23-05-83       ओम शान्ति    अव्यक्त बापदादा       मधुबन


छोड़े तो छूटो!

नये विश्व के परिवर्तक, सर्व आत्माओं के परमप्रिय शिव बाबा अपने आदि रत्न बच्चों प्रति बोले:-

आज बापदादा अपने आदि स्थापना के कार्य में निमित्त बने हुए सहयोगी बच्चों को देख रहे हैं। सभी सहयोगी बच्चों के भाग्य को देख हर्षित हो रहे हैं। स्थापना के नक्शे को देख रहे थे। आदि काल इस श्रेष्ठ ब्राह्माणों के संसार की हिस्ट्री और जाग्राफी को देख रहे थे। कौन-कौन श्रेष्ठ आत्मायें किस समय किस स्थान पर और किस विधि पूर्वक सहयोगी बने हैं। क्या देखा? तीन प्रकार के सहयोगी बच्चे देखे। एक बापदादा के अलौकिक कर्त्तव्य को देख बापदादा की मोहनी मूर्त, रूहानी सीरत को देख बिना कुछ सोचने की मेहनत के देखा और देखने से कल्प पहले की स्मृति के संस्कार प्रत्यक्ष हो गये। सेकेण्ड में दिल से निकला यह वो ही मेरा बाबा है। और बाप ने भी सेकण्ड में स्वीकार किया कि यह वो ही मेरा बच्चा है। ऐसे बिना मेहनत के सहज बाप के स्नेह में समाये हुए सहयोगी बन गये। सप्ताह कोर्स की भी मेहनत नहीं। लेकिन ईश्वरीय स्नेह के फोर्स से बाप और बच्चों का मिलन हो गया। एक ही शब्द में जीवन के साथी बन गये। बच्चों ने कहा तुम ही मेरे, बाप ने कहा तुम ही मेरे। मेहनत का सवाल नहीं। ऐसे सेकेण्ड के सौदे वाले बिना मेहनत, मुहब्बत में समाये हुए हैं। दूसरे निमित्त बने हुए श्रेष्ठ आत्माओं के त्याग, तपस्या और सेवा के सैम्पल को देख सौदा करने वाले हैं। पहले ग्रुप ने बाप को देखा। दूसरे ग्रुप ने ज्ञान गंगाओं के सैम्पल को देखा। बुद्धिबल द्वारा सहज बाप को जाना और सहयोगी बने। फिर भी दूसरा ग्रुप भी बच्चों द्वारा बाप के साकार सम्बन्ध में आये। निराकार को भी साकार में सर्व सम्बन्धों में पाया। इसलिए साकार रूप में साकार द्वारा सर्व अनुभव करने के कारण साकारी पालना के लिफ्ट की गिफ्ट ली। यह भाग्य कोटों में कोई, कोई में भी कोई को प्राप्त हुआ। ऐसे लिफ्ट की गिफ्ट लेने वाले स्थापना के कार्य में सेवा के क्षेत्र में निमित्त बनी हुई आदि आत्मायें, ऐसे ग्रुप को निमन्त्रण दे बुलाया है। ऐसे तो और भी निमित्त बने हुए बच्चे हैं। लेकिन विशेष थोड़ों को बुलाया है। जानते हो किसलिए बुलाया है? बीच-बीच में फाउण्डेशन को चेक किया जाता है। अगर फाउण्डेशन जरा भी कमज़ोर होता है तो फाउण्डेशन का प्रभाव सब पर पड़ता है। सेवा के क्षेत्र में सेवा के निमित्त फाउण्डेशन आप जैसे रत्न हैं। पहला ग्रुप यज्ञ की स्थापना के फाउण्डेशन बने। सेवा के निमित्त बने। लेकिन सेवा का प्रत्यक्ष पहला फल आप जैसा ग्रुप है। तो सेवा के प्रत्यक्ष फल के रूप में वा शोकेस के पहले शो पीस आप श्रेष्ठ आत्मायें निमित्त बनीं। इतना अपना महत्व जानते हो? नये पत्तों की चमक, दमक, रौनक, उमंग-उल्लास के विस्तार मे आदि श्रेष्ठ आत्मायें छिप तो नहीं गये हो! पीछे वालो को आगे करते, स्वयं आगे से पीछे तो नहीं हो गये हो! यूँ तो बापदादा भी बच्चों को अपने से आगे करते, लेकिन आगे करके स्वयं पीछे नहीं होते। कई बच्चे होशियारी से जवाब देते हैं कि पीछे वालों को हम चाँस दे रहे हैं। चांस भले दो लेकिन चांसलर तो रहो ना। इतनी जिम्मेवारी समझते हो? जो पुरूषार्थ के कदम हम उठायेंगे हमें देख और भी ऐसे उमंग उत्साह के कदम उठायेंगे। यह स्मृति सदा रहती है? नये, नये हैं, लेकिन पुरानों की वैल्यु अपनी है। पुराने पत्तों से कितनी दवाईयाँ बनती हैं। जानते हो ना। पुरानी चीजों का कितना मूल्य होता है। पुरानी वस्तुएं विशेष यादगार बन जाती हैं। पुरानी चीजों के विशेष म्यूजयम बनते हैं। पुरानों की वैल्यु जानते हुए उसी वैल्यु प्रमाण कदम उठा रहे हो? अपने आपको इतना अमूल्य रत्न समझते हो? बाप समान उड़ते पंछी हो? ब्रह्मा बाप की पालना का रिटर्न दे रहे हो? यह साकार पालना कोई साधारण पालना नहीं। इस अमूल्य पालना का रिटर्न - अमूल्य बनना और बनाना है। विशेष पालना का रिटर्न, जीवन के हर कदम में विशेषता भरी हुई हो। ऐसे रिटर्न दे रहे हो? सारे कल्प के अन्दर एक बार यह पालना मिलती है। और उसके अधिकारी आप विशेष आत्मायें हो। ऐसे अपने अधिकार के भाग्य को जानते हो? तो आज ऐसे भाग्यवान बच्चों से मिलने आये हैं। तो समझा क्यों बुलाया है? रिजल्ट तो देखेंगे ना!

