27-03-82       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


बीजरूप स्थिति तथा अलौकिक अनुभूतियाँ

बीजरूप शिव बाबा बिन्दु आत्माओं के प्रति बोले:-

‘‘आवाज से परे रहने वाला बाप, आवाज की दुनिया में आवाज द्वारा सर्व को आवाज से परे ले जाते हैं। बापदादा का आना होता ही है साथ ले जाने के लिए। तो सभी साथ जाने के लिए एवररेडी हो वा अभी तक तैयार होने के लिए समय चाहिए? साथ जाने के लिए बिन्दु बनना पड़े। और बिन्दु बनने के लिए सर्व प्रकार के बिखरे हुए विस्तार अर्थात् अनेक शाखाओं के वृक्ष को बीज में समाकर बीजरूप स्थिति अर्थात् बिन्दू में सबको समाना पड़े। लौकिक रीति में भी जब बड़े विस्तार का हिसाब करते हो तो सारे हिसाब को समाप्त कर लास्ट में क्या कहते? कहा जाता है - कहो शिव अर्थात् बिन्दी'। ऐसे सृष्टि चक्र वा कल्प वृक्ष के अन्दर आदि से अन्त तक कितने हिसाब किताब के विस्तार में आये? अपने हिसाब किताब की शाखाओं अथवा विस्तार रूपी वृक्ष को जानते हो ना? देह के हिसाब की शाखा, देह के सम्बन्धों की शाखायें, देह के भिन्नभिन्न पदार्थों में बन्धनी आत्मा बनने की शाखा, भक्ति मार्ग और गुरूओं के बन्धनों के विस्तार की शाखायें, भिन्न-भिन्न प्रकार के विकर्मों के बन्धनों की शाखायें, कर्मभोग की शाखायें, कितना विस्तार हो गया। अब इन सारे विस्तार को बिन्दु रूप बन बिन्दी लगा रहे हो? सारे विस्तार को बीज में समा दिया है वा अभी भी विस्तार है? इस जड़जड़ीभूत वृक्ष की किसी भी प्रकार की शाखा रह तो नहीं गई है? संगमयुग है ही पुराने वृक्ष की समाप्ति का युग। तो हे संगमयुगी ब्राह्मणों! पुराने वृक्ष को समाप्त किया है? जैसे पत्ते-पत्ते को पानी नहीं दे सकते। बीज को देना अर्थात् सभी पत्तों को पानी मिलना। ऐसे इतने 84 जन्मों के भिन्न-भिन्न प्रकार के हिसाब-किताब का वृक्ष समाप्त करना है। एक-एक शाखा को समाप्त करने का नहीं। आज देह के स्मृति की शाखा को समाप्त करो और कल देह के सम्बन्धों की शाखा को समाप्त करो, ऐसे एक-एक शाखा को समाप्त करने से समाप्ति नहीं होगी। लेकिन बीज बाप से लगन लगाकर, लगन की अग्नि द्वारा सहज समाप्ति हो जायेगी। काटना भी नहीं है लेकिन भस्म करना है। आज काटेंगे, कुछ समय के बाद फिर प्रकट हो जायेगा - क्योंकि वायुमण्डल के द्वारा वृक्ष को नैचुरल पानी मिलता रहता है। जब वृक्ष बड़ा हो जाता है तो विशेष पानी देने की आवश्यकता नहीं होती। नैचरल वायुमण्डल से वृक्ष बढ़ता ही रहता है वा खड़ा हुआ रहता है। तो इस विस्तार को पाये हुए जड़जड़ीभूत वृक्ष को अभी पानी देने की आवश्यकता नहीं है। यह आटोमैटिक बढ़ता जाता है। आप समझते हो कि पुरूषार्थ द्वारा आज से देह सम्बन्ध की स्मृति रूपी शाखा को खत्म कर दिया, लेकिन बिना भस्म किये हुए फिर से शाखा निकल आती है। फिर स्वयं ही स्वयं से कहते हो वा बाप के आगे कहते हो कि यह तो हमने समाप्त कर दिया था फिर कैसे आ गया! पहले तो था नहीं फिर कैसे हुआ। कारण? काटा, लेकिन भस्म नहीं किया। आग में पड़ा हुआ बीज कभी फल नहीं देता। तो इस, हिसाब-किताब के विस्तार रूपी वृक्ष को लगन की अग्नि में समाप्त करो। फिर क्या रह जायेगा? देह और देह के सम्बन्ध वा पदार्थ का विस्तार खत्म हो गया तो बाकी रह जायेगा बिन्दु आत्मा वा बीज आत्मा'। जब ऐसे बिन्दु, बीज स्वरूप बन जाओ तब आवाज से परे बीजरूप बाप के साथ चल सको। इसलिए पूछा कि आवाज से परे जाने के लिए तैयार हो? विस्तार को समाप्त कर दिया है? बीजरूप बाप, बीज स्वरूप आत्माओं को ही ले जायेंगे। बीज स्वरूप बन गये हो? जो एवररेडी होगा उसको अभी से अलौकिक अनुभूतियाँ होती रहेंगी। क्या होंगी?

