29-03-82       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


सच्चे वैष्णव अर्थात सदा गुण ग्राहक

गुणों के सागर शिवबाबा गुण मूर्त बच्चों प्रति बोले:-

‘‘आज बापदादा माला बना रहे थे। कौन सी माला? हरेक श्रेष्ठ आत्मा के श्रेष्ठ गुण की माला बना रहे थे क्योंकि बापदादा जानते हैं कि श्रेष्ठ बाप के हरेक श्रेष्ठ बच्चे की अपनी-अपनी विशेषता है। अपने-अपने गुण के आधार से संगमयुग में श्रेष्ठ प्रालब्ध पा रहे हैं। बापदादा आज विशेष प्यादे ग्रुप के गुणों को देख रहे थे। चाहे पुरूषार्थ में लास्ट ग्रुप कहा जायेगा लेकिन उन्हों में भी विशेष गुण जरूर है। और वही विशेष गुण उन आत्माओं को बाप का बनने में विशेष आधार है। तो बापदादा पहले नम्बर से लास्ट नम्बर तक नहीं गये। लेकिन लास्ट से फर्स्ट तक गुण देखा। बिल्कुल लास्ट नम्बर में भी गुणवान थे। परमात्मसन्तान, और कोई गुण न हो यह हो नहीं सकता। उसी गुण के आधार से ही ब्राह्मण जन्म में जी रहे हैं अर्थात् जिन्दा हैं। ड्रामा अनुसार उसी गुण ने ही ऊँचे ते ऊँचे बाप का बच्चा बनाया है। उसी गुण के कारण ही प्रभु पसन्द बने हैं। इसलिए गुणों की माला बना रहे थे। ऐसे ही हर ब्राह्मण आत्मा के गुण को देखने से श्रेष्ठ आत्मा का भाव सहज और स्वत: ही होगा क्योंकि गुण का आधार है ही - श्रेष्ठ आत्मा। कई आत्मायें गुण को जानते हुए भी जन्म-जन्म की गन्दगी को देखने के अभ्यासी होने कारण गुण को न देख अवगुण ही देखती हैं। लेकिन अवगुण को देखना, अवगुण को धारण करना ऐसी ही भूल है जैसे स्थूल में अशुद्ध भोजन पान करना। स्थूल भोजन में अगर कोई अशुद्ध भोजन स्वीकार करता है तो भूल महसूस करते हो ना! लिखते हो ना कि खान-पान की धारणा में कमजोर हूँ। तो भूल समझते हो ना! ऐसे अगर किसी का अवगुण अथवा कमज़ोरी स्वयं में धारण करते हो तो समझो अशुद्ध भोजन खाने वाले हो। सच्चे वैष्णव नहीं, विष्णु वंशी नहीं। लेकिन राम सेना हो जायेंगे। इसलिए सदा गुण ग्रहण करने वाले - गुण मूर्त' बनो।