यह सारा ग्रुप तो ब्रह्मा बाप के हर कदम पर फालो करने वाले हैं ना। क्योंकि इन साकार आँखों से देखा। सिर्फ दिव्य नेत्र से नहीं देखा। आँखों देखी हुई बात फालो करना सहज होती है ना। ऐसे सहज पुरूषार्थ के भाग्य अधिकारी आत्मायें हो। समझा कौन हो? जाना, मैं कौन? मैं कौन की पहेली पक्की याद है ना! भूल तो नहीं जाते हो ना! बापदादा वतन में इस ग्रुप को देख रूह-रूहान कर रहे थे। क्या रूह-रूहान की होगी, जानते हो? देख रहे थे अपने भाग्य के मूल्य को कितना जाना है और कितने इस भाग्य के स्मृति स्वरूप रहते हैं! स्मृति स्वरूप सो समर्थ स्वरूप। तो कितने समर्थ स्वरूप बने हैं? यह देख रहे थे। विस्मृति और स्मृति की सीढ़ी पर उतरते और चढ़ते हैं वा सदा स्मृति स्वरूप द्वारा उड़ती कला में जा रहे हैं! ऐसे तो नहीं, पुराने, पुरानी विधिपूर्वक चलने वाले हैं। जो उड़ती कला के बजाए अब तक भी सीढ़ी उतरते चढ़ते रहते। यह सब बच्चों की विधि देख रहे थे। ब्रह्मा बाप बच्चों के स्नेह में बोले, सदा हर कदम में सहज और श्रेष्ठ प्राप्ति क आधार मुझ बाप समान एक बात सदा जीवन में ब्रह्मा बाप की तावीज के रूप में याद रखें - ‘‘छोड़ो तो छूटो’’। चाहे अपने तन की स्मृति को भुलाए देही अभिमानी बनने में, चाहे सम्बन्ध के लगाव से नष्टोमोहा बनने में, चाहे अलौकिक सेवा की सफलता के क्षेत्र में, चाहे स्वभाव संस्कारों के सम्पर्क में - सभी बातों में - छोड़ो तो छूटो। यह मेरे-पनके हाथ इन डालियों को पकड़ डालियों के पंछी बना देते हैं। इस मेरे-पन के हाथों को छोड़ो तो क्या बन जायेंगे - ‘उड़ते पंछी। छोड़ना तो है नहीं, बनना तो यही है - यह नहीं। लेकिन हे आधार मूर्त श्रेष्ठ आत्मायें ‘‘बन गये’’ यह सेरीमनी मनाओ। सोच रहे हैं, प्लैन बनायेंगे, नहीं। सोच लिया, कौन सी सेरीमनी मनायेंगे? हर ग्रुप फंक्शन मनाते हैं ना। आप लोग कौन सा समारोह मनायेंगे?

