01-04-82       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


भाग्य का आधार - ‘‘त्याग''”

सर्व के भाग्य विधाता शिव बाबा तकदीरवान बच्चों प्रति बोले:-

‘‘आज भाग्य विधाता बापदादा अपने सर्व बच्चों के त्याग और भाग्य दोनों को देख रहे हैं। त्याग क्या किया है और भाग्य क्या पाया है - यह तो जानते ही हो कि एक गुणा त्याग उसके रिटर्न में पदमगुणा भाग्य मिलता है। त्याग की गुह्य परिभाषा जानते हुए भी जो बच्चे थोड़ा भी त्याग करते हैं तो भाग्य की लकीर स्पष्ट और बहुत बड़ी हो जाती है। त्याग की भी भिन्न-भिन्न स्टेज हैं। वैसे तो ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी बने तो यह भी त्याग का भाग्य - ब्राह्मण जीवन मिली। इस हिसाब से जैसे ब्राह्मण सभी कहलाते हो वैसे त्याग करने वाली आत्मा भी सब हो गये। लेकिन त्याग में भी नम्बर हैं। इसलिए भाग्य पाने में भी नम्बर हैं। ब्रह्माकुमार वा ब्रह्माकुमारी तो सब कहलाते हो लेकिन ब्रह्माकुमार-कुमारियों में से ही कोई माला का नम्बरवन दाना बना, कोई लास्ट दाना बना - लेकिन हैं दोनों ही ब्रह्माकुमार-कुमारी। शूद्र जीवन सबने त्याग दी फिर भी नम्बरवन और लास्ट का अन्तर क्यों? चाहे प्रवृत्ति में रह ट्रस्टी बन चल रहे हो, चाहे प्रवृत्ति से निवृत्त हो सेवाधारी बन सदा सेवाकेन्द्र पर रहे हुए हो लेकिन दोनों ही प्रकार की ब्राह्मण आत्मायें चाहे ट्रस्टी, चाहे सेवाधारी, दोनों ही नाम एक ही ब्रह्माकुमारकुमारी कहलाते हो। सरनेम दोनों का एक ही है लेकिन दोनों का त्याग के आधार पर भाग्य बना हुआ है। ऐसे नहीं कह सकते कि सेवाधारी बन सेवाकेन्द्र पर रहना यही श्रेष्ठ त्याग वा भाग्य है। ट्रस्टी आत्मायें भी त्याग वृत्ति द्वारा माला में अच्छा नम्बर ले सकती हैं। लेकिन सच्चे और साफ दिल वाला ट्रस्टी हो। भाग्य प्राप्त करने का दोनों को अधिकार है। लेकिन श्रेष्ठ भाग्य की लकीर खींचने का आधार है -’’श्रेष्ठ संकल्प और श्रेष्ठ कर्म।'' चाहे ट्रस्टी आत्मा हो, चाहे सेवाधारी आत्मा हो, दोनों इसी आधार द्वारा नम्बर ले सकते हैं। दोनों को फुल अथार्टी है - भाग्य बनाने की। जो बनाने चाहें, जितना बनाना चाहें बना सकते हैं। संगमयुग पर वरदाता द्वारा ड्रामा अनुसार समय को वरदान मिला हुआ है। जो चाहे वह श्रेष्ठ भाग्यवान बन सकता है। ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना अर्थात् जन्म से भाग्य ले ही आते हो। जन्मते ही भाग्य का सितारा सर्व के मस्तक पर चमकता हुआ है। यह तो जन्म-सिद्ध' अधिकार हो गया। ब्राह्मण माना ही - भाग्यवान'। लेकिन प्राप्त हुए जन्म सिद्ध अधिकार को वा चमकते हुए भाग्य के सितारे को कहाँ तक आगे बढ़ाते, कितना श्रेष्ठ बनाते जाते हैं वह हरेक के पुरूषार्थ पर है। मिले हुए भाग्य के अधिकार को जीवन में धारण कर कर्म में लाना अर्थात् मिली हुई बाप की प्रॉपर्टी को कमाई द्वारा बढ़ाते रहना वा खा के खत्म कर देना, वह हरेक के ऊपर है। जन्मते ही बापदादा सबको एक जैसा श्रेष्ठ भाग्यवान-भव' का वरदान कहो वा भाग्य की प्रॉपर्टी कहो, एक जैसी ही देते हैं। सब बच्चों को एक जैसा ही टाइटल देते हैं- ‘सिकीलधे बच्चे, लाडले बच्चे', कोई को सिकीलधे - कोई को न सिकीलधे नहीं कहते हैं। लेकिन प्रॉपर्टी को सम्भालना और बढ़ाना इसमें नम्बर बन जाते हैं। ऐसे नहीं कि सेवाधारियों को 10 पदम देते और ट्रस्टियों को 2 पदम देते हैं। सबको पदमापदमपति कहते हैं। लेकिन भाग्य रूपी खजाने को सम्भालना अर्थात् स्व में धारण करना और भाग्य के खजाने को बढ़ाना अर्थात् मन-वाणी-कर्म द्वारा सेवा में लगाना। इसमें नम्बर बन जाते हैं। सेवाधारी भी सब हो, धारणा मूर्त भी सब हो, परन्तु धारणा स्वरूप में नम्बरवार हो। कोई सर्वगुण सम्पन्न बने हैं, कोई गुण सम्पन्न बने हैं। कोई सदा धारणा स्वरूप हैं, कोई कभी धारणा स्वरूप, कभी डगमग स्वरूप। एक गुण को धारण करेंगे तो दूसरा समय पर कर्त्तव्य में ला नहीं सकेंगे। जैसे एक ही समय पर सहनशक्ति भी चाहिए और साथ-साथ समाने की शक्ति भी चाहिए। अगर एक शक्ति वा एक सहनशीलता के गुण को धारण कर लेंगे और समाने की शक्ति वा गुण को साथ-साथ यूज़ नहीं कर सकेंगे और कहेंगे कि इतना सहन तो किया ना? यह कोई कम किया क्या! यह भी मुझे मालूम है, मैंने कितना सहन किया, लेकिन सहन करने के बाद अगर समाया नहीं, समाने की शक्ति को यूज़ नहीं किया तो क्या होगा? यहाँ-वहाँ वर्णन होगा इसने यह किया, मैंने यह किया, तो सहन किया, यह कमाल जरूर की लेकिन कमाल का वर्णन कर कमाल को धमाल में चेन्ज कर लिया। क्योंकि वर्णन करने से एक तो देह अभिमान और दूसरा परचिन्तन दोनों ही स्वरूप कर्म में आ जाते हैं। इसी प्रकार से एक गुण को धारण किया दूसरे को नहीं किया तो जो धारणा स्वरूप होना चाहिए वह नहीं बन पाते। इस कारण मिले हुए खजाने को सदा धारण नहीं कर सकते अर्थात् सम्भाल नहीं सकते। सम्भाला नहीं अर्थात् गंवा दिया ना! कोई सम्भालता है कोई गंवा देता है। नम्बर तो होंगे ही ना! ऐसे सेवा में लगाना अर्थात् भाग्य की प्रॉपर्टी को बढ़ाना। इसमें भी सेवा तो सभी करते ही हो लेकिन सच्चे दिल से, लगन से सेवा करना, सेवाधारी बन करके सेवा करना इसमें भी अन्तर हो जाता है। कोई सच्चे दिल से सेवा करते हैं और कोई दिमाग के आधार पर सेवा करते हैं। अन्तर तो होगा ना!

