02-05-83       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


दोषी माया नहीं

ज्ञान के सागर, सर्वशक्तिवान शिव बाबा, बालक सो मालिक बच्चों प्रति बोले:-

आज बापदादा सारे संगठन में विशेष उन आत्माओं को देख रहे हैं जो ज्ञान और योग के स्वरूप बन मास्टर रचयिता की स्टेज पर सदा स्थित रहते हैं। ज्ञानी और योगी तो सभी अपने को कहलाते लेकिन ज्ञानी तू बाप समान आत्मा, योगी तू बाप समान आत्मा, इसमें नम्बरवार हैं। बाप समान अर्थात् मास्टर रचता की पोजीशन में सदा स्थित रहते। इस मास्टर रचता के सहज आसन पर स्थित हुई शक्तिशाली आत्मा के आगे सारी रचना दासी के रूप में, सेवा में सहयोगी बन जाती है। मास्टर रचता सेकेण्ड में अपने शुद्ध संकल्प रूपी आर्डर से जो वायुमण्डल बनाने चाहे वह बना सकते हैं। जैसा वायब्रेशन फैलाने चाहें वैसे फैला सकते हैं। जिस शक्ति को आह्वान करें वह शक्ति सहयोगी बन जाती। जिस आत्मा को जो अप्राप्ति है वह जानकर, सर्व प्राप्तियों का मास्टर दाता बन उन आत्माओं को दे सकते हैं। ऐसे शक्तिशाली मास्टर रचता सदा सहज आसनधारी कहाँ तक बने हैं यह देख रहे थे। क्या देखा, नम्बरवार तो सब हैं ही। लेकिन ऐसे भी मास्टर रचता कहलाने वाले देखे जो अपनी रचना - संकल्प शक्ति के एक व्यर्थ संकल्प से घबरा जाते हैं। डर जाते हैं। स्मृति का प्रेशर लो हो जाता है। इसलिए उमंग उत्साह की धड़कन बहुत स्लो (Slow हो जाती है। दिलशिकस्त का पसीना निकल आता है ना! ऐसा होता है ना! क्या करें, कैसे करें, इसमें परेशान हो जाते हैं। गलती एक सेकण्ड की है। अपने मास्टर रचता की पोजीशन से नीचे आ जाते हैं। जहाँ पोजीशन समाप्त हुआ वा विस्मृत हुआ उसी सेकण्ड माया की सैना आपोजीशन करने पहुँच जाती है। आह्वान कौन करता माया को? स्वयं नीचे आ जाते, पोजीशन की सीट को छोड़ देते तो खाली स्थान को माया अपना बना लेती है। इसलिए माया कहती - दोषी मैं नहीं, लेकिन आह्वान करते हैं तो मैं पहुँच जाती। समझा! अच्छा आज तो मिलने का दिन है, फिर सुनायेंगे कि और क्या-क्या करते हैं।

सर्व मास्टर रचता, सहज आसनधारी, सदा बालक सो मालिकपन के स्मृति स्वरूप, सदा बाप समान ज्ञान युक्त, ऐसी श्रेष्ठ आत्माओं को बापदादा का यादप्यार और नमस्ते।’’

कुमारियों से :- कुमारियों ने अपना फैसला कर लिया है? क्योंकि कुमारी जीवन ही फैसले का समय होता है। फैसले के समय पर बाप के पास पहुँच गई, कितनी भाग्यवान हो! अगर थोड़ा भी आगे जीवन चल जाती तो पिंजरे की मैना बन जाती। तो क्या बनना है - पिंजरे की मैना या स्वतन्त्र पंछी? कुमारी तो स्वतन्त्र पंछी है। कुमारियों को नौकरी करने की भी क्या आवश्यकता है! क्या बैंक बैलेन्स करना है? लौकिक बाप के पास रहेंगी तो भी दो रोटी मिल जायेंगी, अलौकिक के पास रहेंगी तो भी कोई कमी नहीं, फिर नौकरी क्यों करती? क्या सेन्टर पर रहने में डर लगता है! अगर कहते ममता है तो भी दु:ख की लहर आ सकती है। वैसे भी कुमारी घर में नहीं रहती। इसी नशे में रहो - हम हैं बाप के तख्तनशीन। सतयुग का राज्य तख्त भी इस तख्त के आगे कुछ नहीं है। सदा ताज और तिलकधारी हैं, इस स्मृति में रहो। अगर कोई को बैठने के लिए बढ़िया आसन मिल जाए तो छोड़ेगा कैसे! बनना है तो श्रेष्ठ ही बनना है, हाँ तो हाँ। मरना है तो धक से। यही मरना मीठा है। अगर लक्ष्य पक्का है तो कोई भी हिला नहीं सकता। लक्ष्य कच्चा है तो कई बहाने, कई बातें आयेंगी जो रूकावट डालेंगी। इसलिए सदा दृढ़ संकल्प करना।