आप तो ब्रह्मा बाप को फालो करने वाले, ब्रह्मा के साथी बच्चे हो ना। ईश्वरीय परिवार की बुजुर्ग आत्मायें हो। आप सबके ऊपर बापदादा और परिवार की सदा नजर है कि यही हमारे आदि सैम्पल स्वरूप हैं। सारे परिवार के लिए, बाप की सर्व आशाओं के दीपक हो। तो कौन सा समारोह करेंगे! बाप समान बन गये, जीवनमुक्त आत्मायें बन गये! नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप सो समर्थ स्वरूप बन गये! संकल्प किया और बने। ऐसा समर्थ समारोह मनाओ। तैयार हो ना! वा अभी भी सोचते हो - करना तो चाहिए, चाहिए नहीं लेकिन बाप की सर्व चाह पूर्ण करने वाले हम आदि सैम्पल हैं - ऐसे निश्चयबुद्धि विजयी रत्न, विजय का समारोह मनाओ। समझा किसलिए बुलाया है! स्पष्ट हो गया ना। इन सभी को ताज पहनाना। जिम्मेवारी के ताजपोशी मनवाना, इन्हों से। इसलिए आये हो ना! बोलते नहीं हो। बुजुर्ग हो गये हो। ब्रह्मा बाप को क्या देखा। अभी अभी बुजुर्ग और अभी अभी मिचनू किशोर। देखा ना। फालो फादर, हाँ जी करने में मिचनू बन जाओ और सेवा में बुजुर्ग। छोटे बच्चों की रौनक देखी ना - कितना मजे से कहते थे - हाँ जी, जी हाँ!

विशेष निमन्त्रण पर विशेष आत्मायें आई हैं, अब विशेष सेवा की जिम्मेवारी का फिर से समारोह मनाना। बीच बीच में ताज उतार देते हो। अभी ऐसा टाइट कर जाना जो उतारो नहीं। अच्छा फिर सुनेंगे कि समारोह की रिजल्ट क्या हुई। अच्छा।

सदा सर्व आत्माओं के निमित्त, उमंग उत्साह दिलाने वाले, सदा हर पुरूषार्थ के कदम द्वारा औरों को तीव्र पुरुषार्थी बनाने वाले, व्यर्थ को सेकण्ड में छोड़ो और छूटो करने वाले, सदा ब्रह्मा बाप को फालो करने वाले, ऐसे सेवा के आदि रत्नों को, पालना की भाग्यवान विशेष आत्माओं को बापदादा का याद-प्यार और नमस्ते।’’

आमन्त्रित भाई बहनों के ग्रुप से:- सभी अपने को विशेषज्ञ आत्मायें तो समझते हो ना! विशेष आत्मायें हो या बनना है? करेंगे, देखेंगे, सोचेंगे, ऐसी गें गें की भाषा वाले तो नहीं हो ना। अपने महत्व को जानो कि हम सबका महत्व कितना है। जितना बाप बच्चों के महत्व को जानते हैं उतना बच्चे अपने महत्व को सदा याद नहीं रखते। जानते हैं लेकिन याद नहीं रखते। अगर याद रहता - तो सदा ही समर्थ बन औरों को भी समर्थ बनाने के, उमंग उत्साह बढ़ाने के निमित्त बनते। तो निमित्त हो ना? बीती सो बीती कर लिया है। बीती को भुला दिया और वर्तमान, भविष्य सदा उमंग उत्साह वाला बना लिया। चलते-चलते साधारण जीवन में चलने वाले अपने को अनुभव करते हो, लेकिन साधारण नहीं हो। सदा श्रेष्ठ हो। व्यवहार किया, पढ़ाई की, प्रवृत्ति सम्भाली, यह कोई विशेषता नहीं है। यह भी साधारणता है। यह तो लास्ट नम्बर वाले भी करते हैं। तो जो लास्ट नम्बर वाले भी करते वह आदि रत्न भी करें तो क्या विशेषता हुई! आदि रत्न अर्थात् हर संकल्प और कर्म में औरों से विशेष हो। दुनिया वालों की भेंट में तो सब न्यारे हो गये, लेकिन अलौकिक परिवार में भी जो साधारण पुरुषार्थी हैं उनसे विशेष हो। दुनिया के हिसाब से लास्ट नम्बर भी विशेष है लेकिन ईश्वरीय परिवार में आदि रत्न हो, विशेष हो। उसी हिसाब से अपने को देखो। बुजुर्ग सदा छोटों को अच्छे ते अच्छी सहज राय देने वाले, रास्ता दिखाने वाले होते हैं। ऐसे आप मुख से बोलने वाले नहीं लेकिन करके दिखाने वाले हो। तो हर कदम, हर कर्म ऐसा है जो ईश्वरीय परिवार की आत्माओं को विशेष दिखाई दे।