दिमाग तेज है, प्वाइन्टस बहुत हैं, उसके आधार पर सेवा करना और सच्चे दिल से सेवा करना, इसमें रात-दिन का अन्तर है। दिल से सेवा करने वाला दिलाराम का बनायेगा। और दिमाग द्वारा सेवा करने वाला सिर्फ बोलना और बुलवाना सिखायेगा। वह मनन करता, वह वर्णन करता। एक है सेवाधारी बन सेवा करने वाले और दूसरे हैं नामधारी बनने के लिए सेवा करने वाले। फर्क हो गया ना। सच्चे सेवाधारी जिन आत्माओं की सेवा करेंगे उन्हों को प्राप्ति के प्रत्यक्षफल का अनुभव करायेंगे। नामधारी बनने वाले सेवाधारी उसी समय नामाचार को पायेंगे - बहुत अच्छा सुनाया, बहुत अच्छा बोला, लेकिन प्राप्ति के फल की अनुभूति नहीं करा सकेंगे। तो अन्तर हो गया ना! ऐसे एक है लगन से सेवा करना, एक है डयूटी के प्रमाण सेवा करना। लगन वाले हर आत्मा की लगन लगाने के बिना रह नहीं सकेंगे। डयूटी वाला अपना काम पूरा कर लेगा, सप्ताह कोर्स करा लेगा, योग शिविर भी करा लेगा, धारणा शिविर भी करा लेगा, मुरली सुनाने तक भी पहुँचा लेगा, लेकिन आत्मा की लगन लग जाए इसकी जिम्मेवारी अपनी नहीं समझेंगे। कोर्स के ऊपर कोर्स करा लेंगे लेकिन आत्मा में फोर्स नहीं भर सकेंगे। और सोचेंगे मैंने बहुत मेहनत कर ली। लेकिन यह नियम है कि सेवा की लगन वाला ही लगन लगा सकता है। तो अन्तर समझा? यह है मिली हुई प्रॉपर्टी को बढ़ाना। इस कारण जितना सम्भालते हैं, जितना बढ़ाते हैं उतना नम्बर आगे ले लेते हैं। भाग्यविधाता ने भाग्य सबको एक जैसा बांटा लेकिन कोई कमाने वाले कोई गंवाने वाले बन जाते। कोई खाके खत्म करने वाले बन जाते। इसलिए दो प्रकार की माला बन गई है। और माला में भी नम्बर बन गये हैं। समझा नम्बर क्यों बने? तो बापदादा त्याग के भाग्य को देख रहे थे। त्याग की भी लीला अपरमअपार है। वह फिर सुनायेंगे। अच्छा –

