18-04-82    ओम शान्ति     अव्यक्त बापदादा       मधुबन


ऊँच से ऊँच ब्राह्मण कुल की लाज रखो

ब्राह्मण कुल दीपकों प्रति बापदादा बोले:-

‘‘आज बापदादा सर्व स्नेही और मिलन की भावना वाली श्रेष्ठ आत्माओं को देख रहे हैं। बच्चों की मिलन भावना का प्रत्यक्षफल बापदादा को भी इस समय देना ही है। भक्ति की भावना का फल डायरेक्ट सम्मुख मिलन का नहीं मिलता। लेकिन एक बार परिचय अर्थात् ज्ञान के आधार पर बाप और बच्चे का सम्बन्ध जुटा, तो ऐसे ज्ञान स्वरूप बच्चों को अधिकार के आधार पर शुभ भावना, ज्ञान स्वरूप भावना, सम्बन्ध के आधार पर मिलन भावना का फल सम्मुख बाप को देना ही पड़ता है। तो आज ऐसे ज्ञानवान मिलन की भावना स्वरूप आत्माओं से मिलने के लिए बापदादा बच्चों के बीच आये हुए हैं। कई ब्राह्मण आत्मायें शक्ति स्वरूप बन, महावीर बन सदा विजयी आत्मा बनने में वा इतनी हिम्मत रखने में स्वयं को कमजोर भी समझती हैं लेकिन एक विशेषता के कारण विशेष आत्माओं की लिस्ट में आ गई हैं। कौन-सी विशेषता? सिर्फ बाप अच्छा लगता है, श्रेष्ठ जीवन अच्छा लगता है। ब्राह्मण परिवार का संगठन, नि:स्वार्था स्नेह - मन को आकर्षित करता है। बस यही विशेषता है कि बाबा मिला, परिवार मिला, पवित्र ठिकाना मिला, जीवन को श्रेष्ठ बनाने का सहज सहारा मिल गया। इसी आधार पर मिलन की भावना में स्नेह के सहारे में चलते जा रहे हैं। लेकिन फिर भी सम्बन्ध जोड़ने के कारण सम्बन्ध के आधार पर स्वर्ग का अधिकार वर्से में पा ही लेते हैं - क्योंकि ब्राह्मण सो देवता, इसी विधि के प्रमाण देवपद की प्राप्ति का अधिकार पा ही लेते हैं। सतयुग को कहा ही जाता है - देवताओं का युग। चाहे राजा हो, चाहे प्रजा हो लेकिन धर्म देवता ही है - क्योंकि जब ऊँचे ते ऊँचे बाप ने बच्चा बनाया तो उँचे बाप के हर बच्चे को स्वर्ग के वर्से का अधिकार, देवता बनने का अधिकार, जन्म सिद्ध अधिकार में प्राप्त हो ही जाता है। ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारी बनना अर्थात् स्वर्ग के वर्से के अधिकार की अविनाशी स्टैम्प लग जाना। सारे विश्व से ऐसा अधिकार पाने वाली सर्व आत्माओं में से कोई आत्मायें ही निकलती हैं। इसलिए ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना कोई साधारण बात नहीं समझना। ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना ही विशेषता है और इसी विशेषता के कारण विशेष आत्माओं की लिस्ट में आ जाते हैं। इसलिए ब्रह्माकुमार-कुमारी बनना अर्थात् ब्राह्मण लोक के, ब्राह्मण संसार के, ब्राह्मण परिवार के बनना। ब्रह्माकुमार-कुमारी बन अगर कोई भी साधारण चलन वा पुरानी चाल चलते हैं तो सिर्फ अकेला अपने को नुकसान नहीं पहुँचाते - क्योंकि अकेले ब्रह्माकुमार-कुमारी नहीं हो लेकिन ब्राह्मण कुल के भाती हो। स्वयं का नुकसान तो करते ही हैं लेकिन कुल को बदनाम करने का बोझ भी उस आत्मा के ऊपर चढ़ता है। ब्राह्मण लोक की लाज रखना यह भी हर ब्राह्मण का फर्ज है। जैसे लौकिक लोकलाज का कितना ध्यान रखते हैं। लौकिक लोकलाज पद्मापद्मपति बनने से भी कहाँ वंचित कर देती है। स्वयं ही अनुभव भी करते हो और कहते भी हो कि चाहते तो बहुत हैं लेकिन लोकलाज को निभाना पड़ता है। ऐसे कहते हो ना? जो लोकलाज अनेक जन्मों की प्राप्ति से वंचित करने वाली है, वर्तमान हीरे जैसा जन्म कौड़ी समान व्यर्थ बनाने वाली है, यह अच्छी तरह से जानते भी हो फिर भी उस लोकलाज को निभाने में अच्छी तरह ध्यान देते हो, समय देते हो, एनर्जी लगाते हो। तो क्या इस ब्राह्मण लोकलाज की कोई विशेषता नहीं है! उस लोक की लाज के पीछे अपना धर्म अर्थात् धारणायें और श्रेष्ठ कर्म याद का, दोनों ही धर्म और कर्म छोड़ देते हो। कभी वृत्ति के परहेज की धारणा अर्थात् धर्म को छोड़ देते हों, कभी शुद्ध दृष्टि के धर्म को छोड़ देते हो। कभी शुद्ध अन्न के धर्म को छोड़ देते हो। फिर अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए बातें बहुत बनाते हो। क्या कहते - कि करना ही पड़ता है! थोड़ी सी कमज़ोरी सदा के लिए धर्म और कर्म को छुड़ा देती है। जो धर्म और कर्म को छोड़ देता है उसको लौकिक कुल में भी क्या समझा जाता है? जानते हो ना? यह किसी साधारण कुल का धर्म और कर्म नहीं है। ब्राह्मण कुल ऊँचे ते ऊँची चोटी वाला कुल है। तो किस लोक वा किस कुल की लाज रखनी है? और कई अच्छी-अच्छी बातें सुनाते हैं - मेरी इच्छा नहीं थी लेकिन किसी को खुश करने के लिए किया! क्या अज्ञानी आत्मायें कभी सदा खुश रह सकती हैं? ऐसे अभी खुश, अभी नाराज़रहने वाली आत्माओं के कारण अपना श्रेष्ठ कर्म और धर्म छोड़ देतेङ जो धर्म के नहीं वह ब्राह्मण दुनिया के नहीं। अल्पज्ञ आत्माओं को खुश कर लिया लेकिन सर्वज्ञ बाप की आज्ञा का उल्लंघन किया ना! तो पाया क्या और गंवाया क्या! जो लोक अब खत्म हुआ ही पड़ा है। चारों ओर आग की लकड़ियाँ बहुत जोर शोर से इकट्ठी हो गई हैं। लकड़ियाँ अर्थात् तैयारियाँ। जितना सोचते हैं इन लकड़ियों को अलग-अलग कर आग की तैयारी को समाप्त कर दें उतना ही लकड़ियों का ढेर ऊँचा होता जाता है। जैसे होलिका को जलाते हैं तो बड़ों के साथ छोटे-छोटे बच्चे भी लकड़ियाँ इकट्ठी कर ले आते हैं। नहीं तो घर से ही लकड़ी ले आते। शौक होता है। तो आजकल भी देखो छोटे-छोटे शहर भी बड़े शौक से सहयोगी बन रहे हैं। तो ऐसे लोक की लाज के लिए अपने अविनाशी ब्राह्मण सो देवता लोक की लाज भूल जाते हो! कमाल करते हो! यह निभाना है या गंवाना है! इसलिए ब्राह्मण लोक की भी लाज स्मृति में रखो। अकेले नहीं हो, बड़े कुल के हो तो श्रेष्ठ कुल की भी लाज रखो।