बापदादा आज बच्चों की चतुराई के खेल देख रहे थे। याद आ रहे हैं ना अपने खेल! सबसे बड़ी बात दूसरे के अवगुण को देखना, जानना इसको बहुत होशियारी समझते हैं। इसको ही नालेजफुल समझ लेते हैं। लेकिन जानना अर्थात् बदलना। अगर जाना भी, दो घड़ी के लिए नालेजफुल भी बन गये, लेकिन नालेजफुल बनकर क्या किया? नालेज को लाइट और माइट कहा जाता है, जान तो लिया कि यह अवगुण है लेकिन नालेज की शक्ति से अपने वा दूसरे के अवगुण को भस्म किया? परिवर्तन किया? बदल के वा बदला के दिखाया वा बदला लिया? अगर नालेज की लाइट, माइट को कार्य में नहीं लाया तो क्या उसको जानना कहेंगे, नालेजफुल कहेंगे? सिवाए नालेज के लाइट। माइट को यूज़ करने के वह जानना ऐसे ही है जैसे द्वापरयुगी शास्त्रवादियों को शास्त्रं की नालेज है। ऐसे जानने वाले से अवगुण को न जानने वाले बहुत अच्छे हैं। ब्राह्मण परिवार में आपस में ऐसी आत्माओं को हँसी में बुद्धू' समझ लेते हैं। आपस में कहते हो ना कि तुम तो बुद्धू हो। कुछ जानते नहीं हो। लेकिन इस बात में बुद्धू बनना अच्छा है। न अवगुण देखेंगे न धारण करेंगे, न वाणी द्वारा वर्णन कर परचिन्तन करने की लिस्ट में आयेंगे। अवगुण तो किचड़ा है ना। अगर देखते भी हो तो मास्टर ज्ञान सूर्य बन किचड़े को जलाने की शक्ति है, तो शुभ-चिन्तक बनो। बुद्धि में जरा भी किचड़ा होगा तो शुद्ध बाप की याद टिक नहीं सकेगी। प्राप्ति कर नहीं सकेंगे। गन्दगी को धारण करने की एक बार अगर आदत डाल दी तो बार-बार बुद्धि गन्दगी की तरफ न चाहते भी जाती रहेगी। और रिजल्ट क्या होगी? वह नैचुरल संस्कार बन जायेंगे। फिर उन संस्कारों को परिवर्तन करने में मेहनत और समय लग जाता है। दूसरे का अवगुण वर्णन करना अर्थात् स्वयं भी परचिन्तन के अवगुण के वशीभूत होना है। लेकिन यह समझते नहीं हो - दूसरे की कमज़ोरी वर्णन करना, अपने समाने की शक्ति की कमज़ोरी जाहिर करना है। किसी भी आत्मा को सदा गुणमूर्त से देखो। अगर किसकी कोई कमज़ोरी है भी, मर्यादा के विपरीत कार्य है भी तो बापदादा की निमित्त बनाई हुई सप्रीम कोर्ट में लाओ। खुद ही वकील और जज नहीं बन जाओ। भाई-भाई का नाता भूल, वकील और जज नहीं बन जाओ। भाई-भाई का नाता भूल वकील जज बन जाते हो इसलिए भाई-भाई की दृष्टि टिक नहीं सकती। केस दाखिल करने की मना नहीं है लेकिन मिलावट और खयानत नहीं करो। जितना हो सके शुभ भावना से इशारा दे दो। न अपने मन में रखो और न आैंरों को मन्मनाभव होने में विघ्न रूप बनो। तो चतुराई का खेल क्या करते हैं? जिस बात को समाना चाहिए उसको फैलाते हैं, और जिस बात को फैलाना चाहिए उसको समा देते हैं कि यह तो सब में है। तो सदा स्वयं को अशुद्धि से दूर रखो। मंसा में, चाहे वाणी में, कर्म में वा सम्बन्ध-सम्पर्क में अशुद्धि, संगमयुग की श्रेष्ठ प्राप्ति से वंचित बना देगी। समय बीत जायेगा। फिर ‘‘पाना था'' इस लिस्ट में खड़ा होना पड़ेगा। प्राप्ति स्वरूप की लिस्ट में नहीं होंगे। सर्व खजानों के मालिक के बालक और अप्राप्त करने वालों की लिस्ट में हों यह अच्छा लगेगा? इसलिए अपनी प्राप्ति में लग जाओ। शुभचिंतक बनो। किसी भी प्रकार के विकारों के वशीभूत हो अपनी उल्टी होशियारी नहीं दिखाओ। यह उल्टी होशियारी अब अल्पकाल के लिए अपने को खुश कर लेगी वा ऐसे साथी भी आपकी होशियारी के गीत गाते रहेंगे लेकिन कर्म की गति को भी स्मृति में रखो। उल्टी होशियारी उल्टा लटकायेगी। अभी अल्पकाल के लिए काम चलाने की होशियारी दिखायेंगे, इतना ही चलाने के बजाए चिल्लाना भी पड़ेगा। कई ऐसी होशियारी दिखाते हैं कि बापदादा दीदी दादी को भी चला लेंगे। यह सब तरीके आते हैं। अल्पकाल की उल्टी प्राप्ति के लिए मना भी लिया, चला भी लिया लेकिन पाया क्या और गंवाया क्या! दो तीन वर्ष नाम भी पा लिया लेकिन अनेक जन्मों के लिए श्रेष्ठ पद से नाम गंवा लिया। तो पाना हुआ या गंवाना हुआ?

