11-04-83       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


सहज पुरुषार्थी के लक्षण

सर्व खज़ानों से मालामाल करने वाले, सहज पुरुषार्थी, सहज योगी बच्चों के प्रति बापदादा बोले:-

बापदादा अपने स्नेही, सहयोगी बच्चों को देख हर्षित हो रहे हैं। स्नेह और मिलन की भावना इन दो शक्तियों के आधार पर निराकार और आकार बाप को आप समान साकार रूप में, साकारी सृष्टि में लाने के निमित्त बन जाते हो। बाप को भी बच्चे स्नेह और भावना के बन्धन में बांध लेते हैं। मैजारटी अभी भी माताओं की है। माताओं का ही चरित्र और चित्र दिखाया है - भगवान को भी बांधने का। किस वृक्ष से बांधा? इस बेहद के कल्प वृक्ष के अन्दर स्नेह और भावना की रस्सी से कल्प पहले भी बांधा था और अब भी रिपीट हो रहा है। बाप दादा ऐसे बच्चों को स्नेह के रेसपान्ड में, जिस रस्सी से बाप को बांधते हो, इन स्नेह और भावना की दोनों रस्सियों को दिलतख्त का आसन दे, झूला बनाए बच्चों को दे देते हैं। इस कल्प वृक्ष के अन्दर पार्ट बजाने वाले इसी झूले में सदा झूलते रहो। सभी को झूला मिला हुआ है ना! आसन से हिल तो नहीं जाते हो? स्नेह और भावना की रस्सियाँ सदा मजबूत है ना! नीचे ऊपर तो नहीं होते! झूला झुलाता भी है, ऊंचा उड़ाता भी है और अगर जरा भी नीचे ऊपर हुए तो ऊपर से नीचे गिराता भी है। झूला तो बापदादा ने सभी को दिया है। तो सदा झूलते रहते हो! माताओं को झूलने और झुलाने का अनुभव होता है ना! जिस बात के अनुभवी हो वह ही बातें बापदादा कहते हैं। कोई नई बात तो नहीं है ना! अनुभव की हुई बातें सहज होती हैं वा मुश्किल!