ऐसे श्रेष्ठ तकदीरवान, सदा श्रेष्ठ संकल्प और श्रेष्ठ कर्म द्वारा भाग्य की लकीर बढ़ाते रहने वाले, सदा सच्चे सेवाधारी, सदा सर्व गुणों, सर्व शक्तियों को जीवन में लगाने वाले, हर आत्मा को प्रत्यक्षफल अर्थात् प्राप्ति स्वरूप बनाने वाले, ऐसे श्रेष्ठ त्यागी और श्रेष्ठ भागी, सदा बाप द्वारा मिले हुए अधिकार को, खजाने को सम्भालने और बढ़ाने वाले, ऐसे धारणा स्वरूप सदा सेवाधारी बच्चों को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ

1-ब्राह्मण सो फरिश्ता और फरिश्ता सो देवता - यह लक्ष्य सदा स्मृति में रखो:- सभी अपने को ब्राह्मण सो फरिश्ता समझते हो? अभी ब्राह्मण हैं और ब्राह्मण से फरिश्ता बनने वाले हैं फिर फरिश्ता सो देवता बनेंगे -वह याद रहता है? फरिश्ता बनना अर्थात् साकार शरीरधारी होते हुए लाइट रूप में रहना अर्थात् सदा बुद्धि द्वारा ऊपर की स्टेज पर रहना। फरिश्ते के पांव धरनी पर नहीं रहते। ऊपर कैसे रहेंगे? बुद्धि द्वारा। बुद्धि रूपी पांव सदा ऊँची स्टेज पर। ऐसे फरिश्ते बन रहे हो या बन गये हो? ब्राह्मण तो हो ही - अगर ब्राह्मण न होते तो यहाँ आने की छुट्टी भी नहीं मिलती। लेकिन ब्राह्मणों ने फरिश्तेपन की स्टेज कहाँ तक अपनाई है? फरिश्तों को ज्योति की काया दिखाते हैं। प्रकाश की काया वाले। जितना अपने को प्रकाश स्वरूप आत्मा समझेंगे - प्रकाशमय तो चलते फिरते अनुभव करेंगे जैसे प्रकाश की काया वाले फरिश्ते बनकर चल रहे हैं। फरिश्ता अर्थात् अपनी देह के भान का भी रिश्ता नहीं, देहभान से रिश्ता टूटना अर्थात् फरिश्ता। देह से नहीं, देह के भान से। देह से रिश्ता खत्म होगा तब तो चले जायेंगे लेकिन देहभान का रिश्ता खत्म हो। तो यह जीवन बहुत प्यारी लगेगी। फिर कोई माया भी आकर्षण नहीं करेगी। अच्छा - ओम शान्ति।