दिव्य बुद्धि, वैसे आपकी। तो दिव्य बुद्धि में स्मृति न रहे, यह नहीं हो सकता। एक घंटे की अवस्था भी चेक करो तो सदैव संकल्पों का आधार कोई न कोई मेरापन ही होगा। मेरेपन की निशानी सुनाई लगाव।

लगाव की भी स्टेजस (Stages;अवस्थाएं) हैं। एक है सूक्ष्म लगाव, जिसको सूक्ष्म आत्मिक स्थिति में स्थित होकर ही जान सकते हैं। दूसरे हैं स्थूल रूप के लगाव, जिसको सहज जान सकते हो। सूक्ष्म लगाव का भी विस्तार बहुत है। बिना लगाव के, बुद्धि की आकर्षण वहाँ तक जा नहीं सकती। वा बुद्धि का झुकाव वहाँ जा नहीं सकता। तो लगाव की चैकिंग हुई झुकाव। चाहे संकल्प में हो, वाणी में हो, कर्म में हो, सम्बन्ध में हो, सम्पर्क में हो, न चाहते हुए भी समय उस तरफ लगेगा जरूर। इस कारण व्यर्थ संकल्प का मूल कारण है - लगाव। इसको चैक करो। जिन बातों को आप नहीं चाहते हो, वह भी व्यर्थ संकल्पों के रूप में डिस्टर्ब (Disturb;दखल) करती हैं। इसका भी कारण, पुराने स्वभाव और संस्कारों में मेरेपन की कमी है। जब तक मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार है, तो वह खीचेंगे। जैसे मेरी रचना, रचता को खेंचती है, वैसे मेरा स्वभाव संस्कार रूपी रचना आत्मा रचता को अपनी तरफ खींचेंगे। मेरा नहीं, यह शूद्रपन का संस्कार है, शूद्रपन के संस्कार को मेरा कहना, यह महापाप है, चोरी भी है और ठगी भी है। शूद्रों की चीज़ अगर ब्राह्मण चोरी करते, अर्थात् मेरा कहते, तो यह महापाप हुआ। और बाबा! यह सब कुछ आपका है, ऐसे कहकर फिर मेरा कहना, यह ठगी है। और इसी प्रकार के पाप होने से, पापों का बोझ बढ़ते जाने से, बुद्धि ऊँची स्टेज पर टिक नहीं सकती। इस कारण व्यर्थ संकल्पों के नीचे की स्टेज पर बार-बार आना पड़ता है। और फिर चिल्लाते हैं कि क्या करें?

व्यर्थ संकल्पों का दूसरा कारण है सारे दिन की दिनचर्या में मन्सा, वाचा, कर्मणा जो बाप द्वारा मर्यादाओं सम्पन्न श्रीमत है, उसका किसी न किसी रूप से उल्लंघन करते हो। आज्ञाकारी से अवज्ञाकारी बन जाते हो। मर्यादाओं की लकीर से मन्सा द्वारा भी अगर बाहर निकलते, तो व्यर्थ संकल्प रूपी रावण, वार कर सकता है। तो यह भी चैकिंग करो, संकल्प द्वारा, वाणी, कर्म, सम्बन्ध, सम्पर्क द्वारा ब्राह्मणों की नीति और रीति को उल्लंघन तो नहीं करते हैं? अवश्य कोई नीति व रीति मिस (Miss;गुम) है तब बुद्धि में व्यर्थ संकल्प मिक्स (Mix;मिश्रित) होते हैं। समझा दूसरा कारण? इसलिए चैकिंग अच्छी तरह होनी चाहिए। तब व्यर्थ संकल्पों की निवृत्ति हो सकती है। सारा दिन बाप द्वारा जो शुद्ध प्रवृत्ति मिली हुई है, बुद्धि की प्रवृत्ति है शुद्ध संकल्प करना, वाणी की प्रवृत्ति है जो बाप द्वारा सुना वह सुनाना, कर्म की प्रवृत्ति है कर्मयोगी बन हर कर्म करना, कमल समान न्यारा और प्यारा बन रहना, हर कर्म द्वारा बाप के श्रेष्ठ कार्यों को प्रत्यक्ष करना तथा हर कर्म चरित्र रूप से करना। चतुराई नहीं लेकिन चरित्र, वह भी दिव्य चरित्र। सम्पर्क में प्रवृत्ति है निमित्त स्वयं सम्पर्क में आते सदा सर्व का जो बाप है, उससे सम्पर्क कराना। त् ऐसी पवित्र प्रवृत्ति में बिजी रहने से व्यर्थ संकल्पों से निवृत्ति होगी। वह लोग कहते हैं प्रवृत्ति से निवृत्ति। बाप कहते हैं पवित्र प्रवृत्ति से ही निवृत्ति हो।गृहस्थी अलग है - उनको गृहस्थी नहीं कहेंगे। पवित्र प्रवृत्ति को ट्रस्टी कहेंगे न कि गृहस्थी। तो समझा निवृत्ति का आधार पवित्र प्रवृत्ति है। अच्छा।

सदा मर्यादा पुरूषोत्तम, सर्व खजानों को सफल करने वाले, सफलतामूर्त्त, व्यर्थ को समर्थ में परिवर्तन करने वाले, ऐसे बाप के आज्ञाकारी, सदा श्रीमत पर चलने वाले बच्चों को बाप-दादा का याद-प्यार और नमस्ते।