आज की यह कौन सी सभा है? सभी सहजयोगी, सहज पुरुषार्थी, सहज प्राप्ति स्वरूप हो वा कभी सहज, कभी मुश्किल के योगी हो? सहज पुरुषार्थी अर्थात् आये हुए हिमालय पर्वत जितनी समस्या को भी उड़ती कला के आधार पर सेकण्ड में पार करने वाले। पार करने का अर्थ ही है कि कोई चीज़ होगी तब तो उसको पा करेंगे। ऐसे सहज पार करते, उड़ते जा रहे हो वा कभी पहाड़ पर उतर आते, कभी नदीं में उतर आते, कभी कोई जंगल में उतर आते। फिर क्या कहते? निकालो वा बचाओ। ऐसे करने वाले तो नहीं हो ना! मातायें अब भी बात बात पर वही पुकार तो नहीं करती रहती! भक्ति के संस्कार तो समाप्त हो गये ना! द्रोपदी की पुकार पूरी हो गई या अभी भी चल रही है? अभी तो अधिकारी बन गये ना! पुकार का समय समाप्त हुआ। संगमयुग प्राप्ति का समय है न कि पुकार का समय है? सहज पुरुषार्थी अर्थात् सबको पार कर सर्व सहज प्राप्ति करने वाले। सहज पुरुषार्थी सदा वर्तमान और भविष्य प्रालब्ध पाने के अनुभवी होंगे। प्रालब्ध सदा ऐसे स्पष्ट दिखाई देगी जैसे स्थूल नेत्रों द्वारा स्थूल वस्तु स्पष्ट दिखाई देती है। ऐसे बुद्धि के अनुभव के नेत्र द्वारा अर्थात् तीसरे दिव्य नेत्र द्वारा प्रालब्ध दिखाई देगी। सहज पुरुषार्थी हर कदम में पदमों से भी ज्यादा कमाई का अनुभव करेंगे। ऐसा स्वयं को सदा संगमयुगी सर्व खज़ानों से भरपूर आत्मा अनुभव करेंगे। किसी भी शक्ति से, किसी भी गुण के खज़ाने से, ज्ञान के किसी भी पाइंट के खज़ाने से, खुशी से, नशे से कभी खाली नहीं होंगे। खाली होना गिरने का साधन है। खड्डा बन जाता है ना। तो खड्डे में गिर जाते हैं। थोड़ी सी भी मोच आ जाती है तो परेशान हो जाते हैं ना! यह भी बुद्धि की मोच आ जाती है। संकल्प टेढ़ा हो जाता है। शक्तिशाली मालामाल के बदले कमज़ोर और खाली हो जाते हैं। तो संकल्प की मोच आ गई ना! ऐसे करते क्यों हो? फिर कहते हो रास्ता टेढ़ा है। आप टेढ़े नहीं हो? टेढ़े रास्ते को तो सीधा बनाया है ना। शक्ति अवतार किसलिए हो? टेढ़े को सीधा करने के लिए। कान्ट्रैक्ट क्या लिया है? जैसे इस हाल को टेढ़े बांके से सीधा किया तब तो आराम से बैठे हो। तो हाल के कान्ट्रैक्टर से पूछो उसने यह सोचा क्या कि टेढ़ा है, मोच आयेगी। सीधा किया वा टेढ़े को ही सोचता रहा। कहाँ पत्थर को उड़ाया, कहाँ पत्थर को डाला, मेहनत की ना। तो आप सबको स्वर्ग बनाने का कान्ट्रैक्ट है ना! टेढ़े को सीधा बनाने का कान्ट्रैक्ट है ना! ऐसे कान्ट्रैक्ट लेने वाले तो नहीं कह सकते कि रास्ता टेढ़ा है। अचानक गिरना यह भी अटेन्शन की कमी है। साकार रूप में याद है ना, कोई गिरते थे तो क्या करते थे! उसकी टोली बन्द होती थी। क्यों? आगे के लिए सदा अटेन्शन रखने के लिए। टोली देना तो कोई बड़ी बात नहीं है। टोली तो होती ही बच्चों के लिए है। लेकिन यह भी स्नेह है। टोली देना भी स्नेह है, टोली बन्द करना भी स्नेह है। फिर क्या सोचा? अचानक गिर जाते हैं वा रास्ता टेढ़ा है, यह कहेंगे? अभी तो इस पुरूषार्थ के मार्ग में इतनी भीड़ कहाँ हुई है! अभी तो 9 लाख प्रजा भी नहीं बनी है। अभी तो एक लाख में ही खुश हो रहे हो। पुरूषार्थ का मार्ग बेहद का मार्ग है। तो समझा सहज पुरुषार्थी किसको कहा जाता है! जो मोच न खाये और ही औरों के लिए स्वयं गाइड, पण्डा बन सहज रास्ता पार करावे। सहज पुरुषार्थी सिर्फ लव में नहीं लेकिन लव में लीन रहता। ऐसी लवलीन आत्मा सहज ही चारों ओर के वायब्रेशन से वायुमण्डल से दूर रहती है। क्योंकि लीन रहना अर्थात् बाप समान शक्तिशाली, सर्व बातों से सेफ रहना। लीन रहना अर्थात् समाया हुआ रहना। समाना अर्थात् समान होना। तो समानता बड़े ते बड़ी सेफ है। है ही मायाप्रूफ सेफ। तो समझा सहज पुरूषार्थ क्या है! सहज पुरूषार्थ अर्थात् अलबेलापन नहीं। कई अलबेलेपन को भी सहज पुरूषार्थ मानकर चलते हैं। वो सदा मालामाल नहीं होगा। अलबेले पुरुषार्थी की सबसे बड़ी विशेषता अन्दर मन खाता रहेगा और बाहर से गाता रहेगा! क्या गाता रहेगा? अपनी महिमा के गीत गाता रहेगा। और सहज पुरुषार्थी सदा हर समय में बाप के साथ का अनुभव करेगा। ऐसे सहज पुरुषार्थी हो? सहज पुरुषार्थी सदा सहज योगी जीवन का अनुभव कर सकता है। तो क्या पसन्द है? सहज पुरूषार्थ या मुश्किल? पसन्द तो सहज पुरूषार्थ है ना! दिलपसन्द चीज़ जब बाप दे ही रहे हैं तो क्यों नहीं लेते? न चाहते भी हो जाता है, यह शब्द भी मास्टर सर्वशक्तिवान का बोल नहीं है। चाहना एक, कर्म दूसरा तो क्या उसको शिव-शक्ति कहेंगे!