और चतुराई सुनावें? ऐसे समय पर फिर ज्ञान की प्वाइन्ट यूज़ करते हैं कि अभी प्रत्यक्ष फल तो पा लो भविष्य में देखा जायेगा। लेकिन प्रत्यक्षफल अतीन्द्रिय सुख सदा का है, अल्पकाल का नहीं। कितना भी प्रत्यक्षफल खाने का चैलेन्ज करे लेकिन अल्पकाल के नाम से और खुशी के साथ-साथ बीच में असन्तुष्टता का कांटा फल के साथ जरूर खाते रहेंगे। मन की प्रसन्नता वा सन्तुष्टता अनुभव नहीं कर सकेंगे। इसलिए ऐसे गिरती कला की कलाबाजी नहीं करो। बापदादा को ऐसी आत्माओं पर तरस होता है - बनने क्या आये और बन क्या रहें हैं! सदा यह लक्ष्य रखो कि जो कर्म कर रहा हूँ यह प्रभु पसन्द कर्म है? बाप ने आपको पसन्द किया तो बच्चों का काम है - हर कर्म बाप पसन्द, प्रभु पसन्द करना। जैसे बाप गुण मालायें गले में पहनते हैं वैसे गुण माला पहनों, कंकड़ो की माला नहीं पहनों। रत्नों की पहनो। अच्छा –

ऐसे सदा गुण मूर्त, सदा प्रभु पसन्द, सदा सच्चे वैष्णव, विष्णु के राज्य अधिकारी, सदा शुभ भावना द्वारा भाई-भाई की दृष्टि में सहज स्थित होने वाले, सदा गुण ग्राहक दृष्टि वाले, ऐसे सदा बाप के समान बनने वाले, समीप रत्नों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

1. ऊँचे ते ऊँचे बाप के बच्चे, मिट्टी में खेलने के बजाए अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलो - सदा अपने को सर्व प्राप्ति स्वरूप अनुभव करते हो? प्राप्ति स्वरूप अर्थात् अतीन्द्रिय सुख के झूले में झूलने वाले। सदा एक बाप दूसरा न कोई....ऐसे साथ का अनुभव करेंगे। जब बाप सर्व सम्बन्धों से अपना बन गया तो सदा बाप का साथ चाहिए ना! कितनी भी बड़ी परिस्थिति हो, पहाड़ हो लेकिन बाप के साथ-साथ ऊपर उड़ते रहो तो कभी भी रूकेंगे नहीं। जैसे प्लेन को पहाड़ नहीं रोक सकते, पहाड़ पर चढ़ने वालों को बहुत मेहनत करनी पड़ती लेकिन उड़ने वाले उसे सहज ही पार कर लेते। तो कैसी भी बड़ी परिस्थिति हो, बाप के साथ उड़ते रहो तो सेकण्ड में पार हो जायेगी। कभी भी झूले से नीचे नहीं आओ, नहीं तो मैले हो जायेंगे। मैले फिर बाप से कैसे मिल सकते! बहुत काल अलग रहे अभी मेला हुआ तो मनाने वाले मैले कैसे होंगे। बापदादा हरेक बच्चे को कुल का दीपक, नम्बरवन बच्चा देखना चाहते हैं। अगर बार-बार मैले होंगे तो स्वच्छ होने में कितना टाइम वेस्ट होगा? इसलिए सदा मेले में रहो। मिट्टी में पांव क्यों रखते हो! इतने श्रेष्ठ बाप के बच्चे और मैले, तो कौन मानेगा कि यह उस ऊँचे बाप के बच्चे हैं! इसलिए बीती सो बीती। जो दूसरे सेकण्ड बीता वह समाप्त। कोई भी प्रकार की उलझन में नहीं आओ। स्वचिन्तन करो, परचिन्तन न सुनो, न करो, यही मैला करता है। अभी से क्वेश्चन-मार्क समाप्त कर बिन्दी लगा दो। बिन्दी बन बिन्दी बाप के साथ उड़ जाओ। अच्छा-