अधरकुमारों के ग्रुप से :- सभी प्रकार की मेहनत से बाप ने छुड़ा दिया है ना? भक्ति की मेहनत से छूट गये और गृहस्थी जीवन की मेहनत से भी छूट गये। गृहस्थी जीवन में ट्रस्टीबन गये तो मेहनत खत्म हो गई ना! और भक्ति का फल मिल गया तो भक्ति का भटकना अर्थात् मेहनत खत्म हो गई। भक्ति का फल खाने वाले हैं, ऐसा समझते हो? वैसे भक्ति का फल ज्ञान कहते हैं, लेकिन आप लोगों को भक्ति का फल स्वयं ज्ञान दातामिल गया। तो भक्ति का फल भी मिला और गृहस्थी के जो दु:ख, अशान्ति के झंझट थे वह भी खत्म हो गये, दोनों से मुक्त हो गये। जीवनबन्ध से जीवनमुक्त आत्मायें हो गई। जब कोई बन्धन से मुक्त हो जाता है तो खुशी में नाचता है। आप भी बन्धनमुक्त आत्मायें सदा खुशी में नाचते रहो। बस गीत गाओ और खुशी में नाचो। यह तो सहज काम है ना! सदा याद रखो - जीवनमुक्त आत्मायें हैं। सब बन्धन समाप्त हो गये, मेहनत से छूट गये, मुहब्बत में आ गये। तो सदा हल्के होकर उड़ो। पुजारी से पूज्य, दुखी से सुखी, काँटों से फूल बन गये, कितना अन्तर हो गया! अभी पुरानी कलियुगी दुनिया के कोई भी संस्कार न रहें। अगर पुरानी दुनिया का कोई भी पुराना संस्कार रह गया तो वह अपनी तरफ खींच लेगा। इसलिए सदा नई जीवन नये संस्कार। श्रेष्ठ जीवन है तो श्रेष्ठ संस्कार चाहिए। श्रेष्ठ संस्कार हैं ही स्व-कल्याण और विश्व-कल्याण करना। ऐसे संस्कार भर गये हैं? स्व-कल्याण और विश्व-कल्याण के सिवाए और कोई संस्कार होंगे तो इस जीवन में विघ्न डालेंगे। इसलिए पुराने संस्कार सब समाप्त। सदा यह स्मृति में रहे कि - मैं रूहानी गुलाब हूँ।रूहानी गुलाब अर्थात् सदा रूहानी खुशबू फैलाने वाले। जैसे रूहे गुलाब अपनी खुशबू देता है, उसका रंग रूप भी अच्छा, खुशबू भी अच्छी सबको अपने तरफ आकर्षित भी करता है ऐसे आप भी बाप के बगीचे के रूहानी गुलाब हो। गुलाब सदा पूजा में अर्पण किया जाता है। रूहानी गुलाब भी बाप के आगे आर्पित होते हैं। यह यज्ञ-सेवाधारी बनना भी अर्पण होना है। अर्पण होना यह नहीं कि एक स्थान पर रहना। कहाँ भी रहें लेकिन श्रीमत पर रहें। अपनापन जरा भी मिक्स न हो। ऐसे अपने को भाग्यवान खुशबूदार रूहानी गुलाब समझते हो ना! सदा इसी स्मृति में रहो कि हम अल्लाह के बगीचे के रूहानी गुलाब’ - यही नशा सदा रहे। नशे में रहो और बाप के गुणों के गीत गाते रहो। इस ईश्वरीय नशे में जो भी बोलेंगे उससे भाग्य बनेगा।

सदा अपने को विजयी पाण्डव समझ कर चलो। पाण्डवों की विजय कल्पकल्प की प्रसिद्ध है। 5 होते भी विजयी थे। विजय का कारण - बाप साथी था! जैसे बाप सदा विजयी है वैसे बाप का बनने वाले भी सदा विजयी। यही स्मृति में रहे कि हम सदा विजयी रत्न हैं तो यह बात भी बड़ा नशा और खुशी दिलाती है। जब पाण्डवों की कहानी सुनते हो तो क्या लगता है? यह हमारी कहानी है! निमित्त एक अर्जुन कहने में आता है, दुनिया के हिसाब से 5 हैं, लेकिन हैं सदा विजयी। यही स्मृति सदा ताजी रहे। ऐसी स्पष्ट स्मृति हो जैसे कल की बात है। सभी ने घर बैठे भाग्य ले लिया है ना! घर बैठे ऐसा श्रेष्ठ ते श्रेष्ठ भाग्य मिला है जो अन्त तक गाया जायेगा। बाप के घर में आये, अपने घर में आये, मनाया, खाया, खेला...वैसे भी जब थक जाते हैं तो रेस्ट में चले जाते हैं। यहाँ भी बिजनेस करके, नौकरी करके, थक कर आते हो और यहाँ आते ही कमल बन जाते हो। बाप के सिवाए और कोई दिखाई नहीं देता, रेस्ट मिल जाती है। सिवाए एक बाप से मिलने, उनकी बातें सुनने, याद करने...बस यही काम है। तो थकावट उतरी, रिफ्रेश हो गए ना! चाहे दो घण्टे के लिए भी कोई आवे तो भी रिफ्रेश हो जाते हैं क्योंकि यह स्थान ही रिफ्रेश होने का है।यहाँ आना ही रिफ्रेश होना है। अच्छा –

विदाई के समय :- एक-एक बच्चा, एक दो से अधिक प्रिय है। सभी में अपनी-अपनी विशेषतायें हैं। चाहे लास्ट नम्बर भी है लेकिन बाप का तो बच्चा ही है। कैसे भी बच्चे हैं लेकिन फिर भी त्याग और भाग्य तो पा लिया है ना। इसलिए सभी अपने को बाप के प्रिय समझो। चाहे नम्बरवार हैं लेकिन याद-प्यार तो सबको मिलता है। बापदादा सबको सिक व प्रेम से याद-प्यार देते हैं। सिक व प्रेम सभी के लिए एक जैसा है। सभी सिकीलधे स्नेही, बाप की भुजायें हो। इसलिए अपनी भुजायें तो जरूर प्रिय लगेंगी ना। अपनी भुजायें अप्रिय होती हैं क्या! लास्ट नम्बर भी तो कोटो में कोई है ना! तो कोटो से तो प्रिय हो ही गये ना!

अच्छा - ओम् शान्ति।