शिव-शक्ति अर्थात् अधिकारी। अधीन नहीं। तो यह बोल भी ब्राह्मण भाषा के नहीं हुए ना! अपने ब्राह्मण भाषा को तो जानते हो ना! संगमयुग का अर्थात् सहज प्राप्ति का बहुत समय गया। अब बाकी थोड़ा सा समय रहा हुआ है। इसमें भी समय के वरदान, बाप के वरदान को प्राप्त कर स्वयं को सहज पुरुषार्थी बना सकते हो। ब्राह्मण की परिभाषा है ही -मुश्किल को सहज बनाने वाला। ब्राह्मण का धर्म, कर्म सब यही है। तो जन्म के, कर्म के ब्राह्मण आत्मायें अर्थात् सहज योगी। सहज पुरुषार्थी। अब यहाँ से क्या बन करके जायेंगे?

मधुबन को परिवर्तन भूमि कहते हो ना! मुश्किल शब्द को तपोभूमि में भस्म करके जाना। और सहज पुरूषार्थ का वरदान ले जाना। परिवर्तन का पात्र अर्थात् दृढ़ संकल्प के पात्र को धारण करके जाना तब वरदान धारण कर सकेंगे। नहीं तो कई कहते हैं वरदान तो बाबा ने दिया लेकिन आबू में ही रह गया। वहाँ जाकर देखते हैं वरदान तो साथ आया ही नहीं। वरदाता का वरदान योग्य पात्र में लिया? अगर लिया ही नहीं तो रहेगा कहाँ? जिसने दिया उसके पास ही रहा ना! ऐसे नहीं करना। होशियार बहुत हो गये हैं। अपना कसूर नहीं समझेंगे। कहेंगे पता नहीं बाबा ने क्यों ऐसे किया! अपनी कमज़ोरियाँ सब बाप के ऊपर रखते हैं। बाबा चाहे तो कर सकता है लेकिन करना नहीं है। बाप दाता है या लेता है? दाता तो देता है लेकिन लेने वाले लेवें भी ना! या देवे भी बाप और लेवे भी बाप। बाप लेंगे तो आप कैसे भरपूर होंगे! इसलिए लेना तो सीखो ना! अच्छा - मिलन तो हो गया ना। सबसे हंसे, बहले, सबके चेहरे देखे। इस समय तो बहुत अच्छे चेयरफुल चेहरे हैं। सभी खुशी के झूले में झूल रहे हैं। तो यह मिलना नहीं हुआ! मिलना अर्थात् मुखड़ा देखना और दिखलाना। देखा ना! पात्र भी मिला, वरदान भी मिला। बाकी क्या रह गया? टोली तो दीदी दादी से खा ली है। जब व्यक्त रूप में निमित्त बना दिया है तो अव्यक्त को क्यों व्यक्त बनाते हो! दीदी दादी भी बाप समान हैं ना! जब भी दीदी दादी से टोली लेते हो तो क्या समझकर लेते हो? बाप दादा टोली दे रहे हैं। अगर दीदी दादी समझ लेते तो यह भी भूल हो जायेगी। अच्छा, तो बाकी टोली की इच्छा अभी है। समझते हैं टोली खायेंगे तो आगे तो आयेंगे ना। तो आज ही सबकी क्यू लगाओ और टोली खाओ। दिल तो कब भरने वाली है नहीं। दिल भरती रहनी चाहिए। भर नहीं जानी चाहिए। कुछ न कुछ रहना ठीक है। तब तो याद करते रहेंगे और भरते रहेंगे। भर गई तो फिर कहेंगे भर गया अब खाओ पीयो मौज करो। अच्छा –

सब सदा के सहज योगी, सहज पुरुषार्थी, सदा सर्व की मुश्किलातों को सहज करने वाले, ऐसे बाप समान मास्टर सर्वशक्तिवान, सदा मालामाल, सर्व खज़ानों से स्व सहित विश्व की सेवा करने वाले, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बाप दादा का याद-प्यार और नमस्ते।’’