यही विशेष आत्माओं का कर्त्तव्य है ना। जो आप विशेष आत्माओं को देखे उसे बाप की स्मृति आ जाए। जैसे देखो यहाँ मधुबन में अभी भी साकार रूप में दीदी, दादी को देखते हैं तो उन्हों के कर्म में विशेष क्या समाया हुआ दिखाई देता है? बाप दिखाई देता है ना! यह भी साकार आत्मायें हैं ना। यह ब्रह्मा जैसी विशेष पार्टधारी तो नहीं, निराकार शिव बाप जैसी भी नहीं, ब्रह्मा जैसी भी नहीं। ब्राह्मण हैं। तो वह भी ब्राह्मण, आप भी ब्राह्मण तो जैसे वह विशेष निमित्त आत्मायें हैं, कैसे निमित्त बनीं? जिम्मेवारी समझती हैं ना। जिम्मेवारी ने ही विशेष बना दिया। ऐसे ही स्वयं को भी अनुभव करते हो ना। आप भी जिम्मेवार हो ना। या दीदी-दादी ही जिम्मेवार हैं। सेवा के क्षेत्र में तो आप ही निमित्त हो ना। चारों ओर बापदादा ने सभी विशेष आत्माओं को निमित्त बनाया है। कोई कहाँ, कोई कहाँ। इतनी जिम्मेवारी सदा स्मृति में रहे। जैसे दीदी-दादी को निमित्त देख रहे हो। ऐसे ही आप लोगों से सबको अनुभव हो। वह समझें कि यह आदि रत्न हैं, इन्हों से हमें विशेष उमंग उत्साह की प्रेरणा मिलती है। यह कहती तो नहीं हैं ना कि हम दीदी-दादी हैं, हमको मानो, लेकिन कर्म स्वत: ही आकर्षित करते हैं। ऐसे ही आप सबके विशेष कर्म सबको आकर्षित करें। इतनी जिम्मेवारी है। ढीले तो नहीं हो ना! क्या करें, कैसे करें, डबल जिम्मेवारी है। ऐसे कहने वाले नहीं। छोड़ा और छूटा। इतनी बेहद की जिम्मवारी होते भी बाप को देखो ना। स्थूल जिम्मेवारी भी देखी ना। शिवबाबा की बात किनारे कर दो, लेकिन ब्रह्मा बाप को तो साकार में देखा ना। ब्रह्मा बाप जितनी जिम्मेवारी स्थूल में भी किसी को नहीं है। आप सोचेंगे क्या करें वायुमण्डल में रहते हैं। वायब्रेशन खराब रहते हैं। बगुले ठूंगें लगाते रहते हैं। चारों ओर आसुरी सम्प्रदाय है। लेकिन ब्रह्मा बाप ने आसुरी सम्प्रदाय के बीच न्यारा प्यारा बनकर दिखाया ना। तो फालो फादर।