चलते फिरते, बैठते, बातचीत करते पहली अनुभूति- यह शरीर जो हिसाबकिताब के वृक्ष का मूल तना है जिससे यह शाखायें प्रकट होती हैं, यह देह और आत्मा रूपी बीज, दोनों ही बिल्कुल अलग हैं। ऐसे आत्मा न्यारेपन का चलते फिरते बार-बार अनुभव करेंगे। नालेज के हिसाब से नहीं कि आत्मा और शरीर अलग हैं। लेकिन शरीर से अलग मैं आत्मा हूँ! यह अलग वस्तु की अनुभूति हो। जैसे स्थूल शरीर के वस्त्र और वस्त्र धारण करने वाला शरीर अलग अनुभव होता है ऐसे मुझ आत्मा का यह शरीर वस्त्र है, मैं वस्त्र धारण करने वाली आत्मा हूँ। ऐसा स्पष्ट अनुभव हो। जब चाहे इस देह भान रूपी वस्त्र को धारण करें, जब चाहे इस वस्त्र से न्यारे अर्थात् देहभान से न्यारे स्थिति में स्थित हो जायें। ऐसा न्यारेपन का अनुभव होता है? वस्त्र को मैं धारण करता हूँ या वस्त्र मुझे धारण करता है? चैतन्य कौन? मालिक कौन? तो एक निशानी - न्यारेपन की अनुभूति'। अलग होना नहीं है लेकिन मैं हूँ ही अलग।

दूसरी निशानी वा अनुभूति- जैसे भक्तों को वा आत्मज्ञानियों का व कोई- कोई परमात्म-ज्ञानियों को दिव्य दृष्टि द्वारा ज्योति बिन्दु आत्मा का साक्षात्कार होता है, तो साक्षात्कार अल्पकाल की चीज है, साक्षात्कार कोई अपने अभ्यास का फल नहीं है। यह तो ड्रामा में पार्ट वा वरदान है। लेकिन एवररेडी अर्थात्  साथ चलने के लिए समान बनी हुई आत्मा साक्षात्कार द्वारा आत्मा को नहीं देखेंगी लेकिन बुद्धियोग द्वारा सदा स्वयं को साक्षात् ज्योति बिन्दु आत्मा' अनुभव करेगी। साक्षात् स्वरूप बनना सदाकाल है और साक्षात्कार अल्पकाल का है। साक्षात स्वरूप आत्मा कभी भी यह नहीं कह सकती कि मैंने आत्मा का साक्षात्कार नहीं किया है। मैंने देखा नहीं है। लेकिन वह अनुभव द्वारा साक्षात् रूप की स्थिति में स्थित रहेंगी। जहाँ साक्षात स्वरूप होगा वहाँ साक्षात्कार की आवश्यकता नहीं। ऐसे साक्षात आत्मा स्वरूप की अनुभूति करने वाले अथार्टी से, निश्चय से कहेंगे कि मैंने आत्मा को देखा तो क्या लेकिन अनुभव किया है। क्योंकि देखने के बाद भी अनुभव नहीं किया तो फिर देखना कोई काम का नहीं। तो ऐसे साक्षात् आत्म-अनुभवी चलते-फिरते अपने ज्योति स्वरूप का अनुभव करते रहेंगे।