कई बच्चे बड़े होशियार हैं। अपने पुराने लोक की लाज भी रखने चाहते और ब्राह्मण लोक में भी श्रेष्ठ बनना चाहते हैं। बापदादा कहते लौकिक कुल की लोकलाज भल निभाओ उसकी मना नहीं है लेकिन धर्म कर्म को छोड़ करके लोकलाज रखना, यह रांग है। और फिर होशियारी क्या करते हैं? समझते हैं किसको क्या पता? - बाप तो कहते ही हैं - कि मैं जानी जाननहार नहीं हूँ। निमित्त आत्माओं को भी क्या पता? ऐसे तो चलता है। और चल करके मधुबन में पहुँच भी जाते हैं। सेवाकेन्द्रों पर भी अपने आपको छिपाकर सेवा में नामीग्रामी भी बन जाते हैं। जरा सा सहयोग देकर सहयोग के आधार पर बहुत अच्छे सेवाधारी का टाइटल भी खरीद कर लेते हैं। लेकिन जन्म-जन्म का श्रेष्ठ टाइटल सर्वगुण सम्पन्न, 16 कला सम्पन्न, सम्पूर्ण निर्विकारी... यह अविनाशी टाइटल गंवा देते हैं। तो यह सहयोग दिया नहीं लेकिन ‘‘अन्दर एक, बाहर दूसरा'' इस धोखे द्वारा बोझ उठाया। सहयोगी आत्मा के बजाए बोझ उठाने वाले बन गये। कितना भी होशियारी से स्वयं को चलाओ लेकिन यह होशियारी का चलाना, चलाना नहीं लेकिन चिल्लाना है। ऐसे नहीं समझना यह सेवाकेन्द्र कोई निमित्त आत्माओं के स्थान हैं। आत्माओं को तो चला लेते लेकिन परमात्मा के आगे एक का लाख गुणा हिसाब हर आत्मा के कर्म के खाते में जमा हो ही जाता है। उस खाते को चला नहीं सकते। इसलिए बापदादा को ऐसे होशियार बच्चों पर भी तरस पड़ता है। फिर भी एक बार बाप कहा तो बाप भी बच्चों के कल्याण के लिए सदा शिक्षा देते ही रहेंगे। तो ऐसे होशियार मत बनना। सदा ब्राह्मण लोक की लाज रखना।