अभी क्या करेंगे? यहाँ से जाओ तो सब अनुभव करें कि हमारा उमंग उत्साह बढ़ाने वाले स्तम्भ आ गये हैं। समझा। ऐसे बाप की उम्मीदों के सितारे हो। छोटे छोटों की कोई भी बातें दिल पर नहीं रखो। बुजुर्गों की दिल फराखदिल, बड़ी दिल होती है। छोटी दिल नहीं होती। जैसे ब्रह्मा बाप ने सभी की कमज़ोरियों को समाकर श्रेष्ठ बना दिया ऐसे आप निमित्त हो। कभी भी यह नहीं सोचना - कि यह ऐसे करते हैं, यह तो सुनते ही नहीं हैं। न सुनने वाले को भी सुनने वाला बनाना आपका काम है। वह छोटे हैं बड़े आप हो। बड़ों को बदलना है। छोटे तो होते ही नटखट हैं। तो उनकी कमज़ोरियों को नहीं देखो - बुजुर्ग बन कमज़ोरियों को समाने वाले, बाप समान बनाने वाले बनो। इतनी जिम्मेवारी है आप लोगों की। यह जिम्मेवारी फिर से स्मृति दिलाने के लिए बुलाया है। समझा। सागर के बच्चे हो ना। सागर क्या करता है? समाता है। सबका समाकर रिफ्रेश कर देते हैं। तो आप भी सबकी बातों को समाकर सबको रिफ्रेश करने वाले। जो आये वह अनुभव करे कि इस विशेष आत्मा के संग से विशेष रंग चढ़ गया। सहयोग मिल गया। आप ही - सहयोग दो, सहयोग दो, ऐसा कहने वाले तो नहीं हो ना। सहयोग देने वाले हो। जब आदि से सहयोगी बने हो तो अन्त तक सहयोग देने वाले साथी बनेंगे ना। इतने सहयोग देंगे तो छोटे तो उड़ जायेंगे। जिस भी स्थान पर आप लोग जायेंगे वह स्थान उड़ने वाला स्थान बन जायेगा ना। आप उड़नखटोले बनकर जाओ, जो भी बैठे, सम्पर्क में आये वह उड़ जाए। बापदादा को खुशी है, कौन सी? कितने साथी हैं! जब समान को देखा जाता है तो समान बच्चों को देख बाप को खुशी होती है। अभी यहाँ थोड़े आये हैं, और भी हैं, जितने भी आये हैं, उतनों को भी देख बाप खुश होते हैं। अब तो उड़नखटोला बन सबको उड़ाओ। हमारे भाई इतनी मेहनत कर रहे हैं, तरस आता है ना। सहयोग दो और उड़ाओ।

यही सेवा है विशेष आत्माओं की। जिज्ञासु समझाया, कोर्स कराया, मेला कराया, किया। यह सब करते रहते हैं। मेलें में भी आप विशेष आत्माओं की विशेषता को देखें। बस आपका खड़ा होना और सभी को उमंग आना। काम करने वालों को विशेष उमंग उत्साह का ही सहयोग चाहिये होता है। काम करने वाले आपके छोटे भाई बहन बहुत आ गये हैं। आप बुजुर्गों का काम है उन साथियों को स्नेह की दृष्टि देना, उमंग उत्साह का हाथ बढ़ाना। आपको देखकर बाप याद आ जाए। सबके मुख से निकले - यह तो बाप के स्वरूप हैं। जैसे इन दोनों के लिए (दीदी-दादी के लिए) निकलता है कि यह बाप स्वरूप है। क्योंकि सेवा में प्रैक्टिकल कर्म कर रही हैं। तो ऐसे ही दृढ़ संकल्प का समारोह जरूर मनाना। क्या समझा? आप लोग तो तूफानों में नहीं आते हो ना। तुफानों से पार होने वाले। तूफानों में आने वाले नहीं। आप एग्जाम्पल हो ना। आपको देखकर सब समझते हैं ऐसे ही चलना है, ऐसे ही होता है। तो इतना अटेन्शन रहे। अच्छा।