तीसरी अनुभूति- ऐसी समान आत्मा अर्थात् एवररेडी आत्मा - साकारी दुनिया और साकारी शरीर में होते हुए भी बुद्धियोग की शक्ति द्वारा सदा ऐसा अनुभव करेगी कि मैं आत्मा चाहे सूक्ष्मवतन में, चाहे मूलवतन में, वहाँ ही बाप के साथ रहती हूँ। सेकण्ड में सूक्ष्मवतन वासी, सेकण्ड में मूलवतनवासी, सेकण्ड में साकार वतन वासी हो कर्मयोगी बन कर्म का पार्ट बजाने वाली हूँ लेकिन अनेक बार अपने को बाप के साथ सूक्ष्मवतन और मूलवतन में रहने का अनुभव करेंगे।

फुर्सत मिली और सूक्ष्मवतन व मूलवतन में चले गये। ऐसे सूक्ष्मवतन वासी, मूलवतनवासी की अनुभूति करेंगे जैसे कार्य से फुर्सत मिलने के बाद घर में चले जाते हैं। दफ्तर का काम पूरा किया तो घर में जायेंगे वा दफ्तर में ही बैठे रहेंगे! ऐसे एवररेडी आत्मा बार-बार अपने को अपने घर के निवासी अनुभव करेंगी। जैसे कि घर सामने खड़ा है। अभी-अभी यहाँ, अभी-अभी वहाँ। साकारी वतन के कमरे से निकल मूलवतन के कमरे में चले गये।

और अनुभूति - ऐसी समान आत्मा बन्धनमुक्त होने के कारण ऐसे अनुभव करेगी जैसे उड़ता पंछी बन ऊँचे से ऊँचे उड़ते जा रहे हैं और ऊँची स्थिति रूपी स्थान पर स्थित होते अनुभव करेंगे कि यह सब नीचे हैं। मैं सबसे ऊपर हूँ। जैसे विज्ञान की शक्ति द्वारा स्पेस' में चले जाते हैं तो धरनी का आकर्षण नीचे रह जाता है और वह स्वयं को सबसे ऊपर अनुभव करते और सदा हल्का अनुभव करते हैं। ऐसे साइलेन्स की शक्ति द्वारा स्वयं को विकारों की आकर्षण, वा प्रकृति की आकर्षण सबसे परे उड़ती हुई स्टेज अर्थात् सदा डबल लाइट रूप अनुभव करेंगे। उड़ने की अनुभूति सब आकर्षण से परे ऊँची है। सर्व बन्धनों से मुक्त है। इस स्थिति की अनुभूति होना अर्थात् ऊँची उड़ती कला वा उड़ती हुई स्थिति का अनुभव होना। चलते-फिरते जा रहे हैं, उड़ रहे हैं, बाप भी बिन्दु, मैं भी बिन्दू, दोनों साथ-साथ जा रहे हैं। समान आत्मा को यह अनुभव ऐसा स्पष्ट होगा जैसे कि देख रहे हैं। अनुभूति के नेत्र द्वारा देखना, दिव्य दृष्टि द्वारा देखने से भी स्पष्ट है, समझा! ऐसे तो विस्तार बहुत है फिर भी सार में थोड़ी-सी निशानियां सुनाई। तो ऐसे एवररेडी हो अर्थात् अनुभवी स्वरूप हो? साथ जाने के लिए तैयार हो ना या कहेंगे अभी अजुन यह रह गया है! ऐसी अनुभूति होती है वा सेवा में इतने बिजी हो गये हो जो घर ही भूल जाता है। सेवा भी इसीलिए करते हो कि आत्माओं को मुक्ति वा जीवनमुक्ति का वर्सा दिलावें।