पार्टियों के साथ (माताओं के अलग-अलग ग्रुप से)

(1) सभी अपना कल्प पहले वाला चित्र देखते रहते हो? ऐसा कौन सा चित्र है जिस चित्र में बाप का साथ भी है और सेवा भी दिखाई है? गोवर्धन पर्वत उठाने काङ इस चित्र में बाप के साथ बच्चें भी हैं। और दोनों ही सेवा कर रहे हैं। पर्वत को अंगुली देना सेवा हुई ना! तो इस चित्र में आप सभी हो ना! खुशी खुशी से कहो कि हमारा ही यह चित्र है! मन में उमंग आता है ना कि सहयोगी बनने का भी यादगार बन गया है। अंगुली सहयोग की निशानी है। सभी बाप दादा के सहयोगी हो ना! जन्म ही किसलिए लिया है? सहयोगी बनने के लिए। तो सदा स्मृति में रखो कि हम जन्म से सहयोगी आत्मा हैं। तन-मन-धन जैसे पहले मालूम नहीं था तो भक्ति में लगाया और अभी जो बचा हुआ है वह सच्ची सेवा से, बाप के सहयोगी बन लगा रहे हो! 99% तो गंवा दिया बाकी 1% बचा है। अगर वह भी सहयोग में नहीं लगायेंगे तो कहाँ लगायेंगे! देखो कहाँ सतयुगी राजा और आज क्या हो? तन में भी शक्ति कहाँ हैं! आज के जवान बूढ़े हैं। जितना बूढ़े काम कर सकते उतना आज के जवान नहीं कर सकते। नाम की जवानी है। और धन भी गँवा दिया, देवता से बिजनेस वाले वैश्य बन गये। और मन की शान्ति भी कहाँ रही, भटक रहे हो। तो मन की शान्ति, तन, धन सब गँवा दिया, बाकी क्या रहा! फिर भी शुक्र करो 1ज्ञ् भी बचा हुआ तन-मन- धन ईश्वरीय कार्य में लगाकर फिर से पद्मगुणा जमा कर लेते हो। 1% भी बचा हुआ तन-मन-धन ईश्वरीय कार्य में लगाने से 21 जन्म, 2500 वर्ष के लिए जमा हो जाता है। ऐसे सहयोगी बच्चों को बाप भी सदा स्नेह देते हैं, सहयोग देते हैं। और इसी सहयोग का चित्र अभी भी देख रहे हो। अभी प्रैक्टिकल कर भी रहे हो और चित्र भी देख रहे हो। वैसे कोई मरने के बाद अपना चित्र नहीं देखता। आप चैतन्य में कल्प पहले वाला चित्र देख रहे हो। पहले अपने ही चित्र की पूजा करते थे। अगर पता होता तो गायन नहीं करते, बन जाते। तो ऐसे सभी सहयोगी हो ना! सदा हर कार्य में सहयोग देने का शुभ संकल्प, कभी भी किसी भी प्रकार के वातावरण को शक्तिशाली बनाने में सदा सहयोगी। वातावरण को भी नीचे ऊपर नहीं होने देना। सहयोगी बनने के बदले कभी हलचल करने वाले नहीं बन जाना। सदा सहयोगी अर्थात् सदा सन्तुष्ट। एक बाप दूसरा न कोई, चलते चलो, उड़ते चलो। कोई भी संकल्प आये तो ऊपर देकर स्वयं नि:संकल्प होकर चलते जाओ। विचार देना, इशारा देना यह दूसरी बात है, हलचल में आना यह दूसरी बात है। तो सदा एकरस। संकल्प दिया और निर्संकल्प बने। सदा स्व उन्नति और सेवा की उन्नति में बिजी रहो और सर्व के प्रति शुभ भावना रखो। जिस शुभ भावना से जो संकल्प रखते वह सब पूरा हो जाता है। शुभ संकल्प पूरे होने का साधन है - एकरस अवस्था। शुभ चिन्तन, शुभाचिंतक - इसी से सब बातें सम्पन्न हो जायेगी। चारों ओर के वातावरण को शक्तिशाली बनाना यही है शक्तिशाली श्रेष्ठ आत्माओं का कर्त्तव्य।