सेवाधारियों को तो सदा ही उड़ते रहना चाहिए - क्योंकि यज्ञ सेवा का बल बहुत है। तो सेवाधारी बलवान बन गये ना। यज्ञ सेवा का कितना गायन है। अगर यज्ञ सेवा सच्ची दिल से करते हैं तो एक सेकण्ड का भी बहुत फल है। आप लोग तो कितने दिन सेवा में रहे हो। तो फलों के भण्डार इकट्ठे हो गये। इतने फल जमा हो गये जो 21 पीढ़ी तक वह फल खाते ही रहेंगे। सेवाधारी वहाँ जाकर माया के वश नहीं हो जाना। सदा सेवा में बिजी रहना। मंसा से शुद्ध संकल्प की सेवा और सम्पर्क सम्बन्ध वा वाणी द्वारा परिचय देने की सेवा। सदा ही सेवा में बिजी रहना। सेवा का पार्ट अविनाशी है। चाहे यहाँ रहो चाहे कहीं भी जाओ, सेवाधारी के साथ सदा ही सेवा है। सदा के सेवाधारी हो। सेवा में बिजी रहेंगे तो माया नहीं आयेगी। जब खाली स्थान होता है तो दूसरे आते हैं। मच्छर भी आयेंगे, खटमल भी आयेंगे। इसलिए सदा बिजी रहो तो माया आयेगी ही नहीं। मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। माया नमस्कार करके चली जायेगी। ऐसे बहादुर बनकर जा रहे हो! ऐसे तो नहीं वहाँ जाकर कहेंगे, आज क्रोध आ गया, आज लोभ, मोह आ गया...माया पेपर लेगी, वह भी सुन रही है कि यह वायदा कर रहे हैं। जहाँ बाप है वहाँ माया क्या करेगी। सदा बाप साथ है या अलग है। कुमार अकेले तो नहीं समझते हो। ऐसे तो नहीं कोई सुनने वाला नहीं, कोई बोलने वाला नहीं... बीमार पड़ेंगे तो क्या करेंगे? दूसरा साथी याद तो नहीं आयेगा! दूसरा साथी लायेंगे तो उसका सुनना भी पड़ेगा, खिलाना भी पड़ेगा। सम्भालना भी पड़ेगा। ऐसा बोझ उठाने की जरूरत ही क्या है। सदा हल्के रहों। सदा युगल रूप हो, दूसरी युगल क्या करेंगे? कभी संकल्प आता है बीमार पड़ते हो तब आता है? जिस सम्बन्ध की याद आये उसी सम्बन्ध से बाप को याद करो, तो बीमारी में सोये सोये भी ऐसा अच्छा खाना बना लेंगे जैसे दूसरा बना गया। तो सदा साथ रहना, अकेला हूँ नहीं, कम्बाइण्ड हूँ। आप और बाप दोनों कम्बाइण्ड हो, अलग कोई कर नहीं सकता, यह चैलेन्ज करो। चैलेन्ज करने वाले हो न कि घबराने वाले। अच्छा –

पर्सनल मुलाकात

प्रश्न:- संगमयुगी ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य क्या है? उस लक्ष्य को प्राप्त करने की विधि क्या है?

उत्तर:- संगमयुगी ब्राह्मण जीवन का लक्ष्य है सदा सन्तुष्ट रहना और दूसरों को सन्तुष्ट करना। ब्राह्मण अर्थात् समझदार, स्वयं भी सन्तुष्ट रहेंगे और दूसरों को भी रखेंगे। अगर दूसरे के असन्तुष्ट करने से असन्तुष्ट होते तो संगमयुगी ब्राह्मण जीवन का सुख नहीं ले सकते। शक्ति स्वरूप बन दूसरों के वायुमण्डल से स्वयं को किनारे कर लेना अर्थात् अपने को सेफ कर लेना यही साधन है इस लक्ष्य को प्राप्त करने का। दूसरे की असन्तुष्टता से स्वयं को असन्तुष्ट नहीं होना है। दूसरा किसी भी प्रकार से असन्तुष्ट करने के निमित्त बने तो स्वयं को किनारा करके आगे बढ़ते जाना है, रूकना नहीं है।

प्रश्न:- कौन से संस्कार अपने निजी संस्कार बना लो तो सदा उड़ती कला में उड़ते रहेंगे?

उत्तर:- अपना निजी संस्कार बनाओ कि हर बात में मुझे आगे बढ़ना है। दूसरा बढ़े या न बढ़े। दूसरे के पीछे स्वयं को नीचे नहीं आना है। सहानुभूति के कारण सहयोग देना दूसरी बात है लेकिन दूसरे के कारण स्वयं नीचे आ जाना यह ठीक नहीं। न व्यर्थ सुनो, न देखो। सेवा के भाव से न्यारा होकर देखो। दूसरे के कारण अपना समय और खुशी न गंवाओ तो सदा उड़ती कला में जाते रहेंगे।