सेवा में भी यह स्मृति रहे कि बाप के साथ जाना है तो सेवा में सदा अचल स्थिति रह सकती है? सेवा के विस्तार में सार रूपी बीज की अनुभूति को भूलो मत। विस्तार में खो नहीं जाओ। विस्तार में आते स्वयं भी सार स्वरूप में स्थित रह और औरों को भी सार स्वरूप की अनुभूति कराओ। समझा -अच्छा।

ऐसे सदा साक्षात् आत्म स्वरूप के अनुभवी मूर्त, सदा सर्व हिसाब-किताब के वृक्ष को समाप्त कर बिन्दी लगाए बिन्दी रूप में स्थित रह बिन्दु बाप के साथ सदा रहने वाले, अभी-अभी कर्मयोगी, अभी-अभी सूक्ष्मवतन वासी, अभी-अभी मूलवतनवासी ऐसे सदा अभ्यासी आत्मा, सदा अपनी उड़ती कला का अनुभव करने वाली आत्मा, ऐसे बाप समान एवररेडी आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ:- (पंजाब तथा गुजरात जोन)

1.माया की छाया से बचने के लिए छत्रछाया के अन्दर रहो:- सदा अपने ऊपर बाप के याद की छत्रछाया अनुभव करते हो? याद की छत्रछाया है। इस छत्रछाया को कभी छोड़ तो नहीं देते? जो सदा छत्रछाया के अन्दर रहते हैं वे सर्व प्रकार के माया के विघ्नों से सेफ रहते हैं। किसी भी प्रकार से माया की छाया पड़ नहीं सकती। यह 5 विकार, दुश्मन के बजाए दास बनकर सेवाधारी बन जाते हैं। जैसे विष्णु के चित्र में देखा है - कि सांप की शय्या और सांप ही छत्रछाया बन गये। यह है विजयी की निशानी। तो यह किसका चित्र है? आप सबका चित्र है ना। जिसके ऊपर विजय होती है वह दुश्मन से सेवाधारी बन जाते हैं। ऐसे विजयी रत्न हो। शक्तियाँ भी गृहस्थी माताओं से, शक्ति सेना की शक्ति बन गई। शक्तियों के चित्र में रावण के वंश के दैत्यों को पांव के नीचे दिखाते हैं। शक्तियों ने असुरों को अपने शक्ति रूपी पाँव से दबा दिया। शक्ति किसी भी विकारी संस्कार को ऊपर आने ही नहीं देगी।

2.ज्ञान का दान करने वाले सच्चे-सच्चे महादानी बनो- सदा बुद्धि द्वारा ज्ञान सागर के कण्ठे पर रहने वाले अर्थात् सागर के द्वारा मिले हुए अखुट खजाने के मालिक अपने को समझते हो? सागर जैसे सम्पन्न है, अखुट है, अखण्ड है, ऐसे ही आत्मायें भी मास्टर, अखण्ड, अखुट खजानों के मालिक हैं। जो खजाने मिले हैं उसको महादानी बन औरों के प्रति कार्य में लगाते रहो। जो भी सम्बन्ध में आने वाली भक्त वा साधारण आत्मायें हैं उनके प्रति सदा यही लगन रहे कि भक्तों को भक्ति का फल मिल जाए, बिचारे भटक रहे हैं, भटकना देखकर तरस आता है ना! जितना रहमदिल बनेंगे उतना भटकती हुई आत्माओं को सहज रास्ता बतायेंगे। सन्देश देते चलो - यह नहीं सोचो कि कोई निकलता ही नहीं है। आप महादानी बनो, सन्देश देते रहो, उल्हना न रह जाए। अविनाशी ज्ञान का कभी विनाश नहीं होता। आज सुनेंगे, एक मास बाद सोचेंगे और सोचकर समीप आ जायेंगे। इसलिए कभी भी दिलशिकस्त नहीं बनना। जो करता है उसका बनता है। और जिसकी करते हो वह भी आज नहीं तो कल मानेंगे जरूर। तो अखुट सेवा अथक बनकर करते रहो। कभी भी थकना नहीं क्योंकि बापदादा के पास सबका जमा हो ही जाता है और जो करते हो उसका प्रत्यक्षफल खुशी भी मिल जाती है।