(2) सदा बाप और सेवा दोनों ही याद रखते हैं ना! याद और सेवा दोनों का बैलेन्स सदा रखते हो? क्योंकि याद के बिना सेवा सफल नहीं होती और सेवा के बिना मायाजीत नहीं बन सकते। क्योंकि सेवा में बिजी रहने से, इस ज्ञान का मनन करने से माया सहज ही किनारा कर लेती है। बिना याद के सेवा करेंगे तो सफलता कम और मेहनत ज्यादा। और याद में रहकर सेवा करेंगे तो सफलता ज्यादा और मेहनत कम। तो दोनों का बैलेन्स रहता है? बैलेन्स रखने वाले को स्वत: ही ब्लैसिंग मिलती रहती, मांगना नहीं पड़ता। जिन आत्माओं की सेवा करते, उन आत्माओं के मन से, वाह श्रेष्ठ आत्मा सुनाने वाली, वाह मेरी तो जीवन बदल दी...यह वाह-वाह ही आशीर्वाद बन जाती है। ऐसी आशीर्वाद का अनुभव करते हो? जिस दिन याद में रहकर सेवा करेंगे उस दिन अनुभव करेंगे- बिना मेहनत के नैचुरल खुशी। ऐसी खुशी का अनुभव है ना! इसी आधार से सभी आगे बढ़ते जा रहे हो? समझते हो कि हर समय हमारी स्व उन्नति और विश्व उन्नति होती जा रही है? अगर स्व उन्नति नहीं तो विश्व उन्नति के भी निमित्त नहीं बन सकेंगे। स्व उन्नति का साधन है यादऔर विश्व उन्नति का साधन है सेवा। सदा इसी में आगे बढ़ते चलो। संगम पर बाप ने सबसे बड़ा खज़ाना कौन सा दिया है? खुशी का! कितने प्रकार की खुशी का खज़ाना प्राप्त है! अगर खुशी की वैरायटी पाइंटस निकालो तो कितने प्रकार की होंगी! संगमयुग पर सबसे बड़े ते बड़ी सौगात, खज़ाना पिकनिक का सामान...सब खुशी है। रोज़ अमृतवेले खुशी की एक पाइंट सोचो...तो सारा दिन खुशी में रहेंगे। कई बच्चे कहते हैं मुरली में तो रोज़ वही पाइंट होती है, लेकिन जो पाइंट पक्की नहीं हुई है वह पक्की कराने के लिए रोज़ देनी पड़ती है। जैसे स्कूल में स्टूडेन्ट कोई बात पक्की याद नहीं करते तो 50 बार भी वही बात लिखते हैं, तो बापदादा भी रोज़ कहते बच्चे, अपने को आत्मा समझो और मुझे याद करो क्योंकि यह पाइंट अभी तक कच्ची है। तो रोज़ खुशी की नई-नई पाइंट्स बुद्धि में रखो और सारा दिन खुशी में रहते दूसरों को भी खुशी का दान देते रहो। यही सबसे बड़े ते बड़ा दान है। दुनिया में अनेक साधन होते हुए भी अन्दर की सच्ची अविनाशी खुशी नहीं है, आपके पास वही खुशी है तो खुशी का दान देते रहो।

(3) सदा अपने को कमल पुष्प समान पुरानी दुनिया के वातावरण से न्यारे और एक बाप के प्यारे, ऐसा अनुभव करते हो? जो न्यारा वही प्यारा और जो प्यारा वही न्यारा। तो कमल समान हो या वातावरण में रहकर उसके प्रभाव में आ जाते हो? जहाँ भी जो भी पार्ट बजा रहे हो वहाँ पार्ट बजाते पार्ट से सदा न्यारे रहते हो या पार्ट के प्यारे बन जाते हो, क्या होता है? कभी योग लगता, कभी नहीं लगता इसका भी कारण क्या है? न्यारेपन की कमी। न्यारे न होने के कारण प्यार का अनुभव नहीं होता। जहाँ प्यार नहीं वहाँ याद कैसे आयेगी! जितना ज्यादा प्यार उतना ज्यादा याद। बाप के प्यार के बजाए दूसरों के प्यारे हो जाते हो तो बाप भूल जाता है। पार्ट से न्यारा और बाप का प्यारा बनो, यही लक्ष्य और प्रैक्टिकल जीवन हो। लौकिक में पार्ट बजाते प्यारे बने तो प्यार का रिटर्न क्या मिला? कांटों की शैया ही मिली ना! बाप के प्यार में रहने से सेकण्ड में क्या मिलता है? अनेक जन्मों का अधिकार प्राप्त हो जाता है। तो सदा पार्ट बजाते हुए न्यारे रहो। सेवा के कारण पार्ट बजा रहे हो। सम्बन्ध के आधार पर पार्ट नहीं, सेवा के सम्बन्ध से पार्ट। देह के सम्बन्ध में रहने से नुकसान है, सेवा का पार्ट समझ कर रहो तो न्यारे रहेंगे। अगर प्यार दो तरफ है तो एकरस स्थिति का अनुभव नहीं हो सकता है।