बापदादा तो कर्म और फल दोनों से न्यारे हैं। इस समय ब्रह्मा ब्राप भी इसी स्थिति पर हैं। फिर तो हिसाब किताब में आना ही है लेकिन इस समय बाप समान हैं। इसलिए जो जैसा करेंगे अपने लिए ही करते हो। बाप तो दाता है। जब स्वयं ही करता और स्वयं ही फल पाता है तो क्या करना चाहिए? बापदादा वतन में बच्चों के वैरायटी खेल देख करके मुस्कराते हैं। अच्छा –

ऐसे ब्राह्मण कुल के दीपक, सदा सच्ची लगन से स्नेही और सहयोगी बनने वाले, सदाकाल का श्रेष्ठ फल पाने वाले, सदा सच्चे बाप के सच्चे स्नेह में अल्पकाल की प्राप्तियों को कुर्बान करने वाले ऐसे स्नेही आत्माओं को, श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।''

पार्टियों के साथ

1. कर्म बन्धन से मुक्त स्थिति का अनुभव करने के लिए कर्मयोगी बनो:- सदा हर कर्म करते, कर्म के बन्धनों से न्यारे और बाप के प्यारे - ऐसी न्यारी और प्यारी आत्मायें अपने को अनुभव करते हो? कर्मयोगी बन, कर्म करने वाले कभी भी कर्म के बन्धन में नहीं आते हैं, वे सदा बन्धनमुक्त-योगयुक्त होते। कर्मयोगी कभी अच्छे वा बुरे कर्म करने वाले व्यक्ति के प्रभाव में नहीं आते। ऐसा नहीं कि कोई अच्छा कर्म करने वाला कनेक्शन में आये तो उसकी खुशी में आ जाओ और कोई अच्छा कर्म न करने वाला सम्बन्ध में आये तो गुस्से में आ जाओ - या उसके प्रति ईर्ष्या वा घृणा पैदा हो। यह भी कर्मबन्धन है। कर्मयोगी के आगे कोई कैसा भी आ जाए - स्वयं सदा न्यारा और प्यारा रहेगा। नॉलेज द्वारा जानेगा, इसका यह पार्ट चल रहा है। घृणा वाले से स्वयं भी घृणा कर ले यह हुआ कर्म का बन्धन। ऐसा कर्म के बन्धन में आने वाला एकरस नहीं रह सकता। कभी किसी रस में होगा कभी किसी रस में। इसलिए अच्छे को अच्छा समझकर साक्षी होकर देखो और बुरे को रहमदिल बन रहम की निगाह से परिवर्तन करने की शुभ भावना से साक्षी हो देखो। इसको कहा जाता है -कर्मबन्धन से न्यारे'। क्योंकि ज्ञान का अर्थ है समझ। तो समझ किस बात की? कर्म के बन्धनों से मुक्त होने की समझ को ही ज्ञान कहा जाता है। ज्ञानी कभी भी बन्धनों के वश नहीं होंगे। सदा न्यारे। ऐसे नहीं कभी न्यारे बन जाओ तो कभी थोड़ा सा सेक आ जाए। सदा विककर्माजीत बनने का लक्ष्य रखो। कर्मबन्धन जीत बनना है। यह बहुतकाल का अभ्यास बहुतकाल की प्रालब्ध के निमित्त बनायेगा। और अभी भी बहुत विचित्र अनुभव करेंगे। तो सदा के न्यारे और सदा के प्यारे बनो। यही बाप समान कर्मबन्धन से मुक्त स्थिति है।