3-वातावरण को पावरफुल बनाने का लक्ष्य रखो तो सेवा की वृद्धि के लक्षण दिखाई देंगे:- जैसे मन्दिर का वातावरण दूर से ही खींचता है, ऐसे याद की खुशबू का वातावरण ऐसा श्रेष्ठ हो जो आत्माओं को दूर से ही आकर्षित करे कि यह कोई विशेष स्थान है। सदा याद की शक्ति द्वारा स्वयं को आगे बढ़ाओ और साथ-साथ वायु मण्डल को भी शक्तिशाली बनाओ। सेवाकेन्द्र का वातावरण ऐसा हो जो सभी आत्मायें खिंचती हुई आ जाएं। सेवा सिर्फ वाणी से ही नहीं होती, मंसा से भी सेवा करो। हरेक समझे मुझे वातावरण पावरफुल बनाना है, हम जिम्मेवार हैं। ऐसा जब लक्ष्य रख्गे तो सेवा की वृद्धि के लक्षण दिखाई देंगे। आना तो सबको है, यह तो पक्का है। लेकिन कोई सीधे आ जाते हैं, कोई चक्कर लगाकर, भटकने के बाद आ जाते हैं। इसलिए एक-एक समझे कि मैं जागती ज्योति बनकर ऐसा दीपक बनूँ जो परवाने आपेही आयें। आप जागती ज्योति बनकर बैठेंगे तो परवाने आपेही आयेंगे।

4-फुर्सत में रहने वाली आत्माओं की सेवा भी फुर्सत से करो-तो सफलता मिलेगी:- वानप्रस्थी जिन्हों को सदा फुर्सत है, जो रिटायर्ड हैं, उनकी सेवा के लि्ाए थोड़ी मेहनत करनी पड़ेगी - वे सिर्फ कार्ड बांटने से नहीं आयेंगे। फुर्सत वालों की सेवा भी फुर्सत अर्थात् समय देकर करनी पड़ेगी क्योंकि वे अपने को वानप्रस्थी होने के कारण अनुभवी समझते हैं। उन्हें अनुभव का अभिमान होता है। इसलिए उनकी सेवा के लिए थोड़ा ज्यादा समय देना पड़े और तरीका भी मित्रता का, स्नेह मिलन का हो। समझाने का नहीं। मित्रता के नाते से उन्हों को मिलो। ऐसे नहीं सुनाओ कि यह बात आप नहीं जानते हो, मैं जानता हूँ। अनुभव की लेन-देन करो। उनकी बात को सुनो तो समझेंगे यह हमें रिगार्ड देते हैं। किसी को भी समीप लाने के लिए उनकी विशेषता का वर्णन करो फिर उन्हें अपना अनुभव सुनाकर समीप ले आओ। अगर कहेंगे कोर्स करो, ज्ञान सुनो तो नहीं सुनेंगे इसलिए अनुभव सुनाओ। बापदादा को अभी ऐसे वानप्रस्थियों का गुलदस्ता भेंट करो। उन्हें मित्रता के नाते से सहयोगी बनाकर बुलाओ।

5.निर्मान बनो तो नव निर्माण का कर्त्तव्य आगे बढ़ता रहेगा:- सदा अपने को सेवा के निमित्त बने हुए सेवा का श्रृंगार समझकर चलते हो? सेवाधारी की मुख्य विशेषता कौन-सी है? सेवाधारी अर्थात् निर्माण करने वाले सदा निर्मान। निर्माण करने वाले और निर्मान रहने वाले। निर्मानता ही सेवा की सफलता का साधन है। निर्मान बनने से सदा सेवा में हल्के रहेंगे। निर्मान नहीं, मान की इच्छा है तो बोझ हो जायेगा। बोझ वाला सदा रूकेगा। तीव्र नहीं जा सकता। इसलिए निर्मान हैं या नहीं हैं उसकी निशानी हल्का' होगा। अगर कोई भी बोझ अनुभव होता है तो समझो निर्मान नहीं हैं।