पार्टियों के साथ-

शक्तियाँ अपना जलवा दिखाएंगी, पाण्डव साथ देंगे। शक्तियों को आगे रखना अर्थात् स्वयं आगे होना। उन्हों को आगे रखने से आपका नाम बाला हो जाएगा। जो त्याग करता उसका भाग्य ऑटोमेटिकली जमा हो जाता है। शक्तियाँ शस्त्रधारी हो? शस्त्रं से थक तो नहीं जाती? शस्त्रधारी शक्तियों का ही पूजन होता है। तो आप सभी पूज्य हो? पूज्य अर्थात् शस्त्रधारी। अगर किसी भी समय शस्त्र छोड़ देती तो उस समय पूज्य नहीं। शक्ति रूप नहीं तो कमज़ोर हो। कमज़ोर की पूजा नहीं होती। पूज्य अर्थात् सदा पूज्य - ऐसे नहीं, कभी पूज्य कभी कमज़ोर। तो शस्त्र सदा कायम रहते हैं? जब अपने को गृहस्थी समझते तब गृहस्थी का जाल होता। गृहस्थी बनना अर्थात् जाल में फँसना। ट्रस्टी अर्थात् मुक्त। सदा यही स्मृति रखो कि हम पूज्य हैं।

कैसा भी कोई परिवर्तन आवे, उसमें विजयी होने कारण राजी रहते। कभी बच्चों आदि से नाराज तो नहीं होती? जब कहते हो बच्चे, तो बच्चे अर्थात् बेसमझ। बच्चे अर्थात् चंचल, जब हैं ही चंचल स्वभाव, बेसमझ तो उनसे नाराज क्यों होते? जब राज को जानते हैं कि कलियुगी बच्चे हैं, तमोगुणी पैदाइश है, जरूर चंचल होंगे। जैसी मिट्टी वैसा ही मटका बनेगा। मिट्टी गर्म है तो पानी ठण्डा हो - यह हो कैसे सकता? तो नाराज होना अर्थात् ज्ञानवान नहीं। राज को नहीं जानते। अगर योगयुक्त होकर उन्हें शिक्षा दो तो वह परिवर्तन हो जाएंगे। नाराज नहीं होना है।

सारा दिन संकल्प, बोल और कर्म बाप के याद और सेवा में ही लगे रहते हैं? हर संकल्प बाप की याद व सेवा। ऐसे ही हर बोल द्वारा बाप की याद दिलाना या दिया हुआ खजाना दूसरों को देना। कर्म द्वारा भी बाप के चरित्रों को सिद्ध करना। तो ऐसे याद और सेवा में सदैव रहते हो? अगर याद और सेवा इन दोनों में सदा बिजी रहो तो माया आ सकती है? अगर याद और सेवा को भूलते तो माया का गेट (Gate;द्वार) खोल देते हैं। तो यह गेट नहीं खोलो। विस्मृति अर्थात् माया का गेट खोलना, स्मृति अर्थात् पक्का गाडरेज का लॉक लगाना। याद और सेवा की स्मृति डबल लॉक है। डबल लॉक लगायेंगे तो माया कभी नहीं आ सकती। अगर सिंगल लॉक सिर्फ याद का लगाते, सेवा नहीं तो भी माया आ जायेगी। ब्राह्मण जीवन ही है याद और सेवा। तो जीवन का कार्य कोई भूलता है क्या? अगर भूलते तो माया से धोखा खाते। धोखा खाने से दु:ख की लहर आती। तो डबल लॉक सदैव बन्द रखना। इससे सदा सेफ रहेंगे, खुश रहेंगे, सन्तुष्ट रहेंगे।

सदा हर कदम श्रीमत पर उठाने वाले श्रेष्ठ आत्मा अपने को समझते हो? हर कदम श्रीमत पर है या मनमत पर है? उसकी परख जानते हो? परखने का साधन क्या है? श्रीमत और मनमत को परखने का साधन यही है कि अगर श्रीमत पर कदम होगा तो कभी भी अपना मन असन्तुष्ट नहीं होगा। मन में किसी प्रकार की हलचल नहीं होगी। स्वत: श्रीमत पर चलने से नैचुरल (Natural;वास्तविक) खुशी रहेगी। जैसे कोई अच्छा कर्म किया जाता तो उसकी स्वत: अन्दर से खुशी होती है। बुरा काम किया जाता तो अन्दर से मन जरूर खाता है - चाहे बाहर से बोले नहीं। मनमत पर चलने वाले के मन में हलचल होगी। श्रीमत पर चलने वाला सदा हल्का और खुश होगा। इससे परख सकते हो कि श्रीमत पर हूँ या मनमत पर हूँ? - यह थर्मामीटर है। जब भी मन में हलचल हो, जरा सी खुशी का परसेन्टेज कम हो तो चेक करो - जरूर कोई श्रीमत की अवज्ञा होगी। सदा चैकिंग और चेन्ज। चैकिंग का अर्थ है चेन्ज करना। चैकिंग और चेन्ज यह दोनों ही शक्तियाँ चाहिए। मगर दोनों में से एक की भी कमी है तो संतुष्ट नहीं रह सकते। न स्वयं संतुष्ट रहेंगे न औरों को संतुष्ट कर सकेंगे। चेन्ज होने की शक्ति तब आएगी जब सहनशक्ति होगी। बुद्धि की लाइन क्लीयर होने से परख शक्ति आएगी।अच्छा।