बापदादा पुरानी बड़ी बहनों को देख बोले:- इस ग्रुप को कौन-सा ग्रुप कहेंगे? पहले शुरू में तो अपने-अपने नाम रहे - अभी कौन-सा नाम देंगे? सदा बाप के संग रहने वाले, सदा बाप के राइट हैण्ड। ऐसा ग्रुप हो ना! बापदादा भी भुजाओं के बिना इतनी बड़ी स्थापना का कार्य कैसे कर सकते! तो इसीलिए स्थापना के कार्य की विशेष भूजायें हो। विशेष भुजा राइट हैण्ड की होती है। बापदादा सदैव आदि रत्नों को रीयल गोल्ड कहते हैं। सभी आदि रत्न विश्व की स्टेज पर विशेष पार्ट बजा रहे हो। बापदादा भी हर विशेष आत्मा का - विशेष पार्ट देख हर्षित होते हैं। पार्ट तो सबका वैरायटी होगा ना! एक जैसा तो नहीं हो सकता लेकिन इतना जरूर है कि आदि रत्नों का विशेष ड्रामा अनुसार विशेष पार्ट है। हरेक रत्न में विशेष - विशेषता है जिसके आधार पर ही आगे बढ़ भी रहे हैं और सदा बढ़ते रहेंगे। वह कौन-सी विशेषता है - यह तो स्वयं भी जानते हो और दूसरे भी जानते हैं। लेकिन विशेषता सम्पन्न विशेष आत्मायें हो।

बापदादा ऐसे आदि रत्नों को लाख-लाख बधाईयाँ देते हैं क्योंकि आदि से सहन कर स्थापना के कार्य को साकार स्वरूप में वृद्धि को प्राप्त कराने के निमित्त बने हो। तो जो स्थापना के कार्य में सहन किया वह औरों ने नहीं किया है। आपके सहनशक्ति के बीज ने यह फल पैदा किये हैं। तो बापदादा आदि-मध्य- अन्त को देखते हैं - कि हरेक ने क्या-क्या सहन किया है और कैसे शक्ति रूप दिखाया है। और सहन भी खेल-खेल में किया। सहन के रूप में सहन नहीं किया, खेल-खेल में सहन का पार्ट बजाने के निमित्त बन अपना विशेष हीरो पार्ट नूँध लिया। इसलिए आदि रत्नों का यह निमित्त बनने का पार्ट बापदादा के सामने रहता है। और इसके फलस्वरूप आप सर्व आत्मायें सदा अमर हो। समझा अपना पार्ट? कितना भी कोई आगे चला जाये - लेकिन फिर भी... फिर भी कहेंगे। बापदादा को पुरानी वस्तु की वैल्यु का पता है। समझा। अच्छा –

प्रश्न:- संगमयुगी ब्राह्मण बच्चों को किस कर्त्तव्य में सदा तत्पर रहना चाहिए?

उत्तर:- समर्थ बनना है और दूसरों को भी समर्थ बनाना है, इसी कर्त्तव्य में सदा तत्पर रहो। क्योंकि व्यर्थ तो आधा कल्प किया, अब समय ही है समर्थ बनने और बनाने का। इसलिए व्यर्थ संकल्प, व्यर्थ बोल, व्यर्थ कर्म सब समाप्त, फुल स्टाप। पुराना चोपड़ा खत्म। जमा करने का साधन ही है - सदा समर्थ रहना। क्योंकि व्यर्थ से समय, शक्तियाँ और ज्ञान का नुकसान हो जाता है।