6.सच्चे रूहानी सेवाधारी अर्थात् सर्व सम्बन्धों की अनुभूति एक बाप से करने और कराने वाले- सर्व सम्बन्ध एक बाप से हैं, बाप सदा सम्मुख में हाजर-नाज़र हैं, ऐसा अनुभव होता है? तुम्हीं से खाऊँ, तुम्हीं से बैठूँ, तुम्हीं से सुनूँ...इसका अनुभव होता है ना? बाप ही सच्चा मित्र बन गया तो औरों को मित्र बनाने की जरूरत ही नहीं। जो सम्बन्ध चाहिए उस सम्बन्ध से बापदादा सदा सम्मुख में हाजर-नाज़र हैं। तो शिक्षक अर्थात् सर्व सम्बन्धों का रस एक बाप से अनुभव करने वाली, इसको कहा जाता है - सच्चे सेवाधारी'। स्वयं में होगा तो औरों को भी अनुभूति करा सकेंगी। अगर निमित्त बनी हुई आत्माओं में कोई भी रसना की कमी है तो आने वाली आत्माओं में भी वह कमी रह जायेगी। तो सर्व रसनाओं का अनुभव करो और कराओ।

7. हम अल्लाह के बगीचे के पुष्प हैं - इस स्वमान में रहो- सदा अपने को बापदादा के अर्थात् अल्लाह के बगीचे के फूल समझकर चलते हो? सदा अपने आप से पूछो कि मैं रूहानी गुलाब बन सदा रूहानी खुशबू फैलाता हूँ? जैसे गुलाब की खुशबू सबको मीठी लगती है, चारों ओर फैल जाती है, तो वह है स्थूल, विनाशी चीज और आप सब अविनाशी सच्चे गुलाब हो। तो सदा अविनाशी रूहानियत की खुशबू फैलाते रहते हो? सदा इसी स्वमान में रहो कि हम अल्लाह के बगीचे के पुष्प बन गये - इससे बड़ा स्वमान और कोई हो नहीं सकता। वाह मेरा श्रेष्ठ भाग्य' - यही गीत गाते रहो। भोलानाथ से सौदा कर लिया तो चतुर हो गये ना! किसको अपना बनाया है? किससे सौदा किया है? कितना बड़ा सौदा किया है? तीनों लोक ही सौदे में ले लिए। आज की दुनिया में सबसे बड़े ते बड़ा कोई भी धनवान हो लेकिन इतना बड़ा सौदा कोई नहीं कर सकता, इतनी महान आत्मायें हो - इस महानता को स्मृति में रखकर चलते चलो।

8. ब्राह्मणों का कर्त्तव्य है - खुशी का दान कर महादानी बनना- सबसे बड़े से बड़ा खजाना, खुशी का खजाना है, जो खजाना अपने पास होता है उसे दान किया जाता है। आप खुशी के खजाने का दान करते रहो। जिसको खुशी देंगे वह बार-बार आपको धन्यवाद देगा। दुखी आत्माओं को खुशी का दान दे दिया तो आपके गुण गायेंगे। महादानी बनो, खुशी के खजाने बांटो। अपने हमजिन्स को जगाओ। रास्ता दिखाओ। सेवा के बिना ब्राह्मण जीवन नहीं। सेवा नहीं तो खुशी नहीं। इसलिए सेवा में तत्पर रहो। रोज किसी न किसी को दान जरूर करो। दान करने के बिना नींद ही नहीं आनी चाहिए।

प्रश्न- बापदादा के गले में कौन से बच्चे माला के रूप में पिरोये रहते हैं?

उत्तर- जिनके गले अर्थात् मुख द्वारा बाप के गुण, बाप का दिया हुआ ज्ञान वा बाप की महिमा निकलती रहती, जो बाप ने सुनाया वही मुख से आवाज निकलता, ऐसे बच्चे बापदादा के गले का हार बन गले में पिरोये रहते हैं।

अच्छा - ओमशान्ति।