(4) सदा निर्विघ्न, सदा हर कदम में आगे बढ़ने वाली श्रेष्ठ आत्मायें हो ना! किसी प्रकार का विघ्न रोकता तो नहीं है? जो निर्विघ्न होगा उसका पुरूषार्थ भी सदा तेज होगा क्योंकि उसकी स्पीड तेज होगी। निर्विघ्न अर्थात् तीव्रगति की रफ्तार। विघ्न आये और फिर मिटाओ इसमें भी समय जाता है। अगर कोई गाड़ी को बार-बार स्लो और तेज करे तो क्या होगा? ठीक नहीं चलेगी ना। विघ्न आवे ही नहीं उसका साधन क्या है? सदा मास्टर सर्वशक्तिवान की स्मृति में रहो। सदा की स्मृति शक्तिशाली बना देगी। शक्तिशाली के सामने कोई भी माया का विघ्न आ नहीं सकता। तो अखण्ड स्मृति रहे। खण्डन न हो। खण्डित मूर्ति की पूजा भी नहीं होती है। विघ्न आया फिर मिटाया तो अखण्ड अटल तो नहीं कहेंगे। इसलिए सदाशब्द पर और अटेन्शन। सदा याद में रहने वाले सदा निर्विघ्न होंगे। संगमयुग विघ्नों को विदाई देने का युग है। जिसको आधा कल्प के लिए विदाई दे चुके उसको फिर आने न दो। सदा याद रखो कि हम विजयी रत्न हैं। विजय का नगाड़ा बजता रहे। विजय की शहनाईयाँ बजती रहती हैं, ऐसे याद द्वारा बाप से कनेक्शन जोड़ा और सदा यह शहनाईयाँ बजती रहें। जितना-जितना बाप के प्यार में, बाप के गुण गाते रहेंगे तो मेहनत से छूट जायेंगे। सदा स्नेही, सदा सहजयोगी बन जाते हैं। अच्छा - ओम् शान्ति।

प्रश्न:- धर्मराजपुरी क्या है उसका अनुभव कब और कैसे होता है?

उत्तर:- धर्मराजपुरी कोई अलग स्थान नहीं है। सजाओं के अनुभव को ही धर्मराजपुरी कहते हैं। लास्ट में अपने पाप सामने आते हैं, और चैतन्य में जमदूत नहीं है, लेकिन अपने ही पाप डरावने रूप में सामने आते हैं। उस समय पश्चाताप और वैराग की घड़ी होती है। उस समय छोटे-छोटे पाप भी भूत की तरह लगते हैं। जिसको ही कहते हैं - यमदूत आये, काले-काले आये, गोरे-गोरे आये...ब्रह्मा बाप भी आफीशियल रूप में सामने दिखाई देते और छोटा सा पाप भी बड़े विकराल रूप में दिखाई देता, जैसे कई आइने होते हैं जिसमें छोटा आदमी भी मोटा या लम्बा दिखाई देता है, ऐसे अन्त समय में पश्चाताप की त्राहि-त्राहि होगी। अन्दर ही कष्ट होगा। जलन होगी। ऐसे लगेगा जैसे चमड़ी को कोई खींच रहा है। यह फीलिंग आयेगी। ऐसे ही सब पापों के सजाओं की अनुभूति होगी जो बहुत ही कड़ी है। इसको ही धर्मराज पुरीकहा गया है।